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________________ किरण ५] स्याद्वाद स्यात् शब्दको उपाध्यायजी संशयका पर्याय- न यह संशयवाद है, न अनिश्चयवाद और न वाची नहीं मानते यह तो प्रायः निश्चित है क्योंकि संभावनावाद ही, किन्त खरा अपेक्षा प्रयुक्त आप स्वयं लिखते हैं प०१७३) कि-"यह अने- निश्चयवाद है। कान्तवाद संशयवादको रूपान्तर नहीं है," पर इसी तरह डा० देवराजजीका पूर्वी और आप उसे संभववाद अवश्य कहना चाहते है। पश्चिमी दर्शन (पृष्ठ ६५) में किया गया स्यात् परन्तु 'स्यात्' का अर्थ 'संभवत:' करना भी न्याय. शब्दका 'कदाचित्' अनुवाद भी भ्रामक है। कदासंगत नहीं है क्योंकि संभावना संशयमें जो कोटियाँ चित् शब्द कालापेक्ष है, इसका सोधा अर्थ है किसी उपस्थित होती हैं उनकी अर्धनिश्चितताकी ओर समय। और प्रचलित अर्थ में यह सशयकी ओर ही संकेत मात्र है, निश्चय इससे भिन्न ही है। उपाध्या- झुकाता है । स्यात का प्राचीन अर्थ है कथंचितयजी स्याद्वादको संशयवाद और निश्चयवादके अथात् किसी निश्चित प्रकारसे, स्पष्ट शब्दोंमें बीच संभावनावाद की जगह रखना चाहते हैं जो अमुक निश्चित दृष्टिकोणसे। इस प्रकार अपेक्षाएक अनध्यवसायात्मक अनिश्चयके समान है। प्रयुक्त निश्चयवाद ही स्याद्वादका अभ्रान्त परन्तु जब स्याद्वाद स्पष्टरूपसे डंकेकी चोट यह कह वाच्यार्थ है। रहा है कि-घड़ा स्यादस्ति अर्थात् अपने स्वरूप, महापडित राहु लसांकृत्यायनने तथा इतः पूर्व अपने क्षेत्र, अपने काल और अपने आकार इस प्रो० जैकोबी आदिने स्याद्वादकी उत्पत्तिको संजय स्वचतुष्टयकी अपेक्षा है ही यह निश्चित अवधारण वेलट्रिपत्तके मतसे बतानेका प्रयत्न किया है। राहुहै । घड़ा स्वस भिन्न यावत् पर-पदार्थोकी दृष्टिसे लजीने दर्शनदिग्दर्शन (पृ०४६६) में लिखा है किनहीं हो है यह भी निश्चित अवधारण है। इस "आधुनिक जैनदर्शनका आधार स्यादाद है । जो तरह जब दोनों धर्मों का अपने अपने दृष्टिकोणसे मालूम होता है संजयवेलट्टिपुत्तके चार अंगवाले घड़ा अविरोधी आधार है तब घड़े को हम उभय अनेकान्तवादको लेकर उसे सात अंगवाला किया दृष्टिसे अस्ति-नास्तिरूप भी निश्चित ही कहते है। गया है। संजयने तत्त्वों (परलोक देवता) के बारेमें पर शब्दमें यह सामर्थ्य नहीं है कि घटके पूर्णपका कुछ भी निश्चयात्मक रूपसे कहनेसे इन्कार करते जिसमें अस्ति-नास्ति जैसे एक-अनेक. नित्य-अनित्य हए उस इन्कारको चार प्रकार कहा है आदि अनेकों युगलधमे लहरा रहे है-कह १ है ? नहीं कह सकता। सके, अतः समग्रभावसे घड़ा अवक्तव्य है। इस २ नहीं है ? नहीं कह सकता। प्रकार जब स्याद्वाद सुनिश्चित दृष्टिकोणोंसे ३ है भी और नहीं भी ? नहीं कह सकता। तत्तत् धर्मोके वास्तविक निश्चयकी घोषणा करता ४न है और न नहीं है ? नहीं कह सकता। है तब इसे संभावनावादमें कैसे रखा जा इसकी तुलना कीजिए जैनोंके सात प्रकारके सकता है ? स्यात शब्दके साथ ही एवकार लगा स्याद्वादसरहता है जो निदिष्ट धर्मका अवधारण सूचित है? हो सकता है (स्यादस्ति) करता है तथा स्यात् शब्द उस निर्दिष्ट धर्मसे २ नहीं है ? नहीं भी होसकता है (स्यान्नास्ति) अतिरिक्त अन्य धर्मोकी निश्चित स्थितिकी सूचना ३ है भी और नहीं भी है भो और नहीं भो देता है। जिससे श्रोता यह न समझ ले कि वस्तु हो सकता (स्यादस्ति च नास्ति च)। इसी धर्मरूप है। यह स्याद्वाद कल्पितधों तक उक्त तीनों उत्तर क्या कहे जा सकते हैं (= वक्तव्य व्यवहारके लिये भले ही पहुँच जाय पर वस्तव्य- हैं) ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैवस्थाके लिये वस्तुकी सीमाको नहीं लाँघता । अतः ४ स्याद् (हो सकता है) क्या यह कहा जा
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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