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पंडित सदासुखदासजी
(ले० पं० परमानन्द जैन शास्त्रो, )
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पण्डितजीको जोवन घटनाओंका और उनके कौटुम्बिक-जीवनका यद्यपि कोई विशेष परिचय उपलब्ध नहीं है तो भी जो कुछ टीका ग्रन्थों में दी गई संक्षिप्त प्रशस्तियों आदि परसे जाना जाता है उसमें पण्डितजीको चित्त वृत्ति, सदाचारता आत्मनिर्भयता, अध्यात्मरसिकता, विद्वत्ता और सच्ची धार्मिकता पद पदपर प्रकट होती है । आपमें संतोष और सेवाभाव की पूरी स्प्रिंट थी और आपका जिनवाणी प्रति बड़ा भारी स्नेह था, जिसके देश देशा
डेराज कब हुए और उनकी वंश-परम्परा क्या न्तरोंमं प्रचार करनेकी आवश्यकताको आप बहुत है ? इसका कुछ भी पता नहीं चल सका ।
पण्डितजीके वंशमें आज भी मूलचन्द्र नामके एक सज्जन मौजूद है। आपके मकानमे एक चैत्यालय है, जो जयपुरमें चौकड़ी मोदीखाना मणिहारों के रास्तेमे स्थित है | पं० सदासुखदासजीने अपना कोई जीवन परिचय नहीं दिया; किन्तु अर्थप्रकाशिका - टीकाकी प्रशस्तिमे निम्न पंक्तियों द्वारा अपना और अपने पिताजीका नाम तथा गोत्र आदिका उल्लेखमात्र किया है। साथ ही आत्मसुख की प्राप्तिकी इच्छा भी व्यक्त की है, जैसा कि निम्न पंक्तियोंसे स्पष्ट है:
वीसवीं शताब्दी के हिन्दी साहित्यकारों में पंडित सदासुखदासजीका नाम खास तौर से उल्लेखनीय है । आपने अनेक गद्यात्मक हिन्दी टीका ओंका निर्माण किया है । आप जयपुर के निवासी थे । आपके पिताका नाम दुलीचन्द और गोत्रका नाम कालीवाल था । माताका नाम मालूम नहीं हो सका, आपका वंश 'डेडराज' के नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त था, इसी कारण आपको 'डेडाका' के नामसे भोपुकारते थे।
डेडाराजके वंशमाहि इक किचित् ज्ञाता, दुलीचन्दका पुत्र काशलीवाल विख्याता । नाम सदासुख कहे आत्मसुखका बहु इच्छुक, सो जिनवाणी प्रसाद विषयतै भए निरिच्छुक ॥ आपका जन्म जयपुरमे संवत् १८५२ के लगभग हुआ था, क्योंकि पण्डितजीने स्वयं रत्नकरण्डश्रावकाचार की टीका में अपनी आयुके ६८ वर्ष व्यतीत होनेकी सूचना की है और उस टीकाको सं० १६२० में बनाकर समाप्त किया है।
१ अडसठ बरस जु श्रायुके, वोतं तुम आधार । शेष श्रायु तव शरण, जाहु यही मम सार ॥ १७ ॥
ही ज्यादा अनुभव किया करते थे। इसीसे श्रापका अधिकांश समय शास्त्र- स्वाध्याय, सामायिक, तत्वचिन्तन, पठन-पाठन और ग्रन्थों की टीम अथवा अनुवादादि प्रशस्त कार्यों में ही व्यतीत होता था । आप राजकीय प्राइवेट संस्था (कापड़द्वारे) में कार्य करते हुए भी मांसारिक देह-भोगों से बराबर विरक्ति का अनुभव किया करत थे । भागों में आसक्ति अथवा अनुरक्ति जैसी कोई बात आपसे नहीं थो; प्रत्युत इसके उदासीनता संवेद और निर्वेद की अनुपम भावना आपके चित्तमे घर किये हुए थी और स्वपरके भेद-विज्ञानरूप आत्म-रसके आस्वादनकी सदा लगन लगी रहती थी; फिर भी शास्त्रोंके प्रचारकी ममता आपके हृदयमें अपना विशिष्ट स्थान रखती थी ।
यहां यह बात खास तौरसं नोट करने लायक है कि पण्डितजीके कुटुम्बीजन यद्यपि बीसपंथकं अनुयायी थे; फिर भी पण्डितजी स्वयं तेरा पथक पूर्ण अनुयायी थे। जिसका कारण उनके गुरु पं० मन्नालालजी और प्रगुरु प० जयचन्दजी छावड़ा आदिक विचारोंका उनपर प्रभाव बालशिक्षा समयसे ही पड़ना शुरू हो गया था, युवा प्रौढ़ाव