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ग्वालियर के किले का इतिहास और जैन पुरातत्व
किरण ३]
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कई प्राचीन मूर्तियां विद्यमान हैं जो भारतीयश्रमण संस्कृतिका प्रतिष्ठाको प्रतीक है और जो स्थापत्यकला की दृष्ट्रिले अनूठी एवं बेजोड़ है । उदाहरण के लिये श्रवणवल्गोलाकी बाहुबली स्वामोकी उस विशाल मतको ही ले लीजिये, वह कितनी आकर्षक, सुन्दर और मनमोहक है, इस बतलाने की आवश्यकता नहीं। एक बार टाटा कम्पनीका प्रसिद्ध व्यापारी टाटा अपने कई अंग्रेज मित्रों के साथ दक्षिणकी उस मूर्तिका दखने के लिये
गया,
ज्यां हो वह उस मूर्तिक समोप पहुँचा और उसे देखने लगाता मूर्तको दखते ही समाधि अस्थ हो गया, और वह समाधिमें इतना तल्लीन हो गया कि मानों वह पाषाणकं रूपमें स्थित है, तब उनके साथी अङ्गरेज मित्राने टाटाको निश्चेष्ट खड़ा हुआ देखकर कहा कि मिस्टर ठाटा ! तुम्हें क्या होगया हैजा हम लोगां बात भ नही करतं, चलो अब वापिस चलें; परन्तु टाटा व्यापारी उस समय समाधिमें लीन था, मित्राकी बातका कौन जत्राब देता, जब उसकी समावि नहीं खुली तब उन्हें चिन्ता होने लगो; किन्तु आधा घन्टा व्यतीत होते ही समावि खुल गई और उसने यह भावना व्यक्त की कि मुझे किसी चीजकी आवश्यकता नहीं है; किन्तु मरते समय इस मूर्तिका दर्शन हो। इससे पाठक जैन मूर्तियांकी उपयोगिताका अन्दाज लगा सकते हैं। ये मूर्तियां कलात्मक, वैराग्योत्पादक और शान्तिकी है। इस प्रकारकी कलापूर्ण एवं प्रशान्त मूर्तियों का निर्माण करनेवाले शिल्पियों की अटूट साधना, अतुलित धैर्य और कलाकी चतुराईकी जितनी प्रशंसा की जाय वह थोड़ी है । इसी प्रकारको कलाकी अभिव्यजक मूर्तियां भगवान नेमिनाथ और भगवान महावीरकी हैं ।
बाबा वावडी और जैन मूर्तियां
ग्वालियर से लश्कर जाते समय बीचमें एक मील के फासलेपर 'बाबा वावड़ी' के नामसे प्रसिद्ध
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एक स्थान है। सड़कसे करीब डेढ़ फलांग चलने और कुछ उचाई चढ़नेपर किलेके नाचे पहाड़की विशाल चट्टानों को काट कर बहुत सी पद्मासन तथा कायात्सग मूर्तियॉ उत्कीर्ण की गई हैं। ये मूर्तियों प्रशान्त एवं कलापूर्ण तो हैं हो; किन्तु स्थापत्य कला की दृष्टिसे भी अनमोल है। इनकी ऊँचाई १५-२० फुटसे कम नहीं है। इतनी बड़ी पद्मासन मर्नियों मेरे देखने अन्यत्र कहीं नहीं आई । वावड़ी के बगल में दाहिनी ओर एक विशाल खड्गासन मूर्ति है । उसके नीचे एक विशाल शिलालेख भी लगा हुआ है । जिससे मालूम होता है कि इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा वि० सं०५२५ में तोमरवंशी राजा डूंगर मिहके सुपुत्र कीर्तिसिंह या करणसिंहके राज्यकाल में हुई है ।
खेद है कि इन सभी मूर्तियोंके मुख प्राय खंडित है जो मुसलिम युगमें छाने वाले धार्मिक विद्वेषका परिणाम जान पड़ता है। इन मूर्तियों की केवल मुखाकृतिको ही नहीं बिगाड़ा गया किन्तु किसी किसी मूर्तिके हाथ-पैर भी खण्डित कर दिये गये है। इतना ही नहीं किन्तु विद्वेषियोंने कितनी मूर्तियों से भी चिनवा दिया था और सामनेकी विशाल मूर्तिको गारा मिट्टीसे छाप कर उसे एक कनका रूप भी दे दिया था । परन्तु सितम्बर सन् १९४७ के दंगे के समय उनसे उक्त स्थानकी प्राप्ति हुई है ।
जैनियोंकी ऐसी विशालकाय मूर्तियाँ, जो कलाकी दृष्टिसे अपना शानी नहीं रखतीं, उन्हे बिना किसी कारणके खंडित करना साम्प्रदायिक व्यामोहका ही परिणाम जान पड़ता है। अब हिंसा और सत्यके पुजारी भारतके आध्यात्मिक संत पूज्य वर्णी गणेशप्रसाद जीने मुरार (ग्वालियर) के चातुर्मास के समय उन मूर्तियों के जीर्णोद्धारक लिये समाजसे आर्थिक सहायता भी दिला दी, और फलस्वरूप कुछ मूर्तियों का जीर्णोद्वार भी होगया शेषके और होनेकी आवश्यकता है।
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