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किरण ६]
आप्तपरीक्षाका प्राक्कथन फल देता है, वही उसे स्वर्ग या नरक भेजता है, उसी शुद्धोपयोगाधिकारमें आई गाथामें पढ़ते हैं-'व्यवके अनुप्रहसे ऋषियोंके द्वारा वेदका अवतार होता हाग्नयसे केवली भगवान सबको जानते देखते हैं है। किन्तु जैनदशेन सृष्टिको अनादि मानता है. कर्म और निश्चयसे आत्माको जानते हैं। तो फल देनेके लिये भी किसी माध्यमको उसे आवश्य- उससे यह भ्रम नहीं होता कि कुन्दकुन्द केवलज्ञानीकता नहीं है। उसे तो मात्र मोक्षमार्गका उपदेश देने के
को मात्र आत्मज्ञानी ही मानते हैं। क्योंकि वह तो लिये ही एक ऐसे आप्त पुरुषकी आवश्यकता रहती
कहते हैं कि 'जो मबको नहीं आनता वह एकको जान है जो राग-द्वपकी घाटोको पार करके और अज्ञानके
ही नहीं सकता।' उनके मतसे आत्मज्ञ और सर्वत्र
ये दोनों शब्द दो विभिन्न दृष्टिकोणोंसे एक ही अर्थवीहड़ जङ्गलसे निकालकर मनुष्योंको यह बतलाये
के प्रतिपादक है। अन्तर इतना है कि 'सर्वज्ञ' शब्दकि कैसे उम घाटीको पार किया जाता है और किस
मे सब मुख्य हो जाते हैं, अत्मा-गौण पड़ जाती है प्रकार अज्ञान दूर हो सकता है ?
जो निश्चयनयको अभीष्ट नहीं है। किन्तु 'आत्मज्ञ' आत्मज्ञ बनाम सज्ञ-अब प्रश्न यह हो शब्दमे आत्मा ही मुख्य है शेष सब गौण है । अतः सकता है कि मात्र मोक्षमार्गका उपदश देनेके लिये निश्चयनयसे आत्मा आत्मज्ञ है और व्यवहारनयसर्वज्ञ होनेकी या उस उपदेष्टाको सर्वज्ञ माननेकी संसर्व है। आध्यात्मिक दर्शनमें आत्माको अखक्या आवश्यकता है ? मोक्षका सम्बन्ध आत्मास है एउता, अनश्वरता, अभेद्यता, शुद्धता आदि ही:ग्राह्य अतः उसके लिये तो केवल आत्मज्ञ होना पर्याप्त है। है क्योंकि वस्तुस्वरूप ही वैसा है। उसीको प्राप्त उपनिषदाम भी 'यो आत्मविद् स सर्वविद्' लिखकर करने का प्रयत्न मोक्षमागेके द्वारा किया जाता है। आत्मज्ञका ही सर्वज्ञ कहा है । बौद्धोंने भी हेयोपादय अतः प्रत्येक सम्यग्दृष्ट्रि-जिम निश्चयको भाषामें तत्वक ज्ञाताका.ही सर्वज्ञ' माना है। .
श्रात्मदृष्टिं कहना उपयुक्त होगा-आत्माको पूर्णरूप ___ इस प्रश्नका समाधान दिगम्बर' और श्वताम्बर से जाननेका और जानकर उसी में स्थित होनेका दोनोंके आगमोम एक ही-स शब्दों में मिलता है और प्रयत करता ।लम
प्रयत्न करता है। उस प्रयत्नमे सफल होनेपर हो वह है-'जो एकको जानता है वह सबको जानता वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है। अत: आत्मज्ञताहै। क्योंकि आत्मा ज्ञानमय है और ज्ञान प्रत्येक मेंसे सज्ञता लित होती है। सर्वज्ञतामेंसे आत्मआत्माम तरतमांशरूपमे पाया जाता है । अतः ज्ञान- जसा फलित नहीं होती; क्योंकि मुमुक्षका प्रयत्न रूप अंशी अपने सब अंशांमें. व्याप्त होकर रहता आत्मनताके लिये होता है सर्वज्ञताके लिये नहीं। है। और ज्ञानके अंश जिन्हें ज्ञानविशेष कहा जा
अतः अध्यात्मदर्शनमें केवलीको आत्मज्ञ कहना ही सकता है, अनन्त द्रव्य-पयायोंक झायक है। अतः वास्तविक है. भतार्थ है और सर्पज्ञ कहना अवास्तअनन्त द्रव्य-पयायोंक ज्ञायकस्वरूप. ज्ञानांशास विक है, अभूतार्थ है। भूतार्थ और अभूतार्थका परिपूर्ण ज्ञानमय आत्माको जानना ही सबको जा- इतना हो अभिप्राय है। इस नयदृष्टिको भुलाकर नना है। प्राचार्य कुन्दकुन्दने अपने प्रवचनसारमें यदि यह अर्थ निकालनेकी चेष्टा की जायगी किव्यतर्कपूर्ण श्राममिक शैलोमें आत्माकी सर्वज्ञताका सुन्दर वहारनय जो कुछ कहता है वह दृष्टिभेदसे अयथार्थ
सरज सातन उपपादन किया है। उसक प्रकाः न होकर सवथा अयथ है तब तो स्याद्वादनयशमें जब हम अकेही नियमसार. नामक अन्यके' गभित जिनवाणोको छोड़कर जैनोंको भी शुद्धाद्वतको
योपादयतत्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः। ... अपनाना पड़ेगा । जैनसिद्धान्तरूपी वन विविध __यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्व वेदकः ॥-प्र० वा०। भंगोंसे गहन है उसे पार करना दुरूह है । मार्गभ्र
२ प्रवच गा० १-४८, ०६। ३.गा. ३१६। हुए लोगोंको नयचक्रके संचारमें प्रवीण गुरू ही मार्ग