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अनेकान्त
[वर्ष १०
पर लगा सकते थे। खेद है कि आज ऐसे गुरु नहीं भूत, वर्तमान और भावी तथा सूक्ष्म, व्यवहित और हैं और जिनवाणीके ज्ञाता विद्वान लोग स्वपक्षपात विप्रकृष्ट पदार्थोंका ज्ञान करानेमें समर्थ है । यथाया अज्ञानके वशीभूत होकर अथका अनर्थ करते है, "चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्म व्यवयह जिनवणीके भाराधकोंका महद् दुर्भाग्य है, हितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगायतुमलम्" अस्तु ।
[शा०१-१-२] सर्वज्ञकी चर्चाका अवतरण-ऐसा प्रतीत श्रमणसंस्कृति केवल निरीश्वरवादी ही नहीं है होता है कि प्राचार्य समन्तभद्रके समयमें बाह्य किन्तु वेदके प्रामाण्य और उसके अपौरुषेयत्वको विभति और चमत्कारोंको ही तीर्थकर होनेका मुख्य भी वह स्वीकार नहीं करती। जैन और बौद्ध दाशचिह्न माना जाने लगा था। साधारण जनता तो निकोंने ईश्वरकी ही तरह वेदके प्रामाण्य और अपौसदासे इन्हीं चमत्कारोंकी चकाचौंधके वशीभूत रुषेयत्वकी खूब आलोचना की है। अतः जब वेदहोती आई है। बद्ध और महावीरके समयमें भी वादी वेदको त्रिकालदर्शी बतलाते थे तो जैन और उन्हीं की बहुलता दृष्टिगोचर होती है । बुद्धको अपने बौद्ध दार्शनिक पुरुषविशेषको त्रिकालदर्शी सिद्ध करते नये अनुयायियोंको प्रभावित करनेके लिये चमत्कार थे। शवरस्वामीकी उक्त पंक्तियाँ पढ़कर आचार्य दिखाना पड़ता था। प्राचार्य समन्तभद्र जैसे परी- समन्तभद्रकी सवज्ञसाधिका कारिकाका स्मरण क्षाप्रधानी महान दार्शनिकको यह बात बहुत खटकी; वरवस हो आता है। जो इस प्रकार हैक्योंकि चमत्कारोंकी चकाचौंधमें आप्तपुरुषकी
सूचमान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । असली विशेषताएँ जनताकी दृष्टिसे ओझल होती
अनुमेयत्वतोऽन्यादिरित सर्वज्ञसंस्थितिः ॥५॥ जाती थी। अतः उन्होंने 'आप्तमीमांसा' नामसे एक प्रकरण-प्रन्थ रचा जिसमें यह सिद्ध किया कि देवों- भाष्यके सक्षम, व्यवहित और विप्रकृष्ट शब्द का आगमन, आकाशमें गमन, शरीरकी विशेषताएँ तथा कारिकाके सूक्ष्म, अन्तरित और दूराथे शब्द तो मायावी जनोंमें भी देखी जाती हैं, जादगर भो एकार्थवाची हैं। दोनों में प्रतिबिम्ब-प्रतिबिम्बकभाव जादूके जोरसे बहुत-सी ऐसी बातें दिखा देता है जो जैसा झलकता है। और ऐसा लगता है कि एकन जनसाधारणकी बुद्धिसे परे होती हैं। अतः इन दूसरेके विरोधमें अपने शब्द कहे है । शवरस्वामीबातोंसे किसीको प्राप्त नहीं माना जा सकता । आप्त- का समय ई• स० २५० से ४०० तक अनुमान किया पुरुष तो वही है जो निर्दोष हो, जिसका बचन यक्ति जाता है। स्वामी समन्तभद्रका भी लगभग यही और आगमसे अविरुद्ध हो। इस तरह उन्होंने समय माना जाता है। विद्वानोंमें ऐसी मान्यता आप्तकी मीमांसा करते हुए आगममान्य सर्वज्ञता- प्रचलित है कि शवरस्वामी जेनोंके भयसे बनमें शबर को तर्ककी कसौटीपर कसकर दर्शनशास्त्रमें सर्वज्ञकी अर्थात् भीलका वेष धारण करके रहता था इसलिये चर्चाका अवतरण किया।
उसे शबरस्वामी कहते थे। शिलालेखों वगैरहसे स्पष्ट इस प्रसंगमें सर्वज्ञको न माननेवाले मीमांसककी
है कि आचार्य समन्तभद्र अपने समयके प्रखर
ताकिक, वाग्मी और वादी थे तथा उन्होंने जगहचर्चा कर देना प्रासंगिक होगा।
जगह भ्रमणकर शास्त्रार्थमें प्रतिवादियोंको परास्त स्वामीसमन्तभद्र और शवरस्वामी-मीमांसक किया था। हो सकता है कि उन्होंके भयसे शवरवेदको अपौरुषेय और स्वतः प्रमाण मानते है । शव- स्वामीको वनमें शबरका भेष बनाकर रहना पड़ा रस्वामीने अपने शावर भाष्यमें लिखा है कि वेद हो। और इसीलिये समन्तभद्रका निराकरण करने 1. बुचर्या, पृ. २६, ८६ आदि।
1.हिन्दतत्वज्ञानना इतिहास .पृ. ११२।