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________________ किरण ३] ग्वालियरके किलेका इतिहास और जैन पुगनपत्र उनपर सहस्रों रुपये व्यय किये गये हैं। यद्यपि ग्वा- करते थे। लियर में जैनाचार्यों, मुनियों, भद्रारकों और विद्वानोंका दृबकुण्डम, जिसका पुराना नाम 'चंडोभ' है, मतत समागम रहा है उनकी निस्पृहता एवं निरीहता, एक जैन स्तपपर सं० ११५२ का एक और शिला त्याग और तपश्चर्या तथा अहिमा और सत्यकी लेख अकित है जिसमें सं० ११५२ की वैशाखसुदी निष्टाका महत्व वहांकी भूमिके कण-कणमें समाया ५ को काष्ठासंघके महान आचाय श्रीदेवसेनकी हुआ था, और जनताक हृदयम जैनधर्मके प्रति पादुका-युगल उत्कीर्ण है । वह शिलालेख तीन अगाध श्रद्धा एवं आस्थाका भाव घर किये हुए पंक्तियों में विभक्त है। इसी स्तुपके नीचे एक भगत था, और उससे जैन संस्कृतिके प्रचारमें बड़ी मदद मति उत्कीण है जिसपर 'श्रीदेव लिखा है, जो अधूरा मिली है। वहांके पुरातत्त्वकी विपल सामग्रीको नाम मालूम होता है पूरा नाम 'श्रीदेवसेन' रहा होगा। दखते हुए यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि ग्वालियरमे भट्टारकों की प्राचीन गद्दी रही है। और ग्वालियरमे जैनशासनका प्रचार एवं प्रसार प्राचीन उसमें देवसेन, विमलसेन, भावसन, सहसकीर्ति, भमयमे हो रहा है गुणकीति, यशःकीर्ति, मलयकीर्ति और गुणभद्रादि नामके अनेक भट्टारक हुए है। इनमे भ० देवसेन, दृबकडके शिलालेख यशःकीर्ति और गुणभद्रने अपभ्रंश भाषामें अनेक इसकी पुष्टि दबकण्डवाले वि० सं० ११४५ के ग्रंथोंकी रचना की है और इन्हींके समयमें कवि उस शिलावाक्यसं होती है जो बहुत ही महत्वपूर्ण रइधने भी विविध ग्रन्थोंका निर्माण किया है । है । और जिससं विक्रमकी १२ वीं सदीमें जैनाचार्यो- इससे स्पष्ट मालूम होता है कि विक्रमकी १५ वी १६ के विहार और धर्मोप देश आदिका कितना ही वीं शताब्दीमे ग्वालियरमें जैनशासनका बड़ा परिचय मिल जाता है। । । प्रचार था। वहांके जैनधर्मविषयक भारी पुरातत्त्व___ शिलालेखमें महत्वकी बात तो यह है कि को देखते हुए यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा कि ग्वालियर में कच्छपघट ( कछवाहा ) वंशके वहां विविध पंशक शासकोंके समयमें जैनधर्मने शासकोंके समयमें भी जैनमंदिर मौजद थे और खूब समृद्धि पाई थी। और वहांक श्रावकोंमें धानतन मन्दिरोंका भी निर्माण हया था. साथ ही मिक प्रेम और परोपकारकी वृत्ति पाई जाती थी। शिलालेग्वम उल्लिखित लाड-वागडगणके देवसेन, कुलभूषण, दुलभसेन, अवरसेन और शान्तिपेण १ अामीद्विशुद्धतरबोधचरित्रष्टिइन पांच दिगम्बर जैनाचार्योंका समुल्लेख पाया ., नि.शेषसूरिनतमस्तकधारिताज्ञ. । जाता है जो उक्त प्रशस्तिके लेखक एवं शान्तिपेणके श्रीलाटवागडगणोन्नतरोहणादिशिष्य विजयकीर्तिसे' पूर्ववर्ती है। यदि इन पांचों माणिक्यभूतचरित गुरुदवसेनः । । । । । आचार्योंका समय १२५ वर्ष भो मान लिया जाय ॥२ पति १-सं० ११५२ वैशाखसुदि पञ्चम्यां जो अधिक नहीं है तो उसे ११४५ मेंसे घटान २-श्री काष्ठासंघ महाचार्यवर्यश्रीदेव पर देवसेनका समय १०२० के करीब आ जाता है। .. ३-सेनपादुकायुगलम् । ये देवसेन अपने समयके प्रसिद्ध विद्वान थे, और SHe:-Ache-logical Survey of india See Ache-logical Surv लाड बागड़ गणके उन्नत रोहणाद्रि थे, विशुद्ध V:22.103. ।।। ।।।। रत्नत्रयके धारक थे और समस्त प्राचार्य जिनकी ' '३-देश्यों, ' वअमिमन्दनमें प्रकाशित 'महाकवि आज्ञाको नतमस्तक होकर हृदय में 'धारण रह नामका मेरा विस्तृत लेख ।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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