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अनेकान्त
| वर्षे १०
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अर्थ-उस पाण्गिरि पदेतपर स्थित महात्मा, ज्ञान-विज्ञानके समद, तपस्वी. कल्याणमर्ति. रोगरहित, द्वादशाङ्गके वेत्ता, निर्ग्रन्थ, महायति, शिष्यों और प्रशिष्योंसे युक्त, निपुण, तत्वज्ञानी, आचार्य श्रीभद्रबाहको सिर झुकाकर नमस्कार करके मब जीवोंपर प्रीति करनेवाले और दिव्यज्ञानके इच्छुक शिष्योंने उनसे प्रार्थना को-॥ ६, ७, ८॥ पार्थिवानां हितार्थाय भिक्षूणां हितकाम्यया । श्राक्काणां हितार्थाय दिव्यं ज्ञानं ब्रवीहि नः ॥६॥
अथे-हे प्रभो ! राजाओं, भिक्षुओं और श्रावकोंके हित के लिये हमे आप दिव्यज्ञान (निमित्तशास्त्र) का उपदेश कीजिए ॥६॥ शुभाऽशुभं समुद्भूतं श्रुत्वा गजा निमित्ततः । विजिगीषुः स्थिरमतिः सुखं पाति महीं सदा ॥१२॥
अथे-(क्योंकि) राजा निमित्त (निमित्तशास्त्ररूप दिव्यज्ञान) से बतलाये गये अपने शुभाशुभको सुनकर शत्रु ओंको जीतनेका इच्छुक तथा स्थिरबुद्धि (दृढ़ संकल्पी) बनता है और सुखसे सदा पृथ्वीका पालन करता है। तात्पर्य यह कि राजाओंको निमित्तशास्त्रका जानना इसलिये जरूरी है कि उससे वे अपने भावी इष्ट अथवा अनिष्टको मालूम करके प्रजाकी भलोभांति रक्षा करते है और राज्यमें सुख-शान्ति बनाये रखते है ।। १०॥ राजभिः पूजिताः सर्वे भिक्षवो धर्मचारिणः । विहरन्ति निरुद्विग्नाम्तेन राज्ञाऽभियोजिताः ॥११॥
अर्थ तथा धर्मपालक सर्व भिक्षु राजाओंद्वारा पूजित होत हुए और उनकी सेवादिको प्राप्त करते हुए निराकुलतापूर्वक लोकमे विचरण करते है ॥ ११॥ पापमुत्पातकं दृष्ट्वा ययुर्देशान्तरं ततः । स्फीतान् जनपदांश्च व संश्रयेयुरनोदिताः ॥१२॥
अथ--और आश्रित देशको पापयुक्त अथवा उपद्रवयुक्त होनेवाला मालूमकर वहाँसे देशान्तर (दूसरे देश) को चले जाते हैं तथा बिना परप्रेरणाके स्वतंत्रतापूर्वक उपद्रवादिहित सम्पन्न दशोंमे आबसंत है । सो वे भी ऐसा निमित्तशास्त्रके ज्ञानसे ही करते हैं ॥ १२ ।। श्रावकाः स्थिरसंकल्पा दिव्यज्ञानेन हेतुना । संश्रयेयुः परं तीथं यथा सर्वज्ञ-भाषितम् ॥१३॥
अर्थ-तथा श्रावक दिव्यज्ञानको पाकर दृढ़ संकल्पी होते है और सर्वज्ञकथित उत्कृष्ट एवं श्रेष्ठ
आश्रय लेते है। तात्पर्य यह कि श्रावकोंकोदव्यज्ञानसे सर्वज्ञक वचनोंमे दृढ श्रद्धा होती है और उनके विचार दुल-मिल नहीं होते । अतः उन्हें भी निमित्तज्ञानको प्राप्त करनेकी आवश्यकता है ।। १३ ।। सर्वेषामेव सचानां दिव्यज्ञानं सुखावहम् । भिक्षुकाणां विशेषण पर-पिण्डोपजीविनाम् ॥१४॥
अर्थ-यह दिव्य (अष्टाङ्ग निमित्त) ज्ञान सब जीवोंके लिये मुखका देनेवाला है। और साधुओंको तो विशेष रूपस सखदायक है; क्योंकि उनका जोवनाधार श्रावकोंसे प्राप्त भोजनपर निभर है ॥ १४ ॥ विस्तीर्ण द्वादशाङ्गतु भिक्षवश्चाल्पमधसः । भवितारो हि बहवस्तेषां चैवेदमुच्यताम् ॥१५॥
___ अर्थ-द्वादशाङ्गसूत्र तो बहुत विस्तृत है और भिक्षु (साधु) अधिकांश अल्पबुद्धिके धारक होंगे, अतः उनके लिये निमित्तशास्त्र कहिए ॥ १५ ॥