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________________ किरण भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र २३७ - - सुखग्राहं लघुग्रन्थं स्पष्टं शिष्यहितावहम् । सर्वज्ञ भाषितं तथ्यं निमित्तं च ब्रवीहि नः ॥१६॥ अर्थ-जो सरलतासे ग्रहण किया जामके, मंक्षिप्त हो स्पष्ट हो, शिष्यों का हित करनेवाला हो, सर्वज्ञ कथित हो और यथार्थ हो उस निमित्तज्ञानका उपदेश कीजिए । १६ ।। उल्का समासतो व्यासात् परिवेषांस्तथैव च । विद्य तोऽभ्राणि सन्ध्याश्च मेघान् वातान् प्रवर्षणम् गन्धर्वनगरं गर्भान् यात्रोत्पातांस्तथैव च । ग्रहचारं पृथक्त्वेन ग्रहयुद्धं च कृत्स्नतः ॥१८॥ वातिकं चाथ स्वमांश्च मुहूर्ता श्च तिथींस्तथा । करणानि निमित्तं च शकुनं पाकमेव च ॥१४॥ ज्योतिष केवलं कालं वास्तु-दिव्येन्द्रसम्पदाम् । लक्षणं व्यंजनं चिह्न लग्नं दिव्योषधानि च ॥२०॥ बलाऽबलं च सर्वेषां विरोधं च पराजयम् । तत्सर्वमानुपूर्वेण प्रब्रवीहि महामते ॥२१॥ सनितान् यथाद्दिष्टान् भगवन् ! वक्तुमर्हसि । प्रश्नं शुश्रूषवः सर्वे वयमन्ये च साधवः ।।२२।। __ अर्थ-हे महामते ! संक्षेप और विस्तारसे उल्का, परिवेष, विद्य न, अभ्र, सन्ध्या, मेघ, वात, प्रव. पण, गन्धर्वनगर, गर्भ, यात्रा, उत्पात, पृथक पथक ग्रह चार (शुक्रवार, शनिचार, गुरुचार, बुधचार, अंगारक्चार, राहुचार, कंतुचार, सूर्यचार और चन्द्रचार), ग्रहयुद्ध, वातिक (अधकाण्ड), स्वप्न, मुहूर्त, तिथि, करण, निमित्त, शकुन, पाक, ज्योतिष, वास्तु, दिव्येन्द्रसंपदा, लक्षण, चिह्न, लग्न, दिव्यौपध, बलाबल, विरोध और जय-पराजय इन समस्त विषयों का क्रमशः वर्णन कीजिए। हे भगवन् । जिस क्रमसे इन सबका निर्देश किया गया है उसी क्रमसे उनका उत्तर दीजिए। हम सभी तथा दूसरे साधुजन प्रश्नाका उत्तर सुनने के लिये उत्कंठित हैं ।। १७,१८,१६,२०,२१,२२ ।। इति नैनन्थे भद्रबाहुसंहितायां (भद्रबाहुके निमित्ते) अन्धनसंचयो नाम प्रथमोऽध्यायः ॥1॥ अथ द्वितीयोऽध्यायः। -:-:ततः प्रोवाच भगवान् दिग्वासाः श्रमणोत्तमः । यथावच्छास्त्रविन्यासं द्वादशाङ्गविशारदः ॥१॥ अर्थ-शिष्योंके उक्त प्रश्नोंके किये जानेपर द्वादशाङ्गक पारगामी दिगम्बर श्रमणश्रेष्ठ भगवान् भद्रबाहु आगममें जिसप्रकारसे उक्त प्रश्नों का वर्णन निहित है उसप्रकारने अथवा प्रश्नक्रमसे पुनका उत्तर देने के लिये उद्यत हुए ।। १ ।। भवद्भिर्यद्यह पृष्टो निमित्तं जिन-भाषितम् । समास-व्यासतः सर्व तन्निबोध यथाविधि ॥२॥ अथ हे शिष्यो ! आप सबने मेरेसे यह पूछा है कि-'हम लोगोंके शुभाऽशुभ जानने के लिये श्रीजिनेन्द्रदेवने जो निमित्त कहा है उसे कहो।' अतः मैं संक्षेप और विस्तारसे उस सबका यथाविधि वणन करता हूँ, सो मुनो-॥२॥ प्रकृतेर्योऽन्यथाभावो विकारः सर्व उच्यते । एवं विकार विज्ञेयं भयं तत्प्रकृतेः सदा ॥३॥
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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