SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 261
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३८ • अनेकान्त [वर्ष १० अर्थ-हे भिक्षुओ ! प्रकृतिका अन्यथाभाव होना ही विकार कहा जाता है, जब कभी तुमको प्रकृ. तिका विकार जाननेमें आवे तो उसपरसे जानना कि यहाँपर भय होनेवाला है ॥ ३॥ उल्कानां प्रभवं रूपं प्रमाणं फलमाकृतिम् । यथावत्संप्रवक्ष्यामि तन्निबोधाय तत्त्वतः ॥४॥ अर्थ-उल्काओंकी उत्पत्ति, रूप, प्रमाण, फल और आकृति इनका इनके यथार्थ ज्ञानके लिये यथावत् कथन करूँगा ॥४॥ भौतिकानां शरीराणां स्वर्गात्प्रच्यवतामिह । संभवाश्चान्तरिक्षे तु तज्जैरुल्केति संज्ञिता ॥५॥ अर्थ-भौतिक(पृथिवी, जल, अग्नि और आकाश इन पांच भूतोंसे निष्पन्न) शरीरोंको धारण किये हुए देव जब स्वर्गसे इम लोकमें आते है तब उनके शरीर आकाशमें विचित्र ज्योतिरूपको धारण करते है उसे विद्वानोंने उल्का कहा है ॥ ५॥ तत्र तारा तथा धिष्ण्यं विद्य चाशनिभिः सह । उल्काविकारा बोद्धध्या ते पतन्ति निमित्ततः । ६॥ अर्थ-तारा, धिष्ण्य, विद्य त् और अशनि ये सब उल्काके विकार हैं और ये निमित्त पाकर गिरते हैं ॥६॥ ताराणां च प्रमाणं च धिष्ण्यं तद्विगुणं भवेत् । विद्यु द्विशाल-कुटिला रूपतः क्षिप्रकारिणी ॥७॥ ___ अर्थ–ताराका जो प्रमाण है उससे दूना प्रमाण (लम्बाईमें) धिष्ण्यका है। विद्युत् नामवाली उल्का बड़ी और कुटिल तथा शीघ्रगामिनी होती है ॥ ७ ॥ अशनिश्चक्रसंस्थाना दीर्घा भवति रूपतः । पौरुषी तु भवेदुन्का प्रपतन्ती विवर्द्धते ॥ ८ ॥ ___अर्थ-अशनि नामकी उल्का चक्राकार होती है। पौरुषी नामकी उरूका स्वभावसे ही लम्बी होती है तथा गिरते हुए बढ़ती हुई जाती है ॥८॥ चतुर्भागफला तारा धिष्ण्यम फलं भवेत् । पूजिता पद्मसंस्थाना माङ्गल्या ताश्च पूजिताः ॥६॥ अर्थ-वारा नामकी उल्काका फल चतुर्थांश होता है, धिष्ण्य संज्ञक उल्काका फल आधा होता है और जो उल्का कमलाकार होती है वह पूजने योग्य तथा मंगलकारी है । ये उल्काएँ पूजित अर्थात् अच्छी एवं पुण्यरूप हैं॥॥ पापा घोरफलं दद्यु : शिवाश्चापि शिवं फलम् । व्यामिश्राश्चापि व्यामिश्रं येषां यैः प्रतिपुद्गलाः१० अर्थ-पापरूप उल्का घोर अशुभ फल देती है तथा शुभरूप उल्का शुभ फल देती है । और पाप तथा पुण्य मिश्रित उल्का पाप और पुण्य मिश्रित (मिला हुआ) फल प्रदान करती है । इन पुद्गलोंका ऐसा हो स्वभाव है ।। १०॥ इत्येतावत्समासेन प्रोक्त मुल्कासुलक्षणम् । पृथक्त्वेन प्रवक्ष्यामि लक्षणं व्यासतः पुनः॥११॥ मर्थ-यहाँ तक उल्काओंके संक्षेपमें लक्षण कहे, अब पृथक पृथक पुनः विस्तारसे कहता हूँ ॥१९॥ इति उकाललयो द्वितीयोऽध्यायः ।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy