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________________ किरण ११-१२ ] मोहनजोदड़ोकी कला और श्रमण-संस्कृति ४४३ १ मत्स्य = अठारहवें तीर्थ कर अरहनाथ । बनी हैं जिसके दायें-बायें चमर धारी यक्ष-यक्षिणी १० बकरा-सत्रहवें तीर्थ कर कुन्थुनाथ । खड़े हैं। छतके एक कोनेमें एक सुन्दर राजहस्तीकी ११ मारनवें तीर्थ कर पुष्पदन्त । है, जिसके दायें चायें सएडोंमें कमलइन चिन्होंकी मोहरोंके मिलने और शेष तीर्थ- कलिका और फूल लिए दो हाथी खड़े हैं । छतके करोंके चिन्होंकी मोहरें न मिलनेसे विदित होता दूसरे कोने में नवग्रह सूर्य चन्द्रमा और राहकी है कि मोहनजोदड़ो और हडप्पाकी खुदाईसे जो मूर्तियां बनी हैं। तीसरे कोने में लक्ष्मीकी मूर्ति है स्तर निकले हैं वे उसी युगकी संस्कृतिके द्योतक हैं, और चौथे कोनेमें बाड़के भीतर खड़ा हुआ जब केवल १८ तीर्थकर ही अवतरित हुए थे पोपलका चैत्यवृक्ष बना है, जिसके दायें-बायें अर्थात् यह युग महाभारतयुद्धकालसे ही पुराना हाथोंमें फूलमालायें और जलकलश लिये स्त्रियां नहीं है बल्कि सूर्यवंशी राम-राज्य कालसे भी खड़ी हैं। इनमें राजहस्तीकी केन्द्रीय मूर्ति द्वितीय पहलेका है। तीर्थकर अजितनाथकी प्रतीक हैं और नन्दीपर ये चिह्न तीर्थङ्करोंके प्रतीक होनेसे विनयकी वस्तु आदितीर्थक्कर वृषभ भगवानके प्रतीकरूप बैलके खुरका चिह्न है। माने जाते थे इसी प्रकार हाथीगुफा नामकी गुफामें जैन जैसा कि लेखकने 'जैन कला और उसका सम्राट् खारवेलका जो प्रसिद्ध लेख उत्कीर्ण है महत्व' शीर्षक लेखमें बतलाया है,' ये चिह्न जैन उसकी प्रारम्भिक पांच पंक्तियोंपर वृद्ध मंगल कलामें केवल तीर्थकरोंके आसनोंपर ही अङ्कित स्वस्तिक और नन्दीपद और १७वीं पंक्तिके अन्त में हुए नहीं मिलते बल्कि यह चिह्न विना तीर्थ कर चैत्य वृक्षके चिह्न बने हुए हैं। व मूर्तियोंके भी स्तूपोंकी बाहों, तोरणद्वारों, स्तम्भों, (२) अभी हाल में अग्रोहेकी खुदाई मेंसे जो मन्दिरोंकी दीवारों, ताम्रपत्रों और झण्डोंपर भी तांबेके ५२ चौखूटे सिक्के प्राप्त हुए हैं, उनके अङ्कित हुए मिलते हैं। ऐतिहासिक युगमे भी ये सामने की ओर वृषभ और पीछेकी ओर सिंह या चिह्न विना तीर्थकरमूर्तियोंके विनय वस्तुके चैत्य वृक्षकी मर्तियां बनी हुई हैं। ये सिक्के तौरपर उपयुक्त होते रहे हैं, जैसा कि निम्न उद्ध- निःसंदेह दिवाकर-राज्यकालके हैं। दिवाकरके रणोंसे सिद्ध है: सम्बन्धमें डा. सत्यकेतुका मत है कि दिवाकर (१) कलिङ्गदेश ( उड़ीसा प्रान्त) के प्रसिद्ध श्रीनाथका पुत्र था। इसने पुराने परम्परा गत खण्डगिरि पर्वतपर लगभग ईसा पूर्व पहिली सदीके धर्मको छोडकर जैन धर्मकी दीक्षा ली थी। जैन जैन सम्राट महामेघवाहन खारवेल तथा उसकी अग्रवालोंमें यह अनुश्रति प्रसिद्ध है कि, लोहाचार्य रानियों और उत्तराधिकारी वंशजोंद्वारा बनी हुई स्वामी अग्रोहा गए और वहां उन्होंने बहुतसे जो अनेक गुफायें मौजूद हैं उनमें अनन्तनाथकी अप्रवालोंको जैन धर्मकी दीक्षा दी। जैनोंके गुफाके बिशालभवनकी पिछली दीवारपर त्रिशूल, १. Archeological Survey of Indiaस्वस्तिक. धर्मचक्र और नन्दीपदके मालिक Vol LI Bihar and Orissa 1931-p 273. चिह्न बने हुए हैं। स्वस्तिक और धर्मचक्रके नीचेकी ' अग्रोहेकी खुदाई-वासुदेवशरणअग्रवाल, "प्राची तरफ एक प्रालयमें खड़ेयोग तीथेकर की मूति भारत' प्रथमवर्ष सम्बत् १११० प्रथम संख्या पृ. ५४ १ देखें 'अनेकान्त' वर्ष ५ किरण । और २, ३. अप्रवाल जातिका प्राचीन इतिहास ११३८ पृ. प०-१२ ११६-११८ रा. सत्यकेतु विद्यालकार ।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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