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________________ किरण ६] भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र ४१ अर्थ-यदि उल्का उत्तर दिशामें गिरे तो ब्राह्मणोंका घात करती है, पूर्वदिशामें गिरे तो क्षत्रियोंका, देशामें गिरे तो वैश्योंका और पश्चिम दिशामें गिरे तो शुद्रोंका घात करती है। यहाँ पर ऐसा जानना कि उत्तर दिशा ब्राह्मणोंकी, पूर्व दिशा क्षत्रियोंकी, दक्षिदिशा वैश्योंकी और पश्चिमदिशा शद्रोंकी है। इस विषयका ओर कहींपर भी कथन आवे तो उल्का, प्रह आदि वणे और दिशापरसे चारों वर्गों के विषयपर कल्पना कर फल बताना । इस उल्काध्यायकी संज्ञा इस प्रन्थमें सर्वत्र व्यापक समझना ।। १६ ॥ उल्का रूक्षवणेन स्वं स्वं वर्ण प्रवाधते । स्निग्धा चैवानुलोमा च प्रसन्ना च न बाधते ॥२०॥ अर्थ-उल्का रूक्ष वर्णसे अपने अपने वर्णको बाधा देती है, अर्थात् श्वेत वर्णकी होकर र्याद उल्का रूक्ष हो तो ब्राह्मणोंको बाधाकारक जानो। इस उदाहरण परसे सब वों में घटित कर लेना चाहिये । यदि स्निग्ध और अनुलोम सव्यमार्ग) तथा प्रसन्न उल्का हो तो वह शुभ होनेसे अपने २ वर्ण को बाधा नहीं करतो ॥२०॥ या चादित्यात् पतेदुल्का वर्णतो वा दिशोऽपि वा । तं तं वर्ण निहन्त्याशु वैश्वानर इवार्चिभिः ॥२१॥ ___ अर्थ-जो उल्का सूर्यसे किकलकर जिस वर्णकी होकर जिस दिशामें गिरे उस वण और दिशापर से उसी उसी वर्णवालेको अग्निकी ज्वालाके समान शीघ्र नाश करती है॥ २१ ॥ अनन्तरां दिशं दीप्ता येषामुल्काऽग्रतः पतेत् । तेषां स्त्रियश्च गर्भाश्च भयमिच्छन्ति दारुणम् ॥२२॥ अर्थ-यदि उल्का अव्यवहित दिशाको दीप्त करती हुई अग्रभागसे गिरे तो स्त्रियों और उनके गोंको भयानक भय करती है अर्थात् गर्भपात होते है ।। २२ ।। कृष्णा नीला च रूक्षाश्च प्रतिलोमाश्च गर्हिताः । पशु-पक्षि-सुसंस्थाना भैरवाश्च भयावहाः ॥२३॥ अर्थ-कृष्ण अथवा नील वर्णकी रूक्ष उल्का प्रतिलोम (उलटे) मार्गसे अथात् अपसव्यमार्ग (वांये) से गिरे तो निन्दित है । यदि पशु-पक्षिके आकारवाली हो तो भयको करनेवाली जानना ।। २३ ।। अनुगच्छन्ति याश्चोल्का बाह्यास्तूल्काः समन्ततः । वत्सानुसारिणी नामा सा तु राष्ट्र विनाशयेत्२४ अर्थ-जो उल्का मार्गमें गमन करती हुई आस-पासमें दूसरी उल्काओंसे भिड़ जाय वह वत्सानुमारिणी (बच्चेकी आकारवाली) उल्का कही जाती है और ऐसी उल्का राष्ट्रका नाश चित करती है ॥२४॥ रक्ता पीता नभस्युल्कारचेभ-नक्रण सन्निभाः। अन्येषां गर्हितानां च सवानां सदृशास्तु याः ॥२५॥ उल्कास्ता न प्रशस्यन्ते निपतन्त्यः सुदारुणाः । यासु पपतमानासु मृगा विविधमानुषाः ॥२६॥ अर्थ-आकाशमें उत्पन्न होती हुई जो उल्का हाथी और नक्र (मगर) के आकार तथा निन्दित प्राणियोंके आकारवाली होती है वह जहाँ गिरे वहाँ दारुण अशुभ फलकी सूचना करती है । और मृगा तथा विविध मनुष्योंको घोर कष्ट देती है ।। २५, २६ ।। शब्दं मुञ्चन्ति दीप्तासु दिक्ष्वासनकाम्यया । क्रच्यादाश्चाऽऽशु दृश्यन्ते या खरा विकृताश्च या २७ सधूम्रा याः सनिर्धाता उल्का याश्वमनाप्नयः(?)। सभूमिकम्पा परुषा रजस्विन्योऽपसव्यगाः ॥२८॥
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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