SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ किरण ३] आ० विद्यानन्दके समयपर नवीन प्रकाश इस प्रशस्ति-पद्यमें विद्यानन्दने 'शिवमार्ग मोक्ष वित:' आदि पदप्रयोगोंसे स्पष्ट ज्ञान होता है कि मार्गका जयकार तो किया ही है किन्तु जान पड़ता वहाँ ग्रन्थकारको अपने समयके राजाका उल्लेख है उन्होंने अपने समयके गङ्गनरेश शिवमार द्वितीय करना अभीष्ट है और इसलिये 'शिवप्रभु', शिवका भी जयकार एवं यशोगान किया है। शिवमार मारप्रभु' एक ही बात है। द्वितीय पश्चिमी गङ्गवंशी श्रीपरुप नरेशका डफ सा० ने विद्यानन्दका समय ई० सन ८१० उत्तराधिकारी और उसका पुत्र था, जो ई. सन ८१० बतलाया है। सम्भव है उन्होंने श्लोकवार्तिकके के लगभग राज्याधिकारी हुश्रा था। इसने श्रवण- इस प्रशस्तिपदा परसे हो, जिसमें शिवमारका वलगोलकी छोटी पहाड़ीपर एक वमदि बनवाई उल्लेख सम्भाव्य है, विद्यानन्दका उक्त समय बतथी, जिसका नाम "शिवमारनबमदि' था। चन्द्रनाथ- लाया है। क्योंकि गंगवंशी शिवमार नरेशका समय स्वामी वर्मादके निकट एक चट्टानपर कनडीमें मात्र ई०८१० के लगभग माना जाता है जैसा कि पहले इतना लेख अङ्कित है-"शिवमारनवसदि"। इस कहा जाचुका है। अभिलेखका ममय भाषा-लिपिविज्ञानकी दृष्टिस इस शिवमारका भतीजा और विजयादित्यका लगभग ८१० इ० माना जाता है २ । राइस सा० लड़का राचमल्न सत्यवाक्य प्रथम शिवमारक का कथन है कि इम नरेशने कुम्मडवाडमे भी एक राज्यका उत्तराधिकारी हुआ था तथा ई० मन् ८१६ वाद निर्माण कराई थी। इससे ज्ञात होता है कि के आस-पास राजगद्दापर बैठा था। विद्यानन्दने शिवमार द्वितीय अपने पिता श्रीपुरुपकी तरह अपने उत्तरग्रन्थोंम 'सत्यवाक्य' के नामसे इसका ही जैनधर्मका उत्कट समथ क एवं प्रभावक था। भी उल्लेख किया प्रतीत होता है । यथाअतः अधिक सम्भव है कि विद्यानन्दने अपने (क) स्थेयाज्जातजयध्वजाप्रतिनिधिः प्रोद्भूतभूरिप्रभुः, श्लोकवार्तिककी रचना इमी शिवमार द्वितीय गङ्ग प्रध्वस्ताग्विल-दुर्नय-द्विषदिभः सनीति-सामर्थ्यतः । नरेशक राज्यकालमे की होगी और इसलिये उन्होंने सन्मार्गस्त्रिविधः कुमार्गमथनाऽहन् वीरनाथः श्रिये, अपने समयके इम राजाका 'शिव-सुधाधाराव शश्व संस्तुतिगोचरोऽनघधियां श्रीमत्यवाक्याधिपः॥ धान-प्रभुः' शब्दोंद्वारा उल्लेख किया है तथा 'मजनताऽऽश्रय.', 'तीव्र-प्रतापान्वितः' आदि पदों द्वारा उसके गणोंका वर्णन किया है। उक्त पद्य (ख) प्रोक्र युक्त्यनुशासनं विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगअन्तिम प्रशस्तिरूप है, इमलिये उसमें ग्रन्थकारद्वारा विद्यानन्दबुधैरलकृतमिदं श्रीमत्यवाक्याधिपः॥ अपना समय सूचित करनेके लिये तत्कालीन राजाका -युक्त्यनुशासनालङ्कार प्रशस्ति । नाम देना उचित ही है। यद्यपि उक्त पदामे 'शिव १ देखो, जैनसि. भा० वर्ष ३, किरण ३ गत बा. मार' राजाका पूरा नाम नहीं है-केवल 'शिव' पदका ही प्रयोग है तथापि नामैकदेश ग्रहणसे भी कामनाप्रसादजीका लेख । पूरे नामका ग्रहण कर लिया जाता है. जैसे पावसे २ गंगवंशमें होनेवाले कुछ राजाओंकी 'मत्यवाक्य पाश्वनाथ, रामसे रामचन्द्र आदि। दसरे, शिव, उपाधि थी। इस उपाधिको धारण करनेवाले चार राजा के आगे 'प्रभु' पद भी दिया गया है, जो राजाका हुए हैं--प्रथम सत्यवाक्य ई० सन् ८१५ के बाद, द्वितीय भी प्रकारान्तरसे बोधक है। तीसरे, 'तीव्रप्रतापा पत्यवाक्य ई. ८७० से १०७, तृतीय सत्यवाक्य ई० १२० और चौथे सत्यवाक्य ई. १७७ । यह मुझे बा० ज्योतिदेखो, शि. नं० २५६ (१५)। २ मेडिवल प्रसादजी, एम. ए. एल एल. बी. ने बतलाया है जिसके जैनिज्म पृ. २४-२५॥ ३ देखा, मैसूर और कर्ग पु० लिये मैं उनका आभारी हूँ।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy