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संजद पद का बहिष्कार
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किंचित् भी समावेश नहीं है। उसमें उनकी उथली आपको उनके नीच कार्य अथवा पापसे घृणा है श्रद्धाका सहजहा भान हाजाता है और यह स्पष्ट तो उनकी आत्मासे तो घृणा नहीं होनी चाहिये। जान पड़ता है कि व जैनधमेका एक कूजम बंद कर किन्तु उन्हें उनकी भूल सुमाकर पावन बनानेका केवल वैश्यों तक ही सोमित करना चाहते हैं। और प्रयत्न करना चाहिये। क्या जैनधर्म पतितों-मिथ्यायह भूल जाते है कि जैनधर्ममे जहां तिर्यंच भी दृष्टियों तथा पापियोंके पावन करने के लिये नहीं संयमका साधन कर आत्मकल्याण करते है वहां हैं यदि है तो फिर दूसगेको धर्मसाधनसे रोकनेका मनुष्योंका तो बातही क्या है ? क्या उन्हें पशओं किसको अधिकार होसकता है। अस्तु, तिलोकचन्द जी जितना भी अधिकार प्राप्त नहीं है। निरंजनलालजी और निरंजनलालजीने पूज्य वर्णीजी पर जो आक्षेप
आगम प्रमाणसे यह बतलाने की कृपा करें कि क्या करनेका जघन्य प्रयत्न किया है और निरंजनलाल तीर्थकरोने जैनधर्मका उपदेश केवल उच्च कलवाले जी ने तो सभ्यता और शिष्टताकी सीमाका भी वैश्योंके लियेही दिया है ? यदि नहींतो फिर आपको
उल्लंघन किया है उसके लिये उन्हें अपनी भूल कवल शूद्रोंसे ही इतनी घृणा क्यों ? क्या वे मानव स्वीकार करते हुए पूज्य वीजीसे क्षमायाचनाके नहीं है और क्या वे अहिंसादि मत्कायों द्वारा साथ अपने शब्दांको वापिस लेना चाहिये। अपना आत्म-विकास नहीं कर सकते । अगर
परमानन्द जैन
'संजद' पद का बहिष्कार ( डा० हीरालाल जैन, प्रोफेसर, नागपुर महाविद्यालय )
जैनमित्र ता.२माचे ६५० के अंकमें प्रका- पाठ चला आयाहै उमको वैसा हो रखना, उसमें शित हुआ है कि मनि शांतिसागर जी महाराजने कोई घटा बढ़ी या परिवर्तन नहीं करना। हाँ जहां षटखंडागम जीवडारणकी सत्प्ररूपणा सत्र ६३ मेंसे श्रावश्यक हो वहां अर्थ चाहे जैसा अपनी समझ 'मंजद' पदको हटा देनेकी अनुना देदी है। इस वरुचिक अनुसार बैठा लेना। धवला माहित्यक परिवर्तनका कारण यह बतलाया हैकि- यिता प्रकाण्ड विद्वान् श्राचार्य वीरसेन स्वामीन भो
"उक्त सूत्रमे संजद पद रहनेसे भविष्यमें हजा- यहो किया । उम्त सूत्रका मेजद युक्त पाठतो उनके गें वष तक द्रव्यस्त्राके मोक्ष जानेका दिगंबर सिद्धा- सन्मुख भी था, और उनको वह खटकता भी था । न्त के विरुद्ध बहुत भागे दोष उस शास्त्रमें बना रहे. तोभी उन्होंने उसे हटाने की धृष्टता नहीं की, याप गा, जो कि एक बड़े धाखे की बात होगी, हमने वेचाहते तो उसे अधिक अच्छी तरह हटा सकते थे, संजद शब्दके बारे में दोनों पक्षोंके विद्वानांके और उनमें इतनी योग्यता भा थी कि इस परिवर्तनका लेख पढ़े है। गतवर्ष जब पं० माणिकचन्द्र जी न्यया- सिद्धांतकी दृष्टिस ममस्त ग्रंथ मे भी निभा लेते। चाये हमारे पास आय थे, उन्होंने भी वहा कहावतमान रूपमे षटखंडागम सूत्र रचना ऐसी नहीं था कि ३ सूत्र द्रव्यस्त्रोका विधान करता है इसलिय है कि उममे कंबल उक्त सूत्रमे से सजय शब्द हटा उसमे सजद शब्द नहीं होना चाहिये । इत्यादि.
कर स्त्री मुक्तिका प्रसंग टाला जासके। उसी सत्प्रहमारे प्राचार्योंकी साहित्यिक सेवाका आजतक रूपणा विभाग में ही अगले सुन्न १६४-१६५ में फिर यह क्रम रहा है कि प्राचीन परंपरासे भतका जैसा वही संजद पद ग्रहण करके मनुष्यनीक चौदहों गुण