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________________ अनेकान्त विष १० स्थानोंका प्रतिपादन किया गया है। आगे द्रव्य क्षेत्र ते हुये ६३ सूत्र में संजर पद छोड़ा नहीं जा सकता स्पर्शन श्रादि समस्त प्ररूपणाओं में भी मनुष्यनीके चाहे वह फिप्ती प्रतिमें प्रभादसे. कषायसे, अज्ञानसे चोदहों गुणस्थान बतलाये गये है। व अन्य किमीभी कारणसे छोड़ भलेही दिया जाय । धवला टोकाकी तो परिस्थिति यह है कि सत्त कुछ लोगोंको यह धारणा है कि ६३ सूत्रमे रूपणा के ६३ सूत्र में मजेद' पद ग्रहण किये बिना मनुष्यनो पद द्रब्यस्त्रोका बोधक है, इसलिये उस उसकी टोकाकी कोई सार्थकता नहीं रहतो। इसी सत्र में 'संयत पद दिगंबर मान्यताका विरोधो है, व सत्प्ररूपणाके आधार पर खड़े किये गये आलापा अन्यत्र मनुष्यनी भावस्त्री का बोधक होनेसे वहां धिकारमें धवलाकारने मनुष्यनीके न कवल चौदहाँ 'संयत'पद मान्यता-विरोधो नहीं है किंतु यह उनकी गुणस्थान ग्रहण किये है, किंतु एक एक गणस्थानकी भ्रांति है। मनुष्यना शब्दका इस प्रकार अर्थ-भेद अलग अलग व्यवस्थाका विवरण भी दिया है। इसी षट खंडागमके भीतर नहीं बन सकता। सत्प्ररूपपरम्परानुसार गोम्मटसार जैस शास्त्रोमे भी मनुष्य णा आदि प्रधिकारोंका परस्पर ऐसा मंबंध है कि नीके सवत्र संयतपद स्वीकार किया गया है। ऐसी प्रथम प्ररूपणामें जिन जावोंके जिन गुणस्थनाका परिस्थिति में केवल मूत्र १३ में से संयत पद हटा मद्भाव बतलाया गया, उन्हीं जीवोंका उन्हीं गुण देने से सिवाय एक गड़बड़ी उत्पन्न करनेक और क्या स्थानों में प्रमाणादि निरूपण द्रव्य, क्षेत्र प्रादि प्ररूलाभ होगा? पणाओं में किया गया है। यह बात धबलाकारने यदि केवल उक्त सूत्रमे 'संजद' पद न रहनम द्रव्य प्रमाण प्ररूपणाके प्रारम्भमे हो बहुत स्पष्टतास मनुष्यनीके छठे आदि गुणस्थानाका निवारण हो बतला दी है। यदि ऐमान होतो शास्त्र में यह विर. सकता, तो धवलाके संपादकोंको उनके सम्मुख निपत्ति उपस्थित हो जायगी कि जिन जीवोंके जो उपस्थित हस्त लिखिति प्रतियों में उक्त पदका अभाव गुणस्थान बतलाये उनकी मख्या आदि नहीं कही होने पर भी उसकी स्थितिका अनुमान न और जिनकी संख्या आदि बतलायी उनमें उन गुण लगाना पड़ता। उनका वह अनुमान ही इस बात का स्थानीका मत्व ही नहीं दिखलाया। ऐसी टि व प्रमाण है कि षटखंडागमक पूवापर प्रमंगोको देख- विनिपत्ति षट खंडागम में आगममे असंभव है 'संजद' शब्दका निष्कासन अभी हाल में ना० १६.२.५० को गजपंथातीर्थ ने आजतक अपनी प्राचीन परम्पराको अतण्य पर षटखण्डागमके उस 'मजद' शब्द के बहिष्कार कायम रक्खा है और अपने विचागस प्रतिकल का आडे आचार्य श्री शांतिसागरजीन देदिया है। विषयका सामंजस्य भी बैठानका यथामाध्य प्रयत्न आचार्य महागजन षटखण्डागमकं ताम्रपत्रों और किया है। पर कोई भी शब्द उस ग्रंथसे पृथक करने मुद्रित प्रतियोंमेसे 'मजद' शब्द निकालनका जो का दु माहस नहीं किया है जैसाकि आचार्य यह अवांछनीय आदेश दिया है उससे जैन समाज शांतिसागरजीने किया है । यह उनकी मर्वथा में एक भारी क्षोभ उत्पन्न होगया है और अन्धकी अनाधिकार चेष्टा है। कोईभी व्यक्ति किसीभी ग्रथप्रामाणिकता सदाके लिये मन्देहास्पद बन गई है। कार की कृति मे से कोई भी वाक्य या शब्द निका दिगम्बर पागम अब तक अपनी प्रामाणिकता लनेका अधिकार नहीं रखता, फिर द्वादशांगके के लिये प्रसिद्ध रहा है और उसके प्रसारक आचार्यों एकांशके वेत्ता पुष्पदन्त भूतबलि आचायके पटे.
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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