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________________ श्रनेकान्त [ वर्ष १० दोनों कलाओं में धर्मचक्रादिकी महत्तादोनों कलाभों में धर्मचक्रोंकी बड़ी मान्यता है । यह चक्र सम्भों व दण्डों पर रक्खे हु हैं। इन्हें कितने ही पुरुष, स्त्री तथा बालकजन वंदना करते हुए दिखलाये गए हैं। इसके लिये निम्न प्रमाण पर्याप्त हैं : ४३८ साथ तो आज-कल भी त्रिशूलका चिन्ह जोड़ा जाता है । परन्तु अन्त मूर्तियोंके साथ आज-कल उसकी योजना नहीं की जाती, जब कि बहुप्राचीन समय मे की जाती थी और उसका कारण यह है कि अन्तका रूप त्रिशूलधारी भी लिखा है, जैसा कि धवल सिद्धान्त ग्रन्थके प्रथम खण्ड ( पृ० ४५) में उद्घृत निम्न प्राचीन गाथासे प्रकट हैतिरयण - तिसूल - धारिय मोहंधासुर-कबंध विंद-हरा । सिद्ध-सयलप्परूवा श्ररहता दुरणय कयंता ॥२५॥ त्रिशूल त्रिदण्डका प्रतीक है पापों से बचने और निर्वाण प्राप्ति के लिये, जैन संस्कृतिमें त्रिदण्ड अथवा त्रिगुप्तिपर बहुत जोर दिया गया है । भगवान बुद्ध मज्झिमनिकाय के ५६ वें उपाली सुत्तमें निम्रन्थ ज्ञातृपुत्र ( भगवान महावीर ) के आचार-मार्गका बग्यान करते हुए कहते हैं : 'आस गौतम ! धर्म कर्मका विधान करना निन्थ ज्ञातृपुत्रका श्राचरण नहीं है। श्रावुस गौतम ! दण्ड विधान करना निगंठ नातपुत्तका नियम है । .. आवस गौतम ! पाप कर्मके हटानेके लिये निगंठ नात्तपुत्त तीन दण्डों का विधान करते हैं - जैसे कायदण्ड, वचनदण्ड, मनदण्ड । ईसाकी प्रथम शताब्दी के महान् जैनाचार्य श्री उमास्वातिने भी भगवान महावीर द्वारा बत लाए हुए मोक्षमार्गका वर्णन करते हुए बतलाया है : नवीन कर्मोंका निरोध संवरसे होता है । वह संवर त्रिगुप्ति करने, पंच समिति रखने, दश धर्म पालने, द्वादश भावना भाने, बाइस परीषद् सहन करने और पंचप्रकारके चारित्रका पालन करनेसे होता है । मन, वचन और कायको भली प्रकार वश में करना गुप्ति है । १ श्रास्रव निरोधः संवरः ॥१॥ स गुप्ति-समितिधर्मानुप्रेक्षा- परीषद्दजय-चारित्रैः ॥ २॥ नपसा निर्जरा च ॥ ३ ॥ सम्यग्योगनिप्रहो गुप्तिः ||४|| - तत्वार्थ सूत्र श्र० १ । (अ) वही, मथुरा सग्रहालयका सूचीपत्र - जैन मूर्ति नं० B. (आ) वही, मथुरा - संग्रहालय का सूची पत्र - जैन मूर्ति नं० B-8, B-१२, B - १४, B - १५, B- १७ । इन मूर्तियों के आसनोंपर धर्मचक्र स्तम्भोंपर रक्खे हुए हैं । (इ) The Jana stupa and other Antr quities of Mathura. By V. A Smith, 1901 - फलक ६, फलक ७, फलक ८, फलक ११ । इनमें से फलक ६ मे धर्मचक्र त्रिशूलपर रक्खा हुआ है, फलक ७ और फलक ११ में वे बहुत सुन्दर स्तम्भोंपर रक्खे हुए हैं और फलक ८ में तो धर्मचक्र आयागपटकी केन्द्रीय वस्तु है, जिसके चारों ओर एक परिधि मे आठ अप्सराएँ हावभाव सहित नृत्य करती हुई घूम रही है । (ई) वही मोहनजोदड़ो - जिल्द नं० १, फलक १२- टिकड़े नं० २३, फलक १३ टिकड़े नं० १६, २० - इनमें केवल दण्डों र लगे हुए धर्मचक्र दिखलाए गए हैं। फलक १०३ टिकड़े नं० १८- इसमें धर्मचक्रदण्ड के साथ घोड़े (unicorn) का भी चित्र अंकित है । फलक ११६ - मोहर ५, ६ । इनमें धर्मचक्र दण्डोंको वृषभ (बैल) की मूर्तिके साथ-साथ जलूसों में ले जाता हुआ दिखलाया गया है । यह ध्यान रहे कि जैन अनुश्रुति के अनुसार घोड़ा शंभवनाथ तीसरे जैन तीर्थकर का चिन्ह है और वृषभ वृषभनाथ प्रथम जैन तीर्थंकर का चिन्ह है । मथुराकी कला में अङ्कित धर्मचक्रका रूप
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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