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________________ अनेकान्त [ वर्ष १० ईशाने वर्षणं ज्ञेयं श्राग्नेये नैऋतेऽपि च । याम्ये च विग्रहं न याद्भद्रबाहुवचो यथा ॥ ६१ ॥ अर्थ-यदि ईशान कोण में पवन चले तो वर्षाका होना जानना चाहिये और यदि नैऋत्य तथा दक्षिण दिशा में पवन चले तो विग्रह ( युद्ध ) का होना कहना चाहिए ॥ ६१ ॥ सुगन्धेषु प्रशान्तेषु स्निग्धेषु मार्दवेषु च । वायमानेषु वातेषु सुभिक्षं क्षेममेव च ॥ ६२ ॥ अर्थ-यदि चलने वाले पवन सुगन्धित, प्रशान्त (शान्तिमय), स्निग्ध (सचिक्कण ) तथा कोमल हों तो सुभिक्ष तथा क्षेमका ही होना कहना चाहिये ॥ ६२ ॥ महतोपि समुद्भ ूतान्सतडित्साऽभिगर्जितान् । मेघान्विहनते वायुः नैऋत्यो दक्षिणाग्निजः ||६३|| ४२० अर्थ - नैऋत्यकोण, अग्निकोण तथा दक्षिण दिशाका पवन उन बड़े मेघों को भी नष्ट कर देता है - बरसने नहीं देता--जो चमचमाती बिजली और भारी गर्जनासे युक्त हों और उसके द्वारा ऐसा भाव दर्शाते हों कि अभी बरसनेवाले हैं ॥ ६३ ॥ सर्वलक्षणसंपन्नाः मेघमुख्याः जलावहाः । मुहूर्तादुत्थितो वायुर्हन्यात् सर्वोऽपि नैऋतः ॥ ६४ ॥ अर्थ-स्वर्व लक्षणोंसे सम्पन्न जलको धारण करने वाले जो मुख्य मेघ हैं उन्हें भी नैऋत्य दिशाका उठा हुआ पूर्ण पवन एक मुहूर्तमें नष्ट कर देता है ॥ ६४ ॥ सर्वथा बलवान् वायुः स्वचक्रे निरभिग्रहः । करणादिभिः संयुक्तो विशेषेण शुभाशुभः ||६५ || - अभिग्रह से (बन्धन तथा परके आक्रमण से ) रहित वायु स्वचक्र में सर्वथा बलवान होता है और यदि करणादिकसे संयुक्त हो तो विशेषरूपसे शुभ अशुभ होता है अर्थात् शुभकरणादिकके योग से शुभ फलका और अशुभ करणादिकके योगसे अशुभ फलका दाता होता है ॥ ६५ ॥
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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