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सही मानाका फल (प्रवक्ता श्री १०५ पूज्य क्षुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचाये ) [सागर-चातुर्मासमें दिया गया वर्णीजीका एक अन्य प्रवचन]
'नहि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति' पढ़ा। उसे सुनकर इन्हें जैनधर्मपर श्रद्धा हुई । 'सज्जन मनुष्य किए हुए उपकारको कभी नहीं सिर्फ अनुमानके विषयमें थोड़ा-मा संशय रह गया भूलते' । यही कारण है कि पञ्चाध्यायीकार अपना इन्होंने क्षुल्लकसे कहा कि-'इसका अर्थ भी समग्रन्थ बनानेके पहले 'अर्थालोकनिदानं यस्य वचस्तं झते है या कोरा तोता रटन्त है ?' क्षल्लकने कहा स्तुवे महावीरम्' इन शब्दों द्वारा उन भगवान महा- कि-'मैं तो विशेष जानता नहीं, यह अष्टशती वीरके प्रति जिनका कि आज तीथे चल रहा है, ले जाओ, इससे आपको सन्तोष होजायगा।' विद्याअपनी भक्ति प्रकट करते हैं।
नन्दने घर जाकर अष्टशतीका अच्छा अवलोकन 'अभिमतफलसिद्धरभ्युपायः सबोधः । किया। उन्हें सब बात ठीक जंची, पर अनुमानके प्रभवति स च शास्त्रात्तस्य चोत्पत्ति रातात् । लक्षणके विषयमें कुछ सन्देह फिर भी बना रहा । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादास्पबुद्धि
सोनेपर रात्रिमे स्वप्न पाया कि तुम्हारे संशयका ने हि कृतम्पकारं साधवो विस्मरन्ति ॥" निर्णय मन्दिरमें जानेपर होजायगा । दूसरे दिन यह कथन भी विद्यानन्द स्वामीका है । आप विद्यानन्द मन्दिर पहुँचे, उन्हें श्रीपार्श्वनाथ स्वामीबड़े भारी विद्वान थे। ब्राह्मण थे। इनके पांचसौ के फणापर निम्न लिखित श्लोक लिखा दिखाशिष्य थे। मीमांसाके अच्छे जानकार थे। एकबार 'अन्यथानुपपनत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । ये किसी जैनमन्दिरके पाससे निकले,मन्दिर बाहर- नान्यथानुपपन्न त्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।।" से अच्छा दिखा । उनकी इच्छा हुई कि भीतर भी
'जहां अन्यथानुपपन्नत्व है वहां अनुमानके तीन जाना चाहिये। साथके शिष्योंने कहा-महाराज ! अमाननेसे क्या प्रयोजन है ? और जहां अन्ययह तो जैन मन्दिर हैं । विद्यानन्दने कहा-'जैन- थानुपपन्नत्व नहीं है वहाँ तोन अङ्गोंके रहनेसे भी मन्दिर हैं तो क्या हुआ ? यह भी तो पत्थरके
क्या होगा ।' श्लोक देखकर विद्यानन्दका सब खम्भोंसे बना हुआ है। मन्दिर तो नास्तिक नहीं
समाधान हो गया। उन्होंने अपने शिष्यों और होता ?' शिष्य चुप रह गए । विद्यानन्द मन्दिरके साथियोंसे कहा-भाई, मेरी तो जिनधर्मपर श्रद्धा भीतर गए। उस समय एक क्षल्लक देवागमका है. मैं इसकी दीक्षा लेता हूँ । अनेक साथियोंके पाठ कर रहे थे। वह बीचमेंसे कुछ कारिकाए पढ़ साथ उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया और देवारहे थे। विद्यानन्दको अच्छी लगीं। उन्होंने कहा- गम तथा अष्टशतीपर अष्टसहस्रीकी रचना की । कि शुरूसे पढ़िये । तल्लकने पूरा देवागम स्तोत्र उन्हीं विद्यानन्द स्वामीन अपने श्लोकवार्तिकमें
१ यह कथा पात्रस्वामीकी है जो विद्यानन्दसे भिन्न लिखा है कि 'अभीष्टसिद्धिका उपाय ज्ञान है। ज्ञान और पूर्ववर्ती हैं। -स०सम्पादक
शास्त्रसे प्राप्त होता है और उसकी उत्पत्ति प्राप्तसे