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________________ किरण १०] महाकवि रइधू ३३ - अपने क्तव्य का यथेष्ट पालन करते थे यह जानने श्रीधरके संस्कृत भविष्यदक्तरित्र और अपभ्रशअनुकरण करनेकी वस्तु है। भाषाके सुकमालचरित्रकी प्राप्त हुई हैं। इनके सिवाय ग्वालियरमें उम समय तोमरवंशी राजा एंगर 'भविष्यदा पंचमीकथा' की एक अपूर्ण लेखक सिंहका राज्य था। डूंगरसिंह एक प्रतापी और प्रशस्ति कारजाके ज्ञान भंडारकी प्रतिसं प्राप्त हुई है। जैन धर्म में आस्था रखने वाला शासक था। उसने इंगरमिहने वि० सं०१४८१ से सं १५१० या इसके अपने जीवित कालमें अनेक जैन मूर्तियोंका निमाण कछ बाद तक शामन किया है। उसके बाद राज्यकराया वह इस पनीत कार्यको अपनी जीवित सत्ता उसके पत्र कीतिसिंहके हाथमे श्राई थी। अवस्थामे पूर्ण नहीं करा सका था जिस कविवर रडधन राजा इंगरसिंहके राज्यकालम उमके प्रिय पुत्र कीतिमिह या करणमिहने पूरा किया तो अनेक ग्रन्थ रच ही है किन्तु उनके पत्र कीतिसिह था। राजा हूग मिहके पिता का नाम गणेश या के राज्यकालमे भी सम्यक्त्व कौमुदीकी रचना की गणपतसिंह था। जो वीरमदेवका पुत्र था। हूगर है। ग्रन्थ का न उक्त प्रन्थकी प्रशस्तिमें कीर्तिसिह मिह राजनीतिम दन, शत्रओंके मान मर्दन करनम का परिचय कराते हय लिखा है कि वह तोमर कुल ममर्थ, और क्षत्रियोचित क्षात्र तेजमें अलंकृत था। रूपी कमलोंको विकसित करने वाला सूर्य था और गुण समूहसे विभूषित, अन्यायरूपी नागांक विनाश दुवार शत्रओंके संग्रामसे अतृप्त था और अपने करने में प्रवीण, पंचांग मत्रशास्त्रमे कुशल, तथा असि पिता डंगरसिंहके समान ही राज्यभारको धारण कप अग्निसे मिथ्यात्व-रूपी वंशका दाहक था, करने में समर्थ और बंदी-जनोंने जिस भारी अथ जिमका यश सब दिशाओम व्याप्त था, राज्य-पट्टस त किया था और जिसकी निर्मलयपी लता अलंकृत विपुल भाल और बलसं सम्पन्न था। एंगर लोकमे व्याप्त हो रही थी, उस समय यह कलिचक्रमिहकी पट्टरानीका नाम चंदाद था जो अतिशय वर्ती था जैसा कि उक्त ग्रन्थ प्रशस्तिके निम्न वाक्यों रूपवती और पतिव्रता थी। इनके पुत्र का नाम से प्रकट है:कीर्तिसिंह या कीर्तिपाल था, जो अपने पिताके तोमरक्लकमलवियास मित्त, दुवारवैरिसंगर अतित्त समानही गुणज्ञ, बलवान और राजनीति में चतुर डूंगरणिव रज्जधरा ममस्थु, दीयण समप्पिय भूरि भत्थु था। डूंगरसिंहने नरवर के किले पर घेरा डाल कर चउराय विज्जपालण अतदु, जिम्मल जसदल्ली भुषणकंद अपना अधिकार कर लिया था। शत्रलोग इसके कालचक्कट्टि पायणिहाणु, मिर्शिकासिधु महिवइ. प्रताप एवं पराक्रमसे भयभीत रहते थे। जैन धर्म पहाणु। पर केवल उसका अनुराग ही न था किन्तु उसपर -सम्यक्त्व कौमुदी पत्र र नागौर भंडार अपनी परी आस्थाभी रखता था फलस्वरूप उसने कीतिसिंह वीर और पराक्रमी था उसने अपना राज्य जैन मतियोंकी खुदवाईमे महसों रुपये व्यग किये अपने पितासे भी अधिक विस्तृत किया था। वह थे। इससे ही उसकी आस्थाका अनुमान किया जा दयालु सहृदय था जैनधर्मके ऊपर उसकी विशेष पकता है। आस्था थी । वह अपने पिताका आज्ञाकारी था इंगरसिंह सन् १४२४ ( वि० सं० १४८१) मे उसने अपने पिताके जैनमुतियोंके खुदाइ के ग्वालियरकी गद्दी पर बैठा था। इसके राज्य समय अवशिष्ट कार्य को पूरा किया था। इसका पृथ्वीके दो मर्तिलेख संबत १४६७ और १५१० के प्राप्त पाल नामका एक भाई और भी था जो लड़ाई में है। संवत १४८६ की दो लेखक प्रशस्तियां-40 विबुध मारा गया था। कीतिसिंहने अपने राज्यको यहां
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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