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किरण ७८] प्राचार्य विद्यानन्दका समय और स्वामी वोरसेन
२८१ कि स्वयं कोठियाजी द्वारा उद्धृत हरिवशके वाक्यसे नहीं है कि विद्यानन्दने विद्यानन्दमहोदय, तत्वार्थझलकता है कि उस समय गरु कुमारसेनका यश श्लोकवार्तिक तथा अष्टसहस्रीको क्रमशः रचना की सर्वत्र फैल रहा था। तथा जैसा कि विद्यानन्दकी और उनके पश्चान प्राप्तपरीक्षा; युक्त्यनुशासनाउक्त प्रशस्तिके तीसरे पद्यसे स्पष्ट ध्वनित होता है कि लङ्कार, प्रमाणपरीक्षाकी । सत्यशासनपरीक्षा. पत्रउनकी अष्टमहस्त्री कमारसेनकी उक्ति (प्रत्यक्ष वाचनिक परीक्षा तथा श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र भी इन्हीं की माहाय्य) से वर्द्धमान हुई,इस विषय में मन्देह प्रतीत रचनाएं हैं। इनमेंसे विद्यानन्दमहोदय अनुपलब्ध नहीं होता कि वे उस ममय जीवित थे। अन्य विद्वान है और अन्तमें उल्लिखित तीन रचनाओं में कोई वैसा भी इस कथनसे प्रत्यक्ष सहाय्यका ही आशय लेते हैं। नामोल्लख बताया नहीं जाता। जब कमारसेन ७८३ में जीवित थे तो उसके १०-१५ युक्त्यनशासनकी अन्तिम प्रशस्तिमें दो बार वर्ष और बाद तक भी वे जीवित रहे हों इसमें क्या 'श्रीसत्यवाक्याधिप:' पद पाया है, प्रमाणपरीक्षा बाधा है ? यदि अष्टसहस्रा:००ई०के पूवकी रचना के मङ्कलपद्यमें 'सत्यवाक्याधिपः पद मिलता है ठहरती है तो उसमें उनका प्रत्यक्ष माहाय्य मिलना और आप्तपरीक्षाके १२३ वें श्लोकमें 'सत्यवाक्य' पूर्णतया संभव है धारवाड़ जिलेके मलगडस्थानस्थ शब्द प्रयुक्त हुआ है। विद्यानन्दके ये समस्त पद जिनालयके शिलालेखमे राष्टकट नरेश कृष्णवल्लभ प्रयोग श्लिष्टरूपमें ही हुए है और उनके एकाधिक (कृष्ण द्वि०) द्वारा सन् ६०२-१०३ ई० में सेनवंशी अर्थ बनते है । वास्तवमें विद्यानन्दने प्रमाण परीक्षा कुमारसनके शिष्य और वीरसेनक शिष्य कनकसन सत्यशासनपरीक्षा आदिमें स्वयं अपना नाम भी को क्षेत्र प्रदान किये जानेका उल्लेख ह २ । यदि इन श्लिष्ट रूपमें ही दिया है । इसोम मुख्तारसाहब कनकसेनके दादागुरु कमारसन हमारे ही कुमारसेन आदि विद्वान उक्त सत्यवाक्य शब्द को विद्यानन्दका हा ता उनका समय ८०० ई० के लगभग हो ही उपनाम. उपाधि अथवा विशेषण ही मानते थे । सकता है । ऐसा प्रतीत होता है कि य कुमारमेन किन्तु बा० कामताप्रसाद, प्रा. हीरालाल, पं०महन्द्र वीरसेन स्वामीके सधमो अथवा प्रारंभिक शिष्य कुमार और अब काठियाजी भी उस गंगवशक एक और जिनसेन स्वामीकं बड़े गुरुभाई तथा वीरसेन नरेश विशेषक नामका सूचक अनुमान करते हैं । द्वितीयके गुरु थे। डा० उपाध्ये द्वारा प्रकाशित सन- वस्तुतः एक लेखकद्वारा लगातार अपन कई अन्यो वंशकी पट्टालिमे धवलादिक कर्ता वीरसेन जिनमेन एक ऐसे पदविशेषका प्रयोग जो एक तत्कालीन एव
आदि के साथ जिन वृद्ध कुमारसेनका उल्लेख मिलता तत्पदेशी नरेशक नामका भी सूचक हो निरा संयोग है व भी ये ही कुमारसंन प्रतीत होते है । मात्र ही नहीं हो सकता। विद्यानन्द गंगवाड़िके ही (४) अब रह जाती है बात विद्यानन्दको रचना
निवासी थे इस बातकी पुष्टिमे प्रमाणोंका अभाव आम तत्कालीन नरेशांका नामोल्लेख करना नहीं है और उस कालमे केवल गगवशमं ही सत्यकि उनका तथा उनके प्रन्थों की रचनाका समय
वाक्य उपाधि धारी नरेशोंक होनेका पता चलताइजिन निश्चित रूप कर देते है । इस विषय में कोई मतभेद
की संख्याचार है किन्तु इन सत्यवाक्यांमस,सत्यवाक्य
द्वितीय भी मन ८०० इ० में मिहानारूढ़ हुआ था, १ हारवश-५-३८-'गुरो: कुमारसेनस्य यशो अजितात्मक विचतिः
अतः श्रीपुरुष मुत्तरसका पौत्र, शिवमार द्वि० सैगोत २E. I-I 9116121901011 का भतीजा और उत्तराधिकारी तथा विजयादित्य F. Fireet.
अनेकान्त ३, १५ पृ. ६३० । ३J.A.-X1,2 P. 1.
२ अनेकान्त १२, पृ.६.