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३६० अनेकान्त
वर्ष १० 'त्यक्तोदिष्' नामका श्रावक कहलाता है।
'याचनारहित' विशेषण और श्रीकुदकुंदाचार्यके 'उपासकाचार में भी आपने प्रायः ऐसा ही स्वरूप 'मोनपूर्वक' विशेषणके साथ कोई मेल नहीं रखती.. वर्णन किया है। साथ ही, एक स्थानपर उसे प्रतिकूल मालूम होती है। और भिक्षापात्र में अनेक 'उत्कृष्ट श्रावक' लिखकर उसके कुछ विशेष कर्तव्यों- घरोंसे भिक्षा एकत्र करके उसे एक स्थानपर बैठकर का भी उल्लेख किया है, जो सामायिकादि पडाव. खाने का जो विधान यहां किया गया है वह चामुण्डश्यक क्रियाभोंके अतिरिक्त निम्न प्रकार हैं- रायके 'करपात्रभोजो' विशेषण के विरुद्ध पड़ता है।
वैराग्यस्य परां भूमि संयमस्य निकेतन। चामुण्डायके कथनसे उनका ऐसा आशय जान उत्कृष्ट: कारयत्येव मुण्डनं तुण्डमुण्डयोः ॥७३।। पड़ता है
पड़ता है कि वे इस प्रतिमाधारीको भिक्षाके लिये केवलं वा सवस्त्र' वा कौपीनं स्वीकरोत्यसौ।
घर घर फिगना नहीं चाहते, बल्कि एक ही घरपर
घर घर फिगना नहा चाहत, बा एकस्थानान्नपानीयो निन्दागोपरायणः ७ मुनिकी तरह कर-पात्रमें आहार करादेनेके पक्ष में सधमेलाभशब्देन प्रतिवेश्म सुधोपमां ।
है। हाँ, इतना जरूर है कि मुनि खड़े होकर आहार सपात्रो याचते भिक्षा जरामरणसूदनीम् ।।७।।
लेते हैं और इस प्रतिमाधारीके लिए चामुडरायने
बैठकर भोजन करमेका विधान किया है। अस्तु; कछ -परि०
भी हो, परन्तु यह बात श्रीकुदकदाचार्य के 'भिक्रखं इन कर्त्तव्योंमें पहला कर्त्तव्य है मुख और सिर- भमेड पत्तो' (पात्र हाथमें लेकर भिक्षाके लिये के बालोंका मुण्डन कराना (क्षौर कराना, लौच करना भ्रमण करता है) इस विशेषणके विरुद्ध नहीं नहीं) दुसरा, केवल कौपीन ( लंगोट) या वस्त्र- पडतो। इन सब बातोंके सिवा यहां मुख और सहित कौपीनका धारण करना, तीसरा एक स्थान मस्तकके केशोंका मण्डन कराने की बात खास तौरपर ( बैठकर ) अन्न जल ग्रहण करना (भोजन में कही गई है और कल कोपोन रखने या वस्त्रकरना ), चौथा अपनी निन्दा-गहोसे युक्त रहना सहित कौपीन रखनेका कथन विकल्परूपसे किया और पाँचवां कर्तव्य है पात्र हाथमें लेकर प्रत्येक घर
पक घर गया है। उसकी वजहसे प्रतिमाके दो भेद नहीं किये से 'धर्म-लाम' शब्दके साथ भिक्षा मांगना। गये. यह बात खास तौरसे ध्यानमें रक्खे जानक
अमितगतिके इस मम्पूर्ण कथनमे ११ वी प्रतिमा. योग्य है। बाकी उद्दिष्ट उपधि-शयन-वस्त्रादिकक वालेके लिए 'त्यक्तोद्दिष्ट' 'उद्दिष्टवर्जी' और 'उत्कृष्ट श्रा- त्याग आदि कितने ही विशेषणोंका यहां उल्लेख वक' इन नामोंकी उपलब्धि होती है । और साथ ही नहीं किया गया, यह स्पष्ट ही है। यह मालूम होता है कि इस स्वरूप-कथनमें नवकोटिविशुद्ध भोजनका लेकी स्वामिकातिकेयके कथानान. (७) श्रीनन्दनन्द्याचायके शिष्य श्रीगुरु. कुल है । परन्तु भिक्षाके लिए याचना करना और दासाचायका बनाया हुआ 'प्रायश्चित्त'धर्मलाभ' शब्द कहना, ये बातें स्वामिकार्तिकेयके समुच्चय' नामका एक प्राचीन ग्रन्थ है, जिसपर श्री* यो बंधुराबंधुरनुल्यचित्तो गृहाति भोज्यं नवकोरिश नंदिगुरुने एक संस्कृत टीका भी लिखी है और इसलिए उद्दिष्टवर्जी गुणिभिः स गीतो विभीलुकः संसृतिजातधान्याः जो विक्रमकी ११ वी शताब्दीसे पहिलेका बना हुआ
-परि० श्लो.७७ है। इस ग्रन्थ की चूमिकामें, श्रावक-प्रायश्चित्तका + श्वेताम्बरोंके यहां ११ वी प्रतिमावाले के वास्ते इस वर्णन करते हुए, उत्कृष्ठ श्रावकके लिए (११ वी शब्दके साथ भिक्षा मांगनेका निषेध है ऐसा योगशास्त्रको प्रतिमाधारीके वास्ते) 'क्षुल्लक' शब्द का ही प्रयोग गुजराती टीकासे मालूम होता है।
किया गया है, 'ऐलक' का नहीं; और उसके स्वरूप