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________________ २१० अनेकान्त वर्ष १० शाश्वत भी कहते है और अशाश्वत भी। ४. क्या लोक दोनों रूप नहीं हाँ, ऐसा कोई शब्द नहीं है अनभय है ? जो लोकके परिपूर्ण स्वरूपको एक-साथ समप्रभावसे कह सके, उसमें शाश्वत और अशाश्वतके सिवाय भी अनन्त रूप विद्यमान हैं अतः समप्रभावसे वस्तु अनभय है, अवक्तव्य है, अनिर्वच नीय है। संजय और बुद्ध जिन प्रश्नोंका समाधान नहीं एक वादका स्थापन नहीं होता। एकाधिक भेद या करते, उन्हें अनिश्चय या अब्याकृत कहकर अपना विकल्पकी सूचना जहां करनी होती है वहां 'स्यात्' पिण्ड छुड़ा लेते हैं, महावीर उन्हींका वास्तविक पदका प्रयोग भाषाकी शैलीका एक रूप रहा है जैसा युक्तिसंगत समाधान करते है। इसपर भी राहलजी कि मज्भिमनिकायके महाराहलोवाद सुत्तक निम्न और धर्मानन्द को साम्बो आदि यह कहनेका साहस लिखित अवतरणसे ज्ञात होता है-'कतमा च राकरते है कि संजयके अनुयायिओंके लुप्त होजानेपर हुल तजोधातु ? तेजाधातु सिया अज्झत्तिका सिया संजयके वादको ही जैनियोंने अपना लिया। यह तो बाहिरा ।" ऐसा ही है कि जैसे कोई कहे भारतमें रही परतंत्रता- . अथात तेजोधातु स्यात् आध्यात्मिक है स्यात् बाह्य को ही परतंत्रताविधायक अंग्रेजोंके चले जानेपर है। यहाँ सिया (स्यात) शब्दका प्रयोग तेजाधातके भारतीयोंने उसे अपरतंत्रता (स्वतंत्रता) रूपसे अप- निश्चित भेदोंकी सूचना देता है न कि उन भेदोंका ना लिया है क्योंकि अपरतंत्रतामें भी 'परतंत्रता से संशय, अनिश्चय या संभावना बताता है। श्राध्यापांच अक्षर तो मौजूद हैं ही। या हिंसाको ही बद्ध त्मिक भेदके साथ प्रयुक्त होनेवाला स्यात् शब्द और महावीरने उसके अनुयायिओंके लग्न होनेपर इस बातका द्योतन करता है कि तेजोधात मात्र अहिंसारूपसे अपना लिया है क्योंकि अहिंसामें आध्यात्मिक ही नहीं है किन्तु उससे व्यतिरिक्त भी 'हिंसा' ये दो अक्षर हैं ही । यह देखकर तो बाह्य भी हैं। इस तरह 'स्यादस्ति' मे अस्तिके साथ और भी आश्चर्य होता है कि-आप (पृष्ठ ४८४) लगा हुआ 'स्यात्' शब्द सूचित करता है कि अनिश्चिततावादियोंकी सूचीमें संजयके साथ __ अस्तिस भिन्न धम भी वस्तुमे है केवल अस्ति धर्मनिम्गंठनाथपुत्त (महावीर)का नाम भी लिख जाते रूप ही वस्तु नहीं है। इस तरह 'स्यात्' शब्द न है, तथा (पृष्ठ ४६१) संजयको अनेकान्तवादी। क्या शायदका, न अनिश्चयका और न संभावनाका इसे धमकीर्तिके शब्दोंमें "धिग व्यापकं तमः' नहीं सूचक है किन्तु निर्दिष्ट धर्मके सिवाय अन्य अशेष कहा जा सकता? धर्मोकी सूचना देता है जिससे श्रोता वस्तुको निर्दिष्ट ___ स्यात् शब्दके प्रयोगसे साधारणतया लोगोंको धर्ममात्ररूप ही न समझ बैठे। संशय, अनिश्चय या संभावनाका भ्रम होता है । सप्तभङ्गी-वस्तु मूलतः अनन्तधर्मात्मक है । पर यहातो भाषाकी पुरानी शैली है उस प्रसंगकी, जहां उसमें विभिन्न दृष्टियोंसे विभिन्न विवक्षाओंसे अनंत
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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