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________________ किरण ६ ] सुखलालजी के उक्त कथनका पोषण किया है। किंतु न्यायाचार्यजी अपनी भूलको एक बार तो स्वीकार कर चुके है । तथापि भारतीयज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशित तत्त्वार्थवृत्तिकी प्रस्तावनामे' उन्होंने उक्त मंगलश्लोककी कर्तृकता के सम्बन्धमें अपनी उमा पुरानी बातको संदेहके रूपमें पुनः उठाया है। किंतु यह सुनिश्वित है कि विद्यानन्द उक्त मंगलश्लोकको सूत्रकार उमास्वामीकृत ही मानते थे । खोंके आधारपर स्वामी समन्तभद्रको पूज्यपादके बादका विद्वान तो नहीं ही माना जा सकता । श्राप्तपरीक्षाका प्राक्कथन समन्तभद्र और पात्रस्वामी - प्रारम्भमें कुछ भ्रामक उल्लेखोंके आधार पर ऐसा मान लिया गया था कि विद्यानदि और पात्रकेसरी एक ही व्यक्ति है । उसके बाद गायकवाड़सीरीज बड़ौदामे प्रकाशित तत्त्वसंग्रह नामक बौद्धग्रन्थम प्रवपक्षरूपमे दिगम्बराचायें पात्रस्वामीके नामसे कुछ कारिकाएँ उद्धृत पाई गई । तब इस बातकी खोज हुई और पं० जुगल किशोरजी मुख्तार ने अनेक प्रमाणों के आधारपर यह निर्विवाद सिद्ध कर दिया कि पात्रस्वामी या पात्रकेसरी विद्यानन्द से पृथक् एक स्वतंत्र श्राचाय होगये हैं । फिर भी पं० सुखलालजीने स्वामी समन्तभद्र और पात्रस्वामीके एक व्यक्ति होनेकी सम्भावना की है जो मात्र भ्रामक है क्योंकि पात्रकेसरीका नाम तथा उनके त्रिलक्षणकदर्थन आदि मन्थोंका जुदा उल्लेख मिलता है जिनका स्वामी समन्तभद्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। हाँ, मात्र 'स्वामी' पदसे दोनोंका वादरायण सम्बन्ध बैठानेमे इतिहासकी हत्या अवश्य हो जायेगी। विद्यानन्दका समय - प्रस्तावना में विद्वान सम्पादकने आचार्य विद्यानन्दके समय की विवेचना करके एक तरह से उसे निर्णीत ही कर दिया है । अतः उसके सम्बन्ध में कुछ कहना अनावश्यक है । इतना प्रासङ्गिक कथन कर देनेके पश्चात् प्रस्तुत १४, ८६ । २ अकलंकग्रन्थत्रयके प्राकथनमें । २१६ संस्करण के सम्बन्धमें भी दो शब्द कहना उचित होगा । आप्तपरीक्षा मूल तो हिन्दी अनुवादके साथ एक बार प्रकाशित हो चुकी है किंतु उसकी टीका हिन्दी अनुवाद के साथ प्रथम वार ही प्रकाशित होरही है । अनुवादक और सम्पादक पण्डित दरबारीलालजी कोठिया, जैन सामाजके सुपरिचित लेखक और विद्वान है। आपका दर्शनशास्त्रका तुलनात्मक अध्ययन गम्भीर है, लेखनी परिमार्जित है और भाषा प्रौढ़ किन्तु शैली विशद है । दार्शनिक ग्रन्थोंका अनुवादकार्य कितना गुरुतर है इसे वही अनुभव कर सकते हैं जिन्हें उससे काम पड़ा है। फिर आप्तपरीक्षा तो दर्शनशास्त्र की अनेक गहन चर्चाओंसे ओत प्रोत है । अतः उसका अनुवादकार्य सरल कैसे हो सकता है तथापि कहाँ तक सफल होसके है, इसका अनुभवता पाठक अपनो उक्त विशेषताओंके कारण उसमें अनुवादक स्वयं ही कर सकेंगे । मैं तो अनुवादकको उनकी इस कृति के लिये हृदयसे शुभाशीवाद देता हूँ । 1 अन्तमें उस संस्थाके सम्बन्ध में भी दो शब्द कहना आवश्यक है जिससे प्रस्तुत ग्रन्थ सुन्दररूपमें प्रकाशित हो रहा है । वीरसेवामन्दिर एक ऐसे ज्ञानाराधक तपस्त्रीकी साधनाका फल है जिसे जिनवाणीअधिक हो गई और जिसने अपना तन, मन, धन, की निःस्व सेवा करते-करते अर्ध शताब्दीसे भी सवस्व अपेश कर दिया, फिर भी जो सदा जवान है और ७२ वर्षकी उम्र होनेपर भी उमी लगन, उसी उत्साह और तत्परतासे कार्य में संलग्न है । उसने न जाने कितने आचार्यो और ग्रन्थकारोंको प्रकाशमें लाया है, न जाने कितने भूले हुए प्रन्थरत्नोंकी याद दिलाई है और उनकी खोज की है। दिगम्बर जैनाचार्यों के समय-निर्धारण में उसने अपार श्रम किया है। उसने ऐसी खोजे की हैं जिसके आधार पर उसे विश्वविद्यालयोंसे डाक्टरेट की डिग्रियां मिलना साधारण बात थी। मगर चूंकि वह जैन है, जैनों तक ही उसकी खोज सीमित है, आजके जमानेकी टीपटाप उसमें नहीं है। अतः उसे जैसा श्रेय और
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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