SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 393
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३५८ अनेकान्त वर्ष १० - तो आत्मामें हो है फिर भी बाह्यसाधनों की बात कर सके, निमित्त तो अपना काम करेगा उपाअपेक्षा रखता है। बाह्य साधन देव गुरु शास्त्र है। दान भी अपना ही काम करेगा। आप लोगोंने यहाँ तक प्रतिबन्ध लगा रक्खा है बन्दर घुड़कीसे काम नहीं चलेगा कि अस्पर्श शूद्रको मन्दिर पानेका भी अधिकार एक महाशय श्री निरंजनलालने जैनमित्र अंक नहीं है, उनके पानेसे मन्दिरमें अनेक प्रकारके २० मे तो यहां तक लिखा कि "तुम्हारा क्षुल्लक पद विघ्न होनेकी सम्भावना है। यदि शान्तभावसे छीन लिया जावेगा" मानों आपके ही हाथमें धमकी विचार करो तब पता लगेगा कि उनके मन्दिर सत्ता प्रागई है। यह मंजद' पद नहीं जो मन चाहा आनेसे किसी प्रकारकी हानि नहीं अपि तु लाभ हटवा दिया, शास्त्रपरम्परा या आगमके विच्छद ही होगा। प्रथम तो जो हिंसा आदि महा पाप करनेमे जरा भी भय नहीं किया। जैनदर्शनके संसारमें होते हैं यदि ये अस्पर्श शूद्र जैन धमको सम्पादकने जो लिखा उसका प्रत्युत्तर देना मेरे अंगोकार करेंगे तब यह पाप अनायास ही कम ज्ञानका विषय नहीं; क्योंकि मैं नतो भागमज्ञ हूँ हो जायंगे । आपकी दृष्टिमें ये भले हीन हो, परन्तु और न कोई सबका ज्ञाता परन्तु मेरा हृदय यहसाक्षी यदि दैवात जैन हो जावें तब आप क्या करेंगे? देता हैकि मनुष्यपयायवाला जा भी वाहे, वह कोईभी चाण्डालको भी राजाका पुत्र चमर ढोलते देखा जातिका हो, कल्याणमार्गका पथिक हो सकता है, गया एसी जो प्रसिद्धि है क्या वह अमत्य है? शूद्र भी मदाचारका पात्र है। हां, यह अभ्य बात है अथवा क्या योही श्रीसमन्तभद्रस्वमीने रत्नकरण्ड कि आप-लोगों द्वारा जो मन्दिर निर्माण किये गये श्रावकाचारमे लिखा है: है उनमे उन्हे मत आने दो और शासकवर्ग भी सम्यग्दर्शनसम्पन्नतमपि मातंगदेह जम। भापके अनुकूल सा कानन बनाद; परन्तु जो सिद्ध देवाः दवं विदर्भस्मगूढागागन्तगैजसम् ।। क्षेत्र है, कोई अधिकार आपको नहीं जो उन्हें यहां आत्मामे ऐसो अचिन्त्य शक्ति है जिस तरह जान से रोक सके । मन्दिरक शास्त्र भले ही आप आत्मा अनन्त संसारक कारण मिथ्यात्व करने में अपने समझकर उन्हें न पढने दे: परन्तु सावनिक समथ है उसी तरह अनन्त संसारके बन्धन काटनमें शास्त्रागार पुस्तकालय, वाचनालयों में तो आप भी समर्थ है। श्राप विद्वान हैं जो आपकी इच्छा हो उन्हे शास्त्र पुस्तक समाचारपत्रादि पढनेसे मना सो लिख दें। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि यदि नहीं कर सकते । यदि वह पच पाप छोड़ देवे और कोई अन्य व्यक्ति अपने विचार व्यक्त करता उसे रागादिरहित श्रात्म का पूज्य मान, भगवान पररोकनेकी चेष्टा करें, आपकी दया तो प्रसिद्ध है. हन्तका स्मरण करें, तब क्या आप उन्हें ऐसा करने हमें इसमे कोई आपत्ति नहीं। आप सप्रमाण यह से रोक सकते है ? जो इच्छा हो सो करो। लिखिये कि अस्पर्श शूद्रोंको चरणानुयोगकी आज्ञासे मुझे जो यह धमकी दी है कि “पीछी कमण्डल धर्म करनेका कितना अधिकार है, तब हम लोगों- छीन लेगें। कौन डरता है ? सर्वानुयायो मिलकर का यह वाद जो आपको अचिकर हो शान्त हो चयो वन्द करदा, परन्त धर्ममे हमारी जो अटल जावेगा। श्री पूज्य आचार्य महाराजसे ही इस व्यव- श्रद्धा है उसे आप नहीं छोन सकते। मरा हृदय स्थाको पूछ कर लिखये जिसमें व्यथ विवाद आपकी इस बन्दर घुड़कीसे नहीं डरता। मेरे हृदयन हो। केवल समालोचनासे काम न चलेगा शुद्रोंके में दृढ़ विश्वास है कि अस्पशे शूद्र सम्यग्दर्शन विषयमें जो कुछ भी लिखा जावे सब सप्रमाण ही और ब्रतोंका पात्र है। मन्दिर प्रानेजानेकी लिखा जाये । कोई शक्ति नहीं,जो किसीके विचारांका बात आप जाने । या जो श्रीपूज्यश्राचाय
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy