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________________ भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र चौथा अध्याय अथाऽतः संप्रवक्ष्यामि परिवेषान् यथाक्रमम् । प्रशस्तानप्रशस्तांश्च यथावदनुपूर्वतः ॥१॥ अर्थ-उल्काऽध्यायके बाद अब परिवेषों (मण्डलों) का पूर्वपरम्परानुमार यथाक्रमसे कथन करता हूँ । वे परिवेष दो प्रकारके है-१ प्रशस्त और २ अप्रशस्त अर्थात शुभ और अशुभ ।।१।। पञ्च प्रकारा विज्ञेयाः पञ्चवर्णाश्च भौतिकाः । ग्रह-नक्षत्रयोः कालं परिवेषाः समुपस्थिताः ॥२॥ अर्थ-पाँच वर्णों और पांच भूतों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और श्राकाश) की अपेनासे परिवेष पांच प्रकारके जानना चाहिये । ये परिवेष ग्रह और नक्षत्रोंके कालको पाकर होते हैं ॥२॥ रूक्षाः खण्डाश्च वामाश्च क्रव्यादायुधसन्निभाः । अप्रशस्ताः प्रकीय॑न्ते विपरीता गुणान्विताः॥३॥ अर्थ-जो चन्द्रमा, सूर्य, प्रह और नक्षत्रोंके परिवेष (मण्डल-कुण्डल) और रूक्ष (रूखे), खण्डित (अपूर्ण), टेड़े (ति), क्रव्याद (मांसभक्षी जोव अथवा चिताकी अग्नि) और आयुध (शस्त्र) के समान होते है वे अप्रशस्त, अशुभ, है और इनसे विपरीत शुभलक्षणवाले प्रशस्त (शुभ) है ॥३॥ 'रात्री तु संप्रवक्ष्यामि प्रथमं तेष लक्षणम् । ततः पश्चाद्दिवा भूयस्तन्निबोध यथाक्रमम् ॥४॥ अथे-आगे हम पहले रात्रिमें होनेवाले परिवोंके लक्षण और फलको बतलाते हैं । तदनन्तर दिनमें होनेवाले परिवेषोंके लक्षण और फलको कहेंगे । क्रमशः उन सबको ध्यानसे समझे ॥४॥ क्षीरशंखनिभश्चन्द्र परिवेषो यदा भक्त । तदा क्षेमं सुभिक्ष' च राज्ञो विजयमादिशेत् ॥॥ अथे-चन्द्रमाके इर्द-गिर्द दूध अथवा शंखके सदृश परिवेष हो तो क्षेम-कुशल और सुभिक्ष होता है और राजाकी विजय होती है || सापिस्तैलनिकाशस्तु परिवेषो यदा भवेत् । न चाकृष्णाऽतिमात्रं च महामेघस्तदा भवेत् ॥६॥ अर्थ-यदि घृत और तैलके वर्णका चन्द्रमाका मण्डल हो और वह अति सफेद न हो तो महामेष होता है अथात् भारी वर्षा हाती रूप्य-पारापताभश्च परिवेषो यदा भवेत् । महामेघास्तदाऽभीक्ष्णं तर्पयन्ति जलमहीम् ॥७॥ अर्थ-चांदी और पारापत अर्थात क त अथोत कबूतरके समान प्राभावाला चन्द्रमाका परिवेष हो तो महामेष निरन्तर जल वर्षाद्वारा पृथ्वीको तृप्त कर देते हैं अर्थात् झर लग जाती है-लगातार कई दिन तक पानी वरसता रहता है ।जा इन्द्रायुधसवर्णास्तु परिवेषो यदा भवेत् । संग्रामं तत्र जानीयाद्वपं चापि जलागमम् ।।८।। अर्थ-यदि अमुक दिशामें इन्द्रधनुषके समान वर्णवाला चन्द्रमाका परिवेष हो तो उस दिशामें संग्राम (युद्ध)का होना और जलका भो वषेना जानना चाहिये ।।८।। १२ रात्रि में चन्द्रमा, ग्रह तथा नक्षत्रोंका और दिनमें सयका परिवेष होता है। किसी भी प्रकारका निमित्त प्राप्त हो, चाहे वह शुभ हो अथवा अशुभ, उसका फल उसी स्थानपर होता है। ऐसा भी मत है कि द्वादश योजनप्रमाण स्थानपर अर्थात् ४८ कोशके घेरेमें उसका फल प्राप्त होता है। -- - - -- ...
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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