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________________ १४४ अनेकान्त [वर्ष १० से चलते हुए और एक-दूसरेसे न टकराते हुये आगे थोप देते हैं। यह ठीक नहीं। इस उलटी प्रवृत्तिने हरतरह आगे बढ़ें। जो जितना ही अधिक बढ़ जाय उतना से सबकी हानि ही की है । ज्ञानकी वृद्धि होनेसे सारी ही अच्छा । आत्मज्ञानके मार्गमें किसी भी उपाय, आपत्तियां और भेदभाव अपने आप मिट जायेंगे अवलम्ब या धर्मका आश्रय ग्रहणकर जो कुछ भी या शमन हो जायेगे। थोड़ा-सा भी यदि कोई अग्रसर हो सके तो वह भी जब आत्मा हजारों-लाखों-करोड़ों क्या अनादिकाल एकदम नहींसे हर हालतमें अच्छा ही है। सैकड़ों के असंख्यात वर्षोंसे इसी तरह चलता हा आता है हजारों वर्षोंसे एक खास तरहके संस्कारोंमें पलते तो यदि सौ-सौ वर्षका समय या एक-दो जन्म और रहनेके कारण हममें कोई बात जांचने, देखने, सम- भी लग जाय तो कोई खास फर्क नहीं पड़ जाता। झने और ग्रहण करनेकी एक खास अपनी दृष्टि या झगड़ेकी जड़ यही है कि हम सब कुछ इसी एक जन्म दृष्टिकोण हो गया है। धार्मिक-रोक, व्यवधान और में पा जानेकी हड़बड़ीमे एक-दूसरेसं टक्कर खाते ही संकुचितताने इस दृष्टिकोणको अत्यन्त संकुचित रह जाते हैं और कुछ भी नहीं कर पाते । मेरे कहने बना दिया है । इसे अब दूर करना होगा। जरूरत का तात्पर्य यह नहीं कि खामखाहम जन्मोंकी संख्या है ज्ञानवृद्धिकी । हम स्वयं अपने ज्ञानकी वृद्धि करें बढ़ाई जाय । आदर्श तो यही रखना चाहिये कि और दूसरोंमें इसकी रुचि उत्पन्न करें। इसके लाभ हमें कम-से-कम समयमें और संभवतः इस एक ही सबको समझा एवं हर तरहकी सुविधायें और मनुष्यभव (जन्म)मे मोक्षकी प्राप्ति कर लेनी है-पर उपादान उपलब्ध करने और करानेमें सच्चे हृदय यदि यह संभव न हुश्रा या यदि हम अपने इम से सचेष्ट रहें। तभी हम अपने धर्मकी- हर एक धर्म चरमोत्कर्ष तक समयाभावसे नहीं पहच सके तो वाला अपने अपने धर्मकी- और साथ ही साथ व्य- आगे भी चेष्टा करनी छोड़ दें सो गलती या भ्रम है । क्ति, समाज एवं देश तथा अंतमें संसारकी उन्नति हम अपने समताभावको स्थिर रखते हये जितना एवं उत्थान कर सकता है। एक वेदान्तीको यह भी आगे बढ़ सके उतना बढ़ना चाहिये और ऐना नियम बना लेना चाहिये कि हर वेदान्तके साधक, करना आगे-आगेके जन्म याजन्मोंमें उससे भी आग. जिज्ञासु या ज्ञान प्राप्त करनेवालेको जैन, बौद्ध आगे बढ़नमें सहायक होगा न कि पीछे फेरनेमे । इत्यादि सभी प्रमुख दर्शनोंकी ठीक जानकारी प्राप्त इस तरह मनुष्यका सुधार तथा उसे सच्चे सुख एवं करना और कराना ज्ञानकी विशुद्धता एवं पूर्णताके स्थायी शांति और निश्चितताकी प्राप्तिका एक मात्र लिये अनिवार्य बतलावे तथा यही बात जैन और साधन 'आत्मधर्म (Realisation of the self) बौद्धोंके लिये भी आवश्यक है कि वे वेदान्त,सांख्य, है जिससे हर धर्म, सम्प्रदाय एवं विभिन्न न्याय इत्यादि दर्शनोंकी जानकारी अपने यहां आव- मतों दर्शनोंके अनुयायियो अथवा मानने श्यक करार दें। तभी ज्ञानका चौमुखी विकास एवं वालोंको अधिक-से-अधिक अपनेमें और संसारमें प्रकाश होगा और हर एक दूसरेकी बातोंको तो जाने विस्तृत करना ही अपना ध्येय, इष्ट या लक्ष्य बना ही गा, जो अपनी बातोंकी जानकारीमे दृढ़ता प्राप्त लेना चाहिये और इसकी प्रगति तभी अधिक-सेकरनेके लिये अत्यन्त आवश्यक है, साथ ही साथ अधिक होगी जब हम कम से कम विरोध, विद्वेष अपनी बातोंका ज्ञान भी अच्छी तरह या सम्यक् तथा विपरीताचरण करेंगे और एकता, अभिन्नता एवं प्रकारसे हो सकेगा। अन्यथा तो हर एकका ज्ञान सहयोग यासहगामिताकी भावनाको उत्तरोत्तर वृद्धिअधूग या एकतरफा ही रह जाता है। इसीसे गत रखेंगे। यह बात मभीके लिए बराबर रूपस साधना जब सफल नहीं होती तब लोग धर्मको ही लाग है चाहे वह वेदान्ती हो, वैदिकमतानुयायी हो, दोष देते हैं और अपनी गलतियोंको धर्मके माथे सांख्य हो, नैयायिक हो, बौद्ध हो, जैन हो या और
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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