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अनेकान्त
[वष: यथाभिवृष्याः स्निग्धा यदि शान्ता निपतन्ति याः । उल्कास्वाशु भवेत्क्षेम सुभिक्ष मन्दरोगवान् ॥६
अर्थ-यदि जो उल्का पुष्ट हो, स्थिग्ध हो, शान्त हो और वह जिस दिशामें गिरे तो उ. दिशामें वह शीघ्र क्षेम-कुशल और सुभिक्ष करती है, परन्तु थोड़ा-सा रोग अवश्य होता है ॥६५॥ यथामार्ग यथावृद्धिं यथाद्वारं यथाऽऽगमम् । यथाविकारं विज्ञेयं ततो ब्रू याच्छुभाशुभम् ॥६६॥
अर्थ-जिस मार्गसे, जिस वृद्धिसे, जिस द्वारसे, जिस रूप आगमनसे, जिस विकारस-शुभ शुभरूप उल्कापात हो उस ही प्रकार शुभाशुभ फल बताना ।। ६६ ॥ तिथिश्च करणं चैव नक्षत्राश्च मूहूर्ततः । ग्रहाश्च शकुनं चैव दिशो वर्णाः प्रमाणतः ॥६७॥
अर्थ-उल्कापातका शुभाशुभ फल, तिथि, करण, नक्षत्र, मुहूर्त, प्रह, शकुन, दिशा, वर्ण और प्रमाण (लम्बाई चौड़ाई आदि) परसे बताना चाहिये ॥ ७ ॥ निमित्तादनुपूर्वाच्च पुरुषो कालता बलात् । प्रभावाच्च गतेश्चैवमुल्काया फलमादिशेत् ।।६।।
अथे-निमित्तानुसार क्रमपूर्वक ऊपर दिखाये हुये काल, बल, प्रभाव और गतिपरसे उल्काके फल को दिखाना चाहिये ।। ५८ ॥ एतावदुक्तमुल्कानां लक्षणं जिन-भाषितम् । परिवेषान्प्रवक्ष्यामि ताभिवाधत तच्चतः ॥६६॥
अर्थ-यहाँ तक उक्त प्रकारसे उल्काओंके लक्षण कहे गये, जैसा उन्हे जिनेन्द्र भगवानने कहा है। अब परिवेष (सूर्य, चंद्र, प्रह, नक्षत्रादिकके मंडल) के विषयमें कहा जाता है, सो उसे यथार्थ जानना ॥६॥
॥ इति भद्रबाहुसंहितायां (भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र) तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥