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________________ afare Fatशित ग्रन्थोंकी अकाशित मशस्तियाँ ( ० श्री अगरचन्द नाहटा ) 9:0:6<<< प्राचीन ग्रन्थोंके सम्पादनका कार्य बड़ा श्रमसाध्य व जिम्मेवारीका है। कुशल सम्पादकके हाथों ग्रन्थके गौरव की अभिवृद्धि होती है और अकुशल के हाथ पड़ने से उसका मूल महत्वभो जाता रहता है । सच्चे जौहरीके हाथ जवाहरात वास्तविक मूल्य व शोभा पा सकता है, कुशल जड़िया उन्हें उपयुक्त रीतिसे 'सुन्दर आकारमें जड़ित करके उनकी शोभा मे अतिशय वृद्धि कर देता है । यही बात सुयोग्य संपादकके हाथ प्रन्थरत्नकी होती है; मुद्रण-युगके प्रारम्भ में प्राचीन ग्रन्थोंका प्रकाशन जोरोंसे हुआ, पर उस समय वैज्ञानिक संपादन-पद्धतिकी जानकारी नहीं होने से उनकी उपयोगिता काम चलाऊ से आगे न बढ़ सकी । वास्तवमें प्रकाशकोंका उहश्य जनताके हाथोंमें उन्हें पहुँचा देना हो था । इस समय योग्य व्यक्ति के सम्पादन में ग्रन्थका प्रकाशन होनेसे अशुद्धियें नहीं रह पातो थी. यही उसको विशेषता थी । इधर पाश्चात्य विद्वानोंने एकही ग्रन्थ की प्राप्य अनेक प्रतियोंके आधारसे पाठान्तरोंके साथ बहुत श्रम-पूर्वक प्राचीन अनेक प्रन्थोंका सम्पादन कर आदर्श उपस्थित कर दिया और उनके अनुकरण द्वारा हमारे देशमें भी इधर कई वर्षोंसे प्राचीन ग्रन्थोंका सम्पादन बहुत सुन्दर रूपमें होने लगा है। किन्तु हमारे कई प्रकाशकोंने प्राचीन ग्रन्थोंके सम्पादनमें प्रामाणिकताको भी भुला दिया प्रतीत होता है। लोक भाषाके प्राचीन प्रन्थोंको तो प्रकाशन के समय वर्तमान समयके उपयोगी या सुबोध बनाने के लिये भाषा में परिवर्तन कर प्रन्थोंको रूपान्तरित कर दिया। पर उनका दृष्टिकोण उन ग्रन्थों को लोक-भोग्य बनाना था अतः वह क्षम्य समझा जासकता है । पर कई प्रकाशनोंने प्रन्थकारके नामादि - सूचक प्रशस्तियोंको भो उड़ा दिया है, यह सर्वथा अक्षम्य अपराध है। कई बार तो हस्तलिखित नतियोंके लेखकों द्वारा ही ऐसा किया गया पाया जाता है, उसके लिये तो प्रकाशक जिम्मेवार नहीं है । यद्यपि उसी प्रन्थकी प्रत्यन्तरों को एकत्र कर प्रन्थ सम्पादन किया जाता तो वह त्रुटि नहीं रह पाती, पर कभी कभी उसकी अन्य प्रति कहां कहाँ प्राप्य है ? जाननेमें नहीं आता व ज्ञात हो भा आय तो उसे प्राप्त करनेमें कठिनाई होती है । श्रतः उसके लिये प्रकाशकोंको दोष नहीं दिया जा सकता । पर कहीं कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि ऐसा प्रकाशकोंने जानबूझ किया है तो दोषकी सीमा नहीं रह जाती । यद्यपि ऐसे प्रकाशनोंमें प्रायः प्रस्तावनादि कुछ नहीं होती, और होती है तो उसमें कहांकी व कबकी लिखित प्रतिके आधारसे इसका सम्पादन किया गया है ? उल्लेख नहीं रहता । श्रतः निश्चितरूपसे तो नहीं कहा जा सकता कि प्रन्थकार सम्बन्धी प्रकाशित- प्रशस्ति उनको प्राप्त प्रतिमें थी या नहीं, पर वैसी बात एक प्रन्थके लिये न होकर कई प्रन्थोंके लिये समानरूपसे लागू होती है तब प्रकाशक या सम्पादक जानबूझकर ही वैसा किया है, यह सहजमें ही अनुमान किया जा सकता है । अपराध कर
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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