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भद्रबाहु-निमित्त-शास्त्र
नववाँ अध्याय
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अथातः सम्प्रवक्ष्यामि वातलक्षणमुत्तमम् । प्रशस्तमप्रशस्तं च यथावदनुपूर्वशः ॥१॥
अर्थ- यहांसे अब मैं वायुका उत्तम लक्षण कहूँगा । जो प्रशस्त, अप्रशस्तके भेदसे दो प्रकारका है और वह ठीक पूर्वाचार्योंके अनुसार होगा ॥१॥ वर्ष भयं तथा क्षेमं राज्ञो जय-पराजयम् । मारुतः कुरुते लोके जन्तूनां पाप-पुण्यजम् ॥२॥
अर्थ-वायु संसारी प्राणियोंके पुण्य एवं पापसे उत्पन्न होने वाले वर्षण, भय, क्षेम और राजाके जय-पराजयको सूचित करता है ॥२॥ आदानाच्चैव पाताच्च पचनाच्च विसर्जनात् । मारुतः सर्वगर्भाणां बलवान्नायकश्च सः॥३॥
अथ-सब जलगोंके आदान, पातन, पचन और विसर्जनका कारण होनेसे मारुत बलवान होता है और वह सर्व गोंका नायक कहा जाता है ।।३॥ दक्षिणस्यां दिशि यदा वायुदक्षिणकाष्ठिकः । समुद्रानुशयो नाम स गर्भाणां तु सम्भवः ॥४॥
अर्थ-दक्षिण दिशाका वायु जब दक्षिण दिशामें बहता है तब वह 'समुद्रानुशय' नामका वायु कहलाता है और गर्भोका उत्पन्न करने वाला कहलाता है ॥४॥ तेन संजनितं गर्भ वायुदक्षिणकाष्ठिकः । धारयेद्धारणे मासे पाचयेत् पाचने तथा ॥ ५ ॥
अर्थ-उस 'समुद्रानुशय' वायसे उत्पन्न गर्भको दक्षिण दिशाका वायु धारण मासमें धारण करता है तथा पाचन मासमें पकाता है ॥५॥ धारितं पाचितं गर्भ वायुरुत्तरकाष्ठिकः । प्रमुञ्चति यतस्तायं वर्ष तं मरुतोच्यते ॥६॥
प्रथे-उस धारण किए तथा पाकको प्राप्त हुए मेघगर्भको चूकि उत्तर दिशाका वायु विसर्जित करता है अतएव उस वर्षा करने वाले वायुको 'मरुत' कहते हैं ।। ६॥
आषाढी पूर्णिमाके वायु-निमित्तसे शुभाशुभ-परिज्ञान आषाढीपूर्णिमायान्तु पूर्ववातो यदा भवेत् । प्रवाति दिवसं सर्व सुवृष्टिः सषमा तदा ॥ ७॥