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________________ किरण ११-१२] हर्षकोत्तिसूरि और उनके प्रन्थ ४०४ भलो भॉति अवलोकन करनेका सुयोग प्राप्त न हो यिता प्रा० मुनि चन्द्रसूरिके शिष्य देवसूरि हो गये सका श्रोपज्यजीके भंडारकी भनेकों प्रतियाँ स्वर्गीय है जिन्होंने पाटणमें सिद्धराजको सभामे कमचन्द देवचंद्रसूरिजी के गुरुश्रीके समयमें ही इतस्ततः हो जीसे शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की थी तबसे आपकी गई थी फिर भी कुछ सामग्री मिलनेकी संभावनाहै। प्रमिद्धि वादो देवसूरिके नामसे हुई। स्यावाद रला. पर उसका उपयोग करनेमे अद्यावधि सफलता करादिग्रन्थ आपके महान पांडित्यके परिचायक प्राप्त नहीं हुई, प्रयत्न तो अब भी चाल है ही। हैं। गणधरसाद्धेशतक बृवृत्ति के अनुसार विक्रमइसी प्रकार नागौरका पाश्वनाथ गच्छीय भंडार भी पुरका देवधर श्रावक अजमेरमें स्थित जिनदत्तसरि उस गच्छके यतिजीके अधिकारमें है । वहांके जीके वन्दनार्थ जा रहा था तब नागौरके चैत्य में देव भी अधिकांश प्रन्थ अब नहीं रहे, जानने में भाय। सूरिजोसे बातचीत हुई थी। नागपुरीय तपागच्छ. है, जो कुछ बच पाये हे उनक दखनके लिये नागौर की पट्टावलिके अनुसार वादी दवारके शिष्य जानेपर दो बार प्रयत्न किया पर अभी तक वह पद्मप्रभसूरिको नागौरमें तपश्चर्या करने के कारण राजासुअवसर नहीं मिल सका। अत: प्राप्त सामग्रीके की ओरस सं०११४७में नागपुरीय तपागच्छ विरूद आधारसे हर्षकीतिसूरि व उनके ग्रन्थोंका संक्षिप्त मिला था । सारस्वतदीपिकामें इसकी प्रसिद्धिका परिचय प्रस्तुत लेखमें प्रकाशित किया जा रहा है। समय सं० ११७४ बतलाया है जो अन्य प्रमाणा___ छन्दोविद्याके उपयुक्त पद्यम हकीतिको से समर्थित है। पट्टावलिमें १९७७ बतलाया है जो नागपुरीय तपागच्छका बतलाया हुआ है अतः सर्व अब्धि २ शब्दसे ७ प्रहण करने के कारण भ्रमपूर्ण प्रथम वह गच्छ कबसे व किस आचार्यसे प्रमिद्धिमें प्रतीत होता है। उक्त सारस्वत दीपिकानुमार हर्प. भाया एवं आपकी गुरुपरम्पराकी नामावलिपर कीर्तिसूरि तककी परम्पराकी नामावलि इस प्रकाश डाला जाता है। प्रकार है:विक्रमकी बारहवीं शतीमें अनेक ग्रन्थोंके रच- वादिदेवसूरि पद्मप्रभमूरि' -गुणममुद्रसूरि जय - शेखरमूरि"- वनसेनमूरि-हेमतिलकसूरि-रत्नशेखर'. १. ये संस्कृत काव्यादिके बड़े प्रेमी एवं अच्छे सूरि-पूर्णचन्द्र मूरि-हेमहंसमूरि-हेमसमुद्रमूरि-सोमरत्नविद्वान थे। भापकी विद्यमानतामें ही मैंने अापके ज्ञान- ------ भंडारकी सूची एवं कतिपय प्रतियां दखी थीं । श्रापक 1. देखो हमारा युगप्रधान जिनदासरि प्रन्थ । परम्परागत संग्रहको बहुतसी प्रतियों की आपके गुरु श्रीहेम- २. अन्धि-समद शब्दाक और ४ दोनों अकोंका चन्द्रसरिके समयमें बिक्री हो गई थी । भापक स्वर्ग- सूचक है, किसीने समद ४ माने हैं किसीने ॥ वासानन्तर उपाश्रयमें जो व्यक्ति रहता था उसने बहुतमे ३. अापके सम्बन्धमें एक ऐतिहासिक काय भी महत्त्वपूण मद्वित अन्य कन्दोइयोंको रहीके भाव बेच दिये उपलब्ध है जिसकी अपूणे प्रति हमारे संपाहमें है। प्राप्त जिनका पता लगनेपर कुछको वापिस लाया गया। अब अंशका ऐतिहासिक संक्षिप्तमार जैनसत्यप्रकाश वर्ष ५ आपके पुस्तकालयके समस्त मुद्रित प्रन्थ श्रीरामचन्द्रसूरि अक ८ में प्रकाशित है। पुस्तकालयमें लाये गये हैं । हस्तलिखित प्रतियोंकी कई ४. भुवन दीपक नामक सुप्रसिद्ध ज्योतिष प्रन्धके वर्षों से मार संभाल नहीं हुई जिसका होना अत्यन्त रचयिता। पावश्यक है। हम आपके गच्छके अनुयायी भावकोंसे ५. संबोध सतरी आदिके रचयिता । साग्रह अनुरोध करते हैं कि वे अतिशीघ्र उनकी उचित ६. पन्द्रहवीं शतीके सुप्रसिद्ध ग्रन्यकार हैं। इनके व्यवस्था करें। रचित श्रीपाल चारुदत्ता ग्रन्थ प्राप्त है।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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