________________
पुरातन जैन शिल्प का संक्षिप्त परिचय
(ले० श्री बालचन्द्र जैन एम० ए०, साहित्यशास्त्री )
मूर्ति
भारत की शिल्पकला का प्रामाणिक इतिहास मोहेंजोदरो तथा सिंधु सभ्यता युगसे मिलता है । इस युगका समय पुरातत्व विषय के पंडितोंने ईसा से करीब ३००० वर्ष पूर्व निश्चित किया है। इस युग के केन्द्रोंकी खुदाई में बड़ी संख्या में मृति, मिट्टी के खिलौने, मोहरें आदि अनेक प्रकारके शिल्प
प्राप्त
हुए है । ध्यान से अध्ययन करनेपर मोहेंजोदरोके मूतिविज्ञान पर हमें जैन संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है । अनेक टीकरों पर बैल हाथी आदि अंकित है और यदि इनका आधार जैन तीर्थकरोंके चिन्ह हों तो कोई शक नहीं। अनेक नग्न पुरुषमूर्तियाँ भी इन्हीं स्थानों से प्राप्त हुई हैं और वे ठीक उसी प्रकार को हैं जैसे कि पिछले कालकी तीर्थकरों की खड़ी मूर्तियां । मोहेंजोदरोंसे एक और महत्वपर्ण मूर्ति मिली है जिसे श्री राधाकुमुद मुकर्जी शिव के पशुपति रूपकी मूर्ति मानते है । उक्त मूर्ती का विषय ध्यान है और इसमें एक व्यक्ति ध्यानस्थ बैठा है। उसके दोनों हाथ दोनों घुटनो पर स्थित है और नीचे अनेक परस्पर विरोधी पशु एकत्र है । मृतिके मस्तक पर त्रिशृङ्ग बना है। श्री राम कृष्णादासजी इस मूर्तिको बुद्धमतिका पूर्वरूप मानते हैं। मेरा विनम्र निवेदन यह है कि उक्तमूर्तिपर जैन प्रभाव अवश्य होना चाहिए। जिस चिन्ह को श्री मुकर्जी ने त्रिशूल माना है वह त्रिरत्न चिन्ह हो सकता है, आगे चलकर जिसका स्थान त्रिछत्रने ग्रहण कर लिया । ध्यान और योग जैन संस्कृति का अंग ही था और जैन आगमोंमें साधनाका वर्णन करते हुए यह उल्लेख किया गया है कि परस्पर विरो
धी
पशू
भी साधकके पास आकर अपना वैरभाव भूल जाते 1
मूर्ति बनाने का उद्देश्य या तो किसी स्मृतिको बनाए रखना होता है अथवा किसी अमूर्त भावको मूर्तरूप देना । साहित्य ग्रन्थोंमें देवकुलोंका वर्णन हैं जहां राजाओंकी मृत्यु के पश्चात् उनकी मूर्ति स्थापित की जाती थी । पुरातत्व विभागको एक ही स्थानपर एक वंशके अनेक राजाओं की मूर्तियां प्राप्त हुई है जिनसे उक्त कथन प्रमाणित हो जाता है।
दो मतियां विशेष महत्वकी है। एक तो अजात-शत्रुकी और दूसरी नदि वधनकी । भारतीय इतिहास मे इन दोनों सम्राटोंका स्थान विशेष महत्वका है। अजातशत्र की मूर्तिपर स्व० काशीप्रसाद जायसवालन कुणिक नाम पढ़ा था जो जैनप्रन्थोसे समर्थित हैं । इस प्रकार हम देखते है कि ईसासे ६ शताब्दी पूर्व भी इतनी सुन्दर और इनीची ८८) मूर्तियाँ बनती थीं जिनकी गढ़न सम्राट के अनुरूप ही प्रभावक और रोबीली है ।
नंदिवर्धन जैन धर्मका अनुयायी था । वह भी एक प्रतापी सम्राट था। अपने राज्यकालमे उसने मगध साम्राज्य का विस्तार किया और कलिंगको भी अपने अधीन कर लिया। वलिंगकी जीत में वह अपने साथ वहां से अनेक निधियां तो लाया ही पर साथ में कलिंगकी प्रसिद्ध जिन मूर्ति भी ले आया था जिसे पीछे खारवेल ने मगध विजय कर वापस लाकर अपने देशके गौरवको पुनः जगाया श्री राय कृष्णदासजीने लिखा है कि ५ वीं शती