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________________ ११२ सिम्मा विश्र भवंहि जाण वत्तु, कारिय पइछ जिण समयदिट्ठ, विज्जुल चंचल लच्छी सहाउ, रयणत्तयज्य जय पास जुत्तु । अवलो विसयल सचित्त हिट्ट । अनेकान्त श्रालोइवि हुउ जिणधम्मभाव । जिण गंधु लिहाविउ लक्ख एक्कु, सावय मुणि भोयग्गु भुजाविय सहासु, लक्खाहारातिरिक्कु | ग्वालियर में भट्टारकों की पुरानी गही रही है, वहां विविध साहित्यको सृष्टि और अनेक मंदिर मूर्तियाँ का चवीस जिरणालउ किउ सुभासु । निर्माण आदि कार्य भी सम्पन्न हुआ है। वहांकी — श्रादिपुराणलेखकप्रशस्ति । भट्टारक परम्पराका भी पूरा इतिवृत्त ज्ञात नहीं है । फिर ग्रन्थरचनादिके सम्बन्धमें जो कुछ उल्लेख प्राप्त हुए है उन्हें नीचे दिया जाता है : ये पद्मसिंह ग्वालियर के निवासी थे और देवशास्त्र-गुरुके भक्त थे और विपुल धनादिसे सम्पन्न थे, तभी वे जैनधर्मके प्रचार में अपने द्रव्यका सदु पयोगकर पुण्यका अर्जन कर सके है। और उन्होंने अपनी चंचला लक्ष्मीका जो सदुपयोग किया, वह सब अनुकरणीय है । उनमें अतिथि सत्कार की भी सुदृढ भावना थी, यही कारण है कि वे मुनियों अथवा अन्य साधर्मी श्रावकोंको भोजन कराकर आहार करते थे । (८) भ० गुणभद्रने संघवइ (संघपति) उद्धरणके जिनालय में 'ठहरकर लब्धिविधानकथाकी रचना साहु सारंगदेव के पुत्र देवदासकी प्रेरणासे की थी ? जिससे स्पष्ट है कि संघपति उद्धरणने जिनमंदिर भी बनवाया था [वर्ष १० तक भट्टारकों, आचार्यो और विद्वानोंकी जो परम्परा ग्वालियर और उसके सूत्रों तथा पासके विभिन्न राजाओं के शासनकाल मे रही है, अभीतक उसका पूरा इतिवृत्त प्राप्त नहीं है । इसीसे श्रृंखलाबद्ध कोई इतिहास सामग्री के अभाव में नहीं लिखा जा सकता । जो कुछ सामग्री संकलित की जा सकी उसीके आधारसे यह लेख लिखा गया है । इस तरह जैन साहित्य और उसकालके मृति लेग्खोंके संकलन करनेसे तात्कालिक, सन्तजनों, राजाओं, मंत्रियों और राजश्रेष्ठियों वगैरह के इतिवृत्तका और उनके द्वारा होनेवाले महत्वपूर्ण कार्यो का इतिवृत्त लिखा जा सकता है। इन सब उद्धरणों आदि परसे ग्वालियरकी महत्ताका अनुमान लगाया जा सकता है। ग्रन्थरचना कतिपय उल्लेख विक्रमकी १० वीं शताब्दी से १८ वीं शताब्दी विक्रमकी १५ वीं और १७ वीं शताब्दी में भट्टारक यश-कीर्ति कवि रइधू भ० गुणभद्र, कवि पद्मनाभकायस्थ, कवि परिमल और कवि ब्रह्मगुलालने जो भट्टारक जगभूपणके शिष्य थे, त्रेपनक्रिया और कृपणजगावनचरित आदि कितने ही ग्रंथों की रचना सं० १६६५ और १६७२ के मध्यम की हैं । (१) विक्रमकी १५ वीं शताब्दी के उपान्त्य समयमे भ० यशःकीर्तिनं वि० सं० १४६७ वे मे पाण्डवपुराण और मं० १५०० मे हरिवंशपुराणकी रचना अपभ्रंश भाषामें की है । तथा जिनरात्रिकथा और रविव्रतकथा भी इन्हींकी बनाई हुई है। चन्द्रप्रभचरित भी इन्हीं यशःकीर्तिका बनाया हुआ जीर्ण-शीर्ण खंडित प्रतिका समुद्धार भो इन्होंने कहा जाता है । स्वयंभूदेव के 'हरिवंशपुराण' की किया था । यह भ० गुणकीर्ति के लघुभ्राता और शिष्य थे । 1 (२) कवि रइधूने, जो हरिसिंह संघवी के पुत्र थे इनकी जाति पद्मावतीपुरघाल थी । इन्होंने भ० यशःकीर्तिके प्रसादसे अनेक ग्रन्थोंकी रचना वि० सं० १४६२ में लेकर सं० १५२१ से पूर्व तक की है। इनकी अभी तक २३ कृतियोंका पता चला है जिनमें २०
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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