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________________ २२] अनकान्त [वर्ष १० विषयके भोगके लिये मैं व्याकुल होरहा था मेरी आज तक जाना ही क्या है और क्या जाननकी लालसा निरन्तर मुझे बेचैन कर रही थी उस विषयको इच्छा है और इससे क्या लाभ है यह सब प्रत्यक भोगनेके बाद भी मुझे तृप्त क्यों नहीं होती ? मेरी मनुष्य स्वयं विचार कर सकता है। स्वयं ज्ञानी लालसा अधिकाधिक क्यों बढ़ती रहती है ? इच्छा- होकर फिर क्यों अज्ञान दशामें पड़कर वृथा ही काल नुकूल भोग न मिले तो भी मैं दुःखी और भोगनेके गँवा रहा है । जिस विषयपर अपना अधिकार पश्चात् भी पुनः भोगकी इच्छासे दुःखी ? केवल नहीं उम विषयमें प्रवृत्ति करना क्या भूल नहीं, भूल भोगते समय सुखी । अतः ज्ञात होता है कि मैं बहुत क्या पाप नहीं, पाप क्या दुःख नहीं, दुःख क्या थोड़ा काल तो सुखी और अधिक काल दुःखी रहता असमर्थता नहीं, असमर्थता क्या चिन्ता नही, चिन्ता हूँ। क्या यही सुख है ? क्या मेरे ज्ञानका इतना ही क्या भय नहीं। तात्पर्य यह कि पदार्थके यथार्थ कर्तव्य है ? इच्छानुकूल भोग प्राप्त हों या न हों स्वरूपका भली-भांति मनन करके उसके सत्य-स्वइतना भी मेरे ज्ञानको इस समय निश्चय नहीं है। रूपकी पहिचान ही वास्तविक ज्ञान है । सुखके निमित्त स्त्री-पुत्र-पैसा आदिक मिलकर कब वस्तुओंके विषयमें स्वयं फँस जाना ज्ञान नहीं, बिगड़ जायें इतना भी पता नहीं। यह प्यारा शरीर अज्ञान है, दुःख है । अतः अपनेसे भिन्न या अपने जिसकी रक्षाके सैकड़ों उपाय करते हुए भी यह सदृशमे भिन्न वस्तुओंमें अपनेको अज्ञानी समझकर कब अपना नाता तोड़कर घोर-से-घोर संसाररूपी उनसे दूर रहना अथवा मौन (निर्विकल्प) रहना ही भंवरमे धक्का देकर विछुड़ जाय, यह भी मेरा ज्ञान मानों मंसारक भयंकर अन्धकार व दुःखोंसे स्वयंकी नहीं जानता फिर ज्ञान अन्यके विषयमें जानता ही रक्षा करना है। ज्ञानी व अज्ञानीका भेद भेट ही क्या है और जाननेकी चेष्टा ही क्यों करता है ? मुग्व व दुःग्य बन रहा है, अन्य और कुछ नही। कल्पसूत्रकी एक प्राचीन लेखक-प्रशस्ति [निम्नलिखित प्रशस्ति एक स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र पुस्तकके अन्तमें लिखी गयी थी। यह ग्रन्थ संवत १५१६ अथवा १४५६ ई० में लिखा गया था। इस समय कल्प पत्र की यह पूर्ण पुस्तक अप्राप्त है। केवल दोनों ओर लिखे हुए तीन पन्नं बचे है, जिनपर ५ से ३१ तकके श्लोक लिखे हैं। इसीके साथ वैसे ही सुनहरे अक्षरोंमें लिखी हुई कालकाचार्य-कथानककी प्रति भी थी। इसके अन्तमें " इति श्रीकालकाचार्यकथा" लिखा हुआ है। यह प्रति भी कल्पमत्रके समकालीन थी। ऐतिहासिक दृष्टिले महत्वपूर्ण होनेके कारण मूल प्रशस्ति प्रकाशित की जाती है । -वासुदेवशरण अग्रवाल हो गुच्छ इवाधिशीलः ॥४॥ तरपुत्रमायंद इति प्रसिद्ध ततोऽपि जातो वरदेवनाम्ना स्तदङ्गजो आजड इत्युदीर्णः पवित्रचारित्रसुदीसधाम्ना सुलक्षणो लक्षणयुक क्रमेण, जगजनीनो जिनदेवनामा गुणालयौ गोसलदेसलौ च ॥६॥ बभूव तस्यानुगतिं दधानः ॥५॥ श्रीदेपलाद् देसल एव वंशः
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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