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________________ अनेकान्त [वर्ष १० 'रूपवान्' को पूरो वस्तुपर अधिकार जमानेसे रोकता अनुदारता, परमतासहिष्णुता आदिसे विश्वको है और कह देता है कि वस्तु बहुत बड़ी है उसमें अशांत और आकुलतामय बना दिया है। 'स्यात्' रूप भी एक है । ऐसे अनन्त गुण-धर्म वस्तुमें लहरा शब्द वाक्यके उस जहरको निकाल देता है जिससे रहे है। अभी रूपको विवक्षा या दृष्टि होनेसे वह अहकारका सर्जन होता है और वस्तुके अन्य धर्मोंसामने है या शब्दसे उच्चारत हो रहा है सो वह के अस्तित्वसे इनकार करके पदार्थके साथ अन्याय मुख्य हो सकता है पर वही सब कुछ नहीं है। होता है। दसरे क्षणमें रसकी मुख्यता होनेपर रूप गौण हा स्यात' शब्द एक निश्चित अपेक्षाको द्योतन जायगा और वह अविक्षत शेष धर्मोंकी राशि में करके जहाँ 'अस्तित्व' धर्मकी स्थिति सुदृढ़ सहेतुक शामिल हो जायगा। बनाता है वहाँ वह उसकी उस सर्वहरा प्रवृत्तिको __'स्यात्' शब्द एक प्रहरो है, जो उच्चरित धर्मको भी नए करता है जिससे वह पूरी वस्तुका मालिक इधर-उधर नहीं जाने देता है । वह उन अविवक्षित बनना चाहता है। वह न्यायाधीशकी तरह तुरन्त कह धोका संरक्षक है। इसलिये 'रूपवान्' के साथ देता है कि-हे अस्ति ! तुम अपने अधिकारकी सीमा 'स्यात् शब्दका अन्वय करके जो लोग घड़ेमे रूपको को समझो । स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी दृष्टिसे जिस भी स्थितिको स्यात्का शायद या संभावना अथ प्रकार तुम घटमें रहते हो उसी तरह परद्रव्यादिकी करके संदिग्ध बनाना चाहते है वे भ्रममें है। इसी अपेक्षा 'नास्ति' नामका तुम्हारा भाई भी उसी घटमें तरह 'स्यादस्ति घटः' वाक्यमें 'घटः अस्ति' यह है। इसी प्रकार घटका परिवार बहुत बड़ा है। अभी अस्तित्व अंश घटमें सुनिश्चित रूपसे विद्यमान है। तुम्हारा नाम लेकर पुकारा गया है इसका इतना ही 'स्यात्' शब्द उस अस्तित्वकी स्थिति कमजोर नहीं अर्थ है कि इस समय तुमसे काम है, तुम्हारा प्रयोजन बनाता किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थितिकी है, तुम्हारी विवक्षा है। अतः इस समय तुम मुख्य सूचना देकर अन्य नास्ति आदि धर्मोके मद्भावका हो । पर इसका अर्थ यह कदापि नहीं है जो तुम प्रतिनिधित्व करता है । सारांश यह कि 'स्यात्' पद अपने समानाधिकारी भाइयोंक मद्भावको भी नष्ट एक स्वतंत्र पद है जो वस्तुके शेषांशका प्रतिनिधित्व करनेका दुष्प्रयास करो। वास्तविक बात तो यह है करता है। उसे डर है कि कहीं 'अस्ति' नामका धमे कि यदि परकी अपेक्षा 'नास्ति' धर्म न हो तो जिस जिसे शब्दसे उच्चरित होनेके कारण प्रमुखता मिली घड़े में तुम रहते हो वह घड़ा घड़ा ही न रहेगा कपड़ा है पूरी वस्तुको न हड़प जाय, अपने अन्य नास्ति आदि पररूप होजायगा। अतः जैसी तम्हारी स्थिति आदि सहयोगियोंके स्थानको समान न कर जाय। है वैसी ही पररूपकी अपेक्षा 'नास्ति'आदि धर्मको भी इसलिये वह प्रतिवाक्यमें चेतावनी देता रहता है कि स्थिति है। तुम उनको हिंसा न कर सको इसके लिये भाई अस्ति, तुम वस्तुके एक अंश हो, तुम अपने अहिंसाका प्रतीक 'स्यात्' शब्द तुमसे पहले ही अन्य नास्ति आदि भाइयोंके हकको हड़पनेकी चेष्टा वाक्यमे लगा दिया जाता है। भाई अस्ति, यह नहीं करना । इस भयका कारण है-'नित्य ही है' तुम्हारा दोष नहीं है । तुम तो बराबर अपने नास्ति 'अनित्य ही है' आदि अंशवाक्योंने अपना पूर्ण अादि अनन्य भाइयोंको वस्तुमें रहने देते हो और अधिकार वस्तुपर जमाकर अनधिकार चेष्टा की है बड़े प्रेमसे सबके सब अनन्त धर्मभाई रहते हो, पर और जगसमें अनेक तरहसे वितण्डा और संघर्ष इन वस्तुदशियोंकी दृष्टिको क्या कहा जाय । इनकी उत्पन्न किये है। इसके फलस्वरूप पदार्थके साथ दृष्टि ही एकाङ्गी है। ये शब्दके द्वारा तुममेंसे किसी अन्याय हुआ ही है, पर इस वाद-प्रतिवादने अनेक एक 'अस्ति' आदिको मुख्य करके उसकी स्थिति इतनी मतवादोंकी सृष्टि करके अहंकार, हिंसा, संघर्ष, अहङ्कारपूर्ण कर देना चाहते है जिससे वह 'अस्ति।
SR No.538010
Book TitleAnekant 1949 Book 10 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1949
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size30 MB
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