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४. द्य, प्य और यं का ज होता है; यथा-मद्य = मज, जय्य = जज, कार्य = कज । ५. ध्य और घ का होता है; यथा-ध्यान - भाण, साध्य = सज्झ, गुह्य = गुज्झ, सह्य - सज्झ । ६. ते का प्रायः ट होता है; जैसे-नर्तकी-गट्टई, कैवतं = केवट्ट । ७. के स्थान में होता है; यथा-मुष्टि = मुट्ठि, पुष्ट = पृट्ठ, काष्ठ = कट्ठ, इष्ट = इट्ट । ८. म्न का ण होता है; यथा-निम्न = णिएण, प्रद्युम्न = पज्जुएण । है. ज्ञ का ण और ज होता है। जैसे-ज्ञान = णाण, जाण प्रज्ञा = पएणा, पज्जा । १०. स्त का थ होता है; जैसे-हस्त = हत्थ, स्तोत्र = थोत्त, स्तोक - थोव । ११. ड्म और क्म का प होता है; यथा-कुड्मल = कुंपल, रुक्मिणी- प्पिणी। १२. प और स्प का फ होता है; यथा-पुष्प = पुष्फ, स्पन्दन = फंदरण । १३. ह्व का भ होता है, यथा-जिह्वा=जिब्भा, विह्वल = विन्भल । १४. म और ग्म काम होता है; जैसे-जन्मन् = जम्म, मन्मथ = मम्मह, युग्म = जुज्म, तिग्म = तिम्म । १५. श्म, म, स्म और ह्म का म्ह होता है; यथा-काश्मीर = कम्हार, ग्रीष्म = गिम्ह, विस्मय = विम्हन, ब्राह्मण = बम्हण । १६. श्न, ष्ण, स्न, हु, हु और क्षण के स्थान में रह होता है; यथा-प्रश्न = परह, उष्ण = उपह, स्नान = राहाण, वह्नि = वहि,
पूर्वाद्ध = पुष्वराह, तीक्ष्ण = तिएह । १७. ह का ल्ह होता है; यथा-प्रहाद = पल्हाम, कहार = कल्हार । १८. संयोग में पूर्ववर्ती क, ग, ट, ड, त, द, प, श, ष और स का लोप होता है, जैसे-भुक्त = भुत्त, मुग्ध = मुद्ध, षट्पद = छप्पन,
खड्ग = खग्ग, उत्पल = उप्पल, मुद्गर = मुग्यर, सुप्त = सुत्त, निश्चल = णिचल, निष्ठुर -पिट् ठुर, स्खलित = खलिया।
संयोग में परवर्ती म, न और य का लोप होता है; यथा-स्मर = सर, लग्न = लग्ग, व्याध = वाह। २०. संयोग में पूर्ववर्ती और परवर्ती सभी ल, व और र का लोप होता है; यथा-उल्का = उक्का, विक्लव = विक व शब्द सद्द,
पक्क % पक, अर्क - अक्क, चक्र = चक्क । २१. संयुक्त अक्षरों के स्थान में जो-जो आदेश ऊपर कहा है उसका और संयुक्त व्यञ्जन के लोप होने पर जो-जो व्यअन
बाकी रहता है उसका, यदि वह शब्द के आदि में न हो तो, द्वित्व होता है। जैसे-ज्ञात्वा = णचा, मद्य = मज, भुक्त =भुत्त, उल्का = उक्का। परन्तु वह आदेश अथवा शेष व्यअन यदि वर्ग का द्वितीय अथवा चतुर्थ अक्षर हो तो द्वित्व न होकर उसके पूर्व में आदेश अथवा शेष व्यञ्जन के अनन्तर-पूर्व व्यञ्जन का आगम होता है; यथालक्षण = लक्खण, पश्चात् = पच्छा, इष्ट = इट्ट, मुग्ध = मुद्ध ।
विश्लेषण १. ह. श, ष के मध्य में और संयोग में परवर्ती ल के पूर्व में स्वर का आगम होकर संयुक्त व्यञ्जनों का विश्लेषण किया जाता है; यथा-प्रहंत = अरह, मरिह, अरुहः मादर्श = पायरिस, हर्ष = हरिस: किष्ट = किलिट्ठ ।
- व्यत्यय १. अनेक शब्दों में व्यञ्जन के स्थान का व्यत्यय होता है; यथा-करेणू = कणेरू, पालान =प्राणाल, महाराष्ट्र = मरहट्ठ, - हरिताल = हलियार, लघुक = हलुप, ललाट =ण्डाल, गुह्य = गुटह, सह्य % सरह ।
सन्धि १. समास में कहीं-कहीं ह्रस्व स्वर के स्थान में दीर्घ और दोघं के स्थान में ह्रस्व होता है; यथा-अन्तर्वे दि=अन्तावेइ,
पतिगृह = पइहर, यमुनातट = जंउणप्रड, नदीस्रोत = णइसोत्त । २. स्वर पर रहने पर पूर्व स्वर का लोप होता है। जैसे-त्रिददेश = तिप्रसीस ।
संयुक्त व्यअन का पूर्व स्वर ह्रस्व होता है; जैसे-पास्य = अस्स, मुनीन्द्र = मुरिंणद, चूर्ण = चुराण, नरेन्द्र = णरिंद, म्लेच्छ % मिलिच्छ, नीलोत्पल = णोलुप्पल ।
सन्धि-निषेध उद्धृत ( व्यञ्जन का लोप होने पर अवशिष्ट रहे हुए) स्वर की पूर्व स्वर के साथ प्रायः सन्धि नहीं होती है; यथानिशाकर = णिसापर, रजनीकर = रमणीपर ।
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