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(५०) ६. प्रो का व्यवहार भी प्रायः महाराष्ट्र में नहीं है। उसके स्थान में सामान्यतः भो और विशेष स्थलों में उ या अउ
होता है; यथा-कौमुदी - कोमुई, यौवन = जोव्वण, दौवारिक = दुवारिप, पौलोमी = पुलोमीः कौरव = क उरव, गौड = गउह, सौध = सउह।
असंयुक्त व्यञ्जन १. स्वरों के मध्यवर्ती क, ग, च, ज, त, द, य, व इन व्य जनों का प्रायः लोप होता है; जैसे क्रमशः-लोक = लोग, नग =
एमः शची = सई, रजत = रमम. यती-जई, गदा = गया, वियोग = विनोम, लावण्य = लापरण। २. स्वरों के बीच के ख, घ, थ, ध और भ के स्थान में ह होता है; यथा क्रमशः-शाखा = साहा, श्वाघते - लाहइ, नाथ = णाह,
साधु = साहु, सभा = सहा । ३. स्वरों के बीच के ट का ड होता है; यथा-भट = भड, घट = घड । ४. स्वरों के बीच के ठ का ढ होता है। जैसे–मठ = मढ, पठति = पढइ । ५. स्वरों के बीच के ड का ल प्रायः होता है; यथा-गरुड = गरुल, तडाय = तलाम । ६. स्वरों के बीच के त का अनेक स्थल में ड होता है, यथा-प्रतिभासस = पडिहास, प्रभृति = पहुडि, व्यापृत = वावड,
पताका पडामा । ७. न के स्थान में सर्वत्र ण होता है; यथा-कनक =करणप, वचन = वनण, नर-गर, नदी = राई, अन्य प्राण, दैन्य = दइएण। ८. दो स्वरों के मध्यवर्ती प का कही-कहीं व और कहीं-कहीं लोप होता है; यथा-शपथ = सवह, शाप = साव, उपसर्ग =
उवसग्ग, रिपु = रिउ, कपि = कइ । ह. स्वरों के बीच के फ के स्थान में कहीं-कहीं भ, कहीं-कहीं ह और कहीं-कहीं ये दोनों होते हैं; यथा-रेफ = रेभ, शिफा =
सिभा, मुक्ताफल - मुत्ताहल, सफल = सभल, सहल, शेफालिका = सेभालिमा, सेहालिया।
स्वरों के मध्यवर्ती ब का व होता है; जैसे-अलाबू = अलावू, सबल = सवल। ११. आदि के य का ज होता है; यथा-यम = जम, यशस् = जस, याति - जाइ। १२. कृदन्त के अनीय और य प्रत्यय के य का ज होता है। जैसे-करणीय = करणिज, पेय = पेज । १३. अनेक जगह र काल होता है; यथा-हरिद्रा = हलिहा, दरिद्र = दलिद्द, युधिष्ठिर - जहुट्ठिल, अंगार = इंगाल। १४. श और ष का सर्वत्र स होता है; यथा-शब्द =सद्द, विश्राम = वीसाम, पुरुष-पुरिस, सस्य = सास, शेष = सेस । १५. अनेक जगह ह का घ होता है; यथा-दाह = दाघ, सिंह = सिंघ, संहार = संघार । १६. कहीं-कहीं श, ष और स का छ होता है; जैसे-शाव = छाव, षष्ठ = छ?, सुधा= छुहा ।
अनेक शब्दों में स्वर सहित व्यञ्जन का लोप होता है; यथा-राजकुल = राउल, प्रागत = आप्र, कालायस = कालास, हृदय = हिप, पादपतन = पावडण, यावत् = जा, त्रयोदश = तेरह, स्थविर = थेर, बदर = बोर, कदल = केल, कणिकार = करणेर, चतुर्दश= चोद्दह, मयूख = मोह ।
संयुक्त व्यञ्जन १. क्ष के स्थान में प्रायः ख और कहीं-कहीं छ और क होता है। जैसे-क्षय = खय, लक्षण = लक्खण, अक्षि = अच्छि, क्षीण -
छीण, झीण। २. त्व, त्र, द्व और घ के स्थान में कहीं-कहीं क्रमशः च, छ, ज और भ होता है; यथा-ज्ञात्वा = णचा, पृथ्वी = पिच्छी,
विद्वान् = विज, बुद्ध्वा = बुज्झा । द्वस्व स्वर के परवर्ती थ्य, थ, इस और प्स के स्थान में छ होता है; जैसे-पथ्य = पच्छ, पश्चात् = पच्छा, उत्साह - उच्छाह, अप्सरा % अच्छरा।
१०.
१७.
१. संस्कृत के 'भयि' शब्द का महाराष्ट्री में ऐं होता है। इसके सिवा किसी किसी के मत में 'ऐ' तथा 'नौ' का भी प्रयोग होता
है जैसे-कैतव = कैनव, कौरव = कौरव (हे० प्रा० १, १)। २. बररुचि के प्राकृत-व्याकरण के 'नो णः सर्वत्र' (२, ४२) सूत्र के अनुसार सर्वत्र 'न' का 'ण' होता है। सेतुबन्ध और गाथा
शप्तशती में इसी तरह सार्वत्रिक 'ण' पाया जाता है। हेमचन्द्र प्रादि कई प्राकृत वैयाकरणों के मत से शब्द के मादि के न का विकलल्प से 'ण' होता है। यथा-नदी = एई, नई; नर = पर, नर । गउडवहो में एकार का वैकल्पिक प्रयोग देखा जाता है।
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