Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
View full book text
________________
गोम्मटसार कर्मकाण्ड - १६
इन चार की विसंयोजना युगपत् चतुर्थ गुणस्थान से सप्तम गुणस्थान तक हो जाती है। नवम गुणस्थान के प्रथमभाग में अप्रत्याख्यानावरण- क्रोध-मान-माया और लोभ तथा प्रत्याख्यानावरणक्रोध- मानमाया - लोभ इन आठों का युगपत् क्षय होता है। उसके पश्चात् अन्तमें क्रमशः सञ्ज्वलनक्रोध, सञ्ज्वलनमान एवं सञ्चलनमाया का क्षय होता है । दशर्वे गुणस्थान में सज्वलनलोभ का क्षय होता । द्रव्य के बँटवारे की अपेक्षा सबसे अधिकद्रव्य अनन्तानुबन्धीलोभ को मिलता है, अनंतानुबन्धीलोभ से हीनद्रव्य अनन्तानुबन्धीमाया को । इसीप्रकार क्रमशः अनन्तानुबन्धीक्रोध, अनन्तानुबन्धीनान, सज्ज्वलनलोभ, सञ्ज्वलनमाया, सवलनक्रोध, सञ्ज्वलनमान, प्रत्याख्यानावरणलोभ, प्रत्याख्यानावरणमाया, प्रत्याख्यानावरणक्रोध, प्रत्याख्यानावरणमान, अप्रत्याख्यानावरणलोभ, अप्रत्याख्यानावरणमाया, अप्रत्याख्यानावरणक्रोध और अप्रत्याख्यानावरणमान को हीन-हीन द्रव्य मिलता है । नोकषायवेदनीय नवप्रकार का है - पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, रति, अरति, हास्य, शोक, भय, जुगुप्सा | आयुकर्म चार प्रकार का है- नरकायु, तिर्यञ्चायु, मनुष्यायु और देवायु। नामकर्म पिण्ड और अपिण्डप्रकृतियों के भेद से ४२ प्रकार का है - गति, जाति, शरीर, बन्धन, सङ्घात, संस्थान, अङ्गोपाङ्ग, संहनन, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति, बस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर, साधारणशरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशस्कीर्ति, अयशस्कीर्ति, निर्माण और तीर्थङ्कर नामकर्म । उनमें से गतिनामकर्म चार प्रकार का है- नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्य - गति और देवगति । जातिनामकर्म पाँच प्रकार है- एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रिय जाति और पञ्चेन्द्रियजाति । शरीरनामकर्म पाँच प्रकार का है - औदारिकशरीर, वैक्रियकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर । शरीरबन्धननामकर्न पाँच प्रकार है औदारिकशरीरबन्धन नामकर्म, वैक्रियकशरीरबन्धन नामकर्म, आहारकशरीरबन्धन नामकर्म, तैजसशरीरबन्धन नामकर्म और कार्मणशरीरबन्धन नामकर्म ।
अब इन पाँच शरीरबन्धन नामकर्म के भङ्ग कहते हैं
-
तेजाकम्मेहिं तिए, तेजा कम्मेण कम्मणा कम्मं । कयसंजोगे चदुचदुचदुदुग एक्कं च पयडीओ ॥ २७ ॥
अर्थ- औदारिक, वैक्रियक और आहारक इन तीनों का तैजस तथा कार्मण के साथ संयोगबन्ध होने पर चार-चार भन होते हैं। तैजस का तैजस व कार्मण के साथ संयोगबन्ध होने पर दो भङ्ग और कार्मण के साथ संयोगबन्ध होने पर एक भन्न होता है ।
विशेषार्थ - औदारिक- औदारिकशरीरबंधन, औदारिक- तैजसशरीरबन्धन, औदारिककार्मणशरीरबन्धन, औदारिक-तैजस-कार्मणशरीरबन्धन । औदारिक की अपेक्षा ये चार भङ्ग हैं।