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ME नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
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कर सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि ।
आगम - ४२ “दशवैकालिक नियुक्ति एवं चूर्णि:
आजमा आजम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब
अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, पालडी, अमदावाद
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर ।
वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद सूरीश्वरजी महाराज साहेब
करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्वर्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है।
इस संघमें पूज्य साधू-भगवंत एवं साध्वी-महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है । इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म. की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है।
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आगम आज : आजम आजम
आजम
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स
सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
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अभिनव संकलनकर्ता
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आगम
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आजम
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य
आजम
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपत्नसागरजी श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत- प्राप्ति और पेज- सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275
भागम
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भाग-6 (४२ दशवैकालिक सूत्रम्ही
नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
"दशवैकालिक नियुक्तिः एवं चूर्णिः अमूल + भद्रबाहुस्वामी कृत् नियुक्तिः + भाष्यगाथा: + जिनदासगणि रचिता चूर्णि:।
[आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ]
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह)
पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
01/02/2017, बुधवार, २०७३ महा शुक्ल ५
'सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-६
PORPOPORE मुनि दीपरत्नसागरेण सकलिताः आगमसूत्राशसूलसूत्र अदशवेकालिकनियुक्तिः एवं जिनदासमणिरचिता चूर्णिः ।
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-, मूलं [-]/ गाथा: || ||, नियुक्ति: [-], भाष्या-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि:
प्रत सूत्रांक
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प्रसिद्धया श्रीजिनदासगणिमहत्तररचिता श्रीदशवैकालिकचूर्णिः
दीप अनुक्रम
श्रुतकेवलिभगवच्छय्यं भवसूरिसूत्रितसूत्रा श्रुतकेवलिश्रीमद्भद्रबाहुस्वामिसंरब्धनियुक्तिका
प्रकाशयित्री-मालवदेशान्वर्गतरत्नपुरी ( रतलाम )यश्री ऋषभदेवजी केशरीमल मीनाम्नी श्वेताम्बरसंस्था, श्रीजामनगरीयश्रीहरजी जैनशालाकार्यवाहकैर्वितीर्णेन द्रव्यसाहाय्येन ।
इन्दौरनगरे श्री जैनबन्धुमुद्रणालये-श्रेष्ठी जुहारमल मिश्रीलाल पालरेचा द्वारा मुद्रापयित्वा । वीर संवत् २४५९. विक्रम सं० १९८९. सर्वेऽधिकाराः पुनर्मुद्रणादौ आयत्ताः, क्राइष्ट १९३३. पण्यं ४-०-०, प्रतथ: ५००
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दशवैकालिक-चूर्णे: मूल "टाइटल पेज"
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
• जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतरतप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फिर भी गुरुभक्ति बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामूली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है।
चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरणन्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए|
.एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े देवर्द्धिगणी : क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही 'जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ • तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्री को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम । मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ |
.सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत- छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना :भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की।
.ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को प्रतिबोध | : कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
• सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये। ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"...
.......मुनि दीपरत्नसागर... |
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फिर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्यपरिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो गया“अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर...
अनुदान दाता संस्था:- "श्री परम-आनंद श्वेतांबर मूर्तिपूजक जैन संघ"
वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठककर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद करीब ५० साल पहेले परम पूज्य स्व. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेंद्रसागरसूरीजी म.सा. ही है | इस संघमें पूज्य साधू भगवंत एवं साध्वीजीओ का उपाश्रय भी है जहा हर-साल चातुर्मास करवाके श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है । इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है |
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-.. 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ८ के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक | पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "स चूर्णिक-आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण दव्यराशि प्राप्त हुई , उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे ।
समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति
भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त | लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहमान प्रगट करते हए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है।
... मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यास, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ
.......मुनि दीपरत्नसागर ।
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आगम
दशवैकालिक-चूर्णे: उपक्रम:
(४२)
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक
श्रीदशवैकालिकचूर्णरुपक्रमः
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दीप अनुक्रम
भगवद्भिः श्रुतकेवलिभिः श्रीमद्भिः शय्यम्भवसरिभिः पूर्वगतश्रुतेभ्य आदेशान्तरेण द्वादशाङ्गाद् गणिपिटकादुद्धृतं, प्रयोजनं सूद्धारेऽस्य स्वतनूजस्य मनकारख्यस्याष्टवर्षीयस्य पाण्मासिकापुष्कस्यागधनासिध्ध्यर्थ सहि भगवतां प्रव्रज्याकाले गर्भस्थोऽभूत, प्रभुषु प्रजजरस्वाक्रन्दमानेषु स्वजनेषु गर्भोदन्तं पृच्छत्सु च मात्राऽलक्ष्यमाणगर्भवात् मनागिति निरदेशि, जाते च तस्मिन् जननीजल्पानुसारात् कृतं मनकेति नाम, जाताष्टवर्षमान वावगम्य मातुर्मुखादवगतः पितुः प्रवज्याया उदन्ता, अनेक दुर्वचनोदितैरवगताऽस्या अरुचिः श्रामण्ये, अनापृच्स्यैव तां नंवा राजगृहाचम्पामागत्याचार्यसकाशे प्रववाज, कौटुम्बिकैः स्वामित्वस्याव्युत्सृष्टत्वाचातः शैक्षनिष्फेटिकाप्रवृत्तिः प्रवचनधरैरुद्गीर्णा, पण्मासीमवगत्यायुस्तस्य हितायोद्धृतं भगवद्भिः सजिहीर्युभिः, परं श्रीयशोभद्रादिना श्रमणसंघनोपरुन संहतं भगवद्भिः, मगवद्भिर्भद्रबाहुस्वामिभिनियुक्त्याऽलंकृतमेतत् , श्रीमद्भिर्जिनदासगणिभिः सनियुक्तिकस्यास्य विहिता चूर्णिः, सैपोन्मुघमाणा, यद्यपि पूर्वधरासनकालजातैः श्रीहरिभद्रपरिभिः पत्रिताऽस्य वृत्तिरनया, मुद्रिताचागमोदयसमितिसंस्थाप्रयासेन श्रेष्ठिदेवचन्द्रपुस्तकोद्वारसंस्थया सा, सूत्रगाथाकारादेविषयाणां च क्रमस्तसमानः प्राय इति नायास एतद्विषये, उन्मुद्रणे चास्या वितीर्ण साहाय्यं श्री जामनगरीयश्रीहरजीजैनशालाकार्यवाहकैरिति नै विस्म मई, अवगम्यैना सभावार्थी चूर्णि मोक्षमार्गरतयो भान्तु भव्या इत्याशास्महे ।
आनन्दसागरा: १९८९ फागुन शुक्ल तृतीया ।
दशवैकालिक-चूर्णे: पूज्यपाद आनंदसागरसूरीश्वरजी लिखित उपक्रम:
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आगम
मूल संपादकेन लिखीत: अध्ययन-अनुक्रम:
(४२)
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक
H
अध्ययनानामनुक्रमः नाम पृष्ठं यावत्
नाम
पृष्ठं यावत् १ दुमपुष्पिका १ ५ पिण्डैषण (उद्देशद्वय) २०६ २ श्रामण्यपूर्वकं ९२ ६ धर्मार्थकामाध्ययनं २३४ ३ क्षुल्लकाचारकथा ११. ७ वाक्यशुद्ध्यध्ययनं २६५ पजीवनिकायः १६४८ आचारंपणिधिः
নাম
पृष्ठं यावत् ९ विनयसमाधिः [उद्देशचतुष्क] १० सद्विवध्ययन १रतिषाक्यचूला २ विविक्तचर्याचूला
दीप अनुक्रम
३६७
दशवैकालिक-चूर्णे: मूल संपादकेन लिखित: अध्ययन-अनुक्रमः
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०२२
०८४
मूलाका: २१+५१५ दशवैकालिक 'मूलसूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा:५४० Rथ | PRESIDENT BEIN |
NAINA मूलांक: 20 अध्ययन
पृष्ठांक: मुलांक: अध्ययन पृष्ठांक: मूलांक:
अध्ययन
पृष्ठांक: ००१ | १- द्रुमपुष्पिका
२२६ ६- महाचारकथा
२१९
| ९/३- उद्देशक -३ ००६ २- श्रामण्यपूर्वक
२९४ - वाक्यशुद्धिः
२४७ ९/४- उद्देशक - ४
---- ०१७ |३- क्षुल्लकाचारकथा १०५ ३५१ ८- आचारप्रणिधी
२७४ ४८५ |१०- सभिक्षुः ०३२ ४- षड्जीवनिकाया
४१५ |९- विनयसमाधि:
३०८
चूलिका
३६२ ०७६ |4- पिन्डैषणा
१७७ | ९/१- उद्देशक - १
५०६ | १- रतिवाक्यं
३६३ ५/१- उद्देशक- १
| ९/२- उद्देशक - २
५२४ | २- विविक्तचर्या
३८० १/२ उद्देशक- २
उपसंहार-नियुक्तिः
३९२
३४३
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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["दशवैकालिक-चूर्णि:" इस प्रकाशन की विकास-गाथा] यह प्रत सबसे पहले दशवैकालिक-चूर्णि" के नामसे सन १९३३ (विक्रम संवत १९८९) में रुषभदेवजी केशरमलजी श्वेताम्बर संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय ये पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
वृत्ति की तरह चूर्णी के भी दुसरे प्रकाशनों की बात सुनी है , जिसमे ऑफसेट-प्रिंट और स्वतंत्र प्रकाशन दोनों की बात सामने आयी है , मगर मैंने अभी तक कोई प्रत देखी नहीं है।
4. हमारा ये प्रयास क्यों? - आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने उन सभी प्रतो को स्केन करवाई , उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसके बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी , ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कंध-अध्ययन-उद्देशक-मूलसूत्र-नियुक्ति आदि के नंबर लिख दिए, ताकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है , इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस - दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है।
इस आगमचूर्णि के प्रकाशनोमें भी हमने उपरोक्त प्रकाशनवाली पद्धत्ति ही स्वीकार करने का विचार किया था , परंतु चूर्णि और वृत्ति की संकलन पद्धत्ति एक-समान नही है, चूर्णिमे मुख्यतया सूत्रों या गाथाओ के अपूर्ण अंश दे कर ही सूत्रो या गाथाओ को सूचित कर के पूरी चूर्णि तैयार हुई है, कई नियुक्तियां और भाष्य दिखाई नही देते , कोइ-कोई नियुक्ति या भाष्य के शब्दो के उल्लेख है , उनकी चूर्णि भी है पर उस नियुक्ति या भाष्य स्पष्टरूप से अलग दिखाई नहि देते । इसीलिए हमें यहाँ सम्पादन पद्धत्ति बदलनी पड़ी है | हमने यहाँ उद्देशक आदि के सूत्रो या गाथाओ का क्रम, [१-१४, १५-२४] इस तरह साथमे दिया है, नियुक्ति तथा भाष्यो के क्रम भी इसी तरह साथमे दिये है और बायीं तरफ़ उपर आगम-क्रम और नीचे इस चूर्णि के सूत्रक्रम और दीप-अनुक्रम दिए है, जिससे आप हमारे आगम प्रकाशनोंमे प्रवेश कर शकते है।
शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैनसंघ, पालडी, अमदावाद की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-६ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है।
......मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:)
अध्ययनं [-1, उद्देशक [-], मूलं -/गाथा: || ||, नियुक्ति: [२/१-७], भाष्या-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
अथ दशवैकालिकचूर्णिः
सूत्रांक
१ अध्ययने श
H
श्रीदशबेकालिक
४ मंगलवयं घूर्णी
नमो जिनागमाय । णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं, मंगलादीणि सत्याणि मंगलमज्झाणि मंगलावसाणाषिय,
मंगलपरिग्गहीता य सिस्सा सत्थाणं अवग्रहहावायधारणसमत्था भवंति, ताणि य सत्थाणि लोगे विरायंति वित्थारं च गच्छति। आह॥ १ ॥ मंगलमिति किमर्थमुपादीयत्ती, उच्यते, विघ्नविनायकायुपशमनार्थमुपादीयते, आह-यद्येतन्मंगलत्रयेण किं प्रयोजनी, उच्यते, आदि
|मंगलग्रहणेन शिष्यस्तच्छासं विसं गृह्णाति, मध्यमंगलग्रहणेन तस्य शाखस्य शिष्यो निर्विघेन पारं गच्छति, अवसानमङ्गलग्रहणेन तिच्छावं शिष्यप्रशिष्येभ्यो अव्यवच्छिचिकर भविष्यति, अनेन प्रयोजनेन मंगलत्रयमुपादीयते, आह-यदेतन्मंगलवयापांतरालद्वयं ४
तन्नामामंगलिकं प्रामोति, उच्यते, तत्र अंतरालस्याभावाइंडवच्च सर्वमेव शार्ख मंगलं निर्जरात्मकत्वात्तपोवत्, एवं तर्हि शाखस्या| मंगलत्वं प्रामोति, कस्मादी, अन्येन मंगलेन मंगलीक्रियमाणत्वात् , यदि तावच्छात्रं मंगलं किमस्यान्यन्मंगलमुपादीयते?, अथामंगलं ला किमनेनारम्धेन?, उच्यते, शास्त्रं हि स्वयमेव मंगलं अन्येषां च मंगलं भवति, स्वपरानुभावात्मकसामर्थ्ययुक्तत्वाद् गुडलवणानिप्रदी-1
पवत्, एवं तनवस्था प्रामोति-यदि मंगलस्यापि मंगलमुपादीयते तस्याप्यन्यत् तस्याप्यन्यद्, एवं मंगल उपादीयमाने भारमाशीमोला है 15 प्रसज्यते, सत्यमतत्, कि तहिं , शिष्यस्य मंगलवुद्ध्युत्पादनार्थमिदमुच्यते साधुवत ।। मंगलमिति कः शब्दार्थः १, रख णख
बख मख अगि बगि मगीति धातुमवस्थाप्य अस्य धातोः 'इदितो नुम् धातो' (पा०७१।५८). रिति नुमागमः, परस्य अवर्ण
दीप अनुक्रम
... मंगलम् एवं सूत्र-प्रस्तावना ... यहां नियुक्ति आदि सभी स्थानोमे जहां जहां “२/१-३" इस तरह क्रमांक लिखे है वे सभी स्थानोमे पहेला क्रमांक इस चूर्णि कि प्रत का समझना और (1) 'ओब्लिक' के बाद दिया हुआ क्रम वृत्तिकार का बताया हुआ 'नियुक्ति' आदि का क्रमांक समझना |
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:)
अध्ययनं -], उद्देशक [-], मूलं -1/ [गाथा:], नियुक्ति: [२/१-७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्राक
॥
२
॥
H
श्रीदश- परगमने कृते ततःप्रत्ययाधिकारेऽनुवर्तमाने 'मंगरल' चिति (पा० उणा० ५) अलच्प्रत्ययांतस्येदं रूपं मंगलमिति भवति, मंगल-3 मंगलवयं वेकालिका मिति कोऽर्थः१, मंगेति धर्मस्याख्या, ला आदाने धातुः, अस्य धातोमंगपूर्वस्य द्वितीयस्यायं विग्रहः, मंग लातीति विग्रहः, मंग चूर्णी
लातीति 'आतोऽनुपसर्गे' कः (पा.३।२।३) कप्रत्ययान्तस्य मंगलं, अथवा मामिति आत्मनो निर्देशे 'गृ निगरणे' अस्य धातोर्मग१ अध्ययने
8 पूर्वस्य धातोरचित्यच्प्रत्ययान्तस्य में सांसारिकेभ्यो अपायेभ्यः गलतीति मंगलं 'कपो रो लः''ग्रो यङि, (पा. दाश२०)
अचि विमाषे (पा. दारा६१) ति लत्वं ॥ तच्च मंगलं चतुर्विधं-नाममंगलं स्थापनामंगलं द्रव्यमंगलं भावमंगलमिति, नामस्थापने | पूर्ववत, 'दू द्रु गतौ' द्रवते दूयते वा द्रोरवयवो विकारो वा द्रव्यं 'द्रव्यं च भव्ये' (पा. ५३।१०४) यत्प्रत्ययांतस्य द्रव्यं, तत्र | ज्ञातृभव्यशरीराभ्यां व्यतिरिक्तं द्रव्यमंगलं दध्यक्षतसुवर्णसिद्धार्थकपूर्णकलशादि, भावमंगलं भवन, भू सत्तायां परस्मैभाषा, श्रिणीभुवोऽनुपसर्ग (पा. २३२४)ति पम्, अतो विणति वृद्धिभावः तं पुण भावमंगलं 'धम्मो मंगलमुकिई धम्मग्गहणेण | आदिमंगलं कयं भवति, मजझे मंगलं धम्मस्थकामस्स आदि सुच 'णाणदसणसंपण्णं, संजमे य तवे रय' णाणदंसणसंजमतवम्गहणेण मझ मंगलं कयं भवति, अवसाणं मंगलं भिक्खुगुणथिरीकरणं विवित्तचरिगा य वणिज्जह ॥
सब्वेसि परूवर्ण करेंतो जहा आवस्सए जाव सुपणाणेणं अधीगारो, कम्हा, सुतनाणस्स जम्हा उद्देसी समुदेसो अणुण्णा अणुयोगो पवत्तह, तत्व पढम उदिवसमुदिहाणुण्णातस्सऽणुओगो भवइचिकाउं अणुओगेणं अहीगारो, सो य चउम्विहो, तंजहा-चरणकरणाशुयोगो धम्माणुयोगो गणियाणुओगो दव्वाणुओगो, तत्थ चरणकरणाणुयोगो णाम कालियसुर्य, धम्माणुयोगो इसिभासियाई उत्तरायणादि, गणियाणुयोगो घरपण्णची जंबुद्दीवपण्णची एवमादि, दवियाणुयोगो णाम दिद्वियायो, पुण इहं चरणकरणा
CARBABA
दीप अनुक्रम
... चत्वारः अनुयोगा: वर्णयन्ते
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [-], उद्देशक -, मूलं -1/ [गाथा:], नियुक्ति: [२/१-७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक
आदश- वैकालिक
चौँ १ अध्ययने
योगेण अहिगारो, सिस्सो आह-कि सबस्सेव सुयंणाणस्स अणुयोगो कहेयम्बो, अधिगयस्स कस्सइ सुयखंघस्स?, आयरितो है
अनुयोगः आह-सव्वस्सावि सुयणाणस्स कहेतब्बी, इमं पुण पडवणं पडुच दसवेयालियस्स अणुयायो कहेयब्बो । दसवेयालियं ण भंते ! किंग अंग अंगाई सुपखंधो सुपखंधा अज्झयणं अजायणा उद्देसो उद्देसा? दसबियालियं गं नो अंग नो अंगाई सुयखंधो नो तुपर्खधा | णो अझयणं अजायणा नो उद्देसो उद्देसा, तम्हा दस निक्खिविस्सामि कालं निक्खिविस्सामि मुतं निक्खिबिस्सामि खधं निक्थिविस्सामि अज्झयणा निक्खिबिस्सामि उद्देसा निक्खिविस्सामि, तत्थ पढमं दारं दसत्ति, एको एको य दोष्णि, दोणि एको य तिष्णि, तिणि एको य चत्तारि, चत्तारि एको य पंच, पंच एको य छ, छ एको य सत्त, सत्त एको य अट्ट, अट्ठ एको य णब, णव एको य दस, तेण एकस्सवि अभावे दसण्हवि अभावो भवइ, तम्हा पुण्यामेव ताव एफनिक्खेबो भाणियब्वो, ततो पच्छा दसण्हं, तस्स एगस्स दारगाहा
णाम ठवणादविए, माउगपद संगहेका चेव । पज्जव भावे य सहा सत्तेते एकगा भणिया ।। ८.७५ ॥
पामठवणाउ जहा आवस्सए भणियाउ तहेव, तत्थ दब्बेकगा तिविहा-सचितं अचिनं मीसगं च, वत्थ सचिचं जहा एको द्र पुरिसो, अचित्तं जहा एको कासावणो, मीसओ जहा सो चेव पूरिसो अलंकियविभूसिओ, माउगापदेकर्म णाम तंजहा-उप्पण्णेति
वा धुवेति वा विगमेति वा, एते दिट्टिवाए माउगपदा भवति, अहवा इमे माउगपदा अआइई एवमादि, संगहेकंग नाम जहा एगो ॥ ३ ॥ साली साली चेव भण्णइ तहा बहुओवि सालीओ साली चेष भण्णति, तं च संगहे कगं दुविई, तंजहा-आदि8 अणादि8 च, तत्थ | आदिहुं णाम विसेसियं, अणादिढ णाम अविसेसियं, अणादिटुं णाम जहा साली सालिचि, आदिह जहा गंधसालित्ति, पञ्जयेकगं,
दीप
अनुक्रम
Re
4-
7
... 'द्रव्य' शब्दस्य सचित्त-आदि भेदा:
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [८1८-१०], भाष्यं -1 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्राक
ॐॐॐ
H
दीप अनुक्रम
श्रीदश- दुविहं-आदिलं अणादिटुं च, आदिटुं च पज्जवोत्ति वा मेदोचि वा गुणोत्ति वा एगट्ठा, तत्थ अणादिट्ठ जहा दसगालियं आदि एककबैंकालिका दुमपुष्फियं सामण्णपुव्ययं एवमादि, भावेकग आदि8 अणादिहुँच, अणादिहं भावो, आदिट्ठ उदइओ उपसमिओ खइओ खओवस- निक्षेपाः
चूणा.JPमिओ पारिणामिओ, तत्थ उदयभावेकगं दुविहं-अणादि8 उदइओ भावो, आदिट्ठ पसरथमप्पसत्थं च, तत्थ पसत्कगं तिस्थगरना१ अध्ययन |
मगोत्तस्स कम्मस्स उदओ एवमादी, अप्पसत्थेकगं कोहोदओ एवमादि, इयाणि उपसमियखइयखओवसमिया, ते तिण्णिावि भावेक-18 ॥ ४ ॥ 18|गाणि, ते य छण(समण)स्स पसत्था चेव, एतेसि अपसत्यो पडिवक्लो णत्थि, कम्हा', जम्हा मिच्छदिहीणं केई कम्मंसा खीणा केई
उवसंता, खोवसमेण य कल्लाण बुद्धीपाडवादिणो गुणा संतावि तेसिं विवरीयगाहितणेणं उम्मत्तवयणमिव अप्पमाणं चेव, तम्हा उपसमियखवियखओवसमिया भावा सम्मदिविणो चेच लम्भति, परिणामियभावे एक दुविह--आदिटुं च अणादिटुं च,81 पारिणामिअभावे आइ8 दुबिह-सादिअपरिणामिएकग अणाइपरिणामिएकगं च, तत्थ साइअपरिणामिएकगं जहा कसायपरिणओल एवमाइ, अणाइपरिणामिएकगं जहा जीवो जीवभावेण निच्चमेव परिणओ। एत्थ कतरेण इकगेण अहिगारो, भदियायरितोवदेसणं जम्हा दस एते पज्जायअज्झयणा संगहेकएण संगहिया तम्हा संगहेक्कएण एस्थ अहिगारो, दत्तिलायरिओवएसेणं जम्हा सुयणाणं | खओवसमिए भावे वहइ तम्हा भावेकरण अधिगारो, दोनिवि एते आदेसा अविरूद्धा, भावकएणं अधीगारो।। इयाणि दुगतिगजाव | नव एते दारे मोतृण दस भण्णति, किं कारणं, दससु परूविएमु दुगादीणि परुवियाणि भविस्संतित्तिकाउं, तम्हा दसगस्स | छविहो निक्खेवो तं०-नामदस ठवणदस दबदस खेत्तदस कालदस भावदस इति, नामठवणाओ गयाओ, इयाणि दबदस दस दव्याला ॥४॥ सचित्ताचित्तमीसगा, तत्थ सचित्तदब्या जहा दस मसा, अचित्ता जहा दस काहावणा, मीसगा जहा दस अलंकियविभूसिया
८)
RE
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[-]
दीप
अनुक्रम
H
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [-] उद्देशक [-] मूलं [-] / [गाथा:],
निर्युक्तिः [ ११-३३/१९-३४], आष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूण
१ अध्ययने!
॥ ५ ॥
मणूसा, खेतदसा दस आगासपएसा कालदसा 'वाला मंदा किड्डा' जहा तंदुलवेयालिए, भावदसा एते चैव दस अज्झयणा ॥ इदाणिं कालेत्ति दारं तत्थ गाहा
दवे अद्धअहाउय, उवकमे देसकाल काले य । तहय पमाणे वण्णे भावे पगयं तु भाषेणं ॥११- ९५० ॥ एसा गाहा जहा सामाइयनिज्जुत्तीए तहा परुबेतब्या, एत्थ दिवसपमाणकाले अधिगारी, तत्थवि ततियपोरुसीए विज्जइतिकाउं तेण अधिगारो, आढतो व णिज्जूहिउं अवरण्डकाले तस्स पडिसेहो कज्ज, वियतः कालो चिकालः, अथवा विकालः कालः, असकलः खंडत्यनथांतर, विकालवेलायां परिसमाप्तं वैकालिकं, अथवा ( एतत् ) विकाले पठपत इति वैकालिकं, अथवा दशैतानि अध्ययनानि व्यवगते दिने कृतानीति दशवैकालिकं । दशवैकालिकमिति कः शब्दार्थो, विकालेन निर्वृत्तं संकाशादिपाठाच्चातुरर्धिको ठक्, 'तद्धिते यचामादि' रित्यादिवृद्धिः वैकालिकं ॥ इदाणिं सुतं तं चउवि णामसुतं ठवणसुतं दव्वसृतं भावसुर्य, जहा अणुयोगद्वारे। एवं खधस्सवि चउकओ निक्खेदओ तहेव अज्झयणस्स, तहेव णामठवणाओं दव्वभावा माणिऊणं जहा अणुयोगद्वारे, णवरं भावज्झयणस्स इमाओ निरुत्तिगाहाओ चउरो 'अज्झष्पस्साणयणं ( २९ ।। १०१६) गाहा, अधिगम्मन्ति य अत्था (३० ॥ प० १६ ) गाहा 'जह दीवा दीवस ' गाथा (३१ ॥ प० १६) अट्ठविहं कम्मर गाथा ( ||३३|| पा०१६) चउरोषि कंठाओ, एवं उद्देसगस्सवि चउकओ निक्खेवो तहेव ॥
1
+
इदाणि 'जेणव जं च पच्च' गाथा, जेण निज्जूढं सो भाणितब्बो, जं वा पद्दुच्च निज्जूढं जड़ वा णिज्जूहाणि जाए का परिवार्डिए (जद वा) अज्झयणाणि ठवियाणि पचं कारणाणि भाणियव्वाणि, 'जेणं' वि जेण एताणि दस अन्यणाणि णिज्जूढाणि
[18]
कालनिक्षेपादि
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [-1, उद्देशक [-], मूलं -1/ [गाथा:], नियुक्ति: [११-३३/११-३४], भाष्यं -1 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
H
श्रीदश-18 सो भाणियव्वो, बद्धमाणसामिस्स उप्पत्नि वण्णेत्ता जहा सामाइयणिज्जुत्तीए गणधरा य एक्कारस सुधम्मस्स जंचुनामो गणधरो शय्यंभव
बुनामस्स पभवो गणहरो, अनदा कदाइ पुन्यरत्तावरत्तंसि चिन्ता समुप्पण्णा-को मे गणधरो होज्जति, अप्पणो गणे य संघे या चू! 10 सव्वतो उपओगो कओ, ण दीसह अव्वोच्छित्तिकरो, ताहे गारत्येसु उवउचो, उवओगे कए रायगिहे सेज्जभव जणं जयमाणं | १अध्ययन पासइ, ताहे रायगिहं नगरं आगंतूण संघाडगं बाबारेइ-जण्णवार्ड गतुं भिक्खडा धम्मलाभेध, तत्थ तुम्भे अतिच्छाविज्जिहिह, |
| ताहे तुम्भे भणेज्जाह--'अहो कष्टं तचं न ज्ञायते' तओ गया साह अतिच्छाविया य, तेहिं भणियं-अहो कष्ट तत्वं न विज्ञायते, | तेण तया सिज्जभवेण दारमूलट्ठिएण तं वयणं सुयं, ताहे सो चिंतेति-एते उवसंता तवस्सिणो असच्च ण वदंतित्तिकाउं अज्झावगसगास गंतु भणइ-किं तच्ची, सो भणइ-वेदाः, ताहे सो असिं कड्डिऊणं भणइ-सीस ते छिदामि जइ मे ततं न कहेसि, उवज्झाओ X भणइ-पुण्णो मम समयो, भणितमेतं वेदत्वे-परं सीसच्छेदे कहियवंति, संपर्य कहयामि जं एत्थं तत्त, एतस्स जुयस्स हेट्टा सव्वरयणामयी पडिमा, अरहंतस्स सा चुच्चइ, आरहओ धम्मो तचं, वाहे सो तस्स पाएसु पडिओ, सो य जण्णवाडउवक्खेको तस्स |चव दिण्णो, ताहे सो गंतूर्ण ते साहू गवेसमाणो गओ आयरियसगासं, आयरियं बंदित्ता साहूणो य भणइ-मम धम्म कहेह, वाहे आयरिया उवउत्ता जहा इमो सोत्ति, ताहे आयरिएहिं साहुधम्मो कहिओ, पव्वइओ, चोदसपुब्बी जाओ॥ जदा य सो
पव्यइओ तदा तस्स गुब्बिणी महिला होत्था, तंमि य पन्चइते लोगो णियल्लओ तंतमस्सइ जहा तरुणाए भत्ता पब्बइओ अपुचा [Im है।य, अवि अस्थि तर किंीच पोद्दीत पुच्छति, सा भणइ-उवलक्खेमि मणायं, समए तेण दारओ जाओ, ताहे णिव्वत्तवारसाहस्स
R ||६ ॥ नियलगेहिं जम्हा पुच्छिज्जंतीय मायाए से भणियं मणमति तम्हा मणओ से नार्म कयं, जदा सो अट्ठवरिसो जाओ ताहे मायरं
REGACACA
दीप अनुक्रम
RA
... दशवैकालिकसूत्रस्य रचयिता शय्यंभवसूरेः कथानक
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं -] / [गाथा:], नियुक्ति: [११-३३/११-३४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक
पुच्छइ-को मम पिया ?, सा भणइ-तुम्भ पिया पथ्वइओ, ताहे सो दारो नासिऊण पिउसगास पट्टिओ, आयरिया य तंकालं उदारश्रीदश
पाए विहरति, सो दारओ गओ चपं, आयरिएण य सण्णाभूमीगएणं सो दारओ दिट्ठो, दारएण बंदिओ, आयरियस्स तं दारय स्थानानि
| पेच्छंतस्स हो जाओ, तस्सवि दारगस्स तहेब, आयरिएहिं पुछिओ-भो दारगा' को आगमणति, सो दारगो भणह-रायगिहाउ, ट्र अधिचौँ । १ अध्ययन
रायगिहे तो त कस्स पुत्तो गत्तुओ वा', सो भणइ-सेज्जभवो नाम भणो, तस्स अहं पुत्तो, सो य किर पन्बइओ, तेहि भणिय- काराव
तुमं केण कज्जेण आगओसि, सो भणइ-अहंपि पब्वइस्सं, पच्छा सो दारो भयवं तं तुम्भे जाणही आयरिया भणंति-16 ॥ ७ ॥ जाणामि, सो कहिति ,ते भणति--सो मम मित्तो एगसरीरभूओ, पब्वयाहि तुम मम सगासे, एवं करेमि, आयरिया आगंतुं|
पडिस्सए आलोएंति-सचित्तो पटुप्पण्णो, सो पब्बइओ, पच्छा आयरिया उबउत्ता-केवद कालं एस जीवति ? जाव छम्मासा, ताहे आयरियाण बुद्धी समुप्पण्णा-दमस्स थोवयं आउं किं कायव्यंति?, तं चोइसपुब्बी कहिंपि कारणे समुप्पण्णे णिज्जूहइ,
दसपुग्यी पुण अपच्छिमो अवस्समेव णिज्जूहह, ममंपि इमं कारणं समुप्पण, अहमपि निज्जुहामि, ताहे आढतो णिज्जु-| 1| हिउं, ते व निज्जूहिज्जता वियाले निज्जुढा थोबावसेसे दिवसे, तेण तं दसवेयालियं भणिज्जतित्ति, 'जे पडुच'त्ति दारं गये ॥
__इयाणि जत्तोत्ति दारं वणिज्जइ, एत्थ गाहाओ तिणि आयप्पवायपुब्वा गाहा (१६५०१३) सच्चप्पबायपुब्धा'[3 (१७प. १३) गाहा--'वितिओविय आदेसो'(१८५.१३) गाहा, आयप्पवायपुवा णिज्जूढा होइ धम्मपनचीति, सा एसा चेव ॥७ ॥
छजीवणिया धम्मपण्णनिति भण्णति, कम्मप्पवायपुग्या उ पिंडेसणा. सीसो आह-केणाभिसंबंधेण कम्पप्पवादपुग्ये कम्मे पण्णि-121 ट्रज्जमाणे पिंडेसणा भण्णइ ?, आयरिओ आह-'आहाकम्मं झुंजमाणे कइ कम्मपगडीओ बंधह ?' जहा भगवतीए, मुद्धं च पिंडं
दीप
अनुक्रम
... दशवैकालिक सूत्रस्य उद्धारस्थानानि एवं अधिकार:
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [११-३३/११-३४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश- अंजमाणस्स असुहकम्मबंधाण भण्णंति, एतेण अभिसंबंधेण कम्मप्पवायपुवाउ, सच्चप्पवायपुरबाउ बकसुद्धी, अवसेसा अज्झयणा पच-18/ उदारवैकालिक &खाणपुग्वस्स तइयवत्पओ णिज्जूढा, वितियाएसेण दुवालसंगाओ गणिपिडगाओ णिज्जढा । जत्तोत्ति दारंगतं । इदाणि जतित्ति स्थानानि चूर्णी दारं कथ्यते, कति एताणि अक्षयणाणि?, आयरिओ आह-दुमपुफियाईणि सभिक्खुपज्जवसाणाणि रतिपक्का विवित्तचरिया चूलिया|
अधि१ अध्ययनाय एताउ दो चूलाओ, जतित्ति दारं गयं । जहा ते ठचियत्ति दारं भणिज्जइ, एत्थ पंच गाहाओ 'पढमे धम्मपसंसा वितिए11 ॥८॥
हाधिति' गाहा (२०॥ प. १३)'तइए आयारकहा' गाहा-(२१॥पा १३) 'भिकखबिसोही' गाहा (२२। पा. १३)
'वयणविभत्ती गाहा ( २३ ।। ५ १३) 'दो अज्झयणा' गाहा (२४ ॥प. १५) ॥ पढमायणे धम्मो पसंसिज्जइ, सो राय इमम्हि चेव जिनशासने, नान्यत्र, मा भूदभिनवप्रवजितस्य संमोहः ततो द्वितीयाध्ययनमपदिश्यते-धर्मास्थितस्य धृतिः स्यात् 1
प्ररूपणं तदर्थमिति, 'जस्स धिति तस्स तबो जस्स तवो तस्स सोग्गई मुलभा। जे अधितिमंत पुरिसा तवोवि खलु दुल्लहो तेसि ।।१।। तृतीये सा धृतिः कस्मिन् कार्येति?, आचारे, अनेनाभिसंबंधेनाप्याचाराध्ययनमपदिश्यते, स चाचारः पदमुठ जीवनिकायेषु भवतीत्यनेन संबंधेन पड्जीवनिकायाध्ययनमपदिश्यते, पंचमे आहारादिकमृते शरीरस्थितिर्न भवति, अशरीरस्य च धर्मो न भवतीत्यनेनाभिसंबंधन पिंडेपणाध्ययनमपदिश्यते, पष्ठे साधु भिक्षागोचरप्रविष्ट केचिदाहु:-कीरशो युष्माकं आचार, तेनाभिहिताः-आचार्यसकासमागच्छथ, ततस्ते आचार्यसकासमागता नुवंति-कथयस्व कथयस्वेत्यनेन संबंधेन धर्मार्थकामाध्ययनमपदिश्यते, सप्तमे तेषामाचार्येण सावधवचनदोपविधिसंशेन निवद्येन कथयितव्यमित्यनेनाभिसंबंधेन वाक्यशुद्ध्यध्यय- ८॥ नमपदिश्यते, अष्टमे ते धर्म श्रुत्वा संसारभयोद्विग्नमनसो बुवंति-चयमपि प्रबजामः, ततस्ते आचार्य आह-प्रवजितेनाचारप्रणिधानं
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति : [११-३३/११-३४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्राक
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श्रीदश-14
कर्तव्यमित्यनेनामिसंबंधेन आचारप्राणध्यध्ययनमपदिश्यते, नवमे आचारव्यवस्थितस्य प्रबजितस्य विनयो वर्ण्यते इत्यनेनाभि-8 दुमस्य वैकालिक संबंधेन विनयसमाधिनामाध्ययनमपदिश्यते, एतेष्वेव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स भिक्षुर्भवतीत्यनेनाभिसंबंधन समिक्ष्व- निक्षेपाः
चूणों वाध्ययनमपदिश्यते, द्वावध्ययने चूडा, तत्र प्रथमायां संयमे सीदमानस्य तस्य भिक्षोरवधावनप्रेक्षिणो दोषा वर्ण्यन्ते नरकगमनादि, सिद्धिश्च १ अध्ययने । ततः संयमविरागो(ग) मद् , अनेनाभिसंबंधेन प्रथमचूडामध्ययनमपदिश्यते, द्वितीयचूडायां तस्य भिक्षोरसीदमानस्य गुणा ब
यंते, तेन शिवमचलमसंजननमक्षयमन्यावाधापुनरावर्तकं निर्वाणमुखं भवतीत्यनेनाभिसंबंधेन द्वितीयचूडामध्ययनमपदिश्यते, एवं-13 ॥ ९ ॥
दसवेयालियरस उ पिंडत्यो बपिणओ समासेणं । एत्तो एकाकी पुण अज्ञपणं वन्नहस्सामि ॥१॥
दस एताणि अज्झयणाणि दुमपुफियादीणि सभिक्खुपज्जवासाणाणि, तत्थ पढम अज्झयणं दुमपुस्फिया, तस्स चत्तारि अणुओगदारा, तंजहा-उवामो णिवेवो अणुगमो णयो, तत्थ उवकमो जहा आबस्सए छविहो समवतारितो तहेब इहइंपि, णिक्खेवो ओहणिफण्णो तहेव परूवेऊन गाहाओ, 'अझयणस्साणयणं' गाहाओ पंच माणियन्याओ, नामणिप्फण्णो | | दुमपुफिया दोणि पदाणि, दुमं पुफिया दोण्णि पयाणि, दुमेति पदं, एत्थ गाहा'णामदुमो ठवणदुमो दम्बदुमा खत्तकालभावदुमे (॥३४॥ प. १७) णामठवणाओ गयाओ, जहा आवस्सगचुण्णीए तहेव इहईपि, दुम इति कः शब्दार्थः, दु अस्मिन् देशे विद्यते तदस्यास्त्यस्मि (पा. ५।२।९४)निति मतुप्प्राप्ते बुद्रुभ्यां मः (पा. ५।२।१०८) प्रत्ययो भवति, प्रातिप-18 दिकार्थस्य रुत्वं विसर्जनीयः द्रुमः, दव्वदुमो दुविहो-आगमतो णोआगमतो य, आगमओ जाणये अणुवउचो, णोआगमओ पुण तिविहो भवति-जाणगसरीरदव्यदुमो भवियसरीरदव्यदुमो जाणगभवियसरीवतिरितो दबदूमो इति, तत्थ जाणगसरीरदबदुमो
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वाद
अध्ययनं -१- 'द्रुमपुष्पिका' आरभ्यते
... 'द्रुम' शब्दस्य नाम-आदि निक्षेपा:
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आगम
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / [गाथा:], नियुक्ति: [११-३३/११-३४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्राक
श्रीदश-18जो जीवो दुमपदत्याधिकारजाणओ तस्स जं सरीरगं जीवरहियं सुखरुक्खो वा पुथ्वभावपण्णवणं पहुच्च जहा अयं घयकुमो || मस्य
आसी एस जाणगसरीरदबदुमो, इयाणि भवियसरीरदबदुमो जो जीवो दुमपदत्याधिगारं जाणिहिइ, अणागतभावपण्णवणं पडुच्च चूर्णी जहा अयं घयकुंभो भविस्सइ अयं मधुकुंभो भविस्सइ, एस भवियसरीरदव्बदुमो । इदाणिं जाणगसरीरभवियसरीखहरितो दव्वदुमो,
का सिद्धिव १अध्ययने । सो तिबिहो भवइ, तं०-एगभविओ बद्धाउओ अभिमुहणामगोत्तो य, एगभविओ जो ततो भवाओ अणंतरं दुमेसु उववज्जिस्सति, बद्धा॥१०॥
उओ णाम जो दुमेसु आउगं णिबद्धं ण ताव उववज्जइ, अभिमुहनामगोतो णाम जस्स पुच्चभविए णामगोचे पहीणयाए पएसा णि
छूढा इलियादिट्टतेणं सो पुब्वभवं जहाय अभिमुहनामगोओ दुमेसु उववज्जिउकामो, एस दबदमो । भावदुमो दुविहो-आगमओ |णोआगमओ य, आगमओ जो दुमाहिगारजाणओ जहा एतेहिं कम्मेहि करहिं उप्पज्जिस्सइ एस उवउत्तो, नोआगमओ दुमणामगोचाणि कम्माणि वेदितो भावदुमो भवति । सीसो आह अहो ताव असमंजसं भण्णइ, कई खु जो जस्स जीवस्स उबओगो सो सो चेव
भविस्सइ !, नो खलु लोए अग्गिमि उबउचो देवदत्तो अग्गि चेव भवइ, आयरिओ भणइ-अहो बच्छ ! अइमुद्धोऽसि, पणु णाणंति लावा संवेदणंति वा अधिगमोत्ति वा चेतगंति वा भावत्ति वा एते सहा एगट्ठा, जीवलस्खणं चेव पाणं, ण तु णाणातो बतिरित्तो
जीवो, तेण जो० स पाया, सो जे अग्मिस्स सामत्थं दहणपयणपगासणाई जाणइ, तओ अग्गिणाणायो सो णाया अव्वइरिचो, तेण सो अग्गिसामत्थजाणओ भावग्गि चेव लब्भइ, तम्हा जो जस्स जीवस्स उवओगो सो चेव भण्णइ । इदाणि दुमस्स 31 | एगट्टियाणि-जहा सकसहस्सक्खवज्जपाणिपुरंदरादीणि इंदस्स एगट्टियाणि एवं दुमस्सवि इमाई एगट्ठियाई, 'दुमा य पादया चेव है। | रुक्खा गच्छा' (३५-१७) गाहा । तत्थ दुमा नाम भूमीय आगासे य दोमु माया दुमा, पादेहिं पिवंतीति पादपाः पाएसु वा
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आगम
(४२)
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भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:) भाष्यं [-]
अध्ययनं [१] उद्देशक [-1, मूलं [-] / [गाथा:] निर्युक्तिः [११-३३ / ११-३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णी
१ अध्ययने
॥ ११ ॥
पालीज्जतीति पादपाः पादा मूलं भण्णंति, रुत्ति पुहवी खत्ति आगासं तेसु दोसुवि जहा ठिया तेण रुक्खा अहवा रुः पुढवीतं मपुष्पिका खायतीति रुक्खो विडिमाणि जेण अस्थि तेण चिडिमा, ण गच्छंतीति अगमा, नदीतलागादीणि तेहिं तरिज्जति तेण तरवो, कृत्ति पिथिची तीए धारिज्जति तेणं कुद्दा, महीए जेण रुहंति तेण महीरुहा, पुतणेहेण वा परिगिज्झति तेण वच्छा, रुप्पंति जम्दा तेण रोषगा, रुति पृथिवी तीय जी (जा) यंतित्ति रुजगा, दुमेति दारं संमत्तं । इदाणिं पुष्फत्ति दारं, तंपि चउब्विहं, जहा दुमो वक्खा पिओ तहा वक्खाणेऊण चउन्विहंपि दव्बपुष्फाण अहिगारो, तस्स एगाईयाणि णांमाणि 'पुष्कं फुलं कुसुम' एवमादीणि, पुष्कियमिति किं तारकादौ पठ्यते ?, पुष्पशब्द एतत्प्रातिपदिकं तस्य नपुंसकविवक्षायां प्रातिपदिकार्थेलिंगपरिणामवचनमात्रे प्रथमास्तस्य एकवचनस्य अतो नित्यमम्भावः अतो गुणः पररूपत्वं पुष्पं, अवयवलक्षणषष्ठीसमासः, सुपो धातुप्रातिपदिकयोरिति सुप्लुक् । इदाणिं वाक्यं द्रुमपुष्पं द्रुमपुष्पिका का रूपसिद्धिः ?, द्रुमपुष्यशब्दस्य 'प्रागिवात्क' (पा. ५-३-७ ) इति वर्त्तमाने 'अज्ञाते' (७३) 'कुत्सिते' (७४) 'संज्ञायां' (७५) कन्प्रत्ययः, नकारलोपः, दुमपुष्पप्रातिपदिकं, स्त्रीविवक्षायां 'अजाद्यतष्टा' पा ४ । १-४) पिति टप्प्रत्ययो भवति, पकारटकारलोपे कृते प्रत्ययस्थात्कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपे ( पा. ७-३-४४ ) ति इवं, अकः सवर्णदीर्घत्वं परगमने कृते द्रुमपुष्पिकारूपं सिद्धं । इदाणिं द्रुमपुष्पिकाध्ययनं का रूपसिद्धिः १, दुमपुष्पिका चासौ अध्ययनं च समानाधिकरणः, षष्ठीतत्पुरुषः द्रुमपुष्पिकाध्ययनरूपं सिद्धं अथवा दुमपुष्फेन यत्र उपमानं क्रियते तदिदं । वा दुमपुष्पिकाध्ययनमिति । तस्स य अज्झयणस्स इमे अत्थाधिगारा एगडिया, एत्थ गाहा 'दुमपुष्फिया य आहारएसणा (३७-१८) दुमपुष्पियति वा आहारएसणत्ति वा गोयरेति वा ततेति वा उच्छेत्ति वा मेससरिसेत्ति वा जलोगसरिसेहवा सप्पस
॥ ११ ॥
***अत्र प्रथम अध्ययनस्य परिचय-निर्युक्तिः आरब्धा: ••• अत्र 'द्रुमपुष्पिका' शब्दस्य सिद्धिः निर्दिश्यते
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं -1/[गाथा:], नियुक्ति: [३४/३४-३७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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SINIब्दाः
सूत्राक
दीप
श्रीदश- रिसेत्ति वा वत्ति वा अक्खेति वा उसुत्ति वा गोलेति वा पुत्तेनिषा उदएचिवा एतेहिं उवम्म कीरइत्तिकाउं ताणि भण्णति नामाणि अध्ययनैवकालिका तस्स अज्झयणस्स, दुमपुफियत्ति जहा भमरो दुमपुप्फेहितो अकयमकारिय पुष्फ अकिलामेन्तो आहारेति, एवं अकयमकारियंटू काथा'
चूणा निरुवधं गिहत्थाणं अपीलयं आहार गेहइ । आहारएसणत्ति एगग्गहणे तज्जातीयग्गहणं उम्गमादिसुद्धं अरचढेण आहारे१ अध्ययन यचं, गोयरेत्ति जहा सो बच्छओ तमि सेट्टिकुले ताए बहुगाए सब्बालंकारविभूसियाए उ चारि दिज्जमाणं पलोएड, सहादीसु। ॥ १२ ॥लन रत्ते दुट्टो वा, एवं भिक्षुणा हिडतेणं सद्दादीसु इटाणिट्ठविसएमु न रज्जियन्वं न य दुस्सियव्यंति। तदेति जहा चत्तारि घुणाल
पण्णत्ता, तंजहा-तयक्खाए छल्लिक्खाए कट्ठक्खाए सारक्खाए, तयक्खाए नामेगे णो सारक्खायी १ सारक्खाइ णामेगे णो तयाखायी २ एगे तयखायीधि सारक्खायीवि ३ एगे णो तयक्खायी णो सारक्खायी ४, तयक्खायीसमाणस्स णं भिक्खुस्स सारक्खायी। समाणे तवे भवइ, एवं जहा ठाणे तहेव । उंछोत्ति दारं, ते चउम्विहं, णागठवणाउ तहेब, दग्छ जहा केइ तावसादी उंछति, भाषाला | अण्णायपिंडो । मेसुत्तिदारं, जहा मेसो अणायुगाणितो पिचेति एवं साहुणावि भिक्षापविद्वेण बीयकमणादि ण तहा हल्लफ
लयं काय जहा भिक्खाए दाया मूढो भवइ, सो वा तेण वारेयव्यो जेण परिहरइ । जलूगा, एत्थ चेव समोयारेयचो, भणियं चन | दर्शस्तीक्ष्णनिपातन्धमायाति चात्मनः । जलूकापि तदेवार्थ, माइवेनोपसप्पंति ॥ १॥ एवमणेसणाए, ण जहा मसओ दुक्वं
| उप्पाइचा रुधिरं पियति, एवं णिवारेइ जहा तस्स दायगस्स मणो दह न भवति, जलोगा व निवारणीयं पसण्णमणसणं । ॥१२॥ दासप्पोत्ति जहा सप्पो सरति बिले पविसति तहा साहुणावि अणासादतेण हणुय असंसरतणं आहारयव्यं, अहवा जहा सप्पो
एगदिदी तहा णिग्गथे पक्यणे एगदिविणा होयम् । वणेत्ति जहा वणस्स मा फुट्टिहिति तो से मक्खणं दिज्जद, एवं इमस्सविx
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आगम
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“भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य+चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1/[गाथा:], नियुक्ति: [३४/३४-३७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
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सूत्रांक
१अध्ययने
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॥१३॥
R5%4599 G
जीवस्स मा भितिक्खयं करेहिइ तो से दिज्जइ आहारो, ण वण्याइहेउ । अक्खत्ति जहा सगडस्स जत्तासाहणट्ठा अभंगो दिज्जद, अध्ययनएवं संजमभरवहणत्थं आहारेयब्वं । उसुत्ति जहा रहिओ लक्खं विधिउकामो तदुवउत्तो विधड, वक्खित्तचित्तो फिट्टइ, एवं साहवि कार्थाः उवउत्तो भिक्खं हिंडंतो संजमलक्खं विधइ, पक्खिप्पतो सदाइएसु फिट्टइ । पुत्तिात्त पुसमंसोबमो आहारो भोत्तम्बो । गोलित्ति || जहा जतुमि गोलए कज्जमाणे जइ अग्गिणा अतिल्लियाविज्जइ ता अतिदवत्तणेण न सका काउं, अह व नेवल्लियाविज्जइ नो चेव । निम्घरति, णातिदूरे णातिआसणे अकए सकइ बंधिउं, एवं भिक्खापविट्ठो साह जइ अइभूमीए विसइ तो तेसिं अगारहत्थाणं अप्पत्तिया भवइ तेणयसंकणादिदोसा, अह दूर तो न दीसह एसणाघाओ य भवइ, तम्हा कुलस्स भूमी जाणित्ता पाइरे णासणे ठाइ-IM यच्वं । उदएत्ति जहा वाणियएण छ रयणाणि सुंडियाणि दिसाए गंतुं, सो य ताणि ण सकइ नित्थारेउं चोरभया , ताहे सो ठयेऊण ताणि एगमि पएसे अण्णे जरपाहाणे घेतं पडिओ गहिरूलवेसेण, रयणवाणियउ गच्छतित्ति भाविए तिमि बारे जा कोइन। उद्वेइ ताहे घेत्तुं पयाओ, अडवीए तिसाय गहिओ जाव कुहियपाणिययं खिल्लरं विणटुं पासइ, तत्थ बहवे हरिणादओ मया, तेणं सव्वं उदगं वसा जाता, तं तेण अणुस्सासियाए अणस्सादंतेणं पीतं, णिस्थारियाणि अणेण रयणाणि, एत्थं तु रयणस्थाणियाणि णाणदसणचरिचाणि, चोरस्थाणिया विसया, कुहिओदगत्थाणियाणि फासुगेसणिज्जाणि अंतपंताणि आहारेयब्याणि, आहारितेणं साहारेंतपुप्फफलेण जहा वाणियगो इह भवे सुहीजातो एवं साधूवि सुही भविस्सइ अडवित्थाणीयं संसारं नित्थरिता ।। गर्य चेयं नाम ।
दुमपुफियत्ति, गतो नामनिष्फण्णो। इदाणि मुत्तालावगणिप्फण्णो, सो पत्तलक्षणोऽविण निक्खिप्पति, कम्हा?, जम्हा ४ अस्थि इतो तइयं अणुयोगदारं अणुगमोचि, तम्हा तहिं चेव णिक्खिाविस्सामि, तहिं निक्खिप्पमाणे लहुगं भवइ, सीसस
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आगम
(४२)
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सूत्रांक
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अनुक्रम [-]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / [गाथा:], निर्युक्तिः [ ३४ / ३४-३७], भाष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र - [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णां
१ अध्ययने
॥ १४ ॥
मूलं
य असंमोहो भवः । इदाणिं अणुगमो, सो दुविहो- सुत्ताणुगमो य निज्जुतीअणुगमो य, निज्जुनिअणुगमो तिविहो. दसवेतालियनिज्जुत्तिअणुगमो १ उबग्धाय निज्जुत्तिअणुगमोर सुत्तफासियनिज्जुत्ति० २, दसवेयालियनिज्जुत्तिअणुगमो जो एस हेट्ठा वण्णिओ, उवग्धायनिज्जुत्तिअणुगमो 'उद्देसे निऐसे य' गाहा ( आव. १४० ) तित्थयरस्स उवग्धार्य काऊणं जहा आवस्सए पच्छा अज्जसुधम्मस्स ततो जंबुणामप्पभवार्ण उवग्धार्य काउं तओ अज्जप्पभवस्स पुथ्वरत्तावरतकाले चिंता सम्मुप्पण्णा, तं सव्वं अक्खाणयं हेडा समक्खायं जं तं माणित जाव मणगोति । उवग्धापनिज्जुती गया, इदाणि सुत्तफासियनिज्जुती भण्ण-सुतेण चैव सह सा भाष्णहिति सा य इमा'णामं ठपणा घम्मो' गाहा - ( ३९-२१) एवमादियाउ गाहाओ सुत्तफासियनिज्जुती भण्णइ । इदाणिं सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारयन्बं अक्खलियं अमिलियं अविच्चामेलियं जहा अणुओगदारे जाब दसवैकालिकपदं वा वैकालिकपदं वा तत्थ 'संहिता च पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तंत्रस्य पद्विधा ॥१॥ तत्र संहितेयम्मी मंगलमुहिं, अहिंसा संजमे तवो। देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥ १ ॥ संहिताऽतिक्रान्ता, इदानिं पदं ' धारणे' अस्य धातोः मनुप्रत्ययान्तस्येदं रूपं धर्म इति, मंगेति धर्मस्याख्या, 'ला आदाने' अस्य धातोर्मंगपूर्वस्य कप्रयान्तस्येदं रूपं मंगलंति, 'कृष विलेखने' अस्य धातोरुपूवस्य निष्ठाप्रत्ययान्तस्येदं रूपं उत्कृष्टमिति, 'गृह हिसि हिंसायां' अस्य धातोरिदितो नुम्, नुमि कृते अधिकारे अप्रत्ययान्तस्य नश्पूर्वस्येदं रूपं अहिंसेति, यमू उपरमे 'अस्य धातोः संपूर्वस्य अप्रत्ययान्तस्येदं रूपं संयम इति, 'तप धूप संतापे' अस्य धातोः सुनप्रत्ययान्तस्येदं रूपं तप इति, 'दिवु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिकान्तिगतिषु' अस्य धातोरप्रत्ययान्तस्येदं रूपं देवा इति, 'तदि'ति सर्वनाम, अस्य नपुंसकविवक्षायां रूपं
... अथ सूत्रं आरभ्यते
... 'धर्म' आदि पदस्य अर्थः निर्दिश्यते
[27]
उपोद्घातसूत्रस्य शके सूत्रानुगमध
संहितापदे
॥ १४ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
गाथा
श्रीदश- तदिति भवति, णम ग्रहत्वे शन्दे' अस्य धातोरणप्रत्ययान्तस्येदं रूपं नम इति, यदिति सर्वनाम, अस्य स्वकृतलक्षणां षष्ठीमुत्पादयित्वा कालिक तस्येदं रूपं यस्येति, धर्मः पूर्वविहित एव, धर्म इति, सर्वस्मिन् काले 'सवैकान्यकिंयत्तदः काले दा' (पा-५-३-१५) प्रत्ययो भवति, चूर्णी सर्वस्य साऽन्यतरस्यां दि (पा. ५-३-६) स आदेः, तस्येदं रूपं सदा यदा इति, 'मन ज्ञाने' अस्य धातोरस्प्रत्ययान्तस्य चेदं रूप १ अध्ययने । मन इति, पदमतिकान्तं । इदानि पदार्थ:-यस्मात् जीव नरकतिर्यग्योनिकुमानुषदेवत्वेषु प्रपतंतं धारयतीति धर्मः, उक्तश्च-'दुर्गति॥ १५॥
प्रसृतान् जीवान , यस्माद् धारयते ततः। घने चेतान् शुभे स्थाने, तस्माद्धर्म इति स्थितः ॥१।। मंगं नारकादिषु पवडतं सो लाति | मंगलं, लाति गेहइत्ति बुत्तं भवति, उक्किट्ठ णाम अणुनरं, ण तओ अण्ण उकिट्ठयरंति, अहिंसा नाम पाणातिवायविरती, संजमो नाम उवरमो, रागद्दोसविरहियस्स एगिभावे भवइत्ति, तवो गाम तावयति अट्ठयिह कम्मगंठिं, नासेतित्ति बुत्तं भवइ, देवा णाम दीवं आगासं तंमि आमासे जे वसंति ते देवा, अवि णाम संभावणा, अहिंसातवसंजसलक्खणे धम्मे ठिओ तस्स देवा पणिवायचंधुरसिरा भवंति, माणुस्सेसु पुण का सण्णत्ति एसा संभावणा, तमिति जो पुष्वमीणओ अहिंसातवसंजमलक्खणे धम्मे ठिओ तस्स एस णिदेसोत्ति, जस्सत्ति अविसेस, यस्य साधुस्स निदेसो, धम्मो पुन्यभणिओ, सदा णाम निच्चकालं, जस्स धम्मे मणो बुद्धी णाम एताणि अज्झवसाणं । इवाणि पदविग्गहो-सो य दोण्हं पदाणं भवद जेसि परोप्परं अत्थसंबंधो जुज्जद, पत्थ पुण पिहप्पिहाणि चेच पदाणि तेण गओ। चालणपसिद्धीओ उपरि भणिहिति ॥ 'कस्थाइ पुच्छति सीसो (३८-२१) सीसो कम्हियि संदेहे समुप्पण्णे टा॥१५॥ पुच्छद, आयरिशा य तं तस्स सीसस्स हियट्ठाए तसो पुच्छातो चिउणतरामं परिकहेइ, कत्था पुण आयरिओ अपुच्छिओ चेव | सीसस्स बुद्धिवित्थारणनिमित्र परिकहेइ सयमेव ॥ इदाणि सुत्तफासियनिजुत्ती वित्थारिज्जइ,एयपि अपुच्छिो चेव आयरिओ
दीप
अनुक्रम
[१]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||१||
श्रीदश-15सीसस्स अणुकंपणत्थं वित्थारेणं परिकहेर, तत्थ पढमं धम्मपरूवणत्थं भण्णाइ'नाम ठवणाधम्मो दव्वधम्मो य भावधम्मो यI.
धर्म
Itनिक्षेयाः गाथा, (३९-२१) णामठवणाओ तहेब, इदाणि दब्बधम्मो, तस्स इमा गाथा 'दव्यं च अस्थिकायो' गाथा (४०-२१) चूों
दल्बधम्मो तिविहो भवइ, तंजहा-दव्यधम्मो य अत्थिकायधम्मो य पयारधम्मो य, तत्थ दबधम्मो ताव दश्वपज्जवा, एते है १अध्ययने
18| धम्मा तस्स जीवदन्वस्स अजीवदम्बस्स, उपायठिईभंगा पाजाया भवति, तत्थ जीवदव्वस्स ताव इमे उप्पायठितिभंगा, जह ॥१६॥रामणुस्सभावेण उप्पण्णस्स मणुस्सस्स मणूसत्ते उप्पायो भवंति, जाओ पुण गतितो उन्बट्टिऊण आगओ ताए गतीए विममो, जीव-14
तणे पुण अवडिओ चेच, एवं एयंमि भवग्गहणे । इदाणं अजीवस्स उप्पायठिईमंगा भण्णति, जहा परमाणुस्स परमाणुभावेण || विगयस्स परमाणुत्तणे विगमे दुप्पदेसियचेण उप्पाओ अजीवदवत्तणेण अवडिओ घेव, तहा सुवण्णदव्बस्स अंगुलेज्जगत्तर्णण |
विगमो कुंडलत्तणेण उप्पाओ सुवण्णदबते अवडियं चंव, जहा कालगवण्णविगमे कालत्तेण विगमो नीलत्तेण उपाओ वष्णतण [3] अवडिओ चेध । इदाणि अरूविदब्वाणं परपच्चया उष्पायठितिभंगा भणति, जहा घडागासेणं संजुत्तस्स आगासस्स घडागास-12 संयोगेण उप्पायो पढागासचेण विगमो आगासत्तेण अवडिई । इदाणि अस्थिकायधम्मोत्तिदारं 'धम्मस्थिकाय' गाहा (४०-२२) अस्थि वेज्जति काया य अस्थिकाया, ते इमे पंच, तेसिं पंचाहवि धम्मो जाम सम्भावो लक्षणंति एगड्डा, तत्व पढमे धम्मस्थिकाए सो गइलक्षणो, वितिओ अधम्मत्थिकाओ सो ठितिलक्षणो, ततिओ आगासत्थिकायो सो अव-11 गाहलक्खणो, चउत्थो पोग्गलस्थिकायो सो गहणलक्षणो, पंचमो जीवत्थिकाओ सो उवओगलक्षणोति नायब्वा । इदाणि | पयारधम्मोत्तिदारं, पयारधम्मा णाम सोयाईण इंदियाण जो जस्स विसयो सो पयारधम्मो मषा तं सोईदियस्स सोयव्यं |
BARBASSADORE
दीप अनुक्रम
[१]
... अथ 'धर्म'स्य निक्षेप-कथनं
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
श्रीदश
सूत्रांक
गाथा ||१||
चवइंदियस्स दडव्वं पाणिदियस्स अग्घाइयव्यं, एवं सम्बत्थ । इदाणिं भावधम्मोत्ति दारं-'लोइय कुप्पायण' गाहद्ध, लोकोत्तावैकालिक (४१-२२) सो य तिविहो-लोइओ लोउत्तरिओ कुप्पावयणीओ य, लोइओ अणेगविहो पण्णानो, जहा-गम्मपमुदेसरज्जे पुरवर- धर्मः चूर्णी लगामगणगोद्विराईणति (४२-२२) तत्थ गंमधम्मो णाम जहा दक्षिणापहे माउलदुहिया गंमा उत्तरापहे अगम्मा, एवं भक्खा-: दशधा १ अध्ययन भक्खं पेयापेयं भासियब्वं, पसुधम्मो णाम गातभगिणीहियादीणं गमणं, देसधम्मो णाम दक्खिणापहे अण्णं णेवत्थं अण्ण उत्तरापहे श्रमणधर्मः ॥१७॥
का एवमादि, रज्जेवि अण्ण लाडरज्जे करज्जवत्ती अण्णो उत्तरापहे एवमादि, पुरति नगरं तस्थवि अण्णो अण्णो गामवासीणं, गामे 5
एगागिणीवि इस्थिगा गिहतर गच्छइ, नगरे सवितिज्जगा एवमादि, गणधम्मो जहा मल्ला पिवंति समवाएणं एवमादि, गोट्ठिधम्मो | गामसमन्वयाण गोढि भवइ, तेसि उस्सवादिएमु कारणेसु इट्ठभोयणासणाइसु गोडिओ भवंति, रायधम्मो णाम असणेवि अबराह| ण खमिज्जइ, सपजाए सुदंडो घेप्पति, एवमादि। इदाणि कुप्पावयणिओ, कुत्थियं पवयणं कुष्पवयणं तं सककणादकपिलइस्सरवेद-४ | वादी, एवमादि कुप्पावयणियं भवति, सीसो आह-केण कारणेण एताणि कुप्पाबयणाणि भवंति', 'सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो
ण जिणेहि उ पसत्थो' वज्जो णाम गरहिओ, सह बज्जेण सावज्जो भवइ, सावज्जतणेण कुप्पावयणियो भवइ, अतो य न पसंसिज्जति जिणेहिं, के य ते जिणा?, इमे चउचिहा, त०-णामजिणा ठवणजिणा दबजिणा भावजिणा य, नामठवणाओ तहेव, दब्बजिणा जे है छउमत्था वाहि वा वेरियं वा जे जिणन्ति ते दब्बाजिणा, भावजिणाजे केवलणाणिणो, तेहि सो कुष्पावयणीओ सारंभत्तणेण न पसंसितो ॥१७॥ इदाणि लोउत्तरो भावधम्मो, सो दुविधो-सुयधम्मो चरित्तम्धमो य, तत्थ सुयधम्मो दुवालसंगं गणिपिडगं, तस्स धम्मो जे जाणि| यच्या भावा अहवा असंजमाउ नियत्ती संजमंमि य पवित्ती॥हदाणिं चरित्तधम्मो, सो इमो समणधम्मो दसप्पगारोवि-खमा महवं
दीप
HES
अनुक्रम
[१]
a- K
[30]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||||
दीप
अनुक्रम
[१]
अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१]
निर्युक्तिः [ ३८.९४/३८-२५] भाष्यं [१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
चूण
१ अध्ययने
॥ १८ ॥
अज्जवं सोयं सच्च संजमो तवो चाओ अकिंचणियत्तणं बंभचेरमिति, तत्थ खमा आकुट्टुस्स वा तालियस्स वा अहिया तस्स कम्मक्खओ भवइ, अणहियासितस्स कंमबंधो भवइ, तम्हा कोहस्स निग्गहो कायब्वो, उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं, एस खमति वा तितिक्खत्ति वा कोधनिग्गहेचि वा एगट्ठा १। मदवं नाम जाइकुलादीहीणस्स अपरिभवणसलित्तणं, जहाऽहं उत्तमजातीओ एस नीयजातीत्ति मदो न कायथ्यो, एवं च करेमाणस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अकरेंवरस य कम्मोवचयो भवद्द, माणस्स उदिन्नस्स निरोहो उदयपत्तस्स विफलीकरणामिति२ । अज्जयं नाम उज्जुगत्तणंति वा अकुडिल तणंति वा, एवं च कुण्यमाणस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अकुब्ब माणस य कम्मोवचयो भवइ, मायाए उदितीए गिरोहो कायन्वो उदिष्णाए विफलीकरणंति ३। सोयं नाम अलुद्धया धम्मोवगरणेसु वि, एवं च कुव्यमाणस्स कम्मनिज्जरा भवति, अकुव्यमाणस्स कम्मोवचओ, तम्हा लोभस्स उतस्स गिरोहो कायब्बो उदयपत्तस्स वा विफली| करणमिति ४। सच्चं नाम सम्मं चिंतेऊण असावज्जं ततौ भासियव्वं सच्चं च एवं च करेमाणस्स निज्जरा भवइ, अकरेमाणस्स कम्मोबचयो भवइ ५। संजमो तवो य एते पच्छा भण्णंति, किं कारणं?, जेण उवरि 'अहिंसा संजमो तव।' एत्थवि सुत्तालावगे संजमो तवो य भणियव्वगा चेव, तेण लाघवत्थं इहं ण भणिया ६-७ । इदाणिं चागो णाम वैयावच्चकरणेण आयरियोवज्झायादीण महंती कम्मनिज्जरा भवइ तम्हा वत्थपत्तओसहादीहिं साहूण संविभागकरणं कायव्वंति । अकिंचणिया नाम सदेहे निस्संगता, निम्ममत्तणंति वृतं भवइ, एवं च करेमाणस्स कम्मनिज्जरा भवद्द, अकरेमाणस्स व कम्मोवचओ भवइ, तम्हा अकिंचणीयं साहुणा सब्वपयतेण अहियवं ९। इदाणि बंभचेरं तं अट्ठारसपगारं, तेजहा ओरालियकामभोगा मणसा ण सेवर ण सेवावेह सेवतं णाणुजाणइ. एवं वायाएवि न सेवइ न सेवावेइ सेवतं नाणुजाण, एवं काएणावि न सेबेइ न सेवावेह सेवतं नाणुजाणइ, एवं नवविधं गयं, एवं दिच्वावि
[31]
लोकोत्तरधर्मः
दशधा श्रमणधर्मः
॥ १८ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||१||
श्रीदश- कामभोगा मणसावि न सेवेइ न सेवायेह सेवत नाणूजाणइ, एवं वायाएपि न सेवेइ न सेवायेइ सेवंतं नाणुजाणइ, एवं कारणाचि &ा मंगलवैकालिकन सेवइ न सेवावेइ सेवंतं नाणुजाणइ, एवं एय अद्वारसविधं बभचेरं सम आयरंतस्स कम्मनिज्जरा भवइ, अणायरंतस्स कम्मबंधो महिंसा च
चूर्णी भवइचि नाऊण आसेवियब, दसविधी समणधम्मो भाणओ॥ इदाथि एयंमि दसविधे समणधम्मे मूलगुणा उत्तरगुणा ५ १ अध्ययनका समक्यारिज्जंति-संजमसच्चआकिंचणियबंभचेरगहोण मलगुणा गहिया भवंति, तंजहा-संजमग्गहणणं पढमअहिंसा गहिया,
सञ्चगहणेणं मुसाबादविरती गहिया, पंभचेरम्गहणेण मेहुणविरती गहिया, अकिंचणियग्गहणेण अपरिग्गहो गहिओ अदत्तादाण॥१९॥
साविरती य गहिया, जेण सदेहेवि णिस्संगता कायब्बा तम्हा ताव अपरिग्गदिया गहिया, जो य सदेहे निस्संगो कहं सो आदण्ण
गण्हति', तम्हा अकिंचणियम्महणेण अदत्तादाणविरती गडिया चेब, अहवा एगग्गहणे तज्जातीयाण गहणं कयं भवतिति, तम्हा। ४ा अहिंसागहणेण अदिणादाणचिरती गहिया चेव । खंतिमद्दवज्जवतवोग्गहणेण उत्तरगुणाणं गहण कयं भवइत्ति,धम्मोत्ति दारं गया।
दाणि मंगलं भण्णद, तं चउब्बिहं णाममंगलं ठवणा० दबभावमंगलं, नामठवणाउ तहेव, दब्बभावेसु इमा गाहा-15 IVIदव्य भावे य मंगलाणि (४४.३४) तस्थ दय्वमंगलं पुण्णकलसादी, आदीगणेण न केवलं पुण्णकलसो एगा मगल, किती।
हा जाणि दव्वाणि उप्पज्जतगाणि चेव लोगे मंगलबुद्धीए घेप्पति जहा सिद्धत्यगदहिसालिअक्खयादाीण ताणि दव्वमंगलं, भावमंगलं है पुण एसेव लोगुत्तरो धम्मो, जम्हा एत्थ ठियाणं जीवाणं सिद्धी भवइ । सीसो आह-दब्वभावमंगलाण को पइबिसेसो ?, आयरिओ
आह--दब्वमंगलं अणेगतिगं अणचंतियं च भवति, भावमंगलं पुण एगतियं अच्चंतियं च भवइ, मंगलंति दारं गयं ।। इदार्णि, उनिहुँ, उचिट्ठ णाम जो एमु लोगुत्तरी धम्मो भणिो एसो भावमंगलं उकिहुं भवइ ॥ इदाणि अहिंसा, तत्थ पढम
*
दीप अनुक्रम
eCAERA
... अथ 'मंगल'स्य नाम-आदि निक्षेप-कथनं
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूणों
गाथा ||१||
श्रीदश-18 हिंसा वण्णेयय्या, हिंसाए परूवियाए अहिंसा परूविया चेव, सा य मणवयणकाएहिं जोएहि दुप्पउत्तेहिं जं पाणवबरो-2 संयमः पकालकावणं कज्जह सा हिंसा, तत्थ भंगा चचारि-दव्यतोवि एगा हिंसा भावावि, एगा हिंसा दबओ न भावओ, एगा।
भावओन दबओ, अण्णा ण दचओ न भावी, सा अहिंसा चेत्र ण भण्णद, तस्थ दव्वआषि भावावि जहा का १ अध्ययन
४/पुरिसे मियवधाते परिणामपरिणए मियवधाय उसु निसिरेज्जा, से य मिए तेम उसुणावि विद्धे, एसा दबओ भावओवि ॥२०॥ हिंसा, तत्थ जा सा दवओ न भावओ सा इमा, उक्तं च-'उचालियंमि पाए' गाहा. (४-७४९) 'ण य तस्स सपिणमित्तो'
गाहा (४-७५०), एतानी दोषि जहा ओहनिज्जुत्तीए, तत्थ जा सा भावओ न दबओ जहा केइ पुरिसे असिणा अहिं छिदिस्सामिनिकटु रज्जु छिदिज्जा एसा भावओ, एसा हिंसा.विकोवणत्थं वणिया, इह पुण अहिंसाए पयोयणं, साय अहिंसाइ वा अज्जीवाइवातोति वा पाणातिपातविरइत्ति वा एगट्ठा ।। सिस्सा आह-णणु जा चव अहिंसा सो चेव संजमोऽवि, आयरिओ आहअहिंसागहणे पंच महव्वयाणि गहियाणि भवंति, संजमो पुण तीस चेव अहिंसाए उबग्गहे बट्टइ, संपुष्णाय अहिंसाय संजमोवि तस्स
भवइ, अहिंसा गता॥ इदाणि संजमी, सो ए सत्तरसविहो, तंजहा-पुढविकायसंजमो आउकायसंजमो तेउकायसंजमो वाउफाय*संजमो वणस्सइकायसंजमो बेइंदियसंजमो तेइंदियसंजमो चउरिदियसंजमो पंचिदियसंजमो पेहासंजमो उपहासजमो भवहरदुसजमा
पमज्जियसंजमो मणसंजमो वयसंजमो कायसंजमो उबकरणसंजमो, तत्थ पुढविकायसंजमो णाम पुढविकायं मणवयणकाइरापदि जोगेहि न हिंसइ न हिंसाबइ हिंसंतं णाणुजाणइ, एवं आउकायसंजमोवि, जाव पंचिंदियसंजमो, पैहासजमो णाम ठाणं निसीयणं तुयदृणं या जस्थ काउकामो तं पृच्वं पडिलेहिय पमज्जिय करमाणस्म संजमो भवइ, वितहकरणे असंजमो, उबेहासंजमो
CIRC
दीप अनुक्रम
HAMACHAR
[१]
॥२०॥
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||१||
॥२
॥
आदश-पणाम संजमतवसमग्गं संभोगियं तं चोदंतस्स सेजमो भवइ, असंभोइयं चोदतस्स असंजमो भवद, पावयणं कर्ज काऊग चियत्ता यायेतपसि वकालका वा से पडिचोयणचिकाउं तत्ता अण्णसंभाइयं चोदेंति, गिहियाणं कम्मारंभ पमादपत्ताणं उबेहयंतस्स संजमो भव, वावारेतस्स 2 अनशनं चूर्णी
असंजमी, अवहटुसंजमो नाम अइरेगोवकरणं विगिचितस्स संजमो भवइ, पाणजातीए य आहारादिसु विगिचंतस्स संजमो भवइ, असु१ अध्ययने ।
* द्धोवगरणाणि य परिठवेंतस्स संजमो भवइ, पमज्जणासंजमो नाम सागारिए पाए अपमज्जंतस्स संजमो भवइ, अप्पसागारिए पाए पमज्जंतस्स संजमो भवइ, मणसंजमो णाम अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं वा, वयसंजमो णाम अकसलवइनिरोहो कुसलबइउदारणं वा, कायसंजमो णाम आवस्सगाइजोगे मोतुं सुसमाहियपाणिपादस्स कुम्मा इब गुत्तिादयस्स चिट्ठमाणस्स सजमा मना उपकरणसंजमो णाम पोत्थएसु पेप्पतएसु असंजमो भवइ, महद्धणमुछेसु य वत्थेसु, तसि विवज्जणे संजमो, कालं पुण पड़च चरणकरणड्डा अयोन्छितिनिमित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भवइ । इदाणिं तवो, सो दुविहो-बज्यो अन्भतरो य, तत्थ पढम बझो भवइ पच्छा अभंतरो, सीसो आह-केण कारणेण बज्झो अन्र्भतरो वा भण्णइ', आयरिओ आह-जम्हा मिच्छदिट्ठीहि-1 वि यायरिज्जमाणो नज्जइ विवरीयग्गहणेण कुतित्थियादीहिवि कज्जइ तम्हा बसो, अभंतरो पुण कज्जमाणो ण तहा पागडो भवइ तेण अन्भतरो भण्णइ , तत्थ जो वझो सो छन्विहो, तंजहा-अणसणं ऊणायरिया भिक्खायरिया रसपरिचाओ कायकिलेसो संलीणतत्ति, तत्थ अणसणं नाम न असिज्जइ अणसणं, णो आहारिज्जइत्ति बुत्तं भवति, तं च दुविहं-इत्तिरिय आवकाहयं च, इत्
रियं णाम परिमितकालियं, तं चउत्थाउ आरद्धं जाव छम्मासा, आवकहियं जावजीवमेव, तं तिविध-पाओवगमणं इंगिणिदमरणं भत्तपच्चक्खाणं च, तत्थ पाओगमणं णाम जो निष्पडिकम्मो पादउच्च जो पडिओ तओ पडिओ चेव, तं च दुविहं
AGRA
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
निर्युक्ति: [ ३८... ९४/३८-९५], भाष्यं [१-४]
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [ १ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चण
१ अध्ययने
भवइ, तं० वाघाइमं निव्वाघाइमंच, तत्थ वाघाइमं नाम जो आउगं पहुष्प तमेच बला उचकमे सिंघवग्घतरच्छादि कारणेस वाव अभिदुओ या पाओवगमणं करेह एवं वाघातिमं निव्वषामं नाम सुतत्थतदुभयाणि गण्हिऊण अय्वोच्छित्तिनिमित्तं व वाएऊण तओ पच्छा जरापरिणयस्स भवइ, एवं निव्वाघाइमं इंगिणिमरणं णाम सयमेव उन्चत्तणपरियचणादीणि करेति चउ व्विहाहारविवज्जिय च परपडियरणविवज्जियं च । इदाणिभत्तपच्चक्खाणं, तं नियमा सपठिकम्मं, सपडिकम्मं णाम उच्चचण | ॥ २२ ॥ ट्रें परियचणादीषि असद्दुस्स वा सन्बं कीरह, अणसणं समन्तं ॥ ऊमोयरिया णाम ओमभावो नाम, ऊति वृचं भवति, सा य दुविद्दाः दवे भावे य, तत्थ दबोमोदरिया उपकरणे भचे पाणे य, तत्थ उपकरणे ताव एगवत्थधारितं एवमादि, भत्तपाणा मोदरिया प्पणा सुप्यमाषेण कवलेणं पंच विकप्पा भवति, तंजा-अप् अबडो मोयरिया दुभागोमोयरिया पमाणोमोदरिया | किंचूणामयरिया इति इयाणि एका अप्पाहार अबदुभागप्रमाणकिचूणोमोयरियाणं पंचवि विभागो भागतो, तत्थ चब्बीसं लंबणा पमाणजुनाओमोदरिया, एसोमोदरिया उत्था भण, ताओ प्रमाणचातो ओमोदरिया विष्णुं अप्पाहारअवदुभागोमोदरियाणं निष्फथ्री भण्णा, पंचमा नामनिष्फण्णादेव किंचूणोमोदरियचि भष्णति, एतेसिं पंच उम्रोदरियाणं निदरिसणं, तत्थ अप्पाहारोमोदरिया नाम जण अप्पमरं कुरुछीए पुष्णं बहुतरं ऊपं, पमाणोमोयरियाए तिभागो, अबहोमोयरिया णाम पमाणजुचोमोदरियाए अवति वा अर्द्धति वा एमडा, दुयामोमोदरिया णाम पमाणोमोदरियं विद्या छिंदिऊण एवं भाग छऊण दो भागा गहिया हुभायोमोयरिया भवइ, पमाणोदरिया नाम बत्तीस कवला पुरिसस्स आहारो संपुष्णो, तस्स चउत्थो भागो हड्डिज्जद, सेसा वउदीसं कवला पमाणजुत्तोमोदरिया भवर, किंचूपो मोरिया णास किंचूणो आहारोचि वृत्तं
नाम अप्पणा
[35]
वाह्येऽवमौदरिका
॥ २२ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक H
चायेऽवमादारका
गाथा ||१||
श्रीदश
भवइ, इदाणिं एताचो पंचवि ओमोदरियाओ वित्थारेण भण्णइ, वत्थ अप्पाहारोमोदरिया नाम प्रमाणोमोदरियाए तिभागो, ते वैकालिका अडकवला, अद्वविधा य अप्पाहारोमोयरिया भवइ, तंजहा-अप्पाहारोमोदरियाए अट्ठ कवला, एगूणकरला अप्पाहारोमोदरिया जाता|
चूौँ सत्त, विऊण कवल अप्पाहारोमोदरिया जाता छ, तिचउरोपंचूणकवलअप्पाहारोमोदरिया जाता पंच चउरो तिष्णि, छहि ऊणकक्ल१अध्ययन | अप्पाहारोमोदरिया जाता दोण्णि, सत्तूणकवलअप्पाहारोमोदरिया जाता एगो अप्पाहारोमोदरिया, जाता सत्तचि उणकवल०,अप्पा
हारोमोयरियाए एककवलाहारोमोदरिया जहण्णा अट्ठकवलोमायरिया उकोसा सेसा अजः । इदाणि अवड्डाहारोमोयरिया वारसकवला ॥२३॥
भण्णति, सा य चउबिहा, तंजहा-बारसकवल अवड्डाहारोमोयरिया, एगक इकारस, बिहूणकवल अवड्डाझरोमोयरिया जाया दस, तिहिऊण कवलअबड्डाहारोमोयरिया जाता नव, अबड्वाहारोमोपरिया जहणिया नव कवला उक्कोसेण बारस, सेसा अजहण्णमणुकोसा। इदाणिं दुभागोमोयरिया सोलसकवला, सा चउबिद्दा, तंजहा-सोलकवलदुभागोमोयरिया, एगूणकवल दोभागोमोदरिया जाता | पण्णरस, दोहिऊण दुभागकबलहारमोदरिया जाता चोद्दस, तिहिऊण दुभागकवलाहारोमोयरिया तेरस, दुभागकवलाहारोमोदरियाए जहण्णा तेरस उकोसा सोलस, सेसा अजहष्णमणुकोसा । इदाणिं पमाणजुत्ताहारोमोदरिया एग(अछु)णकवलजुचाहारोमोदरिया चउव्वीसं कवला भवंति, साय अडविहा, तंजहा-चवीसकवलजुत्ताहारोमोयरिया एगूणकवलजुत्ताहारोमोदरिया जाता तेवीस एवं दोहिऊण जाया यावीस, तिहिऊण जाया इक्वीस, चाहिं ऊणा जाता बीसं, पंचहिं कृणा जाता एगूणवीस, छहि ऊणा जाता अट्ठारस, सत्तहिं ऊणा जाता सत्तरस, पमाणजुत्ताहारोमोयरिखा जहणेण सरस उकोसेणं चउचीसं कवला, सेसा अजहण्यामणुकोसेणं । इदाणि किंचूणाहारोमोयरिया, सा य एकतीस कवला, सचविहा पुण भषणइ, तंज़हा-एकतासं कबला किंचूणाहारोमोय.
दीप अनुक्रम
ROHOMECH
॥२३॥
स
-
[36]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||||
दीप
अनुक्रम
[१]
अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१]
निर्युक्तिः [ ३८.९४/३८-२५] भाष्यं [१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
चूण
१ अध्ययने
॥ २४ ॥
7
रिया एगुणकवला किंचूणाहारोमोयरिया जाता तीसं, एवं दोहिं ऊणा जाया एकूणतीसं, तिहि ऊणा जाया अट्ठावीस, चउहिं ऊणा जाया सत्तावीसं, पंचूणा जाता छब्बीसं छहिं ऊणा जाया पंचवीसं, किंचूणाहारोमोयरिया सव्वजहणा पणवीसं सन्युकोसा एकतीसं अवसेसा अजहण्णमणुकोसा, एवं एसा पुरिसस्त ओमोदरिया । इदाणिं इत्थियाए, सावि एवं देव, णवरं अट्ठावीसं कवला संपुष्णाहारो, तदनुसारेण एवं सेसं भाणियन् । दच्योमोदरिया गता इदाणिं भावोमोदरिया कोहादीणं चउन्हं कसावाणं उदंताणं निरोड़ो उदयपत्ताणं विफलीकरणं कायति, ओमोदरिया गता । इदाणिं भिक्खायरिया-सा अणेगपगारा, तंजा दब्बाभिग्गहचरिंगा, जहा कोइ साहू अभिग्राहं गिव्हेज्जा-जद मे भिक्खं हिंडमाणस्स अमुगं दख्यं लब्भइ तो हिस्सामि इतरहा न गण्हामि एवमादी भिखायरियाए अभिग्गहा माणितच्या अहवा इमा चउव्हिा भिक्खायरिया, तं० पेला अद्धपेला गोमुत्तिया संकावदति । इदाणिं रसपरिच्चागो, खीरदधिनवणीयादणं रसबिगतीणं विवज्जणं कायकिलेसो नाम वीरासन उक्कडगासणभूमीसेज्जाक सेज्जालोय मादियाउ भाणियच्याउ, पश्चात्कर्म पुराक, ईयपथपरिग्रह। दोपा ते परित्यक्ताः केशलोचं प्रकुता ॥ १ ॥ कायक्लेशन पूर्वोक्तो वैरूप्यं तु सुसंधितम् । आप्तागमः क्षमा चैव सूत्रोक्ता कर्मनिर्जरा ॥ २ ॥ लोचः । दाणिं संलीणया, सा चउध्विा भवइ, तंजहा- इंदियसंलीणया कसायलीणया जोगसंलीणया विवित्तचरिया, तत्थ इंदिय संलीणया पंचचिहा भण्णइ, नंजहा- सोईदियसंलीणया चक्खिदियसंलीणया घाणिदिसलीणया जिम्मिदियसंलीणया फासिंदिय संलीणया, तस्थ सोइंदियसलीणया णाम- सहेगु व भद्दगपावएस सोयसियमुवगए । तुट्टेण व रुद्वेण व समणेण सया ण भवि यन् ॥ १ ॥ एवं मुवि इंदिएवि एसा चैव गाहा चरियन्त्रा । इदाणिं कसायसंलीणया, मा चडचिडा तंजहा कोहोदय
[37]
बाबे भिक्षा
चर्याकायक्लेश संलीनताः
॥ २४ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश- कालिक चूर्णी १ अध्ययने
गाथा ||१||
॥२५॥
mainamaina
निराहो वा उदयपत्सम्म वा कोहस्स विफलीकरणीमति, एवं जाव लाभादयनिरोधा वा उदयपत्तरस वा लोहस्स विफलीकरण- अभ्यन्तरे मिति । इदाणिं जोगसंलीणया, सा तिविहा, त-अकुसलमणनिरोधो कायब्बो कुसलमणउदीरणं वा, एवं वायावि भाणियच्या, तपसि कायसंलोणया णाम ठाणचकमणादीणि अकज्जे न कायबाणि, कज्जेवि पसंतचित्तमणसेण जुगतरपलोयणाइणा कायवाणिति, लाप्रायश्चित्तं विवित्तचरिया नाम आगमुज्जाणाइमु इत्थीपसुपंडगविरहियाणि फासुरमणिज्जाणि पीढफलगाणि अभिगिहिऊण विहरियवंति। यझो गतो। इदाणिं अभितरओ, सो छबिहो, त०-पायच्छित्तं विणा वेगावच्च सज्झाया झाणं बिउस्मग्गोति, तत्थ पायच्छित्तं दसविई-आलोयणं पडिकमणं तदुभयं विगो विउस्सग्गो तो छदो मूलं अणबटुप्पो पारंचितंति, तत्थ आलोयणा नाम अबस्मकरणिज्जेसु भिक्खायरियाईसु जइवि अबराहो नत्धि तहाचि अणालोइए अविणओ भवइत्तिकाऊण अबस्स आलोएयवं, सो जइ किंचि असणाइ अवराई सरेज्जा, सो वा आयरितो किंचि सारेज्जा तम्हा आलोएयव्वं, आलोयणति या पगासकरणंति अक्खणंति वा विसोहिति वा एगट्ठा । इदाणि परिश्रमणं, वं च मिच्छामिदुकडेण संजु भवइ, तंजहा कोई साह भिक्खायरियाए गच्छंतो विकहापमत्तो इरियं न सोहेइ, अन्नण य माधुणा पडिचोइओ-जहा इरियं न सोहेसि, न य तंमि समए किंचि पाणचिराहणं कयं, ताहे सो मिच्छादुकडेणेव सुद्धो भवइ, एवं भासासमितीएवि सहमा अणाभोगण व काइ अप्पसावजा गिह-15 स्थभासा भासिया सा मिच्छादुकडेणेव मुज्झइ, एवं सेससमितिसुधि जत्थ असमितितर्ण समावण्णो अप्पत्तसु इट्टेसु परमगिद्धि- २५॥ मावष्णो रागद्दोसा वेसि कया ण य महतो अबराहो ताव मिच्छा दुकडेणेव सुद्धी भवइत्ति । तदुभयं नाम जत्थ आलोयणं पडि-IN कमणं, एगिदियाण जीवाणं संघट्टपरितावणादिसु कएमु आउत्तस्स भवंति। विधेगो नाम परिट्ठावणं, तं च आहारोवहिमेज्जास
दीप अनुक्रम
[38]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||||
दीप
अनुक्रम [१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + |भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१]
निर्युक्तिः [ ३८.९४/३८-२५] भाष्यं [१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशचैकालिक चूण
१ अध्ययने
।। २६ ।।
गाणं संसत्ताणं उग्गमादीसु य कारणेसु असुद्वाणं भव । इदाणिं काउस्सग्गो, सोय काउसम्मोन्ति वा विसग्गोड वा एगडा, सो य काउस्सग्गो इमेहिं कज्जर, जहा गावानइतारे गमनागमण सुमिदंसण आवरसगादि कारण बहुविहो भवइ । इंदाणिं तवो, सो पंच राहदियाणि आदिकाऊण बहुवियप्पो भवति । तथा छेदो नाम जस्स कस्सवि साहुणो तहारूवं अवरा णाऊण परियाओ हिज्जइ, तंजहा अहोरतं वा पक्खं वा मासं वा संच्छरं वा एवमादि छेदो भवति । मूलं नाम सो चेत्र से परियाओ मूलतो हिज्जइ । अणबटुप्पो नाम सच्चच्छेद पत्तो किंचिकालं करेण तवं चतो पुणोत्रि दिक्खा कज्जइ पारंचो नाम | खेत्ततो देसातो वा निच्छुभइ, छेदअणवमूलपारचियाणि देतं कालं संजमविराहणं पुरिसं च पच्च दिज्जतिथि, प्रच्छित्तं गतं ।
इदाणिं विणओ, सोय सत्तविधो भवइ, तंजदा-णाणविणओ दंसणविणओ चरिचविणओ मणविणओ वायाविणओ कायविणओ उपयारियविणओति, तत्थ नाणविणओ पंचविधो-आभिणिदोहियणागविणओ सुतणापविणओ ओहिणाणविणओ मणजवणाणविणओ केवलणाणविणओति से णाणविणओ कई भवइ ?, तंजहा जस्स एतेसु णासु पंचसुवि सत्ती ब्रह्माणो ता, जे वा एतेहिं नाणेहिं पंचहि भाषा दिवा दीसंति दीसिस्संति वा तेसिं सदहाचं, एस णाणचिपओ इदाणिं दंसणविणओ, सो दुविहो, तंजहा सुस्मणविणओ अवासातणाविणओ व तत्थ सुस्वसणाविणओ ग्राम सम्मदंसणगुणा हिस्सु साधुसु कज्ज दंसणपूपाणिमित्तं सो य सुस्साविणओ अणेगविहो भवद्द, तंजा-सक्कार विणओ सम्माणविणओ अडाणं आसणाभिहो आसणाशुप्पयाण किकम्म अलिपरगहो एंतस्स अणुगच्छणया ठिवस्स पज्जुवासणया गच्छंतस्स अणुवयागंति, सीसो आइसक्कारसंमाणा पुण को पतिविसेस ?, आयरिओ भाइ-सक्कारो पुणणाह, सम्माणो ब्रत्थपचादीहिं कीरह, इदाणिं आखणा
1
[39]
अभ्यन्तरे विनयः
॥२६॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
*
*
गाथा ||१||
**
श्रीदश- भिग्गहो सो आगच्छंतस्स चेष परमादरेण णाम अभिमुहमागंतण वग्महत्थेहि भण्णइ-एस्थ ओघिसाहित्ति, आसणपदाणं णामअभ्यन्तरे वैकालिक Aठाणाओ ठाणं संचरंतस्स आसणं गेण्हिऊण इच्छिए ठाणे ठवेइ, सेसाणि अन्भुट्ठाणकिइकम्मादीणि पागडाणित्ति काऊण न भणि-4 विनयः
चू! याणि । इदाणि अणासादणाषिणी. सो पणरसचिहो, जहा-अरहंतस्स अणासादणाए अरहंतपण्याचस्स धम्मस्स अणासा-1 १ अध्ययन
दणाए आयरियाणं अणासायणाए उबझायाणं अणासातणाए थेराणं अणासातणाए कुलस्स अणासादणाय गणस्स अणासादणाए ॥२७॥
संघस्स अणासादणाए किरियाए अणासादणाए, किरिया षाम अस्थिवादो भण्णह, तंजहा-अस्थि माया अस्थि पिया अत्यि जीवा एवमादि, जो एवं ण सदा विवरीय वा पण्णवेइ तेण किरिया आसादिता भवइ, आभिणियोहियणाणस्स अणासादयाए जाव केवलनाणस्स अणासादणाए, एतेसिं पण्णरसहं कारणाणं एक सिविहं भवति, तंजहा-अरहताण भत्ती अरहताणं बहुमाणो अरहताणं बणसंजलणया, एवं जाव केवलणाणस्सवि निविहं भाणियब, सब्वेवि एते भेदा पंचचचालीसं भवंति, सणविणओ गओ। इदाणि चरित्तचिणओ कहिज्जइ, सो पंचविधो भवइ, तंजहा-सामाइपचरिचविणओ छेदोवडावणियचरिचविणयो परिहारविमुद्भियचरित्तविणओ मुहमसंपरागचरित्तविणओ अहक्खायचरितविणओति, एतेसि पंचव चरिताणं को विणओ, भण्णति, पंचविहस्स जा सदहणा वा सदहियस्स जा कारण फासणया भब्बाणं च पुरओ परूवणया, चरित्चविणओ पण्णिो ||४| |इदार्णि मणविणओ, आयरियाईण उवार अकुसलो मणो निलंभियब्बो कुसलमणउदीरणं च कायम्ब, एवं पायाविणओबि २७॥ तत्थ कायविणओ नाम तेर्सि चेव आयरियादीण अद्धाणपरिस्संताण वा सीसाउ आरम्भ जाव पादतला ताब परमादरण विस्सामणं । इदाणि उवयारियविणओ सत्तविधो, णिच्चमेव आयरियस्स अब्भासे अच्छणं छंदाणुवतण कारियनिमिनकरणं |
दीप अनुक्रम
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||१||
कयपडिकया दुक्खत्तस्स गवेसणं देसकालण्णुया सब्बत्येसु अणुलोयमात, तत्थ अम्मासे अचरणं नाम आयरियाण सीसो निज्ज-6
बवावृत्त्यवकालिकारद्वार इंगिएण अभिप्पायं नाऊण जहिच्छिय उववायइस्सामिति काउण आयरियस्स अम्भासे अच्छइ, तत्थ छंदाणुवत्तणं नाम चूर्णी
आयरियाण सीसे ग कालं तुलेऊण आहारउपहिउवस्सगाणं उबवायणं कायञ्च, कारियनिमितकरण नाम पसण्णा हुआयरिया स्वाध्या १अध्ययना सविसेस सुत्तस्थतदुभयाणि दाहिंतिनिकाऊण तारिसाणि अणुकूलाणि करे। जेण तेसि आयरियाण चित्तप्पसाओ जायइ, कयपडि-16
कइया णाम जइवि निज्जरत्थं करेइ ततोवि मम एस कारेहितित्ति काउं विणयं करेइ, सेसाणि दुक्खत्तस्स गवेसपाणि पसिद्धाणि शाचेच काऊण नो भणियाणि, अहबा एसो सब्यो चेव विणओ नाणदंसणचरित्ताणं अव्वतिरित्तोत्तिकाऊण तिविहो चेव भाणियब्बो, ४०-नाणविणो दसणविणओ चरित्तविणओ | विणओगओ
इदाणिं यावच्चं, तं च इमेहिं कारणेहि कज्जइ, तं०- अण्णपाणवत्थपत्तपडिस्सयपीढफलगसंथारप्पगादीहिं धम्मस्स | साहणेहि, तं च कस्स कज्जइ , इमेसि दसहं, त. आयरियउवज्झाया थेर तबस्सि गिलाण सिक्खग साहम्मिय कुलगणसंघेसु, तत्थ आयरिओ पंचविहो, तं०-पव्यावणायरिओ सुत्तस्स उदिस्सणायरिओ समुद्दिस० अणुण्णा बायणायरिओत्ति, उवझाओ पसिद्धी चेव, थेरो नाम जो गच्छस्स सथिति करेइ, जो तिसुत परियागाइसु वा धेरो,तबस्सिणाम जो उग्गतवचरणरतो, गिलाणो णाम रोगाभिभूओ, सिक्खगो नाम जो अहुणा पब्वइयओ, साहम्मिओ नाम एगो पवयणओ ण लिंगतो,एगो लिंगओन पवयणओ, कुलगणसंघा पसिद्धा चेव । इदाणिं सज्झाओ, सो पंचविधा, तं०-वायणा पुच्छणा परियट्टणा अणुणेहा धम्मकहा, बायणा णाम सिस्सस्स अज्झावणं, पुच्छणा सुत्तस्स अस्थरस वा भवति, परिवर्ण णाम परियट्टणति वा अम्भसणंति वा गुणति वा एगट्ठा,
दीप अनुक्रम
[१]
॥२८॥
%
3
% C
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सूत्रांक
[-]
गाथा
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अनुक्रम
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भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१]
निर्युक्तिः [ ३८.९४/३८-२५] भाष्यं [१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रदशवैकालिक चूण १ अध्ययन
॥ २९ ॥
अणुप्पेहा णाम जो मणसा परियह णो वायाए, धम्मका नाम जो अहिंसादिलक्खणं सव्वष्णुपणीयं धम्मं अणुयोगं वा कहे एसा धम्मकहा, सज्झाओ गओ । इदाणिं झाणं तं च अंतोमुहुत्तियं भव, तस्स व इमं लक्खणं, तं० दढमज्झवसाणंति, केई पुण आयरिया एवं भणति एगग्गस्त्र चिन्ताए निरोधो झाणं, एगग्गस्स किर चिन्ताए निरोधो तं झाणमिच्छति, तं छउमत्यस्स जुज्जह, केवलिणो न जुज्जइत्ति, किं कारणं ?, जेण महत्ति वा मुत्ति (सइ) ति वा सम्पत्ति वा आभिणिवांहियणाणंति वा एगड्डा, केवलिस् य सव्वभावा पच्चक्खत्तिकाऊण आभिणित्रोहियणाणस्स अभावे कओ चिन्तानिरोधो भवइ ?, तम्हा एगग्ग चितानि रोघो झाणमिति विरुज्झते, दढमज्जावसाओ पुण सव्वाणुवाइत्तिकाऊण, जैसि पुण आयरियाण एगरमचिन्तनिरोधो झाणं तेर्सि इमो वकखाणमग्गो- एगग्गस्स य जा चिता (निरोहो य) तं झाणं भवइ, एते दोण्हाणं, तत्थ एगम्गस्स चिंता एवं झाणं छउमत्थस्स | भव, कहं है, जहा दीपसिहा निवाय विहावत्थियाहिं किंचि कालंतरं निश्चला होऊण पुणोवि केणइ कारणेण कंपाविज्जह एवं छउमत्थस्स झाणं तं कम्मिवि आलंबणे कंचि कालं अच्छिऊण पुणोवि अवस्थंतरं गच्छद्द, जो पुण एगग्गस्स निरोधो एवं ज्ञानं केवलिस भइ, कम्हा ?, जम्हा केवली सव्वभावेसु केबलोवयोगं णिरुभिऊण णो चिट्ट, ते झाणं चउव्विहं भवद, तं० अहं रोई धम्मं सुकमिति तत्थ संकिलिङ्कज्जव सायो अहं अइकरज्झवसाओ रोई, दसविहसमणधम्मसमणुगतं धम्मं, सुक्कं असं किलिपरिणामं अडविहं वा कम्मरयं सोधति तम्हा सुक्कं परिणामविसेसेण गाणसं, परिणामविसेसेवि फलविसेसेण णज्जर, तम्हा अतिरिक्खजोगी रोद्दज्झाणेण गंमती नरयं । धम्मेण देवलोगं सिद्धगतिं सुक्कझाणेणं ॥ १ ॥ तत्थ अट्टज्झाणं तं चउच्चिहं-अमणुष्णसंपओगसंपतो तस्स विप्पओगाभिकखी सहसमन्नागते यावि भवः, अमणुष्णं णाम अपियं समन्तओ
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अभ्यन्तरे तपसि ध्यानम्
॥ २९ ॥
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||१||
ARCH
श्रीदश- जोगो संपओगो तेण अप्पिएण समंततो संपउत्तो तस्स विपयोगाभिकखी सतिसमण्णागते यावि भवइ, सतिसमण्णागते णाम अभ्यन्तरे वैकालिक चित्तनिरोहो काऊं शायद , जहा कह णाम मम एतेसु अणिडेसु विसएमु सह संजोगो न होज्जति, तेसु अणि द्वेसु विसयादिसु पओसंडू
तपास चूर्णी । समावण्णा अप्पत्तम इ8सु परमगिद्धिमावण्णा रागहोसबसगओ नियमा उदयकिलिनध पावकम्मरयं उपचिणाइति अदृस्सा।
ध्यानम् १अध्ययन
पढमो भेदो गतो १२ मणुष्णसंपयोगसंपउचो तस्स अविष्पयोगाभिकखी सइसमन्नागए याचि भवइ, सदाइसु पिसएम परमपमोद-18 मावनो अणिहेसु पदोसमावण्णो तप्पच्चइयस्स रागदोस० अजाणमाणो गओ इव सलिलउल्लियंगो पावकम्मरयमलं उपचिणोतित्ति अट्टस्स वितिओ भेदो गो२। आयंकसंपयोगसंपाउचो तस्स विप्पयोगामिकंखी सतिसमन्त्रागते, तत्व आतंको णाम आसुकारी,in तं जरो अतीसारो मू(सा)स सज्जहओ एवमादि, आतंकगबणेण रोगोवि सइओ चेव, सोय दीहकालिओ भवइ, तं गडी अदुवा कोटी एवमादि, तत्थ वेदणानिमित्तं आयंकरोगेसु पदोसमावष्णो आरुग्गभिकंखी रागद्दोसवसगओ हाणुगओ निवसंतो असुभ-18
कम्मरयमल उपचिणोति, अज्झाणस्स तइओ भेदो गओ ३ । परिझपकामभोगसंपउत्ते तस्स अविप्पजोगभिखी सतिसमण्णा-I दिगए यावि भवइ, तत्थ परिझति वा पत्थणंति वा गिद्धित्ति वा अभिलासोति वा लेप्पचि या कंखंति वा एगट्ठा, तत्थ काम
| गहणेण सहरूवा य गहिया, भोगग्गहणेण गंधरसफरिसा गहिया, एतेसिं कामभोगाणं जा पत्थणा सा परिक्षा. परिज्झिउ | नाम अणुगओ, जहा लोगे अम्भेहि अणुगतओ अभंतओ भण्णइ एवं सोवि काममोगपिवासाए परिम्भज्माणगतो परिज्झितो भण्णइ, ततो सो रागदोसोवगओ नियमा असुहकम्मबंधउत्ति भवइ, एवं चउबिधपि अट्ट भणियं, एवं पुण अट्टज्माण को झायही अविरयदेसविरय पमनसंजया य झाएंति, सीसो आइ-कहमेतं नज्जही जह एस अहूं झायइत्ति न वा झायति', आयरिश्रो भणइ-11
R
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C+
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूर्णी
गाथा ||१||
श्रीदश-8 अगुस्स णं झाणस्स चत्वारि लक्षणा पण्णता, तं०-कंदणया सोयणया तिप्पणया बिलवणया, तत्थ कंदणयानाम हिरण्णसुवण्णादी-Itiअभ्यन्तरे वैकालिकाहिं अबहिएहिं वा कंदद हा मात ! हा पित ! हा भागे! हा पुते ! ति एवमादी, सोयणया नाम जो नीसढं दीणमणसो अंतग्ग-14 तपसि
तेण सोगग्गिणा अभिताविज्जमाणो चिट्ठा सा सोयणता, तिप्पणया नाम तीहिंवि मणवयणकाइएहिं जोगेहिं जम्हा तप्पति तेणध्यानम् १ अध्ययनेतिप्पणया, विलवणया नाम अतिसोगाभिभूयत्तणेण विचित्तचेतसो णाधिट्ठाणि विविधाणि विलवइ विलवणया, (अहवा कूज॥३१॥
णया ककरणया तिप्पणया विलवणया तं०) कूजणया णाम मातिपितिमातिभगिणीपुत्तदुहित्तमरणादीवि (सु) महइमईतेण सदेण: राबहात्त कूजणया, ककरणया णाम जो घडीजतग व वाहिज्जमाण करगर सा ककरणया, तिप्पणयाविलवणयाउ पुववणियाउ, अहज्झाणं गतं । इदाणिं रोइज्माणं-तं. चउन्विहं, तं-हिंसाणुबंधी मोसाणुबंधी तेणाणुचंधी सारक्खणाणुबंधी, तत्थ हिंसाणुवंधी नाम जो णिच्चकालमेव वधपरिणओ अकरेमाणोचि पाणबवरोवणं मज्जारो विव तग्गयमाणसो चिट्ठइ एस हिंसाणुलोबंधी१, मोसाणुबंधी णाम जो कम्ममारिययाए निच्चमेव असंतअसन्भूतेहि अभिरमइ, अदिवाणि य भगाइ दिट्ठाणि मए, एवमादि ।
मोसाणुबंधी २, तेणाणुपंधी णाम जो अहो य राई य परदब्बहरणपसचो जीवघाती य एस तेणाणुबंधी ३, सारक्षणाणुबंधी णाम जो
अस्थसरीरादीणं सारवणानिमित्तं णिच्चमेव आहम्मिएमु कारणेसु पबत्तइ अचोरं चोरमितिकाऊण पाएइ, असंकणिज्जे य संकइ, है एस सारक्खणाणुबंधी, रोई चउब्बिहंपिगतं । इदाणिं एतस्सेव लक्षणाणिभषणंति, ताणि इमाणि चचारितं०-ओसण्णदोसे
बहुदोसे अण्णाणदोसे आमरणंतदोसे, तत्थ ओसण्णदोसे णाम जो एवं ताणेव हिंसाणुबंधादीणं चउण्हं रुद्दकारणाणं एगतमि कारणे अभिणिदिडो पुणो २ तं चेव समायरइ बाहिओविव अप्पत्थमाइत्तणणं रोग बढ्इ एवं सोऽवि पाबकम्मरोग बङ्लेइ एस
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NARESSNE
॥३१॥
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
SEARCH
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गाथा ||१||
श्रीदश- ओसण्णदोसो१, बहुदोसो णाम जो एतेसिं चेव हिंसाणुबंधादीणं च उहं कारणाणं दोहि वा तिहिं वा दोसेसु बट्टइ एस बहुदोसो२, अभ्यन्तरे वैकालिक अण्णाणदोसो णाम एतेसि चव हिंसाणुबंधादीणं चउण्ठं कारणाणं विवागं अजाणमाणो अधम्मो अधम्माणुगबुद्धी अन्नाणमहामोहाभि- तपसि भूतो भूतो विष्वज्शयसातो ससु निरणुकंपो धायणाए पवत्तह जहा दवदादिणो संसारमोयगा य एवमादी३, आमरणंतदोसो णाम
ध्यानम् पगाएतेसु चेत्र हिंसाणुधंधादिएमु कारणेसु आमरणं पदत्तति जहा पाहाणरेहा, थोयोवि से पच्छाणुवायो मरणकालेषि न भवइ, किं ॥३२॥ पुण सेसकाले?, एस आमरणतदोसो४, एयं च रोई कस्स भवइ, अविरयदेसचरिताण भवइ । रोई साणं सम्मत्तं । इदाणिं
घम्ममाणं, तंपि च चउबिह-चप्पगारं भवइ, चउप्पगारगहण लक्षणालवणअणुप्पेहातीणि बिहाणाणि सहयाणित्ति,
ते य इगे गेदा, -आणाविजए अवायविजए विवागविजए संठाणविजए, आणाविजए णाम तस्थ आणाणाम आणेतिया सुतंति FR/वा वीतरागादेसोनि वा एगट्ठा, विजओ नाम मग्गणा, कह , जहा जे गुहुमा भाषा अणिदियगिज्झा अवज्झा चक्खुबिसयातीया |
केवलनाणीपच्चक्खा ते वीयरागवयणंतिकाऊग सद्दहइ, भणितं च-पंचस्थिकाए आणाए, जीवे आणाए छविहे । सहहे जिणपण्णने, धम्मज्झाणं झियायइ ।।१।। नहा-तमेव सर्व नीसकं, जिणेहि पवेदितं, भणितं च "वीयरागो हिसवण्णू , मिच्छ गेय उभासइ ।। जम्हा तम्हा वई तस्स, तथा भूतत्थदरिसिणी।।१।।" एवं आणाविजयं । अवायविचर्य नाम मिच्छादरिसणाविरइपमादकसायजागा संसारपीजभया दयावहा अभयाणयनि वा जाणिऊण सम्वभावेण बज्जयपत्ति झायड. अबातविजयं गतं २ । दाणि विवाग-10 विजतं, तस्थ विधागविजयं नाम एतसिं चेय मिच्छादसणाविरतिपमादकसायजोगाणं जो फलविवायो तं चिन्तंतरस धम्मवाण ।
३२॥ भवह, एवं विवागविजपं३ । सीसो आह-अवायविवागविजयाणं को पइबिलसो ?, आयरिओ भणइ-अबायो एगतेणं चेव अबादी
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सूत्रांक
[-]
गाथा
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दीप
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + |भाष्य|+चूर्णिः)
निर्युक्तिः [ ३८.९४/३८-२५] भाष्यं [१४]
अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण
१ अध्ययने!
॥ ३३ ॥
181
उहि कम्मेहिं भव, जेहिं असुदेहिं संसारियाई दुक्साई पायंति वाणि चैव कम्माणि वावहारिणयस्स अवायो भण्णइ कई ?, जहा लोगे आणवेज्जए 'अण्णमया के प्राणा' जम्दा किर अण्ण विणा पाणा ण भवति तम्हा लांगेण अण्णं चैत्र पाया कया, एवं इहपि जम्हा मिलादरिणाविरहपमादकसायजोगेहिं विणा णावायो भव तम्हा वाणि चैव अवातो भण्ण, भणियं च - " इहलोइए अवाए, अदुवा पारलोइए। चिंतयंतो जिणक्खाए, धम्मं झाणं झियाय ।। १ ।।" विद्यागो पुर्ण सुभासुभाणं कम्माजो अणुभावो चिंता सो विवागो, भणियं च "सुहाणं अहाणं च कम्माणं जो विवागर्थ । उदिष्णाणं च अणुभागं, धम्मज्झाणं शिवाय ।। १ ।। अवायविवागाणं एस विमोति गये ३ संठाणविजयं नाम जहा जंदीवादीणं दीवसमुद्दाणं संठाणं वणिज्जद, सीसो आह-किं संठाणमेव एवं झियाइयव्यं ण वण्णरसगंधफासाइ झाइयध्वनि तेण तेर्सि गहणं न कथं ?, आयरिओ आह सच्चतं एवं किन्तु एगरगहणे तज्जातीयाण सव्वेसि गहणं भवइ, तेणं संठाणगहणणं वण्णरसगंधफरिया गहिया चैव भवति, जे अवष्णु अगंध अरसअकासमन्ताई दव्बाई धम्मस्थिका यमाइयाई ताणिवि महियाणि चैव भवति अलोगोविय संठागरगहण घेप्पर, किं पुण धम्माधम्मागासादीणं महणं ? लोगे णं भंते । किंसंठिए, पण्णत्ते ? सुसिरगोलगमंटिए पण्णत्ते, चउव्विपि धम्मज्झाणं भणियं एवं पुण धम्मज्झाणं अप्पमत्तसंजओ शायई । इदाणिं एयस्स चेत्र धम्मज्झाणस्स लक्खणाणि भण्ांति, वाणि इमाणि चत्तारि आणारुई सिग्गरुई सुतरुई ओगाहरुई, तत्थ आणारुई नाम जातित्थगराणं आणा तं आणं महतासंवेगसमाव ष्णो पसंसद, एस आणाकई, निसरगरुई नाम सिग्गी सहावो, सहावेण चैव जिणप्पणीए भावे रोयइ बहुजणमज्झे य महतासंवेगमावण्णो पसंसद, एस निसरगरुई, सुतरुई नाम 'जह जह सुयमोगाहइ अइसयरसपसरजुयमपृथ्वं तु । तह तह पल्दाइ मुणी नव- ।
[46]
"
अभ्यन्तरे
तपसि
ध्यानम्
॥ ३३ ॥
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आगम
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प्रत
सूत्राक
H
गाथा
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दीप
अनुक्रम [3]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
निर्युक्ति: [ ३८... ९४/३८-९५], भाष्यं [१-४]
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [ १ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्ण
श्रीदश
वैकालिक चूर्ण
१ अध्ययने
॥ ३४ ॥
नवसंवेगसा ॥ १ ॥ " एस सुत्तरुई, ओगाहरु णाम अणेगनयवायभंगुरं सुर्य अत्थओ सोऊन महतासंवेगमावज्जइ एस ओगाहरु | धम्मज्झाणस्स लक्खणाणि सम्मत्ताणि । इयाणि तस्स चेस आलंपणा, जहा कोई पुरिसो गड़ाए वा विससि वा पडिओ वा रुक्खं वा मूलं वा अवलंबित्ताणं उत्तरइ, एवं धम्मज्झाणज्झायीवि चउण्डं आलंवणाणं अष्णतरं आलंचिऊण झायर, तंजा वायणं वा पुच्छणं वा परियदृणं वा धम्मक वा एयाणि हेडा वष्णियाणि । धम्मस्स णं शाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तंजा - अणिच्चाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा एगुत्तणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा, तत्थ अणिच्चाणुप्पेहा नाम-सम्बद्वाणाणि असासयाणि इह चैव देवलोगे य। सुरअसुरनरादीणं रिद्विविसेसा सुभाई च ॥ १ ॥ एवं सुचितर्यतस्स सरीरोवगरणादिसु निस्संगया भवइ, मा पुण तेहिं विजुत्तस्स दोर्स भविस्सह । असरणाणुप्पेहा नाम 'अम्मजरामरण भए अभिदुर विविश्वाहिसंत्ते । लोगंमि नत्थि सरणं जिणंदवरसासणं मोनुं ॥ १ ॥ एवं चितिर्यतस्स जिणसासणे थिरया भविस्सतित्ति, एगत्ताणुप्पेहा नामएगो करे कम्मै फलमवि तस्सेकओ समहोइ । एको जायइ मरई परलोगं इकओ जाइ ॥ १ ॥ एवं खु चितयंतस्स तस्स मातापितापुत्तमादिसु संगो न भविस्सइ, सत्तुणो य उवरिं वैरानुबंधो न भवति, एतेहिं गंधेहिं असुहकम्मनिज्जरत्थसृज्ञ्जमतित्ति, संसाराणुप्पेहा णाम 'धी संसारो जहिया जुय्वाणो परमरुवगाध्वियओ । मरिऊन जाय किमी तत्थेय कलेवरे नियए ॥ १ ॥ एए चिंतयंतस्थ संसारभब्बिग्गया भव भवृथ्विग्गो य तस्स विणासाय उज्जमइ धम्मज्झाणं सम्मत्तं । इदाणिं सुक उझाणं, पृहुत्तवितकं सविचारिं एगत्तवियकमविचारिं सुद्दमकिरियं अनियईि समुच्छिन्न किरिये अप्पडिवादि, तत्थ पुडुतवितकं सविचारिणाम पृथग्भावः पृथक्त्वं तिहिवि जोगेसु पवत्तइत्ति वृत्तं भवइ, अवा पुहुचं णाम वित्थारो भण्णइ, सुयणाणीवउत्तो अणे
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| अभ्यन्तरे
तपसि ध्यानम्
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
A
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||१||
श्रीदश-ट्रा
& गेहि परियारहिं झायइत्तियुत्तं भवर, वियको सुतं, विचारो नाम अत्यवंजणजोगाण संकमणं, सह विचारेण सविचार, अत्थर्वजण- अभ्यन्तरे बैकालिका जोगाणं जत्थ संकमणं तं सपियार भण्णा, तं च झायमाणो चोहसपुब्बी सुयनाणोयउत्सो अस्थओ अत्यंतरं गच्छइ. बंजणाओस तपसि चूणौँ ।
बंजणतर, बंजणं अक्खरं भष्णइ, जोगाउ जोगतरं, जोगो मणवयणकायजोगो भण्णइ, भणियं च- " सुयनाणे उवउत्तो अत्यमिव्यानम् १ अध्ययनेय बंजणमि सविचारं । मायइ चोदसपुब्बी पढम साणं सरागो उ ॥१॥ अत्थसंकमणं चेव, तहा बंजणसंकर्म । जोगसंकमणं |
चिव, पढमे झाणे णिगच्छा ।। २॥" इयाणि एगत्तयषियकं अविचारिनाम, एगभावो एग, एगमि चेव सुयणाणपयत्थे उबउत्तो, शायइतिवृतं भवइ,अहवा एगमि वा जागे उपउत्तो झायइ,वितको सुर्य,अविचारं नाम अस्थाउ अत्यंतरं न संकमइ, वंजणाओवंजणंतरंट
जोगाओ वा जोगतरं, तत्थ निदरिसणं- सुयणाणे उवउत्नो अस्थंमि य बंजणमि अविचारिं। शायद चोदसपुल्बी वितिय शाणं ४ी विगतरागो ॥१॥ अत्थसंकमणं चेव, तहा बंजणसंकर्म । जोगसंकमणं चेब, बितिए झाणे न विज्जा ॥२॥ तइयं सुहुमकिरि
यानियरिणाम, त केवलिस्स भवद, तत्थ केवली परमसुकलेसचणेण अप्पडिहयणाणतणेण य किं तस्स झाइयध्वं , जहवि तस्सा केवलिकमाई पडुच्च अंतोमुहुत्तिओ जोगनिरोधो भवइ, तत्थ मणोजोगस्स ताव केवलिस्स सब्वकालं चेव अब्बाबारो मोत्तूण केणइ देवाइणा किंचि सदिव्वं वागरण पुच्छिओ संतो तं पडुच मणेण चेव बागरेइ, परिसेसवइजोगनिरोहं काउं कायस्सपि वादरजोगं निरंभइ, ताहे तस्स सुहुमकिरियाणियट्टि णामझाणं भवति, जम्हा सुहुमकिरियानियट्टि मुहमकिरियं झायइ, मणियं च- ३५॥ " अस्थि णं भंते ! केवलिस्स वयणुप्पण्णा सुहुमकिरिया कज्जइ', हंता अस्थि, एवं जहा पन्नत्तीए,अणियट्टि णाम तस्स जोगनिरोधा झाणं केवलं देवेण वा दाणवेण नियत्तेउं न सकइत्ति, एवं मुहुयकिरियअनियडिति भण्णहति । इदाणिं ममुच्छिमकिरियं अप्पडि
दीप अनुक्रम
NSAR
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सूत्राक
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गाथा
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
निर्युक्ति: [ ३८... ९४/३८-९५], भाष्यं [१-४]
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [ १ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण
१ अध्ययने
॥ ३६ ॥
वार्ति, तं च सेलेसि पडिवण्णयस्स भवइ, समुच्छिष्ण किरियाणाम जस्स मूलाओ चैव किरिया समुच्छिण्णा, अजोमितिवृत्तं भवद्द, अहवा हमा समुच्छिष्ण किरिया जस्स मूलाउ चैव छिण्णा किरिया, अबंधउत्तिवृत्तं भवति, अपडिवाई णाम जो जोयनिरोषेण अप्पडिएणं चैव केवली कमाई तडतडस्से छिंदिऊण परमणाबाधणं गच्छ एवं समुच्छिष्णकिरियमपडियातिति भण्पर, सुकज्ञाणस्स चउरो मूलभेया वष्णिया । इदाणिं एतेसिं चैव जो जस्स विसयो सो भण्णइ तत्थ आदिल्लाणि दोणि चोहसपुब्बिस्स उत्तमसंघयणस्स उवसंतखीणकसायाणं च भवइ, तत्थ निदरिसणं- 'पढमं वितियं च झायंति, पुव्वाणं जे उ जाणमा । बसंतेहि कसाएहिं खीणेहिं च महागुणी ॥ १ ॥ उचरिल्लाणि पुण केवलिस्स भवति, एत्थ णिदरिसणं, उवरिल्लाणि झाणाणि, तातियो | गुणसिद्धिओ। खीणमोहा झियायंति, केवली दोणि उत्तमे ॥ १ ॥ जदाज्यं परिणाम विसेसेण बिइयज्झाणं बोलीणो तहयं पुण न ताव पावद झाणतरे चैव बट्टत्ति, एयंमि अंतरे केवलणाणं उप्पज्जति, एतेसिं णिदरिसणं- 'ferere area म अंतरंमि उ केवलं । उप्पज्जर अनंतं तु खीणमोहस्स तायिणो ॥ १ ॥ इदाणिं जोगं पट्टच्च भण्णह, तत्थ पढमिल एकमि वा जोगे तिसु वा जोगेसु वट्टमाणस्स भवई, वितियं पुण नियमा तिन्हं जोगाणं अण्णतरे भवर, तइयं कायजोगिणो भवद, चउत्थं अजोगिणो भव, एत्थ निदरिसणं- 'जोगे जोगेसु वा पढमं, बितियं जोगंमि कम्दिवि । तियं च काइए जोगे, चउत्थं च अजोगिणो ॥ १ ॥ इदाणिं लेस्साओ पडुच भण्णइ पढमबियाई सुकलेसाए वट्टमाणस्स भवन्ति, तइयं परमसुकलेसाए बट्टमाणस्स भवति, चउत्थं अलेस्स्स भवइ, भणियं च 'पढमवितियाए मुक्कं ततियं परसुक्कयं । लेस्सातीतं तु उवरिलं, होइ शाणं वियाहियं ||१|| इदाणिं कालं पड़च्च भण्णइ पढमवितियाई जड़ कहंचि कालं करे तओ अणुत्तरेसु उववज्जर, उवरिल्लागि दोणि सिद्धिसाहणाणि,
[49]
अभ्यन्तरे तपसि ध्यानम्
॥ ३६ ॥
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश
१अध्ययने
गाथा ||१||
मणियं च-'अणुत्तरेहिं देवेहि, पढमबितिएहि जायइ । उवरिल्लाह नाणेहि, सिमई णीरओ सदा ||१" चतुम्मेदं सुकं झाणं है। बैकालिका सम्मत्तं । इदाणि लक्खणा-विदेगो विउस्सग्गो संबरो असंमोहो, एते लक्खणा सुक्कस्स | इदाणि आलंबणा-खती मुनी अज्जवं |
II ध्यानम् चूणौँ
महवं, एवं जहा हेड्डा समणधम्मे बणियं तहेव । इदाणि अणुप्पहाओ, तं०- असुहाणुप्पेहा अबायाणुप्पेहा अणंतवत्तियाणुप्पदा विप्प-11 |रिणामाणुप्पेहा,एवं सुफझाण सम्मतं । इदाणि विउस्सग्गा, सो य विउस्सग्गोत्ति वा विवेगोति वा अधिकिरणंति वा छइ
गंति वा बोसिरणंति वा एगट्ठा, सो य दुविधो, त०-दव्ये य भावे य, तत्थ दल्ने चउब्बिधो, त०-गणविउस्सग्गो सरीरविउस्सग्गो टाउवीहीवउस्सग्गा आहारविउस्सग्गो, भावविउस्सग्गो णाम कोहादीण चउण्डं उदयनिरोहो उदिग्णाण विफलीकरण, एस वि
उस्सग्गो सम्मत्तो। सम्मत्तो य अन्भंतरओतओ । एमि दुवालसबिहे तबे आयरिज्जमाणे पुच्चउबचितं कम्म णिज्जरिज्जा ४ असुहकम्मोवचयो य न भवइ, असुहकम्मस्स य अणासवेणं पुब्बोवचितस्स निज्जरणाए परमसुहुमाणाचाहस्स सिद्धिसुहस्स | संपावगो भवइत्ति जाणिऊण तवे उज्जमो कायव्यो इति तवोसम्मत्तो । सीसो आह-धम्मो मंगलमुक्ढुिंगहणेण चेव सिद्धी अस्थि, |किमत्थं अहिंसासजमतवाणं गहणं ?, धम्मग्गहणेण चेव अहिंसासजमतया घेप्पति, कम्हा?, जम्हा अहिंसा संजमे तो चेव | धम्मो भवद, तम्हा अहिंसासंजमतवम्गहणं पुनरुतं काऊण ण भणियवं, आचार्याह- अनैकान्तिकमेतत्, अहिंसासजमतवा हि धर्मास्य कारणानि, धर्मः कार्य, कारणाच्च कार्य स्याद्भि, कथमिति', अत्रोच्यते, अन्यत्कार्य कारणात् अभिधानात्तिप्रयोजन- * ||३७॥ भेददर्शनात् घडपडवत्, इतश्च अन्यत् कार्य कारणात्, तद्विशेषत्वात् मृद्घटवत्, अहवा अहिंसासंजमतवगहणे सीसस्स संदेहो भवाधम्मबहुत्वे कतरो एतेसिं गम्मपसुदेसादीण धम्माण मंगलमुकिहुं भवइ, अहिंसासजमतवग्गहणेण पुण नण्जा जो अहिंसा
SASARA
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
H गाथा ||१||
श्रीदश-18 संजमतवजुत्तो सो धम्मो मंगलमुकट्ठ भवद, एवं च ठाविए पक्खे सीसो आइ- जो एस भणिओ धम्मो मंगलमुबई .दृष्टान्तः वकालका अहिसा संजमो तवोत्ति एस किं आणाए मेण्हेतब्यो, एत्थ उदाहरण वा किंचि, आयरिओ आह-उभयथापि, आणाए गि-लपचावया
हियष्वो उदाहरणमवि अस्थि चेव, एत्थ गाहा 'जिणषयणं सिद्धमेव' गाहा (४९-३३) जिणाणं वयणं २, जिणा चउबिहा, १अध्ययन
| वण्णेतव्या जहा हेवा बष्णिया, एत्थ भावजिणेहि अहिगारो, तेसिं भावजिणाणं वयणं सम्वन्नुत्तणेण आकप्प णिव्वयणिज्ज ॥३८॥ पुव्वं सिद्धमेव भवति, भणितं च-"वीतरागो हि सव्वष्णू , मिच्छं व पभासइ । जम्हा तम्हा वई तस्स, भूतत्था तच्चदरिसणी।।१।।"
तहावि सीसस्स पच्चयणिमित्वे उदाहरणं भणिज्जा, जहा उदाहरणं तहा सोतारं पडुच्च हेवि भण्णइ, ण केवलं उदाहरणहेऊण चेव एक भण्णति, किन्तु 'कस्थवि पंचावयवं' (५०-३३) गाहा, कत्थय सीसस्स पच्चयनिमित्तं मइवित्थारण-19 | निमित्तं च पंचावयवोववेतेण क्यणेण वनखाणं भण्णइ, कत्यइ पुण दसावयवोवतणति, सीसो आह- किं कारण पुण सम्बकाल| मेव पंचावयबोववेतेण दसावयबोषवेएण वा ययणेण वक्खाणं ण भण्णइ ?, आयरिओ आह-हंदि सवियारमक्खाय' इंदिसदो उप्पदरिसया-एयमि वा पगारे अण्णमि या वक्खाणिज्जमाणे सोयारमासज्ज कत्थइ आगममेतमेव कहिज्जा कयाइ दिहंतो कयाइ।
हेऊ कयाइ आगमहेउदिद्रुता तिण्णिवि, कदाइ आगमहेउदितोवसंथारणिगमणावसाणेण पंचावपण कहिज्जा, कदापि पुण दसा8 वयवेण, तत्थ पूचि ताव एतेसि पंचण्डं अवयवाणं लक्षण वणिज्जइ, तत्व साहणियस्स अत्थस्स जो निदेसो एसा पतिण्णा, दाजहा जिणपवयणे पंचस्थिकायो लोगो भण्णइ, एवमादी, कुवित्थियाणवि जो जस्स समए चेव पहष्णाए साहणत्वं दिज्जइ,
दाणि दिइंतो-यत्र लौकिकानां परीक्षकाणां च बुद्धिसाम्ब स दृष्टान्तः, तत्थ लोइयगहणेण गोवालादी तत्तवाहिरो जणो गहिओ,
दीप अनुक्रम
३८
[१]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||||
दीप
अनुक्रम
[१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + |भाष्य|+चूर्णिः)
निर्युक्तिः [ ३८.९४/३८-२५] भाष्यं [१४]
अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक
चू १. अध्ययने
॥ ३९ ॥
परिक्खगगहणेण जहि सदसत्याणि णायादीणि सत्याणि अधीतानि ते परिक्खगा, एतेोस लोइयाणं परिक्खगाणं च जंमि अत्थे' बुद्धिविसंवादो न भव सो दितो, जहा लोइया उन्हं अरिंग पडिवज्जंति, तहा परिकखगावि, ण उ लोइया उण्डं परिक्खगा सीतं, परिक्खगा वा उन्हं लोइया सीयंति, एवं जहा लोइयाणं पगासणसमस्थो आइच्चो तहा परिकखगाणवि, न उ लोइया पगासगं आइच इच्छति परिक्खगा अप्पगासगं, लोइया वा अप्पगासति परिक्खगा वा पगासं, तम्हा जत्थ लोइयपरिक्खगाणं बुद्धिअविसंवादो भवइ सोदितोति गतो दितो तथा उपसंहारो नाम जत्थ जहासो तहासदो व पउंजड़ सो उपसंहारो, निगमणं नाम जत्थ पसाहिए अत्थे अज्झत्थदेऊनं पुणो कहणं कज्जइ एवं निगमण, एतेहिं पंचहि अवयवहिँ दुमपुष्फियअज्झयणस्स अस्था उवीरं सुनफासियनिज्जुत्तीए भणिहिई, इदं पुणाइ सिस्समतिकोवणत्थं पंचावयवोववेयं वयथं भष्णइ यथा अस्त्यात्मा इति प्रतिज्ञा, कार्यप्रत्यक्षत्वादिति हेतुः परमाणुवदिति दृष्टान्तः, यथा परमाणवोऽप्रत्यक्षा अपि धणुकादिकार्येण प्रत्यक्षेणानुमीयतेऽस्तीति तथाऽऽत्माऽप्रत्यक्षोऽपि प्राणादिकार्येण प्रत्यक्षेणानुमीयते ऽस्तीत्युपसंहारः तस्मात् प्राणादिसद्भावादस्त्यात्मा इति निगमनं, पंचावयवाणं परूवणा गता, इदाणिं दसावयवाणं परूवणं काहामि, तं० पतिष्णा पढमो अवयवो पइण्णाविसुद्धी चितियो अवयवो एवं हेऊ तहओ अवयवो हेउ विसुद्धी चउत्थो अवयवोदितो पंचमो अवयवो दितविसुद्धी छट्टो उपसंहारो सत्तमो उवसंहारविसुद्धी अट्टमो निगमणं णवमो णिगमणविसुद्धी दसमो, एए एयंमि चैव अज्झयणे उपरिं भण्णिहिंति इदाणि दितस्स एगडियाणि भण्णति तं० 'नायं आहरणंतिय गाहा (५२-२४) नायंति वा दितोचि वा आहरणति वा ओवम्मंति या निदरिसति वा एगड्डा, नज्जति अणेण अत्था तेण नार्य, आहरिज्जति अणेण अत्था तेण आहरणं, दीसंति अणेण अस्था
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दृष्टान्तः
पंचावयवाः
॥ ३९ ॥
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आगम
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
ACT:
गाथा ||१||
11ण दिढतो, उपमिति अणण अस्था नेण आवम्मं, निच्छिय दरिमिति अणेष अत्था तेण निदरिमण, एगाडया गता 1101 दृष्टान्तचकालिका दाणि एतम्स दिद्रुतम्स दुविधं विधाण भण्ण इ. चरियं च कास्पियं च (५३-३४) चरियं नामजं सव्य सद्भुतं चूणों
बन तेण अस्स दिट्टतो कीरइ तं चरिब, कप्पियं नाम जस्स असंतेण भावेण दिईतो कज्जद, एत्थ गाहा---'जह अम्हे १ अध्ययने
४ तह तुम्हे तुन्भेवि य होहिहा जहा अम्ह । अप्पाहेर पडते पंडअपत्तं किसलयाणं ॥ १॥ एवं कप्पियं, एतेसिं चरित
कप्पियाण एकेक चउरियह भवद, त नाय (आहरणं] दिट्ठतो ओवम्म निदरिसर्णति, इदाणि पूणरवि चरितकप्पिय दुविह चउथ्विई | भवा, एत्थ माहा-'चरियं च कप्पियं च.' गाहा । ०३-३४) कह चउविहं भवदी, नंजहा-आहरणो आहरणदेसे आहरणदोसे ४ उवण्णासो वयणे. एतेसिपि एकको भेदो दुविधी, तक चरियं च करिपयं च, तत्थ आहरणदारं भण्णा, तं चउन्विहं पणनं, है जहा-अबाये उवाये ठवणाकम्मे पट्टप्पणविणामी, तन्ध अवायेवि चउबिहे पण्णने, नंदबाबाए खेचावाए काला
वाए भावावाए, तत्थ दवावाए उदाहरणं दो भायरी, नेहि सुर₹ गतृण सहस्सिओ नउली रूपगाण विविओ, ते य सर्व गार्म संपन्धिया, एयंता उलयं बारएण वदंति: जया एगम्स हत्थे तदा इतरो चितेइ-मारेमिण, वरमते कबगा ममं होंतु, एवं | पितिओ चिंतेह-जहा अह मेयं मारेमि, न परापर वधपरिणताण य अजमवसिताओ, जाहे (व) मग्गामम्स ममीपं संपत्ता, तत्व | नओ जेद्रुतरम्स पूणरावनी जाया-धिपत्थु मम जण मए दब्बम्स कए भाउणो विणासो चितिओ. परुग्णो, इतरण पुच्छिओ, कहिएका
||४०॥ भणण्इ-ममवि एतारिमं पितं होस्सु, ताह ने एतम्म दोसेण अम्हाणं एतंति काउं तेहि मो न उलओ दहे उढो, ते य घर गया, सा। यनउलो नत्य पडतो मकरण गिलिओ. मा य मन्छो मेगा माग्ओि. वीहीण य ओयारिओ, तेमि च भाउगाण मगिणी
4-%%%
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश-18
गाथा ||१||
- मायाए वीपीए पट्टविया जहा मठ आणहि जा भाउगाणं न सिझति, ताए व समावनीए सो माछो आणि श्री, चंडीए काले- क्षेत्रकालबैंकालिकतीए नउला दिट्ठा, चडीए चिन्नियं-एस नडलो मम चर भविम्मइति उच्छंगे की, थपिनो यथेरीए दिट्टो, माऊपतीभावापाया। चूर्णी
ठिा भणितं कि तुमे उच्छंगे कर !. सावि लोभं गया न साइ, नाओ दोऽपि परोपरं पहनाओ, मा थरी ताप चेडीए तारिमा १अध्ययनमम्मपदेया
मम्मपदेमे आहता जण तक्खणमेव जीवियाओ नवरोविया, तहिं तु दारएहि मो कलहवइयगे नाओ, मो नउलओ दिट्ठो, थेरिंगा
प पाणविमुका निसर्दु धरणियले पडिया दिट्ठा, इमा सो अणत्यो अथोनिकाऊण तं दारियं गरम गोइस्स दाउं तस्स अचातेणxi ॥४१॥
&ादावि भायरा पब्बइया, तेहि दारएहि तन्निमिनं अबानो कओ, थरियाए न कओ, एवमय जायस्म कारणगाहियस्म अवाता।
करणीओ, एतदेव विनाशकारणं भवइ इह परलोए य, परिसं दब्यओ आहरणं भवइ । इदाणिं ग्वत्तावायो, खेत्तावायो नाम जो जतो अवायंति काऊण गच्छइ जहा दसारा महाराओ जगसिंधुरायभयात बारबई गया, एवं साहणापि असिवादीहि कारणेहिं खेता-18 बाओ कायबो, तो नित्थरहिति, जहा दसारा णित्थिण्णा । कालावायो नाम जो जम्म कालस्स अवार्य करेइ, जहा दीवायणपरिवायओ दारवई मा विणासहामिनि नेण अवातेण पवितो उत्तरापहं गतो, एवं साहुणावि दभिक्खस्म अवातो असिवाणं चन कायब्बो, ण उ अपुण्णे आगंतव्य मूढत्ताए। भावावाए उदाहरणं खमओ, एको खमओ चेल्लएण समं भिक्खायरियं गओ, तेण तन्थ मंजुकलिया मारिया, चेल्लूणएण भणिय-मडकलिया ते मारिया, अरे दुद्रुमेह ! चिरमइया चेव सा, ते गया, पच्छा रति आवस्सए
॥४१॥ आलोएताण खमएण सा मडकलिया णालोइया, ततो चेहएण भणिय- खमगा! तं मंडुक्कालियं आलोएहि, खमओ रुटुओ तस्सा चेल्लणस्स खेल्लमयं घेत्तण उद्धाइओ, अंसिआलयखंभे आवडिओ वेगेणं एंनो, मओ जोतिसिएसु उचवण्णो, तओ चइना दिट्ठीविसाणं
दीप अनुक्रम
SHESessiesaks
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
S
सूत्रांक
गाथा ||१||
श्रीदश- कले दिदीचिसो सप्पो जाओ, तस्थ य परिहिंडते, ण नगरे, तत्थ राइपुत्तो सप्पेण खाओ, आहिडितेण य विज्जाए सम्बे सप्पा क्षेत्रकालबकालिकादाआवाहिया, मंडलेय पवेसिया, भणियाणेण-सवे गच्छंतु, जेण पुण रायपुचो खइओ सो अच्छउ, सम्बे गया. एगो ठिओ.
सोभावापाया चूगों
भणिओ-अहवा विसं आपिव अहवा एत्थ अग्गिमि निवडाहि, सो य अगंधणा, सप्पाणं किल दो जातिओ-गंधणा अगंधणा य, IN १अध्ययने ते गंधणा माणिणो, ताहे सो अग्गिमि पडिओ, न य तेण ते वतयं पच्चावीतं, रायपुत्तोवि मओ, पच्छा रण्णा पट्टण घोसावियं। ॥४२॥
रज्जे-जो मम सप्पसीसं आणेइ तस्साहं दीणारं देमि, पच्छा लोगो दीणारलोभेण सप्पे मारेउ आढत्तो, तंच कुलं जत्थ सो खमओ उप्पण्णो तंजाइसरति रात हिंडति, दिवसओन हिंडति, मा जीवे दहिहामित्तिकाउं, अण्णया आटिगेहिं सप्पे मग्गंतर्हि रचि| चरण परिमलेण तस्स खमगसप्पस्स बिलं दिट्ठति, दारडिओ ओसहीए आवाहेइ, चिंतेइ-दिडो मे कोहस्स विवागो, तो जब अहं अभि| महो निग्गच्छामि तो दहिहामि, ताहे पुंछेण आढत्तो णिफिडिउं, जत्तियं निष्फिडेड तावइयमेव आहिडितो छिदइ, जाव सीसं छिण्णं, सो य सप्पो देवयापरिगहिओ, देवताए रण्णो सुमिणए दरिसणं दिण्णं, जहा मा सप्पे मारेहि, पुत्तो ते भविस्सइचि, तस्स दारगस्स नागद नाम करेज्जाह, सो य ख़मगसप्पो मरित्ता तेण पाणपरिच्चागेण तस्स चेच रची पुत्तो जाओ, जाए दारए णाम से कयं नागदचो, खुडलओ चेव सो पच्वइओ, सो य किर तेण तिरियाणुभावेण अतीव छुधालुओ दोसीणवेलाए चेव आढयेइ श्रीजउं जाव सरत्धमणवेला, उबसंतो धम्मसठिओ य, तमि य गच्छे चत्तारि खमगा, तं०-चाउमासिओ तिमासिओ दोमासिओ मासखवओ य, रत्तिं च देवता बंदिया आगया, चाउमासिओ पढमठिओ, परओ तिमासिओ, तस्सवि परओ दोमासिओ,
४२॥ तस्सवि परओ मासिओ, ताण परओ खुडलओ सव्वेसि, त सधे खमगा अतिकमित्ता ताए देवताए खुदो वैदिओ, पच्छा ते
ECREGS
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अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१]
निर्युक्तिः [ ३८.९४/३८-२५] भाष्यं [१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
चूर्णां १ अध्ययने
॥ ४३ ॥
खममा रुट्ठा, णिग्गच्छंती य गहिया चाउम्मासियखमरण पोचे, भणिया य तेण कडपूर्याणि ! अम्हे तवच्चरणिणो ण बंदसि, एयं कुरभोषणं बंदसित्ति, सा देवया भणह- अहयं भावखमयं वंदामि न पूयासकारपरे माणिणो वंदामि, पच्छा ते चेल्लगं तेण अमरिसं बर्हति देवता चितहमा एते चेलगं खरंटेहिंति, तो सणिहिता चैव अच्छामि, ते ताहं पडिचोदेहामि, वितियदिवसे य चिल्लओ संदिसावेऊण गओ तोसीणस्स, पडियागतो आलोएता चाउम्मासियखमयं निमंते, तेण पडिग्गहम्मि निच्छूढं, चेलओ मण-मिच्छामि दूकडं जं तुज्झ मए खेलमलओ ण पुणामिओ, तं गुण उप्परातो चेव फेडेचा खेलमडए छूटं, एवं जाव मासिएणवि बिच्छूढं तं तेणं चैव फेडिय आउगलित्ता, लंगणं गेण्डामित्तिकाउं खमएण चेलओ बाहुमि गहिओ, तं तेण तस्स चल्लगस्स अदीणमणसस्स (विसहमाणस्स) विसुद्धपरिणामस्स लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिज्जाणं कम्माणं खएण उवसमेणं च केवलणाणं समुप्पण्णं, ताहे सा देवता भणइ कहं तुमे वंदियव्वा ? जेणेवं कोहाभिभृयां अच्छह, ताहे ते खवगा संवेगसमावण्णा मिच्छामि दुकडंति अहो बालो उवसंतो अम्देहिं पावकम्मेहिं आसादिओ एवं तेसिं सुहज्झवसाणाणं केवलणाणं समुष्यष्णं, एवं अवायो कातव्वा कोहादीहिं । तहा जीवचिताए सेहादणिं अवाओ दरिसिज्ज, संवेगनिमित्तं सम्मत्तधिरीकरणनिमित्तं च जहा जस्स वाइणो जीवो दव्वओ खेत्तओ कालओ भावओ य निच्चो तस्स सुहदुक्खेहिं जीवो न संजुज्जर, संसारमोक्खो वा न भवद, कई ?, सो तेहिं कूडस्थो अचलो मओ, अचलो सुहदुक्खाइएहिं कारणेहिं ण परिणमद, जो सुही तेण सुहिणा चैव भवियव्वं, तहा जस्स वाइणो जीवो एगंतेण अणिच्चों खणे खणे उप्पज्जइ विणस्सह य, तस्स य सव्वसो चैव खणे खणे उप्पण्णस्स विणट्ठस्स य अवथिती चैव नत्थि, अणवडियस्स सुहदुक्खपयोगो न भवइ, जम्दा एते दोणिचि निच्चानिच्चपक्खा असन्वण्णुदिट्ठा तम्दा इह जिण
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क्षेत्रकालभावाषायाः
॥ ४३ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चतुर्विध
गाथा ||१||
॥४४॥
श्रीदश- पवयणे जीवो दवट्टयाए निच्चो पज्जवेहि अणिच्चो, एत्थ दिढतो. सोवण्णयंगुलेज्जगं, जहा सुवण्णमयस्स अंगुलेज्जगस्स कुंडल-18| वैकालिका नेण उप्पण्णस्स उप्पाओ भवइ, अंगुलेज्जगत्तणेण विगमो, सुवण्णतणेण अवडिई चेब, जीवदव्यस्सवि मणुस्समावेण उप्पण्णम्स उपाया:
चूर्णी I माणुसलेण उप्पाओ, देवादणं अपणयरगेण विगमो भवद, जीवत्तणे अवडिओ चव, तम्हा जिणपणे जीवो दबट्टयाए णिच्चो १ अध्ययन
पज्जवेहि अणिमचोति, अवाओत्ति दारं गनं । इदाणि उवाएत्ति दारं-सो य दव्बादी चउविहो, तत्थ दबोबायो जहा धातुबाइया उवाएण सुवणं करेंति, एवं तारिसे संघकज्जे समुप्पण्णे उवाएण जोणीपाइडाइयं परिणीय आसयंति, विज्जातिसएहि। वा एरिसे दरिसइ जेण उवसमेइ। खेत्तावाओ. जहा नावाए पुब्बबेतालीओ अयरावेयालि गम्मइ, एवं विज्जाइसरहिं अद्धाणाइसु नित्थरियन्वं । कालउवाओ जहा नालियाए कालो नज्जर, एवं सुत्नत्थेहि एत्तिएहि परियट्टिएहि एत्तिओ कालो गओ भवइ, एवं जाणियन । भावउवाए उदाहरणं, सणिओ राया भज्जाए मण्णइ-जहा मम एगर्थी पासादं करहि, नेण पाणी आणत्ता, गया। कट्ठछिंदगा, तेहि अडवीए महइमहालओ दुमा दिट्ठी, जणेस परिगहिओ सो दरिसावेद जइ अप्पाण ता न छिदामो, अह न देइदरिसावं तो छिदामोनि, नहा तेण रुक्सवासणा वाणमंतरेण अभयस्स दरिसाओ दिण्णी, अहं रणो एगभं पासादं।
करेमि सम्बोउगं च आराम करेमि सब्यवणजातीउववेय. मा छिदहत्ति, एवं तेण की पासाओ। अण्णदाएगाए मातंगीए व अकाले अंबडाहलो. सा भत्तारं भणइ- मम अंबाणि आणहि, तदा य अकाला अंचयायो, तेग ओणामणीए बिज्जाए डालं
I४॥४४॥ आणामिय, अहण गहियाणि, पूणा य उण्यामिणी उणामिय, पभाए रणा दिलै, नदीसइ, को एस मणमो अगओ?, जस्स18 एरिसी सत्ती सो ममं अंतरं अधि धरिस हिचिकाई अभयं सहावेऊण भणह- सत्तरत्नम्स अब्भतरे जइ चार गाणीस ना त नस्थिर
X
दीप अनुक्रम
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
H गाथा ||१||
श्रीदश- जीविय, तारे अभओ गवेसेउमाढतो, नवरं एगमि परसे गोझो रमितुकामो, मिलद लोगो, तत्थ गंतु अभओ भणइ-जावट आहरणे बैंकालिका गाउझो मंडइ अप्पाणं ताव ममेग अदखाणगं सुणेह, जहा कम्मि य नगरे एको दरिहट्ठी परिवसई, तस्स धूता बद्दकुमारी अती उपायद्वार
चूर्णी रूपस्सिणी य, सा य वराय कामदेवं अचई, साय एगमि आराम चारियर्ग पुष्पाणि अचंह, आरामिएण दिव, कटिउमाढला, ताए। १अध्ययने यसो भणिओ--मा मई कुमारि विणासहि, तुहषि भगिणीभगिणिज्जाउ अस्थि, तेण भणिया-एकहा ते मुयामि,जह नवरं जंमि दिवस
परिणिज्जसि तं दिपसं चेव भत्तारेण अणुग्घाडिया समाणी मम सगासं एहिसी तो मुयामि, तीए भणिओ-एवं भवति, तेण। विसज्जिया, अण्णदा परिणीया, जाहे अपवरकं पेसिआ ताहे भचारस्स सम्भावो कहिओ, मुका, गच्छंतीय अंतरा रक्खसो दिट्ठादा जो छण्ई मासाणं आहारइ, तेण गदिया, कहिए मुफा (एक्यंतरा चोरेहि पारद्धा जहावने कहिये मुका) गया आरामियस्स सगासं, (तेणवि जहावते अक्खाए मुका) अणहसमग्गा गता, ताहे अभओं तं जणं पुन्छ-अक्खाह इत्थ केण दुकर कयं?, ताहे | इस्सालुगा भणंति-भत्तारेण दुकर छुयालुया भणति-रक्खसे, पारदारिया भणति मालाकारणं, हरिएसेण भणिय चोरेहि, पच्छा। गहिओ, जहा एसो चोरेति, सेणियरस उवणीओ, पुच्छिएण सबभायो कहिओ, ताहे रणा भणियं--जइ नवरं एयाओ विज्जाओ। देहि तो ण मारेमि, देमित्ति अब्भुवगए आसणि ठिओ पढद, ण ठाई, राया भणइ-
किन ठाइ ?, ताहे मातंगो भणइ--जहा अविणएण पढसि, अहं भूमीए, तुम आसणे, पीययरे उबविट्ठो, ठियाओ, सिद्धाओ य विज्जाओ, जहा अभएण तस्स चोरस्स ।
॥४५॥ उवाएण भावो गाओ, एवं सेहाणं उपद्वैताणं भावो गवेसिययो-कि एते पवावणिज्जा नवत्ति', 'अट्ठारस पुरिसेसु चीसं इत्थीसु दस नपुंसेसु तओ उरि पंचकप्पे भणिहिति, तहा जीवचितापवि सेहादीण ता उताभो दरिसिज्जइ-जीवो हि पच्चक्खओ
KAR
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दीप अनुक्रम
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आगम
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
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सूत्रांक
चूण
कम
H गाथा
दिश- अणुवलम्भेमाणो सुहृदुक्खइच्छाओ सपुरिसकारादीहि कारणेहि साहिज्जइ, भस्थिति पच्चक्वं दीसए, लोए विज्जमाणो देवदत्तो वैकालिका
आहरण | दबओ अस्सपट्ठातो हस्थिबंधं दुरुहइ खित्तओ गामाओ नगरं गच्छइ कालओ सरदकालाओ हेमंतकालं संकमइ भावे कोहाओस्थापना
माणं संकमइ, एवं मायाई, जीवोऽवि माणुस्ससरीरं विप्पजहाय देवसरीरं उवचिणाइ, एस दम्बओ, खित्तओवि मणुस्सभवे तस्स १ अध्ययने
अण्णाओ ओगाहणाओ अण्णाओ देवभवे, कारओबि स एव मणुस्समवे परिमितबरिसायू भविता देवभवे पलिओवमट्ठिइओ ॥४६॥ जायइ, भावओपि अहज्झाणी भवित्ता धम्मज्झाणी भवइ, एवमादीहिं किंचि पच्चक्खओ अणुवलम्भमाणोवि जीवो लक्खणयो
गेण्हियग्यो, यो उबयोगलक्षणेत्ति भण्णइ, एत्थ दिलुतो घडो, जहा अजीवदव्यस्स घ.स्स बढमाणअतीतानागताए काले उवओगो नस्थि, ण य सो जीया इच्छिज्जइ, कम्हा, उपयोगलक्षणाभावो, जीवस्स य उबयोगो लक्खणं फुडं दसिह, तम्हा जो उपयोगलक्षणो अस्थो सो जीवोत्ति, भणियं च-"उवयोगजोगइच्छाविलक्खणाणवलचेट्ठियगुणेहिं । अणुमाणा णायव्यो अग्गिझो इंदियगुणेहिं ।।१।। जो चिट्ठइ कायगतो जो मुहदुक्खस्स वेदणा णिच्च । विसयसुद्दजाणोविय सो अप्पा होइणायव्यो ॥२॥ एत्थ सीसो आह-जह उपयोगो जीवलक्षणं तेण एगिदियाणं अजीयत्तं भवइ, कह , जम्दा तेसि उपयोगस्स। अभावो, एत्थ दिढतो घडओ, जहा तीयाणागएमु कालेसु न कदावि (तस्स) उपयोगो विज्जइ तहा एगेंदियाण जीवाण उवयोगा। न विज्जा, तम्हा उपयोगस्स अभावे एगेंदियाणं ते अजीवया आवण्णा, आयरिओ आह-अहो! ताव समयबाहिराणि ययणाणि मन्त्रयसि, गणु सच्यण्णुपणीए मग्गे परूवियं, जहा 'सबजीवाणपि य णं अक्खरस्स अणंतभागो णिगुग्धाडिओ' अत्थक्खरं
४ ॥४६॥ 1णाम चेयणति चा उपयोगोत्ति वा अक्खरत्ति वा एगट्ठा । तत्थ सुयणाणं आभिणिवोहियणाणं च पडच भण्णति-सव्वसुद्धो।
दीप अनुक्रम
EOCHACleCHEHRECE%ा
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्राक
[-]
गाथा
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दीप
अनुक्रम
[3]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
निर्युक्ति: [ ३८... ९४/३८-९५], भाष्यं [१-४]
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [ १ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशबैकालिक
चूण १ अध्ययने
॥ ४१ ॥
उपयोगो अणुत्तरोववाहयाणं, तओ उवरिमगेत्रेज्जाणं असंखेज्जगुण परिहाणी, एवं अखेज्जगुणपरिहाणीए सेटीए जाव पुढविकाइया ताव भाणियव्बो, तुम्हा एगिंदियाण उपयोगस्स अनंतभागी निच्चुग्घाडिओ, तओ सो चेव अनंतभागो तेसिं महणाणं सुयणाणं च भण्णइ, तुम्हा जं भणसि जहा तेर्सि उपयोगो चैव नत्थि, उपयोगअभावेण य तेसि अजीवत्तं भवतित्ति तं मिच्छा, उवाउत्तिदारं गतं । इदाणिं ठवणाकम्मित्ति दारं भण्णति, तं च कंचि अत्थं तारिसं परुर्वऊणं अचरुइयस्स अत्थस्स परूवणं करेह एवं जहा पुंडरीयज्यणे पुंडरीयं पुरुषेऊण अण्णाणि मयाणि दूसियाणि, निश्वषणं च सब्बनपविद्धं पवयणमुददि, एवमादि वाकम् भण्ण, अहवा ठवणाकम्मे उदाहरणं- जहा एगंमि नगरे एगो मालागारी सण्णाइओ पुष्फे घेतून वीडीए एह, अतीव बच्चओ, ताहे सो सिग्धं वोसिरिऊन सा पुप्फचितिया तस्सेव उवरि पछत्थिया, ताहे लोगो पुच्छर किमेयं जेणेत्थं ! पुप्फाणि छट्टेसि, ताहे सो भणइ अहं ओलोडिओ, एत्थं हिंगुसिवो णाम, एयं तं वाणमंतरं, हिंगुसिवं नाम वाणमंतरं एवं जह किंचि उडाईं पावणियं कर्म होज्जा केrह पमायेण तादे तहा पच्छादेतच्यं जहां पज्जन्ते पवयणुभावणा भवति एवं किंचिदेव जीवचिताएव परप्यवायी निग्गहद्वाणं भणेज्जा तारिसं किंचि भासमाणस्स फलं होज्जा, तत्थ साहुणा तं तस्स वयं मासिज्जमाणमेवहा कायव्वं गायदिट्ठीए जेण परप्पवादी निष्पट्टपसिणवागरणो भवति, ठवणाकम्मेति दारं गतं । इदाणिं पट्टप्पण्णविणासी णाम, जहा एगो वाणियओ तस्स बहुगाओ भगिणीओ भागिणेज्जा भाउज्जायाओ य, तस्स घरसमीवे राउलगा गंधविया संगीतं करेंति दिवसस्स तिष्णि वारे ततो वाणियगमहिलाओ तेण गीतसद्देण तेसु गंधविएम अज्झोववण्णाओ किंचि कम्पादाणं न करेंति, पच्छा तेण वाणियएण विचिंतितं जहा विणट्ठा एयाउति को उवाओ होज्ज जह ण विणस्संतित्तिकाउं
[60]
आहरणे
प्रत्युत्पन्नविनाशी
॥ ४७ ॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्राक
H
गाथा
||||
दीप
अनुक्रम
[१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
निर्युक्ति: [ ३८... ९४/३८-९५], भाष्यं [१-४]
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [ १ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र - [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
मिस्स कहिये, तेण भणियं अत्तणो घरसमीचे वाणमंतरं कारावेहि, तेण कथं, ताहे पाठहियाण रूवगा दाउं वावारेह, जाहे गंधव्विया संगीययं आठवेंति ताहे ते पाडहिया पडदे देंति, एवं सो दिने दिणे फुर्सेति गायंति य, ताहे तेसि गंधब्वियाणं विग्धो जाओ, पडहचूर्ण सद्देण न सुबह गंधब्बो सद्दो, तओ ते राउले उबडिया, वाणियओ सदाविओ, किं विग्धं करेसित्तिः, भणइ-मम घरे देवो तस्साहं १ अध्ययने ५ तिथि वेले पडदे दवावेमि, ताहे ते रण्णा गणिया जहा अन्नत्थ गायह, किं देवस्स दिने दिने अंतराइयं कज्जई, एवं आयरिएणात्रि
॥ ४८ ॥
सीसेसु आगारीसु अज्झोववज्जमाणेसु तारिलो उवाओ कायव्वो जहा तेसिं तस्स दोसस्स निवारणा भवर, एवं जीवचिंताए वि नाहियवाइयाणं अदूरसामंते ठिच्चा जीवस्स अस्थिभावो पष्णविज्ञमाणो जड़ के रचपडा भणज्जा-सव्ये भावा चैव नत्थि, किं पुण जीवोऽवि, तत्थ भणेति जं एतं ते वयणं जहा सव्वभावा नत्थि एवं वयणं नत्थि, एसवि भायो, जति भणइ-अत्थि तो जं भणह सब्वभावा नत्थित्ति न जुज्जर, अह एवं नत्थि वो अहं सिद्धो चैत्र पक्खो, केणऽम्ह पक्खो दूसिउत्ति, एवं सो एवमाईहिं | हेऊहिं तहा कायव्त्रो जेण पहाय पहं न एह, पप्पण्णविणासित्तिदारं गयं । समत्तं च आहरणत्ति दारं । इदाणिं आहरणे तद्देसत्ति दारं, से चउन्विहे, तं० अणुसिट्ठि उवालं मे पुच्छा णिस्साचयणे, अणुसडीए सुभद्दा उदाहरणं, चंपाए णगरीए जिणदत्तस्स सावगस्स सुभद्दा नाम घ्या, सा अतीय रूपवती, सा य केणइ उवासएण दिट्ठा, सो ताए अज्झोववण्णो तं मग्गह, साचओ भगइ-गाई मिच्छादि धूर्य देमि, पच्छा सो साहूणं सगास गओ, धम्मो यणेण पुच्छिओ, कहिओ साहूहिं, ताहे कवडसावयधम्मं पगहिओ, तत्थ से सम्मावेण चव उबगतो धम्मो, ताहे तेण साहूणं सम्भावो कहिओ, जह मए दारियाकए णं ( कयं ), णायं जहा कवडेण कज्जि हिइ, अष्णाणि मे देह अणुब्वयाणि, लोए पगासो सावओ जाओ, ओ काले गए बरगा मालया पट्टवेन्ति, ताहे तेण जिणदतेण
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आहरण
देशेऽनुष्ठिः शास्तिः
।। ४८ ।।
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(४२)
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सूत्राक
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गाथा
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
निर्युक्ति: [ ३८... ९४/३८-९५], भाष्यं [१-४]
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [ १ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र - [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
सावओचिकाऊण सुभदा दिण्णा, पाणिग्गहणं वर्च, अण्णदा सो भगइ दारियं घरं नेमि, ताहे सो साओ तं भगइ तं सर्व्व उवासमकुलं, एसा तं नाणुवसिहि, पच्छा छोभयं वा लभेज्जत्ति, णिबंधे विसज्जिया, ऊग जुययं घरं कथं, सासुयणणंदाओ पट्टाओ भिक्खूण मति न करेइति, अण्णदा ताहिं सुभद्दाए भचारस्स अक्खायं, एसा सेतपडेहिं समं संसत्ता, सावओ न सदहइ, अण्णदा खमगस्स भिक्खागतस्स अच्छिसि कणुओ पचिट्ठी, सुमहाए जिन्माए सो कणुओ एडिओ, सुभद्दाए य चीणपिट्ठे तिलगो कओ, सो य तस्स खमगस्स निडाले लग्गो, उचासियाहि सावगस्स दरिसिओ, सावरण पत्तियं, ण तहा अणुत्रच, सुभद्दा चिंतेह किं अच्छेयं जं अहं गिद्दत्थि छोभयं लभामि, जे पवयणस्स उड्डाहो एवं मि दुक्खइति सा रति काउस्स*ग्गेण ठिया, देवो आगओ, संदिसाहि किं करेमि ?, सा भणड़ एवं मे अजसे पमज्जाहित्ति, देवो भणड़' एवं भवउ ' अहमेतस्स नगरस्स चत्तारिवि दाराई ठएहामिति, जा जा पतिब्वया होहिति सा एंवाणि दाराणि उघाडेहिति, तत्थ तुमं चेत्र एका उग्घाडिहिसि ताणि कवाडाणि, सयणस्स पच्चयनिमित्तं चालणीए उदगं छोडून दरिसिज्जासि, ततो य चालणीओ फुसितमवि ण गलेहिति, एवं आसासेऊण निग्गओ देवो, नगरदाराणि अणेण ठयाणि, णगरजणोय अष्णो, इओ य आगासे वाया-भो नागरजणा ! मा णिरत्ययं किलिस्सह, जा सीलवती चालणीए से छूढं उदगं न गलइ सा तेण उद्गेण दारं अच्छोडद ततो दारं उग्ध डिज्जिस्थति, तत्थ बहुयाओ सेट्ठिसत्थवाहादीण धूयासुहाओ ण सकेति पिलियं पलभिऊं, ताहे सुभद्दा सयणं पुच्छर, अविसज्जेताण य चालणीए जया उदगं छोट्टणं तेसि पाठिहेरें दरिसेइ तओ विसज्जिया, उवासिगाओ एवं बोलुमाढत्ताजहा एसा समणपडिलेडिया उघाडेदिति, ताहे चालणीए उदगं छूटं, न गिल, पिच्छित्ता बिसण्णा, ततो जणेणं सकारिज्जती तं
श्रीदश
वैकालिक
चूर्णां १ अध्ययने +
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अनुशा
सने सुभद्रा
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
निर्युक्तिः [ ३८.९४/३८-२५]
भाष्यं [१४]
अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णां
१ अध्ययन
1140 11
दारसमीपं गता, 'मो अरहंताणं ' भणिऊण उदरण अच्छोडिआ कवाडा, महया सद्देणं कॉकारवं करमाणा तिष्णिवि गोपुरद्वारा उग्वाडिया, उत्तरदारं चालणीपाणिएण अच्छोडेऊण भणइ - ' जा मए सूरिसी सीलवर होहि सा एवं दारं उघड' तं अज्जवि ढकिये चैव अच्छह, पच्छा णागरजणेण साहुकारो को अहो महासई, एवं पियदढधम्मा वैयावच्चाइसु अणुसा सियच्या, उज्जमंता अणुज्जमंता य संठवेतच्चा, जहा सीलबइताणं इहलोंगे एरिसं फलमिति । वहा जीवचिंताए जेसिं पावादियाणं जीवो अस्थि अम्हवि जिणप्पणीए मग्गे जीवो अत्थि, इदाणि पुणे जं भगह सो अकत्ता एवं न जुज्जर, कम्हा, जेण सुदुक्खादीणि अणुभवतो दीसह, जइ तेणं तं कम्मं न कथं केण तं कथं जं सो सुहदुक्खं वेदेदिति एवमादीहिं हेऊहिं अणुसासियब्यो, अणुसासणा गता । इदाणिं उबालंभोति दारं तत्थ उदाहरणं-मिगावती, देवीए बत्तब्वया जहा आवस्सए दव्यपरंपरए मणिया तहेव पव्वश्या, अज्जचन्दणाए सिस्सिणी दिष्णा, अण्णदी य स भगवं विहरमाणो कोसंबी समोसरिओ, चंदाइचा सविमाणेहिं आगया, चउपोरसीयं समासरणं काउं अत्थमणकाले पडिगता, तओ मिगावती संमता अतिविकालीकयत्तिभणिऊण साहुनीहि सहिया जाब अजयचंदणाए उवालम्भति, जहा एवं उत्तमकुलपसूया होइऊण एवं करेसि, अहो न लट्ठयं, ताहे पणमिऊण पाएहिं पडिया, परमेण विणरण खामेइ, खमह मे अज्जाओ!, गाई पुण एवं करेहामित्ति, अखचंदणा य तंमि किर समए संथारोवगता पमुत्ता, इतरीए परमसंवेगगताए केवलणाणं समुप्पण्णं, परमं च अंधकारं बइ, सप्पो य तेर्णतएण आगच्छड, पबत्तीणीए य इत्थो लंबमाणो उप्पाडिओ, पडिवुद्धा य अज्जचंदणा, किमेयं, सा भगइ दीइजातिओ, कहं तुमं जाणसि, अतिसरण, पडिवाई अप्पडि बाइति १ अप्पडिवाइति भणिए सावि समंता खामेह एवं पमादयंतो सीसो उबालभितच्वो । तहा जीवचिताएचि णाहिय
"
[63]
उपाभ मृगावती
॥ ५० ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
गाथा
||१||
श्रीदश-लवादी उबालभितब्बो. में एयं कुसत्थं देषाणुप्पिएण जीवस्स अस्थिभावपडिसेहगं उच्चारियं तं जीवस्सेव पभाषण, कम्हा? , जम्हा पृच्छायां वैकालिक अचेयणा घडादयो भावा जीवभावपडिसेहगाणि सस्थाणि न तरंति उच्चारेउं, तम्हा जीवस्सेच तं सामत्थं, जं तुर्म एवं कुसत्या कौणिका
जीवभावपडिसेहगं उच्चारेसिन्ति, भणियं च "जस्व पभावुम्मिल्लियाई तं चैव हयकयग्घाई । कुमुदाई अप्पसमावियाई चंद उवह-16 १ अध्ययने सति ॥१॥" उचालंभत्ति दारं गतं । इदाणिं पुच्छा, जहा कोणिएण रण्णा सामी पुच्छिओ-चक्वट्टियो अपरिचत्तभोगा काल
मासे काले किच्चा कहिं उपवज्जंति?, सामिणा भणिय-अहे सत्तमाते उववति, ताहे भणइ-अहं सत्तमीए न कि उववज्जिस्सामि?. सामिणा भणियं-तुमं छहपुढवीए, सो भणइ-अहं सनमीए किं ण उववाज्जस्सामिा, सामिणा भणिय-सत्तमीए चककट्टी उववज्जति सो मणइ-अई किंवा होमि चक्कबड्डी? ममवि चउरासीई रहाईण सयसहस्साणि, सामिणा भणिय-तव रयणाणि नत्थि, वाहे सो कित्ति-17 माई रयणाई करेत्ता ओयवेउमारतो, तिमिसगुहाए पविसिउं पबत्तो, कयमालिएण वारिओ, भणिो य-चोलीणा चक्कट्टिको बारसवि, णस्सिहिसि तुमं, वारिज्जंतो न ठाइ य, पच्छा कयमालिएण आहओ, मओ य छढेि पुढचं गओ, एवं बहुस्सुता बज्ज्ञागमा आयरिया अट्टाणि हेऊणि पुच्छियब्बा, पुच्छित्ता य सक्कणिज्जाणि समारियव्याणि, असक्कणिज्जाणि परिहरियवाणि, मणिय च-"पुच्छह पुच्छाह य पंडिए साहवो चरणजुते । मा मयलेवविलित्ता पारचहियं ण याणिहिह ॥१॥" तहा जीवचिंताएवि णाहियवादिया मण्णंति-कण हेतुणा देवाणुप्पिया! एवं भणहजहाणस्थि जीवादिया भावा, सोयण भणेज्ज-अपच्चक्खचणेणं, जइ पच्चक्खमेव करयल इच आमलगं दीसेज्जा तो नवीर अहं सदहेज्जा, एवं भणतो सो वादी पडिभष्णइ-जदि जे तुम्हारिसेहि चक्खुदंसीहि गोवलब्भह तं णस्थि एवं हिमवंतस्स पचयस्स पलपरिमाणेण गणिज्जमाणस्स पलग्गपरिमाणं पनते न लब्महाला
दीप अनुक्रम
ASHOLARSHA
[१]
EXC4k
॥५१॥
[64]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
H
गाथा ||१||
श्रीदश-18कि तस्स पलग्गपरिमाणस्स अभावो भवउ, तम्हा जे भणसि-जं इहं पच्चखं नोबलब्भइ तं नस्थिति तं मिच्छा, पुच्छत्तिनिश्रावचने वैकालिका दारं गतं । इदाणि निस्सावयणे गागलियादोजह पब्वइया ताबसा य एवं जहा बहरस्सामिउप्पत्तीए आवस्सए तहा वष्णेचा
गौतमः चूर्णी A गोतमसामिस्स य अद्धिती, तत्थ भगवता भणित-चिरससिट्ठी सि य गोतमा', अण्णे य तष्णिस्साए अणुसासिया दुमपत्तए|
आइरणतू१अध्ययन अज्झयणे, एवं जे असहणा ते अण्णमद्दवसंपण्णणिस्साए अणुसासियया । तहा जीवचिंताएवि जस्स एस पक्खो जहा नस्थि81
दहोये अधर्म॥५२॥ सबभावा ते अण्णाबदसेणं पण्णावति, इयरहा रागदोसयचिकाऊ पद्सेज्जा, तण इमाए परिवाडीए पण्णविजंति, जस्सल
४ नलदामः वादिणो सम्वभावा सुण्णा तस्स दमादीणं गुणाणं णस्थि फलं, एवमाईहि कारणेहि अण्ण चेव निस्साए पण्णविज्जइ, आहरणदेसोत्ति दारं गतं । इदाणि, आहरणतहोसेत्ति दारं, से य चउबिहे पन्नत्ते, तंजहा-अहम्मजुत्ते पडिलोमो अत्तोवण्णासे दुरुवणीए। तत्थ अहम्मजुत्ते उदाहरणं-चाणकेण नंदे उत्थाविते चंदउत्ते य रायण पट्ठपिए एवं सब्वं वण्णचा जहा सिक्खाए, तत्थ नंदसंतेहि मणुस्सेहि सह सो चोरग्गाहो मिलिआ नगरं मुसइ, चाणकेषि अण्णं चोरग्गाह ठबिउकामो तिदंड गाहऊण परिवायगवेसेण णगरं पविट्ठो, गओ नलदामकोलियसगासं, उवविही करणसालाए अच्छद, तस्स य दारओ मक्कोडएग खइओ, तेण
कोलिएण विलं खणित्ता दव, ताहे चाणक्केण तं भण्णइ-एते कि डहास? , कालिओ भणइ जइ एते समूलजाता न उच्छातिजति | 3ातो पुणोवि खाइस्संति, ताहे चाणकण चिनियं-एस मए लदो चोरग्गाहो, एस (चोरे) नंदत्तणे य समुद्धरिस्सइ, चोरग्याहो कओ,
तेण खडिया विस्संभिया, अम्हे संमिीलया मुसामोत्ति, तेण अण्णेवि अक्खाया जे जत्थ मुलगा, बहुगा सुहतरायं मुसीहामोत्ति, 1ताहे ते तेण चोरग्गाहेण मेलिऊण सव्वेवि मारिया, एवमधम्मजुत्तं न भणितवं न कातव्वंति, तदा जीवचिन्ताएवि कयाइ तारिसं
दीप अनुक्रम
RECACARALL
128k
[१]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
H गाथा ||१||
श्रीदश- पावणियं कर्ज णाऊण तहारूवं सावज्जंपि कज्जेज्जा जहा उलुगेण सो परिमाइओ मोरीनउलीवाराहिएवमाइआहि बिज्जाहिं प्रतिलोमाबैंकालिकासो बिलकूखीकओ, एवमादि, अधम्मजुत्तेत्ति दारं गतं । इदाणि पडिलोमेत्ति दारं, तत्थ अभयपज्जोया उदाहरणं, एकेणत्मापन्यास
चूर्ण हिओ अवरण पटिहओ. एवं अक्वाण जहां जोगसंगहेसु सिक्खाए तहा चेव भाणियब, एवं विज्जाएवि.जाकोऽपि परप्पवादीहरुपनाता। १ अध्ययने । भणेज्जा-मम दो रासी, तस्थ भणितब्ब-ण याणसि, तिणि रासी, ततियं रासिं ठावित्ता पच्छा वत्तव्ब-दो चेव रासिणो, मया एयस्स
बुद्धिं परिभ्य भाणियं जहा तिणि रासी एवमादी, पहिलोमत्ति दारं । इदाणिं अत्तुवन्नासे, जहा एगस्स रणो तलायं सब्बर-18 ज्जस्स आहारभृय, तं च तलायं वरिसे२ भरियं भिज्जइ, ताहे राया भणइ-को सो उवाओहोज्जा? जेणध्यं न भिज्जेज्जा, तत्थ एगो कविलिओ मणूसो भणइ-जइ नवरं महाराय ! एत्थ पिंगलो कविलियातो से दाढिया से सिस्स कविलयं, से जीवंतओ चेच जीम ठाणे भिज्जद तमि ठाणे निक्खिप्पइ तो नवरं न भिज्जद, पच्छा कुमारामच्चेण भणिय-महाराय ! एसो चेव एरिसो जारिस भणइ, एरिसो नत्थि अण्णो, पच्छा सो तत्थव निक्खाओ मारिता, एवं एरिस न भणितव्वं जं अप्पवधाए भवइ । तहा जीवचिंताएवि ण तारिस साहुणा भणियध्वं जेण दुस्साहिओ वेयालो इव अप्पणा चव वहाए भवा, एत्थ निदरिसणं जहा कोऽपि भणज्जा-एगिदिया सजीवा, कम्हा ?, जेण तेसिं फुडो उस्सासनिस्सासो दीसइ, दिद्वतो घडो, जहा घडस्स निज्जीवत्तणेण उस्सासनिस्सासो नत्थि, ताण उस्सासनिस्सासो फुडो दीसइ, तम्हा एते सज्जीवा, एवमादीहिं विरुद्धं न भासितव्वं, अत्तुवण्णासो नाम दारं गयं । इदाणिं दुरुषणीतत्ति दारं, तत्थ उदाहरणं तच्चण्णिओ मन्छे मारतो रण्णा दिडो, ताहे रण्णा ॥५३॥ भणिओ-कि मच्छे मारेसि, तच्चण्णिओ भणइ-अबीलकं न सकेमि पातुं, अरे तुम मज्ज पियसि, भणइ-महिलाए अस्थिओ न लहामि
दीप अनुक्रम
[१]
लाख
[66]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्राक
H
गाथा
||||
दीप
अनुक्रम
[1]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
निर्युक्ति: [ ३८... ९४/३८-९५], भाष्यं [१-४]
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [ १ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्ण
श्रीदशवैकालिक
चूण १ अध्ययने
॥ ५४ ॥
पनयने
(ठाउँ), महिलाबि ते?, मणइ-जाय पुतमंड कहं छड्डेमि, वृत्तावि ते?, भणइ किं खु खत्ताई खणातिः, खत्तखाणओवि से, अण्णं किं ५ उपन्यासोखोडताणं कम्म ?, खोडपुचाऽवि से, किहई कुलपुत्तओ बुद्धसासणे पञ्चय, परिसं न भणियध्वं जेण अप्पाणतो भंडाविज्जर पवयणं च उन्भामिज्जा तहा जीवचिताए वादिणा तहा भणितब्वं वादे जेण न जिव्बइ परवाइणा, दुरुबणीतंति दारं गये, आहारणत होसेत्ति दारं सम्मत्तं । इदाणि उवण्णासोबणयणेत्ति दारं, से य चउब्बिहे पण्णत्ते, तथ्यस्थ अन्नवत्थ पडिणिमे हेऊ, तत्थ तब्वत्थुए उदाहरणं- एगमि देवकुले कप्पडिया मिलिया, भणति केण मे भूमंतेहिं अच्छरियं किंचि दि १, तत्थ एको कप्पडिओ भाइ-मए दिति, जइ पुण एत्थ समणोवासओ नत्थि तो साहामि, तओ सेसएहिं भणियं नत्थि समणोवासओ, पच्छा सो भाइ-मए हिंडतेण पुय्ववेतालीए समुदस्स तडे रुक्खो महइमहंतो दिट्ठो, तस्सेगा साहा समुद्दे पहडिया, एगा थले, तत्थ जाणि पत्ताणि जले पति वाणि जलचराणि भवति, जाणि घले ताणि थलचराणि भवति, ते कप्पडिया भणति अहो अच्छेरयं देवेण भट्टारएण निम्मितंति, तत्थेगो साबओ कप्पडिओ सो भइ-जाणि मज्झे पति ताणि कि भवंति १, ताहे सो खुद्धो भगइ-मया ४ पुव्यं चैव भणियं-जह सवगो नत्थि तो कहेमि, एवं कुस्सुसु आघविज्जतीसु ततो देव ताओ वेद वत्थूओ किंचि बत्तब्वं जेण तुण्डिका मति तथा जीवचितावि जाहे नाम कोचि वइसेसिंगायो मणेज्जा- जहा एगतेणेत्र निच्चो जीवो, कम्दा १, जम्दा अरूबी जीवो, एत्थ दिहंतो आगासं, जहां आगासं अरूवी तं च निच्वं दीसह तहा जीवोबि अरुवि सोवि निच्चो भविस्सर, तम्हा निच्चो जीवोति एत्थं सो भण्णइ-जं अरुवि तं निव्वं भव तं कह उको चणआउंटणपसारणगमणादणि कम्माणि, वाणिवि अरुवीणि अह अपुव्वाणि, तम्हा अणेगीतगो एम देउचिकाऊण विरज्जइ, तब्वत्थुएत्ति दारं गतं । इदाणिं तदण्णवस्थुपति
[67]
तद्वस्तुतदन्यवस्तु च
1148 11
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) "अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 /गाथा: [१], नियुक्ति : [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक
चूणों
गाथा ||१||
I+दारं, जहा कोइ आरोडणनिमित्तं मणिज्जा-जस्स वादिणो अपणो जीवो अण्ण सरीरं तस्स एगो भवइ-कहं जो य सो अण्णसद्दो एस . प्रतिनिभः कालिक तल्लो जीवेहि बइ सरीरेवि, तल्लनणण अण्णसहस्स जीवसरीराणं एगत्तं भवइ, एवं चोदितो पक्खे तज्जीवतस्सरीरवाइणा इमो ||
भाणियब्यो, जइ अण्णसद्दतुल्लत्तणेण जीवसरीराणं एगतं ( तो सब्वभावाणं एगत्तं) भविस्सद, कह', जहा अण्णे परमाणू अण्णे १अध्ययन दुपएसिए खंधे अण्णे देवदत्ते भवइ एवं अण्णसद्दो सवभावेसु भवइ, ता किं अण्णसद्दो सवभावेसु वदत्तिकाउं सब्वभावा चेव
एगीभवंतु, तम्हा सिद्ध अण्णो जीवो अण्णं सरीरंति, तदण्णबत्थुएत्ति दारं गयं । इदाथि पडिनिभेत्ति दारं, तत्व &उदाहरण---एगम्मि नगरे एगो परिवायओ सोवण्णण खोरएण गहिएणं हिंदति, सो भणह-जो मर्म असुयं सुणावेह तस्स एवं
देमि खोरयं. तत्थ एगो सावगो, तेण भणियं-'तुज्झ पिया मज्झं पिये, घारेइ अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुतपुच्वं दिज्जउ, अहन सुर्य खोरयं देहि ॥ १॥ एवं एरिसे कज्जे उप्पण्णे एरिसगं (वत्तब्वं, जीवचिंताएवि एसो मणइ-) जं अस्थि जीवो, सो बत्तव्योजइ जं अस्थि तं जीवो भवइ, एवं घडाइणोवि भावा अस्थि, ते जीवा भविस्संति, एवमादी पद्धिणिभं भण्णइ । इदाणिं हेऊ, सो चउबिहो पण्णत्तो, तं-जावतो थावओ यंसओ लूसओ, तत्थ यावकस्य का रूपसिद्धि,यु मिश्रणे धातुः, अस्य भूवादयो धातव (पा. १-३-२) इति धातुसंवायां प्रत्ययाधिकारे 'वुल्तृचा' (पा. ३-१-१३३) विति बुल् प्रत्ययः, अनुवंधलोपे 'पुचोरना-18
का' (पा. ७-१-१) विति अकादेशः, मिदेर्गुण (पा. ७-३-८२) इति वर्चमाने 'अचामङ्किती' (पा, ७.२-११६ अचो णिति) ति मा वृद्धिा, आचादेशस्य परगमनं यावकः, तत्थ जावए एगो गोहो जवे किणइ, ताहे अण्णण पुच्छिज्जइ-किं मुल्लेणं किणसि', भणइ
महियाए न लहामि । तदा जीवचिंताएपि जह कोई भणेज्जा-कह जीवो न दीसह, जम्हा अणिदियगिझो तेण ण दीसइति ।
दीप अनुक्रम
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
-
गाथा ||१||
श्रीदश- दाणिं इत्थं चव जावए चितियं उदाहरण-एगो वाणियगो भज्ज गहिऊण पच्चतं गओ, 'पारण खीणदग्बा धणियपरद्धा कया- यावकाद्यावैकालिका वराहा य । पच्चंत सर्वते पुरिसा दुरहीयविज्जा य ॥ १॥ सा य महिला उम्भामिया, एगमि परिसे लग्गा, तं वाणियगं सा-16 हेतवः
वृणा INगारियं चिंतऊण भणइ-बच्च वाणिज्जेण, तेण भणिया-किं घेत्तूण बच्चामि, सा भणइ-उहलेडियाओ घेतण वच्च उज्जाणिं, १अध्ययने ।। पच्छा सो सगडं भरेत्ता गओ उज्जेणिं, ताए भणिओ य-जहा एकेकियं दीणारेण देज्जासत्ति, सा चितइ-वरं खु चिरं खिप्पंतो
अच्छउ, तेण ताओ वीधीए उडियाओ, कोइ न पुरुछइ, मूलदेवेण य दिट्ठो ग्छिओ य, सिट्ठ तेण, मुलदेवेण चितियं-जहा मएस बराओ महिलाए छोमिओ, ताहे मृलदेवेश भण्णइ-अहमेताउ ते विकिणामि जइ ममवि मुल्लम्स अद्धं देहि, तेण भणियं देमित्ति,
अब्भुवगते पच्छा मृलदेवेण स हंसो जाएऊण तत्थ विलम्गिऊग आगामेणं उप्पइओ, नगरस्स मज्झे घाइऊण भणइ-जइ चेडरूवम्स है गलए उडुलिंडिया न पद्धा तं मारेमि, अहे देवो. पन्हा सव्वलोएण भीण्णा दीणारिकाओ उदलेंडियाओ गहियाओ विकियाओ
य, ताहे नेण मलदेवस्म अद्धं दिण्णं,मलदेवण य सो भण्णइ-मंदभग्ग तब महिला धुत्ते लग्गा, ताए तब एवं कर्य, न पत्नियर, मूलदेवेण भष्णइ-एहि वच्चामो जा तए दरिममि जइन पत्तियास, तो गया. अण्णाए लेसाए वियाले ओवासो मम्गिओ, ताए दिप्णी, तत्वगंमि पएनि टिया. सा धुत्तो आगओ, इयरीवि धुत्तेण सह पिबेउमारद्धा, इमं च गायइ-'इरि-मंदिर पत्तहारओ मह गयटकतो वणिजारो। परिमाण सच जीवा मा पर जीयंत कबाइ एयउ ||शा मूलदेवो भण्णह-कयलीवणपत्नवंदिया, गई।
५६॥ भिणानि देव । ज महलएण गिज्जो मुणह मुहुन मन ।।१।। पच्छा मूलदेवण भण्णइ-किट पत्त, तओ पभाए णिग्गंतृण पुणरविंद
आगी. नीय पुरभो ठिओ. सा महसा संभता अभुढिया, नओ खाणपियण पढुने तेण पाणिएण सव्वं नीए गीइपज्जतयं
दीप अनुक्रम
ananewseranamanna
R
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्राक
[-]
गाथा
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दीप
अनुक्रम
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
निर्युक्ति: [ ३८... ९४/३८-९५], भाष्यं [१-४]
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [ १ ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
१ अध्ययने
॥ ५७ ॥
श्रीश-संभारियं, उवालद्वा य, एवं सीसोवि केई पयस्थ असदहंतो विज्जादीहिं देवयं आकंपयित्ता सहावेतन्त्रो, तहा वादीवि कुत्तियाय-वैकालिक णादीहिं विज्जिणियच्यो जहा सिरिगुत्तंग छलूकयो, गओ यावकः। इदाणिं थावकः, स्थापकस्य का रूपसिद्धिः, ष्ठा गतिनिवृत्ती चूण धातुः, 'घात्वादेः पः स' (पा. ६-१-६४ ) इति सकारादेशः, निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः ठकारस्य थकारः स्था, भूवादयो धातव (पा. १-३१ ) इति धातुसंज्ञा, अस्त्र विग्रहः तिष्ठति कश्चित् तिष्ठतमन्योऽनुप्रयुङ्क्ते तिष्ठ तिष्ठेत्येवं विगृह्य हेतुमति चे( पा. ३-१-३६ ) ति णिच् प्रत्ययः, अनुबंधलोपे कृते 'अर्सिही ब्लारी क्नूयीक्ष्यायां पुग् णा' (पा ७-३-३६) विति पुकू, अनुबंधलोपे 'युवोरनाकाविति' (पा. ७-१-१) अकादेशः, पेरनिटी (पा.६-४-५१) ति लोप:, परगमनं, स्थापकः । इदाणिं प्रातिपदिकार्थः, *लिंगपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा सु उकारलोपः रुत्वं विसर्जनीय स्थापकः, जहा एगो परिवाययो भण्णह, अहं लोगंमज् जानामि, वत्थेगेण सावगेणं मण्णइ-करं लोगभी, ताहे सो परिवायओ एगंमि भूमीपए से खीलयं निखणित्ता भणइ एयं लोगमज्यं, पुणो अण्णत्थ पुच्छिओ, तत्थवि खीलयं निहणित्ता मणइ एयं लोयमज्झं, पुणे अण्णरथ पुच्छिओ, तत्यधि खीलयं निहीनता भण्परइमं लोगमज्यं, एवं सो सावगी तेण समं अण्णाए लेस्साए बच्चर, सोविय चउसुचि दिसासु खीलं हिणिऊणं भणइ एवं लोगमज्यं, जत्थ जत्थ कोई पुच्छर सहि तर्हि सो खीलयं निहणिऊण भणइ एवं लोगमज्यं, ततो सावरण मणिओ-जइ पुच्चाए पडिदि| साए लोगमज्यं तो अवराए दिसाए ण जुज्जइ, एवं पुन्नावरविरुद्ध भासियत्तणेण फुडो मुसावादो भवइति, सो तेण सावरण निरुसरो कओ एवं जीवचिताएव साहुया तारिसं भाणियध्वं वारिसो गेण्हिऊण णयन्बो जस्स पुरो उत्तरं चैव दाउँ न तरह जेण पुच्चावरविरुद्धदोसो य न भवइ, एवं स्थावकः । इदाणिं वंसगो व्यंसकस्य का रूपसिद्धिः 'असि समाधाने' धातुः चुरादी
[70]
स्थापक
व्यंसक
लूषकाः
॥ ५७ ॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||||
दीप
अनुक्रम
[१]
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१]
निर्युक्तिः [ ३८.९४/३८-२५] भाष्यं [१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूण
१ अध्ययने
।। ५८ ।।
पठितव्यः, इदितोऽनुबंधीतोरिद (तुम्) विपूर्वस्य विस एवं स्थिते 'भूवादयो धातव' इति धातुसंज्ञा स्वार्थिको णिच् अनुबंधलोपः परगमनं व्यंसि सनार्थता (पा. ३-१३२ ) इति धातुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे ण्वुल्तृचा (पा. ३-१-१३३ ) वि ति व प्रत्ययः, अनुबंधलोपः, युवोरनाका' (पा. ७-१-१) विति अकादेशः, पेरनिटीति ( पा. ६-४-५१) णिलोपः परगमणं, व्यंसयतीति व्यंसकः, जहा एगो गामेलओ सगड़े कट्ठाण भरेऊण नगरं पविट्टो, गच्छंतेणं अंतराले एमा तित्तिरी मइया दिडा, तं गण्डिऊण सगस्स उबरिं पक्खिविऊण नगरं पविट्ठो, सो एगेश नगरघुत्तेण पुच्छिओ कहं सगडतितिरी लम्भह १, तेण गामिलएण भण्ण-तप्पणादुगालियाए लम्भइ ततो तेण सक्खिणा आणित्ता सग सतित्तिरीय महिय, ततो सो गामिलओ दीणमणसो अच्छा, तत्थ य एगो मूलदेवसरिसो दिट्ठो, पुच्छिओ-किं सीयसि? अरे देवाणुप्पिया, तेण भणियं अहमेगेण गोहेण इमेण पगारेण छलिओ, तेण भणियं मा बीहेहि, तस्स तपणादुबालिकं तुमं सोववारं मग्न, माइहाणं सिक्खाविओ, एवं भवउति भणिऊण तस्स सगासे गओ, मणियं चणेणं मम त सगडं हितं तो मे इदाणिं तप्पण्णादुगालियं सोवणारं दवावेहि, एवं होउचि घरं नीओ, महिला संदिड-अलंकियविभूसिया परमेण विषयण एतस्स तप्यणादुगालियं देहि, सा वयणसमं उबडिया, ततो सो सागडिओ भाइ-ममंगुली छिष्णो, इमो-चीरेण वेडितो न सकेमि आइयालेडं, तुमं आदुयालेउं देहि, आदुवालिया तेण हत्थेणं गहिया, गामिलओ तेण समं संपडिओ, लोगस्स य कहइ-जड़ा मए एसा सतिचिरिगेण सगडेण गहिया, ताहे तेण धुतेण सग बिसज्जियं तं च पसादेऊण भज्जा नियनिया तहा जीवचिताएवि कोऽवि कृष्णावयणिओ चांइज्जा जहा जिणप्पजीते मग्गे अस्थि जीवो अस्थि घडो, अत्थितं जीवेऽवि घडेऽवि, दोसुवि अविसेसेण बट्टत्ता अस्थिसदतुल्लचणेण दीवघडाणं एगचं
[71]
स्थापक
व्यंसकलूषकाः
।। ५८ ।।
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक -1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदशवैकालिक
अध्ययने
गाथा ||१||
॥ ५९॥
भवद, अह पुण भणेज्जा--अस्विभावातो वतिरित्तो जीयो, तेण जीवरस अभावो पावतित्ति, एत्थं इमं उत्तरं भाणितव्यं-जइ जीव
स्थापकघडा अस्थिने पति तम्हा तेसि एग संभावेहि, एवं सवभावाणं एगनं भवा, कह , अस्थि घडी अस्थि पडो अरिथ पर-II व्यसकमाणू अस्थि दुपएसिए खंधे, एवं सयभावेसु अस्थिभावो बट्टतित्तिकाउं कि सब्वभावा एक्कीभवंतु', एत्थ सं.सो आह--कई पुण लूपकाः एवं जाणितब्ब, सब्बभाषेसु अस्थिभावो वइ, न य एग भवति ?, आयरिओ आह-अणेगंतओ एतं सिझति, एत्थ दिद्रुतो खइरवणस्सह. जहा नियमा खयरे वणस्सई, वणस्सई पुण खइरो पलासे वा, एवं जीवोवि, तेण णियमा अस्थि, अस्थिभावो पुण ४ जीवो वा होज्जा अष्णो या धम्माधम्मागासादीणं, एवं व्यंसकः । इदाणि लूसए, लूपकस्य का रूपसिद्धिः?, 'लूप हिंसायां' धातुः चुरादौ पठायते, भृवादयो धातब (पा १३-१) इति धातुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे 'सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्व-11 चधर्मवर्णचूर्णचुरादिभ्यो णिच्'(पा.३-१.२५) अनुबंधलोपः, 'युबोरनाका' विति (पा.७-१-१) अकादेशः, 'णेरनिटी'(पा ६-४-५१ ति णि लोपः, परगमनं, लूपयतीति लूपका, जहा एगो मणूसो तउसाणं भरिएण सगडेण नगरं पविसइ, सो पविसंतो भुत्तेण भष्णइ-जो य तउसाणं सगडं खाएज्जा तस्स तुमं किं देसि, ताई सागडिएण सो धुत्तो भणिो -तस्साहंत मोदगं देमि जो नगर-
II ४ दारेणं न निष्फिडइ, धुत्तेण भण्ण इ-ताहे एवं तउससगडं खायामि, तुमं पुण मोदगं देज्जासि जो नगरदारेण न निस्सरइ, पच्छा
सागडिएण अन्भुवगए धुत्तण सक्षिणो कया, सगडं अधिद्वितो, तेसिं तउसाणं एक्केक्काउ खंड खंड अवणेचा पच्छा तं साग-II डिय मोदगं मग्गह, ताहे सागडिओ भणइ-इमे तउसा न खाता तुमे, धुनेण भण्णइ-जह न खइया तउसे अग्यवेहि तुम, अग्यविपसुका कझ्या आगया, पासीत खंडिया तउसा, ताहे कइया भणंति-को एते सतिए किणति, ततो कारणे ववहारे जाओ, खातयात
Mama
दीप अनुक्रम
-
-
[72]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
1-10
पश्चावयवाः
2-
%
गाथा ||१||
-10-
4
श्रीश-15 जितो सागठितो, ताहे धुत्तण मौदगं मम्गिज्ज, अच्चडओ सागडिओ, जतिकरा ओलग्गिता, ते तुट्ठा पुच्छति, तेसिं जहावर्त || कालिक सव्वं कहइ, एवं कहिए नेहि उत्तरं सिखाविओ जहा तुम खुडलगं मोयगं नगरदारे ठावेना भण-एम मोदगो न नीति णगरदारेण चूणी गिण्हत्ति, जितो धुनो। एवं जीवचिंतागवि पुव्वं मधमेव मयभिचारं हेउं उच्चारेउण परविस्संभणानिीम सहमा वा भणिओ अध्ययने
होज्जा, पच्छा तमेव हेतुं अण्णण निरुत्तस्यगण ठाबड, एवं तृषकहे समत्तो।। इदाणि जो एतीह पक्षहेऊदिट्ठतउवणयणनिगम॥६ ॥ हिं अस्थो साहिज्जड सो भण्णा-नस्थ पदम अज्झयणे धम्मपसंसा, सा च धम्मपसंसा पंचायययोववतण वा दसावययोववेतण वा
वयोण भण्णइ, तत्थ परमं पंचावयवाववनण मष्णा-भत्रेदं प्रमाणमपदिश्वन आहेसासंजमाम्मको धम्मो मङ्गलमुत्कृष्ट, कस्माद् ! देवादिपूज्जयादईदादिवन , यथा अन पूज्यो मङ्गलमत्कष्टं च, नथा धम्भः पूज्यः, तस्मात्पूज्यवान्मकमलमुत्कृष्टं, इमे सुत्तफासियनिज्जुत्तीए अवयवा भण्णांति, 'धम्मो गुणा अहिंसाइया उ' गाहा (५०-६६) पुथ्वद्ध धम्मो नाम अहिंसाइया गुणा भवंति, आदिग्रहणेण मंजमतयाचि गहिया, अहिंसामंजमनयोववेतो जो धम्मो मो मंगलमुक्टुिं भवह, एस पपणा ॥ इदाणिं को हेऊ। धम्मो मंगलमुकिहुँ भवदी, नरथ मुनेणेव पढ़ में है भाई-'देवावि तं नममंति, जस्म धम्म सयामणी' देवपुज्जनणं हेऊ. | कि कारणं', जे अर्धाम्मया ते देवेहि न पनि । उदाणि मनफासियीनजुत्तीगाहापदण उ. चेष भण्णा--'देवाचि
लागपुष्पा पणमनि वृधम्ममिलि हेउ, देवावि देवलोके युक्ता, नदेव लोग पूजापि होऊण जो अहिंसाइगुणोषवेते धम्मे टिओ निम्स पणमनि, एन्ध चांद आभाइ-जहा को मा धम्म ठिी', 'आयरिआ आह जस्म धम्म मया मणा, अहिंसादिगुण जुन जम्मा। । पया-अविहिय जायजीव 'मणी' मणी चनणी भणइ एम हेऊ. गो। ढाणिवितो 'दिनो अरता अणगारा यहये य
4
दीप अनुक्रम
[१]
4-4.
[73]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||||
दीप
अनुक्रम
[१]
अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१]
निर्युक्तिः [ ३८.९४/३८-२५] भाष्यं [१४]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
चूर्णां
१ अध्ययने
।। ६१ ।।
जिसीसा (९१-६२) तस्थ पृथ्वि अरहतग्गहणं जम्हा ते अनंतवलधितिपरकमा अप्पडियवरणाणदंसणधरा व धम्मफलविमाणयत्तिकाऊण, अण्णेय गोयमाणो तित्थगरसीया सोमणवस्थितति देवेहिं पूजिया, एथ आयरिओ गाहाए पच्छ भगवत्तणुवत्तं जड़ जह नरपतियांचि पणमंति ?, वनं नाम जं अतीते काले इदार्णि अपच्चकखमवि अणुवत्रेण साहि ज्जर, केण कारणेण ? इदार्णि नरपतिणो अगमहानिमित्तपादगाण विधेयमुद्रियाणं गाणासत्यविनारयाण य साहूणं परमवियोनतसिरा नर्मसंति किंकरा इव पज्जुवासमाणा य चिट्ठेति एस दितो, सीसो आह-जो पच्चक्खो भावो सोदितो दिज्जड़. तित्थगरा य संपयं णो परचक्खमुवलम्भति ते अणुमायां णज्यंति, जो अणुमानियो अत्थो सो दितो न भण्णइ, आयरिओ आह-तंकालं पच्चक्खा ते आसित्ति ण विरुज्झते, तित्थगरदितेयमुक्तं इयाणि उप्पण्णं दितो गओ ॥ इदाणिं उपसंहारो, उपसंहारो तत्थ इमं गाहापुण्वद्धं 'उपसंहारो देवा जह तह रायतं पणमंत (९२-६२ ) सुधम्मं, जहा देवा सोह धम्मेदितं पणमंति तह रायाइणोवि भविवाद णमंति, एस उपसंहारों गओ । इदाणिं निगमणं गाहापच्छद्वेण भण्णइ (बृ. धम्मो ) लम्हा मंगलमिति ( वृ० य ) निगमणं होत गायध्वं तम्हा देवपूजिततणेण अहिंसासजमतयजुत्तो धम्मो मंगल भवइ । धर्मः मंगलमुत्कृष्टं अहिंसासंजमतपात्मकत्वादेहदादिवत् यथाऽर्हन् अहिंसासंजमतपात्मको मंगलमुत्कृष्टं च तथा धर्मः अहिंसासंजमतपात्मकः तस्मान्मंगलमुष्कृष्टं, पंचावयवं सम्मतं ॥ इदाणिं दसावयवो वेतेण वयणेण एस वेव अत्थो विस्थारिज्जर, विनियपइण्णा जिणसासणंमि साहति साहबो धम्मं ( ९३-६३ ) अर्द्ध गाथा, वितियपतिष्णाच जा पंचावयवेसु पतिष्णा भणिया सा पदमुक्ता, इदानं तीए इमा चिया दसावयवविभावणत्थं पतिष्णा कज्जइ, सा इमा एमि
[74]
दशा
वयवाः
1152 11
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-1 / गाथा: [१], नियुक्ति: [३८...९४/३८-९५], भाष्यं [१-४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक H
दृष्टान्ततद्विशुद्धि
गाथा ||१||
चेव ताव जिणाणं सासणे ठिया साघवो धम्ममणपालयंति एसा पइण्णा गता, इदार्णि पइण्णाविसुद्धी-जहा इह ताव जिणाणं बेकालिक सासणे ठिया विसुद्ध धम्म अणुपालेति न एवं परतित्वियसमएसु विसुद्धो अणुपालणावायो अस्थि, एत्थ सीसो चोएइ- सब्वे
| पवादिया अप्पणच्चियं धर्म पसंसंति, धम्मसहो य तेसु तेमुवि उबलन्मइ, आयरिओ आह-नणु हेवा वणिओ 'सावज्जो उ अध्ययने
कुतित्थियधम्मो जिणेहिं उ अपसत्थो' जोवि तेसिं सासणे धम्मसद्दो सोवि उवचारितो, निच्छययो पुण अहिंसासंजमतवलक्खणो ४ ॥६॥ जो सो धम्मत्ति भण्णइ, जहा सिंहसदो सिंहे पाहण्णेण वद, उवचरितो पुण अण्णमुवि भवइ, एसा पडण्णाविसुद्धी गया ।
तत्व को सहेउत्ति, अहिंसादिगुणजुत्तचणं हेऊ भण्णइ, तत्थ इमं गाहापच्छ« 'हेज जम्हा साभाविएसु अहिंसाइसु जयंति' जम्हा ते साहवो अहिंसाइएसु पंचसु महबएमु सम्भावेण जयंति, कहं नाम अम्ह अक्खलिपचारिचाणं मरणं भविज्जति, एस हेऊ ॥ दार्णि हेतुविसुद्धी भण्णा'जं भत्तपाणउवगरण' अगाथा, जेण कारणेण साहवो अहिंसादीगं पंचण्ई महब्बयाणं विसुद्धिनिमित्तं भत्तपाणउवगरणवसहिसयणाइसु संजमोवकरणेसु जतन्ति, किं भणिय होइ जयंति, आयरिओ आइएत्थ इमं गाहापच्छङ्घ, फासुर्य अकयं अकारियं अणणुमोइयं अणदिवाणि गेण्हिऊण परि जति, अण्णे पुण रत्तपडादिगो
कृतिस्थिया 'ण फासुअकयकारित' गाहा, ( भा. ३-६४ ) एसा गाहा पढियसिद्धा, एसा हेउविसुद्धी समत्ता, इवाणिं | मादिढतो, सो इमोजहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियती रसं' यथेति येन प्रकारेण, 'प्रकारवचने था' (पा. ५-३-२३)।
लकारलोपः, यथा दुमपुष्पयोः पूर्ववत्, भ्रमर इति 'भ्रम अनवस्थाने' धातुः, अस्य धातोः, प्रत्ययाधिकारे 'ऋच्छेर (उ. पाद ३)ाद IRL इति 'अतिकमित्रमिचमिदेविवासिम्पवित्' इति ( उ. पाद ३) अरप्रत्ययः, परगमन, अमरः, प्राम्यति च रौति च भ्रमरः, पा#
+
दीप अनुक्रम
मलं
+
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
॥२॥
दीप
अनुक्रम
[२]
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र ३ अध्ययनं [१] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र - [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
(निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः) निर्युक्तिः [ ९५-११६ / ९६- ११६]
भाष्यं [४...]
श्रादर्शवैकालिक चूर्णी १ अध्ययने
॥ ६३ ॥
पाने धातुः अस्य धातोः आपूर्वस्य प्रत्ययाधिकारेऽनुवर्त्तमाने वर्त्तमाने लप्रत्ययो भवति तस्य पित अनुबंधलोपः, 'कर्त्तरि शत्रू'" ( पा. ३-१-६८) प्राधाध्मे ति विवादेशः, परगमनं आपिति, रस आस्वादनस्नेहनयोः धातुः अस्य धातोः प्रत्ययाधिकारे स्वार्थिको णिच् अनुबंध लोपः परगमनं अदतत्वाद् वृद्धिर्न भवति, रसि इति स्थिते 'सनाद्यंता धातवः' इति ( पा. ३-१-३२) घा तुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे 'नंदिग्रहिपचादिभ्य इति (पा. ३-१-१३४) अप्रत्ययः अनुबंधलोपः णेरनिटी (पा. ६-४-५१) ति परगमनं रसः, तत्थ जदासदो ओवम्मे बढछ, दुमो पुल्ववणिओ, दुमस्स पुष्पाणि दुमपुष्काणि तेसु दुमपुप्फेस, भमरो पसिद्धो, आवियति नाम अपिवति आदियतित्ति एगट्ठो, रसो नाम निज्जासो, तस्स पुष्फस्स, एस दिडुंतो एगदेसेण दव्बो, यथा चन्द्रमुखी देवदत्ता, जो तत्थ चंदे परिमंडलभावो सोमता य ताणि गेण्डंति, एवं भ्रमरदिहंते अनिययवित्तित्तणं अकिलावणतं च गेांति, दितो गओ। इदाणिं दिते विशुद्धी सुत्तण भण्णति 'णय पुष्कं किलामेति सोय पीणेह अप्पयं' नयेति प्रतिषेधवाची निपातः, न चेति शब्दो अवधारणपादपूरणव्यतिरेकार्थादिषु निपात्यते च पुष्पस्य पूर्ववत् कलामयति 'कलम ग्लानी ' धातुः अस्प धातोर्हेतुमति चेति (पा. ३-१-१६) जि:, अनुबंधलोपः 'अत उपधायाः (पा. ७-२-११६ ) इति वृद्धि, परगमनं, क्लामि इति स्थिते 'सनार्थता घातव' इति (पा. ३-१-३२) धातुसंज्ञा, वर्त्तमाने लढू, तिप् शप् गुणः अयादेशो परगमनं क्लामयति, तद् प्रातिपदिकं, प्रातिपदिकार्थे अस्य त्यदादित्वादत्वं 'तदोः सः सावनं तयो' रिति (७-९-१०६) तकारस्य सकारः स चेति चकारो निपातः, प्रीणाति, 'त्रीण तर्पणे' धातुः अस्य घाटो: भूवादवो घात ( पा. १-३-१) इति धातुसंज्ञा, प्रत्ययाऽधिकारे लड तिप् शपि प्रासे 'त्रयादिभ्यः इना' (पा. ३-१-८१) अनुबंधलोपः गुणप्रासे 'गृङ्किति चे' ति (पा. १-१-५) प्रतिषेधः परग
"
[76]
दृष्टान्त
तद्विशुद्धि
॥ ६३ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं -] / गाथा: [२], नियुक्ति: [९५-११६/९६-११६], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूणों IS
गाथा ||२||
॥६४
मनं प्रीणाति, आत्मानमिति 'अत सातत्यगमने' अस्य धातोः प्रत्ययाधिकारे 'सात्यतिम्या मनन्मनिणा' विति (उ.पा. ४)
तहिआदश म मिण् प्रत्ययः अनुबंधलोपः 'अत उपधाया' इति' (७-२-१९६)वृद्धिः परगमनं आत्मा, कर्मणि द्वितीयकवचनं अम् 'नोपधाया । वकाल (पा ६-४-) सर्वनामस्थाने परे दीर्घत्वं आत्मानं, न य सो भमरो तेसिं पुष्फाणं किलावणं करेइ अह य अत्ताणं पीणयति, दिद्रुतविसुद्धी
हामुत्तफासियनिज्जुचीए भण्णइ 'जह भमरत्तिय' (९७-६५) अद्धगाहा, विटुंतो गओ । इदाणिं एयम्स विसुद्धिं निज-18 १अध्ययन
आत्तीए सयमेव आयरिओ सिस्सहियडाए आह-तत्थ य भणेज्ज कोई समणाणं कीरइ सुविहियाण' (९९.६५) एस्थ य कोई। भणज्जा-जमेते गिहत्था पार्क करेंति एवं साहणं अट्ठाए कीरइ, तं आरंभमाजीवंति साधबो, एतेण कारणेण साहुणो दोसभागिणी भवंति, एतस्स उत्तर आयरिओ भणइ, जम्हा 'वासह व तणस्स कए '(१०६-५)गाहा, एसा गाहा कड्डियव्वा, एत्थतरे सीसो चोए-इजहा मेहा पयापई बहिनिमित्तं वासंति, सो य क्याबई वढि ण तेण चिरहिया भवइ, तम्हा जे भण्णइ-'वासइन तणम्स कए। तं विरुज्ाइ, एत्थ आयरिओ आह-न एतं एवं भवइ, कम्हा , जम्हा सुतीओ विरुद्धाओ दीसंति, परे कहयंति--जहा मघवं वासइ, अण्णे पुण भणंति गम्भा वासंति, तत्थ जई ईदो चासति तओ उक्कावातदिसादाहनिग्घायादीहि उवधाओ वासस्स न होज्जा, अह पुण गम्भा वासंति तओ तेसिं असणीण गवं सण्णा भवति जहा लोगस्स अट्ठाए बरिसामित्ति तणाण वा अट्ठाए, '
किंतु मादुमा पुष्फति' गाहा (१९४-६६) कंठचा, कदापि सीसस्स चुद्धी भवेज्जा, जहा पयावरणा वित्ती सत्ताणं उप्पाइया, तेण दुमा भिमराए अट्ठाए पुप्फति, तण्ण भवति, कहं तं, दुमा णामगोत्तस्स कम्मस्स उदएणं ताणि नाणि फलविसेमाणि निव्वचिंति,
॥६४॥ किं च-'अस्थि बहू वणसंडा' गाहा (१०७-६६) जइ पगई एसा पुष्फाणं च दुमाणं कम्हा अकाले न पुष्फति फलंति वा
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं 1-1 / गाथा: [२], नियुक्ति: [९५-११६/९६-११६], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||२||
श्रीदश- आयरिओ भणइ-'पगती एस दुमाणं' गाहा (१०९-६६) पढियव्या, जहा ते दुमा अप्पणो रिउकालेणव पुप्फति य फलति य, उपसंहारवैकालिकन उ भमराण अट्ठाए 'किंतु गिही रंधंती समणाणं कारणे मुविहियाणं' गाहा (११०६६)पाठया, कदापि सीसो भणिज्जातद्विशुद्धी
चूो जहा समणाणुकंपणट्ठाए पुण्णनिमित्तं च पुण्णमेव गिहत्थाणं पागकरणं, तेसि समणाणं अट्ठाए कुब्वंताणं अघपरिहाणी भवइ, अघ१ अध्ययने परिहाणीए य कह तेसिं पाहणं ण भविस्सइ, एत्थ आयरिओ आह-ज भणसि तेसि अट्ठाए साहणं पागकरणं तण्ण भवइ,
कम्हा?, जेण 'कंतारे दुभिक्खे' गाहा (११२-६७) कंठया, किं च 'अत्थि बहुगामनगरा गाहा (१६४-६७) 'पगती एस ॥६५|NI
गिहीणं' गाहा (११५.६७) 'तत्य समणा सुबिहिया' गाथा (११६६७) 'नवकोडीपरिसद्धं' गाथा (१५०-६७) तत्थ | इमाओ नव कोडीओ-न हणइ न हणावेइ हणतं नाणुजाणाइ, ण पयह ण पयावइ पर्यंत पाणुजाणाइ, न किणइ ण किणावेइ किणतं नाणुजाणाइ, एताहिं गवहिं कोडीहिं उग्गमउप्पायणेमणादीहिं सुद्धमाहारिति, तं च किमहूँ आहाति , इमेहिं छहि कारणांह 'वेदण वेयावच्चे' सिलोगो, एतीसे पदाणं वक्खाणं जहा पिंडनिज्जुत्तीप, दिद्वन्तविसद्धीगता । इदार्णि उपसंहारो,त सो सुत्तेण भण्णइ एमेते समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमाव पुप्फेम दाणभत्तेसणे रया ।। (३-६८)
॥६५॥ ४ा एवमिति निपातः एवं एक्सदो अबहारणे वट्टर, किमवधारयति', अनियतवित्तित्तणं अकिलावणत्तं च अवथारेइ, एतत्सर्वनाम्नः
प्रथमाबहुवचनं जस्, त्वदायत्वं, जसः शीः (पा.७-१-१७) आद्गुणः (पा. ६-१-८७) परगमनं, एते-पच्चक्खमेव अनिययविची विहरमाणा दीसंति, श्रमणाः 'श्रम तपसि खेदे च धातुः, अस्य धातोः 'भूवादयो धातव' इति (पा.१-३-१) धातुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे करणाधिकरणयोश्चेति' (पा. २-३-११७) ल्युट अनुबंधलोपे 'युवोरनाका' (पा. ७-१-१) विति अनादेशः, परगमनं, श्रमणा,
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
H
गाथा
||3||
दीप अनुक्रम
[३]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [३], निर्युक्तिः [११७- १२५/११७-१२४], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण
१ अध्ययने
॥ ६६ ॥
मुक्ता नाम ' मोक्षणे' धातुः अस्य धातोः 'भूवादयो धातवः' (पा. १-३-१ ) इति धातुसंज्ञा प्रत्ययाधिकारे कप्रत्ययः अनुबंधलोपः कथं परगमनं मुक्ताः, बाहिरम्मतरेहिं गंधेहिं मुक्ताः संति जे ते अविसेसियाणं गृहणं, लोगेति मणुस्लोगस्स ग्रहणं, शांतिः 'शष्ठ उपशमे' धातुः अस्य धातोः भूवादयो धातवः' ( मा १-३-१ ) इति धातुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे स्त्रियां क्तिन् (पा. ३-३-९४) अनुबंधलोपः 'अनुनासिकस्य लोः ङिति चे' (पा.६-४-१५) ति आकारः, परसवर्णः परगमने शान्तिः शान्तिनाम ज्ञानदर्शन चारित्राण्यभिधीयन्ते, 'साध राध संसिद्धी' साध अस्य धातोः 'कृवापाजिमिस्वादिसाधशूभ्य उण्' प्रत्ययः, अनुबंध लोपः परगमनं साधुः, तामेव गुणविशिष्टां शान्ति साधयन्तीति साधवः, अहवा संति अकुतोभयं भष्ण, तं चैव साहुणो अप्पमत्तत्तणणं जीवाणं शांति भणति, अहवा शान्तिग्रहणेण तेसिं साधुणं अस्थित्वं चेप्पति, एत्थ सीसो आहन्नणु एमेते समणा सुचत्ति एतेव नज्जति जहा ते अत्थि तो पुणेोवि संतिग्रहणेन पुनरुतं कुब्बहा, आयरिओ भणइ-परियायवयणेण सो व अत्थो दरिसिओ, एतेण कारणेण दोसो ण भवति, अण्णेचि पिण्डयाइ भणति जहा अम्हेवि बाहिर भंतरेदिं मुका साहुणो, शांतिग्रहणेण पुणो कब्जमाणेण भावसाधुणो गहिता, ते दव्यसाधुणो न गहिता, जम्दा ते अणुवएसेण सछंदा हया इव उद्दामा गया इव निरंकुशा हिति तुम्हा शांतिग्रहणं करे, साधव एव जोगे साईति तम्हा साहुणो । 'विहंगमा' 'गम्ल सृष्ल गतौ' धातुः अस्य धातोर्विहपूर्वस्य विमाकाश उच्यते, 'भूवादयो धातवः (पा. १-३-१) धातुसंज्ञा 'गमथे' ति (पा. ३-२-४७) खड् प्रत्ययः अनुबंधलोपः, 'खिश्यन व्ययस्ये' ति ( पा. १३-१) नुमागमः, पूर्वपदस्य परगमनं, विहे गच्छतीति विहंगमाः, भमर स्वाभिहितं भवति, विहगमेहि तुला नाम जहा विहंगमा सयं विगसितेसु पुष्केषु अप्पाणं पीणयंति एवं साहबोवि गेहणं सअट्टाए निडिएस अण्ण
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उपसंहारद्विशुद्धी
॥ ६६ ॥
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आगम
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं -1/गाथा: [३] नियुक्ति: [११७-१२५/११७-१२४] भाष्यं ४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
-
गाथा ||३||
श्रीदश- पाणादिसु अप्पाणय पीणेति, दाणगहणेण दनं गेहंति नो अद, मचगहणेष कासुखं नाम आहाकम्माइदोसविरज्जियं उपसंहारवैकालिकगण्हंति, एसणागहणण दसएसणादासपरिसुद्धं गेति, ते य इमेतं. 'संकियमक्खियनिक्खत्वपिहियसाहरियदायगुम्मीसे । तद्विशुद्धी
चूर्ण अपरिमयीलचछीय एसणदोसा दस हवति ॥१॥ एतसि बखाणं जहा रिडंमिज्जुसीए । रता 'रम क्रीडायो' धातुः, अस्य ! १अध्ययने धातोःक्तप्रत्ययः अनुबंधलोपः 'अनुदात्तोपदेशेति' (पा ६-४-३७ अनुनासिकलोपः, परगमम, रता नाम संजमाधिकारेषु जोगेषु रति
कुम्वन्ति, न अरति । एवं दाणभत्तसण स्था, मग्गांति या एगट्ठा, एस उपसंहारो मतो ॥ईदाणि उपसंहारविमदी पुर्व ॥६७॥
ताव सुचफासियनिज्जुचीए भण्णा इ-वस्थिमा गाहा-अवि भमरमधुकरगणा अविदिषणं आदियंति कुसुमरसं। समणा घुण भगवंतो णादिषणं भोत्तुमिच्छति। (१२५७२) इदाणि उवसंहारे विमुद्री मुत्तेणेव भण्णइ, तीसे उपसंहारसुद्धीए संबंधनिमिर्च आयरिमो सयमेव चोदेइ, जम्हा ते दाणभत्तेसणे रया तम्हा सेसिं मिहत्थि तयस्सिणो साहुणो मिक्खपत्तिणोत्तिकाऊणं अणुकंपाए 81 आहाकम्मादी करेंति, तं च आहाकम्मादी अण्णाणओ गेण्हमाणा सोवघाए वढंति, एत्थं भण्णइवयं च वित्ति सम्भामो ण या कोई उपहम्मइ' क्यं अस्मद् प्रथमावहुवचनं जस् 'यूयवयौ जसी' ति (पा.७-२-९३) क्यआदेशः प्रथमयोरमिति (पा.७-१-२८) जस् अम्, परगमनं च, पापना वयं च आहाकम्मादीणि परिहरंता वयं च तहा वित्त व लम्मामो जहा तहा न य कोवि सत्तो। उपहमिहिति, तं च इमेण कारणण णोवहम्मइ, 'वृत् वर्तन धातुः 'खियां क्तिन' (पा.३-३-९६) वृत्तिः, 'डुलम प्राप्तौ धातुः अस्य ॥६७॥ घातो लप्रत्ययः, अनुचंधलोपः, लस्य तिवादेश प्राप्त उत्तमपुरुषबहुवचनं मम् 'स्यतासी टुलुटो' रिति (पा. ३-१-३३) स्यप्रत्ययः अनुबंधलोपः 'अलोऽन्त्यस्ये' (पा.१-१.५२) ति भकारस्य 'खरि चेति (पा.८-४-५५) पत्वं 'अतो दीघों यत्रीति (पा. ७५३-१०१)/
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [४], नियुक्ति१२५.../१२४...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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प्रत
सूत्रांक
गाथा ||४||
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श्रीदश- दीपः, परगमनं लपूस्यामः, जहा 'अहाकडेसुरीयंते पुप्फेहिं भमरो जहा' री धातुः अस्य धातोः 'भवादयो धातवः उपसंहारवेकालिका (पा.१-७-१)धातुसंज्ञा लट् प्रत्ययः, लस्य आत्मनेपदविवक्षायां सटेरेवं अनुबंधलोपः 'दिवादिभ्यः श्यन् (पा.३-१-६) परगमनंतागुखा चूर्णी
शरीयते, जहासहावं पुप्फिएहिं भमरा अप्पाणं पाणेति, एवं साहुणोषि गिहस्थाण अहागडे सु मिक्खं गेहंति अप्पाणं पीणेति । एवं ते १अध्यने
मधुकारसमा बुद्धा जे भवति अणिस्सिया (सू.५-७२) मधु 'मन ज्ञाने' धातुः अस्य धातोः 'भूवादयो धातवः' (पा.१३-१) मूल 11६८
फलिपाटिनमिमनिजनां गुपनाधितो ति (उपादे) उप्रत्ययः, यः वश्वो देशः ( अलोऽन्त्यादेशः) परगमनं मधुं कुर्वतीति मधुकराा, मधुकरेहि तुल्ला मधुकरसमा, बुद्धाः 'बुध अवगमने' धातुः अस्य धातोः क्तप्रत्यय, अनुबंधलोपः, 'झलां जशोऽन्ते, इति (पा. ८-२-३९) दत्वं परगमनं, बुद्धा नाम जाणगा, अणि स्सिया नाम अपडिबद्धा, एत्थ सीसो चोदेइ-असंजएहिं भमरेहि होइ समा साधुणो? भमरा अस्सणी अस्सं जया य ते साहवोऽपि असणिणो असंजता य भयंतु, एत्य आयरिओ भणइ, बुद्धग्गह-14 णेण ताव असणिणो साहवा न भवति, अणिीम्सयग्गहणेण य असंजतदोसो परिहरिओ भवह । इदाणि उत्तरं एतस्स मुत्तफासियनिज्जुनीए भण्णाति-जहा 'उवमा खलु एस कया' (१२७-७२) गाहा, एस उपमा एगदेसेणं द्रष्टव्या, यथा चन्द्रमुखी देवदत्ता,
चंदरूस जे परिमंडल सोमता य ताणि गहियाणि, एवं अणिययवित्तिनिमित्त अहिसाणुपालणद्वार य एसा उवमा, किं च-जहा कामगणा उ तह नगरजणक्या पयणपायणमहावा (१२८-७३) जहा बहुबिहा दुमा सहावी व पुष्फति सहा नगर-1
जणवया चेव पक्षणपयावणसहायाचे, जहा य भमरा तहा य मुणिणोवि, णवरं पुण अदिण्णं न गिण्हनि, एत्थ सीसाIGI चोएइ-कि भणियं होह , जहा भमरा तहा मुणिणावि ?, आयरिओ- 'कुसुमे सहाबपुष्के' गाहा, जहा सहाव-IMI
%AGINEERSANER
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दीप अनुक्रम [४]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [५], नियुक्ति: [१२७-१५२/१२५-१५१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा
॥६९॥
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सुमित्स दुमगढ़नेसु भमरा आवाई अकुण्यमाणा रसं आइयंति, एनगरजणवएहि सहावेण चेव पयणपयावणएहि अप्पणी उपसंहारकालिका अढाए उबक्खडियं समणा सुविहिया उग्गमादिसुद्धं गवेसित्ता आहारन्ति । इदाणि जो एस हेड्डा दोसो भणओ | विशु
चौँ सीसेण जहा जइ मधुगारसमा साहवा तो ते असणिणो असंजता य, जइ मधुकरसमा साहुणो तो असजता भवंति, एयरस प्याद्याः १ अध्ययने दोसस्स परिहरणनिमित्तं आयरिओ अद्धगाहाए भणइ, सा य इमा उपसंहारो भमरा जह तह समणावि अवहजावात |
(१३०७३) जहा ते भमरा कुसुमाण किलाम अणुप्पाएता रसमावियंति तहा साहणोवि आहाकम्मादीणि परिहरंता ण कस्सहा पील उप्पायति, किंच-भमराणं साधूण य महतो चेव विसेसो. जहा 'गाणापिंडरया दंता' 'पिडि संघाते' धातुः, अस्य 'इदिता नुम्' (पा. ७-१.५८) नुम्, नंदिग्रहिपचादिभ्यः' (पा. ३-१-१२४) अच्, अनुबंधलोपः, परसवर्णः परगमनं पिंडा, णाणापिंडरया णाम उक्खित्तचरगादी पिंडस्स अभिग्गहविससेण णाणाविधेसु रता, अहवा अंतपंताईसु नाणाविहेसु भोयणेसु स्ता, ण तेसु अरई। करेंति, भणितं चहे- व तं च आसिय जस्थ व तत्थ व सुहोवगतनिहा। जेण व तेण व संतुट्ठ धीर ! मुणिओ तुमे अप्पा ॥१॥ ते णाणापिंडरता दुविधा भवति, तंजहा-दचओ भावओ य,दव्वओ आसहस्थिमादि, ते मो दंता भावओं, साहबो पुणो) इंदिए । दंता, इदाणि आयरिओ सयमेव सीसहितवा अपुच्छिो चेव इ8 गाहाए पच्छदं भणह-दतित्ति पुण पदमी नायब्वं वळसेसमिण' जे एवं दतित्ति पदं, बकसेस नाम दत्तगहणेण अण्णाणिवि तज्जाइयाणि गहियाणित्ति बुत्तं भवइ, काणि पुण ताणि
KIP६९॥ पदाणि?-'जो एत्थेवं ' गाहा (१३२-७३) एयंमि दुमपुस्फियज्झयणे भमरुवदितपाहण्णेण एसणासीमई वाणिया,तहा इरियासमियाईणि जाणि पदाणि ताणि गहियाणित्ति, दिक्खियपयारो पाम जं दिक्विएण आयरियन्वंति वुत्तं भवइ,उवसंहारविसुद्री
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [५], नियुक्ति: [१२७-१५२/१२५-१५१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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विशु
सूत्रांक
श्रीदश- वैकालिका
चू! १अध्ययन
गाथा
॥७०॥
नाम संमत्ता । इवाणिणिगमणं,-'तेग घुच्चंति साहुणो' जेण कारणेण तसथावराण जीवाण अप्पणो य हियत्थं च भवद उपसंहार|तहा जयंति अतोय ते साहुणो भण्णति, निगमणं सम्मत्तं । इदाणि निगमणविसुद्धीए अभिसंबंधनिमित्त आयरिमो सयमेव चोदेश, जहा जब कोई भणज्जा पारब्बायगरत्तपडादिणो तसथावरभूतहितस्थमपहितत्थं च जयंता साहुनो भविस्संति, तं च णेव ||
ध्याचा भवइ, जेण ते सम्भावओ ण जयति, कहं न जयंतिी, तत्व सकाणं जं उहिस्स सत्तोवघातो भवद ण तत्थ वेसि कम्मबंधो भवर, परिग्वायगा नाम जइ किर तेसिं सद्दाइणो विसया इंदियगोयरं हब्बमागच्छंति, भणियं तेसि 'इंदियविसयपत्ताणं उपयोगो कायव्यो' एवं ते अण्णाणमहासमुहमोगाढा पहुप्पण्णभारिया जीचा ताण आलंबणाणि काऊण तमेव परिकिलेसावहं गियासं अवलंचयंति, कई ते साहवो', साहयो पुण भगवंतो सम्भावओ जयंति, कई ते ण', 'कायं वायं च मण' गाहा (१३६-७४) कारण ताव समाहियपाणिपादा चिहति गच्छति वा, वायाएवि अकुसलवइनिरोई करेंति सलबहउदीरणं च, मणेणवि अकुसलमणनिरोई करेंति कुसलमणउदीरणं च, इंदियाणि इवेसु इंदियविसएमु रागं न करेंति. आणिडेसु दोस, अट्ठारसविहमबभं परिचज्जिचा बंभ धारेंति, कसायाणं कोहादाणं उदयनिरोधं करेंति, उदिण्णाण विफलीकरणं, 'जं च तवे गाहा (१३७-७४) बारसविहे तवे जहासत्तीए उज्जुत्तसण काउ, एतेण कारणेण सेसिं साहुलक्खणं संपुष्णं भवइ, ण तु सकादीणं णियडिबहुलाणं, तम्हा जिणवयणरया साहुणो भवंति । निगमणसुद्धी समत्ता। समत्ता वसावयवा इमे, तं जहा ते उ पाइण्णषिसुद्धी' गाहा (१३८-७५)एवं दुमपुष्फियज्झयणं संखेचेण भणिय, वित्थरो पूण सबक्खरसष्णिवाइणो चोदसपुश्विणो अणगारा कहयंति,
॥७०॥ 'सेअस्थं एत्थ' गाहा ( 'दुमपुस्किय' गाहा, ( ) इदाणिं नयति गाहा-'गायमि मिण्डियने अमेहियब्वमि |
KELEASE%ECAGA
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक H, मूलं | गाथा: [५], नियुक्ति : [१२७-१५२/१२५-१५१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
RECTOR
गाथा
54
4
श्रीदश-अचव अत्यम्मि । जइयव्यमेव इति जो उवदेसो सो नयों णाम ॥ (१५०८०) सम्बेसिपि नयाणं बहुविहवतन्त्रयं निसामेत्ता । श्रमणवैकालिका सम्बनयविसुद्धं जं परणगुणडिओ साहू (१५२-८०) पढियसिद्धाउ व एयाओ गाहाओ । एवं दसवेयालियचुपणीए बुमपु-11 स्वरूपम् चूर्गों फियज्झयणचुपणी समत्ता ॥ २ अध्ययने
पढमायणे धम्मपसंसा यष्णिया, दाणि धम्मे ठियस्स चितिणिमित्त वितियझयणं, एतेण संबंधेण आगयस्स अज्झय-1 ॥ ७१॥
णस्स चत्तारि अणुयोगदाराणि वत्तवाणि,जहा आवस्सगचुण्णीए तहा, नवरं एस्थ नामीणफण्णो णिक्खेबो भण्णा-'सामपणपुग्धयस्स' गाहा १५४-८२) तत्थ सावणं पुन्चर्य च दो पदाणि, तस्थ समणभावो सामर्ण, तस्स समणस्स चउब्धिहाँ निक्षको कायम्बो, पुनगयस्स तेरसबिहोचि, तत्थ समणस ताव निक्खेवं करेमि, सोय इमो- समणस्स उ निक्वेवो' (१५५-८३) IN अद्धगाहा, तंजहा-णामसमणो ठपणासमणो दब्बसमणो भावसमणी य, नामठवणाउ तहेब, दबसमणो ई गाहापच्छदं 'दब्वे ||
सरीरभावियो भावे उण संजओसमणो' दबसमणो दुबिधो आगमओ णोआगमओ य, जहा दुमे तहेब, नवरं 'समणो' तिला VIअभिलावो भाणितव्यो, भावसमणो जो जो सजओ चिरओ अप्पमत्तो भावसमणोत्ति, एस्थ सीसो भणइ-केण कारणेणं समणा भणति?,1
आयरिओ भणइ 'जह मम ण पियं दुक्वं जाणिय एमेव सबजीवाणं' गाहा (१५६-८३) पढियन्धा, अहवा 'नत्यि य ६ लासे कोई वेसो' गाहा (१५७-९३) पढियचा, अहवा इमेण कारणण समणो भवद तो समणो जइ सुमणो भावेण यजइ ण ॥१॥
होइ पाचमणी । समणे य जणे य समो समो य माणावमाणेसु।।(१५८८३)अहवा इमेहिं कारणेहि समो सो समणो होड, तं. उरगगिरिजलणसागर गाहा (१५५-८३) तत्थ पढमे उर गसरिसेण साहुणा भवियवं, एत्थ आह उरगो सभावत एव विसमंतो
दीप अनुक्रम
- अध्ययनं -१- परिसमाप्तं
अध्ययनं -२- 'श्रामण्यपूर्वकं' आरभ्यते
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
वैकालिका
गाथा ||६-१६||
८२॥
श्रीदश- रोसणो अणवरद्धवेरिओ य, किमरिसो साहू भवउ?, भण्णइ-जं तस्स एगंतदिद्वित्तं परनिलयत्तं च विलं च अइगच्छंतो ओरयं न | श्रमणआसाएइ, एताणि पडुच्च भण्णइजहा उरगसमेण होयचं, तत्थ एगंतदिहिवणं धम्मं पडुच्च कायच्वं, परकडपरिणिट्ठियासु वसहीसुद
स्वरूपम् चूर्णी
बसितन्वं, विलसरिसं भोत्तच, तं विलं नउलयं पविसमाणं न आसादेइ तहा आहारोवि अणासायंतेण आहारयन्बो, किंच- पव्वय-12 २अध्ययन
सरिसेण साधुणा होयम्ब, तस्स पुण पव्वयरस अप्णाणभावं खरभावं च उज्झिऊणं तेजस्सित्तणं परिगिसइ, जहा व सो अगणी इंधणादीहिं न तिप्पड़, एवं सुचेवि अज्झाइअच्चे साहुणा अतित्तण भवितव्वं, जह वा सो अग्गी इंधणादीणि डहमाणे णो कथइ |
विसेसं करेति-इमं डहितब्बं इमं वा अडहणीयं, एवं मणुण्णामणुष्णेसु अण्णपाणादिसु फासुएसणिज्जेसु रागो दोसो वा न काययो, ४ किंच सागरसरिसिण होयध्वं साहुणा, सो य गतीए खारत्तणेण अपेयो न एवं घप्पड़, किंतु जाणि य समुदस्स गंभीरतं
अगाहवणं व ताणि घेप्पंति, कह , साहुणा सागरो इव गंभीरेण होयब, नाणदसणचरिचेहि य अगाहेण भवितब्ब, कहं , भाइपिइमाइएसु नातिसंजोएसु वा रागदोसेहि आगासभिव निरुवलेषेण भवितव्वं, किंच-सरुसरिसेण भवितवं, कई ?, जहा रुक्खो | [छिज्जमाणो भइज्जमाणो राग दोसं न गच्छइ तहा माणशमाणे साहुणा भवितव्वं, किंच-भमरेण व अनियतवत्तिणा भवितव्वं, कह?, I भमरो जहा एस चेव हेट्ठा उदरं देसं कालं च नाऊण चरइ, एवं साहुणावि गोयरचरियादिसु देसं कालं च नाऊण चरियन्वं,
जहा मिगो णिच्चुब्धिम्गो तहा णिच्चकालमेव संसारभउबिग्मेण अप्पमत्तेण भवियवं, किंच-धरणी विव सव्वफासविसहेण M साहुणा भवितव्वं, किंच-जलरुहसमेण साहुणा भवियव्यं, जहा पउमं पंके जायं जले समिद्ध तेहिं चेव नोवलिप्पड़, एवं साहुणा-16
वि काहि जाएण भोगेहि सबद्धिएण तहा काय जहा तेहिं न लिप्पा. किंच-सूरो इव तेयसा जुत्नण साहुणा भवितव्यं, जहाण
दीप अनुक्रम [६-१६]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
T
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||६-१६||
॥७३॥
श्रीदश- सरोदयो समंता अविसेसेण लोग पगासेइ, एवं साहुणापि धम्म का, यंतण राणा दासम्म अविसेसेण कहे यव्वं, भणियं च जहा श्रमणबैकालिक पुण्णस्स कत्थर नहा तुच्छस्स कथइ' किंच साहणा पवणसमेण हायव्य, जहा पवणी कत्थर ण पडिबद्धो तहा साहुणावि अपडि-मस्वरूपम्
चूणो बिद्वेण होयच्वं, किंच-समणेण विसतिनिसाइम कारणेसु जे गुणा तेगु वाट्टयचं, तत्य इमा गाहा (२५०-८३) तत्व पढम साहुणा २ अध्ययने । विससमेण भवितव्यं, भणियं च 'वयं मणुस्साण सहा ण पंडिया, ण माणिण व य अत्यधिया । जणं जणं (तो) पभवामु
तारिसा, जहा विसं सबरसाणुवादिणं ।।१।। तिणिसा जड़ा सम्पती नमइ एवं जहागाणिए णमितब्ब, सुत्तत्थं च पहाच ओमराइ-17 णिएमुवि नमियव्यं बाऊ जहा हेडा, बंजुलो नाम बेतसो, तम्स किल हेतु चिहिया सप्पा निीयसीभवति, एरिसेण साहुणा भवि-13 तवं, जहा कोहाइएहिं महाबिसेहि अभिभूए जावे उबसामेइ, कणबीरपुष्फ सब्बगुप्फेसु पागड जिग्गंधं च, एवं साहुणावि सध्यस्थपागडेण भवियव्यं, जहा असाच एस निम्गंथेणं असुभगंधो न भवद सीलस्स एवं भवियब्ध, उप्पलसरिसेण साहुणा भवियध्वं, ४ कह , जहा उप्पलं सुगंध तहा साहुणा सीलमुगंधण भवियब, नत्ति जहा से बहुरूवि रायसं काउंदास धारेइ एवमाइ, एवं साहुणा माणावमाणेमु नहसरिसेण भवियच्वं, कुक्कुढत्ति कुक्मुडा जं लब्भइ तं पाएण विक्किरइ ताहे अण्णेवि सत्ता चुणति. एवं सीवभागरुइणा भवियवं, अदाए आदरिसपदिताविच पागडभावेण होयचं, अहबा 'तरुणमि होति तरुणो थेरो धेरेहि डहरए। दहरो। अदाओ विष रूवं अणुपत्तइ जस्स जे सीलं ॥१॥ इदाणिं समणस्स इमाणिं एगट्टियाणि, तं 'पव्यइए अणगारे ॥७३॥ गाहा (१६१-८४), तत्थ पब्बइओ नाम पापाद्विरतो प्रबजितः, अणगारा नाम अगारं-गृहं तद् यस्य नास्ति सः अनगारः, अट्ठविहाओ कम्मपासाओ टीणो पासंदी, तवं चरतीति चरगो, तवे ठिओ ताबसो, भिक्खणसीलो भिक्खू, सब्यसो पावं परिवज्ज-SER
दीप अनुक्रम [६-१६]
RE%
EA%E0%2-%
[86]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
H
गाथा
॥६-१६॥
दीप
अनुक्रम [६-१६]
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [२] उद्देशक [H] मूलं [H]/ गाथा: [ ६-१६ / ६-१६] निर्युक्तिः [१५२-१७६/१५२-१७७] भाष्यं [४...]
श्रीदशकालिक चूण
२ अध्ययने
॥ ७४ ॥
यंतो परिव्वायओ भण्ण, समणो पुख्वभणिओ चैव, बाहिर मंतरहि गंधेहिं निग्गओ निग्गंधो, सव्यप्पगारेण अहिंसाइएहिं जतो संजतो, मुचो बाहिर भंवरगंधेहिं किंच- 'तिष्णो ताली' गाहा (१६१-८४ ) जम्दा य संसारसमुदं तरंति तरिस्संति वा तम्हा तिण्यो ताती य, जम्हा अण्णेवि भविए सिद्धिमहापट्टणं अविग्धपण नयइ तुम्हा नेया, दविओ नाम रागद्दोस विक्को मण्णइ, सावज्जेस मोणं सेवतिति गुणी, खमतीति खतो, इंदियकसाए दमतीति दंतो, पाणवधादीहिं आसवदारेहिं न बढइचि विरतो, अंतपंतेहिं लहेहिं जीवेति लूही, अथवा कोहमाणा दो णेहो मण्णइ, तेसु रहितेसु हे संसारसागरस्स तीरं अत्थयतित्ति वा मग्गइति वा एगट्टा तीरडी, अहवा संसारस्स तीरे ठिओ तेण वीरड्डा, समणस्स एगट्टिया गया । इदाणिं पुब्वयं तं तेरसविहं भण्णइ, तं० 'णामंडवणादविए' गाहा (११२-८४) दुव्यपुण्यं गाहा' ( ) पुब्बिं वीर्य भण्णइ तओ पच्छा अंकुरुप्पत्ती, अहवा पुच्चि खीरं पच्छा दहिं, अहवा पुवि रसो पच्छा फाणितमेवमादि, खेते पुण्ययं णाम पुयि सालीखे समासी पच्छा जवखेचं जायंति, कालपुवं सर्याओ पाउलो रयणीय दिवसो आवलियाए वा समओ, दिसापुव्वं पुब्वा दिसा सा रुयगवेकूखाए, तावखिपु जस्स जओ रोदओ (पण्णवगपुष्वयं) णाम जो जस्स जओ मुद्दो ठियओ पण्णव तं तस्स पुब्वयं, पुव्यपुथ्वयं नाम जं चोदसणं पुव्वाण पढमं पुष्यर्थ, पाहुडपुब्वयं गाम जहा सूरपचसीए पाहुडेसु पढमं तं पाहुडपाहुडेस पाहुडपाडुरपुवं, तस्स वत्थुसुं पढमं वत्युं तं वत्थुपुच्वयं भण्णइ, भावपुव्वयं णाम पंचहे भावाणं उद्भावो भावपुव्यं एवमाइ णामनिष्कण्णो निक्लेवो गओ ॥ इदाणिं भुत्तागमे सुतं उच्चारणीयं अक्खलियं अविध्यामेलियं एवं जहा अणुउओगद्दारे, तं च सुतं जहा 'कहऽहं कुज्जा सामण्णं, जो कामे न निवारते (सू. ६-८५) तत्थ कविचि संखा अह दिवसो भष्णह, कवि पुण सो अहाणि कुज्जा सामण्णं
पूर्वनिक्षेपाः
[87]
॥ ७४ ॥
सर्वत्र एषः चिन्हः मूलं दर्शयते (जहां भी ऐसा चिन्ह बनाया है, वहा नई गाथा या सूत्र का आरम्भ होता है ऐसा समझ लेना)
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्राक
[-]
गाथा
||६-१६||
दीप
अनुक्रम [६-१६]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [ ६-१६ / ६-१६], निर्युक्तिः [१५२-१७६ / १५२-१७७], भाष्यं [४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्ण
श्रीदशवैकालिक वर्णों
२ अध्ययने
॥ ७५ ॥
जो कामे ण शिवारए?, अण्णे पुण पति- 'कयाऽहं कुज्जा सामण्णं कदा इति कमि काले अहमिति अत्तनिद्देसे वह, कदाऽहं करेमि सामण्णं जो कामे न निवारण, केर्सिपि पुण एवं 'कई ण कुज्जा सामध्णं जो कामे न निवारण' तिनि एते विकप्पा अविरुद्धा, पाएण पुण एयं सुतं एव पढेज्जइ 'कहंणु कृज्जा सामण्णं' तत्थ कहणुचि-कि-केन प्रकारेण 'किम' ति (पा. ५-३-२५) थमुप्रत्ययः कथं नु निपातः, कथं नु कथं नुशब्दः क्षेपे प्रश्न च वर्त्तते तत्र क्षेपः प्रपंचेत्युच्यते यथा कथं नु राजा?, यो न रक्षति, कथं नु वैयाकरणः ?, शब्दं न ब्रूयात्' प्रश्ने कथं नु अयं दाता १, द्रव्यैः अहवा कथं नु भगवन् जीवोः सुखवेदनीयं कर्म्म बनेति एवमादि एत्थं पुण सुने केणु सद्दो खेवे दडव्वो, कथं नु स कुर्यात् श्रामण्यं १, यः कामान् न निवारयति कुर्यात् 'डुकृञ् करणे' धातुः अस्य धातो: 'भूवादयो धातवः ( पा. १-३-१ ) इति धातुसंज्ञा, प्रत्ययाधिकारे 'विश्विनिमंत्रणा मंत्रणाधीष्टसंप्रश्नप्रार्थना विसर्जनेषु लिहू' प्रत्ययः (पा. ३-३-१६१) अनुबंधलोपः लस्य विए 'यासुदपरस्मैपदेषूदात्तो ङिच्चे' ति ( पा. ३-४ १०३ ) अनुबंधलोपः | 'सार्वधातुकार्द्धधातुकयोरिति ( पा. ७-३-८४ ) गुणः 'उरणपर'' इति ।१-१-५१) स्परस्वं 'अत उत्सार्वधातुके' इति पा. ६-४-११०) अकारस्य उकारः, 'नित्यं ङितथे ति ( पा. ३-४-९९ ) अइकारलोपः ( ये चेति ६-४-१०९ प्रत्ययोकार(लोपः) परगमनं कुर्यात्, सामनं यः कामान्न निवारयति ते य कामा इमे 'णामंठवणा' गाहा (१६३-८५) ते य कामा चतु व्विधा पण्णत्ता, तं० णामकामा ठवणाकामा दव्वकामा भावकामति, णामठवणाओ तद्देव, तत्थ दव्वकामा इमे, तं० 'सदरस' एस गाहाए पुबद्धं (१६४-८५) ते इड्डा सदर सरूवगंधफासा कामिज्जमाणा विसयपसत्तेहिं कामा भवति, आणि य मोहोदयकारणाणि विमडमादीणि दव्त्राणि तेहिं अम्भवहरिएहिं सदादिणो विसया उदिज्जंति एते दव्वकामा, भावकामा नाम ते 'दुविधा य
[88]
कामस्यभेदाः
।। ७५ ।।
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्राक
[-]
गाथा
||६-१६||
दीप
अनुक्रम [६-१६]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [६-१६/६-१६], निर्युक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४ ...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र - [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक
चूण २ अध्ययने
॥ ७६ ॥
भावकामा' दुविधा य 'इच्छाकामा य मदणकांमा य' तत्थ 'इच्छा पसत्था अपसत्या य' गाहा पुण्बद्धं ( १६५-८६ ) तत्थ पसत्था इच्छा जहा धम्मं कामयति मोक्खं कामयति, अपसत्था इच्छा रज्जं वा कामयति जुद्धं वा कामयति एवमादि इच्छाकामा, मदण*कामा नाम वेदोदयो भण्णह, जहा इत्थी इस्थिवेदेण पुरिसं पत्थे, पुरिसोवि इत्थी, एवमादी, तेर्णात्त-तेण मयणकामेण अहिगारो, ४ सेसा उच्चारित सरिस चिकाऊण परुविया, तस्स मदणकामस्स इमाओ दोषि निरुत्तीगाहाओ 'विसयसुहेसु पसतं' गाहा (१६६-८६) माणिवा 'अण्णपिय से णामं' गाहा (१६७-८६) पडियव्वा, कामा भणिया, एते कामा जो समणो पत्थ जओ ण शिवारए, सो कई सामण्णं करेइडिश, एत्थ सीसो आह-सो साह कामा अनिवारयंतो सामण्णं कह न करेहिही, एत्थ आयरिओ भणइ- 'पदे पदे विसीदंतो, संकष्पस्स वसं गओ' गम्मंति जेणंति तं पदं भण्णइ, जहा इत्थिपदं वग्वपदं सीहपदं एवमादि, अहवा पदंणाम जेण निव्वत्तिज्जइ तं पदं भण्णइ, जहा नहपदं परसुपदं वासिपदं, तं च पदं चउब्विहं तं ० 'नामपदं 'गाथा (१६८-८६) आउट्टिये णाम जहा रूवओ हेट्ठावि उपरिंपि मुहं काउं उपलम्भर, उकिण्णं जहा सिलाए णामयं उकरज्जह कंसभायणं वा, उण्णेज्जे गाम जहा बउलादीणं पुप्फाणं संठाणेणं चिक्खिमयाणि काउं पञ्चति, तेसु मयणं वग्यारेता हुन्, ते य मयणमया उप्पायंति, तं उण्णिज्जं भण्णइ, पीलियं नाम जहा पोत्थं संवेत्ता ठविज्जइ तत्थ भंगा उडूंति तं पीलिये भण्णइ, रंगपदं नाम जहा पोता बद्धगा वित्तगा कीरंति तं रंगपदं, गंधिमं माला भण्णा, बेढिमं जहा आणंदपुरे पुप्फमया मउडा कीरंति, पूरिमं वित्तमयी कुंडिया करिता सा पुष्काणं भरिज्जर, तत्थ छिड्डा भवंति एवं पूरिमं वादिमं पोत रूवा कीरंति कोलिएहि देवहिं य, संघाइम जहा महिलाणं कंचुया संघाइज्जति, छज्ज॑नाम अम्भपडलएसु, गतं पदपदं इदाणिं भावपदं मण्णइ भावपदेपि अणेगविहमेव,
[89]
पदनिरूपणं
॥ ७६ ॥
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूर्णी
गाथा ||६-१६||
श्रीदश
पुण समासेण दुविहं मवइ, 'भावपदंपि य दुविह गाहा (१७०.८७) ने अपराहपदं गोवराहपर्य च, गोवराहपदं दुविई, पदनिरूपणं वैकालिकसं०- माउगापदं च नोमाउगापदं च, तस्थ माउगापदं नाम माइआ अक्खगणि. अहवाइमाणि दिष्टि गादियाणि माउगपदाणि
मण्णइ-उप्पण्णेइ वा धुवेइ वा विगतेइ वा, तत्थ नोमाउगापदं दुवि भवद, गहियं पदण्णगं च, तस्थ गहियं माम बद्धति वा रइयं ॥ २ अध्ययने
| इवा गहियं इवा एगट्ठा, सस्थ पतिष्णगं नाम जो पईण्णा कहा कीरइ तं पदण्णग भण्णइ, तत्थ जतं गहियं तं चउब्बिई, ०||
गज्ज पज्ज गेयं चुण्णापदं च, एवं चउपगारमवि तिसमुट्ठाणं भवइ-अस्थाओ धम्माओ कामांओ पा. एतस्स मिदरिसर्ण इम, ॥७७॥
गाहा 'गज पज्ज' (१७२-८७ तस्थ गज्ज नाम 'मधुरं हेतु' गाहा, (१७३-८७) महुरणाम तिविहं तं० सुत्तमहुरं अस्थ
महरं अभिहाणमहुरं, हेतुनिउणं नाम सकारणं भण्णइ, गहियं णाम बद्धं मण्णइ, अपायं नाम पादा से नत्थि, विरामो से अत्थओ ४ भवद, इतस्था ताव ण ठाए जाव समतं, जहा 'जिणवरपदारविंदसंदाणिउरुणिम्मलसहस्स' एवमादी गजं मवइ । 'पज्जंपि दाहोद तिषिह' गाहा (१७४-८७) तं च पज्ज तिचिहं तं० समं विसमं अद्धसमं च, तत्थ समं नाम चउहिं पाएहिं जस्स
समा अक्खरा ते सम भण्णइ, अद्धसमं नाम जस्स पढमो अंतिओ य पायो बिइओ चउत्थो य पादो अक्खरेहिं समो, एवं अद्ध8 समं तं पुण गुरुहि लहुएहि वा समं विसमं वा भवइ , इदाणि विसमं जस्स चत्तारि पादा गुरुएहिं वा लहुएहिं अक्सरेहिं विसमा | तिं विसमं भण्णइ, पज्जं गतं । इदाणि गीर्य-गीयत इति गेयं, तं पंचविहं भण्णाइ, 'संतिसम' गाहा,(१७५-८७) तत्थ तंतिसमं
*
। Pणाम जहा तंती छिप्पड़ तहा तहा गाइज्जद, ताए तंतीए समं गिज्जबात तंतिसम, चण्णसमं नाम वष्णगारूसहपंचमादयो जे वेहि
समं मण्णइ तं वण्णसम, तालसम नाम ताला हरण दिन्जन्ति तालसमं गिज्जद तं तालसमं, गहसमं नाम गहो उखेवो भण्णइ
दीप अनुक्रम [६-१६]
॥७७॥
[90]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूणों
H गाथा ||६-१६||
श्रीदश- जेण वत्तेण उखेवेण गावइ त गइसम भण्णइ, लओ नाम काणएण ती छिप्पति ताहे नहेण आमज्जद, तत्थ अण्णारिसी सरोअपराधबैंकालिक उदइ, लयसम भण्णइ, गीयंति गतं । इदाणि चुण्णपदं भषणइ जहा बंभचरेतराणि, एतस्स चुण्णपदस्स इमा लक्खणगाहा
पदानि'अस्थबहुलं महत्थं' गाहा (१७६-८६) अस्थबहुलं नाम जस्स पहु अस्था, महत्थं णाम पहाणं भण्णइ तेण जुत्तं, कारणेण हेउ२ अध्ययन | जुचंति भण्णइ, निवायता इमे, ते० च पा खलु ण हो एवमादयो अण्णतरो नियातो । इदाणि उबसग्गए, ते य इमे तं० परि उत् श्रुत् ।
दृष्टान्तः ॥७८ ॥ अब एवमादि, एतहिं निवातावसग्गेहि उववेयं गंभीरं भवइ, बहुपादं णाम जहा सिलोगो, गाहादीण विरामो अत्थिन तथा
तस्स, गमेहिं नयेहि च विसुद्धं गमनयविसुद्ध, एवं चुण्णपदं गहियं सम्मत्त, सम्म च नोअबराहपदंति, इदाणिं अवराहपदं'इंदियविसया' गाहा (१७१-८८) तत्थ इंदियाणि सोतादीणि तेसिं विसया-सहादयो तेसु सदाइसु इट्टाणिद्वेसु सोतादीहिं | इंदिपहिं रागदोसं गन्तूणं, कसाया कोहाहयो तेसु कया बढ्ता, परीसहा बाबांस तेसु बावीसाए परीसहेसु उदिण्णेसु बेदणा उबसग्गा भवंति, अण्ण य मज्जप्पमायादयो तेसु एकेकए कारणे सीदंतो नाम पमादयतोत्ति वुत्तं भवति. 'संकफ्स्स वसं गओ' संकप्पोति वा छंदात्ति वा कामज्यवसायो तस्स संकप्पस्स बस गओ, एत्थ उदाहरण जहा एगो खतो सपुत्तो पवइयो, सो या
चेल्लो तस्स अतीव इहो, सीदमाणो य मणइ-खत!न सक्केमि अणुवाहणो हिंडिउँ, अणुकंपाए खतीण दिण्णा उवाहणाओ, ताहे | Mभणइ-उवरितला सीतेण फुदंति, खल्लिया से कयातो, पुणो भणइ-सीस मे अतीव उज्झइ, ताई सीसवारिया से अणुचाया, ताहे|
मणइन सक्केभि हिंडिउं, तो से पढिस्सए ठियस्स आणेइ, एवंनतरामि खंता! भूमिए सुबिउं, ताहे संथारा स अणुष्णाती, पुणो भणइ-न तरामि खतो ! लोयं काउं, तो खुरेण पकज्जिओ, ताहे भणइ-अण्डाणगं न सबकेमि, तओ से फासुगपाणएण |
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र -३ (निर्युक्तिः+ भाष्य|+चूर्णि:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा: [६-१६/६-१६], निर्युक्ति: [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्ण
श्रीदशवैकालिक चूर्णां २ अध्ययने
॥ ७९ ॥
कप्पो आयरियपाडगं च जलं घेप्पर, एवं जं जं भगइ तं तं खतओ तस्स नेहपडिबद्धो अणुयाण एवं काले गच्छमाणे पभणितं, ण तरामि अविरतियाए विणा अच्छिउं खंतति, ताहे तो मण-सोऽतोऽजोगोत्तिका ऊण पडिस्सयाओ निप्फेडिओ, कम्मं न याण, अयाणतो खणसंखडीए घण्णिकाउं अज्जिष्ण मओ विसयस मरिउं महिसो आयातो वा हिज्जई य, संतोवि सामण्णपरियागं पालेऊण आउक्खए कालगओ देवेसु उबवण्णो ओहिं पउंजद्द, ओहिणा आभोगेउं तं चेगं तेण पुष्यनेद्देणं तेसिं गोहाण हत्थाओ किrs, बेचिए मंडीए जोएइ, बाहेइ व गुरुगं, तं अतरंतो योद्धुं तानएण वेहिउं भणइ-न तरामि खेता ! भिक्खं हिंडिडं, एवं भूमिय सवणं लोयं काउं, एवं ताणि सव्वाणि वगणाणि उच्चरेइ जाव अविरइयाए विणा न तरामि खतचि, ताहे एवं भणतरस तस्स महिसस्स इमं चित्तं जातं कहिं एरिसें बच्चे सुयं वचि, ताहे ईहावृदमग्गणगवेसणं करेह, एवं चितयंतस्स जातीसरणं समुप्पणं, देवेण ओही पडतो संबुद्धो, पच्छा भचं पच्चक्वाइय देवलोग गतो. एवं पदे पदे विसीयतो संतो संकष्पस्त वसे गच्छर, जम्दा एस दोस्रो तम्हा अङ्कारसी लंगसहस्साणं संरक्खणनिमित्तं एते अवराहपदे बजेज्जा, सीसो भणइ-कतराणि पुण ताणि?, आयरिओ भणइ-इमाणि, तेसिं च सीलंगसहस्साणं इमाए गाहाए अत्थे अणुसारियो-'जोए करणे सण्णा इंदिय भोमादि समणधम्मे य। सीलिंगसहस्ताणं अट्ठारसगस्स उत्पत्ती || १|| तत्थ ताब जोगो तिविहो कारण वायाए मणेणं, करणं तिविदं कर्म कारावियं अणुमोइयं, सण्णा चडब्बा तं० आहारसण्णा भयसण्णा मेहुणसण्णा परिग्गहसण्णा, इंदिए पंच तं०-सोईदिए चक्खिदिए पाणिदिए जिम्भिदिए फार्सिदिए, पुढविकाइयाइ पंच बेइंदिया जाव पंचदिया अजीवकाय पंचमो समणधम्मो दसधा त०] खेती मोती अज्जवे महवे लाघवं सच्चे तवे संजमा वंभचेरवासे, एसा ठाणपरूवणा, अट्ठारसण्डं सीलिंगसहस्साणं परूवणा- कारण न
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श्रीलांगसहस्राणि
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
गाथा ||६-१६||
श्रदिश- करोमि आहारसण्णापडिविरए सोईदियसबुडे पुढाँचकायामारंभपडिबिरए खंतिसंपउत्ते एस पढमो गमओ, इदाणि पिइओ भण्णइ- शीलांग
कारणं न करेमि आहारसण्णापडिविरए साइंदियसंबुडे पुढविकायसमारंभपाडीवरए मुक्तिसंपयुत्त, एसो बितिओ गनओ, इदाणि चूणी मा
I तइओ, एवं एतेण कमेण जाव दसमो गमओ बमचेरसंपउत्तो, एस दसमो गओ, एते दस गमगा पुढविकायसजम अमुंचमाणेण २ अध्ययन
कालद्धा, एवं आउक्काएणवि दस चेच, तेउकारणवि दस, एवं जाव अजीवकारण दस, एवमेतं अ सतं गमाणं सोईदियसंवुड ॥८॥ अमुचमाणगे लद्धं, एवं चक्खिदिएवि सतं वाणिदिएवि सतं निम्भिदिएवि सयं फासिदिएवि सय, एवमेयाणि पंच लि।
भंगसयाणि आहारसण्णापडिविरयं अमुचमाणेण लद्धाणि, एवं भयसण्णाए पंच सयाणि मेहुणसण्णाएवि पंच सताणि
परिग्गहसण्णाएवि पंच सवाणिः एवमेताई वीस भंगसवाणि न करेमि अमुचमाणण लद्धाणि, एवं ने कारमिति वीस &सयाणि, करेन्तेषि अण्णे न समणुजाणामि सिं सयाणि, एवमेताणि छ सहस्साणि कार्य अमुचमाणण लद्धाणि, एवं वायाए
छ सहस्साणि मणेणवि छ सहस्साणि, एवमेताणि अट्ठारससलिंगसहस्साणित, जोवि आजीवियाए भएण पब्बइओ जणवायभएण वा ण तरइ उप्पव्यहउं सो सयमेव कामरागपडिबद्धचित्तो अच्छइ, सो अपरिचनकामभागो जाणियव्याोनि । कई ?, वस्थगंधमलंकारं, इत्थीओ सयणाणि य । सिलोगो (सू ७.९१ । ' वस निवासे ' धातुः अस्य धातोः 'भूवादया ।
पा. १-३.१) इति धातुसंज्ञा, 'प्टन सर्वधातुभ्य' (उणादि पा. ४) परनमनं वस्त्रं, बत्थग्गहणेण चत्वाणि कंबलरयणपट्टा चीणसुयादीणि गहियाणि, गंधगहणेण कोट्ठपुडाइणो गंधा गहिया, 'इकग करणे' धातुः अलंपूर्वस्व घञ्प्रत्ययः अलंकरणं अलं- ॥८ ॥ कारः, अलंकारग्रहण केसाभरणादिअलंकरणादीनि गहियाणि, 'स्त्यै संघातशब्दयोधातुः अस्य 'खायते' ( उणादि पाद: ४)
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा ||६-१६||
श्रीदश- अनुबंधलोपः, 'डिड्डा' (पा. ४-१-१५) परगमनं स्त्री, इत्थीग्गहणण विरूवरूवाणं इत्थीणं गहणं कर्त, 'शी स्वमे' अस्य धातोः सुवन्ध्यावैकालिकल्यु 'युवोरनाका विति (पा.७-१.१) अनः आधातुके धातोगुणः एकारः अयादेशः परगमनं शयनं, सयणग्गहणेण णाणा ख्यानक
चू! विहा सयणासणप्पगारा गहिया, चकारो निपातः, चकारेण सब चव इक्सियपरिमोगा गहिया, एते वखादयः परिभोगाः २ अध्ययन केचिदच्छंदा न भुजते नासौ परित्यागः, 'छदि अपवारण' धातुः णिच् प्रत्ययः पुनः अन् अनुबंधलापः परगमनं नपूर्वस्य, न त्यजति, ॥८१॥
यदा दो चंदगुत्तेग णिच्छूढो, ततो तस्स दारेण निग्गच्छंतरस दुहिया चंदगुत्ने दिहि बंधति, एवं अक्खाणयं जहा. आवस्तए जाब बिंदुसारो राया जातो, नंदसंतीओ य सुबंधूनाम अमच्चो. सा चाणका.स्स पदोसमारणो हिडाणि मग्गइ, अप्णया रायाणंद विष्णवइ, जहावि तुम्हहि अम्ह विच न देह तहावि अम्हहिं तुझ हियं वसन्ध, भणइ तुम्ह माया चाणक्केण मारिया. रणा |घाती पुच्छिया, आमंति, कारणं न पुच्छियं, केणवि कारणेण रपणा य स गासं चाणक्का आगओ जाच दिदि न देइ, ताहे| लाचाणिक्को चिंतइ-सट्ठो, अई गया ऊत्ति काउं दवं पुत्तपोताणं दाऊणं संगोवित्ता य गंधा संजोइया, पत्तयं च लिहिऊण सावि
| जागो समुम्गे इढो, समुग्गो चउसु मंजूसासु छुढो, तासु छुभिचा ततो गंधोब्बरए लूटो, तं बहुहिं सीलियाहिं सुपरियं करचा। हा मजायं णाइबग्गं च कम्मे नियोएना अाए गोकुले इंगिणिमरणं अम्भुवगओ, रण्णा आपु.च्छियं-चाणक्को किं करे।
H ||८१ &ाघाती य से सम्बं जहापसे परिकहेइ, गहियपरमस्थेण य भणियं-अहो मया असमिक्खियं कर्य, सम्वतेउरओरोहबल समग्गो खामेउं| निग्गओ, दिडो यओण करिसि मझे ठिओ, खामिओ सबहुमाणं, भणियं रणेणं-नगरं बच्चामो, मणइ-मए सब्बपरिच्चागो उत्ति, वजी मुघुणा राया विष्णविओ-अहं से पूर्व करेमि, अणयाणह, अगुप्णाए पूर्व रहिऊण तम्हि चैत्र एगप्पदंसे करिसरसा
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कालिका
त्यागि
H गाथा ||६-१६||
श्रीदश- वरि ते अंगारे परिठवेइ, सो य करीसो पहितो, दड्डो चाणक्को, ताहे सुवधुणा राया विष्णविओ-चाणक्कस्स संतियं घरं मम अणुजाणह, अणुण्णा गओ, पच्चुवेकखमाणेण य घरं दिवो अपवरगो घडिओ, सुबंधू चिन्तेह-किमवि एत्थ, कवार्ड भीजत्ता उग्पा-18
स्वरूप चूर्णी
#डिया जाब समुग्गं मतगंध सपत्नय पेच्छइ, ते पचयं वाण्इ, तस्स य पत्चगस्स एसो अस्था-जो एवं चण्या अग्धोत सो जइ म्हा-1 २ अध्ययन ति वा समालभइ अलंकारह सीतोदगं वा पिचति महीए सेज्जाए सुबइ जाणेण गच्छइ गंधर्व वा सुणइ एवमादी अण्णे वा इट्ठा । ॥८२॥
लाविसया सेवइ जहा साहुणो अच्छति तहा सो जइन अच्छद तोमरइ, ताहे सुबंधुणा विष्णासणत्थं अण्णो पुरिसो अग्घाइत्ता सद्दाइणो
विसया झुंजाविओ मओ य, साहे सुपूवि जीवितासाए अकामो साहू जहा तहा अच्छद, किं सुधू वहा अकामा अतो साहू मण्णइ, एवं परथ गंधमलंकार इत्थीओ सयणाणि य अच्छंदा अभंजमाणा य जीवा णो परिचत्तमागिणों भवति । इत्यंतरे सीसो भणइ| अच्छंदाजे न भुजंति एवं बहुवयण भाणियव्यं, कहं पुण एगवयणेण ण दोसो?, जहा न से चाहचि, आयरिओ मणइ-विचित्तो सुत्तनिधो भवति, सुहमहोच्चारणत्थं गंधलाघवस्थं च काऊण न एस दोसो मबह । एवम जमाणो कामे संकप्पसंकिलिट्ठताए चागीन भण्णइ,कई पुण चागी भवति', भण्णा'जे यकंते पिए भोए,लढे विम्पिट्टिकुब्बहस.सिलोगो चेव बचबी, जेत्ति अविससियाणं गहणं, 'कमु कान्ती' धातुः, अस्य निष्ठाप्रत्ययः क्तः अनुबंधलोपः अनुनासिकस्य ती मलोपःआगार: परगमनं, कमनीयाः कान्ताः शोभना इत्यर्थः, पिया नाम इडा, भोगा-सहादयो बिसया, एरथ सीसो पुण चोएति पाणु जे कंता ते चव पिया भवति, आचायः प्रत्युवाच-कंता नामेगे को पिया १पियाणामेगे को कंता २एगे पियावि कंतावि३ एगे जो पिया णो कंता ४, कि कारणं, कस्सवि केतसुकंतबुद्धी उप्पज्जइ, कस्सह पुण अकंतेसुवि कंतबुद्धी उपज्जद, अहवा जे चेव अण्णस्स कंवा ते चेच
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गाथा ||६-१६||
॥८॥
& अण्णस्स अर्कता, भणिय च-"चहिं ठाणेहि सन्ते गुणे णासेज्जा, ते रोसेणं पढिीणवेसण अकयण्णुपत्ताए मिच्छत्ताभिणिवसेण", निस्स्वोऽपि
मणियं च-"अबस्स पिया बासी मासी अनस्स वेसरी किसरा । अन्नस्स फारिया दरिया य पहुनेहलो लोगो ॥१॥"लद्धा त्यागी नाम ते विसया सद्दाइणो उपभोगत्वाए उवणया, 'विप्पिट्टि कुबइ तओ भोगाओ विविइंहिं संपण्णा विपढाओ उ कुष्पद, परिचयइत्ति बुतं भवह, अहवा विपट्टि कुव्बंतित्ति दूरओ विवज्जयंती, अहया विषद्विन्ति पच्छओ कुबइ, ण मग्गओ, साहीणे चयइ | भोगे, पुणो सीसो आह-लद्धे विप्पिट्टि कुष्मदत्ति लडुग्गहणण घेव साहीणगहणं कयंति, आयरिओ आह -साहीणग्गहणेग सो भोगो साहाणो गेजाति, साहिणो णाम कल्लसरीरो, भोगसमत्थोति बुत्तं भवइ, न उम्मनो रोमिओ पवसिओ बा, वितियं । मोगग्गबण (किं.) संपुण्णभोगग्गहणस्थ कीरइ, आयरिओ आह-संपुष्पोमु भोगेसु चापितं तस्स भाइ जे एरिसे मांगे चयइ, एत्थ दिईतो भरहणामा, जहा सो भरहो जंवृणामो य, नारिसेऽपि रिद्विविसेस जहिऊण भगवन्तसासणे ठिया ते चागिणो भण्णंति, सीसो आह-जइ भरहजबुणामाइणो जे संते भागे परिच्चति ते परिच्चाइणो, एवं ते मणंतस्स अयं दोसो भवइ-जे कइ अस्थसारहीणा दमगाइणो पन्चाइऊणं भावओ अहिंसाइगुणजुत्त सामग्णे अभुज्जय। ते किं अपरिच्चागिणो भवंति, आयरिभो आह-तेवि तिणि रतण कोडीओ परिच्चाऊण पब्वइया-अग्गी उदग महिला, तिण्णि रयणाणि लोगसाराणि परिच्चाऊण पब्वइया, दिढतो-४, एगो पुरिसो सोहम्मसामिणो सगासे कट्ठहारओ पब्बइओ, सो भिक्खं हिंडतो लोगेण भण्णइ-एसो सो कट्ठहारओ पन्चइओ, सो ? सेहत्तणण आयरियं भणइ-मई अण्णत्व णेह, अहं न सक्कमि अहियासेत्तए, आयरिएहिं अभओ आपुच्छिा -बच्चामो, अभयो | भणइ-मासकप्पपायोग्ग खेतं किं एवं न भणह, जेण अगत्य बच्चह, आयरिए मणियं-जहा सेदनिमिर्ग, अभयो भणइ
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गाथा ||६-१६||
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श्रीदश-18 अच्छह वीसत्था, अहमेतं लोग उवाएण निवारेमि, वितिए दिवसे विष्णि सुवण्णकोडीओ ठथियात्रो, उग्धोसावियं नगरे,
जामनोदमनं ला अभयो दाणं देइ, लोगो आगओ, भाषांत चऽणेण-तस्साह एताओ तिणि कोडिओ देमि जो एता तिणि परिहरह-अग्गि पाणिय
महिलं, लोगो भणइ एतेहिं विणा किं सुवण्णकोडीहिं, अभयो भणइ-ता किं भणह दपउत्ति पवइओ?, जोवि निरस्था पत्र२ अध्ययन ओ तणांवि एयाओ तिष्णि सुवण्णकोडीओ परिचचाओ, सच्च सामी, ठिओ लोगोत्ति--तम्हा अस्थपरिहीणोऽवि संजमे ठिओ ॥८४॥
तिषिण उ लोगसाराणि अग्गि उदगं महिलाओ य परिवज्जतो चाइति लम्भइ। एवं तस्स संजमे ठितस्स कस्सइ कदाइ मणं चंचलतणेण माउग्गामेण सह अभिसंधारणं भवेज्जा तेण कई काय, भाइसमाए पेहाए परिवयंतो, सिया मणो णीसरई। वहिद्धा (९-९३) सिलोगो, ममा णाम परमपाणं च समं पासइ, णो विसम, पेहा णाम चिन्ता भण्णइ, परिवयंतो णाम जो सब्बप्पगारण संजमाहिगारहिं उज्जमतो, परिब्बयंतो णाम गामणगरादीणि उबदेसेणं विचरतोत्ति वुस भवइ तस्स, एवं पसत्धेहि माणठाणहि बटुंतस्स मोइणीयस्स कम्मरस उदएणं बहिदा मणो णोसरेज्जा, बहिदा नाम संजमाओ वाहिं गच्छइ, कह, पुन्चरयाणुसरणेणं वा भुत्तभाइणा अभुत्तभागिणो वा कोऊहलवचिवाए, तत्थ उदाहरणं जहा एगो रायपुत्ती बाहिरिवाए उबट्ठाणसालाए अभिरमंतो अच्छइ, दासी य तेण अंतण जलभरियघडेण चोलेइ, तओ तेण दासीए सो घड। गोलीए भिण्यो, ते च||
अद्धिति करेंति दडण पुणरावची जाया, चितियं च-जे चत्र रक्खगा ते विलावगा कि रथ कुविउं सक्का ।। उदगाओ समुज्जला लिओ कट्ठमग्गी विज्झवेतचे ॥१॥ वो पुणपि चिक्खालगोलीएण तक्खणा चेव लहत्थयाए तं पडछिदं ढक्केइ, एवं द.॥८४॥
जइ संजतस्स संजमं करेंतस्स बहिया मणो णिग्गच्छद सत्य पसत्धेण परिणामेण ते अमुहसंकप्पछि चरिचजलरक्खणडाए ठक्के-18
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गाथा ||६-१६||
A! तम्ब, कई ?, 'ण सा महं णोवि अहंपि तीसे' तत्थ नगारो पडिसहे वइ, सा इति पुयभोइणीए ग्रहणं महं, ण व अहमवि*
आतापतीसेत्ति, तत्थ उदाहरण-एगो बणियदारओ सेहो जायं उज्झिय पब्बइओ, सो य ओहाणुप्पेही, जया इमं च घोसह 'ण सा महं णो- नादि Tीवि अहंपि तीसे' चरित्तजलक्खएक अहमपि तीस सा ममाणुरता, कहमहं तं छड्डहामिनिकाउं गहियायारभंडगवत्यो वा अध्ययन संपद्वितो, गओ तं गाम जत्थ सा, सो य निवाणतडं संपनो, तत्थ सा पूव्यजाइया पाणिपस्स आगया, सा य साविया जाया,11
पच्वइउकामा, एताए सण्णइओ, इतरो त ण याणद, तेण सा पुच्छिया-सा अमुगस्स धुपा किं मया?, सो चिंतेइ-जइ सासंधरा तो ल उपव्वयामि, इयरहा ण, ताए पायं, जहा एस पन्धज्ज पयहिउक्कामो, तो दोषि संसारे भविस्सामोत्ति, भणियं अणाए-सा
अण्णस्स दिण्णा, ततो सो चिंतिउमारद्धा-सचं भगवतेहिं साधूहिं अई पाढितो 'ण सा मह जोवि अहंपि तीसे' परमं संवेग-II मावण्णो, भणियं चाणेण-पडिणियत्तामि, तीए बेरम्गमन्गपडिउत्ति पाऊण, अणुसासिओ-'अणिच्चं जीवियं, कामभोगा इत्तिरिया' एवं तस्स केवलिपन्न धम्म कहेइ, अणुसट्ठो, जाणाविओ य, पडिगओ आयरियसगासं, पबज्जाए थिरीभूओ, अप्पा साहारेत-13 वो जहा तेणते, इरुचेवं तत्थ 'विणएज्ज राग' 'रंज रागे धातुः अव धातोः भावे घञ् प्रत्ययः "घजिच भावकरणयो"रिति (पा.६.४-१७) अनुनासिकलोपवृद्धिः, रंजनं रागः एयारिसे चरित्नंतरे समुप्पण्णे विधिहेहि विणएज्ज रागे, दमेज्जति बुत्तं ४ &ा भवइ, जहा विणीए सीसे विणीए अस्सेत्ति, एवं ताव मणसो णिग्गहो भणिो , सो य न सक्का उबचियसरीरेण णिग्गहेडे, ला | भणिय च-“चउहि ठाणेहि मेहुणं समुपज्जिज्जा, तं० चियमंससोणियत्ताए मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, मतीए, तदट्ठोबओ-2 गेण" तम्हा कायवलनिग्गहे इमं सुत्तं भण्णइ
दीप अनुक्रम [६-१६]
॥८५॥
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूर्णी
H गाथा ||६-१६||
दिश- आयावयाही चय सोगमलं, कामे कम हि कमियं खु दुवं । छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागं, एवं सुही त्यागस्थैवैकालिकोहिसि संपराए (सू. १०-९५) आयावयाहि उडवा, एगग्गहणे तज्जाइयाण गहणंति न केवलं आयावयाहि, ऊणोदरिय- योलंबन
Jमवि करेहि, आयरियाईणं काजे समुप्पणे अद्धाण गच्छाहि, जो बहुस्सुओ सो सुत्तस्थाणि दवाविज्जद, चय सोगमल्लं२ अध्ययने ५
पनाति चयाहित्ति वा छडेहित्ति वा जहाहित्ति वा एगट्ठा, सुकुमाल भावो सोकमल्लं, सुकुमालस्स य कामेहि इच्छा भवइ, कमणिज्जो ॥८६॥
य स्त्रीणां भवति सुकुमालः, तम्हा एवं सुकमारमा छोहित्ति, कामे कमाहि एतेण आयावयाइणा कायकिलेसेणं अप्पसत्वा इच्छा. मयणकामा य कमाहि, कमाहि णाम पिडओ करेहि, अतिक्कमाहित्ति वृत्तं भवति,ते पुण कया कामा अतिक्कता भवति', पत्थ भण्णइ--'कमियं खु दुक्वं, कमियं णाम कामहिं अतिक्कतेहि संसारियं दुख कंतमेव भविस्सइत्ति, छिंदाहि दोसं विणएज्ज रागमिति, ते य कामा सद्दादयो विसया तेसु अणिद्वेसु दोसो छिदियव्वो, इवसु बढ्तो अस्सो इच अप्पा विणयियधो,
रागं न गछियम्बंति बुसं भवति, रागो दोसो य कम्मबंधस्स हेउणो भवंति, सवपयत्तेण ते वज्जणिज्जन, तओ तेसु विजिएम दाकि भविस्सतित्ति', एवं भण्णइ-एवं सुही होहिसि संपराए' एवं तुम जयंतो संपरातो-संसारो भण्णइ जाव ण परिणवाहिसि
ताव दुक्खाउले संसारे सुही देवमणूएसु भविस्सास, जुस भण्णइ, जया रागदोसेसु मज्झन्थो भविस्सति तओ(जिय)परीसहसंपराओ सुही भविस्ससिनि,किं च-संजमे विसीदंत अप्पाणं इमेण आलंबणेण साहारेज्ज,जहा-पक वंदे जलिय जोई, धूमकेउं दुरासयं । णेच्छति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणा ॥ (स.११.९५) 'स्कंदिर गतिशोषणयोः धातुः,अस्य धातोःअल प्रत्ययः अनु
४ ॥८६॥ संघलोपः परगमनं स्कंदः, तथा प्रातिपदिकार्थे सप्तम्यधिकरणे कि अनुसंधलोपः 'आद्गुणः' (पा.६-१८-७) सर्वस्य, स्कन्दो, Hi
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गाथा
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भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [२] उद्देशक [] मूलं []/ गाथा: [ ६ १६ / ६ १६] निर्मुक्तिः [१५२-१७६/१५२-१७७] भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णां २ अध्ययने
1120 11
62
•
अतीच स्कन्दः पदानि युतं भवइ, जलिओ लोगसिद्धां चैव, जोतिग्गहणेण अग्गिणो गहणं कर्य, जोती अग्गी मण्णाद, धूमों तस्सेव परियायो, केऊ उस्सओ विघं वा, सो धूमे केतू जस्स भवः धूमकेऊ, सीसो आह-जोइगणे कए जं पुणो जलियगहणं च करेसि तष्णु पुणरुतं, आयरिओ आह जलिय हिणं मुम्मुरदिनिहत्थं, धूमरगहणं उक्कादिपडिसेइत्थं दुरासयो नाम डहणसम त्यसणं, दुक्खं तस्स संजोगो सहिज्जइ दुरासओ तेण, अतो एवंगुणजातीयं किर अगणि पविसंति अगंधणकुलजातिजा य णागा, न म इच्छति तयं पुणो पडिआइउं, तत्थ नागाणं दो जातीय गंधणाय अगंधणा य, तत्थ गंधणा नाम जे डसिऊन गया तेहिं आगच्छया तमेव विसं वणमुहडिया पुणो आवियंति ते, अगंधणा णाम मरणं ववसंति ण य वंतयं आवियंति, उदाहरणं जहा दुमपुष्क्रियाए सब्वं तदेव एत्थ पुण सुत्तट्ठाणमसुण्णं भवतु, जाव तेण सप्पेण आहिंडियणीयेण मरणमच्युवगतं णय तं विसं पढितीय, वन्तमितिकाउं, एवं साहुणाचि चिंतेयनं जड़ णानाविश्ण होऊग. धम्मं अयाणमाणेण कुलमवलंबतेण य जीवियं परिउच्चतं ण य वन्तमावीत, किमंगपुण मणुरसेण जिणवणं जाणमाणेण जातिकुलमत्तणो अणुगणितेणं ?, तहा करणीयं जेण सद्देण दोसे पण भवइ अविय मरणं अज्झबसियध्वं ण य सीलविराहणं कुज्जा, किं कारण एवं ववसिय सरीरविणास करेही, पञ्चश्या पओ (वंते) भोगे गुणो सेचिज्जता अणाईए अणवदम्गे दहिमद्धे संसारकंतारे तासु तासु जाईसु बहूणि जम्मणमरणाणि पाति, एवंमि अत्थे वि तियं सवित्थरं उदाहरणं मण्णह, जदा अरिनेमी पब्बहुओ तदा रहनेमी तस्स जेस्स भाउओ रायमई उबचरह, जह णाम एसा मई इच्छेय्य, साऽवि भगवती णिब्विण्णकामभोगा, गातं च तीए जहा एसो मह अज्झोववण्णो, अण्णया य तदा मनुषय संजुत्ता पेजा पीया, रहणेमी आगओ, मदणफलं मुद्दे काऊ तीए वन्तं भणियं च एवं पेज्जं पीयाहि, तेण भणियं कई वंतं पिज्जर १, सीएम
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पातान्मरणं श्रेयः
॥ ८७ ॥
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
H गाथा ||६-१६||
श्रीदश- णिओ-जइन पिज्जइवतयं तो अहंपि अरिडनेभिसामिणा वन्ता कह पिबिउसि । धिरत्यु ते जसोकामी, जोतं जीवियकारणा। कुलीनकार्य बैंकालिकावंतं इच्छसि आवेळ, सेतं ते मरणं भवे। (सू.१२-९६) धि निंदायां 'असु झुविधातुः, अस्य विधिनिमंत्रणा' 'लोट् (च पार
चूण ३-३-१६२) अनुबंधलोपः, लस्य तिप् 'ए' रिति (पा ३-४-८६) उच्च शप 'आदिप्रभृतिभ्यः शपः (पा. २४-१२) लुक परग२ अध्ययन र
मनं, धि पूर्वस्य घिरस्तु, घिरत्थु तुम्भं जसोकामी, जसोकामिणो खत्तिया भणंति, अहवा धिरत्थु ते अयसोकामी, गंधलाघवत्यं । need अकारस्स लोवं काऊणं एवं पढिज्जइ 'धिरत्यु तेऽजसोकामी"जो तं जीवियकारणा'जो तुम इमस्स कुसग्गजलबिंदुचंचलस्स जीबियस्सा
अट्ठाए भाउणा वन्तं इच्छसि आईउं, एवं पेज्जं गच्छसि, एवं ते सेवं मरणंति, धम्मो य से कहिओ, संयुद्धो पवइओ य, रायमई-IP | वितं चोएऊण पवइया, पच्छा अण्णदा कदाइ सो रहनेमी बारबईए भिक्खं हिंडिऊण सामिसगासमागच्छतो वासबद्दलएण अब्भा-1 हतो एक्कं गुहं अणुष्पविट्ठो, राईमई य सामिणो बंदणाए गया, बंदिय पडिस्सयमागच्छइ, अंतर परिसिउमाढतो, तिता य तमेव । गुहमणुपविट्ठा जत्थ सो रहनेमी, बत्थाणि य पबिसारिया, ताहे तीए अंगपच्चंगं दिटुं सो रहनेमी तीय अज्झोववष्णो, दिवो य गाए, इंगियागारकुसलाए य नाओ अस्सोमणी भावो एतस्स,ताहे सा भणइ-'अहं च भोगरायस्मतं चासि अंधगवहिणी।
मा कुले गंधणा होमो,संजम निहुओ चर ।। (१३-९६) भोगा खत्तियाणं जातिबिसेसो भाइ, जहा बद्धमाणसामिकुलुप्पण्णा 1णाया खत्तिया भण्णति, एवं उग्गसेणावि भोगकुलिओ भण्णइ,तस्स अहं भोगराइणो ध्या, तुमं च तस्स तारिसस्स अंधयबहिणो 8|कुले पसूओ समुद्दविजयस्स पुत्तो, ता एवं दोण्णिवि महाकुलप्पसूयाणि मा गंधणणागसरिसाणि भवामो, हेट्ठा अभिहितं सब्बंI
रहणेमिस्स कहयइ, तंजहा-अगंधणकुलप्पस्या सप्पा मचव वंतं पडियाइयंति तहा वयंपि भोगे पयहिऊण सबभावेण मा ते चेव ।।
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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चूर्णी
गाथा ||६-१६||
श्रीदश-18 पडियाइयामो, अहवा कुलगंधिणो कुलपूयणा मा भवामो, तम्हा तुम संजममेव सम्बदुक्खनिवारणं निहुओ चराहि, किंच-सा पुण
पता पणानपुरपंडि
। बैकालिकाभणा'जातं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ। वायाइदोव्व हढो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥ (स.१४-९६)IDIोदाहरणं
'शिर् प्रेक्षणे' धातुः, अस्य धातोः भविष्यति 'अनयतने लुट्' (पा. ३-३-१५) 'स्यतासी ललुटो': पा. ३-१-३३) लट् प्रत्ययः २ अध्ययन अनुबंधलोपः मध्यमपुरुषः सिम् आनुपूानुबंधलोपः स्यतासीस्पप्रत्ययः 'वबभ्रस्जसृजमृजमजराजभ्राजमशा या (पा: E-२-३६)
पत्वं 'पदोः कस्से (पा. ८-२-४१) कत्वं 'इको' (पा. ८३-५७) सापेक्षप्रत्यययोः (पा. ८-३-५९) पत्वं ‘सृजिदृशोझल्यमकिति' ला(पा.६-१-५८) अ,यणादेशः परगमनं द्रक्ष्यसि,संति इत्थीओ दरिसणिज्जाओ ताओ दळूण जइ मार्च करेहिसि-प्रार्थनां अभिप्राय तो
तुम अर्णतरयणाए पुढवीय वायाइदोविव हढो अद्वितप्पा भविस्ससि, हढो णाम वणस्सइविसेसो, सो दहतलागादिषु खिण्णमूलो
मवति, तथा वातेण य आइद्धो इओ इओ य निज्जइ, तहा तुमंपि एवं करेंतो संजमे अबद्धमूलो समणगुणपरिहीणो केवलं पदवलिंगधारी भविस्ससि ।।
*तीसे सो वयणं सुच्चा, संजयाए सुभासियं । अंकुसेण जहाणागो, धम्मे संपडिवाइओ।(म.१५-९६) 'श्रुश्रवणे धातु:, अस्य धातोः 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्वा' (पा.३-४-२१) प्रत्ययः अनुबंधलोपः गुणप्रतिषेधः श्रुत्वा, 'तीसे' ति तीन रायमतीय सो स्थनेमी एवं सुणेऊण वयणं अण्णाणि य धम्मसताणि सुभासियाणि सोऊणं जहा सो अंकुसेण णागो, पत्थ उदा- ॥८९॥ हरण-वसंतपुरं गगर, तत्थ एगा इम्भवहुगा नदीए हायड, अण्णो य तरुणो दण तं भणइ-सुण्हायं ते पुच्छइ एस नवी पउरसोहियतरंगा। एते य नदीरुक्खा अहं च पादेसु ते पणतो ।।१॥ ताहे सा पडिभणइ- सुहगा होंतु णदीओ
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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२अध्ययन
गाथा ||६-१६||
चिरं च जीवंतु जे नदीकक्वा । सुण्हायपुच्छयाणं घत्तीहामो पियं काउं ॥ २॥ सो य तांसे घरं चा बार ण याणा,13/पुरपंडिबैंकालिका तीसे य वितिज्जगाणि चेडरूवाणि रुक्से पलोयंताणि अच्छंति, तेण ताणं पुष्फफलाणि सुबहणि दिग्णाणि, पुच्छियाणि य-
काला तोदारहणं चूर्णी ।
एसा, ताणि भणंति- असुगस्स सुण्डा, सो यतीए विरहं न लह, तओं परिवाइयं ओलग्गिउमाढचो, मिक्खा दिण्णा, सा
तुट्ठा भणइ- किं करेमि ओलग्गाए फलं, तेण भणियं- अमुगस्स सुण्हं मम करण भणाहि, तीए गंतूण भणिया-अमुगो ते एवंगुण॥९ ॥
जातीओ पुच्छद, एसा रुट्ठा, एयाए तुल्लगाणि धोवंतीए मसिलित्तएण हत्थेण पडीए आया पंचंगुलयं, अबदारेण निच्छूढा, | गया तस्स साहह, नामपि सा तव न सुणेइ, तेण णाय-कालपंचमीय अबदारेण अतिगंतव्वं, अतिगओ य, असोगणियाए मिलि-12 याणि, सुखाणि य जाव पस्सावगएण ससुरेण दिवाणि, तेण णाय ण एस मम पुत्तो, पच्छा पायाओ उरं गहिय, चेतियं च, तीए सो भणिओ-पास लहूं, आवइकाले साहेज करेज्जासि, इयरी गतूण भत्तारं भणइ- एत्थ धम्मो असोगवाणिय बच्चामो, गंतूण सुत्चाणि, खणमेग सुविऊण भत्तारं उद्दघेड, भणइ य-तुम्भ एवं कुलाणुरूवं ? जेण मम पायाओ ससुरो उरं फाइ, सो भणइ-सुय पमाए लब्मेहित्ति, पभाए थेरेण सिट्ठ, सो रुट्ठो भणइ विवरीयं, थेरोवि भणति-मया दिडो अण्णो पुरिसो, विवादे जाए सा भणइअहं अप्पाणं सोहयामि, एवं करहि, ततो ण्हाया कयवलिकम्मा गया जक्खघरं, तस्स जक्खस्स अंतरदेणं गच्छतो जो कारी सो लम्गइ, अकारी नीसरह, ततो सो विडप्पितयमो पिसायरूवं काऊण निरंतरं घणं कंटे गण्डहतओ सा गंतूर्ण तं जक्खं मणइ-जो मम मातरपितिदिण्णओ भत्तारो तं च पिसार्य मोत्तूण जइ अण्णं पुरिसं जाणामि ता मे तुम जाणेज्जासित्ति, जक्खो विलक्खो | चिंतेइ अईपि बंचिओ एताए, णस्थि सतित्तणं धुत्ताए, जाव जक्खो चिंतेइ. ताव सा निष्फिडिया, तओ सो थेरो सब्बलोगेण ॥९ ॥
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प्रत सूत्रांक
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गाथा ||६-१६||
श्रीदश
IN विलक्खीकओ, तओ थेरस्स ताए अद्धितीए निदा गट्ठा, रणो य कण्ण गतं, रण्णा सहावेऊण अंतेउरपालओ कओ, अभिसे- नपरपंडिवैकालिका च हरिधरयण वासघरस्स हेट्ठा बद्धं चिट्ठइ, हो य एगा देवी हथिमिथे आसत्ता, णवरं हतं थेरो पेच्छद, चितियं चऽणेण-एवं 12ी
| तोदाहरणं चौं रक्खेज्जमाणीओ एताओ एवं विहरति किनु पायताओ सदा सच्छंदाउत्ति पसुत्तो, पभाए सब्बलोगो उडिओ, सोण उद्वेइ, रणो २ अध्ययने कहिय, रण्णा भणिय सुवउ, चिरस्सविय उद्दविओ, पुच्छिओ य, कहियं-सव्वं भणति, भणति- जहा एगा देवी, ण याणामि
काकतराचि, तओ राइणा भंडहत्थी कारिओ, भणियाओ- एतस्स अच्चणिय काऊण उलंडेह, संवाहिं उलेंडिओ, एगाणेच्छइ, ॥९१॥
मणद य- अहं बीहेमि, तओ रण्णा उप्पलेणाहया, पडिया, रण्णा जाणिया एसा कारिचि, भणिय चणेण- मत्संगतआरुहंतीए भंडमयस्स गयस्स बीहेहि (हन्तीए) । तत्थ ण मुच्छिय संकलाहया, एत्थऽसि मुन्छिय उप्पलाइया||१|| तओ सरीरं जोइयं, जाव संकलप्पहारो दिडो, तओ रुद्रुण रण्णा देवी मेंठो य हत्थी य तिण्णिवि छिण्णेकडगे चढावियाणि, भणिओ य मिठो एत्थं वाहेहि, हत्थीस्स दोहि य पासेहि बेलुअग्गहाओ ठिया, जाब एगो पाओ आगासे ठविओ, जणो भणइ- किं एस तिरिओ जाणइ ?, एताणि मारतव्याणि, तहवि राया रोसं न मुबह, तओं तिणि पादा आगासे कया, एगेण ठिओ, लोगेण य कओ अकंदा, कि तं हस्थिरतणं विणासिज्जा, रण्णा मेंठो मणिओ- तरसि नियत्तेउं', भणइ-जइ दुयगाण अभय देसि, दिण्णो, नियत्तिओ हत्थी अंकुसेण, एवं नहा से णागो तेण मिठेण तमावई पाविओबि एरिसे ठाणे अंकुसण आहओ जेण पादं भमाडेऊण चउसुवि ||९१॥ पादेसुवि धरणितले ठिओत्ति, तहा रहनेमीवि रायमतीए संसारभउब्वेगकरहिं वयणेहिं तहा अणुसासिओ जेण संजमं पुणरवि |संपडिवण्णोति ॥
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [२], उद्देशक H, मूलं H I गाथा: [६-१६/६-१६], नियुक्ति : [१५२-१७६/१५२-१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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H गाथा ||६-१६||
॥९२॥
श्रीदश-16*एवं करेंति संपण्णा, पंडिया पवियक्खणा। विणियदृति भोगेसु, जहा से पुरिसोत्तमोत्ति त्तियोमि (सू१६-९६) मोगनिवैकालिकाएबसदो अवधारणे वइ, किमवधारयति , जहा रहणेमिणा रायमतीचयणाई धम्मियाई सोऊण मणो दुप्पउत्तो नियत्तिओ, एवंद वृत्तिः चूर्णी साहुणावि संजमातो नीसरमाणो णियत्तेयब्बो, संपण्णा णाम पण्णा-बुद्धी भण्णइ, तीय बुद्धीय उववेता संपण्णा भण्णंति, पंडिया
| पाण्डित्यं ३अध्ययने
णाम चत्ताण भोगाणं पडियाइयणे जे दोसा परिजाणंती पंडिया, पविक्खणा णामावज्जभीरू भण्णंति, बज्जभीरुणो णाम संसारभउम्बिग्गा धोबमविपावं णेच्छति, विणियद्दति णाम विविहेहिं पगारहिं भोगेहिं अभिलसमाणं जीयं नियडेति, जहा पुरिसुत्तमोति स्थनेमित्ति वुत्तं भवति, बेमिणाम मणगपिया भणति-नाई स्वाभिप्रायेण अवीमि, किं तर्हि १, तीर्थकरस्य सुधर्मस्वामिन उपदेशाद् प्रवीमि । इदाणिं नया, 'णापंमि गेण्डितब्बे अगिाण्हियव्वमि चेव अत्थंमि गाहा||शा'सब्वेसिपि नयाणंबधिहवत्तब्वयं णिसामेत्ता । तं सवनयविमुद्धं जं चरणगुणढिओ साह॥१॥ एताओ गाहाओ पढियथ्याओ। श्रामण्यपूर्वकस्य चूर्णी समाप्ता॥
वितियजायणं घिणिमितं परूवियं, इदाणिं दढधितियस्स आयारो भाणितब्बो, अहवा सा धिती कहिं करेय्या , आयारे, एतेण अभिसंबंधेण खुडियायारकहाओ, तस्स चचारि अणुओगद्दारा जहा आवस्सगचुण्णीए नवरं इह नामनिष्फण्णो निक्खेवो खुड़ियायारकहत्ति, महंती आयारकह पप्प इयं खुडियायारकहा भण्णइ, साय महती आयारकहा धम्मत्थकामा भण्णइ, तम्हा मण्णा खुड्डो निक्खिपियवो आयारो निक्खिवियध्वो कहा निक्विवियचा, तत्थ पूबि खाओ निक्खिवियब्वो, सो य अभ समईतयं पहच्च खुडओ भण्णइ सं महतं ताप परूपोम, तं च महंतं अढविहं भवइ न० नाम ठवणादविए खेत्ते काले पहाण पड़
४॥९२॥
दीप अनुक्रम [६-१६]
RECId SROACANCEBO
- अध्ययनं -२- परिसमाप्तं
अध्ययनं -३- 'क्षुल्लकाचार' आरभ्यते
[105]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[H]
गाथा
||१७
३१||
दीप
अनुक्रम
[१७-३१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ १७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्ण
भावे । गाहा १८०-१०० ) णामटवणाओ गयाओ, तत्थ दव्वमहन्तं अचित्तमहासंघो भण्ण, सो किर सुडुमपरिणामपरिणओ अणताणत्तपएसिया खधा तं तदाभावं परिणमंति जेण सव्वलोग पूरेह, जहा केवली समुग्धायादओ, दंडकवाडमर्थतराणि य चउत्थे समए पूरे एवं सोऽवि चउत्थे समए सव्वं लोगं पूरेत्ता पडिनियत्तइ, एयं दव्यमहन्तं, खेतमहन्तं नाम सब्वागास, कालमहंत सब्बद्धा भण्णइ, पहाणमहंतं तिविह, तं० सचित्तं अचित्तं मीसयं, तत्थ सचित्तं तिविहं- दुपदं चउपदं, अपदंति, तत्थ दुपदपहाण तित्थगरो, चउप्पदाणं इत्थी, अपयाणं पणसं, अरविंदं वा, अचित्ताणं वेरुलियरयणं पहाणं, मीसगाणं च भगवं तित्थगरो वेरुलियादीहिं विभूसिओ पहाणमहतं सम्मतं इदाणिं पडुच्च महंतं भष्णइ- आमलगं पढच्च विल्लं महलं बिल्ले पडुच्च कवि महंत * एवमादि, भावमहंतं णाम तिविहं पण्णत्तं तं पाहण्णओ कालओ आसययोति, तत्थ पाहण्णतो सम्बभावाणं खाइओ भावो भावमहतो, कालओ पप्प पारिणामिओ भावो पहाणो, किं कारणं १, जेण जीवदव्वा अजीवपरिणामेण अजीवदव्वा य जीवपरिणामेण ण कमाइ परिणमंति, आसयओ उदइओ भावो पहाणो, किं कारणं १, जेणेव बहुतरगा जीवा उदद्दए मावे आवस्त्रिया, उदइए भावे वतिचि बुचं भवद्द, भावमहंतं गथं । इयाणिं एयस्लेव महंतयस्स पडिवक्खो खुइयं निक्खिवियच्वं, तंपि अट्ठविहं एवं चैव भवइ, नामठवणाओ तहेव, दव्वखुड्डयं परमाणू खेत्तखुट्टयं एगो आगासपएसो, कालखडयं समयो, पहाण खुट्टयं तिविहं, तं० सचिचं अचित्तं मीसगं च तत्थ सचितं तिविहंन्दुपयं चउप्पयं अपयं च तत्थ दुप्याणं पहाणखुड्डयं लबसन्तमा देवा, पंचण्हवि सरीराण सब्वखुड्डलयं आहारगसरीराणि, चउप्पयाण पहाणं सब्बखुदडलयं सीहो, अपयाणं आगासपुष्कं जाइशुष्कं वा, अचित्ताणं बरं, मीसयं ते चैव लवसचमा देवा सयणिज्जगया, पहाणखुडलयं गयं, इदाणिं पच्चखुड्डुल भण्णइ
श्रीदशवैकालिक चूर्णो ४ २ अध्ययने 4
॥ ९३ ॥
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महत्क्षुछुकनिक्षेपाः
॥ ९३ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
-
गाथा
||१७
श्रीदश- बिल्लं पडुच्च आमलय खुड्डलयं एषमाई, भावखुरडलयं खाइयभावो, किं कारणी, सव्वत्थोषा जीवा खाइए भावे वकृति, खुद्दड-1 आचाराकालिकाउत्तिदारं सम्मतं ॥
दाधिकारः चूर्णी 2
इदाणिं आयारोत्तिदारं- 'पतिखुट्टएण पगतं' गाहा (१८१-१००) सो य आयारो चउबिहो-नामायारो ठबन्दव्व. २ अध्ययने
ययनाभावायारो य, णामठवणाजो गयाओ, तत्थ दवायारो णाम जहा दव्वं आयरइ, आयरहणाम आयरयतित्ति वा तं तं भावं गच्छ॥९४॥
इत्ति वा आयरइचि वा एगट्ठा, सो य दबायारो इमाए गाहाए अणुगतब्बो-नामणधोवणवासण गाहा (१८२-१००) तत्थ नामणायार पडच्च दुविई. दव्य भवति, त. नामणायारमंतं अणायारमतं च, तस्थ नामणापारमंत दवं तिणिसा, सया जो पामिन्जमाणोवि न भज्जद, जति पुण सो भज्जेज्जा अतो अणामणायारमती भवेज्जा, नोनामणायारमंत दवं एरंडो, सो अवि भज्जेज्जा णविणमेज्जा, नामणंति भणियं, इदाणि धोवणं भण्णा, जहा हालिद्दरागरतं वत्थं धोवन्तं सुज्मइ, आयारमन्तं भण्णइ, किमिरागरत्तं पुण वत्थं सब्बप्पगारेहिं धोव्वमाणं न सुज्मद स तं नोआयारमन्तं भण्णइ, धोवणति गर्य, इदाणि वासणत्ति दारं, तत्थ आयारमंतीओ कवेल्लुगाओ इडगाओ वा, अणायारमन्त बहरं, तं न सक्कए वासेउ, वासणेत्ति दारं गतं, इयाणि सिक्खावर्ण पडुच्च आयारमंता णाम भययंसलागाओ मुयगा य, ताणि माणुसप्पलावीणि कीरति, अषायारमंता कागा सकुंता य, सुकरणं पड्डच्च आयारमताणि रुप्पसुवण्याईणि दवाणि, तत्थ इच्छियाणि आभरणाईणि कज्जाणि कीरति, अणायारमंत घंटालोह, घंट
भीजऊण तमि व लोहे अण्ण किंचि तारिस णिबनेउं न सकेइ, अविरोहं पहच्च आयारमंताणि गुडदहीणि, विरोई पहुच्च | Pावेल्लवुद्धाणि अणायारमताणि, तेल्लदहिकजियाईणि एवमाईणि, व्यायारो सम्मत्ता ।।दाणि भावाऽऽयारो-तस्थ इमा गाहा ॥९४॥
CREASURESS
दीप अनुक्रम [१७-३१]
... अथ आचारस्य भेदानां वर्णनं आरभ्यते
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
-
गाथा
चूर्णा
||१७
श्रीदश-विसणाणचारत्त गाहा १८२२०
सणाणचरितं'गाहा (१८३-१०१) सो य भाषायारो पंचविहो, त०-दसणायारी णाणायारो चरितायारो तवायारो बीरिया-II बैकालिक
यारो, तत्थ दसणायारो सो अवविहो भवइ, 'निस्संकिय गाहा (१८४-१०१) तत्थ संका दुविहा, तं०- देससका य सब- चार
संका य, तत्थ देससंका जहा समाणे जीवत्ते कहमेस भविओ इमो अभविउत्ति, ण पुण चिंतेइ जहा भावा हेउगेझा अहेतुगेज्झा य, २ अध्ययन तस्थ हेउगेज्झा जहा जीवस्स अत्थित्त एवमादी, अहेउगेज्झा जहा मविया अभविया य, (केवलि) नेयो भायोति, एसा देससंका,
सबमेयं पागयभासाए बर्दू अण्णण व कुसलकप्पिर्य होज्जत्ति एसा सव्वसंका, तस्थ देससंकाए सव्वसंकाए य इमं उदाहरणं. कप्पदगा दोष्णि जहा आवस्सए तहा भणियब्व, एवं सो जहा पेज्जावमणेण मरणं संपत्तो, एवं जो जिण्णप्पणीएस भावेस संका करेह सो संसारेसु चिर भीहिति, तम्हा संका न कायब्वा, जे न करेहिंति संकं सो इतरकप्पङगो जहा पंचलक्खणाणं भोगाणं आभागी जाओ तहा सोधि जिणपण्णत्तेसु संकं अकरेमाणे सग्गमोक्खाणं आभागीभविस्सइ, तम्हा संका ण कायव्वा । इयाणं | कंस्खा, सा दुविहा- तं०-देसे सब्वे य, तत्थ देसकंखा जहा कोई एगं कुतित्थियमतं कंखइ, ण सेसाणि मताणि, एसा देसकंखा भण्णइ, अण्णो पुण सव्वपावादियमयाई कंखद सा सम्बकंखा भण्णइ, एताए दुविहाएवि कंखाए इमं उदाहरण-राया अमच्चो य आसण अबहिया अडवि पसिया, जहा आवस्सए तम्हा कंखा ण कायव्वा । इदाणि वितिगिच्छा, सा दुविहा-देसे सब्वे य, तत्थ देसवितिगिच्छा सोहणं साहुणं जइ पुण जीवाउलो न लोगो दिट्ठो होतो तो सुट्ट्यरं होन्तंति, एवमाइदेसवितिगच्छा भण्णइ, ॥ ९५॥ इदाणिं सम्ववितिगिच्छा-जइ सर्व सुकरं जिणेहिं दिट्ट होतं तओ सुहं अम्हारिसा करेंता, तत्थ उदाहरण-चोरो उज्जाणे जल | हिययतणं मोतूणं विज्जं साहिता आगासेणुप्पइओ, इतरो महिओ, जहा आवस्सए तहेव, तहा बितिगिच्छा ण कायच्या, अहवा
दीप अनुक्रम [१७-३१]
kGRICT
... अत्र भावाचाराणाम् दर्शनादि पंच भेदानां वर्णनं क्रियते । ... भावाचार-मध्ये दर्शनाचारस्य नि:शकित आदि अष्ट-भेदा: कथयते
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक 1, मूलं H/ गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
दर्शनाचारः
चूर्णी
गाथा
||१७
श्रीदश- वितिगिच्छाए इमं चितियं उदाहरणं-दुगुंछा ण कायव्या, जहा सावगध्या दुगुंछ काउं दुन्भिगंधत्तर्ण पत्ता, पच्छा सेणियस्स वैकालिका भज्जा जाया, एवं एयं अक्खाणयं जहा आवस्सए, वितिगिछित्ति गतं ॥ इदाणि मूढदीट्टित्तणं, तावसाणं तवातिसता
विज्जातिसया य दणं मिच्छादिडीहिं वा पूइज्जमाणे कुतित्थिए पासिऊण अमूढदि डिणा भवियव्वं, एत्थ उदाहरणं सुलसा ३ अध्ययन
साविया, जहा अंमडो रायगिहं गच्छंतो पहणं भवियाण थिरीकरणनिमित्तं सामिणा भणिओ-सुई संपुच्छेज्जासु, अमडो चिंताMeanाला पुण्णमंतिया सा जा अरहा पुच्छिज्जा, तओ अमडेण परिजाणणाणिमित्तं भत्तं मग्गिया, ताए न दिणं, तओ तेण पहणि
रूवाणि विगुयियाणि, तहवि न दिण्णं, ण य संमूढा, तहा किर कुतित्थियरिद्धीओ दट्टण अमूढदिडिया भवियव्वं, अमूढ| दिवित्तिगतं । इदाणि उववृहपत्ति दारं, सम्मने सीयमाणस्स वा असीदमाणस्स वा उववृहणं कायब, एत्थ सेणियराया दिईतो, जहा रायगिहे गरे सेणिओ राया, इओ यसको देवराया सम्मत्तं पसंसद, इओ य एगो देवो असहईतो नगरवाहिं निग्गयस्स | चेल्लयरूवं काऊण अणिमिसे गेण्हा, ताहे तं निवारेइ, पुणरवि अण्णस्थ संजई गुम्विणी पुरओ ठिया, ताहे अपवरगे पेसिऊण जहा न कोइ जाणइ तहा सूइगि कारावियं, जं किंचि मूहकम्म त सयमेव करेइ, तओ सो देवो संजईरूवं पयहिऊण दिव्वं देवरूवं दरिसेति, भणइ य-भो ! सेणिय ! सुलई ते जम्मजीवियफलं जेण ते पययणस्मुवरि एरिसी भची भवतित्ति उवव्हेऊण गओ, एवं उबवूहियब्बो, साहम्मिपउवचूहणेत्ति गयं । इवाणिं थिरीकरणं, धम्मे सीदमाणस्स थिरीकरणं कायथ्व, जहा उज्जेणीए अज्जासाढो कालं करेंते संजए अप्पाहेयइ मम दरिसावं देज्जह, जहा उत्तरज्झयणेसु एयं अक्खाणयं सव्यं तहेव, तम्हा जहा सो अज्जासाढो थिरीकओ तथा जे भविया ते थिरीकरेयव्वा, विकिरणति दारं सम्मत्तं ॥ इदाणि वच्छल्लत्ति दारं-तं च संत
दीप अनुक्रम [१७-३१]
kGORRECR
॥९६॥
[109]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[H]
गाथा
॥१७
३१||
दीप
अनुक्रम [१७-३१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ १७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णी
३ अध्ययने
1180 11
बलवरियपुरिसकारपरकमेण पचयणस्स कायन्वं एत्थ दितो चब अज्जवहरा, जहा तेहिं अग्गिसिहाओ सुहुमकाइयाई आणेऊण सासणस्स उभावणा क्या, एयं अक्खाणयं जहा आवस्तए तहा कहियन्वं, एवं साहुगावि सव्वपय लेग सासणं उन्भावेयव्वं, पभावणेतिगयं, संम्मतो य दंसणायारो ||
इदाणिं णाणायारो णाम जा णाणागमनिमित्ता चिट्ठा कज्जइ एस णाणायारो, सो य अडविहो पण्णत्तो, तं- 'काले विषय गाहा (१८६-१०१) तत्थ पढमं कालेति दारं, जो जस्स अंग वा अंगवाहिरस्स वा सुयस्स अज्झाइयन्त्रि कालो भणिओ तंमि जहोass काले पढतो णाणायारे बत्ति, तब्बिवरीए काले पढंतस्त्र अणायारो भवइ, लोगेऽवि दिडं, करिसयाण कालं पप्प णाणाविहाणं बीयाणं निष्फती भवइ, तम्हा साहुणा काले पढिबच्चे, अकाले पढते पडिणीयदेवया विराहेज्जा, अत्रोदाहरणं एको साहू पाउसिय कालं घेत्तुं अकंतावि पढमाए पोरिसिंए अणुवयोगेण पढइ कालियसुतं, सम्मदिट्ठिदेवया य चिंतेइ मा पन्तदेवया छलेज्जत्तिकाउं तककूडं घेनूगं तर्क तर्कति तस्स पुरजो अभिक्खं आयागयाई करेइ. तेण य चिरस्स सज्झायस्स मे वाघायं करेइति भणिया अयाणिए को इमो तक्कस्स विक्कणणकालो?, वेलं ताव पलोएहि, तीयवि भणियं अहो! को इमो कालियसुत्तस्स सज्झायकालोत्ति, अविय सूतीछट्टमताणि पासह, तओ सो साहू चिंतेइ-न एस पागड्यत्तिकाऊण उचउत्तो, णायं चणेण अङ्कुरतो जाओ, मिच्छादुक्कडंति, देवयं भग- इच्छामि संता पडिचोयणा, देवयाए भण्णति- अकाले कालिय मा पढेज्जासि, मा ते अण्णा काइ पंतदेवया छलेहिति, तम्हा कालेणाहीयब्वं, अहवा अकाले सज्झाय करेंतस्स इमं उदाहरणं धमे धमे णातिधमे, अतिवंत णं साभई। जं अज्जियं घर्मतेणं, तं हारिये अइधर्मतेण ॥ १ ॥ जहा एगो समाविओ छेत्तं रक्खर सुगरभया,
... भावाचार-मध्ये ज्ञानाचारस्य काल आदि अष्ट-भेदाः कथयते
[110]
ज्ञानाचारः
॥ ९७ ॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
H
गाथा
॥१७
३१||
दीप
अनुक्रम [tb-31]
भाग-6 "दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [३] उद्देशक H. मूलं H / गाथा: [ १७-३१ / १७-३१] नियंक्तिः [१८०-२१७ / १७८-२१५] आयं [४]...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णां ३ अध्ययने
॥ ९८ ॥
तं सिंग धमइ सो य, अण्णदा तेण समावतीए त सिंगयं, चोरा य तेण समीषेण गावो हरंति, तेहिं णायं कुढो आयो, गावो छड्डेऊण णड्डा, पभाए तेण दिट्ठातो, घरं णीयातो, तओ चित-धर्मतो चैवच्छामि बेत्तस्स अदूरसामंतो, एवं सो दिने दिने धर्मता घर्मतो अच्छइ गावो चारतोय, ते य चोरा अष्णया तेणेव अंतण वोलिंति, तेहिं सो परिजाणिओ जाव न कोइति, ताहे रुट्ठेहिं बंधाविओ गावो य से हडाओ, एवं साहुणावि जं काले पढिज्जर तंमि चैव संतोसो कायव्त्रो, जो पुण लाभणं पढंतो अच्छ अकालेवि सो तहा विणस्स, एमि चैव अत्थे इमो बितिओ संखधमओ एगो राया दंडवत्ताए पडिओ, एक्केण य समावतीए संखो वाइओ, रनाय तुद्वेणं थक्के धतति सयसहस्सं दिष्णं, सो पच्चूसे निच्चमेव धर्म० अच्छा, अण्णया य राइणा विरेयओ पीओ, सण्णाभूमी अतीति तेण संखो हओ, परबलमासण्णं सुतं राहणा पुच्वं, तओ राइणो संतासेण बेगो ठिओ, असुहो जाओ, लट्ठीभूओ अ, सो य संखवाइणो दंडिओ, तह अकाले ण सज्झाएअच्वं मा तहा विणस्सिहित्ति, अहवा इमं तयं उदाहरणं सिरीए मतिमं तुस्से, अइसिरिं तु न पत्थए। अतिसिरिमिच्छंतीए, थेरीए विणासिओ अप्पा ॥१॥ एगा छाणधारिया थेरी, | ताए एगो वाणमंतरो तोसिओ, सा जाणि छाणाणि पलत्थेइ ताणि रयणाणि हाँति, सा इस्सरी जाया, चाउस्सालं घरं कारियं, समोसियाए पुच्छियं किमेवंति ?, एताए सिट्ठे तादे सावि एवं चैव वाणमंतरं आराहेउं पबत्ता, आराहिओ भणइ- किं करेमि है, ताए थेरीए भणियं जइ पसाओ जं समोसियथेरीए वरं देह सो मम दुगुणो भवउ, एवं होउ, जं जं सा चिंते तं तीसे दुगुणं होइ, तओ ताए पढमथेरीए पायं जहा एताए बरो लडो ममाहिंतो दुगुणो, सा असती पुणो भण-मम चाउस्सालिं हिं फिट्टउ, तणकुडिया मे भवउ, तओ इयरीए दो तणकुडीयाउ, चाउस्सालागि फिट्टाणि, पुणो चिंतेह एकमच्छि काणं होऊ, इयरीए
[111]
ज्ञानाचार
॥ ९८ ॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
H
गाथा
॥१७
३१||
दीप
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[२७-३१]
भाग-6 "दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [३] उद्देशक H. मूलं H / गाथा: [१७-३१ / १७-३१] निर्बुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५] आयं [४]...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूणीं
३ अध्ययने
॥ ९९ ॥
"
दोवि काणिभूयाणि, पुणो विचितेह मम एगो हत्थो भवउ, समोसियाए दोवि नट्ठा, पुणो चिंता मम एगो पाओ होउ, समोसियाए दोषि नड्डा, ताहे पडिया अच्छइ, एसो असतोसस्स दोसो, तहावि अतिरिते काले सज्झाएण कायब्वो मा तहा विर्णस्सिहिइ जहा थेरिति, कालित्तिगयं दारं-इयाणि विणओ, विणण पहियन्त्र, अविणरण अवेज्जमाणो विज्जाफलं ण लभइ, एत्थोदाहरणं सेणिओ राया भज्जाए भण्णह- ममेगखभं पासायं करेहि, एवं दुमपुष्पियज्झयणे वक्खाणियं तम्हा विणण अधिज्जेयं णो अविणएणं, विणओ गओ । इदाणिं बहुमाणांति दारं ज णाणमंता तेसु णाणमंतेसु भावओ नेहपडिबंधो एस बहुमाणों, भत्ती पुण अन्ट्टाणकिरिया जा कज्जइ, एत्थ चउमंगी-एगस्स भी णो वहुमाणो १ एगस्स बहुमाणो णो भत्ती २ एगस्स बहुमाणोवि मतीव ३ एगस्स णो बहुमाणो णो भत्ती ४, एत्थ बहुमाणभत्तिविसेसनिदरिसणत्थं इमं उदाहरणं- एगमि गिरिकंदरे सिवो, तं च वंभणो पुलिंदो य अच्चेति, भणो उचलवणसंमज्जणणावरिसावणपयतो सुतीभूओ अच्चिणित्ता थुणइ भतिजुतो, ण पुण बहुमाण, पुलिंदो पुण तंभि सिवे भावपडिबद्धो गोदरण व्हावे, णाभिऊण उबविडो सियो य तेण समं आला वसंकहाहिं अच्छई, अनया तेर्सि बंभणेण उल्लावणसो सुओ, तेण परियरिऊण उवालद्वो तुमपि एरिसो चैव कडपूणसिवो जो एरिसएण उच्छिट्टएण समं मंतेसि, तओ सिवो भणड़ एसो मे बहुमाणेइत्ति, तुमं पुणाई ण तहा, अण्णया य अच्छी ओखणिऊण अच्छइ सिवो, भणेो य आगंतुं रडिउमाढतो उपसंतो य, पुलिंदो य आगओ, सिवस्स अच्छिण पेच्छा, तओ अप्पाणयं अक्खि कंडफलेण उक्खिणित्ता सिवस्स लाएइ, तओ सिवेण वंभणो पचियाविओ, एवं नाणमंतेमु भत्ती बहुमाणो य दोत्रि कायव्याणि, बहुमाणोत्ति दारं गतं । इयाणिं उवहाणदारं- उवहाणं णाम तत्रो जो जस्स अज्झयणस्स जोगो आगाढ
[112]
ज्ञानाचारः
॥ ९९ ।।
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
H
गाथा
||१७
३१||
दीप
अनुक्रम [१७-३१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ १७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णां
३ अध्ययने
॥१००॥
मणागाढो तहेव अणुपालयन्बो, एत्थ दितो- एगे आयरिया ते चायणाए संता परितंता सज्झाएवि असज्झाइयं घोसेउमारद्धा, नाणंतराय बंधिऊण कालं काऊण देवलोगं गया, तओ देवलोगाओ आउक्खएणं चुओ, आभीरकुले पच्छायाओं, भोगे भुंजर, अण्णदा से धूया जाया, सा य अतिरूवरिसणी, ताणि य पच्चतिगाणि गोचारिणिमित्तं अन्नत्थं गच्छति, तीय दारियाए पिउणी सग पुरओ गच्छइ, सा य दारिया तस्स सगडस्स घुरतुंडे ठिता बच्चइ, तरुणइन्भेहिं चितियं समाणाई काउं सगडाई दारिय पेच्छामो तेहिं सगडा उप्पण खेडिया, बिसमेण भग्गा, तओ लोगेण तीए दारियाए णामं कथं असगडा, ताए असगडाए पिया अरागडपियति, तओ तस्म तं चैव वेरग्गं जायं तं दारियं एगस्स दाऊण पव्वइओ, जाव चाउरंगिज्जं ताब पढिओ, असंखए उद्दिहे * तं नाणावणिज्जं से कम्मं उदिष्णं, पढंतस्स न किंचिठाइ, आयरिया भणति छद्वेणं अणुण्णविहिर, तओ सो भणइ एतस्स केरिसो जोगो?, आयरिया भणीत- जाव न ठाइ ताव आयंबिलं कायव्वं, तओ सो भणइतो एवं चैव पढामि, तेण य तहा पढ़तेण वारस रुवाणि चारसहिं संचच्छरेहिं अधीयाणि ताव से आयंबिलं कयं तं च णाणावरणिज्जं कम्मे खीणं, एवं जहा असगडपिताए | आगाढो जोगो अणुपालिओ तहा सम्म अणुपालयन्धं उवहाणित्ति गयं ॥ इदाणिं अनिण्हवणेति, जं जस्स समासे किंचि सिक्खिय तं तदेव भाणियच्वं, जो वाणायरियं निण्हवइ सोण इमं परं च लोगमाराहेइ, एत्थ उदाहरणं एगस्स महावियस्स खलुरमंड विज्जासामत्थेण आगासे अच्छा, तं च एगो परिव्वायओ (विज्जत्थमुवयरइ बहिं उपसंपज्जिऊण तेण सा विज्जा लद्धा, ताहे अण्णत्थ गंतुं तिदंडणागासगएण महाजणेण पूइज्जइ, रण्णा पुच्छिओ- भगवं ! किमेस विज्जातिसजाते है, सो भगड़ विज्जाविसओ, कस्स सगासाओ गहिओ १, सो भइ-हिमवंतफलाहाररूस रिसियो समासे अहिज्जिओ, एवं वृत्ते समाणे तं निदंड
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ज्ञानाचारः
॥१००॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
11
सूत्रांक
गाथा
||१७३१||
IA खंडत्ति पडियं, एवं जो अप्पागमो आयरिओ सो ण निडवेयब्बो, अणिण्हवत्ति गयं याणि बंजणेसि दारं, तस्थ वंज-INiचारित्राश्रीशवैकालिक
राणाणि अक्खराणि भणति, तेहिं अक्खरेहिं णिफण्णं मुत्तं तं च मुलं पागतं सायं करेइ, यथा धर्मो मङ्गलमुत्कृष्ट, एवमादि, अहवामाचार:
जाण अक्स " तस्स अण्णाणि बंजणाणि करेइ. जहा 'पुण्णं कल्लाणमुक्कोस, दवासवरनिज्जरा, बंजणभेदे अस्थमेओ तओ मोक्खाभावी निरत्थाद। अध्ययनाय तो दिक्खा, तम्हा अण्णाणि वंजणाणि ण कायवाणि. बंजणोत्त दारं गयं ॥ इयाणिं अस्थति दारं, तेसु चेव वंज
1णेस अण्णमस्थं वियपति, जहा 'आवती केयावती लागसि विप्परामुसंती' एतस्स सुत्तस्स अत्थं विसंवयावेद जहा आवंती-बिसयो 18 ॥१०॥8 तत्थ केयावती नाम (रज्ज) वेता णाम कूवे पडिया, तं लोगो विप्परामुसइचि बुत्तं भवइ, एरिसो अत्यविसंवादो ण कायचो,
अत्थेत्तिगयं ॥ इदाणिं उभयत्ति, जस्स सुचपि अत्थोचि गस्सइ तं उभयं भाइ,जहा-धम्मो मंगलमुक्किट्ठ,अहिंसा संजमी 14 तको । देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥ अहागडेसु रीयंति' एवमाइ मुत्तत्थविसंवादो इमो-इहाकडेहि रंधति, कडेहि रंधगारिओ । 'राबी भत्ते सिणाणे य एतस्स इमो 'रणो मतसिणो जत्थ, भदगो तत्थ विज्जति' एवमाइसु अत्यविसंवाओ ण कायम्बो, सम्मत्तो य णाणायारो॥
इयाणि चरित्तायारो, सो य अट्ठविहो, तं०-'पणिहाणजोगजुत्तो',गाहा (१८७-१०१ ) तत्थ पणिघाणं णाम अज्झब-18 साणं, तेण अज्झवसाणयजोगेण जुत्तो, मेररक्षणति बुत्तं भवद, अहवा तिबिहेणवि करणणं जुत्तो पणिहाणजोगजुचोति, १०१॥ मणियं च गोविंदवायएहि-कायेविय अज्सप्पं सरीरवायासमपिणयं चेव । कायमणसंपउत्तं अज्झायं किंचिदाहंसु ॥१॥ तत्थ समितीओ इरियासमितिमाझ्याओ पंच गुत्तीओ तिष्णि मणगुत्ती चयगुती कायगुती, सीसो आह- समिइगुचीण द्र
दीप अनुक्रम [१७-३१]
... भावाचार-मध्ये चारित्राचारस्य प्रणिधान आदि अष्ट-भेदा: कथयते
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
40%
सूत्रांक
श्रीदश- वैकालिक
चूर्णी
३ अध्ययने
गाथा
॥१०२॥
Akock
||१७३१||
को पतिविसेसो', आयरिओ भणइ-जं जिणावदिद्वेण विहिणा मणबयणकायजोगेहि य पवत्तणं तमिरियासमितिमाइयाओ पंचतपोवीर्यासमितिओ निष्फज्जति, गुत्तीओ पुण मणक्यणकाइएहिं जोगेहि अप्पवत्तमाणस्ण संजमो निव्वणो भवह, एस चरित्तायारोह चारौ सम्मत्तो॥
इयाणिं तवायारो 'पारसविहंमिवि तवे सभितरवाहिरे कुसलदिढे। (अगिलाइ अणाजीवी नायब्बो सो ४ तवायारो) णवि अस्थि णविय होहिति सज्झायसमं तवोकम्मं ॥१॥ (१८९-१०१) तवो बारसविहो जहा दुमपुष्फियाए तहा भाणियग्यो, कुसलदिडो णाम तित्थगरदिवोलि वुत्तं भवइ, अगिलाए नाम न रायवेट्ठी व मण्णह, अणाजीची नाम | तमेव तवं णो आजीवह, कहं नाम एतेण अण्णपाणं उपज्जेज्जत्ति, एस तवायारो भणिओ।।
इदाणि वीरियायारो भण्णइ, छत्तीसाए कारणेहिं असढा उज्जमइ एस वीरियायारो,ताणि पुण छत्तीस कारणाणि इमाणि त०अट्ठविहो दसणायारो अट्ठविहो जाणायारो अढविहो चरित्तायारो यारसविहो तवायारोत्ति, एत्थ वीरियायारे इमा गाहा-'अणिगूहियबलपिरिएण' गाहा (१८९-१०१) पठियसिद्धा चव। वीरियायारो समत्तो, तेण समत्तो य आयारो॥
इदाणिं कहा, सा य कहा चउबिहा, तं०-'अथकहा कामकहा धम्मकहा एव मीसिया य कहा' (१९०-१०६) एतेसिं चउण्ई कहाणं एकेका अणेयविहा भवति, तत्थ अत्थकहा नाम जा अत्थनिमित्तं कहा कहिज्जा, सा अत्थकदा इमाए | गाहाए अणुगंतव्या, तं. 'विज्जा सिप्पे' गाहा, (१९११०६) तत्थ पढम विज्जत्ति दारं, जो विज्जाए अत्थं उपज्जिणिज्जद, ८॥१०२।। जहा एगेण विज्जा साहिया सा तस्स पंचग विहाइयं देइ, जहा वा सच्चइस्स विज्जाहरचकबहिस्स विज्जापहावेण भोगा उव-IP
दीप अनुक्रम [१७-३१]
... अत्र कथानां अर्थकथादि चत्वारः भेदानां वर्णनं क्रियते
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक 1, मूलं H/ गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
-
चूर्णी
गाथा ||१७३१||
श्रीदशणया, सच्चइस उप्पची जहा य सङ्गकुले बडिओ जहा य महिस्सरो णाम कयं एवं निरवसेसं जहा आवस्सए जोगसंगहेसु तहाअर्थकथा कालिक भाणियन्न, बिज्जत्तिगयं । इदाज सिप्पंति, सिप्पेण अस्थो उवज्जिणिज्जई, एत्थ उदाहरणं कोकासो, जहा आवस्सए,
सिप्पेत्ति गयं । इदाणि उवापत्ति, तत्थ दिवो चाणको, जहा चाणकण णाणाविहेहिं उबाहिं अत्यो उबज्जिओ, कहा अध्ययने दो मज्झ धाउरचाओ' एयपि अक्खाणयं जहेब आवस्सर तहा भाणियब्वं, उवांएत्ति गयं । इदाणि अणिव्वद सचए
य एकमेव उदाहरणं मम्मको पणिओ, सोऽवि जहा आयस्सा तहा इहपि बत्तब्बो ॥ इयाणि दक्वतं, एत्थ गाहा 'दक्ख॥१०॥
तणये पुरिसस्स' (१९३.१०७) एत्थ उदाहरणं जहा भदत्तो कुमारो अमच्चपुत्तो सिट्टिपुत्तो सत्थवाहपुत्तो य, एते चउरोवि परोप्परं उल्लाउँति, जहा को भे केण जीवई , तत्थ रायपुत्तेण भणियं-अह पुण्णणं जीवामी, अमच्च पुत्तेण भणियं-अहं बुद्धिए जीवामि. सिट्टिपुत्तो भणई-अहं रूपस्सित्तणेणं जीवामि, सत्यवाहपुत्रेण भणियं-अहं दक्खत्तणेण जीवामि, ते भणंति-अण्णत्थ गंतुं विष्णासेमो, ते गया अण्णं नगरं जत्थन नजंति, उज्जाणे आवासिया, दक्खस्स आएसो दिण्णो, सिग्छ भनपरिव्ययं आणेहि, | सो वीहिं गतुं एगस्स धेरवाणियगस्स आवणे थिओ, तस्स बहुगा कइया एंति, तदिवसं कोषि ऊसयो, सो ण पहुप्पति पुढए बंघेउं,
तत्थ सत्थवाहपुत्तो दक्खत्तणेण जस्स जं उपजुज्जइ लवणतेल्लषयगुडसुंठिमिरिय एवमादि तस्स तं दिति, पइविसिहो लाभो लद्धो, सतहो भणइ-तुब्भे आगंतुगा उदाहु वत्थध्वया', जइ आगंतुया तो अम्ह गिहे आसणपरिग्ग करेज्जह, सो भणइ-अण्णे मम सहाया।
उज्जाणे अच्छंति, तेहिं विणा न मुंजामि, वेण भणियं-सब्वे एंतु, तेण य तेर्सि भत्तसमालहणतंबोलाइ उवउत्तं, तं पंचण्इं रूवयाणं, द बिइयदिवसे रुवस्सी बणियपुत्तो चुत्तो अज्ज तुमे दायवो भत्तपरिचयओ, एवं भवउत्ति सो उद्देऊण गणियापाडगं गओ अप्पयं द्र
E0%)
दीप अनुक्रम [१७-३१]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश-
-
चूणा ३ अध्ययने
गाथा ||१७
॥१०४॥
मंडेउ, तत्थ य देवदत्ता णाम गणिया पुरिसवेस्सिणी बहहिं रायसेविपुत्तादीहिं मग्गिता, णेच्छद, तस्स तं रूवसमुदयं दळु खुभिया,
अर्थ कथा पडियदासियाए गंतण तीय भाऊए कहियं जहा दारिया सुंदरजुवाणे दिट्टि देह, तओ सा भणइ-एवं मम गिह अणुवरोहेण एज्जह, हेव भत्तवलं करेज्जह, तहेवागया, सतियो उपयोगो की, तइयदिवसे बुद्धिमतो अमच्चपुतो संदिट्ठो-अज्ज तुमे भत्तपरिब्धयओ दायनो, एवं भवउत्ति सो गओ करणसालं, तत्थ य सतिओ दिवसो बबहारम्स छिज्जंतस्स, परिच्छेद ण गच्छइ, दो सबत्तीओ, तासि भत्ता उबरओ, एकाए सुओ अथि, इतरी अपुता, सा तं दारयं नेहेणं उपनरइ, भणइ य-मम पुनी, पुत्तमाया भणइ-मम, तार्सि न परिमिछज्जा, तण भणिय- अहं छिदामि ववहार, दारगं दुहा कज्जउ, देब्बपि दुहा एव, पुत्तमाया भणइन में दवेण कज्ज, दारगो तीएवि भवउ, जीवंत पासीहामि तं, इयरी तुसिणीया अच्छइ, पुनो ताहे पुत्तमायाए दिण्णो, तहेव सहस्स उपयोगो, % चउत्थे दिवसे रायपुत्तो भपिओ- अज्ज रायपुन ! तुन्भेहिं पुष्णाहिएहि जोगचरण बहियचं, एवं भवउत्ति, तओ रायपुत्तो तेसि अंतियाओ निग्गंतुं उजाणे ठिओ, तम्मि य नगरे अपुचो राया मओ, मि रुक्खछायाए रायपुत्लो निवणो सा ण ओयत्तति, तआ आसण तस्साचार ठाइऊण हामय राया य अभिसिनो, अणगाणि सनसहम्माणि जाताणि, एवं अन्धुष्पनी भवर, दवावला त्तणत्ति दारं गतं । इयाणि सामभेददंडउयप्पयाणेहिं चउहिवि जहा अन्थो विढप्पड़, एत्थ उदाहरणं सियालो, नेणा भमंतण हत्थी मओ दिट्टो, सो चितइ-लद्धा मए, उपआएण ताव णिच्छदेण खाइयवो जाब सीहो आगओ, तेण चितिष- सचिदृण ठाइयब एतम्स, तण भणिय- अरे भानिणज्ज ! अन्छिज्जति', सियालेण भणिय- आमं माम!, सीहो भणइ-किमयं मयंति, १०४॥ सियालो भणइ- हन्दी, ऋण मारिओ, बग्घेण, मीही चिंतेइ- कदमहं ऊणनातीएण मारियं भक्खयामित्ति गओ सीहो, नवरं
दीप अनुक्रम [१७-३१]
M
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक 1, मूलं H/ गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
-
गाथा
चूणों
||१७३१||
श्रीदश
वग्धी आगओ, तस्स कहिय सीहेण मारिओ, भणिओ य-सो पाणिय पाउं णिग्गा, वग्यो नट्ठो, एस भेओ, जार कागो आगओ, कामकथा बैंकालिकतेण चिंतिय-जह एतस्स न देमि तो काउ काउति वासियसद्देण अण्णे कागा एहति, तेसि काऊरगस देणं सियालादि अण्णे या
बहोरिमिते केत्तिया यारेहामि, तो एतस्स उपप्पयाणंदेमि, तेण तओ तस खंडं घेत्तण दिण्णं, सा तं धनुगआ जाय। ३ अध्ययने
सियालो आगओ, तेण णायमेतस्स हढेण मारण करेमि, तेण भिउडि काऊण बेगो दिण्णो, णडो सियालो, उक्तंच 'उत्तम प्रति
पानेन, शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन, समतुल्यं पराक्रमः ॥१॥' अत्थकहा गता। इदाणि कामकहा- 'रूवं ॥१०५॥
वयो य पैसो' गाहा (१९४-१०९) रूपकहाए वसुदेवबंभदत्ता, रूवेत्तिगयं । इयाणिं वएत्ति, तत्थ जइ तरुणे वए बट्टा तो, कामिज्जब, इतरहा न कामिज्जइ, वएत्तिगतं । इदाणिं वेसोत्ति, वेसो नाम वत्थाभरणादीहिं कीरइ, तेहिं जब उववेओ तो कमणीओ भवति, एत्थ उदाहरण- राया पासादगओ पलोएतो अच्छद, तेण य कालमहिला कुसुभरत्तेहि पाउएहिं हरियसले चमकती दिवा,तओ सो अझुववण्यो,मणुस्सा पेसिया आणेह एयं,सा आणिया जाव विरूवा, पडिविसज्जिया. राइणा भणिय-'सुमह-16 ग्योवि कुसुभो धेचव्यो पंडिएण पुरिसेण । जस्स गुणेण महिलिया,होइ सुरुवा कुरुवाविशा'वेसोत्तिगयं । इदाणि दक्विण्णन्ति,दाणं देंतोराया दाएहि विख्यो अवयस्थोऽवि कामिज्जइ, एस दक्षिणकहा, एस्थ अयलमूलदेव उदाहरणं, अपलो मूलदेवी व देवदत्ताए गणियाए लग्गा, अपलो देइ, मूलदेवो एमेव विसयसिक्खाहि, कुणी विपरिणामेइ ताए वणिज्जतं, तीए कुट्टिणी भणिया-अयलं ता F ||१०५॥
भणासु-उच्छु मे देहि, तेण से सगडं भरेऊण पेसियं, तओ सा भणइ-किं मणे हस्थिणी जेण सगड़े मज्झ भरियं पेसेइ, मूलदेवस्स | ट्रा पसियं, तेण उच्छुगंडियाओ छोडेऊणं चाउज्जाएक वासेत्ता तत्थेव सूर्य लाएता पेसियाओ, एवं कुट्टिणी पत्तियाषिया, गंध-1G
दीप अनुक्रम [१७-३१]
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(४२)
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सूत्रांक
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गाथा
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दीप अनुक्रम [tb-31]
भाग-6 "दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [३] उद्देशक H. मूलं H / गाथा: [१७-३१ / १७-३१] निर्बुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५] आयं [४]...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूणों
३ अध्ययने
॥१०६ ॥
ब्वाईणि सिक्खाए चैत्र पति, सिक्खत्ति गयं ॥ इदाणिं दिवत्तिदारं, जहा कोई कस्सई कामसंसिये कहं कहे जहा मए एवंविधा नारी दिट्ठा जहा णारओ कण्हस्स रूविणीं कहयह, दित्ति गयं ॥ इदाणिं सुयंति, पउमनाभो राया णारयस्थ सुणेऊणं पुब्बसंगइयं देवमारा हेऊण तस्स परिकहेइ एवगुणजुत्ता द्रौपदी पंडवेहिं सद्धि कीडति सुरति गतं ॥ इदाणिं अणुभूयेत्ति दारं, जहा तंरगवतीए अप्पणो चरितं कहियं, अणुभूपत्ति गतं ॥ इदाणिं संथवो, सो इमाए गाहाए अणुगंतव्बो-'संदे तथाउ पेम्मं पेम्माउ रती रतीउ वसंभो । वीसभाओ पणओ पंचविहं बहुए पेमं ॥ १ ॥ " संथवो गओ, गया कामकहा । इदाणिं धम्मकहा- 'धम्मक हा बोद्धव्वा' गाहा ( १९५ - ११०) तत्थ धम्मका चउव्विहा, तं० अक्खेवणी विक्खेवणी संवेयणी निब्बेयणी यति, तत्थ जाए कहाए सोयारो अक्खिप्पर सा अक्खेवणी, विविहमनेकप्रकारं क्षिपति या कथा मर्ति सा विशेषणी, संवेगजणणी संवेदणी, निव्वेयजणणी निव्वेयणी, तत्थ अक्खेयणी कहा चउब्विहा, तं० 'आधारे गाहा' (१९६-११०) आयारक्खेवणी बचहारक्खेवणी पण्णत्तिक्खेचणी दिडिवायक्खेवणी, तत्थ आयारक्खेवणी णाम आयारेण अक्खिवंति जओ साहुषो अण्डाणलोयलद्भावल द्वित्तं एवमाणि परमदुकराणि आयरंति अड्डारसीलिंगसहस्सधारिणो भगवंतोत्ति, आयारक्खेवणी कहा गता । इयाणि बबहा रक्खेवणी, जाहे सोतारस्स आयारण अक्खिचा भती भवति ताहे ववहारक्खेवणीकहं कछेद, अहा एवमबि दुरणुचरे आयारे ठियप्पाणो साहुणो जइ कहवि किंचिदणायारमायरति इयाणि ताहे जहा लोगे अववहारिस्स दंडो कीरह ताहे तेसिपि पायच्छित्ता दंडो कीरह, एसा बबहारक्खेवणी, जहा कस्सइ कहिंचि अत्थे संसओ उप्पण्णो तत्थ साहुणा णिध्वियारं मधुरं सउदायं च पण्णवणमभ्गं अणुम्म्म्रुयंतण पण्णलीबागरणेहिं सोयारो अक्खिवियब्वा पण्णत्तीकखेवणी कहा गया । इयाणिं दिट्टिवायक्खेवणी, जाहे
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धर्मकथा
॥१०६ ॥
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
-
गाथा
||१७३१||
श्रीदश-14 कोइ सोतारो सुहुमाए दवचिताए वा सोउमरिहे ताहे तस्स सोयारस्स मती वादेहि अक्सिप्पड़, जेण वा दिविवाएण हेउणा-धर्मकथा वैकालिका अक्षिप्पड़ सा य दिठिवायक्खेवणी, एसा अक्खेवणी कहा, तारिसेण अण्णण वियप्पेणं इमाए गाहाए भण्णति 'विज्जा चरण
चूर्णी चितबो' गाहा, (१९७-११०) तत्थ नाणस्स सामत्थं कहयइ, जहा अंधगारे बरमाणा भावा पदीवेण सचक्खू पासइ, एवं ३ अध्ययने । नाणं पुरिसस्स दीवभूतति, भणियं च--'पेच्छइ जहा सचक्खू पुरिसो दीवेण अंधयारेवि । जिणसासणदीवण उ पासति (नाणी
सयल भावे) ॥१॥" एवं गाणसमत्थदीवएण सोयारस मती अक्खिप्पड़, एसा विज्जाअम्वेवणी गया ॥ इदाणिं ॥१०॥
दाचरणअक्वेवणी २ णाम एवं साहुणो सरीरवि अपडिबद्धा भवंति, (साहुणो छडमदसमदुवालसाई तबो जीए वणिज्जइ)
चरणअखेवणी २ णाम एवं माहो PIपुरिसगारो णाम अणिमूहियबलवीरिएहिं संजमजोगो कायच्चो, समितीओ पंच गुत्तीओ तिण्णि, एमाओ विज्जाचरणाणि पुरिस-11
कारसमितीगुत्तीपज्जवसाणाणि पंचवि कारणाणि जाए कहाए उवदिस्संति सो कहाए अक्खेवणीए रसोत्ति, रसो नाम लक्षणं भण्यते, एवं अक्स्वेचणी कहा गता ॥ इदाणि विक्वेवणी, सा चउम्विहा, तं०- ससमयं कहेता परसमयं कहेइ परसमय
कहेता ससमयं कहेह (पढमा विखेविणी, सम्मावादं कहेता गुणे य से उवदंसेइ (मिच्छावायं कहेता दोसे य तस्स उवदसेइ) द एसा वितिया विक्खेवणी गया, इदाणि तइया विक्खेवणी भण्णति, परसमयं कहेचा तेसु चेव परसमएसु जे भाषा जिणप्पणी
तेहिं भावेहि सह विरुद्धा असंता चेव वियप्पा ते पुचि कहेत्ता दोसाइ तेसि भणिऊण पुणो जिणप्पणीयभावसरिसा घुणक्खरमिव केवि सोहणा भणिया ते कहेइ, अह्वा मिच्छावादो नत्थितं भण्णइ,सम्मावादो अस्थित्वं भणति तत्थ पुब्बि नाहियवाईणं दिडीओ कहित्ता पच्छा अस्थित्तपत्रवाईणं दिडीओ कहेइ, एसा तइया विक्खेवणी गया, इयाणि चउत्थी विस्खेवणी, सावि
दीप अनुक्रम [१७-३१]
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
गाथा
||१७३१||
श्रीदश- एवं चेव, णवरं पुवि सोमणे कहेइ पच्छा इयरेनि, एवं विखेवणी गया ।। इयाणि इहलोगसंवयणी, जहा सव्वमेव धर्मकथा बैकालिक
माणुसत्तण असारमधर्व कदलीथंभसमाण परिसं कह कहेमाणो धम्मकही सोतारस्स संवेगमुप्पाएइ,इहलोगसंवेयणी गताइवाणिं चूणों
परलोगसंवेदणी,जहा इस्साविसादमदकोहमाणलोभादिएहिं दोसेहि। देवावि समभिभूया,तेसुचि कत्तो सुई आत्थि॥१॥इट्ठ जणधिप्प३ अध्ययन
ओगो चेव चयं चेप देवलोगाउाएतारिसा णिसग्गे देवावि दुहाणि पावंति।शाजइ देवेसु एयारिसाई दुक्खाई पाविति नरगतिरिएसु पुण ॥१०॥
का कहा?, एसा परलोगसंवेदणी कहा गया। इदाणि सुभाण कम्माण विवागदरिसावणेणं संवेग सोयारस्स उप्पाएइ, जह इहलोएवि तेयाइओ लद्धाओ भवति सुभेसु कम्मसु वट्टमाणस्स,तं. 'बीरिय विउब्बण' गाहा(२०२-११०)तबोजुत्तस्स साहुणो आगासगमणादीवीरियमुप्पज्जति जंघाचारणलद्धी विज्जाचारणलद्धी वा एवमादी, तहा विउवणलद्धीवि तवसामत्येण भवति, गाणड्डी इह लोए भवइ, भणिय च-'पभू भंते ! चोदसपुग्वी घडाओ घडमहस्सं विउव्बित्तए' एवमादी, तहा चरणद्धीवि जहा 'ज अनाणी
कम्म खवेह पहुयाहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ उस्सासमेत्तेण ॥ १॥ देसणिद्धी जहा-'सम्मदिड्डी जीवो विमाणविज्ज न बैधए आउं । जइ य न सम्मत्तजढो अहव न बद्धाउओ पुचि ॥१एवमादीयाओ कहाओ कहेंतो संवेगणि कह Iकतित्ति,संवेगणी कहा गया । इदाणि णिव्वेयणी, सा चउबिहा-त-इहलोए दुरिचण्णा कम्मा इहलोए दुहविवागूसंजुत्ता
भवति, चउभंगी, पर इह लोए दुश्चिण्णा कम्मा इहलोए दुहविवागसंजुत्ता भवंति , जहा चोराणं परदारियाणं, एबमाई, एसा
पढमा निब्वेदणी गता।। इदाणि वितिया णिब्वेदणी, इहलोए दुच्चिण्णा कम्मा परलोए दुहविवागसंजुत्ता भवंति, जहा १०८॥ IMणेरइयाणं अण्णमि कर्य कर्म निरयमये फलं देह, एसा पितिया निब्बेयणीकहा, याणिं तइया णिब्वेदणी कहा--परलोगे2
दीप अनुक्रम [१७-३१]
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आगम
(४२)
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सूत्रांक
H
गाथा
||१७
३१||
दीप
अनुक्रम [१७-३१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णों
३ अध्ययने
॥१०९॥
दुच्चिष्णा कम्मा इहलोगे दुहविवागसंजुत्ता भवंति कह १, जहा पावपसत्तिमेतो बालप भितिमेव अंतकुलेसु उप्पण्णा विययकोढाईहिं रोगेहिं दारिद्देण य अभिभूया दीसंति, एसा तया निव्वेयणी ॥ इयाणि उत्था णिब्बेदणी, परलोए दुच्छिष्णा कम्मा परलोए चैव दुहविवागसंजुत्ता भवंति कहूं ?, जहा पृथ्वि दुच्चिष्णेहिं कम्मेहिं जीवा संडास तुंडेहिं उप्पज्जेति तओ ते नरयपाउग्गाणि कम्माणि असंपुष्णाणि ताए जातीए पूरेति, पूरेऊण नरगभवे वेदेति, एसा चउत्थी णिव्वेदणी ॥ एत्थं इहलोगो वा पर लोगो वा पण्णवगं पटुच्च भवति, तत्थे पण्णवगस्स मणुस्सभवो इइलोगो, अबसेसाओ तिष्णि पगडीओ पर लोगो, एताए निव्वेयणीए कहाए इमा रसगाहा- 'पावाणं कम्माणं' गाहा ( २०३-११० ) पढिया, चउण्डं कहाणं कस्स का पढमं कहेयव्वाः, एत्थ भष्णइ-वेणइय णइगस्स कहा वेयणियगो नाम जो पढमताए उबट्ठाइ ममं धम्मं कहेह, तस्स अक्खेवणी कहेयच्चा, तो ससमयगहियस्स पच्छा विक्खेवणी कहिज्जेह, किं कारणं १, जम्हा अक्खवणीए जीवा अक्खित्ता समाणा सम्मतं लभेज्जा, विक्खेवणीए पुण भयणिज्जा, गाढतरागं च मिच्छतं भवह, कई ?, जो आगाढमिच्छदिट्ठी तस्स ससमयो वणिज्जंतो रोयह, गाढावगयत्तणेण पुण तस्स दोसा कहिज्जमाना ण रोयंति, ण य सहहह, सुहुमत्तणेण ग दोसे अबुज्झमाणो अदोसे देव मण्णज्जा, इच्चेएण कारण भष्णति जहा गाढतरागं मिच्छेति, धम्म कहा सम्मता || इवाणि मीसिया कहा भण्णइ 'लोइयवेइय'० गाहा (२०८-११४) लोहयोइयसामइएस सत्थेसु जहिं धम्मत्यकामा तिष्णवि कहिज्जंति सा मीसिया कहा, तत्थ लोइएसु जहा भारहरामायणादिसु वेदिगेसु जन्नकिरियादीसु सामइमेसु तरंगवहगाइस धम्मत्थकामसहिताओ कहाओ कहिज्जेति मीसिया कहा संमत्ता । इदाणिं कहाप्रसंगेण चैव चिकहा- भराइ- जहा विणट्ट
... अत्र मिश्रकथा एवं विकथायाः स्वरुपम् वर्णयते
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धर्मकथा
॥१०९॥
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
गाथा
AtE-
||१७
श्रादश- सीला नारी चिनारी एवं कहालक्खणाओ विणहत्ति विकहा भवइ,सा य इमा विकहा,तं. 'इस्थिकहा'गाहा(२०९.११४)मणितब्धा मिश्रा वकालका विकहा गता ॥ जातो विश्ववणादियातो चचारिवि कहाओ ताओ पुरिसंतरं पप्प अकहाओ य कहाओ भवंति, कहा
कथाचूर्णी JI जहा दुवालसंग गणिपिडग मिच्छादिहि पप्प मुतअनाणभावेण परिणमह, सम्मदिदि पप्प सुतनाणभावेण परिणमति, तहा।
विकथाs३ अध्ययने कहाऔषि पण्णवयं पडरूच एवं विविहाउ भांति, एत्थ गाहा-'एता चेव कहाओ'गाहा (२१०-११४) भणितम्बा, तस्थ अकहा।
दिकथास्वरूपं ॥११॥ ताव एवं भवति '
मिछत्तं वेदेतो जे अन्नाणी कहं परिकहेति' गाहा (२११-११४) कहा पुणेवं भवति 'तवसंजम' गाहा (२१२-११४) पढियब्बा, पिकहा पुण एवं भवाइ-जा संजमोओ) पमत्ता' गाहा (२१३-११४) भणियव्वा । इदाणि संजमगुणडिएण केरिसा ण कहेयब्बा, केरिसा वा कद्देयध्यात्ति, तत्थ इमा न कहेयव्या-'संगाररसुत्तइया' गाहा (२१४-११४) भाणितब्बा, इमा पुण कहेयव्या-'समणेण कहेयम्बा' गांहा (२१५-११४) पढितब्बा, 'अस्थमहती गाहा (२१६-११४) भणितब्बा, 'वत्तं देसं काले' गाहा ( २१७-११४) कंठ्या, कहा सम्मत्ता, समत्तो य णामणिप्फण्यो णिक्खयो । इयाणि सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारेयव्वं, अक्खलियं अमिलिय अविच्चामेलिय जहा अणुयोगदारे, तं चिमं सुत'संजने सुट्टियप्पाणं, विष्पमुक्काण
ताइणं । तेसिमेयमणाइपणं, जिग्गंधाण महेसिणं (१७११५) 'यम उपरमे' धातुः, अस्य धातुसंज्ञा, संपूर्णस्य अपप्रत्ययः, र अनुबंधलोपः परगमन संयमः, तस्थ संयमो सत्तरसविहो हेवा दमाफियाए वणओ. 'अत सातत्यगमने' धातुः धातुसंज्ञा, सात्यजातिभ्याम्मनिन्मनिणा'चिति ( उणादि ४) मनिण प्रत्ययः, अनुबंधलांप: वृद्धिः आरमा, तस्मिन् संयमे शोमनन प्रकारण स्थितः ॥११०॥
आत्मा येषां ते भवंति संयमे सुस्थितात्मानः,'मुल्ल मोक्षणे'धातुः, अस्य निष्ठाप्रत्ययांतस्य विप्रपूर्वस्य च विप्रता, विषमुकाण विधि
दीप अनुक्रम [१७-३१]
KARKI
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक , मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति : [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा
K
11१११॥
||१७३१||
4
श्रीदश- हेण चाहिरमंतरेण गंथण मुकाणं, निग्गंथाणंति बुतं भवइ, 'त्रै पालने धातुः, 'आदेच उपदेशेऽशिति' (पा६-१-४५) आकार, मिश्रा कालिका अस्य तच प्रत्ययः, शत्रो: परमात्मानं च त्रायंत इति त्रातारस्तेपात्रातूणां, तारेतित्ति तारिणो, ते य तारिणो तिविहा भवंति, तं०-10 कथाचूर्णी
आततायारो परतायारो उभयतातारीचि, तत्थ आयतातारो पचेयबुद्धा, परवातारो तित्थकरा, कई, ते कयकिञ्चावि भगवतो विकथाs३ अध्ययने । भबियाणं संसारसहपारकंखिणो धम्मोवएसेण वारयति, चांदी भणइ-अभयांवि पब्बया संतानो किं तातिणो भांति, कथास्वरूप
आयरिओ भणइ-तेहिं अंघलगपदीवधारितुल्लेहिण एत्थ अधिकारी, उभयतातिणोथेरा भण्णंति, 'तेसिमेयमणाइवणं' तेसि पुननिद्दिडाणं संजमेठिताणं वाहिन्मंतरगंथविमुकाणं आयपरोभयतातीणं एयं नाम उवरि एयंमि अज्झयणे मण्णिाहिति एवंद जेसिमणाइण्णं, अणाहणं णाम अकप्पणिज्जति बुनं भवइ, अणाइण्णग्गहणेण जमेतं अतीतकालग्गणं करेह त आयपरोभयतातीण। कीरइ, किं कारण?, जइ ताव अम्ह पुग्वपुरिसेहिं अणातिण्णं तं कहमम्हे आयरिस्सामोनी, निग्गंधग्गहणेण साहण णिदेसो कओ, महान्मोक्षोऽभिधीयते, महत्पूर्वः 'इषु इच्छायां' धातुः, महांत एपितुं शील येषां 'सुप्यजाती णिनिस्ताच्छील्ये' (पा. ३२-२८)।
इति णिनि प्रत्ययः, उपपदसमासे अनुबन्धलोपः, उपधागुणः 'वृद्धिरेची' ति (पा. ५-१-८८) वृद्धिा, ते महषिणो, मग्गटूति वा एसति वा एगहा, तेषां महैषिणां एतत्सर्वमनाचीर्ण यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामो, आह चMIXउसियंरकीयगडं२,णियागं३अभिहडाणिश्य राय भत्ते सिणाणेय,गंध७मले८य वीयणे।।(१८११६)उद्दिस्स है।
कज्जइ तं उद्देसियं, साधुनिमित् आरंभोत्ति चुत्तं भवति, 'डुक्री द्रव्यविनिमये' धातुः अस्य तुम्प्रत्ययः अनुबंधलोषः गुणः केतुम् अन्यसत्कं यत्क्रेतुं दीयत की तकृतं, नियागं नाम निययत्ति बुत्तं भवति, तं तु यदा आयरेण आमंतिभो भवइ, जहा भगवं!
M- R
दीप अनुक्रम [१७-३१]|
-
OCKSty
... अत्र औदेशिक-आदि दोषाणां वर्णनं क्रियते
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
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गाथा
तुम्भेहिं मम दिणे दिणे अणुग्गहो कायव्यो तदा तस्स अब्भुवगच्छंतस्स नियाग भवति, ण तु जत्थ अहाभावेण दिणे दिणे चकालिका भिक्खा लब्भइ,'णी प्रापणे' धातुः, निष्ठाप्रत्ययान्तस्य नीतं, अभिहडं णाम अभिमुखमानीतं. कह , सग्गामपरग्गामनिसीहा
ताणोनि |भिहडं च नोनिसीहं च, अभिहडं जहा उवस्सए एव ठियस्स गिहतराओ आणीय एवमादी, एत्थ सीसो आह- अभिहडाणि यत्ति ३ अध्ययने
| एत्थ बहुवयणअभिधाण विरुद्ध चेव, आह च-अभिहडाणिचि बहुषयणण अभिहडभेदा दरिसिता भयंति, कही, 'सग्गामपरम्गामे ॥११२॥ निसीहामिहडं च णोनिसीहं च । निसीहाभिहड धेष णोणिसीई तु चोच्छामि ॥ १॥ एयाए गाहाए वक्खाणं जहा पिंड-15
ाणिज्जुत्तीए,चकारेण अण्णाणिवि एवमाइयाणि सहयाणि भवति, रायभत्ते सिणाणे य'तत्थ रायम चउनिहं, तं०-दिया मेण्हिता | बितियदिवसे सुंजति१ दिया घेत्तुं राई मुंजइ राई घेत्तु दिया संजह राई घेत्तुं गई मंजइट, सिणाणं दुविइं भवति,त०-देससिणाणं ४
सबसिणाणं च, तत्थ देससिणाण लेवाडयं मोत्तूण सेस अच्छिपम्हपक्खालणमेत्तमवि देससिणाणं भवइ, सव्वसिणाणं जो ससीसतो. पाण्हाइ, 'गंधमल्ले य बीयणे' तत्थ गंधग्गहणेण कोट्टपुडाइणो गंधा गहिया, मल्लग्गहणेण गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमं चउब्धिहंपि । | मलं गहितं, वीयणं णाम घम्मत्तो अनाणं ओदणादि वा तालवेंटादीहिं वीयेति, एयं सिमणाइण्ण | किं च- 'सपिणही १० |गिहिमत्ते११य,रायपिंजे १२किमिच्छए १३॥ संवाहणार४दंतपहोवणा१५य,संपुरुछणावदेहपलोषणा१७य।।(१५-११६)। पा'दुधाव धारणे' धातुः अस्य सन्निपूर्वस्य 'उपसर्गे घोः किः (पा.३-३-९२)इति कि प्रत्ययः, 'आतो लोप इटि चेति (पा ६ ४-५४) | आकारलोपः सनिधिः, तत्थ सन्निही णाम गुडघयादीणं संचयकरणं, गिहिम गिहिभायणंति, 'राज दीप्लो' धातुः अस्य 'कनिन् । युवृषितक्षिराजिधन्विद्युप्रतिदिवः' ( उणादि १ पादः) कनिन् प्रत्ययः अनुबन्धलोफः परगमनं राजन् , तत्थ रायग्गहणेण मुद्धा- ११२ ।
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||१७
N-REHEREMONTRONIENT
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ASA
... अत्र संनिद्धि आदि दोषाणां वर्णनं क्रियते
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [ १७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णां
३ अध्ययने
॥११३॥
मिसित्तरण्णो गहणं, 'पिडि संघाते' धातुः 'इदितो नुम् ' प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः पिंड: राजपिंड, सो य किमिच्छतो जति भवति, किमिच्छओ नाम राया किर पिंड देतो गेण्हंतस्स इच्छियं दलेइ, अतो सो रायपिंडो गेहिपडिसेहणत्थं एसणारखणत्थं च न कप्पड़, संवाहणा नाम चउच्विा भवति, तंजा - अमुहा समुहा तयामुहा रोममुहा, एवं संवाहणं सयं न करेड़ परेणं न कारवेद करें तंपि अनं न समणुजाणामि (इ) दंतप होयणं णाम दंताण कट्ठोदगादीहिं पक्खालणं, संपुच्छणा णाम अप्पणो अंगावयवाणि आपुच्छमाणो परं पुच्छर, पलोयणा नाम ( अद्दागे रूवनिरिक्खणं 'अट्ठावयं' गाहा (२०-११६) अड्डावयं) जूयं भण्णइ, १८ नालियाए पासाओ छोटूण पाणिज्जंति, मा किर सिक्खागुणेण इच्छंतिए कोई पाडेहिति१९, छतं नाम बासायवनिवारणं तं अकारणे घरिडं न कप्पर, कारणेण पुण कप्पति २०, तिमिच्छा नाम रोगपडिकम्मं करेइ २१, उवाहणाओ लोगसिद्धाओ चेव, सीसो आह पाहणागहणेण चैव नज्जइ जातो पाहणाओ ताओ पाएसु भवंति ण पुण ताओ गलए आविधिज्जति, ता किमत्थं पायग्गहणंति, आयरिओ भणइपायग्गहणेण अकल्लसरीरस्स गहणं कथं भवइ दुब्बलपाओ चक्बुब्बलो वा उवाहणाओ आविधज्जा ग दोसो भवइत्ति, किंचपादग्गहणणं एतं दंसेति परिग्गहिया उवाहणाओ असमत्थेण पयणे उप्पण्णे पाएस कायब्वा ण उण सेसकाल २२, जोई अग्गी भण्णह, तस्स अग्गिणो जं समारम्भणं एतमवि तेसिमणाइणं २३ । किंच
सिज्जातरपिंडं च सिलोगो ( २१-११६ ) शी स्वप्ने' धातुः, क्यप्प्रत्ययान्तस्य शय्या, आश्रयोऽभिधीयते, तेण उ तस्स य दाणेण साहूणं संसारं तरतीति सज्जातरो तस्स पिंडो, भिक्खत्ति वृतं भवइ२४, आसंदिग्गहणेणं आसंदगस्स ग्रहणं कर्य, सो य लोगे पसिद्धो २५, पलियंको पछेको भण्णइ, सोवि लोगे पसिद्धो चेव२६, अहवा एतं सुतं एवं पढिज्जर 'सिज्जातरपिंडं च
•••अत्र शय्यातर पिण्डस्य वर्णनं क्रियते
[126]
अनाचीर्णानि
॥११३॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूगों
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गाथा
||१७
श्रीदश- आसन्नं परिवज्जए' सेज्जातरापिंड च, एतेण चेव सिद्धे जं पुणो आसनग्गहणं करेइ ते जाणिवि तस्स गिहाणि सत्त अर्णतरासण्णाकालिकाणि ताणिवि सेज्जातरतुल्लाणि दट्ठबाणि, तेहितोवि परओ अमाणि सच बज्जयवाणि, गितरनिसेज्जा यति गिह चेव गिह-II
तरं तमि गिहे निसज्जा न कप्पड़, निसेज्जा णाम मि निसत्थो अच्छद, अहवा दोण्हं अंतरे, एत्थ गोचरग्गगतस्स णिसज्जाण* ३ अध्ययन
| कप्पइ, चकारग्गहणेण निवेसणवाटगादि सूइया, गोयरग्गगतेण न णिसियव्यंति २७, गातं णाम सरीरं भण्णइ, तस्स उव्वर्ण ण ॥११॥ कप्पड़, एतमवि तेसिमणाइण्ण २८1 किंच
*'गिहिणी वेयावारियं सिलोगो (२२-११६) तत्थ गिहिवेयावडियं जंगिहीण अण्णपाणादीहि विसरंताण विसंविभा-1 गकरणं, एवं वेयावडियं भण्णइ २९, आजीवविचिता नाम पंचविधा भवइ, तं०'जाती कुल गण कम्मे सिप्पे आजीवणा उ पंचविहा' एताए गाहार पक्खाणं जहा पिंडनिजुत्तीए ३०, 'तत्तानिखुडभोह [य] सं' तसं पाणीयं तं पुणो सीतलीभूतमनिखुर्द भण्णा, तंच न गिण्हे, रति पज्जुसियं सचित्तीमवइ, हेमंतवासास प्रचण्हे कर्य अवरहे सचित्तीभवति, एवं सचिचं जो | भुजह सो तत्तानिन्बुडभोई भवा, अहवा तत्तमवि जाहे तिणि चाराणि न उध्यतं भवा ताईते अनिवुड, सचित्तात बुचा भवइ, जो अपरिणयपि भुंजह सो तत्ताणिन्वुडभोइत्ति ३१, 'आउरस्सरणाणि य' आउरीभूतस्स पुब्बभुत्ताणुसरणं, अहबा सत्ताह अभिभूतस्स सरणं देइ, सरणणाम उवस्सए ठाणंति वुत्तं भवइ, तत्थ उबस्सए ठाणं देंतस्स अहिकरणदोसो भवति सो वा तस्स सत्तु पओसमावज्जेज्जा, अहवा आउरसरणाणित्ति आरोग्यसालाओ भण्णंति, तत्थ न कप्पड गिलाणस्स पविसिउँ, एतमवि तास
C ॥११४॥ अणाइण्ण३२ 'मूलए सिंगरे य उन्मुखंढे अनिब्बुडे' सिलोगो(२३-११६)मूलओ लोगपसिद्धो३३सिंगबेरं अल्लगं३४, एताणि
%
दीप अनुक्रम [१७-३१]
CAC
GARCANARAY
...अत्र गृहस्थ-वैयावच्च वर्णयते ...अथ अन्य अनाचिर्णानि वर्णयते
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [३], उद्देशक H, मूलं H / गाथा: [१७-३१/१७-३१], नियुक्ति: [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
अनाचीणोनि
-
गाथा ||१७३१||
श्रीदश
अनिव्वुडाणि ण कप्पति,उच्छुखडमवि दोसु पोरेसु बढमाणेसु अनिव्वुड भवइ,निम्बुडं पुण जीवविष्पजढं भण्णह, जहा निण्यातो वैकालिक
जीवो, पसंतोत्तिवृत्तं भवइ३५, कंदा३६ मूलावि३७ जे अपरिणया ते ण कप्पति, फला तनुसाइणो३८ वीजा गोधमतिलादिणा,३९। चूर्णी ४
एयमवि तेसिं परिभीनु अगाइण्यां च 'सोवच्चले सिंघवेलोणे' सिलोगो (२४-११६) सोवच्चलं नाम सेंधवलोणपन्वयस्स ३ अध्ययन अंतरंतरेसु लोणखाणीओ भवति४०, सेंधवं नाम सिंधवलोणपच्चए तत्थ सिंधवलोण भवइ४१, रुमालोणं रुमाविसए भवइ४२, समु
दलोण समुद्दपाणीयं तं खडीए निग्गंतूण रिणभूमीए आरिज्जमाणं लोणं भवइ४३, पंसुखारो ऊसो भण्णइ४४, कालालोणं नाम तस्सव ॥११५॥
सेंधवपध्वयस्स अतरंतरेमु काला लोणखाणीओ भवति, आमगं भवति असस्थपरिणय एतमवि तेसिमणाइण्या४५ कि-'धूवण. त्ति वमणे य' सिलोगो (२५.११६) तत्थ धूवणेनि नाम आरोग्यपडिकम्म करेह मंपि, इमाए सोगाइणो न भविस्सति, अहवा अवस्थाणि वा ई४६, वमणं लोगपसिद्ध चव४७, बत्थीकम्म नाम वत्थी दइओ भण्णइ, तेण दइएण घयाईणि अधिट्ठाणे दिज्जति४८. विरेयणं लोगपसिद्धं चेव४९, एयाणि आरोग्गपरिकम्मनिमित्त या ण कप्पड़, अंजणे दन्तवणे य गायभंगविभूसणाण लोगपसिद्धाणि चेष,५०*-तेसिमेयमणा इण्णं 'तेसिमेघमणाइणं निग्गंधाण महेसिणं' २६-११६) तेसिमेयमणाइण्णामिति | हेवा उद्देसियाओ आरम्भ जाव गायम्भंगविभूसणेति अणाइण्णमेतं निग्गंथाण महेसिणं , ' संजमं अणुपालंता लहुभूयविहारिणो'। संजमो पुष्यभणिो, अणुपालयति णाम तं संजमं रक्खयंति, भूता णाम तुम्ला, लहुभूता लहु बाऊ तेण तुल्लो बिहारो जेसि ते लहुभूतीवहारिणो, चाउरिव अप्पडिबद्धा विहरति । पंचासवपरिणाया' सिलोगो (२७-११८) 'श्रु गतौ' धातुः श्रवतीति अच्प्रत्ययः आश्रवः, 'पंच'त्ति संखा,आसवगहणेण हिंसाईणि पंच कम्मरसासव-द
Cities-iksCECTCHERS-
दीप अनुक्रम [१७-३१]
॥११५॥
[128]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[-]
गाथा
||१७
३१ ||
दीप
अनुक्रम
|[१७-३१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्ण
श्रीदशवैकालिक
चूण ३ अध्ययने
॥ ११६ ॥
दाराणि गहियाणि, ताणि दुविहपरिण्णाए परिष्णाताणि, जाणणापरिष्णाय यच्चचखाण परिष्णाए य ते पंचासवा परिष्णाया भवंति, तत्थ जाणणापरिण्णा णाम जो जं किंचि अत्थं जाणइ सा तस्स जाणणापरिष्णा भवति, जहा पडं जाणंतस्स पढपरिण्णा भवति, घडं जाणतस्स घडपरिण्णा भवति, लोगेवि दिवं अहं भवंतं परिजानामि, ण ताव भवं परिजाणसि, एसा जाणणापरिण्णा, पच्चक्खाण परिण्णा नाम पावं कम्म जाणिऊण तस्स पावस्स जं अकरणं सा पच्चक्खाणपरिष्णा भवति, किंच तेण चैवेक्केण पार्व कम्मं अप्पा य परिण्णाओ भवद्द जो पावं नाऊण न करेइ, जो पुण जाणित्तावि पावं आयर तेण निच्छयवृत्तव्वयाए पावं न परिणायं भव, कई ?, सो वालो इव अआणओ दट्ठव्वो, जहा बालो अहियं अयाणमाणो अहिए पवत्तमाणो एगंतेणेव जया| णओ भवइ तहा सोवि पावं जाणिऊण ताओ पावाओ न णियत्तह तंमि पावे अभिरमह, तिगुत्तो नाम 'गुपू रक्षणे' धातुः निष्ठाप्रत्ययः गुप्तं, तिविहेण मणवयणकायजोगे सम्म निग्गहपरमा, छसु संजया नाम छसु पुढविक्कायाइसु सोहणेणं पगारेणं जता संजता, पंचणिग्गहणा णाम पंचदं इंदियाणं निग्गहणता, घीरा णाम धीरत्ति वा सुरेति वा एगट्ठा, निग्गंथा उज्जु-संजमा भण्णइ तमेव एगं पासंतीति तेण उज्जुदंसिणो, अहवा उज्जुति समं भण्णइ, सममप्पाणं परं च पासंतित्ति उज्जुदंसिणो, ते एवंगुणजुत्ता काले इमं तबविसेसं कुब्वैति तं आयावयंति गिम्हेसु' सिलोगो, (२८-११८) गिम्हेसु उडवाहु उक्कुडगासणाईहिं आयाति, जीव न आयाति ते अण्णं तबविसेस कुब्वंति, हेमंते पुण अपंगुला पडिमं ठायंति, जेवि सिसिरे गावगुंडिता पडिमं ठायंति तेवि विधीए पाउणंति, बासासु पडिल्लीणा नाम आश्रयस्थिता इत्यर्थः तवविसेसेसु उज्जमंती, नो गामनगराइस विहरति, . संजतगहणेण साधुत्ति वृत्तं भवति, सुसमाहिया नाम नाणे दंसणे चरिते व सुट्ट आहिया सुसमाहिया किंच 'परी सहरिवु
... अत्र संयतस्य स्वरूपम् एवं फलम् वर्णयते
[129]
संयतस्वरूपं
॥ ११६॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[H]
गाथा
||१७
३१||
दीप
अनुक्रम
[१७-३१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा: [१७-३१/१७-३१], निर्युक्तिः [१८०-२१७/१७८-२१५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
॥११७॥
दन्ता' (२९-११८) परीसहा बाबीसं 'सह मर्षण' धातुः अस्य परिपूर्वस्य अच्प्रत्ययः, परीपहा, ते परीपहा रिपवो भष्णंति, ते जेहिं श्रीदशवैकालिक दमिता ते परीसहरिबुदन्ता, घुयमोहा नाम जितमोहत्तिवृत्तं भवइ, जितिदिया नाम जिताणि इंदियाणि-सोचाईणि जहि ते जि चूर्णो ७ दिया, सब्वदुक्खप्पहीणट्ठा नाम सब्वेसिं सारीरमाणसाण दुक्खाणं पहाणाय, खमणानिमित्तंति वृत्तं भवइ, परक्कर्मति विविहि ४ पदजीव + पगारेहिं परक्कम्मंतित्ति वृत्तं भवइ । इदाणिं एवं तेर्सि जर्तताण जं फलं तं भनइ' दुक्कराई करेत्ताणं' सिलोगो, (२०-११८ ) 'डुकृञ् करणे' धातुः दुर्पूर्वस्य अस्य ईपत्सुदुष्षु कृच्छ्राकृच्छ्रार्थेषु खल ( पा. ३-३-१२६ ) प्रत्ययः दुक्कराणि, त एवं प्ररक्कम्म दुक्कराणि आतापना अकंपना क्रोशतर्जनाताडनाधिसहनादनि, दूसहाई सहिउं केइ सोहंमाईहिं बेमाणिएहिं उप्पज्जंति, केइ पुण तेण भवग्गहणेण सिज्यंति, णीरया नाम अडकम्मपगडीविमुक्का भण्णंति, तत्थ जे तेणेव भवग्गहणेण न सिज्यंति ते बेमाणिएसु उववज्जंति, तत्तोविय चइऊणं धम्मचरणकाले पुब्वकयसावसेसेणं सुकुलेसु पच्चाययंति, तओ पुणोवि जिणपण्णत्तं धम्मं पडिबज्जिऊण जहण्येण एगेण भवग्गहणेणं उक्कोसेणं सतहिं भवरगहणेहिं खयेत्ता पुञ्चकम्माई, संजमेण तवेण च । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिनियुडेति (३१-११८) जाणि तेसि तत्थ सावसेसाणि कम्माणि ताणि संजमतवेहिं खविऊणं सिद्धिमग्गमणुपत्ता नाम जहा ते तवनियमेहिं कम्मखचणडुमभुज्जुत्ता अओ ते सिद्धिमग्गमणुपत्ता भण्णंति तायंतीति तायिणो, परिनिन्युड़ा नाम जाइजरामरणरोगादीहिं सव्वप्यगारेणवि विप्यमुक्कत्ति वृतं भवद्द, बेमिनाम नाहमात्मीयेनाभिप्रायेण, किं तर्हि ?, तीर्थकरोपदेशाद् ब्रवीमि । इयाणि नया व्याख्यायंते 'णार्यमि गिहियव्वे अंगेण्हिअभ्यंमि चैव अत्यंमि । जइतव्वमेव इति जो उबएसो सो नयो नाम ॥ १ ॥ सब्वेसिंपि नयाणं बहुविहवत्तव्ययं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू
[130]
संयतस्वफलं
॥११७॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] | गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
निक्षेपार
चूणों
प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदश-IT॥२॥ इति दशकालिका क्षुल्लकाचाराध्ययनचूर्णी परिसमाप्ता।
पदपदस्पवैकालिक
इयाणिं सो आयारो जीवाजीचेहि अपरिष्णाएहिं न सक्को काउंति एतेण अभिसंबंधेण चउत्थं अज्झयणं आढप्पइ, तत्थ इमेद INIअहिगारा भाणितवा, सं0-'जीवाजीवाभिगम' गाहा (२२०-१२०) तत्थ पढ़मो जीवाभिगमो भाणितब्बो, ततो अजीवाभि४ पद्जाबागमो तओ चरित्तधम्मो तओ जयणा तओ उवएसो तओ धम्मफलं, एतस्स अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगदारा भाणियब्वा जहा ४ ॥११॥ आवस्सगचुण्णीए, इह नामनिष्फण्णो भणिज्जइ 'छज्जीवनिकाए' गाहा (२१९-१२०) सो य इमो नामनिष्फष्णो निकखेयोल
छज्जीवणिया, पटू पदं, 'जीव प्राणधारणे' धातुः, अस्य अस् प्रत्ययः जीवः, चिब्-चयने धातुः अस्य निपूर्वस्य 'निवासचितिशरीरो-12 पसमाधानेष्वादेव कः' (पा. ३-३-४१) घञ्प्रत्ययः आदेशश्च ककारः निकायः, तत्थ पढम एको निक्खिवियन्वो, एक्कगस्स अमावे छण्९ अभावो, तम्हा एक्कगं ताव निक्खिविस्सामि, तत्थ एकगो सत्तविहो, तंजहा- 'नाम ठवणादविए गाहा ( २२०-१२०) अत्थो जहा दुमपुफियाए तहा इहवि, इह पुण संगहेक्कएण अहिगारो, तत्थ दुग तिग चत्तारि पंच एते मोत्तूण छक्कग भणामि, कि कारण, छसु परुबिएसु दुगादीणि परूबियाणि चेव भविस्सतित्तिकाऊंग, तम्हा छक्कस्स छविहो निक्खेदो, तं०- नामठवणा' गाहा ( २२१-१२०) नामछक्कं ठवणाछक्कं दबछक्कं खेनछक्कं कालछक्कं भावछक्क, णामठवणाओ गताओ, दन्बछक्क तिविहं, तं०-सचिन अचित्तं मीसयं च, तत्थ सचित्तं जहा छ मणूसा, अचिर्त छ काहावणा,मीसयं ते चेव छ मणूसा अलंकियविभूसिया, खेचछक्कं छ आमासपएसा, कालछक्कयं छ समया छ वा रियओ, भावछक्कयं उदायउपसमियखाइयसओसमियपारिणामियसण्णि बाइया भावा छ, इह पुण सचित्तदन्वछक्कएण अहिगारो, पडिति पदं गतं ॥
४ ॥११॥
दीप अनुक्रम [३२-७५] |
अध्ययनं -३- परिसमाप्तं
अध्ययनं -४- 'षड जीवनिकाय' आरभ्यते
[131]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] | गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : २२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
जीवपदनिक्षेपाः
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
वैकालिक
चूर्णी ४ षड्जीव ॥१९॥
|. याणि जीवपदमाभिधीयते- तस्स इमाओ दो दारगाहा- 'जीवस्स उ णिक्वेवो' गाहा (२२२-१२१)
गति उद्धगतित्ते या' गाहा (२२३-१२१) तत्थ पढम दारं जीवस्स निक्खेवो, सो य इमो-'णामं ठवणा' अद्धगाहा (२२४-१२१) णामंठवणाओ गयाओ, तत्ध दवजीवो जस्स अजीवदव्वस्स जीवदव्वत्तणेण परिणामो भविस्सइ, ण ताव भवति, एस पुण भावो चा णस्थि, अहया जे जीवदम्बस्स पज्जया ते ताओ जीवाओ बुद्धीए पिहोकाऊणं एग केवलं जीबदवं जीवपज्जयहिं विहीणं भविस्सइ, दब्बजीवो गओ || याणि भावजीवो, जीवदब्वं पज्जवसहियं भावजीवो भवति, अइवा भावजीयो तिविहो भवइ, 'ओहभवग्गहणंमि' गाहा पच्छद्धं, तत्थ ओहजीयो | गाम 'सते आउयकम्मे' गाहा (भा.७-१२१) 'सते आउयकम्मे' नाम आउयकम्मे दव्वे विज्जमाणे जाव ते आउयकम्मपोग्गला सव्यहा अपरिखीणा ताव चाउरते संसारे घरद, न मरइचिबुर्त भवइ, तस्सय य आउगस्स कम्मरस जया उदो भवह तया ओहजीवत्तणं भाइ, जया ण ते आउयकम्र्म निरवसेसं खीण भवई तदा सिद्धो भवइ, जया य सिद्धतर्ण पत्तो तदा सब्बनयाणं हि आहजीवियं पडच्च उ मओ भण्णइ, एतेण कारणेणं सध्बजीपा आउगसम्भावताए जीवंति, एवं ओही जीवति । इयाणि भवजीवियंति,भवजीवियंति एगाए गाहाए मण्णइ-'जेण य धरइ भवगओ' गाहा (भा.८-१२२) जस्स उदएण जीवो नरगतिरियमणुयदेवभवेसु धरइ, जीवइति बुत्तं भवा, जस्स उदएण भवाओ भवं गच्छा एवं भवजीविय भण्णइ ॥ इयाणिं तम्भ वर्जीवियं, तं दुविहं तिरियाणं मणुयाणं च भवह, अह जेण तिरिया मणुया सट्ठाणाओ उव्वट्टा समाणा पुणो तस्थेव उववज्जति जाव य ते नत्थेव पुणरवि उवरजंति ताव तब्भवजीवियं भण्णइ, तम्भवजीवियं गतं,निक्खेवो यत्ति दारं गतं ।। इयाणि परूवणा
॥११९॥
दीप अनुक्रम [३२-७५]
... अत्र 'जीव' पदस्य निक्षेपा: कथयते
[132]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
IHA
श्रीदश- भण्णइ-'दुविधा य होति जीवा' गाहा, सुहुमा बादरा य, तत्थ सुहुमा सबलोगे परियावण्णा णायव्वा, बायरा पुण दुविहान
जीवस्यवैकालिक पज्जत्तगा अपज्जतगाय,परूवणेति दारं गतं ।इयाणिं लक्खणेत्ति दारं लक्षणं नाम जेण जीवो पच्चक्खमणुवलम्ममाणोविद प्ररूपचूणाणज्जइ जहा अस्थिति तं लक्षण भण्णइते च लक्षणं इमाहिं दोहिं गाहाहिमणुगंतव्वं, तंजहा 'आदाणे परिभोगे' गाथा
णादीनि ४ षड्जीव. (२२५.१२३) 'चित्तं चेयण सन्ना' गाहा ( २२६-१२३) तत्थ पढम आयाणेत्ति दारं, जहा अग्गिणो दहणादीणि लक्ख॥१२॥ णाणि एवं जीवस्सवि आदाणं, आदाणं णाम गहणं, जहा संडासएण आदाणेण लोहकारो आदेयं लोहपिंडं गेण्हइ, एवं जीवो संडास.
स्थाणिएहि सोइंदियाइएहि पंचहि इंदिएहिं लोहपिंडत्थाणीया सहरूवरसगंधफासे गेहइ, नासदात्मा आदानेनादेयग्रहणसामध्ययुक्तत्वाद् अयस्कारादिवत्, आदानेत्ति दारं गतं । इदाणिं परिभोगेत्ति दारं, परिमोगेण नज्जइ जहा अस्थि जीवो, | कई :, जम्हा सदाइणो पंच विसया जीवो परिभुजअइ णो अजीबो, एत्थ दिद्रुतो ओदणवष्टियज, जहा ओदणवडियाओ भोत्ता | अण्णो अत्यंतरभूओ, एवं सरीराओ अत्यंतरभूतेन अण्णेण भोत्तारेण भविय, सो य जीवो सद्दादीणं उवभुजओत्ति, विज्जमानभोक्तृकमिदं सरीरं भोग्यत्वात् ओदनवडीतकवत, परिभोगेत्ति दारं ॥ इदाणि जोगेत्ति दारं, सो तिविधो-मणजोगी वय-|
जोगो कायजोगो, सो तस्स तिविहस्सवि जोगस्स जीवो णायगोचि, अन्यप्रयोक्तका मनोवाकाययोगाः करणत्वात्परचादिवत् । माजोगेत्ति दारं गतं । दार्णि उवयोगेत्ति दारं, सोय जीवोत्ति दारं, नाणति दारं, नाणंति वा उपयोगेति वा एगट्ठा, सुहृदु
* ॥१२॥ क्खिोवयोग निचकालमेबोषउत्तो, उपयोगो लक्षणं जीवस्येति, नासदात्मा स्वलक्षणापरित्यागादग्निवत्, उवयागोत्ति वारं गतं ।।। तहा इयाणि कसायलक्खणं जीवस्स भण्णइ, जहा सुवण्णदबस्स कडगकुंडलाईणि लक्खणाणि भवंति तहा जीवस्स को
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१-१५]
गाथा
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C
श्रीदश-10 हाइपरियाया लक्खणं भवंति, किं कारण !, जम्हा अचेयणाणं घडपडमादीण कोहादीणो कसाया ण भवंति, जीयस्सेव भवंति, आनप्राणावैकालिक तम्हा सिद्ध कसायलक्खणं जीवस्स, कसायओत्ति वा भावोति वा परियाओचिवा एगढ़ा, नासदात्मा पर्यायात्पर्यायान्तरगमनसद्धा
| वात् सुवर्णद्रव्यवत् , कसायेत्ति दारं गतं ॥ इदाणिं जीवस्स लेसालवणं भण्णइ, लेसा नाम परिणामविसेसो भण्णाह, द्वाराणि ४ पड्जीव. जहा धासमे जीवद्याए अण्णो अत्ताणं जिंदतो पाएति,अण्णो हरिसं वच्चमाणो घाएइ,एरिसा परिणामविसेसा जीवस्सेव भवंति, नो
अजीबस्स, नासदात्माऽन्यस्मादन्येन परिणामेन सद्भावात् क्षीरद्रव्यवत् , लेस्सत्ति दारं गतं । इदाणिं आणपाणू दोबि | ॥१२१।
समयं भण्णंति, तत्थ आणू उस्सासो भण्णइ, पाणू णीसासो, एते जम्हा जीवस्स दीसंति, अजीबस्स न, तम्हा ते जीवलक्खणं, आणापाणुत्ति दारं गतं । इदाणिं इंदियलक्वणं जीवस्स भण्णइ, इंदियाणि जीवस्स भवंति, नो अजीवस्स, तम्हा ताणि जीवस्स
लक्खणं भवंति, सीसो आह-ननु आयाणग्गहणेणं एसेव अत्थो भणिओ, आयरिओ भणइ-जहा वासीए जा संठाणागिई स &ा निवत्ती भण्णइ, जहा वा रुक्खाइछेदणसमत्था सा उपकरणं भष्णा, एवं तत्थ सदाइविसयग्गहणसमस्थाणि कलंबुगपुष्क-1
संठाणमादीणि उपकरणाणि गहियाणि, इह पुण कण्णचक्खुफासजीहापाणिदियाण निब्बत्तणा मणिया, परायोण्येवानींद्रियाणि | ४करणत्वात्संदंशकादिवत्, इंदियत्ति दारं गतं । इदाणि कम्मबन्धो कम्मोदयो कम्मनिज्जरा य तिष्णिवि समयं चेव जीवAI लक्खणाणि भणति, जहा आहारो आहारियो सरीरेण सह संबंधं गच्छइ, पुणो य तेण पगारेणं बलादिणा उदिज्जंति. काला-I|१२१॥
तरेण य णिज्जिण्णो भवइ,एवं जीवोवि विसयकसाय(जुत्त)त्तणेण कम्मं बंधइ कमस्स उदओ भवइ, जं पुण वेदितं भवइ सा निज्जरणा, विज्जमानमोक्तृकामदं शरीरं कर्मग्रहणवेदनानिर्जरणस्वभावादाहारवत् , बंधोदयनिर्जरेति दारं गतं, पढमाए गाहाए अस्थो
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सूत्रांक
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गाथा
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दीप
अनुक्रम
[३२-७५]
भाग-6 "दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [४] उद्देशक [H] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२०५९/४७-४५] निर्मुक्तिः [ २२०-२३४ / २१६-२३३] भष्यं [ ५-६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णी
४ पदजीय
॥१२२॥
भणिओ । इवाणि वितियाए गाहाए अत्थो भण्णइ, तत्थ पढमं चित्तंति दारं, चित्तं ( नाम मणो तं जीवस्स लक्खणं ) चेणा नाम वमाणे काले पढोति जहा एरिसो घढोति एवमायि चेयणा, संजाणतीति सण्णा, जं पुच्वण्डे गाविं दुण अवरहे पुणो पच्चभिजाणइ जहा सा चैव एसा गावित्ति, अहचा आहारसष्णादि चउच्चिहा सण्णचि जीवलक्खणं विविहिं पगारेहिं जेण गज्जइ तं विण्णाणं, धारणा नाम जो सत्थं अज्झाइऊणं सुचिरं कालं घरे, एवमादि धारणा, बुद्धी नाम अप्पणो बुद्धिसाम स्थेणं अत्थे उब्बेलड् सा बुद्धी, ईहा नाम किमेसो पुरिसो खाणु बचि पुरिसलक्खणाणि खाणुलक्खणाणि य ईहयति, एवमादी ईहा, मई णाम अवगमो, जहा एस पुरिसो णो खाणुत्ति एसा मती, वितका णाम एगमत्थं अगेगेहिं पगारेहिं तकयति, संभावयतित्ति वृत्तं भवति, एसो अत्थो एवमवि भवद्द एवमवि अविरुद्धोति एताणि सव्वाणि जम्हा जीवस्स दीसंति तम्हा सिद्धाणि | एताणि जीवस लक्णाणि, चित्तचेयणसण्णा विष्णाणादयो जीवस्स गुणा, नासदात्मा गुण प्रत्यक्षत्वात् घटवत्, लक्खणेति दारं गतं । हृदानि अत्थित्तति दारं, 'सिद्ध जीवस्स अस्थिसं' गाहा (मा० २५-१२६, पुब्बद्धं, जीवस्स अत्थितं जीवसद्दाओ चैव सिज्झइ, कहं ?, असंते जीवे जीवसदस्सवि अभावो, पसिद्धी य सदो लोगे, तम्हा अस्थि जीवा जस्स एस निदेसो जीवोति, सीसो | आह- खरविसाणकच्छभरोमाईणवि सदा लोगे पसिद्धा, ण पुण ताणि अस्थि, आयरिओ इमं गाद्दापच्छद्धं भणइ - 'नासओ भुवि भावस्स सद्दो भवति केवलो',ण हि सव्वहा असंतस्स भावस्स लोगे केवलो सो पसिद्धेत्ति, केवलो नाम सुद्धो, अण्णेण सह असंज़तोत्ति वृत्तं भवति, सार्थकोऽयं जीवशब्दः शुद्धपदत्वाद् घटवत्, खरविसाणकच्छ भरोमसदा पुण न केवला उपलब्भंति, कई ?, खरसो गद्दमे वट्ट, विसाणसहो गक्लादिसु, कच्छभसद्दो कच्छभे, रोमसद्दो एलगाइसु, गद्दभकच्छ मेसु विज्जमाणेसु णत्थित्ति संभा
... अत्र जीवस्य अस्तित्वं नाम द्वारम् कथयते
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अस्तित्वद्वारं
॥१२२॥
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] | गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक [१-१५]
गाथा
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श्रीदश- विज्जइ. ण पुण तहा जीवसदो। जोगोषयोगइच्छावितकादिलक्खणं जीवदव्वं मौतृण अण्णामि कम्हि य न पसिद्धन्ति, सुण्णवादी अस्तित्ववैकालिक आह-जति जीवसदाओ जीवस्स अत्थितं साहेसि, अहमवि सुण्णसद्देण सुण्णवाय साहयामि, कह, सुखसद्दो य लोगे पसिद्धति
काऊण, तम्हा अस्थि सुनयंति, आयरिओ भणइ-विज्जमाणेण दवेण अण्णत्थगएण सुण्णति भण्णइ, विज्जमाणस्स दबस्स णासो " परजीव. पट्ठति भण्णति, किंच-इमेण अहिगारण णज्जइ जहा अत्थि जीवोत्ति, 'मिच्छाभावे उ सव्वत्था' गाहा (भा० २८-१२६) जओ
कानस्थि जीवो तम्हा दाणधम्मभयसच्चभचेरवासादीणं नस्थि फलं, नव य मुकंडदुक्कडाणं कारओ बेदओ वा कोइत्ति, किंच ॥१२३॥
लाइयो य जीवो अस्थि'त्ति, कहं ?, लोगसत्थाणि'गाहा लोइगा वेइगा चेव (भा.३०-१२७)तत्र लौकिकास्तावदेव अवते-'अच्छेज्जो-16 कायमभेज्जोऽयमविकार्योऽयमुच्यते । नित्यस्सततग स्थाणुरचलोऽयं सनातनः॥ १॥ नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः।।
न चनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ॥२॥" वैदिका अप्याहुः-"भृगालो वै एष जायते यस्सपुरीपो दखते, अथ सपुरीपो | न दह्यते लोकस्य प्रजाः प्रादुर्भवन्ति' समयेऽपि बुद्धेनोक्तं 'अहमासीद्भिक्षवो हस्ती,पदतः शङ्खसन्निभः। शुकः पञ्जरवासी चूद शकुनो जीवजीवकः ॥ १॥ इत्येवमादीति, कापिला अप्याहुः-'आत्माकर्ता भोक्ता निर्गुणे' त्यादि, कणादा अपि अस्तित्व सर्वे-11 गतत्वमित्यादि संप्रतिपन्नाः, तस्माल्लोकवेदसमयसंप्रतिपमन्यामहेऽस्त्यात्मा इति, सीसो आह-सो जीवो पच्चक्खओ अणुवलब्भ- | माणो कह जाणियच्यो जहा अस्थितिः, आयरिओ भणइ- 'फरिसेण' गाहा (भा. ३३-२२७ ) जहा वाऊ पच्चक्खयो- मैसच- |
॥१२३॥ खुणा अणुवलब्ममाणोवि फरिसेण णज्जइ, एवं जीवोबि णाणदंसणाईहिं अकायगुणेहिं कायओ मिनो साहिज्जइ जह अत्थि, भणियं च- "उपयोगजोगइच्छाविवक्खणाणवलचेहियगुणेहिं । अणुमाणा गायब्बो पञ्चक्खमदीसमाणोवि ॥१॥" सीसो भणइ
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदश- वैकालिक चूर्णी ४ षड्जीव११२
भगवं! तुम्भे भणह जहा अणुमाणओ जीवो साहेतब्बो जहा अत्यित्ति, तं च अणुमाणं पच्चक्षपुष्वगं भवइ, ण य अप्पा केणइ अन्यत्वापच्चक्खमुबलद्धपुवोत्ति जओ अम्हेहि अणुमाणयो साहेयम्वोत्ति, आयरिओ भणइ-' अणिदियगुणं' गाहा (मा.३४-१२७)
दीनि इंदियपच्चक्खेण जीवो न पच्चक्खयो उपलब्भइ, पतिण्णा, अरूविचणं हेऊ, दिलुतो आगासं, अरूवितणेणं इंदियपच्चक्रेण णाणेपण गेज्झइ, तहा जीवोत्ति, अरूबी, सन्यष्ण सिद्धा य साहूणो पासंति,तहा अरूवित्तणेण जीवो मंसचक्खुहि पच्चक्खयो णोबल-18 भ ति, सार्थकामदमात्मवचनं शुद्धपदत्वाद् घटाभिधानवत् , अथवा अरूपित्वादाकाशवदिति, अस्थितंति दारं गतं ॥ इदार्णि अण्णतं अरूवित्तं निवत्तं च तिष्णिवि समयं इमाहिं दारगाहाहि भण्णंति-तंजहा 'कारणविभाग' ( २२७-१२८) गाहा, "निरामय' गाहा, 'सवण्णुवदिद्वत्ता' गाहा (२२९-२२२)। तत्थ पढम कारणविभागअभावोत्ति दारं, निच्चो जीवो. कह , जम्हा तस्स कारणविभागस्स अभावो, जहा आगासस्स, वइधम्मो दिछतो पडो, जहा पडस कारणं तंतवो, ते य तंतवो जइ कोइ एगमेगं तंतु गहाय उकेल्लेज्जा अओ पडो अचिरेण कालेण विणासमावज्जेज्जा,एवं जीवस्स जति तंतुसरिसाणि कारणाणि होज्जा तो जहा पडो अणिच्चो तहा जीवोवि अणिच्चो होज्जा, ण य तस्स कारणविभागो अस्थि, तम्हा निच्चो जीवो, जम्हा य निच्चो तओ अरूवी सरीराओ अण्णो जाणियब्यो, नित्यः आत्मा कारणविभागाभावादाकाशवत् । इदाणिं विणासकारणाभावोत्ति दारं, कह , जम्हा तस्स विणासकारणस्स अभावो जहा आगासस्स, इई दिलुतो जहा पडस्स अग्गिपादीणि विणा-18 सकारणाणि भवंति, सो य अणिच्चो, ण पुण तह जीवस्स विणासकारणाणि अस्थि, तम्हा विणासकारणअमावा निच्चो जीवो,
।।१२४॥ जम्हा य निच्चो तओ अरूवी सरीराओ अण्णो, नित्य आत्मा विनाशकारणाभावादाकाशवत्, विणासकारणाभावोत्ति गतं,
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१-१५]
गाथा
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श्रीदश-लाइदाणिं बंधपच्चयअभावोत्ति दारं-णिच्चो जीवो, कई ?, बंधपच्चयाभावपसंगा जहागास, जम्हा खणविणदुस्स अभावोद निरामयवैकालिक भवति, दिद्रुतो घडो, जहा अविणट्ठो घडो जलादीणं आहारकिल्चं करेइ,एवं जीवो जइ निच्चोणाणखणे ण विणस्सइ तो अवस्थि- सामया
चूर्णी । यस्स बंधो मोक्खो य भवइ, अणवस्थियम्स अण्णां मि खणे उप्पण्यास बंधपञ्चयअमावो भवद, तम्हा निच्ची जीवा, जम्हा यादीनि४ षड़जीव-निच्चो अतो अरूबी सरीराओऽवि अण्णो, नित्य आत्मा बंधप्रत्ययाभावादाकाशवत,बंधपच्चयअभावोत्ति दारं गतं। इदाणि द्वाराणि
विरुद्धअत्यऽपादुभावेशि दारं, निच्चो जीवो, कह', विणासि दव्वं भवति तमि विणद्वे विरुद्धस्स पाउम्भावो दीसई, दिद्रुतो 31 ॥१२५॥
कट्टछाणादीणि, जहा कट्टछाणादीणि विणासिदवाणि तेसि विणासमागच्छंताणं छारईगालाईणि विरुद्धदच्याणि पाउन्मवंति, जहा वा घडस्स कवालाईणि विरुद्धदब्बाणि पाउन्मबंति, एवं जइ जीवस्स विणासे किंचि तारिस विरुद्धदव्यं पाउ ज्जा तो अणिच्चो होज्जत्ति, जम्हा य णिच्चो अतो अरूबी सरीराओ अण्णो, अविनाशी आत्मा विरोधिविकारासंभवादाकाशवत्, निच्चत्तंति दारं गतं ।। नित्यः आत्मा द्रव्यामूर्तत्वादाकाशवत, अरुवित्ता, अण्णतान्ति दारं गतं । इदाणि विझ्याए गाहाए
अत्थो भण्णति, तत्थ पढम दारं निरामयभावोनि, कह, जम्हा निरामयो सामयो य भवति, दिडतो घडओ, जहा घडम्स ॥१२५।। दू विणट्टस्स ण केणइ संजोगा भवद, एवं जीवोवि जइ खणे उप्पज्जइ विणसह य तओ तस्स अभावीभूयस्स निरामयभावो ण जुत्तो, | विज्जमाणो अप्पा निरामयो वा होज्जा सामयोवा, निरामओ-निरोगी भण्णइ,सामयो सरोगी,निरोगो होऊण सरोगो भवइ, सरोगो है। होऊण निरोगो भवति, तम्हा निरामयसामययोगेण णज्जइ जहा अप्या णिच्चोति,जम्हा य निच्चो अओ अरूवी सरीराओ अण्णो,31 निरामयसामयभावोत्ति दारं गतं ।। इयाणि बालकयाणुसरणंति, नानिच्चो जीवो, कई ?, जम्हा पुवाणुभूतं सरह,
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] | गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदश-14दितो पालो, जहा पालो पालभाये जाणि कताणि ताणि जोबणस्थो सरह, पाले यजो अट्टो दिहोतं पञ्चभिजाणा, एवं जोव्य-16 जातिस्मरवेकालिकालाजस्थेवि कयंत युद्धमावे सरति, जदा पुण बणविणासी होगजा ता को सरेज्जलि, तम्हा पालकयाणुसरणेण णजह जहा निच्ची दान
चूर्ण जीवोत्ति, जम्हा य निच्चो अओ अरूवी सरीराओ य अण्णो, चालकमाणुसरणंति दारं गतं । इदाणि उबढाणंति दारं, ४ पजाबःनिचो जीवो, कह, जम्हा अमि काले कर्य कर्म अनमि काले उबढाइ, य अणिच्चस्स भाचो जुज्जइ, दीसति य इमंमि १२६॥
लोए चेव पुण्यसुकयकारिणो इ8 महफरिसरसरूपगंधादिविसए उवभुजता पुण्यदुक्यकारिणो य अच्छतपरिकिलेसभागिणो भतियादीणि कम्माणि उक्खेवमाणा मरणमभुवगन्छति तम्हा सुभासुमं कम्भ, उथट्टाणत्ति दारं गतं । इदाणि सोयाइहिं अग्ग-1 हणति दारं, णिच्चो जीवोत्ति, कर, जम्हा सोयादीहिं इंदिपहि न सकं घेतुं जहा आमासं, जहा आगास अमुनिमंतं न सका। घेत्तुं सांतादीदिईदियहि निमचं च तहा जीवाऽवि मायादीहिदिपहिण तीरइ पेत्तुं, तम्हा सोनिच्चो, जम्हा निच्चो अओ अस्थी। सरीराओं अण्णेनि, सीतादीहिं अग्गहणंति दारं गतं । इदाणिं जारिसरणति हार, णिच्चो जीवोत्ति कह ?, जम्हा जातिस्मरणाणि लोगे विजंति, जति य जीयो न होज्जा तो कस्स जाइसरणमुप्पज्जेज्जा, मुग्वति य वहूणि जाइसरणाणि लोग उप्पण्णाणि, गोपालाइणोवि सस्थवाहिरा पडियजति जहा जातिसरणमन्थिनि,सम्हा जातिसरणेणविणज्जह जहा जीवो निच्चाति, अतोय अगदी सरीवाय अण्णोत्ति, जाईसरति दारं । दाणिं पणालासलि दारं, निच्चो जीयो, कह १, जम्हा जाय-हा मेना चा थणमहिलसति, दिढतो देवदनो, जहा देवदचस्स पुब्वभक्खितं अब पा अंधिलं वा अण्णण केणइ भक्विजमाणं दळूण मुहं सदइ, किं कारण, जम्हा जेण जानि ताणि 'फलाणि पुम्बि भक्खियाणि तम्स मुखस्क्लेिदो भवचि. न पूण अंतरदीनवासी
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... अत्र जातिस्मरण द्वारम् कथयते
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सर्वज्ञोपदिरत्वादीनि
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
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श्रीदश
है जत्थ ताणि फलाणि सव्वसो णस्थि, तहा जीवस्सवि पुर्व अब्भत्थं थणपाणं जं जातस्सेव बालस्स उवएसमतेरणीव धणं पति वैकालिक अहिलासो भवति, घणाभिलासकरणेण गज्जइ जहा निच्चो जीवोत्ति, धणाभिलासोत्ति दारं गतं । इदाणिं तइयाए गाथाए
चूर्णी अत्थो भण्णइ, तत्थ पढमं दारं सवण्णुवदिद्वत्ता, णिच्चो जीवो, कह', जम्हा सव्वण्णूहि एवमुवदिहो, ते य भगवंतो णतं | ४ षड्जीव.. भासति जस्स पुण्यावरदोसो भवति, भणिय चवीतरागा हि सम्बण्णू' तम्हा निच्चो ततो अरूवी सरीराओ य अण्णोति,
सवण्णुषविद्वत्तत्ति दारं गयं । इयाणि सकम्मफलभोयणति दारं, णिच्चो जीवो, कह, जम्हा सर्य कडाणि मुकयदुक॥१२७॥
याणि कम्माणि अणुभवइ, जति निच्चो न भवेज्जा तो खणविणासिस्स सकडकडाणं फलाणभवणं न होज्जा, दीसति य फलमणुभवतो पच्चक्खमेव, तम्हा सकयफलभोयणेण गज्जर जहा णिच्चो जीवोत्ति, जम्हा णिच्चो तम्हा अरूवी सरीराओ य| अण्णोति, सकम्मफलभोयणेत्ति दारं, गतं अपणत,इयाणि अमुत्तनि दारं,णिच्चो जीबो,कई ?, जम्हा सो अरूबी, दिईतो | | आगासं, जहा आगास अमुत्तिमंतं निच्चं तहा जीवोवि अमुत्तिमंतो निचो भविस्सति, अमुत्तत्तअण्णत्तनिच्चत्ताणि गयाणि ।। झ्याणि कारओत्ति दारं, कारओ जीवो, कहं ?, जम्हा सुभासुभफलमणुभवइ, दिईतो वाणियकिसिबलाइ,जहा बाणिजादयो फलभोइणो कत्तारो, एवं जीबो भोत्ता कारओ, गयं कारओत्ति दारं,इदाणिं देहवावित्ति दारं, जीवो देहबावी,कह', जम्हा तस्स परिमिए देस लिंगाणि उबलभते, दिडतो अग्गी, जहा अग्गी मिठाणे वह तमि चेव डहणपयणपयासणादीणि भवति, एवं जीवो जैमि चेव परिमिते देसे अवस्थिओ तंमि चेव आकुंचणपसारणादीणि दीसति, तम्हा परिमिते देसे लिंगदरिसणेण गज्जइ जहा जीवो देहवावी, सरीरमात्रव्यापी एवमात्मा परिमितदेसे लिंगदर्शनादग्निवत, देहवावित्ति दारं गतं । इयाणि वितियाए
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दीप अनुक्रम [३२-७५] |
॥१२७॥
EASE
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
परिमाण
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदश- वैकालिक
चूर्णी । ४ षड्जीव॥१२८॥
अत्थो भण्णइ, तत्थ पढम दारं गुणिति, गुणी जीवो, कई !, जम्हा दब्बाणं एस सहावोत्ति, एत्थ दिद्रुतो घडो, जहा घडस्स स्वरसगंधाइणो गुणा भवंति तहा जीवस्सबि णाणदसणाइणो बहवे गुणा भवंति, तम्हा गुणी जीवो, गुणित्ति दारं । इयाण | उड्डगतित्ति दारं, उड्डगती जीवो, कहं , जम्हा सो अगुरुलहुउत्ति, दिव॑तो अलाउर्य, अट्ठहि मडियालेवेहि लितं सुकं समाण | उदगे पक्खित्तं तैलेवगुरुययाए अहे धरणितले पहावयं भवइ, तहा जीवोधि अट्टकम्मगरुपयाए अणादीष्णवदग्गे संसारजले पइट्ठाणो | भवति, निरवसेसकम्मक्खएण य अगुरुलहुदव्वताए उड़ गच्छद जाव धम्मत्थिकायदब्बस्स विसओत्ति, उड्डगइओति दारं |
गतं । इदाणिं निम्मएत्ति दारं, निम्मयं णाम जस्स कारणं नत्थि, निम्मयो-अमयो, जहा मिम्मयो घडी तंतुमयो पडो वीर-1 |णामयो कडो,एवं जीवस्स मयत्तं नत्थि तम्हा अमयो जीवो, नित्य आत्मा अमयस्वादाकाशवत् , निम्मयोति वारं गतं । पुष्य-15 | कयकम्मसाफल्लता दारं जहा हेट्ठा वनिय तहा बन्नेयध्वं । इदाणि परिमाणेत्ति दारं, अनेन विधानेन सिद्धमात्मनो अस्तित्वं, तस्मिन् सिद्धे तत्प्रमाणनिधारणार्थमिदमुच्यते- 'एगस्स अणेगाण य( -१३४ गाहा) परिमाणं दुविहं भवइ, तंजहा--एगस्स अणेगाण य, तत्व एगस्स ताव परिमाणं भण्णइ-'जीवस्थिकायमाणं' गाहा (५६-१३४) एगजीवस्स परिमाण भण्णइ, तंच इम-जया केवली केवलिसमुग्धारण समोहणइ तया सबलोग पूरेइ जीवपएसेहि, ओगाहणमुहुर्म एकेको । जीवपएसो पिहप्पिहो भवइ, नो उप्परोपरि, इहरहा असमग्घायजीवप्पएसा उप्परोपरि भवति । केत्तिया सबजीचा परिमाणओ होज्जत्ति, एत्थ गाहा 'पत्येण च कुलवेण व गाहा ( ५७-१३४ ) जहा कोइ सम्बधमाणि एगट्ठीकरेचा पत्थेण व कुल
५ एण व मवेज्जा, तस्थ कुलवो लोगपसिद्धो, पत्थो पुण चत्तारि कुलवा भणति, एवं असम्भावढवणाए कोई लोग कुलवं वा पत्थं
PERA
दीप अनुक्रम [३२-७५]
॥१२८॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
वैकालिक
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
॥१२९॥
वा काउं अजहण्णमणुकोसियाए ओगाहणाए लोगं पुणो पुणो पूरेत्ता अलोगे पक्खिवेज्जा, तओ एगो दो तिषिण एवं गणिज्ज- अध्ययनो8 माणा अणता लोगा भवेज्जा,अहया लोगस्स एकेक्कमि आगासपएसे एक्कक्कं जीव बुद्धीए ठवेचा जीवलोगो भरिओ नाहे अलोगे| पोषातः
परिकप्पड़ एवं एगो दो तिष्णि मविज्जमाणा अयंता लोगा भवेज्जा, परिमाणंति दारंगतं,जीवोत्ति य पदं। इयाणि निकायेशि दारं, 'णामंठवण सरीरे' गाथा (२३०-१३४) नामठवणाओ गयाओ, सरीरकाओ नाम सरीरमेव भण्णइ, गइनाम जहिं सरीरेहिं भवन्तरं गच्छद ताणि तेयाकम्माणि, जो वा जाए गईए कायो भवइ, सरीरंति बुर्त भवइ, जहा नेरइयाण | तिमि सरीराणि बेउब्धियतेयाकम्मगाणि, एवं सेसियाणवि गतीण भाणियवाणि, शिकायो नाम छज्जीवनिकायो भष्णइ, तं०- पुढविकाइया आउकाइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तसकाइया , अस्थिकाओ नाम धम्माधम्माइया पंच अस्थिकाया, दवियकाओ नाम तिप्पभिई दब्वाणि एगत्थ मिलियाणि दब्यकाओ भण्णइ, जहा तिमि घडा, एवमादी, माउकायो नाम तिष्पभिई माउअक्खरा माउयकायो भण्णइ, पज्जवकायो दुविहो, त०- अजीवपज्जवकायो य जीवपज्जवकाओ य, तत्थ अजीवपज्जवकाओ नाम तिप्पमिति अजीवपज्जबा अजीवपज्जवकायो भण्णइ, जहा घडस्स वण्णरसगंधफरिसत्ति एवमादी, जीवपज्जबकायो नाम तिप्पभिई जीवपज्जवा जीवपज्जबकायो भण्णइ, जहा नाणदंसणचरिचाणि एवमादि, संगहकायो नाम जहा तिप्पभिई दवाणि एगेण सद्देण संगहियाणि, जहा तिगड तिफला एवमादी, अहवा जहा जाओ सालित्ति ॥१२९॥ एवमादी, भारकायो णाम 'एको कायो दुहा' गाहा ( ) एत्थ उदाहरणं- एगो काहारो तलागे दो घडा पाणियस्स भरिऊण काबोडीए वहइ, सो एगो आउकायकाओ दोसु घडेसु दुहा कओ, तत्थ सो काहारो गच्छंतो पक्खलिओ, एगो घडो भग्गो,
629CCCESCENG
दीप अनुक्रम [३२-७५]
KKR
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
गाथा
॥३२
५९||
दीप
अनुक्रम [३२-७५]
भाग-6 "दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [४] उद्देशक [H] मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२०५९/४७-४५] निर्मुक्तिः [ २२०-२३४ / २१६-२३३] भष्यं [ ५-६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णां
४ अ०
तम्मि जो आउकाओ सो मओ, इतरंभि जीवद्द, तस्स अभावे सोऽवि भग्गो, ताहे तेण पुण्यमरण मारिओति भण्णइ अहवा एगो घडो आउकायमरिओ, ताहे तमाउकार्य दुहा काऊणं अद्धताविधो, सो मओ, अतो बीओ जीवद्द, ताहे सोवि तत्थेव पक्खितो, तेण मएण जीवंतो मारिउत्ति, एसो भारकाओ गओ ॥ इयाणि भावकाओ भण्णइ भावकाओ नाम तिप्पभिई उदश्याश्या भावा भावकाओ, 'इत्थं पुण अहिगारो' गाहा ( २३१-१३५ ) इत्थं पुण अहिगारो अज्झयणे निकायकारण अहिगारो, सेसा पुन उच्चारित्थसरिसन्तिकाऊ परूवियाणि, कायत्ति दारं गतं, गओ य णामणिष्कण्णो णिक्खेवो, इदाणिं सुत्ताणुगमे सुत्तमुच्चारयध्वं अक्खलियं जहा अणुओगदारे, तं च सुतं इमं ॥
मूलं
सुतं मे आउ तेण भगवया एवमक्वायं (सू० १-१३६) 'श्रु श्रवणे' धातुः अस्य निष्ठा प्रत्ययः श्रूयते स्म श्रुतं एवस्स सुतस्स इमो अभिसंबंधो- 'अत्थं भासह अरहा सुत्तं गुंधति गणहरा णिउणा सासणस्स हिपट्ठाए तओ सुतं पवत्तइ ॥ १ ॥ जं भगवतो अनिए अत्यं सोऊण गणहरा तमेव अत्थं सुतीकाऊन पत्तेये अप्पणो सीसेहिं जिणवयणसोतन्यगाभिमुहि पुच्छिज्जमाणा एवमाहंसु 'सुतं मे आउसंते' अहवा सुम्मसामी जंबुनामं पुरुछमाणं एवं भणइ अस्मत्सर्वनाम्नः कर्तृकर णार्थे तृतीयैकवचने टाडसी (पा. ७-१-१२) त्याद्येत्वे प्राप्ते 'योऽची 'ति (पा. ७-२-८९ ) यकारः त्वमावेकवचने' (पा.७-२८७) इति मादेशः परगमनं मया श्रुतं मया आयुष्मन् ! तेन भगवता, सुतं मताने जो निद्देसो एस खणिगवादिपडिसेहणत्थं कज्जर, कहं ?, अहमेव सो जो तदा भगवतो तित्थगरस्स समासे सोऊण णिविट्ठो अक्खणिउत्ति वृत्तं भवइ, आयुस प्रातिपदिकं प्रथमा सुः, आयुः अस्यास्ति मतुप्प्रत्ययः, आयुष्मान्!, आयुष्ममित्यनेन शिष्यस्यामन्त्रणं गुणाथ देशकुलशीलादिका अन्वाख्याता भवति,
5%-1296209
॥१३०॥
... अथ अध्ययनस्य सूत्राणि आरब्धाः
[143]
अध्ययनोपोद्घातः
॥१३०॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
दीर्घायुष्फत्वं च सर्वेषां गुणानां प्रतिविशिष्टतम, कह, जम्हा दिग्पायू सीसो तं नाणं अमेसिपि भबियाणं दाहिति, ततो य श्रीदश-दा
अध्ययनो. बैंकालिक अब्बाच्छिची सासणस्स कया भविस्सइति, तम्हा आउसंतग्गहणं कयंति, तेन सर्वनाम्नःतृतीयैकवचनं त्यदायत्वं' (पा.७-२-१०२)18 पोद्घात:
चूर्णी अतो गुणः (पा. ६-१-८७) पररूपत्वं 'टाङसिङसामिनात्स्या ' इति (पा.-१-१२) टावचनस्य इनः आदेशः, 'आद् गुणः' ४ अ. (पा. ६-१-८७) परगमनं तेन भगवता-तिलोगवंधुणा, एगो बिगप्पो गओ १ इयाणि वितियो विकप्पो मण्णइ-सुर्य मे आउस
तेणं, सुयं मयाऽऽयुषि समेतेन तीर्थकरेण-जीवमानेन कथितं, एष द्वितीयः विकल्पः २, इयाणि वइओ पिकप्पो सुर्य मे आउसं॥१३॥ दिनेणं श्रुतं मया गुरुकुलसमीपावास्थितेन तृतीयो विकल्पः ३, इयाणि चउत्थो बियप्पो, सुयं मया एयमज्झयर्ण आउसंतण
भगवतः पादी आमृपता, एवं सुत्ते वक्वाणिज्जमाणे विणयपुष्धे सीसायरियसंबंधो परूविओ, चउत्थो विगप्पो गओ, इयाणि भगवता इति, भगः प्रातिपदिक स भगः (तद) स्यास्त्यास्मान (पा. ५.२-९४)ति मतुप, प्रत्ययः, अनुवन्धलोपः (मादुपधायाश्च) मतोर्वोऽयवादिभ्यः (पा.८.२.९) इतिवत्वं भगवत् कर्तृकरणयोस्तृतीया, टा अनुबंधलोपः परगमनं भगवता, अथवा भगशब्देन ऐश्वर्यरूपयशम्श्रीधर्मप्रयत्ना अभिधीयते, ते यस्यास्ति स भगवान , भगो जसादी भण्णइ, सो जस्स अस्थि सो भगवं भण्णइ. उक्त प."ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य पण्णां भग इवीरगना ॥१॥' अतस्तेन भगवता एवंशब्दो निपात: अवधारणे वर्तते, किमवधारयति', एतस्मिन् षड्जीवनिकायाध्ययने योऽयोंऽभिधास्यते तमवधारयति, अक्खायं नाम कहियं, 'चवि.व्यक्तायां वाचि' धातु: आइपूर्वः अस्य निष्ठाप्रत्ययः क्तः अनुवन्धलोपः चक्षिका ख्यादेशः नपुंसकं सु अम् आख्यातं, इहीत नाम इह पवयणे लोगे वा, खलुसहो विसेसणे, किं विसेसयति', न केवलं महावीरेण एयमज्झ-
PROCCORNSPECIRCRO
दीप अनुक्रम [३२-७५] |
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
गाथा
॥३२
५९||
दीप
अनुक्रम |[३२-७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९/४७-७५], निर्युक्तिः [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र - [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णां
४ आ.
॥१३२॥
यणं कहिये, किंतु सेसेहिवि तित्थकरेहिं एवमाख्यातं छण्डं जीवस्स निकायस्स तिन्हवि दाराणं अत्थो जहा नामनिष्फष्णे निक्खेवे भणिओ तहेव इहवि भाणितब्बों, अज्झाइ जम्दा तम्हा अज्झयणं, ततो समणो जहा सामण्णपुब्वए तहेव हूहूवि, भगवया इति एयस्स जहा हेट्ठतो भणिओ, महंतो यसोगुणेहिं वीरोति महावीरो, एत्थ सीसो भणइ गणु 'सुयं मे आउसंतेण' ४ एवं णज्जति समणेण भगवया महावीरेणं एयमज्झयणं पन्नत्तमिति किं पुण ग्रहणं कयमिति १, आयरिओ भगइ-समणो चउब्विहो, तं ० णामसमणो उवणसमणो दव्यसमणो भावसमणोत्ति, एवं भगवमवि चउब्विहो, एवं महावीरोवि चउब्विहो भवति, तत्थ नामठवणादन्वाणं पडिसेहनिमित्तं भावसमणभावभगवंतमहावीरग्गहणनिमित्तं पुणोमहणं कथं, 'पा'पाने' धातुः अस्य धातोः काश्यपूर्वस्य 'आतोऽनुपसर्गे (पा. ३-२-३ ) इति कः प्रत्ययः काश्यं पिवतीत्येवं विगृह्य उपपदसमासे सुलुक् अनुषन्धलोपः 'अतो लोपे' (पा. ६-४-४८ ) त्याकारलोपः परगमने काश्यपः, काशो नाम इक्खु भण्णह, जम्हा तं इक्खु पिचति तेन काश्यपा अभिधीयत, अथवा काश्यपं गोतं कुलं यस्य सोऽयं काशपगोतो तेण काशपगोत्तण, प्रवेदिता नाम विविमनेकपकारं कथि तेत्युक्तं भवति, सुक्खाया नाम सोभणेण पगारेण अक्खाता सुट्ट वा अक्खाया, सुपण्णत्ता णाम जद्देव परूविया तद्देव आइण्णावि, इतरहा जइ उबईसिऊण न तहा आयरंतो तो नो सुपण्णत्ता हाँतित्ति, सेयं नाम पत्थं, 'मे' ति अत्तको निदसे, अहिजि उं नाम अज्झाइ, अज्झयणं नाम 'अज्झप्पस्साणयणं कम्माण अवचयो उवचियाणं । अणुवचयो य नवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छीत ॥ १ | धम्मो पण्णविज्ञमाणो विज्जति जत्थ सा धम्मपन्नत्ती, एत्थ सीसो तमज्झयणमजाणमाणो आह- 'कमरा खलु सा छज्जीवणिया णामज्झयणं समणेण भगवया महावीरेण कासवेण जाय पत्ती ?, आयरिओ भण्णइ - इमा खलु सा
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अध्ययनोपोद्घातः
॥१३२॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] | गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
छज्जीवणियाणाम जाव पन्नत्ती, तं० पुटवीकाइया आउक्काइया तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया तस- अध्ययनो
काइया, 'प्रधु प्रत्याख्याने' धातुः, अस्य धातोः 'प्रथेः पिवन संप्रसारणंचे (उपादि २ पादः) ति षिवन्प्रत्ययो भवति संप्रसारणं च, पोद्घात: चूर्णी.
अनुबन्धलोपः परगमनं पृथिवः स्यधिकारे 'पिगौरादिभ्यथेति (पा. ४-१-४१) डीप्रत्ययः पृथिवी, 'चि चयने' धातुः अस्य |.
निवासचितिशरीरोपसमाधानेष्यादेवक' इति (पा. ३-३-४१) घम् प्रत्ययः आदेश्व ककारः अनुबन्धलोपः परगमनं कायः 15 पृथिवीकाया, मध्ये शेषलक्षणा पठ। डम्, 'अण् नद्याः' (पा. ७-३-११२) अडागमः 'इको यणचि' (पा. ६-१-७७) इति यणा-1 ॥१३३॥
देशः, कायशब्दस्य प्रथमासोर्विसनीयः, पृथिव्याः कायः षष्ठी' (पा. २-२-८) सुबन्तेनोत्तरपदेन सह समस्यते तत्पुरुषश्च समासो भवति 'धातुप्रतिपदिकयो'रिति (पा, २-४-७१) सुब्लुक एकपदमेकस्वराविभक्तित्वं च, पृथिवी काय:- निवासोऽस्य * 'तस्य निवासेति (पा. ४-२-६९) अणि प्राप्ते ठक् प्रत्ययः तस्य इकादेशः 'यस्येति चेति (पा. ६-४-१४८) अकारलोपः, पृथिवीकाइकाः, 'आप्ल प्राप्ती धातुः, अस्य धातोः 'आप्नोतेईस्वश्चेति ( उपादि २-५८) किप प्रत्ययः हस्वश्च भवति, अनुबन्धलोप: परगमनं अकायः, मध्ये प्रथमाबहुवचन जस, कायशब्दस्य, पुनरपि कायशब्दः, अप्कायः कायो येषां 'अनेकमन्यपदार्थे' इति (पा. २.२-२४) बहुब्रीहिसमास:, 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो रिति (पा. २४-७१) सुब्लुक एकस्य कायशब्दस्य लोपः परगमनं एकपदमेकस्वरविभक्तित्वं च अष्कायः, अप्कायः निवासोऽस्य 'तस्य निवासेति (पा. ४-२-६९)अणि प्राप्ते ठक् प्रत्ययः तस्य ॥१३३॥ इकादेशः 'यस्येति चेति (पा. ६-४-१४८ ) अकारलोपः अकायिकाः, आउक्काओ सरीरं जेसि जीवाणं ते जीचा आउक्काइया, 'तिज निशामने' धातुः, अस्य धातोः असुन् प्रत्ययः अनुबन्धलोपा, गुणः परगमनं तेजस्कायः, मध्ये षष्ठी जस् कायशब्दात्सु,
ACHERCASESCARSCkCS
दीप अनुक्रम [३२-७५]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
SA
श्रीदश- | तेजसः कायः 'पष्ठी (पा. २.२८) सुबन्तेनोत्तरपदेन सह समस्यते अधिकारातपरुषश्च समासः 'सपो धातप्रातिपदिकयों'- अध्ययनोंबकालिकात (पा. २-४-७१) रिति सुब्लुङ परगमनं एकपदमेकस्परविभक्तित्वं च, तेजस्कायः निवासोऽस्य सोऽस्य निवासे'ति (पा. ४-२-६९)
दापोद्घातः चूर्णी
अणि प्राप्ते ठक् प्रत्ययः तस्य इकादश: परगमनं तजस्कायिकाः, 'वा गतिगन्धनयाः धातुः, अस्य धातोः 'कवापाजिमिखदिसा४ अ०
शूभ्य उण' इत्युण प्रत्ययः (उणादि षा.१-१) 'आतो युकचिण्कृतो रिति (पा. ७-३-३३) युक परगमनं वायुकाया, मध्ये पष्ठी उस 12390 'पी' ति (पा. ७-३-१११) गुणः, 'सिडसोचति (पा.६-१-११०) परपूर्वत्वं कायशब्दस्य प्रथमासः, वायोः कायः षष्ठीसमासा,
'सपो धातुप्रातिपदिकयो (पा. २-४-७१) रिति मुम्लुक एकपदमेकस्वरावभक्तित्व च, पायोः कायः वायुकायः वायुकायः निवासाऽस्य 'तस्य निवास' इति (पा. ४-२-६९) अणि प्राप्ते ठक् प्रत्ययः, अस्य इकादेशः, परगमनं वायुकायिकाः, 'बन पण संभक्तौ' धातुः, अस्य धातोः 'नन्दिग्रहिपचादिभ्य' इति (पा ३-१-१३४) अच प्रत्ययः अनुबन्धलापः परगमनं वनः, 'पा रक्षणे' धातुः, अस्य धातोः 'पानेडेती'ति (उणादि ४-५७) इतिः प्रत्ययः, डकारादकारमपकृष्य डकारस्य 'रे' (पा. ६-४-१४३) रिति टिलोपः, दितभ्यः (प्रत्ययः)स्याप्यनुबन्धकरणसामध्योद्दीप(दाकार) लोप: परगमनं पतिः। दाणि समास वन पति,मध्ये षष्ठी ङस्, पतिशब्दस्य प्रथमासु रुत्वं विसर्जनीयः वनस्पतिः षष्ठी' (पा. २-२-८) सुबन्तेनोत्तरपदेन सह समस्यने तत्पुरुषव समासो भवति, समासे 'सुपो]
धातुप्रातिपदिकयो रिति (पा २-४-३१) सुन्लुन् मुलुकि कृते 'तबृहतोः करपत्योचारदेयतयाः तलोपश्च' (पा. ६-१-१२७॥ CIमुद बनस्य च पती परत: सुर, टकारख 'आयन्ती टेकिता' विति (पा. १-१-४६) विशेषणार्थः, उकार उच्चारणाः , परगमनं ॥१३॥
बनस्पतिकायः, मध्ये षष्ठी, 'डिन्ती'ति (पा. ७-३-१११) गुणः 'सिसोधेति (पा.६.१-११०) परपूर्णत्वं कायः प्रथमासुः
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दीप अनुक्रम [३२-७५]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] | गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
S
प्रत
श्रीदश- वैकालिक चूणौँ
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
४ अ०
॥१३५॥
AGACASSAGAR
वनस्पतेः कायः षष्ठीसमासः 'सुपो धातुप्रातिपदकयो रिति (पा. २-४-७१) सुब्लुक् वनस्पतिकायः २ निवासः एषां सोऽस्य निवा- है अध्ययनोसेति अणि प्राप्ते ठक् प्रत्ययः ठस्य इकादेशः 'यस्येति चेति (पा. ६-४-१४८ ) इकारलोपः परगमनं वनस्पतिकायिकाः, 'बसी | पोद्घातः उद्वेजने' धातुः, अस्य धातोः 'नन्दिग्रहिपचादिभ्य' इति (पा ३-२-१३४) अन्प्रत्ययः अनुबन्धलोपः त्रसा, त्रस काय इति स्थिते मध्ये षष्ठीवचनं आम् 'इस्वनद्यापो नुडिति (पा. ७-१-४) नुद् अनुबन्धलोपः, नामि दीर्घत्वं, कायशब्दस्य प्रथमा सुः बसाना कायः स च षष्ठीसमास: 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो'रिति (पा. २-४-७१) सुब्लुक प्रसकायः२ निवासः एषां 'सोऽस्य निवासे'ति अणि प्राप्ते ठक् तस्य इकादेशः 'यस्येति चेति (पा. ६-४-१४८) अकारलोपः परगमनं त्रसकायिका, संति सरीराणि जेसिं ते त्रसकायिकाः ॥
तत्थ पढम पुढविकाओ, किं कारणं?, जम्हा पुढ विकाओ सन्चभूताणं सरणं पइट्ठाणं च तम्हा पुढविकाओ मणिओ, तत्थ | अणंतर पुढविपइटिओतिकाऊणं आउकाओ भणिओ, ततो तस्सेव पडिबक्खोतिकाऊण तेउकाओ भणिओ, सो य तेउकाओ वाउकाएण विणा ण संजलइ तओ बाउक्काओ भणिओ, वाउकाओ जम्हा वणप्फइउवग्गहे वह तओ वणप्फइकाओ भणिओ, धणप्फई तसाणं उवग्गहे वह तओ तसकाओ भणिओ, तत्थ पुढवी 'चित्तमंता अक्खाया' चित् जीयो भण्णइ, तं चित्तं जाए पुढवीए अत्थि सा चित्तमंता-चेयणाभावो भण्णइ. सो चेयणाभावो जाए पुढवीए अस्थि सा चित्तमंता, अहवा एवं पढिज्ज ॥१३५॥ 'पुढवि चित्तमंता अक्खाया' चित्तं चेयणाभावो चेव भण्णइ, मत्चासदो दोसु अत्थेसु बट्टइ, तं०-थोवे वा परिणामे वा, थोवओ जहा सरिसवतिभागमलमणेण दत्त, परिमाणे परमोही अलोगे लोगप्पमाणमेचाई खंडाई जाणइ पासह, इह पुण मचासदो थोये वट्टर,
AAAAAAR
दीप अनुक्रम [३२-७५]
... षड् जीवनिकाय मध्ये पृथ्वीकायस्य प्रथमत्वस्य कारणं
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] | गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
चूर्णी
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
चिचमात्रमेव तेषां पृथिवीकायिनां जीवितलक्षणं, न पुनरुच्छवासादीनि विद्यन्ते, अहया चित्तमंता नाम जारिसा पुरिसस्स अध्ययनो. वकालिक मज्जपीतविसोवभुत्तस्स अहिमक्खियमुच्छादीहिं अभिभूतग्स चिचमत्ता तओ पुढविकाइयाणं कम्मोदएणं पावयरी, तत्थ सब- पोद्घातः
जहण्णय चित्तं एगिदियाणं, तओ बिसुद्धयरं घेइंदियाण, तओ विसुद्धतराग तेइंदियाण, तओ विसुद्धयरागं चउरिदियाणं, तओ अस-1 ४ अ०४
णीणं पंचेंदियाण संमुच्छिममणुयाण य, तओ सुद्धतराग पंचिंदियतिरियाणं, तओ गम्भवतियमणुयाणं, तओवाणमंतराणं, तओ४ ११३६॥&ाभवणवासीणं ततो जोइसियाणं, ततो सोधम्माणं जाव सव्वुक्कोस अणुत्तरोषवाइयाणं देवाणंति, अक्खाया णाम तित्थगरेहिं पर
| विया, न अम्हारिसेहि इच्छाए परूवितत्ति, अणेगे जीवा नाम न जहा वेदिएहि एगो जीवो पुढवित्ति, उक्तं-'पृथिवी देवता आपो| 18 देवता" इत्येवमादि, इह पुण जिणसासणे अणेगे जीपा पुढवी भवति, सीसो भणति-केवइया पुण होज्जा?, आयरिओ भणइ-असं
| खेज्जाणं पूण पुढविजीवाणं सरीराणि संहिताणि चकविसयमागच्छंतित्ति, पुढो सत्ता नाम पुढविकम्मो दएण सिलेसेण पट्टिया 2वढी पिहप्पिह चवस्थियाति बुत भवह, सीसो आह-जह पुढवी चित्तमतमक्खाया उच्चाराईणि सव्वाणि पुढवीए कीस कीरति
त्तिकाऊणं अहिंसग साहणं कह भविस्सद, आयरिओ आह- 'अण्णत्थ सस्थपरिणएण' अण्णत्थसद्दो परिवज्जणे वट्टइ, किं परिवज्जइयइ , सत्थपरिणयं पुढवि मोत्तूर्ण जा अण्णा पुढवी सा चितमंता इति तं परिवज्जयति, सीसो आह-तं सत्यं ण जाणामो जेण सत्येण परिणामिया पुढवी चित्तमंता न भवइ, आयरिओ भणइ- सत्यं दुविहं, तं०- दव्यसत्थं भावसत्थं च, तत्थ दबसस्थ- 'सत्थग्गिविस' माहा (२३२-१३९) तस्थ सत्यं णाम परसुवासिमादी अग्गिविसाणि लोगपसिद्धाणि हसत्थं च सघयतेल्लादी अंचिलं लोगपसिद्ध खारसत्थं नाम जे खाररुक्खा निवपीलुकरीराई सं खारसत्थं, तं च भावो य दुप्पउत्तो संजमस्स ॥१३६॥
CAMERACACICE
दीप अनुक्रम [३२-७५]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
गाथा
॥३२
५९||
दीप
अनुक्रम |[३२-७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९/४७-७५], निर्युक्तिः [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णी.
४ अ०
॥१३७॥
सत्थं भवइ, दुप्पउत्तो नाम अकुशलमणोति वुत्तं भवइ, एवं काया वायावि दुप्पउत्ता संजमस्त सत्थाणि भवति, तथा अविरती संजमस्त सत्थं भवति न तेण भावसत्थेण अधिगारो, दब्वसत्थेण अधिगारो, तस्स दव्वसत्यस्स तिमि पगारा भवति, तं०'किंवी सकायसत्थं' गाहा ( २३३ १३९ ) किंची ताव दव्वसत्थं सकायसत्थं किंीच परकायसत्यं किंचि उभयकाय सत्यंति, तत्थ सकाय सत्थं जहा किण्हमट्टिया नीलमट्टियाए सत्थं, एवं पंचवण्णावि परोप्परं सत्थं भवति, जहा य वण्णा तहा गंधरस फासावि भाणियच्या, परकायसत्थं नाम पुढविकायो आउक्कायस्स सत्थं पुढविकायो तेउक्कायस्स पुढविकाओ वाउकायस्स पुढविकाओ वणस्सका यस्स पुढविकाओ तसकायस्स, एवं सच्चे परोप्परं सत्थं भवंति उभयसत्थं नाम जाहे किण्हमट्टियाए कलुसियमुदगं भवइ जाव परिणया, ण य लोगे करीसादिणा उवघातो दीसह सावि परिहरिज्जइ, कम्हा ?, जम्हा सो केवलिपच्चक्खो भावोचि, तम्हा साहवो सत्थपरिणयाए पुढवीए उच्चाराईणि कुव्यमाणा अहिंसा भवतीति, कश्विदाह- अचेतना पृथिवी, कस्माद् ?, उच्छ्वासनिश्वासगमनाद्यभावाद् घटवत्, असदेतद्, अनैकान्तिकत्वादण्डकादिवत् प्राणिनामंडकावस्थायां कललार्बुदाद्यवस्थायां वा उच्छ्वासाद्यभावः तदभावात्तेषामचेतनत्वं प्रसज्यते, अनिष्टं चैतत् तस्मादनैकान्तिकादिदोषः, शिष्य आह- तावदेषामेकेन्द्रि याणां चैतन्यमाज्ञया ग्रहीतव्यमाहोश्चित् काचिदुपपत्तिरस्ति ?, अस्तीति, उक्तं च- 'आगमचोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपादने || १ || आचार्याह- उभयथापि, आज्ञया तावदासवचनप्रामाण्यादिति, आह च- 'आगमो ह्याप्तवचनमाप्तं दोषक्षयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयात् हेत्वसंभवात् ||१||' उपपत्तिमप्यंगीकृत्येदमुच्यते-सात्मिका पृथ्वी विद्रुमलता समानजातीयरूपांकुरोत्पच्युपलंभाद् देवदत्तमांस कुरवत् । इदाणिं आऊ-आउ चित्तमंत मक्खाया जाव अण्णत्थ
•••• अत्र पृथ्वीकाय आदीनां सचेतनत्व निरूप्यते
[150]
शख
निरूपणं
॥१३७॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदश- सत्थपरिणएणं, सात्मक जल भूमिखातस्वाभाविकसंभवाद् ददुरवत् , तेचित्तमंतमक्खाया जाष अषणय सस्थपरिणपणं | वैकालिक
नादीनांसात्मकोऽनिः आहारेणाभिवृद्धिदर्शनावालकशरीरवत्, वाऊ चित्तमंतमक्खाया जाव अण्णस्थ संस्थपरिणएण सात्मको चूणों वाघुम्भपरप्रेरिततिर्यगनियामितानर्गमनागोवत् । इदाणिं वणस्सती भण्णा, तत्थ अग्गवीया नाम अग्ग-पीयाणि जेसि ते अग्गवीया
सचेतनता ४ अ०
जहा कोरेंटगादी, तेसि अग्गाणि कप्पंति,मूलवीया नाम उप्पलकंदादी, पोरवीया नाम उक्खुमादी, खंघीया नाम अस्सोस्थकवि-13 इसलादिमायी,बीयरुहा नाम सालीवीहीमादी, समुच्छिमानाम जे विणा बीयेण पुढविवीरसादीणि कारणााण पप्प उडेति,तत्थ तणग्ग-16 हणेण तणमेया गहिया, लतागहण लताभेदा गहिया, वणस्सइकाइयगहणेण जावंति केइ पत्तेयसरीरा सादारणसरीरा प सुहमा 4 बादरा य सबलोगे परियावण्णा ते सव्वे गहितति, वणस्सइकायभेददरिसणेष य सेसाणपि पुढविकाइयाइर्ण भेदा महया भवंति, तत्थ ॥ | पुढवीय सकरा वालुगा य एवमादी आउस्स हिमादी अगणिकायस्स इंगाले जलण एवमादी वाउकायस्स उकलियावार मंडलियावाए
एवमादी, सचीयग्गणेण एतस्स चेव वणस्सइकाइयस्स बीपपज्जवसाणा दस भेदा गहिया भवंति-'तं-मले कंदे खंधे तया य ५ साले तहप्पवाले या पचे पुप्फे य-फले बीए दसम य नायव्वा ॥१॥ सीसो आह-जो बीए जीवो आसीतेमियोक्ते समाणे किं
अण्णो तस्थ उववज्जइ अह सोचेच य जीवो विरोहइ ?, आयरिओ भणइ- 'जोणिभूए य पीए' (बीए जोणि २३४-१४०) गाहा, बीयं दुविह- जोणिम्भूयं अजोणिभृयं च, तत्थ जोणिभूयं नाम अविद्धत्थजोणीयं, जहा लोगे पंचपंचासिया नारी अजोणि
भूया भवइ, नो पजणेइ, एवं बीयाणिवि कालंतरेण अबीयीभवंति, जं च अजोणीभूतं तं नियमा निज्जीव, जोणीभृतं सजीव होज्जा Iणिजीवं बा, तमि जोणिन्भूए वीए सो चव बीयजीवो मरित्ता उववज्जति अण्णो वा उववज्जेज्जा, पुणोषि तत्थ अण्णेवि जीवा
दीप अनुक्रम [३२-७५]
सकार
45
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
गाथा
॥३२
५९||
दीप
अनुक्रम |[३२-७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९/४७-७५], निर्युक्तिः [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशबैकालिक
चूर्णो
४ अ०
॥१३९॥
वकमंति, मणियं च "सच्चोऽवि किलसओ खलु उग्गममाणो अगं तओ मणिओ। सो चैव य वहुतो होइ अणंतो परितो वा ॥ १ ॥” जो सो बोयसरीरी जीवो सो जहा जहा वह कायो तुहा वहा पत्तं निवत्तेइ मूलं खधं, साहाओ पुण अण्णे पच्छोववण्णगा निवर्त्तेति, से सुत्तप्फासं गाहा ( ६०-१४१ ) सेसं जमतेषु सु कायेसु सुत्तफासियनिज्जुत्तीए भणियं तं सुतं काये अणुफासंतेहि अहकर्म भाणियन्त्रं, पगरणे पदेहिं वंजणेहि य सुविसुद्धति, तत्थ पगरणं अहिगारो जेण भण्णति, पदं लोगपसिद्ध चैव वंजणं अक्खरं मण्णइ, ते य पंच अज्झयणस्था हमे, तं०- जीवाभिगमे अजीवाभिगमो धम्मो जयणा उवदेसो धम्मफलमिति छट्टो, जीवाभिगमो कहं इमाए गाहाएण मणिओ ?, आयरिओ भगह-गणु 'काए काए अहकम्मं ब्रूया' इति एतेण चैव छट्टो अधिगारो मणिउत्ति, सचेतनास्तरवः अशेषत्वगपगमे मरणोपलंभादेवदत्तवत्, श्रोत्रस्पर्शवान् अशोकः सनुपुरविभूषिताङ्गनाङ्गसस्पर्शनेन विकारदर्शनात् प्रतनुरागपुरुषवत् चक्षुरिंद्रियवती चिता आदित्योदयास्तमयाभ्यां स्वमप्रबोधदर्शनादेवदत्तवत् रसनाचान्वकुलः संपण विकारदर्शनान्मद्यपपुरुषवत् प्राणवत्यो कर्कटिकादयः पशुकरीषास्थिधूपगंधेन दौर्हृदापगमाभावत् । इयाणि 'तसा चित्तमंता अक्वाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्यपरिणएणं' एतेसि चक्खाणं जहा पुढवीए तहा भाणियव्वं, 'से' सि निद्देसो 'जे'त्ति य विसेसियाणं गहणं, पुणसद्दो विसेसणे, 'हमे' ति सव्वलोगपसिद्धा बालादीणमवि पच्चक्खा अगभेदभिण्णा द्विंदियादिपाणिणो णायच्या, अणेगे नाम एकमि चैव जातिभेदे असंखेज्जा जीवा इति, वसंतीति ससा, पाणा नाम भूतेति वा एगट्टा, ते य इमे तं० अंडया पोतया जराडया रसया संसइमा समुच्छिमा उभिदा उपाया, तत्थ अंडसंभवा अंडजा अहा हंसमयूरायिणो, पोतया नाम वस्गुलिमाइणो, जराउया नाम जे जरवेढिया जायंति
[152]
पृथ्व्यादीनांसचेतनता
॥ १३९॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
४ अ०
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
१४०॥
श्रीदश- जहा गोमहिसादि, रसया नाम तकबिलमाइसु भवंति, संसेयणा नाम ज़्यादी, समुच्छिमा नाम करीसादिसमुच्छिया, उब्भिया
प्रव्यावकालका नाम भूमि भेत्तूर्ण पंखालया सत्ता उप्पज्जति, उववाइया नाम नारगदेवा,एते अंडयादयो अट्ठविहाए जाणीए उप्पण्णा तसा चूर्णी
भवंति, तेसिं च तसाणं लक्खणाणि लोगपसिद्धाणि तहावि थिरीकरणणिमित्तं भण्णइ-जेसि केसिंचि पाणाणं' जेसि केसिंचित्ति अविससियाणं गहणं, पाणा पुब्वभणिता, इदाणं जाणि लक्खणाणि भणिहिति ताणि जेसि अस्थि ते जीवा तसा | जाणियव्वा, सीसो आह-काणि पुण ताणि लक्खणाणि, आयरियो भणइ, इमाणि, तं- 'अभिवत पडिकतं संकुचिय | पसारियं रुयं भंत तसिंयं पलाइयं' आलावगा उच्चरियव्वा, अभिकतं णाम अभिमुख कंतं अभिकतं, पण्णवगं पडुच्च
अभिमुखमागमणति बुतं भवति, परम्मुहं कत परकर्त, गमणंति बुत्तं भवइ, संकुचियं णाम हत्थपादादीणं अंगाणं, पसारियं जं |आउण्टणं तं संकुचित भण्णइ, तसिं चेच आकुचियाणं जं विमोक्खणं तं पसारियं भण्णा, रुयं नाम सहकरणं भण्णा, भंत नाम |
ज देसाओ देसतरं भमइ, तसिय नाम जं सारीरमाणसाणं दुक्खाणं उब्बियणं, पलाइयं णाम जे भयाभिभूयस्स नासणं, आगमणं | आगई, गमणं गती, एत्थ सीसो आह-- अभिकंतं सा चेव आगती जं पडिकल सा चेव गइति, एत्थ पुणरुत्तदोसो भवह, |
आयरिओ भणइ-जोर्स अभिकतादाणि लक्षणाणि अस्थि वेहिं ताणि जति विण्णायाणि जहा वयं अभिकमामो एवमादी तो सो | तसो भण्णइ, इतरहा अलाचुतचुसादिणोषि बल्लिविसेसा रुक्ष वाडि वा अभिमूहा अभिकर्मति, सि रुक्षवाडीयाईण अग्गं || पाविऊण पुणो पडिकमंति, तओ सेसिपि तसत्तं पापति, अतो पुणरुत्तं न भवइ, जे चेव अभिकमणाणि जाणंति ते चा तसा ||
४ ॥१४॥ | भण्णति, न पुण अलावुतबुसाईणो विततिविसेसा ओहसमाए बमाणा अभिकमणादीणि कुवंता तसा भवंति, सीसो आह--
Acce
दीप अनुक्रम [३२-७५] |
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदन- विगलिंदियावि न जाणीव जहा अम्हे अभिक्कमणपडिकमणादीणि कुवामो तहा पंचिदियावि अब्बसव्वयत्तणेण केइ ण जाणेति पृथ्व्या
का जहा वयं अभिकमणपटिकमणादीणि कुल्यामोति तो कि ते तसा न भण्णाति?. आयरिओ भणड-सतिषि य सण्णिभावे ते आहा--II दीनादिरादीम इंदियस्थेसु इवेसु अभिकमीत अभिलसंतित्ति बुतं भवइ, अणिसु य पडिकमंति, उब्वियंतित्ति वुत्तं भवइ, न पुण तहा४ सचेतनता ४ अ० एगेंदियाण फुडाणि ताणि अभिकमणपडिकमणादाण लक्षणाणिति, तम्हा सिद्धाणि अभिकमणपडिकमणादीणि ताणि लक्ष
जाणि तसाणात, ते य इमे तसा पचेर्य भण्णति, तत्थ कीडग्गहणण किमियाण, 'एगग्गहणे ताइयाणं गहणं भवाति न ॥१४॥
| केवलं किमिस्सेगस्स, किंतु सम्बेसि इंदियाण गहणं कयमिति, पतंगगहणेण सम्वेसि चउरिदिपाणं गहणं कर्य, कुंथुपिपीलियागहणेण तेइंदिया गहिया, सच्चे नेरहया सम्बे पंचेंदिया सव्वे तिरिक्खजोणिया सम्वे मणुया सब्वे देवा सव्वे पाणा परमाहम्मिया, जमेतं सव्वगहणं एवं अपरिसेसनिमित्तं कर्य, कर, जे एते भणिया ते सच्चे तसा भवति, तओ जहा तिरिक्खजोणि-- याण मेदा भणिता तं० तसा थावरा य, किंतु एते सव्वे तसा भणंति, परमाहाम्मिया नाम अपरमं दुक्खं परमं सुहं भण्णइ, सव्वे पाणा परमाधम्मिया-सुहामिकखणोत्ति वुत्तं भवइ, अहवा एवं सुत् एवं पढिज्जइ 'सध्धे पाणा परमाहम्मिया'। | इकिकस्स जीवस्स सेसा जीवमेदा परा, ते य सम्वे सुहाभिकांखिणोति तुत्तं भवति, जो तेसि एकस्स धम्मो सो सेसाणपितिकाऊण सम्बे पाणा परमाइम्मिया, जे एते अभिकमणादिलक्खणा जीवा भणिया एतेसि ते पुढविकातियाईणं पंचण्ह कायाण ॥१४॥ छट्टो जीवनिकायो तसकायोति पवुच्चइ, पवुच्चइ नाम विविहेहिं पमारेहिं बुच्चह, एस जीवाभिगमो भणिओ, विद्यमानकर्तृकमिद शरीर आदिमत्प्रतिनियताकारत्वाद् घटवत् ।
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प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
गाथा
॥३२
५९||
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९/४७-७५], निर्युक्तिः [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूण
४ अ०
॥१४२॥
3643
इयाणि अजीवाभिगमओ भण्णइ अजीवा दुविधा, तं०-पोग्गला नोपाग्गला य, पोग्गला छब्बिहा, तं० सुडुमडुमा सुद्दमा सुहुमवादरा बादरमुडुमा बादरा बादरबादरा, सुडुमडुमा परमाणुपोग्गला, सुरुमा दुपएसियाओ आढता जाब सुहमपरिणओ अणतपएसओ खधो, सुहुमवादरा गंधपोग्गला, बादरसुडुमा बाउकायसरीश, बादरा आउकायसरीरा उस्सादीण, बादरबादरा तेउवणस्सइपुढवितस सरीराणेि, अहवा चउब्बिहा पोग्गला, तं० स्कंधा स्कंधदेशा खधपएसा परमाणुपोग्गला य, एस पोग्गलत्थिकाओ गहणलक्खणो । गोपोग्गलत्थिकायो तिविहो, तं०- धम्मत्थिकायो अधम्मत्थिकायो आगासत्यिकायो, तत्थ धम्मत्थिकायो गतिलक्खणो अधम्मत्थिकाओ ठिइलक्खणो आगासत्थिकाओं अवगाहलक्खणो, अजीवामिगमो भणिओ ॥
इयाणि चरितधम्मो 'इच्चेएहिं छर्हि जीवनिकाएहिं' (२-१४३ ) इतिसदो अगेगेसु अत्थे बट्ट, तं० - आमंतणे परिसमातीए उवप्पदरिसणे य, आमंतणे जहा धम्मपति वा उवसपति वा एवमादी, परिसमत्तीए जहा 'इति खलु समणे भगवं ! महावीरे' एमादी, उपपदरिसणे जहा 'इच्चेए पंचविहे बव्हारे' एत्थ पुण इच्चेतेर्हि एसो सहो उबप्पदरिसणे दृङ्कव्यो 体 उवप्पदरिसयति ?, जे एते जीवाभिगमस्स छ भैया भणिया इच्चेएहिं छहिं जीवनिकाएहि 'णेव सयं इंदं समारभेज्जा' तत्थ नकारो पढिसेहे वइ, एवसहो पायपूरणे, सयमिति-अत्तणो विदेसे, डंडो संघट्टणपरितावणादि, समारभणं नाम तस्स संघट्टमादिडंडस्स पवत्तणं, एवं ठेवण्णेहिं डंडं समारंभावेज्जा डंडं समारभतेवि अत्रे न समणजाणेज्जा, सीसो भणइ-केच्चिरं कालं ?, आयरिओ मणइ जावजीवाए, ण उ जहा लोइयाणं विभवओ होऊण पच्छा पडिसेवर, किंतु अम्हाणं जावजीवाद बढति, 'तिविहं तिविहेणं'ति सयं मणसा न चिंतयह जहा बहयामिति, बायाएव न एवं भणइ-जहा एस बहेज्जउ, कारण सयं न
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अजीवा
भिगमः चारित्रधर्मः
॥१४२॥
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
उप
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
चूणां.
श्रीदश
परिहणति, अबस्सवि णेत्तादीहिं णो तारिस भावं दरिसयइ जहा परो तस्स माणासयं णाऊण सचोवधायं करेइ, वायाएवि, वैकालिक IP संदेस न देव जहा ते घाएहिति, कारणवि गो हत्थादिणा सण्णइ जहा एवं मारयाहि, घातंतंपि अण्णं दणं मणसा तुहिन स्थापनाई।
Xकरेइ, वायाएवि पुच्छिओ संतो अणुमईन दह, कारणावि परेण पुच्छिओ संतो हत्थुक्खेवं न करो, तस्स भता परिकमामि४ अ० ति 'तस्सति नाम जो सो परितावणादि देडो, 'भंते "ति भयवं भवान्त एवमादी भगवतो आमतणं, कई !, गणहरा भगवओ|N
सगासे अत्थं सोऊण वताणि परिवज्जमाणा एवमाहु, पडिकमामि नाम ताओ दंडाओ नियत्तामिचि वृत्तं भवइ, जं पुण पुब्धि ॥१४३॥ अन्माणभावण कयं तं जिंदामि नाम '
हादुछ कयं हा! दुइछु कारियं अणुमयपि हा दृढ़। अंतो २ उज्झइ हियय पच्छाणुतावण ॥१॥ गरिहामि णाम विविहं तीताणागतवट्टमाणमु कालेसु अकरणयाए.अमुट्ठमि, आइ-जो एसो दंडनिक्खेयो एवं महबयारुहणं तं किं सम्बेसि अविसीसयाणं महन्वयारुहणं कीरति उदाहो परिक्खिऊण ?, आयरिओ भणइ-जो इमाणि कारणाणि | सदहह, जीवे पुढविकाए न सहहह जे जिणेहिं पण्णचे । अणाभगयपुण्णपावो ण सो उवट्ठावणे जोगो॥१॥एवं आउकाइए जीवे एवं जाव तस
काइए जीवे, एयारिसस्स पुण समारुभिज्जति, तं०-'पुढविकाइए जीवे सहइ जे जिणेहिं पण्णचे । अभिगतपुण्णपावो सो उवट्ठावणा-1 ४जोगो ॥ १ ॥ एवं आउकाइए जीवे एवं जाव तसकाइए जीवे, अभिगतपुण्णपावो सो उवट्ठावणाजोगो, छज्जीवनिकाए पढि-18
याए ताहे परिक्खिज्जइ, किंी-परिहरहण परिहरइचि, जइ परिहरह तो उवढाविज्जद, इतरो न उवट्ठाविज्जति, कह , जह मइलो ॥१४३॥
पडो रंगिओ न सुंदरो भवइ सो, इयरो रंगिज्जमाणो सुंदरो भवइ, एवं जइ असद्दहियाए छज्जीवनियाए उवट्ठाविज्जह तो महइब्वयाणि न धरेइ, सदहियाए छज्जीवणियाए उवढाविज्जमाणे थिरया भवंति सुंदरो य भवइ, जहा वा पासादो कज्जमाणो जइ
GRORSCRIBE
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] | गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
ॐ
श्रीदश-
वैकालिक
प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
॥१४॥
कयवर सोहिचा कज्जइ तो सुंदरो य घिरी य भवइ, असोहिए पुण अधिरो भवइ, एवं कयवरचाणीए मिच्छत्ते असोहिए उच-
1 बतभंगाः । द्वाविज्जइ तो महव्वयाणि न थिराणि भवति, जहा आउरस्स ओसह वियरिज्जइ तं जइ वमणविरेयणाणि काऊण दिज्जह तो लग्मइ, | एवं जइ सहहितादिसु उचड्ढाविन्जति ता धरेइ महव्वए, असहहितासु अथिराणि भवति, जम्हा एते दोसा सम्हा पढियाए कहियाए सद्दहियाए परिक्खिते परिहरिए, अभिगते णाम जति अपव्वावणिज्जाणं गणतरो ण भवति ताहे विसुद्धो उक्ट्ठाविज्जति,
तस्स य महम्बयाणि अभणियाणि न णज्जति तओ ताणि भण्णाति जहा-'पढमे भंते । महब्बए' ति (३-१४४ ) पढमति | Piनाम सेसाणि मुसावादादीणि पड्डच्च एतं पढम भण्णइ, मंते । ति आमंतणं सांसो वएसु उच्चारिज्जतेसु गुरुणो करेइ, महन्वर्य
नाम महंत वतं, महत्वयं कथं , सावगवयाणि खुडग़ाणि, ताणि पहुच्च साहण बयाणि महंताणि भवंति, एत्थ निदरिसणे 'सीयालं मंगसयं' गाहा, न करेह न कारवेह करत नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा १, न करेइ न कारवेइ करत नाणुजाणद। मणसा वयसा २ अहवा न करेइ न कारवेइ करतं नाणुजाणइ वयसा कायसा ३ न करेह न कारखेद करतं नाणुजाणइ मणसाID कायसा ४ एते तिण्णिवि मंगा पायसो मुण्णा, तिविहं एगविहेण न करेइ न कारवेद करतं नाणुजाण मणसा ५ अथवा न करे। न कारवई करत नाणुजाणइ वयसा ६ अहवा न करेइ ण कारवेइ करत नाणुजाणइ कायसा ७ एते तिष्णिवि भंगा पायसो मुण्णा, एते सत्त मंगा तिविह अणमुयर्तण लद्धा, इयाणि दुविह तिविहेण-न करेह न कारवेइ मणसा वयसा कायसा अइवा न करेइ करतं | नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा अहवा न कारवेइ करतं नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा, एते तिष्णि भगा दुविहं तिविहण ॥१४४॥ लद्धा, इदाणि दुविहं दुविहेण-ण करेइ ण कारवेद मणसा वयसा १ अहवा न करेह ण कारवेह वयसा कायसा २ न करेइन कारवेइ
ESEAॐ
दीप अनुक्रम [३२-७५]
R
434560
... प्रथम महाव्रतस्य निरूपणं
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
प्रत्याख्यानमंगाः
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
%
Mमणसा कायसा ३ अहवान करेइ करत नाणुजाणइ मणसा वयसा ४ अहवा न करेह करत नाणुजाण मणसा कायसा ५ अहवा न करे। वैकालिका करत नाणुजाणइ वयसा कायसा ६ अहवा न कारवद्द करते नाणुजाणइ मणसा वयसा अहवा न कारवेइ करत नाणजाणइ मणसा
चूॉ. कायसा८न कारवेद करते नाणुजाण वयसा कायसा ९, एते नव भंगा दुविह दुविधेण लद्धा, इदाणिं दुबिई एकविधण, न करेइ । ४ अ० न कारवेइ मणसा अहवा न करेइ न कारवेइ वयसा अहवा न करेइ न कारवेइ कायसा अहवा ण करेइ करेंत णाणुजाणइ मणसा
अहवा न करेइ करत नाणुजाणइ वयसा अहवा न करेइ करेंतं नाणुजाणइ कायसा अहवा न कारखेह करतं नाणुजाणइ मणसा ॥१४५॥
अहवा न कारवेइ करेंते नाणुजाणइ वयसा अहवा न कारवेइ करेंत नाणुजाणइ कायसा, एते नव भंगा दुविहं एकविहेण लद्धा,। इयाणि एकविहं तिबिहेण-ण करेइ मणसा वयसा कायसा अहवा न कारवेद मणसा वयसा कायसा अहवा करेंत नाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा, एते तिष्णिवि भंगा एकविहं तिविहेण लद्धा, इयाणि एकविहं दुविधेण-न करेइ मणसा वयसा अहवा न करे। वयसा कायसा अहवा न करेइ मणसा कायसा अहवा न कारवेद मणसा वयसा अहबा न कारवेद मणसा कायसा अहवा न कारवेइ वयसा कायसा अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा अहवा करेंतं नाणुजाणइ वयसा कायसा, एते नव भंगा एगविहं दुबिहेण लद्धा, इदाणि एकविहं एकविहेण-न करेइ मणसा अहवा न करेइ वयसा अहवा न करेइ कायसा अइवा न करावेद मणसा अहवा न करावेह वयसा अहवा न करावेद कायसा अहवा करत नाणुजाणइ मणसा अहवा करतं नाणुजाणइ वयसा अहवा करें। नाणुजाणइ कायसा, एते नव भंगा एक्कविहं एकविहेण लद्धा, इयाणि एत सब्वेवि एगो पिडिज्जति, तत्थ तिविहं अणुसुयंतेण सत्त लद्धा, तिविहेण तिणि लद्धा, एते संपिडिया जाया दस,
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
प्राणातिपातविरमणम्
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
चूणों ४०
श्रीदश- दुविहं दुविहेण णव लद्धा, ते दसमु पक्खिता, जाया एगूणवीस, तिविह एगविहेण णव लद्धा, एते एगूणवसिाए पक्खित्ता, चकालिकाताजाया अट्टवीस, एकविध तिविहेण तिणि लद्धा, ते अड्डाबीसाए पक्खित्ता, जाया एकतीसा, एकविहं चूणा दुविहेण णव लद्धा, ते एकतीसाए पक्खिचा जाया चत्तालीसं, एकविहं एकविहेण लद्धा णव, तेवि चत्ताली
R३३२२२१११
|३२१३२१३२१ साए पक्खित्ता, जाया एगूणपणं, एते पटुप्पण्णे काले पच्चक्खायंतण लद्धा, अतीतेवि एत्तिया चेव, 3330038 ॥१४६॥ अणागएवि एत्तिया चव, एयाओ तिष्णि एगूणपण्णाओ सत्तचत्तालं भगसयं भवइ, एत्थ य जो 4
साहूणं भंगो जुज्जइ तेण अधिगारो, सेसा उच्चारियसरिसत्तिकाऊणं परूविया, जम्हा य भगवती साधवो तिविहं तिविहेण पञ्चक्खायति तम्हा तेसिं महब्वयाणि भवंति, साचयाणं पुण तिविहं दुविहं पच्चखायमाणाणं देसविरईए खुडलगाणि वयाणि भवंति, पाणाइवाओ नाम इंदिया आंउप्पाणादिणो छविहो पाणा य जेसिं अस्थि ते पाणिणो भण्णति, तेसिं पाणाणमइवाओ, तेहिं पाणेहि सह विसंजोगकरणन्ति वुत्तं भवइ, तओ पाणाइवायाओ वेरमणं, पाणावायवेरमणं नाम नाउँ सद्दहिऊण पाणातिवायस्स अकरण भण्णइ, सब्ब नाम तमेरिसं पाणाइवायं सव्व-निरवसेसं पच्चक्खामि नो अद्धं तिभाग वा पच्चक्खामि, संपइकालं संवरियप्पणो अणागदे अकरणणिमित्तं पच्चक्खाणं, सीसो आह-सो पुण पाणाइवाओ केसु भवइ जओ सो साह पच्चक्खाणं करेइ ?, आयरिओ भणइ-से सुहम वा पायरं वा तसं वा थावरं वा 'सेति निद्देसे वइ, किं निद्दिसति !, जो सो पाणातिवाओ ते निदेसेइ, से य पाणाइबाए सुहुमसरीरेसु वा बादरसरीरेसु वा होज्जा, सहर्म नाम P सरीरावगाहणाए सुट्ठ अप्पमिति, बादरं नाम धूलं भण्णइ, तत्थ जे ते सुहमा बादरा य ते दुविहा तं-तसा य थावरा वा,
CRACHARACCIDES
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*4t HD
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,
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदश-द तत्थ तसंतीति तसा, जे एगमि ठाणे अवट्ठिया चिट्ठति ते थावरा भण्णांति, तसा वा थावरा वा जीवा पाणेहि णो विसंजोएज्जा, प्राणातिवैकालिका | सुहुमवादरगहणेण दव्यओ गहणं कप, एगगहणे महणे तज्जाईयाणमितिकाउंतिष्णिवि खेत्तकालभाषा गहिया, इयाणि एस एव |
पातचूर्णी
विरमणम् पाणाइवाओ चउबिहो सवित्थरो भण्णइ,तं०-दबओ खेत्तओ कालो भावओ. दबओ छस जीवनिकाएमु सहुमबादरेसु भवति,181 ४ अ०
खत्तओ सबलोगे, किं कारणी, जेण सबलोए तस्स पाणाइवायरस उपपत्ती अस्थि, कालओ दिया था राआवात चव सुहुमवादरा ॥१४७॥
जीवा बवरोविज्जंति, भावी रागेण वा दोसण वा, तत्थ रामेण मंसादीणं अट्ठाए, अहवा रागण कोह कांच अणुमरति, दासण वितियं मारेइ, जी पुण रागदोसविरहिओ अप्पमत्तो सत्तं पाएइ तस्स पाणाइवाओण भवइ, कई ', जम्हा दाओ नामंग| पाणाइवाते णो भावओ १ भावओ नामेगे पाणाइवाते नो दन्यतो २ एगे दवआधि भावओवि ३एगे णो दब्बआ णा भावआ४, एतेसि मैगाण णिदरिसणं बहा दुमपुरिफयाए, तमतं पाणाइवायं णेव सय मणसा फरेज्जा एवं पायाए कारणवि, णो मणसा|5 अण्णं कारवेज्जा णो वायाए अण्णं कारवेज्जा पो कारणं अनं कारवेज्जा, पाणाइवायं करंसपि णो समणुजाणेज्जा मणेणं | वायाए काएणं, 'तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि' एतेसि पयाणं वक्खाणं जहा हेडा, सीसो आह -किमस्थं पाणाइवायवेरमणं कीरह, आयरिओ आह-इहलोंगे चेच पाणाइवायं कुथ्यमाणो गरहिओ होई पंधवहादिणा य दास कयाद पावज्जा, परलोगेस णियमा दोग्गय गच्छति, तम्हा पाणाइवायवेरमणं कायध्वंति,सीसो आह-किं कारणं सेसाणि वयाणि ॥४॥ मोचूण पाणाइबायवेरमणं पढम भणियंति !, आयरिओ भणह-एयं मूलवयं 'अहिंसा परमो धम्मो'चि, सेसाणि पुण महन्वयाणि उचरगुणा, एतस्स चेव अणुपालणत्थं परूवियाणि, 'पढमे भंते महत्वए उवडिओमि सव्याओ पाणाइवायाओ बेरमणं'
6-ट
4-
दीप अनुक्रम [३२-७५]
RATEACROSER
FACEAC-
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
1
का.
प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदश'अहावरे दोच्चे भंते ! महब्बए मुसावायाओ वेरमण (४-१४६) तत्थ अहसदो अणंतरभाचे वट्टइ, कई ?, पढम-
मृषावाद
मृषा वैकालिक
विरमणं महव्वआ इमं विइगं अणंतरंति, सेसे तहेब जहा पाणाइवायवेरमणे, णवरं जो विसेसो सो भण्णइ, तत्थ मुसाबाओ चउविहो, तंचूर्णी ४ अ०
सम्भावपडिसेहो असम्भृयुत्भावणं अत्यंतरं गरहा, तत्थ सम्भावपीडेसहोणाम जहा णस्थि जीयो नत्थि पुण्णं नस्थि पावं नस्थि
वंधो णन्थि मोक्खो एवमादी, असम्भूयुम्भावणं नाम जहा अस्थि जीवो(सब्बवावी) सामागतंदुलमेत्तो वा एवमादी, पयत्थंतरं नाम ॥१४८॥ जो गावि भणइ एलो आसोत्ति, गरहा णाम 'तहेव काणं काणित्ति' एवमादी, सो य मुसाबाओ एतेहि कारणींह भासिज्जइ-से
कोहा या लोहा या भया वा हासा वा' कोइगहणण माणस्सवि गहणं कर्य, लोभगहणेण माया गहिया, भयहासगहणेण पेज्ज
दोसकलह अब्भक्खाणाहणो गहिया, कोडाइग्गहणेण भावओ गहणं कयं, एगग्गहणेण गहणं नज्जातीयाणमितिकार्ड सेसावि दिव्ववेत्तकाला गहिया । इयाणि एस चउबिहो मुसाबाओ सवित्थरो भण्णइ, २०-दचओ खत्तओ काला भावओ, तत्थ दव्वओति
सब्बदब्बेसु मुसाबाओ भवइ, खनओ लोग वा अलोगे वा, णो भणेज्जा अणतपएसिओ लोगो एवमादी, अलोगे अस्थि जीवा || पोग्गला एवमादी, कालओ दिया वा राओ वा मुसाबार्य भणज्जा, भावओ कोहेणं अज्झक्लाणं देज्जा एबमादी, तत्थ दच्चओ नामेगे मुसाबाद ना भावजओर भावओ नामेगे मुसाबादे नो दवओ२ एगे दबओवि भावभावि ३ एगे णो दम्बआ णा भावआ ।
मुसाबाओ, तत्थ दब्बओ मुसाबाओ णो भावओ, जहा कोई भणिज्जा-अस्थि ते कई पसुमिगाइणो दिट्ठा ?, ताहे भणइ-णस्थि 14एस दबओ मुसावाओ पो भावओ, भावओ नो दव्यओ जहा मुसं भणीहामित्ति, तओ तस्स वंजणाणि सहसनि सच्चगाणि
॥१४८॥ पिणिग्गवाणि ताणि, एस भावी नो दव्या, दबओऽपि मात्रओवि जहा मुसाबादपरिणओ कोयि वमेव मसाबाद यदिजा,
दीप अनुक्रम [३२-७५]
... द्वितिय महाव्रतस्य निरूपणं
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
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चूॉ .
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
EN
श्रीदश
से चउत्थो भंगो सुण्णे, सीसो आह-मुसाबादे भासिज्जमाणे को दोसो भवइ, आयरिओ भणइ-इहलोगे ताव गरहिणिज्जो भवद अदत्तादान कालिकासव्यस्स अघिस्ससणिज्जो य जिब्भाछेदणाणि य इहलोगे पावेज्जा, परलोगे पुण नियमा दोग्गहगमणभयं भवति, 'दोचे भंते विरमणं
जाव बेरमणं'। ४ अ०
। 'अहावरे तचे भंते! महब्बए अदिण्णादाणाओ बेरमणं (५-१४१) एतस्सवि महब्वयस्स जो विसेसो सो भण्णइ, सेसं
तहेव जहा पाणाइवायस्स, सीसो भणइ-तं अदिण्णादाणं करिस भवइ, आयरिओ भणइ-जं अदिण्णादाणबुद्धीए परोहें परिगहियस्स ॥१४॥
लावा अपरिग्गहियस्स वा तणकट्ठाइदव्यजातस्स गहर्ष करेइ तमदिण्णादाणं भवइ, से य अदिण्णादाणे खते पडुच्च गाम वा नगर वा रणे वा होज्जा, अप्पबहुगणेण दब्बओ अदिण्णादाणस्स गहणं कयंति, एगगहणेण गहणं तज्जातियाणमितिकाउं खेत्तकालभाषा गहिया, एयं चेव चउन्विहंपि अदिण्णादाणं वित्थरओ भण्णति, तं०-दव्यओ खेतओ कालओ भावओ, तत्थ दव्यओ ताव अप्पं वा बहुँ वा अणुं वा थूलं वा चिचमतं वा अचित्तमंतं वा गेण्हेज्जा, अप्पं परिमाणओ य मुल्लओय, तत्थ परिमाणओला जहा एगं एरंडक, एवमादि, मुल्लओ जस्स एगो कबडुओ पूणी वा अप्पमुल्लं, बहुं नाम परिमाणओ मुल्लओ य, परिमाणओ जहा। तिणि चत्तारिवि बहरा वेरुलिया, मुल्लओ एगमवि बेरुलियं महामोल्लं, अणु मूलगपत्तादी अहवा कहूँ कलिंचं वा एवमादि, धूलं सुवण्णखोडी बेरुलिया वा उवगरणं, चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा, सम्बंपेयं सचिन वा होज्जा अचित्तं वा होज्जा मिस्सयं वा, वत्थल।।१४९।। सचिन मणुयादि अचिचं काहावणादि मीसग ते चेव मणुयाइ अलंकियविभूसिया, खेतओ जमेतं दवओ भणियं एवं मामे वा णगरे। वा मेण्देजा अरण्णे बा, कालओ दिया वा राओ वा गेण्हेज्जा, भावओ अप्पग्धे वा अप्पग्धस्स रायकुलमंडीए महग्धं मोल्लं करेई,
दीप अनुक्रम [३२-७५] |
... तृतिय महाव्रतस्य निरूपणं
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदश- महग्धमुल्लं वा अप्पेण अग्घेण राउलमंडीए किणइ, अहवा जं अदिन्नं गण्हइ त अप्पग्छ वा महग्धं वा होज्जा, तं च अदिष्णादाणा मा मैथुनकोई दवओ गेण्हेज्जा नो भावओ१ भावओ गेण्हेज्जा नो दब्बओर दब्बओवि भावओवि३ एगे नो दध्वओ नो भावओ४, तत्थ
विरमणं चूणों
दवओ नो भावओ जहा तणकट्ठादीणि कोई साहू अरचदुट्ठो अणणुग्णविऊण गेण्हेज्जा तस्स दबओ अदिण्णादाणं नो भावओ, ४ अ०
भावओ नो दब्बो जहा चोरबुद्धीए पचिसिऊण ण किंचि तारिसं ल«ति तं भावओ अदिण्णादाणं नो दव्वओ, दवओवि ॥१५०||
भावओवि जहा चोरबुद्धिए पविट्ठो तारिसं अणेण लद्धं, एयं दब्बओवि भावओवि अदिण्णादाणं भवति, चउत्थो भंगो सुण्णो, सीसो आह-एयस्स अदिण्णादाणस्स को दोसो ?, आयरिओ भणइ-इहलोगे ताव गरहणिज्जो भवइ बंधवहादीणि य पावइ । परलोगे य दोग्गहगमणं भवइ, 'तच्चे भंते ! महव्वए उपाटिओमि सब्याओ अदिण्णादाणाओ बेरमणं'।
●'अहावरे चउत्थे भंते ! महव्वए मेहुणाओ घेरमण' (६-१४१) एयस्सवि महब्बयस्स जो विसेसो सो भष्णइ, सेस 121 तहवे जहा पाणातिवायवेरमणस्स, 'से दिवं चा माणुसं बा तिरिक्खजोणियं वा होज्जा, एगग्गहणे गहणं तज्जाईयाणमितिकार्ड दाखंत्तकालभाषा तिण्ािवि गहिया । इबाणि एयं चउब्बिहंपि मेहुणं वित्थरओ भण्णइ, तं०-दबओ खेचओ काली भावओ य,
तस्थ दबओ मेहुणं रूबेसु वा स्वसहगएसु वा दवेमु, तत्थ स्वेत्ति णिज्जीवे भवइ, पडिमाए वा मयसरीरे वा, रूबसहगयं । तिविहं भवति, तं-दिग्बं माणुसं तिरिक्खजोणियंति, अहवा रूवं भूसणवज्जियं, सड़गयं भूसणेण सह खेतो उडमहोतिरि एसु, उडूं पब्बतदेवलोगाइसु अहे गट्ठाभवणादिसु तिरियं दीवसमुद्देसु, कालओ मेहुणं दिया या राओ वा, मावओ रागेण । वा दोसेण वा होज्जा, रागेण मदणुब्भचे होज्जा, दोसेण जहा कोइ सेहाइ तव्वणिणिगाए महब्बयाणि से भंजामित्तिकाउं
दीप अनुक्रम [३२-७५]
RECENER
ictice
F
|... चतुर्थ महाव्रतस्य निरूपणं
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
वैकालिक
चूणों १ अ०
॥१५१॥
मेहुणं सेवेज्जा, तत्थ दोससमुत्थो रागो, रागो पुण णियमा अत्थि, तं च मेहुणं दवओ सेवेज्जा णो भावओ, पढमो मंगो | मेहुणे णस्थि, कि कारणं, जेण भायेण विणा तस्स संभवो नत्थि, भणियं च- "कामं सब्बपदेसुवि उस्सग्गववायधम्मया विरमणं | दिट्ठा। मोतु मेहुणभाष ण विणा सो रागदोसेहि ॥१॥" अण्णे पुण आयरिआ भणति, जहा इत्थियाए अकामियाए पुरिसेण । सेविज्जमाणीए दवओ मेहुणं णो भावओ भवइ, सत्य जे से भावओ ण दव्यओ सो मेहणसत्रापरिणयस्स असंपत्तीए लब्मतिचि, दब्बओवि भावओवि मेहुणसभापरिणयस्स मेहुणसंपत्तीए भवद, चउत्थों भगो सुष्णो, सीसो आह-मेहुणे को दोसो ?, आयरिओ भणइ--बिम्भमुम्भन्तचित्तयस्स पकिनिदियस्स ताव सुहं चेव णिच्छययो णत्थि, रागद्दोसा य तमि अवस्समेव उदिजंति, ते य रागदोसा संसारहेउणो भणिया, अतो सवपयचेण तं बजेगवंति, 'चउत्थे भंते! महव्वए उवडिओ मि | सव्वाओ मेहुणाओ बेरमणं'। • अहावरे पंचमे भंते ! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं (७-१४८ ) एतस्सवि महन्वयस्स जो विसेसो सो भण्णइ, सेस नहेब जहा पाणाइवायवेरमणे, सो य परिग्गहो चेयणाचेयणेसु दब्बेसु मुच्छानिमिचो भवइ, से गामे वा इति एतेण खेत्तगहणं कयं, अप्पं वा एवमादिग्गहणेणं एगग्गहणे गहर्ष तज्जातीयाणमितिकाउँ कालभावावि गहिया,इदाणि एसो चउम्विहोवि परिग्गही वित्थरओ भण्णइ-दब्बओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ दबओ सम्बदन्वेदि, मुत्ताणऽमुत्ताण य समुदायो लोगो भवइ, तंपि अनियत्ततह-11॥१५॥ चणेण पत्थयति, खेत्तओ सबलोगे, सब लोग ममायति, (कालओ दिया वा राओ वा) भावओ अप्पग्छ वा महग्धं वा ममाएज्जा, सो य परिग्गहो कस्सइ दन्यओ होज्जा णो भावओ १ कस्सइ भावओ णो दलो २ कस्सइ भावओबि दबओपि ३ करसह न ||
दीप अनुक्रम [३२-७५]
... पंचमं महाव्रतस्य निरूपणं
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
चूणौं ।
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदश-IP भावओ न दवओप, तत्थ पढमे भंगे साहुणो मुच्छमगच्छंतस्स दव्यओ परिग्गहो भवइ णो भावओ, भणियं च-'ण सो परिग्गहो । रात्रिभोजन चकालकावुत्तो, इइ बुत्तं महेसिणा ।' बिहओ भंगो मुच्छियस्स असंपत्तीए भवति, तइओ भैगो उवकरणे मच्छियस्स जइणो संपत्तीएप ण
ब्बओवि भावओवि परिग्गहो भवइ, चउत्थो भंगो सुण्णो, सीसो आह-परिग्गहे परिगिज्झमाणे को दोसो', आयरिओ आह४ अ०
जो परिगिण्हतो भवइ सो जहा सउणो मंसपेसीगहियहत्थो अन्नेहि मंसासीहिं सउणेहिं णिब्बुई न लहति तहा सोवि रायतकरमा॥१५॥ादादीएहिं णिव्युई न लहइ, अज्जणरक्खणनिमित्तं च दोससहस्साई पावइ, परलोगे य दोग्गय साहेइ, 'पंचमे भंते ! महब्धएट
उपट्टिओ मि सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं'। |.अहावरे छठे भंते ! वए राईभोयणाओं वेरमणं (८-१४९) सेसं तहेव जहा पाणाइवायवेरमणे, णवर इह जो टू | बिसेसो सो भण्णइ, तत्थ राई पसिद्धा, तीए राईए भोयणं राईभोयणं, ते पुण राई पेत्तुं दिवसओ भुंजइ ४, से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, असणादिग्गहणेण दवओ गहणं कयं भवइ, एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं सेसा तिण्णिवि खेत्तकालभावा गहिया, इयाणि चउबिहंपि राईइ भोयणं वित्थरओ भण्णइ, तं०- दवओ खेत्तओ कालओ भावओ, तत्थ दधओ असणं वा, असिज्जइ खुहितेहिं जं तमसणं जहा कूरो एवमादीति, पिज्जतीति पाणं, जहा मुद्दियापाणगं एवमाइ, खज्जतीति | खादिम, जहा मोदओ एवमादि, सादिज्जति सादिम, जहा सुंठिगुलादी, खेत्तओ समयखेने, समयो कालो भण्णइ, सो जम्मि|| अत्थितं समयखेतं, सो य अढाइज्जेसु दीवसमुद्देसु भवइ, कालओ राई मुंजेज्जा, भावओ चउभंगो, तस्थ दबओ नो भावओ८॥१५२॥ जहा उग्गओ वा मूरिओ अणत्यमिओ वत्तिकाऊणं अरचो अदुट्ठो वा भुंजेज्जा, अहवा आगाडे कारणे तस्स दव्यओ राईभायणं
दीप अनुक्रम [३२-७५] |
... षष्ठं व्रतं 'रात्रिभोजनस्य' निरूपणं
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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श्रीदश- वैकालिका चूर्णी.
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
॥१५३॥
नो भावओ, भावओ नो दब्बओ जहा कोऽपि चिंतेति को जाणइ कयावि सूरो उद्देइ झ्याणि चव भुंजामि, सो य सूरो पुनिषष्ठस्योत्तरचैव उढिओ मेहादिणा आवरिओ नावधारिजइ जहा उढिओत्ति, अहबा रा मुंजामित्ति संकप्पेति, न चेव संपची जाया, तस्स
गुणता भावओ राईभोयणं णो दव्वओ, दवओवि भावओवि आउट्टियाए राई मुंजइ, उत्थो भंगो मुबो, 'छठे भंते! वए उवडिओमि सव्वाओ राईभोयणाओ वेरमण' एत्थ सीसो आइ-पंच महब्बयाणि जिणपवयणे सिद्धाणि, तो किमयं राईभोयण महम्बएसु वणिज्जमाणेसु भणियंति ?, आयरिय आह-पुरिमपच्छिमगाण जिणवराणं काले पुरिसविसेसं पप्प पट्टवियं, तत्थ पुरिमजिष्णकाले पुरिसा उज्जुजडा पच्छिमजिणकाले पुरिसा वंकजडा, अतो निमित्तं महब्बयाण उवरि ठवियं, जेण तं महन्त्रयमिव मन्वंता ण पिल्लेहिंति, मज्झिमगाणं पुण एवं उत्तरगुणेसु कहिये, किं कारणं ?, जेण ते उज्जपण्णत्तणेण सुहं चेव परिहरति 'इच्चेयाति' (९-१४९ ) इतिसद्दो परिसमत्तीए वट्टइ, एयाई नाम जाणि इयाणि चेव हेवा भणियाण एताणि पंचवि रातीमोयणवेरमणछट्ठाणि 'अत्तहियट्ठाए उवसंपज्जिताण विहरामि'अत्ताहियं नाम मोक्खो भण्णइ, सेसाणि देवादीणि ठाणाणि बहुदुक्खाणि अप्पसुहाणि य, कही, जम्हा तत्थवि इस्सरो इस्सरतरो इस्सरतमो एवमादी हीणमज्झिमउत्तिमविसेसा उचलभति, अणेगतियाणि य सोक्खाणि, मोक्खे य एते दोसा नस्थि, तम्हा तस्स अट्ठयाए एयाणि पंच महब्वयाणि राईभोयणवेरमणछट्ठाई अचहियट्ठाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि, उपसंपज्जित्ताणं विहरामि नाम ताणि आरुहिऊग अणुपालयंतो अब्भुज्जएण विहारेण
* ॥१५३॥ अणिस्सियं गामनगरपट्टणाईणि विहरिस्सामि, अहवा गणहरा भगवतो सगासे पंचमहब्बयाणं अर्थ सोऊण एवं भणति- 'उबसंपज्जिताण विहरिस्सामि ।।
दीप अनुक्रम [३२-७५]
[166]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
गाथा
॥३२
५९||
दीप
अनुक्रम |[३२-७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९/४७-७५], निर्युक्तिः [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक
चूण
४ अ०
॥१५४॥
इदार्णि जयणा भण्णइ से' भिक्खु वा भिक्खुणी वा (१०-१५१ ) सृतं उच्चारयन्धं, 'से'त्ति निदेसे, किं निदिस्सति?, जो तेसु महन्वसु जोवइस अवडिओ से भिक्खु वा क्खुिणी वा इति, संजओ नाम सोभणेण पगारेण सत्तरसविहे संजमे अबडिओ संजतो भवति, विरओ णामऽणे गपगारेण बारसविहे तवे रओ, पावकम्मसदो पत्तेयं पत्तेयं दोमुवि वड, तं० पडिहयपावकम्मे य, तत्थ पडियपावकम्मो नाम नाणावरणादीणि अड कम्माणि पत्तेयं पत्तेयं जेण हयाणि सो पडियपावपच्चखायपावकम्मे य. कम्मो, पच्चकखायपावकम्मो नाम निरुद्धासबद्वारो भण्णति, अहूया सव्वाणि एताणि एगडियाणि, तं एवं गुणसंपण भिक्खुणा भिक्खुणीए वा दिवसओ जागरमणिण राईए निदामोक्खं कुव्यमाणेण सेसं कालं जागरमाणेण कारणिएण वा एगेण परिसामणुगएण या जं दाणि मणिहिति तं ण कायव्वं, 'से पुढविं वा' जो सो पुढविकायो हेट्ठा भणिओ तस्सेयं गहणंति, तस्थ पुढविग्गणेणं पासाणले माईहिं रहियाए पुढवीए ग्रहणं भिती नाम नदी भण्ण, सिला नाम विच्छिष्णो जो पाहाणो स सिला, लेख्नु लेडुओ, सरकखो नाम पंसू भण्णइ, तेण आरण्णपंसुणा अणुगतं ससरकखं भण्णइ, ससरक्खं वा वत्थं पुढविकार्य विराहइतिकाऊण सहत्थेण, 'से'ति निदेसे पुब्वभणिए भिक्न वा भिक्खुणी वा, हत्थो पायो अंगुली य तिष्णिवि कंठाणि, सलागा घडियाओ तपाई क पसिद्धमेव कलिंचं कारसोहिसादीणं खंड सलामाहत्थओ बहुवरिआयो अहवा सलागातो घडिलियाओ तासि सलागाणं संघाओ सल्लागाहत्थो भण्णति, एतेहिं पुढविक्काइयाणं ण आलिहेज्जा, नकारो पंडिसेहे बट्ट, किं पड़िसेहयइ ?, हत्थादीहिं पुढवीए आलिहणादीणि, आलिहणं नाम इसि विलिहणं विविहेहि पगारेहिं लिहणं, घट्टणं बहू, भिंदणं दुदा वा तिहा या करणंति, एवं ताव संयतो आलिहणादी ण करेज्जा, जहा सयं न करेज्जा तहा अण्णेणचि णालिहावेज्जा जान न
... अत्र 'जयणाया:' स्वरुपम् दर्शयते
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पृथ्वीकायः
॥१५४॥ ॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
गाथा
॥३२
५९||
दीप
अनुक्रम |[३२-७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९/४७-७५], निर्युक्तिः [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णी
४ अ०
॥ १५५॥
भिंदाविज्जा, तहा अपि आलिहंत वा जाव मिदंतं वा ण समजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण मणसा वयसा कायसा तस्स भंते । पडिकमामि निंदामि गरिहामि जाव बोसिरामि ॥
सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा संजयविश्यपडिहपपच्चक्रखायपावकम्मे दिया वा राओ था सुत्तेवा जागरमाणे वा जाव परिसागओ वा' इमं परिहरेज्जा' से उदगं वा' 'से'ति जो सो आउकाओ हेट्ठा भणिओ तस्स निदेसो, उदगग्गहणेण भोमस्स आउक्कायस्स गहणं कर्य, उस्सा नाम निसिं पडडू, पुज्वण्छे अवर वा सा य उस्सा तेहो भण्णइ, हिमं लोगपसिद्धं, जो सिसिरे तुसारो पडइ सो महिया मण्णह, करगा लोगपसिद्धा, हरतणुओं भूमिं भेत्तृण उइ, सो य उबुगाइसु विताए भ्रमीए ठविएस हेडा दीसति, अंतलिक्खपाणियं सुद्धोदगं भण्णा, जं एतेसिं उदगमे एहिं बिंदुसहियं भवइ वं उदउ भन्नइ, ससिणिद्धं जं न गलति तितयं तं ससद्धिं भण्णइ, एतेर्हि उदउससणिद्वेहिं अणुगत कार्य वा वत्थं वा णामुसेज्जा, आघुसणं नाम ईषत्स्पर्शनं आसनं अहवा एगवारं फरिसणं आमुसणं, पुष्णो पुणो संफुसणं, ईसि निपीलणं आपलणं, अच्चत्थं पीलथं पवीलणं, एवं वारं जं अक्खोडे, तं बहुवारं पक्खोडणं, ईसित्ति तावणं आतावणं. अतीव तावर्ण पतावणं, एवं ताव सयं णो आमुसाईणि करेज्जा, जहा | सर्व न करेज्जा तहा अण्णेणावि नामुसावेज्जा जाय न पयावेज्जा, तदा अण्णंपि आमुसंतं वा जाब पयावतं वा न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविईतिविद्वेण बोसिरामि ॥
| 'से भिक्खु वा भिक्खुणी संजतविरत पडित पञ्चक्रवायपावकम्मे जाव परिसागओ वा' इमं परिहरेज्जा 'से अगणि वा' ( १२-१५३ ) 'सेति निदेसे वट्टति, जो जो अगणिक्काओ हेट्ठा भणिओ तस्स निदेसो, अगणी नाम
[168]
अप्कायः
।। १५५।।
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आगम
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
(४२) अध्ययनं [४] उद्देशक [-] मलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९/४७-७५], निर्यक्तिः [२२०-२३४/२१६-२३३] भाष्यं [५-६०] भाग - 6 पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र - [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
गाथा
॥३२
५९||
दीप
अनुक्रम |[३२-७५]
जो अयपिंडाणुगयो फरिसगेज्झो सो आयपिंडो भण्णइ, इंगाको नाम जालारहिओ, मुम्मुसे नाम जो छाराणुगओ अग्ग्री सो मुम्मुरो, अच्ची नाम आगासाणुगआ परिच्छिष्णा अग्मिसिहा, अलायं नाम उम्मुआहियं पंज (पज्ज) लियं, जाला पसिद्धा चैव, * इंधणरहिओ सुद्धागणी उक्काविज्जुगादि, एतारिसं अगणिक्कायं ण उंजेज्जा, उंजणं णाम अवमेतुअणं, घट्टणं परोप्परं उम्मुगाणि तारिसेण दब्बजाएण घट्टयति, उज्जलणं नाम बीयणमाईहिं जालाकरणमुज्जालणं. निव्वावणं नाम विज्झावणं, ॥ १५६ ॥ एवं ताव सयं णो उंजणाईणि करेज्जा, जहा य सयं न करेज्जा तहा अनं न उंजावज्जा, जहा न उंजावज्जा तहा अण्णं उजत वा जाव निव्वाषैतं वा ण समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेण मणसा वयसा कायसा तस्स भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ।।
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिय पंच्चक्खाय जाव परिसागओ वा इमं परिहरेज्जा 'से सीएण या विधुव णेण वा' ( १३-१५४) 'से 'ति निदेसे वह, जो वाउकाओ हेट्ठा भणिओ तस्स निदेसे, सीतं चासरं भण्ण, विदुवणं वीयनं जाम, तालियंटो नाम लोगपसिद्धो, पत्तं नाम पोमिणिपत्तादी, साहा रुक्खस्स डालें, साहाभंगओ तस्सेव एगदेसो, पेडुनं मोरपिच्छगं वा अण्णं वा किंचि तारिसं पिच्छं, पिहूणहत्थओ मोरिंगकुच्चओ, गिद्धपिच्छाणि वा एगओ बद्धाणि, चलं नाम सगलं वत्थं, चेलकण्णो तस्सेव एगदेसो, इत्थमुहादीणि लोगपसिद्धाणि, एतेहिं कारणभृएहिं अप्पणो वा कार्य बाहिरं बबि पोग्गलं- उसिणोदगं वा सयं ताव न फुमेज्जा न वीएज्जा, जह सर्व तहा अण्णं ण फुमवेज्जा न बीयांवेज्जा, अण्णं फुर्मतं वा वीर्यतं वा न समपुजाणेज्जा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणसा वयसा कायसा जाब वोसिरामि ॥
श्रीदश
वैकालिक
चूर्णां
[169]
तेजः कायः वायुकायः
॥१५६॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
गाथा
॥३२
५९||
दीप
अनुक्रम |[३२-७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९/४७-७५], निर्युक्तिः [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण.
४ अ०
॥१५७॥
२४
से भिक्खु वा भिक्खुणी वा संजयविरयप डिहयपच्चक्खाय जाव परिसागओ वा इमं परिहरेज्जा 'से बीएसु वा बीयपट्ठेसु वा' (सू. १४-१५४) ' से 'ति निद्देसे बढ्छ, जो सो वणस्सइकाओ हेट्ठा भणिओ तस्स निदेसो, बीयं नाम सालिबीहादीणं भण्ण, पइडिये नाम आहारसेज्जाफलगादीण बीयाणं उचरिट्टियाणिति, रूढं णाम बीयाणि चैव फुडियाणि, ण ताव अंकुरो निष्फज्जइ, रूढपइडिये नाम र्ज तेर्सि उबरि आहारसेज्जाऽऽसणफलगपीढगादि ठवियं तं रूढपतिट्ठियं भण्णह, जायं नाम एताणि चैव थंबीभूयाणि, जातपतिट्ठियं नाम तेसु चैव थंबेसु जं किंचि आहारसेज्जासणफलगपीढगाई ठवियंति, हरिताणि नाम वचादीणि, हरियपतिट्ठियं नाम जं किंचि आहारसेज्जा सणफलगपीढगादि ठवितं, छिण्णग्गहणणं वाउणा भग्गस्स अष्णेण वा परसुमाइणा छिष्णस्स अदभावे वट्टमाणस्स अपरिणयस्स गहणं कयमिति, छिष्णपट्ठियं नाम तंमि चैव अपरिणए किंचि आहारसे - ज्जासण फलगपीढगादी ठवितं, सचित्तकोलपडिणिस्सियसको दोसु बढ्छ, सचितसद्दे य कोलस य, सचित्तपडिणिस्सियाणि दारुयाणि सचित्तकोलपडिनिस्सिताणि तत्थ सचित्तग्रहणेण अंडगउद्देहिंगादीहिं अणुगताणि जाणि दारुगादीणि सचित्तपिस्सियाणि, कोलप डिनिस्सियाणि नाम कोलो घुणो भण्णति, सो कोलो जेसु दारुगेसु अणुगओ ताणि कोलपडिनिस्सियाणि, | तेसु सचित्तेसु कोलपडिनिस्सितेसु णो सयं गच्छेज्जा जाव न तुबद्देज्जा, तत्थ गमणं आगमणं वा चंक्रमण भण्ण, चिट्ठण नाम तेर्सि उवरिं ठियस्स अच्छणं, निसीयण उवडियस्स जं आवेसणं, तुयट्टणं निवज्जण, जहा य सर्व गमणादीणि न करेज्जा तहा अनं न गच्छावेज्जा जाव न तुयट्टावेज्जा तहा अन्नमवि गच्छतं वा जाव तुयतं वा न समणुजाणेज्जा जावज्जीवाए जाव बोसिरामि ॥
[170]
तेजः कायः वायुकायः
॥ १५७ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदशवैकालिक
चूर्णी ४ अ० ॥१५८
'से भिक्स पा भिक्खूणी वा संजयाविरयपडिहयपच्चखाय जाव परिसागओ वा से कार्ड वा पयंग वा' (स.१५.१५५)| प्रसकाय: सेति निदेसे या, जो सो तसकायो हेट्ठा भणिओ तस्स निद्देसे, कीडपयंगा कुंथुपिपीलियाओ य पुषभणिया, तेसि अनतरोरा
यतनोकीडगाईणं जा होज्जा हत्थंमि वा जाव संथारगंमि वा, तस्य पादो पाहू ऊरूतो पसिद्धाओ, सेज्जा सव्यंगिया, संथारो अड्डा-12
पदेशः इज्जा हत्था आयतो हत्थं सचउरंगुलं विच्छिण्णो, अण्णतरग्गडणेण बहुविहस्स तहप्पगा रस्स संजतपायोग्गस्स उवगरणस्स गहणं कर्यति, एतेहि बस्थादीहि पुष्यभणियाण कीडाण अप्णतरी पाणी उबलिएज्जा, तो ते उपाहीण जाणिऊर्ण संजयामेवीताल जहा तस्स पीडाण भवति तहा चूर्ण एगले नाम जस्थ तस्स उवघाआ न भवई तत्थ एगते अवर्णज्जा, जहा णो णे संघातमावज्जद्द, संघात नाम परोप्परतो गत्ताणं संपिंडणं, एगग्गहणेण गहणं तज्जाइयाणतिकाऊण सेसावि परितायणकिलावणादिभेदा गहिया, आवज्जणा नाम नो तहा गिण्हेज्जा जहा संघातणाइ दोसो संभवति, एसा पुढविमादीणि पहुच्च पाणतिवाातवेरमण-द अणुपालणत्थं जयणा भणिया, चउत्थो छज्जीवणियाए अधिगारी गओ।।।
श्याणिं उयएसोत्ति पंचमी अहिगारो भग्णा, तं. 'अजयं घरमाणो उ, पाणभया हिंसओ। पंधई पावतं * कम्म, तं से होइ कडुयं फलं (३२-१५६) अजयं नाम अणुवएसेण, घरमाणो नाम गच्छमाणो, द्रुतं गच्छमाणो संतो वग्धा-It
इयं करेज्जा, कदाइ सरीरविराहणापि होज्जा, पाणाणि चेच भूयाणि, अड्या पाणगहणेण तसाणं गहणं, सत्ताणं विविहेहि पगारेहिं हिंसमाणो बंधए पावगं कम्म, बंधइ नाम एकेक जीवप्पदेसं अट्ठहिं कम्मपगडीहि आवेढियपरिवेढियं करेति, पावगंटू नाम असुभकम्मोवचयो घणचिकणो भण्णइ, परतित्थियाण य गच्छमाणाणं चिट्ठमाणाण य कम्मवंधो न भवति, अतो तप्पडि
दीप अनुक्रम [३२-७५]
5
.
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
श्रीदश- वैकालिक
चूर्णौ । अ० ॥१५९||
सेहनिमित्तं सीसस्स भयुब्वेयनिमित्तं पावगहणंति, कट्ठयं फलं नाम कुदेवत्तकुमाणुसत्तनिव्वत्तक पम तस्स भवइ, एवं 'अजयंदा यतनोचिट्ठमाणो उ, पाणभूयाई हिंसई। बंधती' सिलोगो (३३-१५६ ) चिट्ठमाणो णाम ठिती, सो अजओ अच्छमाणो| पदेशः हत्थपादादीणि छुभति, ताणि नित्थुम्भमाणो सत्तोवरोहे बट्टाइ, सेसं तहेव | एवं 'अजयं आसमाणो उ, पाणभूयाइ हिंसईद सिलोगो (३४-१५६) आसमाणो नाम उवडिओ, सो तत्थ सरीराकुंचणादीणि करेइ हत्थपाए बिच्छुभाइ, तओ सो उबरोधे वट्टइ, का सेस तहेच, एवं 'अजय सुयमाणो उ, पाणभूयाइ हिंसई' सिलोगो ( ३५-१५६ ) अजयीत आउंटैमाणो पसारेमाणो य ण | पडिलेहइ ण पमज्जा, सब्बराई सुबह दिवसओवि सुयह, पगाम निगाम वा सुबइ, सेस तद्देव । अजयं भुंजमाणो उ, पाण-14 भूयाई हिंसई । बंधई' सिलोगो (३६-१५६ ) अजयं कायसिगालखझ्याईहिं भुजह तं च सद्ध एवम्हादि, सेसं तहेव 'अजयं भासमाणो उ, पाणभूयाई हिंसई । पंधई' सिलोगो (३७-१५६ ) अजयं गारस्थियभासाहि भासद दवरेण बेरचियासु एवमादिसु, सेसं तहेब । सीसो आह- कहं चरे कहं चिट्टे, कहमासे कह सए। कहं भुजंतो भासंतो,पावकम्मं न बंध? (३८-१५५) जइ एवं गमणादीणि कुब्वमाणस्स पावओ कडगफल विवागो भवद तो कई जीवाउले लोग कायव्वंति ?, आयरिओ | भणइ-सइ जीवबाहुल्लि ओवाएण सकइ अत्तणो हियं काउं, दिट्ठतो नावा, जहा जलमज्झे गच्छमाणा अपरिस्सवा नाचा जलकंतारं ६ वीईवयइ, न य विणासं पावइ, भणियं च- "जलमज्झे जहा नावा, सबओ निपरिस्सवा । गच्छंति चिढमाणा वा, न जलं परि-ट॥१५९।। गिण्हा ॥ १॥" एवं साहूचि जीवाउले लोगे गमणादीणि कुव्वमाणो संबरियासबदुवारतणेण संसारजलकतार बीयीक्यह, संवरिया-151 सबवारस्स न कुओवि भयमस्थि, भणियं च- "एवं जीवाउले लोगे, साहू संवरियासयो। गच्छंतो चिट्ठमाणो वा, पावं नो
दीप अनुक्रम [३२-७५] |
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१-१५]
भिगमे
हेतुः
गाथा
||३२५९||
श्रीदश- परिगण्डइ ॥ १॥" सो य उवाओ इमो, तं- 'जय चरे जयं चिट्टे, जयमासे जयं सए। जयं भुजंतो भासंतो, पावकम्म जीवा कालिकलन यंघद ॥ (३९-१५६) तत्थ पढमं जयं चरे, जयं नाम उबउत्तो जुगतरदिट्ठी दट्टण तसे पाणे उद्धटु पाए रीएज्जा, एवं चूणा जयणं कुव्वंतो कुम्मो इव गुतिदिओ चिट्ठज्जा, एवं आसज्जावि, एवं निद्दामोक्खं करेमाणो आउंटणपसारणाणि पडिलेहिया ४ अ.
पमज्जिय करेज्जा, एवं दोसवज्जियं भुजेज्जा, एताणि गमणचिट्ठणादीणि जयणाए कुब्वमाणो पावं कम्म न बंधइ ।। ॥१६॥ठा किंच-'सब्वभूयप्पभूयस्स, सम्म भूताई पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न पंधह। (४०-१५६)।
सव्वभूता- सव्वजीवा तेसु सम्वभूतेमु अप्पभूतो, कह ?, जहा मम दुक्खं अणिटुं इह एवं सव्वजीवाणंतिकाउं पीडा णो उप्पायइ, एवं जो सब्वभूएस अप्पभूतो तेण जीवा सम्म उवलद्धा भवंति, भणियं च "कट्ठण कंटएण व पादे विद्धस्स वेदणा तस्स । जा होइ अणेव्वाणी णायवा सव्वजीवाणं ॥१॥" पिहियाणि पाणिवधादीणि आसवदाराणि जस्स सो पिहियासवदुवारो तस्स पिहियासबवारस्स, दंतो दुविहो- इंदिएहि नोइदिएहि य, तत्थ इंदियदंतो मोइदियपयारनिरोहो सोईदियविसयपत्सु य|
सद्देस रागदोसविनिग्गहो, एवं जाव फार्सिदिय विसयपत्तेमु य फासेसु रागदोसविनिग्गहो, नोइंदियदंतो नाम कोहोदयनिरोहो । IN| उदयपत्तस्स य कोहस्स विफलीकरणं, एवं जाव लोभोति, एवं अकुसलमणनिरोहो कुसलमणउदीरणं च, एवं वयीवि काएवि
माणियव्यं, एवंविहस्स इंदियनोइंदियदंतस्स पावं कम्मं न बंधइ, पुवपद्धं च पारस विहेण तवेण सो झिजाइ। सीसो आह-चरित्तधम्म अणुढेतन्यो किं कारण अहिज्जिएणति, आयरिओ भणइ- 'पढ़मं नाणं तओ दया,एवं चिठ्ठए सव्वसंजए । अन्नाणीद... किं काहिति, किं वा णाहिति छेयपावर्ग। (४१-२५७) पढम ताप जीवाभिगमो भणितो, तओ पच्छा जीवेसु दया, एव-II
॥१६॥
ॐ
दीप अनुक्रम [३२-७५] |
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] | गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : २२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१-१५]
जीवा
भिमन
गाथा
||३२५९||
श्री सद्दोवधारणे, किमवधारयति !, साधण चेव संपुण्णा दया जीवाजीवविसेसं जाणमाणाणं, ण उ सकादणं जीवाजीवविसेस वैकालिका | अजाणमाणाणे संपुण्णा दया भवइत्ति, चिठ्ठए नाम अच्छइ, सब्बसद्दो अपरिसेसवादी, संजओ पसिद्धो चेप, सव्वसंजताणं अपरि-II
चूो. सेसाणं जीवाजीवादिसु गातेसु सतरसविषो संजमो भवह, जो पुण अन्नाणी सो किं काहिई ', कहं वा सो छेवपावगाणं विसेस GI "अ० पाहिति !, तत्थ छय नाम हितं, पाचं अहियं, ते य संजमो असंजमो य, दिद्रुतो अंधलओ, महानगरदाहे नयणविउत्तो ण
याणाति केण दिसाधारण मए गंतव्यंति, तहा सोवि अनाणा बाणस्स विसेस अपाणमाणो कहं असंजमदवाउ णिग्गच्छिहिति, ॥१६॥
ट्रा किंच- 'सोच्चा जाणा कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावमं । उभयषि जाणई सोच्चा, छेयं तं समायरे (४२-१५७)
सोच्चा नाम सुसस्थतदुमयाणि सोऊण णाणदंसणचरित्ताणि वा सोऊण जीवाजीवादी पयत्था वा सोऊण जाणइ कल्लाणं पावयं साच, कई नाम नीरोगया, सा य मोक्खो, तमणेइजतं कल्लाण, ताणि यणाणाईणि, जेण य करण कम्म बज्जाइ तं पावं सो य
असंजमो, तंपि सोऊण जाणइ. उभयं नाम कल्लाण पाचयं च दोवि सोच्चा जाणइ, केइ पुणः आयरिया कल्लाणपाक्यं च देस
विरयस्स पावयं इच्छति, तमवि सोऊण जाणति, एवं सोच्चा जाणिऊण किं कायव्वंति आह- 'जं छेयं तं समायरे एताणि ४ कल्लाणपापयाणि जाणिऊण जमिह परंभि य लोए हितं तं समायरिब्बति । किंच- 'जो जीचेवि न याणाइ, अजीचेविन या
गई । जीवाजीवे अयाणेतो, कहं से णाहिति संजम (४३-११७) जो जीवेवि वियाणाइ, अजीवेवि बियाणइ । ॥१६१।। जीवाजीचे बियाणलो, सो हुनाहिति संजमं (४४-१५७) एत्थ निदरिसणं जो साहूं जाणइ सो तष्पडिपक्खमसाधुमविका जाणइ, एवं जस्स जीवाजीवपरिष्णा अस्थि सो जीवाजीवसंजम पियाणद, तत्व जीषा न हतया एसो जीवर्सजमी मण्णद,
दीप अनुक्रम [३२-७५]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H. मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति: [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
अजीवावि मैसमज्जहिरण्णादिदव्या संजमोषधाइया ण घेत्तव्वा एसो अजीवसंजमो, सेण जीवा य अजीवा य परिणाया जो तेसु ॥ वैकालिक संजमइ । किंच-"जीवा जस्स परिचाया, बेरं तस्स न विज्जइ । नहु जीवे अयाणतो, वह वरं च जाणइ ॥१॥" तहा 'नाणं |
चूणा पगासग सोहओ तवो संजमा य गुचिकरो । तिण्हपि समाओगे, मक्खिा जिणसासण भाणा ॥२॥ ४ अ०
इयाणि धम्मफलं भण्णइ--'जया जीवे अजीवे य, दोवि एए वियाणइ । तया गई बहुविहं, सब्वजीवाण ॥२६ जाणइ। (४६५०--१५७) गति बहुविहं नाम एकेका अणेगभेया जाणति, अहवा नारगादिसुगतिसु अणेगाणि तित्थगरादिउबएसेण
जाणइ, जया गतिं बहुविई जाणति तदा पुण्णपावादीणं विसेस जाणइ, सीसो आह-कई सो गई बहुविहं जाणति तदा पुष्णपावा8 दणि बिसेसं जाणइ, आयरिओ भण्णइ-बहुविधग्गहणेण नज्जइ जहा समाणे जीवत्ते ण विणा पुण्णपावादिणा कम्मविसेसेण नारगहै। देवादिविसेसा भवतीति । जया पुण्णपावाईणि जाणइ तदा णिविदई भोए जे दिव्वे जे यमाणुसे । भुजंतीति भोगा,णिच्छियं विंद-16
तीति णिविदति विवहमणेगप्पगारं वा विंदद निबिदइ, जहा एते किंपागफलसमाणा दुरंता भोगत्ति, ते य निव्वदमाणो दिया। वा णिविदा माणुस्सावा, सीसो आइ-किं तेरिन्छा भोगा न निविदह', आयरिओ आह-दिग्वगहणेण देवनेरइया गहिया, माणु
स्सग्गहणेण माणुसा, चकारेण तिरिक्खजोणिया गादिया, जदा य भोगे णिबिदा तदा जहति संजोग, जहइ नाम छहरे, कि जातं जहाति , बाहिर अम्भतरं च गथं, तत्थ बाहिर सुवन्नादी अभंतर कोहमाणमायालोमाई, जदा संजोग जहा 'तदा मुंडे भबिसाताण पब्बइए अणगारियं' अणगारियं नाम अगारं-गिह भण्णहतं जाँस नस्थि ते अणगारा, ते य साहुणी, ण उदसियादाणि IC
संजमाणा अप्रतिस्थिया अणगारा भवति, जया मुंडे भविताणं पब्बाति अणगारियं तदा संवरमुकिहूं, संवरो नाम पाणवहादीण
दीप अनुक्रम [३२-७५] |
॥१६२॥
... अत्र धर्मफ़लम् कथयति
[175]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१-१५]
गाथा
॥३२
५९||
दीप
अनुक्रम |[३२-७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१-१५] / गाथा: [ ३२-५९/४७-७५], निर्युक्तिः [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णी
४ अ०
।।१६३।।
आसवाणं निरोहो भण्णह, देससंबराओ सध्वसंवरो उकिट्टी, तेण सव्वसंवरेण संपुष्णं चरितधम्मं फासेह, अणुत्तरं नाम न ताओ धम्माओ अण्णो उत्तरोत्तरो अस्थि, सीसो आहणणु जो उक्तिको सो चैत्र अणुचरो ?, अभ्यरिओ मणइ उकिडगहणं देसविरइपडिसहणत्थं कथं, अणुत्तरगहणं एसेव एको जिणप्पणीओ धम्मो अणुत्तरो ण परवादिमताणित्ति, जदा संवरमुडिं, घम्मं फासे अणुत्तरं । तदा धुणइ कम्मरयं, अयोहिकलुसकर्ड (५१-१५८) तदा सम्बन्धगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छद (५२ - १५८) सब्वत्थ गच्छतीति सव्वत्थगं तं केवलनाणं दरिसणं च यदा य सव्वत्थगाणि नांणदरिसणाणि भवंति तदा लोगमलोगं च दोवि एते वियाणह, यदा लोग अलोगं च दोवि एए वियाणइ तदा जोगे निरंभिऊण सेलेसिं पडिवज्जर, भवधारणिज्जकम्मक्खयाए, जदा जोगे निरंभिऊण सेलेर्सि पडिवज्जति तदा भवधारणिज्जाणि कम्माणि खवेडं सिद्धिं गच्छद, कहूं ?, जेण सो नीरओ, नीरओ नाम अवगतरओ नरिओ, जया य खणिकम्मंसो सिद्धिं गच्छ तदा लोग मुद्धे ठिओ सिद्धो भवति सासयोति, जाब य ण परिव्वाति ताव अच्छियं देवलोगफलं सुकुलुप्पत्तिं च पावतित्ति, छञ्जीवनिकाए छट्टो अधिगारो धम्फलं
इयाण एवं धम्मफलं जहा दुछई सुलहं च भवह तहा भणामि, तत्थ दुखहं जहा 'सुहसातगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसायस्स । उच्छोलणापहोतिस्स, दुलहा सोग्गती तारिसगस्स (५७-१५९ ) सातं सुई भण्णह, सुई सायतीति सुहसाय्यो, सायति णाम पत्थयतिथि, जो समणो होऊण सुद्धं कामयति सो सुहसायतो भण्ण, सायाउलो नाम तेण सातेण आकुलीकओ, कई सुहीहोज्जामित्ति ? सायाउलो, सीसो आइ- सुहसायगसायाउलाण को पतिविसेसो ?, आयरिओ आह- सुइसा यगहणेण अप्पत्तस्स सुहस्स जा पत्थणा सा गहिया, साया लग्गहणेण पत्ते य साते जो पडिबंधो तस्स गहणं कथं,
[176]
सद्भवेदुर्लभ सुलभते
॥ १६३॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [४], उद्देशक H, मूलं [१-१५] / गाथा: [३२-५९/४७-७५], नियुक्ति : [२२०-२३४/२१६-२३३], भाष्यं [५-६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
श्रीदश- वकालका
चूणीं
सूत्रांक [१-१५] गाथा ||३२५९||
४ अ०
॥१६॥
निगाम नाम पगाम भण्णइ, निगाम सुयतीति निगामसायी, उच्छोलणापहावी णाम जो पभूओदगेण हत्थपायादी अभिक्ख- सद्गतेदुर्लभ
पक्खालयह, थोवण कुरुकृचियत्तं कुब्वमाणो (ण) उच्छोलणापहोषी लव्मइ, अहया भायणाणि पभृतेण पाणिएण पक्खालयमाणो सुलभत उच्छोलणापहोची, तस्स सुहसायादिदोसे वट्टमाणस्स दुल्लमा सोग्गती भवति । इयाणि जहा सुलभा सोग्गती मपति तहा भण्णइ'तवोगुणपहाणस्स उज्जुमतीखतिसंजमरयस्स। परीसहे जिणतस्स सुलभा सोगती तारिसगस्स (५८-१५९) तबोगुणप्पहाणो, अज्जवा मती जस्स सो उज्जुमती, अज्जवखंतिगहणेण दसविधो समणधम्मो गहिओ, एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं, संजमग्गहणेण सत्तरसविहस्स संजमस्स गहणं कयंति, अज्जवखंतिसंजमेसु रओ सो उज्जुमती खतिसंजमरओ, परीसहा-दिगिच्छादि बावीस ते अहियासंतस्स, एवं तमोगुणाइजुत्तस्स सुग्गई सुलभा भवति । इयाणि एक्स्स छज्जीवनिकायस्स एगट्ठियाणि भण्णंति-'जीवाजीवाभिगमो' गाथा पढियब्वा , इच्चेयं उज्जीवणियं सम्मदिष्ठी सया जए। दुल्लहं लभित्तुं सामन्नं, कम्मुणा न विराहेज्जासि ॥ (५९-१६७) तिमि । इतिसद्दो परिसमत्तीए बट्टा, एतं नाम जं मया । इट्ठा भणियं, छज्जीवणिया नाम पुढचिकायआठकायतेउकायवाउक्कायवणस्सइकायतसकाय छहि जीवनिकाएहितो णो अण्णो र सत्तमो जीवनिकाओ अत्थिान जाणिऊण सम्मादिट्ठी सया जएज्जा, जएज्जा नाम जयणाए पयद्वेज्जा, दुल्लई सामण्णं | लण कम्मुणा पाम जहोवएसो भण्णइ त छज्जीवणियं जहोवइदिट्ट तेण णो विराहेज्जा, वेमि णाम वित्थ।
X॥
१४॥ गरोचदेसेण चेमि, ण पुण अप्पणा इच्छाएत्ति । इयाणि णया-'णामि गणिहयचे अगेण्डियन्वमि पेच अत्यंमि' गाथा--'स-ICI बेसिपि नयाणं बहुविहवत्राब्वयं निसामेचा। सव्वनयविमुद्धं जं चरणगुणद्विओ साहा छज्जीवनिकायजसपणचुपणी॥४
162-6456
दीप अनुक्रम [३२-७५] |
ACCORRC
अध्ययनं -४- परिसमाप्तं
[177]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
॥६०
१५९||
दीप
अनुक्रम
[७६
१७५]
1
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [२२०-२३४ / २३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूणों
५ अ०
॥१६५॥
उद्देशक - १
एते ताव मूलगुणा भणिया इदाणि उत्तरगुणा भण्णंति एतेणाभिसंबंघेणागतस्स पंचमज्झयणस्स चत्तारि अणुओगदारा भाणिया, जहा आवस्सए, नवरं इहं नामनिष्फष्ण भण्ण-नाम उवणापिंडो दब्वपिंडो य भावपिंडो य गाथा, णामनिष्फण्णे पिंडनिज्जुती भाणियच्या, सा य सख्यावि नवहिं कोडीहिं समोयरह, सं०-ण हणइ ण हणावे हणतं नागुजाणइ ण पयति ण पयावेइ पर्यंतं नाणुजाण न किणइ न किणावेद किर्णतं नाणुजाण, एत्थ गाथा 'कोडीकरणं ' गाथा ( ६२-१६१ मा० ) एता नवकोडीओ दुहा कीरंति-उग्गमकोडी य विशुद्धिकोडा य, तत्थ उग्गमकोडी नाम अविसोहिकोडी, तत्थ जा सा उगमकोडी सा छव्विहा, तं० आहाकम्मं पढमा अगमकोडी, उद्देसिया पाखंड समणनिरगाण य कम्मं समोयर बितिया उग्गमकोडी, पूती कम्मं भत्तपाणपूतियं ततिया, भीसजाए घरमीसपाखंडाणं चउत्था, बादरपाहुडियाए पंचमी, अज्झोयरए छड्डा, एसा छब्बिहा अविसोधिकोडी, सेसा विसोधिकोडी, तत्थ जा सा अविसोधिकोडी या न हणइ न हणावेइ हणत नाणुजाणइ न पयति न पयावेइ पर्यतं नाणुजाणइ न पर्यति एतेसु समोयर, 'नव चैवहारस ' गाहा (२६०५-१६१) नव कोडीओ दोहिं रागदोसेहिं गुणिया अट्ठारस भवंति, ताओ चैव नव तिहि मिच्छत्ताण्णाण अविरती हिं गुणियाओ सत्तावीस भयंति, सत्तावीसा दोहिं रागदोसेहिं गुणियाओ चउप्पण्णा भवंति, ताओ चैव नव दसविषेण धम्मेण गुणियाओ विसुद्धाओ नउई भवंति सा नउई तिहिं नाणदंसणचरितेहिं गुणिया दो सत्तरा भवति, गओ नामनिष्कण्णो निक्खेवो, सुत्तागुगमे सुत्तमुच्चारयण्वं अक्खलियं अमिलियं अविच्चामेलियं जहा अणुयोगदारे, तं च सुतं इम
संपत्ते भिक्खुकाम असंभंतो अमुच्छिओ। इमेणं कम्मजोगेण, भत्तपाणं गवेसए (६०-१६३) 'आपल व्याप्ती'
अध्ययनं -५- 'पिंडैषणा' आरभ्यते
[178]
पिण्डस्वरूपं
॥१६५॥
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आगम
(४२) |
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
भक्तपानपणा
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
श्रीदश- धातुः,अस्य धातोः संपूर्वस्य प्रपूर्वस्य च 'तक्तवतू निष्ठे' ति (पा. १-१-२६)क्तः प्रत्ययः अनुबन्धलोपः परगमन 'अकः सवर्णे बैंकालिकाल
दीर्घः' (पा. ६-१-१०१) संप्राप्त इति स्थिते प्रातिपदिकार्थे सप्तम्यधिकारे तस्य एकवचनं कि अनुबन्धलोपः 'आद् गुणः चूर्णी
(पा. ६-१-८७) संप्राप्ते, तस्थ संपत्ते नाम सोभणेण पगारेण पचे संपत्ते 'भिक्ष भिक्षायामलाभे लाभेच' धातुः, अस्य धातो: ५अ०
अधिकारे अप्रत्ययान्ते 'गुरोध हल' इति (पा. ३-३-१०३) अप्रत्ययः अनुबन्धलोपः परगमने भिक्ष इति स्थिते 'अजाचंतष्टापू ॥१६६|| (पा. ४-१-४) सु भिक्षा, भिक्षा पसिद्धा चेव, ताए भिक्खाए कालो भिक्खाकालो तमि भिक्खकाले संपत्ते अण्णस्स अट्ठाए
गच्छेज्जा, जइ पुण भिक्खाकाल ऊणे अहिगे वा बोयरइ तो भिक्खं न लभइ, 'भ्रम अनवस्थाने' धातुः, अस्य धातोः 'तक्तवतू निष्ठे' ति (पा. १-१-२६ ) क्तः प्रत्ययः अनुवन्धलोपः 'अनुनासिकस्य क्विझले द्वितीति (पा. ६-४-१५) अनुनासिकस्याङ्गस्य
आकारो भवति परगमनं संभ्रान्तः, असंभंतो नाम सव्वे भिक्थायरा पबिट्ठा तेहिं उच्छिए भिक्ख न लभिस्सामित्तिकाउंमा | तुरेज्जा, तुरमाणो य पडिलेहणापमाद करेज्जा, रियं वा न सोधेज्जा, उपयोगम्स ण ठाएज्जा, एवमादी दोसा भवति, तम्हा असंमतण पडिलहण काऊण उपयोगस्स ठायित्ता अतुरिए भिक्खाए गंतव, 'मूळ मोहसमुच्छ्राययोः' धातुः, अस्य धातोः क्तप्रत्ययः, अस्य धातोः सेदहलादिति इडागमः अनुवन्धलोपः परगमने मूञ्छितः न मूञ्छितः अभूम्छितः, अमूञ्छितो नाम समुयाणे मुच्छे अकुच्चमाणो सेसेसु य सद्दाहोवसएस, इदं प्रातिपदिक, अस्य प्रातिपदकस्य 'कर्तृकरणयोस्तृतीयेति (पा. २-३-१८) तृतीया, तस्या एकवचनं टा, अनुबन्धलोप: स्यदाद्यत्वं अतो गुणः परः पूर्व: 'टासिङसामिन्सत्स्याः (पा. ७-१-१२) टा इत्येतस्य इनादेशः 'अनाप्यक' इति (पा. ७-२-११२) इदमः अनादेशः परगमनं अनेन, इमेण नाम जो इदाणि भनिहिति, 'क्रम पादविक्षेपे'।
SE%CEREMORRESTERDCORRECRECile
दीप अनुक्रम [७६१७५]
... भोजन-पानस्य गवेषणा वर्णयते
[179]
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५), नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश-
मक्तपान
पणा
चूर्णी. I ५ अ०
8 धातुः, अस धातोः अच् प्रत्ययः अनुबन्धलोपः परगमने क्रमः, क्रमो नाम परिवाडी भण्णइ, 'युजिर जोगे' धातुः, अस्य धातोः।
पा अकारि च कारके संज्ञायां (पा. ३-३-१९) धम् प्रत्ययः अनुबन्धलोपः 'चजो कुपिण्यतो' रिति (पा. ७-३-५२) कुवेन जकारस्य गकारः, 'पुगतलघूपधस्य चेति (पा. ६-३-८६) गुण: योगः, तस्स कमस्स जोगो कमजोगी, मत्तपाणाण लाग
पसिद्धाणि, 'इषु इच्छायां' धातुः, 'हेतुमति चेति (पा. ३-३-२६) णिच प्रत्ययः अनुबन्धलोपः, 'पुगन्तलघूपधस्य चे' ति| कापा.६-३-८६ ) गुणः एप 'सनायन्ता धातव' इति (पा.३.१.३२) धातसंज्ञायां ल्युट 'योरनाका बिति (पा. ७.२-२ )। | अनः एपण खीविवक्षायां 'अजायत्तष्टा (पा. ४-१-४) एपणा, गोः एषणा (पा.३-३-१७) अवर स्फोटायनस्य (पा.६.१-१२३)। गोशब्दस्य अवकादेशः गवेषणा, गवेसणा मग्गणा भण्णइ, सा य भिक्खा कत्थ गरेसियव्यत्ति ?, भण्णति- 'से गामे वा नगरे वा, गोवरग्गगओ मुणी । चरे मंदमणुब्विग्गो, अव्यक्वित्तेण चेयसा॥(६१-१६३) 'सेति निसे, किं निदिसति', जो सो संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मो मिक्खू तस्स निदेसोति, गामनगरग्गहणेण सेसावि खेडकम्बडमडंबनिगमादिभेदा गहिया, गोयरो नाम भ्रमण पर गत्यर्थः धातुः, अस्य धातो: 'पुंसि संज्ञाया'मिति (पा. ३-३-१२८) घप्रत्यये वत्तेमाने 'गोचरसंचरवहब्रजव्यजापणनिगमायेति (पा. ३-३-११९) घप्रत्ययान्तः निपात्यते, गावश्वरंति अस्मिन् देशे गोचरः। जहा गावीओ सदादिसु विसएसु असज्जमाणीओ आहारमाहारेंति, दिट्ठतो बच्छओ वाणिगिणीए अलंकियविभूसियाएं चारुबे-1 सायवि गोभचादी आहारं दलयतीति तंमि गोभत्तादिम्मि उवउत्तो ण ताए इस्थियाए रूवेण वा तेसु या आभरणसदसु ण वा मंधफासस मुच्छिओ, एवं साधुणावि विसएमु असज्जमाणेण समुदाणे उग्गमउपायणासुद्धे निवेसियबुद्धिणा अरत्तदुद्रुण मिक्खा
CCCESCRACHNICHEACHESO
॥१६७॥
[180]
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________________
आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
॥६०
१५९||
दीप
अनुक्रम
[b&
१७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०- १५९/७६ - १७५], निर्युक्तिः [ २३५-२४४ / २३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूण
५ अ०
॥१६८॥
इिंडियव्यत्ति, गोयरो चेव अग्ग २ तंमि गओ गोयरग्गगओ, अगं नाम पहाणं भण्णइ, सो य गोयरो साहूणमेव पहाणो भवति, न उ चरगाईणं आहाकम्मुदेसियाइर्भुजगाणंति, सुणीणाम णाणित्ति वा सुणित्ति वा एगट्ठा, सो य मुणी चउन्विहो भणिओ, णाममुणी ठेवणामुणी दव्वमुणी भावमुणी, नामटवणाओ गयाओ, दव्वमुणी जहा रयणपरिक्खगा एवमादि, भावसुणी जहा संसारसहावजाणमा साहुगो सावगा वा, एत्थ साहूहिं अधिगारो, सेसा उच्चारियसरिसत्तिकाऊण परूविया, चरसदो गमणे वड, मंदो चउव्विहो- नाममंदो ठवणामंदी दव्यमंदो भावमंदा य, नामठवणाओ गयाओ, दव्यमंदो जो तणुयसरीरो एवमाइ, भावमंदो जस्स बुद्धी अप्पा एवमादी, एते उच्चारियसरिसत्तिकाऊणं परुविया, इह पुण गतिमंदेण अहिगारो, उब्बिग्गो नाम मीतो, न उब्विग्गो अणुव्विन्गो, परीसहाणं अभीउति वृत्तं भवति, अव्यक्खित्तेण चेतसा नाम णो अट्टज्झाणोवगओ उक्खेवादिणुवउत्तो, कहं गंतव्वं ?, भण्णइ- 'पुरओ जुगमायाएं, पेमाणी महिं चरे । वज्जेतो बीयहरियाणि, पाणे यदगमहियं (६२-१६३ ) पुरओ नाम अग्गओ, जुगं सरीरं भण्णइ, तावमेतं पुरओ अंतो संकुडाए वाहिँ वित्थडाए सगडुद्धिसंठियाए दिडीए, दूरनिपायदिट्ठी पुण विध्यगि मुहुमसरीरं वा सतं न पास, अतिसन्निकिदिडीवि सहसा दद्दूण ण सकेर पार्द पडिसाहरिउ, चकारेण य सुणमादीण रक्खणडा पासओवि पिओवि उचओगो कायच्यो । अन्ने पति- 'सव्वत्तो जुगमायाए' नातिदूरं गंतूर्ण पासओ पिडओ य निरिक्खियन्वं, पेहमाणो णाम णिरिक्खमाणो, महि पुढवीं चरे नाम गच्छे, पुरओ जुगत पेहमाणेण किं परिहरियव्वं १, भण्णइ- 'बज्जेतो षीय हरियाई' वज्जैतो नाम परिहरतो, बीयगहणेण बीयपज्जवसाणस्स दसभेदभिण्णस्स वणष्फइकायस्स गहणं कर्य, अहवा हरियगहणेण सम्यवणप्फई गहिया, पाणग्गहणणं बेइंदियाईणं तसाणं गहणं,
[181]
गमन
विधिः
॥१६८॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
|६०
१५९||
दीप
अनुक्रम
[७६
१७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य|+चूर्णि:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०- १५९/७६- १७५], निर्युक्तिः [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णां
५ अ०
॥१६९ ॥
दगग्गहण आउकाओ समेदो गहिओ, माडियागहणणं जो पुढविकाओ अडवीओ आणिओ संनिवेसे वा गामे वा तस्स गहणं, एगग्ग्रहणे गहणं तज्जाईयाणामितिकाउं अगणिवाणोवि गहिया, संजमविराहणा भणिया । इदाणि आतविराहणा संजमविराहणा ये दोषि भण्णीत- 'ओवायं विसमं खाणुं, विज्जलं परिवज्जए। संकमेण न गच्छेज्जा, विज्जमाणे परकमे (६३-१६३) ओवायं नाम खड्डा, जत्थ हेडाभिमुहिं अवयरिज्जद, विसमे नाम निष्णुण्णयं, खाणू नाम कई उद्धाहुतं, विगयं जलं जत्थ तं विजलं, सो य चिखलो, परिवज्जए नाम सब्वेहिं पगारेहिं बज्जए परिवज्जए, संकमिज्जति जेण संकमो, सो पाणियस्स व गड्डाए वा भण्णइ, तेण संकमेण विज्जमाणे परिकमे णो गच्छेज्जा, असई पुण गच्छेज्जा, विसमे य पंथे गच्छमाणस्स इमे दोसा भवंति, तं० पवईत व से तत्थ, पक्वलंते व संजए । हिंसिज्ज पाण भूते य, तसे अदुख धावरे (६४-१६३) ते तत्थ पवडते वा पक्खलते वा हत्याइलसण पावेज्जा, तसथावेर वा जीवे हिंसेज्जा, एवं पाऊण साधुणा किं कायव्वंति ?, भण्णह- 'तम्हा तेण न गच्छेज्जा, संजए सुसमाहिए। सति अण्णेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे ( ६५-१६३ ) जम्हा एते दोसा तम्हा विज्जमाणे गमणपहे ण सपच्चत्राएण पण संजएण सुसुमाहिएणं गंतव्वं, 'सति' चि जदि अण्णो मग्गो अस्थि तो तेण न | गच्छेज्जा, जयमेव परकमे णाम जति अष्णो मग्गो णत्थि ता तेणवि य पहेण गच्छेज्जा जहा आयसंजमविराहणा ण भवर, भिक्खायरियाए गच्छमाणो इमं पुढविककायजयणं करेज्जा इंगालं छारियं रासिं, तुसरासिं व गोमयं । ससरक्खेहिं ॥ १६९॥ पाएहि, संजओ तं नमे (६६-१६६ ) ससरक्खेहिं- सचित्तरया इण्णेहिं मा तस्स सचितरयविराहणा भवइ, अतो एयाणि परिहरिज्जति, एवं किण्डमट्टियाता परिहरियन्वाओ, नीलमट्टियामरण सेसमट्टियाओ परिहरियन्चाओ, एवं सेसावि वण्णा
••• आत्म-संयम विराधना वर्णयते
आत्मसंयम विराधना
पृथ्वीयतना
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
बैंकाकायमाणे -
[१५...] गाथा ॥६०
१५९||
श्रीदश- भाणियब्बा, जहा वण्णा एवं गंधरसफासावि परोप्परविरुद्धा परिहरणिज्जा, जत्थ य अण्णो मग्गो नत्थि तत्थ पादपुंछणण अपकायावैकालिका
पमज्जित्ता गच्छद, जइ सागारियं तो ताव अच्छद जाव ते गत ताहे पमज्जइ, अह थिरं सागारियं ताहे पमज्जित्ता पादपंछणणातादियतना चूों काय असता ताव अच्छह जाय अप्पसागारिय जाति, एसा पुढाबक्कायजयणा भणिया । इयाणि गोयरग्गगयस्स जयणा-IVवझवतरक्षा ५ अ०
हिकारे बदमाणे इमावि जतणा एव भण्णइ॥१७॥
_ ण चरेज्ज थासे वासंते, महियाए व पडतिए । महावाए व वार्यते, तिरिच्छसंपाइमेसुवा (१७-१६४) नकारोट । पडिसहे वट्टइ, चरज्ज नाम मिक्खस्स अहा गच्छज्जति, बार्स पसिद्धमंव, तमि वासे परिसमाणे ण उचरियथ्य, उत्तिण्णेण य पवडे
अहाछमाणि सगडगिहाईणि पविसिचा ताव अच्छा जावढिओं ताहे हिंडर, माहिया पायसो सिसिरे गम्भमासे भवइ, ताएवि पदंतीए नो चरेज्जा, महावातो रय समुद्धणइ, तत्थ संचित्तस्यस्स विराहणा, अचित्तोकि अच्छीणि भरेज्जा एवमाई दोसचिकाऊण ण चरेज्जा, तिरिच्छे संपयंतीति तिरिच्छसंपाइमा, ते य पर्यगादी, तस्स तसु नो चरज्जा, गोयरग्गगतस्स पढमबयजयणाहिकारे | यकमाणे इमा चउत्थमयजतणा-'ण चरेज्ज वससामंत, पंभचरवसाणुए । भयारिस्स दन्तस्स, होज्जा तस्थ
विसोत्तिया (६८-१६५)णकारो पडिसेधे बड्द, घरेज्ज णाम गच्छज्जा, बेसाओ दुवक्वरियाओ, अण्णाओवि जाओ दुवक्खहारियाकम्मेसु बद्दति साओवि बेसाओ चेव, सामन्तं नाम तासिं मिहसमीर्व, तमवि वज्जणीयं, किमंग पुण तासिं गिहाणि', जम्हा लातीम वेससामंते हिंडमाणस्स बंभचेरवयं वसमाणिज्जतिाच तम्हा ते वेससामंत बंभचेरवसाणुगं भण्णइ, तमि बंभचेखसाणुए नो
चरेज्जा, बेसाओ इंदियणोइंदिएहि दंतस्सवि बंभचारिस्स विसोचिया भवति, सा विसोचिया चउचिहा-णामविसोतिया ठवणा
RECERICA
१७०॥
दीप अनुक्रम [७६१७५]
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५), नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
SEARC
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
है। विसोतिया दबविसोचिया भावविसोतिया, नामठवणाओ गताओ, दधविसोतिया जहा सारणिपाणियं यवराहणा आगमसोते || शुन्यादि कालिकासनिरुद्धे अण्णतो गच्छइ, तओ तं सस्सं सुक्खइ, सा दबविसोनिया. तासि वेसाणं भावविप्पेक्खियं णहसियादी पासंतस्स गाण- परिहास ची. हादसणचरिचाणं आगमो निरंभति, तओ संजमसस्सं सुक्खह, एसा भावपिसोलिया। सीसो आह-को तत्थ दासा, आयरिया भणइ, ५ अ01अणापपणे चरंतस्स, संसग्गीय अभिक्खणं होज्ज बयाणं पीला, सामन्झमि य संसओ। (६९.१६५) तण
काबेससामंतं अभिक्खणं अभिक्खणं एंतर्जतस्स ताहि सम संसग्गी जायति. भणियं च-"सदसणाओ पीई पीतीओ रती रती य ॥१७॥
बीसमा । पीसभाओं पणओ पंचविहं बद्धए पेम्म ॥१" तओ तस्स बयाणं मेहुणविरमणादाण पीडा नाम विणासा, सामण्णं नाम समणभावो, तमि समणभावे संसयो भवइ, किं ताव सामण्णं धरेमि ? उदाहु उप्पवयामित्ति? एवं संसयो भवइ, जह उणिक्खमह तो सबक्या पीडिया भवंति, अहवि ण उष्णिक्षमा तोवि तग्गयमाणसस्स भावाओ मेहुणं पीडियं भवइ. तग्गयमाणसो य एसणं न रक्खर, तत्थ पाणाइयायपीडा भवति, जोएमाणो पुच्छिज्जा-कि जोएसि ?, ताहे अवलबइ, ताहे मुसाबायपीडा भवति, ताओ य तित्थगरेहिणाणुण्णायाउत्तिकाउं अदिषणादाणपीडा भवइ, तासु य ममत्तं करेंतस्स परिग्गहपीडा भवति । तम्हा
एवं वियाणित्ता, दोसं दोग्गइषड्गुणं । वज्जए वेससामन्तं, मुणी एगंतमस्सिए (७०-१६५) तेण य भिक्खाए पवि. बाढणं इमाणि परिहरियवाणि 'साणं सूबियं गावि, दित्तं गोणं हयं गयं । संडिन्भं कलहं जुड़े, दूरओ परिवज्जए (७१-१६५)
साणो लोगपसिद्धो, मविया गावी पायसो आहणणसीला भवइ, दित्तो कसाओ मत्तो वा, आह च- "दिचो दप्पिओ" ते य इमे ४ दित्ता परिहरणिज्जा, तं०-गोणो यो गयोचि, गोणो पलिवदो, हयो-आसो, गयो-इत्थी, सो दित्तो परिहरणिज्जो, संडिब्भ नाम
दीप अनुक्रम [७६१७५]
ANCERCOAC-RSCR
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१५...]
गाथा ॥६०
१५९||
श्रीदश-४ बालरूवाणि रमंति धणुहि, कलहो नाम वाइओ, जुद्धं नाम जं आउहकट्ठादीहि, एताणि साणादीणि दूरओ परिवज्जेज्जा, सीसो| उन्नतत्वाबैकालिक Gआह-तत्थ- को दोसो ? जेण परिवज्जिज्जति, आयरिओ आह-सुणओ घाएज्जा, गावी मारिज्जा, गोणो मारेज्जा, एवं हय-पद
दिनिषेधः चूर्णी
गयाणवि मारणादिदोसा भवंति, बालरूवाणि पुण पाएमु पडियाणि भाणं भिंदिज्जा, कट्ठाकढिवि करेज्जा, धणुविष्पमुकेण वा कंग: ५०
आहणेज्जा, कलहे किं १, तारिसं अणहियासंतो भणिज्जा, एवमादि दोसा भवंतित्ति । इदाणि आतगया दोसा जहा न भवति | ॥१७॥ भण्णइ- अणुण्णए णावणए, अप्पहिहे अणाउले । इंदियाणिं जहाभाग, दमइत्ता मुणी चरे। (७२-१७५ ) अकारो &
पडिसेधे बट्टइ, उण्णतो चउबिहो, तं०- णामुण्णओ ठवण दव्व. भावुण्णओ, णामठवणाओ गयाओ, दन्बुण्णओ जो उण्णतेण | PM मुहेण गच्छइ, भावुण्णओ हिड्डो विहसियं करेंतो गच्छइ, जातिआदिएहि वा अडहिं मदेहिं मनो, एवं ओणओवि चउविधो, तं०-णामोणयो ठव० दग्य भावोणयोत्ति, तत्थ नामठवणाओ गयाओ, दबोणओ जो ओणयसरीरो खुज्जो वा, भावोणयो जो दीणदुम्मणो, कीस मिहत्था मिक्खे न देंति, णवा सुंदरं देंति', असंजते चा पूयति. सीसो भणइ-उन्नतेऽवनते षा को दोसो, आयरिओं मणइ-दम्बुनतो इरियं न सोहेइ, लोगोवि भण्णइ- उम्मत्तओविव समणओ वजह सविगारोति, भावेवि अस्थि से माणो,5
तुहत्तेणं अत्थि, संबंधो अस्थिति, अहया मदावलितोण सम्मं लोग पासति, सो एवं अणुवसंतत्तणेण न लोगसंमतो भवति, दब्बोजाणतणवि उड्डुति जहा अहो जीवरक्खणुवउत्तो सुब्बत एस (तेण) गो, अहवा सबपासंडाणं नीययरं अप्पाणं जाणमाणो वक्कमति एव-14 मादि, एवं करेज्जा, भावोणते एवं चेवेति, जहा किमेतस्स पब्बइतेण? कोहोऽणणन णिज्जिओत्ति एचमादी, जम्हा एए दोसा तम्हाला
2
"
॥१७२॥ दव्यओ अणुण्णतेण अणवणतेण य भमियव्यं, भावओवि 'अप्पहिहि ति अप्पसद्दो अमावे बहद, थावे य, इदं पुण अप्पसहो।
दीप अनुक्रम [७६१७५]
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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विधिः
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
अभावे दट्टब्यो, अहसंतोत्ति बुत्तं भवति, मज्झत्थभावमहिदिऊण समुदाणस्स गच्छेज्जा, अणाउलो नाम मणवयणकायजोगेहिं ।
गोचर अणाउलो माणसे अट्टहाणि मुत्तत्थतदुभयाणि वा अचितंतो एसणे उवउत्तो गच्छेज्जा, वायाए वा जाणिवि ताणि अट्टम-! चौं. हाणि ताणि अभासमाणेण पुच्छणपरियगुणादीणि य अकुबमाणेण हिंडियव्यं, कायेणापि हस्थणट्ठादीणि अकुब्वमाणो संकुचिय५ अ०हत्थपाओ हिंडे ज्जा, इंदियाणि-सोयादीणि जहाभावो नाम सिदियाण पत्तेयं जो जस्स विसयो सो जहभावो भण्पाइ, जहा
13 सोयरस सोयध्वं चम्बुस्स दट्टय्ब घाणस्स अग्याशिय जिब्भाए सादेयन्त्र फरिसस्स फरिसणं, एवं जहाभावं इंदियाई दमइत्ता ॥१७॥
लामुणी चरे, चरे नाम गच्छेज्जत्ति, ण य सका सदं असुणितेहिं हिंडिउं, किंतु जे तस्थ रागदोसा ते पज्जेयब्वा, भणियं च- "न
सक्का सहमस्सोउं, सोतगोयरमागयं । रागहोसा उजे तत्थ. ते हो परिवज्जए ॥१॥" एवं जाव फासोति , किं च- गोवरग्ग-11 गतो इमाणि वजेजा, तं- दवदवस्स न गच्छेजा, भासमाणो यगोयरे। हसंतो णाभिगच्छेज्जा, कुलं उच्चावयं । सया (७३-१६५) दवदवस्स नाम दुयं दुर्य, सीसो आह-गणु असंभेतो अमुच्छिओ एतेण एसो अत्थो गओ, किमत्थं पुणोद गहणं, आयरिओ भणइ-पुब्बभणियं तु जे भण्णति तत्थ कारणं अस्थि, जंत हट्ठा भणियं तं अविसेसियं पंथे वा गिहतरे वा, तत्थ संजमविराहणा पाहण्णण भणिया, इह पुण गिहाओ गिहतरं गच्छमाणस्स भण्णइ, तत्थ पायसो संजमविराहणा भणिया, 13 इह पुण पवयणलाघवसंकणाइदोसा भवंतित्ति ण पुणरुचं, किं च-जहा चेव दवदव्वस्स न चरेज्जा तहा भासमाणो तहा लोगविरुद्धं काउं हसंतोवि णो, कुलं उच्चावयं पवेसेज्जा, कुलं पसिद्धं चेव, उच्चं चउविवध, तं०-णामुच्चं ठबदब०भावउच्चं च, णामठवणाओ गयाओ, दबुच्चंपि भूमादि, भावुच्चं जातिधणविज्जादी हट्टतुट्ठीवयीसयमुहा जाति , तस्थ अंतेपुरइस्साइ
दीप अनुक्रम [७६१७५]
... अत्र गोचर-विधि वर्णयते
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
बैकालिक
स्थानानि
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
REMEMie
श्रीदश- दोसा, अवचंपि चउविध, त०- णामठवणदग्वभावाक्यं, णामठवणाओ गयाओ, दबवचं तणकुडी, भाववचं जातिधणविज्जादी-14 वजनीय
| होण, सदा नाम सब्वकालं, किंच-वज्जणाधिकारे वट्टमाणे इदमवि वज्जणियं- 'आलोयं धिग्गलं दारं, संधि दगमवचूणी णाणि य । परंतो न विनिझाए, संकट्ठाणं विवज्जए (१५-१६५) आलोगं नाम चोपलपादी, थिग्गलं नाम जं घरस्स ५ अ०
४दार पुव्यमासी तं पडिपूरिय, दारं दारमेव, संधी खत्तं पडिढकिषयं, दगभवणाणि पाणियघराणि पहाणगिहाणि वा, एताणि ॥२७ भिक्खं डिमाणो ण णिज्झाएजा । विवज्जणाहिगारे पट्टमाणे इमाणि बक्जिज्जा-रपणो गिहवतीर्ण च, रहस्सारक्खियाणा IPाय| संकिलेसकरं ठाणं दूरी परिमाए (७५-१६५) रणो रहस्सट्ठाणाणि गिहवाईणं रहस्सट्ठाणाणि आराखयाण
रहस्सहाणाणि, संकणादिदोसा भवंति, चकारेण अण्णेवि पुरोहियादि गहिया, रहस्सद्राणाणि नाम गोवरगा, जत्थ वा राहस्सियं
मतेंति, एताणि ठाणाणि संकिलेसकराणि भयंति, भवणगएत्थ इत्थियाइए हियणढे संकणादिदोसा भवंति, तम्हा दूरं परिवज्जए । कापडिकट्टकलं न पविसे, मामगं परिवजए। अचियत्तकुलं न पविसे, चियर्स पविसे कुलं (१७-१६१) तत्थ ।
पटिकटुंदुविध-इत्तिरिय आवकहियं च, इचिरियं. मयगसूतगादी, आवकहिवं अभोज्जा डॉवमायगादी, मामयं नाम जत्थ गिहपती। भणति- मा मम कोई घरमपिउ, पन्नत्तणेण मा कोई ममं छिई लहिहति, इस्सालुगदोसेण वा, अचियत्नकुल नाम ना॥ D सफेति बारेउं, अचियचा पुण पविसंताच इंगिएण णज्जति, जहा एयस्स साधणो पविसंता अचियत्ता, अहवा अधियचकलं जत्थाका दाबहुणावि कालेण भिक्खा न लभइ, एतारिसमुं कुलेसु पविसंताण पलिमंथो दीहा य भिक्खायरिया भवति, चियर्च पविसज्जात,चियत्ता १७४॥
नाम जस्थ चियत्ती निक्षमणपपेसो चागसीलं वा, एयारिसाणि पविसेज्जा । 'साणीपावारपिहिय, अप्पणा णावपंगुरे ।
दीप अनुक्रम [७६१७५]
... अत्र गौचरी विषयक वर्जनिय स्थानानि दर्शयते
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
|६०
१५९||
दीप
अनुक्रम
७६
१७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण
५ अ०
॥१७५॥
| कथाएं णो पणौलेजा, उग्गहंसी अजाइया (७८-१६६) साणी नाम सणवकेडि वि (इ)ज्जह अलसिमयी वा पाचारओ लोगपसिद्धो, एहिं चिलिमिली कज्जइ, तं काउं ताणि गित्याणि वीसत्थाणि अच्छंति, खायंति पिर्यति वा मोहंति वा तं नो अवपंगुरेज्जा, किं कारण है, तेसि अप्पत्तियं भवद्द, जहा एते एचिल्लीप उपचारं न याति जहा गावगुणियव्वं, लोगसंघर्षहारबाहिरा बरागा, एवमादि दोसा भवंति, कवाडं लोग सिद्धं, तमचि कवाडं साहुणा णो प णोल्लयन्त्र, तत्थ पुब्वभणिया दोसा सविसेसयरा मर्वत, एवं उम्माहं अजाइया पविसंतस्स एते दोसा भवंति, जाहे पुण अवस्सकय भवति, धम्मलाभो, एत्थ सावयाणं अस्थि जति अणुवरोधो तो पविसामो । गोयरग्गपविट्टो उ. वच्यमुत्तं न धारए । अबेवास फासूयं नच्चा, अणुन्नवित्त वोसिरे (७८-१६७) पुच्चि चैव साधुणा उवओगो कायच्ची, सण्णा वा काइया वा होज्जा णव चि विपाणिऊण पविसियन्वं, ज वावडयाए उपयोगो ओ सजाया होज्जा ताहे भिक्खायरियाए पविद्वेण पच्चमुत्तं न धारयव्वं, किं कारणं १, मुत्तनिरोधे चक्खुवाघाओ भवति, यच्चनिरोहे य तेयं जीवियमवि संघेज्जा, तुम्हा व्यव्यमुत्तनिरोधो न कायव्योति, ताहे संघाडयस भायपाणि ( दाऊण ) डिस्सयं आगच्छित्ता पाणयं गहाय सण्णाभूमिं गतूण्ड फासूयमवगासे उग्गहमशृण्णावेऊण वोसिरियस्वति । वित्थारो जहा ओहनिज्जत्तीए । किंच 'णीयदुवार' सिलोगो (७९-१६७) णीयदुवारं दुविहं चाउडियाए पिहियस्स वा, जाओ उच्चरगाओ भिक्खा निक्कालिज्जइ तत्थ पलिए उबडियस्स बाउडियन्दांसो भवइ, साणमादी जो भिक्खा 'खाएज्जा, निक्का लज्जइ तं तमसे, तत्थ अचक्खुविसए पाणा दुक्खं पक्खिज्जतित्तिकाउं नीमदुवारे तमसे कोओ वज्जेयब्वी ।। 'जस्थ पुष्फाणि' सिलोगो ( ८०-१८७ ) जत्थ कोडगे दुधारे वा पुष्कारण उप्पलकणवीरादीणि अमिलाणाणि चीयाणि बीहिमा
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वर्जनीयस्थानानि
॥१७५॥
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गाथा
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अनुक्रम
७६
१७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक
चूण
५ अ०
॥१७६॥
दांणि, विप्पण्णाणि नाम विविहेहिं पगारेहिं पतिष्णाणि णाणाविहाणि वा पक्खित्ताणित्ति परिहरिउं घणत्तणेण ण सक्कंतित्ति- ४ कुलभूमिः काउं वज्जेज्जा, जंच उल्लं अहुणोवलितं तं सरसं दण संपातिमसत्तविराहृणत्थं अपरितावियाओं वा आउक्काओतिकाउं बज्जेज्जा । 'एलगं दारगं' सिलोगो (८१-१६७) एलओ छागो, सो कोट्ठगद्दारे बद्धओ, दारओ दिक्करादिरूवं, साणो-सुणओ, वच्छउ - वच्छउ, गोणमहिसीणं भवति, उलंघणा उल्लंडणा भण्णति, विऊहणा पेलणा, पेलिओ सिंगेहिं आहणेज्जा, पई वा वहेज्जा, दारए अप्पत्तियं सयणो करेज्जा, उप्फासण्हाणकोउगाणि वा, पदोसेण वा पंताविज्जा, पडिभग्गो वा होज्जा ताहे भणेज्जा-समणएण ओलंडिओ एवमादी दोसा, सुणए खाएज्जा, वच्छओ आहणेज्जा वित्तसेज्ज वा, वितत्थो आयसंजमविराहणं करेज्जा, बिऊहणे ते चैव दोसा, अण्णे य संघट्टणाइ, बेडरूपस्स हत्थादी दुक्खावेज्जा एवमाइ दोसा भवंति । किं च ' असंसत्त' सिलोगो ( ८२ -१६० ) असंसतं पलोएज्जा नाम इत्थियाए दिहिं न बंधेजा, अहवा अंगपच्चंगाणि अणिमिस्साए दिडीए न जोएज्जा, किं कारणं १, जेण तत्थ भव्ययपीला भवइ, जोएतं वा दट्टण अविश्यगा उडाई करेज्जा- पेच्छह समणयं सवियारं, तत्थ य ठिएण णातिदूर पलोएयव्वं, तायमेव पलोएह जाव उक्खेवनिक्खेवं पासई, तओ परं घरकोणादी पलोयतं दण संका भवति, किमेस चोरो पारदारिओ वा होज्जा ? एवमादि दोसा भवंति, उप्फुलं नाम विगसिएहिं णयणेहिं इत्थीसरीरं रयणादी वा ण निज्झाइयब्वं, जदा य पडिसेहिओ भवति तदा अयंपिरेण णियत्तियन्वं, असंखमाणेति वृत्तं भवति । किं च ' अतिभूमिं न गच्छेज्जा' सिलोगो ( ८३-१६८) अणणुण्याता भूमी गोयरग्गगओ साहू न पविसेज्जा, केवइयाए पुण पविसियन्वं ?, कुलस्स भूमिं नाऊणं, जत्थ तेसिं गिहत्थाणं अप्पत्तियं न भवद्द, जत्थ अण्णेवि भिक्खायरा ठायंति, ताहे एवं नाऊण मियं भूमिं परकमे
[189]
॥१७६॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
छलभरि
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
मियं नाम अणुचाय, परकमे नाम पविसेज्जा, किंच-तत्व पडिलहेज्जा' सिलोगो, (८४-१६८) तत्थ तत्तियाए मियाए। श्रीदश
भूमीए उवयोगो कायब्बो पंडिएण, कत्थ ठातियच्चं कत्थ न बत्ति, तत्थ ठातियवं जत्थ इमाई न दीसंति, आसिणाणस्स । चूणौं.
पदा संलोयं परिवज्जए, सिणाणसंलोगं वचसंलोग व, तत्थ आसिणाणं णाम मि ठाणे अविरतिया अविरतगा वा हायति, सलांग। ५ अ० IIजस्थ ठिएण हि दीसति, ते वा तं पासति, तत्थ आयपरसमुत्था दोसा भवंति, जहा जत्थ अम्हे हाओ जत्थ य मातिबग्गो अम्हं|
पहायह तमेसो परिभवमाणो कामेमाणो वा एत्थ ठाइ, एवमाई परसमुत्था दोसा भवनि, आयसमुत्था तस्सेब व्हायतिओ ॥१७७॥
| अबाउडियाओ अविरतियाओ दठूण चरित्तभेदादी दोसा भवंति, वचं नाम जत्थ बोसिरंति कातिकाइसन्नाओ, तस्सवि सलागे यज्जेयव्यो, आयपरसमुत्था दोसा पवयणविराहणा य भवति, तम्हा संलोगं आसिणाणवच्चाणं परिवज्जेज्जा। किंच- 'दगमाट्टय' सिलोगो (८५-१६८) दर्ग पाणियं, मट्टिया अडवीओ सचित्ता आणीया, आदाणं नाम गहणं, जेण मग्गेण गंतूण दगमट्टिय-1 हरियादीणि घेप्पति तं दगमट्टियआयाणं भण्णइ, तं च विवजेजा, वीयाणि वीहिमाईणि, हरियग्गहणेणं सब्बे रुक्खगुच्छाइणो| वण'फइविसेसा गहिया, एताणि दगमट्टियाईणि गिहदारे ठियाणि पविजेतो चिट्ठजा, सबिदियसमाहितो नाम नो सहरूबा-17 | ईहिं अक्खित्तो, एवं तस्स कालाइगुणसुद्धस्स अणिट्टकुलाणि वजेंतस्स चियत्तकुले पविसंतस्त जहोवदिट्टे ठाणे ठियस्स आय
समुत्था दोसा बजेतस्स दायगसुद्धी भण्णइ । 'तत्थ से चिट्ठमाणस्स' सिलोगो (८६-१६८) तत्थति तीए मिताए भूमीए | KI से' चि निदेसो दगमट्टीयादीणि परिहरंतो चिट्ठइ तस्स निदेसो, आहरे नाम आणेजा, पाणगं भोयणं च पसिद्धं चेव, अक
प्पियं न इच्छेज्जा, जं पुण बायालीसदोसपरिसुद्धं तं कप्पियं पडिग्गहेज्जा । किंच- 'आहरंती' ति मिलोगो (८७-१६८)
दीप अनुक्रम [७६१७५]
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
श्रीदश- जा कदाइ भोयणमाणती परिसाडयइ तं देतियं पडियाइक्खे-न मे कप्पइ तारिस, पायसो इत्थियाओ मिक्खं दलयति तेण अकल्प्यकालिकातात्थियाए निदेसो कओ, पडिया इक्खे णाम पडिसेहेआ, जहेरिसं मम ण कप्पइचि, जइ सा भणेखा अण्णो वा कोड-भगवं! कोपा निषेधः
दोसो एस्थति, तओ देस काल पुरिस च पहप दास कहज्जा, पडिसडतण ताव सचाणि वहिजति, पडिए प तमवजीविणो।DI ५अ० सत्ता अणगे घातिअंति, एवमादिणो दोसा भाणितबा। किंच' सम्मरमाणी' सिलोगो (८६-१६८) सम्मदमाणी गामIXI
अफम्ममाणी, पाणाणि-कीडियादीणि, पयिाणि-सालिमाईणि, हरियग्गहणेण सेसस्स वणफडकायस्खगहणं, एगगहणे महर्ण तमा॥१७८॥
इयाणमितिकाउं सेसावि एगिंदिया, असंजमं करतीति असंजमकरी तं, असंजम साधुणिमित्तं आगच्छंती य करेइति, तारिस भत्तपाणं तु परिवजए। किं च 'साहटु' सिलोगो (८९-१६९) साहदटु नाम अनंमि भायणे साहरिउं देति तं फासुगपि। विवज्जए, तत्थ फामुए फासुयं साहरर १ फामुए अफासुयं साहरइ २ अफासुए फासुयं साहरइ ३ अफासुए अफासुयं साहरति ४, तत्थ * फासुर्य फासुएम साहरति तं थेवं थेवे साहरति बहुए थेव साहरइ थेवे बहुयं साहराइ बहुए पहुयं साहरह, एतेसि भयाणं जहा पिंडनिज्जुत्तीए, णिक्खिोवचा साचन, अलायं पुष्फफलादी वा घट्टऊण देश, तव समणडाए उदर्ग संपणोलिया नाम | आउकार्य छाऊण दलयह, 'आगाहयित्ता चलपित्ता, आहरे पाणभायणं । दंतियं पडियाइकचेन मे कप्पड तारिस का(९०-१६९) तमेव आउकार्य आगाहदत्ता नाम समणड्ढाए अत्तणो जतो आयरिसेचा भिक्खं दलपति, चलयित्ता नाम चले-RI Cऊण देई, एयाणि ओगाहणादीणि काऊण दतिय पडियाइक्ख न मे कप्पइ तारिस । 'पुरेकम्म' सिलोगो, (९१-१६९) पुरे- १७८॥
कम्म नाम जे साधूणं दर्ण हत्थं भायणं धोवइ तं पुरेकम्मं भण्णइ, तेण पुरकम्मकरण हत्येण दध्वीए भायणेण वा, तथा
R
दीप अनुक्रम [७६१७५]
HOMokt
... अत्र अकल्प्य आहारादिनां निषेध: प्रदर्शयते
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५), नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
क
अकल्प्य| निषेधः
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
श्रीदश-८ हत्थो पसिद्धो, दबी-कडच्छुओ, भायणं कंसमायणादि, दिज्जमाणि पडिसेइज्जा न मे कप्पइ तारिस । एवं उदउल्ले सिलोगो कालिकIVI(९२-१६९) उदउहं नाम जलर्तितं उदउल्लं, ससं कंठयं, एवं ससिणिद्धं नाम जं न गलइ, सेसं कंध, ससरक्खेण ससरक्खं नाम चूणों पंसुरजगुंडियं, सेर्स कंठ्यं । मट्टिया कडउमट्टिया चिक्खल्लो, सेसं कंठवं, एतेण पगारेण सम्वत्थ भाणियब, ऊसो णाम पंसुखारो, ५ अ० हरियालहिंगुलमणोसिलाअंजणााण पुहविमेदा, लोणं सामुद्दसेंधवादि, गेरूअ सुवण (रसिया), वणिया पीयमाट्टया, सेढिया॥१७९॥
कागंडरिया, सोरडिया उबरिया, जीए सुवष्णकारा उप्पं करति सुवण्णस्स पिंड, आमलोट्टो सो अप्पंधणो पोरिसिमिचेण परिणमइ
बहुइंधणो आरतो परिणमइ, कुक्कुसा चाउलातया, उकिट्ठ नाम दोद्धियकालिंगादीणि उक्खले छुम्भति, 'असंसट्टेण' सिलोगो (९४.१७०) असंसट्ठो णाम अण्णापाणादीहि अलिचो, तेण अलेवेणं दब्बं दधिमाइ देज्जा, तस्थ पच्छाकम्मदोसोत्तिकाउंन घेप्पड़, सुक्खपूलिया दिज्जह तो पेप्पइ । 'संसट्टेण' सिलोगो ( ९५-१७०) एत्थ अट्ठ भंगा-हत्थो संसचो मत्तो संसद्रो निरखसेसं दध्वं एवं अट्ट भंगा कायदा, एस्थ पढमो भंगो सम्बुकिट्ठो, अण्णेमावि जत्थ साबसेस दवं तत्थ गेहति । । किं च 'दाहतुभुजमाणाणं' सिलोगो (९६-१७०) दोनि संखा, तुसहो विसेसणे, किं विससियंति, जसदो पालणे अम्भवहारे च एवं विसेसयति, तत्थ पालने ताव एगस्स साहुपायोग्गस्स दोबी सामिया, तत्थ एगो निमंतयति, एगो तुण्डिको अच्छद, तस्स छंदं पडिलेहए, छंदो नाम इच्छा, णेतादीहि विगारेहिं अभणंतस्सवि नज्जइ जहा एयरस दिअमाणं चियत्तं न वा | इति, अचिय तो णो पडिगेहेजा, अब्भवहारे दो जघा एकमि पट्टियाए वे जणा भोत्तुकामा, ते ण ताव कवलगहण करेंति, साहू य आगओ, तस्थ एगो निमंतयइ, सेसं तहेव । 'दोण्हं तु मुंजमाणाणं' सिलोगो (९७-१७० ) जत्थ दोवि निमंतेजा
दीप अनुक्रम [७६१७५]]
RESARITS
॥१७९॥
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
श्रीदश- तत्थ फामुएसणिजं णाऊण पडिगाहेजा । किंच 'गुम्विणीए उवनस्थं' सिलोगो (९८-१७१) गम्भी जीएसवालस्तन्यवकालका अस्थि सा गुग्विणी, तीय दोहलगादीणिमित्तं विविहमणगप्पगारं, उन्नत्धं नाम उवकप्पियं, तं पुण भोयण पाणं वा|
दयाने विधिः होज्जा, तत्थ जे सा मुंजइ कोइ ततो देइ तं ण गेण्हियवं, को दोसो, कदाइ तं परिमियं भवेजा, तीए य सद्धा ण विणीया
होजा, अविणीये य डोहले गब्भपडणं मरणं वा होजा, भुत्तसेसं पडिच्छइ-जं से भुत्तुबरियं तं पडिच्छेजा। किं च 'सिया य ॥१८॥ समणहाए' सिलोगो (९९-१७१ ) सिया णाम कदायि गुठिवणी समणट्ठाए-समणनिमितं, कालमासिणी नाम नवमे मासे |
गम्भस्स बढमाणस्स, जइ उडिया संजतट्ठाए निसीएआ, जहा निसण्णा सुहं भिक्खं दाहामित्ति निसीयइ, निसण्णा संजतट्ठाए। | उद्वेति, तमेतेण पगारेण देंतियं पंडियाइक्खे-न मे कप्पइ तारिसं, जा पुण कालमासिणी पुन्युट्टिया परिवेसेंती य थेरकप्पिया। | गण्डंति, जिणकप्पिया पुण जद्दिवसमेव आवनसचा भवति तओ दिवसाओ आरद्धं परिहरति, तम्हा दंतियं पडियाइक्खे-न मे
कप्पड़ तारिस । किंच. 'धणगं पेजमाणी' सिलोगो (१०१-१७१) थणे अद्धदिने जइ सा तं साहुणो अडाए दारगं वा | दारिग वा अद्धपअियं निक्खिविऊण पाणगं भत्तं वा आहरेजा, तत्थ गच्छवासी जति थणीवी णिक्खितो तो ण गेण्हति | रोवतु वा मा वा, अह अचंपि आहारेति तो जति न रोबइ तो गेहंति, अह अपियंतओ णिक्खित्तो थणजीवी रोवह तो ण मागेण्हति, गच्छनिग्गया पुण जाव थणजीवी ताब रोवउ वा मा वा अपियंतओपियंतिओचा न गेण्हंति, जाहे अनंपि आहारेउं पयत्तो भवति ताहे जब पियंतओ तो रोबइ मा वा ण गेण्हंति, अपियन्तओ जदि रोवद परिहरति अरोवंते गण्डंति, सीसो आह- को तत्थ
॥१८॥ | दोसोति, आयरिओ आह-तस्स निक्षिप्पमाणस्स खरेहिं हत्थेहि घेप्पमाणस्स य अपरित्तत्तणेण परितावणादोसो मजारा
26-594
दीप अनुक्रम [७६१७५]
CCCREL
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
|६०
१५९||
दीप
अनुक्रम
७६
१७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण
५ अ०
॥१८२॥
इ वा अवधरेज्जा, तम्हा देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पर तारितं । किंच कित्तियं भणीहामि- 'जं भवे भत्तपाणं तु' सिलोगो ( १०३-१७१ ) जं भत्तपाणं उग्गमउप्पायनेसणेहिं सुद्धं वा निस्संकियं न भव, सव्वेहिं पगारेहिं गविस्समाणं संकियं, तमेवप्पकारं कप्पाकप्पे संकियं देवियं पडियाइक्खे न में कप्पर तारिसं । किं च 'दगवारएण' सिलोगो (१०४-१७२) दगवारओ पाणी गड्डयओ, जत्थ अन्नपाणं भायणे छूटं तं तेण दगवारएण पिहियं, निस्सा पेसणी तीय पिहियं होजा, पीठेण कट्ठादिमतेणवि पिहियं होज्जा, लोढो सिलापुत्तओ जंतगं वा लोढो महियादी सिलेसो- जउमयणादी, जं एवमादीहिं लित्तं तं च उभिदिया' सिलोगो (१०५-१७२) पिहितमेतेहिं वारगादीहिं लेवेहिं वा लित्तं दारयं उन्मिदिऊण समणट्टा देह, देतियं पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिसं । किं च ' असणं पाणगं वावि, खादिमं सादिमं तहा' । सिलोगो (१०६-१७२ ) दाणट्टापगड नाम कोति वाणियगमादी दिसासु चिरेण आगम्म घरे दाणं देतित्ति सव्वपाडाणं तं दाणङ्कं पगडं भष्णइ, सा पुण तं साहु सहियत्तणेण देह धम्मनिमित्तं तं पुण सयं वा जाणेज्जा अनओ वा सोच्चा, सेसं कंठ्यं । किं च- 'असणं पाणगं वावि, खातिमं साइमं तहा सिलोगो (१०८-१७३), पुन्नत्थापगडं नाम जं पुण्णनिमित्तं कीरइ तं पुण्ण पगडं भण्णह, सेसे कंठ्यं । किं च ' असणं पाणगं सिलोगो (११०-१७३ ) वणिमट्टापगडं नाम सक्काइभत्तेस जे अप्पाणं वण्णति, सेर्स कंठणं, तहा ' असणं पाणगं सिलोगो ( ११२-१७३ ) समणङ्कापगडं नाम समणा पंच, तेसिं अड्डाए जं कयं तं समणट्टापगर्ड, सेसं कंठ्यं । तं च इमेसि एगतरं होज्जा तं० ' उद्देसियं 'सिलोगो ( ११४-१७६) कंठयों, जंति संकितं, किंच 'उज्गमं से य पुच्छेज्जा' सिलोगो ( ११५-१७४ ) उग्ममं जा पभूयं तो पुच्छेज्जा जहा कस्सड्डा पकयंति,
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बालस्तन्ययाने विधिः
1186211
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
A
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
५०
॥१८२॥
R
श्रीदश-
1 जन पहुंच पासेज्जा तत्थ जो देति सो चेय पुच्छिज्जद जहा कस्सट्ठा पकडंति, केण वा कडंति, सा पुच्छिओ जइ भणइ-तुज्झ- बालस्तन्यपकालिकाद्वाए, ताहे ण पटिगाहिज्जति, अह भणइ- अण्णस्स कस्सह पाहुणगादिस्स अहाए, तमेवं सोच्चा निस्संकियं सुद्धं साहुणा पडिगाहे- पानवाया चूर्णी. I
यब्वति, तहा 'असणं पाणगं' सिलोगो (११६-१७६) पुप्फेहि उम्मिसं नाम पुकाणि कणवीरमंदरादीणि तेहिं बलिमादि असणं उम्भिसं होज्जा, पाणए कणवीरपाडलादीणि पुष्पाणि परिकप्पंति, अहवा बीयाणि जहिछाए पडियाणि होज्जा, अक्खयमीसा वा धाणी होज्जा, पाणिए दालिमपाणगाइमु चीयाणि हाज्जा, हरिताणि विरयसयाणेसु आलगमूलगादीणि पक्खिचाणि होज्जा, जहा य असणपाणाणि उम्मिस्सगाणि पुफादीहिं भवंति एवं खाइमसाइमाणिवि भाणियव्याणि । किंन 'असणं पाणगं' सिलोगो (११८-१७६) उदगंमि मिक्खिन दुविह, तं०- अणंतरणिक्षितं जचा नवनीतपोग्गलियमादि, परंपरनिक्खि दहिपिडो संपातिमादिभयेण छोट्टण जलकुंडस्स उरि ठवित, एवं परंपरनिक्वित्तं, एवमादि, उत्तिगो नाम कीडियानगरयं, सस्थवि अणंतरं भाणियध्वं, पणओ उल्ली भष्णइ, उलिए फलए वा भूमीए वा अणंतरपरंपरटवियं देतिय पडियाइक्खे-न मे कप्पइ तारिस ।। तहा ' असणं पाणगं' सिलोगो (१२०-१७६ ) संघट्टिया नाम जाब अहं साहणं भिक्खं देमि ताव मा उब्भराइऊणं छडिजिहिति तेण आषढेऊण देइ, हत्थपादादीहिं उम्मुगाणि संघटेता देइ, सेसं कंठ्यं । तहा 'असणं सिलोगो (१२२-१७६ ) उस्सकिया नाम अबसंतुइय साधुनिमित्तं उस्सिक्किआ तहा जहा अहं भिक्खं दाहामि ताव मा उन्मा। वेतित्ति, दतिय पडियाइक्खे न मे कप्पइ तारिस । तहा 'असणं पाणगं' सिलोगो (१२२) उज्जालिया नाम तणाईणि दा
॥१८२॥ इंधणाणि परिक्सिविऊण उज्जालयह, सीसो आह- उस्सक्किय उज्जालियाणं को पइबिसेसो ?, आयरिओ आइ-उस्सक्केति
दीप अनुक्रम [७६१७५]
REARSACRECE
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
श्रीदशकालिक चूर्णी ५ अ०
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
जलंतमथि, उज्जालयइ पुण संजतडाए उहिता सम्बदा विज्झायं अगणिं तणाईहिं पुणो उज्जालेति, सेसं कंठयं । तहा । ' असणं |
xबालस्तन्यपाणगं' सिलोगो (१२२) जिब्बाविया नाम जाव भिक्खं देमि ताव उदणादी डज्झिहिति ताहे तं अगणि विजायेऊण देशापाने विधिः सेसं कंठयं । तहा ' असणं पाणगं वा' सिलोमो (१२२) उस्सिचिया नाम तं अइभरियं मा उन्भूयाएऊण छडिज्जिहिति | ताहे थोवं उक्कड्डीऊण पासे ठवेइ, अहवा तओ चेव उक्किडिऊणं उण्होदगं दोच्चगं वा देइ, सेस कंख्यं । तहा 'असणं पाणगं वा' सिलोगो (१२२)निस्सिचिया णाम तं अद्दहियं दव्वं अण्णस्थ निस्सिचिऊण तेण भायणेण ऊणं देइ तं अहवा तमद्दहियगं उदणपत्तसागादी जाब साहूर्ण मिक्खं देमि ताव मा उम्भूयावेउचिकाऊण उदगादिणा परिसिंचिऊण देड, सेसं कंख्यं । तदा ' असणं पाणगं' सिलोगो (१२२) उव्यचिया नाम तेणेव अगणिनिक्खि ओयचेऊण एगपासेण देति, सेसं कंठ्यं । तहा ' असणं पाणगं' सिलोगो (१२२ ) ओयारिया नाम जमेतमद्दहियं जाव साधूणं भिक्खं देमि ताव नो उझिहितित्ति उत्तारेज्जा, तं वा दवं अन्नं वा न कप्पइ, सेसं कंठ, दाणद्वाए पविसंतस्स हुन्ज कह सिलं० ।। १२४ ॥ सिलोगो, गहूँ वा सिलं वा कयाइ संकमट्ठाए ठवियं होज्जा , तं कहाइ चलाचलं नाऊण 'ण तेण भिक्खू गच्छेज्जा.' ॥ १२५ ॥ तं च होज्जा चलाचलं, तेहि कठादीहिं भिक्खुणा ण गच्छियब्वं, किं कारणं , तत्थ असंजमदोसो दिहोत्ति, जहा ४ । कहादीहिं न गच्छेज्जा तहा गंभीरझुसिराणिवि सबिदियसमाहिओ वज्जेज्जा, गंभीरं-अप्पगास ज्यूसिरं-अंतोसुण्णय तं जंतुआ-1 ॥१८॥ लओ भवति, सविदियसमाहिओ नाम नो सद्दाइउवउत्तो । किञ्च-'निस्सणि कलगं पी० ॥ १२६ ।। सिलोगो, णिस्सेणी | लोगपसिद्धा फलग-महलं सुवण्णय भयह पीढय हाणपीढाइ, उस्सरित्ता नाम एताणि उपहचाणि काऊण तिरिच्छाणि वा आरु
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
श्रीदश-18 हेज्जा, मंचो-लोगपसिद्धो, कीलो उहं व खाणुं, पासाओ पसिद्धो, एतेहिं दायये संजतढाए आरुहेचा मत्तपाणं आषज्जा तं न
वालस्तन्यवकालिक साधुणा पडिगाहेयवं, किं कारणं, जेण तत्थ इमे दोसा भवन्ति- 'दुरूहमाणी पबडिज्जा, हत्थं पायं व लूसए. सायान
याने विधिः चूर्णी
॥१२७ ॥ सिलोगो, सा कदाइ दुरूधमाणी पबडिज्जा, पंडतीए य हत्यपादादी लूसेज्जा, पुढविकाइयादी विराज्जा, ण केलं ५ अ०
४ पुढविकाइयादी, किन्तु जे अतन्निसिया जगे ' तेऽवि हिंसेज्जा, जगा नाम जीपा । 'एआरिसे महादोसे.' ॥१२८ ॥ ॥१८ सिलोगो, सेस कण्ठय, वज्जणाधिकारो अणुवइ । 'कंद मूलं पलंबं वा० ॥ १२९ ।। सिलोगो, कन्दमूलफला पसिद्धा, टा
पलंब-फलं भन्नति, सन्निरं पत्तसागं, तुंचागं नाम ज तयामिलाणं अभंतरओ अद्दयं, सिंगंधर-अल्लयं भन्नइ, आमग-सञ्चित्तं, परिवज्जए नाम सवेहि पगारेहिं बज्जए परिवज्जए। किं च 'तहेव सनुचन्नाई, कोलचुन्नाई आवणे' ॥ १३० ॥ सिलोगो, अहेब कंदमूलादीणि वज्जयवाणि तहेब इमाणिवि, सत्तुचुण्णाणि नाम सत्तुगा, ते य जयविगारो, कोलाणि- बदराणि तेसिं चुण्णो कोलचुण्णाणि, आवणे पसिदो चेव, सक्कुलीति पप्पडिकादि, फाणि दवगुलो, पूयओ पसिद्धो, एताणि सत्तुचण्णाणि अन वा किंचि मोयगादि आवणे : विकायमार्ण ॥ १३१॥ सिलोगो, ते पसदं नाम जे बहुदेवसिय दिणे दिणे विक्कार्यते तं, तत्थ वायुणा उधुएण आरण्षण सचित्तेण रएण सम्वओ गुडिय-पडिफासियं भण्णइ तमेवप्पगार दिति का पडिआइक्खे-न मे कप्पड़ तारिस । किं च ' बहुअट्टियं०॥ १३२ ।। सिलोगो, मंसं वाणेव कप्पति साहणं, काच कालं
॥१८४॥ देस पहुच इमं सुत्तमागतं, बहुअट्ठियं व मंसं मच्छं वा बहुकंटयं परिहरितव्बा, किं च- अच्छियतिदुगादीणि वज्जेयव्याणि, अच्छियं नाम रुक्खस्स फलं, तिंदुयं-टिंबरुयं, 'बिल्लं' चिल्लमेव, उच्छुखंड लोगपसिद्ध, सिंबलि-सिंगा, सीसो आह-गणु पलंब
दीप अनुक्रम [७६१७५]
ESSES
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आगम
(४२)
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सूत्रांक
[१५...]
गाथा
|६०
१५९||
दीप
अनुक्रम
७६
१७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीश
वैकालिक
'चूण
५ अ०
॥१८५॥
गहण एवाणि गहियाणि आयरिओ भइ एताणि सत्थोवहताणिवि अन्नंमि समुदाणे फासुए लग्भमाणे ण गिण्डियन्याणि, किं कारणं- ' अप्पे सिआ० ' ।। १३३ ।। सिलोगों कंठो चैव भोयर्ण भाणियव्यं । इदाणिं पाणगं भन्नइ तबुचावयं ४. पाण० ' ।। १३४ ।। सिलोगो, 'तहेब' ति जहा भोयणं अकप्पियं पडिसिद्धं कप्पियमणुष्णायं तहा पाणगमवि भण्णइ, उच्च च अवचं च उच्चावचं उच्च नाम जं वण्णगंधर सफासेहिं उबवेयं तं च मुहियादिपाणगादी, चउत्थरसियं वाचि जं वण्णओ सोमणं गंधओ अपूर्व रसओ परिकप्परसं फासओ अपिच्छिलं तं उ भण्णइ से कप्पर, अवयं णाम जमेतेहिं वण्णघर सफासेहिं विहणं, तं अवयं भन्नति, एवं ता वसती घेप्पति, अहवा उच्चावयं णाम पाणापगारं भन्न, वारयो नाम घडओ, रकारलकाराणमेगसमितिकाउं चारओ वालओ भन्न, सो य गुलफाणियादिभाषणं तस्स घोषणं वारधोवणं किंच-संमं नाम पाणियं अदऊण तस्सोवरि पिडे संसेइज्जति, एवमादि तं संसेदियं मन्नति, तमवि अनंभि लग्भमाणे ण पडिगाहेज्जा, चाउलोदगादीण धोवं विवज्जए। किंच 'जे जाणेज विरोधाय मईए दंसणेण वा । सोच्चा निस्संकियं सुद्धं, पडिगा हेज्ज संजए ॥१३५॥ तं च पाणयं चिराधोये इमेहिं कारणेहिं जाणंज्जा, वं० मतीए व जाणेज्जा, पच्चक्खं पासित्ता व जाणेज्जा, मतीए नाम जं कार हिं जाणइ, तत्थ केई इमाणि तिष्णि कारणाणि भणति, जहा जाब पुप्फोदया विरायंति ताव मिस्सं, अण्णे पुण भणंति- जाव फुंसियाणि सुकंति, अण्णे भांति जाब तंदुला सिज्यंति, एवइएण कालेन अचित्तं भवइ, तिष्णिवि एते अणाएसा कई ?, पुप्फोदया कयायि चिरमच्छेज्जा, फुंसियाणि वरिसारते चिरेण सुकंति, उन्हकाले लहू, कलमसालितं बुलावि लहुं सिज्यंति, एतेण कारयेण तम्हा जदा पढिपुच्छपं तेण य से दायरण कहियं ताहे सोऊन जं निस्संकियं भवति, अपुच्छिए वण्णगंधरस
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पानकविधिः
।। १८५ ।।
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१५...] गाथा ॥६०१५९||
फासेहि णति, जया य पाणस्स य कुक्कुसावया हेट्ठीभूया सुठु य पसणं भवति, फासुयं भवति उसिणोदगमवि जदा तिमि पारिष्ठाकालिकाबारे उब्बन ताहे कप्पह । वहा · अजीवं परिणयं नच्चा०॥१३६ ॥ अद्धीस लोगो, अजीवभावे परिणयं नाऊण साहुणा
टोपनाविधिः चूणों
पाणयं गहेयधं । इयाणि च उत्थरसियरस पडिगाहणविहि भण्णति, तत्थ इमं सिलोगो पच्छद्धं- 'अह संकियं भवेज्जा, ५ अ०
आसाइत्ताण रोयप ।' तत्थ एसो जाहेण याणइ किमेयं सुभि दुभि बा, ताहे संकियं भवे, इमेण उवाएण- “योवमा-1 ॥१८६।।
सायणढाए, हत्थगंमि दुलाहि मे । मा मे अच्चविलं पूअं, नालं तहं विणित्तए । १३७॥ तं च अचंधिलं पूर्य, नालं तण्इं विणित्तए । दितिअं पडिआइक्वे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ १३८ ॥ तं च पाणियं अचंचिलनणेण पूयचर्णण य तण्हाछेदणे असमस्थंति नाऊण देतियं पडियाइक्खे-न में कप्पइ तारिसं । 'तं बहोत ॥ १३८॥ सिलोगो, तमेरिस | दभिगुणेहिं जुर्ग जहा अकामेण पढिगाहियं होज्जा, अकामेण नाम तुहारिययाए ण पडिसहियं होज्जा, बलाभियोगेण वा से निणं होज्जा, विमणेण पडिमिछ' विमणेण वा अणुवउत्तेण, ते अपणो णो पिवेज्जा, न वा असि साहूर्ण दलएज्जा, कि कारणं न, तेसिं असमाधिमरणादयो दोसा भवेज्जा, एवं भोयणंपि अतीव चावणं ण गिव्हियव्यंति, तं च अकामेण ४ अणुवउत्चेण वा गहिय होज्जा तओ इमाए परिवाडीए परिहायचं, 'एगंतमवकमित्ता, अचित्ते पहफामुए। जयं परविजा, परिठ्ठप पडिकमे ।। १४०॥ [एगतमवझमित्ता, अचित्तं०॥ १४० ॥] सिलोगो, अचिन नाम जं सत्थोवयं अचि, तेच आगमणथंडिलादी, पडिलहणागहणेण पमज्जणावि गहिया, चक्खुणा पडिलेदणा, रयहरणादिणा पमज्जना, जयं नाम अतुरियं, अप्पक्खोडेतो विहिणा तिष्णि पुंजे काऊण योसिरामि उचारेना परिडवेज्जा, परिडवेऊण उवस्सयमागंतूण इरिया
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१५...] गाथा ||६०
श्रीदशकालिक चूर्णी
॥१८७॥
१५९||
चहियाए पडिकमज्जा । इदाणी भोषणविही भण्णइ, तं च भोयण गोयरे वा होजा सण्णिायट्टस्स बा, तत्थ गोयरे जहा- 'सिआटा भोजनअगोयरगगओ'॥१४९॥ सिलोगो, जो य सो गोयरग्गगओ भुजइ सो अन्नं गाम गओ वालो बृढो छाआलू खमओ विधिः वा, अहवा तिसिओ तो कोई विलंबणं काऊण पाणयं पिवेज्जा, एवमादि, इच्छेजा नाम अभिकखेज्जा पढमालियं काउं, तं पुण|| अण्णसाघुउबस्सगऽसतीए कहए भित्तिमूले वा समुदिसेज्जा, कोट्टओ नाम बहुमढो सुनओ, एवमादि, भिती नाम कुटो कुड़ी, एवमादि, तथा फासुयं अप्पपाणप्पबीयादि, च चक्खुणा पडिलेहेज्जा, भुज्जो रयहरणादिणा पमज्जित्ता तत्थ ठायंति, किंच 'अणुनवित्तु मेहावी.' ॥१४२ ।। सिलोगो, तेण तत्थ ठायमाणेण तत्थ पह अणुबबेयब्बो-- धम्मलामो ते सावगा! एस्थ अहं महुचागंमि विस्समामि, ण य भणयति जहा समुहिस्सामि आययामि वा, कोउएण पलोएहिंति , तेण य भत्तपाणं | पडिलेहिना तारिसे परिच्छण्णे संबुडे ठातियव्वं जहा सहसचि न दीसती, जहा य सागारियं दूरओ जैन पासति तहा ठाति-1 यवं, हत्थर्ग मुहपोसिया भण्याइत्ति, तेण हत्थएण सीसोवरियं कायं पमज्जिऊण साधुणा भुजियवं। किंच-तत्थ से अंजमाणस्स०॥ १४३ ।। सिलोगो, जइ तस्स साहुणी तस्थ भुजमाणस्स देसकालादीणि पडच्च गहिए मंसादीए अन्नपाणे अट्टीकंटका वा हुज्जा इयरंमि वा अभपाणे तणं कई सकरा का हुज्जा 'अन्नं वापि तहाविहं' पयरककड़गाइवि हुज्जा 'तं उक्विवित्तु०॥१४४ सिलोगो, तं अहिगादि इत्यादिणा णो उक्खिपिऊण णिक्खिवेज्जा, आसिज्जते जेण तं आसयं, तं ॥१८७) च मई, तेण आसएणावि ण छडेज्जा, ताणि य अजयणाए खिविज्जमाणाणि जत्थ पडंति तत्थ पाणविराहणा होज्जा, महेण छडेजा। तस्स सत्तघायो भवति बाउकायसंघको य, तणकट्ठाईणि घेतूण मतिमा णियए दटूण कोइ भणेज्जा-एतेहिं चेव वल्लिकरहिं|
SRO
दीप अनुक्रम [७६१७५]
... अत्र भोजन-विधि: दर्शयते
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
आलोच विधिः
[१५...] गाथा ॥६०
चूणों.
॥१८॥
FREE
श्रीदश- भुचो एसचि, तम्हा हत्थेण अप्पसागारियं गहेऊण एगतमवक्कमेज्जा 'गंतमवकमित्ता.॥१४५ ॥ सिलोगो, जाहे एग-1 पकालिक तमवकतो ताहे निरुवरोहे अवगासे पडिलेहिय पमज्जिय अचिने थडिले जयणाए पडिडवेज्जा, जइ अतिच्छिउँकामो विस्समणहूँ |
| ताहे इरियाए पडिक्कमेइ, किंच-जत्थ परिदुविज्जह तत्थ हत्थसयभंतरे पडिकमियव्वं । इदाणिमागतस्स समुद्दिसंतस्स विधी ५ अ016
भण्णइ- 'सिआ य भिक्खू इच्छिला ॥ १४६ ॥ सिलोगो, कयाति तस्स साधुणो चित्तं भवेजा उवस्सए गतूणं भोक्खामि, तओ'सपिंडपातमागम्म' सह पिंडवाएण पडिस्सयं गतूण, उंड्यं ठाणं भवाइ, तं पडिलेहइ, तत्य विहिणा ठाविऊण | भत्तपाणं पडिलहिता- ‘विणएणं पविसित्ता० ॥१४७॥ सिलोगो, विणओ नाम पविसंतो णिसीहियं काऊण 'नमो | खमासमणाणं ' ति भणंतो जति से खणिओ हत्थो, एसो विणओ भण्णइ, एतेण विणएण सो मुणी पविसिऊण गुरुसगासे ठाणं | ठाइउं, इरियावहियमादाय णाम जाहे गुरुसगासमागओ ताहे पडिकमामि इरियावहियाए विराहणाए. तत्थ अरह उच्चारता Pi काउस्सगं ठिओ- 'आभोइत्ताण ॥१४८॥ सिलोगो, आभोएत्ताण णाम णाऊणं, जो अइआरो कओ तमतियारं अहकम तमि काउस्सग्गे ठितो हियए ठविज्जा, सो य अतियारो साधुणो गमणागमणे पहुच होज्जा भत्तपाणे वा घेप्पमाणे, जा। अतियारो तमणुचिोऊण उस्सारेइ, ताहे 'लोगस्सुज्जोयगरं' कड्डिऊण तमतियारं आलोएइ, तं च इमेण पगारेण आलोएज्जा । 'उज्जुप्पन्नो०॥ १४९ ॥ सिळोगो, उज्जु पण्णा तस्स सोऽयं उज्जुप्पण्णो, अशुधिग्गो णाम ण नीयं तुरियं वा आलोएह, अन्वक्खित्वेण चेतसा नाम तमालोयंतो अण्णेण केणइ समं न उल्लावद, अवि वयणं वा अमस्स न देई, ततो बंदिचा जं जहा गहियं तं तहा एव हत्थं वा मत्रं वा बावारं वा आलोएइ 'न सम्ममालोइयं ॥१५० ।। सिलोगो, जाहे आलोइयं भवह
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दीप अनुक्रम [७६१७५]
अत्र गौचरी-आलोचना विधि: दर्शयते
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५), नियुक्ति : [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
उद्देशः२
[१५...] गाथा ॥६०
पी-1 वाहे जइ किचि अजाणयाए ण सम्ममालोइयं पुरेकम्मपच्छाकम्मादि तस्स पुण पटिकमज्जा, तत्थ य पडिक्कमाणेण बोसट्ठ- कालिका देहेन काउस्सग्गे चिंतेज्जा 'अहो जिणेहिं असावज्जा ॥११॥ सिलोगो, ताहे- 'णमुकारेण ॥१५२ ॥
चौँ दा सिलोगो" नमोकारेण" "नमो अरिहंताणं" तिएतेण नमोक्कारेण काउस्सग उस्सारेता जिणसंथवो ‘लोगस्स उज्जो-15 ५० अगरे' भनइ, तं काढऊण जइ पुण्यं ण पट्टवियं ताहे पटुविऊण सज्झायं करेड, जाव साधणो अपने आगच्छंति, जो पुण खमणो *
अत्तलाभिओ वा सो महत्चमेत वा सज्झो (बीसत्थो) इमं चिंतेज्जा-'बीसमतो इम' ॥१५३॥ सिलोगो, साहसु य गएर आयरियं ॥१८९॥
आमंतेहि (ति), जेण परिग्गहण सोहणं, अह न गाहियं ताहे भणइ-खमासमणो! देह इओ जस्स दायच्वं इच्छाकारेण, ताहे जइ तेहि दिने | तो सोहणं, अह भणति-तुम चेव देहि, ताहे 'साहवो तो चिअत्तेणं.' ॥ १५४ । सिलोगो, चिअत्तं णाम अन्नपाणे अप-| ४ डिबद्धो सम्वभावेण, जहावत्थु भणइ-इच्छाकारेण अणुग्गहं करेह, न रायवेडिमिह मण्णमाणो निमंतति, जब कोई इच्छई सोहर्ण,
तेहि सदि मुजिज्जा ।' अह कोई न इच्छिज्जा.' ॥१५९ ॥ सिलोगो, अह पुण तेसिं साहुणं कोईवि न इच्छेज्जा ताहे एक्क-16 Pओ उ मुंजज्जा, किंच- तेण साहुणा आलोय भायणे समुद्दिसियब्ध, जयं नाम तदुवउत्तेण, अपरिसाडियं दुविई-लंबणाओ
(हत्थाओ, मुहाओ य, उवार्य चेव जतं जं न परिसाडइ, तं पुण भोयणं--'तित्तगं व ॥१५६ ॥ सिलोगो, तत्थ तित्तग एल-15
गवालुगाइ, कडुमस्सगादि, जहा पभृएण अस्सगेण संजुतं दोद्धग, कसायं निष्फावादी, बिलं तक्कंपिलादि, मधुरं जलखीरादि, कालवणं पसिद्ध चेब, एताणि कस्सइ हितइच्छिताणि जहा पुष्यमुसिणभावियसरीरस्स सीताहितत्तणे या उसिणं मधुरमेव पढिहाइ,15
एवं सब्वत्थ जाणियव्वं, तम्हा साहुणा सम्भावाणुकूलेसु रागोण काययो, पडिकूलेसु य दोसो, 'एयलद्धमन्नत्थपउत्त'-मिति
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॥१८९॥
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण.
५ अ०
॥ १९०॥
।
अष्णो- मोक्खो तणिमित्तं आहारयन्वंति तम्हा साहुणा सम्भावा शुकूलेसु २ साधुति (न) २ जिम्भिदियं उबालमइ, जहा जमेतं मया लद्धं एवं सरीरसगडस्स अक्खोवंग्सरिसन्तिकाऊण पउत्तं, न चष्णरूचवलाइ निमित्तंति, तं मधुघयमिव भुंजियां साहुणा, जहा महुषयाणि जति तातं असोहणमवि भुंजियां, अहवा जहा महुययं हणुगाओ हणुगं असंचारेहिं भुंजितब्वं । 'अरसं विरसं ० ' ॥१५७॥ सिलोगो, अरसं नाम असंपचरसं, हिंगुलवणादीहिं संभारेहिं रहियं, विरसं नाम सभाओ विगतरसं विरसं भण्णइ तं च पुराणकण्डवनियसीतोदणादि 'सूचियं तंग मंथुकुमासा ओदणो वा होज्जा, मंधू नाम बोरचुनजवचुत्रादि, कुम्मासा जहा गोलछविसए जबमया करेंति, तेन तप्पगारं भोयणं । ' उप्पण्णं णाइ० ' ॥ १५८ ॥ सिलोगो, उप्पष्णं नाम जं अप्पं वा बहुं वा फासुग लद्धं तं णातिहीलेज्जा, गगारो पडिसेहे बइ, अतिसदो अतिक्कमे, हीलणाजिंदणा तत्थ साहुणा इमं आलंबणं कायध्वं जहा मम संथवपरिधारिणो अणुवकारियस अप्पमवि परो देति तं बहु मणियवं, जं विरसमयि मम लोगो अणुवकारिस्स देति तं बहु मनपब्वं अहवा इमं आलंबणं कायध्वं 'मुहाल मुहाजीवी' | सिलोग, मुहालद्धं नाम जं कॉलवेंटलादणि मोतृणमितरहा लद्धं तं मुहाल, मुहाजीवि नाम जे जातिकुलादीहि आजीवणबिसेसेहिं परं न जीवति तेण मुहालद्धं आहाकम्माईहि दोसेहिं वज्जियं मोत्तन्वंति । किंच-' दुलहाउ मुहादाई ॥ १५९ सिलांगो, सोम महादायि एरिसो, जहा एगो परिव्वायगो, सो एगं भागवतं उबडिओ अहं तव गिहे वासारचं करेमि मम उ वहाहि तेण भणिओ-जह मम उदंतं न बहसि एवं होउत्ति, से सो भागवओ सेज्जभत्तपाणादणा उदतं बहद्द, अण्णदाय तस्स घो डओ चोरेहिं हिओ, अविष्यभायंतिका ऊण जालीए बद्धो, सो य परिब्वायओ तलाए हायओ गओ, तेण सो घोडओ दिट्टो,
॥
[203]
उद्देशः २
॥ १९०॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
॥६०
१५९||
दीप
अनुक्रम
[७६
१७५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [६०-१५९/७६-१७५], निर्युक्तिः [२३५-२४४/२३४-२४४], भाष्यं [६१-६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णी
५ अ०
॥१९१॥
आगंतुं भाई--मम पाणियतडे पोची विस्सरिया, गोहो विसज्जिओ, तेण घोडगो दिट्ठो, आगन्तुं कहियं. तेण मागवणण णायंजहा परिव्वायएण उदारण कहियं, तेण परिव्वायओ भण्णइ- जहा जाहि, णाहं तब निधि उदतं वहामि, निबिड अप्पफलं भवइ, एरिसो मुहादायी दुल्लभो । महाजीविंमि उदाहरणं- एगो राया धम्मं परिक्खति को धम्मो १, जो अनिब्बिई जई, तो तं ★ परिक्खेमित्तिकाउं मणुस्सा संदिडा राया मोदए देति, तस्थ बहवे कप्पाडियादयो आगया, पुच्छिज्जेति तुम्भे (केण ) मुंजह ?, अण्णो भणति अहं मुद्देण गुंजामि, अण्णो- अहं पाएणं, अभो- अहं हत्थेहिं, अण्णो-अहं लोगाणुग्गण, सच्चे ते रन्नो कहिज्जति, चेन्नओ आमओ, ओ तुमंण जाह, भगइ- ' अहं मुद्दा भुजामि, ' रण्णो कहिये, ताहे रण्णा बेल्लओ पुच्छिओ भणजो जेण उल्लग्गइ सो तेण भुंजर, कहं ?, जेण जे ताव भवतं आउहेहिं आराति ते आउधेहि भुंजांति, लेहगाहिणो करेहिं, दूता पाएहि, गंधन्विया गीएण सूयमागधादिणो वायाए, कुतित्थियादि मुहममलादीहिं, अहं मुहाए जामिति, वाहे सो राया एस धम्मोतिका ऊणं आयरियसगासे धम्मं सोऊण पव्वइओ, एरिसो मुहाजीवी भण्णह, जो व मुहादायी जो ग मुहाजीची एते दोऽवि सिज्यंति, जाब य ण परिणिव्वायंति ता देवलोगेसु य पच्चायायंति, बेमि नाम तीर्थकरस्य सुधर्मस्वामिनो (बो) पदेशाद् ब्रवीमि न स्वा भिप्रायेणेति । ॥ पिण्डेषणाध्ययनप्रथमोदेशकचूर्णी समाप्ता ॥
उद्देशक २
पिंडेपणा अध्ययनस्य पढमउद्देसए ण जं भणियं तमिदाणिं भष्णति, तंजहा- 'पडिग्गहं संलिहित्ताणं' ॥ १६० ॥ सिलोगो, 'ग्रह उपादाने ' धातुः अस्य धातोः प्रतिपूर्वस्य 'ऋदोरपि' ( पा ३-३-५७ त्यनुवर्त्तमाने 'ग्रहवृनिश्विगमधे 'ति ( पा. ३-३-५८) अप्प्रत्ययः, पकारः 'अनुदात्तौ सुप्पिता' (पा. ३-१-४) विति विशेषणार्थः, परगमनं प्रतिग्रहं परिगिज्झति
[204]
उद्देश। २
॥ १९९॥ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५), नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
श्रीदश-1
चूर्णी
[१५...]
गाथा ||१६०२०९||
५.अ०
॥१९२॥
जम्मि भायणे असणादिदा सो पडिग्गहो, 'लिह आस्वादने' धातुः, अस्य धातोः संपूर्वस्य 'अलखल्योः प्रतिषेधयोः प्राक्क्त्वे'त्य- उद्देशः२ (पा. ३-४-१८) नुवर्तमाने 'समानकर्तृकयोः पूर्वकाल' (पा. ३-४.२१) इति त्वा प्रत्ययः, ककारः 'किङतिचे ति (पा.१-१-५) | गुणवृद्धिप्रतिषेधार्थः, 'हो' इति (पा. ८-२-३१) हकारस्य ढकारः 'झषस्तथो धोऽधः' इति (पा.८-२-४०) तकारस्य धकार, ।'ष्टुना एटु'रिति (पा. ८-४-४१) ष्टुत्वेन धकारस्य ढकारः, 'ढोढे लोप:' इति (पा. ८-३-१३) ढकारस्य लोपः, 'दलीपे। पूर्वस्य दीर्घोऽण' इति (पा. ६-३-१११) दीर्घत्वं, समेकीभावेन लीदत्या इति 'प्रादय' इति (पा. १-४-५८) समासः 'गतिकारकोपपदानां कृद्धिः समासवचन मिति (पा. ६-२-१३९) 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो'रिति (पा. २-४-७१) सुक्लुक, IP अकृतव्यूहाः पाणिनीयाः कार्य हप्त्वा प्रतिनिवर्तत इति निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः, सलह इति स्थिते 'समासे नपूर्व 18 त्यो ल्यापति (पा. ७-१-३७) क्त्वाप्रत्ययस्य ल्यप् आदेशः, पकारः पूर्ववत्, लकारः लिहतिप्रत्ययात्पूर्व उदाचाथैः, परगमन, संलिश, तं पडिग्गहं सलिहिता नाम पदेसणीए भत्तावयवाणमसेसाणं बयणे पक्खेयो, 'लिप उपदेहे' धातुः, अस्य धातोः भावे| (पा. ३-३-१८) घञ्प्रत्ययः अनुबन्धलोपः पुगंतलघूपधगुणपरगमनानि, लिप्यते तस्य लेपः, लेवमायाए नाम जाव लेपदेशावसेस ताव संलिहेज्जा, यम उपरमे धातुः, अस्य धातोः सम्पूर्वस्प 'तक्तवतू निष्ठे'ति (पा. १-१.२६) क्तप्रत्यया, ककारः। 'किकति चेति (पा.१-१-५) विशेषणार्थः, 'अनुदाचोपदेशवनतितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो झालि किती'ति (पा.६-४-३७) | अनुनासिकान्तस्य झलि किति परतः अनुनासिकस्य लोपो भवति, परगमनं, संजओ नाम अप्पमचो, दुटो गन्धः दुर्गन्धः अशा- IC१९२॥ मनः अप्रीतिकरः अमनोज्ञो, दुर्गन्धं च सुगन्भं वा, सर्वशब्दो अशेषवाची, सर्व प्रातिपदिक, नपुंसकविवक्षायां सु 'स्वमोनपुंसका-12
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दीप अनुक्रम [१७६२२५]
ॐ
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५), नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूणों
द
[१५...]
गाथा ||१६०२०९||
दिति (पा.७१-२३) वर्चमाने 'अतोऽम् (पा. ७-१-२४', अतः अकारान्तात्प्रातिपदिकाम् अम्, अतो गुणः, परपूर्णच, सर्वति। श्रीदश-पर्स
उद्देशः२ वैकालिक
भुज पालनाम्यवहारयोः धातुः, अस्य धातोः 'वर्तमाने लटि'ति (पा.३२-१२३) लट् प्रत्ययः, टकारलकारयोरनुवन्धलोपः, लस्य तिपादयो भवन्तीति सर्वतिप्यतिप्रसंगे प्राप्ते 'अनुदात्तङित आत्मनेपदं (पा.१-३-१२) भवति, किं पुनरात्मनेपदं | भवति ?, तङानावारमने (पा. १-४-१००) तत्र सर्वात्मनेपदप्रसंगे प्राप्ते तिङनीणि त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमानि (पा.१-४-१०१)
४. प्रथमपुरुषस्यैकस्मिन्नर्थे एकवचनमुपादीयते, तं तकारादकारमपकृष्य 'टित आत्मनेपदानां टेरेत्व'मिति (पा. ३-४-७९) अका॥१९॥
| रस्य एकारः 'कर्तरि शपि' ति (पा. ३-१-६८) शपि प्राप्ते 'रुधादिभ्यः नम्' (पा. ३-५-७८) मकारः 'मिदचोऽन्त्यात्परः।
(पा.१-१-४७) इति विशेषणार्थः, अकार उच्चारणार्थः, लस्य तिपादयो भवन्तीति प्रातिपदिकप्रसंगे प्राप्ते शेषात् करि परस्मै-17 ४ पर्द' (पा.१-३-७८) भवति, किं पुनः परस्मैपदं भवति, प्रातिपदिकसका इत्येवमादि, तत्र प्रथमपुरुषस्य एकस्मिन्नर्थे एक-५ है बचनमुपादीयते, तिपू, पकारलोपः इकारः नित्यं ङित' (पा. ३-४-९९) इतश्चेति (पा. ३-४-१००) इकारलोपः 'कर्तरि शपिति
(पा. ३-१-६८) शप् प्राप्ते 'तुदादिभ्यः शः' (पा ३-१-७७) प्रत्ययः, शकारादकारमपकृष्य शकारः सार्वधात्वर्थः यासुद् | परस्मैपदेपदाचो किच्चेति (पा. ३-४-१०३) यासुद्, टकारस्य 'आयन्तौ दकिती' इति (पा.१.१-४६) विशेषणार्थः, उकार | उच्चारणार्थः, 'लिक सलोपोऽनन्त्यस्यै' वेति सकारलोपः, 'अतो या इय' अतः-अकारान्तादगादुत्तरस्य या इत्येतस्य इय | |१९३॥
आदेशः, 'लोपो व्योली ति (पा.६.१-१६) यकारलोपः 'आद्गु ण' इति (पा. ६-१-८१) गुणः भवत्येकच पूर्वपरयो, द्रा परगमन, उत्सृजेत्, नकारादकारस्य उकारेण सह आदू गुण (पा. ६-१-८७) नोत्सृजेत्-न छहए, ण सुभि सुभि भोच्चा
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दीप अनुक्रम [१७६२२५]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५), नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
उद्देशः२
[१५...]
गाथा ||१६०२०९||
॥१९४||
दुभि परिठवेज्जा, एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं दुग्गंधगहणेण दुवण्णदुरसादीवि भेदा गहिया, सुगन्धमहणेणावि वकालिकादपिसत्थवण्णरसाहदा गहिया। सीसो आह-जह एवं सिलोगपच्छद्धं पुचि पढिज्जह पच्छा पडिग्गी सेलिहिताण, तो अस्थो। चूर्णी.
सुहगज्झयरी भवति, आयरिओ भणइ महमुहांच्चारणस्थ, वाचत्ता य सुत्तवन्धा, पसत्थं च पडिग्गहगहणं उदेसगस्स आदितो। x भण्णमाणं भवतित्तिातो एवं सुतं एवं पढिज्जति, ते पुण दुगंध वा सुगन्धं वा कत्थ भत्तं होज्जा', 'सज्जा निसीहियाए'18 |॥ १६१ ।। सिलोगो, सज्जा-उवस्सतादि मट्ठकोट्टयादि, तहा निसीहिया जत्थ समायं करेंति, अहवा सेज्जाए वा निसीयाहिएति, | तासु सेज्जानिसीहियासुची होज्जा गोयरगसमावण्णो बालचुडखवगादि मट्ठकोहगादिसु समुदिडो होज्जा, ततो सो अया-10 वयहूं नाम ण यावय, उहुँ(ऊणं)ति उत्तं भवति, 'जइतेण न संथरे' सिलोगो, सो पुण खमओवा होज्जा दोसीणो वा गंधितो, एए वा बालकेसु विधरेसु एतेहिं गंधियं, तं च अयावय8 'ततो० ॥१६२॥ पुण भत्तपाणगवेसणहाए उत्तरइ, उत्तरमाणो य तेणेव विहिणा पुव्यमणिएण जो पढमुद्देसएणं 'संपत्ते भिक्खकालीम' एतो आरम्भ जो विही भणिओ तेण विहिणा इमेण उत्तरेण य | गवेसेज्जा, उत्तरा नाम पुष्वभणियाता दाणि जो विधी मण्णिहिति, सो य उत्तरी इमा- 'कालेण निक्खमे भिक्खू०' ॥ १६३ ।। सिलोगो, 'कालेणं'ति गामनगराइसु भिक्खाबेलाए उवस्सयाओ निक्खमेज्जा, तहेव य कालेण चेव उच्चे जोतिसिए (चिओ जो तमि) पडिकमज्जा, पडिकमज्जा नाम नियवेज्जा, णियं च खेतं पहुप्पति, कालो पहुप्पति, भायणं | पहुप्पति, तं हिंडिउं, एत्थ अट्ठ भंगा, 'अकालं च विवज्जेचा' णाम जहा पडिलहणवेलाए समायस्स अकालो, सज्झायवेलाए मडिलेहणाए अकालो एवमादि अकालं विवज्जित्ता 'काले कालं समायरे' तं भिक्खावेलाए मिक्वं समायरे, पडिलेहणवेलाए
CRACCORDCRACE
दीप अनुक्रम [१७६२२५]
॥१९४॥
... अत्र 'जयणा' वर्णयते
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५), नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१५...]
उदेश २
गाथा ||१६०२०९||
श्रीदश
श- पडिलहण समायरे, एवमादि, भणिय च-'जोगो जोगी जिणसासणमि दुक्खक्खया पउजतो । अण्णोऽण्णमवाहतो असवनो होइ बैंकालिकाकायचो ॥१॥' किंच 'अकाले चरसी० ॥ १६४ ।। सिलोगो, तमकालचारि आउरीभूतं दट्टण अण्णो साहू भणज्जा, लद्धा चूौँ ! ते एयाम निवेसे भिक्खात्त, सो भणइ- कुओ एत्थ डिल्लगामे भिक्खत्ति, तेण साहुणा भण्णइ- तुम अप्पणो दोसे परस्स उपरि
निवाडे हि, नुमं पमाददोसेण सज्झायलोभेण वा कालं न पच्चुवेक्खसि, अप्पाणं अहिंडीए ओमोदरियाए किलामेसि, इमं सभिवेसं
च गरिहसि, जम्हा एते दोसा तम्हा- 'सह काले घरे भिक्खू०॥ १६५ ।। सिलोगो, सति नाम विज्जमाणे काले हिंडियचे. ॥१९५॥
पुरिसकारो नाम जंघावलादिमु बलं ताव हिंडियन्वं, अण्णायपिंडेसणयस्स पूरिसकारेण विणा वित्ती तु ण भवति, कयाइ पुरिसकार कीरमाणे विभिक्खं न लभेज्जा, तत्थ इमं आलंवणं कायध्वं- 'अलाभुति न सोइज्जा' हा न लहामित्ति, निद्धम्मो उ खरंटर लोगे, परिसं न भाणियब न चितयति, किन्तु 'तवृत्ति अहियासप' ओमोयरिया अणसणाई वारसविहतवअभतरत्तिकाऊणं अधियासेयचं, कालजयणा गता । इदार्ण खेत्तजयणा भण्णा'तहेवुच्चावया पाणा०॥ १६६ ।। सिलोगो, 'तहेवनि जहा अकालो बज्जेयचो तहा इमंपि बज्जेयब्ध, उच्चावया नाम नाणापगारा, अहवा उपचावया पसरथजातिदेहरूपर्वससरीरसंठाणादीहि उपवेता, अवया नाम जे एतेहि व परिहीणा. ते उच्चावया पाणा पंथे वा पंथम्भासे भत्तट्टाए पलिपाहुडियादिसु समागया दटूण णो उज्जय गच्छेज्जा, किन्तु 'जयमेव परक्कमे जयं नाम परिहरइ, अहवा नो उज्जुयं गच्छति, एत्तो
संयतस्स अन्तराइयअधिकरणादयो दोसा भवति । 'गोअरग्गपविट्ठो अ०॥ १६७।।। सिलोगो, गोयरग्गगएण भिक्खुणा राणो णिसियध्वं कत्था परे वा देवकुले वा सभाए वा पचाए वा एवमादि. जहा य न निसिएज्जा तहा ठिओऽवि धम्मकहाबाद
दीप अनुक्रम [१७६२२५]
SARSASARAKAR
॥१९५
SACARE
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||१६०
२०९||
दीप
अनुक्रम [१७६
२२५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [ ५१-२०९/१७६-२२५], निर्युक्तिः [ २४४... २४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णां
५ अ०
॥१९६॥
कहा- विग्गहकहादि णो 'पबंधिज्जा' नाम ण कहेज्जर, गण्णत्थ एगणारण वा एगवागरणेण वा 'संजय'ति आसंतर्ण, खेत्तजयणा गता । इदाणिं दव्वजयणा भण्णइ - 'अग्गलं फलिहं० ॥ १६८ ॥ सिलोगो, अर्गला गोवाडादीदारेसु भवति, फलिहो नगरदुषारादिषु दारं- दारमेव, कवाडं- भारतवचं, एताणि अग्गलादीणि 'अवलंबिया ण चिडेज्जा' अवलंबिया नाम अवर्थभिऊति वृतं भवति, पुणिसदो आमंतणे वट्टह इमे दोसा- कयाति दुन्द्रे पडेज्जा, प ंतस्स य संजमविराहणा आयविराहणा वा होज्जति, दब्यजयणा गया। इयाणि भावजयणा भण्णह, तं० 'समणं माहणं वावि० ॥ १६९ ॥ सिलोगो, समणा पंच, माहणा पिज्जाइया. किविणा- पिंडोलगा, वणीममा पंच, एतेसिं पुत्रं कांच पवि पुरओ वा पविसमाणं पासिचा अइकमिऊण ण पविसेज्जा, ण य तेर्सि दायगपडिच्छगाण चक्खुफासे चिट्ठेज्जा, किं कारणं १, इमे दोसा भवन्ति 'वणीमगस्स वा० ' ॥ १७० ॥ सिलोमो, वणीमगगहणेण सेसावि माहणादिणो एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं गहिया भवन्ति तस्स भिक्खागस्स दायगस्स या दोपि वा दायगपडिगाहगाणं अप्पत्तियं कदायि भवेज्जा पवयणलाघवं वा, एवमादि दोसा भवति तम्हा'पडिसेहिए व दिने वा० ॥ १७२ ॥ सिलोगो, जाहे समणमाहणादीणं अण्णतरो पडिसेधिओ भवइ, दिष्णं वा से, सयं वा विणियत्ता भवति, ताहे साहुणो भत्तपाणङ्काए उवसंकमियव्यंति, सत्तपीडाधिकारोऽणुवट्टद्द- 'उप्पलं पउमं०' (१७३) सिलोगो, उप्पलनीलोत्पलादि पउमं पसिद्धमेव कुमुदं मधुप्पलं मदगतिआ-मेचिया, अण्णे भणति धियइल्लो मदगतिया भण्णइ, न केवलमेतीण जो संलुंचिऊणं देति तस्स हत्थाओं ण घेप्पर, किं तु अण्णंपि जं पुष्कं सचित्तं संचिऊण देइ तमवि न बेप्पर, संलुंचिया णाम छिंदिऊण, तमेवंपगारं द्वितियं पडियाइक्स्खे न मे कप्पड़ तारिसं' ॥ १७४ ॥ सीसो आह
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उद्देशः २
॥ १९६॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५), नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
उद्देशः २
चूर्णी
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गाथा ||१६०२०९||
श्रीदश-हैणणु एस अत्थो पुचि चेव मणिओ जहा 'सम्ममाणी पाणाणि बीयाणि हरियाईति हरियग्गहमेण चणफई गहिया, किमत्थं. बैंकालिक पुणो गहणं कयंति !, आयरिओ भणह-तत्थ अविससिय वणकरगहणं कयं रह प्रण सभेदभिण्णं वणप्फाकायचच्चारियं, जं
| जहा अकप्पियं भवति तं तहा इमा पडिसेहेह, तहा 'उप्पलं पउमं वावि ॥ १७५ ॥ सिलोगो, सम्मदिया नाम पुन्वच्छि-16 ५ अ० प्रणाणि जाणि ताणि अपरिणयाणि संमहणसंघट्टणाणि काऊण देइ, तमेवपगारं दितिय पडियाइक्खे-न में कप्पड सारिस । किंच ॥१९॥
जहा उप्पलादीणि सत्ताणि परिवज्जिजति तहा इमाणिविसालों बा चिरालियं० ॥ १७ ॥ सिलोगो, 'सालुग' नाम | उप्पलकन्दो भण्णइ, 'बिरालिय' नाम पलासकंदो मण्णइ, जहा बीए वस्सी जायंति, तीसे पत्ते, पत्ते कंदा जावंति, सा विसलिया |
भण्णाइ, कुमुदा उप्पला व पुष्वणिया, तेसिं दोण्हवि जाली-गालिया भण्णइ, एयाणि लोगो खायति अतो पडिसेहणनिमिच। ४ोनालियागहणं कयंति, मुणालिया गयदंतसचिमा पउमिणिकंदाओ निग्गच्छति, 'सासवनालिअं' सिद्धत्थगणालो, तमवि |
लोगो ऊणसतिकाऊण आमग चव खायति, उच्छृखंडमवि पब्बेसु धरमाणेसु ता नेव अनवगतजीव कप्पड़ । किंच-तरुणगं वा पाल' ॥१७८ सिलोगो, 'तरुणगं' नाम अहणुट्टियं 'पवाल' पल्लयो, सो रुक्खस्स वा हरियस्स वा होज्जा, रुक्खे जहा।
अघिलयाईणे, तणस्स जहा अज्जगमूलादीणं, आमग नाम सचित्तं,परिवज्जए (परितो) वज्जए परिवज्जए। 'तरुणिअंधा छिवार्डि' I ॥१७९॥ सिलोगो, 'तरुणिया' नाम कोमलिया, 'छिवाडी' नाम संगा, 'आमिया' नाम सचेतणा, 'सई मज्जिया' नाम 181 एकसि मज्जिपा, ते तहप्पगारं छियाडि देतियं पडियाइक्खे। किंच-तहा कोलमणुस्सिन'० ॥ १८० ॥ सिलोगो, कोल
जर मण्णाह, अण्णे पुण भणति-सकिरिल्लो वेलुयं, तमवि अणुस्सिन कप्पइ, 'कासवनालिय' सीयणिफलं मण्णइ, तमीवर
दीप अनुक्रम [१७६२२५]
SECORNERIES
॥१९७)
ॐॐ3
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आगम
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५), नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||१६०२०९||
वैकालिक • चूर्णी,
५ अ० ॥१९॥
अणुस्सिण्णं न कप्पइ, "तिलपप्पडगं' जो आमगेहिं तिलहिं कीरइ, तमवि आमगं परिवज्जेज्जा, 'नीम' नीमरुक्खस्स फलं, उद्देशः २ तमवि आमग परिवज्जए । किंच 'तहेव चाउलं पिट्ठ' ।। १८१ ॥ सिलोगो, चाउलं पिट्ठ भट्ठ भण्णाह, तमपरिणतधम्म | सचित्रं भवति, सुद्धमुदयं वियर्ड भण्णइ, 'तिलपिटुं' नाम तिलबट्ठो, सो य अद्धाइहिं तिलेहि जो की तत्थ अभिण्णता तिला | | होज्जा दरभिन्ना था, एवमादी नो पढिग्गहेज्जा, 'पूतियं' नाम सिद्धत्थपिंडगो, तत्थ अभिन्ना वा सिद्धत्थगा भोज्जा, दरमिना वा, एवं चाउलपिंडादी आमगं परिवज्जए । 'कविट्ठ माउलिंग च.' ॥१८२।। सिलोगो, कविट्ठमाउालेंगाणि पसिद्धाणि, मूलओ सपत्तपलासा, मूलकचिया-मुलकंदा चित्तलिया भण्णाइ, एतीस कविट्ठाईणं अनतरं लब्भमाणं आमग-असत्थपरिणतं मणसावि न पत्थए, किमंग पुण अकप्पमाणा पडिगाहेत्तए। किंच-'तहेव फलमणि ' ।। १८३ ॥ सिलोगो, मंधू-बदरचुण्णो भण्णइ, फलमंथू बदरओबरादाणं भण्णइ, 'बीयमंथू' जबमासमुम्गादीणि, एयमादि, बिहेलगरुक्खस्स फलं बिहेलगं, पियालो रुक्खो तस्स फलं पियालं, एवं फलमथु लब्भमाणमवि परिवज्जेज्जा, सांसो आइ-किमम्हेहिं घेतब्ब ?, भन्ना--'समुआणं चरे | भिक्ख. '।। १८४ ॥ सिलोगो, समुदाया णिज्जइति थोवं थोवं पडिवज्जइत्ति वुत्तं भवइ, 'चरे' नाम हिंडेज्जा, भिक्खुगहणेण साधुणो णिसो कओ, साहुणा समुयाणडा पविद्वेण उच्चावयं कुलं सदा पविसियवं. 'उच्च' नाम जातितो णो सारतो,। सारतो णो जातीतो, एग सारतोवि जाइओबि, एग पो सारओ नो जाइओ, अवयमवि जाइओ एगं अवयं नो सारओ | सारओ एग अवयं नो जाइओ एग जाइओऽवि अवयं सारओऽवि एग नो जाइओ अवयं नो सारओ, अहवा उच्च जत्थ मणु-८॥१९८॥ आणि लब्भति, अवयं जत्थ न तारिसाणचि, तहप्पगारं कुलं उच्चं वा भवउ अवयं वा भवउ, सव्वं परिवाडीय समुदाणितवं,
--CALLECTRICALCIRCTERS
दीप अनुक्रम [१७६२२५]
[211]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
|| १६०
२०९ ||
दीप
अनुक्रम [१७६
२२५]
भाग-6 "दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२] मूलं [१५...]/ गाथा: [ ५१-२०२/१७६-२२५] निर्युक्तिः [ २४४ / २४४...], आष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४२ ] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णी
५ अ०
॥ १९९॥
ण ण नीयं कुलं अतिकमिऊण ऊसढं अभिसंधारिज्जा, 'णीयं' नाम णीयंति वा अवयंति वा एगट्ठा, दुर्गाछियकुलागि बज्जेऊण जं से फुलं तमतिकमिऊणं नो ऊसढं गच्छेज्जा, ऊसदं नाम ऊसदेति वा उच्चति वा एगहूं, तंमि ऊसढे उकोस लभीहामि बहुं वा लम्भीहामित्तिकाऊण णो णीयाणि अतिकमेज्जा, किं कारणं १, दीहा भिक्खायरिया भवति, सुत्तत्थपलिमंथो य, जडजीवरस य अण्णे न रोयंति, जे ते अतिकमिज्जति ते अप्पत्तियं करेंति जहा परिभवति एस अम्देति पञ्चइयोवि जातिवायं ण मुयति, जातिवाओ य उववृहिओ भवति । तुम्हा- 'अदीणो वित्ति०' ॥ २८५ ॥ सिलोगो, 'अदीणो' नाम अविमणो, तेसु उच्चनीयेसु कुलेसु वित्तिमेसेज्जा, एसेज्जा नाम गवेसेज्जा, जो विसीएज्जा णाम विसादो न कायच्चो, जहा हिंडतस्सऽवि मे जो (नो सं) पडइ, घरसयमवि गंतु एगमवि भिक्खं न लहामि, पडिस्सयं गच्छामित्ति, 'पंडिते'ति आमंतणं, मुच्छिओ इव मुच्छिओ (मुच्छिओ) न किंचि कज्जाकज्जं जाणइ तहा सोऽवि अमपाणगिद्धो ईरियाईसु उपयोग न करेइ, तम्हा अमुच्छिएण भोयणे भवियच्वंति, मायणि नाम 'ज्ञाऽवबोधने धातुः' अस्य धातोः मात्रापूर्वस्य मात्रावृन्दस्य 'कमणि द्वितीयेति ( पा. २-३-३ ) कर्माणि उपपदे द्वितीया विभक्तिर्भवति का पुनर्द्वितीया, अम् प्रथमयोः पूर्वः सवर्णदीर्घः, मात्रां जानातीत्येवं विगृह्य 'आतोऽनुपसर्गात् क' इति ( पा. ३-२-३ ) कप्रत्ययः, ककारादकारमपकृष्य ककारः 'किती' ति विशेषणार्थः, 'आतो लोप इति च' 'ङ्किति चे(पा. ६-४-६४ ) त्याकारलोपः, गतिकारकोपपदानां क्रुद्भिः समासवचनं प्राक् सुप्प्रत्ययः उपपदमिदं तं सुपा सह समस्यते तत्पुरुषच समासो भवति सति समासे 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो' रिति (पा. २४-७९ ) सुप् लुक, 'जथापोः संज्ञाछन्दसोर्बहुल' मिति (पा. ६-३-२३) मात्राशब्दो इस्वः मात्रज्ञः इत्तिएण पजचं भवति, तमेव नाऊण गेण्देइ, एसणारएण होयचं,
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उद्देशः २
।।१९९ ।
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||१६०
२०९||
दीप
अनुक्रम
[१७६
२२५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [ ५१-२०९/१७६-२२५], निर्युक्तिः [ २४४... २४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रदिशबैकालिक चूण
५ अ०
||२००॥
एगम्हणे गहण तज्जातीयाणामितिकाउं उम्गमउप्पायादिणोऽवि गहिया, अलभमाणेण किमालवणं कायव्वं, 'बहु परघरे ०' ॥ १८६॥ सिलोगो, बहुनाम परिमाणओ तं द बहुत 'विविहं' नाम अणगप्पगार, खज्जतित्ति खादिमं, सातिज्जतीति सातिमं, एतंमिखाइम साइमे वा अलग्भमाणे ण तत्थ पंडिओ कुप्पेज्जन्ति, कि कारण, इच्छा देज्जा परो न वा परो नाम असंजओ सावओ वा अण्णो वा कोहवि वितकिज्जति सो परो तंमि ओ (अदी) यमाणे एवं चितेयन्वं जयं एतस्स अप्यज्जत्तियं बहु च से अणुवकारा, एंतेण त इच्छा दिज्ज परो न वा देज्जति । किच- 'सयणासण० ॥ १८७॥ सिलोगो, पठितसिद्धो चेव, किंच 'इत्थि पुरिसं वावि० ॥ १८८ ॥ सिलोगो, मग्गिज्जेज्जा पुरिसे वा, साय इत्थिया नवतरा वा होज्जा थेरी वा एवं पुरिसोऽवि, तं इथि पुरिसं वा डहरभावे वट्टमाणं थेरभावे वट्टमाणं 'बंदमाणं न जाइज्जा' जहा अहमेवेण वंदिउचि अवस्समेसो दाहेति, तत्थ विपरिणामादिदोसा संभवंति पुरिसें पुण बंदमार्ग २ अ किंचि वक्खेवं काऊण अण्णता वा मग्गिऊण मी तत्थेव गंतॄण मग्गह, जह ताहे पुणो वंदति तो मग्गिओ जह कदापि पडिसेहज्जा तत्थ नो अष्णं फरुसं वए, जहा-हीणं ते वंदितं तुमं अवंदओ चैव, एवमादि, अथवा एस आलावओ एवं पढिज्जइ 'वेदमाणो ण जापज्जा' बंदमाणो णाम बंदमाणो सिराकंपं पंजलियादीहि णो जाएज्जा, वायाएव वंदणसरिसाए ण जातिब्बो, जहा सामि मट्टि देवए वाऽसि, केणति वंदनसीलेण पमादयो अणाभोगओ वा बंदिओ न होज्जा तत्थ जे न बंदे न से कुप्पे' ॥ १८९ ॥ सिलोगो, तस्थ जो न बंदति तस्स उचरिं कोहो ण कायध्वो, बंदिओऽवि रायादीहिं णो समुकसेज्जा, नहा को भए समाणो संपतित्ति १, 'एथमन्समाणस्स' त्ति वसो अवधारणे वट्टर, किमवधारयति ?, पुष्बोषह विधि अवधारयति, सो एसो विही मण्णइ एतैा विहिणा पुच्चायरिएहिं
[213]
उद्देशः २
॥ २००॥॥
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आगम
(४२)
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सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||१६०
२०९||
दीप
अनुक्रम
[१७६
२२५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [ ५१-२०९/१७६-२२५], निर्युक्तिः [ २४४... २४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण
५ अ०
॥२०१॥
समुदाणमेसितं तमणुएसमाणस्स नाम तमेव जिणुवदिई मेरमणुलंबभाणस्स सामण्णमणुचिठ्ठह नाम अहितं चिति । इदाणिं स पकखे तेणियां पडिसेहिज्जेति- 'सिआ एगइओ लढुं' ॥ १९० ॥ सिलोगो, सिया नाम कदाह, एगो नाम सतेसु जति एगो कोइ एरिस करेज्ज, सो य वष्णगंधरसादीहिं उनवेयं भोयणं लडूण 'लोभेण विणिगृहति लोभण नाम तंमि भोयण गिद्ध - मुच्छिओ, विविहेहिं पगारेहिं गृहति चिणिगृहति, अप्पसारियं करेइ, अनेण अंतपन्तेण ओहांडेति मा मेयमुकस्यं आयरिओ अण्णा वा कोइ दणं सगँ आइएज्जा नाम गेण्हेज्जा, जइ पुण पच्छा करेमि तो पढमालिया मिसण मंडीए वा तातो अवगासाओ गिण्हामित्ति, तस्सर्वं कुच्चमाणस्स इमे दोसा भवति, तं० 'अत्तट्ठा गुरुओ लुह्रो' ॥ १९९ ॥ सिलोगो, अत्तणो अस्थ गुरुओ, लुद्धा पसिद्धो चैच, तओ सो अत्तद्वगुरुयत्तं कुव्यमाणो सपक्खे तेशिया मायापच्चत्तियं 'बहुं पावं पक्कुव्यति' नाम अतीव कुब्बद्द पकुब्वद्द, तस्स तं संसारंगमणाय भवइ, एस ताव परलोइओ अवाओ भण्णइ, इमो पुरा इहलोइओ जहा दुत्तोसओ भवति, कहूं ?, तस्स मणुष्णाहारसमुतस्स उकोसो दन्नअलामो पायसो, भत्तस्सावि ण तुट्ठी उप्पज्जइ, अपरितुट्ठो य कहं पिन्वुर्ति लभि स्थिति ?, अहवा 'णिवाणं च न गच्छइ' एसोऽचि परलेोगावायो, णिव्वाणं सव्वम्मrखयो, मोear toवकम्मपगडीणं, गण्णभवे गच्छद, तमेवंगुणविशिष्ट निव्वाणं न गच्छा, एस ताव पच्चक्खो अपच्चक्खमवहरति । इयाणि अपच्चक्खो पच्चक्खभवहरति सो भण्णइ 'सिआ एगहओ लहुँ०' ।। १९२ ।। सिलोगो, कदाचि कोइ लुद्धो मिकखायरियाए अडमाणो विविहं पाणमोयणं लंदूर्ण जं मदगं तं मी विवण्णं विरसं च तमाहरइ, तत्थ मद्दति वा कल्लाणंति वा सोभणति वा एगड्डा, 'विवर्ण' अंबक्खलगकथंडेड कुरादीयं विवनं विरसं नाम जं समावओ विगतं रसं तं विरसं भण्णह, तं च सीतोदणादी, सो पुर्ण क्रिमस्थं
[214]
उद्देशः २
॥२०१॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५), नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
उद्देशः२
[१५...]
गाथा ||१६०२०९||
श्रीदश- | भदगं भोत्तर्ण विषण्णविरसाणि आहरह', 'जाणतु ता इमे ॥१९३।। सिलोगो, जाणतु ता इमे समणा जहा एस साथ् आयबकालिका तो-मोक्खो भण्णाइतं आयय अस्थयतीति आययद्री. अहोऽयं सतहो नाम जह अस्थि तो झुंजति, अलम्ममाणेऽवि समो चेव, चूर्णी.
अहो य अंतपंतं निसेचइ, लूहाइ से वित्ती, एतस्स ण णिहारे गिद्धी अत्थि, 'सुतीसओ' नाम थोवेणवि आहारण लद्धेण ण चव ५ अ०
आउलीभवति । किंच-'पूअणट्ठा जसो० ॥ १९४ ॥ सिलोगो, सो पच्छन्नभाई पूयणढी जसोकामी य इमं महंत अवार्य ॥२०२॥ पावह, तत्थ पूयणड्डी जहा जइ अहमेव करेमि वो सपक्खपरपक्खओ मे पूया भविस्सइ, 'जसोकामी' नाम एवं कुबमाणस्स
जसा म भविस्सइ, जहा अहो महप्पा एसत्ति, एवमादी, 'माणसम्माणकामए' माणा बंदणअमुहाणपच्चयी, सम्माणा ताह बंदणादीहि पत्थपत्तादीहि य, अहवा माणो एगदेसे कीरइ, सम्माणो पुण सच्चप्पगारेहि पति, माण सम्माण कामयताति माना समाणकामए, कामयति नाम पत्थयति, सो एवंविहसहावो बहुं "विविह' अणेगपगारं पापं पसवति, पसवति नाम प्रसूययति, कम्मगरुययाए वा सो लज्जाए वा अणालोएंतो मायासल्लमवि कुब्बति । कई , 'सुरं वा मेरगं वाबि० ॥ १९५ ।। सिलोगो, तित्थ सुर पिट्ठकम्मादि दव्यसंजोगओ भवति, मेरगो पसनो मुरापायोग्गेहि दहि कीरह, ण केवलं सुरमेरमा परिहारयच्या, है किन्तु अण्णावि जे मज्जप्पगारा तेवि परिहरणिज्जति, जति नाम गिलाणनिमित्ताए कज्जं भविज्जा ताहे 'ससक्खं नो
पिबेज्जा' ससक्खं नाम सागारिएहि पटुप्पाइयमाणं, किं कारणं ससक्खं ण पिबेज्जा, मण्णति- 'जसं सारक्षमप्पणों' Cजसो संजमो भण्णा कित्ती वा, तेण य पीएण मत्तो भवति, मनोय संजमणो पेक्खड़। इयाणि ससक्खं ण पायन, एगागिणी
पायब्वमिति', अतो भण्णति--'पियए एगओ तेणो० ॥ १९६ ॥ सिलोगो, पियति नाम पियतित्ति वा आपियति वा एगढ्ढा,
दीप अनुक्रम [१७६२२५]
MALSCREGAROOPEECACK
॥२०२।।
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५), नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
कालिक
चूणों
[१५...]
गाथा ||१६०२०९||
५ अ०
॥२०॥
एगइओ णाम कोई रसलोलुयाए गिलाणादीहि कारणीह तेणियाए 'ण मे कोई विजाणयि'त्तिकाऊणं सुरमरगादीणि पिएज्जा, उशा २ अहवा गिहत्थे तेणिय इमेणप्पगारेण करेज्जा, आयरियस्स गिलाणस्स वा दाहामि, मा नाम कोइ वियाणतिचिकाऊण आइएज्जा, तस्सवपगारस्स दोसा इहलोइयाइया भण्णमाणा सुणसुत्ति, तत्थ नियडी माया भण्णइ, ते य दोसा इमे-'चट्ट सुंडिआ तस्स' ॥ १९७ ॥ सिलोगो, मुंडिया नाम जा सुरातिमु गेही सा सुंडिआ भण्णति, ताणि सुरादीणि मोत्तूणं ण अन्न रोयइ, मायामोसं च बाद, कही, जाहे सो पुच्छिऔ भवति ताहे भणइ-चाल्लोबाउलोवि एसो नत्थि,किंच-अयसो य से सपक्खे परपक्खे य भवति, जहा। एस सो वियडपाउ एवमादि, 'अनिव्वाणी' नाम जाहे ताणि सुरादीणि ण लब्भति ताहे तेसिं अमावे परमं दुखं समुप्पज्जतित्ति, अवा अणिवाणी मोक्खाभावो भण्णति, वहा असाधुता से भवति, असाधुया नाम असंजतत्तं भष्णइ, सा य असाहुआ सययं भवति, सययं णाम सव्वकालं, सो य 'निच्चुब्विग्गो जहा तेणो० ॥ १९८ ॥ सिलोगो, किंच-'आयरिए नाराके ॥ १९९ ॥ सिलोगो, इदाणं तहासविसुद्धाणं भचपाणादाणं जो भोत्ता सो भण्णइ, जहा-तवं कुब्बा मेहावी। ॥ २०१॥ सिलोगो, मेधावी दुविहो, तं०-गंथमेधावी मेरामेधावी य, तत्थ जो महंत गंथं अहिज्जति सो गंथमेधावी, मेरामेधावी णाम मेरा मज्जाया भण्णति तीए मेराए धावातीत मेरामेधावी, पणीतस्स नाम नेहविगतीओ भण्णति, ते पणीए रसे विवज्जति, न | केवलं पणीतरसं वज्जति, किन्तु मज्जप्पमादविरओ, तवस्सीति वा साहुत्ति वा एगट्टा, आइउकसो' ण तस्स एवमुक्करिसो
॥२०३३ | भवइ जहाऽइमेव एगो साहू, को अण्णो ममाहिती सुंदरोति, एवमाइगुण जुत्तस्स साधुणा इहलोइए परलोइए य गुणे भणिहामि, तं०-10 'तस्स पस्सह०' ।। २०२ ॥ सिलोगो, 'तस्स'ति तस्स अमाइणो, कल्लाणंति वा सोहणंति वा एगट्ठा, 'कल्लाणं' मोक्खो।
4%AC%+
दीप अनुक्रम [१७६२२५]
+44-4
RACRENCE
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५), नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
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गाथा ||१६०२०९||
श्रादश- भण्णति कल्लाणं, सो य संजमो, अणेगं नाम इहलोइयपरलोइयं, जं च साहिं पूजियं, पूजिये नाम आतिणंति पूजितंति का,
उद्देशः२ वैकालिकाता
अण्णेहिं वा साहहिं पूजियं भण्णइ,' घिउलं अस्थसंजत्तं' नाम विपुलं विसाल भण्णति, सो य मोक्खो, तेण विउलेण अस्थेण चूर्णी
#संजुत्तं विउलत्थसंजु, अत्थसंजु णाम सभावसजुतण पुण णिरस्थियंति, 'किलिज्जमाणं सुणेह य' ति । एवं तु गुणप्पेही०' ६अ०
॥२०३।। सिरोगो, गुणा अट्ठारससीलंगसहस्साणि ते पेहमाणो णाम सेवमाणो, तहानागज्जुपिणया तु एवं पढति-'एवं तु अगुण-15 ॥२०४|| प्पेही अगुणाणं विवज्जए' अगुणा एवं अणं अगुणाणं, अणंति वा रिणति वा एगट्ठा, तं च अगुणरिणं अवंती, सोय
सनकालमेव मोक्खहेउमाराहयमाणो तारिसो आराहेइ परिकम्मवितगुणेण मरणंतेऽवि संपत्ते संघरो गाम संजमो तमाराधयति ।। किंच-'आयरिए.' ॥ २०४ ।। सिलोगो, तेणाधिगारे वट्टमाणे इमं भष्णइ-तवतेणे वयः ॥ २०५॥ सिलोगो, तत्थ तवतणा। णाम जहा कोइ खमगसरिसो केणावि पुच्छिओ-तमं सो खमोचि, तत्थ सो पूयासकारनिमित्त भणति-ओमिति, अहवाल भणइ-साहूणो चेव तवं करेंति, तुसिणो संविखइ, एस तपतेणे, वयतेणे णाम जहा कोइ धम्मकहिसरिसो वाईसरिसी अण्णण पुच्छिओ जहा तुमे सो धम्मकहि चादी चा ?, पूयासकाराणिमित्त भण्णइ-आम, तोहिको वा अच्छइ, अहवा भणइ-साधुणी चव धम्मकहिणो वादिणो य भवंति, एस वयतेणे, रूवतणे णाम स्वस्सी कोइ रायपुत्तादी पवइओ, तस्स सरिसो केण पुच्छिऑ, जहा तुम सो अमुगोत्ति, ताहे भण्णति-आमंति, तुसिणीसो वा अच्छड, रायपत्तादयो एरिसा वा, एस रूवतेणे, आयारभावतेण णाम जहा महुराए कोउहलति जहा आवस्सयक्षुण्णीए स आयारतणो. भाषणो णाम जो अणभुवगतं किंषि सुर्त अत्थं वारि माणावलेवेण न पुच्छइ, चक्खाणतं वाएंतस्स वा सोऊण गेहद, एवं तवतेणादि भावीवरचणेण हालोगे व अयसादिदोसा
-
-
BESCRecision
दीप अनुक्रम [१७६२२५]
-
+et
[217]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [५१-२०९/१७६-२२५), नियुक्ति : [२४४.../२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश
[१५...]
गाथा ||१६०२०९||
पावइ, परलोगऽपि सो अणालोइयपडिक्कतो कालगओ देवकिब्विासियत्ताए कम्मं पकरेति । सीसो श्राह-जइ तारिसेहिं देव की
उद्देशः२ बैंकालिक लम्भइ, किमेवढेण जवेण?, भण्णाइ-तारिसस्स बभवयाइयाण पालणादाणं तं फलं, तहवित्थ असाहणं । अतः- लणवि देवत्तं ।।
चुणौG|| २०६ ॥ सिलोगो, किं तेण देवत्तेण जत्थ सो ओहिनाणलद्धीए न जाणइ-कोई पुब्वं आसी? किं वा कयंति', अहवा सो त ५ अ01इमे न याणइ-जहा इमं दुक्कडं कयं जेणाहं देवत्तणेवि सति आभियोगो अंतत्थो वा जातोति, एस ताव देवलोगे अबायो भाणि
ओ । इदाणिं ताओ देवलोगाओ चुतस्स भण्णाइ-'तत्तोऽपि से चइत्ताण' ॥२०८॥ सिलोगो, जइवि कहषि सो तओ ॥२०॥
चबचा देवलोगाओ माणुस्सेसु उपयज्जइ जत्थ बहुणावि कालेण बोधिलाभो न भवति । 'एअंच दोसं दहणं, नायपुत्तेण|
भासि ॥ २०८॥ सिलोगो, एवं नाम जो हेटा इयाणि देवकिदिवसादि दोसो भणिओ. एवं दद्रण, चकारेण सूलचति । IXI जहा कित्तियं भणिहामि, अण्णवि भगवया णायपुत्तेण एत्थ बहवे दोसा भासिया, तम्हा तेसि दौसाणं परिहरणनिमित्तई
अणुमायपि मेहाची, मायामोस विषज्जए' तत्थ अणुसद्दो थोचे वट्टइ, थोषमवि मायामोसं विवज्जए, किमंग पुण बहुमंति PIPI इदाणि दोण्हंपि उद्देसगाणं उपसंहारो कीरइ, जहा--सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहि ॥२०९॥ सिलोगो, सिक्खिऊण-11
णाऊणं, भिक्खाए एसणा भिक्खेसणा, भिक्खमग्गणत्ति वुत्तं भवति, ताए भिक्खाए उम्गमुप्पायणेसणादीहिं सिक्खिऊण संजताई
साधुणो भण्णन्ति बुद्धा नाम अरहंतो भगवतो, तेसिं संजतषुद्धाणं सगासे पिंडेसणज्झयणं सिक्खिऊणं 'तत्थ' त्ति ताए भिक्खेस- २० 18| णसुद्धीए साहुणो 'सुप्पणिहिदिए तिब्बलज्जेण गुणवया विहरियब्वंसुट्ठ पणिहिताणि इंदियाणि जस्स सो सुप्पणिहि-18
इदिओ, लज्जसंजमो-तिब्बसंजमो, तिव्यसदो पकरिसे वह, उकिट्ठो संजमो जस्स सो तिब्बलज्जो भण्णइ, गुणो जस्स अस्थि सो
दीप अनुक्रम [१७६२२५]
%
94
[218]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||१६०
२०९||
दीप
अनुक्रम [१७६
२२५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [ ५१-२०९/१७६-२२५ ], निर्युक्तिः [ २४४... / २४५ ], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णी:
६ धमो.
॥२०६॥
गुणवं, विहरेज्जासि, शिवीम नाम तीर्थकरोपदेशात् सुधर्मस्वामि न स्वाभिप्रायेण ब्रवीमि । इदाणिं णामि गहियवे, अगिहियवंमि चेव अत्यंमि । जइतव्यमेव इइ जो उवएसो सो गयो णाम ॥ १ ॥ सव्वेसिंपि नयाणं बहुवि हवतव्वयं निसामेत्ता । तं सव्यमयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू || २ || पिण्डेषणाध्ययन चुण्णी संमत्ता ॥ अथ आचारकथा धर्मार्थकामाध्ययनं ॥
इदाणि भिक्खु भिक्खापविडं जड़ कोइ पुच्छेज्जा केरिसो तुम्ह धम्मोति १, ततो सो तेण भाणियच्चो, जहा-आयरियो उज्जाणे अण्णत्थ वा जस्थ, वित्ता, ते कहेयब्वं ततो ते धम्मसोयच्वनिमित्तमागच्छंति, एतेण संबंधणागस्स अज्झयणस्स चचारि अणुयोगद्वारा भाणियब्बा, जहा आवस्सगषुण्णीय, नवरं इह नामनिष्फलो महान्तियायारकहा, महंतं णिक्खिचियव्वं, आयारो friedrosो, कहा निक्खि वियन्वा, एते तिष्णि जहा खुड्ड्यायारकहाए, इत्थ इमा जिदरिसणगाहा भाणियच्या, पुच्वं 'जधाय' (जो पुवि० पृ० २४७) गाहा कण्ठया, इदाणिं सुत्ताणुगमे सुतं चक्खाणितव्यं तं अक्खलियं अमिलियं अविचामेलियं जहा अणुयोगदारे तं च इमं सुतं
नाणदंसणसंपन्न, संजमे अ तवे रयं । गणिमागमसंपन्न, उज्जाणंमि समोसढं || सू० २१० ॥
'ज्ञा अवबोधने' धातुः अस्य लट् वर्त्तमाने, 'करणाधिकरणयाचे ति ( पा. ३-३-११७ ) करणे ल्युट्प्रत्यये टकार उच्चारणार्थः लकारः लिटि प्रत्ययात्पूर्व उदात्तार्थः, 'युवोरनाका' विति ( पा. ७-१-१) अनादेशः, अकः सवर्णदीर्घत्वं, ज्ञायते अनेन ज्ञान स्थिते न इति नपुंसकविवक्षायां प्रातिपदिकार्थलिङ्ग परिमाणवचनमात्रे प्रथमा, तस्य एकवचनं सु, 'अतोऽमि 'ति
अध्ययनं -५- परिसमाप्तं
... अत्र धर्म-कथकस्य स्वरुपम् वर्णयते
अध्ययनं -६- 'महाचारकथा' आरभ्यते
[219]
धर्म
कथकस्य रूपं
॥२०६॥
Page #220
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________________
आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
॥२१०
२७७||
दीप
अनुक्रम
[२२६
२९३]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [२४७-२६८/२४५ - २६८ ], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीशवैकालिक चूर्णी
६ धर्मो.
||२०७||
(पा. ७-१-२४) अम् भवति, 'अमि पूर्व (पा.. ६-१-१०७) अमि परतः पूर्वसवर्णः, ज्ञानं तच्च पञ्चप्रकारं ततोऽसौ श्रुतज्ञानेन वा सम्पन्नः त्रिभिर्वा चतुर्भिर्वा पञ्चभिर्वा इति दृशिर प्रेक्षणे धातुः अस्य धातोः इकाररकारलोपाभ्यां लोपे 'इरिता वे' ति पा. ३-१-५७) विशेषणार्थ:, ल्यूटिति वर्त्तमाने 'करणाधिकरणयोथे ति ( पा ३३११७) स्युद् प्रत्ययः पूर्ववत्, 'मिदेर्गुण' इति (पा. ७.३-८२ ) वर्त्तमाने 'सर्वधातुकार्धधातुकयो' रिति (पा. ७-३-८४ ) 'पुर्गतलघूपधस्य चे' ति ( ७-३-८६ ) गुणः 'अदेङ् गुणः' (पा. १-१-२) ऋकारस्य स्थाने 'इको गुणवृद्धी' इति ( १-१-३) वचनात् इकः स्थाने अकारे गुणः, उरण् रपर इति (पा. १-१-५१) फपरो भवति, परगमनं दृश्यते अनेन दर्शन इति स्थिते नपुंसकविवक्षायां पूर्ववत् दर्शनं द्विप्रकारक्षायिकं क्षायोपशमिकं च, अतस्तेन क्षायिकेण क्षायोपशमिकेन वा संपन्नं, 'पद गती' धातुः अस्य 'तक्तवतू निष्ठे' ति ( पा. १-१-२६ ) निष्ठा प्रत्ययः, ककार उच्चारणार्थः, 'रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च द' (पा. ८२४२ ) इति रेफदकारादुत्तरस्य निष्ठातकारस्य नकारो भवति, पूर्वस्य च दकारस्य नकारः, परगमनं, सम्पन्न इति स्थिते नपुंसकविवक्षायां पूर्ववत, संयमतपसी 'पूर्ववद्वान्ये, ते 'रम क्रीडायां' धातुः सैव निष्ठाक्तप्रत्ययः अनुबन्धलोपः 'अनुदात्तापदेशवन तितनोत्यादीनामनुनासिकलोपो (पा. ६-४-३७) [ अनुनासिकान्तस्य गस्य ] अनुदोत्तापदेशानां तकारादौ किति प्रत्यये परतः अनुनासिकस्य लोपो भवति रतं, तयोः संयमतपसो रतं, 'गुण गुण संख्याने' धातुः चुरादौ पठ्यते, अस्य धातोः स्वार्थिको णिच, अचश्च प्रत्ययः परगमनं च गणः, गण इति स्थिते प्रथमैकवचनं सु रुत्वविसर्जनीयाँ गणः अस्यास्ति तदस्यास्त्यस्मिन्निति (पा. ५-२-९४) मतुपि प्राप्ते स्थिते 'अत इनि उनी' (पा. ५-२-११५) अतः अकारान्तात् प्रातिपदिकाद् इन् प्रत्ययो भवति, 'सुपो
| शलि
[220]
धर्म
कथकस्यरूपं
1120011
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : २४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
धर्म
LALA
NALIAकचकरा
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
धादश- धातुप्रातिपदिकयो' (पा. २-४-७१) रिति सुप्लुक, नकारस्य 'हलन्त्य मिति (पा. १-३-३) (हल्ल्याविति ) संज्ञा-HI बेकालिका
प्रयोजनं निजित्यादिनिमित्यादुदार्थः (त्तव्युदासार्थः) 'यस्येति चे' ति (पा.६-४-१४८)अकारलोपः, गणिन् इति स्थिते 'कम्मणि चूणों
* द्वितीया' (पा. २-३२) अम् परगमनं गणिन, 'गम्ल गतो, अस्य धातोः आपूर्वस्य 'करणाधिकरणयोथे' त्यनुवर्तमान 'पुसि 18 संज्ञायां घः प्रायेणे ति (पा.३-३-११८) घप्रत्ययो भवति, धकारादकारमपकृष्य घकारस्य 'लशक्वतद्धिते इदिती' (पा. १३-८)
संज्ञा, प्रयोजन 'चजोः कु घिध्यतो' रिति (पा.७-३-५२) विशेषणार्थः, प्रायेण आगम्यतेऽनेनेति आगमः, तं गणिमागम-|
संपन्नं नाम वायगं, एकारसंग च, अर्थ वा ससमयपरसमयवियाणगं, उज्जाणे, सरधातुः स्वरादौ पठ्यते, सरमाचष्टे तरकरेति | ₹तदाचष्ट तेनातिकामति धातुरूपं चीत चूर्ण, [ सत्या०] 'चुरादिभ्यो णि: (पा. ३.१-२५) अणुबन्धलोपः 'अत उपधाया'
इति (पा. ७-२-११६) वृद्धि प्राप्ता अदन्तत्वान्न भवति, सर्वे अदन्ताः अज उपदेशाः, तेनोपधावृद्धिप्रतिषेधः, "अती लोप पाख
धातुके' (पा. ६-४-४८) अत (पा. ६.४-४६) अकारस्य लोपो भवति अर्द्धधातुके परतः, सति 'सनाधन्ता धातवः। दि इति धातुसंज्ञा, अस्य धातोः संपूर्वस्य अवपूर्वस्य च तक्तवत् निष्ठे' ति (पा.१.१-२६ ) का प्रत्ययः ककारः किति विश-14 भाषणार्थः, 'आर्द्धधातुकस्येड् चलादे' रिति (पा.७-२-३५ इडागमः, टकारः उच्चारणार्थः 'सार्वधातुकार्द्धधातुकयो' रिति (पा. HI७-३-८४) अङ्गस्य गुणः प्राप्तः कित्वात्प्रतिपेधे 'निष्ठायां सेडि' ति पा. ६-२-४५) लोप: परगमन समवसरितं तं च, ते आग-1x
तूण | रायाणा रायमच्चा य० ॥ ३११ ।। सिलोगो, तस्थ रायाणो बद्धमउडा. रायमचा अमच्चा, डेढणायगा सणावइप ॥२०८।। भितयो, माहणा धीयारा तेसि उप्पत्ती जहा सामाइयनिजुत्तीए, 'अदुव खत्तिया' नाम कोइराया भवइ ण खत्तियो. अनो
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
4456
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : २४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश-16
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
खचियो भवति, ण उ राया, तत्थ जे खत्तिया ण तेसि गहणं कर्य, तं तमायरियं विणयपुव्वगं उचक्कामिऊगं णिहुयपाणिपाया इमं धर्म कालिकापुच्छति-भगवं, कई तुम्भं आयारगोयरो जिणेहिं उवदिट्ठोक्ति । तओ-तेसिं सो निहुओ दंतो० ॥ २१२ ।। सिलोगो, तेसि कथकस्यचूर्णी तारायादीणं सो णाणदंसणादिगुणसंपन्नो णिहुअणाम इत्यादीहि संजओ, दंतो इंदियनाईदिएहि, सब्वाणि भूयाणि २ तेसि सब-15 ६ धर्मा. भूयाणं सुहमावहतीति सम्पभूतमुहावहो, सबभूतसुहावहो नाम सबसत्तदयावरो, सिक्खा दुविधा, तंजहा-गहणसिक्खा आसः ||
181 वणासिक्खा य, गहणसिक्खा नाम सुत्नत्थाणं गहणं, आसेवणासिक्खा नाम जे तत्थ करणिज्जा जोगा तेसि कारणं संफासणं,13 ॥२०९॥
CI अकरणिज्जाण य बज्जणया,एताए दुबिहाए सिक्खाए सुट्ठ समाउत्तो, आइक्खड़ वियखणोत्ति, चक्षिद् व्यक्तायां वाचि धातु,दा
अस्य धातोः विपूर्वस्य चलनशब्दाथोंदकम्मेकायुचि (पा. ३-३-१४८) त्यनुवर्तमाने 'गच (अनुदात्तेतच) हलादे"रिति (पा. ४|३-२-१४९) युच्प्रत्ययः, अनुबन्धलोप: 'युचोरनाका' विति (पा.७१-७) अनादेशः 'पाभ्यां नो णोऽसमानपद' इति (पा.|१|| 61८-४.१) 'अकुप्वानुम्व्यवायेऽपीति' (पा. ८-४-२) नकारस्य णकारः परगमनं, विविधमनेकप्रकारमाचष्टे विचक्षणः, आचष्टे | इति कथयति, विचक्षणः पंडितः । 'हंदि धम्मत्थकामा० ॥२१३।। सिलोगो, हंदिशब्द उपप्रदर्शने वर्तते, किमुपप्रदर्शयति । ये भवन्तः ओतव्याभिकांक्षितयोपस्थिताः ते कथ्यमानं धर्म शृण्वंतु, धृ धारणे धातुः, अस्य 'आतो मनिनक्वनिप्वनिपश्चे'(पा. ३.२-७४ ) त्यनुवर्तमाने 'अन्येभ्योऽपि दृश्यन्त' इति (पा. ३.२-७५) मनिन् प्रत्ययः, नकारेकारलोपः' 'सार्वधातुकाई- IA२०९॥
धातुकयों रिति (पा. ७-३८४) गुणः परश्च, नरकतिर्यग्योनिकुमानुषकुदेवत्वे पततं धारयतीति धम्मः, 'ऋगती' धातुः, दो अस्य धातोः 'उपिकपिगार्तिभ्यः थानति (उ०२) अः थन् प्रत्ययः, नकारलोपः अर्द्धधातुकत्वाद् गुणः, अकारो गुणः र-16
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
[222]
Page #223
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||२१०
२७७||
दीप
अनुक्रम [२२६
२९३]
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६] उद्देशक [-] मूलं [ १५...]/ गाथा: [ २१० २७७/२२६-२९३] नियुक्तिः [ २४७-२६८/२४५-२६८], आष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र - [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रदिशवैकालिक चूण
६ धर्मा.
॥२१० ॥
परश्र 'अनचि चेति ( पा. ८-४-४७ ) द्वित्वेन थकारः 'झलां जशोऽन्त' इति (पा. ८-२-३९ ) जस्त्वेन थकारस्य दकारः, 'खार चे' ( पा. ८-४-५५ ) ति बंधे थकारस्य तकारः, परगमनं, इयतीति अर्थः, कमु कान्तौ धातुः अस्य धातोः 'पदरुजविप्सस्पृशो घ' (पण. ३-३-१६ ) इत्यनुवर्त्तमाने 'मावे' ( ३-३-१८ ) ति घञ् प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः परगमनं कामः, अथवा काम्यते स्म कामः, धर्म्मः अर्थो द्वावपि प्रथमतो वेति निपात्यन्ते, धर्मश्व अर्थव 'चायें इन्द्र:' ( पा. २ २ २९ ) समासः, सति समासे 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो' रिति (पा. २४७१ ) सुप्लुक् 'अकः सवर्णे दीर्घः' ( पा. ६-१-१०१ ) धूर्मार्थं 'सर्वो द्वन्द्वो विभाषया एकवद्भवतीति' एकवद्भावः, 'स नंपुसक' मिति (पा, २-४१७) नपुंसकत्वे च धर्मार्थ, ततः तद्धर्मार्थं वे कामयन्ति, मोक्षमित्युक्तं भवति, ते धर्मार्थकामाः के च ते ?, निर्ग्रन्थाः, ग्रथिं कौटिल्ये धातुः, अस्य धातोः निम्पूर्वस्य 'इदितो नुम् धातोरिति ( पा. ७-१-५८) जुमि कृते 'पुंसि संज्ञायां घन् प्रायेणेति ( पा. ३-३-११४) घञ् प्रत्ययः अनुबन्धलोपः परगमनं, ग्रंथनं ग्रन्थः, स च बाह्यः सुवर्णहिरण्यवैर्यमणिमौक्तिकादिः, अभ्यन्तरः क्रोधमान माया लोमेत्यादि, निर्गतो ग्रन्थः सबाह्याभ्यन्तरो येषां ते निर्ग्रन्थाः अतस्तेषां निर्ग्रन्थानां महर्षीणामा चारगोचरमभिधीयमानं दुरहिडियं शृण्वन्तु तत्थ धम्मत्थकामार्णति एयस्स आलावयस्सवि पुरओ अत्यं भणामि, तत्थ तिष्णि इमे भाणियव्वा, तं० धम्मो अत्थो कामोति, तत्थं पढमं धम्मोचि दारं मण्णइ, सो चउब्विधो, जहा दुमपुष्क्रियाए, गवरं इह लोगुत्तरो भण्णइ, सो य इमो धम्मों बाबीसविहो० ॥ २४८ ॥ गाथा, लोगूतरो धम्म आहेण सविधो भवति, सो पुणे विभज्ञमाणो दुविधो भवइ, तं०- अगारधम्मो अणगारधम्मो य, अगारधम्मो बारसविधो अणगारधम्मो दसविहो, दुविहोंऽवि मेलिज्जमाणो बाबसइविहो भव, तत्थ जो सो बारसविहो भवइ अगारधम्मो
••• अत्र धर्मस्य भेदा: वर्णयन्ते
[223]
धर्म भेदाः
॥२१० ॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
॥२१०
२७७॥
दीप
अनुक्रम
[२२६
२९३]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [२४७ - २६८/२४५ - २६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णी
६ घर्मा.
॥२११॥
सो इमो पंच य अणुब्वयाई० ॥ २४९ गाथा, पंच अणुब्वया धूलाओं पाणातिवायाओ बेरमण यूलाओ मुसावायाओ वेरमणं' थूलाओ अदिष्णादाणाओ वेरमण सदारसंतोसो इच्छापरिमाणं, तिष्णि गुणव्वयाणि, तं०-दिसिवयं उपभोगपारंभोगपरिमाणं अणत्थदंडपरिहारो, चचारि सिक्खाववाणि तंजहा- सामाइयं देसावगासिअं पास होववासो अतिथिसंविभागो, अपच्छिममारणंतियसंलेहणासणाराहणा, एतस्स बारसविहस्स सावगधम्मस्स क्वाणं जहा पचवाणनिज्जुतीप, तत्थ जो सो दसविधोऽवि साहूणं, सो य इमो, ते० 'वनी अ महवज्जव०' ।। २५० ॥ गाथा, कण्ठया, एसो दुसविधऽवि समणधम्मो जहा दुमपुलियाए, धम्मो गओ इदार्णि अस्थी मण्णइ 'धम्मो एसुबइडो० ॥२५९॥ गाथा, धम्मो, इदाणि च अत्थो भवइ, चउब्विहो, तंजहा नामत्थो ठवणत्थो दव्यस्थो भावत्थो य, नामठवणाओ गयाओ, दने हिरण्णादि, भावत्थो दुविदो-पसत्थो अप्पसत्थो य, तत्थ पसत्थो णाणदंसणचरिताणि, अप्पसत्यो अन्नाणअविरतिमिच्छत्ताणि, तत्थ जो सो दव्यत्थो सो संखेवेग छवि भवति, वित्थरओ पुण चउसविधोत्ति, तत्थ जो सो छब्बिधो सो इमो - धद्माणि रयण० ।। २५२ ।। ( वृत्ता समग्रेयं ) गाथा, आणि रयणाणि थावरं दुपदं चउप्पदं कुवियंति, एत्थ आहेण छवियों अत्थो गतो । इदाणिं पयाणती चैव छाती अत्थाओ चउसडिविधो अत्थो निष्फज्जर, सो य इमेण गाथापच्छद्रेण भण्णइ 'चउवीसा चडवीसा० ॥ २५२ ॥ ( वृत्ती समग्रेयं ) गाथापच्छद्धं तत्थ धन्नाणि चउब्विसं रयणाणि चवींस थावरं तिविहं दूषयं दुविहं चउप्पयं दसविहं कुवियं अणेगविहं तं च अगविहमवि एवं चैव गणिज्जति, सच्चे ते भैया विडियो उसठ्ठी भवति । तत्थ धनानि चउच्च इमाहि दोहिं गाहाहिं भण्णन्ति धन्नाणि चडब्बीस० ॥ २५४ ॥ गांधा, अपास हरिमन्ध तिउडग० ॥ २५५ ॥ माथा, तत्थ जवगोधूमसालिबीहि
[224]
अर्थभेदाः
॥२११ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : २४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
अर्थभेदाः
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
श्रीदश-18सालि ( सहि) णो पसिद्धा, सट्ठीगा सालिमेओ, कोहवअणुया पसिद्धा, कंगूगहणेण उनकंगए गहणं, जे पुण अवसेसा कंगूमेया
ताते रालओ भण्णइ, तिल्लमुग्गमासा अतसी य एताणि पसिद्धाणि, हरिमन्था कालचणया, तिउडया लंगचनया, णिप्फाचा वल्ला, चूणा: मसूरा मालबविसयादिसु चवलगा, रायमासा इक्खतुंडगादि, सासियो राइआतो, तुवरी आढगी, कुलत्था पसिद्धा, धण्णया १ धमाः कुंकुभरीओ, कलाया बट्टचणया, चउवीसं धण्णा भणिया । इदाणि दोहिं गाहाहिं चउवासं रयणाणि भणति-रियणाणि चउ॥२१॥ वीसं०॥२५६ ।। गाहा, 'संखो तिणिसागुरु० ॥ २५७ ॥ गाहा, सुवण्णतउयतंबा पसिद्धा, रययं-रुप्पयं भण्णइ, लोह.
सीसगाणि पसीयाणि, हिरणं रूवगादि, पासाणग्गहणण वियातिपासाणग्गहर्ण कयं, 'वहरं' बहरमेव, मणिग्गणेण जाति केह पासाणभेदा एए सबै गहिया, मोतियपवालसंखा लोगप्पसिद्धा, तिणिसरुक्खोऽवि रयणं, अगरुचंदणा पसिद्धा, वस्थगहणेण सोत्थियवागयादीणि, अमिलागहणे सम्बेसि उनियाणं गहणं कयं, कगहणणं सागरुक्खादाणं गहणं कर्य, दंता इत्थीण, चम्मा | महिसिगाईणं, वाला चमरीणं, गंधा सोगंधियाणि दच्चाणि दब्बोसही पिप्पिलीमिरियादी, चउर्वासइविहाणिवि रयणाणि भाणयाणि, इयाणिं थावरं भण्णइ--भूमि घरा ॥२५८ अद्भगाथा, तिविहं थावरं भवति, 'भूमिघर तरुगणा' इति तत्थ भूमिख अतिविध-सेतु बेतु उभयं, घरं तिबिह-खातं उस्सितं खाओसितं, तत्थ खायं जहा भूमिघरं, उस्सितं जहा पासाओ, खातउस्सितं | जहा भूमिघरस्स उपरि पासादो तरुगणा जहा नालिकेरिकदलीमादी, थावरं गतं । इयाणि दुपदं भण्णइ 'चकारबद्रमाणुस'
गाधापच्छद्धं, दुपदं दुविह-चकारबद्धं माणुसं च, चक्कारबर्दू णाम सगडरहादीणि, माणुसे पहुसादासभयदादी, गर्य दुपदं । इयाणि | |चउप्पदं भण्णइ, तं दसविध, 'गाची महिसी उहा अयएलग॥२५९॥ गाथा (गावीमाइआओ) पसिद्धाओ, आसो नाम |
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
EKECAKERALACESCRECX
[225]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
॥२१०
२७७||
दीप
अनुक्रम
[२२६२९३]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [२४७ - २६८/२४५ - २६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशबैकालिक
चूण
जच्चस्सा जे पक्खलिविसयादिसु भवन्ति, अस्सतरा नाम जे विजातिजाया जहा महामदएण दीलवालियाए, जे पुण अज्जवजाति-जाता ते घोडगा भवति, चउपदं गयं । इदाणिं कुवियं भष्णह- 'नाणाविशेषगरणं० ॥ २६० ॥ गाथा, तत्थ कुवियं नाम | घडघडिउचणियं सयणासण भायनादि गिरवित्थारो कुचियं भण्णइ, कुवियं गतं, एसो य अत्यो हव्विहो चउडिपडायारोऽवि ६ धर्मागतो । हयाणि कामो भण्णह, तत्थ इमा सुसफासियनिज्जुनी, तं० 'कामो चउचीसविहो० ॥ २६१ || माथा, ओहेण ताब
॥२९३॥
कामभेदाः
चवीसहविध कामो भवति, सो पुर्ण विभज्जमाणो दुविधो-संपत्ती असंपत्तो य, तत्थ संपतो चउदसविधो, एते दोऽवि मिलिया चवीस विधा कामो भवति, तत्थ असंपतो बायरउचिकाऊणं पढमं भन्नड़, सो इमाए गाथाए अद्धगाथाए य भण्ण, तं०'तत्थ असंपत्ती अस्थी चिंता० ॥ २६२ ॥ गाथा, तब्भावणा, मरणं दसमी, अद्वगाथा, सो य असंपत्तो दसविधो इमो, तं अत्थी चिंता सदा संसरणं विक्कवया लज्जानासो पमायो उम्मायो मरणं भावणा, तत्थ अन्थो नाम अभिप्पाओ जहा कस्सह अ दणवि इत्थीरूवं सोऊणं वा इच्छा उप्पज्जर, एवमादी, चितानाम तत्थेव अभिनिवेसो सच्छओ वा भवह इहेव रुबाइगुणा इति, सद्धा नाम तेहि रूवादीहिं अक्खित्तो तमेव कंखर, कहं नाम मम तीए सह समागमो होज्ज!!, समरणं णाम जो तमेव इच्छितश्रुत्तं समाणिं भुज्जो विप्पयोगे सरह, विक्कवया नाम तीए विप्पयोगे faraaी भवति, सोमाभिभूयो य जहोचियाणि आहाराच्छायणादीणि णाभिलसर, लज्जयासो नाम सुहुते २ तीए नामग्रहणं करेइ, मात्तिपितिना विमादीयाणवि गुरूण पुरओ ॥२१३॥ तीर नामग्रहणं करेमाणो व लज्जर, पमादो नाम सच्वारंभपवत्तणपरिच्चागो अभिनिवेसेणं, उम्मादो नाम कज्जा कज्जवच्चावच्चाणं अजाणया, मरणं नाम उम्मादस्स अंत मरणं भवति, तन्भावणा नाम राचसगतणेण तमित्थियं मण्णमाणो सादीणि
[226]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूर्णी
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
उवगृहद आयासोबग्गह वा करेइ,(मरणतदाबयो क्रमविपर्यासो वृत्तौ) असंपत्तो गओ। इदाणि संपत्तो इमेण गाहाए पच्छद्रेण गाहाए यह
जिनमते कालिका भण्णह, तं०- विठ्ठीए संपाओ' अद्धगाथा, हसिअललिअउबगूहिअ ॥२६॥ गाथा, चोइसविही संपत्तो, तं०-दिहिसंपातो।
धर्माथदिडिसेवणं सभासी हसित ललिय उवगृहणं दंतनधनिवातो चुंवणं आलिंगणं आदाणं करणं आसेवर्ण अणंगकिडा य,तस्थ दिद्विसंपातो |
कामा६ धमो. 8 नाम जमिस्थियाए अंगे दिट्टि णिवाडेऊण पडिसाहरणं, दिविसवणं णाम जे दिट्ठीए दिष्टि निवेसया, संभासणा नाम दिडिआदि-18
विरोध: ॥२१४॥ विगारेहिं भावाणुर नाउं संभासइ, जहा एवं कर्ज भवउत्ति, हसिय नाम पणए कोवपसादेसु हासो पवनइ, ललिय नाम |
कयाइ जुद्ध कयाइ गंधच्वं कदाइ नटुंति एवमादि, अहवा अगुडफोडगादीहि उबललणातो सहि वा उवललति, उवगृह णाम परिष्वक्तं, दंतनिवातो णाम दसणेहिं दसणाधरादि लुंपणं, णहनिवाओ णाम नहेहि छेदणं, अद्दवा नहग्गेहि थणोदररोमराइमादीणं आसुअणं, चुपणं नाम अपरोप्परतो बदणसमागमो, आलिंगणं णाम ईसित्ति संफरिसणमालिंगण, आयाणं णाम गहणं,। तं च सिरकरचरणथणउदरादिसु भवति, करणं नाम अवाओणीकरणं, जेण वा पगारेण काउं पाविहिति तं करणं, आसणं नाम मेहुणासेवण, अणंगकिडा नाम जो आसणा-गोसया-पोसयादिसु भवति, संमत्ता य कामकहा। इदाणिमेतेसिं सवत्ता असपत्त्या यx भण्णइ, तं- 'धम्मो अत्थो कामो' ।। २३५ ।। गाथा पाठ्या, धम्मत्थं कामादि एगओ पिडिज्जमाषा पडिसवत्तया भवन्ति, अवरोप्परओ विभज्जतिचि वृत्तं भवइ, कहं ?, 'अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, कामस्य विसं च वपुर्वयश्च । धर्मस्य दानं च | दया दमश्थ, मोक्षस्य सौंपरमः क्रियासु ॥ १ ॥' नियडी ताव धम्मेण सह विरुज्झइ, दाणदमादीणि अत्येण कामेण य सहद
IN२१४॥ विरुझीत, एत्थं पिरथरओ विरोहो भाषियच्चो, एवं गिहत्थेसु कुपासंडेसु य विरुद्धा धम्मस्थकामा भवंति, 'जिणबयणं
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
[227]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
॥२१०
२७७||
दीप
अनुक्रम
[२२६
२९३]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [२४७ - २६८/२४५ - २६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णां
६ धर्मा.
॥२१५||
य
भणइ
उत्तिन्ना असपत्ता होति नायव्वा', जिणाणं वयणं जिणवयणंतिवृत्तं भव, ते धम्मत्थकामा जिणपत्रयणमोहण्णा अविरुद्धा भवंति कहं ? जम्हा 'धम्मस्स फलं मोक्खो' गाथा, सो य सासओ अतुलो सिबे अणावाहो, सो चेव अत्थो अहिप्पाप्तीति धम्मत्थकामा, अभिप्पायंति नाम अभिलसंति वा पत्थयंति वा कामयति वा अभिप्पायति वा एगडा, लोगाइयाइणो एवं भणंति, जहा 'परलोग मुत्तिमग्गो० ।। २६८ ।। गाथा, जं ते लोगाययमादि एवं पश्नावयंति, जो परलोमो मुत्तिमग्गो मोक्खो ४ नत्थिति, तत्थ परलोगमोक्खा पसिद्धा, मुत्ति (मग्गो) नाणदंसणचरिताणि भति, अविता इहेव जिणवयणे, णो अन्नेसु कुप्पावयणेमुति, सीसो आह-कहं नज्जति जहा जीवो न ( अ )स्थि, जीवे पसिद्धे सेसा परलेोगादिभावा भविस्संति, आयरिओ धम्मत्थकामम्हणाओ गज्जइ जहा जीवो अस्थि, ण जीवाभावे धम्मत्थकामार्ण सिद्धी इच्छिज्जह, पसिद्धा य लोगे धम्मत्थकामा तुम्हा अस्थि जविति । 'हंदि धम्मस्थकामाणं ति एतस्स वक्वाणं सम्मत्तम् । इयाणि 'निग्गंधाण सुणेहि 'ति, बिगओ बाहिर मंतरो ग्रन्थो जेसि ते निग्गथा तोसेणं सुणेह 'आधार गोयरं 'ति आयारस्स गोयरो आयारगोयरो, गोयरो णाम विसओ, भीमं णाम सो आयारगोयरो कहिज्जमाणो सोआरस्स रोमहरिसं करेइ, किंमंग पुणे कीरमाणोति', 'सकलं' णाम संपुष्णं, सो य आयारो सयलो दुक्खं अहिट्टिज्जहति दुरहिट्टियं, अओ एवं दुरहिट्टियं सुणेइति । इदाणिं नवधम्माणं पच्चयनिमित्तं परवादिमतिनिरहरणनिमित्तं च इमं भन्नइ 'ननत्थ एरिसं०' ॥ २१४ ॥ सिलोगो, णकारी पडिसेधे वह, अन्नत्थसदो परिवज्जे, कुतित्थाणि परिवज्जयति, जहा जमिदाणिं मन्नति तं एरिसं न अमेसु कुप्पाचयणेति एवं परिवज्जयति, परमं नाम अणुत्तरं, दुक्खं चरिज्जतिथि दुच्चरं, सच्चदुच्चराणि अधिकम्म बट्टतीति परमदुच्चरं, बिउलं नाम विच्छिन्नंति वा अनंतंति वा बिउलंति
[228]
अन्यत्राचाराभावः
॥२१५१
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : २४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदशबैंकालिक
चूर्णी
-
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
६ धमो.
-
-
वा एगट्ठा, विउलं ठाणं भावयतीति विउलट्ठाणभावी, विउलठाणमाइस्स, भावयति नाम निव्वत्ततिीच वुत्तं भवति, विउलट्ठाण
का अष्टादश भाइस्स सील चरितं वा जिणपवयणं मोक्तुं अन्नं न भविस्सति, कहं ?, जेण हरिहरहिरनगम्भसकोलुगादिसु कहावि एसा णत्थि, | तत्थ सकाण ताव सक्ककारणेणं असुते असुते राउले पम्बइए वहाण अकप्पियाणि अणुण्णायाणि, तहा अण्णसिपि बालो दुकावतो वा हिंसादीणि आयरंतो अबंधओ, तम्हा कुतित्थियाणं सच्छंदपरिट्ठियाणं संपुष्णस्स अभावो भवइ, इई पुण जिणसासणे'सखुड्डगविअत्ताणं' ॥ २१५ ॥ सिलोगो, सह खुड्डगेहि सखुड्डगा, वियचा नाम महल्ला, तसिं 'सखुगवियत्ताणं' बालवुड्डाणति बुत्तं भवइ, वाही जेसिं अस्थि ते वाहिया, चकारेण अवाहियाणवि गहणं; तेसिं सबालवुड्डाणं वाहियावाहियाणं जे गुणा ते हयाणि भनिहिति, ते तेहिं अक्खंडफडा कायब्वत्ति, तत्थ तास पडिवक्खभृता अगुणा भन्नति, तेसु य परिहरिएसु गुणा अखंडफुडा कया चेव, ते इमे- 'दस अट्ट य ठाणाई० ॥२१६ ।। सिलोगो, एताई वाई अट्ठारसट्ठाणाई जाई पालयाए अवरज्झाइ, अवरज्झति नाम आयरइ, तत्थ एगवरमवि आयरंतो निग्रन्थभाषाओ भण्ण स्स ति, एस चेव अत्थो सुत्तफासियनिज्जुत्तीए भण्णति तं०- 'अट्ठारस ठाणाई० ॥ २६९ ।। गाथा भाणियब्वा, कयराणि पुण अट्ठारस ठाणाई', एत्य इमाए सुत्तफासियनिज्जुत्तीए भण्णइ- 'वयछक कायछक्कं, अकप्पो० ॥ २७० ॥ गाथा, वयछक रातीभोयणछकाणि वयाणि पंच, काया पुढविकाइयमाइणो छ, 'अकप्पो गिहिभायणं पलियंको गिहिणिसेज्जा सिणाणं सोहबज्जर्ण' वजणसहो एतेसु सब्वेसु पत्तेयं पत्तेयं दहब्बो, तं०- सोहबज्जणं सिणाणवज्जणं गिहिनिसज्जवज्जणं एवं सब्बत्थ भाणियब, भणियाणि अट्ठारसयि ठाणाणि, जाईत १६॥ अखंडफुल्लाणि कायवाणि, न सो विधी भणिओ जेण विहिणा वाणि अखंडफुल्लाणि कीरंति, अओ वयछक्कस्स ताव विधि भणामि,
-
AK
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
[229]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : २४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
श्रीदश- .-'तस्थिमं पढम ठाणं ॥ २१७ ॥ सिलोगो, 'लस्थिम' नाम मि अट्ठारसविहे ठाणे वयछक्के वा इमं नाम जमिदाणि भव्रतपदकम् कालिक | भपिणहिति 'पदम' णान सुत्तकमपडिवाडीए इमं पढमं चिट्ठति जत्थ साहुणो तं ठाणं 'महावीरेण देसिअं' तेण भगवया |
तिलोगबंधुणा देसिन, ण अहमेव अप्पणो इच्छाए भणामित्ति, 'अहिंसा निउणा दिहति 'निउणा' नाम सव्यजीवाणं, सब्वे ६ धमो. चाहिं अणववाएण, जेणं उद्देसियादीणि भुजंति ते नहेव हिंसगा भवन्ति, जीवाजीवेहिं संजमोत्ति सव्वजीवेमु अविससेण संजमो | ॥२१७॥
हा जम्हा अओ अहिंसा जिणसासणे निउणा, ण अण्णत्थ, आह-कह सो सम्बजीयेस संजमो भवति ? कहमेव ते जीवा', भणति-1
|'जाति लोए पाणा' ॥२१८ । सिलोगो, 'जाति लोए पाणा' कयमेव, तसथावरपाणे जाणमाणो अजाणमाणो वा नो VIहणेज्जा मेव अभिण पाएज्जा. 'जाणमाणों' नाम जेसि चिंतऊण रागदासाभिभूओ पाएइ, अजाणमाणो नाम अबदुस्समाणाLA
अणुवओगेण इंदियाइणावी पमातेण घातयति, एवं ते तसपाणा थावरा पाणा जाणमाणा अजाणमाणा वा नो घाएज्जइ, सो जाणओ वा अजाणो या होज्जा, सन्नी वा असबी वान बुत्तं भवइ, तं सयं जोगतिएण व हणेज्जा व अनेण हणावेज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जाईयाण' मितिकाउं हणंतमवि अब न समणुजाणेज्जा, किं पुण कारण?, मण्णइ-'सब्वे जीवावि इच्छंति ४॥ २१९ ॥ सिलोगो, सब्बजीवा अपरिसंसा जीपिउं इच्छति, ण मरिज्जिउं, मणियं च "जो जाए जातीए जीवो आयाति सोx
तहि रमह । इच्छेइ जीवियं जो वेग अहिंसं पसंसेमि ॥१॥" तम्हा पाणवई घोरं नाम भयाणगं णाऊण सहमवायरं पाणपह २ १७॥ वगयगथा बज्जयंतित्ति पढम पाणाइवायतिरती भण्णति। अप्पणट्ठा परहा वा० ॥२२०॥ सिलोगो, 'अप्पणट्ठा वा व जहा कोइ अगिलाणो गिलाणो अहमितिकाऊण किंचि जेहादीणति नियएसु वा उवसंतएसु वा अनेसु वा एवंचिहेसु मग्गर,
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
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... अत्र षड् भेदे व्रत-वर्णनं क्रियते
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रादशबकालिक
चूणों ६ धमा.
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
॥२१८॥
| परवाए सत्रियगादिसु परस्स अट्ठाए ओभासद, 'कोहा' जहा तुम दासो जुंगितो एवमादि, कोहगहणेण माणमायालोभाषि बतपटकम् गहिया, तत्थ माणेणं जहा अबहुस्सुतो भणति बहुस्सुए उ अहमिति, मायाए अलसियत्तणेण पादो दुक्खिस्सइत्ति गामे ण हिंडड एवमादि, लोभेण जहा कोई भर्न धेचूर्ण धुवं अणं लाभ चतिमाणो एसणिज्जपि भणइ, इमं मायाए जाहे (अणेसणिज्जति, अहवाभयओ वितहं काऊण पच्छित्तभया न कयमिति, एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणति हासा दिणोऽवि गहिया)गहियं, तओ एते 'हिंसगं, न मुसं बूआ' 'हिंसगं' नाम जेण सच्चेण भणिएण पीडा उप्पज्जइ तं हिंसर्ग,जहा अस्थि ते केऽबि मिया वा पसुया वा दिहार तत्थ भाणियब-ण पस्सामिति, सच्चमेव ते अपि, अपि च न तच्चवचनं सत्यमतच्चवचनं न च, यद् भूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमितरं मृषा, जहा सयं मुसाबाय नो बृयात् तहा नोवि अन्न वयावए, 'एगग्गहणे गहणं तज्जाइयाण' मितिकाउं वदंतमवि अनं न ६ समणुजाणेज्जा, किं कारणं , मण्णइ-'मुसाबाओ उ लोगम्मि, सब्बसाहहिं ॥ २२१ ।। सिलोगो, जो सो मुसावाओ एस सब्बसाहहिं गरहिओ, सक्कादिणोऽपि मुसाबाद गरहति, तत्थ सक्काण पंचण्हं सिक्खापयाण मुसाबाओ भारियतरोत्ति, एत्थ उदाहरणं- एगण उवासएण मुसावायवज्जाणि चत्तारि सिक्खावयाणि गहियाणि, तओ सो ताणि भंजिउमारद्धो, अण्णा |य भणिओ, जहा-किमेयाणि भजसि , तओ सो भणइ-मिच्छा, णाहं भजामि, ण मए मुसावायरस पच्चक्खायं, तेसिपि सव्वा
||२१८॥ दियया णिच्छिता, एतेण कारणेणं तेसिपि मुसाबाओ भुज्जो सबसिक्खापदेहितो, किंच- 'अविस्सासी य भूताणं' मुसाबादो21
भवह, यथा किमनन यत्किचित्प्रलापिनेति', तम्हा एते दोसा जाणिऊण मम्मं सवषयत्तण बज्जेज्जा । मुसावादाविरती गता, । इदाणि अदिनादाणविरती भण्णइ, तं०- चित्तमंतमचित्तं वा० ॥ २२२ ।। सिलोगो, चित्तं नाम चेतणा भण्णइ, सा च*
SAREERRAKASH
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति: [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
बतपटकम्
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
श्रीदश- तणा जस्स अस्थि तं चित्तमंत भण्णइ, ते दुपये चउप्पयं अपर्य वा होज्जा, 'अचित्तं' नाम हिरण्णादि, अप्पं नाम पमाणओ बैकालिक मुल्लओ य, बहुमवि पमाणओ मुल्लओ य, किंबहुणा, दंतसोहणमिसमवि उगह अणुण्णवेऊण कप्पइ पडिगाइउं, जस्स तं
चूर्णी वादण्यं परिग्गह बट्टा तं अणुजाणेविऊणं पांडगाहज्जा, दंता सोहिज्जति जेण तं दंतसोहर्ण-सणगादि ते देतसाधणमनमवि ६धमो. अदिणं ण कप्पइ । किंच-' अप्पणा ण गिण्हंति नोऽवि गिण्हावए परं ॥ २२३ ।। सिलोगो पाठ्यो, अदिपणादाण
बिरती गता । इदाणि अचंभविरती भण्णा, तं. अर्थभचरिअं घोरं ॥२२४॥ सिलोगो, अबभचारियं घोरं नाम निरणुकोस, ॥२१९॥ ICIक, अबंभपवतो हि ण किंचितं अकिच्चे जे सोन भणइ, जम्हा एतेण पमत्तो भवति अतो पमादं भणद, तं च मयपमादाणं
आदी, अहवा सव्वं चरणकरणं तंमि वट्टमाणे पमादेविसि पमादं भणइ, दुराहट्ठियं नाम दुगुञ्छ पावइ तमहिडियंतोति दुरहिद्विय, अहया तेण संजतवेसेण दुक्खं अच्छिज्जतीति दुरहिडियं, अथवा कामा चउविधा, तं०- सिंगारा कलुणा धीमच्छा रोदा, तत्थ सिंगारकामा देवाणं, कलुणाकामा माणसाणं, बीभच्छाकामा तिरियाणं, रोहा कामा परइयाणं, अतो ते मीभच्छा कामा सबसी अवि हेडा, तहप्पगारं 'नायरंति' णाम णासेवति, मुणिग्गहणेण साधुग्गणं कर्य, लोगग्गहणेण समयखेतस्स गहणं कयं, भिज्जह जेण चरित्नपाली सो भेदो तस्स भेदस्स पसूती आयतणं मेहुणंति, त भेदायतणं वज्जति साधवो सचपगारेण णायरंतिति। किंच- 'मूलमेयमहम्मस्स० ॥ २२५ ॥ सिलोगो, मूलं नाम बीयति वा पहाणति चा मूलंति वा एगट्ठा, अधम्मो | पसिद्धो, महन्ताणं भहन्ताणं दोसाणं समुस्सयं, समुस्सयोति या रासित्ति वा एगट्ठा, तत्थ दोसा कलहबेरपहारमारणार्दाया, जम्हा एते दोसा तम्हा एवं नाऊण निग्रन्था सब्बपयत्तेण मेहुणसंसग्गी बज्जयतित्ति, मेहुणविरती गता। इदाणि परिग्गहविरई
ACCCCTOBER
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
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आगम
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : २४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
5
६धमा.
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
IMI'बिडमुन्भेइमं लोणं' । सिलोगो, तत्थ लोणं दुविधं, त०- विडं च उम्भेइमं च, तत्थ बिलं (४) गोमुत्लादीहिं पविऊण | बिपदकम् बैकालिक चूर्णी || कित्तिर्म कीरह, उम्मेहमग्गहणेण सामुदादीण गहणं कयं, अहवा बिलग्गहणेण फासुगलोणस्स गहण कर्य, उम्मेहमग्गहणेण अफासु
गस्स लोणस्स, तेल्लं लोगपसिद्ध, सप्पी घयं भण्पाइ, फाणियगहणेण सव्वस्स गुडस्स गहणं कयंति, एतेसिं लोणादीणं गहणं ।।
सारोऽधवा आधारोति गहिऊण कपात, एताणि अविणासिदव्वाणि न कप्पति, किमंग पुण रसादीणि विणासिदवाणित्ति, ॥२२०॥ एवमादि सण्णिाधिं न ते साधवो भगवन्तो णायपुत्तस्स वयणे रया इच्छंति, 'सानिधि' नाम एतेसिं दवाणं जा परिवासणा सा।
सनिधी भण्णति, परिवासंतस्स य इमे इमे दोसा भवन्ति लोहस्सेस अणु० ।। २२७॥ सिलोगो, अणुफासो नाम अणुभावों भण्णति, जहा सुकालाणुफासो, एवं एसोवि लोभाणुभावोत्ति वुत्तं भवति, मन्ने णाम तित्थंकरो वा एवमाह-जहा जमेताणं चिलमुन्भेइमादीणं सन्निही णामेसो महालोहाणुफासो मन्नामिति, अन्नतरं णाम तिल तुसतिभागमेतमपि, अहवा अन्नयरं असणादी, अविसहो संभावणे चट्टइ, कि सम्भावयति , जहा जइ ताव थोवमवि असणाइ गण्हमाणे दोसाणमायतणं भवति, किं पुण जे बहु गेण्हति ? सव्वाणि वा असणादीणि गिण्हति । एतं सम्भावयति, 'जे' ति अविससिताणं गहणं भवति, सिया कदापि, सण्णिहिं कामयतीति समिहिकामी, गिर्ह जेसिं अस्थि ते गिही, पब्बयाचि होऊण गिही र गिहतुल्ला वा, आह--जइ ताव लवगाइणं संचएणं गिही भवइ तो कहं बत्थादी गिण्हमाणा साधुणो गिहिणो ण भविस्संति, भण्णइ-जंपि वत्थं व पार्य वा० 1॥ २२८ ॥ सिलोगो, जमितिसद्दो निइसे यट्टर, अविसहो संभावणे, किं सम्भावयति !, बस्थादीणं निरत्थयगहणेण दोसा भयंति ॥२२०॥ संजमाणुपालणरथं लज्जानिमित्तं वा घेपमाणाणि ण दोसकराणि भवंति एवं संभावयति, वस्थपाया पसिद्धा, कंबलग्गहणेण
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
oCARKARI
[233]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
॥२१०
२७७||
दीप
अनुक्रम
[२२६
२९३]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [२४७-२६८/२४५ - २६८ ], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण ६ धर्मा.
॥२२१।।
पाय णिज्जोगो (गहिओ ) भवति उभियकप्पो वा पादपुंछणं स्यहरणं एतेसिं वस्थादीणं जं धारणं तमवि, संजमनिमित्तं वा बत्थस्स गहणं कीरइ, मा तस्स अभावे अग्गसेवणादि दोसा भविस्संति, पाताभावेऽवि संसत्तपरिसारणादी दोसा भविस्संति, कंबलं वासकप्पादी तं उदगादिरकरणड्डा घेप्पति, लज्जानिमित्तं चोलपट्टको घेष्यति, अहवा संजमो चैव लज्जा, भणितं च "इह तो लज्जा नाम लज्जामंतो भण्णइ, संजममंतोति वृत्तं भवति," एताणि वत्थादीणि संजमलज्जडा पारयति परिहरति य', धारणा परिहरणाथ को पविसेसो?, तत्थ धारणा णाम संपयोअणत्थं धारिज्जर, जहा उप्पण्णे पयोयणे एतं परिभुंजिस्सामिचि, एसा धारणा, परिहरणा नाम जा सयं वत्थादी परिभुंजह सा परिहरणा भण्णइ, तं पुण घेप्यमाणं परिभुंजमाणं वा कहं ण परिग्गहो भविस्सइति भन्नई, (अ) परिगहण भोगतो असारमुहरगहणाय व अधिभूतसाधारणता य देसकालाच भोगेण य परिग्गहदोसो न भविस्सति । किंचन सो परिग्गहो वृत्तो० ॥२२९|| सिलोगो, णकारी पडिसेहे बट्टद, 'सो' ति जो सी वत्थादीण भणिओ, बुतं नाम युति वा भणितंति वा, धारयति वा संजमेति वा निमिर्त्तति वा एगट्ठा, गाया नाम खतियाणं जातिविसेसो, तम्मि संभूओ सिद्धत्थो, तस्स पुसो णायपुत्ता, अन्नाणं अप्पं च सम्यतीति तायी तेण तायिणा, ण सो पडिग्गहो मणिओति, जा पुण तेसु वत्थादीसु मुच्छा सो परिग्गहो भवति, अरतदुस्स परिभुंजंक्स्स ण परिग्गहो भवइ, इतिसदो उवप्यदरिसणे वट्ट, गणधरा गणगपिया वा एवमाहुः जहा एतेसु परिरंगहिए अपरिग्गहिए या वत्थfiदसु जा गेही सो परिग्गो महसिणा भणियो, न केवळं नायपुत्रेण उपधिगहणं कयं किंच-सवत्थुवहिणा० ॥ २३० ॥ सिलोगो. सब्वैसु अतीताणागतेसु सम्बभूमिएसुति, ते बुद्धावित्थयरा उबहिणा - एगद्रेण सचेलो धम्मोपभवेयत्तिका ऊणं णिग्गता, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं
[234]
व्रतपरकम्
॥२२१॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
A
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
श्रीदश-1 वैकालिक
चूर्णी ६ धर्मा. ॥२२२॥
पत्तेयबुद्धजिणकप्पियादिणो सो अधियो भवति संरक्वण परिग्गहो' नाम सेजमरक्खणणिमित्तं परिगिण्हंति, ण दप्पपरि- व्रतपरकम् भूसणादिणिमिति । किंच- अवि अप्पणोऽविदेहम्मि तेहिं भगवतेहिं, ते हि भगवतो सदेहेविनापरति ममाइयं'णायरंति'नाम न करेंति, 'ममाइयं ममतं, ते कओ बाहिरे उवगरणे मुच्छे करहिंति, अमुच्छ्यिस्स परिग्गहो कहं भविस्सई १, अहेव सरीरं धम्मसाहणत्थं अमुच्छिया धारयति तहा वत्थादीणिवि । परिग्गहबिरई गया, इयाणि राईभोयणविरती भण्णइ, तं०-'अहो | निच्चं तवो कम्म० ॥२३॥ सिलोगो, अहो सहो तिसु अत्थेसु बट्टा, तंजहादीणभावे विम्हए आमंतणे, तत्थ दीणभावे जहा अहो अहमिति,जहा विम्हए अहो सोहण एवमादी,आमंतणे जहा आगच्छ अहो देवदचास एवमादि, एस्थ पुण होसहो विम्हए दहया, गणधरा मणमपिता वा एवमाहु-जहा अहो कहूँ'निच्चं तयो कम्मति णिच्चं नाम निययं लबोकम्म'तबो कीरमाणो, कथं तवो भवति?
सम्ब णिय' पणियं नाम वणियंति या देसियंति वा एगट्टा, किंच तेहिं वणियं. भण्णा'जा य लज्जासमा। बित्ती''जा' इति अविसेसिया, चकारो सावेक्खे, अस्थि च वृत्ति, किमबैकब ? जमेगमतं उरि भणिहिति एतं अवेक्खइ. लज्जा संजमो भण्णइ, जाए वित्तीए सो संजमो स समो भण्णइ, न विरुज्झइति वुत्तं भवइ, किंच-'एगभत्तं च भोअणं' एगस्स रागदोसरहियस्स भोअणं अहबा इकवारं दिवसओ भोयणति । अहो राईभोयणे को दोसो, इत्थ भण्णह--'संतिमे
X॥२२२॥ मुहमा पाणा०॥ २३२ सिलोगो, 'संति'नाम विद्यन्ते, इमे नाम जे पच्चक्खमेवोपलम्भन्ते, सुहुमा, तसा थावरा य, तत्थ तसा कुंथुमाई, थावरा बीयपरागादी, 'एगग्गहणण गहण तज्जातीयाण' मितिका मुहमग्यहणेण बादराणचि, तसाणं गधणेण वणफइमाई गहिया, सो ताणि सुहुमबादराणि पाणाणि राओ अपासंतो कथमेपणीयं चरिष्यतीति , एषणीयं
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
1 %ERSECSCRORSC
[235]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||२१०
२७७||
दीप अनुक्रम
[२२६२९३]
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६] उद्देशक [-] मूलं [ १५...]/ गाथा: [ २१० २७७/२२६-२९३] नियुक्तिः [ २४७-२६८/२४५-२६८], आष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४२ ] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णी ६ धर्मा.
॥२२३॥
नाम सत्वोपघातमकुर्वन् कथं गमिष्यतीति एवं ताव सो सयं तस्थावरजंगमे विराधयति । किंच एसणमवि सोहेउं न तरह, कई - 'उदउल्लं० ।। २३३ ।। सिलोगो, उ उलं पुण्यभाणियं एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण मितिकाउं ससिणिद्धादणिवि गांध्याणि, 'बीयसंत्तं' नाम जाणि सालिमादीणि मीयाणि तेहि संसतं बीयसंसतं, बीयमिस्सियति वृत्तं, अहवा बीयगणं पिहं संसतगहणमवि पिहं, तत्थ बीयाणि चैव दलिज्जा अहवा ताणि बीयाणि असणादि लाएज्जा, तकसोवीरादणि दलेज्जा, जे य तीए महीए पाणा णिवतिता संपातिमादी, अन्नादीसु वा पडिया, तेऽचि न पासइ. एताणि उदउल्लादीणि दिवसओ सचक्खुचिसए विवज्जेज्जा, राओ तत्थ कहं हिंडियन्वंति ? अतो- एअं च दोसं दट्टणं, नायपुत्तेण भासि । सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंधा राहभोजणं ||२३४|| सिलोगो, एवं नाम जो एसो हुमपाणातिवायदोसो एवं दणं, चकारेण य भूमीअग्गिणे (पण ) गाहिसावयादिणो दोसा गहिया भवन्ति, सेसं कण्ठ्यं ॥ राती भोयणविरती गता, गतं वयक्कं । इदाणिं कायक्कं भण्णइ तत्थ पढमं पुढविक्कायविरती भणति 'बुढविकार्य० ' ॥ २३५ ॥ सिलोगो, पुढवि चैव कायो पुढविक्कायो तं पुढविकार्य सच्चित्तं भगवंतो साधुणोति णो हिंसंति नाम णो आलिहविलिहणादी कुब्र्वति तं च इमेहिं तिर्हि जोगेहिं ण हिंसंति-मणसा वयसा कायसा तिविणण करेंति, एवं कार्य (अने) णवि, संजता साधुणो भण्णन्ति, तिभि करणजोगा पण्णत्ता, सं०-करणं कारावणं अणुमोदणंति, तत्थ मणसा हिंसे न करेंति न कारवेति करेंतं न समणुजाणंति, एवं वायाएव हिंसं न करेंति न कारवेंति करेंतं नाणुजाणंति, एवं कायेणवि, संजता साधुणो भण्णंति, सुसमाहिया णाम सोभणेण पगारेण संजमोवकारीएहिं समाहिया, सुसमाहिया नाम उज्जुत्ता, पुढविकायसमारंमे को दोसो ?, भण्णति- ' पुढविकायं० ॥ २३६ ॥
••• अत्र पृथ्वीकायादि षट् कायानां वर्णनं क्रियते
[236]
व्रतपट्कम्
॥२२३॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
॥२१०
२७७||
दीप
अनुक्रम
[२२६
२९३]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [२४७-२६८/२४५ - २६८ ], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
बैकालिक
चूर्णी
६ धर्मा.
॥२२४॥
सिलोगो, पुढ विकामं विविर्ह अणगप्पगारं हिंसंतो भण्णह तनिसिया आउकायादि धावरे विहिंसंति, तुसदो विसेसणे, किं विसेसयति ?, न केवलं सचित्तमेव पुढवि हिंसेज्जा, किंतु इतरमवि हिंसेज्जा, जहा य सचिचाए पुढविए हिंसिज्जमाणिए थावरा जीवा आउ कायादि तष्णिस्सिता हिंसिज्जति तहा अचिताएव एवं विसेसयति, न केवलं सचितं वा पुढविं हिंसमाणो थावरा हिंसति, किंच तसे बेइंदियाई अगप्पगारे चक्खुसाञ्चक्खसे हिंसति । 'तम्हा एवं विआणित्ता० ' ॥ २३७ ॥ सिलोम्पो, पुढविक्कायविरती गता । इदाणिं आउकायविरईएऽवि तिष्णुं सिलोगाणं एस चेव अत्थो, नवरं आउकार्य० ॥ २३८ ॥ २३९ ॥ २४० ॥ आउकायाभिलावो भाणियन्बो, एवं आउक्कायविरई गया । इदाणिं तेउक्कायविरई भण्णति, तं, 'जायते अं०' ॥ २४९ ॥ सिलोगो, जायतेजो जायते तेजमुप्पत्तीसमकमेव जस्स सो जायतेयो भवति, जहा सुवण्णादणं परिक्रम्मणाविसेसेण तेयाभिसंबंधो भवति, ण तहा जायतेयस्स, नकारो पडिसेधे वट्टति, इच्छा रुई भण्णति, लोइयाणं पुण जं हूयइ तं देवसगासं (पावइ) अओ पावगो भण्णह, तमेरिलं पावगं भगवंतो साधवो नो इच्छंति जालित्तएति । 'तिक्वमन्नयरं सत्थ' मिति, साखिजर जेण तं सत्थं, किंचि एगधारं दुधारं तिधारं चउधारं पंचधारं सव्वतो धारं नत्थि मोतुमगणिमेगं तत्थ एगधारं परसु, दुधार कणयों, तिधारं असि, चउधारं तिपडतो कणीयो, पंचधारं अजाणुफलं, सन्धओ घारं अग्गी, एतेहिं एगधारधारविधारचउधारपंचधारेहिं सत्थेहि अण्णं नत्थि सत्थं अगणिसत्थाओ तिक्खतरमिति, सवओवि दुरासयं नाम एवं सत्यं सव्वतोधारचणेण दुक्खमाश्रयत इति दुराश्रयं, कहं पुण दुरासयं ?, 'पाइणं पढिणं बाबि० ।। २४२ || सिलोगो, तत्थ पढिर्ण अवरं, सेसाथि पसिद्वाणि एतेसु पुण्यावरे उड्डे य विद्रिसामु य ' अहे दाहिणओ' णाम विणासयति, न केवलं पाईणाइस उदर, किन्तु उत्तरओ
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काय षट्कम्
॥२२४॥
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२७७||
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [२४७ - २६८/२४५ - २६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशबैकालिक चूण
६ धर्मा.
॥२२५॥
वि उहह । सव्यओ दाहित्तणेण य 'भूआन मे समाधाओ० ' ॥ २४३ ॥ सिलोगो, भूता सम्पातिमादी, तेसिं भूताणं आपादे कायषट्कम् आघातो ग्राम जावतो भृता अगणिसगासमलियंते ते सच्चे घातयतीित आघातो, हवं वहतीति इन्यवादो, तत्थ लोगसिद्ध हव्यं देवाणं अहावरं दिव्या तिप्पतीति, दहतीति वाही, वहति गाम णेति हव्यं नाम जं हूयते घयादी तं इव्वं मरण, अहं पुण जहा इष्वाणि जीवाणं जीवियाणि वधति अजीवदव्वाण व मुत्तिमंताणं विकास वहतीति हन्बवाहो, ण संसओ णाम एत्थ ५ संसओ न कायथ्यो, जहा- एसो हव्यवाहो भूयाणं आघायं न करेतित्ति, पदीवनिमित्तं पयावणनिमित्तं वा कोये आरभेज्जा, तत्थ पदीवनिमित्तं जहा अन्धकारे पमासत्थं पदीवो कीरई, पयावणनिमित्तं हिमागमे वरिसासु वा अप्पाणं तावति वत्थाणि वा ओदणादीणि वा पयावंति एतेहिं कारणेहिं स हव्यवाहं-अरिंग, किंचि णाम संघट्टण परितावणणिव्ववणादि । जम्हा भूयाण एस आघातो 'लम्हा एवं विभणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । तेडकायसमारंभ, जावजीवाइ वज्जए ।। २४४ ॥ उक्कायविरति गता । इदाणि वाक्कायविरती मण्णति- अणिस्स समारंभं० ॥ २४५ ॥ सिलोगो, निलओ जस्स नात्थ सो अणिलो तस्स अनिलस्स समारंभ, 'समारंभ नाम उक्खेवतोयतालियंदादीहिं भवति, 'बुद्धा' तित्थगरगणधरादी, 'तारिस' नाम ते बुद्धा 'अनिलसमारंभ' आणिल (वाउस) मारंभं असरिसं भणति कथं ? सो विराधिज्नमाणो अगे विराधेति संपाहमे असंपाहमे य, अओ 'सावज्जबहुलं चेयं' ति सह व्रज्जेण सावज्जं, बजे नाम वज्र्ज्जति वेरंति वा परंति वा एगड्डा, बहुलं नाम सावज्जदोसाययणं, चकारः पादपूरणे, ' एवं ' नाम जमेर्य वाउकायसमारंभणं भणियं तारयन्तीति ताइणो तेहिं तातीहिं ण एवं वाउकावसमारंभाणं सेवितति, वं च बाउका भगवंतो साधवो णो
[238]
॥२२५॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : २४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
*
श्रीदश- इमेहिं उदीरंति, तं. 'तालिअंटेण पत्तेण.' ॥ २४६ ।। सिलोगो, तालियंटादीणि जहा छज्जीवणियाए, न केवलं तालियटाबकालिक दिदीहिं बाउकार्य न उदीरयंति, किन्तु-जंपि बत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं ॥ २४७ ॥ सिलोगो, जमवि वत्यादि
चूर्णी | तेणावि बाउजीवसंपाइमरक्खणट्ठा णो वाउकार्य अविहिपक्खोडणादीहिं उदीरति भगवंतो साधयो, किन्तु जयणाए परिमोग-1 ६ धमो.
परिहारेण धारणापरिहारेण य परिहरन्तीति । तम्हा एवं विआणित्ता, दोसं दुग्गहबढणं । वाउकायसमारंभ, जाव||२२६॥
जीवाइवज्जए। २४८ ।। सिलोगो कण्ठया, बाउकायविरती गता । इदाणि वणकइकायविरई भण्णइ,तं०- वणस्सईन हिंसंति ॥२४९ ॥ सिलोगो, 'तम्हा एअं विआणित्ता०॥ २५१ ।। सिलोगो, एएर्सि सिलोगाणं अत्थो जहा पुढविकायस्स, एवं तसकाएवि तिण्हवि सिलोगाणं वक्खाणं माणियव्यं । 'तसकायं ॥ २५२ ।। २५३ ॥ २५४ ॥ जहा पुढविकाए,
कायछकं गतं, गया य मूलगुणा, इदाणि उत्तरगुणा, अकप्पादिणि छट्ठाणाणि, ताणि मूलगुणसारक्खयभूताण, तं ताव जहा पंचकामहव्ययाण रक्खणनिमित्तं पत्तेयं पंच पंच भावणाओ तह अकप्पादीण छठाणाणि वयकायाणं रक्खणत्थं भणियाणि, जहा वा
गिहस्स कुडकवाडजुत्तस्सवि पदीवजागरमाणादि रक्खणाविसेसा भवन्ति तह पंचमहथ्वयजुत्तस्सवि साहुणो तेसिमणुपालणत्थं | इमे उत्तरगुणा भवन्ति, तस्य पढर्म उत्तरगुणो अंकप्पो, सो दुविधी, तं०-सेहट्ठवणाकप्पो अकल्पवणाकप्पो य, तत्थ सेहट्टपणा-1 | कप्पो नाम जेण पिण्डणिज्जुत्ती ण सुता तेसु आणियं न कप्पइ भोत्तुं, जेण सेज्जाओ ण सुयाओ तेण वसही उग्गमिता ण | कप्पड़, जेण वत्थेसणा ण सुया तेण वरथं, उडुबद्धे अणलाण पधाविज्जति, वासासु सब्बेऽचि, अफप्पठवणा गया, कप्पा इमा, जहा-1
जाई चत्तारि भुज्जाई, इसिणाऽऽहारमाहाण । ताई तु विचज्जती, संजमं अणुपालए ॥ २२५ ।। (सूत्र)
SOCISCARRIESI-Sko
M
॥२२६॥
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
[239]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : २४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश
अकल्पगृदि भाजनादीनि
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
-चूर्णी
'जाणि' ति अनिहिडाण गहणं, 'चत्तारिति संखा, 'अमोज्याणि' अकप्पियाणि 'इसिणा' णाम साधुणा, आहारो आई कालिक 51जीस ताणि आहारमादणि ताण अ भोज्जाणि विवज्जयंतो साधु संजमं सत्तरसविह अणुपालयेत, सीसो आह-कााण पुण ताणि
आहारादीणि ', भण्णति, इमाणि--'पिंड सिज्जं च वत्थं च ॥२५६ ॥ सिलोगो पठितसिद्धो, एतसि आहारादणिं जे ६ धमो नियागं ममायंति, कीयमुद्दोसियाहडं । वह ते समणुजाणंति, इअ उत्तं महसिणा ।। २५७।। नियाग कीयमुद्देसियाहडं|
च जहा खुड्डयायारकहाए जे एताणि कीयादीणि 'ममायंति' नाम परिगण्हंति ते तसथावराणं वह समणुजाणांतीच, न बाई ॥२२॥
अप्पणो इच्छाए एवं भणामि, किंतु ' इति चुत्तं महसिणा' इतिसद्दो परिसमचीए वट्टइ, कह , ण एयाओ विसिट्टयरं अनेण केणवि भणियं, जम्हा तसथावरोवघातादि दोसा णियागादिसु भवन्ति । तम्हा असणपाणाई (दि). ॥ २५८॥ सिलोगो | जम्हा तसथावराणं वधो नियागादिसु भवति तम्हा असणपाणार्दाणि तमुद्दसियाहडादीहिं दृसियाणि वज्जयंति(त्ति) भण्णइ, । ठियप्पाणो निग्गधा धम्मजीविणात्ति. सोमणो सट्रिओ अप्पा जोर्स ते ठिअप्पाणो, जर्सि गधो गस्थिते निग्गंथा, धम्मेण
जीवतित । दारं। गिहिभायणदारं तं०-'कंसेसु कंसपाएसुगा२५९॥ सिलोगो, कससु नाम कसाओं जायाणि कसाणि, ताण पूर्ण बाथालाणि हवा खोरगाणि वा तेसु कसमुनि, कंसपाएमु नाम कंसपत्तीओ भण्णंति, जं वा किंचि अन्न तारिसं कसमयं तं कंस-1
पाएण सध्यं गहियंति, 'कुंसमोयो' नाम हस्थपदागितीसठियं कुंडमोय, पुणोसहो विसेसणे वति, किं बिसेसयति', जहा अनेसु सुवमादिभायणेमुक्ति, अने पुण एवं पठति 'कुंडकोसेसु वा पुणो' तत्थ कुण्डं पुढविमयं भवति, कोसग्गहणेण सरावादीण गहियाणि, एतेसु जो झुंजा असणपाणाइ सो आयाराओ परिभस्सइ-सब्बहा मस्सइ, कई पुण सो आयाराओ मस्सइ , भन्नाति--
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
*
॥२२७॥
... अत्र गृहिभाजनस्य अकल्प्यत्वं दर्शयते
[240]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : २४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
घूर्णी
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
श्रीदश-18 सीतोदएण परिरंभे (सीओदगसमारम्भे (ह०) ॥ २६० ॥ सिलोगो, एतेसु भाषणेसु संजता समुद्दिवन्तिकाऊण ते समा| अकल्पगृहि कालिका रत्था सीएण उदगेण पक्खालेति, सीतग्गहण सचेयणस्स उदगस्स गहण कर्य, समारंभग्गहण सो चेक पक्खालणादिं दोसो ।
भाजना|घेप्पइ, 'मत्तघोअणछडणे' नाम तत्थ मत्तं-भायणं भण्णइ, तं मतं धोविऊप जत्थ छड्डेछ तत्थचि पाएइ, अहवा भवणमेव |
दीनि ६ धमो.
छडणं, जे तस्थ पुच्वण्णत्थं तं छठेऊण देंति, 'जाणि' ति अणिदिवाणं गहणं, छण्णासदो हिंसाए हट्टा, भूयापि नाम पाणाशि वा|| ॥२२८॥
भृयाणि वा एगट्ठा, 'से' ति अणिहिट्ठस्स असंजमस्स गहण कयं, सो य इमो-जेण आउक्काएण घोबांत सो आठकाओ विराहिओ भवति, कदापि पूयरगादिवि तसा होज्जा, घोवित्ता य जत्थ छहिज्जति तत्थ पुदविआउतेउहरियतसविराहणा का होज्जा, बाउकाओ अस्थि चेव, अजयणाए वा छडिज्जमाणे बाउकाओ विराहिज्जइ, एवं छण्हं पुढविमाईणं विसहणा भवति, यसो असंघमो8 तित्थगरेहि दिहो। किंच. 'पच्छेकम्मं पुरेकम्मं ॥२६१॥ सिलोगो, पच्छाकम्मं जमिवाणिं हेडा भाणयं, 'पुरेफम्म' पुत्वमेव | संजयवाए धाविऊण ठवेति, अहवा पच्छाकम् भुजंतु ताव समणा क्यं पन्छा भोरखामो ततो भोक्खीत साधवोति एवं उस्सका: यंतस्स पुरेकम्म भवति, सियासही आसंकाए बट्ट, जहा कदापि एते पच्छाकम्मपुरकम्माइ दोसा भवेज्जाच तत्थ न कम्पइ । किंच
'एअमटुं न भुजंति' एयसहो पच्चक्खीकरेइ, जम्हा एस पच्छाकम्मादिदोससमुदयो भवति तम्हा भगवंतोपि णिग्गंया मिहिभायण ४ाण भुजंति, आसंदिग्गहणेण आसंदिगहणं कतं, पलियको पल्लंको भण्णइ, आसालओ नाम ससावंगम साक्ट्ठभ) आसणं, तत्थ | 51 |किर अवट्ठा आवणि वाणिगा ववहरंति, अनेसु वा एवमादिस 'अणायरियमज्जाणं'ण आयस्यि अगाचिमति बुर्त भणक अज्जाटारा आयरिया भण्णति, अहवा, अज्जा--उज्जु भण्णइ, आसणं उववेसणं, सयणं सुबम भण्णइ । अहवा इदानीं इमं सुर्च भवइ
AIRCROCESS
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
[241]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
॥२१०
२७७||
दीप
अनुक्रम
[२२६
२९३]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], निर्युक्तिः [२४७ - २६८/२४५ - २६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशकालिक
६ धमो.
॥२२९॥
नासंदीपलि अंकेषु ||२६|| सिलोगो आसंदीपलियंका पुण्यभणिता'निसिज्जा' नाम एगे कप्पो अणेगा वा कप्पा, पडिगं पलाल पीठगादि एतंसुण साधवो आसणसयणादििण कुब्बति, जया पुण कारणं भव तदा निम्गंथा पडिलेहाणन्ति (एत्ति) धम्मकहारायकुलादिसु पडिलेहेऊण निसीयणादीणि कुब्वंति, पडिलहाए णाम चक्खुणा पडिलेहऊण सयणादीणि कुव्वंति, 'बुद्धबुत्तमहिगा' नाम बुद्वेण वृत्तमहिदुगा, अधिद्वैति नाम आयरंति वा, आह-तेसु आसंदगादिसु को दोसो ?, 'गंभीरविजया ए०० ॥ २६४ ॥ सिलोगो, गंभीरं अप्पगासं भण्णह, विजओ नाम मग्गणीत वा पिथकरणंति या विवेषणंति वा विजओषि वा एगड्डा, गंभीरविजयचणेण जे तस्थ पाणा ते दुप्पडिलेहगा दुब्बिसोहगा भवति, अहना विजओ उबस्सओ भण्णs, जम्हा तेसिं पाणा गंभीरो उवस्तओ तओ दुब्विसोधगा, कहं ?, चसुपा (आसंदिया ) दी अण्णतरेसु मंकुणकुंथुनादिणो जीवा भवति ते दुक्खं विसोधिज्जति, विसोभिज्र्ज्जति नाम अवणिज्र्ज्जति, अवकमंते य ते जीवा जंतएव पीलिज्जति, जम्दा एवमादी दोसा भवंति अतो साधूर्ति आसंदीपलियंकादी विवज्जिता । किंच 'गोअरग्गपविहस्स० ॥ २६५ ॥ सिलोगो, णिसीयंति जत्थ सा णिसिज्जा, गोरग्गपचिस साहुणो ण कपइ, सहु 'इमेरिसमणायारं आयजति अयोहिये' इमेरिस नाम जो इदाणि अणायारो भण्णिहिति तमादज्जति, ण आयारो अणायारो आवज्जति नाम पावति, अबोहियं नाम मिच्छतं, कोऽसौ अणायारो ?, भण्णति'विवती भवेरस' ।। २६६ ॥ सिलोगो, कहूं बंभचेरस्स विवती होज्जा १, अवरोप्परओसंभासजनोऽनदंसणादीहिं भचरविवती भवति, पाषाणं अवधे वहो भवति, तत्थ पाणा णाम सत्ता, तेसिं अवधे वधो भवेज्जा कहूं ?, सो तत्थ उल्ला करेइ, तत्थ य तित्तिरओ आणीओ जीवंतओ विकाणओ, सो चिंतति-कहमेतस्स अग्गओ जीवंतं गेहिस्सामि, ताहे ताए सण्णा
[242]
निपया निषेधः
॥२२९||
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश-
निषद्या निषघः
बैकालिका
६धमा.
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
॥२३०॥
कया, दसिया बलिया, आगलियं, सेवि जा गिण्हामि ताहे मारिज्जेज्जा, एवं पाणाण अवधे वधो भवति, वणीमगपडिग्याओं य इमेण पगारेण होज्जा, सो ताए समं उल्लादेह, तत्थ य बहवे भिक्खायरा एंति, सा चिंतेति-कहमेतस्स सगासाओ उट्टेहामित्ति अपत्तिय से भविस्सति, ताहेते अतिस्थाविज्जति, तत्थ अंतराइयदोसो भवति, ते तस्स अवणं भासंति, 'पहिकोहो या अगारिण' समंता कोहो पडिकोहो, समंता नाम सम्बत्तो, तकारडकारलकाराणामेयत्तमितिकाउं पडिकोहो पढिज्जइ, सोय | पडिकोधो इमेण पगारेण भवति--जे तीए पतिससुरपुत्तादी ते अपडिगणिज्जमाणा मण्णेज्जा-एसा एतेण समणएण पंसुलाए है कहाए अक्खिता अम्हे , आगच्छमाणे वा भुक्खियतिसिए वा गाभिजाणइ, न वा अप्पणो णिच्चकरीणज्जाणि अणुहर, अतो पडिकोथो अगारिणं भवइ । किंच-"अगुत्ती यंभचेरस्स' ॥२६७।। सिलोगो, इत्थीण अंगपच्चंगसु दिडिनिवेसमाणस्स इंदियाणि मणुमाणि निरिक्वंतस्स बंभवतं अगुत्तं भवइ, जाओ संकाणिज्जाओ, इत्थी वा पप्फुल्लवयणा कडक्वविक्सित्तलोयणा सकिज्जेज्जा, जहा एसा एवं कामयति, चकारेण तथा सुभणियसुरूवादीगणेहि उववेतं संकेज्जा, उभयं व संकेज्जा; जम्हा एते दोसा 'कुसीलवणं ठाणं दूरओ परिवज्जए'कुच्छियं सील जीम ठाणे वनइ त कुसीलवड्डणं,दूओ साहुणा परिवज्जियष्वमिति । इयाणि एताण चैव अवबातो भण्णति--तिहमन्नयरागस्स० ॥ २६८ ॥ सिलोगो, तिण्व इति संखा, अन्नतरातस्स नाम जे इदाणि तयो भणिहिति तेसि, अनतरस्सत्ति जस्स अविसेसियगहणं, ते य इमे तिण्णि, तं-जराभिभूओ 'वाहिअस्स तवास्सणो' ति | भिभूयग्गहणं जो अतिकट्ठपत्ताए जराए यजइ,जो सो पुण वुद्धभावऽवि सति समत्थोण तस्स गहणं कयंति, एते तिनिधि नहिडावि-18 जति,तिमि हिंडाधिज्जति सेधो अत्तलाभिओ पा अविकिट्ठतबस्सावा एवमादि,तिहि कारणे हिंडेज्जा,तेसिं च तिण्हं णिसज्जा अणु-11
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
CHAGALANGAL
॥२३०॥
[243]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||२१०
२७७||
दीप
अनुक्रम [२२६
२९३]
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [६] उद्देशक [-] मूलं [ १५...]/ गाथा: [ २१० २७७/२२६-२९३] नियुक्तिः [ २४७-२६८/२४५-२६८], आष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४२ ] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चू
६ धर्मा.
॥२३१॥
नाया, तत्थ थेरस्स वंभचेरस्स वित्तीमादि दोसा नत्थि, सो मुहुर्त्त अच्छर, जहा अन्तरातपडिघातादओ दोसा न भवति, वाहिओऽचि मग्गति किंचि तं जाव निकालिज्ज ताब अच्छड, विस्समणङ्कं वा, तबस्सीवि आतवेण किलामिओ विसमिज्जा, णिसे. ज्जत्ति दारं गये । इदाणि सिणाणंति दारं भण्णइ तस्स इमो अभिसंबंधो मा जराभिभृतादणि सेज्जाणुण्णापसंगेण सिणाणादीणि आयरियति धम्मता तिसापरिगता वा अओ इमं मण्णइ जढो होइ, 'बाहिओ वा अरोगी बा० ॥ २६९ ॥ सिलोगो, arriers वाधितो अबगतो रोगा अरोगो, सिणाणांत या पहाणंति वा एगड्डा, जोति अणिदिट्ठस्स गहणं, इच्छए नाम सेवए, 'बोकंतो होइ आयारो' तेण सिणार्यतेण विवि अगप्पगार उता बोकतो अतितोत्ति वृत्तं भवइ, जयमारियध्वयं सो आयारो भण्णइ, 'जढो होइ संजमो' जढो नाम हड्डिउत्ति वा जढोति पर एगड्डा, संजमो पुथ्वभणिओ, आह- आयारसंजमाणं को पविसेसो १, भण्णइ, आयारग्गहणेण कायकिलेसादिणो वाहिरतयस्स गहणं कथं, संजमगहणणं सत्तरसविहस्सवि संजमस्स गहणं कर्य, सिणार्ततस्स इमो असंजमो भवइ, तं संतिमे सुहमा पाणा० ॥ २७० ॥ सिलोगो, संति नाम बिज्जते 'इमे' ति पच्चक्खा अतीव सण्डा मुटुमा पाणा-जीवा, ते यदुविधा तं० तसा थावरा य, तसा कुंथुपिप्पीलियादि थावरा श्रीयपणगादि ते पुण घसाहि मिलुगाहि य होज्जा, घसा नाम जत्थ एगदेसे अक्कममाणे सो पदेसो सच्चो चलइ सा घसा भण्णा, मिलुगा राई, अनेसु वा गंभीरेसु अबगासेसु 'जे' ति अणिद्द्स्सि गहणं, तुसदो बिसेसणे, किं विसेसयति ?, जहा पायसो घसाइसु सत्ता विज्जति एवं विसेसयह, वियर्ड पाणयं भण्णइ, तेणं पाणएण जीवे उप्पलावर, उपिलावर णाम उप्पलावणंति बा लावणंति वा एगट्ठा, जम्हा एस दोस्रो 'तम्हा ते न सिणायंति० ॥ २७१ ॥ सिलोगो, उप्पिलावणादिदो सपरिहरणत्थं
+
[244]
निषद्या निषेधः
॥२३१॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : २४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
%
श्रीदशवैकालिक
%
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
६धमो.
॥२३२।।
साहवो सीएण उसिणेण दवेण व णेह सिणायांतत्ति, आह-जह उप्पीलावणादिदांसा न भवंति , तहावि अने हापमाणस्सर निषद्या दोसा भवंति, कह ?, हायमाणस्स बमचेरे अगुत्ति भवति, असिणाणपच्चायो य कायकिलेसो तवो सो ण हबइ, विभूसादोसोय
निषेधः भवतित्तिकाऊण जावजीचं वयं घोरं असिणाणमहियवंति, जहेव साहूणं हाणं पडिसिद्धं, तहा 'सिणाणं अदुवा कम् ॥२७२ ॥ सिलोगो, सिणाणं ण्हाणं भण्णा, कको लवन्तयो कीरह, वण्णादी कको वा, उबलय अगमादि कको भण्णइ, लुई कसाओ जं घासेडयादी कीरइ, पउमं कुंकुम भण्णाइ, चकारेण अण्णाणिवि एवमादि गहियाणि, ताणि गायस्स उच्चदृण्णत्थं णायरंति साधवी, कयाइवित्ति कयाइगहणेण णज्जइ जाव आउ तार सेसं नायरंति, को पुण सिणाणादिसु दोसो ?, भण्णइ, विभूसाइ दोसा भवंतित्ति, एतेण अभिसम्बन्धेश सोभवज्जणं दारं पत्तं, ते०, 'नगिणस्म वापि मुंडस्स० ॥ २७३ ।। सिलोगो, णगिणो णग्गो भण्णइ, मुंडो चउबिधो, तं०- नाममुंडो ठवणामुंडो दवडो भावमुंडो यांच, जामठवणाओ गयाओ, दव्य मुंडो आइचामुंडाई, भावमुंडो जस्स इंदियणोइंदिया देता सो भावमुंडो भवति, दीहाणि रोमाणि फक्खीवत्थजंघादीसु जस्स, पहावि अलत्तयपाडणपायोगा, पा छज्जति ते दीहा धारेउं, जिण कपियादीण दीहावि, एवंविहरूबस्स मेधुगोवरयस्स साहुणो न किंचि विभूसा साधयद, केवलं विडचे?णं करेइ. अतो- विभूसावातियं भिक्खू, कम्मं बंधइ चिकणं । संसारसायरे घोरे, जेण पडई दुरुत्तरे ।। २७४ ॥ सिलोगो. 'विभसावत्तियं' नाम विभूसा बनियं पच्चइयं रागाणु
P ॥२३२॥ गयस्स भिक्षुणो चिकणो कम्मचंधो मबह, चिकणति वा दारुणंति वा एगहा, तं कर्म बंधई जेण कम्मेण बद्रेण संसारसागरे । भिमति, इदाणिं गणधरा मणगपिता वा एवमाहु, विभूसावत्तियं नाम विभूसाबचियं पच्चइयं, जमेयं विभूसावत्तियं कम्म हेट्ठा
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दीप अनुक्रम [२२६२९३]
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [4], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
निषद्या निषेधः
[१५...]
गाथा ||२१०२७७||
६ धमो.
मषियं तयं तित्थगरादि घुद्धा मनंति, मन्नंति वा जाणंति वा एगट्ठा, तारिस नाम जमिदाणि चिकणति भणियं तहप्पगारं बैंकालिकासंसारसागरमडयं बज्झतीति, न किंचन केवलं विभूसादोसो सो एगो, किन्तु सावज्जं बहुलं चेतंति, सहऽवज्जेण सावज्ज, जा चूणों तत्थ चव्हाणादीणि मग्गमाणस्स-गवासमाणस्स सावज्जकिरियाए सावज्जबहुलं चेव विभूसावत्तिय कम्म बधइचिकाऊण
मा एवं तित्थ कराईहि ताईहिं सपियंति, सोमणवज्जणन्ति दारं गतं । संमत्ता य उत्तरगुणा अट्ठारसट्ठाणाणि य, उत्तरगुणाधिकारे इमं
भण्णाइ- 'स्वबंति अप्पाणममोहदंसिणो० ॥ २७६ ।। सिलोगो, अहवा जो सो अट्ठारससु ठाणेसु संजमो उबदिट्ठो, ॥२३॥
जे य तम्मि संजमे ठिया ते खयंति अप्पाणं अमोहदंसिणोति, आह-किं ताव अप्पाणं खयति उदाहु सरीरंति?, आयरिओ भणइअप्पसद्दो दोहिवि दीसइ-सरीरे जीवे य, तत्थ सरीरे ताव जहा एसो संतो दीसई मा णं हिंसिहिसि, जीवे जहा गओ सो जीवो जस्सेय सीरं, तेण भणितं खवेति अप्पाणंति, तत्थ सरीरं औदारिकं कम्मगं च, तत्थ कम्मएण अधिगारो, तस्स य तवसा खए। कीरमाणे औदारियमवि खिज्जइ, अमोहं पासंतित्ति अमोहदंसिणो सम्मदिट्ठी, सम्मवन्ताण वुत्तं भवति, तबो वारसविहो तम्मि तवे रया, संजमा सत्तरसविहो, उज्जुताभावो अज्जब, अज्जवगहणेण अणासंसओ संजमतवे कुब्वाति, गुणग्रहणेण एते चेव | गुणा गहिया, एवं ते चरणगुणसंजमतवेसु अवडिया चिरसंचिताणि पावाणि पुरेकढाणि कम्माणि धुणंति, अण्णाणि नवाणि ण साहवो कति ॥ 'सओवसंता अममा०॥ २७७ ।। सिलोगो, सदा-सव्वकालं उबसंता सदोवसंता, अममा णाम बज्झन्भ-1 नरेहिं गंथेहि विष्पमुक्का अममा भण्णति, किंचणं चउब्बिई, तणामकिंचणं ठवणाकिंचणं दब्यकिंचणं भावकिंचणं च, तत्थ नामं | तहा ठवणाओ गयाओ, दव्याकिंचणं हिरण्णादि, भावकिंचणं अमआणकिंचणं अविरईमिच्छत्चाईणि, अप्पणो विज्जा सविज्जा तया
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दीप अनुक्रम [२२६२९३]
॥२३३॥
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [६], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२१०-२७७/२२६-२९३], नियुक्ति : [२४७-२६८/२४५-२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१५...]
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चूर्णी
गाथा ||२१०२७७||
शुद्धि
श्रीदश- अप्पणिज्जया विज्जया अणुगया सविज्जविज्जणुगया, केवलसुयणाणादिसु उवउत्ताच युतं भवति, बीर्य बिज्जागहणं लोइयविज्जा-1॥ निषद्या वैकालिकापडिसेहणत्थं कतं. जसो जेसिं अस्थि ते जसंसिणो, ते भगवंतो 'उउपसन्ने बिमले व चंदिमा' उउगहणेण छण्हवि रिऊर्णाट! निषेधः
गहणं, पसजगहणेण सरओ विससिज्जति, जहा सरए चंदिमा विससेण निम्मलो भवति एवं ते विमलं सिद्धिं गच्छति, साबसेस-1 ७वाक्य
कम्माणो य विमाणेसु उबवज्जति, विमाणगहणेण विमाणियगणं कर्य, उति वा वयंति वा एगहा, ताइणो पुब्बभणिता, एतं
फलं तेसि अट्ठारसण्हं ठाणाणं सम्ममणुपालियाणं, तिबेमि नाम तीर्थकरोपदेशात् ब्रवीमि, न स्वाभिप्रायणेति ॥ इदाणिं णया, ॥२३४॥
'णामि गिण्हियाचे'॥ ॥ गाथा, 'सब्वेसिंपि नयार्ण बहुवियत्तव्ययं.'॥ ॥ गाथा, एताओ पढिसद्र सिद्धाओ। षष्ठधर्मार्थकामाध्ययनर्णिः समाप्ता ।।
तेण णाणदसणादिगुणजुत्तेण आयरिएण धम्म कहतेण भासा जाणियव्या, केरिसा वत्तव्या न केरिसा वा बत्तच्या ?, गुणदोसे काय जाणमाणे सुई धम्म कहिस्सतीतिएतेण अभिसंबंधणागतस्स अज्झयणस्स चत्तारि अणुओगदाराणि जहा आवस्सगचुबीए,
नवरं नामनिष्फन्ने वक्कसुद्धी भण्णइ, वक्कं निक्खिवियच सुद्धी निक्खिवियब्बा, तत्थ पढ़मं वकं भण्णइ- 'निक्खेवो उ चउको' ।। २७१ ॥ गाथा, चउब्धिह यक, तं०-णामवकं ठवणावकं दव्ववकं भाववकं च, णामठपणाओ गयाओ, दग्यवर्क नाम जाणि दब्धाणि भासत्ताए गहियाणि ण ताद उच्चारिज्जति सा भासा, तेण चेव उच्चारिज्जमाणाणि तमत्थं मासयंती भावभासा भवति, तस्स बकरस एगहियाणि इमाणि- 'चकं वयणं च गिरा०॥ २७२ ।। गाथा, वाच्यत इति वाक्यं ॥२२॥ वयणिज्जं वयणं, गिजाति गिरा, सरो जीसे अस्थि सा सरस्सति, भारो णाम अस्थो, तमरथं धारयतीति भारही, पुरच्छिमातोvi
-
दीप अनुक्रम [२२६२९३]
FRICA
-
-
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-
- अध्ययनं -६- परिसमाप्तं
अध्ययनं -७- 'वाक्यशुद्धि' आरभ्यते
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
|| लोगताओ पञ्चस्थिमिल्लं लोगत गरछत्तीति गो, पदिसते वयणिज्जा वा पाणी, भणिज्जतीति भासा, पण्णविजती जीए सा IN श्रीदश
भाषा पण्णवणी, अत्थं देसयतीति देसणा, पायापरिणामेण जीवस्स जोगो तेण कडगफरुसादिपरिणामजोयणं जोगो। तत्थ जा सा कालिक
*निक्षेपाः चूर्णी
पुखुट्ठिा दब्वभासा सा इमा-'दब्वे भावे तिबिहा गहणे अ निसिरणे ॥ २७३ ॥ गाथापुबद्धं, तिविदा भासा, ७ वाक्य
संजहा- गहणं निसिरणं पराघातोत्ति, तत्थ गहणं नाम वयजोगपरिणओ अप्पा भासादयाणि गिण्हेउं ण जाव निसिरह शुद्धि अ.
सांव गहणं भण्णइ, निसिरणं नाम ताणि चेव उरकंठसिरजिम्ममूलदंतनासिकातालुउद्धेहिं जहा विभागओ णिसिरिज्जमाणा णि
सरणं मण्णति, पराघाओ जाणि तेहिं भासादब्वेहिं निस्स?हिं तप्पयोगाणि अन्नाणि पेलिज्जमाणाणि भासाविसयसमस्थाणि ॥२३५।। मवति सा पराघातदश्वमासा भष्णइ, दबभासा गया। इयाणि भावभासा मेण गाथापच्छद्रेण भण्णइ-'भावे दब्वे य सुते.'
४॥ २७३ ॥ अद्धगाथा, 'भावभासा' नाम जेणाहिप्पारण भासा भवइ सा भाक्मासा, कह , जो भासिउमिच्छइ सो पुवामेव |
अचाणं पत्तियावइ जहा इमं मए वत्तव्यंति, भासमाणो परं पत्तियावेइ, एवं मासाए पयोयणं, परमप्पाणं च अत्थे अवबोधयति, साय भावमासा तिविधा, तं- दब्बभावभासा, सुयभाववासा चरितभावभासा य, तत्थ दब्वभावभासा नाम दवं पहुच्च जा भासिज्जइ सा दव्वभावभासा, जहा घडे जे गाणं तं घडनिमितिकाउं घडनाणं भण्णइ, एवं जा दव्यं पडुच्च भासिज्जइ सा दब्वभावभासा, साय आराहणादिया चउविधा दबभावभासा भवति, तं०-दवाराहणी सा य भवति सच्चा,दवविराधणी साय ॥२३५।। मोसा मवति, सच्चामोसा आराधणविराधणी भण्णति, असच्चामोसा पुण पडिसेहे, पडिसेहे णाम णो आराधणा णो विराहणित्ति, तत्थ दयाराहणी नाम जं जहापस्थिय दव्य तं तहेव आराहयति, जहाभावि भावि चेव सच्चं भासतिति जुत्तं भवति, तं
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
Eि
...अत्र भाषाया: निक्षेपा: दर्शयते
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
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सत्यं
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
शुद्धि अ०
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श्रीदश-18|च सच्चं दसविध----'जणवयसम्मयठषणा ॥२७५॥ तत्थ जणवयसच्चं नाम जहा एगम्मि व अभिधेए अत्थे जनपदादिवैकालिक अणयाणं जणबयाण विप्पडिबत्ति भवति, ण च तं असचं भवति, तं०-पुन्बदेसयाणं पुग्गलि ओदणो भण्णइ, लाडमरहट्ठाणां | चूणी करो, द्रविडाणां चोरो, अन्ध्राणां कनायु, एवमादि जणवयणसच्चं भवति, सम्मतसच्चं नाम अहा अण्णाणि णलिनकुमुदनीलुप्प-10 वाक्यालसालिमादीणि पंके जायंति तहावि न तेसिं पंकयसन्ना सम्मया जहा अरविंदस्स, अरविंदे आगोपालादि सम्मतं जहा पंकयंति,
| एवमादि सम्मतसच्चं भण्णइ, ठवणासच्चं नाम जहा अक्खं निक्खिवइ, एसो चेत्र मम समयो एवमादि, नामसच्च नाम जे ॥२३६॥ जीवस्स अजीबस्स वा सच्चीमति नाम कीरइ, जहा सच्चो नाम कोइ साधु एवमादि, रूबसच्चं णाम जो असाधु साहुरूवधारिणं
द? भणइ दीसह वा, पडुच्चसच्चं नाम दिग्धं पढच्च दस्व सिद्ध हवं पडुच्च दिग्धं सिद्धं जहा कणिढुंगुलियं पडच्च अणामिया दीहा अणामिय पडच्च कार्णगुलिया हस्खा एवमादि, वैवहारसच्चं नाम जहा अम्ह गामो, पिदुस्स वा सच्चमिति कहणं, छत्तएण आगमणं उमति गिरी गलह भायणं लोगप्पसिद्धाणि, तहा गावी पिज्जद, गावीए खीरं पिज्जा, ण गावी सम्वा पिज्जइत्ति, एवमादि, भावसच्चं नाम जमहिप्पायतो, जहा घडमाणहित्ति अभिष्पाईते घडमाणेहित्ति भणियं, गाबीअभिपायेण गावी, अस्सो वा अस्सो भणिओ, एवमादि, जोगसच्चं नाम जहा छत्तेण छत्ती मउडेण मउडी एवमादि, ओवम्मसच्च नाम चन्द्रमुखी
॥२३६॥ देवदत्ता, समुद्र इच तडागं भणितमित्येवमादि, सच्चं गतं । इदाणि मोसं भण्णा , तं०-कोहे माणे माया लोभे०।। २७६ ।।। गाथा, तत्थ कोहस्सिया जे कोहाभिभूयो भासति भासं सा मोसा भण्णइ, आह-गणु आराधणी सच्चा विराधणी मोसा भणिया, कई इदाणि भणह-जं कुद्धो भासइ सा मोसा, कुद्धोऽपि कोवि गावी गाविमेव भणइ, अस्सं अस्समेव. सा कहं मोसा भविस्सतीति ?,
दीप अनुक्रम
SACReck
[२९४
३५०]
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... अत्र सत्य, मृषा, सत्यामृषा आदि भाषाया: भेदानां वर्णयन्ते
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
श्रीदश- आयरिओ आह- तस्स कोहाउलचित्तत्तणेणं घुमक्खरभिव तं अप्पमाणमेव भवति, जहा घुणक्खरं सच्चमावि पंडियाणं चित्तगाहगं । कालिक न भवति, कोवाकुलचित्तो जे संतमवि भासति तं मोसमेव भवति, तथा कोहेण लय अनेन प्रकारेण मृषामभिधास्यते, जहा कोइ हा चूणौं साहुणा धीयाराई पुच्छिओ-अमुग नगरं कतरी पंधी वच्चा , तओ सो अपवरद्धद्धो अन्नमव पंथं बदिसह, ण याणामि वादा "वाक्य- भणति, पिया कुद्धो पुतं भणइ-न तुमं मम पुत्तोत्ति, एवमादि, माणनिस्सिया जहा गामनगरसमवाएमु कस्स कत्तिओ अत्थोति शुद्धि अ018 पुन्छिए अप्पधणोऽवि भणइ-जहाऽहं कोणी(डी)धणोति एवमादि,मायाणिस्सिता जहा मायाकारो चाबुमोहर्ण काउं भणइ-आगास | ॥२३७||
लोगओ पविट्ठो, एवमादि, लोभगिस्सिता जहा कूडमाणववहारिणो वाणियगा, कोई लोभेणं मोस भासेज्जा एवमादि, पेज्जपाणिस्सिया जहा हाणुरागेण भणह-दासेाऽहं तव एवमादि, दोसणिस्सिता जहा भगवओ बद्धमाणसामिणो संता गुणा के पावकम्मा छादयंति,जहा न एसो सवण्णू ,ण एवं सक्कमादी सुरा पज्जुवासंति, किन्तु एसो इंदियालियप्पयोगो विज्जातिसओ || वा एवमादि, हासपिस्सिया जहा कस्सइ किंचि तारिस गोवेऊण पुच्छिज्जमाणो भणइ-न बाणामिनि, एवमादि, भयणिस्सिया जहा चोरो तालिज्जमाणोऽवि मरणभयामिभूओ भषइ- पाहं चोरोत्ति एवमादि, अक्खाइयानिस्सिया अहा मारहरामायणादि, ॥२३७॥ उवधायनिस्सिया जहा अचार चारेमिति एवमादि। मोसा गता।इदाणिं सच्चामोसा भण्णइ,किंचि तीए सच्चं किंचि मोसंति, सा इमा दसविधा, तं०- उप्पन्नविगयमीसग०॥ २७७ ।। गाथा, उप्पण्णमीसिया विगतमीसिया उपबविगतमीसिया जीवमीसिया अजीममीसिया जीवाजीबमीसिया अणंतमीसिया परिसमीसिया अद्धामीसिया अद्धद्धामीसिया इति, तत्थ उप्पनमीसिया जहा कोइ भणेज्ज-एयंमि नगरे दस दारगा बाता, तत्थ कदाइ ऊणा अधिगा वा होज्जा एवमादि उप्पण्णमीसिया, विगयमी
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
श्रीदश-8 सिया जहा एतमि नगरे दस दारगा मया, तत्थ कयाइ अहिमा ऊणा वा होज्जा एवमादी विगतमीसिया, उप्पनविगतमीसिया ४॥ सत्या
नहा एतम्मि नगरे दस दारगा जाया दस मया, तत्थ कदाइ ऊणा अहिगा वा होज्जा एवमादी उप्पण्णा विगतमीसिया, जौब-त मृषाभेदाः चूणों मिस्सिया जहा काह किमिरासि दइवण भणपजा-अहो जीवरासित्ति जेण सने जीवंति, तत्थ जे जीवति तेस सच्चा, जे मया
|तेसु मोसा भवइ, अतो जीवमिस्सिया भण्णइ, अजीवमिस्सिया जहा तमेव किमिरासि पायसो मयं पासिऊण भणेज्जा-अहो : शुद्धि अ०
इमे सब्बे मया, तत्थ के जीवंति, जे ण जीवति तेसु सच्चा, जे जीवंति तेसु मोसा, अओ अजीवणिस्सिया भण्णइ, जीवाजीवमि॥२३८स्सिया जहा मयार्ण अमयाणं च रासि दट्टण मज्जा, जहा-सव्वा एस रासी जीवइ मओ बा, एवमादि, अणतमीसिया जहा कोइ मूल
गच्छोटं दणं अथवा किंचि तारिस भणेज्जा-जहा-सब्बो एस अणंतकायोत्ति,तस्स मृलपचाणि जिण्णत्तणेण परिभूयाणि,केवलं तुजलVIसिंचणगणेण केड तस्स किसलया पाउम्भूता, अओं अणंतपरिचचेण मिस्सिया भष्णड. परित्तमीसिया जहा अभिनवउक्खय 6 मूलग कोवि परिमिलाणंतिकाऊण भणज्जा जहा सव्यो एस परिचो, तत्थ अंता परित्तीभ्या मज्झपएसो अणंतो चेव, एसा
परित्तमीसिया, अद्धामीसिया नाम अद्धा कालो भण्णइ, सो य रापि वा होज्जा दिवसो वा, वत्थ बट्टमार्ण काल अणागएण कालेण सह मिस्सीकरेइ, जहा कोयि पंथं बच्चमाणो थेवावसेसे दिवसे सेहए भणइ, जहा-तुरियमागच्छह, ण ता पेच्छह इम कालिय रति एवमादि अद्धामीसा भण्णइ, अद्धद्धामीसिया नाम तेसिं चेव दिणरातीणं एगदेसो अद्धा भण्णइ, तं पङ्कमाणं कालं अणागतकालेण सह मीसीकरेइ जहा पुबपारिसीए भण्णइ-मज्झहीभूतं तहावि वयं न सुंजामोति एवमादि अद्धद्धामीसिया,
४ ॥२३८॥ सच्चामोसा गता। वार्णि असच्चमीसा भण्णा, सा नेव सच्चा व मोसा, केवलं वयणमेव, सा दुवालसविदा दोहिं|
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दीप अनुक्रम [२९४३५०]
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
भीदश
[१५...]
गाथा ||२७८
बैकालिक
घूर्णी ७वाक्य शुद्धि अ.
३३४||
॥२३॥
गाहाहि भण्णइ, तं- 'आमंतणि '॥ २७८ ।। गाथा, 'अणभिग्गहिआ भासा' ।। २७९ ।। गाथा, तत्थ 'आमंतणि | जहा हे देवदत्त । एवमादि, आणवणी णाम जो जस्स आणत्तियं देह सा आणवणी भवति, जहा गच्छ, पच पठ, कुरु, भुजा पयोप्तमा एवमादि, जायणि मग्गणी भष्णति, यथाऽस्माकं भिक्षा प्रयच्छ एवमादि, पुच्छणी जहा कओ आगच्छसि कत्थ वा गच्छ-17 सित्ति, तथा- 'कतिविधा ण मते ! जीवा पण्णात्ता' एवमादि, 'इच्छाणुलोमा नाम जहा केणइ भणिया जहा साधुसगासं| गंतव्बंति, ततोऽसौ भणति-ता सोभणं भवइ गच्छामो इन्चेवमादि, 'अणभिग्गहिया' णाम जा मासा अत्थं अणभिगेण्हिऊण केवलं वायमिचमेव उदाहरिज्जति जहा डित्यो डवित्थो अमट्टो पार्थन इति, अहवा-ऊससियं नीससिय निच्छूट खासियं चढ़ छीयं च । णिस्सिघियमणुस्सारं अणक्खरं छल्लियादीयं ॥१॥ जा पुण. भासा अत्थं अभिागज्य भासिया सा अभिग्गहिया, जहा घयं रसं एवमादि, संसयजयणी णाम जहा सेन्धवमाणेहित्ति भणिए ण णवह किं तावत्पुरिसो सिंधयो आणतब्बो उदाहु लवणं आसो वा एवमादि, बोयडा नाम जा पगडत्था, भावियत्यत्ति वुत्तं भवइ, जहा एस माया देवदत्तस्स एवमादि, अब्बोयडा नाम जा सोतारेहि भासिज्जमाणा ण संविज्जह जहा बागाणं एवमादि, एचमसच्चामोसाधारसविधागता । हयाणि 'सच्चा-11 विअसादुविधा' ॥ २८० ॥ गाथा, जा एसा दुविधा चउविधावि भासा भणिया सा सव्वावि दुविथा भवइ, तं०-पजत्तिगा| है अपज्जत्तिगा य, तत्थ आदिल्लियाओ दोष्णि पज्जत्तिगाओ. इतरा दोवि अपज्जत्तिगाओ, पज्जत्तिगाणाम जा अवहारिउं सक्का, २३९॥
जहा सच्चा मोसा बा, एसा पज्जत्तिगा, जा पुण सच्चावि मोसावि दुपक्खगेवि सा न सक्कइ बिभावेउं जहा एसा सच्चा ट्रामोसा वा, अओ सा अपज्जत्तिमा भण्णा, जहा समइए सच्चामोसा अवहारेउं न सक्कड तहा असच्चामोसावित्ति साऽवि अपज्जचा
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
DECEAE
[252]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश-
वैकालिक
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
चूर्णी. ७ वाक्य शुद्धि अ०
IGTIN
॥२४॥
चेव भणिया, ब्वभावभासा गया । इयाणिं सुतभावभासा भण्णइ, तं च-'सुअधम्मे पुण तिविहा०॥ २८१ ॥ श्रुतमावअद्धगाथा, जा सुतधम्मोवउत्स्स भासा सा तिविधा-सचा मोसा असचमोसा, सबा इमेण गाहापच्छद्रेण भण्णइ- सम्म-16
मापा दिडी सुते उवउत्तो भासं भासद सा णियमा सच्चा । इयाणि मोसा भण्णइ, तं- 'सम्मदिट्टी उ सुमि० ॥२७२।। गाथा, | सो चेव सम्मदिड्डी सुते अणुवउचो जया अहेउज्जुत्तं भासइ तया मोसा भण्णइ, जहा तंतूहि घडो निष्फाइज्जइ मट्टियापिंडाओ६
पडो एवमादि मोसा, सा सम्मद्दिहिस्स भवति, मिच्छादिट्टी पुण उपउत्तो अणुवउत्तो वा चउम्विधपि भासं भासमाणो मोसा| मेव भासद, कह ?, तस्स वयणं उम्मत्तवयणमिव सञ्चासच्चत्तणेण अप्पमाणं भण्याइ । इयाणिं असच्चामोसा भण्णइ, तं-'हवह
उ असच्चमोसा.'५२८४ ॥ गाथा, सच्चा मोसा य, एतातो दोऽवि भासाओ चरित्ते भवंति, तत्थ सच्चा नाम ज भास । भासंतस्स सच्चं मोसं वा चरित्तं विसुज्झइ, सब्बावि सा सच्चा भवति, जं पुण भासमाणस्स चरितं न सुज्झति सा मोसा भवति, अथवा जं भासं भासमाणो सचरित्तो भवति सा सच्चा, जं भासं भासमाणो सो अचरित्तो भवइ सा मोसा, असच्चामोसा एवं 15 दुबिहा भण्णइ, चकं गतं । इयाणि सुद्धी भण्णइ-'णामंठवणासुद्धी० ॥२८५।। गाथा, चउबिहा सुद्धी भवइ, जहाणामसुद्धी ठवणसुद्धी दव्वसुद्धी भावसुद्धिति, तत्थ नामठवणाओ गताओ । दब्बसुद्धी इमा, तंजहा-तिधिहा उ (य) दब्धसुद्धी० ॥ २८६ ।। गाथापुब्बद्धं, तिविधा दव्यसद्धी भवइ, तंजहा--दब्बसुद्धी आदेसमुद्री पहाणसुद्धी य, तत्थ दब्बसुद्धी आदेसमृद्धी य इमेण गाथापच्छद्धण भण्णइ, तै-तद्दव्यगमारसो अणण्णमीसा हवह सुद्धी ।। २८६ ।। अगाथा, तत्थ दव्य
॥२४॥ सुद्धी नाम जं दक्ष अत्रेण दबेण सह असंजुत्तं सुद्धं भवइ जहा खीरं दधि वा, आदेसदब्बसुद्धी दुविधा-अण्णते य अणण्णत्ते य,
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
... शुद्धेः नाम-आदि निक्षेपा: दर्शयते
[253]
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
बादश
शुद्धि
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
अण्णचे जहा सुद्धवंसो सो देवदत्तो, अणण्ण ने जहा सुद्धदंतो, आदेसदब्वसुद्धी गतां । वण्णरसगंधफासे ॥२८७|| गाथा, वाक्य: । वैकालिका पहाणदब्बसुद्धी इमेसु ठाणेसु भवइ, तं०-बण्णेसु गंधेस रसेसु फासेसु जा समणुनया सा पहाणवकसुद्धी भवति, समणुना नाम शुध्ययन
दरिसणिजत्ता, तत्थ बन्नेसु सुकिल्लो बनो पहाणो गंधेसु सुरभी पहाणो रसेसु महुरो पहाणो फासेसु मउयलहुयउण्हणिद्धा पहाणा, अहवा वयरसंगंधफासेसु जो जस्स संमतो सो तस्स पहाणो, संमओ नाम अभिप्रेतो, पहाणसुद्धी गता, गया य दव्य-11
निक्षेपाः ॥२४॥
सद्धी। पाणिं भावसुद्धी भण्णइ, तंजहा- 'एमेव भाषसुद्धी॥२८८॥ गाथापुब्बद्धं, 'एवमेब' ति जहा दव्यसुद्धी। तिविधा दव्यादि एवं भावसुद्धीवि तिविधा, तं-सम्भावसुद्धी आदेसभावसुद्धी पहाणभावसुद्धी य, तत्थ तम्भावसुद्धी आदेसभावसुद्धी य इमेण गाथापच्छद्रेण भण्णंति, तंजहा-तम्भावगमाएसो अणण्णमीसा हवह सुद्धी० ॥ २८८ ॥ गाथा-1 पच्छद्धं, तस्य तब्भावसुद्धी जहा तमि गती भावे सो अहिकंखइ, जहा बुभुक्खिओ अमं तिसिओ पाणं एवमादि । इदाणिं आईसभावसुद्धी, सा दुविधा, तंजहा-अण्णत्ते अणण्णते य, तत्थ अण्णने जहा सुद्धभावस्स साहुस्स एस आयरिओ, अणण्णत्ते जो जेण भावेण आदिस्समाणो न विरुज्झइ, जहा सुद्धसभावो साहू । इयाणि पहाणभावसुद्धी भण्णइ, तंजहा- 'दंसणनाणचरित्ते' ॥ २८९ ।। गाथा, पहाणभावसुद्धी जं दसणादीण आदिस्समाणाणं सा पहाणभावसुद्धी भण्णइ, तत्थ देसणपहाणसुद्धी खाइगं दसणं, नाणपहाणसुद्धी खाइगं गाणं, चरित्चपहाणसुद्धी य अहक्खायं चरितं, तवपहाणसुद्धी य अम्भितरतवस्स सम्ममाराहणाए, IN२४१॥
तेहिं दसणाईहिं परिसुद्धेहिं जम्हा साहू विसुद्धकम्ममलो भवद अओ अविसुद्धो सुद्धो भवइत्ति , एत्थ भावविसुद्धीय अधिकारो, ड्रा सेसा उच्चारितसरिसत्तिकाऊण परूविया, मुद्धी गया । सीसो आइ- बकसुद्धीए कि पओयणति', आयरिओ भणइ- सुद्धेण
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
[254]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
|| २७८
३३४||
दीप
अनुक्रम [२९४
३५० ]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र -३ (निर्युक्तिः + भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [७] उद्देशक [-] मूलं [१५...]/ गाथा: [ २७८-३३४/२९४-३५०] निर्युक्तिः [ २७१- २९३ / २६९-२९२] आष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण
॥२४२॥
वकेण आयारसुद्धी भवति, चकसुद्धीए इमा णिरुत्तगाथा भवद्द, 'जं वकं वदमाणस्स ० १ ||२९० ॥ जं वर्क वयमाणस्य साधुणो संजमे सुद्धी भवइ, ण य सच्चेण भणिएण हिंसा जायइ, ण य अत्तणो कलुसभावो भवइ, जहा कि मए एवं एवंविदं भणियं १, तेण वसुद्ध भष्णह, किं कारणं बकसुद्धीए एचिओ आयरो कीरह ?, आयरिओ आह- 'वपणविभत्तीकुसलस्स० ।। २९१ ॥ माथा, वयणविभतीए कसलया जस्स अस्थि सो वयणविभत्तीकुसलो, तस्स पर्यणविभत्सीकृसलस्स, न केवलं वयणविभत्तीकुसलस्सेव, किंतु 'संजमंमि उचट्टितमतिस्स' तत्थ सम्म नाम संजमो, तंमि संजमे उवडिया मती जस्स, उचट्टिया नाम थिरीभूता, जम्दा तस्स वयणविभत्तीकुसलस्स संजमंमि य उपट्टितमस्स साहुणो एकेणावि दुम्भासिएण विराधणा होज्जा, अओ वधासुद्धीए सव्यपय तेण अतितव्यंति, आह- जह भासमाणस्स दोसो तो मोणं कायव्वं, आयरिओ भणइ मोणमवि अणुवाएण कुव्यमाणस्स दोसो भव, कई ?, 'वयणविभत्तिअकुसलो० ।। २९२ ।। गाथा, कोपि वयणविभत्ती असलो सो वओगतं महुविध अणे गप्पगारं अयाणमाणो जर दिवस पर न किंचि भासह 'तहाषि न वयिगुत्तमं पत्तो'त्ति, जो भासागुणदोसाविहिष्णू तस्स हमो गुणो भवइ, तंजहा- 'वयणविभत्तीकुसला० ॥ २९३ ॥ गाथा, जो कोइ वयणविभत्तीकुसलो वओगतं बहुविधं अणे गप्पगारं जाणमाणो-जह दिवसमणुबद्धं भासइ तहावि वयगुत्ततं पत्तोति । इयाणि सुचाणुगमे सुतमुच्चारयवं, अक्खलियं अमिलियं जहा अणुयोगद्दारे, तं च सुतं इमं 'चउण्डं खलु भासाणं, परिसंस्वाय पन्नवं । (दो) दुण्हं तु विणयं सिक्खे, दोन भासिज्ज सव्वसी ' (२३८) सिलोगो, चतुर, प्रातिपदिकः, षष्ठी शेषे विभक्तिर्भवति शेषे कारके, तस्या बहुवचनं आम्, षष्ठी चतुर्थीबेसिनु आगमः परगमनं चतुण, भाषाणां चतुर्णा, खलुनिपातः परकीयमर्थमयांते, ( माख्याति ) खसदो
,
अत्र सप्तमं अध्ययनस्य सूत्र (गाथा:) आरभ्यते
[255]
वचन
विभक्तेः फलं
॥२४२॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
|| २७८
३३४||
दीप
अनुक्रम [२९४३५० ]
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [७] उद्देशक [-] मूलं [१५...]/ गाथा: [ २७८-३३४/२९४-३५०] निर्युक्तिः [ २७१- २९३ / २६९-२९२] आष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४२ ] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूर्णी
॥२४३॥
विसेसणे, किं बिसेसग्रह ?, जश चउरो भासाओ मांण अष्णो वायागोवरी णत्वित्ति एवं विसेसयति, 'भाष व्यक्तायां वाचि भ्रातुः अस्य धातो: 'अः प्रत्यय 'दित्यनुवर्तमाने 'गुरोश्च हल' इति अकारः, प्रत्ययः, स्त्रीविवक्षा, वर्त्तमाने वशिं, ख्याङ् आदेशः, ङ्कार उच्चारणार्थः, अनुबन्धलोपः, 'युवोरनाका' विति अनादेशः, अकः सवर्णे दीर्घः' (पा० ) इति दीर्घत्वं परिसंख्यानं, परिसंख्याय नाम परिजाणिऊण, ज्ञा अवबोधने धातुः अस्य धातोः प्रपूर्वस्य षिद्भिदादिभ्यः इत्यनुवर्त्तमाने 'आतश्चोपस' इति अदप्रत्ययः, टकार उच्चारणार्थः, 'आतो लोप इटि च क्ङिति चे' ति आकारलोपः, [ अनुस्वारस्य ] स्त्रीविवक्षायां अजाद्यतष्टापि ति टापू प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'अकः सवर्णे दीर्घत्वं प्रज्ञा बुद्धिरभिधीयते सा जस्स अस्थि सो पण्णवं, प्रज्ञावतु इति स्थिते प्रथमैकवचनं सु, उकारः उच्चारणार्थः 'उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो:' ( पा. ७-१-१० ) इति नुम् मकार उच्चारणार्थः, 'नथापदान्तस्य झली ' ( पा. ८-३-२६ ) त्यनुस्वारः, अनुस्वारस्य यपि परसवर्णः परगमनं च
4
लाभ्यो दीर्घात् सुतस्यपृक्तं हलि'ति सुलोपः, 'संयोगान्तस्य लोपः' (पा. ८-२.२३ ) ' नोपधाया ' इति (पा. ६-४-७) दीर्घत्वं स प्रज्ञावान् तेन बुद्धिमता, एताओ चचारि भासाओ य परिगणऊण दोन्हं, द्वि सर्वनाम चिनाभिधायी ' कर्तुकरणयोस्तृतीये' ति ( पा. २-३-१८) तृतीया विभक्तिः, तस्या द्विवचनं स्यात् ' त्यदाद्यमिति ( त्यदादांनामः पा. १-२-१०२ ) इकारस्य अकारः 'सुपि चे ' ति ( पा० ७-३-१०२ ) दीर्घत्वं, द्वाभ्यां ' अय वय नय तय गतौ ' नय धातुः, तस्य धातोः विपूर्वस्य 'पुंसि संज्ञायां घः प्रायेणेति ( पा० ३-३-११८ ) घप्रत्ययः अनुबन्धलोपः, विनयनं इति विनयः, दोण्डं विनयं 'सिक्खेज्ज' ति 'शक्ल शक्ती' धातुः अस्य ' धातोः 'कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां (पा. ३-१-३) सन् प्रत्ययः, शक्तमि
[256]
भाषा
धिकारः
॥२४३॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||२७८
३३४||
दीप
अनुक्रम
[२९४
३५०]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५० ], निर्युक्तिः [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक
चूण
॥२४४॥
च्छतीत्येवं विगृ सनः अनुबन्धलोपः आर्द्धधातुकस्यैड्वलाद' रिति (पा. ७-२-३५ ) इदू प्राप्तः एकाजनुपदेशेऽनुदात्तादिति (पा. ७-२-१०) प्रतिषिद्धः, 'सन्यड़ो' रिति (पा. ३-१-९) द्विर्वचनं, शशक अत्र लोपोऽभ्यासस्य, तिप वर्त्तमाना, 'सनि मीमा घुरभलभशकपदपदामच इस्' इति (पा. ७-४-५४) शकारस्य अकारस्य इस आदेशो भवति, अस्य सलोपश्च सकार उच्चारणार्थः, इको 'आदेशप्रत्ययो 'रिति ( पा. ९-३-५९ ) सकारस्य ककारः परगमनं शिक्षे इति स्थिते ' सप्तम्यधिकरणे' इति (पा. २-३-३६) सप्तमी, तस्या एकवचनं डि, डकारलोप 'आद गुण' इति (पा.६-१-८१) गुणो भवति 'एकच पूर्वपरयोः' एकार: शिक्षे, दोत्ति संख्या, सा य इमा सच्चा असच्चामोसा य एतासिं दोन्हं विणयं सिक्खेज्जा, विणयो नाम किमेताण दोन्हवि चत जं भासमाणो धम्मं णातिकमह, एसो विणयो भण्णइ, सिक्खेज्जा नाम सव्वप्यगारेहिं उबलभिऊण दो विसुद्वाओ भासेज्जा, 'दोन भासिज्जा सव्वसो' त्ति वितियततियाओ दोऽवि सव्यावस्थासु सव्वकालं नो भासेज्जा । इयाणि सो विणओ भण्णइजा असच्चा अवत्तब्बा, असच्चामोसा सच्चा य अवत्तब्दा, सच्चामोसा अ जा मुसा । जा अ बुद्धेहिं नाइना, न तं भासिज्ज पव्वं ॥ १७९ ॥ ' जा अ ' इति अणिदिट्ठा 'अन्यत्तव्वा' पुण्यमणिया, ण वत्तच्या सावज्जत्ति वृत्तं भवइ, तं अब सब्वं मोसं सच्चामोसं च, एयाओ तिष्णिवि, चउत्थीवि जा अ बुद्धेहिं णाइनागहणेणं असच्चामोसावि गहिता, उकमकरणे मोसावि गहिता, एवं बंधानुलोमन्थं, इतरहा सच्चाए उवरिमा भाणियव्वा, गंथाणुलोमता विभत्तिभेदो होज्जा वयणभेदो वसु ( थी ) पुमलिंगभेदो व होज्जा अत्थं अमुंचतो, जा य बुद्धेहणाइण्णा ण तं भासेज्ज पण्णवं, तो तासि चउन्हं मासाणं वितियततियाओ नियमा न बचब्बाओ, पढमचउत्थीओ जा य बुद्देहऽणा इष्णाते, तत्थ ' बुद्धा' तित्थकर गणधरादी तेहिं णो आइण्णा अणाइण्णा, अणा
[257]
भाषा
धिकारः
॥२४४ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
भाषा
-
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
चिमा णाम नोवदिवा भासिया वा, युवा हि भगवंतो सच्चं सच्चमायरंति, जहा अरिक केइ गाहा पक्खी वा दिवा', तत्थ भण्णंति श्रीदश
18णस्थि. असच्चामोसाए य जाओ सावज्जाओ आमतणादीणीओ ताओ अणाचियाओ वाणति, उच्चेण वा सहेण परियट्टणं | चूर्णी
रातीए, एवमादि, सावज ण ते बुद्धिमता भासियन्वंति, जाओ अभासणिन्जाओ साओ भणियाओ, जाओ भणियवाओं ताओं
भणति, तंच-असच्चमोसं सच्चं च ' ।।२८० ।। सिलोगो, असच्चमोस सच्चं च, एतासि अण्णतरं भासमाणो. अणवज्ज || ॥२४५। पू च सम्म उपहिया समपेहिया, कि मए बलम्वमिति एवं मणसा संचितिऊणं जाहे णिस्संदिख जायं जहा अणवज्जमेत
कसै च ताहे गिरं भासेज्जा पण्णवति, आह-अणवज्जअककसाण को पतिबिसेसो ?, भण्णइ-वज्ज गरहित भण्मति, ण वज्जत अणवज्ज, अथवा वज्ज कम्मं भण्णइ, जाए भासियाए कम्मस्स आगमो भवइ सा सावज्जा, तम्हा अणवज्ज भासेज्जा, (ककस)। किसं कायं मासिया करेइ, कही, तस्स लोगविरुद्ध धम्मविरुद्धं च भासिऊण पच्छा तु भावेण तप्पमाणस्स किसो कायो भवइति, अओ। कक्कसा भण्णइ, अहवा जो भण्णइ तस्स तं फरुसवयणं अचिंतयंतस्स किसो कायो भवइति ककसा, तमकक्कसं भासिज्जत्ति। इयाणिं असच्चासच्चामोसापडिसेहणत्थं इमं भण्णइ, तं०-'एअंच अट्ठमन्नं वा०॥ २८१ ।। सिलोगो, जो इयाणि अणवज्ज-10 मककसो अत्थो भणिओ तस्स पडिचक्खभूओ सावज्जो कक्कसो य तेण भणिएण भणिओ चव, तमेयं सावज्ज अकक्कसं च अत्थं । अण्णं वा एयप्पगारंति, 'ज' मिति अविससितस्स गहणं तुसद्दो विसेसणे, किं विसेसयति ?, जहाजं थोवमवि धुणणादि तं च
सोयारस्स अप्पियं भवइ, नामइ पाडिज्जइ, जहा नामिओ मल्लो नामिओ रुक्खो, अओ 'सभासं सचमोसंपि' स इति भिक्खुराणोणिद्देसो, स भिक्खूण केवलं जाओ पुव्वभणियाओ सावज्जमा साओ बज्जेज्जा, किन्तु जावि असच्चमोसा भासा तमवि धीरो
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
*.kkk JokeStoc
२४५॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
श्रीदश-1 विविह अणेगप्पगारं वज्जए विवज्जएत्ति । इयाणि मोसरक्खणनिमित्तं इमै भण्णइ-'वितहंपितहा मुत्ति ॥२८॥ सिलोगो, भाषावैकालकवितई नाम जं वत्धुं न तेण सभावेण अस्थि तं वितह भण्णइ, मुत्ती सरीरं भण्णइ, तत्थ पुरिसं इत्थिणेवत्थियं इत्थि वा पुरिसने
धिकार: वत्थियं ददृण जो भासइ-इमा इत्थिया गायति णच्चइ वाएइ गच्छइ, इमो वा पुरिसो गायइ गच्चइ वाएति गच्छइति, अविसहो। २४ सं भावणे, कि संभावयति ?, जहा पुरिसं जो जुवाणं वृहणेवस्थं बुई भाइ, इस्थि वा जोवणत्थं वुडनेवस्थियं बुडित भणइ सोवि:
वितहा मुची भण्णइ, एयं संभावयति, 'तम्हा सो पुट्ठो पावेण ति, तम्हा वितहमुत्तिभासणाओ सो भासओ पुष्यामेव पुढो, पच्छा साणि अक्षराणि उच्चारिवाणित्ति, जद ताव सो पत्नभावमवि भासमाणो पावेण पुट्टो. किं पण जो जीवोवघाइयं मुर्स | | वदेति', मुसावायवाजणाहिगारे इम भण्णइ 'तम्हा गच्छामो० ॥ १८३॥ सिलोगो, जम्हा वेसविरुद्धमचि आलवंतस्स दासा।
भवइ तम्हा साहुणा ण एगतेण एवं भासियव्यं, जहा-'गच्छामो यक्खामो' ति, 'निझमत्तु ( चमत्त ) णो गुरुमु य पहुचयणम-13 Iबिरुवंति, अहवान एगस्स साहणो निकारणे कप्पर गंतु तेण बहुचयणं उपानामति, तत्थ गच्छामो नाम जहा अहं अणं अमुकं10 गाम अवसस्सै गमिस्सामि एवमादि, वक्खामो नाम जहा कल्ले अमुग वयण भणीहामि मग्गीहामो बा, एवमादि, अमुग वा कज्ज एवं भविस्सइ, 'अहं वाणं करिस्सामि' नाम जहा कोइ किंचि तारिसं करेति सो न एवं वत्तव्यो, जहा-अच्छाहि तुम |कल्ले मुहले या करिस्सामिनि, जहा संथारगं पज्झमाणं पासिता कोइ भणेज्जा-किं संथारगं वावि(वझसि) अहमेयं काले महुचे पाठा
२४६॥ बंधीई, एवं लोग ते करिस्सामि, वेयावच्चं ते करिस्सामि, एवमादि,' एसो वा णं करिस्सह' णाम जहा कोयि किंचि तारिस करेह तं करेंतं अण्णो भणिज्जा-मा एयं तुम करेह, एसो अमुगो कल्ले करिस्सतीति, एयाणि ण भाणितव्याणि, किं कारणं,
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
[259]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
|| २७८
३३४||
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३५० ]
भाग-6 "दशवैकालिक" मूलसूत्र ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [७] उद्देशक [-] मूलं [१५...]/ गाथा: [ २७८-३३४/२९४-३५०] निर्युक्तिः [ २७१- २९३ / २६९-२९२] आष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४२ ] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णां
॥२४७॥
जम्हा बहुविधा मुहुत्ता अहोरता य भवति । अतो-' एवमाई उ जा भासा० ॥ २८४॥ सिलोगो, एवमादिगहणेण दादामि पढीहामित्ती एवमादि, एस्सकालमि जा संकिया भासा सा गहिया, एस्से नाम आगमिस्तीति, एस्सकाले संकिया नाम तहा वा होज्जा वितदा वा होज्जा, ण केवलं जं संक्रियं तमेसकाले ण भाणियब्वं, किंतु संपयमवि जो अतीते वा काले संकिओ सोविन निस्संकिओ भाणिएथ्यो, तत्थ संपइकाले जहा गच्छामो वक्खामो अमुर्ग दवं अनुगस्स अस्थि कहं करोमि एवमादि, अतीतेविण निरुतं संभर, तहावि भणति अहं तुम्भेहिं समं अनुगत्थ गओ तदा य मते इमं वयणं भणियं जेण सो परप्पवादी गड्डे, मए तव तहा आदेसो दिष्णो तेण तवस्स फली संपत्ती जहा, एवमेतप्पगारं संकिय भास तीताणा गएसु कालेसुन मासेज्ज, वहा जावि परणिस्सिया साचि संकिया, जहा देवदत्तो इदाणि आगमिस्सर, इमं वा सो करिस्सह, एवं तिसुवि कालेसु परणिस्सिया ण भाणियन्त्रा, कहं पुण बत्ती, जहा सो एवं भणियाइओ, ण पुण गज्जइ-किमागमिस्सा (ण वा आगमिसइ) ? इमं काहिति न काहिति वा ? एवमाइया, एवं पच्चहयाण मिहन्याण य सामण्णेण य भणितं, तत्थ गिहत्थाणं पुण्यभावमाणाणं कहिंचि सावज्जे (न) कहणीयं, भणियं च उवरिं- 'नक्वत्तं सुमिणं जोगं' सिलोगो, कारणजाए पुण जया भणिज्ज तदा इमेणप्पगारेण, जहा जहेत्थ निमित्तं दीसह तहा अज्ज वासेण भवियन्त्र, अमुको वा आगमिस्सर, एवमादि, जदा पुर्ण [ अणा]गंतुकामो तदा ण निस्संकियं भाणियां-जहा अहं कल्ले गमिस्सामि किं कारणं १, तत्थ वाघातो भवेज्जा, तओ तेर्सि गिहत्थाणं एवं चित्तमुप्पज्जह, जदा मुसावादी एसचि, अहवा वायगेण गणीणा वा आपुच्छिओ ताहे वेसि गिहत्थाणं एवं चिंतया भवेज्जा, जहा एत्तिलगमवि एते ण जाणंति जहा वाघाओ भविस्सह न वा भविस्सइति, न कोऽवि एतेसिं गाणविसओ अस्थित्ति, एवमाइ बहवे दोसा भवतिचिकाऊण संसंदिद्ध
[260]
भाषा
धिकारः
॥२४७॥
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
श्रीदश-18 मेव आपुच्छियव्वं, तहा वक्खामो अमुग वा णो भविस्सह अहं वा णं करिस्सामि एसो वा णं करिस्सह, एनेसु. पएसु अण्णेसु यी भाषावैकालिक एवमादिसु, एतेसु विसेसदोसा भाणियब्वा । इयाणि एतस्स अत्थस्स उपसंहारसुत्तं भण्णइ,'तहेव अइमि अतं कालंमि॥२८५०
धिकार: चूर्णी.
(१ अस्या अपेतनाबाश्च स्थाने गाथायुगलमीटसं संभाव्यते-तं तहेव अईवमि, कालंमिडणवधारियं । ज पण संकियं वावि, एवमेवंति ॥
नो वए ॥१॥ तहेवाणागयं अद्धं, जं होइ उवहारियं । निस्संकियं पदुप्पन्ने, एवमेयंति निदिसे ॥२॥ न च वृत्तिबुतपुस्तका॥२४८॥
दिषु दृश्यते इदमेव, तत्र तु 'अईअंमी' त्यादि गाथात्रयं दृश्यते ) सिलोगो, 'तं तहेव' ति जेणप्पगारेण जहा हेडा भाणय गच्छामो बक्खामो तहप्पगारमणागयकालीयं अत्थं णो वएज्जा, 'जं वणं' ति जमिति अणिदिहस्स गहणं, अण्णग्गहणेण | तीयाणागयकालगहणं कय, अणवधारियं णाम ज सव्वहा अपरिणायं तं अणवधारियं भवइ, तत्थ अणागतं जहा जो सवधा | अणवधारिओ अणागओ अत्थो सो विधिणा णिमित्ताईहिं ण अप्पणो इच्छाए बत्तवो, जहा अमुगे काले अमुग भविस्सइनि, तहा। | अतीतमवि अणवधारियं तहावि णो चदेज्जा, जहा परेण प्रडो किं तेण भाणिय ? उदाह भणितंति वओ मे सुतं, तत्व असर|माणो भणइ-ण सरामि, एवं तुम रूवं दिढ, ण दिट्ठति बा, तत्थ असरमाणो भणइ-ण सरामि, एवं गंधरसफासा भाणियबा, पहु
प्पण्णेऽवि जइ कोऽवि भणेज्जा जहा सहो तुमे सुतो न सुओवा?, तत्थ स अणुवलब्भमाणं णो अपणो इच्छाए भासज्जा । 8. किंतु तत्थ एवं भाणियध्वं-जहान विभावयामिति, एवं रूवं पुच्छिओ-किमेयं दीसह, तत्थति अवलम्भमाणा | ॥२८॥ ताण जाणामित्ति बूया, गंधेऽवि कस्सेस गंधोति ?, (तत्थ अणुवलम्भमाणो ण जाणामित्ति, रसेवि कस्सेस रसत्ति,
तत्थवि अणुवलम्भमाणो न जाणामिति, फासे) जहा अंधकारे अप्पणिज्जअमात्थफरिसा आसंसिओ, केणवि पुच्छिओ।
दीप अनुक्रम
[२९४
tocksCAL:
३५०]
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
श्रीदशजहा- कस्स एतं वत्थं ? किं तब उदाहु ममत्ति, तत्थ सम्भावओ अयाणमाणेण क्त्तव्यं, अहा-च याणामित्ति, एवं
भाषाबैकालिकताव अणवधारिए अत्थे भणियं । इदाणि जो निस्तंकिओ अत्थो तत्थ मण्णइ-'संकियं दा पडत्पन्नं ' ति, ज सकियं पडप्पन्ने
HOMधिकारा काले तमवि णी भाणियच्वं जहा ' एवमेअं' ति, पडुप्पण्ण गहणेण अतीतणागएसुवि कालेसु जं संकियं तं न क्त्तव्यंति । इदाणि
एतेसु कालेसु जमेगंतण उवधारिय भवइ, तस्थ का पडिबत्ती ?, भण्णइ-'तहेवाणागयं अद्धं ॥ सिलोगो, तहेवति जहा हेट्ठा ॥२४९||| भणियं एवमणागयकालिये अण्णं वा तीतमट्ठ उवधारियं जाहे भवइ ताहे भासेज्जा-एवं एतंति, पडष्पन्नमवि निस्संकियं जाहे
| भवति ताहे भणेज्जा जहा 'एवमेअं' ति, जे पुण संकियमेव अप्पंतरितमितिकाउंण वत्तव्बंति, आह-अवधारितनिस्संकियाण कोई पइविसेसो, आवरिओ भणइ-अवधारियमुवलद्धं ण सध्वप्पगारेण, निस्संकियं जं सबप्पगारेहिं ज्वलद्धं, थोक्थोवाए निदेसे णाम अतिकंतबङ्घमाणीणमणागयं वा अत्थं हियए ठाविय दिसेज्जा। किंच-तहेव फरुसा भासा.' ॥ २८८ ॥ सिलोगो, जहा दोसपरिहरणनिमित्तं थोवथोवाए निद्दिसियध्वं, तहेब जा फरुसा भासा सा दोसपरिहरणनिमित्तमेव न वत्तव्या, 'फरुसा'णाम हबज्जिया, जीए भासाए भासियाए मुरुओ भूयाणुवघाओ मवइ, सा 'गुरुभूओवघाइणी' जहा दासो। | एसोति, सो तत्थ कुलपुत्तओत्तिकाऊण संजोगं कुल पुत्तेहिं समं करेयाइओ, तेण य साधुणा पुढेणऽपुढेण वा मणिओ होज्जा, ताहे सो तत्थ मारेज्जेज्ज वा, एवमादि सच्चावि भासा ण बत्तया जाए भासाए पावगमो भवति, किमंग पुण मोसंति?, सोय पाव- २४९॥
गमी इहलोइओ वा होज्जा, पारलोइओ बा, तत्थ इहलोइआ ताव अयसादि दोसा भवंति, पारलोइयावि जम्ममरणादी दोसा ४ पा भवति । किं च तहेव काणं काणत्ति ॥ १८९ ।। सिलोगो, मिष्णक्खोऽवि काणो न माणियव्यो, किमंग पुण पुफियरखो।
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
श्रीदश-18| केकरक्खोवा , पंडगो नपुंसगो भण्णइ, सो पंडगो पंडगं चेव न भाणियब्बो, तहा वाघितमवि णो रोगिणं आलावेज्जा, जहा| 31 भाषाचैकालिक
कोढी गंडी वा एवमादि, तहा तेणमवि चोरमिति नो ब्रूयात् , तत्थ काणपंडगा अप्पचियादिदोसा भवेज्जा, एवमादि । तिहे- धिकार चूर्णी |व होले गोलित्ति०' ॥ २९० ॥ सिलोगो, आमंतणं देसीभासाए विच्छूट भवइ, तहा साणेवसुलादीणिवि निठुराणि, बसुलो ॥२५॥
| भूतत्थो भण्णइ, दमगसिया पसिद्धा, एताणि होलादीणि पण्णवगोणो भासेज्जा, इत्थिपुरिसो अविससेण वत्तव्यो । इयाणि इस्थियानंतणनिद्देसो भण्णइत्ति-'अज्जिए पज्जिए वावि०२९२|सिलोगो, अज्जिया माऊ पिऊवा जा माता सा अज्जिया भण्णति, पज्जिता अज्जियाए माया सा पज्जिता भण्णइ, अम्मोत्ति माऊए आमंतणं, माउास्सया जा माओ भगिणिओ, पिउस्सिया पिऊ भगिणी, धूया पसिद्धा, णत्तुगा पोती भण्णइ, एयाणि अज्जियादीणि णो भासेज्जा, किं कारणं?, जम्हा एवं मणंतस्स हो जायइ परोप्पर, लोगो य भणेज्जा.एवं वालोगो चिंतेज्जा.एसज्जवि लोगसण महचादकारी वा,संगो वा परोप्परं होज्जा, नियगा पा जाणेज्जा, एस खोहितुकामोत्ति, रूसेज्ज वा जहा समणाया एवं मणइ, को जाणइ-कोवि एसोत्ति, एवमादि दोसा भवेज्जा । किंतु 'हले हलिति॥२९३॥ सिलोगो, 'हले हलिति अन्नि' चि एयाणिवि देस पप्प आमंतणाणि, तत्थ बरदातडे हलेत्ति आमंतणं, लाइविसए समाणवयमण्णं वा आमंतणं जहा इलित्ति, अण्णत्ति मरहठ्ठविसए आमंतणं, दोमूलक्खरगाण चादुवयणं | अण्णेत्ति, मद्देति लाडाणं पतिभगिणी भण्णइ, सामिणी गोमिणिओ चादुए बयणं, होलेत्ति आमंतणं, जहा-होलवणिओ
M ॥२५॥ जात पुच्छद, सयकऊ परमेसाणो इंदो। अण्णंपि फिर चारसा इंदमहसतं समतिरेक॥ १॥ एवं गोलवसगावि महरं सप्पिवास INT" | आमंतणं, एतेदि हलेहलादीहि इत्थीतो न आलवेज्जा, कि कारणं है, जम्हा तत्थ चटुमादिदोसा भवंति, उक्तंच-"अनिधिसु(त)
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
श्रीदश-ट मतीवर्जुमल्पमात्रमपि प्रियम् । नैतत् प्राशेन वक्तव्यं, बुद्धिस्तेषां विशारदा श" जब पुणो कारणे अवस्सवत्तव्यं तया एवं बत्त
भाषाबैंकालिकानामधिज्जेण णं आ०' ॥२९४॥ सिलोगो, जंतीए नाम तेण नामधिज्जेण सा इत्थी आलवियचा, जाहे नाम न सरेञ्जा। धिकार चूर्णी GिIताहे गोतेण आलवेज्जा. जहा कासवगाने । एवमादि, 'जहारिहं नाम जा चुड्डा सा अहात्ति वा तुज्झति वा भाणियब्बा,।
जा समाणवया सा तुमति या बसवा, पच्छे पुणो पप्प ईसरीति वा, समाणवया ऊणा वा तद्वावि तुम्मेति भाणियब्वा, जेण-IN ॥२५॥
प्पगारेण लोगो आभासइ जहा भट्टा गोमिणिति वा एवमादि, अभिगिज्झ नाम पृथ्वमेव दोसगुणे चिंतेऊण तओ पच्छा आल-11 वेज्जा संलविज्जा वा, इसित्ति लवणं आलवर्ण, संलवर्ण आभासणं भण्णइ, एवमादि इत्थीआर्मतणनिसो भणिया । इदाणा पुरिसामंतणनिदेसो भष्णा, तं-'अबए पञ्जए बावि०॥ २९५ ।। सिलोगो, चुल्लपिता पित्तियओ भण्णइ, किंच-'हे भो
हलित्ति अणि 'त्ति० ॥ २९६ ।। एते सहा देस पप्प आमंतणाणि भवंति, भट्टा सामिया गोमिया एते पुण आमंतणे पपईति। डणिसे या तस्थ आमंतणे जहा भो मट्ठी सामिया, णिदेसे जहा भड्डी चिट्ठति, सामि चिहति, गोमीओ चिट्ठति, होले गोले बसु
लादि देस देस पप्प आर्मतणाणि भवति, एस्थवि ते चेष बहुबयणे लाघवाइ बहवे दोसा भवतीति नो एवमालवेज्जा, जदा पुण किंचि कारण भवेज्जा, ताहे इमेणप्पगारेण बचब्ब, तं-- नामधिज्जेण णं बूआ.'।। २९७ ॥ सिलोगो, निगदसिद्धो,
मणिओ पुरिसामंतणणिदेसो । इदाणि तिरियनिदेसो भण्णइ, ते य तिरिया पंचविधा--एगिदियमादि, तस्थ पंचिदिया पहाणा, ॥२५॥ माइतरंसु पुरिसिस्थिविससो मस्थितिकाऊणं पंचिदियाण निद्देसो भण्णइ, त०' पंचिंदिआण पाणाणं.' ॥ २९८ ।। सिलोगो, | सोयादी पंच दिया जेसि अस्थि ते पंचिंदिया, पाणा णाम पाणत्ति वा भूयत्ति वा एगट्ठा, तेसु पंचिदिएम पाणेसु दूरओ अब
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SAMADRASI
ॐ
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||२७८
३३४||
दीप
अनुक्रम
[२९४
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २७८-३३४/२९४-३५० ], निर्युक्तिः [२७१-२९३ / २६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक
चूण.
।।२५२।।
स्थिरसु जई ताब कारणं णत्थि ततो अव्वावारो चेव साहूणं, ( अह पञयणं ) किंचि भवह, तं पंथं वा ण जाणेह उवदिसह जाहे वा तेर्सि पाणाणं इत्थी पुरिसविसेसे अजाणमाणो वा णो एवं वदेज्जा, जहा एसा इत्थी अयं पुरिसोत्ति, पायसो य लोगो अविसेसियं आलबेइ, अभिहाणेण भाषियन्वं जहा गोजातियाइ चरंति कागजातिया वा हरंति एवं महिसपसुआदिवि भाणियध्वा । आह-जति एवं तो कम्हा एगिंदियविगलिंदिएस सह णपुंसगभावे इत्थिणिदेसो पुरिसनिदेसो य दीसह ?, तत्थ एगिंदिएस पुढविकाए पासाणे पुरिसणिसो, जा सा मटिया इत्थिणिसो, आउकाएवि करओ पुरिसनिदेसो उस्सा इत्थीनि - देसी, अग्गिकाएवि अग्गी पुरिसणिदेसो, जाला इत्थिणिद्देसो, वाउकाएवि बाओ पुरिसनिद्देसो वाउलाए इत्थिणिदेसो, वणरसइकारवि पुरिसणिद्दसो जहा णग्गोहो उनिरो, इत्थिनिद्देसोऽवि जहा सिसवा अबिलिया पाडला एवमाथि बेईदिएस पुरिसणिसो जहा संखो संखाणओ, इत्थिणिदेसो जहा असुगा सिप्पा एवमादि, तेईदिएसु पुरिसणिद्देसो जहा मक्कोडा, इत्थिणिदेसो जहा उवाचिका पिपीलिका एवमादि, चउरिदिए पुरिसणिद्दो जहा भ्रमरो पतंगो इत्थिणिद्दसो जहा मधुकरी मच्छिया एवमादि, आयरिओ आहसइविह नपुंसगभावे जणवयसच्चेण ववहारसच्चेण य एस दोसपरिहारओ भवइत्ति, पंचिदिएस पुण सतिवि एवमादि जणवयसच्चादीहिं तहावि जाईओ चैव वत्तच्या, कई ई, गोवालादीण मचित्तिया भवेज्जा, जहा एते ण सुदिट्ठधम्मा जम्हा इस्थिपुरिसविसेसमजाणाणा एगयरनिंदेस कुब्वंति एवमादि दोसा भवतित्तिकाऊण पंचिदियाण एगतरनिहंसे एस पडिसेहो सच्चपय तेण कीरइत्ति, किंच'तहेब माणुसं पक्खि पसुं० ॥ २९९|| सिलोगो, जहेब हिट्ठा भणिताणि अवयणिज्जाणि वणिज्जाणि य तहा इमाणि न भाषियच्चाणि तत्थ मनुस्सा पक्खिणी पसिद्धा, पसुगहणेण य महिसअयएलगादीणं गहणं कतं, सिरीसघगहणेण जयगरादीनं, एते
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भाषा
धिकारः
॥२५२॥
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश- वैकालिक चूणौँ
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गाथा ||२७८३३४||
॥२५॥
मणुस्साइ परिवूढकाये दण महप्पाणा पासित्ता णो एवं वचर्ष, जहा-चलो अयं मस्सो धूलो महिसो धूलो पक्षी धूलो अप- भाषामस्त करो, तहा पमेइलो मणुस्सो, ‘पमेहलो' नाम अतीव मेदो जस्स सो पमेहलो महिसो, एवं पक्खी अइकरो, वहणिज्जो पुरिसो| धिकार: वहणिज्जो महिसो, किंच'तहेव गाओ दुज्झाओ०॥३०१।। सिलोगो,'तहेव'त्ति जहा हडिल्लाणि अवत्तव्याणि तहेव इमाणिचि, । तत्थ गोगहणेण महिसीउद्दमादीण गहणं कत, दोहणिज्जा दज्झा, जहा गावीणं दोहणबेला बट्टा, दमणीया दम्मा, दमणपयोग्गति बुत्त भवइ, गाओ जे ( रहजोग्गा) रहमिव वा धावति ते गोरहगा भण्णंति, अह्या गोयरगा य पसवसमण्णा भवंति, वाहिमा । नाम जे सगडादीभरसमस्था, ते य साधू दटुं णो एवं भणेज्जा, जहा पत्ता एते सगडादिसु वाहेउंति, रथजोग्गा णाम अहिणवजोवणचण अप्पकाया. ण ताव बहुभारस्स समस्था, किन्तु संपर्य रहजोग्गा एतेत्ति, तेसु इमे दोसा भवति, तत्थ गावीसु जहा । साधुणा भणियंति गाचीओ दुहेज्जा, ततो अधिकरणपवत्तणादि दोसा भवति, दम्मेसुवि साहू जाणंति एवमादि, बाहिमावि 151 सगडादिसु सभरेसु गिजुजिज्जा, रहजोग्गोवि रहेसु बहणिज्जो, पक्खा बहणिज्जो अइगिरो, तहा पाइगो एस मणुस्सो, पागपत्तोनित वृत्तं भवइ, तहा पागपायोगो आयगरो, तत्थ मणुस्सा अप्पत्तिय करेज्जा, अकोसेज्ज वा, लुणणडहणाणि वा करेज्जा, एवमादि,12
महिसादि तिरिया तस्स बयणं सोऊण मंसादीणं अट्ठाए मारेजेज्जा, न केवलमेत धम्मविरुद्धं, किन्तु लोगविरुद्धमवि, कह 18 है। तमेरिर्स भासमाणं सोऊण लोगस्स चिन्तिया पवेज्जा, जहा किमेतस्स पवतियस्स एयारिसाए अहिद्रोहाए बयाए निसिरियाएति ॥२५॥
जहा य पुण कारणं भवेज्जा ताहे इमेणप्पगारेण भणेज्जा, जहा- 'परिवूढात्त णं बुआ' ॥ ३०॥ सिलोगो, पओयणे । उप्पण्णे परिवूढं वा उचितदेहं वा संजातदेहं वा पाणितदेहं वा पीणितदेहं वा लज्जा, तहा कस्सइ साधुणो किंचित् तारिस
दीप अनुक्रम
[२९४
३५०]
[266]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
भाषाधिकार
+
बैकालिक
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
MACARE
श्रीदश- वतव्वं ताहे भण्णइ, जहा- जो एप्स परिवत्सरीरो एवं मग्गाहि पुच्छाहि वा, तिरिक्खजोणियस्स वा एवं मग्गाहि, अहवा एवं
|तिरिक्खजोणियं परिबूढं दुरओ परिवज्जति, मारणादिसु णिउज्जेज्जा तओ परितावणादि दोसा पायेज्जत्तिकाउंण एवं भासिज्जा चूर्णी.
|पण्णवंति, कारणे पुण एवं मासेज्जा तं०-'जुवं गवित्ति णं धूआ० ।। ३०२ ॥ सिलोगो, तत्थ जो दम्मो तं जुवं गवमालवेज्जा, ॥२५॥
४ जुगं गवो नाम जुवाणगाणोति, चउहाणगो वा, गावी तहा रसदा एसा गोणिति भणेज्जा, जो गोरहगो तं हु हस्समालवेज्जा, हस्सो णाम पोतलओ, जो वाहिमोतं महन्वय भणज्जा, जो रहजोगो तं संवहणं मणेज्जा, किंच-तहेव गन्तुमुज्जाणं०॥३०॥
सिलोगो, 'तहेव' त्ति जहा हेडिल्लाणि ण माणियब्वाणि साधुणा तहा एताईपि, मंतु नाम गच्छिऊण, तत्थ पब्बतउज्जाणवणसंडा दापसिद्धा, तंमि पब्बए तमि उज्जाणे तमि चा वणसंडे. गंतूणं जइ रुक्खो महालयों साह पासेज्जा, तं दळूण णो एवं पण्णदे
नो भासेज्जा, जहा अलं पासादस्स एगक्खंभस्स करणाएत्ति, पसीयंति मि जणस्स णयणाणि पासादो भण्णइ, अलं खंभाणं एते रुक्खा, अलं तोरणकट्ठाणं एते रुक्खा, अलं पुरवरफलिहाणामेते रुक्खा . अलं दारयकट्ठाणमेते रुक्खा, अलं णावाकट्टाणमेते रुक्खा, अलं उदगदोणीयमेते रुक्खा, उदगदोणी अरहस्स भवति, जीए उपरि घडीओ पाणियं पाडेंति, अहवा उदगदोणी घरांगणए कट्ठमयी अप्पोदएमु देसेसु कीरइ, तत्थ मणुस्सा हातंति आयमंति वा, तयो दोसा भवंतिति । तहा-'पीढए चंगवेरे अ०॥ ३०५ ॥ सिलोगो, अलं पीढगस्स एते रुक्खा होज्जा, पीढगं- मिसियादि उसणयं भवति, अथवा पहाणं पीढ़, अलं चंगवेरस्स एते रुक्खा होज्जा, 'चंगवरे' चि चंगोरे कट्ठमयभायणं भण्णइ, अहया चंगरी समयी भवति, अलं नंगलस्स एए| रुक्खा होज्जा, जंगलं णाम लंगलंति वा हलंति वा एगट्ठा, अलं एते रुक्खा मइयाय, मझ्या नाम बाहेऊण बीयाणि पच्छा ताए ।
दीप अनुक्रम
२५४॥
[२९४
ACTEGO
३५०]
[267]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
-
सूत्रांक
PREGRAACH
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
चूर्णी
श्रीदश
ऊहाडिज्जति, जंतलट्ठी पसिद्धा, णामी सगडरहाईण भवति, गडिया णाम सुवष्णगारस्स भण्णाइ जत्थ सुवष्णगं कुठेह। किंच-1 भाषा वैकालिका आसणं सयणं जाणं॥३०६।। सिलोगो, आसणं आसंदगादी सप्यायोगं कहूँ एतेसु रुक्खेसु होज्जा, सयण-पल्लंकादि तप्पा- धिकार
ओग्गं कहूँ एतेसु रुक्खेसु होज्जा, जाणं णाम जुग्गादि, तप्पयोग एतेसु रुक्खेसु होज्जा, तहा उपस्सयपायांग्गं वा किंचि कट्ठा
एतेसु रुक्खेसु होज्जा. तत्थ उपस्सयो पडिस्सयो, अहवा उवस्सए फलिहाद कीरह, सम्बर्ग या आसणं उबस्सयो भष्णइ, एवमादि। ॥२५५॥
'भूओवघाइणि भासं' भूयाणि उवहम्मति जाए भासाए भासियाए सा भूतोवघाइणी भण्णइ, तं भूओवघाइणी भासंण मासेज्जा पण्णवंति, तत्तग्णिवासिणी वा देवया रूसेज्जा, जो वा तस्स वणस्से साभी सो पा रूसेज्जा, साहु वा (णा) एस रुक्खो पसंसिओ नियमा लक्खणविउत्तिकाऊण सो चेव साहू घेषेज्जा, एवमादि, रुक्खे जया आलवेज्जा ताहे इमेहि उवाहिं. त-'तहेव गंतुमुजाण ॥३०७॥ सिलोगो, तहेव' ति जहा हेडिल्लगाण पंडगाईणं सुसावायो भणिओ सेस कंष्ट्यं, सो य । । उवायो इमो- 'जाइमंता इमे रुकवा०॥ ३०८ ॥ सिलोगो, जाइमंता नाम जाए जातीए उत्तमाए जाइमता भण्णंति, बहवे जय रुक्खप्पगारा अस्थिति, इमेचि नाम जे पच्चक्क्षण दीसति, दीहा जहा नालिएरतालमादी, बट्टा जहा असोगमाई, महालया नाम बडमादि, अहवा महसदो बाहुल्ले बट्टइ, बहणं पक्खिसिंघाण आलया महालया, 'पयायसाला' अतीब जाताणि सालाणि जेसि ते पयायसाला, अणेगप्पगाराणि 'बिडिमा' बिडिमाणि जेसि ते बिडिमा. सत्थ जे बंधी ते साला भष्णंति.R२५५॥ सालाहिंतो जे णिग्गया ते विडिमा भण्णति, दारिसणिज्जा वा एते रुक्खत्ति भणेज्जा, ते य निक्कारणे न कप्पति भासिऊण, जाहे पुण कारण फिींचे भवद जहा साहवो पत्ता, कारणेण इमं भज्जा , जहा अम्हे एतेसि जाइमंताणं हेडा विस्समामो, एतेसिंटू
C kX
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
[268]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||२७८
३३४||
दीप
अनुक्रम
[२९४
३५०]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २७८-३३४/२९४-३५० ], निर्युक्तिः [२७१-२९३ / २६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशकालिक
चूणी
।।२५६।।
वा अदरेण पंथा गच्छइ । किंच 'तहा फलाणि पकाणि ॥ ३०९ ॥ सिलोगो, 'तहेब' त्ति जहा हेडा भणिय, फलाणिअंबादीणि पक्काणि दट्टणं णो एवं भासेज्जा-पक्काणि इमाणि फलाणित्ति, तह घाई (पाइ) खज्जाणिचि णो वएज्जा, पाइखज्जाणि गाम जहा एताणि फलाणि बद्धडियाणि संपयं कारसपलादिसु पाइऊण खाइयव्याणित्ति, 'बेलोइयाणि' नाम बेला कालो, तं जा णिति वेला तेर्सि उच्चिणिऊगति, अतिपक्काणि एयाणि पडंति जइ न उच्चिणिज्जंति, टालाणि नाम अबद्धट्ठिगाणि भन्नंति, 'वेहिमं' नाम वेधा कीरंति तं बेहिम, अद्धट्टिगाणं अंबाणं पेसियाओ कीरंति, तत्थ इमो अवायो-वष्णिस्सिया देवया कुप्पेज्जा, पक्काणि वा फलाणिचिकाऊन कोए ( रा ) को तेहि पओयण कुज्जा, एवमादि, इमेण पुणे उपाएण भणेज्जा, तं०- 'असंधडा इमे * अंबा० ॥३१० ॥ सिलोगो, साहूणं अहावरे रुक्खेहिं कज्जे पुण पत्ते जहा तेण पंथोत्तिकाऊण ताहे अनस्स साहुस्स इमेण पगारेण उवदिसेज्जा, तं० असंथडत्ति वा बहुणिव्यडिमाफलति वा बहुसंभूतति भूतरूपति वा तत्थ असंथडा अतीवकारणे (मारेण) ण संथरंति, फलाणि धारेउ न तरतित्ति युतं भवद्द, 'इमे' सि जे इमे लोगपच्चक्खा, अंबगहणं पहाणा लोगसंमता य (1त्ति) काऊण अतो तेसिं गहणं कयंति, बहूणि निव्वडियफलाणि, 'बहुसंभूया' णाम बहुणिष्फनफलागि, 'भूतरूवा' णाम फलगुणोववेया, पुणसदो विसेसणे, किं विसेसयतिः, जहा एतेसिमण्णतरेण परियायसंदेष कारणे भासेज्जा एवं विसेसयति । किंच 'तहेवोसहिओ पक्काओ ० ' ।। ३११ ।। सिलोगो, 'तहा' णाम जहा हेट्ठा भणियं तत्थ सालिबीहिमादियातो ताओ पक्काओ नीलियाओ वा णो भणेज्जा, छविग्गहषेण निप्पवालिसदगादीणं सिंगातो छविमताओ णो भणेज्जा, लुणणपायोग्गाओ लाइमा, भुज्जणपायोग्गाओ भुज्जिमा, पिहुखज्जाओ नाम जवगोधूमादीनं विगा कीरंति ताधे खज्जंति, एताए अविधीए भणमाणस्स इमे
[269]
भाषा • धिकार
॥२५६॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||२७८३३४||
पूणौँ
म
दोसा भति, तं०- पक्कतिकाऊण भणेज्जा समयो, साहुणा भणियाओत्तिकाऊण थालीपागं करेज्जा, एवमादि दोसा भवंति, भाषाश्रीदश1४इमेण पगारेण ओसहिओ आलवेज्जा, तंजहा- 'विरूढा बहुसंभूया' ।। ३१२ ॥ सिलोगो, 'विरूढा' णाम जाता, बहुसंभृया | धिकार:
णाम निष्पना, थिरा णाम निब्भयीभूया, उवगया यत्ति उस्सिया भण्णंति, गम्भिया णाम जासिं ण ताव सीसयं निष्फिडइत्ति,
निष्फोडिएसु पसूताओ भण्णंति, संस रातो नाम सह सारेण संसारातो, सतंदुलाओत्ति वुत्तं भवइ, एवमादीहिं नामेहिं बत्तव्या- ॥२५७॥ ओत्ति । किंच 'तहेव संबडि नच्चा' सिलोगो, रहासद्दो पुब्बभणिओ, एनसहो पायपूरणे, छण्हं जीवनिकायाणं आउयाणि
संखंडिजति जीए सा संखडी भण्णइ, तं संखडिं किर णाऊण साहुणा किं करणिज्ज, ण एवं बचच- जहा किच्चमेय जे पितीण देवयाण य अड्डाए दिज्जा, करणिज्जमेयं जं पियकारियं देवकारियं वा किज्जइ, एवमादि, पणियढे तेण उ भण्णइ, ते०-11 पणिय8 वझं णीणिज्जमाण दट्टणं णो एवं वएज्जा, जहा एसो बज्झोत्ति, किं कारण ?, तस्स एवं भणियस्स अप्पत्तियं | होज्जा, निस्सासी भवेज्जा वा जाव एतेसिं चोरग्गाहाणं एवं चिन्तायां भवेज्जा जहा एस साधुणा बज्झो भणिओ, अवस्सं पत्ता-16 | बराहोत्तिकाऊण मारिज्जा । 'सुतिस्थित्ति अ आवगा' आवमाओ नदीओ भण्णंति, तत्थ गिरिनई वा सुकगडा वा जइ पारिपहिया पुच्छेज्जा जहा कि सुतित्था एसा नदी विसमतित्था बत्ति, तत्थ न बत्तव्ययं जहा एता ण सुतित्था विसमा
[तिस्था, कम्हा , तत्थ अधिगरणमादयो बहवे दोसा भवंति, कज्जे पुण संपचे संखडियमाईण इमेण कारणेण भणेज्जा, तं०-18॥२५७॥ 18 'सखर्डि संखडि बूआ ॥ ३१४ ।। सिलोगो, आ संखडी सा कारणे संखडी चेव वत्तम्बा, जहा सा बहुआचाया संखडी, हमा तत्थ साधयो गच्छंतु एवमादि, वहा चोरोवि वझो गीनिज्जमाणो पणियड्को मणियबो, जहा सो वा तेणो अण्णो वा कोइ
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
-
सवन
[270]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीद- वैकालिक चूण्या
-% रमा -9
भाषाधिकार
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
॥२५८॥
09
E
भगिए एवं ण विभासद, किमेस भणइत्ति, सो पुण सेहस्स वा तं दाएज्जा, जहा एस पावकारिणो विपाकोत्त, अहवा एतेण । पहेण पणियट्ठो णिज्जा, जणाउले एस पहो ण एतेण गंतवं एवमादि, जत्थ आवगाणं तित्वाणि पुच्छिज्जति तत्थ भाणितम्ब- जहा बहुसमाणिति, काणि समाणि तित्थाणि काणि विसमाणित्ति माणियच्याणि तहा स दूओं परिवज्जति, मा एयासु गदिसु | णिउज्जेज्जा, तओ परितावणादि दोसा हवेज्जत्तिकाऊण न एवं भासिज्जा पण्णवंति, कारणे पुण एवं भासेज्जा, 'तहा नईओ पुण्णाओ' सिलोगो,(३१५)तहासदो पुब्बभणिओ, नदीओ पसिद्धाओ, पूरागयाओ पुनाओ, कारण तरिजंतित्ति कायनिज्जाभो, अप्णे पुण एवं पढ़ति, जहा-कायपेज्जंति नो वदे, काआ तडत्था पियंतीति कायपेज्जातो, नावाहि तारिमत्ति नावातारिमा, तडस्थिरहिं पाणीदि पिज्जतीति पाणिपिज्जाओ, तत्थ इमे दोसा, तं०- नदीओ पुनाओति सोऊण कारणेहिं पधाइया गिहित्था णियचेज्जा तओ कट्ठादीणं वा उदीरणं कुज्जा कारण, एया तारिमाओति सोऊण णियचिउकामावि न नियत्तेज्जा, तंजहा'बहुवाहडा अगाहा॥३१६ ॥ सिलोगो, 'यहवाहडा' णाम पाय सोमणियातो भष्णति, बहु अगाहाओ वा भणेज्जा, बहुसलिलाओ भणेज्जा, बहुउप्पिलोदगा वा भणेज्जा, 'बहुउप्पिलोदगा' नाम जासिं परनदीहिं उप्पीलियाणि उदगाणि, अहवा बहुउप्पिलोदओ जासिं अइभरियतणेण अण्णओ पाणियं बच्चइ, बहु वित्थरिय जासु नदीसु उदगं ताओ बहुवित्थडो| दगाभो भमंति, ए' पर्व भासेज्जा, जइ पुण भणइ-न याणामि ताहे उडाई करेंति, पउसेज्ज वा जहा असावादी एसोत्ति, इदाणि चेव उचिण्यो तहवि भणइ न जाणामिचि एवमाइ बहये दोसा भयंतीति, तम्हा बहुबाहडा भणेज्जा, तमवि तुरियमवकमंवो भणेज्जा, जहा ण विभावेइ किमनि एस भण तित्ति। किंच- 'तहेब सावज्जं जोग' ॥ ३१७ ।। सिलोगो, तहसदो
AE%
%
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
*
२५८॥
4
[271]
Page #272
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||२७८
३३४||
दीप
अनुक्रम
[२९४
३५०]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५० ], निर्युक्तिः [२७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूण
॥२५९॥
पुव्वभणिओ, एक्सद्दी पादपूरणे, सह वज्जेणं सावज्जो, जोगं- आरंभो भण्णइ, जहा मम अमुगो कम्मजोगो कायव्योति, तं सावज्जे जोगं परस्स अट्टाए पिट्ठियं सावज्जाए मासाए णालवेज्जा, किमंग पुणो अडाए अप्पणीति, गिट्टियं णाम परिसमन्तं, ण केवलं परिसमत्तमेव सावज्जाए भासाए नालवेज्जा, किन्तु कीरमाणमवि न सावज्जाए, सुड्ड लड़ी कोबो चिकदोरिया एवमादि, एत्थ अणुमोदणादि दोसा भवंति एयप्यगारं सावज्जं वज्जेयवं । इति अणवज्जे पुण आलवेज्जा, तत्थ सुकड जहा सुछु साहुको लोखो कडो, सु कं जहा सुविपर्क बंभचारिणो वंभरफलति एवमादि, सुणिं जहाहि पासा इमेण साहुणा एवमादि, सुहडे जहा सुहरितो सण्णायगादी हि उवसिक्खिज्जमाणो सेहोचि एवमादि, सुमए जहा सुमवं तस्स अमुकणाम साधुस्स पंडितमरणेति एवमादि, सुनिट्ठितं णाम जहा सुणितिं एतस्स साहुस्स कम्ममङ्कविर्धति एवमादि, मुल नाम मुडं कहं कथयतिचि एवमादि, किंच, एवं तवं 'पयत्तपत्ति व पक्क मालवे० ॥ ३१९ ॥ वृतं गिलाणणिमित्तमेवमालवेज्जा, जहा जंतुब्भं पयत पक्कं ते तं दलयह एवमादि, तत्थ डिनमचि कारणेण एवं भणेज्जा, सोय अत्थो मणिओ ण य अणुमइदोसो अप्पसियदोसो वा भवति, पयतयं जहा पयचलट्ठी य संभारघया दीयंति, अहथा एवमेवं अस्थं 'कम्महेतुअ'ति भणेज्जा, कम्महेउयं नाम सिक्खापुव्यगीत वृत्तं भवति, 'पहारगाढत्ति य गाढमालये' सि जो गाढपहारीकओ सो गाढप्पहारिति भाणियन्त्रो, इतरहा अप्पत्तियमादि दोसा भवंति । किंच- 'सव्युकसं परग्धं वा० ।। ३२० ॥ सिलोगो, तत्थ पणिधीर अण्णत्थ वा विकिज्जमाणे जति कोइ साहु आपुच्छेज्जा, जहा- एतेसिं कतरं सुंदरंति, तत्थ न वचन्वं दमं सुंदरंति, 'परग्धं' नाम जहा एतस्स को अग्घोति पुच्छिए ण चतव्यं, जहा एयस्स एवं मोठं
[272]
भाषा
धिकारः
॥२५९॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||२७८
३३४||
दीप अनुक्रम
[२९४
३५०]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ २७८-३३४/२९४-३५० ], निर्युक्तिः [२७१-२९३ / २६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक
चूप
॥२६०॥
*
पत्तो, जहा एयस्स पर कवडियपि ण लग्भइ, एय (सो) परमो अग्यात 'अतुलं नत्थि एरिसं' ति ण एतेहिंतो अनं दिसिद्धतरंति एवं गिण्हाहि अहवा विक्किणमाणं ण भणेज्जा-ण अष्णत्थ विक्किणमाणो तुमं मोछे लम्भसि अविविकयं नाम असवर्क, जहा कइएण चिक्कायएण वा पुच्छिओ इमस्स मोछे करेहित्ति, ताहे मणियन्त्र को एतस्स मोल करेडं समरथोचि, एवं अविक्किय मण्णड़, अवतव्यं नाम जहा को एतस्स गुणे समत्थो वोतुं १ एवंविहमवत्तव्यं भण्णइ, अचिअत्तं णाम ण एतस्स गुणा अम्हारिसहिं पागएहिं चिंतिज्जति, एताणि सब्बुकसादीणि अधिगरण मंतरराइया दीदीसवज्जणट्ठा णो वएज्जा, किंच- 'सव्वमेअं बड़ स्वामि०' || ३२१ || सिलोगो, जहा कोइ कत्थइ गच्छमाणो केणइ भणेज्जा, जहा-मम वयणेण देवदत्तं इमं भणेज्जासित्ति, तत्थ न वतव्वं, जहा सव्वमेयं वइस्सामिति किं कारणं ?, जेण सो सव्वं सरवंजणमधुरकडयादीहिं गुणेहिं उचवेयं तद्देव अविसेसियं सव्वं भणितं ण समत्थोति, तहा सव्यमेति णो वएज्जा, जहा सव्वमेतं मम वयणेण अमुकं नामधेयं मणिज्जासिति एवमादि मासं णो बदेज्जा, अणुत्रीयि सव्वं नाम जहा कोइ पुच्छेज्जा, ते सन्ने साधवो गता, तहा अणुवी चिंतिय माणियम्बं, जहा सच्चे गता अगता वा, सव्वे नाम सब्वैसु कारणेसु सव्वं कालं अणुचिंतेऊण बुद्धिमंतेण भासिय, 'सुकीअं या सुविक्कीअं०' ।। ३२२ ।। सिलोगो, ह जति कोषि कइओ भणेज्जा, जहा इमं मए एत्तिएण मोहेण गहियं किं सुगहियं दुग्गाहियंति ?, तत्थ न एवं वतव्यं, जहा जति एएण मोहेण लद्धं तो सुक्कीयंति, जहा अक्केज्जंति कीयं न एवं किंचिवि अग्र, अहो मुद्धोऽसि एवंपि णो वएज्जा, जहा किज्जमेयति एवमवि णो भासेज्जा, जहा अहो सारं मेड लद्धं ते, काया सुहोसि अज्ज सहतोति, किंच इमं गिण्ड इमं मुंच इमं अप्पीहात्ति एवं सुबाहित्ति पणियमेवं नो बदेज्जा, पुच्छेज्जा वाहे इमो उवाओ
[273]
भाषा
धिकारः
॥२६० ॥
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
घिकारः
161
[१५...]
गाथा ||२७८३३४||
श्रीदश- 'अप्पग्धे वा महन्धे वा ॥ ३२३ ॥ सिलोगो, अप्पग्धं बहुअग्ध भण्णइ बहुअग्धं अप्पग्छ भण्णइ, तं तु किणमाणो वा भाषाबैकालिका एवं मन्नेज्जा, तओ एयारिसे पणियढे समुप्पणे जमणवज्जतं साहुणा वियाकरेयवं, अहवा सध्यमेयं पण्णं णो वियाकरेयष्वं, चूणौं | अहवा सबमेयं पण्णं अप्पग्धं किज्जमाण विकिज्जमाणं पणियडे समुप्पण्णे अणवज्ज भवति, तंजहा- नाहं भंडमोल्लविसंसा
* जाणामि, न वा इह देमि, कयविक्कयविरयाणं कि अम्हाण एरिसेण वा परेणति ?, किंच- 'तहेवासंजय धीरो' ॥ ३२४ ॥ ॥२६॥
सिलोगो, तहासदो पुब्वभणिओ, एक्सहो पायपूरणे, ण संजतो असंजतो, धीरो पसिद्धो, तेण धीरादिगुणजुत्तेण साहुणा सो असंजओ न एवं वत्तब्बो, जहा एत्थ आस नाम उबेहाहि, तहा इत्थं एहि, इमं वा करेहि, एत्थ वा सुवयाहि, चिट्ठाहि वाइ (किंचिकालं पच्छा गमिस्ससि, किंची अच्छाहि इस बयाहित्ति णो एवं भासेज्जा पण्णवं, किं कारणं?, अस्संजतो सवतो का दोसमावहति चिट्ठतो तचायगोलो, जहा तचायगोलो जओ छिवह ततो ढहइ तहा असंजओवि सुयमाणोऽवि णो जीवाणं|3 अणुवरोधकारओ भवति, किं पुण जागरमाणोति । किंच- 'बहवे इमे असाह० ॥ ३२५ ॥ सिलोगो, तत्थ साधू तावद
चउविधा भवइ, तंजहा- णामसाहू ठवणसाहू दवसाहू भावसाहू य, नामठवणाओ गयाओ, दव्वसाहू घडपडाइणि साधयंती ४दवसाहू भण्णइ, तहा बोडियणिण्हवगादि दब्बसाधू, जे णिवाणसाहए जोगे साधयंति ते भावसाधवो भणति, तत्थ यह
नाम बहवेत्ति वा अणेगेत्ति वा एगहा, इमे णाम जे इमे इदाणि पच्चक्खा आजीवगादि असाधयो भवंति, तमेवंविध साहुं ॥२६॥ 181 साई गालवेज्जा, सो य भावसाधू इमेण सुत्तेणेव भण्णइ, तंजहा- 'नाणदंसणसंपन्न' सिलोगो, नाणदसणसंपनं संजमभावेसु ट्रिजो रतो सो सुसाधू भण्णइ 'एवं गुणसमाउत्तं' ति जो एतेहिं जाणादीहि गुणेहिं समाउत्तो भवति, समाउत्तो नाम सोभणेण
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
भापा धिकारः
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गाथा ||२७८३३४||
श्रीदश- पगारेण जुत्तो, तमेरिस संजयं साधुमालवेज्जा, किंच-'देवाणं मणुआणं च ॥ ३२७ ।। सिलोगो, तत्थ देवाणं देवासुरसंगामो वैकालिकात मणुयाणं जहा रायादीणं, तिरियाणं जहा गोमहिसकुक्कढलावगादीणं, एतेसि बुग्गहे समुप्पण्णे, तत्थ बुग्गहो णाम बुग्गहोत्ति
वा विवादोत्ति वा कलहोत्ति वा एगट्ठा, एमि बुग्गहे वट्टमाणे ण वट्टर एवं बोत्तुं-देवा जयतु मा वा, एवं मणुस्सेसुवि अमुयो
राया जयतु मा वा एवमादि, तहा तिरिएसु एसो महिसो जयतु मा या एवमादि, तत्थ अमुयाणं जतो होउत्ति भगिए अणुमइए ॥२६२।।
हैदोसो भवति, तप्पक्खिओ वा पओसमावज्जेज्जा, अओ एरिसं भासं णो वएज्जा, किंच- 'वाओ बुटुं च सीउण्हं.' ॥३२८॥
सिलोगो, तत्थ पमचो भणेज्जा, जहा-जइ बाओ वाएज्जा तो सुंदरं दोउत्ति णो वदेज्जा, किं कारणं , जम्हा अणिढवाजो णाम सोवघाओ होज्जा, रुक्खादिभंगो या होज्जा, एवमाई दोसा भवंति, चुढेणवि पिपीलिगादि विणासेज्जा, उण्हजोणिओ वा वणप्फर कहेज्जा एवमादि, सीएण तिरियावि मणुयावि पायसो परिताविजंति, अगणिं वा उज्जालेज्जा एवमाई, उण्हेगवि | ४ा तिरियमणुयाण परितावणादि दोसा भवंति, खेमेऽवि चौरसेवगादीणं अंतराइयदोसा भवंति, एते य निब्भया तेसु कम्मेसु +पवचमाणा एगिदियाईणं भयङ्करा भवंति, धातेवि संनिचयकारिणो वाणियगा पीलिज्जति, ण य एताणि तस्स क्यणेण मवंति,
मोत्तणं अतिसयपयचे, इतरस्स केवलं मणंतस्सपि दोसा भवंति। किंच. 'तहेव मेहं व नहं व माण' ॥ ३२९ । सिलोगो, तहासदो पुवमणिओ, एक्सद्दो पायपूरणे, मेहं णभं माणवं एतेसिं तिण्हवि अम्णतरं नो अदेव देवत्ते आलवेज्जा, तत्थ मेहं समुप्पन दळूण ण एवं वदेज्जा-समुण्णतो देवो परिवसइ वा देवाइ, एवमादी, णभं आगासं, तमविण एवमालवेज्जा, तहावि | रायादीवि माणवो ण देवो वत्तव्यो, किं कारणं ?, तत्थ मिच्छचथिरीकरादि दोसा भवंति, तत्थ मेहमेवं आलवेज्जा, समुच्छिओ |
BOILS 24
॥२६॥
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
+
C
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा ||२७८३३४|| R दीप अनुक्रम [२९४३५०]
मेहो निययं पयोदो, पयोदो णाम पर्य-पाणीयं भण्णति तं पओ ददातीति पयोदो, अहया बुढे बलाहएति वएज्जा, पवरसिओ II श्रीदशमानिया बलाहगोति वएज्जा, आह-कई पुण नभं वत्सब, भण्णइ-'अंतलिक्वत्तिणं आ.' ॥३३०॥ सिलोगो, तत्थ नभDIAN चूणौँ
अंतलिक्खंति वा बदेज्जा, गुज्झाणुचरितति वा तं, अंतियं अंतलिक्खं अभियं 'गुज्मणुचरियं' ति, मेहोवि अंतरिक्खो भण्णइ
गुज्झमाणुचरिओ भण्णइ, महामाणवरायादि दळूण रिद्धिमंतमालवेज्जा, भणियाणि अवयणिज्जाणि वयणिज्जाणि य । सव्वसंखेचो ॥२६ ॥ इमो, तंजहा-'तहेव सावज्जणुमोअणीगिरा०' ।। ३३१ ॥ वृत्तं, 'तहेव' चिजहा हेडिल्लाणि अवयणिज्जाणि परिहरियव्वाणि
तहा काइ सावज्जणुमोअणी भासा ण भाणियव्वा, इह सा सबपयत्तण बज्जयथ्या, जहा सुट्ट हडो गमो, सुख सेणा णिघातिया एवमादि, ओहारिणी णाम सकिया, भणिय-से नूणं भंते ! मन्त्रामीति ओहारिणी भासा', आलावगो, परोवधातिणी नाम जीवोवपातसहिता, जीवए वा परो हालिज्जा सा परोवघाइणी ॥ किंच- 'से कोह लोह भय हास माणयो, म हासमाणों' तत्थ सेत्ति साहुस्स णिसो, तत्थ कोहो आदी लोभो अंत, आईअंतग्गहणेण मज्झे वट्टमाणा माणमाया गहिया, भयहासगहणेणं पेज्जादिदोसा गहिता, माणवा इति मणुस्सजातीए एस साहुधम्मोत्तिकाऊण मणुस्सामंतणं कयं, जहा हे माणवा ! अवि हसंतोऽवि मा अभास भासेज्जा, किं पुण कोहादीहिंति, इयाणि वक्कसुद्धीय फलं भण्णइ,तंजहा-'सबकसुद्धिं समुपहिआ मुणी० ॥ ३३२ ।। सिलोगो, 'सबकसुद्धिं' ति स इति साधुणो णिद्देसो, जहा कोह सभिवाब, एवं विविध वकसुद्धी, सम ॥२६३॥ उबेहिया समुपेहिया, अहवा सकारो सोहणअत्थे वट्टइ, सोहणं बक्कसुद्धिसमं उबेहिया, अहवा सगारो अत्तणो णिदेसे वहइ, जहा अत्तणो वक्कसुद्धि समं उबेहिया समुपहिया, 'मुणी' नाम मुणित्ति वा णाणिास वा एगट्ठा, जा य गिरा दुट्ठा हेवा भणिया,
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा ||२७८३३४||
श्रीदश-|| दुहा नाम विरुद्धा, तहेब वक्कसुद्धिं जाणमाणेण दुर्ल्ड गिरं वज्जयंतेण सता मितं अदुई अणुवीइ भासियव्वति, मित दुविधति-12 भाषाकालिका सहओ परिमाणओ य, तस्थ सहओ अणुच्च उच्चारिज्जमाणं मित भवद, परिमाणओ कारियं मानमितं भवइ, अवुई नाम
धिकार देसकालोववनादी, अणुवीइ णाम पुब्धि बुद्धीए अणुचिंतिय भासियवंति, स एवं भासमाणो 'सयाण मज्झे लहई पसंसण॥२६॥
| मिति तत्थ सया णाम जे गुणदोसविहण्णू तेसिं सयाण मज्झे पसंसणं लब्भइचि, जहा अहो मुसिलिट्ठसुअधीयवयणोति, एवमाइ, जम्हा य पसंसणमादी गुणा लम्भति अतो 'भासाइ दोसे य गुणे य० ॥३३३।। जम्हा भासदोसगुणण्णे साधू, तीसे भासाए जा दुट्ठा मासा तां विवज्जेज्जा, सा पुढविमादिएसु छसुकाएसु, संजए, समाणभावे अवस्थिए सामणिए, सदा सव्यकालं जए, स एवंगुणसमाउने, वदेज्जा 'बुद्धे हिअमाणुलोमिअंतस्थ हितं नाम अपीडाकर, अणुलोमियं नामाकडगं फरिसादि-टू दोसवज्जिय, अहवा अणुलोमियं नाम तं भासं भासेज्जा जं भासमाणो अभासओ लब्भइ, एस ताव इह लोए पसंसणादी गुणो भणिओ । इपाणि इहलोइओ पारलोइओ य भण्णइ- 'परिक्खभासी०॥३३४ ॥ वृत्तं, 'परिज्जभासी' नाम परिज्ज| भासिनि वा परिक्खभासित्ति वा एगट्ठा, सुट्ट सम्म सोतादीणि इंदियाणि अहियाणि जस्स सो सुसमाहिईदिओ, चउरो कोहादिकसाया अवगता जस्स उवसंता वा सो चउक्कसायावगए, 'अणिस्सिओं नाम न निस्सिए अणिस्सिए, सन्चपटिबंधविप्पमुक्केति वृत्तं भवति, स एवंविहो साहू 'निहणिऊण धुन्नमलं पुरेकडं' ति, तत्थ धुणंति वा पार्वति वा एगट्ठा, धुण्ण-1 मेव मलो, पुचि कयं पुरेकर्य, धुणिऊण इमं लोग आराहइ, न केवलं इमं लोग आराहयति, परलोगाराहणाओ मोक्खो, तमवि |
NTP२६४॥ आराहयति, सायसेसकम्माणो पुण देवलोगसुकुलपच्चायाति लक्ष्ण पच्छा सिझंति । ति बेमि नाम तीर्थकरोपदेशाद् ब्रवीमि,
SECRECIRCC5%
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [७], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [२७८-३३४/२९४-३५०], नियुक्ति : २७१-२९३/२६९-२९२], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा ||२७८३३४||
८ आचार
प्रणिधी
न स्वाभिप्रायेणेति । इदाणिं नया-'णायंमि गिणियब्वे गाहा, 'सव्वेसिपि नयाणं बहुविहवत्तब्वयं निसामिचा०'गाहा, पूर्ववद् ॥ इन्द्रियादिश्रीदशवैकालिक ॥ वाक्यशुद्धयध्ययनचूर्णिः समत्ता॥
प्रणिधि: चौँ
एवं सो भासासमिओ धर्म कहेइ, तो तस्स सोऊण जइ कोई पब्बएज्जा ताहे तस्स इमं आयारपणिधिं उबइसेज्जा, अहवा तेण धर्म कहयंतेण अपसत्थपणिधाणं वज्जयतेण पसत्येण आयारपणिधाणेण कहेयब्वंति, एतेणभिसंबंधेणागतस्स अज्झयणस्स
बचचारि अणुयोगदाराणि बत्तच्याणि, जहा आवस्सए, णवरं इह णामनिप्फनो भण्णइ, सोय णामाणफण्णो दुविधा, तं०-आयारो ॥२६५॥ पणिही य, तत्थ पढमं आयारो भण्णइ-'सो पुचि उदिलो.' ॥ २९५ ।। गायापुब्बद्धं, जहा जो खुड्डियायारए भणिओ
एत्थ सो चेव अहीणाइरित्तो भवतित्ति । इयाणि पणिधी भण्णइ, सोय चउविहो, तंजहा--णामपणिही ठवण दव०भावपणिहीति, | गामठवणाओ गताओ, दबपणिही य इमेण गाथापच्छद्रण भण्णइ-'दुविधो य होइ पणिधी' सो इमो, तं०--'दब्वे | निहाणमाई.' ।। २९६ ॥ गाथा, पुब्बद्धं, दवपणिधी जहा णिहाणगं, पणिहि णाम निस्खिपियंति वा पणिहाणति वा एगट्ठा,
आदिगहणेण अन्नाणिवि गहियाणि मायापक्खित्ताणि दवाणि, दव्यपणिधी जहा पुरिसो आयापच्छादणनिमित्तं इत्थिवेस 12 काऊण णासेज्ज चा पविसेज्ज वा, जहा मायाकारो चक्खुमोहणं काऊग सन्धमेकतरं व पक्खिबइ एवमाइ दबपणिधी, भावे ॥२६५।। इंदिअनोइंदिअ पच्छद्धं, भावणिधी दुविधो, तंजहा-इंदियपणिधी नोइंदियपणिधी य, इंदियपणिधी दुविधो-पसत्थो अप्प-13 सत्थो य, वत्थ पसत्थो इंदियपणिधी इमो-'सद्देसु अरूवेसु अ० ॥ २९७ ।। गाथा, सोयचक्खुघाणजीहाफासाणं पंचह
दीप अनुक्रम [२९४३५०]
ASKAARE
सार
अध्ययनं -७- परिसमाप्तं
अध्ययनं -८- 'आचार प्रणिधि' आरभ्यते
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
चूणी I
८आचार
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गाथा ||३३५३९८||
श्रीदश- इंदियाग सदरूवरसगंधफासा पंच विसया, तेसु सदादिसु विसएसु मणुभामणुग्नेसु जो रागहोसविणिग्गहो सो पसत्यो इंदिय-13 इन्द्रियादिकालिक पणिधी, आह-को दोसो अपसत्थईदियपणिधिस्स !, आयरिओ भणइ-सोहंविअरस्सोहि ॥ २९८ ॥ गाथा, समिप्रणिधिः
| अतीव मुच्छिओ गिद्धो जीवो सोइंदियरस्सीहि सदगुणसमुट्टिए दोसे आययहाति, तस्थ, सहो चेव गुणो सद्दगुणो, गुणो नाम आचारगुणाति वा पजतोत्ति वा एगट्ठा, सहो जीवस्स इंदियगुणो तेण सद्दगुपेण मारणादि बहवे दोसा समुट्ठाविति, ते 'आदिअति'प्रणिधी
त्ति आदियति नाम आदियतिति वा गेण्डितित्ति वा तेसि दोसाणं आयरणंति वा एगट्ठा, न केवलं सद्दगुणमुच्छिओ दोसाय-16 ॥६६॥सतर्ण भवह, किंच--'जहा एसी ससु० ॥ २९९ ।। गाथा, जहा सोइदियरज्जूहिं पावमादिया तहा सेसहि चाहवि इंदिएहि
अप्पणो जे दोसा तेसु समुट्टिते आदियतित्ति, किंच-'जस्स पुण॥ ३०० ॥ गाथा, जस्स पुण तपमधि चरंतस्स दुप्पणिधिया इंदिया भवंति सो जहा सारही तुरंगेहि अबओ असाहीणहिं हरिइ, असाहीहिं णाम दुइंतेहिं, वहा सोऽवि इंदियतुरंगेहिं आइंछिया मोक्खसुहाओ अन्नओ हीरतित्ति । इयाणि णोइंदियपणिधी भभति- 'कोई माणं माय लोहंच॥ ३०१ ।। गाहा, एताणि चउरो संसारकारणाणि महब्भयाणि जाणिऊण जो मुद्धप्पा ताणि निरंभह, तस्थ जा सा सम्म णिरुभणकिरिया सो गोइंदियपणिधी, आह- कह पुण कोहादीणि चत्तार कारणाणि महन्भयाणित्ति, आयरिओ भणइ- अणताणुबंधीणं कोहमाण-17 मायालोमाण उदएणं भवसिद्धिओऽवि सम्मच न लहइ, अपच्चक्खाणकसायाण उदएणं देसविरतिं न लहर, पच्चक्खाणोदएणं||
॥२६६॥ सम्वविरतिं न लभइ, संजलगकसायाणोदएणं अहक्खायचरितलामो ण भवइ, अओ महम्भवाणि, एतेणप्पगारेण काहादाहि | निरंभियव्वा, तं०- कोहोदयनिरोधो उदयपत्तस्स वा कोधस्स विफलीकरणं, एवं जाव लोभोदयनिरोधो उदयपत्तस्स वा लोभस्स
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
SHREMIKA KHERIKAJABRSS
%EXERCalk
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||३३५
३९८||
दीप
अनुक्रम [३५१
१४]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५ - ३९८/३५१- ४१४] निर्युक्तिः [ २९५-३१० / २९३-३०८ ], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण
८ आचार
प्रणिधी
॥२६७॥
विफलीकरणंति, तेसि च कसायाणं दुष्पविहियाण दोसो भण्णइ- 'जस्सकि अ दुप्पणिहिआ ० ' ॥ ३०२ ॥ गाथा, जो तवं | कुव्यमाणो कोहादीहिं कारणेहिं कुय्व, तत्थ कोण जहा एयस्स सावं दिस्सामिति तवं कुब्ब, एवं माणेगाव त मज्ज जहा को मए समाणो ?, मायावी छड्डे कए भगइ - जहा वयं अडमभत्तिया एवमादि, लोमेणावि पूयापसंसादिअट्ठाए त कुवंति एवं ते कोहादि तवं कुण्यमाणस्स दुप्पणिहिया, सो चालत बस्सीवि य गयण्हाणपरिस्समं कुणद्द, कहं बालतवस्सीओ है, अण्णादोसेण उपवास काऊण पारणए चहूणं जीवाणं आउया विराहेऊण झुंज, तस्स तं गयण्हाणसरिसं भवई, एवं तबसेजमा| वत्थिओ कसायरनम्गहे अवट्टमाणो बालतपस्सीविय गयण्डाणासरिसं परिस्समं कोहन्ति । किंच 'सामक्षमत० ॥ ३०३ ।। गाथा कष्ट्या, एताए पसत्थाए विविधाए पणिधीए य घट्टयन्वं, एवंमि जत्थे इमं गाहापुत्र भण्ण, तंजा- 'एसो दुविहो पणिही ० ॥ २०४ ॥ अद्धगाथा, एसा इति इदाणिं जा भणिया, दुविधां णाम इंदियपणिधी गोइंदिपणिधी य सुद्धा णाम अदोससंजुत्ता, जसो असंकिते अत्थे वह, जहा जड़ एवं भणेज्जा तो पसत्था पणिधी भवेज्जत्ति, दोस्र नाम अमितरओ | बाहिरओ य, इंदियपणिधी गोदियपणिधी यवति, तस्स नाम इंदियमंतस्त्र कसायमंतस्त्र य, तेसि इंदियाणं, बत्तिकारो समुच्चये, किं समुच्विण १, जहा बाहिर भंवराहिं चिह्नाहिं इंदियकसायमंतेण इंदियकसायाणं णिग्गदो पसत्थपणिही भण्णह एवं समुच्चिइ । इदाणि पसत्थं अप्पसत्थं च लक्खणं अज्झत्थनिष्पन्नं भवद्द, तत्थ इमं गाथापच्छद्धं तंजहा- 'एतो य पसत्थ०' अगाथा, दुविहं तित्थकरेहिं भणियं तं बाहिरं अभितरं च, जं अमितरं एत्ता पणिधी पसत्यं अपसत्यं च लक्खणनिप्फनंति, निष्फण्णं णाम अज्झवसाणयं भवति, तंजहा- अपसत्थं पसत्थं च लवखणं अज्झत्थनिष्कण्णं भवद्द, तत्थ अप्पसत्थं इमेण
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(इन्द्रियादिप्रणिधिः
॥२६७॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
इन्द्रियादि
बैंकालिक
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||३३५३९८||
प्रणिधिः
श्रीदश- गाहापुव्वर्ण भष्णइ, तंजहा- 'मायागारवसाहिओ० ॥ ३०५ ॥ अद्धगाथा, जोऽवि मायासहिओ य इंदियणोइंदियाण
निग्गहं करेइ सो अप्पसत्थे पणिधी, तत्थ मायासहिया इंदियपणिही इमा, तंजहा- मुणमाणोऽविण आलवेज्जा, वरं लोगो चूर्णी
जाणतो जहा अहो झाणोवगओ एसोति, उक्तं च-"निमीलयेदक्षि निमीलितेन, आकुप्यमानो बधिरा(म)भावात् । प्रत्यक्षवादी न | ८ आचार
| भवेत् कदाचित, (स) प्राप्तकाले असिवस्थिते य (व छिनत्ति) ॥१॥ तहा चोरो व दव्वकारणा य गोविव पसंतदिही अच्छइ, प्रणिधीर
दामा मे हुन्तं दिदि पासिऊण कोइ गिण्हेज्जा, तहा कोइ पुरिसो माहिलाए संसत्तो पागडं दिद्विविगारंण दरिसयइ जो घेप्पति, ॥२६८॥
भणियं च- 'विरहे अंजलिकरे परे, जगाउले अणवयक्ख वच्चतं । वीर! विणीय! वियक्खणा, को णाम तुमे न कामेज्जा ॥१॥ तहा अन्यायमाणोऽवि कोइ परतित्थियाई जितिादेयाऽहमिति लोगपस्थि(न्ति)णिमित्वं दुन्भिगंधस्स णो उब्बियइ, तहा उक्कडोऽवि | रस लन्भमाणे मायाए णो गेण्हइ, गोमयं सेवालं च भक्खेइ, तहा कडमुच्छिओ कोयि फरिसमाणोऽविण बेतिचि, एवमादि मायासेविस्स पंचविधा इंदियपणीधी अप्पसत्था भवति, तथा गारवेणावि, कोयि मणुस्सो सद्दे सुणमाणेवि ण आयर करेइ, वरं लोगो जाणतो अणुभूयकल्लाणो एसोति, एवं कंताणि रूवाणि वा पासंतो गारवण अणादरं करेइ, बरं लोगो जाणतो बहा एतस्स एतेसु जहा न विम्हयत्ति, एवं गंधरसफासावि भाणियन्वा, भणिया इंदियपणिधी । दाणि णोइंदियपणिधी भण्णइ, तत्थ मायाए सीकट्ठोऽवि आकास दरिसइ, मा सो पडिसंवादी णासिहित्ति उत्तरं वा देहिति एवमादि, गारखे जहा मा मे अमुगो । जाणिहिचि जहा एसो कोवित्तिकाऊण सीकट्ठभावो अच्छइ ण आकारं करेति, माणेवि, मायाए, कोऽवि कुलवंसउद्धरणनिमित्तं णीयछिद्दण्णेसी वक्कमइ, गारये उदाहरणं नत्थि, जम्हा जो चेव माणो सो चेव गारचो, लोभे जइ कोइ पुव्वं मायासहियं जिणा
%ACADRESCAMES
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
॥२६८॥
CRICK
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
प्राणिधिः
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
श्रीदश- ति ताहे लोमविवड्वयं इतरं तहा कुठवांत जहा बहुयं सेकालं अविसरिस भवइ, गारवेणवि अणुवसंतभावो होऊण पुव्वं माऽहं । प्रशस्तः वैकालिकासहिंतो ऊणओ होहिमित्ति पसंतसम्भाचं काऊण लोहेण अत्थं अज्जिणइ, एवमादि, मावागारवसहिए जीवे इंदियणी
चूणी इंदियपणिधी अप्पसत्था मणिता, सो पुण वाहिरकरणसुद्धो, बो वा अम्भितरो संविकिपणेण संसारगमणाभिमुहो भवति, ८ आचार चारजहा य बाहि विसुद्धो अम्भितरओ असुद्धचणेण,अपसत्था पणिही भवसि तहा भणियं, पणिही अपसत्धा गया । इदाणि पसत्था |
इमेण गाहापच्छद्रेण भण्णइ, तंजहा-'धम्मत्था अ पसस्थो । अगाथा, जो धम्माणामित्तं इंदियविसयपयारनिरोधी ॥२६९॥ इंदियविसयपत्ताणं च अत्थाणं रागदोसविणिग्गहो कसायोदयनिरोधो उदयपत्ताण कसायाणं विणिग्गहो सा पसत्था
पणिधी भण्णइ, आह--अरहंतपूयाइसु कहं इंदियणोइंदियपणिधी भवति, आयरिओ आह-अरहंतसगासे दिन्वतुडियसद्दा ४ाय सोऊण जइवि कोइ साधू हरिसं गच्छइ, जहा अहो अयं तित्थगरो उबगिज्जर, तहाबि सो धम्माणुरामेण हरिसुप्फुल्लणयणोवि
तं कालं मणुण्ण सद्दे सुणमाणो णच्चमाणो य तगराइसमाणा मणुष्णा य गंधा अग्घायमाणो, जत्थ गंधा तस्थ रसाथि, सुगंधजुचपुत्तसंघडिए य भूमीए इढे फरिसे वेदेमाणो पणिहीतइंदियो लम्भइ, कहं पुणः, तस्स (अप्पसत्था) नस्थि, किंच-'अरहतेसु य व रागो रागो साहूसु बंभयारीसु । एस पसत्थो रागो अज्ज ससगाण साहणं ॥ १ ॥' तहा जोइदिएमुवि, जह सोऽवि कोई 18 वीतरागवयणं अक्कोसइ हीलेइ वा, तत्थ कोइ पयणुअकसायो साहू तस्स मिच्छदिहिस्स उत्तम धम्म दसयंतस्स कुप्पेज्जा, निरु-6॥२६९।।
चरे वायमि कीरमाणे उन्नतिणिमित्तं माणोऽवि होज्जा, तहा परवादिविस्सासणणिमित्तं सव्वमियारं हेउँ उचारेउं तओ पच्छा MIणिग्गाहेजा, तहा परवादि सब पणिहिं णाऊण अंतो तबिमिचं मायावि होज्जा, एवं चेयपूयादीहिं लोभोऽवि होज्जा, तस्स एवं
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
%
CE
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
प्रांणध
गुणाश्व
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
आदश-18 विधे परिणामंतरे बट्टमाणस्स पुनोवचयो भवइ, एवं पसत्थे अप्पणोऽवि होज्जा, तहा परवादि सव्वं पणिहिं णाऊण अप्पसत्थं कालिकोटपिणि वज्जेता पसत्थाए पणिहीए पणियोएज्जा अप्पाणं, तत्थ अप्पसत्थपणिहीए दोसा पसत्थपणिहीए य जे गुणा तेइमाए चूणी. गाहाए भणति, ते-'अट्टविहं.'॥३०६ ।। गाहा. यह अट्ठप्पगार कम्मं अपसत्थपणिधिसमाउत्तो जीवो समादियतिति, जो ८ आचारधाषण पसस्थपणिहिसमाउत्तो भयह सो तमेव अढप्पगारं परमचिकणं कम्मं खयतिथि, सो य पसस्थो पणिधी इमस्स अत्थस्स प्रणिधीः
निमितं पउंजियव्यति, 'दसणनाणचरित्ताणि' ।। ३०७ ।। गाहा, देसणं च नाणं च चरितं च दंसणणाणचरिचाणि ॥२७०|| 12 समुदिताण सेजमा भवइ, तस्स संजमस्स साहणट्ठा भवद पणिधी पउंजियब्यत्ति, 'अणाययणाईच बज्जाई णो
आययणाणि अणायतणाणि, ताणि य मिच्छादरिसणाणि, जो य दुप्पणिहितो भवइ तस्स इमो दोसो-दुप्पाणसाहिबजोगी पण.॥३०८॥ गाहा, जो जीवो दुष्पणिहियजोगी सो दुप्पणिहियत्ति दोसो नस्थिचि संभावयति, तओ सो | सेजमस्स दूरे पदा, संजमं च अजाणमाणो लंछिज्जइ, जहा कोइ बिसमकंटकाइनाए भूमीए विसत्थो निसदेहि अंगेहि कम्ममाणो णिण्णए पदेसे पक्खलिओ पडमाणो तिक्खर्कटगपागलादीहि लछिज्जद, एवं सोभव संजमभूमीतले इंदिएहिं आवडिओ
णाणावरणादीहिं कम्मकंटकेहिं लीछज्जइत्ति । जी पुण सुनिहि अप्पा तस्स इमो गुणो, तं०-सुप्पणिहिअजोगी पुण' ॥ x॥ ३०९ ।। गाहा, जो पुण सुपणिहियजोगी सो सुभासुमविवार्ग जाणइ, जाणमाणो सुप्पणिहियजोगी विहरमाणो तेहि पुयभाणि-13
एहि दोसहि गोबलिप्पति, सुसंवरियासबदुवारत्तणण बारसविध तवं अन्भुज्जुचा पुयोवचिताणि कम्माणि पाणावरणादीणि सुकतणमिव अग्गी इहह, जम्हा दुप्पणिहियस्स दोसो सुपणिहियस्स गुणो भवति तओ 'तम्हा.' ॥ ३१॥ गाथा कण्ठ्या ।
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दीप अनुक्रम [३५१४१४]
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२७०॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (निर्युक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
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श्रीदशनामनिष्फष्णो गओ, दाणि सुत्ताणुगमे सुचमुच्चारेयव्वं अक्खलियं जहा अणुयोगदारे, तंजहा-'आयारप्पणिहि लहूं
आचारकालिका ।। ३३५ ।। सिलोगो, 'अभचभ्रमभ्रचर' गत्यर्थाः, चरधातुः, अस्य धातोः आपूर्वस्य 'पदरुजविशस्पृशो धमिति (पा. ३-३-१६) प्रणिधेचूर्णी
घञ् प्रत्ययः, अकार: 'अचो अणिती' ति (पा. ७-२-११५) वृद्ध्यर्थः, घकास 'चजोः कृर्षण्यतो' रिति (पा. रुपक्रमः ८ आचार
७-३.५२) विशेषणार्थः, धातोः 'अत उपधाया'(पा. ७-२-११६) पृद्धिः, आचर्यतेऽसावित्याचारः, तत्थ आयारो पुषभप्रणिधी पिओ, दुधाञ् धारणपोषणयोः, अस्य धातोः प्रपूर्वस्प निपूर्वस्य च ' उपसर्गे घोः कि' रिति (पा. ३-३-९२) उपपदे ' घुसंज्ञ-18 केम्पः धातुभ्यः किप्रत्ययो भवति, ककारादिकारमपकप्य ककारः '
किति चेति लोपः, 'आतो लोप इति किति चेति (पा-ट ॥२७१॥ N
६-४-६४) आकारलोपः, 'नेगदनदपदपतपदधुमास्यतिहन्तियातिवातिद्रातिप्सातिवपतिवहतिशाम्यतिचिनोतिदेग्धिषु चति णित्वे, तस्य उपसर्गस्थानिमित्तात् णकारो भवति परगमनं च, प्रणिधीयते प्राणिधिः, प्रणिधिरभिहिता, आचारे प्राणधिः आचारप्रणिधिः तस्मिन्नाचारप्रणिधी अध्यवसायः, 'हुलभ प्राप्तौ' धातुः, अस्य धातोः 'समानकतकेषु तुमुन् प्रत्ययः (पा. ३-३-१५८) अनुबन्ध लोपः, 'आईधातुकस्येड् बलादे (पा. ७-३-३५) रिद प्राप्तः 'एकाचनुपदेशोऽनुदाचा' दिति (पा. ७-२-१०) प्रतिषिद्धः, 'झपस्तथो!ऽधः' इति (पा. ८-२-४७) तकारस्य धकारः, 'झला झसोऽन्ते ' इति (पा. ८-२-३९)| जस्त्वेन दकारलोपः, 'सुपो धातुप्रातिपदिकयो रिति (पा २-४-७१) सुप लुक ( लब्धं ) प्राप्तये, यद् 'प्रकारवचने घालू' (पा.18| ५-३-२३) 'प्राग दिशो विभक्ति' रिति (पा. ५-३-१) विभक्तिसंज्ञा, सत्यां विभक्तिसंज्ञायां 'त्यदायत्वं (पा. १.२-१०२) अतो गुणः परपूर्वत्वं, तथा 'इकञ् करणे' धातुः, अस्य धातोः 'तव्यत्तन्यानायर ' इति (पा.३-१-६६) तव्यप्रत्ययः, ' सार्व
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
CASEARCHES
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... अत्र अष्टमं अध्ययनस्य सूत्राणि आरब्धा:
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूणी
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[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
प्रणिधौ
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श्रीदश-18/धातुकार्द्धधातुकयो ' रिति (७-३-८४ ) गुणः "उरण स्वराशति ( )पस्वपनाच कर्तव्यं, श्रीविवक्षायां 'अजा- आचारकालिकाचसष्टापू' इति (पा.४-१-४) टाप् प्रत्ययः कर्त्तव्यः, भिक्ष भिक्षायामलामे लाभे च धातुः, सनापंसमिक्ष उः' इति |
प्रणिधे(पा. ३-२-१६८) उः प्रत्ययः भिक्षु इति स्थिते 'कनुकरणयोस्तृतीये'ति (पा. २-३-१८) तृतीया, टकारलोपः, (आडने |
रुपक्रमः | नासियाम् (पा. ७-३-१२०) इदितो नुम्धातो' (पा. ७-१-५८) रित्यनुवर्षमाने 'इकोऽचि विभक्ता' विति (पा. ५-१-०३)
नुम् , मकारस्य उकारस्य च लोपः, 'साभ्यां नो णः समामपद' इति (पा.८-४-१) अट्कुष्वानुम्म्यवायेऽपीति' (पा. ॥२७॥ ४-२) नकारस्य गकारः भिक्षुणा, तत् प्रातिपदिकं स्वीविवक्षायां 'कर्मणि द्वितीये' ति (पा. २-३-२) अम् 'स्यदायत्वम् |
(पा.७-२-१०२) अजाद्यतष्ठाए' (पा. ४-१-४) अनुबन्धलोपः, त्रयाणामपि 'अकः सवणे दीर्घत्वं (पा.६-१-१०१)। | ताम् , 'हब हरणे' धातुः, अस्य धातोः उत्पूर्वस्य आपूर्वस्य च ' भविष्यती' त्यनुवर्तमाने (३-३.३) लद् शेषे चे' ति | (पा. ३-३-१३) लट् प्रत्ययः, टकारस्य ' हलन्त्य ' मिति संज्ञा प्रयोजनं, टेरेत्वार्थः, लकाराट्टकारमपकृष्य अकारस्य उपदेशो-। अजनुनासिक ' इति (पा. १-३-२) संज्ञा प्रयोजनं, 'लटः सद्देति (पा. ३-३-१४) विशेषणार्थः, लस्य निफदियो भवतीति तिपादिप्रसङ्गे प्राप्ते 'शेषात् करि परस्मैपदं (पा. १-३-७८) भवति, अस्मद्युपपदे समानाधिकरणे प्रयुज्यमाने उत्तम
पुरुषो भवति, तस्य उत्तमपुरुषस्य एकस्मिन्नर्थे एकवचनमुपादीयते मिप, पकारलोपः करि शपि प्राप्ते 'स्यतासी लुखुटो' रिति RI(पा. ३-१-३३) स्यप्रत्ययः 'आर्द्धधातुकस्येद् बलादे' रिति (पा.७-२-३५) इद प्राप्तः 'एकाच उपदेशेऽनुदात्तेत ' इति (पा.15॥२७२।। 21७-२-१०) प्रतिषेधः, तत 'ऋद्धनोः स्वे स्य' (पा. ७.२.७०) तिडागमः, "सार्वघातकार्धधातकयो' रिति (पा. ७-३-६४)
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दीप अनुक्रम [३५१४१४]
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
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प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||३३५३९८||
बैकालिक
चूर्णी ८ आचार प्रणिधौ ॥२७३॥
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*
|गुणः टच लोप: 'आदेङ्गुणः'(पा.१-१-२) सकारस्य स्थाने, 'इको गुणद्धि' रिति (पा. १-२-३) वचनात् इकः स्थाने & प्राणातिऋकारस्य आकारो गुणः, 'ऊरण रपरः (पा. १-१.५१ ) इति रपरः 'अतो दी! वमी' ति (पा.७-३-१०१) दीर्घत्वं, पातविरति। ततः तकारजस्त्वेन दकारस्य परगमनं उदाहरिष्यामि, गणहरा अप्पणो से मणगपिता वा आहुः जहा सामिसमासे नाऊण ते में उदाहरिस्सामि, उदाहरिज्जमाणं च अनुपूर्व प्रातिपदिकं ब्राह्मणादौ पठ्यते, अनुपूर्वस्य भावः तस्य भाव'(पा. ५-१-११९) इ.
त्यनुवर्चमाने 'गुणवचना ब्राह्मणादिभ्यः कणि चे 'ति । पा. ५-१-१२४ ) प्यम् प्रत्ययः, अकारः तद्धितेष्वचामादे' रिति | ला(पा. ७-२-११७) आदिवृद्धयः, पकारः 'पिजोरादिभ्यश्चे' ति (पा. ४-१-४१ दीर्घत्वार्थः, पलुकि कृते 'तद्धितेष्वचामाद -
रिति (पा. ७-१-११७) आदी वृद्धिः आकार, 'यस्येति चेति (पा. ४-४-१४८) लोपः, परगमनं, आनुपूर्य इति स्थिते वी-1* विवक्षायां - पित् गौरादिभ्यचे' ति (पा. ४-१-१४१) सीप् प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'यस्येति चे' ति (पा. ६-४. १४८)। अकारलोपः, हलस्तद्धितस्य' (पा.६-४-१५०) हल उत्तरस्य प्रत्यययकारस्य लोपो भवति ( नद्धितयकारस्य) इकारे परतः आनुपूर्वी 'कर्तृकरणयोस्तृतीये' ति (पा. २-३-१८) तृतीया, टकारलोपः 'इको यणची' ति (पा. ६-१-७७) यणादशः आनुपूया, 'आणुपुचि, सुणेहत्ति, आनुपूर्वी नाम जहाणुकमो, जहा परिवाडीए सुणेहति वुत्तं भवति, 'थु श्रवणे' धातुः, अस्य धातोः 'विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्ठसंप्रश्नप्रार्थनातिसर्जनेषु लिपिति (पा. ३-३-१६१) लोट् प्रत्ययः, टकारस्य पूर्ववल्लोपः ॥२७३॥ लकारादकारमपकृष्य उकारस्य लुप्तस्य प्रयोजनं 'लोटो लचदिति (पा. ३-५-८५) विशेषणार्थस्य लस्य तिपादयो भवंतीति, 'शेष प्रथम' इति (पा. १४-१०८) प्रथमः पुरुषो भवति, तस्यापि त्रिके प्राप्ते बहुवर्थेषु बहुवचनमुपादीयते शिः, झिप्रत्ययादि
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
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4.
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सूत्रांक [१५...]
गाथा ||३३५३९८||
प्रणिधौः
श्रीदश-16 कास्मपकृप्य 'शोऽन्त' इति (पा. ७-१-३) अन्तादेशः, अन्तशब्दादकारः उच्चारणार्थः, एरु' इति (पा. ३-४-८६) कालिक इकारस्य उकारः, किन्शिसार्वधातुकसंज्ञायां 'सार्वधातुके यकि'ति (पा. ३-१-६७ ) कर्तरि शषि प्राप्ते 'स्वादिभ्यःनुरिति विरतिः चूणों.
(पा. ३-१-७३) नुप्रत्ययः 'श्रुवःभू चे' त्ययं (पा. ३.१-७४ ) आदेशः, मुणः किति प्रतिषेधः, 'इणो याणि (पा.६-४-८१)८ आचार
त्यनुवर्तमानो 'हुश्रुवोः साबंधाधुके' इति (पा. ६-४-८१) यणादेशः, उकारस्य वकारः परगमनं भृष्वंतु, तामाचारपाणिधि
कथ्यमानां भवन्तः मे शृण्वन्तु, तत्थ आयारपणिघीए सुत्तेणं पूर्व आयारो भण्णइ, तत्य पढम चरिचायारो मण्णाइ, चरिचायारेण ॥२७४॥ गरिएण देसणणाणायारा गहिया चेव, कहं , जम्हा 'नादसणस्स नाणं' गाथा, तत्थ पाणातिवातवेरमणत्यमिदं मगर, तं
'पुढविद्गः ॥३३६।। सिलोगो, पुढवि आउ अगणिमारुजवणरुक्खगहणेण रुक्खस्स गुच्छादिदुवालसपगारस्स क्णप्फरणो गहणं, सबीयगणेण मूलकन्दादिबीयपज्जवसाणस्स पुष्वभणितस्स दसपगारस्स वणफतिणो गइणं, एते पुढविदगादि पंच कावा तसा | य ईरियावहियादि पाणा जीवत्ति णायव्वा, इतिसद्दो परिसमत्तीए वट्टइ, जहा ण एतेहिं छाई काएहि बतिरित्तो अण्णो कायो अत्यित्ति, बुत्तं नाम मणियंति वा वुत्तति वा एगट्ठा, महरिसिगहणं सत्थगोरवनिमित्तं कयं, जहा अरहंतेहिं एते पुढविमादि छज्जीवनिकाया मणिया, णाहं अप्पणो इच्छाए भणामित्ति, एतेसु पुढविमादिएसु छज्जीवनिकाएमु इर्म साहुणा न काययंति. 'तेसिं अच्छणजोएण' ॥ ३३७ ॥ सिलोगो, तेर्सि नाम जे एते भणितत्ति, अकारो पडिसेहे बट्टइ5 छण्णसहो हिंसाए कट्टर, जोगो मणवयणकाइओ तिविधो, पछणजोगो अच्छणजोगो तेण अच्छणजोएण निव्वग्धारण होअव्ययं भिक्खुणा इति, ते य जीचे इमेहिं मणवयणकाइएहिं णो सयं हिंसेज्जा, 'एगमाहणे गहणं तज्जातीयाण' भितिकाउं।
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
... प्राणातिपात विरते: वर्णनं मध्ये पृथ्वीकायादिनाम् विरति: निरूप्यते
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : [२९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा । ||३३५
प्रणिधा 6
३९८||
श्रीदश
IM परेणावि न हिंसेज्जा, हिंसतंपि अण्ण न समणुजाणेज्जा, एवं च कुव्वमाणस्स संजतत्तं भवति । याणिमेतसि छण्डं जीवनिका-16 अप्कायकालिकायाणं पत्तर्य वेरमण भण्णइ, तत्थ पुढविकायचेरमण पुर्व भण्णाइ, तं- 'पुर्वि भितिः ॥ ३३८ ॥ सिलागो, तत्व पुढविगहणे चूर्णी मालेगादिविकप्परहियाए पुढविए गहणं कयंति, मित्तिमादि णदितडीतो जयोवलिया सा भित्ती मन्नति, सिला नाम जो ८ आचार 4 विच्छिण्णो पासाणो सा सिला भण्णाइ, लेलू लेटुओ भण्याइ, एयाणि पुढविमादीणि णो मिंदज्जा, णो व संलिहेज्जा, तत्थ मिंदणं
| दुहा का तिहा वा अणेगहाकरणं भिंदणं भण्णइ, संलिहणं अंगुलीसलागादीहि, तत्थ अचिचाए तनिस्सिया विराधिज्जत्ति,
| सचित्ताए पुढवी जीवा तष्णिस्सिया य बिराहिज्जति, तिविहेण करणजोएण संजए सुसमाहिए, अप्पणा यो भिंदणं संलिहण का ॥२७५॥
| कायव्वंति । किंच- सुद्धपुडबिए ण मिसिए (सुद्धपुयी न निसीए) ॥ ३३९ ॥ सिलोगो, सुदपुढवी नाम न सत्यावहता, असत्योवहयापि जा णो वत्तरिया सा सुपुटवी मण्णाइ, तीए सुद्धपुडवीए न निसीएज्जा, 'एगग्गहणे गहण तज्जातीयाण मितिकाउं ठाणविषज्जणादीणिवि गहियाणि, तहा ससरक्खंमि जमासर्ण पीढमादी, तमि ससरक्खे ण वकृति णिसिउ उर्स, समस्कल नाम जैमि सच्चित्तरतो वाउछुतो तमासणं ससरक्खं मण्णा, तत्त्व सचित्तपुढवीए गायउपहाए विराधिज्जर, अच्चिचाए एवाए |
पति(माया)सणायी मुखिज्जति, हडिल्ला वा समिस्सिता सत्वा उण्हाए विराधिज्जीत, ससरक्खाए सचिचरको विराधिचति-४ MIतिकाऊग- मुखपढषीमादिमु पमजिऊण निसीइज्जत्ति जाणिऊन जहा एसा अचित्तजयणा, अगणिमाई उपहयास व जस्सा ॥२७५।।
सो परिम्गही तस्स उग्गहं अणुचाणाकण निसीपणादीणि कुज्जा इति पुरषिक्कापपिरती गया। इयाणि आउक्कायविस्ती मण, तं- 'सीमावर्ग न सेविज्जा' ॥ ४० ॥ सिलोगो, सीतोदगगणेण सचेतपस्स उदयस्स गाणं कर्य, सिता करवा
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सूत्रांक
चूणी
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गाथा ||३३५३९८||
श्रीदश-18 भमंति, बुदुग्गहणेण सेसअंतरिक्खोदगस्स गहणं कयं, हिमं पाउसे उत्तरापहे भपति, चकारेण फसारादीण गहणं कयंति, ताणि अधिकायवकालकाला सीतोदगादीणि नो से सेविज्जा, तं पुण उण्होदगं जाहे तत्तं फासुगं भवति ताहे संजतो पडिग्याहिज्जत्ति, आइ-उण्होदगमेव वत्तव्य
विरतिः तत्तफासुगगहणं न कायब्ब, जम्हा जे उण्होदगं तमवसं तत्तं फासुयं च भविस्सइ, आयरिओ आइ-न सव्वं उण्होदगं तत्त८ आचार]
| फासुयं भवति, जाहे सध्वत्ता डंडा ताहे फामुयं भवति, अतो तत्तफासुयगहण कर्य भवति, जया भिक्खादी णिग्गतो वरिसेणं प्रणिधौ
तिमेज्जा गदिमाईणि वा उत्तरंतो ताहे इमे णो कुज्जा, तंजहा- 'उदउल्लं' ॥ ३४१॥ सिलोगो, तत्थ उदउल्लं बिन्दुसहितं ॥२७६॥12 भनइ, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण'मितिकाउं ससिणिद्धमचिरट्ठियं, उदउल्लं ससणि वा कार्य को पुञ्छज्जा ण वा संलि
| हेज्जा, तत्थ पुंछणं बस्थेहि तणादीहिं वा भवइ, संलिहणं जे पाणिणा संलिहिऊण णिच्छोडेइ एवमादि, समुप्पेहे नाम सम्म उवेडे, संम णिरिक्खतित्ति बुत्तं भवइ, तहाभूअं णाम जे उदउल्लं ससनिळू वा जाहे अपरिणतं जाणिऊण णो हत्थादीहि संघट्टेज्जा, मणिति या पाणिति वा एगट्ठा, उदउल्लेण कारण जाव सो आउक्काओ ण परिणओ ताव निरासणादीणि न कुज्जा, आउ: क्कायविरती गता । इदाणिं अगणिकायवेरमणं भण्णा इ. 10. 'इंगालं अगणि अम्चि०॥ ३४२ ॥ सिलोगो, तत्थ इंगालो |जालारहिओ, अगणिं नाम जो अयपिंडाणुगो फरिसगेझा, अच्ची णाम आगासाणुगता परिच्छिना अग्मिसिहा, अलाय
नाम उम्मुवयं, ते जइ सजाइयं भवति तो उंजणादाण णो कुज्जा, सजातिय नाम अपिज्झायंत, सजोइअमलार्य इंगालादीणि &ायणो उंजेज्जा, णो चा घट्टेज्जा, ण वा णिवावेज्जा, तत्थ उंजणं अबसंतयाण, घट्टणं पराप्पर उम्भुषण, अफोडणं निब्यावर्ण,6॥२७६ ॥
मुणिचि वा गाणित्ति वा एगट्ठा, उजणादीणि जहा नो असयं कुज्जा 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं परेणवि ण
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RECORRESASARAL
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प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
॥२७
आ मग नाम ।
श्रीदश
कारवेज्जा करतेपि अन न समणुजाणेज्जा, अगणिकायविरई गया। इदाणि वाउकायविरई मण्णइ-'तालिअंटेण.' ॥३४३ वायुवनस्पवैकालिकसिलोगो, तत्थ तालिअंटो लोगपसिद्धो, पत्वं पोमिणिपत्तादी, साहा रुक्खाणं, बिहूवर्ण वियणगं, एतेसि अमतरेण 'न बीइज्ज
तिविरती चूणों अप्पणो कार्य बाहिरं वावि पोग्गलंति' तत्थ अप्पणो कायं नाम अत्तणो सरीरं, बाहिरपोग्गलग्गहणेणं उसिणोदयादीण ८ आचार गहणं, जहा णो सयं बीइज्जा 'एगग्गहणे गहणं तज्जातियाण'मितिकाउं परेणावि न बीइज्जा, पीबंतमवि अयं न समणुजाणज्जा, प्रणिधौ चाउकायविर्स गया । इदाणिं वणण्फइरमणं भण्णइ- 'तणरुक्खं न छिदिज्जा' ॥ ३४४ ॥ सिलोगो, तत्थ सणं दब्भादि,
रुक्खगहणेण एगट्ठियाण बहुपीयाण य गहणं, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण'मितिकाउंसेसावि गुच्छगुम्मादि गहिया, आमग नाम असस्शुवहतं, विविध अणेगप्पगारं 'वीर्य' सालिमाइ मणसावि न पत्थए, किमंग पुण कंमुणा', 'गहणेसु नI चिहिज्जा'। ३४५ ।। सिलोगो, तत्थ गहणं गुविल भण्णाइ, तत्थ उव्वत्तमाणो परियत्तमाणो वा साहादीणि घट्टेइ तं गहणं, तत्थ नो चिट्ठज्जा, जत्थ बीयाणि हरियाणि य आकिन्नाणि तत्थवि न चिट्ठज्जा, तत्थ उदर्ग नाम अणंतवणप्फई, से भणिय च- 'उदए अवए पणए सेवाले' एवमादि, अहवा उदगगणेण उदगस्स गहणं करेंति, कम्हा?, जेण उदएण वफइकाओ अस्थि, उजिंगगहणेणं सपछत्सादीण गहणं, पाणगो पसिद्धो, एतेसु गहणादिसु पणगपज्जवसाणेसु वणफइजीवणट्ठाए पो बिंदुज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं अपि नो चिट्ठावज्जा, चिट्ठतमवि अब न समणुजाणज्जा किंच-'तसे ॥२७॥ पाणे म हिंसिज्जा' ॥३४६ ।। सिलोगो, 'तसे पाणे' धुमादी ण हिंसज्जा, ते पायाए कम्मुणा था जो हिंसेज्जा, मणो | तदंतमाओ दहब्बो, न केवलं तसे पाणे न हिंसेज्जा, किंच-विविहेण मणवयणकाइएण करणकारावशुमोदणेहि सध्यभूपसु वधो
मा
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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कालिका
यस्माष्टक
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
श्रीदश- ४ावरतो भवेज्जा, 'पासेज्ज विविहं जगं' गामनगरतिरियमणुयदेवेमु विविहं कम्ममलमणुभबमाणति इमं जगं पासेज्जा, पासिऊण त्रसपान
लिय उवरतो भवेज्जा, एसा वाव धूलसरीरेसु घिरती भणिया । इयाणि सुहमाण भण्णति-'अट्ट सुहुमाइ (णि०)॥३४७|| सिलोगो. बिरतिः चुणी अति संखा, अतीव सहाणि सुडमाणि, ताणि पेहाए णाम उपयोग दाऊण, 'जाई' ति अणिदिट्टाणि, जाणित्त णाम उबल८ आचार
भिऊण, संजए साधू, तत्थ आस णाम दयाहिकारी निसीए, चिदु नाम उडिओ दयाहिकारी अच्छेज्जा, सए णाम दयाहिकारी प्रणिधों
णिहामोक्खं करेज्जा, अब कतराणि अठ्ठ मुहुमाणि', भण्णइ-सिणहं पुष्फसहुमं च०' ।। ३४९ ॥ सिलोगो, सिणेहमुहुर्म पुफ॥२७८॥
मुहुम पाणमुहुम उनिगमा पणगसुहुम बीयमुहुर्म हरितमुहुमं अंडगमुहमति, तत्थ सिणेहमुहम पंचपगार, ०-ओसा हिमए महिया करए हरतणुए, पुष्फबहुमं नाम बङउम्बरादीनि संति पुष्पाणि, तेसि सरिवाणि दुब्बिभावणिज्जाणि ताणि सुहुमाणि, पाणसुहुम अणुद्धरी कुंधू जा चलमाणा विभाविज्जइ थिरा दुम्निमावा, एवं तं पापा सहम, उनिंगमुहुर्म कीडियानगरं, तत्थ पिपीलियाणा(ण्डादि अणायसुहुमा सचा दुन्विभावणिज्जा भवंति, पणगसुहुमं णाम पंचवमो पणगी वासामु भूमिकट्टउवगरणादिसु तहब्बसमवनो पणगसुहुमं, बीयमुहुर्म नाम सरिसवादि सालिस्स वा मुहमूले जा कणिया सा चीयसुहुम, सा य लोगेण उ सुमहु(धुम)त्ति भण्णइ, हरितमुहुमं णाम जो अहुणुट्टियं पुढविसमाणवणं दुबिमावणिज तं हरियसुहुर्म, अंडमुहुर्म पंचप्पगारं, तंजहा उद्दसियंडो पिीलियंडो उक्कलियंडे हलियंडा हलिहोलियंडो, तत्थ उसिया मच्छिया तीए अंडे उइंसियडं, पिपीलियाअंडयं नाम कीडियअंडगं, उक्कलियाअंडे बक्खोइलियाअंडगं, हलियंडगं भणियाअंडये, हलोहलिअंडं सरडीअंडगंतिला ॥२७८॥ 'एवमेआणि जाणित्ता०' ।। ३५० ।। सिलोगो, एवमेयाणि अट्ठ सुहुमाणि सम्बष्पगारहिं वण्णसंठाणाईहि गाऊणति, अहवाण
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
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प्रत
सूत्रांक
श्रीदश- वैकालिका
चूणौँ
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
प्रति लेखनादि भिक्षागतविधिः
८आचार प्रणिधौ
॥२७९॥
सम्बपरियाएहिं छउमत्थो सक्कर उपलभिउं, किं पुण जो जस्स विसयो !, तेण सव्वेण भावेण जाणिऊणति, संजए साधू 'अप्पमत्तो जए निच्चति तत्थ अप्पमत्तो जए नाम निद्दाकसायाईहिं पमादविवज्जओ अप्पमचो, जए नाम मणवयणकायजोगेहिं तेसि सुहमाण रक्खणत्थं पयत्तमंतो, णिचं णाम सव्वं कालं, 'सविदिअसमाहिए' नाम सद्दादिसु विसएसु अपडिबज्झमाणो। श्याणि सुहुमाण धूलाण य जीवाणमणुपालणस्थमिदमुच्यते- 'धुवं च पडिलहिज्जा' || ३५१ ॥ सिलोगो, धुवं | णाम जो जस्स पच्चुवेक्षणकालो तं मि णिच्चं पडिलहिज्जा, जोगसा नाम सति सामत्थे, अहवा जोगसा णाम जै पमाणं भणितं ततो पमाणाओ ण हीणमीहत वा पडिलीहज्जा, जहा जोगरत्ता साडिया पमाणरतित्ति वुत्तं भवह नहा पमाणपडिलेहा जोगसा भण्णइ, पायग्गहणेण दारुअलाउयमट्टियपायाणं गहणं, कंवलगृहणेण उभिपसोचियाण सम्बेसि गहणं, सेज्जाओ वसइओ भण्णाइ, तमवि दुकालं तिकालं वा पडिलहिज्जा, उच्चारभूमिमवि अणावायमसंलोयादिगुणेहिं जुनं गयमाणो गामनगरादिसु पडिलेहिऊण पाए पविसे, जाहे उच्चारभृमी ताहे पडिलेहिय पमज्जिय वा पविसिज्जा, तहा संथारभूमिमवि पडिलेहिय पमज्जिय अत्थुरेज्जा, तहा आसणमवि पडिलोहिऊण उवविसेज्जति । किंच. 'उच्चारं पासवणं ॥३५२॥ सिलोगो, उच्चारपासवणखेलसिंघाणगा पसिद्धा, जल्लिय नाम मलो, णो कप्पइ उबडं, जो पुण गिम्हकाले पस्सेयो भवति, अण्णमि गिलाणादिकारणे मलत्थे के(ओ क)रिसो कीरइ तस्स तं गहणं कयंति, एवं वा उरादी अन्नं वा सरीरावयचं आहारोवकरणादि वा, फासुयं ठाणं 'पहिलेहिऊण परिवेज्ज संजए'ति, एस उपस्सए विधी भणिओ। इदाणि भिक्खागतस्स भण्णइ, २०- 'पविसितु |परागारं' ।। ३५३ ।। सिलोगो, अगारं गिह भण्णाइ, परस्स अगारं परागारं, साधू पविट्ठो भाषणहूँ अमेसु वा कारणेसु पवि-|
SECRECRec
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
२७९॥
... अत्र प्रतिलेखना आदि विधि: उपदर्शयते
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
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गाथा ||३३५३९८||
श्रीदश- सिऊण 'जयं चिट्ठज्जा ण य रूवेसु मर्ण करेज्जा' तत्थ जयं चिट्ठे नाम तमि गिडदुबारे चिढ़े, णो आलोयस्विगलाईणि, साबद्याबकालिकादवज्जयति अस्खेवं सोहयंतो चिज्जा, मितं मासेज्जा णाम पुच्छिओ संजओ जयणाए एक्क वा दो वा बारे भासेज्जा, कारण
कथन चूणा. IIणिमित्रं वा भासइ, अणसणं या पडिसेहयइ, 'ण य रूवेसु मणं करें रूवं दायगस्स अण्णेसि वा दट्टण तेसु मणं ण कुज्जा, प्रणिधौः 18| जहा अहो रूवं, जति नाम एतेण सह संजोगो होज्जत्ति एवमादि, 'एगग्गहणे गहणं तज्जाइयाण'मितिकाउं सदा रसा गंधा
फासा गहिया, तेसुवि मणं णो कुज्जा । इदाणिं असावज्जसावज्जकहणे अकणस्थमिदमुच्यते-'बहुं मुणेइ कनेहिं० ॥ ३५४ ॥ ॥२८॥ सिलोगो, बहु णाम अणेगप्पगार भण्णइ, तं च असायजं सावजं च, तत्थ असावज्ज-अस्थि ते अज्ज सुतं जहा तित्थगरो
अमुगं देसमागओ, परवादी वा अज्झाबएण वादिणा पराजिओ, असुगनामधेयो वा साधू कत्थइ सुओ तस्साह सगासे पब्बइउकामो, दिद्रुषि अस्थि ते अज्ज कोवि संतुट्टप्पा साहू दिट्ठो जाण परिलाभयामि, भहवा तमहं पज्जुवासिउकामा आगओ, णिक्खमिउकामो वा, एवमादि, असायजं पुट्ठो वा अपुडो वा मासेज्जा, सावज्ज पुण सव्यपगारेण परिहरिज्जइ, तं च सावर्ज इमं जहा कोइ पुच्छज्जा हे साहु ! किमेय घोसणिज्ज घोसिज्जति, एवमादि दिढवि जहा तुमए राया अण्णण पहेण गच्छंतो दिद्वतो, मंसविकीओ वा मातंगा वा तित्तिररात्थंकया दिट्ठा?, एत्य उदाहरण-एपको धीयारो उम्भामयबिलयाए समं भोगे झुंजतो. ६ दिट्ठो एगेण साहुणा, लज्जिओ सो अण्णसि कहेहित्ति ताण माराम सो अग्गो पंथं बंधिऊण अच्छद, आगओ तस्स ओगासं,
भणिो अणेण भो साधु! अज्ज भमंतेषा कि दिढ साहुति?. साह भण-अम्हं भणियं-'बई मुणेहि कही, बहुं अच्छी हि पिच्छद ।।3।२८॥ मय दिढ सु सम्बं, भिक्षु अक्खाउमरिहह ॥१॥ ततो मारणज्झवसायाओ णियत्तो धीयारो, धम्मपएसु णिक्षतो य, जद पुण
AKKAKALIK-RSCIECCC
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गाथा ||३३५३९८||
श्रीदश- अक्खायं होतं तो मारिओ होतो, जहा(ओ) एवमादि दोसा अतो 'सुअंवा जइ वा दि०॥४५५।। सिलोगो, तत्थ सुतं जहा- गृहयोगवैकालिकाका तुम मए सुओ अट्ठाबद्धो चोरो एवमादि, दिट्ठो-दिट्ठोसि मए परदव्वं हरमाणो एवमादि, एरिसं परोवग्याइयं पुट्ठो अपुट्ठो वा
चूर्णी लोगविरुद्ध धम्मविरुद्धं च णो मासज्जा, तह 'ण य कोइ उवाएण गिहिजोगं समायेर ति, गिहीहि समं जोगं गिहिजागं, ८ आचार- संसग्गिति बुत्तं भवति, अहबा गिहिकम जोगो भण्णइ, तस्स गिहीकम्माण कयाणं अकयाणं च तत्थ उवेक्षणं सर्य वाऽकरण, प्रणिधो| जहा एस दारिया किं न दिज्जह? दारगो वा किन निवेसिज्जद, एवमादि. किंच-'निहाणं रसनिज्जूहं० ॥ ३३५६ ।। I&ासिलोगो, गिट्ठाणं णाम जं सव्वगुणोववेयं सबसंभारसंभियं तं णिहाणं भण्णा, रसणिज्जूढ णाम जे कदसर्फ ववगयरसे ते
सणिज्जूद भण्णइ, एतसि रसणिज्जूद, जाहे निढाणं लद्धं ताहे पुट्ठो वा हरिसागओ ण लाभ णिसेज्जा, जहा पसोहिया मो।
केरिसं अद्दभवर्ग लड़े, तणं बालस्थितिलएण अज्ज इमं भद्दगं दिन, जाहे रसनिज्जूढं लद्धं भष्णइ ताहे णो दीणगमणसो होज्जा, हैण अलाभ णिदिसज्जा, जहा पसोहियामो केरिस पावग लद्धं दिवसं हिंडंतेणी, तेण वाजंममरणपावकम्मेण केरिसंपावगं दिण्णंति?,
एवमादि, किंच. 'न य भोअणमि गिद्धो० ॥ ३५॥ सिलोगो, गोयरग्गगओ साधू भोयणे गिद्धो उंछ अयंपिरो चरेज्जा' तत्थ नकारो पडिसेहे बवइ, भोयणगहणेण चउम्विहस्सवि आहारस्स गहणं कर्य, तस्स भोयणस्स गेहीए ण णीयकुलाणि
अतिक्कममाणो उच्चकुलाणि पविसेज्जा, चरे नाम हिंडेज्जा, उंछ चउबिधं, तं- णामुछ ठवणुंछं दव्नुछ भावुछ च, णामठव-13॥२८॥ शाणाओ गयाओ, दव्युछ तावसादीणं, भावुछ जे अण्णमण्णातणव णीयमज्झिमेण हिंडंति तं भावुछ, एत्थ भावउंछेण अधिगारो,
सेसा उच्चारियसरिसत्तिकाऊण परूविया, अयंपिरो नाम अजपणसीलो, तहा जं अफासुयं कीयमुद्देसियं आहढं च तं णो
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
CRECORDCReceBOROG
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
D
रूक्ष
श्रीदश- वैकालिका
चूर्णी. ८ आचार।
वृत्त्यादि
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
प्रणिधौ
॥२८२||
भुजेज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जतीयाण'मितिकाउं सेसावि अफासुएसु दोसा गहिया। किंच- 'संनिहिं च न कुन्विज्जा ॥ ३५८ ।। सिलोगो, समिहिज्जतीति सन्निधी-गुलधयतिल्लादीणं दव्वाणं परिवासणंति, अणुसहो थोवत्थे चट्टद, तं धोवमवि णो परिवसेज्जा, किमंग पुण बहुति ?, मुद्दाजीवी जहा पढमाए पिंडेसणाए, असंबद्धे णाम जहा पुक्खरपनं तोएणं न संबज्झइ | पसिना एवं गिहीहि समं असंबद्धण भवियव्यंति, 'जगनिनिस्सिए' णाम तत्थ पत्ताणि लमिस्सामोतिकाऊण गिहत्थाण णिस्साए बिहरेज्जा, न तेहि समं कुंटलाई करेज्जा । किंच- 'लूहवित्ती मुसंतु ॥३५९ ॥ सिलोगो, तत्थ लूई चउबिह, तंजहाणामठवणादब्ब०भावलूहंति, णामठवणाओ गयाओ, दब्बलूह निष्फावकोद्दवादी, भावलूह कलई अब्भक्खाणमादि, एत्थ पुण दवलूहेण अधिगारो, सेसा उच्चारियसरिसत्चिकाउण परूविया, ते णिष्फावकोदवातिलूहदबे वित्ती अस्स सो लूहवित्ती भण्णइ, णिस्य साहुणा लूहवित्तिणा भवियम्ब, सुसंतुट्ठो णाम जो जेण वा तेण वा आहारिएण संतोस गच्छइ सो सुसंतुट्ठो भण्णइ, सम्बकालं संतुट्ठो भवेज्जा, न दीणमणसोत्ति, भणियं बेह-'जं च तं च आसिया' गाहा, तहा अप्पिच्छोवि होज्जा, अपिच्छो णाम |जो जस्स आहारो ताओ आहारपमाणाओ ऊणमाहारेमाणो अप्पिच्छो भवति, सुभगे नाम अप्पिच्छित्तणेण सुभगो भवइ, सिया | नाम भविज्जचि च भवति, तहा 'आसुरत्तमबिन गच्छिज्जा' तत्थ आसुरो कोहो भण्णइ, तस्स आमुरस्स भावो आसुर, | तमासुररी साहूहि गिहीहिं या आसाइओ न गच्छेज्जा, 'मुच्चा णं जिणसासणं' ति, जिणस्स सासणं जिणसासणं, तमि | जिणसासणे कोहविकार सोऊण, जहा"चउहि ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताए कम्म पकरेंति, तं०-कोहसीलयाए तहा माणा जाव जमए एस पुरिसे अन्नाणी मिच्छादिट्ठी अकोसवधरई वा तंण मम एस किंचि अवरज्झति, किन्तु मम एयाणि वेदणिज्जाणि कम्माणि अवरझंतित्ति |
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
२८२॥
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
विषयपरिहारः
श्रीदश- वैकालिक ८ आचार प्रणिधी
चूणों
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
व
क्षुदादिसहनं
॥२८॥
सम्ममहियासेमाणस्स णिज्जरा एव भविस्यति'चि एवमा: जिणस्स सासणं सोऊण न आसुरत्तं गच्छियब्बति । किंच-'कन्नसुक्खेहि सद्देहिं ॥ ३६० ।। सिलोगो, कण्णा पसिद्धा तेर्सि कन्नाणं सुहा कन्नसोक्खा तेसु कन्नसोक्खसु वंसीवीणाइसद्देसु 'पेमं णाभिणिवे-| सएत्ति' पेम नाम पेमंति या रागोति वा एगट्ठा, दारणंणाम दारुणसलिं दारुणं, ककसं नाम जो सीउण्डकोसादिफासो सो सरीरं किसं कुब्बईति ककसं, ते ककस फासं उदिणं काएण अहियासएत्ति, अहवा दारुणसद्दो ककससद्दोऽविय एगट्ठा, अच्चस्थनिमित्तं | पउञ्जमाणा णो पुणरुतं भवइ, तत्थ कण्णसोक्खेहि सद्देहिति एतेण आदिल्लस्स सोईदियस्स गहणं कर्य, दारुणं ककसं फासंतिएतेण अंतिलस्स फासिदियस्स महणं कर्य, आदिले अंतिल्ले य गहिए सेसावि तस्स मज्झपडिया चक्खूधाणजीहा गहिया, कनेहिं विरूविहि राग ण गच्छेज्जा, एवं गरहा, सेसेसुवि राग न गच्छेज्जत्ति, जहा एतेसु सदाइसु मणुण्णेसु राग न गच्छेज्जा तहा अमणुण्णसुषि दोस न गच्छेज्जा, जहा बाहिरवत्सु रागदोसनिग्गहो कम्मखवणत्वं कीरइ तहा कम्मसवणस्थमेव अन्त|| बद्वियमपि दुक्खं सहियवं, तंजहा-'खुहं पिवासं० ॥ ३६१ ।। सिलोगो, खुहा-भुक्खा भण्णइ, पियासा नाम पाउमिच्छा पिवासा, दुसिज्जा नाम विसमभूमि फलगमादी, सीउण्हा पसिद्धा, अरती एतेहि खुप्पिवासादीहि भवइ, 'भयं' सप्पसीहवाघ्रादि वा भवति, एयाणि खुप्पिवासादीणि अहियासेज्जा, 'अव्वहिए (ओ) ति अब्बहिआ नाम अहीणो अविकीवो असीयमाणोति वुत्तं भवति, 'देहदुक्खं महाफलं 'तत्य देहो सरीरं भन्नइ, तमि देहे दुक्खं महाफलं--महा मोक्खा भण्णइ, ते
मोक्खपज्जवसाणं फलमितिकाऊण खुहादिउण्ह(दुक्ख)मधियासेज्जा, सा पुण खुदा कहं सहियध्वात्त, 'अत्थंगयंमि आइच्च०' k॥ ३६२ ।। सिलोगो, अत्थो णाम पचओ, तमि गतो आदिच्चो अस्थगओ, अहवा अचक्खुविसयपरथी, अत्थंगते आदिच्चे,
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CHECK
OREGAOAD
।
K
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूणा
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
श्रीदश-15पुरत्थाय अणुदिते , 'आहारमाइयं सव्वं मणसावि ण पत्थए' जहा कहमेवंविहं आहारं लब्भए?, किमंग पुण वाया- कामदत्यागः वकालकलिए कम्मुणा इति, जहावि इच्छियं आहारं नो लभेज्जा' अतितिणे अचवले.॥३६३ ॥ सिलोगो, अलब्ममाणे आहारे पंते|
वा लम्भमाणे णो टिंबरुवदारुगमिव तिन्तिणो भवेजा, कहं , जहा टिंबरुदयदारों अगणिमि पक्खितं तडतडेती ण ८ आचार प्रणिधौ
| साहुणा तहावि तडतडियवं, तहा भासियव्वे व कारणे साहुणा अचवलेण भणियध्वंति, अप्पवादी नाम कज्जमे
सभासी, मितासणे नाम मियं असतीति मियासणे, परिमितमाहारतित्तिवृत्तं भवति, अहवा मियासणे भिक्खडाए णिग्गओ ॥२८ कारणे उवट्ठातुं मितं इच्छा, 'भवेज्ज उदरे दंते' उदरं पोट्ट, तमि देतेण होयच्वं, जेण तेणेव संतुसियव्वंति.
'थोवं लद्धं न खिंसए' तं वा अण्णं पाणं दायगं वा नो खिसेज्जा । इयाणिं मदवज्जणट्ठा इमं भन्नइ-'न बाहिर
परिभवे ॥३६४ ॥ सिलोगो, णकारो पडिसेधे वट्टइ, बाहिरो नाम अचाणं मोतृण जो सो लोगो सो बाहिरो भण्णइ, IN का बाहिर णो परिभवेज्जा, अत्तुकरिसं च इमेहिं ठाणेहिं न कुज्जा, तं० सुतं पाटवं लाभ लड़ जाति तयं बुद्धि, तत्थ सुएण
उक्करिसं गच्छेज्जा, जहा बहुस्सुतोऽहं को मए समाणोत्ति, (पाटवेण) लाभणवि को मए अण्णो', लद्धीएवि जहा को मएता
समाणोति एवमादिएअहियत्ति लज्जा (डी) संजमो भण्णइ, तेणवि संजमेण उकरिस गच्छेज्जा, को मए संजमेण सरिसोचि?, काजातीएवि जहा उत्तमजातीओऽहं, तवेण को अण्णो वारसविधे तवे समाणो भएनि !, बद्धीएवि जहा को मए समाणोति
एवमादि, एतेहिं सुयादीहि णो उकरिसं गच्छेज्जा । इदाणिं आभोगणाभोगासेवियत्थमिदमुच्यते- 'से जाणमजाणं वा० ॥२८॥ P॥ ३६५ ॥ सिलोगो, सोति साधुनिसे, तेण साहुणा जाहे जाणमाणेण रागहोसबसएण मूलगुणउत्तरगुणाण अण्णतरं आधम्मियं ।
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
CL
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
श्रीदश
पर्य पडिसेवियं भवइ, अजाणमाणेण वा अकप्पिय बुद्धी ए पडिसेवियं होज्जा, तओ आसवदारहिं उग्घाडिएहि कम्मममुहं आदि-18| आलोवैकालिकायमाणमप्पाणं संबरे नाम बितितं च वारं तमाकल्चं नो समायरेज्जा । इयाणिं तस्स सेवियस्स सोहणस्थमिदमुच्यते--'अणायार चनादि
चों परक्कम्म.' । ३६६ ।। सिलोगो, ण आयारो अणायारो उम्मम्मोचिबुत्तं भवद तं परक्कम पडिसेविऊण तं पडिविरओ ८ आचार गुरुसगासे आगओ आलोएज्जा, ण पुण गृहेज्जा णिण्हवेज्ज वा, तत्थ गृहणं किंचि कहणं भण्णइ, णिण्हवो णाम पुच्छिओ संतो प्रणिधी सम्बहा अबलबह । 'सुथी सया वियडभाचे असंसत्ते जिइंदिए' त्ति सुरीणाम अकलुसमयी, अहवा सो चेव मुई जो सदा
लावियडभावो, जिइंदिओ णाम जिताणि सोयाइणि इंदियाणि जेण सो जिइंदिओ, गिहीहि संवसणदाणकारणाईहिं वद्यमाणो संसनो, ट्र ॥२८५।।
न संसतो असंसतो, जियाणि सोईदियादीणि जेण सो जिइंदिओ, सो य साहू आयरियकुले वसमाणो-'अमोहं वयणं कुज्जा। ॥३६७ ।। सिलोगो, अमोहं णाम अझंति वुत्तं भवति, आयरिया पसिद्धा, महप्पणो नाम महतो अप्पा सुयादीहिं जेसि ते महप्पा तेर्सि महप्पणो, अमोहं वयणं कुजाति, तेहिं जया संदिट्ठो भवइ, जहा मम अमुगं कज्ज करहि, तओ तसि वयणं सिरसा पणमिऊण तहत्ति वायाए परिगिपिहऊण कम्मुणा उववाएज्जा, आह-किमत्थमयं पयासा?-, आयरिओ भणइ--'अधुचं जीवि नच्चा०' ।। ३६८ ॥ सिलोगो, अधुर्व असासयं जीविअंजाणिऊण, सिद्धिमग्गं च णाणदंसणचरित्तमइयं तित्थंकरोबएसेण जाणि-18| ऊपा, परिमितं च आउं अत्तणो णाउं भोगेहि कहयफलविवागेहि विविह-अणेगप्पगार णिब्बिसेज्जा, किंच-'जाव जरा न ॥२८५।। पीडेई०॥३७० ॥ सिलोगो, जाव जरा विरूवकारिया नागच्छति, जाव बाधी दुरंतो ण जायति, जाब सोतादि इंदिया अप्पणो पहुरुच विसयं ण हायति ताव जिणोवदिई धम्ममायरेज्जाति, तस्स य धम्मस्स विपरिजाणणस्थमिदमुच्यते--'कोहं माणं |
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
Ramnate
4
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||३३५
३९८||
दीप
अनुक्रम
[ ३५११४]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५ - ३९८/३५१- ४१४] निर्युक्तिः [ २९५-३१० / २९३-३०८ ], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशकालिक
चूणी
८ आचार प्रणिधौ
॥२८६ ॥
च मायं च० ॥ ३७१ ॥ सिलोगो, तेसि कोहादीणमणिग्गहियाणं [च] इहलोइओ इमो दोस्रो भवद्द, तंजहा--' कोहो पीतिं पणासेइ० ' ।। ३७२ ।। सिलोगो, क्रुद्धो तारिसं जोगं जुजई जेण चिराणुगतावि पाति भाइमाइपितादीणं णासह, ' माणो वियनासणी' आयरियाणं अन्हाणादीविणयं नासेर, मायाए उअचरमाणो सहदारदरिसिणमवि मित्तं, किं पुण जे सेस मित्तत्ति, लोमो पुर्ण सव्वाणि एयाणि पीतिविणयमित्ताणि नासेइति, तं०-मिउणोविय तायस्स पुत्तो लोभेण रूसेइ, लोभे य अदिज्जमाणेण पडिष्णमारुभेज्जा, जहा अवस्सं मए भागं दवावेमि, मायाए तमत्थं गिण्डिऊण अवलवेज्जा, अओ लोभो सथ्यविणासणी, अहवा इमं लोगं परं वा लोगं दोऽवि लोभेण णासयइति सव्वविणासणो य, जम्हा एते दोसा कोहादीणं अओ 'उबसमेण हणह को०' || ३७३ || सिलोगो, उपसमो खमा भण्णइ तीए कोहस्स उदयनिरोधो कायव्बो, उदयपत्तस्स (वा) विफलीकरणं, माणमवि महवयाए जिणेज्ज, महवया अणुस्सित्तया भण्णइ, तीए महवयाए माणोदयनिरोधो कायच्यो, उदयपत्तस्स विफलीकरणं, मायमवि अज्जबभावेणं, लोभमवि 'संतुट्टिये जिणे ' ' संतुट्ठी ' णाम संतुट्टयाए लोभोदयनिरोहो कायो, उदयपत्तस्स विफलीकरण इदाणि तेर्सि कोहादीणं परलोगापायोवदरिसणत्थमिद पुव्यत: कोहो अ माणो अ अणिग्गही आ० ॥ ३७४ ॥ सिलोगो, कोहादि अणिग्गहिता विवद्धंति, विवद्रुमाणाय चउरोऽवि एते पञ्चकखा 'कसिणा कसाया सिंचंति मूलाई पुणम्भवस्स कसिणा नाम संपुण्णत्ति, अहवा संकिलट्ठा कसिणा भवंति पुणभवो संसारी भण्णइ, तस्स पुणम्भवद्द्मस्स मूलाणि सिंचति त्ति, तेण य साहुणा कसायनिग्गहपरेण इमं कायव्यं - ' रायाणिएस विषयं पउंजे० ' ॥ ३८५ ॥ सिलोगो, रायाणिआ पुव्वदिखिया सम्भावोवदेसगा वा, जे वा अन्ने पूया, ते सब्बरायाणिएस विषय परंजेज्जा, तहा ध्रुवसीलयमवि णो हायएज्जा, घुबसी
[299]
क्रोधादेजयः विनयादि
॥२८६॥
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
श्रीदन-रालयं णाम अट्ठारससीलंगसहस्साणि, तेसु समयं उज्जुत्तो भवेज्जा, 'कुम्मोव्व अल्लीणपलीणगुत्तो, परक्कमिज्जा तवसं-भिमणधर्म वैकालिक जमंमि' ति, जहा कुम्मो सए सरीरे अंगाणि गोवेऊण चिट्ठा, कारणेवि सणियमेव पसारेइ, तहा साहवि अल्लीणपलीणगुचो
चूर्णी परकमेज्जा तवसंजमंमित्ति, आइ-आलीणाणं पलीणाणं को पइविससो ?, मण्णइ, ईसि लीणाणि आलीणाणि, अच्चत्थलीणाणि | ८ आचार- पलीणाणित्ति, किंच-गिई च न बहुमन्निज्जा.' ॥ ३७६ ।। सिलोगो, णि च न बहुमन्निज्ज' ति बहुमनिज्जा नाम
नो पकामसायी भवेज्जा, तहा 'सप्पहासं विवज्जए ' सप्पहासो नाम अतीव पहासो सप्पहासो, परवादिउ«सणादिकारणे लाजइ इसज्जा तहावि सप्पहास विवज्जए, तहा-'मिहोकहाहि न रमे' तिमिहोकहाओ रहसियकहाओ भणति, ताओ
इस्थिसंबद्धाओ वा होज्जा अण्णाओ वा भत्चदेसकहादियायो तासु ण रमेज्जा, अज्झयणमि रओ सया' अज्झयणं सज्झाओ भण्णइ, तंमि सझाए सदा रतो भबिज्जत्ति, 'जोगं च समणधम्ममि० ।। ३७७ ॥ सिलोगो, जोगा विविहो तस्स जत्तत्थि दसविहे समणधम्मे उपयोगो तत्थ जुजेज्जा । इदाणि समणधम्मफलोवदरिसणस्थमिदमुच्यते- जुत्तो अ समणधम्ममि'
ति, जुत्तो दसविधे समणधम्मे साहू। इहलोइयं परलोइयं अत्थं अणुत्तरं णाम अणुत्तरति अणुत्तमंति वा एगट्ठा, तं च फलमिद्रा मेण भण्णाइ, तं०--'इहलोगपारत्तहि ॥ ३७८ ॥ सिलोगई, इहलोमपरलोइयं सुहनिवई फलं पावइ सो, जेण सुगतिमरण || भवतित्ति, किंच-'बहुस्सुयं पज्जुवासिज्जा० ॥ ३७८ ॥ सिलोगपच्छद्ध, बहुमुयगहणेणं आयरियउचज्शायादीयाण
॥२८॥ गहणं, एवंविहं बहुस्सुर्य पज्जुबासेज्जा, पज्जुवासमाणो य अत्यविणिच्छय पुच्छिज्जा, विणिच्छओ णाम विणिच्छओत्ति वा अवितभावोत्ति वा एगढ़, सो य पज्जुवासणोवायो इमो, तं०-'इत्थं पायं च०॥ ३७९ ॥ सिलोगो,
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
... अत्र श्रमणधर्मस्य फलम् वर्णयते
[300]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||३३५
३९८||
दीप
अनुक्रम [३५१
१४]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५ - ३९८/३५१- ४१४] निर्युक्तिः [ २९५-३१० / २९३-३०८ ], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण.
८ आचार
प्रणिधीः
॥२८८॥
हत्थो पायो कायो य पसिद्धा, ते हत्था पाया काया पणिहाय 'जिदिए' त्ति, पणिहाय णाम इत्थेहिं इत्थवट्टगादीणि अकरं पाएहिं पसारणादीणि अकुष्यंतो कारण सासणगार्दाणि अकुर्व्वतो, जियाणि इंदियाणि जेण सो जिईदिओ, अल्लीणो नाम ईसिलीणो अल्लीणो णातिदूरत्थो ण या अच्चासण्णो, गुत्तो णाम मणसा असोभर्ण संकष्पं वज्जयंतो वायाए कज्जमेतं भासतो, णिसीएज्जा णाम उवविसेज्जति, सकासे नाम समीवे, गुरु पसिद्धो, मुणित्ति वा णाणित्ति वा एगट्ठा। किंच 'न पक्खओ न पुर ओ०' || ३८० सिलोगो, णकारी पडिसेद्दे वट्टह, पक्खओ नाम पासओ, पासओ चिमाणस्स इमे दोसा भवति, तं० कचसमं भासमाणस्स सहा पोग्गला कर्म अणुपविसंति, तेसिं च कण्पणं अणुपविसमाणेहिं अणेगता भवइ, एवमादि, तहा पुरओऽवि न वढ्इ, पुरओ नाम अग्गओ, तत्थवि अविणओ वेदमाणा च बन्धाओं एवमादि दोसा भवतिचिकाऊण पुरओ गुरूण नवि चिज्जत्ति, 'व कच्चाण' किच्चा आयरिया तेसिपि पिट्ठओ न चिट्ठणादणि कुज्जा, तत्थ अविणयदोसा भवेतित्ति, 'ण य ऊरुं समासिज्जा' णाम ऊरुगं ऊरुस्स उवरिं काऊण ण गुरुसगासं चिट्ठेज्जन्ति, तत्थवि अविणदोसा भवतित्ति, कायपणिधी गया। इदाणिं वायाए पणिधी भण्णइ- अपुच्छिओ न भासेज्जा०' || ३८१ ॥ सिलोगो, 'अपुच्छिओ' णिकारणे ण भासेज्जा, भासमाणस्स अंतरा भासं ण कुज्जा, जहा जं एवं ते भणितं एयं न, एवं 'पिडिमंसं ण खाएज्जा', जं परंमुहस्स अवबोलिज्ज तं तस्स विडिमंसभक्खणं भवद्द, तहा- 'मायामांसं विवज्जए' मायाए सह मोसं भायामोसं, न मायामंतरेण मोसं भासह, कई ?, पुचि मासं कुडिलीकरे पच्छा भासह, अहवा जं मायासहिये मोर्स तं विवज्जए, जं पुण इतरहा भासेज्जा, जदा जं एवं ते भणितं एवं न, एवं पिडिमसाण अह अप्पत्तियआसुकोवाण को पतिविसेसो ?, भण्णह- अप्पत्तियं० ॥ ३८२ ॥ सिलोगो, अप्पत्तियमेव
[301]
कार्यवाग्मनोप्रणिधिः
॥२८८॥
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
चूणौं ।
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गाथा ||३३५३९८||
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श्रीदश-14 आसुकोहो पुणा तक्षणमेव अक्कोसह आहणति बा, 'सब्यसो तं न भासेज्जा, भासं अहिअगामिणि' ति, सध्यसो नाम कार्यवाग्मवैकालिक सव्वकालं सब्यावत्थासु, अहितगामिणि भास ण भासेज्जा, अहियगामिणी नाम इहलोगपरलोगमाहितगामिणी । इदाणिं भासणो- नोप्रणिधिः
वायो भवति- बिटु मितं ॥ ३८३ ।। सिलोगो, दि8 नाम जे चक्खुणा सयं उवलद्धं, मितं दुविह-सइओ परिमाणी य, सदओ। ८ आचार
अणउब्वं उच्चारिज्जमाणं मितं, परिमाणओ कज्जमेनं उच्चारिज्जमाणं मितं, असंदिद्धं णाम निस्संकिर्य, पड्डप्पन णाम प्रणिधौ ६
सरवंजणपयादीहिं उबवे, वियंजितं णाम वियंजितंति वा तत्थंति वा एगहा, अजंपिरं नाम जं नो अलग्गविलग्ग, अणुम्विग्ग ॥२८९॥ ४
नाम अवलं अभीयं, भासा पसिद्धा. णिसिरे णाम भासतित्ति बुत्वं भवति, अत्तवं नाम अचवंति वा विनवंति वा एगट्ठा, एस वइपणिधी अविसेसेण भणिता, इमा सपक्खे भण्णइत्ति-'आयारपन्नत्तिधरं ॥ ३८४ ॥ सिलोगो, 'आयारपन्नत्तिधरं' ति आयारधरो इस्थिपुरिसणपुंसगलिंगाणि जाणइ, अधिज्जियगहणेण अधिज्जमाणस्स बयणखलणा पायसो भवइ, अधिज्जिए पुण निरवसेसे दिहिवाए सवपयोयजाणवत्तणेण अप्पमत्तणेण य चतिविक्खलियमेव नस्थि, सबवयोगतवियाणया असहमवि | सई कुज्जा, वायविक्खलिय नाम विविधमनेगप्पगारं वदणं खलियं भण्णइ, जहा घडं आणेहित्ति (भाणियब्ने घर्ड आणमित्ति)। भणिय, पुष्वाभिहाणं वा पच्छा उच्चारयइ, जहा सोमसम्मोत्ति भणियन्वे सम्मसोमोत्ति भणियं च, एवमादि वायविक्खलियं नाऊण न त उवहसे मुणिति, जा आयारपनातिधरा दिद्विवायमधिज्जगा य भाणियब्वे स्खलंति किमंग पुण सेसगा। किंच- IN ॥२८९॥ 'नक्खत्तं सुमिण' ॥ ३८५ ॥ सिलोगो, गिहत्थाण पुच्छमाणाण णो णक्खचं कहेज्जा, जहा चंदिमा अज्ज अमुकेण णक्खत्वे| ण जुत्ताोत्त, अहातचे पदाणे चिंता, सुमिणे अव्यत्तदंसणे, एतेसिं सुमिणादीणं विवागं फलं च, जोगो जहा ' दो घयपला मधु
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा ||३३५३९८||
॥२९
॥
श्रीदश-18| पलं दहियस्स य आढयं मिरीय बीसा । खडगुला दो भागा एस रसालू निवजोगो ॥१॥ अहवा निदेसणवसीकरणाणि मनोगुप्तिः वैकाालक जोगो भण्णइ, तंजोग न कहेज्जा, निमित्तं तीतादी, मंतो- असाहणो 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं विज्जा
चूणी | गहिता, भेसजे ओसह भण्णइति, अनं एवंविहं नाइक्खेज्जा, किं कारणं', 'भूताधिकरणं पदंति भूताणि-एगिदियाईणि तेसिंग ८ आचार
संघट्टणपरितावणादीणि अहियं कीरति मि तं भूताधिकरणं 'पदं पदं णाम पदंति वा भूताधिकरणांत या हणणंति चा एगट्ठा, प्रणिधौ
बडगुत्तया गया। याणि मणगुत्तया भण्णइ, सा य मणगुत्तया उवस्सयगुणेण सह कीरइत्ति अतो उपस्सयो भण्णा, तंजहा'अनहुँ पगडं लयर्ण ॥ ३८६ ।। सिलोगो, 'अनहूँ पगई' अनट्ठगहणेण अनउस्थिया गहिया, अड्डाए नाम अननि-12 मिन, पगडं पकप्पियं भण्याइ, लयणं नाम लयर्णति वा गिहंति बा एगट्ठा, तमन्नट्ठ पगडं लयणं साधू, भइज्जा णाम सेवेज्जा, ५ सयणं संधारओ, आसणं कट्ठपीठगादी, ताणि आसणसयणाणि अचस्स अट्ठाए कप्पियाणि णो भइज्जा, तं च लेणं जइ उच्चार-IN भूमिसंपनं भवति, 'एगग्गहणे गहर्ण तज्जातीयाण'मितिकाउं पासवणइभूमी गहिया, जत्थ ताओ उच्चारपासवणभूमीओ वारिसे ठाइयब्ब, तहा इत्थीहि विवज्जियं परहि य महीसुट्ठियएडगगयादीहिं, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण "मितिकार्ड णपुंसगविवज्जियांप, विवज्जियं नाम जत्थ तेसिं आलोयमादीण णत्थितं विवज्जियं भष्णइ, तस्य आतपरसमुत्था दोसा भवतित्तिकाउंण ठाइयव्यं । किंच-'विवित्ता अ भवे सिज्जा' ॥३८७॥ सिलोगो, तीए विवित्ताए सज्जाए णारीणं णो कह
9 ॥२९॥ कहज्जा, कि कारणं, आतपरसमुत्था बंभचेरस्स दोसा भवंतिचिकाउं, भणियं च-'आसावा(सहदेसणा)ओ पम्मपति सिलोगो, | एवमादि, तहा 'गिहिसंघवं न कुज्जपति गिहीहिं सह संधर्व न करेज्जा, गिहिसंथवो नाम गिहिसंथवर्ण, मचेरस्स विराह
INSASROCHECASTE
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
वचन-मनो-कायगुप्ते: वर्णनं क्रियते
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
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[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
ANSKRECAS
A6
श्रीदश-पटणादि दोसा मर्वतित्ति, तं गिहिसंथ वज्जयंतो कुज्जा साहहिं संथर्व, समणाणं संयवंति, (वज्जणिज्जा) बसहीसु सब्बपगारेण*
ब्रह्मरक्षा वैकालिक | इत्थीओ, कम्हा?,'जहा कुक्कुडपोअस्स०॥३८॥सिलोगो, कुक्कुडो पसिद्धो, पोतो णाम अपक्खजायओ, जहा तस्स कुक्कुङ
चूर्णी पोतस्स निच्च सम्वकालं 'कुललओ भर्य' तत्थ कुललो मज्जारो भण्णाइ, एवं वंभयारिस्स सब्बकालं इत्थीविग्गहओ भयंति, ८ आचार- विगहो सरीरं भण्णह, आह- इत्थीओ भयंति भाणियव्ये ता किमत्थं विग्गहरगहणं कर्य. भण्णा, न केवल सज्जीवहस्थी-1 प्रणिधौ ४
समीवायो भयं, किन्तु बवगतजीवाएबि सरीरं ततोऽवि भयं भवइ, अओ विग्गहगहणं कयंति। किंच 'चित्तभिर्ति न णिज्झाए013 ॥२९॥
॥ ३८९ ।। सिलोगो, जाए भित्तीए चित्तकया नारी ते चिचभित्ति ण णिज्झाएजा, जीवति च जाहे सोभणेण पगारण हारखहाराईहिं अलंकिया दिडा भवह ताहे तं नारिं सुयलंकितं तं वा तं वा चित्तभित्तिगयं 'भक्खरंपिव दळूणं दिहि पडिसमाहरे' ति, तत्थ भक्खरो भाइच्चो भण्णइ, जहा संमि भक्खरे निवइया दिडी उवधायमया पडिया साहरिजइ तहा चित्तकम्मगयंक नारी सजीव वा अभूसियं भूसियं वा दट्टणं बंभचेरविराहणमया दिट्ठी परिसाहरेजा। हत्थपादपलिच्छितं.' सिलोगो, जीए नारीए हस्थपाया पलिच्छिन्ना सा हत्थपायपलिच्छिन्ना, न केवलं हत्थपादपलिच्छिमा, किन्तु कण्णनासा | विविध-अणेगप्पगारं कप्पिया जीए सा कन्ननासाविकप्पिया, तमेवप्पगारं इत्यादिछिन्नं अवि वाससयमवि नारिं दूरओ परिवज्जए,8 अविसद्दो संभावणे वइ, किं संभावयति !, जहा जइ हत्यादिछिन्नावि बाससयजीवी दूरओ परिवञ्जणिज्जा, किं पुण जाता ॥२९ ॥ अपलिच्छिना वयत्था वा?, एवं संभावयति। किंच-'विभूसा इत्थिसंसग्गी० ॥३९१॥ सिलोगो, विभूसा नाम पहाणुव्वलणउज्जलवेसादी, इत्यिसंसग्गी नाम अक्खाइगउल्लावादी, पणियं निद्धपेसलं वण्णादिउववेयं, पणीय एवं रसो जस्सा
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दीप अनुक्रम [३५१४१४]
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[304]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||३३५
३९८||
दीप
अनुक्रम [३५१
१४]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३३५-३९८/३५१-४१४], निर्युक्तिः [ २९५ - ३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदणवैकालिक चूण.
८ आचार प्रणिधौः 8
॥२९२॥
भोयणस्स तं पणीतरसमोयणं, एताणि विभूसाईणि 'धारस्तत्तगवेसिस्स त्ति तत्थ अत्तगबेसणो णाम णरगेसु पडमाणं अन्ताणं गवसतीति अत्तगवेसिणो, अहवा मरणभयभीतस्स अत्तणो उपायगवेसित्तेण अत्ता सुद्ध वा गवेसियो जो एएहिंतो अप्पाणं विमोएड तस्स नरम्स हियगवेसियस्त एताणि विभूसाईणि 'विसं तालपुढं जहत्ति' तालपुडं नाम जेणंतरेण ताला संपूडिज्जति तेणंतरेण मारयतीति तालपुढं, जहा जीविकषिणो नो तालysविसभक्खणं सुहावहं भवति ता धामण नो विभूसाईणि सुहावहाणि भवतित्ति तहा- 'अंगपचंग सं ।। ३९२ ॥ सिलोगो, तत्थ अंगाणि हत्थपायादीणि, पचगाणि णयणदसणाईणि, संठाणं समचउरंसाई, अहवा तेसि चैत्र अंगाणं पञ्चगाण व संठागहणं कर्यति चारुसो सोहणस्थे बद्द, लवियं भावियं पेहियं एतेहिं जं अंगपच्चंगठाणादीनं अण्णतरं तं णो इत्थी निज्झाएज्जा, किं कारणं ?, जम्दा 'कामरागविवङ्गणं' ति । किंच - 'बिसएस मणुपणेसु० ॥ ३९३ सिलोगो, सहादिसु बिसएस मणुभेस पेमं अभिनिवेसेज्जा, पेमं नाम पेमंत वा रागोत्ति वा एगहा, 'एगरगहणे गहणं तज्जा| तीयाण' मितिकाउं श्रमण सुवि दोर्स न गच्छेज्जा, आइ-ननु कृष्णसोक्खेहिं चत्र एस अन्थो मणिओ, किमत्थं पुणो गहणं कर्यति', आयरिओ आह--' पुय्वभणियं तु जे भण्णइ तन्ध कारणं अस्थि, पडिसेधो अणुण्णा कारणं च विसेसोवलंभत्थं पुणरुत्तदोसो न भवइ सोय विससोवलंभो इमो, तं० अणिच्चं तसं विन्नाय परिणामं पुग्गलाण उ सद्दादणं इंद्रियविसयाणं जे पोग्गला तेसि जो परिणामों, मणुना नाम निच्चं नाऊण रागो ण कायव्यो, अमणुन्नपरिणामे य दोसो न कायच्या, भणियं च ' ते चित्र भिसा पांगला दुभिसत्ताए परिणमंति, दुम्भसा पोग्गला सुम्मिसत्ताए परिणमंति, ण पुण जे मणुना ते मणुन्ना
... अत्र 'विषय' वर्जनं वर्णयते
[305]
विषयवर्जनं
॥२९२॥
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक -, मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
विषयवर्जन
E
[१५...]
गाथा ||३३५३९८||
व भवति, अमणुना वा अच्चतममणुना एव भवंति, एवं रूवादिसवि भाणियब्वं, अतो 'पोग्गलाणं तु परिणाम' ॥३९४॥ वैकालिका सिलोगो, पोग्गला पसिद्धा, परिणामो भावंतस्गमणं, तेसिं पुब्बभणियाणं गहणं कयं, णच्चा णाम णाऊणंति, जहा तहा णाम |
चूर्णी व |जहा तेसिं वण्णगंधादीण परिणामो जिणेहि भणिओ तहा पाऊणं, 'विणीयतण्हो विहरेज्जा' तेसु सद्दादिसु विसएसु | ८ आचार तण्हं विणेऊण विहरेज्जा, 'सीईभूएण अप्पणा' इति, तत्थ सीओ विज्झाओ भण्णइ, जहा अगणी सीतो अदाहगो भवइ, | प्रणिधो|8| विणीयतण्हो विहरेत्ति, कोहादीहिं सीतभूअप्पणा विहरिपब्बति । आह-केवइयं बिहरियब?, भण्णइ-'जाए(इ)सद्धाइ निवतो' ॥२९॥
८॥३९५ ।। सिलोगो, 'जाए' ति अणिदिट्ठाए गहणं, सद्धा परिणामो भन्नइ निक्खंतो णाम णिक्खंतोत्ति वा पब्बइआचि वा
एगट्ठा, ' परियायहाणं णाम पव्वज्जाठाणं, उत्तम णाम पधाणं, तमेव अणुपालिज्जत्ति, तमेव परिआयट्ठाणमणुपालेज्जा, तं च 8परियायट्ठाणं मूलगुणा उत्तरगुणा य, ते गुणा अणुपालेज्जा, 'आयरिअसंमओ' ति आयरिया नाम तित्थकरगणधराई तेसि | |संमए नाम संमओचि वा अणुमओचि वा एगट्ठा। इयाणिं आयारपणिधीए फलं भण्णइ-तवं चिम संजमजोगयं च | सिलोगो, तबपि संजमहं, जो खुहपिवासाई तवो मणिओ तं तब, पुढविकायादिसंजमजोगो तं च, पंचविहसज्झायजोगं च सदा अहिट्टए, आह-गणु तवगहणेण सज्झाओ गहिओ?, आयरिओ आह-सच्चमेयं, किन्तु तवभेदोपदरिसपत्थं सज्झायगहणं कयं, सो एवं तवसंजमस्स य जोगजुत्तप्पा 'सूरे व सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं' ति, जहा कोई पुरिसो चउरंगवलसमन्नागताए सेणाए अभिरुद्धो सपनाउदो असं (सूरो अ) सो अप्पाणं परं च ताओ संगामाओ नित्थारेउन्ति | अलं नाम समत्थो, तहा सो एवंगुणजुत्तो अलं अप्पाणं परं च इंदियकषायसेणाए अभिरुद्धं नित्थारेउंति । तहा 'सज्झापसज्झा
CXCCC
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
॥२९३॥
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [८], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा: [३३५-३९८/३५१-४१४], नियुक्ति : २९५-३१०/२९३-३०८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा ||३३५३९८||
श्रीदश-18/ णरतस्स.' ॥३९॥ सिलोगो, सझाओ व सज्झाणं तमि रतस्स, अहवा साझाए य झाणे य समायझाणे य रयस्स-13 वकालका चि, 'ताइणो' तायतीति ताया तस्स ताइणोत्ति, अपावो भावो जस्स सो अपावभावो तस्स अपावभावस्सत्ति, तबो चारस-1
प्रणिधेः चूणी विहो तंमि रतस्स गहणं, सिात साहुणो निदेसो, मलंति वा पार्वति वा एगट्टा, पुचि कयं पुरेकयं तस्स पिहियासवस्स नवं ण
रह उवचिज्जइ, पुरेकडं विमुज्झइ, 'समीरियं कप्पमलं व जोइणा' (जहा रुपमलं जोइणा) समीरिअं भवा, तस्थ जोती| प्रणिधौ
दि अगणी भण्णइ, समीरियं नाम सामं, अगणी मलावकरिसणसमत्थेण ताव तं ' से तारिसं' (स) ॥३९८॥ सिलोगो, सेत्ति ॥२९४012 साधुणो निसो, तारिसी जो दाणिं हेडा तवसंजमादिजुत्तप्पा भणिओ, दुक्खं सारीरं पा सहतीति दुस्खसहे, सोतादीणि
| जियाणि इंदियाणि जेण सो जिइंदिए, सुतं दुवालसंग गणिपिडर्ग तेण जुत्तेण, तस्स ममत्तं कत्थ भवतीति अतोऽममे अकिंचणे,
किंचणं चउम्बिधं तं०-णाम० ठवण. दब्ब० भाव. मेदात्, तत्थ दबकिंचणं हिरण्णादि, भावकिंचणं मिच्छत्सअविरतीमादि, मात दग्वकिंचर्ण भावकिंचणं च जस्स पत्थि सो अकिंधणो, एवंगुणजुत्तो साह विमुच पुथ्वकडेण कम्मुणत्ति, अविधेण ला कम्गुणा विसेसेण मुच्चा विमुच्चद । कह , जहा- 'कसिणभपुडावगमे व चंदिमि' ति कसिणाणं अम्भाणं पुढं कसिणभ-11
पुढं कसिणम्भपुडमुफो जहा सरए ससी सोभति सोऽवि कम्ममेहपुडावग्गमे विरायतित्ति, बेमि नाम तीर्थंकरोवदेशात् सुधम्में13 स्वामिन उपदेशाच प्रीमि, न स्वाभिप्रायेणेति । इयाणि गया-'णायंमि गिीण्हयब्वे अगिहियव्यंमि नेप अत्थंमि । जइतब्वमेव इइ ॥२९॥ &ाजो उवएसो सो णयो नाम ॥१॥ सम्वेसिपि नयाण बहुविवत्तथ्वयं निसामेत्ता। तं सवनयविसुद्धो, जे चरणगुणढिओसाहू ॥२॥
इति दशवकालिकचूर्णी आचारप्रणिध्यध्यनचूर्णी सम्मत्ता।
SHORTAINABALIGAR
दीप अनुक्रम [३५१४१४]
अध्ययनं -८- परिसमाप्तं
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[१५...]
गाथा
||३९९
४१५||
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अनुक्रम
[४१५
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [९], उद्देशक [१] मूलं [१५...] / गाथा: [ ३९९-४१५/४१५-४३१], निर्युक्तिः [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र -[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
एतेन य आयारविणयो नायब्बो, नाऊण य जेसिं पभावेण आयारे ठिओ तेर्सि संबंधेणागयस्स अज्झयणस्स चत्तारि अणुयोगद्दारा भाणियब्बा जहा आवस्सए गवरं णामणिष्फन्ने विषयसमाधी, दो पदा-विणओ समाधी य, दोण्डंपि पदाणं इमो निक्खेवो 'विणयस्स समाहीए० ।। ३११ ॥ गाथापुन्बद्धं विणयस्स समाहीए य दोण्हवि चउकओ निक्खेवो भव, तत्थ विणयस्स ताव चउकओ निक्खेवो भवद, तं० णामविणओ उवणाविणओ दव्वविणओ भावविणओति, नामटवणाओ गयाओ, दव्यविणओ ४ इमेण गाहापच्छद्वेण भण्ण- तं० दव्बविणयंमि तिणिसो, जं दव्वं इच्छिण परिणामेण परिणम तं दुष्यविषयं भष्णइ, ||२९५॥ है जहा तिणिसो रहंगेसु जत्थ जत्थ पडिहायह तत्थ तत्थ परिक्रम्मेऊण कीर, तहा सुवण्णदव्वमचि विणयं, तत्थचि जं जं कुंडलाई | पडिहायति तं तं कीरह, आदिग्गहणेण अभाणिवि रूप्पमाईणि गहियाणि, दब्बविणओ गओ । इदाणिं मात्रविणओ मण्णः'लोगोवयारविणओ०' ॥ ३१२ | गाथा, लोकोपचारविणओ अत्थविणंओ कामविणओ मयविणओ मोक्खविणओ य, तत्थवि लोगोपचारविणओ इमो, ०- 'अभुद्वाणं अंजलि ०' ।। ३१३ ॥ गाड़ा, अडाणं णाम जे अम्भुङ्काणरिहस्त आगयस्स अभि मुहं उड्डाणं, अंजलियं उडिओ वा निसस्रो वा कुज्जा, आसणदाणं पायसो सव्वस्स गिहमागयस्स कीरह, तहा अतिहिस्स आगतस्स दिवस दो वा दिवसे भत्तवसहिमादीहिं संपूर्ण कीरह, तहा जो जस्स देवो तस्स पुव्वं पलिवइस्सदेवाति काउं जहाविभवे
पच्छा मुंज, एस अब्भुडाणाइ देवयप्यापवज्जसाणो लोगोपचारविणओ भणिओ । इदाणिं अत्यविणओ मण्णइ- 'अन्भासवित्तिछंदाणुवत्तणं०॥३६४॥ गाहा, जं अस्थ भावे निवेसिऊण रायाईणं विणयं करेइ सो अत्थविणओ मण्णइचि, दस्थ पढमं अन्मासे विणओ भण्णइ अवभासं नाम आसनं तंमि आसने वट्टतीति अन्भासवची, जहा अमन्चो रायादीप, किंकरा आणत्तिय
श्रीदशवैकालिक
चू
९ अध्य.
... अत्र विनयस्य विविध-भेदाः वर्णयते
अध्ययनं - ९ - 'विनय-समाधि' आरभ्यते
[308]
लोकोपचार विनयः
।। २९५ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति : [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||३९९४१५||
श्रीदश- पडमाणं पडिच्छमाणा अच्छंति जतं छंदाणुवत्तणं, छंदाणुवत्तणं णाम छन्दो अभिष्पाओ भण्णइ, तस्स अणुवतणं छन्दाणुवत्तण, अर्थादिवैकालिका जहा एकको रायाण उलग्गइ, रमा भणिय- निप्पयोयणाणि एताणि वातिगणाणि, ओलगएण भणियं-देव ! छड्डियन्वनिमिचा
विनया: चूर्णी.
एतेसि एतेंडा कया, अन्नया रमा भणियं-लट्ठाणि वार्तिगणाणि, ततो ओलग्गएण भणियं--देव ! अहट्ठगा एते तरंति, एवमादि। ९ अध्य.
छदाणुवत्तणविणओ भवइ, 'देसकालवाणं णाम जदा रण्णो विदेसगतस्स कालं वा तारिस पप्प पाणएण कज्ज भवइ तदा ॥२९६।।
भण्णति सामि ! तुम्भंचएणं पभावेण इमं अस्थि एवं घप्पउ, सो तं गिहिउँ पच्छा बहुतरगं देव, णिओए वा तारिसे या व्यति, तित्थ बहुतरं उप्पज्जति, एवमादि, तहा अत्यनिमिचमेव राईसराईणं उलग्गया अब्भुहाणं कुब्वंति, तहा 'अञ्जलिं' देवति। | अंजलि कुष्पति, तहा उबेसिउकामस्स आसण उवणेति, एयाणि अम्भासयत्तिमादीणि आसणपदाणपज्जवसाणाणि अस्थस्स कारणे कुन्यतित्ति, अत्यविणओ गओ । इदाणि कामविणओ भण्णइ, कामविणो य इमेण गाहापुब्बीण भण्णइ, संजहा- 'एमेव कामविणओ.' ।। ३१५ ।। गाहा, जहा अस्थीनीम अब्भासवत्तिमाइणि कुति तहा कामनिमितं इत्थीण अभासवत्तित्तण कुय्यंति, भणियं च- "अंब वा निर्ष वा अब्भासगुणणं तु नूणमल्लियह । वल्लिसमा किर महिला मा हु पयास चिरं कासी ॥१॥
ततो माहज्जेण महिलाजणाहीरइत्तिकाउं छन्दाणुवनणमपि कुब्बति, देसे काले च वासादीणि अस्थदलयात, एवं अम्मुट्ठाण 51 अंजलिपग्गहासणप्पदाणेण गणियादीहि हारति, भयविणए दासभयगादि अन्भासवत्तित्तणमादीणि कुवंति, कामविणयभयशविणया गया दोऽविदाणि मोक्खविणी भण्णइ-त०'मोक्खं मिऽपि पंचवियोगाथापच्छद्धं, मोक्तविणा पंचविधाल
२९६॥ | भवति, तस्स इमा परूवणा-तंजहादसणनाणचरित्ते० ॥३१६।। गाहा, सो पंचविहो मोक्खविणओ इमो, जहा-दसणविणओ
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दीप अनुक्रम [४१५४३१]
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%
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||३९९४१५||
SC
श्रीदश-नाणावणारा
नाणाणओ चरितविणओ तबविणओ उवयारविणओत्ति, तत्थ नादसणिस्स नाणं चरितं च भवतिचिकाउँदसणविणओ पुवं भणइदिशादि वैकालिकासो य इमो, तंजहा-'दब्वाण सधभावा०' गाहा, (३१७) दव्वा दुविधा, तंजहा-जीवदया अजीवदच्या य, तेसिं व्वाण विनयः
चौँ सव्वभावा ' सबभावा णाम सब्बपज्जायत्ति, ते दब्बओ खेसओ कालो भावओ य, जे जहा जिणवरेहि दिट्ठा भावा ते तहा। ९ अ.उ. सदहमाणस्स देसणविणओ भवति, दंसणविणओ गओ । इदाणि णाणविणओ भण्णइ, तंजहा-माणं सिक्खह' ॥३१८॥
गाहा, जं नाणं साहू सिखेड(अ)पुण्यागर्म करेइ, तमेव सिक्खितं गुणाति, गुणाति णाम गुणेतित्ति वा परियतित्ति वा एगट्ठा। ॥२९७||
लातेण णाणेण किच्चाणि -संजममाइयाणि कुब्बति, तदुबएसेणंति वुत्तं भवति, तदुवउत्तो य नाणी णवं अट्ठविध कम्मं न बंधई, पुराणं |
च निज्जरेइ, जतो य एवं अतो णाणविणओ भण्णइ, णाणविणओ गओ। इयाणि चरित्चविणो भण्णइ---अट्टविहं कम्मचर्य | ४ारियं) ॥ ३१९ ॥ गाथा, जम्हा चरिते जयमाणो अढविहकम्मचर्य'-- पुंज जाव रित्तं करेइ, अन्नं च नवं न पंधति, तम्हा
चरित्तमेव विणओ भण्ातित्ति, चरित्तविणओ गओ । इदाणि तबविणओ भण्णइ, तंजहा-'अवणेति ॥ ३२० ॥ गाथा कण्ठ्या, तबविणओ गओ । इदाणि उवयारविणओ भष्णइ, तंजहा-'अह ओवयारिओ खलु (पुण)' ।। ३२१ ॥ गाहा, अहसदो अधिगारे बट्टइ, जहा तवविणा ओवयारिओ अणतरोति, सोय ओवयारियविणओ दुविधो, तंजहा–'पडिरूवजोग-8 ॥२९॥ झुंजण तहय अणासायणाविणओ' चि, तत्थ पडिरूवजोगजुंजणाविणओ भण्णइ, तंजहा–'पडिरूषो खस्लु विण ॥३२२ ।। गाहा, पडिरूवविणओ विविधो, तंजहा-काइओ वाइशे माणसिओ, तत्थ काइओ अडविधो, चउन्धिहो वाइओ, माणसिओ दुविधी, एतेसिं विण्ह परूवणा कायचा, तत्थ काइयस्स इमा परूवणा, तंजहा-'अन्भुट्टाणं अंजलि.॥३२३॥
दीप अनुक्रम [४१५४३१]
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CI
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] | गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति : [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
प्रतिरूप विनयः
[१५...]
गाथा ||३९९४१५||
श्रीदश- गाहा, सो य अट्ठप्पगारो कायविणओ, तंजहा-अम्भुट्ठाणं अंजलि आसणदाणं अभिग्गहो किईकम्म सुस्मसणा अणुगच्छणं
संसाहणंति, तत्थ अग्भुट्ठाणं अभिमुहमागच्छतस्स उट्ठाण अन्भुट्ठाणं, अंजली हत्थुस्सेहो भण्णइ, आसणदाणं कठ्ठपीढमाईणे : चूणी.
अणुप्पयाण भण्णइ, अभिग्गहो जहा आयरियाणं अमुगं कायर्व एवमादि, किइकम्म वंदणवं भण्णइ, तस्स णातिरे ठाइर्ड जारी ९अउ.१६
पज्जुवासणं सा सुस्सूसा भष्णइ, अभिमुहमागच्छंतस्स आसणपरुनुग्गहणं तमणुगच्छणं भवति, गच्छमाणस्स जं अणुचयणं तं ॥२९८॥
|संसाहणं भण्णइ, कायविणओ अट्टविही गओ। इयाणि वाइयविणओ इमेण गाहापुबद्धण भण्णइ, तंजहा-'हिअमिअ.
॥ ३२४ ॥ अद्धगाथा, सो पुरवसइओ चउब्धिहो विणओ इमो, तंजहा-हियभासी मितभासी अफरुसभासी अणुवीयिभासी, तत्थ हिजं जहा आयरियमाई इहलोगहितं भन्नइ, इह लोगे ताव अपत्थं भुंजमाणं निवारेइ, अन्नं वा किंचि उबइस्सइ, परलोगहियं सीदतं दितुंनो देइ, एवमादि, मितं नाम परिमितिएहिं अक्सरेहिं अणुच्चेण सदेण भणइ, अफरुसवादी णाम तं चेव पियं भयंतो भणइ जहाऽहं तव सीसो, आह ( तुम्हे ) य वक्खाया वरं तो मा अमेण केणइ, एवं सिणेहजुत्वं उल्लावंतो अफरुसवादी भवइ, एवमादि अणुवीइभासी नाम देसकालादीणि अणुचिंतिय २ भणइ, वाइअविणओ गओ। इयाणि मणविणओ इमेण गाहापच्छद्धेण | भण्णइ, तंजहा-'अकुसल.॥ गाहापच्छद्धं, 'अकुसलमणनिरोहो कुलमणउदीरणा चेव ' एसो दुविहो मणविणयो
भवतिचि, मणविणओ गणो। आह-कि निमिर्च एस पडिरूवविणओ कस्स वा एस भवइ, भण्णइ-पडिरूवो खलु विणओ' F॥ ३२ ॥ गाथा, पडिरूवो णाम जो वत्थु वत्थु पड्डच्च अणुरूवो पउंजह सो पडिरूवो भण्णइ, सो य छउमत्थाणं पायसो
पराणुवनिणिमिचं अब्भुट्ठाणादी कीरइ, केवलीणं पुण अप्पडिरूवो णायवो. णो पराणुवचिणिमित्तन्ति वुत्तं भवति, ण ते
दीप अनुक्रम [४१५४३१]
॥२९॥
[311]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||३९९४१५||
श्रीदशवैकालिक
पणों
९अ.उ.१
॥२९९॥
अणुवत्तिनिमित्त विणयं कुवंति, पुवपउचं पुण उवयारं जाव न केणइ पच्चभिण्णाओ ताप करेंति । इदाणि एयस्स तिवि- अनाशाहस्स पडिरूवविणयस्स इमो उपसंहारो गाहापुबई, भगवंतो तित्थकरा चावण्णभेदभिन्नं अणच्चासातणाविणयं कहेंति, ते
य तनाविनय पावण्ण भेदा इमेहि तेरसहि कारणेहिं भवति, तंजहा-'तित्थगरासद्धकुलगण ॥ ३२७ ॥ गाहा, तित्थकरा सिद्धा कुलं || भेदाः ५२ गणो संघो किरिया नाम अस्थि भण्णइ, तं०-अस्थि माया अस्थि पिया अस्थि जीवा अस्थि अजीवा एवमादि, धम्मो गाणं
| समाधिणाणी आयरिया थेरा उवज्झाया गणी, एतेसि तित्थगराईणं गणिपज्जवसाणाणं तेरसण्ई पयोणं भत्तिमादीणि चउरो कारणाणि
निक्षेपाः कीरमाणाणि अणासायणाविणओ पावणाविधी भवति, ते य भत्तिमादी चउरो कारणा इमे, जहा-'अणासायणा य०' ॥ ३२८ ।। गाहा, अणासातणा भत्ती बहुमाणो वनसंजलया, एतेहिं चउहि कारणे एते चावण्णा भवंति, तित्थकराणं अणासायणाए जाव गणिणं अणासायणाए, एको तेरसओ अणासायणाए गओ इदाणि भनीए भण्णइ, तंतित्थकराणं भत्ती जाव गणीण भत्ती, वितिओ तेरसओ, एते दोऽवि मिलिया छब्बीसा भवंति, इदाणि बहुमाणेण भण्णाइ, तित्थगरेसु बहुमाणो जाब गणीणो बहुमाणो, ततितो तेरसओ, पुचिल्लाए छब्बीसाए तेरस मिलिया जाया एकूणचत्तालीस, इदााण वण्णसंजलणयाए भण्णइ, वण्णसंजलणा णाम गुण कित्तणे, तं तित्थगराणं वनसंजलणा जाव गणीणं चण्णसंजलणा, पुबिल्लाए एगूणचचालीसाए तेरस ४ मिलिया जाया पावणति । अणासायणाविणओ गओ, गओ य ओषयारिओ विणओ ॥ इदाणि समाधी भण्याइ-सा या
चउविधा-णामसमाधी ठरण समाधी दव्यसमाधी भावसमाधी, नामठवणाओ पूर्ववत्, दव्वसमाधी इमेण गाथापुवण भण्णइ। इतंजहा-'दब जेण व दम्वेण ॥ ३२९ ॥ अद्धगाथा, दवसमाधी णाम जहा समाहिमत्तओ, जाण व दवाण मिलियाणं
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दीप अनुक्रम [४१५४३१]
% A
...अत्र 'समाधि' शब्दस्य निक्षेपा:, भेदा: आदि वर्णयन्ते
[312]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||३९९
४१५||
दीप
अनुक्रम
[ ४१५
४३१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [९], उद्देशक [१] मूलं [१५...] / गाथा: [ ३९९-४१५/४१५-४३१], निर्युक्तिः [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूणों
९.अ. उ. १
१ ॥३००॥ ॐ
अविरोधो भवति, जहा खीरगुडाणं एवमादि, जेण दव्वेण आहारिएण समाधी भवति, जहा खुहियस्स अण्णेण, आहियं जं दबं सावि दध्वसमाधी, आधियं नाम आरुहियं, जेण दब्वेण तुलाएवि आरुहितेण ण इओ ण इओ तुला णमती समाहेइ य सा दव्वसमाही, दव्वसमाही गया । इदाणि भावसमाही इमेण गाहापच्छद्वेणं मण्णइ, तं०-'भावसमाधी ० ' अद्धगाहा, चउग्विधा भावसमाधी भवद्द, तंजहा- दंसणसमाही पाणसमाही तवसमाधी चरितसमाधी, णामणिष्फणी गओ । इदाणि सुत्ताणुगमे सुत्तं उच्चारेयच्वं तं जहा अणुओगद्वारे, तं च सुतं इथंभा व कोहा ब० ॥ ३९९॥ वृत्तं, स्तंभु स्तंभे, अस्य धातोः अचू सार्वधातुकेभ्य इति 'नंदिगृहिपचादिभ्यो वा ल्युणिन्यचः ( पा. ३-१.१३४ ) इति सर्वे धातवः पचादौ पठ्यन्ते, तेन पचादिपाठात् अच् प्रत्ययः, चकारः 'चित' इति (पा. ६-१-१६३ ) अन्तोदात्तार्थः स्तम्नातीति स्तम्भः एवमवस्थिते 'ध्रुवमपायेऽपादान' मिति (पा. १-४-६४) अपादानसंज्ञा, सत्यामपादानसंज्ञायां अपादाने पंचमी विभक्तिर्भवति, तस्या एकस्मिन्नर्थे एकवचनं ङसि, अनुबन्धलोपः 'टाङसिङसामिनात्स्युः' इति ( पा. ७-१-१२) डसेरात् आदेशः, ' अकः सवर्णे दीर्घत्वं ' स्तम्भात्, थंभो नाम जेण थंभो व ण नमति जातितो सरीरओति सो थंभो भण्णति, माणोति वृत्तं भवह, सो य थंभो जाति मयादीण अनतरावर्द्धभेण गुरूणं सगासे विणएं ण चिह्न, जहाऽहं उत्तमजातीयस्स विणयं करेहामिति एवमादि, 'क्रुप क्रोधे ' धातुः अस्य धातोः ' पदरुजविशस्पृशो ष' त्रिति (पा. ३-३-१६) 'अकर्त्तरि च कारके संज्ञाया मिति (पा. ३-३-१९ ) घञ् प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः अस्य धातोः, पुगंतलघूपधस्येति (पा. ७-३-८६) गुणः, उकारस्य ओकारो गुणः, परगमनं, क्रुध्यन्ति तमिति क्रोधः, एवं स्थिते पंचमी विधानं स्तम्भवत् क्रोधात्, क्रोधा हि विणए जिणवदिट्ठे ण चिट्ठइ, 'मी हिंसायाँ'
... अत्र नवमं अध्ययनस्य सूत्राणि आरब्धाः
[313]
विनयाकरणहेतवः
॥३००॥
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आगम
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
उद्देशकः
CERS
चूणौँ
[१५...]
गाथा ||३९९४१५||
॥३०॥
जी- घात, " हेतुमति चेति (पा. ३-१-२६) बिच् प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, अतो णितीति वृद्धि, इकारस्य ऐकार: वैकालिका एचोऽयवायाव' इति (पा.६-१-७८ ) आय आदेशः परगमनं मायि, इदानीं ' सनायन्ता धातव' इति (पा. ३-१-३२)।
धातुसंज्ञा वयधिकारे ' ण्यासश्रन्थो युचि प्राप्ते (पा. ३-३-१०७) भिदादि (पा. ३-३.१०४) पाठात् अङ् प्रत्ययो निपा-]
स्यते उकारलोपः ‘णेरनिटी' ति (पा. ६-४-५१) गेर्लोपः परगमनं माय 'अजायतष्टाचि' ति (पा. ४-१-४ ) टाप विनयाध्य. प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'अकः सवर्ण दीर्घत्वं' माया, मयगहणेण मायागहणं, मयकारहस्स बंधाणुलोमकर्य, तीए मायाए
गुरूणं विणए ण यद, मा अन्भुट्ठाणं कायव्यं भविस्सइत्ति भण्णाइ-कडी मे दुक्खइ, मूलं सीसं वा एवमादि, 'मद हप' धातुः अस्य धातोः प्रपूर्वस्य ' अकर्तरि च कारके संज्ञाया' मिति (पा. ३-३-१९) घप्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'अत उपधाया' (पा. १-२-११६ ) इति वृद्धिः, आकार, प्रमाद्यति तमिति प्रमादः, एवमवस्थिते स्तम्भवमेयं प्रमादाद्, प्रमादग्रहणेण णिहावि| कहादिपमादट्ठाणा गहिया, जो एतेहि कारणेहि गुरूणं आयरिअउवज्झायाईगं सगासे, 'णीय प्रापणे ' धातुः, अस्य धातोः विपूस्य पचादेरचिति इवान्तधातोः अच् प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, 'सार्वधातुकार्धधातुकयो' रिति (पा. ७-३-८४) अस्य | गुणः, इकारस्य एकारी गुणः 'एचोऽयवायाव ' इति (पा. ६-१-१८) अय आदेशः परगमनं विनयः, विणये दुविहे-गहणविणए आसेवणाविणये, नकारो निपातः, प्रतिषेधे वर्त्तते, ष्ठा गतिनिवृत्ती' धात्वादेः पस्स ' इति (पा. ६-१.६४) सकारः, निमित्ताभावे नैमित्तिकस्थाप्यभावः इति तकारस्प थकारः, स्था अस्य धातोः 'वर्तमाने लटि' ति (पा. ३-२-१२३) लट् | प्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, अंगस्पेत्यधिकृत्य' पात्रामास्थाम्नादाणदृश्यर्तिसतिसदसदा पिवजिप्रधमतिष्ठमनयच्छपश्यच्छेधा
दीप अनुक्रम [४१५४३१]
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9A
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा ||३९९४१५||
श्रीदश-13शीयसीदा' इति (पा. ७-३-१८) स्था इत्येतस्य टिष्ट आदेशो भवति, परगमनं तिष्ठति इति, 'आधारोधिकरण' मिति उद्देशका वकालिका (पा.१-४-४५) अधिकरणसंज्ञा, सत्या अधिकरणसंज्ञायां 'सप्तम्यधिकरणे चे' ति (पा. ३-३-३६) सप्तमी विभक्तिर्भवति, चूणा तस्या एकवचन कि, कारलोपः, तिष्ठति न पूर्वः, तस्मिन् गुरुमूले विनयेन न तिष्ठति, तत् प्राप्तिपदिक, अस्य प्रातिपदिकस्याथै
प्रथमैकवचनं सु, अकारलोपः स्यदायत्वेन दकारस्याकारः, अतो गुणः पररूपचं 'तदोः सः सावनंतयो' रिति (पा. १-२-१०६) विनयाध्य.
| तकारस्य सकार! 'ससजुषोः (पा. ८३-३६) 'विसर्जनीयस्य सः' (पा.८-३-३४) चकार: समुच्चयाथै, सोद ॥३०२॥
चेव नु तस्य, अम भुवि धातुः, अस्य धातोः खियामित्यधिकृत्य खियो क्तिन् प्रत्ययो भवति, नकारस्य लोपः, ककारा गुणवृद्धि६ प्रतिषेधार्थः, 'आर्द्धधातुकस्येवलादे' रिति (पा १-२-२५) इट् प्राप्तः 'तितुत्रतथसिसुसरकसेषु चे' ति (पा. ७-२-९)
प्रतिषिद्धः, ' अस्तेर्भूः' (पा. ४-४-५२) अस्तेर्धातोः भू इत्ययमादेशो गवति आर्द्धधातुके परतः, गुणः प्राप्तः किता प्रतिषिद्धः भुतिः, नत्र पूर्वः न भूति: 'न' (पा. २-२-६) सुपा सह समस्पति तत्पुरुष समासः, नकारादकारमपकृष्य नकारस्य नलोपो, 'नर' इति विशेषणार्थः, अभूति, सा चैव-विनयः आचार्योपाध्यायादीनामक्रियमाणः तस्यैव साधी अभावभावा भवति, अभूतिभावा नाम अभूतिभावोचि वा विणासभावोत्ति वा एगट्ठा, आह-कह तस्स अभृतिभावो भवह, भण्णइ.-"फल वर कीअस्स बहाय होइ' इन हिंसागत्यो र्धातुः, 'दोरपि'(पा. ३-३-५७) त्यनुवर्तगाने 'हन वध' इति (पा. ३-३-७६) ३.२॥ का हन्तधातो: अप् प्रत्ययो भवति वध इत्यर्य चादेशः वध, एवमवस्थिते 'क्रुधदुहेप्यास्याथाना में प्रति कॉप' इति
(पा. १-४-३७) संप्रदानसंज्ञा, 'चतुर्थी सम्प्रदाने' (पा. २-३-१३) संप्रदाने कारके चतुर्थी विभक्तिर्भवति, तस्याः एकवचनं
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भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
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गाथा ||३९९४१५||
चूणौं
श्रीदश
& , टकारादेकारमपकृष्य सकार: 'H' इति (पा. ७-१-१३) विशेषणार्थः, यः इति एकारस्य यकार: 'सुपि चेति है। उद्देशक:वैकालिका (पा. ७.३-१०२) दीर्घत्वं वधाय, फल व कीयस्त वहाय होतित्ति, कीयो नाम चंसो, जहा फलेति तहा 'युक्त इति, उक्तंच
'पक्षाः पिपीलिकानां फलानि तदकलमिवणुवेत्राणाम् । ऐश्वर्य चापि विदुषां उत्पद्यन्ते विनाशाय ॥१॥' जहा तस्स कीयस्स
* फलं वधाय भवति एवं सो बंभादीहिं आयसमुत्थेहिं इहभये परभये विणासं पावति । किंच 'जे आवि मंदित्ति०' ॥४०॥ विनयाध्य. वृत्तं, जेत्ति अणिहिदुस्स गहणं, चकारो पादपुरणे, अविसद्दो संभावणे बट्टइ, किं संभावयति', जहा आदिल्ले अभूइभावो दोसो
भणिओ तहा एत्थवि सो चेय अभूतिभावदोसो भवइ एयं संभावयति, मंदो चउन्बिहो, तंजहा-नाममंदो ठवणमंदो दवमंदो ॥३०॥
भावमंदो यत्ति, नामठवणाओ गयाओ, दधमंदो दुविहो, तंजहा-उवचए अवचए य, जहा धूलो सरीरेण उवचए, तणुओ सरीरेण अवचए, भावमंदो दुविधा, तं०-उवचए अवचए य, जस्स बहुइ बुद्धि उवचए, अवचए जस्स थोवा बुद्धि, एवमादि, तत्थ दवभावहिं अधिगारो, सेसा उच्चारियस रिसत्तिकाऊण परूविया, तत्थ दबमदे जहा कोई बालो आयरिओ सवलक्षणोववेओत्तिकाऊण ठविओ होज्जा, तमेवप्पगारं विडचा नाम जाणिऊणंति, तं मिच्छ पडिवज्जमाणो सूयाए हीलति, 'मिच्छ पडिवज्जमाणो' नाम तं गुरुहिं कर्य मेरै अतिकमंतोत्ति, सूयाए जहा जइ वयं डहरया न होता तो ण एवं करेंता, अहवा किं ॥३०॥ वयं बालमिव न जाणामो एवमादि, असूयाए फुडं चेव भण्णइ, जहा डहरो इमो होऊण अम्हे एवं करेइ, जदा य तुडो भविस्सइ तदा न नज्जह किंपि काहिति , अजातपंखो उड्डेउमिच्छइ एवमादि, तहा भावमन्दोवि कोऽपि अप्पसुओ किंचि कारणं लक्खेऊण। उविज्जति, तमवि अप्पसुर्य नच्चा मिच्छ पडिबज्जमाणा सूयाए असूयाए वा हलिंति, सूपाए जहा जइ वयं बहुस्सुया होता तो
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
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गाथा ||३९९४१५||
श्रीदश- भेहि समं अहं अप्पसुताणं ण आलातोति एवमादि, अन्याय जहा अज्जवि ताव तुम अप्पमुओ न जाणसि साहूणमकज्ज उद्देशकः बैंकालिकादकज वा, पढाधि ताव पच्छा अम्हं उपरि गच्छमा ठवेज्जाहि एवमादि, एवं ते हीलमाणा जमायरिएहि पमाण कयं तमहकम-12 । चूर्णी.
Iमाणा तेसिं गुरूण आसावणं करेंति, गुणेहि य गुरू भवंतित्तिकाउं एगमपि गुरु आसादतहि सब्वे हि अतीताणागतवट्टमाणा* बिनयाध्य.
य गुणासविणी गुरवो आसाइया भवंतीति, जापि गुरू मंदा बुद्धीमादीहि कारणेहिं बालो वा तहावि णो हीलियब, कह.
जम्हा-पगई। मंदावि०॥ ४०१॥ वृत्तं. केवि आयरिया पगतीए पद्धिमादीहि कारणेहिं मंदावि भवंति, अपराउहरा ॥३०॥ नाव सुऔववेया बुद्धिउबवेया य भवंति, ते यणाणर्दसणादीहि आयारमंता संगहादिसु य आयारगुणेसु ठिअप्पा, किंबहुना, ज|
हीलिया संता भगवंतो सिहिरिख भासकरणसमन्था ने कह हीलणिज्जत्ति, तत्थ य सिही अग्गी भण्णइ, जहा सो अग्गी सुमहल्ल-1 मवि कयवरादिरासि खण च्छारीकरेइ, तहा तेवि भगवंतो आयरियाइगुण जुत्तप्पा हीलिया संतो भासकरणसमरथा नाऊण | बुद्धिमंताण न हीलणिज्जा, किंच-जहा अप्पयोऽविहीलिओ अभ्यभावाय भवति तदुपदरिसणस्थमिदगुरूपते-'जे आवि नाग डहरति नरुचा०॥४०२॥ सिलोगो, जति अनिहिस्स गहणं, चकारो पायपूरणे, अविसहो संभावणे वट्टा किं सम्भावयति ?. जादा जइ नाव डहरे बहयो दोसा भयंति, किं पुण महल्लेोति ?, एये संभावयति, तत्थ णागो सप्पो, तं वालं जाऊण जो परिभवह, जहा कि मम एसो पालो वरायो काहितिनित करेग वा अंगुलीए वा आसातयति, आसाइनो सो तस्स अहियाय 313 भवति, एमेवायरिओ हलिमाणो 'नियच्छती जाइपहं स्खु मंदो' नियच्छई नाम अत्थनं (गच्छद) इंदियाइसु जाती। गच्छह निगच्छतीति, मंदगहणण मंदबुद्धिगहणं कसे, किंच-गरुणो आसातना गुरुगी भवई, जहा-'आसीविसो वाचि."
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
उद्देशकः
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||३९९४१५||
भी-II३॥ वर्ष, जोत्ति अणिदिदुस्स गहणं, पावगो अगणी भण्णइ. आसीविसो पसिद्धो, तं पावगं पभूतिधणं जलमाणं जो बैकालिक कोई काएण अकम्म चिट्ठज्जा, आसीविसं वा जो पसन्नभावं अच्छमाण कोवएज्जा, जो वा जीविहामित्ति कामओ विसं खाएज्जा, चूर्जी जहा एते अगणिमादि न मुहावहा 'एसोधमा आसातणया गुरूण' ति, उवमा नाम उवम्मत्ति वा सरिसत्ति वा एगट्ठा,
IN] अवि य--'सिआ हुसे०॥४०५ ।। वृत्तं, सियासहो आसंकाए बट्टइ, जहा कयाइ मन्तपयोगसरुचतवदेवयाकारणेण पाचगा विनयाध्य. णो डहेज्जा, कयाइ कुविओवि आसीविसो मतपयोगादिकारणेण ण भक्खेज्जा, तथा कदायि. हालाहलमवि विसं णो मारेज्जा, ॥३०५॥
हालाहलं नाम विसजातिभेओ, आसेविताणि पावगादीणि खमंकराणि भवंति, ण य गुरुआसायणं कुब्वमाणो मोक्खपज्जवसाणाणं गुणाणं आभागीभवइ । किंच-'जो पब्वयं सिरसा०॥ ४०६॥ वृत्तं, जोति अणिद्दिदुस्स गहणं कयं, कोइ पब्वयं सिरसा | भेत्तुमिच्छइ वा, कोइ सीह गुहाए सुत्तं पडिबोहेज्जा, जो वा सत्तिअम्गे-सत्तिआयुहस्स अग्गे हत्यतलाहीहि पहार दलएज्जा, 1'एसोवमाऽऽसायणया गुरूणति जहा ते पब्बयाईणि विणासकारणाणि सिरादीहि कुबमाणो विणासं पावति तहा गुरुत्रासात| णावि अणाइयं अणवदग्गं संसारं संपावया भवतित्ति । अवि य--'सिआ हु. ॥४०७ ।। वृत्तं, सियासदो आसकिए अत्थे बट्टइ, जहा कदाइ चकाट्टी बलदेवा वासुदेवा विज्जाहरतबोसिज्झा वा पव्ययं सिरसा भिंदेज्जा, तहा कयाई य सुत्तोऽवि सीहो पडियोहिओ कुविओ विज्जर्थभणावि नो भक्खेज्जा, तहा सत्तिअम्गमवि कयाइ पहारे दिज्जमाणेऽवि ण तस्स किंचि पीडं उपाएज्जा, ण यावि आयरियहीलणेण मोक्खो भवइत्ति । किंच, जा एसा पावगादिआसायणा एस एगभविया अप्पविवागा, गुरुआसायणा य पुण अणेगमचिया बहुविषागा, तदुपदरिसणत्यमिदमुच्यते-आपरिय० ॥४०८ ॥ धृतं, आयरियपाया |
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॥३०५।।
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भाग-6 "दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||३९९४१५||
वैकालिक चूणी
बिनयाध्य. ॥३०६॥
पुण अप्पसमा अयोधिकरा, आसायणा दोसायहा मोक्खाभाषकरा य काऊण 'तम्हा अणावाहसुहाभिकरखी गुरुप्पसायाभि
उद्देशका मुहो रमिज्ज'ति तत्थ अणाचाहो मोक्खो भण्णइ, 'जहादिअग्गी०॥४०॥ वृत्रं, जहा आहियअग्गी भणो णाणाविहेण पवादिणा मंतं उच्चारेऊण आहुई दलया, पर्य खीरं भण्णइ, तेण अभिमुद्दो सित्तो अभिसित्तो, जहा तं पयसिचं सो आहितग्गी उवयरइ, एवं आयरियमवि वेयावच्चविणयमाईहि अर्थतनाणातिगमातिसयजुत्तोऽवि उवचिट्ठज्जा, किमंग पुण सेसोति', अणतनाणाइगओ नाम अणतं जेण नजदणाणण ते अर्थतनाणं तं उवगओ तो सो अणतणाणोवगओ भण्णइ, उवगओ णाम तीसे णाणलडीए उववेयोति, उबचिट्ठज्जा णाम सुस्म्सेज्जात। किंच--'जस्संतिएक' ।। ४१०॥ चं, जस्संतियं आयरियस्सा ! वा सगासे धम्मियाणि सिक्खेज्जा तस्स सगासे घेणइयं पउंजेज्ज' ति, तत्थ विणयस्स भावो वेणइय, पउजेज्जा नाम पउंजेज्जत्ति वा कुग्विज्जत्ति पा एगट्ठा, तं च वेणइयं इम-सकारए तए सिरसा पंजलीग्गहणेण पंचगियस्स बंदणस्स गहर्ण कर्य, . तमायरियं पुण्यभणिएण अम्भुढाणाइणा विणएण सकारए, इमेण पंचगीएण बंदणिएण, तंजहा-जाणुदुर्ग भूमीए निवडिएण| हत्थदुएण भूमीए अवटुंभिय ततो सिर पचम निवाएज्जा, तेण अब्भुट्टाणाइणा इमेण य सिरपंचमेण कारण गिराए बंदणानामच। आसमाणो, मो इति सीसामंतणं, मणसा तदुबउत्तण, णिच्चं णाम सम्वकालं, ते गुरवो पूयणिज्जा, तंजहा-'लज्जा दया.' ॥४११||वृत्तं तत्थ लज्जा अववादभयं, दया अणुकंपा, संजमो सचरसविधो, बंभचरं मेहुणबिरई,'एगग्गहणे गहणं तज्जातियाण'
॥३०६॥ मितिकाऊण सेसाण मूलगुणउत्तरगुणाण गहणे, 'कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं' ति कल्लाणं-मोक्खा भन्मदतस्स 51 | आभागी जो जीवो तस्स इमाणि लज्जाईणि पावाण कम्माण विसोधिहाणति, जे मे गुरु--आयरिया सततं-सव्वकाल लज्जादीणि,
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [३९९-४१५/४१५-४३१], नियुक्ति: [३११-३२९/३०९-३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा ||३९९४१५||
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अणुसासयति णाम जहा लज्जा ताव संजतत्तं, उवदीसति, तीए य फलं, तहा दर्य दयाए फलं, एवमादीणि अणुसासिज्जमाणा| सीसा पायसो अत्तणो निस्सेसपारगा भवंतित्तिकाऊण ते अह गुरू सतत पूपयामिति ॥ इतो य गुरू पूणिज्जा, कई, जम्हा ते भगवंतो--'जहा निसते.'॥ ४१२ ॥ वृत्तं, 'जहा निसंते तवचिमाली ' ति, तथ जेणपगारेण | जहा, णिसा णाम रत्ती भण्णइ, तीए निसाए अंतो निसंतो दिवसोत्ति वुत्तं भवइ, तबइ नाम पगासेइ, अच्चिओ व रस्सीओ भणनि तासि रस्सिणं माला जस्म अत्थि, सोय णादच्चो पभासई भारह केवल त. पभासती'णाम पभासइत्ति वा उज्जाएइत्ति बा एगट्ठा, भारहं पसिद्धं, केवलं णाम संपुण्यं, तुसदो विसेसणे वट्टइ, किं बिसेसयति !, न केवलं भारहं पगासइ, किंतु सब्बमेव जम्बूदीवदाहिण९ एवं विसेसयति, एवं आयरिओऽवि सुएण सीलेण बुद्धीए य उववेओ वियलीकयअण्णाणपडलो जीवाजीवादओ य पदत्था पगासति इति ॥ किंच-'विरायई सुरमझे व इंदी' त्ति, जहा इंदो सामाणियादिपरिखुडो समंतओ विरायइ एवं आयरिओऽवि सीसगणसंपरिचुडो सपरखाणं परतिस्थियाणं च पुरओ विरायइति । किंच-जहा ससी कोड जोगजुत्तो' ।। ४१३ । 'जहा ससी कोमुदिजोगजुत्तो' ति, तत्थ जहा णाम जेण पगारेण जहा, ससी चंदो भण्णइ, 'कोमुइजोगजुत्तो' नाम कतियपुनिमाए उइओ, 'नक्खत्ततारागणपरिबुडप्पा' णाम णक्खत्तेहिं तारागणेण यह परिवुडो अप्पा जस्स सो गक्खत्ततारागणपरिखुडप्पा, 'खे 'ति आगासस्स गहर्ण, जेण पगारेण आगासे विमले अम्भमुक्को ससी सोभह एवं गणी सोभइ सीसमज्झे । किंच 'महागरा आयरिया०'॥ ४१४ ।। वृत्त, महताणं णाणाईण गुणाणं आगरा महागरा, महागरा चउब्बिहा भवंति, तंजहा-नाममहागरा ठवण द्व्व० भावमहागरत्ति, नामठवणाओ गयाओ, दग्वमहागरा
।
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आगम
(४२)
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सूत्रांक
[१५...]
गाथा
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दीप
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४३१]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा: [ ३९९ - ४१५ / ४१५-४३१] निर्युक्तिः [ ३११-३२९ / ३०९ ३२७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूण.
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विनयाध्य. ॥३०८||
लवणादीया समुद्दा, भावमहागरा महंताणं णरणदंसणपरिचाणं आगरा आयरिया तेसिं गहणं कर्य, सेसा उच्चारियसरिसत्तिकाऊण परुविया, ' महेसी' नाम महंतमेसतीति महेसीणो, सो य मोक्खो, ते य आगरा समाधिजोगाणं सुयस्स बारसंगुस्स सीलस्स य अङ्कारससीलिंगसहस्समइयस्स बुद्धीए - उपपत्तियादियाए, न एवपगारगुणजुत आयरिए अणुत्तराणि अतिसयमाईणि संपाविकामो उवाभावो आराहेज्जा आयरियं जाब तुड्डे, उवडिओ नाम उवडिओत्ति वा अन्भुट्टिओति वा एगट्ठा, 'धम्मकामे ' नाम धम्मनिमित्तं आहेज्जा, पण पुण भएण वित्तिहेउं वा, जाणि एवंम अजायगे भणियाणि ताणि 'सुच्चाण मेहावि ॥४१५॥वृत्तं, सोच्या णाम सोड, महावी मेहावी भण्णइ, सोभणाणि मासि याणि सुभासियाणि, सुस्सए णाम तस्स आण चिट्ठेज्जनि, आयरिओ पसिद्धो, अप्पमतो णाम को णिद्दादीहिं पमादेहिं वक्खित्तो, तेसि सगासेणं बसमाणो गुणा आराहेऊण गिरवसेसखीणकम्मो सिद्धिमनुत्तरं पावह, सम्मोदया देवलोग सुकुलपच्चायाति लसूण पच्छा अट्टभवग्गहण अंतर तो सिज्ातित्ति, बेमि णाम तीर्थकरोपदेशात्, न स्वाभिप्रायेणेति । विजयसमाहीए पढमो उद्देसो समत्तो ॥
वितिय उदेसगाभिसंबंधो—विणयमूलो धम्मो काऊण तुम्गोरवोपदरिणत्थमिदमुच्यते- 'मूलाउ स्वधप्प भवो वुमस्स० ' ।। ४१६ ।। पृतं जहा दुमस्स जाहे मूलो उप्पण्णो भवइ ताहे ताओ मूलाओ खंधो भव, ताओ संघाओ पच्छा साला, समुविंति नाम जायंति, साला नाम सालचि वा साहति वा एगट्टा, तासु साहासु साहप्पसाहाविकप्पा, विरुति नाम विविधं अगप्पगारं फलाणि, रुहंति विरुति, जायंतित्ति चुतं भवइ, तासु पसाहामु पत्ता विरुति, तओ उत्तरकाल पुण्का, पुष्फेसु तेसिं परिपकाण रसो भवति, जहा य एसो मूलादी रसपज्जवसाणो अणुपरिवाडिको 'एवं धम्मस्स विणओ० ॥ ४१७ ||
अत्र नवमे अध्ययने प्रथम उद्देशकः परिसमाप्तः तथा द्वितीय उद्देशक: आरब्धः
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१२ उदेशकः
॥३०८ ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] | गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
उद्देशकः
FARCH
चूर्णी
[१५...] गाथा ॥४१६४३८||
*सिलोगो. हमरस जिणप्पणीयस्स संधुयस्स भगवा धम्मस्स विणओ 'मूलं, परमी से मुक्खो' परमो णाम तस्स विषयमूलस्सा श्रीदश
मोक्खोत्ति वा फलंति बा, कह , जहा दुमस्स फल, तस्स कालंतरविपकस्स जो रसो सो परमा, अपरमाणि उ खंधो साहा पत्त-12 वैकालिक
पुष्फफलाणिति, एवं धम्मस्स परमा माक्खा, अपरमाणि उ देवलोगमुकुलपच्चायायादीणि खीरासवमधुयासवादीणित्ति,
कथं च सो विणयो कायष्यो, जेण विणएण किति पावति,' एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकार्ड जसमपि पावई, 14 विनयाध्या
आह-कित्तिजसाणं को पतिविसेसो, आयरिओ आह-कित्ती अविसेसिया, जहा अमुगनामधेयो साधू विणीओत्ति, जसो
विससिओत्ति, जहा अमुगं विणयं अमुगा साधू कुब्वइत्ति, तहा दुवालसंग सिग्धं पावइ, सिग्छ नाम सलाहणिज्ज, सलाहणिज्जो ॥३०९॥ वा जेण सुएण भवइ तं सुयं सिग्छ भणति, जहा अहो बहुस्सुओ ण एतस्स किंचि अविहितंति, एवमादि, निस्सेसं अभिगच्छतीति,
इदाणिं णीसेसा अविणीयस्स दोसा भन्नति, वरं ते दोसा णाऊण तेसु उव्वेगं गच्छंतोत्ति, लोगेवि दिडं-पुवं आतुरस्स अपत्थाहारो निवारिज्जइ, दोसा य से कहिज्जति, ते तेसि दोसाणं उबिज्जमाणो परिहरतोत्ति, ते य अविणीयदोसा इमे, तंजहा'जे अ चंडे० ॥ ४१८ ।। सिलोगो, जेत्ति आणि विट्ठस्स गहणं, चकारो पादपूरणे, चंडो रोसणो भण्णइ, जहा इमं एवं करेहि, इमं मा एवं करेहित्ति भणिओ रूसइ, मिगभूतो मिगो, जहा मिगो णिबुद्धी तहा सोऽवि हितोवएसं ण पुच्छइचिकाऊण मिग इब दट्टब्बा, थद्धो नाग अट्ठहिं जातिमदादीहिं मदट्ठाणेहि मत्तो विन्यं न पडिवज्जह 'दुब्वाई' दुट्ठा वाया जस्स सो दुव्बायी, अकारणे साहबो कडुगफरुसाणि ण भणंति, 'णियडी' नाम माइल्लो, जाणमाणोऽवि अप्पणो अबराह पडिचोइओ भणइ ण मए णायं जहा एयं न कायव्बंति, गिलाणमाइयाओ नियडीओ पउंजइ, अहियं विणयं भंसेति, 'सढों' णाम सिढिलो संजमाइसु,
दीप अनुक्रम
॥३०९॥
Ciedia
[४३२
४५५]
[322]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||४१६
४३८||
दीप
अनुक्रम [४३२
४५५]
भाग-6 "दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णि:)
अध्ययनं [९], उद्देशक [२] मूलं [१५...]/ गाथा: [ ४९६-४३८/४३२-४५५] नियुक्ति: [ ३२९.../ ३२७...]. आष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशबैकालिक
चूण.
९
विनयाध्य.
॥३१०॥
4
'युज्झइ से अविणीअप्पा' एवं सो विजेओ चंडादिस वट्टमाणो अविणीअप्पा बुज्झर, कहं ?, जहा नदीसोयमज्झगये कई नदीए सोतेण बुज्झइ एवं सो संसारसोतेण वुज्झतिति । किंच - विणयपि जो उवाए० ॥ ४१९ ॥ सिलोगो, सो चंडाइदोससंजुत्तो उवाएण देसकालोववन्नं विषयं 'चोइओ कुप्पई नरो 'चि, देसे ताव विराहओ भणिओ, कालो-बेला तक्खणमेव, तंपि परिमितं अफरुसं भणिओ कुप्पइति ततो सो एवं कुप्पमाणो दिव्वं सिरिमागच्छमाणां डंडेण पडिसेहयइ, एत्थ उदाहरणं दसारपमुद्दा किर महासुरा सभागता अप्पप्पणी कज्जाणि संपहारेमाणा अच्छंति, इओ य सिरी देवी परिणयवयबेसा होउं विकृतशरीरा मच्छियावन्दाणुमयमग्गा तं सममागता ते सच्चे समुहविजयउम्गसेणपमुहा पत्तेयं २ एवमाहु-जहा एते अहं तवसंतएण देवकुमारातिरेगेण रूपेण उम्माहिया समाणी लज्जं मोचूनं भवंतं सरणमुवगतति भण्णमाणा कंठे लग्गड, तेहिं सव्वेहिं पत्तेयं पत्तेयं पडिसेहिया, सब्वेहिं णिष्पणयकिया णारायणमुवडिया, तेण णाया जहा एसा णो पागतेति अलिसिया, दिव्वं रूवं दंसेऊण तमणुपविट्ठति, एवं सो विषयं उवाएण बोहिओ समाणो इहलोगपरलोगहियं किर विषयसरि अवमन, ण तं तस्स आयतिक्खमं भवइ, जहा तेसिंतो ताण । इदाणि अविणयदोसोपदरिक्षणत्थमिदमुच्यते
"
3
तहेब अविणीअप्पा० ' ॥ ४२० ॥ सिलोगो, 'तहेब' ति जहा हेट्ठा अविणीयदोसा भणिया, एवसद्दो पादपूरणे, ' अविणीअप्पा' णाम यो विणीओ अप्पा जेर्सि ते अविणीअप्पा, 'उववज्झा' नाम कारणमकारणे वा उवेज्ज वाहिज्जेति उवज्झा हया गया य, एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाणमितिकाउं गलिबलिवद्दावि गहिया, तेण अविणयकम्मदोसेण वाहिज्जति इहभवे गलित्तणदोसेण, अन्नेसिं आसाणं इत्थीण य आहारं बंहायिज्जति, अन्ने य बहुविहप्पगारे विषयंति, तहा महिस
4
[323]
"
२ उद्देशकः
| ॥३१० ॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] | गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
उदेशका
[१५...]
गाथा ||४१६४३८||
माइणोषि केइ अब्बतभागभूया पच्चक्खमेव दीसति दुई 'एहंता' नाम अणुभवता, सारीरमाणसाणि दुक्खाणि, ते य आभि- वैकालिकाओगभावं सुदूसह उबडिया, तेण य इहभविएण पच्चक्खेण अविणयदोसण दिवेण अदिट्ठ साहिज्जह-जहा ते आसादिणो पुषभवे 21 चूणौँ टाअविणयमंता आसी जेण आभिओगं 'उबट्टिया' नाम पत्ता, तह विणयगुणो तिरिएसु इमो, तंजहा-'तहेव सुविणी.
| अप्पा० ॥ ४२१ । सिलोगो, 'तहेव ' ति जहा हेवा विणयगुणा भणिया, एवसद्दो पायपूरणे, सुट्ट विणीओ अप्पा जेसि ते |
| सुविणीअप्पा, ते चेव हयादी पुनसुकयगुणेण इहमविएण य विधेलगादिणा विणीयभावेण इट्ठाणि जवसजोगासणादीणि: ॥३१॥
ताभुंजमाणा चिट्ठति, निवायपवायादियायो वसहीओ पावति, अलंकिया य रायमग्गमोगाढा केइ बहुजणणयणहरमहुरवयणIPI परिगीयमाणा णिग्गच्छति, एवमाईहिं इड्डि पचा पच्चक्खमेव सुहमेहता महायसा दीसंति, सुभासुभ तिरिएसु विणयाविणयफलं
| भणिय । इदाणिं मणुएसु भन्नइ, तत्थवि पुवं अविणयफलं भण्णइ, तं च इम, तंजहा-'तहेव आविणीअप्पा० ॥४२२॥ है सिलोगो, 'तहेब' चि जहा हेडा तिरियाणं अविणयदोसो भण्णइ, एवसहो पादपूरणे, णो विणीओ अप्पा जेसि ते अविणीअप्पा,
लोगग्गहणेण मणुयलोगग्गहणं कयं, तमि मणुयलोगमि, अविणीयनरनारीओ य पुवं अविणयदोसेण इहभविएण य वंकमावण
दीसति दुक्खाणि सारीरमाणसाणि एधमाणया नाम कसादीहिं पहारेहिं वणसंजातसरीरा भवति, विगलितेंदिया णाम हत्थपा-18 Mयाईदि छिचा, उद्धियणयणा य विगलिदिया भति, ते पुण चारपारदारिकिञ्चयाई । दंडसस्थपरिजुन्ना० ॥४२॥1 हासिलोगो, दंडग्गहणेण लट्ठिमाईण गहणं कर्य, सत्थगणेण मल्लगमादिआउहस्स गहण कतंति, तेऽपि दंडेहि तालिया सस्थहि | प्रय आहया ' परिजुण्णा ' णाम परि-समंतओ जुण्णा परिजुण्णा दुब्बलभावमुवगतत्ति बुतं भवइ, न केवलं दंडसत्थेहिं परिजुष्णा,
दीप अनुक्रम [४३२४५५]
॥३११॥
[324]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] | गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा ||४१६४३८||
श्रीदश-13 किंतु असम्भवेहिं-असरिसेहिं वयणेहि सरीरपरिहाणी भवति, कलुगा' णाम दीणति वा कलुणति वा एगट्ठा, 'विवण्णछंदा' २ उद्देशकः वैकालिक नाम परथसा, 'सुप्पिवासाइपरिगया ' परिगता णाम खुहापिपासाभिभूता, ते य भत्तपाणनिरूद्धा वा होज्जा, परिमितभत्त-15
पाणभोगी वा. जहा एयरस एग भतं दायध्वं एग उदयसरावंति, एवं ताव तेर्सि अविणीयाणं भवे पुष्प, फलं पुण नरगा-18 ९. दिसु, णाऊण अविणयो न कायब्बोति । इदाणि विणयमूलं तेसु चेव मणुएसु भण्णइ, तंजहा-'तहेव सुविणीअप्पा ॥४२४॥ विनयाव्याटसिलोगो, 'तहेव' त्ति जहा हेट्ठा विणयफलं तहेव भणियं इहमकि, एक्सहो पादपूरणे, मुटु विणीओ अप्पा जेसिं ते सुविणी-1 ॥३१॥ अप्पा लागगहणण मणुस्साण गहण कर्य, तंमि लोए णरा णारीयो य रायादी दासविणयजुत्तत्तणेण भोगसंविभत्ता दीसंति,
गंधव्याझ्याओ कलाओ उबज्झाएहि गाहिना दीसंति, सुहाई एहंता मणुया इट्टि पचा महाजसा, इति सुभासुभं मणुएसु फलं भणिय । इदाणि देवेसु भण्णइ-तस्थ अविणयं पुल्वं भण्णइ, तं च इम, तंजहा- 'तहेव अविणीअप्पा० ॥ ४२५ ।। सिलोगो, तहासदो एवसही य पुच्चभणिया, ण विणीअणा अविणीअप्पा, देवग्गहणेण जोतिसियवमाणियाण देवीसहियाण गहणं कर्य, जक्खम्गहणेण बंतरार्ण गहणं कर्य, गुडगगहणणं भवणवासीणं गहणं कर्य, ते तित्थगरकाले एरायणादि पचक्खमेव दुक्खाइ।
एधमाणा आभिओगभावमुबाढिया दीसति, इदाणि विज्जाभिचारुगेहि अभिउनकम्मे हिं अभिउत्ता दीसति, अणुमाणेण साहिजंति, 5जहा इई मणुयलोए अविणयफलाई पाति तहा पूर्ण अविणयदेवा पुब्वेण दकरण आभिओगा भवंति, भणियं च..'चा
॥३१२॥ ठाणहिं जीवा आभिआगियं जणयति-कावासीलयाए पाहुडसीलयाए कोउयकम्मेण भूइकम्मेण य'। इदाणि विणयफलं तेसु चव देवेम भण्णा, तंजहा--'सहेव सुविणीअप्पा० ।। ४२६ ।। मिलोगो, सुविणीअप्पा पुध्वविणयमुभकम्मोदएण इमे
%AE%4-NCRECRCE
दीप अनुक्रम [४३२४५५]
[325]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||४१६
४३८||
दीप अनुक्रम
[४३२
४५५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [४१६-४३८ / ४३२-४५५ ], निर्युक्ति: [३२९.../ ३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक चूर्णौ
नाय.
।। ३१३ ।।
इंदसामाणियतायतीसगादिठाणेसु उववष्णा, तित्थगरकाले पायसो दीसंति, सेसं तस्स सिलोगस्स कंठ्यं । एवमादीणि तिरियगणूयदेवलोगे सुभासुभाणि विणयाविणयफलाणि भणियाणि, नरयेसु सुभासुभा कहा णत्थि, ते हि एगंतेण पुव्वोवज्जियं अविणय४ फलमसुभमणुभवति, ण य ते पच्चक्खमुवलब्भंति, सव्वष्णुवएसेणं ते छउमत्थेर्हि णज्जंति । इदाणि लोगुत्तरस्स विणयस्स फलं * भण्णइ, तंजहाजे आयरिउवज्झायाणं'० ॥ ४२७ ॥ सिलोगे, 'जे' ति अणिधिद्वाणं गहणं कथं, आयरियउवज्झाया पसिद्धा, जे के आयरियाण उवज्झायाणं च सुस्साकरा वयणकरा य भवति, अहंवा सुस्वसाणाम (ए) आयरियउवज्झाएहिं वयणं भण्णतं कुब्र्व्वति सुस्सूसावयणकरा, तेसि एवंविहसीसाणं साहूणं सिक्खा दुविहा- गहण सिक्खा आसेवणसिक्खा य, विविहमणे गप्पगारं बर्द्धति, दिडतो. जलसित्ता इव पायवा' जलेण सित्ता समाणेव जहा पायवा वर्द्धति तहा तेसिमचि सिक्ख वितित्ति किंच-इओ य आयरियोवज्झायाणं विणओ कायन्यो, कहं ?, जह ताव असंजया 'अप्पणडया' ० ॥ ४२८ ॥ सिलोगो, 'अप्पणडया' नाम हंत एतेण जीविहामोत्तिकाऊण सिप्पाणि- कुंभारलोहारादीणि सिक्खति, उणिआणि लोइयाओ कलाओ सिक्खति, परडाएवि पव्ययितुकामा पुत्तं गेहे ठामोति सिक्खति, कदाइ पुण अप्पणी परस्स य दोण्ह य अड्डाइ सिक्खति गिहिणोति, एसो असंजयणिदेतो कओ, 'उवभोगड्डा' णाम अण्णापाणवत्थसयण सणरवणकुवियाइयउपभोगस्स अड्डाए सिक्खति तं च इहलोगस्स इह जललवबिन्दुहिं संनिभस्त कारणाणि सिक्खति, ते य एवं सिक्खावासं वसमाणा 'जेणं बंधे' ० ॥ ४२९ ॥ सिलेागो, 'जेणं' ति जेण सिक्खापटिबंधेण वैधादीणि पावंति, तमवि सिप्पाणि उणियाणि य कारणाणि सिक्खावासमावतारी, तत्थ निगलादीहिं बंधे पावेंति, वेत्तासयादिहि य बंधं घोरं पावेंति, तओ तेहिं बंधेहिं वधेहि य
[326]
२ उद्देशकः
॥३१३॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] | गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
२ उद्देशक:
[१५...]
गाथा ||४१६४३८||
विनयाध्य.
श्रीदश- परिताबो सुदारुणो भवति. अहवा परितावो निठुरचायणज्जियस्स जो मणि संताचो सो परिताबो भण्णइ, ते च परिता बकालिका सुदारुणं 'निअच्छति' नाम निग्गच्छति वा पार्वति वा एगट्ठा, जुत्ता नाम तंमि सिक्खियब्वे निजुज्जतित्ति, ललिईदिया णाम | घृणों
आगम्भाओ ललियाणि इंदियाणि जर्सि ते ललिइदिया, अञ्चन्तसुहितत्ति वुर्त भवति, ते य रायपुत्चादि, किंच,18'तेऽवि तंगुरू' .॥ ४३० ।। सिलोगे, तेऽवि ताव सच्छंदलालिया रायपुनादि तमुवरोहपहारादि विस हात, समायरियं च
दिपूजयंति 'तस्स सिप्पस्स कारणा, ते य पूयाइया तं 'सकारेति नमसंति तुट्टा निद्देसवत्तिणों' अहवा पूया मडुरवयणा॥३१४ाभिनंदणी भन्नइ, सक्कारो भोजणाच्छादणादिसंपादणओ भवइ, णमंसणा अन्भुहाणंजलिपग्महादी, तुहा णाम पराक्खमान णमोकारादीहि मंसंति, '
निदेसवत्तिणों णाम जमाणवेति तं सम्य कुवंतीति णिदेसवत्तिणो, जति तावेवं लोइया सुहालअच्छाए कारणाए कुबति । 'किं पुण जे सुअग्गाही'. ॥ ४३१॥ सिलेोगे, किमिति एसो पुच्छाए बट्टद, पुणसहा Piविसेसणे, किं विसेसयति', जहा गायति भगवंतो साधवो सीसाण उबट्ठावणादीण कुव्वंतित्ति एवं विससयति, सुख दुवालसंग | गणिपिटगं, सुतं गाइयंतीति सुयम्गाही, अणतं हितं कामयतीति अणतहितकामए, मोक्खमुहकामएत्तिनुत्तं भवति, जम्हा ते इह-। लाग परलोग हिसं सुर्य गाहयंति तम्हा ते आयरिया पदेज्जा त भिक्षु 'नाइयत्तए'णाम णातिकमेज्जति । इदणि विणावाओ भण्णइ-'नीयं सिज्जं गई ठाण' ॥ ४५२ । सिलोगो, सेज्जा संथारो भण्णइ, सो आयरिवरसतियाओं णीयतरो कायन्यो, तहा णीया गति कायष्या, 'णीया' नाम आयरियाण पिडओ गतब्ध, समविणो अच्चासणं, नवा अतिदूरत्येण गंतव्य,15 अच्चास ताव पादरेणुण आयरियसंघट्टणदोसो भवइ, अदरे पडिणीयआसायणादि पहवे दोसा भवतात, अता णच्चासणे
-
4-"--
दीप अनुक्रम [४३२४५५]
३१४॥
-
+C
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] | गाथा: [४१६-४३८/४३२-४५५], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||४१६४३८||
श्रीदशबैकालिक चूर्णी
विनयाध्य.
॥३१५॥
णातिदूरे य चंकमितव्ब, तहा जमिवि ठाणे आयरिया उबचिट्ठा अच्छति तत्थ ज नीययरं ठाणं तीम ठाइयव्वं, तहा नीयबरे पीढना र उद्देशकः इमि आसणे आयरिअणुन्नाए उबाविसेज्जा, जइ आयरियो आसणे इतरो भूमिए नीययरे भूमिप्पदेसे वंदमाणो उवडिओ | न बंदेज्जा, किन्तु जाव सिरेण फुसे पादे ताव णीयं वंदेज्जा, नहा अंजलिमवि कुब्वमाणेण णो पहाणंमि उवाविट्टेण अंजली कायब्बा, किंतु इसिअवणएण कायब्बा, एसो काइगो विणयसमाधी भवइ । इदाणि काइया बाया य भण्णाद, तंजथा-'संघद्वात्ता। कारणं ॥ ४३३ ।। सिलोगे, जाहे परिसमाणेण वा णिक्खममाणेण वा गुरू हत्थपादाइणा कारण हा वासकप्पपडलाइणा वा उवादिणा संघारओ भवाइ, अक्सिद्दी संभावणे वट्टर, किं संभावयति ?, जहा दोहिंवि कायावहीहिं जया जमगसमगं घट्टिओ। भवइ, वहा जो इदाणि उवाओ भणिहिति सो कायब्बो त संभावयति, सो य उबाओ हमो-सिर भूमीए निवाडेऊण एवं वएज्जा, जहा-अवराहो मे, मिच्छामि दुकलं, खतध्वमेयं, णाई भुज्जो करिहामित्ति, जो सुद्धो भवह सो अभणिओ आयरियस्स एताणि ४ इंगियाईणि णाऊण करेति, जो पुण मंदबुद्धी सो-'बुग्गओ व पओएणं' ॥ ४३४ ॥ सिलोगो, दुग्गओणाम दुग्गवोत्ति वाला दुहगीणोनि वा गलियोनि वा एगट्ठा, पयोओ तेजणो भण्णाइ, जहा सो दुग्गवो तिक्खेणं तोचएण पुणो २ चोहज्जमाणो । रह बहइ, एवं दुबुद्धी जाणि आयरिय उवझायाईणं किच्चाई मणरुइयाणि ताणि युत्तो वुत्तो पकुम्बद । आह कह तेसिं अणे-४॥३१५॥ गगुणसंपावगाणं आयरियाणं किन्चाई से साहू कुब्बइति ?, भगइ-काल छंदोबयार च०॥ ४३५ ॥ सिलोगो, तत्थ || | कालं पडुच्च आयरियो बुडवयस्थो तत्थ सरदि वातपित्तहराणि दब्बाणि आहरति, हेमंते उपहाणि, बसंते हिंभरहाणि (सिमहराणि) गिम्हे सीयकराणि, पासासु उण्हवण्णाणि, एवं ताव उई उई पप्प गुरूण अट्ठए दबाणि आहरिज्जा, तहा उर्दू पप्प
दीप अनुक्रम
[४३२
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४५५]
%
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आगम
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सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||४१६
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दीप
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भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [४१६-४३८ / ४३२-४५५ ], निर्युक्ति: [३२९.../ ३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक
चूण.
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विनयाध्य.
॥३१६॥
*
सेज्जमवि आणेज्जा, एवमादि, छन्दो णाम इच्छा भण्णह, कयाह अणुदुप्पयोगमचि दव्वं इच्छति, भणियं च 'अण्णस्स पिया छासी मासी अण्णस्स आसुरी किसरा । अण्णस्स घारिया पूरिया य बहुडो हलो लोगो || १ || तहा कोई सहुए इच्छइ कोति एगरस इच्छह, देस वा पप्प अण्णस्स पियं जहा कुदुक्काणं कोंकणयाण पेज्जा, उत्तरापहगाणं सतुया, एवमादि, 'उपचार' णाम विधी भष्णह, जहा कोई धम्मकाहिणो कोई वेयावच्चकरस्स केइ भासिणो केइ आसन्नसेविणो एवमादि, उवचारछन्दकाले 'पडिलेहिताण हे उहिं' ति, पडिलेहिता णाम जाणिऊण, हेउणा नाम कारणेण एतेसिं कालछन्दोवयाराणं जेण २ उवारण कालछन्द पाउग्गा दब्या लम्भंति जेण वा उवायकरणण तूसह तेण तेण उवायण तं तं संपडियायन्ति । किंच - 'विवत्ती अविणीअस्स' • || ४३६ ॥ सिलोगो, विवती नाम विगया संपत्ती नाणादिगुणेहिं अविणीयस्स भवइ, अड्डेहिं विणीयस्स संपदा भवति, 'जस्सेयं दुहओ णायं' 'जस्स' त्ति अविसंसियस्स गहणं, दुहओ णाम उभओत्ति वा दुहओत्ति वा एगड्डा, अविणयायो गुणविवत्ती विणयाओ गुणसंपत्ती भवइति णाये, दुविधं सिख गहणसिक्ख आसेवणासि च अभिगच्छद्द, सिक्खातो य मोक्खं, अभिगच्छ नाम अभिगच्छतित्ति वा पावइत्ति एगट्ठा, भणिया विणीया । इदणि अविणीया भन्नंति, तसिणं अवर्णायाणं अविण्यफलं भण्णइ, तेजहा - 'जे आवि चंडे' ० ॥ ४३७ || वृत्तं, 'जे' ति अणिदिट्ठस्स गहणं, चकार पादपूरणे, अचिसद्दो संभावणे वगृह, जहा सुट्ठ दुलहं निवय णिज्जगुणजुत्तमवि जिणाणुत्रयणाणुवणं लभ्रूण केsवि सत्ता मेसु दोसेसु ववित्ति एवं संभावयति, चंडो काहणो भण्णइ, जातीए इड्डगारवं बद्दति, जहाऽहं उत्तमजातीओ कहमेतस्स पादे लग्गिहामित्ति मति |इटशी गारवो भण्णति, पीतिमुण्णं करोतित्ति पिसुणो, सो व जो पच्छा अगुणकित्तणं करेई, नरेसु मोक्खो भवइतिकाउण णरग
[329]
२ उद्देशकः
॥३१६॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||४१६
४३८||
दीप
अनुक्रम [४३२
४५५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा: [ ४१६-४३८ / ४३२-४५५ ], निर्युक्ति: [ ३२९.../ ३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
॥३१७॥
| हर्ण, साहसो णाम जं किंचि तारिस तं असकिओ चैव पडि सेवतित्तिकाऊण साहस्सिओ भण्णा, 'हणिपेसणं' णाम जो य पेसणतं आयरिएहिं दिन्नं तं देसकालादीहिं हीणं करेतित्ति हीणपेसणे 'अदिदुधम्मे' णाम सुतधम्मचरिच धम्म अजाणए भण्ण, चूर्णं. विणए जिणोवट्टे अकोविए, जहा हमें आयरियस्स कायन्त्र, इमं पाहुणगगिलाणादीरांति, 'असंविभागी' नाम संविभागणाविनयाध्य-सीलो संविभागी ण संविभागी असंविभागी, एवंविहसीलस्स तस्स सुचिरेस व कालेण च मोक्खो न अस्थित्ति । इदाणिं विणीओ विणफलं च दोन्नि भण्णंति, तंजहा - 'निद्देसवित्ती पुर्ण' ० ॥ ४३८ ॥ वृतं निद्देसो णाम आणा भण्णइ, पुणसदो विसेसणे यने बडू, किं विसेसय ?, जहा विसेसेण आयरियस्स विणयो कायव्वो, सेसाणवि जहाणुरूवो कायव्यात्ति एवं विसेसयति, जेति अणिदिङ्काण गद्दणं, गुरवो पसिद्धा, सुयोऽत्थधम्मो जेहिं ते सुतत्थधम्मा, गीयत्थित्ति वृत्तं भवद्द, अहवा सुओ अत्थो धम्मस्स जेहिं ते सुतस्थधम्मा, विणए जहारिछे पउंजियव्वे कोविदा, जम्हा एवंगुणजुत्ता अतो 'तरंति ते ओघमिणं दुरुत्तरं 'ति, तरंतिगहणण तिन्हं गहणं कथं, तं०-तरगस्स तरणयस्स तरियव्त्रस्सत्ति, एतेसिं निदरिसणं जहा दव्वतरओ देवदत्तो, तरणं नावा, तरियब्वयं समुद्दो, एवं भावतरओ साहू तरणं णाणदंसणचरिताणि तरियव्वयं इमो पञ्चको संसारोति, ते य भगवंतो ४ साधवो खवितु कम्माणि गाणावरणाईणि संसारसागरं तरंतीति, तरिऊण य 'गइमुत्तमं गया' आह-- पुवि 'खावत्तु कम्ममिति' वत्तब्बे कहं तरितु ते ओहमिणं दुरुत्तरति पुण्यभणियं ?, आयरिओ आह--- पच्छादीवगो णाम एस सुत्तगंधोत्तिकाऊण न दोस्रो भवइ, सावसेसकम्मुणो य देवलोगे सुकुलेसु पयायंति, पुणो य बोहिं लडूण पण्छा गतिमुत्तमं गच्छतीति, बेमि नाम तीर्थकरोपदेशात्, न स्वाभिप्रायेण ब्रवीमीति ॥ विणयसमाहिअज्झयणे बिईओ उद्देसो सम्मत्तो ॥
अत्र नवमे अध्ययने द्वितीय उद्देशकः परिसमाप्तः
[330]
२ उद्देशकः
॥३१७॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] | गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
ल
श्रीदशवैकालिक
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||४३९४५३||
विनयाध्य
यने ॥३१८॥
ततिअउद्देसगस्सामिसंबंधो, जहा सीसो विणीओ भवइ तदुपदरिसणस्थमिदमुच्यते 'आयरिंअं अग्गिमिवाहिअग्गी-18३ उद्देशकः ॥४३९॥ वृत्तं, आयरिओ मुत्तत्थतदुभअविऊ, जो वा अन्नोऽवि सुत्नत्थतदुभयगुणेहि अ उववेओ गुरुपए ण ठाविओ सोऽवि आयरिओ चेब, तमायरियं जहाऽऽहियग्गी बंभणो अगणिं परमाए भत्तीए 'सुस्सूसमाणो पडिजागरिजा' पडिजागरइ2 णाम मा विज्झाहितित्तिकाऊण तस्स समीवं अमुंचमाणो अभिक्खण इंधणाणं साहरमाणो अच्छइ, एवमयमवि सीसो सुस्वसमाणो8 पडिजागरिज्जा, आह-णणु एस अस्थो पढमुद्देसए 'जहाऽऽहियग्मी जलणं णमंसि' ति भणिओ, आयरिओ भणह-तत्थ आयरियं
व पडच भणियं, इह पुण आयरियं च सुओवएसगं च पहुच भण्णा, जहा आयरिपक्वणं अणतिकमणिों एवं सुतोवदेसगस्सवि। णातिकमणिअंतिकाऊण पुणरुत्तदोसो न भवतीति । पडियरणोबायो इमो, जहा- आलोइएणमिगितेण वा छदं आराहेजा, तत्थ छंदो नाम अभिप्पाओ, त छदं इंगिएण आलोइएण य आराधेज्जा, तत्थ आलोइएण य जहा आयरिएण पाउरणं आलोइयं सीयं च पडद, कत्व वा गंतव्य ? तमेवप्पगारमालोइयं णचा तस्स आयरियस्स तमभिप्पाय पाउरणं उववाएज्जा, एवमादि, सहा इंगिएणचि जाऊण आयरियस्सभिपायमुववाएज्जा, तं च इंगित इमं 'सेत्ति' आयरिएण गातकंपो का, अहो वा सायमिति भासितं, पाउरणमाणेज्जा, जो पूण तेणऽऽगारेण आलोइयं इंगित वा णाऊण छन्दमाराहेइ स पुज्जो भवइ, स पुज्जो णाम पूणिज्जोत्ति वा एगट्ठा, सो व विणओ किमत्थं पउंजितब्बोति ?, अतो भण्णइ- 'आयारमट्ठा.'॥४४०॥ वृत्तं, पंच
P ॥३१८॥ विधस्स णाणाइआयारस्स अट्टाए साधु आयरियस्स विणयं पउंजेज्जा, सुस्सूसमाणोति सोउमिच्छा मुस्सा, जहा किमह आण-TI प्पहिामीत्त पज्जुवासमाणो अच्छा, जाहे य आणचो भवति जहा इमं ते कायवं, ताहे वयर्ण परिगिहिऊण जहेव तेणायरिएण|
दीप अनुक्रम [४५६४७०]
1550
अत्र नवमे अध्ययने तृतीय उद्देशक: आरब्ध:
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] | गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||४३९४५३||
श्रीदशवैकालिक चूर्णी
पिनयाध्य
यने
|
GRESSES
V
उवदि तहेव अविकपमाणो कुज्जा, अविकपमाणो णाम णियडि अकुव्यमाणोत्ति, जो एतेण पगारेण गुरूणो छन्दमाराधेति ३ उदेशका म पुज्जोति, ण केवलं आयरियस्सेव विणओ कायव्यो । किन्तु-'रायाणिएसु.॥४४१॥ वृतं, जे रायणिया अप्पसुताविक वेसु विणयं पउंजेज्जा, तहा बालावि जे परियायजेट्टा तेसु विणयं पठजज्जा, जो य जातीपुट्ठो तेसु परियाएसु य बुड्डेसु 'णीयत्तणे सच्चवादी' णाम जहा बादी तहाकारी, जो ' उवाय ' स पुज्जोति पक्ककरो भवति, तस्थ उ उबातो नाम ||
आणानिइसो, उवायजुर्व वयणं कुवतीति उपाय वक्ककरो भण्णइ, सो एवं पगारगुणभुत्तो पूणिज्जो भवति । किञ्च 'अन्नायउंछं ॥४४२।। वृत्तं, उंछ चउबिहे भवइ, तंजहानामुंछ ठवण दब्बुछ भावुछ च, णामठवणाओ गयाओ, दबुंछं जहा ताबसादीणं, भावुछ अन्नायेण, तमन्नाय उंछ चरति, चरति णाम चरातित्ति वा भकूवातत्ति वा एगट्ठा. विसुद्ध णाम उग्गमादिदोसबज्जियं, 'जवणट्टया' णाम जहा सगडस्स अभंगो जत्तत्थं कीरइ, तहाँ संजमजत्तानिव्वहणत्यं आहारयति, 'समुआणं तु (च)णिकच ' णाम मिक्वं विवित्तं निययं काय, तेच समुदाणं कदायि लमज्जा कदापि ण लभेज्जा, जाहे न लद्धं भवइ ताहे अलधुआं णो परिदेवाज्जा, जहाऽहं मैदभागो न लभामि, अद्दो पंतो एस जणो, एवमादि। लद्धमविणो विकत्येज्जा, तत्थ विकस्था णाम सलाघा भण्णति, जह अहो एसो सुग्महियणामी जणी, जहा वा अहं लभामिका अन्नो एवं लभिहिति ? एवमादि, जो अन्नातउई चरगादिगुणजुत्तो साधू स पुज्जो भवतित्ति । किंच-'संथारसिज्जा| सणभत्तपाणे ॥४४३ ॥ सिलोगो, संथारया अढाइज्जा इत्था दीहत्तणेण, वित्थारो पूण हत्थं सचउरंगुलं, सेज्जा सम्बगिया, | अहवा सेज्जा संथारओ, आसणं-पीढगादि, भत्तपाणा पसिद्धा, तेसु संथारगादिसु लब्भमाणेसु तमि लामेषि संते
॥३१९॥
दीप अनुक्रम [४५६४७०]
CASH
SEKASIRSA
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] | गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
उद्देशक:
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||४३९४५३||
श्रीदश-11'अप्पिच्च्या ' अप्पिच्छया णाम णो मुच्छे करेइ, ण वा अचिरिचााण गिण्हइ, जो एएणप्पगारेण 'अप्पाणं आभिओस वेकालिक एज्जा' अभितोसएज्जा णाम जेण च तेण व संतुट्ठमप्पाणं कुब्विज्जत्ति वृत्तं भवति, भाणयं च-हे जं च तं च आसित जत्थ व चूणा तत्थ व सहोवगयानह। जेण व लेण व संतुट्ठ धीर मुणिओ हु ते अप्पा ॥१॥ संतोसपाहन्नरए' ति संतोसो सम्वपहाणं पहाणे
४ एयंमि संतोसपाहण्णे जो रतो स पूणिज्जो भवइति । इदाणि इंदियसमाही भण्णइ, तंजहा-'सक्का सहेउं आसाइ विनयाध्य यने
कंटया० ॥४४४ ॥ वृत्तं, सक्का णाम सक्कत्ति वा सहयत्ति वा एगट्ठा. सहिउँ णाम अधियासेउ, आसाए
| णाम एतेण करण इमा अत्थसिद्धी भवइति, जहा कोयि लोहमयकंटया पत्थरऊण सयमेव उच्छहमाणा ण पराभियोगेण वेसि ॥३२०॥ लोहकंटगाणं उरि णुविज्जति, ते य अण्णे पासित्ता किवापरिगयचेतसा अहो वरागा एते अत्यहेउं इमं आवई पतत्ति भन्नति
जहा उद्वेह उद्वेहानि, जे मग्गह ते मे पयच्छामो, तो तिक्खकंटाणिभिन्नसरीरा उडेति, अषिय ते आसापटिबद्धा सक्का सहिउँ, काणाइदुक्कर, दुक्कर तु आणासाए जो उ सहेज्ज कंटए चयोमए कन्नसरे स पुज्जोति, 'अणासाए' णाम विणा आसाए, प्राण आसाए अणासाए, 'जो उ' अणिदिहस्स गहणं, तुसदो बिसेसणे बट्टइ, किं विसेसयति , जहा सो महंतो पसंसियव्वो
जो अणासाए सहतित्ति एवं विसेसयति, 'सहिज्ज' णाम अहियासेज्जत्ति, कंटगा पसिद्धा, के य, वतीमया, वाया कडगफ४ रुसा कंटगा भवंति, ते य वतीमए कंटए सहद, कन्नं संरतीति कन्नसरा, कन्न पविसंतीति युरी भवइ, जहा ते कंटगा कायाणुगया | दुरुद्धरा भवंति तहा अणासया वायाक टगा कण्णसोयमणुगया दरुद्धरा भवतीति । 'मुहत्तदुक्खा उ भवंति कंटया । ४४५॥ वृत्तं, ते य वओमया कंटगा मुहत्तदुक्खा भवंति सुहं च उद्धरिज्जति, वणपारकम्मणादीहि य उवाएहि रुज्झविज्जति
दीप अनुक्रम [४५६४७०]
॥२०॥
--
[333]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||४३९
४५३॥
दीप
अनुक्रम
[४५६
४७०]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा: [४३९-४५३ / ४५६-४७० ], निर्युक्ति: [३२९.../ ३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक चूम
९ विनयाध्य.
॥३२१॥
वायादुरुताणि पुण दुरुद्धराणि भवंति, वेराणुबंधीणि य भवति, 'महम्भयाणि य' भणियन्वति सोयारस्स कहमाणस्स य दोण्हवि तत्थ सोयारस्स जहा चोरोति भणिए कि परेण सुतं होज्जत्ति भयमुप्पज्जति, तहा मासगस्सवि एवं गिरा दोसादि महतं भवतित्ति । ते एवं ' समावयंता ० ॥ ४४६ ॥ वृत्तं, 'समावयता नाम अभिमुहमावर्यताणि वयणाणि कडुगफरुसाणि मेहविवज्जियाणि अभिघाया वयणाभिघाता 'कन्नं गया दुम्मणिअं जणंति 'चि, ' दुम्मणिअं ' नाम दोमणस्संति वा दुम्मणियंति वा एगड्डा, वयणाभिधाए कोयि असत्तिओ सहद्द कोइ धम्मोति, जो पुण धम्मोचिकाऊ सहइ सो य 'परमग्गसूरे' भवइ, परमग्गसरे णाम जुद्धसर-तवसूर- दाणसूरादीर्ण सूराणं सो धम्मसद्धाए सहमाणो परमग्गसूरो भवद्द, सव्वसरणं पाहण्णयाए उवरि बत्ति वृत्तं भवति 'जिइंदिए ' चि साहुस्स गहणं, जो एवं वयणाभिघाए सहइ सो पूयणिज्जो भवति । एते वयणदासे णाऊण ' अथण्णवायं ०' ॥ ४४७ ॥ वृत्तं अवन्नो नाम अयसा, तस्स अवन्नस्स वयणं अबन्नवाओ भण्ण, तं अवन्नवादं परम्मुहस्स नो भासेज्जा, पच्चक्खमचि जा य पडिणीयभासा, जहा तुमं चोरो पारदारिओ वा वहा ओहारिणं पियकारिणि च मासं नो भासेज्जा, तत्थ ओहारिणी संकिया भण्णति, जहा एसो चोरो पारदारिओ ?, एवमादि, भणियं च ' से मंते! मण्णामिति ओहारिणी भासा आलावगो, ' अप्पियकारिणी' नाम मासिज्जमाणी अदेसकालपयतचेण अण्णेण वा केण कारणेण सोतारस्स णो पीरमुप्पा सा अधि (पिय)कारिणी भण्णहात, तमेवप्पारं जो ण मासह सदा सो पूयाणज्जो भवइति । 'अलोलुए ' ॥ ४४८ ॥ वृत्तं, 'अलोलुए' नाम उक्कोसेसु आहारादिसु लुद्धो भवइ, अहंवा जो अप्पणोषि देहे अप्पडिंबद्धो सो अलोलुओ भण्णइ तथा कुहगं -चंदजालादीर्य न करेाति अक्कुहएचि, अडवा वाइ
[334]
२ उद्देशकः
॥३२१॥
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] | गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१५...]
गाथा ||४३९४५३||
श्रीदश- चादि कुहंग मण्णइ, तं न करेइ अाएति, अन्जवसंपणो अमाई भण्णह, तहा आपिसुणे यादि 'अपिमुणे' णाम नो मनोपीति- उद्देशक
दाभेदकारए, अदीण वित्ती नाम आहारोवहिमाइसु अलन्ममाणेसु णो दीणभावं गच्छइ, तेसु लद्धसुवि अदीणभावो भवइत्ति पूजा II'अवाणवित्ती नो भावए' नाम नो अन्न एवं पएज्जा, जहा तुम मए अन्नउत्थियाणे मिहत्थाण य पुर ओठबिज्जाासे, जहा
| अहो तवस्सी विजातिसयपत्तो नेमितिओ एवमादि य,सयमवि अप्पणो नो एवं बएन्जा जहा धम्मी खमओ नाणी वा मित्तिओवा विनयाध्यम
है विजासिद्धो वा असुगकालगो वा एवमादि, तहा नडनहगादिसु णो कूउहल करेइ. जो एयगुणजुत्तो साहू सो सदा पूणिज्जो भवइ ।। ॥३२॥ किंच-'गुणेहि साधू०॥४४६।। वृत्तं, जे एते विणयगुणा भणिया जो एतेहिं गुणेहि जुत्तो सो साधू भवइ, तबिवरीएहिं अगुणेहिं
असाधु भवदत्तिणाऊण साहणं जे गुणा ते गेण्हाहि, मुंचहि असाहुअगुणे गधलाघवत्थमकारलोवं काऊण एवं पढिाइ जहा मुंचsसाधुत्ति. विविध-अणेगप्पगारं अप्पगं कम्मुणा अहविधण बज्झमाणं अप्पणो विजाणिय जो रागदोसेहि समो से पूयणिज्जो भवतित्ति । आह-वियाणिया अप्पगंति भाणियब्बे सह किमत्थं अप्पगणंति भण्णात !, आयरिओ आह-केसिंचि उलूगादीम णाणस्स पाणिणोऽविहु अभावो, तप्पडिसहणथं अप्पकर्णति, किंच-तहेब इहरं च महल्लगे वा०॥४५०॥ वृत्तं, 'तहेब' ति जहा अवण्यावायादीण कप्पति आयरिउँ तहा इदमवि, एक्सहो पायपूरणे, डहरो-बालो भण्णइ, 'महल्लो' धेरो भण्णइ, चकारगहणेण माज्झिमवाऽवि गहिओ, एतेर्सि एक्केक्को इत्थी पुरिसो वा होज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउ
P३२२॥ नपुंसगोऽवि गहिओ, तत्थ इत्थी गिहत्था वा होज्जा पवहगा वा, एवं पुरिसोऽवि, नपुंसगोऽवि, सो ण कप्पइ पब्वावउ, जाहे अणाभोगादिणा कारेणण पवाविओहोज्जा वाहे सबप्पगारेण विगिचणिज्जो, अहवा सोऽवि चरगादिपब्धज्जाए पचइओ होज्जा,
RECASSAGARAN
दीप अनुक्रम [४५६४७०]
PARRECTORS
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
[१५...]
गाथा
||४३९
४५३||
दीप
अनुक्रम [४५६४७०]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा: [४३९-४५३ / ४५६-४७० ], निर्युक्ति: [३२९.../ ३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णां ९ विनयाध्य. x
॥ ३२३॥
साहू एक्केक्कओ डहरं मज्झिमं महल्ले वा इत्थि वा पुरिस वा नपुंसगं वा पत्रइयं निहत्थं वा न हीलेज्जा, तस्थ हीलणा जहा सूया अणीसरं ईसरं भण्णइ, दुई भटगं भण्णह, एवमादि, खिसीद असूयाइ जाइतो कुलओ कम्मायो सिप्पयो वाहिओ वा भवति, जाइओ नहा तुम मध्छजाइजातो, कुलओ जहा तुमं जारजाओ, कम्मओ जहा तुमं जडेहिं भयनीज्जो, सिप्पनी जहा तुम सो चम्मगारो. बाहिओ जहा तुम सो कोढिओ, अहया हीलणाखिसणाण इमो विमोहला नाम एकवारं दुव्यणियस्स भवर, पुणो २ खिसणा भव, अवा इलिणाऽतिफस भणियस्स भवइ, सुठु निठुरं भासितस्स सिणा भवड़, सर यहीलना खिसा य माओ कोहाओ वा इयेज्जा, तेहिं येभकोहेहिं पुत्र्यमेव हीलणाखिसणाओ जढाओ भवति, जो अहीलणो अखिसणो य सोय पूयणिज्जति । किंच - 'जे माणिया० ॥ ४५९॥ वृत्तं, 'जे' चि अणिद्दिद्वाणं गहणं, 'माणिया' नाम अडाणसकारादीहिं, सययंति वा अणुबद्धति वा एगट्ठा, अणुवद्धमेव ते आयरिया तेसु सीसेसु उबएसपरिचोदणाहिं परिमाणयति, तहा' जतेण कन्नं व निवसति जहा मातापितरो कन्नं आबालभावाओ आरम्भ महता पयत्तेण संवढेऊण सारक्खिऊण पवत्तेण निवेति, | निवासो नाम मताराणुत्पयाणं मण्ण, एवं ते आयरियाचितं सीसं विणयमूलं धम्मं सिक्खावेऊण सुत्तत्थतदुभओवर् य आयरियत्ते ठायति, जम्हा ते एवंविधं पच्चवगारं कुब्र्वति अतो ते अडाण माणणोवारण माणेज्जा, 'माणरिहे नाम जो सो अट्ठासकारादिसंमाणो तस्स परमत्थओ ते अरहा, ण कृतित्थियाईण आयरियत्ति, तबस्सी णाम तवो बारसविधो सो जेसि आयरियाणं अस्थि ते तवास्सियो, जिईदिए णाम जियाणि सोयाईणि इंदियाणि जेहिं ते जिइंदिया, सचं पुण भणियं जहा सुद्धी तंमि रओ सचरओ, ते एवंगुणजुत्ता माणणिज्नत्ति, जो ते मागियइस पूयणिज्जो भवतित्ति । इदाणिं सपूयाज्जेस जं
[336]
२ उद्देशकः
॥ ३५३॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] | गाथा: [४३९-४५३/४५६-४७०], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
२ उद्देशक:
[१५...]
गाथा ||४३९४५३||
श्रीदश- भण्णइ, तंजहा-'तेसिं गुरूर्ण ॥४५२॥ वृत्तं, तेसिं णाम जे ते विणओवएससकारादिगुणजुत्ता भणिया, गुरवो पसिद्धा, वैकालिका
गुणेहि सागरो विव अपरिमिया जे ते गुणसागरा तेसिं गुणसागराणं, सोच्चाग णाम सोऊण वा सोच्चाण वा एगट्ठा, चूणा
मेहाची पुनभाणओ, सोभणाणि भासियाणि सुभामियाणि, 'चरे ‘णाम आयीरओबएसमायरिजा, मुणिगहण मुणित्ति वा विनयाभ्य.
नाणिति वा एगट्ठा, पंचसु महबएसु जयणाए रो भवेज्जा, सारक्खणजुत्तोत्ति बुत्तं भवहात्ति, गुत्ते-मणवयणकाइएहिं गुत्तो
भवेज्जा, कोहाईहि चउहि कसाएहि उवसंतहिं चत्तीह आयरियाणं सुभासियाई गहिऊणमागरेज्जाति, जो एयप्पगारगुणजुत्तो ॥३२४॥
साहू सपूयणिज्जो भवद, इदाणि विणयफल भण्णइ- 'गुमामह सयपं०॥४५३।। वृत्तं, तत्थ गुरू पसिद्धो, इहग्गहणेण मनुस्सलोगस्स गहणं, कम्मभूमीए वा गहणं कर्यति, सयबनाम सययंति वा सन्चकालंति वा एगहा, 'पडियरिय ' नाम जिणावबइटेण विणएण आराहेऊणति चुतं भवइ, 'मुणी 'नाम मुणित्ति वा णाणित्ति वा एगहा, जिणाणं वयणं तमि जिणवयणे णिउणो| जिणवयणणिउणे, तहा 'अभिगमकुसले ' अभिगमो नाम साधणमायरियाणं जा विणयपाडवत्ती सो अभिगमो भण्णइ, त। मि कुसले, वितिय कुसलगहणं कुत्थियाओ कारणाओ स लसइत्ति कुसलो, अहबा अच्चस्थानमित्तं वा पुणो भण्णमाणो: कुसलसद्दा पुणरुतं ण भवतीति, सो एपप्पगारेण धुनिउ अट्ठविहं कम्मरयमले पृथ्वकर्य नवस्स आगमं पिहिऊणं' भासुरमउला
गई बई' ति नत्थ पभासतीति भासुरा, अउला नाम अण्णण केणवि कारणेण समाणगुणेहि न तीरइ तुलेउ सा अतुला भण्णइ. असा सिद्धी, ते भामुरं अतुलं गई वयंतीति, बईति नाम वयंतित्ति वा गछतिति वा एगट्ठा, साबसेसकम्माणो देवलोग सु-11
दीप अनुक्रम [४५६४७०]
॥३२४
[337]
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आगम
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) (४२) | अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [१-५/४७१-४८४] / गाथा: [४५४-४६०/४७१-४८४], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशा
प्रत सूत्रांक [१-५]
गाथा ||४५४४६०||
लपच्चालाई लघूण पच्छा सिज्झिज्जा, बेमि नाम तीर्थकरोपदेशात्, न स्वाभिपायेण ब्रवीमि ।
IN उद्देशक वैकालिक
विणयज्झयणसमाहीए तइओ उद्देसो सम्मत्तो खूपों.
चउत्थउद्देसगत्थाभिसंबंधो-विणयसमाधी अविसेसिया भणिया, तम्भओवदरिसणस्थमिदमुच्यते--सुतं मे आउसंतण|81
भगवया एवमक्वायंति' (सूत्रं १६) एयस्त अत्थो जहा छज्जीवनियाए, इहत्ति नाम इह सासणे, खलुसद्दो विसेसणे, किं विवे-II विनयाभ्यासयति, न केवलं गोयमाईहिं थेरेहि तित्थगरसगासओ सोउं चउबिहा विणयसमाही भण्णइ, किन्तु तीयाणागयथेरतेहिवि अप्पणो।
लागासगासे सोऊण एते चेव चत्वारि विणयसमाधिट्ठाणा अतीता पनवेंति या, अणागया पण्णवेस्सति एवं विसेसमंति, थेरगहणण[: ॥३२५॥
माणहराण गहणं कय, भगवतेहिं नाम भयो-जसो भण्णइ, सो जेसि आस्थ ते भगवंतो, अतो तेहि भगवतेहि, चत्तारित्ति संखा,
विणयो चेव समाही विणयसमाही, समाही वा गाम ठाणं ति वा भेदोत्ति वा एगट्ठा, पण्णत्ता नाम परूपिया, आह-कयर खलु जाव पत्ता, आयरिओ भणइ-'इमे खलु जाव पन्नत्ता, तंजहा- विणयसमाही सुयसमाही तवसमाही आयारस-14 माही' विणय एव समाही विणयसमाधी, सुतमेव समाधी सुतसमाधी, तव एव समाही तवसमाही, आधार एव समाही
आयारसमाही, एसो पदअत्थो, अत्यो इमाए संगहणीए मण्णा-'विणए सुते या४५४॥ सिलोगो, अहवा तत्थेव तेसिं चेक अत्था-11 लणं कुडीकरणाणिमित्रं अविकप्पणानिमित्वं च पुणो महणं कयंति, उक्तंच-"यदुक्तो यात्र) पुनः श्लोकैरर्थस्समनुगीयते । तद् अ-ला
॥३२५॥ व्यवसायार्थ, दुरुक्तो वाऽथ गृह्यते ॥क्षा" तम्हा एतेण कारणेण सो चेव अत्थो पुणो सिलोगेण भण्णइ-बिणए सुए अतवे, आयारे निच्चपंडिआ। अभिरामयंति अप्पाणं ' अभिरामयंति नाम एतेहि कारणेहि अप्पाणं जोतंति चि बुत्वं भवइ, के
दीप अनुक्रम [४७१४८४]
अत्र नवमे अध्ययने तृतीय उद्देशक: परिसमाप्त: तथा चतुर्थ उद्देशक: आरब्ध:
[338]
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आगम
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) (४२) | अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [१-५/४७१-४८४] / गाथा: [४५४-४६०/४७१-४८४], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
४ उद्देशक:
वैकालिका
श्रीदश- चूर्णी.
[१-५]
गाथा ||४५४४६०||
विनयाध्य
॥३२६॥
पुण ते अभिरामयंति, एत्थ भण्णाइ-'जे भवति जिई दिय 'ति, जेचि अणिदिवाण गहण कयंति, एतेसु चउसु ठाणसु ते अप्पाणं अभिरामयंति जे य जिइंदिआ भवंति, न पूण अजितिदियत्ति, विणयमूलो एस जिणप्पणीओ धम्मोत्तिकाऊण अगे पुलि विणयसमाही माणिया, तमि विणए अवास्थो मुतं गेण्हइत्ति, अतो विणय (समाहीए परओ) सुयसमाही भणिया, तंमि य सुए तवो वाणिज्जातत्ति अओ तवसमाही भणिया, तबो य आयारादुवस्थियस्स सुद्धो भवइत्ति अतो आयारस्स समाधी भाणया । इदाणि एतसिं एककं चउविहं भण्णइ, तत्थ' पउम्विहा खलु विणयसमाही भवाहत्ति (सूत्रं १७)'चउब्विहा ' नाम चउबिहनि वा चउभेदत्ति वा एगट्ठा, खलुसहो पायपूरणे, विणओ चेव समाधी विणयसमाधी, अहवा विणयसमाधी भवति णाम हबहारी वा एगट्ठा, साय चउबिहायि इमा, संजहा अणुसासिज्जतो सुस्वसइ, पढम विणयसमाधीए पदं, सम्म संपडिवज्जतित्ति वितियं पदं, वेयमाराहात्ति ततियं पयं भवति, जय भवद अत्तसंपग्गहिए, चउत्थं पदं भवति, तस्थ अणुसासिज्जंतो सुस्सूसइ णाम अणुसासणा पटिचोदणा भण्णइ, पडिचोइज्जतो ममेव हितमुबइसतित्ति सुस्वसइ, 'सुस्सूसइ' नाम तदेव पडिचोदणं पुणो पुणो सोउमिच्छति,' संमं संपड़िवज्जई' नाम तं पडिचोदणं तत्तओ पडिबज्जइ, 'वेयमाराहा' नाम वेदो---नाणं भण्णइ, तत्थ जं जहा माणत तहेव फुच्यमाणो तमायरइत्ति, न य भवइ अत्तसंपग्गहिए 'नाम नो अत्तुकारसं करेइत्ति, जहा विणीयो जहुचकारी य एवमादि, सुत्तकमपरिवालीए चउत्थमेयं पदं भवद । भवह य एष विणयसमाहीए सिलोगो, तंजहा-पेहेइ हिआणुसासणं, सुस्सूसई तं च पुणो अहिए। न य माणमएण मज्जई, विणपसमाही आययहिए ॥ ४५५।। 'पहेई' नाम पेहतित्ति वा पेच्छतित्ति वा एगहा, 'हिआणुसासणं' नाम जे इहलोगहियं
दीप अनुक्रम [४७१४८४]
GESRA
॥३२६॥
[339]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[[१-५]
गाथा
||४५४
४६०||
दीप
अनुक्रम
[४७१४८४]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [१-५/४७१-४८४] / गाथा: [ ४५४-४६०/ ४७१-४८४], निर्युक्तिः [ ३२९... / ३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदश
वैकालिक चूर्णी.
विनयाध्य
ने
॥३२७॥
*
परलोगहियं चोइज्जइ तं पेहयति, आयरियउवज्झायादओ य आदरेण हिओवदेसगत्तिकाऊण सुस्सह, वमेव पुणो तेसिं हिओवएसं संमं अडियतीति, अद्वेिति नाम अहियतित्ति वा आयरइत्ति वा एगडा, 'ण व माणमरण मज्जई' न मा ( णं कुण जहा विजयसमाहीए पच्च को मए समानो अण्णोत्ति, आययट्टिए नाम आयओ मोक्खो मण्ण, ते आययं कखयतीति आयए, अथवा विणयसमाधीए आययडाए अच्चत्थं आद Get a fauraarataययद्विआ भण्णइ, विषयसमाध भणिया । इदाणि सुयसमाधी भण्णह, जहा - 'सुअं मे भविस्सइत्ति अझाइअवं गगचित्तो भविस्सामिति अज्झाइअव्वयं भवइ, बितियं सुखसमाधीए पदं, अप्पाणं ठावइस्सामित्ति अज्झाड़वं भव, पढमं सुतसमाधीए पदं, ॐ अवयं भव, तयं सुयसमाहीए पर्छ, ठिओ पर डाबहस्सामित्ति अज्झाइ अव्ययं भवइ, वउत्थं सुयसमाहीए पयं भवतित्ति ॥ (सूत्रं १८ ) अज्झाइयव्वयं भवइ ' सुयं नाम दुबालसंगे गणिपिढगं, तं मे खाय भविस्संतित्ति एवं आलंचण कार्ड साहुणा अज्झाइयच्वं भवति, एगग्गचित्तं अज्ज्ञाय॑तस्तु भविस्सतित्ति एवं आलंबणं काउं साघुणा अ अज्झाइय भवइ, तहा सुहविरागं जाणमाणो सुहं अप्पा धम्मै ठावेहामित्ति एवं आलंवणं साहुणा काऊण अज्झाइयच्वं भव, सुर्य कमपरिवाढीए, चउत्थमेयं पदं भवइ । भवइ य एत्थ सुयसमाहीए सिलोगो, तजहा-नाणमेगग्गचित्तो, ठिओ अ ठावई परं । सुआणि अहिज्जित्ता, रओ मुअस माही? || ४५६ || अज्झाइए णाणमंतो भवइ, गणणगुणेण एगग्गचित्तो, एगग्गचित्तो य धम्मे निच्चलो, ठिओ सो सम्मं समत्यो परमवि ठावेडंति, नाणाविहाणि य सुयाणि अहिज्जमाणो रओ सुयसमाधीएत्ति । इदाणिं तवसमाधी मण्णइ- चउब्विहा खलु तवसमाही भवइ, तंजद्दा-नो इहलोगट्टयाए तवमहिडिज्जा० ( सूत्रं १९ )
[340]
| ४ उद्देशका
॥३२७॥
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) (४२) | अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [१-५/४७१-४८४] / गाथा: [४५४-४६०/४७१-४८४], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[१-५]
गाथा ||४५४४६०||
श्रीदश-13 तवो बारसविधो, तं इहलोगकारणा जो अहिडेज्जा, जहा ममं तवोजुतं पाउं सपक्खो परपक्खो य वत्थादीहिं पूएइ, इहलोइया ३/४ उद्देशकः वैकालिक
वा कामभोगा माणुस्सगा लभिस्सामित्ति, तत्थ उदाहरणं धम्मिलो, पढमं तवसमाधीपदं गतं । तहा णो परलोगट्टयाए चूर्णी.
तवमदिवेज्जा, जहा देवलोगे मे असुगा रिद्धी भवउ, अमुगे विमाणे उबवज्जेज्जा, अमुग वा चक्कबडिमादि माणुस्सियं रिद्धि
परभवे लभेज्जा, पत्थ उदाहरणं बंभदत्तो, चितियं तवसमाधि पदं गतं। तहा 'णो कित्तिवण्णसद्दासिलोगठ्याए तवमहिविनयाध्य
ट्ठिज्जा' कित्तवण्यासहसिलोगट्ठया एगट्ठा, अच्चस्थनिमित्तं आयरनिमित्तं च पउंजमाणा पुणरुत्तं न भवतीति, ततियं न यने
तवसमाधि पदं गतं ।' नन्नत्थ कम्मनिज्जरट्टयाए तवमाहट्ठज्जत्ति' पागारी पडिसधे बडइ, अनत्थसहो परिवज्जण वट्टहा। ॥३२८|| जहा कम्मनिज्जरामगां मोत्तूण अण्णस्स न कस्सइ. अत्थस्स अट्ठाए तबमहिद्विज्जा, तवकमपीरवाडीए चउत्थमेयं पदं भवातिति ।।
भवइ य एत्थ तबसमाधीए इमो सिलोगे, तंजहा 'विविहगुणतवोरए य निच्च,भवइ निरासए निज्जरट्ठिए। तवसा धुणइ र पुराणपावर्ग, जुत्तो सया तवसमाहिए ॥४५७।। विविधेसु अणेगप्पगारेसु गुणसु तवे य वारसविधे रओ णिच्च भवइ, णिरासए णाम निग्गता आसा अप्पसस्था जस्स सो निरासए, निज्जराए अट्ठो जस्स से निज्जस्ट्ठीए, एतप्पगारो साहू वेण वारसविहण अप्पगार पावं तबसमाधीए जुत्तो धुणतित्ति चउबिहा तवसमाही भणिता । एवमायारसमाधी चविहा भाणियच्या णिरबसेसा, णवर णण्णस्थ आरहतेहिं हेऊहिं आयारमहिहिज्जा, एयमि आलावगे सिलोगे य विससो, जे आरहंतेहि अणासवत्तणक-13॥३२॥ म्मणिज्जरणमादि मोक्षहेतयो भाणता आचिना वा ते आरहतिए हेऊ मोत्रण णो अबस्स साहणट्ठा मूलगुणउत्तरगुणमयीय || आयारमहिडिज्जति । सो य पुष्पराहओ सिलोगे इमो, तजहा-- 'जिणवयणरए ' ४५८ ॥ सिलोगो, जिणा पुच्चभणिया,
दीप अनुक्रम [४७१४८४]
+KC+MAPOLMP.-
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आगम
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [१-५/४७१-४८४] / गाथा: [४५४-४६०/४७१-४८४], नियुक्ति : [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत सूत्रांक [१-५] गाथा ||४५४४६०||
वृणा.
श्रीदश- जहा दुमपुफियाए, एतसिं जिणाण वयणं तमि रती जस्स से जिणवयणरए, 'ए' नाम सहयति पा सेयंति वा एगहा. | ४ उद्देशक चंकालिकअतितिणे' अचवले बा (पडिपुण्णाययमावयट्ठिए )पडिपुन्नं' नाम पडिपुत्रति वा निरवसेसंति वा एगट्ठा. मुतत्थेहिं पडिपुण्णो,
आयया (अच्चत्थं, आयओ मोक्खो तमत्थेइ अभिलसतित्ति) सुयाइ आयोर चेव समाही आयारसमाही, ताए आयारसमाहीए संवुडे |
भवति, संखुडे णाम संवरियासबदुवारे, चकारो समुच्चये बट्टइ, न केवलं आयारसमाधिसंखुडे, किन्तु पुचिल्लाहिं समाहीहि उवेए. समिक्ष्वध्य
देते विहे-इंदिरहि य नोइदिएहि य, नोइंदिएहि 'भावसंधए ' णाम भायो मोक्खो तं दरथमप्पणा सह संबंधए। इदाणी एयाए ||३२९॥
चउम्विहाए समाहीए फलं भण्णइ, तंजहा--' अभिगम चउरो समाहिओ ॥४५९॥ एतं, आभगयाओ समेयातो विणयसमाधिमादियाआ चउरो समाहीओ जस्स सो अभिगम चउरो समाधीओ, 'सुविसुद्धो' नाम तेहि मणवयणकाएहिं जोगेहि सुठु विसुद्धो सुविसुद्धो, सु सत्तरसविहे संजमे समाहिओ अप्पा जस्स सो सुसमाधिअप्पा, विउलं विच्छिन भण्णइ, विपुलं तं हितं |च विपुलहितं, सुहमावहतीति सुहावह, पुणसदो विसेसणे वट्टइ, किं विसेसयति', जहा एयाओ चउरो समाहिजो समणा & आयरिऊण य पच्छा अयं विपुलं हितं मुहमावहति णाम कुव्वात्त वा घडइत्ति वा एगट्ठा, सेत्ति साधुस्स निदेसा, पर्द-ठाणं | 'खेम' णाम खेमंति वा सिर्वति वा एगट्ठा, सो य मोक्खो, अत्तणो गहणेण एवं परूवियं भवइ, जहा चेचो कम्मं करेइ, सो वेष अविणट्ठो अण्णण परियारण जुजइ, 'जाइमरणाओ'०॥ ४६० ।। वृत्त, जाती मरणं संसारो ताओ संसारातो मुच्चइत्ति, ॥३२९॥ 'इत्थत्थं ' णाम जेण भण्णइ एस नरो वा तिरिओ मणुस्सो देवो वा एवमादि, सच तं सो जहातीति, सब्यसो नाम ण पुणो सरीरं गेण्हइत्ति, सो एतप्पगारगुणजुत्तो सिद्धो भवइ, सासयो, अप्परए वा देवे, तेण थोवावसेसेसु कम्मत्तणण देवो लवसत्तमेसु
54--XCCXC%
दीप अनुक्रम [४७१४८४]
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [५...] / गाथा: [४५४-४६०/४७१-४८४] नियुक्ति: [३२९.../३२७...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
वैकालिकादा
निक्षपाः
१०
[१-५]
गाथा ||४५४४६०||
श्रीदश-18| परममहिढिएमु भवइ, अनेसु वा चेमाणिएम इंदसामाणियादिसु महिडिओ भवड, पेमि नाम तीर्थकरोपदेशात, न स्वाभि-131, प्रायेणेति, इदाणी गया-'णायंमि गिणियन्वे०॥ गाहा, 'सब्वेसिपि णयाण.' ॥ गाहा, पूर्ववदिति ।।
IN भिक्षुपदयो चूर्णी.
विणयसमाहीअज्झयणं सम्मत्तम् सभिवध्य
एतेसु नवसु अज्मयणत्थेसु जो पट्टा सो मिक्ख , एतेण अभिसंबंधेणागतस्त दसमझयणस्स चत्तारि अणुयोगदारा जहा |
आवस्सए, नवरं नामनिष्फण्णो निक्खेबो सभिक्खू, सगारो निक्खिवियवो, भिक्यू य निक्खिावियचो, तत्थ पुर्व सगारो ३०॥ भण्णइ, सो चऽबिहो, संजहा-नामसकारो ठवण दव्य भावसगारो यत्ति, णामठवणाओ गयाओ, दवसगारो दुविहो,
तंजहा-आगमओ जोआगमओ य, आगमओ जाणए अणुबउत्ते, नोआगमओ विविहो, तंजहा-जाणयसरीरदबसगारो मवियसरीरदम्पसगारो जाणयसरीरभवियसरीरवहरितो दन्यसगारोति, तत्थ जाणगसरीरदबसगारो जीवो सगारजाणओ तस्स जे सरीरगं जीयरहियं पुन्वभावपण्णवर्ण पहुच्च, जहा अयं घयक आसि, एस जाणगसरीरदब्बसगारो, इयाणी भवियस-1 रीरदब्बसगारो जो जीवो सगाई जाणिहित्ति अणागयभावपण्णवणं पडुच्च, जहां अयं घयकुंभे भविस्सइ अयं महफुमे भविस्सइ, इदाणि जाणगसरीरभवियसरीरबहरिचो इमेण गाथापुब्बद्धण भण्णाइ-निसपसंसाए०१॥३३१ ॥ अद्धगाथा, सगारो |तिसु अत्थेसु परह-निदेसे पसंसाए अस्थिभावे य, निदेसे जहा से णं तो अणंतरं उब्वट्टित्ता इव जंबुद्दीवे एवमादि, पसंसाए । हा जहा पुरिसा सप्पुरि सेहि सम वसंता भवति पुरिसुत्तिमा वरिंदनीलमरगयमणिणो व जच्चकणमसहसंबद्धा एवमादि) आस्थ ॥३३०||
भावे जह समयं अमुर्ग कज्जति एवमादि, वसगारो भपिओ, भावसगारो णाम जो जीपो सगारोवउचो सो भावसगारो
CALSCRECANARAHARASHTRA
दीप अनुक्रम [४७१४८४]
→ अध्ययनं -९- परिसमाप्तं
अध्ययनं -१०- 'स-भिक्षु' आरभ्यते
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
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गाथा ||४६१४८१||
a
श्रीदश-IA भण्णइ, एते नामठषणभावसगारा उच्चारितसरिसत्तिकाऊण परूविया, इह पुण दव्यसगारेण पोषण, तत्थवि जे इमेहिं दोहिंसकार-.
भिक्षुपदयो वैकालिकामाईति तेण अहिगारो, तंजहा-णिसपसंसाए.॥३१॥ गाथापच्छद्धं, णिहेसे पसंसाए य एतेहिं दोहि कारणदि|
निक्षेपाः इमंमि दसमज्झयण पयोयर्ण, कह', 'जे भावा दसवेआलिअंमि.'॥ ३३२ ।। गाथा, जे भावा दसवेयालिए कराणज्जा
भगवतेहिं जिणेहि वण्णिया तेसि भावाणं जेण समावज्जणं कयं सो भिक्खू भण्णइ, सो भिक्खुत्ति सोमणो या मिक्सुत्ति, तत्थ समिक्ष्वध्य
समावजणं णाम जे तेसि गुणाणं करणं तं भण्णइ, सगारो भणिओ। इदार्णि भिक्खू भण्णइ, तस्स इमा दारगाहा 'भिक्खुस्स ॥३३॥
य निक्खेबी० ॥ ३३४ ॥ दारगाहा, भिक्खुस्स य णिक्खेवो भाणियब्बो, णिरुतं माणियब, एगडियाणि भाणियव्याणि, लिंगाणि भाणियब्वाणि, अगुणेमु ठितो भिक्खू न भवइ, अगुणेमु य अद्वितो भिक्खू भवइ, एयाणि पयाणि, एतेहिं दारेहिं भिक्खुस्स वक्खाणं कायध्वंति, तत्थ निक्खेवो इमो, तंजहा-'णामं ठवणा भिक्खू०॥ ३३५ ॥ गाथापुम्बद्धं, चउबिहो भिक्खू भवति, तंजहा-नामभिक्खू ठवण दव्य भावभिक्खुत्ति, नामठवणाओ गयाओ, दव्याभिक्खू इमो, तंजहा-'दम्वमि
आगमाई.' ।। ३३५ ॥ गाहापच्छद्ध, व्यभिक्खू दुविधा, तंजहा--आगमओ कोआगमओ य, आगमओं जाणए उपउत्ता, णोआगमओ तिविधो-जाणगसरीरदव्यभिक्खू भवियसरीरदब्बभिक्खू जाणगसरीरभवियसरीरबदरित्तो दबभिक्य, तत्थ जाणगसरीरबभिक्खू भिक्खुपदस्थाहिगारे जाणगस्स मयसरीरो, जहा अयं षयकुंभे आसि अयं महुकुंभे आसि, भवियसरीरदबभिक्खू जो भिक्खुपदत्याहिगारं जाणिहिति, जहा अयं घयकुंभे भविस्सति अयं मधुकुंभे भविस्सइ, जाणगसरीरभवियसरीर| वहरिचो दयभिक्यू तिविधी, तंजहा-एगभविओ जो अणंतरभवे भिक्खू भविस्सइ, बद्धाउओ णाम जेण आउयं बद्धं, अभिमुहनामगुतो
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दीप अनुक्रम [४८५५०५]
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आगम
(४२) ।
भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक , मूलं [५...] | गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
श्रीदशबैकालिक चूर्णी.
गाथा ||४६१४८१||
॥३३२॥
| जेण पएसा णिच्छूटा, अथवा इमो दन्बभिक्ख भण्णा- भेइओ भेअणं चेव०॥३३६॥ गाथा, दयं निंदतीति दय्यभेदओ, सो सकारदवभेदो परूवेयन्चो, दबभेदणं परूवेयवं, ज द भिंदियचं तंच, परूवणं एतेसिं तिण्डवि पत्तेयं २ वोच्छामि, सा य परूवणामपदया इमा --'जह दारुकम्मगारो० ॥३३७।। गाहापुव्वद्धं, जहासदो पुव्वसइअतिविहपरूवणमिनिदेसओ, दारुकम्मकारो बड्डति,
निक्षेपाः सभिक्ष्वध्य ।
सो दब्बभेदओ भण्णइ, भेदणं परम, भेत्तवयं कट्ठ, सो य दारुकम्मकारो एतेहिं मिदएहि सजुत्तो दवभिक्खू भवद । किंच 'अनेवि दवभिक्खू ॥३३७।। माथापच्छदं, न केवल दारुकम्मकारो दबभिक्स भवइ, किन्तु, अनेऽवि दवभिक्खयो। जे मूलगुणउत्तरगुणेहिं विरहिया लोगमुवदिति ते दबभिक्खवो भण्णंति, देवा अम्हे तिलोगनित्थारणत्थं मणुस्सलोए अवयरिया | ते एवं बंभणा णाम कोधी माणी मायी मिच्छादिट्ठी उज्जुपने धम्ममि अविकोविया मता याजणगा दुपदादीणि मग्गमाणा | दम्पभिक्खवो भणंति, तहा अनेऽवि जीवाणियनिमित्तं तारिसा कप्पाडयादण दणा किविणा सिप्पतो भिक्खमडमाणावज्जा दबभिक्खयोति पासंडिणोऽवि ' मिच्छट्टिी०॥ ३३९ ॥ गाहा, रत्तपडपरिवायगमादीवि मिच्छादिट्ठी बधपरा तसाण | | बेइंदियादीणं थावराण य पुढविमाईणं णिच्चमेव वधकारगे रचा, अबभचारितणेण संचाइयदोसेण य दबभिक्खनो भवंति, आह-| कहं ते अबभचारी भवंति , आयरिओ आह-सक्काण ताच जे तत्थ असीलमता तेसु मग्गणा णत्थि, जे पुण सीलमंता ते | मणवहओ पडुच्च पेसदासिपरिग्गहा कहभचारी भविस्संति, संखावि पत्ताणं सहादीणं विसयाण उपभोगो काययोत्ति एवं ॥३३२।। उवासंता कह चंभचारी भविस्संति, एवं अण्णेमुषि आजीवगाइम पासंडेसु जहा संभवं भाणियब्ब, तहा इमेण संचएण संचाया, IT जहा--'दुपयचउत्पप० ॥ ३४० ॥ गाथा, दुपदं दासी दासा य, चउप्पयं गोमहिसादी, धणं- हिरण्णमुवण्णादी, धणं ।
Sik
दीप अनुक्रम [४८५५०५]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्राक
गाथा ||४६१४८१||
श्रीदश-१ सालीवी हिमादि, कृविय घडघडियउहुंचशियआसणसयणाइयंति, तेसु च दुप्पयादिसु तिगतिअपरिग्गहे णिरया सचिन्ताणि ।।
४. भिक्षुवैकालिका भुजमाणा पयमाणा य उद्दिभत्ताणि य झुंजमाणा दवभिक्खयो भवंति, कई पुण ते तिगतिगपरिग्गहे निरयत्ति ,127
* निक्षेपाः एतस्स अन्धस्स इमा वक्याणगाथा-'करणतिए जोअतिए.' ॥ ३४१॥ गाहा, करणकारावणअणुमोदणमइपण तिविधण
करणेण तिविधण मणवह कारण जोएण सावज्जे आरंभे आयहे सरीरठवभागकारणे पयत्तमाणा तह परहेतुगमवि करणतिएण भिक्षु अ018 जोगतिएण य सावज्जेसु पचत्तमाणा, एयरस उभयस्स अट्टाए पवत्तमाणा मणिया, अणडाएवि क लक्खं विंधीहामित्ति अन्नत
सत्तं विधति, पक्खिवाएमु वा एवमादि, एवं अणट्ठाए पवत्तमाणा तेऽवि जाय दबभिक्खुचि 'बिउजा' नाम जाणेज्जा, दब्बाम॥३३३।।
व भणिओ । इदाणि भावभिक्स इमेण गाथापुण्यद्धण भण्याइ, तंजहा-'आगमओ उपउत्तो० ॥ ३४३ गाथा भावKIभिक्खू दुविधा, तंजहा-आगमओ णोआगमाओ य, आगमओ जाणए उबउंचो, णोआगमओ तगुणसंवेदए नाम जे भिक्खगुणे
संवेदयइ सो तग्गुणसंवेदअओ भाइ, तण भावभिनखुणा इहमधिगारो, सेसा उच्चारियसरिसतिकाऊण परूविया, भावाभिवायू भणिओ, गयं णिक्खेवत्तिदारं । इदाणि णिरुत्तमिति, 'तस्स णिमत्तं भव०॥३४३।। गाथारच्छदं, 'तस्स' ति तस्स पूथ्य-12 मणितस्स भिक्खस्स निरुवं भेदगेण भेदगेण भित्तम्बएण य तिविधं भवति,एतसिं तिहवि इमं निदरिसणं भत्ताऽऽगमोबजलो ॥३३॥ ॥३४४|| गाहा, मेत्ता) साधू, भेदणं दुविहं बाहिरमंतरओ, मेत्तवं अडविहं कम्म, तंच खुह भण्इ, अम्हात भिंदा असो.निरुतं स भिक्खूति । किंच-भिंदतो अजह खुद ॥३४५४॥ गाथा, जहा खुई भिदंतो भण्णद भिक्ख सहा जयमाणो साधू जई भण्णइ, तहा संजमं सत्तरसपगारं चरमाणो चरओ भगइ, तहा भवं चउप्पगारं खबमाणो खवणो भण्णइ, अहया मिक्युसहस्स
दीप अनुक्रम [४८५५०५]
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आगम
(४२)
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सूत्रांक
[...]
गाथा
॥४६१
४८१||
दीप
अनुक्रम [४८५
५०५ ]
भाग-6 "दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
अध्ययनं [१०] उद्देशक [-1. मूलं [५...]/ गाथा: [ ४६१-४८१/४८५५०५] नियुक्तिः [ ३२९-३५८/३२८-३५८], आष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारक श्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र- [ ४२ ] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूर्णी.
१०
भिक्षु अ०
॥ ३३४॥
इमेण अमेण पज्जाएण निरुत्तं भण्ण, तंजदा- 'जं भिक्वणमेतवित्ती० ' ॥ ३४६ ॥ गाहा, जम्हा भिक्खणमेतविधी अतो भिक्खु भण्ण, अर्ण कम्मं भण्णा, जम्हा अण खवयइ तम्हा खवणो भण्णइ, तवसंजमेसु बट्टमाणो तवस्सी भण्णइ, शिरुतं गये । इदार्णि एगडियाणि भिक्खुस्स तिहिं गाहाहिं भण्णंति- 'तिने नाती० (ताइ पृ०', ॥३४७॥ गाथा, पष्वह अणगारे ० ॥ ३४८ ॥ एतो परं तु (साह हे अ तहा) गाहा ।। २४९|| तस्थ 'तिष्णो' नाम जम्हा संसारसमुदं तरिंसु तरति तरिस्सति य इति तिष्णे, जम्हा अण्णेऽवि भविए सिद्धिमहापट्टणं अविग्घेण णाणाइणा पण नयति तम्हा नेया, दविए नाम रामदोसविको भवइ, वयाणि एतरस अस्थि अतो बती, खमतीति तो इंदियकसाया दमतीति देतो, पाणवहादीहिं आसवदाहिं न पविरमत्ति विरए, गुणी मुणित्ति वा नाणित्ति वा एगड्डा, अहवा सावज्जेसु मोणमासेवतिचि मुणी, तवे ठियो तावसो, पनत्रयतीति पचवओ, 'उज्जु' माया विरहिओ अहवा उज्जु-संजमो तंभ अवस्थिओ उज्जु भवद्द, भिक्खू पुष्पभणिओ, बुज्झइति बुद्धी, जयणाजुत्तो जती, विदू नाम विदुति वा नागिति एगट्ठा, (पढमाए) गाहाए अत्थो भणिओ । इदाणि विश्याए भण्णह, तत्थ पव्वइए णाम यो वा पाणवधादीओ प्रब्रजितो, अणगारो थाम अगारं घरं भष्णइ, तं जस्स नत्थि सो अणगारी, अद्भुविधाओ कम्मपासाओ डीणो पासडी, तवं चरतीति चरओ, अट्ठारसविहं बंभं धारयतीति बंभणो, भिक्खसीलो भिक्खु, सव्वसो पावं परिवज्जयंतो परिवायगो भण्णइ, सममणो समणो, बाहिरकभंतरेहिं गंथी विरओ निग्गंथो, अहिंसादीहिं संमं जुओ संजतो, जे बाहिर अंतरेहिं विष्पको सो मुत्तो। चितियाए अत्थ भणिओ । इदाणिं तयाए गाहाए अत्यो मन्नति, तस्थ गिब्वाणसाहए जोगे पहे साधयतीति साधू, अंतपंतेहि लूहेहिं जीवतित्ति लूहे, अहबा कोहादिणा दासो तस्स नत्थि सो उहो, संसारसागरस्स तीरं अत्थयतीति तीरडी, अत्थयति नाम अत्थ
[347]
सकार
भिक्षुपदयो निक्षपाः
॥३३४॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्राक
गाथा ||४६१४८१||
श्रीदश- यतित्ति या पत्थयति वा एगहियाणि । इदाणिं तस्सेव मिक्खुस्स लिंगाणि दोहि गाहाहि भण्णं ति-'संबैगो निव्वेओ०॥३५०॥ |उद्देशकः
गाहा, 'खती य महवऽज्जब० ॥ ३५१ ॥ गाहा, तत्थ जिणप्पणीए घम्मे कहिज्जमाणे परसमए य पुवावरविरुद्ध दुसेज्जमाणे चूर्णी.
| जो संवेगं गच्छइ सो तस्स संवेगो भिक्खुलिंगं गायब्वति, तहा नरगमयगम्भवासादिभयमादिसु जो निव्वयं गच्छइ सोवि तेण
IMणिव्वेयमतिएण लिंगण भावभिक्खू णायव्यो, तहा सदाइसु विसएसु जो विवेगो सो भिक्खुलिंगमेव भवह, तहा सोभणसीलेहि। मिक्षु अ५
समाण संसग्गी भिक्खुलकखणं भवति, तहा इह (पर) लोगाराहणावि भिक्खुलक्खणं णायचं, एवं तवो बाहिरम्भतरो, णाणं-1 ॥३३५॥
आभिणियाधियमादि पंचविध, देसणं दुषिह, तं०-णिसग्गर्दसणं अभिगमुप्पनर्दसणं च, चरितं अट्ठारससीलंगसहस्समयियं, विणओ | विणयसमाधीए पुर्व मणिओ, एते सम्वेऽवि भेदा भिक्खुस्स लिंगाणि भवति, एगाए गाहाए अस्थो भणिओ। णाणादाण खमणा| (मा)णं च दहण नज्जद जहा एस भावभिक्नुत्ति, तहा अज्जवजुत्तो अडिल भावतणेण नज्जइ जहा एस भावभिक्खुत्ति, आहारो| वहिमादिसु विमुत्त लक्षिऊण साहिज्जए जहा एस भावभिक्खुत्ति, तहा अलब्ममाणेसुषि आहारोबहि(माईस) अदीण पासिऊण & | नज्जइ जहा एस अहीणभावो भावडिओ भिक्खू, तहा याचीस परीसहा तितिक्खमाणं ददृण साहिज्जति जहा एस भावभिक्खुत्ति, जेऽवस्सकरणिज्जा जोगा तेसु सम्म पवचमार्ण उपलभिऊण णज्जह जहा एस आषस्सगमुद्धि कुन्बमाणो भावभिक्खू भवइ, एताणि य संवेगमादियाणि तस्स भिक्खुस्स लिंगाणि भणियाणि, इयाणि जेसु ठाणेसु अवडिओ भिक्खू मवह जेसु य न भवइ ।
* ||३३५॥ एयमि य अत्थे जहा पंचावयवा मति तहा माणियब्वं, तं०-'अज्झयणगुणी ॥ ३५२ ॥ गाथापुल्बर्द्ध, जे एतमि अझयणे भिक्खुगुणा भणिहिन्ति तेदि गुणेहि जो जुनो सो भिक्खू, न सेसगाइ, न एतव्यतिरित्तगुणजुत्तो भिक्खू भवइति एस पइन्ना,
4
+
%
दीप अनुक्रम [४८५५०५]
2-29C
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[...]
गाथा
||४६१
४८९||
दीप
अनुक्रम [४८५
५०५]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+भाष्य|+चूर्णिः)
अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [५...] / गाथा: [ ४६१-४८१/४८५-५०५] निर्युक्तिः [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चून.
१०
भिक्षु अ०
॥३३६ ॥
आह— को एत्थ हेऊति, अओ हेऊ दितो य इमेण गाह्रापच्छद्वेण भण्णह- 'अगुणत्ता इइ हेऊ० || ३५२|| गाहापच्छद्धं, तीए पुय्वभणिताएँ (पहनाए ) गुणजुत्तत्तणं हेऊ, दितो सुरणं, सुत्रनस्स तात्र गुणा भण्णंति, जं तं दितो सुवनं भणितस्त इमे गुणा अट्ठ, तं०-- 'विसघाड़' गाहा ॥ ३५३॥ विसघाइते रसायणसामत्थजुनं मंगलसाहगं, विथिएणाम जं जं अभिष्पाइज्ज तं कडगकुंडलादी णितिज्ञ्जतित्ति अतो विणीयया तस्स गुणो, पंचमो 'पयादिणावत्तया' नाम जाहे आवडिये भवइ तथा पयाहिणं आवइ, दहा गुरुयतं छडो गुभो, अज्झणं सत्तमो गुणो, अकुडभावो अटुमो गुणो भवड़ भगिता व सुवण्णगुणा । दाणा - चउकार० ॥ ३५४ ॥ गाहा, जहाँ 'चउहि कारणेहि' ति कसच्छेद तावतालणादीहिं (निहसताबछहतालगादी हि ) परिसुद्धं सुषणं भव तं विघा रायगडणं अकुणागुणजुनं भगति 'तं निसगुणावेयं' टीकायां तु 'तं कसिणगुणोबेअं' ० ) ३५५ ॥ गाथा, जहा तं हिसादिगुणजुत्तं सुत्रन्नं भवति न से जुतव, नय णामरूपमेव सुवनं भव, तहा अगुगों सो भिक्खु ण भवइत्ति, 'जुत्तीण्णयं पुग०' ।। ३५६ ।। गाथा, जइ पुण केणइ तारिसंग उपाएण जुत्तीमुत्रनं कीरेज्जा, न हु तं सुवर्ण चणं चिरणवि काले हि गुणेहिं हिसाहिं असन्तेहिं सुवणं भव, तहा - 'जे अज्झषणे मणिशा०' ॥ २५७ ॥ गाथा, जे एयंमि अयणे भिक्खुगुणा भणिया, ते सम्म फासमाणो सो भिवृ भवति, जस्स जं भिक्खुत्ति नामं कयं तं भावं पडुच, न नामं ठवणं दव्यंति कहे ? सुवनस्यवत्थे जहा सोभणव विघातादिगुण जुनं च काऊण सुवन्नस्स सुवनंति नाम कथं, तहा जे सुमित्र अयणे गुणा भणिया ते बट्टमाणो जो भिविन सो भिक्खु भण्णइ न जो भिसीलो सो भगवो भव, कही, जो भिक्खू गुणरहिओ० ' गाथा ।। ३५८।।।
[349]
भिक्षुगुणे
पंचावयवाः
||३३६ ॥
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आगम (४२)
भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रप्रत सूत्रांक
गाया
चूणों.
IPeer
श्रदिश- जो भिक्खू गुणरहिओ ठाऊण भिक्खं हिंदद सो भिक्खू न भवइत्ति, कई 1, जहा एगेण बनेण जुचीमुवन असइ सेसेसु विसघा-हूँ| दिक्षा बैंकालिक
वादिगुणवित्थरेसु(न)सुवनं भवइ । किंच, कहं सो भिक्खू भविस्सति? जो इमेहिं कारणेहिं वटद, तंजहा-'उद्दिकडं॥३५९॥
| गाहा, जो उदिहकद भुजा, पुढविमादीणि य भूताणि पमद्दमाणो य घरं कुष्बइ, पञ्चक्खं जलगए-पूयरगादीए जीवे जो पिवति, [४] भिक्षु अ०४ कह सा भिक्खू भविस्सइत्ति ?, उपसंहारो भणिओ । इदाणि निग
कहं सो भिक्खू भविस्सइति ?, उपसंहारो भणिओ । इदाणि निगमणं भण्णा-'तम्हा जे अज्झयणे.' ॥ ३६० ॥ गाथा,*
| तम्हा अगुणजुत्तो भिक्खू न भवइ, जे एयमि दसमझयणे मृलगुणा भिक्खुस्स भणिया तेहि समण्णिओ भिक्खू भवति, तहा ॥३३७।। उत्तरगुणेहि-पिंडविसोधीपडिमाभिम्गहमाईहिं सो मिक्खू भावियतरो भवइत्ति, नामनिष्फण्णो गतो। इदाणि सुत्ताणुगमे मुत्तं
उच्चारेयच्च, अक्खलियं जहा अणुओगदारे, तं च सुचं इमं-णिक्खममादाय० ॥४६॥ वृत्तं, 'क्रम पादविक्षेपे' धातु, अस्य धातोः निगपूर्वस्य 'समानकतकयोः पूर्वकाले' इति (पा. ३.४-२१) स्वाप्रत्ययः, स्वाकारादाकारमपकृष्य ककाराविति । |लोपः 'आर्धधातुकस्येवलादे रिति (पा. ७.२.३५) इडागमः, निसः सकारस्य 'इदुपधस्य चाप्रत्ययस्येति' (पा. ८-४-४१), सकारस्य षकारः, परगमनं निष्क्रम, वा 'कुगतिपादय' इति (पा. २-२-१८) समासः, मुफ्लुक 'समासे नपूर्वो क्या ल्यपिसि । ल्यप्प्रत्ययः, सुषलुक् आदेशः, निमित्ताभावे नैमिचिकस्याप्यभावः इडादीनामभावः, पकारलकारयोर्लोपः, परगमन, निष्क्रम्य, तीर्थकरगणधराजया निष्क्रम्प सर्वसंगपरित्यागं कृत्वेत्यर्थः, अथवा निष्कम्य-आदाय, 'बुद्धधयणं' बुद्धा:-तीर्थकराः तेषां
॥३३७॥ वचनमादाय गृहीत्वेत्यर्थः, निक्खम्म नाम गिहाओ गिहन्थभावाओ वा दुपदादीणि य चहऊण, णिकखमिज्जा, 'शा अवोधन धातुः, अस्य धातोः आपूर्वस्य 'इगुपधज्ञाप्रीकिर क इति' (पा. ३-१-१३५) का प्रत्ययः, ककारादकारमपकृप्य ककारः विति।
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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१० .
गाथा ||४६१४८१||
श्रीदश- लोपः 'आतो लोप इटि च क्रिकति चेति' (पा. ६-४-६४) आकारलोपः परगमन आज्ञा इति स्थिते स्त्रीविषक्षायां 'अजाद्यतष्टा' विषयवैकालिक द्रा इति (पा. ४.१.४ ) टाप् प्रत्ययः अनुषन्धलोपः 'अकः सवर्णे दीर्घः (पा०६-१-१०१) परगमने आज्ञा इति स्थिते ' करें
बान्तिः चूर्णी.
करणयोस्तृतीयेति' (पा० २-३.१८) तृतीया, तस्या एकवचनमुपादीयते टा, टाकारादाकारमपकृष्य टकारस्य लोपः, 'आडि चाप' भिक्षु अ० 1१इति (पा० ७-३-१०५) आकारस्य इकारो भवति आङि परतः, 'एचोऽयवायाच' इति (पा०६-१-१८) अय आदेशः, परगमनं
आज्ञया, आणा वा आणत्ति नाम उवबायोति वा उवदेसोत्तिवा आगमोति वा एगठ्ठा, तित्थगराणाए णिक्खमिऊण, 'बुध अवगमने ॥३३॥ धाताः 'तक्तवतू निष्ठति' (पा० १-१-२६ ) क्तप्रत्ययः, ककारः ङिति लोपः इद् च प्राप्तः 'एकाच उपदेशेऽनुदाचादिति'
प्रारपा०७-२-१०) प्रतिषेधः, गुणः प्राप्तः कित्वात् प्रतिषेधः 'झपस्तथो ऽध' इति (पा०८-२-४) तकारस्य धकारः, 'झलो
शोऽन्तस्पेति' इति (पा०८-२-३७) जस्त्वेन धकारस्य दकार, परगमन, बुद्धः, बुद्धानां वचनं बुद्धवचनं तस्मिन बुद्धवचने | नित्यं, चित्तसमाहितात्मा भवेत्, सवेकालं द्वादशाङ्गे गणिपिटके चित्र पसिद्धं तं सम्मं आहितं जस्स सो चित्तसमाहिओ, | समाधितं नाम आरुहितं, जहा समाहित भारं देवदत्तो आरुहेति, समाहितं घडं गेहद सोमणेण पगारेणेति वुत्तं भवति, आहहै| कहमसमाहियचित्तो भवति , आयरिओ आह-विसयाभिलासातो, ते च वित्तया सदाती, तेमुवि डंडणागयभूतो इत्थिअहिला-| सोत्तिकाऊण तनिवारणस्थमिदमुच्यते-'इत्थीण वसं न आवि गच्छेत्ति,' 'थै स्त्यै शब्दसंघातयोः धातुः, 'धात्वादेः॥81
॥३३८॥ दापासः' इति (पा०४-१-६४ ) पकारस्य सभावे 'स्त्रायतेऽद्' इति (३-६-१६६) टू डकारानेफमपकृष्य डकार: 'डिति
टेरित' (पा०४-६-१४१) पालोपा, डिति स्यात् भस्यापि, अनुबन्धलोपः, [ण सामानि लोपः] 'लोपो व्योर्वली'
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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घूर्णी.
गाथा ||४६१४८१||
१०
॥३३९॥
श्रीदश- ति (पा ६-१-१६) यकारलोपः, परगमन स्त्र सु इति स्थिते स्त्रीविवक्षायां 'टिड्ढाणधि' ति (पा०४-१-१५) की प्रत्यया, पकाय चेकालिकाअनुबन्धलोपा, परगमनं स्त्री, स्त्रीणां वशं न गच्छेदिति, ताभिस्सह यः संगस्तस्य परित्याग इत्यर्थः, इत्थीओ पसिद्धाओ, तासिका विसं न यावि गच्छज्जा, अविसद्दो संभावणे, किं संभावयति', जहा जो एयंमि इत्थीवसकारणे दढब्बतो सो सेससुवि पायसो ४
ठाणेसु दढो भवति एवं समावयति, तासि च इत्थीण वसं गच्छमाणो वंत सावजं असमाहिकारियं पुणो पडिआयइ, जो एवं| मिक्षु अ०
निक्खम्म आणाए बुद्धवयणे निचं चित्तसमाहिओ इराण वसं न गच्छति वंतं नो पडिआयति स मिक्खू मवति, सोमणे य से | भिक्खू भवइ, आइ-णणु बुद्धग्गहणेण य सक्काइणो गहण पावइ, आयरिओ आह-न एत्थ दब्बबुद्धाणं दव्वमिक्खूण य गणं कर्य, | कहं ते दव्वबुद्धा दव्यभिक्खुया, जम्हा ते सम्मईसणामावण जीवाजीवविससं अजाणमाणा पुढापमाई जीवे हिंसमाणा दव्य-IA बुद्धा दवभिक्खू य भवति, कहं तेहिं चित्तसमाधियत्तं भविस्सइ जे जीवाजीवविसेस ण उवलमंति, जे पुढविमादि जीवे णाऊणं परिहरति ते भावबुद्धा भावभिक्व य भन्नति, छज्जीवनिकायजाणगो य रक्खणपरो य भावाभिक्खू भवति, तदुपरिसणस्थमिदमुच्यते-'पुढर्षि न खणे न खणावए० ॥ ४६२ ॥ सिलोगो, तसथावरभूओवधाओत्तिकाऊण पुढषि णो सयं खणेज्जा, न वा परेण खणावेज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण' मितिकाउं खणंतमवि असं न समणुजाणज्जा, 'सीओदगं नाम उदगं असस्थहयं सजीव सीतोदगं भण्णइ तं नो पिज्जा, ण वा हत्थपायभायणधोषणादीहिं तिविहेण मणवयणकायजोगेण करणकारावणअणुमायणादीहि समारभेज्जत्ति, किंच-'अगणिसत्यं जहा सुनिसिअंति , जहा असिखेडगपरसु ।
॥३३९।। आदि सत्थं सुणिसित दोसायहं णाऊण तंणो सयं उज्जालेज्जा नो अन्नेहिं उज्जालावेज्जा, 'एगग्गहणेण गहणं तज्जातीयाग मिति
दीप अनुक्रम [४८५५०५]
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
पटकाय
रक्षा
गाथा ||४६१४८१||
श्रीदश- काउं उज्जालणं ण समणुजाणेज्जा, जो एते पुढविमादिकाए सारक्खइ स भिकाबू भवइ । आइ-गणु छज्जीवणियाए एसो अत्थो। वैकालिका
मणिओ, जहा से पुढवि वा भिाँत वा सिलं वा लेलं वा' एवमादि, पिंडेसणाए 'पुढविजावे ण हिंसेज्जा, उदउल्लेण' एवमादि, धम्मस्थ-* चूर्णी. १०
कामाएवि वयछकं कायछकं जहा रक्खियव्यं तदा भगि, आयारप्पणिहीए 'पुढर्षि भिान सिलं लेलु' एवमादि, सेसेसुवि अज्झयणेसुभिक्षु अ
मावि पायसा एतास परिहारी मणिओ, तो किमत्थं पूणो दसमजायणे ते चव काया भण्णाति, आयरिओ आह-अविस्सरन्ताण-11
| होवदरिसणस्थ कायाण बयाण पुणो पुणो गहणं कज्जा, नेण ण पुणरुत्तं भव, पितापुत्रायोषधमन्त्रादिवत्, जहा पुतं विदस। ॥३४०111 | गच्छमाणे मायपियरी अपाति पुत्त! अकालपरियाद्यसंसम्गिमाइ सध्धपण परिहरेज्जत्ति, अहोर अघिसरणणिमित्त
वा तहि पुणी पुणा भण्णइ. यतं पुणरुतं भवा, जहा चा कोई प्रहेण भण्णा-पुत्त ! अवसर अवसर एस सप्पोत्ति, वाहिआ पुण | समर्थ ओसह पुणो पुणो दीज्जा, मंतो या ताब पढिज्जति जाब विसं यणा वा उपसंता, आगामिफलनिमि करिसणादिकम्म पुणी पुणी कज्जमाणं न पूणरुतं भवइ, एवं तात्र लोगे, वेदेऽपि यथा सुत्राह्मण्ये-इंद्र आगच्छ हरि आगच्छ मेघातिमेष वृषणश्वस्यमन गौरवास्कन्दिनाहल्यावे जार कोशिक ब्रामणगौतम वाणसुस्व ना'"मा गच्छ मघवं स्वाहा,जहेताणि पुणरुत्ताणि न भवात
तहा सिस्स थिरीकरणनिमिन पुणो पुणो कायावयाणि य भनमाणाणि पुणरुत्ताणि न भवति, इदाणि पुण्यपस्थिय मण्णइDI'अनिलेण न बीएनपीयाथए' || ४३३ ।। वृनं, अनिलो बाऊ भण्णा. तेण अनिलेण अप्पणी कायं अर्थ वा किाच तारिस शणा चियावेज्जा, 'एगग्गहणे गहणं सजातीयाण'मितिकाउ वीयंतपि अण्णं ण समणुजाणेज्जा, बीयरगहणेण एका चव मूलक। न्दादी बीयपज्जवसाणो दसभेदो रुपाखो भवतित्ति तम्म गहणं कर्य, ताणि मृलकन्दाइणि बीयपज्जवसाणाणि हरियग्गहणेण दुवा
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दीप अनुक्रम [४८५५०५]
॥३४॥
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श्रीदश- बैकालिक
गाथा ||४६१४८१||
भिक्षु अ
॥३४॥
लसथिहस्सवि वणप्फइकाइयस्स गहणं कर्य. तं हरियं न सय छिंदज्जा न परेण छिदावेज्जा. 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण'ति- वधविरति: काउं छिन्दतपि अण्णं न समनुजाणेज्जा विवज्जयंतोत्ति, सचित्तग्गहणेण सम्बस्स पतेयसाहारणस्स सभेदरस वणप्फइकायस्स कषायवमर्न | गहणं कयं, ते सचित्तं नो आहारेज्जा, एताणि हरितछेदणादीणि जो न कुब्बइ सो भिक्खू भवइत्ति । इदाणि बीयग्गतसाणा
परिहारो भण्णइ-'वहर्ण तसधावराण होइ० ॥ ४६४ ।। वृत्त, 'बहणं' णाम मारणं तं तसथावराणं पुढवितणकट्ठणिस्सि-।। याण भवतित्तिकाऊण तम्हा उद्देसियं न अँजज्जा, तहा सयमवि प्रोदणादी नो पएज्जा णो वा पयावेज्जा, 'एगग्गहणे गहणं तज्जातीयाण'मितिकाउं पयंतमवि अण्णं न समणुजाणेज्जा । 'रोइअ नायपुत्तवयणे' ॥४६५॥ वृत्त, णायपुत्तस्स भगवओ। बद्धमाणसामिस्स ययण गोविऊण अत्तसमं पुढविषादी माणेज्जा छप्पि काए, अत्तसमे णाम जहा मम अप्पियं दुक्खं तहाछण्हवि कायाणति णाऊण ते कह हिंसामित्ति, एवं अत्तसमे छप्पि काए मण्णज्जा, पंच चेह पाणवहबेरमणादीणि महन्वयाणि |XI फासेज्जा-आसेविज्जा 'पंचासवसंवरे' णाम पंचिदियसंबुडे, जहा 'सद्देसु य भयपावएम, सोयविसयं उवगएसु । तुद्वेण व रुद्वेण व समषेण सया न होयब्वं ॥ १॥ एवं सम्बेसु भाषियव्वं, सो य एवं गुणजुचो भवति, एते ताव मूलगुणा भणिया । इदाणि उत्तरगुणा भणति, तंजहा-'चत्तारि वमे सया कसाए॥४६६॥ नृत्तं, चत्तारि कोहादिकसाया सया चमेज्जा, तत्व वमणं छहण भण्णइ, तहा 'धुवजोगी हविज्ज' धुवजोगी णाम जो खणलवमुहुतं पडिबुज्झमाणादिगुणजुत्तो सो धुवजोगी भवा,
॥३४॥ अहवा जे पडिलहणादि संजमजोगा तेसु धुवजोगी भवेज्जा, ण ते अण्णदा कुज्जा अण्णदा न कुज्जा, अहवा मणवयणकायए जोगे। जुजेमाणो आउत्तो जुजेज्जा, अहवा बुद्धाण क्यणं दुवालसंग तमि धुवजोगी भवेज्जा, सुओवउत्तो सब्धकालं भवेज्जति, धुवगहणेण
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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गाथा ||४६१४८१||
श्रीदश- च उप्पादादिधुवस्स गहण कयं, तं जस्स नस्थि से अहणे 'निज्जायरूवरयए' णाम जे णो केणइ उवाएण उप्पाइयं तं जात- अमूढता वकालिकारूर्व भण्णत. तं च सवण्णं, श्ययग्गहणेण रुप्पगस्स गहण करतं जातरूवं रजतं च सध्वपगारेहिं णिग्गतं जस्स सणिज्जातरूव- असामाघः चूर्णी,
रयते भण्णति, तिलतुसमागमेत्तपि से नस्थित्ति वुत्तं भवइ, तहा 'गिहिजोगमवि परिवज्जए' गिहिजोगो नाम पयणविक्कय१०
मादि भण्णा, एयाणि कसायवमणादीणि जो कुबई सो भिक्खू भवइत्ति । 'सम्मविही सया अमूढे ॥ ४६७ ॥ वृत्तं, अण्ण-18 भिक्षु अ०
तित्धियाण सोऊण अण्णेसि रिद्धीओ दट्ठण अमूढो भवेज्जा, अइवा सम्मद्दिविणा जो इदाणी अत्थो भण्णइ तमि अत्थि सया ॥३४॥ अमूढा दिट्ठी कायब्वा, जहा अस्थि हु जोगे नाणे य, तस्स गाणस्स फलं संजमे य, संजमस्स फलं, ताणि य इममि चेव जिणवयणे
| संपुण्णाणि, णो अण्णेसु कुष्पावयणसुचि, सो एवं गुणजुत्तो तवसा पारसप्पगारेण पुराणं पावं धुणति णवं च णादीयति, मणक्यण| कायजोगे सुट्ठ संबुडेत्ति , कह पूण संखुढे ?, तत्थ मणेणं ताव अकुसलमणणिरोध करेह, कुसलगणोदीरणं च, वायाएवि पसत्थाणि | वायणपरियदयाईणि कुबइ, मोण वा आसेबई. कारण सयणासणआदाणणिक्खेवणहाणचंकमणाइसु कायचेट्टाणियम कुब्यति, सेसाणि य अकरणिज्जाणि य ण कुम्बइ, सो एवं. गुणजुत्तो भिक्खू भवइ । किंच 'तहेव असणं'। ४६८ ॥ वृत्तं, 'तहेव'ति | जहा पुग्वं भणियं, एवसहो पायपूरणे, असणपाणखाइमसाइमा पुश्वभणिया, तज्जतो भिक्खू भवइ, तसिं अण्णतर लाभिऊप तत्थ जे भुत्तसेस उन्नरियं तस्स विही भाइत्ति, त-होहीद अहो सुए परे वा, तं न निहे ननिहावर जे स भिक्खू. ति, तस्थ सुए नाम कल्लत्ति बुत्तं भवतिचि, परम्गहणेण तइयचउत्थमादीण दिवसाण गहणं कर्य, तंमि वा परे अट्ठो होहितित्ति- ॥३४२॥ काऊण सयं 'न निहे न निहावर' णाम न परिवासिज्जत्तिवृत्तं भवति, न या परेण निधावएज्जा, एगग्गहणे गहणं तज्जाती
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गाथा ||४६१४८१||
श्रीदश- याणमितिकाउं णिहन्तपि अनं न समणुजाणज्जा, सो एवं गुणजुत्तो भिक्खू भवतिचि । किंच-तहेव०॥ ४६९ ॥ वृत्ती वैकालिकातहेवति तेणेब पगारेण, एनसहो पायपूरणे, असणपाणखादिमसादिमा पुवं भणिया, तेसिमण्णयरं विविध-अणेगप्पगारंक्षान्ति: चूर्णी लभेा अणुग्गहमिति मनमाणो धम्मयाते साहम्मियाते छंदिया भुजेआ, छंदिया णाम निमंतिऊण, जइ पडिगाहता तओ
१० तसिं दाऊण पच्छा सयं झुंजेजा, एतेण पगारेण भुजेआ, सज्झायरए य जेस भिक्खू भवति । भुत्तो य समायो-'म य चुग्गभिक्षु अ हिअंकहं कहिज्जा.॥ ४७० ।। वृत्तं, नकारो पडिसेधे बट्टा, चकारो समुच्चये, किं समुरिषणोति, जो हेट्ठा अत्यो। ॥३४३॥ ४३ भणिओ तं समुच्चिणोति, बुग्गहिया नाम कुसुम(कलह)जुत्ता, तं बुग्गहियं कई णो कहिज्जा, जयावि केणई कारणेण बादकहा डू
जल्पकहादी कहा भवेज्जा, ताहे तं कुब्वमाणो नो कुप्पेज्जा, निहुयाणि पसंताणि अणुद्धताणि इंदियाणि काऊण संजमकहा। कायचा, तहा 'पसंते' पसंते नाम रागदोसबज्जिए, एवं पसंतो संजमधुवजोगजुत्तो भवेज्जा, संजमो पुज्वमणिओ, 'धुवं' नाम सम्यकालं, जोगो मणमादि, तमि संजमे सव्वकालं तिविहेण जोगेण जुत्तो भवेज्जा, 'उबसंते' नाम अणाकुलो अन्बक्खिनो भवेज्जत्ति, 'अविहेडए ' णाम जे परं अक्कोसतेप्पणादीहिं न विधेडयति से अविहेडए, सो एवं गुणजुत्तो भिक्खू भवतीति । किं च-'जो सहह हु गामकंटए.'॥४७१ ॥ वृत्तं, जोत्ति अणिहिस्स गहणं कर्य, सहति नाम अहियासेइ, ३४३॥ गामगहणेण इंदियगहणं कर्य, कंटगा पसिद्धा, जहा कंटगा सरीरानुगता सरीरं पीडयंति तथा अणिवा विषयकंटका सोताइदियगामे अशुष्पविट्ठा तमेव इंदियं पीडयति, हे य कंटगा इमे 'अकोसपहारतजणाओ भिक्खू य' अकोसपहारा पसिद्धा तज्जणाए जहा एते समणा किवणा कम्ममीचा पबतिया एवमादि, मयं पसिद्ध, भयं च मेरवं, न सत्यमेव भयं मेरवं, किन्तु
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सूत्रांक
गाथा ||४६१४८१||
श्रीदश- स्थवि जं अतीव दारुणं भयं त मेरवं भण्णइ, घेतालगणादयो भयभरवकायेण महता सद्देण जत्थ ठाणे पहसंति सप्पहासे, 81 व्युत्सृष्ट
लकद्र ठाणं भयभेरवसप्पहास भण्णइ, तमि भयभरवसहसप्पहासे, उपसग्गेसु अणुलोमपडिलोमेसु कीरमाणेसु 'समसुदुक्खसहे त्यत्त पुणा अजे स भिव' सो एवं सममुहदक्खो होऊण । 'पडिम पडिवज्जिआ सुसाणे०॥ ४७२ ॥ वृत्त, मुसार्ण पसिद्धं,
| तमि सुसाणे पडिमं परिवजिया चिट्ठति, तत्थ से दिव्वाणि माणुसाणि तिरियाणि वा चेयालअद्धवेयालमादियाणि भयाणि(अणेग)४ भिक्षु अ०
टिभयाणि उप्पज्जंति, ताई दठ्ठण ण भाएज्जा, पास सम्मचित्तयो भवेज्जा, जहा रत्तपडादीवि सुसाणेसु अच्छति, ण य चीहिति,H ॥३४४॥ तप्पडिसेधणस्थमिदं भण्णइ, तं- 'विविहगुणतवोरए अनिचं' तेर्सि रत्तपडादीणं भणियं, सुसाणे अच्छीयव्वं, ण पुण
तेसिं विविहप्पगारं मूलगुणा उत्तरगुणा वा तयो पारसप्पगारो अत्यित्ति मिरया तंमि मसाणे चिट्ठति, (एसो) पुण जहोवद्वेण ||
विहिणा वासी, विविह--अणेगप्पगारं समूलगुणउत्तरगुणेसु तवे य बारसविहे रतो णिच्च-सम्बकालं भवतित्ति, ण य सरीर तेहि 2 उवसग्गेहिं बाहिन्जमाणोऽवि अभिखा, जहा जइ मम एतं सरीरं न दक्खाविज्जेज्जा, न वा विणस्सिजेज्जा, सो एवं गुणजुत्ता नाभिक्खू भवतित्ति । किंच-' असई बोसचत्तदेहे ॥ ४७३ ।। वृत्त, 'असई' नाम सम्बकाले, 'बोसहूं' नाम वास
ट्ठति वा बोसिरियंति वा एगहा, चत्तं नाम जेण सरीरविभूषादीणिमित्तं हत्थपादपक्खालणादीहिं परिकम्म ण वदृति तं चत्वं भण्णइ, देहगहणेण सरीरगहणं कर्य, 'अक्फुट्ठ' णाम मातिपितिवयणादीहिं हीलणादीहिं, 'हए' णाम डंडादीहि तालिए। 'लूसिए' नाम सुणगादीहिं भक्खिए, सो एवं अक्स्समाणो हम्ममाणो भक्खिमाणो वा 'पुढवीसमो मुणी भवंजा' जहा पुढवी अक्कुस्समाणी हम्ममाणी भक्विजमाणी च न य किीच पओस बहल, तहा भिक्षणापि सम्बफासविसधेण होयम्ब
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दीप अनुक्रम [४८५५०५]
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(४२) ।
भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
गाथा ||४६१४८१||
मणी णाम मुणिनि वा णाणिति या एगट्ठा, जो सो माणुसरिद्धिनिमित्रं तवसंजमं न कुन्चह, से अनियाणे, णगादिसु अकोड- परीषहजया बैकालिक
हले भवेज्जा, सो एवंविहगुण जुत्तो भिक्षु भवातित्ति । किंच-सक्काणं चेत्तवेतसिगा धम्मा इति वणिसेहणत्थमिदमुच्यते- हस्तादि
अभिभूअ कारण.॥४७४ा पूर्तकायो सरीर भण्णइण केवलं मणसा, परीसहे ' अभिभूय' ति अभिमुहं जातिऊण || संयतता १. समुद्धरे' णाम सम्म उद्धरे, सम्म पासे करेजत्ति बुत्तं भवति, जातिग्गहणेण जम्मणस्स गहणं कयं, बधगहणेण मरणस्स। भिक्षु अ गहणं कर्य, ताओ जम्मणमरणाओ समुद्धरे अप्पाणंति, कई पुण समुद्धति !, 'अतो भण्णइ । विदित्तु जाती मरणं महब्भय' 4 1 पुच्वं भणियं, जातिमरणं महन्मयं विदित्ता नाग जाणिऊण सामण्णिए रते भवेजा, समणभावो सामणियं भन्नइ सो एवंगुण-४
जुतो भिषखू भवतित्ति । 'समणभावो सामणियमिति' तदुपरिसणस्थमिदमुच्यते- 'हत्थसंजए.' ॥ ४७५ ॥ पूर्व, हत्थपाएहि ॥ मकुम्मो इव णिकारणे जो गुत्तो अच्छइ. कारणे पडिलेहिय पमझिय वावारं कुब्बइ, एवं कुबमाणो हत्थसंजओ पायसंजओ भवह
वायाएवि संजओ, कई ?, अकुसलवइनिरोधं कुब्यद, कुसलबहउदीरणं च कजे कुब्बइ, 'संजइंदिए' नाम इंदियविसयपयारगिरोधं कुव्यइ, विसयपत्तेसु इंदियस्थेसु रागदोसपिणिग्गरं च कुचतित्ति, 'अज्झप्परए' नाम सोभणज्झाणरए, 'सुसमाहिअप्पा' नाम णाणदसणचरिते सुटु आहिओ अप्पा जस्स सो सुसमाहिअप्पा भण्णइ, सुत्तत्थगहणेण सुत्तस्स अस्थस्स तदु
॥३४५॥ भयस्स गहणं कर्य, तत्व गुत्त्थं विजाणति पुबिल्लाणि य जो कारणाणि कुवति सो भिक्खू भवइत्ति । फिंच-'उचहिंमि अधिछए । ४४६ ॥ वृत्त, उवही वस्थपनादी, ताए उवहिए अमुच्छिए अगिदिए य भवेज्जा, मुच्छासहो य गिद्धिसदो य
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक , मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५), नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
गाथा ||४६१४८१||
श्रीदश- दोऽवि एगहा. अच्चत्राणिमि आयणिमित्तं च पउंजमाणा ण पुणरुत्तं भवति, अहवा मुच्छियगहियाणं इमो विसेसो भण्णइच्छा कालिकतत्थ मुच्छासदो मोहे दहलो, गहियसद्दो पडिबंधे दडब्बो, जहा कोइ मुच्छिा
द्धिसंनिधि
तेण मोइकारणेण कज्जाकजं न याणइ, तहा। चूर्णी.
त्याग सोऽवि भिकाबू उबहिमि अज्झविषण्णो मुच्छिओ किर कज्जाकज्ज न याणइ, तम्हा न मुच्छिओ अमुच्छिओ, अगिीद्धओ अबद्धो । भिक्ष भण्णइ, कह , सो तमि उबहिमि निचमेव आसन्नभच्चत्तणेण अबद्धो इव दट्टयो, णो गिद्धिए अगिद्धिए, 'अन्नायउंछं' णाम |
उंछं चउनिहंणामठवणदव्यभाउंछंति, नामठवणाओ गयाओ, दवूछ तावसादीण, माबुछ जमण्णायमण्णाएण उपातिज्जति ॥४६॥ मापुंछ भण्णति, एत्थ भायुछेण अधिगारो, सेसाओ उच्चारितसरिसत्तिकाऊण परुविया, तं भावुछ अनायउंछ भण्णइ, पुला
एवि चउब्बिई, तं०- नामधुलाए ठवण दव्य भावपुलाएपि, णामठवणाओ गयाओ, दध्वपुलाओ पलंजि भण्णइ, भावपुलाए जण मूलगुणउत्तरगुणपदेण पडिसेबिएण णिस्सारी संजमो भवति सो भावपुलाओ, एत्थ भावपुलाएण अहिगारो, सेसा रा उच्चारियसरिसत्तिकाऊण परुविया, तेण भावपुलाएण निपुलाए भवेज्जा, णोतं कुब्वेज्जा जेण पुलागो भवेज्जत्ति, कय-13 विकया पसिद्धा, संमिही' असंणादीण परियोसणं भण्णइ, तातो कयविकयातो सनिधीतो य विरए भवेज्जा, 'सब्वसंगा| वगए'त्ति तस्थ संगाधगते नाम संगोत्ति वा इंदियस्थोसि वा एगहा, सो य संगो दुवालसविहस्स तवस्स सत्चरसविहस्स व संजमस्स विघायाय होज्जा, सो सम्बो संगो अवगओ जस्स सो संगावगओ भण्णइ, सो एवंगुणजुनो मिक्सर भवतित्ति ।। किंच 'अलोलभिक्खू०' ॥ ४७७ ॥ पूर्ण, जइ वित्तकडअकसायाई रसे अप्पत्ते जो पत्थेइ से मालोले, भिक्युचि वा
दीप अनुक्रम [४८५५०५]
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
Phare
शूर्णी.
गाथा ||४६१४८१||
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श्रीदश- साधुत्ति या एगट्ठा, तहा तेसु रसेमु नो गेधि गच्छेज्जा, तं च अण्णायउँछं चरेज्जा, आह-णणु अण्णायउंछं पुलागणिपुलाएनिलोलताचंकालिक भणियमेव , आयरिओ आइ- उहि पडुच्च तं भणियं, इमं पुण आहारं पडुच्च भणियंति पुणरुत्तं न भवइ, तहा 'जीवियंदित्यागः
णाभिक खेला,' जहाई जइ (जी), तहा इति-विउरणमादि सकारपूयणं च, एताणि तिष्णिवि जहेज्ज णाम छड्डेज्जत्ति, इड्डी वाक्य
आगासगमणादि, सकारो स्थपत्तादि, पूया य युइवहुमाणादि, णापदंसणचरित्तेसु ठिओ अप्पा जस्स सो ठियप्पा,'अणिहेल भिक्षु अ.
| शुद्धि णाम अकुडिलेति वा अणिहोत या एगट्ठा, सो एवं गुणजुत्तो भवति। 'न परं वहज्जासि ॥४७८ ॥ वृत्तं, परो णाम | PM ॥३४७॥
&धर्माख्यान गिहत्था लिंगी चा, अपि सो अपणो कम्मेसु अवस्थिओ तहावि न बत्तव्यो जहाऽयं कुत्थियसीलोत्ति, किं कारणं,8 तत्व अपत्तियमादि बहत दोसा भवति, कदायि पुण सपक्वं सदितं वदेज्जा, जहा कुसीलोऽसि ?, छड्डेहि एवं कुसीलतं, अतो निमिर्च परग्रहणं कर्य, साधुगुणे सेवा हि एवमादि, तहा 'जेणं नो कुप्पेज्जा तं वएज्ज'ति, जेण' ति जेण कम्मजातिसिप्पाइणा भणिओ पसे कुप्पा, तं नो वदेजा, आह-किं कारण परो न वत्सयो, जहा जो चेव अगणिं गिण्हा
सो चेव डज्झइ, एवं नाऊण पत्तेयं पतयं पुष्णपावं अत्ताणं ण समुक्कसइ, जहाहं सोभणो एस असोभणाति एवमादि । अत्तुसाकरिसपतिसेहणत्थमिदमुच्यते-- न जाइयले०॥ ४७९ ।। वृत्तं, जाई पकुच्च मओ न कायब्बो, लाभेणवि मदो न कायव्यो, ॥३४॥
जहाऽहं आहारोबहिमाईणि लभामि, न एवं अप्णो कोई लभइत्ति, एवमादि लाभमओ न कायबो, जहाऽहं सिद्धतनीतिकुसलो: को एवं अण्णोत्ति, एवमादि सुयमओ न कायव्यो, जाणि य न भणियाणि इस्सरत्तचिन्तणादाणि मदहाणाणि ताणि मदाणि
दीप अनुक्रम [४८५५०५]
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
गाथा ||४६१४८१||
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श्रीदश- सवाणि विगिच धीरत्ति, विगिंच णाम छडेज्जाति, धी-बुद्धी तीए अणुगओ धीरो, नहा धम्मज्झाणरए भवेजा, जो एवं गुण- मिक्षुभाव
जुत्तो स भिक्खू भवेज्जत्ति । किंच-' पवेशए॥ ४८० ।। वृच, 'पवेदए ' नाग आइक्खेचि वा पवेदहत्ति वा एगट्ठा, II
अज्जवग्गहणेण अहिंसाइलक्सणरस एवारिसस्स धम्मस्स गहणं कय, ते आयरियं धम्मपदं गिहीणं साधूण य पवेदेज्जा, महाभि अ मुणीति वा मदानाणीति वा एगहा, महंतो जसो सीलादिगुणेहि मुणी य महामुणी, सुयधम्मे चरित्तधम्म य स एवंठिओ
साधू धम्मं कहेमाणो परमवि धम्मे ठावद, तं च परमं, पावहिं कम्मेहिं पचत्तं णियत्तेमाणो सोयारं अत्ताणं च धम्मफलण संजोएइ, ।।३४८॥ भणियं च- " निक्खि तसस्थस्स कुसलो सोता जइ किंची कालं सोउं वज्जति नियत्चति वा तं कहगस्स हियं भवति " तम्हा एवं
आलंबणं काऊण धम्मो कईयथ्यो, वहा ' निक्षम्म घडिजज्ज कुसीललिंगं' ति, जहा पापाओ गिहत्वभावाओ वा निक्खम्म निकारणे कुसीलाणं पंडुरंगाईण लिंग बज्जेज्जा, अथवा जेण आयरिएण कुसालो संभाविज्जति से सदा वज्जेज्जा, तहा 'न आवि हासं कुहए भवेज्जा' हासहए णाम ण ताणि कुहगाणि कुज्जा जेण अन्ने संतीति, सो एवं गुणजुत्तो भिक्खू भवइति । इदाथि एयस्स एवंविधस्स भिक्खुस्स फलं भण्णइ, संजहा- 'तं देहवासं '॥४८॥ वृत्तं, देहवासगहणेण
ससरीरया भण्णइ, तं जो इममि पपक्के देहवासे दीसह एवं असुती असासयं सदा जहे, जहे णाम चएज्जत्ति वुत्तं भवति, व(सो य दिले छड्यति(ज)स्स निचाहि अद्विअप्पा भवति, पुण सेसोनि, सो एवंपगारो भिक्खू 'छिदित्तु जाइमरणस्स बंधणं' जातामरणं |
S am संसारो तस्स बंधणं अट्ठविध कम से संसारबंधणं कम्मं किंदिऊण 'उवेद भिवाव अपुणागमं गई ति, उवेति नाम उवेइति ।
दीप अनुक्रम [४८५५०५]
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) अध्ययनं [१०], उद्देशक ], मूलं [५...] / गाथा: [४६१-४८१/४८५-५०५], नियुक्ति : [३२९-३५८/३२८-३५८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
१रतिवाक्य
गाथा ||४६१४८१||
श्रीदश- या गच्छइति वा एगट्ठा, भिक्खुगहणेण पुवमणियभिक्खुस्स गहणं कयं, अपुगागमा गती सिद्धी भण्णति, तं सो भिक्खू वैकारिक उइति, सावसेसकम्मो य देवलोगसु, पुण सुकुलपच्चायाति लवण पच्छा सत्तभवग्गहणम्भतरतो सिज्मतित्ति, बेमि नाम चूणों तीर्थकरोपदेशात्, न स्वामिप्रायेण नवीमीति । इदाणी णया-णायंमि गिण्डियम्ये अगिहियव्वमिका गाहा, 'सम्वेसिपि
|णयाणं बहुविह बत्तव्ययं णिसामत्ता। तं सम्बनयबिसुद्धं जं चरणगुणहिओ साह॥१॥ अध: पूर्ववदिति । चूला
सभिक्खूअज्झयणचुण्णी सम्मत्ता । ॥३४९॥ एवं ताव भिवखुस्स संजमावत्थियस्स जइ कहंचि संजमे अरती भवेज्जा, तीए अस्तीए निवारणनिमित्तं विविकचरिया
निमित्तं च इमाओ दो चूलाओ भण्णंति, तरथ चूलापदस्स तार चक्खाणं भण्णइ, संजहा-'दव्ये खेत्ते काले० ' ॥ ३६१ ॥ गाहा, चूला छबिहा, जहा-नामचूला ठरण दव० भाव खित्त कालचूलाति, ते पुण चूलियदुगं उत्तरं तंते नायचं, जहा।
आयारस्स उत्तरं संत पंच चूलाओ, एवं दसयालियरस दोणि चूलाओ उत्तरं तंतं भवइ, तत्थ चूलासहस्स बक्खाण भण्णति, 11 | जहा-दब्वे खेचे काले दसवेयालियं जाहे पढियं होति ताहे उत्तरकालं पढिज्जंति, जाहे दसर्वयालियं मुतं ताहे चूलाओ मुणि
ति. अतो उत्तर तंतं भण्णइ, तंतं नाम संतति वा सुत्तोचि वा गंधोति वा एगट्ठा, चूलादुगं उत्तरं तंतं, सुतगहियत्थं संग-1 पाहणी नायब्वा, तेसिं दसवेयालिओवट्ठाणं सुतपदत्थाणं समासओ संगहितत्यमेतं चूलादुगं, ते चेव संखेवओ सुत्तत्था अने या
संगहिया, अतो एयं चूलादुर्ग तस्स दसवेयालियस्स संगहणी नायबा । इयाणि पत्तेयं पत्तेयं छबिहा चूला भण्णइ, तस्थ नाम
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दीप अनुक्रम [४८५५०५]
- %ी
→ अध्ययनं -१०- परिसमाप्तं
चूलिका -१- 'रतिवाक्य' आरभ्यते
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक [१]
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चूगी.
गाथा ||४८२४९९||
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श्रीदश- ठवणाओ गयाओ, दम्वचूला इमेण गाथापुब्बद्धण भण्णइ, तंजहा-'बब्बे सञ्चित्तादी ॥३६२॥ अद्धगाथा, (सा विविहा) तं०18 रतिकालिक सचित्ता अचित्ता मीसिया, तत्थ सचित्ता कुक्कुडस्स चूला सा मत्थए भवई, अचित्ता चूलामणी, सा य सिरे कीरई, मीसिया मयू
निक्षेपाः रस्स भवति, एवमादि दबचूला भणिया । इदाणि खत्तचूला मण्णइ-'खेतमि लोगनिक्कुड०॥३६२ ॥ गाहापच्छदूं, श्रतिवाक्य
खेचचूला लोगणिकृडाणि, मंदरस्स पव्ययस्स चूला कूडा य एवमादि खेचचूला भण्णाइ, अहवा अहे लोगस्स सीमंतओ अचि-| चूला
होतो, तिरियलोगस्स मंदरो। याणि भाषचूला भाइ सा य इमा, तंजहा-'भावे स्वओवसमिए०॥ ३६३ ।। गाथापुष्वद्धं, ॥३५०॥अभावचूलाओ इमाओ चेव दोष्णि चूलाओ, कई, जम्दा सुतं खओयसमिए भावे, एयाआ दोचि चूलाओ खोचसमियाश्री।
काऊण भावचूलाओ भवंति, तत्थ पढमं रतिवक्कत्ति अज्झयणं, तस्स चत्वारि अणुयोगदारा जहा आवस्तए णवरं णामणि
फण्णे २६वक्क, दोऽवि पया रती य वक्कं च, तत्थ रतीह चउक्कनिक्खेवो, तंजहाणामरती ठवण दब० भावरती य, नाम-1 पाठवणाओ गयाओ, दब्बरती भावरती य तप्पसंगेण अरती इमाए गाहाए भण्णइ, तंजहा-(चूणी तु) 'दब्बरसगंध (दुग्वे वुहा ६उ कम्मे०) ॥३६४॥ गाहा, दवरती दुविहा, तंजहा-कम्मदवरती.णोकम्मदश्चरती य, तत्थ कम्मदवरती नाम रतावणिज्ज
कम्मं बर्द्धन ताव उदिज्जइ एस कम्मदब्बरती, नोकमादधरती-सहरसरूवगंधफासदच्याणि रतीकराणि णोकम्मदवरती भण्णइ, दब्बरती गता। इदाणि भावरती भषणइ, सा य उदएण भवइ, कई ?, तमेव रतिवेयणिज्जं कर्म जाहे उदिवं ताई भावरती भण्णइ, एवं अरइवि चउचिहा, जहा-नामअरहे ठरण दर भावअरईति, नामठवणाआ तहब, दमाराला॥३५०॥ दुविधा, तंजहा-कम्मदव्यभरती णोकम्मदबअरती, अरईवेयणिज्ज कम्मं बद्धं न ताव उदिज्जइ एसा कम्मदब्बअरती
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दीप अनुक्रम [५०६५२४]
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... 'रति' शब्दस्य निक्षेपा: दर्शयते
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आगम
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१] गाथा ||४८२४९९||
श्रीदश-णिोकम्मदव्वअरती-अणिट्ठा सद्दादयो दवा पोकम्मदव्यअरई भण्णा, जाहे अरती वेदणिज्जं कर्म उदि ताहे भावअरई भवइ। कालिकाइदाणि वर्धा भण्ण, तं च जहा वक्कसुद्धीए भणिय तहा इहपि भावियव, वर्कतिदारं गतं । सा य अरती जाहे परीसहाण 15
इष्टान्त: चूर्णी उदएण उदिज्जति ताई सा निच्छयी सुहविवागतिकाऊण सरीरपीडाकरावि सम्म अहिया संयम्या । एत्थे दिडता, 'जहा नाम हिताहित१रतिवाक्य आउरास्सिह०३६६॥गाथा,आउरो-गिलाणो, सो य बणेण केणड आगंतुगेण सरीरसमुत्धेण वा आउरीको होज्जा, जहा णामकारिचेष्टाः
४ आउरस्स तस्स इह लोगो 'सीवणछज्जेसुक (की) माणेसु जंतणा अपत्याच्या आमदोसपरिहारों विराई हियकारी
भवई' तत्थ तणा पसिद्धा, 'अपत्थकुच्छा' णाम अपत्थपरिहारी मण्णइ, 'आमं अजिणं भण्णइ, आमदोसमवि परिहरति, विरती' णाम विलोमीमादियाणि अलभणाणि आहारतस्स भवति, एयाणि पच्छा सुहाणिन्तिकाऊण पिरती भन्नति, हियकारीणि य से पच्छा भवंति, एवं-'अपिहकम्मरोगा० ॥ ३६७ ॥ ग.था, अट्ठविधेण कम्मरोगेण आउरस्स जीवस्स तस्स कम्मस्स तिगिच्छाए आरद्वाए अणेगअदव्यषमण भूमीसज्जाकदुसज्जादी उक्त अव्वाबाहमुहकारणं ईहमाणस्त जा धम्मे रती अधम्मे य अरती सा हियकारिया भवद । किंच-सजशाय० ॥३३८॥ गाथा, सज्ज्ञाओ बायकापुच्छणादी पंचविधी, तमि सज्झाए सचर-1 सर्विधे य संजमे तवे व वारसविध येयावच्चे दसप्पगारे, झाणजोगे दुविधे, तं०-धम्मे सुक्के य, जो एतेसु सज्शायादिसु रमति साइंमि य असंजमे न रमती सो पापति सिद्धिं । आह-णणु तवग्गहणेण सज्झायवेयायच्चयाणा गहिया चेब, आयरियो | |३५१॥ आइ-जमतसिपि गहणं तं पाइण्णताउपपदारसणथं कय, सत्थंमि बारसविहमिाष तवं एते पहाणतरा, तत्थति समाआ पहाण-12 रो, भणियं च-वारसविहमिवि तवे सम्भितरवाहिरे जिणखाए । णवि अस्थि णवि य होही सज्झायसने तयो कम्मं ॥१॥
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दीप अनुक्रम [५०६५२४]
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आगम
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + भाष्य |+चूर्णिः)
(४२) चूलिका [१], उद्देशक [-], मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], निर्युक्तिः [ ३६१-३६९ / ३५९-३६७ ], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
[3]
गाथा
||४८२
४९९||
दीप
अनुक्रम
[५०६५२४]
श्रीश वैकालिक चूण.
१रतिवाक्य
चूला
॥३५२॥
तहा बेयावच्चमवि अपडिवाइसणादिगुणेण पहाणं, भणिये च ' वेयावच्चं निच्च करेह तवसंजमे जयंताणं । सव्वं किल पडिवाई वैयावच्च अप्पडिवाति ॥ १ ॥ झाणं पुण पहाणमेव, कम्हा ?, जेण तदायत्ता वयावच्चसज्झायावि भवति, अतो एतेसिं पित) गहणं कथं । 'तम्हा धम्मंमि (धम्मे०), ' ॥ ३६९ || गाथा, जम्हा एतेहिं गुणेहिं जुचो सिद्धिं पावर, तम्हा धम्मे रहकारगाणि अहम्मे अरइकारगाणि अट्ठारसद्वाणाणि इमंभि अज्झयणे भणियाणि य साधू जाणेज्जत्ति, णामणिष्कष्णो गतो । इदाणी चागमे सुतमुच्चारयन्यं, त च अखलियं जहा अणुओं दारे, तं च सुतं इमं जहा - 'इह खलु भो ! पव्वणं० ' ॥ सूत्रं २१ ) इहगहणेण जिणपवयणस्स गहणं कयं खलुसदो विसेसणे, किं विसेसयति ?, जहा जो अवघावणी णत्रधम्मो भवद्द तस्स थिरीकरणाणिमित्तं पायसो एवं अज्झयणं नासिवंति विससयति भो ! इति आमंतण, व्रज गतौ धातुः, अस्य धातोः प्रपूर्वस्य 'तक्तवतू निष्ठ ( पा. १-१-२६ ) ति कप्रत्ययः, ककारात किति लोपः ' आर्द्धधातुकस्येड़ वलादे' रिति (पा. (७-२-३५ ) इडागमः परगमनं प्रत्रजितः, प्राणवधानृतवचनपरद्रव्यापहारेभ्यो व्रजितः अपगतः निष्क्रान्तः निर्गत इत्यर्थः, प्रत्रजितः अतस्तेन, 'उत्पन्नदुःखन ' ' पद गतौ धातुः अस्य धातोः उत्पूर्वस्थ ' क्तक्तवतू निष्ठे' ति ( पा. १-१-२६ ) क्तप्रत्ययः, अनुबन्धलोपः, ' रदाभ्यां निष्ठातो नः' इति ( पा. ८-२-४२ ) तकारस्य दकारस्य च नकारः, परगमनं उत्पन्नः, उप्प न दुक्खेणति, दुक्ख दुविधं सारीरं माणसं वा, तत्थ सारीरं सीउन्हदंस मसगाइ, माणसं इत्थीनिसीहिय सकारपरीसदादीणं, एवं दुविहं दुक्ख उत्पन्न जस्स तेण उष्पष्णदुक्खेण सचरसविधे संजमे, ' अरइसमावन्नचित्तेण समावनं नाम तंमि गतं चित्तं मणो अभिप्याओवा, संजमे अरतिसमावनचितो तेण संजमे अरइसमावन्नचित्तेण, अवहावर्ण अवसप्पणं अतिकमणं, संजमातो
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उपक्रमः
||३५२॥
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(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) चूलिका [१], उद्देशक ], मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
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त्रितयं
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गाथा ||४८२४९९||
4
भी- अवकमणमवहावणं, तं अबहावणं अणुस्पेहिउँ साँलं जस्स सो अवहावणाणुप्पेही, अब इति एतस्स पागए औगारो भवइ, एवं ओहाणुकालिकाप्पेही तेण ओहाणुप्पेहिणा, एवं कयसकप्पेण पुव्वं ओहावणाओ 'अणोहाइएण' एक्सदो अवधारणे, किमबधारयति , णियमा चूौँ । अणोहाइएण अट्ठारसट्ठाणाणि चिंतणीयाणि, पच्छा चिंतणं अणत्थर्ग, तेसिपि भावोपदरिसणस्थमिदमुच्यते-'हयरस्सिगयंरतिवाक्ये कुसपोयपहागाभूआई' हयो-अस्सो तस्स रस्सी-खलिणं, सो य सुदप्पिओऽपि सलिणेण णियमिज्जद, गयो हत्थी तस्स४ वि लोहमयं न(म)स्थयखणणमंकुसो, तेण सुमचोऽवि (
विणतं गाहिज्जा, जाणवतं-पोतो तस्स पड़ागा सीतपडो, पोतोऽविसीय|पडेण तेण वीयीहि न खोहिज्जइ, इच्छ्यिं च देसं पाविज्जइ, हयादीणं रस्सिमादओ नियामगा अतो पत्तेयं ते सह पढिज्जति॥३५३।।
| 'हयरस्तिगयंकृसपोतपडागाभूआई' भूतसदो इह सारिस्सवाची, जहा कोऊहलभूयंमिवि लोए आसि पन्चयंते, अओ तम्भू
ताणि ते हयरस्सि०सरिसाणि एवं हयरस्सिगर्यकुसपोयपडागाभूताई, इमाई अट्ठारस द्वाणाणित्ति, इमाणिनि जाणि य णियमिताणि | तानि हिदए काऊण पच्चक्खाणि व भणति, अट्ठारस इति संखा, णामति वा ठाणति या भेदत्ति वा एगट्ठा, भणियं च-"इच्चेएहिं चउएहिं ठाणेहिं जीवा णरतियत्ताए कम्मै पकरेंति," अतो इमाणि अट्ठारम हाणाणि जहा हयादीणं रस्सिमादीणि नियामगाई तहा जीवस्स ओहावण कुन्बयओ अहिनिम्बचेऊण भिक्खुमावे नियामगाई,तत्थ पढम ताव दुकरजीवियन दंसह-'हमोइत्यादि,इंति भोत्ति
संबोधनद्वयमादराय, समाए दुप्पजीवी नाम दुक्खेण प्रजीवणं,आजीविआ, एत्थ संजमे रयाणं तुन सेति, जतो य एवं तम्हा धम्मे । भाई करणीया, तत्थ कामस्थी विसया भोगा सद्दादिविसया, अषिय कुसग्गा इव इयरकाला, कदलीगम्भा वऽसारगा । जम्हा गिहत्थ
धम्मे, भोगे चइऊण कुणहरई (धम्मे]||२॥ वितियं ठाणं गतं । किंच'भुज्जो य सातिबहुला मणुस्सा भुज्जो-पुणो२, साति
४-
1
दीप अनुक्रम [५०६५२४]
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॥३५३।।
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आगम
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
श्रीदश- वैकालिक रतिवाक्ये
चूणा
गाथा ||४८२४९९||
॥३५४॥
वडिला, बहुला इति पायसो, कुडिलहियओ पाएण सुज्जो य साइबहुला मणुस्सा कामभोगनिमतं गिद्देसुपि पितिपुत्तप्पमि-नाचतुथोनिसु सातिसंपयोगपरा अवीसत्यहियया, तेसु किं सुइमिति धम्मे रती करणीया, अविय-लहूसगभोगनिमित्तं पराइयधणंपरा जओ दानित्राणि मणुया । विसयसुहविष्पमुका य इअ भो धम्मे रति कुणह ॥शा ततियं ठाणं गयं । तहा-'इमे अमे दुक्खे न चिरकालोवट्ठाई भविस्सई तेण ओहाणुप्पदिणा एवं चितयव्य, जहा इमेत्ति जं सारीरमाणसं परीसहोदएण दुक्खमुप्पमं ते पचपखं काऊण,18 चसदो न इमं दुक्खं निहिसइ सुहेण विसेसयति, 'मे' इति अप्पाणं निद्दिसइ, दुक्खं अरइकराणज्ज, चिर-पभूतो काले, ण चिरं है। आचिरं, अचिरसुववाणं जस्स तं अचिरकालोबढाती तं च, अब्भासा जोगोपचिएण घिइबलेण परीसहाणीतं जिणिऊण सान-12 हियसामंतमंडलो इच राया सुहं संजमरज्जे पशुतण करेइ, इह पुण परीसहपराजियस्स नरगादिसु दुक्खपरंपरगतो अती धम्मे | रमियम्ब, अविय-परीसहा उदिज्जति, नवधम्माण विससओ। जम्हा दुक्खमणा तमनिग्छमाणा रमह धम्मे ॥ १॥ चउत्थं पदं गयं । किंच-'ओमजणपूरसकारे' ओमो नाम पागयजणो, ओमजणा सकार इव सफारी, ओमजणस्स ओमजणाओ पुर सकारो ओमजणपुण )सकारो, धम्मे द्विओ पभणवि पुज्जो भवह, तओ बयाट्टिओ पुणमन्ताणमवि अम्भुट्टाणासणंजलिपग्गहादीहि सेवाविसेसेहिं पुकारेइ, एवं ओमजणपुरकारो, अहवा अग्गओ करणं पुरकारो, धम्मचुओ रुडेहिं रायपुरिसेहिं पुरभी कलओ बढीइमादीणि काराविज्जइ, एवं ओमजणाओ परिभवकर्य अपुरकारं पावर, एस ओमजणाओपुरकारो ओमजणपुरकारी धम्माओ | चुयस्स जणं संभवइ परं परिभवधरणाय तेण धम्मे रती करणिज्जा, पंचमं पदं गयं । तहा-'वंतस्स पडिआयण' अम्भव
॥३५४॥ हरिऊण मुद्देण उग्गिासयं तं तस्स पडिपीयण ण तहा विहियं भवति, त अतीव रसे न बलं, न उच्छाइकारी, विलीगतया य
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दीप अनुक्रम [५०६५२४]
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
[१] गाथा ||४८२४९९||
पडिएति, वग्गुलिं वा जणयति, ततो कोड वा जणयति, लोगे य गरहित, तस्स पाणं वंतस्स य पडिआयणमिति तस्स, चकारस्स सप्तमादीनि श्रीदशवैकालिक
अत्यो पषयणकाले सम्बहापरिचत्ताण पुणरासेवणं वंत भोयणआदिएणसरिसं ओमजणपुर कारगका(र)दादिदोससिय, अविच-सु-15 चत्वारि चूर्णी
जसा कुलप्पलता अगंधणा रायदोसमुग्गिण्णा । उच्चिटुं नउ भुषगा पिचंति पाणचएवि विसं ॥ १ ॥ अतो वंतस्स पडियातमणरतिवाक्ये -
सरिसे भोगाभिलास मोतूण धम्मे रती करणीया, छठं पदं गतं । तहा-'अहरगइवासोवसंपया' अधोगति अहरगई, अहरगई-जस्थ पडतो कम्मादिभारगोरवणं ण सका साहारेउं अधरगती, सा प्रण णरगं चेत्र, तत्थ चासो अहरगतिवासो, तंमि उपसं
पज्जणा-उवणमर्ण अहरगतीवासोवसंपया, सा कई, पुत्तदारस्स कए हिंसादीहि कम्माणि-अहरगइपाओग्गाणि कम्माणि उपसं॥३५५॥
पज्जा, इह च सीउण्हभयपरिस्समे विपयोगपराहीणतणादि नारगदुक्खसहस्साणि वेदेति, अविय-निरयाल(उ यं निबंध नरगसमाणि उ इहेब दुक्खाणि । पार्वति गिही वराओ जं तेग रई वरं धम्मे ॥१॥, सत्तमं पदं गतं । 'दुल्लहे खलु भो! गिहीण धम्मे गिहवासमझे वसंताणं' दुक्खं लभइ दुल्लभो, पमादबहुलजणणेति, 'भो' इति तहेव आमंतणं, गिहाणि संति जेसि ते | गिही तसि, दुग्गइपडणधारओ धम्मो, दुल्लमो पुण योधिरूवो धम्मो परलोगे य सोक्षपरंपरा इति सुहनिमिर्च धम्ने रहे करणीया, हाविय 'दुलहा गिहीण धम्मे गिही(ण)बासे पमादबहुलंमि । मोतूग मिहेसु र रतिपरमा होह धम्ममि॥१॥अहम पदं गतं । अयमयि
गिहिवासमझे वसंताणं दोसो, तं• 'आर्यके से वहाय होई' मूलाइ आसुकारी सरीरे बाधाविससो आयको, समाणजातीय- ॥३५५|| | वयण रागरगहणमवि, सो कुट्ठादीयो रूयाविससो, गिहीवासमझे वसंताणं आहारविसमकरादि भारवहणासवणा, आयके से | | बहाय होइ, रोगायंका य जहि तं सुहाणुभवणविग्धभूता इति धम्मे रतेण भवियर्य, अविय-'दुलभं गिहीण धम्मे मुहमातं
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दीप अनुक्रम [५०६५२४]
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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चूर्णी.
रतिवाक्ये
गाथा ||४८२४९९||
श्रीदश-18 केहिं विप्पियसमग्गो। तम्हा धम्ममि रति करह विरता अधम्माओ॥१॥णवम पदं गतं । 'संकप्पे से वहाय होई' एकादश वैकालिक लक आयको सारीरं दुक्खं, संकप्पो माणसं, तं च पियधिप्पयोगमय संवाससोगभयविसादादिकमणेगहा संभवति, 'इट्ठाणवि
दीनि पर सज्जा(व्याणं सहफरिसरसरूवगंधाणं । कम्माणुसइंमि रती धम्मे भयचियोगबिरसंमि ॥१॥ दसमं पदं गतं । एवं बिससेण धम्मे | | रती करणीया, जतो 'सोवळसे गिहवासे' सह उबसेहि सोवकेसो, सो पुण सीउण्डमयपरिस्सहकिसिपसुपालवाणिज्ज-18
सेवादयो गेहलवणतंदुलछायणसमुप्पयणं बहु परिकेसह इति सोवकेसे गिहवासे, तमेवंभूतं जाणिऊण धम्मे रती करणीया, अविय ॥३५६॥ 'वित्तिविहाणममत्तं सोवकेसेण जओ य सोकसो । मोत्तूण घरावासं, तम्हा धम्मे रतिं कुज्जा ॥१॥ एकारसमं पदं गयं। किंच
'निरुव से परियाए' निग्गओ उबकोसा जओ निरुकसे सो पुब्वभाणिओ, उबके से बिहरिओलं सवओअओ सारयाओ वा गमणं | पम्वज्जापरियाओ, तत्थ उकसा ण संभवतीति धम्मे रती करणीया। णिरुवकेसो बासो परियाओज इहेब पचक्खं । परियार तेण रति करेह विरया अहम्माओ॥२॥ वासरमं पदं गतं ।। किंच-'बंधे गिहवासे' बंधणं बंधो, गिडेसु बासो गिहवासो, सो पुण तदारंभणपयत्तस्स कोसिगारकीडगुस्सेव कोसगेण अट्ठबिहकम्ममहाकोसेणं संभवइ पन्धो, तओ तेण बंधहेउभूतातो गिहवासाओ | विरएण धम्मे रती सया करणीया, अविय-'थे(घ) रचारगवद्धाओ कम्मट्ठगबंधहेतुभूताओ । विरमह रतीय धम्मे करेह जिणवीरम| णियंमि ॥१॥ तेरसमं पदं गतं । किंच 'मोक्खे परियाए' परिआओ पुग्वभणिओ, तमि परियाए सति अविहकम्मनिगल
॥३५६॥ संकलासु झाणपयोगपरिसुद्धच्छिमासु जीवस्स सतो भवति मोक्खो, जेण परियाओ(अदृषिदकम्मनिगला साहू छएइ सुझाणाओ सो) मोक्खो तेण रई धम्मे जिणदेसिए कुणह ॥१॥ चोदसमं पदं गतं । किंच-'सावज्जे गिहवासे' सह वज्जेण सावज्जो,
%ANCCॐॐॐ
दीप अनुक्रम [५०६५२४]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य+चूर्णि:) चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] | गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्य पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
स्थानाना
गाथा ||४८२४९९||
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श्रीदश- वजं गरहित, अविय-'पाणबंध मुसाबादे अदत्तमेहुण परिग्गहे चेय। एवं बज्जं सह तेण होति तम्हा उ सावज्जपण्णरसम सप्तदशा
पदं गतं । किंच-'अणवज्जे परियाए' पाणाइवायादिरहिओ अणवज्जो परियाओ, अविय-'सावज्जो गिहवासो अणवज्जो दिनी २ चूर्णी
जेण होइ परियाओ । तेण ण रज्जे मोक्खं ताती धम्मेऽह रई कुणह।।१। सोलसमं पदं गतं! 'बहु साधारणा गिहीणं काम-13 रतिवाक्ये
भोगा' साहारणं सामण्णं, बहहिं चोरदुहरायकुलादीहिं सामण बहुसाहारणा, एवंविधा गिहीण कामभोगा, अविय 'ण य तित्ति |
का कामभोगा, बहुजणसाधारणा य(इमे कामा। तम्हा णीसामने होउ रती ते घिरा धम्मे।।१।सत्तरसमं पदं गतं । 'पत्तेय पुनपावं ॥३५७॥ला पत्तेय नाम जै परनिमितं पुत्तदाराई, संविभागणण य, एवं पुर्णमि “दाराहणं अत्थे कमस्स पचयमेव संबंध । मोत्तूग दारमाइणि
तेण धम्मे रई कुणह ॥१॥ कामभोगाण आहारभूषा आउधम्माणो, ते य जीविय, अश्रो 'अणिच्चे सणुयाण जीविए' अपणोऽवि रोगा नियतं निच्चं अणिच्चं मणुयायाए, ण(णु च तेसि जीदितमणिच्च, खणिकया बिसेसओ दिईतेण निदरिसिज्जइ81 'कुसग्गजलबिन्दुचंचले दम्भजाइया तणविसेसा कुसा, तसि अग्गाणि कुसम्माणि सुसहासुसहुमाणि भवतीति, तेसि ओसाजल-13 विन्दवो आतिचंचला, मंदेणावि बाउणा पेरिता पडंति, तहा मणुयाण जीबिए, अप्पणोऽवि रोगाइणा उवक्कमविसेसेणं संखोभिए
बिलयमुपयाति, अतो कुसग्गजलबिन्दुचंचले, एवं गते जीविए को कामभोगामिलासं करेज्जत्ति धम्मे ठिती करणीया, अविय KI "जीवियमपि जीवाणं कुसग्गजलबिंदुचंचलं जम्हा । का मणुयभवमि रई धम्ने य तहा रई कुणह ॥१॥ कुसग्गजलबिन्दु- ॥३५७||
चंचलसावि अत्थ 'बहुं च पावं कम्मं पगई, पावाणं च बलु भो! कडाणं कम्माणं पुचि दुच्चिन्नाणं दुप्पडिया ताण बेइत्ता मोरखो, मस्थि अवेवता, तबसा वा झोसइत्ता बहु-पभूत, चसदो सारुपये, खलुसद्दो बिसेसणे, किंबिसेस
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दीप अनुक्रम [५०६५२४]
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आगम
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
चूणी.
गाथा ||४८२४९९||
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श्रीदश- यति', सब पावं कम्म, पुण्ण पावं च, एवं विसेमयति, पावं कम्म, पगडे पकारसेण कई पगड, पावाणं च खलुसद्दो पादपूरणे न गाथा वकालका 'भो' इति सीसामंतणे, कडाणं कम्माण मुवचिनाणं पुधि-पढमकाल रोगहोसबस गएण दुछ चिण्णाणं पुवमेव मिच्छादरिसण:
स्थानानां बिरहपमादकसायजागाह दुद्छु परिकतार्ण, वेसि वयणण मोक्खो, अतो वेदत्ता मोक्खा,ण अस्थि अवेय रतिवाक्य
क्खा, अतो वेद इत्ता मोक्खा, ण अस्थि अवेयहत्ता, फुडाभिधाणस्थ || अपुणरुतं, जहा फोलिप-"क्रिया हि द्रव्यं बिनयति, माद्रव्यं" तहा वेदयिता मोक्खो, नस्थि अवेदयिता इति न पुणरुचया, 161
बारसविधेण जिणांवट्वेण 'तवमा झोसइना झोसणं णिहहणं तवसा, मोक्खो, तत्थ जदयिचा मोक्खो, [M] तमुदयपत्तस्सा ॥३५८|| कम्एणण महापरिकिले सेण, तपसा अज्झांसवणा, अणुदीपणोदीरणदो रासीनीहरणमिव लहुतरं अणुभवणेण विमोक्खणं, असन्त
नणेण दरिसणं. समुलुद्धरण मित्र अणमोक्ख एम. अओ कम्पनिज्जरणस्थ तवासि समासतो समाधम्मे करणीया रती । अविय "गुणभवणे रिणमोखो जहवा तवसा कडाण कम्माणं । तम्हा तवोचहाणे अज्जयब्बे रई कुणह ॥ १॥ एवं तरति जेण वीर्ण, अहारसमनि हाणं, एस्थ इमाओ वृत्तिगाहाओ,उक्तंच-दुसमाए जीओ जे इयरा व लहस्सगा पुणो कामाश साविबहला मणुस्मा३ अगट्टाण इमं उत्॥१॥ 'ओमज्जण मि खिसा५वंतं च पुणो णिमेवितं होइ६। अहरोषसंपदावि यधम्मोऽविय दुल्हो गिहिण दादा निबत्तंति किलसेवाधा' सारज्जजोग गिहिवासोशएते तिण्णिवि दोसा ण होति अणगारवासंमि१४॥२॥साहारणाय भोगा१५। पनेर्य पुण्णपावफलमव १६। जीविनमवि मणुयाणा कुसम्गजलचंचल मणिरूचं १७॥३॥ नस्थिय अवेयहत्ता मोक्खो कम्मरस निच्छयोहा एसो१८। पदमहारसमयं वीरबयणसासणे भणियं ॥ ४ ॥ सविसेंससु चढेसु रइनकपदेसु पडिमाणत्थमुभरपडिसवायणत्थं
च ना भण्ण अहारसमं पदं, "भवा य एस्थ सिलोगो' 'भनि' निविज्जति, पशब्दो मापुरचये, 'एस्थ' निज एतमि चेव रतीव
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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सूत्रांक
गाथा ||४८२४९९||
श्रीदशसवणे अट्ठारसपओवट्ठो अत्थो, सेसे तस्सोयदरिसणस्थ, सिलोगो इमो, तंजहा-'जदा य जहती धम्मं०' ।। ४८२ ॥ सिलोगो,
स्थानबैकालिकIRI'जदाय' इति जैमि चर काले, चसदो पुवमणियकारणसमुच्चये, धम्मो यतं जहाति-परिचयति, ण अज्ने अणज्जे, अणज्जा। श्लोकाः
चौँ सामेच्छादयो, जो तहाठिा अणज्ज हय अणज्जो, से किमत्थं परिचया, माणुसगादिभोगणिमितं 'भोगकारण से तस्थ' रतिवाक्येसे इति जो धम्मपरिच्चागकारी 'तस्थे ति तीए लहसगकामभोगलिच्छाए मुच्छिते-मढिते अज्झोपवण्णो से जया जहद पाले।
इति जे मंदविण्णाणे 'आवती' आगामिको कालो तं णावयुज्झइ, अथवा आयतीहितं आस्मनो हितमित्यर्थः, 'णावयुज्झइति णाव-6
पुज्झइ, भणंति आयतीगारवं तं नावबुज्झती, जहा मम सामण्णस्स परिसुद्धस्स मंदा आयती भविस्सह, अबुद्धायती काममोगा। ॥३५९॥
| मुच्छिओ धर्म परिचइऊण-'जया ओहाविआ॥ ४८३ ॥ सिलोगो, जया तमि काले, चसदो पुथ्वकारणसमुच्चय, ओहा वर्ण-अवसप्पणं तं पुण पवज्जाओ अवसरओ भवइ, तस्स ओधायितस्स सओ अवत्थंतरनिदरिसणस्थं भण्णइ-'इंदो वा पडिओ४ छमंदो सको, वा इति उवमा, पडिओ पडिब्भट्ठो, छमा भूमी, तत्थ पडितो जहा इंदस्स महंतातो दिवातो पचुतस्स भूमी पडणं, तहा तस्स परमसुहहेऊभूताओ जियोवइट्ठाओ धम्माओ अवधावणं, एवं च सम्बधम्मपरिभट्ठो जं चिरकालं तवधारणं कर्य जावज्जीवाए परणारोहणा ते निष्फलं कर्य, पुर्व सव्वं परिभई भवइ, अथवा जे लोइया परिकप्पणाविसेसा तेहिपि भट्ठो सब्बधम्मपरिभट्ठो, पमादित्तणेण वा सावगधम्माओऽपि भट्ठो, कामभोगविरहिओ रोगोदयावसाणे 'स पच्छा परितप्प' ॥३५९|| स इति परिच्चागी, पच्छा उत्तरकालं, सारीरमाणसे हिंदुक्खेहि सबओतप्पह परितप्पा । किंच 'जया यदिमो होइ०॥४८४॥ सिलोगो, 'जया' इति एस णिवातो यस्मादर्थे वर्तते, चसदो इंदस्स छमापडणसमुच्चये, वैदिमो चंदणिज्जो, सीलत्य इति
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
श्रीदश
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[१] गाथा ||४८२४९९||
वकालिक रतिवाक्ये
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॥३६॥
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काऊण रायामच्चादीनामवि वंदणारिहो होऊण सीलपरिक्खलणाणतरं पच्छा सीलगुणरहित इतिकाऊग अयंदिओ (मो) सकारस- स्थानम्माणरहिओ 'देवया व पुआ ठाणा' देवता इति पुरंदरं गोलूण अण्णो देवीवसेसो, सहाणाओ परिवडतो माणुसं महादुक्खम- |
श्लोकाः शुभवइ, वासहो उवमाणस्थस्स इवसहस्स अत्थे, जहा सा देवता ठाणाओ चुया एवमेव सो संजमावसष्पणातो अणंतर पच्छ। मणसा सब्बओ तप्पा परितप्पइ ।। किंच-'जया अ पूइमो होइ०॥४८५|| सिलोगो, जपासहो चसदो य पुश्वभणिया, 'पूइभी पूषणारिहो सीलमंतोत्तिकाऊण रायादीण पुज्जो होऊग ओहावणाओ अणंतर सीलसुभा(चुनोतिकाऊग अपूइमो भवई अ, तहा व अपूहमो पूयणसहलासिओ तस्सऽभावे 'राया व रज्जपन्भट्ठो' राया इस राया, जहा कोई मंडलियो महामंडलियो वा सबभूमि | पस्थिवरणं पाविऊण पुणो अपुष्णोदयमणुभवमाणो केप्यावि कारणेण रज्जाओ अच्चत्य पम्भट्ठो परितप्पड़ तहा य सो पूर्वणिओ अपुज्जत्तमुबगओ समणधम्मपरिभट्ठा पच्छा तप्पइ ।। 'जया अ माणिमो होइ' ॥४८६॥ सिलोगो, जदा इति सद्द। चसदा । य पुण्यं व वणियब्वा, 'माणिमो' माणजोगो माणणीओ, माणिमो जहा सीलप्पसाएण महयामवि माणणीओ होऊण ओधाइओ
अतहाभूओ पच्छा असन्माननीयभावाधिगमात्, 'सिडिब्ब कब्बडे छूढो रायकुललद्धसमाणो समाविद्धचिट्ठणो वणिगममहतरा | | सेही, वाडवोपमकूडसखिसमुम्भावियदुक्खछलम्बबहारतं कब्बडं, जहा सिट्ठी मि छटो विभयहरणाइससिओ परितप्पह, अहया | कब्बडं कुनगरं, जत्थ जलस्थलसमुभवविचित्तमंडविणियोगो णस्थि, तमि वसियचं, रायकुलनियोगण छुढो कयविकयाभावे । विभवोपयोगपरिहीणो, जहा सो तहा साधू धम्मीहि बंदणदाणेहिं पुब्धि माणितो धम्मपरिभट्ठो माणणाभाव स पच्छा। ॥३६॥ परितप्पड़, अंजलिपग्गहसिरिकंपासणप्पदाणादिजोगं यंदणं, बत्थप सादीणा य पयाणगुवजोग पूषणं, बंदणपूपणाणं अहा
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गाथा ||४८२४९९||
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विसेसो । 'जपा य धेरओ होइ० ॥ ४८७ ॥ सिलोगो, जदा जीम काले, चसदो पुखभणिओ, पच्छातावकारणसमुच्चये, धावित वैकालिक पढमवयपरिणामेण धेरओ होइ, दूरं 'समइकंतजुषणो' निदरिसणं स 'मच्छोव्व गलं गिलित्ता' जहा जलयरसत्तविससो।
मच्छो से थोवोपजीवी पडिसामिसलुद्धो आमिसलोमेण गलमम्भवहरिऊण गलए तिक्खलोहखीलगविद्धो पलसु प णाआरत्यरति रतिवाक्येमा पच्छा परितप्पड़, एवं सो विडिसामिसत्थाणीयमदकामभोगाभिलासेण धम्मपरिचागी परितप्पा । इहावि तस्स थेरभावे जाणि | फलंच
४| दुक्खाणि संभवंति तदुवपदरिसणत्थं मण्णइ-'पुत्तदारपरीकिन्नो० ॥४८९ ॥ सिलोगो, पुत्ता-अवच्चाणि, दारं-भज्जा ॥३६॥
दुविधादीहिं संबंधेहि परीकिण्णो-परिवेडिओ, तेहि परिकिण्णो, देसणचरित्तमोहमणेगविई कम्मायाणं अमाण-मोहो तस्स संताणो अविच्छित्ती तेण मोहसंताणेण समाहिडिओ मोहसंताणसंतओ, निदरिसणं 'पंकोसनो जहा णागो' पंको चिक्खिल्लो | तमि खुत्तो कोसण्णो. जहा इति जेणप्पगारेण, 'नाग' इति हत्थी, अप्पोदकं पंकब हुलं पाणि हत्थी अवगाढो, अणुवलब्भहापाणितं खुत्तो चितइ-किमहमत्थऽवतिम इति परितप्पड़, वहा सो ओधाइय थेरभावे पुत्तदारमरेण पोसणासमत्थो धाउपरिक्खय
परिहिणकामभोगपिवासो पच्छाऽऽगतसंवेगो संजमाहिकारणढचेट्ठो बहुविहं तप्पमाणो विसेसेण इमं ओहावणपच्छाणुतावगयं चिंतइ-'अज्ज आई गणी हुंती' ।। ४९० ।। सिलोगो, अज्ज इति इमंमि दिवसे, तावसदो अवधारणे, इमं दिवसमइकमिऊण, अहमिति अप्पणो णिसे, अबे पढ़ति-'अज्जतेह' अज्जत्ते अहं विच्छूढपइनजोगी गणी, 'अज्जत्ते अहं ।ज्ज हुतो'
अहवा गणो जस्स अस्थि सो गणी-सूरीपदमणुप्पत्ते गाणदंसणचरितति चावि)विधगुणतको विहाए जोगीह अणिच्चयादिभावणाहि य दाभाविअप्पा बहुस्सुओ' त्ति जइ ण ओहावंतो तो दुवालसंगगणिपिडगाहिज्जणेण अज्ज बहुस्सुओ, किं पुण 'जइ अहं रमतो
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सूत्रांक
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क
[१] गाथा ||४८२४९९||
श्रीदश-15 परिआए' जदीति अतिक्रान्ता क्रियामाकांक्षति, अहमिति अप्पाणमेव णिदिसति, रमंतो इति रहे विदंतो, परियायो णाम | वैकालिक पञ्चज्जा, बहुत्तमितिकाउं सा विससिज्जति 'सामण्णे', सोय समणभावो तत्थ विसेसो जिणदेसिए, न बोडियनिहगाइसच्छ
| दगहणं । ओहाणुप्पेहिस्सेव मतीथिरीकरणस्थमिदमुच्यते-'देवलोगसमाणो०(अ )॥४९॥ सिलोगो, देवाणं लोगो देवलोमो,। | देवलोगेण समाणो देवलोगसमाणो, समाणो तुल्लो, जहा तमि देवलोगे देवा रतिसागरोगाढा गतपि कालं न याति, विविहाणि
॥य माणसाणि दुक्खाणि ण संभवति, तहा पब्बज्जाए विधिह अप्पमओ तेण देवलोगसमाणो, तुसही विसेसयति, किं विसेसेति ? ॥३६॥ अरतीतो रति, परियागरइयाण, तबिवरीयरताण य, तुसहो तहेव रतीओ अरई बिसेसपति, निदरिसणं मणुस्सो, दुक्खाणुगमेण
'महानरयसारिसों' महानिरओ जो सम्भावनिरओ तउ मणुस्सदुक्खो उपयारमेतं, अहवा सत्तमादिमहानिरओ, तेण परिसी-स-1 माणो दुक्खो जस्स सो महानिरयसारिसो, एवं अरयस्स सामष्णपरियाए, सामण्णे रयाणं च सुहक्खसहाणोपमाणं भणिय अरयाणं, एयरस चेव अत्थस्स उवसंहरणोवदेसो समुण्णीयते -'अमरोवर्म जाणिअ॥४९॥सिलोगो, मरणं मारो न जेसि मारो अस्थि ते अमरा, अमराणं सोक्खं अमरसोक्ख, अमरसोक्खेण उवमा जस्स तं अमरसोक्खोवम, उत्तरपदलोपे को अमरोवर्म, 'जाणिय' जाणिऊण, सोक्खस्स भावो सोक्खं 'उत्तम' उाकिहूं, देवलोगसरिसं सोक्वं भवद रताण परियाए, एवं जाणिऊण अरविच विवज्जेऊण परियाए रमियब्वंति, तदा 'अरपाण' ति उत्तरपदेण संबज्झइ तं पुण दम "णिरयोचम जाणिअ बुक्खमुत्तम' तहेति तेणप्प गारण जहा रयाण सुरसुक्खसरिस, बहर अरमाणं नरगदोसोवमं दुक्खप्तम जाणिऊण रमेज्ज-सामने चिति उपाएज्जा, 'तम्हा' इति हउवयण, रयारयाणं सुददुक्खपरिणामहेऊ, एतेण कारणेण परियार रमिज्ज, एवं पंडिओ भवद एवं परियाय
दीप अनुक्रम [५०६५२४]
वाKROERA
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सूत्रांक [१]
गाथा
||४८२४९९||
श्रीदश-४
ताणं सुहं मरयाण दुक्खं जाणिऊण इह मवे व परभवपरिहारिया धम्मे रई करणीयति । तदस्यमवयुवदिसति-'धम्माउ भह है। अवधावैकालिका
|सिरिओ ॥४९शा वृत्रं, दसविहो साहुधम्मो पुन्ववण्णिओ, सं उभयधम्माओ भट्ट, सिरी लल्ली सोमा वा, सा पुण जा समण- बनफल चूर्णी मावाणुरूवा सामण्णासिरी ताए परिन्महूँ, सिरिओऽववेयं तं धम्मसिरीपरिच्चन, सिरिबिरहे एस दिळतो-'जन्नग्गिविज्झाअमिरतिवाक्ये
बऽपतेथ' जहा मथसहे सुसमीहासमुदये बसारुहिरमहुघयाइहिं हुयमाणो अग्गी संभवदित्तिओ आहेत दिप्पा, हवणावसाणे | परिविज्झाणेसु अंगारावत्यो अप्यतेयो भवति,एवं ओहाविओ समणधम्मपरिच्चत्तो अप्पतेओ भवइ,अओ तमेवंविधं संत हीलयंति
णं दुब्बिाहअंकुसीला'ही इति लज्जा, लज्जं वयंति हीलंति-हेपयंति, विहिओ णाम उप्पाइओ, सो सिरिऽवक्यो होलणाय ॥३६३॥
उप्पाइओ, दुडु बिहिओ, किं तेण उप्पातितण ? जो एवं निन्दामायणं, तमेवंविधं संतं हीलयंति ण, तमेवं गयं इलिति, कुच्छियसील कुसील, जहा कोइ पयावहीगो हीलिज्जहाति, निदरिसणं 'दाहाड घोरविसं व नागं' अग्गदंते परियस्स गतो | दसणविसेसो दाढा, ता य अषणीया जस्स सो दाढढिओतं, घोरं रिसं जस्स सो घोरविसो, जहा पोराविसं अदितुंडियादि सहिआ | विसादाद, बासहो उवमारूवस्स हवसहस्स अत्थे, जहा घोरविसं उत्तरकालमुड्डियदाढं निचिसोऽयमिति जणो परिभवह नाग, णागो। णाम सप्पो, तं दुविहि कुसीले समणधम्मपच्चोगलितं दुब्बयणेहिं हीति, ओहाइयस्स इह भवे लज्जणादोसो भणिओ । इदाणि इह भवे परत्थ याणेगदोससंभावणत्थं उष्णीयते, जहा--'इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती ॥ ४९४ ॥ वृत्तं, यह इममि ॥३६३।। मणुस्समवे, एक्सद्दी अवधारणे, एवं अवधारयति-अच्छउ ताव परलोगो, इहेव दोसो अहम्मो अयसो अकित्ती, जं समणधम्मपरिश्चचो छकायारंभण अपुनमायइ-रयए, अधम्मो-सामग्णपरिच्चागो अयसो य, से जहा समणभूतपुब्यो इति दोसीकञ्चणं,
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
[१] गाथा ||४८२४९९||
श्रीदश-18 अकित्ती, अकित्ती जहाणुरूवभूमिभागऽगुणवयणं, जसो अणुमुई, परेण अगुणसंकितणं किती तं, जसकिचिविसेसो, किंच
अवधावैकालिक ट्रा'दुण्णामगोत्तं च पिहुजणमि' कुच्छितं नाम दुण्णाम पुराणादिक जोणियमारूढो त गया-अवस्स णीयजातीओ विति, दसदो।
वनफलं रतिवाक्ये
कुच्छिअत्थे पउत्तो, उभयगामी विसिट्ठनाणविरहिओ सामन्त्रजणवओ पिहुजणो, एते अधम्मादयो उद्धावियस्स पिहुजणेण दोसा | संभाविज्जति, किं पुण उत्तमजणे?, तस्स दोसदसियस्स धम्माओ परिभट्ठम्स सरीरहदारासएण मूढस्स विसेसेण पाणातिवाय
अधम्मसेविणो 'संभिन्नवित्तस्स' सरीरसील सामयभिण्णं, चसद्दो पुवानिदिद्वकारणसमुच्चये, तस्स धम्मपरिच्चत्तस्स, अहम्म॥३६४|| सेविणो, समवलंबितसंभिन्नचारित्तस्स य रयणापभिइसु कम्मसंभारगरुययाए अहो गमणमिति हिडओगती, अयं च समणधम्मो |
परिच्चागे अहम्माय, अजसाकित्तीदुनामगोयदुग्गइगमणेहिंतो पावयरो पच्चवाओचि, तब्भासणत्थमुन्नीयते 'अँजित्तुभोगाई०' | ॥४९५।। वृत्तं, अँजित्तु-अब्भवहरणादिणा उवर्जीविऊण, दाराभरणभायणाच्छादणादीणि मात्तच्चाणि भोगाणि, तो दाणदायादग्गिरायाइणं एकदन्याभिनिविट्ठाणं बलात्कारेण 'पसज्झचेअसा' णाम जाणतोऽवि विवागं छिन्नालमरालो इव घायसहणं कार्ड वेगेण गासभवणमिव चेअमा तस्स अणुरूवै तहाविहं करेऊण कडुअपुण्यामसंजमं तेसु च जाणिऊण बहुं, मरणसमए गई च गच्छेज्जा, अणभिाझियं गतिं च नरगादि एतेण सीलण गच्छेज्जा, अभिलासो-अभिज्झिसो जत्थ समुप्पण्णो त अभिज्झितं, अणभिलसितमणभिप्पेयं गई च गच्छे, तस्स माइणो 'बोधी य से नो सुलहा पुणो पुणों' अरहतस्स धम्मस्स उवलद्धी बोधी, सा से णो|
P३३४॥ | सुलमा, चसण अणभिजाअगतिगमणादि संसूयण, पुणो पूणो इति न केवलमणेतरभवे, किन्तु, भवसएसुवि, जाणि ओहाणुप्पेहिमतिथिरीकरणस्थमहारस एयाणि दुस्समाए दुप्पजीविमाइणि समासओऽभिहिताणि तेसि पित्थरणभया 'जया य चयह धम्म ए-1
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दीप अनुक्रम [५०६५२४]
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आगम (४२)
भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति : [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
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अवधा2वनफलं
[१] गाथा ||४८२४९९||
श्रीदश- वादी य सिलोगा मणिता, जे पुण इर्म न मे दुक्खं चिरकालोवद्यायी भविस्सहात आलंवर्ण, तदुपदेशार्थ इदमारभ्यते-'इमस्स ताला वैकालिकानेरइअस्स०॥४९६॥च, इमस्स'ति अप्पणो अप्पनिदेसो, तासद्दो अवधारणे, इमस्स ताव किमुत बहणं संसारीण?,'नेरइअस्स चूर्णी. जंतुणो' ति, जहा अहमेव नेरइएसूचवमो तस्स दुक्खाणि नरओवमाणि दुक्खेहि वा तप्पायोग्गेहि मरणमुवणीतस्स दुहोवणी२ चूला तस्स निमेसमेत्तमवि नस्थि मुहमतिकिलसवत्तिणो, तहचव तस्स पलिओवमद्वितीएसववनस्स तप्पभूओ कालो तहाचि सहिज्जा,
किंबहणा, तओवि पभूततरं सागरावम, किपुण-किंमगंतु, अहया असमन्तआमतणं, संजमे अरइसमावन अप्पाणमामन्त्रयति, द थिरीकरेह य, 'मज्झ' इति ममं 'इम' इति जं अरतीमयं अपणो पच्चक्खेण 'मणोदुह' मिति मणोमयमेव, न सारीरदुक्खाणु
गर्य, ओहाणुप्पेहिस्स चित्तथिरीकरणालंबणत्यमिदमुपदिसते–'न मे चिरं दुक्यमिणं भविस्सइ.' ॥ ४९७ ॥ धृतं, 'न' इति पडिसेधे, 'मे' इति अप्पणो निदेसे, न मर्म चिर-दहिकालं, दुक्खमिति संजमे अरइसमुप्पत्तिमयं, भविस्सतीति आगामिकालनिदसा, तं एवं मम संजमे अरइमयं दुक्खं न चिरकाली मिर्ण' ति जंनिमित्तं च अहं संजमाओऽवसप्पितुं वयसामि, 'असासया
भोगपिवास जंतुणो' इमस्स मम जीवस्स, 'ण चे (मे) सरीरेण इमेणऽविस्सइ' ति, एत्थ काकू गम्मो, जइसहस्स
मा अत्थो जइ दुक्खमिण इमेण उप्पाइयेण सरीरेण न अवगच्छिज्जइ, परगमनं पज्जाओ अन्तगमणं, ते पुण जीवस्स पज्जाओ मरण.., मेव, जइ इमेण सरीरेण तस्स अरइदुक्खस्स अन्तो न कन्जिहिति तहानि कित्तियमेव पुरिसाउमिति तदन्ते अरतीवुक्खस्स ॥३६५।।
| अन्त एवेति अरतिमाहियासेज्जा सरीरत्ति, एवमिदं सव्वं जाणिऊण रमेज्जा तम्हा परियाए पंडिते, संजमे रहनिमित्त आलंबणातरमुवाहियस्स सुद्धस्सालवणस्स फलोपदरिसणस्थमिदमुच्यते-'जस्लेवमप्पा उ हविज्ज निच्छिओ' ॥४९८॥ वृत्त, जस्सेति |
-29
10-11
दीप अनुक्रम [५०६५२४]
[378]
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आगम
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
श्रीदश
बकालिक
रतिवाक्ये
गाथा ||४८२४९९||
॥३६६॥
आणदिहस्स, एवमिति पगारोपदरिसणत्थं, भगवं अज्जो सज्जंभवो आह-एतण पगारेण अभिरएणवि संजमे अरइअहियासम् प्रति अबघा| अप्पा इति चित्तमेव, तुसहो संजमं विसेसयति, भवेज्ज, जति एवं होज्ज णिच्छयो-एकग्गकयो ववसायो, सो एवं कयनिग्छयो
ननफल 'चइज्ज़ देहं न हु धम्मसासणं' चएज्जत्ति वा जइज्जत्ति वा एगट्ठा, देहो-शरीरं,'ने ति प्रतिषेधः,चशब्दो अवधारणे, सासिज्जति | जीवादि पदत्था जेण ते सासणं, धम्मस्स वा सासणं धम्मसासणं, एवं कयववसाओ जो देहसंदहे धम्मसासणं न छडेज्ज। धम्मठियाणियनिच्छओ'तं तारिसं नो पइलेंति इंदिआ' तमिति निदेसवयणं विम्हए था, तारिसमिति देहविणासेऽबि धर्म अपरिच्चागिणं, इंदियत्था णो पयलेंति-णवि कंपयंति, धम्मचरणाओ न चलेंतीति, सोयाइया इंदिया, सद्दादया इदियस्था,
आह-कह किं चालयतीति', भण्णइ 'उचिंतवाया उ (ब) सुदंसणं गिरि०' उवागम्छता वाया प्राणादयो, वा इति उचमाअत्थे, 13 8 सुदंसणसेलराया मेरू, जड़ा बाया उता भेलं ण य चालयति वहात सुणिच्छितमाणसं इन्दियत्था ण पचालेति । इदाणि सुविदिPI यहारसट्ठागणं संजमे अर, उज्झिऊण घिसंपण जं करणीयं तदुपदेसत्थं भण्णइ-'इच्चब संपस्सिी बुद्धिम नरा० ॥४॥ अपन, इतिसद्दो उपदरिणत्थे, जं अज्झयणे आदावारब्भ उवदिदं तमवलोकयति, एवसदो पायपूरणे, पच्चवलोकणनियममाह*संपस्सिअ-एकीभावण अवलोगेऊण, पुद्धि जस्स अस्थि सो बुद्धिमान् नरो, मणुस्सोतरीया धम्मा इति तस्स. गहण, &|
एवमालोकेऊण 'आर्य उवार्य विविहं वियाणिया' आओ बिन्नाणादीण आगमो, उवायो तस्स साहणं अणुवात, आय| उवायं विविध-अणेगप्पगारं च जाणिऊण, एवं संपस्सिऊण आयोवायकुसलेन सबह करणीय 'कायेण वाया अदुमाण-I ॥३६६।। सेणं' कायो सरीरं, वाया अभिवायण, माणसं माणसमेब, एतेहिं कारणाहे जहावदसेण पयंत्रण सुनिमितेदि 'तिगुत्तिगुती |
-arr%AL RECESS
दीप अनुक्रम [५०६५२४]
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आगम
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) (४२) | चूलिका [१], उद्देशक , मूलं [१/५०६-५२४] / गाथा: [४८२-४९९/५०६-५२४], नियुक्ति: [३६१-३६९/३५९-३६७], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक [१]
हालिम
गाथा ||४८२४९९||
श्रीदश- जिणवणमाहिहिज्जासि' तिगुत्तिगुत्तो जिणस्स भगवतो तित्थकरस्स चयण-उवदेसणं जिणषयणमधिहए, अहिद्वयति उपक्रमः
तं तत्थ अवस्थाणं करेइ, अहिए इति सूत्रकारस्य उवएसवयण, तिबेमिसहो पुष्ववत्रियस्थो. नया तद्देष ।। संजमधितिपडिवाय
रणथं अट्ठारसरथ पडिलहे । जिणवयणोवत्थाणं च होइ रहयपिडत्था ॥१॥ रतिवकणी सम्मत्ता॥ २चूला
धम्म धितिमओर खुहियायारावस्थितस्स३ विदितडकायाच स्थियस्स४ एसपियपिंडधारियसरीरस्स५ समत्तायारवत्थियस्सा
वणविभागकुसलस्सपणिहितजोगजुत्तस्सदविणीयस्स९दसमझयणस्स समणसयलभिक्खुमावस्स१०विसेसथिरीकरणथं च उत्तरं 12 ॥३६७॥ संत व दि चूलितादुतं, रतियकचूलिया य तत्थ धम्मे थिरीकरणथं रतिवकणामायणे पढ़मचूलिया भणिया । चिवित्तचारया।
उपदेसस्था वितियला भण्णा, तीसे पढमपओ सीकण्णत्तणे चूला इति णाम, एएण अणुकमणागतं वितियपि चूलिपज्ज्ञयणं, तस्स इमा उँ उवधाननिज्जुत्ती, पढमगाथा, तं-'अहिगारो पुखुत्तो॥ ९३ ।। गाथा, जे तस्स वत्थुस्त अंगीकरण, सो पुण चउव्विदो नामादि, इहावि तहेव भाणियन्यो, तमि परुविय तओ'बितिए चलियज्झयणे' सेसाणं नामाईणं निदेसाईण च 'दाराण अहक्कम फासणा होति' अहकममिति जो जो अणुकमो तेण, फासणमिति जतसिंदाराणं अर्थन स्पशन, गता नाम 11 निष्फण्णो, दो सुत्तफासियगाहाओ मुत्ते चेव भणिहिति, एतेण पुण्णा ओघाइएण इममि चूलियज्झयणे पढमसुत्तमागते, तंजहा'चुलिशं तु पवक्खामि ।। ५००। सिलोगो, तस्थ अप्पचूला चलिया, सा पुण सिहा चउबिहा अनतरज्दापण पारा
त पणे चेव ॥३६७॥ वामपा, सदा भावचूलं बिसे सेह, तं पगरिसेण वक्खामि पवक्खाम्मि, 'श्रु श्रवणे' धातु, अस्य धातो नपुंसक भाव क्तप्रत्यय अनुबन्धलोपा, आदू गुणः (पा० ६-१-८७) प्रतिषेधः, श्रयते इकि श्रुतं, तं पुण सुतनाणं केवलिभासित, अतिविशिष्टतम ज्ञान |
दीप अनुक्रम [५०६५२४]
चूलिका -१- परिसमाप्ता
चूलिका -२- 'विविक्तचर्या' आरब्धा:
[380]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[3]
गाथा
||५००
५१५||
दीप
अनुक्रम
[५२५
५४०]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५०० ५१५/५२५-५४० ], निर्युक्ति: [ ३७० / ३६८-३६९ ], भाष्यं [ ६३ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण
२ चूला
॥ ३६८ ॥
टू
सकललोकालोकावभासक केवलशब्देनाभिधीयते, केवलं, नपुंसकविवक्षायां सु, अतोऽम् ( पा० ७-१-२४ ) इत्यम्भावः, केवलमस्यास्तीति 'अत इनिठना' विति ( पा० ५-२-११५ ) इनि प्रत्ययः सुपलुक 'यस्येति ( पा० ६-४-१४८ ) अकारलोपः, परगमनं, केवलिना 'कर्तृकरणयो' रिति ( पा० २-३-१८) तृतीया, तस्या एकवचनं टा, अनुबन्धलोपः, परगमनं केवलिना, अतस्तेन भगवता, शास्त्रगौरवसमुत्पादनार्थं, भाषितं अभिहितं व्याख्यातमिति, न केणइ तव्यत्र्त्तर्ण पुष्णसमुप्पायणत्थमिति, 'जं सुणिन्तु 'क', चूलियत्थबित्थरं सोऊण 'सपुण्णाणं' सह पुत्रेण सपुत्रो तं सपुन्नं, पुनाति सोधयतीति पुष्णं, सो सह तम्मि सम्मदंसणाइ 'धम्मे उपज्जए मई' तम्मि चरितघम्मे य उप्पज्जइ-संभवति मती-चित्तमेव तं सद्भाजणणं चूलियासुयनाणं ( सुणित ) सपुत्राणमेव विसेसेण चरितधम्मे मती भवति, परिष्णा पढमसिलोगेण भणिया, चूलियासुयं केवलिभासियं पवक्खामि, अहिणवधम्मस्स सद्धाजणणत्थं, तस्थ चरियागुणा य नियमा णेगे भाणियच्या, एवं तु सुहुमत्थपाडपायणमिति निदरिसणत्थं ताव इमं भण्णइ 'अणुसोअपट्टि ' ॥ ५०१ ॥ गाथा सूत्रं तत्थ अणुसहो पच्छाभावे, सोतमिति पाणियस्स निष्णपदेसामिसप्पर्ण, सोतो पाणियस्स निष्णपदे गमणपबत्ते जं तत्थ पडियं कट्ठाइ संनिसितं से सोयमणुगच्छतीति अणुसोतपट्टिए, एवं अणुसोयपट्टियति सव्वलोए एत्थ दट्ठब्बो अणुसोयपट्ठित इव जहा कट्ठादणं नदिपट्टिवाणं निन्नपएसपट्टिए तब्बेगाहयाणं, अणुस्सोए लोए अणुकूले पच्चणुसुहगमणं, एवं बहु सोऊण, सोचि बहुजणो, जेण संजएहिंतो असंजता अनंतगुणा, जहा तेसिं पाणियवेगादियाणं महावहणं तहा बहुजणस्सवि सफरिसरसरुवगंध अनुगयाणं अणादिविसयाणुकूलपवणणेणाणुसोतवेगेण संसारमहापायाल - पडणमेव अणुसोयपडिओ बहुजणो, तंमि अणुसोयपअिचजणंमि किं करणीयमिति ? 'पडिसोअलदलक्खेणं पडिसोये
[381]
अनुश्रोतः प्रतिश्रोवसी
॥३६८||
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[3]
गाथा
||५००
५१५||
दीप
अनुक्रम
[५२५
५४०]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५०० ५१५/५२५-५४० ], निर्युक्ति: [ ३७० / ३६८-३६९], भाष्यं [ ६३ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण
२ चूला
॥ ३६९ ॥
पराक्रमादि
मेव अप्पा दायवे' प्रतीपं श्रोतं प्रतिश्रोतं, जं पाणियस्स थलं प्रति गमनं तं पुण न साभावितं, देवतादिनियोगेण होज्जा, आचार| जहा तं असके एवं सद्दादीण विसयाण पडिलोमा प्रवृनिः दुक्करा, पडिसोये लद्धं लक्खो जहा ईसत्थं उसे सिक्षतो, सुशिक्षिता सुसण्डमवि बालादीयं लक्षं लभते, तहा कामसुहभावणाभाविए लोगे तप्पारच्चागेण संजमलक्ख लम्भइ, सो पडिस यलद्धलक्खेपण पुणो पुणो नियमिज्जा, पडिसोयमेव अप्पा दायव्वो, इद्द पढिसोतो रागविणयं, एवसद्दो अवधारण, तमवधारे, जहा ण अष्णहा, अप्पा इति सो एस अधिकयो, 'दायच्चो' इति पवसेतब्वो दायव्बो, णिव्वाणगमणारुहो 'भविउकामी' होउकामो तेण होडकामेण, पाडसोय अप्पा दायथ्वी, एतस्य उदाहरणस्स विसेसेण किंमत्थं मण्णइ - 'अणुसोअसुहो लोओ० ॥ ५०२॥ सिलोगो. अणुसोयं पुण्यवण्णियं तं जस्स सुभं जहा पाणियस्साभेणाभिपस्सवं सुहं एवं सद्दादीनि संगी सुहो लोगस्स, सोयसुहो लोगो, एताओवि वरो, तहा अणुसोतसुद्दमुच्छिओ लोगो पवत्तमाणो संसारे निवड, संसारकारणविवरीतो 'पडिसोओ आसवो सुविहियाणं' पडिसोयगमणमिव दुकरें, संसारे विसयभावियस विसयविनियचणं, आसयो नाम इंदियजओ, सोमणं विधाणं जेसि ते सुविहिया तेसिं, विसयविरत्ताणं सुविहियाणं आसवो पडिसोओति, उभयफऱ निदरिसणत्थं अणुसोभो संसारा तहा अणुसोत्तमुच्छिओ लोगो पवत्तमाणो संसारे निवडर, संसारकारणं सद्दादयो अणुसोता इति कारणे कारणोवयारो, तव्विवरीयकारणे य पुण पडिसोथो, | तस्स निग्वाडो, जहा पडिलोमं गच्छतो ण पाडिज्जड पायाले नदीसोएण तदेव सहा दिसु अमुच्छिओ संसारपायाले ण पडइ. संसार स्थितिमोक्खस्स य कारण मुद्देसेण भणियं । इदाणि विमुत्तिकारणोवदरिसणत्वमिदमुच्यते एवं (तम्हा) आधारपर - कमेणं० ॥ ५०३ | गाथा, एवसहो पकारोवदरिसणे, संसारपाडकूलायरणेण विमुत्तिभावं दरिसेइ, तं पुण आयारपरकमेणं,
[382]
॥३६९॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||५००५१५||
बादश- आयारो-मूलगुणो परकमो-वलं, आपारधारणे सेमत्थं, आयारे परकमो जस्स अस्थि सो आयारपरकमवान्, ननु लोए कर आयार
अनिकेतकालिका परिकमो साधुरेव, तेण आयारपरकमण संवरसमाधिबहुलेण, संवरो इंदियसंबरो णोईदियसंवरो य, 'संवरसमाहिबहुलेण'
Pावासादि चूर्णी.
| संवरे समाहाणं तओ अबकप्पणं बहु लाति-बहु गिण्डइ, संवरे समाहि बहुं पडिवज्जइ, संवरसमाधिबहुले, तेण संवरसमाधिबहु२ चूला
लेण किं करणीयमिति भण्णति-'चरिआ गुणा अ नियमा अ हुँति सारण दहव्वा' चरिया चरित्तमेव, मूलुत्तरगुणसमुदायो गुणा तेसि सारक्खणीनीमत्तं भावणाओ नियमा-पडिमादयो अभिग्गहविससा दहश्वा इति भणिहामि, उसद्दी चरियानियमागेगमेदविकप्पणथं होति ददृश्योत्ति, संभवतीति, साधुणा एस तृतीया, तेण आयारपरकमवया संवरसमाधिबहुलेण चरिया णियमा गुणा साहुणा अभिक्खणं आलोएऊण विनाणेण जाणियब्वा, जद्दोवएसं च कायब्वा, तेण आयारपरकमवया संवरसमाघिबहुलेण साहुणा चरिया गुणा णिययं दट्ठब्बा इति,रेसिं चरियानियमागुणाणं विसेसणोचदरिसणत्थमिदमुपदिसति'अनिएअनासो समुआण.॥ ५०४ ।। वृत्तं, 'अणिएयवासों नि: 'समुदाणचरित' तिपदं एवमादि, पदत्यो अयं
अणिएयवासाति निकेत-घरं तमिण बसिपञ्च, उज्माणाइवासिणा होय, अणियवासो वा अनिययवासो. निच्चं एर्गत न है बसियन्वं, समुदाणचरिया इति मज्जादाए उग्गमितं तमेगीभावेण वणीयामति समुदाणं, तस्स विसुद्धस्स चरणं समुदाणचरिया, उंछं दुविहं-दब्बओ भावओ य, दबओ तावसाईण जं तो, पुचपच्छासथवादीहिं ण उप्पाइयामिति भावओ, अन्नायं उछ पहरिकं |
३७०॥ विवि भण्णइ,दव्ये जे विजणं भावे रागाइ विरहितं, सपक्सपरपक्खे माणबज्जियं वा, तब्भावो पहरिकथाओ, पहाणमुक्ही जे एगवत्थपरिच्चाए एवमादि, भावजओ अप्पं कोहादिवारणं सपक्खपरपक्खे गतं, कोहाविद्धस्स भंडणं कलहो, तस्स विविधा वज्जणा कलह
PERSEASESASS
दीप अनुक्रम [५२५५४०]
[383]
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
अनिकेत
मावासादि
गाथा ||५००५१५||
श्रीदश-1 विवज्जणा, तुसहो अणिएपवासादि चरिया विसेसेइ, अणुकरिसणत्यो, सब्यावि एसा 'विहारचरियाईसिणं पसत्था' विहरणं कालिक विहारो, सो य मासकप्पाइ, तस्स विहारस्स चरणं विहारचरिया, 'इसिणं पसत्या' इति रिसिओ-गणहराइयो तेसि भगवंताणं चरिया
सत्था कहिया पसंसिया बा, एवमायरंतोऽवि सयं भवातत्ति, इसिणं पसस्थात्ति' विग्गहे समासए भवइ, तदिह नस्थि, विहारचरिया-1 २ चूला | बिसेसोपदरिसणमुवदिस्सते-'आइपणो (पणओ.) ॥ ५०५ ।। इन्द्रवज्जा, 'आइण्णा' मिति अश्वत्थं आइषं, तं पुण राय
| कुलसंखडिमाइ, तत्थ महाजणविमदो पविसमाणस्स हत्थपादादिलूसणभाणभदाई दोसा, उकडगमणा इंदिये दायगरस सोहे॥३७॥ ICइति, ओमाणविववज्जणं नाम अवर्म-ऊणं अवमाणं ओमो वा मोणा जत्थ संभवा तं ओमाण, एत्थ य पुण सपक्षण असजतादिणा
परपक्षेण वा चरगादीणं बहूणं पविसमाणाणं दायनमिति तमेव भिक्खादाणं ऊणीकोइ दायारो ओमाणं, कओ दाई, अने भणंति81 अहमाणं वा भवइ, अओ तस्स विवज्जणं, चसदेण विहारचरिया इति अणुकरिसिज्जइ, उस्सण्णसदो पायोवित्तीए बङ्कर, जहा-13 है 'देवा ओसण्णं सातं वेदणं वेति' दिवाइडं जं जत्थ उपयोगो कीरइ, तिआइपरंतराओ परतो, णाणिसि(दि)हामिहडकराल
एवं ओसणं दिवाइडभत्तपाणं गहिज्जति, 'संसहकप्पण चारज्ज भिक्खू संई संगुर्ल्ड इसिहत्थमत्तादि कप्पोऽपि संसविधी तेण संरुहकप्पेण संगढविधिणा चरज्ज, एस उवएसो, संसट्टामेन निसेसिज्जइ-'तज्जाप टु जई जएग्जा' 'राज्जाय। | मिति तस्स जायेति तज्जात .जातसदो सजानविभेदपकारवाचको, तज्जातं न न जहा आमगोरसस्स एव(कूरी तज्जाओ ऊसणस्स |
कुसणमेव, एवं सिणहगुलकट्टराइसुवि, तस्थ असंसट्टे पच्छाकम्मपुरेकम्माइ दाँता हवेज्जा, अथ संसट्टे संसज्जिमदोसा, असंसट्ठ। मवि तज्जातसंसहूं चरेज्जा, जतीति साधू, जएज्जति, एवं भंगा अणुकरिसिज्जति, तं०-संसट्टो हत्थो संसट्ठो मत्तो सेसं दवं,
दीप अनुक्रम [५२५५४०]
॥३७॥
ANA
[384]
Page #385
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
शृणों ।
[१] गाथा ||५००५१५||
4564%
श्रीदश-15 एवं अट्ठ भेगा, तत्थ पढमो भंगो पसस्था, सेसे निवारेऊण गहणं, गमणं वा, एवं जई जएज्जा, आइनोमाणविवज्जणा, वियडस्स अमद्यमांबैकालिका | संग पाङ्गणे य णियमेण कुच्छिया वमणे सदोसा इति तदुपदरिसणथमिदमुण्णीयते 'अमज्जमंसासि अमच्छरीआं० ॥५०६||1||
स्वादि सिलोगो, चंडवं जो जातिमयणीयं मयकारि वा मज्ज-महुसीधुपसण्णादो, प्राणिनां सरीरावयवो मांस, ते पुण जलथलखहचराणं २ चूला
सचाणं, तमुभयं जो अंजा सो मज्जमंसासि, अकारेण पडिसेहो कीरइ, अमज्जमंसासिणा भवितव्यं, मच्छरो-कोहो सोऽवि से म-131
ज्जपाणे संभवइ, विणावि महुमज्जेण अमच्छरी भवेज्जा चक्कसे से, विकृति विगति वाण विमति णिविगति, मज्जमंसा पुण| ॥३७२।। विगती, तदनुसारेण सेसविगइओ नियमिज्जंति, 'अभिक्रवणं निविगहंगया ये ति अप्पो कालविसेसो अभिक्खणमिति, आभि
क्खणं णिन्विययं करणीयं, जहा मज्जमसाणं अच्चंतपडिसेधो(न)तहा बीयाणं, केई पढति–'अभिक्खणं णिन्वितीया जोगो पडिव|ज्जियो' इति, अभिक्खणं काउस्सग्गकारी, काउसग्गे ठियस्स कम्मनिज्जरा भवइ, गमणागमणविहाराईसु अभिक्खणं काउ| सग्गे 'सऊसियं नीससिय' पढियध्वा वाया, तहा 'सज्झायजोगे पयतो भवेज्ज' वायणादि बझो सज्झाओ तस्स जै| | विहाणं आयंबिलाइजोगो तंमि वा जो उज्जमे एस जोगो, तत्थ पयत्तेण भविय, भवेज्जा इति अंतदीवर्ग सम्वेहिं अभिसंबर & झते, अमज्जमंसासी भवेज्जा एवमादि, आह-गणु पिंडेसणाए मणिय 'बहुअट्ठियं पांग्गल अणिमिसं वा बहुकंटकं ?', आयरिओ |
आह-तत्थ बहुआवयं णिसिद्धमितिऽथ सर्व णिसिद्ध, इमं उस्सर्ग सुत्र, तं तु कारणीय, जदा कारणे गहणं तदा पडिसाडिपरिहरणत्यं सुतं घेत्तव्य-न बहुपडि अद्वि)यामिति, मज्जं पातुकामस्स पीए य समायादि परिहाणिं, इमसिं च अकारणे सेवानिसहण
॥३७॥ णिमित्तं भण्णाइ-'ण पडिन बिज्जा सयणःसणाई.'। ५०७॥ सिलोगो, णकारो पडिसेधे वट्टइ, पडिबवणं पडिसेहणमिति,
दीप अनुक्रम [५२५५४०]
AA%AR
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति : [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
२चूला
गाथा ||५००५१५||
IA जो आगामीकालपाणं संपतिकालविसओ, आगामीकालियपडियरणपडिसेहने एक, न पडिष्णवेज्जा, जहा मम इह परुल गृहिवैयाकालिका परिसारचो भविस्सइ, ममेव दायवाणि, अण्णस्स(मा)देह, किं पुषण पडिबविज्जति, सयणासणाईसेज्जं निसेज्जतह भत्त-
1त्यनिषेधः चूर्णी. पाणं' सयणं संधारयादि, आसण पीढगादि, सेज्जा सज्झायादी भूमि, 'तहे' ति तेण पगारेण, न पडिबविज्जति जहा सुए परे |
IMमसं-ओदशादी पाणं-चउत्थरसियादी, तं एतियं कालं परिमाणं वएज्जा तहत्ति वदेज्जा, एवं पडिवनयं ममतेण, अतो सब्बहा । | 'गामे कुले वा नगरे च देसे ममत्तभावं न कहिंचि कुज्जा, तत्थ कुलसमुदायोगामो, कुलमेगं कुटुं, महामणुस्ससंपरिग्गहो । पंडियसमवाओ नगर, बिसयस्स किंचि मंडलं देसो, एतेसु जहुद्दिद्वेसु मम इति भावं न कुज्जा, 'कहिची ति विसयहरिसरागादिसु सव्वेसु, किंबहुणा, धम्मोवकरणेसुवि जा सा मुच्छा(सोपरिग्गहो वुत्तो महेसिणा, ममत्तनिवारणं अणतरसुत्ने भणिय,इमंपि ममत्त, निवारणत्थमेव भण्णइ-'गिहिणी वेआवडियं न कुज्जा०५०८॥ गिहे-पुत्तदारं तं जस्स अस्थि सो गिही, एगवयणं जाती| अत्थमवदिस्सति, तस्स गिहिणो 'बेयावडियं न कुज्जा' बेयावडियं नाम तथाऽऽदरकरणं, तेसिं वा पतिजणणं, उपकारक असंजमाणुमोदणं ण कुज्जा, 'अभिवायणा बंदण पूयणं चेव' वयणेण नमोकाराइकरणं अभिवायणं, सिरप्पणामादि बंदणं, | वत्थादिदाणं पूर्वणं, एताणि असंजमाणुमोदणाणि ण कुज्जा, जहा गिहीणं एताणि अकरणीयाणि, तहा सपक्खेऽपि 'असंकिलि-| IMITहिं समं वसेज्जा' गिहिवेयावडियादिरागदोसविवाहितपरिणामा संकिलिङ्का, तहा भते परिहरिऊण असंकिलेदेहिं वसेज्जा.-1॥३७३॥
संपरिहारी संघसेज्जा, तेहिं संचासो चरित्तागुपरोधकरेत्ति भण्णइ-'मुणी चरित्तस्स जओन हाणी' मुणी-साहू चरितमूलगुणा तस्म, जओ हेऊतो तं म उपहम्मइ तबिधेहिं असकिलिहिं सह वसियन्वं, अणागतकालीयमिदं सुचं, जो तित्थ
.
*
*
दीप अनुक्रम [५२५५४०]
[386]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[3]
गाथा
||५००
५१५||
दीप
अनुक्रम [५२५
५४०]
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः+ भाष्य |+चूर्णिः)
चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५०० ५१५/५२५-५४० ], निर्युक्ति: [ ३७० / ३६८-३६९ ], भाष्यं [ ६३ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिताः आगमसूत्र - [४२] मूलसूत्र- [०३] दशवैकालिक निर्युक्तिः एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
श्रीदशवैकालिक
चूण.
२ चूला
॥३७४॥
गरकाले पासत्यादयो संकिलिड्डा णासीति, अतो अणागतमिदं परामस्सह, संत्रासपराधीणं चरितधारणमिदं तमुद्दिई, अप्पणो मिच्छयवला हाणत्थमुण्णीयते- 'ण या लभेज्जा निउणं सहाय० ॥ २०९॥ सिलोगो, 'णे' ति पडिसेह वट्टह, णकाराणंतरो चकार इति जइसहस्स अत्थे, 'लाभिज्जत्ति' पावेज्ज, जइ न लभेज्जा, किं जइ न लभेज्जत्ति १, निउणं-सहाय, आह- केणाहिक, भण्णइ-संजमगुणाहिकं, संजमगुणसमं वा, जो अप्पाओ संजमगुणेहिं अधिको समो वा तन्विहगुणाहिकं जड़ ण लभेज्जा गुणाओ संजमओ चा जो य गुणेहिं हेऊभू एहिं समभावगतो तन्विहं वा जड़ (न) लभेज्जा गुणेहिं तं समं वा तओ 'एकोऽवि पावाई विवज्जयंतो' 'एम' इति असा, असंभावणे, अत्रि जोऽचालणीयसंभावियगुणो सो एक्कोऽवि, पातयतीति पावं, तं पुण अताणि, विवज्जयंतो-परिहरतोति 'पिहरेज्जत्ति' अप डबद्धो जहोबएस गामनगरादिगु किन्तु " 'कामेसु असज्जमाणा' कामा-नृत्थीविसया, तरगहणेण भोगात्रि फरिसरसरूवगंधावि सूइया, तेसु असज्जमाणो संग अगच्छमाणो, विहरेज्जत्तिउवएसवणं, कामेसु असज्जमाणोति विहरणमुवसानंतर कालनियमणत्थमिदमुच्यते 'संवछरं वाऽपि परं पमाण० ॥ ५१० ॥ सिलोगो, संचच्छर इति कालपरिमाणं भण्ण, स नेह संवदाह, किन्तु वरिसारतं चाउम्मासियं, स एव जग्गहो," संच्छरं, वासदो पृथ्वभणियविविचचरियसमुच्चये, अविसदो संभावणे, कारणे अच्छितव्वंति एवं संभावयति, परमिति परसदो उकरिसे बढ्छ, एतं भडिकं पमाणं, एत्तितं कालं पसिऊण वितियं च तओ अनंतरं चसद्देण वितियमिति, जओ भणियं "तं दुगुणं दुगुणे परिहरता बद्द" वितियं तइयं च परिहरिऊण चउत्थो होज्जा, एवं ज अभिक्खणदरिसण सिणेहादि दोसा ते परिहरिया भवति, अओ न वसेज्जति उवएसवयणं, एयस्स नियमणत्थं दसज्झयणभणितस्स सब्वस्त्र अकलुसत्थं भण्णइ - 'सुत्तस्स मग्गेण चरिज्ज
[387]
बिहारविधिः
॥ ३७४॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
रिका
गाथा ||५००५१५||
श्रीदश- भिक्खू तं पुण अस्थपणेण अत्यपबईतो वा सुन तस्स मग्गेणेति तस्स उचएसेण, जं तत्थ भणियं वहा चरेज्जा, एवं धर्मजागबैंकालिक
मिक्खू भवाहसुपनाममेतेण स न बुज्झवित्ति विससो कीरह, 'सुत्तस्स अत्यो जह आणवेति' तस्स मुत्तस्स मासकप्पादि| चूर्णी
सउस्सग्गापवादो गुरूहि, ण सुविचितिओ (पण्णविओ) अत्थी जह आणवेति जहा करणीयमग्गं निरूबेइ, जम्हा 'वक्खाणओ बिसेस हैपडिवज्जई' ति अस्थस्स मग्गणति सुयखाइएणेति, जओ सुत्तमम्गेणज्झइएण अत्यो पच्छा पवत्तइ तेण सुत्तविवित्तचरिया असी-ट
यणफलं चति वितियचूलियाहिगारो, तत्थ विवित्तरिया भणिया, असीयणं पुण जहा भणिय कालमणुवसमाणे नस्थि ॥३७५॥ मणुस्से इति । 'जो पुब्बरत्तावररत्तकाले०' ॥ ५११ ।। इन्द्रवज्रोपजातिः, 'जो' इति अणिहिदुस्स उद्देसो, रत्तीए पढमो जामो
पुन्वरत्तो तंमि जो अवररचो पच्छिमजामो तंमि अवरत्ते, एवं अवरत्तो एगस्स रगारस्स अलक्खणिगो लोबो, एत्थ कालिकपहोत्ति कालो इति वयणं, धम्मजागरियाकालो इति, एतेसु भण्णइ खणलवपडियोधं पहुच्च सम्बकालसु पुन्बरतावररत्तकाले कि करणीयमिति, 'सारक्खा अप्पगमप्पएणं पालयति, संसहस्स साभावो, अप्पगमेव कम्मभूमि] यं अप्पगिन्मेण कारगण, जहा अप्पाणं पातीकरोति, सारक्खणोचाओ पुण स इमो-जहुदिहकालपमाणं पडिसहतो एवं चिंतज्जा-'किं मे कर्ड' अवस्सकरणीयं || जोएम बारसविहस्स का तवस्स जं कर्य लट्ठमिति, किं मम कडी, किंसदो अन्तगते विचारणे, मे इति अपणो णिदेसे, कडमिति निव्वत्तियं, 'किं च मे किच्चसेस' किमिति वा सद्दहितं सविकप्पं करणीयं विचारयति, किं करणीय सेस जायंति उज्जमामि करणीय
* ॥३७५॥ मसेसे, एसा अत्याविचारणा, 'कि सकणिज्जं न समायरामि', बलाबलकालानुरूपं सकं वत्थु किमहं न समायरामि !, बलाबल
कालानुरूपं सकं वत्थु पमाददोसेण, जाव छड्डेऊण पमादं तमहं करोमि, पुष्वरचावररत्तकालेसु सारक्षणमप्पणो भणियं,
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आगम
(४२)
भाग-6 "दशवैकालिक- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+|भाष्य|+चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
गाथा ||५००५१५||
श्रीदश- | सीदंतस्सवसेसीमदमुण्णीयते-'कि मे परो पासह किंच अप्पा ॥११॥ इन्द्रवजा, कयकिञ्चसेसेसु कि मे परो पस्सतीति, स्खलितवैकालिका
अप्पगयमेव विचारणं, मे इति मम, पर इति अप्पगबहरिचो. सो परो किं मम पामह पमादजातं ! सपक्खो वा सिद्धतविरुद्ध परपक्खो वा लोगविरुद्धं, 'किं च अप्पा' इति पमादबहुलत्तणेण जीवस्स किं मए निद्दाइपमाए नालोइयं जं इदाणि कओवओगो
पस्सामि, एवं किं परो अप्पा वा मम पासइ, 'किं वाऽहं खालियं न विवज्जयामि' किंसदो तहेव, वासदो विकप्पे, धम्मा-18
ला वस्सए जोगविकप्पेण, अहमिति अप्पणो निसे, किंवा मम पमादगलितं बुद्धिखालतं, पुण विचालणं सम्भावत्थानाओ, सोऽहं कि ॥३७६/ अकरणीयं बुद्धिखलियं वियज्जयामि न समायरामि, केई पढ़ति-किं वाऽहं तं खलियं न विवज्जयामि, तं किमहं संजमखलियं न परि
| हरामि ?, 'इच्चव सम्म अणुपासमाणो' इतिसद्दो उवप्पदरिसणे, किं कडं किञ्चसेसं एवमादीणं अस्थाण उबप्पदरिसणे | एवसद्दो अप्पगतकिरियाउपपदरिसणे, अवहारणत्यो बा, किमवधारयति ?, एवमेवं, ण अण्णहा, सम्ममिति तत्थ अणुपस्समाणी नाम पढमं भगवया दिटुं च पच्छा चुद्धिपुवं पस्समाणो अणुपस्समाणो 'अणागतं णो पहिबंध कुज्जा' अणागतमिति आगामिए काले, 'णो' इति पाडसधे, सो इच्छियफललाभविग्यो तं असंजमपडिबंध णो कुज्जा, इदाणि च एवं पुन्यावररत्नाइसु | अप्पा परोबएसेण सम्म समभिलोअमाणो-जत्थेव पासे कह दुप्पउत्तं ॥५१३ ॥ इन्द्रचोपजातिः 'जत्थेव' जैमि संज-|| मखलणावगासे, एक्सहो तदवगासावधारणेण कालांतरेण संचरणं कहमिति पदेण अंतरिय, पासे इति जत्थ पेक्खेज्जा, 'कई' इति कमि संजमठाणे, कि मे परो पस्सह किं च अप्पा इति, सपरोभयदिढे दुपणीयसजमजोंगे विरोधेण पयत्तियं, आह-केण दुपीया, ॥२७॥ भण्णइ-कारण वाया अदु माणसणं" कारण इरियाऽसमितित्तणं. वायाए भासाए असमिति, मणसा अशुचिंतियाइ, अदु ।
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RAN 28%AE
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
संयम
२ चूला
गाथा ||५००५१५||
कार
श्रीदश-ला इति अहवसदस्य अत्थे, मण एव माणसो राएहि कायवायमाणसेहिं जत्थ टुप्पणीयं पामेज्जा बस्थेब धीरो पहिसाहरिज्जा'। कालिका 'तत्थे' ति तमि चव, कायवायमाणसावकासे, तमि वा काले, न कालंतरण, एवसदो उभयकारणे, धीरो पंडिओ. तवकरणचूणौँ
सरो वा, उज्झियपडिसंगहणं पडिसाहरणं, तं कायवायदुप्पणीयादि तमि चेव विराहितावकासे तमि च काले पडिसाहरेज्जा, | सनिदरिसणं सुहुमत्थो घेप्पहाच निदरिसणं भण्णइ-'आइनओ विप्प(त्त मिवक्खलीणं' गुणेहि जयविजयाईहिं आपूरिओ
आइण्णो, सो पुण अस्सो जातिरेव आइण्णो, जत्थ कोइ जहाऽस्सोपडिसाहरइ पडिवज्जियओखित्वं खलिणं, ओखित्तमिति उच्छुढे, ॥३७७मा खधदेसमागये नातिकमइ, अहवा खिप्पं जं सारहिणा आकढियं. साहिणा ईसदावि खितं णातिकमद, अहवा खिप्पमिव खलियं,
खिप्पीमति सिग्घति, वसहो उवम्मे, भलोहसंडसादयो हयवेगणिरंभगा खलिणं, जहा सो परमविणाओ आइण्णो सयमेव महेण खिप्पं पडिवज्जद्द, आसावरिछंदेण, न खलिणवसेण पबचइ, तदभिप्पाईयं पडिवज्जर, एवं तब्बसेण वेगपडिसाहरणादि खलिणमेव पडिसाहरियं भवइ, जहा आइण्णो खिप्पं खलिणं पडिसाइरह तहा काइयादि दुप्पणीयं कारण वाया अदु माणसेणंति। काइयवाइयमाणसाण जोगाणं णियमणउवएसणसमुकरिसतो भगवं अज्जसज्जभयो सिस्सा आमंतऊण आणवेइ-'जस्सेरिसा जोगजिइंदियस्स.' ।। ५१४ ॥ सिलोगो, सर्व वा धम्मो मंगलाइयं उबएसजाय पज्जवलोगा उवदरिसिचा भगवं सेज्जंभ- वसामी आणवइ, सकलदसवेयालियसत्थोवएसत्थनियमिया 'जस्सेरिसा जोगजिइंदियस्त', जस्सेति आणिदिवस निसेण जोगसंबंध दरिसयात, 'एरिसा' इति पकारोवदरिसणं, एवं नियामियजोगा इति काइयवाइयमाणसियवावारो सदाइविसपणियषि-1
CREASc*c
दीप अनुक्रम [५२५५४०]
॥३७७॥
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आगम
(४२)
भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
'बैंकालिक
चो . २ चूला
गाथा ||५००५१५||
श्रीदश- दिओ जिइंदिओ, घिई जस्स आत्थि सो घिइमंतो, सोभणो पूरिसो पडिबुद्धो, पडिबुद्धस्स जीवित-सी जस्स भवति स पडिबुद्धजीवी,
४. मोक्षपथः | सो एवंगुणो जीवइ संजमजीविएणं, तमेव जीवितमसारे माणुसत्तणे, धिहमंतो सप्पुरिसस्स जिईदियस्स संजम जस्सेरिसा जोगा| | स जीबई संजमजीविएणं भणियं च, अणं तरजीवियफलोपदरिसणत्वं भण्णइ 'अप्पा खलु' अथवा सम्बदसवेयालियसत्थस्स धम्मप| संसाइकस्स उवदेसस्स सव्वदुक्खावमोक्खणेण फलमिदमिति भण्णइ–'अप्पा खलु सययं रक्खियम्बो' ॥५१५।। इन्द्रवज्जो
पजातिः, जो धम्मपसंसा १ धितिगुण २ संजम ३ जीवाभिगम ४ भिक्ख विसोहणा ५ धम्मत्थकाम ६ वयणविहि . यार ॥३७८ पणिघाण ८ विणये ९ हवति य भिक्खुभावे १० चूलियअज्झयणविनिव्वत्तिभंगो उबएससंजमो, जो भणियं 'सो जीवई
संजमजीविएणं', एवंगुण' अप्पा, खलु बिसे सणे तित्थकरणियकज्जकरण बद्धा परमभणिया कज्जकप्पणे हितो अ संजमप्पाणं विसेसयति, सययमिति आमहब्बयारोवणा मरणपज्जतं सब्बकाल, रक्खियब्यमिति परिपालनीयो, तस्स रक्खणोवाओ भण्णइ'सब्बृदिएहिं सुसमाहिएहिं सोतचक्खुगंधफासरसाण सव्वाणि इंदियाणि सब्बे इंदिया, तेहिं सुटु समाहिएहिं विसयच
यणेणं आयभावमकमन्तेण आरोबियाणि समाहियाणि य, एवंविहेहिं अरक्खणे पच्चवायोपदरिसणत्थं भष्णइ- अरक्खिओ 151जाइपहं उबेई' ण रक्खिओ सो अरक्खिओ, 'जाइवह उवेई' जाती-जणणं उप्पत्ति बघो-मरणं जाइ य वधो य जाइवहो,
॥३७८॥ अक्खिओ जाइपई जमणमरणमुवेइ, पढ़ति-'जाइपह' तं पुण संसारमग्गं चउरासीतिजाणीलक्खं परमगंभीरभयाणगमुवेद, रक्खणगुणोववष्णणनिमिचं समस्यफलोपदरिसणत्थं भण्णइ-'सुरक्खिओ सम्पदुहाण मुघई' सुट्ठ सव्वपयचेण पापनियताए।
m
दीप अनुक्रम [५२५५४०]
RecRit
CARKAR
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आगम
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भाग-6 “दशवैकालिक'- मूलसूत्र-३ (नियुक्ति:+भाष्य +चूर्णि:) चूलिका [२], उद्देशक [-], मूलं [१...] / गाथा: [५००-५१५/५२५-५४०], नियुक्ति: [३७०/३६८-३६९], भाष्यं [६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधिता मुनि दीपरत्नसागरेण संकलिता: आगमसूत्र-[४२] मूलसूत्र-[०३] दशवैकालिक नियुक्ति: एवं जिनदासगणिरचिता चूर्णि
प्रत
सूत्रांक
9C
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गाथा ||५००५१५||
श्रीदश- जोइओ सुरास्खिओ, नहा नियमिओ सम्बदहाणं सारीरमाणसाणं मुच्चतीति, स सम्बदुक्खरहिओ णिवाणमणुत्तरे संतिमुवेति, उपसंहारः
इतिसदो अज्झयणपरिसमतीए, बेमि तित्थगरवयणाणुगरिसणे । वितियचूलियज्झयणमेवं सम्मत्तम् ॥२॥ चूर्णी २चुला
॥विवित्तचरिआ चुला समचा.॥ चरिया य परिषिवित्ता असीयणं जो य तस्स फललाभो । एते विसेसभणिया पिंडत्था चूलियज्यणे ॥१॥ ॥३७९॥
सयलदसवेयालियस्स अत्यावदरिसणथं तु । जं आदिओं उदि8 जेण व वा पहुचेइ' ।।२।।
सुत्तकारगस्स पडिणिरस्सणणिमित्तं इमा णिज्जुत्ती गाहा भणिया-हिं मासेहिं अघीतं' गाथा, 'उहि ति परिमा-1 Mणसदे 'मासहि' ति कालपरिसंखाणं, तेहिं छहि मासेहिं धीत-एत्तिएण कालेण पढियं, अज्झयणसदो सब्बंमि दस (पे) यालिए | वट्टर, अहवा अज्झयणमिदं तु ज इमं अपच्छिम चूलियज्झयणं, एयमि आणुपुब्बीए अधीते सकलं सत्थं अधीतं भवति,४ 'अज्जमणगेणं' अज्जसद्दो सामीपज्जायायणो, मणओ पुब्बभाणओ, तेण एचिउवेओ छम्मासपरियाओ अह कालगओ, अहसदो ॥३७९|| | अज्झयणाणतर, 'कालगओ समाधीए' जीवनकालो जस्स गतो समाहीएचि, जहा तेण एत्तिएण चेव आरादणा भण्णविति ॥l | ग्रन्थानं ७९७० (७५७६ )॥
दीप अनुक्रम [५२५५४०]
RAKASTEADY
Cle
चूलिका -२- परिसमाप्ता
अथ उपसंहार: क्रियते
[392]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्राक
[-]
गाथा
II-II
दीप
अनुक्रम
[-]
श्रीदशजैकालिक
चूण
२ चूला
॥३८० ॥
भाग-6 “दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ (निर्युक्तिः + | भाष्य |+चूर्णिः)
उपसंहारः
गाथा ||२||
ROSA
दसवेया लियचुण्णी संगचा 55555
मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादिता (आगमसूत्र ४२ ) "दशवैकालिक चूर्णिः” परिसमाप्ताः
[393]
॥३८०५
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य आनंद-क्षमा ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
भाग-6
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधिताः संपादिताश्च “दशवैकालिक सूत्र” [निर्युक्तिः एवं जिनदास गणि-रचिता चूर्णि: ]
(किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलिता “दशवैकालिक” निर्युक्तिः एवं चूर्णिः नामेण परिसमाप्ताः
सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि श्रेणि, भाग-६ [आगम-४२]
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sਹਾ ਹੈ ਜ ਸ ਮਾਸਕ ਨਗਰ ਲਗਦਾ
यामा आज वाम गामसम्मानमय
-
आगम
शाद.
ਸ
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ਸ ਸੰਤ
ਤੇ
[395]
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आजम आगम आजम आज आ
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स
सचूर्णिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
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300
STEP
आजम
आजम
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आजम
अभिनव संकलनकर्ता
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आगम
आगम
LICEN
आगम
आगम
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज 5.आजम(M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आज प्रत- प्राप्ति और पेज- सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275
आजम
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
सच्चारित्र चूडामणि स्वर्गस्थ पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागर
सूरीश्वरजी महाराज साहेब
श्री परम आनंद श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ वीतराग सोसायटी, प्रभूदास ठक्कर कोलेज रोड, पालडी, अमदावाद
करीब पचास साल पहेले परम पूज्य स्व र्गस्थ गच्छाधिपति आचार्य देव श्रीमद् देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब द्वारा संस्थापित इस संघमें श्री शीतलनाथ भगवंत का जिनालय भी है, जिन के प्रतिष्ठाचार्य भी पूज्य देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी म. ही है।
इस संघमें पूज्य साधू -भगवंत एवं साध्वी -महाराज के लिए उपाश्रय भी है, जहां हर-साल चातुर्मास करवा के श्रावक-श्राविकाओ को धर्म-आराधन से लाभान्वित करवाया जाता है | इस संघमें आयंबिलभवन, उबाला हुआ पानी, ज्ञान-भण्डार एवं पाठशाला की भी बहोत अच्छी सुविधा प्रदान हो रही है | ऐसे सम्यग्-मार्गी संघ की सद्भावना और प्रभावक आचार्य पूज्य श्री हर्षसागरसूरिजी म० की प्रेरणा से इस शास्त्र के लिए अनुदान प्राप्त हुआ है।
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________________ आणम् आगम आगम आ र मूल सशावकआजाआजम मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य आश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब एमआजमाआगम आगम् आगम आगम आगम आगम -42 “दशवैकालिक नियुक्ति एवं चूर्णि: आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आगमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम आगम आजम आजम आगम आगम आगम [398]