Book Title: Pushpamala Prakaranam
Author(s): Hemchandrasuri, Buddhisagar
Publisher: Jindattasuri Bhandagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्मोहनयशःस्मारक ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्क-२६ मलधारगच्छमण्डनआचार्यप्रवरश्रीमद्हेमचन्द्रसूरिवरगुम्फितं, श्रीखरतरगच्छविभूषणश्रीमत्साधुसोमगणिवर विहितया लघुवृत्त्या समलकृतं पुष्पमाला-प्रकरणम् । ASHASHISHASS-15 सम्पादकः संशोधकचश्रीखरतरगच्छमण्डनमहानशासनप्रभावकक्रियोद्धारकश्रीमन्मोहनलालजीमुनीश्वरप्रशिष्यरत्न स्व० अनुयोगाचार्य श्रीमत्केशरमुनिजीगणिवरविनेयो बुद्धिसागरो गणिः। प्रकाशक:सहायकसूचिनिर्दिष्टमहानुभाववितीर्णार्थिकसाहाय्येन मुंबई-पायधुनि महावीरजिनालयस्थजिनदत्तसूरि झानभाण्डागारप्रधानकार्यवाहको झवेरी केसरीचन्द्रात्मजो झवेरचन्द्रः। वीरसं० २४८७ निष्क्रयः सार्य रूप्यकद्वयम् रु० २॥)। विक्रमसं० २.१७ 4-NCRECICIALCHAKRA%ALA Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रक : मूळग्रन्थस्य शाः बालचन्द्र हीरालाल तथा शा: जेसंगलाल हीरालाल लालन जैन भास्करोदय प्रिं. प्रेस । जामनगर ( सौराष्ट्र) +44+4+4+42E4+4% AAAAAA मुखपृष्ठप्रस्तावनादेस्तु भावनगरस्थमहोदयमुद्रणालयाध्यक्षः पटेल हिम्मतलालः । Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ग्रन्थस्यास्य प्रकाशने द्रव्यसहायकानां शुभनामसूचिः धुमा ७००) मोटा वास श्रीसंघ. वरदरा (मारवाड़) १००) शा० पुखराजजी भूताजी, १००) शा० चेनाजी जेरूपजी, १००) शा० सांकलचंदजी खीमाजी, , २००) मूलचंदजी कनैयालालजी गोलेच्छा. फलोदी २००) मेघराजजी मूलचंदजी गोलेच्छा. , १०१) नथमलजी कोठारी १०१) माणकलालजी गुलाबचंदजी गोलेच्छा, , १००) मोतीलालजी खेतमलजी कवाड, , ५१) बालचंदजी निहालचंदजी बच्छावत, " " ५१) कंवरलालजी मदनचंदजी गोलेछा, फलोदी (मारवाड़) ५०) लालचंदजी वच्छावत, ४१) संपतलालजी गोलेला, २५) केवलचंदजी मिश्रीलालजी गोलेच्छा, , , २५) छगनलालजी लक्ष्मीचंदजी वडुवाला, १५) रतनलालजी कानुंगाकी धर्मपत्नी, , , ११) घेवरचंदजी गोलेला, GARIKAAVAGAR ३६५) खरतरगच्छ श्रीसंघ. हस्ते गुलाबचंदजी गोलेछा, फलोदी (मारवाड) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्यमाला प्रकरणम् । ॥१॥ प्रस्तावना । जैन धर्म वास्तव में लोकधर्म है। जैन तीर्थंकरोंके अनुयायी भ्रमणगणने अधिकाधिक जनताके नैतिक एवं आध्यात्मिक अभ्युत्थानके लिए लोक भाषामें बडी सरल रूपमें दृष्टान्त कथाओं द्वारा सदूधर्मका सन्देश प्रचारित किया। और उनके उपदेशोंने प्राणियोंकी कश्मलताको धो कर अध्यात्मका निर्मल स्रोत जन हृदयों में बहा दिया। उनका प्ररूपित धर्ममार्ग राजा और रंक, बालकसे वृद्ध और स्त्रियों यावत् मनुष्यही नहीं, पशु पक्षियों तकभी आहत हुआ। लाखों करोडों प्राणियों का उद्धार उनकी मंगलमय वाणी से सहजही हो गया। बड़े बड़े भोगी भ्रमरभी तप और कठिन साधना में अप्रसर हुए और राग, द्वेष, मोह, अज्ञान व अन्य कमोंको भस्मिभूत करके भवसिंधुसे पार हो गए । प्राणियों की योग्यता व अभिरुचि भिन्न २ होती है । उसीको लक्ष्यमें रखते हुए अनेक प्रकारके धर्म विधि-विधान प्ररूपित किए गए । सरलसे सरल धर्ममार्ग जैन धर्ममें मिलेगा एवं महादुर्द्धर्श-कठोर धर्ममार्ग भी जैन धर्म जैसा अन्यत्र नहीं मिलेगा। कर्मरूपी रोगके अद्वितीय चिकित्सक तीर्थंकरों एवं उनके अनुयायी आचार्यों, एवं मुनियोंका जीवनही बड़ा आदर्श, प्रेरणादायक, प्रभावोत्पादक और अनुकरणीय रहा है और उनके अनुभूति प्रधान, उपदेशने प्रत्येक कर्म रोगके निवारण के लिए अमोघ एवं राम बाण औषधिका स्थान लिया है । जैन मुनियों का औपदेशिक साहित्य बहूतही हृदयस्पर्शी भावोत्पादक और विपुल है। अपने धार्मिक संदेशको जन 81 प्रस्तावना । ॥ १ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECEBCAREERSECREECHEECHEENDE हय किस प्रकार सहज और अमिटरूपमें स्पर्श कर सकेगा, इसका उन्होंने बहुत ही ध्यान रखा है विधि-निवेधके वाक्य उतने सफल नहीं होते जितने कि उनके साथ विधेयक कार्योंके सुफल और निषेधात्मक कुकृत्योंके दुष्परिणामको बतानेवाले दृष्टान्त | कथाओंका प्रभाव बहुत शीघ्र व स्थायी पड़ता है अतः लोक मानसके पारखी जैन धर्म प्रचारकोंने विना किसी भेदभावके पौराणिक और लौकिक कथा दृष्टान्सोंको अपनाया, उन कथानकोंको किसी धर्मके माहात्म्यके उदाहरणमें गूंथकर अपने उपदेशोंको प्रभावशाली बनाया, इस विषयमें वे बहुत उदार रहे है। खरतर गच्छीव उपाध्याय सूरचन्दने तो कुरानकी कथाको भी अपने 'पदेकविंशति' ग्रन्थमें उद्धृत की हैं। लोककथाएं तो सैंकड़ों उन्होंने अपनें ढ़ांचेमें ढ़ाली है। इनमेंसे कई लोककथाएं तो बहुत ही लोकप्रिय हुई । उनके सम्बन्ध में सैंकड़ों स्वतंत्र रास चोपाई आदि रचे गए। जैन औपदेशिक साहित्यकी परम्परा बहुत पुरानी है। इसका स्वतंत्र सबसे प्राचीन ग्रंथ 'उपदेशमाला' एक विशेष शैलीमें प्राकृत पञ्चबद्ध रचा गया। इसके रचयिता धर्मदासगणि, श्रुति-परंपराके अनुसार तो भगवान महावीरके शिष्य माने जाते हैं पर ऐतिहासिक विचारणा द्वारा विद्वानोंने इनका समय ४-५ वीं शदी तक माना हैं। इस प्रन्य का श्वेताम्बर जैन समाजमें बहुत अधिक प्रचार हुमा । इसकी सैंकड़ों हस्तलिखित प्रतियां समय समय पर लिखी जाती रही और सिद्धर्षि जैसे प्रतिभाशाली अनेकों टीकाकारोंने संस्कृत एवं राजस्थानी भाषामें इस प्रन्धकी टीकाएं बनाइ। जिनमें कह टीकाएं तो १०-१२ हजार श्लोककी विशद है। उनमें अनेकों दृष्टान्त कथाएं गुम्फित्त की गइ । इस ग्रन्थके व्यापक प्रचार और लोकप्रियताका कारण शीलोपदेशमाला और पुष्पमाला आदि औपदेशिक प्रन्योकी रचना समय समय पर विभिल जैन विद्वानों द्वारा हुइ और उन प्रन्योंकाभी बहुत ЕСЕ КЕРЕК Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावका । पुषमालाप्रकरणम्। AAAAAAAAEMORE अच्छा प्रचार हुमा, उन पर अनेकों संस्कृत एवं लोक भाषाओंमें टीकाएं की गई। प्रस्तुत पुष्पमाला ग्रन्थ उन्हींमें से एक है। जिसकी रचना प्रश्नवाहन कुलके हर्षपुरीय गच्छके मधारीय हेमचन्द्रसूरिने प्राकृत ५०५ गाथाजोंमें की है। और सं० ११७५ में उन्होंने स्वयं इस प्रन्थ पर संस्कृतमें १३८६८ श्लोक परिमित विशद् टीका बनाई। वह अन्य मूल रूपमें जैन श्रेयस्कर मंडल, महेसाणासे सन १९११ में प्रकाशित हुआ था। इसके २५ वर्ष बाद उक्त अन्य स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति के साथ ऋषभदेव केशरीमल संस्था, रतलामसे प्रकाशित हुआ था। उसके सम्पादक सुप्रसिद्ध जैनागमोंके सम्पादक सागरानन्दसूरि थे। उन्होंने इसके उपोद्घातमें प्रन्यके महत्व और विषयोंका सुन्दर परिचय दिया ही है अतः उसके सम्बन्धमें यहां नहीं लिखा जा रहा है। | पुष्पमालाके रचयिता हेमचन्द्रसूरिने इस प्रन्थका नाम उपदेशमाला व पुष्पमाला दोनों दिये हैं, यद्यपि प्रधानरूपसे उपदेशमाला नामही उनको अभीष्ट रहा है पर इसी नामका अन्य प्राचीन ग्रन्थ प्रसिद्ध होनेसे उससे भिन्नता सूचक पुष्पमाला नामही अधिक प्रसिद्ध हुआ । ग्रन्थ कर्ता आचार्य अपने समयके बहुत बड़े विद्वान थे। उनके रचित अन्य अनेक मौलिक व टीकाग्रन्थ प्राप्त हैं। उनका विशेष परिचय पं. दलसुख मालवणीयाने 'गणधरवाद' नामक ग्रन्थमें दिया है अतः यहां दोहराना आवश्यक नहीं समझा । केवल प्रस्तुत लघु टीकाके कर्ताका परिचयही आगे दिया जा रहा है। प्रस्तुत पुष्पमाला लघुवृत्ति, मूल ग्रन्थकारको स्वोपज्ञ बृहत् टीका परही आधारित है। वह टीका बहुत विस्तृत होनेसे पढ़ने में बहुत समय लगता, इससे प्रन्यके प्रचार व पठन पाठनमें असुविधाका अनुभव करके यह लघुवृति खरतर गच्छके | साधुसोमगणिने ५३०० श्लोक परिमित बनाई। इसकी रचना सं. १५१२ में अहमदावादके खीमराजकी शालामें हुई। इस | VACANCE Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A COCREACPECIES टीकाम प्रासंगिक कथाएंभी दी गई है इससे संक्षेप होने परभी ग्रन्थकी उपयोगिता एवं प्रचारमें वृद्धि ही हुई है। इस लघुवृत्तिके कर्ता खरतर गच्छीय साधु समाजमें सुप्रसिद्ध जैसलमेर आदि भण्डारों के संस्थापक, सैंकडों प्रतिमाओंके प्रतिष्ठापक, युगप्रवर जिनभद्रसूरिजीके प्रशिष्य और महोपाध्याय सिद्धान्त रुचिजीके शिष्य थे। सं. १४८४ में उपाध्याय नया सागरके जिन भद्रजीको प्रेषित · विज्ञप्ति त्रिवेणी' नामक ( महत्त्वपूर्ण 'नगरकोट्ट' तीर्थयात्राके वर्णन वाले ) प्रन्थ में जिनभद्र सूरिजीके साथ पं. सिद्धान्तरुचि गणिका नामभी उल्लिखित है। अतः उस समय उनकी उम्र २४ वर्षके लगभग मानें तो सिद्धान्तकचिजीका जन्म सं. १४६० के आसपास सम्भवित है। ये बहुत उच्च कोटिके विद्वान और प्रतिष्ठावान थे, मांडवगढ़के ग्यासदीन बादशाहकी सभामें इन्होंने किसी बादीको परास्त कर विजयपद प्राप्त किया था और इसका उल्लेख साधुसोम और मुनिसोमने इस प्रकार किया है: श्रीखरतरगच्छेश-श्रीमजिनमद्रसुरिशिष्याणाम् । श्रीजीरापल्लीपार्श्वप्रभु-लब्धवरप्रसादानाम् ॥१॥ श्रीग्यासदीनसाहे-महासभालब्धवादिविजयानाम् । श्रीसिद्धान्तरुचिमहोपा-ध्यायानां विनेयेन ॥२॥ (साधु सोम ) AAAAACANCIES ग्यासदीनसुरत्राण-गोष्ठाप्तजैनपत्रकाः। शिष्याः श्रीजिनमद्राणां, सिद्धान्तरुचिवाचकाः ॥ ६७६॥ (मुनिसोम) प्रस्तुत टीकामें भी राजसमा वादी वृन्दो पर विजय प्राप्त करनेका उल्लेख है पर उसमें किसकी राजसभामें राजाका नाम नहीं दिया है। जैसलमेर भंडारमें संग्रहणी सावरिकी प्रति मांडवगढ़में प्रस्तुत लघुवृत्तिके रचयिता माधुसोम लिखित Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। पुष्पमालाप्रकरणम्।। MURARAMECEMGIRL १० पत्रोंकी है। पुण्यविजयजीकी जे. भ. की नई सूचि अनुसार इसका लेखन समय १५.१ ठीक हो तो सिद्धान्तमपिजीको | महोपाध्याय पद इससेभी पूर्व मिल चुका था। बरतर गच्छमें यह पद उन उपाध्यायको मिलता है जो अपने समयके उपाध्यायोंमें सबसे बड़ा हो। अत: सिद्धान्तकचिजीकी आयु उस समयभी काफी बढ़ी होनी चाहिए और इसके बादभी सं० १५३२ से ४० तक वे शायद जीवित रहे हों तो वे काफी दीर्घायु होंगे । खरतर गच्छ पट्टावलीमें जिनभद्रसूरिजीके १८ शिष्यों में इनका नाम सबसे पहेले व प्रधान रूपमें दिया है। साधुसोम गणि उन्हीं महोपाध्यायजीके शिष्य थे। इनके अतिरिक्त अभयसोम, विजयसोम, मुनिसोम नामक आपके अन्य शिष्योंकाभी उल्लेख मिलता है। इनमेंसे अभयसोमके शिष्य हर्षराज उपाध्यायने संघपट्टककी लघुवृत्ति बनाई, जो जिनदत्तरि ज्ञानभण्डार सूरतके प्रन्यांक ६१ के रूपमें प्रकाशित हो चुकी है। विजयसोमकी सहायतासे महो. सिद्धान्तरुचिजीने मांडवगढ़के श्रीमाल ठक्कुर गोत्रीय संघपति मंडन द्वारा भगवतीसूत्र आदि लिखवाये थे। उसका उल्लेख विज्ञप्ति त्रिवेणीके पृष्ठ ७१ में मांडवगढ़के शाम भण्डारके लिए सं १५३२ के आश्विनमें लिनिस भगवतीसूत्रकी पुष्पिका प्रकाशित है। अन्य शिष्य मुनिसोम रचित रणसिंह चरित्रकी एक मात्र प्रति उनके स्वयं के सं. १५४० के अक्षय तृतीयाको लिखित हमारे संग्रहमें है। यह चरित्र ६८० श्लोकों में सित्तपत्रस्थल दुर्गके तोला कारित शालामें रह कर वाचनाचार्य हेमध्वजकी अभ्यर्थनासे रचा गया है। मैंने अपनी प्रति भेजकर उपा. सुखसागरजी द्वारा जिनदत्तरि खान भण्डार सूरत से सं० २००१ में प्रकाशित करवा दिया । इनके रचित संसारदावा पादमूर्ति रूप पार्श्व स्तोत्र १७ श्लोकोंका प्राप्त है। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - OCOCCAMOLECIACOMCHUADA महो० सिद्धान्तरुचिके शिष्यों में प्रस्तुत लघुवृत्तिके रचयिता वाचक साधुसोमकी ही रचनाएं सबसे अधिक मिलती है। संग्रहणी । अवचूरी इनकी सबसे पहली रचना है, इसकी प्रशस्ति जैसलमेर भण्डारकी नवीन सूचिके पृष्ठ २६९ में इस प्रकार छपी है_अन्त-श्रीखर(तर)गच्छे श्रीजिनभद्रसूरि शिष्य श्रीसिद्धान्तरुचि महोपाध्याय शिष्येण साधुसोमगणिना परोपकृतये अव. चूरिरियं लिखिता चिरं नन्द्यात् संवत् १५०१ वर्षे श्रीमालवदेशे श्रीमंडवदुर्गे श्रीसिद्धान्तरुचि महोपाध्यायपादाम्बुजचंचरीकेण साधुना यथावबोधं लिखितेयं सतां हर्षाय भूयात् ॥ श्रीगुरुभ्यो नमः ॥ श्री ॥ इनकी अन्य रचनाओं में जिनवल्लभसूरि कृत चरित्रपंचक वृत्ति सं० १५१९, नन्दीश्वरस्तव वृत्ति तथा जिनेश्वरसूरिकृत चंद्रप्रभ स्तव वृत्तिकी अपूर्ण प्रति बीकानेरके खरतर आचार्य शाखा भण्डार में प्राप्त हैं, वे भी आपकी ही रचनाएं लगती हैं। पंचायती भंडार, बड़ा उपासरा जैसलमेरमें आपके रचित स्तोत्रों के संग्रहकी ६ पत्रों की प्रति देखी थी। नागद्रह पार्श्वस्तोत्र, संसारदावास्तुति अर्थ ( केशरियानाथ भण्डार जोधपुर ) का उल्लेख भी हमारे खरतर गच्छ साहित्य सूचि में है। __स्वर्णाक्षरी कल्प सूत्रकी दो प्रतियां भावनगर और जैसलमेरके तपागच्छीय भण्डारमें सं० १५१७ और १५२४ की पाटण में लिखित प्राप्त हैं। उनकी २८ और २(३)६ श्लोकों की प्रशस्तियां वा० साधुसोमगणिनेही रची थीं। जिनमेंसे प्रथम प्रशस्ति जैन सत्य प्रकाश वर्ष ८ अंक १० पृष्ठ २९२ में प्रकाशित है और दूसरी ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण प्रशस्ति ३(२)६ श्लोकोंकी हमने जैन सत्य प्रकाश वर्ष २० अंक ७ पृष्ठ १४६ में प्रकाशित कर दी हैं। इनमेंसे भावनगर संघ भण्डारकी स्वर्णाक्षरी प्रति महो। सिद्धान्तरुचिजीके उद्यमसेही वाछा सेर शाह मलूकी भार्या माणकदेने लिखाई थी। उससे पूर्वभी मलूने एक लाख श्लोक HOCIECCIEOCEROCALCIDCATE Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमालाप्रकरणम्। प्रस्तावना। AAAAAACHAR परिमाण ग्रन्थ औरभी लिखाए थे। दूसरी प्रतिभी मंत्री वाछाकीही लिखी हुई है। उसके लिखाने वाले भंडसाली श्रीधरनेभी | इससे पूर्व लाख श्लोक परिमित प्रतियां लिखवाई थी। ___साधुसोमजीकी विद्वत् परम्परा आगेभी चलती रही। उनके शिष्य वा० कमललाभके शिष्य चरणधर्मके शिष्य मुनिप्रभके धर्ममेरुने सं. १६०४ ? बीकानेर में 'सुखदुख विपाक सन्धि 'की रचना की, जिसकी प्रशस्ति इस प्रकार है : "हिव खरतर गच्छपति, श्रीजिनभद्रसूरीन्द्र । जेहना पय सेवइ, भगतइ सुरनर वृन्द ॥ २१ ॥ पाठक वर श्रीसिद्धान्त-रुचिहि तमु सीस । चउदह विद्यानऊ, जगमांहि तेह अधीस ॥ तसु सीस थयउ वाचक, साधुसोम उदार | श्रुतसागरनउ हेलई, लियउ तिणि पार ॥ तसु सीस कमललाभ, वाचक मुनि आ(जा)णउ । तसु सीस चरणधर्म, महीयल महिइ वखाणउ ॥ २२ ॥ जिहिं तणइ प्रसादई, पाम्यउ मई श्रुतसार । तेहना पय भवि भवि, होज्यो मुझ सुखकार ॥ २३ ॥ हिव संप्रति श्रीजिन-माणिक्य सूरि सुजाण | जिणि राजइ करतइ, दीप्यउ संघ जिम भाण ॥ २४ ॥ दाल-चरणधर्म तणउ मुनिप्रभ, सीस अभिनव सुरतरो चिर जयउ महीयलि ध्रुवनी परि, य दिन ए मुनिवरो॥ मुनि धर्ममेरु भणंति जे नर, संघि हियइ धरइ । ते लहई समकित सुणउ भवियण, भवसमुद्र सुखइ तरइ ॥ २५॥" . यह धर्ममेरु बहुत अच्छे विद्वान थे। जिनकी रचित रघुवंश वृत्तिकी एक प्रति जैसलमेर भण्डारमें है। टीकाका परिमाण ८ हजार श्लोकों (मूल सहित १० हजार ) का है। प्रशस्ति इस प्रकार है CONCATECONOCEROSAROKAR Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECHARACCIAAAAAAER इति श्रीवाचनाचार्य मुनिप्रभ गणि शिष्य धर्ममेरु विरचितायां रघुकाव्य टीकायां वंशप्रतिषेध राज्ञी राज्यनिवेशो नामैकोनविंशतितमस्सर्गः ॥ १९ ॥ इति श्रीरघुवंशटीकासमाप्तेति ॥ श्रेयो भूयात् । भन्डारकर ओरियन्टल इन्स्टीट्यूट पूना, आमेर दिगम्बर भण्डार+, ओरियन्टल कालेज लाहोर, और हमारे संग्रहमेंभी इसकी प्रतियां हैं। धर्ममेरुने शिशुपालवधकी टीकाभी बनाई है। जिसकी एक मात्र प्रति श्रीविनयसागरजीके संग्रहमें (पत्र १४ से १९५) देखनेको मिली थी, इनकी रचित 'एकविंशतिस्थानप्रकरणावचूरि' जैनरत्न पुस्तकालय, जोधपुरमें देखने को मिली थी। इसके आगे इनकी परम्परा और कवतक चली ? प्रमाणाभावसे नहीं कहा जा सकता। पुष्पमाला ग्रन्थ पर स्वोपज्ञ बृहृवृत्ति और साधुसोमकी इस लघुवृत्तिके अतिरिक्त सं. १४६२ में अंचलगच्छीय जयशेखर रचित अवचूरि (ग्रन्थापन्थ १९००) का उल्लेख जैन.प्रन्थावली और उसीके आधारसे जैनरत्न कोशमेंभी हुआ है। अन्य एक अज्ञात टीकाकी कई प्रतियोंका उल्लेखभी जैनरत्न कोशमें है । उनमें क्या भिन्नता है ? यह प्रतियों को देखने परही कहा जा सकता है। पुष्पमालाकी राजस्थानी भाषा टीका, जो बालावबोधके नामसे प्रसिद्ध है। खरतर गच्छ के वाचनाचार्य रत्नमूर्तिके शिष्य मेरुसुन्दर रचित मिलती है, जो ६००० श्लोक परिमित है, इसकी सं. १५२३ में लिखित प्रति प्राप्त होनेका उल्लेख जैनरत्नकोशमें किया गया है। अतः उसकी रचनाभी इसी समयके आसपास हुई है। हमारे संग्रहमें इस बालावबोधकी पांच + सूचिमें चरणधर्मको कर्ता लिखा है, पर उनके प्रशिष्य धर्ममेरु रचित होनाही संभव है। . AGARICTARA Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना। पुष्पमालाप्रकरणम्। ॥ ५ ॥ CHECORMALAUNCCUSA अपूर्ण प्रतियां है, इससे इसके प्रचारका अनुमान लगाया जा सकता है। इस बालावबोधके रचयिता मेरुसुन्दर बहुत बडे भाषा टीकाकार थे। इनके अनेक जैन जैनेतर छन्द, अलंकार, काव्य, सिद्धान्त व धर्मग्रन्थोंके बालावबोध मिले हैं जिनमें कथाएंभी प्रचुर परिमाणमें दी गई है। उनमेंसे षष्टिशतक बालावबोध छपभी चुका है। पुष्पमाला प्रकरणमें हिंसा, अहिंसा, विविध प्रकारके दान, शील, तप, भाव, सम्यक्त्व, व्रत, समिति, गुप्ति, स्वाध्याय, विहार, कृत्य, अकृत्य, मोक्ष हेतु, उत्सर्ग-अपवाद, इन्द्रियजय, कषाय निग्रह, गुरु शिष्य स्वरूप, आलोचना या दोष निवारण वैराग्य, विनय, वैयावृत्य, आराधना, विराधना आदि विषयोंका दृष्टान्न कथाओं के साथ बड़ाही सुन्दर विवेचन मिलता है। अतः यह प्रन्थ हर व्यक्तिके लिए पठनीय और लाभप्रद है पर खेद है अभीतक ऐसे उपयोगी व महत्वपूर्ण प्रन्थका राष्ट्रभाषा-हिन्दी आदि में अनुवाद प्रकाशित नहीं हुआ। इससे जन साधारण इसके महत्वसे अपरिचित रहा और जो लाभ उसे मिलना चाहिए था, नहीं मिल सका। इसी प्रकारके अन्य ग्रन्थरत्नोंसे जैन साहित्य भण्डार भरा पड़ा है। पर वे अधिकांश प्रन्य अप्रकाशित हैं और जो थोडेसे प्रकाशित हुए हैं वे भी प्राकृत संस्कृत या पुरानी लोक भाषाओं में हुए हैं जिससे विद्वानों तकही उनकी जानकारी सीमित हैं। केवल साधु-साध्विके व्याख्यानमेंही कुछ ग्रन्थों का उपयोग यदा कदा होता है। वर्तमान युगमें नैतिक और धार्मिक प्रन्थों के स्वाध्यायकी रुचि निरन्तर घटती जा रही है। वर्तमान शिक्षामें तो उनका स्थान रहा ही नहीं और मुनि यति गणभी आगे जैसे स्वाध्यायशील नहीं रहे । यद्यपि पहले की अपेक्षा अब प्रन्थ बहुत सुलभ IASCISCESARICICIREC ३ ॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | हो गए हैं अतः उनका स्वाध्याय बढ़ना चाहिए था। ऐसे प्रेरणा दायक ग्रन्थोंके प्रचाराभावसेही आज भारतमें अनैतिकताका बोलबाला है, जो हमारे उज्वल भविष्यके लिए बहुतही चिन्तनीय विषय है। अध्यात्मप्रधान भारतका इस प्रकार नैतिक पतन सर्वथा अशोभनीय और बहुतही अखरने वाला है। यदि हमें विश्व में अपनी पूर्व प्रतिष्ठा बनाये रखनी है बढानी है तो हमारे जीवनमें घुसे हुए व बढते हुए दोषोंको दूर करना होगा और वह मानवीय सद्गुणों के विकास द्वाराही होना सम्भव है। आशा है राष्ट्रके कर्णधार, विचारक एवं-हितेषी व्यक्ति इस गम्भीर समस्याकी ओर शीघ्रही ध्यान दे कर और हमारे मुनि गण ऐसे सद्गुण प्रस्थापक मन्थरत्नोंके स्वाध्याय और प्रचारमें अधिकाधिक मनोयोग दे कर राष्ट्रके गौरवको समुज्वल करेंगे। SECREKAARAKASIC EGUSAROICCCC-CGECEREAAG ले० अगरचंद नाहटा। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमालाप्रकरणम् । सम्पादकीयनिवेदनम् । सम्पादकीय निवेदनम्। भो भो विचारचतुरा विचक्षणचणाः पाठकप्रवराः ! समादीयतां भावत्के करपङ्केहे समय॑माणमेतदन्वर्थनामकमुपदेशमाले-18 | त्यपराभिधानं पुष्पमालाप्रकरणरत्नं । प्रणेतारश्चास्य मूलप्रन्थस्य स्वोपज्ञभवभावनाद्यनेकप्रन्थरत्ननिर्मापकाः श्रीमलधारगच्छनभोऽ. अणनभोमणयः श्रीमद्धेमचन्द्रसूरिपादाः । विवृतमप्येतत्स्वयमेव सूरिवरैः। तच्च सवृत्तिकं संशोध्य प्रकाशितं सततमागमादिसाहित्यप्रकाशनबद्धकक्षैः श्रीसागरानन्दसूरिभिः । सा च वृत्तिरतीव विस्तृता गहना चापि, अतो मन्दमेधसां नात्युपकारिणीति विभाव्येयं लघुवृत्तिस्तामेव वृहद्वृत्तिमुपजीव्य संक्षिप्ता सरला संक्षिप्ततरसंस्कृतकथानकान्विता च सन्दब्धा श्रीमत्साधुसोमगणिभिः । अस्यैका प्रति - तिप्राचीना शुद्धप्राया च एक्पथेऽवतीर्णा आचार्यप्रवरश्रीमजिनरत्नसूरिवराणामन्तिके शरनवाकेन्दु(१९९५)मिते वैक्रमे तीर्थाधिराजश्रीशत्रुजयस्य पवित्रछायावतिपादलिप्तपुरीयचातुर्मास्यां । तामवलोक्य स्वल्पमेधाविनामपि सहजबोधोत्पादिकेयमिति मत्वाऽस्या मुद्रणाभिलाषः समजनि मम हृदये। अतस्तदेव कर्तुमारब्धा मुद्रणाऱ्या प्रतिः, समापिता च कतिचिन्मासाभ्यन्तरे । ततः सुरेन्द्रनगरस्थ श्रीसक्सत्कचित्कोषीया प्रतिः प्राचीना शुद्धप्रायापि च सम्प्राप्ता श्लोकबद्धशत्रुजयमाहात्म्याद्यनेकपन्थप्रकाशने सततोद्यमिनां श्रीमतां मुनिप्रवरश्रीमन्मङ्गलविजयानां सान्निध्यतः । तस्याः प्रान्ते निम्नलिखिता पुष्पिकाऽस्ति संवत् १६३८ वर्षे जेष्ठवदिसप्तमीतिथौ रविवारे श्रीखरतरगच्छे श्रीजिनचन्द्रसूरिविजयराज्ये श्रीविक्रमनगरे साध्वी प्रवर्तिनी सुवर्णलक्ष्मीशिष्यणी प्रवर्तिनी रत्नसिद्धि, तत्सिष्यणी प्रवर्तिनी लावण्यसिद्धिगणिनीप्रतिरियं मुंहती भगतादे विहरायितं स्वपुण्याय CिIEOCOCCASIOCALCCACC Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H RABARIAAAAHUGEROUS न्याज्ञाननिमित्तं । चिरं नन्दतु ॥ पत्र १११ ।' एवं प्रतिद्वयाधारेण संशोधितेयं मुद्रणाहीं प्रतिः। ततो मुनिनवाकेन्दु(१९९७)मिते वैक्रमे प्रारब्धं मुदणकार्यमस्याः, परं भवितव्यतानियोगेन मुद्रणाधिपतेरव्यवस्थावशादियद्विलम्बोऽजनि प्रकाशनेऽस्याः।। प्रस्तुतलघुवृत्तिनिर्मापकाः श्रीमस्साधुसोमगणयः कदेमं भूमण्डलं मण्डयामासुः स्वपादविन्यासेन ? कस्मिन् गच्छे कस्य च विनेयवरा अभूवन् ? के के चान्ये अन्याः सन्दब्धाः ? इत्यादिवृत्तस्त्वस्या एवं बीकानेरवास्तव्य साहित्यरत्न श्रीमान् अगरचन्द्रनी नाहटा लिखितप्रस्तावनातोऽवसेयः। ___ अस्याः प्रकाशने द्रव्यसहायकानां नामसूचिः पृथग्निर्दिष्टाऽस्ति, ये ये महानुभावा अस्मिन् शुभकार्ये उदारवृत्त्या स्वद्रव्यप्रदानेन सहायकाः सञ्जातास्ते सर्वेऽपि शतशो धन्यवादाही अनुकरणाश्चिान्येषामपि धनिकानां । विहितेऽप्यायासता प्रसंशोधने छद्मस्थस्वभावसुलभत्वान्मतिमान्यास्प्रिटींगदोषाद्वा सजातास्त्रुटयो या दृक्पथमायाता मे, तासां शुद्धिपत्रकमुपन्यस्तं, तदतिरिक्ता अपि याः काश्चनस्खलना दृक्पथमवतरेयुस्ताः सम्मार्जनीयाः प्रकृतिकृपालुभिः सज्जनैरित्यभ्यर्थयते । सं. २०१७ भा. कृ. पञ्चम्यां स्वर्गीयानुयोगाचार्य श्रीमत्केशरमुनिजी कल्याणभुवन-धर्मशाला गणिवरचरणेन्दीवरद्विरेफो पादलिप्तपुरे बुद्धिसागरो गणिः। ASIA-AGALASALA Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्वमालाप्रकरणम् । स्थूलविषयानुक्रमः । स्थूलविक यानुक्रमः। ॥८॥ GEECHECACARDAUGGC विषयनाम टीकाकृत्कृतं मङ्गलाचरणम् । ग्रंथकारकृतं मङ्गलाचरणम् । मनुष्यभवदुर्लभत्वे दृष्टान्तदशकश्लोकाः । दानाधिकार प्रथमस्तत्राभयदानद्वारम्अहिंसाधर्मोपदेशः । जीवरक्षायां वज्रनाभरष्टान्तः । जीववधविपाके मृगापुत्रकथानकम् । २ज्ञानदानद्वारम्ज्ञानस्य भेदप्रमेदाः । ज्ञानदातुः स्वरूपम् । शुद्धप्ररूपकत्वे उदाहरणम् । सूत्रज्ञानग्रहणविधिस्तत्रास्खलितादिगुणे विद्याधरकथानकम् । पृष्ठ | विषयनाम ज्ञानग्रहणयोग्यतानिदर्शक पुरन्दरनूपपुत्रकथानकम् २ सूत्रग्रहणे गुणाः । ४ ज्ञानस्यैहिकामुध्मिकगुणे सागरचन्द्रकथा । ३ उपष्टम्मदानद्वारम् । सुपात्रदाने नृपसूरसेनसुतयोदृष्टान्तः । पथश्रान्तादेनिस्व महत्फलत्वं । दानादायकानां दारियादिफलत्वं । दानादायकानामशोभनीयत्वे धनसारश्रेष्ठिकथा । २ शीलाधिकारः। १९ शीलमाहात्म्यवर्णनम् । २१ शीलरक्षणे रति-ऋद्धि-बुद्धि-गुणसुन्दरिकथानकानि । २२ शीलतत्वे सीताऽऽख्यानम् । BACKAGIRALAGHA%AEKAR ८ ॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FORESIDENTSPASS विषयनाम शीलनिश्चलत्वे देवसिकाचरितम् । शीलविराधनविपाके मणिरथनृपचरितम् । ३ तपोऽधिकार। तपोमाहात्म्ये नन्दिपेणमुनिवृत्तम् । ,, ढाहारीचरितम् । तपःप्रभावकत्वे विष्णुकुमारमुनिचरितम् । तपःप्रभावे स्कन्दकमुनिचरितम् । ४ मावनाऽधिकारः। १ सम्यक्त्वशुद्धिद्वारम्| भागद्वारे सम्यक्त्वस्वरूपम् । | द्वितीयद्वारे तल्लाभक्रमः । केषां सम्यक्त्वं भवतीति तृतीयं द्वारम् । तुर्यद्वारे सर्वगुणाधारत्वं सम्यक्त्वस्य । सम्पावनिश्चलत्वेऽमरदत्तमार्यादृष्टान्तः । " , सुपविक्रमाख्यानकम् । विषयनाम सम्यकत्वमाहात्म्ये पुद्गलपरावर्तस्वरूम् । पञ्चमद्वारे सम्यक्त्वपञ्चकस्वरूपम् सम्यक्त्वस्य लिङ्गचतुष्कम् । २ चरणशुद्धिद्वारम् । चरणस्य द्विभेदत्वम् । देशविरतौ संझेपेण द्वादशव्रतस्वरूपम् । तत्रेवरसामायिकस्वरूपम् । तस्य करणे शास्त्रीयो विधिः (टिप्पणि)। पौषधस्वरूपम् । तस्याष्टम्यादिपर्वकर्तव्यता । अपर्वस्वपि तत्कर्त्तव्यताप्रतिपादकैः कृतं शास्त्रपाठपरावर्तनम् (टिप्पणि)। १० ७७ | त्रिविधाहारोपोषितस्यैव देशत आहारपौषधो भवतीति (टिप्पणम्) सर्वचरणे धरणसप्ततिकास्वरूपम् । तदन्तर्गतं द्वादशभावनास्वरूपम् । द्वादशभिक्षुप्रतिमास्वरूपम् । .८ पिण्डविशुब्यादिका करणसप्ततिका । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमालाप्रकरणम्। स्थलविषबानुक्रम। विषयनाम इच्छामिच्छादिदशविधसामाचारी । सामायिकादिचारित्रपञ्चकस्वरूपम् । दीक्षणानर्दा मश्चि । चारित्रप्रतिपत्तिविधिः। तत्र विनीतस्व स्वरूपम् । चारित्रप्रदाने शुभतिथ्यादिविचारः । उपस्थापनाविधिः। उपस्थापनाप्रदाने कालक्रमः । षड्जीवनिकाययतनासु धर्मरूच्चनगारवृत्तम् । सत्यासत्यवादिनोर्गुणदोषनिरूपणम् । सत्यवादित्वे कालिकाचार्यकथानकम् । असत्यवादित्वे वसुनृपाख्यानम् । अदत्तपरिहारे मागदत्तकथानकम् । नवगुप्तिविशुद्धब्रह्मचर्यपालनोपदेवाः । ब्रह्मचर्यदृढत्वे सुदर्शनदृष्टान्तः । अत्रैव स्थूलभद्रकथानकम् । पृष्ठ विषयनाम परिग्रहस्यासारतानिदर्शनम् । | परिग्रहस्य त्यागे कीर्तिचन्द्रनृपवृत्तम् । १.१ | रात्रिभोजनपरिहारोपदेशः । १०५ | रात्रिभोजनलम्पटत्वे रबिगुप्तविप्राख्यानम् । एतद्रतषट्करक्षणे कष्टार्जितरत्नरक्षकदरिद्रद्विजकथानकम् । प्रवचनमातृषालनोपदेशस्तत्स्वरूपं च । तत्र्यासमितिनिश्चलत्वे वरदत्तमुनिवृत्तम् । | भापासमिती सङ्गतमुनिकथा । ११० एषणासमितिवर्णनम् । | आहारशुद्धेर्दुष्करत्वम् । ११२ अप्रासुकाहारत्यागे धनशर्ममुनिवृत्तम् । ११५ मनेषणीयाहारत्यागे धर्मरुचिमुनिकथा । १९ तृतीयसमितिपालनोपदेशः । तन्त्र सोमिनमुनिवृत्तान्तम् । ११९ पारिष्ठापनिकासमिती धर्मरुचिकथानकम् । १२१ मनोगुप्तिस्वरूपम् । SHORRORG ॥ ९ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयनाम तत्र जिनदासकथानकम् । वचनगुप्तौ गुणदत्तसाधुकथा | कायगुप्तिस्वरूपं कायगुप्तसाधुकथानकम् । विधिपूर्वकं सूत्रमधीत्य देशांतरे विहरेत्साधुः । तत्र पार्श्वस्थादिसुखशीलजनसङ्ग वर्जनोपदेशः । पार्श्वस्थादीनां स्वरूपवर्णनम् । मनोनिग्रहानिग्रहे प्रसन्नचन्द्रराजर्षिकथा । मनोनिग्रहाभावे वेषमात्रस्य विडम्बकत्वमेव । व्यवहारनिश्चययोर्द्वयोरपि माननीयता । तत्रापि व्यवहारस्य बलवत्त्वम् । तीर्थकरोद्देशेनापि संयमशिथिलीकरणे दोषः । चैत्यकारापणादपि संयमपालनस्य बहुगुणत्वम् । देशविरतानां द्रव्यस्तवस्यापि करणीयता । शक्रादिभ्योऽप्यनन्तगुणत्वं साधुसुखस्य । मम्यक्सामायिकस्यापि राज्यसम्पत्याषकत्वम् । पृष्ठ १४३ १४५ इन्द्रियभेदप्रभेदौ तासां स्वरूपं च । इन्द्रियस्वामित्वद्वारम् । इन्द्रियाणामाकृतयः । विषयनाम १४६ १४७ ६ करण[इन्द्रिय] जयद्वारम् । तासां बादल्यादिमानम् । तासां विषयद्वारम् । १४८ १४९ १५४ १५७ १५७ १५८ १५८ जिह्वेन्द्रियविपाके रसलोलनृपकथा । इन्द्रियवशगानां दुःखफलत्वम् । श्रोत्रेन्द्रियविपाके सुभद्राकथानकम् । चक्षुरिन्द्रियविपाके लोलाक्षाख्यानकम् । प्राणेन्द्रियविपाके राजसुतकथा । स्पर्शनेन्द्रियविपाके सुकुमालिका[राज्ञिजितशत्रु ] नृपकथा । ४] कषायनिग्रहद्वारम् । १५९ १६० १६९ कषायशब्दार्थः १७० तेषां भेदाः । पृष्ठ १७२ १७३ १७४ १७४ १७४ १७६ १७७ १७९ १७९ १८० १८२ ૧૮૧ १८४ AAASSSSS Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमालाप्रकरणम् । स्थूलविष यानुक्रमः। %AGIRCRECRUICICIRECAUSIC विषयनाम विषयनाम तेषां स्वरूपं । ५गुरुकुलवासद्वारम् सम्ज्वलनादीनां तेषां कालमानम् । गुरुलक्षणे गुरुगुणपत्रिंशिका । चतुष्यपि तेषु न्यूनाधिक्यम् ।। क्रोधविपाके अचक्कारितभट्टिकाकथा । ., अष्टविधगणिसम्पदादिकापि गुरुगुणपट्त्रिंशिका । सारणावारणाधप्रदातुर्गुरोः शरणागतस्य मस्तकच्छेदकोपमा । क्रोधदुष्टत्वे क्षपकसाधुरष्टान्तः । तत्रैव जननीपुत्रयोरुदाहरणे । माने मदाष्टकस्य त्याज्यत्वम् । विनयप्राधान्यं सुशिष्यलक्षणे । । जातिमदे ब्रह्मदेवद्विजकथा । विनयाधिक्ये राज्ञस्सूरेश्च संवादः । मायाविपाके वणिक्सुतावसुमतीकथा । कुशिष्यस्वरूपम् । शेषकषायेभ्यो लोभस्याधिक्य तसिग्रहोपायश्च । गुरुकुलवासे वसतां गुणोपदर्शनम् । लोभाधिक्ये कपिलकेवलीकथा । गुरुकुलवासगुणे पन्थकसाधुकथा । तत्रैव शुल्लकाषाढभूतिकथा । गुरुकुलत्वासत्यागे दोषास्तत्र कूलवालकसाधुकथा । सामान्येन कषायाणां दुरन्तत्वम् । ६ आलोचनाद्वारम् रागद्वेषमयत्वं कषायाणाम् । दृष्टि-स्नेह-विषयानुरागेषु द्वेषे च लक्ष्मीधरादिभ्रातृचतुष्कवृत्तम् । २.६ | तत्र द्वारषट्कम् । * इतः प्रारभ्य ४५ यावदपरावृत्तिः प्रूफसंशोधनस्यासावधानता । २०० SCIRCLICAKACHAR m or m mmmmm ३२२ * ॥१०॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RESUGUAGEMAMALA विषयनाम मालोचनादायकगुरोर्गुणाष्टकम् । तत्रैव व्यवहारपञ्चकस्वरूपम् । आलोचकस्य जातिकुलसम्पन्नत्वाचा गुणाः । मालोचनाविधिद्वारम् । सूक्ष्मेऽपि दोषानालोचने कटुकविपाकत्वम् । तत्रादकुमारकथा । इलापुत्रकथानकम् ७ भवविरागद्वारम् चतुर्गतिकजीवानां दुःखमेव बाहुल्येन । जननीजनकादिप्रेम्णोऽस्थिरत्वम् । जननीप्रेम्णि चूलनीकथानकम् । पितृप्रेम्णि कनकरथनृपकथानकम् । भ्रातृप्रेम्णि भरताख्यानकम् । भार्याप्रेम्णि सूर्यकान्ताराज्ञिकथा । पुत्रप्रेम्णि अशोकचन्द्र(कूणिक)नृपाख्यानकम् । विषयनाम विषयासारतानिदर्शनम् । | विषयगृद्धौ परिहारे च जिनपालित-जिनरक्षितदृष्टान्तः । मनुजेषु यावद्देवेष्वपि वास्तविकसुखाभावनिरूपणम् । ८ विनयद्वारम् विनयशब्दार्थस्तत्प्रकाराश्च । पञ्चविधस्यापि विनयस्य पृथक् २ स्वरूपम् । विनयस्यैहिकामुष्मिकफले सिंहरथराजकथा । ९ वैयावृत्त्यद्वारम् दशविवस्वं वैयावृत्यस्य । सर्वतोऽपि गरियस्त्वं वैयावृत्त्यस्य । तत्र धनदराजसुतकथानकम् । गृहस्थवैयावृत्ये साधूनां दोषनिरूपणम् । तत्र सुभदासाध्वीकथा । १० स्वाध्यायरतिद्वारम् । ३४५ | स्वाध्यायस्य परममोक्षाङ्गत्वम् । AKAKKARRAOKESTRA Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमालाप्रकरणम्। | स्थूलविष यानुक्रमः। ॥ ११ ॥ २६६ ॐAAAAAAAACARE विषयनाम उत्कृष्टजघन्यस्वाध्यायप्रमाणम् । अन्तसमये नमस्कारमन्त्रस्यैव स्मरणीयत्वम् । नमस्कारस्यैहिकफले शिवकुमारकथानकम् । देवसानिध्ये श्रीमतीश्राविकाकथा । , बीजपूरफलमापकचाद्धोदाहरणम् । पारत्रिके फले चण्डपिङ्गलचौरकथानकम् । | " , हुण्डिकयक्षकथानकम् । ११ अनायतनत्यागद्वारम् । स्वाध्यायेऽनायनत्यागोपदेशः । विभूषास्त्रीसंसर्गादीनामनायतनत्वम् । अतिदुष्टत्वं स्त्रीसंसर्गस्य । स्त्रीसङ्गदुष्टत्वेऽहनकमुनिकथा । अतिदारुणत्वं संयतीसमस्य । अतिभयङ्करत्वं चैत्यद्रव्यविनाशादेः । चैत्यदन्यविनाशफले सक्काशश्राद्धकथा । विपयनाम | महानर्थफलत्वं संयतीसेवनस्य । परतीथिकादीनामप्यनायतनत्वम् । कुसङ्गत्यागे चित्रभानुसोमादृष्टान्तौ । २६६ १२ परपरिवादनिवृत्तिद्वारम् । लघुत्वमकीर्तिश्च परपरिवादनिरतस्य स्वोस्कर्षपरस्य च । महाघोरकर्मबन्धफलत्वं परपरिवादस्य । परपरिवादे क्षपककुन्तलादेव्युदाहरणौ । परपरिवाददोषे सूर्युदाहरणम् । १३ धर्मस्थिरताद्वारम् । सर्वविरतिग्रहणाशक्तस्य जिनपूजोपदेशः । अष्टविधपूजाया वर्णनम् । | अष्टविधपूजाफले कीरयुगलायुदाहरणाष्टकम् । २७४ | साधुश्रावधर्म दृढत्योपदेशः । २७६ । विनाधर्मेण वाग्छितार्थाप्राप्तिः । MMMMM NECRACKAGANAGAR Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ । विषयबाम धर्मतत्वे धनमित्रकथानकम् । १४ परिक्षाद्वारम् । तत्रान्तिमाराधनोपदेशः । दुर्लभस्वं समाधिमरणस्य । सपराक्रमादिभेदचतुष्कं मरणस्य । चत्र जीतकापमाष्योकत्रयोविंशतिद्वाराणि । विषयनाम ५शास्रोपसंहाराधिकार स्वरूपेनापिनिमित्तेन बोधे समरनृपकथानकम् । प्रकरणोक्तरोचनेऽधिकारिणः । २९० प्रकरणकृयामसूचनम् । प्रकरणेऽधिकाराणां गाथानां च सङ्ख्या । २९१ प्रकरणकारकृतान्तिममङ्गलम् । २९२ | रीकाकृत्प्रशस्तिः AAAAAA २९१ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमालाप्रकरणम्। शुद्धिपत्रकम् । -ese स्यूलविकयानुकमः। ॥१२॥ पं. शुद्धम् विवृता जर्म होइ शुद्धम् सम्भिव सिद्धेवि अक्षुद्धम् विवृत्ता जम्म होइ कुष्टादि विझेयो सिझह दोसाण कादि AAAAAAKRRISHARORE परावतः विज्ञेयो १४ ‘पयुक्कै अशुद्धम् सम्भिन्ना सिद्धे बि सिज्ञह दोसाण 'परावत्तः होति रजिते स्पृष्ठेव "सेन पालने त्यादिन पापविति निवेता RELEASEAAAAAA पयुक्त'चमूस्त 'चमूस्तं वैताढवे होति रजित स्पृष्ट्वैव 'सेवन बताये पालने ज्ञानदान शीलं सील सज्जात 'यन्त्वे सजात 'यन्त्वेव त्या दिन पापमिति नियेचता Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू. ५० शुद्धम् अशुद्धम् स्वग वदन्ते वर्षाकाले स्वर्ग १५५ अशुद्धम् रोध श्रत्वा रोध १३ श्रुत्वा १२२ १२४ १२४ 'रकत्वं परीकर वन्दते वर्षाकाले परिकर करणीयं १५६ १५७ १५८ १६३ 'भांवित्वम् १३२ १३८ करणीय भांविः दोसणे कठट्ठिय सपेहणाई गु माणरू वि ALSASAKACHARGECARAL प्राप्त्यादिका तीर्थकों ममी इत्याह न हीनाः १६३ दोसेणं कंठट्टिय संपेहणाइ गुरुमाण वि प्राप्तयादिका तीथकरों अमो इत्या 'नहनाः वैद्योथा प्रत्ययावा क्षायन्ते णवसंजए सस्ववीर्य AKACCACCORRECR mpa निप्पकपो प्रत्ययाबा क्षीयन्ते ग व संजए स स्ववीर्य 'शठो 'लोभाख्यो निप्पकंपो मार्ग विभक्ति पलितं मार' ऽसठ विभक्ति पलित १६९ 'लोभख्यो Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृ. ५० शुद्धम् शुद्धि पुष्पमालाप्रकरणम् । अशुद्धम् स्पशने पृथ्वीवृत्तम् य वानां स्पर्शने हरिणीवृत्तम् । यदेवानां BAAR अशुद्धम् 'दारभ्या प्रशमसुख 'स्ममात्र समवंतीति धर्मदेशवां य ग्यकुलाला भा न्द्रियमिति बभणिया त्रीण मोक्ष प्रार्थयते BANDHARDAGIKASHNESRADIO शुद्धम् 'दारभ्या प्रशमसुख 'रमणमात्र समवेतीति धर्मदेशनां योग्यकुलानां भावेन्द्रियमिति बंभणिया श्रीणि मोत्तुं प्रोक्तोऽपि भुजे भुञ्जन् सर्वत्र प्रातर्दोषान सयलाण मोक्ष प्रार्थय प्रातर्देषाच सबलाण साम्प्रत 'समानु टुंबात्तण 'तरणार्थ मोतं प्रोक्तोऽपि साम्प्रतं 'समानु टुंबत्तर्ण 'तारणार्थ विहवेणु भुजे सुजन् विह माहिय महिय सवत्र पा तस्करैः तस्करः Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धम् अशुद्धम् मधुवेसा शुद्धम् मधुवे असा होज वुत्ता २१२ १४ 'म्मूतो 'करिष्य 'म्भूतो कर्स 'वादूरि 5SASARAI कत्तव्यं AAAAAAAABAD गहीत नागरसज्ज्वलनानां विणिग्नहो वणिो ससुरासूर 'नदाइणो प्रबिद्वार 'प्रहमाह गभीरो 'निर्वाहणाना E करिष्यं कर्त्तव्यं पृच्छेद् प्रायश्चित्तं तुरगान् बड़वा श्रेणिका संसारं [सङ्कुचिता] भुजानस्यो भीताभ्या 'बद्भरि गृहीत नागरजनैसज्वलनानां विणिग्गहो वण्णिओ ससुरासुरं नंदाइणो प्रतिद्वारं 'ग्रहगाथामाइ गंभीरो 'निर्वाहण प्रायश्चित्त तुरगान् बद्धा :णिका ससारं [सङ्कचिता] भुझानस्पों मीताभ्या कथमप्प 0 2 MY MM % . २५५ . कथमप्य' % एवं चुकाणं । २५१ स्वरूास्तु स्वरूपस्तु Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्धम् शद्धि पुष्पमालाप्रकरणम् । सुश्रूषणं शुद्धम् सुश्रूषणं सिय नत्थि २९. २९१ ८ १२ पत्रक ॥१४॥ शुभ सियन लि शुभ उत्पाटयेति 'मोक्षाङ्गत्व तावझेयं "क्रियते rrrrr अशुद्धम् 'करणमूर्त 'मपक्रमा 'निरसण हुति प्रत्याख्यान सामाः अन्यथ उत्त ङ्गीकत्तव्याः मानायि दोषा शुद्धम् 'करणभूतं 'मपक्रम "निस्सरण हुंति प्रत्याख्यान सामग्न्याः अन्यथाऽऽर्स "ङ्गीकर्तन्याः मानायि उत्पाटयति 'मोक्षाङ्गत्वं तावज्ज्ञेयं 'क्रियते मूलं नम थितवन्तं "प्रभ(व)त्तथैवा" घन धनं कथा उक्त 'वाक्यैस्तुष्ठ परदोस BREASEASHIS PAARADAARCARECHARGE दोषा "स्थिवतं 'प्रभ(को)त्तथैवा धनं धनं 'घथा वृहदृत्ति २९७ स्थाने ३९८ स्थाने ३९७ ॥ बृहद्वृत्ति इत्येवमवगम्यम् । नान्ये वाक्येस्तुष्ट परदोस 'सुद्धा ॥१४॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ॐ अहं नमः ॥ लक्षाधिकनूतनश्राद्धकर्तृशासनप्रभावकश्रीमजिनदत्त-कुशलसूरीश्वर-क्रियोद्धारकश्रीमन्मोहनमुनीश्वरक्रमकजेभ्यो नमो नमः॥ मलधारगच्छगगनाङ्गणनभोमणिश्रीमदभयदेवसूरिशिष्यश्रीमद्धेमचन्द्रमूरिसङ्कलिता श्रीमत्खरतरगच्छालङ्कारहार-जेसलमेरुजावालिपुराधनेकचिकोशसंस्थापक-श्रीजिनभद्रसूविरान्तेवासि-महोपाध्यायश्रीसिद्धान्तरुचिधिनेय-श्रीमत्साधुसोमगणिवर गुम्फितया लघुवृत्त्या समलङ्क्ता उपदेशमालेल्यपरनामधेया * पुष्पमाला जयति जगदेकभानुः, प्रकटितसकलार्थसार्थपरमार्थः । प्रहततमाः परमात्मा, प्रभाम्बुधिर्मुनिजनकृतार्थः॥१॥ श्रीहेमचन्द्रगुरुणा, विवृत्तामपि विस्तरेण वितताम् । विवृणोमि पुष्पमाला-मल्पाक्षरमल्परुचितुष्ट्यै ॥२॥ इह हि पुरुषार्थेषु प्रधानतमो धर्मः, धर्म चोपकारस्तस्मिन्नपि भावोपकारः, तत्रापि स्वपरोपकारः । स च भगवद्भक्तिभावितस्य सम्यक्तत्त्वोपदेशसुसाध्यः, स च शास्त्ररूपापन्न एव स्वस्य स्मृतिद्वारेण परेषां च ज्ञाताज्ञातहिताहितप्रवृत्तिनिवृत्तिस्थापनज्ञापनद्वारेण चिरं खसाध्यं साधयितुमलं, इति परिभाव्य भगवान् ग्रन्थकारः पुष्पमालेत्युपमाननाम्ना प्राप्तप्रसिध्ध्युपदेशमालाख्यं प्रकरणं चिकीर्षु Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालम् पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२॥ स्तदादौ प्रत्यूहव्यहव्यपोहेन चिकीर्षितशास्त्रपरिसमाप्तये श्रोतृप्रवृत्तये शिष्टसमयप्रतिपत्तये च विशिष्टेष्टदेवतानमस्काररूपभावमङ्गलगी तावदिमां माथामाह सिद्धमकम्ममविग्गह-मकलंकमसंगमक्खयं धीरं । पणमामि सुगइपच्चल-परमत्थपयासणं वीरं ॥१॥ ___व्याख्या-इह “संहिता च पदं चैव, पदार्थः पदविग्रहः । चालना प्रत्यवस्थानं, व्याख्या तन्त्रस्य पड्विधा॥१॥" इति, तत्र संहितोक्तैव, पदविभागस्तु सुगमः, चालनाप्रत्यवस्थाने दुर्घटत्वग्रावसङ्घट्टे, न तु प्रस्खलचलनोऽल्पधी त्र सञ्चारमारचयितुं पटीयानिति ते उपेक्ष्य पदार्थादिनैव मन्दमतिसत्त्वोपकृतये यथाप्रतिज्ञं व्याख्यायते-तत्र विशेषत ईर्ते-परमपदं गच्छतीति “पचाद्यच्"[पा०३-१-१३४]] विधानाद्वीरः, यदि वा 'ईरणमीर' इति भावे घञ्, ततश्च विशिष्ट ईरो-गमनं "सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था" इति ज्ञानं वा यस्य स वीरः, अथवा विशिष्टा तपोरूपा तीर्थकुन्नामकर्मोदयसमुद्भूतातिशयलक्षणा वा ईलक्ष्मीस्तया राजते-शोभते,इत्यन्यतोऽपि चेति 'ड'प्रत्यये वीरस्तं वीरं-12 श्रीवर्द्धमानं वर्तमानतीर्थाधिपतिं प्रणमामीति क्रियासण्टङ्कः । कथम्भूतमित्याह-सिद्ध। सितं-बद्धं, ध्मातं-दग्धं कर्म येन स तथा, पृषोदरादित्वात्सिदादेशधकारौ। अथवा 'षिधू गत्यां' सेधति स्म-सिद्धः,निर्वृतिप्रासादोपरि गत इत्यर्थः । अथवा सिद्धस्त्रिभुवनख्यातः, अथवा 'षिधू शास्त्रे माङ्गल्ये वा' सेधति स्म सिद्धः, शिक्षयति स्मेत्यर्थः, कृतमङ्गलो भवतीति वा, आजन्मदेवासुरविधीयमाननानोत्सवत्वात् । | यद्वा 'षिधृ संराद्धौ सिध्ध्यति स्म सिद्धः, परिनिष्ठितार्थो भवतीत्यर्थः, तं सिद्धं । तथा अकर्माणं-निष्ठितज्ञानावरणीयादिनिःशेषकर्माण, अथवा अक्रम्य-रागादिभिरनाक्रमणीयं । तथा अविग्रहं-सर्वतः साग्रयोजनशतक्षेत्रक्षिप्तसमस्तजन्तुविरोधं अशरीरं वा,अथवा अत्र अविःमेरुः, ग्रहाः-सूर्यादयस्तद्वतस्थैर्यतेजः सोमतादिप्रवरो विग्रहो-देहो यस्य स तथा, इति विग्रहशब्दावृत्या व्याख्यायते, तं [अविग्रहविग्रह]। BAEBARE Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ३ ॥ तथा अकलङ्कं-गोगजतुरगाद्यनाक्रमणीय सिंहलाञ्छनं, यद्वा अकलङ्कं - अविद्यमानत्रतलोपादिवचनीयं । तथा असङ्गं - सबाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरहितं । तथा अक्षर्द, अक्षाणि - इन्द्रियाणि, द्यति-खण्डयति स्वेच्छाप्रवृत्तिप्रतिरोधेनेत्यक्षदं, यद्वा अक्षयं - अविनाशिमुक्तिपर्यायं । तथा धीः–सकलावरणविप्रमुक्ता समस्तवस्त्ववबोधशक्तिः, तया राजते तां राति वा तत्प्रापणप्रवणोपदेशद्वारेणेति धीरस्तं धीरं, यद्वा तथाविधपरीषहोपसर्गसंसर्गेऽप्यप्रकम्पं, अनन्तवीर्यत्वात् । तथा सुगतिप्रत्यलपरं, सुदेवत्वसुमनुजत्वसिद्धिलक्षणायाः सुगतेः प्रापणे [ये] प्रत्यलाः-समर्थास्तेषु परं-उत्कृष्टं । तथा अर्थप्रकाशनं, अर्था ज्ञानादयो जीवादयो वा, तान् प्रकाशयतीत्यर्थप्रकाशनः, “ कृत्ययुटोsन्यत्रापि चे 'ति [" कृत्यल्युटो बहुलं" पा०-३-३-११३] कर्त्तरि युद्ध, तं। अथवा सुगतेः प्रापणे 'प्रत्यलाः' परमाः - सद्युक्तिरिक्तपरपरिकल्पितपदार्थेभ्यो व्यतिरिक्तत्वेन उत्कृष्टा अर्था-ज्ञानादयो जीवादयो वा, तान् प्रकाशयतीत्येकमेव विशेषणम् । अत्र च अकर्माणमित्यनेनापायापगमातिशयो धीरमित्यनेन ज्ञानातिशयः सुगतिप्रत्यलेत्यादिना वचनातिशयः साक्षादाख्यातः, एतादृग्गुणग्रामरमणीयश्चावश्यं भक्तिभरनिर्भरसुरासुरनिकरकोटीरकोटिघृष्टपादपीठोपकण्ठ एवं स्यादिति पूजाऽतिशयोऽप्यर्थादुक्त एव इत्यनन्यसाधारणमतिशयचतुष्टयं भगवतः प्रकटितमिति । तथा अत्र स्वपरोभयार्थसम्पत्तयस्तदुपायाश्च भगवतः प्रेक्षावद्भिर्विशेषव्याख्यानुरोधेन स्वयं परिभावनीया इति गाथार्थः ॥ १ ॥ अथ ग्रन्थकारः कतिचित्सुकृतोपदेशरचनं प्रतिजानीतेजिणवयणकाणणाओ, चिणिऊण सुवण्णमसरिसगुणडूढं । उवएसमालमेयं, रएमि वरकुसुममालं व ॥२॥ ब्याख्या – जिनवचनमेव काननं वनं, तस्मात् " चिणिऊण” चित्वा - सगृह्य, अर्थाद्धर्मोपदेशान्, शोभना वर्णा- अक्षराणि यस्यां सा सुवर्णा, तां । तथा असदृशाः - सिद्धिप्रापकत्वेनानन्यतुल्या गुणा ज्ञानादयस्तैराढ्या-परिपूर्णा, तां । उपदिश्यन्त इत्युपदेशाः - वाक्यवि मङ्गलम् ॥ ३ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LE पुष्पमाला लघुवृत्तिः अमिवेया दया शेषाः, ते चेह धर्मविषया द्रष्टव्याः, जिनवचनोद्धृतत्वादेव, तेषां मालां-परिपाटी, एतां वक्ष्यमाणां, रचयामि-करोमि, कामिव ?, वरकुसुममालामिव, यथा कश्चित्कुतश्चित् काननात्कुसुमान्यादाय श्वेतादिवर्णविशिष्टां दृढसूत्रतन्तुप्रधानां कुसुममाला रचयति तथाऽहमपीति। अत्र चोपदेशमालां रचयामीत्यभिधेयाभिधानं, प्रयोजनं तु कर्तुरनन्तरं सत्त्वानुग्रहः, श्रोतुश्च दानादिधर्मपरिज्ञानं, परम्परन्तूभयोनिःश्रेयसावाप्तिः, सम्बन्धस्तूपायोपेयरूपः शास्त्रधर्मोपदेशयोः सिद्ध एव, जिज्ञासितधर्ममर्माणश्चेहाधिकारिणः, एतच्च त्रितयमपि सूत्रे साक्षादनाख्यातमपि सुप्रतीतमेव, मङ्गलं तु त्रिभुवनगुरुनमस्करणलक्षणं प्रथममेव दर्शितमिति सकलशास्त्रकारप्रवृत्तिरनुसृतेति गाथार्थः ॥२॥ अथ ये मनुजजन्मनो धर्मस्य च सुलभत्वमाकलय्य प्रमादनिद्रामुद्रितनयनास्तांस्तदुर्लभत्वोपदेशेन जागरयतिरयणायरपब्भर्टी, रयणं व सुदुल्लहं मणुयजम्म । तत्थवि रोरस्स निहिव्व, दुल्लहो होइ जिणधम्मो ॥३॥ व्याख्या-रत्नाकरप्रभ्रष्ट-अब्धौ पतितं रत्नमिव सुदुर्लभं-अतिदुर्लभं मनुजजन्म-मनुष्यभवो जीवेन, एतेन च "चुल्लंगपासंगधन्ने, जूएँ रयणे य सुमिणचके य । चम्मजुगें परमाण, दस दिटुंता मणुयलंभे ॥१॥" एते दशापि सिद्धान्तप्रसिद्धा मानुषजन्मा| तिदुर्लभत्वदृष्टान्ताः सूचिताः, तत्र "चोल्लग" इति देशीयभाषया भोजनं, 'चर्म' शब्देन महाजलाशयोपरिवर्तिघननिबिडसेवालमिहाह। एतत्कथासूचकानि चामूनि काव्यानि १-विप्रः प्रार्थितवान् प्रसन्नमनसः श्रीब्रह्मदत्तात्पुरा, क्षेत्रेऽस्मिन् भरते खिले प्रतिगृहं मे भोजनं दापय । इत्थं लब्धवरोज्थ तेष्वपि कदाऽप्यश्नात्यहो!! द्विः स चेत, भ्रष्टो मर्त्यभवात् तथाप्यसुकृती भूयस्तमामोति न ॥१॥२-सिद्धद्यूतकलाबलाद्धनिजनं नित्वाऽथ हेम्नां भरै-चाणाक्येन नृपस्य कोशनिकरः पूर्णीकृतो हेलया । देवादाढ्यजनेन तेन स पुनर्जीयेत मन्त्री क्वचिद्, भ्रष्ठो मर्त्यभवात् AMRESHA ॥ ४ ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥५॥ दुलेमे मनुजत्वादिके दृष्टान्तदशकम् SANSARSANELCOMBHASRO तथाऽप्यसुकृती भूयस्तमाप्नोति न ॥२॥ ३-वृद्धा कापि पुरा समस्तभरतक्षेत्रस्य धान्यावलिं, कृत्वैकत्र च तत्र सर्षपकणान् क्षिप्त्वाऽऽढकेनोन्मितान् । प्रत्येकं हि पृथक्करोति किल सा धान्यानि सर्वाणि चेद्, भ्रष्टो मर्त्यभवात् तथाऽप्यसुकृती भूयस्तमाप्नोति न॥३॥ ४-अष्टसहस्रस्तम्भ-रष्टसहस्रातिभिः सभा तस्याः । एकैकानिर्जया, सहस्रमष्टाधिका वेलाम् ॥ ४॥ इत्येवं सर्वसभां, जित्वा राज्यं पिगृहीतव्यं । एकामपि चेद्वेलां, हारयति पुनर्नयेन्मूलात् ॥ ५॥ अपि सम्भवेदिदं खलु, विधिनाऽनेनापि कश्चिदिह राज्यं । गृह्णीयानहि जीवो, लभते मानुष्यमिह भूयः॥६॥५-रत्नान्याढ्यसुतैर्वितीर्य वणिजां देशान्तरं जग्मुषां, पश्चात्तापवशेन तानि पुनरादातुं | कृतोपक्रमैः । लभ्यन्ते निखिलानि दुर्घटमिदं दैवाद्घटेत्तत् क्वचिद् , भ्रष्टो मर्त्यभवात् तथाप्यसुकृती भूयस्तमाप्नोति न ॥७॥ अथवामहार्णवजलान्तर-स्फुटितयानपात्रच्युतो; गतोऽम्बुनि पुनश्चिरा-दपि मणिव्रजो लभ्यते । भवेदपि न चाङ्गिना, भवसमुद्रमध्येऽभितो; मुहुर्विपरिवर्तिनां, भवति मानुषत्वं किल ॥८॥ ६खप्ने कार्पटिकेन रात्रिविगमे पूर्णेन्दुबिम्बं मुखे, व्यालोक्य प्रविशत् कुनिर्णयवशादल्पं फलं प्राप्य च । स्वमस्तेन पुनः स तत्र शयनादालोक्यते क्वापि चेद् , भ्रष्टो मर्त्यभावात् तथाऽप्यसुकृती भूयस्तमामोति न ॥९॥ ७-सव्यापसव्यं भ्रमतोऽतिवेगा-चक्राष्टकस्यारविचालमाप्य । अप्यस्वविद्विध्यति कोऽपि राधां, न मानुषत्वं पुनरेति जन्तुः॥१०॥ ८-चन्द्रं शैवलवल्लरीभिरभितश्छन्नेऽतिनिम्ने हृदे, कूर्मः कोऽपि हि कार्तिकीनिशि महाछिद्रेण दृष्ट्वा गतः। पातालात्स सबन्धुरेति सुचिराद् द्रष्टुं तदा न क्वचि-चन्द्रश्छिद्रमथो तथैव भविनां भूयो न मानुष्यकम् ॥११॥ ९-शम्या पूर्वपयोनिधौ निपतिता भ्रष्टं युगं पश्चिमा-म्भोधौ दुर्द्धरवीचिभिश्च सुचिरं संयोजितं तवयं । सा शम्या प्रविशेागस्य विवरे तस्य स्वयं क्वापि चेद् , भ्रष्टो मर्त्यभवात् तथाऽप्यसुकृती भूयस्तमामोति न ॥ १२ ॥१०-स्तम्भ रत्नमयं महान्तममरः सञ्चूर्ण्य सूक्ष्माणुशः, कश्चिन्मेरुशिरःस्थितो नलिकया PURNAMESSA) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूत्कृत्य दिक्षु क्षिपेत् । अप्येषा परमाणुसंहतिरिहानन्तैः परावर्तिते-स्तां स्तम्भाकृतिमेति नैव भविनां भूयोऽपि मानुष्यकम् ॥ १३ ॥ पुष्पमाला इति दशापि दृष्टान्ता मनुष्यभवदुर्लभत्वे दर्शिताः, तत्रापि प्राप्ते मनुजजन्मनि रोरस्य-अतिनिष्पुण्यकप्राणिनो रत्नादीनां निधिरिव मनुजत्वादि लघुवृत्तिः द्र दुर्लभो-दुरखापो भवति जिनधर्मो दानशीलतपोभावरूप इति । ननु निर्हेतुकस्य कार्यस्यासम्भवान्मनुजत्वजिनधर्मदुर्लभत्वे को हेतुरिति | दुर्लभत्वे है चेत् ?, उच्यते-"आदौ सूक्ष्मनिगोदे, जीवस्यानन्तपुद्गलावर्तान् । तस्मात्कालमनन्तं, व्यवहारवनस्पती वासः॥१॥ उत्सर्पिणीरसङ्ख्यः , प्रत्येकं भू-जला-ग्नि-पवनेषु । विकलेषु च सङ्ख्येयं, कालं भूयो भ्रमणमेवम् ॥२॥ तिर्यपञ्चेन्द्रियता, कथमपि मानुष्यकं ततोऽपीह । क्षेत्रकुलारोग्यायु-र्बुद्धयादि यथोत्तरं दुरखापम् ॥३॥" इति । आह च भाष्यकार:-"दसहिं उदाहरणेहिं, दुलहं मणुयत्तणं जहा भणियं । तह जाइकुलाईणि वि, दसदिलुतेहिं दुलहाई ॥१॥ एत्थं पुव्वं पुव्वं, लद्धपि तदुत्तरं पुणो दुलहं । जम्माणुसाईणं, अइदुलहो तेण जिणध3म्मो ॥२॥" अतो दुर्लभावेव मानवभवजिनधर्माविति गाथार्थः ॥३॥ अथ दुर्लभमनुजत्वजिनधर्मयोः प्राप्तयोर्यत्कर्त्तव्यं तदाह- 8 | तं चेव दिव्वपरिणइ-वसेण कह कहवि पाविउं पवरं। जइयव्वं एत्थ सया, सिवसुहसंपत्तिमूलम्मि ॥४॥ व्याख्या-तं चेति, तत्पुनरनन्तरोक्तं सजिनधर्म मनुजजन्म। एव शब्दोऽयं द्वितीयार्थ "एत्थ"त्ति पदे योज्यते । "दिव्व"त्ति दैवं, प्रस्तावान्मनुजत्वजिनधर्मप्राप्त्यनुकूलं कर्म, तस्य परिणति-विपाकः, तद्वशत्वेन-आयत्ततया, कथं कथमपि-महता कप्टेन प्राप्यलब्ध्वा प्रवरं-प्रधानं यतितव्यं यत्नः कर्त्तव्यः । क्व ? इत्याह-"एत्थ"त्ति एतस्मिन्नेव जिनधर्म सदा-सर्वकालं । जिनधर्म एव कुतो | यतितव्यं ? इत्याह-शिवसुखसम्पत्तिमूलत्वात्-मोक्षसुखप्राप्तिकारणत्वात् , नान्यत्रेति गाथार्थः॥४॥अथ च जिनधर्मोऽपि दानधर्मप्रधा-* नस्तत्रापि "दाणाणमभयदाण" इति [अत्रैव चतुष्पञ्चाशदधिकशततमगाथायामुक्तत्वात प्रथमतोऽभयदानोपदेशमाह RA Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः || 6 || सो य अहिंसामूलो, धम्मो जियरागदोसमोहेहिं । भणिओ जिणेहिं तम्हा, सविसेसं तीऍ जइव्वं ॥५॥ व्याख्या - स चानन्तरं कर्त्तव्यतयोपदिष्टः श्रीजिनधर्मः अहिंसामूलो- जीवदयामूलो जितरागद्वेषमोहै - भग्नरागद्वेषाज्ञानैर्जिनैस्तीर्थकृद्भिर्भणितः, यथा “धन्नाणं रक्खणठ्ठा, कीरंति वईओ जह तहेवेत्थ । पढमवयरक्खणट्टा, कीरंति वयाई सेसाई || १ ||" ततश्च किं कर्तव्यं ? इत्याह-तस्मात्सविशेषं तस्यामेवाहिंसायां यतितव्यमिति गाथार्थः।। ५ ।। अथाहिंसा तोऽन्यधर्मस्य गरीयस्त्वाशङ्कां निरस्यन्नाह — किं सुरगिरिणो गरुयं, जल निहिणो किं व होज गंभीरं । किं गयणाओ विसालं, को वा अहिंसासमो धम्मो ॥६॥ व्याख्या - इहायं किं शब्दोऽपलापे, ततोऽयमर्थः - किं सुरगिरेर्मेरोः सकाशाद् गुरुकं - बृहत्तरं वस्त्वस्ति ?, किं वा समुद्रादपि गम्भीरं ?, किं गगनाद्विशालं - विपुलं ?, को वा अहिंसया समो धर्मः समस्ति ?, नास्तीत्यर्थः अयम्भावः - अहिंसासमोऽप्यपरो धर्मो नास्ति, किं पुनर्गुरुरिति, तथा चाहुतीर्थान्तरीयाः - "हेमधेनुधरादीनां दातारः सुलभा भुवि । दुर्लभः पुरुषो लोके, यः प्राणिध्वभयप्रदः ॥ १ ॥ महतामपि दानानां कालेन क्षीयते फलं । भीताभयप्रदानस्य, क्षय एव न विद्यते ||२|| दत्तमिष्टं तपस्तप्तं, तीर्थसेवा तथा श्रुतं । सर्वाण्यभयदानस्य, कलां नार्धन्ति षोडशीम् ॥ ३ ॥ एकतः क्रतवः सर्वे, समग्रवरदक्षिणाः । एकतो भयभीतस्य, प्राणिनः प्राणरक्षणम् ।। ४ ।। सर्वे वेदा न तत्कुर्युः सर्वे यज्ञा यथोदिताः । सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यत्कुर्यात्प्राणिनां दया ।। ५ ।। ददातु दानं विदधातु मौनं वेदादिकं चापि विदाङ्करोतु । देवादिकं ध्यायतु सन्ततं वा, न चेद्दया निष्फलमेव सर्वम् || ६ || सकमलवनमग्नेर्वासरं भास्वदस्ता–दमृतमुरगवक्त्रात्साधुवादं प्रवादात् । रुगपगमंमजीर्णाञ्जीवितं कालकूटा-दभिलषति वधाद्यः प्राणिनां धर्ममिच्छेत् ॥ ७ ॥" १ दानाधिकारेऽभयदानोपदेशः 11911 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृतिः 112 11 इति । तथा " किं तीए पढियाए, पयकोडीए पलालभूयाए । जइ इत्तियं न नायं, परस्स पीडा न कायव्या ॥ ८ ॥ दीर्घमायुः परं रूप-मारोग्यं श्लाघनीयता । अथा हिंसायाः फलं सर्व, किमन्यत्कामदैव सा ||९|| " तस्मान्नाभीतिदानाभ्यधिकोऽस्ति धर्म इति गाथार्थः । अथाहिंसायाः सर्वधर्माभ्यधिकत्वमेव हेतुगर्भैर्विशेषणैर्द्रढयति काकोडिजणणी, दुरंतदुरियारिवग्गनिवणी । संसारजलहितरणी, एक्कच्चिय होइ जीवदया ॥ ७ ॥ व्याख्या– कल्याणानि –मङ्गलानि तेषां कोटयस्तासां जननीव जननी, उत्पत्तिहेतुत्वात् । तथा दुरन्तानि - चिरभोग्यानि दुरितानि - पापानि तत्कार्याणि वा नानादुःखानि, तान्येवैकान्ताहितत्वेनारयः - शत्रवस्तेषां वर्गः समुदायस्तस्य निष्ठापनी - पर्यन्तकर्त्री । तथा संसार एव जलधिः - समुद्रः, स तीर्यतेऽनयेति तरणी - नौः, इत्थम्भूता एकैव भवति जीवदया, नान्यत्, तस्मात्सैव सर्वधर्माभ्यधिकेति गाथार्थः ॥ ७ ॥ कल्याणकोटिजनकत्वमेव प्रकटयन्नाह - बिलं रज्जं रोगेहिं, वज्जियं रूत्रमाउयं दीहं । अन्नंपि तं न सोक्खं, जं जीवदयाइ न हु सज्झं ॥ ८ ॥ व्याख्या - विपुलं विस्तीर्ण, राज्यं चक्रवर्त्त्यादिसम्बन्धि, तथा रोगैः कुष्टादिभिर्वर्जितं - रहितं रूपं - लक्षणोपपन्नसर्वशरीरावयवा - त्मकं, तथा दीर्घ - चिरकालसम्भवि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमादिकमायुः । किं सर्व जीवदयायाः साध्यमिदमेव ? इत्याह अन्यदपि सुखयतीति सुखं, सुखमेव सौख्यं - इन्द्रपदादि मोक्षादि वा तन्नास्ति यज्ञ्जीवदयाया नैव साध्यमिति गाथार्थः ॥ ८ ॥ ननु जीवदयातः किं कस्यचिद्राज्यप्राप्तिर्मोक्षप्राप्तिश्च जाता १, येन सर्वमिदं तत्साध्यमुच्यते ? इत्याहदेविंदचकवहि-तणाइ भुत्तूण सिवसुहमणंतं । पत्ता अनंतसत्ता, अभयं दाऊण जीवाणं ॥ ९ ॥ १ दानाधिकारे सर्वाभ्यधिक त्वमहिंसा यामाहा त्म्यश्चाभ यदानस्य ॥ ८ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाना पुष्पमाला लघुचिः ॥९॥ धिकारे सर्वोचमत्वममयदानस वज्रायुयो पनयत्तत्र IAS व्याख्या-देवेन्द्रचक्रवर्तित्वानि भुक्त्वा अनन्तं शिवसुख-मोक्षसुखं प्राप्ता अनन्ताः सत्त्वाः-प्राणिनः । किं कृत्वेत्याह-अभयं समस्तप्राणरक्षणरूपं दत्वा जीवाना-प्राणिनामिति । इदमत्र तात्पर्य-कर्ममलप्रक्षालनजललीलावलंबिनीं समस्तजन्त्वभयदानरूपां परिपाल्य प्रव्रज्यां तदनुभावादनुभूय देवेन्द्रत्वं, ततः सम्प्राप्य चक्रवर्तित्वं पुनः पर्यन्ते प्रतिपद्योक्तरूपा प्रव्रज्यां विमलकेवलालोकमासाद्य सिद्धा अनेनापि क्रमेणानन्ताः प्राप्यन्ते, ये पुनरमात्यादिसामान्यविभूतीरनुभूय ततः सिद्धास्ते प्रभूता एवेति गाथार्थः ॥९॥ । यद्येवं ततः किं कर्तव्यमित्याह तो अत्तणो हिएसी, अभयं जीवाण देज निञ्चपि । जह वजाउहजम्मे, दिण्णं सिरिसंतिनाहेण ॥ १० ॥ ___व्याख्या-ततः-पूर्वोक्तात्कल्याणकोटिजनकत्वाद्धेतोः, आत्मनः-खस्य हितैषी-हितेच्छुः सन्नभयं जीवानां नित्यमेव दद्याः, मरणभीरून् जन्तून् सदैव रक्षेस्त्वमिति शिष्योपदेशः, अथ उपदेशोऽपि सदृष्टान्त एवोक्तः कर्त्तव्यतया सम्यक्परिणमतीत्यतस्तमाह-यथेत्युदाहरणे, यथाष्टमे वज्रायुधजन्मनि श्रीशान्तिनाथेन-पोडशतीर्थकरेणाभयं दत्तं तथा त्वयाऽपि देयमित्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकगम्यस्तच्च विस्तरतः श्रीशान्तिचरित्रादेः सुगममिति नेह प्रपञ्च्यते, केवलं स्थानाशून्यार्थ किञ्चिदुच्यते, यथा जम्बूद्वीपाभिधानेऽस्मिन् , द्वीपेऽस्ति प्राग्विदेहगः। सीताया दक्षिणे भागे, विजयो मङ्गलावती ॥१॥ तत्रास्ति नगरी रत्न| सञ्चया रत्नसश्चया । तत्र क्षेमङ्करो राजा, योगक्षेमङ्करः सताम् ॥ २ ॥ रत्नमाला प्रिया तस्य, रत्नमालेव निर्मला । सगुणा हृदयान्नैव, | जहाँ केपि सज्जनाः ॥३॥ अन्यदा देवदेवीघू-पयाचितशतैस्तयोः। नाम्ना वज्रायुधः पुत्रः, पूर्वपुण्योदयादभूत ॥ ४॥ स्पर्द्धयेव MORADABANARAS Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१०॥ योयुबम BABUA गुणैस्सार्द्ध, वर्द्धमानः सुधोज्ज्वलैः । कामक्रीडावनकोडंx, क्रमाद्यौवनमाप सः॥५॥ ऊढवान् प्रौढराजादि-दचा विस्तरतस्तदा । सौभाग्यभाग्यभूमीभि-प्सरोभिः समाः कनीः॥६॥ सप्रियः सोऽन्यदोद्याने, करोति जलखेलनं । ग्रीष्मत्तौ शक्रवनन्दी-[श्वरे] १दाना| सरे सरसि तावता ॥ ७॥ विद्युदंष्ट्राभिधः प्रेक्ष्य, कुमारं तं तथाविधं । क्रुद्धो युद्धाय चाह्वास्त, खेचरः प्राग्भवासुहृत् ॥८॥ रे रे दुष्ट ! धिकारे * स्मर स्वेष्ट-देवतां पूर्वसेवितां । हन्मि हन्मि यमस्याद्य-बलेोग्यस्त्वमेव (मे) हि ॥९॥ मा भणिष्यसि नाख्यात-मिति सञ्जीभवेद्भ-12 वायुध विद्युदंष्ट्र| वान् । कुमारः प्राह किं कुन्थु-क्राथे* काऽप्यस्ति सज्जता ? ॥१०॥ ततश्च खेचरः क्रूर-रूपैर्भापयति स्म तं । क्षुभ्यति स्म कुमारो न, यो निर्मीनहदवन्मनाक् ॥ ११॥ विद्युदंष्ट्रस्ततो रुष्टो, गरिष्ठममुगिरिं । कुमारोऽचूरयद्वज्र-प्रष्ठाभिमुष्टिभिश्च तम् ॥ १२ ॥ खेचरः | पुनरप्युच्चैः, कोपाद्वज्रायुधाभिधं । बबन्ध पाशै गाथै-चन्दनद्रुमिव द्रुतम् ॥१३॥ कुमारेण पुनः स्वाङ्गो-दूसनादेव सर्वतः । बन्धनं | खण्डशश्चक्रे, दण्डघाताद्यथा घटः॥१४॥ कुमारस्य बलं वीक्ष्य, विलक्षः खचरस्ततः । जीवग्राहं स दुर्ब्रह्यो, भयभीतः पलायितः ॥ १५ ॥ अत्रान्तरेऽद्भुतं दृष्ट्वा, कुमारचरितं तदा । ज्ञानाल्लोकं लोकमान-स्तत्रागादच्युताधिपः ॥१६॥ भविष्यत्तीर्थनाथोऽय-मिति मत्वैकभक्तिभाक् । वज्रायुधं नमस्कृत्य, स्तुत्वा चेन्द्रो दिवं ययौ ॥ १७॥ कुमारोऽपि सहर्षः सन् , निजं धाम जगाम च । रथयात्राजिनार्चादि-धर्मकर्मसु तत्परः ॥ १८ ॥ दत्ते दानं सुपात्रेभ्यो, वन्दनार्हेषु वन्दनं । अभयं सर्वसत्त्वेभ्यः, सविशेषमहर्निशम् ॥१९॥ अन्यदाऽसौ सभामध्ये, सौधर्मेन्द्रेण वर्णितः । यथा वज्रायुधो धर्मा-द्देवैरपि न चाल्यते ॥२०॥ इत्येतच्च वचः कश्चि-दसहिष्णुः सुरस्तदा । पौषधागारसंस्थस्य, कुमारस्यान्तिकं ययौ ॥ २१॥ परीक्षाक्षिप्तचेतस्कः, स पारापतरूपभाक् । मनुष्यभाषया दक्षो, रक्ष रक्षेति ॥१०॥ x क्रोडः-सूकरस्तम् । * मारणे । * शरीरस्य बलकरणादेव, न तु शस्त्रादिना । AAAAAA REET Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुचिः ॥११॥ SOME १दाना धिकारे वज्रायुधस देवकता धर्मपरीक्षा 4 गाञ्जगौ ॥ २२ ॥ पादमूले निलीनश्च, तिष्ठेद्यावदसौ ततः । विस्मितेन कुमारेण, तस्याङ्गीकरणं कृतम् ॥२३॥ तीक्ष्णचञ्चुर्महाश्येनः, | समागात्तत्र तावता । कुमारं प्रति चाचष्ट, पक्षी [श्येनो] मानुषभाषया ॥२४॥ महाभाग!मया ह्येष, क्षुत्क्षामेण घनर्दिनः। प्राप्तः पारापतो भैक्षं, दे(ह्येन)ह्यहं न क्षणं क्षमे ॥ २५ ॥ कुमारः प्राह किं हहो!, भक्ष्यमन्यन्न भक्ष्यते ? । पूपम्पोदनादि त्वां, क्षुधा चेद्बाधतेतमाम् ॥ २६ ॥ उवाच शकुनिर्नान्यत् , तृप्त्यै मांसाशिनो मम । खव्यापादितमांसान्य-द्रोचते च न कहिचित् ॥ २७॥ कुमारः प्राह न प्राणि-प्राणापहरणं शुभं । दारुणानन्तदुःखाना, जनकत्वाद् भवे भवे ॥ २८ ॥ अतो रक्षैव सर्वेषां, सत्त्वानामुचिता शुभा । स्वर्गापव| र्गसंसर्गि-सुखवर्गविधायिनी ॥२९॥ एतजानाम्यहमपि, भवदुक्तं परं शृणु। क्षुधिताः किं न कुर्वन्ति ?, पापानि पुरुषोत्तम !॥३०॥ अथ कारुण्यतः पारा-पतं चेद्रक्षसि स्वयं । तन्मां हंसीति विज्ञाय, यद्युक्तं तद्विधेहि भोः! ॥३१॥ कुमारः प्राह चेदेवं ?, तार्ह दत्वा खजाङ्गलं । त्वां तर्पयामि चैतेन, तोलयित्वा गृहाण तत् ॥३२॥ ओमिति प्रतिपन्नेऽस्मि-स्तुलायां रोपितं पलं । एकतः परतः पारापतो नैव तु तोलयेत् ॥३३॥ वर्द्धते सुतरां पारा-पतो भारेण यावता । अनन्यगतिको धीरः, खमप्यारोपयत्तुलाम् ॥ ३४ ॥ एतच्चा|नन्यसामान्यं, कौमारं प्रेक्ष्य साहसं । विस्मितः त्रिदशः साक्षाद्-भूत्वा नत्वेत्युवाच च ॥ ३५॥ तस्मै तुभ्यं नमो यस्य, गुणान् वर्णयति खयं । शक्रोऽपि स्वसभामध्ये, प्रोक्तवान् वृत्तमप्यदः ॥ ३६॥ कुमारगुणपूर्णायां, वसुधायाममानिव । जगाम त्रिदिवं देवो, भुङ्क्ते वज्रायुधः सुखम् ॥ ३७॥ अन्यदा नृपतिः क्षेम-कूरो राज्ये निवेश्य तं । दीक्षां कक्षीचकारोच-दक्षस्तीर्थकरान्तिके ॥ ३८॥ | स जातो गणभृद्भूरि-गुणाधारः पटादिवत् । राज्ञो वज्रायुधस्यापि, पुत्रः पौत्रोऽप्यजायत ॥ ३९ ॥ राज्ये न्यस्य ततः पौत्रं, प्रवव्राज | खपुत्रबुक् । वज्रायुधः पितुः क्षेम-कराचार्यस्य सन्निधौ ॥ ४० ॥ ततस्तीवं तपस्तप्त्वा, कृत्वाऽन्त्याराधनां वरां । अवेयके समुत्पन्नो, AAAAAAAAEBAR %AISA Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमाला याचिः ॥१२॥ नवमे शुभभावतः ।। ४१॥ ततोऽपि जम्बूद्वीपेऽस्मिन् , प्राग्विदेहेषु विश्रुता । विजये मङ्गलावत्यां, नगरी पुण्डरीकिणी ॥ ४२ ॥ राजा घनरथस्तीर्थ-कूरः पद्मावती प्रिया । पुत्रस्तयोर्मेघरथो, राजा न्यायवनाम्बुदः॥ ४३ ॥ प्राज्यं राज्यं परित्यज्या-ज्यदाऽसौ जीर्णपर्णवत् । दीक्षामुपाददे खस्य, पितुस्तीर्थकृतः क(रात्)रे ॥ ४४ ॥ अत्युत्कृष्टं तपः कृत्वा, तीर्थकृच्चक्रभृच्छ्यि । अर्जयित्वा शुभध्यानात , सर्वार्थे त्रिदशोजनि ॥४५॥ ततोत्र जम्बूद्वीपेऽस्मिन् , हस्तिनापुरभूभुजः । विश्वसेनस्य जायायाः, अचिरायाः सुनन्दनः ॥ ४६॥ पञ्चमश्चक्रिणां तीर्थ-कराणां षोडशश्च सः । जातः श्रीशान्तिनाथोऽयं, सिद्धिश्रीसगरङ्गभुक् ॥ ४७॥ ॥ इति श्रीशान्तिनाथचरित्रं समाप्तम् ॥ १दाना धिकारे ऽभयदा नरताना गुणाः ACIA तदेवं यथा भगवता शान्तिनाथेनाष्टमे वज्रायुधभवे पारापतस्याभयदानमदायि तथाऽन्येनापि तत्सर्वजीवेभ्यो दातव्यमिति गाथार्थः ॥१०॥ य एव चाऽभयप्रदाननिरतो धर्मस्थितोऽपि स एवोच्यते, न शेष इति दर्शयन्नाहजह मम न पियं दुक्खं, जाणिय एमेव सयलजीवाणं। न हणइ न हणावेइ य, धम्मम्मि ठिओस विण्णेओ व्याख्या-यथा मम न प्रियं दुःखं, एवमेव अप्रिय सकलजीवानामपीति ज्ञात्वा “यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धा"यो न हन्ति तथा न घातयति परैः । कान् ?, "जीवागं" इति षष्ठयन्तमपि "अर्थवशाद्विभक्तिपरिणाम" इति जीवान्, 'च' शब्दाद् मन्तश्च परान्नानुजानीते, धर्मे स्थितः स एव विझेयो, नान्य इति गाथार्थः ॥ ११॥ तदेवमभयदाननिरतानां विस्तरतो गुणान् दर्शयित्वा सम्प्रति विपर्ययवतां दोषान् दिदर्शयिषुराह Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जे उण छज्जीववहं, कुणंति असंजया निरणुकंपा । ते दुहलक्खाभिहया, भमंति संसारकंतारे ॥ १२ ॥ पुष्पमाला ___व्याख्या-ये पुनः षड्जीववधं-षड्जीवकायघातं कुर्वन्ति । किंविधाः सन्तः ? इत्याह-असंयता:-अनिगृहीतमनोवाक्कायाः, तथा १दानालघुवृत्तिः घिकारे ॥१३॥ निरनुकम्पा-जन्तुरक्षापरिणामवर्जिताः, ते मानसिकादि-कुष्ठज्वरदाहादि-अनिष्टसंयोगेष्टविप्रयोगादिदुःखलक्षाभिहताः संसारकान्तारे जीववधस भ्रमन्तीति गाथार्थः ॥ १२ ॥ अमुमेवार्थ सोदाहरणं दिदर्शयिषुराह दारुणता वहबंधमारणरया, जियाण दुक्खं बहुं उईरंता । होति मियावइतणउव्व, भायणं सयलदुक्खाणं ॥ १३ ॥ मृगापुत्रो व्याख्या-वधो-जन्तुताडनादिपीडारूपः, बन्धो-रज्ज्वादिमिर्जन्तोः संयमनं, मारणं-जन्तूनां प्राणवियोजनारूपं, तेषु निरताः- पनयव सदोद्युक्ताः, तथा जीवानां पैशून्याभ्याख्यानादिभिर्मानसं दुःखं बहूदीरयन्तो-धनं जनयन्तो, 'जीवा' इति विशेष्याध्याहारः, भवन्ति । ॥१३॥ कथम्भूता? इत्याह-भाजनं-पात्रं, केषां ? इत्याह-नारकतिर्यगादिभवभाविनां शारीरमानसानां सकलदुःखानां । क इव ?, "मियावइतणउव्व" त्ति । 'वह'त्ति पूरणे श्रुतिसुखार्थ, ततश्च मृगासू नुरिवेत्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकगम्यस्तच्चेदम्जम्बूद्वीपभरते मृगाग्रामे श्रीवीरः समवासार्षीत् , राजाद्यागमनं, धर्म श्रुत्वा स्वस्थानगमनं । तत्र चै [नरं]जात्यन्धरधिरं जराजीर्ण-15 मनाथं कम्पमानकरचरणशीर्ष क्षुत्क्षामं पुरतो दण्डेनाकृष्यमाणं दृष्ट्वा श्रीगौतमो वीरं पप्रच्छ-किं भगवन्नेतादृक्कोऽप्यन्योऽप्यस्ति दुःखी?, भगवानाह-"गोअमा! इहेब मियागामे णयरे विजयस्स रण्णो मियाए देवीए मियाउत्ते दारए जाइअंधे जाइमूए जाइपंगुले टुंडे, नत्थि णं तस्स हत्था वा पाया वा कन्ना वा अच्छी वा नासा वा । केवलं से तेसिं अंगोवंगाणं आगइमित्ते आवि वट्टइ, तेणं से लोढागइमित्ते अईव दुक्खिए अच्छई। ततो भगवद्वचनगाढप्रत्ययोऽपि साक्षादवलोकनोत्पन्नकौतुको भगवदनुन्नया मृगादेवीसदनमासाद्य तत्कृतोचि FASHANGACASIA Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१४॥ तविनयप्रतिपत्त्यनन्तरं श्रीगौतमस्तामाह-'हे देवानुप्रिये ! अहं त्वत्पुत्रं द्रष्टुमागां' इति । ततः सा मृगादेवी मृगापुत्रानुजन्मनः सर्वाकालङ्कारालङ्कृतान् श्रीगौतमचरणरेणुतिलकितान् कृत्वा आह-'भगवन्नेते ते मत्पुत्रा पश्यते'ति । ततः श्रीगौतमस्तामेवमवादीत-'नाह १दाना धिकारे | मेतांस्ते तनयान् द्रष्टुमायातः, किन्तु ज्येष्ठं वीरनिर्दिष्टं राहसिकं तादृशं मृगापुत्राख्यं' इति । तावता जाता तद्भक्तवेला । ततः सा मृगापुत्रस मृगादेवी परावर्तितवेषाऽशनादिभृतकाष्ठशकटीमनुकृपन्ती श्रीगौतममाय भूमिगृहद्वारे स्वयं चतुष्पटपटेन भगवता च मुखपोतिकया पूर्वभवादि सघ्राणं मुख बन्धयित्वा पराङ्मुखी तवारमघाटयामास, तत्समकमेव च करितुरगगवादिमृतकेभ्योऽप्यनिष्टतरो गन्धो नशापुटं ॥१४॥ पाटयन्प्रासार्षीत् । ततः स मृगापुत्रोऽशनपानखादिमस्वादिमगन्धेनाभिभूतो मूञ्छितो गृद्धस्तदास्येनाहरक्षिप्रमेव च पूतिशोणिततया 8 परिणमय्य षोडशनाडीभिः परिश्रवति, तदपि च पूतिशोणितमाहारयति । ततोऽहो !! खल्वयं नैरयिकप्रतिकृतिरिति चिन्तयन्मृगामा-| पृच्छय श्रीवीरान्तिकमागत्य त्रिःप्रदक्षिणीकृत्य नमस्कृत्य सर्व पूर्वोक्तं निवेद्य नानालोकोपकाराय भगवन्तं मृगापुत्रपूर्वभवं पप्रच्छ श्रीगौतमः, भगवानाह- "गोयमा ! इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे सयदुवारपुरे धणवई राया, तया तस्स विजयवद्धमाणपामुक्खपंचसयगामाहिवई अहम्मिए अम्मिढे अहम्मन्नू अहम्मक्खाई बहूणं जीवाणं वहबन्धमारण(रए)परे रऊडे नाम खत्तिए होत्था, | से य ताणि गमाणि बहूहि करेहिं भरेहि य निद्धणे करेमाणे उच्चालेमाणे विहरइ । अन्नं च सवेसिं सवत्थ ववहारेसु सुणमाणे भणइ१.न सुणेमि, असुणमाणे वि भणइ-सुणेमि । एवं पस्समाणे भासमाणे गिह्रमाणे जाणमाणे वि विवरीए भणियव्वे । तए णं से रहऊडे 8 एयसमायारेसुं बहुं पावं समजिणमाणे विहरइ । अन्नया तस्स सरीरगंसि समगं चेव सोलस रोगायंका पाउन्भूया, तं जहा-"खासे साँसे जैरे दोहे, कुच्छिVले भगंदरे। अरिसॉजीरए दिट्टी-१०मुहसूले "अकारए ॥२॥ अच्छि रेवेयणा कण्ण-१३वेयणा १४कंडू १५उदरे ANUAERAEBACAN Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृतिः ॥१५॥ ६कोढे ।" से य बहूहिं विजाईहिं रोगोवसमोवाएहिं विगिंछिए, न य इक्केण वि रोगायंकेण मुक्के । तए णं से तेहिं रोगायंकेहिं अभिभ्रू समाणे अट्टवसट्टोवगए अड्डाइज ई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालगए रयणप्पभाए उकोसहिइएस नेरइएसु उवण्णे । तओ य उव्वट्टित्ता मियादेवीए गब्र्भसि पुत्तत्ताए उववण्णे । तओ देवीए तिव्वा वेयणा दोहग्गं रण्णो अणिद्वत्तणं च जायं, तओ तीए अणेगहा साडिजमाणे वि गब्भे न सडेइ । अण्णं च तस्स गन्भगयस्सेव अट्ट नाडीओ गर्भतरप्पवहाओ अट्ट बाहिरंतरप्पवहाओ अठ्ठ पूइसोणियप्पवहाओ | दुवे दुवे कण्णंतरे अच्छिअंतरे नहंतरे नासंतरे अभिक्खणं अभिक्खणं पूयं च सोणियं च परिस्सवेमाणी परिस्वेमाणी चिठ्ठति । अण्णं च तस्स गन्भगयस्सेव अग्गिए नामं वाए पाउन्भूए, जण्णं से दारए आहारेइ तण्णं खिप्पामेव विद्धंसह, पूयत्ताए सोणियत्ताए परिणमइ । तं पि य णं पूयं च सोणिय च परिस्सवमाणं आहारेइ । तरणं सा मियादेवी पुव्युत्तरूवं दारगं पसूया भीयासमाणी तं दारगं उज्झाविंती पढमावच्चत्तणओ राइणा निसिद्धा तं दारगं तहा पडिजागरमाणी विहरइति । से णं भंते! दारए काल किच्चा कहिं गच्छिही ?, गोयमा ! इहं छब्बीसं वासाई परमाउं पालइत्ता वेयड्ढे सीहो भविस्सह, तओ उक्कोसहिईए रयणप्पभाएं नेरईए, तओ सरिसवेसु उववजित्ता सक्करप्पभाए, तओ पक्खी, तओ तईयाए, तओ सीहे, तओ चउत्थीए, तओ उरगे, तओ पंचमाए, तओ इत्थी, तओ छठ्ठीए, तओ पुरिसे होऊण सत्तमाए पुढवीए उववजिही । तओ उच्चट्टित्ता जलयर अद्धतेरसकुलकोडिलक्खेसु एगमेगंसि जोणिविहाणंसि अणेयसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तत्थेव भुञ्जो जो पच्चाइस्सइ । तओ उव्वट्टित्ता एवं चउप्परसु उरपरिसप्पेसु भ्रुयपरिसप्पेसु खहयरेसु चउरिंदिएसु तेईदिएस बेईदिएसु कडुयरुक्खेसु वाउ - तेउ आउ - पुढविकाइएसु अणेयसयसहस्सखुतो उववजिही । अविय - " इय हिंडिऊण संसार - सायरं सुप्पइद्वियपुरम्मि । होही दित्तो वसहो, दुप्पेच्छो इयरवसभाणं ॥ १॥" १ दानाधिकारे मृगापुत्रस्यागामि भवादि ॥१५॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिमाला ॥१६॥ १ दाना. धिकारे भयदानोपसंहारा ॥१६॥ MECHANABAर तत्थय सिंगेहिं गंगाकूलं उक्खणंतो पडियभि[त्तित] डेण संचुणिो मरिउं तत्थेव पुरे सिडिओ, पव्वजं पडिवजिय सोहम्मे सुरो होऊण विदेहे सुकुले माणुसत्तं लहिउँ पध्वज पडिवन्जिय धुअकम्मरओ केवली सिद्धिं गमिस्सइ । " इय सोऊणं सिरिगोय-माइणो जति परमसंवेगं । पिच्छह परसंतावो, कित्तियमित्तं जणइ दुक्ख ॥१॥" तम्हा परो न तप्पिजइ । इति मृगापुत्रकथा समाप्ता॥ तदेवं जन्तूनां वधादिविधानान्मृगापुत्र इव सर्वदुःखभाजनं जीवा भवन्तीति गाथार्थः ॥ १३ ॥ अथेदमहिंसाद्वारमुपसंह कामोत्रैव रहस्योपदेशमाहनाऊण दुहमणतं, जिणोवएसाउ जीववहयाणं । होज अहिंसानिरओ, जइ निव्वेओ भवदुहेसु ॥१॥ अस्या अक्षरगमनिका-एवमुक्तविधिना जिनोपदेशाजीववधकानामनन्तं दुःखं ज्ञात्वा त्वमहिंसानिरतो भवेः, यदि निर्वेद-उद्विज्ञताऽस्ति भवदुःखेषु-संसारदुःखेषु इति गाथार्थः ॥ १४ ॥ भव्या! एवं विभाव्य,व्यमनघनशत-प्रापिकैकक्षणेन संसाराम्भोधिहेतु-र्भवति हि विहिता,प्राणिनोऽल्पाऽपि हिंसा। संसारंवाऽपहाय, प्रभवति भवता-मक्षते मोक्षसौख्ये,काङ्क्षा चेत्प्राणिरक्षा, कुरुत शिवगते-निदक्षा सदैव ॥१॥ ___ इति पुष्पमालाविवरणे (आये) दानाधिकारे प्रथममभयदानद्वारं समाप्तम् ॥ १॥ Ak Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः |१दाना|धिकारे ज्ञानदानं, तत्र ज्ञानाभयदानयोः सम्बन्धः। अथ ज्ञानदानद्वारं विवक्षुः सूत्रकारस्तस्य चोक्तद्वारेण सम्बन्धं रचयन्नाह&| इच्छंतो य अहिंसं, नाणं सिक्खिज सुगुरुमूलम्मि । सञ्चिय कोरइ सम्मं, जं तव्विसयाइविन्नाणं ॥१५॥ व्याख्या-इच्छत , कर्नुमिति शेषः, चकारोऽन्यत्र योज्यते, अहिंमां च प्राणिवधनिवृत्तिरूपां, आदित एव ज्ञानं शिक्षेत । क्व ? इत्याह-सुगुरुमले-वक्ष्यमाणसंविग्नत्वादिगुणयुक्तगुरुसमीपे । इह ज्ञानमिति सामान्योक्तावपि श्रुतज्ञानमेवाधि(क्रियते)क्षिप्यते, तस्यैव गुरुपरतन्त्रत्वात् , शेषज्ञानानां तु खस्खावरणक्षय-क्षयोपशमाभ्यां स्वत एव जायमानत्वात् “एत्थं पुण अहिगारो सुयनाणेणं]"इत्यादि वक्ष्यमाण [ अष्टादशमगाथा ] वचनत्वाच्च । कुतो ज्ञानमेव शिक्षणीयं ? इत्याह- "सच्चिय"त्ति । यत्-यस्मात्सव अहिंसा सम्यक्क्रियते । क्व सति ? इत्याह--"तविसय"त्ति । तस्या-अहिंसाया विषयादे-विषयभेदफलादेविज्ञाने सति, नान्यथा, तथाहि-हिंसायास्तावद्विविधो विषयो, जीवाजीवभेदात , स्थावादौ स्खलनादिसम्भवेजीवेऽपि संक्लेशविषयतायाः सम्भवात् , “तप्पज्जायविणासो, दुक्खुप्पाओ य संकिलेसो य" इति वचनात् । अतः प्राणिवधनिवृत्तिरूपाया अहिंसाया अपि स एव द्विविधो विषयः। तथा विवक्षितमनुष्यस्वादिपर्यायविनाशस्य दुःखोत्पादस्य सङ्क्लेशस्य च निवृत्तौ सत्यां चाहिंसायास्त्रिविधो भेदः । अस्याश्च फलादिकं स्वर्गापवर्गादि । एतच्च | सर्व ज्ञानेनवावगम्यते, अतोऽहिंसार्थिना ज्ञानमेव प्रथमं शिक्षणीयं । यदुक्तं सूत्रे-" पढमं नाणं तओ दया, [एवं चिट्ठइ सबसंजए । अन्नाणी किं काही?, किं वा नाहि य छेयपावगं ॥१॥” दश० ४-१०] इत्यादि । आह-यद्येवं तत्रि प्रथमं ज्ञानद्वारमेव किं नोक्तं ? | इत्यत्रोच्यते-महाव्रताणुव्रतरूपस्य धर्मस्थाहिंसामूलत्वाज्ज्ञानस्यापि च प्रथमं शिक्षणीयत्वेऽप्यहिंसाऽर्थमेव व्याप्रियमाणत्वात्तस्या एव प्राधान्यमाकलय्यात्र प्रथमं तवारमुपन्यस्तमिति गाथार्थः ॥१५॥ यदिह ज्ञानद्वारे वक्तव्यं तत्संग्राहिकां द्वारगाथामाह ॥१७॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ १८ ॥ किं नाणं ? को दांया ?, को गहणंविही ? गुणों य के तस्स ? । दारक्कमेण इमिणा, नाणस्स परूवणं कुच्छ ॥१६॥ व्याख्या - प्रथमं किं ज्ञानं ? इति वाच्यं, ततस्तस्यैव ज्ञानस्य को दाता समुचितः ? इति भणनीयं, ततस्तस्यैव को ग्रहणविधिः ? इति ख्यापनीयं ततस्तस्यैव को गुणः ? इति प्ररूपणीयं द्वाराणां क्रमेणानेनोक्तस्वरूपेण ज्ञानस्य प्ररूपणां स्वरूपनिर्णयात्मिकां वक्ष्ये इति गाथार्थः ।। १६ ।। तत्र प्रथमद्वारमाह आभिणिवोहियनाणं, सुअनाणं चेत्र ओहिनाणं च । तह मणपज्जवनाणं, केवलनाणं च पंचमयं ॥ १७ ॥ व्याख्या - अभीत्याभिमुख्ये, नि इति नैयत्ये, ततश्चाभिमुखोऽर्थग्रहणयोग्यनियत देशावस्थानापेक्षी नियत इन्द्रियाण्याश्रित्य स्वस्वग्रहणपरिणतो बोधोऽभिनिबोधः, स एवाभिनिवोधिकं तच्च तज्ज्ञानं चाभिनिबोधिकज्ञानं, इन्द्रियपञ्चक-मनोनिमित्तो वस्त्ववबोध इत्यर्थः । श्रवणं श्रुतं - अभिलापप्लावितार्थोपलब्धिविशेषः, तच्च तज्ज्ञानं च श्रुतज्ञानं, इन्द्रियपञ्चक-मनोनिमित्त एवाभिलापारोपितो बोध एवेत्यर्थः । अवधि - मर्यादा, तेनावधिना रूपिद्रव्यग्रहणात्मकेन ज्ञानमवधिज्ञानं, इन्द्रिय-मनोनिरपेक्ष आत्मनः साक्षाद्रूपिवस्तुग्रहणात्मको बोध इति भावः । संज्ञिभिजावैः काययोगेन मनोवर्गणाभ्यो गृहीतानि मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानि वस्तुचिन्ताप्रवर्त्तकानि द्रव्याणि मनांसीत्युच्यन्ते तानि पर्येति- अवगच्छतीति मनःपर्यायमिति कर्मण्यण् [ ३-२-१पा०] । तच्च तज्ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानं, अर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वर्त्तिसंज्ञिजीवचिन्तितार्थप्रकटनपटुरिन्द्रिय- मनोनिरपेक्ष आत्मनः साक्षात्प्रवृत्तो बोध एवेति हृदयम् । केवलं - असाधारणं सम्पूर्णज्ञेयग्राहित्वात्सम्पूर्ण वा, तच्च तज्ज्ञानं च केवलज्ञानं रूप्यरूपिवस्तुग्राहकं पञ्चमज्ञानमिति गाथासंक्षेपार्थः । व्यास - स्त्वावश्यकादिभ्योऽवसेय इति । अत्र च 'च-एव-तथा, शब्दाः पादपूरणे ॥ १७ ॥ अथैतज्ज्ञानपञ्चके येनेहाधिकारस्तदाह १ दानाधिकारे ज्ञानद्वारस्य प्रतिद्वार चतुष्कम् ज्ञानपञ्चकं च ॥ ॥ १८ ॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः न्तस्तत्र AC-ACCURAL | एत्थं पुण अहिगारो, सुअनाणेणं जओ सुएणं तु। सेसाणमप्पणोऽवि य, अणुओगपईवदिलुतो ॥ १८ ॥ ___व्याख्या-अत्र पुनः प्रकृतोऽधिकारः श्रुतज्ञानेन, कुतः ? इत्याह-"जओ"त्ति, यतः श्रुतेनैव शेषाणां मत्यादिज्ञानानामात्मनो ४१ दाना धिकारे ऽपि चानुयोगो-व्याख्यानं क्रियत इति शेषः । तु शब्द एवार्थे, स च व्याख्यात एव । अत्र चार्थे प्रदीपदृष्टान्तः-यथा हि प्रदीप श्रुतज्ञानआत्मानं शेषान् घटादींश्च प्रकाशयति, तथेदमपीति । अयम्भावः-इह ह्यहिंसापरिज्ञानार्थ ज्ञानं शिक्षणीयमित्युपदेशः प्रक्रान्तः, अहिं महत्वं सायाश्च स्वरूपज्ञापने श्रुतज्ञानमेव मुखरं, न शेषज्ञानानि, तेषां मूककल्पत्वात् , ततस्तेनैव श्रुतज्ञानेनात्राधिकार इति गाथार्थः ॥१८॥ प्रदीपदृष्टाननु यदि श्रुतज्ञानेन शिक्षितेनाहिंसापरिज्ञानं, ततः कार्यसिद्धिस्तर्हि वर्तमानकालभाविनां तथाविधमेधाऽभावात्सर्वस्य श्रुतस्य शिक्षितुमशक्यत्वादशक्यानुष्ठानोपदेश एवायं भविष्यतीत्याशङ्कयाह| एकम्मि विमोक्ख-पयम्मि होइ जो एत्थ निच्चमाउत्तो। तं तस्स होइ नाणं, छिंदइ सो तेण दुहजालं ॥१९॥ व्याख्या-एकस्मिन्नपि मोक्षकारणभूते अहिंसादिपदे जिनोक्त योऽत्र लोके नित्यमायुक्तः-अङ्गाङ्गिभावेन परिणततदर्थो भवति, ६ तदेकमपि मोक्षपदं "तस्स" इति मोक्षपदे आयुक्तस्य ज्ञानं भवति, छिनत्ति च स तेन कारणभृतेन, दुःखयति संसारिणः प्राणिन इति दुःख, तस्य जालं, कारणे कार्योपचाराद्वाऽष्टविधं कर्मसमूहं । इदमुक्तं भवति-न वयं सम्पूर्णश्रुताध्ययनादेव स्वकार्यसिद्धिं ब्रूमः, अपि तु रोहिणेयतस्करेन्द्र-चिलातीपुत्रादीनामिव यो यावति श्रुते नित्यमायुक्तस्तस्य तदपि श्रुतं स्वकार्यसिद्धये स्यादिति गाथार्थः ॥ १९ ॥ उक्तं किं ज्ञानमिति प्रथम द्वारं, इदानीं ज्ञानदातुरि बिभणिषुराहसंविग्गो गीयत्थो, मज्झत्थो देसकालभावन्नू । नाणस्स होइ दाया, जो सुद्धपरूवओ साहू ॥ २० ॥ ॥ १९॥ RECEMPLOCAL Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२०॥ १दानाधिकारे श्रुतज्ञानदातुर्गुणाः ॐॐॐॐॐॐCRECR5% व्याख्या-यः संविग्न-उद्यतविहारी, स च स्वाचारावष्टम्भेनाहद्वचनं यथावत्प्ररूपयत्यादेयवाक् च स्यादत इदं विशेषणं, यदुक्तं| " गुणसुट्टियस्स वयण, महुघयसित्तोच पायवो भासह । गुणहीणस्स न रेहइ, नेह विट्ठणो जह पईवो ॥१॥" संविग्नश्च गीतार्थस्य गुरोः शिक्षका(शिष्या)दिरपि स्यादित्याह-गीतार्थ:-अधीतच्छेदग्रन्थादिसूत्रार्थः, अयं चोत्सर्गापवादौ वेत्तीत्ये| तद्विशेषणं । अगीतार्थो हि ज्ञानदानेऽनधिकार्येव, यतः"सावजऽणवजाणं, वयणाणं जो न जाणइ विसेसं । वोत्तुं पि तस्स न खमं, किमंग पुण देसणं काउं? ॥१॥" गीतार्थोऽपि रागद्वेषाभिनिवेशतो गोष्ठामाहिलादिवदहद्वचनमन्यथाऽपि प्ररूपयेदित्याह-मध्यस्थो रागद्वेषाभिनिवेशवर्जितः । पुनः कथम्भूतः? इत्याह-'देस" इत्यादि, देशः-पार्श्वस्थादिभावितक्षेत्ररूपः, काल:-सुभिक्षदुर्भिक्षादिः, भावः-परचित्ताभिप्रायादिलक्षणस्तान् जानातीति देशकालभावज्ञः, यथोक्तदेशाद्यभिज्ञो हि तदनुसारेणैव शुद्धोञ्छदेशनादौ यतते इतीत्थं विशेषणं । ननु गीतार्थत्वेन देशाद्यभिज्ञता लब्धैव, किं पृथग्रहणेन ? इति चेदुच्यते-गीतार्थो हि कश्चिच्छास्त्रनिर्णीतं देशादिस्वरूपं विदन्नपि कर्मक्षयोपशमवैचित्र्यात्तथाविधदक्षता-स्मृतिपाटवाद्यभावाद् व्यवहारकाले पराभिप्रायादेरनुचितभाषणादौ प्रवर्तेत, इति व्यवहारकालेऽपि तदौचित्यप्रवृत्तिवैशिष्टयख्यापनार्थ पृथगेतद्विशेषणोपादानं, अत एव षट्त्रिंशदाचार्यगुणेषु सूत्रार्थोभयज्ञतायाः सकाशाद्देशकालभावज्ञतादिगुणः पृथगुपात्त इति । पुनः कथम्भृतः ? इत्याह-शुद्धं-यथावस्थितं जिनवचनं प्ररूपयतीति शुद्धप्ररूपकः । ननु यथोक्तगुणविशिष्टः शुद्धप्ररूपक एव भवि| ष्यति, किमनेन ?, सत्यं, (किन्तु) ज्ञानदातुः कदाचिदशेषगुणाभावेशी तीर्थप्रवृत्तिहेतोर्यथावज्जिनवचनप्ररूपकत्वस्य गुणस्य प्राधान्यादवश्यान्वेषणीयत्वख्यापनार्थ पृथगुपादानं, अन्यथा विपर्ययसम्भवात् । यत्तदोर्नित्याभिसम्बन्धात्स एवंविधगुणविशिष्टस्साधुर्ज्ञानस्य Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृतिः ॥ २१ ॥ %%%%%%% ৬6৮৬ दाता भवति । इह च साधुग्रहणेनाचार्यादेरपि ग्रहण, साधुत्वस्य सर्वत्रानुगमादिति गाथार्थः । शुद्धप्ररूपकस्यैव महात्म्यं प्रकटयन्नाह - ओसन्नोऽवि विहारे, कम्मं सोहेइ सुलहबोही य । चरणकरणं विसुद्धं, उबवूहंत । परूती ॥ २१ ॥ व्याख्या– विहारे-यथोक्तसंयममार्ग प्रवर्त्तनरूपे अवसन्नोऽपि - शिथिलीभूतोऽपि अशुभं कर्म शोधयति - निर्जरयति, जन्मान्तरे सुलभबोधिश्च - सुखप्राप्यजिनधर्मश्च स्यात् । किं कुर्वन् ? इत्याह- चरणकरणं - महात्रतपिण्डविशुद्ध्यादिगुणसन्दोहरूपं, विशुद्धं - अर्हद्भियथा गदितं, उपबृंहयन्- प्रशंसन्, तथा प्ररूपयंश्चेति । एतेन च यथावदुपबृंहितेन आत्मनिन्दापरगुणोत्कीर्तनरतो 'वंदह न य वंदावेद्द" इत्यादिलक्षणयुक्तः संविग्रपाक्षिक उक्तः, अस्य च कर्मशुद्धिस्सुलभबोधित्वं चोपलक्षणं, यावदैहिकामुष्मिको जनानुरागादिको गुणग्रामोऽन्योऽपि जायते, विपर्यये तु विपर्ययसद्भावात् । तथा चात्र पिण्डनिर्युक्त्युदाहृतमुदाहरणं सङ्घियोच्यतेमहर्षिमेकमायान्तं दृष्ट्वा काचिद् गृहे निजे । अन्नाद्यादा (नमादा) य दानीयं निर्गताऽगान्मुनिस्ततः ॥ १ ॥ द्वारे गृहे तस्मिन्न शुध्ध्यत्येषणेत्यतः । तदा सविस्मयं श्राद्धी, किञ्चिद् ध्यायति यावता ॥ २ ॥ तावदन्यो मुनिस्तत्र समागात्संयमालसः । अशनादि तथा तस्य तद्दत्त्वेति स जल्पितः ॥ ३ ॥ पूर्वागतो मुनिः किं न जग्राहैतदुवाच सः । नीचद्वारे भवद्गेहे, भिक्षा साधोर्न कल्पते ॥ ४ ॥ अधर्मोऽहं तु तेनेमां, गृह्णामीत्युदितेति सा । स्मरेत् खनिन्दकोऽस्त्यन्य-गुणग्राही गुणी ह्यतः ॥ ५॥ अतो दत्तं पुनस्तस्या-शनादिविपुलं तथा । तावदन्योऽपि तत्रैकः समागात्संयमालसः ॥ ६ ॥ तदा तस्यापि सा सर्व तं वृत्तान्तं तथाऽवदत् । स प्राह मायया तेन, भिक्षा नोपाददे तदा ॥ ७ ॥ १ दाना धिकारे श्रुतदातृषु शुद्धप्ररूपकोदाहरणं ॥ २१ ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १दाना लघुवृत्तिः CREAct- चीर्णव्रतास्तु गृहीमो, वयं त्वेनामितीरिते । चिन्तयेत्सा ह्यधर्माऽय-मन्यदन्यं च निन्दति ॥८॥ पुष्पमाला तदपात्रमिदं नूनं, इत्येषा कुपिता सती। न किञ्चित्तस्य तदत्त-वती दान विवेकिनी ॥९॥ इति शुद्धप्ररूपकत्वगुणे ज्ञानदातृभिरवश्यं यतितव्यमिति गाथार्थः ।। २१ ॥ उक्तं ज्ञानदातद्वारं, इदानीं तद्ग्रहणविधिद्वारमाह धिकारे ॥२२॥ श्रुतग्रहण| अक्खलियमिलियाइगुणे, कालग्गहणाइओ विही सुत्ते। मजणनिसेजअक्खा, इच्चाइकमो तयथम्मि ॥२२॥2 विधि ___ व्याख्या-श्रुतं द्विधा-सूत्रतोऽर्थतश्च, तत्र सूत्रे आचाराङ्गोत्तराध्ययनादिसम्बन्धिनि कालग्रहणादिको विधिः, कालश्च समयप्र-18 प्रसिद्धः क्रियाविशेषः, आदिशब्दादुद्देशसमुद्देशानुज्ञाप्रमार्जनादिपरिग्रहः । कथम्भूते सूत्रे ? इत्याह-उच्चरतः स्खलनं-स्खलितं, पदादिवि+च्छेदशून्यं यत्तन्मिलितं, तयोर्भावः स्खलितमिलितत्वं, न स्खलितमिलितत्वं-अस्खलितमिलितत्वं, तदादिर्येषामहीनाक्षरानधिकाक्षरा दीनां ते अस्खलितमिलितत्वादयः, एवम्भूता गुणा यत्र तत्तथा, तस्मिन् । एतेन च अहीनाक्षरानधिकाक्षरास्खलितामिलितत्वादिगुणयुक्तं सूत्रं पठनीयमिति विधिरेवोक्तः, अक्षरहीनत्वाद्युपेतं तूचार्यमाणं विद्यामन्त्रादिकमपि विवक्षितफलवैकल्यमनर्थावाप्तिं च जनयेत , किं पुनः परममन्त्रकल्पं श्रीजिनप्रणीतं सूत्रं ?। तथा चात्रानुयोगद्वारचूर्णावुक्तं कथानकं सङ्किप्योच्यते| "इह मगहे रायगिहे, पुरम्मि वीरे जिणे समोसरिए । सेणिय-अभयाईया, समागया वंदणनिमित्तं ॥१॥" "धम्मं सोऊण विणि-ग्गयाए परिसाए खेयरो एको । उप्पडइ पडह धरणिं, सेंणिओ तो जिणं पुच्छई ॥ २ ॥" "किं एस खेयरो नाह !, उप्पड निवए? जिणो भणइ एवं । जह नहगामिणिविज-क्खरमेगमेयस्स पम्हुसियं॥३॥" 11॥२२॥ "तेण इमो न हु गच्छद, एयं सोचा जिणोवएसेणं । खिप्पं गंतुणाभय-कुमारो तं खेयरं भणइ॥ ४॥" NAGARL 436 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ २३॥ | "तुह विजाए पम्हट्ठ-मक्खरं जाणिऊण जिणकहिय । वुच्छामि देह जइ मह, विज पडिवजियं तेण ॥५॥" 18j१ दाना"तो कहह अभयकुमारो, लद्धीए पयाणुसारिणीए य । अक्खरमिमस्म खयरो, विजं दाऊण उप्पडओ ॥ ६॥" #धिकारे इत्येवं यथा हीनाक्षरत्वात्खेचरस्य विद्यासाध्यकार्यातिपातः सम्पन्नस्तथा सूत्रेऽप्यक्षरादिहीनतायामभिधेयभेदस्तद्भेदे क्रियाविघा- माअस्खलित| तस्तद्विधाते चरणविसंवादस्तद्विसंवादे निर्वाणाभावस्तदभावे च दीक्षावैयर्थ्यमिति, एवं अधिकाक्षरादावपि दोषा बाच्याः, अतो यथोक्त- लत्वादिगुणाः | गुणयुक्तमेव सूत्रं पठनीयम् । अर्थगतं तु विधिमाह-तस्य सूत्रस्य अर्थस्तदर्थस्तस्मिन् श्रूयमाणे मार्जनं-शोधनं भुवः कर्त्तव्यं, निषद्या श्रुतोच्चारण स्थ, हीना| गुरोविरचनीया, अक्षा-चन्दनकास्तत्स्थापना कार्या, इत्यादिकः क्रमो-विधिः, आदिशब्दाद्वन्दनकदानादिपरिग्रह इति गाथार्थः।।२२॥8| क्षरोच्चारणे अथ श्रवणगतमेव विधिमाह विद्याधरनिदा-विगहा-परिव-जिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपुठ्वं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ॥ २३ ॥ || कथानकम् व्याख्या-निद्रा-निद्रादिभेदात्पञ्चधा, विकथा-स्त्रीकथाद्याश्चतस्रस्ताभिः परिवर्जितैः, तथा गुप्त-निगृहीतमनोवाकार्यः, तथा | प्राञ्जलिपुटेः-संयोजितकरकमलैः, तथा भक्तिर्बाह्यप्रतिपत्तिलक्षणा. बहुमान-श्चित्तानुरागरूपस्तौ पूर्व यत्र तत्तथेति क्रियाविशेषणम् , | तथैवोपयुक्त-दत्तावधानः, एवम्भूतैः किं ? इत्याह-श्रोतव्यं-आकर्णिनीयं गुरूक्तमिति शेषः, इति गाथाऽक्षरार्थः ॥ २३ ॥ पुनः कथम्भूतैः श्रोतव्यमित्याहअभिकखतेहिं सुहा-सियाई वयणाई अस्थसाराई । विम्हियमुहेहि हरिसा-गएहिं हरिसं जणंतेहिं ॥२४॥ व्याख्या-अभिकाङ्क्षद्भि-ञ्छिद्भिः, सुभाषितानि-मधुराणि वचनानि, अर्थसाराणि-महानि, तथा विस्मितमुखै-नेत्रविका KHABAR स्मतमुख-नेत्रविका-18|॥२३॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** * &| सोल्लासादिना सकौतुकाननैः, 'हरिसागएहिं'ति आगतहर्षेः, हर्ष च जनयद्भिराचार्यादीनामिति गाथार्थः ॥ २४ ॥ पुष्पमाला एवं च श्रवणे श्रोतारो यल्लभन्ते तदाह १ दानालघुवृत्तिः 8 गुरुपरिओसगएणं, गुरुभत्तीए तहेव विणएणं । इच्छियसुत्तत्थाणं, खिप्पं पारं समुवयंति ॥ २५॥ धिकारे ॥२४॥ श्रुतगृहीव्याख्या-गुरुपरितोषगतेन-गुरुपरितोषजातेन सता, गुरौ परां प्रीतिं गतेनेत्यर्थः, गुरुपरितोषप्रकारेण वा, गुरुभक्त्या-तत्से तगुणाः, वारूपया, तथैव विनयेनासनदानादिरूपेण । किमेतेर्हेतुभिः स्यात् ? इत्याह-ईप्सितसूत्रार्थयोः क्षिप्रं-शीघ्रं पारं-निष्ठां समुपयान्ति । निर्गुणं | "सुत्तत्थाण"मिति सूत्रे बहुत्वं यत्ति)द् "दुब्वयणे बहुवयण"मिति प्राकृतलक्षणादिति गाथार्थः ॥२५॥ | श्रुतदानेसम्प्रति यस्य सूत्रार्थों देयौ तदर्शनपूर्व विध्यन्तरमाह दोषाः, | समयभणिएण विहिणा, सुत्तं अत्थो य दिज जोग्गस्स । विजासाहगनाएण, होंति इहरा बह दोसा॥२६॥ धकज्ञातं व्याख्या-समयभणितो विधिलेशतो दर्शित एव, विस्तरस्तु स्थानान्तरादवसेयः । तेन समयभणितेन विधिना सूत्रं अर्थ च तत्र॥ दद्यास्त्वं, कस्य ? इत्याह-योग्यस्य - अर्हस्य, न त्वपात्रस्य । कुतः १ इत्याह-यतो विद्यासाधकज्ञातेन भवन्ति इतरथा दायकग्राहकयोः सूत्रार्थयोश्च बहवोऽवर्णवादादयो दोषा इति गाथाऽक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकगम्यस्तच्चेदम् वाराणस्यां विजयसेननृप-कमलमालादेव्योरभङ्गुरसौभाग्यभूमिः सकलकलाकेलिगृहं पुरन्दरः कुमारः । अन्यदा तस्यैव राज्ञो राज्या मालतीनाम्न्या कुमारं स्म(मा)रानुकारं विलोक्य विह्वलया विलज्जया चतुरचेव्या प्रकटितः स्वाभिप्रायः कुमारस्य पुरः। तं चाऽऽकर्ण्य कुमारेण चिन्तितं-"अहो !! मोहस्य महात्म्यं, किश्चित्पश्यत पश्यत । लोकद्वयविरुद्धेऽपि, यतो जन्तुः प्रवर्तते ॥१॥" सा ॥२४॥ विद्यासा 15-259CAMCE Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवत्तिः ॥२५॥ प्रकाशितं च-"नाभिलाषः कुलस्त्रीणां, युक्तोऽपि पुरुषान्तरे । पुत्रे कामानुरागस्तु, पशुस्त्रीणां पुनर्यदि ॥२॥" | "अन्याऽन्ययुवतिसङ्गम-रसिकेषु ध्वजपटानचलेषु । पुरुषेषु कोऽनुरागः, क्षणरक्तविरक्तचित्तेषु ॥३॥” तथा"अंधो पंगुव्व अजं-मोव्व जरविहुरिओ भुयंगुब्व । आलविङ पि न जुत्तो, परपुरिसो सुकुलनारीणं ॥४॥" इति मद्वचसा तां तथा संस्थापय यथा न स्वप्नेऽपि चिन्तयतीदमिति । चेटी विसृष्टा, सा च कुमारोक्तं सविशेषं स्वस्वामिन्यै न्यवेदयत् । तथाप्यनिवृत्तमारविकारा साऽन्यान्यचेटीसञ्चारणान्न निवर्त्तते यावत्ततस्तत्परिणामस्यानिवार्यत्वं खस्य च तदकार्य विचार्य राज्ञस्त| स्वरूपमनिवेद्य देशान्तरं परिभ्रमन् कुमारोमार्गमिलिते कस्मिश्चिद्वि निर्गुणेऽपि वाचालतया मार्गश्रममपहरति बहुस्नेहं बबन्ध । पल्लीपथेषु च प्रत्यार्थितयोपस्थितान् पल्लिनाथान् प्रमथ्य क्वचिन्नन्दिपुरासन्नोद्याने विश्राम्यति, तावता सिद्धकूटशैलादागत्य भृतानन्दाभिधः सिद्धपुरुषः कुमारं प्राह-'भो महासत्त्व ! प्रतिदिनमुच्छीर्षके कनकसहस्रस्थापन-सङ्ग्रामाभङ्गुरत्व-त्रिकालविषयविज्ञानाद्यनेकफलविद्याया योग्यस्त्वमेव मे देवतयाऽभिहितः' इत्युक्त्वा तेन दत्तां तां महाविद्यां सपूर्वोत्तरसेवाविधिं लब्धवान् कुमारः अयोग्यस्यापि तस्य द्विजस्य | महाग्रहात्तां विद्यां तस्माददापयच्च । ततो गुरुक्तविधिना विद्यां सम्यक् साधयित्वा नन्दिपुरे चन्द्रकान्तागणिकागृहे विद्याप्रभावात्पूर्यमाणसर्वसमीहितः स्थितः । विद्यां गुरुं चोपहसन् विप्रस्तु क्वापि गतः । कुमारस्य तु तत्र मतितिलकामात्यपुत्रेण श्रीनन्दनेन सह मैत्री जाता । अन्यदा क्वचित्प्रासादे कौतुकोपविष्टः स तत्पुरप्रभोः प्रासादे सकलपुरक्षोभकरमतुच्छमुच्छलितं कलकलमाकर्ण्य तज्ज्ञानाय प्रेषितः कोऽपि क्षणादागत्य कुमारमाह, यथा-'एतत्पुरप्रभोः सूर(सेन)नृपतेः प्राणेभ्योऽपि प्रिया रतेरप्यधिकरूपा चतुःपष्टिकलाकौशलवती बन्धुमती नाम तनया केनाऽप्यपहृता, तेनायं तुमुल' इति । ततश्चिन्तयति कुमारः-अहो !! अस्माकमिह तिष्ठतामपि सा केनाप्यपहृता, १ दानाधिकारे श्रुतदानस योग्यायोग्यत्वे पुरन्दरराजकुमारविप्रनिदर्शने। NAGANAGAR Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ।। २६ ।। तदेतत्संवदितं यदभिहितं केनापि - 29 "निचं सन्निहियाणं, विभोगद्वाणं न कमलिणी जाया। सालूराणं दूरा-गया वि भुंजंति तं भमरा ॥ १ ॥ इत्यादि चिन्तयन् गतः कुमारः स्वस्थानं । इतश्च बहुधा विलोकिताऽपि न क्वचित्प्राप्ता वार्त्ताऽपि कन्यायाः, ततस्तद्विरहेण व्याकुलीभूते विलपति नृपतौ मन्त्रिपुत्रेण श्रीनन्दनेनोक्तं- 'हे देव ! अत्र पुरे वैदेशिकोऽस्त्येकः कलावान्, स निर्द्रव्योऽपि परमैश्वर्यवान् दाता भोक्ता च, इति विद्यासिद्धः सम्भाव्यते, इति स पृच्छयते । ततः सम्भावनयाऽपीषदुच्छ्वसितेन राज्ञा मतितिलकप्रमुखप्रधानपुरुषैः सानु - नयमानायितस्तत्र कुमारः, सबहुमानं दृष्टः पृष्टश्वोचितं कुशलादि । ततो राज्ञाऽदिष्टेन श्रीनन्दनेन बन्धुमतीस्वरूपं पृष्टः कुमारश्चिन्तितवान्" व्यसनार्त्ताभ्यर्थितार्थे, जीवितं चेदपि व्रजेत् । यातु यातु फले लाते, शालेः शोषो न दुःखकृत् ॥ १ ॥ 'कस्य न स्युः प्रियाः प्राणाः १, लक्ष्मीः कस्य न वल्लभा ? । सतामवसरे प्राप्ते, द्वयमेतत्तृणायते ॥ २॥" इति विचिन्त्य 'देव ! महत्साध्येऽप्यस्मिन्कार्ये यदि देवस्य मयि सम्भावना ? तर्हि दशदिवसमध्ये चेत्कन्यां नानयामि तर्हि ज्वलज्ज्लनं प्रविशामी 'ति प्रतिज्ञां चकार कुमारः, ततो राज्ञा सम्मान्य विसृष्टः । स्वस्थानं प्राप्तं विधिस्मृता विद्या तं प्राह-अत्रैव भरते वैताढ्यगिरौ पञ्चविंशतियोजनोच्चैः रजतमये गन्धसमृद्धनगरे मणिकिरीटो विद्याधरः, तेन नन्दीश्वरयात्रां कृत्वा वलमानेन रूपमोहितेन बन्धुमती हृता, स सम्प्रति गङ्गातटे धवलकूटगिरौ तस्याः पाणिग्रहणसामग्रीं कुर्वन्नस्ति, एहि तत्र यामि' इति । एवं भवत्विति प्रतिपन्ने विमाने निवेश्य विद्यादेवतया कुमारस्तत्र नीतः । तत्र परिणयनसामग्रीं कुर्वाणो हक्कितः कुमारेण मणिकिरीट:- 'रे ! किमारब्धं ? तस्करनरोचितं' । ततः प्रवृत्तं द्वयोर्दिव्यास्त्रैर्युद्धं ततस्सर्वथाऽजेयपराक्रमं कुमारं ज्ञात्वा त्यक्ताहङ्कारः प्रणतः खेचरः ततो द्वयोमैत्री, विद्या 66 १ दाना धिकारे श्रुतदानस्थ योग्यायो ग्यत्वे पुर न्दरराजकु मारविप्र | निदर्शने । ॥ २६ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ २७॥ धरप्रार्थितः कुमारो बन्धुमतीसहितो वैताढये गतः। तद्गौरवेण कियन्ति दिनानि स्थितः। ततो दशमदिने विद्याधरैः परिवृतो बन्धुमती १दानालात्वा नन्दिपुरे महामहोत्सवेन गतः । ततो गुणाकृष्टचित्तेन सूर सेन)नृपतिना दत्तां स्वस्मिन्ननुरक्तां बन्धुमती परिणीतवान् । कालेन धिकारे पित्रा दतेनाहूतो दशसहस्राणि गजान्-दशसहस्राणि रथान्-लक्षं अश्वान्-कोटिद्वयपदातीन् दत्वा सूरसेननृपेण विसृष्टो बन्धुमत्या सह |8| श्रुतदानस्य विजयसेनेन राज्ञा कारितप्रवेशमहोत्सवः स्वपुरमगात् । अन्यदा श्रीविजयसेननृपो भार्यामालती-पुत्रपुरन्दर-वधूबन्धुमत्यादिभिः सहान्त- | योग्यायोरङ्गमुपमितिकथोपदेशं श्रीविमलबोधकेवलिमुखान् श्रुत्वा गृहीतगृहिवतमनिच्छन्तमपि पुरन्दरं कुमारं राज्ये निवेश्य मालतीयुतस्तत्समीपे | ग्यत्वे पुरदीक्षामादायोत्पन्नकेवलः कैवल्यमलभत । पुरन्दरराजा तु न्यायेन राज्यं पालयनन्यदा गवाक्षे पुरी पश्यंस्तं पूर्वपरिचितं विषं उन्मत्तं न्दरराज मारविप्रधूलिधुसरं लोकर्लेष्टुभिहन्यमानं चतुर्दिक्षु धावन्तमुपलक्ष्य दुःखी जातः, ततो विद्यां स्मृत्वा 'अवज्ञां कुर्वन् मयैवायं ग्रहिलीकृत' इति निदर्शने। तन्मुखेन ज्ञात्वा तां बहुशोऽभ्यर्थ्य विप्रं सज्जी चक्रे। ततः श्रीपुरन्दरनृपोऽपि चिरं राजसुखमनुभूय बन्धुमतीतनयं श्रीगुप्तं राज्ये संस्थाप्य बन्धुमत्या सह विमलबोधकेवलिसमीपे दीक्षां जग्राह । बहुश्रुतो गुर्वादेशादेकाकिप्रतिमया विहरन् क्वचिदुपग्रामं प्रेतवने ग्रीष्मे मध्याह्ने निरावरणमातापनां करोति । तदा च पूर्वप्रमथितपल्लीपतिना स्मृतप्रापराभवेन रालादिगर्भशणतृणादिना तं वेष्टयित्वाऽग्निः प्रोद्दीपितः । तं चोपसर्ग तितिक्षमाणः शुक्लध्यानाग्निना तत्स्पर्द्धयेव निर्दग्धसकलकर्म(मलो)जालोऽन्तकृत्केवली सिद्धः । पल्लीपतिस्तु महापाप इति | | सर्वपरिवारेण निर्वासितः क्वापि रजन्यामन्धतमसेऽन्धकूपे पतितः खदिरकीलकप्रोतजकद्रौद्रपरिणामः सप्तमपृथिव्यामुत्कृष्टायुरप्रतिष्ठाने है. समुत्पन्नः । बन्धुमत्यपि च तीव्र तपस्तप्त्वा सिद्धा, इति पुरन्दरचरितं समाप्तम् ॥ तदेवं यथा योग्यस्य पुरन्दरकुमारस्य दत्ता विद्या सफलतां गता, अयोग्यस्य तु विप्रस्य अनर्थफला सञ्जाता, एवं सूत्रार्थावपीति ॥२७॥ CASSOCIA Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | विभाव्य योम्यस्यैव तौ देयौ, न त्वयोग्यस्य, बहुतमदोषसम्भवादिति गाथार्थः ॥ २६ ॥ अथामुमेवार्थ दृष्टान्तेन दृढयन्नाह |१दानापुष्पमाला II आमे घडे निहितं, जहा जलं तं घडं विणासेइ । इय सिद्धंतरहस्सं, अप्पाहारं विणासेइ ॥ २७ ॥ ताधिकारे लघुवृत्तिः व्याख्या-यथा आमे-अपरिपक्वे घटे निक्षिप्तं जलं तमेव घटं विनाशयति, भूमिगमनादिभ्यः स्वयमपि तोयं विनश्यतीत्यपि ॥२८॥ अयोग्यस द्रष्टव्यं, एवं सिद्धान्तरहस्यमप्यल्पाधारं तुच्छप्राणिलक्षणं दीर्घरोगोन्मादादिभ्यो विनाशयति, स्वयमपि तत्सिद्धान्तरहस्यमुपहासाग्रीत्या श्रुतदाने दोषनिदर्शने दिम्यो विनश्यतीत्यत्रापि स्वयं ज्ञेयमिति गाथार्थः ।। २७ ॥ योग्येनापि शिष्येण ज्ञानं जिघृक्षता 'मम तथाविधा मेधा नास्त्यतो नेदं मया गृहीतव्य' इति न चिन्तनीयमित्याहमेहा हुज्ज न होज्ज व, लोए जीवाण कम्मवसगाणं। उज्जोओ पुण तह वि हु, नाणम्मि सया न मोत्तव्यो॥२८॥ व्याख्या-"लोए"त्ति अस्मिन् लोके कर्मवशगानां जीवानां मेधा-बुद्धिः, कर्मक्षयोपशमसद्भावात् कस्यचिद्भवेत्तदभावात् कस्यचिन्न भवेद्वा, तथाप्युद्योगः पुनः-उद्यमः पुनर्ज्ञानेऽध्येतव्ये सदा-निरन्तरं न मोक्तव्यः । अयम्भावः-कर्मनिजरैव हि साध्या, सा च प्रज्ञावत इतरस्य च श्रुताध्ययनं विदधतः सम्पद्यत एव, ततोऽल्पमेधसाऽपि 'मम न किश्चिदागच्छती'त्युद्वेगतोऽध्ययनं सर्वथैव न मोक्तव्यमिति गाथार्थः ॥२८॥ ननु यदि प्रतिदिनं श्लोकदशकविंशत्यादिकं किश्चित्पठतामागच्छेत् तदाऽधीमहि, यदा तु सकलेनापि दिनादिना पदादिमात्रमेव किञ्चिदागच्छेत् तदा किं तेनेत्याशङ्कयाह31 जइ वि हु दिवसेण पयं, धरिज पक्खेण वा सिलोगऽद्धं । उज्जोमा मुंचसु, जइ इच्छसि सिक्खिउं नाणं॥२९॥ ॥ २८॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHRS व्याख्या-यद्यपि दिवसेन समस्तेनाऽपि पदं धरति-अवतिष्ठते, पक्षण वा श्लोकार्द्धमवतिष्ठते, तथाप्युद्योगं मा मुञ्च, यदीच्छसि पुष्पमाला शिक्षितुं ज्ञानं । इयमत्र भावना-यद्यपि दिनादिना पदमात्रमेवागच्छति तथापि बहुना कालेन तद्बहु सम्पद्यते कर्मनिर्जरा च सञ्जायते, १ दानालघुवृत्तिः अतः श्रुतज्ञानमिच्छता सर्वदेवाध्येतव्यम् , यतः-" योजनानां सहस्रं तु, शनैर्याति पिपीलिका । अगच्छन्वैनतेयोऽपि, ॥२९॥ दधिकारे सर्वदा शि| पदमेकं न गच्छति ॥ १॥" इति गाथार्थः ॥ २९ ॥ अत्रार्थे सूत्रकार एव दृष्टान्तमाह क्षणीयत्वं |ज पिच्छह अच्छेरं, तह सीयलमउयएण वि कमेण । उदएण वि गिरी भिन्नो, थोवं थोवं वहंतेण ॥३०॥ ज्ञानस्य व्याख्या-यत्-यस्मात्प्रेक्षध्वमाश्चर्य, यदुत-'तथा' तेन लोकप्रसिद्धेन प्रकारेण शीतलमृदुनाऽपि स्तोकं स्तोकं वहतापि, एवमत्राप्यपि शब्दः सम्बन्धनीयः, उदकेन-नद्यादिसम्बन्धिजलेन क्रमेण गिरिभिन्नः, सर्वजनप्रसिद्धं चैतत् । एवमत्रापि नित्यं स्तोकं स्तोकं पठन्तोऽपि कोलेन श्रुतरहस्यगिरिभेदिनो भवन्तीत्युपनय इति गाथार्थः ॥ ३०॥ उक्तं ग्रहणविधिद्वारं, साम्प्रतं 'गुणाश्च के ? तस्येति चतुर्थद्वारमभिधित्सुराहहै। सूई जहा ससुत्ता, न नस्सइ कयवरम्मि पडिया वि। तह जीवो वि ससुत्तो, न नस्सइ गओ वि संसारे॥३१॥ व्याख्या-यथा मूचिः ससूत्रा-छिद्रप्रोतसूत्रनिर्मितदवरका कचवरे पतितापि न नश्यति । दवरकदर्शनानुसारेण पुनरपि गृह्यत इति भावः। तथा जीवोऽपि ससूत्रः-पठितसिद्धान्तः अशुभकर्मोदयवशात्पतितः सन्-संसारे गतोपि न नश्यति । पूर्वाधीतस्यैव श्रुतस्य महात्म्यात्पुनरप्याक्षिप्तबोधिलाभादिभावः स्तोककालेनैव सिध्यत्येवेति भावः, इति गाथार्थः ॥ ३१ ॥ अत्रैव व्यतिरेकमाह -C-EACOCONUCLECRUC06430 -ॐ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥३०॥ TECHNOL सूई विजह असुत्ता, नासइ रेणुम्मि निवडिया लोए। तह जीवो वि असुत्तो, नासइ पडिओ भवरयम्मि॥३२॥ | १ दानाव्याख्या-यथा अस्मिल्लोके सूचिरपि असूत्रा-छिद्राप्रोतसूत्रतन्तुः रेणुमध्ये निपतिता नश्यति, तथा जीवोऽपि असूत्रो-ऽनधीत |धिकारे सिद्धान्तोऽशुभकर्मोदयवशाद्भवरजसि पतितस्सन्नश्यति, प्रभ्रष्टबोधिलाभादिभावो दुःखान्यनेकान्यप्यनुभवतीति भावः, इति गाथार्थः॥ मुचिनिदएतेन च ज्ञानस्य बोधिलाभाक्षेपकत्वमेको गुण उक्तः, इदानीं तु तस्यैव चारित्रशोधकत्वगुणमाह शनेन ज्ञा. जह आगमपरिहीणो, विजो वाहिस्स न मुणइ तिगिच्छं। तह आगमपरिहीणो, चरित्तसोहिं न याणेइ ॥३३॥18|निनो महत्वं व्याख्या-यथा आगमेन-आत्रेयादिऋषिप्रणीतशास्त्रादिरूपेण, परिहीणो-रहितो वैद्यो व्याधे-वरादिरोगरूपस्य चिकित्सां अपगमोपायरूपां, न "मुणइ"त्ति प्राकृतलक्षणेन जानाते "जो जाण-मुणो" इति मुणादेशे जानाति । तथा आगमेन-कल्पव्यवहारादिरूपेण | परिहीणस्साधुरपि अतिचारमलक्लिन्नस्य चारित्रस्य शुद्धि(शोधि)-प्रायश्चित्तप्रदानेन निर्मलीकरणलक्षणां न जानाति, न्यूनाधिकं प्रायश्चित्तं दत्त्वा आत्मानमालोचकं च संसारभाजनं करोतीति भावः, इति गाथार्थः॥३३॥ अथ ज्ञानादपि प्रधानवस्त्वेव न किश्चिदस्तीति दर्शयति-18 किं एत्तो लढयरं, अच्छेरतरं व सुंदरतरं वा । चंदमिव सव्वलोया, बहुस्सुअमुहं पलोयंति ॥ ३४ ॥ हूँ ___ व्याख्या-किमेतस्मान्-ज्ञानाल्लष्टतरं-शोभनतरं ?, न किञ्चिदित्यर्थः । अथवा आश्चर्य-चित्तविस्मयरूपं, प्रकृष्टमाश्चर्यमाचर्यतरं, है तजनकं वस्त्वप्युपचारादाश्चर्यतरं, तदपि ज्ञानादन्यत्कि?, न किमपीति भावः । चतुर्दशपूर्वविदामनुत्तरसुरशरीरेभ्योऽप्युत्कृष्टतरपुद्ग ॥३०॥ लप्रकल्पितशेलानलाद्यस्खलितहस्तमिताऽऽहारकशरीरकरणादिशक्तिहेतुत्वाज्ज्ञानमेवोत्कृष्टाश्चर्यनिधानं, नान्यदित्याशयः । यदि वा सुष्टु Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः GORA-N १दाना|धिकारे | ज्ञानस्य सर्वोत्कृष्टत्वं दर्पयति-हर्ष नयति दृष्टं सत्सर्वलोकानिति निरुक्त्या सुन्दरं, प्रकृष्टं सुन्दर-सुन्दरतरं । 'लष्टतर मित्यनेन सामान्यशोभनतरं विवक्षितं, सुन्दरतरं तु यथोक्तस्वरूपमित्यतोऽस्य भेदः। ततः सुन्दरतरमपि ज्ञानादन्यत्कि?, न किञ्चिदित्यर्थः । कथमिदं ज्ञायते ? इत्याहयतश्चन्द्रमिव बहुश्रुतमुख सर्वे लोका अन्तःप्रसपत्प्रचुरबहुमाननिभृतचेतसः प्रस्फारित दृशः प्रलोकयन्ति, ततो लोके पुरुषत्वादिधर्मसाम्येऽपि शेषपदार्थभ्यः खाधारे प्रकर्षवद्गौरवाधानकारणत्वाज्ज्ञानमेव लष्टतरादिस्वरूपं, नान्यदिति । अथवेत्थं व्याख्यो-चन्द्रमिव सर्वलोका बहुश्रुतमुख प्रलोकयन्ति, किमध्यवस्यन्तः ? इत्याह-किमेतस्मादहुश्रुतमुखाल्लष्टतरमाश्चर्यतरं वा सुन्दरतरं वा ? इत्येवं योजना | कार्येति गाथार्थः ॥ ३४ ॥ अथ प्रकृष्टकर्मनिर्जराकारणं ज्ञानमेव, नान्यदिति दर्शयन्नाहछट्टऽहमदसमदुवा-लसेहिं अबहुस्सुअस्स जा सोही । एत्तो उ अणेगगुणा, सोही जिमियस्स नाणिस्स ॥३५॥ ___ व्याख्या-'षष्ठ'मित्युपवासद्वयस्य सामयिकी संज्ञा, 'अष्टम'मुवासत्रयस्य, 'दशम'मुपवासचतुष्टयस्य, 'द्वादशम'मुपवासपञ्चकस्य । | इदं च पक्षमासक्षपणादेरुपलक्षणं । ततश्चतैः षष्ठाष्टमादिभिः क्रियमाणैरबहुश्रुतस्य-अगीतार्थस्य या शुद्धिः-कर्ममलापगमरूपा सम्पद्यते, | एतस्याः शुद्धस्सकाशात्तु अनेक ण्यते इत्यनेकगुणा शुद्धिर्भवति, अतिबहीत्यर्थः । कस्य ? इत्याह-'ज्ञानिनों गीतार्थस्य । कथम्भूतस्य ?, जिमितस्य-उद्गमादिदोषविशुद्धाहारभोजिन इत्यर्थः । अगीतार्थो हि द्रव्यादिस्वरूपमविदन् स्वाग्रहग्रस्तस्तत्किमपि विकल्पयति वक्ति | विदधाति(वा), येन बुभुक्षादिकष्टं सहमानोऽत्रैवानर्थलक्षाण्याप्नोति मृतश्च भ्रमत्यनन्तं संसारं, शुद्धेरभावात् । गीतार्थस्तु यथावद्रव्यादिखरूपं विदंस्तत्किश्चिदाचरति येनात्रैव सर्वजनप्रि(पूजनी)यो भवति, परत्रापि च न स्पृश्यतेऽपायलेशेनापि प्राप्नोति च सर्व सुखसम्पदः, तथाविधशुद्धिसद्भावात् । यदुक्तं MORE AMAU ॥३१॥ बर Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ३२ ॥ 39 " जं अन्नाणी कम्मं, खवेह बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नागी तिहिं गुत्तो, खवेद ऊसासमित्तेणं ॥ १ ॥ इति भावः, इति गाथार्थः ॥ ३५ ॥ अथ ज्ञानस्यैव सूक्ष्मादिपदार्थज्ञातृत्वलक्षणं गुणमुत्कीर्त्तयन्नुपदेशमाह - नाणेण सव्वभावा नजंति सुहुमबायरा लोए । तम्हा नाणं कुसलेण, सिक्खियव्वं पयत्तेणं ॥ ३६॥ व्याख्या - अस्मिल्लोके सर्वे भावाः सूक्ष्मा बादरा वा ज्ञानेनैव ज्ञायन्ते, नान्यथा । तस्मात्कुशलेन प्रयत्नेन ज्ञानमेव शिक्षणीयमिति गाथार्थः || ३६ || अथ ज्ञानस्यैवाकारणबन्धुतादिगुणानाह - नामकारणबंधू, नाणं मोहंधयारदिणबंधू । नाणं संसारसमुद्द-तारणे बंधुरं जाणं ॥ ३७ ॥ इह सर्वेऽपि "कारणाद्बन्धुतामेति, द्वेष्यो भवति कारणात् । अर्थार्थी जीवलोकोऽयं न कश्चित्कस्यचित्प्रियः ॥१॥" इदं तु ज्ञानं अकारणेनैव-कारणापेक्षामन्तरेणैव अर्थावाप्त्यनर्थपरिहारयोर्महासाहाय्यदानतः सर्वजीवानां बन्धुरिव बन्धुः, तथा ज्ञानं मोहान्धकारध्वंसे साध्ये दिनबन्धुः सूर्य इत्यर्थः । तथा ज्ञानं संसारसमुद्रतारणे बन्धुरं- प्रधानं यानं - यानपात्रमिति गाथार्थः ॥ ३७ ॥ अथ ऐहिकामुष्मिक गुणानामपि ज्ञानमेव साधकमिति सदृष्टान्तं दिदर्शयिपुराह वसणसय सल्लियाणं, नाणं आसासयं सुमित्तुव्व । सागरचंदस्स व होइ, कारणं सिवसुहाणं च ॥ ३८ ॥ व्याख्या– व्यसनशतैः शल्ल्यितानां - अन्तः पीडितानां ज्ञानमेवाश्वासकं - तन्निस्तरणोपायप्रदर्शकत्वेन स्वास्थ्यजनकं । किमिव ?, सुमित्रमिवेत्यनेन ज्ञानस्यैहिको गुणो दर्शितः, पारत्रिकमप्याह - भवति कारणं मोक्षसुखानां चेति । कस्येव ?, सागरचन्द्रस्य यथा, कः I १ दाना धिकारे अकारण बन्धुतादयो ज्ञानस्य गुणाः ॥ ३२ ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ३३ ॥ पुनरसौ सागरचन्द्र इति चेत् ? उच्यते इह श्रीभरते मलयपुरे अमृतचन्द्रराज्ञश्चन्द्रकला [राज्ञी] कुक्षिशुक्तिमौक्तिकं सागरचन्द्रः कुमारः सोऽन्यदा कस्यापि करात् पञ्चशत्या दीनारैरिमां गाथां जग्राह, यथा- "अप्पत्थियं चिय जहा, एह दुहं तह सुहं पि जीवाणं । ता मुत्तुं सम्मोहं, धम्मे चिप कुणह पडिबंधं ॥ १ ॥ " इति । स कुमारोऽन्यदा क्रीडावने गतः, केनाप्यपहृतः, स्वं समुद्रे पतितमद्राक्षीत् । ततश्चेतः कल्लोलैरितो मत्स्यपुच्छैराहन्यमानः काष्ठखण्डमवाप्य नवमदिनेऽमरद्वीपमवाप्य नालीकेरनीराभ्यङ्गात्किमपि जातस्वास्थ्यः फलैर्वृत्तिं कल्पयन् गाथार्थस्मरणेन सदपि मातापितृवियोगवनवासादिदुःखमसदिव गणयंस्तत्र क्वाप्यरण्योद्देशे दिव्याकृतिमेकां कन्यां 'भवान्तरेऽपि सागरचन्द्रो भर्त्ता भूयादिति श्रावणां कृत्वा आम्रशाखाऽवलम्बितपाशबद्धकण्ठां मर्तुकामां पाशं छित्त्वाऽरक्षत् । अत्रान्तरे कोऽपि विद्याधरस्समायातः, स तं कन्यास्वरूपमपृच्छत् कथितं च कुमारेण यथा ज्ञातं तत् । ततः स प्राह - भो ! महात्मंस्त्वयाऽस्माकं महोपकारः कृतः कन्यां रक्षता । ततः कुमारानुयुक्तः खेचरः कन्याखरूपमाह - यथाऽस्मिन्नमरद्वीपेऽमरपुरे भुवनभानू राजा, चन्द्रवदना प्रिया, कमलमाला पुत्री कलाकुशला । सा च सागरचन्द्रगुणान् श्रुत्वा तत्पाणिग्रहे कृतप्रतिज्ञा, ततस्तत्पिता यावत्तत्सम्बन्धं करोति तावत्सुसेनविद्याधरेण तद्रपमोहितेन साऽपहृता, अत्र प्रदेशे स्थितेन कन्यामातुलेन अमिततेजसा सा विलपन्ती दृष्टा, तस्मादाच्छिद्य चात्र मुक्ता, युद्धं च कृत्वा सुसेनो हतः । सेयं कमलमाला, स चाहमेतस्या मातुलः । अत्रान्तरे कथमपि संग्रामं ज्ञात्वाऽमिततेजसो माता विद्युल्लता शशिवेगमुख्या भ्रातरश्च ससैन्यास्समायाताः कृता सर्वैरन्योऽन्यमुचिता प्रतिपत्तिः । अथ विद्युल्लता सागरचन्द्रं दृष्ट्वा सानन्दं प्राह 16 कः कल्पपादपो रत्न - निधिः को वा सुधारसः १ । अनन्तफलदो लब्धो, योगः सत्पुरुषैर्यदि ॥ १ ॥ 23 १ दाना धिकारे अकारब न्धुतादि ज्ञानगुण ख्यापकं सागर चन्द्रो दाहरणम् । ॥ ३३ ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लधुवृत्तिः ॥३४॥ REF अहो !! सोऽयं जगल्लचनजङ्घालयशःप्रचारः श्रीअमृतचन्द्रनृपात्मजः श्रीसागरचन्द्रकुमारः, योऽस्माभिनन्दीश्वरे यात्रायां गच्छ-18 द्भिर्मलयपुरे पुरा क्रीडन् दृष्टः । एतच्चाकर्ण्य कमलमालाद्याः सर्वेऽप्यमृतस्माता इवोच्छ्वसिताः । ततः कन्यामातामही-मातुलाभ्यां विद्यु १दाना | धिकारे लता-ऽमिततेजोभ्यां दत्तां कमलमालां विस्तरेण परिणिन्ये कुमारः, ताभ्यां कृताग्रहश्चामरपुरे गतः श्वशुरेण कारितप्रवेशोत्सवः सगौरवं, अकारबतया सह तत्र विलसन्सुखं तिष्ठति । अन्यदा रात्रौ सुखनिद्रायां प्रसुप्तः कुमारः, प्रबुद्धश्च प्रातः कस्यचिगिरेः शिलायां स्वं पश्यति । न्धुतादि ततश्चाहो !! क सा वासवेश्म-दिव्यशय्या-कमलमाला-चम्पकमालादिसुखसामग्री ? क चेयं विकटाटवी-खरगिरिशिला-श्वापदस- ज्ञानगुणपादिदुःखसामग्री ? इति क्षणचिन्ताचान्तचेताः पुनश्च तां गाथां स्मरन्नगणितापत्तत्राटव्यां भ्रमन् क्वचिदशोकतरुतले कायोत्सर्गस्थितं | ख्यापकं मुनिमेकं दृष्ट्वा तद्दर्शनादेव सञ्जातविवेकः प्रणामपूर्व 'साधो ! संसारे किं जीवेन कार्य ?' इति विनयेनापृच्छत् । मुनिरपि पारितोत्सर्गो सागरचन्द्रो धर्माशिष दत्त्वा प्राह-शृणु भो भद्रक ! तावत्सर्वः सुखार्थी जन्तुः, तच्च प्रार्यमानमपि न धर्मादृते, धर्म एवार्थकाममोक्षाणां हेतुः, अतः दाहरणम्। स एव प्रयत्नेन कार्यः। सम्यक्त्वं च तन्मूलं, तच्च देवगुरुतत्त्वश्रद्धानरूपं, तेषां च "सर्वज्ञो जितरागादि-[दोषस्त्रैलोक्य पूजितः । यथास्थितार्थवादी च, देवोऽर्हन् परमेश्वरः ॥ ४ ॥" योगशास्त्र २ प्र०] इत्यादिकमन्वयव्यतिरेकाभ्यां स्वरूपमिति । ततो मुनिवचनाद्देवा| देवादिखरूपं जीवाजीवादिस्वरूपं च ज्ञात्वा मिथ्यात्वं व्युत्सृज्य सम्यक्त्वमादृत्य पुनर्यावत्किञ्चित्पृच्छति कुमारस्तावन्मुनिस्तिरोऽभूत् । अथ मुनेधर्मोपकारं स्मरन्तं 'रे रे !!! समरविजयकुमारस्तव रुष्टः' इति ब्रुवाणा चतुरङ्गचमूस्तं सर्वतोऽवेष्टयत् । ततो गाथार्थस्मरणेन | तामापदमगणयनिजभुजौजसा कस्यापि रथं सायुधं गृहीत्वा तत्सैन्यमभांक्षीत् । ततः स्वयं संग्रामं कुर्वन्समरविजयस्तद्रथमारुह्य कुमा ॥३४॥ रेण केशेषु गृहीतस्तमेव शरणं प्रपन्नश्चरणयोलग्नः । अत्रान्तरे कापि स्त्री समागत्य कुमारं प्राह-भो महानुभाव ! कुशवर्द्धनपुरे कमलच. USSAR Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ३५ ॥ 1 ज्ञानगुण ख्यापकं सागरचन्द्रो न्द्रनृपोऽमरकान्ता प्रिया, तयोर्भुवनकान्ता प्रियपुत्री परिणत जिनवचना तव गुणान् श्रुत्वा त्वत्पाणिग्रहे प्रतिज्ञामकार्षीत् । शैलपुरेशसुदर्शननृपपुत्रेण समरविजयेन त्वत्प्रतिपक्षेण मार्ग्यमाणाऽपि न लब्धा, ततः स्वयं चतुरङ्गसैन्येन मण्डलसीम्नि स्थित्वोद्याने क्रीडन्ती सा निपुणैरपहृता विलपन्ती, अहं तु तस्या धात्री स्नेहेनायाता, अत्र च त्वं दृष्टः प्रत्यभिज्ञातो योधितश्च तस्मान्मोचयित्वा तां परिणीयानुगृहाणेति । ततस्समरविजयस्तामानीय कुमाराय ददौ । स च संक्षेपेण तां परिणीतवान् समरं च सम्भाष्य विसृष्टवान् । समरविजयाद्गृहीते रथे तया सहारूढस्तस्याः पुरं प्रति व्रजन् क्वचिद्रण ेणुवीणं दूरतो गीतमश्रौषीत् । ततः सरथां प्रियां तत्र मुक्त्वाऽग्रतो गच्छन् वननिकुजे सप्तभूमिकं प्रासादमद्राक्षीत् । तत्रारूढो गीतादिपरं सौभाग्यसारं कन्यापञ्चकं दृष्ट्वा विस्मितः । ताभिश्वाभ्युत्थानासनादिनोपचरितस्तत्स्वरूपमप्राक्षीत्, ताभिश्रोक्तं वैताढ्ये विद्याधरचक्रवतीं सिंहनादः, तस्य कनक श्री चम्पक श्री रम्मा-विमला ताराख्याः पञ्च हे दाहरणम् । पुग्यो वयं पित्रा पृष्टेन नैमित्तिकेनास्माकं त्वं वरः प्रोक्तोऽस्यामटव्यां तव प्राप्तिश्च । ततोऽत्र प्रासादं कारयित्वा पित्रा वयमत्र मुक्ताः । ततोऽस्मद्भाग्येन त्वमत्रायातः, कुरु शीघ्रमस्मत्पाणिग्रहणं, इत्याकर्ण्य कुमारः सविस्मयो गाथार्थ स्मृत्वा तासां पाणिग्रहणमकरोत् तावता न प्रासादो न ताः कन्याः, किन्तु स्त्रं भूमौ पश्यति, रथे गतश्च तमपि प्रियाशून्यं पश्यति । ततो विषण्णो गाथार्थ भावयन् यावदग्रतोऽटव्यां याति तावच्छ्रीजिनप्रासादं रत्नमयप्रतिमामण्डितं दृष्ट्वा वाप्यां कृतस्नानः कमलैः पारमेश्वरीं पूजां कुर्वन् प्रत्यासन्नसुमङ्गलापुरीस्वामिना सुधर्मनृपेण पितुर्मित्रेण पूजार्थं तत्रायातेनोपलक्षितः, पित्रा सहायाता सुन्दरी कन्या नैमितिकोक्तं सागरचन्द्रं वरं दृष्ट्वा प्रमुदिता । अत्रान्तरे सिंहनादश्चकी पुत्रीपञ्चकं लात्वा तत्र प्रासादे समायातः, कुमारेण पूजां कृत्वा पृष्टः प्राह - कुमार ! जलधितटेऽमि - ततेजा विद्याधरो यः पूर्वं त्वया दृष्टः कमलमालामातुलः, तस्य कमलोत्पलौ द्वौ पुत्रौ, तत्र कमलेन भुवनकान्ता रथस्था अपहृता, सच " ।। ३५ ।। १ दानाधिकारे अकारब न्धुतादि Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35 १ दानाधिकारे अकारख. न्धुतादि ज्ञानगुण | ख्यापर्क वताढथे गतः, उत्पलेन त्वं भूमौ क्षिप्तः, प्रासादः स्वविद्ययाऽदृश्यी कृतः कन्यापञ्चकं चापहृतं, अहं च सम्प्रत्येव तं हत्वा कन्यापञ्चक पुष्पमाला लात्वाऽब्रायातः, इत्याकर्ण्य कुपितः कुमारः कथश्चित्सुधर्मनृपोपरोधेन सुन्दरीकन्यां परिणीय वैताढथे विमलद्वारपुरे सिंहनादकृतोत्सवोलघुवृत्तिः &ागात् । तत्र सिंहनाददत्ता बहुविद्या असाधयत् । ततो विद्याबलेन महतीं प्रौढीमगात् । ततोऽमिततेजा भुवनकान्तां तां कुमाराय समर्म्य खपुत्रयोरपराधमक्षमयत् , स्वभागिनेयीं प्रथमपत्नी कमलमाला चानीय ददौ । ततः कुमारः सर्वाः कन्याः सम्मील्य विद्याधरपरिवृतः स्वं पुरं महामहोत्सवेनागात् , ततः कुमारः पञ्चविधसौख्यान्यनुभवति । अन्यदा तत्र पुरोधाने भुवनचन्द्रकेवली समवसृतः, तं च राजा ६ सपरिकरः प्रणम्य देशनान्तरे इदमपृच्छत् , यथा-भगवन् ! सागरचन्द्रकुमारः केनापहृतः ?, श्रीकेवली प्राह-महाविदेहे द्वौ भ्रातरौ वणिपुत्रौ, तत्र ज्येष्ठस्य भार्याऽतिस्नेहवती भतरि, अन्यदा ज्येष्ठे ग्रामान्तरं गते लघीयसा हास्येन भ्रातृजाया प्रोक्ता, यथा-भ्राता | पथि चौरौापादितः, तत् श्रुत्वा [सा] मृता, लघोः पश्चात्तापोऽभवत्, कालेन ज्येष्ठः समायातः, ज्ञाततत्स्वरूपो लघीयसा क्षामितोऽपि | न क्षमते, सक्रोधस्तापसो भूत्वाऽसुरेषूत्पन्नः । लघुः श्रीजिनधर्म श्रुत्वा प्रव्रजितः । पूर्ववैरं स्मृत्वा तेनासुरेण शिलां शिरसि मुक्त्वा मारितः प्राणतकल्पे गतः । असुरः संसारं भ्रान्त्वा पुनरसुरो जातः । द्वितीयः प्राणताच्च्युत्वा तव पुत्रस्सागरचन्द्रस्तेनासुरेणापहृतः पूर्ववैरात् , पूनरिमेकमुपसर्ग करिष्यति, ततस्सागरचन्द्राद्बोधमवाप्स्यति । इति पूर्वभवस्वरूपं श्रुत्वा सञ्जातजातिस्मृतिर्मन्त्रिभिरनेकधा वार्यमाणोऽपि पुत्र राज्य संस्थाप्य पितृभ्यां युतः कलत्रमन्त्रिसामन्तादिपरिवृतः प्रबजितः। ततो गाथामात्रमपि ज्ञानं ममाश्वासकं जातं, तन्नून बहुलस्यास्य महात्म्यपर्यन्तो नास्तीति विचिन्त्य विशेषतः पठन् चतुर्दशपूर्वी जातः। ततः पालितदीर्घव्रतपर्यायः, प्रान्ते पादपोपगमनस्तेनैवासुरेण वैक्रियवज्रतुण्डपक्षिसिंहगजादिरूपैरुपसर्गितोऽप्यक्षुभितचित्तः, पुनः शान्तिभूतेन तेनैवासुरेण प्रशंसितः प्राप्तकेवलज्ञानो मोक्षमगात् सागरचन्द्रो दाहरणम् । -AGAR Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसागरचन्द्रः। असुरोऽपि जातसंवेगः सम्यक्त्वं प्रतिपद्य गतः, क्रमान्मोक्षं यास्यति । श्रीअमृतचन्द्रप्रभृतिसाधुसाध्वीवर्गे केनापि पुष्पमाला सुरलोकः केनापि सिद्धिसुखं प्राप्तमिति भिसागरचन्द्रचरितं समाप्तम् । तदेवं सागरचन्द्रस्येवान्येषामपि ज्ञानं व्यसनेष्वाश्वासकं | १दानालघुवृत्तिः धिकारे ॥३७॥ | शिवसुखकारणं च भवतीति भाव इति गाथार्थः ॥ ३८ ॥ पुनर्भङ्गयन्तरेण तस्यैव गुणमाह | पापविनि4 पावाओ विणियत्ती, पवत्तणा तह य कुसलपक्खम्मि। विणयस्स य पडिवत्ती, तिन्नि वि नाणे समप्पंति ॥३९॥ है। वृत्यादयो ____ व्याख्या-पापाद्विनिवृत्तिः, तथा प्रवर्त्तना कुशलपक्षे-धर्ममार्ग, विनयस्य च प्रतिपत्ति-राश्रयणं, एते त्रयोऽपि गुणा ज्ञाने एव || ज्ञानगुणा: सति 'समाप्यन्ते' समर्थ्यन्ते-परिपूर्णा भवन्ति, तदभावे तु केचित् क्वचित्कियन्तोऽपि कथञ्चिद्भवन्ति, तथापि तेऽसम्पूर्णत्वाद्विडम्ब8| नामात्रमिति भाव इति गाथार्थः ॥ ३९ ॥ ज्ञानगुणानामनन्तत्वात्सामस्त्येन भणनासामर्थ्यमुपदर्शयन्नाह& गंगाए वालुअंजो, मिणिज उल्लिंचि[उंजो]ऊण(?)समत्थो। हत्थउडेहि समुदं, सो नाणगुणे भणिज्जा हि॥४०॥ | ___व्याख्या-यो गङ्गाया वालुकां मिनुयात् , समुद्रं च हस्तपुटैरुल्लश्चितुं यः समर्थः, स एव ज्ञानगुणान् सर्वानपि भणेत् , नापरः। गङ्गावालुकासंख्यानादिवत्समस्तज्ञानगुणभणनमतिशयज्ञानिनाऽपि कर्तुमशक्यमिति भाव इति गाथार्थः॥४०॥ इति जिनपतिवाचा ज्ञानमाहात्म्यमुच्च-जगति जनितचित्रं सर्वभव्याः! विभाव्य । यदि हृदि शिवसौख्येष्वस्ति काडा कुतश्चि-त्तदतिसकलयत्नाज्ज्ञानमेवार्जयध्वम् ॥१॥ इति पुष्पमालाविवरणे (द्वितीय) ज्ञानद्वारम् २। ॥३७॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथोपष्टम्भद्वारं बिभणिषुः पूर्वद्वारेण सह सम्बन्धगर्भा गाथामाह १दानापुष्पमाला लघुवृत्तिः ४] आहारवसहिवत्था-इएहिं नाणीणुवग्गहं कुजा । जं भवगयाण नाणं, देहेण विणा न संभवइ ॥ ४१ ॥18| धिकारे ॥३८॥ ज्ञानिन उव्याख्या-आहारादिभिर्ज्ञानिनामुपग्रह-उपष्टम्भं कुर्यात् । कुतः? इत्याह-यत्-यस्माद्भवगतानां जीवानां ज्ञानं देहेन विना न पष्टम्भाख्यं सम्भवति, सिद्धानां तु भवतीति विशेषणाशयः। अत्र च 'ज्ञानिनामाहारादिभिरुपष्टम्भः कर्त्तव्य इत्युक्तमिति द्वारद्वयस्य सम्बन्धः प्रतिद्वारं क्रमभणनकारणं च सूचितमिति गाथार्थः ।। ४१ ॥ तृतीयम्। ननु यदि भवस्थानां ज्ञानं देहमन्तरेण न सम्भवति तर्हि ज्ञानिनामाहारदाने किमायातं ? इत्याह| देहो य पुग्गलमओ, आहाराइहिं विरहिओ न भवे । तयभावे न य नाणं, नाणेण विणा कओ तित्थं ? ॥४२॥ | ____ व्याख्या-देहश्व-जीवच्छरीरं पुद्गलमयत्वादाहारादिभिर्विरहितो न भवति, विशीर्यत एवेत्यर्थः, वनस्पत्यादिषु तथैव दर्शनात् । | तदभावे-देहाभावे च ज्ञानं नास्तीत्युक्तमेव । मा भृत्तर्हि ज्ञानमपीत्याह-ज्ञानेन विना कुतस्तीर्थ साचादिरूपं ?, न कुतश्चिदित्यर्थः, तन्मूलत्वात्तस्येति गाथार्थः ॥ ४२ ॥ न चाहारादिगृद्धैरस्माभिरिदमुच्यत इत्याहएएहिं विरहियाणं, तनियमगुणा भवे जइ समग्गा। आहारमाइयाणं, को नाम परिग्गहं कुज्जा ? ॥४३॥ व्याख्या-एतैराहारादिभिर्विरहितानां साधूनां यदि तपोनियमादयो गुणाः समग्राः-परिपूर्णा भवेयुस्तदा आहारादीनां, आदि- ॥३८॥ शब्दाद्वस्त्रपात्रादीनां, परिग्रह-स्वीकार को नाम कुर्यात् ?, प्रार्थनालाघवपर्यटनादिकष्टसाध्यत्वात्तेषां परिग्रहं न कश्चित्कुर्यादित्यर्थः, न बकन ACC* Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवतिः चैतदस्ति, अतस्तपोनियमादिगुणोत्सर्पणायैवायमुपदेशो, न गृद्धयेति भाव इति गाथार्थः ॥ ४३ ॥ तस्माद्यदिह पर्यवसितं तदाह- १ दानातम्हा विहिणा सम्मं, नाणीणमुवग्गहं कुणंतेणं । भवजलहिजाणवत्तं, पवत्तियं होइ तित्थंपि ॥ ४४ ॥ धिकारे. तीर्थप्रवर्तः व्याख्या-यस्मादनन्तरोक्तन्यायेनाहाराद्यभावे तीर्थमुच्छिद्यते, तस्मात्सम्यग्विधिना ज्ञानिनामाहारादिभिरुपग्रहं कुर्वता प्राणिना माहारादिभिरुपग्रह कुवता प्राणना कत्वं ज्ञानिन भवजलधियानपात्रं तीर्थमपि सामर्थ्यात्प्रवर्तितं भवतीति गाथार्थः ॥ ४४ ॥ उपष्टम्भतदेवमाहारादिना दानप्रवृत्तिं व्यवस्थाप्य तद्दानविध्यादि प्रतिपादनार्थ द्वारगाथामाह कस्य ।। है कह दायगेण एयं, दायव्वं ? केसु वा वि पत्तेसु ? । दाणस्स दायगाणं, अदायगाणं च गुणदोसा ॥४५॥ | । व्याख्या-कथं दायकेनैतदातव्यमिति वाच्यम् , तथा केषु पात्रेषु तद्दातव्यमित्यपि भणनीयम् , तथा दानस्य दायकानां ये गुणाः || स्युरदायकानां च ये दोषास्सम्भवन्ति ते च वक्तव्या इति गाथार्थः ॥ ४५ ॥ तत्राद्यद्वारमधिकृत्याह___ आसंसाए विरहिओ, सद्धारोमंचकंचुइजंतो। कम्मक्खयहेउं चिय, दिज्जा दाणं सुपत्तेसु ॥ ४६॥ | व्याख्या-आशंसया इह परभवगतऋद्धयादिप्रार्थनरूपया विरहितः, श्रद्धया आहारादिदानोत्साहलक्षणया, रोमाञ्च एव कञ्चुकः, स जातोऽस्य स रोमाञ्चकञ्चुकितः । कर्मक्षयहेतोरेव दद्यात् दानं दायक इत्येकं द्वारं । केषु तद्दातव्यमिति द्वितीयमाहशोभनपात्रेष्विति गाथार्थः ॥ ४६॥ तान्येव सुपात्राण्याह आरंभनियत्ताणं, अकिणताणं अकारविंताणं । धम्मट्टा दायव्वं, गिहीहिं धम्मे कयमणाणं ॥ ४७ ॥ का॥३९॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ व्याख्या-आरम्भनिवृत्तेभ्यः, अक्रीणझ्यः-मूल्येन वस्खाहाराद्यगृहद्भ्यः, तथा आरम्भं क्रयं वाऽकारयद्भ्यः, धम्म कृतमनो-16|१ दानापुष्पमाला भ्यः, सामर्थ्यात् साधुभ्यो गृहिभिर्धर्मार्थ दानं दातव्यमिति गाथार्थः ॥४७॥ *धिकारे लघुपत्तिः 31 मोक्षहेतुत्वं ननु यथोक्तगुणेभ्य एव सर्वमपि दानं दातव्यं, उत किश्चिदन्यथाऽपीत्याशङ्कयाह॥४०॥ है| इय मोक्खहे उदाणं, दायव्वं सुत्तवणियविहीए । अणुकंपादाणं पुण, जिणेहिं सव्वत्थ न निसिद्धं ॥४८॥ 18 सूत्रोक्ताव धिनादत्तस्य व्याख्या-इति-उक्तप्रकारेण दायकग्राहकगुणान्वेषणलक्षणेन सूत्रवर्णितविधिना च देयवस्तुगतोद्गमादिदोषविशुद्धरूपेण यदेव दानस्य अनुज्ञानादिगुणयुक्तेभ्यः साध्वादिभ्यो मोक्षहेतुर्दानं दीयते तदेवेत्थं दातव्यं, अनुकम्पादानं पुनर्जिन-स्तीर्थकृद्भिः सर्वत्र रोमाश्चादिशून्ये- कंपादानस्य ऽपि दायके वनीपकादावपि पात्रे उद्गमादिदोषाविशुद्धेऽपि देयवस्तुनि न निषिद्धं, अनुकम्पामात्रप्राधान्यादेव तस्येति । यथा चेह ती-19 साहनीचानिषिद्धत्वं र्थकृद्गणधरादिभ्यो दीयमानं दानं आनन्तर्येणैव मोक्षहेतुर्न तथाऽनुकम्पादानं, पारम्पर्येणैव तस्य मोक्षकारणत्वात् , इतीदमिह मोक्षहे| तुत्वेन विवक्षितमिति गाथार्थः ॥ ४८ ॥ अथानुषङ्गत एव दातॄन्प्रोत्साहयन्नाह18/ केसिंचि होइ चित्तं, वित्तं अन्नेसिमुभयमन्नेसि । चित्तं वित्तं पत्तं, तिन्नि वि कोसिंचि धन्नाणं ॥ ४९ ॥ व्याख्या--केषांचिद्दानश्रद्धालूनां चित्तमेव केवलं भवेत, न वित्तपात्रयोगः। अन्येषां च वित्तमेव स्यात, न चित्तपात्रयोगः। अन्येषां चोभयं चित्तवित्तलक्षणं स्यात, न पात्रं । चित्तं वित्तं पात्रमिति त्रीण्यपि केषाश्चिद्धन्यानामेवाभुतपुण्योदयेनैव भवेयुरिति ॥४० गाथार्थः ॥ ४९ ॥ अथ तृतीयद्वारमाश्रित्याह SSSSSSSSS CARRORISSAGAR Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 * * * | आरोग्गं सोहग्गं, आणिस्तरियं मणिच्छिओ विहवो । सुरलोयसंपया वि य, सुपत्तदाणाऽवरफलाइं ॥५०॥ पुष्पमाला १ दानालघुवृत्तिः व्याख्या आरोग्यं सौभाग्यं आज्ञैश्चर्य मनीषितो विभवो-धनं देवलोकसम्पदपि च, एतानि सुपात्रदानस्थापराणि-मोक्षापेक्षया- धिकारे ॥४१॥ ऽन्तरालवर्तीनि फलानि, परं तु फलं मोक्षमेवेति गाथार्थः॥ ५० ॥ तदेव दानस्योत्कृष्टं फलमुपदर्शयन्नाह दातगुण ख्यापने दाउं सुपत्तदाणं, तम्मि भवे चेव निव्वुआ के वि । अन्ने तइयभवेणं, भोत्तूण नरामरसुहाई ॥५१॥ | अमर-4. ___व्याख्या-केचित्तथाविधाल्पकर्माणः सुपात्रदानं दत्वा तस्मिन्नेव भवे निवृत्ताः-सिद्धाः, अन्ये च नरामरसुखानि भुक्त्वा यरसेनयो४ तृतीयभवे सिद्धा इत्यर्थः ॥५१॥ दानदातुर्गुणानेव सदृष्टान्तमाह श्ररितम् जायइ सुपत्तदाणं, भोगाणं कारणं सिवफलं च । जह दुण्ह भाउआणं, सुयाण निवसूरसेणस्स ॥ ५२ ॥ व्याख्या-सुपात्रदानं भोगानां कारणं तथा शिवफलं च जायते । यथा सूरसेननृपस्य सुतयोयोमा॑त्रोरित्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु कथानकेनोच्यते, तद्यथा-इह भरते ऋषभपुरे अभयङ्करः श्रेष्ठी, कुशलमती भार्या, तौ च जिनधर्मरतो जीवाजीवादितत्त्वज्ञौ, तयोगृहे एको गोपालोऽपरः कर्मकरः, तौ श्रेष्ठिसंसर्गेण जिनपूजन-मुनिदानादिधर्मभावितौ स्तः । अन्यदा चातुर्मासिके श्रेष्ठिना सम है जिनभवने पूजानिमित्तं गतौ चिन्तयतः-धन्योऽयं श्रेष्ठी, यो नित्यं जिनान् प्रभूतवित्तव्ययेन पूजयति । ततोऽद्याऽऽवां खकीयेनैव । | वित्तेन जिनार्चादि कृत्वा निजं जन्म फलत्कुर्व इति चिन्तितवन्तौ, ततो गोपालः स्वीयपश्चकपईकुसुमैर्जिनपूजां चकार, कर्मकरः श्रेष्ठिना समं सुगुरुसमीपे प्रत्याख्यातोपवासो गृहं गत्वा आत्मयोग्यं परिवेष्य तदैव दैवयोगाद्ग्लानाद्यर्थ तत्रैवागतान्मुनीन्परमश्रद्धया SUCCCCCESS * * * * Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ४२ ॥ स्वं कृतार्थ मन्यमानः स्वकीयाहारेण प्रतिलाभितवान् ततस्तयोस्तथा पुण्यनैपुण्यं दृष्ट्वा हृष्टः श्रेष्ठी सुतरां तयोर्वात्सल्यं करोति । इतश्च कलिङ्गदेशाधिपः सूरसेननृपो गोत्रिभिगृहीतराज्यः कुरुदेशे गजपुरनृपसेवां कुर्वन् ग्रामचतुष्कं प्राप्य तत्र सुकराभिधाने ग्रामे - स्थात् । तस्य विजयादेवीकुक्षौ तौ द्वावपि मृत्वा पुत्रौ जातौ अमरसेन - वयरसेनाख्यौ, सम्प्राप्तयौवनौ कलाकुशलौ सकलजनप्रियौ गुणाकरौ जातौ । तौ च तादृशौ दृष्ट्वा सपत्नी माता मायाविनी राजानमुवाच एतौ तव पुत्रौ दुःशीलौ रागान्धी, यदा प्रभृति त्वं प्रस्थितस्तद्दिनादारभ्य मां प्रार्थयमानौ मया निषिद्धौ निजं शीलं संरक्षितं, अथ यत्त्वत्कुलोचितं तत्कुरु । इत्याकर्ण्य राजाऽज्ञात परमार्थो ग्राम मातङ्गमुख्यमाकार्य तन्मस्तकानयनायादिदेश । स च तत्र गत्वा पुत्रयोस्तत्स्वरूपमवदत् । ताभ्यामुक्तं पितुरादेशः प्रमाणमिति गृहाण मस्तके । तेनोक्तं - राज्ञा चेदविमृश्योच्यते, परं कथमहमीदृशं करोमि ?, इति प्रसद्य युवां देशान्तरं यातः, चित्रकरेण | मस्तके कारयित्वा राज्ञो दर्शयिष्यामि । इति श्रुत्वा तौ देशान्तरं प्रस्थितौ । मातङ्गेन तथा कृत्वा सन्ध्यायां मस्तके दर्शिते राज्ञः, तत् श्रुत्वा प्रमुदिता विमाता । ततस्तौ स्वबुद्ध्या विमातृप्रपञ्चं ज्ञात्वा देशान्तराश्चर्यावलोकने स्वोपकारिणीं मन्यमानौ कस्याञ्चिदव्यां सन्ध्यासमये गतौ । रात्रौ वृक्षाधोऽमरसेनः सुप्तः, वयरसेनस्तु प्रहरके स्थितः । अत्रान्तरे वृक्षोपरिस्थया कीरपत्न्या भूमिस्थस्य स्वभ : कीरस्य प्रोक्तं - स्वामिन् ! एतौ महापुरुषौ समायातौ स्तः कोऽप्येतयोरुपकारः क्रियते । कीरेणोक्तं-पक्षिभिः कथमुपक्रियते ? । तयोक्तं - खामिन् ! सुकूटशैले विद्याधरेण स्वविद्या परीक्षार्थं विद्याऽभिमन्त्रितौ द्वावाम्रौ रोपितौ स्तः, तयोः फलमेतत् - एकस्य लघुफलस्य फलेन भुक्तेन प्रतिप्रातः पञ्चशती द्रम्माणां मुखात्पतति द्वितीयस्य वृद्धफलस्य फलेन भुक्तेन सप्तमदिने राज्यं भवति, तयोः फले समानीयानयोर्दीयते । इति विचार्य तेन कीरमिथुनेन तत्कालं ते फले समानीय वयरसेनोत्सङ्गे मुक्ते । तेन स्वस्य राज्यमनिच्छता प्रभाते १ दाना धिकारें विदेशगम नममरवय रसेनयोः ।। ४२ ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावमनाख्याय वृद्धफलममरसेन [[यार्पित] स्यापित, लघुफलं स्वयं भुक्तम् । द्वितीयेऽह्नि प्रभाते सम्भूते एकाकी भूत्वा वयरसेनः सरसि ||१दाना पुष्पमाला लघुतिः गत्वा यावद्गण्डूषं करोति तावत्पश्चशती द्रम्माणां मुखात् पतिता । ततः प्रति (दिन) नगरं भोजनवस्त्रादिभिविलसन्ती गच्छतः । तत- धिकारे ॥४३॥ स्सप्तमेऽह्नि काश्चनपुरे अमरसेनं बहिर्वक्षमूले सुप्तं मुक्त्वा वयरसेनो भोजनादि कारयितुं मध्ये गतः । अत्रावसरे तत्पुरनृपस्यापुत्रस्य कासप्रभावामृतस्य पञ्चदिव्यैरमरसेन[य]स्य राज्यं दत्तं । वयरसेनस्तु कौतुकी प्रच्छन्नो वेश्यागृहे स्थितः क्रीडां करोति, वृद्धभ्रात्राऽवलोकितोऽपि न म्रफलानुदृष्टः । अन्यदा मागधिकाकुट्टिन्या निर्व्यापारस्य तस्य घनं धनव्ययं दृष्ट्वा तत्स्वरूपं पृष्टो वयरसेनः खऋजुत्वेन जठरस्थाम्रफलप्रभा भावात्का चनपुरेऽवमाह । ततस्तया वमनौषधैः पातितफलो निद्रव्यः स्वगृहान्निष्कासितस्तत्फलं स्वयं गृहीतं । ततो वयरसेनो विलक्षो रात्रौ पुरादहिगतो [2 मरवयरसे| वस्तुत्रयकृते चौरचतुष्कं कलहं कुर्वाणं दृष्ट्वा चौरसंज्ञया तन्मध्ये मिलितस्तत्स्वरूपमपृच्छत् । तैरुक्तं-अस्माकं चतुर्णा कन्था-लकुट-18नयोविलतपादुकारूपं वस्तुत्रयं त्वं विभज्य देहि । वयरसेनेनोक्तं-कः प्रभाव एतेषां ?, तैरुक्तं-एकेन सिद्धपुरुषेण षण्मासान् देवताऽऽराधनं है सनम् ॥ कृतं, ततस्तया तुष्टयाऽपितान्यमूनि । प्रभावश्चायं-कन्थाप्रस्कोटने प्रत्यहं प्रगे दीनारपञ्चशती पतति, लकुटप्रभावाच्छस्त्रं न लगति, 12 | पादुकाभ्यां गगने गमनं स्यात् । ततः प्रभावं श्रुत्वा कुमारेणोक्त-मया पुरा कदाऽपि योगिवेपो न परिदधे, तेन पूर्व विलोकयामि । ततस्तैरुक्तं-तथाऽस्तु । ततः कुमारः कन्थां गले क्षिप्त्वा लकुटं लात्वा पादुके पादयोः प्रक्षिप्य आकाशे गतः, वश्चिताश्चाराः। ततो देशान्तरं भ्रान्त्वा पुनस्तत्रैवायातः, कुट्टिन्या द्रव्यं विलसन् दृष्टः, प्रपञ्चं कृत्वा स्वगृहमानीतः । कालेन निर्व्यापारस्य घनं धनं दृष्ट्वा | ४ कुट्टिन्या पुनः प्रीत्या पृष्टः पादुकाप्रभावेण देशान्तराद्धनमानयामीत्याह । ततस्तयोक्तं-वत्स ! मया त्वयि गते त्वद्वियोगदुःखितपु * ॥४३॥ टात्रीकृते तवागमनार्थ समुद्रमध्ये यक्षस्योपायनं मानितमस्ति । तत्पादुकाप्रभावेण त्वत्प्रसादात्करोमि । कुमारेणोक्तं-तथाऽस्तु । ततः CAMERICA Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥४४॥ ॐॐॐॐॐऔर कुमारः पादुकाबलेन कुट्टिन्या सह समुद्रान्तर्यक्षभवने गतः, पूर्व तन्मध्ये प्राविशत्तावता कुट्टिनी पादुके परिधाय स्वं पुरं गता । कुमा-181 रस्तत्रैव स्थितः कान्दिशीकः, तावता तत्र कोऽपि विद्याधरः प्राप्तः, तेनोक्तं- त्वया ममोपरोधेन पक्षमेकं यक्षपूजा विधेया, परं पाव P१ दाना धिकारे वर्त्तिवृक्षद्वयाधो न गन्तव्यं, इति शिक्षा मोदकादिकं च दत्वा गगनमार्गे गतः। अन्यदा कुमारेण कौतुकात्तवृक्षाधो गतेनाघ्रात अमर-4| पुष्पं, जातः खरः । पुनः पक्षान्तरे समायातः खेचरस्तं तथा दृष्ट्वा द्वितीयवृक्षपुष्पमघ्रापयत् , पुनर्मनुष्यो जातः । खचरेण निष्ठुरमु-131 यरसेनयो. पालब्धः । खचरं क्षामयित्वा 'किमेतदाश्चर्य ?' इति कुमारपृष्टः खेचरः प्राह-खर-मनुष्यविद्याधिष्ठितौ वृक्षौ मया कारणेन रोपितो श्वरितं,ख| स्तः । ततः कुमारेण तवृक्षद्वयपुष्पाणि पृथग् २ ग्रन्थौ बद्धानि । ततः पश्चमदिने विद्याधरेण कुमारः काञ्चनपुरे मुक्तः । तत्र पुनस्त र-मनुज विद्याऽधिथैव विलसन् कुट्टिन्या प्रपञ्चेन गृहे नीतः पृष्टश्च-कथं वत्स ! त्वं समायातोत्र?, अहं तु तदा केनापि सिद्धपुरुषेण पादुके लात्वा ष्ठितपुष्पागच्छता पादलग्नाऽत्र त्यक्ता । कुमारेणोक्तं-यक्षप्रसादेनाहमायातः। तयोक्त-यक्षेण तव किमपि दत्तं ?, तेनोक्तं-ममौषधी दत्ता, यया वाप्तिर्वयजरा याति यौवनमायाति । तयोक्तं-वत्स! तादृशीमौषधीं मम देहि । ततः कुमारेणाघ्रापिता सा तानि पुष्पाणि, जाता रासभी, चटितः रसेनस्य । कुमारः, कुट्टयन् लकुटेन निगतो नगरान्तरा, मिलितो बहुजनो, जातो हाहारवः, समायाता राजपुरुषाः, तेन दण्डेन ताडिता रटन्तो राजकुले गताः। ततः सपरिजनो राजा समागतः, राज्ञोपलक्षिततः कुमारः विज्ञातप्रपश्चेन च मोचिता कुट्टिनी । मिलितौ द्वावपि भ्रातरी, महान् प्रमोदोजनि । ततः स्वपितरौ तत्रानाय्य राज्यं कुरुतः । अन्यदा तौ द्वावपि गवाक्षस्थौ मुनियुग्मं दृष्ट्वा सञ्जातजातिस्मरणी2 भक्तिभरेण तद्वन्दितुं गतौ। तयोरवधिज्ञानिना महर्षिणा सविशेषं पूर्वभवमुक्त्वा प्रोक्तं-साधुदानतरोः कुसुमसमं ते राज्यं, वयरसेनस्य तु| पञ्चकपर्दकजिनार्चातरोनारपञ्चशत्यादिका लब्धिर्भोगप्राप्तिश्च, फलं तु द्वयोरप्यतः पञ्चभवान् देवलोक-नरलोकोत्तमभोगान् भुक्त्वा Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठे भवे पूर्व विदेहेषु राज्यं भुक्त्वा नीरागसंयमेन मुक्तिः । इति पूर्वभवदानप्रभावं ज्ञात्वाऽनेकसत्रागाराणि कारयित्वा जिनचैत्यानि स्थापुष्पमाला लघुपतिः 18 पयित्वा सप्तक्षेत्री स्ववित्तेनापूर्य प्रान्ते प्रव्रज्य पञ्चमवर्ग गतौ । पूर्वोक्तक्रमेण महाविदेहे मोक्षं यास्थतः ॥५२॥ C१दाना धिकारे ॥४५॥ इति पात्रदाने अमरसेन-वयरसेनचरितं समाप्तम् ।। पथश्रान्ता___ अथ येभ्यो दीयमानं दानं विशेषतो बहुफलं भवेत् तान् दर्शयन्नाह दिभ्यो दी यमानस्य | पहसंतगिलाणेसुं, आगमगाहीसु तह य कयलोए । उत्तरपारणगम्मि य, दिन्नं सुबहुप्फलं होई ॥ ५३ ॥ दानस्य व्याख्या-पथश्रान्तेभ्यो ग्लानेभ्य आगमग्राहिम्यः तथा च कृतलोचेभ्यः साध्वादिभ्यस्तथा उत्तरपारणके च विधिना दत्तमशनादि सुष्टु बहुफलं भवति । यतः-पथश्रान्तस्य पर्यटनायक्षमस्यानुकम्पा मासकल्पविहारे स्थिरीकरणाद्याः, ग्लानस्वार्तध्याननिराकरणाद्याः, आगमग्राहिणां त्विष्टभक्तादिसम्पादनेन क्षयरोगाधुत्पत्तिनिराकरणाद्याः, कृतलोचे स्थिरीकरणाद्याः, उत्तरपारणके चोपष्टम्भादयो गुणाः स्युरिति गाथार्थः ।। ५३ ॥ अथ दातृणामेवोत्साहनायाहबज्झेण अणिच्चेण य, धणेण जइ होइ पत्तनिहिएणं । निश्चंऽतरंगरूबो, धम्मो ता किं न पजत्तं ? ॥५४॥ व्याख्या-तावबाह्येनानित्येन च यदि धनेन पात्रनिक्षिप्तेन सता नित्यो मोक्षाऽन्तावस्थायित्वाद्, अन्तरङ्गरूपश्चौराबहार्यत्वादोर्हद्भाषितो भवति, तर्हि किं न परिपूर्ण ?, अपि तु सर्वमपीति गाथार्थः ॥५४॥ उक्ता दानदायकानां गुणाः, अथ तददायकानां दोषानाह Sॐॐ बहुफलत्वं URUKUSAMASUC063 Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥४६॥ १दानाधिकारे दारियादयोऽवस्था अदत्तदानस्य । * दारिदं दोहग्गं, दासत्तं दीणया सरोगत्तं । परपरिभवसहणं चिय, अदिन्नदाणेणऽवत्थाओ ॥ ५५ ॥ व्याख्या-अदत्तन दानेन, इति अवस्थाः स्युरिति वाक्यशेषः । कास्ताः ?, दारिद्रयं दौर्भाग्यं दासत्वं दीनता सरोगत्वं परपरिभवसहनमिति गाथार्थः ॥ ५५ ॥ तथा ववसायफलं विहवो, विहवस्स फलं सुपत्तविणिओगो। तयभावे ववसाओ, विहवो चिय दुग्गइनिमित्तं ॥५६॥ 3 व्याख्या-तावद्वयवसायस्य फलं-साध्यं विभवः । विभवस्य फलं सुपात्रविनियोगः । तदभावे-विभवस्य सुपात्रविनियोगाभावे | [व्यवसायो विभवोऽपि च दुर्गतिनिमित्तमेवेति गाथार्थः ।। ५६ ॥ अपरश्च| पायं अदिन्नपुटवं, दाणं सुरतिरियनारयभवेसु । मणुयत्ते वि न देजा, जइ तंतोतं पि नणु विहलं ॥५७॥ व्या०-प्रायोऽदत्तपूर्व दानं, केषु ? इत्याह-सुरतियङ्नारकभवेषु, देवैर्दीयमानस्याहृतादिदोषयुक्तस्य साधूनामकल्पनीयत्वात् , तिरश्चां तु तथाविधबुद्धयादिसामय्यभावात् , नारकाणां च साध्वादिदर्शनस्यैवाभावादिति भावः । प्रायो ग्रहणं तु देवानामत्रैव वक्ष्यमाणयुक्त्या, तिरश्चां च वैतरणीवानरादीनामिव केषाञ्चित्क्वचित्कदाचित कियतोऽपि दानस्य सम्भवात् । ततः सम्पूर्णा दानसामग्री मनुजत्व एव, यदि चातिदुर्लभे मनुजत्वेऽपि प्राप्ते कार्पण्यादिभावमालम्ब्य कश्चित्तदानं न दद्यात्तदा तदपि-मनुजत्वमपि विफलमेव गतमिति गाथार्थः। तथा| उन्नयविहवो वि कुलु-ग्गओ वि समलंकिओ विरूवी वि। पुरिसोन सोहइच्चिय, दाणेण विणा गयंदुव्व ॥५८॥ व्याख्या-उन्नतविभवोऽपि सुकुलीनोऽपि अलङ्कृतोऽप्यलङ्कारादिभिः रूपवानपि पुरुषो दानेन विना न शोभत एव, यथा 18॥४६॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठे भवे पूर्वविदेहेषु राज्यं भुक्त्वा नीरागसंयमेन मुक्तिः । इति पूर्वभवदानप्रभावं ज्ञात्वाऽनेकसत्रागाराणि कारयित्वा जिनचैत्यानि स्थापुष्पमाला लघुतिः पयित्वा सप्तक्षेत्री स्ववित्तेनापूर्य प्रान्ते प्रव्रज्य पञ्चमवर्ग गतौ । पूर्वोक्तक्रमेण महाविदेहे मोक्षं यास्यतः ॥ ५२ ॥ ॥४५॥ इति पात्रदाने अमरसेन-बयरसेनचरितं समाप्तम् ।। BI अथ येभ्यो दीयमानं दानं विशेषतो बहुफलं भवेत् तान् दर्शयन्नाहद पहसंतगिलाणेसुं, आगमगाहीसु तह य कयलोए । उत्तरपारणगम्मि य, दिन्नं सुबहुप्फलं होई ॥ ५३ ॥ ___व्याख्या-पथश्रान्तेभ्यो ग्लानेभ्य आगमग्राहिम्यः तथा [च] कृतलोचेभ्यः साध्वादिभ्यस्तथा उत्तरपारणके च विधिना दत्तमशनादि सुष्टु बहुफलं भवति । यतः-पथश्रान्तस्य पर्यटनाद्यक्षमस्यानुकम्पा मासकल्पविहारे स्थिरीकरणाद्याः, ग्लानस्यातव्याननिराकरणाद्याः, आगमग्राहिणां त्विष्टभक्तादिसम्पादनेन क्षयरोगाद्युत्पत्तिनिराकरणाद्याः, कृतलोचे स्थिरीकरणाद्याः, उत्तरपारणके चोपष्टम्भा|दयो गुणाः स्युरिति गाथार्थः ॥ ५३ ॥ अथ दातृणामेवोत्साहनायाह| बज्झेण अणिच्चेण य, धणेण जइ होइ पत्तनिहिएणं । निश्चंऽतरंगरूबो, धम्मो ता किं न पजत्तं ? ॥५४॥ ___ व्याख्या-तावद्वायनानित्येन च यदि धनेन पात्रनिक्षिप्तेन सता नित्यो मोक्षाऽन्तावस्थायित्वाद्, अन्तरङ्गरूपश्चौराबहार्यत्वाद्धम्र्मोऽर्हद्भाषितो भवति, तर्हि किं न परिपूर्ण ?, अपि तु सर्वमपीति गाथार्थः ॥५४॥ उक्ता दानदायकानां गुणाः, अथ तददायकानां दोषानाह १दाना|धिकारे | पथश्रान्तादिम्यो दी यमानस्य दानस्य | बहुफलत्वं CARRIES ॥४५॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ &ासः। ततस्तद्वैराग्याज्ज्येष्ठः प्रव्रज्य सौधम्म सुरो जातः । लघुरज्ञानतपःकृत्वाऽसुरः। स च ततश्युत्वा त्वं जातः । ज्येष्ठः ताम्रलिप्सीपुयों पुष्पमाला १दानालघुतिः व्यवहारिपुत्रो भुक्तभोगः प्रबजितः, सञ्जातकेवलः सोऽहं । यत्त्वया पूर्वभवे दानद्वेषः कृतस्तेन कर्मणा कृपणो जातस्त्वं धनं च सहसा घिकारे ॥४०॥ गतं । इति श्रुत्वा ज्ञातपूर्वभवः सञ्जातसंवेगो गृहीतसम्यक्त्वश्रावकवतो 'लाभचतुर्थांश एव रक्षणीयः, अंशत्रयं धर्मे व्ययनीय'मिति घनसारो. कृताभिग्रहः केवलिनं नत्वा ताम्रलिप्ती गतः। अन्यदा व्यन्तरोद्वासिते कस्मिंश्चिच्छ्रन्यगृहे रात्री प्रतिमया स्थितस्तद्व्यन्तरेण सर्वा दाहरणं | रात्रिं कृतोपसर्गो न क्षुब्धः। प्रातस्तुष्टो व्यन्तरो वरं ददाति । स तु नेच्छति । ततो व्यन्तरेणोक्तं-मथुरां गच्छ, पुनस्त्वं षट्पष्टिकोटीशो समाप्तिश्च भविष्यसि । ततस्तत्र गतेन तथैव च निधानादिषट्पष्टिकोट्यो लब्धाः । महादानपुण्यं कृत्वा धर्ममाराध्य साधर्मेऽरुणाभविमाने चतु दानधर्मस प्पल्योपमायुर्देवो जातः, (ततश्युतो) महाविदेहेषु मोक्षमगादिति धनसाराख्यानकं+ समाप्तम् ॥ इति जिनपतिभिर्यभाषितं युक्तिभिस्तद् , ददतु ददतु दानं न श्रियः साध्यमन्यत् । यदसदपि गुणित्वं ज्ञानववं यशस्त्वं, जनयति कुलजत्वं विश्ववश्यं शिवं च ॥१॥ इति पुष्पमालावृत्तौ तृतीयमुपष्टम्भद्वारं समाप्तम् , तत्समाप्तौ च समर्थितस्त्रिविधोऽपि दानधर्मः ॥ अथ क्रमप्राप्तः शीलधर्मः प्रोच्यते-तत्र यद्यपि शीलशब्दः स्वभाव-ब्रह्म-चारित्रेषु, तथापीह लोकरूढ्याद्याश्रयणाद्ब्रह्मचर्यरूपं शीलं विभणिषुः पूर्वद्वारेण सह सम्बन्धगर्भा गाथामाहइय इकं चिय दाणं, भणियं नीसेसगुणगणनिहाणं । जइ पुण सीलं पि हवेज, तत्थ ता मुद्दियं भुवणं ॥६०॥ | 51॥४८॥ + इदं च कथानकं जलधितोरे शोकावस्थामेव यावत्प्रकृतोपयोगि, शेषं तु प्रसङ्गतः कथितमिति बृहद्वृत्तौ । 54539535+055 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृतिः ॥ ४९ ॥ व्याख्या – इत्युक्तप्रकारेण एकमपि दानं निःशेषगुणगणनिधानं भणितं । यदि पुनः शीलमपि - परकलत्रादिवर्जनरूपं देशतो ब्रह्मचर्यपालनलक्षणं, तत्र - दानदायके प्राणिनि भवेत्तदा गुणभणनमाश्रित्य "मुद्दियं "ति मुद्रितं - स्थगितं भुवनं नातः परं गुणकथा भुवनेऽस्तीति भाव इति गाथार्थः ।। ६० ।। उक्तार्थसमर्थनायैव शीलगुणान् दिदर्शयिषुराह— जं देवाण वि पुज्जो, भिक्खानिरओ वि सीलसं पुन्नो । पुहइवई वि कुसीलो, परिहरणिजो बुहयणस्स ॥ ६१॥ व्याख्या—“जं”ति यस्माद् भिक्षानिरतोऽपि शीलसम्पूर्णश्वेदेवानामपि पूज्यः स्यात् । पृथिवीपतिरपि कुशीलस्तदा बुधजनस्यचतुरलोकस्य परिहरणीयः, "बहुजणस्से" ति पाठे बहुलोकस्येति गाथार्थः ॥ ६१ ॥ तथा सर्वानिष्टं मरणमपि शुद्धशीलरत्नवतः प्रशस्यते । सर्वजीवेष्टं जीवितमपि विगलितशीलस्य निन्द्यते इति दर्शयतिकस्स न सलाहणिज्जं मरणं पि विसुद्धसीलरयणस्स । कस्स व न गरहणिज्जा, वियलियसीला जियंता वि ॥६२॥ व्याख्या – उक्तार्था ।। ६२ ।। ननु सुवहमेवैतत्ततो व्यर्थमित्थं तन्माहात्म्यकीर्त्तनमित्याशङ्कयाह — जे सयलपुहविभारं, वर्हति विसर्हति पहरणुप्पीलं । नणु सील भरुव्वहणे, ते विहु सीयंति कसरुव्व ॥ ६३ ॥ नन्विति पराक्षेपे, ये सकलपृथिव्याः भारं वहन्ति तां परिपालयन्ति, तथा प्रहरणोत्पीडां विषहन्ते, तेऽपि निश्चितं शीलभरोद्वहने कसराः - कल्होडका इव सीदन्ति, रावणाद्याचेह दृष्टान्ता वाच्या इति गाथार्थः ॥ ६३ ॥ अथ दृष्टान्तान् दर्शयन् शीलरक्षणोपदेशमाहरइरिद्धिबुद्धिगुणसुं- दरीण तह सीलरक्खणपयत्तं । सोऊण विम्हयकरं, मइलइ सीलवररयणं ? ॥६४॥ २ शीला धिकारे शीलवतो रकस्यापि देय पूज्यत्वं परिहरणी यत्वं च कुशीलस्य नृपतेरपि ॥ ४९ ॥ • Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ५० ॥ व्याख्या - शीलमेव परमालङ्कारहेतुत्वाद्वररत्नं, तत्को मलिनयति ?, न कोपीत्यर्थः, किं कृत्वा : इत्याह- तथा तेन शास्त्र प्रसि द्वेन प्रकारेण विस्मयकरं शीलरक्षणप्रयत्नं श्रुत्वा, कासां ? इत्याह- सुन्दरी शब्दः प्रत्येकमभिसम्बद्ध्यते, ततश्च रतिसुन्दरी ऋद्धिसुन्दरी बुद्धिसुन्दरी गुणसुन्दरी, तासां कथाः पुनरेवम् साकेतपुरे जितशत्रुर्नृपः, तत्र नृप - श्रेष्ठि-मन्त्रि-पुरोधः पुत्र्यो रतिसुन्दरी - ऋद्धिसुन्दरी - बुद्धिसुन्दरी - गुणसुन्दरीनाम्न्यश्चतस्रः सख्यो जिनधर्ममर्मविदः, तत्र नृपपुत्री नन्दनपुरनृपेण परिणीता, तां चात्यन्तसुरूपां श्रुत्वा हस्तिनापुराधिपः सर्ववलेन तत्पतिं हत्वा तां जग्राह सा राज्ञाऽनेकच डुभिः प्रार्थ्यमाना मदनफलादियोगेन वमनादिना खदेहस्या शुचित्वमदर्शयत् । भगति चैवं - सर्वोऽप्यशुचिदेहस्तत्कुतोऽनुरागः ?, नृपः प्राह - प्रिये ! मम तव नयनयोर्महामोहः, ततस्तया रात्रौ शस्त्रेण नयने उत्कीर्य राज्ञो हस्ते दत्ते, राजा च तद्दृष्ट्वा वैराग्यं गतः । तद्व्यतिकरेण राज्ञि खिद्यमाने च रतिसुन्दरीकायोत्सर्गाकृष्टदेवतया नूतने नयने दत्ते । लोके शीलधर्मप्रभावो विस्तृतः, ततः सा प्रव्रज्य खर्गमगात् ॥ १ ॥ श्रेष्ठपुत्री ऋद्धिसुन्दरी व्यवहारिपुत्रेण परिणीता, स सकलत्रः प्रवहणे आरूढः, भने प्रवहणे काष्ठं लब्ध्वा सभार्यः शून्यद्वीपे क्वापि गतः, तत्र जलार्थमागतेनान्यवणिजा स्वप्रवहणे नीतः । तत ऋद्धिसुन्दरीरूपमोहितेन तेन तत्पतिं समुद्रे पातयित्वा प्रार्थिता सा प्राह - "स्त्रीणां शतेन नैक - स्तृप्यति पुरुषोऽनिरुद्धकरणो यः । एकापि नैव तृप्यति, युवतिः पुरुषैश्च निःशेषैः ॥ १ ॥ तत्किं मुह्यसि ?, ततः स तूष्णीं स्थितः, तदपि प्रवहणं भग्नं, सा फलकमेकं प्राप्य सोपारके गता । तत्र पूर्वायातस्तस्याः पतिर्मिलितः, कथितोऽन्योऽन्यं स्ववृत्तान्तः, ततस्तौ भवविरक्तौ तत्र तिष्ठतः । वणिगपि फलके विलग्रस्तत्रैवागतः । मत्स्याहारैजतिकुष्ठो दृष्टस्ताभ्यां उपचरितश्च, जात २ शीलाधिकारे रति ऋद्धि सुन्दयुदा हरणे ॥ ५० ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुपत्तिः ॥५१॥ हरणे 649545519555 पश्चात्तापश्च तया प्रतिबोध्य परदारविरतिं ग्राहितः, तत्र धनमुपायं सर्वे स्वस्थान प्राप्ताः । ऋद्धिसुन्दरी समये प्रत्रज्य स्वर्ग गता २शीलामन्त्रिपुत्री बुद्धिसुन्दरी सार्थवाहपुत्रेण परिणीता । पितृगृहे गवाक्षस्था नृपेण दृष्टा । तदनुरक्तो राजा मिथ्यादोषमुद्भाव्य सकु- || धिकारे टुम्बं तं धृत्वा दिव्यशुद्धं चाह-विराधितस्त्वमिति, यदि परं उल्लेन त्वां मुञ्चामि । मन्त्री प्राह-यंदादिशति देवः, ततो राज्ञाऽऽदिष्टा बुद्धि-गुणबुद्धिसुन्दरी उल्ले मुक्ता । ततः सा राज्ञाऽभ्यर्थिता न मन्यते । अन्यदा तया स्वानुकारा मदनमयी पुत्रिकाऽमेध्यभृता कारिता शृङ्गारिता सुन्दयुदा| स्वस्थाने मुक्ता । स्वयं च प्रच्छन्ना स्थिता । रात्रौ राजा तत्रागतः। पुत्रिकां तद्बुद्धयाऽऽलापयति । अभाषमाणायाश्चालापयितुं यावन्मु-18 खमुन्नमयति तावत् प्रागेवालग्नमुक्तं शिरः पपात । प्रसृतो दुर्गन्धः, मुखं मोटयन् किमेतदिति चिन्तयति नृपस्तावता सा प्रकटीभूय प्राह-यादृशीयं तादृश्यहमपि बही रम्याऽन्तरमेध्यपूर्णा, तथा च-"अशुचिरसमांसमिश्राणि, यत्रास्थीन्येव केवलानि पुनः। अजिनेन | वेष्टितानि च, को देहेऽत्राभिरमते तत् १ ॥१॥” इत्यायुक्तोऽपि यावन्न प्रतिबुद्धयते नृपस्तावत्सा सहसा गवाक्षात्स्वं मुक्त्वा भूमौ पपात । 15 ततो लजितो नृपस्तत्रागत्य कृतोपचारां तां भगिनीं भणित्वा क्षामयित्वा तद्वचसा परदारविरतिं जग्राह । लोके यशोऽजनि । कालेन : प्रव्रज्य खग गता ॥३॥ पुरोधसः पुत्री गुणसुन्दरी श्रावस्त्यां विप्रपुत्रेण परिणीता । सा साकेतपुरविप्रपुत्रेण पल्लीतो भिल्लधाटीमा| नीय सरूपत्वाद्गृहीता, पल्ल्यां सा तेन प्रार्थ्यमाना चूर्णयोगेनातीसारमकरोत् स्वदेहे, स च तस्या अनेकप्रतीकारपरोऽप्यनिवर्त्यमाने ४ तस्मिन्नशुचिखरण्टितां तां दृष्ट्वा निर्विष्णः । तदा ज्ञातभावया तया प्रतिबोधितस्तां श्रावस्त्यां स्वपिटगृहे मुमोच । अन्यदा सर्पदष्टो द्विजस्तयोपचरितो जिनधर्म परदारविरतिं च प्रतिपन्नः । साऽपि वैराग्यात् प्रव्रज्य स्वर्ग गता ॥ ४ ॥ ॥५१॥ एवं चतस्रोऽप्येताः शीलप्रभावात् स्वर्गसौख्यं भुक्त्वा चम्पापुर्यां महेभ्यगृहेषु पृथकपृथगुत्पन्ना रूपसौभाग्ययुताः । तत्रेभ्यपुत्रेण Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AUREAUC विनयन्धरकुमारेण परिणीताः। अन्यदा तासां रूपं श्रुत्वा राना विनयन्धरकुमारेण सह मैत्री कृत्वा कौटिल्येनान्तःपुरदोषमुद्भाव्य पमाला तद्गृहे मुद्रां कारयित्वा ताःखान्तःपुरे प्रक्षिप्ताः । तदा ताः शीलानुभावतो देवतया कुरूपाः कृताः । ततो भीतेन विस्मितेन च राज्ञा २ शीलाबाचिः मुक्ताः पुनः सुरूपा जाताः, विनयन्धरोऽपि सम्मानितः । लोके शासनप्रभावना, कालेन केवलिपार्श्व राज्ञा पृच्छा कृता, ततस्तासां धिकारे | रतिसुन्द| पूर्वभवं देवतासान्निध्यं च श्रुत्वा संवेगमापनो राजा विनयन्धरश्च सपत्नीकः प्रव्रज्य क्षिप्तकर्ममलो मोक्षङ्गतः । इति रतिसुन्दर्या र्यादीनां दिचरितं समाप्तं ॥ शीलमाहात्म्यं ख्यापयत्राह मोक्षावामिल MIजलही वि गोपयं चिय, अग्गी वि जलं विसं पि अमयसमं। सीलसहायाण सुरा, वि किंकरा हुँति भुवर्णाम्म ६५ है। ___ व्याख्या-इह भुवने शीलसहायानां जलधिरपि गोष्पदमेव, अग्निरपि जलं, विषमप्यमृतसमं, भवेदिति शेषः । तथा सुरा अपि है किङ्करा भवन्तीति गाथार्थः ॥ ६५ ॥ तथा& सुरनररिद्धी नियकि-करिव गेहंगणेव्व कप्पतरू। सिद्धिसुहं पि व करयल-गयं व वरसीलकलियाणं.॥६६॥ IPI व्याख्या-सुरनरयोस्सम्बन्धिनी ऋद्धिनिजकिङ्करीव खायत्ता भवतीति भावः । कल्पतरुहाङ्गणे इव, सकलवाञ्छितार्थप्राप्तेः । आस्तामेतदैहिकं फलं, यावसिद्धिसुखमपि वा करतलगतमिव निर्मलशीलकलितानां भवतीति गाथार्थः ॥ अत्रैव दृष्टान्तप्रतिपादनार्थमाहसीयादेवसियाणं, विसुद्धवरसीलरयणकलियाणं। भुवणच्छरियं चरियं, समए लोए वि य पसिद्धं ॥६७॥ व्याख्या-सीता-देवसिकयोर्विशुद्धवरशीलरत्नकलितयोर्भुवनस्याप्याश्चर्यरूपं चरितं समये-सिद्धान्ते लोकेऽपि च प्रसिद्धमिति R ABAR ४ ॥५२॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAL | २ शीला|धिकारे सीतानिर्वासनं पुत्रयुगप्रसवनं च। गाथाक्षरार्थः। तत्र सीताचरित्रं सुप्रसिद्धमेवेति नेह विस्तरेणोच्यते, स्थानाशून्यार्थ तु किश्चिदुच्यते,तद्यथा-लङ्काधिपं निहत्य स्वपुर्यामयोपुष्पमाला ध्यायामानीतायाः सीताया गर्भे समुत्पन्ने मासद्वयेऽतिक्रान्ते रामेण दोहदे पूरिते अन्यदा पूर्वाजिंततीव्रकर्मोदयादतीवापवादः प्रासापर्षीत् , लघुवृत्तिः यदुत-'इयच्चिरं रावणगृहे कथमखण्डशीला सीता ? इति । ततोऽपवादभीरू रामः सीतात्यागाय लक्ष्मणमादिदेश । स च निःश्वस्याह॥५३॥ __“जइ चलइ मंदरो सुसह, सायरो ल्हसइ मयलदिसिचकं । तहवि हुन चलह सीलं, सीआए महासइवराए ॥१॥" किश्चPI"कत्तो वि दुजणाण, अविजमाणो वि फुरइ परदोसो। सच्छा वि हु सूरकरा, कलुसल्लिया कोसियकुलस्म ॥२॥" किञ्च-सीतायां त्यक्तायां त्रिभुवनेऽपि तेऽपवादः । अमुक्तायां तु पुर्यामेव संशयितः स इति । तथापि रामे तमसदाग्रहममुश्चत्युहै| द्विनो लक्ष्मणः स्वगृहं गतः । ततो रामादिष्टः कृतान्तवदनः सेनानी: सीतामाह-वामिनि ! जिनभवनवन्दनदोहदस्तेऽभूत् तदत्र तानि | वन्दितानि, शेषदेशेषु तद्वन्दने रघुराजेनाहमादिष्टस्ततो रथमारोहतु स्वामिनी इति । साऽपि हृष्टा तथाऽकरोत् । ततो ग्रामाकरनगररम्यां | बहुमहीमुल्लङ्घय गङ्गापरपारे भीषणारण्ये रथं संस्थाप्य गद्गदगिरा रामादेशं सहेतुं सीतायै न्यवेदयत् सः। सीता तु तदाकर्ण्य मूञ्छिता दभूमौ पपात, तेनोपचरिता तु लब्धचैतन्या देवं नानोपालम्भैः सम्भावयन्ती विलपति पतति मूर्च्छति । सेनानीरपि तां तथा पश्यन् स्वं निन्दन विलम्बमानोऽपि गत्वा रामाय तजगौ। रामोऽपि तत् श्रुत्वा मृच्छति विलपति, सीता गुणान् स्मारं स्मारं पश्चात्तापं करोति । | इतश्च पुण्डरीकपुरेशः सुश्रावको वज्रजङ्घराजा गजबन्धनाय तत्रागतो विलपन्ती सीतां भगिनीत्वेन प्रतिपद्य स्वगृहेऽनपीत् । सा च तत्र पुत्रयुगं सुलग्ने लव-कुशनामकं प्रासूत । तारुण्ये लवो बहुकन्याः परिणिन्ये । कुशार्थे तु पृथुराजा प्रार्थितः 'कथमज्ञातकुलशीलस्य सुतां 18/॥ २३ ॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ५४ ॥ दद्मि १' इत्याह । वज्रजङ्घः कुपितस्तदुपरि प्रस्थितः । रघूद्भवौ तु ज्ञाततद्व्यतिकरौ रणाग्रे भूय पृथुराजं जित्वा जयश्रिया सह तत्पुत्रीजगृहतुः । अन्यानपि बहुन्नृपतीन् जित्वा तद्देशान् गृहीत्वा महानृपती भूतौ । अन्यदा नारदाद्रामलक्ष्मणस्वरूपं ज्ञात्वा ताभ्यां सह रणाय लग्नौ तौ तत्र हलमुशलचक्रेष्वप्यफलेषु नूनमेतौ बल - केशवाविति चिन्तयतो रामलक्ष्मणयोर्युष्मत्पुत्रावेतौ मा खिद्येथामित्यादिनारदेनोक्ते हृष्टौ बलकेशवावुपपुत्रमागतौ तावपि तत्पादयोः पतितौ तदा च रामः स्मृतसीतागुणश्विरं विललाप । ततः पुत्राभ्यां सह पुरं प्रविश्य वर्द्धानमकारयत् । ततो 'दुःखेन तिष्ठन्तीं सीतामानाययतु देव " इति सर्वसामन्तैर्विज्ञप्तो रामः प्राह - अस्त्वेवं, यदि परं प्रत्ययेन प्रमार्ष्टि जनापवादं । ततस्तत्प्रतिपद्य विभीषणादिखेचरैः पुराद्वहिर्मश्चान् बन्धयित्वा सकलराजादिलोकान् मेलयित्वा पुष्पकविमानेन महाविभूत्या समानीता सीता "तो रोहामि तुलाए, जलणं पविसेमि लेमि वा फालं । उग्गं वा पियामि विसं, अन्नं च करेमिजं भगसि || १ ||" इति तयोक्ते रामः प्राह-देवि ! जानाम्येव शशिकुलधवलं ते शीलं, तथापि लोकप्रत्यायनाय ज्वलनं प्रविशेति, तुष्टा सीता तं प्रतिपेदे, रामः पुराद्वहिर्हस्तशतत्रयं समचतुरस्रावगाढां वापीमचीखनत्, चन्दनकाष्ठैः पूरयित्वाऽग्निरुद्दीपितः, ज्वालाभिः कवलितं नमः | अत्रान्तरे कस्यापि मुनेः केवलमहिमार्थं तत्रायातः शक्रस्तं व्यतिकरं ज्ञात्वा सीतायाः शीलेन तुष्टो वैयावृत्यार्थं हरिणेगमेषिणं प्रैषीत् । सीताऽपि पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारं स्मृत्वा आत्मानं शीलशुद्धां श्रावयित्वा हाहारवमुखरेषु पश्यत्सु लोकेषु ज्वालामाला - जटिले ज्वलने झम्पां ददौ तावता नाग्निर्न धूमो नेन्धनं, किं त्वम्भोभृता नलिनीवनखण्डमण्डिता वापी, मध्ये चैकस्मिन् महाप सीतोपविष्टा दृष्टा जनैः । प्रवर्द्धमानेन वापीनीरेण तु पूरी प्लावयितुं लग्ना । पौराः पुनर्भीताः सीतापादयोविलग्नाः, सीताकरस्पर्शाच्च तद्वापीमात्रमभूत् । पुष्पवृष्टिदुन्दुभिगीतनृत्यादिदेवकृतोत्सवः प्रवृत्तः । लक्ष्मणपुत्रादयः पादयोः पतन्ति । रामः प्राञ्जलिः क्षामयित्वा १२ शीलाधिकारे रामलक्ष्मणाभ्यां सह सीतापुत्रयोयुद्ध, सीताप्रत्ययं च । ॥ ५४ ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुत्तिः २ शीलाधिकारे सीतापत्रजनादिव्य देवसिका. चरितं च *A राज्यस्वामित्वविषयः प्रार्थयति सीतां, सीता तु 'येषु गद्धया मया विनाऽप्यपराधमियद् दुःख प्राप्त, अथ तेषु कः प्रतिबन्धः?' इत्याद्युक्त्वा तदेव शिरसि लोच कृतवती, ततो देवैर्दत्तवेषा केवलिसमीपे नीता चरणं प्रतिपद्य सम्यगाराध्याच्युतेन्द्रोऽभूत् । रामस्य तु यथोचितं वाच्यम् । [सीतया] पूर्वभवे वेगवत्या नाम्न्या ग्रामेण पूज्यमानस्य साधोर्मत्सरेण कलको दत्तः, ततो लोकः साधौ विरक्तः, देवतानुभावात् तस्या मुखं स्यून, ततो भीता सा 'मयाऽलीकमुक्त'मिति लोके प्रोचे, ततः पुनर्मुनेः पूजा, इति यन्मुनेरभ्याख्यानं दत्तं शोधिश्च कृता, तेन कर्मणा तस्या द्वयमपि जातमिति ॥ इति श्रीसीताऽऽख्यानं समाप्तम् ।। देव[सिका]सेना (?) चरितं त्विदम्-ताम्रलिप्तीपुर्यां कमलाकरश्रेष्ठी, जिनसेनः पुत्रो जिनधर्मपरः, स च रत्नाकरपुरनिवासिधर्म| गुप्तश्रेष्ठिपुत्री देव[सिकां]सेनां (?) परिणीतवान् । अन्यदा पितयुपरते जिनसेनोऽर्थोपार्जनाय देशान्तरं गच्छन् देव[सिकया]सेनया (?) भणितः-नाथ ! त्वं तत्र गतोऽन्यान्यरमणीभिर्लोभयिष्यसे । स प्राह-यावजीवं ममापररमणीरमणे नियम इति, तथापि सा न प्रत्येति । ततो जिनसेनो देवतामाराध्य तद्दत्तं पद्मद्वयं लात्वैकं पत्न्याः करे समापरं स्खकरे कृत्वा बभाण-त्वच्छीलस्खलने मत्कर| कमलं मच्छीलस्खलने त्वत्करकमलं शुष्यतीति प्रत्ययः । ततः क्रयाणकानि गृहीत्वा स्वस्थचित्तो जलाध्वना पाचकूलमगात् । तत्र राज| मान्यो व्यवसायं कुर्वन् प्रत्यहं करकृतकमलस्तत्पुरनिवासिव्यवहारिपुत्रैश्चतुर्भिदृष्टस्तत्कमलस्वरूपं पृष्टो यथार्थ प्राह । ते तथाऽश्रद्दधानाश्चत्वारोऽपि ताम्रलिप्त्यामागताः, कस्याश्चित् परित्राजिकाया गृहे स्थिताः, तैर्लक्ष लक्ष द्रव्यं मानयित्वा तस्य गृहे प्रेषिता परित्राजिका देव[सिकाग्रे]सेनाऽग्रे धर्मकथां कथयति । सा शृणोति, प्रत्यहं यात्यायाति सा । अन्यदा परिवाजिकया तस्या गृहशुन्याचूर्णमिश्राहारो दत्तस्तस्या नेत्रे स्पन्देते, तदृष्ट्वा देव सिकया सेनया (?) कारणं पृष्टा परिवाजिका प्रपश्चन कूटध्यानं नाटयित्वा प्राह-इयं शुनी CCES ॥ ५५ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भद्रे ! मम पूर्वभवसखी, तो यमत्यन्तसुरूपाऽनेकैस्तरुणैः प्रार्थ्यमाना तेषां वचो नामन्यत, सम्प्रति शुनी जाता मां दृष्ट्वा ज्ञातपूर्व | २ शीलापुष्पमाला भवा पश्चात्तापेन रोदिति, इति श्रुत्वा देवसेना (2) देवसिका)ऽचिन्तयत्-नूनमियं दुराचारिणी, केनापि कामिना प्रेषिता मम शीलभङ्गा) 31 लघुवृत्तिः धिकारे कल्पितवचांसि वक्ति, अन्यथा कथं सा शीलवती मृत्वा शुनी जाता ?, तर्हि तथा करिष्ये यथा अस्याः प्रपञ्चो मिथ्या भविष्यतीति देवसिकाध्यात्वा देव[सिका सेना (?) प्राह-तहिं मया किं विधेयम् ?, तयोक्तं चत्वारः पुरुषाः प्रत्येकं लक्षाभरणास्तव सौभाग्याकृष्टाः पार्श्वकूला- चरितम् दायाताः सन्ति, तैः सह स्वयौवनं कृतार्थयेति । देव सिका] सेना (१) प्राह-एवमस्तु । ततः परित्राजिका सङ्केतेनैकः कृतशृङ्गारः समायातः, द्र देव सिका] सेना (?) खदासी शृङ्गारयित्वा शिक्षां दत्वा द्वारि संस्थाप्य स्वयं प्रच्छन्ना स्थिता, दास्या लोहशिलाकां तापयित्वा स ललाटे दम्भितो दासीभिर्मिलित्वोद्दालितसर्वाभरणो विलक्षो गतः । त्रपया स्वस्वरूपमन्येषां नोक्तं । पुनर्द्वितीयेऽन्हि द्वितीयो गतः, सोऽपि | गृहिताभरणोऽङ्कितः । एवं चत्वारोऽपि । ततः सर्वेऽपि समदुखाः परस्परं सद्भावमुक्त्वा लज्जिताः परित्राजिकोपरि द्विष्टास्तस्या नाशां कर्णी च छिच्चा पाश्चकूले गताः। तद्वयतिकरं देव[सिकया]सेनया (१) ज्ञात्वा चिन्तितं-मा एते तत्र गता मम पन्युः किमपि विरूपकं कुर्वीरनिति श्वश्रुसमक्षं उक्त्वा यानपात्रेण सपरिवारा प्रस्थिता । अन्तराऽकृतपूजया मिथ्याग्देवतया प्रवहणे भग्ने सम्यग्दृष्टिदेवतया शीलादिगुणाकृष्टया क्षणार्द्धन सपरिवारा पार्श्वकूले नीता । तत्र पत्युः सर्व प्रोक्तं, पुरुषवेषेण राज्ञः प्राभृतं कृत्वोक्तवती-अस्माकं चत्वारः | किङ्करा बहुद्रव्यं लात्वा ताम्रलिप्तीपुर्या अत्रायाताः सन्ति । राज्ञोक्तं-विलोक्य गृण्हन्तु । तयोक्तं-सर्वे पुरुषा राजादेशेनात्रायान्ति तदा | सुज्ञानं स्यात् । राज्ञोक्तं-किमपि तेषामुपलक्षणं चिन्हमस्ति । तयोक्तं-ललाटे अस्मत्स्वामिनोऽङ्काः सन्ति । ततो राज्ञा सर्वे पुरुषास्तत्र 2 सभायामाहूताः । तया विलोक्य चत्वारोऽपि प्रकटिताः । उक्तं चैते ते मम किङ्कराः । राज्ञः सर्वलोकानां च महान् विस्मयः । अहो Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥५७॥ CAR-CANCERCANCY एतेऽस्मत्पुरप्रधानव्यवहारिपुत्राः कथं किङ्करा जाताः । ते च पृष्टा अपि त्रपया न वदन्ति । ततो देव सिकया] सेनया(?) यथास्थिते २ शीलाकथिते राज्ञा ते चत्वारोऽपि तस्याः समप्पिताः, उक्तं चैतेषां दुष्टानां यद्युक्तं तत्त्वमेव कुरु । ततस्तया धर्मदेशनया सम्बोध्य परदार Giधिकारे विरतिं ग्राहिताः सत्कृत्य मुक्ताः । देव[सिकाऽपि] सेनाऽपि राज्ञा लोकैश्च स्तुता कृतशीलप्रभावना पत्या सह खावस्थानपुरं प्राप्ता कालेन दुश्शीलताका त्रिभुवनचन्द्रकेवलिधर्मदेशनां श्रुत्वा सञ्जातवैराग्या प्रव्रज्य प्राप्तकेवलज्ञाना मोक्षमगात् । इति देवसिकाचरितं समाप्तम् ॥ फलोपदर्शनं . अन्वयदृष्टान्तावभिधाय व्यतिरेकदृष्टान्तमाह- . मणिरथनृविसयाउरेहि बहुसो, सील मणसा वि मइलियं जेहिं । ते निरयदुहं दुसहं, सहति जह मणिरहो राया॥६॥ पोदन्तश्च ____ व्याख्या-यैर्विषयातुरैः सद्भिर्मनसाऽपि शीलं बहुशोऽनेकवारं मलिनीकृतं, ते दुःसहं नरकदुःख सहन्ते, यथा मणिरथो राजेति 8 | गाथार्थः ॥ ६८ ॥ तत्कथा चेयम्-अवन्तीदेशसारे सुदर्शनपुरे मणिरथो राजा, तस्यैवानुजो युगवाहुर्युवराजः, तस्य पत्नी मदनरेखा । अन्यदा तस्या रूपरक्तेन ज्येष्ठेन दृतीमुखेन प्रार्थिता साऽऽह "अन्नम्मि वि परदारे, सप्पुरिसाणं न वच्चद मणं पि । जं पुण बहूजणम्मि वि, कायपवित्ती महापावं ॥१॥" | "सील चिय पढमगुणो, नारीणं जइ न सोवि मह होना। तो के गुणा य अन्ने ?,अणुरज्जइजेसु नरनाहो॥२॥" किञ्च | "तुच्छाणं भोगाणं, कज्जे पाविहिसि तिहुयणे अयसं । घोरे य पडिहिसि नरए, दुहाई किणिउं सहत्थेणं ॥३॥" | ततो निरमैतदकार्यादित्यादि, दत्या चतन्निवेदितं तस्य, तथाप्यनिवृत्तकामग्रहः स्वभ्रातजिघांसया छिद्राणि विलोकयति । अन्यदा वसन्ते क्रीडार्थ वने गतः, तत्रैव सुप्तो मणिरथ[युगबाहुस्तेन व्यापादितः। ततो मदनरेखया युगवाहोरन्त्यावस्थां ज्ञात्वा कर्णमूले भूत्वा CARE ॥५७॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥५८॥ मधुरगिराऽऽराधना कारिता, प्रतिपन्नभावचरणो मृत्वा ब्रह्मलोके उत्पन्नः । ततः शेषपरिजनेषु क्रन्दत्सु "मज्झनिमित्तं वहिओ, नियबंध जेण मो अवस्संपि। गं[भ] जिहह मज्झ मील, तमियाणि रक्खि जुत्तं ॥१॥18॥२ शालाइति विचिन्त्य सगर्भा मदनरेखा रात्रावेव नष्टा, क्वाप्यटव्यां पुत्ररत्नं प्रसूता । तत्करे युगबाहुनामाङ्को मुद्रां क्षिप्त्वा तत्रैव मुक्त्वा | Iधिकारे 18 दुश्शीलतावस्त्रादिक्षालनार्थ सरसि गता । तत्र जलगजेन गृहीत्वा गगने उल्लालिता पितृमनेर्वन्दनार्थ नन्दीश्वरे गच्छता मणिप्रभविद्याधरेणान्तरा फलोपदर्शन | गृहीता । पुत्रार्थ विलपन्ती तेनोक्ता-तव पुत्रोऽश्वापहृतेन मिथिलापुरीखामिना पद्मरथेन गृहीतः पुष्पमालाया अपितः, इति मम || मणिभप्रज्ञप्त्योक्तं. ततो मुश्च विषादं, मया सह रमस्व खेचरीश्वरी भव, तावता तेन नीता नन्दीश्वरे मुनिसमीपे । अत्रान्तरे मदनरेखाकारि दिपोदन्तश्च। ताराधनः पञ्चमस्वर्गादागतो युगबाहुर्दैवस्तां त्रिःप्रदक्षिणीकृत्यावन्दत । ततो मुनिदेशनाबुद्धेन विद्याधरेण क्षामिता । देवस्तां मिथिलायां स्वपुत्रान्तिके मुक्त्वा स्वस्थानमगात् । तत्र प्रबजिता मदनरेखा, पुत्रः सर्वारिनमनान्नामिनामा पद्मरथेनोक्तः, यौवनप्राप्तं च तं राज्ये संस्थाप्य प्रव्रज्य पद्मरथो मोक्षमगात् । इतश्च मणिरथस्तस्यामेव रजन्यां कालसर्पदष्टः चतुर्थ नरके उत्पन्नः। मन्त्रिभियुगबाहुपुत्रो ज्येष्ठश्चन्द्रयशा राज्ये स्थापितः । अन्यदा नमिनृपतेर्धवलगज आलानमुन्मूल्य वनं व्रजन्नन्तरा चन्द्रयशसा राज्ञा गृहीतः । नमिराज्ञा मार्गितोऽपि यावत्स न मुञ्चति, तावत् सबलवाहनो नमिस्तदुपर्यागतः। नमिमात्राऽऽर्यया तत् श्रुत्वा तयोः स्ववृत्तान्तं ज्ञापयित्वा द्वावपि भ्रातरौ मेलितौ प्रतिबोधितौ । चन्द्रयशाः स्वराज्यं नमेर्दत्त्वा प्रबजितः । अन्यदा नमिनृपतेर्देहे दाघज्वरः पाण्मासिको जातः । | तदुपशमनार्थमन्तःपुरीभिग्रंमाणे चन्दने बहुवलयरवो राज्ञः कर्णकटुरिति वलयमेकैकं रक्षयित्वा घर्षणं कुर्वन्ति । ततो राज्ञा चिन्तितं-18 यद्यहमप्येकाकी भूत्वा तिष्ठामि, तदा सुखमनुभवामि वलयदृष्टान्तेन । ततः प्रत्येकबुद्धस्सजातजातिस्मृतिर्दाघदोपमुक्तः पुत्र राज्ये संस्था-11 CA+A 18|॥५८॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारे ॥ ९ ॥ शीलस्य प्य देवतादत्तलिङ्गः प्रव्रज्यां प्रतिपन्नः शक्रेण परीक्षितोऽक्षोभ्यचित्तः प्रणतः, स्वर्ग गतः [शक्रः । मुनिरपि निरवद्यां दीक्षां पालयित्वा 18/२ शीलापुष्पमाला सिद्धिं गतः । इति मणिरथचरितं समाप्त, प्रसङ्गान्नमिचरितमपि । लघुवृत्तिः इह च यदेव प्रकर्षमापन्नमुक्तनीत्या प्राणातिपातादिषु निमित्ती भवति, तदेव मनसा शीलविराधनं नरकदुःखहेतुर्विवक्षितं, न |Pा चिन्ताम५ तन्मात्रमिति गाथार्थः ॥ ६८ ॥ शीलमहात्म्यख्यापनार्थमेवाह ण्यादिभ्यो|चिंतामणिणा किं ? तस्स, किं च कप्पदुमाइवत्थूहिं ?। चिंताईयफलकरं, सीलं जस्सऽस्थि साहीणं ॥६९॥ ऽप्यधिक फलत्वं ____ व्याख्या-तस्य चिन्तामणिना किं ?, न किञ्चिदित्यर्थः, किं वा कल्पद्रुमादिवस्तुभिः ?, आदिशब्दात्कामधेन्वादिपरिग्रहः, यस्य चिन्तातीतं मोक्षप्राप्त्यादिफलकरं शीलं स्वाधीनमस्ति । चिन्तामण्यादयः कल्पितखरूपाणि हिरण्यलाभादीन्येव फलानि प्रयच्छन्ति, दशीलं तु चिन्तातीतं मोक्षादिकं फलमपि करोतीत्येतदेवो[पादेयं]पेयं, नान्यदिति भावार्थः ॥ ६९ ॥ इति जिनपतिदिष्टं देहभाजो! यथेष्टं, कृतगुणगणलीलं शोलयन्त्वे शीलम् । दिविजमनुजराजाऽभ्यर्चनाभक्तिहेतु-यदिह विकसदापत्सागरोत्तारसेतुः॥१॥ इति पुष्पमालावियरणे [ द्वितीयः ] शीलधर्मः समर्थितः ॥ ४ ॥ - अथ तपोधर्म विभणिषुः शीलधर्मेण सह सम्बन्धगर्भा गाथामाह P ॥२९॥ इय निजियकप्पद्रुम-चिंतामणिकामधेणुमाहप्पं । धन्नाण होइ सीलं, विसेसओ संजुयं तवसा ॥ ७० ॥ ॐॐॐॐॐॐॐ SOCIA Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या-इत्युक्तनीत्या निर्जितकल्पद्रुमचिन्तामणिकामधेनुमाहात्म्यं शीलं धन्यानां केषाश्चिद्भवति, विशेषतस्तपसा संयुक्तमिति, 18|३ तपोपुष्पमाला* | शीलसम्पन्नोऽपि तपसैव विशिष्टां कर्मनिजरामामोतीति शीलानन्तरं तपःप्रोच्यते इतीह सम्बन्धः प्रोक्तो द्रष्टव्य इति गाथार्थः ॥७०॥ लघुवृत्तिः धिकारे ___कतिभेदं पुनस्तत्तपः ? कथं कैश्च विधेयं ? इत्याह॥६ ॥ शीलतपसोः & समयपसिद्धं च तवं, बाहिरमभितरं च बारसहा । नाऊण जहाविरियं, कायव्वं तो सुहत्थीहिं ॥ ७१ ॥ सम्बन्धः &ा व्याख्या-'समयः सिद्धान्तः, तत्प्रसिद्धं तपो बाह्यमभ्यन्तरं च तावद् द्वादशधा, तच्चाशेषैर्गुरुसमीपे ज्ञात्वा यथावीर्य-स्वशक्त्य तपोमाहानुसारेण कर्त्तव्यं, न सर्वथा शक्तिर्गोपनीया, यत उक्तं-"तित्थयरो चउनाणी, सुरमहिओ सिज्झियवए धुवम्मि । अ त्म्यं च। निगूहियबलविरिओ, सम्वत्थामेण उज्जमह ॥१॥ किं पुण अवसेसेहिंदुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होइ न उज्जमियव्वं ?, सपच्चवायंमि जियलोए ॥२॥" न च शक्त्यतिक्रमेण तत्कर्तव्यम् । यदुक्तं-"मो य तवो कायव्यो, जेण मणो मंगुलं न चिंतेह। जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न सीयंति ॥१॥"कैः कर्तव्यमिद ? इत्याह-सुखा| थिंभिः, न तु भवाभिनन्दिभिरिति गाथार्थः ॥ ७१ ॥ किमिति तपः कर्त्तव्यमित्याशक्य तन्माहात्म्यं ख्यापयन्नाह| जं आमोसहिविप्पो-सही य संभिन्नसोयपमुहाओ। लद्धीओ हुंति तवसा, सुदुल्लहा सुरवराणं पि ॥७२॥ ___व्याख्या-यस्मात्कारणादामर्षणमामर्षः संस्पर्शनमित्यर्थः, स एव कुष्ठादिव्याध्यपनयनसमर्थत्वादौषधिरामोषधिः। अयम्भावः ॥६०॥ यया संस्पर्शनमात्रादेव सकलव्याधीनपनयति, सा लब्धिरामपोषधिः, यया विविष्ठाद्याः सुगन्धयः स्युः संस्पर्शमात्रादेव च सकल AANE ॐ+13049 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः 24* व्याधीनपनयति, सा लब्धिर्विप्रडौषधिः, तथा सम्भिन्न-सर्वशरीरव्यापि श्रोतः-श्रवण यस्यां लब्धौ सा, अथवा श्रोतांसि-इन्द्रियाणि | संभिन्नानि-एकैकशः सर्वविषयः परस्परतो वा यस्यां सा तथा, अथवा परस्परतो लक्षणतोऽभिधानतश्च सम्भिन्नान-सुबहनपि शब्दान् | ३ तपो ऽधिकारे शृणोति यया सा सम्भिन्नाश्रोतोलब्धिः, प्रमुखग्रहणात् खेल-मलौषध्यादिकाः जङ्घाचारणादिकाश्च गृह्यन्ते, सर्वा अप्येतास्तपसा कस्यचित्साधोरेव भवन्ति । तच्च सुराणां न सम्भवत्यतस्तेषामप्यतिदुर्लभा एताः, इत्यालोच्य तप एव कर्त्तव्यं, एवमुत्तरत्रापि तपो माहा-181 क्रयादिसु| त्म्यमुद्भाव्य यथायोगमित्थं सम्बन्धः कर्तव्य इति गाथार्थः॥ ७२ ॥ तथा लखप्राप्तिफसुरसुंदरिकरचालिय-चमरुप्पोलो सुहाइं सुरलोए।जं भुंजइ सुरनाहो, कुसुममिणं जाण तव तरुणो॥७३॥ लत्वं तपसः | व्याख्या-कश्चित् कार्तिकश्रेष्ठयादिको जीवः प्राग् जन्मनि शुद्धं तपो विधाय सुरलोके सुरनाथत्वेनोत्पन्नः सुरसुन्दरीकरचालि-13 8 तचमरोत्करः प्रवरवैषयिकसुखानि यद् भुङ्क्ते, तत्कुसुममात्रमेव जानीहि, कस्य ? इत्याह-तप एव तरूस्तस्य तपस्तरोः, फलं तु मुक्ति-18 सुखमेवास्येति गाथार्थः ॥ ७३ ॥ जं भरहमाइणो च-किणो वि विप्फुरियनिम्मलपयावा । भुंजंति भरहवासं, तं जाण तवप्पभावेणं ॥७॥ ___ यद्भरताद्याश्चक्रिणोऽपि विस्फुरितनिर्मलप्रतापाः सन्तो भरतक्षेत्रं भुञ्जन्ति, तत्तपोमाहात्म्यादेवेति जानीहीत्यक्षरार्थः ॥ ७४ ॥ | पायाले सुरलोए, नरलोए वा वि नत्थितं कजं। जीवाण जं न सिज्झइ, तण विहिणाऽणुचिण्णेणं ॥७५॥ पाताले देवलोके मनुष्यलोके वाऽपि जीवानां तत्कार्यमेव नास्ति, यद्विधिनाऽनुचीर्णेन तपसा न सिद्धथतीत्यक्षरार्थः ॥ ७५ ॥ 35** CAL ॥६ ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ऽधिकारे & विसमं पि समं सभयं,पि निब्भयं दुजणो वि सुयणोव्व। सुचरियतवस्स मुणिणो,जायइ जलणो वि जलनिवहो॥ 1६३ तपोपुष्पमाला व्याख्या-'विषममपि सङ्कटरूपमपि सम-सम्पदारूपं, तथा सभयमपि निर्भय, दुर्जनोऽपि खजन इव, ज्वलनोऽपि जलनिवह लघुवृत्तिः का व जायते, कस्य ? इत्याह-सुचरिततपसो मुने-महात्मनः, उपलक्षणं चैतत्तेनोग्रतपस्विनामन्येषामप्येतत् सकलं तपःप्रभावात्सम्पद्यत |81 सर्वापद्वि॥६२॥ | इति गाथार्थः ॥ ७६ ।। अथ च तपसोऽतिगरीयस्त्वं दुष्करत्वं चाकलय्योत्पन्नभक्त्यतिरेको ग्रन्थकृत्तपःकर्तृसाधूनां प्रणाममाह- नाशनफलतवसुसियमंसरुहिरा, अंतो विप्फुरिवगरुयमाहप्पा । सलहिज्जति सुरेहि वि, जे मुणिणो ताण पणओहं॥७७॥ LAT | त्वं तपसो | नन्दिषेणो____ व्याख्या-ये तपशोषितमांसरुधिरा अन्तर्विस्फुरितगुरुकमाहात्म्याः सुरैरपि श्लाघ्यन्ते, तेभ्यो मुनिभ्योऽहं प्रणतोऽस्मीति गाथार्थः | PIदाहरणं च 31॥ ७७ ॥ अथ दृष्टान्तपूर्व तपोमाहात्म्यं स्पष्टयनाह| जं नंदीसेणमुणिणो, भवंतरे अमरसुंदरीणं पि । अइलोभणिजरूवं, संपत्तं तं तवस्स फलं ॥ ७८॥ | ___व्याख्या-यन्नन्दिषेणसुनेर्भवान्तरे-श्रीवसुदेवभवलक्षणे अमरसुन्दरीणामप्यतिलोभनीयं रूपं सम्प्राप्तं-जातं, तत्तपस एव फल-17 मित्यक्षरार्थः, भावार्थस्तु कथानकेन कथ्यतेद मगधदेशे शालिग्रामे विप्रपुत्रो नन्दिषेणः, तस्मिन् जाते मातापितरौ मृतौ, सर्वमपि गृहधनं गतं, दुःखेनाष्टवर्षो जातः, बालका-18 लाद्दुर्भगो रूपादिहीनः सर्वदोषमन्दिरं भिक्षां भ्रमन् मगधपुरे मातुलगृहे गतो गृहकर्माणि कुर्वस्तिष्ठति । मातुलः सप्तपुत्रीभ्य एकैका त ॥ २॥ तस्य ददाति, ताः सर्वा अपि कृतमरणनिश्चया दुर्भगत्वात्तं नेच्छन्ति, किं पुनरन्याः कन्याः, ततो निर्विण्णो वैभारगिरिशृङ्गात्पतत्केनापि 1994-3GAR Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + मुनिना निवारितस्तत्पार्श्वे दीक्षां गृहीत्वा एकादशाङ्गान्यधीत्य द्वादशविधं तपः कुर्वन् जघन्यतः कृतपष्टतपोऽभिग्रहो दशविधवैयावृत्त्ये ३ तपोपुष्पमाला INI कृतयावज्जीवाभिग्रहः साधूनामिच्छतां निखद्याशनादि आनीय ददाति । अन्यदा तस्य वेयावृत्त्यस्थिरताप्रशंसां शक्रकृतामश्रद्दधानो | धिकार लघुवृत्तिः द्वावमरौ साधुवेषेण परीक्षार्थमत्रायातौ। एको बहिः स्थितः, अपरस्तद्वसतावागत्य ग्रीष्मे मध्याह्ने षष्ठपारणे प्रथमकवलमुत्क्षिपन्तं नन्दि वसुदेवपूर्व पेणं महामुनिमुत्राच-यद्यत्र गणे कश्चिद्ग्लानप्रतिजागरकोऽस्ति ? तत्तमन्त्यावस्थाप्राप्तं [ग्लान] प्रतिजागर्नु । ततस्त्यक्त्वा कवलं सहसो-14 भवनन्दिषेत्थितः स प्राह-क्क क्व सः प्रतिवसति ग्लान?, केनौपधेनार्थः। देवमुनिराह-अरण्ये स्थितोऽस्ति सोऽतिसारकी, त्वं पुननिर्लज्ज ! निश्चि-2 णोदाहरणं न्तो मिष्टभोजी रात्रिदिवास्वपि निरपेक्षः वैयावृत्त्यकरोऽहमेतावतैव तुष्टः । ततो नन्दिषेणस्तं क्षमयति निन्दति चात्मानं । अथ देवर्षिस्त| क्षेत्रकालदुर्लभान्यौषधानि उष्णोदकं चानाय्य प्रतिगृहमनेषणामकरोत् । तथाऽप्यदीनचित्तः क्वचिद्वयाक्षिप्ते सुरे तत्सर्व गृहीत्वा प्राप्तो ग्लानमुनिपार्श्व, सोऽपि नन्दिषेणं वीक्ष्य क्रुद्धो वक्ति-अहमेनामवस्थां प्राप्तोऽरण्ये तिष्ठामि, त्वं पुनर्निर्भाग्यशेखर ! निर्लज्ज ! सुखेन | तिष्ठसि तत्रेत्येवं निर्भसितोऽपि पुनस्तमपि क्षमयित्वाऽनुज्ञाप्याशुचिरसानुलिप्तं तदेहं प्रक्षाल्यासौ स्कन्धे कृतो नन्दिषेणेन । सोऽप्युपरि । स्थितो दुर्गन्धं मुश्चत्यशुचिरसं, शिरसि गुरुप्रहारैर्हन्ति, रे दुरात्मन् ! किं न समं गच्छसि ?, कठिनहस्तैर्ममाङ्गं किं गाढं धरसि ?, न वेत्सि ? परपीडा, यत्पदे पदे मे दुःखमुत्पादयसि, रे दुष्ट ! निष्ठुर ! निष्कृप! नित्रप! कथं वैयावृत्त्यं प्रतिपन्न ?' इत्यादि निष्ठुरं भण-18 तस्तस्य नन्दिषेणश्चिन्तयति-कथमस्य साधोः समाधिविधेया, यदहमसम्यगव्रजन्नेतस्य व्याधिविधुरस्य मुनेः पीडां करोमि, तन्मिथ्या18 दुष्कृतं इत्यादि चिन्तयन् शुद्धधीनन्दिषेणः प्राह-मा कुरु खेदमिदानीं त्वां सुखेन नयामि, यथा नीरुग् भविष्यसि तथा मया कर्त्त-181 व्यम् , मा क्रोधं कुरु, क्षमख, एवं मधुरं जल्पन्नवधिना देवाभ्यामक्षोभ्योऽयमिति ज्ञात्वा प्रकटीभूय प्रदक्षिणापूर्व नत्वा भणितं-त्वमेव SSSSSSSSSSSS RE Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥६४॥ ३ तपोऽधिकारे नन्दिषेणोदाहरणं सुरासुरादिवन्यत्वं च | तपस्विनः A 9 ट्रा धन्यस्त्वमेव पूज्यो भुवनस्य, यस्य सुरेन्द्रो वैयावृत्ये निश्चलत्वं प्रशंसतीत्यादि स्तुत्वा क्षमयित्वा मुनि स्वागमनकारणमुक्त्वा स्वर्ग गतौ। मुनिरप्यनाकुलचित्तो मध्यस्थमना गुर्वन्तिकेऽविरतवैयावृत्त्यमालोचयति । ततो विशेषतस्तपोवैयावृत्त्यादि कुर्वन् पञ्चपञ्चाशद्वर्षसहस्राणि श्रामण्यं पालयित्वा कृतसंलेखनः प्रान्ते दौर्भाग्यं स्त्रीजनपराभवं विरूपित्वं पितृमरणादि च स्मृत्वोद्विग्नः साधुभिर्वारितोऽपि यद्येतस्य तपसः फलमस्ति, तर्हि मनुष्यभवे मम सौभाग्यं स्त्रीजनवल्लभत्वं सुरूपत्वं लोकवल्लभत्वं भूयादिति कृतनिदानो मृत्वा सप्तमखर्गे सप्तदशसागरोपमस्थितिर्देवो जातः। ततः सौरीपुरेऽन्धकवृष्णेर्देव्याः सुभद्रायाः पुत्रो वसुदेवनामा रूपादिसम्पन्नस्समजनि । स च यथा सौभाग्यभृमिर्देशान्तरं गतोऽनेकविद्याधरनरेन्द्रकन्याभिः परिणीतः, यथा च यादवानां मिलितो, यथा वासुदेवः पुत्रो जातस्तथा सर्व | वसुदेवहिण्डेझेयमिति नन्दिषेणकथानकं समाप्तम् । तपस एव माहात्म्यं ख्यापयन्नाह सुरअसुरदेवदाणव--नरिंदवरचक्रवद्विपमुहेहिं । भत्तीए संभमेण य, तवस्तिणो चेव थुव्वंति ॥ ७९ ॥ | व्याख्या-इह सुरा-वैमानिकाः, असुराः-भवनपतयः, देवाः-ज्योतिष्काः, सूर्यादीनां लोकेऽपि देवत्वेन प्रसिद्धेः, दानवा-उप| लक्षणत्वादेव व्यन्तराः, नरेन्द्रवराः-मण्डलिकादिभूपतयः, चक्रवर्तिनः प्रसिद्धाः, प्रमुखग्रहणेन सामन्तामात्यश्रेष्ठयादि(परि)ग्रहः, एतैः सर्वैरपि भक्त्या सम्यग्दृष्टिभिः सम्भ्रमेण वा शापदानादिभयेन वा मिथ्यादृष्टिभिरपि तपस्विन एव स्तूयन्ते इति गाथार्थः ।। ७८ ॥ सुखार्थिभिश्च तपस्येव यतितव्यमित्याहका पत्थइ सुहाइं जीवो, रसगिद्धो नेय कुणइ विउलतवं। तंतूहिं विणा पडयं, मगइ अहिलासमित्तेण ॥८॥ + + BHAG ॥६४॥ 05% Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुतिः ३ तपोऽधिकारे ज्वलनोपम्यं तपसः ॐ5-5 व्याख्या-तावत् सर्वोऽपि संसारिजीवः कामभोगादिसम्भवानि सुखानि प्रार्थयते, अथ च रसेषु-मधुरादिषु गृद्धस्तत्कारणभूतं | न करोति विपुलं तपः । स चैवविधः सन् कीदृशो द्रष्टव्यः ? इत्याह-स नूनं कारणभूतैस्तन्तुभिर्विना अभिलाषमात्रेणैव पटं मृगयते । अयम्भावः-यथा स्वहेतुतन्तुसङ्घाताभावे पटो न भवेत् , तथा सुखान्यपि स्वकारणभूततपोविरहितानि न सम्भवन्ति, अतस्तदर्थिना तत्रैव यतितन्वमिति गाथार्थः ।। ८० ॥ पूर्वोपचितकर्मणामपि तप एवापगमहेतुरित्याहकम्माई भवंतरसं-चियाइं अइकक्खडाइं विखणेण । डझंति सुचिण्णेणं, तवेण जलणेण व वणाई ॥१॥ व्याख्या-कर्माणि भवान्तरसश्चितानि अति"कक्खडाणि" (कर्कपाणि)-दुई(दुर्भ)द्यान्यपि क्षणेन दह्यन्ते सुचीर्णेन तपसा, केन कानीव, ज्वलनेन वनानीवेति गाथार्थः ॥ ८२ ॥ अत्रार्थ दृष्टान्तमाह| होऊण विसमसीला, बहुजीवखयंकरा वि कूरा वि । निम्मलतवाणुभावा, सिझंति दढप्पहारिव्व ॥८॥ ____ व्याख्या-इह केचिद्विषमशीला-असदृशाचारा बहुजीवक्षयंकरा अपि क्रूरा अपि भूत्वा निर्मलतपोऽनुभावादृढप्रहारीव सिद्ध्य-18 न्तीत्यक्षरार्थः ।। ८२ ॥ भावार्थः कथानकेनोच्यते, यथाहि वसन्तपुरे अग्निशमविप्रपुत्रः क्रूरकर्मा मांसाशी मद्यपानलुब्धो दोषैः समं वृद्धिं गतोऽनर्थभीरुणा पित्रा निर्वासितोष्टव्यां गतऔरैर्मिलितो धाटीषु गतो न मुञ्चति बालं वृद्धं गां महिषीं वा, प्रहरत्येव । ततस्तैः कृतदृढप्रहारिनामा सेनापतौ मृते स एव सेनापतिः कृतः । अन्यदैकस्मिन् ग्रामे धाट्यां गतस्तत्र क्षुधितैश्चौरैर्दरिद्रविप्रगृहात्पायसस्थाली गृहीता । तड्डिम्भै रुदद्भिः स्नातुं गतस्य पितुर्नि ॥६५॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ६६ ॥ वेदितं, स च भार्यया निवार्यमाणोऽपि धावितश्चौरेभ्यः शपते । ततः कोपेन दृढप्रहारिणा विप्रशिरश्छिन्नं, तद्दृष्ट्वा गर्भवती विप्रभार्या क्रुद्धा दृढप्रहारिणमाक्रोशति, तेनाप्यतिक्रुद्धेन खङ्गेन तस्या उदरं विदारितं । गर्भोऽपि द्विधाभूतो भूमौ पतितः । तं तथा वीक्ष्य दृढप्रहारी परमं निर्वेदमुपगतस्तुद्यत्कर्म्मकवचश्चिन्तयति - हा !! अत्रावतीर्य मया सर्व पापमेव समाचीर्णे, स नास्ति जीवो यो मया निदयेन न हतः, तथा कामठगच्छलितेन इयन्तं कालं परदाररमणाभक्ष्यभक्षणापेयपानादीनि पापान्याचीर्णानि, इदं पुनर्महापापं चिन्तयितुमपि न तीर्यते । " जम्हा हस्थी तत्थवि. सगुब्विणी बंभणी दरिद्दा य । गभेण य सहनिया, ता कत्थ गयस्म मह सुद्धी १ ॥ १ ॥ " किं व विशामि ? पर्वताद्वा पतामि ? नीरं वा साधयामि ? इत्यादि यावच्चिन्तयति तावन्महर्षिमेकं समीप एव विलोक्य तत्र गत्वा तं नत्वा देशनां श्रुत्वा प्रव्रजितस्सच्चनिधिरेवंविधमभिग्रहमकरोत् - मार्यमाणेनापि न मया रोलः कर्त्तव्यः, अन्यच्च यावद्गर्भ स्फुरत्स्फुरन्तं स्मरामि तावन्न चतुर्विधमाहारं गृहीष्यामि । ततश्चरत्वेनोपद्रुतलोकोत्पादितोपसर्गान्सर्वानप्यदीनमना सहन शुद्धध्यानेन केवलज्ञानमुत्पाद्य सिद्ध: श्रीदृढप्रहारी, इति दृढप्रहारिकथानकं समाप्तम् । दृष्टान्तान्तरमाह - संघगुरुपच्चणी, तवोणुभावेण सासिउं बहुसो । विण्हुकुमारुत्र मुणी, तित्थस्स पहावया जाया ॥ ८३ ॥ व्याख्या-सङ्घगुरुप्रत्यनीकान् प्राणिनस्तपोऽनुभावेन अनुशिक्षयित्वा बहुशोऽनन्तकालेन बहवः साधवस्तीर्थस्य प्रभावका जाताः, कइव १, विष्णुकुमार इव । कः पुनरसौ ? इत्युच्यते— हस्तिनागपुरे पद्मोत्तरो नृपः, ज्वालाख्या पट्टराज्ञी जिनधर्म्मरता । तयोः सिंहस्वप्रसूचितो विष्णुकुमारो ज्येष्ठः पुत्रः, चतुर्दशस्व ३ तपोऽधिकारे दृढप्रहारिचरितम् ॥ ६६ ॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृचिः ॥ ६७ ॥ मसूचितो द्वितीयो महापद्मः । ज्येष्ठो निःस्पृहः, इतरः समीहते, इति राज्ञा युवराजत्वे स्थापितः । इतश्चोजयिन्यां श्रीमुनिसुव्रतशिष्याः सुव्रताचार्य्याः समायाताः, श्रीधर्म्मनृपो वन्दनार्थं गतः, तदमात्यो नमुचिर्नास्तिको धर्मनिन्दां कुर्वन् क्षुल्लकेन वादे जितः साधुषु प्रद्विष्टो रात्रौ साधुमारणार्थ गतो देवतया तत्रैव स्तम्भितः । प्रभाते राज्ञा लोकैश्च दृष्टो निन्द्यमानो लज्जया निर्गत्य हस्तिनागपुरे गतः, तत्र महापद्मकुमारसेवां करोति । अन्यदा महापद्मकुमारग्रामान् भञ्जन् सिंहबलनृपो नमुचिना प्रपञ्चेन बद्ध्वाऽऽनीतस्तुष्टेन कुमारेण वरो दत्तः, तेनोक्तं-समये गृहीष्ये वरं । अन्यदा ज्वालादेवी श्रीजिनप्रासादं कारयित्वा रथयात्रोपक्रममकरोत् । अपरा सपत्नी लक्ष्मीः, सा स्पर्द्धया ब्रह्मायतनं कारयित्वा रथयात्रामारेभे । तयोः प्रथमरथनिस्सरणे स्पर्द्धा ज्ञात्वा द्वावपि रथौ राज्ञा स्थापितौ । ततः स्वमातुः पराभवं ज्ञात्वा महापद्मो देशान्तरेषु भ्रमन्ननेके विद्याधरनृपामात्य पुत्रिकाः परिणीय महाविभूत्या चम्पापुरीप्रभोर्जन्मेजयस्य पुत्रीं मदनावलीं स्त्रीरत्नं परिणीय चक्रवर्त्तिऋद्धिसमृद्धः खपुरमगात् पित्रा राज्याभिषेकः कृतः, स्वयं सुत्रताचार्यपार्श्वे दीक्षां प्रपेदे । विष्णुकुमारोऽपि पित्रा समं प्रव्रजितः । महापद्मः क्रमात् साघितपट्खण्डभूमण्डलो नवमश्चक्री सञ्जातः । तदा जननीकारितं जिनरथं महाविभृत्या भ्रमयित्वा मातुर्मनोरथः पूरितः । भरतक्षेत्रे जिनभवनकोट्यः कारिताः, द्वात्रिंशत्सहस्रा राजानो धर्मे स्थापिताः, अनेकधा शासनोन्नतिः कृता, पद्मोत्तरराजर्षिस्तु विगतकर्मा मोक्षमगात् । विष्णुकुमारः पुनस्तपःप्रभावान्न भोगमनवैक्रिय लब्ध्यादिलब्धिसमृद्धो मेरु चूलिकास्थस्तपः करोति । इतश्च ते सुव्रताचार्या हस्तिनागपुरे वर्षारात्रं स्थिताः क्वचिन्नमुचिना दृष्टाः । ततः पूर्ववैरं स्मृत्वा पूर्वप्रतिपन्नं वरमयाचत राजानं नमुचिः । ततो राजा तद्याचितं कतिचिद्दिनानि राज्य मदात् । स्वयमन्तःपुरे स्थितः । नमुचिरपि कपटेन बहिर्य - ज्ञपाटके दीक्षितो जातः, प्रारब्धं यज्ञकर्म्म, तत्र लोकाः पाखण्डिभिः सह सर्वे वर्द्धापनके समायाताः, न पुनः श्वेतभिक्षवः । ततो न ३ तपोऽधिकारे तपसः प्रभावकत्व ख्यापकं विष्णुकुमारचरितम् ॥ ६७ ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ६८॥ मुचिः सुव्रताचार्यानाकार्य तमेव दोषमुद्भाव्य भणति क्षुद्रः-यूयं लोकव्यवहारवाह्याः, अतो मुश्चत मम राज्यं, अन्यथा मारयिष्यामि । | ततः मूरिभिबहुधा प्रज्ञापितोऽपि न मन्यते। तत उद्याने गत्वाऽऽचायः साधवः पृष्टाः-किं कर्तव्यं ?, तत एकेन साधुनोक्तम्-भगवन् ! | मेरुशिरस्थो विष्णुकुमारश्चक्रिभ्राता यद्यायाति तदा तद्वचनेन नमुचिर्मुञ्चति कदाग्रह, नान्यथा । गुरुराह-साधूक्तं, परं स कथमायाति?। | एकेनोक्तं-अहं तत्र गन्तुं शक्तो, न पुनः प्रत्यागन्तुं । गुरुराह-स एव भवन्तमानेष्यति । ततस्तेन मेस्चूलायां गत्वा सङ्घकार्य निवेदितं विष्णुकुमाः । सोऽपि तं गृहीत्वा क्षणेन प्राप्तो गुर्वन्तिकं । ततः प्राप्तो नमुचिपाश्च, धर्मोपदेशात्क्रमत्रयभूदाने कुपितेन विष्णुना साधिकलक्षयोजनरूपकरणेन ग्रामाकरनगरगिरिभवनवनज्योतिष्कक्षोभं जनयता नमुचिः शिरसि पादं दत्वा रसातले क्षिप्तः । पूर्वापरसागरपदस्थापने भुवनक्षोभे शक्रप्रेषितसुराङ्गनाभिस्तत्काभ्वर्णमागत्य प्रशमप्रधानगानेन सङ्घवचनेन चक्रिणा च ससम्भ्रमेण सपरिजनेन क्षामितः कथमप्युपशान्तस्तत्प्रभृति त्रिविक्रम इति प्रसिद्धः, आलोचितप्रतिक्रान्तः शुद्धः, यदुक्तम्"आयरिए गच्छम्मि य, कुलगणसंघे य चेहयविणासे। आलोइयपडितो, सुद्धोज निजरा विउला ॥१॥" " पाविय केवलनाणो, विण्डकुमारो कमेण तो मिद्धो । चक्की वि महापउमो, गहिऊण वयं गओ सिद्धिं ॥२॥" | इति विष्णुकुमारचरितं समाप्तम् । H ३ तपोअधिकारे तपसः प्रभावकत्व ख्यापकं | विष्णुकुमा रचरितम् निकम RECRECRee __पुनस्तपोमाहात्म्यं ख्यापयन् दृष्टान्तमाहइ होति महाकप्पसुरा, बोहिं लहिउं तवेण विहुयरया । जह खंदओ महप्पा, सीसो सिरिवीरनाहस्स ॥४॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ तपो पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥६९॥ ऽधिकारे स्कंदकोदा सन्देहत्वाच प्रतिबोधस्तख SSSSSSSE व्याख्या-यद्यपि तेनैव भवेन केचिन्न सिद्ध्यन्ति, तथापि तपसा विधूतरजसोऽत्यल्पकर्माणस्सन्तो महाकल्पेषु-महर्द्धिदेवलोकेषु | सुरा भवन्ति । ततोऽपि च्युत्वा महाविदेहेषु बोधि लब्ध्वा 'तपसा विधूतरजस' इत्यावृत्त्या अत्रापि योज्यते, तपसा क्षपितकर्माणः, सिद्धथन्तीति शेषः । क इव ?, यथा स्कन्दको महात्मा-शिष्यः श्रीवीरस्वामिनः, तत्कथा चेयम् कयङ्गलापुर्यां श्रीवीरः समवसृतः, प्रत्यासन्नश्रावस्तीपुाँ गईभालिपरिव्राजकशिष्यः स्कन्दकश्चतुर्वेदस्मृतिपुराणादिग्रन्थनिपुणः परिवसति । स श्रीवीरशिष्येण पिङ्गलेन पृष्टः-भो स्कन्दक ! 'किं सअंते लोए अणते लोए ?, एवं जीवे सिद्धी सिद्ध चि पुच्छियव्वे. | केण वा मरणेण जीवे संसारमणुपरियट्टइ ?, केण वा तं वीइबयइ ?, तएणं से खंदए परिवायए एयम€ अयाणमाणे तुसिणीए चिइ ।। | एवं दोच्चपि तञ्चपि पुच्छिए तुसिणीए चिट्ठई। ततः श्रावस्त्या लोकं श्रीवीरवन्दनाथ यान्तं दृष्ट्वा सोऽपि स्वसन्देहपृच्छार्थ चचाल । एतावता श्रीवीरेण गौतमस्य पिङ्गलप्रश्नस्कन्दकानवगमस्वरूपमुक्तम् । ततः समागते स्कन्दके श्रीगौतमः सम्मुखं गतः, स्वागतमपृच्छत् पिङ्गलप्रश्नस्वरूपं च । तत् श्रुत्वा विस्मितः स्कन्दकः प्राह-कथं जानासि ?, श्रीगौतमेनोक्तं-मम धर्माचार्येणोक्तमिति । ततः प्रमुदितः सर्वज्ञप्रत्ययत्वादवन्दत श्रीवीरं । भगवता च तत्सन्देहाः कथिताः, यथा-'खंदया! दबओ ण लोए एगदव्वे, अओ सोते, खित्तओ | वि सव्वासु दिसासु असंखिजे जोअणकोडाकोडिप्पमाणे, अओ संअंते । कालओ सया वि चिट्ठइ त्ति अणते, भावओ(वि) अणंतपजायतणओ अणंते, एवं जीवे सिद्धि (सिद्धे)वि भाणियव्वे । नवरं-खित्तओ अप्पऽप्पणो पमाणं भाणियध्वं । मरणे वि खंदया! दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-बालमरणे य पंडियमरणे य । तत्थ णं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अप्पाणं अणंतेहिं नेरइयतिरियमणुयदेवभवग्गहमेहिं संजोएइ संसारमगुपरियदृइ । पंडियमरणेण मरमाणे जीवे संसारं बीइवयई' इति श्रुत्वा स्कन्दको बुद्धः । श्रीवीरोपदेशं श्रुत्वा प्राह-आलित्ते णं उREKARAN ॥६९। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAUR भंते ! लोए, पलित्ते णं भंते ! लोए, आलितपलिते गंभंते !लोर जराए मरणेण य । यथा कश्चिद्गृहे प्रदीप्ते सारं भाण्डं निष्कासयति, पुष्पमाला लघुवृत्तिः तथाऽहमपि सारमात्मानं निष्कासयिष्यामि इति प्रबजितः । स्वामिना शिक्षितः-'एवं खलु देवाणुप्पिया! गंतव्यं ( एवं चिट्ठियव्यं ॥ ७०॥ एवं निसीयव्यं) एवं तुयट्टियव्वं, एवं धुंजियवं, एवं भासियव्यं, एवं संजमेण संजमियब्वं, अस्ति च अढे नो पमाएयव्वं । तओ से ऽधिकारे | सामण्णरए आणाए पडिबद्धे अणगारे जाए, इक्कारस अंगाई अहिज्झित्था, बारस वि मिक्खुपडिमाओ, तओ गुणरयणसंवच्छरं तबो-18 स्कंदकोद | हरणं, अनकम्मं सम्मं आराहेत्ता पुणो वि भगवओ अणुण्णाए बहुहिं च उत्थछटुटुमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचितेहिं तवोकम्मेहिं शिनेनाच्युते है अप्पाणं भावेमाणे सुक्के लुक्खे निम्मंसे किसे धमणिसंतए जाए। केवलेणं सतेगं गच्छइ, सतेगंचिट्ठइ, भासंपि भासिउं कामं गिलायइ। गमनंचतस तओ केवलनाणेण तस्स अज्झवसियं जाणेत्ता सयमेव भगवया महावीरेणं अब्भगुग्णाए हट्टतुढे खंदर अगगारे विहिगा पाओगम अ-14 हणसणं करेइ । एवं से खंदए दुवालसवासाइं सामण्णपरियायम गुपालेत्ता मासं पाओगमे कालं अणवखमाणे समाहिपत्ते कालं किचा अच्चुए कप्पे देवत्ताए उववण्णे | तओहिंतो चहत्ता महाविदेहे वासे सिन्निही सबदुक्खाणमंत काहि ति स्कन्दकचरितं समाप्तम् ॥ तपोगुणानामनन्तत्वेन न्यक्षेण भणनाशक्यत्वात् संक्षिपन्नाह19 केत्तियमित्तं भणिमो?, तबस्स सुहभावणाए चिण्णस्त।भुषणतए वि न जमओ, अन्नं तस्सऽस्थि गुरुययरं॥८५॥ न्याख्या-शुभभावनया चीर्णस्य तपसः कियन्मानं भगामः?, यतो भुवनत्रयेऽपि तस्मात्तपसोऽन्यद्गुरुकतरं नास्त्येवेत्यनेन तपोऽप्याशंसायषितमेव फलवदिति वक्ष्यमाणं च भावनाद्वारमिति सूचितमिति गाथार्थः॥ *1545454 ॥७ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भावना| अधिकारे हेतुचतुर्दशकंशुममा बनाया " इति गदितमनन्तज्ञानिभिः कर्मकाष्ठ-प्रचयदहनवहिर्यत्तपोऽनुष्ठितं च । पुष्पमाला तदिह भजत भव्याः! भावनातः प्रभूतं, यति च खलु युष्मान् येन सन्मोक्षलक्ष्मीः ॥१॥" लघुवृत्तिः इति पुष्पमालाविवरणे [तृतीयः] तपोधर्मः समर्थित इति ॥ ५॥ ॥७१॥ इदानीं भावनाधर्म बिभणिषुः पूर्वेण (सह) सम्बन्धगर्भा गाथामाहदाणं सीलं च तवो, उच्छ पुप्फ व निष्फलं होजा । जइ न हिययमिन भावो, होइ सुहो तस्तिमे हेऊ ॥८६॥ ____ व्याख्या-दानं शीलं तपश्चेति पूर्वोक्तं सर्वमपि इक्षुपुष्पमित्र निष्कलं भवेत् , यदि हृदये भवनिर्वेदमोक्षाकाङ्क्षगर्भः शुभो भावो | न भवेत् , अतो दानादीन्नभिधाय भावनाधर्मोऽभिधीयते, तस्य च शुभभावस्यैते वक्ष्यमाणा हेतव इति गाथार्थः ॥ ८६ ॥ तानेवाह| सम्मत्तंचरणसुद्धी, करणजओ निग्गहो कसायाणं । गुरुकुलवासो दोसाण, वियडी भवविराँगो य ॥८॥ P1 विणओ वेयावच्चं, सज्झायरई अगाययणचाओ। परपरिवायनिवित्ती, थिरया धम्मे परिन्ना य ॥ ८८ ॥ व्याख्या-सम्यक्त्वशुद्धिश्चरणशुद्धिरिन्द्रियजयः, कषायाणां निग्रहः, नित्यं गुरुकुलवासः, दोषाणां प्रमादाद्याचीनां विकटना| आलोचना, भवविरागश्च । तथा विनयः, वैयावृत्त्यं, स्वाध्याये रतिः, अनायतनस्य-ज्ञानादिपकप्रस्तुनस्त्यागः, परपरिवाद निवृत्तिः, स्थिरम बर्म, परिज्ञा च-प्रान्तेऽनशनरूपा, इत्येते चतुर्दश[१४] शुभभावस्य हेतवः, हेवन्तराणां सम्भवेऽप्यत्रैवान्तर्भावादिति द्वार| गाथाद्वयार्थः, विस्तरार्थं तु सूत्रकारः प्रतिद्वारं वक्ष्यतीति ।। ८७-८८ ॥ SOURCECUMAUSE MIn७॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला तत्रादौ सम्यक्त्वशुद्धि विवृण्वन् सम्यक्त्वमेव तावत् किंखरूपमित्यादिद्वारगाथामाहलघुचिः किं सम्मत्तं? तं होज, किह ? णु कसं? व गुणा य के ? तस्स । कइभेयं ? अइयारा, लिंगं वा किं भवे ? तस्स॥८९॥ भावना ऽधिकारे ॥ ७२ ।। व्याख्या-किंखरूपं तावत्सम्यक्त्वं १, कथं-केन प्रकारेण वा तज्जीवानां भवेत ?, कस्य वा तद्भवेत् ?, गुणाश्च के ? तस्य सम्य सम्यक | क्त्वस्य, कतिभेदं तद्भवेद ?, अतिचाराः लिङ्गंवा किं भवेत् ? तस्य-सम्यक्त्वस्येति द्वारगाथासङ्केपार्थः । अत्रायद्वारनिर्णयार्थमाह स्वरूपस् ६ अरिहं देवो गुरुणो, सुसाहुणो जिणमयं मह पमाणं । इच्चाइ सुहो भावो, सम्मत्तं बिति जगगुरुणो ॥१०॥ व्याख्या-अहनेव मम देवो, नेश्वरादयः, सुसाधव एव गुरखो, न परिव्राजकादयः, जिनमतमेव प्रमाणं, न कुतीर्थिकाभिमतमित्यादिको य आत्मनः शुभः परिणामः, स सम्यक्त्वमिति जगद्गुरवस्तीर्थङ्करगणधरा ब्रुवते । उक्तं च तै:-"से य सम्मत्ते पसत्थसम्मत्तमोहणिजकम्माणुवेयणोवसमखयसमुत्थे उवसमसंवेगाइलिंगे सुहे आयपरिणामे पण्णत्ते"त्ति गाथार्थः ॥ ९ ॥ गतं किं सम्यक्त्वमिति द्वारम् , अथ तत्कथं भवेदिति द्वितीयं द्वारमाह| भमिऊण अणंताई, पोग्गलपरियट्टसयसहस्साई । मिच्छत्तमोहियमई, जीवा संसारकंतारे ॥ ९१ ॥ पावंति खवेऊणं, कम्माइं अहापवत्तिकरणेणं। उवलनाएण कहमवि, अभिन्नपुवि तओ गंठिं ॥९२॥(युग्मम्) || व्याख्या-प्रथमं तावत् मिथ्यात्वमोहितमतयः सर्वे जीवाः संसारकान्तारे अनन्तानि पुद्गलपरावर्तलक्षाणि भ्रान्त्वा कथञ्चि- ॥७२॥ दुपलज्ञातेन यथाप्रवृत्तिकरणेन ग्रन्थिप्रदेशागमनप्रतिवन्धीनि कर्माणि क्षपयित्वाऽभिन्नपूर्वा ग्रन्थि केचित्प्राप्नुवन्ति । तत्रानन्तोत्सर्पि 64*SHORS Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भावनाअधिकारे ग्रन्थिमेदनिरूपणम् ण्यवसर्पिण्यः पुद्गलपरावतः, तदुक्तम्-"उस्सप्पिणी अणता, पुग्गलपरियट्टओ मुणेयव्यो" इति । करणं-अध्यवसायविशेषः, विशिपुष्पमाला टज्ञानादिगुणमन्तरेण कथमपि स्वयमेव प्रवृत्तं यथाप्रवृत्तं, तच्च तत्करणं च यथाप्रवृत्तकरणं, यथा गिरिनद्या उपलो घञ्चनाघोलनावशतः || लघुवृत्तिः | स्वयमेव वृत्तादिभावमापद्यते, एवं जन्तवोऽपि यथाप्रवृत्तकरणेन स्वयमेव कम क्षपयन्तीति भावः । इति गाथाद्वयार्थः ॥ ९२॥ ॥७३॥ ननु ग्रन्थिरिति कः पदार्थः ? इत्याह8 गंठिं भणंति मुणिणो, घणरागदोसपरिणइसरूवं । जम्मि अभिण्णे जीवा, न लहंति कयाइ सम्मत्तं ॥१३॥ व्याख्या-घना-निविडा या रागद्वेषपरिणतिः. तत्स्वरूपं ग्रन्थि मुनयः प्रतिपादयन्ति, यथा वल्कादिनिष्पन्नः कश्चिन्निविडग्रथिदर्भदो भवत्येवं रागद्वेषपरिणामोऽपि यः सम्यक्त्वप्राप्तिप्रतिबन्धकोऽनन्तकालेनापि जीवैन भिन्नः, स ग्रन्थिरिति भावः। सम्यक्त्वप्राप्तिप्रतिबन्धकत्वमेव तस्याह-यस्मिन्नभिन्ने जीवा न कदाचिल्लभन्ते सम्यक्त्वमिति गाथार्थः ॥ ९३॥ ननु ये केचन जीवा ग्रन्थि यावदागच्छन्ति ते सर्वेऽपि तं भिन्दन्ति ?, नेत्याह| उल्लसियगरुयविरिया, धन्ना लहुकम्मुणो महऽप्पाणो। आसपणकालभवसि-द्धिया यतं केइ भिंदंति ॥९॥ व्याख्या-उल्लसितगुरुवीर्या धन्या लघुकर्माणो महात्माच आसन्नकाले भवा-भाविनी सिद्धियेषां ते आसन्नकालभवसिद्धिकाश्च |तं ग्रन्थि केचिदेव प्रागिनो भिन्दन्ति, न सर्वे, इति गाथार्थः ॥ ९४:॥ व्यतिरेकमाह- .. जे उण अभव्वजीवा, अणंतसो गंठिदेसपत्ता वि । ते अकयगंठिभेया, पुणोवि वढंति कम्माइं ॥ ९५ ॥ CANORA Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या-ये पुनस्सर्वथैव अभाविनी सिद्धिर्येषां ते अभव्याः, ते च ते जीवाश्च अभव्यजीवाः, उपलक्षणत्वादभव्याश्च, तेऽनपुष्पमाला Bान्तशो-ऽनन्तवारं ग्रन्थिदेशं प्राप्ता अपि अकृतग्रन्थिभेदा एव स्युः। ततः पुनरपि वर्द्धयन्ति कर्माणि, स्थितिरसादिभिर्गुरूणि कुर्वन्तीति 1818 भावना लघुवृत्तिः ऽधिकारे टू गाथार्थः ॥ ९५ ॥ अथ ये ग्रन्थि भिन्दति तेषां सम्यक्त्वलाभक्रममाह॥७४॥ अपूर्वकर| तं गिरिवरं व भेत्तुं, अपुठवकरणोग्गवजधाराए। अंतोमुहुत्तकालं, गंतुं अनियट्टिकरणम्मि ॥ ९६ ॥ णादिग्रन्धिPा पइसमयं सुझंतो, खविउं कम्माई तत्थ बहुयाई । मिच्छत्तम्मि उइण्णे, खीणे अणुइयम्मि उवसंते ॥९७॥ || भेदप्रकार संसारगिम्हतविओ, तत्तो गोसीसचंदणरसंव। अइपरमनिव्वुइकर, तस्संऽते लहइ सम्मत्तं ॥९८॥ [विशेषकम्] 8 ६ व्याख्या-करणं-विशिष्टाध्यवसायविशेष एव अपूर्व-अननुभूतपूर्व करणमपूर्वकरणं, अत्र हि वर्तमानो जीवस्तादृशान् स्थितिर-181 सघातादीन् क्रियाविशेषान् करोति, यादृशः संसारे न कदाचित पूर्व कृता, इति कृत्वा वज्रधारेव वज्रधारा, अपूर्वकरणमेवोग्रवज्रधारा अपूर्वकरणोग्रवज्रधारा, तया गिरिवरमिव तं ग्रन्थि भित्त्वा-तथाविधं रागद्वेषपरिणामं किञ्चिदपनीय ततोऽन्तमुहूर्त कालं अनिवृत्तिकरणं गत्वा । अत्रापि करणं-विशिष्टतमोऽध्यवसायविशेष एव । न विद्यते प्रथमाद्यसङ्ख्येयतमावसानसमानसमयवर्चिनां प्राणिनां स्वभावादेव परस्परमध्यवसायस्य निवृत्ति-वैलक्षण्यं यत्र तदनिवृत्तिः, तच तत्करणं चानिवृत्तिकरणम् । ततोत्रान्तर्मुहूर्त यावत्प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धया विशुद्धयमान आयुवर्णानि शेषसप्तकर्माणि बहूनि क्षपयित्वा प्रत्येकं पल्योपमासङ्ख्येयभागन्युनैकसागरोपमकोटाकोटिमात्राणि विधृत्य, शेषाणि क्षपयित्वेत्यर्थः, ततश्च मिथ्यात्वं यदीर्ण तस्मिन् क्षीणेऽनुदीर्ण तु सत्तामात्रवर्त्तिन्युपशान्ते सति ॥७४॥ RECOR Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुतिः ॥७५॥ AAAAAA संसार एव ग्रीष्मस्तेन तप्तो गोशीर्षचन्दनरसमिवातिपरमनिवृत्तिकरं-मुक्तिशर्मविधायक, तस्य-अनिवृत्तिकरणस्य अन्ते सम्क्त्वं लभते । यथा ग्रीष्मतप्तः कश्चित्पुण्यवशादतिपरमनिवृत्तिकरं गोशीर्षचन्दनद्रवं लभते, एवं जीवोऽपि संसारदुःखोपतप्तः सम्यक्त्वमिति । अय |४ भावना |अधिकारे म्भावः-अपूर्वकरणेन ग्रन्थिभेदं विधाय मिथ्यात्वमोहनीयकमस्थितेरन्तर्मुहर्तमुदयक्षणापर्यतिक्रम्यानिवृत्तिकरणरूपेण शुद्धिविशेषेणा अपूर्वकरइत्तकालप्रमाणं वेद्यदलिकाभावरूपमन्तरकरणं करोति, स्थापना ००.अत्र च मिथ्यात्वदलिकवेदनाभावादौपशमिकसम्यक्त्वं दूणादिग्रन्थिजीवो लभते इति गाथात्रयार्थः ।। ९६-९७-९८ ॥ इदानीं 'कस्य तद्भवेदिति तृतीयं स्वामित्वद्वारमाह मेदप्रकार ६.पुवपडिवन्नपडिवज-माणया निरयमणुयदेवा य । तिरिएसुं तु पवन्ना, बेइंदियमाइणो होजा ॥ ९९ ॥3 ____ व्याख्या-नारकमनुष्यदेवाः पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानकाश्च भवन्ति, तथाहि-मनुष्या देवाश्च धर्मश्रवणादिभ्यः, नारकाच वेद-181 नादेः कर्म निर्जरयन्तस्तथाभव्यत्वपरिपाकतः कुतश्चिनिसर्गादित एव केचित्सम्यक्त्वं प्रतिपद्यमाना आद्यसमये प्रतिपद्यमानकाः द्वितीयादिसमयेषु तु ते पूर्वप्रतिपन्ना एवोच्यन्ते इति । तिर्यक्षु पुनः “पवन्न"त्ति प्रतिपन्ना द्वीन्द्रियादयो भवेयुः, तत्र द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेषु तावद्यः सास्वादनसम्यग्दृष्टिः, स न मृत्वा एतेषत्पद्यते, सोऽपर्याप्तावस्थायां कियतीमपि वेलां यावत्तद्भावेनावतिष्ठते, ततः परं नियमेन मिथ्यात्वं गच्छत्येवासौ, ततोऽमुमेवाश्रित्य पूर्वप्रतिपन्ना एषु मन्तव्याः, नान्यथा । पश्चेन्द्रियेषु तु सामान्यमपि सम्यक्त्वमाश्रित्य पूर्वप्रतिपन्नाः प्राप्यन्त इति गाथार्थः ॥ ९९ ॥ ननु उक्ता द्वीन्द्रियादिषु पूर्वप्रतिपन्नाः, प्रतिपद्यमानकास्तेषु भवन्ति न वा ? इत्याहपडिवजमाणया वि हु, विगलिंदिया अमणवजिया होति । उभयाभावो एगि-दिएसु सम्मत्तलद्धीए ॥१०॥ ५ ॥ 015 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ७६ ॥ व्याख्या– विकलानि-असम्पूर्णानीन्द्रियाणि येषां द्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां ते तथा, अमनस्का:- सम्मूर्च्छजाः पञ्चेन्द्रियाः, एतेषु तथाविधाध्यवसाय शुद्धयभावान्न सम्यक्त्वप्रतिपत्तिसम्भवः, अतस्तिर्यक्षु एतान् वर्जयित्वा शेषा गर्भजपञ्चेन्द्रियाः प्रतिपद्यमानका अपि भवन्ति । उभयस्यापि - पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमान कलक्षणस्यैकेन्द्रियेषु सम्यक्त्वलब्धेरभावः । यतोऽत्र तथाविधाध्यवसाय शुद्धयभावात् | सम्यक्त्वस्य प्रतिपद्यमानको न कथञ्चिद्भवति । पूर्वप्रतिपन्नं तु कार्मग्रन्थिका द्वीन्द्रियादिवत्पृथिव्यादिषु साखादनसम्यग्दृष्टयुत्पत्तेर्म| न्यन्त एव, सैद्धान्तिकास्तु तस्य तत्रानुत्पत्तेः खल्पत्वेनाविवक्षणादेर्वा कुतश्चित्कारणात्पूर्वप्रतिपन्नस्यात्राभावं मन्यन्त इत्यत्र मतद्वयं तत्त्वं | तु सर्वविदो विदन्तीति गाथार्थः ॥ १०० ॥ अथ 'गुणाथ के तस्ये' ति चतुर्थद्वारमिधित्सुः सम्यक्त्वस्य सर्वगुणाधारत्वलक्षणं गुणमाहजह धन्नाणं पुहई, आहारो नहयलं व ताराणं । तह नीसेसगुणाणं, आहारो होइ सम्मतं ॥ १०१ ॥ व्याख्या—उत्पत्तिवृद्धिस्थित्यपेक्षया यथा सर्वधान्यानां पृथिवी आधारः नभस्तलं वा ताराणां आधारः, तथा निःशेषगुणानां शमसंवेगनिर्वेदादीनां आधारः सम्यक्त्वं भवतीति गाथार्थः ॥ १०१ ॥ अथ तस्यैव सुगतिगमनहेतुत्वमाहसम्मदिट्ठी जीवो, गच्छइ नियमा विमाणवासीसु । जइ न विगयसम्मत्तो, अहव न बद्धाउओ पुव्वि ॥ १०२ ॥ व्याख्या– इह सम्यग्दृष्टिरुत्कृष्टतस्तेनैव भवेन सिद्ध्यति, योऽपि सम्पूर्णकालादिसामय्यभावान्न निर्वाणं गच्छति, सोऽपि जन्तु - नरकतिर्यमनुजभवन पतिव्यन्तरज्योतिष्क गती निरुध्य नियमाद्विमानवासिष्वेव सौधर्मादिदेवेषु गच्छति, यदि मरणसमये सर्वथा विगतसम्यक्त्वोऽतिचारमलिनसम्यक्त्वो वा, अथवा सम्यक्त्वलाभकालात् पूर्वं बद्धायुश्च न भवति, अस्य हि चतसृष्वपि गतिषूत्पत्तेः । ४ भावनाऽधिकारे पूर्वप्रतिपनादयः च तसृषु गतिषु सम्यक्त्वस्व ॥ ७६ ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ७७ ॥ देवनारकाच सम्यग्दृष्टयोsपि मनुष्येष्वेवोत्पद्यन्ते तेषां देवगतिनिषेधादिति मन्तव्यमिति गाथार्थः ॥ १०२ ॥ ताभिधानद्वारेण तस्यैव गुणान्तरमाह अचलियसम्मत्ताणं, सुरा वि आणं कुणंति भत्तीए । जह अमरदत्तभजा-ए अहव निर्वाविकमाईणं ॥ १०३ ॥ व्याख्या - दृढसम्यक्त्वानां सुरा अपि भक्त्या आज्ञां कुर्वन्ति, यथा अमरदत्तभार्यायाः, अथवा नृपविक्रमराजादीनामित्यक्षरार्थः, भावार्थकथनार्थं त्वमरदत्तभार्याकथानकं तावदुच्यते— सुराष्ट्रादेशे कनकरत्नपूर्णायां द्वारिकापुर्यां पद्मश्रेष्ठिपुत्रोऽमरदत्तो रूपसौभाग्यसम्पन्नः कुशद्वीपे सुवर्णपुरे वाणिज्यार्थ जलाध्वना बहुविभवो गतः । तत्र विशङ्कश्रेष्ठिपुत्रीं श्रीजिनधर्मपरां रूपादिभिरनुत्तरां विमलयशानाम्नीं दृष्ट्वा ययाचे । पित्रोक्तं ददामि परं 'यः कोऽपि मां धर्म्मवादे जयति, स एव मम वर' इति कृतप्रतिज्ञा साऽस्ति । ततो जाते वादे स मिथ्यामतिस्तस्याः स्याद्वादवादिन्या उत्तरं दातुमक्षमश्चिन्तयति - अहो !! सुनिपुणेयं जिनधर्मे गृहस्थ्यपि, ततोऽहमप्येनमेव शिक्षयित्वैनां निरुत्तरां करोमीति कपटश्रावको भूत्वा जिनधर्ममभ्यस्यन् ज्ञाततच्चः सद्भावेन श्रात्रकोऽभूत् । ततः समन्तभद्रसूरिपार्श्वे गृहीतधर्म्म तं दृष्ट्वा विमलयशया हृष्टया प्रोक्तंभोः ! तवैवं धर्म्मविचारेऽद्याप्यस्तीच्छा !, अत्रान्तरे श्रेष्ठयपि तत्रैवागतः, ततोऽमरदत्तेनोक्तं- 'भद्रे ! शुद्धाकरप्रभवे वज्रे या पुनर्विचा रणा अभिनिविष्टबुद्धिभिः क्रियते, सा तेषां जडत्वमेव साधयति, पूर्वापराविरुद्धे प्रमाणसिद्धे जगत्प्रसिद्धे सर्वज्ञभाषिते धर्मे विप्रतिपन्ना ये विचारणां कुर्वन्ति तेषामसमञ्जसभाषिणां सा दुर्गतिमेव फलं साधयती 'ति श्रुत्वा विमलयशया चिन्तितं परिणतधर्म्माऽयं शुद्धवचनैर्लक्ष्यते, अन्यच्च - मय्यपि स्तोकानुरागः सम्पन्नोऽस्त्यसौ, तद्यदि मामिच्छति, मत्पिताऽपि यदि कथमपि प्रतिपद्यते, तदैतेन परिणीता एनं ४ भावनाऽधिकारे सम्यक्त्व स्थैर्य निद र्शकममर दत्तभार्यानिदर्शनम् ॥ ७७ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ७८॥ | दत्तमाया धर्मे स्थिरं करोमि। पित्राऽपि च तस्या दृष्टथैव भावं विज्ञाय चिन्तितं-युक्तमिदम् । ततः क्षण धर्म श्रुत्वा स आदरेण स्वगृहमानीतः, सम्मान्य श्रेष्ठी पुत्रीमदात् । ततः स तां परिणीय स्वगृहे गतः। तां च जिनधर्मपरां दृष्ट्वा पितरौ मिथ्यादृशौ द्वेषमुद्वहन्तौ तस्याः पार्श्व ४ भावना ऽधिकारे सङ्केतेन पुरुषमेकं प्रेष्य पूत्कृत्य कलङ्कमदातां । अमरदत्तो विस्मितमनाः सविषादं चिन्तयति-नूनं प्रियायाः कल्पान्तेऽपि शीलं न लु- सम्यक्त्वप्यते, तत्किमप्यत्र कस्यापि दुर्विलसितमित्यादि । तावन्मातापितृभ्यां प्रोक्तम्-'रे मूढ ! यस्याः शीलेन गर्व वहसि, तस्याश्चेष्टितमेतत् , स्थैर्यनिद अस्या एष धर्मः, एषः साधुसाध्वीनामुपदेशः, एतादृश्यः श्राविका जिनधर्मे । त्वं चेदद्यापि न मन्यसे, तदा न त्वया नानयाऽस्माकं र्शकममर| कार्यम्'। इत्यादि गाढस्वरं कलहं कुर्वद्भया लोकप्रसिद्ध कलङ्के सा जिनधर्ममालिन्यभीता दृढसम्यक्त्वा सकलजनसमक्षं पुरादहिःप्रदेशस्थे । देवताधिष्ठिते महापद्महदे निजपतिव्रताव्रतजिनधर्मैकचित्तताश्रावणं कृत्वा झम्पामदात् । ततः सन्निहितदेवैस्तत्सत्वरन्जितै रत्नमयद्रोण्यां निदर्शनम् रत्नमयसिंहासने स्थापिता सा सर्वजनदृष्टा, तीरे उत्तारिता, पुष्पवृष्टिश्चक्रे जयघोषणा च, श्वशुरवर्गस्य दुर्विलसितं नृपप्रमुखस्योक्त्वा विमलयशा स्तुता, एवं शासनप्रभावना कृता । ततः संसारं विरसपरिणाम विभाव्य गृहवासे क्षणमपि रतिं अलभमाना नृपामरदत्तप्रमुखैर्वार्यमाणाऽपि तद्दाहोपशमनाय प्राप्ता केवल्याचार्यसमीपे धम॑ श्रुत्वा 'कुतो मेऽसद्भुतः कलङ्कः?' इति प्रश्न कृते पूर्वभवे सपत्नीकलङ्कदानं पुनस्तां विरसं रसन्तीं श्रुत्वा पश्चात्तापः कलङ्कोत्तारणं च कृतमतस्तवाप्येवं जातमिति श्रुत्वा सञ्जातवैराग्या दीक्षां गृहीत्वा सुन्दरायाः प्रवर्त्तिन्याः पार्श्व एकादशाङ्गान्यधीत्य उग्रं तपः कृत्वा मोक्षमगात् । तेनैव निवेदेन राजासामन्ताद्या अमरदत्तोऽपि च प्रव. ज्य पञ्चमे कल्पे महर्द्धिका देवाः सञ्जाताः । अमरदत्तभार्यावृत्तं समाप्तम् ॥ ॥७८॥ अथ नृपविक्रमाख्यानकमुच्यते-[इहैव] भरते कुसुमपुरे हरितिलकनृपो, गौरी प्रिया, तयोः पुत्रो विक्रमः द्वासप्ततिकलाकुशल: ' COCONUAGALOCHAN Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुपतिः ॥ ७९ ॥ -GUSAUCE प्राप्तयौवनः स्वयंवरायातद्वात्रिंशत्कन्याः परिणीय तद्योग्यान् द्वात्रिंशत्प्रासादान् मनोहरान् मध्ये स्त्रोत्तुङ्गभवनकलितान् कारयित्वा ताभिः दभावनासमं यावद्भोगान् भुङ्क्ते, तावत् तदेहे कुष्ठादयो महारोगा अभूवन् । अनेकवैद्यौषधमन्त्रतन्त्रादिभिगुणाभावे कुमारेण वेदनातन पुराग- |अधिकारे हिःस्थसप्रभावधनञ्जययक्षस्य महिपशतं मानितं । अथ तस्मिन्नेव दिने तत्र विमलकीर्तिः केवली समागात् , कुमारोऽपि पित्रा सह सम्यक्त्ववन्दनार्थ गतः, केवलिप्रभावादुपशान्तव्यथोऽभूत् । राज्ञा पुत्रस्य रोगकारणं पृष्टः श्रीकेवली प्राह-पूर्व(अपर)विदेहे रत्नस्थलपुरे पद्ममुखो स्थैर्यनिदनृपो नास्तिकः, अन्यदा मृगयां गतः कायोत्सर्गस्थं मुनिमेकमालोक्य पापात्मा बाणैर्जघान । शुभध्यानेन मुनिः सर्वार्थसिद्धिविमाने किं नृप विक्रमागात् । राजा लोकैधिकारितो लोकान्मारयन्मन्त्रिसामन्तैः काष्ठपञ्जरे प्रक्षिप्य निष्कासितः, तत्पुत्रः पुण्डरीको राज्ये स्थापितः । ततः131 ख्यानकम् स नृपस्सर्वत्र धिक्कारितः केनापि तापसेनावज्ञां कुर्वन् x तेजोलेश्यया दग्धः सप्तमं नरकं गतः । ततः स्वयम्भूरमगमत्स्यो भूत्वा सप्तमनरके गतः, ततो मत्स्यः, ततः षष्टनरके, ततश्चाण्डालखी, ततः षष्ठनरके, तत उरगो भूत्वा पञ्चमनरके, ततो मत्स्यः, पञ्चमनरके, ततः सिंहः, चतुर्थनरके, ततो व्याघ्रश्चतुर्थनरके, ततः श्येनस्तृतीयनरके, पक्षी, तृतीयनरके, सरीसृपो, द्वितीयनरके, पुनः सरीसृपो, द्वितीयनरके, ततो मत्स्यः, प्रथमनरके, पुनर्मत्स्यः, प्रथमनरके, ततः पृथिव्यादिष्वनन्तोत्सर्पिणीकालो गतः । ततो वसन्तपुरे सिन्धुदत्तवणि पुत्रो, बालतपः कृत्वा तव पुत्रोऽभूत् , इति श्रुत्वा कुमारस्सञ्जातजातिस्मरणस्संविग्नः प्रतिपन्नसम्यक्त्वमूलद्वादशवतो विगतवेदनो स्वगृहेगात् । क्रमेण राजाऽभूत् । धनञ्जययक्षयाचितान्महिषान्न दत्त । ततस्तेनानेकधोपसर्गितोऽपि दयापरो यावन्न दत्ते, तावत्तेनैव यक्षेण | तद्गुणहृष्टेन कृता पुष्पवृष्टिः, प्रशंसितः कुमारस्य दयापरो धर्मः सम्यक्त्वनिश्चयश्च । ततो यक्षेण कृतसान्निध्यः साधितसकलभूवलयः | x 'कदाचित्पुरावहिः कायोत्सर्गस्थं सोमाय मुनि दृष्ट्वा सञ्जातकोपो यष्टिभिः पुनः २ प्रहरभवधिना ज्ञातप्रवचनविष्टस्वेन तेन मुनि ना, इति बृहद्वृत्तौ । A Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला • लघुवृतिः 1120 11 प्रभावित जिनशासनः कृत सर्वाङ्गीणपुण्य कृत्यः प्रान्ते श्रीकेवलिपार्श्व दीक्षां गृहीत्वा कृतकर्म्मक्षयो मोक्षमगात् ।। ॥ इति श्रीविक्रमराजाऽऽख्यानकं समाप्तम् ॥ • आदिशब्दादन्येऽपि सुरसम्पादिताज्ञाः सुलसाद्या द्रष्टव्या इति गाथार्थः || १०३ || अथ सम्यक्त्वस्यैव गुणोत्कर्षमाहअंतोमुहुत्तमित्तं पि, फासियं जेहिं हुज सम्मत्तं । तेसिं अवड्ढपोग्गल - परियहो चैत्र संसारो ॥ १०४ ॥ व्याख्या—अन्तर्मुहूर्त्तमात्रमपि स्पृष्टं- आसादितं यैः सम्यक्त्वं भवेत् तेषां पश्चात् कथमपि तीर्थकराशातनादिमहापातकिनां गोशालकादीनामप्युत्कृष्टतः अपार्द्धपुद्गलपरावर्तमात्र एव संसारः । अपगतमर्द्ध यस्मादसावपार्द्धः स चासौ पुद्गलपरावर्त्तश्वापार्द्धषुद्गलपरावर्त्तः, पुद्गलपरावर्त्तस्यार्द्धमित्यर्थः । तदप्युपलक्षणत्वाद्देशोनमिह ज्ञेयम् । पुद्गलपरावर्त्तस्वरूपं चैवमष्टधाऽऽदुः"* दवे खित्ते काले, भावे चउह दुह बायरो सुहुमो । होह अणंतुस्सप्पिणि- परिमाणो पुग्गल परिअहो ॥ १ ॥ मणवपाण-तणेण परिणमह मुअइ सब्बाणु। एगजिओ भवभमिरो, जत्तियकाले सो धूलो ॥२॥" * आसामर्थोऽयं द्रव्यपुद्गलपरावतः क्षेत्र पुद्गलपरावर्त्तः कालपुद्गलपरावत भावपुद्गलपरावर्तश्चेति चतुर्धा चतुष्प्रकारो भवति पुद्गलपरावर्त्तः । पुनरप्येकैको द्विधा-बादरः सूक्ष्मश्चानन्तोत्सर्पिण्युपलक्षणादवसरिणीकालप्रमाणो भवति ॥ १ ॥ तत्र भवं भ्रमन्नेको जीवश्चतुस्ततु श्रदारिकर्वक्रियतैजसका मणरूपशरीरचतुष्टयं तथा मनोवाक्श्वासाः इत्येतत्सप्तकत्वेन परिणमयति सुखति च यावता कालेन सर्वाणून् समग्रलोकवर्तिनः सर्वान् पुद्गलान्, स स्थूलो बादरो द्रव्यपुद्गलपरावर्त्तः । किमुक्तं भवति ?, यावता कालेनैकेन जीवेन सर्वेऽपि जगद्वर्त्तिनः परमाणवो यथायोगमौदा रिकशरीरादिसप्तक रूपत्वेन परिभुज्य परिभुज्य परित्यक्तास्तावान् कालविशेषो बाद द्रव्य पुद्गकपरावर्त्तः, आहारकशरीरं चोत्कृष्टतोऽप्येकजीवस्य वारचतुष्टयमेव सम्भवति, ततस्तस्य पुत्र ४ भावना ऽधिकारे सम्यक्त्वख गुणोत्कर्षा ॥ ८० ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ४ भावना ऽधिकारे चातुर्विध्वं पद्गलपरावत्स । "सत्तण्हऽन्नयरेणं, इय फुसणे सुहुमदव्वपरियहो। अन्ने चउतणुसु कमे-णमेणं तु विति दुविहं पि ॥३॥" "लोगपएसुस्सप्पिणि-समया अणुभागबंधठाणा य । पुट्ठा मरणेण जया, कमुक्कमा बायरत्ततया ॥४॥" | "पुट्ठाणंतरमरणेण, पुण जया ते तया भवे सुहुमो। पुग्गलपरियट्टो खित्त-कालभावेहिं इय नेओ॥५॥” इति । लपराव प्रत्यनुपयोगात्र ग्रहणं कृतमिति ॥ २ ॥ सप्तानां-औदारिकादिसप्तकमध्यादन्यतरेणैकेन केनचिद्रूपत्वेन समस्तलोकवर्तिनामखिलानां परमाणूनां स्पर्शने सूक्ष्मद्रव्यपुद्गलपरावतों, भवतीति शेषः । अन्ये पुनरौदारिकादिचतुर्वपि तनुषु यथायोगमन्यतमेनकेन वा क्रमेण-विवक्षितकशरीरस्पृष्टतारूपया परिपाट्या परिणमच्य त्यक्ते, इति-एवं पूर्वोक्तप्रकारेण एष द्विविधोऽपि द्रव्यपुद्गलपरावनों भवतीति ब्रुवते। किमुक्तं भवति ?, अन्वेषामाचार्याणां मतेनौदारिकवैक्रियतैजसकार्मणशरीरचतुष्टयरूपतया निश्शेषद्रव्यग्रहणे-सर्वलोकपुद्गलानां परिभुन्य परिभुज्य परित्यजनेऽयं बादरो दम्यपुद्गलपरावों भवति, तथैव यावता कालेन सर्वेऽपि लोकाकाशभाविनः परमाणव औदारिकाद्यन्यतमैकशरीररूपतया अनुक्रमेण, अर्थाद्विवक्षितैकशरीव्यतिरेकेणान्यशरीरतया ये परिभुज्य परिभुज्य परित्यज्यन्ते ते न गण्यन्ते, किन्तु प्रभूते ऽपि काले गते से विवक्षितैकशरीररूपतया परिणम्यन्ते त एव परमाणवो गण्यन्ते, इत्येतद्रूपेणानुक्रमेण परिभुज्य परिभुज्य निष्ठां नीयन्ते, तावान् काल विशेषः सूक्ष्मद्रव्यपुद्गकपरावर्त्तः । पुद्गलानां-परमाणूनामौदारिकादिसप्तकरूपतया विवक्षितैकशरीरादिरूपतया वा सामस्स्येन परावतः-परिणमनं यावति काले भवति, स तावान कालः पुद्गकपरावर्तः ॥३॥ लोक चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य ये प्रदेशाः, उत्सपिण्या उपलक्षणादवसर्पिण्याश्च ये समयास्तथा असङ्ख्येयकोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यसङ्ख्येयान्यनुभागवन्धस्थानानि, सर्वाग्यप्येकेन जीवेन यदा क्रमेणभानन्तर्येणोत्क्रमेण-परम्परवा च स्पृष्टानि भवन्ति, तदा क्षेत्रकालभावैबांदसे, यदा पुनस्त एव लोकप्रदेशा उत्सपिण्यवसर्पिणीसमयास्तथाऽनुभागबम्धस्थानाम्यनन्तरमरणेन स्पृष्टानि भवेयुस्तदा तैरेव क्षेत्रकालभावैः सूक्ष्मः पुद्गलपरावतॊ भवेदिति शेयः । इदमुक्तं भवति-यावता कालेनैको जीवः क्रमेणोत्क्रमेण वा यत्र तत्र वा नियमाणस्सर्वानपि लोकाकाशप्रदेशान्मरणेन स्पृशति तावान्काल विशेषो बादरः, यावता च कालेनैकः कश्विजीवोऽनन्तरानन्तरप्रदेशमर-.. मात्मकेन क्रमेण सर्वेष्वपि लोकाकाशप्रदेशेषु सतो भवति, तावान् कालविशेषः सूक्ष्मः, क्षेत्रपुद्गलपरावतॊ भवतीति शेषः । यावता कालेनको जीवः FURSACSCखना ॥८ ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृतिः ॥ ८२ ॥ तथाऽपीह सूक्ष्मक्षेत्र पुद्गलपरावर्त्तस्य देशोनमर्द्ध सम्भाव्यते, निश्चयं तु केवलिनो बहुश्रुता वा विदन्ति, व्यक्तनिर्णयस्यादर्शनात् । एतच्च देशोनं पुद्गलपरावर्त्तार्द्धमनन्तोत्सप्पिणीकालमानं ज्ञेयं, तदन्तेऽवश्यं क्षपितकर्म्मा निर्वृतिमानोतीति भावः, इति गाथार्थः ॥ अथ अमरादिसम्पदादिभ्योऽपि सम्यक्त्वस्य दुर्लभत्वलक्षणं गुणमाह | लब्भंति अमरनरसं - पया उ सोहग्गरूवकलियाओ । न य लब्भइ सम्मत्तं, तरंडयं भवसमुद्दस्स ॥ १०५ ॥ व्याख्या - लभ्यन्तेऽमरनरसम्पदास्तु सौभाग्यरूपकलिताः, न च लभ्यते सम्यक्त्वं भवसमुद्रस्य तरण्डकं, उत्तारे इति शेषः । यथा चास्य दुर्लभत्वं तथा प्रागेवोक्तमिति ॥ १०५ ॥ उक्तं गुणद्वारं, अथ कतिभेदं तद्भवतीति पञ्चमद्वारमाहसर्वाण्यप्रसर्पिण्यवसर्पिणीसमयान् क्रमेणोत्क्रमेण वा मरणेन व्याप्नोति तावाम्कालविशेषो बादरः कालपुद्गलपरावर्त्तः, यदा चैकः कचिज्जीवोऽवसर्पिण्याचसमये मृत:, पुनस्स एव जीवोऽवसर्पिण्याद्य समयस्यानन्तरे द्वितीये समये म्रियते, एवमनन्तरानन्तरसमय भाविमरणैः सर्वानप्युत्सर्पिण्य वसर्पिणीसमयान् क्रमेण स्पृष्टान् करोति, तदा सूक्ष्मः कालपुद्गलपरावर्त्तो भवति । यावता कालेन अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि सर्वाण्यप्यसङ्ख्ये यलोकाकाशप्रदेशप्रमानि यदैकेन जीवेन म्रियमाणेन क्रमेणोत्क्रमेण च स्पृष्टानि भवन्ति, तावान्कालो बादरस्तथा यावता कालेनैकेन जन्तुना प्रथमद्वितीयतृतीयाद्यनुभागवमधाध्यवसायस्थानेषु मरणानि कुर्वता असख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि सर्वाण्यप्यनुभागवन्धाध्यवसाय स्थानानि स्पृष्टानि भवन्ति, तावान् कालः सूक्ष्मो भावपुद्गलपरावर्त्तः । अथानुभागबन्धस्थानानीति कः शब्दार्थ : ?, उच्यते - तिष्ठत्यस्मिन् जीव इति स्थानं, अनुभागबन्धस्य स्थानमनुभागबन्धस्थानं, एकेन काषायिकेणाध्यवसायेन गृहीतानां कर्मपुद्गलानां विवक्षितैकसमयबद्ध रस समुदाय परिमाणमित्यर्थः तानि चानुभागबन्धस्थानाम्यसङ्ख्ये य लोकाकाशप्रदेशप्रमाणानि तेषां चानुभागबन्धस्थानानां निष्पादका ये कपायोदयरूपा अध्यवसायास्तेऽप्यनुभागबन्धस्थानानीत्युच्यन्ते कारणे कार्योपचारात्, तेऽपि चानुभागबन्धाध्यवसाया असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा इति ॥ ४-५ ॥ ४ भावनाऽधिकारे दौर्लभ्यलं सम्यक्त्वा ॥ ८२ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है खइयं खओवसमियं, वेययमुवसामियं च सासाणं । पंचविहं सम्मत्तं, पण्णत्तं वीयरागेहिं ॥ १०६ ॥ पुष्पमाला ५४ भावनालघुवृत्तिः | व्याख्या-अनन्तानुबन्धिचतुष्टयस्य त्रिविधस्यापि दर्शनमोहनीयस्य च क्षयेण-अत्यन्तोच्छेदेन निवृत्त क्षायिकं, तच्च क्षपकश्रे- धारे ॥८३॥ णिमारोहतो भवति १। तथा उदीर्णस्य मिथ्यात्वस्य क्षयेणानुदीर्णस्य चोपशमेन सम्यक्त्वरूपतापत्तिलक्षणेन विष्कम्भितोदयत्वरूपेण सम्यक्त्वस्य यन्निवृत्तं तत्क्षायोपशमिकं २ । तथा क्षायिकसम्यक्त्वस्यैव निवर्तनकालेऽनन्तानुबन्ध्यादिषु षट्सु क्षपितेषु मिथ्यात्वपुञ्ज(सम्यक्त्वपुजे) मेदप्रमेदार ऽपि बहुतरे क्षपिते क्षायोपशमिकचरमपुद्गलग्रासेऽवतिष्ठमानेऽद्यापि सम्यक्त्वपुद्गलानां कियतामपि वेद्यमानत्वाद्वेदकं, तदुक्तं-"सम्मत्तचरमपुग्गल-अणुभवणा वेयगं विति" ३ । तथा औपशमिकं तु प्रागुक्तमेव, यदुक्तं-"ऊसरदेसं दड्डि-लयं च विज्झाइ वणदवो पप्प । इय मिच्छस्साणुदए, उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥१॥" उपशमश्रेण्यारूढस्य चौपशमिकं “उवसमसेढिगयस्स, होइ उवसामियं तु सम्मत्तं ।" इति ४। तथा "उवसमसम्मत्ताओ, चयओ मिच्छं अपावमाणस्स । सासायणसम्मत्तं, तयंतरालंमि छावलिया ॥१॥" इति सम्यक्त्वं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं वीतरागैरिति । एतदेव निसर्गाधिगमभेदाद् दशधा । अथवा "निसग्गुवएसरुई, आणरुई सुतबीयरुइमेव । अभिगमवित्थारराई, किरिया संखेबंधम्मरुई ॥१॥” इति दशधा सम्यक्त्वं । रोचककारकदीपकभेदास्त्वत्रैवान्तर्भूता इति गाथार्थः ॥१०६॥18 षष्ठमतिचारद्वारं विभणिपुराहसंकाखविगिच्छा, पासंडीणं च संथवपसंसा । तस्स य पंचाइयारा, वजेयत्वा पयत्तेणं ॥ १०७ ॥ व्याख्या-तस्य च-सम्यक्त्वस्य पश्चातिचाराः प्रयत्नेन वजनीयाः, तत्रातिचरन्ति-मालिन्योत्पादनेन सम्यक्त्वमुद्रां लजयन्ति + ॥८३॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लावृत्तिः ॥८४ ॥ 5ASSORRBA यैस्तेऽतिचाराः, मिथ्यात्वमोहनीयोदयादात्मनोऽशुभपरिणामविशेषा इत्यर्थः । के ते ? इत्याह-शङ्कनं शङ्का, अर्हतप्रणीतेषु जीवादित-14 वेषु मतिमान्द्यादनवबुद्धयमानेषु संशयकरणमित्यर्थः, किमिदमित्थमेवान्यथा वा स्यात? इति, सा च द्विधा-जीवो नित्योपनित्यो वा ? भावना ऽधिकारे इत्यादिदेशविषया देशतः, मूलत एव जीवोऽस्ति न वा ? इत्यादि सर्वविषया सर्वत इति । द्विधाऽपि चेयं सम्यक्त्वं मलिनयति, सर्व | सम्यक्त्व | ज्ञोक्तेऽपि संशयात् १। तथा काङ्खणं काङ्खा-अन्यान्यदर्शनग्रहः, शाक्यादिदर्शनानामपि सर्वज्ञदर्शनतुल्यत्वेन विकल्पनमित्यर्थः, साऽपि लावातिचास: देशतः सर्वतश्च, तत्र यदा चित्तनिग्रहादिकं कश्चिद्धम्म सर्वज्ञोक्तमन्यदर्शने श्रुत्वा चिन्तयति-यथेदमप्येकं दर्शनं सर्वज्ञदर्शनेन तुल्यमेव, ल अत्रापि चित्तनिग्रहादेः प्रतिपादनात् , तदा देशतः. यदा त्वक्षपादादिषु बहुषु दर्शनेषु जीवदयादिकं श्रुत्वेत्थं विकल्पयति-सर्वाणि दर्श-17 नानि सर्वज्ञदर्शनतुल्यानि, जीवदयादेः सर्वत्र तुल्यत्वात् , तदा सर्वतः, इयं च द्विधाऽपि सम्यक्त्वं दूषयति । घुणाक्षरन्यायेन जीवदयादेस्तुल्यत्वेऽपि शेपैः प्रभूतधम्मैरन्यदर्शनानामतीव व्यभिचारात । अथवा ऐहिकामुष्मिकसुखादीन् कासन्तः काङ्का, इयमप्यतिचाररूपैव, अर्हन्निषिद्धाचरणरूपत्वेन मालिन्यहेतुत्वादिति २। विचिकित्सा-मतिविभ्रमः, युक्त्यागमोपपन्नेऽप्यथै फलं प्रति सम्मोहः, किमस्या5 स्तपःप्रभृतिक्रियाया उत्तरकाले फलसम्पद्भविष्यति न वा ? इति, अथवा विदितयथावस्थितवस्तुत्वाद्विद्वांसः-साधवस्तेषां जुगुप्सा विद्व-11 ज्जुगुप्सा, इत्येवमिह व्याख्यायते । एषाऽपि सम्यक्त्वदषिकैव । यदा हि मलमलिनान् साधूनालोक्य कश्चिदेवं निन्दति-हन्त !! को व दोषः स्यात् ?, यदि स्वल्पप्रासुकजलेन शरीरादिप्रक्षालनममी कुरिन्निति, तदा दृष्यत एव सम्यक्त्वं, अहंदुक्तस्याविभूषामार्गस्य नियुक्तिकत्वविकल्पमात्रेणाप्रमाणीकरणात् ३। तथा पाखण्डिनां शाक्यादीनां संस्तवः-एकत्र निवासादिरूपः परिचयः, न स्तुतिः, तस्या ॥८४॥ अनन्तरं वक्ष्यमाणत्वात् , सम्पूर्व स्तोतेश्च परिचये रूढत्वात् , यथा-" असंस्तुतेषु प्रसभं कुलेषु" इति । अनेनाप्यतिचरत्येव जीवः NAGAR Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥८५॥ सम्यक्त्वं, तत्परिचये हि तरिक्रयाश्रवणदर्शनाभ्यां पुनरपि मिथ्याबोधोत्पत्तेः ४ । तथा तेषामेव पाखण्डिनां प्रशंसा-स्तयः, यथा-पु ४ भावनाण्यभाज एते सुतपस्विन इति । अनयाऽपि सम्यक्त्वमालिन्यं जन्यते, तत्करणे हि तेषामात्मनोऽन्येषां च मिथ्यात्वस्थिरीकरणपक्षपात-18धिकारे मिथ्यात्वगमनजिनशासनद्वेषादयो दोषाः प्रमवन्तीति, तत्तपःप्रभृतिगुणानां चाज्ञानकष्टरूपत्वेनानर्थफलत्वात , अत एते वर्जनीया इति वर्जनीयत्वं गाथार्थः ।।१०७॥ अतिचाराधिकारादन्यदपि यत्सम्यक्त्वदृषकं तनिषेधयन्नाह सम्यक्त्वा पिंडप्पयाणहुयणं, सोमग्गहणाइलोयकिच्चाई । वजसु कुलिंगिसंगं, लोइयतित्थेसु गमणं च ॥ १०८ ॥ तिचाराणां व्याख्या-पिण्डप्रदानं पितॄणां प्रतीतं, हवनं-अग्न्यादौ तिलादिक्षेपोऽग्निकारिकेत्यर्थः, सोमग्रहणं प्रसिद्धम् , आदिशब्दात् सूर्यग्रहण- | सङक्रान्तिमाघनवम्याग्रहणं । एतानि लौकिककृत्यानि वर्जय। एतेनान्यान्यपि यानि लोकहेर्या प्रवृत्तानि कृत्यानि, तानि नियुक्तिकत्वानिषिद्धत्वान्निष्फलत्वेन जीवघातहेतुत्वेन वर्जनीयानीत्यर्थः, तथा कुलिङ्गिभिः शाक्यादिभिः सङ्गं सम्भाषणादिकं, लौकिकतीर्थेषु]कायतनेषु गमनं च वर्जयेति सम्बन्ध इति गाथार्थः ॥१०८।। ननु किमित्येवं पुनः पुनः प्राचुर्यप्रवृत्तं कुलिङ्गिसङ्गादिवर्जनं ? इत्याह| मिच्छत्तभाविअञ्चिय, जीवो भवसायरे अणाइम्मि । दढचित्तो वि छलिज्जइ, तेण इमो नणु कुसंगेहिं ॥१०९॥ 181 ___ व्याख्या-पूर्व तावजीवोऽनादौ संसारसागरे मिथ्यात्वभावित एव भवेत् , तेनायं जीवः सम्यक्त्वे दृढचित्तोऽपि निश्चितं कुसङ्गैः-18 | सहकारिभिश्छल्यते, मिथ्यात्वं नीयते इति यावत् , स्वभ्यस्तत्यक्तमदिरापानस्तद्दर्शनाघ्राणश्रवणादिभ्यस्तत्पानाभिलाषमिवेति गाथार्थः ॥१०९ ॥ उक्तमतिचारद्वारं, सप्तमं लिङ्गद्वारं बिभणिपुराह- . Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - है जस्स भवे संवेओ, निव्वेओ उक्समो य अणुकंपा। अत्थित्तं जीवाइसु, नजइ तस्सऽथि सम्मत्तं ॥११०॥2 पुष्पमाला ४ि भावनालघुवृत्तिः । व्याख्या-यस्य भवेत् संवेगो निर्वेद उपशमोऽनुकम्पा जीवादिष्वस्तित्वं च, तस्य जन्तोरेतैर्लिङ्गैर्जायते, यदुत-अस्ति सम्यक्त्वं । | PISधिकारे ॥८६॥ तत्र सांसारिकसुखपरिहारेण मुक्तिसुखाभिलाषस्संवेगः १ । सांसारिकदुःखेभ्यो निर्विण्णता निर्वेदः २ । अपराधवत्यप्यक्षमावर्जनमुप- संवेगादीनि 18| शमः ३ । अविशेषतो दुःखितसत्त्वेषु कारुण्यमनुकम्पा ४ । शङ्काकाङ्क्षादिरहितो जिनोदिततत्त्वाभ्युपगमो जीवाद्यस्तित्वमिति गाथार्थः सम्यक्त्व गमकानि ॥११० ॥ अपराण्यपि सम्यक्त्वगमकानि लिङ्गान्याह लिङ्गानि F| सव्वत्थ उचियकरणं, गुणाणुराओ रई य जिणवयणे । अगुणेसु अ म_त्थं, सम्मदिहिस्स लिंगाइं ॥१११॥3 1 व्याख्या-सम्यग्दृष्टेस्तद्भावगमकान्येतान्यपराण्यपि लिङ्गानि स्युः, कानि ? इत्याह-सर्वत्र देवगुरुमातृपितृखजनादिपूचितकरणं १, 181 तथा ज्ञानादिषु औदार्यगाम्भीर्यमार्गानुयायितादिषु च गुणेष्वनुरागः-प्रीतिः २, तथा रतिश्च तस्य जिनवचन एव स्यात, यदाह"यूनो वैदग्ध्यवतः, कान्तायुक्तस्य कामिनोऽपि दृढं । किन्नरगेयादधिकः, सम्यग्दृष्टेः श्रुतौ रागः ॥१॥" ३, तथा अगुणेषु च-गुणरहितेषु च प्राणिषु माध्यस्थ्य-उपेक्षैव तस्य भवतीति ४, एतानि सम्यग्दृष्टेलिङ्गानीति गाथार्थः ॥१११।। तदेवमुक्तानि किं सम्यक्त्वमित्यादिद्वाराणि, तेषां चोपलक्षणत्वादन्यदप्यत्राकारद्वारं द्रष्टव्यम् , ते चामी आकाराः-राजाभियोग-गणाभियोग-बलाभियोग-देववाभियोग-गुरुनिग्रह-वृत्तिकान्तारलक्षणाः षट्। तत्राभियोजन-अनिच्छतोऽपि व्यापारणमभियोगः,राज्ञोऽभियोगोराजाभियोगः, एवमग्रेऽपि समासः । गणः-खजनादिसमुदायः, बलं-हठप्रयोगः, देवता-कुलदेव्यादिकेति, गुरूणां-मातापित्रादीनां निग्रहो-निर्बन्धः, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ८७॥ Pाधिकारे KKRK+ आग्रह इति यावत , वृत्तिः-प्राणवर्तनरूपा, कान्तारं-अरण्य, बाधेति यावत् , वृत्तः कान्तारं वृत्तिकान्तारं-वृत्तिबाधेत्यर्थः । ननु कथं ४ भावनाकान्तारमेव वृत्तेर्वाधाभिधीयते ?, उच्यते-तद्धेतुत्वात्तस्येत्यदोषः । अत्रायम्भावः-प्रत्याख्यातमिथ्यात्वस्य तावत् "नो मे कप्पइ अजप्पभिइ अन्नउत्थिए(इ वा अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंतचेइयाणि वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा पुचि | सम्यक्त्वाअणालत्तण आलवित्तए वा [संलवित्तए वा], तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पयाउं) वा" इत्यादिवचनाद- | कारपनकन्यतीर्थिकादेरनुकम्पां विहाय दानवन्दनादिकमिह प्रतिषिद्धं, ततस्तेषामनुकम्पयाऽन्यत्रापि च राजाद्यभियोगादिभिः षड्भिरेतः कारण स्वरूपम् भक्तिविरहितो द्रव्यतस्तत् समाचरन्नपि कार्तिकश्रेष्ठयादिवत्सम्यक्त्वं नातिचरति । एवमन्यदप्यत्रोपयोगि स्वयमेव वाच्यमिति । __ "अनन्तसंसारनिदानमेनं, मिथ्यात्वमेवं परिभाव्य भव्याः । सम्यक्त्वमेकं विमलं श्रयध्वं, कैवल्यलक्ष्मी त्वरितं लभध्वम् ॥१॥" इति पुष्पमालाविवरणे [चतुर्थे] भावनाद्वारे सम्यक्त्वशुद्धिलक्षणं प्रतिद्वारं समर्थितम् ॥ ६॥ सम्प्रति चरणशुद्धिद्वारं बिभणिपुः पूर्वद्वारेण सम्बन्धगर्भा गाथामाहचरणरहियं न जायइ, सम्मत्तं मोक्ख साहयं एकं । तो जयसु चरणकरणे, जइ इच्छसि मोक्खमचिरेण ॥११२॥5 व्याख्या-चरणरहितमेकमेव सम्यक्त्वं मोक्षसाधकं न जायते, तस्माचरणव करणं-निर्वत्तनं, प्रतिपालनमित्यर्थः । तत्र यतस्व ॥८७॥ यतनं कुरु, यदि मोक्षं अचिरेण-खल्पकालेनैव इच्छसि । अयम्भावः-प्राप्तेऽपि सम्यक्त्वे चिरकालेनापि तावच्चारित्रं स्पृष्टव मोक्षः CONOR- 5 AR 554 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ८८ ॥ प्राप्तव्यो, नान्यथा, उक्तं च- " सुट्ट्टु बि सम्मद्दिट्ठी, न सिज्झट चरणकरणपरिहीणो" इत्यादि । तद्यद्यग्रेऽप्यवश्यं प्रतिपत्तव्यमेवेदं मोक्षार्थिना तदिदानीमेव प्रतिपद्यख येन शीघ्रमेव समीहितं सिद्ध्यतीति । एवं च सति सम्यक्त्वशुद्धिद्वारानन्तरं चरणशुद्धि-. द्वारमभिधीयत इति पूर्वद्वारेण सम्बन्धाभिधानमिति गाथार्थः ||११२ || अथ चरणस्वरूपमेव किञ्चिद्विस्तरतो विभणिपुर्द्वारगाथामाहकिं चरणं? कईभेयं?, तरिहं पडिवत्तिविहिपरूवणय । उस्सग्गऽववाएहि य, तं कस्से फलं व किं तसं ॥११३॥ व्याख्या - किं चरणमिति तत्स्वरूपं तावद्वाच्यं ततः कतिभेदं तदिति वक्तव्यं । ततस्तदहश्चिरणयोग्या जन्तवो वाच्याः । ततोऽपि चरणस्य प्रतिपत्तिविधिप्ररूपणा कार्या । ततश्चोत्सर्गापवादैश्व, शुद्धमिति शेषः, तच्चरणं कस्य साधो भवतीत्यभिधानीयं । फलं वा - साध्यं किं तस्येति वाच्यमिति सङ्क्षेपार्थः । विस्तरार्थस्तु सूत्रकार एवाहसावज्जजोगविरई, चरणं ओहेण देसियं समए । भेषण उदुवियप्पं, देसे सव्वे य नायव्वं ॥ ११४ ॥ व्याख्या - सह अवधेन - पापेन वर्त्तन्त इति सावद्याः, योगाः - जन्तुघातादिहेत्वारम्भादिव्यापारास्तेषु सावद्ययोगेषु या विरति - र्निवृत्तिस्तच्चरणं - सपापव्यापारपरिहाररूपं, ओघेन - सामान्यतो देशसर्वादिविचार विरहेण समये - सिद्धान्ते देशितं - कथितमित्यर्थः । गतं. किंचरणमिति द्वारं, कतिभेदं तदित्याह - भेदेन तु चिन्त्यमानं द्विविकल्पं - द्विप्रकारं चरणं ज्ञेयम् । तदेव द्वैविध्यमाह - देशे - स्थूलप्राणातिपातादौ सर्वस्मिथ स्थूलसूक्ष्मजीवघातादौ विरतिरूपं चरणं ज्ञातव्यं, देशचारित्रं सर्वचारित्रं चेत्यर्थः, इति गाथार्थः ॥ ११४ ॥ कस्य पुनस्तावद्देशचरणं भवतीत्याह ५ शुद्धि ऽधिकारे चारित्रमन्तरेणावाससम्यक्त्वा नामप्य न वाप्यत्वं मोक्ष ॥ ८८ ॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ देसचरणं गिहीणं, मूलुत्तरगुणविअप्पओ दुविहं । मूले पंच अणुव्वय, उत्तरगुण दिसिवयाईआ ॥११५॥ W४ भावना-देशचरणं गृहिणामेव भवेत् , न यतीनां, तेषां सर्वचारित्र एवाधिकारात् । तदपि कतिभेदं ? इत्याह-मृलोत्तरगुणविक-* ऽधिकारे ल्पतो-मूलोत्तरगुणभेदाभ्यां तदपि द्विविधं । तत्र मूले-मूलगुणविषये पञ्चाणुव्रतानि, तत्राणूनि-महाव्रतापेक्षया लघूनि व्रतानि अणुव्र- देशचारि| तानि, अणोर्वा गुणापेक्षया यतिभ्यो लघोः श्रावकस्य व्रतान्यणुव्रतानि, अथवा देशनाकाले महाव्रतप्ररूपणातोऽनु-पश्चात् प्ररूपणीयानि त्रस्वरूपं ब्रतान्यनुव्रतानि, यदाह-"जइधम्मस्सऽसमत्थे,जुज्जइ तद्देसणं पिसावणं"। इति,पञ्च तानि च अणुव्रतानि पञ्चाणुव्रतानि,स्थूलप्राणातिपातविरमण-स्थूलमृषावादविरमण-स्थूलादत्तादानविरमण-परदारविरमणखदारसन्तोष-अपरिमितपरिग्रहविरमणलक्षणानि । एतानि च श्रावकधर्मातरोर्मूलकल्पत्वान्मूलगुणाः। दिग्वतादीनि तु तदुपचयलक्षणगुणहेतुत्वेन श्रावकधर्मद्रुमस्य शाखाकल्पा उत्तरगुणाः, उत्तररूपा गुणा उत्तरगुणास्ते च दिग्वाताद्याः सप्त । तत्रोधिस्तिर्यदिग्गमनपरिमाणकरणं दिग्व्रतम् १। तथा नियतपरिमाणोपभोगपरिभोगकरणमुपभोगपरिभोगवतम् । इदं च द्विधा-भोजनतः कर्मतश्चेति । तथाऽनर्थदण्डविरमणं, तत्र अर्थः-प्रयोजनं, तदभावोऽनर्थः, | दण्ड्यते आत्माऽनेनेति दण्डः, अनर्थेन-प्रयोजनाभावेन निजजीवस्य दण्डोऽनर्थदण्डः, स चतुर्दा, तद्यथा-अपध्यानं प्रमादाचरितं हिंस्रप्रदानं पापकर्मोपदेश इति । तस्माद्विरमणं अनर्थदण्डविरमणं । एतानि च दिग्वतादीनि त्रीण्यपि गुणव्रतान्युच्यन्ते, अणुव्रतानां गुणाय-उपकाराय व्रतानि गुणव्रतानीतिकृत्वा, भवति ह्यणुव्रतानां गुणव्रतेभ्य उपकारो, विवक्षितक्षेत्रादिभ्योऽन्यत्र हिंसादिनिषेधादिति । अथोत्तरगुणचतुष्टयरूपाणि चत्वारि शिक्षाव्रतानि उच्यन्ते । तत्र शिक्षा-अभ्यासस्तत्प्रधानानि व्रतानि शिक्षाव्रतानि, पुनः पुनरासेव| नार्हाणीत्यर्थः । तानि च सामायिकादीनि, तत्र समस्य-रागद्वेषरहितस्य जीवस्य आयो-लाभः समायः, समो ह्यनुक्षणमपूर्वज्ञानदर्शनचा ACCOURS Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ९० ॥ रित्रैर्युज्यते । समायः प्रयोजनमस्य क्रियाऽनुष्ठानस्येति सामायिकं, सावद्यपरित्यागनिरवद्यासेवनरूपो x व्रतविशेष इत्यर्थः । इदं च श्रावकेण प्रतिदिवसमन्तरान्तरा यत्नेन कर्त्तव्यम्, यदुक्तं आगमे - "जाहे खणिओ ताहे सामाइयं कुज्जा" इत्यादि [ आवश्यकचूर्णौ ] १ | तथा देशावकाशिकलक्षणं द्वितीयं शिक्षावतं, तत्र गृहीतसविस्तरदिक् प्रमाणस्य देशे - सङ्क्षिप्तविभागेऽवकाशः - अवस्थानं देशावकाशिकस्तेन निर्वृत्तं देशावकाशिकं, बहुतरदिक् परिमाणसङ्कोचरूपमिति भावः २ । तथा पौषधस्तृतीयं शिक्षात्रतं, तत्र पोषं पुष्टिं प्रक्रमाद्धर्म्मस्य धत्तेकरोतीति पौषथः, अष्टमीचतुर्दशी पौर्णमास्यमावास्यापर्वदिनानुष्ठेयो + व्रतविशेषः । अयं च आहारशरीरसत्कारब्रह्मचर्याव्यापारपौषधभेदा X न हि निरवद्यासेवन - सावद्यपरित्यागरूपो, यत एतदेवार्थख्यापकस्समुपलभ्यते “सामाइयं नाम सावज्जजोगपरिवजणं निरवज्जजोगपडिसेवणं च” इत्यावश्यकसूत्रपाठस्तथैव “सिक्खावयं तु पत्थं, सामाइयमो तयं तु विष्णेयं । सावज्जेयरजोगाण, वज्रणासेवणारुवं ॥१॥" ज्याख्या-xxx 'तकं तु' तत्पुनः सामायिकं 'विज्ञेयं' ज्ञातव्यं 'सावद्येतरयोगानां' सपापनिष्पापव्यापाराणां यथासङ्ख्यं [अनुक्रमेण] न त्वयथासङ्ख्यं, 'वर्जनासेवनरूपं ' परिहारानुष्ठानस्वभावं" इति नवाङ्गवृत्तिकारक श्रीमदभयदेवसूरि पुरन्दरसम्बन्ध पञ्चाशक वृत्तिपाठः २२ पत्रे । एतदादिशास्त्रप्रमाणैः स्फुटतरं ध्वन्यते सावद्यपरिवर्जनरूपसामायिकोच्चारादर्वानिरवद्यासेवनात्मि केर्याप्रतिक्रान्तेर्निषेधः, सावचेतरयोगानां यथासख्यमनुक्रमेणैव वर्जनासेनरूपत्वेनोक्तस्वात् । अपरं च-अकृत्वा सावधमलोत्सर्जनं शुद्धिहेतोः प्रागीर्यांप्रतिक्रान्त्यभ्युपगन्तृमतेन स्वावश्यकादौ "सामाइ नाम निरवज्जजोगपढिसेवणं सावजजोगपरिवज्जणं च" इत्येवं पाठो लिखितुमुचितोऽभूत् परं न क्वाप्येवमुपलभ्यतेऽतो युक्तियुक्तैव शास्त्रकाराभीष्टाऽपि च सामायिकोच्चारादन्वीर्याप्रतिक्रान्तिः । x नापर्वस्वपि यदृच्छयाऽनुष्ठेयः, शास्त्रेष्वस्याष्टभ्यादिप्रतिनियत दिवसेष्वेवानुष्ठेयत्वेन प्रतिदिवसेष्वनाचरणीयत्वेन चोक्तत्वात् तथाहि पौषधोपवासातिथिसंविभागौ तु प्रतिनियत दिवसानुष्ठेयौ न प्रतिदिवसा (नुष्ठेयौ ) चरणीयो" इति पञ्चाशक वृत्ति (पत्र 30 ) आवश्यक वृहद्वृत्ति (पत्र ८३९ ) श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति (पृष्ठ १८२) तस्वार्थ (अ० ७ सूत्र १६ वृत्याद्यनेकेषु शास्त्रप्वेष एव पाठः । ये च प्रलपन्ति पण्डितम्मन्या "न प्रतिदिवसाचरणीयो" इत्यन्त्र नकारो न प्रतिषेधवाचकः, तदयुक्तं, साक्षितया परिकल्पितस्य तथाविधपाठस्यैव ४ भावनाऽधिकारे | सामायिका| दिशिक्षात्र तस्वरूपं तद्विध्या दयश्वापि ॥ ९० ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला ४ भावना लघुवृत्तिः ऽधिकारे ॥९१॥ पौषधकतव्यता नियमः। तनावश्यकवृश्यादावभावात् । अवलोकयन्तु चैतद्वावदूकवचनं-नहीदं [न प्रतिदिवसाचरणीयाविति वचनं पर्वान्यदिनेषु पौषधनिषेधपरं, किन्तु पर्वसु पौषधकरणनियमपरं, पथा आवश्यकवृत्यादौ श्राद्धपञ्चमप्रतिमाऽधिकारे 'दिवैव ब्रह्मचारी, न तु रात्रौ' इति वचनं दिवसे ब्रह्मचर्य नियमार्थ, न तु रात्री ब्रह्मनिषेधार्थ, अन्यथा पञ्चमप्रतिमाऽऽराधकाढेन रानावब्रह्मचारिणैव भाव्यमिति पापोपदेश एव दत्तः स्यात् , रात्री ब्रह्म गलने प्रतिमाऽतिचारश्च प्रसज्येत" इति श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तावर्थदीपिकायां १६५ पत्रे । अनावश्यकवृत्यादिनाना पञ्चमप्रतिमाराधनावमुद्दिश्य "दिवैव ब्रह्मचारी, न तु रात्रौं" इति यदुक्तं, तनितान्तमसत्यम् , कस्मिन्नपि शास्त्रे तथाविधशब्दगन्धस्याप्यभावात , तथा च दश्यते कतिचिच्छास्त्रपाठाः पाठकानां मतिमोहनिरासाय“दिमा बंभयारी, राती परिमाणकडे अपोसहिए । पोसहिए रत्तिम्मि अ, नियमेणं बंभयारी अ ॥ १॥" भावश्यकचूहद्वृत्ति, पत्र ६४७ । “दिमा बंभयारी, राति परिमाणकडे " समवायागसूत्र, पत्र १९ ।। "असिणाण विभडभोई, मउलिमडो दिवसबंभयारी अ । रत्ति परिमाणकडो, पडिमावज्जेसु दिवसेसु ॥१॥" प्रवचनसारोद्धार, पत्र २९४ । "जाव पडिमा पंचमासिभा न समप्पति ताव दिवसओ बंभयारी, रत्ति परिमाणं करेति-पग दो तिन्नि धा धारे अपोसहिओ, पोसहिओ रत्ति पि बंभयारी" इति पञ्चाशकचूर्णिः । नास्त्येतेषु पाठेषु "दिवैव ब्रह्मचारी, न तु रात्रौ” इत्यर्थगन्धोऽपि, तथाऽप्येवं प्राच्यशास्त्रपाठपरावर्तनद्वारा स्वाभिमतसिद्धये पूर्वाचार्योपरि पापोपदेशदानस्य यस्कलकदानं तत्र मुक्त्वा स्वमताभिनिवेशब्युग्राहित्वं नान्यत् किमपि कारणमवतरति दृष्टिपथे । अन्या-ये पर्व तिथिवृद्धिप्रसके सूर्योदयात्सम्पूजाहोरात्रावस्थायिनीषु प्रथमाष्टम्यादिपर्वतिथिध्वपि स्वयं पौषधादिधर्मकार्यानिषेधयन्तोऽपि “पादवलकान्ती न पश्यति" इति न्यायं स्मारयन्नन्योपर्यपर्षपौषधनिषेधकत्वास दोषारोपणं कुर्वन्ति तैर्विचार्यमेतत् , यदुत-पौषधशब्दोऽपि पर्वस्यैव वाचको, नापर्वस्य, यदुक्तं श्रीमस्खरतरगच्छगगनाङ्गणनभोमणिकल्पैर्नवाझवृत्तिकारैः श्रीमदभय देवरिपादैः-“पौषधं-पर्वदिनमष्टम्यादिः" इति समवायाझवृत्तिः, पत्र १९ । एवमेव " पोषं धत्ते पौषधः-अष्टमीचतुर्दश्यादिपर्वदिवसः" इति धर्मबिन्दुवृत्तौ श्रीमन्मुनिचन्द्रसूरयः । तथा "पौषधः पर्व इत्यनर्थान्तरं" इत्युमास्वातिवाचकमिश्रास्तत्वार्थभाध्ये, तथैव "पौषधः पति नार्थान्तरं" इति तरवार्थवृत्तौ। इस्याद्यनेकैः श्रुतधरैः पौषधशब्द एव पर्ववाचकत्वेनोक्तः । * ॥९ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुचिः ॥ ९२ ॥ चतुर्द्धा, पुनरपि प्रत्येकं द्विधा - देशतः सर्वतश्च, अस्मिनङ्गीकृते आहारशरीरसत्कारयोः परिहारो ब्रह्मचर्याव्यापारयोरासेवनं च देशतः तथा च यत्पर्यवाचकशब्दवाच्यमनुष्ठानं तत्कथमपर्व स्वपि विधेयतया प्रतिपादयितुमपि शक्यते ?, न कथमपीति । ननु निरवद्यानुष्ठानस्य सर्वदा विधेयत्वस्वीकारे को दोषः १, प्रत्युत कर्मनिर्जरादिविशिष्टलाभायैव भविष्यतीति चेतर्हि पाक्षिकादिप्रतिक्रमणानां कथं न सर्वदा विधेयत्वं स्वीक्रियते ?, किं तेषां सर्वदा करणे कर्मनिर्जरादिविशिष्टकाभो न भविष्यति ?, स्वाध्यायकरणेऽपि च किं प्रयोजनमस्वाध्यायकालवेलादे वर्जनस्य ?, कुर्वन्तु यदातदा कालेकाले यदच्छया, कर्मनिर्जगदिविशिष्टका भस्यानापि समानत्वात् । चेच्छानाज्ञा भङ्गप्रसङ्गान्न तथा स्वीक्रियते तदा कथमाग्रहः पौषधस्य प्रतिदिवसेष्वविधेयत्वस्वीकारे ?, अत्रापि "प्रतिनियतदिवसानुष्ठेयौ न प्रतिदिवसा (नुष्ठेयौ) चरणीयौ” इत्येतच्छास्त्राज्ञाया भङ्गप्रसङ्गः सुदुर्निवार एवेति विमृश्यं पक्षपात विकले स्तस्य विवेचकैरित्यलम् | * कृतचतुर्विधाहारप्रत्याख्यानिनस्सर्वतो मुक्त्वौपधानिकमन्यपौषधे विविधाहारोपोषितस्य देशतो भवति, आहारचतुष्कादन्यतरत्यागस्यैव देशत्वेन उपदेष्टुमुचितत्वात् । कृते त्रिविधाहारोपवासे आहारचतुष्कस्यैकदेशे यस्मासुकोदकं, तस्य मुस्कलरवेन शेवाहारत्रिकस्य त्यागेन च युक्तियुक्तमेव तत्र 'देशत भा हारपौषध' इति व्यपदेष्टुं । अभ्यश्च - नामाप्येकादशव्रतस्य न केवलं 'पौषध' इत्येतावन्मात्रमेव, किन्तु 'पौषधोपवास' इति, तच विनोपवासं न कथमपि सफलीभूतं भवितुमर्हति, अतस्तत्रोपवासकरणमेव न्याय्यं तथा चोक्तं परमगुरुभिर्नवाङ्गवृत्तिसूत्रण सूत्रधारैः श्रीमदभयदेवसूरि पूज्यै:- "पौषधं - पर्वदिनमष्टम्यादिस्तत्रोपवासोऽभक्तार्थः पौषधोपवास इति, इयं तु व्युत्पत्तिरेव, प्रवृत्तिस्त्वस्य शब्दस्याहारशरीरसत्काराब्रह्मचर्यव्यापारपरिवर्जनेविति ध्येयम्" इति समवायाङ्गवृत्तौ १९ पत्रे । अनेन सिद्ध पौषधेऽभोजनं । ये पुनर्ददन्ति पौषधे भोजनाभ्यनुज्ञां तेऽप्यपवादत एव नोत्सर्गतः, पश्यन्तु तपागच्छीयाचार्य श्री मस्सोम सुन्दरसूरिशिष्य श्री हेमहंसगगिकृतावश्यक बाला वबोधस्यैतं पाठं-" तृतीयशिक्षावतं पौषधोपवासः, स च पर्वतिथिवहोरात्रं यावच्चतुर्विधाहारत्यागेन, तथा न शक्नोति चेत्तदा त्रिविधाहार परित्यागेन, एवमप्यशक्तावपवादत आचाम्लादिसमुच्चार्य भोजनं क्रियते" इति । तथा चापवादमुत्सर्गे निक्षिप्योपधानमन्तरेणापि पौषधे भोजनकरणप्रथनं वक्तुः पृथुस्थूलबुद्धेरनुमापकं । उपधाने स्वनुमतं पौषधिकस्य भोजनकरणं सर्वगच्छीयाशठगीतार्थैरित्यदोषः । ४ भावनाऽधिकारे बिनोपधानं सोपवास त्व मुत्सर्गतः पौषध ॥ ९२ ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वतो वा भवतीति भावः । अथातिथिसंविभागश्चतुर्थ शिक्षाव्रतं, तत्र तिथिपर्वादिलौकिकव्यवहारत्यागाद्भोजनकालोपस्थायी श्रावकस्यापुष्पमाला तिथिः साधुरुच्यते । तदुक्तं-"तिथिः पर्वोत्सवाः म, त्यक्ता येन महात्मना। अतिथि तं विजानीया-च्छेषमभ्यागतं ४ भावनालघुवृत्तिः विदुः ॥१॥” तस्यातिथेः सङ्गतो-निदोषो न्यायागतानां कल्पनीयानां वस्तूनां श्रद्धासत्कारादिक्रमयुक्तः पश्चात्कर्मपरिहारार्थ भागः | ऽधिकारे ॥९३॥ द्वादशविअंशोऽतिथिसंविभागः । तदेवमुक्तानि लेशतो द्वादशापि श्रावकवतानि, एतेष्वातिचारादिविचारविस्तारस्त्वावश्यकादिभ्योऽवसेयः, एतेन १२५ कादम्यावसया, एतना धत्वं देशच व्याख्याता देशचरणस्य मूलगुणा उत्तरगुणाश्चेति गाथार्थः ॥ ११५॥ चरणस्थ | अथ मूलगुणैरुत्तरगुणैश्व मीलितैर्यथा देशचरण द्वादशधा भवेत् तथा आह पंच य अणुव्वयाई, गुणवयाइं च होंति तिन्नेव । सिक्खावयाइं चउरो, सव्वं चिय होइ बारसहा ॥११६॥18 | व्याख्या-पञ्चैवाणुव्रतानि त्रीण्येव गुगवतानि भवन्ति, चत्वारि शिक्षात्रतानि, सर्वमेवैतन्मीलितं द्वादशधा भवतीति गाथार्थः ॥११६॥ | उक्तं सप्रभेदं देशचरण, अथ सवेंचरण निरूपयन्नाह8मूलुत्तरगुणभेएण, सव्वचरणं पि वणियं दुविहं । मूले पंच महव्वय-राईभोअणविरमणं च ॥ ११७ ॥ ___व्याख्या-मूलोत्तरगुणभेदेन सर्वचरणमपि द्विविधं वर्णित तीर्थकृद्गणधरैः, तत्र मूले-मूलगुणविषये पञ्चमहाव्रतानि, महान्तिअणुव्रतापेश्चम गुरूणि व्रतानि महाव्रतानि, पश्च तानि च महाव्रतानि पञ्चमहावतानि, स्थूलसूक्ष्माभ्यां प्राणातिपातमृषावादादत्तादान |॥९३॥ 2 मैथुनपरिग्रहेभ्यो विरमणलक्षणानि, पष्ठं रात्रिभोजनविरमणं चेति । ननु देशचारित्रे तु रात्रिभोजनविरमणं उत्तरगुणेषूक्तं इह तु, मूल +VACAMACA Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणेष्विति कोऽत्र विशेषः ?; उच्यते-देशचारित्रिणस्त्वारम्भजप्राणातिपातादिभ्योऽनिवृत्तत्वात्स्थूलप्राणातिपातविरत्यादिषु मूलगुणेधूपपुष्पमाला कारमात्रत्वेनैव रात्रिभोजनविरमणं वर्तते, इत्युत्तरगुणेषूक्तं; सर्वचारित्रिणो हि सर्वसावधव्यापारनिवृत्तत्वात् सर्वेष्वपि मूलगुणरूपेषु महा- ४ भावना लघुवृत्तिः व्रतेषु रात्रिभोजनविरमणमत्यन्तोपकारित्वेन मूलगुणेष्विति गाथार्थः ॥ ११७ ॥ उक्ताः सर्वचरणमूलगुणास्तदुत्तरगुणानिरूपयन्नाह अधिकारे ॥९४॥ समूलोत्तर18| पिंडविसोही समिई, भावण पडिमा य इंदियनिरोहो । पडिलेहणगुत्तीओ, अभिग्गही उत्तरगुणेसुं ॥११८॥ | गणसर्वचर बाल्या-उत्तरगुणेपूच्यमानासौ सप्ततियथा-पिण्डस्य विशुद्धिश्चतुर्दा-षोडशोद्गमदोषशुद्धिः १, पोडशोत्पादनादोपशुद्धिः २, णनिरूपणम् दश ग्रहणैषणादोषशुद्धिः ३, पञ्च ग्रासैषणादोषशुद्धिः ४ इति । समितयः-ईर्यादिविषयाः पश्च प्रसिद्धाः । भावना द्वादश-"अनित्यतामशरणं, भवमेकत्वमन्यता-मशौचमाश्रवविधिः, संवरं कर्मनिर्जराम् ॥१॥धर्मस्वाख्यानतां लोकं, द्वादशी बोधिभावनां।” इति जानीहि । प्रतिमा द्वादश, तत्स्वरूपं च विनेयजनानुग्रहार्थ सिद्धान्तानुसारेण किञ्चिल्लिख्यते"मामाईमत्तता, पढमा बिइतइयसत्तरायदिणा। अहराइ एगराई, भिक्खुपडिमाण बारसगं ॥ १॥" अस्या एवं व्याख्या-मासाद्यास्सप्तान्ताः सप्त भिक्षुप्रतिमा भवन्ति, तत्राद्या एकमासिकी द्वितीया द्विमासिकी यावत्सप्तमी सप्तमासिकी । ताश्च सप्ताऽपि वर्षासु नारभ्यन्ते, किन्तु ऋतुबद्धकाले एव, अतः प्रथमं सम्यग्गुरुगाऽनुज्ञातैराद्यसंहननत्रयधृतियुक्तैर्जिनकल्पिकवत्-" तवेण सुत्त-सत्तेण, एगत्तण बलेण य । तुलणा य पंचहा एवं, जिणकप्पं पडिबलओ ॥१॥” इति | गाथोक्तपञ्चविधतुलनापरिकर्मितैर्गच्छमध्यस्थैरेवोत्कर्षतः किश्चिन्न्यूनदशपूर्वाणि जघन्यतोऽपि नवमपूर्वस्य तृतीयं वस्तु यावत् सूत्रतो-IP॥९४॥ ऽर्थतश्च पारगैर्युत्सृष्टदेहेरुपसर्गादिसहैः एषणाऽभिग्रहवद्भिरलेपकूदल्लचणकादिभिक्षाभोजिभिः SHOCOMCHURUST -USHMMS Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ।। ९५ ।। " सट्टा, उद्धडा तह अप्पलेवडा चेव । उग्गहियां परगहियाँ, उज्झिम्मा यमत्तमिया ॥ १ ॥ इति गाथोक्तसप्तभिक्षामध्या[दा] द्यद्वयवर्जनाच्छेषपञ्चकेऽपि कृतभिक्षाद्वयाभिग्रहैर्दिने दिने एकां दत्तिं भक्तस्यैकां पानकस्य गृहद्भिरेकं मासं यावदेवं परिकर्मणां कृत्वा गच्छान्निष्क्रम्य बहिरप्येकं मासं यावत्सर्वमिदं कृत्वा दिवा वृक्षादिमूलस्थै रात्रौ श्मशानादावेकपुद्गलन्यस्तदृष्ट्या कायोत्सर्गकारिभिर्यत्रास्तं यात्यादित्यस्ततः स्थानात् हस्त्यादिभयेऽपि पदमात्रमव्यसञ्चरद्भिर्विकटोदकेनापि पादाप्रक्षालकैः स्थित्वा चतुर्विधसङ्खेन महाप्रभावनया राजादिसम्मुखानयनादिभिर्महद्धय पञ्चशब्दादिवादनपूर्व प्रवेश कमहोत्सवेन नगरमध्येन गच्छमध्ये आगम्यते, एवं सर्वाखपि महोत्सवः क्रियते । एवं मासद्वयेन प्रथमा प्रतिमा पूर्णा भवेत् । एवमेव पूर्वोक्तरीत्या तस्मिन्नेव वर्षे द्वितीया प्रतिमा प्रारभ्यते, मासद्वयं गच्छमध्यस्थैः परिकर्म्मणापूर्व मासद्वयं वहिः स्थित्वा गच्छे आगम्यते । एवं मासचतुष्केण द्वितीया पूर्णा भवति, नवरं - द्वितीयाद्यासु सप्तमीं यावदेकका दत्तिर्भक्तस्यैकैका पानकस्य क्रमक्रमेणाधिकी क्रियते । एवं प्रथमवर्षे प्रतिमाद्वयँ सम्पूर्यते । तृतीया तु मासत्रयं गच्छे मासत्रयं बहिरेवं षड्भिर्मासैर्द्वितीयवर्षेण पूर्यते । चतुर्थ्यपि मासचतुष्टयं गच्छे मासचतुष्टयं बहिरेवं तृतीयवर्षेण सम्पूर्णा भवेत् । ततः पञ्चमी मासपञ्चकं यावत् गच्छमध्ये चतुर्थ वर्षे परिकर्म्मणा पञ्चमे वर्षे मासपञ्चकं, बहिरवस्थानेन वर्षद्वयेन पूर्णा स्यात् । षष्ठयपि पष्ठसप्तमवर्षाभ्यां मासपद्कं गच्छमध्ये परिकर्म्मणया मासषट्कं बहिरवस्थानेन स्यात् । सप्तम्यपि अष्टमनवमवर्षाभ्यां गच्छे माससप्तकं परिकर्म्मणया माससप्तकं बहिर्यथोक्तविधिना महाकष्टावस्थानेन पूर्यते । एवं स - प्तापि नवभिर्वर्षैः षट्पञ्चाशता मासैः सम्पूर्णा भवन्ति । तथाऽष्टमी प्रतिमा [ प्रथमा ] सप्तरात्रिन्दिवा नाम सप्तभिर्दिनैरेकान्तरितैः पानकाहारवर्जितैश्चतुर्भिश्चतुर्थैः पारणका चाम्लैस्त्रिभिर्गच्छमध्यस्थैरेव साधुभिः सकलां रात्रिं यावदुत्तानकपार्श्ववर्त्तिस्थानशायिभिरूर्ध्वपादैर्निष 46 ४ भावनाऽधिकारे उत्तरगुणा त्मकः मिक्षुप्रतिमानिरूपणम् ।। ९५ ।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला 15/ धास्थायकैर्दिव्याद्युपसर्गसहैः पूर्यते। नवम्यपि प्रतिमा द्वितीया सप्तरात्रिन्दिवा नाम चतुभिराचाम्लैस्विभिरुपवासैः । नवरं-गच्छानिष्क्र-151 म्य ग्रामादेवहिवोत्कटिकासनस्र्थयद्वा लगण्डं-चक्रकाष्ठं, तद्वत्स्थायिभिर्दण्डायतवद्वा-दण्डवदायतीभृय-सरलीभूय सकलां रात्रिं शिर |४ भावना लघुवृत्तिः 5. अधिकारे ॥९६॥ सा पादाभ्यां च भूमिमस्पृशद्भिः शयानैः सम्पूर्यते । दशम्यपि तृतीया सप्तरात्रिन्दिवा नामैव नवमीवदहिस्थैस्तपसा त्वष्टमीवत् । नवरं | भिक्षुप्रतिआसनवर्जितगोदोहकपुरुषासनस्थैरथवाऽऽसनस्थराम्रफलवत् कुब्जासनस्थैर्वा सम्पूर्यते। एवमेतास्तिस्रोऽप्येकविंशत्यादिनैर्निरन्तरैः सम्पूर्णा | माइन्द्रियभवन्ति । एकादशी तु अहोरात्रिकी नामा कृताचाम्लैः सकलमहोरात्रं ग्रामादेहिःस्थैर्लम्बितभुजद्वन्द्वैः कायोत्सर्गेण स्थित्वा पर्यन्ते च | निरोधाधुपानकाहारवर्जितं षष्ठं-उपवासद्वयं कृत्वैवं त्रिभिर्दिनः पूर्यते । द्वादशी तु दिवाऽऽचाम्लं विधाय रात्रौ निनिमेषदृष्टिभिरीपत्प्राग्भारग- त्तरगुणाः तैर्दामादेवहिः सकलां रात्रि द्वावपि पादौ संहृत्य जिनमुद्रया स्थित्वेत्यर्थः, प्रलम्बितभुजद्वन्द्वनिनिमेषदृष्टिभिः कायोत्सर्गस्थैः स्थित्वा सर्वचरणख पर्यन्ते च पानकाहारवर्जितमष्टमं-उपवासत्रयं कृत्वैवं चतुर्मिर्दिनः सम्पूर्णा क्रियते । अष्टम्यादिषु पश्चस्वपि प्रतिमासु दयाघभिग्रहो न हि । सर्वप्रतिमापर्यन्ते च नानाविधलब्धय उत्पद्यन्ते । इत्येवं सङ्केपेण दर्शिता द्वादशप्रतिमाः । तथा इन्द्रियाणां-स्पर्शनरसनघाणचक्षुःश्रोत्रलक्षणानां निरोधः-खस्वविषये रागद्वेषाभ्यां प्रवृत्तिनिषेधरूपः पञ्चधा । प्रतिलेखना मुखयोतादिविषयाः पञ्चविंशतिः प्रसिद्धाः । गुप्तयो मनोवाकायानां सावधव्यापारेभ्यो गोपनरूपास्तिस्नः। अभिग्रहाद्रव्यक्षेत्रकालभावानुगता नियमविशेषाश्चतुर्विधा इति । क्वच्चित्तु"पिंडस्स जा विसोही, समिईओ भावणातवो दुविहो । पडिमा अभिग्गहा वि य, दुनवइ उत्तरगुणा एए ॥१॥" उपलक्षणमात्रमेव पिण्डविशुद्धयादीनामुत्तरगुणत्वं, ततश्च 1॥१६॥ "इच्छा मिच्छा तरकारो, आवस्मियानिमीहिया आपुच्छा। पडिपुच्छा छंदगीय, निमंतण उवसंपया काले ॥१॥" SCHECKAGARAASA CRICANORMACEBCAGGAR Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति: ॥ ९७ ॥ इति प्रकारा अन्या अपि सामाचार्योऽत्रोत्तरगुणेषु द्रष्टव्या इति गाथार्थः ।। ११८ ॥ उक्तं लेशतो भेदतश्चारित्रं, एवमन्येऽपि चरणभेदा इह वाच्या इति पूर्वार्द्धन सूचयन्नुत्तरार्द्धेन तदईद्वार प्रस्तावनां च कुर्वन्नाह - इय एवमाइभेयं, चरणं सुरम असिद्धिसुहकरणं । जो अरिहड़ इय घेत्तुं जे तमहं वोच्छं समासेणं ॥ ११९ ॥ व्याख्या - इत्येवमादयः सामायिक च्छेदोपस्थापनीय - परिहारविशुद्धि-सूक्ष्मसम्पराय - यथाख्यातलक्षणा भेदा यस्य तत्तथाभूतं । तत्र समो - रागद्वेषरहितत्वात्, अयो- गमनं समायः, एष अन्यासामपि साधुक्रियाणामुपलक्षणं, सर्वासामपि साधुक्रियाणां रागद्वेषरहितत्वात्, समायेन निर्वृत्तं समाये भवं वा सामायिकं, यद्वासमानां - ज्ञानदर्शनचारित्राणामायो - लाभः समायः, समाय एव सामायिकं । "विनयादिभ्यष्ठक् " [पा० ५-४-३४ तथा “ठस्येकः" पा० ७-३-५० ] इति खार्थे [ ठगिको ] इकण् । तच्च सर्व सावद्यविरतिरूपं, यद्यपि सर्वमपि चारित्रमविशेषतस्सामायिक, तथ पि छेदादिविशेषैर्विशिष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, प्रथमं पुनरविशेपणात् सामान्यशब्दे एवावतिष्ठते सामायिकमिति । तच्च द्विधा इत्वरं यावत्कथिकं च तत्रेत्वरं भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकर तीर्थेषु अनारोपितमहाव्रतस्य शैक्ष्यस्य विज्ञेयम्, यावत्कथिकं प्रव्रज्याप्रतिपत्तिकालादारभ्य मरणं यावत् भरतैरावतभाविमध्यमद्वाविंशतितीर्थकरतीर्थेषु विदेहतीर्थकर तीर्थेषु च साधूनामवसेयं तेषां उपस्थापनाया अभावात् । "सत्रमिण सामाइ अच्छे आइबिसेमिअं पुण विभिन्नं । अविसेमिअसामाइअं, ठिअमिह सामन्नसन्ना ॥ १ ॥ " "सावज्जजोगविरह-त्ति तत्थ सामाइअं दुहा तं च । इत्तरमाव कहति अ, कति पढमंतिमजिणाणं ॥ २ ॥ " "तित्थेसु अणारोविअ - वयस्स सेहस्स थेवकालीअं । सेसाणमावकहिअं, तित्थेसु विदेहगाणं च ॥ ३ ॥ " ४ भावना ऽधिकारे द्वैविध्यं सामायिकचारित्रख ॥ ९७ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * A पुष्पमाला लघुतिः ॥९८॥ ४ भावनाऽधिकारे अखण्डित स्वमुपस्थापनातस्सामायिकस्य RSHANKARI ननु चेवरमपि सामायिकं करोमि भदन्त ! सामायिकं यावज्जीव'इत्येवं यावदायुस्तावदागृहीतं, तत उपस्थापनाकाले तत्परित्यजतः कथं न प्रतिज्ञाभङ्गः?, उच्यते-नतु, प्रागेवोक्तं-सर्वमेवेदं चारित्रमविशेषतः सामायिक, सर्वत्रापि सर्वसावद्ययोगविरतिसद्भावात् , केवलं छेदादिविशेषैर्विशिष्यमाणमर्थतः शब्दान्तरतश्च नानात्वं भजते, ततो यथा यावत्कथिक सामायिकं छेदोपस्थापनं वा परमविशुद्धिविशेषरूपसूक्ष्मसम्परायादिचारित्रावाप्तौ न भङ्गमास्कन्दति तथेत्वरमपि सामायिकं शुद्धिविशेषरूपच्छेदोपस्थापनावाप्तौ, यदि प्रव्रज्या | परित्यज्यते तर्हि तद्भङ्ग आपद्यते, न[तु]नु (?) तस्यैव विशुद्धिविशेषावाप्तौ । [ यदुक्तम् ] "नणु भणि सव्वं चित्र, सामाइअमिण विशुद्धि उभिन्नं । सावजविरहमइयं, को अविलोवो विसुद्धीए १ ॥१॥ उन्निखमओ भंगो, जो पुण तं चिअ करेह सुद्धयरं । सन्नामित्त विसिह, सुहम पि व तस्स को भंगो? ॥२॥" तथा छेदः पूर्वपर्यायस्य उपस्थापना च-आरोपणा महाव्रतेषु यस्मिंश्चारित्रे तच्छेदोपस्थापनं, तच्च विधा-सातिचारं निरतिचारं च ।। तत्र निरतिचारं यदित्वरसामायिकवतः शैक्षकस्यारोप्यते, तीर्थान्तरसङ्क्रान्तौ वा, यथा श्रीपार्श्वनाथतीर्थावर्द्धमानस्वामितीर्थ सङ्क्रामतः पश्चयामधर्मप्रतिपत्तौ । सातिचारं यन्मूलघातिनः ब्रतोच्चारणं, उक्तं च___ "सेहस्स निरइयारे, तित्थंतरसंकमेव तं हजा। मूलगुणघाइणो सा-इआरमुभयं च ठिकप्पे ॥१॥" 'उभयं चेति सातिचारं निरतिचारं च स्थितकल्पे-प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थे । तथा परिहरण परिहारस्त गोविशेषस्तेन वि] शुद्धिर्यस्मिश्चारित्रे तत्परिहारविशुद्धिकं । तच्च द्विधा-निर्विशमान निर्विष्टकायिकं च, तत्र निर्विशमानका विवक्षितचारित्रासेवकाः, निर्विष्टकायिका आसेवितविवक्षितचारित्रकायाः, तदव्यतिरेकाचारित्रमप्येवमुच्यते । इह नवको गणश्चत्वारो निर्विशमानकाश्चत्वारोऽनुचारिण 15 ॥ ९८॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला एकः कल्पस्थितो वाचनाचार्यः, यद्यपि च सर्वेऽपि श्रुतातिशयसम्पन्नास्तथापि कल्पत्वात्तेषामेकः कश्चित्कल्पस्थितोऽवस्थाप्यते । निर्विलघुवृत्तिः शमानकानामयं परिहारः I४ भावना॥ ९९॥ "परिहारियाण उ तवो, जहन्न मज्झो तहेव उकोसो। सीउहवासकाले, भणिओ धीरेहिं पत्तेयं ॥१॥" ऽधिकारे "होइ जहन्नो गिम्हे, चउत्थछटुं तु होइ मज्झिमओ। अट्टममिह उक्कोसो, इत्तो सिसिरे पक्वामि ॥२॥" | | द्विविधत्वं परिहारवि|" सिसिरे उ जहन्नाई, छट्ठाई दसमचरिमगो होई । वासासु अट्ठमाई, बारस पजत्तगो(होइ)नेओ॥३॥" शुद्धिचरण"पारणगे आयाम, पंचसु गहो दो समिग्गहो भिक्खे । कम्पट्टियावि पइदिणं, करंति एमेव आयामं ॥४॥" || स्य त |" एवं छम्मासतवं, चरिउं परिहारिगा अणुचरंति । अणुचरिगे परिहारिय-पयट्ठिए जाव छम्मासा ।। ५॥" रूपं च | "कप्पट्टिओ वि एवं, छम्मासतवं करेह सेसाओ। अणुपरिचारगभावं, वयंति कप्पट्टिगत्तं च ॥ ६॥" " एवेमो अट्ठारस, मासपमाणो उ वनिओ कप्पो । संखेवओ विसेसो, सुत्तादेसाउ नायव्यो ॥ ७॥" "कप्पसमत्तीइ तयं, जिणकप्पं वा उविति गच्छ वा । पडिवजमाणगा पुण, जिणस्सगासे पवजंति ॥८॥" | | "तित्थयरसमीवासे-वगस्स पासे व नो उ अन्नस्स । एएसि जे चरणं, परिहारविसुद्धिगं तं तु ॥९॥" BI तथा सम्पर्येति संसारमनेनेति सम्परायः-कषायोदयः, सूक्ष्मो, लोभांशावशेषत्वात् , सम्परायः-कषायोदयो यत्र तत्सूक्ष्मसम्परा-18 यम् । तच्च द्विधा-विशुद्धयमानकं सक्तिश्यमानकं च, तत्र विशुद्धयमानक क्षपकश्रेणिमुपशमश्रेणि वा समारोहतः, सङ्क्तिश्यमानकं तूपशमश्रेणितः प्रच्यवमानस्य । उक्तं च ॐॐॐॐॐॐ45 CROSUR-UGUS Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१०॥ "सेहिं विलग्गओ तं, विसुद्धमाणं तओ चुअंतस्स । तह संकिलिस्ममाण, परिणामविसेसेण विन्नेयं ॥ १॥" तथा यथाख्यातमिति यथा-यस्मिल्लोके ख्यातं-प्रसिद्धमकषायं भवति चारित्रमिति तथैव यत्तद्यथाख्यातं, अथाख्यातमिति द्वितीयं ४ भावनानाम, तस्यायमन्वयः-अथ शब्दो यथार्थे, आङभिविधौ, याथातथ्येनाभिविधिना च यत्ख्यातं अकषायचारित्रमिति तदथाख्यातं, उक्तं ऽधिकारे च-"अहस हो जाहत्थे, आङोऽभिविहीए कहियमक्खायं । चरणमकमायमुदि, तमहक्खायं जहक्खायं ॥१॥" | | सूक्ष्मसम्म रायचरण५ इदं च द्विधा-छामस्थिकं कैवलिकं च, तत्र छानस्थिकं उपशान्तमोहगुणस्थानके क्षीणमोहगुणस्थानके वा, कैवलिकं च सयोगिके स्वरूपम्। बलिभवमयोगिकेवलिभवं चेति । चरण-चारित्रं, कथम्भृतं ? इत्याह-सुराश्च मनुजाश्च सिद्धिश्च, तासां सुखं शक्रचक्रवादिभोगजितं | निरुपमस्वाभाविकपरमानन्दरूपं, तत् क्रियतेऽनेनेति करणं, एतच्च यो ग्रहीतुं-आसेवितुमर्हति, "जे" पादपूरणे, तमहं समासेन-सङ्केपेण | वक्ष्ये इति गाथार्थः ।। ११९ ॥ चरणाधिकारिषु तावद्देशचरणाधिकारिणं निरूपयन्नाह| संवेगभाविअमणो, सम्मत्ते निञ्चलो थिरपइन्नो। विजिइंदिओ अमाई, पन्नवणिजो किवालूअ ॥ १२० ॥ जइधमम्मि वि कुसलो, धीमं आणाई सुसीलो अ। विनायतस्सरूवो, अहिगारी देसविरईए ॥१२१॥ || व्याख्या-संवेगभावितमनाः सम्यक् वे निश्चलः स्थिरप्रतिज्ञो विजितेन्द्रियोऽमायः प्रज्ञापनीयः, अकदाग्रहीत्यर्थः, कृपालुश्च । यतिधर्मेऽपि कुशलः, उक्त च-"नाएऽणगाग्धम्मे, सावगधम्मे भवेज जोगो"ति। [तथा धीमान्-तीर्थान्तरीयरक्षोभ्यो निपु ॥१०॥ णबुद्धिः] आज्ञारुचिः-आज्ञाग्राह्यनिगोदादिजीवसत्ताङ्गीकारकः, सुशीलो, विज्ञाततत्स्वरूपो-ज्ञातदेशचरणस्वरूपः, उपलक्षणं चैतेऽन्येऽपि AARAKAR Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % * * विनीतत्वादयो गुणा यथासम्भवं ग्राह्याः। अत्र च पूर्वपूर्वगुणसद्भावेऽपि उत्तरोत्तरगुणाभावेऽनधिकार्यव, इत्येवम्भृतसर्वगुणविशिष्टो पुष्पमाला देशविरतिप्रतिपत्तावधिकारीति गाथार्थः १२०-१२१ ।। अथ सर्वचरणार्हान् प्ररूपयवाह ४ भावना लधुवृत्तिः ऽधिकारे ॥१०॥ पाएण होति जोग्गा, पवजाए वि तेच्चिय मणुस्सा। देसकुलजाइसुद्धा, बहुखीणप्पायकम्मंसा ॥ १२२ ॥ FILMS ___व्याख्या-य एव देशविरोग्या उक्ताः, सर्वविरतिरूपायाः प्रव्रज्याया अपि प्रतिपत्तौ त एव प्रायो देशकुलजातिमिश्शुद्धा बहु- योग्या क्षीणप्रायकर्मीशा मनुष्या योग्या-अधिकारिणो भवन्ति । देश आर्यादिः, पैत्रिकं कुलं, मात्रिकी जातिः । न देशविरतिप्रतिपत्तुर्मनु| प्यत्वदेशशुद्धत्वादीनि विशेषणानि, तस्यास्तिर्यगादिभ्योऽपि दीयमानत्वात् । नापि बहुक्षीणप्रायकांशत्वविशेषणं, यावत्यां हि कर्म| स्थितौ सत्यां सम्यक्त्वं लभ्यते, तस्याः पल्योपमपृथक्त्वे क्षीणे देशविरतः श्रावको भवति, ततोऽपि सङ्ख्यातेषु सागरोपमेषु क्षीणेषु सर्वविरतिचरणं लभ्यते, ततोऽपि तावत्स्वेतेषु क्षीणेखूपशमश्रेणिः, ततोऽपि इयत्स्वेतेष्वतिक्रान्तेषु क्षपकश्रेणिः । तदुक्तम्| "सम्मत्तम्मि उ लद्धे, पलियपुहुत्तेण सावओ होजा। चरणोवसमखयाणं, सागरसंखंतरा होंति ॥ १॥” इति । 151 उपलक्षणमात्रमेते च गुणास्तेनान्येऽपि वयःप्राप्तत्वारोग्यादयोऽत्र गुणा द्रष्टव्या इति गाथार्थः ॥१२२ ॥ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां PIनिर्णीतोऽर्थस्सुग्राह्यः सादतः सर्वविरतेयॊग्या उक्ताः, अथ अयोग्यानाह अद्वारस पुरिसेसुं, वीसं इत्थीसु दस नपुंसेसुं । जिणपडिकुदृत्ति तओ, पवावेउं न कप्पंति ॥ १२३ ॥ व्याख्या-पुरुषेषु मध्येऽष्टादश स्त्रीषु विंशतिर्नपुंसकेषु दश, एते जिनैः प्रतिक्रुष्टा-निवारिता, इत्यतः प्रवाजयितुं न कल्पन्ते इति गाथार्थः १२३ ॥ तत्र ये पुरुषेष्वष्टादश तानाह 18॥१०॥ + 5 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१०२॥ (यः कोबे जंड्डे य वहिए। तेणे रायवगारी य, उम्मंते अ असं ॥ १२४ ॥ [र]णत्ते जुंगिएँ इय । ओबद्ध य भए, सेहनिप्फेडिया इय ॥ १२५ ॥ व्याख्या - अत्र सप्ताष्टौ वर्षाणि यावद्वालः । सप्ततिवर्षाणामुपरि वृद्धः, षष्टिवर्षाणामुपरीति केचित् । न स्त्री न पुमान् नपुंसकं । स्त्रीभिर्भोगैर्निमन्त्रितोऽसंवृत्ताया वा स्त्रियोऽङ्गोपाङ्गानि दृष्ट्वा शब्दं वा मन्मनोल्लापादिकं तासां श्रुत्वा समुद्धृतकामाभिलाषोऽधिसोढुं न शक्नोति स क्कीब: ) । जङ्घस्तु त्रिधा - भाषया शरीरेण करणेन च, तत्र भाषाजडुत्रिधा - जलमूको मन्मनमूक एलकमूकः, अत्र जलनिमन इत्र बुडबुडायमानो यो वक्ति स जलमूकः, यस्य तु वदतः खच्यमानमिव वचनं स्खलति स मन्मनमूकः, यस्त्वेलक इवाव्यक्तं शब्दमात्रमेव करोति स एलकमूकः । शरीरजङ्गस्तु यः पथि भिक्षाटने वन्दनादिषु चातीव स्थूलादितयाऽशक्तो भवेत् । करणं क्रिया, तस्यां जडः, समितिगुप्तिप्रतिक्रमणप्रत्युपेक्षणादिक्रियामसकृदुपदिश्यमानामपि यो गृहीतुं न शक्नोति स इत्यर्थः । भगन्दरार्श कुष्ठादिरोगैर्यस्तो व्याधितः । चौर्यरतः स्तेनः । राजादिद्रोहकृद्राजापकारी । यक्षादिना प्रबलमोहोदयेन वा परवशतां नीत उन्मत्तः । अन्धोऽदर्शनः स्त्यानर्द्धिनिद्रोदयवान्वा । तथा दासीजातः अर्थेन वा क्रीतः ऋणादिव्यतिकरे च रुद्धो वा दास उच्यते । दुष्टो द्विधा- कषायदुष्टो विषयदुष्टश्च तत्र कषायदुष्टोऽत्युत्कटकषायः, विषयदुष्टोऽतीव परयोषिदादिषु गृद्धः । स्नेहाज्ञानादिना यथावस्थितवस्त्वनभिज्ञो मूढः । योऽन्येषां धनादिर्धारयति स ऋणार्त्तः । जातिकर्मशरीरादिभिर्दूषितो जुङ्गितः, तत्र छिम्पकमातङ्गादयोऽस्पृश्याः कुकुटादिपोषकाः स्पृश्याश्च जातिजुङ्गिताः, नखप्रक्षालनादिनिन्दितकर्म्मकारिणः कर्म्मजुङ्गिताः, करकर्णादिवर्जिताः कुब्जकाणपवादयश्च शरीरजुङ्गिताः। बोल बुड्ढे नपुंसे य, दासे दुहे य ढ य, ४ भावना ऽधिकारे सर्व बिल्क योग्याः पुरुषाः ॥१०२॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थग्रहणनिमित्तं विद्यादिग्रहणनिमित्तं वा इयत्कालं त्वदीयोऽहमित्येवं येनात्मनः परायत्तता कृता स्यात् सोऽववद्धः । भृत्या परादेशकरपुष्पमाला I.४ भावना लघुवृत्तिः णाय प्रवृत्तो भृतकः । शैक्षकस्य-अन्येन दीक्षितुमिष्टस्योपलक्षणान्मातापित्राद्यननुज्ञातस्य च निस्फेटिका-दीक्षितुमपहरणं शैक्षकनिस्फे- लाधिकारे ॥१०॥ टिका । इत्यष्टादव दीक्षाऽनहींः पुरुषस्य-पुरुषाकारवतो भेदा इत्युत्तरगाथायां सम्बन्धः । एषां च पालादीनां दीक्षणे प्रवचनमालिन्य- लासर्वविरल दा संयमात्मविराधनादिदोषाः सुखावसेया इति नोक्ताः, वैरखाम्यादिप्रवाजने त्वपवादपदमिति साधिकगाथाद्वयार्थः ।। १२४-१२५ ॥ योग्या: स्त्रियः ____अथोक्तान् व्रतानह पुरुषभेदानुपसंहरन्ननुक्तांच] स्त्रीभेदानाह18| इय अट्ठारस भेया, पुरिसस्स तहित्थियाए ते चेव । गुठिवणि सबालवच्छा, दोन्नि इमे होंति अन्ने वि ॥१२६॥ 8 व्याख्या-यथा पुरुषाकारवतस्तथा स्त्रीजनाकारवतोऽपि व्रतायोग्या बालादयोऽष्टादश भेदास्त एव, तथाऽन्यावपि द्वाविमौ भवतःगुर्विणी, सह बालेन-स्तनपायिना वत्सेन वर्तत इति सबालवत्सा । एते सर्वेऽपि विंशतिः स्त्रीभेदा इति गाथार्थः ॥ १२६ ॥ __श्रुतोक्तेषु षोडशभेदेषु नपुंसकेषु "दस नपुंसेसु"त्ति मूळगाथोक्तान बतानर्हान् दश तद्भेदानाहपंडएं वाईए कीबे, कुंभी ईसालए ति य । संउणी तक्रम्मसेवी य, पक्खियापक्खिए इय ॥ १२७ ॥ सोगंधिएं य ऑसित्ते, दस एए नपुंसगा । संकिलह ति साहणं, पव्वावेउं अकप्पिया ॥ १२८ ॥ व्याख्या-तत्र पण्डकस्य खरूपं तावदत्रैव किश्चिद्वक्ष्यति । वातक्यादीनां तु स्वरूपं विशेषत इदं-सनिमित्तमनिमित्तं वा लिङ्गे ॥१३॥ स्तब्धे स्त्रीसेवां विना यो वेदं न धारयति स वातिकः । क्लीवश्चतुर्दा-यो विवस्त्रां स्त्रियं वीक्ष्य क्षुभ्यति स दृष्टिक्लीवः, यः शब्दं श्रुत्वा । SUHAAG ॐॐॐॐ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षुभ्यति स शब्दक्लीवः, एवमाश्लिष्टो निमन्त्रितश्च । यस्य मोहोत्कटतया द्राबकाले लिङ्गं वृषणौ वा कुम्भवद्भवतः स कुम्भी। त्रियमा ४ भावना पुष्पमाला सेव्यमानामालोक्य यस्येा महती जायते स ईर्ष्यालुः । यो वेदोत्कटतयाऽभीक्ष्ण मैथुनासक्तः स शकुनिः। यो गलितशुक्रः श्वान इव ऽधिकारें लघुतिः ॥१०४॥ का स्खलिङ्गं लेढि स तत्कर्मसेवी । यः शुक्लपक्षे सवेदो, न कृष्णपक्षे, स पाक्षिकापाक्षिकः । यस्सुभगं मन्वानः खलिङ्गं जिघ्रति स सौगन्धिकः। | सर्वविरक यो वीर्यपातेऽपि स्त्रियमालिङ्गय तिष्ठति स आसक्त इति । सामान्यतः पुनरत्रैवाह-एते दशापि नपुंसकाः सङ्क्लिष्टाः स्याद्यासेवनामा | योग्या: नपुंसका &ाश्रित्यातीवाशुभाध्यवसायवन्तः, अविशेषेण नगरमहादाहसमानकामाध्यवसायसम्पन्नत्वात , इति साधूनां प्रवाजयितुमकल्पिता-अयो-151 Pाग्या इति गाथार्थः ॥ १२७-१२८ ।। अथ व्रतार्हान् पड्नपुंसकभेदानाह___ वैद्धिए चिप्पिए चेव, मंतओसहि उवहए। इसिसत्ते देवसत्ते य, पव्वावेज नपुंसए ॥ १२९ ॥ व्याख्या–यस्य बालत्वेऽपि छेदं दत्वा वृषणौ गालितौ भवतः स वर्द्धितः । यस्य च जातमात्रस्याङ्गुष्ठाङ्गुलीभिर्मर्दयित्वा वृषणौ ट्र द्रावितौ स्तः स चिप्पितः। कस्यचिन्मन्त्रसामर्थ्यादन्यस्यौषधिवशतः पुंवेदः स्त्रीवेदो वा उपहतः । अन्यश्च 'मदीयतपःप्रभावादसौ नपुं*सको भवत्विति ऋषिणा शप्तो देवेन वा शप्तः । एवं च सत्येतेषां नपुंसकवेदोदयो जायते, इत्येतान् षड्नपुंसकान् निशीथोक्तविशेषB/ लक्षणसम्भवे सति प्रव्राजयेदिति श्लोकार्थः ॥ १२९ ॥ पूर्वोक्तपण्डकस्वरूपमाह६ महिलासहावो सरवण्णभेओ,मिढं महंतं मउआ य वाणी। संसद्दयं मुत्तमफेणगं च,एयाणि छप्पंडगलक्खणाणि ॥१०॥ | व्याख्या-पुरुषाकारवतोऽपि महिलाखभावत्वं पण्डकस्यैकं लक्षणं । स्वरवर्णयोर्भदः-स्त्रीपुरुषापेक्षया वैलक्षण्यं, उपलक्षणत्वाद् 18 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAERS ४ भावना | अधिकारे आलोचनाशुद्धविनीतस्यै व चर| णाईत्वम् मन्धरसस्पर्शानां चेति द्वितीयमिदं । मेण्द-पुरुषचिन्हं महद्भवति । मृद्वी च वाणी योपिद् वाणी न जायते। ललनाया इस सशब्दं मूत्रं पुष्पमाला भवेत , फेनरहितं च तद्भवति । एतानि षट्पण्डकलक्षणानि । वातक्यादीनां तु स्वरूपं मूलगाथाव्याख्यायामुक्तमेवेति वृत्तार्थः ॥१३०॥ लघुवृत्तिः ॥१०५॥ &ा तदेचं दर्शिताः सर्वविरतेरयोग्याः, देशविरत्ययोग्यास्त्वसंवेगभावितचित्तादयः स्वयमभ्यूह्याः । एवं च सत्यवसितं तदर्हद्वारं, अथ प्रतिपत्तिविधिप्ररूपणाद्वारं विभणिषुराह| बालाइदोसरहिओ, उवडिओ जइ हविज चरणऽत्थं । तं तस्स पउत्तालो-यणस्स सुगुरुहिं दायव्वं ॥१३१॥ व्याख्या-पूर्वोक्तबालादिदोष रहितो यदि चरणार्थमुपस्थितो भवेत्तदा प्रथममेव प्रयुक्तालोचनस्य-दत्तालोचनस्य तस्य 'त' इति लाचरणं सुगुरुभिर्दातव्यमिति गाथार्थः ।। १३१ ॥ किमेतावन्मात्रेणैव तद्दीयते ?, नेत्याह| आलोयणसुद्धस्स वि, दिज विणीयस्स नाविणीयस्स। नहि दिजइ आभरणं, पलियत्तियकन्नहत्थस्स ॥१३२॥ व्याख्या-आलोचनाशुद्धस्यापि विनीतस्यैव तद्देयं, नाविनीतस्य । अमुमेवार्थमर्थान्तरन्यासेन दृढयति-नहि आभरणं परिकर्तित| कर्णहस्तस्य दीयत इति गाथार्थः ॥ १३२ ।। अथ विनीतस्वरूपमेवाह* अणुरत्तो भत्तिगओ, अमुई अणुवत्तओ विसेसन्नू । उज्जुत्तोऽपरितंतो, इच्छियमत्थं लहइ साहू ॥१३३॥ व्याख्या-स एव साधुरीप्सितं चरणादिकमर्थ लभते, यः, कथम्भूतः ? इत्याह-'अनुरक्त' पटे नीलोरङ्ग इव गुरुषु प्रतिबद्धः । गुरोभक्ति-कृताञ्जलिपुटादिभावेन सेवां गतः-प्रपन्नो गुरुभक्तिगतः । अमोचको-यावजीवितं गुरुचरणापरिहारी। अनुवर्तकः-सर्वस्या ॥१० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुचिः H१०६ ॥ प्यौचित्य प्रवृत्तिनिष्ठः । विशेषज्ञः - सदसद्वस्तुविवेकज्ञाता । उद्युक्तः - अध्ययनवैयावृत्यादिष्वतीवोद्यमपरः । अपरितान्तो- विवक्षितार्थसाधनेऽनिर्विण्णः । तदर्हद्वारसङ्गृहीतमपि विनीतत्वं विनयगुणस्य मुख्यतयाऽन्वेषणीयत्वख्यापनार्थ पुनरुपन्यस्तमिति गाथार्थः ॥ १३३ ॥ विनीतस्यापि केन विधिना चरणं देयं ? इत्याह वियव विकयमं-गलस्स तदविग्धपारगमणाय । दिज्ज सुकओवओगो, खित्ताइसु सुप्पसत्थेसु ॥१३४॥ व्याख्या-विनयवतोऽषि दद्यास्त्वं चारित्रं, कथम्भूतस्य ? इत्याह- कृतानि मङ्गलानि जिनचैत्यसङ्घपूजादीनि येन, तस्य, किमर्थ ? इत्याह-'तस्य' चरणस्याविघ्नं पारगमनाय । गुरुगतं विधिमाह - सुष्ठु कृत उपयोगो निमित्तादिषु येन स तथा केषु ? इत्याह- क्षेत्रादिषु सुप्रशस्तेषु तत्र क्षेत्रे जिनायतनेक्षुक्षेत्र क्षीरवृक्षसमीपादौ दातव्यं चरणं, न तु मग्नध्यामितकचवराकीर्णादौ । कालेऽपि - "चाउछसि पन्नरसिं च वज्रए अट्ठमिं च नवमिं च । छद्धिं च चउत्थि वा-रसिं च सेसासु दिजाहि ॥ १ ॥ 'तिसु उत्तरासु तह, रोहिणीसु कुजा हु सेहनिक्खमणं । गणिवायए अणुन्ना, महन्वयाणं च आरुहणा ॥ २ ॥ " इत्यादितिथिनक्षत्रादिशुद्धिकलिते, नाप्रशस्ते । भावेऽपि प्रशस्ताहारादिप्रवृत्तिशुद्धे इति गाथार्थः ॥ १३४ ॥ 21 66 T तोक्तस्य सर्वस्यापि विधेर्वक्तुमशक्यत्वादुपसंहरन् परीक्षाकालदर्शनपूर्व व्रतदानमाहइय एवमाविहिणा, पाएण परिक्खिऊण छम्मासा | पव्वज्जा दायव्वा, सत्ताणं भत्रविरत्ताणं ॥ १३५ ॥ - प्रायेण इत्येवमादिविधिना पण्मासान् परीक्ष्य भवविरक्तानां सच्चानां प्रव्रज्या दातव्या, वैरस्वाम्यार्यरक्षितादिभिरुदायिनृपमारकाद्यैश्च व्यभिचारवारणाय प्रायो ग्रहणमिति गाथार्थ: ।। १३५ ।। ४ भावनाऽधिकारे प्रशस्त क्षेत्रादिषु चरण प्रदानम् ॥१०६॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१०७॥ CCCCCCCCCCCCCCCCAK तदेवं सर्वविरतिसामायिकप्रतिपत्तिविधिरुक्तः, अथ महाव्रतारोपणं लेशतो दर्शयितुमाहविहिपडिवनचरित्तो, दढधम्मो जइ अवजभीरू य। तो सो उबविजइ, वरसु विहिणा इमो सो उ ॥१३६॥ 4: भावना " धिकारे ६ व्याख्या-विधिप्रतिपन्नचारित्रो यदि दृढधर्मा पापभीरुश्च, ततः स विधिना व्रतेषु उपस्थाप्यते-आरोप्यते, स पुनर्विधिरयं गृहीतचरणहै वक्ष्यमाग इति गाथार्थः ॥ १३६ ॥ तमेवाह * सोपस्थापपढिए य कहिय अहिगय,परिहारुहावणाए सो कप्पो। छज्जोवघायविरओ,तिविहंतिविहेण परिहा(?)[रो]॥१३७॥18 नाविधिः व्याख्या-यथोक्तगुणविशिष्टोऽपि स एवोपस्थापनायां-व्रतारोपणायां कल्प्यो]ल्पो-योग्यः, यः “परिहार"त्ति प्राकृतत्वाल्लप्कारान्तनिर्देशात् परिहारी-सर्वविरतः, व सति ? इत्याह-'पठिते' षड्जीवनिकायमहाव्रतरूपादिप्रतिपादके शस्त्रपरिज्ञादशवकालिकाधुचितसूत्रेधीते, ततः कथिते-गुरुणा तदर्थ व्याख्याते, ततोऽप्यधिगते-शिष्येणापि तस्मिन् सम्यगवधारिते सति । ननु कः पुनः परिहारी ? इत्याह-पड़जीवकायघातात्रिविधंत्रिविधेन-मनोवाकायः करणकारणानुमतिभिर्विरतो-निवृत्तो यः स इह परिहारीत्यभिमतः, सूत्रार्थाभ्यामधिगतशस्त्रपरिज्ञादिश्रतः षड्जीवनिकायं श्रद्दधानो व्रतोपस्थापनायोग्यो भवतीति भाव इति गाथार्थः ॥ १३७॥ उक्तवक्ष्यमाणविधिविपर्यये दोषमाहअप्पचे अकहिता, अणहिगयऽपरिच्छणे य आणाई। दोसा जिणेहिं भणिया, तम्हा पत्ता दुवहावे ॥१३॥ ॥१०७॥ व्याख्या- इहानन्तरमेव वक्ष्यमाणो जघन्यतः सप्ताहोरात्रादिरुपस्थापनायां कालक्रमस्तं अप्राप्तेऽल्पकालिके शैक्षके, अकथयित्वा 31 GER-U6453 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुतिः ॥ १०८ ॥ च यथार्थ, अनधिगते च शिष्यके तस्मिन्, तथा अपरीक्षणा च शिष्यकस्य किं जीवनिकायानसौ श्रद्धते न वा १, श्रद्धानेऽपि तान् रक्षति न वा ? इत्येवं वृषभैः सूत्रोक्तविधिना परीक्षायामकृतायामित्यर्थः । उपस्थापनां कुर्वत इति सर्वत्र गम्यम् । आज्ञाविराधनाऽनवस्थादयो दोषा जिनैर्भणिताः, तस्मात्कालक्रमेण प्राप्तादीनेवोपस्थापयेन्नान्यानिति गाथार्थः ॥ १३८ ॥ उपस्थापनायोग्यतायां कालक्रममाह सेहस्स तिन्निभूमी, जहन्न तह मज्झिमा य उक्कोसा। राईदिय सत्त चउमा-सियाय छम्मासिया चेत्र ॥१३९॥ व्याख्या - शिष्यक [शैक्ष]स्य अभिनवदीक्षितस्य व्रतोपस्थापनायां कर्त्तव्यायां तिस्रोभूमिका - योग्यतास्थानानि तद्यथा - जघन्या तथा मध्यमा उत्कृष्टा च । तत्र जघन्या सप्ताहोरात्रिकी मध्यमा चातुर्मासिकी उत्कृष्टा षाण्मासिकी चेति । सप्ताहोरात्रादिभिरतिक्रान्तैव्रतोपस्थापनायोग्य : शैक्षकः स्यादिति गाथार्थः ॥ १३९ ॥ तत्र कस्य का भूमिर्भवेदित्याह - पुग्वोवपुराणे, करणजयट्ठा जहण्णिया भूमी | उकोसा उ दुम्मेहं, पडुच अस्सहाणं च ॥ १४० ॥ व्याख्या - 'पुराणः' समयभाषया व्रतभ्रष्ट उच्यते, पूर्व व्रतेषूपस्थापितः पूर्वोपस्थापितः स चासौ पुराणश्च पूर्वोपस्थापित पुराणः, तस्मिन् यथोक्ता जघन्या भूमिः, कर्मक्षयोपशमवशात् पुनरप्यसौ कथञ्चित्प्रत्रजितोऽपि सप्तभिरहोरात्रैरतिक्रान्तैर्वतेषूपस्थाप्यते । ननु तस्य सूत्रं धतमेव, ततश्च सप्ताहोरात्रातिक्रममपि यावत्किमर्थं विलम्बित ? इत्याह- 'करणानी' इन्द्रियाणि, तज्जयार्थ, एतावन्तमपि कालं विना करणजयोऽपि सम्यङ्न ज्ञायत इत्याशयः । उत्कृष्टा तु पाण्मासिकी भूमि दुर्मेधसं - मन्दप्रज्ञं प्रतीत्य, तस्य हि यथोक्त मूत्रं शीघ्रमेत्र ४ भावना ऽधिकारे अविधिनो पस्थापने दोषाः शैक्ष्यभू म्यादयच ॥ १०८ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागच्छतीति भावः । अथवा अश्रद्धानं प्रतीत्योत्कृष्टा भूमिः, शीघ्राधीतसूत्रोऽपि मिथ्यात्वमोहनीयोदयादेकेन्द्रियजीवादिकं यो न श्रद्धत्ते ४भावनापुष्पमाला 5 तस्यापि बोध्यमानस्योत्कृष्टा पाण्मासिकी भूमिर्भवतीत्यर्थः, इति गाथार्थः ॥ १४० ॥ तर्हि मध्यमा कस्य ? इत्याह- . ऽधिकारे लघुवृत्तिः | एमेव य मज्झिमिया, अणहिज्झते असदहंते य । भावियमेहाविस्स वि, करणजयट्ठा य मज्झिमिया ॥१४१॥ तू शभाम॥१०९॥ व्याख्या-एवमेव दुर्मेधस्त्वेन सूत्रमनधीयाने मोहोदयाद्वा अश्रद्धानवति पूर्वोक्तात्किञ्चिद्विशिष्टतरे मध्यमा-चातुर्मासिकी भूमि त्रयनिरूपणं भवति । तथा च भावितमेधाविनोऽपि अपुराणस्य करणजयाथै मध्यमा भूमिर्द्रष्टव्येति गाथार्थः ॥ १४१ ॥ तदेवं कृता लेशतः प्रतिपत्तिविधिप्ररूपणा, अथोत्सर्गापवादविशुद्धया तच्चारित्रं भवतीति चिन्तनीयं, तत्र पूर्वोक्तविधिप्रतिपन्नमहाव्रतस्य तत्पालनोपदेशमभिधित्सुः प्राणातिपातव्रतपरिपालनोपदेशं तावदुत्सर्गतः प्राह१ इय विहिपडिवन्नवओ, जएज छज्जीवकायजयणासु । दुग्गइनिबंधणच्चिय, तप्पडिवत्ती भवे इहरा ॥१४२॥ व्याख्या-इत्युक्तविधिप्रतिपन्नवतः षड्जीवकाययतनासु यत्नं कुर्यात् , इतरथा-षड्जीवकायपालनमन्तरेण तत्प्रतिपत्तिः-व्रतप्र18| तिपत्तिदुर्गतिनिबन्धनैव भवेदिति गाथार्थः ।। १४२ ॥ षड्जीवकाययतनोपायमेवाहटू एगिदिएसु पंचसु, तसेसु कयकारणाणुमइभेयं । संघट्टणपरितावण-ववरोवणं चयसु तिविहेणं ॥ १४३ ॥ ____ व्याख्या-एकेन्द्रियेषु पञ्चसु पृथिव्यादिषु, त्रसेषु द्वीन्द्रियादिषु च, त्यज त्वं, किम् ? इत्याह-सङ्घट्टनं चरणस्पर्शादिभवं, परि- I n तापन-लकुटघातादिना गाढपीडनरूपं, तथा व्यपरोपण-प्राणेभ्यश्यावनं, एकैकमिदं कथम्भूतं ? इत्याह-कृतकारणानुमतिभेदं, केन | NORRRRRR RECORDCREACRECRUAGALOR Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥११०॥ त्यज? इत्याह-'त्रिविधेन' मनसा वचसा कायेन चेत्यर्थः, एवं च कुर्वता षड्जीवकाययतनासु प्रयत्नः कृतः स्यादिति भावः, इति गाथार्थः ।। १४३ ॥ अस्य च विशेषतः कर्तव्यतामाह| जइ मिच्छदिटियाण वि, जत्तो केसिंचि जीवरक्खाए। कह साहहिं न एसो, कायवो? मुणियसारेहिं ॥१४४॥ | ___व्याख्या–यदि नाम अविदितपरमार्थानां मिथ्यादृशामपि केषाश्चित्वाभिप्रायतो जीवरक्षायां कोऽपि कथञ्चिद्यत्नो दृश्यते, तर्हि कथं ज्ञातसिद्धान्तसारैः साधुभिरेष-जीवरक्षायत्नो न कर्त्तव्यः?, कर्त्तव्य एवेत्यर्थः, इति गाथार्थः॥ १४४ ॥ नन्वशक्यानुष्ठानत्वान्न केनाप्यसौ कृतो भविष्यतीत्याह| नियपाणच्चाएण वि, जणंति परपाणरक्खणं धीरा । विसतुंबओवभोगी, धम्मरु ई एत्थुदाहरणं ॥ १४५॥ व्याख्या-निजप्राणत्यागेनापि धीराः परप्राणरक्षणं जनयन्ति, अत्र विषतुम्बकोपभोगी धर्मरुचिरुदाहरणं-दृष्टान्तः, स चायं इह चम्पापुर्यां सोम-सोमदत्त-सोमभूतिनाम्नां विप्राणां बन्धूनां नागश्री-भूतश्री-यक्षश्रियो भार्याः, अन्यदा मधुरभ्रान्त्या कटुतुम्बं नागश्रिया उपस्कृतं, पतिते तद्रसबिन्दौ मक्षिकामृतेतिं परमार्थ, गोपितं च । इतश्च पूर्वधरधर्मघोषमूरिशिष्यो धर्मरुचिर्मास| [क्षपण]पारणे तत्रैव समागतः, ततो मा भृवृथा इयान्व्ययोऽन्यत्रास्य त्यागेन, दानेन चायं तोषितो भविष्यतीति विचिन्त्य तत्सर्व तया पापया तस्मै दत्तं । स च तद्गृहीत्वा गतो गुरोर्दर्शितवान् । गुरुभिश्च कथञ्चिज्ज्ञात्वा 'विषतुम्बकमिदं, ततः परिष्ठापयेत्यादिष्टः सः शुद्धस्थण्डिले गत्वा कुतोऽपि बिन्दुमेकं मुमोच, तद्गन्धेन चायाताः कीटिकास्तत्र लग्ना मृता दृष्टाः, ततो 'वरं ममैकस्य विधिना मृतिर्न त्वेवमेतस्माजन्तुसमृहस्ये ति विचिन्त्य तत्सर्व तत्रैव बुभुजे । ततो महावेदनाक्रान्तः सिद्धसाक्षिकमालोच्य प्रतिक्रम्य पादपोप RAMAGRICULT |४ भावना ऽधिकारे | षड्जीवकाययतनासुधर्मरुचिकथानकं द्रौपदी चरितं च CARRIECCORRECCLES ॥११०॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१११॥ गमनेन सर्वार्थसिद्धिमगमत् । श्रुतोपयोगात् ज्ञात्वा च गुरुभिर्नागश्रीदानस्वरूपं धर्म्मरुचेराराधनापूर्व सर्वार्थसिद्धिगमनं च सङ्घायाभ्यधायि, ज्ञाततद्व्यतिकरैर्लोकैर्धिकक्रियमाणा च नागश्रीर्भर्तृदेवरैर्गृहान्निर्भर्त्स्य निष्कासिता सर्वत्र लोकैर्धिक्क्रियमाणा धूत्क्रियमाणा बालै| लैष्टुभिर्हन्यमाना क्वचित्स्थानमलभमाना भिक्षया जीवन्ती षोडशरोगाक्रान्ता मृता पष्ठपृथिव्यामुत्पन्ना । ततो मत्स्यादिभवान्तरितासु सप्तपृथिवीष्वनेकश उत्पद्यमाना तिर्यगादिभवान् भ्रान्त्वा चम्पायां सागरदत्तसार्थवाहस्य भद्राभार्यायाः पुत्रीत्वेनोत्पन्ना, काले चोत्पन्नतीव्र दौर्भाग्या भर्त्रादित्यक्ता प्रव्रज्यां गृहीत्वा गुरुणीनिषिद्धाऽपि वने कृतकायोत्सर्गा पञ्चभिर्विटैर्विविधोपचारैः काम्यमानां काञ्चिद्गणिकामार्लोक्य स्वदौर्भाग्यं स्मृत्वा कृत [पञ्च ] भर्तृनिदाना काले मृत्वा ईशाने कल्पे सुरगणिकात्वेनोत्पन्ना । ततश्च च्युत्वा काम्पिल्यपुरे द्रुपदराजपुत्री द्रौपदीनाम्नी, यौवने पूर्व निदानात्स्वयंवरे पञ्चपाण्डवानां पत्नी जाता । अथैकदानादरकुपितेन नारदेन धातकीखण्ड भरते अमरकङ्काधिपस्य पद्मनाभस्य तद्रूपादीन् गुणानुक्त्वाऽपहारिता नित्यमाचाम्लपारण कपष्ठतपस्तप्यमाना शुद्धशीला पण्मासान्ते पद्मनाभं विजित्य केशवेन निवर्त्तिता पाण्डुमथुरायां पाण्डवानुकारं पाण्डुसेनं सुतमजीजनत् । तस्मिन् राज्येऽभिषिक्ते पाण्डवैः सह प्रब्रज्य ब्रह्मलोकं गता, ततश्युत्वा विदेहे सेत्स्यतीति धर्मरुचिचरित्रं प्रसङ्गाद्रौपदीचरितमपि किञ्चिदुक्तं, विस्तृतं तु पाण्डवचरित्राज्ज्ञेयमिति ॥ १४५ ॥ इति धर्म्मरुचिकथा समाप्ता ॥ अथ द्वितीयत्रतपरिपालनोपदेशमाह - कोहेण व लोभेण व, भएण हासेण वा वितिविहेणं । सुहुमेयरं पि अलियं, वजसु सावज्ञसयमूलं ॥१४६॥ व्याख्या - क्रोधेन निमित्तभूतेन लोभेन वा भयेन वा हास्येन वा वर्जयेत्, किम् ? इत्याह- 'अलीकमपि ' मिथ्यावचनमपि, कथम्भूतमिदम् ? इत्याह-सूक्ष्मं चेतरच सूक्ष्मेतरं, सावद्यशतानां मूलं । केन त्यजेत् ? इत्याह- त्रिविधेनेत्युपलक्षणत्वात्रिविधं त्रिविधेनेति ४भावनाऽधिकारे षड्जीव काययतना सुधर्मरुचि श्रमणस्य द्रौपद्याथ चरितम् ॥ १११ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पणम् गाथार्थः ॥ १४६ ॥ कः पुनरलीकवादिनो दोषः ? इत्याहपुष्पमाला 8/लोए वि अलियवाई, वीससणिज्जो न होइ भुअगोव्व । पावइ अवन्नवायं, पियराण वि देइ उव्वेयं ॥१४७॥ 12 लघुवृत्तिः हाधिकारे ॥११२॥ व्याख्या-प्रत्यक्षलक्ष्येऽस्मिल्लोकेऽप्यलीकवादी भुजग इव कस्यापि विश्वसनीयो न भवति प्राप्नोति चावर्णवादं, ततश्च पित्रो सत्यासत्यर्मातापित्रोरप्युद्वेगं ददातीति गाथार्थः ॥ १४७ ॥ सत्यवादिनो गुणानाह हावादिनोर्गुण आराहिजइ गुरुदे-वयं व जणणिव्व जणइ वीसंभं । पियबंधवोव्व तोसं, अवितहवयणो जणइ लोए ॥१४८॥ दोषनिरू व्याख्या-अवितथवचन इह लोकेऽप्याराध्यते गुरुदेवाविव, जननीवद्विसम्भं जनयति, प्रियबान्धव इव तोपं जनयतीति है दगाथार्थः ॥ १४८ ॥ इह सत्यवादो द्विधा-लोकोत्तरो लौकिकश्च, तत्राद्यं समर्थनार्थमाह| मरणे वि समावडिए, जति न अन्नहा महासत्ता । जन्नफलं निवपुढा, जह कालगसूरिणो भयवं ॥१४९॥ ___व्याख्या-मरणेऽपि समापतिते-ध्रुवमागते सति महासचा नान्यथा जल्पन्ति, यथा नृपेण यज्ञफलं पृष्टा भगवन्तः कालका- 16 चार्या इति । के पुनरमी ?, उच्यते भारते तुरमिणीनगाँ जितशत्रू राजा, तत्र भद्राब्राह्मणीपुत्रो व्यसनी क्षुद्रो रौद्रो दत्तनामा, अन्यदा राजानं सेवितुं प्रवृत्तः, क्रमेण सामन्तचक्रं वशीकृत्य जितशत्रु निर्वास्य स्वयं नृपीभूतः, यतः-"उवयरमाणाण वि स-जणाण विहडइ खलो खणउद्धेण । दुद्धाइदाणओ पो-सिओ वि डसइच्चिय भुअंगो ॥१॥" जितशत्रुरन्यत्र गतः, दत्तस्तु बहून् यज्ञान यजते, अन्यदा ॥११२॥ RESEARCH Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥११३॥ दत्तमातुलः कालिकाचार्यस्तत्रागतः, दत्तस्तं यज्ञफलं पप्रच्छ, स च पशुधातप्रधानानां यज्ञानां फलं नरक' इत्याह, यतः प्रोक्तं व्यासेन"ज्ञानपालिपरिक्षिप्त, ब्रह्मचर्यदयाऽम्भसि । लात्वाऽतिविमले तीर्थे, पापपङ्कापहारिणि ॥ १॥" . 18|४भावना" ध्यानाग्नौ जीवकुण्डस्थे, दममारुतदीपिते । असत्कर्मसमिक्षेपै-रग्निहोत्रं कुरुत्तमम् ॥ २॥" युग्मम] ऽधिकारे " कषायपशुभिर्दुष्ट-धर्मकामार्थनाशकैः । शममन्त्रहतैर्यज्ञं, विधेहि विहितं बुधैः ॥ ३॥" " सत्यभाषण गुणनिरूपकं "प्राणिघातानु यो धर्म-मीहते मूढमानसः । स वाञ्छति सुधावृष्टिं, कृष्णाहिमुखकोटरात् ॥४।" इत्यादि । कालकाचा___ ततः कुपितेन तेनास्मिन्नर्थ कः प्रत्ययः? इति पृष्टो गुरुः 'सप्तमेऽति श्वमिस्सह तैलकुम्भ्यां तव क्षेप एव प्रत्यय' इत्याह । ५ोदाहरणम् तत्रापि का प्रत्ययः? इति पृष्टस्तस्मिन्नेवाति प्रागेव त्वन्मुखे कुतोऽप्यशुचिप्रवेश इति । ततोऽतिक्रुद्धोऽसौ गुरुमाह-कस्स करे ते मृतिः ?, गुरुराह-न कस्यापि, किन्तु सुचिरं चरिष्याम्यद्यापि व्रतमहं । ततो गुरुं रोधयित्वाऽतिकुपितो राजा सशङ्को गृहं प्रविश्य स्थितः। इतश्चातिदुष्टत्वेन तेनोद्वेजितैः सामन्तैरतीव दृढं मन्त्रयित्वा जितशत्रुश्छन्नमानीतः । दत्तस्तु कोपवशात्सप्तममप्यष्टमं दिन मन्यमानोऽश्वारूढो यावद् गृहासन्नं मुनि जिघांसुर्याति, तावदश्वक्षुरोत्क्षिप्तोऽशुचिलवस्तन्मुखे प्रविवेश । ततो नूनं दिनान्तोऽहमिति विचिन्त्य भीतो यावदनं पश्चाद्वालयति सः, तावता 'कुतोऽपि मन्त्रो भिन्न' इति मन्यमानास्सर्वे सामन्तास्तं बन्धयित्वा गले च तस्य का बहून शुनो बन्धयित्वा तप्ततैलकुम्भ्यां चिक्षिपुरधश्चाग्निं ज्वालयन्ति, दह्यमानाः श्वानो नृपं खण्डशः कुर्वन्ति । एवं वेदनात्तों दत्तो नृपो मृत्वा नरकङ्गतः, सूरिः पुनः सुचिरं विहृत्य त्रिदिवङ्गतः । इत्यवितथजिनमतप्ररूपककालिकाचार्यकथानकमिति गाथार्थः। P॥११३॥ अथलौकिकसम्यग्वादसमर्थनार्थमाह ROCHACHCHOOT CAREE Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृतिः ॥११४॥ ४भावनाऽधिकारे असत्यदोपाविर्भावक वसुराजकथानकम् वसुनरवइणो अयसं, सोऊण असच्चबाइणो कित्ति । सच्चेण नारयस्त वि, को नाम रमिज ? अलियम्मि॥१५०॥ व्याख्या-वसुनरपतेरसत्यवादिनः [अयश-अ]कीर्तिमतिशयेन श्रुत्वा, अपिशब्दस्य व्यवहितस्य सम्बन्धात् , तथा नारदस्य सत्येन कीर्तिमपि श्रुत्वा को नाम रमेतालीके ?, न कोऽपीत्यर्थः । भावार्थः कथानकेनोच्यते - चेदिविषये शुक्तिमतीपुर्यामभिचन्द्रे राज्ञि क्षीरकदम्बोपाध्यायान्तिके पुत्रपर्वतक-राजपुत्रवसुनारदा वेदान पठन्ति । अन्यदाऽऽकाशे गच्छतो मुनेर्मुखावयोनरकगमनमेकस्य स्वर्गगमनं श्रुत्वोपाध्यायो विषण्णः परीक्षार्थ लाक्षारसभृतं कुकुटं पृथक् पृथक् प्रच्छन्नं दत्वोक्तास्ते 'बत्र न कश्चिज्ञानातीक्षते वा तत्रायं हन्तव्य' इति । ततो वसुपर्वतौ क्वचिच्छून्यगृहे तो हत्वाऽऽयातौ, नारदस्त्वहतकुक्कुटश्चिरं भ्रान्त्वा समागतो गुरुं नत्वोवाच-नास्त्येव स प्रदेशो यत्र न कश्चिजानाति पश्यति वा, यतो यावत्सन्ति सर्वज्ञा अपि । ततस्तदितरयोनरक निश्चित्य वैराग्याद्गुरुः प्राबाजीद् । पर्वतस्तस्थाने शिष्यानध्यापयति, नारदः स्वस्थानं गतः, पितरि प्रबजिते वसू राज्यं शास्ति । इतश्च मृगाय मुक्त बाणे स्खलिते साश्चर्यकरस्पर्शादाकाशनिर्विशेषां स्फटिकरत्नशिलां नृपोचितां विज्ञाय वसुनृपायाख्यव्याधः, वसुश्च तामानाय्य प्रच्छन्नं सिंहासनं तयाऽचीकरत्, शिल्पिनश्च जबान । आस्थाने च तस्मिन्नासने स्वयं निविष्टः, न चासनासन्ने कोऽपि | गन्तुं लभते । ततः सत्यादिगुणैर्वसुर्वमुमतीशो व्योम्नि तिष्ठतीति प्रोच्छलितः प्रबादः । अन्यदा नारदो गुरौ गोसाद्गुरुसुतमालोकयितुमायातः । अत्रान्तरे "अजैर्यष्टव्य"मिति ऋग्वेदपदं नारदसमक्षं शिष्येभ्यः पर्वतो व्याख्यानयति. यथा-'अजा'पशवस्तैर्यष्टव्यमिति । एतच्चाकर्ण्य कर्णौ पिधाय ऋषिणोक्त-आः!! शान्तं पापमिति, यतो हन्त यदि पशुभियज्ञो भोतमा व्यासेन पण्डितादि पुरुष] चतुष्टय लक्षणं कुर्वता यदुक्तं CAREE ॥११४॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ।।११५ ।। 44 " धर्मात्मा पण्डितो ज्ञेयो, नास्तिको मूर्ख उच्यते । सर्वभूतहितसाधुरसाधुनिर्दयः स्मृतः ॥ १ ॥ वरमेकस्य सवस्य, प्रदत्ताऽभयदक्षिणा । न तु सहस्रेभ्यो, गोसहस्रमलङ्कृतम् ॥ २ ॥ " सत्यं सत्यं पुनः सत्य-क्षय सुजते । नाहित नास्त्येव हि स्वार्थः परस्वार्थं न कुर्वनः ॥ ३॥ " इत्यादि, तद्विरुद्धयेत । न चाचार्येणाप्येवं व्याख्यातमिदं, किन्तु 'वप्तास्सन्तो न जायन्ते न प्ररोहन्तीत्यजास्त्रिवार्षिका श्रीहयस्तैर्यष्टव्य'मिति व्याख्यातं तैरिति । पर्वतस्त्यसम्बद्ध वाक्यैर्नारिदमाक्रुशन् 'अजै: - पशुभिर्यष्टव्यमित्येवोपाध्यायैव्याख्यातं, अत्र च सहाध्यायी वसुराजः प्रमाणं, यद्यसौ त्वत्पक्षं गुरुसम्मतं मन्यते तदा समूला मे जिह्वा छिद्यते, अन्यथा तवे 'ति प्रतिज्ञां चाकरोत् । नारदोऽपि तदेव प्रमाणीकृत्य देवार्चादिनिमित्तं जगाम । ततो निशि निजमात्रा सहितः पर्वतो गत्वैकाकिने वसुराजाय तत्सर्वं छन्नमाख्यसुरपि यथा नारदः प्राह तथैव गुरुभिर्व्याख्यातत्वादयुक्तमुक्तं भवतेत्याह । ततश्चोपाध्यायभार्याऽऽग्रहात्पर्वतोकं समर्थनीयं मयेति राज्ञाSङ्कीकृते पर्वतो माता च तस्मा आशीर्वाद दत्वा स्वगृहं गतौ । प्रातः समागते पर्वते नारदे च मिलिते सबालवृद्धपुरजने कौतुकाक्षिप्तेषु भवन [पति ]व्यन्तरादिदेववर्गेष्वाशीर्वादपूर्व पर्वतनारदाभ्यामुक्के स्वस्वपक्षे--- " घडमाईयं दिव्वं, लोए बिहु फुरड़ सचवाईणं । तो मोत्तृणं सचं, पसंसिमो १ किमिह लोअम्मि ||१||” तदनयोः पक्षयोर्यत्सत्यं तत्प्रसद्य निवेद्यतामिति ब्राह्मणवृद्धैरभिहितेऽप्यविवेकतिमिरतरलिततच्चदृष्टिना राज्ञा व्यलीकोऽपि पर्वतपक्षः सहसैव समर्थितः । तदैव च क्रुद्धया कुलदेवतया दत्वा पाणिप्रहारं पातितः सिंहासनान्नरपतिः क्षिप्तश्च पातालं । ततश्च आः !! किमिदमिति भीतो लोकः, प्रवृत्तः पर्वतकभूपयोस्सर्वत्र धिकारः, समुच्छलितो नारदस्य तु साधुकारः, विडम्ब्य निर्वासितो नगरा १४ भावनाऽधिकारे असत्यजल्पाद्वसुराजस्य राज्यभ्रंशो दुर्गतिश्च ॥११५॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ES पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥११६॥ निदर्शनम् CALCAREACOCCEELAM पर्वतः, अभिषिक्तो राज्ये वसुभूपतेः पुत्रः, पितृव्यतिकरक्रुद्धया कुलदेवतया सोऽपि निपातितः । एवं परेऽपि सप्त वमुपुत्राः क्रमेण तर्णयत एव तथैव निपातिताः । अभिनिविष्टेन च पर्वतेन तत्प्रभृति यज्ञेषु सुतरां जीवघातः प्ररूपितः । वसुस्तु नरकं गतः । इति ४|४भावना ऽधिकारे वसुराजकथानकं समाप्तम् । अथ तृतीयव्रतपालनोपदेशमाह ऽदत्तपरि| अवि दंतसोहणं पि हु, परदव्वमदिन्नयं न गिण्हेजा । इहपरलोगगयाणं, मूलं बहुदुक्खलक्खाणं ॥१५१॥ | त हारगुण___व्याख्या- "अवी"ति कोमलामन्त्रणे, दन्तशोधनमात्रमपि परद्रव्यं न गृण्हीयात् । कथम्भूतमिदं ? इत्याह-इहपरलोकगतानां | ख्यापर्क नागदत्त[बहु] दुःखलक्षणां मूलमिति गाथार्थः ॥ १५१ ॥ इदमेव समर्थयन्नाह| तइयव्वए दढत्तं, सोउं गिहिणो वि नागदत्तस्स । कह तत्थ होति सिढिला, साहू कयसव्वपरिचाया ?॥१५२॥5 व्याख्या-तृतीयव्रते दृढत्वं गृहस्थस्यापि नागदत्तस्य श्रुत्वा तत्र-तृतीयव्रते कृतसर्वपरित्यागाः साधवः कथं शिथिला भवन्ति ?, 18 प्रायो गृहस्थः सुवर्णधनादिषु गृद्ध एव स्यात् तथापि नागदत्तस्य तृतीयव्रते दृढत्वं, तर्हि कृतसर्वसावद्यपरित्यागाः माधवः कथं न तत्र | दृढा भवेयुरिति भावः । कः पुनस्तृतीयव्रते दृढो नागदत्तः?, वाणारस्यां जितारिनृपः, धनदत्तः श्रेष्ठी, धनश्रीः प्रिया । तयोः पुत्रो | नागदत्तः सौभाग्यभाग्यकभूजिनधर्ममर्मज्ञः संसारासारताज्ञः, स्वगुणगणावर्जिता स्वयंवरत्वेनागता अपि चतुष्पष्टिकलाकुशला अपि महेभ्यपुत्रीने परिणयति । अन्यदा तत्र निवासि प्रियमित्रसार्थवाहपुत्री पुरुषद्वेषिणी नागवसुनाम्नी पुरादहिहेममणिमयजिनायतने ॥११६॥ जिनार्चा कुर्वन्तं नागदत्तं दृष्ट्वा तं वरं प्रत्यज्ञास्त । तत्रैव पुरे वसुदत्तनामा आरक्षकस्तां दृष्ट्वा दृढानुरागः सार्थेशादयाचत, ज्ञातप्रतिज्ञेन CICISSORS Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥११७॥ पित्रा तस्मै नादावि सा । इतश्च राजपाटिकां गच्छतो राज्ञः कर्णात्कुण्डलमपतत्, बहुधा विलोक्यमानमपि न लेभे । अन्यदा रेणुच्छन्नं राजमार्गे नागदत्तस्तद् दृष्ट्वा चकितोऽन्यमार्गेण गच्छन् वसुदत्तेन दृष्टः, ततः किमेतदिति तत्र विलोकयता कुण्डलं लब्ध्वा नहि नागदत्ते जीवति नागवतुर्मी परिणेष्यतीति तस्यानर्थे हेतुं विचार्य पर्वणि पौषधप्रतिमास्थितस्य नागदत्तस्य गले तद्बध्वा राज्ञे विज्ञसं, यथा- देव! तत्कुण्डलं नागदत्तगले मया दृष्टं राज्ञा तं तथाऽवस्थमानाय्यानेकधा कुण्डलस्वरूपं पृष्टः, प्रतिमाऽन्तेऽपि माभूद्वदत्तस्यापकारिणोऽप्यनर्थ इति मौनेनास्थान्नागदत्तः । ततो रुष्टेन राज्ञा वध्यतयाऽऽदिष्टस्य विडम्ब्यमानस्य वध्यभूमौ प्रेषितस्य तदुःखदुःखिताया नागवसुकन्यायाः सच्वेन तस्य च सत्येन धर्मप्रभावेण च शूलिका सिंहासनं प्रहाराश्चाभरणान्यभूवन् । जिनशासने प्रभावनाऽभूत् । राज्ञा नागदत्तः पूजितो वसुदत्तो निर्वासितः । नागदत्तोऽपि तथाऽनुरक्तां नाग (वसुं) श्रियं (?) परिणीय चिरं विषयानुपभुज्य प्रव्रज्य प्रियया सह स्वर्ग गतः, तौ क्रमान्मुक्तिं यास्यतः इति तृतीयत्रते नागदत्तकथानकं समाप्तम् ॥ अथ चतुर्थव्रतपालनोपदेशमाह - नवत्तहिं विसुद्धं, धरिज बंभं विसुद्धपरिणामो । सव्ववयाण वि परमं सुदुद्धरं सिद्धाणं ॥१५३॥ व्याख्या—ख्यादिवर्जिता वसतिः, तत्र देव्यो नार्यश्च स्त्रियः सचित्ताः, चित्रवास्तुरूपास्त्वचित्ताः पशवो - गोमहिष्यादयः, पण्डका:- श्रीनरसेविनः, एतद्विकारदर्शनाद्ब्रह्मबाधा १ । स्त्रीणां कथा - एकाकिना धर्मदेशनादिरूपा “कर्णाटी सुरतोपचारचतुरा लाटी विदग्धप्रिया" इत्यादिका वा न कर्त्तव्या २ । स्त्रीभिः सहैकासने नोपविशेत्, उत्थितास्वपि मुहूर्त्त ( यावन्न ) तिष्ठेत्, यदाह ४ भावना ऽधिकारे नवगुप्तिवि शुद्धब्रह्मव्रतपाल नोपदेशः ॥११७॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " इत्थीहिं मलियसयणा-सणमिम तप्फासदोसओ जइणो । दूसेह मणं जहणो, कुटुंजह फासदोसेणं॥१॥"३। पुष्पमाला तदिन्द्रियाङ्गोपाङ्गावलोकनत्यागः ४ । गृहस्थैः सह कुडयान्तरितावस्थितिविरहः ५। पूर्वक्रीडितस्मरणाकरणं ६ । अतिस्नि |४भावनालघुचिः ऽधिकारे ॥११८॥ ग्धाहारानभ्यवहरणं ७ । अतिमात्राहाराग्रहणं ८ । विभूषापरिवर्जनं च ९। इत्येताभिनवभिर्गुप्तिभिर्विशुद्धं, सर्ववतानामपि मध्ये 13 सर्वप्राधान्य परम-प्रकृष्टं, विषयलुब्धानां सुदुर्द्धरं ब्रह्म विशुद्धपरिणामो धरेदिति गाथार्थः ।। १५३ ।। अस्य च सर्वव्रतोत्तमत्वमाह ब्रह्मव्रतस्य देवेसु वीयराओ, चारित्ती उत्तमो सुपत्तेसु । दाणाणभयदाणं, वयाण बंभवयं परमं ॥१५४ ॥ व्याख्या-देवेषु प्रसिद्धेषु यथोत्तमो वीतरागः, सुपात्रेषु चारित्रवान् , दानानां मध्येऽभयदानं, व्रतानां मध्ये तथा ब्रह्मव्रतं प्रधानमिति गाथार्थः ॥ १५४ ॥ अथैतद्विरहितस्य व्रतादेरकिञ्चित्करत्वमाह| धरउ वयं चरउ तवं, सहउ दुहं वसउ वणनिकुंजेसु । बंभवयं अधरितो, बंभा वि हु देइ मह हासं॥१५५॥ ___व्याख्या-व्रतं धरतु, तपश्चरतु, दुःखं सहता, वननिकुजेषु वसतु, तथापि ब्रह्मव्रतं अधरन् , आस्तां अन्यो, ब्रह्मापि मम | PI हास्यमेव ददातीति गाथार्थः ॥ १५५ ॥ अथैतद्वयतिरेकस्य सर्वदुःखप्रभवत्वमाह8 जं किंचि दुहं लोए, हइपरलोउब्भवं पि अइदुसहं । तं सव्वं चिय जीवो, अणुभुंजइ मेहुणासत्तो ॥१५६॥ व्याख्या-यत्किश्चिदुःखं इह-परलोकोद्भवं अतिदुस्सहमषि, तत्सर्वमेव मैथुनासक्तो जीवोऽनुभुक्त इति गाथार्थः ॥१५६॥ ता॥११८॥ दृष्टान्तद्वारेणैतत्समर्थयबाह AKA SAREEKSHER Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥११९॥ SEARNAGAR काशेन श्रेष्ठयु ६ नंदतु निम्मलाई, चरियाई सुदंसणस्स महरिसिणो। तह विसमसंकडेसु वि, बंभवयं जस्स अक्खलिय॥१५७॥ ४भावनाता व्याख्या-सुदर्शनस्य महर्षेनिर्मलान्य तानि चरित्राणि नन्दन्तु । यस्य, तथेति प्रसिद्धौ, स्खलनाहेतुत्वाद्विषमेषु सङ्कटेष्वपि PIधिकारे * ब्रह्मव्रतमस्खलित, अत्रायं वक्ष्यमाणश्च सुदर्शन-स्थलभद्रयोर्गणस्तुतिपदप्रणतिद्वारेणोपदेशस्तयोरसममहासत्त्वविस्मितेन शास्त्रकारेण 18| ब्रह्मदृढनिबद्ध इति गाथार्थः ॥ १५७ ॥ कः पुनरयं सुदर्शनमहर्षिः, उच्यते तायां सुदहा अङ्गदेशे चम्पापुर्या दधिवाहनो राजा, ऋषभदासः श्रेष्ठी, अहंदासी भार्या, तयोर्महिषीपालकः सुभगाख्यो दासो हेमन्तेष्टव्यांक दाहरणम् है| कायोत्सर्गस्थं चारणश्रमणं दृष्ट्वा जातभक्तिर्महिषीश्चरन्ती मुक्त्वा सर्व दिनं तं पर्युपास्ते । सायं पुनस्तं नत्वा ताभिः समं गृहं गतः, साधोर्गुणान्स्मरन्कथं सकलां रात्रिमेतादृशं शीतं स सोढेति चिन्तयन सकलां रात्रि निद्रामलभमानः प्रातमहिषी नीत्वा तत्र गतस्तं साधु तथैव स्थितं पश्यति, तावता पारितोत्सर्गों "नमो अरिहंताणं" भणनाकाशे उड्डीनः । स चेयमाकाशगामिनीविद्येति जानन् "नमो अरिहंताणं" इत्येवोच्चरन् भ्रमति, सर्वकार्याणि करोति । ततस्तस्य श्रेष्ठिश्रेष्टिनीभ्यामुपवृह्यमाणस्य भक्तिरपि तत्र जाता । अन्यदा वर्षासु गङ्गाऽपरतीरे युध्यमानानां महिषीणां निवारणायाकाशगमनबुद्धया "नमो अरिहंताणं" उच्चरन्नुत्प्लवमानः पतन्महाकीलकेनोदरे विद्धो मृत्वा तत्रैव ऋषभदासाईदासीपुत्रो दिव्यरूपलावण्यः सुदर्शननामाऽभूत् , तारुण्ये सागरदत्तश्रेष्ठिपुत्री मनोरमानाम्नी परिणिन्ये । पिता प्रव्रज्य स्वर्ग गतः । तस्य च द्वितीयात्मा पुरोधाः कपिलः, तत्कान्ता कपिला सुदर्शनगुणोत्कर्ष ॥११९॥ श्रुत्वाऽनङ्गवाणविद्धा शिक्षयित्वा दूतीं प्रेषयति, सा चागत्य श्रेष्ठिनं प्राह-ननु कपिळो दाधवरातों रतिमलभमानः क्षणं सुखाय CRORECACCC Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्वामाकारयति । ततस्तयैव सह सुदर्शनस्तद्गृहं गतो यावदित इतो मयेऽपवरके निर्वाते ते बान्धव इति गुप्ते नीत्वा दत्तद्वारा नद्भार्यापुष्पमाला ऽऽह-म कपिलो न दाघज्वरः, किन्तु कपिलायाः कामज्वरप्रतीकारं कुरु प्रसादं । ततस्तदतिसङ्कट निस्तितीषुः श्रेष्ठी प्राह-भद्रे! किं ४भाक्तालघुवृत्तिः करोमि ?, दैवहतोऽहं पण्डकः, सुगुप्तमात्मानं जने रक्षामीति । ततो जातविरागा सा तं विसृजति । अथान्यदा कपिल-सुदर्शनसहितो ऽधिकारे ॥१२०॥ ा ब्रह्मदृढ़राजा वसन्तक्रीडार्थ निर्गतः । पट्टराज्ञी अभया कपिला मनोरमाश्च शिबिकारूढाः स्वस्वपरिवारोपगूढा निर्गताः । तदा च कपिलाऽभ तायां सुदयामाह-कस्येदं पुण्याधिकस्य स्त्रीरत्नं ?, राज्याह-सुदर्शनस्य, पुत्राश्चैते जयन्तोपमा इति । कपिला प्राह-अहो!! पण्डकस्यापित शनश्रेष्ठयद्रपुत्राः?, गझ्याह-कथं जनासि पण्डकः । ततः सा पूर्ववृत्तान्तमाह । राज्ञी हसति-धूर्तमन्याऽपि वश्चिताऽसि । ततः सा दूना प्राह- दाहरणम् ज्ञास्यते ते वैदग्ध्यं, यद्यनेन रिंस्यसे] रमसे(?) । ततोऽभया कृतप्रतिज्ञा उपायं विचार्य पण्डितानाम्न्या धाच्या सुदर्शनप्रतिरूपं पुत्रक कारयित्वा रात्रिप्रथमयामे खान्ते आनाययति । किमेतदिति कञ्चुकिमिः पृष्टे देव्याः पूजनार्थ कामदेवं नयामीति पण्डिता प्राह । दू एवं प्रत्यहं क्रियमाणे विश्रब्धेषु तेष्वष्टम्यां पौषधप्रतिमायां स्थितं सुदर्शनमानयति पण्डिता, कामप्रतिमेति न किञ्चित्पृष्टं कन्चुकिभिः । | ततः पुरो मुक्तं तं कामातुराऽभया सर्वाङ्गालिङ्गनचुम्बनप्रार्थनपरिहाससीत्कारधिकारथूत्काराद्यनुकूलप्रतिकूलैः सर्वा शर्वरी न क्षोभयितुमलं । ततः प्रातःप्राये स्वं नखरुल्लिख्य सा पूत्करोति, राजा तत् श्रुत्वा तत्रागत्य सुदर्शने तदसम्भावयन् किमिदं ?, सत्यं ब्रूहीति तं पृच्छति, स तु मा भूदभयाया भयमिति मौनेनास्थात् । ततस्तत्रैव सुदर्शने व्यलीकं निश्चित्य तं वध्यमादिशदवनीशः । ततस्तत्सामय्या नीयमानं तं दृष्ट्वा मनोरमा परया भक्त्या जिनमभ्यर्च्य सामिग्रहा कायोत्सर्गेऽस्थात् । इतश्च तस्याः सत्वेन स्वशीलमहिम्ना च बध्यभूमौ शूलिका सिंहासनं प्रहाराश्चाभरणान्यभूवन् , तज्ज्ञात्वा राजा तत्रागत्य तं क्षमयित्वा सिन्धुरस्कन्धमारोप्य महाविभूत्या 12॥१२०॥ RRRRrrrr SAUGAULOR Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१२१॥ स्वगृहेऽनैषीत् । अभया स्वदुश्चरितभयेनात्मानमुद्धध्य मृत्वा पाटलिपुत्रे व्यन्तरी जाता, पण्डिता तु पलाय्य पाटलिपुत्रेऽनुसमयं सुदर्शनरूपादीन् वर्णयन्ती देवदत्तागणिकागृहे तिष्ठति । अत्रान्तरे गृहीतदीक्षं तत्रायातं भिक्षायै समेतं तं [सुदर्शनं ] देवदत्ताया उपालक्षयत् सा द्वारं पिधाय विविधवेश्याभावः सन्ध्यां यावदक्षुब्धं तं दृष्ट्वा पश्चात्तापेन प्रेतवनेऽमोचयत् । तत्र च कायोत्सर्गस्थं तं दृष्ट्वा पूर्ववैरं स्मृत्वाऽभयाच्यन्तरी सप्तदिनीमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गेस्तं व्यडम्बयत् । तदन्ते च शुक्लध्यानात्तस्य केवलज्ञानमुत्पन्नं । शक्रादिभिर्महिमा कृता । देशनां श्रुत्वाऽभयान्यन्तरी पण्डिता देवदत्ताऽपरेऽपि च बहवः श्राद्धधर्म केचित्साधुधर्म च जगृहुः । एवं भवाव्यानुद्धरंखिरं विहृत्य श्रीसुदर्शन र्षिर्मुक्तिमवापेति शीले श्री सुदर्शनदृष्टान्तः समाप्तः । अत्रैवोदाहरणान्तरमाह— वंदामि चरणजुयलं, मुणिणो सिरिथूलभद्दसामिस्स । जो कसिणभुयंगीए, पडिओ वि मुहे न निड्डुसिओ ॥ १५८ व्याख्या - श्रीस्थूलभद्रस्वामिनो मुनेश्वरणयुगलं वन्दे, यो भगवान् मदनोद्दीपनविषमविषेण संयमप्राणापहारकत्वात्कृष्णभुजङ्गी कोशागणिका, तस्या मुखे - गोचरे पतितोऽपि न निर्दष्टो न तद्विषयविषेण व्याप्त इति गाथार्थः ।। १५८ ॥ श्रीस्थूलभद्रकथानकं ह्यावश्यकादिषु प्रसिद्धमेव, स्थानाशून्यार्थं तु किञ्चिदुच्यते - पाटलिपुत्रे नन्दराज्ञो मन्त्री शगडालः, स्थूलभद्र - सिरियाख्यौ तस्य पुत्रौ, सिरियाविवाहावसरे पूर्व विरोधितेन वररुचिपण्डितेनोद्भावितं कपटं, ततो जातकोपे नन्दे विषप्रयोगादिना शगडाले मृते द्वादशकोटीकनकव्ययेन द्वादशवर्षाणि कोषागृहे वेश्यावासे वसन्तं विषयदुर्ललितं स्थूलभद्र मानाय्य # ४ भावनाडधिकारे ब्रह्मवत दृढतायामेव स्थूल भद्रकथानकम् ॥ १२१ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भावना धिकारे | ब्रह्मव्रतदृढता. यामेव स्थलभद्रकथानकम् मन्त्रिमुद्रापरिधानायादिशति नन्दः । विमृशामि इति तेनोक्ते राजा पाह-अत्रैव ममाशोकवने विमृशेति । ततः श्रीस्थूलभद्रस्तत्र पुष्पमाला गत्वा धर्मार्थकाममोक्षघ्नमधिकारं विमृश्य पितृपञ्चत्वचरितं च चिन्तयन् वैराग्यरङ्गतरङ्गितः पञ्चमौष्टिकं लोचं कृत्वा रत्नकम्बलं लघुक्तिः | प्रावृत्य तत्यान्तैः कृतरजोहरणो नन्दनपं धर्मलाभयित्वा श्रीआर्यविजयसम्भूति श्रीआर्यसम्भूतिविजय हस्ते प्रात्राजीत् । क्रमाद्गी॥१२२।। हतार्थो गुरुभिः सह कदाचित्पाटलिपुत्रे समागतः । वर्षासु सिंहगुफा-सर्पविल-कूपकाष्ठेषु कायोत्सर्गे स्थातव्यमिति मुनित्रयेऽभिग्रह all गृह्णति कोशाऽऽवासवसनाभिग्रहमग्रहीत्स्थूलभद्रः । तद्वसतिं याचित्वा चोपवने स्थितः । यथाप्राप्तं षड्रसैः पड्विकृतिभिरप्यनुदिनं भुते। ततः पड्विकृत्याहार-केकि चातक दरारावे विद्यद्गर्जनकोशाप्रकाशितहावभावादिद्रव्यक्षेत्रकालभावैरक्षुब्धे तस्मिन्नुपशान्ता सा | भगवन्तं प्रशंसति । सोऽपि तथा तामुपदेशैरनुगृह्णाति यथा विषयविमुखा राजदत्तादन्यनरपरिहाराभिग्रहं जग्राह सा । इतश्चतुरोमासा-|| निराहारं तपस्तप्त्वा सिंहगुहादिवासिनः समाय.ताः, प्रत्येकं स्वागतं दुष्करकारकाणामिति वदगिरीपदभ्युत्थानेन सम्भाविता गुरुभिः । स्थूलभद्रस्त्वतिसम्भ्रमेणाभ्युत्थितः सादरतरं स्वागतं भणितो दुष्करदुष्करकारक इति प्रशंसितश्च । तत इतरे प्रयोऽपीयानलतर्जिताश्चिन्तयन्त्यहो!! वेश्यागृहे सुखं स्थितोऽपि नित्यं स्निग्धभोज्यपि सर्वाङ्गोपचितोऽप्यमात्यरुतत्वाद्यथाऽसावादरेण दृष्टो न | तथा वयं तथाकृतकष्टा अपि । अथ चागते द्वितीयवर्षाकाले गुरुभिर्निवारितोऽपि स्थूलभद्रमत्सरेण गृहीत्वाऽभिग्रहं सिंहगुहानिवासी | गतः कोशागृहं, मागिता वसतिर्दत्ता च तस्मिन्नेवोपवने सा तया । प्रशान्तचित्ता च सा विभूषिताऽप्यविभूषिता वा प्रतिदिनं तं वदन्ते । ततोऽतीवोदाररूपायां तस्यां जातपरिणामोऽन्यस्मिन् दिने स तां प्रार्थयते । ततोऽहो!! महानुभावस्य कर्मपारतन्त्र्यं, तदुपायेन प्रतिबोधयामीति विचिन्त्य तयोक्तं न वेश्यानां धर्मलाभः, किन्तु द्रव्य(द्रम्म)लाभोऽयः, तद्यद्यस्माभिरर्थस्तहि नेपालनृपेणापूर्व CARRORECAMERA ॥१२२।। : Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१२॥ ॐ* ४ भावनाऽधिकारे परिग्रहविरमणव्रतपालनोपदेशः * | साधवे दीयमानं लक्षमूल्यं रनकम्बलं त्वमप्यानय । ततः स कामतृष्णया वर्षास्वपि तथाऽकरोत् । दत्तश्च रनकम्बलस्तस्याः करे, क्षिप्तश्च | तया तदैव थाले। ततः माधुराह-सत्यं मुग्धाऽसि, यदेवं कष्टेनानीतोऽप्येतादृग्रनकम्बलो झलक्लिन्ने क्षाले क्षिप्यते । साऽप्याह-ज्ञातं ते वैदग्ध्यं, यदनन्तभवभ्रमणदुर्लभं चारित्रचिन्तामणिरत्नं सर्वथा शुचिस्त्रीशरीरेषु क्षिपसीत्यादि । तद्वचनाजातविवेकविकाशः साधुभणति-साधुभणितं,मिथ्या मे दुष्कृतं स्यात् सर्व । साऽपि साधु क्षामयति । साधुरपि गुरुसकाशं गत्वातं नत्वा स्वापराधं क्षामयति,श्रीस्थू| लभद्रं प्रशंसति,प्रायश्चित्तं गृह्णाति । स्थूलभद्रस्वाम्यप्युपभद्रबाहुस्वामिपादमर्थतो दशपूर्वाणि,सूत्रतस्तु सर्वाणि पूर्वाण्यधीत्य प्राप्ताचार्यपदः स्वर्गङ्गतः । तदेवं पररपि साधुभिर्दृढशीलैर्भाव्यमिति श्रीस्थूलभद्रकथानकं समाप्तम् । अथ परिग्रहव्रतपालनोपदेशमाहजइ वहसि कहवि अत्थं,निग्गंथं पवयणं पवण्णो वि।निग्गंथत्ते तो सा-सणस्स मइलत्तणं कुणसि ॥१५९॥ व्याख्या-निर्ग्रन्थं प्रवचनं यतिधर्मलक्षणं प्रपन्नोऽपि यद्यर्थ वहसि ततो निर्ग्रन्थत्वे विषयभूते शासनस्य मालिन्यमेव करोषि। निर्ग्रन्थत्वं मुनीनां वाङ्मात्रमिति लोका भणिष्यन्तीत्यर्थ इति गाथार्थः ॥ १५९ ॥ [ननु] भवत्वेवं, को दोषः ? इत्याह| तम्मइलणा उ सत्थे, भणिया मूलं पुणब्भवलयाणं। निग्गंथो तो अत्यं,सव्वाणत्थं विवज्जेज्जा ॥ १६०॥ व्याख्या-तन्मलिनता पुनः क्रियमाणा पुनर्भवलतानां-पुनः पुनस्संसारोत्पत्तिवल्लीनां मूलं-कारणं भणितं शास्त्रे, तद्यथा"पावर तित्थयरतं, जीवो जिणसासणं पभावंतो। तं चेव य मइलंतो, ममइ भवे भीसणदुहम्मि ॥१॥" ततो निर्ग्रन्थः सर्वे अनर्था वधबन्धादयो यस्मात्तं सर्वानर्थ वर्जयेदर्थमिति गाथार्थः ॥ १६ ॥ ESHWETAILS 1 ॥ १२३॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१२४॥ आस्तां तावदर्थसङ्ग्रहस्तत्प्रतिबन्धोऽप्युपार्जनाद्याग्रहरूपो न कार्य इत्याह जइ चक्कवहिरिद्धिं, लडं पि चयंति केइ सप्पुरिसा । को तुज्झ असंतेसु वि, धणेसु तुच्छेसु पाडवधो? ॥१६१ ॥ व्याख्या -- यदि विपुलां चक्रवर्तिन ऋद्धि-लक्ष्मीं लब्धामपि विद्यमानामपि केचित्सत्पुरुषा भरतादिवन्यजन्ति तर्हि साधो ! कस्तवासत्स्वपि धनेषु तुच्छेष्वसारेषु प्रतिबन्ध-उपार्जनाद्याग्रहः ? इति गाथार्थः ॥ १६१ ।। किं तावद्विभूत्यां शरीरेऽपि केचिदासन्नसिद्धिका ममत्वं न कुर्वन्तीत्याहबहवेरकलहमूलं, नाऊण परिग्गहं पुरिससीहा । सरीरे वि ममत्तं चयंति चंपाउरिपहुव्व ॥ १६२ ॥ व्याख्या - परिग्रहं वधवैरकलहानां प्रसिद्धानां मूलं ज्ञात्वा पुरुषसिंहाचम्पापुरीप्रभुरिव स्वशरीरेऽपि ममत्वं त्यजन्तीति गाथार्थः॥ १६२ तत्कथानकं पुनरिदम् — चम्पापुर्यां किर्त्तिचन्द्रनृपस्तदनुजः समरविजयो युवराजः । अन्यदा वर्षाकाले वातायनगतेन प्रासादतलाये वहन्तीं कल्लोलिनीं निरक्ष्य कौतुकाभिजबन्धुना समं बेडामारुह्य मन्त्रिसामन्तादिबेडाकलितस्तत्र क्रीडितुं लग्नः । तावत्स कोऽपि नदीप्रवाहः समागात् येन द्रोणयोऽन्यान्यदिक्षु क्षिप्ताः, सर्वोऽपि पुरीलोको निष्कासनाय मिलितस्तावन्नृपद्रोणी अदर्शनं गता, नदीवेगेन दूरं नीता । ततो दीर्घतमालाभिघाटव्यां क्वचित्तरुमूले लग्ना नृपद्रोणी, उत्तीर्णः सबन्धुर्नृपः कतिपयपरीकरकलितः, तीरे यावद्विश्राम्यति तावन्नदीखाततटस्थं निधानं ददृशे । तल्लोभादनुजो नृपं हन्तुं दधावे । परिच्छदेन मिलित्वा निवारितो निर्वासि तव । अन्यदा केवलिपार्श्वेऽनुजप्राग्भवं नृपोऽपृच्छत्, केवली प्राह- अत्र जम्बूद्वीपे महाविदेहेषु मङ्गलावतीविजये सुगन्धिपुरे मदना ४ भावनाड धिकारे परिग्रहस्यानर्थमूलत्वम् 1182811 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१२५॥ भिधश्रेष्टिपुत्रौ सागरकुरङ्गनामको महापरिग्रही जाती। बहुलोभादनेकस पापव्यवसायान् कारं कारं शतसहस्रलक्षकोटिलाभे लोभादनुजो| ४|४भावनाज्येष्ठं जघान, जातस्तृतीयनरके । द्वितीयोऽपि मृत्वा पञ्चमी पृथिवीं गतः । ततो राजन् ! भवं भ्रान्त्वा नानारूपी सुदुःखितौ कथ || धिकारे ञ्चित्कर्मयोगादजनगिरी सिंही जातौ । तत्राप्येकगुहार्थे परस्परं युवा मृतौ चतुर्थ नरकं गती। तत: सपा जाता। तावप्येकानधिकृते परिग्रहवैरस्ये युवा मृतौ पञ्चमं नरकं गतौ । ततो बहुभवस्यान्ते एकस्य धनिनो गृहे कलत्रत्वं प्राप्ती, तयोः पृथक् पृथकू पुत्रोऽभवत् । भर्तरि मृते किर्तिचन्द्रनृधनार्थ कलहेतिरोषेण शबर्यध्वा मृतौ विमुच्य तद्वित्तं पुत्रगेहादि चोत्पन्नौ पष्ठे नरके, ततो बहुभवात्यये एकस्य नृपस्य पुत्री जातो, पाख्यानकम् । तत्राप्युपरते राज्ञि राज्यार्थ परस्परमतिसंरम्भ कृत्वाऽन्योन्यनिहतो जातौ तौ सप्तमावनौ । ततः पुनर्भवे परिग्रहस्यार्थे नानास्थानेष्वापदो लब्ध्वा न क्वापि स्वयं स्वीयः परिग्रहो भुक्तः । इतः पूर्वे भवेऽज्ञानकष्टं तथाविधं विधाय सागरस्त्वं समुत्पन्नः, त्वद्भाता तु कुरङ्गसंज्ञः, सोऽद्याप्येकवारं तव बाधां विधास्यति, भवानाराधको राजन् ! तृतीयभवसिद्धिकः, भवद्भाता त्वनन्तं भवं भ्रमिष्यति । इति श्रुत्वा संविग्नो निजभागिनेयस्य हरिसिंहस्य राज्यं दत्वा च राजा प्राब्राजीत् । नवपूर्वधरः स्वदेहेऽपि निस्पृहः प्रतिपन्नजिनकल्पः | क्वचिदुद्याने कायोत्सर्गस्थोऽनुजेन दृष्ट्वा ज्वलितकोपेन खड्गेन हतः सहस्रारे कल्पे समुत्पन्नः । तत'च्युतो विदेहेषु सेत्स्यति । इति कीर्तिचन्द्रनृपाख्यानकं समाप्तम् । अथ रात्रिभोजनविरमणपालनोपदेशमाह| पञ्चक्खनाणिणो वि हु, निसिभत्तं परिहरंति वहमूलं । लोइयसिद्धतेसु वि,पडिसिद्धमिणं जओ भणिय॥१६२|॥१२५॥ __ व्याख्या-प्रत्यक्ष अवधि-मनःपर्याय-केवलरूपं ज्ञानं येषां ते प्रत्यक्षज्ञानिनः । इन्द्रियजस्यास्मदादीनां घटपटादिवानस्य तु | C4 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१२६॥ || ४ भावनाऽ धिकारे रात्रिभोजनविरमणो पदेशः। व्यवहारमात्रेणैव प्रत्यक्षत्वात् । ततः केवल्यादयः प्रत्यक्षज्ञानिनोऽपि निशि-रात्री भोजनमाश्रित्य भक्तं परिहरन्ति, कुतः? इत्याह-यतो वधस्य-जीवघातस्य मूल कारणं तत् , केवल्यादयः कुन्थ्वादिजन्तून भक्तगतान् पश्यन्तोऽपि तेषां वधस्य परिह मशक्यत्वाद्रात्रौ न भुञ्जते, तर्हि तान् जन्तून् द्रष्टुमप्यशक्नुवन्तोऽस्मदादयः कथं भुञ्जते ? इति भावः । किश्च लौकिकसिद्धान्तेप्पपि प्रतिषिद्वमिदं-रात्रिभोजनं, यतो भणितं तेष्विति गाथार्थः ॥ १६३ ॥किं तदित्याह बंभाइतेयसंभूयं, भाणु जंपति वेयवी । पुढे करेहिं तो तस्स, सुभं कम्मं समायरे ॥ १ ॥ रिसिहि भुतं मजझण्हे, पुचण्हे तियसेहि य । अवरण्हे पियरेहिं, सायं भुंजंति दाणवा ॥२॥ संझाए जक्खरक्खेहि, भुत्तमेवं जहम । सबवेलामइकम्म, राओ भुत्तमभोयणं ॥ ३ ॥ नेवाहुई न य पहाण, न सद्धं देवयञ्चणं । दाणं वा विहियं राओ, भोयणं तु विसेसओ ॥ ४ ॥ एते चत्वारोऽपि श्लोकाः स्त्र्यादीनामुपकाराय प्राकृतत्वेनोक्ताः, स्मृतौ त्वेत एव संस्कृतास्तद्यथा"ब्रह्मादितेजस्सम्भूतं, भानु वेदविदो विदुः। स्पृष्टं करस्ततस्तस्य, शुभं कर्म समाचरेत् ॥ १ ॥" " मध्याह्ने ऋषिभिर्भुक्तं, पूर्वाह त्रिदशैस्तथा । अपसह पितृभिर्मुक्तं, मायं भुञ्जन्ति दानवाः॥२॥" "सन्ध्यायां यक्षरक्षोभि-भुक्तमेवं यथाक्रमं । सर्ववेलामतिक्रम्य, रात्रौ भुक्तमभोजनम् ॥ ३ ॥" "नैवाहुतिने च स्नान, न श्राद्धं देवताऽर्चनं । दानं वा विहितं रात्री, भोजनं तु विशेषतः॥४॥" पाठसिद्धा एव । यदि लौकिकैरपीदं निषिद्धं ततः किम् ? इत्याह ॐॐRY Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -RR पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१२७॥ इय अन्नाण विवज्जं,मिसिभत्तं विविहजीववहजणयं । छज्जीवहियरयाणं,विसेसओ जिणमयट्ठियाणं॥१६४ ४ भावना व्याख्या-राक्तनीत्या अज्ञानामपि-सम्यग्ज्ञानरहितत्वेन घिग्वर्गादीनामपि वयं-वर्जनीयं निशिभक्तं, यतः, कथम्भूतम ? धिकारे इत्याह-विविधानां कीटिका-पतङ्गादिजीवानां वधजनक, ततः षड्जीवनिकायेषु रक्षणादिद्वारा हितरतानां जिनमतस्थितानां विशेषतस्त रात्रिभोजनद्वर्जनीयमिति गाथार्थः ॥ १६८ ॥ अथ रात्रिभोजिनामैहिकामुष्मिकानपायानाह स्यानर्थ| इहलोयम्मि विदोसा, रविगुत्तस्सव हवंति निसिभत्ते।परलोए सविसेसा, निद्दिवा जिणवरिंदेहिं ॥१६५॥ll मूलता। व्याख्या-रविगुप्तस्येव निशिभक्ते इहलोकेऽपि दोषा मक्षिकादिभक्षणाद्वान्त्यादयो भवन्ति । परलोके पुनः सविशेषा बहुतरा नरकादिगतस्य तप्तत्रपुपानादयो दोषा जिने जिनवरेन्द्रनिर्दिष्टा इति गाथार्थः ॥ १६५॥ कोऽसौ रविगुप्तः ? उच्यते-उज्जयिन्यां महेन्द्रदेवश्रेष्ठिसुतो रविगुप्तः, स च विषयगृद्धो यौवनगर्वितो निशिभोजनेऽत्यन्तं रक्तः, चतुष्पथादिप्यपि सकलां रात्रि भुञ्जानस्तिष्ठति, श्रावकान्निन्दति, यदेते वराका रात्रिभोजनरसानभिन्ना इति, स्वजनानिन्दति । अन्यदा पितपरते गृहस्थापि स्वामी जातः । ततो निश्शङ्कः सविशेष पापान्याचरति, यज्ञेषु पशुघातं करोति । अथान्यदा रात्रिभोजनाज्जातरोग आनध्यानेन मृत्वा तृतीयपृथिव्यां समुत्पन्नः, तत्र छेदनभेदनताडनकर्तनदहनादीनि दुःखानि निशिभक्तं स्मारयित्वा | स्मारयित्वा अनिशमुत्पाद्यमानानि विषय तत उद्वृत्तोऽनन्तं संसारं भ्रान्त्वा रात्रिभोजनार्जितं बहुदुःखं क्षुधापिपासादि सहमानोऽनन्त ॥१२७॥ II भवप्रान्ते काम्पिल्यपुरे मधुनानो विप्रस्य पुत्रो वामदेवनामा जातः । तत्रापि गृद्धो रजन्यां भुङ्क्ते । अन्यदा श्रावकैमित्रर्विवाहार्थ नीत RRRRRRs. Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१२८॥ -५२८८२- एकस्मिन् मार्गग्रामे रात्रिमुषिता यज्ञयात्रिकाः । तत्र च श्रावका यावन्न भुञ्जते तावद्वामदेव उपहसति-रात्रौ यदि भवतां गले कवलो |||| ४ भावनाविलगति तर्हि न भोक्तव्यं, अहं तावद्भोक्ष्ये । ततस्तनिमित्तमुपस्कृतः कूरः, महानसे भ्रमन् धूमव्याकुलः कृष्णाहिपोतस्तद्भाजनमध्ये पच्य || धिकारे मानः खण्डशो जातस्तेना भुक्तेन दृष्टः, तत्क्षणमेवासो विषेण व्याप्तो भूमौ पतितः, तत आसन्ने दशपुरनगरे गारूडिकपार्श्व नीतः, कथं रात्रिभोजनाकथमप्यतिक्लेशेन जीवितः संवेग प्राप्तः, श्रावकैः करुणया केवलिपाश्चै नीतः। भगवता कर्मशत्रुसंहारिणी कृता देशना, प्रोक्तश्च || त्यागे रविगुप्तो | रात्रीभोजनात्प्राग्भवेषु एवंप्रकारेण बहुनरकादिरोगदारिद्रयादिदुःखभाग्जातस्त्वं, ततस्तदाकर्ण्य संविग्नस्संसारभीरुवामदेवो दीक्षा दाहरण। जिघृक्षुः काम्पिल्यपुरं गत्वा निजपितुर्मधोः सर्व रात्रिभोजनादिव्यतिकरं कथयित्वा व्रतार्थमात्मानं मोचितवान् । ततो मधुविनोऽपि मिथ्यात्वविषे गते प्रबजितुकामोऽजनि । | ततः शीघ्रं गृहीत्वा च, व्रतं केवलिनोऽन्तिके । युक्त्याऽनुपाल्य सम्प्राप्ती,द्वाबप्यमरसम्पदम् ॥१॥ ... । इति रविगुप्तकथा समाप्ता । ___ तदेवं व्रतषट्कपरिपालनोपदेशं दत्वोपसंहरन्नाहमा अलमत्थ पसंगेणं, रक्खेज्जमहव्वयाइं जत्तेण ।अइदुहसमज्जियाई, रयणाई दरिदपुरिसोव्व ॥ १६६ ॥ ॥ १२८॥ व्याख्या-अलमत्र व्रतोपदेशे प्रसङ्गेन विस्तरेण, संक्षिप्यैवोपदिश्यते, यथा-रक्षेस्त्वं महाव्रतानि यत्नेन, क इव कानि ? इत्याह-दरिद्रपुरुष इवातिदुःखसमर्जितानि रनानीति गाथार्थः ॥ १७० ।। CA-CA २२ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१२९॥ | ४ भावनाऽ|धिकारे समि तिगुप्तिपालनोपदेशः तत्कथानकं पुनरेवम्-कौशाम्न्यां कविभिपुणोऽपि बुद्धिमानपि आजन्मदरिद्रः पुरुषो वसति, स चान्यैरीश्वरैः स्वजनैश्वामिना भूयते, स्वोदरपूरणेऽप्यक्षमः । ____“जंपड़ दीर्ण छंद, चरेइ धणवंतयाण गेहेसु । कुणइ कुकम्मं न तहा, वि तस्स भोत्तं पि संपडइ॥१॥" ततः निन्दन निर्विष्णश्चिन्तयति मरणमात्मनः । अथान्यदा भ्रमन् स कापि विद्यामठे प्राप्तः । तत्रेदं व्याख्यायमानमशृणोत"जाई रूवं विज्जा, तिन्नि वि निवडंतु कंदरे विवरे । अत्थोच्चिय परिवड्ढउ, जेण गुणा पायडा होति ॥१॥" "विहवुज्जोएण विणा, दारिदमहंधयारपिहियाई । सेसगुणग्यवियाइ वि, नजति न पुरिसरयणाई ॥२॥" "धणजीविएण मुक, दरिदमडयं अमंगलभएण । न छिवंति नूणं धणिणो, दूरेण चिय परिहरंति ॥३॥" "तम्हा अजिणह धणं, पयत्तओ जेण विबुहाईयं । अणहुंतयं पि पावहु, गुणनिवहं सयललोयम्मि॥४॥" इत्यादि श्रुत्वा दरिद्रपुरुषेणोक्तं-जानाम्यहमेतदनुभवामि, परं तत्किश्चिद्वदन्तु, येनाहमपि धनमर्जयामि। तत उपाध्यायः प्राह___इक्षुक्षेत्रं समुद्रश्च, योनिपोषणमेव च । प्रसादो भूभृतामेते, नन्ति शीघ्रं दरिद्रताम् ॥१॥". इति श्रुत्वा गुरूणां च सेवा नैव निष्फला भवतीति मत्वा गुरुश्च जलधिरिति तस्यैव सेवा प्रारब्धा, त्रिकालं पुष्पाञ्जलिं क्षिपति, विनयेन प्रणमति, वेलायां चटन्त्यां धावति निवृत्तायां निवर्तते, एवं प्रभूतकालं क्लेशे कृते तद्विनयगुणाक्षिप्तः सुस्थितो लवणाधि| पस्तस्य प्रत्येकं लक्षमूल्यानि पञ्चरत्नानि ददौ, सोऽपि तानि विनयेन गृहीत्वा एवं चिन्तयति-मयाऽमूनि महाकप्टेन प्रभूतकालेना ॥१२९ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१३॥ ४ भावनाधिकारे समिति गुप्त्योर्थः ईर्यासमितिस्वरूपं च। | जितानि, ततो गुरूपायेन स्वदेशं नेतुं युज्यते, इति तत्रैव कचिद्देशे तानि सुगुप्तानि कृत्वा रत्नाकाराणि पञ्चोपलखण्डानि अपराणि गृहीत्वा कौशाम्बीमार्गे सर्वचौरपल्ल्यासन्नं इत्युच्चैर्वदन् व्रजति, विलोकयन्तु मम पञ्चरत्नानि २। ततश्चौरा आगत्योपलान् वीक्ष्य | निवर्तन्ते, नूनं पहिलः कोऽप्ययमिति मुश्चन्ति, इति कौशाम्बीसमुद्रयोरन्तरा निर्गमनागमनं चकार । ततः सर्वत्र अहिल इति | कृत्वा पूत्कुर्वन्तमपि न गणयन्ति चौराः। ततस्तुर्यवेलायां निजजङ्घायां रबानि गोपित्वा वलितस्तेनैव नगराध्वना, आसन्नमेव जलं पिबति, कन्दमूलफलादि च भुते,न पुनरे याति, अ()दृष्टपूर्वचौरभयात् । एवं कष्टेन रत्नान्यादाय स्वपुरी प्राप्तो विषयसुखभागी जातः। एवं पञ्चमहाव्रतरत्नान्यपि मुनिः सुगुरुसमुद्राल्लब्ध्वा रक्षित्वा ज्ञानादिमागं नयन् रागादिचौरभयाज्ज्ञानादिमार्गस्यासन्नं तिष्ठन् अन्त| प्रान्तमशनाद्यास्वादयन्निवृतिपुरी प्राप्तोऽनन्तसुखभागी स्यात् । इत्यादि शेषोऽप्युपनयो बुधैः कार्यः। इति दरिद्रपुरुषकथा समाप्ता। अथ व्रतोपकारिणीनां समितिगुप्तीनामुत्सर्गतः परिपालनमुपदिदिक्षुराहताणंच तत्थुवाओ, पंच यसमिईउ तिन्नि गुत्तीओ।जासुसमप्पइ सव्वं, करणिजं संजयजणस्स ॥१६७॥ व्याख्या-तेषां च महाव्रतानां 'तत्र' परिपालनेऽयमुपायः, कः ? इत्याह-पञ्च समितयस्तिस्रो गुप्तयः, कुतः ? इत्याहयासु सिमितिगुप्तिषु पाल्यमानासु समाप्यते-समर्प्यते (?) सर्वमपि करणीय संयतजनस्य, समितिगुप्ती सम्यक् पालयतो महाव्रतानि पालितान्येव भवन्ति, अतो व्रतपालनार्थिना एतास्वेव यत्नो विधेय इति भावः, इति गाथार्थः ॥ १६७ ॥ ननु सर्व संयतकरणीयमेतासु कथं समाप्यते ? इत्याह RS . 25% Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१३१॥ पवयणमायाउ इमा, निद्दिट्ठा जिणवरेहिं समयम्मि । मायं एयासु जओ, जिणभणियं पवयणमसेसं ॥१६८ व्याख्या – इमाः समितिगुप्तयो ( प्रवचनमातरः ) निर्दिष्टा जिनवरैस्तीर्थकरैः समये-सिद्धान्ते, कुतः १ इत्याह-यत एतासु समितिगुतिषु मातं-निष्ठाङ्गतं जिनभणितं प्रवचनं द्वादशाङ्गमशेषं, तथाहि - इर्यासमितौ प्राणातिपातविरमणव्रतमवतरति, तद्वृत्तिकल्पानि च शेषत्र तान्यतोऽत्रैवान्तर्भवन्ति, तथा सावद्यवचनपरिहारतो निरवद्यवचनभाषणात्मिकायां भाषासमितौ निरवद्यवचनपर्यायः सर्वोऽप्यन्तर्भवति, न च तद्बहिर्भूतं किमप्यपरं द्वादशाङ्गमस्तीति । एवमेषणासमित्यादिष्वपि भावनीयम् । इत्यर्थतः सर्वमपि प्रवचनमिह मातमुच्यत इति गाथार्थः ॥ १६८ ॥ अथैतासु प्रकारान्तरेण प्रवचनान्तर्भावमाह सुयसागरस्स सारो, चरणं चरणस्स सारमेयाओ । समिईगुत्तीण परं, न किंचि अन्नं जओ चरणं ॥ १६९ ॥ व्याख्या - श्रुतसागरस्य सारः - परमार्थश्वरणं - चारित्रं, तदर्थमेव तत्प्रवृत्तेः । चरणस्यापि सारमेता एव, कुतः १ इत्याहसमितिगुप्तिभ्यः परं न किञ्चिदन्यद्यतश्चरणमस्ति, अनुपयुक्तममनादिसावद्यविरतिरूपं हि चारित्रं, तच्च समितिगुप्तिभिरेव साध्यते, अतः स्थितमेतज्ज्ञानदर्शनाविनाभाविनि चारित्रे प्रवचनमवतरतीति चारित्रं समितिगुप्तिषु इत्येतासु प्रवचनं मातमुच्यत इति गाथार्थः ॥ १६९ काः पुनस्ताः समितिगुप्तयः १ इत्याह इरिया भासा सण - आयाणे तह परिट्ठवणसमिई । मणवयणकायगुती, एयाओ जहक्कमं भणिमो ॥१७०॥ T ४ भावनाऽधिकारे पश्चमहात रक्षार्थ रत्नपञ्चक रक्षक दरिद्र पुरुषकथा नकम् । ॥ १३१ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१३२॥ RAKAR व्याख्या-'सं सम्यग् अर्हद्वचनानुसारेण 'इतिः' आत्मनश्चेष्टा समितिरिति तान्त्रिकी संज्ञा । समितिशब्दस्य सर्वत्र योगादीरणं-ईर्या, गमनरूपा चेष्टा, तद्विषया समितिरीर्यासमितिः। (एवं) भाषासमितिः एषणासमितिः। 'आयाणत्ति एकारस्थाला ४ भावना क्षणिकत्वाद्देशेन च समुदायगमनादादानं-पीठफलकादेग्रहणं, निक्षेपणं-तस्यैव मोचनं, तद्विषया समितिरादाननिक्षेपणासमितिः। तथा |धिकारे समिपरिष्ठापनसमितिरित्येताः पञ्च समितयः । अथ तिस्रो गुप्तिराह-'मण' इत्यादि, चेष्टादिषु गोपनं गुप्तिः, सम्यग्योगनिग्रह तिगुप्त्योः इत्यर्थः । गुप्तिशब्दस्थापि प्रत्येकं सम्बन्धान्मनोविषया गुप्तिमनोगुप्तिः, एवं वाग्गुप्तिः कायगुप्तिः, एताः समितिगुप्तयतीः (१, प्रत्येक प्रवचनान्त र्भाविः । किश्चिद्विस्तरतो यथाक्रम भणाम इति गाथार्थः ॥ १७०॥ तत्रोर्यासमिति तावदाहआलंबणे य काले, मग्गे जयणाएँ चउहि ठाणेहिं । परिसुद्धं रियमाणो, इरियासमिओ हवइ साहू ॥१७१॥ व्याख्या-विभक्तिव्यत्ययादालम्बनेन कालेन मार्गेण यतनया च, एतैरेव चतुर्भिः स्थानैः परिशुद्ध रीयमाणः-पर्यटन्नीर्यासमितिमान् साधुर्भवतीति गाथार्थः ॥१७१ ॥ आलम्बनादीन्येव व्याचिख्यासुराह| नाणाई आलंबण-कालो दिवसोय उप्पहविमक्को।मग्गोजयणाय पुणो,दव्वाइ चउब्विहो इणमो॥१७२४ ___व्याख्या-आलम्ब्यत इत्यालम्बनं, यदालम्ब्य यतीनां गमनमनुज्ञायते, तच्च 'नाणाईत्ति ज्ञानदर्शनचारित्ररूपमित्यर्थः ।। ज्ञानप्रयोजनेन पाठार्थित्वादिना, दर्शनप्रयोजनेन तस्थिरीकरणार्थत्वादिना, चारित्रप्रयोजनेन तदुपष्टम्भकाशनपानार्थित्वादिनैवल साधुना स्वीपाश्रयान्निर्गन्तव्यं, न राजाद्यवलोकनादिनिमित्तं निरर्थकं चेति भावः । कालश्च साधुपर्यटनविषयत्वेन दिवसो, न रात्रिः, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१३३॥ तस्यां ह्यचक्षुर्विषयत्वादिभ्यः पुष्टालम्बनं विना गमनं निषिद्धमिति भावः । मार्गस्तु साधुगमनविषयत्वेनोत्पथविमुक्तो द्रष्टव्यः, उत्पथगमने आत्मविराधनादिदोषप्रसङ्गात् । यतना पुर्नद्रव्यादिविषया चतुर्विधा 'इणमो 'ति इयं वक्ष्यमाणेति गाथार्थः ॥ १७२ ॥ तदेव चातुर्विध्यमाह - जुगमित्तनिहियदिट्ठी, खेत्ते दव्वम्मि चक्खुणा पेहे । कालम्मि जाव हिंडइ, भावे तिविहेण उवउत्तो ॥ १७३॥ व्याख्या - यदा युगमात्रक्षेत्रन्यस्तदृष्टिः पर्यटति तदा क्षेत्रे - क्षेत्रविषया यतना कृता भवति, अत्यासन्नस्य दृष्टस्यापि कस्यचि - ज्जीवादे रक्षितुमशक्यत्वात् युगमात्रात्परतस्तु सूक्ष्मजीवादेर्द्रष्टुमशक्यत्वाद्युगमात्रग्रहणं । द्रव्ये - द्रव्यमाश्रित्येयं यतना, यथा चक्षुषा प्रेक्षेत, जीवादिद्रव्यमिति गम्यते । कालतस्तु यावद् हिण्डते तावत्कालमानं सर्वामपि द्रव्यादियतनां करोति । यत्तु त्रिवि - धेन मनसा वाचा कायेन चोपयुक्तः पर्यटति सा भावतो यतना । इह च गाथाबन्धानुरोधाद् द्रव्ययतनामुत्सृज्य क्षेत्रयतनायाः प्रथममुपन्यासः कृत इति गाथार्थः ।। १७३ ।। उपयुक्तत्वमेव व्यक्तीकुर्वन्नाह - उद्धमूहो कहरतो, हसिरो सद्दाइएस रज्जंतो । सज्झायं चिंतंतो, रीएज्ज न चक्कवालेणं ॥ १७४ ॥ व्याख्या- ऊर्ध्वमुखः, कथासु- वार्त्तासु रक्तो, हसन, शब्दादिषु रज्यन्- रागं कुर्वन्, स्वाध्यायं चिन्तयन्, तथा चक्रवालंवार्त्ता कथनाद्यर्थं कुण्डलकविरचनं, तेन च न रीयेत, किन्तु ज्येष्ठोऽग्रतः शेषास्त्वनुज्येष्ठादिक्रमेणोपयुक्ताः पृष्ठतः इत्येवमेव ४ भावनाऽधिकारे ईर्यासमितिनिरू पणम् । ॥ १३३ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१३४॥ निदर्शनम् KASARAHARASANNA रीयतेत्यर्थः। अत्र चोर्ध्वमुखादिविशेषणेर्यथासम्भव कायवाङ्मनोऽनुपयुक्ततानिषेधः कृतः। उपलक्षणत्वाच्छन्दादिषु द्वेषादयोऽपीड | ४ भावनाशवनिषेद्धव्या इति गाथार्थः ॥ १७४ ।। अथोदाहरण द्वारेणातीवेर्यासमितिपालनपरैर्भाव्यमित्युपदेशमाह कारे इर्यायां तह होज्जिरियासमिओ, देहे वि अमुच्छिओदयापरमो।जह संथुओसुरोहि, वि वरदसमुणी महाभागो ॥ | वरदत्तमुनिव्याख्या-तथैर्यासमितो भवेत् देहेऽप्यमूर्छितो दयायां परमो, यथा सुरैरपि संस्ततोवरदत्तमुनिर्महाभाग इति गाथार्थः ॥१७५ का पुनर्वरदत्तमुनिः उच्यते-क्वापि गच्छे वरदत्तनिर्महाचारित्री स्वशरीरेऽपि निस्पृहः प्रशमैकभावितः, विशेषत ईर्यासमितः, प्राणान्तेऽप्यनुपयुक्तो न गच्छति, अन्यदा शक्रेण सरेषु तस्येर्या प्रशसिता, देवैरप्यक्षोभ्यत्वमुक्तं । तत्रैको मिथ्याष्टिसर:"कस्स न वल्लहं नियय-जीवियं ? मरणभीरुए लोए। किंत वियारोन खमह, निउणाण वि भत्तिभरिएसु ॥१॥" इत्यादि चिन्तयित्वा तं चालयितुमागात् । तेन साधोविचारभूमौ गच्छतो मार्गे मक्षिकाप्रमाणा निरन्तरा मण्डूकिका विहिताः।। पृष्टितो मत्तो गज आनीतो, लोकैनश्यब्रिहत्तोऽपि साधन पश्चाद्विलोकयति. न च गति भिनत्ति, उपयुक्त ईयाँ शोधयति |चिन्तयति च रुष्टो गजो मामेकं हनिष्यति, अहं तु धावनितयतीनां घाताय भविष्यामीतीयां शोधयतो यद्भवति तद्भवत्विति, तावद्गजेनीत्पाव्य खे क्षिप्तः पतन् स्वदेहं मण्डकीघातकारि[]] निन्दन षड्विधजीवान वामयन् पुनःपुनर्मिथ्यादुष्कृतं भणनवगणितमरणभयः | सुरेण ज्ञातः प्रत्यक्षीभूय प्रशंसितः, शक्रप्रशंसाव्यतिकरं उक्त्वा क्षामयित्वा सुरः स्वर्गमगात । इति देवैः स्तुतोऽपि गतगर्वो विजहार ।। ॥१३४॥ इति वरदत्तमुनिकथा समाप्ता। . अथ भाषासमितिमाह Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति वर्णनम् । TRASSERRURIER कोहाइहिं भएणव, हासेण वजो न भासए भासं।मोहरिविगहाहिं तहा, भासासमिओस विण्णेओ॥१७६ । |४ मावना: |धिकारे भाषाव्याख्या-क्रोधादिमिः क्रोधमानमायालोमैश्चतभिः, भयेन वा हास्येन वा, तथा मौखर्यविकथाभ्यां च, यो भाषां न समितिभाषते, किन्तु हितमितनिरवद्यगुणोपेतामेव भाषत इत्यर्थः, स भाषासमितो विजेयः। एतैस्त्वष्टमिः स्थानैराविष्टः सत्यमपि वदनिश्चयतो मृषावायेव स्यादिति गाथार्थः ।। १७६ ॥ अत्रैव किञ्चिद्विशिष्टमुपदिशमाह* बहुअंलाघवजणयं, सावजं निठुरं असंबद्धं । गारत्थियजणउचियं, भासासमिओन भासेज्जा ॥१७७॥ व्याख्या-बहुक-मकार्यभापणादिरूपं, अस्मिानाभोगादिनाऽनेकासत्यवचनादिप्रवृत्तिसम्भवात, प्रवचनादिलाघवजनक-कश्चन धनाढयमुद्दिश्य दीनतामालम्व्य 'त्वदीयोऽहं, न भवन्तं विमुच्य ममापरी निर्वाहकर्ताऽस्ती'त्यादिरूपं, सावा-'गच्छागच्छ भुक्ष्व वा भो गृहस्थ ! 'मित्यादि, निष्ठुरं-रे काणान्धवधिरचौर्याट ! इत्यादि, असम्बद्धं-" गङ्गा यमुनयोर्मध्ये, दशहस्ता है हरीतकी। चित्रकूटं गमिष्यामि, राहग्रस्ते विनायके [गुरौ] ॥१॥" इत्यादि, गृहस्थजनोचितं-"हे-हो-हलेत्ति [अन्नेत्ति, भट्टे सामिणि गोमिणि । होले गोले वसुलेत्ति, इथियं नेवमालवे ॥ १६ ॥” दश० अ० ६] इत्यादि, एवमन्यदपि लोका- | ६ गमविरुद्धं भाषासमितो न भाषेतेति गाथार्थः ॥ १७७ ॥ एतदेव सदृष्टान्तमाह H ॥ १३५॥ न विरुज्झइ लोयठिई, बाहिज्झइ जेण नेय परलोओ।तह निउणं वत्तव्वं, जह संगयसाहुणा भणियं ॥१७८ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१३६॥ भावनाऽधिकारे सङ्गतमुनिकथानकम् व्याख्या--न विरुध्यते लोकस्थितिः, बाध्यते येन नैव. परलोकः, तदेव वक्तव्यमिति शेषः। किम्बहुना ? तथा निपुणं || | वक्तव्यं यथा सङ्गतसाधुना भणितमिति गाथार्थः ॥ १७८ ॥ .. कः पुनरसो सङ्गतसाधुः?, उच्यते-कापि गच्छे विज्ञातसमयसारो गुणरत्नरोहणस्सङ्गतनामा मुनिः, स गुरुभिस्सम या विहरन् कापि नगरे प्राप्तः। तत्र गुरुभिनिमित्तात्परचक्रागमनं ज्ञात्वा गच्छोऽन्यत्र विहारितो। ग्लानाद्यर्थं सङ्गतं साधु मुक्त्वा |गुरवोऽपि विजहः, परचक्रेण नगरे रुद्ध सङ्गतः साधुः शुद्धभेषजाहारार्थ बहिनिस्सृतः सेनान्या दृष्टः पृष्टः-कुतस्त्वमागतोऽसीति, | तेनाप्यक्षुब्धचित्तेनोक्त-नगरात् , ततः सेनान्या नृपसैन्यपदातिलोकसुखदुःखादिस्वरूपं पृष्टोऽपि नाचीकथत् । कृतकोपेनापि पृष्टः प्राहसाधूनां नेदं वक्तुं युक्तं, यत उक्तम्--. - + (दश०८-२०). "बहुं सुणेइ कण्णेहिं, बहुं अच्छीहिं पेच्छइ । न य दिटुं सुयं सर्व, भिक्खू अक्खाउमरिहई ॥१॥x | "संगरहियाण जम्हा, सावजं जुज्जए न जपे। परतित्तीसु पवित्ती, सत्थे लोयम्मि य विरुद्धा ॥२॥" - ततः सेनानी प्राह-किंबहुना भणितेन ? यूयं हेरिकाः, मुनिः प्राह-न वयं हेरिकाः, किन्तु साधवो निस्सङ्गा लोकचिन्तारहिताः PIमीक्षार्थिन इत्यादि । एवमेकमपि लोकविरुद्धं वचनमभणतो हृष्टः सेनानी प्रणम्य भणति-सत्यं, सत्य एष एव धर्मस्ततो ममाप्येनं | कथयन्तु । ततो मुनिर्धर्ममुक्त्वाऽणुव्रतादि दत्वा गतः, एवमन्येनापि भाषासमितेन भाव्यम् । इति सङ्गतमुनिकथा समाप्ता। - अथैषणासमितिमाह ॥१३६॥ / 2561 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१३७॥ आहार उवहि सिजं, उग्गमउप्पायनेसणासुद्धं । गिण्हइ अदीणहियओ, जो होइ स एसणासमिओ ॥ १७९ ॥ व्याख्या - आहारं - अशनादिकं, उपधिं प्रच्छादनादिकं शय्यामुपाश्रयं, उद्गमशुद्धं - गृहस्थसमुत्थाधाकर्मादिषोडशदोषरहितं, उत्पादनाशुद्धं - आत्मसमुत्थैर्धात्रीकर्मादिषोडशदोषैः परिहृतं, एषणाशुद्धं - गृहस्थात्मोभयसम्भवैः शङ्कितप्रक्षितादिदशभिदाँ पर्विरहितं गृह्णाति, अदीनहृदयो - ऽलाभादिष्वपि वैक्लव्यमनवलम्बमानो यः स एव एपणासमितो भवति, नान्य, इति गाथार्थः ॥ १७९ ॥ आहारशुद्धिर्दुष्करेति चेदाह - आहारमेत्तकल्ले, सहसच्चिय जो विलंघइ जिणाणं । कह सेस गुणे धरिही ?, सुदुद्धरे सो जओ भणियं ॥ १८०॥ व्याख्या-- आहार एवाहारमात्रं, तस्यापि कार्ये यः सहसैव - वारत्रयमन्यत्र पर्यटनमकृत्वा पुष्टालम्बनं विनैव जिनाज्ञां - - एषणासमितिपालनरूपां विलङ्घयति अनेपणीयग्रहणेनातिक्रामति, स वराकः कथं शेषगुणान् ब्रह्मचर्यादीन् सुदुर्द्धरान् धरिष्यति ? न कथञ्चिदिति भावः, यतो भणितमागमे इति गाथार्थः ॥ १८० ॥ आगमोक्तमेवाहजिणसासणस्स मूलं, भिक्खायरिया जिणेहिं पण्णत्ता । एत्थ परितप्यमाणं, तं जाणसु मंदसद्धीयं ॥ १८१ ॥ व्याख्या- 'जिनशासनस्य' जिनोक्तमार्गस्य 'मूल' तत्वं, भिक्षार्थमुद्गमादिदोषत्यागेन चरणं भिक्षाचर्या, सैव जिनैः प्रज्ञप्ता|ssदिष्टा । अस्यां तु भिक्षाचर्यायां परितप्यमानं निर्वेदं गच्छन्तं तं साधु जानीहि धर्मविषये मन्द श्रद्धाकमिति गाथार्थः ॥ १८१ ॥ ननु जिनाजोलने किमनिष्टमापद्यते ? इत्याह ४ भावनाऽ | धिकारे एषणासमितिवर्णनम् । ॥ १३७ ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** * जह नरवइणो आणं, अइक्कमंता पमायदोसणे । पावंति बंधवहरो-हच्छिन्नमरणावसाणाणि ॥१८२॥ भावनाऽपि पुष्पमाला लघुवृत्तिः तह जिणवराण आणं, अइक्कमंता पमायदोसेणं । पावंति दुग्गइपहे, विणिवायसहस्सकोडीओ ॥१८३॥ |कारे एषणा ॥१३८॥ व्याख्या-यथा नरपतेराज्ञामतिकामन्तो-लवयन्तः स्वकीयप्रमाददोषेण प्राप्नुवन्ति, कानि ? इत्याह-बन्धो रज्वादिभिर्व शुद्धौ धनशर्म| धो-लकुटादिहननं, रोधो-गुप्तिगृहादिषु, छेदन-देहावयवादेः कर्ननमित्यादीनि मरणावसानानि, दुःखानीत्यध्याहारः। तथा जिनवराणा- धर्मरुचि| माज्ञामतिक्रामन्तः प्रमाददोषेण दुर्गतिपथे विनिपातसहस्रकोटीः प्राप्नुवन्तीति गाथाद्वयार्थः ।।१८२-१८३ ॥ एवं च सति दृष्टान्तौ। जो जह व तह व लद्वं,गिण्हइ आहारउवहिमाईयं। समणगुणविप्पमुक्को, ससारपवलओ भणिओ ॥१८॥ व्याख्या-यो 'यथा वा तथा वा' उद्गमादिदोषषितमपितं वा 'लब्धं प्राप्तं कामचारित्वाजिनाज्ञाविरहेण गृण्हात्याहारोप-13 | ध्यादिकं, स श्रमणगुणैर्विप्रमुक्तः संसारप्रवर्द्धको भणित इति गाथार्थः ॥ १८४ ॥ अथैषगाशुद्धिपालने आदरोत्पादनार्थं तनिष्ठमहर्षीणां नमस्कारमाहधणसम्म-धम्मरुइ-माइयाण साहूण ताण पणओऽहं। कठट्टियजीएहि वि, न एसणा पिल्लिया जोहिं ॥१८५॥ Toil . व्याख्या-तान् धनशर्म-धर्मरुच्यादिकान् साधूनहं प्रणतोऽस्मि, कण्ठस्थितजीवरपि न यैरेषणासमितिः पीडिता-खण्डिते| त्यर्थः । अत्र चापासुकमनेषणीयं च परिहरनेषणासमितः स्यादित्यप्रासुकानेषणीययोः परिहारे क्रमाद्धनशर्म-धर्मरुचिदृष्टान्ती, तो चैवं ॥१३८ ॥ अवन्त्यां धनमित्र श्रेष्ठी, धनशर्मा सुतः, अन्यदा धर्म श्रुत्वा मसुतः स प्राबाजीत् । मोऽन्यदा दारुणे ग्रीष्मे गुरुभिस्सम Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृति: ॥१३९॥ विहारं कुर्वन्नरण्ये व्रजति, तावद्धन शर्मक्षुल्लकस्तथा पिपासया पीडितो यथाऽक्षिणी भ्रमति मूर्च्छा समायाति, मुञ्चति विसंस्थलानि पदानि, परिशुष्यत्यमृतकला, ततो गच्छेन समं गन्तुमशक्तः स दूरे पृष्ठत आगच्छति । जनकोऽपि तत्प्रतिबन्धेन तदासन्नस्थो व्रजति, ततः क्वाप्यन्तरा शीतलजल कल्लोलसङ्कला महानदी मार्गे समायाता । ततो धनमित्रः पुत्रमोहमोहितो भणति - वत्स ! पिबेदं जलं, येन स्वस्थो गन्तुं शक्नोपि । ततोऽग्रे गत्वा नदीतीरे वृक्षान्तरितः स्थितः [पिता ], मा एष लञ्जातो न पिबतीति । धनशर्मा क्षुल्लकस्तु जिनागमोक्तवचनानि स्मरन्नशुद्धजलस्याग्रहणे परित्यक्तप्राणः शुभपरिणामो वैमानिकदेवेषूत्पन्नोऽवधिना पूर्वभवव्यतिकरं ज्ञात्वा - विष्ठितक्षुल्ल[क]शरीरो जनकस्य दर्शनं दत्वा मिलितो मुनिसमूहे, मा मम मरणं ज्ञात्वा मुनीनां खेदो भवेदिति । ततः सर्वान् मुनीन् क्षुत्पिपासापीडितान् ज्ञात्वा सकलेऽपि मार्गे स्थाने स्थाने गोकुलानि विकुर्वितानि । मुनयोऽप्यज्ञाततत्वास्तेषु तक्रादि गृह्णन्ति । अथ यावत्ते सुखेनारण्यं लङ्घयित्वा जनपदे प्राप्ताः ततः संहतेषु गोकुलेषु देवसानिध्यं ज्ञात्वा मुनिभिर्मिध्यादुष्कृते कृते देवो निजं रूपं कृत्वा जनकं विना साधून वन्दमानां पिपासापीडितक्षुल्ल[क] मरणवृत्तान्तं वदन् गुरुभिर्भणितो- यद्येवं किं न जनकं वन्दसे १, सुरः प्राह- अनेनानेषणीयोपदेशेन संसारे क्षिप्तोऽभृवं, यदि जलं गृहीतं भवेत्, अतोऽवगतपरमार्थः कार्ये एवोपदेशो दातव्य इति ज्ञापनार्थ न जनको वन्दित इत्युक्त्वा जनकं क्षामयित्वा गतो देवः । एवमापत्स्वप्यपरेणाप्यप्रासुकं न स्वीकर्त्तव्यमिति धनशर्मकथा समाप्ता । अथानेषणीयत्यागे धर्मरुचिकथेयं-कापि गच्छे तपश्शोषिताङ्गो धर्मरुचिर्मुनिः सोऽन्यदा ग्रीष्मेऽष्टमतपः पारण के काप्यरण्ये गच्छन् क्षुत्तृषाकान्तो वनदेवतया काञ्जिकाभृतालाबुकौ द्वौ पुरुषौ मार्गे गच्छन्तो वृक्षमूले स्थितौ दर्शितौ । तयोरेकः प्राह-भो ! एतत्पिब, स प्राह-न तृषितोऽहं इतरः प्राह तदिदं को वोटा ? त्यजामि, अपरेणोक्तं यद्यस्य मुनेः कार्ये किमप्यायाति तदाऽस्य ४ भावनाऽधिकारे एषणा शुद्धौ धनशर्म धनरुचिदृष्टान्तो । ॥ १३९ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१४०॥ देहि, तत इतरो मुनिं प्रत्याह-गृहाग भो मुने ! यदि ते रोचते, अथ त्यजामि, ततः साधुना तृषार्त्तनापि द्रव्यक्षेत्रकालादिविलोकनेन देवसम्बन्धी ज्ञात्वा दोषभीतेन नाग्राहि, प्रकटीभूय देवतया प्रशंसितो विगतगर्वः शिवमगात् । एवमन्येनाप्यप्रमत्तेन एषणा कार्या, इति धर्मरुचिकथा समाप्ता । अथादान निक्षेपणविषयां समितिमाह पडिलेहिऊण सम्मं, सम्मं च पमज्जिऊण वत्थूणि । गिव्हेज्ज निक्खिवेज्ज व, समिओ आयाणसमिइए ॥ व्याख्या - यः सम्यक्प्रत्युपेक्ष्य-दृष्ट्या सम्यग्निरीक्ष्य ततः सम्यक् प्रमृज्य च रजोहरणादिना वस्तूनि - पीठफलकादीनि | गृहीयानिक्षिपेद्वा स पदे समुदायोपचारादादाननिक्षेपणसमित्या समितो भवेत्, नान्य, इति गाथार्थः ॥ १८६ ॥ यदि तावदशक्यं कर्तुं न शक्यते ? तदा शक्यं तु कर्त्तव्यमेवेत्याह जड़ घोरतवच्चरण, असक्कणिज्जं न कीरए इहि । किं सक्का वि न कीरइ ?, जयणा सुपमज्जणाइया ॥ १८७॥ व्याख्या - यदि तीव्रतपश्चरणं कर्तुमशक्यमत इदानीं न क्रियते, तर्हि किं शक्याऽपि सुप्रमार्जनादिका यतना न क्रियते ? क्रियत एवेति गाथार्थः ॥ १८७ ॥ ततः किमित्याह - तम्हा उवउत्तेणं, पडिलेहपमासु जयव्वं । इह दोसेसु गुणेसु वि, आहरणं सोमिल जमुणी ॥ १८८ ॥ व्याख्या - तस्मादुपयुक्तेन प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनयोर्यतितव्यं, इह दोषेषु गुणेष्वप्युदाहरणं सोमिलार्यमुनिरिति गाथार्थः ॥ १८८ || कः पुनः सोमिलार्यः ?, उच्यते - क्वापि गच्छे सोमिलो मुनिर्गुर्वादेशात्पात्राणि [सवेलं ] प्रतिलिख्योद्ग्राह्य किश्चित्कार्यं प्रति ४ भावनाऽधिकारे आदानादिसमिति वर्णनम् ॥ १४० ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 59 पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१४१॥ 4%A8+% 2 चलितः कार्य सिद्ध पुनः स्थितः, प्रतिलेखनाविलाया जातायां साधुभिभणितो-भोः! पात्रकाण्युद्ग्रन्थ्य प्रतिलिख, तेनोक्त-मयेदानीमेव भावना धिप्रतिलिस्योपकरणं गडीतं, किंतत्पुनः पुनः प्रतिलेखनया, नहीदानीमेवैतन्मध्ये सर्पः प्रविष्टोऽस्ति । ततो देवतया तस्योल्लण्ठवाक्येन कारे पश्चम| तत्र सर्पः क्षिप्तः। गुरुभिः प्रोक्तः-साम्प्रतमपि सो भवतीति प्रेरितो यावत्पात्रकाण्यादत्ते तावद्धावितो गलं प्रति सर्पः, मुनिष्टा गुरुशरणं समितिवर्णगतः स्वापराधं क्षामयति स्म । देवतयाऽपि प्रत्यक्षीभूयोपालब्धः, ततोऽतीव प्रतिलेखनाशीलो जातः । पश्चादपि शुद्धप्रतिलेखनया | नम्। निरन्तरं गच्छदागच्छतां साधूनां प्रतिलिख्य प्रतिलिख्य दण्डग्रहणार्पणविश्रामणादिवैयावृत्त्येन च घातिकर्मक्षयात्सिद्धः । एवमन्योऽपि ॥ १४१ ॥ | चतुर्थसमिती प्रमाद्यन् दोषान् अप्रमत्तस्तु गुणानासादयतीति तत्राप्रमत्तेन भाव्यम् । सोमिलार्यकथानकं समाप्तम् । ___ अथोचारप्रस्रवणादिपरिस्था[ष्ठा]पनायां समितिमाह| आवायाइविरहिए, देसे संपेहणाइपरिसुद्धे । उच्चाराइ कुणंतो, पंचमसमिइं समाणेइ ॥१८९॥ व्याख्या-आपातस्तिर्यग्मनुष्याणामागमनं आदिर्येषां संलोकादीनां, ते आपातादयो दोपास्तविरहिते सम्प्रेक्षणप्रमार्जनाभ्यां च परिशुद्धे प्रदेशे उच्चारप्रस्रवणादिकुर्वन्ननेषणीयमतिरिक्तं वा भक्तपानादि च परिष्टापयन् पश्चमी समितिं परिष्ठापनरूपां | समानयति-समर्थयते आराधयतीति यावदिति गाथार्थः ॥ १८९ ।। अत्रोदाहरणमाह। धम्मरुइमाइणो इह, आहरणं साहुणो गयपमाया। जहिं विसमावइसु वि, मणसा विनलंघिया एसा ॥२॥१४॥ व्या.-इह धर्मरुच्यादयो गतप्रमादाः माधव उदाहरणं, यैर्विषमापत्म्वपि पपा-परिष्ठापनाममितिर्मनसाऽपि न लक्तैिति गाधार्थः। ||३|| Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ १४२ ।। धर्मरुचिव्यतिकरस्तावदुच्यते - क्वापि गच्छे धर्मरुचिर्मुनिर्दयापरः प्राणान्तेऽप्यविधिनोच्चारप्रसवणोत्सर्जनादि न करोति । अन्यदा तस्य सन्ध्यायां स्थण्डिलप्रतिलेखना विस्मृता, रात्रौ तस्य प्रस्त्रवणनिरोधे कृते दयानिमित्तं पीडां सहमानस्य 'रे जीव ! प्रमादपरः किं स्थण्डिलप्रतिलेखनां न करोषि ?, इदानीं किं ताम्यसि ? निजप्रमादतरुकुसुमलाभे' इति चिन्तयतः स्थिरचित्तस्य सवरञ्जितः कश्चित्सुरो हृष्टः प्रभातं चकार । साधुः स्थण्डिलं प्रतिलिख्य प्रस्रवणोत्सर्गमकरोत् तावता पुना रात्रिर्शगित्येव जाता । ततः साधुर्देवमायां ज्ञात्वा स्वं निन्दन् देवसान्निध्येऽप्यगर्वितः सुरप्रशंसितो विशेषत उत्सर्गसमितिरतः कर्मक्षयात्सिद्ध, इत्यन्योऽपि चरमसमितौ दृढत्वं कुर्यात् । [इति] धर्मरुचिकथानकं समाप्तम् । उक्ताः सोदाहरणाः पञ्च समितयः अथ गुप्तित्रये मनोगुप्तिं तावदाह- अकुसलमणोनिरोहो, कुसलस्स उईरणं तहेगत्तं । इय निट्ठियमणपसरा, मणगुत्तिं बिंति महरिसणो ॥१९१॥ व्याख्या - योऽकुशलस्य सावद्यचिन्तारूपस्य मनसो निरोधः, कुशलस्य-सूत्रार्थादिचिन्तारूपस्य मनसो यदुदीरणं, तथा | तस्यैव मनस एकत्वं - एकाग्रताव्यवस्थापनं, इत्युक्तरूपां त्रिविधामपि मनोगुप्ति ब्रुवते, सकलविकल्पातीतत्वान्निष्टितो विकल्परूपमनसः प्रसरः- प्रवृत्तिर्येषां ते निष्ठितमनःप्रसरा महर्षय - स्तीर्थकरा इति गाथार्थः ।। १९१|| कर्तुमशक्या चेयं गुरुकर्मणामित्याह - अवि जलहीवि निरुज्झइ, पवणोवि खलिज्जइ उवाएणं । मन्ने न निम्मिओच्चिय, कोवि उवाओ मणनिरोहे ॥ व्याख्या - अपिः सम्भावने, एतदपि सम्भाव्यते, यदुत - केनापि पर्वतादिशेषेण जलधिरपि निरुध्यते, पवनोऽप्यन्तरे ४ भावनाडधिकारे पञ्चम समितिशुद्धौ धर्मरुचि कथानकम् । ।। १४२ ।। ॥ १४२ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ १४३ ॥ कटकुडवादानाद्युपायतस्तीत्रवेगप्रवृत्तोऽपि स्खल्यते, मनांनिरोधे पुनः सूत्राध्ययनादिको जिनैर्निर्मिताऽपि परमोपायो, कोऽपि मन्ये न निर्मित एव अनभिज्ञतया अयोग्यतया वा बहूनामस्मादृशां तदुपायवहिर्भूतत्वादिति भाव इति गाथार्थः ॥ ९९२ ॥ कुत एतदित्याह चिंतइ अतिणिज्जं, बच्चइ दूरं विलं घड् गुरुं पि । गु आणरू वि जेण मणो, भमइ दुरायार महिलव्व ॥ १९३ व्याख्या -- चिन्तयत्यचिन्तनीयं स्त्रीरूपादि, व्रजति दूरं विलङ्घयति गुरुमप्यद्रिसमुद्रादिकं, महतामपि येन मनो भ्रमति दुराचार महिलेवेति गाथार्थः ॥ ९९३ ॥ अथ जिनवचनविद्यासहायाः केचिद्गृहिणोऽपि विषमित्र मनो निरुन्धयन्त्येवेत्याह-जिगत्रयणमहाविज्जा - सहाइणो अह य केइ सप्पुरिसा । संभंति तं पि विसमित्र, पडिमा पडिवन्नसढोव्व ॥ व्याख्या -- जिनवचनमेव महाविद्या, तत्सहायाः केऽपि सत्पुरुषास्तदपि प्रसरणशीलं मनो विषमविषमिव रुन्धन्ति, प्रतिमां प्रतिपन्नः श्राद्धो जिनदासः, स इवेति गाथार्थः ॥ १९४ ॥ arsat जिनदासः १, उच्यते -चम्पायां जिनदासः श्राद्धो ज्ञातजिनधर्मो महानैष्ठिकोऽष्टमीचतुर्दश्याः पौषधं गृहन् प्रतिमां शून्यगृहादिषु प्रतिपद्यते । अन्यदा कृष्णचतुर्दश्यां पौषधं गृहीत्वा नृपमन्दिरासन्नशून्यगृहे प्रतिमया स्थितः, निशि परपुरुषलुब्धा तद्भार्या तत्रैवागता, तया तमसि भर्त्ता न ज्ञातः, निश्चलत्वकृते चतुर्षु पादेषु क्षिप्ततीक्ष्ण लोहकीला खट्वा क्षिप्ता तत्र । ततो जिनदासचरणोपर्येकः कीलः समागात् । स च पादं भिवा भूमौ प्रविष्टः प्रवृत्तो रुधिरप्रवाहः, उच्छलिताऽतीव वेदना, घिटेन भुज्य ४ भावनाऽधि कारे मनोगुप्तौ जिनदासश्रेष्ठि कथानकम् । ॥ १४३॥ ॥ १४३ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१४४॥ -32%ER मानां प्रियां दृष्ट्वाऽचिन्तयत्-रे जीव ! संसारे भ्रमता त्वयाऽनन्ता भार्यास्त्यक्ताः, एनामपि तास्वेका जानीहि, मा पुनर्विषादं गच्छ, शास्त्रे पीदृशा नार्यः किं त्वया न श्रुताः ? "सुकृतेन न गृह्यन्ते, गुरुमपि मुश्चन्ति यान्ति नीचेऽपि । तत्तोषविषावकरा, न भवन्त्येता महामनसाम् ॥१॥” इत्यादि, ततोऽसौ निश्चलचित्तः पापेन प्राणैश्च सममेव परित्यक्तः प्राप्तो वैमानिकसुरेषु । पतिते च तद्देहे सम्भ्रान्तोत्थिता तद्भार्या । एतद्व्यतिकरं ज्ञात्वा पश्चात्तापपरां तां सुरः कृपया समागत्य प्रतिबोध्य जिनदीक्षोन्मुखां चकार । तस्माद्यदि गृहस्था अप्येवं मनोनिरोधं कुर्वते तर्हि साधुभिरसौ सुतरां कार्यः, इति जिनदासकथानकं समाप्तम् । अथ वाग्गुप्तिमाह-- अकुसलवयणनिरोहो, कुसलस्स उईरणं तहेगत्तं। भासाविसारपहि, वइगुत्ती वण्णिया एसा ॥१९५॥ व्याख्या--योकुशलस्य-सावद्यभाषणरूपस्य वचनस्य निरोधो-निवारणं, कुशलस्य तु-सूत्रार्थभणनादिरूपस्य वचसो यहुदीरणं, तथा तस्यैव वचसो यदेकत्व-निर्व्यापारतालक्षणं, एषा त्रिविधाऽपि भाषाविशारदैर्वाग्गुप्तिर्वर्णितेति गाथार्थः ।। १९५॥ । अशक्या चेयमपि गुरुकर्मभिः कर्तुमित्याह-- | दम्मति तुरगा वि हु, कुसलेहिं गया विसंजमिजति।वइवन्धि संजमिउं निउणाण वि दुक्करं मन्ने ॥१९६०/ व्याख्या--दम्यन्ते तुरङ्गा अपि, हु:-स्फुट, कुशलैः गजा अपि संयम्यन्ते, वागेव व्याघ्री वाग्व्याघ्री, तां पुनः संयमितुं निपुणानामपि दुष्करं मन्ये इति गाथार्थः ॥ १९६॥ ४ भावनाऽघिकारे वागुप्तिनिरूपणम् । ॥१४॥ KRISH +5जनन ॥१४४॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ १४५ ॥ नन्वशक्यानुष्ठानरूपया किमनयोपदिष्टया ? इति चेदाह - सिद्धंतनीइकुसला, केइ निगिण्हंति तं महासत्ता । सन्नायगचोरग्गह- जाणगगुणदत्तसाहुव्व ॥ १९७॥ व्याख्या - सिद्धान्तनीतिकुशलाः केचिन्महासत्त्वास्तामपि वाग्व्याघ्रीं निगृण्हन्त्यतस्तदुपदेशो न निरर्थकः । क इव निगृहन्ति ? इत्याह- " सन्नायग" त्ति स्वजनास्तेषां चौरैर्ग्रहं जानाति यो गुणदत्तसाधुः, स इवेत्यक्षरार्थः ॥ १९७ ॥ कथानकं तूच्यते कश्चिद्गुणदत्तनामा बहुलर्द्धिस्वजनादींस्त्यक्त्वा प्रात्राजीत् । गीतार्थः प्रतिपन्नैकाकिविहारः स्वजनप्रतिबोधनार्थ व्रजन्नरण्ये चौरैर्गृहीतः, श्रमणं ज्ञात्वा 'अस्माकमत्र स्थितानां स्वरूपं कस्याप्यग्रे मा कथयेरित्युक्त्वा तैर्मुक्तस्य तस्याग्रतो गच्छतो मिलिता मातृपितृभ्रात्रादियुताः स्वजनस्वज्ञातीययज्ञयात्राः [' जानीया' इति लोके ], स्वजनैर्वन्दितो मुनिः तेन साधुवक्तव्याई प्रोक्तं, न चौरादिस्वरूपं, स्वजनैरागृह्य साधुः पश्चाद्वालितस्तैस्समं गच्छत्यन्तरा स्थितैश्चोरैर्लुण्टिता यज्ञयात्रा धृतास्तत्स्वजनाचालिताः पल्लीं प्रति । ततः साधुर्दृष्टचरैरुक्तं च स एवायं साधुर्यः आत्मभिर्बद्धो मुक्तश्च हन्यतेऽसौ, माऽऽत्मस्वरूपं वैरिणो गत्वा कथयेत्, तावदेतत्कथञ्चित्साधुजननी श्रुत्वा प्राह-भोः ! पल्लीश ! त्वत्क्षुरिकां समार्पय, येन निजौ स्तनौ छिच्चा त्यजामि, पल्लीशेन पृष्टं - वृद्धे ! कस्मादेवं करिष्यसि ?, तयोक्तं-यत आभ्यां स्तन्यं पायितोऽप्यसौ प्रत्यक्षं भवतो दृष्ट्वा नास्माकमकथयत् । चौरैः साधुः पृष्टो-भोः ! | कस्मान्न कथिता वयमत्र स्थिताः ? । साधुनोक्तं- साधूनां स्तोकाऽपि गृहिप्रसङ्गवार्त्ता जिनैर्निषिद्धा । ततः सर्वज्ञवचनमुल्लङ्घ्य स्वजनकार्यं कथं ( कथयामि ?) करोमि ? इत्यादि श्रुत्वा दृष्ट्राश्रौराः भद्रका जाताः सर्वममुञ्चन् । मुनिरपि तुष्टानां स्वज्ञातीयानां धर्ममुक्त्वा प्रतिबोध्य विहरतिस्म । एवमन्येनापि वाग्गुप्तिः कर्त्तव्या । इति [ वाग्गुप्तौ ] गुणदत्त साधुकथा समाप्ता ॥ अथ कायगुप्तिमाह भावनाऽधिकारे वागुप्तौ गुणदत्तसाधुकथा | ॥ १४५ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुत्तिः ॥१४६॥ जो दुट्ठगयंदो इव, देहो असमंजसेसु वढतो। नाणंकुसेण रुंभइ, सो भन्नइ कायगुत्तो त्ति ॥ १९८ ॥ A sh ... व्याख्या-अत्र प्राकृतत्वाद्विभक्तिव्यत्ययस्ततो यो दुष्टगजेन्द्रमिव देहमसमञ्जसे-वागमविरुद्धेषु वर्तमानं ज्ञानाङ्कुशेन || ||कार कायणप्ति | रुणद्धि, स कायगुप्त इति भण्यत इति गाथार्थः ॥१९८ ॥ दृष्टान्तद्वारोपदेशमाह पालकसाधुकुम्मुव्व सयांगे, अगोवंगाइं गोविउं धीरा।चिट्ठति दयाहउं, जह मग्गपवन्नओ साहू ॥ १९९॥: kl कथानकम् । व्याख्या-कूर्म इव सदाऽङ्गे अङ्गोपाङ्गानि गोपयित्वा धीरास्तिष्ठन्ति दयाऽर्थ, यथा मार्ग प्रपन्नः साधुरित्यक्षरार्थः ॥१९९॥ भावार्थस्तु कथानकेनोच्यते-कश्चित्साधुः सार्थेन समं प्रस्थितः, सार्थः क्वापि हरितभूमौ स्थितस्तत्र भूमी सर्वत्र हरितत्वात्साधुः स्खयोग्यां भूमिमलभमानः कृच्छ्रेणेकपादस्थापनयोग्य स्थण्डिलं प्राप्य रात्रौ तत्रैकपादेन स्थितो ध्यानसंलीनः, शक्रेणावधिना दृष्टो, भक्त्या वन्दितः, कायगुप्त्या सभामध्ये प्रशंसितश्च । ततः कश्चित्सुरो व्याघ्ररूपेणाचालयत्त, परं साधु चलनिजध्यानात् , फालाहतोऽपि तिलतुषमात्रमप्यशुद्ध स्थण्डिलं न परिभुक्तवान् , ततस्तद्गुणरञ्जितः सुरस्तं मुनि नत्वा क्षामयित्वा हृष्टः स्वर्गमगात् । RI साधुरप्यगर्वितो मोक्षमगात् । इत्यन्येनापि कायगुप्तिः कार्या, इति कायगुप्तसाधुकथानकं समाप्तम् ॥ - तदेवं समर्थिताः समितयो गुप्तयश्च, आसां परस्परं चैष विशेषः-गमनभाषणाहारग्रहणादाननिक्षेपपरिष्ठापनारूपचेष्टाकाल एव समितीनां व्यापारो, गुप्तीनां तु गमनादिरहितकायोत्सर्गाद्यवस्थायामचेष्टाकालेऽपि च व्यापारः। यत उक्तं| "समिओ नियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणम्मि भइयव्यो । कुसलवइमुईरतो, जं वइगुत्तो वि समिओ वि ॥१॥ इति । ॥१४६॥ अथ व्रतकलितोऽपि समितिगुप्त्युद्यतोऽपि च सूत्रार्थपौरुषीक्रमेण तदुपकारार्थमेव सूत्रं पठेदित्याह ॥ इति // ॥ १४६॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरल इय निम्मलवयकलिओ, समिईगुत्तीसु उज्जुओ साहू। तो सुत्तअत्थपोरिसि-कमेण सुत्तं अहिज्झिजा।२०० पुष्पमाला व्याख्या-इत्युक्तप्रकारेण निर्मलबतकलितःसमितिगुप्तियुक्तः साधुः, ततस्तदुपकारार्थ सूत्रार्थपौरुषीक्रमेण सूत्रमधीयीतेति गाथार्थः M भावनाऽधिलघुवृत्तिः कारे समिति॥१४७॥ । सूत्रं च पठतः कथञ्चित्तदालम्बनेनातीव तीव्र तपोऽतप्यमानस्यैकत्रापि क्षेत्रे तिष्ठतस्तस्मिन्नधीते विशेषतः कृत्यमुपदिशमाह गुप्त्योः प्रवृत्ति || तम्मि अहीए विहिणा, विसेसकयउज्जमो तवविहाणे। दव्वाइअपडिबद्धो, नाणादेसेसु विहरेजा ॥२०१॥ निवृत्तिरूपत्वम् | व्याख्या-तस्मिन्-सूत्रे अधीते विधिना तपोविधाने विशेषेण कृतोद्यमः, द्रव्ये-श्रावकादौ, आदिशब्दात्क्षेत्रे-निर्वातवसत्यादौ, | काले-शरदादौ, भावे-शरीरोपचयादौ, अप्रतिवद्वो नानादेशेषु विहरेन्मासकल्पादिना, पुष्टालम्बनं विना सुखेच्छया नैकत्र तिष्ठेदित्यर्थः । अयम्भावः-द्रव्यादिप्रतिबद्धममुकं क्षेत्रं, इदं तु न, विहरतां रमणीयोऽयं शरत्कालादिः, सिग्धमधुराधाहारादिप्राप्त्या तत्र मे शरीरसुख भविष्यति, नात्र, अथ चैवं विहरन्तं मामेवोद्यतविहारिणं लोका भणिष्यन्त्यमुकं शिथिलमित्यादि, द्रव्यक्षेत्रकालभावप्रतिबन्धेन मासकल्पविहारोऽपि कार्यासाधक एव, ततो विहारोऽवस्थानं वा द्रव्याधप्रतिबद्धन विधेयमिति गाथार्थः॥२०१॥ नन्वेकत्र कुतो न स्थीयते ? इत्याह-- पडिबंधो लहुयत्तं, न जणुवयारो न देसविन्नाणं । नाणाईण अवुड्डी, दोसा आविहारपक्खम्मि ॥ २०२॥ व्याख्या-बहुकालमेकत्रावस्थाने प्रतिबन्धः श्रावकादिषु जायते, अनादेयवाक्यतादिनिबन्धनं लघुत्वं लोके भवेत् , न च नाना ॥१४७॥ देशीयजनस्य सम्यक्त्वप्राप्त्याद्युपकारोजायते, नापि देशसम्बन्धिभाषादीनां विज्ञानं भवति, तदज्ञाने च तत्रोत्पन्न शिष्यप्रतिबोधानुवृत्ती दुस्साध्ये, ज्ञानदर्शनचारित्राणां च प्रचुरबहुश्रुतादर्शनेन न शिष्याद्यप्राप्त्या वा वृद्धिरेव जायते, इत्याद्या अविहारपक्षे दोषाः, अतोऽपु Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ।। १४८ ।। २९५ टालम्बनेन नैकत्रावस्थितिः कार्येति गाथार्थः ॥ २०२ ॥ मासकल्पादिना विहरताऽप्येवम्भूतेनैव भाव्यं, अन्यथा स्वकार्यासिद्धेरित्याह- गयणं व निरालंबो, हुज्ज धरामंडल व सव्वसहो । मेरुव्व निप्पकपो, गंभीरो नीरनाहुव्व ॥२०३॥ चंदुव्व सोमलेसो, सूरुव्व फुरंत उग्गतवतेओ । सीहुव्व असंखोभो, सुसीयलो चंदणवणुव्व ॥ २०४ ॥ पवणुव्व अप्पडिबद्धो, भारंडविहंगमुव्व अप्पमत्तो । मुद्धवहुव्वऽवियारो, सारयसलिलं व सुद्धमणों ॥२०५॥ व्याख्या - गगनमिव निराधार :- स्वजन कुलादि निश्रारहितो भवेत् । धरामण्डलमिव सर्वसहः । मेरुरिव निष्प्रकम्पः-परीपहपवनाक्षोभ्यः । नीरनाथ इव गम्भीरः - परैरलब्धमध्यः । चन्द्र इव सौम्यलेश्यः - प्रसन्नो, न तु रौद्रमूर्त्तिः । सूर्य इव स्फुरदुग्रतपस्तेजाः । सिंह इवासङ्क्षोभ्यो- वादिगजघटाऽभीतचित्तः । चन्दनवनमिव सुशीतलः - आप्यायकको मलवाक्प्रवृत्तः । पवन श्वाप्रतिबद्धो द्रव्यादिषु । भारण्डपक्षीवाप्रमादवान् । मुग्धवधूवदविकारः-शृङ्गारगर्भवक्रोक्त्यादिविकाररहितः । सागरसलिलमिव शुध्धमना इति गाथायार्थः ।। २०३ -४ -५ ॥ पुनः कथम्भूतो भवेत् ? इत्याह | वज्जेज्ज मच्छरं पर-गुणेसु तह नियगुणेसु उक्करिसं । दूरेणं परिवज्जसु, सुहसीलजणस्स संसग्गिं ॥ २०६ ॥ व्याख्या - वर्जयेन्मत्सरं- प्रद्वेषं परगुणेषु, तथा निजगुणेषूत्कर्षं वर्जयेत्, तथा दूरेण परिवर्जय सुखशीलः - सुखलिप्सुर्जन:पाश्वस्थादिस्तस्य संसर्ग - सङ्गतिमिति गाथार्थः ॥ २०६ ॥ सुखशीलजनमेवाह %%%%% ४ भावनाऽधिकारेसाधुनां नैकत्रावस्थितिः । ॥ १४८ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृति : ॥१४९॥ पासत्थी ओसन्नो, कुसील संसत्तनी अहाछंदो। एएहिं समाइन्नं, न आयरेज्जा न संसेज्जा ॥ २०७ ॥ व्याख्या- सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्रेभ्यः पार्श्वे - पृथक् तिष्ठतीति पार्श्वस्थः, स द्विविधः - सर्वतो देशतश्व, तत्र ज्ञानादिभ्यः पृथग्भूतः सर्वतः, निष्कारणमेव शय्यातराभ्याहृतराजनित्याग्रपिण्ड भोजित्वादिदोषदुष्टस्तुः देशतः, सातिचारचारित्रसद्भावात् । अबसीदति -प्रमाद्यति साधुसामाचार्यामित्यवसन्नः सोऽपि द्विधा - सर्वतो देशतश्च, अत्रावबद्ध पीठफलकः स्थापनाभोजी च सर्वतोऽवसमः, तत्रैककाष्टनिष्पन्नसंस्तारकालाभे बहुभिर्वंशादिकाष्ठखण्डैर्देवरकादिबन्धान् दत्वा वर्षासु संस्तारकः क्रियते, तं च यः पक्षसन्ध्यादिषु बन्धापगमं कृत्वा न प्रत्युपेक्षते सोऽवबद्धपीठफलकोऽभिधीयते, अथवा नित्यमास्तीर्णसंस्तारक एकान्तानास्तीर्णसंस्तारक एव वा. य आस्ते स एव वा वाच्यः, यस्तु प्रतिक्रमणस्वाध्यायप्रत्युपेक्षणागमननिर्गमनस्थाननिषीदनादिकां साधुसामाचारीं प्रत्येकं न करोति, हीनाधिकादिदोषदुष्टां वा करोति, स्खलिते मिध्यादुष्कृतं न ददाति, प्रेरितश्च गुरोः सम्मुखीभूय त्रवीतीत्यादिदोषदुष्टो देशानसभः । कुत्सितं ज्ञानदर्शनचारित्ररूपं शीलं यस्य स कुशीलः, अयं च त्रिधा - ज्ञानदर्शनचारित्र कुशील भेदात् तत्र कालविनयादिकमष्टभा ज्ञानाचारं विराधयन् ज्ञान कुशीलः, निश्शङ्कितत्वादिकमष्टधा दर्शनाचारं विराधयन् दर्शनकुशीलः, ज्योतिष्कविद्यामन्त्रयोगचूर्णनिमितादिकं प्रयुञ्जानो जातिकुल शिल्पकर्मतपोगण सूत्राणि चाहारादिगृद्धया आजीवन् विभूषादिकं च चरणमालिन्यजनकं कुर्वाणश्चरणकुशीलः। मूलोत्तरगुणविषयैर्बहुभिर्गुणैद पैश्च संसज्यते - मिश्रीभवतीति संसक्तः, यथा - गो भुक्तमुच्छिष्टमनुच्छिष्टं च भक्तखलकर्षासादिकं सर्वं स्पृशति, एवं यो गुणान् दोषांश्चेत्यर्थः, अयं च द्विघा - सङ्क्लिष्टोऽसङ्क्लिष्टयः तत्र पञ्चाश्रवप्रवृत्तो गौरवत्रयप्रतिबद्धः श्रीप्रतिषेवी गृहकार्यचिन्तकश्च सक्लिष्टः, यस्तु बहुरूपः सम्पद्यते - संविग्नेषु मिलितः संविग्नतां भजते पार्श्वस्थादिषु च तपां ४ भावनाऽघिकारे पार्श्व स्थादेरवन्दनीयत्वं संसर्गत्याज्यत्वं च । ॥ १४९ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ १५० ॥ सोऽङ्सक्लिष्टः । * छन्दो-ऽभिप्रायः, स चार्थाद्यथाछन्दस्येव ततो जिनवचनवहिर्भूतं स्वाभिप्रायस्यैवानुरूपं प्ररूपयति करोति वा इति यथाछन्दः, उत्सूत्रमाचरन् प्ररूपयंश्च परतप्तिप्रवृत्तः स्वल्पेऽप्यपराधे पुनः पुनर्झपनःशीलो मिथ्यालम्बनस्य किश्चिद्बुद्धयादिविकल्पसुखाभिलाषी विकृतिप्रतिबद्धो गौरवत्रयगर्वितश्च यथाछन्द इत्यर्थः । एतेऽनन्तरोक्ताः षडपि सुखशीलजनस्वरूपाः, एतैश्व षडूभिरपि यञ्जिनाज्ञामतिक्रम्य समाचीर्णं तन्न स्वयमाचरेन्नापि शंसे-च्छोभनमिदमिति न प्रशंसेदित्यर्थः । एतेषां च पार्श्वस्थादीनामपुष्टालम्बनेनाग्रपिण्डभोजित्वा दिनोत्तरगुणबिराधकानां पञ्चाश्रवप्रवृत्त्यादिना मूलगुणविराधकानां च कृतिकर्मादिकमपि निषिद्धं, विशुद्वालम्बनाः पुनरात्यन्तिके कारणे कटकसम्मर्दमपि कुर्वन्तोऽल्पेन बह्निच्छन्तः संयमश्रेण्य मेव वर्त्तन्त इति वन्दनीया, अपरं चेह भ्रष्टसंयमगुणोऽप्यायोपायकुशलेन कार्यार्थिना वन्दनीयः, अन्यथा दोपप्रसङ्गात् । नन्वस्य लन्दनेऽपि संयमव्ययाद्दोषाः प्रसञ्जन्ति ?, सत्यं, किन्तु संयमव्ययात्तदायो यथा गरीयान् भवति तथा यतितव्यमेव, तथा च भाष्यं -- "कुणइ वयं घणहेडं, घणस्स घणिणो य आगमं नाउं । इय संजमस्स वि वओ, तस्सेवऽट्ठा न दोसाय ॥ १ ॥ " 'गच्छस्स रक्खणड्डा, अणागधं आउवायकुसलेणं । एवं गणाहिवइणो, सुहसीलगवेसणं कुजा ॥ २ ॥ " तद्यथा - " वायाए नमोकारो" इत्यादि, किम्बहुना ? 46 66 "वायाए कम्मुणा वा, तह चिट्ठए जह न होइ से मन्नुं । परसइ जओ अवायं तं भावं दूरओ वजे ॥ १ ॥ " इति गुणवर्जितविषयं च नमस्कारादिकृत्यमुक्तं यत्र गुणः स्वल्पोऽस्ति तत्र किं कर्त्तव्यम् ?, अत्रापि भाष्यं * "ऋतुबद्धकाले मासकल्पं वर्षा पुनः कार्तिकचातुर्मासिकमतिक्रम्य दुष्टालम्बनमन्तरेणापि सुखप्रतिलिप्युतया एकत्रापि क्षेत्रे [य]तिष्ठति स नित्यवासी "ति बृहद्वत्तौ ४ भावनाsधिकारे पार्श्वस्थादेरवन्दनीयत्वं संसर्गत्याज्यत्वं च । ।। १५० ।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति: ॥१५१॥ 1564 ४ भावनाsधिकारसाधूनां स्नेहमयादिमी रहितत्वम्। "दसणनाणचरितं, तबविणयं जत्थ जत्तियं जाणे। जिणपन्नत्तं भत्तीए, पूयए तं तहिं भावं ॥१॥” इति [जीत. भा०१३३२], किमिह बहुना ?, “पडिसेहो य अणुण्णा" इत्यादिना सूत्रेणात्रैव प्रवचनसारमेव वक्ष्यते, तद्विस्तरार्थिना तु निशीथ [उ०५] कल्पा [उ०३] वन्वेषणीयौ, अतो गम्भीरं जिनवचनं पौर्वापर्येण परिभावनीयं, न तु क्वचिद्वचनमात्राकर्णनेनापि सम्मोहः कार्य इति गाथार्थः ॥२०७॥ अन्यदपि यत्साधूनां निषिद्धं तदाहपेजं भयं पओसो, पेसुन्नं मच्छरं रई हासो। अरई कलहो सोगो, जिणेहिं साहूण पडिकुट्टो ॥२०॥ __व्याख्या-प्रेमः स्वजनादिषु स्नेहः, भयं परीषहोपसर्गेभ्यः शङ्का, प्रद्वेषो-जीवाजीवादिषु क्रोधः, पैशून्यं-दुर्जनता, मत्सरः प्रतीतः, रतिः-सुष्ठु शब्दादिषु समाधिः, हासः-क्रीडा, अरतिः-कष्टरोगादावसमाधिः, कलहः, शोकः, जिनैः, साधूनां प्रतिक्रुष्टोनिषिद्ध इति गाथार्थः ।।२०८॥ तथावंदिज्जंतो हरिस, निदिज्जंतो करेज न विसायं। न हि नमियानंदियाणं,सुगइं कुगइंच बिति जिणा॥२०९॥ व्याख्या-साधनाढ्यादिमिर्वन्धमानो हर्ष, गोपालादिमिश्च निन्द्यमानो न विषादं कुर्यात् । कुतः? इत्याह-न हि यस्माल्लोकैतानां साधूनां सुगतिं निन्दितानां कुगति वा ब्रुवते जिनाः, किन्त्वात्मगतगुणदोषैरेव तत्प्राप्तिरिति गाथार्थः ॥२०९॥ . आत्मन एव सुगतिदुर्गतिसाधकत्वं दर्शयति| अप्पा सुगई साहइ, सुपउत्तो दुग्गइं दुपउत्तो। तुट्ठो रुट्ठो य परो, न साहओ सुगइकुगईणं ॥ २१०॥ व्याख्या-आत्मैव सुप्रयुक्तः-शोभनज्ञानादिमार्गव्यापृतः सुगतिं साधयति, स एवात्मा दुष्प्रयुक्तः-प्राणिवधायुन्मार्ग 9ARASHREE Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4+%% पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१५२॥ प्रस्थितश्च दुर्गतिं साधयति, न च तुष्टः परः सुगतेः साधकः रुष्टो वा कुगतेः साधक इति गाथाथः ॥२१०॥ - अथ श्रीमहावीरचरितं चिन्तयता परीषहोपसर्गाः सोढव्या इत्याह ४ भावनाऽधि. कारे आत्मन लहुकम्मो चरमतणू , अणंतवीरिओ सुरिंदपणओ वि।सव्वोवायविहिन्नू, तियलोयगुरू महावीरो॥२११॥ एव सुगतिगोपालमाइएहिं, अहमोहिं उईरिए महाघोरे । जो सहइ तहा सम्मं, उवसग्गपरीसहे सव्वे ॥२१२॥ 18// दुर्गतिसाधअम्हारिसा कहं पुण,न सहति विसोहियव्वघणकम्मा।इय भावतोसम्म, उवसग्गपरीसहे सहउ ।२१३। 8 कत्वम्। व्याख्या-यदि लघुकर्मा चरमतनुश्च अनन्तवीर्यः उपसर्गकर्तनिगृहीतुमपि शक्तः सुरेन्द्रप्रणतः सर्वोपायविधिज्ञश्च त्रैलोक्यगुरुरपि श्रीमहावीरोऽधमैापालादिभिरुदीरितान् महाघोरान् सर्वानप्युपसर्गान्-सुरनरतियगजनितोपद्रवान्, परीपहान्-क्षुत्पिपासादीन् , तथा-तेनावश्यकोक्तप्रकारेण सम्यक्सहते, तर्हि अस्मादृशाः कथं पुनस्तान सहन्ते ?, कथम्भूताः सन्तः ? इत्याह-विशो-3 धयितव्यं-क्षपणीयं धनं-प्रचुरं कर्म येषां ते तथा, गुरुकर्माण इत्यर्थः। अनेन पूर्वोक्तलघुकर्मताया वैपरीत्यमुक्तं, अस्य चोपलक्षणत्वाच्चरमतनुत्वादीनामपि विपर्यय आत्मनि भावनीयः, इत्येवं परिभावयन्नुपसर्गपरीपहान् सहस्वेति गाथात्रयार्थः ।।२९१-९२-९३॥ | ननु परीपहोपसर्गतर्जितस्य साधोर्यदि चरणेऽरतिर्जायते, गृहवासप्रतिपत्त्या विषयसुखवाञ्छोत्पद्यते तर्हिस किं कुर्यात् ? इत्याहएवं पि कम्मवसओ. अरई चरणम्मि होज जड कहवितोभावणाए सम्मं,इमाए सिग्धं नियत्तेजा॥२१४॥ व्याख्या-एवमपि भावनां भावयतः साधोः कर्मवशायदि कथमपि चरणे रतिर्भवेत् तत-स्तदाऽनयानन्तरं वक्ष्यमाणया ॥१५२॥ भावनया शीघ्र निवर्तयेन तामेवारतिमिति गाथार्थः ।। २१४ ॥ तत्र तावद्गृहवासप्रतिपत्तिनिवृत्त्यर्थ भावनामाइ sex Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRA सयलदुहाणावासो, गिहवासो तत्थ जीव! मारमसु।जं दूसमाए गिहिणो, उयरंपि दुहेण पूरंति ॥२१५॥ पुष्पमाला व्याख्या सकलदुःखानामावासो यो गृहवासस्तत्र-गृहवासे रे जीव! मा रमस्व । यस्मादस्मिन् दृष्षमाकाले गहिण मा४ भावनालघपत्ति उदरमपिणोऽप्युदर (1) दुःखेन पूरयन्ति, दुषमासुषमादिषु प्रायो निर्वाहः सुखेनैवासीदिदानीन्तु सोऽपि महाकष्टेनेति भाव धिकारे सकल॥१५॥ इति गाथार्थः ॥ २१५ ॥ किश्च दुःखावासत्वं जललवतरलं जीयं, अथिरा लच्छी वि भंगुरो देहो। तुच्छा य कामभोगा, निबंधणं दुक्खलक्खाणं ॥२१६॥2 गृहबासस्य। ___व्याख्या-जीवितं जललवतरलं कुशाग्रवर्तिजलचपलं, लक्ष्मीरप्यस्थिरा, भङ्गुरो-विनाशी देहः, एतत्रियमूलाः कामभोगाः P शब्दरूपरसस्पर्शविषयरूपाश्वासारा-स्तुच्छाः, निबन्धनं चैहिकपारत्रिकदुःखलक्षाणां, अतः कस्यार्थ व्रतत्यागः ? इति गाथार्थः ॥२१६॥ तू | को चकवहिरिद्धिं, चइउं दासत्तणं समभिलसइ ? को वररयणाई मोत्तुं, परिगण्हइ ? उवलखंडाई॥२१७॥ व्याख्या-कश्चक्रवर्तिसमधि त्यक्त्वा दासत्वं समभिलपति !, को वा रत्नानि मुक्त्वा परिगण्हात्युपलखण्डानि?, चक्रिऋधि-रत्नसमं व्रतं त्यक्त्वा को नाम दासत्वोपलखण्डकल्पं गार्हस्थ्यं प्रतिपद्यते ?,न कोऽपीति भाव इति गाथार्थः॥१७॥ किञ्चभनेरईयाण विदुक्खं, झिज्झइ कालेण किं पुण नराणं? ता न चिरंतुह होहि, दुक्खमिणमासमुव्वियसु।२१८ व्याख्या-पल्योपमसागरोपमायुषां निरन्तरदुःखानां नारकाणामपि तदुःखं गच्छता कालेन स्वायुःपर्यन्ते क्षीयते-त्रुव्यति, किं पुनः प्रतिक्षणं परिवर्तमानदुःखानां स्वल्पायुषां नराणां तन्त्र टिप्यति ? त्रुटिष्यत्येवेत्यर्थः। तस्मान्न तव दुःखमिदं चिरं-बहुकालं ४ ॥१५३॥ Pा भविष्यति, मा समुद्विजस्व-मा व्रतत्यागलक्षणं वैक्लव्यं भजस्वेति गाथार्थः ॥२१८ ॥ मावनोपसंहारार्थमाह KASKAR Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१५४॥ RECE%%% 9 टू इय भावंतो सम्मं, खंतो दंतो जिइंदिओ होउं। हत्थिव्व अंकुसेणं, मग्गम्मि ठवेसु नियचित्तं ॥२२०॥|| ४ भावना:व्याख्या-इत्येवं सम्यग्भावयन् 'क्षान्तः कृतोपशमः 'दान्तोऽहङ्कतिरहितो जितेन्द्रियश्च भूत्वा, विभक्तिव्यत्याद्धस्ति [धिकारे मनः नमिवाशेन 'मार्गे व्रतपरिपालनशुभाध्यवसायलक्षणे स्थापय निजचित्तमिति गाथार्थः ॥ २१९॥ . स्थर्योपदेशः। ननु वेषमानं चेन्न मुच्यते तर्हि किं मनसः शुभाशुभाध्यवसायचिन्तया ? इत्याहजम्हान कजसिद्धी. जीवाण मणम्मि अहिए ठाणे । एत्थं पुण आहरणं, पसन्नचंदाइणो भणिया।२२१॥ . व्याख्या-यस्मान मोक्षप्राप्त्यादिका कार्यसिद्धिीवानां, जायते इति शेषः, क्व सति ? शुभपरिणामादौ स्थाने मनसि अस्थिते सति । अत्र पुनरुदाहरणं प्रसन्नचन्द्रादयः सिद्धान्ते भणिता द्रष्टव्याः, तस्मात्सत्यपि वेपे मनोनिग्रहाभावे सप्तमनरकादिगमनयोग्यकर्मबन्धान वेषमात्रे तुष्टै व्यमिति गाथार्थः ॥ २२१ ॥ . अत्र प्रसन्नचन्द्रकथानकं किश्चिदुच्यते-पोतनपुरे नगरे सोमचन्द्रनृपः, धारिणी देवी, तयोः पुत्रः प्रसन्नचन्द्रः। अन्यदा राज्ञः शिरः सम्मार्जयन्त्या धारिण्या पलित दृष्ट्वा हस्ते दत्त्वा प्रोक्तम्-देव! जरयाऽयं दूतः प्रेषितोऽस्ति 'मा भणिष्यसि यन्त्रोक्तं, अहमागता, धर्म कुरु' इति ज्ञापनार्थ । ततो जातवैराग्यः प्रसन्नचन्द्र राज्ये संस्थाप्य सभार्यस्तापसदीक्षां प्रपेदे । तस्याः स्तोकदिनो गर्भ आसीत् , ततस्समये पुत्रो जातः । सा च.मृत्वा ज्योतिष्कामरेत्पन्ना, वनमहिषीरूपेण कुमारमुखे दुग्धं स्नेहेन क्षिपन्ती वृद्धि | तं नीतवान् । बल्कलावृतत्वाद्वल्कलचीरीति नामा जातः । अथ स कतिपयवर्षान्ते प्रसन्नचन्द्रेण पितुः प्रच्छन्नमेव स्वपार्श्वे आनाय्य ॥१५४॥ युवराजत्वे स्थापितः, पश्चापितुओपितं, तथापि स्नेहेन रुदतस्तस्य नयनयो ली जाता । अन्यदा वल्कलचीरी पितरं स्मरत्सबन्धुराश्र % A4-%A4% ERS Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति ॥१५५॥ र्शनम् । 5-%-%CRORESCE% मपदं प्राप्तः, ताभ्यां कृतप्रणामस्य पितुर्हन्नियनयोनील्यपगता । ततः प्रसन्नचन्द्रं कुशलं पृच्छति पितरि वल्कलचौरी कौतुकात्स्व P४ भाक्नान स्थापितानि वल्कलान्युनमुद्रय प्रमार्जयन् पूर्वमप्येवं क्वचिन्मया वस्त्रप्रमार्जना कृतेति चिन्तयन् सञ्जातजातिस्मृतिः कृतपूर्वां जिनदीक्षां धिकारे प्रसवैमानिकामरत्वं चानुभूतवान् । ततः संवेगमुपगतस्य भावतः परिणता दीक्षा, कृता क्षपकश्रेणिः, केवलज्ञानं चोत्पन्न । अथ भचन्द्रनिदतद्देशनया वैराग्यं प्राप्तः प्रसन्नचन्द्रो गृहं गतः । वल्कलचीर्यपि पितरं श्रीवीरजिनान्तिकं नीत्वा दीक्षा ग्राहयित्वा सिद्धः । अन्यदा पोतनपुरे श्रीवीरे प्राप्ते देशनां श्रुत्वा संवेगमागतः प्रसन्नचन्द्रः पुत्रं बालमपि राज्ये संस्थाप्य प्रव्रज्य उग्रं तपः कुर्वन् गीतार्थः श्रीवीरजिनेन समं राजगृहं प्राप्तः । तत्र च___ "एगचलणप्पइहो, सूराभिमुहो समूसियभुयग्गो। चिट्ठ काउस्सग्गे, आसन्नं समवसरणस्स ॥१॥". अथ भगद्वन्दनार्थमागच्छतः श्रेणिकनृपतेः सेनामुखस्थेन सुमुखाभिधेनोक्तं-धन्योऽयं मुनिर्यस्येदृशं ध्यानं, अनेन मोक्षः स्वर्गोवा करस्थः कृतः । ततोऽन्येन दुर्मुखनाम्ना प्रोक्तं-'मैवं वादीः, यतः प्रसन्नचन्द्रोऽयं, येन बालोऽपि पुत्रः परित्यक्तः, इदानी चतत्सुतोऽनाथो नगररोध विधाय दधिवाहनप्रभृतिभिर्भूपैमन्त्रिभिश्च राज्यभ्रष्टः क्रियते, तदसावप्रेक्षणीयः । इति श्रुत्वा राजर्षि : क्रोधपरवशः प्रत्यक्षानिव रिपुप्रभृतीन वीक्ष्यमाणो 'रे कृतघ्नशेखरा मन्त्रिणो! यूयं तथा सम्मानिता लालिता अपीदानीमिति विपरीतास्तार्ह युष्मान् शिक्षयामि, रे नृपाधमा ! इदानीं भवन्तोऽपि सज्जीभवन्त्विति भणित्वा यो लग्नः । ततः सुभटकरटितुरग| सम्मर्द निजमनसि कूर्वतस्तस्य बाह्यतः सथानसनिवेशं दृष्ट्वा हृष्टः श्रेणिको भक्त्या चरणयोर्निपतितस्तद्गुणनिकरं स्तौति । रौद्रध्यानगतेन च तेनासौ न ज्ञातः, ततोऽधिकतरं तुष्टेन राज्ञा भगवत्समीपं गत्वा पृष्ट-भगवन् ! मया यदा प्रणतः प्रसन्नचन्द्रस्तदेव KESAR ॥१५५॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१५६॥ -% यदि कालं करोति तदा क गच्छति १ इति । भगवानाह - सप्तमपृथिव्यां । ततचिन्तयति राजा-व तद्ध्यानं क्व [च] तन्नारकत्वं १, किं मया सम्यग्न श्रुतमेतदिति विलम्ब्य पुनः पप्रच्छ-भगवन्निदानीं कालगतः प्रसन्नचन्द्रः क्व व्रजति १, भगवान् भणति - सर्वार्थसिद्धौ । ततो विस्मितेन राज्ञाऽभाणि - नाथ ! कथं पूर्व नरकगमनमिदानीं यूयमेव सुरत्वमादिशथ ? । स्वाम्याह - दुर्मुखवचनाचिने प्रवृत्ते रौद्रध्यानेऽरिभिर्युद्धयमानस्य तवेहागमने पुनर्मनोविकल्पादेव सकले प्रहरणवर्गे परिनिष्ठिते स चिन्तयत्येवं - निजशिरस्त्राणेनैनं रिपुं हनि । ततस्तेन स्पृष्टं हस्तेन शिरो विलुप्तकेशं ज्ञात्वाऽऽत्मानं निन्दन् लब्धविवेकः शुद्धध्यानात् क्षपकश्रेणिशिरस्समारूढो जातः पुनरपि सर्वार्थसिद्धियोग्यः, इति यावद्वदति स्वामी तावत्प्रसन्नचन्द्रस्योत्पन्नं केवलज्ञानं, सुराचकुर्महिमां, तत्प्रकर्षं श्रुत्वा भणति भ्रूषुः किमेतत् ?, शुद्धि प्रकर्षात्प्रम चन्द्रर्षेः केवलज्ञानमुक्तं स्वामिना । ततः श्रेणिकश्चिन्तयति, सत्यमिदं वचः "वावाराणं गरुओ, मणवावारो जिणेहिं पन्नत्तो । जो नेइ सत्तमीए, अहबा मोक्खम्मि सो चेव ॥ १ ॥ " इति प्रसन्नचन्द्रकथा समाप्ता ॥ एवमन्येऽपि दृष्टान्ता द्रष्टव्या, अथ मनस्तमाधौ यत्नो विधेय इत्येतदेवाह - अहरगइपट्टिय़ाणं, किलिट्ठचित्ताण नियडिबहुलाणं । सिरतुंडमुंडणेणं, न वेसमेत्तेण साहारो ॥ २२१ ॥ व्याख्या - अधर गर्ति - नरकं प्रति प्रस्थितानां क्लिष्टचित्तानां निकृतिर्माया बहुला येषां ते तथा तेषां शिरस्तुण्डमुण्डनेन वेषमात्रेण रजोहरणादिना न साधार - स्त्राणं । वेषमात्रं धारयतां जनानां मिथ्यात्वोत्पादहेतुत्वेन प्रत्युताधोगतिपात एव स्थान त्राणमिति भाव इति गाथार्थः ।। २२१ ।। किञ्च - ४ भावना धिकारे प्रसनचन्द्रनिदर्शनम् । ॥ १५६ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भावनाऽवि कारे व्यवहा पुष्पमाला लघुवृत्ति ॥१५७॥ निश्चययोरम क्तव्यता। NAGA%EREOGORIES | वेलंबगाइएसु वि, दीसइ लिंगं न कजसंसिद्धी । पत्ताइं च भवोहे, अणंतसो दवलिंगाइं ॥२२॥ व्याख्या–विडम्बका-वेषविदूषकास्तेष्वपि यतिवेषग्रहणावस्थायां दृश्यते लिङ्गं रजोहरणादिकं, न च तेन तेषां काचिन्मोक्षप्राप्तयादिका कार्यसिद्धिः, विडम्बकत्वादेव भावशून्यत्वात् । आदिशब्दात्स्वयम्भरमणगतसाध्वाकारमत्स्यादिपरिग्रहः, तस्मादप्रमाणं वेषः। किश्च यदि लिङ्गमात्रमपि साधकं स्यात् ? तोतावन्तं कालं संसारेऽवस्थितिरेव न स्यात् , यतोऽनादिभवप्रवाहे भ्रमद्भिः प्रत्येकं सर्वैरपि जीवैः क्वचिदाजीविकाहेतोः क्वचिदुपरोधेन क्वचित्कीयादिकाङ्क्षया प्राप्तान्यनन्तशो वेषमात्ररूपाणि द्रव्यलिङ्गानि, द्रव्यतो भावतो वा गृहीतयतिलिङ्गस्यैव हि ग्रैवेयकेधूत्पत्तेरुक्तत्वात् , भणितश्च प्रज्ञप्त्यां सर्वजीवानां ग्रैवेयकेषूत्पादः, तथाहि-"सव्वजीवा विणं भंते ! उवरिमगेविजेसु देवत्ताए देवित्ताए आसणसयणवणखंडभंडमत्तोवगरणत्ताए उववन्नपुव्वा ?, हंता गोयमा ! असई अदुवा अणतखुत्तो, नो चेव णं देवित्ताए” इति । अतः प्राप्तान्यनन्तशो द्रव्यलिङ्गानि । प्राप्तैरपि च | तेने मोक्षलक्षणा काचित्कार्यसिद्धिस्तस्मान्मनःशुभपरिणामलक्षणे भावे एव यत्नो विधेय इति गाथार्थः ॥ २२२ ॥ एतदेवाहतम्हा परिणामोच्चिय, साहइ कजं विणिच्छओ एसो। ववहारनयमएणं, लिंगग्गहणं पि निद्दिष्ट्रं ॥२२३॥ _ व्याख्या-तस्मान्मनसः शुभपरिणाम एव कार्य मोक्षरूपं साधयति, एष विनिश्चयो-निश्चयः। यद्येवं तर्हि लिङ्गग्रहणमपार्थकमेव ? इत्याह-व्यवहारनयमतेन लिङ्गग्रहणमपि जिनैनिर्दिष्टमिति गाथार्थः ।। २२३ ॥ ननु निश्चये एव यत्नो विधेयः, किं व्यवहारेण ? इत्याह- . है जइ जिणमयं पवजह, तामा ववहारनिच्छए मुयह । ववहारनउच्छेए, तित्थुच्छेओ जओ भाणओ ॥२२४॥ FACCOURS ॥१५७। Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAA पुष्पमाला लघुवृत्तिः ४ भावनाs|धिकारे व्यवहारबलवत्त्वम्। ॥१५८॥ | :9CCUSTOC4%A%A9-%A4%250% व्याख्या-यदि जिनमतं प्रपद्यध्वं, तदा मा व्यवहारनिश्चयौ मुञ्चथ, यतो व्यवहारनयोच्छेदे तदभिमतानि लिङ्गग्रहणजिनार्चाचैत्यनिर्वर्तनवन्दनपूजनादीनि सर्वाण्यकर्तव्यानि स्युः, ततस्तीर्थोच्छेदः प्रतीत एवेति गाथार्थः ॥ २२४ ॥ स्यादेतत् , तथापि निश्चय एव बलवान् , नेतर इत्याशक्याहववहारो वि हु बलवं, जं वंदइ केवली वि छउमत्थं । आहाकम्मं भुंजइ, सुयववहारं पमाणतो॥२२५॥ व्याख्या-न केवलं निश्चयोऽपितु व्यवहारोऽपि स्वविषये बलवानेव, यद्यस्मात्कारणादुत्पन्चकेवलज्ञानोऽपि शिष्यो व्यवहार प्रमाणयन् छद्मस्थं गुरुं वन्दते, आसनदानाभ्युत्थानादिकं च विनयं पूर्ववदेव करोति यावदद्यापि न ज्ञायते, ज्ञाते पुनगुरुरपि निवारयत्येव । तथा च मुग्धेन केनचिद् गृहिणा कृतमाधाकर्म, तच्च श्रतोपयुक्तेनाशठेन छद्मस्थसाधुना [शुद्धं ] विज्ञाय तं गृहीत्वा केवलिनिमित्तमानीतं, यथास्थितं च तज्जानतः केवलिनो निश्चयनयमतेनाभोक्तव्यमपि श्रुतरूपं व्यवहारनयं प्रमाणीकुर्वनसौ तद्भुक्त एव, अन्यथा श्रुतमप्रमाणं कृतं स्यात्तच्च न कर्त्तव्यं प्रायः सर्वव्यवहारस्य श्रुतेनैव प्रवर्त्तमानत्वात् । ततो व्यवहारो बलवा. नेव, केवलिनाऽपि समर्थितत्वात् । ततः स्थितमिदं-निश्चयव्यवहारशुद्ध संयम एव मनो निश्चलं विधेयं , नतु कुतश्चिद् गृहवासाद्यभिलापः कार्य इति गाथार्थः ॥ २२५ ।। अथ तीथकरोद्देशेनापि यतिवेषेण संयमशिथिलीकरणे दोषमाहतित्थयरुहेसेण वि, सिढिलिज न संजमं सुगइमूलं तित्थयरेण वि जम्हा, समयाम्मि इमं विणिद्दिदं ॥२२६॥ . व्याख्या-तीर्थकरोद्देशेनापि पूजाद्यारम्भप्रवृत्या सुगतेः परमं निवन्धनं संयम साधुन शिथिलीकुर्यात् । यस्मात्कारणात्त्वं | यदर्थे पुष्पसङ्घट्टाघारम्भं चिकीर्षसि, तेनापि तीर्थकरेण सिद्धान्ते इदं वक्ष्यमाणं निर्दिष्टमिति गाथार्थः ।। २२६ ।। तदेवाह %E9 % नार ॥१५८॥ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 पुष्पमाला लघुचि: ॥१५९॥ - ४ भावनाsधिकारे, भावस्तवस्य गरी स्त्वम्। -04-02- चेइयकुलगणसंघे, आयरियाणं च पवयणसुए य। सव्वेसु वि तेण कयं, तवसंजमउजमंतेण ॥२२७॥ व्याख्या-चैत्ये जिनप्रतिमायतनरूपे, कुले विद्याधरादौ, गणे तत्समुदायरूपे, सङ्घ साध्वादौ, आचार्याणां च प्रतीतानां, प्रवचने सूत्रार्थरूपे द्वादशाङ्गे, श्रुते च केवलमूत्ररूपे, एतेषु सर्वेष्वपि यत्किमपि चैत्यनिर्वर्त्तनपूजनादिक कृत्यं तत्तेन साधना कृतमेव ज्ञेयं । किं कुर्वता ? इत्याह-तपस्संयमयोर्विषये उद्यम कुर्वता, चैत्यनिवर्तनादिकैहि कुशलानुबन्धक्रमेण संयमः प्राप्यते, ततो मोक्षः । येन च सोऽपि मुक्तिनिवन्धनः संयमः प्राप्तस्तेन चैत्यनिवर्त्तनादिकं कृतमेव, तत्फलत्वात्संयमस्येति भावः । किञ्च संयमवानपादेयवाक्यो देशनादिद्वारेण शोभनचैत्यनिर्वर्तनादि करोत्यतः संयम एव यत्नो विधेयो, नान्यत्रेति गाथार्थः ॥ २२७ ॥ । अथ चैत्यविधापनासंयमपालनस्य बहुगुणत्वमाह सव्वरयणमएहि, विभूसियं जिणहरेहिं महिवलयं । जो कारिज समग्गं, तओ वि चरणं महिडियं ॥२२॥ - व्याख्या--यः सकलमपि महीतलं सर्वरत्नमयैर्जिनगृहैविभूषितं कारयेत् , तस्मादपि, आस्तामेकचैत्यमात्रकत्यातच महद्धिक, संयमपालनं बहुगुणमित्यर्थः, यतः सर्वोत्कृष्टगुणादपि श्रावकादनन्तगुणविशुद्धश्चारित्री भण्यते, अत एव कारितानेकचैत्यादयोऽपि चक्रिशकादयस्ताहनदीक्षितद्रमकमपि चारित्रिणं प्रणमन्तीति गाथार्थः ॥ २२८ ॥ आगमोक्तेनैव प्रकारेण द्रव्यस्तवाद्भावस्तवो गरीयानित्याहदव्वत्थओ यं भाव-स्थओ य बहुगुणोति बुद्धि सिया। अनिउणवयणमिणं, छजीवहियं जिणा विति॥२२९॥ छज्जीवकायसंजमो, दव्वत्थए सो विरुज्झए कसिणो। ता कसिणसंजमविऊ, पुप्फाईणं न इच्छति ॥२३०॥ RRRRRARASHARE ॥१५९॥ % Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला रुघुवृत्तिः ॥१६०॥ G .. व्याख्या--द्रव्यशब्दोच गुणवचनः कारणपर्यायो वा, ततश्च द्रव्यरूपो गौणतामापनो भावस्तवकारणभूतो वा स्तव- ५४ भावना चैत्यविधापनपूजाकरणादिना गुणवदभ्यर्चनं द्रव्यस्तवः। भावतः-परमार्थतः स्तवः-सद्गुणोत्कीर्तनान्तरङ्गप्रीत्याऽऽज्ञापालनादिना दाधिकारेकपूज्यपूजनं भावस्तवः।च शब्दौ द्रव्यभावस्तवयोः स्वस्वाधिकारिविधेयत्वे नैयत्यख्यापनपरौ। अनयोश्चान्योन्यापेक्षया द्रव्यस्तवो भरणीयत्वं द्रव्य बहुगुणः, स्वपरयोः शुभाध्यवसायस्यैव हेतुत्वातीर्थोन्नतिनिमित्तत्वाचेति कस्यचिद्बुद्धिः स्यात्तदयुक्तं, यतोऽनिपुणमतिवचनमिदं स्तवस्य सर्वद्रव्यस्तवबहुगुणत्वरूपं । कुतः इत्याह-यतः पण्णां जीवानां पृथिव्यादीनां यत्किमपि हितं तदेव जिना ब्रुवते, प्रधान मुक्तिकारण- संयमिनः । मिति गम्यते, किं पुनस्तद्धितम् ? इत्याह-पड्जीवनिकायविषयः-"पुढविदगअगणिमारुय-वणस्सइबितिचउपणिदिअजीवे । | पेहुप्पेहपमजण-परिठवणमणोवईकाए ॥१॥” इत्येवलक्षणः संयमोऽयमेव हितस्तर्हि द्रव्यस्तवेऽप्येष भविष्यति ? इत्याह| द्रव्यस्तवे क्रियमाणे स संयमः पुष्पसङ्घट्टनाद्यारम्भतः कृत्स्नः-परिपूर्णो विरुद्धयते, ततः कृत्स्नसंयमप्रधाना विद्वांसः साधवः पुष्पाद्यारम्भसाध्यं द्रव्यस्तवं नेच्छन्तीति गाथाद्वयार्थः ॥ २२९-३०॥ यद्येवं तर्हि न केनाप्यसौ द्रव्यस्तवो विधेय इत्याशङ्क्याह| अकसिणपवत्तगाणं, विरयाविरयाण एस खलु जुत्तो। संसारपयणुकरणे, दव्वत्थए कूवादटुंतो ॥२३१॥ व्याख्या-अकृत्स्नमसम्पूर्ण संयम देशविरतिरूपं प्रतयन्तीत्यकृत्स्नप्रवर्तकाः श्रावकास्तेषां विरताविरतानां, खलु | एवार्थे, तत एव द्रव्यस्तवो युक्त एव, कुतः ? इत्याह-यतोऽयं संसारप्रतानवहेतुः। ननु प्रकृत्यैव य आरम्भरूपः स श्रावकाणामपि कथं युक्त इत्याशझ्याह-तस्मिंश्च द्रव्यस्तवे कर्तव्ये कूपदृष्टान्तोऽर्हद्भिरुक्तः, यथा हि तृष्णातापादिबाधितैस्तदपगमनिमित्तं कूपख HARSHA Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति: ॥१६॥ ४भावना धिकारे ग्राह्यत्वंसालम्बनसेवायाः -OCHECCA%AROOPROCE%ERS ननारम्भ क्रियमाणेऽधिकतरं तेषां तृष्णाश्रमादयो जायन्ते, खनिते च तस्मिन् विपुलं शीतलं जलमासाद्य तेषामन्येषां च तृष्णाद्यपगमः सम्पद्यते. एवं द्रव्यस्तवे यद्यप्यसंयमो भवेत्तथापि कारितान् जिनगृहादीन् दृष्ट्वा तेषामन्येषां च स कोऽपि विशुद्धपरिणामो भवेदोभरिभवार्जितानि द्रव्यस्तवकृतानि च पापानि स्फेटयित्वा निवृति जनयति, तस्मानित्यमारम्भप्रवृत्तानां श्रावकाणां बहलाभदेतत्वाददव्यस्तवो यक्तो.न पूनस्त्यक्तारम्भाणां भावस्तवलाभवतां मुनीनां निषिद्धत्वात,निजमतिविकल्पितं पुनस्सव भवहेतरेवेत्यलम। किं पुनस्तदालम्बनं ज्ञानादिवृद्धिहेतुः? इत्याह काहं अछित्तिं अदुवा अहीहं, तवोविहाणेण य उजमिस्सं। गच्छंच नीईए (नीई अइ?)सारइस्सं, सालंबसेवी समुवेइ मोक्खं ॥२३३॥ व्याख्या-मां विना तीर्थोच्छेदापत्तेस्तस्याव्यवच्छित्तिं करिष्यामि. अथवा ज्ञानादिसाधकान् ग्रन्थानध्येष्ये, यदिवा तीव्रतपोविधानेन पुरस्ताद्यमं करिष्यामि, अथवा मां विना गच्छेऽसमञ्जसापत्तेस्तं सिद्धान्तोक्तनीत्या सारयिष्यामि-सन्मार्गे प्रवर्तयिष्ये, एवमाद्यालम्बनेन सह वर्तत इति सालम्बः-पुष्टालम्बनवान् , एवम्भृतस्सन् रोगाद्यापदं प्राप्तो यः साधुर्गीतार्थोऽनन्यतदपगमोपायः किमप्यनेषणीयमौपधादिकं सेवत इति सालम्बसेवी । सच जिनाज्ञाऽनुल्लङ्घनान्मोक्षं समुपैति-गच्छति, तस्मात्तीर्थाव्यवच्छेदादिकमेव यथोक्तं ज्ञानादिवृद्धिजनकमालम्बनं, नान्यदिति गाथार्थः ॥ २३३ ॥ ननु कुतो रोगाद्यापदपगमेऽपि ज्ञानादिवृद्धिजनकमालम्बनमन्वेषणीयं ? इत्याह| सालंबणो पडतो, अप्पाणं दुग्गमे वि पारेइ । इय सालंबणसेवा, धारेइ जइं असढभावं ॥ २३४ ॥ ॥१६॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VEGCOC पुष्पमाला रुघुवृत्तिः ॥१६॥ ४ भावना धिकारे निदोषत्वमशष्ठकृतायाः सालम्बनसेवाया: ___ व्याख्या-आलम्ब्यते-पतद्भिराश्रियते इत्यालम्बनं, तच्च द्रव्यभावभेदाद्विधा, ततश्च सहालम्बनेन वर्तते इति सालम्बनः, असौ पतन्नात्मानं दुर्गमेऽपि गर्तादौ दृढवल्ल्यादिपुष्टालम्बेनावष्टम्भतो धारयति, इत्येवमेव सहालम्बनेन वर्तन्त इति सालम्बना जिनोक्ततीर्थाव्यवच्छित्यादिपुष्टालम्बना, न स्वमतिमात्रकल्पिता अपुष्टालम्बनेत्यर्थः, सा चासौ सेवा, निषिद्धाचरणरूपा च सालम्बनसेवा कभृता संसारगर्तायां पतन्तं यतिमशठभावं-मातृस्थानरहितं धारयति, एष आलम्बनान्वेषणे गुण इति गाथार्थः ।।२३४॥ यद्येवं ततः किम् ? इत्याह|| उस्सग्गेण निसिद्धं, अववायपयं निसेवए असढो। अप्पेण बहुं इच्छइ, विशुद्धमालंबणो समणो ॥२३५॥ व्याख्या-उत्सर्गेण-सामान्यविधिरूपेण यनिषिद्धमागमे, तदप्यपवादस्यानेषणीयपरिभोगादिरूपस्य पदे रोगप्राप्त्यादिरूपे P स्थाने प्राप्तः सेवते अशठो-ऽमायावी, कुतः ? इत्याह-यतोऽल्पेन संयमव्ययेन बहु संयमलाभमिच्छत्यसौ श्रमणः । कथम्भूतः सन् ? | इत्याह-विशुद्ध-मयारहितं आलम्बनं यस्यासौ विशुद्धालम्बनः, मकारोऽलाक्षणिक इति गाथार्थः ॥ २३५ ॥ ननु प्रतिषिद्धं कुर्वन्नप्यसौ कथं न दोषभाग् ? इत्याह| पडिसिद्धं पि कुणंतो, आणाए दवखित्तकालन्नु। सुज्झइ विसुद्धभावो, कालयसूरिव्व जंभणिय।।२३६॥ व्याख्या-कालकमरिवद्र्व्यादिस्वरूपज्ञो जिनाज्ञया-"साहूण चैइयाण य, पडिणीय तह अवण्णवायं च। जिण-| पवयणस्स अहियं, सव्वत्थामेण वारेइ ॥१॥" तथा-"संघाइयाण कज्जे, चुण्णिज्जा चकवटिमवि" इत्यादिकया सामान्यतः प्रतिषिद्धमपि जन्तुघातादिकं कुर्वन् आज्ञापरतन्त्रप्रवृत्तेविशुद्धभावः शुद्धत्येव-कर्म निर्जरयत्येव, अत्रच कालकाचार्यकथा %20- ॥१६२ ॥ %2-13 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति ॥१६॥ ४ भावनाऽधि कारे निर्जरा फलत्वं यत मानस्य. विराधनायाः CRORECOROSAROORC%ak विस्तारो निपुणेनिशीथादवसेयः, तद्रहस्य तु "भगिन्याव्रतध्वंसि-विशालेशं तथा तथा । उत्खनन्नपि संशुद्धः, कालकार्यः स्फुटं ह्यदः॥१॥" ननु कथमेवं कर्म निर्जरयतीत्येतज्ज्ञायते ? इत्याह-यद्यस्माद्भणितमागमे इति गाथार्थः ।।२३६|| आगमोक्तमेवाहजा जयमाणस्स भवे, विराहणा सुत्तविहिसमग्गस्स।सा होइ निजरफला, अज्झत्थावसोहिजुत्तस्स ॥२३७॥ व्याख्या-'यतमानस्य विराधनारक्षणतत्परस्य सूत्रविधिसमग्रस्य गीतार्थस्य या काचित्पृथिव्यादिसङ्घट्टनादिका विराधना भवेत्साऽशभकर्मनिर्जराफलैव स्यात् । यदपि यतमानस्य विराधनाप्रत्ययं कर्म' तदपि प्रथमे समये बध्यते, द्वितीये निर्जरयति. वतीये त्वकर्मा भवतीति सिद्धान्तरहस्यं । कीदृशस्य ? इत्याह-अध्यात्मविशुद्धियुक्तस्येति गाथार्थः ॥ २३७ ॥ कथं विराधनाऽपि निर्जगफला ? इत्याह४ जे जत्तिया य हेऊ, भवस्स ते चेव तात्तिया मुक्खे। गणणाईया लोगा, दोण्ह वि पुण्णा भवे तुल्ला॥२३॥ है व्याख्या-रागद्वेषाज्ञानवतां जन्तूनां वधाद्यनिवृत्तानां वितथप्ररूपणादिप्रवृत्तानां ये सूक्ष्मवादरजीवसर्वद्रव्यादयो भावा यावन्मात्राश्च हेतवो-निमित्तानि संसारस्य, रागादिविरहितानां सम्यक् श्रद्धानवतामवधावितथप्ररूपणादिप्रवृत्तानां त एव सर्वजीवादयो भावास्तावन्मात्रा हेतवो मोक्षे-मोक्षस्यापीस्यर्थः, उक्तं च-"अहो!!ध्यानस्य माहात्म्य, येनैकाऽपि हि कामिनी। | अनुरागविरागाभ्यां, स्याङ्कवाय शिवाय च ॥१॥" ननु भवत्वेवं, किन्तु कियत्सङ्ख्या अमो भवशिवहेतवः? इत्या -द्वयोरपि भवमोक्षयोः सम्बन्धिनां हेतूनां प्रत्येक BRORSCRIBECASSREEN ॥१६३॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१६४॥ गणनया एक द्वित्र्यादिरूपतयाऽतीता-अतिक्रान्ता लोका भवन्ति पूर्णाः, नैकेनाप्याकाशप्रदेशेनहनाः, परस्परं तुल्या - अन्यूनाधिकसङ्ख्याः । ननु त्रैलोक्यान्तर्वर्त्तिजीवादिपदार्थानामनन्तत्वेनानन्ता एव भवमोक्षयोर्हेतवो भवन्त्यतस्ते कथं असङ्ख्येया इत्युक्तं ! सत्यं, यद्यपि जीवादयो भावा अनन्तास्तथापि तैः सर्वैरपि विसदृशान्यसङ्ख्येयान्येवाध्यवसायस्थानानि जन्यन्ते, नानन्तानि, | तेभ्यः परतो ऽन्याध्यवसायानां पूर्वाध्यवसायेष्वेवान्तर्भावात्, अतस्तज्जन्याध्यवसायस्थानानामसब्येयत्वेनार्था अप्युपचारादसंख्येयत्वेनोक्ता इत्यदोषः, अतः स्थितमेकाऽपि जीत्रोपमर्दादिका विराधना परिणामवैचित्र्येण कर्मबन्धहेतुस्तन्निर्ज्जरा हेतुश्च जायत इति गाथार्थः ॥ अथ जीवादयोऽर्थाः येषां बन्धहेतवो येषां च मोक्षहेतवो भवन्ति, तदाह- इरियावहियाईया, जे चेव हवंति कम्मबंधाय । अजयाणं ते चेव उ, जयाण निव्वाणगमणाय ॥२३९॥ व्याख्या - ईरणं ईर्ष्या - गमनं, तदुपलक्षितः पन्था ईर्यापथो-गमनमार्गस्तत्र भवमैर्यापथिकं गमनागमनं च तदादियैषां भोजनशयनादीनां ते ऐर्यापथिकादयो भावा य एवायतानां असंयतानां कर्मबन्धाय जायन्ते, त एव च यतानां - संयमोद्योगपराणां पुनर्निर्वाणगमनाय भवन्तीति गाथार्थः ॥ २३९ ॥ एगंतेण निसेहो, जोगेसु न देसिओ विही वावि । दलियं पप्प निसेहो, होज विही वावि जह रोगं ॥ २४०॥ व्याख्या - योगेषु - गमनागमनभोजनादिषु तीर्थकरेरेकान्तेन निषेधो विधिर्वा न दर्शितः, किन्तु दलिकं- जीवद्रव्यं 'प्राप्य ' समाश्रित्य निषेध विधिर्वा भवेत् । दृष्टान्तमाह-यथा रोगे । इदमुक्तं भवति-य कथिद्वैद्योथा ज्वरादावृत्पन्न कश्चित्पवनपीडित | परिभाव्य तस्मिन् लङ्घनादिकं निषेधयति, स्निग्धोपचारादिकं त्वनुजानति, अन्यं तु तस्मिन्नेव ज्वरेऽजीर्णपूर्ण परिभाव्य व्यत्यय ४ भावनाऽधि कारे समत्वं भवमोक्षयोहेतूनाम् । ॥ १६४ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१६५॥ मादिशति, एवं जिना अपि तथाविधसंहनन विकलं अध्ययनादिप्रवृत्तं साधुद्रव्यमाश्रित्य विकृष्टतपः कर्मादिकं निषेधयन्ति, स्निग्धाहारादिकं स्वनुजानन्ति, अन्यं तु दृढसंहननं विज्ञाय तस्मिमेव कर्मरोगे चिकित्सनीये व्यत्ययमेवादिशन्ति, एकस्यैव वा जीवद्रव्यस्य देशकालादिभेदेन कृत्य भेदमादिशन्तीति गाथार्थः ॥ २४० ॥ एवं च सति मुज्यमानाहारादिकोऽर्थः कस्यचिन्न बन्धादिकारणं, किन्तु स्वपरिणाम एवेत्याहअणुमित्तोवि न कस्सइ, बंधो परवत्थुपच्चयो भणिओ। तह वि य जयंति जइणो, परिणामविसोहिमिच्छंता ॥२४१ ॥ व्याख्या—परवस्तुप्रत्ययाद्वाह्यार्थकारणादणुमात्रोऽपि स्वल्पोऽपि न कस्यचिद्वन्धो मोक्षो वा मणितः, किन्तु स्वपरिणामवशादेवेति भावः । यद्येवं तर्हि शुद्धमनसो बाह्यासु प्राणातिपातादिचेष्टासु यथेष्टं वर्त्तामहे इत्याशङ्क्याह- तथापि यतन्ते - प्रयत्नं कुर्वन्ति मुनयः, प्राणातिपातवर्जनादिष्विति शेषः, किं कुर्वन्तः १ इत्याह- परिणामस्यैव विशुद्धिमिच्छन्तोऽन्यथा च तच्छुद्धेरयोगादिति गाथार्थः ॥ २४१ ॥ ननु प्राणातिपातादिकं कुर्वन्तः परिणामं शुद्धमेव करिष्यामः ? इत्यत्राह - जो पुण हिंसाययणे-सु वट्टई तस्स नणु परिणामो । दुट्ठो न यतं लिंग, होइ विसुद्धस्स जोगस्स ॥ २४२ ॥ व्याख्या - यः पुना रागादिदूषितचित्तः घटतया हिंसायतनेषु हिंसास्थानेषु उपलक्षणत्वान्मृषावादादिपदेषु चानेकशः प्रवर्त्तते, नन्त्रित्यक्षमायां इन्त तस्य परिणामो दृष्ट एव, न च वाङ्मात्रेणैव परिणामशुद्धता ज्ञायते, किन्तु क्रियाद्वारेण न च वाच्यं कालकार्यस्येवास्माकमपि हिंसादिप्रवृत्तिरपि शुद्धपरिणामस्य लिङ्गं भविष्यति इत्याह-न च तद्धिसास्थानादिवर्त्तनं विशुद्धस्य योगस्य मनःपरिणामरूपस्य लिङ्गं-चिह्नं मत्रति, यो हि सम्धगज्ञानवान् रामाद्यदूषितमना सर्वदा जीवरक्षादिपरिणतोऽनन्योपायसाध्ये महाकार्ये समुत्पन्ने कदाचिदेव दिसादों प्रवर्त्तते, तस्य युद्धपरिणाम चिन्हमपि तद्भवति, यस्तु रागादिदोषदुष्ट एव तेषु प्रवर्त्तते तस्य सङ्क्लिष्टपरिणाम चिन्हमेवेति गाथार्थः ॥ २४२ ॥ ४ भावनाधि कारे स्वपरिणाप्रस्येव कारणत्वं बन्धमोक्षयोः ॥ ॥१६५॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१६६॥ किम्बहुना सर्व प्रवचनतात्पर्यमेवाह पडिसेहो य अणुन्ना, एगंतेण न वन्निया समए । एसा जिणाण आणा, कज्जे सच्चेण होयव्वं ॥ २४३ ॥ व्याख्या - एकान्तेन समये - सिद्धान्ते प्रतिषेधोऽनुज्ञा च न वर्णिता, किन्त्वेवैव सर्वजिनानामाज्ञा - यत्कार्ये औषधादिविषये सत्येन - मायारहितेन भाव्यम् । एषणादिशुद्धे तस्मिन्प्राप्यमाणे शठतयाऽनेषणीयादिदुष्टं तन्न ग्राह्यमित्यर्थः इति गाथार्थः ॥ २४३ ॥ तथादोसा जेण निरुम्भंति, जेण खिजंति पुव्वकम्माई । सो सो मुक्खोवाओ, रोगावस्थासु समणं व ॥ २४४॥ व्याख्या - येनकेनापि च प्रकारेण दोषा रागादयो निरुन्ध्यन्ते येन च पूर्वार्जितानि कर्माणि क्षायन्ते स स मोक्षोपाय एव, यथा हि रोगावस्थायां तदेव शमनं औषधं रोगमोक्षोपायो, येन पूर्वसञ्चिताजीर्णादयः क्षीयन्ते, वातादयस्तु निरुन्ध्यन्ते इति गाथार्थः ॥ २४४ ॥ अपरश्च बहुवित्थर मुस्सगं - बहुयरमववायवित्थरं नाउं । जेण न संजमहाणी, तह जयसू निज्जरा जह य ॥ २४५ ॥ व्याख्या - बहुविस्तरं उत्सर्ग बहुतरविस्तरमपवादं च ज्ञात्वा येनोत्सर्गेणापवादेन वा सेवितेन संयमयोगानां हानिर्न भवति, यथा च कर्मनिर्जरा स्यात्तथा यतस्वति गाथार्थः ॥ २४५ ॥ उक्तो बहुधोत्सर्गापवादविधिः, अथैतयोः स्वरूपमाहसामनेस्सग्गो, विसेसओ जो स होइ अववाओ । ताणं पुण वावारे, एस विही वण्णिओ सुत्ते ॥ २४६ ॥ व्याख्या - सामान्येनैव यो विधिरुच्यते स उत्सर्गः, यथा - "गोयरग्गपविट्ठो य, न निसीएज कत्थई । [ कई चन पबंधेजा, चिट्टित्ता णवसजए || १ | " ] इत्यादि [ दश० अ० ५ उ० २ गा०८] विशेषतो विशेषप्रोक्तो यो विधि ः सोऽपवादः, ४ भावनावि कारे एकान्तनिषेधानुज्ञयो रननुज्ञापना त्मकत्वं जिनशासनस्य । ॥ १६६ ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१६७॥ % % CAREERERAKALA 5|| यथा-" तिहमण्णयरागस्स, निसेज्जा जस्स कप्पह। जराए अभिभूयस्स, वाहियस्स तवस्सिणो ॥१॥” [दश० ६-६०] तयोः पुनरुत्सर्गापवादयोापारे एष वक्ष्यमाणो वधिर्वर्णित: सूत्रे-सिद्धान्ते इति गाथार्थः ॥२४६॥ सूत्रोक्तमेव चाह Be मावनाधिहै उस्सग्गे अववाय, आयरमाणो विराहओ होइ । अववाए पुण पत्ते, उस्सग्गनिसेवओ भईओ ॥ २४७ ॥ कारे विराधकव्याख्या-लानाद्यवस्थायामुत्सर्गे चिकित्सादिकं विनाऽपि संयमयोगनिर्वाहरूपे प्राप्ते अपवाद-चिकित्साकारणादिकमाचरन त्वमुत्सर्गापवासाधुर्विराधको भवति, अपवादे-चिकित्साकारणादिके पुनः प्राप्ते उत्सर्गनिषेवकश्चिकित्सादिकमकुर्वन् मजनीयो-विकल्पनीय:, कश्चिच्छुद्धः il दयोविपर्यय|| कश्चिन्नेत्यर्थः इति गाथार्थः ॥२४७॥ एतदेव सप्रश्नोत्तरमाइ करणे॥ ६. किह होइ भइयव्यो ?, संघयणधिईजुओ समत्थो य । एरिसओ अववाए, उस्सग्गनिसेवओ सुद्धो ॥२४॥ 5 इयरो उ विराहेई, असमत्थो जं परीसहे सहिउँ । घिसंघयणेहितो, एगयरेणं व सो हीणो ॥२४९॥ | __ व्याख्या-कथमसौ भजनीयो भवतीति शिष्यप्रश्नः, उत्तरमाइ-वर्षमनाराचादिदृढसंहनेन धृत्या च संयमस्थैर्यरूपया यो युक्तः, समर्थश्च-बलोपचयसम्पन्नश्च, ईसः साधुर्जिनकल्पिकादिरपवादप्राप्तावप्युत्सर्ग निषेत्रमाणः शुद्ध एव । तस्येत्यमप्यार्तध्यानाधसम्मवादिति हृदयम् । इतरस्तु कश्चिदसारवपुरपवादप्राप्तावुत्सर्ग सेवमानः आत्तध्यानादिसम्भवेन विराधयति, संयममिति गम्यते । कुतः १ इत्याह ॥१६७॥ यद्यस्मादसमर्थोऽसौ परीषहान क्षुत्पिपासादीन सेढुं। इदमपि कुतः ? इत्याइ-धृतिसंहननाम्यां द्वाभ्यामन्यतरेण वा यतोऽसौ होनो-ऽबल इति गाथाद्वयार्थः ॥ २४८-२४९ ॥ अथोत्सर्गापवादादिज्ञानगहनं जिनवचनं विभाज्याह Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो मज्झत्थेहिं हम, विभावणी पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१६८॥ जिनवर व्याख्या-जिनवचनं तावद् गम्भीर | ४ भावनाधिकारे उत्सर्गापवादमयस्वाद गम्भीरत्वं जिनोपदेशस्य। GLO-NCREAGECOMMENDAGOG गंभीरं जिणवयणं. दविन्नेय अनिउणबुद्धीहिं । तो मज्झत्थेहिं इम, विभावणीयं पयत्तेणं ॥ २५० ॥ । व्याख्या-जिनवचनं तावद् गम्मोर-महाथै, अत एवानिपुणबुद्धिमिविज्ञेयम्, तस्मान्मध्यस्थै-रागद्वेषकदाग्रहाद्यदूषितचित्तरेतजिनवचनं प्रयत्नेन विभावनीयं-विचारणीयमिति गाथार्थः ॥ ३५०॥ ननु यद्येवं ताहि अतिगम्भीरे जिनप्रवचने कोऽपि चारित्री कोऽपि न वा इति न निश्चीयते, तदनिश्चये च सर्वव्यवहारामावप्रसङ्ग इति का पुनश्चारित्रविषये तावत्परमार्थः ? इत्याहउस्सग्गऽववारविऊ, गीयत्थो निस्सिओ य जो तस्स । अनिगृहंतो विरियं, असढो सव्वत्थ चारित्ती ॥२५॥ व्याख्या-यः स्वयमेवोत्सर्गापवादस्वरूपव्यापारादिवेत्ता, गीतार्थों-गृहीतसम्यक्परिणमितसिद्धान्तपरमार्थाचार्यादिः, यश्च स्वयमनधीततथाविषसूत्रार्थस्तस्येति गीतार्थस्य निश्रितः शिष्यादिः, सस्ववीर्य सर्वत्रानिगूड्यन, स्वशक्तितस्तपासयमादिद्यम अमुश्चमित्यर्थः, सर्वत्र च वैयावृत्यादिकर्तव्येऽशठा ऽमायावी, कालोचित्येन यतमानश्चारित्रीति व्यवहियत इति गाथार्थः ॥ २५१ ।। ___अथ चरणशुद्धेरेव फललक्षणं चरमद्वारमाहरागाइ दोसरहिओ, मयणमयठाणमच्छरविमुको । जं लहइ सुहं साहू, चिंताविसवेयणारहिओ ॥२५२ ।। | तं चिंतासयसल्लिय-हियएहिं कसायकामनडिएहिं । कह उवमिजइलोए, सुरवरपहुचकवट्टी हिं ॥ २५३ ॥ व्याख्या-रागादिदोषरहितो मदनेन मदस्थानमत्सरेण च विमुक्तः, आदिशब्दलब्धा अपि मदनादयोऽतिदुजेयत्वख्यापनार्थ टू पृथगुक्ताः, द्रविणोपार्जनरक्षणव्ययादिचिन्तैव विषवेदना, तया च रहितः साधुर्यत्सुखमत्रापि लभते तत्सुख लोके चिन्ताश्तशल्यितहृदयैः windime ॥१६८॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१६९॥ AAAAAAPra कषाय कामविडम्बितैश्च सुरवरप्रभुचक्रवर्तिभिः कथमुपमीयते ? कथं शक्रचक्रवर्तिमुखसदृशं माधुसुखं गीयते १, न कथञ्चिदित्यर्थः । तस्मा- 1|| दनन्तगुणत्वात्तस्येति भावः । इदमुक्तं भवति-नारकास्तियञ्चश्च प्रायो दुःखिता एयेति न तचिन्ता, देवा भपीयाविषादमदादिमिरातरौद्रध्यानोपगता नित्यं दुःखिता एष, मनुष्या अप्यद्य-" अनं नास्त्युदकं नास्ति, नास्ति तैलं घृतं धनं । इन्धनं लवणं नास्ति, कथं भावि?| ४ भावनाधि कुटुम्बकम् ॥१॥ अद्य द्विष्टः प्रभू रुष्टः, कुमार्यस्ति सुता सुतः । नार्जयत्यर्थमित्यादि-महाचिन्ताविडम्बिताः ॥ २॥" अनेक व्याधि || कारे अनौपम् बाधिताश्चेति । नित्यं चिन्तादिवर्जिता जिनवचनरताः साधव एवेहमवेऽपि सुखिन इति गाथाद्वयार्थः ॥ २५२-५३ ॥ वीतराग मुख ननु यदि शक्रादिभ्योऽप्यनन्तगुणसुखाः साधवस्ताहि कथं परीषदादिदुःखामावेन सुखितानेव तानावगच्छा : ? इत्यत्राह पैहिकं पर ज लहइ वीयराओ, सुक्खं तं मुणइ सुच्चिय न,अन्नो। नहि गत्तासूयरओ, जाणइ सुरलोइय सुक्ख ॥२५॥ फलं च। व्याख्या-विशेषेण 'इत: सर्वथैवापगतो मन्दीभूतोवा रागो-मायालोमरूपो यस्य स तथा, रागापगमे च क्रोधमानात्मकद्वेषापगमो लभ्यत एव, द्वेषक्षयं विना गगक्षयायोगात् । ततो वीतरागद्वेषो मुनियत्प्रशमसुखं लगते तदनुभवसिद्धत्वात्स एव जानाति, नान्यो रागादिविषमूञ्छितः, येन ह्यनादिभवादारयाद्यापि प्रशमसुखलेशोऽपि नानुभूतः स कथमिव परकीयमन:स्वास्थ्यरूपं प्रशमसुख कथ्यमानमपि जानाति श्रद्दधाति वा ? इति भावः । एतदेवाह-न हि स्वयमननुभूतं सुग्लोकसृखं सदैवाशुचिममात्रनिमग्नो गर्दाशूकरो वगः समवेतीति गाथार्थः ॥ २५४ ॥ तदेवमहिकं चरणफलमुपदश्योपसञ्जिहीर्घः पारत्रिकं च तद्दिदर्शयिषुराहइय सुहफलयं चरणं, जायइ एत्थेव तग्गयमणाणं । परलोयफलाई पुण, सुरनरवरसिद्धिसोक्खाइं ॥२५५|| ॥१६९॥ व्याख्या-"एस्थेव" ति इह लोके एव चरणं-चारित्रं इत्युक्तस्वरूपं सुखफलदं जायते, केषां ? इत्याह-तद्गतमनसा-चरण Arror Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१७॥ संप्रति भावितचित्तानां, न पुनस्तदुद्विग्नानां, उक्तंच-“देवलोयसमाणो य, परियाओ महेसिणं । रयाणं अरयाणं तु, महानिरयसारिसो॥१॥" ति [दश. चूलि. १गा.१०], परलोकफलानि पुनरनन्तरमवे एव चारित्रिणां दिव्यदेवेन्द्रसुखानि जायन्ते, ४ भावनाधिततोऽपि च्युतानां नरवरा-बक्रवादयस्तत्सुखानि सम्पद्यन्ते, ततश्चानन्तानि सिद्धिसम्बन्धिसुखान्यपि भवन्तीति गाथार्थः ॥ २५५ ।। प्रकारे पारत्रिके तिष्ठतु तावत्परिपूर्णेन, एकदिनमाविनाऽप्यव्यक्तसामायिकचरणेन परलोके राज्यादिश्रीः प्राप्यत एवेत्या: चरणफले अन्यत्वेण वि सामा-इएण तह एगदिणपवन्नणं । संपइराया रिद्धि, पत्तो किं पुण समग्गेणं ? ॥ २५६ ॥ व्याख्या-अव्यक्तेन तथैकदिनप्रपमेनापि सामायिकेन हेतुना सम्प्रतिराजः ऋद्धि राज्यादिरूपां प्राप्तः, कि पुनः समग्रेण-पूर्णेन ? नृपोदाहरणम् । इत्यक्षरार्थः, भावार्थः कथानकेनोच्यते कौशाम्ब्यां दुर्भिक्षे प्रवृत्तेऽन्यदा सुहस्तिमूरिसाधूनां लोकैरनादिकं बह्वाग्रहे क्रियमाणे दीयमानं दृष्ट्वैकेन द्वारस्थेन रङ्कपुरुषेण चिन्तित'तुल्येऽपि जीवितव्येऽभ्यर्थनाशतैः स्निग्धमधुगण्येकान्तनिरीहाणां पर्यटतामेतेषां जनो ददाति, मम पुनः पापस्य प्रतिगृहं प्रार्थयमानस्याप्यमनोज्ञं रूक्षान्नमिक्षाग्रासमपि न ददाति, केवलमाक्रोशल्लिमे, तदेतान सुकृतिनः किमपि प्रार्थये' इति प्रार्थिता मुनयो दीक्षां तैरमाणि-गुरव इदं विदन्ति, ततः स पृष्टलग्नो गुर्वन्तिकमगादीक्षामयाचत, असौ शासनप्रभावको भावीति ज्ञात्वा गुरुमिर्दीक्षितः सद्भोजनेन मोजितश्च, रात्रौ गाढ विशूचिकया गुरुभिर्निर्यामितः शुद्धध्याने वर्तमानो मृतः। इतश्च पाटलिपुत्रे पुरे चाणिक्यस्थापितचन्द्रगुप्तसुतो बिन्दुसार | ॥१७॥ स्तत्सुतोऽशोक श्रीस्तस्य सुतः कुणालस्तस्य सुतो द्रमकजीवः सम्प्रतिनामाऽमवत, स चाव्यक्तसामायिकप्रभाषेण अनार्यानपि वशीकृत्य भरतार्धाधिपो जातः। अन्यदोजयिन्यां गवाक्षस्थो जीवत्स्वामिप्रतिमावन्दनार्थमागतं श्रीहस्तिमरि नगरीराजमार्गे दृष्ट्वा जातजातिस्मृतिर्गत्ग Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१७॥ तमवन्दत । गुरुणां पार्श्वे धर्मदेशनां श्रुत्वा पृष्टम्-किंफलो जिनधर्म: १ इति, गुरु[भिरूचे-स्वर्गापवर्गफलः । पुनः सामायिकस्य किं फल मिति प्रश्ने अव्यक्तमामा यकस्य राज्यं फलमित्युक्त जात दृढप्रत्ययो राजा पप्रच्छ-भगवन् ! प्रत्यभिज्ञायते ? कोऽामिति । गुरवः श्रुतोपयोगपूर्व शाखा प्राहु:-कामं जानीमः, राजन् ! पुग यूयं अस्मच्छिष्या अभूवन कौशयां, ततो हष्टो ज्ञानादिगुरुगुणविस्मितः श्रावकधर्म प्रतिपद्य 9 भावनाधिविधिवत्करोति । स च जिनप्रासादमण्डितां मेदिनीमकारयत. श्रीजिनधर्मोन्नत्यर्थ साधुवेषैः प्रेषितश्राद्धैग्नार्यदेशेषु दण्डदायिनृपमुख्या लकारे पारत्रिके न्मनुष्यान [पति जिनधर्म कारितवान् । ततः कियत्कालं अनार्यदेशेष्वपि सुसाधुविहारोऽभवत् । पुनर्बहूनां अयोग्यकुलानां योगादल्पानां चाणफले संपति नृपोदाहरणम्। य ग्यकुलानां सम्भवः स्थितः। अथान्यदा नृपः पूर्वमवरङ्कत्वं स्मग्न चतुर्वपि नगरद्वारेषु महादानशालाः कारयित्वा महादानं ददत्, तत्रोदगिरितमधनादिमहानसिकेभ्यो मूल्येन गृहीत्वा साधुभ्यो यच्छति, प्रच्छमामूल्यदानं चाविदन्तः साधवस्तद्गृहन्ति । एवं च सति सर्वजनोऽप्येवमेव प्रवृत्तः । तच्च विदन्तोऽप्याचार्याः शिष्यानुगगान निवारयन्ति । अथैकदा तज्ज्ञात्वा आर्यमहागिरिमायः आर्यसुहस्तिनमुपालभन्ते, स भणति-जनो गजाऽनुवृत्या स्वयं ददाति, काऽत्रानेपणा ? इति, ततः परिर्माया एषा इति कुपितः प्राह-आर्य ! इतः प्रभृति त्वया | सहासम्भोगोऽस्माकं । ततः सुहस्तिमिर्गुरून् क्षामयित्वा मिथ्यादुष्कृतं दत्तम् । ततोऽन्यत्र विजहुः। श्रीसम्प्रतिरपि श्रावकत्वं प्रपाल्य | वैमानिको जातः, क्रमेण सिद्धि यास्यति । अव्यक्तमप्येवं फलं कि पुनः प्रतिपूर्ण सामायिकमिति सम्पतिराजकथा समाप्ता || इत्युत्सर्गापवादाभ्यां, शुद्धं निगदितं जिनः। चारित्रं प्रतिपन्नो हि, प्राप्नुयात्परमं पदम् ॥१॥ इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे चरणशुद्धिरूपं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥ ७ ॥ THeman Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१७२।। ECA%EA %A9-%AA% अथ करणजयलक्षणं प्रतिद्वारं चिमणिषुः पूर्वद्वारेण सह सम्बन्धगो गाथामाइ| अजिइंदिएहिं चरणं, कट्ठ व घुणेहिं कीरइ असारं । तो चरणऽत्थीहिं, दढं जयव्वं इंदियजयम्मि ॥२५७॥ ४ मावनाधि व्याख्या-घुणे-मध्ये सारभूतमक्षणपरैः कीटविशेषः काष्ठमिव अजितेन्द्रियैः कष्टानुष्ठानं कुर्वद्भिरप्पनिवृत्तरसनादिलोल्यैः साधुभिः || कारे इंद्रियवरणमसार-अन्तस्तस्त्रशून्यं क्रियते, ततः सारचरणार्थिभिरिन्द्रियजये दृढं यतितव्यमिति गाथार्थः ॥ २५ ॥ जयोपदेशातत्अथ प्रस्तुतद्वारेण मणिष्यमाणार्थसङ्ग्रहमा: । प्रतिभेदाच । || मेलो' सामित्तं चिय, संठाण पमाण तह य विसओ' यो इंदियगिद्धाण तहा, होइ विवागो य भणियन्वो॥ व्याख्या- इन्द्रियाणां भेद:-प्रकारो वाच्यः, तथा केषां जीवानां कतीन्द्रियाणि स्युरित्येवं रूपं स्वामित्वं च वाच्यम्, कदम्मपुष्प गोलकाद्याकार संस्थानं, अङ्गुलासङ्ख्येयमागादिकं प्रमाण, द्वादशयोजनादिको विषयः, इन्द्रियगृद्धजन्तूनां विषाकश्चैहिकदुःखादिको मणिष्यत इति गाथार्थः ।। २५८ ॥ तत्र पश्चविधत्वरूपं भेदमाह___ पंचेव इंदियाई, लोयपसिद्धाई सोयमाईणि । दबिंदियभाविंदिय-भेयविभिन्नं पुणिकिकं ॥ २५९ ॥ व्याख्या-लोकप्रसिद्धानि श्रोत्रादीनि पञ्चैवेन्द्रियाणि, तद्वैविध्यमाह-द्रव्येन्द्रियभावेन्द्रियभेदाभ्यां विभिन्न पुनरेकै श्रोत्रादि ॥१७॥ द्विभेदमिति गाथार्थः ।। २५९ ॥ तत्र द्रव्येन्द्रियमावेन्द्रिययोः स्वरूमार| अतो बहिनिव्वत्ता, तम्सत्तिसरूवयं च उवगरणं । दविदियमियरं पुण, लद्भुवओगेहिं नायव्वं ॥२६०॥ AAAA Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१७॥ व्याख्या-भवणादीन्द्रियाणां 'मन्तमध्ये पागोचगतीता केवलिदृष्टा कदम्पपुष्पगोलकाद्याकारा देहावयवमात्ररूपा या निर्वृत्तिः साऽन्तर्नित्तिः, पहिनिवृत्तिस्तु बहिरेव श्रोत्रादीनां कर्णशकुलिकादिका दृश्यमानाऽवगन्तव्या, तेषामेव कदम्बगोलकाकारादीनां या स्वस्वविषयग्रहणशक्तिस्ततस्वरूपं चोपकरणं द्रष्टव्यम्, ततोऽन्तर्बहिश्च या निवृत्तिस्तस्या अन्तहिनिवृत्तेः शक्तिस्तत्स्वरूपं च यदुपकरणं, र भावनाधिएतद्वितयमपि द्रव्येन्द्रियमुच्यते, "निवृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्" इति [तच्चा० २-१७] वचनात् । इतरद-भावेन्द्रिय पुनर्लब्भ्युपयोगाभ्यां कारे इन्द्रियाकसातव्यम् । तत्र नावणादिकर्मक्षयोपशमाजीवस्य शब्दादेडणशक्तिलब्धिः, उपयोगस्तु शब्दादीनामेव ग्रहणपरिणामः, एतत्तु द्वयमपि | तितत्स्वामित्व मावेन्द्रियमिति मावः, इति गाथार्थः ॥ २६ ॥ अथ स्वामित्वद्वारमाह निरूपणम् । पुढविजलअग्गिवाया, रुक्खा एगिदिया विणिहिट्टा। किमिसंखजलूगालस-माइवहाई य बेइंदी ॥२६१॥ कुथुपिपीलियपिसुया, ज्या उद्देहिया य तेइंदी । विच्छुयभमरपयंगा, मच्छियमसगाइ चउरिंदी ॥२६२॥ मूसयसप्पगिलोइय--बभणिया सरडपक्खिणो मच्छा।गोमहिस ससय सूअर--हरिणमणुस्सा य पंचिंदी॥२६३॥ व्याख्या-क्ष्मवादरादिभेदभिन्नाः पृथिव्यादयः एक-स्पर्धनमेवेन्द्रियं येषां ते एकेन्द्रिया विनिर्दिष्टाः। कम्यादयो द्वे-स्पर्शनसने इन्द्रिये येषां ते द्वीन्द्रियाः । कुन्थ्वादयः त्रीण-स्पर्शनरसमघ्राणानीन्द्रियाणि येषां ते श्रीन्द्रिया।। वृश्चिकादयश्चत्वारि-स्पर्धनरसनघ्राण- IN चक्षूषीन्द्रियाणि येषां ते चतुरिन्द्रियाः। मूषकाद्याः पञ्च-पर्शनासनप्राणचक्षःोत्राणीन्द्रियाणि येषां ते पञ्चेन्द्रियाः। "पिसुय" ति सुलभकाम, सरडा-कुकलाशा:, “माइवह" ति मातृवहका ये काष्ठखण्डानि समानि सम्बध्नन्ति, शेषं व्यक्तमिति गाथात्रयार्थः ।।२६१-६२-६३॥ ॥१७३॥ संस्थानद्वारमाह ARE Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१७४॥ BAEESAK कार्यवपुप्फगोलय-मसूरअइमुत्तयस्स पुष्पं व । सोयं च घाणं, खुरप्पपरिसंठियं रसणं ॥ २६४ ॥ नाणागारं फासिं--दियं तु ४ मावनाधि प्रकारे इंद्रियाक व्याख्या-श्रोत्रं चक्षुर्घाणं रसनमिति चत्वारीन्द्रियाण्यन्तनिवृत्तिमाश्रित्य क्रमेण कदम्पपुष्पगोलक १ धान्यममुर २ अतिमुक्तक- तितषियपरिकाइलापुष्प ३ क्षुरप्र-प्रहरण ४ संस्थानानि मन्तव्यानि । स्पर्शनेन्द्रियं तु नानासंस्थान, तद्व्याप्यानां सर्वजीवशरीराणामसङ्ख्येयत्वाच- माणनिरूपणम्। दाकारपरिणतं स्पर्शनमप्यसङ्ख्येयाकारमिति भाव इति सपादगाथार्थः ॥ १६४ ॥ प्रमाणद्वारमाश्रित्याह बाहल्लओ य सव्वाई। अंगुलअसंखभागं, एमेव पुहुत्तओ नवरं ॥ २६५॥ अंगुल पुहुत्तरसणं, फरिसं तु सरीरवित्थडं भणियं । व्याख्या-श्रोत्रादीनि सर्वाण्यप्यन्तनिवृत्तिमाश्रित्य पाहल्यत:-स्थूलतया प्रत्येकमगुलासङ्ख्येयभागप्रमाणान्येव, पृथुत्वमाश्रित्याप्येतदेव प्रमाण, नवरं-उत्कृष्टतो रसनेन्द्रियंकस्यचिदगुलपृथक्त्वमपि पृथुलं भवति, स्पर्शनेन्द्रियं तु स्वाधारभूतशरीरविस्तारोपेतं द्रष्टव्यमिति सार्द्ध[पादोन] गाथार्थः ॥ १६५ ॥ अय विषयद्वारमा:. बारसहिं जोयणेहिं, सोयं परिगिण्हए सई ॥ २६६ ॥ रूवं गिण्हइ चक्खं, जोयणलक्खाउ साइरेगाउं । गन्धं रसं च फासं, जोयणनवगाउ सेसाइं ॥ २६७ ॥ | ॥१७४॥ व्याख्या-श्रोत्रं तावन्मेघगर्जनादिशब्दरूपं स्वविषयमुत्कृष्टतो द्वादशमिर्योजनैर्व्यवहितमागतं परिगृह्णाति-शृणोति, न परतः । HEROINSIBABAADAGA A CHCHICE Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१७५॥ चक्षुः पुनरुत्कृष्टतो योजनलक्षात्सातिरेकाद्रपं गृह्णाति, विष्णुकुमारादेहिं कृतसाधिकलक्षयोजनमानवैक्रियदेवस्य स्वचरणपुरोवर्तिगर्ताद्यन्तर्गत लेष्ट्वादिकं पश्यतश्चक्षुषः सातिरेकयोजनलक्षविषयता द्रष्टव्या, एतच्चामासुरपदार्थापेक्षयोक्तं, भास्वरं त्वधिकमपि पश्यति, यथा"पणसयसत्तत्तीसा, चउतीससहस्सलक्खहगवीसा । पुक्सरदीबड्ढनरा, पुल्येणऽवरेण पिच्छंति ॥ १॥” इति । भावनाधिशेषाणि पुनर्घाणरसनस्पर्धनेन्द्रियाणि यथासङ्ख्यं गन्धं रसं प च प्रत्येकमुत्कृष्टतो योजननवकादागतं गृहन्ति, न परतस्तथाहिकश्चित्पटुघ्राणादिशक्तिर्देवादिः कर्पगदीनामुत्कृष्टतो नवयोजनान्तरितानामपि आगतं गन्धं गृह्णाति, तिक्तकटुकादिरसं च वेत्ति, शीतादि- तितद्विषयपरिस्पर्शमपि परिच्छिनत्तीति सार्द्धगाथार्थः ।। ६६-६७ ॥ जघन्यत: पुन: कियदुरस्थितं स्वविषयमेतानि गृह्णन्तीत्याइ |P माणनिरूपणम्। अंगुल असंखभागा, मुणंति विसयं जहन्नओ मोत्तं । चक्खं तं पुण जाणइ, अंगुलसंखेजभागाओ॥२६॥ ____ व्याख्या-चक्षुर्मुक्त्वा शेषाणि सर्वाण्यपि इन्द्रियाणि जघन्यतोऽङ्गुलासङ्ख्येयमागे स्थितं प्रत्येकं म्नविषयं गृहन्ति, तर्हि चक्षुषः |ळू का वात्याह-तत्पुनश्चक्षुर्जानाति जघन्यतो रूपं अङ्गुलसङ्ख्येयमागे स्थितं, अतिसन्निकृष्टस्य चक्षुषा अनुपलम्मादसङ्ख्येयभागस्थितं अत्यासन चक्षुर्न पश्यत्येवेति गाथार्थः ॥ २६८॥ नन्विन्द्रियार्थगृद्धिविपाक एव वाच्यः, तस्यैव वैराग्यजनकत्वात, किमिन्द्रियमेदादिकथनेन ? इत्या:इय नायतस्सरूवो, इंदियतुरए सएसु विसएसु । अणवरयं धावमाणे, निगिण्हइ नाणरज्जूहि ॥ २६९ ॥ व्याख्या-इत्युक्तप्रकारेण ज्ञातेन्द्रियभेदादिस्वरूप एव पुरुष इन्द्रियतुरगान स्वेषु स्वेषु विषयेषु अनवरतं धावमानान् प्रवृत्तिमाजो ॥१७५॥ ज्ञानवल्माभिः सुखेनैव निगृह्णाति, नाज्ञातं निगृहीतुं शक्यते, इति इन्द्रियभेदादयोऽपि कथनीया एवेति गाथार्थः ॥ २६९ ।। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृति: ॥१७६॥ कः पुनरिन्द्रियैर निगृहीतैर्दोषः १ इत्याह तह सूरो तह माणी, तह विक्खाओ जयम्मि तह कुसलो । अजियंदियत्तणेणं, लंकाहिवह गओ जिहणं ॥ २७० ॥ व्याख्या—‘तथा' तेन लोकप्रसिद्धेन प्रकारेण शूरः, तथा 'मानी' अहङ्कारी, तथा जगति [ विख्यातः ] - प्रसिद्धस्तथा कुशलः, सोऽपि लङ्काधिपती रावणः सीताहरणाद्यभिव्यङ्गेना जितेन्द्रियत्वेन विभवयशोजीवितनाशलक्षणं निधनं गतः, किं पुनरितर: १ इति गाथार्थः ॥ २७० ॥ रावणकथानकं तु लोकेऽप्यतिप्रसिद्धमेवेति न किञ्चिदेवोच्यते, यदि वा रावणः शूर एव न भवतीत्याहदेहट्टिएहिं पंचहिं, खंडिज्जह इंदिएहिं माहप्पं । जस्स स लक्खंपि बर्हि, विणिजिणतो कह सूरो १ ॥ २७२ ॥ व्याख्या – देहस्थितैः पश्चभिरिन्द्रियैर्यस्य सामर्थ्य खण्ड्यते स बहिः पुरुषलक्षमपि विनिर्जयन् कथं शूरो १, न कथञ्चिदिति गाथार्थः || २७१ || कस्तर्हि शूरः १ इत्याह सोच्चि य सूरो सो चेव, पंडिओ तं पसंसिमो निचं । इंदियचोरेहिं सया, न लुंटियं जस्स चरणघणं ॥ २७२ ॥ व्याख्या - स एव शूरः स एव पण्डितः, तमेव नित्यं प्रशंसामो, यस्य चरणधनमिन्द्रियचौरैर्न लुण्टितमिति गाथार्थः ॥ २७२ ॥ अथोदाहरणाद्वारेणोपदेशमाह सोण सुभद्दाई, निया तह चक्खुणा वणिसुयाई । घाणेण कुमाराई, रसणेण हया नरिंदाई ॥ २७३ ॥ फार्सिदिएण वसणं, पत्ता सोमालियानरेसाई । इक्किकेण वि निहया, जीवा किं पुण समग्गेहिं ? ॥ २७४ ॥ ४ भावनाविकारे इन्द्रियजयाजये गुणदोषनिरूपणम् । ॥१७६॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१७७॥ व्याख्या-श्रोत्रेणानिगृहीतेन सुमद्रादयो निहताः, अत्रैव मवे मारणान्तिकीमापदं प्राप्ताः, तथा चक्षुषाऽनिगृहीतेन वणिक्सुतादयो निहताः, घ्राणेन पुनः (राज) कुमारादयो निहताः, रसनेनानियन्त्रितेन हता नरेन्द्रादयः, स्पर्शनेन्द्रियेण राज्यभ्रंशदिव्यसनं प्राप्ताः सुकुमालिकासम्बन्धिनरेशादयः, एवमेकैकेनापीन्द्रियेण जन्तवो निहताः किंपुनः समरिति गाथाद्वयार्थः ॥ २७३-७४ ॥ P मावनाधिसुभद्रादीनां कथानकानि पुनः क्रमेणामूनि मन्तव्यानि, तद्यथा कारे श्रोत्रइन्द्रि___वसन्तपुरे धनसार्थवाहः समृद्धया धनद इव विख्यातः, तस्य सुभद्रा मायो, अन्यदा धनो वाणिज्याथै देशन्तरं गतः। अन्यदायविपाके सुभद्रा वसन्तपुरे मधुरस्वर: पुष्पशालनामा गायनः किराणामपि श्रवणसुखं गानं कुर्वन सुमद्रया क्वचित्कार्यप्रेषितदासीभिदृष्टस्तद्गीतं चापूर्व कथानकम्। श्रुतं । ततश्चिराग्रां प्राप्ता निर्मत्सितास्ताः सुमद्रया भणन्ति-स्वामिनि ! कि कोपं करोषि ? अत्र कारणं शणु-यदद्यास्माभिर्गीतं पुष्पशाल स्य श्रुतं तेनाक्षिप्ताः पश्वोऽपि निश्चलास्तिष्ठन्ति, कि पुनर्मनुजाः, ततो गच्छन्नपि कालो न ज्ञातः। सुभद्रा प्राइ-यद्येवं त ममापि तद्गेयं श्रावयन्तु, दासीमिः प्रतिपन, अन्यदैकत्र देवकुलयात्रायां प्रवृत्तायां मिलितेषु लोकेषु पुष्पाले गीतं गायति सुमद्रा तं विलोकितुं गता, तावत्युपशालो गानं कृत्वा देवकुलपृष्ठौ एप्तः स तत्र दासीमिदर्शितः। तं च कुरूपं पिङ्गलकेशं दन्तुरं दृष्ट्वा थूत्कृत्य यादशं रूपं तादृशमेवैतस्य गेयं मावि, आकृतिविरहे कुतो गुणा ? इति निन्दती स्वगृहं पुनर्गता। तत्र सनिहितेन केनचित्पुष्पशालस्य सुमद्रास्वरूपमुक्तं । गायनो रुष्टस्तत्पतिदेशान्तरगमनस्वरूपं ज्ञात्वा तद्गृहासन्नं गत्वा यथा सार्थवाहवलितो देशान्तरं च प्राप्तः, यथा राजा मानितो मनमर्जितं, यथा च वलितः क्रमेण गृहं प्राप्ता, इत्यादि सकलमेव रात्रौ तथा गातुं प्रवृत्तो यथा सा सर्वाङ्गप्रदीप्तविरहानला ॥१७७॥ प्रासादोपरिस्थमप्यात्मानं भूमिस्थं मन्यमाना प्रकर्षप्राप्त गीते आकाशे क्रमं दत्त्वा भूमौ पतिता मृता, एवं वैरनिर्यातनं कृत्वा पुष्पशालोऽन्यत्र Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति: ॥१७८॥ गतः । एवं श्रोत्रनिमित्तं सुभद्रा मृता, परलोकेऽपि दुःखमनुभविष्यति, आदिशब्दादन्येऽपि समयप्रसिद्धा ज्ञातव्याः । इति श्रोत्रे सुभद्राकथा समाप्ता ॥ कानपुरे श्री निल श्रेष्ठी, यशोभद्रा मार्या, तयोः सुतो जातः, सर्वलक्षणलक्षितोऽपि लक्षणविद्भिश्चलचक्षुस्त्वात्स्त्रीलोलो मावीति प्रोक्तः, सोऽपि बालकालायां यां नारीं पश्यति तत्र तत्र दृष्टि बध्नाति इति जनैर्लोलाक्ष इत्याख्यया जल्पितः यौवने पुनः काचिद्रूपवतीर्युबतीष्ट्वा तदनु घावन् काञ्चिदालिङ्गन् तद्व्यतिकरेण स्थानेस्थाने जनैः छुट्टितो दुःखानि विषहते । अन्यदा मगधदेशे रूपवती स्त्रीः श्रुत्वा व्यवसायादिमिषेण धनं धनमादाय गतस्तत्र हवं गृहीत्वा व्यवहरति । तत्र काञ्चिद्रपवर्ती लोलाक्षत्वेन स्पृशन् बद्धो राजपुरुषैर्धनं सर्वे गृहीतं, राज्ञोऽग्रे नीयमानोऽन्तरा पितुर्मित्रेण द्रुमनाम्ना श्रेष्ठिनोपलक्ष्य बहुद्रव्यैर्मोचयित्वा स्वगृहे नीतः स तत्रापि श्रेष्ठमार्यायां धनवत्यां रूपवत्यां लुब्ध:, तज्ज्ञात्वा श्रेष्ठी तद्वैराग्यात्सर्वं त्यक्त्वा प्रानाजीत् । लोलाक्षस्तु तद्गृहवासेऽप्यन्यदा सुरसुन्दरीनानीं राजपत्नीं रूपवर्ती दृष्ट्वा धृतिमलममानो रात्रौ तद्गृहं प्रति व्रजन् केनचिद्विद्यासाघकेनान्तराले घृतोऽरण्ये गृहीत्वा विद्यासाधनमांसार्थं प्रतिदिनं छेदितसर्वाङ्गांशोऽत्रैव नरककल्पं दुःखमनुभवन् विद्यासाधकं प्रत्याह-भोः ! मम समाध्यर्थमेकदा राजपत्नीं दर्शय पश्चाज्जीवितं हर, इत्यादि मानसशारीरदुःखसन्तप्तस्तन दिनानि गमयति, तावदेकः काञ्चनपुर निवासी श्रीनिलयश्रेष्ठिनो बालमित्रो भुवनोत्तमनामा सार्थवाहो वाणिज्ये आगत्य विनिवृत्त स्तस्मिन् प्रदेशे विश्राम्यन् दैवयोगाल्लोलाक्षं वीक्ष्य गतस्तत्समीपे सपरिवारः । लोलाक्षोऽपि प्रणष्टमयः स्वस्वरूपं प्रोक्तवान् ततस्तेनौषधैः शरीरपरिकर्मणां कारयित्वा सज्जीकृत्य मुक्तः, पुनः राशीदर्शनार्थे मोहितो राजगृहे गतः स्व [१स गृहे] धनवत्या 'का इयन्ति दिनानि स्थितः ११ इति पृष्टे वस्त्वन्तरेणोत्तरं कृतवानं । ततः सुरसुन्दरीविरहनटितो राजभवनं गतश्चक्षुर्लोलः, राज्ञीं दृष्ट्वा तां प्रति धावन् राजपुरुषैर्ववा ४ भावनावि कारे चक्षुर्विषयासक्तौ लोलाक्षाख्यानकम् । ॥१७८॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१७९॥ मानाप्रकारेविडम्मितो राजादेशेनोल्लम्बितो पटिशाखाया, राजपुरुषैर्मत इति वावा त्यक्तः, ततो दैवात्त्रुटितपाशो बनपवनैर्लब्धाश्चासः प्रपलाय्य गतो धनवतीगृहे । तया च सज्जः कृतः। अन्यदा तत्र वने केवलिनं समागतं नन्तुं नृपादयो ययुलोलाक्षोऽप्यगात् । तत्रापि लोलायत्वाद्राझी पश्यन निस्सारितो राजा । ततो गच्छन् सपा काश्चित्समागच्छन्तीं पश्यन् भवेन इतो रौद्रध्यानात्ततीयनाके उत्कृष्टायु. १४ भावनाधिनारको जातः अनन्तं च भवं भ्रमिष्यति, केवलिना स्पर्धने ? [चक्षुरिन्द्रियस्वरूप प्राक्ते वैराग्यान्नृपः प्रवज्य प्राप्तकेवल: सिद्धः। तदेव कारे घ्राणासक्ती लोलावश्चक्षुषा इता, एवमन्येऽपि वाच्याः समयप्रसिद्धाः, इति चक्षुषि लोलाक्षाख्यानकं समाप्तम् ॥ घाणलोल वसन्तपुरे नरसिंहनृपस्य ज्येष्ठस्सुतो राज्याईः सर्वगुणमयः परं घ्राणलोलः सुरमि दुरमि वा गन्धं दृष्ट्वा सर्वमेकदा जिप्रति ।। राजमुतकथा। पितृगुर्वादिमिनिवारितोऽपि न तिष्ठति घाणलोल्यात् । अन्यदा सपत्न्या मात्रा स्वपुत्रराज्येच्छया मञ्जूषायां उज्वल विषपुटिका शिवा कुमारस्य नदीजले क्रीडता उपरि पार्थे साऽमोचि, कुमारेण तां नवीनां तरन्तीमागच्छन्ती दृष्ट्वा हृष्टेनोन्मुद्रय विलोकयता पुटिकाऽदर्षि || जने च। ततः कुमार क्षणेन प्राणः परित्यक्ता, अतो यदपि तदपि वस्तु नाऽऽघातव्यं न च सुरभिदुरमिगन्धेषु मूर्छा कृत्सा वा कार्या, इति घाणेन्द्रिये राजसुतकथा समाता ॥ मिथिलानगर्यो विमलयशानृपोऽन्यदा पहिस्याने केवलिन नन्तुं गतस्तस्य धर्मकथा कथयता भगवतीक्तं"अक्खाण रसणी कम्माण मोहणी तहषयाण संभवयं । गुत्तीण य मणगुत्ती, चउरो दुक्खेण घि(जि) पंति ॥१॥" ततो नृपेणोक्तम्-भगवन् ! शेषेन्द्रियेभ्यो रसनं तो दुर्जेयम् ?, उच्यते-सनस्य निग्रहे क्षुधाक्लान्तस्य गेयरूपादीन्यरति जनयन्ति, ॥१७९॥ * " रसन-वनिते स्वादे, रसशारास्लयोरपि ।" इति हैमानेकार्थः का. ३, लो. ४३१॥ व Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१८॥ विचित्ररसमोक्ता तु ललितगेयं रतिसुखं कर्पूरागरुचन्दनविलेपनादि व प्रार्थयते, यथा च मूले सिक्ते तक फलति मूले शुष्के शेषाङ्गान्यपि शुष्यन्ति तथेन्द्रियतारपि रसने प्रीणिते बहुभिर्विकारः फलति तस्मिन पुनः शुष्के शुष्यति, दिदमेव दुर्जेय, अस्मिश्च जिते निश्शेषाणि र भावनाधिजितानि । अत्रोदाहरणम् Dकारे इन्द्रियजभूवलयनाम्नि पुरे निजकर्मानृपः, तस्य द्वे भार्य-शुमसुन्दरी अशुमसुन्दरी च। प्रथमायाः पुत्रो विबुधनामा दक्षः कृतज्ञः ||पाणये गुणदोषसरलो धीमान, द्वितीयस्याः सुतो मतिविकलाख्यः पूर्वस्माद्विपरीतगुणो विशेषतो रसलोलतया लोके रसलोल इति विख्यातः । निरूपणम्। यथाकाम खाद्याखाद्य पेयापेयं च मुक्ते, सोऽन्यदा रोगैाप्तो वैद्यैर्लाना (2) यां प्रोक्तोऽपि न चलनं करोति, गाढं बहुमी रोगैः पीडितोऽन्यदा भ्रातुर्वचसा दाक्षिण्याल्लचन्ने स्थितो भ्रातरं मोज्यै भोजनं कुर्वाणं दृष्ट्वा चिन्तयति, यथा-दुष्टोऽयं, मां अत एव वारयति भोजनात. यदामेवैकाकी सर्व स्निग्धमधुरं भजे, नूनं सपत्नीजो भ्राता वैरी स कथं हितः । इति। ततो रे !! मां मोज्याभिवार्य मवान् मुङ्क्ते ? इत्युक्त्वा स क्षुरिकामादाय भ्रातरं हन्तुं दधावे, विबुधो पातं वश्चयित्वा वैराग्यात्प्रावाजीत, लोलया समं चूर्णितेन्द्रियसैन्यः प्राप्तकेवल: सोऽहमिहागतः । विमलयशानृपेण सकौतुकं पृष्ट-भगवन् ! विकलमतिना पुरतः किं प्राप्तम् ?, भगवानाह-स च राजा जातो विशेषेण रसगृद्धो ज्वलितो वनदव हवन किश्चित्त्यजन् पलं भुङ्क्ते, अन्यदा सूपकारेण पलपाके कृते तन्मार्जार्या भुक्तं, भीतेन मूपकारेण क्यापि मृतस्य पालकस्य पलं ( लब्धं, तदेव ) लात्वा संस्कृत्य मोजितो नृपः । ततो मनुष्यपले लुब्धो बालकान प्रतिदिनं नगराद्भुजन मन्त्रिभिध्वाऽरण्यानीं नीतः। अस्माल्लघुभ्राता राज्ये स्थापितः, अन्यो रक्षो भुत्वा मनुष्यानं भुङ्क्ते, अर्थकदा मिल्लार्भके च तक्षणे क्रुद्धेन मिल्लेन वाणेन विद्धो मृतो गतसप्तमावनौ । ततोऽनन्तं संसारं भ्रमिष्यति । इत्याकर्ण्य विमलयशो नृपः प्रव्रज्य प्राप्तकेवलो विबुधकेवलिना समं सिद्धः, इति ॥१८.1 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१८॥ ArcEACars जिह्वेन्द्रिये रसलोलनृपकथा समाप्ता ॥ वसन्तपुरे जितशत्रपः, सुकुमालिका राज्ञी, तस्याः कोमलस्पर्शेऽत्यासक्तो नृपो देशराज्यपरिजनचिन्तां त्यक्तवान् । ततो मन्त्रिभिस्सराज्ञीको निद्राभरे बद्ध्वा महावने मुक्तः, तत्सुतो राज्ये स्थापितः। अथ तयोर्मार्गे महाष्टव्यां गच्छतो देवी परि ४ भावनाधिका श्रान्ता तृषिता पुरो गन्तुं न शक्नोति । राजा तां एकत्र स्थापयित्वा सवत्र गवेषयन् यावज्जलं न लभते तावत्क्षुरिकया स्वबाहु || स्पर्शनेन्द्रियभ्यां शोणितं निष्कास्य पुटिकायां क्षिप्त्वा मृलिकाक्षेपेणाच्छं विधाय पायतिस्म । ततो दृढं क्षुधिता जाता सा, अन्यस्याहारस्या विषये सुकुमा भावे निजोर्वोमांसं छित्त्वा संरोहणमलिकया व्रणरोधं कृत्वा दवाग्नौ भर्जयित्वा शशादिमांसच्छलेन राज्ञा सा भोजिता । एवं लिकानृपकथा। गङ्गातीरे क्वचिनगरे प्राप्तो नृपो देव्याभरणमूल्येन वाणिज्यं कुरुते । अन्यदा देवी पाह-पूर्वमहं सखिमि नागीताद्यर्विनोदिता तदिदानी कथमेकाकिनी तिष्ठामि ?, तत्कमपि मानुषं मे सखायं कुरु, ततो नृपेणायं कलावानिति विचिन्त्य पङ्गुहे स्थापितः, न पुनरिदं ज्ञातम्-यथा वनेषु वल्ल्यः प्रत्यासन्नमेव तरुमाश्रयन्ति आम्र वा निम्ब वा, इति नार्योऽपि सगुणमगुणं वा नीचमुत्तमं वा आसन्नमेव पुरुषं भजन्ते, ततः पङ्गुस्वरादिमोहितया तेनैव समं लुब्धया अन्यदा गङ्गातीरे गतो नृपःप्रेर्य जले क्षिप्तः क्वापि पुरे तटलग्नः श्रान्तः सुप्तस्तरुतले । पुण्येन छाया तदुपरितो नापसरति । तत्र च तत्पुरनृपे अपुत्रे मृते दिव्यैरभिषिक्तो राजा जातः । सुकुमालिकापि हस्तगतं द्रव्यं भुक्त्वा पङ् चोल्लके क्षिप्त्वा भिक्षा मार्गयति, पङ्गुः प्रतिगृहं गीतं गायति, प्रतिपुरं च हिण्डमाना दैवाज्जितशत्रनृपपुरे प्राप्ता, राज्ञा गवाक्षस्थेन दृष्टा, आकार्य पृष्टा, भूमिस्था प्राह-पितृदेवब्राह्मणैरेष एव दत्तो भर्ता, ॥१८॥ ततःशीलं पालयन्ती पतिव्रताऽहं । नृपः प्राह-" बाह्वो रुधिरमापीतं, उर्वोर्मासं च भक्षितं । गङ्गायां वाहितो भर्ता, Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु साधु पतिव्रता ॥१॥" निर्विषयाऽज्ञता। इति स्पशनेन्द्रिय व्यसनहेतुर्नुपस्य देव्याश्च सविशेषं जातम् ॥ ॥ इति स्पर्शनेन्द्रिये सुकुमालिकानृपकथा समाप्ता ॥ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१८२॥ DAS ROSAS ||४ भावनाधिव इन्द्रियविषय गृद्धिविपाक: GROUGBOLGEBECE | सेवंति परं विसम, विसंति दीणंभणंति गुरुआवि । इंदियगिद्धा इहई,अहरगइंजंति परलोए ॥२७५॥ व्याख्या-इह इन्द्रियार्थगृद्धाः प्राणिनः पर-मन्यं सेवन्ते, विषमं सङ्ग्रामादिकं विशन्ति, तथा दीनं प्रार्थनादिरूपं भणन्ति महान्तोऽपि, परलोके च नारकतिर्यकुदेवमनुजरूपां अधरगतिं यान्तीति गाथार्थः ॥ २७५ ॥ इन्द्रियवशगानां यानि दुःखानि तेषामनन्तत्वात्स्वस्य तद्भणनाशक्तिमाहनारयतिरियाइभवे, इंदियवसगाण जाइंदुक्खाई।मन्ने मुणेज्ज नाणी, भणिउं पुण सो विन समत्थो॥२७६॥ - व्यख्या-इन्द्रियवशगानां नारकतिर्यङ्नरामरभवेषु भ्रमतां यानि बन्धनताडनमारणादीनि दुःखानि जायन्ते तान्यहमेवं मन्ये सर्वाण्यपि जानीयात्केवली, नात्र संशयः, भणितुं-प्रत्येकं कथयितुं पुनः सोऽपि न समर्थः, तेषामनन्तत्वात्केवलिनस्तु परिमितायुष्कत्वात् , ततः कुतोऽस्मादृशस्वाज्ञानिनस्तद्भगनशक्तिः? इति गाथार्थः ।। २७६ ॥ अथेन्द्रियजयद्वारमुपसंहरन् वक्ष्यमाणकषायनिग्रहद्वारप्रस्तावनामाहतो जिणसु इंदियाई,हणसु कसाए व जइ सुहं महसि । सकसायाण न जम्हा, फलसिद्धी इंदियजए वि ॥ व्याख्या-यत एवं तस्मात्त्वमिन्द्रियाणि जय, तथा जहि-समुच्छिन्द्धि कषायान् , यदि स्वर्गापवर्गसुखं वाञ्छसि, ॥१८२॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१८३॥ ANGE न त्विन्द्रियजय मात्रा देवोक्तफलप्राप्तिर्भविष्यतीत्याह यस्मात्स कषायाणामिन्द्रियजयेऽपि फलसिद्धिर्न भवतीति गाथार्थः ॥ २७७ ॥ इति मतिमता मत्त्वा सम्यक् समस्नजिनोदितां, प्रकृतिमशुभां पञ्चाक्षाणामनिग्रह दारुणाम् । शिव सुखरसाकारक्षेणैषां जयाय महोद्यमः, शमदमवता कार्यः स्थैर्य विधाय निजे हृदि ॥ १ ॥ [ पृथ्वीवृत्तम् ] इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे करणजयलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥ ८ ॥ अथानन्तरमेव सम्बन्धितं कषायनिग्रहद्वारं विभणिषुर्भणिष्यमाणार्थसङ्ग्रहद्वारमाह तेसि सरूवं भेओ, कालो गइमाइणो य भणियव्वा । पत्तेयं च विवागो, रागद्दोसत्तभावो य ॥ २७८ ॥ व्याख्या –' तेषां ' कषायाणां यथार्थाभिधानतारूपं स्वरूपं तावद्वाच्यम्, तथा भेदो वाच्यः, तदवस्थितिरूपः कालो, देवगत्यादिका गतिः, आदिशब्दान्नरकगत्यादिषु क्रोधाद्यधिकत्वादयो भणितव्याः । प्रत्येकं चैहिकामुष्मिकफलरूपः क्रोधादीनां विपाको वाच्यः । तथा रागद्वेषत्वेन भवनं - भावो वाच्यः कः कषायो रागेऽन्तर्भवति ? को वा द्वेषे ? इति गाथार्थः ॥ २७८ ॥ तत्र स्वरूपद्वारं तावदाह कम्मं कसं भवो वा, कसमाओ सिंजओ कसाया तो । संसारकारणाणं, मूलं कोहाइणो ते य ॥ २७९ ॥ व्याख्या–कष्यन्ते-हिंस्यन्ते जीवा अनेनेति कथं-कर्म अस्मिन्निति वा कप चतुर्गतिको भवः । ततश्च "कसं " ति विभक्तिव्यत्ययात्कषस्य - कर्मणो भवस्य वा आयो- लाभः, “सिं" ति एतेभ्यः क्रोधादिभ्यो यतो भवति " तो " त्ति ४ भावनाऽधिव इन्द्रियजयो' देश : । ॥१८३॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भावनाधिका कषायनिग्रहोपदेशस्तत्स्वरूपंच तस्मात्कारणाद्यथार्थनामानः कषायाः क्रोधादयो भण्यन्ते । भवलाभहेतवश्च गौणवृत्त्यापि स्युरित्याह-संसारकारणानां असंयमादीनां | पुष्पमाला ||| मध्ये मूलं-प्रधानं कारणं कषायाः, के ते? इत्याह-ते च क्रोधादयः, आदिशब्दान्मोनमायालोमा इति गाथार्थः ॥२७॥ लघुवृत्तिः || भेदद्वारमभिधित्सुराह॥१८४॥ || कोहो माणो माया, लोभो चउरो वि होंति चउभेया। अणअपञ्चक्खाणा, पञ्चक्खाणा य संजलणा॥२८०॥ ___ व्याख्या-क्रोधादयश्चत्वारोऽपि प्रत्येकं चतुर्भेदा भवन्ति, तदेवाह-सूचनात्सूत्रस्यानन्तानुबन्धी क्रोधः, अप्रत्याख्यानावरणः क्रोधः, प्रत्याख्यानावरणः क्रोधः, सज्वलनः क्रोध इति । एवं मानाद्यभिलापेनापि चत्वारो भेदाः प्रत्येकं वाच्या इति गाथार्थः ॥ २८ ॥ अनन्तानुबन्धिन इति का शब्दार्थः? इत्याहबंधति भवमणतं, ते(य)ण अणंताणुबंधिणो भणिया। एवं सेसा वि इमं, तेसि सरूवं तु विन्नेयं ॥२८१॥ व्याख्या-ये कषाया उदयप्राप्ताः सन्तोऽनन्तं भवमनुबध्नन्ति-भ्रमणीयत्वेनावस्थापयन्ति ते.च) सम्यक्त्वमात्रस्यापि घातका अनन्तानुबन्धिनः क्रोधादयस्तीव्रतमा इत्यर्थः। एवं “सेसा वि"ति यथाऽनन्तानुबन्धिनो व्युत्पादितास्तथा शेषा अपि व्युत्पादनीयाः, तथाहि-नञोऽल्पार्थत्वादल्पं काकमांसविरत्यादिमात्रमपि प्रत्याख्यानमावृण्वन्ति ये ते अप्रत्याख्यानावरणाः क्रोधादयस्तीव्रतरा इत्यर्थः, तथा ये प्रत्याख्यानं सर्वविरतिरूपमावृण्वन्ति-निवारयन्ति ते प्रत्याख्यानावरणाः क्रोधादयोऽद्यापि तीव्रा इत्यर्थः, चारित्रिणमपि ये सवलयन्ति-क्षणमात्रमौदयिकभावमानयन्ति ने,सज्वलनाः क्रोधादयो मन्दतामापना इत्यर्थः । अथैतेषां | किञ्चिद्विशेष व्याचिरव्यासुराह-तेषां पुनरनन्तानुबन्ध्यादिक्रोधादीनामिदै पश्चानुपूर्व्या वक्ष्यमाणं स्वरूप विज्ञेयमिति गाथार्थः ॥२८१॥ किं पुनस्तदित्याह GEMECEBHADRArc ॥१८४॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१८॥ जलेरणुंपुढे विपवय-राईसरिसो चउव्विहो कोहो। तिणिसलयाकट्टेट्ठिय-सेलत्थंभोवमो माणो ॥२८॥ मायाऽवलेहिगोमुत्ति-मिंढसिंगघणवंसिमूलसमा। लोहो हलिइखंजण-कदमकिमिरागसामाणो ॥२८३॥ ६ bha भावनाधिकारे ___ व्याख्या प्रथमार्द्ध प्रत्येकं राजिशब्दसम्बन्धाजलराजिसमानः सचलनः क्रोधः, यथा जले रेखा क्रियमाणा शीघ्रमेव । कषायभेदनिरूनिवते, तथा यः कथमप्युत्पन्नोऽपि सत्वरमेव व्यावर्त्तते स सज्वलनः क्रोध इत्यर्थः, रेणुरेखातुल्यस्तु प्रत्याख्यानावरणः, पणम् । अयं हि रेणुमध्यविहितरेखावच्चिरेण निवर्तत इति भावः, पृथ्वीराजिसमानोऽप्रत्याख्यानावरणः, यथा स्फुटितपृथ्वीसम्बन्धिनी रेखा कचवरादिभिः पूरिता कष्टेनापनीयते, एवमेषोऽपीति भावः, विदलितपर्वतरेखातुल्यस्त्वनन्तानुबन्धी, कथमपि निवर्तयितुं न शक्यत इत्यर्थः, इति चतुर्विधः क्रोधः। मानस्तु तिनिसो-वनस्पतिविशेषस्तस्य लतोपमः मुखेनैव नमनीयः सज्वलनः, काष्ठोपमः प्रत्याख्यानावरणो मानः, यथाऽग्निस्वेदादिभिः कष्टेन काष्ठं नमति तथाऽयमपीति भावः, अस्थि-हड़, तदुपमः कष्टतरनमनीयोऽप्रत्याख्यानावरणो मानः, शिलायां घटितः शैलः, स चासो स्तम्भश्च शैलस्तम्भस्तदुपमस्त्वनन्तानुबन्धी मानः, कथमप्यनमनीय इत्यर्थः। माया पुनरुल्लिख्यमानानां धनुरादीनां याऽवलेखिका वक्रत्वापा, तत्समाना सा सज्वलनीत्युच्यते, सुखेनैवार्जवमापादनीयेत्यर्थः, गोमूत्रिकासमाना किञ्चित्कष्टेनापनीया प्रत्याख्यानावरणी माया, एवं मेषशृङ्गोपमा कष्टतरनिवर्त्तनीया अप्रत्यख्यानावरणी माया, धनं-दृढं यद्वंशीमूलं, तत्समाना त्वनन्तानुबन्धिनी, यथा निबिडवंशीमूलस्य कुटिलता किल वहिनाऽपि न दह्यते, एवं या कुटिलता कथमपि न निवर्तते साऽनन्तानुबन्धिनी मायेत्यर्थः । लोभस्तु हरिद्रारागोपमः सुखनिवर्तनीयः ॥१८५॥ + 'सकारस्य दीर्घत्वं प्राकृत्वात् । BAE% Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECE पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१८६॥ सज्वलनः, कष्टनिवर्तनीयः प्रदीपादिखञ्जन( कज्जल रागसमानः प्रत्याख्यानावरणः, कष्टतरापनेयः कर्दमरागतुल्यो प्रत्याख्यानावरणः, (कृमिराग)रक्तपट्टसूत्र(राग)वत्कथमप्यपनेतुमशक्योऽनन्तानुबन्धी लोभ इति गाथाद्वयार्थः ॥ २८२-२८३ ॥ ४ भावनाधिकारे अथावस्थितिकालमानेनापि सज्वलनादीनां स्वरूपं गतिद्वारं चाह कषायाणां पक्खचउमासवच्छर-जावज्जीवाणुगामिणो भाणिया। देवनरतिरियनारय-गइसाहणहेयवो णेया ॥२८४६ स्थितिमानम् । व्याख्या-पक्षं यावदवस्थितिर्येषां ते सज्वलनाः कषायाः, परतो यावच्चतुर्मासावस्थितयः प्रत्याख्यानावरणाः, परतः संवत्सरं यावदप्रत्याख्यानावरणाः, यावज्जीवानुगामिनस्त्वनन्तानुबन्धिनो भणिताः, तथा च देवगतिसाधनहेतवः सज्वलनाः, नरगतिसाधनहेतवः प्रत्याख्यानाः, तिर्यग्गतिसाधनहेतवोऽप्रत्याख्यानाः, नारकगतिसाधनहेतवोऽनन्तानुबन्धिनो ज्ञेयाः । सज्वलनोदये मृतो देवेष्वेव गच्छति, प्रत्याख्यानावरणोदये मनुष्येषु अप्रत्याख्यानावरणोदये तिर्यक्षु अनन्तानुबन्ध्युदये तु मृतो नरकगतावेव गच्छतीति भावः । इदं च स्थितिगतिव्यावर्णनं "फरुसवयणेण दिणतवं, अहिक्खिवंतो य हणइ मासतवं" इत्यादि। वद्व्यवहारनयमाश्रित्य कषायबहुलजनप्रतिबोधनार्थ देशनामात्रं, बाहुबलिप्रभृतीनां पक्षादिपरतोऽपि सज्वलनाद्यवस्थितेः केषाश्चित्संयतादीनां चावर्षादिकाले [ऽक्षामणादिश्रवणात्तथा] प्रत्याख्यानावरणानां [अप्रत्याख्यानावरणानां] अनन्तानुबन्धिनां चा[वा] तमुहूर्तादिकालमप्युदयश्रवणात् , अनन्तानुबन्ध्युदयवतामपि मिथ्यादृशां केपाश्चिदुपरिमोवेयकेषत्पत्तिभणनात् , प्रत्याख्यानावरणोदयवतां च देशविरतानां देवगतिनिश्चयात् , अप्रत्याख्यानावरणोदयवतां च सम्यग्दृष्टिदेवानां मनुष्यगतिनिर्णयादित्यल ॥१८६॥ प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥२८४ ॥ आदिशब्दसगृहीतार्थाधिकारमाह SONG Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१८७॥ ४ भावनाधिकारे कषायचतुष्कस्य गत्यापेक्षिकमल्पबहुत्वम् । A चउसु वि गईसु सव्वे, नवरं देवाण समहिओ लोहो । नेरइयाणं कोवो, माणो मणुयाण अहिययरो॥२८५॥ माया तिरियाणहिया, व्याख्या-चतसृष्वपि नारकादिगतिषु प्रत्येकं सर्वेऽप्येते क्रोधादयः सभेदाः प्राप्यन्ते, नवर-मयं विशेषः-य वानां शेषकषायापेक्षया लोभस्समधिको, रम्यप्रासादवनकामिनीरत्ननिवहेषु मूर्छाधिक्यसम्भवात् । नारकाणां तु क्रोधस्समधिको, यातनाकर्तृष्वावेशाधिक्यसम्भवात् । मनुष्याणां तु मानोऽभ्यधिकोष्टानामपि जात्यादिमदस्थानानां प्रकर्षवत्वात् । माया तिरवामधिका, बहुमिर्मायाप्रयोगैस्तेषामाहारादिप्राप्तेस्तत्स्वभावत्वाचेति सपादगाथार्थः ॥ २८५॥ मेहुणआहारमुच्छभयसन्ना । सभवे कमेण अहिया, मणुस्सतिरिअमरनिरयाणं ॥२८६ ॥ व्याख्या-अत्र च क्रमेण सम्बन्धः, तद्यथा-स्वभवे-स्वस्थाने आहारादिसंज्ञाऽपेक्षया मनुष्याणां स्वभावत्वादेव मैथुनसंज्ञा समधिका, तिरश्चां तु शेषापेक्षया आहारसंज्ञा, अमराणां तु "मुच्छ"त्ति परिग्रहसंज्ञा, नारकाणां तु भयसंज्ञा समधिकेति गाथार्थः ॥२८६॥ अथ विपाकद्वारमाहमित्तं पि कुणइ सत्तुं, पत्थइ अहियं हियं पि परिहरइ। कज्जाकजं न मुणइ, कोवस्स वसंगओ पुरिसो॥२८७॥ व्याख्या-मित्रमपि-सुहृदमपि तथाविधदुर्वाक्यानिष्टापादनादिभिः शत्रु करोति, तथा यदेव स्वस्याहितं तदेव प्रार्थयते, हितं च परिहरति, कार्याकार्य च न जानाति, कः ? इत्याह-कोपस्य वशङ्गतः पुरुष इति गाथार्थः ॥ २८७॥ तथा AE%ARALE CPEPEATESPE ॥१८७॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१८८॥ धमत्थकामभोगाण, हारणं कारणं दुहसयाणं । मा कुणसु कयभवोह, कोहं जइ जिणमयं मुणसि ॥२८॥ व्याख्या-धरति दुर्गतिपतन्तं प्राणिनमिति धर्मो जीवदयादिः, अर्जी अर्थ्यत इत्यर्थो-धनं, काम्यन्त इति कामाः ४भावनाधिकारे शब्दादयः, भुज्यन्त इति भोगाः स्पर्शादयस्तेषां हारण-नाशनं, दुःखशतानां च कारणं-साधनं, तथा कृतो भवौधः-संसारप्रवाहो | कषायचतुम्के येन स तथा, तं, एवंविधं क्रोध मा कुरुष्व, यदि जिनमत जानासि ? "ज्ञोर्जाणमुणौ” इति हेमप्रा० ९४-७] मुणादेश इति ||8| क्रोधस्य हेयत्वम् गाथार्थः ॥२८८ ॥ किश्चइह लोए च्चिय कोवो, सरीरसंतावकलहवेराइं। कुणइ पुणो परलोए, नरगाइसु दारुणं दुक्खं ॥२८९॥ | व्याख्या-इह लोके एवास्मिन् भवे एव तावत्कोपः शरीरसन्तापकलहवैराणि प्रसिद्धानि करोति, धातूनामनेकार्थ- | वाज्जनयति, परलोकेऽन्यभवे पुनर्नरकादिषु दारुण-असह्यं दुःखं जनयतीति गाथार्थः ॥२८९॥ अथ व्यतिरेकमाहखंती सुहाण मूलं, मूलं धमस्स उत्तमा खंती। हरइ महाविज्जा इव, खंती दुरियाई सयलाई ॥२९॥ ___ व्याख्या-क्षान्तिः सर्वेषां सुखानां मूलं-मुख्यमुत्पत्तिनिबन्धनं स्थानमिति यावत् , तथोत्तमा शान्तिर्धर्मस्य मूलं, स्फुरत्प्रभावा महाविद्येव शान्तिः सकलानि दुरितानि हरतीति गाथार्थः ।।२९० ॥ इह च कोपे क्षमायां च दोषगुणदर्शनपरं दृष्टान्तद्वयमाहकोवम्मि खमाए विअर्चकारियखुड्डुओ य आहरणं । कोवेण दुहं पत्तो, खमाए नामओ सुरेहिं पि॥२९१॥ ॥१८८॥ व्याख्या-कोपे क्षमायां च, एकदेशे समुदायस्य गम्यमानत्वात् , अचङ्कारितभट्टिका तथा क्षुल्लकश्च नागदत्ताभिधानः Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१८९॥ 'कूरगइयक' इति प्रसिद्धः, तावदुदाहरणं, कथम्भूतोऽयम् ? इत्याह-पूर्व कोपेन दुःखं प्राप्तः, पचा विहितया क्षमया प्रणतः सुरैरपि मोक्ष च गतः, अचङ्कारितभट्टिकाऽपि कथम्भूता ? प्रणयवृत्त्या योज्यते, का पुनरसावित्युच्यते पूर्वं कोपेन दुःखं प्राप्ता, पश्चात्तु विहितया क्षमया सुरैरपि उज्जयिन्यां धनश्रेष्ठी, कमलश्री भार्या, तयाऽष्टपुत्रोपरि सुता प्रसूता भक्तिकेति नाम्नी, श्रेष्ठिनाsभाणि नैषा केनापि मत्सुता चङ्कारथितव्येति लोकेऽचङ्कारितभट्टिकेति प्रसिद्धा, प्राप्तयौवना परिणयनार्थं, अनेकैर्याच्यमानाऽपि श्रेष्ठिना न दीयते, भणति य एतस्या आज्ञावचनं नित्यमेव सपरिजनो न खण्डयति तस्मैव ददामि नान्यस्य । ततः सुबुद्धिनाऽमात्येन कामातुरेण तत्तथा प्रतिपद्य महाविभूत्या परिणीता, नीता निजगृहं । स तदाज्ञया वर्त्तमानो भोगान् भुङ्क्ते । अन्यदा तया भणितो, यथाअस्तमिते सूर्ये क्षणमपि न वहिः स्थेयं, गृहमागन्तव्यं, तथैव नित्यं करोति । अन्यदा राज्ञा ज्ञाततद्भार्यावृत्तान्ते कौतुकेन कार्यच्छलेनामात्यो धृतः । अर्द्धरात्रिसमये विसृष्टो गृहं गतः तावत् दृढजटितकपाटसम्पुट वासगृहस्थिता नानोक्तिभिर्भाषिताऽपि न कपाटमुद्घाटयति सा ततः कटुवचनोक्तौ झगित्येव कपाटमुद्घाट्यामात्यस्य दृष्टिं वञ्चयित्वा निर्गता पितृगृहं प्रति, मार्गे चौरैर्गृहीता, विलपन्ती मुखे वस्त्रपिण्डं दत्वा नीता नगराद्बहिः, गृहीतानि कोटिमूल्यान्याभरणानि, ततः पल्ल्यां नीत्वा विजयनाम्नो निजाधिपतेर्दत्ता, तेनापि हृष्टेन चौराणां बहुधनं दतं समयेऽनेकप्रकारैः पल्लिपतिना प्रार्थिताऽपि सर्वथा तं नेच्छति, ततः कुपितेन वाढं ताडिता, कण्ठ गतप्राणाऽपि यावन्नेच्छति तावद्विक्रीता एकस्य सार्थवाहस्य हस्ते बहुद्रविणेन । सोऽपि प्रार्थयतेऽनुकूलैः प्रतिकूलैश्वोपायैः, यावन्नेच्छति तावद्विक्रीता पार्श्वकूले कम्बलवणिजो दत्ता, सोऽपि तथैव प्रार्थय तत एषा 3 " | ४ भावनाऽधिकारे क्रोधविपाकेऽच ङ्कारितभ.ड कोदाहरणम् । ॥ १८९ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१९०॥ ४भावनाधिकारे क्रोधविपाके कूरगडूयक मुनिवृत्तम् । ARREST कर्पासपाण्डुरदेहा क्षीणाङ्गी जाता। ततो दैवात्कथमप्यत्रागतेन ज्येष्ठेन तबन्धुनासौ दृष्टा प्रत्यभिज्ञाता, कथश्चिन्नीता स्वगेहं, ||लू यदेवं तया पदे पदे दुःखं अज्ञानकोपकरणादनुभृतं, ततः संविग्ना साध्वीनां पार्श्व धर्म श्रुत्वा ब्रह्मव्रतं प्रतिपद्य मार्यमाणाऽप्यहं कस्याप्युपरि कोपं न करिष्ये इति घोरमभिगृहं गृहीत्वा तिष्ठति । अन्यदा तस्याः शरीरबलकरणव्रणरोधनार्थ लक्षपाकतैलघटत्रयं कृतं, तत्तैलार्थ च मुनयोज्यदा तत्रागताः, अचकारितभट्टिकया दास्याः सकाशाद्घट आनायितः, अत्रान्तरे शक्रेणाचकारितभट्टिकायाः क्षमादृढत्वं प्रशंसितम् । तदैको देवोऽसहमानस्तदा तत्रागत्य दास्या हस्तात्तैलघटं स्फोटयतिस्म, द्वितीय आनायितः | सोऽपि स्फोटितः सुरेण, अथ प्रशस्तभावा स्वयं गत्वा तृतीयं घटमानीय साधुभ्यस्तैलं दत्वा हृष्टा । ततः सुरः प्रत्यक्षीभूय स्तुत्वा स्वर्ग गतः, साधवोऽपि स्वोपाश्रयं गताः। इतराऽपि गतगर्वा श्रावकधर्म पालयित्वा स्वर्ग गता। एवं कोपेन दुःखं प्राप्ता, | | क्षमया पुनरसौ सुरैर्नता, इति अचङ्कारितभट्टिकाकथासमाप्ता॥ अथ क्षुल्लककथोच्यते-क्वापि गच्छे मासक्षपकः साधुरासीत् , अन्यदा मास[क्षपण]पारणके भिक्षायां क्षुल्लकेन समं बजता तेन प्रमादान्मण्डूकी चम्पिता मृता। ततः क्षुल्लकेनोक्तं-महर्षे ! एषा त्वया पादेन चम्पिता, ततः क्रुद्धः क्षपकः पूर्वमृतास्ता दर्शयन् प्राह-रे रे दुष्ट ! किमेपाऽपि मया हता?, अन्या अपि कि मया हता, ततो मात्र ज्ञात्वा क्षुल्लकस्तूष्णीकः स्थितः, अथाऽऽवश्यककाले स्वस्थावस्थं क्षप प्रत्याह क्षुल्लक:-'मण्डूकीमालोचय महर्ष!'। ततोऽधिकं ज्वलितकोपानलः क्षुल्लकाभिमुखं धावन् क्रोवान्धः स्तम्भे आस्फाल्य मर्मप्रदेशे स्फुटितशिरो मृत्वोत्पन्नो ज्योतिफेषु, ततश्युत्वा [उत्पन्नः] क्वाप्यरण्ये दृष्टिविषयुतानां पूर्वभवविराधितश्रामण्यानां भुजङ्गानां कुले, जातिस्मृतिश्चैषामस्तीति ते सर्वे च रात्रौ भ्रमन्ति, भुञ्जते च मान Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१९१॥ प्रासुकाहारं, माऽस्माकं दृष्टिविषेण प्राणिघातो भूयादिति । स तु बिलेऽपि अधोमुखः कृतानशन स्तिष्ठति । इतश्च वसन्तपुरे ऽरिमननृपतेः सुतः सर्पेण दष्टो मृतः, ततः कुपितो भूपो भुजङ्गान् स्वयमन्यैश्च मारयति, यो यः सर्प हत्वा शिरो राज्ञः समर्पयति तस्य दीनारमर्पयति । अन्यदैको गारुडिको मन्त्रौषधैर्विलात् सर्पान्निष्कास्य शिरो गृहिंस्तं सर्प निष्कासयति, सोऽपि धर्मबुद्धयाऽधोमुखः पुच्छेन निर्गच्छति, तावत्स गारुडिको निर्गतं निर्गतं छिनत्ति, ततो दृढं दुःखे उत्पद्यमाने भुजङ्गः सम्यक् संवेगात्सहते | एवं सोऽपि गारूडिकेन हतः, सर्वेऽपि नृपस्य दर्शिताः, लब्धमुचितं द्रव्यं । अत्रान्तरे भूपः केनापि नागदेवेन पुत्रस्ते भविष्यतीत्युक्त्वा सर्पवधान्निवर्त्तितः, तदा च स भुजङ्गो मृत्वा तत्पुत्रत्वेनोत्पन्नस्तस्य नागदत्त इति नाम कृतम् । स च रूपादिगुणाकरोऽपि धर्ममेव पुरुषार्थं मन्यमानः साधूनुपास्ते । अन्यदा सञ्जातजातिस्मृतिः पितुप्रभृतिंस्त्यक्त्वा संविग्नः प्रव्रजितः, पालयति निष्कलङ्कं चारित्रं, केवलं क्षुधा बहुस्ततो द्वित्रिर्भुङ्क्ते निरवद्यमाहारं, ततः 'कूरगडूयक' इति प्रसिद्धाख्योऽजनि । तस्मिंश्च गच्छे चत्वार एकद्वित्रिचतुर्मासिकाः क्षपकाः सन्ति, तान् दृष्ट्वा चिन्तयति - सफलमेतेषां जीवितं, ये कर्मशैलकुलिशमेवं तपः कुर्वन्ति, अहं पुनर्मन्दभाग्यो, यः प्रत्यहं बहुवारमाहारं गृण्हामि, इति भावनाशुद्धमना वैयावृत्येनापि महती निर्जरा इति विचिन्त्य क्षपकानां वैयावृत्याभिग्रहं गृहीतवान् । अन्यदा क्षपकानतिक्रम्य देवतया स एव प्रणतः साधुः, ततो निवर्त्तमाना सा चातुर्मासिकक्षपकेन कोपेन वस्त्राञ्चले धृता भणिता- पापे कटपूतने! किमिह प्राप्ताऽसि ? यन्महाक्षपकानुल्लङ्घ्य त्रिकालभोजिनं वन्दसे, ततो देवतयोक्तं- तपस्विन् ! मा कुरु अकार्य कोपं, भावक्षपकं वन्दे, न द्रव्यक्षपकं । जानीथ यूयं स्वयमेव यादृशी आत्मनो द्रव्य क्षपकता सुलभाऽनन्तशः प्राप्ता च । एष त्रिकालं भुङ्क्ते इति यद्भणसि स मत्सरः, ईदृशानां नित्यमुपवास एव यदुक्तं ४ भावनाऽधिका क्रोधविपाके कूरगड्यक मुनिवृत्तम् । ॥१९१॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भावनाधिकारे मानस्य हेयत्वम्। “निरवज्जाहाराणं, साहणं निच्चमेव उववासो। उत्तरगुणवुद्धिकरा, तहविहु उववासमिच्छति ॥१॥" पुष्पमाला | "सत्तीए तवो जिणेहिं, भासिओ तं च गोवए न इमो । ता किहु तवेण हीणो ?, एसो किह समहिया तुब्भे? ॥२॥ लघुवृत्तिः इत्यादिप्रशंसां कृत्वा गता देवता, प्रादें पानमादाय समागतः साधुनिमन्त्रयति चतुर्मासिकक्षपकं, सोऽपि कुपिस्त॥१९२॥ त्पात्रके खेलमकरोत् , शेषा अपि निमन्त्रितास्तथैव चक्रः, संविग्नो मुनिर्भणति-धिधिग् मां प्रमादिनं, क्षपकानां खेलमल्लको न कृतः, अहमेतेषामसमाधिकारणं जातः, इत्याद्यात्मानं, निन्दन तमाहारं भुजानस्तथोपशमप्रकर्ष प्राप्तो यथोत्पन्नं केवलज्ञानं, देवैः सुरभिवायुगन्धोदककुसुमवृष्टिसुवर्णकमलादिमहिमा कृता । देवतयोक्तं-भोः क्षपकाः! पश्यन्तु त्रिकालभोजिनो माहात्म्यं, ततस्ते सर्वे स्वकोपनिन्दा तस्योपशमश्लाघां च कुर्वन्तस्तथा संवेगमापन्ना यथा प्राप्तं केवलज्ञानं । पश्चापि क्रमेण सिद्धाः । इत्यसौ नागदत्तः कोपेन दुःखं प्राप्तः, पुनः क्षमया सुरैर्नत इति क्षमा कार्या, कोपस्त्याज्यः, इति नागदत्तमुनिकथासमाप्ता॥ उक्तः सोदाहरणः क्रोधविपाकोऽथाधिकृतमानस्याष्टधात्वोपदर्शनपूर्व हेयत्वमाहजाइकुलरूवसुअबल-लाभतविस्सरियअट्टहा माणो। जाणियपरमत्यहि, मुक्को संसारभीरूाहिं ॥२९२॥ | व्याख्या-जातिकुलरूपश्रुतबललाभतपऐश्वर्यममोत्तमा जातिरित्यादिरूपोऽष्टधा मानो ज्ञातपरमाथैः संसारभीरुभिर्मुक्तो, है| नैव कृत इति गाथार्थः ॥ २९२॥ अथैतेष्वन्यतरोऽपि क्रियमाण इह लोकेऽपि महते दोषायेत्याहअन्नयरमउम्मत्तो, पावइ लहुयत्तणं सुगुरुओ वि। विबुहाण सोयणिज्जो, बालाण वि होइ हसणिज्जो॥२९॥ व्याख्या-जात्यादीनामन्यतरेणैकेनापि मदेनोन्मत्तः, आस्तां लघुः, सुगुरुकोऽपि-अतिमहानपि लघुत्वं प्राप्नोति, ECOGESARIA ॥१९२॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१९३॥ विबुधानां शोचनीयो भवति, किंबहुना ? बालानामपि हसनीयो भवतीति गाथार्थः ॥ २९३ ॥ किश्च - जइ नाणाइमओ वि हु, पडिसिद्धो अट्ठमाणमहणेहिं । तो सेसमयट्ठाणा, परिहरियव्वा पयतेणं ॥२९४॥ व्याख्या - यदि ज्ञानादीनां शुभानामपि पदार्थानामहं ज्ञानीत्याद्यात्मबहुमानरूपोऽपि मदोऽष्टविधमानमथनैस्तीर्थकरगण धरैः प्रतिषिद्धः, ततः शेषाण्यशुभानि जात्यादिमदस्थानानि बुद्धिमता प्रयत्नेन परिहर्त्तव्यानीति गाथार्थः ॥ २९४ ॥ विशेषेण ज्ञानमदस्या कत्र्त्तव्यतामाह दप्पविसपरममंतं, नाणं जो तेण गव्वमुव्वहइ । सलिलाओ तस्स अग्गी, समुडिओ मंदपुन्नस्स ॥ २९५ ॥ व्याख्या – जात्याद्यर्थविषयस्यापि दर्पविषस्योत्तारणार्थं किल ज्ञानमिष्यते यस्तु तेनापि गर्वमुद्रहति तस्यापुण्यवतो वराकस्य सलिलादध्यग्निरुत्थितो, ज्ञानस्य सलिलकल्पत्वाद्दर्पस्य त्वग्नितुल्यत्वादिति गाथार्थः ।। २९५ ॥ ननु दर्पे क्रियमाणे को दोषो ? येन प्रतिषिद्वयत इत्याशङ्क्याह धम्मस्स दया मूलं, मूलं खंती वयाण सयलांण । विणओ गुणाण मूलं, दप्पो मूलं विणासस्स ॥ २९६॥ व्याख्या- यथा धर्मस्य जीवदयादयो (१) मूलं यथा च सकलानां व्रतानां क्षन्तिर्मूलं यथा विनयो गुगानां मूलं, तथा विनाशस्य दर्पो मूलं - मुख्यमेव निबन्धनमिति गाथार्थः ॥ २९६ ।। अथवा इदानीं गर्व करणावकाश एव नास्तीत्याहबहुदोससंकुले गुण लवम्मि को होज्ज गव्विओ इहई ? । सोऊण विगयदोतं, गुणनिवहं पुव्वपुरिसाणं ॥ २९७॥ ४ भावनाऽधिकारे गुरुतरत्वं मानविपाकस्य । ॥१९३॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१९४॥ व्याख्या - साम्प्रत तावदुष्पमासमानुभावाद्गुणलव एव कश्चित्प्राप्यते, न तु सम्पूर्णः कोऽपि ज्ञानादिको गुणः, सोऽपि च बहुभिः क्रोधादिभिर्दोषैः सङ्कुलो - व्याप्तः, ततस्तस्मिन्नपि बहुदोषसङ्कुले गुणलवमात्रे सति को नाम सविवेकः सन् गर्वितो भवेत् , न कश्चिदिति भावः । किं कृत्वा ? इत्याह- पूर्वपुरुषाणां - तीर्थकरगणधर चक्रवर्यादीनां विगतदोषं गुणनिवहं अनन्तज्ञानैश्वर्यादिरूपं श्रुत्वा । अयम्मावः- मात्सर्यादिदोषलेशेनाप्यकलङ्कितान् प्रत्येकमनन्तान् पूर्वपुरुषाणां ज्ञानैश्वर्यादिगुणान् श्रुत्वाऽनेकदोपकलङ्किते गुणलवे गर्वस्य कोऽवकाशः ?, इति गाथार्थः ॥ २९७ ॥ विभविना गुणिना च विशेष (तः ) एवाहङ्कारो न कर्त्तव्य इत्याह साहेइ दोसाभावो, गुणोव्व जइ होइ मच्छरुत्तिष्णो । विहवीसु तह गुणी सु य, दूंमइ ठिओ अहंकारो ॥२९८॥ व्याख्या - प्रायो दोषाभावोऽपि यदि मत्सरोतीर्णो भवति, अहङ्कारमिश्रितो न भवति, तर्हि गुणवच्छोभत एव, अहङ्कारः पुनर्विभविषु गुणिषु च स्थितो दूनोति - शिष्टजनस्य महतीं मनोबाधां जनयति, अन्येनाप्यहङ्कारो न कर्त्तव्यो, विशेषतो विभविना गुणवता चेति भाव इति गाथार्थः ॥ २९८ ॥ अथ दृष्टान्तद्वारेण मानविपाक्रमाह- जाइम एणिक्केण वि, पत्तो डुंबणं दियवरो वि । सव्वम एहिं कहं पुण, होहिंति ? न सव्वगुणहीणा ॥ २९९॥ व्याख्या - एकेनापि जातिमदेन हेतुभृतेन द्विजवरोऽपि - पुरोहितपुत्रोऽपि इम्बत्वं जन्मान्तरे प्राप्तः, ततः सर्वैर्जात्यादिविषयैर्मदैः क्रियमाणैः कथं पुनस्तैः सर्वैरपि सुकुलोत्पत्यादिगुणैर्हीींना न भविष्यन्ति १, अपि तु भविष्यन्त्येवेत्यक्षरार्थः ॥ २९९ ॥ अथ कथ द्विजवरेण डुम्बत्वं प्राप्तमित्युच्यते - गजपुर ( बरे) पुरे सोमदत्ताभिधपुरोधसः पुत्रो ब्रह्मदेवनामा सर्वविद्यागृहमपि ४ भावनाऽधिकारे विभविना गुण. वताऽपि च मानस्याकरणीयत्वम् । ॥ १९४॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8/४ भावनाऽधिकारे मानविपाके ब्रह्मदेवद्विजोदन्तम्। बालकालाज्जातिमदं कुर्वन्ननेकयुक्तिभिः पित्रादिभिर्वारितोऽपि ब्राह्मणजातिं त्यक्त्वाऽन्यत्सर्वमवस्तु मन्यमानः सञ्चरद्भिः शब्दै रप्यपावित्र्यशङ्कया पुनः पुनः सचेलस्नानं कुर्वन् जातिमत्तस्तिष्ठति । अन्यदा पितर्युपरने राज्ञा तं जातिमदग्रस्तं ज्ञात्वा तत्पदेऽन्यपुष्पमाला पुरोधाः कृतः। स ब्रह्मदेवो निर्धनो व्यवहाररहितो लोकनिरंशङ्कमुपहस्यमानश्चिन्तयति-सत्र मया मन्तवनं यत्र सर्वोऽप्यशुद्धजनो लघुवृत्तिः कान दृष्टयाऽपि दृश्यते, न च सश्चरति क्वचिन्मार्गेऽपि । ततो निर्गतोष्टव्यां एकाकी मार्गमजानन् प्रान्तो डुम्बपल्ल्यां प्राप्तो ॥१९५॥ बहून् डुम्बान पश्यति, तावदेकेन डुम्बेनागत्य स्पृष्टः ऋद्धो डुम् निन्दन् शपति, डुम्बेन कुपितेन क्षुरिकका हतो मृत्वा तस्यैव डुम्बस्य सुतो जातः, तस्य दमन इति नाम कृतं । स च काणः खञ्जः कुब्जः पितुरप्युद्वेजकरूपः पापर्द्धिप्रभृतिबहुपापानि कृत्वा मृतः पञ्चमनरकपृथिव्यां नारको जातः। ततो मत्स्यभवान्तरितो नरकेषु भ्रान्त्वा प्रायः सर्वत्र हीनजातिषूत्पद्य महादुःखितो जातः । अथान्यदा कथमप्यज्ञानतपोऽनुभावाज्जातो ज्योतिष्केषु । ततो भरते पद्मखेटे नगरे कुन्ददन्ताया गणिकायाः मदननामा सुतो सुरूपः कलावान् विद्यावान् जातः । स च कृतज्ञः परोपकाररसिको गम्भीरस्तथापि जनो भणति-किमेप ? भो दारिकापुत्र!। ततो गुणानुरूपं फलं अप्राप्नुवन् कदाचिचित्ते चिन्तयति-धात्रा यद्यहं हीनजाती क्षिप्तस्ततोऽयं गुपाप्रकर्षः कथं कृतः? यदि चासो तत्कृतोऽधमा जातिः१, अथवा “सयलगुणमीलणेमु, सचं विहिणो परम्मुहा बुद्धी । रयणेहिं पूरिऊण वि, खारो जं निम्मिओ जलही ॥१॥” इत्यादि यावद्विषण्णश्चिन्तयति तावत्केवलिन आसन्नवने समवसृतं ज्ञात्वा तत्र गतः, धर्मदेशनां श्रुत्वा स्वस्थाधमजातिकारणमपृच्छत् । ततः केवलिवचनात्प्राग्भवान् विप्रभवादारभ्य ज्ञात्वा वैराग्याद्दीक्षां याचितवान् , दीक्षणानहेंजातिरपि केवलिनाऽतिशयज्ञानेनाराधको भावीति मत्वा दीक्षितः सम्यगाराध्य पर्यन्ते मासं पादपोपगमनानशनेन माहेन्द्रकल्पं देवो जातः, reOSAEEGAAAAAAESAR CRICKS ॥१९५॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१९६॥ PDAORDAEBRIORABAR | महाविदेहे सिद्धिं गमिष्यति । इति जातिमानविपाके (ब्रह्मदेव)विप्रकथासमाप्ता ॥ अथ मायाविपाकमधिकृत्याह- डू जे मुद्धजणं परिवं-चयंति बहुअलियकूडकवडोह। अमरनरसिवसुहाण, अप्पा विहु वंचिओ तेहिं ॥३००॥ ४ भावनाधिकारे व्याख्या-ये पुरुषा मुग्धजनं परिवञ्चयन्ति, कै? इत्याह-बहून्यलीकवचनरचनाप्रधानानि कूटकपटानि बह्वलीककूट- | मायाविपाके कपटानि, तैः, अत्र कूटानि हीनाधिकतुलादीनि, कपटानि अन्यथा चिकीर्षितस्यान्यथा बहिः प्रकाशनादीनि, तः, खलु अमर- वसुमत्युदाहरणमा नरशिवसुखेभ्यः स्वात्माऽपि वञ्चित एवेति गाथार्थः ॥३००॥ अथ दृष्टान्तदर्शनेन मायाविपाकमाहजइ वणिसुयाइ दुक्खं, लद्धं एक्कसि कयाइ मायाए। तो ताणको विवागं, जाणइ ? जे माइणो निच्चं ॥३०१॥ ___ व्याख्या-योकशः कृतयाऽपि मायया वणिक्सुतया वसुमतीनाम्न्या दुःखं लब्धं, ततो ये नित्यं मायिनस्तेषां विपाकं | को जानातीति गाथार्थः ॥३०१॥ कथं पुनस्तया वणिक्सुतया दुःख लब्धं ? इत्युच्यते-श्रावस्त्यां (सुधनुः श्रेष्ठी, तस्य अमृतश्री-कमलश्रीनाम्न्यो द्वे भार्ये) अमृतश्री वसुमती सुतां प्रसूता, सा सकलकलासु निपुणा बालपण्डितेति सर्वत्र विख्याता श्रेष्ठिनः प्रेमपात्रं जाता। अन्यदा रागकेसरिसुता मोहनरेन्द्रनत्री बहुलानाम्नी तस्याः सखी जाता | तस्याः कुमारत्वेऽपि परभव प्राप्ताऽमृतश्रीः। अन्यदा वसुमत्या मातृमत्सरेण मातुः सपत्न्याः कमलायाः कलङ्कदानार्थ पितरं गृहान्तः सुप्तं जागूतं ज्ञात्वा शनैर्बहुलानाम्नी सखी भाषिता-सखे ! मम माता कमला शाटिकया चोक्षा न वर्तते, सख्योक्तं-किमिदं ?, तया मायया पुनरुक्तं-किं (अनेन)? सम्प्रति निद्रा समायाती(ति) ॥१९॥ | सुप्ता सा । श्रेष्ठिना ततश्रुत्वा सञ्जातकोपेन त्यक्ता कमला, तद्दुःखेन द्वादशप्रहरान्निरन्तरं रुदन्ती कमलां दृष्ट्वा कृपया तत्कलङ्कोः | READREACHERSAX Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१९७॥ तरणार्थ पितरमाह-तात! किं कमलां मातरमवजानासि ?, स आह-ननु स्वयेवोक्तं यदसावचोक्षशाटिकेति, साऽऽह-नासौ तां | ४ भावनाधिकार धावयतीति मया तदुक्तं, न शीलमालिन्येनेति । ततो व्यावृत्तचित्तो धनुस्तथैव कमलां स्नेहेनालोकते । वसुमत्यपि चिरं गृहवासे मायाविपाके स्थित्वा प्रान्ते तापसीत्वं गृहीत्वा मृत्वा व्यन्तरेषु वेश्या जाता । ततो मृत्वा ऋषभपुरे सत्पथश्रेष्टिसता कमलिनी नाम्नी जाता। वसुमतीकथा। चम्पायां सुव्रतश्रेष्ठिपुत्रवसुदत्ताय दत्ता सा। वसुदत्तस्य च केनचिन्नर्मणा कमलिन्याः कायॆकाणत्वकुब्जत्वकुरूपत्वादिदोषास्तथोक्ता | यथा तान् श्रुत्वा तामनिच्छन्नपि पित्रा परिणाय्यमानो वसुदत्तश्चक्षुर्दूषणमिषेण नेत्रयोः पढें बद्ध्वा तस्या आस्यमनालोक्य परिणीय पूर्वभवकर्मणा द्वादशवर्षाणि तां तत्याज। पित्रादिभिः प्रार्थ्यमानोऽपि नाङ्गीचक्रे । अन्यदा मतिमन्दिरमित्रेण तामानाय्य राजपत्नीवेषां विधाय क्वापि दर्शयित्वा वसुदत्तस्तदनुरक्तो व्यधायि, प्रोक्तश्च मा दुःखमावहेस्त्वमेनां सम्पादयिष्यामीति प्रकारेण प्राकर्मणः | क्षयाद्रतौ प्रीतिभाजौ जातो कमलिनीवसुदत्तौ । कालेनावधिज्ञानिनः पार्श्वे धर्म श्रुत्वा प्राप्तावसरा कमलिनी प्राह-भगवन्! किं कर्म मया पूर्वभवे कृतं ? येन तथा प्रियेण परित्यक्ता ?, ज्ञानी प्राह-वसुमतीभवे बहुलासखीत्वेन कमला द्वादशप्रहरांस्तीव्र प्रियावमाननादुःखे पातिता यत्त्वया तत्कर्मविपाकेन द्वादशवर्षाणि तवैवं दुःखं जातम् । प्रश्ने सति वसुमतीभवात्सविस्तरं पूर्वभवानुवाच ज्ञानी,तच्छत्वा संवेग प्राप्तौ कमलिनीवसुदत्तौ प्रव्रज्य दशमं देवलोकं गतो, इति मायायां वणिक्सुतावसुमतीकथा समाप्ता ॥ । अथ लोभस्य बलीयस्त्वमतिव्याप्ति चाहको लोभेण न निहओ?,कस्स न रमणीहिं भोलियं? हिययांको मच्चुणा न गसिओ?,को गिद्धो नेय विसएसु? ॥१९७॥ __व्याख्या-लोभेन को न निहतः ?, नारीभिः कस्य हृदयं न भोलितं-व्यामोहितं ?, मृत्युना च को न गूस्तो ?, विषयेषु ।। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥१९८॥ को न गृद्ध: ?, अपि तु सर्वेऽपीत्यर्थः । यथा रमणीमृत्युविषयप्रभृतयः पदार्था व्यामोहनादिष्वतीव समर्थाः सर्वशास्खलिताश्च तथा लोभोऽपीति भावः इति गाथार्थः ॥ ३०२ ॥ गरीयस्त्वमेव लोभस्य प्रकारान्तरेणाह - पियविरहाउन दुसहं, दारिद्दाओ परं दुहं नत्थि । लोभसमो न कसाओ, मरणसमा आवइ नत्थि ॥ ३०३ ॥ व्याख्या – प्रियविरहादन्यद्दुस्सहं नास्ति, दारिद्र्यात्परं दुर्भवं नास्ति, लोभसमानोऽन्यः कषायो न, मरणसमा अन्याssपन्नास्तीति गाथार्थः ॥ ३०३ ॥ शेषकषायेभ्यो लोभस्य गरीयस्त्वे किं कारणं ? इत्याहथोवा माणकसाई, कोहकसाई तओ विसेसऽहिया । मायाऍ विसेसऽहिया, लोहंमितओ विसेस हिया ॥ ३०४|| इय लोभस्सुवओगो, सत्तेवि हु दीहकालिओ भणिओ । पच्छा य जं खविज्जइ, एसोच्चिय तेण गरुययरो ॥३०५॥ व्याख्या - चतसृष्वपि गतिषु केवलिना चिन्त्यमानेषु जीवेषु स्तोकास्तावन्मान कषायवन्तः मानकषायोपयोगस्य ह्रस्वकालत्वात्स्तोका एव तदुपयोगे प्राप्यन्त इत्यर्थः । तेभ्यः क्रोधकपायवन्तो विशेषाधिकाः । तेभ्योऽपि मायोपयोगे वर्त्तमाना विशेषाधिकाः । तेभ्योऽपि लोभकषायोपयोगयुक्ता विशेषाधिकाः । एतेषां यथोत्तरमुपयोगकालस्य विशेषाधिकत्वादित्युक्तप्रकारे णैव शेषपायोपयोगमधिकृत्य लोभस्यैवोपयोगः सूत्रेऽपि - आगमेऽपि हुर्यस्माद्दीर्घकालिको भणितः । क्षपकश्रेण्यां चानिवृत्तिवादरसम्परायगुणस्थाने सर्वेष्वपि शेषकषायेषु क्षपितेषु यतः पश्चान्महता कष्टेन सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानक एव लोभः क्षप्यते, तेनामुना कारणद्वयेन एष एव - लोभ एव गुरुतरः शेषेभ्य इति गाथार्थः ॥ ३०५ ॥ तृतीयमपि कारणमाहकोहाइणीय सव्वे, लोभाओच्चिय जओ पयति । एसोच्चिय तो पढमं, निग्गहियव्वो पयत्तणं ॥ ३०६ ॥ ४ भावनाधिकारे लोभ निग्रहोपायः ।। १९८।। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पप्पमाला लघुवृत्तिः ॥१९९॥ ४ भावनाधिकारे कषायेषु लोभस्य बलीयस्त्वम् AAAAAE व्याख्या-क्रोधादयश्च सर्वे लोभादेव यतः प्रवर्तन्ते, अतोऽप्ययमेव गुरुतर इति शेषः। नहि सर्वथा निष्परिग्रहस्य शरीरमात्रेऽपि निर्ममस्य निरालम्बनाः क्रोधादयः प्रवर्तन्ते, किन्तु धनादिमूर्छावत एवेति भावः। ततः किं ? इत्याह-एष एव-लोभ एव | ततः प्रथम प्रयत्नेन निगृहीतव्यः, तस्मिन्निगृहीते चोक्तयुक्त्या निगृहीता एव शेषा इति गाथार्थः ॥३०६॥ यद्येवं तर्हि प्रभृतं विभवमेवार्जयित्वा तं शमयिष्याम इत्याहनयावहवेणुवसमिओ, लोभो सुरमणुयचक्कवट्टीहिं। संतोसोच्चिय तम्हा,लोभविसुच्छायणे मंतो॥३०७॥ ___व्याख्या-न च-नैव सुरमनुजचक्रवर्तिभिर्विभवेन लोभ उपशमितः, तस्मात्सन्तोष एव लोभविषोत्सादने-लोभविषपरा| करणे मन्त्र इव मन्त्र इति गाथार्थः ॥३०७॥ विभववृद्धौ च प्रत्युत लोभाऽपि वर्द्धत एवेत्याहजहजह वड्ढइ विहवो, तहतह लोभोवि वड्ढए अहिर्य । देवा इत्थाहरणं,कविलो वा खुड्डओ वा वि॥३०॥ व्याख्या-यथा यथा वर्द्धते विभवस्तथा तथा लोभोऽप्यधिक वर्द्रत एव, देवा अत्रोदाहरणं, तेषां हि विभवस्तावन्महानिति प्रतीतमेव, लोभोऽप्यागमे शेषजीवेभ्यो देवानामेवाधिक उच्यते, मर्येष्वपि च दृश्यते विभविनां प्रायो मूर्छाधिक्यं, कपिलश्वेहोदाहरण, तथा क्षुल्लकश्चापि । तत्र कः पुनः कपिलः?, उच्यते कौशाम्ब्यां पुर्यों राजदत्तबहुमानः कासवनामा पुरोहितस्तद्भार्या जसा, कपिलनामा पुत्रस्तस्य बाल्येऽगि पिता ब्रह्मस्वर्ग जगाम । राज्ञा तदधिकारोऽन्यस्मै सविद्यविप्राय प्रदत्तः। सोऽन्यदा शिरोधृतधवलातपत्रः पुरमध्ये भ्रमन् दृष्टस्तज्जनन्या। सा सदुःखं करुणस्वरं रोदितुं प्रवृत्ता । समीपस्थेन कपिलबालकेन पृष्टा-हे मातः! किमिति रोदिपि। हे वत्स! तब पितुरियं विभूतिरनेन प्राप्ता। RAMAP ॥१९९॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२०॥ ४ भावनाधिकारे लोभनिग्रहे कपिलोदाहरणम् PADANEOPOREAPBREPBABA राज्ञाऽस्माकं किं न दत्ता ? । सा प्राह-वत्स ! त्वं लघुवया मूर्खः, इहत्या अध्यापका मत्सरेण न त्वां पाठयन्ति, अतः श्रावस्त्यां त्वत्पिमित्र इन्द्रदत्तनामाऽध्यापकोऽस्ति, स त्वां पाठयिष्यतीत्यादि श्रुत्वा मातुराशिषं गृहीत्वोपपितृमित्रं गतः कपिलः । आगमनकारणादिव्यतिकरः सर्वोऽपि साधितः। तत इन्द्रदत्तेन गुरुतरस्नेहेनालियोक्तं-वत्स ! सम्यग्विहितं, भवादृशामुत्तमकुलप्रभवानां युक्तमेतत्, परमत्र न भोजनसम्पत्तिः, तामन्तरेण पठनं न स्यात् । यतः-"आरोग्यबुद्धिविनयोद्यमशास्त्ररागाः, पश्चान्तराः पठनसिद्धिगुणा भवन्ति । आचार्यपुस्तकनिवाससहायवल्ला, बाह्यास्तु पञ्च पठनं परिवर्द्धयन्ति ॥१॥" ततः स वसन्तक्रीडार्थमुद्यानप्राप्तमिभ्यं शालिभद्रश्रेष्ठिनं "ॐ भूर्भुवः स्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवः स्वधीमहि धियोयोनि प्राणे देवे"त्याद्याशीर्वादपुरस्सरं प्रार्थयामास । तत्पुरः सर्वोऽपि स्वोदन्तो निवेदितः, प्रतिपन्नं भोजनं । ततः पठति, तद्गेहे मुक्त। सोऽन्यदा तत्परिवेषणाधिकारिण्यां दास्यामनुरक्तो भोगान् विलसति, अन्यदा दास्युत्सवे शृङ्गारितदासीः प्रेक्ष्य सा शृङ्गारकुसुमताम्बूलविरहिता रुदति, "अहो !! मन्दभाग्याया मे पतिर्दरिद्र' इति तद्वचः श्रुत्वा सोऽप्यधतिं मतोऽहो !! निर्धनानां पदे पदे पराभव इति । तत्रैको धनश्रेष्ठी निद्रान्ते प्रत्यूषे प्रथममेव यस्तं प्रार्थयते तस्मै पलद्विकं स्वर्ण प्रयच्छति, ततश्चिन्तावशगतः सद्य एव तस्मिन् सुप्त एव ब्रजामीत्यादि विचिन्त्य अर्द्धरात्रे उत्थाय व्रजनन्तरा आरक्षकैद्धः, प्रभाते राज्ञः समर्पितस्तेनेङ्गितादिना शुद्धो विज्ञातः, पृष्टश्च स सर्व यथार्थमुक्तवान् । तुष्टेन करुणापरेण राज्ञोक्तं-'यावत्स्वर्ण याचिष्यसि तावन्मानं दास्यामीति वद। ततः सोऽशोकबनिकामध्ये विमष्टु लग्नो द्वाभ्यां पलाम्यां वासांस्यपि न भविष्यन्ति, तत: सुवर्णशतं सुवर्णसहस्रं सुवर्णलक्षं सुवर्णकाटिं सुवर्णकोटाकोटिं यावचिन्तयतोऽपि नै मनस्सन्तोषः, तस्मिन्नासरे समुदीर्ग किमपि शुभकर्म, तेनेति चिन्तयितुं लग्नः किं मया मूढ ROPORRORASHRA ॥२०॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२०१॥ ४भावनाऽधिकारे कपिलकेवलिकथानकम् । MORRHEARomanamanna मानसेन दुष्कृतं प्रारब्धमिति भावयतः समुत्पेदे जातिस्मरण, ज्ञातं च पूर्वभवे पश्चशतसाधुमध्ये श्रामण्यं सुरलोकगमनं च । ततो ज्ञातभवपरमार्थो दीक्षां प्रपेदे, वेषो देवतयार्पितः, उपनृपमागत्य धर्मलाभो दत्तः, किमेतदिति राज्ञा पृष्टे इदमेवालोचितं, सन्तोपजलेन तृष्णाग्निरुपशामितः, धर्मोपदेशप्रदानेन सर्वोऽपि राजलोकः प्रबोधितः । ततो नवकल्पविहारेण विहरन उग्रं तपःकर्म समाचरन् स्वयम्बुद्धः कपिलः पष्ठे मासे केवललक्ष्मी पर्यणेषीत, तस्मिन् समये पूर्वभवसम्बन्धिनं साधुशतपश्चकं मृत्वा स्वर्गसुखमनुभूय राजगृहासनाटविषु सञ्जातकिरातसमूहं वीक्ष्य प्रतिबोधितुं जगाम । तस्करैः सेनापतिसमीपं. धृत्वा नीतः स ऋषिस्ततस्ते ननितं लग्नाः,ऋषिः-"अधुवेसासयम्मि, [संसारम्मि दुक्खपउराए । किं नाम हौज तं कम्म?,जेणाहं दुग्गई नगच्छिज्जा॥९॥" उत्तरा० ८ अ०]"संबुज्झह मा विमुज्झह, [संबोही पुणरावि दुल्लहा । नो एवणमंति राइओ, नो सुलभं पुणरावि जीवियं ॥९॥" सूत्रकृ. वेतालीयाध्ययन] इत्यादिध्रुवकान् कथयामास, सर्वेऽपि ते प्रतिबोधिता दीक्षां प्रतिपद्य क्रमेण मोक्ष यास्यन्ति, एवमन्यानपि जन्तून् प्रबोध्य कपिलः केवली सिद्धि प्राप । इति कपिलकेवलीकथा समाप्ता॥ अथ क्षुल्लककथोच्यते-राजगृहे नगरे श्रीसिंहरथराजा राज्यं करोति, अन्यदा तत्र गुणशिले चैत्ये धर्मरुचिमुरयः समागतास्तच्छिष्य आषाढभूतिः, सोऽन्यदा भिक्षार्थ व्रजन्नृपनटगेहे प्रविष्टः, तत्रैको मोदको रसगन्धाढयः प्राप्तः, ततो निर्गत्याचिन्ति-एष तावद्गुरूणां भविता, पुनरात्मनेऽन्यं याचयामीति चक्षुःकाणीकृत्य पुनर्गतो, दत्तो मोदकश्चैकः, पुनरेष उपाध्यायानां भवितेति मनसि निधाय कुब्जरूपं विधाय गतो, विहारितश्चैको मोदकः, एष सङ्घाटकसाधोभवितेति विचिन्त्य पश्चात्कुष्ठिरूपं विधाय पुनर्गतो, विहा. रितश्चेत्यादि क्षुल्लकचरित्रं प्रासादोपरि स्थितेन नटेन दृष्ट्वा चिन्तितं-एष सुन्दरो नटो भवति, केनाप्युपचारेण रक्ष्यः, लब्धोपायेन ॥ २०१ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२०२॥ CREATERI RomarmanamaAAR ४भावनाधिकारे क्षुल्लकाषाढभूतिनिदर्शनम्। तेन पुनराकारितस्साधुर्मोदकै तस्थालैः प्रतिलाभितः, पुनर्भणितश्च स्वयेह प्रतिदिनं मोदकार्थ समेतव्यमिति श्रुत्वा निर्गतः। तदनु | | भायों प्रत्युक्तं-एष साधुर्मोदकादिना प्रतिलाभ्यः, निजपुत्र्योः प्रत्युक्तं च-सानुकूलोपचारैरेनं वशीकुरुत । ततस्ताभ्यां मुदा शृङ्गार हावभावादिभिस्तस्य चेतस्तथा भिन्नं यथा नष्टः कुलाभिमानः विस्मृतस्सगरुवाङमन्त्रः सञ्जातो निस्सप उदित चरणावरण कर्म तस्य, ततः सोऽपि परिहासादि कतु प्रवृत्तः, प्रतिपद्य विवाहादि उपश्रीआचार्य गतो. भणितो निजपरिणामविशेषस्ततो गुरुराह "उत्तम कुलुन्भवाणं, विवेयरयणायराण होऊणं । इहपरलोयविरुद्धं, किं जुतं ? एरिसं काउं ॥१॥ ___ "दीहरसीलं परिपा-लिऊण विसएसु वच्छ!मा रमसु । को गोपयम्मि बुड्डह?, जलाहिं तरिऊण याहाहा । ततः क्षुल्लकेनोक्तं एतत्सत्यमेव, परं प्रव्रज्यां कर्त्तमहं न तरामि साम्प्रतं । लिङ्ग मुक्त्वा वसतेर्निर्गतो नटगृहं प्राप्तो, नटेन स्वसुत तस्म परिणायित,उक्त चायं धर्मानुरक्त उत्तमप्रकृतिः सत्पुरुषस्ततोयुवाभ्यामप्रमत्ताभ्यां शुचिभूताभ्यां उपचरणीयः,यथा वैराग्यं न गच्छति । एवं पञ्चविधविषयसुखमनुभवतः कालो ब्रजति, अन्यदा राज्ञा दिवसे आषाढभूतिप्रमुखा नटा नाटकनिरीक्षणार्थमाकारिताः, तास्मन् प्रस्तावे नटवधूभिः क्षुल्लवधूभिस्सह मधं पीतं यथेच्छम्, ततस्ता विलुठितकेशकलापाः प्रसृतदुर्गन्धा जाताः । ततो राजकुलादागतेन तेन तच्चेष्टितं वीक्षितम् । ततः प्राप्तवैराग्यरङ्गश्चिन्तयति-'किं मयेदं विलसितं ?, चारित्रचिन्तामणिवृथैव हारित एतयोः कृते' | इत्यादि, ततो निर्गच्छन् गेहानटेन दृष्टश्चेष्टितातो विरक्तचित्तोऽसाविति । तेन पुग्यौ भणिते-आः पापे ! किं युवाम्यां विलसितम् , युष्मद्भता चारित्राय बजतीत्युक्ते विगलितमदे पतिपादमूले निपत्य वदतः क्षमस्वापराध, एहि गेहं, नो चेदाजीविकों दत्वा ब्रज।। ततस्सप्तरात्रेण निर्मितं भरतचक्रिचरित्रप्रतिबदनाटक, ततो राज्ञे निवेदितं नटैः, राज्ञोक्तं तच्छी, मत्पुरतो नाटयन्तु, ततो नटेन A CORE Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२०॥ % ARORAMAmers राज्ञः पाश्र्थात्पञ्चशतं पात्राणां सर्वालङ्कारप्रवराणां राजपुरुषाणां प्राप्य आषाढभूतिः स्वयं भरतीभूय पञ्चशतपात्रेस्समं तबाटकं नाट यति, यथा भरतक्षेत्रं साधितं, यथा निधयः प्राप्ताः, यथा द्वादशवर्षाणि राज्याभिषेकः, यथा च भुक्ताः कामभोगाः, यथा च राज्यं न ४भावनाऽधिकारे पालयति श्रीभरतस्तथा तेन साभिनयं सर्वमपि सत्यचित्तेन नाटयता नृपतिः प्रवरनाटकरसेन तथा प्रतोषं नीतस्सपरिजनः, यथे क्षुल्लकाषाढभूति तस्य मुकुटाधलङ्कारो दत्तः, शेषजनाभरणैश्च तत्र कनकस्तूपो जातः । तत आषाढभूतिः श्रीभरतनृप इव प्रविष्ट आदर्शगृहे, मुद्रा ४ मुनेरुदाहरणम्। पतनादिक्रमेण पञ्चशतपात्रैस्समं गृहीतश्रमणलिकः पञ्चमौष्टिकं लोचं कृत्वा नृपं धर्म लाभयित्वा निर्गतः. ततो हा हा !! किमतदिति भणन्नपप्रभृतिलोको बाहौ लगित्वा निवर्तयति तं, आषाढभूतिभणति-यदि भरतो दीक्षां गृहीत्वाऽपि विनिवृत्तस्तर्हि मामपि निवर्तयत, मुश्चतान्यथा असद्ग्रहं । ततो भावं ज्ञात्वा मुक्तः । शेषाणां पश्चश्तराजपुरुषाणां लज्जया कुलाभिमानेन दीक्षाममुश्चत भावतोऽपि परिणता । आषाढभूतिरपि आलोच्य प्रतिक्रम्य उग्रं तपः कृत्वा प्राप्तकेवलः सिद्धः । केचित्पुनरेवमाहुः-श्रीभरत इवादर्शगहे प्रविष्टः श्रीआषाढभूतिरड्-गुलीयकरत्नपातात्तथैव भरतवन्दुरिभावनया लब्धकेवलालोको गहीतद्रव्यलिङ्गो राजादीन् सम्बोध्य पात्रीकृतराजसुतपञ्चशत्याः प्रदत्तव्रतो भव्यलोकमबोधयत् । अथ कुसुमपुरेऽप्यस्मिन्नाटके नर्तिते प्रवजितो बहुजनः, ततो नागरस्तदग्धं । आषाढभूतितुल्या:कियन्तो भविष्यन्ति तस्मात्प्रथममेवाहारादिषु लोभो न कार्यः इति लोभे आषाढभूतिकथा समाप्ता। तदेवं चतुर्णामपि कषायाणां प्रत्येकं विपाकमभिधायाथ समुदितानां तमाहसामन्नमणुचरंतस्स, कसाया जस्स उक्कडा हुंति। मन्नामि उच्छपुप्फंव, निरत्ययं तस्स सामन्नं ॥३०९॥ व्याख्या-श्रामण्यं-चारित्रमनुचरतो यस्य कषायाः क्रोधादय उत्कटा भवन्ति, तस्य श्रामण्यमिक्षुपुष्पमिव निरर्थकं मन्ये ॥ २०३ ॥ HARE MEArun-MRAPE%- Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृतिः ॥२०४॥ इति गाथार्थः ॥ ३०९ ॥ कुत एतदित्याह जं अयं चरितं, देसूणाए वि पुव्वकोडीए । तंपि कसाइयमित्तो, हारेइ नरो मुहुत्तेणं ॥ ३१० ॥ व्याख्या - पूर्वकोटयधिकायुष्कस्याकर्मभूमिजादेस्तावद्भतमेव न भवति, पूर्वकोट्यायुष्कस्यापि वर्षाष्टको पर्येव दीक्षा, अतो देशोनयाऽपि पूर्वकोटया यदर्जितं चारित्रं दुश्वरतपश्चरणलक्षणं, तत्सर्वमपि कश्चिन्नर : केनचित्कर्मवशेन कषायितमात्रोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्र| मपि कालमनन्तानुबन्धिकषायोदये वर्त्तमानो हारयति विफलीकुर्यात्, तथाविधकषायतीव्रत्वे मृतः कदाचिन्नरकेष्वप्युत्पद्यत इत्यर्थ: इति गाथार्थः ॥ ३१० ॥ एतदेवाह - जइ उवसंतकसाओ, लहइ अणंतं पुणो वि पडिवायं । न हु मे वीससियब्वं, थेवे वि कसायसेसम्मि ॥ ३११ ॥ व्याख्या– यद्युपशान्तकषायः - उपशमितस मस्तमोहनीय कर्मा, एकादशगुणस्थानवती, केवलिसमानचारित्रयुक्त इत्यर्थः, सोsपि कश्चित्पुनरप्यनन्तभव भ्रमणलक्षणमनन्तं प्रतिपातं लभते तदा भवद्भिरनुपशान्तकषायैः स्तोकेऽपि कषायशेषे न खलु विश्वसनीयं - नोपेक्षा कार्या, किन्तु सर्वथोपशमनीय एवेति गाथार्थः ॥ ३११ ।। अथ के कषायाः कं गुणं घ्नन्तीत्याहपढमाणुदये जीवो, न लहइ भवसिद्धिओ वि सम्मत्तं । बीयाण देसविरई, तइयाणुदयम्मि चारितं ॥ ३१२॥ सव्वे वि य अइयारा, संजलणाणं तु उदयओ हुंति । मूलच्छेज्जं पुण होइ, बारसहं कसायाणं ॥ ३१३ ।। व्याख्या - प्रथमानां - अनन्तानुबन्धिनां कषायाणामुदये, भवा - तस्मिन्नेव भवे भाविनी सिद्धिर्यस्यासौ भवसिद्धिकः, सोऽपि जीवः सम्यक्त्वं न लभते, तथा पूर्वलब्धमपि तत्तदुदये वमत्येवेत्यपि द्रष्टव्यम् । द्वितीयानां अप्रत्यारव्यानावरणकषायाणामुदये देश ४भावनाऽधिकारें कषायोदयवतः श्रामण्यनिष्फल त्वम् ॥। २०४ ।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४मान पुष्पमाला लघुवृत्ति ॥२०५॥ ४भावनाधिकारे कषायनिग्रहानिग्रहफलम् । -SERIES RS विरतिं न लभते, पूर्वप्रतिपनामपि च तां त्यजत्येवेति । तृतीयानां तु प्रत्याख्यानावरणकषायाणामुदये चारित्रं न लभते, लब्धमपि चोज्झतीति। सज्ज्वलनानां चतुर्थकषायाणामुदये लब्धस्यापि चारित्रस्य मालिन्यहेतवो वितथाचरणरूपाः सर्वेऽपि-मलोत्तरगुणविषया अतिचारा भवन्ति । सज्वलनोदये यथाख्यातचारित्रं तावत्सर्वथैव न लभते, शेषस्यापि सामायिकादिचारित्रचतुष्टयस्य मालिन्यजनकत्वेन देशघातिन एते इति भावः । तर्हि कथं शेषचारित्रस्य सर्वघातः? इत्याह-द्वादशानां पुनरनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्याना-1 वरणप्रत्याख्यानावरणरूपाणां कषायाणां प्रत्येकं समुदितानां वा उदये, मृलेन-अष्टमप्रायश्चितविशेषेण छिद्यते-ऽपनीयते यहोषजालं तन्मूलच्छेद्यं भवति, अशेषचारित्रघातकं दोषजातं तदुदये सम्पद्यत इति गाथाद्वयार्थः॥ ३१२-१३ ॥ अथ कपायनिग्रहानिग्रहफलस्य व्यक्तितो भणितुमशक्यत्वात्सामान्यतस्तदाहजं पिच्छसि जियलोए, चउगइसंसारसंभवं दुक्खं । तं जाण कसायफल,सोक्खं पुण तज्जयस्त फलं ॥३१॥ _ व्याख्या-यजीवलोके चतुर्गतिसंसारसम्भवं दुःखं प्रेक्षसे तत्कषायफलं जानीहि, सौख्यं पुनस्तञ्जयस्य-कषायजयस्य फल'मिति गाथार्थः॥ ३१४॥ यद्येवं तर्हि किं विधेयं कश्चेह परमार्थः ? इत्याह| तं वत्थु मुत्तत्वं, जं पइ उप्पजए कसायऽग्गी। तं वत्थु चित्तव्वं, जत्थोवसमो कसायाणं ॥ ३१५॥ एसो सो परमत्थो, एयं तत्तं तिलोयसारमिणं। सयलदुहकारणाणं, विणिग्गहोज कसायाणं ॥३१६ ॥ || व्याख्या-तद्वस्तु मोक्तव्यं, यत्प्रति-यद्वस्त्वाश्रित्योत्पद्यते कषायाग्निः । तद्वस्तु ग्राह्य, यत्रोपशमः कषायाणां । एष स परमार्थः, एतत्तत्वं त्रैलोक्यसारमेततू, सकलदुःखकारणानां विनिग्रहो यत्कषायाणामिति गाथाद्वयार्थः ॥ ३१५-१६ ॥ -UGC ॥२०५॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति ॥२०६॥ गतं विषाकद्वारमथ कषायाणामेव रागद्वेषरूपतापरिणमनरूपमन्यद्वारमाहमाया लोभो रागो,कोहोमाणो य वणिंओदोसो।निजिणसु इमे दोन्नि वि,जइ इच्छसि तं पयं परमं॥३१७॥ ४भावनाधिकारे व्याख्या-मायालोभश्चेत्येतौ द्वावपि रागः, मायासहितो लोभपरिणाम एव रागव्यपदेशमाग्भवतीत्यर्थः । क्रोधमान रागद्वेषमयत्वं योस्तु संवलितपरिणामो द्वेषो वर्णितः । ततः किम ? इत्याह-एतौ द्वावपि रागद्वेषौ] क्रोधमानौ (१) निजेय-तिरस्कुरु, यदी || कषायाणाम् । डा. च्छसि तत्समयप्रसिद्ध पदं-मोक्षलक्षणं स्थानं परम-प्रधानमिति गाथार्थः ॥ ३१६ ॥ अथ ये रागद्वेषौ जयन्ति त एव सुभटा इत्याह| ससुरासूरं पि भुवणं, निजिणिऊणं वसीकयं जेहिं । ते रामदोसमल्ले, जयंति जे ते जये सुहडा ॥ ३१८॥ व्याख्या-सुरा-भवनपत्यादयश्चतुर्विधा देवाः, न सुरा असुराः, नओ निषेधमात्रवृत्तित्वात्, सुरव्यतिरिक्ताः शेषा नारक-| तियङ्मनुष्याः, सह सुरासुरवर्तत इति ससुरासुरं, तदशेषमपि भुवनं यकाभ्यां रागद्वेषाभ्यां निर्जित्य वशीकृतं-संसार एव सम्पिण्डय | विधृतं, तावेवम्भूतौ सर्वजगज्जेतारौ रागद्वेषमल्लो ये केचिजिनवचनरता महासत्त्वा जयन्ति-अभिभवन्ति त एव जगति सुभटा इति गाथार्थ : ॥३१८ ॥ अथ रागभेदानिरूपयन् तेषु द्वेषे चोदाहरणान्याह| रागो य तत्थ तिविहो, दिठिसिणेहाणुरायविसएहिं । कुप्पवयणेसु पढमो, बीओ सुयबंधुमाईसु ॥ ३१९ ॥ | विसयपडिबंधरूवो, तइओ दोसेणसह उदाहरणा। लच्छीहरसुंदर-अरिहदत्तनदाइणो कमसो॥३२०॥ | ॥२०६॥ व्याख्या-तत्र तयो रागद्वेषयोर्मध्ये रागस्तावधिविधः, कथम् ? इत्याह-इहानुरागशब्दो डमरुकमणिन्यायेन पश्चादग्रतश्च ||| RERAwan-0IMER Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति 1120011 योज्यते, ततश्च विभक्तिव्यत्ययादयमर्थे दृष्टिषु शाक्या दिकुप्रवचन रूपास्वनुरागो दृष्टयनुरागः प्रथमः । स्नेहः- सुतबान्धवादिषु प्रतिबन्धस्तद्रूपोऽनुरागः स्नेहानुरागो द्वितीयः । विषयेषु शब्दादिषु प्रतिबन्धो-गाद्धर्थ, तपोऽनुरागों विषयानुरागस्तृतीयः । अस्मिंश्च त्रिविधे रागे द्वेषेण सहेति चतुर्थे द्वेषे लक्ष्मीधरादयश्वत्वारोऽपि क्रमेणोदाहरणानि तद्यथा-विन्ध्यपुरे वरुणश्रेष्ठी, तस्य श्रीकान्ता विजयानन्य भार्ये । श्रीकान्तायां लक्ष्मीधर- सुन्दर - अर्हदत्तनामानस्त्रयः सुता जाताः, विजयायां नन्दनामा नन्दनोऽभूत् । तत्कुटुम्बं जिनधर्मभावितं । पुत्रा वर्द्धिताः, पित्रा परिणायिताः । इतश्वानादिभवपुरे मोहनृपः स्वास्थानसंस्थः चिन्तापरो यावज्जातस्तावद् दृष्टिराग-स्नेहराग-कामराग-द्वेषगजनामानश्चत्वारोऽपि पुत्रा आगत्य प्राहु:- तात ! का ते चिन्ताऽस्मासु सत्सु ?, मोहः प्राह- हे वत्साः ! वैरी चारित्रधर्मराजस्तेन वरुणश्रेष्ठिकुटुम्बं वासितम् । तत्र चत्वारोऽपि श्रेष्ठिसुता अद्यापि सम्यग्वासिता न सन्ति, अवसरोऽयमात्मनां । तच्छ्रुत्वा चत्वारोऽपि मोहमुता धाविताः, मेलितो दृष्टिरागेण लक्ष्मीधरस्य त्रिदण्डी, तेनावर्जितो मन्त्रतन्त्रादिभिः कुमारः प्रथमः । स्नेहरागेण सज्जातपुत्रस्य सुन्दरस्य कारितः पुत्रलालनादिव्यापारस्त्यक्तधर्मकृत्यो जातो द्वितीयः कुमारः । विपयरागेणाद्दत्तस्य भार्यावशित्वे कारिते तद्वचसा पातितो महाचिन्तायां, जातो धर्मपराङ्मुखस्तृतीयोऽपि कुमारः । द्वेषगजेन नन्दस्य शिक्षितं कलहकरणं पित्रादिष्वपि, कारितं दुर्भाष्यभाषणं, त्याजितो जिनधर्मपरिणामाच्चतुर्थोऽपि कुमार: । ततो वरुणश्रेष्ठी सुतान् धर्मविमुखान् वीक्ष्य दुःखितः साधूनां पार्श्वे प्रव्रज्य सुगतिभागभवत् । सुता रागद्वेषैर्व्याप्ताश्चत्वारोऽपि मारणान्तिकं दुःखं प्राप्ताः दुर्गतिष्वनन्तं भवं भ्रमिष्यन्ति प्राप्स्यन्त्यनन्तानिं दुःखानि तानि च केनापि सर्वायुष्केण वक्तुं न पार्यन्त इति । "ता जाणिऊण एयं, अप्पमत्ता निज्जिणेह दोवि इमे । रागद्दोसे दुज्जय-सत्तू अहविरसपरिणामे ॥ ९ ॥ ” ४ भावनाऽधिकारे रागत्रिकेकषाये च लक्ष्मीधरादीनां निदर्शनानि । 11 200 11 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृति ॥२०८॥ इति लक्ष्मीधरादीनां कथानकं समाप्तम् ॥ यतश्चेहामुत्र चानन्तदुःखदायको रागद्वेषावत आह सत्तू विसं पिसाओ, वेयालो हुयवहो य पज्जलिओ । तं न कुणइ जं कुविया, कुणंति रागाइणो देहे ॥ ३२९॥ व्याख्या - शत्रुर्विषं पिशाचो वेतालः प्रज्वलितो हुतवहश्च तद्दुःखं देहे न करोति, यत्कुपिता - बाहुल्यं प्राप्ता रागादयः कुर्वन्ति । शत्रुप्रभृतयो किदुःखमात्रप्रदानेऽपि सन्दिग्धाः, रागादयस्तु परभवेऽप्यस इख्यदुःखप्रदाः, अतस्त एव यत्नतो जेतव्या इति भावः। इति गाथार्थः ॥ ३२९ ॥ अथ रागादिविपाकस्य तज्जयस्य च फलमनन्तं पश्यन् सङ्क्षेपतस्तदाहजो रागाईण वसे, वसम्मि सो सयलदुक्खाणं । जस्स वसे रागाई, तस्स वसे सयलसुक्खाई ॥ ३२२ ॥ व्याख्य । —– यः प्राणी रागादीनां वशे, स निःशेषदुःखानां वशग इति मन्तव्यम् । यस्य तु वशे रागादयस्तस्य सर्वाण्यपि सौख्यानि वशवतीन्येवेति त एव जेतव्या इति गाथार्थः ॥ ३२२ ॥ इत्थं कषायान् विषमान् विभाव्य, प्रोज्झ्य प्रमादं प्रशमं श्रयध्वम् । rer शिवेऽनन्तसुखे सुखेन, लक्ष्मी लभध्वं लघु देहभाजः ॥ ९ ॥ इति पुष्पमालावृत्तौ भावनाऽधिकारे कपायनिग्रहलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ।। ९ ।। अथ गुरुकुलवासद्वारं विभणिषुः पूर्वद्वारेण सह सम्बन्धगर्भा गाथामाह पुव्वुत्तगुणा सव्वे, दंसणचारित्त सुद्धिमाईया । होंति गुरुसेवणुच्चिय, गुरुकुलवासं अओ वुच्छं ॥ ३२३॥ | ४ भावनाऽधिकारे अनन्तदुःखदायकत्वं रागद्वेषयोः । ॥ २०८ ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति ॥२०९॥ - %a व्याख्या-पूर्व सम्यक्त्वचारित्रादिकषायनिग्रहान्तेषु द्वारेषु तच्छुद्धयादयः कपायजयान्ता गुणा उक्तास्ते सर्वेऽपि गुरुa. सेवाप्रवृत्तस्यैव भवन्ति, तदुपदेशादेव तत्परिज्ञानादित्यतोऽनन्तरं गुरुकुलवासं वक्ष्य इति गाथार्थ ॥ ३२३ ॥ are भावनाधिकारे अथ प्रस्तुतद्वारे भणिष्यमाणार्थसङ्ग्रहमाहकोयगरू? को सीसो?.केय गुणा?गुरुकुले वसंतस्स।तप्पडिवक्खे दोसा,भणामिलेसेण तत्थ गुरुं॥३२॥ गुरुकुलवास निरूपणे व्याख्या को गुरुः?- कीदृग्गुणयुक्तो गुरुर्भवतीति तावत्प्रथमं वक्तव्यम् । कश्च शिष्यः? इति वाच्यम् । केच गुणा गुरु गुरोर्योग्यता। | कुले वसतः शिष्यस्येति वाच्यम् । तस्य च गुरुकुलवासे वसनस्य प्रतिपक्षे तत्परित्यागरूपे ये दोषाः शिष्यस्य भवन्ति तानपि भणि- || | प्यामि । तत्र तेषु यथोक्ताधिकारेषु मध्ये लेशेन-सक्षेपतस्तद्गुणनिरूपणद्वारेण गुरुं तावद्भणामीति गाथार्थः ॥३२४॥ तदेवाहविहिपडिवनचरित्तो, गीयत्यो वच्छलो सुसीलो य। सेवियगुरुकुलवासो,अणुयत्तिपरोगुरू भणिओ॥३२५॥ व्याख्या-विधिना-शुभमुहूर्त्तकरणादिना प्रतिपन्नचारित्रः, गीतार्थः- समस्तसूत्रार्थवेत्ता, वत्सलः-सर्वजीवेषु हितः, सुशीDil लथ, सेवितगुरुकुलवासः, शिष्यजनादेरनुवृत्तिपरो गुरुभणित इति गाथार्थः ॥ ३२५ ॥ भङ्गयन्तरेण गुरुगुणानेवाहदेसकुलजाइरूबी, संघयणधिईजुओ अणासंसी । अविकत्थणो अमाई, थिरपरिवाडी गहियवक्को ॥३२६॥ जियपरिसो जियनिदो, मज्झत्यो देसकालभावष्णू । आसन्नलद्धपइभो, नाणाविहदेसभासण्णू ॥३२७॥ पंचविहे आयारे, जुत्तो सुत्तऽत्थतदुभयविहिष्णू। आहरणहेउउवणय-नयनिउणो गाहणाकुसलो ॥३२८ ॥ ससमयपरसमयविऊ,गभीरो दित्तिमं सिवो सोमो। गुणसयकलिओ एसो,पवयणउवएसओय गुरू॥३२९॥|| ॥२०९॥ ૧૫ ૧૬ ૧૭ 5OREAKIGAR ૨૬ ૨૭ ૨૮ ૨૯ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति भावनाधिकारे गुरुकुलवासनिरू// पणे षट्त्रिंशद् गुरुगुणाः। ॥२१०॥ ABROADRBARADARSHA व्याख्या-"देस"ति, अत्र सर्वत्र सूचामात्रत्वात्सूत्रस्यार्यदेशोत्पन्न एव गुरुः स्यादित्यर्थः१,तथा "कुल"ति पितृपक्षशुद्धः२, | "जाइ"त्ति मातृपक्षशुद्धः ३, तथा रूपवान्-प्रतिरूपः ४, संहननेन-विशिष्टशरीरसामर्थ्येन युक्तः ५, धृत्या-संयमादिनिर्वाहणप्रत्यलम• नोवलेन युक्तः६, धर्मकथादिप्रवृत्तौ वस्त्रभोजनाद्याशंसाविरहितः७, स्वल्पेऽपि केनचिदपराद्धे तुच्छतया पुनःपुनस्तदुत्कीर्तनं विकत्थनं, तद्रहितः ८, मायाविनिर्मुक्तः९, स्थिरपरिपाटि:- अविस्मृतसूत्रार्थः १०, गृहीतवाक्यः-आदेयवचनः११, जितपरिषत्-महत्यामपि सभायां क्षोभरहितः१२, जितनिद्रः१३, मध्यस्थो-रागद्वेपरहितः१४, देशौचित्येन यः प्रवर्त्तते स देशज्ञः१५, एवं कालज्ञः१६, | भावः- पराभिप्रायस्तदौचित्येन प्रवर्तको भावज्ञः१७, आसन्ना-झमित्येव लब्धा-कर्मक्षयोपशमेनाविभूता प्रतिभा-परतीर्थिकादीनां उत्तरप्रदानशक्तिर्यस्येत्यासन्नलब्धप्रतिभः१८, नानाविधदेशभाषाकुशलः१९,ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याचाररूपपश्चविधाचारयुक्तः२४, सूत्रार्थतदुभयविधिज्ञः२५, आहरणं-दृष्टान्तः२६, साध्यागमको हेतुः, कृतकत्वादिः२७, दृष्टान्तदर्शितस्यार्थस्य प्रकृते योजना उपनयः२८, नया नैगमादयः, एतेषु सर्वेष्वपि निपुणः२९, ग्राहणाकुशलः-प्रतिपादकशक्तियुक्तः३०, स्वसमयवेत्ता ३१, परसमयवेत्ता ३२, गम्भीर:-परैरलब्धमध्यः३३, दीप्तिमान-कुतीथिकादीनामसह्यप्रतिभः३४, विद्यादिसामर्थ्यादुपद्रवशमकत्वेन शिवहेतुत्वाच्छिवः३५, सौम्यो रौद्रप्रकृतिः३६, इति षटत्रिंशद्गुणोपेतः, उपलक्षणत्वाच्चामीषामपरैरपि गुणशतै : कलितः, एष प्रवचनो| पदेशकश्च गुरुर्भवतीति गाथाचतुष्टयार्थः ।। ३२६-३२९॥ पुनर्भङ्ग्यन्तरेण गुरोः षट्त्रिंशद्गुणानाहअट्ठविहा गणिसंपय, आयाराई चउविहिक्केक्का। चउहा विणयपवित्ती, छत्तीसगुणा इमे गुरुणो॥३३०॥ व्याख्या-गणोऽस्यास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य सम्पत-समृद्धिः, सा चेहाचारादिभेदादष्टविधा, तद्यथा-आचारसम्पत् RECEMBEGA. ॥२१ ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति ॥२१॥ ४ भावनाधिकारे गुरुगुणवर्णने अष्टविधाचारसंम्पदः। ARKESAR ASARABGABROADCAMPORDE श्रुतसम्पत् २,शरीरसम्पत् ३, वचनसम्पत् ४, वाचनासम्पत् ५, मतिसम्पत् ६, प्रयोगमतिसम्पत् ७, सङ्ग्रहपरिज्ञासम्पदा तथा चोक्तं "आयारसुअसरीरे, वयणे वायणमई पओगमई । एएसु संपया खलु, अट्ठमिया संगहपरिण्णा ॥१॥ एतासु चैकैका चतुर्विधा, तत्र तावदाचारसम्पदित्थं चतुर्की-नित्य चारित्रोद्युक्तता १, जात्यादिमदमुक्तत्वं २, अनि. यतविहारस्वरूपता ३, निर्विकारता ४ ॥ अथ श्रुतसम्पच्चतुर्दा-बहुश्रुतता १, परिचिसूत्रता २, घोषविशुद्धिकरणता ३, उदात्तानु दातादिस्वरविशुद्धिविधायिता ४ । अथ शरीरसम्पच्चतुर्की-लक्षणप्रमाणोपेतदैर्ध्य विस्तारयुक्तता १, सम्पूर्णाहीनसर्वाङ्गत्वेन लज्जा यितुमनोऽशक्यो वा अलज्जनीयस्तद्भावोऽलज्जनीयता २, परिपूर्णेन्द्रियता ३, स्थिरसंहननता चेति ४। अथ वचनसम्पच्चतुर्द्धा-आदेयवचनता १, मधुरवचनता २, रागाद्यनिश्रितवचनता ३,परिस्फुटासन्दिग्धवचनता ४। अथ वाचनासम्पच्चतुर्दा-शिष्याणां यथायोग्यं सूत्रस्योद्देशनं १, एवं समुद्देशनं २,पूर्वप्रदत्तमूत्रालापकान् सम्यक परिणमय्य ततोऽपरालापकानां वाचना ३,पूर्वापरसाङ्गत्येन विमृशतः प्ररूपयतो वा सूत्राभिधेयस्य सम्यग्निर्वाहणाना ४ । अथ मतिसम्पञ्चतुद्धा-अवग्रह १, ईहा २, अवाय ३ धारणा ४ भेदात, तत्स्वरूपं च-"अत्याण उग्गहणम्मि,उग्गहोतह वियारणे ईहा । ववसायम्मि अवाओ, धरणं पुण धारण थिति ॥१॥" इत्यादि । अथ प्रयोगमतिसम्पच्चतुर्दा-वादादिव्यापारकाले किममुं वादिनं जेतुं मम शक्तिरस्ति न वा ? इत्याद्यात्मस्वरूपपर्यालोचनं १, किमयं वादी साङ्ख्यः सौगतोऽन्यो वा ? प्रतिभादिमानितरो वा इत्यादि पुरुषपरिभावनं २, किमिदं क्षेत्रं साधुभिर्भावितमभावितं वा? इत्यादि विमर्शनं ३, किमिदमाहारादिवस्तु मम हितं न वा? इत्यादि विचारणं चेति ४। सङ्ग्रहोपसम्पदपि चतु-बालग्लानबहुश्रुतादिनिर्वाहयोग्यक्षेत्रग्रहणं १, वर्षासु निषद्यादिमालिन्यजन्तुघातादिपरिहाराय पीठफलकोपादानम् २, यथासमयमेव R ECE ॥२११॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRO पुष्पमाला लघुवृत्ति ॥२१२॥ भावनाधिकारे | गुरुगुणवर्णने सारणादीनां विशिष्टता स्वाध्यायप्रत्युपेक्षणाभिक्षाटनोपधिसमुत्पादनं ३, प्रव्राजकाध्यापकरत्नाधिकादीनामपधिवहन विश्रामणाभ्युत्थानाविरूपा चतुथी ४। तदेवं दर्शितः प्रत्येकं चतुर्विधा अष्टावपि गणिसम्पद । अथ चतुर्विधा विनयप्रतिपत्तिः, तद्यथा-संयमतपःप्रभृतीनामाचरणकारापणस्थिरीकरणादिरूप आचारविनयः१, सूत्रवाचनव्याख्यानादिरूपः श्रुतविनयः२, मिथ्यादृष्टयादीनां सम्यक्त्वधर्मादिस्वीकार णादिलक्षणो विक्षेपणाविनयः३, कषायविषयादिभिर्दुष्टस्य तद्भावनिवर्तनादिरूपो दोषनिर्धातनाविनयः४। तदेवमेते सर्वेऽपि षट् त्रिंशद गुणा गुरोर्भवन्तीति गाथार्थः ॥ ३३० ॥ नन्वेते सम्पूर्णा गुणाः साम्प्रतं न सम्भवन्ति, तदसम्भवे च गुरोर्व्यवच्छित्तिप्रसङ्ग इत्याशझ्याह| कालाइदोसवसओ, एत्तो एक्काइगुणावहीणो वि।होइ गुरू गीयत्थो, उज्जुत्तो सारणाईसु ॥ ३३१ ॥ . व्याख्या-कालादिदोषवशतः, आदिशब्दात्क्षेत्रादिपरिग्रहः, इतः षट्त्रिंशद्गुणसमुदायादेकद्विव्यादिगुणैविहीनोऽपि गुरुभवति, यदि पुनगीतार्थ उद्युक्तश्च सारणादिष्वित्येतद्गुणद्वयं गुरोविशेषेणान्वेषणीयम् । सारणादीनां चैष विशेष:-"पम्हढे सारणा. | बुत्ता, अणायारस्स वारणा ॥ चुक्लाण चोयणा बुत्ता, निठुरं पडिचोयणा ॥१॥” इति गाथार्थः ॥ ३३१॥ अथ सारणायभावे दोषानाहजीहाए विलिहितो, न भद्दओ जत्थ सारणा नत्थि। दंडेण वि ताडंतो, भद्दओ सारणा जत्थ ॥३३२॥ । व्याख्या-अतिवत्सलतया गुरुः शिष्यं जिह्ययाऽपि लेढि-अवलेढि, शेषवात्सल्यातिशयोक्ति परमेवेदं विशेषणं, सोऽप्येव म्मृतो गुरुन भद्रको - न शोभनो, यत्र गुरौ सारणा नास्ति, उपलक्षणं चेदं वारणादिनां । दण्डेनापि ताडयन् स एव गुरुर्भद्रको, यत्र AGRAAAAAAOREGAON ॥२१२॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारणादय इति गाथार्थः ॥ ३३२ ।। कः पुनस्सारणाघप्रदाने गुरोर्दोषः १ इत्याहपुष्पमाला || जह सीसाइं निकिंतइ, कोई सरणागयाण जंतूणं । तह गच्छमसारंतो, गुरू वि सुत्ते जओ भणियं ॥३३३॥ भावनाधिकारे लघुवृत्तिः व्याख्या-यथा कश्चित्पापकर्मा शरणागतानामपि जन्तूनां शिरांसि निकन्तति-छिनत्ति, तथा-तेनैव प्रकारेण गुरुरपि संसार च. तथान्तन प्रकारण गुरुराप संसार- सारणाद्यप्रदाने गतं गच्छं-साधुसाध्वीसमुदायरूपमसारयन् बानदर्शनचारित्ररूपतच्छिरःकर्तको द्रष्टव्यः । द्रव्यशीर्षे हि कर्तिते | गुरोर्दोषः। |एकभविक क्षणिकमेव दुःखं. गुरुणा तु दोषेभ्योऽनिवर्तितानां भ्रष्टशिष्याणां ज्ञानादिरूपे भावशिरसि कर्तितेऽनन्तभविका निरवधिरेव । | दुःखप्राप्तिः, सूत्रे-आगमेऽपि यतो भणितमिति गाथार्थः ॥ ३३३ ॥ किं तदित्याह| जणणीए अनिसिद्धो, निहओ तिलहारओ पसंगेणं । जणणी वि थणच्छेयं, पत्ता अनिवारयंती उ ॥३३४॥ | | इय अनिवारियदोसा, सीसा संसारसागरमुर्विति । विणियत्तपसंगा उण, कुणंति संसारखुच्छेयं ॥३३५॥ || | व्याख्या - जनन्या अनिषिद्धो निहतो-निपातितस्तिलहारकः प्रसङ्गेन जनन्यपि चानिवारयन्ती स्तनच्छेदं प्राप्ता । इत्यनिवारितदोषाः शिष्याः संसारसागरं प्राप्नुवन्ति, विनिवृत्तप्रसङ्गाः पुनः कुर्वन्ति संसारोच्छेदमित्यक्षराथों, मावार्थः किश्चिदुच्यते वसन्तपुरवासिन्या, एकस्या विश्वास्त्रियः । पुत्रो बाल्ये कृतस्वानः, स्विनाङ्गो निरगाद् गृहात् ॥१॥ कस्यचिदणिजो बह-द्वारेऽसौ तिलराशिषु । आस्कल्प पतितो लग्ना-स्तदने बहवस्तिलाः ॥२॥ ततो गेहे मतस्यास्य, माता वानाददे तिलान् । । एवमेव द्वितीयेऽपि, दिनेऽसावकरोचतः ॥३॥ अम्ल्याऽपि गृहीतास्ते, तथैवेति दिन प्रति । अन्यान्यवणिजो धान्यान्याहरेना ॥३१॥ HिOROSS % AN Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R मुष्टिभिः ॥ ४॥ निवारयति नो माता, तुष्टा तबहुमन्यते । प्रसङ्गादलाचौर्य, स्थूलेऽज्येष ततोऽन्यदा ॥ ५॥ प्राप्तः स राजपुरुपैः, पुष्पमाला - सलोपत्रः प्राप्तयौवनः । वधस्थाने समानीत-स्तान्प्रति प्राह च स्वयम् ॥ ६॥ एकवारं ममाम्बां मे; मेलयन्विति तैस्तथा । प्रतिपन्नं भावनाधिक रे लघुवृत्तिः समासन्ना, समानीता जनन्पपि ॥ ७॥ तेन स्वमातुस्तकालं, कुपण्या कत्तितौं स्तनौ । जनों हाहारवं कृत्वा--ऽपृच्छ देनं ततोऽघदत्सारणाद्यप्रदाने ॥३१४॥ ६॥८॥ एषा हेतुरनर्थाना-मेतेषां मेऽभवद्यतः। न्यवारिष्यन्नाकरिष्य, चौर्य बाल्येऽधुनाऽप्यदः ॥९॥ जनस्सत्यमिदं ज्ञात--मेवं जननीपुत्र नाशयति द्वयं । निजं शिष्यांश्च दोपेभ्यो, गुरुरप्यनिवारयन् ॥१०॥ तर्हि यत्र गच्छे सारणादयो न दृश्यन्ते तत्र किं कर्तव्यं ? इत्याह- योरुदाहरणम् | जहिं नत्थि सारणवारणा, व चोयणपडिचोयणाव गच्छम्मि। सोय अगच्छो गच्छो, संजमकामीहिंमुत्तव्यो ३३६ । ___ व्याख्या-यत्र गच्छे उक्तवरूपाः सारणादयो न भवन्ति स गच्छोऽपि गच्छकार्याकरणादगच्छ एव, ततः संयमाभिलाषि| मिर्मोक्तव्यः । यत्र च सारणादयः स एवाश्रयणीय इति गाथार्थः ॥ ३३६ ।। ततः किम् ? इत्याहअणभिओगेण तम्हा, अभिओगेण व विणीयइयरे य । जचियरतुरंगा इव, वारेअब्वा अकज्जेसु ॥३३७॥ व्याख्या-तस्माद्गुरुणा अकार्येषु प्रवर्तमानाः शिष्या विनीतास्तावदनभियोगेन-कोमलवचनादिरूपेण निवारणीयाः, है इतरे-अविनीतास्त्वभियोगेन-निष्ठुरवचनादिरूपेण निोक्ष्याः । दृष्टान्तमाह-जात्येतरतुरङ्गा इत्र, यथा जात्यतुरङ्गा वल्गासश्चारादिसुकुमारोपायेनाप्युन्मार्गानिवय॑न्ते, इतरे-दुष्टाश्वाः कशाघातादिनिष्ठुरोपायेन, एवं शिष्या अपीति गाथार्थः ॥ ३३७॥ अथ गच्छस्य सारणाद्यपदाने गुरोर्दोषं तत्प्रदाने गुणं चाह SCSCRe% % Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छं तु उवेहितो, कुब्बइ दीहं भवं विहीए उ । पालंतो पुण सिज्झइ, तइयभवे भगवई सिद्धं ॥३३॥ व्याख्या-सारणाद्यप्रदानेन गच्छमुपेक्षमाणो गुरुर्दी भवं करोति,विधिना पुनस्तं पालयंस्तृतीयभवे सिद्ध्यति, भगवत्यां- भावनाधिकार पुष्पमाला लघुवृत्तिः Id पश्चमाङ्गे सिद्धमिदम्, यदाह-"आयरियउवज्झाएणं भंते ! अगिलाणीए गणं संगिण्हेमाणे उवगिण्हेमाणे कईहिंमाण ॥३१॥ भवग्गहणेहि सिज्झइ ? जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ? गोयमा ! अत्थेगइया तेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झइ गरोगणदोषी जाव अंतं करेइ, तचं पुण भवग्गहणं नाइकमइ” अग्लान्या-अनिर्विण्णतयेत्यर्थः इति गाथार्थः ॥३३८॥ उक्तं गुरुगुणद्वारं, अथ गुणद्वारेण शिष्यस्वरूपमाहगुरुचित्तविऊ दक्खा, उवसंता अमुइणो कुलबहुब्ब । विणयरया य कुलीणा, होति सुसीसा गुरुजगस्स ३३९ । व्याख्या-गुरुचित्वविदोऽत एस दक्षाः, उपशान्ताः, यथा कुलवधू सभा आक्रुश प्रहता वा न कथञ्चित्तं मुश्चत्येवं है। A सुशिष्या अपि "अमुइणो" ति अमोचकाः, न कथञ्चिद्गुरुं मुञ्चन्तीत्यर्थः । गुरुजनस्य विनयरताश्व, तथा कुलीनाः, एवंविधाः | सुशिष्या भवन्तीति गाथार्थः ॥ ३३९ ॥ पुनरपि सुशिष्यः किं कुर्यादित्याहआगारिंगियकुसलं, जइ सेयं वायसं वए पुज्जा। तहवि य सिं न विकडे. विरहम्मि य कारणं पुच्छे ३४० व्याख्या-आकार:-प्रस्थानादिभावसूचको दिगवलोकनादिः, इङ्गितं तु प्रवृत्तिनिवृत्तिसूचकमीषद्बुशिरःकम्पादि, तयोः कुशलं शिष्यं यदि कथचिद्विनयपरीक्षादिनिमित्तं पूज्या-गुरवः श्वेतं वायसं पश्येत्यादि वदेयुस्तथापि 'सिंति एतेषां पूज्यानां तदचो न विकूटयेत्, SCRESCRRENCECCANCHECEOCOCORE Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुन्पमाला लघुवृत्तिः ॥३१६॥ | यथा-किमाचाय ! न पश्यसि चक्षुभ्यां १ यत्कृष्णमप्यनुं वायसं श्वेतं प्रवीषीत्यादि न विकत्थयेत् किन्तु तथेत्र प्रतिपधेत । पुनः किं | कुर्यादित्याह - विरहे- एकान्ते प्राप्ते सति तच्छ्रुतत्वाभिधाने कारणं पृच्छेद्गुरुं सुशिष्य इति गाथार्थः ॥ ३४० ॥ दृष्टान्तपूर्व सुशिष्यत्वोपदेशमाह निवपुच्छिएण गुरुणा, भणिओ गंगा कओमूही वहइ ? | संपाइयवं सीसा, जह तह सव्वत्थ कायव्यं ३४१ व्याख्या - नृपपृष्टेन गुरुणा गङ्गानदी किंमुखी वहतीति भणितः शिष्यो यथा सम्यग्विनयपूर्वकं सर्वं सम्पादितवान् कृतवांस्तथा | सर्वेष्वपि प्रयोजनेषु सुशिष्येण कर्त्तव्यमित्यक्षरार्थः । भावार्थस्तु यथा प्रावर्त्तत पुरा जल्पो, राजस्सूरेश्व कस्यचित् । राजा विनीतांस्तत्राह, राजपुत्रान् गुरुर्मुनीन् ॥१॥ परीक्षाय ततो राज्ञा -ऽऽज्ञापितो राजपुत्रकः । निवेदय निरीक्ष्य त्वं, गङ्गा वहति किम्मुखी १ ॥ २ ॥ आदावेव च तेनोक्तं, प्रेक्षणीयं किमत्र यत् । सुप्रतीतमिदं पूर्वाभिमुख्येव वहत्यसौ ॥ ३ ॥ ततः कथञ्चिन्महता, कष्टेन प्रेषितोऽप्ययं । अपान्तरालादागत्य, प्रोक्तवानिति तद्यथा ||४|| आगतोऽहं दुतं राजन् ! गत्वा तत्र निरीक्ष्य च । न चलेन्मद्वचः पूर्वाभिमुख्येव वहत्यसौ ॥ ५ ॥ ततश्च गुरुणा साधुः, प्रेषितो नवदिक्षितः । | सोऽप्यचिन्तयदित्येत — द्विदन्ति गुरवोऽप्यदः ॥ ६ ॥ यत्पूर्वाभिमुखी गङ्गा, वहतीह पुरे परं । केनचित्कारणेनेह, भाव्यमेवं विमृश्य च ॥ ७ ॥ जानन्नपि गतो गङ्गां, स्वतश्च परतश्च सः । विशेषतो विनिश्चित्य, गुरुभ्योदो न्यवेदयत् ॥ ८ ॥ यथा-मया तावदिदं, ज्ञातं यदुत पूर्वणा । गङ्गा तवं पुनः पूज्याः, जानन्तीह महाशयाः ||९|| उभयोरपि चेष्टेयं, राज्ञः प्रच्छन्नपुरुषैः । निवेदिता भूमिभुजे, | प्रतिपन्नमनेन च ॥ १० ॥ साधूनां विनयः कामं, प्रतिबुद्धश्व शुद्धधीः । तत्सर्वमन्येनाऽप्येवं, कार्य विनयपूर्वकम् ॥ ११॥ इति गाथार्थः । ४भावनाधिकारे राजपुत्रादपि साधौ विनया धिक्यम् ॥ ॥ ३१६॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ॥३४१॥ सुशिष्यमुक्त्वा तद्व्यतिरेकमाहपुष्पमाला || नियगुणगारवमत्तो, थद्धो विणयं न कुव्वइ गुरूणं । तुच्छो अवण्णवाई, गुरुपडिणीओ न सो सीसा ३४२ भावनाधिकार लघुवृत्तिः 18| नेच्छई य सारणाई, सारिज्जतो अकुप्पइ स पावो । उवएस पि न अरिहइ, दुरे सीसत्तणं तस्स ॥ ३४३ ।। ||शिष्यखरूपनिस्ट ॥३१७॥ _ व्याख्या- अहं गुणवानिति निजगुणगौरवमत्तोऽत एव स्तब्धो ऽनम्रोऽत एव च विनयं न करोति गुरूणां, तथा तुच्छो , पणे कुशिष्यहै गुरोरप्यवर्णवादी, अत एव गुरुप्रत्यनीकः, स एवंविधो न सुशिष्यः । तथा यो नेच्छति गुरुणा दीयमानान् सारणादीन् उक्तरूपान्, वर्णनम्। , ततश्च सार्यमाणो गुरुं प्रति कुप्यति स पापा-पापवान्, उपदेश-साध्वाचारादिकथनलक्षणमपि नाईति, दूरे पुनस्तस्य शिष्यत्वं, उपदेश दानमात्रेऽपि क्रुध्यमानत्वादिति गाथाद्वयार्थः ॥ ३४२-३४३ ॥ तर्हि तस्य किं विधेयम् ? इत्याह8. छंदेण गओ छंदेण, आगओ चिट्ठिओ य छंदेण । छंदे अट्टमाणो, सीसो छदेण मुत्तबो॥३४४॥ व्याख्या-यः छन्देन-वाभिप्रायेण गुरुमनापृच्छ्यैव क्वचित्स्वाभिमते प्रयोजने गतः, छन्देनैव चागतः, छन्देनेव चोपाश्रय है एव स्थितः, उपलक्षणत्वादन्या अपि क्रियाः स्वाभिप्रायेणैक करोति, स एवम्भूतो गुरूणां छन्दे-ऽभिप्रायेऽवर्तमानः शिष्यी गुरुमिश्छन्देन-स्वाभिप्रायेणैव मोक्तव्यः-परिहर्तव्यः, अन्यथा शटितपत्रन्यायेनान्येषामपि बिनाश आपद्यते इति पथार्थः ॥ ३४४ ॥ समर्थितं शिष्यद्वारं, अथ गुरुकुलवाससेवामुणद्वारममिधित्सुराहनाणस्स होइ भागी, थिरयरओ दंसणे चरित य । धन्ना आवकहाए, गुरुकुलबास में मुंचेति ॥ ३४५॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥३१८॥ व्याख्या - गुरुकुलवाससेवी ज्ञानस्य भागी भाजनं भवति, तथा दर्शने चारित्रे च स्थिरतर को 5तिस्थिरो भवति, अतो धन्या यावत्कथा- यावज्जीवया गुरुकुलवास न मुञ्चन्तीति गाथार्थः ॥ ३४५ ॥ - 8. ननु गुरुकुलवासे वसतां शिष्याणां गुरोः प्रेरणा वाक्यानि दुःखमुत्पादयेयुस्तत्कथमसौ प्रशस्यः १ इत्याहपढमं चित्र गुरुायण, मुम्मुरजलगोत्र दहइ भन्नं तं । परिणामे पुग तं चित्र, मुगालइलसीयलं होइ ३४६ व्याख्या-प्रथमेव तावद्गुरुवचनं मुर्मुरज्वलन इव दहति, दाघसदृशदुःखजनकत्वात् शिष्यार्थं भव्यमानं । परिणामे - विपाके पुनस्तदेव गुरुाचनं मृगालइवलच्डीतलं भवति, तदेव सुखसम्पादकत्वादिति गाथार्थः ॥ ३४६ ॥ . किं गुरुकुलवाससेवायां केवलमात्मोपकार एव ? परोपकारोऽपीत्याह तह सेवंति सउन्ना, गुरुकुलवासं जहा गुरूणं पि । नित्यारकारणं चिय, पंथगसाहुन जायंति ॥ ३४७ ॥ व्याख्या - सपुण्याः- पूण्यवन्तस्तथा तेन प्रकारेण गुरुकुलवासं सेवन्ते, यथा काचित्कथञ्चिदमार्गसेविनां गुरूणामपि निस्तारकारणमेव जायन्ते, पन्थकसाधुवदिति गाथाऽक्षरार्थः ॥ ३४७ ॥ पत्थककथात्वेत्रम् -श्रीद्वारवत्यां नगर्यां जगत्त्रसिद्धो नारायणप्रभुः, तत्र सार्थवाहायास्थावानाम्न्या गाथापतिपत्न्याः पुत्रस्थावच्चापुत्र इति नाम्ना विख्यातो धनधान्य कनकरत्नसमृद्ध्या च । क्रमेण प्राप्ततारुण्येन तेन परिगी उद्वात्रिंशत्कन्यकाभिर्दिव्यान् भोगान् भुञ्जता रैवतकाचले श्रीने मिस्वामिसनवसरणं श्रुत्वा वन्दनार्थ सपरिकरेग गतम् । तत्र च सरसां मधुरं भगवद्वाण निशम्य प्राप्त संवेगेन स्वजनन्या निवेदितः खः भिनायः, ततो जनन्या सुतनिष्क्रमणमहोत्सवार्थ तदा चामरमुकुटादीन्याभरणानि राज्ञः पार्श्वे ४ भावनाधिकारे गुरुकुलवासत्यागे कूलवालक कथानकम् । ॥३१८ ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥३१९॥ E-HetSC46 याचितानि, तन्निशम्य ससैन्यस्त गृहमागतो राजा, बहुशो निपारितोऽपि थापच्चापुत्रो न स्नेहवशं गमिः, ततः कृष्णेन खारमध्ये पटहो वादितः, अन्योऽपि यः कश्चिदनेन सह दीक्षां गृहाति तस्यापि निकरणमहोत्सान कारयियामि, तमित्रोनिहिं च ददामि, : ४भावनाधिकार ततस्थावच्चापुत्रो राजेश्वरसार्थवाहप्रमुखराजसहस्रयुतः श्रीकृष्णकारितमहोत्सवे श्री नेमिशादमूले प्रवज्यामग्रहीत् । ततो द्विविधशिक्षाशि गुरुकुलवासक्षितः पठितचतुर्दशपूर्वः श्रवणसहस्रारिकृतस्थावच्चापुत्रो महामुनिःश्री नेमिनाथाज्ञयामहीमण्डलं स्वादैः पवित्रयन् शैलकपुरं प्राप्तः, स्त्र सेवायां पन्चार शैलकनामा नृपतिः पन्थकप्रमुख प्रवरपञ्चशतमन्त्रिसहितः श्रावकधर्मे निगेजित,ततः सौगन्धिकनगरे शुकनामा (परिव्राजकः) प्रतिबोध्य मुनिकथानका दीक्षितः। स द्विविधशिक्षाशिक्षितः क्रमेण चतुर्दशपूर्वधरो जातः । अन्यदा सशुकस्थावच्चापुत्रः पुनः शैलकपुरं प्राप्तस्तहा शैलकनृपपञ्चशतपरिकरो मुण्डकाभिधानं सुतराजे संस्थाप्य निष्क्रान्तः । कालेन जातो गीतार्थः । अस्मिन्समपे साधुसहस्रयुतः मरुस्थावञ्चापुत्रो महामुनिः श्रीपुण्डरीकगिरी अनशनं प्रपद्य सिद्धः । ततः शैलकमुनिः स्थापितस्यूरिसदे । अन्यदा जातोऽस्य व्याधिरकारि सुतेन चिकित्सा, पश्चात्प्रगुणीभूतोऽपि रसादिलाम्पट्याच्छीतलविहारितांजगाम । पन्थकमेकं विहाय त्यक्तः शेषशिष्यः । अन्यदा चातुर्मासिक क्षामयता गाढनिद्राप्रसुप्तः सङ्घट्टितस्तेन सूरिश्चरणयोः। ततोऽसावकाण्डनिद्राव्यपगमादुत्पन्नक्रोधस्तं प्रत्याह-कएप दुरात्मा मां प्रेरयति ?, शिष्योऽब्रवीत्-भगवन् ! पन्थकसाधुरहं चातुर्मासिकं क्षामयामि, ततः पादयोलग्नो, न पुनरेवं करिष्ये, शमधमेकमपराध मन्दभाग्यस्य मे, 'मिथ्यादुष्कृत' मिति वदन् पतितः पुनः पादयोः । ततोऽहो !! अस्य प्रशमो गुरुभक्तिः कृतज्ञता च मम तु प्रमादातिरेको निर्विवेकत्वं 18|| चेति जातसंवेगोत्कर्षस्थरिराह-महात्मन् ! इच्छामि वैयावृत्यमुद्धृतोऽहं भवता भवगतोपातादिति ।। ततः प्रभृत्युद्यतविहारेण बह- ॥३ कालं विहृत्य पश्चाच्छत्रुञ्जये गिरौ पञ्चशतसाधुपरिवारः सिद्धः शैलकाचार्य इति । एवं गुरुकुलबास सेवमानाः केऽप्युत्तमप्रकृतयः । M Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मानं च परं च भवदुःखान्मोचयन्ति, इति पन्थकसाघुकथा समाप्ता॥ न केवलं पन्थकेन, श्रीगौतमादिभिरपि गुरुकुलवास एव निषेवित इत्याहपुष्पमाला मावनाधिकारे लघुवृत्तिः । सिरिंगोयमाइणो गण-हरा वि नीसेसअइसयसमग्गा । तब्भवसिद्धीयावि हु, गुरुकुलवासं चिय पवन्ना ३४८२ गुरुकुलवासला ॥३२॥ ____ व्याख्या-श्रीगौतमादयो गणधरा अपि निःशेषातिशयैः समग्राः-सम्पूर्णाः, निश्चिततद्भवसिद्धिका अपि गुरुकुलवासमेव । कूलवालकप्रपन्ना इति गाथार्थः ॥ ३४८ ॥ अथ गुरुकुलवासत्यागे दोषप्ररूपणारूपं चरमद्वारमाह कथानकम्। उज्झियगुरुकुलवासो, एक्को सेवइ अकज्जमविसंको । तो कूलवालओ इव, भवओ ममइ भवगहणे ३४९ र व्याख्या-परित्यक्तगुरुकुलवास एकाकी अविशङ्को-गतान्यशङ्कोऽकार्य सर्ववतलोपलक्षणं सेवते, ततः किम ? इत्याह - | ततोऽकार्यसेवनाद्धष्टवतः कूलवालक इव भवगहने भ्रमतीति गाथार्थः ॥ ३४९ ॥ - कूलवालककथानकं पुनरेवम्-कश्चित्क्षुल्लः केलिपरः श्रीसिद्धाचलतीर्थादेवान्नमस्कृत्योत्तरतां गुरूणां पृष्टिस्थश्चपलत्वाच्छिलामचालयत्, सा पतन्ती गुरूणां झगिति प्रसारितपादानां कथमपि न लग्ना। गुरुभिः क्षुलस्योक्तं-रे दुष्ट ! त्वया किं कृतं १, यद्येवंविधोऽसि तत्वीतस्तव विनाशो भविष्यति, ततः क्षुल्ल आचार्यवचोऽलीकताकरणाथ महारण्ये स्त्रीप्रवेशरहिते गत्वा महत्तपः करोति । कदाचित्क्वापि तत्रागतसार्थाद्भिवां गृण्हाति । वर्षाकाले नद्यां कायोत्सर्गस्थस्य तस्य देवतया कूलमन्यत्र वालितं, ततः कूलवालकनाम्ना प्रसिद्धः । इतश्चाशोकचन्द्रापरनामा कोणिकनृपः पद्मावतीभार्याप्रेरितो हल्लविहल्लाम्यां हारकुण्डलादियाचमानस्ताम्यां सेचनकं गृहीत्वा , मुक्तोऽशोकचन्द्रः, आश्रितो विशालायां चेटको मातामहः । तन्निमित्तं तयोर्नुपयोलग्नं युद्धं, यावच्छिलाकण्टकं नाम युद्धमभवत् ।। ३२०॥ CCCCCA-SECRECECA Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४भावनाधिकारे कूलवालक CO N तस्मिश्चतुरशीतिलक्षा जनाः पतिताः । अन्यच्च स्थमुशलं नाम युद्धं जातम् । तत्र षण्णवतिर्लक्षा जनाः पतिताः । ततो विशालायां पुष्पमाला | प्रविष्टश्चेटकनृपः, इतरो रोधं कृत्वा स्थितः । श्रीमुनिसुव्रतस्तूपप्रभावान्न च सा गृह्यते, ततो विषण्ण कोणिकं देवताऽऽकाशस्था प्राहलघुवृत्तिः PI"समणे जइ कूलवालए, मागहियं गणियं रमिस्सई । राया असोगचंदए, वेसालि नगरि लहिस्सई॥१॥" ॥३२॥ | तत् श्रुत्वा नृपेण मागधिका प्रार्थं प्रेषिता । तया श्राविकावेषेण सङ्घयुतया तत्र गत्वा यात्रार्थ प्रार्थ्य कूलवाल(क)श्चालितः। कुद्रव्यमिश्रमोदकदानेनोत्पादितातिमारो वैयावृत्त्योद्वर्तनाद्यतिभक्तिपरिचयेन पातितः संयमात्, नीतः कोणिकपायें, नृपेण पृष्टो विशालगडणार्थ । स च नैमित्तिकवेषेण विशालामध्ये गत्वा तत्र सप्रभावं श्रीमुनिसुव्रतस्तूपं ज्ञात्वा बहुदिनरोधव्याकुलाजनान् प्राह| यावदमो स्तूपस्तावनगररोधो नोपशमिष्यतीति, तत् श्रुत्वा जनैः स्तूपः पातितः । ततः कोणिकेन विशालायाः कोट्टे पातिते निर्गच्छन् चेट कनृपो भणितः-कथय किमिदानीं करोमि?, चेटकः प्राह-क्षणमेकामहैव तिष्ठ, मा प्रविश नगरीम्, यावदहं पुष्करिण्यां स्नान कृत्वा समागच्छामि इति, प्रतिपन्नं तेन, ततश्ोटकस्तत्र गत्वा लोहमयी प्रतिमां गले बधा वाप्यां पतन् धरणेंद्रेण स गृहीतः, साधम्किबहुमानान्नीतश्च निजभाने, तत्रासौ कृतानशनो गतः सहस्रारकल्पे । तद्वचनानगरीजनश्च नीतो नीलवद्गिरौ (सत्यकिना)। | कोणि कश्व विशालायां गर्दभयोत्रितानि हलान्यवाहयत् । "गुरुकुलवासभठो, भट्ठवओ थूभभंजणाईयं । तं कूलवालओ विहु, काऊणऽसमंजसं सव्वं ॥१॥ भमिही भवं स बडुयं, सहमाणो दारूगं महादुक्खं । तम्हा गुरुकुलवासं, मा मुंचसु पाणचाए वि ॥२॥" . कुलवालककमा समाता ॥ अथ प्रकृतमासंदरन् वक्ष्यमाणद्वारेण सह सम्बन्धमाह ॐॐॐॐॐॐॐॐ C8C % + -- ॥३२॥ - Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो सेविज्ज गुरुं चिय, मुक्खत्थी मुक्खकारणं पढमं । आलोएज्ज सुसम्म, पमायखलियं च तस्संऽतो ३५० पुष्पमाला व्याख्या-यत एवं तस्मान्मोक्षार्थी गुरुमेव सेवते, यतो गुरुसेवनमेव प्रथमं कारणं मोक्षस्य, तदन्तरेण ज्ञानादिगुणानप्त्य भावनाधिकारें लघुवृत्तिः | भावात्, गुरुसेवनं कुर्वन् यत्किमपि प्रमादवशात्स्खलितमागच्छति तत्सर्व तदन्तिके सम्यगालोचयेत्, अन्यथा तत्सेवनस्य निष्फलत्वादिति गुरुकुलवास॥३२२॥ | तद्द्वारमुच्यत इति गाथार्थः ॥ ३५०॥ द्वारोपसंहारः। इति गुरुकुलवासस्सर्वदा सेवनीयः, सुकृतिभिरभियुक्तैर्मोक्षमाकाङ्क्षमाणैः। न खलु भवति मोक्षो ज्ञानलाभाहते यत्, स च पुनरिह सम्यक्सद्गुरोस्सेवनेन ॥१॥ इति पुष्पमालाविवरणे भावना द्वारे गुरुकुलवासलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥१०॥ अथोक्तसम्बन्धे आलोचनाद्वार एव भणिष्यमाणार्थसङ्ग्रहमाह। कस्सालोयण ? आलो-यओ य आलोइयव्वयं चेव । आलोयणविहिमुवरिं, तदोसगुणे य वुच्छामि ॥३५१॥1 व्याख्या-कस्स गुरोस्तावदालोचना दातव्येति वक्तव्यम् , आलोचकः शिष्यश्च कीदृशो भवतीति वाच्यम्, किश्च वस्तु | गुर्वन्तिके आलोचनीयमिति च वाच्यम् । तथा उपरि आलोचनाविधि तथा तदोषान्-आलोचनाविषयाणि क्षणानि तथा तद्विषयानेव | गुणांश्च वक्ष्यामीति गाथार्थः ॥ ३५१ ॥ तत्राद्यद्वारमधिकृत्याह ल॥३२॥ आयाखमाहावं, ववहारोऽवीलए पकुव्वै य । अपरिस्सावी निज्जव, अवायदंसी गुरू भणिओ ॥ ३५२ ॥ AHARॐॐॐॐ ॐ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JIOUSE% ४भावनाविका आलोचनादा यकवर्णनेक वारपञ्चका व्याख्या-तत्राचारवान्-शानादिपश्चप्रकाराचारयुक्तः, मकारोब्लाक्षणिका, 'आहारव' ति आलोचितापराधानामवधारणा सम्पन्नः, 'ववहारव' ति अनन्तरवक्ष्यमाणआगमश्रुतादिपश्चप्रकारव्यवहारवान् , अपव्रीडका-लज्जयाऽतीचारान् मोपायन्तं विचित्रपुष्पमाला लघुवृत्तिः वचनैर्विलज्जीकृत्य सम्यगालोचनाकारयितेत्यर्थः ।, प्रकुर्वकः-सम्यक् प्रायश्चित्तदानतो विशुद्धिं कारयितु समर्थः, अपरिश्रावी॥३२३॥ आलोचकनिवेदितदोषाणामन्यस्यानिवेदकः, निर्यापक:-असमर्थस्य प्रायश्चित्तिनस्तदुचितप्रायश्चित्तदानतो निर्वाहकः, 'अवायदंसी' चि. सम्यगनालोचयतः पारलौकिकापायदर्शकः, एवंविध एवालोचनीयवस्तुकथनयोग्यो गुरुभणित इति गाथार्थः ॥ २५२॥ ___अत्र यदुक्तं व्यवहारवानिति, तत्र पश्चप्रकारव्यवहारस्वरूपदर्शनार्थमाहआगमसुयआणा-धारणा य जीयं च होइ ववहारो । केवलमणोहिचउदस-दसनवपुव्वाई पढमोत्थ ३५३ | __व्याख्या-आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते पदार्था अनेनेत्यागमः १, श्रवणं श्रूयत इति वा श्रुतं २, आजायते-आदिश्यत इत्याचा ४३, धारणं धारणं ४, जीयत इति जीतं ५, इति पञ्चधा व्यवहरणं व्यवहारो-मुमुक्षुप्रवृत्तिरूपस्तत्कारणत्वाज्ञानविशेषोऽपि व्यवहारो भवति । क आगमव्यवहारः इत्याह-केवलज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं अवधिज्ञानं चतुर्दशपूर्वाणि दशपूर्वाणि नवपूर्वाणि, एष प्रथम आगमव्यवहार उच्यते । इह च यदि केवली प्राप्यते तदा तस्यैवालोचना दीयते, तदभावे मनःपर्यायज्ञानिनस्तस्याप्यभावेऽवधि| ज्ञानिन, इत्यादि यथाक्रमं वाच्यमिति गाथार्थः ॥ ३५३ ॥ __ । ननु केवली सर्व जानन् शिष्यापराधाः । स्वयमपि प्रकटीकृत्य प्रायश्चित्तं ददाति न वा इत्याशयाह 9E%%%95%* EMAGAR ॥३३॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ला ई कहेहि सव्वं जो वुत्तो, जाणमाणो वि गृहइ । न तस्स दिति पच्छित्तं, बिंति अन्नत्थ सोहय ॥ ३५४ ॥ पुष्पमाला न संभरइ जो दोसे, सब्भावा न य मायओ। पञ्चक्खी साहए ते उ, माइणो न उ साहई ॥ ३५५ ॥ भावनाविकार लघुवृत्तिः व्याख्या-कथय सर्व दोषजातमिति केवलिना प्रोक्तो यः शिष्यो जानबपि खदोषान्मायावितया गोपायति, न तस्मै आलोचनादा ॥३२४॥ मायाविने प्रायश्चित्त ददति केवलिनः, किन्त्वेतदेव ब्रुवन्ति-यदुतान्यत्र क्वचिदात्मानं शोधयेति । यस्तु न स्मरति सद्भावेनेव यकवर्णने कांश्चित्वदोषान् , न पुनर्मायातः, तस्य तान् दोषान् प्रत्यक्षी-केवली साधयति, मायाविनस्तु न साधयतीति श्लोकद्वयार्थः ३५४-५५ वहारपञ्चका इत्यलं प्रसङ्गेन । अथ प्रस्तुतश्रुतादिव्यवहारनिरूपणार्थमाह आयारपकप्पाई, सेसं सव्वं सुयं विणिद्दिई । देसंतरठियाणं, गृढपयालोयणा आणा ॥३५६॥ व्याख्या-आचारप्रकल्पो-निशीथस्तदादिकं कल्पव्यवहारदशाश्रुतस्कन्धादिकं शेषं श्रुतं-सर्वमपि श्रुतव्यवहारः । चतुर्दशा | दिपूर्वाणां तु श्रुतत्वाविशेषेऽपि विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमत्वेन व्यपदेशः । आज्ञाव्यवहारमाह-देशान्तरस्थितानां गुरूणाने मन्तिके गन्तुमशक्तः शिष्यो गच्छदगीतार्थहस्ते आगमभाषया गूढान्यपराधपदानि लिखित्वा प्रस्थापयति, गुरुरपि तथैव गूढपदैः प्रायश्चित्त लिखित्वा प्रेषयति, तदाऽसौ आज्ञालक्षणस्तृतीयो व्यवहार इष्यत इति गाथार्थः ॥ ३५६ ॥धारणाव्यवहारमाहगीयस्थेणं दिन्नं, सुद्धिं अवधारिऊण तह चेव । दितस्स धारणा सा, उद्धियपयधरणरुवा वा ॥३५७॥ व्याख्या-इह केनचिद्गीतार्थसंविग्नेन गुरुणा कस्यापि शिष्यस्य क्वचिदपराधे द्रव्याद्यपेक्षया शुद्धिः प्रदत्वा, तां शुद्धि IN२२४॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनाधिकारे प्रायश्चित्तप्रसंगे जीतव्यवहार तथैवावधार्य सोऽपि शिष्यो यदाऽन्यत्रापि तद्रूप एवापराधे तथैव प्रयुङ्क्ते तदाऽसौ तुर्यो धारणाव्याहार इष्यते, अथवा यदा गुरुरशेषपुष्पमालाच्छेदश्रुतायोग्यस्य कस्यचिच्छिष्यस्यानुग्रहं कृत्वोद्धृतान्येव कानिचित्प्रायश्चित्तपदानि कथयति, तदा तेषां पदानां धरणं धारणाऽभिलघुवृत्तिः धीयत इति गाथार्थः ॥ ३५७ ॥ जीतव्यवहारमाह॥३२॥ दबाइ चिंतिऊणं, संघयणाईण हाणिमासज्ज । पायच्छित्तं जीयं, रूढं वा जं जहिं गच्छे ॥ ३५८ ॥ व्याख्या-येवपराधेषु पूर्वाचार्या बहुतपाप्रकारेण शुद्धिं कृतवन्तस्तेष्वेव साम्प्रतं द्रव्यक्षेत्रकालभावान्विचिन्त्य संहननादीनां |च हानिमासाद्य समुचितेन केनचित्तपःप्रकारेण यत्प्रायश्चित्तं गीतार्था निर्दिशन्ति तत्समयभाषया जीतमुच्यते, अथवा यद्यत्र गच्छे | सूत्रातिरिक्तं कारणतः प्रायश्चित्तं प्रवर्तितं, अन्यैश्च बहुभिरनुवर्तितं, तत्तत्र रूढं जीतमुच्यत इति गाथार्थः ॥ ३५८ ॥ एतेषां च व्यवहाराणामन्यतरेणापि युक्तो गीतार्थो गुरुः प्रायश्चित्तदानेऽधिकारी, न त्वगीतार्थः, कुतः ? इत्याह| अगीओ न वियाणेइ, सोहिं चरणस्स देइ ऊणऽहियं । तो अप्पाणं आलो-यगं च पाडेइ संसारे ॥३५९॥ ___ व्याख्या-अगीनार्थो हि चरणस्य (शोधि)-शुद्धिं न विजानात्यतः सूत्रोक्तानामधिकामपि च तां ददाति, ततो न्यूनाधिकहै. प्रायश्चित्तदानादात्मानमालोचकं च संसारे पातयतीति गाथार्थः ॥ ३५९ ॥ यत एवं तन आइ| तम्हा उक्कोसेणं, खित्तम्मि उ सत्तजोयणसयाइं । काले बारसवरिसा, गीयत्थगवेसणं कुज्जा ॥ ३६० ॥ व्याख्या- तस्मः कर्षण क्षेत्रे-क्षेत्रमाश्रित्य सप्तयोजनशतानि यावत् , काले-कालमाश्रित्य द्वादशवर्षाणि यावद्गीतार्थगुरुगवेषणां ॥३२५॥ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 कुर्यात् , एतावति क्षेत्रे तदन्वेषणार्थ पर्यटेदेतावन्तं च कालं तमागच्छन्तं प्रतीक्षेतेत्यर्थः इति गाथार्थः ॥ ३६० ॥ पुष्पमाला नन्वेवं कुर्वन्नौं यद्यन्तरालेऽप्रदत्तालोचनो प्रियते तदा किमाराधको न वा ? इत्याह - ४४भावनाधिकारे लघुवृत्तिः है आलोयणपरिणओ, सम्मं संपट्ठिओ गुरुसगासे । जइ अंतरा वि कालं, करेइ आराहओ तह वि ॥३६१॥ | पालोचनापरिण॥३२६॥ __व्याख्या-आलोचनां दातुं सम्यक्परिणतो गुरुसकाशे गन्तुं च सम्प्रस्थितो यदि कदाचिदन्तरापि कालं करोति-म्रियते | तस्य मृतावप्यातथाप्ययमाराधक एव, विपर्यये तु विराधक इति गाथार्थः ।। ३६१ ।। अथालोचकद्वारं बिभणिषुराह राधकत्वं । जाइकुलविणयउवसम-इंदियजयनाणदंसणसमग्गा । अणणुतावी अमाई, चरणजुयालोयगा भणिया ३६२ 18 व्याख्या-जातिमम्पन्नाः स्वदोषान् सम्यगालोचयन्तीति, कुलसम्पन्ना हि प्रतिपन्नप्रायश्चित्तवोढारः स्युः, विनयसम्पन्ना वन्दनाद्यालोचनासामाचार्याः प्रयोक्तारः, उपशमसमग्राः गुरूपालम्भादितर्जिता अप्यकोपनाः, इन्द्रियजयसम्पन्नाः सम्यक्तपःकर्तारः, ज्ञान सम्पन्नाः कृत्याकृत्यविभागबाः, दर्शनसमग्राः प्रायश्चित्तेन शुद्धिं श्रद्दधाना, अननुतापिनः आलोचितापराधेषु किमिति मयेदमालोचितमित्यादिपश्चात्तापरहिताः, अमायाविनो-ऽगोपायन्तः, चारित्रयुक्ताः, नान्ये, शोधनीयस्यैवाभावात् । एवंविधगुणोपेता आलोचका भणिता इति गाथार्थः ॥३३२॥ अथालोचयितव्यद्वारमाश्रित्याह| मूलुत्तरगुणविसयं, निसेवियं जमिह रागदोसेहिं । दप्पेण पमाएण व, विहिणाऽऽलोएज्ज तं सब्बं ॥३६३|| ॥३६॥ व्याख्या-प्राक्प्रदर्शितमूलोत्तरगुणविषयं यदवितथमिह रागद्वेषाम्यां दर्पण-उपेत्य करणेन प्रमादेना-नाभोगादिना वा निषेवितं, ॐॐॐॐॐAR Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % Re- तत्सर्व सूक्ष्मवादरभेदभिन्नं विधिना वक्ष्यमाणलक्षणेनालोचयेदिति गाथार्थः ॥३६३॥ आलोचनाविधिद्वारमेवाश्रित्याह४] चाउम्मासियवरिसे, दायबाऽऽलोयणा चउछकन्ना । संवेयभाविएणं, सब्वं विहिणा कहेयव्वं ॥ ३६४॥ र पुष्पमाला व्याख्या-त्रिषु चतुर्मासकेषु पर्युषणायां चावश्यमालोचना प्रदातव्या । केन विधिना ? इत्याह-चतुःकर्णा षट्कर्णा च । यदा लघुवृत्तिः ॥३२७॥ पुरुषः शुद्धि प्रतिपद्यते तदा गुरुशिष्ययोः प्रत्येकं द्विकर्णत्वाश्चतुःकर्णाऽऽलोचना भवति । योषितस्त्वेकाकिन्या आलोचना न दीयते, मोती | किन्तु सद्वितीयायाः, ततश्च द्वयोर्योषितोश्चत्वारः कर्णाः, द्वौ च गुरोरित्येवं षट्कर्णालोचना भवतीति, संवेगभावितेन सर्व सूक्ष्मबादररूपं दोषजातं सूत्रोक्तेन विधिना कथनीयमिति गाथार्थः ॥३६॥ कः पुनरसौ विधिः? इत्याहजह बालो जंपतो, कज्जमकज्जं च उज्जुयं भणइ । तं तह आलोएज्जा, मायामयविष्पमुक्को उ ॥३६५॥ व्याख्या-यथा किल बालो जल्पन कार्यप्रकार्य च ऋजुई-सरलमेव भणति, तथा मायामदविप्रमुक्तः संस्तत्स्वदोषजातं । |समालोचयेदिति गाथार्थः ।।३६५॥ इयं चालोचना सर्वैरपि परसाक्षिक्येव विधेयेत्याह| छत्तीसगुणसमन्ना-गएण तेण वि अवस्स कायव्वा । परसखिया विसोही, सुठुवि ववहारकुसलेणं ॥३६६॥ ___व्याख्या-षट्त्रिंशद्गुणैस्समन्वागतेन-आश्लिप्टेन तेन गुरुणाऽप्यवश्यं परसाक्षिकी विशुद्धिः कर्तव्या, कथम्भूतेन ? इत्याहहै सुष्ठु-अतिशयेनागमादिपञ्चप्रकारव्यवहारकुशलेनापि, किं पुनरितरेंणेति गाथार्थः ॥३६६।। एतदेव समर्थयन्नाह ॥३२७॥ जह सुकुसलो वि विज्जो, अन्नस्स कहेइ अत्तणो काहिं । एवं जाणंतस्स वि, सल्लुद्धरणं परसगासे ३६७ । % % % Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४भावनाधिकारे आलोचनया | भावशल्यानु रणदोषे आद्रकुमारवृत्तम् । व्याख्या-यथा सुकुशलो-नानाचिकित्साचतुरोऽपि वैद्य आत्मनो व्याधि अन्यस्य कथयति, एवं शुद्धिं जानतोऽप्याचा पुष्पमाला परसमीपे एव शल्योद्धरणमिति गाथार्थः ॥३६७॥ विधिविस्तारस्तु छेदग्रन्थेभ्योऽवसेयः, अथ तदोषद्वारं विभणिषुः सूक्ष्मेऽप्यपराधपदे लघुवृत्तिः | अनालोचिते यो दोषः सम्पद्यते तं सदृष्टान्तमाह॥३२८॥ ४ अप्पं पि भावसल्लं, अणुद्धियं रायवणियतणएहिं । जायं कडयविवागं, किं पुण बहुयाई पाबाई? ॥ ३६८॥ व्याख्या-इह च राजतनयेनार्द्रकुमारेण वणिक्तनयेन इलापुत्रेण चानुद्धृतं-गुरुभ्योऽनिवेदितं खपमपि भावशल्यं जीवघातमृषावादादि. कटुविगकं-दारुणफलं जातं, किं पुनर्बहूनि पापानि । तत्रार्द्रकुमारकथा त्वे-कविद्वसन्तपुरवासी सोमादित्यनामा बन्धुमतीपत्न्या सह श्रीसुस्थितमूरिसकाशे वैराग्यात्प्राबाजीत् ।। सम्यगध्ययनतपोचयावृत्यादिपरो गुरुभिस्सम विहरति । अन्यदा भार्यां साध्वीं दृष्ट्वा पूर्वविलसितानि स्मृत्वा तस्यां तस्य साधोमनः सरागमभूत । ततोभावनासहदैनिवय॑मानमपि यदा)दि तस्यां मनो न निवर्तते ततस्तेन सङ्घाटकसाधोरुक्तं-मो! यदाऽहमेनां पश्यामि तदा मे मनः सरागं स्यादिति । तेनापि तदुक्तमुक्तं बन्धुमतीसाध्व्याः , ततः साऽऽत्मानं तस्य कर्मबन्धकारणभूतं विचिन्त्य गुरुण्याश्चाख्यायानशनं गृहीत्वा वर्ग गता । स साधुरपि तद्विज्ञायाहो!! सा मबतरक्षार्थ प्राणानत्याक्षीदहं तु भावतो व्रतभङ्गमकार्ष तस्याश्च मृत्यवे जातस्तदथो महापातकिनः किं मे जीवितव्येन ? इति विचिन्त्यानशनं गृहीत्वा तत्स्थानमनालोच्यैव खर्ग गतः । ततश्श्युत्वाऽनायें आर्द्रदेशे आर्द्रप्ररे आर्द्र(क)राजस्यानाम्ना स पुत्रो जातः । सकलकलाकुशलस्तारुण्यं प्राप । अन्यदा क्रमागतस्नेहवृद्ध्यर्थ श्रीश्रेणिकक्ष्मापालेन प्रेषितं प्राभृतं गृहीत्वा श्रीआईकराजोपान्तिकमागतेभ्यः प्रधानेभ्यः सकाशात् श्रीअभयकुमारगौरवमाकर्ण्य तेन सह प्रीति ॥३२८॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ३२९ ॥ ! चिकी : श्री आर्द्रकुमारः श्री अभयार्थं तेषां मुक्ताफलादि समर्पयति सन्दिशति च "दूरस्थान्यपि मित्राणि, मित्राणामुपकुर्वते । तावत्यभ्यन्तरे पश्य, पद्मेषु रविणा कृतम् ॥१॥ त्वन्निर्मलगुणग्राम - रज्जुसन्दानितं मनः । मदीयं श्रीमदभय!, जानीहि खान्तिके स्थितम् ||२|| " अथ प्रतिप्राभृतं दत्वाऽऽर्द्रराजेन विसृष्टास्ते राजगृहं गत्वा श्रेणिका भययोस्तद्दत्वाऽऽर्द्रकुमारसन्दिष्टमभयायाख्यन्, अभयस्त्वचिन्तयत्" मृगा मृगैस्सङ्गमनुव्रजन्ति, गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरङ्गैः । मूर्खास्तु मूर्खेस्सुधियस्सुधीभिः समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ||१|| " तन्नूनमयं मया मैत्रीमासूत्रवन् कोऽप्यासन्न सिद्धिकः पूर्वमीषद्विराद्धश्रामण्यादनार्येषुत्पन्नस्तत्केनाप्युपायेनैनं जिनधर्म बोधयामि, यतः - " प्रवर्त्तयति धर्मे य-ज्जीवं मोहवशानुगं । निवर्त्तयति पापान्तु तत्सुमित्रमुदाहृतम् ||१||" तदद्भुतां काञ्चिजिनप्रतिमां प्रेषयामि तद्दर्शनात्कदा चिजातिं स्मरेदिति युगादिजिनप्रतिमामनुपमरत्नमयीं धूपदहनघण्टाद्युपकरणमहितां मञ्जूषायां क्षिप्त्वा मुद्रां च कृत्वा राजपुरुषाणां हस्ते प्रस्थापयति सन्दिशति च साधुशिरोमणे ! तव न किश्चिदुपकर्तु महं क्षमस्तथापि किश्चिदिदं प्रेषितमस्ति, तन्मामनुगृह्य क्वचिद्गूढापत्ररके महान्धकारे एकाकिनोद्घाट्य यत्नेन निरीक्षणीयमिति । तैरपि नीत्वा तदर्द्धकुमारस्यार्पितं सन्देशयोक्तः । हृटेन तेनापि सन्दिष्टरीत्योद्घाटिता मञ्जूषा, दृष्टा च निजप्रभापटलेन प्रधोतनमम्युपहसन्ती युगाद्विजितप्रतिमा । ततोsहो ! । अपूर्व महोः ! अपूर्वमिदमाभरणं शीर्षकण्ठादौ क्व परिधीयते । इति न जाने, अथवा क्वचिदृष्टमिति चिन्तयतस्तस्य : जातिस्मरणमुत्प्रभं ततः पूर्व यथा गृहीतं यथा च विराद्धं श्रामण्यं तथा स्मृत्वा संकेशमापत्रचिन्तयत्यही !! मनः ४भावनाधिकारे भावशल्यानुद्धरदे आर्द्रकुमारवृचम् ॥ ॥२२९॥ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्ति: ॥३३०॥ कल्पितविराधना फलमिदं यदहमनार्येषूत्पन्नो, यत्र धर्मेत्यश्वरश्रुतिरपि न, किन्तु येनैवं करुणयाऽहमनुगृहीतः स श्री अभयकुमार एव मे परमबन्धुः, यदुक्तं - " कस्तस्मात्परमो बन्धुः ?, प्रमादाग्निप्रदीपिते। यो मोहनिद्रया सुप्तं भवगेहे प्रबोधयेत् ॥१॥”. तदार्येषु गत्वा प्रव्रज्यां गृण्डामीति । ततः प्रतिमां प्रपूज्य पितरमाह, यथा-तात ! कृता मया मैत्र्यभयेन, साम्प्रतं तं द्रष्टुमु[श्चत]क्त इति । ततो न वत्स ! वैरिवारान्तरितेऽस्माकं गमनमुचितमिति राज्ञा निषिद्धः कुमारः संसारोद्विग्नो न विलासादि कुरुते । अथ ज्ञाततदभिप्रायेण राज्ञा त[द्र]क्षार्थमादिष्टा नृपपुत्रपञ्चशती । सा च सर्वत्र तेन सहैव यास्यायाति च । ततस्तया सह वाह्यालीं याति, तुरगान् वाहयन्नधिकमपि गत्वा पुनरायात्येवं प्रतिदिनं कुर्वता सा विश्वा । इतवान्धितीरेऽतिप्रतीतनरैः प्रवहणं रत्नैः पूरितं प्रतिमा च तत्र क्षिपिता । सर्वथा प्रगुणीकृते प्रवहणे कुमारस्तुरगमारुह्य पलायितसमुद्रतीरे गत्वा प्रवहणमारुह्यार्यदेशं सम्प्राप्तः । ततो जिनप्रतिमां अभयकुमारस्य सम्प्रेष्य रत्नानि धर्मे दत्वा स्वयं यावत्पञ्चमौष्टिकं लोचं करोति तावद्देवतया गगने भूत्वोक्तं- भोः ! तवाद्यापि भोगफल कर्मास्ति, ततो मा दीक्षां गृहाणेति । ततः कुमारः किं तेन कर्मणा १, यदि प्रत्याख्यातान् भोगान भोक्ष्येऽहं तरिंक करिष्यति ? मे भोगफलं कर्मेति दीक्षां गृहीत्वा विहरन् वमन्तपूरं प्राप्तो बहिः कायोत्सर्गे स्थितः । इतश्च पूर्वमत्रभार्याऽपि देवलोकाच्युत्वाऽत्रैव श्रेष्ठिपुत्री धनश्रीनाम्नी जाता। साऽपि च देवयोगात्तस्मिमेव प्रदेशे बालिकाभिस्तमं पति[वरण] क्रीडया क्रीडति, तामिः परस्परं भणितम् - स्वाभिरुचितं वरं वृणुध्वं ततो धनश्रिया वृत आर्द्रकुमारर्षिः, शेषामिश्र कोऽपि कोऽपि । अत्रान्तरे काऽपि देवता सुवृतं भणन्ती गर्जितं कृत्वा रत्नवृष्टिं चकार । ततो गर्जितक्षुब्धा धनश्रीर्मुनीन्द्रचरणयोर्लना । तत उपसर्ग ज्ञात्वाऽन्यत्र गतस्साधुः । ततो नृपो रत्नानि गृहीतुमागतो देवतया निवार्यैवं भणितः मयाऽमूनि कन्याया वरणे दत्तानि सन्ति, ततो नान्यस्यात्रा धिकारः । ततः ४ भावनाधिकारे मावशल्यानुद्धरणे आर्द्रकुमारवृचम् । ॥३३०॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुपत्तिः ॥३३॥ ॐॐॐॐॐॐॐ कन्यां रत्नानि च गृहीत्वा निजगृहं गतो जनकः। अथागच्छत्सु वरणार्थ बहुषु भणत्पेषा-किमेते समायान्ति, पिता प्राइ-खबरकाः। |४भावनाविकारे सा प्राह- "सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते" इति वचनोल्लानं किमिदमारब्धं ?, यस्य वरणधनं त्वया रक्षितं तस्याहं दत्तव प्राक्। ततः मावशल्यानुदरक पित्राऽमाणि-ननु स व्रती न परिणयति को वा तमुपलक्षयति ।। सा भणति-स एव मे गतिरग्निर्मा, लक्षणं चास्ति तद्दक्षिणांही, ततस्तदुपलक्षणार्थ पित्रादेशाद्दानशालायां सा सर्वभिक्षाचराणां दानं दत्चे, द्वादशवर्षान्ते कर्मवशात्तत्रागतमामुनिमुपलक्ष्य चरणयो | আন্ধাৰন্থ लगित्वा सा भणति-हा नाथ! अनाथां मां मुक्त्वेयच्चिरं क्व भ्रान्तः, सम्प्रति न त्यक्ष्यामि न त्यक्ष्यामि त्वचरणौ, तावता श्रेष्ठी राजा च समायातौ साधु भणतः-भो महानुभाव ! बहुशो मण्यमानाऽप्यसो त्वय्येव कृतप्रतिज्ञा, नान्यनामापि सहते, त्वयाऽनङ्गीकृता | च कृतज्वलज्जालनप्रवेशप्रतिज्ञा, तत्करुणां कृत्वा परिणयेमा बालां, करुणैव हि धर्मों विशिष्टिोध्यः (?) युष्मन्मार्ग, तदेवं तस्या राबः श्रेष्ठिनश्च शृङ्गारदेन्यप्रार्थनागर्भभणितरुदितमोगफलकर्मा मुनिर्विवाहमकरोत् । अथ भोगप्रमणापत्रे जाते साधुः प्रियां भणति-जातोऽयं तव सहायो, विसर्जय मां, गृह्णामि दीक्षाम् । ततो दूनेयं स्वत्रमेकान्ते शिक्षयित्वा कर्तयितुं लग्ना। इतथ तनुजोऽवादीदम्ब! किं त्वयेदमसदृशमारब्धं, सा प्राह- पुत्र! पत्यौ परोक्षे स्त्रीणामिदमेव मण्डनं, स प्राह-मातः! ताते विजयमाने किमिदमसम्बद्धं ब्रूषे?, सा प्राह-वत्स! क्वचिच्चलितोऽयं तव पिता, ततः क्व याति? तातो, बद्धा धरामीति मन्मनमु छपस्तन्तुभिस्तं पादयोर्वेष्टयति सः। तस्य तथा चेष्टया दृष्टस्तातोऽपि चिन्तयति-यावतो वेष्टानसौ दास्यति तावन्ति वर्षाणि मया स्थेयम् । तन्तोर्टादश वेप्टान्गणयित्वा स्थितो द्वादशवर्षाण्याः पुनर्गेहे। तदन्ते च चिन्तयति-प्राचमनसैव विराद्धश्रामण्योमार्येषुत्सनः, सम्प्रति तु सर्वथा भग्नव्रतः किं भविष्यामीति न जाने, किश ॥३३ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥३३२॥ “पच्छा वि ते पयाया, खिप्पं गच्छति अमरभवणाई । जेसिं पिओ तवो सं-जमा अ खंती य बंभचेरं च ॥१॥" [ दश० ४ – २८ ] इत्यधुनाऽपि तपः श्रेय इति विचार्य वार्यमाणोऽपि भार्यया निष्क्रान्तः कुमाराद्रः । इतथ ये राज्ञा पश्चशतराजकुमाराः कुमाररक्षार्थ दत्ता अभूवंस्ते कुमारे पलाय्य गते लञ्जभयादिभिरुपराजं गन्तुमशक्नुवन्तः कुमारं गवेषयन्तः काश्विदवीं प्राप्यनिर्वहन्तचौरवृत्या तत्र तिष्ठन्ति ते च तत्रार्द्रमुनिना पूर्वाधीतविचित्रश्रुतोपदेशलब्ध्या प्रतिबोध्य दीक्षां ग्राहिताः । ततः पुरतः श्रीवीरपार्श्वे गच्छत आर्द्रमुनेर्गोशालको मिलितः स चोल्लण्ठवचनैः श्री वीरदोषान् माषमाणो वादे निर्जित्य महामतिनाऽनेन तथा निहत्तरीकृतो यथा नंष्ट्वा गतः । अथ यावत्पुरः कुमारर्षी राजगृहपुरसमीपमायाति तावत्तत्र तापमानामाश्रमोऽस्ति, ते च 'किं बहुभिर्बीजादिभिर्विनाशितैः ?, बरमेकं गजं हत्वा बहून् दिवसानश्रीम' इति कुविकल्पेन हस्तिनं घातं घातं प्सान्ति-भक्षयन्ति, तदा च तैरेको वनकरी भारशता खला शृङ्खलितां ह्निर्महातरुस्कन्धनिबद्धस्कन्धो दृढार्गलालितस्तत्राश्रमे तिष्ठति स च हस्ती मार्गप्रतिबोधितभक्त शताद्गीयमानगुणग्रामं तं मुनिं निरीक्ष्य चिन्तयत्यहमप्येनं मुनिं वन्दे, तदैव च मुनिप्रभावाज्झटिति त्रुतिशृङ्खलादिवन्धनः करी तं प्रणम्य वनं गतः तेन चातिशयेनामर्षाद्विवदमानाः सर्वे तापसा निर्जित्याईद्ध में स्थापिताः । इतश्च श्रीणिकः श्रीअपयश्च जनाननाद् गजबन्धनोन्मोचनादि तस्यातिशयं श्रुत्वा तत्रैवाश्रमे वन्दनाय समायातौ नत्वा स्तुत्वा च राजा प्राह-भगवन् ! अतिदुष्करं यद्दृइलोहबन्धतात्तिर्यगपि करी मेोचितो निजमहिम्ना । मुनिराह - ४ भावनाधिकारे भावशल्यानुद्धर आर्द्रकुमारवृच्छ । । ३३२॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % पुष्पमाला लघुवृत्तिः ३३३॥ % -36 "न दुक्करं बंधणपासमोअणं, गयस्स मत्तस्स वणम्मि राय!। जहा उ चत्ता वलिएण तंतुणा, सुदुकरं मे पडिहाइ मोअणं ॥१॥" Beभावनाधिकारे राजाऽऽह-किमिदं ? मुने!, भगवानपि खव्यतिकरं सर्व सविस्तरमुक्त्वा प्राह- राजन् ! अव्यक्तमुल्लपता तेन बालेन यः आर्द्रकुमारकथा। सूत्रतन्तुमिरहं बद्धस्ते स्नेहतन्तव एव मयाऽपि दुःखेन त्रोटिताः, तदपेक्षया गजबन्धनत्रोटनं कियदेतत् । ततश्च धर्मदेशनां श्रुत्वा निजयुद्धस्साफल्येन हृष्टौ श्रेणिकाभयो प्रणम्य स्वगृहं गतौ। मुनिश्च श्रीवीरजिनान्तिके गतः, प्रणतो भगवान्, प्रतिबोधितांच सर्वानपि राजपुत्रप्रमुखान् श्रीवीरपायें दीक्षां ग्राहयित्वा स्वयं चालोचितप्रतिक्रान्तो निस्सङ्ग उग्रं तपः कृत्वा केवलज्ञानमुत्पाद्य मोक्षमनन्तसौख्यं प्राप्त, इत्यार्द्रकुमारकथा समाप्ता ।। अथ वणिक्तनयकथोच्यते-वसन्तपुरे अग्निशर्मनामा द्विजो धर्म श्रुत्वा सभार्यः स्थविरान्तिके प्राब्राजीत् । तद्वयमपि रत्नत्रयनिष्ठ, परं माधुः पूर्वाभ्यासाद्भार्यायामनुरागं न त्यजति, साध्वी तु द्विजजातिमदमुद्हते, ते स्थाने अनालोच्य गतौ द्वावणि देवलोके, साधुजीवस्ततश्युत्वान भरते इलावर्द्धनपुरे [धनदत्त] इभ्यधारिण्योरिलादेव्युपयाचनेन जातत्वादिलासुतनामा सुतो जातः । | साध्वीजीवस्तु जातिमददोषात्स्वरूपोपहसिततिलोत्तमाऽपि नृत्येऽतिचतुरा नटसुता जाता। अन्यदा यौवनोन्मादी यौवनोन्मादिनी तां नटी हलासुतस्तथा तस्यामनुराग बबन्ध यथा कुलकलङ्कायवगणय्य नटेभ्यस्तामयाचत । ते त्याहुः-अक्षयनिधिकल्पां सुवर्णकोटिदानेऽपि नैनां दमः, यदि परं तवास्यां निर्बन्धस्तदाऽस्मासु मिल, शिक्षस्खास्मत्कलां, तस्यामत्यनुरक्तेनतेन मातृपिमित्रादिस्नेह ॥३३३॥ १ तर्कोपरिस्थनिर्बलेन तन्तुना. %E4%95454334 % % % % Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥३३४॥ ४मावनाधिकारे इलापुत्रकथा। ॐACROSECXSCORK CS4 विहाय तदेव कृतं, शिक्षितं सातिशयं शिल्पं । ततस्ते भणन्ति-अर्जय विवाहार्थ धनं, ततः परिणयेमां, तदप्यभ्युपगम्य नटपेटकेन सामिलापुत्रो गतो बेनातट, राज्ञोऽग्रे नचिंतुं सामग्या गतः, निखातश्चात्र महावंशः, तद्ध महत्काष्ठं, तस्य द्वयोरन्तयोद्वौ द्वौ लोहकीलको, तत्राचटच्चेलापुत्रोऽसिखेटकव्यग्रकश्छिद्रपादुके परिधाय सप्तकरणानभसि पश्चादभिमुखं सप्त चाग्राभिमुख, एवं चतुर्दश करणान् ददाति, प्रतिकरणं च पादुकाछिद्रयोः कीलको निवेशयति, सा नटकन्या च वंशमूले तिष्ठति, तपाक्षिप्तचेताचिन्तयति नृपतिः-यद्यसौ पतित्वा म्रियते तदाऽहं परिणयामीति, लोकः स्माह-साधु साधु नृत्य, ददातु पारितोषिके देवो यथा वयमपि दद्मः | किञ्चित्, नृपः शठतया स्माह- न मया सम्यगवलोकितं, पुनर्नु त्यतु, ततो राज्ञो भावं विज्ञाय जनः श्याममुखीभूतः, इलासुतस्तु | प्राग्वच्चतुर्दशाकरणांछोभादत्ते, राजा पतनेच्छया पुनर्न सम्यग्दृष्टं इति प्राह । ततः प्रद्विष्टो जन इतरः, पुनर्नृत्यति, एवमष्टाविंशतौ करणेषु दत्तेवपि राजा तयैवेच्छया तथैवाह, ततो राज्ञि सो जनस्तथा विरक्तो जातो यथा समक्षमेव नृपमाकोशते । इलापुत्रेण च ज्ञातो राज्ञो मनोगतो भावः । प्रत्यासन्ने चेश्वरगेहे भक्तिव्यक्तिमिलत्स्कारशृङ्गारसुन्दरीभिः प्रतिलाभ्यमानः शुद्धपणोपयुक्ताः केऽपि साधवो दृष्टाः। तत इलापुत्रः संवेगमुपगतश्चिन्तयत्येवं-अहो!! मोहस्स महाविलासः, येनाहं तथाविधोत्तमकुलोत्पन्नोऽप्येवं दुःखावस्था प्रापितोऽस्मि। तत एते एव धन्या मुनयो, ये दोत्सारितविकारलेशाः प्रशान्तमनसो ब्रह्मवतं धरन्ति, एतेषामेव मागों ममापि प्रमाणं, इति भावनां भावयतः पारिणामिकं चारित्रं जातं, समुत्पन्नं च केवलज्ञानं, नव्वदूरपि नृपस्य भावं तथाविधं विज्ञायाचिन्तयत् , यथा-धिग्मे यौवनं, येनायं इलापुत्र एनादृशमनर्थ प्रापितः, संसारश्च सर्वोऽपि दुःखाकर इति भावयन्त्यास्तस्याः केवलज्ञानमुत्पन, इतश्च नृपपार्श्वस्थाया अग्रमहिन्याश्च राज्ञश्चित्ताभिप्रायपरिज्ञानाद्वैराग्यं गतायाः केवलं समुत्पन्न, राजापि च ॥३३४॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ३३५ ॥ जनविरागं ज्ञात्रा स्वं भिन्दन् तथा विशुद्धभावोऽजनि यथोत्पन्नं तस्यापि केवलहानं । तत इलापुत्रः केवली यथा प्रियायामनुरागोऽनालोचितो दुःखदो जातः प्रियायाश्च जाति मदोऽनालोचितो नीचकुलहेतुर्जातस्तत्सर्वं सर्वजनस्योक्त्वा ततः प्रतिबोध्य बहुजनं चत्वारोऽपि कर्मक्षयादनन्तं मोक्षसुखं प्राप्ताः, इति इलापुत्रकथा समाप्ता ॥ अथ लञ्जादिभिः खदुश्चरितं गुरुभ्योऽनिवेदयतां यो दोषस्तमाह लज्जाए गारवेण व, बहुस्सुयमएण वा वि दुच्चरियं । जे न कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा हुंति ॥ ३६९॥ व्याख्या - लज्जया आत्मनो गौरवेण वा बहुश्रुतमदेन वाऽपि ये गुरूणां स्वदुश्चरितं न कथयन्ति ते नरा नैवाराधका भवन्तीति गाथार्थः || ३६९ || किश्व - नवितं सत्थं व विसं, दुप्पउत्तो व कुणइ वेयालो । जं कुणइ भावसल्लं, अगुद्धियं सन्नदुहमूलं ॥ ३७० ॥ व्याख्यानैत्र शखं विषं वा प्रतीतं, दुष्प्रयुक्तः- प्रकोपितो वेठालो वा तदुःखं-करोति, यत्सर्वदुःखमूलं भावशल्य मनुद्धृतं सरकरोतीति गाथार्थः ॥ ३७० ॥ अथालोचनाप्रदानोपस्थितेन वर्जनीयान् दोषानाह आकंपइत्ता अणुमाणइत्ता, जं दिडं बायरं व सुहुमं वा । छन्नं सद्दालुयं, बहुजण अव्वत्ततस्सेवी ॥ ३७१॥ ४ भावनाधिकारेSनालोचने नारा धकत्वम् ||३३५ ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनाधिकारे अलोचनादोषा। - व्याख्या-आवर्जितो गुरुः स्तोकं मे प्रायश्चित्तं दाखतीति बुद्ध्या गुरुं वैयावृत्यादिना आकम्प्य-आवालोचनं दोषः, पुष्पमालामा तथा अनुमान्य-अनुमानं कृत्वा लघुतरापराधिनां मृदुदण्डप्रदायकत्वादिस्वरूपमाकलय्यालोचनं, एवं यदाचार्यादिना दृष्टमपराधजातं संघुवृत्तिः । तदेवालोचयति, नापरं, तथा बादरमेवालोचयति, न पूक्ष्म, तत्रावज्ञापरत्वात , तथा सक्ष्ममेव दोषमालोचयति, न बादरं, यः किल ॥३३६॥ सूक्ष्ममप्यालोचयति स कथं बादरं नालोचयेदित्येवं भावज्ञापनार्थमाचार्यस्येति; तथा छन्न-प्रच्छन्नमालोचयति, लज्जादिकारणतोऽत्यव्यक्तवचनेन वक्तीत्यर्थः; तथा शब्दाकुलं बृहच्छब्दं यथा भवत्येवमालोचपति, अगीतार्थादीनामपि श्रावयतीत्यर्थः, तथा | बहवो जना आलोचनायां यत्र तबहुजनं, एकस्याप्यपराधस्य बहुभ्यो निवेदनमित्यर्थः; तथा अव्यक्तो-गीतार्थस्तस्य यद्दोपालोचनं तदप्यव्यक्तमिह विवक्षितं; "तस्सेवि" ति शिष्यो यं दोषमालोचयति तमेव सेवते यो गुरुरसौ तत्सेवी, तस्मै यदालोचनं सोऽप्यालोचनादोष इति गाथार्थः ॥३७॥ यद्येते आलोचनादोषास्तहिं किम् ? इत्याह३ एयदोसविमुकं, पइसमयं वड्ढमाणसंवेगो। आलोएज्ज अकज्ज, न पुणो काहंति निच्छइओ॥३७२॥ व्याख्या-एतद्दोषविमुक्तं यथा भवति तथा प्रतिसमयं बर्द्धमानसंवेगस्सन् पुनरप्यमुं दोषं न करिष्यामीति कृतनिश्चयः |स्वकृतमकार्यमालोचयेत् , अन्यथा आलोचनादानस्य वैयर्थ्यप्रसङ्गादिति गाथार्थः ॥३७२॥ नन्विदानी प्रायश्चित्तं तदातारश्च न सन्त्येव, तत्कः कस्यालोचनां दास्यतीति ये प्रास्तत्सम्बोधनार्थमाह ॐॐॐॐॐॐॐ - Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो भणइ नत्थि इण्हिं, पच्छित्तं तस्स दायगा वा वि । सो कुबइ ससारं, जम्हा सुत्ते विणिद्दिळं ॥३७॥ ४ भावनाद्वारे पुष्पमाला|. व्याख्या-यः कश्चिदेवं ब्रवीति, यदुतेदानी प्रायश्चित्त प्रतिपादकग्रन्थाभावात्प्रायश्चित्तं तदातारश्च गीतार्था न सन्त्येव. स दुष्प्रसहाचार्यान्त लघुवृत्तिः उन्मार्गदेशकत्वादात्मनो दीर्घसंसारमेव करोति, यस्मात्सूत्रेऽपि छेदग्रन्थलक्षणे निर्दिष्टं-भणितमिति गाथार्थः ॥३७३।। किं तदित्याह- समालोचनादाया१३३७।। का सम्बंपि य पच्छित्त, नवमे पुबम्मि तइयवत्थुम्मि। तत्तो वि य निज्जूढा, कप्पपकप्पो य ववहारो ॥३७४॥ || स्वित्वम् । व्याख्या - सर्वमपि प्रायश्चित्तं तावन्नवमे च प्रत्याख्यान[प्रवाद]नाम्नि पूर्वे तदन्तर्गते च तृतीयवस्तुनि पूज्यनिबद्धं । |All ततोऽपि च प्रायश्चित्तप्रतिपादकनवमपूर्वगततृतीयवस्तुनो मध्यान्नियूढाः-समुद्धृताः कल्पः प्रकल्पो व्यवहारश्च, तत्र प्रकल्पो निशीथ इति गाथार्थः ॥३७४॥ तेऽपि च कल्पादय इदानीं न सन्तीति चेत् ? आहते विय घरंति अज्जवि, तेसु धरतेसु कह तुम भणसि? | वोच्छिन्नं पच्छित्तं, तद्दायारो य जातित्थं ॥३७५॥ | व्याख्या-तेऽपि च कल्यादयोऽद्याषि धरन्यनेकार्थत्वाद्धातूनामवतिष्ठन्ते, अतस्तेषु धरत्वप्रतिष्ठमानेष्वेवं कथं त्वं भणसि ?, यदुत-व्यवच्छिन्नं प्रायत्तिमिति असम्बद्धमेवेत्यर्थः । अथ प्रायश्चित्तदातारो गीतार्था व्यवच्छिन्नास्तदप्ययुक्तमित्याह-तदातार:-प्रायवि.वातारोऽपि यावत्तीर्थ- दुष्प्रसहाचार्यपर्यन्तं यावत्याप्स्यन्ते इत्यागमेऽसद्भणितमिते गाथार्थः ॥३७॥ अथालोचनापदाने यो गुणस्तद्भणनलक्ष्णं चरमद्वारमाइकायबो वि मणूमो, आलोइयनिंदिउं गुरुसगासे। होइ अइरेगलहुओ, ओहरियभरुन्ध भाखो ॥३७६।। ॥३३॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या-कृतपापोऽपि मनुष्यो गुरोस्मकाशे खदोषान् विधिवदालोच्य निन्दित्वा-पश्चात्तापं कृत्वा "अरेगलहुओ" पुष्पमाला ४ भावनाद्वारे लघुचिः त्ति गतबहुकर्मत्वात्कर्माण्याश्रित्यातिरेकलघु-रतीवलघुकर्मा भवति, क इव ? इत्याह-अपहतभरो भारवह इवेति गाथार्थः ॥३७६।। मोवाप्तिफलक॥३३८॥ अथालोचनाप्रदानेनैवानन्तानां मोक्षप्राप्तिर्जातेत्याह मालोचनाया। निवियपावपंका, सम्मं आलोइउं गुरुसगासे। पत्ता अगंतजीवा, सासयसुक्खं अगाबाई ॥३७७॥ व्याख्या -गुरोस्सकाशे-समीपे खदोपान् सम्यगालोच्य-कथयित्वा क्षपितपापपङ्कास्सन्तोऽनन्ता एव जीवा अनावाचं शाश्वतं सौख्यं प्राप्ताः, सिद्धा इत्यर्थः इति गाथार्थः ॥३७७।। इत्थं विभाव्य भगवचनेन शुद्धे-दोषान्गुणांन सुकृती खकृतापराधान् । आलोच्य सम्यगिह सद्गुरुपादमूले, शुद्धः प्रयाति पदमव्ययमद्वितीयम् ॥१॥ इति पुष्पमाला विवरणे भावनाद्वारे दोषविकटनालक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥११॥ अथ भवविरागद्वारं विभणिपुः पूर्वद्वारेण सम्बन्धगर्भा गाधामाह2 एवं विसुद्धचरणो, सम्मं विरमेज्ज भवसरूवाओ। नरगाइभेयभिन्ने, नत्थि सुहं जेण संसारे ॥३७॥ व्याख्या-एवं-यथोक्तविधिना प्रायश्चित्तप्रतिपत्तिद्वारेण विशुद्धं चरणं यस्य स विशुद्धचरणस्सन् सम्यग विरमेस्त्वं-विराम | Pawan गच्छेः, कस्मादित्याह- भवस्वरूपात , न पुनरालोचनादानेनैव तुष्टस्तिष्ठेरिति भावः। कुतः? इत्याह- येन नरकादिमेदमित्र नास्ति CCCCCCCCCCCECE0% Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥ ३३९॥ सुखं संसारे, एतेनालोचनाप्रदानेऽपि भवविराग एवेष्टार्थसाधक इत्यालोचनाद्वारानन्तरं भवविरागद्वारमुच्यते इति गाथार्थः ॥ ३७८ ॥ ॥ तत्र नरकेषु यथा न सुखं तथाऽऽह दीहं सुसंति कलणं, भांति विरसं रसंति दुक्खत्ता । नेरइया अवरोप्पर - सुरखितसमुत्थवियणाहिं ॥ ३७९ ॥ व्याख्या - दीर्घ श्वसन्ति श्वासान् गृण्हन्ति, कलुणं - दीनं भाषन्ते विरसं रमन्ति-आरटन्ति, दुःखार्त्ता नारकाः । कामिः ? इत्याह-परस्परं च सुराश्च क्षेत्रं च परस्परसुरक्षेत्राणि, तेभ्यस्समुत्था:- प्रादुर्भूता या वेदनास्तामिः । नारकाणां हि नरकत्रयं यात्रिविधा वेदना, पुरतस्तु परमाधार्मिकसुरगमनाभावाद्विविधेवेति गाथार्थः ॥ ३७९ ॥ अथ नारकदुःखानां प्रत्येकं मणितुमशक्यत्वात्संक्षिपन्नाह - जं नारयाण दुक्खं, उक्कत्तणदहणछिदणाईयं । तं वरिससहस्से हि वि, न भणेज्ज सहस्तवयणो वि ॥ ३८०|| व्याख्या -पन्नारकाणां दुःखं उत्कर्चनद्दहनछेदनादिकं तद्वर्षसहस्रैरपि न भणेन् सहस्रवदनः शक्रोऽपीति गाथार्थः ॥ ३८० ॥ इदं तावारकाणां दुःखं केवलिवचनगम्यं, तिरथां तु दुःखं लोकस्यापि प्रत्यक्षमेवेत्याहसीउण्हखुप्पियामा दहणं कणवाह दोहदुक्खेहिं । दूमिज्जति तिरिक्खा, जह तं लोए विपचक्ख ॥। ३८१ ॥ व्याख्या - शीतोष्ण क्षुत्पिपासाः प्रतीताः, दहनं वनदवादिना, अङ्कनं त्रिशूलाद्याकारेण दम्भदानादि, वाहः - स्कन्धादिना ४ भावनाद्वारे भवविरामारुवं प्रतिद्वारम् । ॥ ३३९॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥३४॥ मारवहनं, दोहो- गोमहिण्यादिस्तनेभ्यो दुग्धाकर्षण, एतेषां सम्बन्धि यानि दुःखानि तैरन्ते तिर्यो यथा तलोकेऽपि IP४ मावनाद्वारे पुष्पमाला प्रत्यक्षमेवेति गाथार्थः ॥३८॥ भवविरामारवं लघुवृत्तिः । मनुष्यष्वपि नानाप्रकारं दुःखं सर्वजनात्यक्षमेव । अथ सुखतया प्रतीतानां लक्ष्म्यादीनामपि च दुःखरूपतां विमणिपुराह- प्रतिद्वारम् । लच्छी पिम्मं विसया, देहो मणुयत्तणे वि लोयस्स । एयाई वल्लहाई, ताणं पुग एम परिणामो ॥३८२॥ व्याख्या-लक्ष्मीर्धनं, प्रेम-खजनादिषु स्नेहा, विश्याः शब्दादयो, देहः-शरोरं, एतानि मनुजवेऽपि सुखम्रान्तिजनकत्वेन लोकस्य किल वल्लभानि, तेषां पुनरेष वक्ष्यमाणः परिणामः-स्वरूपमिति गाथार्थः ॥३८२॥ तत्र लक्ष्मीखरूपमाहन भवइ पत्थंताण वि, जायइ कइया वि कहवि एमेव । विहडइ पिच्छंताण वि, खगेग लच्छी कुमहिलध॥३८॥ व्याख्वा-यथा कुमहिला-दुःशीला नारी, एवं लक्ष्मीरपि कदाचित्वार्थयमाणानामपि पुरुषाणां न भवति, कदाचितु तेषामेवाप्रार्थयमाणानामपि एवमेव-खत एव कुतोऽपि कथमपि जायत एस, जाताऽपि क्षणेनैव कहाचित्सश्यतामेव विवरत इति | कस्तस्यां विवेकिनः प्रतिबन्धः ? इति गाथार्थः ३८३।। किश्वेय जाताऽपि प्रायोऽनर्थफलैवेत्याहजह सलिला वटुंति, कूलं पाडेइ कलुसए अप्पं । इह विहवे वड्ढते, पायं पुरिसे। वि दवा ॥३८॥ व्याख्या-यथा सलिला-नदी वर्षासु प्रचुरपयःपूरेण बर्द्धमाना- विस्तान्ती स्वकीयमेव कूलं-तट पातयति, पूराकृशशुचिकचवरकादिना कलुषयति चात्मानं, उपलक्षणवाच्छिष्टजनानभिगमनीया च जायते, इह विभवे प्रबर्द्धाने पुरुषोऽपि प्राय एवमेव ॥३४०॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ३४१॥ ४ भावनाविका प्रेमखरूपनिरूपणम् । द्रष्टव्यः, तथाहि-एषोऽपि मत्सराहङ्काराद्युत्कटतया स्वकूलकल्पं स्वजनादिकं तावदुपहन्ति, नानारम्भरापव्यापारोपार्जितकर्मरजसा च कलुषपत्यास्मानं, कार्पण्यादिमिश्चासम्भोग्यलक्ष्मीकत्वेन शिष्टानभिगमनीयः सम्पद्यते, प्रायो ग्रहणं तु केषाग्निदासबभत्रसिद्धिकानां विभववृद्धावप्युक्तखरूपपरीत्यदर्शनादिति गाथार्थः ॥३८४॥ अथ प्रेमस्वरूपं दर्शयन्नाहहोऊण वि कह वि निरं-तराई दूरतंराई जायंति। उम्मोइयरसणंऽतो-चमाइं पेम्माई लोयस्स ॥३८५॥ व्याख्या-उन्मोचिता-छोटिता याऽसौ रसना-कटिसूत्रं, तस्या अन्तावुन्मोचितरसनान्तौ, 'ताम्यामुपमा-सादृश्यं येषां तानि उन्मोचितरसनान्तोपमानि प्रेमाणि-स्नेहा लोकस्य, कथं? इत्याह-यतो भूत्वाऽपि क्वचित्कथमपि केषाश्चिनिरन्तराणि-निविडानि प्रेमाणि पुनरपि कदाचित्केनापि कारणेन दान्तराणि जायन्ते। इदमुक्तं भाति-यथा कटीवन्धनकाले रसनाया अन्तौ निरन्तरौ भूत्वापि पुनरेव तच्छोटनकाले तौ दान्तरौ जायेते, एवं लोकस्यापि प्रयोजनापेक्षितया प्रथमं प्रेमाणि निरन्तराणि भूत्वाऽपि पुनरपि स्वप्रयोजनसिद्धावपराधश्रवणादिना झगित्येव दरान्तराणि सम्पद्यन्ते, तत्कम्तेष्वपि विवेकिनां प्रतिबन्धः? इति गाथार्थः ॥३८५॥ ननु मातापित्रादिषु निबिडं प्रेम, तच्च न व्यभिचरतीति चेदित्यत आहमाइपिबंधुभज्जा-सुएसु पेम्मं जणम्मि सविसेसं। चुलणीकहाए तं पुण, कणगरहविचिठिएणं च ॥३८६॥ तह भरहनिवइभज्जा-असोगचंदाइचरियसवणेणं । अइविरसं चिय नज्जइ, विचिदठियं मूढहिययाणं ॥३८॥ व्याख्या-मातृपितृवन्धुभार्यासुतेष्वेव वावजने-लोके सविशेष प्रेम इत्यस्माकमप्यभिमतमेव, केवलं तत्पुनर्व्यभिचारितया ॐॐ5555 ॥३४॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥३४२ ॥ ऽतिचिरखं-अविनिर्वेदजनकं ज्ञाषते, कथम्भूतम् । इत्याह- मूढहृदयानां - बाल प्रकृतीनां प्राणिनां विवेष्टितं विजृम्भितं, कया हेतुभूतया तद्विरसं ? इत्याह- त्रह्मदच जनन्याश्रुलन्याः कथया मातृप्रेम तावदतिविरसं निश्चियते । कन करथराज विचेष्टितेन च पितृप्रेम, तथा भरतनृपतिचरितश्रवणेन बन्धुप्रेम, प्रदेशीनामकनृपतिभार्याचरितश्रवणेन भार्याप्रेम, अशोकचन्द्रः - कूणिकस्तच्चरितश्रवणेन सुतप्रेम, आदिशब्दादपरैरपि समय लोकप्रसिद्धैर्जन्तुभिस्तद्विरसता भावनीयेति गाथाद्वयाक्षरार्थः ३८६-८७ ॥ अत्र कथानकानि पुनरेवं क्रमेणोच्यन्ते, यथा-आदौ चुलनीकथानकं तच्चेदम्- साकेत पुरखामी चन्द्रावतंसक राजसूनुना मुनिचन्द्रेण प्रपन्नत्रनेनाटव्यां चत्वारो गोपालदारकाः प्रतिबोध्य प्रवाजिताः, तन्मध्ये जिनधर्मजुगुप्सया श्रामण्यं विराध्य द्वौ देवलोके समुत्पन्न, ततोऽपि च्युत्वा दशार्ण पुरे दासौं, ततोऽपि विषधरदष्टौ मृत्वा कालिञ्जरपर्वते मृगौं, ततोऽपि गङ्गातटे हंसौ, ततो वाराणस्यां चित्रसम्भूतनामानौ मातङ्गदारकावुत्पन्नौ । तत्र सम्भूतः सनिदानचारित्रः चित्रस्तु निरतिचारचारित्रो, द्वावपि सौधर्म देवलोके समुत्पन्नौ, ततोऽपि च्युत्वा चित्रः पुरिमतालपुरे इभ्यपुत्रतया समुत्पन्नः सम्भूतस्तु पञ्चालजनपदे काम्पिल्पपुरे ब्रह्म नरेन्द्रराज्ञ्यालन्या ब्रह्मदत्तपुत्रः समुत्पन्नः, तद्बालत्वेऽपि म्रियमाणेन ब्रह्मरराजेन 'मवद्भिरेवायं बालको राज्यं कारयितव्य' इत्युक्त्वा काशी जनपदाघिपतिकटक - गजपुरप्रभुकणेरुदत्त - कोशलाविषयस्वामिदीर्घ - चम्पापुरीप्रभुपुष्पचूलाभिधानानां निजभित्राणां ब्रह्मदत्तः समर्पितः । तन्मध्ये दीर्घे चुलनी समासक्ता, तदनु रागमूढमानसया च तयाऽभिनवपरिणीतं स्वपुत्रं ब्रह्मदत्तं सप्रियं जतुगृहमध्ये प्रक्षिप्य ममन्तादहनः प्रदीपितस्तन्मध्याच्च धनुर्मन्त्रिविरचितोपायेन तत्सुतवरधनुना सार्द्धं ब्रह्मदत्तोऽपि निर्गत्य देशान्तरेषु भ्रान्तस्तेषु च बह्वी ब्राह्मणवण भूपाल विद्याधरपुत्रिकाः संविधानपूर्वकं परिणीतवान् । क्रमेण च दीर्घराजं निहत्य भरतक्षेत्रं प्रसाध्य चक्रवर्त्तिपदं प्राप्तत्रान् । ततः प्रवि ४ मावनाधिका प्रेम्णोऽसारतायासुदाहरणानि ॥ ३४२ ॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥३४३ ॥ पक्वतेव पूर्वमभ्रात्रा चित्रेण विचित्रवचनोक्तिभिर्बोध्यमानोऽपि न कथमप्यसौ प्रतिबुद्धः पर्यन्ते परिक्षीणपुण्योदयेन प्रकृतिकब्राह्मणमात्रनियुक्त गोपाला कर्षितनेत्रो रौद्रध्यानो संगतच मृत्वा सप्तमपृथिव्याम प्रतिष्ठाननरकावासे समुत्पन्नो, व्यासार्थश्चित्रसम्भूतीयाध्ययनादवसेयः। यदीत्थं चुलन्यपि ब्रह्मदत्तस्य मारणाय प्रवृत्ता ततः कोऽत्र मातृप्रेम्णि प्रतिबन्धः ? इति चुलनीकथा समाप्ता ॥ अथ कनकरथ [नृप] कथानकं कथ्यते - तेतलिपुरे नगरे राजा कनकरथः, सकलान्तःपुरप्रधाना तजाया पद्मावती, तन्मन्त्री तेतलितनामा राज्यचिन्तां करोति । अन्यदा राज्य सुखतृषितेन राज्ञा विविधयातनाभिर्जाताः स्वसुता 'वर्द्धमाना मे राज्यं हरिष्यन्ती'त्यभिप्रायेण सर्वे मारिताः । तवस्तेतलिसुतमन्त्रिणाऽन्यदा 'पद्मावत्या अथ दारिका जाता, साऽपि मृतेति व्याजेन कनकध्वजस्तत्सुतः स्वगृहे निधाय रक्षितः, स च कनकरथे मृते राज्येऽभिषिक्त इति । इह यदीत्थं कनकरथोऽपि पुत्राणां व्यापाद कोऽजनि ततः कः पितृजनप्रेम्ण प्रतिबन्धः १, इति कनकरथकथा समाप्ता ॥ अथ भरतारूपानकमुच्यते — श्रीभदेवपुत्रौ मरतबाहुबलिनौ, राज्यार्थ द्वावपि भ्रातरौ युद्धाय प्रवृत्तौ तत्रादौ दृष्टियुद्धं ततो वाग्युद्धं ततोऽपि बाहुयुद्धं ततो मुष्टियुद्धं ततो दण्डयुद्धं जातं, किन्तु सर्वत्र बाहुबली जयति भरतो हारयति । स्तः स विषण्णश्विन्तयति-किमेष चक्री ? मम निकलप्रयासः १ । तात्रता देवताऽधिष्ठितं चक्ररत्नं स्फुरत् भरतकरतले समागत्योपविष्टं, ततः स चक्रेण बाहुबलिनं हन्तुं प्रधावितः । तावद्वाहुबली चिन्तयति-चक्रेण सममेवैनं चूर्णयामि । अथवा दण्डयुद्धे प्रारब्धे चक्रेणोपस्थित एषः, ततो भ्रष्टप्रतिज्ञोऽयं स्वयं मृतो वराकः, तुच्छानां कामभोगानां कार्ये यद्यसौ महात्मा अरुजित एवं करोति, तथापि न मे युज्यते बान्धवत्रधः कर्त्तुं ततः प्राह-चक्रेण सममपि त्वां चूर्णयामि परं लोका मणिष्यन्ति - श्री ऋषभत एत्रमकृत्यं कृतवान्, ४ मावनाधिका प्रेम्णोऽसारत्ये चुलन्यादि दृष्टान्ताः । ॥ ३४३॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - तुच्छाच मीवितयौनाइयोऽर्थाः, ततस्त्वमेव गृहाण राज्यं, अहं तु दी गृहामि । ततः कराद्दण्डं पुस्त्वा पञ्चनौष्टिकं लोचं कृत्वा पुष्पमाली ४ दीक्षांअतिपन्नः । बर्षप्रान्ते केवलं समुत्पन्न । ४४ भावनाविका लघुवृत्तिः "ता जइ चरमसरीरो, उत्तमपुरिसो वि उसमतणओ वि । भरहो वि बंधवाईणं, इय ववसइ रजलोभेणं ॥१॥" प्रेम्णोऽसारत्वे ॥३४४॥ "तो सेसाण मुगेजसु, कज्जावेक्खाए चेव पेमाई। साइं तु खगेण विसं-वयंति तो किमिह पडिबंधो ? ॥२॥" | भरताव्याल्याइति भरताख्यानकं समाप्तम् ।। नकानि। अथ नृपतिमार्याकथोच्यते-श्वेताम्ब्यां नगर्यां श्रीपदेशीराजा, सूर्यकान्तानाम्नी तार्या, चित्रो मन्त्री जैनः। सच बहिस्याने समवसृत केशिनामानमाचार्यमाकाचिन्तयत्-अयं राजा महामिथ्यात्वग्रहग्रस्तः पापानुष्ठानरतो, मय्यपि मन्विणि यास्यति नरक, तदेनं नयामि भगवन्मूलं, ततोऽश्ववाहनिकाव्याजेन नीतस्तत्प्रदेशं, खेदविनोदच्छलेनोपवेशितो यत्र बहुजनपरिषन्मध्यगतो भगगन धर्ममाचष्टे, स मन्त्रिणं प्रत्याह-किमयं मुण्डो रारटीति ?, मन्त्रिणोक्तं-न जानीमोऽभ्यर्णीभूयाकर्णयामो, गती निकटे, ततः मूरिणा प्ररूपिते देवताविशेषस्वरूपे जीवादिषु च प्राह-सर्वमिदमसम्बद्धं, असत्चात् । असचं च प्रत्यक्षगोचरातीतत्वात् , वियदरविन्दवत् , विद्यमानं हि न प्रत्यक्षगोचरातीतं, भूतचतुष्टयवत् । मूरिराह-भद्र ! किमिदं भवतोऽध्यक्षविषयातीवमुत सर्वात्मनां ?, आद्यपक्षे तावत्स्तम्भादिमध्यपरभागादीनामभावप्रसङ्गो, भवदर्शयाग्भिागवर्तित्वमात्रग्रहणतयैव व्यापारात् । नापि द्वितीयः पक्षः, तस्याप्यसिद्धत्वात, तसिद्धौ तवैव सर्वज्ञजीवतासिद्धेर्देवताविशेषजीवादिप्रतिषेधानुपपत्तिः, जीवे सति बन्धादीनां सूपपादकत्वादित्यादिना वाइन निराकृतो जातसम्यग्दर्शनपरिणामः स प्राह-भगवान् ! एवमेव, नष्टो मे मोइपिशाचो युष्मद्वचनमन्त्रैः, कॉलं कुलक्रमायाता ॥३४४॥ 4%AECICIC--- atsAKA RMA Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ४ भावनाधिकार प्रेमस्यासारतावा कूणिकदृष्टान्तर ॥२४५॥ RASAUCER-- अस्माकं नास्तिकता, सा कथं मोक्तव्या ?। गुरुराह-भद्र ! न किञ्चिदेतत् सति विवेके, किं कुलक्रमायातो व्याधिरिद्रयं वा न त्यागाई ? इति, किंवा कुलमकुलं वा?, प्राणिनामेकाकिनामेवानादौ भवे भ्रमणात्सर्वकुलेवृत्पादसम्भवाच्च । ततोऽसौ सञ्जाततत्त्वनिर्णयः प्रतिपद्य श्रावकधर्म प्रतिपाल्य च निरतिचारं पश्चात्पुरुषान्तरासक्तया सूर्यकान्ताभिधया भार्यया पारणके दत्तविषो ज्ञातव्यतिकरोऽप्यचलितचित्तोऽनशनं प्रतिपद्य समाधानेन मृत्वा सौधर्म कल्पे सूर्याभे विमाने समुत्पन्नः पूर्याभनामा देवः । तत्र चत्वारि पल्योपमान्यायुः पालयित्वा महाविदेहे सेत्स्यति, इति भार्यया सममपि विरसपरिणाम प्रेम ज्ञात्वा कस्तत्रापि प्रतिबन्धो विवेकिनाम् ।। | इति सूर्यकान्ताऽऽख्यानकं समाप्तम् ॥ अशोकचन्द्रापरनाम्नः कूणिकस्य कथा कथ्यते, यथा-श्रीराजगृहे नगरे श्रीश्रेणिकराजपत्न्याश्चेलनाया गर्भदोषाद्भर्तुरन्त्रमणे दोहदोऽभूत , पूरितं तदन्धकारे कृत्रिमान्त्रैर्मन्त्रिणा, जातश्चोज्झितो दुष्टोऽयमिति तनयस्तया गृहोपवने, दृष्टः श्रेणिकराज्ञा, समर्पितो धाव्याः, कृतमशोकचन्द्र इति तन्नाम, तस्य चोज्झितस्य कुक्कुटेनाङ्गली मनाम् भक्ष्तिाऽऽसीत् , तत्पीडया रुदतोऽतिस्नेहेन क्लेददिग्धां तां पिता चूषितवान् । प्रगुणीभूता च सा कूणा [सङ्कचिता] जाता, तद्द्वारेणासौं कूणिक इत्याकारितः। पश्चात्कूणिकाय राज्यमारं दित्सुना राज्ञा है। हल्लविहल्लाभ्यामष्टादशचक्रो हारः कुण्डलयुग्मं हस्तिरत्नं च दत्तं, अज्ञाततदभिप्रायम्योत्पन्नः कूणिकस्य मत्सरः, सामन्तान्सहायीकृत्य बद्ध्वा क्षिप्तश्चारके स राजा तेन, कशानां शतेन कदर्थयति च प्रतिदिनं क्रोधात् । अन्यदा भुञ्जानस्पोत्सङ्गोपविष्टेन तस्य सुतेन भाजने मूत्रितं मनागपसार्य भुक्तं तत्तेन, चेल्लनां च प्रत्युक्तं- हे मातर्दृष्टो ममापत्यस्नेहः । सा गद्गदवागाह- वत्स ! तव पितुर्गुरुतरस्नेहोऽभूत, तत्कलमनुभवतीदानीं। समाह-कथं ?, ततः कथितो वृत्तान्तस्ततो जावपश्चात्तापः स्वयमेव गृहीत्वा परशुं निगडखण्डनायें गतः 55453 ॥२४॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारागृहं, आगच्छन् दृष्टो गुप्तिपालैः, कथितस्तैः श्रेणिकाय, तेनापि 'दुःखमारेण मां मारयिन्यतीति सञ्चिन्त्य भक्षितं तालपुटं पुष्पमाला ४ मावनाधिकारे लघुवृत्तिः विषं, प्राग्बद्धायुष्कत्वान्मृत्वा गतः प्रथमपृथिवीमितरोऽपि कालेन षष्ठीमिति । विषयासारवाया ॥२४६॥ "इय पुत्तेसु वि पिम्म, विरसं नाऊण मुणियपरमत्था। मोत्तुं तप्पडिबंध, सकजसिद्धिं पवनंति ॥१॥" बन्धुयुग्मोइति अशोकचन्द्राख्यानकम् । इति दर्शिता प्रेम्णोऽसारता ॥ अथ विषयासारतां दर्शयन्नाह दाहरणम्। हॉति मुहेच्चिय महुरा, विसया किंपागभूरुहफलं व। परिणामे पुण तेचिय, नारयजलगिंधणं मुणसु ॥३८८॥ | व्याख्या-भवन्ति मुख एव-आदावेव मधुरा-मनोज्ञा विषयाः- शब्दादयः, किं वदित्याह-किम्पाकवृक्षफलवत्, यथा | किल किम्माकफलं भक्षणसमय एव मधुरं, विपाके पुनर्दारुणवरूपं तथेत्यर्थः, परिणामे पुनस्त एवं नारकज्वलनेन्धनं जानीहि, IP नरकवहिर्विषयेन्धनैरेव नरकोत्पन्नप्राणिदहनाय प्रज्वलति, नान्यथा, विषयासेवां विना हि न कश्विनरकं व्रजेत् , ततश्च निनिमित्तो नरकहिन प्रजलेत्, इति विषया एव नरकवद्वेरिन्धनमिति गाथार्थः॥३८८॥ अत एव विषयगृद्धिपरिहारार्थ सदृष्टान्तमुपदेशमाह| विसयावेक्खो निवडइ, निरवेक्खो तरइ दुत्तरभवोहं । जिणवीरविणिदिट्ठो, दिळं तो बंधुजुयलेणं ॥३८९॥ व्याख्या-विषयापेक्षो-विषयाभिलाषी निपतति-बुडति, विषमे संसारसागरे इति शेषः। तन्निरपेक्षः पुनस्तरति दुस्तरमवौघं । अत्र च वीरजिनविनिर्दिष्टो बन्धुयुगलेन दृष्टान्तो ज्ञातव्यः, तद्यथा-चम्पापुर्यां माकन्दीनामा सार्थवाहः, तस्य जिनपालित-जिनरक्षित ॥२४६॥ & सुतौ, तौ द्वावप्येकादशवाराः क्षेमेणागत्य द्वादशी वारां पितृभ्यां वार्यमाणावपि प्रवहणं पूरयित्वा समुद्रे जग्मतुः। अभाग्याद्भग्ने पोते Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला ४ भावनाधिकारे विषयविपाके बन्धुयुग्मोदाहरणम्। रुघुवृत्तिः ॥२४७॥ 44th-ROWSE लब्धकालको लग्नौ रत्नद्वीपम् । तत्र भ्रमन्तौ तद्वीपस्वामिन्याः क्षुद्रायाः देवतायाः रत्नमयं प्रासादं विलोक्य तत्र गतौ। तया सप्रणयं निजभर्तृत्वे स्थापितो दूरीकृताशुभपुद्गलौ। अन्यदा देवतया शक्रादेशेन जलधिशोधनार्थ गच्छन्त्या प्रोक्तं-भो भो ! यावदहमागच्छामि तावद्भवद्भ्यां प्रासादाद्दक्षिणमुद्यानं मुक्त्वाऽपरोद्यानेषु स्थेयमिति । तस्यां गतायां तौ अपरं सर्व विलोक्य कौतुकादक्षिणोद्यानं गतौ, तत्र शूलिकाभिन्नं कश्चित्पुरुषं क्रन्दन्तं दृष्ट्वा तत्कारणं पृच्छतः। सोऽवदत्-भो! भग्नपोतोऽहं फलकलग्नोवायातो देवतया बहुमानं दत्वा स्थापितः, तया समं भुक्ता भोगाः, अन्यदा तुच्छमपराधमुद्भाव्य क्षिप्तोऽहं विलपन् शूलायां । अन्येऽप्येवं बहवो व्यापादितास्तया नराः। ततो माकन्दीपुत्राभ्यां भीताभ्यामुक्तं वयमप्येवमेव तया सद्गृहीतास्तिष्ठामः, तत्किमस्माकं भावि', शूलापुरुषेणोक्तं-एकोऽस्त्युपायः, अहं जानामि । ताभ्यामुक्तं-भो महाभाग! प्रसादं कृत्वा वद, ततो भणितं तेन-पौरस्त्योद्याने प्रवररूपधारी शैलकयक्षोऽस्ति सम्यग्दृष्टिः, स चाष्टम्यां चतुर्दश्यां पूर्णिमायां अमावस्यां च 'कं पालयामि ? के तारयामि ?' इति भणति, यूयं च तदा तत्र गत्वा 'त्वमस्मान् पालय रक्षेति भणतः। ततस्स युष्मान् सुस्थान् करिष्यति, यदि देवीवाक्यं न करिष्यथेति । ततः पीयूषमिव तद्वचनमभ्युपगम्य तथैव कृतं ताभ्यां, यक्षेण 'कं तारयामी' त्यादि भणितं । 'इदानीं वयमेवाशरणास्ततोऽस्मान् पालय तारयेति भणितं । यक्षः प्राइ-करोम्येतत्परं मम पृष्टौ समारूढान् दृष्ट्वा समुद्रे सा क्षुददेवता समागत्य परुषैः स्निग्धमधुरैश्च वाक्ययुष्मच्चित्तं हरिष्यति, तद्यदि चित्ते कथमप्पनुरागं करिष्यथ तदा निजपृष्टेबिधूनयित्वा क्षेप्यामि। अथ तदपेक्षा न करिष्यथ तदा श्रीभाजनं करिष्यामि । अथ तौ द्वावपि 'यथा यूयं भणथ तथा करिष्याम' इति भगतः। ततो यक्षः प्रवरतुरगरूपं कृत्वा निजपृष्टो द्वावप्यारोप्य चलितः समुद्रमध्ये। अत्रान्तरे सा क्षुद्रदेवता ज्ञानेन विज्ञाय तत्रैव समुद्रमध्ये समागता प्राह-रे रे दुष्टा ? ॥२७॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२४८॥ &४ मावनाविका देहादेरसारत निरूपणम्। FACROSAMACHAR मां त्यक्त्वा कथं शैलकेन समं गच्छथ । ततस्तस्याः स्नेहवचन दिनो जिनरक्षितः, तथा गृहीया नानोपायविंडम्बितो दुःखभागभवत्। जिनपालितः स्वगृहं प्राप्तो भोगान् भुक्त्वा श्रीवीरजिनान्तिके प्रवजितोऽतिसुखभागभूत् । एवं अन्योऽपि विषयवाहितो दुःखी स्यात् । अस्य चायमुपनयः- यथा रत्नद्वीपदेवी तथाऽविरतिः; यथा लोभार्थिनो वणिजस्तथा सुखकामा जीवाः यथा तीतेईष्टः शूलीपुरुषस्तथा संसारभीता धर्मकथां पश्यन्ति; यथा तेन दुःख कारणं देवी उक्ता, ततश्च शैलकपक्षानिस्तार उक्तस्तथा धर्मकथा भव्यानामविरतिस्वभावं वक्ति सकलदुःखकारणरूपं, शैलकपृष्टोपमं चरणं वाञ्छितदेशसुखहेतुः; यथा पुनस्तरणीयस्समुद्रस्तथा संसारः यथा स्वगृहगमन तथा निर्वाणमिति बन्धुयुग्मकथानकं समाप्तम् ॥ अथ देहासाग्तामाह आहारगंधमल्ला-इएहिं सुअलंकिओ सुपुट्ठो वि । देहो न सुई न थिरो, विहडइ सहसा कुमित्तोच ॥३९०॥ . . . . व्याख्या-भोजनगन्धपुष्पदामादिभिरलङ्कतः सुपुष्टोऽप्यभ्यङ्गादिभिर्देहो न शुचिर्नापि स्थिरः, किन्तु विघटते सहसा कुमित्रमिवेति गाथार्थः ॥३९॥ अथोपसंहरन् पुनर्मनुष्येषु सहेतुकं सुखामात्रमाहतम्हा दारिदजरा-परपरिभवरोगसोगतवियाणं। मणुयाण वि नत्थि सुहं, दविणपिवासाइनडियाणं ॥३९१॥ व्याख्या-तस्माद्दारिद्रयजरापरपरिभवरोगशोकतप्तानां द्रव्यतृष्णादिनटितानां मनुष्याणामपि सुखं नास्तीति गाथार्थः। ननु न सर्वोऽपि संसारः सुखरहितः, सुराणां रत्नमयप्रासादनिवासादिमहासुखस्य प्रतीतत्वात् , सत्यं, तत्वतस्तेष्वपि सुखाभाव एवेति दर्शयन्नुपसंहारमाह ॐॐॐॐॐॐRATE ॥२४८॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला घुवृत्तिः ॥२४९॥ | ४ मावनाद्वारे सवर्णीनामनन्द प्राप्तपूर्वत्वम् । व्याख्या-सत्यमिति परप्रतीतिमात्रेणाभ्युपगमे, सुराणां रत्नरचितभानेषु दिव्याभरणानि च विलेपनानि च वरकामिन्यश्च | नाटकानि च, तेषु रताना-मासक्तानामनुत्तरो विभवः-मुखं विद्यते, किन्तु मइमानमत्सरविषादेानलेन सन्तप्तास्तेऽपि देवास्तस्माद्देव लोकाच्युत्वा केचिदनन्तं भवं भ्रमन्ति, तस्मादुक्तयुक्त्या तत्त्वतः सुराणामपि न किञ्चित्सुखं । अथवा इमानि महाविभवादीनि | सुखानि भवभ्रमणनिवन्धनादिम्योऽवसानदारुणान्येवातः किमेतैः साध्यते ?, अनन्तशश्च प्राप्तपूर्वाण्येतानि, तत्कस्तेषु सुखामिमानः?, इति गाथात्रयार्थः॥३९२-९३-९४॥ एतदेवाहतं नत्थि किं पि ठाणं, लोए वालग्गकोडिमित्तं पि । जत्थ न जीवा बहुसो, सुहदुक्खपरंपरं पत्ता ॥३९५॥ _व्याख्या-'लोके चतुर्दशरज्ज्वात्मके वालाग्रकोटिमात्रमपि तत्स्थानं किमपि नास्ति, यत्र सर्वे जीवा बहुशो-ऽनेकवारान् सुखदुःखयोः परम्परां न प्राप्ता इति गाथार्थः ॥३९५॥ अर्थतत्समर्थनासारं द्वारस्योपसंहारमाह - सव्वा अवि रिद्धीओ. पत्ता सव्वे वि सयणसंबंधा। संसारे तो विरमस. तत्तो जड मणसि अप्पाणं ॥३९६॥ व्याख्या-सर्वा अपि ऋद्धयः सर्वेऽपि स्वजनसम्बन्धाश्च संसारे प्राप्ताः, परं ते न च स्थिराः, अतस्तेम्य ऋद्धिखजनसम्बन्धेभ्यो विरम[ख], यदि जानासि किमप्यात्मानं नित्यखरूपादिना तेभ्यो मित्रमिति गाथार्थः ॥३९६॥ इति निरवधिदुःखाश्लेषरोधकदक्षा, कृतशिवसुखपोषः प्रास्तनिःशेषदोषः । अवगतगुरुवाचां सद्विवेकाश्रितानां, भवतु भवविरागः प्राणिनां नित्य एवं ॥१॥ इति श्रीपुष्पमालाविवरणे भावनोबारे भवविरागलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥१२॥ SHRSS ॥२४॥ । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२५०॥ 346 अथ विनयद्वारं विमणिषुः पूर्वेण सह सम्बन्धगर्भा गाथामाह - इय भवविरतचित्तो, विसुद्धचरणाइगुणजुओ निच्चं । विणए रमेज्ज सच्चे, जेण गुणा निम्मला हुंति ॥ ३९७॥ व्याख्या - इत्थं भवविरक्तचिचो विशुद्धचरणादिगुणकलापेन युक्तो नित्यं सच्ये- मायाद्यदूषिते विनय एव रमेव, कुतः १ इत्याह-येन विनयेन हेतुभूतेन सर्वे गुणा निर्मला भवन्ति, विनयस्य सर्वगुणालङ्कारहेतुत्वादित्यर्थः । इति भवविरागद्वारानन्तरं विनयद्वारमुच्यत इति गाथार्थः ॥ ३९७ ॥ तत्र तावद्विनयशब्दस्यार्थमाह जम्हा विषय कम्मं, अट्ठविहं चाउरंतमोक्खाए। तम्हा उ वयंति विऊ, विणओ त्ति विलीण संसारा ॥ ३९८ ॥ व्याख्या - यस्माद्विनयति-स्फेटयत्यष्टप्रकारं कर्म्म, तस्माद्विलीनसंसाराः विदो -ज्ञानिनस्तीर्थ करगणधरा विनय इति वदन्ति, किमर्थं पुनरसौ कर्म विनयति ? इत्याह- चत्वारोऽन्ता नारकादिगतिलक्षणा यस्यासौ चतुरन्तः, चतुरन्त एव चातुरन्तः - संसारस्तस्य मोक्षो ऽपगमस्तदर्थमिति गाथार्थः || ३९८ || अथ विनयप्रकारानाहलोगोवयारविणओ, अत्थे कामे भयम्मि मुक्खे य। विणओ पंचवियप्पो, अहिगारो मुखविणणं ॥ ३९९ ॥ व्याख्या - लोकानामुपचारो - व्यवहारस्तत्र रूढो विनयो लोकोपचार विनयः, तद्यथा - तदुचितस्य कस्यचिद्दागच्छतोऽभ्युत्थानं आसनप्रदानं विज्ञापनादावञ्जलिबन्ध इत्यादि, तथा अर्थे ऽर्थविषये तत्प्राप्तिनिमित्तं विनयस्तद्यथा - अर्थलाभाकाङ्क्षया राजादीनां समीपेऽवस्थानं छन्दोऽनुवर्त्तनं अभ्युत्थानाञ्जलि बन्धासन प्रदानादि चेति । एतान्येव समीपस्थानादीनि कामिनां वेश्या ४ मावनामारे विनयशब्दार्थम ॥ २५० ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ मावनाद्वारे मोक्षविनयखरूपम् । द्याश्रित्य कुर्वतां कामविनयः । एतान्येव भृत्यादीनां खामिनो भयेन कुर्वतां भयविनयः। वक्ष्यमाणस्वास्तु मोक्षविनयः। एवं पञ्चप्रकारो पुष्पमाला विनयः। अत्र धर्मोपदेशानामेवाधिकृतत्वात् मोक्षविनयनवाधिकार इति गाथार्थः ॥३९९।। अथाधिकृतस्य मोशविनयस्यैव स्वरूपमाहलघुवृत्तिः है। दसणनाणचरित्ते, तवे य तह ओवयारिए वेव । मोक्खविणओ वि एसो, पंचविहो होइ नायब्वो॥४०॥ है ॥२५॥ व्याख्या-न केवलं विनयः सामान्येनैव पञ्चधा, तद्भेदरूपो मोक्षविनयोऽप्येष पञ्चविधो ज्ञातव्यो भवति । कथं ? इत्याहदर्शने ज्ञाने चारित्रे तपसि च विनयः, तथा औपचारिकश्चेति गाथार्थः ॥४.०॥ अथ दर्शनादिविनयस्वरूपं तावदाहदव्वाइसदहंतो, नाणेण कुणंतयस्स किच्चाई। चरणं तवं च सम्मं, कुणमाणे होइ तविणओ॥४०१॥ व्याख्या-द्रव्यक्षेत्रकालांस्तत्पर्यायांश्च समस्तान् समयोक्तनीत्या श्रद्दधतो दर्शनविनयः । ज्ञानमनुक्षणमेवाभ्यस्यतस्तदुक्तानुसारेणैव च सर्वाणि संयमकृत्यानि कुर्वतो बानविनयः। चरण-चारित्रं तपश्च सम्यग् जिनाज्ञया कुर्वतस्तद्विनयश्चाचारित्रविनयस्तपोविनय || श्रेति गाथार्थः ॥४०॥ अथौपचारिकमोक्षविनयस्वरूपं बिभणिपुराह13अह ओवयारिओ उण, दुविहो विणओ समासओहोइ । पडिस्वजोगजुंजण, तह य अणासायणाविणओ॥४०२॥ व्याख्या-अथ गुर्वाद्युपचारे भव औपचारिक पुनर्विनयः समासतः-सक्षेपतो द्विविधो भवति । प्रतिरूपा-उचिता योगामनोवारकावलक्षणास्तेषां योजनं-यथास्थानव्यापारणं प्रतिरूपयोगयोजनं, तथा अनाशातनाविनयश्चेति गाथासक्षेपार्थः॥४२॥ . विस्तरार्थ तु पत्रकार एवाह PRECACOCCA-NCHECK SAGES ॥२५॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ मावनाद्वारे कायिकविनय खाष्टविधत्वम्। पडिरूवो खलु विणओ, काइयजोगे य वायमाणसिओ। अचउबिहदुविहो, परूषणा तस्सिमा होइ ॥४०॥ पुष्पमाला है व्याख्या-'प्रतिरूपः' स्थानौचित्येन योगव्यापारलक्षणो विनयः खलु-निययेन, काययोगविषयो वाग्योगविषयो रुघुवृत्तिः मनोयोगविषयश्चेति तात्पर्यम् । तत्र काययोगोऽष्टविधा, वाग्योगपतुर्विधा, मनो योगो द्विविधः, इति यथाक्रम सम्बन्धः। तस्य | ॥२५॥ || चाराविधकायिकादिविनयस्य प्ररूपणा इय-मनन्तरवक्ष्यमाणरूपा भवतीति गाथार्थः॥४०७॥ तत्र कायिकस्याष्टविधत्वं तावदाहअब्भुट्ठाणं अंजलि, आसणदाणं अभिग्गहं किई य। सुस्सूसण अणुगच्छण, संसाहण कायअलविहो ।।४०४॥४ ___ व्याख्या-तदहस्य साध्वादेरभ्युत्थानं १, गुरुप्रश्नादावचलिबन्धः २, श्रुतवृद्धादीनां आसनप्रदानं ३, अभिग्रहो-गुर्वाद्यादेशकरणनिश्चयः साक्षात्तस्करणं च ४, कृतिकर्म-सूत्रार्थश्रवणादौ वन्दनकं ५, सुश्रूषणं-विविधदासमतया गुर्गदिसेवनं ६, अनुगमनं-आगच्छतोऽभिमुखयानं ७, संसाधनं तु-व्रजतो-गच्छतोऽनुवजनं ८, इत्यष्टविधः कायिको विनयः। लोकोपचारविनयस्यास्य च मेदो व्यवहारादिमात्रेणेत्यपरजनैः क्रियमाणत्वेन मोक्षाकाङ्क्षया मुमुक्षुभिः क्रियमाणत्वेन च दृष्टव्य इति गाथार्थः ॥४०४॥ अथ वाग्योगस्य चातुर्विध्यं मनोयोगस्य च द्वैविध्यमाहहियमियअफरुसवाई, अणुवीईभासि वाइओ विणओ। अकुसलमणो निरोहो, कुसलमणोदीरण चेव ॥४०५ व्याख्या-वाक्शब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् हितवाक्-परिणामसुन्दरवचनः १, मितवाक्-स्तोकाक्षरवचनः २, अपरुषवाक्अनिष्ठुरवचनः३, अनुविचिन्त्य भाषी-खालोचितवक्ता ४, इति वाचिको विनयः। अकुशलस्य आध्यानादियुक्तस्य मनसो निरोधः १, ---ॐॐॐ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + ४ भावनाधिकार प्रतिरूपविनयखरूपः। 37 कुशलस्य-धर्मध्यानादियुक्तस्य भनस उदीरणं-प्रवर्त्तनं २, इति द्विविधो मानसो विनय इति गम्यते, इति गाथार्थः ॥४०५॥ पुष्पमाला ननु किमात्मकोऽसौ प्रतिरूपविनयः ? कस्य चायं भवति ? इत्यत्राहलघुवृत्तिः पडिरूवो खलु विणओ, पराणुवित्तिमइओ मुणेयबो। अप्पडिरूबो विणओ, नायव्यो केवलीणं तु ॥४०६॥ १९५३॥ व्याख्या-प्रतिरूप-उचितः खलु विनयः परानुवृत्त्यात्मको ज्ञातव्यः, अप्रतिरूपो-ऽपरानुवृत्त्यात्मकः केवलिनामेव ज्ञातव्यः, एतेन च प्रतिरूपविनय छद्मस्थानां भवतीति गाथार्थः ॥४.६।। अथैतदुपसंहरन् अनाशातनाविनयं तु बिभणिषुराहएसो भे परिकहिओ, विणओ पडिरूवलक्षणो तिविहो । बावन्नविहिविहाणं, विंति अणासायणाविणयं ॥४०७॥ . व्याख्या-एपो-ऽनन्तरोक्तो भे-भवतां परिकथितः प्रतिरूपलक्षणो विनषत्रिविधः, अनाशातनाविनयं पुनदिपश्चाशद्विधिविधानं युवते तीर्थकद्गणधरा इति गाथार्थः ॥४०७ एतदेवाहतित्थयरसिद्धकुलगण-संघकिरियधम्मनाणनाणीणं । आयरियथेषज्झाय-गणीणं तेरस पयाणि ॥४०॥ व्याख्या-तीर्थकरसिद्धौ प्रतीतो, कुलं नागेन्द्रादिः, गणं कौटिकादिः, सङ्घः प्रसिद्धः, क्रियाऽस्तिवादरूपा, धर्मो यतिधर्मादिः, ज्ञानं मत्यादिः, ज्ञानिनस्तद्वन्तः, आचार्यः प्रतीतः, स्थविरः सीदतां स्थिरीकरणहेतुः, उपाध्यायः प्रसिद्धः, किंयतोऽपि साधुसमुदायस्याधिपतिर्गणी-गीतार्थः, इति तावत्त्रयोदश पदानीति गाथार्थः ॥४०८॥ ततः किम् ? इत्याहअणासायणा य भत्ती, बहूमाणो तह य वनसंजलणा। तित्थयराई तेरस, चउग्गुणा होति बावन्ना ॥४०९॥ ॥२५३॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ATE पुष्पमाला लघुवृत्तिः ४ मावनाधिकारे | अनन्यसमत्वं विनयख। - ॥२५४|| A व्याख्या-आशातना-जात्यादिहीलना, तदभावोऽनाशातना तीर्थकरादीनां सर्वदेव कर्त्तव्या, तथा भक्तिस्तेष्वेवोचितोपचाररूपा, बहुमानस्तेष्वेवान्तरङ्गभावप्रतिवन्धरूपः। वर्णसज्वलना-तेषामेव सद्भूतगुणोत्कीर्तनरूपा । अनेन प्रकारेण तीर्थकरादयस्त्रयोदश चतुर्गुणाः अनाशातनायुपाधिमेदेन द्विपञ्चाशद्भेदा भवन्ति, एतेषां चाष्टविधकर्मविनयाद्विनयत्वमिति गाथार्थः॥४.९॥ अथ सर्वगुणेषु विनयस्य प्राधान्यमाहअमयसमो नत्थि रसो, न तरू कप्पदुमेण परितुलो। विणयसमो नत्थि गुणो, न मणी चिंतामणिसरिच्छो॥४१०॥ व्याख्या-यथा किल रसेवमृतसमो रसो नास्ति, तरुषु कल्पद्रुमेण तुल्यस्तरुर्मणिषु चिन्तामणिसदृशो मणि स्ति, || तथा गुणेषु मध्ये विनयसमो गुणो नास्ति, विनय एव प्रधान इति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥४१०॥ केषां पुनरेष विनयो भवतीति सदृष्टान्तमाहचंदणतरूण गंधो, जुण्हा ससिणो सियत्तणं संखे । सह निम्मियाई विहिणा, विणओ य कुलप्पसूयाणं ॥४११॥ व्याख्या- यथा चन्दनतरूणां गन्धः, शशिनो ज्योत्स्ना, शहखे श्वेतत्वं, एतानि विधिना सह-उत्पत्तिसमयादप्यारभ्य निर्मितानि, तथा कुलप्रसूतानां विनयोऽपि जन्मना सहैव जायत इति गाथार्थः ॥४१॥ विनीतानां किमप्यसाध्यमेव नास्तीत्याह: होज्ज असझं मन्ने, मणिमंतोसहिसुराण वि जयम्मि। नत्थि असझं कजं, किंपि विणीयाण पुरिसाणं ॥४१२॥ व्याख्या-अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभावः, "मणसा देवाण"मित्यादिवचनान्मणिप्रभृतीनां किमयसाध्य RE- A x C Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NिAGAR दोहिमपारपिके प्त्यिमुखत्वं विनयख। नास्ति तथाप्यहमेवं मन्ये-भवेदसाध्यं किमपि कार्य जगति तेषामपि, परं विनीतानां पुरुषाणां नास्ति किंपप्यसाध्य कार्य, विनीतो पुष्पमाला I&| हि खर्गापवर्गावपि साधयति, न तु मणिमन्त्रादिरिति माथार्थः ॥४१॥ ऐहिक पारत्रिकं च विनय फलं सदृष्टान्तमाहलघुवृत्तिः । इह लोएचिय विणओ, कुणइ विणीयाण इच्छियं लच्छि। जह सीहरहाईणं, सुगइनिमित्तं च परलोए ॥४१३॥ ॥२५॥ _ व्याख्या-इहलोक एव तावद्विनयो विनीतानां ईप्सिता लक्ष्मीं करोति, यथा सिंहरथादीनां, परलोके पुनः सुगतिनिमित्तं । च भवतीति गाथार्थः ॥४१३॥ ____ कथानकं तूच्यते-सुगन्धपुरे पुण्डरीकनृपः, तस्य सुतः सिंहरथनामाऽपरगुणयुक्तोऽपि दुर्विनीतत्वाद्राज्ञोऽशेषजनस्य । चानिष्टोऽजनि, राज्ञा स परित्यक्तो दुःखी क्वापि पुरे भ्रमन् क्वाप्येकं तुरङ्गं सर्वप्रकारैरय॑मानं द्वितीयं कुट्यमानं दृष्ट्वा विस्मितः कुमारः कश्चनापृच्छत् , स नरः प्राह-भो ! असौ विनीतः, खखामिनो मनोऽभिप्रायेण चलति, अतः पूज्यते, अपरो दुर्विनीतस्तेन । कुट्यते । तदुनियफलं श्रुत्वा प्रबुद्धो विनयं तथा चकार यथा [तत्रत्य] नृपं जनांश्च रजयामास सः। तेन च राज्ञा सत्स्वपि बहुषु पुत्रेषु विनीतत्वात्तस्य स्वं राज्यमदायि। पित्रा पुण्डरीकनृपेणापि सुतं विनीतं जातं श्रुत्वा बहुमानपूर्वकमाकार्य सुगन्धपुरराज्यं तस्यादायि । नृपाभ्यां दीक्षा गृहीता। श्रीसिंहस्थो विनयाश्रयणात्प्राप्तप्रौढप्रतिष्ठ आश्रितसर्वगुणः क्रोण लब्धश्रीसंयमतान्राज्यः सर्वार्थसिद्धिमगमत् । महाविदेहेषु सेत्स्यति । इति ऐहलौकिकपारलौकिकसुखानां कारणं विनयः, इति सिंहरथराजकथा समाप्ता॥ अथोपसंहरनाहकिं बहुणा ? विणओचिय, अमूलमंतं जए वसीकरणं । इहलोयपारलोइय-सुहाण वंछियफलाण ॥४१४॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२५६॥ ४ मावनाधिकारे वैयावृत्यद्वार। RSSRA-SINHRS व्याख्या-किम्बहुना तात्पर्य मेवोच्यते-विनय एव अमूलमन्त्रं-मलिकामन्त्राभ्यां पृथग्भूतं, अपूर्वमेव किश्चिदित्यर्थः, जगति परमं वशीकरणं, केषां वशीकरणं? इत्याह-ऐहिकपारत्रिकमुखानां सौभाग्यारोग्यादिवर्गापवर्गादीनां। कथम्भूतानां ?, मनोवाञ्छिताना पुण्यस्य फलाना, सर्वसुखानां विधायी विनय एवेति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥४१४॥ इति सुकृतसुरद्रोमूलमानन्दकन्दः, सुरनरशिवलक्ष्मीकार्मणं कर्मभेदी । प्रतिदिनमनवद्यः पुण्यवद्भिर्विवेयो, विनय इह तदर्हे सर्वतः स्वेष्टसिद्धये ॥१॥ इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे विनयलक्ष्णं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥१३॥ अथ वैयावृत्त्यं विभणिषुः पूर्वेण [सह] सम्बन्धगर्भा गाथामाहविणयविसेसो य तहा, आयरियगिलाणसेहमाईणं। दसविहवेयावच्चं, करिज्ज समए जओ भणियं ॥४१५॥ व्याख्या-यथा विनयस्तथा आचार्यादिषु दशसु स्थाने[९] क्रियमाणत्वाद्दश विधं, व्यावृत्तस्य मावो वैयावृत्त्यं-भक्तपानौषधप्रदानादिरूपं, तदपि कुर्यास्त्वं, केषां? इत्याह-आचार्यग्लानशेक्षकादीना, उक्तं च"आयरियज्वज्झाए, थेरैतवस्तीगिलोणसेहीणं । साहम्मियकुलगणसंध-संगयं तमिह कायव्वं ॥१॥" कथम्भृतं ययावृत्यं ? इत्याह-विनयविशेष एव, समयप्रसिद्धेन केन केनचित्प्रकारेण वैयावृत्यमपि विनय एवेत्यर्थः, अनयैव च प्रत्यासत्या विनयद्वारानन्तरं वैयावृत्त्यद्वारमुक्तं, इत्यधिकृतद्वारस्य सम्बन्धः सूचितः। कुत इदं कर्तव्यं ? इत्याह-समयेसिद्धान्ते यतो भणितमिति गाथार्थः ॥४१५।। समयोक्तमेवाह ॥२५६॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृतिः ॥२५७ ॥ ! | भरहेखयविदेहे, पन्नरस वि कम्म भूमिगा साहू । इक्कम्मि [वि] पूइयम्मि, सव्वे [व] ते पूइया हुंति ॥४१६॥ व्याख्या - भरतैरवत विदेहेषु पञ्चदशखपि कर्मभूमिषु गच्छन्ति तिष्ठन्तीति पञ्चदशकर्मभूमिगा, ये केचन साधवस्ते सर्वेऽपि पूजिता भवन्ति, कव सति ?, एकस्मिन्नपि साधौ पूजिते सति यतः समयवचनं । ततो बृहल्लाभसम्भवाद्भक्तपानादिना साधूनां वैयावृत्त्यं कर्त्तव्यमिति भाव, इति गाथार्थः ॥ ४१६ ॥ व्यतिरेकमित्याह एक्कम्मि हीलियम्मि वि, सवे ते हीलिया मुणेयव्वा । नाणाईण गुणाणं, सव्वत्य वि तुलभावाओ ||४१७|| व्याख्या - (न) केवलमेकस्मिन् पूजिते सर्वे पूजिता भवन्त्यपित्वे कस्मिन् जात्यादिना डीलितेऽप्य-पमानितेऽपि सर्वेऽपि ते साधवो हीलिता ज्ञातव्याः । कथमेतदित्याशङ्क्योपपत्तिमाद - ज्ञानादिगुणानां सर्वत्र तुल्यत्वात् पुरुष एवं किल भिन्ना', ज्ञानादिगुणास्तु सर्वत्र त एत्र, पूजाऽपि च ज्ञानादिगुणानामेव, न तु पुरुषमात्रस्येत्ये कस्मिन्साधौ पूजिते सर्वेऽपि तद्वन्तः पूजिता एव, एवं ज्ञानादिगुणवतां हीलनमपीति भाव, इति गाथार्थः ॥ ४१७ || प्रकृतमुपसंहरन्नाह हा सगुण, साहूणं भत्तपाणमाईहिं । कुज्जा वेयावच्चं धणयसुओ रायतणउव्व ॥ ४१८॥ व्याख्या - तस्माद्यद्येष गुण एकस्मिन् पूजिते समस्तपूजा सिद्धिलक्षणस्तदा साधूनां भक्तनादिभिः कुर्यास्त्वं वैयावृत्यं । अयम्भावः–पञ्चदशस्खपि कर्मभूमिषु जघन्यपदेऽपि कोटिसहस्रपृथक्त्वं चारित्रिणां सर्वदैव प्राप्यते, उक्तं च प्रज्ञप्त्यां- "सामाइयसंजयाणं भंते ! एगसमएणं केवइया होज्जा १, गोयमा ! पडिवजमाणए पहुच सिप अत्थि सिय नत्थि; जइ अस्थि, जहन्त्रेणं एको वा ४ भावनाधिकारे वैयावृत्य महत्व ॥२५७॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२५८॥ दो वा तिभि वा " एवं सर्वत्र प्रश्नालापः प्रतिपद्यमानकान् प्रतीत्य जघन्यपदोत्तरालापश्च द्रष्टव्यः । "उकोसेणं सहस्सपुहुत्तं, पुन्चपडिनए पटुच्च जनेणं कोडि सहस्सपुत्तं उकोसेण वि कोडिसदस्मपुडुतं, छेओवट्टावणियसंजया० गोयमा ! पडिवजमाणए पडुच्च सिय अथ सिय नत्थि, जइ अस्थि, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्निवा, उक्कोसेणं सयहुतं, पुव्त्रपडिवन्नए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि, जइ अत्थि, जहन्नेणं कोडिसय पुहुत्तं उक्कोसेण वि कोडिसय पुहुत्तं" इहोत्कृष्टं छेदोपस्थापनीयसंयतपरिमाणं आदितीर्थकरतीर्थान्याश्रित्य सम्भवति, जघन्यं तु तत्सम्यग् नावगम्यते । दुष्पमान्ते भरतादिषु दशसु क्षेत्रेषु प्रत्येकं तद्वयस्य भावाद्विंशतिरेव तेषां श्रूयते । केचित्पुनराहुः - इदमप्यादितीर्थकराणां यस्तीर्थकालस्तदपेक्षयैव समवसेयम्, कोटिशतपृथक्त्वं च जघन्य-भल्पतरं, उत्कृष्टं च बहुतरमि " ति 'भगवतिवृत्तौ ' [९१८ पत्रे ] “परिहारविसुद्धियसंजया० गोयमा ! पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अत्थि सियन त्थि, जइ अस्थि, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्निवा, उक्कोसेणं सयपुहुत्तं, पुव्वपडिवन्नए पडुच्च सिय अत्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्निवा, उक्को सेणं सहस्त्रपुहृत्तं ३ । हुमसंमराय संजया वि पडिवज्जमाणए पडुच्च सिय अस्थि सिय नत्थि, ज‍ अस्थि, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्निवा, उक्कोसेणं बावट्ठिसय, अट्ठोत्तरसयं खवगाणं, चउप्पन्नं उवसामगाणं पुण्वपडियन्नर पहुच्च सिप अत्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेण सयपुहुत्तं ४ । अहक्खायसंजयाणं पुच्छा, गोयमा ! डिज्माणए पहुच सय अस्थि सिय नत्थि, जइ अस्थि, जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा, उकोसेणं बावट्टतयं, अद्भुत्तरस खवगाणं चउप्पन्नं उवसामगाणं, जहा सुहुम संपरायसंजयाः पुव्यपडिवन्नए पडुच्च जहन्नेणं कोडिनुहुत्तं उक्कोसेण वि कोडिपुहुत्तं ५।" इत्येकस्मिन्नपि साधौ पूजिते वर्त्तमानकालापेक्षयाऽपि निवितं कोटिसहस्रपृथक्त्वं पूजितं भवतीति, अनागतकालापेक्षया त्वनन्ता ४ भावनाधिकारे सर्वसाधून वैयावृत्य करणम् । | ॥ २५८ ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAM पुष्पमाला लघुवृत्तिः ११५९॥ | अपि साधनः पूजिताः स्युः। तदेतावतीं गुणसिद्धिमालोच्य सदैव वैयावृत्त्यं कुर्यास्त्वं । क इव ? इत्याह-राजपुत्र इव, कस्य || भावनाधियो सत्कोऽसावित्याह-धनदराजसुत, इति गाथार्थः ॥४१॥ वैयावृत्त्योपरि कथानकं त्वेवम्-कुसुमपुरे धनदनृपः, पद्मावतीदेवी, तयोः पुत्रो भुवनतिलकनामा विद्यापारङ्गतो रूपसौभाग्यादिकलितो धनदनसतो विश्वविख्यातो रत्नपुरवामिनोऽमरचन्द्रनृपस्य यशोमती सुतां कुमारगुणश्रवणमोहितां परिणेतुं गच्छन् ससैन्यो यावत्प्राप्तः सिद्धपुरं दाहरणम्। तावदकस्माद्रोगग्रस्तः, कण्ठीरवामिधसामन्तादिभिः क्रियमाणविविधोपचारोऽपि न सज्जोऽभूत् । इतश्च तदैव दैवयोगाद्रत्नभानुकेवली तत्र समासात , सामन्ताद्यैर्गत्वा केवली तद्रोगकारणं पृष्टः प्राह-धातकीखण्डभरते भवनाकरपुरे एकस्मिन् गच्छे वासग्नामा साधुः सुकुलभवोऽपि क्रियाप्रमादी, साधुभिः शिष्यमाणो रुष्टो गच्छप्रतिकूलो यतिमारणार्थ नीरे तालपुटं विषं चिक्षेप । कयाचित्साधुभक्तदेवतया विषमपनिन्ये, स च निर्भसितोरण्येऽगात् । मार्गे दवदग्धः सप्तमं नरकं जगाम, तत उद्धृत्य मत्स्येषु, पुनर्नरकेपु, पुनस्तिर्यक्षु, पुनर्नरके, एवं सप्तसु नरकेषु भ्रान्त्वा ततः क्वापि कृतपुण्यो भुवनतिलककुमारो जातः, ऋषिघातपरिणामेन यत्तदा कर्मोपार्जितं तच्छेष एतस्येदानीमुदयप्राप्तस्तेनायं रोगसमुदायोऽस्य । इदानीमेव कालादिवशेन क्षीणतत्कर्मा सोऽत्रागमिष्यति, तावदायातः कुमारः, प्रणतः केवली, पूर्वभवादिव्यतिकरं केवलिपार्श्वे श्रुत्वा जातजातिस्मरणः तत्क्षामयित्वा वैराग्यात्पाबाजीत् । प्राकर्मफलविपाकं स्मारं स्मारं साधुभक्तिपरो दशविधवैयावृत्त्यं कुर्वन् सुरैर्बहुधा वैयावृत्ये परीक्षितोऽपि नाचलत् । द्वासप्ततिपूर्वलक्षाणि वैयावृत्त्यं कृत्वा अशीतिपूर्वलक्षाणि सर्वायुः परिपाल्य शुभभावनागतः केवलबानमुत्पाद्य मोक्षमगात्, इति वैयावृत्त्ये धनद्वपसुतकथा समाप्ता ॥ ॥३५९॥ अथानन्यसाधारणतन्माहात्म्यगर्भ वैयावृयकरणोपदेशमाह ॐॐॐॐॐॐ SSSS Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृतिः ॥२६०॥ वेयावचं निययं, करेह उत्तमगुणे घरंताणं । सव्वं किर पडिवाई, वेयावच्च अपडिवाई ॥४१९ ॥ व्याख्या - वैयावृत्थं नियतं निश्चितं कुरुत यूपं, केपां ? इत्यापाद - उत्तनान् ज्ञानदर्शनचारित्रगुणान् ये धरन्ति तेषां यतः कारणात्, किठे या तो रहेगें, सर्व चारित्रश्रुतादिकं प्रविरतनशीलं वैयावृत्थं पुनरप्रतिपाति- अविनाशीति गाथार्थः ॥ ४१९ ॥ एतदेव भावयति पडिभग्गस्स मयस्स व, नासइ चरणं सुयं अगुगणाए । न हु वेथावच कथं, सुहोदयं नासए कम्मं ॥४२०॥ व्याख्या - प्रतिभग्नस्य - उत्प्रवजितस्य सतो मृतस्य अविरतत्वमापन्नस्य नश्यति तावचरणं, 'वा' पुनरर्थे श्रुतं पुनरगुणनयाअपरावर्त्तनया नश्यति, अतस्सर्वमपीदं प्रतिपाति, न तु वैयावृत्योऽपि, तुल्यमेवैतदिति चेच्चरणश्रुतशब्देनात्र तजनितं शुभ कर्मोच्यते, ततश्चरणश्रुतगुणेनोपार्जितं यच्छुभं कर्म तत्यतिभग्नाद्यवस्थायामविरतस्य विस्मृतसूत्रस्य च सतः किंश्चित्प्रदेशोदयेनैववेद्यमानं स्वकीयविपाकमदत्वा एवमेव नश्यति वैयावृच्ये तु नैवमित्याह - 'न हु' नैव वैयावृत्येन हेतुभूतेन क्रतं शुभ उदयो-विपाको यस्य तच्छुभोदयं - शुभविपाकं कर्म तीर्थकर नामोच्चे गोत्रादिकं प्रदेशोदय मात्रेणैव वेद्यमानं स्वविपाकमदत्वा एवमेव न खल्वपगच्छति, हेतोः प्रबलसामर्थ्येन प्रतिभग्नाद्यवस्थायामपि खविपाकेनैव तत्प्रायो वेद्यते, नान्यथेति भावः । इति वैयावृत्यमप्रतिपातीति बुद्ध्यामहे, तवं पुनः केवलिनो विदन्तीति गाथार्थः ४२०|| ननु यद्येतावान्गुणो वैयावृत्यस्य तर्हि गृहस्थादीनामपि तत्कुर्म इत्याहगिहिणो वेयावडिए, साहूणं वन्निया बहु दोसा । जह साहुणी सुभद्दाए, तेग विसए तयं कुज्जा ॥४२१ ॥ ४ मावनाधिकारे वैयावृत्यस्याप्रतिपातिगुणत्वम् । ॥ २६०॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लघुवृत्तिः व्याख्या-साधूनां गृहिणो वैयावृत्ये-गृहस्थस्य वैयावृत्त्यं कुर्वतां आगमे बहवो दोषा वर्णिताः, यथा साधीसुभद्रायाः, 31 पुष्पमाला || तेन कारणेन विषये-यथाऽर्हमेव तकं-चयावृत्यं कुर्यान्न यथेष्टं । ४ मावनाविकार का पुनरसौ सुभद्रा ? इन्युच्यते-वाराणस्यां भद्रबाहुः सार्थवाहः, तस्य सुभद्रा भार्या, परं निरपत्या, तदुःखेन साध्वीपार्श्व १२६१॥ प्रात्राजीत , महातपः करोति, परं तत्रोपाश्रये समागतश्राविकाणां डिम्भान् भालयति उत्पाटयेति उत्सङ्गे लाति, साध्वीमिर्वारिताऽपि दोषे सुभद्रा तत्कृत्यानोपरमते, ततः पृथगुपाश्रयस्था निरङ्कशा सविशेष डिम्मोहनिरता कालं गमयति। तदनालोच्य प्रान्तेऽष्टमासान् यावदनशनं साध्वीकथा। कृत्वा मृता सौधर्मकल्पे देवी जाता। अन्यदा कृतानेकडिम्भरूपैः परिवृता श्रीवीरवन्दनार्थमागता, डिम्भरूपैर्नृत्यन्ती साधुसाध्वीजनान् है व्यस्मापयत् । श्रीगौतमेन पृष्टो भगवान् वीरः-कैषा? प्रभो!, प्रभुराह-हे गौतम! प्राग्भवे [सु]भट्टैषा सुचारित्रिणी, धात्रीकर्म नाकरिष्यत्तदा केवलज्ञानमवाप्य सिद्धिसौख्यभागभविष्यत् , प्रभुणा तस्याः प्राग्भवे प्रोक्ते बहुभिः साधुसाध्वीभिरनर्थफलं गृहस्थवैयावृत्त्यं प्रत्याख्यातम् । ततो गौतमपृष्टः प्रभुस्तस्या आगामि भव] स्वरूप प्राह-एषात्र चत्वारि पल्योपमान्यायुः परिपाल्यात्रैव भरते विन्ध्यगिरिमूले वेमेलसन्निवेशे सोमानाम्नी द्विजपुत्री भविष्यति, राष्ट्रकूट विप्रस्तां परिणेष्यति, तस्या सप्तवर्षान्तेऽपत्ययुगलं भविष्यति, एवं द्वितीयेऽपि वर्षे, एवं षोडशमिर्वात्रिंशत्सुतान् जनिष्यति, तैरुच्चाटिता कथमपि पतिमनुज्ञाप्य दीक्षा ग्रहीष्यति, एकादशाङ्गान्यधीत्य विविधं तपः कृत्वा संलेखनापूर्व मासमनशनं कृत्वा सौधर्मशक्रस्य सामानिकदेवत्वं प्राप्य महाविदेहेषु सेत्स्यति । "इय सोउं जिणवयणं, वेयावच्चं करेज समयम्मि। विसएच्चिय विहियाओ, किरियाओ हवंति सहलाओ॥१॥" इति सुभद्रासाध्वीकथा समाप्ता। ॥२६॥ ननु वैयावृत्यकरणोद्यतेन केनचिद्भक्तपानाद्यानयनेन निमन्त्रितोऽपि साधुर्यदि तनिमन्त्रणां नेच्छेत्ततः किम् ? इत्याह ॐॐॐ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुवृत्तिा A + इच्छेज्जनइच्छेज्जव, तह विहु पयओनिमंतए साहू। परिणामविसुद्धीए, उ निज्जरा होइ अगहिए वि ॥४२२॥ ४ पुष्पमाला | व्याख्या-निमलयमाणः साधुस्तां निमन्त्रणामिच्छेन्नेच्छेदा तथापि वैयावृत्त्यकर्ता साधुः प्रयतः-सादरस्तं साधुं निमन्त्र- ४ मावनाविकार येद्भक्तपानाद्यानयनेन । ननु यदि कथमप्यसौ तन गृण्हीयाचदा निष्फल एवायं प्रयासः इत्याह-करोम्यहमस्य वैयावृत्यमित्येवंरूपया ४ परिणामविशुद्ध्या त्वगृहीतेऽपि तेनाहारादिके वैयावृत्त्यकर्तुः कर्मनिर्जरा भवत्येव, मुख्यतया भावशुद्धेरेव कर्मनिर्जराहेतुत्वादिति गाथार्थः। स्वाध्यायख। इति सकलयतीनां भक्तपानप्रदान-प्रभृति कुरुत वैयावृत्त्यमेकाग्रभक्त्या। भवति जगति यस्मान्निश्चलः पुण्यलाभः, परमपदसुखानि स्युस्ततो हस्तगानि ॥१॥ इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे वैयावृत्त्यलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥१४॥ अथ खाध्यायरतिद्वारं विभणिषुः पूर्वेण सम्बन्धगर्मा गाथामाहवेयावच्चे अब्भु-ज्जएण तो वायणाइपंचविहो। विचम्मि उ सज्झाओ, कायब्बो परमपयहेऊ ॥४२३॥ ___व्याख्या-वैयावृत्येऽभ्युद्यतेनापि साधुना "विचम्मि"त्ति अन्तराऽन्तरा वाचना-पृच्छना-परिवर्तना-अनुप्रेक्षाधर्मकथारूपः पञ्चविधः खाध्यायः कर्तव्यः, इति वैयावृत्यद्वारानन्तरं खाध्यायद्वारमिति भावः। यतः, कथम्भूतोऽसावित्याहपरमपदहेतुरिति गाथार्थः ॥४२३॥ वैयावृत्त्यादिभ्योऽपि खाध्याय एव परमं मोक्षाङ्गमित्याह P॥२६॥ एत्तो सम्वन्नुत्तं, तित्थयरत्तं च जायइ कमेण । इय परमं मुक्खंगं, सज्झाओ तेण विन्नेओ ॥४२४॥ कर SHRE Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न व्याख्या-इतः-खाध्यायात्सर्वचत्वं तीर्थकरत्वं च क्रमेण जायते, इति परमं मोक्षाङ्गं स्वाध्यायः, तेन कारणेन विज्ञेयः | पुष्पमाला कर्तव्यतयेति शेष इति गाथार्थः ॥४२४॥ किश्च ४ मावनाविकार लघुवृत्तिः द तं नत्थि जं न पासइ, सज्झायविऊ पयत्थपरमत्थं । गच्छइ य सुगइमूलं, खणे खणे परमसंवेगं ॥४२५॥ कर्मक्षयानन्य३१६३॥ कारणत्वं .. व्याख्या-तन्त्रास्त्येव यत्पदार्थपरमार्थ स्वाध्यायविन्न पश्यति, यत्किञ्चिदस्ति तत्सर्व पश्यतीत्यर्थः। गच्छति च क्षणे स्वाध्यायस्ख। Bा क्षणे सुगतिमूलं परमसंवेगमिति गाथार्थः ॥४२५॥ ननु स्वाध्याय इवान्यस्मिन्नपि प्रत्युपेक्षणादौ योगे असङ्ख्येयमविकं कर्म क्षपयत्येव, तत्कोत्र विशेषः ? इत्याह* कम्मं संखिज्जभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नयरम्मि वि जोगे, सज्झायम्मि विसेसेण ॥४२६॥ * _ व्याख्या-प्रत्युपेक्षणा-प्रभार्जना-मिक्षाचर्या-वैयावृत्यादियोगानां मध्येऽन्यतरस्मिन्नपि योगे-संयमव्यापारे आयुक्त:" आदरेण प्रवृत्तः साधुः प्रतिसमयमसङ्ख्येयभवस्थितिकं कर्म क्षपयति, परं खाध्याये वर्तमानस्तदपि विशेषेण-स्थितिरसाभ्यां विशेषतरं क्षपयति। यथा खाध्याये कर्मचयः सम्पद्यते न तथा प्रायः प्रत्युपेक्षणादाविति स्वध्यायस्य गरीयस्त्वमिति भावः, उत्कर्षतोऽपि सप्ततिसागरोपमकोटाकोटिपरतः कर्म[स्थि]तेरभावादनन्तभवापरिपूरसख्येयमवस्थितिकं कर्म क्षपयतीत्युक्तं, नानन्तमविकमिति गाथार्थः ॥४२६॥ अथ किं परिमाणः खाध्यायो भवतीत्यत्राह ॥२६३॥ ___ उक्कोसो सज्झाओ, चउदसपुवीण वारसंगाई। तत्तो परिहाणीए, जावं तयत्यो नमोक्कारो ॥४२७॥ ।' ॐॐॐॐ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला सधुवृत्तिः SHARE ४ मावनाविकार उत्कृष्टेतरी खाध्यायौ। ॥२६ ॥ व्याख्या-उत्कृष्टः स्वाध्यायश्चतुर्दशपूर्विणों द्वादशाङ्गानि, चतुर्दशपूर्वधरा हि महाप्राणध्यानादिसामर्थ्यतोऽन्तर्मुहूर्चादिना कालेन चतुर्दशापि पूर्वाणि परावर्त्तयन्ति, दशपूर्वधराणां तु दशपूर्वाणि स्वाध्यायो, नापूर्विणां तु नः। एवं परिहाण्या तावज्झेयं यावद्यस्थापरं किमपि नागच्छति तस्य पञ्चपरमेष्ठिलक्षणो नमस्कारः खाध्यायः। कथम्भूतोऽयमित्याह-तदों-द्वादशाङ्गार्थ इति गाथार्थः ॥४२७॥ ननु कथमयं नमस्कारो द्वादशाङ्गार्थः इत्याहजलणाइभए सेसं, मोन्तु एक्कं पि जह महारयणं । पेप्पइ संगामे वा, अमोहसत्यं जह तहेह ॥४२८॥ मोत्तं पि वारसंगं, स एव मरणम्मि कीरए जम्हा । अरहंतनमोक्कारो, तम्हा सो बारसंगत्थो ॥४२९॥ व्याख्या-ज्वलनादिभये समुपस्थिते शेपं-वोढुमशक्यं कर्पासादिकं मुक्त्वा एकमपि यथा महारत्नं गृह्यते, सङ्ग्रामे वा शेष लकुटादिकं मुक्त्वा यथैकमप्यमोघं-रिपुवधे अस्खलितं बाणशक्त्यादिकं शस्त्रं गृह्यते, तहापि मरणे समुपस्थिते तस्यामवस्थायां स्मर्तुमशक्यं मुक्त्वाऽपि द्वादशाङ्गं स एवाईदादिनमस्कारो यस्माक्रियते, तस्माद्दादशाङ्गस्थाने क्रियमाणत्वादन्यथाऽनुपपत्तरसौ द्वादशाङ्गार्थः। अयम्भावः-ज्ञानदर्शनचारित्राण्येव हि द्वादशाङ्गार्थः, तानि च पञ्चखहंदादिष्वेव स्युर्नान्यत्र, नमस्कारे चार्हदादय एवाभिया, अतो द्वादशाङ्गस्मरणोचितेष्वपि तेषु तेषु मरणादिस्थानेषु सुखानुस्मरणीयत्वादिकारणदयं स्मरणीयत्वेनोपदिष्टस्ततो युक्तैवास्य द्वादशाङ्गार्थतेति गाथाद्वयार्थः ॥४२८-२९॥ एतदेवावश्यकभाष्योक्तयुक्त्या दर्शयन्नाहसव्वं पि बारसंगं, परिणामविसुद्धिहेउमित्तागं। तक्कारणमेत्ताओ, किह न तयत्थो नमुक्कारो ? ॥४३०॥ अखॐॐॐॐॐ S HSHARE ॥२६४॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला घुवृत्तिः ॥५६॥ ४ मावनाविपर नमस्कारमन्त माहात्म्यम्। FASNASE व्याख्या-सर्वमपि द्वादशाङ्गं तावत्परिणामविशुद्धिहेतुमात्रकमेव, ततस्तत्कारणमात्रत्वात्पञ्चपरमेष्ठिद्वारेण परिणामविशुद्धिPा कारणमात्रत्वात्कथं न तदर्थों-द्वादशाङ्गाथों ममस्कारः?, अपितु तदर्थ एवेति माथार्थः ॥४३०॥ अथ मरणाद्यवस्थायामपि अस्यैव स्मरणीयत्वे कारणमाहन हु तम्मि देसकाले, सक्को बारसविहो सुयक्खंधो। सव्वो अणुचिंतेउ, धंतंपि समत्थचित्तेण ॥४३१॥ व्याख्या-न हु-नैव तस्मिन् देशकाले-मरणादिप्रदेशकाले द्वादशविधोऽपि श्रुतस्कन्धोऽनुचिन्तयितुं शक्यः। केन ? इत्याह-'धन्तं' अत्यर्थ समर्थचित्तेनापि, ततो द्वादशाङ्गसाध्यसाधकत्वात् सुखस्मरणीयत्वाच्च तदवस्थायामेष एव स्मरणीय इति गाथार्थः ॥४३॥ अथ नमस्कारस्यैत्र माहात्म्यमाहनामाइमंगलाणं, पढम चिय मंगलं नमोक्कारों। अवणेइ वाहितक्कर-जलणाइभयाइं सब्वाइं ॥४३२॥ हरइ दुहं कुणइ सुहं, जणइ जसं सोसए भवसमुदं । इहलोअपारलोइअ-सुहाण मूलं नमुक्कारो ॥४३३॥ व्याख्या-नामस्थापनाद्रव्यभावमङ्गलानां मध्ये प्रथम-प्रधान मङ्गलं नमस्कार एव, यतः कथम्भूतोऽसौ ? इत्याहअपनयति व्याधितस्करज्वलनादिभयानि सर्वाणि, तथा दुःखं हरति, सुखं करोति, यशो जनयति, भवसमुद्रं शोषयति, किम्बहुना! ऐहलौकिकपारलौकिक सुखाना मूलं नमस्कार इति गाथाद्वयार्थः ॥४३२-३३॥ अथैहिकेषु पारत्रिकेषु च नमस्कारगुणेषु दृष्टान्तानाहइहलोयम्मि तिदंडी, सादिव्वं माउलिंगषणमेव । परलोए चंडपिंगल-हुंडियजक्खो य दिळंता ॥४३४॥ SAR ॥२६॥ ॐॐ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ा प्रमावे शिवकुमारकया। व्याख्या-ऐइलौकिके नमस्कारमाहात्म्ये त्रिदण्ड्युदाहरणं, तथाहि-जिनदाससुतः शिवकुमार उत्तमोऽपि द्युतव्यसनी, पित्रा गुरुपार्श्वे नीतोऽपि धर्म न प्रतिपद्यते, अन्यदा पित्रोक्तं-वत्स! अमुं मन्त्रं महाप्रभावं महाभयापहारप्रवणं गृहाण, स्मरणमात्रापुष्पमाला लधुवृत्तिः स्कार्यसिद्धिः स्यात् । ततो लोमातेन पित्सकाशाद्गृहीतः पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारः। क्रमेण पितयुपरतेऽप्यस्य तथैव व्यसनरसिकस्य ॥२६६॥ द्रविणं न पूर्यते। ततस्तेनैकत्रिदण्डी धनार्थमभ्यर्थितः प्राह-दास्येऽक्षयं धनं यदि परमक्षतमृतकमानेष्यसि, ततो लुब्धेन शिवेन वृक्षशाखोल्लम्बितचौरमृतकं तस्योपनीतं । सोऽप्युपश्मशानं खगकर मृतकं तदंतिसंवाहकं च तं संस्थाप्य मण्डले स्थितः स्वविद्या स्मरति, भीतः शिवस्तु नमस्कार, पूर्णे जापे खङ्ग गृहीत्वोत्थिवतं मृतातो) नमस्कारप्रभावाच्छिवस्थाप्रभ(को)तथैवापतत् । ततः पुनरपि सविशेषं त्रिण्डी स्वविद्यां शिवोऽपि नमस्कारं जपति, पूर्णे जापे पुनरुत्थाय तथैवापतत् , ततः शङ्कितः स शिवं पप्रच्छ-किं त्वमपि वत्स! वेत्सि काश्चिद्विद्या ?, स प्राह-यदि त्वं तुष्यसि, ततः पुनखिदण्डी साक्षेपं तां स्मरति, पूर्णे जापे शिवायाप्रभवन्नुत्थितमृतकावतीणों वेताल सङ्गेन त्रिदण्डीनं द्विधा विधाय श्मशानेऽक्षेप्सीत, सद्यश्च हेममयं जातं । तं पुरुषं हर्षाद्गृहीत्वा गृहमगाच्छिवः। ततः प्रभृति तत्प्रभावाज्जातोऽयं महेभ्यः, तदेवं नमस्कारप्रभावं साक्षादुपलभ्य जिनधर्माराधनोधतमतिः शिवकुमारः सम्यक्त्वव्रतामिग्रह४ प्रतिपालनपरस्तीर्थयात्रोद्धारादिभिः शासनं भासयामाम, इतीहलोककले त्रिदण्ड्युपलक्षितः शिवकुमारदृष्टान्तः समाप्तः।। 'सादिव्वं' ति नमस्कारप्रमावतो देवतासानिध्यमपि जायत इति भावस्तद्यथा | श्राद्धसुता श्रीमती परमश्राविका मिथ्याहपरिणीता, तया विनयगुणेनावर्जितः श्वसुरवर्गः, प्रियेण वारिताऽपि जैनधर्मममुक्तवती, अन्यदा तस्यां विरक्तो भत्तोऽन्यां परिणेमुमिच्छति, परं न कोऽपि गुणवत्या माया उपरि स्वकन्यां प्रयच्छति, ततः 8 ॥२६६॥ % ACa Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला Pस निणः श्रीमतीमारणाय कुतोऽपि कृष्णसर्पमानीय घटे चिक्षेप। ततस्तां प्रदोषसमये समादिशतिस्म-प्रिये ! घटस्थां कुसुममाला IPY मावनाविधी ४ समर्पयेति कथनानन्तरमेवान्धकारस्थापितं घटं दृष्ट्वा तया नमस्कारमणनपूर्व करे क्षिप्ते सन्निहितदेवतया सर्पमपहत्य संस्थापिता | SIनमा घुवृतिः कुसुममाला, तामादाय मत्तुदत्ते सा, सोऽप्यतिविस्मितश्चिन्तयति-अहो!! किमेतत् ?, गत्वा यावद् घटं विलोकयति तावत्पुष्पाणि बीजपूरवनोदा अ५६७! | पश्यति, न पुनर्भुजङ्गं, ततो भार्यागुणहृष्टस्तन्माहात्म्यं च विचार्य मीतस्तां क्षामयित्वा दृष्टनमस्कारफलो जिनधर्म प्रतिपद्य श्रीमती || हरणम् । सर्वगृहस्वामिनी कृतवान्। ततो विपुलान् भोगान् भुक्त्वा बहुदिनप्रान्ते द्वावपि वैराग्यादीक्षां प्रतिपद्य सम्यक् प्रतिपाल्य ब्रह्मलोकगती, महाविदेहे सेत्स्यतः। "एवं च नमुक्कारो, जीवियरक्ख च कामलाभं च । इहलोयम्मि वि साहइ, जीवाणं | भत्तिजुत्ताण ॥१॥" इति श्रीमतीकथा समाप्ता । मातुलिङ्गवनं-बीजपूरवनं, तदुदाहरणम् , तथाहि-एकस्मिन्नगरे नदीतीरे एकेन खरकार्मिकेणैकं महाप्रमाणं सुगन्धिवर्णाढ्यं बीजपूरं पतितं प्राप्यात्यद्भुतं ज्ञात्वा राबस्समर्पितं । पृष्टश्च राजा क्व लब्धं ?, तेनाप्युक्तं-नदीप्रवाहे, ततस्तुष्टिदानं दत्वा विसृष्टस्सः। | राज्ञा तस्मिन्नपूर्वे भुक्ते स्वपुरुषैनदीतीरं शोधितं, यावदेकत्रापूर्व वनं दृष्टं श्रुतं च-यः कुतोऽप्यमूनि फलानि गृहाति स म्रियते, ततस्तैः प्रत्यागत्योक्तं नृपतेस्तत् । तथाप्यनिवृत्तामिलापो राजा नगरलोकनामगर्भगोलकान् घटे प्रक्षिप्य प्रतिदिनमेकगोलकाकर्षणे तन्नाम्ना पुंसा वीजपूरमानाययति, सोऽप्यनात्मवशस्तत्र बने प्रविश्य बीजपूरं त्रोटयित्वा बहिः क्षिपति, अन्यस्तद्गृहीत्वा नृपतेर्ददाति, इतरस्तत्रेव म्रियते । एवं बहुभिदिनैरेकस्य श्रावकस्य वारकः प्राप्तः गतश्च स तत्र, श्रीजिनप्रणिधान विधाय नमस्कारं भणित्वा नषेधिकीं ४॥२६७७ |च कृत्वा यापदने प्रविशति तावत्तत्रस्थो व्यन्तरो नमस्काराद्याकर्णनात्प्रतिबुद्धः श्रावकं प्रत्याह-भो महानुभाव! साधुकृतं त्वया, ॐॐॐॐॐॐ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२६८॥ यदहं भवादुघृतो नमस्कारस्मारणेन, तद्भण यत्तव प्रियं करोमि, श्राद्धेनोक्तं-किंमन्येन मे ? तथा त्वं कुरु यथा न म्रियते नंगरनरः, ततस्तुष्टः सुरः प्राह तत्रैव स्थितस्य तवोच्छीर्ष के प्रत्यहमह मेकैकं बीजपूरं स्थापयिष्ये, तन्नृपतेर्देयं, एवं च राजा त्वयि तुष्टों भविष्यति, न च नगरजनो मरिष्यति इति वरं प्राप्य स स्वगृहं प्राप्तः । ततो राज्ञा लोकेन चातिविस्मितेन पृष्टः पूर्वोक्त सर्व जिननमस्कारमहात्म्यमाह । ततो बहुलोको जिनधर्म प्रपेदे । राजाऽपि तुष्टो घनं घनं दत्त्वा श्राद्धमदरिद्रं चकार । एवं इहलोकेऽपि विशुद्धचित्तानां जन्तूनां जीवितधनावो नमस्कारो नियमाज्जायते इति मातुलिङ्गवनाख्यानकं समाप्तम् ॥ पारलौकिके नमस्कार माहात्म्ये चण्डपिङ्गलकथानकम्, तच्चेदम् — वसन्तपुरे चण्डपिङ्गलचौरः श्राविकावेश्यागृहे वसति तदनुरक्तः, अन्यदाऽनेन राज्ञो गृहान्महामूल्यो मौक्तिको हारश्रौरयित्वाऽतियत्नेन वेश्यागृहे गोपितः, अन्यदा महोत्सवे सर्वा asurः खखसमृद्धिसमुदयेनालङ्कृता बहिर्वजन्ति, अथ सर्वास्वमेवातिशयतः शृङ्गारा स्यामिति तस्करवेश्या तमेव हारं कण्ठे क्षिप्लोद्यानं गता नृपपत्नीचेट्या दृष्टा, उपलक्षितो हारस्तया, ज्ञापितं च देव्याः, तया च राज्ञस्तेन च गवेषयित्वा गृहीतस्तस्करो विव्य शूलिकया भिन्नः । तच्छ्रुत्वा वेश्या स्वं निन्दन्ती महादुःखिता तत्र गत्वा चौरं नमस्कार मनुशास्ति 'इह नृपपुत्रो भवेय' मिति निदानं चाकारयत्तस्मात् । ततोऽयं नमस्कारं पठन् मृत्वा तेन निदानेनाग्रमहिषीगर्भे पुत्रत्वेनोत्पन्नः यावत्सा वेश्या भवितव्यतावशेन क्रीडापनधात्रीत्वं प्राप्ता । अथ सा चिन्तयति-गर्भस्य चण्डपिङ्गलमरणस्य च तावत्तुल्य एव कालः, तस्मात्सम्भाव्यते स एवायं इति विचार्य रुदतस्तस्य कुमारस्य भणति - मा रोदिखण्डपिङ्गल !, पुनः पुनरित्यालपत्यां जातं जातिस्मरणमस्य, जिनधर्मः प्रतिपन्नः, स च कालेन राज्यं प्रतिपाल्य तया वेश्यया समं प्रवज्यां प्रतिपद्य तत्सममेव सिद्धः । एवं नमस्कागे भोगफलः शिवफलथ ४ भावनाधिकारे पारत्रिके नमस्कार मन्त्रफले Sasurनिदर्शनम् । ॥ २६८ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भावनाद्वारे वाध्यायरतो हुण्डिकयक्ष दृष्टान्तः। &| भावप्रधानजीवानां जायत इति चण्डपिङ्गलकथानकं समाप्तम् ॥ हुण्डिकय क्षस्य दृष्टान्तः कथितः, स चैवमुच्यतेपुष्पमाला मथुरायां हुण्डिकश्चौरः सर्वामपि नगरी मुष्णाति, अन्यदा कोट्टपालेन सलोनः प्राप्तः स क्षिप्तः शूलायां नृपादेशेन । तत. लघुवृत्तिः स्तेनातिपिपासितेन समीपे गच्छतो जिनदत्तश्रावकस्योक्तं-'भो! भवतां दयाय यो धर्मस्ततो महामाग! दीनस्य वृषितस्य मे पानीयं ॥२६९॥ पाहि 'परकार्ये एव धरन्ति जीवितव्यं धीराः' इति जिनदतः प्राह-यदि सं नमस्कार निरन्तरं पठस्तिष्ठसि तदाऽहं पानीमानीय पास्यामि, एवं च प्रतिपन्ने जलमानेतुं गते श्राद्धे नमस्कारोद्घोषं पूर्वमेव कालं कृत्वा तदनुभावाद्यक्षो जातः । श्राद्धः पुनर्नीरमादाय तत्रागतस्तावद्राजपुरुषैगृहीत्वा राज्ञः कथितश्चौराणां भक्तदाताऽयमिति, महा सोऽपि शूलाक्षेपार्थमादिष्टः, हुण्डिकयक्षश्चावधिना पूर्वभवव्यतिकरं जानन्महागिरिमेकं गृहीत्वोपर्युपरि स्थितो भणति-अरे ! न जानीथ यूयं', यदेतस्येह माहात्म्यं, तन्मुञ्चत शीघ्र. मन्यथा सकला पुरीं यूरयिष्यामि, ततो राजा सपरिच्छदो भीतो हुण्डिकयक्षं पूजयति कारयति च तस्यायतनं, जिनदत्तं च थामयित्वा विसृजति । यक्षश्च जिनदत्तं नत्वा भणति-तथा सर्वपापास्पदमप्यहं यदियतीं ऋद्धि प्राप्तवान् स तवैव नमस्कारदानकृतः | प्रसादा, ततः पुनः कार्ये विषमेऽहं स्मर्तव्यः' इत्युक्त्वा यक्षः खस्थानमगात् । इति द्रव्यतोऽपि गृहीतो नमस्कारः सुरदिहेतुर्जायत इति गाथार्थः ॥४३८॥ इति हुण्डिकयक्षकथानकं समाप्तम् ॥ इति कुरुत खाध्यायं, जिनेन्द्रभणितेषु घृतविमलभावाः । येनेह चित्तशान्तिः, प्रभवति गुणवृद्धिसंसिद्धिः॥१॥ इति पुष्पमालाविवरणे भोवनाद्वारे स्वाध्यायरतिलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥१५॥ अथानायतन त्यागद्वारं विमणिषुः पूर्वेण सम्बन्धगर्मा गाथामाह CRORENA -CXCSACROSROOR ॥२६९॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -4 * 15 सज्झायं पि करेजा, वज्जतो जत्तओ अणाययणं । तं इत्थि माइयं पुण, जईण समए जओ भणियं ॥४३५॥ || पुष्पमाला व्याख्या - उक्तखरूपं स्वाध्यायमपि यत्नतोऽनायतनं वर्जयन्नेव कुर्यान्न त्वनायतने, इति स्वाध्यायद्वारानन्तरमनायतन- ४ मावनाधिक लघुवृत्तिः । त्यागद्वारमुच्यत इति भावः। तत्रायतने-मोक्षाय प्रयतन्ते साधवो यत्र तदायतनं-गुरुचरणमूलादि, कुत्सितमायतनं स्त्रीजनादि, अत ऽकरणीयत्वं ॥२७॥ आह-तत्पुनरनायतनं यतीनां स्त्र्यादिकं द्रष्टव्यं । यतः समये भणितमिति गाथार्थः ।।४३५॥ सिद्धान्तोक्तमेवाह खध्यायस्या विभूसा इत्थिसंसांगी, पणीयं रसभोयणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥४३६॥ [दश० ८-५६] | नायतने। व्याख्या-विभूषा-वस्त्रादिराढा, येन केनचित्प्रकारेण स्त्रीणां संसर्गस्तथा] प्रणीतरसभोजन-गलत्स्नेहरमाभ्यवहारः, एतत्सर्वमेव विभूषादिः नरस्यात्मगवेषिण-आत्महितान्वेषणपरस्य विषं तालपुटं यथा, तालमात्रव्यापत्तिकरविषकल्पमहितकरमिति गाथार्थः ।।४३६॥ ननु जिनवचनभावितानां जितेन्द्रियत्वादिगुणयुक्तानां च्यादिसंसर्गोऽपि न दोषाय भविष्यति, किं पुनरनया तर्जनया? इत्याहदसिद्धंतजलहिपारं, गओ वि विजिइंदिओ वि सूरो वि । थिरचित्तो वि छलिज्जइ,जुवइपिसाईहिं सुदाहिं ॥४३॥ ___ व्याख्या-सिद्धान्त एव जलधिस्तस्य पारङ्गतोऽपि विजितेन्द्रियोऽपि [शू] रोऽपि स्थिरचित्तोऽपि छल्यते युवतीपिशाचीमिः | IA क्षुद्राभिरिति गाथार्थः ॥४३७॥ पुनदृष्टान्तद्वारेण स्वीसंसर्गस्य दुष्टत्वमाहमयणनवणीयविलओ, जह जायइ जलणसन्निहाणम्मि । तह रमणिसन्निहाणे, विद्दवइ मणो मुणीणं पि ॥४३ ॥ व्याख्या-यथा ज्वलनसन्निधाने मदननवनीतयोविलयो-द्रावः सञ्जायते, तथा रमणीनां सन्निधाने मुनीनामपि-सुसाधू * Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R | नामपि मनो विद्रवति । ब्रह्मचर्ये दृढमपि शिथिली भवतीति गाथार्थः ॥४३८॥ किश्चअपमालानीयंगमाहिं सुपओहराहि, उप्पिच्छमंथरगईहिं । महिलाहिं निन्नयाहिं व. गिरिखग्गुरुयावि भिज्जंति ॥४३९||४|| ४ मावनाधिकार लघुवृत्तिः | व्याख्या - महिलामिः-स्त्रीभिर्निम्नगाभि-नदीभिरिव गिरिवरगुरवोऽपि भिद्यन्ते-ऽवरीक्रियन्ते, आस्तामितरे लघवः। ऽतिनिषिधत्वं ।७१ कथम्भूताभिः स्त्रीमिः १, नीचं-जात्यादिहीनं गच्छन्तीति नीचमास्ताभिः, नदीपक्षे तु नीचो-निम्नः प्रदेशस्तेन गच्छन्ति-वहन्तीति स्त्रीसंसर्गस्य । नीचपास्ताभिः, शोभनाः पयोधरा:--स्तना यामां तास्ताभिः, नदीपक्षे तु शोभनं पयः पानीयं धरन्तीति सुपयोधरास्ताभिः, पक्षद्वयेऽपि हरणम् । उत्पिच्छा-मनोहारिणी मन्थरा गतिर्यासां तास्ताभिरित्यतस्त्याज्या एवैता इति गाथार्थः ॥४३९॥ अपि चघणमालाउ व दूर-नमंतसुपओहराओ वड्दति । मोहविसं महिलाओ, दुनिरुद्धविसं व पुरिसस्स ॥४४०॥ व्याख्या-धना-मेघास्तेषां माला:--परम्परास्ता इव दरं-अत्यर्थ उनमन्तं-उन्नतिभाजः शोभनाः पयोधरा यासां ता दोनमत्सुपयोधरा महिला:-स्त्रियः पुरुषस्य मोह एव विषं, तदर्द्धयन्ति; अत्र मेघमालापक्षे पयोधरा:-जलदाः, स्त्रिक्षे तु स्तना इति. किमिव काः? इत्याह-मेघमाला एव दुनिरुद्धविषमित्र, यथा कुमन्त्रवादिना केनचिदुरुचारितं विषं पुरुषस्य दोन्नमत्तुपयोधरामेघमाला दृष्टाः सत्यः पुनरपि वृद्धि नयन्ति, तथा स्त्रियोऽपि मोहविषमिति तात्पर्यमिति गाथार्थः ॥४४०॥ अपाचसिंगारतरंगाए, विलासवेलाए जोब्बणजलाए। के के जयम्मि पुरिसा, नारिनईए न वुझंति ? ॥४४१॥ HIN व्याख्या-नार्येव नदी, तया के के जगति पुरुषा नोह्य-ते-नापहियन्ते ?, अपितु सर्वे एवोहन्ते, कथम्भूतया नद्या! Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- इत्याह-आभग्णा-अङ्गगगादिरूपाः शृङ्गारा एव तरङ्गा यस्यां सा तथा, तया, नेत्रभ्रमादिरूपा विलापा एव वेगा यस्यां सा तथा, पुष्पमाला यौवनमेव जलं यस्यां सा तथा, तयेति गाथार्थः ॥४४१॥ पुनरपि स्त्रीणामनायतनत्वं सदृष्टान्तमाह ४मवनाधिकारे लघुवृत्तिः 8 जुवईहिं सह कुणंता, संसग्गिं कुणइ सयलदुक्खेहिं । नहि मूसगाण संगो, होइ सुहो सह बिडालेहिं ॥४४२ 12 ऽतिवपत्वं ॥२७॥ व्याख्या-युवतीभिः-स्त्रिभिः सह संसर्ग कुर्वन् सकलदुःखैः सह संसर्ग करोति, सर्वाणि दःखानि प्राप्नोतीत्यर्थः, नैव महिलासंसर्गस्य । | मूषकाणां बिडालैः सह सङ्गः-संसर्गः शुभो भवतीति गाथार्थः ॥४४२॥ अथ स्त्रीणां कपटपाटवं प्रकटयबाहरोयंति रुयावंति य, अलियं जपंति पत्तियावंति । काडेग य खंति विसं, महिलाओ न जंति सम्भावं ।।४४३। व्याख्या-रुदन्ति रोदयन्ति च अलीकं जल्पन्ति प्रत्याययन्ति च कपटेन खादन्ति विषं महिला:-स्त्रियो, न ४ क्वचित्सद्भाव-सरलत्वं यान्ति-गच्छन्तीति गाथार्थः ॥४४३॥ यद्यनायतनमेताः स्त्रियस्ताई किं कर्त्तव्यमित्याहपरिहरमु तओ तासिं, दि िदिदठिविसस्स व अहिस्स । जं रमणिनयणवाणा, चरित्तपाणे विणासंति ॥४५४॥ व्याख्या-तः कारणात्परिहा तामां-स्त्रीणां दृष्टिः, कस्य कामिव ? इत्याह-दृष्टिविषस्याहेदृष्टिमित्र, कुतः? इत्याह४ यद्रमणीनेत्रवाणाश्चारित्रमाणान् विनाशयन्तीति गाथार्थः ।।४१४।। ननु परित्यक्तसङ्गादीनां किमेताः करिष्यन्तीत्याह19 जइ वि परिचत्तसंगा, तवतणुअंगो तहावि परिखडइ। महिलासंसग्गीए, पवसियभवसियमणिब ॥४४५|| व्याख्या -यद्यपि परित्यक्तसङ्गस्तपस्तन्वङ्गत्तथापि परिपतति-चारित्राद्मश्यति, केन हेतुना? इत्याह-महिलासंसर्गेण, %A- ॥२७ - Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२७३॥ ACEACCAL ४ भावनाधिकारे | अईचक कथानकम् । क इव ? इत्याह-प्रोषितो-[विदेशङ्गतो] धनाढ्यवणिक्, तस्य भवनं-गृहं, तत्समीपे उपितो-विश्रामहेतोः स्थितः, स चासौ मुनिश्च प्रोषितभवनोषितमुनिस्तद्वत् । कः पुनरसावित्युच्यते तगरापुर्या देवदत्तो वणिक्, तस्य भार्या भद्रा, सुतोऽर्हनका, अन्यदा देवदत्तो वैराग्यादर्हन्मित्राचार्यसमीपे ससुतभार्यः प्राब्राजीत् । सुचारित्रपालनपरोऽपि पुत्रं स्नेहेन लालयन् साधुभिर्वारितोऽपि न व्यरंसीत् । अर्हन्नको बहुलालितत्वात्सुखशीलो जातः। अन्यदा पितरि मृतेऽतिदुःखितः स्वयमेव मिक्षायै भ्रमन् सुकुमालः परीषहोपसगाई बाध्यते । अथ ग्रीष्मे परितप्तसकलभुवने मिक्षार्थ भ्रमन्नसौ दृढं परिश्रान्तः सर्वाङ्गस्वेदपूर्णः प्रोषितकसार्थवाहमहागृहच्छायायां यावद्विश्राम्यति क्षणमेकं तावद्वहुदिनम वियोगजनितमदनाग्निसन्तापा तद्गृहस्वामिनी वातायनस्था तपःशोषितगात्रमप्यन्निकं सुरूपं सुकुमालं विलोक्याकार्य प्रचुरतरमोदकाचाहारान् दत्वा शृङ्गारसारवचनाङ्गविकारप्रकारैः खानुरक्तं तं कृत्वा स्वगृहे प्रच्छन्नमस्थापयत् । सोऽथ सर्वैः कामाङ्गैस्समग्रस्तया समं भोगान् भुञ्जन् दिनानि गमयति । इतश्च स सर्वतः साधुभिर्गवेषितोऽपि न दृष्टः, तजननी च साध्वी सुतस्नेहेन तं विलोकयन्ती अर्हन्त्रक अहन्नक इति विलपन्ती 'दृष्टः क्वाप्यहन्त्रक' इति प्रतिजनं पृच्छन्ती भ्रान्तचित्ता पुरे बम्म्रमीति । अन्यदा राजपथस्था प्रच्छन्नगवाक्षस्थेन सुतेन दृष्टा सा, ततो लज्जितोऽसावित्यचिन्तयत् "पेच्छह अहो !! कुपुत्तो, सोऽहं इय जस्स कारणे एसा। एयावत्थं पत्ता, सुन्ना परिभमइ नयरीए ॥१॥" "अहवा दुप्पुत्तेहिं, जाएहिं किं फलं हवइ अन्नं ? । जाओ अरणीए सिही, दाई मोत्तूण किं कुणइ ? ॥२॥" इत्यादि स्वं निन्दन झगिति गेहानिर्गत्य मातरन्तिकमगात् । तं सहसा दृष्ट्वा सा हृष्टा पूर्वव्यतिकरमपृच्छत् । ततोऽत्याग्रह ॥२७॥ .. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भावनाधिकारी संयतीसंसर्गव विशेषतोऽनायतनत्वम् । कृते तेन सर्वमप्युक्तं तदने, ततोऽतिविषन्नया तया संपारभ्रमणमयं दर्शयित्वा स जिनदीक्षाऽभिमुखः कृतः, सोऽपि संविग्नो गुरुपादपुष्पमाला मूले [पुनः] प्राबाजीत् । ततो गुरून्नत्वाऽवदत्-भगवन् ! गतसचोऽहं, न चिरं दीक्षा रक्षितुं क्षमा, तयदि भवतामनुमतिः स्यात्तदाऽलघुवृत्तिः नशनं कृत्वा शीघ्रमेव स्वकार्य साधयामि, आराधक इति ज्ञात्वा गुरुभिरनुज्ञातः पापान्यालोच्य शैलशिखामारुह्य तप्तशिलातले ॥२७४॥ कायोत्सर्ग स्थितो ग्रीष्मे मध्याहे सर्वतस्तापितः सुकुमालो नवनीतपिण्डवद्विलयं गतः। शुभध्यानाद्वैमानिकस्सुरोऽभूत् । एवं संसर्गमात्रेऽपि बहुलानर्थफला महिला ज्ञात्वा तत्संसर्ग दरतस्त्यजेदिति अनिकयथा समाप्ता॥ सम्प्रति संयतीसंसर्गस्य विशेषतोऽनायतनत्वमाहइयरत्थीण वि संगो, अग्गी सत्थं विसं विसेसेइ । जो संजईहिं संगो, सो पुण अइदारुणो भणिओ ॥४४६॥ • व्याख्या-तदेवं मुक्तप्रकारेण इतराखामपि गृहस्थकलिङ्गिस्त्रीणां सङ्गः-सम्बन्धः अग्निं शवं विषं च विशेषयति-अतिशेते, - अग्न्यादीनामेकमविकदुःखमात्रदायकत्वात् स्त्रीसंसर्गस्य त्वनन्तभविकानन्तदुःखदायकत्वादिति भावः। यः पुनः संयतीनां साध्वीनां सङ्गः, सोऽतिदारुणोऽनन्तानन्तरौद्रदुःखदायको भणित आगम इति विशेषेणासौं वर्जनीय इति गाथार्थः ।।१४६॥ आगमोक्तमेवाह चेइयदबविणासे, इसिघाए पवयणस्स उड्डाहे । संजइचउत्थभंगे, मूलग्गी बौहिलाभस्स ॥४४७|| ___ व्याख्या-इह चैत्यं-सामान्येन जिनायतनं, तस्य सम्बन्धिद्रव्यं, तद्विनाशे कृते, तथा ऋषिधाते-संयतविनाशे कृते, प्रवचनस्य चोड्डाहे प्रकृष्टाकृत्यकरणेन कृते, संयत्याश्चतुर्थवतभङ्गे कृते प्राणिना मूलाग्निदत्तो भवति, कस्य ? बोधिलाभस्य-सम्यक्त्व लाभतरोरिति सर्वत्र योज्यते। अयम्भावः-अन्येनापि महापापकरणेन प्राणिनोऽनन्तं भवं बम्भ्रन्त्येव, एभिः पुनर्विशेषतस्तमेव ॐॐॐॐॐॐॐॐ नयर ॥२७॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ मावनाधिकार महानर्थत्वं देवद्रव्यादिभवणख। IN -- दारुणदाखान्वितं प्रचुरतरं पर्यटन्ति, बोधिं तु सर्वथा न लभन्ते, यदि तु केचिठभन्ते तेऽप्यतिकष्टेनेति गाथार्थः ॥४४७। पुष्पमाला ननु सन्तु संयतीचतुर्थव्रत मङ्गादयो विरुद्धाः, देवस्थापि निष्प्रयोजनस्य चैत्यद्रव्यस्य भक्षणं निर्दपणमेवेत्याशक्याह- रघुवृत्तिः । चेइयद्व्वं साहा-रणं च जो मुसइx जाणमाणो वि। धम्म पि सोन याणइ, अहवा बद्धाउओ नरए॥४४॥ व्याख्या-चैत्यद्रव्यं प्रसिद्धं, साधारणं च-जीर्णचैत्योद्धारादिनिमित्त मेकत्र स्थापितं द्रव्यं च यो जानन्नपि मुष्णाति-स्वयं भक्षयति अन्यैर्वा भक्षयति मक्षयतो वाऽन्यत्समनुजानीते स एवम्भूतो जन्तुरनयैव चेष्टया ज्ञायते यदुत-सर्वज्ञोक्तं धर्ममपि न जानाति, अथा ज्ञातजिनधर्मोऽपि यद्येवंविधपापेषु प्रवर्तते तदा ज्ञायते यदुत-पूर्वमेव नरके बद्धायुष्कोऽयं, अन्यथा तत्प्रवृत्त्ययोगादिति गाथार्थः ॥४४८॥ अथ चैत्यद्रव्योपेक्षिणां सदृष्टान्तं दोषमाह___ जमुवेहंतो पावइ, साहू वि भवं दुहं च सोऊणं । संकासमाइयाणं, को चेइयदबमवहइ ? ॥४४९॥ व्याख्या-यच्चैत्यद्रव्यमुपेक्षमाणः-सति सामर्थे देशनादिद्वारेण तद्रक्षामकुर्वन् साधुरपि, आस्तामन्यः वयं भक्षकादिः; भवं-संसारमनन्तं प्रामोति, उक्तं च श्रीनिशी [थभाष्ये] थे "चेइयबविणासे, तहव्वविणासणे दुविहभेए । साहु उविक्खमाणो, अगंतसंसारिओ होइ ॥१॥" ततश्चैत्यद्रव्यापहारिणां सङ्काशश्रावकादीनां दुःखं चानन्तं श्रुत्वा कश्चैत्यद्रव्यमपहरति ?,न कोऽपीत्यर्थः। सङ्काशकथानकं त्वेवमुच्यते x इतः “ सयं व भक्खेद। सइ सामस्थि उवेक्वइ, जाणतो सो महापावो ॥” इति बृहद्वृत्त्यन्वितमुद्रितप्रतो । ॥२७॥ - - Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२७६॥ भावनापिकी ला संकाशबाद कथानकम्। ॐॐॐARSHA गन्धिलावत्यां [नगर्या] अमरभवनोपमं शक्रावतारनामकं जिनायतनं, तस्य च गुर्वी कोशसमृद्धिबहुद्रव्यागमश्च । इतश्च तत्रातिसमृद्धो महाश्राद्धः सङ्काशसंज्ञः परिवसति, स तस्मिश्वेत्ये सकलां तप्तिं करोति, नित्यमुपयुक्तस्तद्रव्यं वर्द्धयति, सम्यग्लेख्यकं करोति, ततोऽतिधर्मपरं समृद्धमुद्युक्तं च तं मत्वा न कोऽप्यन्यः श्रावकस्तप्तिं करोति, सङ्काशोऽप्यप्रमत्तः परमभक्त्या तं व्यापार चालयति । इति व्रजति काले सोऽपि कथमपि प्रमादी जातः, ततश्चैत्यवस्तु यत्किञ्चित्तत्करे चटति तत्क्षिपति स्ववस्तुनि, चिन्तयति च-क्षेप्पयामि लेख्यके, पवाद्विस्मारयति । कालेन त्रुटितधनो दास्यामीति बुद्ध्या कार्ये जाते चैत्यद्रव्यं व्ययति, असम्पच्या न ददाति, इति प्रसङ्गे वर्द्धिते नष्टसर्वधनः क्लिष्टपरिणामः सर्व तद्व्यं नाशितवान् । कालेनानालोच्य मृत्वा सप्तसु नरकेषु महादुःख मनुभूय तिर्यक्षु दुःखानि विषय मनुष्येषु हीनकुलेब्वनेकशो दरिद्रो जातः। अन्यदा कथमपि तगरानगाँ इभ्यः श्रेष्ठिसुतोऽजनि। बालत्वेऽपि पित्रोर्मरणेन लक्ष्मीगमने दुःखी दुर्भगोऽतिदीनः कष्टाजीविकः शून्यो भ्रमति । अथान्यदा तत्रैवागतस्य केवलिनः पार्श्व सं दुःखकारणमपृच्छत । केवली सर्व देवद्रव्यविनाशजं कर्माख्यातवान् । तच्छुत्वोदरनिर्वाहाधिकं द्रव्यं देवगृहे व्ययिष्ये त्यभिग्रहं गृहीत्वा तत्रैव [व्यवसायं] कुर्वन्नुपार्जितप्रभूतधनो जिनप्रासादबिम्बस्नात्र यात्राजीर्णोद्धारादीनि धर्मकृत्यानि प्रतिपुरं प्रतिनगरं रचयन् शासनप्रभावनां विधाय विगतकर्मा सिद्धः, इति सङ्काशजीवकथानकं समाप्तम् ॥ तस्माञ्चत्योद्धारादिप्रयोजनवतश्चैत्यद्रव्यस्य विनाशे दोष एवेत्यतस्तद्रक्षा विधेया। इत्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥४४९॥ अथ प्रकृतमुच्यतेजो लिगिणिं निसेवेइ, लुद्धो निद्धंधसो महापावो । सबजिणाण ज्झाओ, संघो आसाइओ तेण ॥४५०॥ का॥२७६॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावनाधिकारे महाफल संयतीसेवनखा। व्याख्या-यो लिङ्गिनी-साध्वी निषेवते, स कथम्भृतो?, लुब्धो-गृद्धः निःशूकस्तथा महापापः, तेन सर्वजिनानां ध्येयः पुष्पमाला सङ्घ आशातित इति गाथार्थः ॥४५०॥ किश्चलघुवृत्तिः| पावाणं पावयरो, दिठिऽब्भासे वि सो न कायव्यो । जो जिणमुदं समणिं, नमिउं तं चेव धंसेइ ।।४५१॥ ॥२७॥ व्याख्या-पापानां पापतरोऽसौ, दृष्ट्यभ्यासेऽपि-दृष्टिसमीपेऽपि स न कर्त्तव्यो, यः किम् ? इत्याह-जिनस्य मुद्रा यस्याः सा जिनमुद्रा, ता जिनमुद्रां श्रमणी ज्ञानादिगुणाधारत्वेन नत्वा पुनस्तामेव ध्वंसयति-चरणजीवितनाशेन च नाशयतीति गाथार्थः॥४५२॥ तस्यैव जिनमुद्राघातिनः पारत्रिक दोषमाहसंसारमणवयग्गं, जाइजरामरणवेयणापउरं । पावमलपडलच्छन्ना, भवंति मुद्दाधरिसणेण ॥४५२॥ व्याख्या-संसारमनवदग्रं-अपर्यवसितं जातिजरामरणवेदनाप्रचुरं, प्राणिनो भ्रमन्तीति शेषः । पापमलपटलच्छन्नाथ भवन्ति । केन ? इत्याह-जिनमुद्राया-जैनव्रतरूपाया घर्षणेन-लोपेनेति गाथार्थः ॥४२॥ ननु स्त्रीलक्षणमेवामायतनं वर्जनीयं उतान्यदपि , तर्जने च किं (अपरं) सेवनीयमित्याशझ्याह| अन्नं पि अणाययणं, परतित्थियमाइयं विवज्जेज्जा । आययणं सेवेज्जसु, वुड्डिकरं नाणमाईणं ॥४५३॥ - व्याख्या-अन्यदप्यनायतनं परतीथिकादिकं विवर्जयेत्-परिहरेत् , आयतनं च सेवेत ज्ञानदर्शनचारित्राणां वृद्धिकरमिति | गाथार्थः ॥४५॥ यतः Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२७८॥ भागदव्वं जीवो, संसग्गीए गुणं च दोमं च । पावइ एत्थाहरणं, सोमा तह दियवरो चेव ||४५४ || व्याख्या - जीवो हि भावुकद्रव्यं, अतः शोमनेतरसंसर्गेण गुणं च दोषं च प्राप्नोति, अत्रोदाहरणं सोमा तथा द्विजवरथेति गाथार्थः || ४५४|| कथानकं तूच्यते भोमपुरे नगरे ज्वलनशिखो विप्रस्तस्य सूरानाम्नी भार्या युग्मं प्रसूना, चित्रभानुनामा पुत्रः सोमानाम्नी सुता । तौ कलाकुशल प्राप्तयौवनौ पित्रा उत्तमकुले परिणाय्य शिक्षितौ वत्सो ! कुसंसर्गरतौ मा भवेतां, यतः "तं न कुणइ वेयालो, अग्गी सत्थं महाविसो सप्पो जं कुणइ कुसंसग्गो, माणुसस्स इह परभवविरुद्धो ॥१॥" किश्च - "पेच्छसु संसग्गीए, माहप्पं जेण कहवि एमेव । मिलिओ दुजणमज्झे, लहइ कुसंभावणं झन्ति ||२|| सजणमज्झगओ पुण, महंत संभावणाए इयरो वि। संभाविज्जइ लोए, किमेत्थ भणिएण अन्नेण ? || ३ || " इत्यादि पितृशिक्षां प्रतिपद्य सर्वजनैः समं आलापमात्र सङ्गं त्यक्तवन्तौ । अन्यदा पितरि मृते प्रातिवेशिक्याः शीलवती नान्याः श्राविकायाः आसन्नत्वात्तद्वाक्यानि जैनधर्मानुगानि स्वकुम्बाग्रे भण्यमाणान्याकर्ण्य प्रबुद्धा सोमा चिन्तयति- पितृप्रोक्तः सुसंसर्गस्तदा सम्यग्जायते यद्यस्याः सङ्गतिः स्यादिति । ततः सा शीळवत्याः सखी जाता, जिनधर्म प्रपेदे । शीलवती प्राह- सखे १ जिनधर्ममाहत्य यदि अविवेकिजनवचनैम्त्यक्ष्यसि तदा संसारेऽतिभ्रमिभ्यसि, अतः कन्या सिद्धवदस्थिरचित्ता मा भवेः, यथा - कश्चिद्विजो दरिद्रः कश्चन विद्यासिद्धमाराध्य विद्यां लब्धवान्, साघिता तेन विद्या, विद्यादेवी तस्यैकां कन्यां समर्प्य प्राह ४ भावनाधिकारे कुसङ्गत्यागात्यागे चित्रभानुसोमा दृष्टान्तौ । ॥२७८॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवृत्तिः %% भो! एषा कन्था सर्वत्तुसुखावहा, प्रत्यहं स्फोव्यमाना पञ्च रत्नानि प्रत्येक लक्षमूल्यानि गिरिष्यति, परं खङ्गान मोच्या। यदि कदाचित्यसि तदाऽपराध इत्युक्त्वा देवता तिरोदधे। द्विजः कन्थावेषो जनैहसितस्तां त्यक्तवान् दुःखीभूतः, एवं मा त्यजेद्धर्ममिति II माहिती पुष्पमाला प्रतिपन्ने द्वादशब्रतानि गुरुपार्श्वे ग्राहिता सोमा सुसंसर्गात्सर्वजनप्रशंसिता पश्चाद्दीक्षां गृहीत्वा सिद्धिसुखभागभवत् । अथ चित्रभानुः सङ्गत्यागात्याने पितुः शिक्षा पालयन् स्वगुण राजमान्योऽभवत् । कस्यचिदधमजातेः पुरुषस्य स्नेहवाक्यैस्तुष्टस्तं मित्रत्वे[न]प्रतिपन्नवान् । अथ तस्या सोमाद्विजवस्यो धमजातेरधमकृत्यश्चित्रभानुजनरभक्ष्यभक्षणादिकलङ्कः कलङ्कितो दुःखी जातः। पितृवचने जातप्रत्ययश्चिन्तयति-सा सोमा धन्या, कथानकम् । यस्खास्तथा सुसङ्गतिर्जाता। अद्याप्यहमपि धन्यो यत्कुसङ्गतो मरणं न प्राप्तस्तदद्यापि सत्सङ्गति करोमीति विचिन्वातिशयबानिमुनिपार्श्वे प्रत्यहं धर्मश्रवणात्प्रतिपन्नजिनधर्मश्चिरं गृहे स्थित्वा ततः प्रव्रज्यां प्रतिपद्य परमपदं प्राप्तः। इति शुभाशुभसङ्गतेः फलं ज्ञात्वा सत्सङ्गतिः कार्येति सोमाद्विजवरयोः कथानकं समाप्तम् ॥ इत्यनायतनवर्जनं, सिद्धिसौख्यजनकं निशम्य भोः!। नित्यमायतनसेवने, मनो निश्चलं कुरुत कायवाग्युतम् ॥१॥ इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे अनायतनत्यागलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥१६॥ अथ परपरिवाद निवृत्तिद्वारं विमणिषुः पूर्वेण सम्बन्धगर्भा गाथामाहसुद्छु वि गुणे धरतो, पावइ लहुयत्तणं अकित्ति च। परदासकहानिरओ, उक्करिसपरोय सगुणेसु ॥४५५॥ व्याख्या-सुष्वपि गुणान् धरन् लघुत्वं अबहीलनारूपं अकीर्ति च प्राप्नोति, का? इत्याह-परदोषकथानिरतः, उत्कर्षपरच ॥२७९॥ X| खगुणेषु, इति परपरिवादात्मोत्कर्षाववश्यं त्याज्यावित्य नायतनत्यागदारानन्तरं परपरिवादनिवृत्तिद्वारमिति गाथार्थः ॥४५५॥ NAॐॐॐॐ 95+5 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | देवलं नन्वकार्यमाचरन्तं परं दृष्ट्वा कथं परपरिवादमन्तरेण स्थातुं शक्यते ? इत्यत्राहपुष्पमाला |||आयरइ जइ अकज्जं, अन्नो किं तुज्झ तत्थ चिंताए? । अप्पाणं चिय चिंतसु, अज्ज वि वसगं भवदुहाणं ।।४५६/४ भावनाविकारे लघुतिः व्याख्या-आचरति यद्यकार्यमन्यः कश्चित्तर्हि तत्र किं तव चिन्तया प्रयोजनमैहिकं पारत्रिकं वा?, न किञ्चिदित्यर्थः, ॥२८॥ ततश्चात्मानमेव चिन्तय । कथम्भूतं ?, अद्यापि वगं भवदुःखाना, कथं कथमेतैर्भव दुःखैर्मदीयजीवो मोक्ष्यत इतीइमेव चिन्तय, किं परपरिवादखा परचिन्तया ? इति गाथार्थः ॥४५७॥ अथ परदोषग्रहणेऽर्थाभावानर्थप्राप्ती एवेति प्राहपरदोसे जंपतो, न लहइ अत्थं जसं न पावेइ । सुअणं पि कुणइ सत्तुं, बंधइ कम्मं महाघोरं ।।४५७॥ व्याख्या-परदोषान् जल्पन लभते अर्थ-धनं, यशश्च क्वापि न प्राप्नोति, खजनमपि शत्रु करोति, तथा महाघोरंअतिरौद्रं कर्म बध्नातीति गाथार्थः ॥४७॥ नन्वस्तु सगुणस्यैव दोषाग्रहणं, निर्गुणस्य तु यथावस्थितभणने को दोषः ? इत्याशझ्याहसमयम्मि निग्गुणेसु वि, भणिया मज्झत्थभावया चेव । परदोसगहणं पुण, भणियं अन्नेहि वि विरुद्धं ॥४५॥ ४ व्याख्या-समये-सिद्धान्ते निगुणेष्वपि मध्यस्थभावतैव भणिता। यत्तु परदोषग्रहणं, तन्न केवलं समये, किन्त्वन्यैरपि तीथिकैविरुद्धमेव भणितमिति गाथार्थः ॥४५८॥ अन्योक्तमेवाह ॥२८॥ लोओ परस्स दोसे, हत्थाहत्थिं गुणे य गिण्हतो । अप्पाणमप्पणो चिय, कुणइ सदोसं च सगुणं च ॥४५९॥ ReceKERSALORESec Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या-लोक आत्मानमात्मनैव सदोष च सगुणं च करोति, किं कुर्वत्रियाह-परस्य दोगन् गुणांश्च कमेण गृण्हन् , पुष्पमाला कथं ? "हत्थाहत्थि"ति साक्षात्स्वयमेवेत्यर्थः । यो हि यद्गृण्हाति स तद्युक्त एव भवतीति भावः, तस्माद्गुणिवमात्मनः समीहमानेन || ४ भावनाद्वारे लघुवृत्तिः|| परेषां गुणा एव ग्राह्या इति गाथार्थः ॥४५१॥ आत्मनैवात्मनले ॥२८॥ ____ इदं च माध्यस्थ्यं निर्गुणेष्वेव द्रष्टव्यम् , 'सर्वेऽपि प्रशंसनीया एवे' ति तीर्थान्तरोयोक्तमेवेति दर्शयन्नाह दोष-गुणवत्वक रणत्वम्। है। भूरिगुणा विरलच्चिय, एकगुणो वि हु जणो न सव्वत्थ । निदोसाण वि भदं, पसंसिमो थेवदोसे वि॥४६०॥ [8] व्याख्या-भूरयः-प्रचुरा गुणा येषां ते भूरिगुणा विरला एवं केचित्प्राप्यन्ते, अतस्ते प्रशंसनीया एव, तथा एको ज्ञानादिकः पुष्टो गुणो यस्य स तथाभूतोऽपि जनो न सर्वत्र प्राप्यते, अतस्सोऽपि प्रशस्थत एव, निर्दोषाणामपि भद्रं, येषां गुणाभाव| वदोषाभावोऽपि, तेषामपि कल्याणमेवेत्यतस्तेऽपि प्रशस्या एवेति भावः । येषां च गुणाभावेऽपि दोषा अपि स्तोका एव, तानपि | स्तोकदोषान् दोषबहुले लोके प्रशंसाम इति गाथार्थः॥४६०॥ ननु वचनमात्ररूपायां परदोषोक्तो कथमिव दोषसम्भवः! इस परदोसकहा न भवइ, विणापओसेण सो य भवहेऊ। खबओ कुत्तलदेवी, सुरी य इहं उदाहरणा ॥४६॥ व्याख्या-बादरं सूक्ष्म वा प्रद्वेषमन्तरेण परदोषकथा न भवति, सच प्रदेषः प्राणिनां मबहेतरेव निर्दिष्टा, अत्र धपक: कुन्तलदेवी सूरिश्चोदाहरणानि, कोऽसौ तावत्वपकः इत्युच्यते 1॥२८॥ CORERA ॐॐॐ-% Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला रघुवृत्तिः ॥२८२॥ ॐॐॐॐ2-% कुसुमपुरे अग्निशिखनामा क्षपको वर्षाराने समागतः कस्यापि गेहेऽधत सभू नौ स्थितः। तावत हान्योऽपि अहगनामा IPावनाबारे साधुः संयमयोगेषु शिथिलः प्राप्तः। सोऽपि तत्रैव गृहे उपरि भूमौ स्थितः। ततः स क्षाको नानाविध तास्तप्यते, इतरः पुननित्यं परपरिवाद दो भुङ्क्ते । ततः क्षमा प्रवेषसुदहति, चिन्तयति चेषो निर्धर्मा प्रत्य भुरूक्ते लिङ्गोपजीपनरतः, कि पप्यनुपानं न करोति, उपरि क्षिपक-कुन्तलाधबधबशब्दान् कुर्वन्नरतिकारणमिति प्रमुखं प्रदेषं वहति साधौ नित्यशः। अरुगः पुपश्चिन्तयति-पुल क्षरजन्म, यदेवमतिदुष्का महिष्युदाहरणौ। तपः करोति, जिनोस्तं पालयति, नित्यं सर्वान् परीषहान् सहते। अहं पुनर्धान्यकीटो जिनाचापरिभ्रष्टो विभूमानितो निधर्मा मुधा । भ्रमामीति तद्गुणगणं प्रशंसन्नात्मानं निन्दन् भवं स्वल्पं करोति शुभभावेन । क्षपकस्तथाप्रद्वेषभावेन भरिभवं जनयति । वृत्त वर्षारात्रे द्वावपि विहृतावन्यत्र । अथ क्षपकाक्षपकगुणरञ्जितर्जनस्तत्रागतः केवली द्वयोः कर्मक्षयखरूपं पृष्टः प्राह-भो जनाः! क्षपकस्य द्वेषवतोऽल्पकर्मक्षयोऽपरस्य शिथिलस्यापि अनुमोदनया बहकर्मक्षयः, अतो विषमा जीवानां गतिरिति विज्ञाय विस्मितचित्तहेतुः प्रद्वेषो बहुभिः प्रत्याख्यात इति क्षपकोख्यानं समाप्तम् ॥ अवनिपुरे जितशत्रुनृपस्य बहुराज्ञीमिर्जिनप्रासादाः कारिताः। तासु कुन्तलानाम्नी मुख्या तासां प्रासादेषु महोत्सवं दृष्ट्वा विद्वेषं वहति । अन्यास्तु न स्वपरभावं चिन्तयन्ति। अन्यदा कुन्तलादेवी रोगग्रस्ताऽऽध्यानोपगता सपत्नीचेत्येषु पूजाप्रद्वेषेण च मृता निजप्रासादे शुनी जाता द्वारे तिष्ठति । केनचिज्ज्ञानिना तत्स्वरूपं ज्ञात्वा कृपया प्राग्वेषवरूपं चापिता जातजातिस्मृतिरनशनेन ॥२८॥ मृता स्वर्ग गता, इति प्रद्वेषो दुःखकलो ज्ञात्वा त्याज्य, इति कुन्तलादेवीकथा समाप्ता ॥ A5 % - Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला घुवृत्तिः १२८३॥ NON-SHAॐॐॐ क्वापि गच्छे परिबह्वागमपारगोऽपि कर्मवशाच्छिथिलक्रियः । एका पुनस्तच्छिष्यः सकलागमपारगः क्रियासु बाढमुद्यतः। ततो गुणबहुमानेन शिष्याः श्रावकाचा[चा]] मुक्त्वा शिष्यस्यैव पार्थ धर्म शृण्वन्ति, भक्तिं बहुमानं च कुर्वन्ति । ततः कर्मवशात्प्रद्वेष ४ मावनाद्वारे परपरिवाद दो वहति मरिस्तथापि शिष्यः स्वोचितप्रतिपत्तिं न मुश्चति । इति व्रजति काले [मरिः] तथैव कलुषितचित्तो मृत्वोद्याने विषधरो जातः । शिष्य आचार्योऽभूत् । अन्यदा वने बहिभूमिगम ने सोहिः शेषान् साधूस्त्यक्त्वा तमाचार्य प्रति पूर्वपद्वेषानुसन्धितो धावति नित्यं, सूयुदाहरणम्। स्थविरैराचार्य: प्रोत-कोऽपि विराधितश्रामण्योऽसौ। अथ तत्रैवागत्य समवसृतः केवली साधुभिस्तद्भुजङ्गमव्यतिकरं पृष्टः प्राह-18 पूर्वभवेऽसौ सरिरासीत् , सोऽस्मिन् समत्सरो विराधितचरणोऽहिर्जात इति । ततः संवेगमुपगताः साधवः केलिवचनात्तदुपशमनोपायं प्राग्भवप्ररूपणमेव मत्वा तथैव च कृते सर्पः प्राग्भाव्यतिकरज्ञानेन सञ्जातजातिस्मृतिः कृतमिथ्यादुष्कृत उपशान्तोऽनशनविर्षि विधायोत्पन्नः सुरेविति भोक्तव्यः प्रद्वेषः परपरिवादश्च भवहेतुरिति । इति सूरिकथा समाप्ता ॥ इति परपरिवादं प्रास्तसाधुप्रवादं, परिहरत हिताय स्वात्मनः सव्यपायम् । गुणिगुणगणनायां साधुवादप्रदायां, कुरुत शिवसुखाप्त्यै जैनधर्मे च चित्तम् ॥ ९॥ इति पुष्पमालाविवरणे भानाद्वारे परपरिवादनिवृत्तिरूपं प्रतिद्वारं समाप्तः ॥ १७ ॥ अथ धर्मस्थिरतारूपं प्रतिद्वारं बिभणिषुः पूर्वेण सम्बन्धयमाह PUR पुव्वुत्तगुणसमग्गं, धरिउं जइ तरसि नेय चारितं । सावयधम्मम्मि दढो, हवेज्ज जिगपूयगुज्जुत्तो ॥४६२॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या-पूर्वोक्ताः कषायेन्द्रियजयादयो ये गुणास्तैः समग्रं-सम्पूर्ण चारित्रं यदि धत्तु-पालयितुं न शक्रोसि, तदावरणपुष्पमाला कर्मोदयात् , तदा आगमोक्तेन विधिना श्रावकधर्मेऽपि सम्यक्त्वाणुव्रतादिपरिपालनलक्षणे दृढो-प्रकम्पचित्तो भवेस्त्वं । कथम्भृतः ४ भावनाद्वारे लघुवृत्तिः समित्याह-जिनपूजने उद्युक्तः -- उद्यमपरः सन्नित्येवं परपरिवादविरतेनापि जिनधर्मे हढेन भवितव्यमिति तद्द्वारानन्तरं धर्म- धर्मस्थिरताया१२८४।। 1४ स्थिरताद्वारमिति गाथार्थः ॥४६२॥ कतिप्रकाराऽसौ जिनपूजा भवतीत्याशङ्क्याह मष्टप्रकार पूजाविधान वरपुप्फगंधअक्खय-पईवफलधूवनीरपत्तेहिं । नेविज्जविहाणेहि य, जिणपूया अट्टहा होई ॥४६३॥ ___व्याख्या-पुष्पगन्धाक्षतप्रदीपफलधूपनीपात्रैनैवेद्यविधानश्च जिनपूजाऽष्टधा भवति । इह च गन्धग्रहणेन श्रीस्त्रण्ड-12 विलेपनादिग्रहः, धूपोपादानेन तु कर्पूगगुरुप्रभृतिग्रहः । एवं कुसुमादयोऽपि वस्त्राद्युपलक्षणं यथासम्भवं वाच्या इति गाथार्थः ॥१६३॥ अथ सझेपतो जिनपूजायाः फलमाह --- उवसमइ दुरियवग्गं, हरइ दुहं जगइ सयलसोक्खाइं । चिंताईयं पि फलं, साहइ पूयो जिणिंदाणं ।।४६४॥ व्याख्या-उपशमयति दुरितवर्ग-पापसमूह, हरति दुःखं इष्टवियोगादि, जनयति च सकलसौख्यानि, चिन्तातीतमपि फलं स्वर्गापवर्गादिसुखं साधयति जिनेन्द्राणां पूजेति गाथार्थः ॥४६४॥ अथ जिनपूजाफले दृष्टान्तमाहपुप्फेसु कीरजुयलं, गंधाइसु विमलसंखबरसेगा । सिववरुणसुजससुब्धय-कमेण पूयाए आहरणा ॥४६५॥ २८४॥ CRACCRICCCX ASHISHASR AS Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ।। २८५ ।। %%%%%% व्याख्या - पुष्पेषु तावत्कीरयुगलं- शुक्र मिथुन मुदाहरणं, गन्धादिषु विमलशङ्खवरसेनाः शिववरुण सुयशस्सुव्रताः क्रमेण पूजायामुदाहरणानीति गाथार्थः || ४६५ ॥ तानि चामूनि --- अत्र भरते मध्यमखण्डे वनविशालाटव्यां खेचरकारितरत्नमयजिनभवनद्वारे सहकारे कीरयुग्मं स्थितं, श्राद्धान् श्रीजिनं पूजयन्तो दृष्ट्वा हृष्टं, तदपि वनकुसुमैर्जिनमपूजयत् शुभभावप्रकर्षान्धं बोधिवीजं तत्पुण्याच्छुकजीवः पृथिवीतिलकपुरे जितशत्रुनृपपुत्रोऽजनि । तस्मिन् गर्भस्थे मातुः खप्ने कुण्डलयुगलदर्शनात्पितुर्निधिप्राप्तेश्च निधिकुण्डल इति तन्नाम कृतं, कीरभार्याऽपि मृत्वाऽन्यत्र पुरे पुरन्दरयशानाम्नी नृपनन्दना दैववशान्निधिकुण्डलस्य राज्ञी जाता । तत्र तौ भोगान् शुक्त्वा जिनधर्मपरौ द्वितीयकल्पे शकसामानिको जातो, ततश्रयुतौ निधिकुण्डलजीवो ललिताङ्गनामा नृपपुत्रोऽभूत् । अन्योऽप्यमरो नृपगृहे उमादेवी पुत्री जाता तत्रापीयं स्वयंवरा ललिताङ्गेन परिणीता । ततो राज्यं प्रपाल्य तीर्थकर पार्श्वे प्रव्रज्य सम्यगाराध्य द्वावपीशान देवलोके देवौ जातौं । ततो ललिताङ्गजीवो देवसेनाख्यो राजसुतः सञ्जातः इतरोऽपि वैताढ्ये चन्द्रकान्तामिधा खेचरपुत्रीत्वेन सञ्जातः । तत्रापि देवसेनो दैववशात्तां परिणीय राज्यं भुक्त्वा पञ्चात्प्रवज्यां प्रतिपद्य परिवाच्य ब्रह्मलोके द्वावपीन्द्रसामानिको सुरौ जातौ । ततश्युत्वा देवसेनसुरो महाविदेहे पूर्वभागे प्रियङ्करामिववर्त्ती इतरस्तस्यैव मन्त्री जातः । पूर्वभवाभ्यास तस्तयोरत्यन्तं प्रेमासीत् । ततो विस्मितचित्ताभ्यां ताभ्यामन्यदा स्नेहकारणं पृष्टस्तीर्थकरः कीरभवादारभ्य जिनपूजनादिवृत्तान्तं तयोस्सर्वमचीकथत् । तच्छ्रुत्वा संवेगात्ताभ्यां तस्यैव तीर्थकरस्य पादमूले प्रव्रज्या प्रतिप्रश्ना, कालेन तौ गीतार्थो भूत्वा तीव्राभिग्रहान् प्रपाल्य केवलज्ञानमुत्पाद्यापगतकर्माशौ सिद्धौ । इति कीरयुग्माख्यानकं समाप्तम् । ४ भावनाधिकारे जिन पुष्प पूजायांकीरयुगलो दाहरणम् । ||२८५|| Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२८६॥ ___ अथ जम्बूद्वीपे महाविदेहे पुण्डरीकिण्यां पुर्यां वरसेनश्चक्री, सोऽन्यदा समवसरणे जिनदेशनां शृणोति, तावत्सप्तमकल्पादष्टौ तुरान् दीप्तिभासुरान् सुरभिगन्धवासितसर्वपर्षदो वन्दनार्धमागतान् दृष्ट्वा विस्मितश्चक्री जिनमपृच्छत्-भगवन् ! एते देवा कुत A भावनाधिकारे आगताः, के च पूर्वभवे आसन् ?, किमतः सुकृतं कृ?, यन्निजसमृद्ध्या समग्रमपि सुरगणं परिभवन्ति । जिनः प्राह-धातकी- अष्टविधपूजाखण्डभरते महालयपुरे वसुश्रेष्ठी, तस्य धन-विमल-शब-वरसेन-शिव-वरुण-सुयशः-सुव्रतनामानोऽष्टसुताः । सर्वे कलासुकुशला यां भ्रातरप्टकरूपलावण्यगुणकलिताः स्थिरचित्तास्तीर्थकरपाश्वेऽष्टविधपूजाफलं श्रुत्वाऽटावपि प्रत्येकं तां विधाय कुसुमादिभेदेवेकैकं भेदं विशेषतः कथानकम् । सम्पाद्य पञ्चविंशतिलक्षपूर्वाणि जिनपूजां विधाय तथा द्वादशत्रतानि निरतिचाराणि प्रतिपाल्य पर्यन्ते मासं मासमनशनं कृत्वा सप्तमकल्पे सर्वेऽप्येकस्मिन्नेव विमाने सप्तदशसागरायुषः सुरा जाताः, जिनपूजामाहात्म्यतत्रिभुवनजनमनोहारिरूपादिगुणाः प्राप्ताः।। अवधिना पूर्ववृत्तान्तं ज्ञात्वाऽस्मद्दर्शनार्थमागता एते, अतश्युत्वा विदेहेषु सेत्स्यन्ति, इति श्रुत्वा चक्रवर्तिप्रभृतिप्रभूतजनो जिनपूजाघभिग्रहान् गृहीत्वा प्रतिपाल्य परमफलं प्राप्तवान् । इति पूजाफले विमलादिकथानकं समाप्तम् ॥ इह च कुसुमपूजोदाहरणे धननाम्नि विद्यमाने यत्पूर्व कुसुमेषु कीरयुग्मोदाहरणमुक्तं, तत्तथाविधविवेकविकलानां तिरश्चामपि भावशुद्ध्या जिनपूजा विधीयमाना महते गुणाय स्यात् , किं पुनर्मनुष्याणामित्यस्यार्थस्य दर्शनार्थ मन्तव्यम् । तस्मिंश्व तत्रोक्ते यदिह सूत्रेऽनुपात्तमपि कुसुमे धनोदाहरणं तत्प्रस्तुतकथासम्पूर्णतासम्पादनार्थमवसेयमिति। अथ जिनदीक्षां कर्तुमसमथों यदि श्रावकत्वमपि जिनपूजनादिना सम्यग् नाराधयेत्तदा तेन हारितमेव जन्मेति दर्शयन्नाह- mean अन्नो मुक्खम्मि जओ, नथि उवाओ जिणेहिं निद्दिट्ठो। तम्हा दुहओ चुक्का, चुक्का सव्वाण वि गईणं ॥४६६॥ ४॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्या-यतो-यस्माद्विशिष्टयतिधर्मश्रावकधर्मावन्तरेणान्यो मोक्षविषये नास्त्युपायः कोऽपि जिननिर्दिष्टः, तस्मात् पुष्पमालाला "दुहओ"त्ति विशिष्टयतिधर्म-श्रावकधर्माभ्यां प्रकाराभ्यां ये "चुत्ति भ्रष्टास्ते सर्वेभ्योऽपि गतिभ्यः-प्रकारेभ्यो भ्रष्टा एव || मावनाधिकारे रघुवृत्तिः द्रष्टव्या इति गाथार्थः ४६६॥ यद्येवं ततः किमित्याह साधुश्राद्धधर्मट ॥२८७॥ | तो अवगयपरमत्थो, दुविहे धम्मम्मि होज्ज दढचित्तो। समयम्मि जओ भणिया, दुलहा मणुयाइसामग्गी॥४६॥ भवनोपदेशः २व्याख्या-ततोऽवगतपरमार्थः सन् यतिश्रावकभेदाभ्यां द्विविधे धर्मे दृढचित्तो भवेस्त्वं, यतः समये-सिद्धान्ते दुर्लभा । | मनुष्यत्वादिसामग्री भणितेति गाथार्थः ४६७॥ तच्चातिदुर्लभं मनुजत्वं कथमप्यवाप्य यो धर्मविषये प्रमाद्यति स मरणकाले शोचतीत्याह- ४ अइदुल्लहं पि लद्धं, कहमवि मणुयत्तणं पमायपरो । जो न कुणइ जिणधम्मं, सो झूरइ मरणकालम्मि ॥४६॥ उक्तार्था ॥४६८॥ कथं शोचतीत्याहजह वारिमज्झछूढो व्व, गयवरो मच्छउव्व गलगहिओ। वग्गुरपडिओ ब मओ, संवट्टइओ जहव पक्खी ॥४६९॥ - व्याख्या-गजबन्धनोपायभूतं यत्कूटं विरच्यते तद्वारीत्युच्यते, ततो यथा तन्मध्यक्षिप्तो गजः शोचति-पश्चात्तापं करोति, | यथा वा वंशाग्रवर्तिपर्यन्तप्रोतामिषखण्डलोहमयचक्रकीलवरूपेण गलेन-बिडिशेन गृहीतो गल गृहीतो मत्स्यः शोचति, यथा वागुरा यामाखेटिकजनप्रसिद्धायां पतितो मृगः शोचति, संवर्तितो वा-पाशेन बद्धः पञ्जरे क्षिप्तो यथा पक्षी शोचति तथा जीवोऽप्यकृतशुभ M॥२८७१ सञ्चयो मरणकाले शोचतीति गाथार्थः ॥४६॥ यस्तु विभवादिष्वस्थिरेषु प्रतिबद्धो धर्म प्रमाद्यति सोऽप्यज्ञ एवेत्याह SECRECECRECCLECR Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rece जललवचलम्मि विहवे, विज्जुलयाचंचलम्मि मणुयत्ते। धम्मम्मि जोऽवसीयइ, सो काउरिसोन सप्पुरिसो॥४७०॥ पुष्पमाला व्याख्या-कुशाग्रवर्तिजलबिन्दुर्जललवस्तद्वच्चञ्चले-क्षणध्वंसिनि विभवे, तथा विद्युल्लताचञ्चले मनुजत्वे, उपलक्षणाद्यौवन- ४ भावनाधिकार लघुवृत्तिः 8| स्नेहादिष्वस्थिरेषु सत्सु यो धर्मेऽवसीदति स कापुरुषो, न सत्पुरुषः, इति गाथार्थः ॥४७४।। विना धर्मेण ॥२८८॥ किञ्च यदि विषयादीन् वाञ्छसि तथापि धर्म एवोद्यम कुर्वित्याह वाञ्छितार्थाA वरविसयसुहं सोहग्ग-संपयं पवररूवजसकित्तिं । जइ महसि जीव! निचं, ता धम्मे आयरं कुणसु ॥४७१॥ प्राप्तिः। व्याख्या-वरं विषयसुखं, सौभाग्यसम्पदः, प्रवरं रूपं, यशः कीर्ति च यदि महसि-श्लाघसे वाञ्छसीत्यर्थः, रे जीव ! ४ तर्हि धर्म एवादरं कुरु, यतस्तत्सम्पद्यते, तत्कारणत्वाद्धर्मस्येति गाथार्थ ॥४७॥ जनु धर्भण बिनाप्यमूनि वाञ्छितानि भविष्यन्तीत्यत्राह 11 धम्मेण विणा परिचिं-तियाई जइ हुंति कहवि एमेव। ता तिहुयणम्मि सयले, न हुज्ज इह दुक्खिओकोई।।४७२।।६।। ___ व्याख्या-धर्मेण विनाऽपि यदि कथमप्येवमेव चिन्तितानि भवन्ति, तर्हि इह मकले त्रिभुवने कोऽपि दु खितो न भवेत्, दृश्यन्ते च नानादुःखानुभवभाजिनो जीत इति चिन्तितार्थिना धर्म एवं कार्य इति गाथार्थः ॥४७॥ न च वाच्यं धर्माधर्मों न स्तः, सुखदुःखादेस्तत्कार्यस्य दर्शनादित्याहतुल्ले वि माणुसत्ते, के वि सुही दुक्खिया य जं अन्न। तं निउणं परिचिंतसु, धम्माधम्मफलं चेव ॥४७३॥ २८८॥ व्याख्या-तुल्येऽपि मानुषत्वे कऽपि सुखिता दृश्यन्ते दुःखिताश्च यदन्ये तद्धर्माधर्मफलमे वेति निपूर्ण-सम्यक् परिचिन्तय। 9A%A-AAS Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृत्तिः ॥२८९ ॥ अयं चार्थो विमलयशाकथायां प्राक् प्रपञ्चित इति नेह प्रतन्यत इति गाथार्थः || ४७३॥ अथ सदृष्टान्तं प्रस्तुतोपसंहारमाहता जइ मणोरहाण वि, अगोयरं उत्तमं फलं महसि । ता धणमित्तोव्व दढं, धम्मे च्चिय आयरं कुणसु ॥ ४७४ | व्याख्या - यत एवं तद्यदि मनोरथानामप्यगोचरं किमप्युत्तमं [फलं] वाञ्छसि तर्हि धनमित्र इव दृढं धर्म एव कुर्विि गाथार्थः || ४७४ || कथानकं तुच्यते इह जम्बुद्वीपे भरते विनयपुरे बसुश्रेष्ठी, भद्रा भार्पा, तयोः पुत्रो धनमित्रः, बाल्येऽपि तस्य कियद्दिनैर्द्रविणं कुटुम्बं चक्षयङ्गतं कथमपि कष्टेन वृद्धिङ्गतः । प्राप्तयौवनस्य तस्य द्रव्योपार्जनोपाया निष्कला अभवन्, दुःखाद्वने गतः, क्षीरवृक्षे प्ररोद्दद्वयं दृष्ट्वाऽधो निधानद्वयमासीत् । भुवं खनित्वा विलोकयति तदाऽभाग्यात्तयोरङ्गारान् पश्यति, ततो धनार्थ पुनर्बहुषु जलस्थलगिरिनगरेषु भ्रमन् हस्तिनागपुरे सहस्राम्रवने केवलज्ञानिनं श्रीगुणसागरसूरिं स्वप्राग्भवमपृच्छत्, किश्च मया चक्रे ? येनेदृशोऽहं दुःखीति । सूरिराह-अत्रैव विजयपुरे नगरे प्राक् त्वं गङ्गदत्तनामा गाथापतिरासीत्, स च धर्मस्य नामापि न वेत्ति, धर्मकरणप्रवृत्तानां च विघ्नं करोति, स्वभावात् क्रोधनः, कस्यापि कपर्दिकामात्रं लाभं द्रष्टुं न शक्नोति, विविधोपायैर्लाभविघ्नं जनयति, यदि पुनः कस्यापि | लाभं प्रेक्षते तदा दाघज्वरादिभिर्गृह्यते । अन्यदा सुन्दरनाम्ना श्रावकेण कृपया कथमपि नीतो मुनीनां पाव, तैरप्युक्तो धर्मः, ततः किञ्चित्स्वभावेन श्रावकोपरोधेन च नित्यचैत्यवन्दनाभिग्नहेण समं द्वादशत्रतानि प्रतिपद्य गृहं गतो गङ्गदत्तः । ततः कानिचिदतिचार मलिनानि करोति व्रतानि कानिचिन्मूलतो नाशयति, एकं पुनर्नित्य चैत्यवन्दनाभिग्रहं द्रव्यभावाभ्यां प्रतिपालितवान् परेषां लाभविघ्नादिकुर्वन् समत्सरो मृत्वा धनमित्रस्त्वं जातः, व्रतभङ्गादिसमुत्पन्नपापपटलेनोत्तमकुलोऽपि निःस्वोऽसि । ततस्तदालोच्य - ४ भावनाधिकारे धर्मत्वे धनमित्र कथानकम् । ॥२८९॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फ भावनाधिकारे दृढधर्मत्वे धनमित्र कथानकम् । -1 शुद्धं धर्म कुर्वनन्यदा कश्चन नरं निधिं त्यक्तवन्तं दृष्ट्वाऽपृच्छत्-भोः ? किं करोषि ?, स प्राह-मत्पित्राव खर्ण प्रोक्तं परमगाराः सन्तीति त्यजामि, नूनं वश्चितोऽहं, धनमित्रो विलोकयति तावत्स्वर्ण पश्यति, ततस्तस्योचित मूल्यं दत्वा ते धनदत्तेन गृहीताः, गृहे पिमाला इघुवृत्तिः ४ गत्वा यावत्सम्भालयति तावधिभत्सहस्राणि सुवर्णस्य जातानि, तनिधानादिधनेन बहुधनमर्जयित्वा धर्म एव व्ययति, पूर्णिमाऽमा॥२९॥ वास्यास्टमीचतुर्दशीषु प्रतिमया तिष्ठति, तद्धर्मप्रभावात्कीर्तिलक्ष्मीश्चातिविस्तारं प्राप्ताः। अनेकधा शासनप्रभावनाः कृत्वा प्रव्रज्यां प्रतिपद्योग्रं तमस्तप्त्वा दीर्घकालं पर्यायं प्रतिपाल्य सिद्धः श्रीधनमित्रः, एवं समतिकान्तान्यपि सौख्यानि धर्मादेव जायन्त इति धर्ममेव कुरुत, इति धनमित्रकथानकं समाप्तम् ।। इति हि यदि भवन्तः शर्मसम्पत्सतृष्णाः, स्वमनसि विकसन्तः सन्तु धर्मैकनिष्ठाः। न खलु किमपि यस्मादन्यदस्त्यर्थसिद्धौ, प्रवरकरणमूतं भूतले प्राणभाजाम् ॥१॥ इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे धर्मस्थिरतालक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तम् ॥१८॥ अथ परिबाद्वार, तत्र परिज्ञानं परिक्षा, सा च द्विधा-ज्ञानतः फलतश्च, तत्राद्या हेयोपादेयवस्तुपरिझानरूपा, फलतस्तु विरत्याराधनात्मिका, "ज्ञानस्य फलं विरति" रिति वचनात् । विरत्याराधनाऽपि द्विविधा-पर्यायपरिपालनकाले पर्यन्तसमये च । तत्र पर्यन्ताराधनामधिकृत्य पूर्वग्रन्थेन सम्बन्धगर्भमुपदेशमाह इय सव्वगुणविसुद्धं, दीहं परिपालिऊण परियायं । तत्तो कुणंति धीरा, अंते आराहणं जम्हा ॥४७५॥ ____ व्याख्या इति पूर्वोक्तधर्मस्थिरतापर्यन्तैः सर्वैरपि गुणैर्विशुद्धं दीर्घ-चिरकालं परिपाल्य चारित्रपर्याय, ततश्चान्ते-मरणकाले - A AACCORCHAR R Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ भावनाधिकारे पर्यन्ताराधनो पमाला घुवृचिः ॥५९॥1 पदेशः। प्रत्यासन्ने धीरा-महासत्ताः संलेखनापूर्व पादपोपगमनादिरूपामाराधनां कुर्वन्ति तीर्थदादयः, अत एव हि धर्मस्थिरतापर्यन्तानि द्वाराण्यभिधाय तदन्ते परिज्ञाद्वाराभिधानमिति सम्बन्धमणनं । कुतस्ते पर्यन्ते आराधनां कुर्वन्ति ? इत्याह-"जम्ह"त्ति यस्मादिद- मागमे प्रोक्तमिति गाथार्थः ।।४७५॥ आगमोक्तमेवाहसुचिरं पि तवो तवियं, चिन्नं चरण सुयं च बहुपढियं । अंते विराहइत्ता, अणंतसंसारिणो भणिया ॥४७६॥ | ___ व्याख्या -यैः सुचिरमपि तपस्तप्तं, चरणं चीर्ण, श्रुतं च बहुपठितं, तथाप्यन्ते तपःप्रभृतीन् विराधयित्वा अनन्तसंसारिणो भणिता इति गाथार्थः ॥४६॥ दुर्लभ चान्ते समाधिमरणमित्याहकाले सुपत्तदाणं, चरणे सुगुरूण बौहिलाभं च । अंते समाहिमरणं, अभवजीवा न पावंति ॥४७७॥ व्याख्या-काले-तथाविधावसरे सुपात्रदान, तथा सुगुरूणां चरणे-समीपे इत्यर्थः, बोधिलाभं च, तथा अन्ते समाधिमरणं, अभव्यजीवा उपलक्षणारभव्या अपि न प्राप्नुवन्तीति गाथार्थः ॥४७७॥ अथाधिकृतमरणस्यैव स्वरूपमाहसपरक्कमेयर पुण, मरणं दुविहं जिणेहिं निद्दिळं । एक्के पि य दुविहं, निवाघायं सवाघायं ॥४७८॥ व्याख्या-इह प्रस्तुतमरणं पुनर्जेनेन्द्रविविध निर्दिष्ट, सपराक्रममितरदपराक्रममिति । तत्र सह पराक्रमेण-भिक्षाचर्यादिगमतगणान्तरसक्रमणादिरूपेण वीर्येण वर्चत इति सपराक्रमस्तथाभूतो यन्मरणं प्रतिपद्यते तत्सपक्रम, तद्विपरीतमपक्रमां पुनरेकै द्विधा-निर्व्याघातं सव्याघातं च । अयमर्थः-रोगपीडासर्पदशनाग्निदाहशस्त्रघातादिकेन व्यघातेन विनाऽपि खस्थावस्थायां यो मरणं प्रतिपद्यते तत्सपराक्रमस्वापराक्रमस्य च निर्व्याघातं । तद्विपर्यये तु सव्याघातमिति गाथाथः ॥४७॥ 15646450%A5%%% ॥२९ RRC Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला लघुवृतिः ॥२९२॥ अथ सूत्रकृदेव सपराक्रम मरणस्वरूप माह सपरक्कमं तु तहियं, निव्वाघायं तहेव वाघायं । जीयकप्पम्मि भणियं, इमेहिं दारेहिं नायव्वं ||४७९ || व्याख्या - तत्र मरणयोर्मध्ये सपराक्रमं तु निर्व्याघातं तथैव व्याघातयुक्तं च 'जीतकल्पभाष्ये' एतैरनन्तरवक्ष्यमाणेद्वारेभणितं ज्ञातव्यमिति गाथार्थ : ४७९ ।। तान्येव द्वाराण्याह - सगणु निरसणपरगणे, सिति संलेहे अगीयसंविग्गे । एगो मोयणमन्ने, अणपुच्छ परिच्छया लौए ॥४८०॥ ठाण व सही पत्थे, निज्जवगा दवदायणे चरिमे । हाणि परितं तनिज्जर - संथारुवत्तणाईणि ॥ ४८१ ॥ सारेऊण य कवयं, निव्वाघाएण चिंधकरणं च । वाघाए जायणया, भत्तपरिण्णाऍ कायव्वा ||४८२|| व्याख्या - इह - भक्तप्रत्याख्यानं चिकीर्षुणा आचार्यादिना स्वगणान्निस्सरणा-निर्गमनं समयोक्तयुक्त्या कर्तव्या १ परगणे च विधिना सङ्क्रमणं कार्य, कुत एतदित्युच्यते - स्वगच्छे हि तिष्ठन्तं संलिखितशरीरं परलोकप्रस्थितं आचार्यादिकं दृष्ट्वा माध्यादयो रोदनः क्रन्दनादिकं कुर्वन्ति, ततस्तस्याचार्यादेर्ष्यानविघ्नः सम्पद्यते, तथोपकरणादिव्यतिकरे कलहयतः साधून् दृष्ट्वा तस्यासमाधिरुत्पद्यते, इत्यादिकारणकलापः सिद्धान्तादवसेय इति २ । 'सिति'त्ति श्रेणिर्विशेषतः पर्यन्ताराधनासमये प्रशस्ताध्यवसायपरम्परा लक्षणैव भावश्रेणिः प्रतिपत्तव्या ३ । 'संलेहे' त्ति संलेखनं संलेखः, शरीराद्यपकर्षणरूपा संलेखनेत्यर्थः, सा च त्रिधा - जघन्या पाण्मासिकी मध्यमा सांवत्सरिकी उत्कृष्टा द्वादशवार्षिकी । सा चैवं ४ भावनाधिकारे | सपराक्रमेतरमरण स्वरूपम् । ॥२९२॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "चत्तारि विचित्ताई, विगईनिजहियाइं चत्तारि । संवच्छराई दुन्नि य, एगंतरियं च आयामं ॥१॥" पुष्पमाला "नाइविगिळं च तवो, छम्मासे परिमियं च आयाम । अन्ने वि य छम्मासे, कुणइ विगिटूठं तवोकम्मं ॥२॥" ४४ भावनाद्वारे लघुवृत्तिः "वास कोडीसहियं, आयामं कुणइ आणुपुवीए । बारस वासा संले-हणाए इय हुति उक्कोसा ॥३॥" दासलेखनाऽनशन ॥२९३॥ इह च द्वादशे वर्षे पारणादिने भोजनं कुर्वन् प्रतिदिनमूनोदरतां तावत्करोति यावदेकमेव सिक्थं भुते, किञ्चह पर्यन्तवर्ति विधिः। नश्चतुर्मासान् यावदेकान्तरितेषु पारणकदिनेषु चिरं तैलगण्डुषमसौ मुखे धार्यते, ततः खेलमल्लके भस्मनि प्रक्षिप्य मुखमुष्णोदकेन शोधयति, यद्येवं न कार्यते तदा वायुना मुखभीलनसम्भवेऽन्त्यसमये नमस्कारमुच्चारयितुं न शक्नोति, तदेवमेतदनुसारेण जघन्यमध्यमेऽपि संलेख्ने कार्ये, तदन्ते च भक्तप्रत्याख्यानाद्यन्यतरन्मरणं प्रतिपद्यते इति ४। 'अगीयत्ति अगीतार्थान्तिके भक्तं न प्रत्याख्यातव्यं, ते हि बुभुक्षापिपासादिना बाध्यमानं भक्तादियाचमानं भक्तप्रत्याख्यातारं दृष्ट्वा सहसैव परित्यजन्ति, न सूत्रोक्तयतनया जाग्रति, ततोऽयमार्तध्यानपतितो व्रतमपि त्यजेत् , मिथ्यात्वं गच्छेत् , मृत्वा च व्यन्तरादिषु चोत्पन्नस्तेषामुपघाताय प्रवर्तते, इत्याद्य४ा म्यूज़, गीतार्थास्तु तथाविधं तं दृष्ट्वा समाश्वास्य स्थिरीकृत्य समधिमुत्पादयन्ति, ततः सुगतिगामिनममुं कुर्वन्तीत्यायन्यतरं ज्ञात्वा गीतार्थान्तिके एव भकं प्रत्याख्यातव्यमिति ५। 'संविग्गे'त्ति गीतार्थवापि संविग्नस्यान्तिके भक्तं प्रत्याख्यातव्यं, न शिथिलस्य, | सो ह्याधाकर्माद्याहारौषधपथ्यादिसमानीय प्रयच्छति, यश-कीर्त्तिकामितया जनविज्ञातं करोति, ततो लोकः पुष्पाद्यारम्भं करोतीत्यादि दोषा अभ्यूह्याः ६। 'एग' ति गीतार्थसंविग्नोऽप्येको निर्यापको न कार्य:, किन्तु वक्ष्यमाणसख्योपेता अनेके, अन्यथा भक्तप्रत्याख्यातुनिर्यापके पानकादिप्रयोजनेन गते सति तस्या-ध्यानादयो दोषाः स्युरिति ७। 'आभोयणति आभोगनमाभोगोऽति ARTA २९॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला भावनाद्वारे अनशनविधि कवृत्तिः । ॥२९४॥ CACANCE शयज्ञानाद्युपयोगः, अयमर्थः-भक्तं प्रत्यख्यातुमुद्यते साचादौ मरिणा स्वयमतीन्द्रियवाने उपयोगो दातव्यः, किमयं स्वप्रतिज्ञायाः पारगोन वा?, आयुः परिसमाप्तिश्चास्यामुकदिने सम्पत्स्यते ? इत्यादि। अयैतत्परिवानं खां नास्ति तान्ये पृच्छयन्ते, तदभावे तु है मन्त्रसामर्थ्यांकृष्टा देवताः पृच्छयन्ते, तदभावे शकुना विठोक्यन्ते, एवमपरैरपि प्रकारैरतीन्द्रियं पर्यालोचनीयमिति ८। 'अने'त्ति अन्यस्मिन् साधौ भक्तारिज्ञार्थमुपस्थिते विधिर्वाच्यः, यथा-यद्येककालं द्वौ साधू भक्तारिज्ञार्थमुपस्थितौ, तदैकः संलेखनां | करोत्यपरस्तु भक्तप्रत्याख्यान कार्यते, तृतीयादयोऽपि च यद्युतिष्ठन्ति तदा तद्योग्याया अपि निर्यारकादिसामाः सद्भावे तेऽप्यङ्गीक्रियते, अन्यथ ऽऽर्तध्यानादिसम्मवानिषिक्ष्यन्ते, यश्च भक्तप्रत्याख्याता अङ्गीकृतोऽस्ति स यदि कथञ्चित्प्रत्याख्यानाद्भज्यते जने च भक्तप्रत्याख्याततया ज्ञातो दृष्टश्च भवति तदा यः संलेखनां कुर्वस्तिष्ठति स एव तत्स्थाने झगित्येवोपवेश्यते, चिलिमिली | चान्तरा बध्यते, यैश्व पूर्व ज्ञातो दृष्टश्च ते यदि वन्दनार्थमागच्छन्ति तदा तेषां पाश्चात्यो न दयते, किन्तूच्यते-द्वारस्था एव | वन्दधमित्यागभोक्तयतना वक्तव्येति । 'अणपुच्छं' त्ति स्वगणमनापृच्छयाचार्येण भक्तपरिज्ञोद्यतः सहसैव नाङ्गीकर्तव्यः, गच्छस्य तस्य च बृहदसमाधिप्रसङ्गादिति प्रतीतमेवेति १०। 'परिच्छय'ति अब परीक्षण परीक्षा, सा चागन्तुकस्याचार्येण गच्छसाधुभिश्च कार्या, किनसौ जितेन्द्रियत्वादिगुणैर्युक्तो न वेति, आगन्तुकेनापि च तेषां साधूनां परीक्षा कार्या, किमेते परिणतजिनवचना न वे त, तथाहि-भक्तं प्रत्याचिख्यातः समागतमात्रोऽपि तान् वक्ति-कल मशालिदुग्धादिकं मम भोजनार्थ समानयत ययं, ततश्चाहो !! जितेन्द्रियो भक्तप्रत्याख्यापनार्थमागतोऽस्तीत्यादिसोच्छण्ठमभिधाय यदि इसन्ति कुप्यन्ति वा तदा अभाविताईदचस एते मम समाध्युत्पादका न भविष्यन्तीत्याकलय्य परिहर्त्तव्याः। अथेन्छाम इत्युक्त्वा तत्प्रतिपद्यन्ते तदाऽईदचनमावि -C+ ॥२९ ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला घुवृतिः १९९५॥ ४ भावनाद्वारे अनशनोद्यत्व परीक्षादयः। तत्वादनीकत्तव्याः। आनीते च कमलशाल्यादौ सुन्दरमिदं भुजामीति गृद्धो यबसौ भोक्तुमारभते तर्हि यद्याहारे गृद्धिं त्यक्ष्यसि तदा भक्तपरिज्ञायोग्यो भविष्यसीत्याद्युक्त्वा अजितेन्द्रियत्वादागन्तुकोऽपि तैः साधुमिस्त्याज्यः, अथैवं वक्ति, यदुत-पूर्वगृहीताहारैर्यद्यहं व तृप्तस्तत्किमिदानीमनेन हतं प्राप्स्यामि ?, तस्माद्यद्यपि मया कथञ्चिदिदमागयि तथापि न भोक्ष्यामोत्यादि, तदा योग्यत्वात्स्वीकर्तव्यः । आचार्येणाप्यागन्तुकः परीक्षार्थमित्थं वक्तव्यो-देवानुप्रिय! संलेखना त्वया सम्यक्ता नवेति, ततश्च में कोपादङ्गली भक्त्वा पश्याचार्य ! अद्यापि मम शरीरे किश्चिन्छोणितादि वीक्षसे , हन्त !! किमीशदेहमपि मां कृतसंलेखनं न वेसि ?, येनेत्थं पृच्छसि । ततश्च मूरिणा वाच्यं-किं द्रव्यसंलेखनया, भावसंलेखनव कर्तव्या, सा च त्वयाऽद्यापि न कृता, कोपस्यैवासंलिखितत्वादित्याधुक्तः सन् यदि मिथ्यादुष्कृतं दत्त्वा क्षमयति तदा स्वीकर्तव्यो, नान्यथा, एवमन्याऽप्यत्र परीक्षा वक्तव्येति १२। 'आलोए' ति आलोचनमालोचना, सा च तस्मिन्समये विशेषतः सम्यग् दीक्षाग्रहणकालादारभ्य दातव्या, तस्यां च दत्तायां ये गुणास्तदप्रदाने च ये दोषास्तद्ग्रहणविधिश्वेत्येवमादिसर्व पूर्वमालोचनाद्वारोक्तं द्रष्टव्यम् १२ । 'ठाण' त्ति, प्रशस्तशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततश्च प्रशस्ते स्थाने भूभागलक्षणेऽसौ अनशनविधिः कार्यते। अयम्भावः-यत्र गीतनृत्यादीन्यासबानि स्युस्तथा यक्षगृहादिप्रत्यासत्तिर्यत्रारामोदकादिप्रत्यासत्तिश्च यत्र च कल्पपालरजकचण्डालघश्चिकाद्यासचिस्तत्स्थान त्याज्यम् , ध्यानव्याघातजुगुप्साक्षुद्रोपद्रवादिदोषसम्भवात् १३ । तत्राप्युद्गमादिदोषरहितं प्रशस्तं चतुःशालं त्रिशालं वा विस्तीर्ण वसतिद्वयं गृह्यते, तत्रैकस्यां भक्तप्रत्याख्याता प्रियते, अन्यस्यां साधवो भोजनादि कुर्वते, अन्यथा भक्तगन्धादिना तत्प्रत्याख्यातस्तदभिलापः स्यात् , ततोऽनेकदोषसम्भवादिति द्वार १४। 'निजय'ति पार्श्वस्थादयोऽगीतार्थाश्च निपका न कर्तव्याः, किन्तु व्याः, किन्तु २९५५ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला पघुवृत्तिः ॥२९॥ ४ भावनाद्वारे | अनशनोचतस निर्यापका। कालौचित्येन गीतार्थत्वादिगुणयुक्तास्ते चाष्टचत्वारिंशत्, तद्यथा-येऽनशनिनमुद्रतपनि परावतैपन्ति च, ते चत्वारो, ये चाभ्यन्तरद्वारमले तिष्ठन्ति तेऽपि चत्वारः२, एवं संस्तारकार:३, तस्यैव चाततत्तस्यापि धर्मकथाः४, [वादिनः] अग्रवारमूलावस्थायकाः६, तदुचितमक्तानयनयोग्या:७, पानकानयनयोग्या:८, उच्चारपरिष्ठापका:९, प्रस्रवणपरिष्ठापका:१०, बहिर्मकथका १५, प्रत्येकमेकैकातसृष्वपि दिक्षु क्षुद्रोपद्रवनिवारणाय चत्वारः सहस्रोधिनो महामल्ल १२, एवमेतेषु द्वादश स्थानेषु प्रत्येकं चत्वार इति सर्वेऽप्यष्टचत्वारिंशत् । अन्ये तूच्चारप्रस्रवणपरिष्ठापने मिलितेऽपि चतुरोऽभिधाय ततो दिक्षु द्वौ द्वावित्यौ महायोधान्मन्यन्ते, इत्येवमष्टचत्वारिंशतं प्रतिपादयन्ति । अथैतावन्त स्ते न लम्पन्ते ? तो कहान्या तावद्वक्तव्यं यावदवश्यं द्वौ निर्यापको कार्यो, तत्रैको भक्तगनकाद्यानयनाद्यर्थ पर्यटत्यन्यस्तु सावधान एव तत्समीपे तिष्ठतीति द्वारम् १५। 'दव्वदायणे चरिमे' ति चरमे-पर्यन्ते मरणकाल इत्यर्थः, तत्र च | मुमूर्षोः प्रायेण भोजनामिलापः समुच्छलत्यतस्तस्य समापुत्पादनार्थ सर्वाण्यपि स्तोकस्तोकानि दधिदुग्धघृतपकानशालिदालिव्यञ्जनादीनि द्रव्याणि प्रदर्थन्ते, यानि च तस्य प्रतिभासन्ते तानि विशेषतो दर्थले, यदि चपणीयानि न लभ्यन्ते तदा पञ्चकादिपरिहाण्या अन्यान्यप्यानीयन्ते । तानि च यद्यसौ मुक्ते तदा को गुणः? उच्यते-तस्याहारतृष्णाव्यवच्छेदस्तस्मिथा सति स्वस्थो वैराग्यमुपगत आहारस्यासारतादिस्वरूपं परिभातयन्सुखेनैव त्यजति प्राणान् , अन्यथा आर्तध्यानगदयो दोषा इति द्वारं १६ । । 'परिहीयमाण (हाणि)' ति यथाऽऽनीनं तदमौ भुक्ते तदा द्वितीयेऽह्नि परिहीयमाणं स्तोकमानीयते, यच्च तस्य प्रियं तद्विपरीत+ " तस्यानशनिनः प्रभावन मतिशायिनी श्रावकलोकैः क्रियमाणां दृष्ट्वा केचिदुरात्मनस्तामसहमानाः सर्वज्ञमतनिराकरणाय वाददानायोपतिष्ठन्ते. ततस्तेषां तिरस्करणाय वादिनो वावदूकाश्चत्वारः प्रमाणप्रवीणाः प्रगुणीभूतास्तिष्ठन्ति ।” प्रव० सारो० बृहदृत्ति, पत्र १७७ । २९६॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला कघुवृत्ति ॥२९७॥ B भावनाधिकारे ऽनशनकरणनियमा। रात्रिर्दिनं वा? इत्यादि, एवं च सारितो यद्यसौ प्रस्तुतं ब्रवीति तदा ज्ञायते न देवताऽधिष्ठितः, किन्तु परीषदबाधित इति ज्ञात्वा समाध्युत्पादनार्थ तोमरादिप्रहारकल्पादादिपरीषहावगणनहेतुत्वात्कवचमिव कवचमाहारो दीयते, ततस्तद्वलेन परीपहान् जित्वा प्रस्तुतपारगामी भवत्यसाविति द्वारम् २२। अनेन विधिना निर्व्याघातेन कारगतस्य साधोषित कर्तव्यं, तच्च द्विधा-शरीरत उपकरणतश्च, तत्र शरीरतस्तावद्भकं प्रत्याचिख्यासोः प्रथममेव लोचः कार्यः, गृहीते चानशने बहुदिनैः केशवृद्धिसम्भवे पुनर्लोचः कार्यः, उपकरणतस्तु कालगतस्यापि समीपे मुखपोतरजोहरणचोलपट्टरूपमुपकरणं मुच्यत एव, येन दिवमपि गतस्साधुरूपं दृष्ट्वा सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते, अन्यथा सुराष्ट्राश्रावकवन्मिथ्यात्वगमनसम्भवाद, किश्व-चिह्नमन्तरेण परिष्ठापने चौः कोऽप्ययं गलमोटनादिना विनाशित इत्याशङ्कया ग्रामाणां राजनिग्रहादयो दोषा इति द्वारम् २३ । व्याघाते-भक्तप्रत्याख्याने पराभन्मत्वरूपे पुनर्याचनाअन्वेषणा, संलेखनाकरणप्रवृत्तस्य द्वितीयस्य पूर्वोक्तविधिना तत्स्थाने उपवेशनार्थ क्रियते, अथ नास्त्यसौ तदा समयोक्तविधिरत्र द्रष्टव्यः। एतच्च सर्व भक्तपरिबाप्रत्याख्यानलक्षषे मरणे द्रष्टव्यम्, पादपोपगमनेङ्गिनीमरणयोस्तु विधिर्वक्ष्यते, एषां चायं विषयविभाग: सव्वाओ अज्जाओ, सव्वे वि य पढमसंघयणवज्जा। सब्वे य देसविरया, पचक्खाणे उ मरंति ॥१॥" इति गाथार्थः ॥४८२ । उक्तं द्विधाऽपि सपराक्रम, अथापराक्रममाहअपरकमो बलहीणो, निव्वाघाएण कुणइ गच्छम्मि । वाघाओ रोगविसा-इएहिं तह विज्जुमाईहिं ॥४८३॥ व्याख्या- अपराक्रमः कः? इत्याह-बलहीनः-परगणं गन्तुमशक्त इत्यर्थः, स एवम्भृतो निर्व्याघातेन रोगाद्युपद्रवाभावरूपेण करोत्युत्तमार्थ स्वगच्छेऽपि, न त्वन्यगणं गच्छतीत्यर्थः, व्याघातमेवाह-व्याघातो रोगविषादिभिस्तथा विद्युदादिभिश्च द्रष्टव्यः। &॥२९॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAT प्पमाला इधुवृतिः ॥२९॥ -X-RS- K मन्यत्किमप्यानीयते, प्रार्थयमाणस्य च 'स्वत्प्रियं नाद्य लब्ध'मित्याधुत्तरं क्रियते, आहारगृद्धिविच्छेत्री च देशना क्रियते, तृतीयदिनेऽप्येष एव विधिर्नपर-स्तोकतामानीयते, ततः परं सर्वथैव न किञ्चिदानीयते प्रतियोध्यते च । अथ पराभग्नत्वाद् गृद्धो न भावनाधिकारे प्रतिबद्ध्यते तदा पूर्वमेवान्यद्वारनिर्णीतो विधिराश्रियते इति १७॥ 'अपरितंत'त्ति अपरितान्तरप्यनिर्विणः प्रतिचकैनिर्जरार्थि- ऽनशनकरणभिर्यथाबलं यथापरिज्ञानं च सर्व तद्विषयंकत्यं विधेयमित्यर्थः १८ । 'निजर' ति भक्तपरिक्षानिनः परिचरकाणां च समक्षं गुणा:- 81 नियमा। कर्मनिर्जरा प्ररूपणा कार्या, यथा"कम्ममसंखिजभवं, खवेइ अणुसमयमेव आउत्तो। अन्नयरम्मि वि जोगे, सज्झायम्मि विसेसेण ॥१॥" इत्यतो यावत् "(कस्ममसंखिज्जभवं, खवेह अणुसमय मेव आउत्तो। अन्नयरम्मि विजोगे), विसेसओ उत्तमम्मि॥१॥" तदेवं उत्तमार्थस्वानशनलक्षणस्य सर्वोपरि निर्जराहेतुत्वात् सम्यगेवोद्यतैरयं विधेय इति द्वारं १९। 'संथारयत्ति संस्तारकविधि-टू वक्तव्यः, तत्र भूमौ शिलातले वा अस्फुटिते सोत्तरपट्टः संस्तारक आस्तीर्यते' तत्रोपविष्टः सुप्तो वा समाधिना तिष्ठति । अथेत्थं स्थातुं न शक्नोति, तदैकखण्डे, तदलामे द्विखण्डादिकेऽपि पट्टे संस्तारक आस्तीर्यते, तथापि स्थातुं न शक्नोति तदा एकट्यादयः कल्पा आस्तीर्यन्ते, तथापि समाध्यसम्भवे तूलिरास्तीर्यत इति द्वारम २०। उर्तनादीनीति, आदिशब्दात्परावर्तनबहिः प्रवातार्थनिस्सारणादिपरिग्रहः, एतानि च कोमलकराणां स्थिरगम्भीराणां-स्थिरसमर्थानां साधूनां पार्थात्कार्यन्ते, तस्य च समाध्युत्पादनार्थ देशनां कुर्वन्ति साधव इति २१। 'सारेऊण य कवयं ति प्रत्याख्यातेऽप्याहारे यद्यसौ कथमप्याहारं प्रार्थयते तदा मा कथञ्चिदसौ प्रत्यनीकदेवतयाऽधिष्ठितो याचते इति परीक्षार्थ प्रथमं तावत्सारणा क्रियते, कोऽसि त्वमगीतार्थों गीतार्थो वा? इदानीं ॥२९॥ VERENA C +CC Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला प्रवृत्तिः ॥१९९॥ तत्र क्षणमात्रेणैव मरणकारी शूलादिरोगो विद्युद्व्याघ्रादिभयं च यत्रैव स्थितस्योपजायते तत्रवोत्तमार्थ प्रतिपद्यते इति भाव इति | | गाथार्थः ॥४८॥ अथ पण्डितमरणस्यैव माहात्म्यमाह ४ मावनाधिकाने एक पंडियमरणं, छिंदइ जाईसयाई बहुयाई । एकं पि बालमरणं, कुणइ अणंताई दुक्खाई ॥४८४॥ वालपण्डितमा व्योख्या-एकं पण्डितमरणं छिनत्ति जन्मशतानि बहूनि, एकमपि बालमरणं करोत्यनन्तदुःखानीति गाथार्थः ॥४८४॥ II योरन्तरम् । मरणे चोपस्थिते धीरतैव कर्तव्येत्याहधीरेण विमरियव्वं, काउरिसेण वि अवस्समरियव्वं । ता निच्छियम्मि मरणे, वरं खुधीरत्तणे मरियं ॥४८५॥ , व्याख्या-धीरेणापि मर्तव्यं, कापुरुषेणाप्यवश्यं मर्त्तव्यं, तनिश्चिते मरणे धीरत्वे एव मृतं वरमिति गाथार्थः ।।४८५॥ ननु पादपोपगमनादिपण्डितमरणेन मृताः प्राणिनः क्व यान्तीत्याहपाओवगमेण इंगिणि-भत्तपरिणाइविबुहमरणेणं । जंति महाकप्पेसुं, अहवा पाविंति सिद्धिसुहं ॥४८६॥ व्याख्या-पादपोपगमनेङ्गिनीभक्तपरिक्षाऽऽदिविबुधमरणेन मृताः प्राणिनो यान्ति महाकल्पेषु-अनुत्तरविमानेषु, अथवा निष्ठितकर्माणः प्राप्नुवन्ति सिद्धिसुखमिति । पादपोपगमनादिवरूपं तु"सव्वत्थापडिबद्धो, दंडाययमाइठाणमाइमिह ठाउं। जावज्जीवं चिट्ठइ, निचिठो पायवसमाणो ॥१॥" "इंगियदेसम्मि सयं, चउब्विहाहारचायनिष्फ । उव्वत्तणाइजुत्तं, नन्नेण उ इंगिणिमरणं ॥२॥" ॥२९९॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + " भत्तपरिन्नाऽणसणं, चउब्विहाहारचायनिप्फन्नं । सप्पडिकम्मं नियमा, जहासमाही विणिद्दिलं ॥३॥" इति गाथार्थः ॥४८६॥ ननु किं सिद्धौ सौख्यमस्ति ? यदर्थमेवं कष्टमाचेष्ट्यत इत्याहपुष्पमाला P भावनाधिकार रघुवतिः | सुरगणसुहं समग्गं, सब्बद्धापिंडियं जइ हविज्जा । नवि पावइ मुत्तिसुहं-ऽणंताहिं वि वग्गवग्गृहि ॥४८७॥ पादपोपणमा व्याख्या-सुरगणस्य-सर्वस्यापि देवसङ्घातस्य सम्बन्धि यदतीतानागतवर्तमानकालभावि समय-समस्तं सुखं तदपि सर्वाद्धापिण्डितं-सर्वकालसमयराशिना गुणितं यदि भवेत् , उपलक्षणं चेदं, ततः पुनरप्यनन्तगुणं क्रियते, यावत्समस्तलोकालोकनमःप्रदेशसङ्ख्यास्तद्राशयः कृत्वैकत्र मील्यन्ते, तथाप्येवमपि प्रकर्षमपि गतमिदं सुरसुखं कर्तृकर्मतापन्न मुक्तिसुखं न प्राप्नोति । अस्यापि राशेर्वर्गस्यापि पुनर्वर्ग, एतस्यापि पुनर्वर्ग, इत्येवमनन्तैरपि वर्गवगैर्वर्गितं सन्न तत्तुल्यं तद्भवतीति गाथार्थः ॥४८७॥ किश्च तत्त्वतः सिद्धा एव सुखिनो, नान्ये इत्याहदुक्खं जराविओगो, दारिदं रोगसोगरागाइ । तं च न सिद्धाण तओ, तेचिय सुहिणो न रागंधा ॥४८८॥ व्याख्या-जराऽमीष्टदियोगो दारिद्रयं रोगशोकरागादयो दुःखहेतुत्वादुःखं, तञ्चैवम्भूतं दुःख सिद्धानां नास्ति, ततस्त द एव सुखिनो, न रागान्धा देवादयः । अयं चार्थो भवविरागादिद्वारेषु भावितप्राय इति गाथार्थः॥१८८॥ यत एवं ततः किमित्याह निच्छिन्नसव्वदुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का । अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहुंति सासयं सिद्धा ॥४८९॥ * ॥३०॥ व्याख्या-नितरां छिन्नसर्वदुःखा जन्मजरामरणबन्धनैर्विमुक्ताः सिद्धा एवाव्याचा, शाश्वतं सुखमनुभवन्तीति गाथार्थः ॥४८९॥ ॐॐॐॐॐॐ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थं निशम्य सम्यग्. जिनागमाहिबुवमरणमाहात्म्यं । सर्वे भवन्तु भव्याः!, पण्डितमरणेऽतिकृतयनाः॥१॥ पुष्पमाला शास्रोपसंहारा प्रचि है इति पुष्पमालाविवरणे भावनाद्वारे [भक्त] परिज्ञानलक्षणं प्रतिद्वारं समाप्तमिति ॥१९॥ प्राधिकार ॥३०॥ अथ शास्त्रोपसंहाराधिकारस्तत्र तावदनन्तरोक्तार्थमेवाश्रित्याह संते वि सिद्धिमोक्खे, पुबुत्ते दंसियम्मि वि उवाए । लद्वे वि माणुसत्ते, पत्ते वि जिणिंदवरधम्मे॥४९०॥ जं अज्ज वि जीवाणं, विसएसु दुहासवेसु पडिबंधो। तं नज्जइ गुरुआण वि, अलंघणिज्जो महामोहो॥४९१ | व्याख्या-अनन्तरोक्तरूपे सत्यपि सिद्धि सौख्य, पूर्वोने चाभयप्रदानादिके दर्शितेऽपि तत्प्राप्त्युपाये, लब्धेऽपि मानुषत्वे, प्राप्तेऽपि जिनेन्द्रवरध, यदद्यापि जीपानां विषयेषु दुःखाश्रवेषु-दुःख पदेषु प्रतिवन्धो दृश्यते, तज्ज्ञायते-गुरूणामपि प्रायोऽलङ्घनीयो महामोह इति गाथाद्वयार्थः॥४९०-१९१॥ किश्चनाऊण सुयबलेणं, करयलमुताहलं व भुवणयलं । केवि निवडंति तहवि हु, पिच्छ कम्माणबलियत्तं ॥४९२॥ व्याख्या-वात्वा श्रुतबलेन करतलमुक्ताफलमिव भुवनतलं, तथापि केचिनिपतन्ति चारित्रादिगुणशासंसारे, तत्प्रेक्षख 18 अहो ! कर्मणां मोहनीयादीनां बलीयस्त्वमिति गाथार्थः ॥४९२॥ अन्ये पुनः किमित्याह ॥३०१५ * एकं पि पयं सोउ, अन्ने सिझंति समरनिवइव्व । संजायकम्मविवरा, जीवाण गई अहो !! विसमा ॥१९॥ 334353693456 *HASHASTRIॐॐ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर तुम कथानकम् । व्याख्या-एकमपि पदं -मोक्षसाधकं स्थानं श्रुत्वा अन्ये केचित्सित्यन्ति, समरनृपतिरिव, कथम्भूताः सन्तः ? इत्याहPसञ्जातकर्मविरा-अपगतकर्माणः, ततश्चाहो ॥ विषमा गतिर्जीवानगमिति [गाथार्थः] ॥१९३६ उपमाला प्रवृतिः BI कोऽयं पुनः समरनृपः इत्युचते-संसारी जीयो मोहनावलेनानन्तं कालं कदचितश्चारित्रनृपसैन्यावसरमलममान उमयदल॥३०॥ मिलन्त्या कर्मपरिणामभपभार्यया भवितव्यतया तदीपेनैव केनापि प्रबलसुचरितेन रञ्जितया पुण्योदयं सहायं दत्वा समानीतोऽसौ संसारिजीतः साकेतपुरे विश्वम्भरराजस्य पुत्रः कुतः समरः, विश्वम्भरतपेण व्रतं जिघृक्षता राज्ये स्थापितः, साधिताश्चानेन पितुरप्यसिद्धा बहवो विषयाः, सञ्जातः समुदीरतापो महानरपतिः, अन्यदासमुत्पन्नास्य शरीरे प्रचला दाहवेदना, तया पीडितः कृच्छ्रेण दिनानि गमयति । अत्रान्तरे चारित्रधर्भनृपस्योत्पना चिन्ता, यथा अहो!! अयं संसारिजीवः सुचिरं कथितो मोहराजसैनिकः, | करुणापराश्च वयं, तत्कथमप्यपी तेभ्यो मोचयि युक्त इते विचन्याहू नः सद्बोधमन्त्री, प्रोक्तः स्वामिप्रायः, तावता भवितव्यतया पाठितीका पुरुष एनां गाथां, यथा| "पुरिसाण पवित्तीओ, सुहाभिलासीण ताव सव्वाओ। धम्म विणा य न सुहं, धम्मो य न संगमूढाणं ॥१॥" श्रुता च [समर] राज्ञा, अधारितं चैकं पदं 'धम्मं विगा य न सुहं ति, न शेपं, वेदनाविधुरितत्वात् । अत्रान्तरे समागतः सद्बोधो राजः समीपे, क्षणं स्थितः, ततो भीतभीता निलीना मोइराजाइयः। ततश्च राज्ञा चिन्तितं-धर्म विना कस्यापि सुखं न भवतीति ममाप्यनुभवसिद्धमेव, यतो बालकालादारभ्य धर्मख वार्ताऽपि मया न कता, तत इत्थं दुःखभाजनं जातस्तिष्ठामि, तस्मादिदानीमपि युज्यते मम धर्मः कर्नुमिति, प्रभाते एक व्रतं गृहीयामीति निश्चयः कुतः। पुनः प्रभाते जाते मौहराजप्रेषितरागकेसरी ३.२॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VI पुष्पमाला अघुवृतिः ॥३.३॥ DISHAN प्रभृतिमिः कृतः कर्णजापः। ततो राजा चिनिने-सम्प्रति पुत्रो मे लघुर्भार्या तरुणी, ततः कियदिनपर्यन्ते व्रतं गृहीष्यामीति । तच्च उपसंहाराधिकार सद्बोधमन्त्रिणा कुतोऽपि विज्ञाय राजः प्रोक्तं -'देव ! एकोऽपि मुहतों बहुविघ्न एवेत्यवधार्य परित्यज्यतां प्रस्तुतधर्मकार्ये कर्मक्षपणोपणो विलम्ब' इत्यादिवचनैः समुत्साह्य समाहूता भवितव्यता, कथितव तसाः सोऽपि व्यतिकरः, ततो मोहाराजकटकोपरि रुष्टयाऽनया म पदेशः। संसारीजीवहस्ते दत्तो जीवनी पराणसेन च ताहितानि माग्यपि मोहमानुपाणि, ततो दाधवरे शान्ते पुत्र राज्ये संस्थाप्य जनककेवलिपार्श्वे प्रव्रज्य चारित्रधर्मराजमामिप्यं प्रतिपन्नोऽल्पकालेन सूत्रार्थावधीत्य धर्मबुद्धिसदागमसद्बोधन म्यग्दर्शनादिसाहाय्या| निहत्य समस्तमपि मोहराजवलं सम्प्राप्य केवलं प्राप्तो नितिपुरीं समाराजर्षिः, इति समरराजकथानकं समाप्तम् ॥ यत एवं ततः किमित्याहतम्हा सकम्मविवरे, कज्जं साहति पाणिगो सव्वे । तो तह जएज्ज सम्मं, जह कम्मं खिज्जइ असेस।।४९४॥ है। व्याख्या-तस्मात्स्वकर्मविवरे-खक क्षये एप सर्वे प्राणिनः कार्य मोक्षगमनलक्षणं सान्नि, ततस्तथा यतेत सम्यम् यथाऽशेषं कर्म क्षीयत इति गाथार्थः ॥४४॥ केनो गयेन पुनः कर्म क्षीयते ? इत्याहकम्मक्खए उवाओ, सुयाणुसारेण पगरणे इत्थ । लेसेण मए भणिओ, अणुठ्यिब्यो सुबुद्धीहि ॥४९५॥ व्याख्या-कर्मक्षये पुनरुपायः श्रुतानुपारेणात्र प्रकरणे लेशेन मया भणितः, अनुष्ठेयः द्धिभिरिति गाथार्थः ॥४९५॥ D॥३०३४ केषां पुनरिदं प्रकरणमुपकाराय भविष्यतीत्याह Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला घुवृत्तिा ॥३०॥ पायं धम्मत्थीणं, मज्झत्थाणं सुनिउणबुद्धीणं । परिणमइ पगरणमिणं, न संकिलिट्ठाण जंतूर्ण ॥४९६॥ ___ व्याख्या-प्रायो-बाहुल्येन धर्मार्थिनां तथा मध्यस्थानां सुनिपुण बुद्धीनां-अतिविचारचतुराणां परिणमति-रोचते प्रकरण- & प्रकरणोक्तमिदं, न पुनः सक्लिष्टानां-रागद्वेषदक्षितानां जन्तूनामिति गाथार्थः ॥४९॥ अथ ग्रन्थकारः स्वनाम प्रकारान्तरेणाह रोचनेति हेममणिचंददप्पण-सूररिसिपढमवण्णनामेहिं । सिरिअभयसरिसीसेहि, विरइयं पयरणं इणमो ॥४९७॥ कारिणः। व्याख्या-हेम-मणि-चंद-दप्पण-सूर-रिसि एषां क्षन्दानां प्रथमवर्णनाममिः, हेमचन्द्रमरिभिरित्यर्थः, तथा 'सिरिअभय' ति पदे समुदायोपचारात् श्रीअभयदेवमूरिशिष्यविरचितं प्रकरणमिदमिति गाथार्थः ॥४९७॥ किं नामकं किं फलं चेदं प्रकरणमित्याह उबएसमालनामं, पूरियकामं सया पढंताणं । कलाणरिद्धि मंसिद्धि-कारणं सुद्धहिययाणं ॥४९८॥ | ___ व्याख्या-उपदेशमालानामकं प्रकरणमेतत्पूरितमनोरथं सदा पठतां शुद्धहृदयानां कल्याणऋद्धिसंसिद्धीनां कारणमिति || | गाथार्थः ।।१९८॥ अत्रैवाधिकारसङ्ख्यां ग्रन्थमङ्ख्यां चाहइत्थ वीस हिगारा, जीवदयाईहिं विविहअत्थेहिं । गाहाणं पंचसया, पणुत्तरा होति संखाए ॥४९९॥ व्याख्या-जीपदयादिभिर्विविधैरथैः कृत्वा इह प्रकरणे विंशतिरधिकारा भवन्नि, तथाहि-दानं त्रिधा, शीलं तपश्च, "सम्मत्त वरणसुद्धा त्यादिभावनाद्वारसम्बन्धिनचतुर्दशाधिकारा इति सोऽन्येकोनविंशतिः, विंशतितमस्तु प्रकरणोपसंहाराधिकार P ॥३.४॥ | इति । गाथानां च सरूवा पश्च प्रतानि पश्चोत्तराणि भवन्ति ज्ञातव्यानीति गाथार्थः ॥४९९।। Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FADARSHAHARASH न यद्यप्यन्यस्य सम्बन्धिना पुण्येनान्यस्याधिकारस्तथाप्युदारधियां प्रधानं वचः कर्मापगमायेति वृद्धवादादित्याह| उवएसमालकरणे, जं पुन्नं अज्जियं मए तेण । जीवाणं होज सया, जिणोवएसम्मि पडिवत्ती ॥५०॥ व्याख्या-उपदेशमालायाः करणे यत्पुण्यमर्जितं मया तेन पुण्येन जीवानां सदा' नित्यं जिनोपदेशप्रतिपत्तिरादरोङ्गीकारो भूयादिति गाथार्थः ।। ५.०॥ अथ श्रुतबहुमानार्थमपश्चिमं मङ्गलमाह₹ जाव जिणसासणमिणं, जाव यधम्मोजयम्मि विष्फुरइ। ताव पढिजउ एसा, भवेहिं सयासुहत्थीहिं ।५०१॥ व्याख्या-यावजिनशासनमिदं यावच धर्मों जगति विस्फुरति तावत्पठयेत एषा उपदेशमाला भव्यः सदासुखार्थिमि-नित्यसुखार्थिभिरिति गाथार्थः ॥ ५०१४ ॥ टीकाकृत्प्रशस्तिः। श्रीमच्चन्द्रकुलार्णवोज्ज्वलकुलोद्भूतिः पृथुप्रामवा, पुण्यप्रौढफलः प्रफुल्लसुमनःश्रेणिश्रिया सङ्कलः। पात्रोदारतरो गणः खरतरो गीर्वाणकारस्करो, विस्तारप्रवरो विमस्ति विलसन्नुच्चैः स्थितः सर्वतः॥१॥ ४ यद्यपि ग्रन्थकृता स्वयमस्य प्रन्थस्य प्रमाणं गाथानां पञ्चाधिकशतपञ्चकं निर्दिष्टं परं प्रतिष्वनेकास्वपि गाथानामेकोत्तरशतपञ्चकमेवोपलभ्यते, यद्यपि मुद्रितबृहद्वृत्तौ प्रान्ते गाथानां पञ्चोत्तरशतपञ्चकाङ्को लिखितः किन्तु मध्ये मध्ये गाथाङ्कानामव्यवस्थितत्वात्समुदिता एतावत्य एव गाथाः समस्तीति केनाप्यज्ञातकारणेन मध्ये क्वचित् २ गाथाः पतिता भविष्यन्तीत्यनुमानम् । KitchecialKARAKATARA Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पमाला प्रकरणम् । ॥ ३०५ ॥ Se জললछछ तत्र नवाङ्गीविवरण - कर्तुः श्री अभयदेवसूरि सुगुरोः । शिष्यः श्रीजिनवल्लभ-सूरि सूरीन्द्र मुकुटमणिः ॥ २ ॥ शिष्यस्तदीयोऽद्भुत भाग्यभूरि-युग प्रधानो जिनदत्तसूरिः । तदन्वये दीप्तचरित्रतेजा, रेजे गुरुः श्रीजिनराजसूरिः ॥ ३ ॥ तत्पट्टोटपुण्डरीकनिविडक्रोडैकहंसत्रियां, तत्वज्ञानविशुद्धसंयमजुषां सम्यक्पथं प्रोचुषाम् । निस्सङ्गत्वनिरीहताग्रिमगुणग्रामावधीनां सुधा-सारोदारगिरां गभीरिमरमावारांनिधीनां तथा ॥ ४ ॥ सौम्यत्वेन शशाङ्कसुन्दरतरश्रीणां क्षमाधारिणां श्रीजैनेन्द्र मतप्रभासनपुषां दुर्वादिकक्षप्लुषाम् । निःशेषश्रुततश्वनैपुणवतामग्रेसराणां प्रभुः श्रीमच्छ्री जिन भद्रसूरि सुगुरूणां शिष्यवर्गाग्रणीः ॥ ५ ॥ तेषामेव विनेयै-र्नृपतिसमालब्धवादिवृन्दजयैः । श्रीसिद्धान्तरुचिमहोपाध्यायैः पाठितो यत्नात् ॥ ६ ॥ समयमकरन्द बिन्दूनां दायादाय कतिपयानेषः । साधुर्वृत्तिमकार्षीन्मधुकर इव पुष्पमालायाः ॥ ७ ॥ उत्सूत्र मासूत्रितमत्र किञ्चित् प्रमादमान्द्यादिवशाद्यदि स्यात् । शोध्यं स्वतस्तत्प्रयतैर्वहुश्रुतै- रेषोऽञ्जलिस्तेषु विजृम्भितो मे ॥ ८ ॥ सम्प्रापिता वृत्तिरियं प्रमाणतां युगप्रधानैर्जिन भद्रसूरिभिः । तद्वद्वरैर्वाचकसोमकुञ्जरे - विंशोध्य वैयाकरणप्रकाण्डैः ॥ ९ ॥ टीकाकृत्प्रशस्तिः । ॥ ३०५ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHISTS साधुसोमसमुत्पन्न, विबुधाः सत्सुधामिव । पार्थ पायमिमां वृत्तिं तृप्ताः स्युरजरामराः ॥ १० ॥ वर्षे बाण चन्द्रे (१५१२ ), वृत्तिः श्रीखीमराजशालायाम् । श्रीद्रिय (५३) शतमितिरेषा समर्थिताऽहम्मदाबादे ॥ ११ ॥ इति श्रीखरतरगणेश्वरश्रीजिन भद्रसूरिशिष्य श्रीसिद्धान्त रुचिमहोपाध्यायशिष्यसाधुसोमगणिविरचिता श्रीपुष्पमालावृत्तिः समाप्ता । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I नाम्ना मोहनलालेति, विख्याता यवनीतले / श्रीखरतरगणोत्तंसा, जैनशासनभूषणाः // 1 // इति श्रीलघुवृत्तियुता पुष्पमाला समाप्ता / CCIRCTCHECCALCHECRECHARG OSHOEACCARE तेषां प्रशिष्यपंन्यास-गणिकेशरसन्मने शिष्यं बुद्ध्यब्धिनामानं, भद्रं तन्वन्तु तेऽन्वहम् M // 306 //