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१४२ नारकसम्मूर्छिनो नपुंसकानि ॥५०॥ न देवाः ॥५१॥
औषपातिकचरमैदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः ॥५२॥
तृतीयोऽध्यायः । रलशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो पनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः १ ॥ तासु नरकाः ॥ २ ॥
१ इसके बाद स० रा० श्लो० में "शेषास्त्रिवेदाः" ऐसा सूत्र है । श्वेतांबरपाठ में यह सूत्र नहीं समझा जाता । क्योंकि इस मतलब का उनके यहां भाष्यवाक्य है।
२ औपपादिकचरमोत्तमदेहासं० -स० रा० श्लो० ।
३ -चरमदहोत्तमदेहपु० -स-पा०, रा-पा० । सिद्धसेन का कहना है कि इस सूत्र में सूत्रकार ने 'उत्तमपुरुष' पद का ग्रहण नहीं किया है-ऐसा कोई मानते हैं। पूज्यपाद, अकलङ्क और विद्यानन्द 'चरम' को 'उत्तम' का विशेषण समझते हैं ।
४ इसके विग्रह में सिद्धान्त पाठ और सामर्थ्यगम्य पाठ की चर्चा सर्वार्थसिद्धि में है।
५ पृथुतराः स० रा. को० में नहीं । 'पृथुतराः' पाठ की अनावश्यकता अकलङ्क ने दिखलाई है।
६ तासु त्रिंशपञ्चविंशतिपंचदशदशनिपजोनैकनरकशतसहखाणि पंच चैव यथाक्रमम् -स. रा. श्लो० । इस सूत्र में सन्निहित गणना भाष्य में है।