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१५३ अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥ ३१ ॥ स्निग्धरूक्षत्वाद्वन्धः ॥ ३२॥ नै जघन्यगुणानाम् ॥ ३३ ॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥ ३४ ॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥ ३५ ॥ बैन्धे समाधिको पारिणामिकौ ॥ ३६ ॥ गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥ ३७॥ कालश्चेत्येके ॥ ३८ ॥ सोऽनन्तसमयः ३९ ॥ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥ ४० ॥ तद्भावः परिणामः ॥ ११ ॥
, इस सूत्र की व्याख्या में मतभेद है। हरिभद्र सबसे निराला ही अर्थ लेते हैं । हरिभद्र ने जैसी व्याख्या की है वैसी व्याख्या का सिद्धसेन ने मतान्तर रूप से निर्देश किया है।
२ बन्ध की प्रक्रिया मे श्वे. दि० के मतभेद के लिए देखो, गुजराती विवेचन पृ. २३४ ।
३ बन्धऽधिको पारिणामिकौ -स० श्लो० । रा. मे सूत्र के अन्त में 'च' अधिक है । अकलंक ने 'समाधिको ' पाठ का खण्डन किया है।
४ देखो गुजराती विवेचन पृ. २४३ टि० १ । कालन -स. रा. लो ।