________________
१६९
विपरीतं मनोज्ञानाम् ॥ ३३ ॥
निदानं च ॥ ३४ ॥
तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥ ३५ ॥
हिसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः | ३६ | आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धैर्ममप्रमत्तसंयतस्य । ३७| उपशान्तक्षीणकषाययोश्च ॥ ३८ ॥ शुक्ले चाथे पूर्वविदै ॥ ३९ ॥
परे केवलिनः ॥ ४० ॥
१ मनोज्ञस्य स० रा० श्लो० ।
२ - चयाय धर्म्यमत्र - हा० । चयाय धर्म्यम् ॥ ३६ ॥ स० रा० श्लो० । दिगम्बर सूत्रपाठ में स्वामी का विधान करने वाला 'अप्रमत्तसंयतस्य' अंश नही है । इतना ही नहीं बल्कि इस सूत्र के वाद का 'उपशान्तक्षीण' यह सूत्र भी नहीं है । स्वामी का विधान सर्वार्थसिद्धि में है । उस विधान को लक्ष में रख कर अक्लक ने श्वे० परंपरा संमत सूत्रपाठ विषयक स्वामी का जो विधान है उसका खण्डन भी किया है । उसी का अनुगमन विद्यानन्द ने भी किया है, देखो गुजराती विवेचन पृ० ३७७ |
३ देखो गुजराती विवेचन पृ० ३७७ टि० १ । ' पूर्वविद' ', यह अंश भा० हा० में न तो इस सूत्र के अंश रूप से छपा है और न अलग सूत्र रूप से । सि० में अलग सूत्र रूप से छपा है लेकिन टीकाकार उसको भिन्न नहीं मानता । दि० टीकाओं में इसी सूत्रके अंशरूप से छपा है ।