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अनन्तगुणे परे ॥१०॥ अप्रतिघाते ॥४१॥ अनादिसम्बन्धे च ॥४२॥ सर्वस्य ॥४३॥ । तदादीनि भाज्यानि युगपदेकरयो चतुर्म्यः ॥४४॥ निरुपभोगमन्त्यम् ॥ ४५ ॥ गर्भसम्मूर्छनजमाद्यम् ॥ ४६॥ वैकियमौपणतिकम् ॥४७॥ लब्धिप्रत्ययं च ॥४८॥ शुभं विशुद्धमन्याधाति चाहारकं चतुर्दशपूर्ववरस्यैव ॥ १९॥
१ अप्रतीघाते -स० रा० श्लो० ।
२ -देकस्मिन्ना चतु० -स० रा० श्लो० । लेकिन टीकाओं से मालूम होता है कि 'एकस्य' सूत्रपाठ अभिप्रेत है ।
३ औपरादिकं क्रियिकम् -स. रा० श्लो० ।
४ इसके बाद स० रा० श्लो० में 'तैजसमपि' ऐसा सूत्र है। भा० में यह 'तैजसमपि' सूत्र रूप से नहीं छपा । हाल में 'शुभम्' इत्यादि सूत्र के बाद यह सूत्र रूप से आया है। सि० में यह सूत्र क० ख० प्रति का पाठांतर है।
५-कं चतुशपूर्वधर एव -सि. 1-क प्रमत्तसंयतस्यैव -स० रा० लो० । सिद्धसेन का कहना है कि कोई 'अकृत्स्नश्रुतस्यद्धिमतः' ऐसा विशेषण और जोड़ते हैं ।