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* पाश्वनाथ चरित्र
वही आमका फल लाकर खिलाऊँ, तो मैं उनके ऋणसे उऋण हो जाऊँगा। कहा भी है कि जो मां-बाप और गुरुकी भक्ति करता है और उनका दुःख दूर करता है, वही सच्चा पुत्र और शिष्य है, नहीं तो कीट-पतङ्गके समान है। वही वृक्ष श्रेष्ठ है, जो सींचनेसे बड़ा हो और उसके नीचे आराम किया जा सके ; पर जो पुत्र पाल-पोसकर बड़े किये जानेपर भी पिताको उलटा दुःख ही देता है , वह सचेतन होनेपर भी मृतक समान होता है। योंतो मातापिता और गुरुके उपकारोंका बदला कोई नहीं दे सकता; तो भी पुत्र ओर शिष्यको अपनी शक्तिके अनुसार उनको सेवा अवश्य करना चाहिये।”
इस प्रकार विचार कर वह शुक अपने माता-पिताकी आज्ञा लेकर उड़ गया और उसी द्वीपमें आ पहुँचा। वहाँ उसने वही आमका पेड़ देखा और उसका फल चोंच में दबाये लौटा आ रहा था कि रास्तेमें उसे बड़ी थकावट मालूम हुई । यहाँ तक कि उसे अपनी देह सम्हालनी भी मुश्किल मालूम पड़ने लगी। वह सहसा समुद्रमें गिर पड़ा, तो भी उसने फलको मुंहसे छूटने नहीं दिया। इसी समय अपने नगरसे समुद्र-मार्गसे जहाजमें सफर करते हुए सागर नामक सार्थ-पतिने उस शुकको समुद्रमें व्याकुल होकर डूबते देखा। उसने अपने तैराकोंको हुक्म दिया कि जलमें उतर फर उस शुकको बचा लो। उसी क्षण एक तैराकने जलमें उतरकर उस शुकको पकड़ लिया और सेठके पास ले आया। सेठने शुकको हाथमें ले, उसे बहुतेरा चुपकारा । जब शुक सावधान हुआ, तब