________________
२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०१ इस गाथा में पुरुषत्व को अर्थात् पुरुषशरीर को संयम का साधना कहा गया है, स्त्रीशरीर एवं नपुंसकशरीर को नहीं, जिससे स्पष्ट होता है कि स्त्रीशरीर संयम का साधन नहीं है, अतः स्त्रीमुक्ति असम्भव है। तथा वज्रवृषभनाराचसंहनन को भी संयम का साधन कहकर यह प्रकट किया गया है कि स्त्रीशरीर संयमधारण में सक्षम नहीं है, क्योंकि कर्मभूमि की स्त्रियों में आदि के तीन संहनन नहीं होते। (गो.क./ गा. ३२)। यह कथन भी स्त्रीमुक्ति विरोधी है।
आगे पुरुषत्वादि की आकांक्षारूप प्रशस्तनिदान को भी मोक्षविरोधी बतलाते हुए कहा गया है
पुरिसत्तादिणिदाणं पि मोक्खकामा मुणी ण इच्छंति।
जं पुरिसत्ताइमओ भवो भवमओ य संसारो॥ १२१८॥ भ.आ.। अनुवाद-"मोक्षामिलाषी मुनि 'मैं मरकर पुरुष होऊँ' या मुझे वज्रवृषभनाराचसंहनन की प्राप्ति हो, ऐसा निदान भी नहीं करते, क्योंकि पुरुषादिपर्याय भवरूप है और नाना भवों को धारण करना ही संसार है।" ग्रन्थकार आगे कहते हैं
पुरिसत्तादीणि पुणो संजमलाभो य होइ परलोए।
आराधयस्स णियमा तदत्थमकदे णिदाणे वि॥ १२२०॥ भ.आ.। अनुवाद-"जो रत्नत्रय की आराधना करता है, उसे निदान न करने पर भी आगामी जन्म में पुरुषशरीर आदि सामग्री तथा संयम की उपलब्धि नियम से होती
इन समस्त कथनों में भगवती-आराधना के कर्ता ने यह सूचित किया है कि पुरुष-शरीर ही संयम का साधन है, स्त्री या नपुंसक का शरीर नहीं, अतः स्त्री एवं नपुंसक की मुक्ति संभव नहीं है।
ग्रंथकार ने नारीशरीर को संयम की बजाय भोग का निमित्त बतलाया है। भोगनिदान का लक्षण बतलाते हुए वे कहते हैं कि देवों और मनुष्यों में होनेवाले भोगों की आकांक्षा करना तथा भोगों के लिए नारीत्व, ईश्वरत्व, श्रेष्ठित्व, सार्थवाहत्व, नारायणत्व और सकलचक्रवर्तित्व की कामना करना भोगनिदान है
देविग-माणुसभोगे णारिस्सर-सिट्ठि-सत्थवाहत्तं।२७
केसव-चक्कधरत्तं पत्थंते होदि भोगकदं॥ १२१३॥ भ.आ.। २७. "णारि-स्सर-सिट्ठि-सत्थवाहत्तं/ पृ.६१५-नारीत्वम् ईश्वरत्वं श्रेष्ठित्वं सार्थवाहत्वं च।"
विजयोदयाटीका / भगवती-आराधना / गा. १२१३ / पृ. ६१५।
Jain Education Interational
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org