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२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१३ / प्र०१ भगवती-आराधना में प्रतिपादित इन सिद्धान्तों से सिद्ध है कि उसमें श्रावकलिंग को ही अपवादलिंग कहा गया है, यापनीय मुनि के सचेललिंग को नहीं। अतः प्रेमी जी की यह मान्यता असत्य सिद्ध हो जाती है कि उसमें मुनि के लिए अचेलउत्सर्गलिंग के साथ सचेल-अपवादलिंग का भी विधान है। इस मान्यता के असत्य सिद्ध हो जाने से यह भी सिद्ध हो जाता है कि भगवती-आराधना में सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है, अतः वह यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है।
स्त्रीमुक्तिनिषेध स्त्रीमुक्ति की मान्यता यापनीयमत का दूसरा महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। भगवतीआराधना में इसका भी निषेध किया गया है। इसके प्रमाण नीचे प्रस्तुत किये जा रहे हैं। २.१. वस्त्रत्याग के बिना संयतगुणस्थान संभव नहीं
निम्नलिखित गाथा पूर्व में सवस्त्रमुक्ति-निषेध के प्रसंग में उद्धृत की गयी है। यह स्त्रीमुक्ति-निषेधक भी है, अतः 'प्रत्यक्षप्रमाण के लिए इसे पुनः उद्धृत किया जा रहा है
ण य होदि संजदो वत्थमित्तचागेण सेससंगेहिं।
तम्हा आचेलक्कं चाओ सव्वेसि होइ संगाणं॥ १११८॥ भ.आ.। इसमें कहा गया है कि वस्त्रमात्र के त्याग से संयतगुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती, अपितु समस्त परिग्रह के त्याग से होती है। छठे से लेकर ऊपर के सभी गुणस्थान संयतगुणस्थान कहलाते हैं, वे वस्त्रत्याग के बिना संभव नहीं हैं। स्त्री के लिए वस्त्रत्याग असंभव है, अतः संयतगुणस्थान भी असंभव हैं। भगवती-आराधना में यह स्त्रीमुक्तिनिषेध का पहला सुदृढ़ प्रमाण है।
इस गाथा की टीका में अपराजितसूरि ने कहा है कि महाव्रत का कथन करनेवाले सूत्र इस बात के ज्ञापक हैं कि आचेलक्य में वस्त्रादि-समस्तपरिग्रह के त्याग का निर्देश किया गया है-"किंच महाव्रतोपदेशप्रवृत्तानि च सूत्राणि ज्ञापकानि सर्वसङ्गत्यागः आचेलक्कमित्यत्र निर्दिष्ट इत्यस्य।" (वि.टी./ भ.आ./ गा.१११८/पृ.५७४) । अर्थात् आचेलक्य के बिना महाव्रत संभव नहीं हैं। भगवती-आराधना में स्त्रीमुक्तिनिषेध का यह दूसरा बलिष्ठ प्रमाण है। आर्यिका उपचार से महाव्रती कहलाती है, परमार्थतः नहीं।
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