Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
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जैन धर्म-दर्शन
मकान-मालिक के यहाँ रहे हुए अतिथि आदि के आहार से सम्बद्ध कल्पाकल्प का विचार किया गया है । दसवे उद्देश में यवमध्यप्रतिमा, वज्रमध्यप्रतिमा; पाँच प्रकार का व्यवहार, बालदीक्षा, विविध सूत्रों के पठन-पाठन की योग्यता आदि का प्रतिपादन किया गया है।
निशीथ में चार प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान है : गुरुमासिक, लघुमासिक, गुरुचातुर्मासिक और लघुचातुर्मासिक ।
an यहाँ गुरुमास अथवा मासगुरु का अर्थ उपवास तथा लघुमास अथवा मासलघु का अर्थ एकाशन समझना चाहिए। यह सूत्र बीस उद्देशों में विभक्त है। प्रथम उद्देश में इन क्रियाओं के लिए गुरुमास का विधान किया गया है : हस्तकर्म करना, अंगादान को काष्ठादि की नली में डालना अथवा काष्ठादि की नली को अंगादान में डालना, अंगुली आदि को अंगादान में डालना अथवा अंगादान को अंगुलियों से पकड़ना या हिलाना, अंगादान का मर्दन करना, अंगादान के ऊपर की त्वचा दूर कर अंदर का भाग खुला करना, पुष्पादि सूंघना, दूसरों से परदा आदि बनवाना, सूई आदि ठीक कराना, अपने लिए माँगकर लाई हुई सूई आदि दूसरों को देना, पात्र आदि दूसरों से साफ कराना, सदोष आहार का उपभोग करना आदि । द्वितीय उद्देश में इन क्रियाओं के लिए लघुमास का विधान है : दारुदण्ड का पादप्रोंछन बनाना, कीचड़ के रास्ते में पत्थर आदि रखना, पानी निकलने की नाली आदि बनाना, सूई आदि को स्वयमेव ठीक करना, तनिक भी कठोर वचन बोलना, हमेशा एक ही घर का आहार खाना, दानादि लेने के पहले अथवा बाद में दाता की प्रशंसा करना, निष्कारण परिचित घरों में प्रवेश करना, अन्यतीथिक अथवा गृहस्थ की संगति करना, मकान-मालिक के घर
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