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आदर्श जीवन |
शादी में निकलते हैं वैसे जुलूस निकलते रहे । अन्तमें आपको वह धन मिला जिसको पाकर किसी वैभवकी जरूरत नहीं रहती; वह चाबी मिली जिससे अनन्त सुखभंडारके ऊपर लगा हुआ कर्म- ताला खुल जाता है; वह साधन मिला जिससे जीवन के अनन्त अशान्त वातावरण शान्त हो जाते हैं; वह तरणी - नौका मिली जिससे कर्णधार - मल्लाहके बिना ही जीव भवसागर से पार हो जाता हैं, अर्थात आपको सं० १९४४ के वैशाख सुदी १३ के दिन शुभ मुहूर्तमें सूरिजी महाराजने दीक्षा दे दी । आपका नाम वल्लभविजयी ' रक्खा गया । आप स्वर्गीय हर्षविजयजी महाराजके शिष्य हुए । जिस दिन आपने संयम लिया उस दिन आपको ऐसी प्रसन्नता हुई मानों दरिद्रको चिन्तामणि रत्न मिल गया; मानों बरसोंसे तपस्या करते हुए तपस्वीको आत्म साक्षात्कार हो गया ।
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दीक्षा लेनेके बाद आपका ( सं० १९४४ का ) पहला चातुर्मास राधनपुरहीमें सूरिजी महाराजके साथ हुआ । यहाँ आप चंद्रिका पूर्वार्द्ध तक ही पढ़ सके । कारण--कुछ अरसे तक तो आपको अपने समयका बहुत बड़ा भाग, साधुधर्मसे सम्बंध रखने वाली, ग्रहणशिक्षा और आसेवन शिक्षा रूप क्रियाएँ, सीखनेमें देना पड़ता था; फिर पं. अमीचंद्रजी अपने किसी खास कामके सबब अपने घर पंजाब में चले गये थे । चातुर्मास समाप्त हुआ । आपने वहाँसे आचार्यमहाराज और अपने गुरु महाराजके साथ विहार किया । श्रीसंखेश्वरा
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