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आदर्श जीवन ।
है, मगर यह पहला ही अवसर है कि दीक्षा लेनेवालेको इस तरह आनंद और उत्साहसे आज्ञा मिली हो । तुमने शास्त्रोंके वचनोंको सत्य कर दिखाया है । तुम्हारा भाई होनहार है । उससे जैनधर्मकी प्रभावना होगी । "
खीमचंदभाईने नम्रता से कहा : - " गुरुदेव ! मैं यही चाहता हूँ कि, आपकी वाणी सफल हो । मैं अपना प्यारा भाई, अपनी दाहिनी भुजा आपकी रक्षामें छोड़ता हूँ । उसे आप सदा अपने चरणोंमें रक्खें; कभी उसको अलग न करें। वह बालक है । उसका कोई गुनाह हो जाय तो आप दयालु क्षमा कर दें । "
बोलते बोलते खीमचंदभाईकी आँखोंसे जल बह चला । आह ! आज भाईको छोड़ते कितना दुःख खीमचंदभाईको हुआ होगा ? भगवान महावीरके समान अवतारी, पुरुषोंके ज्येष्ठ बंधु नंदीवर्द्धनके समान ज्ञानियोंका हृदय भी जब दृढ न रह सका तो खीमचंदभाईका हृदय उमड़ आया, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
फिर खीमचंदभाईने आपको छातीसे लगाया, आपके मस्तकको अभ्रुजलसे अभिषिक्त किया ओर करुण कंठसे कहा:" छगन ! भाई !" खीमचंदभाईका गला रुंध गया । हमारे चरित्रनायक भी आँसू न रोक सके । आह ! कैसा करूण दृश्य था ? जितने साधु और श्रावक वहाँ मौजूद थे सबकी आँखोंमें पानी था | आज भाई भाईसे जुदा होता है । सबके हृदयमें प्रश्न उठता है - " आज यदि हमारा भाई भी हमसे जुदा होता तो हमारी क्या हालत होती ? "
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