Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 14 Vipakshrut and Auppatik Mool evam Vrutti
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गम नमो नमो निम्मलदसणस्स म पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः म (भाग सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि आगम ११-१२ “विपाकश्रुत तथा औपपातिक" मूलं एवं वृत्ति: आजमा मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता HEREXI कॉर्ड OFF OFF OF I श्री आगम मंदिर पालिताणा ROHIROLIFOF ~2~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855198253062751 ~3~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3013720 आजम आजम आम आम MONAC आगम आजम SERGE SER FEETTSFIE आलम 3 आजम आजम SEIMER आजम आजम आगम आजम Men's आजम 3. आज आम STTOTIT आजम आजम HIOINS MIQUE Mens Winches Hone wants mens STULES आगम आगम आम आम आगम वाचना शताब्दी वर्ष haut ~4~ Sum आगम आजम आजम PHICTE आगम BATCHET राजम SATISFI आसाम प्राप्त आज स संजम राम 37527 370374 BUDITE SHTOHY 3031 आगम AVISTIC आजम BUSTEE Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-१४] “विपाक” एवं “ औपपातिक" सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा- ललित- सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “विपाकश्रुत तथा औपपातिक" मूलं एवं वृत्तिः [आगमसूत्र ११,१२] मूलं एवं वृत्तिः [आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.श्रुतमहर्षि) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-१४ श्री आगमोद्धारक-वाचना- शताब्दी वर्ष - निमित्त 'आगम-वृत्ति - मुद्रण- प्रोजेक्ट' -> ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब | .जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी । गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्यक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया : || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का | • भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं। को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | . सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ......मुनि दीपरत्नसागर... Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालने हो ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हए तिसरे गच्छाधिपति थे पज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसरीश्वरजी. जो एक | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी । भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना : | कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण : बारबार चालु हो गया- “ अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर..... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजयगिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और । शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० : | समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णो के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण के | : शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। ... मुनि दीपरत्नसागर... -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -. ~7~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. . ____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे। समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते : है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय | मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है। समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का : वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने | जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय : दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। ... मुनि दीपरत्नसागर [कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यास, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.. ~8~ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक ०४० मूलाङ्का : ३५+०९ विपाकश्रुताङ्ग सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनक्रमा: ४७ श्रुतस्कंध - १ [आश्रव ] | ०१० | श्रुतस्कंध -१ [आश्रव ] | --- श्रुतस्कंध - २ [ संवर] मूलांक: अध्ययन मूलांक: | अध्ययन पृष्ठांक: मूलांक: पृष्ठांक: ००१ -१- मृगापुत्रः । ०११ । । ०३२ -८- सौर्यदत्त: १०३ -४- सुवासव: १३५ ०११ |-२- उज्झितक: ०३५ ०३३ |-९- देवदत्ता ०४१ -५- जिनदास: १३५ ०१८ |-३ अभग्नसेन: ०५६ ०३४ -१०- अंजू १२० ०४२ | -६- धनवती १३५ ०२४ -४- शकट: । ०७५ | | ... श्रुतस्कंध - २ [संवर] ०४३ -- महाबल: १३५ -4- बृहस्पतिदत्त: ०८१ | | ०३५ -१- सुबाहु: १२४ ०४४ -८-भद्रनंदी १३६ ०२९ |-६- नन्दिवर्धन: । ०८५ ०३८ -२- भद्रनंदी ०४५ -९- महाचंद्रः १३६ ०३१ -- उंबरदत्त: ०९३ ०३९ -३- सुजात: १३५ । । ०४६-४७ -१०-वरदत्त: १३६ १२४ १३४ मूलाका : ४३+३० औपपातिक (उपांग) सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनक्रमा: ७७ | मूलांक: विषय: | पृष्ठांक: । मूलांक: विषय: पृष्ठांक ०१-४३ समवसरण-पदं १४० | ४४-४७ उपपात-पदं ३०५ -चम्पानगरी, -पूर्णभद्रचैत्यं, -वनखंड, -शीलापट्ट, |-गौतम गणधरः, -अम्बइपरिव्राजकः, -देवउपपातवर्णनं | भगवंत महावीरस्य अन्तेवासी, -स्थवीर वर्णनं | -केवलीसमुद्घात:, -सिद्धजीवः, -सिद्धशीला, -अशोकवृक्ष,-तप-भेदाः, -देवआगमनं,-आगारधर्म |-सिद्धजीवस्य सौख्यं, द्रष्टि:, पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[१विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [११] "विपाकश्रुत" मूलं एवं वृत्ति: इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “विपाकश्रुताङ्ग" के नामसे सन १९२० (विक्रम संवत १९७६) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादकमहोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | * हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर श्रुतस्कन्ध, अध्ययन और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा श्रुतस्कंध एवं अध्ययन चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस -] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक श्रुतस्कंध, अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते वर्ग, अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है । शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-१४ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है | .....मुनि दीपरत्नसागर. ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: , ----------------------- अध्ययनं ------------------------ मूलं पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]विपाकश्रुत मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: -% ॥ अहम् ॥ श्रीमहादशाङ्गीविरचयितृश्रीमद्गणधारिसंकलितं । श्रीमदभयदेवाचार्यसंदृब्धविवरणयुतं । श्रीमद्-विपाकसूत्रम् । १ नत्वा श्रीवर्धमानाय, वर्द्धमानधुतावने । विपाकश्रुतशास्त्रस्य, वृत्तिकेयं विधास्यते ॥ १॥ अथ विषाकभुतमिति कः शब्दार्थः १, उच्यते, विपाक:-पुण्यपापरूपकर्मफलं तत्प्रतिपादनपरं श्रुतं-आगमो विपाकक्षुवं, इदं च द्वादशाङ्गस्य प्रवचनपुरुषस्यैकादशमङ्गं, इह च शिष्टसमयपरिपालनार्थ मङ्गलसम्बन्धामिधेयप्रयोजनानि किल वाच्यानि भवन्ति, तत्र चाधिकृतशास्त्रस्यैव सकलकल्याणकारिसर्ववेदिप्रणीतबुतरूपतया भावनन्दीरूपत्वेन मालखरूपत्वात् न ततो भिन्नं मङ्गलमुपदर्शनीवं, अमिधेयं च शुभाशुभकर्मणां विपाका, स चास्य नावाभिहितः, प्रयोजनमपि भोगतमनन्तरं कर्मविपाकावगमरूपं नात्रैवोक्तमस्थ, यत्किल कर्मविपाकावेदकं श्रुतं तत् शृण्वतां प्रायः कर्मविपाकावगमो भवत्येवेति, यत्तु निःश्रेयसावाप्तिरूपं परम्परप्रयोजनमस्य तदाप्तप्रणीततयैव प्रतीयते, न साप्ता यत्कथञ्चिन्निःश्रेयसार्थ न भवति तत्प्रणयनायोत्सहन्ते आप्तत्वहानेरिति, सम्बन्धोऽप्युपायोपेयभावलक्षणो नाग्नवास्य प्रतीयते, तथाहि-इदं शास्त्रमुपायः कर्मविपाकावगमस्तूपेयमिति, यस्तु गुरुपर्वक्रमलक्षणसम्बन्धोऽस्य तत्प्रतिपादनायेदमाह C4*+%ACACASSA ॐ वृत्तिकार-कृत् प्रस्तावना 4114 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ------------------------ अध्ययनं [१] ----------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]विपाकश्रुत मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके श्रुत०१ ཀྵ ཟླ་ ॥३३॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा णाम णयरी होत्था वण्णओ, पुन्नभद्दे चेहए, तेणं कालेणं तेणं समएणं १ मृगापुसमणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अजमुहम्मे णामं अणगारे जाइसंपन्ने वण्णओ चउद्दसपुचीत्रीयाध्य. चउनाणोवगए पंचहिं अणगारसहिं सद्धिं संपरिबुडे पुब्वाणुपुचि जाव जेणेव पुण्णभद्दे चेइए अहोपडिरूवं जाव विहरह, परिसा निग्गया धम्मं सोचा निसम्म जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया, वर्ण GIसु०१ १'तेणं कालेण'मित्यादि, अस्य व्याख्या-'तेणं कालेणं तेणं समएणति तस्मिन् काले तस्मिन् समये, णकारो वाक्यालङ्कारार्थत्वात् एकारस्य च प्राकृतप्रभवत्वात्, अथ कालसमययोः को विशेषः ?, उच्यते, सामान्यो वर्चमानावसर्पिणीचतुर्थारकलक्षणः| कालो विशिष्टः पुनस्तदेकदेशभूतः समय इति, अथवा तेन कालेन हेतुभूतेन तेन समयेन हेतुभूतेनैव 'होत्थति अभवत् , यद्यपि इदानीमप्यस्ति सा नगरी तथाऽप्यवसर्पिणीकालखभावेन हीयमानत्वाद्वस्तुखभावानां वर्णकमन्योक्तस्वरूपा सुधर्मखामिकाले नास्तीतिकृत्वाऽतीतकालेन निर्देशः कृतः, 'वण्णओ'त्ति 'ऋद्धिस्विमियसमिद्धेयादि वर्णकोऽस्या अवगन्तव्यः, स चौपपातिकबद्रष्टव्यः । 'पुनभदे चेइए'त्ति पूर्णभद्राभिधाने 'चैत्ये व्यन्तरायतने । २'अहापडिरूवं जाव विहरई'त्ति अनेनेदं सूचितं द्रष्टव्यम्"अजसुहम्मे येरे अहापडिरूवं उमगह उम्गिण्हह अहा. उरिगणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई" तत्र येन प्रकारेण ॥३३॥ प्रतिरूपः-साधूचितस्वरूपो यथाप्रतिरूपोऽतस्तमवप्रह-आश्रयमिति 'विहरति आस्ते, 'जामेव दिसं पाउन्भूया' यस्या दिशः सकाशात् | 'प्रादुर्भूता' प्रकटीभूता आगतेत्यर्थः 'तामेव दिसिं पडिगया' तस्यामेव दिशि प्रतिगतेत्यर्थः । = # ༔ अत्र प्रथम-श्रुतस्कंध: आरब्ध: अथ प्रथम अध्ययनं "मृगापुत्र" आरभ्यते ~12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ------------------------ अध्ययनं [१] ----------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]विपाकश्रुत मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मअंतेवासी अजजंबूनाम अणगारे सत्तुस्सेहे जहा गोथमसामी तहा जाव झाणकोट्ठो विगए] विहरति, तए णं अजजंबूनामे अणगारे जायसहेजाव जेणेव अजसुहमे अणगारे तेणेव उवा-2 % % - क १ १ 'सत्नुस्सेहेति सप्तहस्तोत्सेधः सप्तहस्तप्रमाण इत्यर्थः २ 'जहा गोयमसामी तहा' इति यथा गौतमो भगवत्यां वर्णितः तथाऽयमिह वर्णनीयः, कियहूर थावत् ? इत्याह-'जाव झाणकोट्ठोति 'झाणकोहोवगए' इत्येतत्पदं यावदित्यर्थः, स चायं वर्णकासमचउरंससंठाणसंठिए. बजरिसहनारायसंघयणे'त्ति विशेषणद्वयमपीदमागमसिद्ध कणगपुलगनियसपम्हगोरे' कनकस्य-सुवर्णस्य यः पुलको-लवस्तस्य यो निकष:-कषपट्टे रेखालक्षणः तथा 'पम्ह'त्ति पनगर्भस्तद्वद् गौरो यः स तथा, 'उग्गतवें' उनम्--अप्रभृष्यं तपो यस्य स तथा वित्चत दीप्त हुताशन इव कर्मवनदाहकरखेन ज्वलत्तेजस्तत्तपो यस्य स तथा तत्तस तार-तापिवं तपो येन स तथा, एवं हि तेन तपस्तप्तं येन कर्माणि संताप्य तेन वपसा खात्माऽपि तपोरूपः संतापितो यतोऽन्यस्थासंस्पृश्यमिव जासमिति, 'महातवे प्रशस्ततपाः बृहत्तपा वा, 'उराले' भीमः अतिकष्टतपःकारितया पार्श्ववर्तिनामल्पसवानां भवजनकत्वादुदारो पा प्रधान इत्यर्थः 'घोरः' निपुणः। परीपहावरातिविनाशे 'पोरगुणे अन्यैर्दुरनुचरगुणः 'घोरतवस्सी' पोरैलपोमिस्तपस्सी धोरवंभरवासी' घोरे-अल्पसरवदुरनुपरखेन दारुणे ब्रह्मचर्ये वस्तुं शीलं यस्य स तथा 'उच्छूढसरीरे' उक्टम्-उशिवमिव उज्झितं शरीरं येन तत्प्रतिकर्मत्यागात् 'संखित्तविउलतेउलेस्से संक्षिप्ता शरीरान्तर्वर्तिनीत्वाद्विपुला च-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुबद्दनसमर्थत्वात् तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा 'उईजाणू शुद्धपथिव्यासनवर्जनात् औपमहिकनिषद्याया अभावाच उत्कदुकासनः सनुपदिश्यते अर्व गौतमस्वामिन: वर्णनं ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 16 सू०२ विपाके गए तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति २त्ता वंदति २त्तानमंसति २त्ता जावं पञ्जुवासति, एवं वयासी- १ मृगापुश्रुत०१ (सू०१) जइ णं भंते ! समजेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दसमस्स अंगस्स पण्हावागरणाणं अय- त्रीयाध्य. मढे पन्नत्ते, एकारसमस्स णं भंते। अंगस्स विवागसुयस्स समणेणं जावसंपत्तेणं के अढे पन्नत्ते, तते णं अज्ज- अध्यय॥ ३४॥ सुहम्मे अणगारे जंबुं अणगारं एवं क्यासी-एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं एकारसमस्स अंगस्स नोपोद्धातः |जानुनी यस्य स ऊर्वजानु: 'अहोसिरों' अधोमुखो नोई तिर्यग्वा विक्षिप्तदृष्टिरिति भावः 'माणकोहोवगए' ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठ-1| स्तमुपगतो यः स तथा 'विहरइत्ति 'संजमेणं तवसा अपपाणं भावेमाणे विहरई' इत्येवं दृश्यं, 'जावसई प्रवृत्तविवक्षितार्थश्रवणवाञ्छः, यावत्करणादिदं दृश्यं 'जायसंसए' प्रवृवानिर्धारितार्थप्रत्ययः 'जायकोहल्ले प्रवृत्तश्रवणौत्सुक्यः ३ 'उत्पन्नसडे प्रागभवदुद्भूतभवणवाच्छः उत्पन्नबद्धत्वात् प्रवृत्तश्रद्धः इत्येवं हेतुफलविवक्षणान पुनरुकता, एवं उप्पन्नसंसए उप्पन्नकोहल्ले ३ संजायसड़े संजायसंसए संजायकोउहले ३ समुष्पन्नसड़े समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले ३' व्यक्तार्थानि, नवरमेतेषु पदेषु संशब्दः प्रकर्षादिवचनः, अन्ये त्याहु:-181 'जातमद्धों' 'जातप्रभवाञ्छः १, सोऽपि कुतो?, यतो जातसंशयः २, सोऽपि कुतो?, यतो जातकुतूहलः ३, अनेन पदत्रयेणावमहद Pउक्तः, एवमन्येन पदानां त्रयेण त्रयेण ईहा १ बाय २ धारणा ३ उक्ता भवन्तीति, 'तिक्युत्तो'त्ति विकृत्वः' श्रीन वारान् 'आयाहिणति | आदक्षिणात्-दक्षिणपार्धादारभ्य प्रदक्षिणो-दक्षिणपावची आदक्षिणप्रदक्षिणोऽतस्तं 'वंदा'त्ति स्तुत्या 'नमंसईत्ति नमस्पति प्रणामतः १६ यावत्करणादिदं दृश्य 'सुस्सूसमाणे नमसमाणे विणएणं पंजलिउडे अभिमुहे'त्ति व्यक्तं च । % 4 गौतमस्वामिन: वर्णनं ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२] + गाथा दीप अनुक्रम [२-४] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंध : [१], ------ ----- अध्ययनं [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः मूलं [२] + गाथा अनु. ८ विवागसुपस्स दो सुक्खंधा पद्मत्ता, सं० हविवागाय १ सुहविवागाय २, जइ णं भंते! समणेणं जाव संपशेणं एकार समस्स अंगस्स विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पन्नत्ता, तंजहा -- दुहविवागा य. १ सुहविवागा य २, पढमस्स णं भंते! सुयक्खंधस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेणं कई अज्झयणा पश्नत्ता?, तते णं अनसुहम्मे अणगारे जंबूअणगारं एवं वयासी - एवं खलु जंबू ! समणेणं० आइगरेणं तित्थगरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अझयणा पनन्ता, तंजहा - 'मियापुत्ते १ य उज्झियते २ अभग्ग ३ सगडे ४ बहस्सई ५ नंदी ६ । उंबर ७ सोरियदत्ते ८ य देवदत्ता य९ अंजू या १० ॥ १ ॥ जइ णं भंते! समणेणं० आइगरेणं तित्थयरेणं १ 'दुहविवागा यन्ति ‘दुःखविपाका: ' पापकर्मफलानि दुःखानां वा-दु:खहेतुत्वात् पापकर्मणां विपाकास्ते यत्रामिधेवतया स त्यसौ 'वरणानगर' मिति न्यायेन दुःखविपाका:- प्रथमतस्कन्धः, एवं द्वितीयः सुखविपाकाः, 'तए णं'ति ततः - अनन्तरमित्यर्थः । २ 'मियउत्ते' इत्यादिगाथा, तत्र 'मियउत्ते'ति मृगापुत्राभिधानराजमुतवक्तव्यताप्रतिबद्धमध्ययनं मृगापुत्र एवं १, एवं सर्वत्र, नवरम् 'उज्झियए'त्ति उज्झितको नाम सार्थवाहपुत्रः २, 'अभग्ग'ति सूत्रत्वादभनसेनो विजयाभिधानचौर सेनापतिपुत्रः ३, 'सग | डे'ति शकटाभिधान सार्थवाहसुतः ४, 'वहस्सइति सूत्रत्वादेव बृहस्पतिदत्तनामा पुरोहितपुत्र: ५, 'नंदी' इति सूत्रत्वादेव नन्दिवर्द्धनो राजकुमारः ६, 'उबर'त्ति सूत्रत्वादेव उदुम्बरदत्तो नाम सार्थवादसुतः ७, 'सोरियदत्ते' शौरिकदत्तो नाम मत्स्यबन्धपुत्रः ८, चशब्दः समुचये 'देवदत्ता य'त्ति देवदत्ता नाम गृहपतिसुता ९, चः समुचये 'अंजू य'ति अखूनामसार्थवाहसुता १०, पशब्दः समुचये, इति गाथासमासार्थः, विस्तरार्थस्तु यथास्वमभ्ययनार्थावगमादवगम्य इति । dat Eucation Ital For Part Use Onl श्रुतस्कन्ध एवं अध्ययनस्य नामानि ~15~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) སྒྲ + པལླཱཡྻ अनुक्रम [२-४] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंध : [१], अध्ययनं [१] मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः १ मृगापु मृगापुत्र ॥ ३५ ॥ विपाके जाव संपतेणं दुहविधागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं०-- मियापुत्ते य १ जाव अंजू य १०, पढमस्स णं श्रुत० १ ★ भंते! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपतेणं के अद्वे पन्नते?, तते गं से सुहम्मे अणगारे जंबूअण - ५ त्रीयाध्य गारं एवं व्यासी- एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं समर्पणं मियगामे नामे नगरे होत्था वण्णओ, तस्स णं मियगामस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए चंदणपायचे नामं उज्जाणे होत्था, सब्वोउयवण्णओ, तत्थ सुहम्मस्स जक्खस्स जक्वाययणे होत्था चिरातीए जहा पुन्नभद्दे, तत्थ णं मियग्गामे णगरे विजएनामं खत्तिए राया परिवसद बन्नओ, तस्स णं विजयस्स वत्तियस्स मिया नामं देवी होत्या अही णवन्नओ, तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियाए देवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारए होत्या, जातिअंधे जाइमूए जातिवहिरे जातिपंगुले य हुंडे व वायव्वे य, नत्थि णं तस्स दारगस्स हत्था वा पाया वा कन्ना वा अच्छी वा नासा वा, केवलं से तेसिं अंगोवंगाणं आगई आगतिमित्ते, १ 'एवं खलु'त्ति एवं' वक्ष्यमाणप्रकारेण 'खलुः' वाक्यालङ्कारे 'सब्वोउयवण्णओ'त्ति सर्वर्तुककुसुमसंछन्ने नंदणवणप्पगासे इत्यादिरुयानवर्णको वाच्य इति, 'चिराइए'त्ति चिरादिकं चिरकालीनप्रारम्भमित्यादिवर्णकोपेतं वाच्यं यथा पूर्णभद्रचैयमोपपातिके, 'अहीणवन्नओ'ति 'अहीणपुन्नपंचिदियसरीरे' इत्यादिवर्णको वाच्यः 'अत्तए'त्ति आत्मजः सुतः 'जाइअंधे 'ति जात्यन्धोजन्मकालादारभ्यान्ध एव 'हुंडे य'त्ति हुण्डका सर्वावयवप्रमाणविकलः 'वायव्वे'न्ति वायुरस्यास्तीति वायवो वातिक इत्यर्थः, 'आगिई आगइमेत्ते 'ति अङ्गावयवानामाकृतिः - आकारः किंविधा ? इत्याह-आकृतिमात्रं - आकारमात्रं नोचितस्वरूपेत्यर्थः da Eucation Intl दुःखविपाक श्रुतस्कन्धे मृगापुत्रस्य कथायाः आरम्भः For Parts Onl ~ 16~ जन्म सू० २ ।। ३५ ।। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक का तते णं सा मियादेची तं मियापुत्तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी २ विहरह (सू०२) तत्थणं मियग्गामे णगरे एगे जातिअंधे पुरिसे परिवसइ, से णं एगेणं सचक्खुतेणं पुरिसेणं पुरओ दंडएर्ण पगढिजमाणे २ फुहहडाइडसीसे मच्छियाचडगरपहकरेणं अपिणजमाणमग्गे |मियग्गामे नयरे गेहे २ कालुणवडियाए विर्ति कप्पेमाणे विहरह। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाच समोसरिए जाव परिसा निग्गया। तए णं से विजए खत्तिए इमीसे कहाए लढे समाणे है जहा कोणिए तहा निग्गते जाव पब्रुवासइ, तते णं से जातिअंधे पुरिसे तं मया जणस जाव सुणेत्ता तं पुरिसं एवं वयासी-किन्नं देवाणुप्पिया! अज्ज मियग्गामे णगरे इंदमहेइ वा जाव निग्गच्छद, तते णं से पुरिसे तं जातिअंधपुरिसं एवं वयासी-नो खलु देवाणुप्पिया! रहस्सिय'ति राहसिके जनेनाविदिते 'फट्टहडाहडसीसेति 'फुट्ट ति स्फुटितकेशसंचयत्वेन विकीर्णकेशं 'हडाहडंति अत्यर्य | शीर्ष-शिरो यस्य स तथा, 'मच्छियाचडकरपहयरेणं ति मक्षिकाणां प्रसिद्धानां चटकरप्रधानो-विस्तरवान् यः प्रहकर:-समूहः स तथा अथवा मक्षिकाषटकराणां-तद्वन्दानां यः प्रहकरः स तथा तेन 'अणिज्जमाणमग्गे'त्ति 'अन्वीयमानमार्गः' अनुगम्यमानमार्गः, मलाविलं हि वस्तु प्रायो मक्षिकाभिरनुगम्यत एवेति 'कालुणवडियाए'त्ति कारुण्यवृत्त्या 'वित्त्रिं कप्पेमाणे'त्ति जीविकां कुर्वाणः । २ 'जाव समोसरिए'त्ति इह यावत्करणात् 'पुब्बाणुपुब्धि परमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे इत्यादिवर्णको दृश्यः, 'तं मया जणसई पत्ति सूत्रवान्महाजनशब्दं प, इह यावत्करणात् 'जणवूई च जणबोलं चेत्यादि दृश्य, तत्र जनब्यूहः-पकायाकारा समूहस्तस्य शब्दस्तभेदाजनव्यूह एवोच्यतेऽतस्तं बोल:-अव्यक्तवर्णो ध्वनिरिति गाथा दीप अनुक्रम [२-४] ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [3] दीप अनुक्रम [4] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंध : [१], अध्ययनं [१] मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः विपाके इंदर वा जाब णिग्गच्छति, एवं खलु देवाणुपिया ! समणे जाव विहरति, तते णं एते जाव ११ मृगापुश्रुत० १ ५ निग्गच्छति, तते णं से अंधपुरिसे तं पुरिसं एवं बयासी - गच्छामो णं देवाणुप्पिया! अम्हेवि समणं भगवं जाब पज्जुवासामो, तते णं से जातिअंधे पुरिसे पुरतो दंडणं पगढिजमाणे २ जेणेव समणे भगवं ।। ३६ ।। २ महावीरे तेणेव उवागए २ ता तिक्खुत्तो आग्राहिणपयाहिणं करेह २ सा वंदति नम॑सति २ ता जाव ४ पज्जुवासति, तते णं समणे० विजयस्स० तीसे घ० धम्ममाइक्स्खति० परिसा जाब पडिगया, विजएवि गते । (सू० ३) तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणस्स० जेट्ठे अंतेवासी इंदभूतिनामं अणगारे जाव विहरह, तते णं १ 'इंदमहे इ व'त्ति इन्द्रोत्सवो वा, इह यावत्करणात् 'खंदमहे वा रुद्दमहे वा जाव उज्जाणजताह या, जन्नं बहवे उग्गा भोगा जाव एगदिसि एगामिमुहा' इति दृश्यम् इतो यद्वाक्यं तदेवमनुसर्त्तव्यं सूत्र पुस्तके सूत्राक्षराण्येव सन्तीति, 'तए णं से पुरिसे तं आइपुरिसं एवं वयासी तो खलु देवाणुप्पिया! अज मियग्गामे नवरे इंदमहे वा जाव जत्ताइ वा जनं एए उगा जाब एगदिसिं एगामिमुहा णिग्गच्छंति, एवं खलु देवाणुपिया ! समणे भगवं महावीरे जाव इह समागते इह संपत्ते इहेब मिवगामे जगरे मिगवपुजाणे अहापडिवं उम्म उग्गिण्डित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तट णं से अंधपुरिसे तं पुरिसं एवं बयासी' इति, 'विजयस्स तीसे य धम्म'ति इदमेवं दृश्यं ' विजयस्स रनो तीसे य मद्दइमहालिया परिसाए विवित्तं धम्भमाइक्खर जहा जीवा बसंतीत्यादि परिषद् यावत् परिगता 'जाइअंधे'ति जातेरारभ्यान्धो जात्यन्धः, स च चक्षुरुपघातादपि भवतीत्यत आह'जायअंधारूवे 'त्ति जातं - उत्पन्नमन्धकं - नयनयोरादित एवानिष्पत्तेः कुत्सिताङ्गं रूपं स्वरूपं यस्यासौ जातान्धकरूपः, da Eucation Intematont For Parts On ~18~ त्रीयाध्य. जात्यन्धा गमः सू० ३ ॥ ३६ ॥ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: से भगवं २ गोयमे तं जातिअंधपुरिसं पासह २त्ता जायसढे जाव एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! केई पुरिसे जातिअंधे जातिअंधारूवे?, हंना अत्थि, कहणं भंते! से पुरिसे जातिअंधे जातिअंधारूवे?, एवं खलु गोध्यमा! इहेव मियग्गामे नगरे विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारए जाति अंधे जातिअंधारूवे, नस्थि णं तस्स द्वारगस्स जाव आगतिमित्ते, तते णं सा मियादेवी जाव पडिजागरमाणी २ विहरति, तते णं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदा नमसति २त्ता एवं चयासी-इच्छामि र्ण भंते! अहं तुम्भेहि अन्भणुनाए समाणे मियापुत्तं दारगं पासित्तए, अहामुहं देवाणुप्पिया, तते| कणं से भगवं गोयमे समणेणं भगवया० अन्भणुनाए समाणे हवे तुढे समणस्स भगवओ० अंतियाओ पडि|निक्खमई २त्ता अतुरियं जाव सोहेमाणे २ जेणेव मियग्गामे णगरे तेणेव उवागच्छति २ सा मियग्गाम नगरं मझमझेण जेणेव मियादेवीए गेहे तेणेष उवागए, तते णं सा मियादेवी भगवं गोयम एज्जमाणं जापासइ २त्ता हट्ठतु जाव एवं वयासी-संदिसंतुणं देवाणुप्पिया! किमागमणपयोयणं, तते गं भगवं |गोयमे मियादेविं एवं वयासी-अहपर्ण देवाणुप्पिए। तब पुत्तं पासितुं हब्वमागए, तते णं सा मियादेवी १'अतुरिय'ति अत्वरितं मनःस्थैर्यात् , यावत्करणादिदं दृश्यम्-'अचवलमसंभंते जुर्गतरपलोयणाए विट्ठीए पुरओ रियति चित्राचपलं-कायचापल्याभावात् क्रियाविशेषणे चैते, तथा 'असंभ्रान्तः' भ्रमरहितः युग-यूपसरप्रमाणो भूभागोऽपि युगं तस्यान्तरेदमध्ये प्रलोकनं यस्याः सा तथा तया या-चक्षुषा 'रिय'ति ईर्या-ामनं तद्विषयो मार्गोपीर्याऽतस्ता 'जेणेव'त्ति यस्मिन् देशे २ 'हट्टजाव'ति इह हहतुट्ठमाणदिए' इत्यादि दृश्यम् , एकार्थाश्चैते शब्दाः, ३ 'हब'ति शीघ्रम । FORPTERPRELUFORY ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [६] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [१] मूलं [४] श्रुतस्कंध : [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः विपाके श्रुत० १ ॥ ३७ ॥ at Eucation मियापुत्तस्स दारगस्स अणुमग्गजायते चत्तारि पुसे सव्वालंकारविभूसिए करेति २ ता भगवतो गोयमस्स पादेसु पाडेति २ ता एवं वयासी एए णं भंते! मम पुत्ते पासह, तते णं से भगवं गोयमे मियादेवीं एवं वयासी-नो खलु देवा० अहं एए तव पुत्ते पासि हव्यमागते, तत्थ णं जे से तब जेडे मियापुते दारए जाइअंधे जातिअंधारूवे जं णं तुमं रहस्सिसि भूमिधरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी २ विहरसि तं णं अहं पासिउं हवमागए, तते णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासी-से के णं गोयमा ! से तहारूवे णाणी वा तवस्सी वा जेणं तव एसमट्ठे मम ताव रहस्सिकए तुम्भं हव्वमक्खाए जेओ णं तुन्भे जाणह ?, तते णं भगवं गोपमे मियादेवीं एवं क्यासि - एवं खलु देवाणुप्पिया! मम धम्मायरिए समणे भगवं महावीरे जतो णं अहं जाणामि, जावं च णं मियादेवी भगवया गोयमेण सद्धिं एयम संलवति तावं चणं मियापुत्तस्स दारगस्स भत्तबेला जाया याबि होत्था, तते णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासी तुग्भे णं भंते! इहं चैव चिट्ठह जाणं अहं तुम्भं मियापुत्तं दारगं ज्वदंसेमित्तिकट्टु जेणेव भत्तपाणघरे | तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता वैत्थपरियहयं करेति वत्थपरियहयं करिता कट्टसगडियं गिण्हति कट्टसग डियं गिव्हित्ता विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स भरेति विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स भरित्ता १ 'जओ 'ति यस्मात् । २ 'जाया यावि होत्था' जाता वाप्यभवदित्यर्थः । ३ 'बत्यपरिय'ति वस्त्र परिवर्तनम् । For Parts Use Onl ~20~ १ मृगापु श्रीयाध्य. मृगापुत्रा वलोकनं सू० ४ ॥ ३७ ॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कं ध: [१], ----------------------- अध्य यनं [१] ----------------------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: PI कढसगडियं अणुकट्ठमाणी२जेणामेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता भगवं गोयम एवं षयासी-एह णं तुम्भे भंते ! मम अणुगच्छह जा णं अहं तुम्भं मियापुत्तं दारगं उवदंसेमि, तते णं से भगवं| गोयमे मियं देविं पिट्टओ समणुगच्छति, तते णंसा मियादेवीतं कट्ठसगडियं अणुकडमाणी२ जेणेव भूमिघरे तेणेव उवागच्छद २त्ता चउप्पुडेणं वत्थेणं मुहं बंधेति मुहं बंधमाणि भगवं गोयम एवं वयासी-तुम्भेऽवि . भंते! मुहपोत्तियाए मुहं बंधह, तते णं से भगवं गोयमे मियादेवीए एवं बुत्ते समाणे मुहपोत्तियाए मुहं बंधे- ति,ततेणं सा मियादेवी परम्मुही भूमिघरस्स दुवारं विहाडेति, तते णं गंधे निग्गच्छति से जहानामए अहिमडेति वा सप्पकडेवरे इ वा जाव ततोऽविणं अणि?तराए चेव जाव गंधे पन्नत्ते, तते णं से मियापुत्ते दारए तस्स विपुलस्स असणपाणखाइमसाइमस्स गंघेणं अभिभूने समाणे तंसि विपुलंसि असणपाण० मेच्छिते. तं विपुलं असणं ४ आसएणं आहारेति आहारित्ता खिप्पामेव विद्धंसेति विद्धंसेत्ता ततो पच्छा पूयत्ताए य सोणियत्ताए य परिणामेति तंपि य णं पूर्य च सोणियं च आहारेति, तते णं भगवओ गोयमस्स तं मिया १से जहानामए'त्ति तद्यथा नामेति वाक्यालक्कारे । २ 'अहिमडेइ वा सप्पकडेवरे इ वा इह यावत्करणात् 'गोमडेइ वा सुणहदमडेइ वा इत्यादि द्रष्टव्यम् । ३ 'ततोविणति ततोऽपि-अहिकडेवरादिगन्धादपि । ४ 'अणिद्वतराए चेवत्ति अनिष्टतर एव गन्ध इति गम्यते, इह यावत्करणात् 'अकंततराए चेव अपियतराए चेव अमणुन्नतराए चेव अमणामतराए थेव'त्ति दृश्यम् , एकार्थाश्चैते । ४/५ 'मुच्छिए' इत्यत्र गढिते गिद्धे अज्झोववन्ने इति पदत्रयमन्यद् दृश्यम् , एकार्थान्येतानि चत्वार्यपीति । k4 JAIREacatunintamathina FORPTERPRELUFORY ~21 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके पुतं दारयं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए समुप्पज्जित्था-अहो णं इमे दारए पुरापोराणाणं दुचिण्णाणं ||१ मृगापुश्रुत०१दुप्पडिताणं असुभाणं पावाणं कडाणं कम्माणं पावगं फलवित्तिविसेसं पचणुब्भवमाणे विहरति, ण मे विट्ठा त्रीयाध्य. णरगा वा णेरड्या वा पञ्चक्खं खलु अयं पुरिसे नरयपडिरूवियं वेयणं वेयतित्तिकटु मियं देविं आपुच्छति। मृगापुत्राभत्ता मियाए देवीए गिहाओ पडिनिक्खमति गिहा २त्ता मियग्गामणगरं मज्झमझेणं निग्गच्छति वलोकन विनि २त्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २त्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आदियाहिणपयाहिणं करेइ २त्ता बंदति नमसति २त्ता एवं क्यासी-एवं खलु अहं तुम्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे मियग्गामं नगरं मझमज्झेण अणुप्पविसामि जेणेव मियाए देवीए गेहे तेणेव उवागते, तते णं सा मियादेवी ममं एबमाणं पासइ २त्ता हट्ठा तं चेव सव्वं जाव पूयं च सोणियं च आहारेति, तते गं मम इमे अज्झथिए समुप्पज्जिधा-अहो णं इमे दारए पुरा जाव विहरह (सू०४) से णं भंते ! पुरिसे सू०४ %AAAA १ 'अज्झथिए' इत्यत्र 'चिंतिए कप्पिए पथिए मणोगए संकप्पे' इति दृश्यम् , एतान्यप्लेकार्थानि । २ 'पुरापोराणाणं दुच्चिन्नाणं' इहाक्षरधटना 'पुराणानां जरठानां कक्खडीभूतानामित्यर्थः 'पुरा' पूर्वकाले 'दुश्चीर्णानां प्राणातिपातादिदुश्चरितहेतुकानां SI'दुप्पडिकंताण'ति दुःशब्दोऽभावार्थस्तेन प्रायश्चित्तप्रतिपत्त्यादिना अप्रतिकान्तानां-अनिवर्तितविपाकानामित्यर्थः, 'असुभाण'ति असु खहेतूनां 'पावाण'ति पापानां दुष्टस्वभावानां 'कम्माणति ज्ञानावरणादीनाम् । ॥३८॥ ~22~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रतस्कं ध: [१], -------------------- अध्य यनं [१] -------------------- मूलं [4] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत R सूत्रांक पुन्वभवे के आसि [किंनामए वा किंगोए वा] कयरंसि गामंसि वा नयरंसि वा किंवा दचा किंवा भोचा। किं वा समायरित्ता केसि वा पुरा जाव विहरति?, गोयमाइ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे सयदुवारे नाम नगरे होत्था |रिस्थिमिए वन्नओ, तत्थ णं सयदुवारे नगरे धणवई नामंराया हुत्या वपणओ, तस्स णं सयदुवारस्स नगरस्स अदूरसामते दाहिणपुरच्छिमे दिसीभाए विजयबदमाणे णाम खेडे होत्था रिथिमियसमिडे, तस्स णं विज यवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई आभोए यावि हुत्या, तत्थ णं विजयवद्धमाणे खेडे इकाई णामं रहकूडे है होत्था अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे, से णं इकाई रहकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंचण्हं गामसयाणं १ पुष्पभये के आसि' इत्यत एवमध्येयं फिनामए पा किंगोत्तए वा तत्र नाम-यादृच्छिकमभिधानं गोत्रं तु यथार्थ कुलं का कवरंसि गामंसि वा नगरसि वा किंवा दचा किंवा भोच्चा किं वा समायरेचा केसि वा पुरा पोराणाणं दुचिन्नाणं दुप्पडिकतागं असुहाणं पावाणं कम्माणं पावर्ग फलयित्तिविसेसं पञ्चणुभवमाणे विहरईत्ति । २ 'गोयमाइति गौतम इत्येवमामक्येति गम्यते ३ 'ऋद्धिस्थिमिए'त्ति ऋद्धिप्रधान स्तिमितं च--निर्भयं यत्तत्तथा, 'वण्णओ'त्ति नगरवर्णकः, स चौपपातिकवद्रष्टव्यः, 'अदूरसामंते'त्ति नातिदूरे न च समीपे इत्यर्थः, 'खेडे'त्ति धूलीमाकारं 'रिद्धत्ति रिद्वत्वमियसमिद्धे' इति द्रष्टव्यम् , 'आभोए'त्ति विस्तारः 'रद्वउडे'ति राष्ट्रकूटो-मण्डलोपजीवी राजनियोगिकः ४ 'अहम्मिए'त्ति अधाम्मिको यावत्करणादिदं दृश्यम्-'अधम्माणुए अधम्मिढे अधम्मपलोई अधम्मपलजणे अधम्मसमुदाचारे अधम्मेणं चेव वित्ति कप्पेमाणे दुस्सीले दुब्बए'त्ति, तत्र अधार्मिकत्वप्रपश्चनायोच्यते-'अधम्माणुए' %% गाथा % % दीप अनुक्रम % % [७-८] मृगापुत्रस्य पूर्वभव: - "इक्काई रहकूड" ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत *4%A5%* सू०५ विपाके आहेचं जाव पालेमाणे विहरइ, तए णं से इक्काई विजयवद्धमाणस्स खेडस्स पंच गामसयाई बहहिं कैरेहि मृगापुश्रुत०१ अधर्मा-श्रुतचारित्रामा अनुगच्छतीत्यधर्मानुगः, कुत एतदेवमित्याह-अधर्म एव इष्टो-बहभः पूजितो वा यस्य सोऽधम्मिष्ठः अति-इत्रीयाध्य. * शयेन वाऽधौ-धर्मवर्जित इत्यधम्मिष्टः, अत एवाधर्माख्यायी-अधर्मप्रतिपादकः अधर्मख्यातिर्वा-अविद्यमानधोऽयमित्येवप्रसिद्धिकः, मृगापुत्र॥१९॥ तथाऽधर्म प्रलोकयति-उपादेयतया प्रेक्षते यः स तथा, अत एवाधर्मप्ररजन:-अधर्मरागी अत एवाधर्मः समुदाचार:-समाचारो यस्य | पूर्वभवः स तथा, अत एवाधर्मेण-हिंसादिना वृत्ति-जीविका कल्पयन् सन् दुःशील:-शुभस्वभावहीनः दुर्ब्रतश्च-व्रतवर्जितः दुष्प्रत्यानन्दःसाधुदर्शनादिना नानन्यत इति । १ 'आहेबच्छति अधिपतिकर्म, यावत्करणाविदं दृश्य-'पोरेवणं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत आणाईसरसेणावचं कारेमाणे'त्ति तत्र पुरोवर्तित्वं-अग्रेसरत्वं स्वामित्व-नायकत्वं भर्तृत्व-पोषकत्वं महत्तरकत्वं-उत्तमत्वं आशेश्वरस्य-आज्ञाप्रधानस्य यत्सेनापतित्वं तदाशेश्वरसेनापत्यं कारयन्-नियोगिकैविधापयन् पालयन् स्वयमेवेति । २'करेहि यति करैःक्षेत्राचाभितराजदेवद्रव्यैः 'भरेहि यत्ति तेषामेव प्राचुः ‘विद्धीहि यत्ति वृद्धिभिः-कुटुम्बिनां वितीर्णस्य धान्यस्य द्विगुणादेब्रहणैः, वृत्तिभिरिति कचित् , तत्र वृत्तयो-राजादेशकारिणां जीविकाः, 'उकोडाहि यत्ति लञ्चाभिः 'पराभएहि यति पराभवैः 'देजेहि बाय अमाभवरातव्यैः 'भेजेहि य'ति यानि पुरुषमारणाचपराधमाश्रित्य प्रामादिषु दण्डन्याणि निपतन्ति की दम्बिकान् प्रति च भदमनोदास्यन्ते तानि भेयानि अतस्तैः 'कुंतेहि यति कुन्तकम्-एतावदम्यं त्वया देयमित्येवं नियन्त्रणया नियोगिकस्य देशादेयत्समर्पणमिति, 'लंछपोसेहि य'त्ति लम्छा:-चौरविशेषाः संभाव्यन्ते तेषां पोषा:-पोषणानि तैः, 'आलीवणेहि यत्ति व्याकुललोकानां मोषणार्थ प्रामादिप्रदीपनकै: 'पंथकोद्देहि यति सार्थधातैः 'उवीलेमाणे'त्ति अवपीलयन-बाधयन् । 16 गाथा KARAN KA4 दीप अनुक्रम [७-८] + ~24~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यन [१] ----------------------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक *य भरेहि य विद्धीहि य उक्कोडाहि य पराभवेहि य दिजेहि य भेजेहि य कुंतेहि य लंछपोसेहि य आलीवणेहि य पंथकोहि य उवीलेमाणे २ विहम्मेमाणे २ तज्जेमाणे २ तालेमाणे २ निद्धणे करमाणे २ विहरति । तते णं से इकाई रहकूडे विजयवद्धमाणस्स खेडस्स बहूर्ण राईसरतलबरमाइंषियकोडुंबियसेहि सत्यवाहाणं अन्नेसिं च बहूणं गामेल्लमपुरिसाणं बहुसु कजेसु य कारणेसु य संतेमु य गुज्झेसु य निच्छएमु य ववहारेसु य सुणमाणे भणति-न सुणेमि असुणमाणे भणति-सुणेमि एवं पस्समाणे भासमाणे गिण्हमाणे जाणमाणे, तते णं से इकाई रट्ठकूडे ऐयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबई पावकम्मं कलिकलुसं समजिणमाणे विहरति, तते णं तस्स इकाईयस्स रहकूडस्स अन्नया कयाई सरीरगंसि | 'विहम्मेमाणे ति विधर्मयन्-वाचारभ्रष्टान् कुर्वन् 'तज्जमाणे त्ति कृतावष्टम्भान तर्जयन-जास्वथ रे यन्मम इदं च इदं | चन दत्खेत्येवं भेषयन् 'तालेमाणे'त्ति कशचपेटादिभिस्ताडयन् 'निद्धणे करेमाणे'सि निर्द्धनान् कुर्वन् विहरति । २ 'तए णं से इकाई रहकूडे विजयवज्रमाणरस खेडस्स सत्कानां बरणं राईसरतलवरमाबंबियकोदुवियसेडिसत्यवाहाणं इह तलवरा:-राजप्रसादवन्तो। राजोत्थासनिका: 'माडम्बिकाः' मखम्बाधिपतयो मडम्ब च-योजनद्वयाभ्यन्तरेऽविद्यमानप्रामादिनिवेश: सनिवेशविशेषः शेषाः। INIप्रसिद्धाः | ३ 'कज्जेसु'त्ति कार्येपु-प्रयोजनेषु अनिष्पन्नेषु 'कारणेस'ति सिसाधयिषितप्रयोजनोपायेषु विषयभूतेषु ये मबायो ग्यवहा राम्तास्तेषु, तत्र मन्त्रा:-पर्यालोचनानि गुहानि-रहस्यानि निश्श्रया-वस्तुनिर्णयाः व्यवहारा-विवादास्तेषु विषये ४ । 'एयकम्मे' एतस्यापारः एतदेव वा काम्यं-कमनीयं यस्य स तथा, 'एयप्पहाणे'त्ति एतत्प्रधानः एतनिष्ठ इत्यर्थः, 'एयविजे'त्ति एषैव विद्या-विज्ञानं यस्य स है तथा 'एयसामायारे'त्ति एतज्जीतकल्प इत्यर्थः पावकम्मति अशुभं-ज्ञानावरणादि 'कलिकलुस ति कलहहेतुकलुषं मलीमसमित्यर्थः,। गाथा दीप अनुक्रम [७-८] Jamtauntunintamatund PurparsonRLPHANTINCInte ~25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके श्रुत०१ प्रत ॥४०॥ ** * जमगसमगमेव सोलस रोगायंका पाउन्भूया, तंजहा-सासे १ कासे २ जरे ३ दाहे ४, कुच्छिसूले ५ भगंदरे मृगापु६। अरिसा ७ अजीरए ८ दिट्ठी९, मुद्धसूले १० अकारए ११ ॥१॥ अच्छिवेयणा १२ कन्नवेयणा १३ कंडू रत्रीयाध्य. १४ उदरे १५ कोढे १६ तते णं से इक्काई रहकूडे सोलसहि रोगायकेहिं अभिभूए समाणे कोडुंबियपुरिसे मृगापुत्रसद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! विजयवद्धमाणे खेडे संघाडगतिगचउक्कचचर- पूर्वभवः महापहपहेसु महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा २ एवं वदह-इहं खलु देवाणुप्पिया! इकाईरहकूडस्स सरीर-II सू० ५ गसि सोलस रोगायंका पाउम्भूया, तंजहा-सासे १ कासे २ जरे ३ जाव कोढे १६, तं जो णं इच्छति देवाणुप्पिया। विजो वा विजपुत्तो वा जाणुओ वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छी वा तेगिच्छिपुत्तो वा इकाईरहकूडस्स तेर्सि सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायक उपसामित्तए तस्स णं इकाई रहकूडे विपुलं अत्य-टू संपयाणं दलयति, दोचपि तचंपि उग्घोसेह २ त्ता एयमाणत्तियं पचप्पिणह, तते ण ते कोटुंबियपुरिसा १ 'जमगसमग ति युगपत् 'रोगार्यकत्ति रोगा-व्याधयस्त एवातकाः-कष्टजीवितकारिणः । 'सासे' इत्यादि श्लोकः, 'जोणिसूले'त्ति अपपाठः 'कुच्छिसूले' इत्यस्यान्यत्र दर्शनात् , 'भगंदले'चि भगन्दरः 'अकारए'त्ति अरोचकः, 'अच्छिवेयणा' इत्यादि | लोकातिरिक्तं, 'उरे'त्ति जलोदरं । शृङ्गाटकादयः स्थानविशेषाः । २"विज्जो वति वैवशास्ने चिकित्सायां च कुशल: 'विजपुत्तो वति तत्पुत्रः 'जाणुओ बत्ति ज्ञायक:-केवलशास्त्रकुशलः 'तेगिच्छिओ वत्ति चिकित्सामात्रकुशल: 'अत्थसंपयाणं दलयइत्ति | हा॥४०॥ अर्थदानं करोतीत्यर्थः, CRACKGRA गाथा दीप अनुक्रम [७-८] अत्र मूल सम्पादकेन न किंचित् स्वतंत्र सूत्र घोषित: , परंतु एका सूत्र संख्या-क्रमांकने स्खलना कृता: मया तत् स्थाने स्वतन्त्र अनुक्रम: दत्वा सूत्र ६ इति सूत्रक्रम-६ लिखितं ...यहां प्रत के संपादनमें सूत्र ५ के बाद ६ के स्थानमे सिधा ७ सूत्रक्रम हि दिया है मैनेसूत्र-गाथा के बाद अतिरिक्त क्रम देकर सू०६, सू०. ऐसा लिख दिया है ] ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं से विजयवद्धमाणे खेडे इमं एयारूवं उग्घोसणं सोचा निसम्म यहवे विज्जा य ६ सत्यकोसहत्वगया सपहिं २ गिहहिंतो पडिनिक्खमंति २त्ता विजयवद्धमाणस्स खेडस्स मज्झमझेणं जे व इकाइरहकूडस्स गिहे तेणेव उवागच्छद २त्ता इकाईरहकूडस्स सरीरगं परामुसंति २ ता तेसिं रोगाणं निदाणं पुच्छंति २त्ता इकाईरहकूडस्स बहहिं अभंगेहि य उव्यदृणाहि य सिणेहपाणेहि य चमणेहि य. विरेयणेहि य अवद्दहणाहि य अवण्हाणेहि य अणुवासणाहि य बस्टिकम्मेहि य निरुहेहि य सिरावेहेहि | य तच्छणेहि य पच्छणेहि य सिरोवत्थीहि य तप्पणाहि य पुटपागेहि य छल्लीहि य मूलेहि य कंदेहि य 10 १ 'सत्थकोसहत्थगय'त्ति शखकोशो-नखरदनादिभाजन हरते गतो-व्यवस्थितो येषां ते तथा, २ 'अबद्दहणाहि यति दम्भनैः 'अवण्हाणेहि यत्ति तथाविधद्रव्यसंस्कृतजलेन सानैः 'अणुवासणाहि यति अपानेन जठरे तैलप्रवेशनैः 'वस्थिकम्मेहि यत्ति वर्मवेष्टनप्रयोगेण शिरःप्रभृतीनां नेहपूरणैः गुदे वा वगविक्षेपणैः 'निरुहेहि यत्ति निरुहः-अनुवास एवं केवलं द्रव्यकृतो विशेषः 'सिरावेहेहि यत्ति नाडीवेधैः 'तच्छणेहि य'त्ति क्षुरादिना त्वचस्तनूकरणैः 'पच्छणेहि यत्ति हखैस्त्वचोविदारणैः 'सिरोवस्थीहि यत्ति शिरोबस्तिभिः शिरसि बद्धस्य चर्मकोशकस्य द्रव्यसंस्कृततैलाद्यापूरणलक्षणाभिः, प्रागुक्तचस्तिकमाणि सामान्यानि अनुवासनानिरुह शिसवस्तयस्तु तनेदाः 'तप्पणाहि यत्ति तर्पणैः स्नेहादिभिः शरीरसुंदणैः 'पुडपागेहि यत्ति पुटपाका:-पाकविशेपनिष्पन्ना औषधिविशेषाः 'छलीहि यति छलयो-रोहिणीप्रभृतयः RE ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: पूर्वभवः विपाके पत्तेहि य पुष्फेहि य फलेहि य बीएहि प सिलियाहि य गुलियाहि य ओसहेहि य भेसजेहि य इच्छंति मृगापुश्रुत०१तेसिं सोलसह रोगायंकाणं एगमवि रोगायकं उवसमावितए, नो चेव णं संचाएंति उवसामित्सए। ततेत्रीयाध्य. ण ते बहवे विज्जा य विजपुत्ता य जाहे नो संचाएंति तेसिं सोलसहं रोगार्यकाणं एगमवि रोगायक उव- मृगापुत्र॥४१॥ सामित्तए ताहे संतों तंता परितंता जामेव विर्सि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया, तते णं इकाईरहकूडे| विलोहिय पडियाइक्खिए परियारगपरिचसे निविण्णोसहभेसजे सोलसरोगायंकेहिं अभिभूए समाणे रज्जे या सू०५ रद्धेय जाव अंतेउरे य मुच्छिए रज्नं च रट्टं च आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहेमाणे अभिलसमाणे अदुहवसट्टे अहाइजाई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उको "सिलियाहि यति शिलिका:-किराततिक्तकप्रभृतिकाः 'गुलियाहि यत्ति द्रव्यवटिकाः 'ओसहेहि यत्ति औषधानिएकद्रव्यरूपाणि 'भेसजेहि य'ति भैषज्यानि-अनेकद्रव्ययोगरूपाणि पथ्यानि चेति । २'संत'ति भान्ता देशोदेन 'तेत'ति वान्ता मनासेदेन 'परितंत'त्ति उभयखेदेनेति 'रज्जे य रढे य' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्य-कोसे व कोडागारे यवाहणे य'ति, 'मुच्छिए गढिए गिद्धे अझोववण्णे'त्ति एकार्थाः, 'आसाएमाणे त्यादय एकार्थाः, 'अदृदुहवसट्टे'त्ति आचों मनसा दुःखितो-दुःखातों देहेन वशास्तु-इन्द्रियवशेन पीडितः, ततः कर्मधारयः, 'उज्जला' इह यावत्करणादिदं दृश्य-विउला कक्कसा पगाढा चेडा दुहा X ॥४१॥ दातिव्या दुरहियास'त्ति एकार्थी एव, 'अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुना अमणामा' एतेऽपि तथैव । CREASSAGAR -- FORTranwerwarrow wataneioraryam ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः https सेणं सागरोवमद्वितीएम नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने, से णं ततो अणंतरं उध्वहित्ता इहेव मियग्गामे गगरे। विजयस्स खसियस्स मियाए देवीए कुञ्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने, सते णं तीसे मियाए देवीए सरीरे वेयणा पांउम्भूया उज्जला जाव जलंता, जप्पभिइंच णं मियापुसे दारए मियाए देवीए कुञ्छिसि गम्भताए उववन्ने तप्पमिइंच मियादेवी विजयस्स अणिहा अर्कता अप्पिया अमणुन्ना अमणामा जाया यावि होत्था, तते णं तीसे मियाए देवीए अन्नया कयाई पुन्वरत्तावरसकालसमयंसि कुबजागरियाए जागरमाणीए इमे एयारूवे अजास्थिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अहं विजयस्स खसियस्स पुचिट्ठा ६ धेज्जा वेसासिया अणुमया आसी, जप्पभिई च णं मम इमे गम्भे कुञ्छिसि गन्भत्ताए उववन्ने तप्पभिई घणं अहं विजयस्स खत्तियस्स अणिवा जाव अमणामा जाया यावि होत्था, निच्छति णं विजए खसिए मम नाम या गोयं १'पुब्बरतावरत्तकालसमयंसि'त्ति पूर्वरात्रो-रात्रेः पूर्वभाग: अपररात्रो-रात्रेः पश्चिमो भागस्ताक्षणो यः कालसमयः कालरूपः समयः स तथा तत्र 'कुटुंबजागरियाए'त्ति कुटुम्बचिन्तयेत्यर्थः, 'अज्झस्थिए'त्ति आध्यात्मिकः आत्मविषयः, इह चान्यान्यपि पदानि दृश्यानि, तपथा-'चिंतिए'त्ति स्मृतिरूपः 'कप्पिए'ति बुझ्या व्यवस्थापितः 'पथिए'त्ति प्रार्थितः प्रार्थनारूपः 'मणोगए'त्ति मनस्खेव वृत्तो बहिरप्रकाशितः संकल्प:-पर्यालोचः, 'इढे त्यादीनि पचकार्थिकानि प्राग्वत् , 'धिजेत्ति ध्येया 'वेसासिय'त्ति | विश्वसनीया 'अणुमय'ति विप्रियदर्शनस्य पश्चादपि मता अनुमतेति, 'नाम'ति पारिभाषिकी सझा 'गोय'ति गोत्रं-भान्वर्थिकी सब्यौवेति ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११]"विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: है पूर्वभवः विपाके 18वा गिण्हित्तए वा किमंग पुण दसणं वा परिभोग वा १, सेयं खलु मम एवं गम्भ षहहिं गब्भसाडणाहि य ११मृगापुश्रुत०१ पाडणाहि य गालणाहि य मारणाहि य साडित्तए वा ४, एवं संपेहेइ संपेहित्ता बहणि खाराणि य कडु- त्रीयाध्य. याणि य तूवराणि य गभसाढणाणि य खायमाणी य पीयमाणी य इति तं गम्भं साडित्तए वा ४ नो मृगापुत्र॥४२॥ चेवणं से गन्भे सडइ वा ४। तते णं सा मियादेवी जाहे नो संचाएति तं गन्भं साडेत्तए वा ४ ताहे| संता तंता परितंता अकामिया असवसा तं गन्भं दुहंदुहेणं परिवहइ, तस्स णं दारगस्स गम्भगयस्स चेव अह नालीओ अम्भितरप्पवहाओ अट्ठ नालीओ बाहिरपवहाओ अट्ठ पूयप्पवहाओ अट्ट सोणियप्पवहाओ दुवे दुवे कपणतरेसु दुवे दुवे अछित्तरेसु दुवे दुवे नक्कंतरेसु दुवे दुवे धमणिअंतरेसु अभिक्खणं अभिक्खणं टू पूयं च सोणियं च परिसवमाणीओ २ चेव चिट्ठति, तस्स णं दारगस्स गन्भगयस्स चेव अग्गिए नामं वाही १ किमंग पुण'त्ति किं पुन: 'अंग' इत्यामन्त्रणे 'गब्भसाडणाहि यत्ति शातना:-गर्भस्य खण्डशो भवनेन पतनहेतवः 'पाडणाहि य'त्ति पातनाः यैरुपावैरखण्ड एव गर्भः पतति 'गालणाहि यत्ति वैर्गों द्रवीभूय क्षरति 'मारणाहि यत्ति मरणहेतवः। २ अकामिय'त्ति निरभिलाषाः 'असयवस'ति अस्वयंवशा 'अट्ट नालीओन्ति अष्टौ नाड्यः-शिराः 'अभितरप्पवहाउ'त्ति शरीरस्याभ्यन्तर एव रुधिरादि सवन्ति यास्तालथोच्यन्ते, 'बाहिरप्पवहाउत्ति शरीराहिः पूषादि क्षरन्ति यास्तास्तथोक्ताः, पता एव पोडश ४ विभज्यन्ते 'अट्टे'त्यादि, कथमित्याह-'दुवे दुति द्वे पूयप्रवाहे द्वे च शोणितप्रवाहे, ते च केयाह-कन्नंतरेसु' श्रोत्ररन्ध्रयोः, एवमेताश्चतस्रः, एवमन्या अपि व्याण्येयाः, नवरं धमन्य:-कोष्टकद्दडान्तराणि 'अग्गियएति अनिको भस्मकाभिधानो वायुविकारः 24544 ~30~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत मूलं एवं अभयदेवसूरिरचितावृत्ति: ༼ ཤྩ ཟླ། KAAAAE पाउन्भूए जे णं से दारए आहारेति से णं खिप्पामेव विद्धंसमागच्छति पूयत्साए सोणियत्ताए य परिणमति, तंपिय से पूर्व च सोणियं च आहारेति, तते णं सा मियादेवी अन्नया कयाईनवण्हं मासाणं बहुपडिपुत्राणं दा-13 रगं पयाया जातिअंधे जाव आगइमित्ते, तते णं सामियादेवी तं दारगं हुंडं अंधारूवं पासति २त्ता भीया ४ अम्मधाई सद्दावेति २त्ता एवं बयासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया! तुम एयं दारगं एगते उकुरुडियाए उज्झाहि, तते णं सा अम्मधाई मियादेवीए तहत्ति एयमट्ठ पडिमुणेति २त्ता जेणेव विजए खत्तिए तेणेच उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं एवं वयासी-एवं खलु सामि! मियादेवी नवहं मासाणं जाव आगतिमित्ते, तते णं सा मियादेवी तं टुंडं अंधारूवं पासति २त्ता भीया तत्था उध्विग्गा संजायभया ममं सद्दावेइ २त्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! एवं दारगं एगते उकुरुडियाए उज्झाहि, तं संदिसह णं सामी! तं दारगं अहं एगते उज्झामि उदाहु मा?, तते णं से विजए खत्तिये तीसे| अम्मधाईए अंतिए एयमदं सोचा तहेव संभंते उट्ठाए उद्वेति उट्ठा २त्ता जेणेव मियादेवी तेणेव उवागच्छ १ 'जाइअंधे' इत्यत्र यावत्करणात् 'जाइमूए' इत्यादि दृश्यं, 'हुंडं ति अव्यवस्थिताकावयव 'अंधारूवंति अन्धाकृतिः, भीया' इत्यत्रैतदृश्य 'तत्था उम्बिग्गा संजायभया' भयप्रकर्षाभिधानायैकार्थाः शब्दाः, 'करयले त्यत्र 'करयलपरिग्गहियं दसणहं| मथए अंजलिं ?' इति दृश्य, 'नवण्ह'मित्यत्र 'मासाणं बहुपडिपुन्नाण'मित्यादि दृश्य, तथा 'जाइअंधमित्यावि च, 'संभतेति उत्सुकः 'उडाते उद्देइति उत्थानेनोत्तिष्ठति, 'पय'त्ति प्रजाः-अपत्यानि, 'रहस्सिगयंसि'त्ति राहस्थिके विजने इत्यर्थः । 414-%%** ཟླ ༔ ~31~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके श्रुत०१ ॥४३॥ तिरसा मियादेवी एवं पयासी-देवाणुप्पिया! तुम्भं पढमं गन्भे तं जइ णं तुन्भे एवं एगते पकडिया१मृगापुट्राउझासि ततो णं तुम्भे पया नो थिरा भविस्सति, तो णं तुम एयं दारगं रहस्सिपगंसि भूमिघरंसि रह- त्रीयाध्य. भास्सिएणं भत्तपाणेर्ण पडिजागरमाणी २विहराहि तो गं तुभं पया घिरा भविस्सति, तते गं सा मियादेवी मृगापुत्रविजयस्स खत्तियस्स तहत्ति एपमहूँ विणएर्ण पडिमुणेति पडि २त्ता तं दारगं रहस्सियंसि भूमिधरंसि रह गत्यादि भत्सपाणणं पडिजागरमाणी विहरति, एवं खलु गोयमा! मियापुत्ते दारए पुरापुराणाणं जाव पच्चणुम्भव सू०७ माणे विहरति । (सू०६) मियापुत्ते णं भंते! दारए इओ कालमासे कालं किया कहिं गमहिति? कहिं उववजिहिति', गोषमा । मियापुत्ते दारए छब्बीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किचा इहेय जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे वेघडगिरिपायमूले सीहकुलंसि सीहत्ताए पञ्चायाहिति, से णं तत्थ सीहे भविस्ससि अहम्मिप जाव साहसिए मुबई पावं जाव समजिणति जाव समजिणित्ता कालमासे कालं किया है इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए कोससागरोवमठितीएमु जाव उचवजिहिति, से णं ततो अणंतरं उठब१ 'पुरा पोराणाणंति पुरा-पूर्वकाले कृतानामिति गम्यम् अत एव 'पुराणानां' चिरन्तनानाम् , इह च यावत्करणान् | ॥४ ॥ 'दुचिन्नार्ण दुष्पडिकंताण इत्यादि पावगं फलवित्तिविसेस'मित्यन्तं द्रष्टव्यम्। २'अहम्मिए' इत्यत्र यावत्करणाविदं दृश्य'बहुनगरनिग्गयजसे सूरे दृढप्पहारी ति, व्यकं च। ३ 'कालमासे'त्ति मरणावसरे । ४ 'सागरोवम जाव'त्ति 'सागरोपमहिईएसु नेरइयत्ताएं' द्रष्टव्यम् । JimEautatunintamaturnal maraonIALLPYRIGHTINCnty inwjaanemranorm मृगापुत्रस्य आगामि-भवा: ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१] ---------- ---------- मूलं [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: मग विमान सरकार र युति .. प्रत हिमा सरीसवेस वववजिहिति, तत्थ ण कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उकोसेणं तिन्नि सागरोवमा सेणं ततो अणंतरं उब्वहिता पक्खीसु उववजिहिति, तत्थवि कालं किचा तचाए पुदवीए सत्त सागरोवमाई, से गं ततो सीहेसु य, तयाणंतरं चोत्थीए उरगो पंचमी० इत्थी० छट्ठी० मणुआ० अहे सत्तमाए, ततोऽणंतरं उब्वहित्ता से जाई इमाई जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छकच्छभगाहमगरसुसुमारादी] अद्धतेरस जातिकुलकोडिजोणिपमुहसयसहस्साई तत्थ णं एगमेगंसि जोणीविहाणंसि अणेगसतसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता २ तत्थेव भुजो २ पचायाइस्सति, से णं ततो उव्वहित्ता एवं चउपएमु उरपरिसप्पेसु भुयपरिसप्पेस खयरेसुचउरिदिएसु तेइंदिएसु बेईदिएम वणप्फइएसु कडयरुक्खेसु कडुयदुद्धिएसु वाउ० तेऊ. आऊ. पुढवी० अणेगसयसहस्सखुत्तो, से ततो अणंतरं उब्वहित्ता सुपइठ्ठपुरे नगरे गोणत्ताए पंचाया. हिति, सेणं तत्य उम्मुक्त जाव बालभावे अन्नया कयाई पढमपाउसंसि गंगाए महानईए खलीयमद्वियं खणमाणे तडीए पेल्लिए समाणे कालगए तत्धेच सुपाढे पुरे नगरे सेहिकुलसि पुमत्साए पचायाइस्संति, से दीप अनुक्रम १'जाइकुलकोडीजोणिप्पमुहसयसहस्साईति जाती-पञ्चेन्द्रियजाती कुलकोटीनां योनिप्रमुखानि-योनिद्वारकाणि योनिशतसहस्राणि तानि तथा। २ 'जोणीविहाणंसि'त्ति योनिभेदे । ३ 'खलीणमट्टिय'त्ति खलीना-माकाशस्थां छिन्नतटोपरिवर्तिनी मृत्तिकामिति । [१०] Eco FULERTOONAMEFERTILISTORI मृगापुत्रस्य आगामि-भवा: ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ------------------------ अध्य यनं [१] ----------------------- मूलं [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके गं तत्थ उम्मुक्कबालभावे जाव जोवणगमणुपत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म मुंडे भवित्ता मृगापुश्रुत०१ अगाराओ अणगारियं पव्वहस्सति, से णं तत्थ अणगारे भविस्सति ईरियासमिए जाव बंभयारी, से गंदीयाध्य. तस्थ बहूई वासाई सामनपरियागं पाणित्ता आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किया सोहम्मे ॥४४॥ मृगापुत्रकप्पे देवत्ताए उववजिहिति, से णं ततो अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे बासे जाई कुलाई भवंति अट्ठाई ४ | गत्यादि जैहा दढपइन्ने सा चेव वत्तवया कलाओ जाव सिजिझहिति । एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावी सू०७ रेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्तेत्तिबेमि (सू०७)॥१॥ १ उम्मुक जाव'त्ति 'उम्मुकपालभावे विजयपरिणयमेचे जोवणगमणुपत्तेत्ति दृश्यं, तत्र विज्ञ एवं विज्ञकः स चासौ परिणतमात्रश्च-बुझादिपरिणामापन्न एव विज्ञकपरिणतमात्रः । २ 'अणंतरं चयं चइत्त'ति अनन्तरं शरीरं त्यक्त्वा च्यवनं वा कृत्वा । ३ 'जहा दढपइन्नेत्ति औपपातिके यथा दृढप्रतिज्ञाभिधानो भव्यो वर्णितस्तथाऽयमपि वाच्यः, कस्मादेवमित्याह-सा चेव ति| सैव दृढप्रतिशसम्बन्धिनी अस्यापि बक्तव्यतेति, तामेव स्मरयमाह-कलाओ'त्ति कलास्तेन गृहीष्यन्ते दृढप्रतिज्ञेनेव यावकरणाञ्च प्रत्रज्यामहणादिः तस्येवास्य वाच्यं, यावत्सेत्स्यतीत्यादि पदपश्चकमिति, ततः सेत्स्यति-कृतकृत्यो भविष्यति भोत्स्यते-केवळ ज्ञानेन सकलं झेयं शास्यति मोक्ष्यति-सकलकर्मविमुक्तो भविष्यति परिनिर्वास्थति-सकलकर्मकृतसन्तापरहितो भविष्यति, किमुक्तं भ- ॥४४॥ डावति ?-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यतीति ॥ प्रथमाध्ययनविवरणं ॥ १ ॥ SANG मृगापुत्रस्य सिद्धिगमनं अत्र प्रथम अध्ययनं परिसमाप्तं ~ 34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ----------------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: द्वितीये किञ्चिल्लिख्यते-- जहणं भंते । समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नसे दोचस्स णं भंते! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समजेणं जाच संपत्तेणं के अट्टे पपणत्ते?, तते णं से सुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नाम नयरे होत्था रिद्धिस्थिमिपसमिद्धे, तस्स णं वाणियगामस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए दूईपलासे नाम उजाणे होत्या, तत्थ णं दूइपलासे सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्या, तत्थ णं वाणियगामे मित्रो नाम राया होत्था बन्नओ, तस्स णं मित्तस्स रन्नो सिरीनामं देवी होत्था वपणओ, तत्थ णं बाणियगामे कामज्झया नामं गणिया होत्था अहीण जाच सुरूवा बाबत्तरिकलापंडिया चउसहिगणियागुणोवचेया एगणतीसविसेसे रममाणी १'अहीणे ति अहीणपुण्णपबिंदियसरीरेत्यर्थः, यावरकरणात् 'लक्खणवंजणगुणोववेया माणुम्माणप्पमाणपडिपुन्नसुजायसव्वंहै गसुंदरंगी'त्यादि द्रष्टव्यं, तत्र लक्षणानि-स्वस्तिकादीनि व्यजनानि-मपीतिलकादीनि गुणाः-सौभाग्यादयः मान-जलद्रोणमानता उन्मानं अर्धभारप्रमाणता प्रमाण-अष्टोत्तरशताङ्गुलोच्छ्रयतेति, 'बावत्तरीकलापंडिय'त्ति लेखाद्याः शकुनरुतपर्यन्ताः गणितप्रधानाः कलाः प्रायः पुरुषाणामेवाभ्यासयोग्याः स्त्रीणां तु विज्ञेया एव प्राय इति, 'चउसद्विगणियागुणोववेया' गीतनृत्यादीनि विशेषतः पण्यत्रीजनोचितानि यानि चतुष्पष्टिविज्ञानानि ते गणिकागुणाः अथवा वात्स्यायनोकान्यालिङ्गनादीन्यष्टौ वस्तुनि तानि च प्रत्येकमष्टभेदत्वाचतुःषष्टिर्भवन्तीति, चतुःषष्ठा गणिकागुणैरुपपेता या सा तथा, एकोनविंशद्विशेषा एकविंशती रतिगुणा द्वात्रिंशच पुरुषोपचाराः कामशाखप्रसिद्धाः, - अथ द्वितीयं अध्ययनं "उज्झितक आरभ्यते ~35~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ----------- ---------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके -- CASSAGE ॥४५॥ एकवीसरतिगुणष्पहाणा बत्तीसपुरिसोवयारकुसला णवंगसुत्तपडियोहिया अट्ठारसदेसीभासाविसारया उज्झिसिंगारागारुचारुवेसा गीयरतिपगंधवनहकुसला संगयगय सुंदरथण. ऊसियज्झया सहस्सलमा विदि- |तकाध्य. पणछत्तचामरवालवीयणीया कन्नीरहप्पयाया यावि होत्था, यहूर्ण गणियासहस्साणं आहेचच जाब विहरतकामध्व जावेश्याक. १ 'नवंगसुत्तपडियोहिय'त्ति द्वे ओत्रे द्वे चक्षुषी द्वे प्राणे एका जिला एका त्वक एकं च मनः इत्येतानि नयागानि || सू०८ सुप्तानीव सुप्तानि यौवनेन प्रतिनीधितानि-स्वार्थमहणपटुत्ता प्रापितानि यस्याः सा तथा 'अट्ठारसदेसीभासाविसारयति रूढिगम्यं | 'सिंगारागारचारुवेस'त्ति शृङ्गारस्य-रसविशेषस्यागारमिव चारु वेषो यस्याः सा तथा, 'गीयरइगंधवनदृकुसल'त्ति गीतरतिश्वासौ गन्धर्वनाट्यकुशला चेति समासः, गन्धर्व नृत्यं गीतयुक्तं नाट्यं तु नृत्यमेवेति, 'संगयगय'त्ति 'संगयगयभणियविहियविलाससललियसंलावनिउणजुत्तोववारकुसले ति दृश्य सङ्गतानि-उचितानि गतादीनि यस्याः सा तथा, सललिता:-प्रसन्नतोपेता ये संलापास्तेषु निपुणा या सा तथा, युक्ताः-सङ्गता ये लपचारा-व्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'सुंदरथण'त्ति एतेनेदं दृश्य-'सुंदरथणजहणवयणकरचरणनयणलावण्णविलासकलिय'त्ति व्यक्तं नवरं जपनं-पूर्वकटीभागः लावण्यं-आकारस्य सृहणीयता विलास:-श्रीणां चेष्टाविशेषः 'ऊसियज्झय'त्ति ऊर्तीकृतजयपताका सहस्रलाभेति व्यक्तं विदिन्नछत्तचामरवालवीयणीय'त्ति वि| तीर्ण-राज्ञा प्रसादतो दत्तं छत्रं चामररूपा वालव्यजनिका यस्याः सा तथा, 'कन्नीरहप्पयाया यावि होत्य'त्ति कर्णीरथः-प्रवहणं तेन प्रयात-गमनं यस्याः सा तथा 'बाऽपीति समुषये 'होत्थति अभवदिति, 'आहेवचंति आधिपत्यम्-अधिपतिकर्म, इह यावत्करणा ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [s] दीप अनुक्रम [१२] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [२] मूलं [९] श्रुतस्कंध: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः ( सू० ८) तत्थ णं वाणियगामे विजयमित्ते नामं सत्थवाहे परिवसति अहे० तस्स णं विजयमित्तस्स सुभद्दा नाम भारिया होत्था अहीण, तस्स णं विजयमित्तस्स पुत्ते सुभद्दाए भारियाए अत्तए उज्झियए नाम दा | रए होत्या अहीण जाव सुरूवे । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे परिसा निग्गया राया निग्गओ जहा कोणिओ तहा णिग्गओ धम्मो कहिओ परिसा पडिगया राया य गओ, तेणं कालेणं तेणं समर्पणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदेभूइनामं अणगारे जाव ऐसे छणं जहा पन्नत्तीए पदम जाव जेणेव वाणियगामे तेणेव उवा० उचमीयअडमाणे जेणेव रायमग्गे तेणेव ओगाढे, तत्थ दिदं दृश्यं— 'पोरेवणं' पुरोवर्त्तित्वं- अप्रेसरत्वमित्यर्थः 'भर्तृत्वं' पोषकत्वं 'खामित्वं' खस्वामिसम्बन्धमात्रं 'महत्तरगतं' महत्तरत्वं शेष| वेश्याजनापेक्षया महत्तमताम् 'आणाईसरसेणावच्चं' आशेश्वरः- आज्ञाप्रधानो यः सेनापतिः - सैन्यनायकस्तस्य भावः कर्म्म वा आशे श्वरसेनापत्यम् आज्ञेश्वरसेनापत्यमिव आज्ञेश्वरसेनापत्यं 'कारेमाणा' कारयन्ती परैः 'पालेमाणा' पालयन्ती स्वयमिति । १ 'अहीण'त्ति 'अहीणपुन्नपंचिदियसरीरे त्ति व्यक्तं च, यावत्करणादिदं दृश्यं 'लक्खणवंजणगुणोववेद' इत्यादि । २ 'इंदभूई' इत्यत्र यावत्करणात् 'नामे अणगारे गोयमगोचेण' मित्यादि 'संखित्तविउलते वलेसे' इत्येतदन्तं दृश्यं । ३ 'छछट्टेणं जहा पन्नत्तीए 'चि यथा भगवत्यां तवेदं वाच्यं तचैवं— 'उद्वेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तए णं से भगवं गोयमे छट्टक्समणपारणगंसि' 'पढम' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं --- पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेति घीयाए पोरिसीए झाणं झियाति तइयाए पोरिसीए अतुरियमचयलमसंभंते मुहपोतियं पढिलेइ भायणवस्थाइं पढिलेहेइ भावणाणि पमज्जति भायणाणि उग्गाहेइ जेणेव समणे भगवं महा Education Internation For Parts Only ~37~ waryra Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ---------- ---------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके । बहवे हत्थी पासइ सन्नद्धबद्धवम्मियगुडियउप्पीलियकच्छे उद्दामियघंटे णाणामणिरयणविविहगेविनउत्त- ज्झिश्रुत०१५ रकंचुइज्जे पडिकप्पिए झयपडागवरपंचामेलआरूढहत्यारोहे गहियाउहप्पहरणे अन्ने य तत्थ बहवे आसे 8 तकाध्य. वीरे तेणामेव उवागमछति २ समणं भगर्व महावीरं बंदइ नमसइ २ एवं वयासी-इच्छामि गं भंते ! तुज्झेहिं अब्भणुण्णाए समाणे हा उज्झित॥४६॥ छडक्खमणपारणगंसि वाणियगामे णगरे उचनीयमज्झिमकुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए' गृहेषु भिक्षार्थ भिक्षाचर्यया- कावस्था भैक्षसमाचारेणाटितुमिति वाक्यार्थः, 'अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पटिबंध' स्खलना मा कुल्चित्यर्थः, 'तए णं भगवं गोयमे समणे ३8 सू.९ अब्भणुनाते समाणे समणस्स ३ अंतियाओ पडिनिक्खमति अतुरियमचवलमसंभंते जुगतरप्पलोयणाए विद्वीए पुरओ रियं सोहेमाणे'त्ति १'संनद्धबद्धवम्मियगुडिए'ति संनद्वा:-सन्महत्या कृतसन्नाहाः तथा बद्धं चर्म-स्वकाणविशेषो येषां ते बद्धवर्माणस्त एव | बद्धवमिंकाः, तथा गुढा-महांतनुत्राणविशेषः सा संजाता येषां ते गुडितास्ततः कर्मधारयः, 'उप्पीलियकच्छे'त्ति उत्पीडिता-गाड-18 तरबद्धा कक्षा-उरोवन्धनं येषां से तथा तान् 'उद्दामियघंटे'त्ति उहामिता-अपनीववन्धना प्रलम्बिता इत्यर्थः घण्टा येषां ते तथा तान् 'नाणामणिरयणविविहगेबिजेत्ति नानामणिरनानि विविधानि अवेयकानि-श्रीवाभरणानि उत्तरकक्षुकान-तनुत्राणविशेषाः सन्ति येषां ते तथा, अत एव 'पडिकप्पिए'ति कृतसन्नाहादिसामग्रीकान् 'झयपढागवरपंचामेल आरूढहत्थारोहे' बजा:-गरुडादियजाः। पताका:-रुडाविवर्जितास्ताभिर्वरा ये ते तथा पञ्च आमेलका:-शेखरका येषां ते तथा आरूढा हत्यारोहा-महामात्रा येषु ते तया, ततः पदत्रयस्थ कर्मधारयोऽतस्तान , 'गहियाउहप्पहरणा' गृहीतानि आयुधानि प्रहरणाव येषु अथवा आयुधान्यक्षेप्याणि प्रहरणानि | ॥४६॥ तु क्षेप्याणीति। ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) 324 प्रत सूत्रांक [s] दीप अनुक्रम [१२] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [२] मूलं [९] श्रुतस्कंध: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः अनु. १० Education International पासति सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिए आविद्वगुडिओसारियपक्खरे उत्तरकंचुओचूलमुहचंडाघरचामरथासकपरिमंडियकडिए आरूढ आसारोहे गहियाउहप्पहरणे अन्ने य तत्थ बहवे पुरिसे पासइ सण्णबद्धवम्मियकवर उप्पीलिपसरासणपट्टीए पिणिद्धगेवेो विमलवरबद्धचिंधपट्टे गहियाउहप्पहरणे, तेसिं च णं पुरिसाणं मज्झगयं पुरिसं पासति अवउडगबंधणं उत्तिकन्ननासं नेहतुप्पियगत्तं बज्झकक्खडियजुयनियत्थं १ 'सन्नद्धबद्धवम्मियगुडिए' ति एतदेव व्याख्याति – 'आविद्धगुडे ओसारियपक्खरे' त्ति आविद्धा-परिहिता गुडा येषां ते तथा, गुडा च यद्यपि हस्तिनां तनुत्राणं रूढा तथाऽपि देशविशेषापेक्षयाऽधानामपि संभवतीति, अवसारिता-अवलम्बिता: पक्खरा:तनुत्राणविशेषा येषां ते तथा तान, 'उत्तरकंचुइयओचूलमुह चंडा घरचामरथासगपरिमंडियकडिय'त्ति उत्तरकयुकः - तनुत्राणविशेष एव येषामस्ति ते तथा, तथाऽबचूलकैर्मुखं चण्डाधरं रौद्राधरोष्ठं येषां ते तथा, तथा चामरे यासकैश्च दर्पणैः परिमण्डिता कटी येषां ते तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तान्, 'उप्पीठियसरा सणपट्टीएति उत्पीडिता - कृतप्रत्यश्वारोपणा शरासनपट्टिका- धनुर्येष्टिबहुपट्टिका वा यैस्ते तथा तान्, 'पिणिद्ध गेविज्ज' चि पिनद्धं परिहितं यैवेयकं यैस्ते तथा तान्, 'बिमलवरबद्ध चिंधपट्टे' विमो बरो बद्धचिह्नपट्टो-नेत्रादिमयो वैस्ते तथा तान् 'अवउडगबंधणं'ति अवकोटकेन कृकाटिकाया अधोनयनेन बन्धनं यस्य स तथा तम् 'उक्खिसकन्ननासं'ति उत्पाटितकर्णनासिकं 'नेहतुप्पियगतं 'ति खेट्ने हितशरीरं 'बज्झकक्खडियजुवणियच्छति वध्यश्चासौ करयो:-हस्तयोः कट्यां-कटीदेशे युगंयुग्मं निवसित इव निवसितचेति समासोऽतस्तम्, अथवा वध्यस्य यत्करकटिकायुगं - निन्द्यचीवरिकाद्वयं तन्निवसितो यः स तथा तं । For Pale Only ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ------------------------ अध्य यनं [२] ----------------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके कंठेगुणरत्तमल्लदाम चुण्यगुंडियगत्तं चुण्णयं वज्झपाणपीयं तिलंतिल चेव छिज्जमाणं काकणीमसाई खावियं- २ उज्झिश्रुत०१ पावं खक्खरगसएहिं हम्ममाणं अणेगनरनारीसंपरिवुई चचरे चच्चरे खंडपडहएणं उग्घोसिनमाणं, इ तकाध्य. चणं एयारूवं उग्घोसणं पडिमुणेति-नो खलु देवा! उझियगस्स दारगस्स केइ राया वा रायपुत्तो वाउज्झितक॥४७॥ अवरजाइ अप्पणो से सयाई कम्माई अबरज्झन्ति (सू०९) तसेणं से भगवतो गोपमस्स तं पुरिसं पा- स्व पूर्वभवः सिसा इमे अज्झस्थिए ५ अहो णं इमे पुरिसे जाव नरयपडिरूक्यिं बेवणं वेदेतित्तिकटु वाणियगामे नवरे सू०१० १ 'कंठेगुणरत्तमल्लदाम' कण्ठे-ाले गुण इव-कण्ठसूत्रमिव रक-लोहितं मलदाम-पुष्पमाला यस्य स तथा तं 'चुन्नगुंडियगाय' गैरिकक्षोदागुण्डितशरीरं 'सुन्नति संत्रस्तं 'बझपाणपीय'ति वश्या वाथा वा प्राणा:-उच्छ्रासादयः प्रतीत्ताः प्रिया यस्य स | दि तया तं 'तिलतिलं चेव छिज्जमाण ति तिलशश्छिद्यमानमित्यर्थः 'कागणिर्मसाई खाविर्यत' काकणीमांसानि तदेहोत्कृत्तहस्वमां-18 सखण्डानि खाद्यमानं 'पार्वति पापिष्ट 'सक्खरसरहिं हम्ममा ति खसरा-अश्वोचासनाव चर्ममया वस्तुविशेषाः स्फुटितषशा वाला ईन्यमानं-ताड्यमानम् 'अपणो सेसयाई ति आत्मन:-आत्मीयानि 'से' तस्य सकानि । २'अज्झथिए' आत्मगतः, इहेदमन्यदपि दृश्य 'कपिए' कल्पितो-भेदवान् कल्पिको वा-उचितः 'चिंतिए' स्मृतिरूपः 'पथिए' प्रार्थितो भगवदुत्तरप्रार्थनाविषयः 'मणोगए'ति अप्रकाशित इत्यर्थः संकल्पो-विकल्पः 'समुप्पजित्था' समुत्पन्नवान् 'महोणं मे पुरिसे पुरापोराणाणं दुचित्राणं दुष्पविधाताणं असुमाण पावार्ण कम्माण पावगं फलवित्तिविसेसं पत्रणुम्भवमाणे विदरदन मे दिवा गरणा का नेरच्या ॥४७॥ वा पञ्चक्त्रं खलु अयं पुरिसे निरयपडिरूवियं वेयर्ण वेपइत्तिक? इत्येतत्प्रथमाध्ययनोक्तं वाक्यमाश्रित्याधिकताक्षराणि गमनीयानीति । ~40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कं ध: [8], ----------------------- अध्य यनं [२] ----------------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: E S प्रत है उचनीयमजिझमकुले जाव अडमाणे अहापजसं समुयाणियं गिण्हति २त्ता वाणियगामे नयरे मज्झमझण जाव परिदसति, समर्ण भगवं महावीरं वंदद ममंसह २ सा एवं बयासी-एवं खलु अहं भंते! तुमहिं | अम्भणुझाए समाणे वाणियगामं जाय तहेव वेदेति, सेणं भंते! पुरिसे पुटवभये के आसी? जाव पञ्चणु भवमाणे विहरति, एवं खलु गोयमा तेणं कालेणं तेवं समएम व जंबहीवे २ भारहे वासे हथिणा-1 उरे नाम नगरे होत्था रिद्ध०, तत्थ णं हस्थिणाउरे बगरे सुनंदे नाम राया होत्था महया हि, तत्थ णं - स्थिणारे गगरे बहुमझदेसभाए एत्य णं महं एगे गोमंडवए होत्था अणेगखंभसयसन्निविटे साईए ४ाही तत्थ णबहये णगरगोरूवाणं सणाहा य अणाहा यणगरगाविओ य जगरवसभा य जगरबलिवद्दा य गगमारपट्याओ य परतणपाणिया निन्भया निरुवसग्गा महसुहेणं परिवति, तस्थ णं हस्थिणाउरे नगरे भीमे - + सूत्रांक [१०] + दीप अनुक्रम रिद्धि'त्ति 'रिस्थिमिवसमिद्धे' इत्यादि दृश्य, तत्र ऋझु-भषनादिमिनिगुपगतं सिमित भयवर्जितं समृद्ध-धनादियुक्तमिति । २ 'महया हि'ति इह 'महयाहिमवैतमलयमैदरमहिंदसारे इत्यादि दृश्य, वत्र महाहिमवदादयः पर्वतास्तद्वत्सार:-प्रधानो यः | स तथा, 'पासा' इत्यत्र 'पासाईए दरिसणिजे अमिरूवे पतिरूवेत्ति दृश्यं, तत्र प्रासादीयो-मनःप्रसन्नताहेतुः वर्शनीयो-यं पश्यचक्षुर्न | आम्यति अभिरूप:-अभिमतरूपः प्रतिरूपः-द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्येति । ३ 'नगरबलीवद्दे'त्यादौ वलीवा-बर्द्धितगवाः पडिकाइस्थमहिष्यो इस्खगोलियो वा वृषभाः-साण्डगवः कूडगाहे'त्ति कूटेन जीवान् गृहातीति कूटपाहः । [१३] उज्झितकस्य पूर्वभव: - “गोत्रास" ~414 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कं ध: [8], ----------------------- अध्य यनं [२] ----------------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक १०] नाम कूडग्गाही होत्था अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे । तस्स गं भीमस्स कूडग्गाहस्स उप्पला नाम भा-8 सझित टारिया होत्था अहीण, तते णं सा उपला कूडग्गाहिणी अन्नया कयाई आवन्नसत्ता जाया यावि होस्था, तकाध्य. तते णं तीसे उप्पलाए कूडगाहिणीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अपमेयारूवे दोहले पाउन्भूते-चनाओ|उज्झितक॥४८॥ ण ताओ अम्मयाओ ४ जाव सुलद्धे जम्मजीविए (यफले) जाओ णं बटणं णगरगोरुवार्ण सणाहाण य जावस्य पूर्वभवः है सू०१० | " १'अहम्मिए'त्ति धर्मेण परति व्यवहरति वा धार्मिकस्तनिषेधादधामिका, यावत्करणादिदं श्यम्-'अहम्माणुए' अधमान्-पापलोकान् अनुगच्छत्तीत्यधर्मानुगः 'अहम्मिहे अतिशयेनाधर्मो-धर्मरहितोऽम्मिष्टः 'अहम्मखाई' अधर्मभाषणशील: अधार्मिकप्रसिद्धिको वा 'अधम्मपलोई अधानेव-परसम्बन्धिदोषानेव प्रलोकयति-प्रेक्षते इत्येवंशीलोऽधर्मप्रलोकी 'अहम्मपल-IN जणे' अधर्म एव-हिंसादौ प्ररज्यते-अनुरागवान् भवतीत्यधर्मप्ररजनः 'अहम्मसमुदाचारों' अधर्मरूपः समुदाचार:-समाचारो यस्य स तथा 'अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे'त्ति अधर्मेण-पापकर्मणा वृत्ति-जीविकां कल्पयमान:-कुर्वाणः तच्छील इत्यर्थः 'दुस्सीले' दुष्टशीलः 'दुचए' अविद्यमाननियम इति 'दुप्पडियाणंदे दुष्प्रत्यानन्दः बहुमिरपि सन्तोषकारणैरनुत्पद्यमानसन्तोष इत्यर्थः । २ 'अहीण त्ति 'अहीणपुण्णपंचेंदियसरीरे'यादि दृश्यम्। ३ 'आवनसत्त'ति गर्भे समापनजीवेत्यर्थः । ४ 'धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ'चि अम्बा-जनन्यः, इइ यावत्करणादिदं दृश्यं-पुन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्याओ णं ताओ अम्मयाओ ॥४८॥ कयलक्खणाओ णं ताओ, तासिं अम्मयाणं सुलद्धे जम्मजीवियफले'त्ति व्यकं च । 4 दीप अनुक्रम [१३] For P OW ~42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ----------------------- मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: वसभाण य ऊहेहि य थणेहि य वसणेहि य छप्पाहि य ककुहेहि य वहेहि य कन्नेहि य अच्छिहि य ना. साहि य जिम्भाहि य उद्देहि य कंबलेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य परिसकेहि य लावणेहि य सुरं च महुंच मेरगं च जातिं च सीधुं च पसण्णं च आसाएमाणीओ विसाएमाणीओ परिभुजेमाणीओ परिभाएमाणीओ दोहलं विणयंति, तं जइणं अहमवि बहूर्ण नगर जाव विणिज्जामित्तिका, तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि सुक्का भुक्खा निम्मंसा ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा नित्तेया दीणविमणवयणा पंडुल्लइयमुहा प्रत सूत्रांक [१०] %%% १ 'ऊहेहि यत्ति गवादीनां स्तनोपरिभागैः 'थणेहि यत्ति व्यक्तं 'वसणेहि य'त्ति दृषण:-अण्डै: 'छप्पाहि य'त्ति पुच्छैः । ककुदैः स्कन्धशिखरैः 'बहेहि यत्ति बहै। स्कन्धैः कर्णादीनि व्यक्तानि 'कंबलेहि यत्ति सानाभिः 'सोल्लिएहि यति पकै 'तलिएहि यत्ति मेहेन पकैः ‘भजिएहि यत्ति भ्रष्टैः 'परिसुक्केहि यत्ति स्वतः शोषमुपगतैः 'लावणेहि यत्ति लवणसंस्कृतैः सुरातन्दुलधवादिल्लीनिष्पन्ना मधु च-माक्षिकनिष्पन्न मेरकं तालफलनिष्पन्नं जातिश्च-जातिकुसुमवर्ण मयमेव सीधु च-गुडधातकीसंभव है। |प्रसन्ना-द्राक्षादिद्रव्यजन्या मनःप्रसत्तिहेतुरिति । 'आसाएमाणीओत्ति ईधत्स्वादयन्त्यो बटु च सन्यन्त्य इक्षुखण्डादेवि 'विसाएमाणीओ'त्ति विशेषेण खादयन्त्योऽल्पमेव यजन्य खजूरादेरिव 'परिभाएमाणीओत्ति ददत्यः 'परिभुंजमाणीओ'त्ति सर्वमुपभुजानाः अल्पमप्यपरित्यज्यन्त्यः शुष्का-शुष्केव शुष्का रुधिरक्षयात् 'भुक्ख'त्ति भोजनाकरणाद्धीनबलतया बुभुक्षायुक्तेव बुभुक्षा अत एव निमासा 'ओलुग्ग'त्ति अवरुग्णा-भन्नमनोवृत्तिः 'ओलुग्गसरीरा' भनदेहा 'णित्यत्ति गतकान्तिः 'दीणविमणवयण'त्ति दीना-दैन्यवती दीप अनुक्रम % % [१३] ~434 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [80] दीप अनुक्रम [१३] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्ति:) श्रुतस्कंध : [१], अध्ययनं [२] मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः विपाके श्रुत० १ ॥ ४९ ॥ ओमंथियनयणवयणकमला जहोइयं पुष्फवत्थमंत्रमल्लालंकाराहारं अपरिभुञ्जमाणी करपलमलियवद कमलमा- २२ उज्झि* ला जोहय जाव शिवायति । हेमं च णं भीमे कूडग्गाहे जेथेव उप्पला कूडग्गाहिणी तेणेव उवाग तकाध्य. *च्छति २त्ता ओहय जाव पासति ओहय जाब पासिता एवं बयासी - किं णं तुमे देवाणुप्पिए! ओहय उज्झितकशियासि ?, तते णं सा उच्पला भारिया भीमं कूड० एवं क्यासी एवं खलु देवाप्पिया! ममं विहं स्य पूर्वभवः मासाणं बहुपडिपुन्नाणं दोहला पाउन्भूया धन्ना णं ताओ जाओ णं बहूणं गो० कह० लावणपहि य सुरं च ४ सू० १० आसाएमाणी ३ दोहलं विणेंति, तते णं अहं देषाणुप्पिया! तंसि दोहलंसि अविणिजमाणंसि जाब शियामि । विमनाः-शून्यचित्ता जीणा च-भीतेति कर्म्मधारयः, 'दीणविमणवयण'ति पाठान्तरं तत्र विमनस इव-विगतचेतस इव बदगं यस्याः सा तथा, दीना चासौ विमनवदना चेति समासः, 'पंडुलइयमुहा' पाण्डुकितमुखी पाण्डुरीभूतवदनेत्यर्थः 'ओमंथियणयणवयष्णकमले'ति 'ओमंघियत्ति अधोमुखीकृतानि नयनवदनरूपाणि कमलानि यया सा तथा, 'ओइय'सि 'ओइयमणसंकप्पां' विगतयुक्तायुक्तविवेचनेत्यर्थः, इह यावत्करणादिदं दश्यं - ' करतलपल्लत्थमुद्दा' करतले पर्यस्तं - निवेशितं मुखं यवा सा तथा 'अट्टन्सायोवगया भूमीगयदिडीया शियाई ति ध्यायति चिन्तयति । १ 'इमं च 'ति इतवेत्यर्थः 'भीमे कूडग्गाहे जेणेव उप्पला कूडग्गाही तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता उप्पर्क कूडग्गाहिणि ओहयमाणसंकल्प' इत्यादि सूत्रं प्रागुक्तसूत्रानुसारेण परिपूर्ण कृत्वाऽभ्येयं सूचामात्रत्वात्पुस्तकस्य । Education Internation For Parts Only ~44 ~ ॥ ४९ ॥ www.landbrary.org Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [80] दीप अनुक्रम [१३] भाग-१४ “विपाकश्रुत” श्रुतस्कंध : [१], अध्ययनं [२] • मूलं [१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [११] अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः - अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्तिः) तणं से भीमे कूडग्गाही उप्पलं भारियं एवं वयासी - मा णं तुमं देवाशुप्पिया! ओह० झियाहि, अहन्नं तं तहा करिस्सामि जहा णं तव दोहलस्स संपली भविस्सति, ताहिं इहाहिं ५ जाव वहिं समासासेति, तते णं से भीमे कूडग्गाही अद्धरतकालसमयंसि एगे अबीए सन्नद्ध जाब पहरणे सपाओ गिहाओ निग्गच्छ सयाओ गिहाओ निग्गच्छित्ता हत्षिणाउरे नगरे ममशेणं जेणेव गोमंडवे तेणेव उवागते बहूणं णगरगोरुवाणं जाव वसभाण य अप्पेगइयाणं कहे छिंदति जाव अप्पेगतियाणं कंबले छिंदति अप्पेगइयाणं अण्णमण्णाणं अंगोबंगाणं वियंगेति २ जेणेव सप गिहे तेणेव उवागच्छति २ उप्पलाए कूडग्गारिणीए उबणेति, तते णं सा उप्पला भारिया तेहि बहूहिं गोमंसेहि य सुलेहि प सुरं च आसाएमाणी तं दोहलं विणेति, तते णं सा उप्पला कूडग्गाही संपुन दोहला संमाणियदोहला विणीयदोहला बोच्छिन्नदोहला संपदोहला से गर्भ सुहंसुहेणं परिवह, तते णंसा उप्पला कूडग्गाहिणी अझया कयाई मवण्ड्रं मासाणं बहुप Eucation International १ 'ताहिं इट्ठाहिं' इत्यत्र पञ्चकलक्षणादङ्कादिदं दृश्यं— 'कंताहिं पियाहिं मणुनाहिं मणामाहिं' एकार्थाचैते, 'म्मूर्हि'ति वाग्भिः 'एगे'त्ति सहायाभावात् 'अबीए'त्ति धर्म्मरूपसहायाभावात् २ 'सन्नद्धवद्धवम्मियकवए पूर्ववत् यावत्करणात् 'उप्पीलिय सरासणपट्टीए' इत्यादि 'गहिया उपहरणे' इत्येतदन्तं दृश्यम् । ४ 'संपुन दोहल' ति समस्तवान्छितार्थपूरणात् 'सम्माणि यदो हल'ति वाञ्छितार्थसमानयनात् 'विणीयदोहल'त्ति बाञ्छाविनयनात् 'विच्छिन्न दोहल' त्ति विवक्षितार्थ वाञ्छानुबन्धविच्छेदात् 'संपन्न दोहल'त्ति विवक्षितार्थ भोगसंपाद्यानन्दप्राप्तेरिति । For Pale Only ~ 45~ www.landbrary or Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) ཡྻ सूत्रांक [११] अनुक्रम [१४] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२] मूलं [११] श्रुतस्कंध : [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः २ - तकाध्य. गोत्रास ॥ ५० ॥ विपाके डिपुन्नाणं दारयं पधाया (सू० १०) तते णं तेणं दारए णं जायमेतेणं चैव महया महया सद्देणं विधुट्टे विसरे श्रुत० १ २ आरसिते, तते णं तस्स दारगस्स आरसियसहं सोचा निसम्म हत्थिणाउरे नगरे बहवे गगरगोरुवा जाव वसभा य भीया उच्विग्गा सव्वओ समंता विष्पलाइत्था, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं नाम घेज्जं करेंति, जम्हा णं अम्हे इमेणं दारएणं जायमेत्तेणं चैव मैया महया (चिची) सदेणं विषुढे विस्सरे आर- १ नामहेतुः सिए तते णं एयस्स दारगस्स आरसियं सदं सोचा निसम्म हत्थिणाउरे बहवे णगरगोरुवा जाव भीया ४ सव्वओ समंता विप्पलाइत्था तम्हा णं होउ अम्हं दारए गोत्तासए नामेणं, तते णं से गोत्तासे दारए उम्मुकबालभावे जाते यावि होत्या, तते णं से भीमे कूडग्गाहे अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते, तते णं से गोत्तासे दारए बहूणं मित्तणाइनियगसपणसंबंधिपरिजणेणं सद्धिं संपरिबुडे रोपमाणे कंदमाणे विलवमाणे भीमस्स कूडग्गा हिस्स नीहरणं करेति नीहरणं करिता बहूहं लोइयमयकज्जाई करेति, तते णं से सुनंदे सू० ११ १ 'भीया' इत्यत्र 'तथा तसिया संजायभया' इति दृश्यं भयोत्कर्षप्रतिपादनपराण्येकार्थिकानि चैतानि । २ 'सब्बओ'त्ति सर्वदिक्षु 'समंत'त्ति विदिक्षु चेत्यर्थः, 'विपलाइत्थ'चि विपलायितवन्तीति । ३ 'अयमेयारूवं 'ति इदमेवंप्रकारं वक्ष्यमाणस्वरूपभित्यर्थः । ४ 'महया २ चिची'ति महता २ चिबीत्येवं चित्कारेणेत्यर्थः । ५ ' आरसिय'ति आरसितं आरटितम् । ६ 'सोच' ति अवधायें । For Parts Only ~46~ ।। ५० ।। wor Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ----------- --------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 4%% % प्रत सूत्रांक हैराया गोत्तासं दारयं अन्नया कयाइ सयमेव कूडग्गाहित्ताए ठाचेति, तते णं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहे टी जाए यावि होस्था अहम्मिए जाच दुप्पडियाणंदे, तते णं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहित्ताए कल्लाकलिं अ-I द्धरत्तियकालसमयंसि एगे अबीए सन्नद्धबद्धकवए जाव गहिआउहपहरणे सयातो गिहाओ निग्गच्छति जे व गोमंडवे तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता बहूणं गरगोरुवाणं सणाहाण य जाव वियंगेति २ जेणेव सए गेहे तेणेव उवागते, तते णं से गोत्तासे कूड तेहिं बहहिं गोमंसेहि य सूलेहि य मुरं च मज्जं च आसाएमाणे विसाएमाणे जाव विहरति,ततेणं से गोत्तासे कूड० एयकम्मे [एयविजेएयप० एयसमायारे] सुबहुं पावकम्मं समन्विणित्ता पंचवाससयाई परमाउयं पालइत्ता अदुहहोवगए कालमासे कालं किचा दोचाए पुढवीए उक्कोसं तिसागरोवमठिइएसु नेरइएसु रइयत्ताए उपवने (सू०११) तते णं सा विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभद्दा नाम भारिया जायनिंदुया यावि होत्था जाया जाया दारगा विणिहायमावति, तते ॥णं से गोत्तासे कूड दोचाओ पुढवीओ अणंतरं उव्वहिता इहेव वाणियगामे नगरे विजयमित्तस्स सस्थ CACACACANCERS दीप अनुक्रम 'पयकम्मे' इत्यत्रेदं दृश्यम्-'एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारेति। २'अट्टदुहट्टोवगए'ति आर्त-आध्यान दुर्घटदुःखस्थगनीय दुर्यमित्यर्थः उपगतः-प्राप्तो यः स तथा । ३ 'जायणिंदुया यावित्ति जातानि-उत्पन्नान्यपत्यानि निर्बु तानि-निर्याः | तानि मृतानीबर्थों यस्याः सा जातनिर्युता वाऽपीति समर्थनार्थः, एतदेवाइ-जावा जावा द्वारका विनिघातमापद्यन्ते वस्या इति गम्यम् ALSCRECENT.00 [१४] उज्झितकस्य आगामि-भवा: ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ----------- --------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके श्रुत०१ ॥५१॥ प्रत वाहस्स सुभदाए भारिपाए कुञ्छिसि पुत्तत्ताए उयबन्ने, तते ण सा सुभदा सत्यवाही अण्णया कपाईनवहं 1312 उन्मिमासाणं बहुपडिपुन्नाणं दारगं पाया, तते णं सा सुभदा सत्यवाहीसं दारगं जायमेसयं चेव एगते उकुरु- तकाध्य. |डियाए उजझायेद उज्यावेत्ता दोश्चंपि गिण्हावेइ २ सा आणुपुब्वेणं सारक्खमाणी संगोवेमाणी संवढेति, सते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो ठिइडियं चंदसूरदसणं च जागरियं महया इहीसकारसमुदएणं करति, भवः तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो इकारसमे दिवसे निव्वत्ते संपत्ते बारसमे दिवसे इममेयारूवं गोण्णं सू०१२ गुणनिष्फन नामधेनं करेंति, जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमित्तए चेव एगते पक्कुरुडियाए उज्झिते तम्हा ण होउ अम्हं दारए उज्झियए नामेणं, तते णं से उजिमयए दारए पंचधातीपरिग्गहीए तंजहा-वीरपाईए १ मजणधाईए २ मंडणधाईए ३ कीलावणधाईए ४ अंकधाईए ५ जहा दापइन्ने जाव निवाघाए गिरिकंद सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम * *4rn % १ 'सारक्खमाणी'ति अपायेभ्यः 'संगोवेमाणी'ति वनाच्छादनगर्भगृहप्रवेशनादिमिः। २ठिइवडियं वति स्थितिपतितां कुलक्रमागतो बर्द्धमानकादिकां पुत्रजन्मकियां 'चंदसूरपासणियं वत्ति अन्वर्धानुसारिणं तृतीयदिवसोत्सवं 'जागरिय'ति षष्ठीयविजागरणप्रधानमुल्सवम् । ३ 'गोणं गुणनिष्फन'न्ति गौषं अप्रधानमपि स्पादत्त उक्त-गुणनिष्पन्न मिति । ४ 'जहा दढपहले' ति५१ औपपातिके यथा दृढप्रतिज्ञो वर्णितस्सवाऽयमपीह वाच्यः, किमवधिकं तत्र तत्सूत्रमित्याह-यावत् 'निवाघातगिरिकंदरमल्लीणेब्व। चंपगपायवे सुहं विहरति । % १५) 6- ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [२] ----------------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: *555 रमल्लीणे व चंपयपायवे सुहंसुहेणं विहरति, तते णं से विजयमिते सत्यवाहे अन्नया कयाई गणिमंच धरिमं च २ मेजं च ३ पारिच्छेनं च ४ चउब्विहं भंडगं गहाय लवणसमुदं पोपवहणेणं उवागते, लते णं से विजयमिते तत्थ लवणसमुद्दे पोयविवत्तीए निबुभंडसारे अत्ताणे असरणे कालधम्मुणा संजुत्ते, तते थे तं विजयमितं सत्यवाहं जे जहा बहवे ईसरतलबरमाइंबियकोडंबियइन्भसेढिसत्यवाहा लवणसमुद्दे पोयविवत्तीए छूत निम्बुद्धभंडसारं कालघम्मुणा संजुक्तं सुणेति ते तहा हत्थनिक्खेवं च बाहिरभंडसारं च गहाय एगते अवकमंति। तते णं सा सुभद्दा सत्यवाही विजयमित्तं सत्यवाहं लवणसमुरे पोयविवत्तीए निमुद्ध कालधम्मुणा संजुत्तं मुणेति २त्ता महया पइसोएणं अप्फुण्णा समाणी परसुणियत्ताविच चंपगलता घससि धरणीतलंसि सवंगेण सन्निवडिया, तते णं सा सुभद्दा सत्यवाही मुहुर्ततरेण आसत्था समाणी बहूहि प्रत सूत्रांक [१२ दीप अनुक्रम %-31525 कालधम्मुण'त्ति मरणेन । २'लवणसमुद्दपोयविवत्तिय' लवणसमुद्रे पोतविपत्तिर्यस्य स तथा तं, 'निबुभंडसारं' | निमानसारभाण्डमित्यर्थः, 'कालधम्मुणा संजुत्तं ति मृतमित्यर्थः, शृण्वन्ति ते तथेति ये यथेत्यतदपेक्वं । ३ 'हस्थनिक्खे'ति हस्ते | निक्षेपो-न्यासः समर्पणं यख द्वन्यस्य तद्धस्तनिक्षेपं, 'बाहिरभंडसारंच' इसनिक्षेपव्यतिरिक्तं च भाण्डसार-सारभाण्डं गृहीत्वा एकान्तदूरमपकामन्ति-विजयमित्रसार्थवाहभायास्तत्पुत्रस्य च दर्शनं ददति-तदर्थमपहरन्तीतियावत् । ४ 'परसुणियत्ता इवत्ति परशुनिकतेव-कुठारच्छिन्नेव 'चम्पकलते'ति । १५) ~49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कं ध: [8], ----------------------- अध्य यनं [२] ----------------------- मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत विपाके मित्तं जाव परिवुडा रोयमाणी कंदमाणी चिलवमाणी विजयमित्तसत्यवाहस्स लोइयाई मयकिच्चाई करेति, तते उज्झिश्रुत०१णं सा सुभद्दा सस्थवाही अन्नया कयाइं लवणसमुद्दोत्तरणं च लच्छिविणासं च पोषविणासं च पतिमरणं तकाध्य. च अणुचिंतेमाणी २ कालधम्मुणा संजुत्ता (सू०१२) तते णं ते जगरगुत्तिया सुभई सत्यवाहं कालगयं जा- वेश्यागा॥५२॥ शिवा . .. |णित्ता उज्झियगं दारगं सयाओ गिहाओ निच्छुभंति निच्छुभित्ता तं गिहं अन्नस्स दलयंति, तते णं से मिता उज्झियए दारए सयाओ गिहाओ निच्छुढे समाणे वाणियगामे णगरे सिंघाडग जाव पहेसु जूयखलएसुवेसिताघरेसु पाणागारेसु य सुहंसुहेणं परिवहुति, तते णं से उजिझयए दारए अणोहहिए अणिवारिए सच्छं दमती सइरपयारे मज्जप्पसंगी चोरजूयवेसदारप्पसंगी जाते यावि होत्था, तते णं से उझियते अन्नया कट्रयाई कामजझयाए गणियाए सद्धिं संपलग्गे जाते यावि होत्था, कामज्झयाए गणियाए सद्धिं विउलाई उरा-14 सूत्रांक [१२] दीप १ 'मित्त' इत्यत्र यावत्करणाविच रश्य-णाइणियगसंबंधित्ति, तत्र मित्राणि-मुहरः शातयः-समानजातयः निजका:पितृव्यादयः सम्बन्धिनः-श्वशुरपाक्षिकाः, 'रोयमाणी'त्ति अणि मुञ्चन्ती 'कंदमाणी'ति आक्रन्दं महाध्वनि कुर्वाणा 'विलवमाVणीति आस्विर कुबन्ती। २'अणोहए'ति यो बलाद्धस्तादौ गृहीत्वा प्रवर्तमान निवारयति सोऽपघट्टकस्तभावादनपघटका, || अणिवारिए'त्ति निषेधकरहितः, अत एव 'सच्छंदमइति स्वच्छन्दा स्ववशेन वा मतिरस्य स्वच्छन्दमतिः, अत एव 'सइरप्पयारे' स्वैरं अनिवारिततया प्रचारो यस्य स तथा 'वेसदारपसंगीति वेश्याप्रसङ्गी कलत्रप्रसङ्गी चेत्यर्थः, अथवा वेश्यारूपा ये दारास्तत्प्रसङ्गीति । 442 अनुक्रम १५) ॥५२॥ ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कं ध: [8], ----------------------- अध्य यनं [२] ----------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] लाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति, तते णं तस्स विजयमित्तस्स रन्नो अन्नया कयाई सिरीए देवीप जोणिसूले पाउम्भूए याचि होत्था, नो संचाएइ विजयमित्ते राया सिरिए देवीए सरि उसलाई। माणुस्समाई भोगभोगाई झुंजमाणे विहरित्तए, तत्ते से विजपामिले रापा अभया कयाई उजिझपदार कामजझयार गणियाए गिहरो निभावेतिरसा कामझयं गणियं अभितरिय ठाषेति २सा कामज्नयाए मणियाए सद्धिं खरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति । तते णं से उजिसपए दारए कामझयाए| गणियाए गिहाओ मिच्छुभेमाणे कामज्झयाए गणियाए मुच्छिए गिद्धे गढिए अजमोववन्ने अन्नत्य कत्थाइ सुई चरईच धिई च अविंदमाणे तचित्ते तम्मणे तल्लेसे तदझवसाणे तदहोवउत्ते तयप्पियकरणे तम्भावणाभाविए १'भोगभोगाईति भोजनं भोग: परिभोगः भुज्यन्त इति भोगा:-शब्दादयो भोगार्हाः भोगा भोगभोगा-मनोज्ञाः शब्दाय & इत्यर्थः । २ 'मुच्छितेत्ति मूञ्छितो-मूढो दोषेष्वपि गुणाध्यारोपात् 'गिद्धे'त्ति तदाकाडावान् 'गढिए'त्ति प्रवितस्तद्विषयनेहतन्तुसं दर्मितः 'अज्झोववन्नेत्ति आधिक्येन तदेकाप्रतां गतोऽभ्युपन्नः, अत एवान्यत्र कुत्रापि वस्त्वन्तरे 'सुई चति स्मृति स्मरणं 'रई चत्ति रति-आसक्ति 'पिई चत्ति धृति वा चित्तस्वास्थ्यम् 'अविंदमाणे'त्ति अलभमानः 'तच्चित्तेत्ति तस्यामेव चित्त-भावमनः सा मान्येन वा मनो यस्य स तथा 'तम्मणेत्ति द्रव्यमनः प्रतीत्य विशेषोपयोगं वा 'तल्लेससि कामध्वजागताशुभात्मपरिणामविशेषः, शालेश्या हि कृष्णादिद्रव्यसाचिन्यजनित आत्मपरिणाम इति, 'तदषसाणे ति तस्मामेवाध्यवसानं-भोगक्रियाप्रयत्नविशेषरूपं यस्य स हि तया, 'तदट्ठोवउत्तेत्ति तदर्थ-तरप्राप्तये उपयुक्त:-उपयोगवान् यः स तया, 'तयप्पिथकरणे ति तख्यामेवार्पितानि-दौकितानि कर-19 काणानि-मन्द्रियाणि बेन स तथा, 'तभावणाभाविए'चि तावमया-कामवजाचिन्तया भावितो-बासिनो यःम तथा, दीप अनुक्रम [१६) अनु.११ ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कं ध: [2], ----------------------- अध्य यनं [२] ----------------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११] अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके ॥५३॥ उझितकाध्य. वेश्याव्य सनं सू० १३ प्रत सूत्रांक [१३]] कामज्याए गणियाए वहणि अंतराणि य छिहाणि य विवराणि य पडिजागरमाणे २ विहरति, तते णं से ज्झियए दारए अन्नया कयाइं कामज्झयं गणियं अंतरं लन्भेति, कामज्झयाए गणियाए गिह रहसियं अ- Pणुप्पविसह २त्ता कामज्झयाए गणियाए सद्धिं जरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति । इमं चणं मित्ते राया पहाते जाव पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए मणुस्सवागुरापरिक्खित्ते जेणेव कामज्झयाए है गिहे तेणेव उवागच्छति २त्ता तत्थ णं उज्झियए दारए कामझयाए गणियाए सहिं उरालाई भोगभोगाई जाव विहरमाणं पासति २त्ता आसुरुत्ते तिवलियभिउडि निडाले साहट्ट उज्झिययं दारयं पुरिसेहिं गिण्हाचे १ कामध्वजाया गणिकाया बहून्यन्तराणि च-राजगमनस्यान्तराणि 'छिहाणि यति छिद्राणि राजपरिवारविरलत्वानि 'विवराणि यति शेषजनविरहान 'पडिजागरमाणेति गवेषयन्निति । २'इमं च णत्ति इतश्चेत्यर्थः । ३ 'हाए' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं 'कयवलिकम्मे देवतानां विहितयलि विधानः 'कयकोग्यमंगलपायच्छित्तेत्ति कृतानि-विहितानि कौतुकानि च-मपीपुण्यादीनि मालानि | च-सिद्धार्थकदध्यक्षतादीनि प्रायश्चित्तानीव दुःखनादिप्रतिघातहेतुत्वेनावश्यकरणीयत्वाधेन स तथा । ४ 'मणुस्सवग्गुरापरिक्खित्ते'त्ति मनुष्या वागुरेख-मृगबन्धनमिव सर्वतो भवनात् तया परिक्षिप्तो यः स तथा । ५ 'आसुरुत्तेत्ति आशु-शीघं कप्त:-क्रोधेन विमोहितो | यः स आशुरुतः आसुरं वा-असुरसत्कं कोपेन दारुणत्वादुक्तं-भणितं यस्य स आसुरोक्तः रुष्ट:-रोषवान् 'कुविए'त्ति मनसा कोपवान् 'चंडिक्किए'त्ति चाण्डिक्यितो-दारुणीभूतः 'मिसिमिसीमाणे'ति क्रोधज्वालया बलन् 'तिवलियभिउडि णिडाले साहत्ति त्रिवलीको | भृकुटि लोचनविकारविशेष ललाटे सहय-विधायेति 'अवउडगबंधणं अवकोटनेन च-पीवायाः पश्चाद्भागनवनेन बन्धनं यस्य स तथा तं । दीप अनुक्रम [१६ ॥ ५३॥ ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [२]---------- --------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] PR सा अट्टिमुहिजाणुकोप्परपहारसंभग्गमहितगत्तं करेति करेत्ता अवउडगवंधणं करेति २त्ता एएणं विहा णणं वझं आणावेति, एवं खलु गोयमा! उज्झियते दारए पुरापोराणाणं कम्माणं जाव पचणुम्भवमाणे विहरति । (सू०१३) उज्झियए णं भंते ! दारए इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति ? कहिं उवचजिहिति?, गोतमा! उज्झियते दारए पणवीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता अजेव तिभागावसेसे दिवसे सूलीभिन्ने कए समाणे कालमासे कालं किचा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववजिहिति, से Kाणं ततो अणंतर उध्वहित्ता इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे वेयहगिरिपायमूले वानरकुलसि चाणरत्ताएर उववजिहिति, से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तिरियभोगेसु मुच्छिते गिद्धे गढिते अज्झोववन्ने जाते जाते वानरपल्लए वहेहतं ऐयकम्मे [ एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमुदायारे] कालमासे कालं किचा इहेव जंबुडीवे दीवे भारहे वासे इंदपुरे णगरे गणियाकुलंसि पुत्तत्ताए पचायाहिति, तते णं तं दारयं अम्मापियरो जायमित्तक बद्धेहिंति नपुंसगकम्मं सिक्खावेहिं ति, तते णं तस्स दारयस्स अम्मापियरो णिवत्तयारसाहस्स इमं एयारूवं णामधेज करेंति तं०-होऊ णं पियसेणे णामं णपुंसए, तते णं से पियसेणे गपुंसए उम्मुकबालभावे ___१ 'पुरापोराणाणं' इत्यत्र यावत्करणात् 'दुच्चिन्नाणं दुप्पद्धिकताण' इत्यादि दृश्यम् । २ 'वानरपेलए'ति वानरडिम्भान् । ३ 'तं एयकम्मे 'त्ति तदिति-तस्मात् एतत्कर्मा, इहेदमपरं दृश्यम्-एयप्पहाणे एयविजे एयसमुदाचारेति । ४ 'बद्धेहिति'त्ति ४ वर्द्धितकं करिष्यतः। ACANADA दीप अनुक्रम [१६ ~53~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [२] ----------------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके ॥५४॥ जोवणगमणुप्पत्ते विण्णयपरिणयमित्ते स्वेण य जोवणेण य लावण्णेण य पण्टेि उकिसरीरे भविस्सहाखि तते णं से पियसेणे णपुंसए इंदपुरे णगरे यहवे राईसर जाव पभिइओ बहूहि य विज्ञापओगेहि य मंतचुन्नेहि || य हिय उड्डावणाहि य निण्हवणेहि य पण्हवणेहि य वसीकरणेहि य आभिओगिएहि य अभिओगिता रतकाध्य. तिक उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिस्सति, तते णं से पियसेणे णपुंसए एयकम्मे० सुबहुं । पावकम्मं समजिणित्ता एकवीसं वाससयं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए हैं। DI भवाः पुढवीए णेरइयत्ताए उववज्जिहिति, तसो सिरिसिधेसु सुंसुमारे तहेव जहा पढमो जाव पुढवि० सेणं तओ सू०१४ प्रत सूत्रांक [१४] % 25E5% 95% दीप अनुक्रम १'उकिडे'त्ति सत्कर्षवान , किमुक्तं भवति ?-'उकिट्ठसरीरे'चि । २ विद्यामचचूर्णप्रयोगैः, किंविधः १ इत्याह-हिययुड्डावणेहि यत्ति हृदयोज्ञापनैः-शून्यचित्तताकारकै: 'निण्हवणेहि यचि अदृश्यताकारकैः, किमुक्तं भवति ?-अपहृतधनादिरपि | परो धनापहारादिक थैरपद्धते-न प्रकाशयति तदपद्धवता अतस्तैः 'पण्हवणेहि यत्ति प्रसवनैः थैः परः प्रभुति भजते प्रहत्तो भवतीत्यर्थः 'वसीकरणेहि यत्ति वश्यताकारकैः, किमुक्तं भवति-आभिओगिएहिंति अभियोगः-पारवश्यं स प्रयोजनं येषां | ते आभियोगिकाः अतस्तैः, अमियोगध द्वेधा, यहाह-"दुविहो खलु अभिओगो दब्वे भावे य होइ नायन्यो । दरमि होति | जोगा विजा मंता व भावमि ॥ १॥" [द्विविधः खल्वनियोगो द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः । द्रव्ये भवन्ति योगाः विद्या मनाच भावे ॥१॥'अभितोगित्तति वशीकृत्य । ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [२] ---------------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: C अतरं खम्वहिता इहवे जंबुद्दीचे दीचे भारहे वासे चंपाए नयरीए महिसत्ताए पञ्चायाहिति, से णे तत्व अनया कयाई गोहिल्लएहिं जीविआओ ववरोविए समाणे तत्थेष चंपाए नयरीए सेडिकलंसि पुत्तत्साए दीपचायाहिति, से णं तस्थ उम्मुफथालभावे तहारूवाणं थेराणं अंतिते केवलं बोहिं अणगारे सोहम्मे कप्पे| जहा पढमे जाव अंतं करेहिति । निक्खेवो । (सू०१४) पितियं अज्झयणं सम्मत्तं ॥२॥ प्रत सूत्रांक DE - - [१४] ACCC दीप अनुक्रम A १'निक्खेवोचि निगमनं वाच्यं, तद्यथा-एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं बिइअस्स अजा-13 यणस्स अयमढे पन्नत्तेत्तिबेमि' अत्र च इतिशब्दः समाप्ती 'मी'ति चीम्यहं भगवत उपश्रुत्व न यथाकथचिदिति ॥ विपाकथुते द्वितीयाध्ययनविवरणम् ॥ SARERatininemarana उज्झितकस्य सिद्धिगमनं अत्र द्वितीयं अध्ययनं परिसमाप्तं ~554 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: सेनाध्य. प्रत सूत्रांक [१५] विपाके अथ तृतीयमभन्नसेनाध्ययनम् । श्रुत०१ ३ अभाअथ तृतीये किञ्चिल्लिख्यते॥ ५५॥ तेचस्स उक्खेवो-एवं खलु जंबू। तेणं कालेणं तेणं समएणं पुरिमताले णामं णगरे होत्था, रिद्ध०, तस्स शालाचीणं पुरिमतालस्स णगरस्स उत्सरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्य णं अमोहदसणे उज्जाणे तत्थ णं अमोहदंसिस्स | पल्ली जक्खस्स जक्खाययणे होत्या, तत्थ णं पुरिमताले महबले नाम राया होत्या, तत्व णं पुरिमतालस्स दिसू०१५ तानगरस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए देसपते अडवी संठिया, एत्थ णं सालानामं अडवी चोरपल्ली होत्था विसमगिरिकंदरकोलंबसण्णिविट्ठा वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता छिपणसेलविसमप्पवायफरिहोवगूढा १'तच्चस्स उक्लेवो'त्ति तृतीयाध्ययनस्योत्क्षेपः-प्रस्तावना वाच्या, सा चैवं-जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दोचस्स अज्झयणस्स अयमढे पनत्ते तशस्स गं भंते ! के अढे पन्नत्ते । एवं खलु'त्ति 'एवं वक्ष्यमाणप्रकारेणार्थः प्रजातः 'खलु' वाक्यालकारे 'जंबु'ति आमन्त्रणं । २ 'देसप्पते'त्ति मण्डलप्रान्ते । ३ 'विसमगिरिकंदरकोलंबसन्निविट्ठा' विषमं यगिरेः कन्दरं-कुहरं तस्य यः कोलम्बः-प्रान्तस्तत्र सन्निविष्टः-सन्निवेशिता या सा तथा, कोलंयो हि लोके अवनतं वृक्षशाखाप्रमुच्यते इहोपचारतः कन्दरप्रान्तः कोलम्बो व्याख्यातः, 'वंसीकलंकपागारपरिक्खित्ता' वंशीफलका-वंशीजालीमयी वृत्तिः सैवप्राकारस्तेन ४ परिक्षिप्ता-वेष्टिता या सा तथा, छिन्नसेलविसमप्पवायफरिहोवगृढा' छिनो-विभक्तोऽवयवान्तरापेक्षया यः शैलस्तस्य सम्बन्धिनोरा ॥ ५५॥ टाये विषमाः प्रपाता:मास्ति एव परिखा तयोपगूढा-वेष्टिता या सा तथा, STAGS* 054545ASSAGE* दीप अनुक्रम अथ तृतीयं अध्ययनं "अभग्नसेन" आरभ्यते ~564 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] II भितरपाणीया सुदुल्लभजलपरंता अणेगखंडीविदितजणदिन्ननिग्गमपवेसा सुबहुयस्सवि कुषियस्स जणस्स दुप्पहंसा यावि होत्या, तत्थ णं सालाडवीए चोरपल्लीए विजए णामं चोरसेणावई परिवसति अहम्मिए जाव (हणछिन्नभिन्नवियत्तए) लोहियपाणी बहुणगरणिग्गयजसे सूरे दढप्पहारे साहसिए सहवेही परिवसइ अह १'अम्भितरपाणीयेति व्यक्तं, 'सुदुलभजलपरंता' मुष्ठ दुर्लभं जलं पर्यन्तेषु यस्याः सा तथा, 'अणेगखंडी' अनेका नश्यता नराणां मार्गभूताः खण्डयः-अपद्वाराणि यस्यां साउनेकखण्डीति 'विदियजणदिन्ननिम्गमप्पवेसा' विदितानामेव-प्रत्यमिज्ञातानां जनानां दत्तो निर्गमः प्रवेशश्च यस्यां सा तथा, 'सुबहुस्सवि' सुबहोरपि 'कुवियजणस्सवि' मोषव्यावर्तकलोकस्य दुष्पध्वस्या चाप्यभवत् , २ 'अहम्मिए'त्ति अधर्मेण चरतीत्याधम्मिकः, यावत्करणात् 'अधम्मिट्टे' अतिशयेन निर्द्धर्मः अधम्मिष्टो निस्तूंशकर्मकारित्वात् 'अधम्मक्खाई अधर्ममाख्यातुं शीलं यस्य स तथा 'अधम्माणुए' अधर्मकर्त्तव्यम् अनुज्ञा-अनुमोदनं यस्यासावधर्मानुज्ञः | अधर्मानुगो वा अधम्मप्पलोयई अधर्मामेव प्रलोकयितुं शीलं यस्यासावधर्मप्रलोकी 'अधम्मपलजणे' अधर्मप्रायेषु कर्मसु प्रकपेण रज्यते इति अधर्मप्ररजनः, रलयोरक्यमिति कृत्वा रस्य स्थाने लकारः, 'अधम्मसीलसमुदायारे' अधर्म एव शीलं-खभावः समुदाचारय-यकिश्चनानुष्टानं यस्य स तथा 'अधम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणे विहरई' अधर्मेण-पापेन सावधानुष्ठानेनैव दहनाङ्कननिर्लान्छनादिना कर्मणा 'वृत्तिं' वर्त्तनं 'कल्पयन्' कुर्वाणो 'विहरतीति आस्ते स्म, 'हणछिंदभिंदवियत्तए' 'हन' विनाशय 'छिन्धि' द्विधा कुरु 'मिन्द कुन्तादिना भेदं विधेहीत्येवं परानपि प्रेरयन् प्राणिनो विकन्ततीति हनछिदमिन्दविककः, हनेत्यादयः शब्दाः संस्कृतेऽपि न विरुद्धाः अनुकरणरूपत्वादेषां, 'लोहियपाणी' प्राणिविकर्त्तनेन लोहिती रक्तरक्ततया पाणी-हस्तौ यस्य स तथा दीप अनुक्रम ~57~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१८] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [१५] श्रुतस्कंध : [१], अध्ययन [ ३ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः विपाके श्रुत० १ ॥ ५६ ॥ |म्मिए० असिलट्ठिपढममले, से णं तत्थ सालाडबीए चोरपल्लीए पंचण्डं चोरसताणं आहेवचं जाव विहरति १३ अभग्न(सू० १५) तते णं से विजए चोरसेणावई बहूणं चोराण व पारदारियाण य मंठिभेयाण य संधिच्छेयाण य खंडपाण य अन्नेसिं च बहूणं छिन्नभिन्नवाहिराहियाणं कुडंगे यावि होत्था, तते णं से विजए चोरसेणा - वई पुरिमतालस्स नगरस्स उत्तरपुरच्छिमिलं जणवयं बट्टहिं गामघातेहि य नगरघातेहिय गोग्गहणेहि य ४ 'बहुणगरणिग्गयजसे' बहुषु नगरेषु निर्गतं विश्रुतं यशो यस्य स तथा, इतो विशेषणचतुष्कं व्यक्तम्, 'असिलट्ठिपढममले' असि यष्टिः खड्गलता तस्यां प्रथन:- आयः प्रधान इत्यर्थः मल्लो-योद्धा यः स वथा, 'आहेवच्चं 'ति अधिपतिकर्म यावत्करणात् 'पोरेवखं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचेति दृश्यं व्याख्या च पूर्ववत् । १ 'मंठिभेयगाण ये 'ति घुर्षुरादिना ये प्रन्धीः छिन्दन्ति ते प्रन्थिभेदकाः 'संधिच्छेयगाण येति ये मिचिसन्धीन् भिन्दन्ति ते सन्छिच्छेदकाः 'खंडपट्टाण य'त्ति खण्ड: अपरिपूर्णः पट्टा-परिधानपट्टो येषां मद्यद्यूतादिव्यसनाभिभूततया परिपूर्णपरिधानाप्राप्तेः ते खण्डपट्टा : - यूतकारादयः, अन्यायव्यवहारिण इत्यन्ये, धूर्त्ता इत्यपरे, 'खंडपाडियाण' मिति कचिदिति, 'छिन्नभिण्णवाहिराहियाणं ति | छिन्ना हस्तादिषु मिन्ना नासिकादिषु 'बाहिराहिय'त्ति नगरादेर्वाकृताः, अथवा 'बाहिर'ति बाह्याः स्वाचारपरिभ्रंशाद्विशिष्टजनबहिर्वर्त्तिनः 'अहिय'त्ति अहिता प्रामादिदाहकत्वाद् अतो द्वन्द्वस्ततस्तेषां 'कुडंगं' वंशादिगहनं तद्वयो दुर्गमत्वेन रक्षार्थमाश्रयणीयत्वसाधर्म्यात्स तथा । For Parts Only ~58~ सेनाध्य. अभग्नसे नस्यापरा धः फलं च सू० १६ ॥ ५६ ॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कं ध: [१], ----------------------- अध्य यनं [३] ----------------------- मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत बंदिग्गहणेहि य पंथकोहेहि य खत्तखणणेहि य उचीलेमाणे २ विद्धंसेमाणे तज्जेमाणे तालेमाणे नित्थाणे निद्धणे निकणे कप्पायं करेमाणे विहरति, महब्बलस्स रनो अभिक्खणं २ कप्पायं गेण्हति, तस्स णं विज-12 यस्स चोरसेणावइस्स खंदसिरिनाम भारिया होत्था अहीण, तस्स णं विजयचोरसेणावहस्स पुत्ते खंदसिरीए भारियाए अत्तए अभग्गसेणे णाम दारए होत्था अहीणपुन्नपंचेंदियसरीरे विण्णायपरिणयमिते जोव्यणगमणुपत्ते । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे पुरिमत्ताले नयरे समोसढे परिसा निग्गया राया निग्गओ धम्मो कहिओ परिसा राया य पडिगओ, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ म*हावीरस्स जेट्टे अंतेवासी गोयमे जाव रायमगं समोगाढे, तत्थ णं बहवे हत्थी पासति बहवे आसे पुरिसे |सन्नद्धबद्धकथए तेसिं णं पुरिसाणं मजमग एग पुरिसं पासति अवउडय जाच उग्घोसेजमाणं, तते णं तं सूत्रांक [१६]] दीप अनुक्रम १'उवीलेमाणे ति अपपीढयन् 'विहम्मेमाणे'त्ति विधर्मयन्-विगतधर्म कुर्वन, अर्थापहारे हि दानाविधाभावः स्यादेवेति, 'तज्जमाणे'त्ति तर्जयन शास्वसि रे इत्यादि भणनतः 'तालेमाणे'त्ति ताडयन् कपादिघावैः 'णिच्छाणे'ति प्राकृतत्वात् निःस्थान -स्थानवर्जितं 'निखणे' निर्द्धनं गोमहिष्याविरहितं कुर्वन्निति, कल्पः-उचितो य आवः-प्रजातो द्रव्यलाभः स कल्पायोऽतस्तम् ।। २'अहीण' इत्यत्र 'अहीणपुन्नपंचेंदियसरीरा लक्षणवंजणगुणोववेए'यादि द्रष्टव्यम्। ३ 'अवउडय' इत्यत्र थावत्करणात् 'अबउडगवं| धणबई लक्खत्तकन्ननासं नेहुत्तुप्पियगत्तं इत्यादि द्रष्टव्यं व्याख्या च प्राग्वदिति । [१९] ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) EZE प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [१९] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [३] मूलं [१६] श्रुतस्कंध : [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः विपाके श्रुत० १ ॥ ५७ ॥ पुरिसं रायपुरिसा पढमंमि चचरंसि निसियावेति निसियावेता अट्ठ चुल्लप्पियए अग्गओ घाएंति अग्गओ घाएता कसष्पहारेहिं तालेमाणा २ कैलुणं काकणिमसाई खावेंति खावेत्ता रुहिरपाणीयं च पायंति तदाअंतरं च णं दोचंसि चञ्चरंसि अट्ट बुलमाउयाओ अग्गओ घायंति एवं तचे चचरे अट्ठ महापिउए चडत्थे अट्ट महामायाओ पंचमे पुत्ते छट्ठे सुण्हा सत्तमे जामाज्या अट्टमे धूयाओ णवमे णन्तुया दसमे णत्तुईओ एक्कारसमे णत्तुयावई बारसमे णन्तुहणीओ तेरसमे पिउस्सियपतिया चोदसमे पिउसियाओ पण्णरसमे Education International + १ 'पढमंमि चञ्चरंसि' प्रथमे परे स्थानविशेषे 'निसियावंति'त्ति निवेशयन्ति, 'अट्ट चुलपिउए'ति अष्टौ लघुपितॄन्-पि तुर्लघुभ्रातॄन् इत्यर्थः । २ 'कलुति करुणं करुणास्पदं तं पुरुषं, क्रियाविशेषणं चेदं 'काकणिमंसाई 'ति मांसऋणखण्डानि । ३ 'दोचंसि चञ्चरंसि'ति द्वितीये चर्चरे 'चुलमाउयातो चि पितृलघुभ्रातृजायाः अथवा मातुर्लघुसपनीः। ४ 'एवं तच'ति तृतीये चर्चरे 'अट्ठ महापिउति अष्टौ महापितॄन् पितुज्र्ज्येष्ठभ्रातॄन् एवं यावत्करणात् 'अग्गओ घायेंती'ति वाच्यम्, 'चडत्ये 'त्ति चतुर्थे चर्थरे 'अट्ठ महामाउयाओ'त्ति पितुर्ज्येष्ठभ्रातृजायाः, अथवा मातुज्र्ज्येष्ठाः सपत्नीः, पञ्चमे चत्वरे पुत्रानमतो घातयन्ति षष्ठे 'स्नुषाः' वधूः सप्तमे 'जामातृकान्' दुहितुर्भवून अष्टमे 'धूयाओ'ति दुहितुः नवमे 'नत्तुए'ति नमृन्पौत्रान् दौहित्रान् वा दशमे 'नत्तईओ'ति नमः - पौत्री दौहित्रीर्वा एकादशे 'नत्तुयावइति नप्तृकापतीन् द्वादशे 'नत्तुरणीओत्ति नप्तकिनीः पौत्रदौहित्रभार्याः, त्रयोदशे 'पिउसियपइय'ति पितृष्वसापतिकान् तत्र पितुः स्वसारो - भगिन्यस्तासां पतय एव प ४ तिका-भर्त्तारः 'चउसे पिउसियाओत्ति पितृष्वसू:- जनकभगिनीः पञ्चदशे ॥ ५७ ॥ For Pal Pal Use Only ३ अभग्न सेनाध्य. अभग्नसे ~60~ नस्यापरा धः फलं च सू० १६ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) EZE प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [१९] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः ) अध्ययनं [३] मूलं [१६] श्रुतस्कंध : [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः मासियापतिया सोलसमे माउस्सियाओ सप्तरसमे मासियाओ अट्ठारसमे अवसेसं मिसनाइनियगसयणसंबंधिपरियणं अग्गओ बातेंति २ ता कसम्पहारेहिं तालेमाणे २ कल्लुणं काकणिमसाई खावेंति रुहिरपाणीयं च पाएंति । (सू० १६) तते णं से भगवं गोयमे तं पुरिसं पासे २ सा इमे एयारूवे अज्झत्थिए पत्थिए समुत्पन्ने जाव तहेव निग्गते एवं वयासि — एवं खलु अहन्नं भंते! तं चैव जाव से णं भंते! पुरिसे पुन्वभवे के आसी? जाव विहरति, एवं खलु गोयमा । तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे पु | रिमताले नाम नगरे होत्या रिद्ध०, तत्थ णं पुरिमताले नगरे उदिओदिए नामं राया होत्था महया०, तत्थ णं पुरिमताले निन्नए नामं अंडयवाणियए होत्था अहे जाव अपरिभूते अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे, तस्स णं णिण्णयस्स अंडयवाणियगस्स बहवे पुरिसा दिष्णभतिभत्तवेषणा कल्लाकलिं कोदालियाओ य १ 'माउसियापइय'ति मातृष्वसुः पतिकान् जननीभगिनीभर्तृन् षोडशे 'माउसियाओत्ति मातृष्वसृः - जननीभगिनीः सप्तदशे 'मासियाओत्ति मातुलभार्याः, अष्टादशे अवशेष 'मित्तणाइणियगसंबंधिपरियण'ति मित्राणि - सुहृदः ज्ञातयःसमानजातीयाः निजकाः खजनाः मातुलपुत्रादयः सम्बन्धिनः- श्वशुरशालकादयः परिजनो दासीदासादिः, ततो द्वन्द्वो ऽतस्तत् । २ 'अडे' इह यावत्करणात् 'दित्ते विच्छड्डियविउलभत्तपाणे' इत्यादि 'बहुजणस्स अपरिभूते' इत्येतदन्तं दृश्यम् । ३ 'दिसभइभत्त |वेयण'त्ति दत्तं भृतिमत्तरूपं वेतनं मूल्यं येषां ते तथा तत्र भृतिः-द्रम्मादिवर्त्तनं भक्तं तु घृतकणादि 'कलाकलिं'ति कल्ये च कल्ये च कल्याकल्पि – अनुदिनमित्यर्थः 'कुद्दालिका:' भूखनित्रविशेषाः । Eucation internation अभग्नसेनस्य पूर्वभवः For Parts Only ~61~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [३] ----------- --------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: अभग्नसेनाध्य. पूर्वभवः सू० १७ ॥५८॥ प्रत सूत्रांक [१७]] विपाके जापत्थियापिडए गेहंति, पुरिमतालस्सणगरस्स परिपेरतेसु बहवे काइअंडए य घूघूअंडए य पारेवइ टिटिभि श्रुत०१६डए य खग्गिअ०मैयूरि कुकुडिअंडए य अण्णसिं च पाहणं जलयरथलयरखयरमाईणं अंडाइं गेहंति गेण्हेत्ता पत्थियपिडगाई भरेति जेणेव निन्नयए अंडवाणियए तेणामेव उवागच्छद २ निन्नयगस्स अंडवाणियस्स उजवणेति, तते णं से तस्स निन्नयस्स अंडवाणियस्स बहवे पुरिसा दिण्णभतिक बहवे काइअंडए य जाव कु-18 कुडिअंडए य अन्नेसिं च बाहूर्ण जलयरथलयरखहयरमाईणं अंडयए तेवएसु य कवल्लीसु य कंडुएस यम-18 जणएसु य इंगालेसु य तलिंति भज्जेति सोल्लिंति तलेता भजंता सोल्लेता रायमग्गे अंतरावणसि अंडयएहि । य पणिगएणं वित्ति कप्पेमाणा विहरति, अप्पणावि य णं से निन्नयए अंडवाणियए तेहिं बहहिं काइयअंडएहि य जाय कुकुडिअंडएहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजेहि य सुरं च आसाएमाणे विसाएमाणे दीप अनुक्रम - १ 'पथिकापिटकानि च वंशमयभाजनविशेषाः, काकी घूकी टिटिभी बकी मयूरी कुर्कुटी च प्रसिद्धा, अण्डकानि च प्रतीतान्येवेति। २ 'तवएसु यति तवकानि-सुकुमारिकादितलनभाजनानि 'कवल्लीसु यत्ति कषल्यो-गुढादिपाकभाजनानि 'कंडसु'त्ति क-16 न्दवो-मण्डकादिपचनभाजनानि, 'भज्जणएसु यत्ति भर्जनकानि कर्पराणि धानापाकभाजनानि, अकाराश्च प्रतीताः, 'तलिंति' अमो ४ लेहेन, भजन्ति-धानावत्पचन्ति 'सोडिंति यत्ति ओदनमिव राध्यन्ति खण्डशो वा कुर्वन्ति 'अन्तरावर्णसि'त्ति राजमार्ममध्य-18॥५८॥ भागवर्चिहढे 'अंडयपणिएणति अण्डकपण्येन । ३ ५ 'सुरं 'त्यादि प्राग्वत् । [२०] CAT SAREauraton intimational ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [३] ----------------------- मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७]] विहरति, तते णं से निन्नए अंडवाणियए एयकम्मे ४. सुबहुं पावकम्मं समजिणित्ता एगं वाससहस्सं परमा-1 उयं पालइसा कालमासे कालं किया तचाए पुढवीए उक्कोससत्तसागरोवमठितीएसु णेरइएस रइयत्ताए है उववन्ने (सू०१७) से णं तओ अणंतरं उव्वहित्ता इहेव सालाडवीए चोरपल्लीए विजयस्स चोरसेणावइस्स खंदसिरीए भारियाए कुच्छिसि पुत्तत्साए श्ववन्ने, तते णं तीसे खंदसिरीए भारियाए अन्नपा कयाई तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमे एयारूवे दोहले पाउम्भूए-धण्णाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं बहुहिं मि-13 तणाइणियगसयणसंबंधिपरियणमहिलाहिं अण्णाहि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिखुडा पहाया कयबलिकम्मा माजाव पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च आसाएमाणी विसाए-I माणी विहरंति जिमिषभुत्तुसरागयाओ परिसनेवत्धिया सन्नद्धबद्ध जाव पहरणावरणा भरिएहि य फलि-II एहिं णिकिट्ठाहिं असीहिं अंसागतेहिं तोणेहिं सजीवहिं धणूहि समुक्खित्तेहिं सरेहिं समुल्लालियाहि यसै १ 'जिमियभुत्तुत्तरागयाओ'त्ति जेमिता:-कृतभोजनाः भुक्तोत्तर-भोजनानन्तरमागता चित्तस्थाने यास्तास्तथा । २ 'पुरिसनेवस्थिति कृतपुरुषनेपथ्याः। ३ 'सन्नद्ध' इत्यत्र यावत्करणाविदं दृश्यं सन्नद्धबवम्मिायकवाझ्या अपीलियसरासणपट्टिया पिणदगे| विजा विमलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणावरणति व्याख्या तु मागिवेति, 'भरिएहि ति हसपाशितैः 'फलिएहि ति स्फटिका निकद्वाहिति कोशकादाकृष्टः 'असीहिं'ति खड्नेः 'अंसागएहिं ति स्कन्धमागतैः पृष्ठदेशे बन्धनात् 'तोणेहिति शरधीभिः 'सजीवेहि"ति स. जीव-कोट्यारोपितप्रायः 'धणहिंति कोदण्डफैः 'समुक्खित्तेहिं सरेहिति निसर्गार्थमुक्षिणैिः 'समुलासियाहिति समुल्लासिताभिः दीप अनुक्रम (२०) अनु.१२ Nirmaanaturary.org ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [१८] दीप अनुक्रम [२४] भाग-१४ “विपाकश्रुत" अंगसूत्र -११ ( मूलं + वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [1] अध्ययनं [२] मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [११], अंगसूत्र -[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः विपाके श्रुत० १ ॥ ५९ ॥ JE - दामाहिं लंबियाहि य ओसारियाहिं ऊरुघंटाहिं छिप्पतूरेणं वज्रमाणेणं २ महया उकि जाव समुद्दरवभूयंपिक करेमाणीओ सालाडवीए चोरपल्लीए सव्वओ समता ओलोएमाणीओ २ आहिंडमाणीओ २ दोहलं विर्णेति तं जड़ णं अहंपि जाव विणिजामित्तिकद्दु तंसि दोहलसि अविणिजमाणंसि जाव झियाति । तिते णं से विजय चोरसेणावई खंदसिरिभारियं ओहय जाव पासति, ओहयजावपासित्ता एवं वयासीकिण्णं तुमं देवाशुपिया ! ओहय जाव शियासि ?, तते णं सा खंदसिरी विजयं एवं वयासी - एवं खलु १ 'दामाहिं' ति पाशकविशेषैः 'दाहाहिं'ति कचित् तत्र प्रहरणविशेषैः दीर्घवंशाग्रन्यस्तदात्ररूपैः 'ओसारियाहिं' ति प्रलम्बिताभिः 'ऊरुघंटाहिं'ति जङ्गाघण्टिकाभिः 'छिप्पतूरेणं वज्जमाणेणं' द्रुततूर्येण बायमानेन, 'महता उकिट्टि' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं महया उकिसीहनाय बोलकलयलरवेणं' तत्र उत्कृष्टि - आनन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्च प्रसिद्धः बोला- वर्णव्यक्तिवर्जितो ध्वनिः कलंकला व्यक्तवचनः स एव तणो यो रवः स तथा तेन 'समुद्दरवभूयं पिवत्ति जलधिशब्दप्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थः गगनमण्डलमिति गम्यते । २ 'तं जइ अहंपिं चि वत् तस्माययहमपि, इह यावत्करणादिदं दृश्यं 'बहूहिं मित्तणाइणियगसयणसंवंपिरियणमहिलाहिं अन्नाहि येत्यादि, 'दोहलं विणिएज्जामी 'सि दोहदं व्यपनयामिचिकट्टु इतिकृत्वा इतिहेतोः 'तंसि दोहलंसि' ति तस्मिन् दोहदे, इह यावत्करणात् 'अविणिजमाणंमि सुका मुक्खा ओठग्गा' इत्यादि 'अट्टज्झाणोबगया झियाई' इत्येतदन्तं दृश्यमिति । ३ 'तते णं से' विजयश्चौरसेनापतिः स्कन्दश्रियं भार्यामुपहतमनः संकल्पां भूमिगतदृष्टिकामार्त्तध्यानोपगतां ध्यायन्तीं पश्यति, टड्डा एवमवादीत् किं णं त्वं देवानांप्रिये ! उपहतमनःसङ्कल्पेत्यादिविशेषणा घ्यायसीति इदं वाक्यमनुश्रित्य सूत्रं गमनीयम् । For P&Pricts Use Only ~64~ ३ अभग्न सेनाध्य. दोहदो जन्म घ सू० १८ ॥ ५९ ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रतस्कं ध: [१], ----------------------- अध्य यनं [३] ----------------------- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत देवाणुप्पिपा मम तिहं मासाणं जाव झियामि, तते णं से विजए चोरसेणाबई खंदसिरीए भारियाए अंतिए एयमटुं सोचा जाव निसम्म० खंदारियं एवं वयासी-अहासुहं देवाणुप्पिपत्ति एपमह पडिसुणेति, तते णं सा खंदसिरिभारिया विजएणं चोरसेणावतिणा अम्भणुपणाया समाणी हहतुट्ठ बहूहिं मित्त जाव अण्णाहि य पहहिं चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिबुडा पहाया जाब विभूसिया विपुलं असणं ४ सुरं च आसाएमाणा विसाएमाणा ४ विहरइ जिमियभुत्नुत्तरागया पुरिसनेवस्था सन्नद्धवद्ध जाब आहिंडमाणी वोहलं विणेति, तते णं सा खंद० भारिया संपुन्नदोहला संमाणियदो० विणीयदोहला वोच्छिन्नदोहला संपन्नदोहला तं गम्भं सुहसुहेणं परिवहति, तते णं सा खंदसिरी चोरसेणावतिणी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं दारगं पयाया, तते णं से विजयए चोरसेणावती तस्स दारगस्स महया इंहिसकारसमुदएणं दसरत्तं ठिइवडियं करेति, तते णं से विजए चोरसेणावई तस्स दारगस्स एकारसमे दिवसे विपुलं असणं ४ उवक्खडाहै वेति मित्तणाति आमंतेति २ जाव तस्सेव मित्तनाइ० पुरओ एवं वयासी-जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गम्भगयंसि समाणंसि इमे एयारूवे दोहले पाउन्भूते तम्हा णं होउ अम्हं दारगे अभग्गसेणे णामेणं, सूत्रांक दीप अनुक्रम १-'इहिसकारसमुदएणं ति मख्या-वस्त्रसुवर्णादिसम्पदा सत्कार:-पूजाविशेषस्तव समुदायो यः स तथा तेन, 'दसरतं ठिपडिय'ति दशरात्रं यावत् स्थितिपतितं-कुलक्रमागतं पुत्रजन्मानुष्ठानं तत्तथा । [२१] ~65~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) – ཊྚ་ཡྻ [१८] अनुक्रम भाग-१४ “विपाकश्रुत" अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) अध्ययनं [२] मूलं [१८] श्रुतस्कंध: [1] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [११], अंगसूत्र -[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः विपाके श्रुत० १ ॥ ६० ॥ - तते णं से अभग्गसेणे कुमारे पंचधातीए जाव परिवहइ (सू० १८) तते णं से अभग्गसेणे कुमारे उम्मुवालभावे याचि होत्था अट्ठ दारियाओ जाव अट्ठओ दाओ उपि पासाए भुंजमाणे विहरइ, तते णं से विजए चोरसेणावई अन्नया कथाई कालधम्मुणा संजुत्ते, तते णं से अभग्गसेणे कुमारे पंचहिं चोरसतेहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे विजयस्स चोरसेणावइस्स महया इहिसकारसमुदएणं णीहरणं करेति २त्ता बहूई लोइयाई मयकिचाई करेति २ केबइकाले अप्पसोए जाए यावि होत्था, तते णं ते पंच चो रसयाई अन्नया कथाई अभग्ग सेणं कुमारं सालाडवीए चोरपल्लीए महया २ चोरसेणावइत्ताए अभिसिं १ 'अट्ठदारियाओ'त्ति, अस्यायमर्थः ' तए णं तस्स अभग्गसेणस्स कुमारस्स अम्मापियरो अभग्गसेणं कुमारं सोहणंसि तिहिकरणणक्खतमुत्तंसि अट्ठहिं दारियाहिं सद्धिं एगदिवसेणं पाणिं निण्हाविंसुति यावत्करणादिदं दृश्यं 'तए णं तस्स अभग्गसेणरस कुमारस्स अम्मापियरो इमं एयारूवं पीईदाणं दलयंति'सि 'अट्ठओ दाओ ति अष्ट परिमाणमस्येति अष्टको दायो दानं वाच्य इति शेषः, स चैवम् 'अट्ठ हिरण्णकोडोओ अट्ट सुवण्णकोडीओ' इत्यादि यावत् 'अट्ट पेसणकारिवाओ अन्नं च विपुलघणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमाइयं संतसारसावएज'मिति, 'उप्पिं भुंजइ'त्ति अस्थायमर्थः - 'तए णं से अभग्गसेणे कुमारे उपिपासायवरगते कुट्टमाणेहिं मुयंगमत्यएहिं वरतरुणिसंपतेहिं बत्तीसइबद्धेहिं नाडरहिं उबगिजामाणे विउले माणुस्सर कामभोगे पश्चशुभवमाणे विहरति । Forni e ON ~66~ ३ अभन्नसेनाध्य. अभग्नसेनस्य पली पतिता सू० १९ ॥ ६० ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कं ध: [8], ----------------------- अध्य यनं [३] ----------------------- मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] +CACANCIENCAGACASS चति । तते णं से अभग्गसेणे कुमारे चोरसेणावई जाते अहम्मिए जाव कप्पायं गेहति, तते णं से जाणवया पुरिसा अभग्गसेणेणं चोरसेणावइणा बहुगामधातावणाहिं ताविया समाणा अण्णमन्नं सदावति २ त्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अभग्गसेणे चोरसेणावई पुरिमतालस्स गरस्स उत्सरिल्लं जण-| वयं बहहिं गामघातेहिं जाव निद्धणं करेमाणे विहरति, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया। पुरिमताले गरे महवलस्स रन्नो एयमट्ट विनवित्तते, तते गं ते जाणवया पुरिसा एपमह अन्नमण्णेणं पडिसुणेति २ महत्थं | महग्धं महरिहं रायरिहं पाटुडं गेण्हेंति २त्ता जेणेव पुरिमताले गरे तेणेव उवागते २ जेणेव महब्बले राया तेणेव उवागते २ महन्थलस्स रन्नो तं महत्थं जाय पाहुडं उवणेति करयलअंजलिं कहु महब्बलं रायं एवं वयासी-एवं खलु सामी! सालाडवीए चोरपल्लीए अभग्गसेणे चोरसेणावई अम्हे यहहिं गामघातेहि य जाव निद्धणे करेमाणे विहरति, तं इच्छामि णं सामी! तुझं बाहुच्छायापरिग्गहिया निन्भया निरुषसग्गा सहेणं परिवसिसएत्तिकह पादपडिया पंजलिउडा महब्बलं रायं एतमढविण्णति, तते णं से महन्यले राया तेर्सि जणवपाणं पुरिसाणं अंतिए एयमढे सोचा निसम्म आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिडिं निलाडे साहहु दंडं सदावेति २ सा एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! सालाडवि घोरपल्लिं १ 'महत्थं ति महाप्रयोजन 'महग्घति बहुमूल्यं 'महरिहति महतो योग्यमिति । २ 'दंड'ति वण्डनायकम् । दीप अनुक्रम [२२] SAREastatinintennational ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [३] ----------- --------- मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] विपाके विलुपाहि २ अभग्गसेणं चोरसेणावई जीवरगाहं गेण्हाहि २ मम उवणेहि, तते णं से दंडे तहत्ति एयम अभन्नश्रुत०१ पडिसुणेति, तते णं से दंडे बहूहिं पुरिसेहिं सपणद्धबद्ध जाव पहरणेहिं सद्धिं संपरिबुडे मग्गइतेहिं फल-13 सेनाध्य. एहिं जाव छिप्पतूरेणं वजमाणेणं महया जाय उक्किहि जाव करेमाणे पुरिमतालं णगरं मझमज्झेणं निग्ग- अभग्नसे॥ ६१॥ च्छति २त्ता जेणेच सालाडवीए चोरपल्लीए तेणेव पहारेत्य गमणाते, तते णं तस्स अभग्गसेणस्स चोरसे- नस्य पल्लीदुणावतियस्स चारपुरिसा इमीसे कहाए लदहा समाणा जेणेव सालाडवी चोरपल्ली जेणेव अभग्गसेणे चो- पतिता रसेणाचई तेणेच उवागच्छंति २त्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पुरिमताले गरे सू०१९ महन्यलेणं रमा महाभडचडगरेणं डंडे आणसे-गच्छहणं तुमे देवाणुप्पिया! सालाडवं चोरपलिं विलंपाहि| अभग्गसेणं चोरसेणावतिं जीवगाहं गेण्हाहि २त्ता मम उवणेहि, तते णं से दंडे महया भडचाडगरेणं जे-18 व सालाडवी चोरपल्ली तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई तेसिं चारपुरिसाणं है अंतिए एयमई सोचा निसम्म पंच चोरसताई सद्दावेति सद्दावेत्ता एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया। पुरिमताले गरे महब्बले जाव तेणेव पहारेथ गमणाए आगते, तते णं से अभग्गसेणे ताई पंच चोरस-IX ताई एवं वयासी-तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं तं दंडं सालाडविं चोरपल्लिं असंपत्ते अंतरा चेव प १ 'जीवगाहं गेण्हाहित्ति जीवन्तं गृहाणेत्यर्थः। २ 'भडचडगरेण ति योधवृन्देन । दीप अनुक्रम [२२] ॥६१॥ ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [२२] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [३] मूलं [१९] श्रुतस्कंध : [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः डिसेहित्तए, तए णं ताई पंच चोरसताई अभग्गसेणस्स चोरसेणावइस्स तहत्ति जाव पडिसुर्णेति, तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेति २ सा पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं पहाते जाव पायच्छिते भोयणमंडवंसि तं विपुलं असणं ४ सुरं च ६ आसाएमाणा ४ विहरति, जिमियमुत्तुतरागतेवि अ णं समाणे आयंते योक्स्खे परमसुइभूए पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं अल्लं चम्मं दुरूहति अलं चम्म दुरुहत्ता सण्णबद्ध जाव पहरणेहिं मग्गइएहिं जाब रवेणं पुध्वावरण्हकालसम्यंसि सालाडवीओ चोरपल्लीओ णिग्गच्छइ चोरपल्लीओ णिगच्छत्ता विसमदुग्गगहणं ठिते गहियभत्तपाणे तं दंडं पडिवालेमाणे चिट्ठति, तते णं से दंडे जेणेव अभग्गसेणे चोरसेणावई सेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता अभग्गसेणेणं चोरसेणावतिणा सद्धिं संपलग्गे यावि होत्था, तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई तं दंडं खिप्यामेव हयमहिय जाव पडिसेहिए, तले णं से दंडे अभग्गसेणेण चोरसेणावरणा हेय जाव पडिसेहिए स १ 'मग्गइतेहिं' हस्तपाशितैः, यावत्करणात् 'फलिएही'त्यादि दृश्यम् । २ 'बिसमदुग्गगहणं ति विषमं निनोन्नतं दुर्गदुष्प्रवेशं गहनं वृक्षगहरम् । ३ 'संपलग्गे 'ति योद्धुं समारब्धः । ४ 'हयमहिय'ति यावत्करणादेवं दृश्यम्— 'हृयमहियपवरवीरघाइयविवडियचिधधयपडागं हतः सैन्यस्य हतत्वात् मथितो मानस्य मथनात् प्रवरवीरा:- सुभटाः घातिताः- विनाशिता यस्य स तथा विपतिताः चिह्नयुक्तकेतवः पताकाञ्च यस्य स तथा ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः, 'दिसोदिसिं विप्पडिसेहिति'त्ति सर्वतो रणान् निवर्त्तयति । Eucation Internation For Parts Only ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक विपाकेमाणे अथामे अवले अचीरिए अपुरिसक्कारपरकमे अधारणिज्जमितिकहु जेणेव पुरिमताले नगरे जेणेव महन्व- ३ अभन्नश्रुत०१ ले राया तेणेय उवागच्छति २ करयल० एवं वयासी-एवं स्खलु सामी! अभग्गसेणे चोरसेणावई विसमदु- सेनाध्य. ॥३२॥ ग्गगहणं ठिते गहितमसपाणीते नो खलु से सका केणति सुबहुएणावि आसयलेण वा हस्थिषलेण वा अभग्नसेजोहवलेण वा रहवलेण वा चाउरिंगिणिपि० जैरंउरेणं गिणिहत्तए ताहे सामेण य भेदेण य उवप्पदाणेण य नस्य पल्लीविसंभमाणे उपयते यावि होत्या, जेवि य से अम्भितरगा सीसगभमा मित्तनातिणियगसयणसंबंधिपरि-5 पतिता | यणं च विपुलधणकणगरयणसंतसारसावइजेणं भिंदति अभग्गसेणस्स य चोरसेणाचइस्स अभिक्खणं RINT सू० १९ १'अथामेति तथाविधस्थावमर्जितः 'अबले'त्ति शारीरबलवर्जितः 'अवीरिय'त्ति जीववीर्यरहितः 'अपुरिसकारपरकमेचि? पुरुषकार:-पौरुषामिमानः स एव निष्पादितस्वप्रयोजनः पराक्रमः तयोनिषेधादपुरुषकारपराक्रमः 'अधारणिजमितिकह'त्ति अधारणीयं | -धारयितुमशक्यं स्थातुं वाऽशक्यभितिकृत्वा-हेतोः। २ 'उरउरेणं'ति साक्षावित्यर्थः। ३ 'सामेण य'सि साम-प्रेमोत्पादक वचनं 'भेदेण यत्ति भेवः-स्वामिनः पदातीनां च स्वामिन्यविश्वासोत्पादनम् 'उवप्पयाणेण यत्ति उपप्रदान-अमिमतादानं । [४ 'जेचि य से अम्भितरगा सीसगभमति येऽपि च 'से' तस्याभग्नसेनस्वाभ्यन्तरका:-आसमा मन्त्रिप्रभृतयः, किंभूताः'सीसगभम'ति शिष्या एव शिष्यकास्तेषां भ्रमा-भ्रान्तिर्येषु ते शिष्यकभ्रमाः, विनीततया शिष्यतुल्या इत्यर्थः, अथवा शीर्षक-शिर| ॥६२॥ एव शिर:कवर्ष वा तस्य भ्रमा-अव्यभिचारितया शरीररक्षत्वेन वा ते शीर्षभ्रमाः, इह शानिति शेषः, मिनतीति योगः। ५ तथा | 'मित्तनाइणियगे'त्यादि पूर्ववत् 'भिंदईत्ति चोरसेनापतौ नेहं मिनत्ति, आत्मनि प्रतिवद्धान करोतीत्यर्थः । -%ACAKACKAGAR दीप अनुक्रम [२२] ~70 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [२२] भाग-१४ “विपाकश्रुत” श्रुतस्कंध : [१], अध्ययनं [३] मूलं [१९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः - अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्तिः) महत्वाइं महग्घाई महरिहाई पाहुडाई पेसेह अभंगसेणं चोरसेणावर्ति विसंभमाणेति (सू० १९) तते णं से महब्वले राया अन्नया कयाई पुरिमताले नगरे एवं महं मेहति महालियं कूडागारसाल करेति अणेगक्खंभसयसन्निबिट्टे पासाइए दरसणिजे, तते णं से महन्यले राया अन्नया कयाई पुरिमताले नगरे उस्सुकं जाव Ja Education International १ 'महत्थाई 'ति महाप्रयोजनानि 'महग्घाई' ति महामूल्यानि 'महरिहाई'ति महतां योग्यानि महं वा-पूजामर्हन्ति महान् बाई: - पूज्यो येषां तानि तथा, एवंविधानि च कानिचित्केषाध्वियोग्यानि भवन्तीत्यत आह- ('रायारिहाई ति राज्ञामुचितानि ) । २ 'महं महइमहालियं कूडागारसाल'ति महती प्रशस्ता महती चासौ अतिमहालिका च-गुर्वी महातिमहालिका ताम्, अत्यन्तगुरुकामित्यर्थः 'कूडागारसाल'ति कूटस्येव-पर्वतशिखरस्येवाकारो यस्याः सा तथा स चासौ शाला चेति समासोऽतस्ताम्, 'अणेगखंभसयसन्निविद्धं पासाईयं दरसणिलं अमिरूवं पडिरूवं ति व्याख्या प्राग्वत् । ३ 'उस्सुकं 'ति अविद्यमानशुल्कग्रहणं, यावत्करणादिदं दृश्यम् 'करं' क्षेत्रगवादि प्रति अविद्यमानराजदेयद्रव्यम् 'अभडप्पवेसं' कौटुम्बिकगेहेषु राजवर्णवतां भटानामविद्यमानप्रवेशम् 'अडंडिमकुदंडिमं' दण्डो - निग्रहस्तेन निर्वृत्तं राजदेयत्तथा व्यवस्थापितं दण्डिमं कुदण्ड : - असम्यग्निप्रहस्तेन निर्वृत्तं द्रव्यं कुदंडिमं ते अविद्यमाने यत्र प्रमोदेऽसावदण्डिमकुदण्डिमोऽतस्तम् 'अधरिमं'ति अविद्यमानं धरिमं-ऋणद्रव्यं यत्र स तथा तम् 'अधारणिजं' अविद्यमानाधमर्णम् 'अणुसुयमुइंगं' अनुद्भूता-आनुरूध्येण वादनार्थमुत्क्षिप्ता अनुद्धता वा वादनार्थमेव वादकैरत्यक्ता दङ्गा यत्र स तथा 'अमिलाय महदाम' अम्लानपुष्पमालं 'गणियावरनाड इज कलिये गणिकावरैर्नाटकीयैः नाटकपात्रैः फलितो यः स तथा तम् 'अणेगताला चराणुचरियं' | अनेकैः प्रेक्षाकारिमिरासेवितमित्यर्थः, 'पमुइयपक्कीलियाभिरामं' प्रमुदितैः प्रक्रीडितैष जनैरभिरमणीयं 'जहारिहं' ति यथायोग्यम् । For Pernal Use Only ~71~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कं ध: [8], ----------------------- अध्य यनं [३] ----------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत मृतिर्ग सूत्रांक विपाके दसरसं पमोयं घोसावेति २ कोटुंबियपुरिस सहावेति २एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! सालाड-15| ३ अभग्नश्रुत०१ दावीए चोरपल्लीए तत्थ णं तुम्हे अभग्गसेणं चोरसेणावई करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! सेनाध्य. पुरिमताले णयरे महाबलस्स रन्नो उस्सुके जाव दसरते पमोदे उग्धोसेति तं किन्नं देवाणुप्पिया! विउलं, अभग्नसे॥६३॥ का असणं ४ पुप्फवत्थमल्लालङ्कारं ते इहं हव्वमाणिजउ उदाह सयमेव गच्छित्ता, तते णं कोडंपियपुरिसा| नस्य ग्रहो महब्बलस्स रनो करपल जाव पडिमुणेति २ पुरिमतालाओ णगराओ पडि० णातिविकिडेहिं अद्धाणेहि सुहेहिं वसहिं पायरासेहिं जेणेव सालाडवी चोरपल्ली तेणेव उवागच्छंति अभग्गसेणं चोरसेनापति करयल त्यादि च जाव एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! पुरिमताले नगरे महब्बलस्स रनो उस्सुके जाव उदाहु|5|| सू०२० सयमेव गच्छित्ता?, तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावईते कोडंबियपुरिसे एवं बयासी-अहन्नं देवाणुप्पिया! पुरिमतालनगरं सयमेव गच्छामि, ते कोटुंबियपुरिसे सकारेति पडिविसजेति, तते णं से अभ-| ग्गसेणे चोर० बरहिं मित्त जाव परिबुडे पहाते जाव पायच्छित्ते सव्वालंकारविभूसिए सालाडवीओ चोर-18 पल्लीओ पडिनिक्खमति २सा जेणेव पुरिमताले नगरे जेणेव महब्बले राया तेणेव उवागच्छति २त्ता कर [२०] AAAAAAAKASH दीप अनुक्रम % ... .. . ...A LJAIP॥६ ॥ (२३) १ 'उदाहु सयमेव गच्छित्ता' उताहो स्वयमेव गमिष्यसीत्यर्थः । २ 'नाइविगिद्धेहि ति अनत्यन्तदीफ: 'अद्धाणेहिंति 3 प्रयाणकः 'सुहेहिं'ति सुखैः-सुखहेतुभिः, 'वसहिपायरासेहिंति वासिकप्रातभॊजनैः । ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कं ध: [8], ----------------------- अध्य यनं [३] ----------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] यल० महन्धलं रायं जगणं विजएणं वद्धावेंति २त्ता महत्थं जाव पाहुडं उवणेति । तते णं से महब्बले राया अभग्गसेणस्स चोरसेणावइस्स तं महत्थं जाव पडिच्छति, अभग्गसेणं चोरसेणावति सकारेति सम्माणेति पडिविसज्जेति कूडागारसालं च से आवसहं दलयति, तते णं अभग्गसेणे चोरसेणावती महब्बलेणं रन्ना विसज्जिए समाणे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उवागच्छह, तते णं से महब्बले राया कोडंबियपुरिसे सहावेति २त्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेह २तं विजलं असणं ४ सुरं च ६ सुबहुं फुप्फगंधमल्लालंकारं च अभग्गसेणस्स चोरसेणावहस्स कूडागार सालं उवणेह तते णं ते कोडुंबियपुरिसा करयल जाव उवणेति, तते णं से अभग्गसेणे चोरसेणावई बहूहिं| 8| मित्तनाइ सद्धिं संपरिबुडे पहाते जाव सम्वालंकारविभूसिए तं विउलं असणं ४ सुरं च ६ आसाएमाणां प-18 मत्ते विहरंति, तते णं से महब्बले राया कोढुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वयासी-गच्छह णं तुम्हे देवाणुप्पिया! पुरिमतालस्स णगरस्स दुवाराई पिहेह अभग्गसेणं चोरसेणाचतिं जीवगाहं गिण्हह मम उवणेह तते णं ते कोटुंबियपुरिसा करयल जाव पडिसुणेति २ पुरिमतालस्स गरस्स दुवाराई पिहेंति अभग्गसेणं चोरसेणावई जीवगाहं गिण्हंति महब्बलस्स रणो उवणेति, तते णं से महब्बले राया अभग्गसेणं चोरसे. एतेणं विहाणेणं वज्झं आणवेति, एवं खलु गोतमाअभग्गसेणे चोरसेणावई पुरापुराणाणं जाव विहरति । १ 'जएणं विजएणं वद्धावेईत्ति जयेन विजयेन च रिपूर्णा वखेत्येवमाशिषं प्रयुक्त इत्यर्थः । दीप अनुक्रम (२३) ~73~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [३] ----------------------- मूलं [२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: अभग्नसेनाध्य. अभग्नसेनस्य ग्रहो मूतिर्ग| त्यादि च |सू०२० प्रत सूत्रांक [२०] विपाके अभग्गसेणे णं भंते! चोरसेणाई कालमासे कालं किचा कहिं गच्छिहिति? कहिं उचवजिहिति?, गोयमा श्रुत०१६ अभग्गसेणे चोरसेणावई सत्तत्तीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता अजेब तिभागावसेसे दिवसे सूलभिन्ने कए समाणे कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसनेरइएसु उववविहिति, से णं ततो अणं- ॥ ६४ ॥ तरं उव्वहित्ता एवं संसारो जहा पढमो जाव पुढवीए, ततो उब्वहिता वाणारसीए नयरीए सूयरत्ताए पचा- याहिति, से णं तस्थ सूयरिएहिं जीवियाओ ववरोविए समाणे तत्धेव वाणारसीए नयरीए सेहिकुलंसि पु- भत्तत्ताए पचायाहिति, से णं तत्थ उम्मुफबालभावे एवं जहा पढमे जाव अंतं काहिति । निक्खेवो ॥ (सू०२०) ॥ ततियं अज्झयणं सम्मत्तं ॥३॥ . ननु तीर्थकरा यत्र विहरन्ति तत्र देशे पञ्चविंशतेोजनानामादेशान्तरेण द्वादशानां मध्ये तीर्थकरातिशयात् न वैरादयोऽना भवन्ति, यदाह-"पुन्चुप्पन्ना रोगा पसमंति इइवेरमारीओ । अइबुट्ठी अणावुट्ठी न होइ दुभिक्ख डमरं च ॥ १॥" इति [ पूर्वोपन्ना रोगाः प्रशाम्यन्ति इतिवैरमार्यः । अतिवृष्टिरनावृष्टिर्न भवति दुर्भिक्षं डमरं च ॥१॥] तत्कथं श्रीमन्महावीरे भगवति पुरि- मताले नगरे व्यवस्थित एवाभमसेनस्य पूर्ववणितो व्यतिकरः संपन्नः' इति, अत्रोच्यते, सर्वमिदमनानर्थजातं प्राणिनां खरुतकर्मणः | सकाशादुपजायते, कर्म च द्वेधा-सोपक्रम १ निरुपक्रमं च २, तत्र यानि वैरादीनि सोपक्रमकर्मसंपाद्यानि तान्येव जिनातिशयादुपशाम्यन्ति सदोषधातू साध्यव्याधिवत् , यानि तु निरुपक्रमकर्मसंपाचानि तानि अवश्यं विपाकतो वेद्यानि नोपक्रमकारणविष पाणि असाध्यन्याधिवत् , अत एव सर्वातिशयसम्पत्समन्वितानां जिनानामप्यनुपशान्तवैरभावा गोशालकाय उपसर्गान् विहितवन्तः ॥ इति विपाकश्रुते अभङ्गसेनाख्यतृतीयाध्ययनविवरणम् ॥ ३॥ ACCORNER दीप अनुक्रम 6-45-4253-30-450 (२३) अभग्नसेनस्य आगामिभवा: एवं सिध्धिगमनं अत्र तृतीयं अध्ययनं परिसमाप्तं ~74~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [४] ---------------------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: अथ चतुर्थ शटकाख्यमध्ययनम् । प्रत सूत्रांक [२१] अथ चतुर्थे किञ्चिलिख्यते जहणं भंते! चउत्थस्स उक्खेचो, एवं खलु जंबू। तेणं कालेणं तेणं समएणं साहजनीनामं नयरी होत्था रिथिमियसमिद्धा, तीसे णं साहंजणीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए देवरमणे णाम उजाणे होत्था, तत्थ णं अमोहस्स जक्खस्स जक्खाययणे होस्था पुराणे, तत्थ णं साहंजणीए णयरीए महचंदे नाम राया होत्या महया०, तस्स णं महचंदस्स रनो सुसेणे नामं अमचे होत्था सामभेयदंड० निग्गहकुसले, तत्थ णं १'जाणं भंते ! चउत्थस्स उक्खेवउत्ति 'जह णं भंते ! इत्यादि चतुर्थाध्ययनस्योत्क्षेपक:-प्रस्तावना वाच्या इति गम्यं, स चायं-'जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नचे चउत्थस्स णं भंते के अढे पन्नते 'ति, 'महता' इत्यनेन 'महत्ताहिमवतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे इत्यादि राजवर्णको दृश्यः, 'साम १ भेद २ दण्ड ३' इत्येत्तसदमेवं दृश्य, 'सामभेददजनवप्पयाणनीईसुपउत्तनयविह' सामः-प्रियवचनं १ भेदः-नायकसेवकयोश्चित्तभेदकरणं २ दण्ड:-शरीरधनयोरपहारः ३ उपप्रदान-अमिमतार्थदानम् ४ एतान्येव नीतयः सुप्रयुक्ता येन स तथा अत एव नयेषु विधाज्ञ:-प्रकारवेदिता य इयाविरमायवर्णको दृश्यः । kCREENSHOCA%E दीप अनुक्रम READA [२४] अथ चतुर्थ अध्ययनं "शकट" आरभ्यते ... अत्र शीर्षक स्थाने एक मुद्रण-दोष: दृश्यते- “शकट" स्थाने 'शटक' इति मुद्रितं ~75~ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [४] ----------- --------- मूलं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] विपाके साहंजणीए नयरीए सुदंसणाणामं गणिया होत्था वन्नओ, तत्व णं साहंजणीए नयरीए सुभद्दे नाम सत्थ- ४ शकटा. श्रुत०१ वाहे परिवसइ अडे, तस्स णं सुभद्दस्स सत्यवाहस्स भद्दानाम भारिया होत्था अहीण, तस्स णं सुभ॥६५॥ दसरथ पुत्ते भद्दाए भारियाए अत्तए सगडे नामं दारए होत्था अहीण, तेणं कालेणं तेणं समएणं स-II भवः मणे भगवं महावीरे समोसरणं परिसा राया य निग्गए धम्मो कहिओ परिसा पडिगया, तेणं कालेणं तेणं सू०१८ समएणं समणस्स जेटे अंतेवासी जाव रायमग्गमोगाडे तत्थ णं हत्थी आसे पुरिसे तेसिं च णं पुरिसाणं| | मज्झगए पासति एग सइत्थीयं पुरिसं अवउडगबंधणं उक्खित्त जाव घोसेणं चिंता तहेच जाव भगवं वागरेति, एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे छगलपुरे नाम गरे होत्या, तत्थ सीहगिरिनाम राया होत्या महया , तत्थ णं छगलपुरे णगरे छणिए नामं छगलीए परिवसति अहे० अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे, तस्स णं छणियस्स छगलियस्स बहवे अयाण य एलाण य रोज्झाण य वसभाण प ससयाण य सूयराण य पसयाण य सिंघाण य हरिणाण य मयूराण य महिसाण य सत बद्धाण य सहस्सबद्धाण य जूहाणि वाढगंसि सन्निरुद्धाई चिट्ठति, अन्ने य तत्थ यहवे पुरिसा दिन्नभइभ-18 भासवेयणा बहवे य अए जाच महिसे य सारक्षमाणा संगोवेमाणा चिटुंति, अण्णे य से वहवे पुरिसा अ|याण य जाव गिर्हसि निरुद्धा चिटुंति, अन्ने य से बहवे पुरिसा दिनभइ बहवे सयए य सहस्से य जीवि-IPu५॥ याओ ववरोविंति मंसाई कप्पिणीकप्पियाई करति छणीयस्स छगलीयस्स उवणेति, अन्ने य से बहवे पुरिसा दीप अनुक्रम [२४) SAREauratonintamanna अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० २१ स्थाने सू० १८ इति क्रम मुद्रितं ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययनं [४] ----------------------- मूल [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] THIताई याहयाई अयमसाई जाच महिसमंसाई तवएसु य कवल्लीम य कंदूएसु य भजणेसु य इंगालेसु य तलति भजेंति य सोल्लयंति य२ ततो रायमगंसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति, अप्पणाविय णं से छन्नियए छा-14 गलीए तेहिं बहविह० मंसेहिं जाव महिसमंसेहिं सोल्लेहि यतलेहि य भन्जेहि य सुरं च ६आसाएमाणे विह-10 रति, तते णं से छन्नीए य छगलीए एयकम्मे प०वि०स०सुबहुं पावकम्मं कलिकलुसं समजिणित्ता सत्तवाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किचा चोत्थीए पुढवीए उकोसेणं दससागरोचमठिइएसु नेर-I इयत्ताए उववन्ने (सू०२१) तते णं तस्स सुभद्दसत्यवाहस्स भद्दा भारिया जाव निदुया यावि होत्था, जाया जाया दारगा विनिहायमावति, तते णं से छन्नीए छागले चोत्थीए पुढवीए अणंतर पव्वहिता इहेव साहजणीए नयरीए सुभहस्स सत्यवाहस्स भद्दाए भारियाए कुञ्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने, तते णं सा भद्दा सत्यवाही अन्नया कयाई नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं दारगं पयाया, तए णं तं दारगं अम्मापियरो जायमेतं चेव सगडस्स हेटातो ठाति दोचंपि गिण्हावेंति अणुपुब्वेणं सारक्खंति संगोवेति संवहँति जहा उज्झियए जाव जम्हाणं अम्हं इमे दारए जायमेत्ते चेव सगडस्स हेट्ठा ठाविए तम्हा णं होऊ णं अम्हं एस दारए सगडे नामेणं, सेसं जहा उज्झियते, सुभद्दे लवणसमुद्दे कालगते मायावि कालगया, सेऽवि सयाओ गिहाओ नि १ 'सुभद्दे लवणे काल'त्ति अयमर्थः-'सुभदे सत्थवाहे लवणसमुद्दे कालधम्मुणा संजुत्ते यावि होत्य'ति । दीप अनुक्रम [२४] ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [४] ----------------------- मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२] विपाकेच्ढे तते णं से सगडे दारए सयातो गिहाओ निच्छ्ते समाणे संघाडगतहेव जाव सुदरिसणाए गणि-MY शकटा. श्रुत०१ दियाए सर्दि संपलग्गे यावि होत्या, तते णं से सुसेणे अमचे तं सगडं दारगं अन्नया कयाई सुदरिसणाए ग- वेश्यातो |णियाए गिहाओ निच्छुभावेति सुदंसणियं गणियं अम्भितरियं ठावेति २ सुदरिसणाए गणियाए सद्धिं उरा-131 नाशा Bालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति, तते णं से सगडे दारप सुदरिसणाश्री निहाओ निन् । समाणे अन्नस्थ कस्थवि सुर्ति वा अलभ० अन्नया कयाई रहसियं सुदरिसणागेहं अणुप्पविसह २ सुदरि|सिणाए सर्टि उरालाई भोगभोगाइं मुंजमाणे विहरह, इमं च णं सुसेणे अमचे पहाते जाव विभूसाप मणुस्सबरगुराए जेणेव सुदरिसणागणियाए गेहे तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छदत्ता सगडं दारयं सुदंस-द णाए गणियाए सद्धिं खरालाई भोगभोगाई भुजमाणं पासह आसुरुत्ते जाय मिसमिसेमाणे तिवलियं भिरि निकाले साइह सगडं दारयं पुरिसेहिं गिण्डाविति अहि जाच महियं करेति अपडगवणगं क-13 रेति २ जेणेव महचंदे राया तेणेव उवागवाह उवागछित्ता करयलजाव एवं पयासी-एवं खलु सामी! स६गबे दारए मम अंतेपुरसि अवरद्धे, तते णं से महरांदे राया सुसेर्ण अमचं एवं वपासी-तुर्म. चेष गं देवाणु-1* * प्पिया! सगडस्स दारगस्स दंदं यत्तेहि, तए णं से सुसेणे अमचे महदेणं रमा अम्मणुबाए समाणे स-18 गडं वारयं सुदरिसणं च गणियं एएणं बिहाणेणं वनं आणयेति, तं एवं खलु गोयमा। सगडे दारगे ६९ पोरापुराणाणं पवणुम्भवमाणे विहरति (सू०२२) सगडेणं भंते! दारए कालगए कहिंगच्छिदिति? कहिं जन 6495564545453 दीप अनुक्रम अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू०२२ स्थाने सू० १९ इति क्रम मुद्रित ~78 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [४] ----------------------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत वजिहिह, सगडे णं दारए गोयमा! सत्तावणं वासाइं परमाउयं पालइत्ता अब्रेव तिभागावसेसे दिवसे एगं महं अओमयं तत्तसमजोहभूयं इत्थिपडिम अवयासाविते समाणे कालमासे कालं किया इमीसे रयण पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उववजिहिति, सेणं ततो अणंतरं उच्चहित्ता रायगिहे गरे मातंगकुलंसि दजुगलत्ताए पचायाहिति, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णिवत्तवारसगस्स इमं एपारूवं गोणं ना मधेनं करिस्संति, तं होऊ णं दारगं सगडे नामेणं होऊ णं दारिया सुदरिसणानामेणं, तते णं से सगडे दा रए उम्मुकवालभावे जोवण [गमणुपत्ते०] भविस्सइ, तए णं सा सुदरिसणावि दारिया उम्मुफयालभावा है(विषणय) जोब्बणगमणुप्पत्ता रूवेण य जोवण य लावणेण य उशिहा उकिट्टसरीरा यावि भविस्सह, तए णं से सगडे दारए सुदरिसणाए रूवेण य जोव्वणेण य लावणेण य मुच्छिए सुदरिसणाए सद्धिं उरा-18 लाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिस्सति, तते णं से सगडे दारए अन्नया कयाई सयमेव कूडगाहित्तं उवसंपजिसाणं विहरिस्सति, तते णं से सगडे दारए कूडगाहे भविस्सइ अहम्मिए जाव दुष्पडियाणंदे एय-1 सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम ॐॐॐॐॐ १'अओमय' ति अयोमयी 'त' तप्ता, कथम् । इत्याह 'समजोहभूयंति समा-तुल्या ज्योतिषा-वहिना भूता या सा तथा| ताम् । 'अवयासाविए'त्ति अवयासितः-आलिङ्गितः। २ 'जोवण भविस्सइ'त्ति 'जोब्बणगमणुपत्ते अलं भोगसमत्थे यावि भविस्मति' इत्येवं द्रष्टव्यम् । ३'त सत्ति 'लए णं सा' इत्येवं दृश्यम् । “विनय'त्ति एतदेवं दृश्य-विण्णायपरिणयमेत्ता' । (२६) ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [४] ----------- --------- मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाकेकम्मे० सुबहुं पावकम्मं समजिणित्ता कालमासे कालं किचा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयत्ताए उव- ४ शकटा. श्रुत०१ वन्ने, संसारो तहेव जाव पुढवीए, से गं ततो अणंतरं उब्वहित्ता वाणारसीए नयरीए मच्छत्ताए उववजि-3 | भवान्त IIहिति, से णं तत्थ णं मच्छबंधिएहिं वहिए तत्व वाणारसीए नयरीए सेटिकुलसि पुत्तत्ताए पचायाहिति राणि "" बोहिं बज्मे० पब्व. सोहम्मे कप्पे महाविदेहे वासे सिजिझहिति निक्खेवो दुहविवागाणं चोत्थस्स सू०२० अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते ॥ (मू०२३) चोत्थं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ४॥ प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम GRA (२६) -१'निक्खेवो'त्ति एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते' इत्येवंरूपं निगमनं वा- ध्यमिति । शेषमुपयुज्य प्रथमाध्ययनानुसारेण व्याख्येयमिति चतुर्थाध्ययनविवरणम् ॥ ४॥ ॥२७॥ अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० २३ स्थाने सू० २० इति क्रम मुद्रितं अत्र चतुर्थ अध्ययनं परिसमाप्तं ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [५] ----------- --------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवंअभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: अथ बृहस्पतिदत्ताख्यं पञ्चममध्ययनम् । % 81564584 प्रत सूत्रांक [२४] SUAARRERAKASSA *% अथ पञ्चमे किश्चिलिख्यते जइ णं भंते ! पंचमस्स अझयणस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबीनाम | नयरी होत्या रिस्थिमिय० बाहिं चंदोतरणे उज्वाणे सेयभद्दे जक्खे, तत्थ णं कोसंबीए नयरीए सयाणीए नाम राया होत्या महता मियावती देवी, तस्स णं सयाणीयस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए उदायणे णामं| कमारे होत्था अहीण. जुवराया, तस्स णं उदायणस्स कुमारस्स पषमावतीनाम देवी होत्या, तस्स णं सयाणीयस्स सोमदत्ते नाम पुरोहिए होत्था रिउवेय०, तस्स णं सोमदत्तस्स पुरोहियस्स वसुदत्ता नामं भारिया होत्था, तस्स णं सोमदत्तस्स पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए वहस्सतिदत्ते नामं दारए होत्या अहीण, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरणं, तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे तहेब जाब रायमग्गमोगाढे तहेव पासइ हत्थी आसे पुरिसमज्झे पुरिसं चिंता तहेव पुच्छति पुब्वभवं भगवं! वागरेति, एवं खलु | गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे सव्वतोभहे नाम नयरे होत्था रिद्धस्थिमियसमिद्धे, तत्थणं सव्वतोभद्दे नगरेजियसत्तू नाम राया, तस्स णं जियसत्तुस्स रन्नो महेसरदत्ते नाम पुरो दीप अनुक्रम [२७] अथ पंचम अध्ययनं "बृहस्पतिदत्त' आरभ्यते ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [५] ----------- --------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] विपाके महिए होत्था रिउब्वेय ४ जाप अथव्वणकुसले आवि होत्या, तते णं से महेसरदत्ते पुरोहिए जियसत्तुस्स रनो|81५ बृहस्पश्रुत०१ रजबलविवडूणअहआए कलाकलिं एगमेगं माहणदारयं एगमेगं खत्तियदारयं एगमेगं बहस्सदारयं एग- ति.महेश्व मेगं सुहवारगं गिण्हावेति रतेसिं जीवंतगाणं चेव हियउंडए गिण्डावेति जियसत्तुस्स रन्नो संतिहोम करेति, रभवः ॥६८॥ तएणं से महेसरदत्ते पुरोहिए अहमीचोदसीसु दुवे माइण १ खत्तिय २ वेस ३ सुहे ४ चोण्हं मासाणं च-15 सू०२१ सारि २ छपहं मासाणं अह २ संवच्छरस्स सोलस २जाहे जाहेविय णं जिपसनू राया परवलेणं अभिजुंजइ । ताहे तारेविय णं से महेसरदत्ते पुरोहिए अट्ठसयं माहणदारगाणं अवसयं खत्तियदारगाणं अहस सुददारगाणं अट्ठसयं सवारगाणं पुरिसे मिण्हावेति गिण्हावेत्ता तेसिं जीवंताणं चेव दिपपडीचो गिण्हाबेति २ जियसन्तुस्स रण्णो संतिहोमं करेति, तते णं से परबले खिप्पामेव विद्धंसिजाइ वा पडिसेहिया वाटी (सू०२४) मते पं से महेसरदत्ते पुरोहिए एयकम्मे सुबहुं पावकम्मं समजिणिसा तीसं वाससर्य परमाउयं|2 |पालात्ता काखमासे कालं किचा पंचमाए पुढवीए उकोसेणं सत्तरससागरोवमड्किएप मरणे प्रत्यने, से पां ततो| अपलरं उब्वाहिसा इदेव कोसंबीए नपरीए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स वसुदत्ताए पुत्तत्ताए उवचने, तते णं तस्स ६८॥ १'रिउम्बेय'त्ति पतेनेदं दृश्य-रिउब्वेयजजुब्वेयसामवेयअथवणवेयकुसले ति दृश्य व्यकं च। २ 'हिययउंडीओ'ति दियमांसपिण्डान् । दीप अनुक्रम [२७] अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० २४ स्थाने सू० २१ इति क्रम मुद्रितं ~82~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [५] ----------- --------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दारगस्स अम्मापियरो निव्वत्तबारसाहस्स इमं एयारूवं नामधेनं करेंति, जम्हा णं अम्हं इमे दारए सोमदत्तस्स पुरोहियस्स पुत्ते वसुदत्ताए अत्तए तम्हा णं होउ अम्हं दारए वहस्सइदत्ते नामेणं, तते णं से वहस्सतिदत्ते दारए पंचधातिपरिग्गहिए जाव परिवड्डइ, तते णं से वहस्सति. उम्मुक्कबालभाचे जुब्वण. विण्णय होत्था से णं उदायणस्स कुमारस्स पियवालवयस्सए यावि होत्था सहजायए सहवडीयए सह-IN पंसुकीलियए, तते णं से सयाणीए राया अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते, तते णं से उदायणकुमारे बहु राईसर जाव सत्यवाहपभिहहिं सर्कि संपरिघुडे रोयमाणे कंदमाणे विलवमाणे सयाणीयस्स रनो महया टाइहीसकारसमुद्रएणं नीहरणं करेति, बह लोहया मयकिचाई करेति, तते णं ते चहवे रासर जाव सत्य-14 वाह उदायर्ण कुमारं महया रायाभिसेएणं अभिसिंचा, तते णं से उदायणे कुमारे राया जाते महया० 18 तते णं से वहस्सतिदत्ते दारए उदायणस्स रनो पुरोहियकम्मं करेमाणे सब्बहाणेसु सव्वभूमियासु अंतेउ-18 दारे य दिनवियारे जाए यावि होत्या, तसे णं से वहस्सतीदसे पुरोहिए उदायणस्स रपणो अंडरंसि वेलासु |य अषेलासु य काले य अकाले य राओ य वियाले य पविसमाणे अन्नया कयाई पउमावईए देवीए सद्धिं १'वेलासु'त्ति अवसरेपु-भोजनशयनादिकालेष्वित्यर्थः 'अवेलासुचि अनवसरेषु 'काले' तृतीयप्रथमप्रहयदौ 'अकाले च। मध्याहादी, अकालं विशेषेणाह-राओ'त्ति रात्रौ 'बियाले'त्ति सन्ध्यायां 'संपलग्गो ति आसक्तः ॥ पञ्चमाध्ययनं बृहस्पतिदत्तस्येति ॥५॥ दीप अनुक्रम ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [५] ----------------------- मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके श्रुत०१ ५ ब्रहस्प. परखीतोनाशः सू२२ प्रत सूत्रांक संपलग्गे यावि होत्था पउमावईए देवीए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरह, इमं च णं उदायणे राया बहाए जाब विभूसिए जेणेव पउमावई देवी तेणेव उवागच्छइ, वहस्सतिदत्तं पुरोहियं पउमावतीदेवीए सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणं पासति आसुरुत्ते तिवलिं भिउडि साहहषहस्सतिदत्तं पुरोहियं पु- रिसेहिं गिण्हावेति जाव एएणं विहाणेणं वजनं आणाविए, एवं खल्लु गोयमा! वहस्सतिदत्ते पुरोहिए पुरापोराणाणं जाब विहरह । वहस्सतिदत्ते णं भंते! दारए इओ कालगए समाणे कहिं गच्छिहिति कहिं| उववजिहिति?, गोयमा! बहस्सतिदत्ते णं दारए पुरोहिए चोसहि वासाई परमाउयं पालहत्ता अजेय तिभा-| गावसेसे दिवसे सूलीयभिन्ने कए समाणे कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए संसारो तहेव पुढवी, ततो हत्थिणाउरे नगरे मिगत्ताए पचायाइस्सति, से णं तत्थ वाउरितेहि चहिए समाणे तत्थेव हत्थिणाउरे नगरे सेडिकुलंसि पुत्तत्ताए०, बोहिं. सोहम्मे कप्पे विमाणे महाविदेहे चासे सिज्झिहिति निक्खेचो । (सू०२५)॥ पंचमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥५॥ [२५] दीप अनुक्रम ॥६९॥ अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० २५ स्थाने सू० २२ इति क्रम मुद्रितं अत्र पंचमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~844 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [६] ---------------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ॥ अथ नन्दिवर्धनाख्यं षष्ठमध्ययनम् ॥ प्रत सूत्रांक [२६] अथ षष्ठे किञ्चिल्लिख्यतेजइणं भंते! छट्ठस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं महुरा नाम नयरी, भंडीरे उवाणे सुदंसणे जक्खे सिरीदामे राया बंधुसिरी भारिया पुत्ते शंदिवद्धणे कुमारे अहीणे जुवराया, तस्स है सिरीदामस्स सुबन्धु नाम अमचे होत्था सामदंड०, तस्स णं सुबन्धुस्स अमचस्स बहुमित्तपुत्ते नाम दाहारए होत्था अहीण, तस्स णं सिरिदामस्स रपणो चित्ते नाम अलंकारिए होत्था, सिरिदामस्स रनो चित्त भावविहं अलंकारियकम्मं करेमाणे सव्वट्ठाणेसु य सब्बभूमियासु य अंतेउरे य दिनवियारे यावि होस्था.. तेणे कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे परिसा निग्गया रायावि निग्गओ जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स जेढे जाव रायमगं ओगाढे तहेव हत्थी आसे पुरिसे, तेसिं च णं पुरिसाणं १'चित्तं बहुविहति आश्चर्यभूतं बहुप्रकार चेत्यर्थः 'अलंकारियकम्मति भुरकर्म 'सबहाणेसु'त्ति शय्यास्थानभोजनस्थानमन्त्रस्थानादिषु आयस्थानेषु वा शुल्कादिषु 'सबभूमियासु'ति प्रासादभूमिकासु सप्तमभूमिकावसानासु पदेषु वा-अमालादिषु । २ दिनवियारे'त्ति राज्ञाऽनुज्ञातसंचरणः अनुज्ञातविचारणो वा। C+CCSEXKA4%AA%CALCCA दीप अनुक्रम [२९) अथ षष्ठं अध्ययनं "नन्दिवर्धन" आरभ्यते ~85~ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२९] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [६] मूलं [२६] श्रुतस्कंध: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः ॥ ७० ॥ विपाके सज्झगयं एवं पुरिसं पासति जाव नरनारिसंपरिवुडं, तते णं तं पुरिसं रायपुरिसा चञ्चरंसि तत्तंसि अयोमश्रुत० १ ५ यंसि समजोईभूयसिहासांसि निविसावेंति, तयानंतरं च णं पुरिसाणं मज्झायं बहुविहं अयकलसेहिं ततेहिं समजोइभूपहिं अप्पेगझ्या तंबभरिएहिं अप्पेगइया तज्यभरिएहिं अप्पेग० सीसगभरिएहिं अप्पेग कलकलभरिएहिं अप्पेग० खारतेलभरि एहिं महया २रायाभिसेएणं अभिसिंचिते, तयानंतरं च णं तत्तं अयो मयं समजोइभूयं अयोमयसंडासएणं गहाय हैारं पिद्धति तथाणंतरं च णं अहार जाव पर्छ मउडं चिंता तहेब जाव वागरेति, एवं खलु गोपमा । तेणं कालेणं तेणं समएणं हहेव जंबुद्दीवे दीवे भारदे वासे सीहपुरे नामं १ 'कलकलभरिएहिं ति कलकलायत इति कलकलं- चूर्णादिमिश्रजलं तद्भुतैः, तप्तं अयोमयमित्यादि विशेषणम् । २ 'हारं पिणर्द्धति'त्ति परिधापयन्ति, किं कृत्वा ? इत्याह-अयोमयं संदेशकं गृहीत्वेति, तत्र हारः अष्टादशसरिकः । ३ 'अनुहारं 'ति नवसरिकः, यावत्करणात् 'तिसरियं पिनद्धति पालनं पिणद्धति कडियुत्तयं पिद्धति' इत्यादि, त्रिसरिकं प्रतीवं प्रालम्बो-शुम्बनकं कटीसूत्रं व्यक्तं 'पट्टे ति ललाटाभरणं मुकुटं - शेखरकः 'चिंता तहेव 'ति तं पुरुषं दृष्ट्वा गौतमस्य विकल्पस्तथैवाभूत् यथा हि प्रथमेऽध्ययने, तथाहि'न मे दिट्ठा नरया वा नेरइया वा, अयं पुण पुरिसे निरयपडिरूवियं वेयणं वेएइति यावत्करणादेवं दृश्यम् -- 'अदापात्तं भत्तपाणं पडिगाहेति २ जेणेव समणं भगवं तेणेव उवागच्छद्रं इत्यादि वाच्यं 'वागरेति 'ति कोऽसौ 'जन्मान्तरे भासीदित्येव गौतमः पृच्छति १ भगवांस्तु व्याकरोति-कथयति । ॥ ७० ॥ For Parta Use Only अत्र मूल संपादने शीर्षक-स्थाने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० २६ स्थाने सू० २३ इति क्रम मुद्रितं नन्दिवर्धना. कुमारलोभः सू० २३ ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [६] ---------------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] नगरे होत्था रिद्ध०, तत्व णं सीहपुरे नयरे सीहरहे नाम राया होत्था, तस्स णं सीहरहस्स रन्नो दुजोहणे | नामे चारगपालए होत्था अहम्मिए जाच दुप्पडियाणंदे, तस्स णं दुजोहणस्स चारगपालगस्स इमेयारूवे चारगभंडे होत्था बहवे अयकुंडीओ अप्पेगइयाओ तंबभरियाओ अप्पेगड्याओ तउयभरियाओ अप्पेग. सीसगभरियाओ अप्पेग० कलकल भरियाओ अप्पेग खारतेल्लभरियाओ अगणिकायंसि अद्दहिया चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण चारग० चहवे उहियाओ आसमुत्तमरियाओ अप्पेग० हत्यिमुत्तभरिआओ अप्पेग. गोमुत्तभरियाओ अप्पेग० महिसमुत्तभरियाओ अप्पेग० उद्दमुत्तभरियाओ अप्पेग० अयमुत्सभरियाओ अप्पेग० एलमुत्तभरियाओ बहुपडिपुनाओ चिट्ठति। तस्स णं दुजोहण चारगपालगस्स. बहवे हत्धुंडयाण य पायंदुयाण य हडीण य नियलाण य संकलाण य पुंजा निगरा य सन्निक्खित्ता चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण चारग. स्स बहवे वेणुलयाण य वेत्तलयाण य चिञ्चालयाण य छियाणं कसाण य वायरासीण य पुंजा णिगरा दीप अनुक्रम १'चारगपाले'त्ति गुप्तिपालकः । २ 'चारगभंडे'त्ति गुस्युपकरणम् । ३ 'हत्धुंडुयाण त्ति अण्डूनि-काष्ठादिमयवन्धनविशेषाः, | एवं पादान्दुकान्यपि, 'हडीण यत्ति हडया-बोटकाः 'पुंजति सशिखरो राशिः 'निगर'त्ति राशिमात्रम् । ४ 'वेणुलयाण योति | स्थूलवंशलतानां 'वेत्तलयाण यत्ति जलजवंशलतानां 'चिंच'त्ति विश्वालतानाम् अम्बिलिकाकम्बानां 'छियाण'त्ति लक्ष्णचर्मकशानां 'कसाण यति चर्मयष्टिकानां 'वायरासीण'ति बल्करश्मयो बटादित्वगमयसिंदुराणि नादनप्रयोजनानि तेषां पुजास्तिष्ठन्तीति योगः। [२९) अनु.१४ | नन्दिवर्धनस्य पूर्वभव: ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [६] ----------- --------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके प्रत सूत्रांक [२६] चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण. चारगस्स बहवे सिलाण य लउडाण य मोग्गराण य कनंगराण य पुजा णिगरा नन्दिवश्रुत०१18|चिट्ठति, तस्स णे (तए णं से) दुजोहण चारगस्स बहवे तंताण य वरत्ताण घ वागरजाण प वालयसु-साधना. कु सरजूण य पुजा निगरात चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण चारग० स्स यहवे असिपत्ताण य करपत्ताण य खुर- मारलोभः ॥१॥ पत्ताण य कलंबचीरपत्ताण य पुंजा गिरा चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण. चारगस्स बहवे लोहखीलाण या सू० २६ कैडगसकराण य चम्मपहाण य अल्लपल्लाण य पुंजा निगरा चिट्ठति, तस्स णं दुजोहण. चारग०स्स बहवे सूतीण य डंभणाण य कोहिल्लाण प पुंजा निगरा चिट्ठति, तस्सणं दुजोहण चारगस्स बहवे संस्था(पच्छा)ण य पिप्पलाण प कुहाडाण य नहच्छेयणाण य दम्भतिणाण य पुंजा निगरा चिटुंति, तते णं से दुजोहणे 'सिलाण यत्ति दृषदा 'लउलाण यत्ति लगुडाना 'मुग्गराण यति व्यक्त 'कनंगराण यति काय-पानीयाय नगरा:बोधिस्थनिश्चलीकरणपाषाणास्ते कनङ्गराः कानंगरा वा-दंपन्नंगरा इत्यर्थः । 'तए णं से'ति एतस्य स्थाने 'तस्स 'ति मन्यामहे एतस्यैव सङ्गतस्यात् पुस्तकान्तरे दर्शनाचेति । २ 'असिपत्ताण यति असीनां 'करपत्ताण यत्ति क्रकचानां 'खुरपत्ताण य'त्ति क्षुराणां | 'कलंबचीरपत्ताण यत्ति कबु(ल)म्बचीर:-शस्त्रविशेषः । ३ 'कडि(कडग)सकराण य वंशशलाकानां 'चम्मपट्टाण यत्ति बर्हाणाम् || 'अल्लपल्लाण यति अलीना-वृश्चिकपुच्छाकृतीनां 'डंभणाण य'ति यैरप्रिप्रतापितैलोशलाकादिभिः परशरीरे उत्पाद्यते तानि दुम्भकानि 'कोहिल्लाणंति इखमुद्रविशेषाणां । ४'पच्छाण यत्ति प्रच्छनकाना 'पिप्पलाण यति इस्वक्षुराणां कुठारा नखळे- ॥७१॥ दनकानि दर्भाश्च प्रतीताः। दीप अनुक्रम [२९] ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२९] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [६] मूलं [२६] श्रुतस्कंध : [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः चारगपाले सीहरथस्स रनो बहवे चोरे य पारदारिए य गंठिभेदे य रायावकारी य अणधारए य बालघातए य विसंभघाते य जुतिकरे य खंडपट्टे य पुरिसेहिं गिण्हावेति २ सा उत्ताणए पाडिति लोहदंडेणं मुहं विहा डेइ अप्पेगतिए तत्ततंबं पज्जेति अप्पेगतिया तउयं पज्जेति अप्पेगतिए सीसगं प० अप्पेग० कल० २ अप्पे० खारतेल्लं अप्पेगइयाणं तेणं चैव अभिसेयगं करेति, अप्पे० उत्ताणए पाडेति आसमु० पज्जेति अप्पे० ह त्थिमुत्तं पज्जेति जाव एलमुत्तं पज्जेति अप्पेगतिए हेट्ठामुहे पाडेति, छडछस्स वम्मावेति अप्पेग० तेणं चेव उवीलं दलयति अप्पे हत्थंडाई बंधावेति अप्पे० पायंदुडियं बंधावेति अप्पे० हडियंधणं करेति अ० नियडबंधणं करेति अप्पे० संकोडियमोडिययं करेति अप्पेग० संकलबंधणं करेति अप्पेग० हत्थछि| नए करेति जाव सत्थोवाडियं करेति अप्पेग० वेणुलयाहि य जाव वायरासीहि य हणावेति अप्पेग० उत्ता १ 'अणहारए यत्ति ऋणधारकान् 'संडपट्टे य'ति धूर्त्तान् । २ 'अप्पेगइय'त्ति अप्येककाम् कांञ्चिदपीत्यर्थः 'पज्जेति 'त्ति पाययति 'अप्पेगइयाणं तेणं चेव ओवीलं दलयति' तेनैव अवपीड-शेखरं मस्तके तस्मारोपणात् उपपीडां वा वेदनां दयति-करोति 'संकोडियमोडिए 'ति सङ्कोटिताश्च सङ्कोचिताङ्गा मोटिसाथ चलिताङ्गाः इति द्वन्द्वोऽतस्तान 'अप्पेगइए हत्थच्छिन्नए करेति' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं - 'पायच्छिन्नए एवं नक्कउट्ठजिन्मसीसछिन्नए' इत्यादि, 'सत्थोवाडियए'ति शस्त्रावपाटितान् खद्नादिना विदारितान, 'अप्पेगइया वेणुदयाहिं' इयन यावत्करणात् 'बेत्तख्याहि य पिंपल्याहिं' इत्यादि दृश्यम् Internationa For Parts Only ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [६] ----------- --------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: श्रुत०१ ॥७२॥ प्रत सूत्रांक [२६] णए कारवेति उरे सिल दलावेति तओ लउलं छुभावेह २ पुरिसेहिं उकुकंपावेति अप्पेग तंतीहि य जाव नन्दिवसुत्तरज्जूहि य हत्धेसु पाएसु य बंधावेति अगडंसि ओचूलयालगं पजेति अप्पेग असिपत्तेहि य जाच कल- प र्धना. कुबचीरपत्ते हि य पच्छाति खारतेल्लेणं अभिगावेति अप्पे० निलाडेसु य अवदूसु य कोप्परेसु य जाणुसुमारलोभा य खलुएम अ लोहकीलए य कडसकराओ य दवावेति अलए भंजाति अप्पेग. सुतीओ य दंभणाणिसू०२६ तय हत्थंगुलियासु य पायंगुलियासु य कोहिल्लएहिं आउडावेति २ भूमि कंडूयावेति अप्पेग. सत्थेहि य जाव/ नहच्छेदणेहि य अंगं पच्छावह बन्भेहि य कुसेहि य उल्लवद्धेहि य वेढावेति आयवंसि दलयति सुके समाणे| चड़चडस्स उप्पाडेति । तते णं से दुजोहणे चारगपालए एयकम्मे सुबहुं पावकम्मं समजिणित्ता एगतीसंत १ 'उरे सिलं दलावे' इत्यादि, उरसि पाषाणं दापयति तदुपरि लगुडं दापयति ततस्तं पुरुषाभ्यां लगुडोभयप्रान्तनिविष्टाभ्यां लगुडमुत्कम्पयति-अतीव चलवति यथाऽपराधिनोऽस्थीनि दल्यन्त इति भावः । 'तंतीहि य' इत्यत्र यावत्करणा दिदं दृश्यं-'वरत्ताहि | य वागरजूदि इत्यादि, 'अगडंसित्ति कूपे 'उचूलयालगति अधःशिरस उपरि पादस्य कूपजले बोलणाकर्षणं 'पजे 'त्ति | पाययति खादयतीत्यादिलौकिकीभाषा कारयतीति तु भावार्थः, 'अवदूसु यत्ति ककाटिकासु खलुएसु'सि पादमणिबन्धेषु 'अलिए | भंजावेइ'त्ति वृश्चिककण्टकान् शरीरे प्रवेशयतीत्यर्थः 'सूईओ'त्ति सूचीः 'डंभणाणि यत्ति सूचीप्रायाणि डम्भकानि हस्ताङ्कल्यादिषु। 'कोहिलएहि ति मुद्रकै: 'आओडावेइति आखोटयति प्रवेशवतीत्यर्थः 'भूमि कंडुयावेईत्ति अङ्गुलीप्रवेशितसूचीकैः हः भूमि ki॥७२॥ है कण्डूयते, महादुःखमुत्पद्यते इतिकृत्वा भूमिकण्डूयनं कारयतीति । 'दन्भेहि यत्ति दर्भाः-समूला: 'कुसेहि यति कुशा:-निर्मूलाः । CACAKACCORG दीप अनुक्रम [२९) ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [६] ---------------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] वाससयाई परमाउयं पालहत्ता कालमासे कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए चकोसेणं यावीससागरोवमठितीएसु रइत्ताए उववन्ने (सू०२६) से णं ततो अणंतरं उध्वहित्ता इहेव महुराए णगरीए सिरीदामस्स रपणो| बंधुसिरीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए. उववन्ने, तते णं बंधुसिरी णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव दारगं हैपयाया, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो निव्वत्तवारसाहे इमं एयाणुरूवं नामधेज्ज करेंति होऊ णं अहं दारगाणं नंदिसेणे नामेणं, तते णं से नंदिसेणे कुमारे पंचधातीपरिचुडे जाव परिवुडइ, तते णं से नंदिसेणे द्र कुमारे उम्मुकवालभावे जाव विहरति जोव्व० जुवराया जाते यावि होत्या, तते णं से गंविसेणे कुमारे भारजे य जाच अंतेउरे य मुच्छिते इच्छति सिरिदामं रायं जीवियातो ववरोवित्तए सपमेव रज्जसिरिं कारे||माणे पालेमाणे विहरिसए, तते णं से णंदिसेणे कमारे सिरीदामस्स रनो बदणि अंतराणि य छिदाणि य] विवराणि य पडिजागरमाणे विहरति, तते णं से नंदिसेणे कुमारे सिरीदामस्स रन्नो अंतरं अलभमाणे अ-. नया कयाई चित्तं अलंकारियं सहावेति २एवं वयासी-तुम्हे णं देवाणुप्पिया। सिरीदामस्स रनो सब्ब-I हाणेसु य सब्वभूमीसु य अंतेउरे दिण्णवियारे सिरीदामस्स रनो अभिक्खणं २ अलंकारियं कर्म करेमाणे द बिहरसि, तण्णं तुम्हं देवाणुपिया! सिरीदामस्स रन्नो अलंकारियं कम्मं करेमाणे गीवाए खुरं निषेसेहि तो णं अहं तुम्हें अद्धरज्जयं करेस्सामि तुम्हं अम्हेहिं सद्धिं उरालाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरिस्ससि, १ 'कुमारे'ति कुमारः। २ 'अंतराणि यति अवसराम् 'छिड्डाणि यत्ति अल्पपरिवारत्वानि, 'विरहाणि यत्ति विजनलानि । दीप अनुक्रम [२९) काAS नन्दिवर्धनस्य आगामि-भवा: ~91~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [३०] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [६] मूलं [२७] श्रुतस्कंध : [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः विपाके ६ नन्दिषे णा. पुरतो भवाः ॥ ७३ ॥ सू० २७ तते र्ण से चित्ते अलंकारिए नंदिसेणस्स कुमारस्स वयणं एयमहं पडिसुणेति, तए णं तस्स चित्तस्स अलंश्रुत० १ ४ कारियस्स इमेयारूवे जाव समुप्यजित्था - जइ णं मम सिरीदामे राया एवम आगमेति तते मम न - 6 जति केणति असुभेणं कुमरणेणं मारिस्सतित्तिकदु भीरा जेणेव सिरीदामे राया तेणेव उवागच्छति सिरीदामं रामं रहस्सियर्ग करयल० एवं बयासी—- एवं खलु सामी ! मंदिसेणे कुमारे रजे व जाव मुच्छिते इच्छति तुम्भे जीवियातो ववरोवित्ता सयमेव रज्यसिरिं कारेमाणे पालेमाणे विहरिसए, तले र्ण से सिरिदामे राया 8 चित्तस्स अलं० अंतिए एयमहं सोचा निसम्म आसुरुते जाव साहहु णंदिसेणं कुमारं पुरिसेहिं सार्द्धं विण्हा वेति, एएणं विहाणेणं बज्झं आणवेति, तं एवं खलु गोयमा ! दिसणे पुत्ते जाय विहरति, मन्दिसेणे कुमारे इभी हुए कालमासे कालं किला कहिं गच्छहि कहिं उववज्जिहिद ?, गोयमा ! दिसेणे कुमारे सहि वासाई परमाउयं पालता कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए संसारो तहेव ततो हत्यिणाउरे गरे मच्छत्ताए उववज्जिहिति से णं तत्थ मच्छी विधि समाणे तत्थेव सेडिकल बोहिं सोहम्मे कप्पे महाविदेहे वासे सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुचिदिति परिनिव्विहिति सम्वदुक्खाणमंत करेहिति, एवं खत्तु जंबू । निक्वेयो छट्टस्स अज्झयणस्स अयमट्टे पत्रसेसि मि (सू० २७) छमयणं सम्मन्तं ||६|| | १ 'एवं खलु जंबू' इत्यादि 'निक्षेपो' निगमनम् षष्ठाध्ययनस्य यावत् 'अयमङ्गेत्यादि 'बेनि'त्ति प्रवीम्यई भगवतः समीपे ॥ ७३ ॥ अमुं व्यतिकरं विदित्वेत्यर्थः । षष्ठाध्ययनविवरणं, नन्दिवर्द्धनस्याधिकारी द्दि समाप्तः ॥ ३ ॥ Eucation International For Parts Use Only अत्र षष्ठं अध्ययनं परिसमाप्तं ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [७] ----------- --------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: अथ सप्तममुम्बरदत्ताख्यमध्ययनम् । 22 % प्रत सूत्रांक [२८] अथ सप्तमे किञ्चिलिख्यते जति भंते। उक्लेवो सत्तमस्स एवं खलु जंडू तेणं कालेषां तेणं समएर्ण पावलसंडे णगरे वणवे बाम उजाणे बरवत्तो जक्खो, तत्थ णं पाहलसंडे णगरे सिद्धत्थे राया तत्थ णं पाडलसंडे णगरे सागर-18 दत्ते सत्यवाहे होत्था अडे० गंगदत्ता भारिया, तस्स णं सागरदत्तस्स पुत्ते गंगदत्ताए भारियाए अत्तए घरदत्ते नामं दारए होत्था अहीण जाव पंचिंदियसरीरे, तेणं कालेणं तेणं स० समोसरणं जाच परिसा पूपचिगया, तेणं कालेणं तेणं सम० भगवं गोपमे तहेव जेणेव पावलसंडे पागरे तेणेव उचागच्चति पाबळाडू नगरं पुरथिमिल्लेणं दुवारेणं अणुप्पविसति तत्थ णं पासति एगं पुरिसं कैच्छलं कोढियं दोउयरियं भगंदरियं अरिसिलं कासिलं सासिलं सोगिलं सुयमुहसुयहत्थं सुयपायं सुयहत्थंगुलियं सडियपायंगुलियं सडियक १'जइ णं भंते ! इत्याविरुक्षेपः सप्तमस्याध्ययनस्य वाच्य इति । २ 'कच्छाति फहमन्तं 'दोउ, यरिय'ति अलोरिक भगंदलिय'ति भगन्दरवन्तं 'सोगिल'न्ति शोफवन्तं, एतदेव सविकोषमाह-'मुयमुहसुयहस्थति शूनगुखशूनहस । दीप अनुक्रम NAGAR [३१] wirectorary.com अथ सप्तमं अध्ययनं "उम्बरदत्त" आरभ्यते उम्बरदत्तस्य पूर्वभव: ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२८] – दीप अनुक्रम [३१] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२८] श्रुतस्कंध : [१], अध्ययनं [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः विपाके ननासियं रसीयाए वा पूईएण य थिविधिर्वितत्रणमुह किमिउत्तयंत पगलंतपूयरुहिरं लालीपगलंत कन्ननासं अ- १७ उम्बरश्रुत० १ ४ भिक्खणं २ पूयकवले य रुहिरकवले य किमियकवले य वममाणं कट्ठाई कलुणाई विसराई कुवमाणं मच्छि दत्ता. धन्वन्तरीभवः सू० २८ पाचडगरपहकरेणं अणिज्यमाणमग्गं फुटहडाहडसीसं दंडिखंडवसणं खंड मल्लगखंडघडहत्थगयं गेहे देहबलियाए वित्तिं कप्पेमाणं पासति, तदा भगवं गोयमं उच्चनीय जाव अडति अहापजतं गिन्हति पाड० पडिनिक्खमति जेणेव समणे भगवं० भत्तपाणं आलोपति भत्तपाणं पडिदंसेति समणेणं अन्भणु ॥ ७४ ॥ १ 'थिविधिविंत'त्ति अनुकरणशब्दोऽयं 'वणमुहकिमिउत्तर्यंत पगलंत पूयरुहिरं'ति व्रणमुखानि कृमिभिरुत्तुद्यमानानि - ऊर्द्धव्यध्यमानानि प्रगलत्पूयरुधिराणि च यस्य स तथा तम् २ 'ठालापगलंत कन्ननासं'ति लालामि:- छेदतन्तुभिः प्रगलन्तौ कर्णौ नासा च यस्य स तथा तम्, 'अभिक्खणं'ति पुनः पुनः 'कट्ठाई'ति केशहेतुकानि 'कलुणाई'ति करुणोत्पादकानि 'बीसराई 'ति विरूपध्वनीनीति गम्यते, 'कूयमाणं'ति कूजन्तम्- अव्यक्तं भणन्तं, शेषं सर्व प्रथमाध्ययनवत् नवरं 'देहं बलियाए' देहवलिमि त्यस्याभिधानं प्राकृतशैल्या देवलिया तीए देबलियाए 'पाड'चि पाइलिसंडाओ नगराओ 'पडिणिति पढिनिक्खमइति दृश्यं, 8 'जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणामेव उवागच्छति २ गमनागमणाए पडिकमई ईयोपथिकी प्रतिक्रामतीत्यर्थः 'भत्तपाणं आलोएछ २ भत्तपाणं पडिदंसेइ २ समणेणं भगवया अन्भणुनाएं यावत्करणात् 'समाणे' इत्यादि दृश्यं, ॥ ७४ ॥ can Internationa For Park Lise Only ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२८] दीप अनुक्रम [३१] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [७] मूलं [२८] श्रुतस्कंध: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः नाए समाणे जाव बिलमिव पन्नगभूते (अप्पाणेणं) संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तते णं से भगवं गोधमे दोबंपि छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरसीए सज्झाए जाव पाडलिसंड नगरं दाहिजिल्लेणं दुवारेणं अणुष्पविसति तंचैव पुरिसं पासति कच्छुलं तदेव जाव संजमेणं तवसा विहरति, तते णं से गोयमे तथ० छ० तब जाव पञ्चस्थिमिल्लेणं दुवारेणं अणुपविसमाणे तंचेव पुरिसं कच्छुद्धं पासति चोत्थछट्ट० उत्तरेण० इमीसे अज्झत्थिए समुपपन्ने अहो णं इमे पुरिसे पुरापोराणाणं जाव एवं वयासीएवं खलु अहं भंते छहस्स पारण० जाव रीयंते जेणेव पाडलसंडे नगरे तेणेव उवागच्छर २ ता पाडलि० | पुरच्छिमिल्लेणं दुवारेणं पविद्वे, तत्थ णं एवं पुरिसं पासामि कच्छुल्लं जाव कप्पेमाणं तं अहं दोचछट्टपारणगंसि दाहिणिल्लेणं दुवारेणं तच्छदुक्खमण० पचस्थिमेणं तहेब तं अहं चोत्थछट्ट० उत्तरदुवारेण अणुष्पविसामि तं चैव पुरिस पासामि कच्छुलं जाव वित्तिं कप्पेमाणे विहरति चिंता मम पुत्र्वभवपुच्छा वागरेति । एवं खलु गोयमा । तेणं कालेणं तेणं सम० इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे विजयपुरे नाम नगरे होत्था रिद्ध०, तस्थ णं विजयपुरे नगरे कणगरहे नामं राया हो०, तस्स णं कणगरहस्स रन्नो धनंतरी नामं विज्जे १ 'बिलमिव पन्नगभूए अप्पाणेणं आहारमाहारेइचि आत्मना आहारयति, किंभूतः सन् ? इत्याह-' पन्नगभूतः' नागकल्पो भगवान् आहारस्य रसोपलम्भार्थमचर्वणाम्, कथम्भूतमाहारम् ?- बिलमिव असंस्पर्शनात्, नागो हि बिलमसंस्पृशन् आत्मानं तत्र प्रवेशयति, एवं भगवानप्याहारम संस्पृशन् रसोपलम्भानपेक्षः सन्नाहारयतीति । २ 'दोच्चंपित्त द्विरपि द्वितीयां वाराम् । For Penal Use Only ~95~ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [७] ----------- --------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके श्रुत०१ ॥७५॥ प्रत सूत्रांक [२८] हो, अडंगाउब्वेयपाढए, तंजहा-कुमारभिर्च १सालागे २ सल्लकहते ३ कायतिगिच्छा ४ अंगोले ५ भूयविजे७ उम्बररसायणे७ वाजीकरणे ८सिवहत्थे सुहहत्थे लहुहत्थे, ततेणं से धन्नतरी विजे विजयपुर णगरे कणगरहस्स रन्नो दत्ता.धन्व न्तरीभवः १'अटुंगाउव्वेयपाढए'त्ति आयुर्वेदो-वैद्यकशास्त्रं 'कुमारभिचंति कुमाराणां-बालकानां भृतौ-पोषणे साधु कुमारभृत्य, तद्धि सू० २८ शास्त्रं कुमारभरणस्य-क्षीरस्य दोषाणां संशोधनार्थ दुष्टस्तन्यनिमित्तानो व्याधीनामुपशमनार्थ चेति १ 'सलाग'त्ति शलाकायाः कर्म शालाक्यं तत्प्रतिपादक तनमपि शालाक्यं, तद्धि ऊर्द्धजन्तुगतानां रोगाणां श्रवणवदनादिसंश्रितानामुपशमनार्थमिति २ 'सल्लहत्तेति | शल्यस्य हत्या हननमुद्धार इत्यर्थः शल्यहत्या तत्प्रतिपादकं शास्त्रं शल्यहत्यमिति ३ 'कायतिगिच्छिति कायस्व-स्वरादिरोगग्रस्तशरी-15 | रस्य चिकित्सा-रोगप्रतिक्रिया यत्राभिधीयते तत्कायचिकित्सैव, तत्तत्रं हि मध्याह्नसमाश्रितानां ज्वरातीसारादीनां शमनार्थमिति ४ |'जंगोले'त्ति विषघातक्रियाऽभिधायक जङ्गोलं-अगदं तत्तत्रं तद्धि सर्पकीटलूवादृष्टविनाशार्थ विविधविषसंयोगोपशमनार्थ चेति ५ 'भूयवेज'त्ति भूतानां निग्रहार्था विद्या-शास्त्रं भूतविद्या, सा हि देवासुरगन्धर्वयक्षराक्षसाधुपसृष्टचैतसा शान्तिकर्मवलिकरणादिमि-18 महोपशमनार्थी ६ 'रसायणे'त्ति रसः-अमृतरसस्तस्वायन-प्राप्तिः रसायनं तद्विधयः-स्थापनमायुर्मेधाकर रोगोपहरणसमर्थ च तद-15 [भिधायक तनमपि रसायनम् ७ 'वाईकरणे'त्ति अवाजिनो वाजिनः करणं वाजीकरण-शुक्रवर्द्धनेनाश्वस्षेव करणमित्यर्थः तदभिधा-1 ॥७५॥ | यकं शास्त्रम् , अल्पक्षीणविशुष्करेतसामाप्यायनप्रसादोपजनननिमित्तं प्रहर्षजननार्थ चेति ८ । 'सिवहत्थेचि आरोग्यकरहस्तः 'सुहह-13 हास्य'त्ति शुभहस्त:-प्रशस्तकरः सुखहेतुहस्तो वा 'लहुहत्थेति दक्षहस्तः । दीप अनुक्रम [३१] weredturary.com ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [७] ----------- --------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] SACAROSECSCAR AN अंतेउरेय अन्नेसिंच बहूर्ण राईसर जाव सत्थवाहाणं अन्नेसिंच बडणं दुबलाण य १ गिलाणाण य२ वाहियाण य रोगियाण य अणाहाण य सणाहाण य समणाण यमाहणाण य भिक्खागाण य करोडियाण य कप्पडियाण य आउराण य अपेगतियाणं मच्छमंसाइंउवदंसेति अप्पे कच्छपर्मसाई अप्पे गाहामं अप्पे० मगरम० अ० सुंसुमारमं० अप्पे० अयमंसाई एवं एलारोज्झसुपरमिगससयगोमंसमहिसमसाई अप्पे० तित्तरमसाई अप्पे० चट्ट० कलाव० कपोत कुकुड०मयूर० अन्नेसिं च बहुणं जलयरथलपरखयरमादीणं मसाई ख्वदंसेति अप्पणाविय णं से धनंतरीविजे तेहिं बहूहिं मच्छमंसेहि य जाव मयूरमंसेहि य अन्नेहि य बहूर्हि जलयरथलयर-12 १ 'राईसर' इत्यत्र यावत्करणात् 'तलबरमाईवियकोबुंबियसेट्ठी ति दृश्य, 'दुब्बलाण यत्ति कृशानां हीनवलानां वा 'गिला-1 णाण य'त्ति क्षीणहर्षाणां शोकजनितपीडानामित्यर्थः 'वाहियाण यत्ति च्याधिः-चिरस्थायी कुष्ठादिरूपः स संजातो येषां ते व्याधिता व्यथिता वा-उष्णादिभिरभिभूता अतस्तेषां 'रोगियाण'ति संजावाचिरस्थाथिज्वरादिदोषाणां, केषामेवंविधानाम् ? इत्याह-'सणाहाण यत्ति सस्वामिनाम् 'अणाहाण यत्ति निःस्वामिना 'समणाण यति गैरिकादीनां 'भिक्खगाण यत्ति तदन्येषां 'करोडियाण बत्ति कापालिकानाम् 'आउराण ति चिकित्साया अविषयभूतानाम् 'अप्पेगइयाणं मच्छमंसाई उवइसति' इत्येतस्य वाक्यस्यानुसारेणानेतनानि वाक्यानि ऊहानि, मत्स्याः कच्छपा पाहाः मकराः सुंसुमारा: अजाः एलकाः रोझाः शूकरा: मृगाः शशकाः गावः महिषा:* तित्तिराः वर्त्तकाः लावकाः कपोताः कुर्बुदाः मयूरान प्रतीताः । दीप अनुक्रम [३१] ~97~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [७] ----------- --------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] विपाके खहयरमंसेहि य सोल्लेहि य तलेहि य भिज्जेहिं सुरं च ६ आसाएमाणे विसाएमाणे विहरति । तते णं से उम्बरश्रुत०१६ धनंतरी बिजे एयकम्मे सुबहुं पावं कम्मं समजिणित्ता बत्तीसं चाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे दत्ता-धन्वकालं किच्चा छडीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमा० उववष्णे । तते णं गंगदत्ता भारिया जायणि न्तरीभवः ॥७६। दुया यावि होत्था जाया जाया दारगा चिनिघायमावजंति, तते णं तीसे गंगदत्ताए सत्यवाहीए अन्नया सू०२८ कयाई पुब्बरतावर सकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमा० अयं अभथिए. समुप्पन्ने-एवं खलु अहं सागरदत्तेणं सत्थवाहेणं सद्धिं यहूई वासाइं उरालाई मणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरामि, णो चेव भणं अहं दारगं वा दारियं वा पयामि, तं धण्णाओ ण ताओ अम्मयाओ सपुन्नाओ कयस्थाओ कयलक्खद्रोणाओ सुलद्धे णं तासिं अम्मयाणं माणुस्सए जम्मजीवियफले जासिं मने नियगकुच्छिसंभूगाई थणदुद्धलुद्ध-I गाई महुरसमुल्लावगाई मम्मणं पयंपियाई धणमूलकक्खदेसभागं अतिसरमाणगार्ति मुद्धगाइं पुणो य कोमलकमलोवमेहि य हत्थेहिं गिण्हेऊण उच्छंगं निवेसियाति दिति समुल्लावए सुमहुरे पुणो २ मंजुलप्पभ 'मन्नेत्ति अहमेवं मन्ये 'नियगकुच्छिसंभूताई ति निजापत्यानीत्यर्थः, सनदुग्धे लुब्धकानि यानि तानि तथा, मधुरसमुल्लापकानि-मन्मनप्रजल्पितानि स्तनमूलात् कक्षादेशभागमभिसरन्ति मुग्धकानीति, पुनश्च कोमलं यत्कभलं तेनोपमा ययोस्ती तथा ताभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सङ्गनिवेशितानि ददति समुल्लापकान् सुमधुरान् शब्दतः पुनः पुनर्म जुलप्रभणितान्-म जुलानि-कोमलानि प्रमणि-21॥७६ ॥ तानि-भणनारम्भा थेपु ते तथा तान्, दीप अनुक्रम 564564GEORGANAGAR [३१] ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [७] ----------- --------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 444 प्रत सूत्रांक R- [२८] णिते, अहं णं अधन्ना अपुन्ना अकयपुन्ना एत्तो एगमपि न पत्ता, तं सेयं खलु मम कल्ले जाय जलते सागरदत्तं सत्यवाहं आपुच्छित्ता सुबहुं पुष्फवत्वगंधमल्लालंकारं गहाय बहुमित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजनमहिलाहिं सद्धिं पाडलसंडाओ जगराओ पडिनिक्खमित्ता बहिया जेणेव उंघरदत्तस्स जक्खस्स जक्खायतणे तेणेच उवागच्छह उवागच्छित्ता तत्व णं उंघरदत्तस्स जक्खस्स महारिहं पुष्पवणं करेइत्ता जाणुपाषषडियाए। ओयाचित्तए-जति णं अहं देवाणुप्पिया 1 दारगंवा दारियं वा पयामि तो णं अहं तुम्भं जायं च वायं च भायं च अक्खयणिहिं च अणुवडइस्सामित्तिकहु ओवाइयं ओवाइणिसए, एवं संपेहेइ २त्ता कल्लं जाव जलते जेणेव सागरदत्ते सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति २त्ता सागरदत्तं सत्यवाहं एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणु १ 'अपुन्न'त्ति अविद्यमानपुण्या यतः 'अकयपुन्नत्ति अविहितपुण्या अथवा 'अपुन्नति अपूर्णमनोरथत्वात् 'एत्तोति एतेषां बालकचेष्टितानाम् 'एगयरमवि' एकवरमपि-अन्यतरदपीति, 'कहं' इत्यत्र यावत्करणात् 'पाउप्पभायाए रयणीए कुलप्पलकमलकोमलुम्मिलिए अहपंडुरे पभाए' इत्यादि दृश्यम् 'उहिए सहस्सरस्सिमि दिणयरे तेयसा जलते' इत्येतदन्तं, पत्र प्रादुः प्रभातायां-प्रकाशेन प्रभातायो| फुलं-विकसिवं यदुत्पलं-पयं तस्य कमलख च-हरिणस्व कोमलं-अकठोरम् उन्मीलितं--पलानां भयनयोश्वोन्मेषो यत्र तत्तथा तत्र, शेवं व्यक्तम् । २ 'जायं च'ति याग पूजां यात्रां वा 'दायं च' दानं 'भायं च' लाभस्यांशम् 'अक्खयणिहि चति देवभाण्डागारम् 'अणुवहिस्सामिति वृद्धि नेष्यामि, 'इतिक एवं कृत्वा 'ओवाइय'ति उपयाचितम् । - दीप अनुक्रम -NCRe-RRC- - [३१] अनु.६५ ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [७] ----------- --------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके श्रुत०१ ॥७७॥ प्रत सूत्रांक [२८] प्पिया! तुन्भेहिं सदि जाव न पत्ता, तं इच्छामि गं देवाणुपिया! तुम्भेहिं अन्भणुण्णाया जाव इवाइणि-20 ७ उम्बरत्तए, तए णं से सागरदत्ते गंगदत्तं भारियं एवं वयासी-ममंपिणं देवाणु० एस चेव मणोरहे, कहं दत्वाध्य. तुमं दारगं या दारियं वा पयाएजसि?, गंगदत्साए भारियाए एयम४ अणुजाणति, तते णं सा गंगदत्ता उम्बरदत्तभारिया सागरदससत्यवाहेणं एयमद्वं अन्भणुनाया समाणी सुबहुं पुष्फ जाव महिलाहिं सद्धिं सयाओ प्रागुत्तरगिहाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमइत्ता पाडलसंडं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २ जेणेव पुक्खरिणी भवाः तेणेव उवागच्छति २ पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुप्फवस्थगंधमल्लालंकारं उवणेति २ पुक्खरिणी ओगाहेति २ ०२८ जलमवर्ण करेति २ जलकीडं करेमाणी पहाया कयकोउयमंगलपायच्छित्ता उल्लगपडसाडिया पुक्खरिणीओ पञ्चुत्तरति २तं पुष्क० गिण्हति २ जेणेव जंबरदत्तस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छति २ उंबरदत्तस्स| जक्खस्स आलोए पणामं करेति २ लोमहत्थं परामुसति २ उंबरदत्तं जक्खं लोमहत्थेणं पमजति २ दगधाराए अन्भोक्खेति २ पम्हलगायलट्ठी ओलूहेति २ सेयातिं वत्वाइं परिहेति महरिहं पुष्फारुहणं वत्थारुहणं मल्लारुहणं गंधारुहणं चुन्नारुहणं करेति २धूर्व डहति जाणुपायवडिया एवं वयति-जइ णं अहं देवाणु 'उवाइणित्तए'चि उपयापितुमिति, 'कयकोउयमंगल'त्ति कौतुकानि-मषीपुण्डकादीनि मङ्गलानि-दध्यक्षतादीनि 'उल्लप-1 डसाडिय'त्ति पट:-प्रावरणं साटको-निवसनं 'पम्हल'त्ति 'पम्हलसुकुमालगंधकासाइयाए गायलट्ठी ओलदइ'त्ति द्रष्टव्यम् 'एवं वत्ति एवं बयासीत्यर्थः। दीप अनुक्रम %8CANCER950 [३१] ~100~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [७] ----------- --------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] पिया! दारगंवा दारियं वा पयामि ते णं जाव उवातिणति २त्ता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया । तते णं से धनंतरी विजे ताओ नरयाओ अणंतरं उव्वहित्ता इहेव जंबुद्दीवे २ पाडलसंडे नगरे गंग-IP दत्ताए भारियाए कुञ्छिसि पुत्तत्ताए उघवन्ने, तते णं तीसे गंगदत्ताए भारियाए तिण्हं मासाणं बहुपडि|पुन्नाणं अयमेयारूवे दोहले पाउम्भूते-धन्नाओ णं वाओ जाब फले जाओ णं विलं असणं पाणं खाइम साइमं उवक्खडाति २ बरहिं जाव परिवुडाओ तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च ६ पुरफ जाव गहाय पाडलसंड नगरं मज्झंमज्झेणं पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता पुक्खरणी ओगाहिंति पहाता जाव पायच्छित्ताओ तं विपुलं असणं पाणं खाइम साइमं बहूहि मित्तणाइ जाच सद्धिं आसादेति दोहलं विणयेति, एवं संपेहेइ २ कल्लं जाव जलंते जेणेव सागरदत्ते सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति र सागरदत्तं सत्थवाहं एवं धयासी-वन्नाओ णं ताओ जाब विणेंति हातं इच्छामि णं जाव विणित्तए, तते णं से सागरदत्ते सत्यवाहे गंगदत्साए भारियाए एयमहूँ अणुजाणति तते णं सा गंगदत्ता सागरवत्तेणं सत्यवाहेणं अम्भणुनाया समाणी विपुलं असणं पार्ण खाइमं साइमं उब-1 क्खडावेति तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च ६ सुबहुं पुप्फ परिगिण्हावेइ बहहिं जाव ण्हाया कयवलिकम्मा जेणेव उंबरदत्तस्स जक्खाययणे जाच धूर्व डह जेणेव पुक्खरणी लेणेव उवागच्छति, तते| गं तातो मित्त जाव महिलाओ गंगदत्तं सत्यवाहं सव्वालंकारविभूसियं करेंति, तते णं सा गंगदत्ता भा M दीप अनुक्रम - [३१] 04-2 ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्य यनं [७] ----------- --------- मूलं [२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] विपाके 15रिया ताहि मित्तनाईहिं अन्नाहिं बरहिं णगरमहिलाहिं सद्धिं तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च ६ ७ उम्बरश्रुत०१दोहलं विणेति २ जामेव दिसिं पाउन्भूता तामेव दिसि पडिगया, सा गंगदत्ता सत्यवाही पसत्धदोहला तं दत्ताध्य. गन्भं सुहंसुहेणं परिवहति, लते णं सा गंगदत्ता भारिया णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव पयाया ठिइ० उम्बरदत्त॥७८॥ या जाव जम्हा णं इमे दारए उंबरदत्तस्स जक्खस्स उववातियलद्धते तं होऊ णं दारए उंबरदत्ते नामेणं, प्रागुत्तरतते णं से उबरदत्ते दारए पंचधातिपरिग्गहिए परिवहुइ, तते णं से सागरदत्ते सत्यवाहे जहा विजयमित्ते भवाः जाव कालमासे कालं किच्चा, गंगदत्तावि, उंबरदत्ते निच्छुढे जहा उझियते, तते णं तस्स उंबरदत्तस्स दार-13 सू०२८ यस्स अन्नया कयावि सरीरगंसि जमगसमगमेव सोलस रोगायंका पाउन्भूपा, तंजहा-सासे खासे जाव कोडे, तते णं से उबरदत्ते दारए सोलसहि रोगार्यकहिं अभिभूए समाणे सडियहत्थं जाव विहरति. एवं खलु गोयमा! उंबरदसे पुरा पोराणाणं जाच पञ्चगुन्भवमाणे विहरति, तते णं से उबरदत्ते दारए कालमासे कालं किया कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति?, गोयमा! उंचरदत्ते दारए बावत्तरि वासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किया इमीसे रयणप्पभाए पुढधीए णेरइयत्साए उववन्ने संसारो तहेब जाव पुढवी, ततो हस्थिणाउरे णगरे कुकुडत्ताए पञ्चायायाहिति गोटिवहिए तहेव हत्थिणारे णगरे सेहिकुलंसि उवव|जिहिति बोर्हि सोहम्मे कप्पे महाविदेहे चासे सिज्झिहिति निक्खेवो॥(सू०२८) सत्तमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥७॥ १ सप्तमाध्ययनस्य विवरणं चंबरदचाख्यस्य ॥ ७॥ दीप अनुक्रम [३१] %Y ॥ ७८॥ अत्र सप्तमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~102~ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३२] भाग-१४ “विपाकश्रुत” श्रुतस्कंध : [१], अध्ययनं [८] मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः - Education Internation अंगसूत्र - ११ (मूलं + वृत्तिः) ॥ अथ नन्दिवर्धनाख्यं अष्टममध्ययनम् ॥ अथाष्टमे विस्यिते जणं भंते! अट्टमस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू । तेणं कालेणं तेणं सम० सोरियपुरं नगरं सोरियवडेंसगं उज्जाणं सोरियो जक्खो सोरियदत्तो राया, तस्स णं सोरिषपुरस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे एत्थ णं एगे मच्छंधवाडए होत्था, तत्थ णं समुद्ददन्ते नामं मच्छंधे परिवसति अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे, तस्स णं समुद्ददतस्स समुद्ददत्ता नाम भारिया होत्था अहीण० पंचदियसरीरे, तस्स णं समुददत्तस्स पुत्ते समुद्ददत्ताभारियाए अत्तए सोरियदन्ते नामं दार होत्था, अहीण, तेणं कालेणं तेणं सम० सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं तेणं सम० जेट्टे सीसे जाव सोरियपुरे नगरे उच्चनीयमज्झिमकुलाई अहापात्तं समुदाणं गहाय सोरियपुराओ नगराओ पडिनिक्खमति, तस्स मधपाडस अदूरसामंतेणं वीईवयमाणे महतिमहालियाए मणुस्स परिसाए मज्झगयं पासति एवं पुरिसं सुकं मुक्खं निम्मंसं अद्विषम्मारणद्धं किडिकिडीभूयं णीलसाडगणियच्छं मच्छकंद एणं गलए अणुलग्गेणं कट्ठाई कलुणाई १ 'मच्छंघेति मत्स्यबन्धः । For Penal Use Only अथ अष्टमं अध्ययनं "सौर्यदत्त" आरभ्यते •••अत्र शीर्षकस्थाने अध्ययनस्य नाम्नः विषये कश्चित् स्खलना संभाव्यते यत् "सौर्यदत्त" स्थाने 'नन्दिवर्धन' इति मुद्रितं ~ 103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [८] ----------- --------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: नन्दिवर्धनाध्य. नन्दिवध नप्रागुत्तरभवाः सू०२९ प्रत विपाके विसराई कुवेमाणं अभिक्खणं अभिक्खणं पूयकवले य रुहिरकवले य किमिकबले य चम्ममाणं पासति, श्रुत०१४ाइमे अज्झथिए ५ पुरा पोराणाणं जाव विहरति, एवं संपेहेति जेणेव समणे भगवं जाव पुब्वभवपुच्छा जाव वागरणं, एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेब जंबुद्दीचे दीवे भारहे वासे नंदिपुरे नाम णगरे ॥७९॥ होत्था मित्ते राया, तस्स मित्तस्स रन्नो सिरीए नामं महाणसिए होत्था अहम्मिए जाब दुप्पडियाणंदे, तस्स णं सिरीयस्स महाणसियस्स बहवे मच्छिया य वागुरिया य साउणिया य दिनभति कल्लाकल्लं बहवे दिसण्हमच्छा य जाव पडागातिपडागे य अए य जाव महिसे य तित्तिरे य जाव मयूरे य जीवियाओ ववदरोति सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति, अन्ने य से वहवे तित्तिरा य जाव मयूरा य पंजरंसि संनिरुद्धा चिट्ठति, अन्ने य बहवे पुरिसे दिनभति० ते बहवे तित्तिरे य जाव मयूरे य जीवियाओ चेव निप्पक्छेति |सिरीयस्स महाणसियस्स उवणेति, तते णं से सिरीए महाणसिए बहूणं जलयरथलयरखहयराणं मंसाई| सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३२] १ 'सोहमच्छा' इत्यत्र यावत्करणात् 'खवल्लमच्छा विझिडिमच्छा हलिमच्छा' इत्यादि संभणमाछा पडागा' इत्येतदन्तं दृश्य, मत्स्यभेदाश्चैते रूडिगम्याः । 'अए य अह' यावत्करणात् 'एलए य रोझे य सूयरे य मिगे य इति दृश्यम् । तित्तिरे य' इत्यत्र याव- करणात् 'बट्टए य लावए य कुकुडे ये' इति दृश्यम्।। . ७९ ~104~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [८] ----------- --------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] कप्पणीयकप्पियाई करेंति, तंजहा सण्हखंडियाणि य वह दीह रहस्स० हिमपक्काणि य जम्मघम्म(वेग). मारुयपाणि य कालाणि य हेरंगाणि य महिद्वाणि य आमलरसियाणि य मुदिया. कविट्ट दालिमरसिया मच्छरसितलियाणि य भजिय० सोल्लिय० उवक्खडावेंति अन्ने य बहवे मच्छरसे य एणेजरसे य तित्ति-18 ररसे य जाच मयूररसे य अन्नं विउलं हरियसागं उवक्खडाचेति २त्ता मित्तस्स रन्नो भोयणमंडवंसि भोयजाणवेलाए उवणेति अप्पणावि यणं से सिरिए महाणसिते तेसिं च बहहिं जाव जय० ख० सेहिं च रसतेहि य हरियसागेहि य सोल्लेहि य सलेहि य भिजेहि य सुरं च ६ आसाएमाणे ४ विहरति, तते णं से सिरिए है महाणसिते एयकम्मे० सुबहुं पावकम्मं समजिणित्ता तेत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं १'सण्हखंडियाणि य' सूक्ष्मखण्डीकृतानि 'बट्टत्ति वृत्तखण्डितानि च 'दीहति दीर्घखण्डितानि च 'रहस्स'त्ति इवख|ण्डितानि च । 'हिमपक्काणि यत्ति शीतपकानि 'जम्मपक्कानि वेगपकाणि यति रूढिगम्यं, 'मारुयपकाणि यत्ति वायुपकानि 'कालाणि य' तिरंगाणि यति रूदिगम्य, 'महिद्वाणि यत्ति तकसंसृष्टानि 'आमलरसियाणि य' भामलकरससंसृष्टानि 'मुहियारसियाणि यत्ति मुहीकारससंसृष्टानि एवं कपित्थरसिकानि दाडिमरसिकानि मच्छरसिकानि तलितानि-सैलादिनाऽनी संस्कृतानि 'भ जियाणि यत्ति अमिना भ्रष्टानि 'सोल्लियाणि यत्ति शुले पक्कानि 'मच्छरसए'त्ति मत्स्यमांसरसस्य सम्बन्धिनो रसान 'एणिजरसटीए यत्ति मृगमांसरसान् 'तित्सिर'त्ति तित्तरसत्करसान् यावत्करणान् 'बट्टयरसए य लाववरसए य' इत्यादि दृश्यं, 'हरियसागं'ति| पत्रशाकं 'ज'इत्यस्यायमर्थः-जलयरमंसेहिं थलयरमंसेहिं खयरमंसेहि तलि भजि च' अयमर्थ:--'तालिएदि भजिएहिं । दीप अनुक्रम [३२] -- For P LOW ~105~ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [८] ----------- --------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] विपाके किया छट्ठीए पुढवीए उववन्नो।तते णं सा समुद्ददत्ता भारिया निंदू यावि होत्था जाया २ दारगा विणिहाय-31८ नन्दिश्रुत०१४मावज्जति जह गंगदत्ताए चिंता आपुच्छणा उवातियं दोहला जाव दारगं पयाता, जाव जम्हा णं अम्हंट वर्धनाध्य. इमे दारए सोरियस्स जक्खस्स उवाइयलद्धे तम्हा णं होउ अम्हं दारए सोरियदत्ते नामेणं, तए णं से सोरि- नन्दिवर्ध॥८०॥ यदत्ते दारए पंचधाइ जाव उम्मुक्यालभावे विष्णयपरिणयमित्ते जोवण होत्था, तते णं से समुदत्ते 8 नप्रागुत्तअन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते, तते णं से सोरियदत्ते बहहिं मित्तणाइ० रोयमाणे समुद्ददत्तस्स णीह- रभवा: - रणं करति लोइयमयाई किचाई करेंति, अन्नया कयाई सयमेव मच्छंधमहत्तरगत्तं उवसंपत्तिाणं विहरति, | सू०२९ तए णं से सोरियए दारए मच्छंधे जाते अहम्मिए जाव दुप्पड़ियाणंदे, तते णं तस्स सोरियमच्छंधस्स ब-४ है हवे पुरिसा दिनभति. कल्लाकलं एगट्ठियाहिं जउणामहानदी ओगाहिंति यहूहिं दहगालणाहि य दहम-10 १ 'चिंत'त्ति मनोरथोत्पत्सिर्वाच्या, 'धण्णाओ णं ताभो अम्मयाओ कयत्थाओं' इत्याविरूपा यथा गङ्गदत्तायाः सप्तमाध्ययनोकायाः, 'आपुच्छण'त्ति भर्नुरापुच्छा 'तं इच्छामि णं तुम्भेहिं अब्भणुन्नाया' इत्यादिका, 'ओवाइय'ति उपयापितं वाच्यं, दोहदादोऽपि गणदत्ताया इव वाच्य इति । 'एगडियाहिति नौभिः 'दहगलणेहि येत्यादि एगहियं भरतीत्येतदन्तं रूदिगम्यं, तथाऽपि किचिलिख्यते-हदगलनं-हदस्य मध्ये मत्स्याविग्रहणार्थ भ्रमणं जलनिःसारणं वा हदमलनं-इदस्य मध्ये पौनःपुन्येन परिश्रमणं ॥८ ॥ जले वा निःसारिते पकमईनं थोहरादिप्रक्षेपेण इदजलस्स विक्रियाकरणं इदमथनंदजलस्य तरुशाखाभिर्विलोडनं इदवहनं-खत एव वाजलनिर्गमः इदप्रवहणं-जदजलस्य प्रकृष्ठं वहनं प्रपञ्चपुलादयो मत्स्यबन्धनविशेषाः गलानि बदिशानि SAGAR दीप अनुक्रम [३२] ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३२] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२९] श्रुतस्कंध: [१], अध्ययनं [८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः लोहि य दहमहणेहिं दहवहणेहिं दहपवहणेहि य अपुलेहि य पंचपुलेहि य मच्छंधलेहि य मच्छपुच्छे हि य जंभाहि य तिसिराहि य भिसिराहि य विसराहि य विसिराहि य हिल्लीरिहि य झिल्लिरीहि य जालेहि य गलेहि य कूडपासेहि य वैकबंधेहि य सुत्तबंधणेहि य वालबंधणेहि य महवे सण्हमच्छे य जाव पडागातिपडागे य गिण्हति एगट्टियाओ नावा भरति कूलं गार्हति मच्छखलए करेंति आयवंसि दलयंति, अन्ने य से बहवे पुरिसा दिन्नभइ भत्तवेयणा आयवतत्तपहिं सोलेहि य तलेहि य भजेहि प रायमग्गंसि वित्ति कप्पेमाणा विहरंति, अध्पणाविय णं से सोरियदत्ते बहूहिं सहमच्छेहि य जाव पडाग० सोल्लेहि य भज्जेहि य सुरं च ६ आसाएमाणे ४ विहरति, तते तस्स सोरियदत्तस्स मच्छंधस्स अन्नया कयाई ते मच्छसोले तले भजे आहारेमाणस्स मच्छकंटए गलए लग्गे आदि होत्था, तए णं से सोरियमच्छंधे महयाए वेयणाए अभिभूते समाणे कोटुंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वयासी- गच्छह णं तुम्हे देवाणुप्पिया! सोरियपुरे नगरे संघाडग जाव पहेसु य महया २ सदेणं उग्घोसेमाणा २ एवं वयह एवं खलु देवाणुप्पिया! सोरियस्स मच्छकंटए गले लग्गे तं जो णं इच्छति विजो वा ६ सोरियमच्छियस्स मच्छकंदयं गलाओ निहरितते तस्स णं सोरिय० विउलं अत्थसंपयाणं दलयति, तते णं ते कोडुंबियपुरिसा जाब उग्घोसंति, तए णं ते बहवे विज्जा य ६ इमेयारूवं उग्घोसणं उग्घोसिनमाणं निसार्मेति २ जे० सोरिय० गेहे जे० सोरियमच्छंघे तेणेव उवाग१ 'वहि य'त्ति वल्कबन्धनैः सूत्रबन्धनैर्वालबन्धनैश्चेति व्यक्तं, 'मच्छखलए करेंति 'ति स्थण्डिलेषु मत्स्यपुञ्जान् कुर्व्वन्ति । Education Internationa For Parts Only ~ 107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [८] ----------- --------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२९] विपाके च्छंति बहहिं उप्पत्तियाहिं ४ बुद्धीहि य परिणममाणा वमणेहि य छडणेहि य उवीलणेहि य कवलग्गाहेहि य नन्दिश्रुत०१सल्लद्धरणेहि य विसल्लकरणेहि य इच्छंति सोरियमच्छंधे मच्छकंटयं गलाओ नीहरित्तए, नो चेव णं संचाएंतिवर्धनाध्य. नीहरित्तए वा विसोहितए चा, तते णं बहवे विजा य ६ जाहे नो संचाएंति सोरियस्स मच्छकंटगं गलाओ नन्दिवर्ध. ॥८१॥ पानीहरित्तए ताहे संता जाव जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया,तते णं से सोरिय० मच्छ० विज नप्रागुत्त पडियारनिविणे तेणं दुक्खेणं महया अभिभूते सुक्के जाच विहरति, एवं खलु गोयमा! सोरियदत्ते पुरा- रभवाः |पोराणाणं जाब विहरति, सोरिए णे भंते ! मच्छंघे इओ य कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति? कहिं सू. २२ उवव०१, गोयमा सत्तरि वासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किचा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए संसारो तहेव पुढवीओ हथिणाउरे णगरे मच्छत्ताए उबवन्ने, से णं ततो मच्छिएहिं जीचियाओ ववरोविए तत्धेय सेट्टिकुलंसि बोहिं सोहम्मे कप्पे महाविदेहे चासे सिज्झिहिति । निक्खेवो ॥ (सू. २९) अट्ठमं अज्झयणं सोरियदत्तस्स सम्मत्तं ॥८॥ १ बमणेहि यत्ति वमनं स्वतः संभूतं 'छडणेहि यत्ति छर्दनं च वातादिद्रव्यप्रयोगकृतम् , 'उबीलणेहि यत्ति अवपीडनं, कबल-1 ॥१॥ ग्राहः-गलकण्टकापनोदाय स्थूलकबलमहणं मुखविमर्दनार्थ वा दंष्ट्राधः काष्ठखण्डदानं, शल्योद्धरणं-यबप्रयोगकः कण्टकोद्धारः विशल्यकरणं औषधसामादिति 'नीहरित्तए'त्ति निष्काशयितुं विसोहितपत्ति पूयाद्यपनेतुम् । अष्टमाध्ययनस्य विवरण शौरिकमात्स्यिकस्य समाप्तम्।।८॥ SCAKACOCK दीप अनुक्रम [३२] अत्र अष्टमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [९] ----------------------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 45% अथ बृहस्पतिदत्ताख्यं नवममध्ययनम् । Accoom प्रत सूत्रांक ANSAR अथ नवमे किञ्चिल्लिख्यते जइ णं भंते ! उक्खेवो णवमस्स, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं रोहीडए नाम नगरे होत्या, रिद्ध०, पुढवीवडेंसए उज्जाणे धरणो जक्खो समणदत्तो राया सिरी देवी पूसनंदी कुमारे जुवराया, तत्व णं रोहीडए नगरे दत्ते णामं गाहावती परिवसति अढ० कण्हसिरी भारिया, तस्स णं दत्तस्स धूया कन्न-1 |सिरीए अत्तया देवदत्ता नाम दारिया होत्या अहीण. जाव उकिट्ठा उभिट्टसरीरा, तेणं काले० तेणं समर सामी समोसढे जाव परिसा निग्गया, लेणं का० तेणं समएणं जेतु अंतेवासी छटुक्खमण तहेव जाव राय-14 मग्गं ओगाडे हस्थी आसे पुरिसे पासति,तेसिं पुरिसाण मज्झगयं पासति एग इत्थियं अवउद्धगवंधणं उक्खित्तकन्ननासं जाच सूले भिजमाणं पासति, इमे अन्भथिए तहेव निग्गए जाव एवं बयासी-एसा णं भंते ! इस्थिया पुब्वभवे का आसी?, एवं खलु गोयमा! तेणं का० तेणं साइहेब जंबुद्दीवे दीये भारहे वासे सुपइ नामं नगरे होत्था रिद्ध०, महसेणे राया, तस्स णं महासेणस्स रक्षो धारणीपामोक्खाणं देवीसहस्सं ओरोहे यावि होत्था, तस्स णं महासेणस्स रन्नो पुत्ते धारणीए देवीए अत्तए सीहसेणे नामं कुमारे होत्था अ दीप अनुक्रम [३३] wirectorarycom अथ नवमं अध्ययनं “देवदत्ता" आरभ्यते ...अत्र शीर्षकस्थाने अध्ययनस्य नाम्न: विषये कश्चित् स्खलना संभाव्यते- यत् "देवदत्ता" स्थाने 'बृहस्पतिदत्त' इति मुद्रितं ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं , मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है। इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। वास्याम सातदाता पति मानिस सत्र का ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [९] ----------- --------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: A प्रत सूत्रांक [३१] विपाकेहीण० जुवराया, तते णं तस्स सीहसेणस्स कुमारस्स अम्मापियरो अन्नया कयाइं पंच पासायवडिंसयस- ९ बृहस श्रुत०१ याति काति, अन्भुग्गत,तए णं तस्स सीहसेणस्स कुमारस्स अन्नया कयावि सामापामोक्खाणं पंचण्हं राय-तिदत्ताध्य. चरकनगसयाणं एगदिवसे पाणिं गिण्हावेंसु पंचसयओ दाओ, तते णं से सीहसेणे कुमारे सामापामो- बृहस्पति1८२॥ क्खाहिं पंचहिं सयाहिं देवीहिं सद्धिं उपि जाव विहरति, तते णं से महसेणे राया अन्नया कयाइ कालध- दत्तभवतम्मुणा संजुत्ते नीहरणं राया जाए महता, तए णं से सीहसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिते ४ अव- मागुत्तरसेसाओ देवीओ नो आढाति नो परिजाणाति अणादाइजमाणे अप० विहरति, तते णं तासिं एगूणगाणं भवाः पंचण्हं देवीसयाण एगूणाई पंचमा [धाई]सयाई इमीसे कहाए लट्टाई समाणाई एवं खलु सामी! सीहसेणे हु सू०१० राया सामाए देवीए मुछिए ४ अम्हें धूयाओ नो आढायति नो परिजाणंति अणा० अप० विहरति, तं सेयं खल्लु अम्हं सामं देवीं अग्गिपओगेण वा विसप्पओगेण वा सत्यप्पओगेण वा जीवियातो घबरोवित्तए, १'अन्भुग्गय'त्ति इदमेवम् –'अम्भुग्णयमूसिवपहसिए व अभ्युदतोच्छ्रितानि-अत्यन्तोचानि प्रहसितानि च-इसितुमारधानि चेत्यर्थः, 'मणिकणगरयणचित्ते' इत्यादि, 'एगं च णं महं भवणं करिति अणेगखंभसयसमिविह' मित्यादि भवमवर्णकसूत्रं दृश्यम् । २ 'पंचसयो दाओ'त्ति हिरण्यकोटिसुवर्णकोटिप्रभृतीनां प्रेषणकारिकान्तानां पदार्थानां पञ्चपञ्चशतानि सिंहसेनकुमाराय| पितरौ दत्तवन्तावित्यर्थः, स च प्रत्येक खजायाभ्यो दत्तवानिति । ३ 'महया' इत्यनेन 'मयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे इत्यादि | ८२॥ राजवर्णको दृश्यः। %%ACEBCACAS दीप अनुक्रम [३३] ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं , [मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है। इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [33] भाग-१४ "विपाकश्रुत" अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्तिः) श्रुतस्कंध [१]. अध्ययनं [९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [११], अंगसूत्र -[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः मूलं [३१] अनु. १६ - एवं संपेहेन्ति सामाए देवीए अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणीओ २ विहरंति, तते गं सा सामा देवी इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणी एवं वयासी एवं खलु सामी ! मम पंचण्हं सबत्तीसवाणं पंच माइसपाई इमी से कहाए लद्ध० समा० अन्नमन्नं एवं बयासी एवं खलु सीहसेणे जाव पडिजागरमाणीओ विहरंति, तं न नज्जति णं मम केणवि कुमरणेणं मारिस्सतित्तिकहु भीया जेणेव को घरे तेणेव उधागच्छति २ सा ओहय जाव झियाति, तते णं से सीहसेणे राया इमीसे कहाए लडट्ठे समाणे जेणेव कोवघरए जेणेव सामा देवी तेणेव उवागच्छति २ सा सामं देविं ओह० जाव पासति २ त्ता एवं वयासी-कि देवाणुपिया ! जाव ओह० शियासि ?, तते णं सा सामा देवी सीहसेणेण रण्णा एवं वृत्ता समाणा उष्णओफेणीयं सीहसेणं रायं एवं वयासी एवं खलु सामी । मम एगूणपंचसवत्तीसयाणं एगूणपंच [धाई] माइ Internationa १ 'भीया जेण'त्ति 'भीया तत्था जेणेवेत्यर्थः । २ 'ओहयजाव' इह यावत्करणादिदं दृश्यम् - ओहयमणसंकप्पा भूमीगयदिट्ठिया करतलपल्हत्यमुही अट्टज्झाणोवगय'ति । ३ 'उप्फेणउप्फेणियं' ति सकोपोष्मवचनं यथा भवतीत्यर्थः । ४ इतोऽनन्तरवाक्यस्यैकैकमक्षरं पुस्तकेषूपलभ्यते तचैवमवगन्तव्यम् —' एवं खलु सामी ! ममं एगुणगाणं पंचपं सबत्तीसयाणं एगूणपंचमाइसयाई इमीसे कहाए लडहाई सवणयाए अन्नमनं सहावेंति अन्नमन्नं सहावेता एवं वयासी एवं खलु सीइसेणे राया सामाए देवीए मुच्छिए अम्हं धूयाओ नो आढाइ नो परियाणाइ अणाढाएमाणे अपरियाणमाणे बिहरइ।' 'जा' इति यावत्करणात् तवेदं दृश्यं तं सेयं खलु अम्ह सामं देवीं अग्गिपओगेण वा विसप्पओगेण वा सत्यप्पओगेण वा जीवियाओ वबरोवित्तए, एवं संपेदेइ संपेहित्ता ममं अंतराणि छिद्दाणि पढिजागरमाणी ओचिह्नति, तं न नव्बइ सामी ! भ्रमं केणइ कुमरणेणं मारिस्संतित्तिकट्टु भीया' यावत्करणात् 'तत्था तसिया उब्बिग्गा ओहह्यमणसंकप्पा भूमीगयदिट्ठीया' इत्यादि दृश्यं, ------- For PaPa Lise Only ~ 111~ waryr •••• अत्र मूल संपादने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं [मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है। इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [९] ----------- --------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ३१ विपाके सयाणं इमीसे कहाए लद्ध समा. अन्नमन्ने सदाति २ एवं बयासी-एवं खलु सीहसेणे राया सामाए ९देवदत्ता. श्रुत०१|| देवीए उवरि मुच्छिए अम्हा गं धूआ णो आढाति जाव अंतराणि अछिहाणि पडिजागरमाणीओ बिह- श्यामायाः रति तं न नजति भीया जाव झियामि, तते णं से सीहसेणे राया सामं देवि एवं वयासी-मा णं तमं सपत्नीनां ॥८३॥ देवाणुप्पिया! ओह जाच झियाइसि, अहन्नं तह पत्तिहामि जहा णं तव णस्थि कत्तोवि सरीरस्स आवाहे मृतिः श्ववा पवाहे वा भविस्सतित्तिका ताहिं इहाहिं ६ समासेति, ततो पडिनिक्खमति २त्ता कोडुंबियपुरिसे वामारण सहावेइ २त्सा एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! सुपइट्ठस्स गरस्स बहिया एगं महं कृडागार सू०३१ सालं करेह अणेगक्खंभसयसन्निविटुं० पासा०४ करेह २ मम एयमाणत्तियं पचपिपणह, तते ण ते कोडुबि-| रायपुरिसा करयल जाव पडिसुणेति २ सुपइट्टनगरस्स बहिया पचत्थिमे दिसीविभाए एग महं कूडागार सालं जाव करेंति अणेगक्खंभस० पासा.४ जेणेव सीहसेणे राया तेणेव उवागच्छति २त्ता तमाणत्तियं पचप्पिणंति, तते णं से सीहसेणे राया अन्नया कयाति एगूणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणाई पंच-17 माइसयाई आमतेति, तते णं तासिं एगणापंचदेवीसयाणं एगणपंचमाइसयाई सीहसेणेणं रन्ना आम १ 'घत्तिहामिति यतिष्ये 'नस्थिति न भवत्ययं पक्षो यदुत 'कत्तोइ'त्ति कुतश्चिदपि शरीरकप आनाधा का भविष्यति, तत्र आवाधः-ईषत्पीडा प्रबाध:-प्रकृष्टा पीदैव 'इतिकट्ठति एवमभिधाय । २'अणेगक्खंभिय'त्ति अनेकस्तम्भशतसन्निविष्ठामित्यर्थः, 'पासा' इत्यनेन 'पासाईयं दरिसणिजं अभिरूवं पडिरूवमिति दृश्यम् । दीप अनुक्रम [३३] ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू०३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, [मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [९] ----------- --------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दतियाई समाणाति सवालंकारविभूसियाई जहाविभवेणं जेणेव सुपाढे णगरे जेणेव सीहसेणे राया तेणेव उवागच्छंति, तते णं से सीहसेणे राया एगणपंचदेवीसयाणं एगूणगाणं पंचण्ह माइसयाणं कूडागारसालं आ वासे दलयति, तते णं से सीहोणे राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेतिरत्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुम्हे देवाणुदापिया! विउलं असणं ४ उवणेह सुबहुं पुष्फवत्वगंधमल्लालंकारं च कूडागारसालं साहरह य, तते णं ते को इंबियपुरिसा तहेब जाव साहरेंति, तते णं तासिं एगूणगाणं पंचहं देवीसयाणं एगणपंचमाइसयाई सव्वालंकारविभूसियाई करति १२ विउलं असणं ४ सुरं च ६ आसाएमाणाई ४ गंधव्वेहि प नाइएहि य उवः । गीयमाणाई २ विहरंति, त० से सीह राया अद्धरत्तकालसमयंसि बहूहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिबुडे जेणेव कूडागारसाला तेणेव उपागच्छति २त्ता कूडागारसालाए दुवाराई पिहेति कूडागारसालाए सवओ समंता अगणिकार्य दलयति, तते णं तासि एगणगाणं पंचण्हं देवीसयाणं एगूणगाई पंच [धाई]माइसयाई सीह-18|| दारण्णा आलीवियाई समाणाई रोयमाणाई ३ अत्ताणाई असरणाई कालधम्मुणा संजुत्ताई, तते णं से सी हसेणे राया एयकम्मे ४ सुबहुं पावकम्मं समजिणित्ता चोत्तीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता' कालमासे 18 कालं किच्चा छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं बावीससागरोवमाई ठितिएसु उववन्ने, से णं तओ अणंतरं उबत्तिा इहेव रोहीडए नगरे दत्तस्स सत्यवाहस्स कन्नसिरिए भारियाए कुञ्छिसि दारियत्ताए उववन्ने, तते णं सा कन्नसिरी नवण्हं मासाणं जाव दारियं पयाया सुकुमाल सुरूवं, तते णं तीसे दारियाए अम्मापियरो नि SSCSCCESAKACACACK दीप अनुक्रम [३३] 60%25% ...अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू०३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रित, [मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~113~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [९] ----------- --------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ॥८४॥ प्रत सूत्रांक [३श विपाके वित्तवारसाहियाए विउलं असणं ४ जाव मित्तणाति णामधेनं करेंति तं होऊ णं दारिया देवदत्ता णा- देवदत्ता. मेणं, तए-णं सा देवदत्ता पंचधातीपरिगहिया जाव परिवहुति, तते णं सा देवदत्ता दारिया उम्मुकवाल- श्यामायाः भावा जोव्वणेण रूवेण लावण्णेण य जाव अतीव उक्किट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया याचि होत्था, तते णं सा देव-121 | सपत्नीना दत्ता दारिया अन्नया कयाइ पहाया जाव विभूसिया बहुहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ता उपि आगासतलगंसि मृतिः श्वतकणगतिसेणं कीलमाणी विहरइ, इमं च णं वेसमणदत्ते राया पहाए जाब विभूसिए आसं दुरूहित्ता बहहिं पुरिसेहिं सद्धिं संपरिखुडे आसवाहिणीयाए णिज्जायमाणे दत्तस्स गाहावास्स गिहस्स अदरसामतेणं सू०२१ विइवयति, तते णं से वेसमणे राया जाव विइवयमाणे देवदत्तं दारियं उप्पिं आगासतलगंसि कणगतिदूसेण य कीलमाणी पासति, देवदत्ताए दारियाए जुब्बणेण य लावण्णण य जाव बिम्हिए कोडंपियपुरिसे सद्दावेति सहावेत्ता एवं वयासी-कस्स णं देवाणुप्पिया! एसा दारिया किंवा नामधेजेणं?, तते णं ते कोसाइंबियपुरिसा वेसमणरापं करयल. एवं बयासी-एस गं सामी! दत्तस्स सत्यवाहस्स धूआ कन्नसिरीए भारियाए अत्तया देवदत्ता नाम दारिया रूपेण य जुब्बणेण य लावणेण य उकिट्ठा उकिट्ठसरीरा, तते णं से वेसमणे राया आसवाहणियाओ पडिनियत्ते समाणे अभितरद्वाणिज्जे पुरिसे सद्दावेद अम्भितरद्वाणिजे|F॥४॥ पुरिसे सहावेसा एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! दत्तस्स धूयं कन्नसिरीए भारियाए असयं* दीप अनुक्रम [३३] ...अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू०३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रित, [मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३३] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [९] मूलं [३१] श्रुतस्कंध: [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः देवदत्तं दारियं पूसणंदस्स जुवरन्नो भारिषत्ताए बरेह, जतिवि सा सयंरज्जसुक्का, तते णं ते अभितराणिजा पुरिसा वेसमणेणं रन्ना एवं वृत्ता समाणा हडतुडा करपल जाव पडिसुर्णेति २ पहाया जाव सुद्धप्पावेसाई संपरिवुडा जेणेव दत्तस्स गिहे तेणेव उवागच्छित्था, तते णं से दत्ते सत्थवाहे ते पुरिसे एज्यमाणे पासति ते पुरिसे एजमाणे पासित्ता हट्ट आसणाओ अम्भुट्ठे आसणाओ अम्मुट्ठित्ता सत्तहृपयाई पचग्गते आसणेणं उवनिमंतेति २ ते पुरिसे आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी - संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किं आगमणप्पओयणं १, तते णं ते रायपुरिसा दत्तं सत्यवाहं एवं वयासी -- अम्हे णं देवाणु० तव धूयं कण्ह सिरीए अत्तयं देवदत्तं दारियं प्रसनंदिस्स जुवरण्णो भारियत्ताते वरेमो, तं जइ णं जाणासि देवा० जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो दिज्जउ णं देवदत्ता भारिया पुसणंदिस्स जुवरण्णो, भण देवाशुप्पिया! किं दलयामो सुकं, तते णं से दत्ते अभिंतरद्वाणिज्जे पुरिसे एवं बयासी एवं चेच णं देवाणु| प्पिया! मम सुकं जनं बेसमणे राया मम दारियानिमित्तेणं अणुगिण्हति, ते ठाणेजपुरिसे विपुलेणं पुप्फव| स्थगंधमल्लालंकारेणं सकारेति २ पडिविसज्जेति तते णं ते ठाणिजपुरिसा जेणेव बेसमणे राया तेणेव उवाग१ 'जइवि [य] सा सयं रज्जसुकत्ति यद्यपि सा स्वकीयराज्यशुल्का-स्वकीयराज्यलभ्येत्यर्थः । २ 'जुत्तं वत्ति सङ्गवं पत्तं | वत्ति पात्रं वा 'सलाहणिज्जं वत्ति लाध्यमिदं 'सरिसो वत्ति उचितसंयोगो वधूवरयोः । For Parts Only war •••• अत्र मूल संपादने सूत्र - क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, [ मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पडा है। ~ 115~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [९] ----------- --------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक RSSC+ACK सू०३१ विपाके गच्छति र सा वेसमणस्स रन्नो एयमढे निवेदेति, तते णं से दत्ते गाहावती अन्नया कयावि सोभणसि तिहिकरण-| Deदेवदत्ता. श्रुत०१ दिवसनक्खत्तमुहुत्तंसि विपुलं असणं ४ उवक्खडावेइ २त्ता मित्तनाति० आमंतेति हाते जाव पायच्छित्ते श्यामायाः सुहासणवरगते तेणं मित्त सद्धिं संपरिबुडे तं विउलं असणं ४ आसाएमाणा ४ विहरति जिमियभुत्तु- सपत्नीनां ॥८५॥ सरागया. आयंते ३ तं मित्तनाइनियग० विउलगंधपुष्फजावअलंकारेणं सकारेति स०२ देवदत्तं दारिय| मृतिःश्वपहायं विभूसियसरीरं पुरिससहस्सवाहिणीयं सीयं दुरूहति २ सुबहुमित्त जाव सद्धिं संपरिबुडा सव्वइ-18 श्वामारणं हीए जाब नाइयरवेणं रोहीडं नगरं मझमज्झेणं जेणेव वेसमणरपणो गिहे जेणेव वेसमणे राया तेणेव उवागच्छंति २त्ता करयल जाव वद्धाति २त्ता वेसमणस्स रन्नो देवदत्तं भारियं उवणेति, तते णं से वेसमणे | राया देवदत्तं दारियं उवणियं पासति उचणियं पासित्ता हतुट्ठ० विउलं असणं ४ उबक्खडावेति २ मित्तनाति आमंतेति जाव सकारेति २ पूसणंदिकुमारं देवदत्तं च दारियं पट्टयं दुरूहेति २त्ता सियापीतेहिं कलसेहिं मज्जावेति २सा वरनेवस्थाई करेति २त्ता अग्गिहोमं करेति पूसणंदीकुमारिं देवदत्ताए दारियाते १ 'आयते'त्ति आचान्तो जलग्रहणात् 'चोक्खे'त्ति चोक्षः सिक्थलेपाद्यपनयनात्, किमुक्तं भवति ?–'परमसुईभूए'त्ति असन्तं शुचीभूत इति । २ 'हाय' यावत्करणादिदं दृश्य-कयबालिकम कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सन्यालंकारे'त्ति । ३ 'सुबहु मित्त'18In इत्यत्र यावत्करणात् 'णियगसयणसंबंधिपरिजणेण'त्ति दृश्यम् । ३१ दीप अनुक्रम [३३] ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू०३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, [मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~116~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [९] ----------- --------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक +6555504545945-455 है पाणिं गिहाति, तते णं से वेसमणे राया पूसनंदिकुमारस्स देवदत्तं दारियं सब्वइड्डीए जाव रवेणं महया इडीसकारसमुदएणं पाणिग्गहणं कारेति देवदत्ताए दारियाए अम्मापियरो मित्त जाव परियणं च विउलेण अ-| सण ४ वत्थगंधमल्लालंकारेण य सकारेति सम्माणेति जाव पडिविसनेति, तए णं से पूसनंदीकुमारे देवदत्ताए सद्धिं उप्पि पासाय० फुद्देहिं मुइंगमत्थेहिं बत्तीसं० उवगिज जाब विहरति, तते णं से वेसमणे राया अन्नया कयाई कालधम्मुणा संजुत्ते नीहरणं जाव राया जाते, तए णं से पूसनंदी राया सिरी देवीए मायभत्तिते १'सब्विहिए' इत्यत्र यावत्करणादियं दृश्य'सबजुईए' सर्वात्या-आभरणादिसम्बन्धिन्या सर्वयुक्त्या वा उचितेषु वस्तुघटना| लक्षणया सर्वचलेन--सर्वसैन्येन सर्वसमुदायेन-पौरादिमीलनेन सर्वादरेण-सर्वोचितकृत्यकरणरूपेण 'सबविभूईए' सर्वसम्पदा 'सव्वविभूसाए' समस्तशोभया 'सव्वसंभमेणं' प्रमोदकृतौत्सुक्येन 'सबपुष्फगंधमलालंकारेण सन्चतूरसहसंनिनाएण' सर्वतूर्य-18 शब्दानां मीलने यः संगतो नितरी नादो-महान घोषस्तेनेत्यर्थः, अल्पेष्वपि ख्यादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिष्टा मत आह-'महता इड्डीए। | महता जुईए महता चलेणं महता समुदएणं महता वरतुरियजमगसमगपवाइएणं' 'जमगसमग'त्ति युगपत् , एतदेव विशेषेणाह--- खपणयपाहभेरिझलरिखरमुहिहुडुकमुरखमुइंगदुंदुहिनिम्मोसनाइयरवेणं तत्र शङ्खादीनां नितरां घोषो निघोंषो-महाप्रयत्नोत्पादितः शब्दः नादितं-वनिमात्र एतद्वयलक्षणो यो रवः स तथा तेनेति । २ 'सेयापीएहिं ति रजतसुवर्णमरित्यर्थः। ३ 'सिरीए देवीए । मायाभत्ते यावि हुत्थति श्रिया देव्या मातेतिबहुमानबुवा भक्तो मातृभक्तश्चाप्यभून , दीप अनुक्रम [३३] ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू०३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [९] ----------- --------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ३१ विपाके यावि होत्था, कल्लोकल्लिं जेणेव सिरी देवी तेणेव उवागच्छति २त्ता सिरीए देवीए पायवडणं करेति सय-18९ देवदचा. श्रुत०१ पागसहस्सपागेहिं तेल्लेहिं अग्भिगावेति अहिमुहाते मंस. तया०चम्मसुहाए रोमसुहाए चोग्विहाए संवा-6 श्यामायाः Pाहणाए संवाहावेति सुरभिणा गंधव(एणं उवद्यावेति तिहिं उदएहिं मज्जावेति तंजहाउसिणोदएणं सी-13I ॥८६॥ ओदएणं गंधोदएणं, विउलं असणं ४ भोयावेति सिरीए देवीए ण्हाताए जाव पायच्छित्साए जिमियभुत्तु-18 मृतिः श्वदसरागयाए तते णं पच्छा पहाति वा भुंजति वा उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरति । त श्वामारणं तते णं तीसे देवदत्ताए देवीए अन्नया कयाइ पुब्वरत्ताचरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीइ इमे-1 सू० ३१ यारूवे अब्भत्थिए ५ समुप्पन्ने-एवं खलु पूसनंदी राया सिरीए देवीए माइभत्ते जाव विहरति तं एएणं | है वक्खेवेणं नो संचाएमि अहं पूसनंदीणा रण्णा सद्धिं उरालाई०Qजमाणीए विहरित्तए तं सेयं खलु मम सि-IF शरीदेवीं अग्गिपओगेण सस्थविस मंतप्पओगेण वा जीवियाओ ववरोवेत्तए २ पूसनंदिरन्ना सद्धिं उरालाई |भोगभोगाई भुंजमाणीए विहरित्तए, एवं संपेहेई २त्ता सिरीए देवीए अंतराणि य३ पडिजागरमाणी] १ 'कलाकलिंति प्रातः प्रातः । २ गंधवट्टएणति गन्धचूर्णेन । ३ 'जिमियभुत्तुत्तरागयाए'त्ति जेमिनायां-कृतभोजनायां तघा मुक्त्त्वोत्तरमागतायां स्वस्थानमिति भावार्थः, उदारान-मनोज्ञान् भोगान् भुखानो विहरति । ४ 'पुन्बरतावरत्तेति पूर्वरात्रापर रात्रकालसमथे, रात्रेः पूर्वभागे पश्चाद्भागे वेत्यर्थः । दीप अनुक्रम ८६ [३३] RELIGunintentiaTATE ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू०३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३३] भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [९] मूलं [३१] श्रुतस्कंध : [१], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः | विहरति, तते णं सा सिरीदेवी अन्नया कयाचि मज्जाइया विरहियस्यणिज्वंसि सुहपसत्ता जाया यावि होत्था, इमं च णं देवदप्ता देवी जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छति २ सा सिरीदेवीं मज्जाइयं विरहितसयणिसि सुहृपसुतं पासति २ दिसालोयं करेति २ जेणेव भत्तघरे तेणेव उबागच्छति २ ता लोहदंडं पेशमुसति २ लोहदंडं तावेति तत्तं समजोइभूयं फुल्लकिंसुयसमाणं संडासपूर्ण गहाय जेणेव सिरीदेवी | तेणेव उबागच्छति २ त्ता सिरीए देवीए अवाणंसि पक्खिवेति, तते णं सा सिरीदेवी महया २ सद्देणं आरसित्ता कालधम्णा संजुत्ता, तते णं तीसे सिरीए देवीए दासचेडीओ आरसिपसद्दे सोचा नि| सम्म जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छति देवदत्तं देवीं ततो अवकममाणिं पासंति २ जेणेव सिरीदेवी तेणेव उवागच्छति सिरीदेव निप्पाणं निचिट्ठ जीविधविप्पजढं पासति २ हा हा अहो अकज्जमितिकट्टु | रोयमा० कंदमा० विलव० जेणेव प्रसनंदी राया तेणेव उवागच्छति २ ता पूसनंदी रायं एवं वयासी एवं खलु सामी ! सिरीदेवी देवदत्ताए देवीए अकाले चेव जीबियाओ ववशेविया, तते णं से प्रसनंदी राया तासिं दासचेडीणं अंतिए एयमहं सोचा निसम्म महया मातिसोएणं अप्फुण्णे समाणे परसुनियत्तेविव १ 'मज्जाइय'ति पीतमया, 'विरहियसयणिज्जंसि'त्ति विरहिते विजनस्थाने शयनीयं तत्र २ 'परामुसइति गृह्णाति । ३ ' समजोइभूयं 'ति समः - तुल्यो ज्योतिषा-अग्निना भूतो जातो यः स तथा तम् । ४ 'रोयमाणीओ'ति अनुविमोचनात् | इहान्यदपि पदद्वयमध्येयं तद्यथा— 'कंदमाणीओ' आक्रन्दशब्दं कुर्वत्यः 'विठत्रमाणीओ'ति विलापान कुर्बत्यः । ForParsala Lise Only ••• अत्र मूल संपादने सूत्र क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते यत् सू० ३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, [मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है| इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पडा है। ~ 119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [९] ----------- --------- मूलं [३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: श्रुत १ प्रत सूत्रांक विपाके चंपगवरपायवे धसत्ति धरणीतलंसि सब्गेहिं सन्निपडिते, तते णं से पूसनंदी राया मुहत्ततरेण आसत्थे देवदत्ता . 1वीसत्थे समाणे बहहिं राईसर जाव सत्थवाहेहिं मित्तजाव परियणेण य सर्द्धि रोयमाणे ३ सिरीए देवीए म-15 |श्यामायाः हया इडीए नीहरणं करेति २त्ता आसुरुत्ते ४ देवदत्तं देविं पुरिसेहिं गिण्हावेति तेणं विहाणेणं वज्झं आण सपनीनां ॥८७॥ वेति, तं एवं खलु गोयमा! देवदत्ता देवी पुरापुराणाणं विहरति । देवदत्ता णं भंते! देवी इओ कालमासे | मृतिः श्व कालं किच्चा कहिं गमिहिति? कहिं उववजिहिति?, गोयमा! असीई वासाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे श्वामारणं है|कालं किच्चा इमीसे रपणप्पभाए पुढवीए रइयत्ताए उववन्ने संसारो वणस्सति, ततो अणंतरं उव्वहित्ता सू०३१ गंगपुरे नगरे हंसत्ताए पञ्चायाहिति, से णं तत्थ साउणितेहिं वधिए समाणे तस्येव गंगपुरे णगरे सेट्टिकुल. घोहिं सोहम्मे महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, णिक्खेवो (सू०३१) दुहविवागस्स नवमं अज्झयण-16 तिमि ॥९॥ ३१ दीप अनुक्रम [३३] १ 'आसुरुत्ते'त्ति आशु-शीघ्रं रुप्तः-कोपेन विमोहितः, इहान्यदपि पदचतुष्कं दृश्य, तद्यथा-'रुडे'त्ति उदितरोषः 'कुविए'त्ति प्रवृद्धकोपोदवः 'चंडकिए'त्ति प्रकटितरौद्ररूपः, 'मिसिमिसिमाणे'त्ति कोपामिना दीप्यमान इव ॥ देवदत्तायाः |नवमाध्ययनस्य विवरणं ॥ ९॥ ... अत्र मूल संपादने सूत्र-क्रमांकने एका स्खलना दृश्यते- यत् सू०३० स्थाने सू० ३१ इति क्रम मुद्रितं, [मूल संपादनमें भूलसे सूत्र का क्रम ३० के बजाय ३१ छप गया है। इसिलिए हमे भी सूत्रक्रम- ३१ लिखना पड़ा है। अत्र नवमं अध्ययनं परिसमाप्तं ~120~ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१०] ----------- ---------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: अथ दशममुम्बरदत्ताख्यमध्ययनम् । प्रत सूत्रांक [३२] अथ दशमे किञ्चिलिख्यते जति णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं दसमस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं पूवद्धमाणपुरे णाम णगरे होत्या, विजयवद्धमाणे उजाणे माणिभद्दे जक्खे विजयमित्ते राया, तत्थ णं धणदेवे नाम सत्यवाहे होत्था अढ०, पियंगुनामभारिया अंजू दारिया जाव सरीरा, समोसरणं परिसा जाच पडि गया, तेणं कालेणं तेणं समएणं जेडे जाव अडमाणे जाब विजयमित्तस्स रन्नो गिहस्स असोगवणियाए अट्र दूरसामंतेणं वितिवयमाणे पासति एग इस्थियं सुकं भुक्खं निम्मंसं किडकिडीभूयं अहिचम्मावण नीलसाडगनियत्थं कट्ठाई कलुणाई विसराई कूवमाणं पासति २ चिंता लहेव जाव एवं वयासी-सा गं भंते! इत्थिया पुन्वभवे के आसि?, वागरणं, एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे इंदपुरे णाम णगरे होस्था, तत्व णं इंददत्ते राया पुढवीसिरी नामं गणिया होत्था व-& पणओ, तते णं सा पुढवीसिरी गणिया इंदपुरे णगरे बहवे राईसर जावप्पभियओ बहूहि चुन्नप्पओगेहि |य जाव आभिओगेत्ता उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई मुंजमाणा विहरति, सते णं सा पुढबीसिरी दीप अनुक्रम CAKACING [३४] अथ दशमं अध्ययनं "अंजू" आरभ्यते ...अत्र शीर्षकस्थाने अध्ययनस्य नाम्न: विषये कश्चित् स्खलना संभाव्यते- यत् “अंजू स्थाने 'उम्बरदत्त' इति मुद्रितं ~121 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ---------------------- अध्ययन [१०] ----------------------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] विपाके गणिया एयकम्मा ४ सुबहुं समजिणित्ता पणतीसं वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किचा श्रुत०१६ छट्ठीए पुढवीए उक्कोसेणं णेरइयत्ताए उववन्ना, साणं तओ अणंतरं उव्वहित्ता इहेव वद्धमाणपुरे णगरे धण- देव्य. देवस्स सत्थवाहस्स पियंगुभारियाते कुञ्छिसि दारियत्ताए उववन्ना, तते णं सा पियंगुभारिया णवण्हं मा- पूर्वपश्चा॥८८|| साणं दारियं पयाया, नाम अंजूसिरी, सेसं जहा देवदत्ताए । तते णं से विजए राया आसवाह जहावाः वेसमणदत्से तहा अंजू पासइ णवरं अप्पणो अट्ठाए वरेति जहा तेतली जाव अंजूए दारियाते सद्धिं उप्पि81 जाव विहरति, तते णं तीसे अंजूते देवीते अन्नया कयावि जोणिसूले पाउन्भूते यावि होत्था, तते णं विजये। राया कोडंबियपुरिसे सहावेति २ एवं वपासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया! बद्धमाणे पुरे णगरे सिंघाडग जाव एवं वदह-एवं खलु देवाणुप्पिया! विजय० अंजूए देवीए जोणिसूले पाउन्भूते जो णं इत्थ विजो था ६ जाच 6 उग्धोसेंति, तते णं ते बहवे विज्जा वा ६इम एपारूवं सोचा निसम्म जेणेव विजए राया तेणेव उवागच्छंति रत्ता अंजूते बहवे उप्पत्तियाहिं ४ परिणामेमाणा इच्छंति अंजूते देवीए जोणिसूलं उचसामित्तते, नो संचाएंति उवसामित्तए, तते णं ते यहवे विजा य ६ जाहे नो संचाएंति अंजूदेवि० जोणिसूल उवसामित्तते १'जहा तेयलि'त्ति ज्ञाताधर्मकथायां यथा तेतलिसुतनामा अमात्यः पोट्टिलामिधानां कलादमूषिकारश्रेष्ठिसुतामात्मार्थ याच-13 यित्वा आत्मनैव परिणीतवान् एवमयमपीति । SACRA दीप अनुक्रम DIG८८॥ [३४] ~122~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ “विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [१], ----------------------- अध्ययनं [१०] ----------- ---------- मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] 4- 25% ताहे संता तंता परितंता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया, तते णं सा अंजूदेवी ताए धेयणाए अभिभूता समाणा सुका मुक्खा निम्मंसा कट्ठाई कलुणाई विसराई विलचति, एवं खलु गोयमा अंजूदेवी पुरापोराणाणं जाब विहरति । अंजू णं भंते! देवी इओ कालमासे कालं किचा कहिं गच्छि. हिति? कहिं उघवजिहिति?, गोयमा ! अंजू णं देवी नउई वासाई परमाउयं पालित्ता कालमासे कालं किया कादमीसे रयणप्पभाए पुढबीए नेरइयत्ताए उववजिहिद, एवं संसारो जहा पढमे तहा नेयब्वं जाव वणस्सति० साणं ततो अणंतरं उच्चहिता सव्वतोभद्दे नगरे मयूरत्ताए पचायाहिति, से णं तत्थ साउणिएहिं वधिए समाणे तत्थेव सव्वतोभहे नगरे सेहिकुलंसि पुत्तत्ताए पचायाहिति, से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे तहारूवाणं राणं केवलं बोहिं बुझिहिति पव्वजा सोहम्मे, से णं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं कहिं गच्छिहिति? कहिं उवधजिहिति?, गोयमा महाविदेहे जहा पढमे जाव सिज्झिहिइ जाव अंतं काहिति । एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, सेवं भंते २।(सू०३२) दुहविवागो दससु अज्झयणेसु ॥ पदमो सुयक्खंधो सम्मत्तो ॥१॥ ॥ अजूसार्थवाहसुतायाः यशमाध्ययनस विवरणम् ॥ १० ॥ तत्समाप्तौ च समाप्त प्रथमचतस्कन्धविवरण मिति ॥ १॥ दीप अनुक्रम [३४] अनु.१७ wwwsaneirary.org अत्र दशमं अध्ययनं परिसमाप्तं तत् परिसमाप्ते प्रथम-श्रुतस्कन्ध: अपि परिसमाप्त: ~123~ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------- --------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: १सुबाह विपाके श्रुत०२ ध्ययन सू०३३ ॥ ९ ॥ प्रत सूत्रांक CocketNCREASEC4 C + [३३] अथ बीयसुयक्खंधो। अथ द्वितीयश्रुतस्कन्धस्य प्रथमाध्ययने किञ्चिल्लिख्यते तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णगरे गुणसिले चेइए सोहम्मे समोसढे जंबू जाव पलूवासमाणे एवं वयासी-जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं अयमढे पण्णत्ते सुहविवागाणं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नते?, तते णं से सोहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी-एवं खलु जंबू। समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तंजहा-सुबाहू१ भद्दनंदी २ य, सुजाए य ३ सुवासवे ४। तहेव जिणंदासे ५, धणपती य ६ महब्बले ७॥१॥ भहनंदी ८ महाचंदे ९ वरदत्ते १० जति णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स सुहविवागाणं जाव संपत्तेणं के अट्टे पण्णते?, तते णं से सुहम्मे अणगारे जंबू अणगारं एवं वयासी -एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समा हत्थीसीसे नाम णगरे होत्था रिद्ध०तस्स णं हस्थिसीसस्स नगरस्स पहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं पुष्फकरंडए णामं उजाणे होत्था सब्बोउय०, तत्व णं कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था दिवे, तत्थ णं हस्थिसीसे णगरे अदीणसत्तू णामं राया होत्था १ 'सव्वोउयत्ति इदमेवं दृश्यं—'सम्बोउयपुप्फफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासाईए ४'। दीप अनुक्रम [३५-३७] अत्र द्वितीय-श्रुतस्कंध: आरब्ध: अथ प्रथमं अध्ययनं “सुबाहु" आरभ्यते ~124~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------- --------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] महता०, तस्स अदीणसत्तुस्स रनो धारणीपामोक्खा देवीसहस्सं ओरोहे यावि होत्या, तते णं साधारणी देवी अन्नया कयाइ तसिं तारिसगंसि वासघरंसि सीहं सुमिणे पासति जहा मेहस्स जम्मणं तहा भाणियब्व जाव सुबाहुकुमारे अलं भोगसमत्धं चा जाणंति, अम्मापियरो पंच पासायवर्डिसगसयाई करावेति अम्भुग्गय भवणं एवं जहा महाबलस्स रनो गवरं पुष्फचूलापामोक्खाणं पंचण्डं रायवरकन्नयसपाणं एगदि १'तंसि तारिसगंसि वासभवणंसी ति तस्मिन् तादृशे-राजलोकोचिते वासगृहे इत्यर्थः। २'जहा मेघस्स जम्मणं' ति ज्ञाताधर्मकथायां प्रथमाध्ययने यथा मेघकुमारस्य जन्मवक्तव्यतोक्ता एवमत्रापि सा वाच्येति, नवरमकालमेघदोहदवक्तव्यता नासीह । 'सुबाहुकुमार' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-बावत्तरीकलापंडिए नवंगसुत्तपडिबोहिए' नवाजानि-श्रोत्र २ चक्षु ४ र्माण ६ रसना - स्वर ८ मनो ९ लक्षणानि सन्ति सुप्तानि प्रतिबोधितानि यौवनेन यस्य स तथा, 'अट्ठारसदेसीभासाविसारए' इत्यादि जाव अलं भोगसमस्ये जाए यावि हुत्या, तए णं तस्स सुबाहुस्स अम्मामियरो सुबाई कुमारं वायत्तरीकलापंडियं जाव अलं भोगसमत्थं साहसियं वियालचारिं जाणति जाणित्ता पश्च प्रासादावतंसकशतानि कारयन्ति, किंभूतानि ? इत्याह-अभुग्गय'त्ति 'अन्भुग्गयमूसियपहसिए' इत्यादि, 'भवर्णति एकं च भवनं कारयंति, अथ प्रासादभवनयोः कः प्रतिविशेषः १, उच्यते, प्रासादः स्वगतायामापेक्षया द्विगुणोच्ट्रयः भवनं त्वायामापेक्षया पादौनसमुच्छ्रयमेवेति, इह च प्रासादा वधूनि मिचं भवनं च कुमाराय, 'एवं जहा महाबलस्स'त्ति भवनवर्णको विवाहवक्तव्यता च यथा भगवत्यां महाबलस्योक्ता एवमस्यापि वाच्या. केवलं तन्त्र कमल श्रीप्रमुखानामित्युक्तह पुष्पचूडाप्रमुखा-15 नामिति वाच्यम् , एतदेव दर्शयन्नाह-नवर'मित्यादि । दीप अनुक्रम [३५-३७] ~125~ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------- --------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] विपाके वसेणं पाणिं गिण्हावेंति, तहेव पंचसतिओ जाव उप्पिं पासायवरगते फुट जाव विहरति, तेणं कालेणं १ सुबाह्य तणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसढे परिसा निग्गया अदीणसत्तू जहा कोणिओ निग्गतोल सुबाहुवि जहा जमाली तहा रहेणं निग्गते जाव धम्मो कहिओ रायपरिसा गया, तते णं से सुचाहकुमारे सू०३३ ॥१०॥ १'तहेब'त्ति यथा महावलस्येत्यर्थः, 'पंचसइओ दाओ'त्ति पंचसयाई हिरनकोडीणं पंचसयाई सुवष्णकोडीणं' इत्यादि दानं वाच्यम् , इह यावत्करणादेवं दृश्य–'तए णं सुबाहुकुमारे एगमेगाए भारियाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयई' इत्यादि वाच्यं यावत् | 'अन्नं च विपुलं धणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालमाइयं दलयति, तए णं से सुबाहुकुमारे'त्ति, 'उप्पि पासायवरगए' प्रासादव- | रस्य उपरिस्थित इत्यर्थः, 'फुट्ट' इह यावत्करणादिदं दृश्य-'फुटमाणेहिं मुइंगमथएहि' स्फुटद्भिर्मदनमुखपुटैरतिरमसास्फालनादित्यर्थः, ₹वरतरुणीसंपउत्तेहिं'वरतरुणीसंप्रयुक्तैः 'बत्तीसइबद्धेहिं नाडएहिं' द्वात्रिंशद्भिर्भक्तिनिवद्धैः द्वात्रिंशत्पात्रनिबद्धैरिलान्ये 'उबगिज |माणे उवलालिजमाणे माणुस्सए कामभोगे पचणुरभवमाणे'त्ति, 'जहा कूणिए'त्ति यथा औपपातिके कोणिकराजो भगबन्दनाय | निर्गच्छन् वर्णित एवमयमपि वर्णयितव्य इति भावः । 'सुबाहूवि जहा जमालि तहा रहेण निग्गउत्ति, अयमर्थ:-येन भगवतीमें वर्णितप्रकारेण जमाली भगवद्भागिनेयो भगवद्वन्दनाय रथेन निर्गतोऽयमपि तेनैव प्रकारेण निर्गत इति, इह यावत्करणादिदं दृश्यं 'समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्ताइच्छचं पडागाइपडाग विजाचारणे जंभए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे य पासति पासिता रहाओ X ॥९ ॥ | पचोरुहाइ २ सा सगणं भगवं महावीरं बंदइ नमसइ बंदित्ता नमंसित्ता' दीप अनुक्रम [३५-३७] ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------- --------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] समणस्स भगवओ० अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हेहतुद्दे उहाए उहति जाव एवं वयासी-सदहामिण भंते। निग्गंध पावयणं जहा ण देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर जाव नो खलु अहणं देवाणुपियाणं अंतिए. पंचअणुव्यइयं सत्ससिक्खावइयं गिहिधम्म पडिवजामि, अहासुहं मा पडिबंधं करेह, तते णं से सुबाहू समणस्स०पंचाणुब्बइयं सत्रासिक्खावइयं गिहिधम्म पडिवजति २तमेव० दुरूहति जामेव० तेणं कालेणं तेणं स० जेठे अंतेवासी इंदभूई जाव एवं वयासी-अहो णं भंते ! सुबाहुकुमारे इहे इहरूवे कंते कंतरूवे पिए २ १हह'त्ति हद्वतुढे अतीव हृष्टः 'उटाए'त्ति उहाए उद्वेद, इह यावत्करणात् इदं दृश्य-'उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसह बंदित्ता नमंसित्ता 'सदहामि णं भंते! निग्गय इत्यादि यत्सूत्रपुस्तके दृश्यते तद्वक्ष्यमाणवाक्यानुसारेणावगन्तव्यं, तथाहि-सदहामिणं भंते ! निम्गंथं पावयणं पत्तियामि णं भंते ! निरगंथं पावयणं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसरतलवरमाढवियकोडुंबियसेडिसत्थबाहपहियओ मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पठवयंति नो खलु अहं तहा संचाएमि पन्नइत्तए, अहनं देवाणुपियाणं अंतिए पंचाणुवइवं सत्तसिक्स्थावयं गिहिधम्म पडिवजामि, अहामुहं देवाणुपिया ! मा पडिबंध करेह'त्ति भगवद्वचनं, 'तमेव' इदमेवं दृश्य'तमेव चाउग्घटं आसरह', 'जामेव' इत्यादि त्वेवं दृश्यं 'जामेव दिसं पाउन्भूते तामेव विसि पडिगए ति। 'इंदभूई' इत्यत्र यावत्करणात् 'नाम अणगारे गोयभगोतेण' मित्यादि दृश्य, 'इहे'त्ति इष्यते इतीष्टः स च तत्कृतविवक्षितकृत्यापेक्षयाऽपि स्थादित्याह-इष्टरूपः इष्टस्वरूप इत्यर्थः |इष्टः इष्टरूपो वा कारणवशादपि स्यात् इत्याह-कान्त:-कमनीयः कान्तरूप:-कमनीयस्वरूपः, शोभना शोभनखभाववेत्यर्थः, एवंविधः कश्चित् कर्मदोषात्परेषां प्रीति नोत्पादयेदित्यत आइ-प्रियः-प्रेमोत्पादकः प्रियरुपः-प्रीतकारिस्वरूपः, एवंविधश्च लोकरूढितोऽपि स्वादित्यत आह-मनोशः मनसा-अन्तःसंवेदनेन शोभनतया ज्ञायत इति मनोज्ञः, एवं मनोज्ञरूपः, एवंविधश्चैकदाऽपि स्वादित्यत आह दीप अनुक्रम [३५-३७] ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------- --------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: १सुबाहध्ययन प्रत सूत्रांक विपाके 18|मणुने २ मणामे २ सोमे २ सुभगे २ पियदसणे सुरूवे, बहुजणस्सवि य क भंते ! सुबाहुकुमारे इ ५ सोमे | श्रुत०२४ साहुजणस्सवि य णं भंते! सुबाहुकुमारे इहे इट्टरूवे ५ जाव सुरूवे सुवाहुणा भंते ! कुमारेणं ईमा एयारूवा उराला माणुस्सरिद्धी किन्ना लद्धा किण्णा पत्ता किण्णा अभिसमन्नागया के वा एस आसि पुब्बभवे?, एवं ॥९१॥ खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं सम० इहेच जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे हथिणाउरे णाम णगरे होत्था रिद्ध० तस्थ णं हथिणाउरे णगरे सुमुहे नाम गाहावई परिवसइ अहे, तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा १ 'मणामेति मनसा अभ्यते--गम्यते पुनः पुनः संस्मरणतो यः स मनोऽमः, एवं मनोऽमरूपः, एतदेव प्रपञ्चयन्नाह –'सोमेति अरौद्रः सुभगो-वल्लभः "पियर्दसणे'त्ति प्रेमजनकाकारः, किमुक्तं भवति? –'सुरूवे'त्ति शोभनाकारः सुखभावश्चेति, एवंविधश्चैकजनापेक्षयाऽपि स्थादित्यत आह-बहुजणस्सवी'यादि, एवंविधश्च प्राकृतजनापेक्षवाऽपि स्यादित्यत आह-'साहुजणसबी'यादि । २'इमा एयारुव'त्ति इयं प्रत्यक्षा एतद्भपा-उपलभ्यमानस्वरूपैव, अकृत्रिमेत्यर्थः 'किण्णा लद्धति केन हेतुनोपार्जिता, 'किन्ना पत्त'त्ति केन हेतुना प्राप्ता उपार्जिता सती प्राप्तिमुपगता, 'किण्णा अभिसमन्नागय'ति प्राप्ताऽपि सती केन हेतुना आमिमुख्येन साङ्गत्येन च उपार्जनस्य च पश्चाद्भोग्यतामुपगतेति । 'को वा एस आसि पुन्वभवे' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'किनामए वा किं वा गोएणं कयरसि वा गामंसि वा सन्निवेसंसि वा किं वा दचा किं वा भोचा किं वा समायरित्ता कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माणस्स है वा अंतिते एगमबि आयरियं सुवयणं सोचा निसम्म सुबाहुणा कुमारेण इमा एयारूवा उराला माणुस्सिड्डी लद्धा पत्ता अमिसमन्नागय'ति । 1-564545-45-1569 [३३] दीप अनुक्रम [३५-३७] ॥११॥ सुबाहुकुमारस्य पूर्वभव: -- "सुमुख" एवं सुमुखस्य धर्म-आराधना ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्ति:) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------- --------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] णामं घेरा जातिसंपन्ना जाव पंचहि समणसएहिं सद्धिं संपरिबुडा पुब्वाणुपुचि चरमाणा गामाणुगाम दहजमाणा जेणेव हस्थिणाउरे णगरे जेणेव सहसंबवणे उजाणे तेणेव उवागच्छह २सा अहापडिरूवं उग्गह। उरिगण्डिताणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरन्ति, तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसाणं थे राणं अंतेवासी सुदत्ते णाम अणगारे उराले जाव लस्से मासंमासेणं खममाणे विहरति, तसे सुदत्ते अणजगारे मासक्खमणपारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेतिजहा गोयमसामी तहेव धम्मघोसे (सुधम्मे) धेरे |आपुच्छति जाव अडमाणे सुमुहस्स गाहावतिस्स गेहे अणुप्पविटे, तए णं से सुमुहे गाहावती सुदत्तं अणगारं एजमाणं पासति २त्ता हहतुट्टे आसणातो अब्भुट्टेति २ पायपीढाओ पञ्चोकहति २ पाउयातो ओमु. यति २ एगसाडियं उत्तरासंगं करेति २ सुदत्तं अणगारं सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छति २त्ता तिक्खुत्तो आया-16 हिणपयाहिणं करेइ २त्ता बंदति णमंसति २ जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छति २त्ता सयहत्थेणं विउलेणं १ 'जाइसंपन्ना' इह यावत्करणादिदं दृश्य-'कुलसंपन्ना वलसंपन्ना, एवं विणयणाणदसणचरित्तलजालाघवसंपन्ना ओवंसी है तेयसी वच्चंसी जसंसी'त्यादि । 'दुइजति गामाणुगाम दूइज्जमाणा' इति दृश्य, द्रवन्तो-च्छन्त इत्यर्थः । २ 'जहा गोयमसामी'ति द्वितीयाध्ययचे दर्शितगौतमस्वामिमिक्षाचर्यान्यायेनायमपि मिक्षाटनसामाचारी प्रयुझे इत्यर्थः । ३ 'सुहम्मे थेरेति धर्मघोषस्थविरानित्यर्थः, धर्मशब्दसाम्याच्छब्दद्ववस्वाप्येकार्थत्वात् , दीप अनुक्रम [३५-३७] RECAKACED ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------- --------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] विपाके असणपाणेणं ४ पंडिलाभेस्सामीति तुडे, तते णं तस्स सुमुहस्स गाहावइस्स तेणं दृव्वसुदेणं [दायगसुद्धेणं सुबाह्यश्रुत०२४ पडिगाहगसुद्धेणं] तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं सुदत्ते अणगारे पडिलाभिए समाणे संसारे परित्तीकते मणुस्साउते द्रा ध्ययन निवढे गेहंसि य से इमाई पंच दिब्वाई पाउन्भूयाई तं-वसुहारा बुट्ठा दसद्धबन्ने कुसुमे निवातिते चेलुक्खेवेसू. ३३ ॥९२॥ कए आयाओ देवदुंदुहीओ अंतरावि य णं आकासे अहो दानमहो दानं घुढे य हथिणाउरे सिंघाडग |जाव पहेसु बहुजणो अन्नमनस्स एवं आइक्खति ४-धपणे णं देवाणुप्पिए! सुमुहे गाहावई ५ [सुकयपुन्ने, १'पडिलाभिस्सामीति तुडे' इहेदं द्रष्टव्यं –पडिलामेमाणेवि तुढे पडिलामिएवि तुढे त्ति । 'तस्स सुहम्म(मुह)स्स'त्ति विभ|क्तिपरिणामात् 'तेन मुहुमे(मुहे)ने ति द्रष्टव्यं, तेनेति अशनादिदानेन, 'दव्यसुद्धेणं'ति द्रव्यतः शुद्धेन प्राशुकादिनेत्यर्थः, इहान्यपि |गाहगसुद्धेणं दायगसुबेण'ति दृश्य, तत्र पाहकशुद्धं यत्र ग्रहीता चारित्रगुणयुक्तः दावकशुलं तु या दाता औदार्याविगुणान्वितः, अत एवाह-'तिविहेण ति उक्तलक्षणप्रकारत्रययुक्तेनेति 'तिकरणसुद्धेणं ति मनोवाकायलक्षणकरणत्रयस्य वायकसम्बन्धिनो विशुद्धतयेइत्यर्थः, 'एवं आइक्खइति सामान्येनाचष्टे, इह चान्यदपि पदत्रयं द्रष्टव्यम् 'एवं भासइत्ति विशेषत आचष्टे 'एवं पन्नवेति एवं परू बेति' एतच पूर्वोक्तरूपपदवयस्यैव क्रमेण व्याख्यापनार्थ पदद्वयमवगन्तव्यम् , अथवा आरूवातीति तथैव भावते तु व्यक्तवचनैः प्रज्ञापयतीति युक्तिनिर्बोधयति प्ररूपयति तु भेदतः कथयतीति । २'धन्ने णं देवाणुप्पिया! सुहुमे(मुहे)गाहावई' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्य'पुझे णं देवाणुप्पिया ! सुमुहे गाहाबई एवं कयत्थे णं कयलक्खणे णं सुद्धे णं सुहुमस्स (मुहस्स)गाहावइस्स जम्मजीवियफले जरस णं इमा एयारूवा उराला माणुस्सद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागय'त्ति तं धन्ने णं देवाणुप्पिया! सुहुमे गाहावई एवं कयत्थे ' इत्यादि पूर्वप्रदर्शितमेवेह पदपञ्चकं निगमनवयाऽबसेयम् । SACROCES दीप अनुक्रम [३५-३७] ~130-~ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------- --------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] कयलक्खणे मुलद्धे पां मणुस्सजम्मे सुकयस्थ ] जाव तं धन्ने णं देवाणुप्पिया सुमुहे गाहावई । तते णं से सुमुहे गाहाबई पहुई वाससताई आउयं पालइत्ता कालमासे कालं किया इहेच हथिसीसे गरे अदीण-12 सत्तुस्स रन्नो धारणीए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने, तते णं सा धारणी देवी सयणिजंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी २ तहेव सीहं पासति सेसं तं चेव जाव उपि पासाए विहरति, तं एयं खलु गोयमा! सुवा-k हुणा इमा एयारूवा माणुस्सरिद्धी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, पभू णं भंते! सुबाहुकुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए?, हंता पभू, तते णं से भगवं गोयमे समणं भगवंडू वंदति नमसति २ संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरति, तते णं से समणे भगवं महावीरे अन्नया |कयाइ हत्धिसीसाओणगराओ पुष्फगउजाणाओ कयवणमालजक्खापयणाओ पडिणिक्खमति २त्ता बहिया ४जणवयविहारं विहरति, तते णं से सुबाहुकुमारे समणोवासए जाते अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलामेमाणे |विहरति । तते णं से सुबाहुकुमारे अन्नया कयाई चाउद्दसमुदिपुण्णमासिणीसु जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छति २त्ता पोसहसालं पमजति २सा उच्चारपासवणभूमि पडिलेहति २त्ता दग्भसंधारगं संघरति| २ दम्भसंथारं दुरूहइ दुरूहित्ता अट्टमभत्तं पगिण्हइ पगिण्हेत्ता पोसहसालाए पोसहिते अट्ठमभत्तिए पोसहं 'अभिगयजीवाजीवे' इद्द यावत्करणात् 'उचलद्धपुन्नपावे इत्यादिकम् 'अहापडिग्गहिएहि बोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणे | विहरई' एतदन्तं दृश्यम् । २'चाउद्दसमुद्दिपुषणमासिणीसुत्ति अत्रोद्दिष्टा-अमावास्या । दीप अनुक्रम [३५-३७] ACCOCOCCAL ~131~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ---------------------- अध्ययनं [१] ----------------------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३३] विपाके पडिजागरमाणे विहरति, तए णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स पुब्बरतावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं , १ सुबाहुश्रुत०२ जागरमाणस्स इमेयारूवे अभत्थिए ५ घण्णा णं ते गामागरणगरजाव सन्निसा जत्थ णं समणे भगवंध्ययनं महावीरे जाव विहरति, धन्ना गं ते राईसरतलवर जे णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडा जाव सू० ३३ ॥१३॥ पब्वयंति, धना णं ते राईसरतलवर जे णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुब्वइयं जाव गिहिदधम्म पडिवजंति, धन्ना गं ते राईसर जाव जे णं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सुणेति, तर जति णं समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुचि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे इहमागच्छिना जाव विहरिजा तते णं अहं समणस्स भगवतो अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पब्वएजा, तते णं समणे भगवं महावीरे। सुबाहुस्स कुमारस्स इमं एयारूवं अज्झस्थिर्य जाव वियाणित्ता पुब्बाणुपुर्दिब जाव दूइजमाणे जेणेव हस्थि-121 सीसे णगरे जेणेव पुप्फगउजाणे जेणेव कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छह उवाग/च्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं गिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति परिसा राया निग्गया। | १'गामागर' इह यावत्करणात् 'नगरकब्बडमडंबखेडदोणमुहपट्टणनिगमआसमसंवाहसन्निवेसा' इति दृश्यम् । २ 'राईसर' इहैवं दृश्य-राईसरतलवरमाडंबियकोढुंबियसेडिसत्यवाहपभियओत्ति । ३ 'मुंडा' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-भवित्ता अगाराओ ॥९३ अणगारिय'ति । ४'पुवाणुपुचि' इह यावत्करणादिदं दृश्य-परमाणे गामाणुगामति । +BACCASTACTREAK दीप अनुक्रम [३५-३७] ला ~132~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------- --------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: MAN प्रत सूत्रांक [३३] तते णं तस्स सुवाहुयस्स कुमार०तं महया जहा पढमं तहा निग्गओ धम्मो कहिओ परिसा राया पडिगया. तते णं से सुबाहुकुमारे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म हतुट्ट जहा मेहे तहा अम्मापियरो आपुच्छति णिक्खमणाभिसेयो तहेव जाव अणगारे जाते ईरियोसमिए जाव बंभयारी, तते गं से सुबाहु अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्याई एक्कारस अं-12 गाई अहिज्वति २बहूहिं चउत्थछट्ठहम० तवोविहाणेहिं अप्पाणं भाविता बहूई वासाई सामनपरियागं पाउ|णित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदित्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते ६ कालमासे कालं किचा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, से णं ततो देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं |ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लभिहिद २ केवलं बोहिं बुज्झिहिति २ तहारूवाणं घेराणं | १'जहा पढमति यहवाध्ययने प्रथमं जमालीनिदर्शनेन निर्गतोऽयमुक्तस्तथा द्वितीयनिर्गमेऽयं नगराद्विनिर्गत इति वाच्यम् , | उभवत्र समानो वर्णकग्रन्थ इति भावः। २ 'ईरियासमिए' इत्यत्र यावत्करणाविदं दृश्य-भासासमिए ४ एवं मणगुत्ते ३ गुत्तिदिए | गुत्तत्ति-गुतवंभयारी । ३ 'आउक्खएणति आयुःकर्मद्रव्यनिर्जरणेन 'भवक्खएण'ति देवगतिवन्धनदेवगत्यादिकर्मद्रव्यनिर्जरणेन | 'ठिइक्खएणं'ति आयुष्काविक थितिविगमेन 'भणंतरं चयं चइस'त्ति देवसम्बन्धिनं देहं त्यक्त्वेत्यर्थः, अथवाऽनन्तरं-आयुःक्षया-1 धनन्तरं च्यवनं 'चइत्त'त्ति च्युत्वा । दीप अनुक्रम [३५-३७] ~133~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [१] ----------- --------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके श्रुत०२ ॥ ९४॥ MAKAL प्रत सूत्रांक [३३] अंतिए मुंडे जाव पब्वइस्सति, से णं तस्थ बहूई वासाई सामण्णं पाउणिहिइ आलोइयपडिकते समाहिर भद्रनकालगते सणंकुमारे कप्पे देवत्ताए उववन्ने, से णं ताओ देवलोयाओ ततो माणुस्सं पवना बंभलोए माणुस्संन्द्याद्यध्य. ततो महासुक्के ततो माणुस्सं आणते देवे ततो माणुस्सं ततो आरणे देवे ततो माणुस्सं सचट्ठसिद्धे, से णं ततो सू० ३४ अणंतरं उध्वहित्ता महाविदेहे वासे जाव अट्ठाई जहा दृढपइन्ने सिजिनहिति, एवं खलु जं! समणेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते (सू०३३)॥ इति पढम अज्झयणं सम्मत्तं ॥१॥ वितियस्स णं उक्खेवो-एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं उसभपुरे णगरे थूभकरंडउजाणे धन्नो जक्खो धणावहो राया सरस्सई देवी सुमिणदंसणं कहणं जम्मणं चालत्तणं कलाओ य जुब्बणे पाणिग्गहणं दाओ पासाद० भोगा य जहा सुबाहुयस्स नवरं भद्दनंदी कुमारे सिरिदेवीपामोक्खाणं पंचसया सामीसदामोसरणं सावगधम्म पुब्बभवपुच्छा महाविदेहे वासे पुंडरीकिणी णगरी विजयते कुमारे जुगवाहू तिस्थयरे पडिलाभिए माणुस्साउए निबद्धे इहं उप्पन्ने सेसं जहा सुबाहुयस्स जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति वुज्झिहिति मुचिहिति परिनिव्वाहिति सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति ॥ वितिघं अज्झयणं सम्मत्तं ॥२॥ तबस्स १'महाविदेहे' इह यावत्करणात् 'वासे जाई इमाई कुलाई भवंति-अडाई दित्ताई अपरिभूयाई इत्यादि दृश्यमिति ॥ द्वितीयश्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययनस्य विवरणं सुबाहोः राजः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [३५-३७] अत्र प्रथमं अध्ययनं परिसमाप्तं अथ द्वितियम् अध्ययनं “भद्रनन्दी" आरब्ध: एवं परिसमाप्त: ~134~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कं ध: [२], ----------------------- अध्य यनं [२-१०] ----------------------- मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] 5ॐॐॐॐॐ उक्खेवो, वीरपुरं णगरं मणोरम उजाणं वीरकण्हमित्ते राया सिरी देवी सुजाए कुमारे वलसिरीपामोक्खा पंच-1 सयकन्ना सामीसमोसरणं पुब्बभवपुच्छा उसुयारे नयरे उसभदत्ते गाहावई पुष्फदत्ते अणगारे पडिलाभेमगुस्साउए निबद्धे इह उप्पन्ने जाच महाविदेहे वासे सिज्झिहिति ॥ सुहविवागे तइयं अज्झयणं सम्मत्तं ॥३॥ चोत्यस्स उक्खेवो-विजयपुरं णगरं गंदणवणं [मणोरमं] उजाणं असोगो जक्खो वासवदत्ते राया कण्हा देवी सुवासवे कुमारे भद्दापामोक्खाणं पंचसया जाव पुन्वभवे कोसंबी णगरी धणपाले राया बेसमणभद्दे अणगारे पडिलाभिते इह जाव सिद्धे ॥ चोत्थं अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ४॥ पंचमस्स उक्खेवओ-सोगंधिया माणगरी नीलासोए उजाणे सुकालो जक्खो अप्पडिहओ राया सुकन्ना देवी महचंदे कुमारे तस्स अरहदत्ता भारिया जिणदासो पुत्तो तित्थयरागमणं जिणदासपुब्वभवो मज्झमिया णगरी मेहरहो राया सुधम्मे अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे ।। पंचमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥५॥ छट्ठस्स उक्खेवओ-कणगपुरं णगर मासेयासोयं उज्जाणं वीरभद्दो जक्खो पियचंदो राया सुभदा देवी वेसमणे कुमारे जुवराया सिरीदेवीपा-12 मोक्खा पंचसया कन्ना पाणिग्गहणं तित्थयरागमणं धनवती जुवरायापुत्ते जाव पुब्वभवो मणिवया नगरी |मित्तो राया संभूतिविजए अणगारे पडिलाभिते जाव सिद्धे ॥ छठं अज्झयणं सम्मत्तं ॥६॥ सत्तमस्स उक्खेवो, महापुरं णगरं रत्तासोगं उज्जाणं रसपाओ जक्खो बले राया सुभद्दा देवी महब्बले कुमारे रत्सवईपामोक्खाओ पंचसया कन्ना पाणिग्गहणं तित्थयरागमणं जाव पुत्वभवो मणिपुरं णगरं णागदत्ते गाहावती| दीप अनुक्रम [३८-४७] 65656 अनु.१८ Heluneurary.orm अथ तृतीयं अध्ययनात् आरभ्य दशमं अध्ययनं पर्यन्तानि अष्ट-अध्ययनानि अत्र परिकथयतानि ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम भाग-१४ "विपाकश्रुत" - अंगसूत्र-११ (मूलं+वृत्तिः ) श्रुतस्कंध: [२], ----------------------- अध्ययनं [२-१०] ----------- ------------ मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: विपाके C ॥९५॥ प्रत सूत्रांक [३४] इंदपुरे अणगारे पडिलाभिते जाव सिद्धे ॥ सत्तमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥७॥ अट्ठमस्स उक्खेवो-सुघोसं णगरं २ श्रुतछादेवरमणं उजाणं वीरसेणो जक्खो अपणो राया तत्तवती देवी भहनंदी कमारे सिरीदेवीपामोक्खा पंचसया कंधः जाव पुब्वभवे महाघोसे णगरे धम्मघोसे गाहावती धम्मसीहे अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे ॥ अट्ठमंसू० ३४ अज्झयणं सम्मत्तं ॥ ८॥णवमस्स उक्खेवो-चंपा णगरी पुन्नभद्दे उजाणे पुन्नभद्दो जक्खो दत्ते राया रत्तवई देवी महचंदे कुमारे जुवराया सिरिकतापामोक्खाणं पंचसया कन्ना जाव पुब्बभवो तिगिग्छी णगरी जियसत्तू राया धम्मवीरिये अणगारे पडिलाभिए जाव सिद्धे ॥ नवमं अज्झयणं सम्मत्तं ॥९॥ जति णं दस-18 मस्स उक्खेवो, एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं सायेयं णामे णगरे होत्था उत्तरकुरुउजाणे पासमिओ जक्खो मित्तनंदी राया सिरिकता देवी वरदत्ते कुमारे वरसेणपामोक्खा णं पंच देवीसया तित्थयरागमणं सावगधम्म पुव्वभवो पुच्छा मणुस्साउए निबद्धे सतदुवारे नगरे विमलवाहणे राया धम्मरुचिनामं अणगारं एजमाणं पासति २ पडिलाभिते समाणे मणुस्साउले निबद्धे इहं उप्पन्ने सेसं जहा सुबाहुपस्स कुमारस्सा |चिंता जाव पवजा कप्पंतरिओ जाव सव्वदृसिद्धे ततो महाविदेहे जहा दढपइन्नो जाव सिज्झहिति बुज्झिहिति० सव्वदुक्खाणमंतं करेति ॥ एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, सेवं भंते! सेवं भंते!। सुहविवागा (सू०३४) एकारसम ॥१५॥ अंगं सम्मत्तं ॥१०॥ नमो सुयदेवयाए-विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा दुहविवागो य सुहविवागो य, तस्थ दीप अनुक्रम [३८-४७] FarPranaamsamumony अथ तृतीयं अध्ययनात् आरभ्य दशमं अध्ययनं पर्यन्तानि अष्ट-अध्ययनानि अत्र परिकथयतानि अत्र द्वितिय-श्रुतस्कन्ध: परिसमाप्त: ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (११) प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३८-४७] भाग 14 भाग-१४ “विपाकश्रुत” - अंगसूत्र - ११ ( मूलं + वृत्ति:) अध्ययनं [२-१०] मूलं [३४] श्रुतस्कंध [२], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र -[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः Education दुहविवागे दस अज्झयणा एकसरगा दससु चेष दिवसेसु उद्दिसिज्जंति, एवं सुहविवागोवि, सेसं जहा आयारस्स || इति एकारसमं अंगं सम्मत्तं ॥ ११ ॥ ग्रन्थानं १२५० ॥ १ एवमुत्तराणि नवाप्यनुगन्तव्यानीति ॥ समाप्तं विपाकश्रुताख्यैकादशाङ्गप्रदेशविवरणं ॥ इहानुयोगे यवयुक्तमुक्तं, तद्धीधना द्राक् परिशोधयन्तु। नोपेक्षणं युतिमदत्र येन, जिनागमे भक्तिपरायणानाम् ॥ १ ॥ कृतिरियं संविप्रमुनिजनप्रधान श्रीजिनेश्वराचार्यचरणकमलच भ्वरीककल्पस्य श्रीमदभयदेवाचार्यस्येति ॥ प्रन्थानं ९०० ॥ श्रीरस्तु ॥ ॥ इति श्रीमदभयदेवाचार्यविहितविवरणयुता विपाकदशा गताः समाप्तिम् ॥ Fr Persoal & Private Use O विपाकश्रुत-अंगसूत्र- [११] मूलं एवं अभयदेवसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ताः मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहे किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] ~ 137 ~ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [] “ औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्तिः) मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [१२] उपांगसूत्र- [१] "औपपातिक" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः AAAAAAAAAAAAA ॥ अर्हम् ॥ श्रीचतुर्दशपूर्वधरश्रुतस्थ विरप्रणीतं चन्द्रकुलीनश्रीमदभयदेवसूरिविहितश्रीमद्रोणाचार्यशोधितवृत्तियुतं श्रीमदौपपातिकसूत्रम् । मुद्रयता झव्हेरीनवलचन्द उदे चन्दवधूनन्दकोराख्यायुताऽमरचन्द्रात्मजहर्षचन्द्रपुत्रीरत्नायुततेजस्याख्याकृतद्रव्य साहाय्येन आगमोदयसमितिकार्यवाहकः शाह-वेणीचन्द्रः सूरचन्द्रात्मजः मुद्रितं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणयन्त्रे रा० रा० रामचन्द्र येसू शेडगेवारा वीरसंवत् २४४२ विक्रमसंवत् १९७२ काइट. १९१६ | औपपातिक ( उपांग) सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" प्रथम संस्करणे प्रतयः पाशवी ५०० पण्यं द्वादशाणका: ०१२-० JUNYMMMMMNUNUNUNUNUN For Perseran the Only ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [१२] "औपपातिक मूलं एवं वृत्ति: इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “औपपातिक सूत्रम्" के नामसे सन १९१६ (विक्रम संवत १९७२) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के | संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | * हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर विषय और मूलसूत्र के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा विषय एवं मूलसूत्र चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस - दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है | हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक विषय आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-१४ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है । .......मुनि दीपरत्नसागर. ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: SACROSAGA ॥ अर्हम् ।। चतुर्दशपूर्वधरश्रुतस्थविरसंकलितं । श्रीमदभयदेवसूरिसंदृब्धविवरणयुतं । श्रीऔपपातिकसूत्रम् । | ॥५॥श्रीवर्द्धमानमानम्य, प्रायोऽन्यग्रन्धवीक्षिता। औपपातिकशास्त्रस्य, व्याख्या काचिद्विधीयते ॥१॥ अथौपपातिक मिति कः शब्दार्थः १, उच्यते, उपपतनमुपपातो-देवनारकजन्म सिद्धिगमनं च, अतस्तमधिकृत्य कृतमध्ययनमीपपातिकम् ।। इदं चोपाङ्ग वर्तते, आचाराङ्गस्य हि प्रथममध्ययनं शास्त्रपरिज्ञा, तस्याद्योदेशके सूत्रमिदम्-"एव 'मेगसिं नो नायं भवइअस्थि वा मे आया उववाइए, नस्थि वा मे आया उबवाइए, के वा अहं आसी? के वा इह ( अहं) शुए (इओ चुओ) पच्चा यह भविस्सामी" त्यादि, इह च सूत्रे यदीपपातिकत्वमात्मनो निर्दिष्टं तदिह प्रपश्यत इत्यर्थतोऽङ्गस्य समीपभावेनेदमुपागम् । अस्य चोपोद्घातग्रन्थोऽयम् तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था, रिडस्थिमियसमिहा पमुइयजणजाणवया आइण्ण-III .१ आचारायत्तिकाराभिप्रायेण पवेत्यादिर्भवइपर्यन्तः पाठो द्वितीयसूत्रोपसंहारवाक्यरूपः । Rokar (AM औपपातिक सूत्रे अत्र “समवसरण-पदं" आरभ्यते ...चंपानगर्या: वर्णनं ~140~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: नगर्यधिक तिकम् औषपा- जणमणुस्सा हलसपसहस्ससंकिट्टविकिट्ठलट्ठपण्णत्तसेउसीमा कुसंडेअगामपउरा उकछुजवसालिकलिया गोमहिसगवेलगप्पभूता आयारवंतचेइयजुषइविविहसपिणविट्ठबहुला उक्कोडियगायगंठिभेयभडतकरखंड रक्खरहिया खेमा णिरुवद्दवा सुभिक्खा बीसस्थसुहावासा अणेगकोडिकुटुंबियाइपणणिब्यसुहा ण॥१ ॥ अरणगजल्लंमल्लमुडियवेलंबयकहगपचगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंचवीणियअणेगतालायराणुचरिया आरामुजाणअगडतलागदीहियवप्पिणिगुणोववेया नंदणवणसन्निभपगासा इह च बहवो वाचनाभेदा दृश्यन्ते, तेषु च यमेवावभोत्स्यामहे तमेव व्याख्यास्यामः, शेषास्तु मतिमता स्वयमूद्याः। तत्र योऽयं शंशब्दः स वाक्यालङ्कारार्थः, 'ते' इत्यत्र च य एकारः स प्राकृतशैलीप्रभवो, यथा 'करेमि भंते ! इत्यादिषु, ततोऽयं वाक्यार्थों जातः-तस्मिन् काले तस्मिन् समये यस्मिन्नसौ नगरी बभूवेति, अधिकरणे चेयं सप्तमी । अथ कालसमययो का प्रतिविशेषः ?, उच्यते, काल इति सामान्यकालो वर्तमानावसर्पिण्याश्चतुर्थविभागलक्षणः, समयस्तु सद्विशेषो यत्र सा नगरी स राजा वर्द्धमानस्वामी च बभूव । अथवा-तृतीयैवेयं, ततश्च तेन कालेन अवसर्पिणीचतुर्धारकलक्षणेन हेतुभूतेन तेन समयेन तद्विशेषभूलेन हेतुना चम्पा नाम नगरी 'होत्यत्ति' अभवद्, आसीदित्यर्थः । ननु चेदानीमपि साऽस्ति किं पुनरधिकृतग्रन्थकरणकाले ? तत्कथमुक्तमासीदिति ?, उच्यते, अवसर्पिणीत्वारकालस्य । वर्णकान्धवर्णितविभूतियुक्ता सा तदानीं नास्तीति । 'ऋद्धस्थिमियसमिद्धा' ऋद्धा-भवनादिभिवृद्धिमुपगता, स्तिमिता-भयवर्जितत्वेन स्थिरा, समृद्धा-धनधान्यादियुक्ता, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । 'पमुइयजणजाणवया' प्रमुदिताः-हृष्टाः 554 REmirantiMaharana चंपानगर्या: वर्णनं ~141 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रमोदकारणवस्तूनां सद्भावात् जना-नगरीवास्तव्यलोका जानपदाश्च-जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यस्यां सा प्रमुदित| जनजानपदा, पाठान्तरे 'पमुइयजणुजाणजणवया' तत्र प्रमुदितजनान्युद्यानानि जनपदाश्च यस्यां सा तथा । 'आइण्ण. जणमणुस्सा' मनुष्यजनेनाकीर्णा-सङ्कीर्णा, मनुष्यजनाकीर्णेतिवाच्ये राजदन्तादिदर्शनादाकीर्णजनमनुष्येत्युक्तम् , आकीर्णो चा-गुणव्याप्तो मनुष्यजनो यस्यां सा तथा । 'हलसयसहस्ससङ्किटविकिडलठ्ठपणत्तसेउसीमा' हलाना-लाङ्गलानां शतैः | सहबैश्च शतसहस्रा-लक्षैः संकृष्टा-विलिखिता विकृष्टं-दूरं यावद् अविकृष्टा वा-आसन्ना लष्टा-मनोज्ञा कपकाभिमत| फलसाधनसमर्थत्वात् 'पण्णत्त'त्ति योग्यीकृता बीजवपनस्य सेतुसीमा-मार्गसीमा यस्याः सा तथा, अथवा-संकृष्टादि४ विशेषणानि सेतूनि-कुल्याजलसेकक्षेत्राणि सीमासु यस्याः सा तथा, अधवा-हलशतसहस्राणां संकृष्टेन-संकर्षणेन 8 विकृष्टा-दूरवर्तिन्यो लटा प्रज्ञपिता:-कथिताः सेतुसीमा यस्याः सा तथा, अनेन तज्जनपदस्य लोकवाहुल्य क्षेत्रबाहुल्यं चोक्तम् । 'कुकुडसंडेयगामपउरा' कुकुटा:-ताम्रचूडाः पण्डेयाः-पण्डपुत्रकाः तेषां ग्रामा:-समूहास्ते प्रचुरा:-प्रभूताः यस्यां | सा तथा, अनेन लोकप्रमुदितत्वं व्यक्तीकृतं, प्रमुदितो हि लोकः क्रीडार्थ कुक्कुटान् पोषयति पण्डांश्च करोतीति । 'उच्छुMजवसालिकलिया' पाठान्तरेण 'उच्छुजवसालिमालिणीया' एतद्व्याप्तेत्यर्थः, अनेन च जनप्रमोदकारणमुक्त, न ह्येवंप्रकारव स्वभावे प्रमोदो जनस्य स्यादिति । 'गोमहिमगवेलगप्पभूया' गवादयः प्रभूताः-प्रचुरा यस्यामिति वाक्यम्, गवेलगाउरभ्राः । 'आयारवन्त चेइयजुवइविविहसंविणविठ्ठबहुला' आकारवन्ति-सुन्दराकाराणि आकारचित्राणि वा यानि चैत्यानि-देवतायतनानि युवतीनां च-तरुणीनां पण्यतरुणीनामिति हृदयं, यानि विविधानि सन्निविष्टानि-सन्निवेशनानि CREAKESAXCX चंपानगर्या: वर्णनं ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा IPil पाटकास्तानि बहुलानि बहूनि यस्यां सा तथा, 'अरिहन्तचेईयजणवयविसण्णिविनले ति पाठान्तरं, तबाह चैत्याना|| जनानां वतिनां च विविधानि यानि सन्निविष्टानि-पाटकास्तैर्वहुलेति विग्रहः, 'सुयागचित्तचेईयजयसण्णियिहबहुला' इति । नगर्यधि० तिकम् च पाठान्तरम् , तन्त्र च सुयागा:-शोभनयज्ञाः चिनचैत्यानि-प्रतीतानि यूपचितयो-यज्ञेषु यूपचयनानि यूतानि वा की-|| सू० ॥ २ ॥ डाविशेषाश्चितयः तेषां सन्निविष्टानि-निवेशास्सैर्वहुला या सा तथा, 'उक्कोडियगायगंठिभेयभडतकरखंडरक्खरहिया उत्कोटा-वरकोचा लश्चेत्यर्थस्तया ये व्यवहरन्ति ते औत्कोटिकाः गात्रात्-मनुष्यशरीरावयवविशेषात् कट्यादेः सकाशात् ग्रन्थि-कार्षापणादिपुट्टलिका भिन्दन्ति-आच्छिन्दन्तीति गात्रग्रन्थिभेदका, 'उक्कोडियगाहगंठिभेय' इति च पाठान्तरं । व्यक्तं, भटाः-चारभटाः बलात्कारप्रवृत्तयः तस्कराः-तदेव-चौयं कुर्वन्तीत्येवंशीलाः खण्डरक्षा-दण्डपाशिकाः शुल्कपाला या एभी रहिता या सा तथा, अनेन तत्रोपद्रवकारिणामभावमाह । 'खेमा' अशिवाभावात् । 'णिरुवद्दवा' निरुपद्रवा, | अविद्यमानराजादिकृतोपद्रवेत्यर्थः । 'सुभिक्खा' सुष्छु-मनोज्ञाः प्रचुरा भिक्षा भिक्षुकाणां यस्यां सा सुभिक्षा । अन एव | पापण्डिनां गृहस्थानां च 'चीसत्थसुहावासा' विश्वस्ताना-निर्भयानामनुत्सुकानां वा सुख:-सुखस्वरूपः शुभो वा आवासो यस्यां सा तथा । 'अणेगकोडिकुडुम्बियाइण्णनिच्चुयसुहा' अनेकाः कोटयो द्रव्यसङ्घयानां स्वरूपपरिमाणे वा येषां ते &|| अनेककोटयः तै :कौटुम्बिकैः-कुटुम्विभिराकीर्णा-सङ्खला या सा तथा, सा चासौ निर्वृता च-सन्तुष्टजनयोगात्सन्तो पवतीति कर्मधारयः, अत एव सा चासौ सुखा च शुभा वेति कर्मधारयः । 'नडनगजल्लमल्लमुडियवेलम्बयकहगपवग[लासगआइक्खगलखमखतूणइलतुम्बवीणियअणेगतालायराणुचरिया' नटा:-नाटकानां नाटयितारो नर्तका ये नृत्यन्ति, ॥ २ ॥ चंपानगर्या: वर्णनं ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मलं [१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: का अङ्किला इत्येके, जल्ला-वरनाखेलकाः, राज्ञः स्तोत्रपाठका इत्यन्ये, मलाः-प्रतीताः मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति, ४ विडम्बका:-विदूषकाः, कथका:-प्रतीताः, प्लवका-ये उत्प्लवन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति, लासका-ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्कारो वा, भाण्डा इत्यर्थः, आख्यायका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति, लङ्का-महावंशानखेलकाः, मङ्खाः-चित्र फलकहस्ता भिक्षुकाः, तूणइला-तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः, तुम्बवीणिका-वीणावादकाः, अनेके च ये तालाचराः-ताला४दानेन प्रेक्षाकारिणस्तैरनुचरिता-आसेविता या सा तथा । 'आरामुज्जाणअगडतलायदीहियवप्पिणिगुणोववेया' आरमन्तिIS येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि क्रीडन्ति, आरामाः, उद्यानानि-पुष्पादिमवृक्षसालान्युत्सवादी बहुजनभो ग्यानि, 'अगडत्ति' अवटा:-कूपाः, तडागानि-प्रतीतानि, दीपिका-सारणी, 'वप्पिणि'त्ति केदाराः, एतेषां ये गुणा| रम्यतादयस्तैरुपपेता-युक्ता या सा तथा, उप अप इत इत्येतस्य शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोपे उपपेतेति भवति । कचित्पठ्यते 'नन्दणवणसन्निभप्पगासा' नन्दनवन-मेरोद्धितीयवनं तत्प्रकाशसन्निभः प्रकाशो यस्यां सा तथा, इह चैकस्य प्रकाशशब्दस्य लोपः उष्ट्रमुख इत्यादाविचेति । उब्बिद्धविउलगंभीरखायफलिहा चकगयमुसुंडिओरोहसयग्घिजमलकवाडघणदुप्पयेसा धणुकुडिलबंक-15 पागारपरिक्खिता कविसीसयवहरइयसंठियविरायमाणा अद्यालयचरियदारगोपुरतोरणपणयमुविभत्सरायमग्गा व्यायरियरदयदढफलिहइंदकीला 'उबिद्ध विउलगम्भीरखायफलिहा' उद्विद्ध-उद्धं विपुलं-विस्तीर्ण गम्भीरम्-अलब्धमध्यं खातम्-उपरिविस्तीर्णम् SESAMACHAR ॐ Janasaram.org चंपानगर्या: वर्णनं ~144~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा तिकम् ॥३ ॥ RC4 | अधःसङ्कट परिखा च-अध उपरि च समखातरूपा यस्यां सा तथा । 'चक्कगयमुसुंढि ओरोहसयग्घिजमलकवाडघणदुप्प- नगर्यधिक वेसा' चक्राणि-रथाङ्गानि अरघट्टाङ्गानि वा, गदाः-प्रहरणविशेषाः, मुसुण्ढयोऽप्येवम् , अवरोधः-प्रतोलिद्वारेप्ववान्तरप्राकारः सम्भाव्यते, शतघ्यो-महायष्टयो महाशिला वा या उपरिष्टात्पातिताः सत्यः शतानि पुरुषाणां मन्तीति, यम-15 लानि-समसंस्थितद्वयरूपाणि यानि कपाटानि धनानि च निश्छिद्राणि तैर्दुष्प्रवेशा या सा तथा । 'धणुकुडिलवंकपागारप| रिक्सित्ता' धनुःकुटिलं-कुटिलधनुस्ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता या सा तथा । 'कविसीसयवट्टरइयसंठियविराय|माणा' कपिशीर्षकैर्वृत्तरचितः-वर्तुल कृतैः संस्थितैः-विशिष्टसंस्थानवनिर्विराजमाना-शोभमाना या सा तथा। अट्टालयचरि| यदारगोपुरतोरणउण्णयसुविभत्तरायमग्गा' अट्टालकाः-प्राकारोपरिवाश्रयविशेषाः, चरिका-अष्टहस्तप्रमाणा नगरप्राकारान्तरालमार्गाः, द्वाराणि-प्राकारद्वारिकाः, गोपुराणि-पुरद्वाराणि, तोरणानि-प्रतीतानि, उन्नतानि-गुणवन्ति उच्चानि च यस्यां सा तथा, सुविभक्ताः-विविक्ता राजमार्गा यस्यां सा तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। 'छेयायरियरइयदढ-16 फलिहईदकीला' छेकेन-निपुणेनाचार्येण-शिल्पिना रचितो दृढो-बलवान् परिषः-अर्गला इन्द्रकीलश्च-गोपुरावयवविशेषो यस्यां सा तथा। विचणिवणिच्छेत्तसिप्पियाइण्णणिन्यसुहा सिंघाडगतिगचउक्कचचरपणियावणविविहवत्युपरिमंडिया सुरम्मा नरवइपविइण्णमहिवइपहा अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपदकरसीयसंदमाणीयाइण्णजाणजुग्गा विम -%25 चंपानगर्या: वर्णनं ~145~ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [...१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: | उलणवणलिणिसोभियजला पंदुरवरभवणसण्णिमहिया उत्ताणणयणपेच्छणिज्जा पासादीया दरिसणिजा अभिरूवा पडिरूवा ॥ (सू०१) 1 'विवणिवणिच्छेत्तसिप्पियाइण्णणिन्युयसहा' विषणीनां-वणिक्षथानां हट्टमार्गाणां, पणिजांच-याणिजकानां च, क्षेत्र स्थानं या सा तथा, शिल्पिमिः-कुम्भकारादिभिराकीर्णा अत एव जनप्रयोजनसिद्धेर्जनानां निर्वृतत्वेन सुखितत्वेन च निर्वतसुखा च या सा तथा, वाचनान्तरे छेत्तशब्दस्य स्थाने छेयशब्दोऽधीयते, तत्र च छेकशिल्पिकाकीर्णेति व्याख्येयम् । 'सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरपणियावणविविहवत्थुपरिमंडिया' शृङ्गाटक-त्रिकोणं स्थानं, त्रिक-यत्र रथ्यात्रयं मिलति, चतु-18 क-रथ्याचतुष्कमेलकं, चत्वरं-बहरथ्यापातस्थानं, पणितानि-भाण्डानि तत्प्रधाना आपणा-हट्टाः, विविधवस्तूनि-अनेकविधद्रव्याणि, एभिः परिमण्डिता या सा तथा, पुस्तकान्तरेऽधीयते-'सिंघाडगतिगचउकचच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु | पणियावणविबिहवेसपरिमंडिया' तत्र चतुर्मुख-चतुरिं देवकुलादि, महापथो-राजमार्गः, पन्थाः-तदितरः, ततश्च शृङ्गाटकादिषु पणितापणैः विविधवेषैश्च जनैविविधवेश्याभिर्वा परिमण्डिता या सा तथा । 'सुरम्मा' अतिरमणीया। नरवइपविइण्णमहिवइमहा' नरपतिना-राज्ञा प्रविकीर्णो-गमनागमनाभ्यां व्याप्तो महीपतिपथो राजमार्गों यस्यां सा तथा, अथवा-नरपतिना प्रविकीर्णा-विक्षिप्ता निरस्ताऽन्येषां महीपतीनां प्रभा यस्यां सा तथा, अथवा-नरपतिभिः प्रविकीर्णा | ॥ महीपतेः प्रभा यस्यां सा तथा । 'अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपहकरसीयसंदमाणीयाइण्णजाणजुग्गा' अनेकैर्वरतुरगैर्मतकुञ्जरैः रहपहकरत्ति-रथनिकरैः शिविकाभिः स्यन्दमानीभिराकीर्णा-व्याप्ता यानयुग्यैश्च या सा तथा, अथवा-अनेके वरतुरगा SAREanimal चंपानगर्या: वर्णनं ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औषपा- तिकम् दयो यस्यां आकीर्णानि च गुणवन्ति यानादीनि यस्यां सा तथा, तत्र शिबिका:-कूटाकारणाच्छादिता जम्पानविशेषाः, स्यन्दमानिका:-पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषाः, यानानि-शकटादीनि, युग्यानि-गोलविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि पूर्णभदचै० ४ वेदिकोपशोभितानि जम्पानान्येवेति । 'विमउलणवणलिणिसोभियजला' विमुकुलाभिः-विकसितकमलाभिर्नवाभिनलि-1 सू०२ नीभिः-पद्मिनीभिः शोभितानि जलानि यस्यां सा तथा । 'पंडुरवरभवणसण्णिमहिया' पाण्डुरैः-सुधाधवलैः वरभवनैःप्रासादैः सम्यक् नितरां महितेव महिता-पूजिता या सा तथा । 'उत्ताणणयणपेच्छणिज्जा' सौभाग्यातिशयादुत्तानिकैः अनिमिषितैनयनैः-लोचनैः प्रेक्षणीया या सा तथा । 'पासाइया' चित्तप्रसत्तिकारिणी। 'दरिसणिज्जा' यां पश्यच्चक्षुःश्रम न गपछति । 'अभिरूवा' मनोज्ञरूपा । 'पडिरूवा' द्रष्टारं २ प्रति रूपं यस्याः सा तथेति ॥१॥ तीसे णं चंपाए णयरीए बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए पुण्णभद्दे णाम चेइए होत्था, चिराईए पुथ्वपुरिसपण्णत्ते पोराणे सदिए वित्तिए कित्तिए णाए सच्छत्ते सज्झए सघंटे सपढागे पडागाइपडागमंडिए सलोमहत्थे कयवेयदिए लाउल्लोइयमहिए गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिपणपंचंगुलितले उवचियचंदणकलसे चंदणघडमुकयतोरणपडिदुवारदेसभाए आसत्तोसत्तविउलवद्वग्घारियमल्लदामकलावे पंचवण्णसरससुरहिमुक्कपुष्फपुंजोधयारकलिए कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकधूवमघमघंतगंधुदुयाभिरामे सुगंधवरगंधगंधिए गंध-४ बद्विभूए णडणट्टगजल्लमल्लमुट्टियवेलवयपवगकहगलासगआइक्खगलंखमखतूणइल्लतुंबवीणियनुयगमागहप- ॥४॥ रिगए बहुजणजाणवयस्स विस्सुरकित्तिए बहुजणस्स आहुस्स आहुणिज्जे पाहुणिज्जे अच्चणिजे वंदणिज्जे नमस चंपानगर्या: वर्णनं, पूर्णभद्रचैत्यस्य वर्णनं ~147~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [२] मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) | णिज्ने प्रयणिजे सकारणिले सम्माणणिज्जे कल्लाणं मंगलं देवयं चेहयं विणएणं पज्जुवासणिजे दिव्वे सच्चे सच्चोवाए सण्णिहियपाडिहेरे जागसहस्स भागपडिच्छए बहुजणो अचेइ आगम्म पुण्णभदं चेयं २ ( सू० २ ) ॥ 'तीसेत्ति तस्यां 'ण'मित्यलङ्कारे चम्पायां नगर्यो 'उत्तरपुरस्थिमे त्ति उत्तरपौरस्त्ये- उत्तरपूर्वायामित्यर्थः, 'दिसिभाए ति दिग्भागे, पूर्णभद्रं नाम चैत्यं - व्यन्तरायतनं, 'होत्थे 'ति अभवत् । 'चिराईए पुवपुरिसपण्णत्ते' चिरम् - चिरकाल आदि:निवेशो यस्य तच्चिरादिकम्, अत एव पूर्वपुरुषः- अतीतनरैः प्रज्ञतम्-उपादेयतया प्रकाशितं पूर्वपुरुषप्रज्ञप्तं । 'पोराणे 'त्ति चिरादिकत्वात्पुरातनं । 'सद्दिए'त्ति शब्दः प्रसिद्धिः स सञ्जातो यस्य तच्छन्दितं । 'वित्तिए'त्ति वित्तं द्रव्यं तदस्ति यस्य तद्वित्तिकं वृत्तिं वाऽऽश्रितलोकानां ददाति यत्तद्वृत्तिदं । 'कित्तिए'ति पाठान्तरं तत्र कीर्त्तितं जनेन समुत्कीर्त्तितं | कीर्त्तिदं वा । 'णाए'त्ति न्यायनिर्णायकत्वात् न्यायः ज्ञातं वा ज्ञातसामर्थ्यमनुभूत तत्प्रसादेन लोकेनेति । सच्छत्रं सध्वजं सघण्टमिति व्यक्तं । 'सपडागाइप डागमंडिए' सह पताकथा वर्त्तत इति सपताकं तच्च तदेकां पताकामतिक्रम्य या पताका सा अतिपताका तथा मण्डितं यत्तत्तथा वाचनान्तरे- 'सपडाए पडागाइपडागमंडिए'ति । 'सलो महत्थे' लोममयप्रमार्जनकयुक्तं । 'कययेयदिप' कृतवितर्दिक- रचितवेदिकं । 'लाउहोइयमहिए' लाइयं यद्भूमेश्डगणादिनोपलेपनम्, उहोइयं| कुड्यमालानां सेटिकादिभिः संसृष्टीकरणं, ततस्ताभ्यां महितमित्र महितं -पूजितं यत्तत्तथा । 'गोसीससरसरतचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितले' गोशीर्षेण - सरसरक्तचन्दनेन च दद्देरेण चहलेन चपेटाप्रकारेण वा दत्ताः पञ्चाङ्गुलयः तला हस्तका Eucation Internation पूर्णभद्रचैत्यस्य वर्णनं For Parts Use One ~ 148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत' मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपातिकम् भाटले सू०२ यत्र तत्तथा । 'उवचियचन्दणकलसे' उपचिता-निवेशिताः चन्दनकलशा-माङ्गल्यघटा यत्र तत्तथा । 'चंदणघडसुकय- तोरणपडिदुबारदेसभाए' चन्दनघटाश्च सुष्टु कृततोरणानि च द्वारदेशभागं २ प्रति यस्मिंस्तचन्दनपटसुकृततोरणप्रतिद्वार-18 देशभागं, देशभागाश्च देशा एव । 'आसत्तोसत्तविउलववग्धारियमल्लदामकलावे' आसक्तो-भूमौ संबद्धः उत्सत-उपरिसं- |बद्धः बिपुलो-विस्तीर्णः वृत्तो-वर्तुलः 'वग्धारिओ'त्ति प्रलम्बमानः माल्यदामकलापः-पुष्पमालासमूहो यत्र तत्तथेति । | 'पञ्चवण्णसरससुरभिमुकपुष्फपुंजोवयारकलिए' पश्चवर्णेन सरसेन सुरभिणा मुक्तेन-क्षिप्तेन पुष्पपुखलक्षणेनोपचारेणपूजया कलितं यत्तत्तथा । 'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमबमघन्तगन्धुळ्याभिरामे' कालागुरुप्रभृतीनां धूपानां यो मघमघायमानो गन्धः उद्भुत-उजूतस्तेनाभिरामं यत्तत्तथा, तत्र 'कुंदुरुकं ति चीडा 'तुरुकति च सिव्हकं । 'सुगन्धवरगंधगंधिए' सुगन्धा ये बरगन्धाः-प्रवरवासास्तेषां गन्धो यत्रास्ति तत्तथा । 'गन्धवडिभूए' सौरभ्यातिशयाद्गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पमित्यर्थः । 'नडनट्टे' त्यादि पूर्ववन्नवरमिह भुयगा-भुजङ्गा भोगिन इत्यर्थः, भोजका बा-तदर्थकाः 'मागधा' भट्टा इति । 'बहुजणजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए' यहोर्जनस्य-पौरस्य जानपदस्य च-जनपदभवलोकस्य विश्रुतकीर्तिक-प्रतीतख्यातिक । 'बहुजणरस आहुस्स'त्ति आहोतुः-दातुः, कचिदिदं न दृश्यते, 'आहुणिजे 'त्ति आहवनीय-सम्प्रदानभूतं । 'पाहुणिज्जेत्ति प्रकर्षेण आहवनीयं । 'अञ्चणिजे' चन्दनगन्धादिभिः । 'वन्दणिजे स्तुतिभिः । 'नमंसणिज्जे' प्रणामतः । पूणिज्जे पुष्पैः। 'सकारणिजे' वस्त्रैः। 'सम्माणणिजे' बहुमानविषयतया । 'कलाणं मङ्गलं देवयं चेइयं विणपणं पजुवासणिज्जे' कल्याणमित्यादिबुद्ध्या विनयेन पर्युपासनीयं, तत्र 'कल्याणम्' अर्थहेतुः 'मङ्गलम्' अनर्थप्रतिहतिहेतुः 'दैवतं'। ॥५ ॥ SSC पूर्णभद्रचैत्यस्य वर्णनं ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: |देवः 'चैत्यम्' इष्टदेवताप्रतिमा 'दिवे' दिव्यं प्रधानं । 'सच्चे' सत्यं सत्यादेशत्वात् । 'सच्चोवाए' सत्यावपातं । 'सत्यसेव' | सेवायाः सफलीकरणात् । 'सणिहियपाडिहरे' विहितदेवताप्रातिहार्य । 'जागसहस्सभागपटिच्छए' यागाः-पूजाविशेषाः ब्राह्मणप्रसिद्धाः तत्सहस्राणां भागम्-अंशं प्रतीच्छति आभाव्यत्वात् यत्तत्तथा, वाचनान्तरे 'यागभागदायसहस्सपडि च्छए' यागा:-पूजाविशेषाः भागा-विंशतिभागादयो दायाः-सामान्यदानान्येषां सहस्राणि प्रतीच्छति यत्तत्तथा । 'बहुजणों' Mइत्यादि सुगम, नवरं 'पुण्णभद्दचेइयं ' इति अत्र द्विवचनं भक्तिसम्भ्रमविवक्षयेति ॥२॥ I से णं पुषणभरे चेइए एकेणं महया वणसंडेणं सब्बओ समंता संपरिक्खित्ते, से णं वणसंडे किण्हे किण्हो भासे नीले नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे गिद्धे गिद्धोभासे तिब्वे तिब्वोभासे किण्हे | लकिण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए णिडे णिच्छाए तिब्वे तिब्वच्छाए घणकडिअकडिच्छाए रम्मे महामेहणिकुरंबभूए। 'सचओ समन्ता' इति सर्वतः-सर्वदिक्षु समन्तात्-विदिक्षु । 'किण्हे'त्ति कालवर्णः । 'किण्होभासे'त्ति कृष्णावभासः । कृष्णप्रभः, कृष्ण एवावभासत इति कृष्णायभासः । एवं 'नीले नीलोभासे' प्रदेशान्तरे, 'हरिए हरिओभासे' प्रदेशान्तरे। & एव, तत्र नीलो-मयूरगलवत्, हरितस्तु शुकपुच्छवत्, हरितालाभ इति वृद्धाः। 'सीए'त्ति शीतः पापेक्षया, बल्याद्या कान्तत्वात् इति वृद्धाः । 'णिद्धे'त्ति स्निग्धो न तु रूक्षः । 'तिब्बे'त्ति तीब्रो वर्णादिगुणप्रकर्षवान् । 'किण्हे किण्हच्छाएत्ति, इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता, तथाहि-कृष्णः सन् कृष्णच्छायः, छाया चादित्यावरण पूर्णभद्रचैत्यस्य वर्णनं, वनखंडस्य वर्णनं ~150~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् वनपण्डा० सु०३ जन्यो वस्तुविशेषः । 'घणकडियकडिच्छाए'त्ति अन्योऽन्यं शाखानुप्रवेशाद् बहलनिरन्तरच्छाय इत्यर्थः । 'महामेहणिकुरं- |वभूए'त्ति महामेघवृन्दकल्पः। ते णं पायवा मूलमंतो कंदमंतो खंभमंतो तयामतो सालमंतो पवालमंतो पत्तमंतो पुप्फमतो फलमंतो बीयमंतो अणुपुब्बसुजायरुइलबद्दभावपरिणया एक्कखंधा अणेगसाला अणेगसाहप्पसाहविडिमा अणेगनरवाममुप्पसारिअअग्गेज्मघणविउलवडखंधा अच्छिदपत्ता अविरलपत्ता अवाईणपत्ता अणईअपत्ता निभू| यजरढपंदुपत्ता णवहरियभिसंतपत्तभारंधकारगंभीरदरिसणिजा उवणिग्गयणवतरुणपत्सपल्लवकोमलउज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसोहियवरंकुरग्गसिहरा णिचं कुसुमिया णिचं माइया णिचं लवइया णिचं थवइया णिचं गुलइया णिचं गोच्छिया णिचं जमलिया णिचं जुबलिया णिचं विणमिया णिचं पणमिया |णिचं कुसुमियमाइयलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियपणमियमुविभत्तपिंडमंजरिवर्डिसयघरा सुयबरहिणमयणसालकोइलकोहंगकभिंगारककोंडलकजीवंजीवकणंदीमुहकविलपिंगलक्खकारंडचकवायकलहंससारसअणेगसउणगणमिणविरइयसहुण्णइयमहरसरणाइए सुरम्मे संपिडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलिन्तमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमंतगुंजतदेसभागे अभंतरपुप्फफले बाहिरपसोच्छण्णे पत्तेहि य पुप्फेहि य उच्छपणपडिवलिच्छपणे साउफले निरोयए अकंटए जाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगरम्मसोहिए विचित्तसुहकेउभूए वावीपुक्खरिणीदीहियासु य सुनिवेसिय रम्मजालहरए। वनखंडस्य वर्णनं, ~151 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: , ४ ते णं पायव'त्ति यत्संबन्धाद् वनखण्ड इति । 'मूलमन्तो कन्दमन्तों' इत्यादीनि दश पदानि, तत्र कन्दो-मूलानामु परि वृक्षावयवविशेषो, मतुप्प्रत्ययश्चेह भूम्नि प्रशंसायां वा। स्कन्धा-स्थुडं । 'तय'त्ति त्वक् वल्कलं शाला-शाखा प्रवाल:पल्लवाकरः, शेषाणि प्रतीतानि । 'हरियमन्ते'त्ति क्वचिद् दृश्यते, तत्र हरितानि-नीलतरपत्राणि । 'अणुपुषसुजायरुइलवइभावपरिणय'त्ति आनुपूर्येण-मूलादिपरिपाट्या सुष्टु जाता रुचिराः वृत्तभावैश्च परिणताः परिगता वा ये ते तथा। 'अणेगसाहप्पसाहविडिमा' अनेकशाखाप्रशाखो विटपः-तन्मध्यभागो वृक्षविस्तारो वा येषां ते तथा । 'अणेगनरवामप्पमा सारियअग्गेज्झघणविउलवड्ड(बद्ध)खंधे'ति अनेकाभिर्नरवामाभिः सुप्रसारिताभिरग्राह्यो घनो-निविडो विपुलो-विस्तीणों बद्धो-जातः स्कन्धो येषां ते तथा, वाचनान्तरेऽत्र स्थानेऽधिकपदान्येवं दृश्यन्ते-'पाईणपडिणाययसाला उदीणदाहिणवि-18 |च्छिण्णा ओणयनयपणयविप्पहाइयओलंबपलंबलंबसाहप्पसाहविडिमा अवाईणपत्ता अणुईण्णपत्ता' इति, अयमर्थः-प्राचीनप्रतीचीनयोः-पूर्वापरदिशोरायता-दीर्घाः शाला:-शाखा येषां ते तथा, उदीचीनदक्षिणयोः-उत्तरयाम्ययोर्दिशोविस्तीर्णाविष्कम्भवन्तो येषां ते तधा, अवनता-अधोमुखा नता-आनम्राः प्रणताश्च-नन्तुं प्रवृत्ताः विप्रभाजिताश्च विशेषतो 5 |विभागवत्यः अवलम्बा-अधोमुखतया अवलम्बमानाः प्रलम्बाश्च-अतिदीर्घाः (लम्बाः) शाखाः प्रशाखाक्ष-यस्मिन् स तथाविधो विटपो येषां ते तथा, अवाचीनपत्रा:-अधोमुखपर्णाः अनुगीर्णपत्रा:-वृत्ततया अबहिर्निर्गतपर्णाः । अथाधिकृ-1 तवाचनाऽनुनि (नि) यते-'अच्छिद्दपत्ता नीरन्ध्रपत्राः । 'अविरलपत्ता' निरन्तरदलाः । 'अवाईणपत्ता' अवाचीनपत्रा १ वृक्षावयवविशेषो वेति प्रा khác वनखंडस्य वर्णनं ~152~ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपातिकम् अधोमुखपलाशाः, अवातीनपत्रा वा-अवातोपहतवाः । 'अणईयपत्ता' ईतिविरहितच्छदाः । 'नियजरढपंडुपत्तावनपण्डा अपगतपुराणपाण्डुरपत्राः । 'णवहरियभिसंतपत्तभारंधकारगंभीरदरिसणिज्जा' नवेन हरितेन भिसंतत्ति-दीप्यमानेन पत्रMI भारेण-दलचयेनान्धकारा-अन्धकारवन्तः अत एव गम्भीराश्च दृश्यन्ते ये ते तथा । 'उवणिग्गयणवतरुणपत्तपल्लवको-1|| सू०३ मलजलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसोहियवरंकुरग्गसिहरा' उपनिर्गतैर्नवतरुणपत्रपल्लवैः-अत्यभिनवपत्रगुच्छः तथा | कोमलोन्ज्वलचलभिः किशलयैः-पत्रविशेषैः तथा सुकुमारप्रयालैः शोभितानि वराङ्कराणि अप्रशिखराणि येषां ते तथा । इह च अरनवालपलवकिसलयपत्राणामल्पबहुबहुतरादिकालकृतावस्थाविशेषाद्विशेषः सम्भाव्यत इति । णिचं कुसुमिया' इत्यादि व्यक्तं, नवरं 'माइय'त्ति मयूरिताः 'लवइय'त्ति पल्लविताः 'थवइय'त्ति स्तवकवन्तः 'गुलइया' गुल्मवन्तः 'गोच्छिया जातगुच्छाः, यद्यपि च स्तबकगुच्छयोरविशेषो नामकोशेऽधीतस्तथाऽपीह पुष्पपत्रकृतो विशेषो भावनीयः, 'जमलिय'त्ति यमलतया-समश्रेणितया व्यवस्थिताः, 'जुबलिय'त्ति युगलतया स्थिताः, "विणमिय'त्ति विशेषेण फलपुष्पभारेण नताः, 'पणमिय'त्ति तथैव नन्तुमारब्धाः, प्रशब्दस्यादिकार्थत्वात् । 'णिचं कुसुमियमाइयलवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियमुविभत्तपिडिमंजरिवर्डिसयधरति केचित् कुसुमितायेकैकगुणयुक्ताः अपरे तु समस्तगुणयुक्ताः, ततः कुसुमिताश्च ते इत्येवं कर्मधारयः, नवरं सुविभक्ताः-सुविविक्ताः सुनिष्पन्नतया पिण्च्यो-लुम्ब्यो मजयंश्च प्रतीतास्ता एव अवतंसकाः-शेखरकास्ता धारयन्ति येते तथा। 'सुयवरहिणमयणसालकोइलकोहंगकभिंगारककोंडलकजीवंजीवकनंदीमुहकविलपिंगलक्खकारंडचक्कवायकलहंससारसअणेगसउणगणमिहुणविरइयसढुण्णइयमहुरसर RECACAS वनखंडस्य वर्णनं ~153~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [३...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: णाइए शुकादीनां सारसान्तानामनेकेषां शकुनगणानां मिधनविरचितं शब्दोन्नतिक च-उन्नतिशब्दकं मधुरस्वरं च नादित|लपितं यस्मिन् स तथा, वनखण्ड इति प्रकृतम् । 'सुरम्म' अतिशयरमणीयः । 'संपिंडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलि|न्तमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमंतगुंजतदेसभागे' संपिण्डिताः दृप्तानां भ्रमरमधुकरीणां वनसत्कानामेव पहक| रत्ति-निकरा यत्र स तथा, परिलीयमाना-अन्यत आगत्य लयं यान्तो मत्तषट्पदाः कुसुमासवलोला:-किजल्कलम्पटाः मधुरं गुमगुमायमानाः गुञ्जन्तश्च-शब्दविशेष विधानाः देशभागेषु यस्य स तथा, ततः कर्मधारयः । 'अब्भन्तरपुष्फ-18 टाफले बाहिरपत्तोच्छण्णे पत्तेहि य पुष्फेहि य उच्छण्णपडिवलिच्छपणे अत्यन्तमाच्छादित इत्यर्थः, एतानि त्रीण्यपि क्वचि दृक्षाणां विशेषणानि दृश्यन्ते-'साउफले'त्ति मिष्टफलः, 'निरोयए'त्ति रोगवर्जितः, 'अकण्टक' इति । क्वचित् 'पाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगरम्मसोहिए ति तत्र गुच्छा-वृन्ताक्यादयो गुल्मा-नवमालिकादयो मण्डपका-लतामण्डपादयः 'रम्मत्ति कचिन्न दृश्यते । 'विचित्तसुहकेजभूए' विचित्रान् शुभान् केतून-ध्वजान् भूतः-प्राप्तः । 'विचित्तसुहसेउकेउबहुले'त्ति दिपाठान्तरं, तत्र विचित्राः शुभाः सेतवः-पालिबन्धा यत्र केतुबहुलश्च यः स तथा । 'वावीपुक्खरिणीदीहियासु य सुनि | वेसियरम्मजालहरए' वापी-चतुरनासु पुष्करिणीषु-वृत्तासु पुष्करवतीषु वा दीर्घकासु च-ऋजुसारणीषु सुष्छु निवेशि-17 तानि रम्याणि जालगृहकाणि यत्र स तथा । ल पिंडिमणीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च महया गंधद्धणि मुयंता णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवकघरकसु. वनखंडस्य वर्णनं ~154~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपातिकम् हसेउकेउपहला अणेगरहजाणजुग्गसिबियपविमोयणा सुरम्मा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा (सू०३) | "पिंडिमणीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च महया गंधद्धणि मुयंता' पिण्डिमनिहारिमां-पुललसमूहरूपां दूरदेशगा- | | मिनी च सुगन्धि च-सद्गन्धिको शुभसुरभिभ्यो गन्धान्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा या सा तथा तां च, महता मोचनप्रकारेण विभक्तिव्यत्ययान्महती वा गन्ध एव भ्राणिहेतुत्वात्तृप्तिकारित्वाद्गन्धधाणिस्तां मुञ्चन्त इति वृक्षविशेषणम् । एवमितोऽन्यान्यपि 'णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवकघरकसुहसे उकेउबहुला' नानाविधा गुच्छाः गुल्मानि मण्डपका गृहकाणि च येषां सन्ति ते तथा, तथा शुभाः सेतवो-मार्गा आलवालपाल्यो वा केतवो-ध्वजा बहुला-बहवो येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः। 'अणेगरहजाणजुग्गसिवियपविमोयणा' अनेकेषां रथादीनामधोऽतिविस्तीर्णत्वात् प्रविमोचनं येषु ते तथा । 'सुरम्मा पासाझ्या दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूव'त्ति एतान्येव वृक्षविशेषणानि बनखण्डविशेषणतयावाचनान्तरेऽधीतानि॥शा तम्स णं वणसंडस्स बहुमझदेसभाए एत्थ णं महं एके असोगवरपायवे पण्णत्ते, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूले मूलमंते कंदमते जाव पविमोयणे सुरम्मे पासादीए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे 'तस्स ण वणसंडस्से'त्यादौ अशोकपादपवर्णके क्वचिदिदमधिकमधीयते-दूरोवगयकंदमूलवट्टलहसंठियसिलिघणम-II ४ासिणणिद्धसुजायनिरुवहउविद्धपवरखंधी' दूरोपगतानि-अत्यर्थे भूम्यामवगाहानि कन्दमूलानि-प्रतीतानि यस्य स तथा, REautatubina वनखंडस्य वर्णनं, अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~155~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [8] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः भाग - १४ "औपपातिक" वृत्तो- वर्तुलो, लष्टो मनोज्ञः संस्थितो विशिष्टसंस्थानः, श्लिष्टः सङ्गतो, घनो- निविडो, मसृणः-अपरुषः, स्निग्धः - अरुक्षः, सुजातः-सुजन्मा, निरुपहतो-विकारविरहित, उषिद्धः अत्यर्थमुच्चः, प्रवरः-प्रधानः, स्कन्धः-स्थुडं यस्य स तथा, इन्प्रत्ययश्च समासान्तः । 'अणेगनरपवर भुयागेज्झो' अनेकनराणां प्रवरभुजेः- प्रलम्बबाहुभिर्वामाभिरित्यर्थः, अग्राह्यः - अनाश्लेष्यो यः स तथा, 'कुसुमभर समोनमंतपत्तल विसालसालो' कुसुमभरेण समवनमन्त्यः पत्रलाः- पत्रवत्यः विशालाः शाला यस्य स तथा । 'महुकरिभ्रमरगणगुमगुमाइयनिलिंतउडितसस्सिरीए' मधुकरी भ्रमरगणेन-लोकरूढिगम्येन, 'गुमगुमाइन्त'त्ति कृतगुमगुमेतिशब्देन, नीलीयमानेन - निविशमानेन, उड्डीयमानेन च उत्पतता सश्रीकः सशोभो यः स तथा 'णाणासउणगणमिहुणसुमहुरकण्णसुहपलत्तसमहुरे' नानाविधानां शकुनिगणानां यानि मिथुनानि तेषां सुमधुरः कर्ण सुखश्च यः प्रप्तशब्दस्तेन मधुर इव मधुरो मनोज्ञो यः स तथा । अथाधिकृतवाचना- 'कुस बिकुसविसुद्ध रुक्खमूले' कुशा-दर्भाः विकुशा-वल्व (ल) जादयस्तैर्विशुद्धं विरहितं वृक्षानुरूपं वृक्षविस्तर प्रमाणमित्यर्थो मूलं- समीपं यस्य तथा । 'मूलमंते' इत्यादिविशेषणानि पूर्ववद्वाच्यानि यावत् पडिवे ॥ Education internation - से णं असोगवरपायवे अण्णेहिं बहूहिं तिलएहिं लउहिँ छसोवेहिं सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं दहिवपणेहिं लोकहिं धवेहिं चंदणेहिं अजुणेहिं णीवेहिं कुडएहिं सव्वेहिं फणसेहिं दाडिमेहिं सालहिं तालेोहं तमालेहिं पियएहिं पियंमूहिं पुरोवगेहिं रायरुक्खेहिं मंदिरुखखेहिं सब समता संपरिखिते, ते णं तिलया लवइया जाव णंदिरुक्खा कुसविक सविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो एएासं वण्णओ अशोकवृक्षस्य वर्णनं For Parts Only ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूल [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् ॥९॥ भाणियचो जाव सिबियपविमोवणा सुरम्मा पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, ते णं तिलया अशोवृक. जाव पंदिरुक्खा अण्णेहिं पहहिं पउमलयाहिं णागलयाहिं असोअलयाहिं चंपगलयाहिं चूयलयाहिं वण-|| सीलयाहिं वासंतियलयाहि अइमुत्तयलयाहिं कुंदलयाहिं सामलयाहिं सचओ समंता संपरिखिसा, ताओ | पउमलयाओ णिचं कुसुमियाओ जाव वडिंसयधरीओ पासादीयाओ दरिसणिजाओ अभिरूवाओद पडिख्वाओ॥ (सू०४) MI सोऽशोकवरपादपः अन्यैर्बहुभिस्तिलकैलकुचैछनोपैः शिरीषैः सप्तपण:-अयुक्छदपर्यायैरयुक्पत्रनाम दधिपणैः 13 लो]ः धवैः चन्दनैः-मलयजपर्यायैरर्जुनैः ककुरापर्यायैः नीपैः कदम्बैः कुटजैः-गिरिमल्लिकापर्यायैः सव्यः पनसैर्दाडिमैः | शालैः-सर्जपर्यायस्तालैः-तृणराजपर्यायैः तमालैः प्रियकैः-असनपर्यायैः प्रियङ्गुभिः-श्यामपर्यायैः पुरोपगैः राजवृक्षः नन्दिFoll वृक्ष-रूदिगम्यः सर्वतः समन्तात् सम्परिक्षिप्त इत्यादि सुगममापद्मलताशब्दादिति । 'पउमलयाहि ति पद्मलताः-स्थलकम लिन्यः पद्मकाभिधानवृक्षलता वा, नागादयो वृक्षविशेषास्तेषां लता:-तनुकास्त एव, स्त्राशोका-कोली चूतः-सहकारः वन:पीलुकः, वासन्तीलता अतिमुक्तकलताश्च यद्यप्येकार्थी नामकोशेऽधीतास्तथाऽपीह भेदो रूढितोऽवसेयः, श्यामा-प्रियङ्गः । का शेषलता रूदिगम्याः, इह लतावणेकानन्तरमशोकवर्णकं पुस्तकान्तरे इदमधिकमधीयते-'तस्स णं असोगवरपाथवरस उवरि ॥९॥ बहवे अडअट्ठमंगलगा पण्णत्ता' अष्टावष्टाविति वीप्साकरणात्प्रत्येकं तेऽष्टावित्ति वृद्धा, अन्ये त्वष्टाविति सझ्या, अष्टमङ्गलका-15 नीति च संज्ञा । 'तंजहा-सोवस्थिय १ सिरिवच्छ २ नंदियाक्त्त ३ वद्धमाणग ४ भद्दासण ५ कलस ६ मच्छ ७ REETarana अशोकवृक्षस्य वर्णनं ~157~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूल [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: || दप्पणा 4, तत्र श्रीवत्स-तीर्थकरहृदयावयवविशेषाकारो, नन्द्यावर्तःप्रतिदिनवकोणः स्वस्तिकविशेषो रूदिगम्यो, वर्द्धमानक-शरावं, पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये, भद्रासनं-सिंहासनं, दर्पणः-आदर्शः, शेषाणि प्रतीतानि । 'सवरयणामया' 'अच्छाः' स्वच्छाः आकाशस्फटिकवत्, 'सण्हा' श्लक्ष्णा:-श्लक्ष्णपुद्गलनिवृत्तत्वात् , 'मण्हा' महणाः, 'पठ्ठा' पृष्टा इव || घृष्टा खरशानया प्रतिमेव 'मट्ठा' मृष्टाः सुकुमारशानया प्रतिमेव प्रमार्जनिकयेव वा शोधिताः, अत एव 'निरया' नीर| जसः रजोरहिताः 'निर्मला:' कठिनमलरहिताः 'निप्पंका' आर्द्रमलरहिताः 'निकंकडच्छाया' निरावरणदीप्तयः 'सप्पहा सप्रभाः 'समिरीया' सकिरणाः 'सउज्जोया प्रत्यासन्नवस्तुद्योतकाः 'पासादीया ४ । 'तस्स णं असोगवरपायवस्स उवरि वहवे 'किण्हचामरण्झया' कृष्णवर्णचामरयुक्तध्वजाः 'नीलचामरज्झया लोहियचामरज्झया सुकिल्लचामरज्झया हालिद्दचामरझया अच्छा सण्हा' 'रुप्पपट्टा रौप्यमयपताकापटाः 'वइरामयदंडा' वनदण्डाः 'जलयामलगंधिया' पद्मवत् निर्दो-3 पगन्धाः 'सुरम्मा पासादीया' 'तस्स णं असोगवरपायवस्स' 'उवरि' उपरिष्टात् 'वहवे' 'छत्ताइच्छत्ता' उपर्युपरिस्थिताss-14 तपत्राणि 'पडागाइपडाया' पताकोपरिस्थितपताकाः 'घण्टाजुयला चामरजुयला' 'उप्पलहत्थगा' नीलोत्पलकलापाः 'पउका महत्थगा' पद्मानि रविवोध्यानि 'कुमुयहथगा' कुमुदानि चन्द्रवोध्यानीति, 'कुसुमहत्थय'त्ति पाठान्तरं 'नलिणहत्थगा सुभ-15 गहत्थगा सोगंधियहत्वगा' नलिनादयः पद्मविशेषा रूढिगम्याः, 'पुंडरीयहस्थया' पुण्डरीकाणि-सितपद्मानि 'महापुंडरीयहत्या' महापुण्डरीकाणि तान्येव महान्ति 'सयपत्तहत्था सहस्सपत्तहत्था सघरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा ४॥४॥ तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा ईसिं खंधसमल्लीणे एस्थ णं महं एके पुढविसिलापट्टए पपणत्ते, विक्खं airmanasurary.orm अशोकवृक्षस्य वर्णनं, पृथ्वीशीलापट्टकस्य वर्णनं ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: तिकम् ॥१०॥ भायामउस्सेहसुप्पमाणे किण्हे अंजणघणकिवाणकुवलयहलधरकोसेज्जागासकेसकज्जलंगीखंजणसिंगभेदरि-1 दार पृथ्वीशि० यजंबूफलअसणकसणबंधणणीलुप्पलपत्तनिकरअयसिकुसुमप्पगासे मरकतमसारकलित्तणयणकीयरासिवण्णे णिद्धघणे अट्ठसिरे आर्यसयतलोवमे सुरम्मे ईहामियउसमतुरगनरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभ-18|| चमरकुंजरचणलयपउमलयभत्तिचित्ते आईणगरूयबूरणवणीततूलफरिसे सीहासणसंठिए पासादीए दरिस|णिज्जे अभिरूवे पडिरूवे ॥ (सू०५) __ अथाधिकृतवाचनाऽऽनि(नि) यते ईसिं खंध समल्लीणे' मनाक् स्कन्धासन्न इत्यर्थः । 'एस्थ णं मह एके इत्यत्र एत्थ णंति शब्दः अशोकवरपादपस्य यदधोऽवेत्येवं सम्बन्धनीयः। 'विक्खंभायामजस्सेहसुप्पमाणे' विष्कम्भा-पृथुत्वम् , आयामो-दैय॑म् , उत्सेध उच्चत्वमेषु सुप्रमाण-उचितप्रमाणो यः स तथा । 'किण्हे'त्ति कालः, अत एव 'अंजणकवाणकुवलयहलधरकोसेज्जागासकेसकजलंगीखंजणसिंगभेदरिष्ठयजंबूफलअसणकसणबंधणनीलुप्पलपत्तनिकरअयसिकुसुमप्पगासे'नील इत्यर्थः, तत्र अञ्जनको बनस्पतिविशेषः हलधरकोसेज-बलदेववस्त्रं कज्जलाङ्गी-कज्जलगृहं शृङ्गभेद-महिषादिविषाणच्छेदः रिष्ठक-रतम् अशनको-बीयकाभिधानो बनस्पतिः सनबन्धन-सनपुष्पवृन्तं । 'मरकयमसारकलित्तणयणकीयरासिवण्णे' मरकत-रनं मसारो-महणीकारकः पापाणविशेषः, स चात्र कषपट्टः सम्भाव्यते, कलित्तंति-कटिनं ॥१०॥ | कृत्तिविशेषः नयनकीका-नेत्रमध्यतारा तद्राशिवर्णः काल इत्यर्थः । ' णिघणे स्निग्धघनः 'अट्ठसिरे' अष्टशिराः अष्ट| कोण इत्यर्थः । 'आयसयतलोवमे सुरम्मे ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउ Auditurary.com पृथ्वीशीलापट्टकस्य वर्णनं ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: S मलयभत्तिचित्ते ईहामृगाः-वृकाः व्यालकाः-वापदभुजगाः । 'आईणगरूयबूरणवणीयतूलफरिसे' आजिनक-चर्ममयवस्त्रं रूत-प्रतीतं बूरो-वनस्पतिविशेषः तूलम्-अर्कतूलं सीहासणसंठिए-सिंहासनाकारः, पासादीए जाव पडिरूवेत्ति ॥ वाचनान्तरे पुनः शिलापट्टकवर्णकः किश्चिदन्यथा दृश्यते, स च संस्कृत्यैव लिख्यते-अञ्जनकधनकुवलयहलधरकौशे४ायकैः सदृशः, घनो मेघ इत्यर्थः, आकाशकेशकजलकतनेन्द्रनीलातसीकुसुमप्रकाशः, कर्केतनेन्द्रनीले रलविशेषौ, भृङ्गाहै अनशृङ्गभेदरिष्ठकनीलगुलिकागवलातिरेकभ्रमरनिकुरुम्बभूतः' भृङ्गः-कीटविशेषोऽङ्गारविशेषो वा अञ्जन-सौवीराजनं Fol शृङ्गभेदो-विषाणच्छेदो विषाणविशेषो बा, रिष्ठः-काकः फलविशेषो वा, अथवाऽरिष्ठनीले रजविशेषौ गुलिका-वर्णद्रव्य विशेषो गवलं-महिपशुङ्गम् , एतेभ्योऽतिरेको नीलतयाऽतिरेकवान् यः स तथा, स चासी भ्रमरनिकुरुम्बभूतश्चेति कर्म-1 |धारयः, निकुरुम्बः-समूहा, जम्बूफलासनकुसुमबन्धननीलोत्पलपत्रनिकरमरकताशासकनयनकीकाराशिवर्णः' आशास को-वृक्षविशेषः । स्निग्धो-धनोऽत एवाशुपिरः, 'रूपकप्रतिरूपदर्शनीयः' रूपकैः प्रतिरूपो-रूपवान् अत एव दर्शनीयश्च-10 प्रदर्शनयोग्यो यः स तथा, मुक्काजालखचितान्तका-मुक्काजालकपरिंगतप्रान्त इत्यर्थः ॥५॥ तत्थ णं चंपाए णयरीए कूणिए णामं राया परिवसइ, महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे अच्चंतविसुद्धदीहरायकुलवंशसुप्पसए णिरंतर रायलक्खणविराइअंगमंगे बहजणबहमाणे पूजिए सव्वगुणसमिडे ख-IM ४||त्तिए मुइए मुद्धाहिसित्ते माउपिउसुजाए दयपत्ते सीमकरे सीमंधरे खेमंकरे खेमंधरेमणुस्सिदे जणचयपियाज णवयपाले जणवयपुरोहिए सेउकरे केउकरे णरपवरे पुरिसवरे पुरिससीहे पुरिसवग्घे पुरिसासीविसे पुरिसपुंड ANSARSAKX पृथ्वीशीलापट्टकस्य वर्णनं, कोणिकराज्ञस्य वर्णनं ~160~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [६] दीप अनुक्रम [६] मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र -[११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपा. तिकम् ॥ ११ ॥ Jan Euca भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:) रीए पुरिसवरगंधहत्थी अहे दित्ते वित्ते विच्छिण्णविउद्भवणसयणासण जाणवाहणाइण्णे बहुवणबहुजायस्वरयते आओगपओगसंपत्ते विच्छडि अपरभक्त्तपाणे बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूते पडिपुण्णजंतकोसकोट्ठागाराउधागारे बलवं दुब्बलपञ्चामित्ते ओहथकंटयं नियकंटयं मलिअकंदयं उडियकंदयं अकंटयं | ओहयसत्तुं निहयसत्तुं मलियसत्तुं उद्धिअसत्तुं निज्जियसत्तुं पराइअसत्तुं ववगयदुभिक्खं मारिभयविष्यमुकं स्वमं सिवं सुभिक्खं पसंतडिंबडमरं रज्जं पसासेमाणे विहरइ ॥ ( सू० ६ ) राजवर्णके लिख्यते - 'महाहिमवंतमहंत मलय मंदरम हिंदसारे' महाहिमवानिव महान् शेषराजपर्वतापेक्षया, तथा मलय:- पर्वतविशेषो मन्दरो - मेरुः महेन्द्रः - पर्वतविशेषः शक्रो वा, तद्वत्सारः - प्रधानो यः स तथा । 'अच्चन्त विसुद्धदीहराय कुलवंस सुप्पसूप' अत्यन्तविशुद्धो-निर्दोषो दीर्घः- चिरकालीनो यो राज्ञां कुलरूपो वंशस्तत्र सुष्ठु प्रसूतो यः स तथा। 'णिरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे' राजलक्षणैः-स्वस्तिकादिभिः विराजितमङ्गमङ्ग - गात्रं यस्य स तथा मकारस्तु प्राकृत शैलीप्रभवः । 'मुइए'ति मुदितः प्रमोदवान्, अथवा निर्दोषमातृको, यदाह - "मुइओ जो होइ जोणिसुद्धो'त्ति । 'मुद्धाहिसित्ते'त्ति पितृपितामहादिभिः राजभिर्वा यो राज्येऽभिषिक्तः । 'माउपिउसुजाए'त्ति पित्रोर्विनीततया सत्पुत्रः । | 'दयपत्ते'त्ति प्राप्तकरुणागुणः । 'सीमंकरे'त्ति सीमाकारी, मर्यादाकारीत्यर्थः । 'सीमंधरे'त्ति कृतमर्यादापालकः । एवं 'खेमंकरे खेमंधरे' त्ति क्षेमं पुनरनुपद्रवता । 'मणुस्सिदे'त्ति मनुजेषु परमेश्वरत्वात् । 'जणवयपिय'त्ति जनपदानां पितेव १ मुदितो यो भवति योनिशुद्ध इति । noma कोणिकराज्ञस्य वर्णनं For Penal Use On ~ 161~ कोणिक ० सू० ६ ॥ ११ ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [६] – दीप अनुक्रम [६] भाग - १४ "औपपातिक" Education International - मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः कोणिकराज्ञस्य वर्णनं उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) हितत्वात् । 'जणवयपाले 'ति तद्रक्षकत्वात् । 'जणवयपुरोहिए' ति जनपदस्य शान्तिकरत्वात् । 'सेडकरे 'त्ति मार्गदर्शक इत्यर्थः । 'केउकरे 'ति अद्भुत कार्यकारित्वेन चिह्नकारी । 'गरपवरे'त्ति नराः प्रवरा अस्येतिकृत्वा । 'पुरिसवरे'त्ति पुरुषाणां मध्ये प्रधानत्वात् । 'पुरिससीहे'त्ति क्रूरत्वात् । 'पुरिसवग्धे त्ति रोपे सति रौद्ररूपत्वात् । 'पुरिसासीविसेति पुरुषश्चासावाशीविषश्च पुरुषाशीविषः, आशीविषश्च सर्पः, कोपसाफल्यकरणसामर्थ्यात् । 'पुरिसपुंडरीएत्ति सुखार्थिनां सेव्यत्वात्, पुण्डरीकं च सितपद्मं । 'पुरिसवरगंधहत्थी' प्रतिराजगजभञ्जकत्वात् । 'अ'ति समृद्धः 'दित्ते'त्ति दृष्ठो दर्पवान् 'वित्ते' त्ति | प्रसिद्धः । 'विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णे'त्ति विस्तीर्णानि - विस्तारवन्ति विपुलानि प्रभूतानि भवनशयनासनानि प्रतीतानि यस्य स तथा, यानवाहनानि - रथाश्वादीनि, आकीर्णानि - गुणाकीर्णानि यस्य स तथा, ततः कर्मभारयः, अथवा विस्तीर्णविपुलभवनानि शयनासनयानवाहनाकीर्णानि यस्य: तथा । 'बहुधण बहुजायस्वरयते' बहु-प्रभूतं धनं-गणिमादिकं बहुनी च जातरूपरजते सुवर्णरौध्ये यस्य स तथा । 'आओगप ओग संप उत्ते' आयोगस्य- अर्थलाभस्य प्रयोगा- उपायाः सम्प्रयुक्ताः - व्यापारिता येन तेषु वा सम्प्रयुक्तो - व्यापृतो यः स तथा । 'विच्डड्डियपउरभत्तपाणे' | विच्छर्दिते त्यक्ते बहुजनभोजनदानेनाविशिष्टोच्छिष्टसम्भवात् सञ्जातविच्छद्दे वा नानाविधे प्रचुरे भक्तपाने - भोजनपानीये यस्य स तथा । 'बहुदासी दासगोमहिसग वेलगप्पभूए' बहवो दासीदासा गोमहिपगवेलकाश्च प्रभूता यस्य स तथा, गवेलका-उरभ्राः । 'पडिपुण्णजंतकोसकोठागाराउधागारे' प्रतिपूर्णानि यन्त्राणि च पाषाणक्षेपयन्त्रादीनि कोशो-भाण्डा| गारः कोष्ठागारश्च धान्यगृहं आयुधागारश्च-प्रहरणशाला यस्य स तथा । 'बलवंत प्रभूतसैन्यः । 'दुम्बलपच्चामित्ते' For Pale Only ~162~ wor Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा| दुर्बलाः प्रत्यमित्रा:-पातिवेश्मिकनृपा यस्य स तथा । 'ओहयकंटयति उपहता-विनाशिताः कण्टका:-प्रतिस्पर्धिगोत्रजा | यत्र राज्ये तत्तथा , क्रियाया वा विशेषणमेतत्, एवमन्यान्यपि, नवरं निहताः-कृतसमृद्ध्यपहाराः, मलिताः कृतमान भङ्गाः, उदृता-देशानिर्वासिताः, अत एवाविद्यमाना इति । तथा शत्रवः-अगोत्रजाः निर्जिताः-स्वसौन्दर्यातिशयेन परि॥१२॥ भूताः, पराजितास्तु तद्विधराज्योपार्जने कृतसम्भावनाभङ्गाः, 'ववगयदुभिख मारिभयविप्पमुक' मिति व्यक्तम् । 'पसंतडिंबडमति डिम्बा:-विघ्नाः डमराणि-राजकुमारादिकृतवैराज्यादीनि, 'पसंताहियडम'त्ति कचित्पाठः, तत्राहितडमरंशत्रुकृतविद्वरोऽधिकविहरो वा । 'रज पसासेमाणेत्ति प्रशासयन्-पालयन् 'पसाहेमाणे'त्ति कचित्पाठः, तत्राप्ययमेवार्थः, 'विहरति वर्तते ॥ ६ ॥ । तस्स णं कोणियस्स रण्णो धारिणी नामं देवी होजा, सुकुमालपाणिपाया अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा लकूखणवंजणगुणोववेआ माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगी ससिसोमाकारकंतपियदसणा सुरूचा करयलपरिमिअपसत्थतिवलियवलियमज्झा कुंडलुल्लिहिअगंडलेहा कोमुइरयणियरविमलपडिपुण्ण| सोमवयणा सिंगारागारचारुवेसा संगयगयहसिअभणिअविहिअविलाससललिअसंलावणिउणजुत्तोवयारकुसला पासादीआ दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा, कोणिएणं रण्णा भंभसारपुत्तेणं सद्धिं अणुरत्ता अवि- रत्ता इहे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोए पचणुभवमाणी विहरति ॥ (सू०७) राज्ञीवर्णके लिख्यते-'अहीणपडिपुष्णपंचिंदियसरीरा' क्वचित्तु 'अहीणपुण्णपंचिंदियसरीरा' अहीनानि-अन्यूनानि ॥१२॥ ७) कोणिकराज्ञस्य वर्णनं, धारिणीराज्य: वर्णनं ~163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [७] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः भाग - १४ "औपपातिक" धारिणीराज्य: वर्णनं - लक्षणतः, पूर्णानि - स्वरूपतः, पुण्यानि वा पवित्राणि पञ्चापीन्द्रियाणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं यस्याः सा तथा । 'लक्खणर्वजणगुणोकवेया' लक्षणानि - स्वस्तिक चक्रादीनि व्यञ्जनानि - मषीतिलकादीनि तेषां यो गुणः- प्रशस्तत्वं तेनोपपेता-युक्ता या सा तथा । 'माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसवंगसुंदरंगी' तत्र मानं - जलद्रोणप्रमाणता, कथम् ? - जलस्यातिभृते कुण्डे प्रमातव्यमानुषे निवेशिते यज्जलं निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं स्यात्तदा तन्मानुषं मानप्राप्तमुच्यते, तथा उन्मानम्अर्द्धभारप्रमाणता, कथम् ?, तुलारोपितं मानुषं यद्यर्द्धभारं तुलति तदा तदुम्मान प्राप्तमित्युच्यते, प्रमाणं तु-स्वाङ्गुलेनाष्टो तरशतोच्छ्रयता, ततश्च मानोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानि - अन्यूनानि सुजातानि - सुनिष्पन्नानि सर्वाण्यङ्गानि - शिरःप्रभृतीनि यत्र तत्तथाविधं सुन्दरम-शरीरं यस्याः सा तथा । 'ससीसोमाकार कंतपीयदंसणा' शशिवत्सौम्याकारं - कान्तं च-कमनीयमत एव च प्रियं वल्लभं द्रष्टृणां दर्शनं रूपं यस्याः सा तथा । अत एव 'सुरुवति शोभनरूपा । 'करयलपरिमिअपसत्यतिवलियवलियमज्झा' करतलपरिमितो - मुष्टिग्राह्यः प्रशस्तः-शुभस्त्रिवलिको वलित्रययुक्तो वलितः सञ्जातवलिमध्यो- मध्यभागो यस्याः सा तथा । 'कुंडलुलिहियगंडलेहा' कुण्डलाभ्यामुल्लिखिता गण्डलेखाः कपोलपत्रवल्यो यस्याः सा तथा, 'कुण्डलोलिखितपी नगण्डलेखे 'ति पाठान्तरं व्यक्तं च । 'कोमुइरयणियर विमलपडिपुण्णसोमवयणा' कौमुदीचन्द्रिका कार्तिकी वा तत्प्रधानस्तस्यां वा यो रजनीकरः- चन्द्रस्तद्वद्विमलं प्रतिपूर्ण सौम्यं च वदनं यस्याः सा तथा । 'सिंगारागारचारुवेसा' शृङ्गारस्य - रसविशेषस्यागारमिव - स्थानमिव चारुः -शोभनो वेषो नेपथ्यं यस्याः सा तथा अथवा | शृङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपस्तत्प्रधानः आकार:-संस्थानं चारुश्च वेपो यस्याः सा तथा । 'संगयगयहसियभणिय विहियवि For Para Use Only ~ 164~ www.anibrary or Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [७] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपातिकम ॥ १३ ॥ लाससल लिय संलाबणिउणजुत्तोवयारकुसला' सङ्गता-उचिता गतहसितभणितविहितविलासा यस्याः सा तथा, विहितं चेष्टितं विलासो-नेत्रचेष्टा, तथा सह ललितेन प्रसन्नतया ये संलापाः परस्परभाषणलक्षणास्तेषु निपुणा या सा तथा, | तथा युक्ताः सङ्गता ये उपचारा - लोकव्यवहारास्तेषु कुशला या सा तथा, ततः पदत्रयस्थ कर्मधारयः कचिदिदमन्यथा दृश्यते- 'सुंदरथणजघणवयणकरचरणनयण लावण्णविलासकलिया' व्यक्तमेव, नवरं जघनं - पूर्वकटीभागः लावण्यम्| आकारस्य स्पृहणीयता विलासः - स्त्रीणां चेष्टाविशेषः, आह च - " स्थानासनगमनानां हस्तभ्रूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स विलासः स्यात् ॥ १ ॥” इति । तथा 'कोणिएणं रण्णा सद्धिं अणुरत्ता अविरत्ता इट्ठे सदफरिसरसरुवगंधे पंचविहए माणुस्सर कामभोए पञ्चणुब्भवमाणी विहरति' व्यक्तमेव, नवरं अनुरक्ता-अविरक्ता, अनुरज्य न विप्रियेऽपि विरक्ततां गतेत्यर्थः ॥ ७ ॥ तस्स णं कोणिअस्स रण्णो एके पुरिसे बिडलकयवित्तिए भगवओ पवित्तिवाउए भगवओ तद्देवसिअं पविति णिवेएइ, तस्स णं पुरिसस्स बहवे अण्णे पुरिसा दिष्णभतिभत्तवेअणा भगवओ पवित्तिवाउआ भगवओ तद्देवसियं पविति णिवेदेति ॥ ( सू० ८ ) ॥ 'तस्स ण' मित्यादी 'विलकयवित्तिए 'ति विहितप्रभूतजीविक इत्यर्थः, वृत्तिप्रमाणं चेदम्- अर्द्ध त्रयोदशरजतसहस्राणि, यदाह - "मंडलियाण सहस्सा पीईदाणं सय सहस्सा" । 'पवित्तिवाउए' त्ति प्रवृत्तिव्यावृतो वार्ता व्यापारवान्, वार्तानिवेदक १ माण्डलिकानां सहस्राणि प्रीतिदानं शतसहस्राणि ( आगमने ) । धारिणीराज्य: वर्णनं, For Penal Use On ~ 165~ तत्र धारिणीव० सू० ७ ॥ १३ ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ACASSACRACKERACT | इत्यर्थः । 'तद्देवसिति दिवसे भवा दैवसिकी सा चासौ विवक्षिता-अमुत्र नगरादावागतो विहरति भगवानित्यादि-18 रूपा, दैवसिकी चेति तदेवसिकी, अतस्तां निवेदयति । 'तस्स णमित्यादि तत्र 'दिण्णभतिभत्तवेयण'त्ति दत्तं भृतिभक्तरूपं | वेतनं-मूल्यं येषां ते तथा, तत्र भृतिः-कार्षापणादिका भक्तं च-भोजनमिति ॥८॥ | तेणं कालेणं तेणं समएणं कोणिए राया भंभसारपुत्ते बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलबरमाइंबिअकोडंबिअमंतिमहामंतिगणगदोवारिअअमचचेडपीढमदनगरनिगमसेहिसेणाव|| इसस्थवाहदूतसंधिवाल सर्दि संपरिबुडे विहरह ।। (सू०९)॥ 'भभसारपुत्ते'त्ति श्रेणिकराजसूनुः । 'अणेगगणे त्यादि, अनेके ये गणनायका:-प्रकृतिमहत्तराः, दण्डनायका:-तन्त्रपालाः राजानो-मण्डलिका ईश्वरा-युवराजाः, मतान्तरेणाणिमाद्यैश्वर्ययुक्ताः, तलवरा:-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिताः-राजस्थानीयाः, 'भाडंबिया' छिन्नमडम्बाधिपाः, 'कोडंबिया' कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः मन्त्रिणः प्रतीताः, महामन्त्रिणो मन्त्रिमण्डलप्रधानाः, हस्तिसाधनोपरिका इति वृद्धाः, गणका-ज्योतिषिकाः, भाण्डागारिका इति वृद्धाः, दौवारिका:-प्रतीहाराः राजदौवारिका वा, अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः, चेटा:-पादमूलिकाः, पीठमर्दाः-आस्थाने आसनासन्नसेवकाः, वयस्था इत्यर्थः, नगर-नगरवासिप्रकृतयः, निगमाः-कारणिकाः वणिजो वा, श्रेष्ठिन:-श्रीदेवताध्यासि-18 ॥ तसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गाः, सेनापतयो नृपतिनिरूपितचतुरङ्गसैन्यनायकाः, सार्थवाहाः-सार्थवाहकाः, दूता-अन्येषां RECRACTOR ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [8] – दीप अनुक्रम [S] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपातिकम् ॥ १४ ॥ 1-96** Education Internationa भाग - १४ "औपपातिक" राजादेशनिवेदकाः सन्धिपालाः- राज्यसन्धिरक्षकाः, एषां द्वन्द्वस्ततस्तैः, इह तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, 'सद्धि'ति सार्द्ध सहेत्यर्थः, न केवलं तत्सहितत्वमेव, अपि तु तैः समिति - समन्तात्परिवृतः परिकरित इति ॥ ९ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे तित्थगरे सहसंबुद्धे पुरिमुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवर पुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी अभयदए चक्खुद मग्गदए सरणदए जीवदर दीवो ताणं सरणं गई | पइड़ा धम्मवरचाउरंतचकवडी अप्पढिहयवरनाणदंसणधरे विअहच्छउमे जिणे जाणए तिष्णे तारए मुझे मोयए बुद्धे बोहए सव्यण्णू सव्वदरिसी सिवम यलमरुअमणत मक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तिअं सिडिगइणामधेयं ठाणं संपाविउकामे अरहा जिणे केवली सत्तहत्थूस्सेहे समचउरं ससंठाणसंठिए बज्ज रिसहनारायसंघपणे अणुलोमवाउवेगे कंकरगहणी कवोयपरिणामे सउणिपोसपिहंत रोरुपरिणए महावीरवर्णके लिख्यते- 'श्रमणो' महातपस्वी नामान्तरं वा इदमन्तिमजिनस्य 'भगवान्' समत्रैश्वर्यादियुक्तः श्रुतधर्मस्य 'महावीरो' देवादिकृतोपसर्गादिष्वचलितसस्वतया देवप्रतिष्ठितनामा, 'आदिकरः' आदौ प्रथमतया करणशीलत्वात्, 'तीर्थङ्करः' सङ्घकरणशीलत्वात् 'सहसम्बुद्धः स्वयमेव सम्यग्बोद्धव्यस्य बोधात् कुत एतदित्याहयतः 'पुरुषोत्तमः' तथाविधातिशयसम्बन्धेन पुरुषप्रधानः, उत्तमत्वमेवोपमात्र येणाह 'पुरुषसिंहः शौर्यातिशयात् 'पुरुषवर पुण्डरीकः' पुरुष एव वरपुण्डरीकम् - धवलपद्मं पुरुषवरपुण्डरीकं, धवलता चास्य सर्वाशुभमलीमसर हि१ सय प्र० । भगवंत- महावीरस्य परिचय: - For Parts Only ~ 167~ कोणिक० सू० ९ ॥ १४ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) ཡྻ सूत्रांक [80] अनुक्रम [१०] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [१०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः Education Internation भाग - १४ "औपपातिक" तत्वात् एवं 'पुरुषवरगंधहस्ती' गन्धहस्तिता चास्य सामान्यगजकल्पपरचक्रदुर्भिक्षजनमर का दिदुरितविनाशनात्, तथा न भयं दयते ददाति प्राणापहारकरणरसिकोपसर्गकारिण्यपि प्राणिनीत्यभयदयः, अभया वा सर्वप्राणिभयपरिहारवती | दया-घृणा यस्य सोऽभयदयः, न केवलमयमनर्थं न करोति अपि स्वर्थ करोतीति दर्शयन्नाह चक्षुरिव चक्षुः श्रुतज्ञानं तद्द यते यः स चक्षुर्दयः, यथा हि लोके चक्षुर्दत्त्वा वाञ्छित स्थानमार्ग दर्शयन्महोपकारी भवति इत्येवमिहापीति दर्शयन्नाह| मार्ग-सम्यग्दर्शनादिकं मोक्षपथं दयत इति मार्गदयः, यथा हि लोके चक्षुरुद्घाटनं मार्गदर्शनं च कृत्वा चौरादिविलुप्त| धनान्निरुपद्रवं स्थानं प्रापयन् परमोपकारी भवतीत्येव मिहापीति दर्शयन्नाह 'शरणदयो' निरुपद्रवस्थानदायको निर्वाण| हेतुरित्यर्थः, यथा हि लोके चक्षुर्मार्गशरणदानादुःस्थानां जीवनं ददात्येवमिहापीति दशर्यन्नाह-जीवनं जीवो-भावप्राणधारणम्, अमरणधर्मत्वमित्यर्थः, तं दयत इति जीवदयो, जीवेषु वा दया यस्य स जीवदयः, तथा दीप इव समस्तवस्तुप्रका| शकत्वात् द्वीपो वा संसारसागरान्तर्गताङ्गिवर्गस्य नानाविधदुःख कल्लोलाभिघातदुः स्थितस्याश्वासहेतुत्वात्, तथा त्राणम्अनर्थप्रतिहननं तद्धेतुत्वात्राणं, तथा शरणम्-अर्थसम्पादनं तद्धेतुत्वाच्छरणं, तथा 'गइति गम्यतेऽभिगम्यते दुःस्थितैः सुस्थतार्थमाश्रीयते इति गतिः, 'पइड'त्ति प्रतिष्ठन्त्यस्यामिति प्रतिष्ठा - आधारः संसारगर्ते प्रपततः प्राणिवर्गस्येति तथा त्रयस्तमुद्राश्चतुर्थो हिमवानेते चत्वारः पृथिव्या अन्ताः- पर्यन्तास्तेषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः, स चासौ चक्रवर्ती च चातुरम्तचक्रवर्ती, वरश्वासौ चातुरन्तचक्रवतीं च वरचातुरन्त चक्रवर्ती - सर्वराजातिशायी, धर्मविषये वरचातुरन्त चक्रवर्ती धर्मवर चातुरन्तचक्रवर्ती, सकलधर्मप्रणेतॄणां मध्ये सातिशयत्वादिति, तथा अप्रतिहते कटादिभिरस्खलिते अविसंवाद के भगवंत- महावीरस्य परिचय: - For Para Use Only ~168~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा तिकम् १० ॥१५॥ + प्रत सूत्रांक [१०] वा अत एव क्षायिकत्वाद्वा वरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने-केवललक्षणे धारयतीति अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरः, कथमस्यैते श्रीवीरव. इत्यत आह-यतो 'व्यावृत्तच्छा निवृत्तज्ञानाद्यावरणो निर्मायो वा, एतच्च रागादिजयात्तस्येत्याह-'जिनों रागादिजेता, रागादिजयश्च रागादिस्वरूपादिज्ञानादित्यत आह-'जाणए'त्ति ज्ञायको-ज्ञाता रागादिभावसम्बन्धिनां स्वरूपकारणफलानामिति, अत एव 'तिण्णो'त्ति तीर्ण इव तीर्णः, संसारसागरमिति गम्यते, अत एव 'तारकः' संसारसागरादुपदेशव|र्तिनां भगवानिति, तथा 'मुक्तो' बाह्याभ्यन्तरग्रन्थात् कर्मबन्धनाद्वा, अत एव 'मोचकः' अन्येषामुपदेशवर्तिनां, तथा || 'बुद्धे'त्ति बुद्धवान् बोद्धव्यम् , अत एव 'बोधकः' अन्येषामिति, एतावन्ति विशेषणानि भवावस्थामाश्रित्योक्तानि, अथ सिद्धावस्थामाश्रित्योच्यते-'सवण्णू सबदरिसी'त्ति, इह ज्ञान-विशेषावबोधः, दर्शनं च-सामान्यावबोधः, सिद्धावस्थायां || IN पुरुषस्य कैश्चित् ज्ञानं नाभ्युपगम्यते प्रकृतिविकारस्य बुद्धेरभावादित्येतन्मतव्यपोहार्थमिदं, तथा 'शिव' सर्वोपद्रवरहि| तत्वाद् 'अचलं खाभाविकमायोगिकचलनरहितत्वात् 'अरुज' रोगाभावात् 'अनन्तम्' अनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वात् , 'अक्षयम्' अनाशं, साद्यपर्यवसितत्वात , अक्षयं वा परिपूर्णत्वात्, 'अव्यावाधम्' अपीडाकारित्वात्, 'अपुनरावर्तक' पुनर्भवाभावात् , सिद्धिगतिरिति नामधेयं-प्रशस्तं नाम यस्य तसिद्धिगतिनामधेयं, तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थान-क्षीणकर्मणो | * |जीवस्य स्वरूपं लोकाग्रं वा, जीवस्वरूपविशेषणानि तु लोकाने उपचारादवसेयानीति, 'संपाविउकामे'त्ति संप्राप्तुकामस्त-18॥ १५ ॥ त्राप्राप्त इत्यर्थः, 'जिणे जाणए' इत्यादिविशेषणानि क्वचिन्न दृश्यन्ते, दृश्यन्ते पुनरिमानि-'अरह'त्ति अर्हन्-अशोकादिमहापूजार्हत्वात् अविद्यमानं पा रहा-एकान्तं प्रच्छन्नं सर्वज्ञत्वादू यस्य सोऽरहा:, जिनः प्राग्वत्, केवलानि-सम्पूर्णानि दीप अनुक्रम [१०] SAREaratunintamanand भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [80] दीप अनुक्रम [१०] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१० ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः | शुद्धानि अनन्तानि वा ज्ञानादीनि यस्य सन्ति स केवली, अत एव 'सवण्णू सचदरिसी'। 'सत्तहत्थुस्सेहे' सप्तहस्तप्रमाणः । 'समचउरंस संठाणसंठिए' समं तुल्यं अधःकायोपरिकाययोर्लक्षणोपपततया तच्च तच्चतुरस्रमिव चतुरस्रं च प्रधान लक्षणोपपेततयैव समचतुरस्रं तच्च तत् संस्थानं च-आकारस्तेन संस्थितो यः स तथा । 'वज्रऋषभनाराचसंहनन' इति प्रथमसं| हननः । 'अणुलोमवाडवेगे' अनुलोमः- अनुकूलो वायुवेगः- शरीरान्तर्वर्तिवायवो यस्य स तथा । 'कङ्कग्रहणी' कङ्कः-पक्षिविशेषः तस्येव ग्रहणी-गुदाशयो यस्य नीरोगवर्चस्कतया स तथा 'कवोयपरिणामे' कपोतस्येव पक्षिविशेषस्येव परि| णामः- आहारपाको यस्य स तथा कपोतस्य हि पाषाणलवानपि जठराग्निर्जरयतीति किल श्रुतिः । 'सउणिपोसपितरोरुपरिणए' शकुनेरिव पक्षिण इव 'पोसं'ति अपानदेशः पुरीषोत्सर्गैर्निर्लेपतया यस्य स तथा पृष्ठञ्च प्रतीतमन्तरे च- पृष्ठो दरयोरन्तराले पाइर्वावित्यर्थः, उरू च-ज इति द्वन्द्वस्तत एते परिणता विशिष्टपरिणामवन्तः सुजाता यस्य स तथा ॥ मुपगंधसरिसनिस्साससुरभिवघणे छवी निरायकउत्तमपसत्यअइसेयनिरुवमपले जलमल्लकलंक से| परमदो सवज्जिय सरीरनि रुवलेवे छायाज्ज्जोइअंगमंगे घणनिचियसुबद्धलक्खणुष्णयकूडागारनिभपिंडिअग्गसिरए सामलिबोंडघणनिचियच्छोडिय मिडविसयपसत्यसुष्ठु म लक्खणसुगंधसुंदर भुअमोअगभिंगने लकज्जलपहिडभमरगणणिनि कुरुंब निचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरए दालिमपुष्पष्पगासत वणिज्जसरिसनिम्मलसुगिद्धके संत केसभूमी घण (निचिय ) छत्तागारुत्त मंगदेसे णिग्वणसमलमचंदद्धसमणिडाले उडुबइ पडिपुण्णसोमवयणे अल्लीणपमाणजुत्तसवणे सुसवणे पीणमंसलकबोलदेसभाए आणामियचाचरुहलकिण्हन्भराइतणुक भगवंतमहावीरस्य परिचय: For Parts Only ~ 170~ wor Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [80] दीप अनुक्रम [१०] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... १०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपातिकम् सिणणिभमुहे अवदालिअपुंडरीयणपणे कोआसिअधवलपत्तलच्छे गरुलायतज्ज्जुतुंगणासे उवचिअसिलप्पवालबिंब फलसण्णिभाहरोट्टे पंडुरससिसअलविमलणिम्मल संखगोक्खीरफेणकुंददगरयमुणालिआघवलदंतसेडी अखंडदंते अप्फुडिअदंते अविरलदंते सुणिद्धदंते सुजायदंते एगदंतसेढीविव अणेगदंते हुयवहणित धो५ यतत्ततवणिजरत्तत लतालुजी हे ॥ १६ ॥ Jan Eati भाग - १४ "औपपातिक" - भगवंत- महावीरस्य परिचय: 'पउप्पलगंधसरिसनिस्साससुरभिवयणे' पद्मं - कमलं उत्पलं च - नीलोत्पलमथवा पद्मं पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यमुत्पलं च- उत्पलकुष्ठं तयोर्गन्धेन-सौरभ्येण सदृशः- समो यो निःश्वासः - श्वासवायुस्तेन सुरभि-सुगन्धि वदनं मुखं यस्य स तथा । 'छवी'ति छविमान् उदात्तवर्णः, सुकुमारत्वचा युक्त इत्यर्थः । 'नीरायंकउत्तमपसत्य अइसेयनिरुवमपले' निरातङ्कं - नीरोगमुत्तमं प्रशस्तमतिश्वेतं निरुपमं च पलं-मांस, पाठान्तरेण तलं रूपं यस्य स तथा पाठान्तरपक्षे 'अतिस्सेय' इति अतिश्रेयः - अत्यन्तप्रशस्यम् । 'जलमहकलंक सेयरय दोसवज्जियसरीरनिरुवलेवे' याति व लगति चेति यल:- स्वल्पप्रयत्ना| पनेयः स चासौ मलश्चेति यलमल्लः, स च कलङ्कं च दुष्टतिलकादिकं स्वेदश्च प्रस्वेदो रजश्च-रेणुस्तेषां यो दोषोमालिन्यकरणं तेन वर्जितं शरीरं यस्य स तथा स चासावत एव निरुपलेपश्चेति कर्मधारयः । 'छायाउज्जोइयंगमंगे' छायया दीया | उद्योतितं - प्रकाशितं अङ्गमङ्गं यस्य । 'घणनिचिय सुबद्धल क्खणुण्णय कूडागारनिभपिंडियग्गसिरए' घननिचितम् - अत्यर्थनिबिडं धनवद्वा-अयोघनवत् निचितं सुबद्धं सुष्ठु स्नायुबद्धं लक्षणोन्नतं - प्रशस्तलक्षणं कूटस्य पर्वतशिखरस्य आकारणसंस्थानेन निर्भ-सदृशं यत्तत्तथा, पिण्डिकेव--पाषाणपिण्डिकेवाग्रम्-उष्णीषलक्षणं यस्य तत्तथा, तदेवंविधं शिरो यस्य स For Parts Only ~ 171~ श्रीवीरव० सू० १० | ॥ १६ ॥ IKE Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [80] दीप अनुक्रम [१०] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... १०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः भाग - १४ "औपपातिक" भगवंत- महावीरस्य परिचय: - घननिचितादिविशेषणशिरस्कः । 'सामलिबोंडघणनिचियष्फो (च्छो) डियमिडविसय पसत्थसु हुमलक्खणसुगंधसुंदर भुअमोअग| भिंगनेलकज्जलपहिङभमरगणणिद्ध निकुरुवनिचियकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरए' शाल्मली - वृक्षविशेषः तस्या यद्वोण्डं-फलं घननिचितम् अतीव निविडं 'छोटिय'ति छोटितं स्फोटितं तद्वत् मृदवः सुकुमाराश्च विशदाश्च-व्यक्ताः प्रशस्ताश्च - शुभाः सूक्ष्माश्च श्लक्ष्णाः लक्षणाश्च-लाक्षणिकाः सुगन्धयश्च-सुरभयः सुन्दराश्च शोभनाः भुजमोचकवद् - रत्नविशेष इव भृङ्गवत्कीटविशेषवदङ्गारविशेषवद्वा नैलवत्-नीलीविकारवत् अथवा भृङ्गनेलवत् कज्जलवत्-मषीय प्रहृष्टभ्रमरगणवच्च-निरुज | द्विरेफवृन्दमिव स्निग्धः - कृष्णच्छायो निकुरुम्बः-समूहो येषां ते तथा, ते व निचिताश्च निविडाः कुश्चिताश्च - कुण्डलीभूताः प्रदक्षिणावर्ताश्च प्रतीताः मूर्द्धनि मस्तके शिरोजा वाला यस्य स तथा अधिकृतवाचनायां भुजमोचकशब्दादारभ्य चेदमधीयते न सामलीत्यादीति । 'दालिमपुप्फष्पगास तवणिज सरिस निम्म सुणिद्ध के संत केसभूमी' दाडिमपुष्प - काशा च रक्तेत्यर्थः, तपनीयसदृशी च-रक्तसुवर्णसमवर्णेत्यर्थः, निर्मला च सुस्निग्धा च प्रतीता केशान्ते-वालसमीपे केशभूमिः - केशोत्पत्तिस्थानभूता मस्तकत्व यस्य स तथा । 'घणनिचियेत्यादि प्राग्वत्, छत्राकारोत्तमाङ्गदेशः, उन्नतत्वसाधर्म्यात् । 'णिवणसमलमचंदज्रसमणिडाले' निर्व्रण-विस्फोटकादिकृतक्षतरहितं समम् अविषममत एव लष्टं-मनोज्ञं मृष्टं शुद्धं चन्द्रार्धसमं- शशधरशकलसदृशं ललाटम्-अलिकं यस्य स तथा । 'उडुवइपडिपुण्णसोमवयणे' इह प्राकृतत्वात् प्रतिपूर्णो डुपतिसौम्यवदन इति दृश्यम्, उडुपतिः- चन्द्रः । 'अल्लीणपमाणजुत्तसवणे' आलीनौ न तु टप्परौ प्रमाणयुक्तौ स्वप्रमाणोपेतौ श्रवणौ-कर्णौ यस्य स तथा, अत एव 'सुश्रवणः' शोभन श्रोत्रः शोभनश्रवणव्यापारो वा । 'पीणमं For Parts Use One ~ 172~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... १०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपंप तिकम् 8 to a भाग - १४ "औपपातिक" भगवंत- महावीरस्य परिचय: - | सलकवोल सभाए' पीनौ-अकृशौ यतो मांसली - समांसों कपोलो-गण्डौ तयोस्तावेव वा मुखस्य देशरूपौ भागौ यस्य स तथा । 'आणामियचावरुइलकिण्हरु भरा इतणुक सिणणिद्धभमुहे' आनामितम् ईषन्नामितं यच्चापं धनुस्तद्वदुचिरे-मनोज्ञे कृष्णाभ्रराजीव- कालिकमेधरेखेव तनुके कृष्णे-काले स्निग्धे च-मुच्छाये भ्रुवौ- नेत्रावयवविशेषौ यस्य स तथा वाच नान्तरे तु दृश्यते 'आणामियचा वरुइलकिण्ड भराइ संठियसंगय आयय सुजायभमुए आनामितचापवद्धचिरे कृष्णा भ्रराजीवञ्च संस्थिते- तत्संस्थानवत्यौ सङ्गते-उचिते आयते - दीर्घे सुजाते- सुनिष्पन्ने भ्रुवौ यस्य स तथा । 'अवदालियपुंडरीयणयणे' अवदालितं-रविकरैर्विकासितं यत्पुण्डरीकं - सितपद्मं तद्वन्नयने यस्य स तथा, अत एव 'कोआसि अधवलपत्तलच्छे' | कोकासियत्ति-पद्मवद्विकसिते धवले च क्वचिद्देशे पत्रले च- पक्ष्मवत्यौ अक्षिणी लोचने यस्य स तथा । 'गरुठायतउज्जुतुंगणासे' गरुडस्येवायता- दीर्घा ऋज्ची - अवक्रा तुझा-उन्नता नासा - नासिका यस्य स तथा । 'उअचिअसिलप्पवालबिंत्रफलसण्णिभाहरोहे' उअचिअत्ति-परिकर्मितं यच्छिलारूपं प्रवालं विद्रुममित्यर्थी, विम्बफलं - गोल्हाफलं तयोः सन्निभः| सदृशो रक्ततया उन्नतमध्यतया च अधरोष्ठः - अधस्तनदन्तच्छदो यस्य स तथा । 'पंडुरससिस अलविमलणिम्मल संखगोक्खीरफेणकुंदद्गरयमुणालियाधवलदंतसेढी' पाण्डुरम्-अकलङ्कं यच्छशिशकलं- चन्द्रखण्डं विमलानां मध्ये निर्मलश्च यः शङ्खः गोक्षीरफेने च प्रतीते कुन्दं-पुष्पविशेषः उदकरजश्च तोयकणा मृणालिका च-बिशिनी तद्वद्धवला दन्तश्रेणिर्यस्य स तथा । 'अखण्डदन्ते' सकलरदनः, 'अप्फुडियदंते' अजर्जरदन्तः, 'अविरलदंते' घनरदन', 'सुणिद्धदंते'त्ति व्यक्तं, 'सुजायदंते' सम्यगनिष्पन्नदन्तः 'एगदंतसेढीविव अणेगदंते' एकस्य दन्तस्य श्रेणिः - पतिर्यस्य स तथा स इव परस्परानुपल For Pasta Use Only ~ 173~ श्रीairao सू० १० ॥ १७ ॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] क्ष्यमाणदन्तविभागत्वात् अनेके दन्ता यस्य स तथा । 'हुयवहणितधोयतत्ततवणि जरत्ततलतालुजीहे' हुतवहेन-अग्निना & निर्मात-दग्धमलं धौत-जलप्रक्षालितं तप्त-सतापं यत्तपनीयं-सुवर्ण तद्वद्रततलं-लोहितरूपं तालु च-काकुदं जिह्वा | च-रसना यस्य स तथा। अवडियसुविभत्तचित्तमंसू मंसलसंठियपसस्थसहूलविउलहणूए चउरंगुलमुप्पमाणकंबुवरसरिसग्गीवे वर-18 महिसवराहसीहसलउसभनागवरपडिपुषणविउलक्खंधे जुगसन्निभपीणरइयपीवरपउहसुसंठियमुसिलिदृविसिषणथिरसुबहसंधिपुरवरफलिहवहियभुए भुअईसरविउलभोगआदाणपलिहउच्छूढदीहबार रत्तत-19 लोवइयमउअमंसलसुजायलक्खणपसत्थअच्छिद्दजालपाणी पीवरकोमलवरंगुली आयंचतंवतलिणसुहरुइल&ाणिदणक्खे चंदपाणिलेहे सूरपाणिलेहे संखपाणिलेहे चक्रपाणिलेहे दिसासोत्थिअपाणिलेहे चंदसरसंखचकट दिसासोस्थिअपाणिलेहे कणगसिलातलुज्जलपसत्थसमतलवचियविच्छिण्णपिठुलवच्छे सिरिवच्छंकियवच्छे अकरंडुअकणगरुयपनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी अट्ठसहस्सपडिपुण्णवरपुरिसलक्खणधरे सपणय-18 पासे संगपपासे सुंदरपासे सुजायपासे मियमाइअपीणरइअपासे उज्जुअसमसहियजचतणुकसिणणिद्धआइ जलडहरमणिजरोमराई झसविहगसुजायपीणकुच्छी BI 'अवडियसुविभत्तचित्तमंसू' अवस्थितानि-अवद्धिष्णूनि सुविभक्कानि-विविक्तानि चित्राणि-अतिरम्यतया अङ्गतानि || श्मश्रूणि-कूर्चकेशा यस्य स तथा । 'मसलसंठियपसत्थसहलविउलहणूए' मांसल-उपचितमांसः संस्थितो-विशिष्टसंस्थानः दीप अनुक्रम [१०] भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~174 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: श्रीव औपपा- तिकम् प्रत सूत्रांक [१०] प्रशस्तः-शुभः शार्दूलस्येव-व्याघ्रस्येव विपुलो-विस्तीर्णो हनुः-चिबुकं यस्य स तथा । 'चउरंगुलसुष्पमाणकंबुवरसरिसग्गी चतुरजललक्षणं सुषु प्रमाणं यस्याः सा तथाविधा कम्बुवरसदृशी च-उन्नततया वलित्रययोगाच्च प्रधानशसहशी ग्रीवा-II कण्ठो यस्य से तथा । 'वरमहिसवराहसीहसलउसभनागवरपडिपुण्णविजलक्षंधे' वरमहिषः-प्रधानः सैरीभेयः वराहः| शूकरः सिंहः केसरी शार्दूलो-व्याघ्रः ऋषभो-वृषभो नागवरः-प्रधानगजः एषामिव प्रतिपूर्णः-स्वप्रमाणेनाहीनो विपुलो-वि|स्तीर्णः स्कन्धा-अंशदेशो यस्य स तथा। 'जुगसन्निभपीणरइयपीवरपउडसंठियमुसिलिडविसिषणथिरसुबद्धसंधिपुरवरफलिहवट्टियभुए' युगसन्निभौ-वृत्तत्वायतत्वाभ्यां यूपतुल्यौ पीनौ-उपचितौ रतिदौ-पश्यतां सुखकरौ पीवरप्रकोष्ठौ-अकृशकलाचिकौ संस्थितौ-विशिष्टसंस्थानौ सुश्लिष्टाः-सङ्गता विशिष्टाः-प्रधानाः धना-निविडाः स्थिरा:-नातिश्लथाः सुबद्धाः-सुष्टु नद्धाः स्नायुभिः सन्धयः-सन्धानानि ययोस्ती तथा, पुरवरपरिघवत्-नगरार्गलाबद्धर्तितौ च बाहू यस्य स तथा, वाचनान्तरे 'पुरवरफलिहवाट्टियभुए इत्येतावदेव भुजविशेषणं दृश्यते । 'भुयईसरविउलभोगआदाणपलिहउच्छुडदीहवाहू'भुजगेश्वरी-नागराजस्तस्य यो विपुलो-महान भोगो-देहः स तथा, स चासौ आदानार्थम्-ईप्सितार्थग्रहणाय 'पलिहोच्छूढ'त्ति पर्यवक्षितश्च-प्रसारित इति समासः, पाठान्तरे 'आयाणफलिहओच्छूढ'त्ति आदीयते अस्मादित्यादानम्-अर्गलास्थानं तस्माद् । 'उच्छूटोति निष्काशितः ‘फलिहोत्ति अर्गलादण्डः स इव ताविव वा दीघों बाहू यस्य स तथा, वाचनान्तरे युगसन्नि- ॥।॥ १८॥ भपीनरतिदपीवरप्रकोष्ठश्चासौ संस्थितोपचितघनस्थिरसुसम्बद्धसुनिगूढपर्वसन्धिश्चेति कर्मधारयपदमिति । 'रत्ततलोव| इयमउअमंसलसुजायलक्षणपसस्थअच्छिद्दजालपाणी' रक्ततलौ-लोहिताधोभागी उपचिती-उन्नती मृदुको-कोमलौ दीप अनुक्रम [१०] For P OW | भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~175~ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) ཡྻ सूत्रांक [80] अनुक्रम [१०] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... १०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः मांसलौ- समांसी सुजाता - सुनिष्पन्नौ प्रशस्तलक्षणौ-शुभचिहौ अच्छिद्रजालौ-विवक्षिताङ्गुल्यन्तरालसमूहरहिती पाणीहस्तौ यस्य स तथा । 'पीवरकोमलवरंगुली' व्यक्तं, नवरं पीवराः - महत्यः, क्वचित्तु दृश्यते 'पीवरवट्टियसुजाय कोमलवरंगुली' व्यक्तं च । 'आर्यवर्तवत दिणसुइरुइल णिद्धणक्खे' 'आयंवतंच 'न्ति ताम्रवत् आताम्रा-ईपलोहिताः तलिना:- प्रतलाः शुचयः पवित्राः रुचिराः- दीप्ताः स्निग्धा - अरूक्षा नखाः- कररुहा यस्य स तथा । 'चंदपाणिलेहे' चन्द्राकाराः पाणौ रेखा यस्य स तथा एवमन्यान्यपि त्रीणि । 'दिसासोत्थिअपाणिलेहे' दिक्स्वस्तिकः - दक्षिणावर्तस्वस्तिकः, एतदेवानन्तरोक्तं | विशेषणपश्चकं तत्प्रशस्तताप्रकर्षप्रतिपादनाय सङ्ग्रहवचनेनाह-चन्द्रसूर्यशङ्खचक्र दिक्स्वस्तिकपाणिलेखः, अत एव वाचनान्तरेऽधीयते - 'रविससि संखचक्क सोत्थियविभत्तसुविरइयपाणिलेहे' व्यक्त, नवरं विभक्ता-विभागवत्यः सुविरचिताः सुष्ठुकृताः स्वकीयकर्मणा । 'अणेगवरलक्खणुत्तिमपसत्थमुद्रइयपाणिलेहे' अनेकैर्बरलक्षणैरुत्तमाः प्रशस्ताः शुचयो रतिदाश्च| रम्याः पाणिलेखा यस्य स तथा । अथ प्रकृतवाचनाऽनुश्रीयते- 'कणगसिलाय लुज्जलप सत्थसमतल उवचियविच्छिन्नपिहुलवच्छे' कनकशिलातलब दुजवलं प्रशस्तं च- शुभं समतल - अविषमरूपम् उपचितश- मांसलं विस्तीर्ण पृथुलं च-अति| विशालं च वक्षः-उरो यस्य स तथा । 'सिरिवच्छंकियवच्छे' व्यक्तं, वाचनान्तरे तु वक्षोविशेषणान्येवं दृश्यन्ते-'उवचिय| पुरवरकवाड विच्छिण्णपिहुलवच्छे' उपचितं पुरखरकपाटवद्विस्तीर्ण पृथुलं च-अतिपृथु वक्षो यस्य स तथा, 'कणयसिलायलुज्जलप सत्थसमतल सिरिवच्छ रइयवच्छे' पूर्ववन्नवरं श्रीवत्सेन रतिदं रम्यमिति विशेषः । 'अकरंडुअकणगरुययनिम्मलसुजायनिरुवहयदेहधारी' अकरण्डुकञ्च मांसलतयाऽनुपलक्ष्यमाणपृष्ठवंशास्थिकं कनकस्येव रुचको - रुचिर्यस्य स भगवंत- महावीरस्य परिचय: For Parts Only ~ 176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: तिकम् ཤྩ, ཟླ། प्रत सत्रांक 1१०1 औपपा तथा निर्मलं च सजातं च निरुपहतं च-रोगोपहतिवर्जितं देहं धारयतीत्येवंशीलो यः स तथा । 'असहस्सपडि- श्रीवीरव. पुण्णवरपुरिसलक्खणधरे'त्ति क्वचिदृश्यते, अष्टसहस्रम्-अष्टोत्तरसहनं प्रतिपूर्णम्-अन्यून वरपुरुषलक्षणानां स्वस्तिका-15 दीनां धारयति यः स तथा । 'सण्णयपासे' अधोऽधःपार्श्वयोरवनतत्वात् 'संगयपासे' देहप्रमाणोचितपार्थः, अत एव || सू०१० ॥१९॥ 'सुंदरपासे'त्ति व्यक्तं, 'सुजायपासे' सुनिष्पन्नपाश्वः, 'मियमाइअपीणरड्यपासे' मितमात्रिकी-अत्यर्थं परिमाणवन्ती पीनी-। उपचिती रतिदी-रम्यौ पावों-कक्षाधोदेशौ यस्य स तथा । 'उजुयसमसंहियजच्चतणुकसिणणिद्धआइज्जलडहरमणिजरोमराई ऋजुकानाम्-अवक्राणां समानाम्-अविषमाणां संहितानां-संहतानां जात्याना-प्रधानानां तनूना-सूक्ष्माणां कृष्णाना-कालानां स्निग्धानाम्-अरूक्षाणाम् आदेयानाम्-उपादेयानां लडहानां-सलावण्यानाम् अत एव रमणीयानां Mच-रम्याणां रोम्णां-तनूरुहाणां राजिः-पतिर्यस्य स तथा । 'झसविहगसुजायपीणकुच्छी' मत्स्थपक्षिणोरिव सुजाती| सुनिष्पन्नी पीनी-उपचिती कुक्षी-उदरदेशविशेषी यस्य स तथा। झसोदरे सुइकरणे पउमविअडणाभे गंगावत्तकपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणबोहियअकोसा. यंतपउमगंभीरवियडणाभे साहयसोणंदमुसलदपणणिकरियवरकणगच्छरुसरिसवरवइरवलिअमझे पमुइयवरतुरगसीहवरवटियकडी वरतुरगसुजायसुगुज्झदेसे आइपणहउब्च णिरुवलेवे वरवारणतुल्लविकमविलसियगई गयससणसुजायसन्निभोरु समुग्गणिमग्गगूढजाणू एणीकुरुविंदावत्तवहाणुपुव्वजंघे संठियमुसिलिहगूढगुप्फे सुप्पइद्वियकुम्मचारुचलणे अणुपुब्वसुसंहयंगुलीए उपणयतणुतंयणिदणक्खे रतुप्पलपत्तमउअ-8 दीप अनुक्रम ORDER [१०] भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~177~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] सुकुमालकोमलतले अट्ठसहस्सवरपुरिसलक्खणधरे नगनगरमगरसागरचककवरंकमंगलंकियचलणे विसि-1|| हुरूवे हुयवहनिमजलियतडितडियतरुणरविकिरणसरिसतेए अणासचे अममे अकिंचणे छिन्नसोए निरुवलेवे है। | ववगयपेमरागदोसमोहे निग्गंथस्स पक्यणस्स देसए | 'झसोदरे'त्ति व्यक्त । 'सुइकरणे शुचीन्द्रियः । 'झपोदरपद्मविकटनाभि' इति पाठान्तरं । 'गङ्गायत्तकपयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणवोहियअकोसायंतपउमगंभीरवियडणाहे'गङ्गावर्तक इव प्रदक्षिणावर्ततरङ्गैरिव-वीचिभिरिव भङ्गरा च-भग्ना रविकिरणतरुणत्ति-तरुणरविकिरणैर्बोधितं-स्पृष्टं अकोसायंतत्ति-विकाशीभवद् यत्पद्मं तद्वद्गम्भीरा च विकटा ४ च नाभिर्यस्य स तथा । 'साहयसोणंदमुसलदप्पणणिकरियवरकणगच्छरुसरिसवरवइरवलियमझे' साहयत्ति-संहतं संक्षि-18 प्समध्यं यत्सोणंद-त्रिकाष्ठिका मुशलं च-प्रतीतं दर्पणकश्च-आदर्शकदण्डो निगरियत्ति-सारीकृतं यद्वरकनकं तस्य यः सरुः-खङ्गमुष्टिः स चेति द्वन्द्वः, तैः सहशो वरवज्र इव वलित:-क्षामो मध्यो-मध्यभागो यस्य स तथा। 'पमुइयवरतुरयसीहवरवट्टियकडी' प्रमुदितस्य-रोगशोकाद्यनुपहतस्य वरतुरगस्येव सिंहवरस्येव च प्रतीतस्य वर्तिता-वृत्ता कटी| नितम्बदेशो यस्य स तथा, पाठान्तरे तु 'पमुइयवरतुरगसीहअइरेगवट्टियकडी'त्ति दृश्यते, तत्र प्रमुदितयोर्वरयोस्तुरगसिंहयोः कव्याः सकाशादतिरेकेण-अतिशयेन वर्तिता-वृत्ता कटी यस्य स तथा । 'वरतुरगसुजायगुज्झदेसे' वरतुरगस्येव सुजातः-सगुप्तत्वेन सुनिष्पन्नो गुह्यदेशो यस्य स तथा, वाचनान्तरे तु 'पसत्थवरतुरगगुज्झदेसे' व्यक्तं च । 'आइपणहउप निरुवालेचे' जात्यभ्य इव निरुपलेपो-लेपरहितशरीरः, जात्यश्वो हि मूत्रपुरीषाद्यनुपलिप्तगात्रो भवति । 'वरवारण *****%AGRIkc दीप अनुक्रम [१०] | भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 1१०1 औपपा- तुलविक्कमविलसियगई वरवारणस्य-गजेन्द्रस्य तुल्यः-सदृशो विक्रमः-पराक्रमः विलसिता च-विलासवती गति:-गमनं श्रीवीरव तिकम् | यस्य स तथा । 'गयससणसुजायसन्निभोरु' गजश्वसनस्य-हस्तिनासिकायाः सुजातस्य-सुनिष्पन्नस्य सन्निभे-सदृश्यो ऊरू-जो यस्य स तथा । 'समुग्गणिमग्गगूढजाणू' समुद्गः-समुद्गकाख्यभाजनविशेषस्तस्य तत्पिधानस्य च सन्धिस्तद्वन्निमनगूढे-अत्यन्त निगूढे मांसलत्वादनुन्नते जानुनी-अष्ठीवती यस्य स तथा । 'एणीकुरुविंदावत्तवट्टाणुपुवघे एणी-हरिणी तस्या इव कुरुविन्दः-तृणविशेषः वत्रं च-सूत्रवलनकं ते इव च वृत्ते-वर्तुले आनुपूण तनुके चेति गम्यं, जो-प्रसूते यस्य स तथा, अन्ये वाहुः-एण्यः-स्नायवः कुरुविन्दा-कुटिलकाभिधानो रोगविशेपः ताभिस्त्यक्ते, शेष तथैव । 'संठियसुसिलिङगूढगुप्फे' संस्थिती-संस्थानविशेषवन्तौ सुश्लिष्टौ-सुघटनौ गूढौ-मांसलत्वादनुपलक्ष्यी गुल्फी-पादमणि-| |बन्धी यस्य स तथा । 'सुपइडियकुम्मचारुचलणे' सुप्रतिष्ठितौ-शुभप्रतिष्ठी कूर्मवत्-कच्छपवचारू-उन्नतस्पेन शोभनी चलनी-पादौ यस्य स तथा । 'अणुपुवसुसंयंगुलीए' आनुपूयेण-क्रमेण वर्द्धमाना हीयमाना वा इति गम्य, सुसं-| हता-सुष्टु अविरला अङ्गुल्या-पादानावयवा यस्य स तथा, 'अणुपुवसुसाहयपीवरंगुलीए'त्ति कचिद् दृश्यते । 'उष्णयतणुतंबणिद्धणहे' उन्नता-अनिम्नाः तनवः-प्रतलाः ताम्रा-अरुणाः स्निग्धाः-कान्ता नखा:-पादानुल्यवयवा यस्य स तथा । 'रचप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमलतले' रक्त-लोहितमुत्पलपत्रवत्-कमलदलवन्मृदुकम्-अस्तब्धं सुकुमारा-16॥२०॥ ४ाणां मध्ये कोमलं पादतलं यस्य स तथा । 'अवसहस्सवरपुरिसलक्खणधरे'त्ति व्याख्यातमेव । वाचनान्तरेऽधीयते-'नग-12 * नगरमगरसागरचर्ककवरंकमंगलंकियचलणे' नगः-पर्वतो नगरं-पत्तनं मकरो-जलचरविशेषः सागर:-समुद्रः चक्र--रथाङ्गं दीप अनुक्रम [१०] | भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] एतान्येवाङ्का-लक्षणानि वराङ्गाश्च-नगादिव्यतिरिक्तप्रधानलक्षणानि मङ्गलादीनि च-स्वस्तिकादीनीति द्वन्द्वः, तैर&ाहिती चलनी यस्य स तथा । 'विसिहरूवे'त्ति व्यक्तं । 'हुयवहनिमजलियतडितडियतरुणरविकिरणसरिसतेए' हुत-13 वहस्य निर्धूमं यद् ज्वलितं तस्य तटितडितश्च-विस्तारितविद्युतः तरुणरविकिरणानां च-अभिनवादित्यकराणां सदृशं- समं तेजः-प्रभा यस्य स तथा । 'अणासवे' प्राणातिपातादिरहितः। अममें ममेतिशब्दरहितो, निर्लोभत्वात् । 'अकिंचणे निद्रव्यः, परिग्रहसंज्ञारहित्वात् । 'छिन्नसोए' छिन्नश्रोताः त्रुटितभवप्रवाहः, छिन्नशोको घा। 'निरुवलेवे' द्रव्यतो निर्मलदेहो, भावतस्तु कर्मबन्धहेतुलक्षणोपलेपरहितः । पूर्वोक्तमेव विशेषेणाह-बवगयपेमरागदोसमोहे' व्यपगत-नष्टं प्रेम च-अभि प्वङ्गलक्षणं रागश्च-विषयानुरागलक्षणो द्वेषश्च-अनिष्टेऽप्रीतिरूपो मोहश्च अज्ञानरूपो वा यस्य स तथा । 'निर्गधस्स &ापवयणस्स देसए' निम्रन्थस्य-जैनस्य प्रवचनस्य-शासनस्य देशका सत्थनायगे पइटावए समणगपई समणगविंदपरिअहए चउत्तीसवुद्धवयणातिसेसपत्ते पणतीससच्चवयणातिसेसपत्ते आगासगएणं चक्केणं आगासगएणं छत्तेणं आगासियाहिं चामराहिं आगासफलिआमएणं सपायवीडेणं सीहासणेणं धम्मज्झएणं पुरओ पकढिजमाणेणं (चउद्दसहिं समणसाहस्सीहिं छत्तीसाए अजिआ-18 |साहस्सीहिं) सद्धिं संपरिबुड़े पुष्वाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे सुहसुहेणं विहरमाणे चंपाए णयरीए बहिया उवणगरग्गामं उवागए चंप नगरि पुण्णभई चेइ समोसरिउं कामे ॥ (सू०१०)॥ १ आगसगयाहिं सेयवरचामराहिं । २ नैतव्याख्यानुगतम् । दीप अनुक्रम 564454544 [१०] | भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~180~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [१०] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... १०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपातिकम् ॥ २१ ॥ शास्ता नायकः, तस्यैव नेता स्वामीत्यर्थः । 'पइडावए' तस्यैव प्रतिष्ठापकः, तैस्तैरुपायैर्व्यवस्थापकः । 'समगपई' श्रमणकपतिः, साधुसङ्घाधिपतिः । 'समणगविंदपरिअट्टए' श्रमणा एव श्रमणकास्तेषां वृन्दस्य परिवर्तको वृद्धिकारी परिकर्षको वा अग्रेगामी तेन वा पर्यायकः परिपूर्णो यः स तथा । 'चउत्तीसबुद्धवयणाति से सपत्ते' 'चतुखिंशत् बुद्धानां - जिनानां वयणत्ति-वचनप्रमुखाः 'सर्वस्वभाषानुगतं वचनं धर्माववोधकर' मित्यादिनोक्तस्वरूपा येऽतिशेषा- अतिशयास्तान प्राप्तो यः स तथा । इह च वचनातिशयस्य ग्रहणमत्यन्तोपकारित्वेन प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यथा देहवैमल्यादयस्ते पठ्यन्ते, यत आह- "दे'हं विमलसुबंधं आमयपरसेयवज्जियं अरुयं । रुहिरं गोक्खीराभं निधीसं पंडुरं मंसं ॥ १ ॥" इत्यादि । 'पणतीससच्चययणाइसेसपत्ते' पञ्चत्रिंशत् ये सत्यवचनस्यातिशेषा-अतिशयास्तान् प्राप्तो यः स तथा, ते चामी वचनातिशयाः- तद्यथा-संस्कारवश्वम् १ उदात्तत्वम् २ उपचारोपेतत्वं २ गम्भीरशब्दत्वम् ४ अनुना दिवं ५ दक्षिणत्वम् ६ उपनीतरागत्वं ७ महार्थत्वम् ८ अव्याहतपौर्वापर्यत्वं ९ शिष्टत्वं १० असन्दिग्धत्वम् ११ अपहृतान्योत्तरत्वं १२ हृदयग्राहित्वं १३ देशकालाव्यतीतत्वं १४ तत्त्वानुरूपत्वम् १५ अप्रकीर्णप्रसृतत्वम् १६ अन्योऽन्यप्रगृहीतत्वम् १७ अभिजातत्वम् १८ अतिस्निग्धमधुरत्वम् १९ अपरममवेधित्वम् २० अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वम् २१ उदारत्वं | २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वम् २३ उपगतश्लाध्यत्वम् २४ अपनीतत्वम् २५ उत्पादिताच्छिन्न कौतूहलत्वम् २६ अद्भु तत्वम् २७ अनतिविलम्बित्वं २८ विभ्रमविक्षेपकिलिकिञ्चितादिविप्रयुक्तत्वम् २९ अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्वम् ३० १ देहो विमलः सुगन्ध आमयप्रखेदवर्जितः अरुजः । रुधिरं गोक्षीराभं निर्वितं पाण्डुरं मांसम् ॥ १ ॥ Encan भगवंत- महावीरस्य परिचय: For Pernal Use On ~ 181 ~ श्रीवीरव० सु० १० ॥ २१ ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] आहितविशेषत्वं ३१ साकारत्वं ३२ सत्त्वपरिगृहीतत्वम् ३३ अपरिखेदित्वम् ३४ अब्युच्छेदित्वं ३५ चेति वचनातिशयाः। तत्र 'संस्कारवत्त्वं संस्कृतादिलक्षणयुक्तत्वं १ उदात्तत्वम्-उच्चैवृत्तित्वम् २ उपचारोपेतत्वम्-अग्राम्यता ३ गम्भीरश ब्दत्वं-मेघस्येव ४ अनुनादित्वं-प्रतिरवोपेतत्वादि ५ दक्षिणत्वं-सरलत्वम् ६ उपनीतरागत्वं-मालवकेशिकादिग्रामराग| युक्तता ७ एते सप्त शब्दापेक्षा अतिशयाः, अन्ये त्वर्थाश्रयाः, तत्र महार्थत्व-बृहदभिधेयता ८ अव्याहतपूर्वापरत्वं-पूर्वापरवाक्याविरोधः ९ शिष्टत्वम्-अभिमतसिद्धान्तोक्तार्थता वक्तुः शिष्टतासूचकत्वं वा १० असन्दिग्धत्वम्-असंशयका-3 रिता ११ अपहतान्योत्तरत्वं-परदूषणाविषयता १२ हृदयग्राहित्वं-श्रोतृमनोहरता १३ देशकालाव्यतीतत्वं-प्रस्तावोचितता १४ तत्त्वानुरूपत्वं-विवक्षितवस्तुस्वरूपानुसारिता १५ अप्रकीर्णप्रसृतत्वं-सुसम्बद्धस्य सतः प्रसरणम् , अथवा अस-II म्बद्धाधिकारस्वातिविस्तरयोरभावः १६ अन्योऽन्यप्रगृहीतत्वं-परस्परेण पदानां वाक्यानां वा सापेक्षता १७ अभिजातत्वं | वक्तः प्रतिपाद्यस्य वा भूमिकानुसारिता १८ अतिस्निग्धमधुरत्वं-घृतगुडादिवत् सुखकारित्वं १९ अपरमर्मवेधित्वं-परम-IIG मानुद्घाटनस्वरूपत्वम् २० अर्थधर्माभ्यासानपेतत्वं-अर्थधर्मप्रतिबद्धत्वं २१ उदारत्वम्-अभिधेयार्थस्यातुच्छत्वं गुम्फगुण विशेषो वा २२ परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्वमिति प्रतीतमेव २३ उपगतश्लाघ्यत्वम्-उक्तगुणयोगात् प्राप्तश्लाध्यता २४| I&|| अनपनीतत्वम्-कारककालवचनलिङ्गादिव्यत्ययरूपवचनदोषापेतता २५ उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्वं-स्वविषये श्रोतां ट्र जनितमविरिछन्नं कौतुकं येन तत्तथा तद्धावस्तत्वम् २६ अद्भुतत्वम् अनतिविलम्बित्वं च प्रतीत २७-२८ विभ्रम-|| विक्षेपकिलिकिश्चितादिवियुक्तत्व-विभ्रमो-वक्तृमनसो भ्रान्तता विक्षेपः-तस्यैवाभिधेयार्धं प्रत्यनासक्तता किलिकिश्चित दीप अनुक्रम [१०] भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~182 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपातिकम् ॥२६॥ प्रत सूत्रांक 1१०1 रोषभयाभिलापादिभावानां युगपदसकृत्करणम्, आदिशब्दान्मनोदोषान्तरपरिग्रहः, तैर्वियुक्तं यत्तथा तद्भावस्तत्त्वं २९ श्रीवीरव० अनेकजातिसंश्नयाद्विचित्रत्वम् , इह जातयो वर्णनीयवस्तुस्वरूपवर्णनानि ३० आहितविशेषत्वं-वचनान्तरापेक्षया दौकि-* |तविशेषता ३१ साकारत्व-विच्छिन्नवर्णपदवाक्यत्वेनाकारप्राप्तवं ३२ सत्त्वपरिगृहीतरव-साहसोपेतता ३३ अपरिखे-1|| सू०१० दितत्वम्-अनायाससम्भवः ३४ अव्युच्छेदित्व-विवक्षितार्थसम्यसिद्धिं यावद् अव्यवच्छिन्नवचनप्रमेयतेति ३५ ॥ अथ | प्रकृतवाचना-'आगासगएण'ति आकाशवर्तिना 'चक्रेण धर्मचक्रेण 'आगासगएणं छत्तेणे'ति छत्रत्रयेण 'आगासियाहिति आकाशम्-अम्बरमिताभ्यां-प्राप्ताभ्यां आकर्षिताभ्यां वा-आकृष्टाभ्यामुत्पारिताभ्यामित्यर्थः, 'चामराहिंति चामराभ्यांप्रकीर्णकाभ्यां, प्राकृतत्वाच्च लिङ्गव्यत्ययः, लक्षित इति सर्वत्र गम्यम् । 'आगासफलियामएणति आकाशतुल्यं स्वच्छ-४ तया यत् स्फटिकं तन्मयेन, सपादपीठेन सिंहासनेनेति व्यक्त । 'धम्मज्झएणं'ति धर्मचक्रवर्तित्वसंसूचकेन केतुना-महेन्द्रध्वजेनेत्यर्थः, 'पुरओ'त्ति अग्रतः 'पकढिज्जमाणेणंति देवैः प्रकृष्यमाणेनेति, 'सद्धिं' सह 'संपरिवुडे'त्ति सम्यक परिकरितः-समन्ताद्वेष्टित इत्यर्थः । 'पुषाणुपुषि'ति पूर्वानुपूयों न पश्चानुपूर्यो नानानुपूा वेत्यर्थः, क्रमेणेति हृदयं, 'चरन्' सञ्चरन्, एतदेवाह-गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे त्ति ग्रामश्च प्रतीतोऽनुग्रामश्च-विवक्षितग्रामानन्तरो ग्रामो प्रामानुग्रामं तद द्रवन्' गच्छन् ,एकस्माद्धामादनन्तरं ग्राममनुलपयन्नित्यर्थः, अनेनाप्रतिबद्धविहारमाह,तत्राप्यौत्सुक्याभावमिति। 'सुहंसुहेणं विहरमाणे'त्ति अत एव सुखंसुखेन-शरीरखेदाभावेन संयमबाधाभावेन च 'विहरन्' स्थानात् स्थानान्तरं गच्छन्द्र प्रामादिषु वा तिष्ठन् 'बहियत्ति बहिस्तात् 'उवणगरग्गामति नगरस्य समीपमुपनगरं तत्र ग्राम उपनगरग्रामस्तमुपागतः॥१०॥ दीप अनुक्रम [१०] भगवंत-महावीरस्य परिचय: ~183~ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक MI तए णं से पवित्तिवाजए इमीसे कहाए लखट्टे समाणे हहतुडचित्तमाणदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए पहाए कयबलिकम्मे कयकोउअमंगलपायच्छित्ते सुहप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पचरपरिहिए अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे सआओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, सआओ गिहाओ पडिहै णिक्खमित्ता चपाए गयरीए मजझमझेणं जेणेव कोणियस्स रपणो गिहे जेणेव बाहिरिया उबट्ठाणसाला 8 Pilजेणेव कृणिए राया भंभसारपुत्ते तेणेव उवागछई २ करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कह । जएणं विजएणं बद्धावेइ २ एवं वयासी-जस्स णं देवाणुपिया दंसणं कंखंति जस्स ां देवाणुप्पिया दंसर्ण है पीहंति जस्स णं देवाणुप्पिया सणं पत्थंति जस्स देवाणुप्पिया दसणं अभिलसंति जस्स णं देवा गुप्पिया णामगोत्तस्सवि सवणयाए हहतुट्ठजावहिअया भवंति, से णं समणे भगवं महावीरे पुन्वाणुपुचि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइजमाणे चंपाए णयरीए उवणगरगाम उवागए चंप णगरि पुण्णभदं चेइ समोसरि कामे, तं एअ णं देवाणुप्पियाणं पिअट्ठयाए पिअंणिवेदेमि, पिअंते भवज ॥ (सू०११)॥ ततोऽनन्तरं, 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, 'से' इति असौ 'पवित्तिवाउए'त्ति प्रवृत्तिव्यावृतो भगवद्वाच्यापारवान् 'इमीसे कहाएत्ति अस्यां भगवदागमनलक्षणायां वार्तायां 'लद्धहे समाणे'त्ति लब्धार्थः सन्-प्राप्तार्थः सन् , विज्ञः सन्नित्यर्थः, 'हड्तुद्दचित्तमाणदिए'त्ति हृष्टतुष्टम्-अत्यर्थतुष्टं हृष्टं वा-विस्मितं तुष्टं च-तोषवचित्त-मनो यत्र तत्तथा तत् हटतुष्टचित्तं १ क्रियापदस्याये द्विकलक्षणाङ्केन तस्यैव पूर्वकालकृदन्तता ज्ञेयेति लिखनशैली, कचित्तु अमे 'सा' इति लिखनमपि, दीप अनुक्रम ११) ~184~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक औपपा. | यथा भवति, एवमानन्दित-ईपन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगतः ततश्च 'णदिए'त्ति नन्दित:-समृद्धितरतामुपगतः। तितम् पीइमणे' प्रीतिः-प्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्य स तथा, 'परमसोमणस्सिए' परमं सौमनस्य-सुमनस्कता सञ्जातं यस्य १२३॥ 4.|| स परमसीमनस्थिकः तद्वाऽस्यास्तीति परमसौमनस्थिकः, 'हरिसवसविसप्पमाणहियए' हर्षवशेन विसर्पत-विस्तारं व्रज-|| जदयं यस्य स तथा, सर्वाणि चैतानि हष्टादिपदानि प्राय एकार्थानि, न च दुष्टानि, प्रमोदप्रकर्षप्रतिपत्तिहेतुत्वात् स्तुतिरूपत्वाच, यदाह-"वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवस्तथा निन्दन् । यस्पदमसकृद् ब्रूयात्तत्पुनरुक्तं न दोपाय | 'हाएत्ति' व्यक्त, कयवलिकम्मे त्ति स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म स्वगृहदेवतानां येन स तथा । 'कयकोउअमंगलपायच्छित्ते | कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तानि-दुःस्वमादिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वाद्येन स तथा, तत्र कौतुकानि-मपीतिल कादीनि मङ्गलानि तु-सिद्धार्थदध्यक्षतर्वाङ्करादीनि 'सुद्धप्पवेसाई मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए' शुद्धात्मा-मानेन | KI शुचिकृतदेहः वेश्यानि-वेशे साधूनि अथवा शुद्धानि च तानि प्रवेश्यानि च-राजसभाप्रवेशोचितानि चेति विग्रहः | मङ्गल्यानि-मङ्गलकरणे साधूनि वखाणि व्यक्तं, पवरत्ति-द्वितीयाबहुवचनलोपात् प्रवराणि-प्रधानानि परिहितो-निवसितः अथवा प्रवरश्चासौ परिहितश्चेति समासः । 'अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे'त्ति व्यक्तं, नवरं अल्पानि-स्तोकानि || महापाणि-बहुमूल्यानि । 'सआओ'त्ति स्वकात्-स्वकीयात् । 'जेणेव'त्ति यस्मिन्नेव देशे इत्यर्थः । 'बाहिरिय'त्ति अभ्य-I न्तरिकापेक्षया बाह्या । 'उपहाणसाल'त्ति आस्थानसभेति । तेणेब'त्ति तस्मिन्नेव देश इत्यर्थः । 'सिरसावत्तंति शिरसा"मस्तकेनाप्राप्तम्-अस्पृष्ट शिरसि वा आवर्तत इति शिरस्यावर्तोऽतस्तं । 'जएण विजएणं बद्धावेति'त्ति जय-सामान्यो दीप अनुक्रम ॥२३॥ ११) ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ४ विघ्नादिविषयो विजयः स एव विशिष्टतरः प्रचण्डप्रतिपन्थादिविषयः वर्धयति-जयेन विजयेन च बर्द्धस्व स्वमित्येवमा * शिषं प्रयुके स्मेत्यर्थः । 'देवाणुप्पियत्ति सरलस्वभावाः । 'दसणं'ति अवलोकन । 'कखंति'त्ति प्राप्तं सद्विमोक्तुं नेच्छन्ति । पीहति'त्ति स्पृहयन्ति अनवाप्तमवाप्सुमिच्छन्ति । 'पत्थंति'त्ति प्रार्थयन्ति-तथाभूतसहायजनेभ्यः सकाशाद्याचन्ते । 'अभिलसंतित्ति अभिलपन्ति-आभिमुख्येन कमनीयमिति मन्यन्ते । 'णामगोत्तस्सवित्ति नाम च-अभिधानं यथा महावीर | इति, गोत्रं च-वंशो यथा काश्यपगोत्र इति, नामगोत्रमिति द्वन्द्वैकत्वमतस्तस्य, अथवा नामाभिधानं गोत्रं च यथार्थ, ततः कर्मधारय इति । 'सघणयाए'त्ति श्रवणानां भावः श्रवणता तया, स्वार्थिको वा ताप्रत्ययः माकृतशैलीप्रभव इति ॥११॥ तए णं से कूणिए राया भभसारपुत्ते तस्स पवित्तिवाउअस्स अंतिए एयमटुं सोचा णिसम्म हहतुट्टजावहिअए विअसिअवरकमलणवणवधणे पअलिअवरकडगतुडियकेयूरमउडकुंडलहारविरायंतरइयवच्छेद पालंबपलंबमाणघोलंतभूसणधरे ससंभमं तुरियं चवलं नरिंदे सीहासणाउ अग्भुडेद २ सा पायपीढाउ | ४ पचोरुहइ २त्ता पाउआओ ओमुअइ २त्ता अवहह पंच रायककुहाई तंजहा-खरगं १ छत्तं २ उपफेसं | ३ वाहणाओ ४ वालवीअणं ५ एकसाडियं उत्तरासंगं करेइ २ ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए अंजलिमलिअग्गहत्थे तित्थगराभिमुहे सत्तड पयाई अणुगच्छति सत्तह पयाई अणुगच्छित्ता वामं जाणुं अंचेइ वाम जाणुं अंचेसा दाहिणं जाणुं धरणितलंसि साहट्ट तिकुखुत्तो मुद्धाणं धरणितलंसि निवेसेइ २ त्ता ईसिं पचुपणमति पक्षुण्णमित्ता कष्टगतुडियथंभिआओ आओ पडिसाहरति रत्ता करयल जाव कडु एवं वयासी दीप अनुक्रम [११] RELIGunintentiatishal ~186~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: कोणिक. सू०१२ प्रत सूत्रांक [१२] औपपा- 'सोचा णिसम्मत्ति श्रुत्वा-श्रोत्रेणाकये निशम्य-दृदयेनावधार्य । 'धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइअउच्छियरो- तिकम् मकू' धाराभिः-जलधरवारिधाराभिर्हतं यन्नीपस्य-कदम्बस्य सुरभिकुसुमं तत्तथा, तदिव चंचुमालइयत्ति-पुलकितोऽत पर उच्छ्रितरोमकूपश्च यः स तथा, इदं च विशेषणं कचिदेव दृश्यते । 'विअसियवरकमलणयणवयणे' विकसितानि॥२४॥ भगवदागमनवार्ताश्रवणजनितानन्दातिशयादुत्फुल्लानि बरकमलवन्नयनवदनानि यस्य स तथा । पचलियवरकडगतुडियकेऊरमउडकुंडलहारविरायंतरइयवच्छे प्रचलितानि-भगवदागमनश्श्रवणजनितसम्भ्रमातिरेकात् कम्पितानि वराणि-प्रधानानि कटकानि च कङ्कणानि तुटिकाश्च-बाहुरक्षकाः केयूराणि च-अङ्गदानि मुकुट च-किरीटं कुण्डले च-कर्णाभरणे यस्य स तथा, हारो-मुक्ताकलापो बिराजन्-शोभमानो रचितो-विहितो वक्षसि उरसि येन स तथा, ततः कर्मधारयः। | "पालवपलबमाणघोलंतभूसणधरे प्रालम्बो-झुम्बनकं प्रलम्बमान-लम्बमानं घोलं च-दोलायमानं यभूषणम्-आभरणं तद्धारयति यः स तथा । 'ससंभम ति सादरं 'तुरिय' (खरितं)चवलंति-अतित्वरितं, क्रियाविशेषणे चैते । 'पञ्चोरुहई' त्ति प्रत्यवरोहति-अवतरतीत्यर्थः, कचिदिदं पादुकाविशेषणं दृश्यते-वेरुलियवरिटरिडअंजणनिउणोवियमिसिमिसिंतम|णिरयणमंडियाओ'त्ति एवं चात्राक्षरघटना-बरिष्ठानि-प्रधानानि वैडूर्यरिष्ठाञ्जनानि-रलविशेषा ययोस्ते तथा, तथा निपुणेन-कुशलेन शिल्पिना ओपियत्ति-परिकर्मिते ये ते तथा, अत एव मिसिमिसिंतत्ति-चिकिचिकायमाने मणिरलैः-- चन्द्रकान्तादिकतनादिभिर्मण्डिते-भूषिते ये तथा, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः । तथेदमपि अवहट्ट पंच रायककु& हाई, तंजहा-खग्गं छत्तं उप्फेसं वाहणाओ वालवीअणति तत्राव९-अपहृत्य-परिहत्य राजककुदानि-राजचिह्नानि दीप अनुक्रम ॥२४॥ ~187~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] उप्फेसंति-मुकुटं वालव्यजनी-चामरमिति । 'एगसाडियं उत्तरासंगति एकः साटको यस्मिन्नस्ति स एकसाटिकः उत्तरासङ्गो-वैकक्षकम् 'आयते'त्ति आचान्तो-जलस्पर्शनात् 'चोक्खे'त्ति चोक्षो-विवक्षितमलापनयनात्, किमुक्तं भवति ?-परमसुइभूए' अतीव शुचिः संवृत्तः । 'अंजलिमउलियहत्थे अञ्जलिना-अञ्जलिकरणतो मुकुलिती-मुकुलाकृतीकृती हस्ती येन | स तथा । 'अंचेइति आकुश्चयति 'साहद्दु'त्ति संहृत्य निवेश्य । 'तिखुत्तो'त्ति विकृत्यत्रीन वारानित्यर्थः, 'निवेसेइ'त्ति न्यस्यति, 'ईसिं पञ्चुन्नमइति ईषत्-मनाक् प्रत्युन्नमति-अवनतत्वं विमवति 'पडिसाहरइ'त्ति ऊर्ध्व नयति ।। | णमोऽत्थु णं अरिहंताणं 'भगवंताणं आइगराणं तित्थगराणं सयंसंबुद्धाणं पुरिसुत्तमाणं पुरिससीहाणं| पुरिसवरपुंडरीआणं पुरिसवरगंधहत्थीणं लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाण लोगपईवाणं लोगपजो-13 अगराणं अभययाणं चक्खुदयार्ण मग्गदयाणं सरणदयाणं जीवदयाण बोहियाणं धम्मदयार्ण धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं दीवो ताणं सरणं गई पइडा अप्पडिहयवरमाणदसणधराणं विअदृछउमाणं जिणाणं जावयाणं तिण्णाणं तारयाणं बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोअगाणं| है सब्वन्नूर्ण सव्वदरिसीणं सिवमयलमरुअमर्णतमक्खयमव्वाबाहमपुणराबत्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमोऽस्धु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स आदिगरस्स तिस्थगरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स, बंदामि णं भगवंतं तत्थ गयं इह गते, पासइ मे (मे से) भगवं तत्थ गए इह गयन्ति कडु वंदति गमंसति ॥ दीप अनुक्रम शक्रस्त ~188~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मल [...१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा-मा स०१२ प्रत सूत्रांक *-* [१२] 'नमोऽत्थु ण' मित्यादि प्राग्वत् , नवरं 'दीवो ताणं सरणं गई पइट्टा' इत्यत्र जे तेर्सि नमोऽत्थु णमित्येवं गमनिका प्रवृत्तिवा. तिकम् |8| कार्येति । 'धम्मायरियरसे'ति धर्माचार्याय, न तु कलाचार्याय, धर्माचार्यत्वमेव कथमित्यत आह-'धम्मोवदेसगस्स' || धर्मोपदेशकायेति । 'तस्थ गर्य'ति तत्र ग्रामान्तरे स्थितम् , 'इह गए'त्ति अत्रावस्थितोऽहं वन्दे । कस्मादेवमित्यत आह॥२५॥ 'पासइ मेत्ति पश्यति मां, 'से'त्ति स-भगवान् 'इतिक?' इतिकृत्वा इतिहेतोः 'वंदईत्ति पूर्वोक्तस्तुत्या स्तौति 'णमंसइ' त्ति नमस्यति-शिरोनमनेन प्रणमति ॥ __ वंदित्ता णमंसित्ता सीहासणवरगए पुरस्थाभिमुहे निसीअइ, निसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउअस्स अद्भुत्तरसयसहस्सं पीतिदाणं दलयति, दलइत्ता सकारेति सम्माणेति सकारिता सम्माणित्ता एवं वयासी-जया णं देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे इहमागच्छेज्जा इह समोसरिजा इहेच चंपाए णयरीए बहिया पुण्ण-15 भदे चेहए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरेजा तया मम ट्र एअमहं निवेदिजासित्तिकट्ठ विसज्जिते ।। (मू०१२)॥ I 'अहुत्तरसयसहस्सं पीइदाणे ति अष्टोत्तरं लक्षं रजतस्य तुष्टिदानं ददाति स्मेदि. तावश्यके माण्डलिकानां प्रीतिदान-1181 IA| मझेत्रयोदशलक्षमानमुक्तं, यदाह-'वित्ती उ सुवण्णस्सा बारस अद्धं च सयसहस्साई । तानडयं चिय कोडी पीईदार्ग ll ID॥२५॥ १ वृतिस्तु सुवर्णानां द्वादश अर्द्ध च शतसहस्राणाम् । तावत्य एव कोयश्च प्रीतिदानं तु चक्रिणाम् ॥ १॥ एतदेव प्रमाणं केवलं ते | रजतानां तु केशवा ददति । माण्डलिकानां सहस्राणि प्रीतिदानं शतसहस्राणि ॥२॥ दीप अनुक्रम शक्रस्त ~189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मल [...१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] चक्किस्स ॥१॥ एवं चेव पमाणं नवरं रययं तु केसवा दिति । मंडलियाण सहस्सा पीईदाणं सबसहस्सा ॥२॥"13 | इति, इह पुनस्तदष्टोत्तरलक्षमानमुक्तमिति कथं न विरोध !, उच्यते, भगवति चम्पायामागते तद्दास्यतीति न विरोधः। 'सकारेइत्ति प्रवरवस्त्रादिभिः पूजयति । 'सम्माणेइ'त्ति तथाविधया वचनादिप्रतिपत्त्या पूजयत्येवेति । एवं 'सामित्ति |आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइत्ति वाचनान्तरे वाक्यम् , एवमिति-यथाऽऽदेशं स्वामिन्नित्यामन्त्रणार्थः इतिः-उपप्रदर्शने | आज्ञया-तदाज्ञां प्रमाणीकृत्येत्यर्थः विनयेन-अञ्जलिकरणादिना वचनं-राजादेश प्रतिशृणोति-अभ्युपगच्छति इति ॥१२॥3 | तएणं समणे भगवं महावीरे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुलुप्पलकमलकोमलुम्मिलितंमि आहा (अह)| पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगासकिंसुअसुअमुहगुंजद्धरागसरिसे कमलागरसंडवोहए उड्डियम्मि सूरे सहस्सरस्सिमि दिणयरे तेयसा जलंते जेणेव चंपा गयरी जेणेव पुषणभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छति २त्ता अहापडिरूवं उग्गह उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥ (सू०१३)॥ S 'कलं पाउप्पभायाए रयणीए'त्ति कल्यमिति-श्वः प्रादुः प्राकाश्ये ततः प्रकाशप्रभातायां रजन्यां 'फुल्लुप्पलकमलकोम लुम्मिलियंमिति फुल-विकसितं तच्च तदुत्पलं च-पद्म फुलोत्पलं तच्च कमलश्च-हरिणविशेषः तयोः कोमलम्-अकठोर-1 | मुन्मीलितं-दलाना नयनयोश्वोन्मीलनं यस्मिस्तत्तथा । तत्र 'अह पंडुरे पभाए'त्ति अथ रजनीप्रभातानन्तरं पाण्डुरे-शुलेका & प्रभाते-उपसि । 'रत्तासोगप्पगासकिंसुअसुअमुहगुंजद्धरागसरिसे कमलागरसंडबोहए उडियंमि सूरे'त्ति रकाशोकस्य AOCOMSANSARAM दीप अनुक्रम [१श ~190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् ॥२६॥ **** प्रत सूत्रांक * [१३] तरुविशेषस्य प्रकाशः-प्रभा स च किंशुकं च-पलाशकुसुमं शुकमुखं च-प्रतीतं गुञ्जा-रक्तकृष्णः फलविशेषः तदर्द्ध चेति अनगा द्वन्द्वः, एषां यो रागो-रक्तत्वं तेन सदृशः-समो यः स तथा, तथा कमलाकरा-पद्मोत्पत्तिस्थानभूता इदादयस्तेषु यानि | पण्डानि-नलिनवनानि तेषां बोधको-विकाशको यः स तथा तत्र, उत्थिते-उगते सूरे-रवौ । किम्भूते?-'सहस्सरसिमि || सू० १४ |दिणअरे तेअसा जलंते'त्ति विशेषणत्रयं व्यक्तम् । 'संपलियकनिसन्ने'त्ति पद्मासने निषण्णः, इदं च वाचनान्तरपदम् ॥१३॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो अप्पेगइया उग्गपब्वइया भोगपब्वइया राइण्णणाय कोरब्ध खत्तिअपव्वाआ भडा जोहा सेणावई पसत्थारो , सेही इन्भा अण्णे य बहवे एवमाइणो उत्तमजातिकुलरूवविणयविण्णाणवण्णलावण्णविकमपहाणसोभग्ग-2 तिजुत्ता बहुधणधण्णणिचयपरियालफिडिआ णरवइगुणाइरेगा इच्छिअभोगा सुहसंपललिआ किंपागफलो-18 वमं च मुणिअ विसयसोक्खं जलबुब्बुअसमाणं कुसग्गजलबिंदुचंचलं जीवियं च णाऊण अडुवमिण रयमिव । Pापडग्गलग्गं संविधुणित्ताणं चहत्ता हिरणं जाव पवइआ, अप्पेगइया अद्धमासपरिआया अप्पेगइआ मास|| परिआया एवं दुमास तिमास जाव एक्कारस० अप्पेगइआ वासपरिआया दुवास तिवास० अप्पेगहआ W|| अणेगवासपरिआया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति ।। (सू०१४)॥ ।।॥२६॥ Mil 'अंतेवासित्ति शिष्याः। 'अप्पेगइयत्ति अपिः-समुच्चये एकका-एके अन्ये केचिदपीत्यर्थः । 'उग्गपबइय'त्ति उग्रा-1 आदिदेवेन ये आरक्षकत्वेन नियुक्ताः तद्वंशजाश्च अत उग्राः सन्तःप्रन्नजिता-दीक्षामाश्निता उग्रप्रवजिताः । एवमन्यान्यपि *CRORSCCCXCX दीप अनुक्रम [१३] RELIGunintentATHREE | विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं (कुल-अनुसार) ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [१४] भाग - १४ "औपपातिक" - विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः पदानि, नवरं भोगा - ये तेनैव गुरुत्वेन व्यवहृतास्तद्वंशजाश्च राजन्या ये तेनैव वयस्यतया व्यवस्थापितास्तद्वंशजाश्च, | ज्ञाता इक्ष्वाकुवंशविशेषभूताः नागा वा नागवंशप्रसूताः कोरवत्ति- कुरवः कुरुवंशप्रसूताः, क्षत्रियाश्चातुर्वण्यें द्वितीयवर्णभूताः, भडत्ति- चारभटाः, जोहत्ति-भटेभ्यो विशिष्टतराः सहस्रयोधादयः, सेणावइत्ति-सैन्यनायकाः, पसत्थारत्ति-प्रशस्तारो धर्मशास्त्रपाठकाः, श्रेष्ठिनः -श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टाङ्कितमस्तकाः, इम्भत्ति-इभ्या: हस्तिप्रमाणद्रविणराशिपतयः 'अण्णे य बहवे एवमाइणो'त्ति एवम्प्रकाराः 'उत्तमजाइकुलरूवविणय विष्णाणवण्णलावण्णविक्कमपहाण सोहग्गकंति जुत्त ति | उत्तमा ये जात्यादयः प्रधाने च ये सौभाग्यकान्ती तैर्ये युक्तास्ते तथा तत्र जातिः - मातृकः पक्षः कुलं - पैतृकः पक्षः रूपं शरीराकारः विनयविज्ञाने च-प्रतीते वर्णो-- गौरत्वादिका कायच्छाया लावण्यम् - आकारस्यैव स्पृहणीयता विक्रम:| पौरुषं सौभाग्यम् - आदेयता कान्तिः - दीप्तिः | 'बहुघणघण्णनिचयपरियालफिडिआ बहवो ये धनानां - गणिमधरिमादीनां धान्यानां च - शाल्यादीनां निचयाः-सञ्चयाः परिवारश्च दासीदासादिपरिकरस्तैः स्फुटिता-ईश्वरान्तराण्यतिक्रान्ताः अथवा तेभ्यः सर्वसङ्गत्यागेन दूरीभूता ये ते तथा, पाठान्तरे बहवो धनधान्यनिचयपरिवारा यस्यां सा तथाभूता स्थितिः गृहवासे येषां ते तथा । 'णरवइगुणाइरेआ' नरपतेः - राज्ञः सकाशाद्गुणैः- विभवसुखादिभिः अतिरेकः- अतिशयोयेषां ते तथा । 'इच्छियभोगा' ईप्सिता वाच्छिताः भोगाः शब्दादयो येषां ते तथा । 'सुहसंपल लिया' सुखेन सम्प्रल| लिताः - प्रक्रीडिता ये ते तथा । 'किंपागफलोबमं चत्ति विषवृक्षफलतुल्यं पुनः 'मुणिअ'त्ति ज्ञात्वा 'विसयसुहं'ति व्यक्तं, तथा 'जलबुब्बुअसमानं' कुशाग्रे जलबिन्दुः कुशाग्रजलविन्दुस्तद्वच्चञ्चलं 'जीवियं'ति जीवितव्यं च ज्ञात्वा, तथा 'अद्धु For Parts Only ~ 192~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ॥२७॥ प्रत सूत्रांक [१४] औपपा- IC वमिण ति इदं विषयसौख्यधनसश्चयादिकम् अध्रुवम्-अनित्यरूपं रज इव पटायलग्नं 'संविधुणित्ता णति विधूय-सगिति || | अनगा तिकम् विहाय, नया 'चहत्त'त्ति त्यक्त्वा, किं तदित्याह-हिरण्यं च रूप्यं, यावच्छब्दोपादानादिदं दृश्यम्-चिच्चा सुवणं चिच्चा धणं एवं धणं बलं वाहणं कोर्स कोडागारं रज रडं पुरं अंतेउरं चिच्चा विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तिअसंखसिलप्पवा-III लरत्तरयणमाईयं संतसारसावतेज विच्छड्डुइत्ता विगोवइत्ता दाणं च दाइयाणं परिभायइत्ता मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारिय मिति, व्यक्तं चैतत् , नवरं सुवर्ण घटितं धनं-गवादि बलं-चतुरङ्गं वाहन-बेगसरादिकं पुनर्धन-गणिमादि कनकम्-अघटितसुवर्ण रत्लानि-कर्केतनादीनि मणयः-चन्द्रकान्तादयः मौक्तिकानि-मुक्ताफलानि शङ्खा:-प्रतीताः शिलाप्रवालानि-विद्रुमाणि रक्तरत्नानि-पद्मरागा आदिशब्दाद्वस्त्रकम्बलादिपरिग्रहा, एतेन किमुक्तं भवतीत्याह-संतत्ति | विद्यमानं सारस्वापतेयं-प्रधानद्रव्यं, किमित्याह-विच्छध-विशेषेण त्यक्त्वा विच्छर्दवद्वा कृत्वा निष्क्रमणमहिमकरणतः, तथा तदेव गुप्तं सद्विगोप्य-प्रकाशीकृत्य दानातिशयादत एव 'दाणं च दाइयाण ति दानाहेभ्यः परिभाज्य-दत्त्वा, गोत्रिकेभ्यो वा-विभागशो दत्वा मुण्डा भूत्वा-द्रव्यतः शिरोलुश्चनेन भावतः क्रोधाद्यपनयनेन अगाराद्-गेहात् निष्कम्येति शेषः, अनगारितां-साधुतां प्रत्रजिता-ताः, विभक्तिपरिणामावा अनगारितया अवजिता:-श्रमणीभूताः, पर्यायसूत्राणि व्यक्तान्येवेति ॥ १४ ॥ ॥२७॥ ४ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे निग्गंथा भगवंतो अप्पेगइआ & आभिणिबोहियणाणी जाव केवलणाणी अप्पेगइआ मणवलिआ वयवलिआ कायवलिआ अप्पेगइआ मणेणं CSCASSACREASST दीप अनुक्रम ॥१४ विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(ज्ञान-आदि अनुसार) ~193~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१५...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] Mसावाणुग्गहसमत्था '.अप्पेगइआ खेलोसहिपत्सा एवं जल्लोसहि विप्पोसहि आमोसहि सम्योसहि. अप्पेगइआ कोहबुडी एवं बीअबुद्धी पडवुही अप्पेगइआ पयाणुसारी अप्पेगइआ संभिन्नसोआ अप्पेगइआ | खीरासवा अप्पेगहा महुआसवा अप्पेगइआ सप्पिआसवा अप्पेगइआ अक्खीणमहाणसिमा एवं उज्जुमती अप्पेगहआ विउलमई विउव्वणिढिपत्ता चारणा विजाहरा आगासातिवाइणो ॥ साधुवर्णकगमान्तरं व्यक्तमेव, नवरं 'मणोवलिय'त्ति मनोवलिकाः-मानसावष्टम्भवन्तः वाम्बलिकाः-प्रतिज्ञातार्थनि| वहिकाः परपक्षक्षोभकारिवचना वा, कायवलिकाः क्षुधादिपरीपहेष्वग्लानीभवत्कायाः 'नाणबलिया' अव्यभिचारिज्ञानाः दसणबलिया' परैरक्षोभ्यदर्शनाः 'चारित्तवलिया' इति व्यक्त, वाचनान्तराधीतं चेदं विशेषणत्रयम् 'अप्पेगइआ मणेणं है सावाणुग्गहसमत्था' मनसैव परेषां शापानुग्रही-अपकारोपकारी कर्तुं समर्था इत्यर्थः, एवं वाचा कायेन चेति । 'खेलो| सहिपत्त'त्ति खेलो-निष्ठीवनं स एवौषधिः सकलरोगाद्यनर्थोपशमहेतुत्वात् खेलौषधिस्ता प्राप्ता ये ते तथा, एवमन्यत्रापि, नवरं 'जल्लोसहि'त्ति जलो-मलः 'विप्पोसहि'त्ति विग्रुपः प्रश्रवणादिबिन्दवः, अथवा वि इति विष्ठा प्र-इति प्रश्रवणं ते एव ओषधिः इति । 'आमोसहि'त्ति आमर्पणमामर्षः-हस्तादिसंस्पर्श इति । 'सबोसहित्ति सर्व एव खेलजलविमुकेशरोमनखादय ओषधिः सर्वांषधिः, 'कोहवुद्धित्ति कोष्ठवत्-कुशूल इव सूत्रार्थधान्यस्य यथाप्राप्तस्याविनष्टस्याऽऽजन्मधरणा-४ दुद्धि-मतिर्येषां ते तथा । 'बीजबुद्धित्ति बीजमिव विविधार्धाधिगमरूपमहातरुजननाद्बुद्धिर्येपां ते तथा । 'पडबुद्धित्ति १ वाकायशापानुग्रहसमति ज्ञापनाय त्रिकलक्षणोऽङ्कः ।। PROCOCCASSES दीप अनुक्रम १७) RELIGunintentiaTATE विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(ज्ञान-आदि अनुसार) ~194~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१५] दीप अनुक्रम [१५] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१५ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः पटवत् विशिष्टवक्तृवनस्पतिविसृष्टविविधप्रभूतसूत्रार्थपुष्पफलग्रहणसमर्थतया बुद्धिर्येषां ते तथा 'पदानुसारि'त्ति पदेनसूत्रावयवेनैकेनोपलब्धेन तदनुकूलानि पदशतान्यनुसरन्ति-अभ्यूहयन्तीत्येवंशीलाः पदानुसारिणः । 'भिन्नसोअ'ति | सम्भिन्नान् बहुभेदभिन्नान् शब्दान् पृथक् पृथक् युगपच्छृण्वन्तीति सम्भिन्नश्रोतारः, सम्भिन्नानि वा शब्देन व्याप्तानि २८ ॥ शब्दग्राहीणि, प्रत्येकं वा शब्दादिविषयैः श्रोतांसि सर्वेन्द्रियाणि येषां ते तथा । 'खीरासव'त्ति क्षीरवन्मधुरस्येन श्रोतॄणां कर्णमनःसुखकरं वचनमाश्रयन्ति-क्षरन्ति ये ते क्षीराश्रवाः । 'महुआसव'त्ति मध्वाश्रवाः प्राग्वत्, नवरं मधुवत्सर्वदोषो पशमनिमित्तत्वादाल्हादकत्वाश्च तद्वचनस्य क्षीरानवेभ्यस्ते भेदेनोक्ताः । 'सप्पिआसव'त्ति सर्पिराश्रवास्तथैव, नवरं श्रोतॄणां स्वविषये स्नेहातिरेकसम्पादकत्वात् क्षीराश्रवमध्वाश्रवेभ्यो भेदेनोक्ताः । 'अक्खीणमहाणसीय'त्ति महानसम्-अन्नपाकस्थानं तदाश्रितत्वाद्वाऽन्नमपि महानसमुच्यते, ततश्चाक्षीणं पुरुषशतसहस्रेभ्योऽपि दीयमानं स्वयमभुक्तं सत् तथाविधलब्धिविशेषादत्रुटितं तच्च तन्महानसं च भिक्षालब्धं भोजनमक्षीणमहानसं तदस्ति येषां ते तथा । 'उज्जुमर'त्ति ऋज्वी | सामान्यतो मनोमात्रग्राहिणी मतिः- मनःपर्यायज्ञानं येषां ते तथा । 'बिडलमइ'त्ति विपुला-बहुविधविशेषणोपेतमन्यमानवस्तुग्राहित्येन विस्तीर्णा मतिः- मनःपर्यायज्ञानं येषां ते तथा, तथाहि घटोऽनेन चिन्तितः स च द्रव्यतः सौवर्णादिः क्षेत्रतः पाटलिपुत्रकादिः कालतः शारदादिर्भावतः कालवर्णादिरित्येवं विपुलमतयो जानन्ति, ऋजुमतयस्तु सामान्यत एव, तथा अर्द्धतृतीयाङ्गुलन्यूने मनुजक्षेत्रे व्यवस्थितसंज्ञिनां मनोग्राहिका आद्याः, इतरे तु सम्पूर्ण इति । 'बिउबणिहिपत्त'त्ति विकुर्वणा वैक्रियकरणलब्धिः सैव ऋद्धिस्तां प्राप्ता ये तथा । 'चारण'त्ति चरणं गमनं तदतिशयवदस्ति येषां ते औपपा तिकम विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं For Parts Only ~195~ अनगा० सू० १५ ।। २८ ।। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मलं [...१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] चारणाः, ते च द्विधा-जङ्घाचारणा विद्याचारणाश्च, तत्राष्टमाष्टमेन क्षपतो यतेया लब्धिरुत्पद्यते यया च कञ्चिजनाव्यापारमाश्रित्यकेनैवोपपातेन त्रयोदशं रुचकवराभिधानं दीपं मेरुमस्तकं च यावद्गन्तुं प्रतिनिवृत्तश्च तत उत्पातद्वयेनेहागन्तुं समर्थो भवति तया युक्ता आद्याः, या पुनः षष्ठं षष्ठेन क्षपत उत्पद्यत, यया श्रुतविहितेषदुपष्टम्भतयोत्पातद्वयेनाष्टमं नन्दीश्वराख्य द्वीप मेरुमस्तकं च गन्तुं ततः प्रतिनिवृत्तश्चेकेनैवोत्पातेनेहागन्तुं समर्थो भवति तया युक्ता द्वितीया इति । 'विजाहर'त्ति प्रज्ञप्त्यादिविविधविद्याविशेषधारिणः। 'आगासातिवाइणो'त्ति आकाशं-व्योमातिपतन्ति-अतिक्रामन्ति आकाशगामिविद्याप्रभावात् पादलेपादिप्रभावाद्वा आकाशाद्वा हिरण्यवृष्ट्यादिकमिष्टमनिष्टं वाऽतिशयेन पातयन्तीत्येवंशीला आकशातिपातिनः, आकाशादिवादिनो वा-अमूर्तानामपि पदार्थानां साधन (ने) समर्थवादिन इति भावः। 18 M अप्पेगइआ कणगावलिं तवोकम्म पडिवण्णा एवं एकावलिं खुड्डागसीहनिक्कीलियं तवोकम्म पडिवण्णा | अप्पगइयामहालयं सीहनिकीलियं तचोकम्म पडिण्णा भइपडिमं महाभद्दपडिमं सब्यतोभदपडिम ||2 आयंबिलवद्धमाणं तवोकम्म पडिवण्णा 'कणगावलिं तवोकर्म पडिवण्णग'त्ति कनकमयमणिकमयो भूषणविशेषः, कल्पनया तदाकारं यत्तपस्तत्कनकावलीनात्युच्यते, तत्स्थापना चैवम्-चतुर्थं पष्ठमष्टमं चोत्तराधर्येणावस्थाप्य तेषामधोऽष्टावष्टमानि चत्वारि चत्वारि पशिद्धयेनाव-|| ४ स्थापनीयानि, उभयतो वा रेखाचतुष्केण नव कोष्ठकान्विधाय मध्यमे शून्यं विधाय शेषेष्वष्टसु तानि स्थापनीयानि, ततस्तस्याधोऽधः चतुर्थादीनि चतुस्त्रिंशत्तमपर्यन्तानि, ततः कनकावलिमध्यभागकल्पनया चतुस्त्रिंशदष्टमानि, तानि चोत्तराधर्षण दीप अनुक्रम १७) SARERatininemarana | विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(तपोकर्म आदि अनुसार) ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) ཡྻ सूत्रांक [१५] अनुक्रम [१५] औपपातिकम् ॥ २९ ॥ भाग - १४ "औपपातिक" मूलं [...१५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः Eatontationa - 2012 F उपांगसूत्र- १ (मूलं + वृत्तिः) द्वे त्रीणि चत्वारि पञ्च पट् पश्च चत्वारि त्रीणि द्वे वेत्येवं स्थाप्यानि, अथवाऽष्टाभिः पश्चि रेखाभिः पञ्चत्रिंशत्कोष्ठकान् विधाय मध्ये शून्यं कृत्वा शेषेषु तानि स्थापीयानीति, विविध प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं - (तपोकर्म आदि अनुसार ) For Panal Lise Only ------ ~ 197 ~ अनगा सू० १५ ॥ २९ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: -- - - - प्रत सूत्रांक [१५] तत उपर्युपरि चतुर्विंशत्तमादीनि चतुर्थान्तानि, ततः पूर्ववदष्टावष्टमानि, ततोऽष्टमं षष्ठं चतुर्थं चेति । चतुर्थादीनि ॐच क्रमेणैकोपवासादिरूपाणीति । अत्र चैकस्यां परिपाट्यां विकृतिभिः पारणकं, द्वितीयस्यां निर्विकृतिकेन, तृतीयायामआलेपकृता, चतुर्थ्यां चाचाम्लेनेति । अत्र चैकैकस्यां परिपाट्यामेकः संवत्सरो मासाः पञ्च दिनानि च द्वादश, परिपाटी-10 चतुष्टये तु संवत्सराः पञ्च मासा नव दिनानि चाष्टादशेति । एवमेकावली' कनकावल्यभिलापेनेत्यर्थः, एकावली च नान्यत्रोपलब्धेति न लिखिता। 'खुड्डागसीहनिकोलियंति वक्ष्यमाणमहासिंहनिक्रीडितापेक्षया क्षुल्लक सिंहनिक्रीडितंसिंहगमनं तदिव यत्तपस्तत् सिंहनिक्रीडितमित्युच्यते, तद्गमनं चातिक्रान्तदेशावलोकनतः, एवमतिक्रान्ततपःसमासेवनेनापूर्वतपसोऽनुष्ठानं यत्र तत्सिंहनिक्रीडितमिति, तच्चैवम्-चतुर्थ ततः षष्ठचतुर्थेऽष्टमषष्ठे दशमाष्टमे द्वादशदशमे | चतुर्दशद्वादशे षोडशचतुर्दशे अष्टादशषोडशे विंशतितमाष्टादशे विंशतितम चेति क्रमेण विधीयते, ततः षोडशा-16 पाटादशे चतुर्दशपोडशे द्वादशचतुर्दशे दशमद्वादशे अष्टमदशमे षष्ठाष्टमे चतुर्थषष्ठे चतुर्थ चेति, स्थापना चैवम-- १२३४५६७८९.४५,७६५४३२१ । अत्र च एकस्यां परिपाट्यां दिनमानम् नवकसङ्कलने से ४५ । ४५ अष्ट१ १२३४५६७८४५'८७६५४३२ कसङ्कलना चैका ३६ सप्तकसङ्कलनाऽप्येकैव २८ पारणकदिनानि ३३ सर्वाग्रम् १८७, एवं च मासाः ६ दिनानि च ७, चतसृषु परिपाटीष्वेतदेव चतुर्गुणं स्यात् , तत्र वर्षे २ दिनानि २८, ४॥ तत्र प्रथमपरिपाव्यां पारणकं सर्वकामगुणितं, द्वितीयस्यां निर्विकृतिक, तृतीयायामलेपकारि, चतुर्थ्यामाचामाम्लमिति । एवं महासिंहनिक्रीडितमपि, नवरमिह स्थापना एकादयः पोडशान्ताः पुनः षोडशादय एकान्ताः स्थाप्यन्ते, तत्र यादीनां दीप अनुक्रम -% १७) 50 विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(तपोकर्म आदि अनुसार) ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा सू०१५ ॥३०॥ प्रत सूत्रांक [१५] RECACCAKACCOACCESCOC षोडशान्तानामग्रे प्रत्येकमेकादयः पञ्चदशान्ताः स्थाप्यन्ते, तथा ये पोडशादय एकान्ताः स्थापितास्तेषु पञ्चदशादीनां l अनगा० अन्तानामादौ चतुर्दशादयः स्थापनीयाः, चतुर्थादिना चाभिलापेन ते समुत्कीर्तनीयाः। 2 009 n १ दिनमान चैकस्यां परिपाट्यामिदमत्र-वे पोडशानां सङ्कलने PRESE0905 |१३६, १३६ एका पञ्चदशानां १२० चतुर्दशानामप्येकव || ____raswa १ ०५ एकपष्टिश्च पारणकानीति, सर्वाग्रं च ५५८, एवं च वर्ष-| raa E मेकं षट् च मासाः दिनान्यष्टादशेति, परिपाटीचतुष्टये चतुर्गुणमे| तदेव वर्षाणि ६ मासौ २ दिनानि १२ तथा भद्रप्रतिमा-यस्यां पूर्वदक्षिणापरोत्तराभिमुखः प्रत्येक प्रहरचतुष्टयं कायो-13 सगै करोति, एषा चाहोरात्रद्वयमानेति, महाभद्राऽपि तथैव, नवरमहोरात्रं यावदेकैकदिगभिमुखः कायोत्सर्ग करोति, |अहोरात्रचतुष्टयं चास्यां मानमिति, सर्वतोभद्रा पुनर्यस्यां दशसु दिक्षु प्रत्येकमहोरात्र कायोत्सर्ग करोति । अस्यां च |दशाहोरात्राणि मानमिति । अथवा द्विविधा सर्वतोभद्रा-क्षुद्रा महत्तीच, तत्र क्षुद्रायाः स्थापना- २'३। स्थापनोपायगाथा चेयमत्र-'एगाई पंचंते ठविउ मज्झं तु आइमणुपंति । सेसे कमेण ठविरं जाणे जा & सबओभदं ॥१॥' तपोदिनानीह पञ्चसप्ततिः, पारणकदिनानि तु पञ्चविंशतिः, सर्वाणि दिनानि शतमे- साद कस्यां परिपाट्यां, चतसृषु त्वेतदेव चतुर्गुणम्। एवं महत्यपि, नवरमेकादयः सप्तान्तास्तस्यामुपवासा भवन्ति, ५ ३ ५ स्थापनोपायगाथा वियम्-'एगाई सत्ता ठवि मग्झं तु आइमणुपंति । सेसे कमेण ठवित्रं जाण महासबओभई ॥१॥ दीप अनुक्रम ॥३०॥ १७) विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(तपोकर्म आदि अनुसार) ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] शश४५६७) इयं प्रथमा पङ्किः ४।५।६।१२।३ द्वितीया अश२४.५।६। तृतीया शा५६७२ चतुर्थी | ६७१२२२४५ पञ्चमी २२४५।६७१ षष्ठी ५/६७।१४ सप्तमी । इह च पणवत्यधिक शतं तपोदिनानां स्यादेकोनपश्चाशच पारणकदिनानि, एवं चाष्टौ मासाः पञ्च दिनानि, चतसृषु परिपाटीप्वेतदेव चतुर्गुणमिति । 'आयविलवद्धमाण'ति यत्र चतुर्थ कृत्वा आयामाम्लं क्रियते, पुनश्चतुर्थं, पुनझै आयामाम्ले, पुनश्चतुर्थ, पुनस्त्रीणि आयामा-18 म्लानि, एवं यावच्चतुर्थ शतं चायामाम्लानां क्रियत इति, इह च शतं चतुर्थानां तथा पञ्च सहस्राणि पञ्चाशदधिकानि आयामाम्लानां भवन्तीति। ___मासिअंभिक्खुपडिम एवं दोमासि पडिमं तिमासि पडिम जाव सत्तमासिअं भिक्खुपडिम |पडिवण्णा पढम सत्तराईदिअं अप्पेगइया भिक्खुपडिम पडिवण्णा जाव तचं सत्तराइंदिरं भिक्खुपडिम |पडिवणा अहोराइंदिअंभिक्खुपडिम पडिवण्णा इकराइंदिअं भिक्खुपडिम पडिवण्णा सत्तसत्तमिअं| भिक्खुपडिमं अहमिअं भिक्खुपडिम णवणवमि भिक्खुपडिम दसदसमिअं भिक्खुपडिम खुड्डियं | मोअपडिमं पडिवण्णा महल्लियं मोअपडिम पडिवण्णा जवमझं चंदपडिम पडिवण्णा बहर (वज) मज्झं चंदपडिम पडिवण्णा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति ।। (सू०१५॥) 'मासिय भिक्खुपडिमति मासपरिमाणा मासिकी तां भिक्षुप्रतिमां-साधुप्रतिज्ञाविशेष, तत्र हि मासं यावदेका दत्ति १ टीकाकृदभिप्रायेण राइंदिअं। २ एगराइयंति वृत्तिः । दीप अनुक्रम १७) auralianasurary.orm विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं --(भिक्षु-प्रतिमादि अनुसार) ~200~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: अनगा० औपपा- तिकम् प्रत सूत्रांक [१५]] SROSCANNOCTOGROCAROG+ भक्तस्यै कैव च पानकस्येति, एवं द्वितीयाचा सप्तभ्यन्ताः एकैकदत्तिवृद्धियुक्ता इति । 'पढमसत्तराइंदिति तिमणां || मध्ये प्रथमा सप्तराविन्दिवा-सप्ताहोरात्रप्रमाणा, अस्यां च चतुर्थ चतुर्थेन पानकाहारविरहित उत्तानको वा पार्श्वशायी वा DIL सू०१५ निषद्योपगतो वा प्रामादिभ्यो बहिर्विहरति, द्वितीयसप्तरात्रिन्दिवाऽप्येवंविधैव, नवरं उत्कुटुको वा लगण्डशायी वा दण्डायतो वा विहरति, एवं तृतीया सप्तरात्रिन्दिवापि, नवरं गोदोहिकास्थितो वा वीरासनिको वा आमकुन्जो वा आस्त इति । 'राईदिति रात्रिन्दिवप्रमाणामहोरात्रिकीमित्यर्थः, अस्यां च षष्ठोपवासिको प्रामादिभ्यो बहिः प्रलम्बभुजस्तिष्ठतीति । 'एगराइयंति एका रात्रिः प्रमाणमस्या इत्येकरात्रिकी ताम्, अस्यां चाष्टमभक्तिको प्रामादिवहिरीषदवनतगात्रोऽनिमिषनयनः शुष्कपुद्गलनिरुद्धदृष्टिः जिनमुद्रास्थापितपादः प्रलम्बितभुजस्तिष्ठतीति, विशिष्ट संहननादियुक्त एव चैताः प्रतिपद्यन्ते, आह च-"पडिवजइ एयाओ संघयणधिइजुओ महासत्सो । पडिमाउ भावियप्पा सम्मं गुरुणा अणुन्नाओ ॥१॥" इत्यादि ॥ 'सत्तसत्तमिय'ति सप्तसप्तमानि दिनानि यस्यां सा तथा, सा च सप्तभिर्दिनानां सप्तकैर्भवति, तत्र च प्रथमदिने एका दत्तिर्भक्तस्यैकैव च पानकस्यैवं व्यादिवेकोत्तरथा वृक्ष्या सप्तमदिने सस दत्तया, एवमन्यान्यपि पटू सप्तकानि, अथवा प्रथमसप्तके प्रतिदिनमेका दत्तिद्धितीयादिषु तु यादयो यावत्सप्तमे सप्तके प्रतिदिनं सप्तेति, एवमष्टाष्टमिका नवनवमिका दशदशमिका चेति, नवरं दत्तिवृद्धिः कार्येति । कचिदिह स्थाने भद्रासुभद्रामहाभद्रासवें. तोभद्राभोत्तराश्च भिक्षुप्रतिमाः पठंयन्ते, तत्र सुभद्रा अप्रतीता, शेषास्तु व्याख्याताः प्राक्, नवरं भद्रोत्तरास्थापना 3 ॥ ३१॥ १ प्रतिपद्यत एताः संहननधृतियुक्तो महासत्त्वः । प्रतिमा भावितात्मा सम्यागुरुणाऽनुज्ञातः ॥१॥ दीप अनुक्रम १७) RELIGunintentATHREE विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं --(भिक्षु-प्रतिमादि अनुसार) -~-201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] एवम्-14/६७८९। प्रथमा पक्कि ७८०९।५।६। द्वितीया ।९।५।६७८ तृतीया ।६७८।९।५/ चतुर्थी 1८९।५।६७। पश्चमीति । अथवा ।५।६ ।९।१०।११। प्रथमा पतिः ।८।९।१०।११।५।६७। द्वितीया ।१२५।६।७।८।९।१०। तृतीया ७८ ।९।१०।११।५।६ चतुर्थी ।१०।११।५/६७८९ पञ्चमी १६७८।९।१०१५। षष्ठी ।९।१०।११।५।६।७८) सप्तमीति । 'खुड्डिय'ति क्षुद्रिका-महत्यपेक्षया लघ्वी मोकप्रतिमा-प्रश्रवणाभिग्रहः, इयं च द्रव्यतः प्रश्रवणविषया प्रश्श्रवणस्याप्र|तिष्ठापनेत्यर्थः, क्षेत्रतो ग्रामादेवहिः, कालतः शरदि निदाघे वा प्रतिपद्यते, भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते चतुर्दशभ केन समाप्यते, अभुक्त्या चेत् प्रतिपद्यते तदा पोडशभक्तेन समाप्यते, भावतस्तु दिन्यादिकोपसर्गसहनमिति । एवं | महामोकप्रतिमाऽपि नवरं भुक्त्वा चेत् प्रतिपद्यते तदा षोडशभक्तेन समाप्यते, अभुक्त्वा चेत्तदाऽष्टादशभक्तेनेति । 'जव-18 मझं चंदपडिमति यवस्येव मध्यं यस्यां सा यवमध्या, चन्द्र इव कलावृद्धिहानिभ्यां या प्रतिमा सा चन्द्रप्रतिमा, तथाहि शुक्लप्रतिपदि एक कवलं भिक्षा वा अभ्यवहत्य प्रतिदिनं कवलादिवृद्धया पञ्चदश पौर्णमास्यां कृष्णप्रतिपदि च पञ्चदशैव मा भुक्त्वा प्रतिदिनमेकहान्या अमावास्यायामेकमेव यस्यां भुलेसा स्थूलमध्यत्वात् यवमध्येति । 'बहरमण्झं चंदपडिम'ति वैरस्येव|31 (वज्रस्येव ) मध्यं यस्यां सा तथा, यस्यां हि कृष्णप्रतिपदि पञ्चदश कवलान् भुक्त्वा ततः प्रतिदिनमेकहान्या अमावास्यायामेकं शुक्लप्रतिपद्यष्येकमेव, ततः पुनरकवृद्ध्या पौर्णमास्यां पञ्चदश भुश सा तनुमध्यत्वाइजमध्येति ॥ वाच-12 नान्तराधीतमथ पदचतुष्कम्-'विवेगपडिम'ति विवेचन विवेकः-त्यागः, स चान्तराणां कषायादीनां बाह्यानांच गणशरी-18 रानुचितभक्तपानादीनां तत्प्रतिपत्तिविवेकप्रतिमेति। विउस्सग्गपडिमति व्युत्सर्गप्रतिमा-कायोत्सर्गकरणमिति । 'उवहाण दीप अनुक्रम SAX १७) विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(भिक्षु-प्रतिमादि अनुसार) -~-202~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत औपपा- पडिम'ति तपोविषयोऽभिग्रहः, यद्यपि दशाश्रुतस्कन्धे भिक्षुपासकप्रतिमास्वरूपेयमुक्ता तथापीह तथा न व्याख्याता, भिक्षु-2 अनगा० तिकम् प्रतिमानां प्रागेव दर्शितत्वाद, उपासकप्रतिमानां च साधूनामसम्भवात् । पडिसंलीणपडिम'ति संलीनताऽभिग्रह मिति ॥१५॥ ॥३२॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे धेरा भगवंतो जातिसंपण्णा है। कुलसंपण्णा बलसंपण्णा रूवसंपण्णा विणपसंपण्णा णाणसंपण्णा दंसणसंपपणा चरित्तसंपण्णा लज्जासं| पण्णा लाघवसंपण्णा ओअंसी तेअंसी वचंसी जसंसी जिअकोहा जियमाणा जिअमाया जिअलोभा |जिअइंदिआ जिअणिदा जिअपरीसहा जीविआसमरणभयविप्पमुक्का बयप्पहाणा गुणप्पहाणा करणप्पहाणा चरणप्पहाणा णिग्गहप्पहाणा निच्छयप्पहाणा अजवप्पहाणा महवप्पहाणा लाघवप्पहाणा खंतिप्पहाणा मुत्तिप्पहाणा विजापहाणा मंतप्पहाणा वेअप्पहाणा वंभपहाणा नयप्पहाणा नियमप्पहाणा सच्चप्पहाणा सोअप्पहाणा चारुवण्णा लज्जातवस्सीजिइंदिआ सोही अणियाणा अप्पुस्सुआ अवहिल्लेसा अप्पडिलेस्सा सुसामण्णरया दंता इणमेव णिग्गथं पावयणं पुरओका विहरति । साधुवर्णकगमान्तरमेव, तत्र 'जाइसंपन्न'त्ति उत्तममातृकपक्षयुक्ता इत्यवसेयम् , अन्यथा मातृकपक्षसम्पनत्वं पुरुषमात्रस्यापि स्थादिति नैपामुत्कर्षः कश्चिदुक्कः स्याद, उत्कर्षाभिधानार्थ चैषां विशेषणकदम्बकं चिकीर्पितमिति, एवं 'कुल- ॥३२॥ संपन्ना' इत्याद्यपि विशेषणनवक, नवरं कुलं-पैतृका पक्षः बलं-संहननसमुत्थः प्राणः रूपम्-आकृतिः विनयज्ञाने प्रतीते मादर्शन-सम्यक्त्वं चरित्रं-समित्यादि लज्जा-अपवादभीरता संयमो वा लापर्व-द्रव्यतोऽल्पोपधिता भावतो गौरवत्रयत्यागः 40-56-5600-64560 सूत्रांक दीप अनुक्रम १७) - | विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं (जातिसंपन्न आदि गुणा:) -~-203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [१६...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६]] 'ओसित्ति ओजो-मानसोऽवष्टम्भस्तद्वन्तः ओजस्विनः तयंसित्ति तेजः शरीरप्रभा तद्वन्तः तेजस्विनः 'वचंसित्ति । वचो-वचनं सौभाग्याधुपेतं येषामस्ति ते वचस्विनः, अथवा वर्चः-तेजः प्रभाव इत्यर्थः, तद्धन्तो वर्चस्विनः 'जसंसित्ति 3 यशस्विनः-ख्यातिमन्तः जितक्रोधादीनि सप्त विशेषणानि प्रतीतानि, नबर क्रोधादिजयः-उदयप्राप्तक्रोधादिविफलीकरण-16 तोऽवसेयः, 'जीविआसमरणभयविष्पमुक्का' जीविताशया मरणभयेन च विप्रमुक्ताः, तदुभयोपेक्षका इत्यर्थः, 'वयपहाणे ति व्रत-यतित्वं प्रधानम्-उत्तम शाक्यादियतित्वापेक्षया निर्ग्रन्थयतित्वाद्येषां, व्रतेन वा प्रधाना ये ते तथा, निर्गन्ध-16 श्रमणा इत्यर्थः, ते च न व्यवहारत एवेत्यत आह-गुणप्पहाण'त्ति प्रतीतं, नवरं गुणा:-करुणादयः, गुणप्राधान्यमेव प्रपञ्चयन्नाह-'करणप्पहाणे' त्यादिविशेषणसप्तके प्रतीतार्थ च, नवरं करणं-पिण्डविशुद्धयादि चरण-महाव्रतादि निग्रहःPoll अनाचारप्रवृत्तेनिषेधनं निश्चयः-तत्त्वनिर्णयः विहितानुष्ठानेषु वा अवश्यंकरणाभ्युपगमः, आर्जव--मायोदयनिग्रहः मार्दवं-मानोदयनिरोधा, लाघवं-क्रियासु दक्षत्वं क्षान्ति:-क्रोधोदयनिग्रह इत्यर्थः, मुक्ति:-लोभोदयविनिरोधो विद्याःप्रज्ञत्यादिकाः मन्त्रा-हरिणेगमेष्यादिमन्त्राःवेदा:-आगमाः ऋग्वेदादयो वा ब्रह्म-ब्रह्मचर्य कुशलानुष्ठान वा नया-नीतयः । नियमा-अभिग्रहाः सत्यं-सम्यग्वादः शौच-द्रव्यतो निर्लेपता भावतोऽनवद्यसमाचारः, यच्चेह चरणकरणग्रहणेऽप्याजवादिग्रहणं तदार्जवादीनां प्राधान्यख्यापनार्थमवसेयं, 'चारुवण्ण'त्ति सत्कीर्तयः गौराद्युदात्तशरीरवणेयुक्ता वा सत्प्रज्ञाद | वा 'लज्जातवस्सीजिइंदिय'त्ति लज्जाप्रधानास्तपस्विनः-शिष्या जितेन्द्रियाश्च येषां ते लज्जातपस्विजितेन्द्रियाः, अथवा लज्जया तपःश्रिया च जितानीन्द्रियाणि यैस्ते लज्जातपाश्रीजितेन्द्रियाः, यद्यपि जितेन्द्रिया इति प्रागुक्तं, तथापीह लज्जा दीप अनुक्रम १६) | विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं (जातिसंपन्न आदि गुणा:) ~204 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [१६...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: चौपषा- 1 प्रत सूत्रांक [१६] तपोविशेषितत्वान्न पुनरुक्तत्वमवसेयमिति, 'सोहित्ति सुहृदो-मित्राणि जीवलोकस्येति गम्यम् , अथवा शोधियोगाच्छो- अनगा० Wधयः-अकलुपहदया इत्यर्थः, 'अणियाण'त्ति अनिदाना-निदानरहिताः 'अप्पुस्सुय'त्ति अल्पारमुक्या-औत्सुक्यवर्जिताः || 'अबहिलेस'त्ति संयमादयहिभूतमनोवृत्तयः, 'अप्पडिलेस्सा [वा] अप्रतिलेश्या-अतुलमनोवृत्तयः, 'सुसामण्णरय'त्ति अति-18/ सू. १६ शयेन श्रमणकर्मासक्ताः, 'दंत'त्ति गुरुभिर्दमं ग्राहिताः विनयिता इत्यर्थः, इदमेव नम्रन्थ्यं प्रवचनं 'पुरओकाति पुरस्कृत्य-प्रमाणीकृत्य विहरन्तीति, कचिदेवं च पठ्यते-बहूर्ण आयरिया' अर्थदायकत्वात् 'बहूर्ण उवझायासूत्रदायकत्वात् , बहूनां गृहस्थानां प्रत्रजितानां च दीप इव दीपो मोहतमःपटलपाटनपटुत्वात्, द्वीप इव वा द्वीपः संसारसागरनिमन्नानामाश्वासभूतत्वात् , 'ताण ति त्राणमनर्थेभ्यो रक्षकत्वात् , 'सरणं'ति शरणमर्थसम्पादकत्वात् 'गइत्ति गम्यत इति गतिरभिगमनीया इत्यर्थः, 'पइत्ति प्रतिष्ठन्त्यस्यामिति प्रतिष्ठा आश्रय इत्यर्थः ॥ तेसि थे भगवंताणं आयावायावि विदिता भवंति परवाया विदिता भवंति आयावायं जमहत्ता न | लघणमिव मत्तमातंगा अच्छिद्दपसिणवागरणा रयणकरंडगसमाणा कुत्तिआवणभूआ परवादियपमहणा दुचालसंगिणो समत्तगणिपिडगधरा सव्वक्खरसण्णिवाइणो सब्वभासाणुगामिणो अजिणा जिणसंकासा जिणा इव अवितहं वागरमाणा संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ (सू०१६) XI तेषां भगवता 'आयावायावित्ति आत्मवादाः-स्वसिद्धान्तप्रवादाः, अपिः समुच्चये, पाठान्तरेणात्मवादिनो जैना| है| इत्यर्थः, विदिताः-प्रतीताः भवन्ति, तथा परवादा:-शाक्यादिमतानि, पाठान्तरेण परवादिनः-शाक्यादयो विदिता दीप अनुक्रम %%%% 94%ॐॐ १६) | विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं (जातिसंपन्न आदि गुणा:) -~-205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: +5 +% प्रत सूत्रांक [१६]] भवन्ति, स्वपरसिद्धान्तप्रवीणतया, ततश्च 'आयावाय'ति स्वसिद्धान्तं 'जमइत्त'सि पुनः पुनरावर्तनेनातिपरिचितं कृत्वा, | किमिव के इत्याह-नलवनमिव मत्तमाता इति प्रतीतं, नलवना इति पाठान्तरं, नलवनानीवेति व्याख्येयं, ततः अच्छि-18 लादपसिणवागरण'त्ति अविरलप्रश्ना अविरलोत्तराश्च सम्भूताः सन्तो विहरन्तीति योगः, 'रयणकरंडगसमाण'त्ति प्रतीतं, 'कुत्तिआवणभूअत्ति कुत्रिक-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूमित्रयं तत्सम्भवं वस्त्वपि कुत्रिकं, तत्सम्पादक आपणो-हट्टः । कुत्रिकापणस्तजूता-समीहितार्थसम्पादनलन्धियुक्तत्वेन तदुपमाः, 'परवाइयपमद्दण'त्ति तन्मतप्रमईनात् 'परवाईहिं अणो-13 ॥ी कंता इत्यादि चोदसपुषी'त्यन्तं वाचनान्तरं, तत्र अनुपक्रान्ता-अनिराकृता इत्यर्थः, 'अण्णउस्थिपहिति अन्ययू-14 ★ थिकैः-परतीथिंकः 'अणोद्धंसिजमाण'त्ति अनुपध्वस्यमानाः माहात्म्यादपात्यमानाः, विहरन्ति-विचरन्ति, 'अप्पेगइया है आयारधरे'त्येवमादीनि पोडश विशेषणानि सुगमानि, नवरं सूत्रकृतधरा इत्यस्य प्राक्तनाङ्गधरणाविनाभूतत्वेऽपि | तस्यातिशयेन धरणात्सूत्रकृतधरा इत्याधुक्तम् , अत एव विपाकश्रुतधरोक्तावपि एकादशाङ्गविद इत्युक्तम्, अथवा विदे-॥ *र्विचारणार्थत्वादेकादशाङ्गविचारकाः, नवपूादिग्रहणं तु तेषां सातिशयत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमिति, चतुर्दशपूर्वित्वे | सत्यपि द्वादशामित्वं केषाश्चिन्न स्थाचतुर्दशपूर्वाणां द्वादशाङ्गस्यांशभूतत्वात् , अत आह-'दुवालसंगिणो'त्ति, तथा द्वादशाङ्गित्वेऽपि न समस्तश्रुतधरत्वं केषाश्चित्स्यादित्यत आह-समत्तगणिपिडगधरा' गणीनाम्-अर्थपरिच्छेदानां पिटकमिव पिटक-स्थानं गणिपिटकम् , अथवा पिटकमिव वालजकवाणिजकसर्वस्वाधारभाजनविशेष इव यत्तस्पिटकं, गणिन-आचा-IIk यस्य पिटकं गणिपिटक-प्रकीर्णकश्रुतादेशश्रुतनियुक्त्यादियुक्तं जिनप्रवचनं, समस्तम्-अनन्तगमपोयोपेतं गणिपिटक SRAELSEARSEXXEKS दीप अनुक्रम १६) विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णन ~ 206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: || अनगा० औपपा- तिकम् सू०१७ ॥२४॥ प्रत सूत्रांक [१६] धारयन्ति ये ते तथा, अत एव 'सवक्खरसण्णिवाइणो'त्ति सर्वे अक्षरसन्निपाता:-वर्णसंयोगा ज्ञेयतया विद्यन्ते येषां ते तथा, 'सषभासाणुगामिणो'त्ति सर्वभाषा:-आर्याना मरवाचः अनुगच्छन्ति-अनुकुर्वन्ति तदापाभाषित्वात् स्वभाषयैव सवा लब्धिविशेषात्तथाविधप्रत्ययजननात्, अथवा सर्वभाषाः-संस्कृतप्राकृतमागध्याचा अनुगमयन्ति-व्याख्यान्तीत्येवशीला येते तथा, 'अजिण'त्ति असर्वज्ञाः सन्तो जिनसङ्काशाः, जिना इवावितथं व्याकुर्वाणाः ॥१६॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी यहवे अणगारा भगवंतो इरिआसमिआ भासासमिआ एसणासमिआ आदाणभंडमसनिक्खेवणासमिआ उच्चारपासवणखेलसिंघाणजलपारिहावणियासमिआ मणगुत्ता चयगुत्ता कायगुत्ता गुत्ता गुतिदिया गुत्तवंभयारी अममा अकिंचणा |छिषणग्गंथा छिपणसोआ निरुवलेवा कंसपातीच मुकतोआ संख इव निरंगणा जीवो विव अप्पडिहयगती जच्चकणगंपिव जातरूवा आदरिसफलगाविव पागडभाषा कुम्मो इव गुतिदिआ पुकखरपत्तं व निरुवलेवा गगणमिव निरालंबणा अणिलो इव निरालया चंद इव सोमलेसा सूर इव दित्ततेआ सागरो इब गंभीरा विहग इव सब्वओ विप्पमुका मंदर इव अप्पकंपा सारयसलिलं व सुद्धहिअया खग्गिविसाणं व एगजाया| भारंडपक्खी व अप्पमत्ता कुंजरो इव सोंडीरा वसभो इव जायत्थामा सीहो इब दुद्धरिसा वसुंधरा इव सवफासविसहा सुहअहुआसणे इव तेअसा जलंता १ वृत्त्यभिप्रायेण अग्गन्या। दीप अनुक्रम १६) विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(केवलज्ञानप्राप्ति: योग्य अनगारस्य गुण-वर्णनं) ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७]] 'तेणं कालेण'मित्यादि गमान्तरं व्यक्तं च, नवरं समितिसूत्रे 'आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिय'त्ति आदाने-ग्रहणे उपकरणस्येति गम्यते, भाण्डमात्रायाः-वस्खाधुपकरणरूपपरिच्छदस्य, भाण्डमात्रस्य वोपकरणस्यैव, अथवा भाण्डस्यवस्त्रादेम॒न्मयभाजनस्य वा मात्रस्य च-पात्र विशेषस्य निक्षेपणायां-विमोचने ये समिता:-सुप्रत्युपेक्षितादिक्रमेण सम्यक् प्रवृत्तास्ते तथा, 'उच्चारपासवणखेलसिंघाणजालपारिडावणियासमिया' पुरीपमूत्रनिष्ठीवननासिकाश्लेष्ममलपरित्यागे समिता इति शुद्धस्थण्डिलाश्रयणात, 'मणगुत्ते'त्यादि पदत्रयं कण्ठयम् , अत एव 'गुत्ता' सर्वथा गुप्तत्वात् 'गुतिदिय'त्ति शब्दादिषु रागादिरहिता इत्यर्थः, अथवा 'गुत्तागुत्तिवियत्ति गुप्तानि शब्दादिषु रागादिनिरोधाद् अगुप्तानि च आगमश्रवणेर्यासमित्यादिष्वनिरोधादिन्द्रियाणि येषां ते तथा, 'गुत्तबंभयारित्ति गुप्त-यसत्यादिगुप्तिमब्रह्म-मैथुनविरतिं चरन्ति-आसेवन्त इत्येवंशीला गुप्तब्रह्मचारिणः, 'अममति आभिष्वङ्गिकममेतिशब्दवर्जाः 'अकिंचन'त्ति निर्देव्याः (प्रन्थानम् १०००) वाचनान्तरे 'अकोहे'त्यादीन्येकादश पदानि दृश्यन्ते, तत्र 'अकोहे'त्यादि ४ प्रतीतानि, अत एव 'संत'त्ति शान्ता अन्तर्वृत्त्या 'पसंत'त्ति प्रशान्ताः पहिर्वृत्त्या 'उपसंत'त्ति उपशान्ता उभयतः, अधवा मनःप्रभृत्यपेक्षया शान्तादीनि पदानि, अथवा श्रान्ता भवभ्रमणात् प्रशान्ताः प्रकृष्टचित्तत्वात् उपशान्ता-निवृत्ताः पापेभ्य, अथवा प्रशमप्रकर्षाभि धानायैकार्थ पदत्रयमिदम् , अत एव 'परिनिबुआ' सकलसन्तापवर्जिताः 'अणासव'त्ति अनाश्रवाः-अविद्यमानपापकर्मप्रबन्धाः 'अगंध'त्ति अविद्यमान हिरण्यादिग्रन्थाः 'छिन्नसोअति छिन्नशोकाश्छिमश्रोतसो था, छिन्नसंसारप्रवाहा इत्यर्थः.18 लानिरुबलेव'त्ति उपलिप्यते अनेनेत्युपलेपस्तद्रहिताः, कर्मबन्धहेतुवर्जिता इत्यर्थः, अथ निरुपलेपतामेवोपमानराह-वक्ष्यमा SCREENAX दीप अनुक्रम RELIGunintentATHREE FarPurwanamuronm विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(केवलज्ञानप्राप्ति: योग्य अनगारस्य गुण-वर्णनं) ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मल [१७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा अनगा० तिकम् । SOSSAGE ॐ प्रत क सूत्रांक [१७]] णपदानां च भावनाध्ययनायुक्ते इमे सङ्घहगाथे-'कसे १ संखे २ जीवे ३ गयणे ४ वाए ५ य सारए सलिले ६ । पुक्ल-| की रपत्ते ७ कुम्मे ८ विहगे ९ खग्गे य १० भारंडे ११॥१॥ कुंजर १२ वसहे १३ सीहे १४ नगराया चेव १५ सागर-| ||ऽक्लोहे १५ । चंदे १७ सूरे १८ कणगे १९ वसुंधरा चेव २१ सूहुयहुए २१ ॥२॥' उक्तगाधानुक्रमेणेह तानि पदानि | सू०१७ व्याख्यास्यामः, वाचनान्तरे इत्थमेव दृष्टत्वादिति, 'कंसपाईव मुकतोया' कांस्यपात्रीवेति व्यक्तं मुक्त-त्यकं तोयमिव तोयं-बन्धहेतुत्वात् स्नेहो यैस्ते तथा, 'संखो इव निरंगणे ति कम्बुवत् रङ्गणं-रागाद्युपरञ्जनं तस्मान्निर्गताः, 'जीव इव अप्पडिहयगती' प्रत्यनीककुतीथिकादियुक्तेष्वपि देशनगरादिषु विहरन्तो वादादिसामोपेतत्वेनास्खलितगतय इत्यर्थः, संयमे वा अप्रतिहतवृत्तय इत्यर्थः, 'गगणमिव निरालंबण'त्ति कुलग्रामनगराद्यालम्बनवर्जिता इत्यर्थः सर्वत्रानिश्चिता इति पाहदयं, 'वायुरिव अपडियद्धा' प्रामादिष्वेकराठ्यादिवासात् 'सारयसलिलं व सुद्धहिअय'त्ति अकलुषमनस्त्वात् , 'पुक्खरपत्तं ४ व निरुवलेव'त्ति पङ्कजलकल्पस्व जनविषयस्नेहरहिता इत्यर्थः, 'कुम्मो व गुतिंदिय'त्ति कच्छपो हि कदाचिद् प्रीवापादलक्षणावयवपश्चकेन गुप्तो भवति, एवमेतेऽपीन्द्रियपश्चकेनेति, 'विहग इव विष्पमुक'त्ति मुक्तपरिकरत्वादनियतवासाच्च, 'खग्गिविसाणं व एगजाय'त्ति सङ्गी-आटन्यो जीवस्तस्य विषाणं-शृङ्गं तदेकमेव भवति तदेकजाता-एकभूता रागा-||४|| &ादिसहायवैकल्यादिति, 'भारंडपक्खीव अप्पमत्त'त्ति भारण्डपक्षिणोः किलक शरीरं पृथग्मी त्रिपादं च भवति, ती शाचात्यन्तमप्रमत्ततयैव निर्वाहं लभेते तेनोपमा कृतेति, 'कुंजरो इव सोंडीरा' हस्तीव शूराः कषायादिरिपन प्रती-III | त्येति, 'वसभो इव जायत्थामा' गौरिवोत्पन्नबलाः, प्रति ज्ञातकार्यभरनिर्वाहका इत्यर्थः, 'सीहो इव दुद्धरिसा' परीषदादि-18 दीप अनुक्रम विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(केवलज्ञानप्राप्ति: योग्य अनगारस्य गुण-वर्णनं) ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------- मूलं [१७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ***S* प्रत सूत्रांक [१७]] मृगैरनभिभवनीया इत्यर्थः, 'मंदरो इव अप्पकंपत्ति मेरुरिवानुकूलोपसर्गवायुभिरविचलितसत्त्वाः, 'सागरो इव गंभीर'त्ति & हर्षशोकादिकारणसम्पर्केऽप्यविकृतचित्ताः, 'चंदो इव सोमलेस्स'त्ति अनुपतापहेतुमनःपरिणामाः, 'सूरो इव दित्ततेत्ति दीप्ततेजसो द्रव्यतः शरीरदीच्या भावतो ज्ञानेन, 'जच्चकणगमिव जायरूवा' जात-लब्ध रूप-स्वरूपं रागादिकुद्रव्य-1* विरहात् यैस्ते जातरूपाः, 'वसुंधरा इव सबफासविसह'त्ति स्पर्शाः-शीतोष्णादयो अनुकूलेतराः परीषहास्तान सर्वान् । X विषहन्ते ये ते तथा, 'सुहुअहुआसणो इव तेअसा जलंता' सुष्टु हुतं-क्षिप्तं घृतादि यत्र हुताशने-वह्नौ स तथा, तद्वत्ते जसा-ज्ञानरूपेण तपोरूपेण च ज्वलन्तो-दीप्यमानाः, पुस्तकान्तरे विशेषणानि सर्वाण्येतानीदं चाधिकम्-'आदरिसफलगा इव पायडभावा' आदर्शफलकानीव-पट्टिका इव प्रतले विस्तीर्णत्वादादर्शफलकानि तानीव प्रकटा-यथावदुपलभ्य|मानस्वभावा भावा-आदर्शपक्षे नयनमुखादिधर्माः साधुपक्षे अशठतया मनःपरिणामाः येषु ते प्रकटभावाः ।। नत्थि णं तेसिणं भगवंताणं कत्थइ पडिबंधे भवइ, से अ पडिबंधे चउब्विहे पण्णत्ते, तंजहा-व्यओ खित्तओ कालओ भावओ, दब्बओ णं सचित्ताचित्तमीसिएसु व्वेसु, खेत्तओ गामे वा णयरे वा रणे वा खेत्ते वा खले वा घरे वा अंगणे वा, कालओ समए वा आवलियाए वा जाव अयणे वा अण्णतरे वा ४दीहकालसंजोगे, भावओ कोहे वा माणे वा मायाए वा लोहे वा भए वा हासे वा एवं तेर्सि ण भवइ । ते ण भगवंतो वासावासवजं अठ्ठ गिम्हहेमंतिआणि मासाणि गामे एगराइआ णयरे पंचराइआ वासीचंदण दीप अनुक्रम ***** SASSAS विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(केवलज्ञानप्राप्ति: योग्य अनगारस्य गुण-वर्णनं) ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------- मूलं [...१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा अनगा० तिकम् सू०१७ ॥३६॥ प्रत सूत्रांक [१७]] समाणकप्पा समलेहुकंचणा समसुहदुक्खा इहलोगपरलोगअप्पडिया संसारपारगामी कम्मणिग्घायणद्वाए अभुडिआ विहरंति ॥ (सू०१७)॥ ___ 'नत्थी' त्यादि, नास्ति तेषां भगवतामयं पक्षो यदुत कुत्रचिदपि प्रतिवन्धो भवतीति, तद्यथा-द्रव्यतः ४, द्रव्यतः सचित्तादिषु ३, क्षेत्रतो प्रामादिषु ७, तत्र क्षेत्रं-धान्यजन्मभूमिः खलं-धान्यमलनपवनादिस्थण्डिलं, शेषाणि व्यक्कानि, कालतः समयादिषु, तत्र समया-सर्वनिकृष्टः कालः, आवलिका-असङ्ख्यातसमया यावत्करणादिदं रश्यम्-'आणापाणू वा' उच्छासनि:श्वासकाल इत्यर्थः, 'थोवे वा' सप्तप्राणमाने 'लवे वा' सप्तस्तोकमाने 'मुहुत्ते वा' लवसप्तसप्ततिमाने अहोरात्रपक्षमासाः प्रतीता, 'अयण' दक्षिणायनमितरच, अन्यतरे वा 'दीहकालसंजोएत्ति वर्षशतादौ, भावतः क्रोधादिषु ६, एवं तेसिं न भवइ'त्ति एवम्-अमुना प्रकारेण तेषां न भवति प्रतिबन्ध इति प्रकृतम्, 'वासावासयजति वर्षासु-प्रावृषि वासो-निवासस्तद्वर्जमित्यर्थः, 'गामे एगराइय'त्ति एकरात्रो वासमानतया अस्ति येषां ते एकरात्रिकाः, एवं नगरे पञ्चरात्रिका इति, एतच्च प्रतिमाकस्पिकानाश्रित्योकम् , अन्येषां मासकल्पविहारित्वादिति, 'वासीचंदणसमाणकप्पत्ति वासीचन्दनयोः प्रतीतयोरथवा वासीचन्दने इव वासीचन्दने-अपकारकोपकारको तयोः समानो-निपरागत्वात्समः कल्पोविकल्पः समाचारो वा येषां ते वासीचन्दनसमानकल्पाः, 'समलेझुकंचण'त्ति समे-तुल्ये उपेक्षणीयत्वाल्लेष्टुकाश्चने येषां ते तथा, 'समसुखे' त्यादि 'विहरती' त्येतदन्तं व्यक्त, वाचनान्तरे पुनः 'तंजहा' इत्यतः परं गमान्तं यावदिदं पठ्यते-'अंडए इ वा अण्डजो-हंसादिः अण्डकं वा-मयूराण्डकादिः क्रीडादिमयूरादिहेतुरिति वा प्रतिबन्धः स्यात्, सप्तम्येकवचनान्तं दीप अनुक्रम *ORDS विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(केवलज्ञानप्राप्ति: योग्य अनगारस्य गुण-वर्णनं) ~211~ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७] चेदं व्याख्येयम् , इकारस्तु प्राकृतप्रभवः, 'पोयए इ वा पोतजो-हस्त्यादिः, पोतको वा शिशुरिति वा प्रतिबन्धः स्यात् , 'अंडजे इवा' बोंडजे इवे त्यत्र पाठान्तरे अण्डजं-वस्त्रं कोशिकारकीटाण्डकमभवं बोण्ड-कांसीफलप्रभवं वस्त्रमेव, 'जग्गहिए इ वा अवगृहीतं-परिवेषणार्थमुत्पाटितं भक्तपानं 'पम्गहिए वा' प्रगृहीतं भोजनार्थमुत्पाटितं तदेव, अथवा अवग्रहिक-अवग्रहोऽस्यास्तीत्यवग्रहिक-चसतिपीठफलकादिकं औपग्रहिकं वा दण्डकादिकमुपधिजातं, प्रगृहीतं तु प्रकप्राण गृहीतत्वादीपिकमिति, 'जण्णं जपणं दिसं'ति णङ्कारस्य वाक्यालङ्कारार्थत्याद्यां यां दिशमिच्छन्ति विहर्तमिति शेषः.IN 'ते णं तं गं'ति तां तां दिशं विहरन्तीति योगः, 'सुइभूय'त्ति शुचिभूताः-भावशुद्धिमन्तः श्रुतिभूता वा-प्राप्तसिद्धान्ताः, 'लघुभूय'त्ति अल्पोपधितया गौरवत्यागाच्च, अथवा लघुभूतो वायुस्तद्वत् ये सततविहारास्ते लघुभूताः, 'अणप्पगंधा'। अनल्पग्रन्थाः-बहागमाः अविद्यमानो वा आत्मनः सम्बन्धी अन्थो-हिरण्यादिर्येषां ते तथा, अनर्यग्रन्था या भावधनयुक्ता इत्यर्थः ॥१७॥ तेसि णं भगवंताणं एतेणं विहारेणं विहरमाणाणं इमे एआरूवे अन्भितरबाहिरए तवोवहाणे होत्था, तंजहा-अभितरए छविहे बाहिरएवि छविहे ॥ (सू०१८)॥ है अथ साधुवर्णकः प्रकारान्तरेणोच्यते-सच 'तेसि णमित्यादि से तं भावविउस्सग्गे' इत्येतदन्तः अनशनादितपो भेदप्रतिपादनपरः सुगम एव, नवरं वाचनान्तरे 'जायामायावित्ति'त्ति संयमयात्रामात्रार्थ वृत्तिः-भक्तग्रहणं यात्रामात्रावृत्तिः 'अदुचरं वत्ति अथापरं पुनरित्यर्थः । तथाऽधिकृतवाचनायाम् 'अभितरएत्ति अभ्यन्तरम्-आन्तरस्यैव शरी दीप अनुक्रम विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं -(केवलज्ञानप्राप्ति: योग्य अनगारस्य गुण-वर्णनं) ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- ॥३७॥ प्रत SANSKAR सूत्रांक रस्य तापनात्सम्यग्दृष्टिभिरेव तपस्तया प्रतीयमानत्वाच्च, 'बाहिरए'त्ति बाह्यस्यैव शरीरस्य तापनान्मिथ्यादृष्टिभिरपि तप- तपोभेदः ४ स्तया प्रतीयमानत्वाचेति ॥ १८॥ सू०१८ & से किं तं बाहिरए १२ छविहे, तंजहा-अणसणे ऊणो (अवमो) अरिया भिक्खाअरियारसपरिचाए कायकिलेसे पडिसंलीणया । से कितं अणसणे, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-इत्तरिए अ आवकहिए अ। से कित इत्तरिए, २ अणेगविहे पण्णते, तंजहा-चउत्थभत्ते छहभत्ते अट्ठमभत्ते दसमभसे वारसभत्ते चउद्दसभत्ते सोलसभत्ते अद्धमासिए भत्ते मासिए भत्ते दोमासिए भत्ते तेमासिए भत्ते चउमासिए भत्ते पंचमासिए| भत्ते छम्मासिए भत्ते, से तं इत्तरिए । से किं तं आवकहिए?,२दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पाओवगमणे अभत्तपञ्चक्खाणे असे किं तं पाओवगमणे, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-वाघाइमे अ निब्बाघाइमे अ नियमा अप्पडिकम्मे, से तं पाओवगमणे । से किं तं भत्तपञ्चक्खाणे १,२ दुविहे पण्णते, तंजहा-वाघाइमे अ का निव्वाघाइमे अणियमा सप्पडिकम्मे, से तं भसपञ्चक्खाणे, से तं अणसणे। | 'अणसणे'त्ति भोजननिवृत्तिः, तच्चेकर्तुं न शक्नोति तदा कि कार्यमित्याह-'अवमोयरित्ति अवमोदरस्य करणमवमोदरिका-ऊनोदरतेत्यर्थः, उपलक्षणत्वाचास्य न्यूनोपधिताऽपीह दृश्येति, तत्राशक्तस्य यत्कार्य तदाह-'भिक्खायरियत्ति | [वृत्तिसंक्षेप इत्यर्थः, तत्राप्यशकस्य यत्कार्यं तदाह-'रसपरिवाए'त्ति, तत्राप्यशक्तस्य यत्तदाह-कायकिलेसे', तत्रापि यत्त-||" दाह-पडिसंलीणय'त्ति, 'इत्तरिए'त्ति इत्वरम्-अल्पकालिकमेकोपवासादि षण्मासान्तम् 'आवकहिए' त्ति यावती चासौ8 [१८] दीप अनुक्रम तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~213~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [१९...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 45* प्रत सूत्रांक * [१९] कथा च-मनुष्योऽयमितिथ्यपदेशरूपा यावत्कथा तस्यां भवं यावत्कथिक-यावजीविकमित्यर्थः, 'पाओवगमणे'त्ति पादपस्येवोपगमनम्-अस्पन्दतयाऽवस्थानं पादपोपगमनं 'वाघाइमे त्ति व्याघातवत्-सिंहदावानलायभिभूतो यत् प्रतिप| द्यते 'निबाघाइमे अत्ति व्याघातविरहितं । से किं तं ओमोअरिआओ ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-ब्वोमोअरिआ य भावोमोअरिआ य, से कि तं व्वोमोअरिआ, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-उवगरणदब्योमोअरिआ य भत्तपाणदब्बोमोअरिआ थ। से किं तं उवगरणदव्योमोअरिआ, २तिविहा पण्णता, तंजहा-एगे बत्थे एगे पाए चियत्तोषकरणसा| तिवणया, सेतं उवगरणब्बोमोअरिआ। से किं तं भत्तपाणदब्बोमोअरिआ,२ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-अहकुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे अप्पाहारे, दुवालसकुकुडिभंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे अवडोमोअरिआ, सोलसकुपडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे दुभागपत्तोमोअरिआ, चउव्वीसकुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे पत्तोमोअरिआ, एकतीसकुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे किंचूणोमोअरिआ, बत्तीसकुकुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ता, एत्तो एगे णवि घासेण ऊण आहारमाहारेमाणे समणे णिग्गंधे णो पकामरसभोईत्ति वत्तव्वं सिआ, से तं भत्तपारणवोमोअरिआ, से तं व्वोमोअरिआ।से किंत भावोमोअरिआ?,२अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-अप्प कोहे अप्पमाणे अप्पमाए अप्पलोहे अप्पसद्दे अप्पझंझे, से तं भावोमोअरिभा, से तं ओमोअरिआ। से * * %ASAA%%%ATK * दीप अनुक्रम * [१९] SARERatininemarana तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~214~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [१९] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... १९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपा तिकम् ॥ ३८ ॥ भाग - १४ "औपपातिक" किं तं भिक्खायरिया १, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा- दव्वाभिग्गहचरए खेत्ताभिग्गहचरए कालाभिग्गहचरण भावाभिग्गहचरए उक्खितचरए णिक्खित्तचरए उक्खिन्तणिक्खितचरए णिक्खितउक्खितचरए वट्टिमाणचरए साहरिज़माणचरए उवणीअचरए अवणीअथरए उवणीअअवणी अचरए अवणी अडवणी* अचरए संसद्वचरए असंसङ्घचरए तज्ज्ञातसंसट्टचरए अण्णायचरए मोणचरए दिट्ठलाभिए अहिलाभिएं २) पुट्ठलाभिए अपुलाभिए भिक्खालाभिए अभिक्खलाभिए अण्णगिलायए ओषणिहिए परिमितपिंडवाइए सुद्धेसणिए संखायत्तिए, से तं भिक्खाधरिया । Education Internation - 'चियतोवगरण साइजणय'त्ति चित्तं प्रीतिकरं त्यक्तं वा दोषैर्यदुपकरणं वस्त्रपात्र व्यतिरिक्तं वस्त्रपात्रमेव वा तस्य या श्रयणीयता स्वदनीयता वा सा तथा, 'अप्पाहारे'त्ति द्वात्रिंशत्कवलापेक्षया अष्टानामल्पखात्, 'अवहोमोयरियत्ति द्वात्रिंशतोऽर्द्ध षोडश, एवं च द्वादशानामर्द्धसमीपवर्तित्वादुपाऽवमोदरिका द्वादशभिरिति, 'दुभागोमोयरिय'त्ति द्वात्रिंशतः षोडश द्विभागोऽर्द्धमित्यर्थः, ततः षोडशकवलमाना द्विभागावमोदरिकेत्युच्यते, 'पत्तोमोयरिय'त्ति 'चतुर्विंशतेः कवलानां द्वात्रिंशद्वितीयार्द्धस्य मध्यभागं प्राप्तत्वाच्चतुर्विंशत्या कवलैः प्राप्तावमोदरिकेत्युते, अथवा प्राप्तेव प्राप्ता द्वात्रिंशतखयाणां भागानां प्राप्तत्वाच्चतुर्थभागस्य चाप्राप्तत्वादिति, 'किंचूणूमोयरियत्ति एकत्रिंशतो द्वात्रिंशत एकेनोन|| त्वात्, 'पमाणपते 'ति द्वात्रिंशता कवलैः प्राप्तप्रमाणो भवति साधुर्न न्यूनोदर इति, 'एतो'त्ति इतो द्वात्रिंशकवलमाना| देकेनापि 'घासेणं'ति प्रासेन 'णो पकामरसभोईति वत्तवं सिया' इति नात्यर्थमन्नभोकेति वाच्यं स्यादिति, 'अप्पसद्दे 'ति । तपस: बाह्य अभ्यंतर भेदा: For Palata Use Only ~215~ बाह्यत० सू० १९ ॥ ३८ ॥ waryra Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मलं [...१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] अल्पकलह इत्यर्थः, कलह-क्रोधकार्यम् 'अप्पझंझे'त्ति अल्पझन्झा-अविद्यमानकलहविशेषः, अल्पशब्दश्चाभाववचनोमप्यस्ति, 'दवाभिग्गहचरए'ति द्रव्याश्रिताभिग्रहेण चरति-भिक्षामटति द्रव्याश्रिताभिग्रहं वा चरति-आसेवते यः स| ४ द्रव्याभिग्रहचरकः, इह च भिक्षाचर्यायां प्रक्रान्तायां यद् द्रव्याभियहचरक इत्युक्तं तद्धर्मधर्मिणोरभेदविवक्षणात्, द्रव्याभिग्रहश्च लेपकृतादिद्रव्यविषयः, क्षेत्राभिग्रहः-स्वनामपरग्रामादिविषयः, कालाभिग्रहः-पूर्वाहादिविषयः, भावाभि|ग्रहस्तु गानहसनादिप्रवृत्तपुरुषादिविषयः, 'उक्खित्तचरए'त्ति उरिक्षप्त-स्वप्रयोजनाय पाकभाजनादुन्तं तदर्थमभिग्रहतश्वरति-तद्गवेषणाय गच्छतीत्युक्षिप्तचरकः, एवमुत्तरत्रापि, 'निक्खित्तचरएत्ति निक्षिप्तं-पाकभाजनादनुवृतं 'उक्खित्तनिक्खित्तचरए'त्ति पाकभाजनादुत्क्षिप्य निक्षिप्तं तत्रैवान्यत्र वा स्थाने यत्तदुत्क्षिप्तनिक्षिप्तम् अथवोत्क्षिप्तं च निक्षिप्तं च | यश्चरति स तथोच्यते 'निक्खित्तउक्खित्तचरए'त्ति निक्षिप्तं भोजनपात्र्यामुत्क्षिप्तं च स्वार्थ तत एव निक्षिप्तोत्क्षिप्तं, 'वहिजमाणचरए'त्ति परिवेष्यमाणचरकः 'साहरिजमाणचरए'त्ति यत् कूरादिकं शीतलीकरणार्थं पटादिषु विस्तारितं तत्पुनर्भाजने क्षिप्यमानं संहियमाणमुच्यते, 'उवणीअचरए'त्ति उपनीतं केनचित्कस्यचिदुपढौकित प्रहेणकादि, 'अवणीयचरए'त्ति अपनीतं देयद्रव्यमध्यादपसारितमन्यत्र स्थापितमित्यर्थः, 'उवणीयावणीयचरएत्ति उपनीत-विनीतं दौकितं सत्प्रहेणकाद्यप नीतं स्थानान्तरस्थापितं अथवोपनीतं चापनीतं च यश्चरति स तथा, अथवा उपनीतं-दायकेन वर्णितगुणं अपनीत-निराकृतMगुणम् उपनीतापनीतं यदेकेन गुणेन वर्णित गुणान्तरापेक्षया तु दूषितं, यथाऽहो शीतलं जलं केवलं क्षारमिति, यत्तु क्षारं है किन्तु शीतलं तदपनीतोपनीतमुच्यत इति, अत आह-अवणीयउवणीयचरए'त्ति, 'संसद्धचरए'त्ति संसृष्टेन-खरण्टितेन 555555655 दीप अनुक्रम [१९] तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् ॥३९॥ प्रत सूत्रांक [१९] हस्तादिना दीयमानं संसृष्टमुच्यते तच्चरति यः स तथा, 'असंसट्टचरएत्ति उक्तविपरीतः, 'तज्जायसंसढचरए'त्ति तज्जातेन है देयद्रव्याविरोधिना यत् संसृष्टं हस्तादि तेन दीयमानं यश्चरति स तथा, 'अण्णायचरए'त्ति अज्ञातः-अनुपदर्शितस्वाजन्या सू० दिभावः संश्चरति यः स तथा, 'मोणचरए'त्ति व्यकं, 'दिठ्ठलाभिय'त्ति दृष्टस्यैव भक्तादेष्टाहा पूर्वोपलब्धादायकालाभो यस्यास्ति स दृष्टलाभिकः, 'अदिहलाभिए'त्ति तत्रादृष्टस्यापि अपवरकादिमध्यान्निर्गतस्य श्रोत्रादिभिः कृतोपयोगस्य भक्तादेरदृष्टाद्वा पूर्वमनुपलब्धादायकालाभो यस्यास्ति स तथा, 'पुङलाभिएति पृष्टस्यैव हे साधो! किं ते दीयत इत्यादिपश्नितस्य | यो लाभः स यस्यास्ति स तथा, 'अपुट्ठलाभिए त्ति उक्तविपर्ययादिति, "भिक्खालाभिए'त्ति भिक्षेव भिक्षा तुच्छमविज्ञातं ४॥ वा तल्लाभो ग्राह्यतया यस्यास्ति स भिक्षालाभिकः, 'अभिक्खलाभिए ति उक्तविपर्ययात्, 'अण्णगिलायए'त्ति अन्न-भोजनं । विना ग्लायति अन्नग्लायकः, स चाभिग्रहविशेषात् प्रातरेव दोषान्नभुगिति, 'ओवणिहिए'त्ति उपनिहितं यथा कथञ्चित् । प्रत्यासन्नीभूतं तेन चरति यः स औपनिहितिका उपनिधिना वा चरतीत्यौपनिधिकः, 'परिमियपिंडवाइए'त्ति परिमितपिण्डपातः-अर्द्धपोषादिलाभो यस्यास्ति स तथा, 'सुद्धेसणिए'त्ति शुद्धैषणा शङ्कादिदोषरहितता शुद्धस्य वा निर्व्यञ्जनस्य कूरादेरेषणा यस्यास्ति स तथा, 'संखादत्तिए'त्ति सङ्ख्याप्रधाना दत्तयो यस्य स तथा, दत्तिश्च एकक्षेपभिक्षालक्षणा। से किं तं रसपरिचाए ?, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-णिब्धि (य) तिए पणीअरसपरिचाए आयंबिलए ॥३९॥ आयामसित्यभोई अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लूहाहारे, से तं रसपरिचाए । से किं तं कायकिलेसे , २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-ठाणद्वितिए ठाणाइए उकुटुआसणिए पडिमट्ठाई चीरासणिए नेस दीप अनुक्रम [१९] तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] लिए दंडायए लउडसाई आयावए अवाउडए अकंडुअए अणिहए सव्वगायपरिकम्मविभूसविप्पमुक्के, सेत कायकिलेसे । से किं तं पडिसंलीणया १,२ चउन्विहा पण्णत्ता, तंजहा-इंदिअपडिसलीणया कसायपडिसं-18 लीणया जोगपडिसंलीणया विवित्तसयणासणसेवणया, 'णिधियतिए'त्ति निर्गतघृतादिविकृतिकः, 'पणीयरसपरिचाई प्रणीतरसं गलघृतदुग्धादिबिन्दुः, 'आयंबिलए'त्ति आयाकम्लम्-ओदनकुल्मापादि, 'आयामसित्यभोइ'त्ति अवश्रावणगतसिथभोक्ता 'अरसाहारे'त्ति अरसो-हिङ्गादिभिरसंस्कृत आहारो यस्य स तथा, 'विरसाहारे'त्ति विगतरसः-पुराणधान्यौदनादिः, 'अंताहारे'त्ति अन्ते भवमन्त्य-जघन्यधान्य वल्लादि, 'पंताहारे'त्ति प्रकर्षणान्त्यं वल्लायेव भुक्तावशेषं पर्युषितं घा, 'लुहाहारे'त्ति रूक्ष-रूक्षस्वभावं, क्वचित् 'तुच्छाहारे'त्ति दृश्यते तत्र तुच्छोऽल्पोऽसारच ॥ 'ठाणदिइए'त्ति स्थान कायोत्सर्गस्तेन स्थितिर्यस्य स स्थानस्थितिका, पाठान्तरेण| 'ठाणाइए'त्ति स्थानं-कायोत्सर्गस्तमतिगच्छति-करोतीति स्थानातिगः, 'उकुडुयासणिए'त्ति प्रतीतं, 'पडिमाईति प्रतिमामासिक्यादयः, 'वीरासणिए'त्ति वीरासनं-सिंहासननिविष्टस्य भून्यस्तपादस्य सिंहासनापनोदे यादृशमवस्थानं तद्यस्यास्ति स वीरासनिकः, 'नेसज्जिए'त्ति निषद्या पुताभ्यां भूम्यामुपवेशनं तया चरति नैषधिकः, 'दंडायए लगंडसाईत्ति क्वचिद्दश्यते तत्र दण्डस्येवायतम्-आयामो यस्यास्ति स दण्डायतिका लगण्डं-बक्रकाष्ठं तद्वच्छेते यः स लगण्डशायी तस्य पार्णिका|शिरांस्येव पृष्ठमेव वा भूमौ लगतीति, 'आयावए'त्ति आतापयति-शीतादिभिर्देहं सन्तापयतीत्यातापकः, आतापना च | त्रिविधा भवति-निष्पन्नस्योत्कृष्टाऽनिष्पन्नस्य मध्यमा ऊर्ध्वस्थितस्य जघन्या, निष्पन्नातापनाऽपि विधा-अधोमुखशा दीप अनुक्रम [१९] तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [...१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: तिकम् ॥४०॥ प्रत SC-SANSAR सूत्रांक यिता १ पार्श्वशायिता २ उत्तानशायिता चेति ३, अनिष्पन्नातापनाऽपि त्रिधा-गोदोहिका उत्कुटुकासनता पर्यङ्कासनता बाह्यत० चेति, ऊर्ध्वस्थानातापनाऽपि त्रिधैव-हस्ति शौण्डिका एकपादिका समपादिका चेति, एतेषु चातापनाभेदत्रितयेषु उत्कृष्टा-12 दिवयं प्रत्येक योजनीयमिति, 'अवाउडए'त्ति अमावृतकः प्रावरणवर्जक इत्यर्थः, अकण्डूयकानिष्ठीवको व्यक्ती, 'धुयके-13 सू०१९ समंसुलोम'त्ति क्वचिदृश्यते, तत्र धुतानि-निष्प्रतिकर्मतया त्यक्तानि केशश्मश्रुरोमाणि-शिरोजकूचकक्षादिलोमानि येन सद तथा, किमुक्त भवति -सर्वगात्रप्रतिकर्मविभूषाविप्रमुक्त इति । | से किं तं इंदियपडिसंलीणया ?, २ पंचविहा पण्णता, तंजहा-सोइंदियविसयपयारनिरोहो वा सोइंदियविसयपत्तेसु अस्थेसु रागदोसनिग्गहो वा चखिदियविसयपयारनिरोहो वा चखिदियविसयपत्तेमु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा घाणिदियविसयपयारनिरोहो वा घाणिदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा जिभिदियविसयपयारनिरोहो वा जिभिदियविसयपत्तेसु अत्थेसु रागदोसनिग्गहो वा फासिदियविसयपधारनिरोहो था फार्सिदियविसयपत्तेसु अत्थेमु रागदोसनिग्गहो वा, से तं इंदियप-15 डिसंलीणपा । से कितं कसायपडिसंलीणया १,२ चउब्विहा पण्णत्ता, तंजहा कोहस्सुदपनिरोहो वा * उदयपत्सस्स वा कोहस्स विफलीकरण माणस्सुयनिरोहो घा उदयपत्तस्स चा माणस्स विफलीकरणं || ॥४०॥ मायाउदयगिरोहो वा उदयपत्तस्स (ताए) वा मायाए विफलीकरणं लोहस्सुदयगिरोहो वा उदयपत्तस्स वा लोहस्स विफलीकरणं, से तं कसायपडिसंलीणया । से किं तं जोगपडिसलीणया ?, २ तिथिहा पण्णत्ता, [१९] 0345 दीप अनुक्रम [१९] तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मलं [...१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] तंजहा-मणजोगपडिसलीणया वयजोगपडिसलीणया कायजोगपडिसंलीणया। से किं तं मणजोगपडिसंलीणया ?, २ अकुसलमणणिरोहो वा कुसलमणउदीरणं घा, से तंमणजोगपडिसलीणया। से किं तं वयजोग पडिसलीणया?,२ अकुसलवयणिरोहो वा कुसलवयउदीरणं वा, से तं वयजोगपडिसंलीणया । से किं तं ४ कायजोगपटिसलीणया १,२ जपणं सुसमाहिअपाणिपाए कुम्मोइव गुत्तिदिए सब्वगायपडिसलीणे चिट्टइ. दासे तं कायजोगपडिसंलीणया । से किं तं विवित्तसयणासणसेवणया?,२ जणं आरामेसु उजाणेसु देवकुलेसु सभासु पवासु पणियगिहेस पणिअसालासु इत्थीपसुपंडगसंसत्तविरहियासु बसहीसु फासुएसणिजपीढ| फलगसेज्जासंथारगं उवसंपजित्ता णं चिहरइ, से तं पडिसंलीणया, से तं बाहिरए तवे (सू०१९) 'सोइंदियविसयप्पयारनिरोहो च'त्ति श्रोत्रेन्द्रियस्य विषये-शब्दे प्रचारस्य-प्रवृत्तेनिरोधो-निषेधः श्रोत्रेन्द्रियविषयप्रचारनिरोधः, स च 'सोइंदियविसयपत्तेसु अत्थेसु'त्ति श्रोत्रेन्द्रियगोचरप्राप्तेष्वर्थेषु-शब्देषु कर्णप्रविष्टेष्वित्यर्थः, 'आरा| मेसु'त्ति पुष्पप्रधानवनेषु 'उज्जाणेसुत्ति पुष्पफलोपेतादिमहावृक्षसमुदायरूपेषु 'सभासु'त्ति जनोपवेशनस्थानेषु 'पवासु'त्ति |जलदानस्थानेषु 'पणियगिहेसुत्ति भाण्डनिक्षेपार्थगृहेषु 'पणियसालासु'त्ति बहुग्राहकदायकजनोचितेषु गेहविशेषेषु, शय्या यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते, संस्तारकस्तु ततो हीनः ॥ १९॥ से किं तं अभितरए तवे? २ छबिहे पण्णत्ते, तंजहा-पायच्छित्तं विणओ वेयावचं सज्झाओ झाणं विउ. स्सग्गो । से किं तं पायच्छित्ते, २ दसविहे पण्णत्ते, तंजहा-आलोअणारिहे पडिकमणारिहे तदुभयारिहे दीप अनुक्रम [१९] तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] औपपा- विवेगारिहे विउस्सग्गारिहे तचारिहे छेदारिहे मूलारिहे अणवढप्पारिहे पारंचिआरिहे, से तं पायच्छित्ते । का आन्तर० तिकम् से किं तं विणए ?, २ सत्तविहे पण्णत्ते, तंजहा-णाणविणए दंसणविणए चरित्तविणए मणविणए वइविणए | कायविणए लोगोचयारविणए । से किं तं णाणविणए?,२पंचविहे पण्णते, तंजहा-आभिणियोहियणाणवि- सू० २० ॥४१॥४ काणए सुअणाणविणए ओहिणाणविणए मणपजवणाणविणए केवलणाणविणए । से किं तदसणविणए १,२|| दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुस्सुसणाविणए अणचासायणाविणए । से कितं सुस्मुसणाविणए, २ अणेगविहे |पण्णत्ते, तंजहा-अब्भुट्ठाणे इ वा आसणाभिग्गहे इ वा आसणप्पदाणे इचा सकारे इ वा सम्माणे इ वा किहकम्मे इ वा अंजलिपग्गहे इ वा एतस्स अणुगच्छणया ठिअस्स पजुवासणया गच्छंतस्स पडिसंसाहणया, से तं सुस्सुसणाविणए । Mi 'पायच्छित्त'ति अतिचारविशुद्धिः, सा च वन्दनादिना बिनयेन विधीयत इत्यत आह-"विणओ'सि कर्मविनयनहे तुव्यापारविशेषः, तद्वानेव च वैयावृत्ये वर्तत इत्यत आह-वेयावच्चंति भक्तादिभिरुषष्टम्भा, वैयावृत्यान्तराले च | स्वाध्यायो विधेय इत्यत आह-सज्झाओ'त्ति शोभनो मर्यादया पाठ इत्यर्थः, तत्र च ध्यानं भवतीत्याह-'झाणं'ति, शुभध्यानादेव हेयत्यागो भवतीत्यत आह-'विउस्सग्गे'त्ति, 'आलोयणारिहे'त्ति आलोचनां-गुरुनिवेदनां विशुद्धये यदहेति ॥४ ॥ भिक्षाचर्याचतिचारजातं तदालोचनाह, तद्विषयत्वादालोचनालक्षणा विशुद्धिरपि आलोचनाहमित्युक्तं, तस्या एव तपोप्रारूपत्वादिति, एवमन्यान्यपि, नवरं पडिक्कमणारिहे'त्ति मिथ्यादुष्कृतं, 'तदुभयारिहेत्ति आलोचनाप्रतिक्रमणस्वभावं, 'विवे-18/ दीप अनुक्रम (२०) ला तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~221~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] गारिहे'लि अशुद्धभक्तादिविवेचनं, 'विजस्सग्गारिहेत्ति कायोत्सर्गः, 'तवारिहेत्ति निर्विकृतादिकं तपः, 'छेदारिहे'त्ति दिनपञ्च-|६|| कादिना क्रमेण पर्यायच्छेदनं, 'मूलारिहे'त्ति पुनर्वतोपस्थापनम् , 'अनवडापारिहेत्ति अचरिततपोविशेषस्य व्रतेष्वनवस्थापन, Mपारंचिआरिहे'त्ति तपोविशेषेणैवातिचारपारगमनमिति , 'आसणाभिग्गहे इ वत्ति यत्र यत्रोपवेष्टुमिच्छति तत्र तत्रासननयनं, 'आसणप्पयाणं ति आसनदानमात्रमेवेति । से कितं अणञ्चासायणाविणए , २ पणतालीसविहे पण्णते, तंजहा-अरहताणं अणचासायणया अरहतपण्णत्तस्स धम्मस्स अणचासायणया आयरियाणं अणचासायणया एवं उवज्झापाणं घेराणं कुलस्स गणस्स संघस्स किरिआणं संभोगिअस्स आभिणिवोहियणाणस्स सुअणाणस्स ओहिणाणस्स मणपज्जवणाणस्स लकेवलणाणस्स एएसिं चेव भत्तिवहुमाणे एएसिं चेव वण्णसंजलणया, से तं अणचासायणाविणए । से कित चरित्तविणए १,२ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-सामाइअचरित्सविणए छेओवट्ठावणिअचरित्तविणए परिहारवि-1 सुद्धिचरित्तविणए सुहमसंपरायचरित्तविणए अहवायचरित्तविणए, से तं चरित्तविणए । से किं तं मणचि॥णए १,२ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पसत्यमणविणए अपसस्थमणविणए । से किं तं अपसस्थमणविणए !,२ जेk अमणे सावजे सकिरिए सककसे कडुए णिहुरे फरुसे अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे परितावणकरे उद्दवणकरे भूओवघाइए तहप्पगारं मणो णो पहारेजा, से तं अपसत्यमणोविणए । से किं तं पसत्यमणोविणए?, २ ४ चेव पसत्थं यब्वं, एवं चेव बहुविणओऽवि एएहिं पएहिं चेव णेअब्बो, से तं वइविणए । दीप अनुक्रम CCESCESS (२०) तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~222~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: आन्तर प्रत सूत्रांक [२०] औपपा 'किरियाणति क्रियावादिनां 'संभोइयस्स'त्ति एकसमाचारिकताया इति । मनोविनये लिख्यते-'जे अ मणे'त्ति यत्पु-15 तिकम् | नर्मन:-चित्तमसंयतानामिति गम्यते, 'सावज्जे'त्ति सहावद्येन-गर्हितकर्मणा हिंसादिना वर्तत इति सावद्यम्, एतदेव प्रपञ्चयते-'सकिरिय'त्ति कायिक्यादिक्रियोपेतं, 'सककसे'त्ति सकार्कश्यं कर्कशभावोपेतं, 'कडुएत्ति परेषामात्मनो वा कटु॥४२॥ कमिव कटुकमनिष्टमित्यर्थः, 'निहुरे'त्ति निरं-मार्दवाननुगतं, 'फरुसे'त्ति स्नेहाननुगतं, 'अणहयकरें'त्ति आश्रवकरम्-अशुभकर्माश्रवकारि, कुत इत्याह-छेयकरे'त्ति हस्तादिच्छेदनकारि, 'भयकर ति नासिकादीनां भेदनकारि, 'परितावणकरे त्ति प्राणिनामुपतापहेतुः, 'उदयणकरे'त्ति मरणान्तिकवेदनाकारि धनहरणाद्युपद्यकारि वा, 'भूओवघाइए'त्ति भूतोपधातो | यत्रास्ति तद्भूतोपघातिकमिति, 'तहप्पगारंति एवम्प्रकारं असंयतमनःसदृशमित्यर्थः, 'मणो णो पहारेज'त्ति न प्रवर्तयेत् ।। से किं तं कायविणए , २ दुविहे पपणत्ते, तंजहा-पसत्थकायविणए अपसस्थकायविणए । से किं तं अपदासत्धकायविणए १, २ सत्सविहे पण्णसे, तंजहा-अणाउत्तं गमणे अणाउत्तं ठाणे अणाउत्तं निसीदणे अणाउत्तं तुअहणे अणावसं उल्लंघणे अणाउत्तं पल्लंघणे अणाउत्तं सबिदियकायजोग जणया, सेतं अपसत्थकायविणए । से किं तं पसत्थकायविणए १,२एवं चेव पसत्थं भाणियध्वं, से तं पसत्धकायविणए, से तं कायविणए । से किं तं लोगोवयारविणए १,२ सत्तविहे पण्णत्ते, तंजहा-अब्भासवत्तिय परकउंदाणुवत्तियं कजहेर्ड कियपडिकिरिया अत्तगवेसणया देसकालण्णुया सचद्वेसु अपडिलोमया, से ते लोगोवयारविणए, से तं विणए। 'अणाउत्त'ति असावधानतया, 'उलंघणे त्ति कर्दमादीनामतिक्रमणं पौनःपुन्येन तदेव प्रलङ्घनमिति, 'सबिंदियकायजो दीप अनुक्रम ॥४२॥ (२०) तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~223~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] ४ गजुंजणय'त्ति सर्वेन्द्रियाणां काययोगस्य च योजन-प्रयोजनं व्यापारणं सर्वेन्द्रियकाययोगयोजनतेति 'अब्भासवत्तिय'त्ति अभ्यासवृत्तिता-समीपवर्तित्वं 'परच्छेदाणुवत्तिय'त्ति पराभिप्रायानुवर्तनं 'कजहेजति कार्यहेतोः-ज्ञानादिनिमित्तं भक्कादिदानमिति गम्य, 'कयपडिकिरिय'त्ति अध्यापितोऽहमनेनेतिबुद्ध्या भक्तादिदानमिति 'अत्तगवेसणय'त्ति आर्तस्य-12 दुःखितस्य वार्तान्वेषणं 'देसकालण्णुय'त्ति प्रस्तावज्ञता-अवसरोचितार्थसम्पादनमित्यर्थः 'सबत्थेसु अपडिलोमय'त्ति | सर्वप्रयोजनेष्वाराध्यसम्बन्धिष्वानुकूल्यमिति । __ से किं तं वेआबच्चे ?, २ दसविहे पण्णत्ते, तंजहा-आयरियवेआवच्चे उवज्झायवेआवच्चे सेहवेआवचे | गिलाणवेआयचे तबस्सिवेआवच्चे धेरवेावचे साहम्मिअवेआवणे कुलवेआवच्चे गणवेआयचे संघवेआवञ्चे, ॥से तं वेआवचे। से फितं सज्झाए,२पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-बायणा पडिपुकछणा परिअहणा अणुप्पहार धम्मकहा, से तं सज्झाए । से किं तं झाणे १,२ चउब्विहे पण्णते, तंजहा-अज्झाणे रुद्दज्झाणे धम्मज्झाणे ? ॐ सुकाणे, अज्झाणे चउब्विहे पण्णत्ते, तंजहा-अमणुषणसंपओगसंप उसे तस्स विपओगस्सतिसमपणादगए आवि भवइ, मणुण्णसंपओगसंपतरो तस्स अविप्पओगस्सतिसमण्णागए आवि भवइ, आर्यकसंपओग-| संपउत्से तस्स विप्पओगस्सतिसमण्णागए आवि भवइ, परिजूसियकामभोगसंपओगसंपत्ते तस्स अविप्पओगस्सतिसमण्णागए आधि भवइ । 'वेआवश्चेत्ति वैयावृत्त्य-भक्तपानादिभिरुपष्टम्भः 'सेह'त्ति अभिनवप्रवजितः तपस्वी-अष्टमादिक्षपकः 'थेर'त्ति दीप अनुक्रम (२०) तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~224 Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम [२०] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... २०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपा तिकम् ॥ ४३ ॥ भाग - १४ "औपपातिक" स्थविरो जम्मादिभिः साधर्मिकः साधु साध्वी वा, कुलं गच्छसमुदायः, गणः कुलानां समुदायः, सङ्घो गणसमुदायः इति । 'अमणुण्णसंप ओग संपडते' ति अमनोज्ञः - अनिष्टो यः शब्दादिस्तस्य यः सम्प्रयोगो-योगस्तेन सम्प्रयुक्तो यः स तथा, | तथाविधः सन् 'तस्स'ति तस्य - अमनोज्ञस्य शब्दादेर्विप्रयोगस्मृतिसमम्बागतश्चापि भवति वियोगचिन्तानुगतः स्यात्, वाऽपीत्युत्तरवाक्यापेक्षया समुच्चयार्थः, असावार्तध्यानं स्यादिति शेषः, धर्मधर्मिणोरभेदादिति । तथा 'मणुण्णसंपओगसंपडते'त्ति व्यक्त, नवरं मनोशं धनादि 'तस्स' ति मनोज्ञस्य धनादेः 'अविप्पओगस्सइसमण्णागए आदि भवइति व्यक्तं, नवरम्-आर्तध्यानमसावुच्यत इति वाक्यशेषः । तथा 'आयकसंपओगसंपउत्तेत्ति व्यक्तं, नवरमातङ्को- रोगः 'तस्स'त्ति | तस्यातङ्कस्य 'विप्पओगसइसमण्णागए त्ति व्यक्त, वाक्यशेषः पूर्ववत् । तथा 'परिजुसिय काम भोगसंपओगसंप उत्ते'त्ति व्यक्तं, नवरं परिजुसियत्ति- 'जुरी प्रीतिसेवनयो 'रितिवचनात् सेवितः प्रीतो वा यः कामभोगः- शब्दादिभोगो मदन सेवा वा 'तरस'ति तस्य कामभोगस्य 'अविप्पओगस्स इसमण्णागए ति प्राग्वत् । Eucation International - अहस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तंजहा- कंदणया सोअणया तिप्पणया विलवणया । रुद्द ज्झाणे चउब्विहे पणत्ते, तंजहा-हिंसाणुबंधी मोसाणुबंधी तेणाणुबंधी सारक्खणाणुबंधी, रुद्दस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तंजहा उसण्णदोसे पहुदोसे अण्णाणदोसे आमरणंतदोसे । धम्मज्झाणे चडव्विहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते, तंजहा आणाविजए अवायविजए विवागविजए संठाणविजय, धम्मस्स णं झाणस्स | चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तंजहा आणारुई णिसग्गरुई उबएसई सुत्तरुई, धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि तपस: बाह्य अभ्यंतर भेदा: For Parts Only ~ 225 ~ आन्तर सू० २० ॥ ४३ ॥ war Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------- मूलं [...२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] आलंयणा पण्णत्ता, तंजहा-वायणा पुच्छणा परियणा धम्मकहा, धम्मस्स णं झाणस्स चसारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, संजहा-अणिचाणुप्पेहा असरणाणुप्पेहा एगत्ताणुप्पेहा संसाराणुप्पेहा। 'कंदणय'त्ति महता शब्देन विरवणं 'सोअणय'त्ति दीनता, 'तिप्पणयत्ति तेपनता तिपेः क्षरणार्थत्वादश्रुविमोचनं, विलपनता-पुनः पुनः क्लिष्टभाषणमिति, 'उसण्णदोसे'त्ति उसपणेन-बाहुल्येनानुपरतत्वेन दोपो-हिंसाऽनृतादत्तादानस-18| | रक्षणानामन्यतमः उसपणदोप, तथा 'बहुदोसे'त्ति बहुष्वपि सर्वेष्वपि हिंसादिषु ४ दोषः-प्रवृत्तिलक्षणो बहुदोषः । 'अण्णाणदोसे'त्ति अज्ञानात् कुशास्त्रसंस्काराद्धिंसादिष्वधर्मस्वरूपेषु धर्मबुद्ध्या या प्रवृत्तिस्तल्लक्षणो दोषः अज्ञानदोषः, | 'आमरणंतदोसेत्ति मरणमेवान्तो मरणान्तः आ मरणान्तात् आमरणान्तम् , असञ्जातानुतापस्य कालसौकरिकादेरिव या हिंसादिषु ४ प्रवृत्तिः सैव दोषः आमरणान्तदोषः, इह चातरौद्रे परिहार्यतया साधुविशेषणे धर्मशक्के खासेव्यतयेति । |'चउप्पडीयारे'त्ति चतुर्यु-भेदलक्षणालम्बनानुप्रेक्षालक्षणेषु पदार्थेषु प्रत्यवतार:-समवतारो वक्ष्यमाणस्वरूपो यस्य तच्चतुप्रत्यवतारमिति । 'आणाविजए'त्ति आज्ञा-जिनप्रवचनं तस्था विचयो-निर्णयो यत्र तदाज्ञाविचयं, प्राकृतत्वादाणाविजय, आज्ञागुणानुचिन्तनमित्यर्थः, एवं शेषपदान्यपि, नवरम् अपायाः-रागद्वेषादिजन्या अनर्थाः, विपाक:-कर्मफलं, संस्थानानि-लोकद्वीपसमुद्राद्याकृतयः । 'आणारुईत्ति नियुक्त्यादिश्रद्धानं 'णिसम्गरुईत्ति स्वभावत एव तत्त्वश्रद्धानम् 'उवए सरुईत्ति साधूपदेशात्तत्त्वश्रद्धानं 'सुत्तरुईत्ति आगमात्तत्त्वश्रद्धानम् 'आलंबण'त्ति आलम्बनानि धर्मध्यानसौधशिखरारोलिहणार्थ याभ्यालम्ज्यन्ते-आश्रीयन्ते तान्यालम्बनानि-वाचनादीनि, अनित्यत्वाशरणत्वकत्वसंसारानुप्रेक्षाः प्रतीताः । दीप अनुक्रम RCH (२०) तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~226~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: आन्तर० प्रत सूत्रांक [२०] औपपा- सुकज्झाणे चउबिहे चउप्पडोआरे पण्णत्ते, तंजहा-पुहुत्तचियके सविआरी १ एगत्तषियके अविआरी २ तिकम् सुहमकिरिए अप्पडिवाई ३ समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी, ४, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, पतंजहा-विवेगे विजसग्गे अब्धहे असम्मोहे, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णता, तंजहा-खंती। ॥४४॥ मुत्ती अजवे मद्दवे, सुक्कस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-अवायाणुप्पेहा असुभाणुप्पेहा अर्णतवित्तिआणुप्पेहा विप्परिणामाणुप्पेहा, से तं झाणे ॥ 'पुहत्तवियके सविआरी'त्ति पृथक्त्वेन-एकद्रव्याश्रितानामुत्पादादिपर्यायाणां भेदेन वितकों-विकल्पः पूर्वगतश्रुतालम्बनो नानानयानुसरणलक्षणो यत्र तत् पृथक्त्ववितर्क, तथा विचार:-अर्थाद्वयञ्जने व्यञ्जनादर्थे मनःप्रभृतियोगानां चान्यस्मादन्यतरस्मिन् विचरणं सह विचारेण यत्तत्सविचारि, सर्वधनादित्यादिन् समासान्तः, तथा 'एगत्तविय के अवि-18 आरी'ति एकत्वेन-अभेदेनोत्पादादिपर्यायाणामन्यतमैकपर्यायालम्बनतयेत्यर्थः, वितर्क:-पूर्वगतश्रुताश्रयो व्यञ्जनरूपोऽर्थरूपो वा यस्य तदेकरववितर्क, तथा न विद्यते विचारोऽर्थव्यञ्जनयोरितरस्मादितरत्र तथा मनःप्रभृतीनामन्यत्तरस्मादन्यत्र यस्य तदविचारीति, 'सुहुमकिरिए अप्पडिवाइ'त्ति सूक्ष्मा क्रिया यत्र निरुद्धवाङ्मनोयोगत्वे सत्यर्द्ध निरुद्धकाययोगत्वात् Mतत् सूक्ष्मक्रियम् , अप्रतिपाति-अप्रतिपतनशीलं प्रवर्द्धमानपरिणामत्वाद्, एतच्च निर्वाणगमनकाले केवलिन एव स्यादिति, Pा समुच्छिन्नकिरिए अणियट्टी'त्ति समुच्छिन्ना-क्षीणा क्रिया-कायिक्पादिका शैलेशीकरणे निरुद्धयोगत्वेन यस्मिंस्तत्तथा, ४ा अनिवर्ति-अव्यावर्तनस्वभावमिति । विवेगेत्ति देहादात्मन आत्मनो वा सर्वसंयोगानां विवेचनं-युया पृथक्करणं विवेकः, - दीप अनुक्रम C (२०) तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~227~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------- मूलं [...२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] विउसग्गे'त्ति व्युत्सर्गो-निःसङ्गतया देहोपधित्यागः 'अबहेत्ति' देवाद्युपसर्गजनितं भयं चलनं वा व्यथा तदभावोऽव्यर्थ 'असंमोहे सि देवादिकृतमायाजनितस्य सूक्ष्मपदार्थविषयस्य च सम्मोहस्य--मूढताया निषेधोऽसम्मोहः, 'अवायाणुप्पेह'त्ति | अपायाना-प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारजन्यानानामनुप्रेक्षा-अनुचिन्तनमपायानुप्रेक्षा 'असुभाणुप्पेह'त्ति संसाराशुभत्वानुचिन्तनम् 'अणंतवत्तियाणुप्पेह'त्ति भवसन्तानस्यानन्तवृत्तिताऽनुचिन्तनं 'विपरिणामाणुप्पेह'त्ति वस्तूनां प्रतिक्षणं विविधपरिणामगमनानुचिन्तनमिति । से किं तं विउस्सग्गे ?, २ दुविहे पण्णसे, तंजहा-दवविउस्सग्गे भावविउस्सग्गे अ । से किं तं दववि४|| उस्सग्गे ?, २ चउब्धिहे पण्णत्ते, तंजहा-सरीरविउस्सग्गे गणविउस्सग्गे उवहिविउस्सग्गे भत्तपाणविउ-18 लस्सग्गे, से तं दवविउस्सग्गे, से किं तं भावविउस्सग्गे, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-कसायविउस्सग्गे संसा रविउस्सग्गे कम्मविउस्सग्गे, से किं तं कसायविउस्सग्गे?.२ च उविहे पण्णत्ते, तंजहा-कोहकसायविउ. | स्सग्गे माणकसायविउस्सग्गे मायाकसायविउस्सग्गे लोहकसायविउस्सग्गे, से तं कसायविउस्सग्गे, से कि तिं संसारविउस्सग्गे १,२चउब्धिहे पण्णत्ते, तंजहा-णेरइअसंसारविउस्सग्गे तिरियसंसारबिउस्सग्गे मणु& असंसारविउस्सग्गे देवसंसारविउस्सग्गे, से तं संसारविउस्सग्गे, से किं तं कम्मविउस्सग्गे ?, २ अढविहे |पण्णत्ते, तंजहा-णाणावरणिज्जकम्मविउस्सग्गे दरिसणावरणिज्जकम्मविउस्सग्गे वेअणीअकम्मविउस्सग्गे दीप अनुक्रम (२०) तपस: बाय-अभ्यंतर भेदा: ~228~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् ॥४५॥ *** प्रत सूत्रांक [२०] मोहणीयकम्मविउस्सग्गे आऊअकम्मविउस्सग्गे णामकम्मविउस्सग्गे गोअकम्मविउस्सग्गे अंतरायकम्म- श्रमण विउस्सग्गे, से तं कम्मविउस्सग्गे, से तं भावविउस्सग्गे ॥ (सू०२०)। _ 'संसारविउस्सग्गे'त्ति नरकायुष्कादिहेतूनां मिथ्यादृष्टित्वादीनां त्यागः 'कम्मविउस्सग्गे'त्ति ज्ञानावरणादिकर्मबन्धहेतूनां ज्ञानप्रत्यनीकत्वादीनां त्यागः ॥२०॥ । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स यहवे अणगारा भगवंतो अप्पेगईआ आयारधरा जाब विचागसुअधरा तत्थ तत्थ तहिं तहिं देसे देसे गच्छागञ्छि गुम्मागुम्मि फडाफड्ड़ि अप्पेगहआ वायंति अप्पेगहआ पडिपुच्छति अप्पेगइया परियदति अप्पेगइया अणुप्पेहंति अप्पेगहआ अक्खेवणीओ विक्खेवणीओ संवेअणीओ णिवेअणीओ चउब्विहाओ कहाओ कहति अप्पेगइया उड्ढुजाणू अहोसिरा झाणकोडोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति । __'अप्पेगइया आयारधरे' त्यादि प्रतीतं, क्वचिद् दृश्यते 'तत्थ तत्थति उद्यानादौ 'तहिं तहिति तदंशोक्तमेवाह देशे देशे-अवग्रहभागे, वीप्साकरणं चाधारबाहुल्येन साधुवाहुल्यप्रतिपादनार्थ, 'गच्छागच्छिति एकाचार्यपरिवारो गच्छः गच्छेन मागच्छेन च भूत्वा गच्छागच्छि वाचयन्तीति योगः, दण्डादण्ड्यादिवच्छन्दसिद्धिः, एवं 'गुम्मागुम्मि फडाफढेि च' नवरं गुल्म-गच्छकदेशः उपाध्यायाधिष्ठितः फडक-लघुतरो गच्छदेश एव गणावच्छेदकाधिष्ठित इति । अथ प्रकृतवाचना 'वायंति'त्ति सूत्रवाचनां ददति 'पडिपुच्छंति ति सूत्रार्थों पृच्छन्ति परिय१ति'त्ति परिवर्तयन्ति तावेव, 'अणुप्पेहति त्ति दीप अनुक्रम ॥४५॥ (२०) BE विविध-प्रकारस्य अनगारस्य वर्णनं --(आचार-आदि सूत्रधर एवं वाचनादि गुणयुक्तता) ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] KORIRAMERCOSCO | अनुप्रेक्षन्ते ताव चिन्तयन्ति । अक्खेवणीओ'त्ति आक्षिप्यते-मोहात्तत्त्वं प्रत्याकृष्यते श्रोता यकाभिरित्याक्षेपण्यः 'विक्खे| वणीओ'त्ति विक्षिप्यते-कुमार्गविमुखो विधीयते श्रोता यकाभिस्ता विक्षेपण्यः 'संवेयणीओ'त्ति संवेज्यते-मोक्षसुखाभि लामो विधीयते श्रोता यकाभिस्ता संवेजन्यः 'निवेयणीओ'त्ति निर्वेद्यते संसारनिर्विष्णो विधीयते श्रोता यकाभिस्ता निवे| दिन्यः, तथा 'उडेजाणू अहोसिर'त्ति शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्याया अभावाच्चोत्कुटुकासनाः सन्तोऽपदिश्यन्ते-ऊर्व जानुनी येषां ते ऊर्ध्वजानवः, अधःशिरसो-अधोमुखा, नो तिर्यग्वा क्षिप्तदृष्टय इत्यर्थः, 'झाणकोहोवगय'त्ति ध्यानरूपो या कोष्ठस्तमुपागता ये ते तथा, ध्यानकोष्ठप्रवेशनेन संवृतेन्द्रियमनोवृत्तिधान्या इत्यथैः, संयमेन तपसाऽऽत्मानं ] | भावयन्तो विहरन्तीति । • संसारभउब्बिग्गा भीआ जम्मणजरमरणकरणगंभीरदुक्खपक्खुबिभअपउरसलिलं संजोगविओगवीची-13 चिंतापसंगपसरिअवहबंधमहल्लविउलकल्लोलकलुणविलविअलोभकलकलंतबोलबहुलं अवमाणणफेणतिव्व खिसणपुलंपुलप्पभूअरोगवेअणपरिभवविणिवायफरुसपरिसणासमावडिअकढिणकम्मपत्थरतरंगरंगतनिश्चकामचुभयतोअपहुं कसायपायालसंकुलं भवसयसहस्सकलुसजलसंचयं पतिभयं अपरिमिअमहिच्छकलसम-|| तिवाउवेगउडुम्ममाणद्गरयरपंधआरवरफेणपउरआसापिवासधवलं मोहमहावत्तभोगभममाणगुप्पमाणु-1 उछलतपचोणियसपाणियपमायचंड बहुदुहसावयसमाहउहायमाणपब्भारपोरकंदियमहारवरवंतभेरवरवं। प्रकारान्तरेण स एवोच्यते-'संसारभउविग्गत्ति प्रतीतं 'जमणजरमरणकरणगंभीरदुखपक्खुब्भियपउरसलिल' जन्म KARNAGAUCCESS दीप अनुक्रम [२१] SARERatunintentiational wintunaturary.orm ~230~ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- I तिकम् प्रत सूत्रांक [२१] जरामरणान्येव करणानि-साधनानि यस्य तत्तथा, तच्च तद्गम्भीरदुःखं च तदेव प्रक्षुभित-प्रचलितं प्रचुर-प्रभूत सलिलं-जलं श्रमणव० यत्र स तथा तं, संसारसागरं तरन्तीति योगः, 'संजोगविओगवीइचिंतापसंगपसरियवहबंधमहलविउलकल्लोलकलुणविलवि-IN अलोभकलकलिंतबोलबहुलं' संयोगवियोगा एव वीचयः-तरङ्गा यत्र स तथा, चिन्ताप्रसङ्ग:-चिन्तासातत्यमित्यर्थः स || एव प्रसृत-प्रसरो यस्य स तथा, वधाः-हननानि बन्धाः-संयमनानि तान्येव महान्तो-दीर्घा विपुलाश्च-विस्तीर्णाः कल्लोला-महोर्मयो यत्र स तथा, करुणानि विलपितानि यत्र स तथा, स चासौ लोभश्च, स एव कलकलायमानो यो बोलोध्वनिः स बहुलो यत्र स तथा, ततः संयोगादिपदानां कर्मधारयोऽतस्तम्, 'अवमाणणफेणतिबखिसणपुलंपुलप्पभूयरो| गवेअणपरिभवविणिवायफरुसधरिसणासमावडियकढिणकम्मपत्थरतरंगरंगतनिश्चम[भयतोयपहुं' अपमानमेव-अपूजनमेव फेनो यत्र स तथा, तीव्रबिंसनं च-अत्यर्थनिन्दा पुलम्पुलप्रभूता-अनवरतोद्भूताः या रोगवेदनाः, पाठान्तरे तीव्रखिंसनं प्रलुम्पनानि च प्रभूतरोगवेदनाश्च परिभवविनिपातश्च-पराभिभवसम्पर्कः परुषर्षणाश्च-निष्ठुरवचननिभर्सनानि समापतितानि-समापन्नानि बद्धानि यानि कठिनानि-कर्कशोदयानि कर्माणि-ज्ञानावरणादीनि तानि चेति द्वन्द्वः, तत एतान्येव ये प्रस्तरा:-पाषाणास्तैः कृत्वा तरङ्गै रङ्गदू-वीचिभिश्चलत् नित्यं-ध्रुवं मृत्युभयमेव-मरणभीतिरेव तोयपृष्ठ-जलोपरितनभागो यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः, अथवा अपमानफेनमिति तोयपृष्ठस्य विशेषणम्, अतो बहुव्रीहिरेवातस्तं, कसायपायालसंकुलं' कषाया एव पाताला:-पातालकलशास्तैः सङ्कलो यः स तथा तं, 'भवसयसहस्सकलुसजलसंचयं' |भवशतसहस्राण्येव कलुषो जलानां सश्चयो यत्र स तथा तं, पूर्व जननादिजन्यदुःखस्य सलिलतोक्ता इह तु भवानां जन दीप अनुक्रम ॥४६॥ [२१] ~231 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक GACANCA-CA [२१] नादिधर्मवतां जलविशेषसमुदायतोक्तेति न पुनरुक्तत्वमिति, 'पइभय'ति व्यक्त, 'अपरिमिअमहेच्छकलुसमइवाउवेगउहुम्ममाणदगरयरयंधारवरफेणपउरआसापिवासधवलं' अपरिमिता-अपरिमाणा या महेच्छा-वृहदभिलाषा लोकास्तेषां कलुषा--मलिना या मतिः सैव वायुवेगेन उद्धम्ममाणं उहुबमाणं वा-उत्पाद्यमानं यदुदकरजः-उदकरेणुसमूहस्तस्य रयोवेगस्तेनान्धकारो यः स तथा, वरफेनेनेव प्रचुराशापिपासाभिस्तत्र प्रचुरा-बह्वय आशा:-अप्राप्तार्थानां प्राप्तिसम्भावनाः पिपासास्तु-तेषामेवाकांक्षा अतस्ताभिर्धवल इव धवलो यः स तथा, ततः कर्मधारयः, अतस्तं, 'मोहमहावत्तभोगभममाणगुष्पमाणुच्छलंतपच्चोणियत्तपाणियपमायचंडबहुदुहसावयसमाहउद्धायमाणपन्भारपोरकंदियमहारवरवंतभेरवरवं' मोहरूपे | महावर्ते भोगरूपं भ्राम्यत्-मण्डलेन भ्रमगुप्यत्-व्याकुलीभवदुच्छलस्-उत्पतत् प्रत्यवनिपतच-अधःपतत् पानीयं-जलं यत्र स तथा, प्रमादा-मद्यादयस्त एव चण्डबहुदुष्टश्वापदा:-रौद्रभूरिक्षुद्रव्यालास्तैर्ये समाहताः-प्रहता उद्धावन्तश्च-उत्ति| धन्तो चा विविध चेष्टमाना समुद्रपक्षे मत्स्यादयः संसारपक्षे पुरुषादयस्तेषां प्रारभारः पूरो वा समूहो यत्र स तथा, तथा घोरो यः ऋन्दितमहारवः स एव रवन्-प्रतिशब्दकरणतः शब्दायमानो भैरवरवो-भीमघोषो यत्र स तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तम् ।। _अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थअणिहुतिदियमहामगरतुरिअचरिअखोखुन्भमाणनचंतचवलचंचलचलंतघुर्मतजलसमूह अरतिभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकडं अणाइसंताणकम्मबंधणकिलेसचिक्खिल्लमत्तारं अमरनरतिरियनिरयगइगमणकुडिलपरिवत्तविउलवेलं चउरंतमहंतमणवदग्गं कई संसारसागरं भीमदरिसणिज्ज PRATARASHTRA दीप अनुक्रम [२१] ~232~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [२१] --- औपपा-15 तरति धीईधणिअनिष्पकंपेण तुरियचवलं संवरवेरग्गतुंगकूवयसुसंपउत्तेणं णाणसितविमलमूसिएणं सम्मत्त-13 श्रमणय. तिकम् विसुडलद्धणिज्जामएणं धीरा संजमपोएण सीलकलिआ पसत्वज्झाणतववायपणोल्लिअपहाविएणं उज्जमव-द वसायग्गहियणिज्जरणजयणजवओगणाणदंसणविसुद्धवयभंडभरिअसारा जिणवरवपणोवदिडमग्गेण अकु-IN सू० २१ ॥४७॥ डिलेण सिद्धिमहापट्टणाभिमुहा समणवरसत्यवाहा सुसुइसुसंभासमुपण्हसासा गामे गामे एगरायं 3 गरे णगरे पंचरायं दूइज्जन्ता जिइंदिया णिब्भया गयभया सचित्ताचित्तमीसिएम दब्बेसु विरागयं गया|| संजया विरया मुत्ता लहुआ णिरवकखा साह णिहुआ चरंति धम्म ॥ (सू०२१)॥ 'अण्णाणभमंतमच्छपरिहत्थअणिहुतिदियमहामगरतुरियचरियखोखुन्भमाणनयंतचवलचंचलचलंतघुमंतजलसमूह' अज्ञानान्येव भ्रमन्तो मत्स्याः परिहत्थत्ति-दक्षा यत्र स तथा, अनिभृतानि-अनुपशान्तानि यानीन्द्रियाणि तान्येव महामकरास्तेषां यानि त्वरितानि-शीघ्राणि चरितानि-चेष्टितानि तैः खोखुम्भमाणत्ति-भृशं क्षुभ्यमाणो नृत्यन्निव नृत्यन् चपलानां मध्ये चञ्चलच, अस्थिरत्वेन चलँश्च स्थानान्तरगमनेन घूर्णश्च-भ्राम्यन् जलसमूहो-जलसङ्घातोऽन्यत्र जडसमूहो यत्र स तथा, ततः कर्मधारयस्ततस्तम् , 'अरइभयविसायसोगमिच्छत्तसेलसंकर्ड' अरतिभयविषादशोकमिथ्यात्वानि प्रती-1 | तानि तान्येव शैलास्तैः सङ्कटो यः स तथा तम् , 'अणाइसंताणकम्मबंधणकिलेसचिक्खिल्लसुदुत्तारं' अनादिसन्तानम्-अना- ॥४७॥ दिप्रवाहं यत् कर्मबन्धनं तच्च क्लेशाश्च-रागादयस्तालक्षणं यञ्चिक्खिाई-कर्दमस्तेन सुष्टु दुस्तारो यः स तथा तम्, 'अमरन-2 रितिरियनिरयगइगमणकुडिलपरिवत्तविउलवेल' अमरनरतिर्यग्निरयगतिषु यद्गमनं तदेव कुटिलपरिवर्ता-चक्रपरिवर्तना दीप अनुक्रम [२१] ~233~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] विपुला च-विस्तीर्णा वेला-जलवृद्धिलक्षणा यत्र स तथा तं, 'चउरंतमहंतति चतुर्विभागं दिग्भेदगतिभेदाभ्यां महान्तं | &च-महायामम् , 'अणवदग्गं'ति अनवदनम्-अनन्तमित्यर्थः, 'रुदति विस्तीर्ण, संसारसागरमिति व्यक्तं. 'भीमदरिसणि-14 जति भीमो दृश्यत इति भीमदर्शनीयस्तं, 'तरंति' लहायन्ति, संयमपोतेनेति योगः, किम्भूतेन ?-धीईधणियनिष्पकंपेण' धृतिरज्जुबन्धनेन धनिकम्-अत्यर्थं निष्पकम्पः-अविचलो यः स मध्यपदलोपावृतिधनिकनिष्पकम्पस्तेन त्वरितचपलम्& अतित्वरितं यथा भवतीत्येवं तरन्ति, 'संवरवेरग्गतुंगकूवयसुसंपउत्तेणं' संवर:-प्राणातिपातादिविरतिरूपो वैराग्यं-पायनिग्रहः एतल्लक्षणो यस्तुङ्ग:-उच्चः कूपका-स्तम्भविशेषस्तेन सुष्टु सम्प्रयुक्तो यः स तथा तेन, 'गाणसियविमलमूसिएण'ति ज्ञानमेव सित:-सितपटः स विमल उरिछूतो यत्र स तथा तेन, मकारश्चेह प्राकृतशैलीप्रभवः 'सम्मत्तविसुद्धलद्धणिजामएणं' सम्यक्त्वरूपो विशुद्धो-निदोंपो लब्धः-अवाप्तो निर्यामकः-कर्णधारो यत्र स तथा तेन, धीरा-अक्षोभाः संयमपोतेन शीलकलिता इति च प्रतीतं, 'पसत्यज्झाणतववायपणोल्लियपहाविएणं' प्रशस्तध्यान-धर्मादि तद्रूपं यत्तपः स एव वातो-वायुस्तेन यत् प्रणोदित-प्रेरणं तेन प्रधावितो-वेगेन चलितो यः स तथा तेन, संयमपोतेनेति प्रकृतम् , 'उज्जमवMवसायम्गहियणिज्जरणजयणस्वओगणाणदसणविसवयभंडभरिअसारा' उद्यम:-अनालस्य व्यवसायो-वस्तुनिर्णयः सद्या-IC पारो वा ताभ्यां मूलकल्पाभ्यां यगृहीतं-क्रीतं निर्जरणयतनोपयोगज्ञानदर्शनविशुद्धव्रतरूपं भाण्डं कयार्णक तस्य भरितः|संयमपोतभरणेन पिण्डितः सारो यस्ते तथा, श्रमणवरसार्थवाहा इति योगः, तब निर्जरणं-तपः यतना-बहुदोपत्यागेनास्पदोषाश्रयणम् उपयोगः-सावधानता ज्ञानदर्शनाभ्यां विशुद्धानि ब्रतानि, अथवा ज्ञानदर्शने च विशुद्धबतानि चेति %05:45453460-6-156425%e दीप अनुक्रम [२१] SHRELIEatunintalirational ~234~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: सू०२१ प्रत सूत्रांक [२१] औपपा-1|| समासः, प्रतानि च-महानतानि, पाठान्तरेण 'णाणदंसणचरित्तविसुद्धवरभंडभरियसार'त्ति तत्र ज्ञानदर्शनचारित्राण्येव , तिकम् विशवरभाण्डं तेन भरितः सारो यैस्ते तथा, 'जिणवरवयणोवदिछमग्गेणं अकुडिलेण सिद्धिमहापट्टणाभिमहा समणवर-|| सत्थवाहपत्ति व्यक्त, 'सुमुसुसंभाससुपण्हसास'त्ति सुश्रुतयः सम्यक्श्रुतग्रन्थाः ससिद्धान्ता वा सुशुचयो वा सुखः || ॥४८॥ | सम्भापो येषां सुखेन वा सम्भाष्यन्त इति सुसम्भाषाः शोभनाः प्रश्नाः येषां सुखेन वा प्रश्श्यन्ते ये ते सुप्रश्नाः शोभना। | आशा:-चाम्छा येषां ते स्वाशाः अथवा सुखेन प्रश्यन्ते शास्यन्ते च-शिक्ष्यन्ते ये ते सुप्रश्नशास्याः शोभनानि वा प्रश्नशस्यानि-पृच्छाधान्यानि येषां ते तथा अथवा सुप्रश्नाः शस्याश्च-प्रशंसनीयाः, ततः कर्मधारय इति, 'दूइजन्त'त्ति द्रवन्तो-बसन्तः, अनेकार्थत्वाद्धातूनां, 'णिब्भय'त्ति भयमोहनीयोदयनिषेधात् 'गयभय'त्ति उदयविफलताकरणात् ट्रा'संजयत्ति संयमवन्तः, कुत इत्याह-विरय'त्ति यतो निवृत्ताः हिंसादिभ्यः, तपसि वा विशेषेण रताः विरताः, विरया वा-निरौत्सुक्याः विरजसो वा-अपापाः, 'संचयाओ विरय'त्ति क्वचिद् दृश्यते, तत्र सन्निधेर्निवृत्ता इत्यर्थः, 'मुत्त'त्ति मुक्ताः ग्रन्थेन 'लहुत्ति लघुका स्वल्पोपधित्वात् 'णिरवकंख'त्ति अप्राप्तार्थाकाडावियुक्ताः 'साहू' मोक्षसाधनात् 'णिहुआ' प्रशान्तवृत्तयः 'चरंति धम्मति व्यक्तम् । अत्र साधुवर्णके जितेन्द्रियत्वादीनि विशेषणानि बहुशोऽधीतानि, तानि च गमान्सरतया निरवद्यानि, यत् पुनरव गमे पुनरुक्तमवभासते तत् स्तवत्वास दुष्ट, यदाह-"सज्झायझाणतवओसहेसु | FM ICil॥४८॥ 3 उवएसथुइपयाणेसुं । संतगुणकित्तणासु य न हुंति पुनरुत्तदोसा उ ॥१॥" ॥२१॥ १ खाध्यायध्यानतपुऔषधेषु उपदेशस्तुतिप्रदानेषु । सद्गुणकीर्तनेषु च न भवन्ति पुनरुक्तदोषास्तु ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [२१] -~-235~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [२२..] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२] तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स यहवे असुरकुमारा देवा अंतिअं पाउभविस्था कालमहाणीलसरिसणीलगुलिअगवलअयसिकुसुमप्पगासा विअसिअसपवत्तमिव पत्तलनिम्मलईसिसितरत्ततंषणयणा गरुलायतउजुतुंगणासा उअचिअसिलप्पवालविफलसण्णिभाहरोहा पंडुरससिसकलविमलणिम्मलसंखगोक्खीरफेणदगरयमुणालियाधवलदंतसेढी हुपचहणितधोयतत्सतवणिजरततलतालुजीहा || अंजणघणकसिणस्यगरमणिजणिद्धकेसा वामेगकुंडलधरा अद्दचंदणाणुलित्तगत्ता। & असुरवर्णके किमपि लिख्यते-'कालमहाणीलसरिसणीलगुलिअगवलअयसिकुसुमप्पगासा' कालो यो महानीलो-मणि-| विशेषस्तेन सदृशा वर्णतो ये ते तथा, नीलो-मणिविशेषः गुलिका-नीलिका गवलं-माहिषं शृङ्गम् अतसीकुसुम-धान्य|विशेषपुष्पं एतेषामिव प्रकाशो-दीप्तिर्येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः, कालवर्णा इत्यर्थः, 'विअसिअसयवत्तमिवेति व्यक्तं, 'पत्तलणिम्मलईसीसियरत्ततंवणयणा' पत्तलानि-पक्ष्मवन्ति निर्मलानि-विमलानि ईषत् सितरतानि क्वचिद्देशे मनाक श्वेतानि क्वचिच्च मनाग्रक्तानीत्यर्थः कचिच्च ताम्राणि-अरुणानि नयनानि येषां ते तथा, शतपत्रसाधयं च व्यक्तमेव, 'गरुले' त्यादिविशेषणचतुष्टयं महावीरवर्णकवन्नेयम् 'अंघणघणकसिणरुयगरमणिजणिद्धकेसा' अञ्जनघनौ-प्रतीती कृष्णः-15 | कालः रुचको-मणिविशेषस्तद्वद्रमणीयाः स्निग्धाश्च केशा येषां ते तथा, 'वामेगकुंडलधरा' बामे कर्णे एकमेव कुण्डलं| धारयन्ति ये ते तथा, दक्षिणे स्वाभरणान्तरधारिण इति सामर्थ्यगम्यम् , आईचन्दनानुलिप्तगात्रा इति व्यक्तम् । . ईसिसिलिंधपुप्फप्पगासाई सुहमाई असंकिलिट्टाई वत्थाई पवरपरिहिया वयं च परमं समतिकता दीप अनुक्रम [२२] भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: असुर-देवानाम् वर्णनं ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------- मूलं [...२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औषपातिकम् 5- स० ॥४९॥ प्रत सूत्रांक [२२] 45 STARSAROGRESS वितिअंच वयं असंपत्ता भवे जोवणे वद्यमाणा तलभंगयतुडिअपवरभूसणनिम्मलमणिरयणमंडिअभुआ असुराग दसमुद्दामंडिअग्गहत्था चूलामणिचिंधगया सुरूवा महिड्डिआ महज्जुतिआ महवला महायसा महासोक्खा | महाणुभागा हारविराइतवच्छा कडगतुडिअचंभिअभुआ अंगयकुंडलमट्ठगंडतलकपणपीढधारी विचित्तवत्थाभरणा विचित्तमालामउलिमउडा कल्लाणकयपवरवत्थपरिहिया कल्लाणकयपवरमल्लाणुलेवणा भासुरबोंदी पलंपवणमालधरा। ईसिसिलिंधपुप्फप्पगासाइ' इति मनाक् सिलिन्ध्रकुसुमप्रभाणि, ईषत्सितानीत्यर्थः, सिलिन्धं-भूमिस्फोटकच्छत्रकम् । | 'असुरेसु होति रत्त'ति मतान्तरम् , 'असंकिलिडाईति निर्दूषणानि 'सुहुमाईति श्लक्ष्णानि 'वस्थाईति वसनानि 'पवर| परिहिया' प्रवराश्च ते परिहिताश्च-निवसिता इति समासः, 'वयं च' इत्यादि सूत्र, तत्र त्रीणि वयांसि भवन्ति, यदाह| 'आषोडशावेदालो, यावत् क्षीरानवर्तकः । मध्यमः सप्तति यावत्, परतो वृद्ध उच्यते ॥ १॥" आद्यस्य वयसोऽतिक्रमे द्वितीयस्य सर्वथैवाप्राप्तौ भद्रं यौवनं भवत्येवेति भद्रे यौवने इत्युक्तं, 'तलभंगयतुडियपवरभूसणनिम्मलमणिरयणमंडिअभुआ तलभङ्गकानि-बाह्वाभरणानि त्रुटिकाश्च-बाहुरक्षिकास्ता एव वरभूषणानि तैर्निमलमणिरलैश्च मण्डिता भुजा येषां ते तथा, 'चूलामणिचिंधगया' चूडामणिलक्षणं चिन्ह प्राप्ताः, श्रूयन्ते चासुरादीनां चूडामण्यादीनि चिह्नानि, यदाह ॥४९॥ | "चूडामणिफणिवजे गरुडे घड अस्स बद्धमाणे य । मयरे सीहे हत्थी असुराईणं मुणसु चिंधे ॥१॥" 'महिहित्ति | १ चूडामणिः फणी वजं गरुडः घटः अश्वो बर्द्धमानश्च । मकरः सिंहो हस्ती असुरादीनां मुण चिहानि ॥१॥ दीप अनुक्रम [२२] SARERatininemarana भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: असुर-देवानाम् वर्णनं ~237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------- मूलं [...२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२] महर्द्धयो विशिष्टविमानपरिवारादियोगात् महजुइय'त्ति महाद्युतयो विशिष्टशरीराभरणप्रभायोगात् 'महावल'त्ति विशिष्टशारीरप्रमाणाः महायसत्ति महायशसो-विशिष्टकीर्तयः 'महासोक्ख'त्ति महासौख्याः 'महाणुभाग'त्ति अचिन्त्यशक्तियुक्ता इति, इहैव गमान्तरं 'हारविराजितवक्षसः कटकत्रुटिकस्तम्भितभुजाः' इह कटकानि-काणानि त्रुटिका-बाहुरक्षकाः || अंगयकुंडलमडगंडकण्णपीढधारी' अङ्गदानि-बाहाभरणविशेषान् कुण्डलानि च-कर्णाभरणविशेषान् मृष्टगण्डानि चउल्लिखितकपोलानि कर्णपीठकानि कर्णाभरणविशेषान् धारयन्तीत्येवंशीला ये ते तथा, 'विचित्तहत्याभरण ति व्यक्त. 'विचित्तमालामउलियमउडा' विचित्रा माला:-कुसुमस्रजो येषां मौलौ च-मस्तके मुकट-किरीटं येषां ते तथा, शेष सुगम वर्णकान्तं यावत्, नवरं माल्यानि-पुष्पाणि बोन्दिः-शरीरं प्रलम्बो-झुम्बनकं वनमाला-आभरणविशेषः प्रलम्बवनमाला || वा तस्याः कण्ठतो जानुप्रमाणत्वादिति । दिवेणं वपणेणं दिव्वेणं गंधेणं दिव्वेणं रूवेणं दिवेणं फासेणं दिव्वेणं संघाए (घयणे) णं दिव्वेणं संठाणेणं & दिव्वाए इबीए दिब्बाए जुत्तीए दिव्चाए पभाए दिव्वाए छायाए दिव्वाए अचीए दिब्वेणं तेएणं दिवाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा पभासेमाणा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिअं आगम्मागम्म | रत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ सा वंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता णचासणेणाइदूरे सुस्ससमाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पजुवासंति ॥ (सू० २२)।। दिवेणं' देयोचितेन प्रधानेनेत्यर्थः, 'संघाए(घयणे)गति संहननेन वज्रऋषभनाराचेनेत्यर्थः, 'संठाणेणं'ति समचतुरनलक्ष दीप अनुक्रम 84-%95%2564343-45-45% [२२] SAREauraton international भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: असुर-देवानाम् वर्णनं ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२] औपपा- त्यर्थः, 'रिडीए'त्ति परिवारादिकया 'जुइए'त्ति युक्त्या-विवक्षितार्थयोगेन 'पभाए'त्ति यानादिदीच्या 'छायाए'त्ति शोभया | भवनवा तिकम् | 'अच्चीए'त्ति अर्चिषा शरीरस्थरलादितेजोज्वालया 'तेएणं'ति तेजसा-शरीरसम्बन्धिरोचिपा प्रभावेन वा 'लेसापत्ति देह दावर्णेन, एकार्था या युत्यादयः शब्दाः प्रकाशप्रकप्रतिपादनपराश्चेति न पौनरुक्त्यमिति, 'उज्जोएमाण'त्ति उद्योतयन्तः। प्रकाशकरणेन 'पभासेमाण'त्ति प्रभासयन्तः-शोभयन्तः, एकाओं वैताविति, 'रत्त'त्ति रक्ताः-सानुरागाः 'तिक्खुत्तो'त्ति त्रिकृत्वा-त्रीन् वारान् आदक्षिणात्-पाश्र्थात् प्रदक्षिणो-दक्षिणपार्श्ववर्ती आदक्षिणप्रदक्षिणस्तं 'वंदंति'त्ति स्तुवन्ति 'नमंसंति'त्ति नमस्यन्ति शिरोनमनेनेति । वाचनान्तरे दृश्यते-'साई साईति स्वकीयानि स्वकीयानि 'नामगोयाईति नामगो वाणि-यादृच्छिकान्वर्थाभिधानानीति 'साविति'त्ति श्रावयन्ति ॥ २२ ॥ KI तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे असुरिंदवजिआ भवणवासी देवा|| अंतियं पाउन्भविस्था णागपइणो सुचण्णा विजू अग्गीआ दीवा उदही दिसाकुमारा य पवण थणिआ य भवणवासी णागफडागरुलपयरपुण्णकलससीहहयगयमगरमउडवहमाणणिजुत्सविचित्तचिंधगया सुरूवा महिढिया सेसं तं चेव जाच पजुबासंति ॥ (सू०२३)॥ | 'नागे'त्यादि व्यक्तं, नागादीनां च नागफणादीनि चिह्नानि भवन्ति, तानि क्रमेण दर्शयन्नाह-'नागफडा १ गरुल २|| है वइर ३ पुण्णकलस ४ सीह ५ हयवर ६ गयंक ७ मयरंकवरमउड ८ वद्धमाण ९ निजुत्तविचित्तचिंधगया' नागफणादयो गजान्ता अङ्का:-चिह्नानि येषां मुकुटानां तानि तथा, तानि च मकराकानि च-मकरचिहानि यानि वरमुकुटानि तानि दीप अनुक्रम ॥५०॥ [२२] भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: असुर आदिः भवनपति-देवानाम् वर्णनं ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२३] दीप अनुक्रम [२३] भाग - १४ "औपपातिक" Education internationa - मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) च, वर्द्धमानकं च शरावं पुरुषारूढपुरुषरूपं वेति द्वन्द्वः, तानि च तानि नियुक्तानि - यथास्थानं नियोजितानि विचित्राणि च- विविधानि चिह्नानि च लक्षणानि गताः- प्राप्ता ये ते तथा, इह सूत्रे 'पुण्णकलससंकिण्णउ फेससीहे'त्येवं कचित् | विशेषो दृश्यते, तत्र नागफणादिभिरङ्किता ये उप्फेसा-मुकुटास्ते तथा, शेषं तथैव ॥ २३ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे वाणमंतरा देवा अंतिअं पाउन्भवित्था | पिसाया भूआ य जक्ख रक्खस किंनर किंपुरिस भुभगवद्दणो अ महाकाया गंधव्वणिकायगणा णिउण| गंधव्वगीतरइणो अणपण्णिअ पणपण्णिअ इसिवादीअ भूअवादीअ कंद्रिय महाकंदिआ प कुहंड पयए य | देवा चंचलचलचित्तकीलणदवप्पिआ गंभीरहसि भणिअपीअगीअणचणरई वणमाला मेलमउड कुंडल| सच्छंद बिउब्विआहरणचारुविसणधरा सव्वोउधसुरभिकुसुमसुरइय पलंब सोमंतकंतविअसंतचित्तवणमा| लरहअवच्छा कामगमी कामरूपधारी णाणाविहवण्णरागवरवत्थचिन्तचिल्लियणियंसणा विविदेसीणेवत्थग्गहिअवेसा पमुइअकंदम्पकलह के लिकोलाहलप्पिआ हासबोलबहुला अणेगमणिरयणविविहणिजन्तविचित्तचिंधगया सुरूवा महिहिआ जाव पज्जुवासंति ॥ ( सू० २४ ) | 'भुयगवणो 'ति महोरगाधिपाः, किम्भूतास्ते इत्याह- 'महाकाय'त्ति वृहद्देहाः, इदं च विशेषणमवस्थाविशेषाश्रयम्, अन्यथा सर्व एव सप्तहस्तप्रमाणा भवन्ति, यदाह-“भवणवणजोइसोहंमीसाणे सत्त होंति रयणीओ" 'गंधवनिकायगण 'त्ति १ भवनवनज्योतिष्कसौधर्मेशानेषु सप्त भवन्ति रत्नयः । भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगताः वाणव्यन्तर- देवानाम् वर्णनं For Pale Only ~240~ ***** nary or Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् ॥५१॥ प्रत सूत्रांक [२४] गन्धर्वाणां-व्यन्तराष्टमभेदभूतानां निकायो-वर्गों येषां ते गन्धर्वनिकाया गन्धर्वा एव तेषां ये गणा-राशयस्ते तथा, दिव्यन्तरा० पाठान्तरे 'गन्धर्वपतिगणाचे ति व्यक्तमेव, किंविधास्ते इत्याह-निउणगंधवगीयरइणो'त्ति निपुणे-सूक्ष्मे गन्धर्वे च-नाव्योपेतगाने गीते च-नाट्यवर्जितगेये रतिर्येषां ते तथा, अणपन्निकादयोऽष्टी व्यन्तरनिकायविशेषभूताः रलाभापृथिव्या ||४|| सू० २४ उपरितनयोजनशतवर्तिनः, किंविधा एत इत्याह-चंचलचवलचित्तकीलणदवप्पिया' चञ्चलचपलचित्ता:-अतिचपलमानसाः क्रीडनं-क्रीडा द्रवश्च-परिहासस्तत्प्रियाः, ततः कर्मधारयः, 'गंभीरहसियभणियपियगीयणचणरई' गम्भीर हसितं || येषां भणितं च-वाक्प्रयोगः प्रियं येषां गीतनृत्तयोश्च रतिर्येषां ते तथा, 'गहिरहसियगीयणचणरइ'त्ति क्वचिहृश्यते व्यक्त च, 'वणमालामेलमउडकुंडलसच्छंदविउवियाभरणचारुविभूसणधरा वनमाला-रलादिमय आप्रपदीन आभरणविशेषः आमेलका-पुष्पशेखरकः मुकुट-सुवर्णादिमयं कुण्डलानि च-प्रतीतानि एतान्येव स्वच्छन्दविकुर्विताभरणानि-स्वाभिप्रा| यनिर्मितालङ्कारास्तथंचार विभूषण-भूषा तद्धारयन्ति येते तथा, 'सबोज्यसुरभिकुसुमसुरइयपलंचसोहंतकतषियसंत-||४|| चित्तवणमालरइयवच्छा' सर्वर्तुकानि-सर्वऋतुसम्भवानि यानि सुरभीणि-कुसुमानि तैः सुरचिता या सा तथा, सा चासी प्रलम्बा च शोभमाना च कान्ता च विकसन्ती च चित्रा च वनमाला च-वनस्पतिसक् इति समासः, सा रचिता वक्षसि यैस्ते तथा, 'कामगमित्ति इच्छागामिनः 'कामरूवधारित्ति ईप्सितरूपधारिणः 'गाणाविहवण्णरागवरवस्थचित्तचिल्लियनियंसणा' नानाविधवों रागो येषु तानि तथा, तानि वरवस्त्राणि चित्राणि-विविधानि 'चिल्लियति लीनानि दीप्तानि १ प्रत्यन्तरे नास्ति । दीप अनुक्रम [२४) भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: वाणव्यन्तर-देवानाम् वर्णनं ~241 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४] वा निवंसनानि-परिधानानि येषां ते तथा, "विविधदेसीणेवत्थग्गहियवेसा' विविधदेशिनेपथ्येन-नानादेशरूढवस्त्रादिलान्यासेन गृहीतो वेषो-नेपथ्यं यैस्ते तथा, 'पमुइयकंदपकलहकेलिकोलाहलप्पिया' प्रमुदितानां यः कन्दर्पः-कामप्रधानः|||| केलिः, काम एवं वा, कलहश्च-राटी केलिश्च नर्म कोलाहलश्च-कलकलस्ते स्वपरकृताः प्रिया येषां ते तथा, अथवा प्रमुदिताश्च ते कन्दर्पादिप्रियाश्चेति समासः, 'हासबोलबहुला' पाठान्तरे 'हासकेलिबहुला' इति व्यक्तम्, 'अणेगमणिरयणविविहनिजुत्तचित्तचिंधगया' अनेकानि-बहूनि मणिरत्नानि-प्रतीतानि विविधानि-बहुप्रकाराणि नियुक्तानि-नियोजितानि | येषु तानि तथा, तानि चित्राणि चिहानि गताः-प्राप्ता येते तथा, चिह्नानि च-पिशाचादीनां क्रमेणैतान्युच्यन्ते-द 'चिंधाइ कलंचझए १ सुलस २ वडे ३ तह य होइ खटुंगे।आसोए ५चंपए वा ६ नागे७ तह तुंबुरी चेव८॥१॥॥२४॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जोइसिया देवा अंतिअंपाउन्भवित्था विहस्सती लाचंद सूर सुक सणिचरा राह घूमकेतू बुहा य अंगारका य तत्ततवणिज्जकणगवण्णा जे गहा जोइसंमि चार|| चरंति केऊ अ गइरहआ अट्ठावीसविहा य णक्खत्तदेवगणा जाणासंठाणसंठियाओ पंचवण्णाओ ताराओ Bाठिअलेस्सा चारिणो अ अविस्साममंडलगती पत्तेयं णामंकपागडियचिंधमउडा महिहिया जाव पज्जुवा संति ॥ (सू०२५)॥ दीप अनुक्रम [२४) १ चिहानि कदमध्वजः मुलसः वटः तथा च भवति खटाङ्गम् । अशोकश्चम्पको वा नागस्तथा तुम्बरी चैव ॥१॥ भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क-देवानाम् वर्णनं ~242~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [२५] भाग - १४ "औपपातिक" औपपा तिकम् - मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः Education International उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ॥ ५२ ॥ ज्योतिष्कवर्णको व्यक्तो, नवरम् ' अंगारका य'त्ति मङ्गलाः, बहुत्वं च प्रत्येकं ज्योतिषामसङ्ख्यातत्वात्, 'तचतचणिज्जकणगवण्णा' तप्तस्य तपनीयस्य सुवर्णस्य यः कणको बिन्दुः शलाका वा अथवा तपनीयं रक्तं सुवर्ण कनकं सुवर्णमेव पीतं 2 तद्वद्वर्णो येषां ते तथा, 'जे य गह'त्ति उक्तव्यतिरिक्ताः, 'जोइसमि'त्ति ज्योतिश्चक्रे 'चारं चरन्ती' तिभ्रमणं कुर्वन्ति, 'केऊ यत्ति केतवो जलकेत्वादयः, किम्भूता ? - 'गइरइय'ति मनुष्यलोकापेक्षयोक्तं, 'ठियलेस्स'त्ति स्थितलेश्या:- निश्चलप्रकाशाः | 'चारिणो य'त्ति सञ्चरिष्णवः, अत एवाह - 'अविस्साममंड लगइति प्रतीतं, 'नामंक पागडियचिंधमउडा' नामाङ्कितानि | प्रकटितानि - चिह्नप्रधानानि मुकुटानि वैरिति समासः ॥ २५ ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स वैमाणिया देवा अंतिअं पाउ भवित्था सोह मीसाणसणकुमारमाहिंदचं भलंतकमहा सुक्कसहस्साराणयपाणयारणअनुयवई पहिट्ठा देवा जिणदंसणुस्सुगागमणजणियहासा पालक पुप्फकसोमणससिरिव च्छदिआवत्तकामगमपीद्गममणोगमविमलसम्बओभद्दणामधिजेहिं विमाणेहिं ओइण्णा बंदका जिणिदं । मिगमहिसवराहछगलदडुर हयगय वइभु अगखग्ग| उस कविडिमपागडियचिंघमउडा पसिढिलवरमउडतिरीडधारी कुंडल उज्जोविआणणा मउडदित्तसिरया रत्ताभा परमपम्हगोरा सेया सुभवण्णगंधफासा उत्तमविउब्विणो विविह्वस्थगंधमल्लधरा महिहिआ महज्जुतिआ जाव पंजलिउडा पज्जवासंति ॥ ( सू० २६ ) ॥ वैमानिकवर्णकोऽपि व्यतो, नवरं वाचनान्तरगतं किञ्चिदस्य व्याख्यायते, तदन्तर्गतं किश्चिदधिकृतवाचनान्तरगतं For Pale Only भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगताः ज्योतिष्क एवं वैमानिक- देवानाम् वर्णनं ~243~ ज्योति० सू० २५ ।। ५२ ।। waryra Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [२६] * ४ाच, तत्र 'सामाणियतायत्तीससहिया' सामानिका-इन्द्रसमानायुष्कादिभावाः त्रायविंशाः-महत्तरकल्पाः पूज्यस्थानीयाः|४ | 'सलोगपालअग्गमहिसिपरिसाणीअअप्परक्खेहिं संपरिबुडा' सह लोकपाल:-सोमादिभिर्दिक्पालकनियुक्तकैः या अग्रम-पटू हिप्या-प्रधानजायाः परिषदश्च-बाह्यमध्यमाभ्यन्तरा जघन्यमध्यमोत्कृष्टपरिवारविशेषभूताः अनीकानि च-हस्त्यश्वरथपदातिवृषभनर्तकगाथकजनरूपाणि सैन्यानि आत्मरक्षाश्च-अङ्गरक्षा इति द्वन्द्वः, अतस्तैः सम्परिवृता इति, देवसहस्रानु-18 यातमाः सुरवरगणेश्वरैः प्रयतैः 'समणुगम्मतसस्सिरीय'त्ति समनुगम्यमानाश्च ते सश्रीकाश्चेति समासः, सर्वादरभूषिताः | सुरसमूहनायकाः सौम्यचारुरूपाः 'देवसंघजयसद्दकयालोया' देवसङ्केन जयशब्दः कृत आलोके-दर्शने येषां ते तथा। | 'मिग १ महिस २ वराह ३ छगल ४ ददुर ५ हय ६ गयवइ ७ भुयग ८ खग्ग ९ उसभंक १० विडिमपागडियचिंधमउडा' मृगादयो दश दशामां शक्रादीन्द्राणां चिहभूताः, तत्र वराहः-शूकरः खड्ग-आटव्यचतुष्पदविशेषः ऋषभो-वृषभः | शेषाः प्रतीताः, तत्र मृगादयः अङ्का लाञ्छनानि विटपेषु-विस्तरेषु येषां मुकुटानां तानि तथा, तानि प्रकटितचिहानि रत्नादिदीप्त्या प्रकाशितमृगादिलाञ्छनानि मुकुटानि येषां ते तथा । पालक १ पुष्पक २ सौमनस ३ श्रीवत्स ४ नन्द्यावर्त४/५ कामगम ६ प्रीतिगम ७ मनोगम ८ विमल ९ सर्वतोभद्र १० नामधेयैर्विमानैः, उत्तरवैक्रियैरित्यर्थः, सम्पस्थिता इति & योगः, एतानि च क्रमेण शक्रादीनामच्युतान्तानां दशानामिन्द्राणां भवन्तीति । किंविधैस्तैरित्याह-तरुणदिवागरकरातिशारेगप्पहेहिं तरुणदिवाकरकरेभ्योऽतिरेकेण-अतिशयेन प्रभा येषां तानि तथा तैः, 'मणिकणगरयणघडियजालुज्जलहेमजालिपेरंतपरिगएहि मणिकनकरलैर्घटित-युक्तं यज्वालोजपलं-अभोज्ज्वलं हेमजालं-स्वर्णजालकं तेन पर्यन्तेषु परिगतानि ६ दीप अनुक्रम COMRAGIRLS (२६) भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: वैमानिक-देवानाम् वर्णनं ~244~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: तिकम् । प्रत सूत्रांक [२६] अपपा- तानि तथा तैः, 'सपयरवरमुत्सदामलंबंतभूसणेहिं' सह प्रतरः-आभरणविशेपैर्वरभुक्तादामलक्षणानि लम्बमानानि भूषणानि वैमानिक कम् | येषु तानि तथा तैः, 'पचलियघंटावलिमहुरसहवंसतंतितलतालगीयवाइयरवेणं प्रचलितायाः घण्टावल्याः योमधुरः शब्दः|६|| ॥५३॥ शास तथा वंशब-वेणुस्तन्त्री च-वीणा तलतालाश्च-हस्तताला अथवा तलाश्च-हस्ताः तालाश्च-कंशिका गीतं च-गयं वादित सू० २६ च-चादित्रमिति द्वन्द्वः अतस्तेषां यो रवः-शब्दः स तथा, ततः पदद्वयस्य समाहारद्वन्द्वः, अतस्तेन करणभूतेन मधुरेणमनोहरेण पूरयन्तः अम्बरं, दिशश्च शोभयन्तस्त्वरितं सम्पस्थिताः स्थिरयशसो देवेन्द्रा इति व्यक्त, 'हतुहमणस'त्ति अतीव तुष्टचित्ताः 'सेसावि यत्ति इन्द्रसामानिकादयः, तानेवाह-कप्पवरविमाणाहिवा' कल्पेषु यानि वरविमानानि तेणामधिपा RI इत्यर्थः, समनुयान्ति सुरवरेन्द्रानिति योगः, अत एव सुरवराः 'सविमाणविचित्तचिंधनामकविगडपागडमउडाडोवसुभदसणिज्जा' स्वविमानविचित्रचिहानां नामाङ्कविकटप्रकटमुकुटानां च य आटोपः-स्फारता तेन शुभा ये दृश्यन्ते ते तथा ते विचित्रकल्पवरविमानाधिपाः, 'समन्निंति'त्ति समनुयान्ति समनुगच्छन्ति सुरवरेन्द्रानिति, तथा 'लोयंतविमाणवासिणो । & यावि देवसंघाय'त्ति लोकस्य-ब्रह्मलोकस्यान्ते-समीपे यानि विमानानि तद्वासिनो लोकान्तिकाश्चापीत्यर्थः, 'पत्तेयविराय माणविरइयमणिरयणकडलभिसंतनिम्मलनियगंकियविचित्तपागडियचिंधमउडा' प्रत्येक विराजमानानि-शोभमानानि विरचितानि-कर्णेषु कृतानि मणिरत्नकुण्डलानि येषां ते तथा, भिसंतत्ति-दीप्यमानानि निर्मलानि निजाङ्कितानि निजकेन नामादिनपऽकेनाङ्कितानि विचित्राणि-विविधानि प्रकटितानि-प्रकाशितानि चिह्नानि च मुकुटानि चिहप्रधानानि वा मुकुटा दीप अनुक्रम (२६) भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: वैमानिक-देवानाम् वर्णनं ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] नियस्ते तथा, तथा 'दायत'त्ति दर्शयन्तः अप्पणो समुदय'ति आत्मीयं ऋळ्यादिसमूह 'पेच्छंताविय परस्स रिद्धीउत्ति प्रेक्षमा-14 Aणाश्च परद्धी उत्तमाः, एवं कल्पालयाः सुरवराः 'जिणिंदवंदणनिमित्तभत्तीए'त्ति जिनेन्द्रवन्दनहेतुभूतभावेन 'चोइयमइत्ति है प्रेरितबुद्धयः हर्षितमानसाश्च जीतकल्पमनुवर्तमाना देवाः 'जिणदंसणूस्सुयागमणजणियहासा'जिनदर्शनाय यदुत्सुकं-शीघ्रमागमनं तेन जनितो हर्षो येषां ते तथा, 'विउलवलसमूहपिंडिया' विपुलो बलसमूहः-सैन्यसमुदायः पिण्डितो यैस्ते तथा, 8 कथमित्याह-संभमेणं ति भक्तिकृतीत्सुक्येन 'गयणतलविमलविउलगमणगइचवलचलियमणपवणजइणसिग्घवेगा' गगन- तले विमले विपुले च यद्गमनं तस्य सम्बन्धी शीघ्रवेग इति सम्बन्धः गतिश्चपला स्वरूपत एवं यस्य तद्गतिचपलं तच्च सच्चलितं च गन्तुं प्रवृत्तं तद्विधं यन्मनः पवनश्च तयोर्जयनशीलोऽत एवं शीघ्रो गो येषां ते तथा, नानाविधयानवाहन-2 लगताः यानानि-रथादीनि वाहनानि-गजादीनि उच्छुितविमलधवलातपत्राः। विउधियजाणवाहणविमाणदेहरयणप्पभाए'त्ति I|| क्रियाणां यानादीनां ४ रत्नानां च स्वाभाविकानामितरेषां च या प्रभा सा तथा तया, 'उज्जोएंता नह' कथमित्याह-II |'वितिमिरं करेंता' नभ एवेति 'सविड्डीए' युक्ता इति शेषः, 'हुलिय'ति शीघ्रं प्रयाताः । गमान्तरमिदम्-'पसिढिलवरमउउतिरीडधारी' प्रश्लथा:-शिथिलबन्धना, गाढवन्धनानां बाधाजनकत्यात (वर) मुकुटाश्चतुरस्राः शेखरविशेषाः तिरीटास्त एव | शिखरत्रययुक्तास्तान् धारयन्ति ये तच्छीलाश्च ते तथा, कुण्डलोद्योतिताननाः, 'मउडदित्तसिरय'त्ति मुकुटेन दीप्ताः शिरोजामस्तककेशा येषां ते तथा, मुकुटदीपशिरस्का बा, 'रत्ताभ'त्ति लोहितवर्णाः 'पउमपम्हगोर'त्ति कमलगर्भकान्ताः पीता दीप अनुक्रम (२६) भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: वैमानिक-देवानाम् वर्णनं ~246~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: वैमानिक सू०२६ प्रत सूत्रांक [२६] औपषा- इत्यर्थः, 'सेय'त्ति शुक्ला, त्रिवर्णा एव वैमानिका भवन्ति, यदाह-"कणगत्तयरत्ताभा सुरवसभा दोसु होति कप्पेसु । तिसु होति पम्हगोरा तेण परं सुकिला देवा ॥१॥" शेष व्यक्तमेवेति ॥ २४ ॥ । पुस्तकान्तरे देवीवर्णको दृश्यते, स चैवम्-'तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अच्छरग- णसंघाया अंति पाउन्भवित्था, ताओणं अच्छराओ धंतधोयकणगरुअगसरिसप्पभाओं मातम्-अग्निना तापितं || धौत-जलेन क्षालितं यत्कनकं तस्य यो रुचको-वर्णस्तत्सदृशप्रभाः गौराजय इत्यर्थः, 'समइकंता य बालभावं'ति अति-18 कान्ता इव शिशुत्वं, मध्यमजरठवयोविरहिताः, नवयौवना इवेत्यर्थः, 'अणइवरसोम्मचारुरूवा' अनतिवरम्-अविद्यमाभान हासतया प्रधानं न विद्यते अतिवरं यस्मात्तदनतिवरमिति वा सौम्य-नीरोगं चार-शोभनं रूपं यासा तास्तथा, || 'निरुवयसरसजोषणककसतरुणवयभावमुवगयाओ' निरुपहत-रोगादिना अबाधितं सरसं च-शृङ्गाररसोपेतं निरुपहतो वा स्वो रसो यत्र तत्तथाविधं यौवनं तथा कर्कशः-अश्लथाङ्गतया यस्तरुणवयोभावस्तारुण्यं तं चोपगता यास्तास्तथा इह च यौवनतरुणभावयोर्यद्यध्येकार्थता तथापि सरसत्वाश्लथाङ्गत्वलक्षणयोर्मनःशरीराश्रितयोः प्रधानतया विवक्षितयोधर्मयोराधारतया भेदेन विवक्षणान्न पौनरुक्त्यमिति, 'निच्चमवडियसहावा' न जरां प्रामुवन्तीत्यर्थः, 'सबंगसुंदरीउत्ति | इच्छियनेवत्थरइयरमणिज्जगहियवेसा' इष्टवस्त्राभरणादिरूपनेपथ्यस्य रचितेन-रचनेन रतिदो वा अत एव रमणीयो ॥४ गृहीतः-आत्तो वेषः-आकृतिविशेषो यकाभिस्तास्तथा, 'किंते'त्ति तद्यथाः 'हारजहारपाउत्तरयणकुंडलवासुत्तगहेमजालम १कनकत्वमक्तामाः सुरवृषभा द्वयोर्भवन्ति कल्पयोः । त्रिषु भवन्ति पद्मगौरास्ततः परं शुक्ला देवाः ॥१॥ दीप अनुक्रम ॥ ५४॥ (२६) भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: देवी-वर्णनं ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२६] दीप अनुक्रम [२६] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः | णिजालकणगजाल सुभगउरितियकड गख डुगरगावलि कंठसुत्तम गहगधरच्छवेजसोणिमुत्तगतिलग फुलग सिद्धत्थिय कण्णवालियस सिसूरउ सभचकयतलभंग यतु डियहत्थमालयहरिसकेऊरवलयपालंचपलंच अंगुलिजगवलक्ख दीणा रमालियाचं दसूरमालियाकंचि मेहलकलावपयरगपरिहेर गपाय जालघंटियाखिखिणिरयणोरुजालखड्डियवरने उरचलणमालिया कणगणिगलजालगमगरमुहविरायमाणनेऊरपचलियसद्दालभूसणधरीड' त्ति हारादीनि मकरमुखविराजमान नूपुरान्तानि प्रचलितानि सन्ति सद्दाउत्ति-शब्दवन्ति यानि भूषणानि तानि धारयन्ति यास्तास्तथा तत्र हारः- अष्टादशसरिकः अर्द्धहारो-नवसरिकः पाउसति-प्रयुक्तानि माणिक्ययुक्तकङ्कणानि रत्नकुण्डलानि - प्रतीतानि अथवा प्रयुक्तरत्नकुण्डलानि प्रयुक्तरत्नानि यानि कुण्डलानि तानि तथा तथा व्यामुक्तकानि - परिहितानि प्रलम्बितानि वा यानि हेमजालादीनीति कर्मधारयः, तत्र हेम| जालं- सच्छिद्रः सुवर्णालङ्कारविशेषः एवं मणिजालमपि कनकजालहेमजाउयोस्तु आकारकृतो विशेषः स च रूढिगम्यः सूत्रकं वैकक्षककृतं सुवर्णसूत्रम् 'उरितिय'त्ति उरसि त्रिकं त्रिसरकं कटकानि कङ्कणानि खड्डगत्ति - अङ्गुलीयकविशेषः | एकावली-नानामणिकमयी माला कण्ठसूत्रं - गलावलम्बि सङ्कलकविशेषः मगधकं धराक्षं च रूढिगम्यं मैवेयकंकण्ठलं श्रोणिसूत्रकं सौवर्ण कटीसूत्रं तिलको विशेषको ललाटाभरणमित्यर्थः फुलकं - पुष्पाकृतिललाटाभरणं सिद्धार्थिका - सर्प|पप्रमाणसुवर्ण कणरचित सुवर्णमणिमयी कण्ठिका कर्णवालिका - कर्णोपरितनभागभूषणविशेषः शशिसूरऋषभचक्रकानि तलभङ्गकं च रूढिगम्यानि त्रुटिका :- बाहुरक्षिकाः इस्तमालक :- अङ्गगेत्रिका हरिसत्ति - रूढिगम्यं केयूरम्-अङ्गदं बाह्रा भरणविशेषः वलयानि - कटकविशेषाः प्रालम्बो झुम्बनकं प्रलम्बो गलाभरणविशेषः इत्यर्थः अङ्गुलीयकानि अङ्गुल्य Education Internation भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगताः देवी-वर्णनं For Pal Pal Use Only ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: देवीवर्णन सू० २६ प्रत सुत्रांक [२६] औपपा-IG|| भरणविशेषाः वलार्श-रूढिगम्यं दीनारमालिकाचन्द्रमालिकासूर्यमालिकास्तु दीनाराद्याकृतिमालाः काञ्चीमेखलयोः तिकम् । कट्याभरणयोर्यद्यपि नामकोशे एकार्थत्वमधीयते तथापीह विशेषो रूढेरवसेयः कलाप:-कण्ठाभरणविशेषो मेखलाकलाप इति वा द्रष्टव्यं प्रतरकाणि-वृत्तपतला आभरणविशेषाः परिहेरगत्ति-रूव्यवसेयं पादजालघण्टिका:-पादाभरणविशेषाः ॥ ५५॥ किलिणीका:-क्षुद्रघण्टिकाः रनोरुजालं-रत्नमयं जन्योः प्रलम्बमानं सङ्कलकं क्षुद्रिका:-तत्प्रान्तपण्टिकाः वरनपुराणिप्रतीतानि क्षुद्रिकावरनूपुराणि वा-क्षुद्रघण्टिकाप्रधानतुलाकोटिकानि चलनमालिका-पादाभरणविशेषः कनकनिगलानिनिगडाकाराः सौवर्णपादाभरणविशेषाःजालक-चरणाभरणविशेषः, मकरमुखविराजमाननूपुराणि-प्रतीतानि । 'दसवण्णरागरइयरत्तमणहरे'त्ति दशार्द्धवण:-पञ्चवर्णं राग-रञ्जनद्रव्यैः कुसुम्भादिभियोनि रञ्जितत्वेन रक्तानीव रकानि मनो-8 हराणि च तानि तथा तानि अंशुकानि निवसिता इति योगः, महापाणि, नासानिःश्वासवायुवाद्यानि लघूनीत्यर्थः, चक्षु|हराणि अङ्गावारकत्वात् , वर्णस्पर्शयुक्तानि अतिशयवर्णादीनीत्यर्थः, 'हयलालापेलवाइरेगे' अश्वलालाभ्यः सकाशात् पेल-IN वानि-सुकुमाराण्यतिरेकेण यानि तानि तथा, 'धवले'त्ति कानिचिद्धबलानि, 'कणगखचियंतकम्मे कनकखचित-सुवर्णमण्डितम् अन्तकर्म-अञ्चलकर्म वानलक्षणं येषां तानि तथा, 'आगासफालियसरिसप्पहे' आकाशस्फटिकयोराकाशरूप-6 स्फटिकस्य वा सदृशी प्रभा येषां तानि तथा 'अंसुए नियत्थाओ'त्ति वस्त्राणि निवसिताः, 'आयरेणीति व्यक्तं, 'तुसारगोक्खीरहारदगरयपंडुरदुगुतसुकुमालमुकयरमणिजउत्तरिजाई पाउयाओ'त्ति व्यक्तं, नवरं तुषार-हिम दगरयत्ति-उदक-15 रजस्तद्वत् पाण्डुराणि यानि दुकूलानि-यखाणि तान्येव सुकुमालानि सुकृतानि रमणीयानि च यान्युत्तरीयाणि तानि तथा दीप अनुक्रम (२६) भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: देवी-वर्णनं ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] तानि प्राप्ताः, 'वरचन्दनचर्चिताः पराभरणभूपिता' इति व्यक्त, 'सबोउयसुरभिकुसुमसुरक्ष्यविचित्तवरमलधारिणीओ' सर्वतुकैः सुरभिकुसुमैः सुरचितं विचित्रं वरं माल्य-मालां धारयन्ति यास्तच्छीलाश्च तास्तथा, 'सुगंधिचुण्णंगरागवरवासपुष्फपूरगविराइया' सुगन्धिचूर्णैरङ्गरागेण च-देहरञ्जनेन वरवासः पुष्पपूरकेण च-पुष्परचनाविशेषेण विराजिता यास्तास्तथा, 'अहियसस्सिरीया' अधिकं सह श्रिया-शोभया यास्तास्तथा, 'उत्तमवरधूवधूविया' उत्तमानां मध्ये यो वरधूपः स है तथा तेन धूपेन धूपिताः कृतसीगरध्याः यास्तास्तथा, 'सिरीसमाणवेसा' श्री:-देवता सा च लोके शोभनवेषेति रूढा अतस्तयोपमा कृतेति, 'दिधकुसुममल्लदामपन्भंजलिपुडाओ' दिव्यैः-वरैः कुसुमैः-अविकसितैः माल्यैः-विकसितैः दामभि|श्च-तन्मयमालाभिः प्रहा:-पूजासज्जाः अञ्जलिपुटा:-अञ्जलय एव यासां तास्तथा, उच्चत्वेन च सुराणां स्तोकोनमुच्छ्रिता, का'चन्द्रानना' इति व्यक्तं, 'चंदविलासिणीओत्ति चन्द्रस्येव विलासः-कान्तिर्यासां तास्तथा, 'चन्द्रार्द्धसमललाटाः चन्द्राधिलोकसौम्यदर्शना उल्का इवोद्योतमाना' इति व्यक्तं, 'विजुघणमिरीइसूरदिपंततेअअहियतरसंनिकासाओ' विद्यतो ये धना मरीचयः-किरणाः सूरस्य च यद्दीप्त-तेजस्तेभ्योऽधिकतरः सन्निकाशो-दीप्तिर्यासां तास्तथा, 'सिंगारागारचारुवेसाओं शृङ्गारो-रसविशेषस्तत्प्रधान आकार:-आकृतिश्चारुश्च वेषो-नेपथ्यं यासा तास्तथा, अथवा शृङ्गारस्यागारमिव-गृहमिव है याश्चारुवेषाश्च यास्तास्तथा, 'संगयगयहसियभणियचेष्ठियविलाससललियसलावनिउणजुत्तोवयारकुसलाओं' सङ्गतानि-उचितानि यानि गतादीनि तेषु निपुणा याः सङ्गतोपचारकुशलाश्च यास्तास्तथा, तत्र गत-गमनं हसितं-हासः भणितं-वचनं चेष्टित-चेष्टा विलासो-नेत्रविकारः, यदाह-"हावो मुखविकारः स्यात्, भावश्चित्तसमुद्भवः। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो 6-%25E दीप अनुक्रम (२६) भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: देवी-वर्णनं ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् सू०२६ ॥५६॥ कल्क प्रत सूत्रांक [२६] भूसमुद्भवः ॥१॥" सललिता-समाधुर्यः संलापा-परस्परभाषणम्, आह च-"संलापो भाषणं मिधः" अथवा ललितेन देवीवर्णन | सह यः संलापः स तथा, ललितलक्षणं चेदम्-"हस्तपादाङ्गविन्यासो, नेत्रोष्ठप्रयोजितः । सौन्दर्य कामिनीनां यल्ललितं तरप्रकीर्तितम् ॥१॥" उपचार:-पूजा, 'सुन्दरस्तनजघनवदनकरचरणनयनलावण्यरूपयौवनविलासकलिता' सुन्दराः स्तनादिनयनान्ता अवयवा यासां लावण्यप्रधानरूपेण स्पृहणीयेनेत्यर्थों यौवनेन विलासेन च कलिता यास्तास्तथा, इह च विलास एवंलक्षणो ग्राह्यो, यदुक्तम्-"स्थानासनगमनानां हस्तधूनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टः स तु विलासः स्यात् ॥१॥" इति, श्लिष्ट इति सुश्लिष्टः 'सुरवधुओ'त्ति विशेष्यपदं, 'सिरीसनवणीयमउयसुकुमालतुलफासाओ' शिरीष-शिरीषाभिधानतरुकुसुमं नवनीतं च-चक्षणं ते च ते मृदुकसुकुमारे च-अत्यन्तसुकुमारे इति विशेष्यपूर्वपदः &कर्मधारयः तस्यः स्पर्शो यास तास्तथा, 'ववगयकलिकलुसधोयनिद्धतरयमलाओ' व्यपगते कलिकलुपे-राटीपापकर्मणी Pायासां तास्तथा धौती-प्रक्षालिती निर्माती दग्धौ रजः स्पृष्टावस्थो रेणुः मलस्तु बद्धावस्थं रज एवेति धौतनिर्माताविव धौतनिर्मातौ रजोमलौ यासा तास्तथा, ततः कर्मधारयः, 'सोमाउत्ति सोम्या-नीरुजः 'कंताओ'त्ति काम्याः 'पियदंसणाओ'त्ति सुभगाः, सुरूपा इति व्यक्त, 'जिणभत्तिदसणाणुरागेण हरिसियाओ'त्ति जिनं प्रति भक्त्या कृत्वा यो दर्शना-15॥५६॥ नुरागो-दर्शनेच्छा स तथा तेन हर्षिता:-सञ्जातरोमाञ्चादिहर्षकायाः, 'ओवइया यावित्ति अवपतिताश्चाप्यवतीर्णाः, जिनसगास'ति जिनसमीपे, 'दिषेण' मित्यादि देववर्णकवनेयं, नवरं 'ठियाओञ्चेब'त्ति ऊर्ध्वस्थानस्थिता इति ॥२६ ।। दीप अनुक्रम (२६) भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे आगता: देवी-वर्णनं ~251 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------- मूलं [२७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक ॐ454 [२७]] तए णं पाए नयरीए सिंघाडगतिगचउचञ्चरचउम्मुहमहापहपहेसु महया जणसदेह वा जणवूहे इया जणघोले इ वा जणकलकले इ वा जणुम्मी ति वा जणुशलिया इ वा जणसन्निवाए इ वा बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ एवं भासइ एवं पण्णवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिा ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्वगरे सघसंबुद्धे पुरिमुत्तमे जाव संपाविउकामे पुवाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे हहमागए इह संपत्ते इह समोसढे इहेव चंपाए णयरीए बाहिं पुण्णभद्दे चेहए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गि|ण्डित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह। | 'तए 'ति ततोऽनन्तरं, णमित्यलङ्कारे, सिंघाडयेत्यादाक्यं वाक्यार्थः-सिङ्घाटकादिषु यत्र महाजनशब्दादयः तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यस्यैवमाख्यातीति, तत्र सिङ्काटक-सिङ्घाटकाभिधानफलविशेषाकारं स्थानं त्रिकोणमित्यर्थः त्रिकं-पत्र स्थाने रथ्यात्रयमीलको भवति चतुष्क-यत्र रथ्याचतुष्कमीलकः स्यात् चत्वरं-यत्र बहवो मार्गा मिलन्ति चतुर्मुख-18 तथाविधदेवकुलादि महापधो-राजमार्गः पन्था-रथ्यामात्रं 'महयाजनसद्दे इ वा' महान् जनशब्दः-परस्परालापादिरूपः। इकारो वाक्यालङ्कारार्थों वाशब्दः पदान्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, अधवा 'सद्देइ वति इह सन्धिप्रयोगादितिशब्दो द्रष्टव्यः, स चोपप्रदर्शने, ततश्च यत्र महान् जनशब्दः इति तद्वस्तु, कचित् 'बहुजणसद्दे इ बत्ति पाठो व्यकश्च, यत्र च जनब्यूह इति वा-लोकसमूहः, परस्परेण वा पदार्थानां विशेषेणोहनं वर्तत इत्यर्थः, एवं सर्वत्र, क्वचित्पठ्यते-'जणवाए इवा जणुलावे इ वा' इति तत्र जनवादो-जनानां परस्परेण वस्तुविचारणं उल्लापस्तु-तेषामेव काका वर्णनम्, आह च दीप अनुक्रम [२७] ~252~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [२७] दीप अनुक्रम [२७] भाग - १४ "औपपातिक" औपपातिकम् ॥ ५७ ॥ ४ • मूलं [ २७...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः - " स्यात्सम्भाषणमालापः, प्रलापोऽनर्थकं वचः । काका वर्णनमुलापः, संलापो भाषणं मिथः ॥ १ ॥” एवं बोल:- अव्य५ क्तवर्णो ध्वनिः, कलकलः स एवोपलभ्यमानवर्णविभागः, ऊर्मिः-सम्बाधः उत्कलिका - उघुतरः समुदाय एव सन्निपात:अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनमिति, 'एव'मिति वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु 'आइक्खइ'ति, आख्याति सामान्येन 'भास'त्ति भाषते विशेषतः, एतदेवार्थद्वयं पदद्वयेनाह - प्रज्ञापयति प्ररूपयति चेति, अथवा आख्याति - सामान्यतः भाषते विशेषतः प्रज्ञापयति-व्यक्तपर्यायवचनतः प्ररूपयति-उपपत्तितः 'इह आगए'त्ति चम्पायाम् 'इह संपत्ते' त्ति पूर्णभद्रे 'इह समोसढे 'ति साधूचितावग्रहे, एतदेवाह 'इह चंपाए' इत्यादि 'अहापडिरूवंति यथाप्रतिरूपम् उचितमित्यर्थः । तं महत्फलं खलु भो देवाणुपिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोअस्सवि सवणताए, किमगपुण अभिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए ?, एक्कस्सवि आयरियस्स धम्मिअस्स सुवयणस्स सवणता ?, किमंगपुण विजलस्स अत्थस्स ग्रहणयाए ?, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो सकोरेमो सम्माणेमो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइअं [ विणएणं ] पज्जुवासामो एतं णे पेचभवे इहभवे अ हियाए सुहाए खमाए निस्सेअसाए आणुगामिअत्ताए भविस्सइत्तिकट्टु बहवे उग्गा उग्गपुसा भोगा भोगपुत्ता Eucation International उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) 'तं महष्फलं 'ति यस्मादेवं तस्मान्महद् - विशिष्टं फलम्-अर्थों भवतीति गम्यं, 'तहारुवाणं'ति तत्प्रकारस्वभावानां महाफलजनन स्वभावानामित्यर्थः, 'णामगोयस्सवि'त्ति नाम्रो - यादृच्छिकाभिधानस्य गोत्रस्य - गुणनिष्पन्नाभिधानस्य 'सव भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं For Par Use Only ~253~ जननिर्ग० सू० २७ 11:40 11 ayor Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ****** प्रत सूत्रांक * [२७]] णयाए'त्ति श्रवणमेव श्रवणता तया, श्रवणेनेत्यर्थः, "किमंग पुण'त्ति किं पुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योतनार्थः, अङ्गेत्यामत्रणे, अथवा परिपूर्ण एवायं शब्दो विशेषणार्थः, 'अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपजुवासणयाए'त्ति अभिगमनम्-1 अभिमुखगमन वन्दनं-स्तुतिः नमस्यन-प्रणमनं प्रतिप्रच्छन-शरीरादिवार्ताप्रश्नः पर्युपासनं-सेवा एतेषां भावस्तत्ता तया, तथा 'एगस्सवित्ति एकस्यापि 'आरियस्स' आर्यस्यार्यप्रणेतकरयात् 'धम्मियस्स'त्ति धार्मिकस्य धर्मप्रयोजनत्वात् , अत एव सुवचनस्येति, 'वंदामो'त्ति स्तुमः 'नमसामो'त्ति प्रणमामः 'सकोरेमो'त्ति सत्कुर्मः, आदरं वखाद्यर्चनं वा विदध्मः, 'समा मोत्ति सन्मानयामः उचितप्रतिपत्तिभिः, 'कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासेमो' कल्याण-कल्याणहेतुत्वादभ्युदयहेतुमित्यधों, भगवन्तमिति योगः, मजल-दुरितोपशमहेतु दैवतं-देवं चैत्यम्-इष्टदेवप्रतिमा तदिव चैत्यं,'पर्युपासयामः' सेवा-10 महे, 'एयं णे'त्ति एतद्-भगवद्धन्दनादि अस्माकं 'पेच्च भवेत्ति प्रेत्यभवे-जन्मान्तरे पाठान्तरे 'इहभवे य परभवे य' 'हियाए'त्ति हिताय पथ्यान्नवत् 'सुहाए'त्ति सुखाय शर्मणे 'खमाए'त्ति क्षमाय सङ्गतत्वाय 'निस्सेयसाए'त्ति निःश्रेयसाय |४|| मोक्षाय 'आणुगामियत्ताए'त्ति आनुगामिकत्वाय भवपरम्परासु सानुबन्धसुखाय भविष्यतीतिकृस्वा-इतिहेतोरित्यर्थः, 'जाग' त्ति आदिदेवावस्थापितारक्षवंशजाः 'उम्गपुत्त'त्ति त एव कुमारावस्थाः 'भोग'त्ति आदिदेवावस्थापितगुरुवंशजाः 'भोग-||४|| पुत्त'त्ति त एव कुमारावस्थाः । | एवं दुपडोआरेणं राइण्णा खत्तिआ माहणा भडा जोहा पसत्यारो मल्लईलेच्छई लेच्छईपुत्ता अण्णे य वहवे राईसरतलवरमाईवियकोडंबिअइन्भसेहिसेणावइसत्यवाहपभितिओ अप्पेगइआ वंदणवत्तिअं अप्पे % दीप अनुक्रम ******* [२७] भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~254~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- जननि तिकम् सू० ॥५८॥ प्रत सूत्रांक [२७]] गइआ पूअणवत्तिअं एवं सकारवत्तियं सम्माणवत्तियं दसणवत्तियं कोऊहलवत्तियं अप्पेगहआ अट्ठविणि- गईआपूजणवात छयहेजे अस्सुयाई सुणेस्सामो सुयाई निस्संकियाई करिस्सामो अप्पेगहा अट्ठाईहेकई कारणाई वागरणाई पुच्छिस्सामो। । एवं पदयोच्चारणेन शेषपदानि ज्ञेयानि, तत्र 'राजन्यका भगवद्वयस्यवंशजाः, क्वचित्पठ्यते 'इक्खागा नाया कोरबा तत्रेक्ष्वाकवो नाभेयवंशजाः नायत्ति-नागवंश्या ज्ञातवंशा या कोरबत्ति-कुरुवंशजाः खत्तियत्ति-सामान्यराजकुलीनाः माहणत्ति-प्रतीताः भडत्ति-शूराः जोहत्ति-योधाः सहस्रयोधादयः पसत्यारोत्ति-धर्मशाखपाठकाः 'मलाई लेच्छइत्ति मल्लकिनो लेपछकिनश्च राजविशेषाः, यथा श्रूयन्ते चेटकराजस्याष्टादश गणराजा:-नवमलई नवलेच्छई कासीकोसलगा & अडारस गणरायाणो' इति, राईसरतलवरमाइंबियकोडुंबियइम्भसेडिसेणावइसत्यवाहपभितिओ'ति राजानो-माण्डलिका ईश्वरा-युवराजाः, अणिमाद्यैश्वर्ययुक्ता इति केचित् , तलवराः परितुष्टनरपतिवितीर्णपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः | माण्डविका:-मण्डपाधिपाः कौटुम्बिकाः कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः इभ्याः-यद्व्यनिचयान्तरितो महेभो न दृश्यते, है. श्रेष्ठिनः-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूपितोत्तमाङ्गाः सेनापतयःनृपतिनिरूपिताश्चतुरज सैन्यनायकाः सार्थवाहा:-सार्थ नायकाः 'वंदणवत्तिय'ति वन्दनप्रत्ययं वन्दनार्थमित्यर्थः, 'अट्ठाई हेऊई कारणाई वागरणाई पुरिछस्सामो'त्ति क्वचिद् दृश्यते, तत्र अर्थान्-जीवादीन् हेतून-तद्गमकानन्वयव्यतिरेकयुक्तान् कारणानि-उपपत्तिमात्राणि, यथा निरुपमसुखः | सिद्धो, ज्ञानानाबाधत्वप्रकर्षादिति, व्याकरणानि-परप्रनितार्थोत्तररूपाणि । 445645-456464 दीप अनुक्रम * ॥५८॥ [२७] 443485 भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत ॐ345523 सूत्रांक अप्पेगहआ सबओ समंता मुण्डे भवित्ता अगाराओ अणगारि पब्वइस्सामो, पंचाणुवइयं सत्तसि-६ क्खिावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामो, अप्पेगइआ जिणभत्तिरागेण अप्पेगइआ जीअमेअंति कट्ट पहाया कयषलिकम्मा कयकोऊयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठेमालकडा आविद्धमणिसुवण्णा कप्पिय[४ हारऽहारतिसरयपालंघपलंबमाणकडिसुत्तयसुकयसोहाभरणा पवरवत्थपरिहिया चंदणोलित्तगायसरीरा।। है 'कयबलिकम्मत्ति कृतं बलिकर्म स्वगृहदेवतानां यैस्ते तथा, 'कयकोऊयमंगलपायच्छित्त'त्ति कृतानि कौतुकमगला न्येव प्रायश्चित्तानि-दुःस्वमादिविधातार्थमवश्यंकरणीयत्वाद् यैस्ते तथा, तत्र कौतुकानि-मपीतिलकादीनि मङ्गलानि तु-सिद्धार्थकदध्यक्षतादीनि 'उच्छोलणयधोय'त्ति कचिदृश्यते, तत्र उच्छोलनेन-प्रभूतजलक्षालनक्रियया धौताः-धीतगात्रा & येते तथा, इदं च स्नानस्य प्रचुरजलस्वसूचनार्थ विशेषणं, स्नानव्यतिरिक्तप्रयोजनगतं वेदमिति, 'सिरसाकंठेमालकड'-16 त्ति शिरसा कण्ठे च माला कृता-धृता यैस्ते तथा, 'आविद्धमणिसुवण्ण'त्ति आविद्ध-परिहितं 'कप्पियहारऽद्धहारतिसर|यपालंबपलंबमाणकडिसुत्तसुकयसोहाभरणा' कल्पितानि-इष्टानि रचितानि वा हारादीनि कटीसूत्रान्तानि येषामन्यानि &च सुकृतशोभान्याभरणानि येषां ते तथा, 'पवरवत्थपरिहियत्ति निवसितप्रधानवाससः 'चंदणोलित्तगायसरीरा' चन्दनाकानुलिप्तानि गात्राणि यत्र तत्तथाविधं शरीरं येषां ते तथा । 21 अप्पेगइआ हयगया एवं गयगया रहगया सिवियागया संदमाणियागया अप्पेगहआ पायविहारचारिणो ||8 * पुरिसवग्गुरापरिखित्ता महया उक्विडिसीहणायबोलकलकलरवेणं पक्खुभिअमहासमुद्दरवभूतंपिव करे [२७]] दीप अनुक्रम [२७] RELIGunintentration Preetaurasuram.org भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: GGER KASAS प्रत सूत्रांक [२७]] माणा चंपाए णयरीए मझमझेणं णिगच्छंति २त्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छति रत्ता समणस्सा जननिर्ग तिकम् । भगओ महावीरस्स अदरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासंति, पासित्ता जाणवाहणाई ठावइंति, २साद जाणवाहणेहिंतो पचोरुहंति, पञ्चोरुहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सू०२७ ॥ ५९॥ समर्ण भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति, करित्ता बंदंति णमंसंति, चंदित्ता णमंसित्ता णञ्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूममाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउड़ा पजुवासंति ॥ (सू० २७) । __वाचनान्तराधीतमथ पदपञ्चक 'जाणगयत्ति यानानि-शकटादीनि 'जुग्गगय'त्ति युग्यानि-गोलविषयप्रसिद्धानि* जम्पानानि-द्विहस्तप्रमाणानि चतुरस्राणि वेदिकोपशोभितानि 'गिलि'त्ति हस्तिन उपरि कोलररूपा या मानुषं गिलतीवेति 'थिलि'ति लाटानां यानि अदुपस्यानानि तान्यन्यविषयेषु घिल्लीओत्ति अभिधीयन्ते 'पवहण'त्ति प्रवहणानि वेगसरादीनि| 'सीय'त्ति शिबिकाः कूटाकाराच्छादिता जम्पानविशेषाः 'संदमाणिय'त्ति स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणायामा जम्पानविशेषा है एव 'पायविहारचारेण पादविहाररूपो यश्चार:-सञ्चरणं स तथा तेन, 'पुरिसवागुर'त्ति वागुरा-मृगवन्धनं पुरुषो वागुरेव | | सर्वतोऽवस्थानात् पुरुषवागुरा 'वग्गायगि गुम्मागुम्मिति कचिदृश्यते, तत्र धर्ग:-समानजातीयवृन्दं वर्गेण वर्गेण च || भूत्वा वावर्गि अत एवेहाव्ययीभावसमासः, गुम्मागुम्मिति-गुल्म-वृन्दमात्र गुल्मेन च गुल्मेन च भूत्वेति गुल्मागुल्मि,I 'महय'त्ति महता, रवेणेति योगः, 'उद्विसीहनायबोलकलकलरवेणं'ति उत्कृष्टिश्च-आनन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्च-प्रतीतः| बोलच-वर्णव्यकिवर्जितो ध्वनिरेव कलकलश्च-व्यक्तवचनः स एव एतलक्षणो यो रवः स तथा तेन, 'पक्खुभियमहा ARAM दीप अनुक्रम ॥ ५९॥ [२७] भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~257~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७]] & समुहरवभूयं पिव करेमाण'त्ति प्रक्षुभितमहाजलधे?षप्राप्तमिव-तन्मयमिव नगरं विदधाना इत्यर्थः, कचिदिदं पदचतुष्टयं दिश्यते-पायदद्दरेणं भूमि कंपेमाण'त्ति त्वरितगमनजनितपादप्रहारेण, 'अंबरतलमिव फोडेमाण'त्ति पादपातप्रतिरवेणाकाशं स्फोटयन्त इव, 'एगदिसिं'ति एकया दिशा पूर्वोक्तलक्षणया, 'एगाभिमुह'त्ति एक भगवन्तमभि-लक्षणीकृत्य मुखं | येषां ते एकाभिमुखाः, 'तित्थगराइसेसे'त्ति तीर्थकरातिशेषान् जिनातिशयान, 'जाणवाहणाई ठावईतित्ति यानानि-शक-18 टादीनि वाहनानि-गवादीनि स्थापयन्ति-स्थिरीकुर्वन्ति, क्वचिद् विडन्भंती'ति दृश्यते, तत्र विशेषेण स्तम्भयन्ति-निश्चलीकुर्वन्ति, इतो वाचनान्तरगतं बहु लिख्यते-'जाणाई मुयतित्ति भुवि विन्यस्यन्ति, 'वाहणाई विसजेति'त्ति चरणार्थ मुत्कलयन्ति, 'पुप्फतंबोलाइयं आउहमाइयं सच्चित्तालंकारीति सचित्तं च-सचेतनमलङ्कारं च-राजलक्षणं च विसर्जयन्तीति योगः, किंरूपं सचित्तमित्याह-पुष्पताम्बूलादिकम् , आदिशब्दात् तथाविधफलादिग्रहः, तथा अलङ्कारं च किंविधमि-है। त्याह-आयुधादिकम् , आयुध-खङ्गादि आदिशब्दाच्छत्रचामरमुकुटपरिग्रहः, 'पाहणाओ यत्ति उपानही च, 'एगसाडियं || उत्तरासंगति एकशाटकवन्तमुत्तरीयविन्यासविशेष, 'आयंत'त्ति आचान्ताः-शौचाथै कृतजलस्पर्शाः, 'चोक्ख'त्ति आचम-1 नादपनीताशुचिद्रव्याः, 'परमसुईभूय'त्ति अत एवात्यर्थं शुचीभूताः, 'अभिगमेणं ति उपचारेण, 'अभिगच्छति' भगवन्तमुपचरन्ति, 'चक्खुप्फासे'त्ति दर्शने 'मणसा एगत्तीभावकरणेणीति अनेकत्वस्य एकत्वस्य भवनम् एकत्वीभावस्तस्य यत् | करणं तत्तथा तेन एकत्वीभावकरणेन, आत्मन इति गम्यते, मनसः एकाग्रतयेत्यर्थः, कायिकपर्युपासनामाह-'सुसमाहियपसंतसाहरियपाणिपाया' सुसमाहितैः-बहिर्वृत्त्याऽत्यन्तनिभृतैः प्रशान्तैः-अन्तवृत्त्या उपशान्तैः सद्भिः संहृत-संलीनी दीप अनुक्रम [२७] भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा जननिर्गः प्रत सूत्रांक [२७]] कृतं पाणिपादं यस्ते तथा, अत एव 'अंजलिमउलियहत्था' अञ्जलिना-अञ्जलिरूपतया मुकुलिती-मुकुलाकारौ कृतौ तिकम् । हस्तौ यैस्ते तथा, वाचिकपर्युपासनामाह-'एवमेयं भंते'त्ति एवमेतद्भदन्त !-भट्टारकेति सामान्यतः 'अवितहमेय'ति विशे।।६०॥ पतः, अत एव 'असंदिद्धमेय'ति शङ्काया अविषय इत्यर्थः, अत एव 'इच्छियमेय'ति इष्टमस्माकमेतत् , अत एव 'पडि. च्छियमेय'ति भगवन्मुखात् पतत् प्रतीप्सितमागृहीतमेतत् इह च किञ्चिदिष्टमेव दृष्टमन्यत् प्रतीप्सितमेवेत्यत उच्यते-'इच्छियपडिच्छियमेयंति, 'सच्चे णं एसमडे' प्राणिहितोऽयमर्थ इति, माणसियाए 'तञ्चित्त'त्ति तस्मिन् भगवद्वचने चित्त-भावमनो येषां ते तच्चित्ताः, सामान्योपयोगापेक्षया वा तच्चित्ताः,'तम्मण'त्ति तन्मनसो द्रव्यमनःप्रतीत्य विशेषोपयोग वा, 'तल्लेस्स'त्ति तल्लेश्याः भगवद्वचनगतशुभारमपरिणामविशेषाः, लेश्या हि कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यजनित आत्मपरिणामः, तदाह-कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामोय आत्मनः। स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दःप्रयुज्यते ॥१॥"'तयज्झवसिय'त्ति इहाध्यवसायः अध्यवसितं तच्चित्तत्वादिभावयुक्तानां सतां तस्मिन्-भगवद्वचने एवाध्यवसितं क्रियासम्पादनविषयं येषां ते तदध्यव|सिताः, तत्तिव-झवसाण'त्ति तस्मिन्नेव-भगवद्वचने तीनमध्यवसान-श्रवणविधिक्रियाप्रयलविशेषरूपं येषां ते तथा, तदप्पियहै करण त्ति तस्मिन्-भगवत्यर्पितानि करणानि-इन्द्रियाणि शब्दरूपादिषु श्रोत्रचक्षुरादीनि यस्ते तदप्तिकरणाः, तयहोवउत्त'त्ति तस्य-भगवद्वचनस्य योऽर्थस्तत्रोपयुक्ता येते तदर्थोपयुक्ताः, 'तब्भावणाभाविय'त्ति तेन-भगवदचनेन तदर्थेन वा यका |भावना-वासना प्राक्तनमुहूर्ते तया भाविता-वासिता न वासनान्तरमुपगता येते तद्भावनाभाविताः, अत एव 'एगमण'त्ति दीप अनुक्रम +SAR ॥६॥ [२७] SAREaurainintenational भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 3-54- 550 प्रत सूत्रांक [२७]] ४ मनसो वा प्रमुदितत्वात् , अणनमणत्ति भगवन्मनस इत्यर्थः, किमुक्तं भवति-जिणवयणधम्माणुरागरत्तमणा' जिन-18 वचने जिनवदने वा धर्मानुरागेण रक्तं मनो येषां ते तथा, एकाथिकानि वैतानि तन्मनःप्रभृतीनि सर्वाणि पदानि तदेकाग्रताप्रकर्षप्रतिपादनार्थानीति, 'वियसियवरकमलनयणघयण'त्ति विकसितानि वरकमलानीव नयनवदनानि येषां ते 8 तथा पर्युपासत इति । 'समोसरणाई'ति समवसरणानि वसतयः 'गवेसह'त्ति भगवदवस्थानावगमार्थ निरूपयत , का8 भगवानवस्थित इति जानीतेति भावः । 'आगंतारेसु वत्ति आगन्तुगाराणि-येष्वागन्तुका वसन्ति, 'आरामागारेसु वत्ति आराममध्यवर्तिगृहेषु 'आएसणेसु वत्ति आवेशनानि येषु लोका आविशन्ति तानि चायस्कारकुम्भकारादिस्थानानि, 'आव-2 सहेसु बत्ति आवसथाः-परिव्राजकस्थानानि, 'पणियगेहेसु वत्ति पण्यगृहाणि हट्टा इत्यर्थः, 'पणियसालासु चत्ति भाण्डशालासु, गृहं सामान्य शाला तु गृहमेव दीर्घतरमुच्चतरं च, एवं 'जाणगिहेसु जाणसालासु'त्ति 'कोडागारेसुत्ति धान्य-IC गृहेषु 'सुसाणेसु'ति इमशानेषु 'सुन्नागारेसुत्ति शून्यगृहेषु परिहिंडमाणे त्ति भ्रमन् परिघोलेमाणे'त्ति गमागर्म कुर्वे ॥२७॥12 || तए णं से पवित्तिवाउए इमीसे कहाए लट्टे समाणे हद्वतछे जाब हियए हाए जाव अप्पमहग्याभरणाल|| किसरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, सपाओ गिहाओ पडिणिक्वमित्ता चंपाणयरि मझमझण। जेणेव बाहिरिया सब्वेव हेडिल्ला वत्तवया जाव णिसीय णिसीइत्ता तस्स पवित्तिवाउअस्स अद्भुत्तरसस-| ४ा यसहस्साई पीइदाणं दलयति, २त्ता सकारेइ सम्माणेइ सकारेत्ता सम्माणेत्ता पडिविसज्जेइ (सू० २८ ) ॥ १ अप्रमादित्वात् । दीप अनुक्रम *5453 [२७] भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे निर्गता: जन-समूहानां वर्णनं ~260~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: सू०२९ प्रत सूत्रांक [२९] औपपा- तए णं से कूणिए राया भभसारपुत्ते बलवाउअं आमंतेइ आमंतेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणु-2 नगरीस. तिकम् प्पिआ! आभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पेहि, हयगयरहपवरजोहकलिअं च चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहिहि, सुभद्दापमुहाण य देवीणं बाहिरियाए उचट्ठाणसालाए पाडिएकपाडिएक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई ॥६१॥ उववेह, पं णयरिं सम्भितरवाहिरिअं आसित्तसित्तमुइसम्मरत्वंतरावणबीहिरं मंचाइमंचकलिअं| भणाणाविहरागउच्छियज्झयपडागाइपडागमंडिअं लाउल्लोइयमहियं गोसीससरसरत्तचंदणजावगंधवट्टिभूअं| करेह कारवेह करित्ता कारवेत्ता एअमाणत्ति पञ्चप्पिणाहि, निजाइस्सामि समणं भगवं महावीरं अभिदए ॥ (सू०२९)॥ प्रकृतवाचनाऽनुश्रीयते-'बलवाउयति बलव्यापृतं-सैन्यव्यापारपरायणम् 'आभिसेक ति अभिषेकमहतीत्याभिषेक्य, हत्थिरयणं'ति प्रधानहस्तिनं 'पडिकप्पेहित्ति प्रतिकल्पय सन्नद्धं कुरु 'पाडेति प्रत्येकमेकैकशः 'जत्ताभिमुहाईति गमनाभिमुखानि 'जुत्ताई ति युक्तानि-बलीवादियुतानि, क्वचित् युग्यानि पठ्यन्ते, तानि च जम्पानविशेषाः, 'जाणाई ति | ४ शकटानि 'सभितरवाहिरिय'ति सहाभ्यन्तरेण नगरमध्यभागेन बाहिरिका-नगरबहिर्भागो यत्र तत्तथा, क्रियाविशेषणं 8 चेदम् , 'आसित्तसंमजिओवलितं' आसिक्ताम्-उदकच्छटेन सम्मार्जितां-कचवरशोधनेन उपलिप्तां-गोमयादिना, केष्वित्याह-'सिंघाडगतिगचउकचचरचउम्मुहमहापहपहेसु' इदं च वाक्यद्वयं कचिन्नोपलभ्यते, तथा 'आसित्तसित्तसुइसम्महरत्थठरावणधीहियं' आसिक्तानि-पतसिक्तानि सिक्तानि च-तदन्यथा अन एव शुचीनि-पवित्राणि संमृष्टानि कचवरापनयनेन 545-SCRECASSOCCASEX दीप अनुक्रम ॥६१॥ [२९) कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~261~ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ★RRCCCAR प्रत सूत्रांक [२९] रथ्यान्तराणि-रथ्यामध्यानि आपणवीथयश्च-हट्टमार्गा यत्र सा तथा तां , 'मंचाइमंचकलिय' मथा-मालकाः प्रेक्षणदएजनोपवेशननिमित्तम् अतिमञ्चा:-तेपामप्युपरि ये तैः कलिता या सा तथा तां, 'णाणाविहरागउच्छियज्झयपडागाइपडाग| मंडिय' नानाविधरागैरुच्छूितैः-ऊर्वीकृतैः ध्वजैः चक्रसिंहादिलाञ्छनोपेतैः पताकाभिः-तदितराभिरतिपताकाभिश्च|पताकोपरिवर्तिनीभिर्मण्डिता या सा तथा तां, शेषो नगरीवर्णकश्चैत्यवर्णक इवानुगमनीयः, 'आणत्ति पञ्चप्पिणाहित्ति | 'आज्ञप्तिकाम्' आज्ञा प्रत्यय-सम्पाद्य मम निवेदयेत्यर्थः ।। २९ ।। तए से बलवाउए कृणिएणं रपणा एवं बुत्ते समाणे हतुजावहिए करयलपरिग्गहिरं सिरसावत्तं मथए अंजलिं कट्ट एवं बयासी-सामित्ति आणाइ विणएणं वयणं पडिसुणेइ २त्ता हत्थिवाउअं आमंतेड आमंतेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! कूणिअस्स रणो भभसारपुत्तस्स आभिसेकं हस्थिर-16 यणं पडिकप्पेहि, हयगयरहपवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सपणाहिहि सण्णाहित्ता एअमाणत्ति पञ्चप्पिॐाणाहि । तए णं से हधिवाउए बलवाउअस्स एअमई सोचा आणाए विणपर्ण वयणं पडिसुणेइ पडिसुणित्ता| छेआयरियउवएसमइविकप्पणाविकप्पेहिं मुणिउणेहिं उज्जलणेवत्यहत्थपरिवस्थि मुसज्जं धम्मिअसपणहबदकवइयउष्पीलियकच्छवच्छगेवेयवहगलवरसणविरायंतं अहियतेअजुत्तं सललिअवरकपणपूरविराइ, पलंबउबलमहअरकर्यधयारं चित्तपरिच्छेअपच्छयं पहरणावरणभरिअजुद्धसर्ज सच्छतं सज्झयं सघंटे सप-13/ &डागं पंचामेलअपरिमंडिआभिरामं ओसारियजमलजुअलघंट विजुपणई व कालमेहं उप्पाइयपब्वयं वद दीप अनुक्रम SACRECCACACARICAL [२९) SAREauratonintenariana | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [३०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] औपपा चकमंतं मत्तं गुलगुलंतं मणपवणजइणवेगं भीमं संगामियाओजं आभिसेकं हस्थिरयणं पडिकप्पई पडि- सेनास तिकम् कप्पेत्ता हयगयरहपवरजोहकलिअं चाउरंगिणिं सेणं सपणाहेइ, सण्णाहित्ता जेणेव चलवाउए तेणेव । उवागच्छइ उवागच्छित्ता एअमाणत्ति पञ्चप्पिणइ । तए णं से बलवाउए जाणसालिअंसद्दावेइ २त्ता it६२॥ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिआ! सुभद्दापमुहाणं देवीणं बाहिरियाए उबट्ठाणसालाए पाडिएक-10 पाडिएकाई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई उवहवेह २त्ता एअमाणत्तिरं पञ्चप्पिणाहि । el 'हत्थिवाउए'त्ति हस्तिव्यावृतो महामात्रः, इह प्रदेशे 'आभिसेयं हस्थिरयणं ति यत्कचिद् दृश्यते सोऽपपाठः, अग्रे एतस्य वक्ष्यमाणत्वात् , 'छेआयरिय उवएसमइकप्पणाविकप्पेहि छेको-निपुणो य आचार्यः-शिल्पोपदेशदाता तस्योपदेशाद्या 13 मतिः-बुद्धिस्तस्या ये कल्पना-विकल्पाः कृप्तिभेदास्ते तथा तैः, किंविधैः ?-सुणिउणेहिंति व्यक्तं, निपुणनरैर्वा, 'उज्ज-18 लणेवस्थहत्थपरिवस्थिय'ति उज्ज्वलनेपथ्येन-निर्मलबेषेण हत्थंति-शीघ्र परिपक्षितं-परिगृहीतं परिवृत्तं यत्तत्तथा तत. पा-C ठान्तरे उज्ज्वलनेपथ्यैरिति, 'सुसज्जति सुष्टु प्रगुणं, 'धम्मियसण्णद्धवद्धकवइयउष्पीलियकच्छवच्छगेवेयवद्धगलवरभूसण-* सविरायंत ति धर्मणि नियुक्ता धार्मिकाः तः सन्नद्धं-कृतसन्नाहं यत्तद्धार्मिकसन्नद्धं बद्धं कवचं सन्नाह विशेषो यस्य तत्तथा, लातदेव बद्धकवचिकम् , अथवा धर्मितादयः शन्दा एकार्था एव सन्नद्धताप्रकर्षख्यापनार्थी, भेदो वैषामस्ति, स च रूढि ।। ६२ ।। तोऽवसेयः, तथा उत्पीडिता-गाढीकृता कक्षा-हृदयरज्जुर्वक्षसि-उरसि यस्य तत्तथा, 'वक्षःकक्ष' इति पाठान्तरं, तथा टीबद्धं अवेयक-ग्रीवाभरणं गले यस्य तत्तथा, तथा वरभूषणविराजमानं यत्तत्तथा, अवेयकबद्धभूपणविराजितमिति दीप अनुक्रम [३०] | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~263~ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३०] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः पाठान्तरं ततो धर्मितादीनां कर्मधारयः, अतस्तत्, 'अहियतेयजु'ति कचिद्दृश्यते, तत्राधिकाधिकेन- अत्यर्थमधिकेन अहितानां वा शत्रूणामहितेन-अपथ्येन तेजसा प्रभावेण युक्तं यत्तत्तथा तत् । 'सहलियवरकण्णपूरविराइयं' सललिते - लालित्योपेते बरे ये कर्णपूरे- कर्णाभरणे ताभ्यां विराजितं यत्तत्तथा तत्, 'पलंवडयूलमहुअरकथं धयारं' | प्रलम्बान्यवचूलानि - टगकन्यस्ताधोमुखकूर्चका यस्य तत् प्रलम्बावचूलं मधुकरैः - भ्रमरैर्मदजलगन्धाकृष्टः कृतमन्धकारं यस्य तत्तथा ततः कर्मधारयः, अतस्तत्, वाचनान्तरं स्वेवं नेयं 'विरचितवरकर्णपूरं सललितप्रलम्बाब चूलं च चामरोत्करकृतान्धकारं च यत्तत्तथा तत्, चामरोत्करकृतान्धकारता तु चामराणां कृष्णत्वात्, 'चित्तपरिच्छेयपच्छयं' चित्रः परिच्छेको लघुः प्रच्छदो- त्रस्त्रविशेषो यस्य तत्तथा तत्, 'पहरणावरण भरियजुद्धस' प्रहर| गावरणानाम्-आयुधकवचानां भृतं यत् युद्धसज्जं च सङ्ग्रामप्रगुणं यत्तत्तथा तत्, पाठान्तरे 'सचापशरप्रहरणावरणभरितयुद्ध सजा'मिति, सच्छत्रं सध्यर्ज सघण्टमिति व्यक्तम्, सपताकमित्यपि दृश्यते, तत्र पताका-गरुडसिंहादिचिह्नरहिताः, 'पंचामेढयपरिमंडियाभिरामं पञ्चभिः- आमेलकैः चूडाभिः परिमण्डितमत एवाभिरामं रम्यं यत्तत् तथा तत्, 'ओसारियजमलजुयलघंटे' अवसारितम्-अवलम्बितं यमलं समं युगलं-द्विकं घण्टयोर्यत्र तत्तथा तत्, 'विज्जुपणद्धं व कालमेह' घण्टाप्रहरणादीनामुज्ज्वलदीप्तियुक्तत्वेन विद्युत्कल्पत्वात् विद्युत्परिगतमिवेत्युक्तं, हस्तिदेहस्य कालत्वेन महस्वेन च मेघकल्पस्वात् कालमेघमित्युक्तम्, 'उप्पाइयपवयं व चकमत' स्वाभाविकपर्वतो हि न चङ्क्रमते अत उच्यते औत्पातिकपर्वतमिव चङ्क्रम्यमाणं, पाठान्तरे तु औत्पातिकपर्वतमिव सक्खंति-साक्षात्, 'मत्तं गुलुगुलंत' मिति व्यक्तं, कचित् 'महामेघ' For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३०] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ ३०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपातिकम् ॥ १३ ॥ Jan Euca मिवेति दृश्यते, 'मणपवणजइणवेगं मनः पवनजयी वेगो यस्य तत्तथा तत्, शीघ्रवेगमिति कचित्, 'भीमं संगामियायोगं' साङ्ग्रामिक आयोगः-परिकरो यस्य तत्तथा तत्, पाठान्तरे 'संगामियाओजं' साङ्ग्रामिकातोयं साङ्ग्रामिकवाद्यमित्यर्थः, पाठान्तरे साङ्ग्रामिकम् अयोध्यं येन सहापरो हस्ती न योद्धुं शक्नोति तदयोध्यं । तए णं से जाणसालिए बलवाउअस्स एअम आणाए विणएणं वयणं पडिसृणेइ पडिणित्ता जेणेव जाणसाला तेणेव उवागच्छ तेणेव उवागच्छिता जाणाई पशुवेक्खेइ २ त्ता जाणाई संपमनेइ २त्ता जाणाई संवट्टेद जाणाई संवट्टेसा जाणारं णीणेइ जाणाई णीणेत्सा जाणाणं दूसे पवीणेइ २ सा जाणाई समलंकरेइ २त्ता जाणाई वरभंडकमंडियाई करेति २ ता जेणेव वाणसाला तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता वाहणाई पचुवेक्खेइ २ता वाहणाई संपमजइ २त्ता वाहणाई णीणेइ २ ता वाहणाई अप्फाले २त्ता दूसे पवीणेइ | २त्ता वाहणाई समलंकरेइ २त्ता वाहणाई वरभंडकमंडियाई करेइ २ सा वाहणाई जाणाई जोएइ २सा पओदलडिं पओअधरे अ समं आडहइ आउहिता वहमग्गं गाहेइ २ सा जेणेव बलवाउए तेणेव उवागच्छइ २त्ता | बलवाउअस्स एअमाणत्तिअं पचप्पिणइ । तए णं से बलवाउए णयरगुत्तिए आमंतेइ २त्ता एवं वयासी-खि प्यामेव भो देवाणुप्पिया ! चंप णयरिं सभितरबाहिरियं आसित्त जाव० कारवेत्ता एअमाणत्तिअं पचप्पि णाहि । तए र्ण से णयरगुतीए बलवाउअस्स एअमई आणाए विणणं पडिसुणेइ २ सा चंप णयरिं सर्वभतरबाहिरियं आसितजाव० कारवेत्ता जेणेव बल वाउए तेणेव उवागच्छइ २ सा एअमाणत्तिअं पचप्पिण । तए णं For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~265~ सगासज्ज० सू० ३० ॥ ६३ ॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [...३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक से बलवाउए कोणिअस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स आभिसेकं हत्थिरयणं पडिकप्पिरं पासइ हयगय जाव० सण्णाहिरं पासइ, सुभदापमुहाणं देवीणं पडिजाणाई उवढविआई पासइ, चंप णयरि सम्भितरजाव. गंध-13 5 वहिभूअं कयं पासइ, पासित्ता हहतुद्दचित्तमाणदिए पीअमणे जाव हिअए जेणेव कृणिए राया भंभसार पुत्ते तेणेव उवागच्छइ २त्ता करयलजाव एवं बयासी-कप्पिए णं देवाणुप्पियाणं आभिसिके हत्थिरयणे हय गयपवरजोहकलिआ य चाउरंगिणी सेणा सपणाहिआ सुभद्दापमुहाणं च देवीणं बाहिरियाए अ उवट्ठाठाणसालाए पाडिएकपाडिएकाई जत्ताभिमुहाई जुत्ताई जाणाई उवटावियाई चंपा गयरी सम्भितरवाहिरियाद आसित्तजाव गंधवहिआ कया, तं निजतु णं देवाणुप्पिया!समणं भगवंमहावीरं अभिवंदआ॥(स०३०) | 'जाणाई पञ्चुवेक्खेइ'त्ति शकटादीनि प्रत्युपेक्षते-निरीक्षते 'संपमजेइ'त्ति विरजीकरोति, 'नीणेइ'त्ति शालाया निष्काशलायति, 'संव इति संवर्तयति एकत्र स्थाने न्यस्यति, 'दूसे पवीणेइ'त्ति दृप्याणि-तदाच्छादनवखाणि प्रविनयति-अपसार-IK यति, 'समलंकारेइत्ति समलङ्करोति-यन्त्रयोक्रादिभिः कृतालङ्काराणि करोति, 'वरभंडगमंडियाईति प्रवराभरणभूषितानि, | 'वाहणाईति बलीवादीन् 'अप्फालेइत्ति आस्फालयति हस्तेनाऽऽताडयति-उत्तेजयतीत्यर्थः, 'दूसे पवीणेईत्ति मक्षिकाट्रमशकादिनिवारणार्थ नियुक्तानि वस्त्राणि व्यपनयति 'जाणाई जोएइ'त्ति वाहनर्यानानि योजयतीति संबन्धयतीत्यर्थः,IRI 'पओयलडिंति प्रतोत्रयष्टि-प्राजनकदण्डं, 'पओयधरे यत्ति प्रतोत्रधरान् शकटखेटकान 'सम'ति एककालं 'आडहईत्ति आदधाति नियुले, 'बट्ट गाहेइत्ति वर्म ग्राहयति यानानि मार्गे स्थापयतीत्यर्थः ॥ ३०॥ दीप अनुक्रम [३०] wrintunaturary.org | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं -~-266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [३१...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा तिकम् ॥६४॥ प्रत सूत्रांक ३१ तए णं से कूणिए राया भभसारपुत्ते बलवाउअस्स अंतिए एअमटुं सोचा णिसम्म हड्तुजावहिअएकोणिक. जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छइ २त्ता अट्टणसालं अणुपविसइ २त्ता अणेगवायामजोग्गवग्गणवामहणमल्लजुद्धकरणेहिं संते परिस्संते सयपागसहस्सपागेहिं सुगंधतेल्लमाइएहिं दप्पणिज्जेहिं मयणिज्जेहिं विंह-131 || सू० ३१ है णिज्जेहिं सविदियगायपल्हायणिज्जेहिं अभिगेहिं अभिगिए समाणे तेल्लचम्मंसि पडिपुषणपाणिपायमुकुमालकोमलतलेहिं पुरिसेहिं छेएहिं दक्खेहिं पत्तद्देहिं कुसलेहिं मेहावीहिं निउणसिप्पोवगएहिं अभिगणपरिमद्दणुवलणकरणगुणणिम्माएहिं अधिसुहाए मंससुहाए तथासुहाए रोममुहाए चउब्बिहाए संवाहणाए संचाहिए समाणे अवगयखेअपरिस्समे अट्टणसालाउ पडिणिक्खमइ पडिणिक्वमित्ता जेणेव मजणधरे तेणेव उवागच्छह तेणेव उवागच्छित्ता मजणघरं अणुपविसइ २त्ता समुत्तजालाउलाभिरामे विचित्तमणिरयणकुहिमतले रमणिजे पहाणमंडवंसि णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि पहाणपीटंसि सुहणिसपणे सुद्धोदएहिं गंधोदपहि पुष्फोदएहिं सुहोदएहिं पुणो २ कल्लाणगपवरमजणविहीए मजिए तत्थ कोउअसएहिं बहुवि-|| आहेहिं कल्याणगपवरमजणावसाणे पम्हलसुकुमालगंधकासाइयलूहिअंगे सरससुरहिगोसीसचंदणाणुलित्तगये। अयसुमहग्यदूसरयणसुसंखुए सुइमालावणगविलेवेण आविद्धमणिसुवपणे कप्पियहारहारतिसरयपा-| लंबपलबमाणकडिसुत्तसुकयसोभे पिणद्धगेविज अंगुलिजगललियंगयललियकयाभरणे वरकडगतुडियर्थभिअभुए अहियरूवसस्सिरीए मुदिआपिंगलंगुलिए कुंडलउजोविआणणे मउडदित्तसिरए हारोस्थषसुकपर-12 दीप अनुक्रम RSS [३१] | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३१] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः इयवच्छे पालंयपलंयमाणपडसुकयउत्तरि णाणामणिकणगरपण विमल महरिहणिउणोवि अमिसिमिसंत| विरइयसुसिलिडविसिल आविद्धवीरवलए । 'भट्टणसाल'त्ति व्यायामशाला 'अणेगवायामजोगगवग्गणवामद्दणमल जुद्धकर णेहिं ति अनेकानि यानि व्यायामाय - व्यायामनिमित्तं योग्यादीनि तानि तथा तैः, तत्र योग्या-गुणनिका वल्गनम्-उल्लङ्घनं व्यामर्द्दनं- परस्परस्याङ्गमोटनं महयुद्धं-प्रतीतं करणानि च--अङ्गभङ्गविशेषा मलशास्त्रप्रसिद्धाः 'सयपागसहस्स पागेहिं 'ति शतकृत्वो यत्पक्कमपरापरोषधीरसेन सह शतेन वा कार्षापणानां यत्पक्कं तच्छतपाकमेव मितरदपि, 'सुगंधतेहमाईएहिं' ति अत्र अभ्यङ्गेरिति योगः, आदिशब्दाद् घृतकर्पूरपानीयादिपरिग्रहः, किम्भूतैरित्याह- 'पीणणिजेहिं' ति रसरुधिरादिधातुसमताका रिभिः 'दप्पणिज्जेहिं' ति दर्पणीयैर्वलकरैः 'मयणिजेहिंति मदनीयैर्मन्मथवर्द्धनः 'विहणिजेहिं'ति बृंहणीयैर्मासोपचयकारिभिः 'सबिंदियगाय पल्हायणिज्जेहिं'ति प्रतीतं, एतानि पदानि वाचनान्तरे क्रमान्तरेणाधीयन्ते, 'तेलचम्मंसि'त्ति तैलाभ्यक्तस्य यत्र स्थितस्य सम्बाधना क्रियते तत्तैलचर्म, तत्र संवाहिपत्ति योगः, 'पडिपुण्णपाणिपायसुकुमालकोमलत लेहिं 'ति प्रतिपूर्णानां पाणिपादानां सुकुमारकोमला १ न च वाच्यं 'प्राणितुर्याङ्गाणा' मिति द्वन्द्वैकत्वभावादसाधु, सिद्ध एकवचनेन कार्ये बहुवचनात्तदनित्यता, न च ततोऽसाधुरयं, यद्वाऽनेकमाणिविवक्षया पाणिपादं च पाणिपादं च पाणिपादं च पाणिपादानि तेषामिति समाहारगभ द्वन्द्वः तेषां पाणिपादानामिति स्यादू, आलोच्यमेतद्विरोधेन सुधिया । For Par Use Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३१] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः आँपपातिकम् ॥ ६५ ॥ नि अत्यन्तकोमलानि तानि अधोभागा येषां ते तथा तैः, 'छेएहिं'ति छेकै:- अवसरः, द्विसप्ततिकलापण्डितैरिति वृद्धा:, 'दक्खेहिं'ति कार्याणामविलम्बितकारिभिः 'पत्तद्वेहिं ति प्राप्तार्थैः- उन्धोपदेशैरित्यर्थः 'कुसलेहिं'ति सम्बाधनाकमणि साधुभिः 'मेहावीहिं'ति मेधाविभिः - अपूर्वविज्ञानग्रहणशक्तिकैः 'निउणसिप्पोवगएहिं ति निपुणानि-सूक्ष्माणि यानि शिल्पानि अङ्गमर्दनादीनि तान्युपगतानि-अधिगतानि यैस्ते तथा तैः, 'अभंगणपरिमद्दणुबलणकरणगुणनिम्माएर्हिति अभ्यङ्गनमर्द्दनोलनानां प्रतीतार्थानां करणे ये गुणाः- विशेषास्तेषु निर्माता येते तथा तैः । 'अडिसुहाए 'त्ति अस्नां सुखहेतुत्वादस्थिसुखा तया एवं शेषाण्यपि, 'संवाहणाएं ति सम्बाधनया संवाहनया वा, विश्रामणयेत्यर्थः, 'अवगयखेयपरिस्तमेत्ति खेदो- दैन्यं 'खिद दैन्ये' इति वचनात् परिश्रमः- व्यायामजनितशरीरास्वास्थ्यविशेषः, 'समत्तजालाउलाभिरामे' त्ति समस्तः- सर्वो जालेन विच्छत्तिच्छिद्रोपेतगृहावयवविशेषेणाकुलो-व्याप्तोऽभिरामश्चरम्यो यः स तथा पाठान्तरे समुक्तेन मुक्ताफलयुतेन जालेनाऽऽकुलोऽभिरामश्च यः स तथा, 'विचित्तमणिरयणकुट्टि मतले 'त्ति कुट्टिमतलं - मणिभूमिका, 'सुहोदहिंति शुभोदकैस्तीर्थोदकैः सुखोदकैर्वा नात्युष्णैरित्यर्थः, 'गंधोदरर्हिति श्रीखण्डादिरसमिः 'पुप्फोदएहिं'ति पुष्परसमिश्रः 'सुद्धोदहिं'ति स्वाभाविकैरित्यर्थः, 'तत्थ कोउयसपर्हिति तत्रस्नानावसरे यानि कौतुकानां रक्षादीनां शतानि तैः 'पम्हलसुकुमाल गंधकासाइहियंगे' पक्ष्मला-पक्ष्मवती अत सुकुमाला गन्धप्रधाना कापायी - कषायरकशाटिका तया लक्षितं विरुक्षितमङ्गं शरीरं यस्य स तथा । एव For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~269~ कोणिक ० सू० ३१ ।। ६५ ।। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३१] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः 'अहयसुमहग्धदूसरयणसुसंकुएं' अहतं- मलमूषिकादिभिरनुपदूषितं प्रत्यग्रमित्यर्थः सुमहार्घ च- बहुमूल्यं यदूष्यरलंप्रधानवस्त्रं तेन संवृतः परिगतः तद्वा सुष्ठु संवृतं परिहितं येन स तथा, 'सुइमालावण्णगविलेवणे यत्ति शुचिनी - पवित्रे माला व कुसुमदाम वर्णकविलेपनं च मण्डनकारि कुङ्कुमादिविलेपनं यस्य स तथा, चः समुच्चये, यद्यपि वर्णकशब्देन नामकोषे चन्दनमभिधीयते तथापि 'गोसीसचंदणाणुदित्तगत्ते' इत्यनेनैव विशेषणेन तस्योक्तत्वादिह वर्णकश्चन्दनमिति न व्याख्यातम्, 'आविद्धमणिसुवण्णे'त्ति आविद्धं परिहितं कप्पिय इत्यादि प्राग्वत्, 'पिणद्धगेवेज्जगअंगुलिज्जगल लियंगयललियकयाभरणे' पिनद्धानि वद्धानि ग्रीवादिषु चैवेयकाङ्गुलीयकानि - प्रीवाभरणाङ्गुल्याभरणानि येन स तथा ललिताइके - ललितशरीरे कृतानि - विन्यस्तानि ललिताभरणानि तदन्यानि येन स तथा, ततः कर्मधारयः, अथवा पिनद्धानि| ग्रैवेयकाङ्गुलीयकानि ललिताङ्गयदेव ललितकचाभरणानि च-मनोज्ञकेशाभरणानि पुष्पादीनि येन स तथा, 'वरकडगतुडियथंभियभुए' वरकटकतुटिकैः-प्रधानहस्ताभरणवाह्नाभरणविशेषैर्वहुत्वात्तेषां तैः स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ यस्य स तथा, 'अहियरुवसस्सिरीए' अधिकरूपेण सश्रीकः-सशोभो यः स तथा, 'मुद्रिकापिलाङ्गलीक' इति कचिदृश्यते, 'कुण्डलोयोतिताननो मुकुटदीप्तशिरस्कः' इति प्रतीतं, 'हारोत्थयसुकयरइयवच्छे' हारावस्तृतेन हारावच्छादनेन सुटु कृतरतिकं वक्ष-उरो यस्य स तथा, 'पालंच पलंबमाणपड सुकयउत्तरिज्जे' प्रलम्बेन - दीर्घेण प्रलम्बमानेन च-झुम्बमानेन पटेन सुष्ठु कृतमुत्तरीयम् - उत्तरासङ्गो येन स तथा, 'णाणामणिकणगरयण विमलमहरिहणिउणोविय मिसिमिसंतविरइयसु Education Internation For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~ 270~ wor Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: कोणिक० प्रत सूत्रांक औपपा- सिलिडविसिवलडआविद्धवीरबलए' नानामणिकनकरत्नविमलैर्महाहनिपुणेन शिल्पिना ओवियत्ति-परिकर्मितः मिसिमि-16 तिकम् | संतत्ति-देदीप्यमानविरचितानि निर्मितानि सुश्लिष्टानि-सुसन्धीनि विशिष्टानि अन्येभ्यो विशेषवन्ति लष्टानि-मनोहराणि | |आविद्धानि-परिहितानि वीरवलयानि वरवलयानि वा येन स तथा, सुभटो हि यदि कचिदन्योऽप्यस्ति वीरस्तदाऽसौ मां |विजित्याऽऽमोचयत्वेतानि बलयानीति स्पर्द्धयन् यानि कटकानि परिदधाति तानि वीरवलयानीत्युच्यन्ते । किं बहुणा ? कप्परुक्खए चेच अलंकियविभूसिए णरवई सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चउच्चामरवालवीजियंगे मंगल जयसद्दकयालोए मज्जणघराओ पडिनिक्खमह मजणघराउ पडिणिक्खमित्ता अणेग| गणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाडंपियकोडुंबियइन्भसेडिसेणावइसत्ववाहदूअसंधिवाल सद्धि संपरिबुडे धवलमहामेहणिग्गए इव गहगणदिपंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससिव्व पिअदसणे णरवई जेणेव बाहि| रिआ उवहाणसाला जेणेव आभिसेके हस्थिरयणे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्सा अंजणगिरिकूडसण्णिभं & गयवई णरवई दूरूढे । ___ 'कप्परक्खए चेव'त्ति कल्पवृक्ष इव 'अलंकियविभूसिएत्ति अलङ्कृतो-मुकुटादिभिः विभूषितो-वस्त्रादिभिरिति, 'सको-18 मारंटमहदामेण ति सकोरण्टानि कोरण्टकाभिधानकुसुमस्तवकवन्ति माल्यदामानि-पुष्पसजो यत्र तत्तथा तेन । वाचनाप्रान्तरे पुनश्छत्रवर्णक एवं दृश्यते-'अन्भपडलपिंगलुजलेण' अनपटलमिव-मेघवृन्दमिव बृहच्छायाहेतुत्वात् अभ्रपटलं दीप अनुक्रम 2-56-4562562-63 [३१] For P OW W alaram.org कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं -~-271~ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: *- प्रत सूत्रांक -*-564560 152515 ४ पिङ्गालं च-कपिश सुवर्णकस्त्रिकानिर्मितत्वात् उज्ज्वलं-निर्मलं यत्तत्तथा, अथवा अभ्रम्-अधकं पृथिवीकायपरिणाम विशेषस्तत्पटलमिव पिङ्गलंच-उज्ज्वलं च यत्तत्तथा तेन, 'अविरलसमसहियचंदमंडलसमप्पभेणं' अविरलं घनशलाकावत्त्वेन | समं तुल्यशलाकायोगेन सहियत्ति-संहतमनिम्नोन्नतशलाकायोगात् चन्द्रमण्डलसमप्रभ च यद्दीच्या तत्तथा तेन, 'मंगल| सयभत्तिछेयविचित्तियखिंखिणिमणिहेमजालविरइयपरिगयपरंतकणगघंटियापयलियकिणिकिणितसुइसुहसुमहुरसद्दालसोहि| एणं' मङ्गलाभिा-माङ्गल्याभिः शतभक्तिभिः-शतसङ्ख्याविच्छित्तिभिः छेकेन-निपुणेन शिल्पिना विचित्रितं यत्तत्तथा, | किङ्किणीभिः-शुद्रघण्टिकाभिः मणिहेमजालेन च-रत्नकनकजालकेन विरचितेन-कृतेन विशिष्टरतिदेन वा परिगतं-परि| वेष्टितं यत्तत्तथा, पर्यन्तेषु-प्रान्तेषु कनकघण्टिकाभिः प्रचलिताभिः किणिकिणायमानाभिः श्रुतिसुखसुमधुरशब्दवतीभिश्च, | आलप्रत्ययस्य मत्वर्थीयत्वात् , शोभितं यत्तत्तधा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तेन, 'सप्पयरवरमुत्तदामलंबंतभूसणे | सप्रतराणि-आभरणविशेषयुक्तानि यानि बरमुक्तादामानि-वरमुक्ताफलमाला लंबंतत्ति-प्रलम्बमानानि तानि भूषणानि यस्य तत्तथा तेन, 'नरिंदवामप्पमाणरुंदपरिमंडलेण' नरेन्द्रस्य-तस्यैव राज्ञो वामप्रमाणेन-प्रसारितभुजयुगलमानेन रुन्द-18 विस्तीर्ण परिमण्डलं-वृत्तभावो यस्य स तत्तथा तेन, 'सीयायववायवरिसविसदोसनासणेण' शीतातपवातवृष्टिविषजन्य|| दोषाणां शीतादिलक्षणदोषाणां वा विनाशनं यत्तत्तथा तेन, 'तमरयमलबहलपडणधाडणप्पभाकरेण' तमः-अन्धकारं| रजो-रेणुमल:-प्रतीतः एषां बहलं-धनं यत्पटलं-वृन्दं तस्य धाडनी-नाशनी या प्रभा-कान्तिस्तस्करणशीलं यत्तत्तथा तेन, अचवा-रजोमलतमोबहलपटलस्य धाडने प्रभाकर इव-दिवाकर इव यत्तत्तथा उउसुहसिवच्छायसमणुबणं' ऋती-कालवि दीप अनुक्रम [३१] कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~272~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् कोणि 4567 प्रत सूत्रांक शेषे सुखा-सुखहेतुः पातुसुखा शिवा-निरुपद्रवा या छाया-आतपवारणलक्षणा तया समनुबद्धम्-अनवच्छिन्नं यत्तत्तथा तेन, वेरुलियदंडसजिएणं'ति वैडूर्यमयदण्डे सजितं-वितानितं यत्तत्तथा तेन, 'बइरामयवस्थिनिउणजोइयअसहस्सवरकंचण-४ सलागनिम्मिएण' वज्रमय्यां वस्तौ-शलाकानिवेशनस्थाने निपुणेन शिल्पिना योजिताः-सम्बन्धिताः अहसहस्सत्ति-अष्टोतरसहस्रसङ्ख्याः या वरकाञ्चनशलाकास्ताभिनिर्मित यत्तत्तथा तेन, 'सुनिम्मलरययसुच्छएण'ति सुनिर्मलो रजतस्य सम्बन्धी सुच्छदः-शोभनप्रच्छादनपटो यत्र तत्तथा तेन, "निउणोवियमिसिमिसिंतमणिरयणसूरमंडलबितिमिरकरनिग्गयग्गपडिहयपुणरविपञ्चायतचंचलमिरिइकवयं विणिमुयंतेणं' निपुणेन शिल्पिना निपुणं वा यथा भवति एवं उवियत्ति-परिकमितानि मिसिमिसिंतत्ति-देदीप्यमानानि यानि मणिरलानि तानि तथा सूरमण्डलाद-आदित्यविम्बात् ये वितिमिराहतान्धकाराः करा:-किरणा निर्गतास्तेषां यान्यग्राणि तानि प्रतिहतानि-निराकृतानि पुनरपि प्रत्यापतन्ति च-प्रति-४ वर्तमानानि यस्माच्चञ्चलमरीचिकवचात्तत्तथा, अथवा सूरमण्डलाद् वितिमिरकराणां निर्गतानामग्रैः प्रतिहतं पुनरपि प्रत्यापतच तच तश्चलमरीचिकवचं च-चपलरश्मिपरिकर इति समासः, निपुणोपितमिसिमिसायमानमणिरलानां यत्सूरमण्डलवितिमिरकरनिर्गतामप्रतिहतं पुनरपि प्रत्यापतञ्चञ्चलमरीचिकवचं यत्तत्तथा तद्विनिमुश्चता-विसृजता, 'सपडिदंडेणं' अतिभारिकतया एकदण्डेन दुर्वहत्वात्सप्रतिदण्डेन, 'धरिजमाणेणं आयवत्तेणं विरायंते' इति व्यक्तम् , अधिकृतवाचनायतु चतुचामरवालवीजिताङ्ग इति व्यक्तं, वाचनान्तरे तु 'चउहियपवरगिरिकुहरविचरणसुमुइयनिरुवहयचमरपच्छिमसरी-| रसंजायसंगयाहिं' चउहियत्ति-चतसृभिः, 'ताहिय'त्ति कचित् तत्र ताभिश्च तथाविधाभिर्वर्णकवर्णितस्वरूपाभिः चामराभि CSC464 दीप अनुक्रम ॥ ७॥ [३१] REaratulational | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३१] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः कलित इति योगः, इह च चामरशब्दस्य नपुंसकलिङ्गत्वेऽपि स्त्रीलिङ्गनिर्देशो लोकरूढेः छान्दसत्वाद्वा न दुष्टः प्रबरं यद्भिरिकुहरं - पर्वतनिकुञ्जस्तत्र यद्विचरणं-सञ्श्चरणं तेन सुमुदिता - अतिहृष्टा निरुपहताश्च - उपघातरहिता ये चमराः - | आटव्यगोविशेषास्तेषां यत्पश्चिमशरीरं देहस्य पश्चिमो भागस्तत्र या सञ्जाता-उत्पन्नाः सङ्गताश्च - अनवद्यास्तास्तथा ताभिः, 'अमलिय सिय कमलविमलुज्जलियरययगिरिसिहर विमलससिकिरणसरिसकलधोयनिम्मलाहिं' अमलितम्-अमर्दितं यत्सितकमलं - पुण्डरीकं तथा विमलं निर्मलं उज्ज्वलितम्-उद्दीप्तं यद्रजतगिरिशिखरं वैताढ्यगिरिकूटं तथा विमला ये शशिकिर|णास्तत्सदृश्यो यास्तास्तथा ताश्च ताः कलधौतनिर्मलाश्च रूप्यवदुज्ज्वला इति समासोऽतस्ताभिः, 'पवणाहयचवलललिय| तरंगहत्थन चंतवीइपसरिय खीरोदगपवर सागरुप्पूर चंचलाहिं' पवनाहताः- वायुप्रेरिताश्चपलाः-तरला ललिता - मनोहरास्त| रङ्गहस्ताः - प्रतनुकल्लोलपाणयस्तैः नृत्यन्निव नृत्यन् यः स तथा वीचयो - महाकल्लोलास्तैः प्रसृतश्च विस्तारमुपगतः स चासौ क्षीरोदकश्च-क्षीराकारजलः स चासी प्रवरसागरश्चेति कर्मधारयस्तस्य य उत्पूर:- प्रकृष्टः प्रवाहः स तथा तद्वच्चञ्चला यास्तास्तथा ताभिः, 'माणससर परिसर परिचियावासविसयवेसाहिं इह हंसवधूभिरिव कठित इत्यनेन सम्बन्धः, मानसाभिधानसरसः परिसरे प्रान्ते परिचितः पुनः पुनः कृत आवासो निवासो यकाभिस्तास्तथा ताश्च ता विशदवेषाश्च धवलाकारा इति कर्मधारयोऽतस्ताभिः, 'कणगगिरिसिहरसंसियाहिं' कनकगिरेः - मेरोरन्यस्य वा यच्छिखरं तत्संसृता यास्तास्तथा ताभिः, 'उवइयउप्पइयतुरियचवलजइण सिग्धवेगाहिं' अवपतितोत्पतितयो:- निपतनोत्पतनयोस्त्वरितचपलः-अत्य न्तचपलः जविनः- शीघ्रो वेगवतां मध्येऽतिशीघ्रो वेगो गतिविशेषो यासां तास्तथा ताभिः 'हंसवधूयाहिं चैव कलिए' For Pal Use Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~274~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------- मूलं [...३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा कोणिक. तिकम् सू०३१ ॥ ६८॥ प्रत सूत्रांक हंसिकाभिरिव युक्तः, इह च हंसिकाभिश्चामराणां धवलरवेन दण्डोपरिवर्तित्वेन चपलत्वेन च साधर्म्यमिति, तथा 'णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिजुजलविचित्तदंडाहि नानामणिकनकरलानां सम्बन्धिनो निर्मला महरिहत्ति-महा_स्तपनीयोज्ज्वला:-रक्तवर्णसुवर्णदीनाः विचित्रा-विविधचित्रा दण्डा यासा तास्तथा, 'चिल्लियाहिं' दीप्यमानाभिलीनाभिर्वा 'नरवइसिरिसमुदयपगासणकरीहिति व्यक्त, 'वरपट्टणुग्गयाहिं' प्रधानपत्तनसमुद्भवाभिः, वरपत्तने हि वराः शिस्पिनो || भवन्तीति तत्परिकर्मिताः प्रधाना भवन्तीति वरपत्तनोद्गताभिरित्युक्तम् , अथवा वरपट्टनात्-प्रधानाच्छादनकोशकादुसीनता-निष्काशिता यास्तास्ताभिः, 'समिद्धरायकुलसेवियाहिति व्यक्त, 'कालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुकवरचण्णवासगंधुडयाभि-|| | रामाहि' कालागुरुः-कृष्णागुरुः प्रवरकुन्दुरुक-सच्चीडा तुरुक-सिल्हकं वरवर्णः-प्रधानचन्दनं एतैयों वासो-वासन तस्माद्यो गन्धः-सौरभ्यम् उद्भूत-उद्भूतस्तेनाभिरामा रम्या यास्तास्तथा ताभिः, 'सललिथाहिति व्यक्तम्, 'उभओ पासपिपत्ति उभयोरपि पायोरित्यर्थः, 'उक्खिप्पमाणाहिं चामराहिति व्यक्तं, कलित इति वर्तते, 'सुहसीयलवायवीइयंगे'ति समुक्षिष्यमाणचामराणामेव यः शुभः शीतलश्च वातस्तेन वीजितमङ्गं यस्य स तथेति । इतोऽधिकृतवाचना-'मंगलजयसद्दकयालोए' मनालाय जयशब्दः कृतो जनेनालोके-दर्शने यस्य स तथा, 'अणेगगणनायगे'त्यादि पूर्ववत्, तए णं तस्स कूणियस्स रपणो भभसारपुत्तस्स आभिसिकं हथिरयणं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए || इमे अट्ठमंगलया पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडिआ, तंजहा-सोवत्थिय सिरिवच्छ शंदिआवत्त वडमाणक दीप अनुक्रम CREA ॥६८॥ [३१] | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं -~-275~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 545056056454- प्रत सूत्रांक भद्दासण कलस मच्छ दप्पण, तयाऽणंतरं च णं पुण्णकलसभिंगारं दिवा य छत्तपडागा सचामरा देसण-| ४ा रहअआलोअदरसणिज्जा वाजदयविजयवेजयंती ऊस्सिआ गगणतलमणु लिहती पुरओ अहाणुपुब्धीए संप-18| द्विआ, तयाऽणतरं च णं घेरुलियभिसंतविमलदंड पलंबकोरंटमल्लदामोवसोभियं चंदमंडलणिभं समूसिअविमलं आयवत्तपवरं सीहासणं वरमणिरयणपादपीढं सपाउआजोयसमाउसं बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपाय| सपरिक्खित्तं पुरओ अहाणुपुवीए संपद्वियं । तयाऽणतरं बहवे लडिग्गाहा कुंतग्गाहा चावग्गाहा चामरगाहा पासग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलकग्गाहा पीढग्गाहा वीणग्गाहा कुंतग्गाहा हडप्फग्गाहा पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडिआ। तयाऽणंतरं बहवे इंडिणो मुंडिणो सिहंडिणो जडिणो पिछिणो हासकरा डमरकरा काचाटुकरा बादकरा कंदप्पकरा दबकरा कोकुइआ किट्टिकरा वायंता गायंता हसंता णचंता भासंत सावता| रक्खंता आलोअंच करेमाणा जयरसई पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडिआ। | 'पुण्णकलसभिंगारति जलपरिपूणों घटभृङ्गारावित्यर्थः । 'दिवा य छत्तपडागा' दिव्येव दिव्या-शोभना सा च छत्रेण सह | पताका छत्रपताका, 'सचामर'त्ति चामरयुक्ता, 'दसणरइयआलोयदरसणिज्जा' दर्शने-राज्ञो दृष्टिमार्गे रचिता-विहिता दर्शनरचिता दर्शने वा सति रतिदा-सुखपदा दर्शन-रतिदा आलोकं-दृष्टिपथं यावद्दश्यते अत्युच्चैस्त्वेन या सा आलोकदर्शनीया ततः कर्मधारयः, 'वाउयविजयवेजयंती' वातेनोद्धृता-उत्कम्पिता विजयसूचिका वैजयन्ती पार्श्वतो लघुपताकिकाद्वययुतः पताकाविशेष एव, 'उस्सिय'त्ति उत्सृता-ऊवीकृता 'सपाउयाजोयसमाउत्त'ति स्वः-स्वकीयो राजसत्क इत्यर्थो यः। दीप अनुक्रम [३१] कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३१] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः श्रपपा- पादुकायोगः - पादुकायुगं तेन समायुक्तं यत्तत्तथा, 'बहुकिंकर कम्मकरपुरिसपायत्तपरिक्खित्तं' बहवो ये किङ्कराः - प्रतिकर्म तिकम् + प्रभोः पृच्छापूर्वकारिणः कर्मकराश्च तदन्यविधास्ते च ते पुरुषाश्चेति समासः पादातं - पदातिसमूहस्तैः परिक्षितं ॥ ६९ ॥ यत्तत्तथा, कचित् 'दासीदासकिंकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरिखित्त' मिति दृश्यते, तत्र दास्यश्च चेव्यो दासाश्च चेटकाः । 'लट्ठिग्गाह'सि काष्ठिकाः क्वचिदृश्यते 'असिलडिग्गाहा' तत्र असि: खङ्गः स एव यष्टिः- दण्डोऽसियष्टिः, अथवा असिश्च यष्टिश्चेति द्वन्द्वः, कुन्तचामराणि प्रतीतानि, पाशा- द्यूतोपकरणं उत्रस्ताश्वादिवन्धनानि वा चापं धनुः पुस्त| कानि - आयपरिज्ञानहेतु लेखकस्थानानि पण्डितोपकरणानि वा फलकानि- सम्पुटफलकानि खेटकानि वा अवष्टम्भनानि वा | द्यूतोपकरणानि वा पीठकानि - आसनविशेषा बीणाः- प्रतीताः कुतुपः- पक्कतैलादिभाजनं हडप्फो-द्रम्मादिभाजनं ताम्बूलार्थे पूगफलाविभाजनं वा 'सिहंडिणो' त्ति शिखाधारिणः 'पिञ्छिणोति मयूरादिपिच्छवाहिनः 'डमरकर'ति चिह्नरका|रिणः 'देवकर'ति परिहासकारिणः 'चाटुकर'त्ति प्रियवादिनः 'कंदप्पिय'ति कामप्रधानकेलिकारिणः 'कोक्कुइय'त्ति भाण्डा भाण्डप्राया वा 'सासिंता यत्ति शिक्षयन्तः 'सावेंत'त्ति इदं चेदं च परुत्परारि वा भविष्यति इत्येवम्भूतवचांसि श्रावयन्तः | शपन्तो वा 'रक्वंत'त्ति अन्यायं रक्षन्तः, कचिद् 'राविंता य'त्ति रावयन्तः शब्दान् कारयन्तो रामयन्तो वा 'आलोय' ति अवलोकनं राजादेः कुर्वन्तः, इह गमे कानिचित् पदानि न स्पृष्टानि स्पष्टत्वात्, सङ्ग्रहगाथाश्चास्य गमस्य क्वचिदृश्यन्ते तद्यथा-“असिलट्ठिकुंतचावे चामरपासे य फलग पोत्थे य । वीणाकूयग्गाहे तत्तो य हडप्फगाहे य ॥ १ ॥ दंडी मुंडी सिहंडी Education Internationa For Parta Use Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~277 ~ कोणिक ० सू० ३१ ॥ ६९ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक पिच्छी जडिणो य हासकिड्डा य । दवकारा चटुकारा कंदप्पिय कोछुइयगाहा ॥२॥ गायंता वायंता नचंता तह हसंत । 3 हासिंता । साता राता आलोय जयं पर्जता ॥३॥" M तयाऽणतरं जच्चाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेलामउलमल्लियच्छाणं चुंचुचियललिअपुलियचलचवलचंचल& गईणं लंघणवग्गणधावणधोरणतिवईजइणसिक्खिअगईणं ललंतलामगललायवरभूसणाणं मुहभंडगउच्चूलग-1 थासगअहिलाणचामरगण्डपरिमंडियकडीणं किंकरवरतरुणपरिग्गहिआण अट्ठसयं वरतुरगाणं पुरओ अहा-IY णुपुरबीए संपडियं । तयाऽणंतरं च णं ईसीदताणं ईसीमत्ताणं ईसीतुंगाणं ईसीउच्छंगविसालघवलदंताणं : कंचणकोसीपविट्ठदंताणं कंचणमणिरयणभूसियाणं वरपुरिसारोहगसंपउत्ताणं अहसयं गयाणं पुरओg & अहाणुपुब्वीए संपडियं । तयाऽणंतरं सच्छत्ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं सणंदिघो साणं सखिखिणीजालपरिक्खित्ताणं हेमवयचित्ततिणिसकणकणिजुत्तदारुआणं कालायसमुकयणेमिजंतक-12 म्माणं सुसिलिहवत्तमंडलधुराणं आइपणवरतुरगसुसंपउत्ताणं कुसलनरच्छेअसारहिसुसंपग्गहिआणं बत्ती-13 Mसतोणपरिमंडिआणं सकंकडवडेंसकाणं सचावसरपहरणावरणभरिअजुड़सज्जाणं असर्य रहाणं पुरओद अहाणुपुवीए संपष्ठियं । तयाऽणतरं च णं असिसत्तिकोततोमरसूललउडभिंडिमालधणुपाणिसज्जं पायत्ताणीयं पुरओ अहाणुपुब्बीए संपडि। दीप अनुक्रम [३१] Halamurary.org कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: आपपातिकम् प्रत सूत्रांक ३१ 'तरमल्लिहायणाणं ति तरो-बेगो बलं वा तथा 'मल मल्ल धारणे' ततश्च तरोमल्लो-तरोधारकः वेगादिकारको हायनः-दा कोणिक संवत्सरो वर्तते येषां ते तरोमलिहायनाः, यौवनवन्त इत्यर्थः, अतस्तेषां वरतुरङ्गाणामिति योगः, वाचनान्तरे त्वेवमधीयते | -वरमलिभासणाणं' प्रधानमाल्यवताम् , अत एव दीप्तिमतां चेत्यर्थः, 'हरिमेलामउलमलियच्छाणं' हरिमेला-वनस्पतिविशेषस्तस्या मुकुलं-कुड्मलं मल्लिका च-विचकिलस्तद्वदक्षिणी येषां ते तथा तेषां, शुक्लाक्ष्णामित्यर्थः, 'चंचुच्चियललियपुलियचलचवलचंचलगईण' चंचुच्चियंति प्राकृतत्वेन चञ्चुरित-कुटिलगमनं अथवा चशुः-शुकच स्तबद्धकतयेत्यर्थः, उचितम्-उच्चताकरण पादस्य उचितं वा-उत्पाटनं पादस्यैवं चलचितं तच ललितं च-विलासबद्गतिः पुलितं च-गतिविशेषः । प्रसिद्ध एव एवंरूपा चलानाम्-अस्थिराणां च सतां चपलेभ्यः सकाशाच्चञ्चला अतीव चटुले त्यों, गतिर्येषां ते तथा तेषां, 'लंघणवग्गणधावणधोरणतिवईजइणसिक्खियगईणं' लडुन-ग देरतिक्रमणं वल्गनम्-उत्कुईनं धावनं-शीघ्रमृजुगमनं |धोरणं-गतिचातुर्य त्रिपदी-भूमौ पदत्रयन्यासः जयिनी च-गमनान्तरजयवती जविनी वा-वेगवती शिक्षिता-अभ्यस्ता |गतियस्ते तथा तेषां, 'ललंतलामगललायवरभूसणाणं' ललन्ति-दोलायमानानि लामंति-प्राकृतत्वाद्रम्याणि गललातानिकण्ठेनाऽऽत्तानि वरभूषणानि येषां ते तथा तेषां, 'मुहभडगओचूलगथासगमिलाणचमरीगंडपरिमंडियकडीण' मुखभाण्डक-- मुखाभरणम् अवचूलाः-प्रलम्बमानगुच्छाः स्थासकाच-आदर्शकाकारा येषां ते तथा मिलाणत्ति-पर्याणैरथवा अम्लानैः--अम ॥७ ॥ | लिनैः चमरीगण्डैः-चामरदण्डैः परिमण्डिता कटिर्येषां ते तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तेषां, 'किंकरवरतरुणपरिग्गहियाण'ति व्यक्तम् । अधाधिकृतवाचनाऽनुश्रीयते-'धासगअहिलाणचामरगण्डपरिमंडियकडीणं' थासगअहिलाणत्ति इह मत्वर्थीयलो. दीप अनुक्रम 459 [३१] | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक पात् स्थासकाहिलाणवतामित्यर्थः, अहिलाणं च-मुखसंयमनं,शेष प्राग्वत् , 'ईसिदताण'ति ईषत्-मनागू दन्तानाम् 'ईसिउच्छगविसालधवलदंताणं' उत्सङ्गश्व उत्सङ्गः-पृष्ठदेश ईषदुत्सङ्गे विशाला ते ये यौवनारम्भवर्तित्वात्ते तथा ते च धवलदन्ताश्चेति । समासोऽतस्तेषां। कंचणकोसीपविकृदंताणं कायनकोशी-सुवर्णखोला,'वरपुरिसारोहगसुसंपउत्ताणं ति क्वचिदृश्यते तत्रारोxहका:-हस्तिपकाः, 'सझ्याणं सपडागाण मित्यत्र ध्वजो-गरुडादियुक्तस्तदितरा तु पताका, 'सनंदिघोसाण'ति नन्दी-द्वादलाशतूर्यनिघोंषः, तद्यथा-'भंभा १ मउंद २ मद्दल ३ कर्डब ४ झल्लरि ५ हुडुक ६ कंसाला७ । काहल ८ तलिमा ९वंसो १० संखो ११पणवो १२ य वारसमो॥१॥' 'सखिंखिणीजालपरिक्खित्ताणं सह किङ्किणीकाभिः-क्षुद्रघण्टिकाभिः यजालं-जालक ४ तदाभरणविशेषस्तेन परिक्षिप्ता-परिकरिता येते तथा तेषां, 'हेमवयचित्ततेणिसकणगणिजुत्तदारुयाणंहैमवतानि-हिम-18 वगिरिसम्भवानि चित्राणि--विविधानि तैनिशानि-तिनिशाभिधानतरुसम्बन्धीनि कनकनियुक्तानि-सुवर्णखचितानि दारु| काणि-काष्ठानि येषु ते तथा तेषां, 'कालायससुकयनेमिजंतकम्माण ति कालायसेन-लोहविशेषेण सुष्टु कृतं नेमेः-चक्रग-12 ४ाण्डधारायाः यत्र कर्म-वन्धनक्रिया येषां ते तथा तेषां, 'सुसिलिवत्तमंडलधुराण'ति सुष्ठु श्लिष्टा वृत्तमण्डला-अत्यर्थ मण्डला धूर्येषां ते तथा तेषां, क्वचिदृश्यते 'सुसंविद्धचकमंडलधुराण' सुसंविद्धानि-कृतसद्वेधानि चक्राणि-रथाङ्गानि | येषां मण्डला च-वृत्ता धूर्येषां ते तथा तेषाम् , 'आइण्णवरतुरगसुसंपउत्ताण' आकीर्णाः-जात्याः, 'कुसलनरच्छेयसारहि|| सुसंपग्गहिआण' कुशलनरा-विज्ञपुरुषास्ते च ते छेकसारथयश्च-आशुकारिपाजितार इति समासः, तैः सुष्छु संप्रगृहीता ये ते || तथा तेषां, कचित्पठ्यते 'हेमजालगवक्खजालखिंखिणिघंटाजालपरिक्खित्ताणं' हेमजालं-सौवर्ण आभरणविशेषः गवाक्ष KASARASHEKAL दीप अनुक्रम [३१] SARERainintentmarana | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~280~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३१] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... ३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपातिकम् ॥ ७१ ॥ भाग - १४ "औपपातिक" - जालं-जालकोपेता गवाक्षाः किङ्किण्यः क्षुद्रघण्टिकाः घण्टास्तु वृहद्घण्टास्तासां यज्जातं समूहस्तत्तथा, हेमजालादिभिः परिक्षिप्ताः परिकरिता ये ते तथा तेषां 'बत्तीसतोणपरिमंडियाणं ति द्वात्रिंशता तोणैः- भस्त्रकैः परिमण्डिता ये ते तथा | तेषां कचित्पठ्यते 'बत्तीसतोरणपरिमंडियाणं' ति द्वात्रिंशद्विभागं यत्तोरणं तेन परिमण्डितानां, 'सकंकडवडेंसगाणं' सह कङ्कटै:-- कवचैरवतंसकैश्च - शेखरकैः शिरखाणैर्वा ये ते तथा तेषां 'सचावसरपहरणावरण भरियजुद्धसज्जाणं' सह चापरै:- धनुर्बाणर्यानि प्रहरणानि खद्गादीन्यावरणानि च- स्फुरकादीनि तेषां भरिता-भृता अत एव युद्धसज्जा :- रणमहा ये ते तथा तेषाम्, 'असिसत्तिकुंततोमरसूललउल भिंडिमालधणुपाणिसजं' अस्यादीनि प्रसिद्धानि नवरं शक्तिस्त्रिशूलं शूलं त्वेकशूलं लड||ठोत्ति-लकुटः भिण्डिमालं- रूढिगम्यं, ततः अस्यादीनि पाणौ-हस्ते यस्य तत्तथा तच्च तत्सज्जं च प्रगुणं युद्धस्येति समासः, 'पायत्ताणीयं ति पादातानीकं - पदातिकटकं (ग्रन्थानं २००० ) वाचनान्तरे पुनः 'सन्नद्धवद्धवम्मियकवयाणं' तत्र बद्धं कशाबन्धनात् वर्मितं च-वर्गीकृतं तनुत्राणहेतोः शरीरे नियोजनात् कवचम्-अङ्गरक्षको यैस्ते तथा, सन्नद्धाश्च ते सन्नहन्या बन्धनाद्वृद्धवर्मित कवचाश्चेति समासस्तेषाम्, 'उप्पीलिय सरासणवडियाणं उत्पीडिता - आरोपित प्रत्यक्षा शरासनपट्टिका - धनुर्यष्टियः, अथवा उत्पीडिता बाहौ बद्धा शरासनपट्टिका - धनुर्दण्डाकर्षणे बाहुरक्षार्थं चर्मपट्टो यैस्ते तथा तेषां, | 'पिनद्धगेवेज्ज विमलवरवद्ध चिंधपट्टणं' पिनद्धं परिहितं मैवेयकं ग्रीवाभरणं वैस्ते तथा, विमलो बरो बद्धो शिरसीति गम्यं चिह्नपट्टो - वीरतासूचको नेत्रादिवस्त्रमयः पट्टो यैस्ते तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्तेषां, 'गहिया उहप्पहरणाणं' गृहीतान्यायुधानि खङ्गादीनि प्रहरणाय यैस्ते तथा तेषाम्, अथवा - आयुधान्यक्षेष्याणि महरणानि तु क्षेप्याणीति विशेषः । For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~ 281~ कोणिक ० सू० ३१ ॥ ७१ ॥ www.rary or Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३१] दीप अनुक्रम [३१] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... ३१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः भाग - १४ "औपपातिक" af से कूणिए राया हारोत्ययसुकयरयवच्छे कुंडलज्जोविआणणे मउदित्तसिरए परसीहे णरवई परिंदे परवसहे मणुअरायवसभकप्पे अन्भहिअरायते अलच्छीए दिव्यमाणे हत्यिक्खंधवरगए सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज़माणेणं सेअवरचामराहिं उद्धच्वमाणीहिं २ बेसमणो चेव णरवईअमरवईसण्णिभाए इडीए पहियकिसी हयगयरपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए समनुगम्ममाण| मग्गे जेणेव पुण्णभद्दे चेहए तेणेव पहारित्थ गमणाए, तए णं तस्स कूणिअस्स रण्णो भंभसारपुत्तस्स पुरओ महंआसा आसघरा उभओ पासिं जागा नागधरा पिइओ रहसंगेल्लि । Education Internation - अथाधिकृत वाचनानुश्रीयते-'तए णं से कूणिए राया' इत्यादि महंआसा' इत्येतदन्तं सुगमं व्याख्यातप्रायं च, नवरं 'पहारेत्थगमणाए 'त्ति सम्बन्धः, नरसीहे शूरत्वात् नरवई स्वामित्वात् नरिंदे परमैश्वर्ययोगात् नरवसमे अङ्गीकृतकार्य भरनिर्वाहकत्वात् 'मणुयरायव सहकप्पे' मनुजराजानां नृपतीनां वृषभा नायकाश्चक्रवर्तिन इत्यर्थः, तत्कल्पः- तत्सन्निभ उत्तरभर तार्द्धस्यापि साधने प्रवृत्तत्वात् एवंविधश्व 'वेसमणे चेव' यक्षराज इव, तथा 'नरवईअमरवईसन्निभाए इडीए पहिय| कित्ती' नरपतिरसौ केवलममरपतिसन्निभया ऋद्ध्या प्रथितकीर्तिः- विश्रुतयशा इति, 'जेणेव पुष्णभद्दे 'त्ति यस्यामेव दिशि पूर्णभद्रं चैत्यं 'तेणेव'त्ति तस्यामेव दिशि 'पहारित्थ'त्ति प्रधारितवान् विकल्पितवान् प्रवृत्त इत्यर्थः, 'गमणाए'त्ति गमनाय गमनार्थमिति । 'महंआस' ति महाश्वा - बृहत्तुरङ्गाः 'आसघर'त्ति अश्वधारकपुरुषाः 'आसवर' ति पाठान्तरं For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~282~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: कोणिक सू०३१ ॥७२॥ प्रत सूत्रांक औपपा- तत्र किम्भूता अश्वा इत्याह-'अश्ववरा' अश्वानां मध्ये प्रधानाः 'णागति हस्तिनः 'णागधर सि हस्तिधारकपुरुषाः तिकम् 18 पाठान्तरं तथैव, 'रहसंगलि'त्ति रथसमुदायः । II तए णं से कूणिए राया भभसारपुत्ते अश्रुग्गभिंगारे पग्गहियतालियंटे उच्छियसेअच्छत्ते पवी इअवालवीयणीए सब्बिड्डीए सव्वजुसीए सव्वबलेणं सबसमुदएणं सव्वादरेणं सव्वविभूईए सब्बविभूसाए सव्वसंभमेणं सव्वपुष्फगंधमल्लालंकारेणं सव्वतुडिअसहसणिणाएणं महया इडीए महया जुत्तीए महया| |बलेणं महया समुदएणं महया वरतुडिअजमगसमगप्पवाइएणं संखपणवपडहभेरिझल्लरिवरमुहिहहुकमुखसुरवमुअंगदुंदुभिणिग्घोसणाइयरवेणं चंपाए णयरीए मज्ज्ञ मज्झेणं णिगच्छद ।। (सू०३१) 'तए णं से कूणिए' इत्यादि सुगम, नवरम् अस्य निर्गच्छतीत्यनेन सम्बन्धः, तथा 'अब्भुग्गयभिंगारे'त्ति | |अभ्युगतः-अभिमुखमुद्गत-उत्पाटितो भृङ्गारो यस्य स तथा, 'पग्गहियतालियंटे' प्रगृहीतं तालवृन्तं यं प्रति स तथा, 'उच्छिय-| | सेयच्छत्ते' उच्छूितश्वेतच्छत्रा, पवीइयवालवीयणीए' प्रवीजिता वालव्यजनिका यस्य स तथा, 'सविडीए'त्तिसमस्तयाऽऽभरणादिरूपया लक्ष्म्या, युक्त इति गम्यम्, एवमन्यान्यपि पदानि, नवरं 'जुत्तीए'त्ति संयोगेन परस्परोचितपदार्थानां 'बलेणेति सैन्येन 'समुदएण'ति परिवारादिसमुदायेन 'आदरेणं ति प्रयत्नेन 'विभूईए'त्ति बिच्छर्दैन 'विभूसाए'त्ति उचितनेपथ्यादि- करणेन 'संभमेणं ति भक्तिकृतीत्सुक्येन, क्वचिदिदं पदचतुष्कमधिकं दृश्यते-'पगईहिंति कुम्भकारादिश्रेणिभिः 'नायगेहिति नगरकटकादिप्रधानः 'तालायरेहिति तालादानेन प्रेक्षाकारिभिः दण्डपाशिकर्वा 'सबोरोहहिति सर्वावरोधैः-समस्तान्तः दीप अनुक्रम ॥७२॥ [३१] Farparinaamwan unsonm | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 33%AR | पुरैः 'सबपुष्फगंध(वास)मल्लालंकारेण ति पुष्पाणि-अग्रथितानि वासाः-प्रतीताः माल्यानि तु-प्रथितानि एतान्येवालङ्कारो | मुकुटादिवा, समासश्च समाहारद्वन्द्वः, कचिदृश्यते 'सबपुष्फवस्थगंधमल्लालंकारविभूसाए'त्ति, व्यक्तं च, 'सवतुडियसहसण्णि-1|| णाएणं'ति सर्वतूर्याणां यः शब्दो-ध्वनिर्यश्च सङ्गतो निनादः-प्रतिशब्दः स तथा तेन, पूर्वोक्तानामृत्यादिपदार्थानां सर्वत्वे सत्यपि महत्त्वं न स्यादपीत्यत आह-महया इड्डीए' इत्यादि महत्या, युक्त इति गम्यम् ,एवमन्यान्यपि पदानि, 'महया वर-18 तुरियजमगसमगपवाइएण'ति महता-वृहता वरतूर्याणां यमकसमक-युगपत् यत्प्रवादितं-ध्वनितं तत्तथा तेन, 'संखपणवPापडहभेरिझलरिखरमुहिहुडुकमुरवमुइंगदुंदुभिणिग्घोसणाइयरवेणं'ति शङ्ख:-प्रतीतः पणवस्तु-भाण्डपडहो लघुपटह इत्यन्ये, पटहस्त्वेतद्विपरीतः, भेरी-महाकाहला झलरी-वलयाकारा उभयतो बद्धा खरमुही-काहला हुडुक्का-प्रतीता मुरKाजो-महामर्दलो मृदङ्गो-मर्दला दुन्दुभी-महाढक्का एषां यो निर्घोषः-नादितरूपो रवः स तथा तेन, तत्र नि?पो-महा-1 ध्वनिनादितं तु-शब्दानुसारी नाद इति ॥ ३१॥ | तए णं कूणिअस्स रपणो चंपानगरिं मज्झमझेणं णिग्गच्छमाणस्स बहवे अस्थत्थिया कामथिआ भोग-18 लाथिया किब्बिसिआ करोडिआ लाभत्थिया कारवाहिया संखिआ चकिया गंगलिया मुहमंगलिआ बद्ध-18 माणा पुस्समाणवा खंडियगणा ताहिं इटाहिं कंताहिं पिआहिं मणुपणाहिं मणामाहिं मणोभिरामाहिं साहिययगमणिजाहिं वग्यहिं जयविजयमंगलसएहि अणवरयं अभिणंदंता य अभिधुर्णता य एवं वयासी जय २णंदाजय २ भद्दा ! भदंते अजियं जिणाहि जि (च) पालेहि जिअमज्झे वसाहि। । दीप अनुक्रम [३१] | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~284~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [३२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: आशीर्व. सू०३१ प्रत सूत्रांक [३२] औषपा 'अस्थत्थिया' द्रव्यार्थिनः 'कामस्थिया' मनोजशब्दरूपार्थिनः 'भोगस्थिया' मनोज्ञगन्धरसस्पर्शार्थिनः 'लाभत्थिया'| तिकम् भोजनमात्रादिप्रात्यर्थिनः 'किचिसिया' किल्बिषिकाः परविदूषकत्वेन पापव्यवहारिणो भाण्डादयः 'कारोडिका' कापालिकाः ताम्बूलस्थगिकावाहका वा 'कारवाहिया' करपीडिता नृपाभाव्यवाहिनो वा 'संखिया' शालिकाः चन्दनगर्भशड्डहस्ता |माङ्गल्यकारिणः शङ्खयादका वा 'चक्किया' चाक्रिकाश्चक्रपहरणाः कुम्भकारतैलिकादयो वा 'नंगलिया' गलावलम्बितसुवर्णादिमयलाङ्गलाकारधारिणो भट्टविशेषाः कर्षका वा 'मुहमंगलिया' मुखे मङ्गलं येषामस्ति ते मुखमाङ्गलिका:-चाटुकारिणः 'बदमाणा' स्कन्धारोपितपुरुषाः 'पूसमाणवा' पूष्यमानवा मागधा 'खंडिअगणा' छात्रसमुदायाः 'ताहिं'ति ताभिविवक्षिताभिरित्यर्थः, विवक्षितत्वमेवाह-'इवाहि' इभ्यन्ते स्म इतीष्टा-वाञ्छितास्ताभिः, प्रयोजनवशादिष्टमपि किञ्चित्स्वरूपतः कान्तं स्यादकान्त चेत्यत आह-'कंताहि' कमनीयशब्दाभिः 'पियाहिति प्रियार्थिभिः 'मणुण्णाहिं मनसा ज्ञायन्ते। सुन्दरतया यास्ता मनोज्ञाः, भावतः सुन्दरा इत्यर्थस्ताभिः 'मणामाहि' मनसा अम्यन्ते-ाम्यन्ते पुनः पुनः सुन्दरत्वा|तिशयात्ता मनोमाः 'मणोभिरामाहिति तत्र मनोऽभिविधिना बहुकालं यावत् रमयन्तीति मनोऽभिरामा अतस्ताभिः, वाचनान्तराधीतमथ प्रायो वाग्विशेषणकदम्बकम् 'उरालाहि उदाराभिः शब्द तोऽर्थतश्च 'कल्लाणाहिं कल्याणाभिःशुभार्थप्राप्तिसूचिकाभिः 'सिवाहिं' उपद्रवरहिताभिः शब्दार्थदूषणरहिताभिरित्यर्थः 'धण्णाहिं धन्याभि:-धनलम्भिकाभिः 'मंगलाहि' मङ्गले-अनर्थप्रतिघाते साध्वीभिः 'सस्सिरीयाहिं' सश्रीकाभिः शोभायुक्ताभिः 'हिययगमणिजाहि' हृदयगमलनीयाभिः, सुवोधाभिरित्यर्थः, हिययपल्हायणिज्जाहि' हृदयप्रहादनीयाभिः हृदयगतकोपशोकग्रन्थिविलयनकरीभिरित्यर्थः, SAUSTRAL 5-45-45-45ॐSPEC4%ॐ7 दीप अनुक्रम ॥७३॥ [३२] | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~285~ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [३२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: --54 प्रत सूत्रांक [३२] 'मियमहरगंभीरगाहिगाहिं' मिता:-परिमिताक्षराः मधुरा:-कोमलशब्दाः गम्भीरा-महाध्वनयः दुरवंधार्यमध्यर्थं श्रोवन | & प्रादयन्ति यास्ता प्राहिकाः, ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयोऽतस्ताभिः, 'अहसइयाहिं' अर्थशतानि थासु सन्ति ता अर्थ शतिकास्ताभिः, अथवा सइ बहुफलत्वमर्थतः सइयाओ अडसइयाओताहिं 'अपुनरुक्ताभिरिति व्यकं, 'वग्गूहिति वाग्भिःगीर्भिः, एकार्थिकानि वा प्राय इष्टादीनि वाग्विशेषणानीति, 'जयविजयमंगलसपहि' जयविजयेत्यादिभिर्मङ्गलाभिधायकवचनशतैरित्यर्थः, 'अणवरय' 'अभिणदता य' अभिनन्दयन्तश्च-राजानं समृद्धिमन्तमाचक्षाणाः 'अभिथुणता य' अभिष्टुवन्तश्च राजानमेवेति 'जय जय णंदा" जय जयेति सम्भ्रमे द्विर्वचनं नन्दति-समृद्धो भवतीति नन्दस्तस्यामन्त्रणमिदम् , | इह च दीर्घत्वं प्राकृतत्वात्, अथवा जय त्वं जगन्नन्द-भुवनसमृद्धिकारक ! 'जय जय भद्दा!' प्राग्वत्, नवरं भद्रःकल्याणवान् कल्याणकारी वा 'जय जय नन्दा भद्रं ते' प्राग्वदेव, नवरं भद्रं ते तव भवत्विति शेषः, 'अजिय'मित्यादीन्याशंसनानि व्यक्तानि । इंदो इव देवाणं चमरो इव असुराणं धरणो इव नागाणं चंदो इव ताराणं भरहो इव मणुआणं बडूई| |वासाई पहुई वाससआई बडई वाससहस्साई बहई वाससयसहस्साई अणहसमग्गो हड्तुट्टो परमाउँ पालयाहि इट्ठजणसंपरिखुडो चंपाए णयरीए अपणेसिं च बहूर्ण गामागरणयरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणआस-18 मनिगमसंवाहसंनिवेसाणं आहेवचं पोरेवचं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगतं आणाईसरसेणावचं कारेमाणे पाले SASRHANESEARCH दीप अनुक्रम ॐॐॐॐ [३२] | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] माणे महयाऽऽहयणगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुअंगपडुप्पवाइअरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजऔपपा आशीर्व तिकम् |माणे विहराहित्तिक१ जय २ सद्दे पउंजंति । सू०३२ ॥७४॥ ___ 'इंदो इवेत्यादि विहराहि'त्ति एतदन्तं वाचनाद्वयेऽपि व्यक्तं, नवरम्-'अणहसमग्गो'त्ति अनघो-निर्दोषः समग्रः समग्रपरिवारः 'हतुडे'त्ति अतीव तुष्टः 'परमाउं पालयाहित्ति तत्कालापेक्षया यदुत्कृष्टमायुस्तत् परमायुः 'गामागरणगर& खेडकबडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसंनिवेसाणं ग्रामो-जनपदाध्यासितः आकरो-लवणाद्युत्पत्तिभूमिः नगरम्-अविद्य मानकर खेर्ट-धूलीप्राकारं कर्बर्ट-कुनगरं मडम्बम्-अविद्यमानासन्ननिवेशान्तरं द्रोणमुखं-जलपथस्थलपथोपेतं पत्तनं४ जलपथोपेतमेव स्थलपथोपेतमेव वा, पत्तनं रत्नभूमिरित्यन्ये, आश्रमः-तापसाद्यावासः संवाहा-पर्वतनितम्बादिदुर्गे स्थान सन्निवेशो-घोषप्रभृतिरिति 'आहेवञ्चति आधिपत्यं तदाश्रितलोकेभ्य आधिक्येन तेष्ववस्थायित्वं 'पोरेवञ्चति पुरोवर्तित्वम्-अग्रेसरत्वं 'भट्टितंति भर्तृत्वं पोषकत्वं 'सामित्तंति स्वस्वामिसम्बन्धमात्र 'महयरत्तं' महत्तरत्वं तदाश्रितजनापेक्षया महत्तमता 'आणाईसरसेणाव' आज्ञेश्वर--आज्ञाप्रधानो यः सेनापतिः-सैन्यनायकः तस्य भावः कर्म वा आज्ञेश्वरसेना-18 लापत्यं 'कारेमाणे'त्ति अन्यैः कारयन् 'पालेमाणे'त्ति स्वयमेव पालयन्निति, 'महयाऽऽयनदृगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघण-I| xl॥७४॥ PI मुइंगपडुष्पवाइयरवेणं महता रवेणेति योगः, आयत्ति-आख्यानकप्रतिबद्धं अहतं वा-अव्यवच्छिन्नं आहतं बा-आस्फा-112 1Bालितं यन्नाव्य-नाटकं तत्र यद्गीतं च-नोयं वादितं च-वाद्यं तत्तथा तथा तन्त्री च-वीणा तलतालाश्च-हस्तास्फोटरवार दीप अनुक्रम [३२] SAREastatinintennational | कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~287~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [३२] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... ३२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः भाग - १४ "औपपातिक" - तला वा हस्ताः तालाः- कंशिकाः तुडियत्ति-शेषतूर्याणि च धनमृदङ्गश्च - मेघध्वनिर्मद्दलः पटुप्रवादितो- दक्षपुरुषास्फालित इति कर्मधारयगर्भो इन्द्रः, ततश्च एतेषां यो रवः स तथा तेन । तणं से कूणिए राया भंभसारपुत्ते णयणमालासहस्सेहिं पेच्छिजमाणे २ हिअयमालासहस्सेहिं अभिदिलमाणे २ मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिष्पमाणे २ वयणमालासहस्सोहिं अभिव्यमाणे २ कंतिसोहग्गगुणेहिं परिथजमाणे २ बहूणं णरणारिसहस्साणं दाहिणहत्थेणं अंजलिमाला सहस्साई पडिच्छमाणे २ मंजुमंजुणा घोसेणं पडिवुज्झमाणे २ भवणपतिसहस्साई समइच्छमाणे २ चंपाए णयरीए मज्झमज्झेणं णिग्गच्छर २ त्ता जेणेव पुष्णभदे चेइए तेणेव उबागच्छइ २ सा समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयराइसेसे पासह पासिता अभिसेक हस्थिरयणं ठवे ठवित्ता आभिसेकाओ हत्थिरपणाओ पचोरुहइ अभिसेका ओरता अवहट्टु पंच रायककुहाई, तंजहा-खग्गं छतं उप्फेसं वाहणाओ वालवीअणं, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तंजहा- सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए १ अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए२एगसाडियं उत्तरासंगकरणेणं ३ चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं ४ मणसो एगत्तभावकरणेणं ५ समणं भ| गवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ तिक्खुत्तो आग्राहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदति णमंसति बंदिता णमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासह, तंजहा काइयाए बाइयाए माणसियाए, काइयाए ताब संकुइ For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~288~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [३२] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपातिकम् ॥ ७५ ॥ अग्गहत्थपाए सुस्समाणे णमंसमाणे अभिमुद्दे विणएणं पंजलिउडे पशुबासह, वाड्याए जं जं भगवं वागरेह एवमेअं भंते । तहमेयं भंते! अवितहमेयं भंते! असंदिजमेअं भंते । इच्छिअमेअं भंते ! पडिच्छिअमेअं भंते । इच्छियपडिच्छियमेअं भंते से जहेयं तुग्भे वदह अपडिकूलमाणे पज्जुवासति, माणसियाए महया संवेगं जणइत्ता तिब्बधम्माणुरागर तो पज्जुवासह ॥ ( सू० ३२ ) ॥ 'नयणमालासहस्सेहिं'ति नयनमालाः - श्रेणिस्थितजननेत्रपङ्कयः तासां यानि सहस्राणि तानि तथा तैः, 'हिययमालासहस्सेहिं अभिनंदिजामाणे'त्ति जनमनः सहस्रैः समृद्धिमुपनीयमानो जय जीव नन्देत्यादिपर्यालोचनादिति भावः, 'उनइज्ज माणे 'त्ति क्वचिदृश्यते, तत्र उन्नतिं क्रियमाण - उन्नतिं प्राप्यमाण इति 'मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिष्यमाणे एतस्य वासे वत्स्याम इत्यादिभिर्जनविकल्पैः विशेषेण स्पृश्यमान इत्यर्थः 'वयणमालास हस्सेहिं अभिथुवमाणे' त्ति व्यक्तं, 'कंतिसोभग्गगुणेहिं पत्थिजमाणे २' कान्त्यादिगुणैर्हेतुभूतैः प्रार्थ्यमानो भर्तृतया स्वामितया वा जनेनाभिलष्यमाणः 'मंजुमंजुणा घोसेण पडिपुच्छमाणे मजुमज्जुना-अतिकोमलेन घोषेण-स्वरेण प्रतिपृच्छन्- प्रश्नयन् प्रणमतः स्वरूपादिवार्ता 'पडिबुज्झमाणोति पाठाअन्तरे प्रतिबुद्ध्यमानो जाग्रद्, अप्रचलायमान इत्यर्थः, 'अपडिवुज्झमाणे'त्ति पाठान्तरं तत्राप्रत्यूह्यमानः - अनपद्रियमाणमानस इत्यर्थः 'समइच्छमाणे 'त्ति समतिगच्छन्नतिक्रामन्नित्यर्थः, वाचनान्तरे त्वेवं 'तंतीतलतालतुडियगीयवाइयर वेणं' व्यक्तमेव, किं| विधेन वेणेत्याह-मधुरेण, अत एव 'मणहरेणं' तथा 'जयस हुग्घोसविसरणं मञ्जुमञ्जुणा घोसेणं' ति जयेति शब्दस्याभिधानस्य उद्घोषः - उद्घोषणं विशदं स्पष्टं यत्र स तथा तेन, मन्जुमज्जुना - कोमलेन घोषेण-ध्वनिना 'अपडिवुज्झमाणे' ति प्राग्वत्, For Parts Only कोणिक-राज्ञः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः विशद वर्णनं ~289~ पर्युपास ● सू० १२ ।। ७५ ।। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] | 'कंदरगिरिविवरकुहरगिरिवरपासादुद्धघणभवणदेवकुलसिंघाडगतिगचउक्कचच्चरआरामुजाणकाणणसभापवापदेसदेसभागे| कन्दराणि-दर्यो गिरीणां विवरकुहराणि-गुहाः पर्वतान्तराणि वा गिरिवरा:-प्रधानपर्वताः प्रासादाः-सप्तभूमिकादयः | ऊर्ध्वधनभवनानि-उच्चाविरलगेहानि देवकुलानि-प्रतीतानि शृङ्गाटकत्रिकचतुष्कचत्वराणि प्राग्वत् आरामा:-पुष्पजातिप्रधानाः वनपण्डाः उद्यानानि-पुष्पादिमदृक्षयुक्तानि काननानि-नगराद् दूरवतीनि सभा-आस्थायिकाः प्रपा-जलदानस्थानम् एतेषां ये प्रदेशदेशरूपा भागास्ते तथा तान् , तत्र प्रदेशा-लघुतरा भागा देशास्तु-महत्तराः, पडिसद्द (डिंसुआ)सयसहस्ससंकुलं करेंति' प्राकृतत्वेन बहुवचनार्थे एकवचनमत्र,ततः प्रतिशब्दलक्षसङ्कलान् कुर्वन् कूणिको निर्गच्छतीति सम्बन्धः, तथा 'हयहेसियहत्धिगुलुगुलाइयरघणघणसदमीसएणं महया कलकलरवेणं जणस्स महुरेण पूरयंते' इत्यत्र नभइत्यनेन | | सम्बन्धः, प्रदेशदेशभागान वेत्यनेन, 'सुगंधवरकुसुमचुण्णउबिद्धवासरेणुकविलं नभं करेंते' सुगन्धीनां वरकुसुमानां चूर्णानां लाच उबिद्धा-ऊवं गतो यो वासरेणुः-वासक रजा तेन यत्कपिलं तत्तथा 'नभ'ति नभ आकाशं कुर्वन् , 'कालागुरुकुंदुरुक तुरुकधूवनिवहेण जीवलोगमिव वासयंते जीवलोकं वासयन्निव, शेष प्राग्वत् , 'समंतओ खुभियचक्कवालं' सर्वतः क्षुभितानि डाचक्रवालानि-जनमण्डलानि यत्र निर्गमने तत्तथा तद्यथा भवतीत्येवं निर्गच्छतीत्येवं सम्बन्धः, तथा परजणवालवुडपमुइयतु रियपहावियविउलाउलबोलबहुलंन करेंते' प्रचुरजनाश्च अथवा पौरजनाश्च बालवृद्धाश्च ये प्रमुदितास्त्वरितप्रधाविताश्चहै शीघ्रं गच्छन्तस्तेषां व्याकुलाकुलानाम्-अतिव्याकुलानां यो बोलः स बहुलो यत्र तत्तथा तदेवम्भूतं नभः कुर्वन्निति । DI अवाधिकृतवाचनाऽनुश्रीयते-'अदूरसामंते' अनिकटासन्ने उचिते देशे इत्यर्थः, 'ठबेइ'त्ति स्थिरीकरोति 'अवहट्टत्ति || क दीप अनुक्रम [३२] JMERuratan inta mational कोणिक-राज्ञ: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: विशद-वर्णनं ~290~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा देवी तिकम् । ॥ ६ ॥ प्रत सूत्रांक [३२] ल अपहृत्य-परित्यज्य रायककुहाईति नृपचिह्नानि 'उप्फेस'ति मुकुट 'वालवीयणिय'ति चामरं 'सचित्ताणं दवाणं विउ-| सरणयाए'त्ति पुष्पादिसचेतनद्रव्यत्यागेन 'अचित्ताणं दचाणं अविउसरणयाए'त्ति वस्त्राभरणाद्यचेतनद्रव्याणामत्यजनेन | 'चक्खुफासे ति भगवति दृष्टिपाते 'हस्थिक्खंधविहभणयाए'त्ति वाचनान्तरं, तत्र हस्तिलक्षणो यः स्कन्धः-पुद्गलसञ्चयस्तस्य या विष्टम्भना स्थापना सा तथा तया, तिक्खुत्तो'त्ति त्रिकृत्वः त्रीन वारानित्यर्थः 'आयाहिणं पयाहिण'ति आदक्षिणात-द-1 क्षिणपाादारभ्य प्रदक्षिणो-दक्षिणपावती यः स आदक्षिणप्रदक्षिणस्तं करोति, दक्षिणपार्श्वतखिर्धाम्यतीत्यर्थः 'चंदई - त्यादि प्राग्वत् ।। ३२॥ तए णं ताओ सुभद्दाप्पमुहाओ देवीओ अंतो अंतेउरंसि पहायाओ जाव पायच्छित्ताओ सव्वालंकारविभूसियाओ बहहिं खुजाहि चेलाहिं वामणीहिं वडभीहिं बम्बरीहिं पयाउसियाहिं जोणिआहिं पण्हविAll आहिं इसिगिणिआहिं वासिइणिआहिं लासियाहिं लसियाहिं सिंहलीहिं दमीलीहिं आरबीहिं पुलंदीहिं पक्कणीहिं बलीहिं मुरुंडीहिं सबरियाहिं पारसीहिंणाणादेसीविदेसपरिमंडिआहिं इंगियचिंतियपत्थियविजाणियाहिं सदेसणेवत्थग्गहियवेसाहिं चेडियाचक्कवालपरिसधरकंचुइज्जमहत्तरगवंदपरिक्वित्ताओ अंतेउराओ णिग्गच्छति अंतेउराओ णिग्गच्छित्सा जेणेव पाडिएकजाणाई तेणेव उवागच्छन्ति उवागच्छित्ता पाडिएकपा- डिएकाई जत्ताभिमुहाई जुत्साईजाणाई दुरूहंति दुरूहित्ता णिअगपरिआल सद्धिं संपरिबुडाओ चंपाए णयरीए || मझमज्झेणं णिग्गच्छति णिग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेहए तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्सा समणस्स है दीप अनुक्रम ॥६॥ [३२] कोणिक-राज्ञ: सुभद्रा नामक राज्य: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: वर्णनं ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: REOS प्रत सूत्रांक RSSC [३३] भगवओ महावीरस्स अदूरसामते छत्तादिए तित्थयरातिसेसे पासंति पासित्ता पाडिएकपाडिएकाई जाणाई [६/ ठवंति ठवित्ता जाणेहिंतो पचोरुहंति जाणेहिंतो पचोरुहित्ता बहहिं खुजाहिं जाव परिक्खित्ताओ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उबागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं | अभिगछति, तंजहा-सचित्ताण दव्वाणं विउसरणयाए अञ्चित्ताण दवाणं अविउसरणयाए विणओणताए गायलट्ठीए चक्खुप्फासे अंजलिपग्गहेणं मणसो एगत्तकरणेणं समर्ण भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं |पयाहिणं करेन्ति वंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता कूणियरायं पुरओ कडु ठिझ्याओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएणं पंजलिउड़ाओ पजुवासंति ( सू० ३३)॥ ला 'सुभद्दाप्पमुहाओ'त्ति सुभद्राप्रमुखाः, धारिण्याः सुभद्रेति नामान्तरं सम्भाव्यते, तेनेत्थं निर्देशः, क्वचिद्धारिणीप्पमुहाओ इत्येतदेव दृश्यते, 'अंतो अंतेउरंसि पहायाओ'त्ति अन्तः-मध्ये अन्तःपुरस्येत्यर्थः, वाचनान्तरं पुनः सुगममेव, नवरं 'वाहुयसुभयसोवस्थियबद्धमाणपुस्समाणबजयविजयमंगलसएहिं अभिथुवमाणीओं' व्याहृतं सुभगं येषां ते च्यातसुभ| गास्ते च ते सौवस्तिकाश्च-स्वस्तिवादका इति समासः, ते च बद्धमानाः-कृताभिमानाः पूष्यमानवाश्च-मागधा इति द्वन्द्व| स्तेषां यानि जयविजयेत्यादिकानि मङ्गलशतानि तानि तथा तैः, 'कप्पायछेयायरियरइयसिरसाओ' कल्पाकेन-शिरोजबन्धकल्पज्ञेन छेकेन-निपुणेनाऽऽचार्येण-अन्तःपुरोचितशिल्पिना रचितानि शिरांसि-उपचारात् शिरोजबन्धनानि यासां तास्तथा, 'महया गंधद्धणिं मुयंतीओं' महतीं गन्धप्राणिं मुश्चन्त्यः, अथाधिकृतवाचना 'खुजाहिं'ति कुनिकाभिः 'चेलाहि || दीप अनुक्रम [३३] कोणिक-राज्ञ: सुभद्रा नामक राज्य: भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्राया: वर्णनं ~292~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [33] दीप अनुक्रम [33] मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपातिकम् भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) ॥ ७७ ॥ ति चेटिकाभिः अनार्यदेशोत्पन्नाभिर्वा युक्ता इति गम्यं, 'बामणीहिं' अत्यन्तइ स्वदेहाभिः इस्वोन्नत हृदय कोष्ठाभिर्वा 'बडभि याहिंति वदभिकाभिर्वाधःकायाभिः 'बचरीहिं'ति बर्बराभिधानानार्यदेशोत्पन्नाभिः एवमन्यान्यपि षोडश पदानि, 'णाणादेसीहिं' नानाजनपदजाताभिः, 'विदेशपरिमंडियाहिं' विदेशः परिमण्डितो यकाभिस्तास्तथा 'विदेसपरिपिंडियाहिं' ति वाचनान्तरं, तत्र विदेशे परिपिण्डिता-मिलिता यास्तास्तथा ताभिः, 'इंगियचिंतियपत्थियवियाणियाहिं' इङ्गितेन- चेष्टितेन चिन्तितं प्रार्थितं च वस्तु जानन्ति यास्तास्तथा, पाठान्तरे 'इंगियचिंतिय पत्थियमणोगतवियाणियाहिं' इङ्गितेन चिन्तितप्रार्थिते | मनोगते - मनसि वर्तमाने वचनादिनाऽनुपदेशिते विजानन्ति यास्तास्तथा ताभिः, 'सदेसणेवत्थ गहियवे साहि' स्वदेश नेपथ्यमिव गृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः, तथा 'चेडियाचकवालवरिसधरकंचुइजमहत्तरवंदपरिक्खित्ताओं वर्षधराःवर्द्धितकाः कञ्चुकिनस्तदितरे च ये महत्तरा - अन्तःपुररक्षकास्तेषां यद्धृन्दं तेन परिक्षिप्ता यास्तास्तथा, 'णियगपरियाल सद्धिं संपरिवुडाओ'त्ति निजकपरिवारेण लुटतृतीयैकवचनदर्शनात् साधै सह संपरिवृताः तेनैव परिवेष्टिताः 'ठियाउ चेव'त्ति ऊर्ध्वस्थिता एवेति ॥ ३३ ॥ तणं समणे भगवं महावीरे कूणिअस्स भंभसारपुत्तस्स सुभद्दाप्पमुहाणं देवीणं तीसे अ महतिमहालियाए परिसाए इसीपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए अणेगसय बंदाए अणेगसयवंद परिवाराए ओहबले अइबले महब्बले अपरिमिअबलवीरियते यमाहप्पकंतिजुत्ते सारयनवत्थणियमहुरगंभीरकोंचणिग्घोसदुंदुभिस्सरे उरेवित्थडाए कंठेऽवडियाए सिरे समाइण्णाए अगरलाए अमम्मणाए For Parts Use Only कोणिक - राज्ञः सुभद्रा नामक राज्यः भगवत् महावीरस्य वन्दनार्थे गमन-यात्रायाः वर्णनं ~293~ धर्मकथा सू० ३४ ।। ७७ ।। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [३४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 45-45544545% प्रत सूत्रांक [३४] | सव्वक्खरसण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सब्वभासाणुगामिणीए सरस्सइए जोयणणीहारिणा सरेणं अहमागहाए भासाए भासति अरिहा धम्म परिकहेइ। 'तीसे य महइमहालियाए' तस्याश्च महातिमहत्याः, गुरुकाणां मध्येऽतिगुरुकाया इत्यर्थः, 'इसिपरिसाए'त्ति पश्यन्तीति ऋषयस्त एव परिषत्-परिवारः ऋषिपरिषत्तस्या अतिशयज्ञानिसाधूनामित्यर्थः, धर्म कथयतीति चोगः, 'मुणिपरिसाए| मौनवत्साधूनां वाचंयमसाधूनामित्यर्थः, 'जइपरिसाए'त्ति यतन्ते चारित्रं प्रति प्रयता भवन्तीति यतयस्तत्परिषदश्चरणोद्यतसाधूनामित्यर्थः, 'अणेगसयवंदाए'त्ति अनेकानि शतप्रमाणानि वृन्दानि यस्यां सा तथा तस्याः, 'अणेगसयवंदपरियालाए' अनेकशतमानानि यानि वृन्दानि तानि परिवारो यस्याः सा तथा तस्याः । किम्भूतो भगवानित्याह-'ओहबले'सि अव्यवच्छिन्नवल: 'अइबले'त्ति अतिशयबलः 'महचले'त्ति प्रशस्तबलः 'अपरिमियबलचीरियतेयमाहप्पर्कतिजुत्ते अपरिमितानिअनन्तानि यानि बलादीनि तैर्युक्तो यः स तथा, तत्र बल-शारीरः प्राणः वीर्य-जीवप्रभवं तेजो-दीप्तिः माहात्म्य-महा-| नुभावता कान्ति:-काम्यता, 'सारयनवत्धणियमहुरगंभीरकुंचनिग्योसदुंदुभिस्सरे' शारद-शरत्कालीनं यन्नवस्तनितं-मेघध्व-18 | नितं तदिव मधुरो गम्भीरश्च क्रौञ्चनिर्घोषवच दुन्दुभेरिव च स्वरो यस्य स तथा, किम्भूतया कथया धर्म कथयतीत्याह'उरे वित्थडाए' उरसि विस्तृतथा उरसो विस्तीर्णत्वात् , सरस्वत्येति योगः, 'कंठेऽवडियाए' गलविवरस्य वर्तुलत्वात् 'सिरे । | समाइण्णाए' मूनि सङ्कीर्णया आयामस्य मूर्धा स्खलितत्वात् 'अगरलाए'त्ति सुविभक्ताक्षरतया 'अमम्मणाए'त्ति अन-18 | पखश्यमानतया 'सबक्खरसन्निवाइयाए' सुव्यक्तः अक्षरसन्निपातो-वर्णसंयोगो यस्यां सा तथा तया 'पुण्णरत्ताए'त्ति पूणों AAAAAAACK % % दीप अनुक्रम % % [३४] % भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------- मूलं [३४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] औपपा- शाच स्वरकलाभिः रक्ताच-गेयरागानुरक्ता या सा तथा तया, क्वचिदिदं विशेषणद्वयं-'फुडविसयमहरगंभीरगाहियाए'|धमकथा तिकम् ॥ स्फुटविशदा-अत्यन्तब्यक्ताक्षरा स्फुटविषया वा-स्फुटाथों मधुरा-कोमला गम्भीरा-महती ग्राहिका-अक्लेशेनार्थबोधिका, सू०३४ एतेषां कर्मधारयोऽतस्तया, 'सबक्सरसण्णिवाइयाए' सर्वाक्षराणां सन्निपातः-अवतारो यस्यामस्ति सर्वे वाऽक्षरसन्निपाता:॥७८ ॥ संयोगाः सन्ति यस्यां सा सर्चाक्षरसन्निपातिका तया, 'सरस्सइए' वाण्या 'जोयणणीहारिणा' योजनातिकामिणा स्वरेण 'अद्धमागहाए भासाए'त्ति 'रसोर्लसो मागध्या'मित्यादि यन्मागधभाषालक्षणं तेनापरिपूर्णा प्राकृतभाषालक्षणबहुला अर्धमागधीत्युच्यते। तसिं सब्वेसिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्ममाइक्खइ, साऽविय णं अद्धमागहा भासा तेसिं सब्वेर्सि || आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमह, तंजहा-अस्थि लोए अस्थि अलोए एवं जीवाद अजीचा बंधे मोक्खे पुषणे पावे आसवे संवरे वेयणा णिज्जरा अरिहंता चकवही बलदेवा वासुदेवा नरका| शरइया तिरिक्खजोणिआ तिरिक्खजोणिणीओ माया पिया रिसओ देवा देवलोआ सिही सिद्धा परिणि उधाणं परिणिब्बुया अस्थि पाणाइवाए मुसावाए अदिण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे अस्थि कोहे माणे माया हैलोभे जाव मिच्छादसणसल्ले। ॥७८॥ 'आरियमणारियाण'ति आर्यदेशोत्पन्नतदितरनराणाम् 'अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमइ'त्ति आर्यादीनामात्मन १ श्रीसिद्धहैमशब्दानुशासने तु ९-१-२९९ तमं सूत्रं रसोर्लशौ' इति, तत्र मागध्यामित्यस्पानुवृत्तेलाभात् । दीप अनुक्रम [३४] भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३४] दीप अनुक्रम [३४] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... ३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः भाग - १४ "औपपातिक" Eucation Internation स्तत्सम्बम्धिजीवस्य स्वभाषाया - निजभाषायाः सम्बन्धिना परिणामेन स्वरूपेण परिणमति वर्तते । यादृशं धर्म कथयति तदर्शनार्थमाह-'तंज' त्यादि, 'अस्थि लोए इत्यादि कहाणपावर' इत्येतदन्तं, सुगमं, नवरं लोकः पञ्चास्तिकायमयः अलोकः| केवलाकाशरूपः, अनयोश्चास्तित्वाभिधानं शून्यवादनिरासार्थं, तन्निरासोपपत्तिश्च ग्रन्थान्तरावगम्या, एवं प्रायेणोचरत्रापि, 'अस्थि जीवा' अस्तीति क्रियावचनप्रतिरूपको निपातो बहुवचनार्थी द्रष्टव्यः, इदं च लोकायतमत निषेधार्थमुक्तम्, 'अस्थि | अजीव 'त्ति पुरुषाद्वैतादिवादनिषेधार्थम्, 'अस्थि बंधे अस्थि मोक्खेत्ति बन्धः कर्मणा जीवस्य मोक्षः-सकलकर्मवियोगः तस्यैव एतच्च द्वयं "संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिरेव, नात्मेत्येवंविधसाय मत निषेधार्थमिति, 'अस्थि पुण्णे अस्थि पावेत्ति पापमेवापच्चीयमानमुपचीयमानं च सुखदुःखनिबन्धनं न पुण्यं कर्मास्ति, पुण्यमेव चोपचीयमानमपचीयमानं च सुखदुःखहेतुर्न पापमस्तीत्येवंविधवाद निरासार्थमुक्तं जगद्वैविध्यनिबन्धन केवल स्वभाववाद निरासार्थं वा, 'अस्थि आसवे अस्थि संवरे' कर्मबन्धहेतुराश्रवः आश्रवनिरोधः संवरः, एतञ्च बन्धमोक्षयोर्निष्कारणत्वप्रतिषेधार्थं वीर्य प्राधान्यख्यापनार्थं वा, 'अस्थि वेयणा अस्थि णिज्जरा' वेदना-कर्मणोऽनुभवनं पीडा वा निर्जरा-देशतः कर्मक्षयः, एतच्च 'नामुक्त क्षीयते कर्मे' त्येतत्प्रतिपादनार्थम्, अर्हदादिचतुष्कसत्ताभिधानं तु तद्भुवनातिशायित्वमश्रद्दधतां तच्छुद्धोत्पा| दनार्थ, नरकनैरयिका स्तित्वप्रतिपादनं च प्रमाणाग्राह्यत्वात्ते न सन्तीति मतनिषेधार्थ, तिर्यगाद्यस्तित्वप्रतिपादनं तु प्रत्यक्षप्रमाणस्य भ्रान्तत्वात् कुवासनाजन्योऽयं तिर्यगादिप्रतिभासो न तत्सत्तानिबन्धन इति ये मन्यन्ते तन्मतनिषेधार्थं, मातापितृसत्ताभिधानं तु ये मन्यन्ते योऽयं मातापितृव्यपदेशः स जनकस्वकृतो जनकत्वाच्च यूकाकुमिगण्डोलकादीन - भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [ प्रवचनस्य ] वर्णनं For Penal Use Only ~296~ wor Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् ॥७९॥ प्रत सूत्रांक KADC56-5645-564-% [३४] प्याश्रित्य स स्यात्, न चैत्र, तस्मान वास्तवो मातापितृव्यवहार इति, तन्मतनिरासार्थ, निरासश्च जनकत्वे समानेऽप्यु- श्रीवीरदे. पकारित्वकृतस्तझ्यपदेश इति, तथा ये मन्यन्ते अतीन्द्रियार्थद्रष्टारो न सम्भवन्ति, रागादिमत्त्वात्पुरुषाणाम् , अस्मदादि-15 सू०३४ वदिति तन्मतनिरासार्थमृषिसत्ताभिधानं, तन्निरासश्च चन्द्रोपरागादिज्ञानानामविसंवाददर्शनादिति, देवाद्यस्तिताभिधानं || च ये मन्यन्ते-न सन्ति देवादयोऽप्रत्यक्षत्वात् , तन्मतब्युदासार्धं, तत्र सिद्धिः-ईपत्याग्भारा निष्ठितार्थता वा सिद्धास्तु-15 तद्वन्तः परिनिर्वाण-कर्मकृतसन्तापोपशान्त्या सुस्थत्वं परिनिर्वृतास्तु-तद्वन्तः, तथा ये मन्यन्ते-प्राणातिपातादयो न वन्धमोक्षहेतवो भवन्ति, बन्धनीयस्य मोचनीयस्य च जीवस्याभावात् , तन्मतनिषेधार्थम् 'अस्थि पाणाइवाए' इत्याधुकं, केवलमत्र सूत्रे बन्धमोक्ष हेतुरिति वाक्पशेषो दृश्यः, इह च यावत्करणादिदं दृश्यं-'पेजे दोसे कलहे अभक्खाणे पेसुन्ने परपरिवाए अरइरई मायामोसे'त्ति तत्र पेजेत्ति-प्रेमानभिव्यक्तमायालोभव्यक्तिकमभिष्वङ्गमानं 'दोसे'त्ति द्वेषः अनभि-| व्यक्तकोधमानव्यक्तिकमप्रीतिमानं कलहो-रादिः अभ्याख्यानम्-असदोषारोपणं पैशुन्य-प्रच्छन्नं सद्दोपाविष्करणं परपरिवादो-विप्रकीर्ण परेषां गुणदोषवचनम् 'अरइरइत्ति अरति:-अरतिमोहनीयोदयाचित्तोद्वेगस्तत्फला रतिः-विषयेषु मोहनीयाञ्चित्ताभिरतिः अरतिरतिः 'मायामोसित्ति तृतीयकषायद्वितीयाश्रवयोः संयोगः, अनेन च सर्वसंयोगा उपलक्षिताः, अथवा वेषान्तरभाषान्तरकरणेन यत्परवञ्चनं तन्मायामृषावाद इति, 'मिच्छादसणसले सि मिथ्यादर्शनं शल्यमिव विविधव्यधानिबन्धनत्वात् मिथ्यादर्शनशल्यं । अस्थि पाणाइवायवेरमणे मुसावायरमणे अदिण्णादाणरमणे मेहुणवेरमणे परिग्गहवेरमणे जाव दीप अनुक्रम ॥७९॥ [३४] % भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ------------------- मूलं [...३४] प्रत सूत्रांक मिच्छादसणसल्लविवेगे सव्वं अत्थिभावं अत्यित्ति वयति, सव्वं णत्थिभावं णस्थित्ति वयति, सुचिपणा कम्मा सुचिपणफला भवंति, दुचिण्णा कम्मा दुचिण्णफला भवंति, फुसइ पुण्णपावे, पञ्चायति जीवा, सफले कल्लाणपावए । धम्ममाइक्खह-इणमेव णिग्गंधे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवलए संमुद्धे पडिपुषणे णेआउए सल्लकतणे सिण्डिमग्गे मुत्तिमग्गे णिव्वाणमग्गे णिज्जाणमग्गे अवितहमविसंधि सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे इहडिआ जीवा सिझंति बुझंति मुचंति परिणिब्वायंति सचदुक्खाणमंतं करंति। | 'पाणाइवायवेरमणे' इत्यादौ तु तत्सत्ताभिधानम् अप्रमादस्य सर्वथा कर्तुमशक्यत्वेन तदसम्भव इत्येतन्मतनिषेधार्थ, किंबहुना -सबमस्थिभावं'ति अस्तीतिक्रियायुक्तो भावोऽस्तिभावस्तं, नास्तीतिविवक्षानिबन्धनभूतो भावो नास्तिभावोऽतस्तं, 'मुचिण्णा कम्मत्ति सुचरितानि तपःप्रभृतीनि कर्माणि-क्रिया: 'मुचिषणफल'त्ति सुचरित-सुचरितहेतुकत्वात् पुण्यकर्मबन्धादि तदेव फलं येषां तानि तथा, शुभफलानीत्यर्थः, न निष्फलानि नाप्यशुभफलानीति हृदयम्, एवं विप येयवाक्यमपि, ततश्च 'फुसइ पुण्णपावे' बनाति जीवः शुभाशुभं कर्म सुचरितेतरक्रियाभिः, ततः 'पञ्चायति'त्ति जीवाः|8| &प्रत्याजायन्ते-उत्पद्यन्ते, न पुनः 'भस्मीभूतस्य शान्तस्य, पुनरागमनं कुतः?' इत्येतदेव नास्तिकवचनं सत्यं, ततश्चोत्पत्ती || P| सत्यां 'सफले कलाणपावए' सौभाग्यादीतरनिवन्धनत्वात् फलवच्छभाशुभं कर्मेति । प्रकारान्तरेण भगवतो धर्मप्ररूपणां| 2 ४ दर्शयन्नाह-'धम्ममाइक्खड़ इत्यादि पडिरूवे इत्येतदन्तम्', इदं च व्यक्तं, नवरम् 'इदमेव' प्रत्यक्षं 'णिग्गंथे पावयणे' 5 नेग्रन्थं प्रवचन-जिनशासनं 'सच्चे' सद्भयो हितम् 'अणुत्तरे नेतः प्रधानतरमन्यदस्तीत्यर्थः 'केवले' अद्वितीय केवलि [३४] दीप अनुक्रम [३४] Hirajanmorary om पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११] अंगसूत्र-[११] विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] औपपा- प्रतीतं वा अनन्तं वा-अनन्तार्थविषयत्वात् 'पडिपुणे' प्रतिपूर्णमल्पग्रन्धत्वादिभिः प्रवचनगुणैः 'संशद्धेकपादिभिः || भाकपादाभ श्रीवीरदे० तिकम् || शुद्ध सुवर्णमिव निर्दोष गुणपूर्णत्वात् 'णेयाउए' नैयायिक-न्यायानुगतं प्रमाणाबाधितमित्यर्थः, 'सालकत्तणे मायादिश-18 ल्यकर्तनं, तद्भावितानां हि भावशल्यानि व्यवच्छेदमायान्तीति 'सिद्धिमग्गे' निष्ठितार्थत्वोपायः 'मुत्तिमग्गे' मुक्त-सक-18 सू०३४ लकर्मवियोगस्य हेतु। अथवा मुक्तिः-निर्लोभता मार्गो यस्य प्राप्ः तन्मुक्तिमार्ग 'णिजाणमग्गे' निर्याणस्य-अनावत्तिकगमनस्य मार्गो-हेतुः, 'णियाणमग्गे' निर्वाणस्य-सकलसन्तापरहितत्वस्य पन्थाः 'अवितह' सद्भूतार्थ 'अविसंधि' अविरुद्ध| पूर्वापरघट्टनं 'सपदुक्खष्पहीणमग्गे सकलदुःखप्रक्षयस्य पन्थाः अथवा सर्वाणि दुःखानि प्रहीणानि यत्र सन्ति स तथा स मार्ग:-शुद्धिर्यत्र तत्तथा, अत एव 'इहडिया जीवा सिझति' विशेषतः सिद्धिगमनयोग्या भवन्ति अणिमादिमहासि| जिप्राप्ता वा भवन्ति 'बुझंति' केवलज्ञानप्राप्या 'मुच्चंति' भवोपनाहिकर्माशापगमात् 'परिणिवायति' कर्मकृतसकलस|न्तापविरहात, किमुक्तं भवतीत्यत आह-'सबदुक्खाणमंतं करेंति'। एगचा पुण एगे भयंतारो पुब्बकम्मावसेसेणं अण्णयरेसु देवलोएमु देवत्ताए उववत्तारो भवति, महहीएसु जाव महासुक्खेमु दूरंगइएमु चिरट्टिईएसु, ते णं तत्थ देवा भवंति महहीए जाव चिरहिआ हारवि-18 राइयवच्छा जाव पभासमाणा कप्पोरगा गतिकल्लाणा आगमेसिभहा जाव पडिरूवा, तमाइक्खइ एवं खलु चाहिं ठाणेहिं जीवा णेरइअत्ताए कम्मं पकरंति, णेरइअत्ताए कम्म पकरेत्ता रहसु उववजंति, संजहामहारंभयाए महापरिगहयाए पंचिंदियवहेणं कुणिमाहारेणं, एवं एएणं अभिलावणं तिरिक्खजोणिएसु माइल्ल । दीप अनुक्रम [३४] SARERathim For P OW | भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य) वर्णनं ~299~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- ------------------------ मलं [...३४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] गाथा: याए णिअडिल्लयाए अलिअवयणेणं उकंचणयाए वंचणयाए, मणुस्सेसु पगतिभद्दयाए पगतिविणीतताए साणु-1 कोसयाए अमच्छरियताए, देवेमु सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं अकामणिजराए बालतवोकम्मेणं, तमाइलिक्खह-जह णरगा गम्मति जे गरगा जा य वेयणा णरए । सारीरमाणसाई दुक्खाई तिरिक्खजोणीए ॥१॥ माणुस्सं च अणिचं वाहिजरामरणवेयणापउरं । देवे अ देवलोए देविहिं देवसोक्खाई॥२॥णरगं तिरिसाक्खजोणिं माणुसभावं च देवलोअंच । सिद्धे अ सिद्धवसहिं छज्जीवणियं परिकहेइ ॥३॥जह जीवा लवज्झति मुचंति जह य परिकिलिस्संति । जह दुक्खाणं अंतं करंति केई अपडियद्धा ॥४॥ अहदुहहियचित्ता|४| माजह जीवा दुक्खसागरमुर्विति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं पिहाडंति ॥५॥ 'एगच्या' एकार्चा-एका अर्चा-मनुष्यतनुर्भाविनी येषां ते तथा, ते पुनरेके केचन 'भयंतारो'त्ति भदन्ताः-कल्याणिनः भक्कारो वा-नैर्मन्थप्रवचनस्य सेवयितारः पूर्वकर्मावशेषेण 'अण्णयरेसु देवलोएसुत्ति अन्यतरदेवानां मध्य इत्यर्थः, 'महहिएसु' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'महज्जुइएसु महाबलेसु महायसेसु महाणुभागेसु'त्ति, व्याख्या च प्राग्वत् , 'दूरंगइएसुत्ति अच्युतान्तदेवलोकगतिकेष्वित्यर्थः 'हारविराइयवच्छा' इह यावत्करणादिदं दृश्य-'कडयतुडियथंभियभुया अंगयकुंडलमगंडयलकण्णपीढधारी विचित्तहत्याभरणा दिघेणं संघाएणं दिवेणं संठाणेणं दिवाए इड्डीए दिवाए जुईए दिवाए पभाए दिवाए छायाए दिवाए अच्चीए दिवेणं तेएणं दिखाए लेसाए दस दिसाओ उज्जोवेमाणा' इति व्याख्या चासुरवर्णकवद् | दृश्या, 'कप्पोवग'त्ति कल्पोपगा-देवलोकजाः 'आगमेसिभ'त्ति आगमिष्य-अनागतकालभावि भद्र-कल्याणं निर्वाण दीप अनुक्रम [३४-३९] SAREauratonintinharional | भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~300-~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) – ལྦ + ཛིལླཱ ཡྻ [३४-३९] औपपातिकम् ॥ ८१ ॥ भाग - १४ "औपपातिक" मूलं [... ३४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः - Eucation Intention उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) लक्षणं येषां ते तथा, इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुव पडिरूव'त्ति व्याख्या प्राग्वदेवेति, निर्यथप्रवचनफलवक्तव्यतां निगमयन्नाह 'तमाइक्खइति तत्प्रवचनफलमिति । अथ प्रकारान्तरेण धर्ममाह-' एवं खल्वि |त्यादि बालतवोकम्मेण मित्येतदन्तं, व्यक्तमेव, नवरं 'एव' मिति वक्ष्यमाणेन प्रकारेण, खलुर्वाक्यालङ्कारे, 'कुणिमा हारेण' ति | कुणिमं-मांसं, 'उक्कंचणयाए वंचणयाएति उत्कञ्चनता मुग्धवञ्चनप्रवृत्तस्य समीपवर्तिविदग्धचित्तरक्षार्थी क्षणमव्यापारतयाऽवस्थानं वञ्चनता-प्रतारणं 'पगइभट्याए 'त्ति प्रकृतिभद्रकता स्वभावत एवापरोपतापिता 'साणुकोसयाए'त्ति सानु - | क्रोशता - सदयता 'तमाइक्खइति तं धर्ममाख्यातीति धर्मकथानिगमनम् । अथोक्तधर्मदेशनामेव सविशेषां दर्शयन्नाह - 'जह णरगा गम्मन्ती' त्यादिगाथापश्ञ्चकं, व्यक्तं, नवरं यथा नरका गम्यन्ते तथा परिकथयतीति सर्वत्र क्रियायोगः, 'नरगं | चेत्यादि गाथा उक्त सङ्ग्राहिकेति, तथा 'अट्टा अट्टियचित्ता' इति आर्ताः - शरीरतो दुःखिता आर्तितचित्ताः-शोका दिपीडिताः आर्ताद्वा-ध्यानविशेषादातिचित्ता इति, 'अट्टणियद्वियचित्त'त्ति पाठान्तरं तत्र आर्तेन नितरामर्दितम् - अनुगतं चित्तं येषां ते तथा, 'अट्टदुहट्टियचित्ते'त्ति वा आर्तेन दुःखादितं चित्तं येषां ते तथा । जहा रागेण कडाणं कम्माणं पावगो फलविवागो जह य परिहीणकम्मा सिद्धा सिद्धालयमुर्विति, तमेव धम्मं दुविहं आइक्वइ, तंजहा- अगारधम्मं अणगारधम्मं च, अणगारधम्मो ताव इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगारातो अणगारियं पव्वयज्ञ सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय० अदिष्णा भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [ प्रवचनस्य ] वर्णनं For Prata Use Only ~301~ श्रीवीरदे० ॥ ८१ ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) ལྦ + ཛིལླཱ ཡྻ [३४-४०] उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) मूलं [... ३४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः भाग - १४ "औपपातिक" दाण० मेहुण० परिग्गह० राईभोयणाउ वेरमणं अथमाउसो ! अणगारसामइए धम्मे पण्णत्ते, एअस्स धम्मस्स सिक्खाए उबट्टिए निग्गंधे या निग्गंथी वा विहरमाणे आणाए आराहए भवति । - वाचनान्तरे गाथाः क्रमान्तरेणाधीयन्ते, तदन्ते च 'एवं खलु जीवा निस्सीले' त्याद्यधीयते, तत्र शीलं - महाव्रतरूपं स|माधानमात्रं वाणिवय'त्ति व्रतानि - अनुव्रतानि 'णिग्गुण' त्ति गुणा-गुणत्रतानि 'निम्मे र'त्ति निर्मर्यादा मर्यादा च-गम्यागम्यादिव्यवस्था 'णिष्पञ्चक्खाणपोसहोववासा' तत्र प्रत्याख्यानं पौरुष्यादि पौषधः--अष्टम्यादिपर्वदिनं तत्रोपवसनं पौषधोपवासः, 'अकोह'त्ति क्रोधोदयाभावात् 'णिकोहा' उदयप्राप्तक्रोधस्य विफलताकरणात्, अत एव 'छीणको हा' क्षपितक्रोधाः एवं मानाद्यभिलापका अपि 'अणुपुवेणं' अणमिच्छमीससम्म 'मित्यादिना क्रमेण । अथाधिकृतवाचना- 'इह खलु' इहैव मर्त्यलोके 'सबओ सवत्ताए'त्ति सर्वतो द्रव्यतो भावतश्चेत्यर्थः, सर्वात्मना सर्वान् क्रोधादीनात्मपरिणामानाश्रित्येत्यर्थः, एते च मुण्डो भूत्वेत्यस्य विशेषणे अनगारितां प्रत्रजितस्येत्येतस्य वा, 'अयमाउसो'ति अयमायुष्मन् ! 'अणगारसामइए' त्ति अनगाराणां समये- समाचारे सिद्धान्ते वा भवो अनगारसामयिकः अनगारसामायिकं वा 'सिक्खाए' शिक्षायाम्अभ्यासे 'आणाए'त्ति आज्ञया विहरन् आराधको भवति ज्ञानादीनाम्, अथवा आज्ञाया-जिनोपदेशस्याराधको भवतीति । Education Internation अगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खड़, तंजहा पंच अणुब्वयाई लिपिण गुणवयाई चत्तारि सिक्खावयाई, पंच अणुब्वयाई, तंजहा धूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं थूलाओ मुसावायाओ विरमणं धूलाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं सदारसंतोसे इच्छापरिमाणे, तिष्णि गुणवयाई तंजहा-अणत्थदंडवेरमणं दिसिध्वयं उब भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [ प्रवचनस्य ] वर्णनं For Parts Only ~302~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- मूलं [...३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- श्रीवीरदे० प्रत तिकम् भोगपरिभोगपरिमाणं, चत्तारि सिक्खावयाई, तंजहा-सामाइअं देसावगासियं पोसहोववासे अतिहिनाद सिहाववास अतिहिस- यअस्स विभागे, अपच्छिमा मारणंतिआ संलेहणाजसणाराहणा अपमाउसो! अगारसामइए धम्मे पण्णसे. धम्मस्स सिक्खाए उचाहिए समणोचासए समणोवासिआ वा विहरमाणे आणाइ आराहए भवति । अर सू०३४ सूत्रांक ॥८॥ [३४] ********* 'अपपिछमा मारणन्तिया सलेहणाझुसणाराहणा' अपच्छिमत्ति-अकारस्थामङ्गलपरिहारार्थखात्पश्चिमा-पश्चात्कालभा-IA | विनी अत एव मारणान्तिकी मरणरूपे अन्ते-अवसाने भवा मारणान्तिकी संलेखना-कायस्य तपसा कृशीकरणं तस्याः। जूषणा-सेवा संलेखनाजूषणा आराधना-ज्ञानादिगुणानां विशेषतः पालना ॥ ३४ ॥ तए णं सा महतिमहालिया मणूसपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म | | हतुजावहिअया उडाए उद्वेति, उढाए उहित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुसो आयाहिणं पयाहिणं || || करेइरत्ता चंति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता अत्धेगइआ मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइए,॥४ अत्धेगइआ पंचाणुब्बइयं सत्तसिक्खाबइ दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा, अवसेसा णं परिसा समणं मा भगवं महावीरं वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुअक्खाए ते भंते !णिग्गंथे पावणे M |एवं सुपपणसे सुभासिए सुविणीए सुभाविए अणुत्तरे ते भंते! णिग्गंधे पावयणे, धम्म णं आइक्खमाणा तुम्भे उवस आइक्खह, उपसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह, विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइ SAGAR गाथा: ** दीप अनुक्रम [३४-४०] ॥८२॥ भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~303~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३५-३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: सूत्रांक [३५-३७] क्खह, रमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह, णस्थि णं अपणे केइ समणे वा माहणे|8| &चा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए, किमंग पुण इत्तो उत्तरतरं, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूआ तमेव दिसं पडिगया ।। (सू०३५)।तए णं कृणिए राया भंभसारपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिएर धर्म सोचा णिसम्म हतुजावहियए उठाए उद्देइ उठाए उद्वित्सा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति २त्ता वंदति णमंसति वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-नुअक्खाए ते भंते! णिग्गंथे, पावषणे जाव किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं?, एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूए तामेव दिसं पडिगए। ४ (सू० ३६)॥तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म 8 & सोचा णिसम्म हतुजावहिअयाओ उठाए उछित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुसो आयाहिणं पयाहिणं ॥ करेन्ति २त्ता चंदंति णमंसंति वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुअक्खाए ते भंते ! णिग्गंधे पावयणे जाब || किमंग पुण इत्तो उत्तरतरं, एवं वदित्ता जामेव दिसि पाउन्भूआओ तामेव दिसि पडिगयाओ। ★ समोसरणं सम्मत्तं ॥ (सू०३७)॥ 'महइमहालिया महवपरिस'त्ति महातिमहती-अतिगरीयसी महत्पर्षत्-महत्त्वोपेतसभा महतां समूह इत्यर्थः, 'मणूस४|| परिस'त्ति तु व्यक्तमेव, 'सोच्चा निसम्मति श्रुत्वा-आकर्ण्य निशम्य-अवधार्येति 'उहाए उद्देई'त्ति उत्थया-कायस्योय-115 लाभवनेन 'सुयक्खाए'त्ति मुष्ठु आख्यातं सामान्यभणनतः 'सुपण्णत्ते' सुष्टु प्रज्ञप्तं विशेषभणनतः 'सुभासिए' सुभाषितं वचन-1 दीप अनुक्रम [४१-४३] भगवत् महावीरस्य धर्मदेशनया: [प्रवचनस्य] वर्णनं ~304~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३५-३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५-३७] औपपा-5 व्यक्तितः 'सुविणीए' सुविनीतं शिष्येषु सुष्टु विनियोजितं 'सुभाषिए' सुष्टु भावितं-तत्त्वभणनात् 'उवसमं आइक्खह'त्ति उपपात. तिकम् क्रोधादिनिरोधमित्यर्थः, 'विवेगं ति बाह्यग्रन्थत्यागमित्यर्थः, 'वेरमणं ति मनसो निवृत्तिं 'धर्मम्' उपशमादिरूपं थेति सू० ३८ | हृदयं, 'नथि णति न प्रभवति-न शक्तो भवति 'आइक्खित्तए'त्ति आख्यातुं, 'किमंग पुण'त्ति अङ्गेत्यामन्त्रणे, कि ॥८६॥ या पुनरिति विशेषद्योतनार्थः, 'उत्तरतरं' प्रधानतरं 'जामेव दिसं पाउन्भूया' यस्या दिशः सकाशात् प्रकटीभूता-आगतेत्यर्थः15 समवसरणवर्णकः ॥ ३५-३६-३७॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे गोयमसगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरंससंठाणसंठिए बहरोसहनारायसंघयणे कणगपुलकनिग्यसपम्हगोरे उग्गतवे || | दित्ततवे तत्ततवे महातवे घोरतवे उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छ्ढसरीरे संखित्तविउलतेअलेस्से समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उहुंजाणू अहोसिरे झाणकोडोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ।। | 'तेणं कालेण मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'सत्तुस्सेहे'त्ति सप्तहस्तोच्छ्रयः, विशेषणद्वयं वागमसिद्धं, 'कणगपुलगनिग्यसपम्हगोरे' कनकस्य-सुवर्णस्य पुलको-लवस्तस्य यो निकपः-कषपट्टे रेखालक्षणस्तथा पम्हत्ति-पद्मगर्भस्तद्वद्गारो यः स तथा, वृद्धव्याख्या । ॥८३० तु कनकस्य न लोहादेयः पुलका-सारो वर्णातिशयस्तत्प्रधानो यो निकषो-रेखा तस्य यत्पश्म-बहुलत्वं तद् यो गौरः स तथा, 'उग्गतचे' उपम्-अप्रधृष्यं तपोऽस्येत्युग्रतपाः 'दिततवे' दीप्तहुताशन इव कर्मवनदाहकत्वेन ज्वलत्तेजः तपो यस्य || दीप 4546 अनुक्रम [४१-४३]] औपपातिक सूत्रे अत्र “समवसरण-पदं” परिसमाप्तं औपपातिक सूत्रे अत्र "औपपातिक-पदं” आरभ्यते ~305~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [३८...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] स तथा, 'तत्तत।' तप्तं-तापितं तपो येन स तप्ततपाः, एवं तेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि सन्ताप्य तेन तपसा स्वात्माऽपि तपोरूपः सन्तापितो, यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति, 'महातवें' महातपाः प्रशस्ततपाः वृहत्तपा वा 'ओराले'त्ति भीमः कथम् :-अतिकष्टं तपः कुर्वन् पार्श्ववर्तिनामल्पसत्त्वानां भयानको भवति, अपरस्त्वाह-'ओराले'त्ति उदार:-प्रधान घोर'त्ति घोरो-निघृणः परीपहेन्द्रियकपायाख्यानां रिपूणां विनाशे कर्तव्ये, अन्ये खात्मनिरपेक्षं घोरमाहुः, 'घोरगुणों घोरा:-अन्यैर्दुरनुचरा गुणाः-मूलगुणादयो यस्य स तथा, 'घोरतवस्सी' घोरैस्तपोभिस्तपस्वी 'घोरवंभचेरवासी' घोरं-दारुणमल्पसत्वैर्दुरनुचरत्वाद्यद् ब्रह्मचर्य तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा, 'उच्छूढसरीरे उच्छूढम्-उम्झितमिवोज्झितं शरीरं येन तत्संस्कारत्यागात् स तथा, 'संखित्तविउलतेयलेस्से' संक्षिप्ता-शरीरान्तलींना विपुला च विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राऽऽश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात् तेजोलेश्वा-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोज्वाला यस्य स तथा, 'ऊहुंजाणू' | शुद्धपृथिव्यासनवर्जनात् औपनहिकनिषद्याया अभावाच उत्कुटुकासनः सन्नपदिश्यते, ऊध्र्षे जानुनी यस्य स ऊर्ध्वजानुः, | 'अहोसिरे' अधोमुखो नोर्व तिर्यग्वा निक्षिप्तदृष्टिरिति भावः, 'झाणकोडोवगए' ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो यः &स तथा, यथा हि कोष्ठके धान्य प्रक्षिप्तमविप्रकीर्ण भवत्येवं स भगवान् धर्मध्यानकोष्ठकमनुप्रविश्येन्द्रियमनांस्यधिकृत्य संवृतारमा भवतीति भावः । | तए णं से भगवं गोअमे जायसहे जायसंसए जायकोऊहल्ले उप्पणसहे उप्पण्णसंसए उप्पण्णकोउहल्ले संजायसहे संजायसंसए संजायकोहल्ले समुप्पण्णसहे समुप्पण्णसंसए समुप्पण्णकोऊहल्ले उड्वाए उठेइ उठाए दीप अनुक्रम ४ि४) ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: उपपात. तिकम् प्रत सूत्रांक [३८] औपपा- 15 हित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदति णमंसति वंदिता म-14 |सित्ता णचासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पजुधासमाणे एवं चपासी। ॥८४॥ 'जायसहे जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छाऽस्येति जातश्रद्धः, क ?-वक्ष्यमाणानां पदार्थानां तस्वपरिज्ञाने, 'जायसंसए' | जातः संशयोऽस्येति जातसंशयः, संशयस्त्वनिर्धारितार्थ ज्ञानमुभयवस्त्वंशावलम्बितया प्रवृत्त, स त्वेवं तस्य भगवतो जातः, यथा-श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिना प्रथमाङ्गप्रथम श्रुतस्कन्धप्रथमाध्ययने प्रथमोदेशके आत्मन उपपात उक्तः, सी किमसत एवात्मनः उत सतः परिणामान्तरापत्तिरूपः, 'जायकोउहाले' जातं कुतूहलं-कौतुकं यस्य स तथा, कीशमुपपातं | भगवान्वक्ष्यतीत्येवंरूपजातश्रवणीत्सुक्य इत्यर्थः, 'उष्पन्नसडे' प्रागभूता उत्पन्ना श्रद्धा यस्य स उत्पन्नश्रद्धः, अथोत्पन्नश्रद्ध-18 स्वस्य जातश्रद्धत्वस्य च कोऽर्थभेदो, न कश्चिद्, अथ किमर्थं तत्प्रयोगः?, उच्यते, हेतुखप्रदर्शनार्थः, तथाहि-उत्पन्नश्रद्धत्वाजातश्रद्धः प्रवृत्तश्रद्ध इत्यर्थः, 'संजायस?' इत्यादौ च संशब्दः प्रकर्षादिवचनः, अपरस्त्वाह-जाता श्रद्धा प्रष्टुं | यस्य स जातश्रद्धः, कथं जातश्रद्धो ?, यस्माजातसंशयः, कथं संशयः अजनि ?, यस्मात् प्राकुतूहलं-किंविधो नामाय-18 भुपंपातो भविष्यतीत्येवंरूपमित्येष तावदवग्रहः, एवमुत्पन्नसजातसमुत्पन्नश्रद्धादय ईहापायधारणाभेदेन वाच्या इति | उपोद्घातग्रन्धो व्याख्यातः। जीवे णं भंते ! असंजए अविरए अप्पडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुढे एगंतदंडे एगंतवाले दीप अनुक्रम ॥८४ ॥ ४ि४) ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) – ཛམྦྷཡྻ [३८] अनुक्रम [४४] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः एगंतसुते पावकम्मं अण्हाति ? हंता अण्हाति १ । जीवे णं भंते ! असंजअअविरअअप्पडियपचक्खाय| पावकम्मे सकिरिए असंबुडे एगंतदंडे एगंतवाले एगंतसुते मोहणिज्जं पावकम्मं अण्हाति?, हंता अण्हाति २ । जीवे णं भंते । मोहणिज्जं कम्मं वेदेमाणे किं मोहणिजं कम्मं बंधइ ? वेअणिज्जं कम्मं बंधह १, गोअमा !, | मोहणिपि कम्मं बंधइ वेअणिपि कम्मं बंधति, णण्णत्थ चरिममोहणिलं कम्मं वेदेमाणे वेअणि कम्मं बंध णो मोहणिज्वं कम्मं बंधइ ३ | जीवे णं भंते ! असंजए अधिरए अप्पडियपचक्रवायपावकम्मे सकिरिए असंबुडे एगंतदंडे एगंतवाले एतते ओसण्णतसपाणघाती कालमासे कालं किच्चा णिरइएस उबवजंति ?, हंता उववजंति ४ | जीवे णं भंते! असंजए अविरए अपडियपचक्खायपावकम्मे इओ हुए पेचा देवे सिआ ?, गोअमा! अत्थेगइया देवे सिया अत्थेगइया णो देवे सिया, से केणद्वेणं भंते ! एवं युचइ-अत्थे| गइआ देवे सिआ अत्थेगहआ णो देवे सिआ ?, गोयमा !, जे इमे जीवा गामागरणयर निगमरायहाणि| खेड कब्बड मडंबदोणमुह पहणासमसंवाहसण्णिवेसेसु अकामतव्हाए अकामछुहाए अकामबंभचेरवासेणं अका| मअण्हाण कसीपायवदंसमसगसेअजल मल्ल पंकपरितावेणं अप्पतरो वा भुजतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति अप्पतरो वा भुज्यतरो वा कालं अप्पाणं परिकिलेसित्ता कालमासे कालं किचा अण्णतरेसु वाणमंत| रेसु देवलोएस देवताए उबवत्तारो भवति, तहिं तेसिं गती तहिं तेसिं ठिती तहिं तेसिं उपवास पण्णत्ते अथाभिधित्सितोपपातस्य कर्मबन्धपूर्वकत्वात् कर्मबन्धमरूपणायाह 'जीवे ण' मित्यादि, 'असंजय अविरय अप्प डिहयपच्च Internationa For Parts Only ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा तिकम् 11८५॥ प्रत सूत्रांक [३८] क्खायपावकम्मे असंयतः-असंयमवान् अविरतः-तपसिन विशेषेण रतः, अथवा कस्मादसंयतो?, यस्मादविरतो-विरतिव-|उपपात. |र्जितः, तथा न प्रतिहतानि-सम्यक्त्वप्राप्त्या इस्वीकृतानि प्रत्याख्यातानि च-सर्वविरतिप्रतिपत्तितः प्रतिषेधितानि पाप-18 सू०३८ कर्माणि-ज्ञानावरणादीनि येन स तथा, अथवा प्रतिहतानि अतीतकाल कृतानि निन्दाद्वारेण प्रत्याख्यातानि अनागतका| लभावी नि निवृत्तितः पापकर्माणि-प्राणातिपातादिपापक्रिया येन स तथा, तन्निषेधेनाप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, ततः पूर्व-| लापदाभ्यां सह कर्मधारयः, अत एव 'सकिरिए' सक्रियः-कायिक्यादिक्रियायुक्तः 'असंवुडे' असंवृतः-अनिरुद्धेन्द्रियः 'एग-1 | तदंडे' एकान्तेनैव-सर्वथैव दण्डयत्यात्मानं परं वा पापप्रवृत्तितो यः स एकान्तदण्डः, 'एगंतवाले' सर्वथा मिथ्याष्टिः अत एव 'एगंतसुत्ने' सर्वधा मिथ्यात्वनिद्रया प्रसुप्तः 'पापकर्म ज्ञानावरणाघशुभं कर्म 'अण्हाइ' आनीति-आश्रवति बनातीत्यर्थः, हन्तेति कोमलामन्त्रणे प्रत्यवधारणार्थों वा, 'अण्हाइ'त्ति आनौत्येव बनात्येवेत्युत्तरं, न ह्यसंयतादिविशेपणो जीवः कस्याश्चिदवस्थायां कर्म न वनातीति १ । तृतीयसूत्रे 'णण्णस्थ चरिममोहणिज कम्मं वेदेमाणे वेअणिज कम्मं | |बंधद णो मोहणिजे ति नन्नत्यत्ति-नवरं केवलमित्यर्थः, चरममोहनीयं सूक्ष्मसम्परायगुणस्थानके लोभमोहनीयसूक्ष्मकिट्टिकारूपं वेदयन् वेदनीयं बनाति, अयोगिन एव वेदनीयस्यावन्धकत्वात्, न पुनर्मोहनीयं वनाति, सूक्ष्मसम्परायस्य मोहनीयायुष्कवर्जानां पण्णामेव प्रकृतीनां बन्धकत्वात् , यदाह-"सत्तविहबंधगा होति पाणिणो आउपजियाणं तु । तह | । १ सप्तविधबन्धका भवन्ति प्राणिन आयुर्वानानेव । तथा सूक्ष्मसम्परायाः पड्डिधवन्धका विनिर्दिष्टाः ॥ १॥ मोहायुर्वानां प्रकृतीनां ते तु बन्धका भणिताः । दीप अनुक्रम ४ि४) ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) – ཛཡྻཱཡྻ [३८] अनुक्रम [४४] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः सुहुमसंपराया छबिहबंधा विणिद्दिा || १ || मोहाउयवजाणं पयडीणं ते उ बंधगा भणिया " ३ । अथाभिधित्सितोपपातनिरूपणायाह- 'जीवे ण' मित्यादि, व्यक्तं, नवरं 'उस्सणं'ति बाहुल्यतः 'कालमासे कालं किञ्च त्ति मरणावसरे मरणं विधायेत्यर्थः ४ । 'इओ चुए पेचत्ति इतः स्थानान्मर्त्यलोकलक्षणाच्युतो भ्रष्टः प्रेत्य' जन्मान्तरे देवः स्यात्, 'से केणद्वेणं ति अथ केन कारणेनेत्यर्थः, 'जे इमे जीव'त्ति य इमे प्रत्यक्षासन्नाः जीवाः - पञ्चेन्द्रियतिर्यङा नुष्यलक्षणाः, ग्रामागरादयः प्राग्वत्, 'अकामतण्हाए' ति अकामानां - निर्जराद्यनभिलाषिणां सतां तृष्णा-वृद् अकामतृष्णा तया एवमन्यत्पदद्वयम्, 'अकाअण्हाणगसीयाय वदंसम सगसेयजल मल्लपकपरितावेणं' इह स्वेदः - प्रस्वेदो याति च लगति चेति जलो-रजोमात्रं मलःकठिनीभूतः पङ्को मल एव स्वेदेनाद्रींभूतः अस्त्रानादयस्तु प्रतीताः अस्नानादिभिर्थः परितापः स तथा तेन, 'अप्पतरो वा | भुज्जतरो वा कालति प्राकृतत्वेन विभक्तिपरिणामादल्पतरं वा भूयस्तरं वा कालं यावत् 'अण्णतरेसु'त्ति बहूनां मध्ये | एकतरेषु 'वाणमंतरेसु'त्ति व्यन्तरेषु देवलोकेषु देवजनेषु मध्ये 'तहिं तेसिं गइ'त्ति 'तस्मिन्' - चानमन्तरदेवलोके 'तेषाम्'असंयतादिविशेषणजीवानां 'गतिः' गमनं 'ठिइ'त्ति अवस्थानम् 'उबवाओ'त्ति देवतया भवनम् । तेसि णं भंते! देवाणं केवइअं कालं ठिई पण्णत्ता १, गोअमा ! दसवाससहस्साई ठिई पण्णत्ता, अत्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं इही वा जुई वा जसे ति वा बले ति वा वीरिए इ वा पुरिसक्कारपरिकमे इ वा ?, हंता अस्थि, ते णं भंते ! देवा परलोगस्साराहगा ?, णो तिणठ्ठे समट्ठे ५ । से जे इमे गामागरणयरणिगमरायहा Education International For Parts Only ~310~ www.landbrary or Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 18उपपात तिकम् । प्रत सूत्रांक [३८] औपपा- पाणिखेडकबहमवदोणमुहपट्टणासमसंवाहसण्णिवेसेसु मणुआ भवंति, संजहा-अंडुबद्धका णिभलबद्धका जा हटिवद्धका चारगवडका हस्थच्छिन्नका पायच्छिन्नका कण्णच्छिण्णका णकच्छिण्णका उदृच्छिन्नका जिग्भ॥८६॥ चिछन्नका सीसच्छिन्नका मुखच्छिन्नका मज्झछिन्नका वेकच्छच्छिन्नका हियउप्पाडियगा गयणुप्पादियगा। दसणुप्पाडियगा वसणुप्पाडियगा गेवच्छिण्णका तंडुलच्छिण्णका कागणिमंसक्खाइयया ओलंबिया लंबि अया घंसिया घोलिअया फाडिअया पीलिअया मूलाइअया सूलभिण्णका खारवत्तिया वज्झवत्तिया मसीह पुच्छियया दवग्गिदहिगा पंकोसण्णका पंके खुत्तका वलयमयका वसट्टमयका णियाणमयका अंतोला सलमयका गिरिपडिअका तरूपडियका मरुपडियका गिरिपक्खंदोलिया तरूपक्खंदोलिया मरूपक्खंदोलिया। जलपवेसिका जलणपवेसिका विसभक्खितका सस्थोवाडितका वेहाणसिआ गिडपिट्टका कतारमतका |दुभिक्खमतका असंकिलिङपरिणामा ते कालमासे कालं किच्चा अपणतरेसु वाणमंतरेसु देवलोएम देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गती तर्हि तेसिं ठिती तहिं तेर्सि उववाए पण्णत्ते, तेसि णं भंते ! देवाणं केवइअं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोअमा !, वारसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता । अस्थि णं भंते ! तेर्सि ॥८६॥ देवाणं इही वा जुई वा जसे तिचा चले ति वा वीरिए इ वा पुरिसकारपरिकमे इवा, हंता अस्थि, ते णं| DIL ठाभंते देवा परलोगस्साराहगा, णो तिण समडे ६। दीप अनुक्रम ४ि४) ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] CSCANUACCOREGAOROCACCI 'इड्डी इवत्ति ऋद्धिः-परिवारादिसम्पत् 'जुई इ वत्तिद्युतिः-शरीराभरणादिदीप्तिः, इशब्दो निपातो वाक्यालङ्कारार्थः, इति शब्दो वाऽयं कृतसन्धिप्रयोग उपप्रदर्शनार्थः, 'जसे इवत्ति यशः-ख्यातिः, वाशब्दो विकल्यार्थः, कचित्पठ्यते-'उहाणे भाइ वा कम्मे इवत्ति तत्रोत्थानम्-ऊवीभवनं कर्म च-उत्क्षेपणादिका क्रिया 'बले इबत्ति बलं शारीरः प्राणः 'वीरिए इवा' | वीर्य-जीवप्रभवः प्राण एव 'पुरिसकारपरिकमे इ वत्ति पुरुषकार:-पुरुषाभिमानः स एव निष्पादितफलः पराक्रमः, || 'हते'त्ति एवमेवेत्यर्थः, 'तेणं देवा परलोगस्स आराहगत्ति ते अकामनिर्जरालब्धदेवभवा व्यन्तराः 'परलोकस्य जन्मान्तरस्य निर्वाणसाधनानुकूलस्य 'आराधका निष्पादका इति प्रश्नः?, 'नो इणडे'त्ति नायमर्थः 'समडे'त्ति समर्थः-सङ्गत इत्युत्तरम् , है अयमभिप्रायो-ये हि सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वकानुष्ठानतो देवाः स्युस्त एवावश्यतया आनन्तर्येण पारम्पर्येण वा निर्वाणानुकूल भवान्तरमावजेयन्ति, तदन्ये तु भाज्या: ५। 'से जे' इत्यादिसूत्र व्यक्तं, नवरं से शब्दोऽथशब्दार्थः, अथशब्दश्चेह वाक्योपक्षे-13 पार्थो, प्रामादयःप्राग्वत् , अंडुबद्धगत्ति अण्डूनि-अन्दुकानि काष्ठमयानि लोहमयानि वा हस्तयोः पादयोर्वा बन्धनविशेषाः 'नियलबद्धगत्ति निगडानि-लोहमयानि पादयोर्बन्धनानि 'हडिबद्धगत्ति हडिः-खोटकः 'चारगवद्धग'त्ति चारको-गुप्तिः Allमुरवच्छिन्नग'त्ति मुरजी-गलघण्टिका 'मज्झच्छिन्नग'त्ति मध्य-उदरदेशः 'बइकच्छच्छिन्नग'त्ति उत्तरासङ्गन्यायेन विदारिताः || 'हियउपाडियगत्ति उत्पाटितहृदया आकृष्टकालेयकमांसा इत्यर्थः, 'वसणुप्पाडियग'त्ति उत्पाटितवृषणा आकृष्टाण्डा । इत्यर्थः, 'तण्डुलरिछन्नग'त्ति तण्डुलप्रमाणखण्डैः खण्डिताः 'कागणिर्मसखाइय'त्ति काकणीमांसानि तदेहोवृतश्लक्ष्णमासखण्डानि तानि खादिताः 'उल्लंबियग'त्ति अवलम्बितकाः रज्ज्वा बद्धा गर्तादाववतारिताः, उल्लम्बितपर्यायास्तु नैते भवन्ति, दीप अनुक्रम ४ि४) ~312~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ---------- मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ***** प्रत औपपा- उल्लम्बितानां वैहायसिकशब्देन वक्ष्यमाणत्वादिति, 'लंबियगत्ति लम्बितका:-तरुशाखायां वाही बद्धाः 'पंसियगत्ति उपपात तिकम् शाEिHTEENETIMES धर्षितकाश्चन्दनमिव दृषदि घोलियय'त्ति घोलितका दधिघट इव पट इव वा 'फालियय'त्ति स्फालितकाः कुठारेण दारु सू०३८ ॥८७॥ वच्छाटकबद्वा, पुस्तकान्तरे 'पीलियग'त्ति पीडितका यन्त्ररिक्षुवदिति 'मूलाइयगति शूलाचितकाः शूलिकाप्रोताः 'सूलभिन्नग'त्ति मस्तकोपरि निर्गतशूलिकाः 'खारवत्तिय'त्ति क्षारेण क्षारे वा तोक्षकतरुभस्मादिनिर्मितमहाक्षारे वर्तिता-वृत्ति कारिताः तत्र क्षिप्ता इत्यर्थः, क्षारपात्र या कृता:-क्षारपात्रिताः तं भोजितास्तस्य वाऽऽधारतां नीता इत्यर्थः, 'वझवत्तिछाय'त्ति वर्धेण सह वृत्तिं कारिताः बर्द्धपात्रिता वा-तेन बद्धा इत्यर्थः, उत्पाटितबद्धा था, 'सीहपुच्छियय'त्ति इह पुषछश-II ब्देन मेहनं विवक्षितम् उपचारात् ततः सीहपुच्छकृतं सञ्जातं वा येषां ते सिंहपुग्छितास्त एव सिंहपच्छितकाः, सिंहस्य हि || |मैथुनानिवृत्तस्यात्याकर्षणात् कदाचिन्मेहनं त्रुट्यति एवं ये क्वचिदपराधे राजपुरुषैत्रोटितमेहनाः क्रियन्ते ते सिंहपुच्छि|तका व्यपदिश्यन्त इति, अथवा कृकाटिकातः पुतप्रदेश यावद्येषां वर्ध उत्कर्त्य सिंहपुच्छाकारः क्रियते ते तथोच्यन्ते इति, ॥ दयग्गिदहग'त्ति दवाग्निः-दावानलस्तेन ये दग्धास्ते तथोक्ताः 'पंकोसन्नग'त्ति पङ्के ये अवसन्नाः-सर्वथा निमग्नास्ते पङ्का-४ वसन्नाः 'पंके खुत्तगत्ति पके मनाङ्ग मनाः केवलं तत उत्तरीतुमशक्काः 'वलयमयग'त्ति वलन्तः-संयमाद् भ्रश्यन्तः अथवा | ।॥८७॥ बुभुक्षादिना बेल्लन्तो ये मृतास्ते वलन्मृतकाः 'वसट्टमयग'त्ति वशेन-विषयपारतन्त्र्येण ऋता:-पीडिता वशार्ताः, वशं वा सूत्रांक [३८] दीप अनुक्रम *** ४ि४) १ मोक्षक प्र० ~313~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३८] – दीप अनुक्रम [४४] भाग - १४ "औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [... ३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः Education International | विषयपरतन्त्रतां ऋता-गता वशार्तास्ते सन्तो ये मृतास्ते वशार्तमृता वशर्तमृता वा शब्दादिरक्त हरिणादिवदिति 'णियाणमयगत्ति निदानं कृत्वा बालतपश्चरणादिमन्तो ये मृतास्ते तथा 'अंतोसहमयुग'त्ति अनुद्धृतभावशल्या मध्यवर्तिभलया| दिशल्या वा सन्तो ये मृताः 'गिरिपडियग'त्ति गिरे:-पर्वतात्पतिताः गिरिर्वा-महापाषाणः पतितो येषामुपरि ते तथा, एवं तरुपतितकाः, 'मरुपडियग' त्ति मरौ-निर्जलदेशे पतिता ये ते तथा, मरोर्वा - निर्जलदेशावयवविशेषात् स्थलादित्यर्थः पतिता ये ते तथा, 'भरपडियग' त्ति कचित्तत्र भरात् - तृणकर्पासादिभरात्पतिता भरो वा पतितो येषामुपरि ते तथा, 'गिरिपक्खंदोलया' गिरिपक्षे पर्वतपार्श्वे छिटङ्कगिरी वाऽऽत्मानमन्दोलयन्ति ये ते तथा तेषां च तदन्दोलनमन्दोलका स्पातेनात्मनो मरणार्थम्, एवं तरुपक्षान्दोलकादयोऽपीति, 'सत्थोवाडियग'त्ति शस्त्रेणात्मानमवपाटयन्ति-विदारयन्ति मरणार्थ ये ते तथा, 'बेहाणसिग'ति विहायसि आकाशे तरुशाखादावात्मन उल्लम्बनेन यन्मरणं भवति तद्वैहायसं तदस्ति येषां ते प्राकृतशैलीवशात् वेहाणसिया, 'गिद्धपगति ये मरणार्थ पुरुषकरिकरभ रासभादिकलेवरमध्ये निपतिताः सन्तो गृधैः स्पृष्टास्तुण्डैर्विदारिता वियन्ते ते गृध्रस्पृष्टकाः 'असंकिलिङपरिणाम'त्ति संक्लिष्टपरिणामा हि महार्तरौद्रध्याना वेशेन देवत्वं न लभन्त इति भावः ६ । से जे इमे गामागरणवरणिगमरायहाणिखेडकच्चडमडंबदोणमुह पट्टणासमसंवाहसंनिवेसेसु मणुआ भवंति, | तंजहा-पगइभद्दगा पगडवसंता पाइपतणुकोह माणमायालोहा मिउमद्दवसंपण्णा अल्लीणा विणीआ अम्मा| पिउनुस्मृसका अम्मापिईणं अणतिकमणिज्जवयणा अपिच्छा अप्पारंभा अप्यपरिग्गहा अप्पेणं आरंभेणं For Parts Only ~314~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा सू०३८ प्रत सूत्रांक [३८] अप्पेणं समारंभेणं अपेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा बहूई वासाई आउअं पालंति पालित्ता कालतिकम् | Xमासे कालं किया अपणतरेसु वाणमंतरेसु देवलोएम देवत्ताए उववत्तारो भवति, तहिंतेसिं गती तहिं | ॥८८॥ तसिं ठिती तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते, तेसि णं भंते ! देवाणं केवइअं कालं ठिती पण्णता?, गोयमा! चपदसवाससहस्सा । • 'पगइभद्दग'त्ति प्रकृत्या स्वभावत एव न परानुवृत्त्यादिना भद्रका:-परोपकारकरणशीलाः प्रकृतिभद्रकाः 'पगइउव-13 संता' इत्यत्र उपशान्ताः-क्रोधोदयाभावात् 'पगइतणुकोहमाणमायलोह'त्ति सत्यपि कषायोदये प्रतनुक्रोधादिभावाः 'मिजमद्दवसंपन्न'त्ति मृदु यन्मार्दवम्-अत्यर्थमहङ्कतिजयं ये सम्पन्नाः-प्राप्तास्ते तथा 'आलीण'त्ति आलीना-गुरुमाश्रिताः, भग त्ति क्वचित्तत्र भद्रकाः-अनुपतापकाः सेव्यशिक्षागुणात्, तत एव विनीताः, एतदेवाह-'अम्मापिऊण सुस्सूसगा' अम्बापित्रोः शुश्रूषकाः-सेवकाः, अत एव 'अम्मापिऊणं अणइक्कमणिजवयणा' इहैवं सम्बन्धः-अम्बापित्रोः सत्कमनतिक्रमणीय वचनं येषां ते तथा, तथा 'अप्पिच्छा' अमहेच्छाः 'अप्पारंभा अप्पपरिग्गह'त्ति इहारम्भः-पृथिव्यादिजीवोपमर्दः कृष्यादिरूपः परिग्रहस्तु-धनधान्यादिस्वीकारः, एतदेव वाक्यान्तरेणाह-'अप्पेण आरंभेग मित्यादि, इहारम्भो-जीवानां विनाशः| समारम्भः-तेषामेव परितापकरणं, आरम्भसमारम्भस्त्वेतद्यं, वित्तिति वृत्ति-जीविका कप्पेमाण'त्ति कल्पयन्तः कुर्वाणाः७) १ सय इति प्र०। दीप अनुक्रम CANCE Vi ॥ ८ ॥ ४ि४) ~315~ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) – ཋཡྻཱཡྻ [३८] अनुक्रम [४४] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः से जाओ हमाओ गामागरणयर निगमरायहाणिखेडकञ्च डम डंवदोणमुह पट्टणासम संवाहसंनिवेसेसु इत्थियाओ भवंति, तंजा-अंतो अंतेउरियाओ गयपआओ मपपइआओ बालविहवाओ छड़ितल्लिताओ माइरक्लिआओ पिअरक्खिआओ भापरक्खिआओ कुलघररक्खि आओ ससुरकुलरक्खिआओ परूढणहमसके सकखरोमाओ ववगयपुष्पगंधमलालंकाराओ अण्हाणगसेअजल्ल मलपंकपरिताविआओ ववगयखीरदहिणवणी असप्पितेल्ल गुल लोणमहुमज्जमंस परिचत्तकयाहाराओ अप्पिच्छाओ अप्पारंभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेणं आरंभेणं अप्पेण समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणीओ अकामबंभरवासेणं तमेव पदसेज्जं णाइकमइ, ताओ णं इत्थिआओ एयारूवेणं विहारेणं विहरमाणीओ बहूई वासाई सेसं तं चैव जाव चउसद्धिं बाससहस्साई ठिई पण्णत्ता ८। 'से जाओ इमाओ'त्ति अथ या एता 'अंतो अंतेदरियाओ'त्ति अन्तः- मध्ये अन्तःपुरस्येति गम्यं, 'कुलघररक्खियाओ' त्ति कुलगृहं पितृगृहं 'मित्तनाइनिययसंबंधिरक्खियाओ'त्ति कचित्, तत्र मित्राणि पितृपत्यादीनां तासामेव वा सुहृदः एवं ज्ञातयो - मातुलादिखजना निजका - गोत्रीयाः सम्बन्धिनो- देवरादिरूपाः 'परूढणह केस कक्खरोमाओ'त्ति प्ररूढावृद्धिमुपगताः विशिष्टसंस्काराभावान्नखादयो यासां तास्तथा, पाठान्तरे 'परूढनहके समंसुरोमाओत्ति इह श्मश्रूणि कूर्वरोमाणि तानि च यद्यपि स्त्रीणां न भवन्ति तथापि कासाञ्चिदस्पानि भवन्त्यपीति तग्रहणम्, 'अण्हाणग से य जलमलपकपरिताबाओ' अस्तानकेन हेतुना स्वेदादिभिः परितापो यासां तास्तथा, तत्र स्वेदा-प्रस्वेदः जलो-रजोमात्रं मल:- कठि Educatin internation For Parts Only ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: उपपात. सू० ३८ प्रत सूत्रांक [३८] औषपा-कानीभूतं तदेव पङ्कः-स्वेदेनाद्रीभूतं तदेव, 'वयगयखीरदहिणवणीयसप्पितेलगुललोणमहुमज्जमंसपरिचत्तकयाहाराओ'त्ति तिकम् व्यपगतानि क्षीरादीनि यतस्तथा परित्यक्तानि मध्वादीनि ३ येन स एवंविधः कृतः-अभ्यवहृत आहारो यकाभिस्तास्तथा, ॥८९॥ 'तमेव पइसेज्ज नाइकमंति' या निधुवनार्थमाश्रीयते तामेव पतिशय्यां-भर्तृशयन नातिकामन्ति-उपपतिना सह नाऽऽश्रयन्तीति ८। से जे इमे गामागरणयरणिगमरायहाणिखेडकब्बडमडंबदोणमुह पट्टणासमसंयाहसन्निवेसेसु मणुआ भव-13 ति, तंजहा-दगविझ्या दगतइया दगसत्तमा दगएकारसमा गोअमा गोव्वइआ गिहिधम्मा धम्मचिंतका| अविरुद्धविरुद्धवुहसावकप्पभिअओ तेसिं मणुआणं णो कप्पा इमाओ नव रसविगईओआहारित्तए, तंजहाखीरं दहिं णवणीयं सपि तेल्लं फाणियं महुं मज मंसं, णण्णस्थ एकाए सरसबविगइए, ते णं मणुआ अप्पिच्छा तं चेव सचं णवरं चउरासीह वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता ९।। __'दगबीय'त्ति ओदनद्रव्यापेक्षया दकम्-उदकं द्वितीयं भोजने येषां ते दकद्वितीयाः 'दगतइय'त्ति ओदनादिद्रव्यद्वयापेक्षया दकम्-उदकं तृतीयं येषां ते दकतृतीयाः 'दगसत्तमत्ति ओदनादीनि षट् द्रव्याणि दकं च सप्तमं भोजने येषां 5 ते दकसप्तमाः, एवं दगएकारसमा एतदपीति, 'गोतमगोवइयगिहिधम्मधम्मचिंतकअविरुद्धविरुद्धबृहसावगप्पभियओ'त्ति गौतमो-खो बलीवर्दस्तेन गृहीतपादपतनादिविचित्रशिक्षण जनचित्ताक्षेपदक्षेण भिक्षामटन्ति ये ते गौतमाः, गोबर- यत्ति-गोत्रतं येषामस्ति ते गोत्रतिकाः, ते हि गोषु ग्रामान्निर्गच्छन्तीषु निर्गच्छन्ति चरन्तीषु चरन्ति पिबन्तीषु पिबन्ति । दीप अनुक्रम ॥८९॥ ४ि४) ~317~ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ---------- मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: -%A6%965 प्रत सूत्रांक [३८] आयान्तीष्वायान्ति शयानासु च शेरते इति, उक्तं च-"गावीहि समं निग्गमपवेससयणासणाद पकरेंति । भुंजंति जहा | गायी तिरिक्खवासं विहाविता ॥१॥" 'गृहिधर्माणों' गृहस्थधर्म एव श्रेयानित्यभिसन्धेर्देवातिथिदानादिरूपगृहस्थधर्मा| नुगताः 'धर्मचिन्तका' धर्मशाखपाठकाः सभासदा इत्यर्थः, 'अविरुद्धाः' वैनयिकाः उक्तं च-"अविरुद्धो विणयकरो देवा४ा ईणं पराएँ भत्तीए । जह वेसियायणसुओ एवं अन्नेऽवि नायबा ॥१॥" विरुद्धा-अक्रियावादिनः केचिदात्मायनभ्युपग-18 * मेन बाह्यान्तरविरुद्धत्वात्, वृद्धाः-तापसा वृद्धकाल एव दीक्षाभ्युपगमात्, आदिदेवकालोत्पन्नत्वेन च सकललिदिर नामाद्यत्वात्, श्रावका-धर्मशास्त्रश्रवणाद् ब्राह्मणाः अथवा वृद्धश्रावका ब्राह्मणाः, एते प्रभृतिः-आदिर्येषां ते तैथा, 'णवणीय'ति म्रक्षणं 'सप्पिति घृतं 'फाणिय'ति गुडं 'णण्णत्थ एकाए सरिसबविगईए'त्ति न इति आहारनिषेधः अन्यत्र तां| वर्जयित्वेत्यर्थः, एकस्याः सर्षपविकृतेः सर्षपतैलविकृतरित्यर्थः ९॥ FI से जे इमे गंगाकूलगा पाणपत्था तावसा भवंति, तंजहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जपणई सहई घाल | बाहुँपउहा दत्तुक्खलिया उम्मजका सम्मजका निमज्जका संपक्खाला दक्षिणकूलका उत्तरकूलका संखधमका Mकूलधमका मिगलुद्धका हत्थितावसा उदंडका दिसापोक्विणो वाकवासिणो अंवुवासिणो चिलवासियो BRE ACCOCCASIC दीप अनुक्रम ४ि४) गोभिः समं निर्गमप्रवेशशयनाशनादि प्रकुर्वन्ति । भुलते यथा गावस्तियन्यासं विभावयन्तः ॥ १॥ २ अविरुद्धो बिनयकरो 5 &| देवादीनां परया भक्त्या । यथा वैश्यायनसुतः एवमन्येऽपि ज्ञातव्याः ॥ १॥ ३ मूले अविरुद्धेत्यादितः समासः । ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [३८] – दीप अनुक्रम [४४] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [... ३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपा तिकम ॥ ९० ॥ **%%% 4% *% *% *%% | जलवासिणो बेलवासिणो रुक्खम् लिआ अंबुभक्खिणो वाउभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदा|हारा तयाहारा पत्ताहारा पुष्पाहारा बीधाहारा परिसडियकंदमूलतयपत्तपुष्पफलाहारा जलाभि से अकढि* णगायश्रूया आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियं कंडुसोल्लियं कंठसोल्लियंपिक अप्पाणं करेमाणा बहूई वासादं परियाय पाउणति बहई वासाई परियाय पाउणत्ता कालमासे कालं किच्चा उकोमेणं जोइसिएस देवेनु | देवत्ताए उववन्तारो भवति, पलिओवमं वाससयसहस्समम्भहिअं ठिई, आराहगा १, णो इणट्टे समझे १० । 'गंगाकूलगति गङ्गाकूलाश्रिताः 'वानस्पत्थ 'त्ति बने-अटव्यां प्रस्था-प्रस्थानं गमनमत्रस्थानं वा वनप्रस्था सा अस्ति येषां तस्यां वा भवा वानप्रस्था:-'ब्रह्मचारी गृहस्थश्च, वानप्रस्थो यतिस्तथे' त्येवंभूततृतीयाश्रमवर्तिनः 'होत्तिय'त्ति अग्निहोत्रिकाः 'पोतिय'त्ति वस्त्रधारिणः 'कोत्तिय'त्ति भूमिशायिनः 'जन्नई'त्ति यज्ञयाजिनः 'सहुइ'ति श्राद्धाः 'थालइ'त्ति गृहीतभाण्डाः 'हुंबउड'त्ति कुण्डिकाश्रमणाः 'दंतुक्खलिय'त्ति फलभोजिनः 'उम्मज्जक'त्ति उन्मज्जनमात्रेण ये स्नान्ति 'संमज्जगत्ति उन्मज्जनस्यैवासकृत्करणेन ये स्नान्ति 'निमज्जक'त्ति स्नानार्थं निमग्ना एव ये क्षणं तिष्ठन्ति 'संपक्खाल'त्ति मृत्तिकादिघर्षणपूर्वकं ये क्षालयन्ति 'दक्खिणकूलगत्ति यैर्गङ्गाया दक्षिणकूल एव वस्तव्यम् 'उत्तरकुलग'त्ति उक्तवि| परीताः 'संखधमगत्ति शङ्खध्मात्वा ये जेमन्ति यद्यन्यः कोऽपि नागच्छतीति ' कूलधमगत्ति ये कूले स्थित्वा शब्द कृत्वा भुञ्जते 'मियलुद्धय'सि प्रतीता एव, 'हत्थितावसति ये हस्तिनं मारयित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो यापयन्ति 'उड्डग'ति ऊद्धीकृतदण्डा ये सञ्चरन्ति 'दिसापेक्खिणोत्ति उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुच्चिन्वन्ति Eucation International For Pal Pal Use Only ~319~ उपपात० सू० ३८ ॥ ९० ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------------------------- मूलं [...३८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक SC-SROSCORRC [३८] वाकवासिणो' त्ति वल्कलवाससः 'चेलवासिणों त्ति व्यक्तं पाठान्तरे 'वेलवासिणो' त्ति समुद्रवेलासन्निधिवासिनः 'जलवासिणो' त्ति ये जलनिमग्ना एवासते, शेषाः प्रतीताः, नवरं 'जलाभिसेयकढिणगाया' इति ये अस्नात्वा न भुञ्जते है स्नानाद्वा पाण्डुरीभूतगात्रा इति वृद्धाः, पाठान्तरे जलाभिषेककठिनं गात्रं भूताः-प्राप्ता ये ते तथा, 'इंगालसोल्लिय' त्ति | अङ्गारैरिव पक्कं 'कंडुसोलियं' ति कन्दुपक्वमिवेति पलिओवर्म वाससयसहस्समब्भहिय' ति मकारस्य प्राकृतप्रभवत्वाद्ध शतसहस्राभ्यधिकमित्यर्थः, अथवा पल्योपमं वर्षशतसहस्रमभ्यधिकं च पल्योपमादित्येवं गमनिका ॥१०॥ | से जे इमे जाव सन्निवेसेसु पव्वया समणा भवंति, तंजहा-कंप्पिया कुकुइया मोहरिया गीयरइप्पिया निचणसीला ते ण एएणं विहारेणं विहरमाणा बहाई वासाई सामण्णपरियाय पाउणंति पहई वासाई साम-|| |पणपरियायं पाणिशा तस्स ठाणस्स अणालोइअअप्पडिकंता कालमासे कालं किया उफोसेणं सोहम्मे कप्पे | कैदप्पिएम देवेसु देवत्ताए उचवत्तारो भवति, तहिं तेसिंगती तहिं तेसिं ठिती, सेसं तं चेष, णवरं पलिओवर्म बाससहस्समभहियं ठिती ११ । से जे इमे जाव सन्निवेसेसु परिव्यायगा भवति, तंजहा-संखा जोई कविला k||भिउच्चा हंसा परमहंसा पहुउदया कुडिव्वया कण्हपरिवायगा, तत्थ खलु इमे अह माहणपरिवाषगा भवति, तंजहा-कण्हे अ करकंडे य, अंबडे य परासरे। कण्हे दीवायणे चेव, देवगुत्ते अणारए ॥१॥ तस्थ खलु इमे अट्ठ खत्तियपरिब्वायया भवति, तंजहा-सीलई ससिहारे(य), णग्गई भग्गई तिअ । विदेहे राया रापी रोपारामे बलेति अ॥१॥ते गं परिब्वायगा रिउब्वेदजमुब्वेदसामवेयअहव्वणवेय इतिहासपंचमाणं ALKAROBACC6+% गाथा: दीप अनुक्रम [४४-४८] ESCR540 % ~320~ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत तिकम् । ३८ सूत्रांक [३८] जिटहाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं चजण्हं चेयाणं सारगा पारगा धारगा चारगा सडंगवी सहितवि-II जीवोप० ||४|| सारया संखाणे सिक्खाकप्पे घागरणे छंदे णिरुत्ते जोतिसामयणे अण्णेसु य भण्णएसु अ सस्थेसु सुप-1४| रिणिहिया यावि हुत्था । तेणं परिव्वायगा दाणधम्मं च सोअधम्मं च तिस्थाभिसेअंच आघवेमाणा पण्ण ॥११॥ |वेमाणा परूषमाणा विहरंति, जपणं अम्हे किंचि असुई भवति तपणं उदएण य महिआए अपक्वालि मुई भवति, एवं खलु अम्हे चोक्खा चोक्खायारा सुई सुइसमायारा भवेत्ता अभिसेअजलपूअप्पाणो अविग्घेण सग्गं गमिस्सामो, तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पइ अगई वा तलायं वा णई वा वार्षि वा पुक्ख|रिणी वा दीहियं वा गुंजालिअंचा सरं वा सागरं वा ओगाहित्तए, णण्णस्थ अद्वाणगमणे, णो कप्पह सगड वा जाव संदमाणिों वा दुरुहिता णं गच्छित्तए,तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पड आसं वा हस्थि वा उ वा गोणिं वा महिसं चा खरं वा दुरुहिता णं गमित्तए, तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पड़ नडपेच्छा इ वा| |जाव मागहपेच्छा इ वा पिच्छित्तए, तेर्सि परिवायगाणं णो कप्परहरिआणं लेसणया वा घणया या धंभ-IN णया वा लूसणया वा उप्पाडणया वा करित्तए, तेसिं परिवायगाणं णो कप्पड इथिकहा इ वा भत्सकहा इवा ॥९१॥ | देसकहा वारायकहा इ वा चोरकहा इ वा अणस्थदंड करित्सए, तेसि परिब्वायगाणं णो कप्पह अयपायाई वा तउअपायाणि वा तंवपायाणि वा जसदपायाणि वा सीसगपायाणि वा रुप्पपायाणि वा सुवण्णपायाणि वा अण्णयराणि वा बहुमुल्लाणि वा धारित्तए, णण्णत्व लाउपाएण वा दारुपाएण वा महिआपाएण वा, तेसि गाथा: - %ASEASESEGC -- दीप अनुक्रम [४४-४८] - ~321~ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: * प्रत - सूत्रांक [३८] * *- गाथा: णं परिवायगाणं णो कप्पइ अयबंधणाणि वा तउअबंधणाणि वा तंबबंधणाणि जाव बहुमुल्लाणि धारित्तए,5 तेसि णं परिवायगाणं णो कप्पड़ णाणाविहवण्णरागरत्ताई वस्थाई धारिसए, णपणत्थ एकाए धाउरत्साए, तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पड हारं वा अद्भहारं वा एकावलिं वा मुत्तावलिं वा कणगावलि वा रयणावलि वा मुरर्वि वा कंठमुरविं वा पालंबं घा तिसरयं वा कडिसुत्तं वा दसमुद्दिआणतकं वा कडयाणि वा तुडियाणि वा अंगयाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा मउडं वा चूलामणिं वा पिणद्वित्तए, णपणत्य एकेणं तंबिएणं पवित्तएणं, तेसि णं परिवायगाणंणो कप्पइ गंथिमवेढिमपूरिमसंघातिमे चउव्यिहे मल्ले धारित्तए, णपणत्थ एगेणं कण्णपूरेणं, तेसि णं परिव्वायगाणं णो कप्पइ अगलुएण वा चंदणेण वा कुंकुमेण वा गायं अणुलिंपित्तए, णपणत्य एकाए गंगामहिआए, तेसि णं कप्पद मागहए पत्थए जलस्स पडिगाहित्तए, सेऽधिय वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे, सेविय थिमिओदए णो चेव णं कद्दमोदए, सेऽविय बहुपसण्णे णो| चेव णं अबहुपसण्णे, सेविय परिपूए णो चेव णं अपरिपूए, सेविय णं दिण्णे नो चेव णं अदिपणे, सेऽविय पिवित्तए णो चेव णं हस्थपायचरुचमसपक्खालणाए सिणाइत्तए वा, तेसि णं परिवायगाणं कप्पड मागहए अदाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, सेऽविय वहमाणे णो चेव णं अवहमाणे जाव णो चेव णं अदिपणे, सेऽधिय हत्थपायचरुचमसपक्खालणट्टयाए णो चेव णं पिवित्तए सिणाइत्तए चा, ते णं परिवायगा एयारूपेणं विहारेणं | विहरमाणा बहूई वासाई परियाय पाउणंति बहई वासाई परियाय पाउणित्ता कालमासे कालं किया उको-II दीप अनुक्रम [४४-४८] KACAS ~322~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) ལྦ + ཛལླཱ ཡྻ [४४-४८] मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपातिकम् ॥ ९२ ॥ भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ (मूलं + वृत्ति:) सेणं बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववतारो भवति, तर्हि तेसिं गई तहिं तेसिं ठिई दस सागरोबमाई ठिई पण्णत्ता, सेसं तं चैव १२ ।। ( सू० ३८ ) । 'पuter] समण' ति निर्मन्था इत्यर्थः, 'कंदप्पिय' त्ति कान्दर्शिका:- नानाविधहासकारिणः 'कुकुश्य' त्ति कुकुचेनकुत्सितावस्पन्देन चरन्तीति कौकुचिकाः, ये हि धूनयनवदनकरचरणादिभिर्भाण्डा इव तथा चेष्टन्ते यथा स्वयमहसन्त एव परान् हासयन्तीति 'मोहरिय' ति मुखरा-नानाविधासम्बद्धाभिधायिनस्त एवं मौखरिका: 'गीयरइपिय' त्ति गीतेन या रती-रमणं क्रीडा सा प्रिया येषां गीतरतयो वा लोकाः प्रिया येषां ते तथा 'सामण्णपरियागं' ति श्रामण्यपर्याय साधुत्वमित्यर्थः ' पाउणति' त्ति प्रापयन्ति पूरयन्तीत्यर्थः ११ ॥ 'परिचायग' त्ति मस्करिणः 'संख' त्ति साङ्ख्याः बुद्ध्यहङ्कारा|दिकार्यग्रामवादिनः प्रकृतीश्वरयोः जगत्कारणत्वमभ्युपगताः 'जोई' ति योगिनः अध्यात्मशास्त्रानुष्ठायिनः 'कविल' ति कपिलो देवता येषां ते कापिलाः, साङ्ख्या एव निरीश्वरा इत्यर्थः, 'भिउच्च' त्ति भृगुः - लोकप्रसिद्ध ऋषिविशेषस्तस्यैते शिष्या | इति भार्गवाः, 'हंसा परमहंसा बहुउदगा कुलिवया' इत्येते चत्वारोऽपि परिव्राजकमते यतिविशेषाः, तत्र हंसा ये पर्वतकुहरपधाश्रमदेवकुलारामवासिनो भिक्षार्थं च ग्रामं प्रविशन्ति, परमहंसास्तु ये नदीपुलिनसमागमप्रदेशेषु वसन्ति चीरकौ | | पीनकुशांश्च त्यक्त्वा प्राणान् परित्यजन्ति, बहूदकास्तु ग्रामे एकरात्रिका नगरे पञ्चरात्रिकाः प्राप्तभोगांश्च ये भुञ्जन्त इति, | कुटीव्रताः- कुटीचराः, ते च गृहे वर्तमाना व्यपगतक्रोध लोभमोहाः अहङ्कारं वर्जयन्तीति, 'कण्हपरिधायग' त्ति कृष्णपरित्राजकाः परिब्राजकविशेषा एव, नारायणभक्तिका इति केचित् कण्ड्वादयः षोडश परिव्राजका लोकतोऽवसेयाः, 'रिङवेदज Education Internationa For Parts Only ~323~ परिव्राज० सु० ३८ ॥ ९२ ॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] गाथा: जुबेदसामवेयअहवणवेद' त्तिइह षष्ठीबहुवचनलोपदर्शनात् ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदाथर्ववेदानामिति दृश्यं, 'इतिहासपंचमाण प्रति इतिहासः पुराणमुच्यते 'निग्पंदुछहाण' ति निर्घण्टुः नामकोशः 'संगोवंगाण' ति अङ्गानि-शिक्षादीनि उपाङ्गानि-तदुः। &कप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः 'सरहस्साणं ति ऐदम्पर्ययुक्तानामित्यर्थः 'चउण्हं वेयाण' ति व्यकं 'सारय' त्ति अध्यापनद्वारेण प्रवर्तकाः स्मारका वा अन्येषां विस्मृतस्य स्मारणात् 'पारय' ति पर्यन्तगामिनः 'धारय' त्ति धारयितुं क्षमाः 'सडंगवी'त्ति षडङ्गविदः-शिक्षादिविचारकाः 'सहितंतविसारय' त्ति कापिलीयतन्त्रपण्डिताः 'संखाणे' त्ति सङ्ख्याने-गणितस्कन्धे सुप |रिनिष्ठिता इति योगः, अथ पडङ्गानि दर्शवनाह-सिक्खाकप्पे त्ति शिक्षा च-अक्षरस्वरूपनिरूपकं शास्त्रं कल्पश्च-तथावि|धसमाचारनिरूपकं शाखमेवेति शिक्षाकल्पस्तत्र, 'वागरणे' त्ति शब्दलक्षणशाने 'छंद त्ति पद्यवचनलक्षणशास्त्रे 'निरुचे। त्ति शब्दनिरुतिप्रतिपादके 'जोइसामयणे' त्ति ज्योतिषामयने-ज्योतिःशाखे अन्येषु च बहुषु 'बंभण्णएसु य' ति बाहाण-| केषु च-वेदव्याख्यानरूपेषुब्राह्मणसंबन्धि शास्त्रेवागमेषु बा, वाचनान्तरे 'परिवायएसु थ नएसुत्ति परिव्राजकसम्बन्धिषु च नयेषु-न्यायेषु 'सुपरिनिडिया यावि होत्य' त्ति सुनिष्णाताश्चाप्यभूवन्निति, 'आघवेमाण' त्ति आख्यायन्तः-कथयन्तः 'पण्ण॥ वेमाण' ति बोधयन्तः 'पख्वेमाण' ति उपपत्तिभिः स्थापयन्तः 'चोक्खा चोक्खायार'त्ति चोक्षा-विमलदेहनेपथ्याः चोक्षा| चारा-निरवद्यव्यवहाराः, किमुक्तं भवतीत्याह-'सुई सुईसमायर'त्ति, 'अभिसेयजलपूयप्पाणो'त्ति अभिषेकतो जलेन पूयत्ति-पवित्रित आत्मा यैस्ते तथा 'अविग्घेणं' विनाभावेन, 'अगडं वत्ति अवट-कूपं 'वाविवत्ति वापी-चतुरस्रजलाशयविशेष: 'पुक्खरिणी वत्ति पुष्करिणी वर्तुलः स एव पुष्करयुक्तो वा 'दीहियं बत्ति दीपिका-सारणी 'गुंजालियं वत्ति दीप अनुक्रम [४४-४८] ~324 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- प्रत तिकम् परिव्राजा सूत्रांक ॥ १३ ॥ सू० [३८] SACRORSCORRESSSR गाथा: गुञ्जालिका-बक्रसारणी 'सरसिं वत्ति क्वचिदृश्यते तत्र महत्सरः सरसीत्युच्यते, 'नण्णत्थ अद्धाणगमणेणं ति न इति यो निषेधः सोऽम्यवाध्वगमनादित्यर्थः, 'सगडं वे'त्यत्र यावत्करणादिदं दृश्य-रहं वा जाणं वा जुग्ग वा गिलि वा थिलिं वा पवहणं वा सीयं वेति एतानि च मागिव व्याख्येयानीति, 'हरियाणं लेसणया वत्ति संश्लेषणता 'घट्टणया वत्ति साहन | 'थंभणया वत्ति स्तम्भनम्-उर्वीकरणं 'लूसणया वत्ति क्वचित्तत्र लूपण-हस्तादिना पनकादेः सम्मार्जनं 'उष्पाडणया वा' उन्मूलनं, 'अयपायाणि वेत्यादिसूत्रे यावत्करणात् पुकसीसकरजतजातरूपकाचवेडन्तियवृत्तलोहकसलोहहारपुटकरीतिकामणिशाकदन्तचर्मचेलशैलशब्दविशेषितानि पात्राणि दृश्यानि, 'अण्णयराणि वा तहप्पगाराणि महद्धणमोल्लाई' इति च दृश्यं 3 तत्रायो-लोहं रजत-रूप्यं जातरूपं-सुवर्ण काचः-पापाणविकारः बेडंतियत्ति-रूढिगम्यं वृत्तलोह-त्रिकुटीति यदुय्यते | कांस्थलोह-कांस्यमेव हारपुटक-मुक्ताशुक्तिपुटं रीतिका-पीतला अन्यतराणि वा एषां मध्ये एकतराणि एतव्यतिरिक्तानि वा तथाप्रकाराणि भोजनादिकार्यकरणसमर्थानि महत्-प्रभूतं धनं-द्रव्यं मूल्य-प्रतीतं येषां तानि तथा अलावुपाएणं'ति अलाबुपात्रात् तुम्बकभाजनादित्यर्थः,तथा अयबन्धणाणि 'त्यत्र यावरकरणात् त्रपुकवन्धनादीनि शैलबन्धनान्तानि पात्राणि दृश्यानि, 'अण्णयराई तहप्पगाराई महणमुताई' इत्येतच्च दृश्यमिति, पुस्तकान्तरे समग्रमिदं सूत्रद्वयमस्त्येवेति, 'णण्णत्थ |एगाए धाउरत्ताएत्ति इह युगलिकयेति शेषो दृश्यः, हारादीनि प्राग्वत् , नवरं 'दसमुद्दियार्णतय'ति रूढशब्दत्वादस्य हस्ताङ्गुलीमुद्रिकादशकमित्यर्थः, 'पवित्तएण'त्ति पवित्रकम्-अङ्गलीयकं गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमे'त्ति प्रन्थिम-मन्थनेन निवृत मालारूपं वेष्टिम-मालावेष्टननिर्वृत्तं पुष्पलम्बूसकादि पूरिमं-पूरणनिर्वृत्तं वंशशलाकाजाल कपूरणमयमिति सङ्का ९ दीप अनुक्रम [४४-४८] ~325~ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [...३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] गाथा: तिम-सङ्घातेननिवृत्तम् इतरेतरस्य नालप्रवेशनेन मल्लेत्ति-माल्यानि मालायां साधूनि तस्य हितानि वेति पुष्पाणीत्यर्थः 'कण्णपूरएणति कर्णपूरकः-पुष्पमयः कर्णाभरणविशेषः 'मागहए पत्थए'त्ति दो असईओ पसई दोहिं पसईहिं सेइया होइ । चउसेइओ उ कुलओ चउकुलओ पत्थओ होइ॥१॥ चउपत्थमाढयं तह चत्तारि य आढया भवे दोणो' इत्यादिमानलक्षणलक्षितो मागधप्रस्था, 'सेऽवि य वहमाणए'त्ति तदपि च जलं वहमान नद्यादिश्रोतोवत्ति व्याप्रियमाणं बा, 'थिमिओदए'त्ति स्तिमितोदकं यस्याधः कर्दमो नास्ति 'बहुपसन्नेत्ति बहुप्रसन्नम्-अतिस्वच्छं 'परिपूए'त्ति परिपूतं वस्त्रेण गालितं 'पिवि|सए'त्ति पातुं 'चरुचमस'त्ति चरुः-स्थालीविशेषश्चमसो-दर्विकेति १२ ॥ ३८ ॥ * तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिवायगस्स सत्त अंतेवासिसयाई गिम्हकालसमयंसि जेट्टामूल मासंसि गंगाए महानईए उभओकूलेणं कंपिल्लपुराओ णयराओ पुरिमतालं जयरं संपडिया विहाराए, तर णि तेसिं परिब्वायगाणं तीसे अगामियाए छिपणोवायाए दीहमद्धवाए अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से पुचग्गहिए उदए अणुपुष्येणं परिभुजमाणे झीणे, तए णं ते परिवाया झीणोदगा समाणा तहाए पार-IN ब्भमाणा पार २ उदगदातारमपस्समाणा अण्णमण्णं सद्दावे तिसद्दाबित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! | अम्ह इमीसे अगामिआए जाव अडवीए कंचि देसंतरमणुपत्ताणं से उदय जाव झीणे तं सेयं खलु देवाणु १ द्वे असती प्रसूतिः द्वाभ्यां प्रमृतिभ्यां सेतिका भवति । चतुःसेतिकस्तु कुलवश्चतुष्कुलयः प्रस्थो भवति ॥ १ ॥ चतुष्पस्थमाढकं तथा चत्वारि आदकानि भवेद द्रोणः ॥ दीप अनुक्रम [४४-४८] SAREILLEGunintentmatka अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~326~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् ॥९४॥ प्रत सूत्रांक [३९]] प्पिया! अम्ह इमीसे अगामियाए जाव अडवीए उदगदातारस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं करित्तए । त्तिकट्ठ अण्णमण्णस्स अंतिए एअम पडिसुणंति रत्ता तीसे अगामियाए जाव अडवीए उद्गदातारस्स सब्बओ सू०३९ समता मग्गणगवेसणं करेइ करित्ता उदगदातारमलभमाणा दोचंपि अण्णमण्णं सहावेन्ति सदावेत्ता एवं चयासी-इह णं देवाणुप्पिया! उद्गदातारो णत्थि तं णो खलु कप्पइ अम्ह अदिण्णं गिण्हित्तए अदिण्णंद सातिजित्तए, तं मा णं अम्हे इयाणिं आवइकालंपि अदिपणं गिण्हामो अदिण्णं सादिजामो मा || अम्हं तवलोवे भविस्सइ, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया! तिदंडयं कुंडियाओ य कंचणियाओ। |य करोडियाओ य भिसियाओ य छपणालए य अंकुसए य केसरीयाओ य पवित्तए य गणेत्तियाओ य छत्तए य वाहणाओ य पाउयाओ य धाउरत्ताओ य एगते एडित्ता गंगं महाणई ओगाहित्ता वालुअ|संधारए संथरित्ता संलेहणाझोसियाणं भत्तपाणपडियाइक्खियाणं पाओवगयाणं कालं अणवखमा-15 णाणं विहरित्तएत्तिकट्ठ अण्णमण्णस्स अंतिए एअमठं पडिसुणंति, अण्णमण्णस्स अंतिए पडिसुणित्ता तिर्दडए य जाव एगते एडेइ २ गंगं महाणई ओगाहेतिरत्ता वेलुआसंधारए संथरंति वालुयासंथारयं दुरुहिंति, वारत्ता पुरत्याभिमुहा संपलियंकनिसन्ना करयलजावकटु एवं वयासी-मोऽत्थु णं अरहंताणं जाव संप- ॥९४॥ ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स, नमोऽत्थुणं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अम्हं धम्मायरियस्स धम्मोबदेसगस्स, पुर्वि णं अम्हे अम्मडस्स परिव्वायगस्स अंतिए थूलगपाणाइ दीप अनुक्रम ४ि९ SARERatinintainarana अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~327~ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] -452545455%A5%85 ट्रवाए पञ्चक्खाए जावजीवाए मुसाबाए अदिण्णादाणे पञ्चक्खाए जावज्जीवाए सब्वे मेहुणे पचक्खाए जाव-18 ★ जीवाए थूलए परिग्गहे पचक्खाए जावजीवाए इयाणि अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सच है। पाणाइवायं पचक्खामो जावजीवाए एवं जाब सव्वं परिग्गहं पचक्खामो जावज्जीवाए सव्वं कोहं माणं मायं लोहं पेज दोसं कलहं अभक्खाणं पेसुण्णं परपरिवायं अरहरई मायामोसं मिच्छादसणसल्लं अकर-15 |णिज्न जोगं पचक्खामो जावजीवाए सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउव्विहंपि आहारं पञ्चक्खामो जावजीवाए जंपि य इमं सरीरं इहुं कंतं पियं मणुपणं मणाम धेज वेसासियं संमतं बहुमतं अणुमतं भंडकरंडग-10 समाणं मा णं सीयं मा णं उहं मा णं खुहा मा णं पिवासा मा णं वाला मा णं चोरा मा ण दंसा मा णं || *मसगा मा गं वातियपित्तियसंनिवाइयविविहा रोगातका परीसहोवसग्गा फुसंतुसिकटु एयंपिणं चरमेहि ऊसासणीसासेहिं वोसिरामित्तिकट्ठ संलेहणाझसणाझूसिया भत्तपाणापडियाइक्खिया पाओवगया कालं अणवखमाणा विहरंति, तए णं ते परिवाया बहुई भत्ताई अणसणाए छेदेन्ति छेदिसा आलोइअपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं किचा बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववण्णा, तहिं तेसिं गई दससागरोवमाई ठिई| | पपणत्ता, परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेव १३ (सू०३९)॥ | अथ ये चरकपरिवाजका ब्रह्मलोकं गतास्तदुपदर्शनेनाधिकृतार्थ समर्थयन्नाह-'तेण' मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'जेहामूलमासंसित्ति ज्येष्ठा मूलं वा नक्षत्रं पौर्णमास्यां यत्र स्यात् स ज्येष्ठामूलो मासः, ज्येष्ठ इत्यर्थः, 'अगामियाए'त्ति अविद्यमा दीप अनुक्रम 45-45-45 ४ि९ अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपातिकम् RECENE प्रत सूत्रांक नग्रामायाः 'छिन्नावाए'त्ति छिन्ना-व्यवच्छिन्नाः आपाता:-सार्थगोकुलादिसम्पाता यस्यां सा तथा तस्याः 'दीहमद्धापत्तिा अम्बड दीर्घावन दीर्घमार्गाया इत्यर्थः 'सदावितित्ति शब्दयन्ति-सम्भाषन्ते 'भग्गणगवेसणंति मार्गणं च-अन्वयधमैरन्वेषणं गवे-18 सू० ३९ पणं च-व्यतिरेकधमैरन्वेषणमेवेति मार्गणगवेषणं 'साइजित्तए'त्ति स्वादयितुं-भोक्तुमित्यर्थः, कचित्तु अदिन्नं साइजित्तए'त्ति पाठः, तत्र 'भुजित्तए'त्ति भोक्तुं 'साइजित्तए'त्ति भोजयितुं भुञ्जानं वाऽनुमोदयितुमिति व्याख्येयं, 'तिदंडए'त्ति त्रयाणां दण्डकानां समाहारखिदण्डकानि 'कुंडियाओ यत्ति कमण्डलयः 'कंचणियाओ यत्तिकाञ्चनिका:-रुद्राक्षमयमालिकाः 'करोडियाओ य'त्ति करोटिका:-मृण्मयभाजनविशेषाः 'भिसियाओ यत्ति वृषिका-उपवेशनपट्टडिकाः 'छपणालए यत्ति षण्ना लकानि त्रिकाठिकाः 'अंकुसाए यत्ति अङ्कुशका:-देवार्थनार्थं वृक्षपल्लवाकर्षणार्थ अकुशकाः 'केसरियाओ य' त्ति केश४ रिका:-प्रमार्जनार्थानि चीवरखण्डानि 'पवित्तए यत्ति पवित्रकाणि-तारमयान्यङ्गलीयकानि गणेत्तियाओ यत्ति गणेत्रिका:-हस्ताभरणविशेषः छत्रकाण्युपानश्च प्रतीताः, 'धाउरत्ताओ यत्ति धातुरक्ता-गैरिकोपरञ्जिताः शाटिका इति गम्यं, 'पडिसुणेन्ति'त्ति प्रतिशृण्वन्ति-अभ्युपगच्छन्ति, 'संपलियंकनिसन्नत्ति सम्पर्यङ्कः-पद्मासन, प्राणातिपातादिव्याख्या पूर्ववत्, शरीरविशेषणव्याख्या त्वेवम्-'इति वल्लभं 'कंतंति कान्तं काम्यत्वात् 'पिय'त्ति प्रियं सदा प्रेमविषयत्वात् 'मणुण्ण ति मनोज-सुन्दरमित्यर्थः, 'मणोमं ति मनसा अभ्यते-प्राप्यते पुनः पुनः संस्मरणतो यत्तन्मनोऽमं 'पेज'ति सर्व-18||॥ ९५ ॥ पदार्थानां मध्ये अतिशयेन नियत्वात् प्रेयः, प्रकर्षण वा इज्या-पूजाऽस्येति प्रेज्य, प्रेर्य वा कालान्तरनयनात् , 'थेजति क्वचित्तत्र स्थैर्यम्, अस्थिरेऽपि मूढैः स्थैर्यसमारोपणात् , 'वेसासिय'ति विश्वासः प्रयोजनमस्येति वैश्वासिकं, परशरीरमेव हि 31 दीप अनुक्रम R AL ४ि९ AREauratonintamational अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्तिः ) ----------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] प्रायेणाविश्वासहेतुर्भवतीति,'समय'ति सम्मतं तत्कृत कार्याणां सम्मतत्वात् 'बहुमयंति बहुशो बहूनां वा मध्ये मतम्-इष्टं यत्त बहुमतम् 'अणुमय'ति वैगुण्यदर्शनस्यापि पश्चान्मतमनुमतं 'धुंडकरंडगसमाण'ति आभरणकरण्डकतुल्यमुपादेयमित्यर्थः, तथा | Fil'मा णं सीय' मित्यादि व्यक्तं, नवरं माशब्दो निषेधार्थः, णकारो वाक्यालङ्कारार्थः, इह च स्पृशत्विति यथायोग योजनीयम् , अथवा'मा 'तिमा एतच्छरीरमिति व्याख्येयं, माणं वालत्ति व्यालाः-श्वापदभुजगारोगायकत्ति रोगा:-कालमहाव्याधयः आतङ्काः-त एव सद्योघातिनः 'परीसहोवसग्ग'त्ति परीपहा:-क्षुदादयो द्वाविंशतिः उपसर्गा-दिव्यादयः 'फुसंतु' स्पृशन्तु इतिकट्ठत्ति इतिकृत्वा इत्येवमभिसन्धाय यत्पालितमिति शेषः, 'एयपि णति एतदपि शरीरं 'वोसिरामित्ति कटु' इत्यत्र त्तिकट्ठत्ति-इतिकृत्वा इति विसर्जनं विधाय विहरन्तीति योगः, 'सलेहनाथूसियत्ति संलेखना-शरीरस्य तपसा कृशीकरणं तां । तया वा 'झूसिअ'त्ति जुष्टा वा सेविता येते तथा 'संलेहणझूसणाझूसिय'त्ति कचित् तत्र संलेखनायां-कषायशरी-15 * रकृशीकरणे या जोषणा-प्रीतिः सेवा वा 'जुषी प्रीतिसेवनयो' रिति वचनात् सा तथा तया तां या ये जुष्टाः-सेवितास्ते & तथा संलेखनाजोषणाया वा झूसियत्ति-दूषिताः क्षीणा येते तथा, 'भत्तपाणपडियाइक्खिय'त्ति प्रत्याख्यातभक्तपानाः BI'पाओवगया' पादपोपगता वृक्षवन्निष्पन्दतयाऽवस्थिता इत्यर्थः, 'कालं अणवखमाण'त्ति मरणमनवका इन्क्षन्तः, आका-12 क्षन्ति हि मरणमतिकष्टं गताः केचनेति तन्निषेध उक्तः 'अणसणाए छेइंति'त्ति अनशनेन व्यवच्छिन्दन्ति-परिहरन्तीत्यर्थः, &ाएते च यद्यपि देशविरतिमन्तस्तथापि परिव्राजकक्रियया ब्रह्मलोकं गता इत्यवसेयम्, अन्यथैतगणनं वृथैव स्याद्, देश दीप अनुक्रम ४ि९ SARERatininemarana अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~330~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् प्रत सूत्रांक [३९] विरतिफलं त्वेषां परलोकाराधकत्वमेवेति, न च ब्रह्मलोकगमनं परिव्राजकक्रियाफलमेषामेवोच्यते, अन्येषामपि मिथ्या-5 ४ देशां कपिलप्रभृतीनां तस्योक्तत्वादिति १३ ॥ ३९॥ बहुजणे गं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइक्खद एवं भासह एवं परूवेइ एवं खलु अंबडे परिव्वायए कंपिलपुरे णयरे घरसते आहारमाहरेइ, घरसए वसहिं उबेइ, से कहमेयं भंते ! एवं?, गोयमा!, जपणं से बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-एवं खलु अम्मडे परिब्वायए कंपिल्लपुरे जाव घरसए वसहि ट्र उवेद, सचे णं एसमडे, अहंपिणं गोयमा! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि-एवं खल अम्मडे परिब्वायए|| जाव वसहिं उबेइ । से केणढे णं भंते ! एवं चुचइ-अम्मडे परिब्वायए जाव वसहिं उचेह, गोयमा!, अम्मडस्स णं परिब्वायगस्स पगइभद्दयाए जाव विणीयाए छटुंछठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उडे वाहाओ गिज्झिय २ सूराभिमुहस्स आतावणभूमीए आतावेमाणस्स सुभेणं परिणामेणं पसत्थाहिं लेसाहिं विसु* ज्झमाणीहिं अन्नया कयाइ तदावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहाबूहामग्गणगवेसणं करेमाणस्स वीरियलद्धीए वेठब्वियलद्धीए ओहिणाणलद्धी समुप्पण्णा, तए णं से अम्मडे परिव्वायए ताए वीरियलडीए उब्वियलद्धीए ओहिणाणलडीए समुप्पण्णाए जणविम्हावणहेर्ड कंपिल्लपुरे घरसए जाव धसहि उवेइ, से तेणट्टेणं गोयमा! एवं वुचई-अम्मडे परिव्वायए कंपिल्लपुरे णयरे घरसए जाव वसहिं उवेइ । पह णं भंते? दीप अनुक्रम [४ ] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~331~ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०] % अम्मडे परिव्वायए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइत्तए ?, णोइणड्ढे समहे, गोयमा! अम्मडे णं परिब्वायए समणोवासए अभिगयजीवाजीचे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरह, णवरं जसियफलिहे अवंगुदुवारे चियत्तंतेउरघरदारपवेसी ण वुच्चइ अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स थूलए पाणाइवाए पञ्चक्खाए जावज्जीवाए जाव परिग्महे णवरं सव्वे मेहुणे पचक्खाए जावज्जीवाए, अम्मडस्स णं णो कप्पड़ अक्खसोतप्पमाणमेतंपि जलं सयराहं उत्तरित्तए णण्णस्थ अद्धाणगमणेणं, अम्मडस्स ण णो कप्पइ सगई एवं चेव भाणियन्वं जाव णण्णत्व एगाए गंगामट्टियाए, अम्मडस्स णं परिब्वायगस्स णो कप्पइ आहाक|म्मिए वा उद्देसिए वा मीसजाए इवा अज्झोअरए इ वा पूइकम्मे इ वा कीयगडे इ वा पामिचे इ वा अणिसिहे इ वा अभिहडे इ वा ठहत्तए वा रइत्तए वा कंतारभत्ते इ वा दुबिभक्खभत्ते इ वा पाहुणगभत्ते इ वा गिलाणभत्ते इ वा बद्दलियाभत्ते इ वा भोत्तए वा पाइत्तए वा, अम्मडस्स णं परिव्वायगस्स णो कप्प मूल भोयणे वा जाव बीयभोयणे वा भोत्तए वा पाइत्तए वा, अम्मडस्स णं परिब्वायगस्स चउब्धिहे अणत्थदंडे पञ्चक्खाए जावज्जीवाए, तंजहा-अवज्झाणायरिए पमायायरिए हिंसप्पयाणे पावकम्मोवएसे, अम्मडस्स कप्पड मागहए अदाढए जलस्स पडिग्गाहित्तए सेऽविय वहमाणए नो चेव णं अवहमाणए जाव सेविय पूए नो चेव णं अपरिपूए सेविय सावजेत्तिकाऊंणो चेव णं अणवजे सेविय जीवा इतिकट्ठणो चेच १ नेदं प्रत्यन्तरे णवरमित्यावितः. -% 7 दीप अनुक्रम [५०] 5-45% अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~332~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०] औपपा- अजीवा सेऽविय दिपणे णो चेव णं अदिपणे सेऽविय दंतहत्थपायचाचमसपक्खालणड्याए पिवित्तए वा अम्मडा. तिकम् 18 णो चेव णं सिणाइत्तए, अम्मडस्स कप्पड़ मागहुए य आढए जलस्स पडिग्गाहित्तए, सेऽविय वहमाणे जाव 31 दिन्ने नो चेवणं अदिपणे सेऽविय सिणाइत्तए णो चेच णं हत्थपायचरुचमसपक्खालणठ्याए पिवित्तए वासू अम्मडस्स णो कप्पड अन्नउस्थिया वा अपणउत्थियदेवयाणि वा अण्णउत्थिपपरिग्गहियाणि वा चेहयाई वंदित्तए वा णमंसित्तए वा जाव पजुवासित्तए वा णण्णत्व अरिहंते चा अरिहंतचेइयाई वा । अम्मडे णं भंते ! परिव्वायए कालमासे कालं किचा कहिं गच्छिहिति? कहिउववजिहिति, गोयमा! अम्मडे णं परिब्वायए उच्चावएहिं सीलब्वयगुणवेरमणपश्चक्खाणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहई वासाई समणोवासयपरियायं पाउणिहिति २त्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सहि भत्ताई अणसणाए 2-13 दित्ता आलोइयपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा भलोए कप्पे देवत्ताए उववजिहिति, तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं अम्मडस्सवि देवस्स दस सागरोवमाई ठिई। से णं भंते ! अम्मडे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिहक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता R||||९७॥ - कहिं गच्छिहिति कहिं उववनिहिति', गोयमा! महाविदेहे वासे जाइंकुलाई भवंति अढाई दित्ताई वित्ताई विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणवाहणाई बहुधणजायरूवरययाई आओगपभोगसंपउत्ताई विच्छड्डियपउरभत्तपाणाई बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूयाई बहुजणस्स अपरिभूयाई तहप्पगारेसु कुलेसु -FFESCOREGAON दीप अनुक्रम [५०] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~333~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [५० ] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र - [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः पुमत्ताए पचायाहिति । तए णं तस्स दारगस्स गन्भत्थस्स चैव समाणस्स अम्मापिणं धम्मे दढा पतिष्णा भविस्सह, से णं तत्थ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं अट्टमाण इंदियाणं वीकंताणं सुकुमालपाणिपाए जाब ससिसोमाकारे कंते पिपदंसणे सुरूवे दारए पयाहिति, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं काहिंति, बिइयदिवसे चंदसूरदंसणियं काहिंति, छडे दिवसे जागरियं कार्हिति एक्कारसमे दिवसे वीतिते णिव्वित्ते असुजायकम्मकरणे संपत्ते वारसा हे दिवसे अम्मापियरो इमं एपारूवं गोणं गुणणिष्फण्णं णामघेज्जं काहिंति - जम्हा णं अम्हं इमंसि दारगंसि गन्भत्यंसि चैव समाणंसि धम्मे दढपइण्णा तं होउ णं अहं दारए दडपणे णामेणं, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो णामधेजं करेहिंतिदढपइण्णेत्ति । तं दृढपणं दारगं अम्मापियरो साइरेगढवासजातगं जाणित्ता सोभर्णसि तिहिकरणणक्खत्तमुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणेहिंति । तए णं से कलायरिए तं दडपणं दारगं लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ सउणरूप पज्जबसाणाओ बावन्तरि कलाओ सुत्ततो य अत्थतो य करणतोय सेहाविहिति सिखाविहिति, तंजहा - लेहं गणितं रूवं हं गीयं वाइयं सरगयं पुक्खरगयं समतालं जूयं जणवार्य पासकं अट्ठावयं पोरेकचं दगमट्टियं अण्णविहिं पाणविहिं वत्थविहिं विलेवणविहिं सयणविहिं अजं पहेलियं मागहियं गाहं गीयं सिलोयं हिरण्णजुत्ती सुवण्णत्ती गंधजुत्ती चुण्णजुत्ती आभरणविहिं तरुणीपडिकम्मं इत्थि१ दुक्खवज्ञातंति प्र० Education International अंबड-परिव्राजकस्य कथा For Parts Only ~ 334~ www.andrary or Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: तिकम् प्रत सूत्रांक [४०] लक्खणं पुरिसलक्खणं हयलक्खणं गयलक्खणं गोणलक्खणं कुक्कुडलक्खणं चकालक्खणं उत्सलक्खणं चम्म-18 अम्मदा औपपा |लक्खणं दंडलक्षणं असिलक्षणं मणिलक्षणं काकणिलक्षणं वत्थुविज खंधारमाणं नगरमाण वधुनिवेसणं | वह पडिरचार पडिचारं चक्कवूह गहलवूहं सगडवूहं जुई निजुडं जुद्धातिजुद्धं मुढिजुद्धं बाहुजुर लयाजुद्ध इसत्य छरुप्पवाहंधणुम्वेयं हिरण्णपागं सुवण्णपागं चट्टखेडं खुत्ताखेडेणालियाखेडं पत्तच्छेज कडवफछेज सज्जीवं|| निजीचं सउणरुतमिति बावत्तरिकला सेहाविति सिक्खावेत्ता अम्मापिईर्ण उवणेहिति । तए णं तस्स दढपइपणस्स दारगस्स अम्मापियरो तं कलायरियं विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य सकारहिंति सम्माणेहिंति सकारेत्ता सम्माणेत्ता विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलहस्सइ, विपुलं २त्ता पडिविसजेहिंति । तए णं से दढपइपणे दारए वावत्तरिकलापंडिए नवंगसुत्तपडिबोहिए अवारसदेसीभासाविसारए गीयरती गंधवणकुसले हयजोही गयजोहीरहजोही बाहुजोही बाहुप्पमही वियालचारी साहसिए अलं भोगसमत्थे आवि भविस्सइ । तए णं ढपइण्णं दारगं अम्मापियरो बावत्तरिकलापंडियं जाव अलं भोगसमत्थं | वियाणित्ता विउलेहि अण्णभोगेहिं पाणभोगेहिं लेणभोगेहिं वत्यभोगेहिं सयणभोगेहिं कामभोगेहि उवणिमं. तेहिंति, तए णं से दढपइण्णे दारए तेहिं विउलेहि अण्णभोगेहिं जाव सयणभोगेहिं णो सजिहितिणो रजिहिति पणो गिज्झिहिति णो अज्झोववजिहिति, से जहाणामए उप्पले इ वा पउमे इ वा कुसुमे इ वा नलिणे इ वा १ पब्मखेड्डु प्र०२ वेज्झखेडं प्र० ३ नेदं प्र० GANAGAR दीप अनुक्रम R ॥९८ [५०] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~335~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [५० ] मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) सुभगे ह वा सुगंधे इ वा पोंडरीए इ वा महापोंडरीए इ वा सतपत्ते इ वा सहस्सपत्ते इ वा सतसहस्सपत्ते इ वा पंके जाए जले संबुद्धे गोवलिप्पर पंकरएणं गोवलिव्ह जलरएणं, एवमेव दढपइण्णेवि दारए कामेहिं जाए भोगेहिं संबुडे गोवलिप्पिहिति कामरएणं णोवलिप्पिहिति भोगरएणं णोवलिप्पिहिति मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं, से णं तहारूवाणं घेराणं अंतिए केवलं बोहिं बुज्झिहिति केवलबोहिं बुज्झित्ता अगाराओ अणगारियं पञ्चहहिति । से णं भविस्सइ अणगारे भगवंते ईरियासमिए जाव गुत्तभयारी । तस्स णं भगवंतस्स एतेणं विहारेणं विहरमाणस्स अणते अणुत्तरे णिव्वाधार निरावरणे कसिणे पडिपुण्णे केवलवरणाणदंसणे समुप्पजिहिति । तए णं से दडपणे केवली बहूई वासाई केवलिपरियागं पाणिहिति, केवलिपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं सित्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेपत्ता जस्सहाए कीरइ णग्गभावे मुंडभावे अण्हाणए अदंतवणए केसलोए बंभचेरवासे अच्छत्तकं अणोवाहणकं भूमिसेज्जा फलहसेज्जा कहसेजा परधरपवेसो लद्धाबलद्धं परेहिं हीलणाओ खिंसणाओ जिंदणाओ गरहणाओ तालणाओ तज्जणाओ परिभवणाओ फवहणाओ उच्चावया गामकंटका वावी परीसहोवसग्गा अहियासिति तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं उस्सासणिस्सासेहिं सिज्झिहिति बुज्झिहिति मुचिहिति परिणिव्वाहिति सच्चदुक्खाणमंतं करेहित्ति ॥ १४ ॥ ( सू० ४० ) ॥ इहैव ज्ञातान्तरमाह-'बहुजणेण 'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'पगइभट्याए' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यं - 'पगइवसंतयाए Education Internation अंबड-परिव्राजकस्य कथा For Pale Only ~336~ waryra Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- अम्मड तिकम् ॥९९ ॥ प्रत सूत्रांक [४०] पगइतणुकोहमाणमायालोहयाए मिउमद्दवसंपण्णयाए अल्लीणयाए भद्दयाए'त्ति व्याख्या प्राग्वत् , 'अनिक्खित्तेणीति अवि श्रान्तेन 'पगिझिय'त्ति प्रगृह्य विधायेत्यर्थः, 'परिणामेण ति जीवपरिणत्या 'अज्झवसाणेहिति मनोविशेषैः 'लेसाहिति जा तेजोलेश्यादिकाभिः 'तदावरणिज्जाण'ति वीर्यान्तरवैक्रियलब्धिप्राप्तिनिमित्तावधिज्ञानावरणानामित्यर्थः, 'हापूहमग्गण|गवेसणंति इह ईहा-किमिदमित्थमुतान्यथेत्येवं सदालोचनाभिमुखा मतिः चेष्टा, व्यूह-इदमित्थमेवरूपो निश्चयः, मार्गणम्-अन्वयधर्मालोचनं यथा स्थाणी निश्चेतव्ये इहवल्युत्सर्पणादयः प्रायः स्थाणुधर्मो घटन्त इति, गवेषण-व्यतिरेकी-|| आलोचनं यथा स्थाणावेव निश्चेतन्ये इह शिरस्कण्डूयनादयः प्रायः पुरुषधर्मो न घटन्त इति, तत एपां समाहारद्वन्द्वः, 'वीरियलद्धीए'त्ति वीर्यलब्ध्या सह 'वेउवियलद्वीप'त्ति वैक्रियलब्ध्या सह 'ओहिणाणलद्धि'त्ति अवधिज्ञानलब्धिः समुत्पन्ना, वीर्यलब्ध्यादित्रयमुत्पन्नमित्यर्थः, वाचनान्तरे 'बीरियलद्धी घेउबियलद्धी'त्ति पठ्यते, यत्त्वचित् 'अम्म(म्ब)डे परिवायगे'त्ति दृश्यते तदयुक्तं, अम्मडे इत्येतस्य स्थानाङ्गादिपुस्तकेषु दर्शनात् , 'अहिगयजीवाजी' इत्यत्र यावरकरणादिदं दृश्यम्'उवलद्धपुण्णपावे 'आसवसंबरनिज्जरकिरियाहिगरणबंधमोक्खकुसले' आश्रवाः-प्राणातिपातादयः संवरा:-प्राणातिपातविरमणादयः निर्जरा-कर्मणो देशतः क्षपण, क्रिया:-कायिक्यादिकाः अधिकरणानि-खड्गादिनिर्वर्तनसंयोजनानि बन्धमोक्षौ-कर्मविषयो, एतेन चास्य ज्ञानसम्पन्नतोक्ता, 'असहेज'त्ति अविद्यमानसाहाय्यः कुतीधिकप्रेरितः सन् सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षत इति भावः, अत एवाह-'देवासुरनागसुवष्णजक्खरक्खसकिण्णरकिंपुरिसगरुलगंधवमहोरगाइएहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिजे इति देवा-वैमानिकाः असुरनागत्ति-असुरकुमारा नागकुमारा दीप अनुक्रम ॥९९। [५०] SARERatininemarana अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~337~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [५० ] भाग - १४ "औपपातिक" Eucation Internationa - मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः अंबड-परिव्राजकस्य कथा उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) श्चेति भवनपतिविशेषाः सुवण्णत्ति सद्वर्णा ज्योतिष्का इत्यर्थः कचिद्गरुडेत्ति नाधीयते, ततः सुवण्णेत्ति-सुवर्णकुमारा | भवनपतिविशेषाः यक्षराक्षस किशरकिम्पुरुषाः व्यन्तरभेदाः, गरुडत्ति-गरुडचिह्नाः सुवर्णकुमाराः, गन्धर्वमहोरगाश्च व्यन्तराः, 'इणमो निम्गन्थे पावयणे' त्ति अस्मिन्निर्मन्थे प्रवचने 'निस्संकिय'त्ति निःसन्देहः 'निकंखिय'त्ति मुक्तदर्शनान्तरपक्षपातः 'निबिगिच्छे'त्ति निर्विचिकित्सकः फलं प्रति निःशङ्कः 'लद्धडे'त्ति लब्धार्थोऽर्थश्रवणतः 'गहिय'त्ति गृहीतार्थो|ऽवधारणतः 'पुच्छियद्वेत्ति पृष्टार्थः संशये सति 'अहिगयङ्केत्ति अधिगतार्थोऽभिगतार्थो वा अर्थावबोधात् 'विणिच्छि | यद्वे'त्ति विनिश्चितार्थः ऐदम्पर्योपलम्भात्, अत एव 'अट्ठिमिंजपेम्माणुरागरत्ते' अस्थीनि च कीकसानि मिना च-तन्मध्यवर्ती धातुविशेषः अस्थिमिञ्जास्ताः प्रेमानुरागेण - सार्वज्ञप्रवचनप्रीतिलक्षणकुसुम्भादिरागेण रक्ता इव रक्ता यस्य स तथा, | केनोले खेनेत्याह-'अयमाउसो ! निग्गंथे पावयणे अड्डे अयं परमठ्ठे सेसे अणडे' त्ति, अयमिति प्राकृतत्वादिदम् 'आउसो' त्ति आयुष्मन्निति पुत्रादेरामन्त्रणं, क्वचित् 'इणमो निग्गन्थे' इति दृश्यते, 'सेसे'त्ति शेषं धनधान्यपुत्र कलत्रमित्रराज्यकुप्रवचनादिकमिति, 'ऊसियफलिहे त्ति उच्छ्रितम्-उन्नतं स्फटिकमिव स्फटिकं चित्तं यस्य स तथा, मौनीन्द्रप्रवचनावाघ्या परिपुष्टमना इत्यर्थः इति वृद्धव्याख्या, अन्ये खाहुः उच्छ्रितः - अर्गलास्थानादपनीयोर्ध्वकृतो न तिरश्चीनः, कपाटपश्चाजागादपनीत इत्यर्थः, उत्सृतो वा अपगतः परिघः - अर्गला गृहद्वारे यस्यासौ उच्छ्रितपरिष उत्सृतपरिघो वा, औदार्या|तिशयादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुकप्रवेशार्थमनर्गलितगृहद्वार इत्यर्थः, इदं च किलाम्मडस्य न सम्भवति, स्वयमेव तस्य For Pernal Use On ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा तिकम् अम्मला. ॥१०॥ प्रत सूत्रांक [४०] | भिक्षुकत्वाद्, अत एव पुस्तके लिखितं यथा 'ऊसियफलिहे'त्यादिविशेषणत्रय नोच्यते, 'अवंगुयदुवारे'त्ति अपावृत्तद्वार:| कपाटादिभिरस्थगितगृहद्वारः, सद्दर्शनलाभेन न कुतोऽपि पापण्डिकाद्विभेति, शोभनमार्गपरिग्रहेणोद्घाटशिरास्तिष्ठतीति || भाव इति वृद्धव्याख्या, केचित्त्वाहुः-भिक्षुकप्रवेशार्थमौदार्यादस्थगितगृहद्वार इत्यर्थः, इदं चाम्मडस्य न घटते, चियत्त-18 अंतेउरघरदारपवेसी'त्ति चियत्तोत्ति-लोकानां प्रीतिकर एव अन्तःपुरे वा गृहे वा द्वारे वा प्रवेशो यस्य स तथा, इन्प्रत्ययश्चात्र समासान्तः, अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीयोऽसाविति भावः, अन्ये वाहुः-चियत्तोत्ति-नाप्रीतिकरोऽन्तःपुरगृहे द्वारेण नापद्वारेण प्रवेशः-शिष्टजनप्रवेशनं यस्य स तथा, अनीयोलुताप्रतिपादनपरं चेत्थमिदं विशेषणं, न चाम्मडस्वेदं ५ घटते, अन्तःपुरस्यैवाभावादिति, क्वचिदेवं दृश्यते-'चियत्तघरतेउरपंवेसी ति चियत्तेत्ति-प्रीतिकारिण्येव गृहे वाऽन्तःपुरे वा प्रविशतीत्येवंशीलो यः स तथा, त्यको वा गृहान्त पुरयोरकस्मात् प्रवेशो चेन स तथा, 'चउद्दसअट्ठमुद्दिडपुण्णमासिणीसु' त्ति उद्दिष्टा-अमावास्या 'पडिपुण्णं पोसह अणुपालेमाणे'त्ति आहारपौषधादिभेदाच्चतूरूपमपीति, 'समणे निगथे फासुएसणिणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकम्बलपायपुच्छणेणं' अत्र च पडिग्गहत्ति-प्रतिग्रहः पतनहो |वा-पात्रं पायपुच्छणंति-पादप्रोक्षणं रजोहरणं 'ओसहभेसज्जेण'ति औषधम्-एकद्रव्याश्रयं भैषज्यं-द्रव्यसमुदायरूपमथवा औषधं-त्रिफलादि भैषज्यं-पथ्यं 'पाडिहारिएणं पीडफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाहेमाणे'त्ति प्रतिहारः-प्रत्यर्पणं प्रयोजन | ॥१०॥ १खावासस्थानापेक्षया वा स्यादपि, आगतस्यार्थिनो याचनापूर्णकिरणाद्वा, भक्ता वा तस्येदृशाः स्युर्ये तन्निवासस्थाने सत्रशाला तथा॥ विधां कुर्युः, उल्लिखितस्फटिकवद्वा निर्मलान्तःकरण इति बा, शेषपदद्वये तु न प्रथमव्याख्यानपक्षे दोषलेशावकाशः. दीप अनुक्रम [५०] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०] ट्र मस्येति प्रातिहारिकं तेन पीठम्-आसनं फलकम्-अवष्टम्भनार्थः काष्ठविशेषः शय्या-वसतिः शयनं वा यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते संस्तारको-लघुतरं शयनमेव 'सीलधयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे'त्ति शीलवतानि-अणुव्रतानि गुणा-गुणव्रतानि विरमणानि-रागादिविरतिप्रकाराः प्रत्याख्यानानिनमस्कारसहितादीनि पौषधोपवासः-अष्टम्यादिपर्वदिनेषूपवसनम्, आहारादित्याग इत्यर्थः, 'णो कप्पइ अक्खसोयप्पमाणमेत्तपि जलं सयराहं उत्तरित्तए' अक्षश्रोतःप्रमाणा-गन्त्रीचक्रनाभिच्छिद्रप्रमाणा मात्रा यस्य तत्तथा, सयराह-अकस्मात् | हेलयेत्यर्थः, 'आहाकम्मिए' इत्यादि व्यक्त, नवरं 'रइए इ बत्ति रचितम्-औद्देशिकभेदो यन्मोदकचूर्णादि पुनर्मोदक-15 तया कूरदध्यादिकं वा यत्करम्बकादितया विरचितं तद्रचितमित्युच्यते, इह चेतिशब्द उपप्रदर्शने, वाशब्दो विकल्पे, | 'कान्तारभत्ते इ वत्ति कान्तारम्-अरण्यं तत्र भिक्षुकाणां निर्वाहणार्थ यत्संस्क्रियते तत्कान्तारभक्तमिति, 'दुभिक्खभत्ते इव'त्ति दुर्भिक्षभक्तं यद्भिक्षुकार्थ दुर्भिक्षे संस्क्रियते, औदेशिकादिभेदाश्चैते, वद्दलियाभत्ते इ वत्ति वर्दलिका-दुर्दिनं 'गिलाण भत्ते इवत्ति ग्लानः सन्नारोग्याय यद्ददाति तद् ग्लानभक्त 'पाहुणगभत्ते इ वत्ति प्राघूर्णकः-कोऽपि क्वचिद्गतो यत्प्रतिसि*डये संस्कृत्य ददाति प्राघूर्णका वा-साध्वादय इहायाता इति यदापयति तत्वाघूर्णकभक्त 'मूलभोयणे इ वत्ति मूलानिमा पद्मासिन (पद्मसीना) टिकादीनां यावत्करणादिदं पदत्रयं दृश्यं 'कन्दभोयणे इ वत्ति कन्दा:-सूरणकन्दादयः 'फलभोयणे ४ इव'त्ति फलानि आधादीनां हरियभोयणे इवत्ति हरितानि-मधुरतृणकटुकभाण्डादीनि बीयभोयणे इ वत्ति बीजानि-शा*लितिलादीनि 'भोत्तए वत्ति भोक्तुं वा 'पायए वत्ति पातुं वा आधाकर्मकादिपानकादीनीति । अवज्झाणायरिए'त्ति अपध्या SALMANSAR दीप अनुक्रम [५०] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~340 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: IDIअम्मडा. सू०४० प्रत सूत्रांक [४०] औषपा-जानेन-आर्तादिना आचरित-आसेवितो यः अपध्यानस्य वा यदाचरितम्-आसेवनं सोऽनर्थदण्ड इति, 'पमादायरिए'त्ति तिकम् प्रमादेन-घृतगुडादिद्रव्याणां स्थगनादिकरणे आलस्यलक्षणेन आचरितो यस्तस्य वा यदाचरितं सोऽनर्थदण्डः प्रमादा- चरितः प्रमादाचरितं वेति 'हिंसप्पयाणे'त्ति हिंस्रस्य-खड्गादेः प्रदानम्-अन्यस्यार्पणं निष्प्रयोजनमेवेति हिंस्रप्रदान, 'पाव-|| ॥१०॥ कम्मोवएसे'त्ति पापकर्मोपदेशः-कृष्यायुपदेशः प्रयोजन विनेति, 'सावज्जेत्तिकट्ठ'त्ति यदिदं जलस्स परिमाणकरण तज्जलं सायद्यमितिकृत्वा, सावद्यमपि कथमित्याह-'जीवत्तिकट्ठ'त्ति जीवा अप्कायिका एत इतिकृत्वा, अथवा कस्मात्परिपूर्त | गृह्णातीत्यत आह-सावद्यमितिकृत्वा, एतदेव कुत इत्याह-जीवा इतिकृत्वा, पूतरकादिजीवा इह सन्तीतिकृत्वेति भावः। | 'अण्णउत्थिए वत्ति अन्ययूधिका-अर्हत्सवापेक्षया अन्ये शाक्यादयः 'चेझ्याईति अईचैत्यानि-जिनप्रतिमा इत्यर्थः |'णपणत्थ अरहतेहि वत्ति न कल्पते, इह योऽयं नेति प्रतिषेधः सोऽन्यत्राईन्न्यः, अहं तो वर्जयित्वेत्यर्थः, स हि किल परि प्राजकवेषधारकः अतोऽन्ययूधिकदेवतावन्दनादिनिषेधे अर्हतामपि वन्दनादिनिषेधो मा भूदितिकृत्वा णण्णस्थत्यायधीतं, 'उच्चावरहिति उच्चावचैः-उत्कृष्टानुत्कृष्टैः। 'आउक्खएण'ति आयुःकर्मणो दलिकनिर्जरणेन 'भवक्खएण'ति देवभवनिबन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेनेत्यर्थः, ठिइक्खएणति आयुःकर्मणस्तदन्येषां च केषाशित् स्थितेर्विदलनेनेति 'अणंतरं चर्य चइत्त'त्ति देवभवसम्बन्धिन चर्य-शरीरं त्यक्त्वा-विमुच्य अथवा 'चयं चइत्त'त्ति च्यवनं चित्वा-कृत्वेत्यर्थः, 'अहाईति परिपूर्णानि 'दित्ताईति दृप्तानि-दर्पवन्ति 'वित्ताईति वित्तानि-व्याख्यातानि शेषपदानि कूणिकवर्णकवद् व्याख्येयानि, 'तहप्पगारेसु कुलेसुत्ति इह कचित् कुले इत्ययं शेषो दृश्यः, 'पुमत्ताए'त्ति पुंस्त्वतया, पुरुषतयेत्यर्थः,18 दीप अनुक्रम ॥१०१ [५०] अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~341~ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०] 'पञ्चायाहिति'त्ति प्रत्याजनिष्यति उत्पत्स्यत इत्यर्थः, 'ठिइवडियं काहिति'त्ति स्थितिपतित-कुलकमान्तर्भूतं पुत्रजन्मोचित- 8 मनुष्ठानं करिष्यतः 'चंदसूरदसणिय'ति चन्द्रसूरदर्शनिकाभिधानं सुतजन्मोत्सवविशेष 'जागरियति रात्रिजागरिकां सुतजन्मोत्सवविशेषमेव 'निवत्ते असुइजायकम्मकरणे त्ति निवृत्ते-अतिक्रान्ते अशुचीनाम्-अशौचवतां जातकर्मणां-प्रसवव्या-1 |पाराणां यत्करणं-विधानं तत्तथा, तत्र 'बारसाहे दिवसे'त्ति द्वादशाख्ये दिवसे इत्यर्थः, अथवा द्वादशानामहां समा| हारो द्वादशाहं तस्य दिवसो येनासी पूर्णो भवतीति द्वादशाहदिवसस्तत्र 'अम्मापियरोत्ति अम्बापितरौ 'इमति इदं वक्ष्यमाणम्, अयमिति कचिदृश्यते, तच्च प्राकृतशैलीवशात् , 'एयारूवंति एतदेव रूपं-स्वभावो यस्य नान्यथारूपमित्येतद्रूपं 'गोणं'ति गौणं, किमुक्तं भवतीत्याह-'गुणनिप्फणं'ति गौणशब्दोऽअधानेऽपि वर्तत इत्यत उक्त गुणनिष्पन्नमिति, 'नाम-18 घेजति प्रशस्तं नामैव नामधेयम् , इह स्थाने पुस्तकान्तरे 'पंचधाइपरिग्गहिए' इत्यादि ग्रन्थो दृश्यते, सच प्राग्वद् व्याख्येयः किविच्च तस्य व्याख्यायते-'हत्था हत्थं संहरिजमाणे त्ति हस्ताद्धस्तान्तरं संहियमाणो-नीयमानः, अङ्कादर परिभुज्यमानः| उत्सङ्गादुत्सङ्गान्तरं परिभोज्यमानः उत्सझस्पर्शसुखमनुभाब्यमानः,'उवनच्चिजमाणे त्ति उपनय॑मानो नर्तनं कार्यमाण इत्यर्थः, | उपगीयमानः-तथाविधवालोचितगीतविशेषैर्गीयमानो गाप्यमानो वा 'उबलालिज्जमाणे'त्ति उपलास्यमानः क्रीडादिलालनया 'उवगूहिजमाणे'त्ति उपगूह्यमानः आलिजयमानः 'अवयासिज्जमाणे त्ति अपत्रास्यमानः अपगतत्रासः क्रियमाणः, अपयास्यमानो वा उत्कण्ठातिरेकान्निर्दयालिङ्गानेनापीव्यमानः, अप्रयास्यमानो वा समीहितपूरणेन प्रयासमकार्यमाणः, 'परिवंदि १ 'जनक जनने हादिरयम्' इति न्यायसहोक्ते भवति परस्मैपदेऽपि प्रयोगो जनेः. दीप अनुक्रम **50-9-464 [५०] SAREaratunintamnational अंबड-परिव्राजकस्य कथा ~342~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [५० ] मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपा तिकम् ॥१०२॥ भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) माणे 'त्ति परिवन्द्यमानः स्तूयमानः परिचुम्च्यमान इति व्यक्तं, 'परंगिजमाणे' ति परयमाणः चङ्क्रम्यमाणः, एतेषां च संद्रियमाणादिपदानां द्विर्वचनमाभीक्ष्ण्यविवक्षयेति 'निवाघायं'ति निर्वातं निव्योघातं च यगिरिकन्दरं तदालीन इति । अथा* धिकृतवाचना 'साइरेगडवरिसजायगं ति सातिरेकाण्यष्टौ वर्षाणि जातस्य यस्य स तथा तं 'अत्थउ'त्ति अर्थतो व्याख्यानतः 'करणओ य'त्ति करणतः प्रयोगत इत्यर्थः । 'सेहावेहिति' त्ति सेधयिष्यति निष्पादयिष्यति 'सिक्खावेहिति' शिक्षयिष्यतिअभ्यासं कारयिष्यति 'चिन्नयपरिणयमेत्ते'त्ति कचित्तत्र विज्ञ एव विज्ञकः स चासौ परिणतमात्रश्च बुद्ध्यादिपरिणामवानेव विज्ञकपरिणतमात्रः, इह मात्राशब्दो बुद्ध्यादिपरिणामस्याभिनवत्वख्यापनपरः, 'नवंगसुत्तपडिबोहिए'त्ति नवाङ्गानि द्वे श्रोत्रे द्वे नेत्रे द्वे घाणे एका च जिह्वा त्वगेका मनश्चैकमिति तानि सुप्तानीव सुप्तानि बाल्यादव्यक्तचेतनानि प्रतियोधि| तानि-यौवनेन व्यक्तचेतनावन्ति कृतानि यस्य स तथा, आह च व्यहारभाष्ये 'सोत्ताई नव सुत्ताई' इत्यादि, 'हयजोही 'त्ति हयेन-अम्बेन युध्यत इति हययोधी एवं रथयोधी बाहुयोधी च, 'बाहुप्रमदी'ति बाहुभ्यां प्रातीति बाहुप्रमद 'वियालचारी' ति साहसिकत्वाद्विकालेऽपि रात्रावपि चरतीति विकालचारी, अत एव साहसिकः- सात्त्विकः 'अलं भोगसमत्थेति अत्यर्थ भोगानुभवनसमर्थः, 'णो सज्जिहिति'त्ति न स-सम्बन्धं करिष्यति 'णो रजिहिति'त्ति न रागं-प्रेम भोगसम्बन्धहेतुं करिष्यति 'नो गिज्झिहिति'त्ति नाप्राप्तभोगेष्वाकाङ्क्षां करिष्यतीति 'णो अज्झोववज्जिहिति' ति नाध्युपपत्स्यते-नात्यन्तं तदेकाग्रमना भविष्यतीति 'से जहाणामए त्ति से इति अथशब्दार्थे अथशब्दश्च वाक्योपक्षेपार्थः, नामेति १ श्रोत्रादीनि नव सुप्तानि. Education Internation अंबड-परिव्राजकस्य कथा For Parts Only ~343~ अम्मडा० सू० ४० ॥१०२॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४०] दीप अनुक्रम [५० ] भाग - १४ "औपपातिक" Eaton Intervation - मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः अंबड-परिव्राजकस्य कथा उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) सम्भावनायाम्, एवंशब्दो वाक्यालङ्कारार्थः, 'उप्पलेति वा' उत्पलमिति वा, उत्पलादिपदानां चार्थभेदो वर्णादिभिर्लोकतोऽवसेयो, नवरं पुण्डरीकं-सितपद्मं 'पंकरणं'ति पङ्क-कर्दमः स एव रजः पद्मस्वरूपोपरञ्जनात् लक्ष्णावयवरूपत्वेन वा रेणुतुल्यत्वादिति, 'कामरएणं ति कामः शब्दो रूपं च स एव रजः कामरजस्तेन 'भोगरणं'ति भोगो-गन्धो रसः स्पर्शश्च 'मित्तणाइणियगसयणसंबंधिपरिजणेणं ति मित्राणि सुहृदः ज्ञातयः सजातीयाः निजका भ्रातृपुत्रादयः स्वजनामातुलादयः सम्बन्धिनः- श्वशुरादयः परिजनो - दासादिपरिकरः 'केवलं वोहिं बुजिहित्ति विशुद्धं सम्यग्दर्शनमनुभवि व्यति तलप्स्यत इत्यर्थः, 'अनंते'त्यादि, 'अनन्तम्'--अनन्तार्थविषयत्वात् 'अनुत्तरं 'सर्वोत्तमत्वात् 'निर्व्याघातं' कटकुव्या| दिभिरप्रतिहतत्वात् 'निरावरणं' क्षायिकत्वात् 'कृत्स्नं 'सकलार्थग्राहकत्वात् 'प्रतिपूर्ण' सकलस्वांशसमन्वितत्वात् 'केवलवरणाणदंसणे'त्ति केवलम् - असहायं अत एव वरं ज्ञानं च दर्शनं चेति ज्ञानदर्शनं ततः प्राक्पदाभ्यां कर्मधारयः, तत्र ज्ञानं विशेषावयोधरूपमिति दर्शनं- सामान्यावबोधरूपमिति, 'हीरणाओ'त्ति जन्मकर्म मर्मोद्घट्टनानि 'निंदणाओ' त्ति मनसा कुत्सनानि 'खिंसणाओ 'ति तान्येव लोकसमक्षं 'गरणाओ'त्ति कुत्सनान्येव च गर्हणीयसमक्षाणि 'तजणाओ'त्ति शिरोऽ| ङ्गुल्यादिस्फोरणतो ज्ञास्यसि रे जाल्मेत्यादिभणनानि 'तालणाओ'ति ताडना:- चपेटादिदानानि परिभवणाओ'त्ति आभाव्यार्थपरिहारेण न्यक्क्रियाः, 'पवहणाओ'त्ति प्रव्यथना भयोत्पादनानि 'उच्चावय'त्ति उत्कृष्टेतराः 'गामकंटय'त्ति इन्द्रियग्रामप्रतिकूला इति 'सिज्झिहिर'त्ति सेत्स्यति - कृतकृत्यो भविष्यति 'बुज्झिहिइ'त्ति भोत्स्यते- समस्तार्थान् केवलज्ञानेन 'मुचि For Parts Only ~344~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ॥१०॥ प्रत सूत्रांक [४०] जीवोप. औपपा- हिइत्ति मोक्ष्यते सकलकाँशैः परिणिवाहिइत्ति परिनिर्वास्यति कर्मकृत्तसन्तापाभावेन शीतीभविष्यति, किमुक्तं भव-|| तिकम् ति..-'सबदुक्खाणमंतं काहिइ'त्ति व्यक्तमेवेति १४ ॥ ४०॥ ॐ सू०४१ II से इमे गामागर जाच सण्णिवेसेसु पब्वइया समणा भवंति, तंजहा-आयरियपरिणीया उषज्झायपडिमणीया कुलपडिणीया गणपडिणीया आयरियउवज्झायाणं अयसकारगा अवण्णकारगा अकित्तिकारगा बह हिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्साभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा बुप्पाएमाणा विहरित्सा वह वासाई सामपणपरियागं पाउणंति बहु० तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिकंता कालमासे कालं किचा उक्कोसेणं लंतए कप्पे देवकिग्विसिएमु देवकिञ्चिसियत्साए उबवत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गती तेरससागरोवमाई ठिती अणाराहगा सेसं तं चेच १५ । सेजे इमे सणिपंचिंदियतिरिक्खजोणिया पजत्तया भवंति, तंजहा-जलयरा खयरा थलयरा, तेसि णं अत्थेगइयाणं सुभेणं परिणामेणं पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं लेसाहिं विमुज्झमाणाहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहावूहमग्गणगवेसणं करेमाणाण सपणीपुब्ब|जाईसरणे समुप्पजइ । तए णं ते समुप्पण्णजाइसरासमाणा सयमेव पंचाणुब्बयाई पडिवजति पडिवजित्ता बहहिं सीलव्ययगुणवेरमणपचक्याणपोसहोववासेहिं अप्पाणं भावमाणा बहई वासाई आउयं पालेंति | पालित्ता भत्तं पच्चक्खंति बहई भत्ताई अणसणाए छेयंति २त्ता आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे | कालं किचा उकोसेणं सहस्सारे कप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तर्हि तेर्सि गती अट्ठारस सागरोवमाई दीप अनुक्रम ॥१०३५ [५०] ~345 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ACANADANG प्रत सूत्रांक [४१] ठिती पण्णता, परलोगस्स आराहगा, सेसं तं चेव १६।से जे इमे गामागर जाव संनिवेसेसु आजीविका भवंति, तंजहा-दुघरंतरिया तिघरंतरिया सत्तघरंतरिया उप्पलटिया घरसमुदाणिया विजुअंतरिया उट्टियासमणा, तेणं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणा बहूई वासाई परियाय पाउणित्ता कालमासे कालं किचा उक्कोसेणं |अजुए कप्पे देवत्ताए उबवत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गती बावीसं सागरोबमाई ठिती, अणाराहगा, सेसं तं घेव १७ । से जे इमे गामागर जाव सपिणवेसेसु पब्वइया समणा भवंति, तंजहा-अत्तुकोसिया परपरिवाइया भूइकम्मिया भुजोर कोज्यकारका, ते णं एयारवेणं विहारेण विहरमाणा बहई वासाई सामपणपरियागं पाउणंति पाउणित्ता तस्स ठाणस्स अणालोइयअपडिता कालमासे कालं किया उकोसेणं| अञ्चुए कप्पे आभिओगिएम देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तर्हि तेर्सि गई बावीसं सागरोवमाई ठिई परलोगस्स अणाराहगा, सेसं तं चेव.१८ । सेजे इमे-गामागर जाव सण्णिवेसेसु णिण्हगा भवंति, तंजहा|बहुरया १ जीवपएसिया २ अन्वत्तिया ३ सामुच्छेइया ४ दोकिरिया ५ तेरासिया ६ अबद्धिया ७ इचेते सत्त पवयणणिपहगा केवल(लं)चरियालिंगसामण्णा मिच्छद्दिही बहुहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिपिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च बुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा बिहरिता बहई वासाई सामण्णपरियागं पाउणंति २कालमासे कालं किचा उक्कोसेणं उपरिमेसु गेवेजेसु देवत्ताए उववत्तारो भवति, तहिं तेसिंगती। एकत्तीसं सागरोवमाई ठिती, परलोगस्स अणाराहगा, सेसं तं चेष १९ से जे इमे गामागर जाव सपिण दीप अनुक्रम CRACMC-SETOG ~346 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: -- -- -- - -- -- --- - -- - औपपा- वेसेसुमन तिकम् ॥१०॥ प्रत सूत्रांक [४१] CRICT वेसेसु मणुया भवंति, तंजहा-अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा धम्मिया धम्माणुया धम्मिा धम्मखाई धम्मप्प- जीवोप लोइया धम्मपलज्जणा धम्मसमुदायारा धम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणासुसीला सुध्वया सुप्पडियाणंदा साहूसाहिएकचाओ पाणाइवायाओ पडिविरया जावज्जीवाए एकचाओ अपडिविरया एवं जाव परिग्गहाओ' सू०४१ एकचाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ पेजाओ कलहाओ अभक्खाणाओ पेसुपणाओ परपरिवायाओअरतिरतीओमायामोसाओमिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जावजीवाए एकच्चाओ अपडिविरया,एकच्चाओ आरंभसमारंभाओ पडिविरया जावजीवाए एकच्चाओं अपडिविरया, एकच्चाओ करणकारावणाओ पडिविरया जायजीवाए एकचाओ अपडिविरया एगच्चाओपयणपयावणाओपडिविरया जावजीवाए एकचाओ |पयणपयावणाओ अपडिविरया, एकच्चाओ कोहणपिट्टणतजणतालणवहबंधपरिकिलेसाओ पडिविरया जावजी-4 वाए एकचाओ अपडिचिरया, एकचाओ पहाणमद्दणवण्णगविलेवणसहफरिसरसरूवगंधमलालंकाराओ पडिविरया जावजीवाए एकचाओ अपडिविरया, जेयावण्णे तहप्पगारा सावजजोगोवहिया कम्मंता परपा णपरियावणकरा कजंति तओ जाव एकचाओ अपडिविरया तंजहा-समणोवासगा भवंति, अभिगयजी वाजीवा उबलद्धपुषणपावा आसवसंवरनिजरकिरियाअहिगरणबंधमोक्खकुसला असहेज्जाओ देवासुर 16 ॥१०४॥ णागजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरिसगरुलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंधाओ पावयणाओ अणइक्कम १ प्रतिविरतापतिविरतत्वसूचनार्थमेष द्विकः, 25 दीप अनुक्रम ~347 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: -- -- -- - -- -- --- - -- - प्रत सूत्रांक [४१] |णिज्जा णिग्गंधे पावणे णिस्संकिया णिक्खंखिया निचितिगिच्छा लडा गहियहा पुरिछयवा अभिग-| या विणिच्छियहा अडिमिंजपेम्माणुरागरत्ता अयमाउसो! णिग्गंथे पावणे अटे अयं परमटे सेसे अणडे | ऊसियफलिहा अवंगुयदुवारा चियत्तंतेउरपरघरदारप्पवेसा चउद्दसहमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेत्ता समणे णिग्गंथे फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछ-1 राणेणं ओसहभेसनेणं पटिहारएण य पीढफलगसेज्जासंथारएणं पडिलाभेमाणा विहरंति विहरित्ता भत्तं | पञ्चक्खंति ते बहूई भत्ताई अणसणाए छेदिति छेदित्ता आलोइयपडिक्कता समाहिपत्ता कालमासे काल |किचा उक्कोसेणं अचुए कप्पे देवत्ताए उबवत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई बावीसं सागरोवमाई ठिई आरा४ हया सेसं तहेव २० । से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुआ भवंति, तंजहा-अणारंभा अपरिग्गहा धम्मिया जाव कप्पेमाणा सुसीला सुब्बया सुपडियाणंदा साहू सब्वाओ पाणाइवाआओ पडिविरया जाव | सब्बाओ परिग्गहाओ पडिविरया सव्वाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोभाओ जाव मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया सव्वाओ आरंभसमारंभाओं पडिविरया सव्वाओ करणकारावणाओ पडिविरया सव्याओ पयणपयावणाओ पडिविरया सम्वाओ कुणपिट्टणतजणतालणवहर्षधपरिकिलेसाओ पडिविरया सव्वाओ पहाणमद्दणवण्णगविलेषणसद्दफरिसरसरूवगंधमल्लालंकाराओ पडिविरया जेयावपणे तहप्परगारा सावजजोगोवहिया कम्मंता परपाणपरियावणकरा कजंति तओवि पडिविरया जावज्जीवाए से जहाणामए दीप अनुक्रम SAREarathininternational ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ॥१०५॥ प्रत सूत्रांक [४१] औपपा- अणगारा भवंति-ईरियासमिया भासासमिया जाव इणमेव णिग्गंथं पावयणं पुरओकाउं विहरंति तेसिणं जीवोप० तिकम् | भगवंताण एपणं विहारेणं विहरमाणाणं अस्थगइयाण अणंते जाब केवलचरणाणदंसणे समुप्पज्जा, ते बहस सू०४१ वांसाई फेलिपरियागं पाउणंति जाव पाउणित्ता भत्तं पञ्चवति भत्र्तरवहई भत्ताई अणसणाइ छेदेन्तिरत्ताज-| स्सहाए कीरह णग्गभावे. अंतं करंति, जेसिपि यणं एगइयाणं णो केबलवरनाणदसणे समुष्पज्जइते बहईवासाई। छउमत्थपरियागं पाउ णन्ति२ आवाहे उप्पण्णे वा अणुप्पण्णे चा भत्तं पञ्चक्वंति, ते यहई भत्ताई अणसणाए छेदेन्ति २ सा जस्सहाए कीरइ णग्गभावे जाव तमट्ठमाराहित्ता चरिमेहिं ऊसासणीसासेहिं अणंतं अणुत्तरं | निब्वाघायं निराबरणं कसिणं पडिपुषणं केवलवरणाणदंसणं उप्पार्डिति, तओ पच्छा सिज्झिहिन्ति जाव अंत करेहिन्ति । एगचा पुण एगे भयंतारो पुवकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किया उन्कोसेणं सबढसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति, तहिं तेसिं गई तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई आराहगा, सेसं तं चेव २१ । से जे इमे गामागर जाव सपिणवेसेसु मणुआ भवंति, संजहा-सव्वकामचिरया सब्बरागविरया सब्वसंगा-14 तीता सम्वसिणेहातिकता अक्कोहा णिकोहा खीणकोहा एवं माणमायालोहा अणुपुवेणं अट्ट कम्मपयडीओ| ॥१०५॥ खवेत्ता उपि लोयग्गपइट्ठाणा हवंति (सू०४१)॥ - 'अयसकारग'त्ति पराक्रमकृता सर्वदिग्गामिनी वा प्रख्यातिर्यशः तत्प्रतिषेधादयशः 'अवण्णकारयत्ति अवज्ञा-अनादरः अवर्णों वा-वर्णनाया अकरणं 'अकित्तिकारग'त्ति दानकृता एकदिग्गामिनी वा प्रसिद्धिः कीर्तिस्तन्निषेधादकीर्तिः दीप अनुक्रम +RANCE ~349~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] 'असम्भावुब्भावणाहिँति असद्भावानाम्-अविद्यमानार्थानामुद्भावना-उत्प्रेक्षणानि असझावोद्भावनास्ताभिः 'मिच्छत्ताभिनिवेसेहि यत्ति मिथ्यात्वे-वस्तुविपर्यासे मिथ्यात्वाद्वा-मिथ्यादर्शनाख्यकर्मणः सकाशाद् अभिनिवेशा:-चित्तावष्टम्भा | मिथ्यात्वाभिनिवेशास्तैः 'बुग्गाहेमाण'त्ति व्युहाह्यमाणा:-कुग्रहे योजयन्तः 'वुप्पाएमाण'त्ति व्युत्पादयमानाः-असद्भावो-15 दावनासु समर्थीकुर्वन्त इत्यर्थः, 'अणालोइयअपडिकंत'त्ति गुरूणां समीपे अकृतालोचनास्ततो दोपादनिवृत्ताश्चेत्यर्थः, एतेषां च विशिष्टश्रामण्यजन्यं देवत्वं प्रत्यनीकताजन्यं च किल्लिषिकत्वं, ते हि चण्डालपाया एव देवमध्ये भवन्तीति १५ ॥ 'सपणीपुबजाईसरणे'त्ति संजिनां सतां या पूर्वजातिः-प्राक्तनो भवस्तस्या यत्स्मरणं तत्तथा १६ ॥ आजीविकागोशालकमतानुवर्तिनः 'दुपरंतरिय'त्ति एकत्र गृहे भिक्षां गृहीत्वा येऽभिग्रहविशेषाद् गृहद्वयमतिकम्य पुनर्भिक्षा गृहन्ति * न निरन्तरमेकान्तरं वा ते द्विगृहान्तरिकाः, द्वे गृहे अन्तरं भिक्षाग्रहणे येषामस्ति ते द्विगृहान्तरिका इति निर्वचनम्, एवं त्रिगृहान्तरिकाः सप्तगृहान्तरिकाश्च उपलबेंटिय'त्ति उत्पल वृन्तानि नियमविशेषात् ग्राह्यतया भैक्षत्वेन येषां सन्ति ! ते उत्पल वृन्तिकाः 'घरसमुदाणिय'त्ति गृहसमुदान-प्रतिगृह भिक्षा येषां ग्राह्यतयाऽस्ति ते गृहसमुदानिकाः 'विजयंतरियत्ति विद्युति सत्यां अन्तरं भिक्षाग्रहणस्य येषामस्ति ते विद्युदन्तरिकाः, विद्युत्सम्पाते भिक्षा नाटन्तीति भावार्थः, 'उ-10 ४ डियासमण'त्ति उष्ट्रिका-महामृण्मयो भाजनविशेषस्तत्र प्रविष्टा ये श्राम्यन्ति-तपस्यन्तीत्युएिकाश्रमणाः, एषां च पदामा मुत्प्रेक्षया व्याख्या कृतेति १७ । अत्तकोसिय'ति आत्मोत्कर्षोऽस्ति येषां ते आत्मोत्कर्षकाः, 'परपरिवाइय'त्ति परेषां परि वादो-निन्दाऽस्ति येषां ते परपरिवादिकाः भूइकम्मिय'त्ति भूतिकर्म-ज्वरितानामुपद्रवरक्षार्थ भूतिदानं तदस्ति येषां ते भूतिक दीप अनुक्रम ~350~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: तिकम् सू०४१ प्रत सूत्रांक [४१] औपपा- मिकाः, भुजो भुजो कोउगकारगत्ति भूयो भूयः-पुनः पुनः कौतुकं-सौभाग्यादिनिमित्तं परेषां स्वपनादि तत्कारः कौतुकका- जीवोप० सरकाः 'आभिओगिएसुत्ति अभियोगे-आदेशकर्मणि नियुक्ता आभियोगिका आदेशकारिण इत्यर्थः, एतेषां च देवत्वं ॥१०६॥ चारित्रादाभियोगिकत्वं चात्मोत्कर्षादेरिति १८ । वहुषु समयेषु रता-आसक्ताः बहुभिरेव समयैः कार्य निष्पद्यते नैकसम-13/ येनेत्येवंविधवादिनो बहुरताः-जमालिमतानुपातिनः, 'जीवपएसि'त्ति जीवः प्रदेश एवैको येषां मतेन ते जीवप्रदेशाः, Pएकेनापि प्रदेशेन न्यूनो जीवो न भवत्यतो येनकेन प्रदेशेन पूर्णः सन् जीवो भवति स एवैकः प्रदेशो जीवो भवतीत्ये वंविधवादिनस्तिष्पगुसाचार्यमताविसंवादिनः 'अबत्तियत्ति अव्यक्त समस्तमिदं जगत् साध्वादिविषये श्रमणोऽयं देवो वाऽयमित्यादिविविक्तप्रतिभासोदयाभावात्ततश्चाव्यक्तं वस्त्विति मतमस्ति येषां ते अव्यक्तिकाः, अविद्यमाना वा साध्यादिव्यक्तिरेषामित्यव्यक्तिकाः आषाढाचार्यशिष्यमतान्तःपातिनः 'सामुच्छेइय'त्ति नारकादिभावानां प्रतिक्षणं समुच्छे-12 द-क्षयं वदन्तीति सामुच्छेदिकाः अश्वमित्रमतानुसारिणः 'दोकिरियत्ति द्वे क्रिये-शीतवेदनोष्णवेदनादिस्वरूपे एकत्र | समये जीवोऽनुभवतीत्येवं वदन्ति ये ते द्वैक्रिया गङ्गाचार्यमतानुवर्तिनः 'तेरासिय'त्ति त्रीन राशीन जीवाजीवनोजीव-1 1. रूपान् वदन्ति ये ते त्रैराशिकाः रोहगुसमतानुसारिणः, 'अबद्धियत्ति अवद्धं सत्कर्म कजुकवत्पार्श्वतः स्पृष्टमात्रं जीव । समनुगच्छन्तीत्येवं वदन्तीत्यबद्धिकाः गोष्ठामाहिलमतावलम्बिनः, उपलक्षणं चैतत् सक्रियावर्तिव्यापन्नदर्शनानामन्ये- ॥१०॥ पामपीति, 'पवयणनिण्हय'त्ति प्रवचन-जिनागमं निवते-अपलपन्त्यन्यथा तदेकदेशस्याभ्युपगमात्ते प्रवचननिवकाः, केवलं 'चरियालिंगसामण्णा मिच्छादिही'त्ति मिथ्यादृष्टयस्ते विपरीतबोधाः नवरं चर्यया-भिक्षाटनादिक्रियया लिङ्गेन । दीप अनुक्रम ~351 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ---- -- - -- --- - -- - प्रत सूत्रांक [४१] |च-रजोहरणादिना सामान्याः-साधुतुल्या इति १९ । 'धम्मिय'त्ति धर्मेण-श्रुतचारित्ररूपेण चरन्ति ये ते धार्मिकाः, IS कुत एतदेवमित्यत आह-'धम्माणुअ'त्ति धर्म-श्रुतरूपमनुगच्छन्ति ये ते धर्मानुगाः, कुत एतदेवमित्यत आह-'धम्मिई माति धर्मः श्रुतरूप एवेष्टो-बालभः पूजितो वा येषां ते धर्मष्टाः धर्मिणां वेष्टाः धीष्टाः अथवा धर्मोऽस्ति येषां ते धर्मिणः || त एव चान्येभ्योऽतिशयवन्तो धर्मिष्ठाः, अत एव 'धम्मक्खाइति धर्ममाख्यान्ति भव्यानां प्रतिपादयन्तीति धर्माख्यायिनः धर्माद्वा ख्यातिः-प्रसिद्धिर्येषां ते धर्मख्यातयः, 'धम्मपलोइय'त्ति धर्म प्रलोकयन्ति-उपादेयतया प्रेक्षन्ते पापण्डिषु वा गवेषयन्तीति धर्मप्रलोकिनः, धर्मगवेषणानन्तरं वा 'धम्मपलज्जण'त्ति धर्म प्ररज्यन्ते-आसज्यन्ते ये ते धर्मप्ररज्यनाः, ततश्च 'धर्मसमुदाचार'त्ति धर्मरूपचारित्रात्मकः समुदाचार:-सदाचारः सप्रमोदो वाssचारो येषां ते धर्मसमुदाचाराः, अत। एव 'धम्मेण चेव वित्तिं कप्पेमाण'त्ति धर्मेणैव-चारित्राविरोधेन श्रुताविरोधेन वा वृत्ति-जीविका कल्पयन्तः-कुर्वाणा माविहरन्तीति योगः, 'सुषय'त्ति सदताः शोभनचित्तवृत्तिवितरणा वा, 'सुष्पडियाणदा साहहिति सुषु प्रत्यानन्द:-चित्ताहादो || येषां ते सुप्रत्यानन्दाः साधुषु-विषयभूतेषु अथवा साहूहिंति उत्तरवाक्ये सम्बध्यते, ततश्च साधुभ्यः सकाशातू साध्व-18 |न्तिके इत्यर्थः, 'एगचाओ पाणाइवायाओ'त्ति एकस्मात् न सर्वस्मात् पाठान्तरे 'एगइयाओ'त्ति तत्र एकक एव एक|किकः तस्मादेककिकात्, इत इदं सूत्रं प्रायः प्रागुक्तार्थ नवरं 'मिच्छादसणसल्लाओत्ति इह मिथ्यादर्शनं-तजन्यान्ययूथि| कवन्दनादिका क्रिया ततो भावतो विरताः राजाभियोगादिभिस्त्वाकारैरविरता इति, 'कुट्टणपिट्टणतज्जणतालणवहबंधप-18 रिकिलेसाओ'त्ति कुट्टनं-खदिरादेरिव छेदविशेषकरणं पिट्टन-वस्त्रादेरिव मुद्गरादिना हुननं तर्जन-परं प्रति ज्ञास्यसि रे । दीप अनुक्रम ~352~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: तिकम् प्रत सूत्रांक [४१] पिपा- हाजाल्मेत्यादिभणनं ताडनं-चपेटादिना हननं तालनं वा गृहद्वारादेस्तालकेन स्थगनं वधो-मारणं बन्धो-रज्वादिना यन्त्रण परिक्लेशों-बाधोत्पादन 'सावजजोगोवहिय'त्ति सावद्ययोगा औपधिका-मायाप्रयोजनाः कषायप्रत्यया इत्यर्थः उपकरणप्र॥१०७॥ योजना या ये तेरपा 'कम्मत'त्ति व्यापारांशाः, वाचनान्तरे 'सावज्जा अयोहिया कम्मत'त्ति अत्र अबोधिकाः अविद्य-II | मानवोधिका वेति, एवं सामान्येनोक्तानां मनुष्याणां विशेषनिर्देशार्थमाह-तंजह'त्ति त एते इत्यर्थः 'से जहानामए'त्ति ||| कचित्तत्राप्ययमेवार्थः २० । 'आवाहेत्ति रोगादिवाधायां 'एगच्चा पुण एगे भयंतारों'त्ति एका-असाधारणगुणत्वाद् अद्वि | तीया मनुजभवभाविनी वा अर्चा-योन्दिस्त नुर्येषां ते एकाचर्चाः, पुनःशब्दः पूर्वोक्तार्थापेक्षया उत्तरवाक्यार्थस्य विशेषद्यो| तनार्थः, एके-केवलज्ञानभाजनेभ्योऽपरे 'भयंतारो'त्ति भक्तार:-अनुष्ठानविशेषस्य सेवयितारो भयत्रातारो वा, अनुस्वारस्त्वलाक्षणिका, 'पुवकम्मावसेसेण' क्षीणावशेषकर्मणा देवतयोत्पत्तारो भवन्तीति योगः २१ । 'सबकामविरय'त्ति सर्वकामेभ्यः-समस्तशब्दादिविषयेभ्यो विरता-निवृत्तास्तेषु वा विरया-विगतौत्सुक्या ये ते तथा, यतः 'सवरागविरय'त्ति सर्वरागात्-समस्ताद्विपयाभिमुख्यहेतुभूतात्मपरिणामविशेषाद्विरता-निवृत्ता ये ते तथा, 'सबसंगातीत'त्ति सर्वस्मात्सझात्-मातापित्रादिसम्बन्धादतीता:-अपक्रान्ताः सर्वसङ्गातीताः यतः 'सबसिणेहाइकंतति सर्वस्नेह-मात्रादिसम्बन्ध हेतुं अतिक्रान्ता:-त्यक्तवन्तो ये ते सर्वस्नेहातिक्रान्ताः 'अक्कोह'त्ति क्रोधविफलीकरणात् 'निकोह'त्ति उदयाभावात्, माएतदेव कुत इत्याह-खीणकोह'त्ति क्षीणक्रोधमोहनीयकर्माण इत्यर्थः, एकार्था चैते शब्दाः २२ ॥४१॥ अणगारे णं भंते ! भाविअप्पा केवलिसमुग्घाएणं समोहणित्ता केवलकप्पं लोयं फुसित्ता णं चिट्ठह ?, ॐ दीप अनुक्रम For P OW ~353~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----- मूलं [४२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: 54-5555555 गाथा हंता चिहह, से णूर्ण भंते ! केवलकप्पे लोए तेहिं णिज्जरापोग्गलेहिं फुडे ?, हंता फुडे, छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं किंचि वण्णणं वपण गंधेणं गंधं रसेणं रसं फासेणं फासं जाणइ पासइ !, गोयमा !, णो इणढे समद्दे, से केणतुणं भंते ! एवं बुच्चइ-छउमत्थे णं मणुस्से तेसिं णिज्जरापोग्गलाणं णो किंचि वणणं वणं जाव जाणइ पासद?, गोयमा, अयं णं जंबुद्दीचे २ सव्वदीवसमुदाणं सब्बभंतरण सव्वखुड्डाए बढे तेल्लप्पसंठाणसंठिए बट्टे रहचकवालसंठाणसंठिए घट्टे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए व? पडिपुष्णचंदसंठाणसंठिए एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिषिण जोयणसयसहस्साई सोलससहस्साई दोषिण य सत्तावीसे जोयणसए तिषिण य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलियं च किंचि विसेसाहिए परिकखेवेणं पण्णते, देवे णं महिडीए महजुइए महब्बले महाजरो महामुक्खे । महाणुभावे सविलेषणं गंधसमुग्गयं गिपहइ स २तं अवदालेइ तं २ जाव इणामेवत्तिककेवलकप्पं जंबू| दीवं तिहिं अकछराणिवाहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरिअहित्ता णं हब्वमागकछेजा, से पूर्ण गोयमा ! से केवलकप्पे जंबूद्दीवे २ तेहिं पाणपोग्गलेहिं फुडे ?, हंता फुले, छतमत्थे णं गोयमा! मणुस्से तेसिंघाणपोग्गलाणं किंचि चणेणं वणं जाच जाणंति पासंति ?, भगवं! णो इण समडे, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं चुचइ छउमत्थे णं मणुस्से तेसि णिजरापोग्गलाणं नो किंचि वण्णेणं वणं जाब जाणइ पासइ, एसुहुमा णं ते लापोग्गला पण्णत्ता, समणाउसो सवलोयपि य णं ते फुसित्ता गं चिट्ठति । कम्हाणं भंते ! केवली समो दीप अनुक्रम [५२-५४] SARERainintunatural ~354~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४२] + गाथा दीप अनुक्रम [५२-५४] मूलं [४२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः औपपातिकम् ॥१०८॥ भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) Education Inte हणंति ? कम्हा णं केवली समुग्धायं गच्छति ?, गोयमा ! केवलीणं चत्तारि कर्म्मसा अपलिक्खीणा भवंति, तंजहा-बेयणिजं आउयं णामं गुतं सव्वबहुए से वैयणिले कस्मे भवइ, सब्वत्थोवे से आउए कम्मे भवइ, विसमं समं करेइ बंधणेहिं ठिईहि य, विसमसमकरणयाए बंधणेहिं ठिईहि य एवं खलु केवली समोहति एवं खलु केवली समुग्धायं गच्छति । सव्वेवि णं भंते । केवली समुग्धायं गच्छति ?, णो इणट्टे समडे, 'अकित्ता णं समुग्धार्य, अनंता केवली जिणा । जरामरणविप्पमुक्का, सिद्धिं वरगई गया ॥ १ ॥ कइसमए णं भंते! आउजीकरणे पण्णत्ते ?, गोयमा ! असंखेजसमइए अंतोमुहुत्तिए पण्णत्ते । केवलिसमुग्धाए णं भंते! कसमइए पण्णत्ते ?, गोपमा ! असमइए पण्णसे, तंजा-पढमे समए दंड करेड़ चिइए समए कवाडं करेइ तईए समए मंथं करेह चउत्थे समए लोय पूरेइ पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ छठे समए मयं पडिसाहरइ | सत्तमे समए कवाडं पडिसाहरण अट्टमे समए दंडं पडिसाहरइ पडिसाहरिता तओ पच्छा सरीरत्थे भवइ । | सेणं भंते! तहा समुग्धायं गए किं मगजोगं जुंजइ ? वयजोगं जुजइ ? काययोगं जुंजइ ?, गोयमा ! णो मण| जोगं जुंजइ णो वयजोगं जुजइ कायजोगं जुंजह, कायजोगं जुंजमाणे किं ओरालियसरीरकायजोगं जुजइ ? | ओरालियमिस्ससरीर कायजोगं जुंजइ ? वेडव्वियसरीरकायजोगं जुजइ ? वेडब्बियमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ ? आहारसरीरकायजोगं जुजइ ? आहारसरीर मिस्सकायजोगं जुजद ?, कम्मासरीरकायजोगं जुजइ ?, | गोपमा ! ओरालिय सरीरकायजोगं जुंजइ, ओरालियमिस्ससरीरकायजोगंपि जुंजह, णो वेडव्वियसरीरका For Park Use Only ~355~ समुद्घा० सू०४२ ॥१०८॥ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४२] + गाथा दीप अनुक्रम [५२-५४] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः | यजोगं जुजइ णो वेडव्वियमिस्ससरीरका यजोगं जुंजइ णो आहारगसरीर कायजोगं जुंजइ णो आहारगमिस्सस| रीरकायजोगं जुजइ कम्मसरीरकायजोगंपि जुंजइ, पदम मेसु समएस ओरालिय सरीरकायजोगं जुंज बिइयइछसत्तमेसु समएस ओरालियमिस्ससरीरकायजोगं जुजइ तईयचउत्थपंच मेहिं कम्मासरीरकायजोगं जुंजइ । से णं भंते । तहा समुग्धायगए सिज्झिहिइ बुज्झिहि मुबहि परिनिव्वाहिर सञ्चदुक्खाणमंतं करेइ ?, णो इणट्ठे समट्ठे, से णं तओ पडिनिय तह तओ पडिनियत्तित्ता इहमागच्छछ २ ता तओ पच्छा मणजोगंपि जुंजइ वयजोगंपि जुजइ कायजोगंपि जुंजइ मणजोगं जुंजमाणे किं सचमणजोगं जुंजइ मोसमणजोगं जुंजइ सदामोसमणजोगं जुंजइ असच्चामोसमणजोगं जुंजद ?, गोयमा ! सचमणजोगं जुंजइ णो मोस मणजोगं मुंजह णो सच्चामोसमणजोगं जुंजइ असचामोसमणजोगंपि जुंजइ, वयजोगं जुंजाणे किं सचवइजोगं जुंजइ मोसवइजोगं जुंजइ [किं ] सच्चामोसवइजोगं जुंजइ असचामोसबजोगं जुंजइ ?, गोयमा ! सचवइजोगं जुंजइ णो मोसवइजोगं जुजइ णो सच्चामोसवइजोगं जुंजइ असचामोसवह जोगंपि जुंजइ, कायजोगं जुंजमाणे आगच्छेज वा चिज वा णिसीएज वा तुयहेज़ वा उल्लंघेज वा पल्लंघेज वा उक्खेवणं वा अवक्खेवणं वा तिरियक्खेवणं वा करेज्जा पाडिहारियं वा पीढफलहगसेज्जसंथारगं पञ्चपिज्जा । (सू० ४२ ) तदेवमुक्तो विवक्षितोपपातः, अधुनाऽनन्तरोक्त सिद्धोपपातसम्बन्धेन तत्कारणभूतसमुद्वाता दिवक्तव्यतां दर्शयन्नाह - 'अणगारे णमित्यादि व्यक्तं, नवरं 'केवलिसमुग्धाएणं' ति न कपायादिसमुद्घातेन 'समोहए'त्ति समवहतो - विक्षिप्त For Par Use Only ~356~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------- ---------------------- मलं [४२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- समुद्घा० तिकम् सू०४२ ॥१० ॥ + गाथा प्रदेशः 'केवलकप्पति केवलज्ञानकल्पं सम्पूर्णमित्यर्थः, वृद्धव्याख्या तु केवला-सम्पूर्णः कल्पत इति कल्पः-स्वकार्यकरण| समर्थः वस्तुरूप इतियावत् , केवलश्चासौ कल्पश्चेति समासोऽतस्तं 'निज्जरापोग्गलेहिं'ति निर्जराप्रधानाः पुद्गला निर्जरा| पदलाः, जीनाकर्मतामापादिताः कर्मप्रदेशा इत्यर्थः, अतस्तैर्निर्जरापुद्गलैः 'फुडे'त्ति स्पृष्टो व्याप्तः, 'छउमत्थे 'ति छमस्थो निरतिशयज्ञानयुक्त इह प्रतिपत्तव्यो यतः छद्मस्थोऽपि विशिष्टावधिज्ञानयुक्तो निर्जरापुद्गलान् जानात्येव 'रूवगयं(चेव)लहइ सष'मिति वचनात् 'वण्णेण वणं'ति वर्णेन-वर्णतया याथात्म्येनेत्यर्थः वर्ण-कालवर्णादिक जानाति विशेषतः पश्यति सामान्यतः, 'णो इणडेत्ति नायमर्थः 'समहे'त्ति समर्थ:-सङ्गतः, कर्मपुद्गलानां सातिशयज्ञानगम्यत्वात् , 'सबभतराए'त्ति सर्वाभ्यन्तरकः 'सबखुड्डाएत्ति सर्वक्षुल्लकः, दीर्घत्वं चात्र प्राकृतत्वात् , 'वट्टे'त्ति वृत्तः, वृत्तश्च मोदकवद् घनवृत्तोऽपि स्यादतस्तद्वयवकछेदेन प्रतरवृत्तताभिधानार्थमाह-'तेल्लापूयसंठाणसंठिए'त्ति उपलक्षणत्वादस्य घृतापूपादेरप्यत्र ग्रहः, 'रह चकवाल'त्ति चक्रवालं-मण्डलं मण्डलत्वधर्मयोगाच्च रथचक्रमपि रथचक्रवालं 'पुक्खरकणिय'त्ति पद्मबीजकोशः, 'जाव माइणामवत्तिकट्टत्ति यावदिति परिमाणार्थस्तावदित्यस्य गम्यमानस्य सव्यपेक्षः, 'इणामेव'त्ति इदं-गमनम् , एवमिति-चप्पु टिकारूपशीघ्रत्वावेदकहस्तव्यापारोपदर्शनपरः, अनुस्वाराश्रवणं च प्राकृतत्वात् , द्विर्वचनं च शीघ्रतातिशयोपदर्शनपरम् , इतिरुपप्रदर्शनार्थः, कृत्वा-विधाय 'तिहिं अच्छरानिवाएहि ति तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरित्यर्थः 'तिस्सत्तखुत्तोत्ति त्रिगुणाः सप्त त्रिसप्त त्रिसप्तवारास्त्रिःसप्तकृत्वः एकविंशतिवारा इत्यर्थः, 'हब'ति शीनं 'घाणपोग्गलेहिति गन्धपुद्गलैः, इह स्थाने यावदित्यस्य सव्यपेक्षस्तावदित्ययंशब्दो दृश्यः, 'एस्सुहुमाणं ति एतत्सूक्ष्माः, कोऽर्थः ? एवं नाम सूक्ष्मास्ते यथा तांश्छद्म दीप ॥१०९॥ अनुक्रम [५२-५४] ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----- मूलं [४२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ICII गाथा स्थो वर्णादिभिर्न जानातीति 'समणाउस्सो'त्ति हे श्रमण ! हे आयुष्मन् !, अथवा श्रमणश्वासावायुष्मांश्चेति समासस्त-18 |स्यामन्त्रणं हे श्रमणायुष्मन् !, यथा अतिसूक्ष्मत्वाद्गन्धपुद्गलान जानातीत्येवं निर्जरापुद्गलानपीति दृष्टान्तोपनयः । 'कम्हा णं भंते ! केवली समोहणंतित्ति समवघ्नन्ति-प्रदेशान् दिक्षु प्रक्षिपन्ति, एतदेव सुखप्रतिपत्तये वाक्यान्तरेणाह-'कम्हाणं केवली समुग्धायं गच्छति'त्ति, 'अपलिक्खीणे'त्ति स्थितेरक्षयात् 'अवेइया अनिजिण्ण'त्ति कचिदृश्यते, तत्र अवेदितास्तद्रसस्याननुभूतत्वात् अनिर्जीर्णाः-तत्पदेशानां जीवप्रदेशेभ्योऽपरिशटनात् 'बहुए से वेयणिजे'त्ति से-तस्य केवलिनो यः समुद्रात प्रतिपद्यते न पुनः सर्वस्यैव, केपाशिदकृतसमुद्घातानामपि समभावस्पेष्टरवात् 'चंधणेहिति प्रदेशबन्धानुभाग-1 बन्धावाश्रित्येत्यर्थः, 'ठिईहि यत्ति स्थितिबन्धविशेषानाश्रित्येत्यर्थः, 'विसमसमकरणयाए बन्धणेहि ठिईहि य एवं खलु 8 केवली समोहणंति' इहैवमक्षरघटना-एवं खलु विषमसमकरणाय बन्धनादिभिः केवलिनः समुद्घातयन्तीति 'आवजीकरणे'त्ति आवर्जीकरणम्-उदीरणावलिकायां कर्मप्रक्षेपच्यापाररूपं, तच्च केवलिसमुद्घातं प्रतिपद्यमानः प्रथममेव करो ति । 'पढमसमए दंडं करेइ'त्ति प्रथमसमय एवं स्वदेहविष्कम्भमूर्ध्वमधश्चायतमुभयतोऽपि लोकान्तगामिनं जीवप्रदेश-18 ★ सङ्कातं दण्डस्थानीय केवली ज्ञानाभोगतः करोति, 'बिइए कवार्ड करेइ'त्ति द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापरदिग्द्वय-18 प्रसारणात्पार्वतो लोकान्तगामिकपाटमिव कपाटं करोति, 'मंथति तृतीये समये तदेव कपाट दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसार-10 णान्मथिसदृशं मन्थानं करोति लोकान्तप्रापिणमेव, 'लोगं पूरेइति चतुर्थसमये सह लोकनिष्कुटैर्मन्थान्तराणि पूरयति, ततश्च सकलोलोकः पूरितो भवति, 'लोयं पडिसाहरइ'त्ति पञ्चमे समये मन्थान्तरापूरकत्वेन ये लोकपूरकाः प्रदेशास्ते दीप अनुक्रम [५२-५४] Auditurary.com ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------- ---------------------- मलं [४२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: समुद्घा० सू०४२ गाथा ऑपपा- लोकशब्देन उच्यन्ते, अतो मन्थान्तरालपूरकान् प्रदेशान् संहरति मथिस्थो भवतीतियावत्, 'मंथं पडिसाहरइत्ति मध्या. तिकम् । | कारव्यवस्थापितप्रदेशान् संहृत्य कपाटस्थो भवतीतियावत् , 'कवाडं पडिसाहरइत्ति सप्तमसमये कपाटाकारधारकप्रदे॥११॥ | शसंहरणाद्दण्डस्थो भवतीत्यर्थः, 'अहमे समए दंडं पडिसाहरइ, साहरित्ता सरीरस्थे भवइत्ति, इह यद्यपि संहत्येस्यनेन संहरणस्य पूर्वकालता शरीरस्थभवनस्य च पश्चात्कालता शब्दवृत्त्या प्रतीयते, तथाऽप्यवृत्त्या न कालभेदोऽस्ति, द्वयोरप्यष्टमसमयभावित्वेनोक्तत्वादिति । 'नो मणजोग नो वयजोगं जुजइ'त्ति प्रयोजनाभावात्, काययोगचिन्तायां सप्तविधः काययोगः, तत्र-ओरालियसरीरकायजोग'ति योगो-व्यापारः स च वागादेरप्यस्तीति कायेन विशेषितत्वात्काययोगः। स चानेकधेति औदारिकशरीरेण विशिष्यते, तत्रोदारैः-शेषपुद्गलापेक्षया स्थूलैः पुगलनिवृत्तमित्यौदारिक, तच्च तच्छरीरं चेति समासस्तस्य काययोगऔदारिकशरीरकाययोगः, 'ओरालियमीससरीरकायजोग'ति औदारिकमिश्रक नाम यच्छरीरं तस्य यः काययोगः स यथा, स च कार्मणीदारिकयोर्युगपद्व्यापाररूप औदारिकशरीरिणामुत्पत्तिकाले केवलिसमु द्घाते वा, औदारिकक्रिययोरीदारिकाहारकयोर्वा युगपद्व्यापाररूपः, औदारिकशरीरिणां वैक्रियकरणकाले आहारक४करणकाले चेति, 'वेउबियसरीरकायजोगति पूर्ववन्नवरं विक्रिया प्रयोजनमस्येति वैक्रिय-सूक्ष्मतरविशिष्टकार्यकरणक्ष मपुद्गलनिवृत्तमित्यर्थः, अयं च वैक्रियलब्धिमतां वादरवायुकायिकपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां देवनारकाणां च स्यादिति 'वेचियमिस्ससरीरकायजोग'ति वैक्रिय सन्मित्रं यत्कार्मणादिना तद्वैक्रियमिकं तच्च तच्छरीरं चेति समासस्तस्य काययोगो वैक्रियमिश्रशरीरकाययोगः, स च वैक्रियकार्मणयोर्युगपद्व्यापाररूपः, स च देवनारकाणामुत्पत्रिकाले यावत् वैकि दीप ॥११०॥ अनुक्रम [५२-५४] KI ~359~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----- मूलं [४२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: + गाथा CROCRACKGRORRENCE | यमपरिपूर्णमिति, वैक्रियलब्धिमतां वा तिर्यग्मनुष्याणां विहितवैक्रियशरीराणां तत्यागेनौदारिक गृहृतामिति, आहारगसरीरकायजोगीतिप्राग्वत् नवरम्-आहारका-विशिष्टतरपुद्गलास्तन्निष्पन्नमाहारकम् , अयं च चतुर्दशपूर्वधरस्य समुत्पन्नविशिष्टप्र-18 योजनस्य कृताहारकशरीरस्य भवतीति, आहारगमीससरीरकायजोगति आहारकं सन्मित्रं यदौदारिकेण तदाहारकमिश्रं तच्च तच्छरीरं चेति, शेषस्तथैव, अयं चाहारकौदारिकयोर्युगपद्व्यापाररूपः, स च कृताहारकस्य तत्त्यागेनौदारिकं गृह्णतो भवतीति, कम्मगसरीरकायजोगति प्राग्वत् , अयं चापान्तरालगतौ केवलिसमुद्घाते वा स्यादिति, 'पढमहमेसु समएसु' इत्यादेरयम-18 भिप्राय:-जीवप्रदेशानां दण्डतया प्रक्षेपे संहारे च प्रथमाष्टमसमययोरौदारिककायव्यापारादीदारिककाययोग एव, द्विती-|| यषष्ठसप्तमसमयेषु पुनः प्रदेशानां प्रक्षेपसंहारयोरौदारिके तस्माच्च बहिः कार्मणे वीर्यपरिस्पन्दादौदारिककामणमिश्रः, तृतीसायचतुर्थपञ्चमेषु तु बहिरौदारिकात्कार्मणकायव्यापारादसहायः कार्मणयोग एव, तन्मात्रचेष्टनाद्, इह च यद्यपि मन्थक-18 लारणे कपाटन्यायेनीदारिकस्यापि व्यापारः सम्भाव्यते तथापीत एव वचनादसी कथचिन्नास्तीति मन्तव्यमिति । 'सच्च-16 मणजोगं जुजइ, असच्चामोसामणजोगपि जुंजईत्ति मनःपर्यायज्ञानिना अनुत्तरसुरेण वा मनसा पृष्टो मनसैव अस्ति जीवएवं कुर्वित्यादिकमुत्तरं यच्छन् , 'सञ्चवइ जोग'ति जीवादिपदार्थान् प्ररूपयन् 'असञ्चामोसावयजोग'ति आमन्त्रणादि-8 विति, समुद्रातान्निवृत्तश्चान्तर्मुहर्तेन योगनिरोधं करोति २२॥४२॥ से णं भंते ! तहा सजोगी सिजिशहिद जाव अंतं करेहिह, णो इणढे समढे, से णं पुवामेव संणिस्स | १विशिष्टान्तरपुद्गलाः प्र० दीप अनुक्रम [५२-५४] ~360~ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: तिकम् सू० ४३ प्रत सूत्रांक [४३] पंचिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहपणजोगस्स हेडा असंखेजगुणपरिहीणं पढम मणजोगं निरंभह, तयाणंतरं च | सिद्धाधिक | बिंदियस्स पज्जत्तगस्स जहण्णजोगस्स हेट्टा असंखेजगुणपरिहीणं बिइयं वइजोगं निरंभइ, तयाणतरं च | ॥११॥ मुहमस्स पणगजीवस्स अपज्जत्तगस्स जहणजोगस्स हेट्ठा असंखेजगुणपरिहीणं तईयं कायजोगं णिरंभह, से| णं एएणं उवाएणं पढममणजोगं णिरंभइ मणजोगं णिभित्ता वयजोगं णिरंभइ वयजोगं णिभित्ता काय जोगं णिभइ कायजोगं निरुभित्ता जोगनिरोहं करेइ, जोगनिरोहं करेता अजोगसं पाउणति, अजोगत्तं । 18 पाउणित्ता इसिंहस्सपंचक्खरउच्चारणद्वाए असंखेजसमइयं अंतोमुहुत्तियं सेलेसिं पडिवजह, पुवरइयगुण सेढीयं च णं कर्म तीसे सेलेसिमाए असंखेजाहिं गुणसेढीहि अणते कम्मंसे खवेति चेयणिज्जाउघणाम गुत्ते, इचेते चत्तारि कर्मसे जुगवं खवेद वेदणिज्जा २ओरालियतेयाकम्माई सव्वाहिं विप्पयहणाहिं विप्पजसहइ, ओरालियतेयाकम्माई सब्वाहिं विप्पयहणाहिं विप्पयहिता उजसेढीपडिवन्ने अफसमाणगई हूं एक-16 समएणं अविग्गहेणं गता सागारोवउत्ते सिज्झिहिह । ते णं तत्य सिद्धा हवंति सादीया अपजवसिया असरीरा जीवघणा दंसणनाणोचउत्ता निहिया निरयणा नीरया णिम्मला चितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं १११॥ कालं चिट्ठति । से केणणं भंते ! एवं बुचइ-ते णं तस्य सिहा भवंति सादीया अपजवसिया जाव चिईति?,13 गोयमा! से जहाणामए बीयाणं अग्गिदड्डाणं पुणरवि अंकुरुप्पत्ती ण भवह, एवामेव सिहाणं कम्मबीए दहे पुणरवि जम्मुप्पत्ती न भवइ, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चदते गं तत्थ सिहा भवंति सादीया अप-18 दीप अनुक्रम (५५) सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~361~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) प्रत सूत्रांक [४३] दीप अनुक्रम [44] भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र - १ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित... आगमसूत्र -[११], अंगसूत्र- [११] विपाकश्रुत" मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्तिः ज्जवसिया जाव चिर्हति । जीवा णं भंते! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिज्यंति ?, गोयमा ! वइरोसभणारायसंघयणे सिज्यंति, जीवा णं भंते! सिज्झमाणा कयरंमि संठाणे सिज्यंति ?, गोयमा ! छण्हं संठागाणं अण्णतरे संठाणे सिज्झति, जीवा णं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि उच्चन्ते सिज्झति ?, गोयमा ! जहपणेणं सत्तरयणीओ उक्कोसेणं पंचधणुस्सए सिज्यंति, जीवा णं भंते! सिज्झमाणा कयरम्मि आउए सिज्झति ?, गोयमा ! जहणेणं साइरेगडवासाउए उक्कोसेणं पुव्वकोडियाउए सिज्यंति । अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पहार पुढबीए अहे सिद्धा परिवति ?, जो इण्डे समडे, एवं जाव अहे सत्तमाए, अस्थि णं भंते ! सोहम्मस्स कप्पस्स अहे सिद्धा परिवसंति ?, णो इण्डे समट्टे, एवं सम्बेसिं पुच्छा, ईसाणस्स सणकुमारस्स जाव अच्यस्स गेविजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाणं, अस्थि णं भंते ! ईसीप भाराए पुढवीए अहे सिद्धा | परिवसंति ?, णो इणडे समहे, से कहिं खाइ णं भंते । सिद्धा परिवसंति ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पहाए पुढ बीए बहुसमरमणिजाओ भूमिभागाओ उहुं चंदिमसूरियग्गह गणणक्खत्तताराभवणाओ बहू जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्सा बहूई जोयणसय सहस्साई बहुओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडाकोडीओ उद्दतरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणसणं कुमारमाहिंद बं भलंतगमहा सुक्कसहस्सार आणयपाणयआरणय तिष्णि य अ| हारे गेविजविमाणावाससए वीइवइत्ता विजयवेजयंत जयंत अपराजियसव्वहसिद्धस्स य महाविमाणस्स सच्च| उपरिल्लाओ धूभियग्गाओ दुवालसजोयणाई अवाहाए एत्थ णं ईसीफभारा णाम पुढची पण्णत्ता पण Ja Eucation internationa सिद्ध एवं सिद्धृपद प्राप्ति-विषयक : अधिकार: For Parts Only ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: ॥११२॥ प्रत सूत्रांक [४३] औपपा- यालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्वंभेणं एगा जोयणकोडी बायालीसं सयसहस्साई तीसं च सहतिकम् स्साई दोपिण य अउणापपणे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिरएणं, ईसिप-भारा य णं पुढवीए बहुमज्झदे सभाए अट्ठजोयणिए खेते अजोयणाई बाहुल्लेणं, तयाऽणंतरं च णं मायाए २ पडिहायमाणी २ सम्वेसु । चरिमपेरंतेसु मच्छियपत्ताओ तणुयतरा अंगुलस्स असंखेजहभागं वाहुल्लेणं पण्णत्ता । ईसीपम्भाराए थे पुढवीए दुवालस णामधेजा पपणत्ता, तंजहा-ईसी इ वा इसीपब्भारा इ वा तणूइ वा तणूतणू हवा सिद्धी इचा सिद्धालए इचा मुत्ती इ वा मुत्तालए इ वा लोयग्गेइ वा लोयग्गथूभिया इचा लोपग्गपडिज्मणा| &ाइ वा सम्वपाणयजीवसत्तमुहावहा इ वा । ईसीपभारा णं पुढवी सेया संखतल विमलसोल्लिपमुणालद गरयतुसारगोक्खीरहारवण्णा उत्ताणयछत्तसंठाणसंठिया सव्वजुणसुवण्णयमई अच्छा सण्हा लण्हा घडा महा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिकंकडच्छाया समरीचिया सुप्पभा पासादीया दरिसणिजा अभिरुवा पडिरूवा, ईसीपन्भाराए णं पुढवीए सीयाए जोयणमि लोगते, तस्स जोयणस्स जे से उवरिल्ले गाउए तस्स णं गाउअस्स जे से उवरिल्ले छभागिए तत्थ णं सिद्धा भगवंतो सादीया अपजवसिया अणेगजाइजरामरणजो-2 ४णिवेयणसंसारकलंकलीभावपुणभवगम्भवासवसहीपवंचसमइकता सासयमणागयमद्धं चिट्ठति ॥ (सू०४३) सेणं पुषामेव सन्निस्से त्यादि, अस्यायमर्थः-स-केवली, णमित्यलङ्कारे, 'पूर्वमेव' आदावेव योगनिरोधावस्थायाः संजिनो-मनोलब्धिमतः पञ्चेन्द्रियस्येति स्वरूपविशेषणं, यतः संज्ञी पञ्चेन्द्रिय एव भवति, 'पज्जत्तस्स'चि मनःपर्याप्या पर्या-12 RAS दीप अनुक्रम (५५) | सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~363~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] तस्य, तदन्यस्य मनोलब्धिमतोऽपि मनसोऽभाव एवेति पर्याप्तस्येत्युक्त, स च मध्यमादिमनोयोगोऽपि स्यादित्याहजहणजोगिस्स'त्ति जघन्यमनोयोगवतः 'हेह'त्ति अधो यो मनोयोग इति गम्यते, जघन्यमनोयोगसमानो यो न भवतीत्यर्थः, मनोयोगश्च-मनोद्रव्याणि तयापारश्चेति, जघन्यमनोयोगाधोभागवर्तित्वमेव दर्शयन्नाह-'असंखेजगुणपरिहीणं'ति | असङ्ख्यातगुणेन परिहीणो यः स तथा तं जघन्यमनोयोगस्थासङ्ग्येयभागमात्रे मनोयोगं निरुणद्धि, ततः क्रमेणानया मा-14 त्रया समये समये तं निरुन्धानः सर्वमनोयोगं निरुणद्धि, अनुत्तरेणाचिन्त्येन अकरणवीर्येणेति, एतदेवाह-'पढम मणो जोगं निरंभईत्ति प्रथम-शेषवागादियोगापेक्षया प्राथम्येन-आदितो मनोयोग निरुणीति उक्तं च-"पजत्तमेत्तसन्निस्स ४ जत्तियाई जहन्नजोगिस्स । होति मणोदवाई तबावारो य जम्मत्तो ॥१॥ तदसंखगुणविहीणं समए समए निरुंभमाणो सो । मणसो सबनिरोहं करेअसंखेजसमएहिं ॥२॥" ति, एचमन्यदपि सूत्रद्वयं नेयम् , 'अजोगय पाउणइत्ति अयोगतां प्रामोतीति, 'ईसिंहस्सपंचक्खरुच्चारणद्धाए'त्ति ईसिंति-ईषत्स्पृष्टानि इस्वानि यानि पञ्चाक्षराणि तेषां यदुच्चारणं तस्य याऽद्धा-कालः सा तथा तस्याम् , इदं चोच्चारणं न विलम्बितं द्रुतं वा, किन्तु मध्यममेव गृह्यते, यत आह-"हस्स-14 |क्खराई मझेण जेण कालेण पंच भण्णंति । अच्छइ सेलेसिगओ तत्तियमेत्तं तओ कालं ॥१॥" शैलेशो-मेरुस्तस्येव १ पर्याप्तमात्रसंज्ञिनो यावन्ति जघन्ययोगिनः । भवन्ति मनोद्रव्याणि तब्यापारश्च यावन्मात्रः॥१॥ तदसङ्ख्यगुणविहीनं समये समये निरुन्धन् सः । मनसः सर्वनिरोधं कुर्यादसमयसमयैः ॥ २॥२ इखाक्षराणि मध्येन येन कालेन पञ्च भण्यन्ते । तिष्ठति शैलेशीलागतस्तावन्मात्रं ततः कालं ॥१॥ दीप अनुक्रम (५५) SAREauratonintimational सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकारः ~364~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) --------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: * औपपा- तिकम् ॥११॥ प्रत सूत्रांक ******** [४३] स्थिरतासाम्याद्याऽवस्था सा शैलेशी अथवा शीलेश:-सर्वसंवररूपचारित्रप्रभुस्तस्येयमवस्था योगनिरोधरूपेति शैलेशी तांसिद्धाधिक प्रतिपद्यते, ततः 'पुबरश्यगुणसेढीयं च ण'ति पूर्व-शैलेश्यवस्थायाः प्राग् रचिता गुणश्रेणी-क्षपणोपक्रमविशेषरूपा यस्य तत्तथा, गुणश्रेणी चैवं-सामान्यतः किल कर्म बह्वल्पमल्पतरमल्पतमं चेत्येवं निर्जरणाय रचयति, यदा तु परिणामवि सू०४३ शेषात्तत्र तथैव रचिते कालान्तरवेद्यमल्पं बहु बहुतरं बहुतमं चेत्येवं शीघतरक्षपणाय रचयति तदा सा गुणश्रेणीत्युच्यते, स्थापना चैवं/'कम्मति वेदनीयादिकं भवोपमाहि तीसे सेलेसिमद्धाए'त्ति तस्यां शैलेशीअद्धायां-शैलेशीकाले क्षपयन्निति योगः , एतदेव विशेषेणाह-'असंखेजाहिं गुणसेढीहिन्ति असङ्ख्याताभिर्गुणश्रेणीभिः शैलेश्यवस्थाया असङ्ग्यातसमयत्वेन गुणश्रेण्यप्यसङ्ख्यातसमया ततः तस्याः प्रतिसमयभेदकल्पनया असङ्ख्यातागुणश्रेणयो भवन्ति, अतोड़सङ्ख्याताभिः गुणश्रेणीभिरित्युक्तम् , असङ्ख्यातसमयैरिति हृदयम्, 'अणते कम्मंसे खवयंतो'त्ति अनन्तपुद्गलरूपत्वादनन्तास्तान् कर्माशान्-भवोपग्राहिकर्मभेदान क्षपयन्-निर्जरयन् 'वेयणिज्जाउयणामगोए'त्ति वेदनीयं सातादि आयुः-मनुष्यायुष्क नाम-मनुष्यगत्यादि गोत्रम्-उचैर्गोत्रम् 'इचेते'त्ति इत्येतान् 'चत्तारित्ति चतुरः 'कम्मसे'त्ति कर्माशान्मूलप्रकृतीः 'जुगर्व खवेइत्ति योगपद्येन निर्जरयतीति । एतच्चैता भाष्यगाथा अनुश्रित्य व्याख्यातं,यदुत-"तदसंखेजगुणाए सेढीए विरइयं पुरा कम्म। १ तदसोयगुणया श्रेण्या विरचितं पुरा कर्म । समये समये क्षपयन् कर्म शैलेशीकालेन ॥ १॥ सर्व क्षपयति तत्पुनर्निर्लेप किञ्चिदुपरितने समये । किञ्चिच भवति चरमे शैलेश्यां तवक्ष्ये ॥२॥ मनुजगतिजातित्रसबादरं च पर्याप्त सुभगमादेयम् । अन्यतरवेदनीयं नरायुरुच्चैः यशोनाग ॥ ३ ॥ सम्भवतो जिननाम नरानुपूर्वीच चरमसमये । शेषा जिनसत्का द्वि चरमसमये निस्तिष्ठन्ति (निष्ठां यान्ति) 2018 दीप अनुक्रम SACREAST C११३ (५५) *** | सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~365~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: -- --- -- ----- -- - - - -- - - -- प्रत सूत्रांक [४३] |समए समए खवयं कर्म सेलेसिकालेणं ॥ १॥ सर्व खवेइ तं पुण निल्लेवं किंचिदुवरिमे समए । किंचिच्च होइ चरमे 6 | सेलेसीए तयं वोच्छ ॥२॥ मणुयगइजाइतसबायरं च पज्जत्तसुभगमाएजं । अन्नयरवेयणिज नराउमुचं जसोनामं ॥३॥ |संभवओ जिणनाम नराणुपुची य चरिमसमयंमि । सेसा जिणसंताओ दुचरिमसमयंमि निति'॥४॥त्ति, 'सवाहिं विप्पयहणाहिति सर्वाभिः-अशेषाभिः विशेषेण-विविध प्रकर्षतो हानयः-त्यागा विप्रहाणयो व्यक्त्यपेक्षया बहुवचनं ताभिः, किमुक्तं भवति ?-सर्वथा परिशाटनं न तु यथा पूर्व सङ्घातपरिशाटाभ्यां देशत्यागतः 'विप्पजहित्त'त्ति विशेषेण प्रहाय-परित्यज्य 'उजूसेढिपडिबन्ने त्ति ऋजुः-अवक्रा श्रेणिः-आकाशप्रदेशपङ्गिस्तां ऋजुश्रेणिं प्रतिपन्नः-आश्रितः 'अफुसमाणगई'त्ति अस्पृशन्ती-सिद्ध्यन्तरालप्रदेशान् गतिर्यस्य सोऽस्पृशद्गतिः, अन्तरालप्रदेशस्पर्शने हि नैकेन समयेन सिद्धिः, इष्यते च तत्रैक एव समयः, य एव चायुष्कादिकर्मणां क्षयसमयः स एव निर्वाणसमयः, अतोऽन्तराले समयान्तरस्याभावादन्तरालपदेशानामसंस्पर्शनमिति, सूक्ष्मश्चायमर्थः केवलिगम्यो भावत इति, 'एगेणं समएण'ति, कुत इत्याह-'अविग्गहेणं'ति अविग्रहेण-वरहितेन, वक्र एव हि समयान्तरं लगति प्रदेशान्तरं च स्पृशतीति, 'उहुं गता' ऊर्ध्वं गत्वा 'सागारोवउत्ते'त्ति ज्ञानोपयोगवान् 'सिध्यति' कृतकृत्यतां लभते इति । गतमानुपनिकमध प्रकृतमाह-किं च प्रकृतं ?, 'से जे इमे गामागर जाव सन्निवेसेसु मणुया हवंति-सबकामविरया जाव अह कम्मपयडीओ खवइत्ता उप्पि लोयग्गपइटाणा हवंतीति, लोकानप्रतिष्ठानाश्च सन्तो यादृशास्ते भवन्ति तद्दर्शयितुमाह-'ते णं तत्थ सिद्धा हवंति'त्ति ते पूर्वोद्दिष्टविशेपणा मनुष्याः 'तत्र' लोकाग्रे निष्ठितार्थाः स्युरिति, अनेन च यत्केचन मन्यन्ते, यदुत-रागादिवासनामुक्तं, चित्तमेव दीप अनुक्रम (५५) सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकारः ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ----------- मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: औपपा- तिकम् ॥११४॥ प्रत सूत्रांक [४३] का निरामयम् । सदाऽनियतदेशस्थ, सिद्ध इत्यभिधीयते ॥१॥ यच्चापरे मन्यन्ते-"गुणसत्त्वान्तरज्ञानानिवृत्तप्रकृतिक्रि-1|| सिद्धाधिक निरामय याः। मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः ॥१॥" तदनेन निरस्तं, यच्चोच्यते-सशरीरतायामपि सिद्धत्वप्रति-15 |पादनाय, यदुत-"अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्यं कृतिनः सदा । मोदन्ते निर्वृतात्मानस्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥१॥ इति । सू०४३ तदपाकरणायाह-'अशरीरा' अविद्यमानपञ्चप्रकारशरीराः, तथा 'जीवघण'त्ति योगनिरोधकाले रन्ध्रपूरणेन त्रिभागोना-2 |ऽवगाहनाः सन्तो जीवधना इति, 'दसणनाणोवउत्त'त्ति ज्ञान-साकारं दर्शनम्-अनाकारं तयोः क्रमेणोपयुक्ता ये ते तथा, 'निट्ठियत्ति निष्ठितार्थाः-समाप्तसमस्तप्रयोजनाः 'निरयण'त्ति निरेजनाः-निश्चलाः 'नीरय'त्ति नीरजसो-वध्यमानकर्मरहिता नीरया वा-निर्गतौत्सुक्याः 'निम्मल'त्ति निर्मलाः पूर्वबद्धकर्मविनिर्मुक्ताः द्रव्यमलवर्जिता वा 'वितिमिर' त्ति विग्रताज्ञानाः 'विसुद्ध'त्ति कर्मविशुद्धिप्रकर्षमुपगताः 'सासयमणागयर्द्ध कालं चिति'शाश्वतीम्-अविनश्वरी सिद्धत्वस्याविनाशाद् , अनागताद्धा-भविष्यत्कालं तिष्ठन्तीति 'जम्मुप्पत्ती'ति जन्मना-कर्मकृतप्रसूत्या उत्पत्तियां सा तथा, जन्मग्रहणेन परिणामान्तररूपात्तदुत्पत्तिर्भवतीत्याह, प्रतिक्षणमुत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्तत्वात्सझावस्येति, 'जहण्णेणं सत्त रयजीए'त्ति सप्तहस्ते उच्चत्वे सिध्यन्ति महावीरवत् , 'उक्कोसेणं पंचधणुस्सएत्ति ऋषभस्वामिवद्, एतच्च द्वयमपि तीर्थङ्करा-1 पेक्षयोक्तम् , अतो द्विहस्तप्रमाणेन कूर्मापुत्रेण न व्यभिचारोन वा मरुदेव्या सातिरेकपञ्चधनुःशतप्रमाणयेति, 'साइरेग- ॥११॥ माहवासाउए'ति सातिरेकाण्यष्टौ वर्षाणि यत्र तत्तथा तच्च तदायुश्चेति तत्र सातिरेकाष्टवर्षायुपि, तत्र किलाप्रवर्षवयाचरण प्रतिपद्यते, ततो वर्षे अतिगते केवलज्ञानमुत्पाद्य सिध्यतीति, 'उक्कोसेणं पुवकोडाउएत्ति पूर्वकोट्यायुर्नरः पूर्वकोव्या अन्ते दीप अनुक्रम (५५) सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकारः ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------------ मूलं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] ४ सिध्यतीति न परतः । ते णं तत्थ सिद्धा भवंती'ति प्राक्तनवचनाद् यद्यपि लोकाग्रं सिद्धानां स्थानमित्यवसीयते तथापि मु-18 ग्धविनेयस्य कल्पितविविधलोकाग्रनिरासतो निरुपचरितलोकायस्वरूपविशेषावबोधाय प्रश्नोत्तरसूत्रमाह-अस्थि णमित्यादि व्यक्त, नवरं यदिदं रत्नप्रभा (या) अधस्तदेव लोकाग्रमिति तत्र सिद्धाः परिवसन्तीति प्रश्नः, तत्रोत्तर-नायमर्थः समर्थ इति, एवं सर्वत्र, से कहिं खाइ णं भंते"त्ति इत्यत्र सेत्ति-ततः कहिंति-कदेशे खाइ णति-देशभाषया वाक्यालङ्कारे 'बहुसमे'त्यादि बहुसमत्वेन रमणीयो यः स तथा तस्मात् 'अवाहाएत्ति अवाधया-अन्तरेण 'ईसिंपन्भार'त्ति ईषद्-अल्पो न रत्नप्रभादि पृधिव्या इव महान् प्राग्भारो-महत्त्वं यस्याः सा इंपत्याग्भारा । नामधेयानि व्यक्तान्येव, नवरं इंसित्ति वा-ईषत्-अल्पा | पृथिव्यन्तरापेक्षया, इतिशब्द उपप्रदर्शने, वाशब्दो विकल्पे, 'लोयग्गपडिबुझणा इ यत्ति लोकाप्रमिति प्रतिबुध्यते-अव-18 IIX| सीयते या लोकाग्रं वा प्रतिबुध्यते यया सा तथा, 'सबपाणभूयजीवसत्तसुहावह 'त्ति इह प्राणा-दीन्द्रियादयः भूता-बन स्पतयः जीवा:-पवेन्द्रियाः पृथिव्यादयस्तु-सत्त्वाः एतेषां च पृथिव्यादितया तत्रोत्पन्नानां सा सुखावहा शीतादिदुःखहेतूनामभावादिति, 'सेय'त्ति श्वेता, एतदेवाह-'आयंसतलविमलसोलियमुणालदगरयतुसारगोक्खीरहारवण'त्ति व्यक्तमेव, नवरम् आदर्शतलं-दर्पणतलं कचिच्छसतलमिति पाठः, आदर्शतल मिव बिमला या सा तथा, 'सोलिय'त्ति कुसुम-| विशेषः, “सबजुणसुषण्णमईति अर्जुनसुवर्ण-श्वेतकाञ्चनं अच्छा आकाशस्फटिकमिव 'सण्ह'त्ति श्लक्ष्णपरमाणुस्कन्ध-|| निष्पन्ना लक्ष्णतन्तुनिष्पन्नपटवत् 'लण्हत्ति ममृणा घुण्टितपटवत् , 'घट्टत्ति घृष्टेव घृष्टा खरशानया पाषाणप्रतिमावत् , 'महति मृष्टेव मृष्टा सुकुमारशानया प्रतिमेव शोधिता वा प्रमार्जनिकयेव, अत एव 'णीरय'त्ति नीरजाः-रजोरहिता दीप अनुक्रम (५५) SAREauratonintamational | सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~368~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------- ------------------- मुलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] औपपातिकम् ॥११५॥ गाथा: ||१-२२|| ४ाणिम्मला' कठिनमलरहिता 'णिपंक'त्ति निष्पका-आमलरहिता अकलङ्का वा 'णिकंकडच्छाय'त्ति निष्काटा-निष्क- सिद्धस्व० लायचा निरावरणेत्यर्थः छाया-शोभा यस्याः सा तथा अकलकशोभा वा, 'समरीचिय'त्ति समरीचिका-किरणयुक्ता, अत एव ||3|| सू०४३ 'सुप्पभत्ति सुपु प्रकर्षेण च भाति-शोभते या सा सुप्रभेति 'पासादीय'त्ति प्रासादो-मनःप्रमोदः प्रयोजनं यस्याः सा प्रासा-| दीया 'दरसणिज्ज'त्ति दर्शनाय-चक्षुष्योंपाराय हिता दर्शनीया, तां पश्यच्चक्षुने श्राम्यतीत्यर्थः, अभिरूवत्ति अभिमतं रूपं ट्रा यस्याः सा अभिरूपा, कमनीयेत्यर्थः, 'पडिरूव'त्ति द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, 'जोयणमि लोगते'त्ति || इह योजनमुस्सेधालयोजनमवसेयं, तदीयस्यैव हि क्रोशपड्भागस्य सत्रिभागखयस्त्रिंशदधिकधनु शतत्रयीप्रमाणत्वादिति, 'अणेगजाइजरामरणजोणिवेयण' अनेकजातिजरामरणप्रधानयोनिषु वेदना यत्र स तथा तं 'संसारकलंकलीभाव-12 पुणब्भवगम्भवासवसहीपवंचमहर्कता' संसारे कलङ्क (ग्रन्था० ३०००) लीभावेन-असमञ्जसत्वेन ये पुनर्भवाः-पौनःपुन्येनोत्पादा गर्भवासवसतयश्च-गर्भाश्रयनिवासास्तासां यः प्रपञ्चो-विस्तरः स तथा तमतिक्रान्ता-निस्तीर्णाः, पाठान्तरमिदम् 'अणेगजाइजरामरणजोणिसंसारकलंकलीभावपुणब्भवगम्भवासवसहिपवंचसमइकंतत्ति अनेकजातिजरामरणप्रधा-1| ना योनयो यत्र स तथा स चासौ संसारश्चेति समासः, तत्र कलङ्कलीभावेन यः पुनर्भवेन-पुनःपुनरुत्पत्त्या गर्भवासवस-1 ॥११॥ तीनां प्रपञ्चस्तं समतिक्रान्ता ये ते तथा ॥ ४३ ॥ __गाथा:-कहिं पडिहया सिद्धा?, कहिं सिद्धा पडिठिया ? । कहिं बोदिं चइत्ता णं, कत्थ गंतूण सिज्झई : 8/॥१॥ अलोगे पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पडिठिया । इहं वोदि चहत्ता णं, तत्थ गंतूण सिसई ॥२॥ CRACK दीप अनुक्रम [५५] | सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------- ------------------- मुलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] गाथा: ||१-२२|| | जं संठाणं तु इहं भवं चयं तस्स चरिमसमयंमि । आसी य पएसघणं तं संठाणं तहिं तस्स ॥३॥दीहंदी || वा हस्सं या जं चरिमभवे हवेज संठाणं । तत्तो तिभागहीणं, सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥४॥ तिपिण सया तेत्तीसा धणूतिभागो य होइ बोद्धब्बा । एसा खलु सिद्धार्ण, उकोसोगाहणा भणिया ॥५॥चत्तारि ४य रयणीओ रयणित्तिभागणिया य बोद्धव्वा । एसा खलु सिद्धार्थ मज्झिमओगाहणा भणिया ॥६॥ एक्का तय होइ रयणी साहीया अंगुलाई अट्ट भवे । एसा खलु सिहाणं जहण्णओगाहणा भणिया ॥ ७॥ ओगाहभणाएँ सिहा भवत्तिभागेण होइ परिहीणा । संठाणमणित्थंथं जरामरणविप्पमुकाणं ।। ८॥ जत्थ य एगो सिद्धो तत्थ अणंता भवक्खयविमुक्का । अण्णोण्णसमवगाढा पुट्ठा सब्वे य लोगते ॥९॥ फुसइ अणंते & सिद्धे सब्बपएसेहिं णियमसो सिद्धा । तेवि असंखेजगुणा देसपएसेहिं जे पुट्ठा ॥ १०॥ असरीरा जीवघणाट! उवउत्ता दसणे य गाणे य । सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं ॥ ११॥ केवलणाणुवउत्ता जाणंति || ४ सव्वभावगुणभावे । पासंति सचओ खलु केवलदिही अणंताहिं ॥१२॥ णवि अस्थि माणुसाणं तं सोक्खं ४ णविय सचदेवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं अब्वाबाहं उचगयाणं ॥ १३ ॥ जं देवाणं सोक्खं सब्वद्वापिंडियं |अणंतगुणं । ण य पावइ मुत्तिसुहं ताहिं वग्गवग्रहिं ॥ १४॥ सिद्धस्स सुहो रासी सब्बद्वापिंडिओ ||जह हवेजा । सोऽणंतवग्गभइओ सब्वागासे ण माएजा ॥१५॥ जह णाम कोइ मिच्छो नगरगुणे बहुविहे| लिवियाणंतो। न चएइ परिकहेर्ड उवमाएँ तहिं असंतीए॥१६॥ इय सिद्धाणं सोक्खं अणोवम णत्थि तस्स दीप अनुक्रम [५५-७७] | सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~370 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------- ------------------- मुलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत तिकम् सूत्रांक ॥११६॥ [४३] गाथा: ||१-२२|| ओवम्म । किंचि विससेणेत्तो ओवम्ममिणं सुणह वोच्छ ॥ १७ ॥ जह सब्वकामगुणियं पुरिसो भोसूण सिद्धस्व० भोयण कोइ।तण्हालुहाविमुक्को अच्छेज जहा अमियतित्तो॥१८॥ इय सव्वकालतित्ता अतुलं निब्वाणमुवगया सिद्धा । सासयमच्चाबाहं चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ १९॥ सिद्धत्तिय बुद्धत्ति य पारगपत्ति य परंपर-1 गयत्ति । उम्मुककम्मकवया अजरा अमरा असंगा य ॥२०॥ णिच्छिपणसव्वदुक्खा जाइजरामरणपंधण-II विमुक्का । अव्वाचाहं सुक्खं अणुहोति सासयं सिद्धा ॥ २१॥ अतुलसुहसागरगया अब्बाचाहं अणोवम पत्ता । सब्वमणागपमद्धं चिटुंती सुही सुई पत्ता ॥ २२ ॥ उपवाई उर्वगं समतं ॥ शुभं भवतु ॥ अन्धा १६०० ॥ सूत्राणि त्रिचत्वारिंशत्, गाथाः २५॥ श्री ।। | अथ प्रश्नोत्तरद्वारेण सिद्धानामेव वक्तव्यतामाह-'कहि' इत्यादिश्लोकद्वयं, व प्रतिहताः-क प्रस्खलिताः सिद्धा:मुक्काः, तथाः क सिद्धाः प्रतिष्ठिता-व्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा क बोन्दि-शरीरं त्यक्त्वा', तथा व गत्वा सिग्झइत्ति-आकृ. तत्वात् 'से हु चाइत्ति वुचई त्यादिवत् सिध्यन्तीति ब्याख्येयमिति ॥१॥ अलोके- अलोकाकाशास्ति काये प्रतिहताःस्खलिताः सिद्धा-मुक्ताः, प्रतिस्खलन चेहानन्तर्यवृत्तिमात्र, तथा लोकाग्रे च-पश्चास्तिकायात्मकलोकमूर्धनि च प्रतिष्ठिता-|| ॥११६॥ अपुनरागत्या व्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा इह-मनुष्यक्षेत्रे बोन्दि-तर्नु परित्यज्य तत्रेति-लोकाने गत्वा सिझईत्ति-सिध्य १ बहुवचनप्रक्रमेऽप्युपसंहार एकवचनेन यथा तत्र 'जे य कन्ते' इत्यादिनोपक्रम्य 'बुचई' इति क्रिययोपसंहार एकवचनेन, व्याख्या४ यां तु बहुवचनं कृतं तथाऽत्रापीतिभावः. * केवलाकाशास्तिकाये प्र० दीप अनुक्रम [५५-७७] For P OW सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकारः ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------- ------------------- मल [४३] + गाथा: ||१-२२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] गाथा: ||१-२२|| न्ति निष्ठितार्था भवन्ति ॥ २॥ किञ्च-ज संठाणं' गाहा व्यक्ता, नवरं प्रदेशघनमिति त्रिभागेन रन्ध्रपूरणादिति, 'तहि । ति सिद्धिक्षेत्रे 'तस्स'त्ति सिद्धस्येति ॥ ३॥ तथा चाह-'दीहं वागाहा, दीर्घ वा-पञ्चधनुःशतमानं इस्खं वा-हस्तद्वयमानं, | वाशब्दान्मध्यमवा, यच्चरमभवे भवेत्संस्थानं 'ततः तस्मात् संस्थानात् त्रिभागहीना त्रिभागेन शुपिरपूरणात् सिद्धानामवगाहना-अवगाहन्ते-अस्यामवस्थायामिति अवगाहना स्वावस्थैवेति भावः, भणिता-उक्ता जिनैरिति ॥ ४॥ अथावगाहनामेवोत्कृष्टादिभेदत आह-तिणि सये'त्यादि, इयं च पञ्चधनु शतमानानां 'चत्तारि येत्यादि तु सप्तहस्तानाम् 'एगा ये' त्यादि द्विहस्तमानानामिति । इयं च त्रिविधाऽप्यूर्वमानमाश्रित्यान्यथा सप्तहस्तमानानां च उपविष्टानां सिद्ध्यतामन्यथाऽपि स्यादिति । आक्षेपपरिहारी पुनरेवमत्र ननु नाभिकुलकरः पञ्चविंशत्यधिकपञ्चधनुःशतमानः प्रतीत एव, तदायोऽपि मरुदेवी तत्प्रमाणैव, 'उच्चत्तं चेव कुलगरेहिं सममिति वचनात्, अतस्तदवगाहना उत्कृष्टावगहनातोऽधिकतरा प्राप्नोतीति कथं न विरोधः, अत्रोच्यते, यद्यप्युच्चत्वं कुलकरतुल्यं तद्योषितामित्युक्तं, तथापि प्रायिकत्वादस्य स्त्रीणां च प्रायेण पुम्भ्यो। लघुतरत्वात् पञ्चैव धनुःशतान्यसावभवत् , वृद्धकाले बा सङ्कोचात् पञ्चधनु शतमाना सा अभवद्, उपविष्टा वाऽसौ सिद्धेति न विरोधः, अथवा बाहुल्यापेक्षमिदमुत्कृष्टावगाहनामानं, मरुदेवी त्वाश्चर्यकल्पेत्येवमपि न विरोधः, ननु जघन्यतः सप्तहस्तोच्छ्रितानामेव सिद्धिः प्रागुक्ता, तत्कथं जघन्यावगाहना अष्टाङ्गलाधिकहस्तप्रमाणा भवतीति ?, अत्रोच्यते, | सप्तहस्तोच्छितेषु सिद्धिरिति तीर्थकरापेक्षं, तदन्ये तु द्विहस्ता अपि कूर्मपुत्रादयः सिद्धाः अतस्तेषां जघन्याऽवसेया, अन्ये १ उच्चत्वमेव कुलकरैः समं. दीप अनुक्रम [५५-७७] GOOK SARERaunintenarana Auditurary.com सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकारः ~372~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------- ------------------- मुलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत औपपा तिकम् सूत्रांक [४३] ॥११७॥ S गाथा: ||१-२२|| त्याहुः-सप्तहस्तमानस्य संवर्तिताङ्गोपाङ्गस्य सियतो जघन्यावगाहना स्यादिति ॥७॥ 'ओगाहणाए' गाहा व्यक्ता, नव- सिद्धस्व० रम् 'अणित्य'ति अमुं प्रकारमापन्नमित्थं इत्थं तिष्ठतीति इत्थंस्थं न इत्थंस्थं अनित्थंस्थं-न केनचिल्लौकिकप्रकारेण स्थितमिति ॥८॥ अथैते किं देशभेदेन स्थिता उतान्यथेत्यस्यामाशङ्कायामाह-'जत्थ यगाहा, यत्र चन्यत्रैव देशे एकः ४ सिद्धो-निर्वृत्तस्तत्र देशे अनन्ता किम् ?-'भवक्षयविमुक्ता' इति भवक्षयेण विमुक्ता भवक्षयविमुक्काः, अनेन स्वेच्छया भवावतरणशक्तिमत्सिद्धव्यवच्छेदमाह । अन्योऽन्यसमवगाढाः तथाविधाचिन्त्यपरिणामत्वाद्धर्मास्तिकायादिवदिति, स्पृष्टाःलग्नाः सर्वे च लोकान्ते, अलोकेन प्रतिस्खलितवाद , अत एव 'लोयग्गे य पइडिया'इत्युक्तमिति ॥९॥ तथा 'फुसइ ४॥ गाहा, स्पृशत्यनन्तान्सिद्धान् सर्वपदेशैरात्मसम्बन्धिभिः 'णियमसो'त्ति नियमेन सिद्धः, तथा तेऽप्यसोयगुणा वर्तन्ते | देशैः प्रदेशश्च ये स्पृष्टाः, केभ्यः-सर्वप्रदेशस्पृष्टेभ्यः, कथम् -सर्वात्मप्रदेशैस्तावदनन्ताः स्पृष्टाः, एकसिद्धावगाहनायामनन्तानामवगाढत्वात् , तथैकैकदेशेनाप्यनन्ता एवमेकैकप्रदेशेनाप्यनन्ता एव, नवरं देशो-व्यादिप्रदेशसमुदायः, प्रदेशस्तु-नि-18/ विभागोश इति, सिद्धश्वासयदेशप्रदेशात्मकः, ततश्च मूलानन्तकमसमवेयैर्देशानन्तकैरसपैरेव च प्रदेशानन्तकैगुणितं | यथोक्तमेव भवतीति । स्थापना चेयं ॥१०॥ अथ सिद्धानेव लक्षणत आह-'असरीरा' गाहा, उतार्था, सङ्घहरूपत्वाच्चास्या न नरुक्तत्वमिति ॥ ११ ॥ 'उवउत्ता दंसणे य णाणे यत्ति यदुक्तं, तत्र ज्ञानदर्शनयोः सर्वविषयतामुपदर्श- 15॥११७॥ यन्नाह-केवल गाहा, केवलज्ञानोपयुक्ताः सन्तः न त्वन्तःकरणोपयुक्ताः, भावतस्तदभावात् , जानन्ति 'सर्वभावगुणभावान्' समस्तवस्तुगुणपर्यायान् , तत्र गुणाः-सहवर्तिनः पर्यायास्तु-क्रमवर्तिन इति, तथा पश्यन्ति 'सर्वतः खलु' सर्वत दीप अनुक्रम [५५-७७] सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~373~ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------- ------------------- मुलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: पांगसूत्र- मुक्त कृतिः) का ॥२॥ प्रत सूत्रांक [४३] गाथा: ||१-२२|| शाएवेत्यर्थः केवलदृष्टिभिरनन्ताभिः केवलदर्शनैरनन्तैरित्यर्थः, अनन्तत्वात् सिद्धानामनन्तविषयत्वाद्वा दर्शनस्य केवलदृष्टिभिरनन्ताभिरित्युक्तम् , इह चादौ ज्ञानग्रहणं प्रथमतया तदुपयोगस्थाः सिध्यन्तीति ज्ञापनार्थमिति ॥ १२ ॥ अथ सिद्धानां निरुपमसुखता दर्शयितुमाह-'णवि अधि'गाहा व्यक्ता, नवरम् 'अघाबाहति विविधा आवाधा व्यावाधा तन्निषेधादब्याबाधा तामुपगतानां प्राप्तानामिति ॥१३॥ कस्मादेवमित्याह-'जं देवाण'गाहा, 'यतो'यस्माद्देवानाम्-अनुत्तरसुरान्तानां | 'सौख्य'त्रिकालिकसुखं सर्वाद्धया-अतीतानागतवर्तमानकालेन पिण्डितं-गुणितं सर्वाद्धापिण्डितं, तथाऽनन्तगुणमिति, तदे| वंप्रमाणं किलासनावकल्पनयकैकाकाशप्रदेशे स्थाप्यत इत्येवं सकललोकालोकाकाशानन्तप्रदेशपूरणेनानन्तं भवति, न च प्राप्नोति मुक्तिसुख-नैव मुक्तिसुखसमानतां लभते, अनन्तानन्तत्वात्सिद्धसुखस्य, किंविधं देवसुखमित्याह-अनन्ताभिरपि | |'वर्गवर्गाभिः' वर्गवगैवर्गितमपि, तत्र तद्गुणो वर्गो यथाद्वयोर्वर्गश्चत्वारः तस्यापि वर्गो वर्गवर्गो यथा षोडश एवमनन्तशो वर्गि* तमपि। चूर्णिकारस्वाह-अनन्तैरपि वर्गवर्ग:-खण्डखण्डैः खण्डितं सिद्धसुखं तदीयानन्तानन्ततमखण्डसमतामपि न लभत IN इत्यर्थः, ततो नास्ति तन्मानुपादीनां सुखं यत्सिद्धानामिति प्रकृतम् ॥१४॥ सिद्धसुखस्येवोत्कर्षणाय भजयन्तरेणाह-'सिद्ध स्स'गाहा, "सिद्धस्य मुक्तस्य सम्बन्धी 'सुखः' सुखानां सत्को 'राशिः' समूहः सुखसङ्घातः इत्यर्थः, 'सर्वाद्धापिण्डितः सर्व॥४|| कालसमयगुणितो यदि भवे, अनेन चास्य कल्पनामात्रतामाह, सोऽनन्तवभक्तो-अनन्तवर्गापवर्तितः सन्समीभूत एवेति भावार्थः, 'सर्वाकाशे'लोकालोकरूपे न मायात्, अयमत्र भावार्थः-इह किल विशिष्टाहादरूपं सुखं गृह्यते, ततश्च | यत आरभ्य शिष्टानां सुखशब्दप्रवृत्तिस्तमाबादमवधीकृत्य एकैकगुणवृद्धितारतम्येन तावदसावाहादो विशिष्यते यावद दीप अनुक्रम [५५-७७] सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकारः ~374~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक” - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------- ------------------- मुलं [४३] + गाथाः ||१-२२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] औपपा- तिकम् ॥११॥ गाथा: ||१-२२|| नन्तगुणवृद्धया निरतिशयनिष्ठां गतः, ततश्चासावत्यन्तोपमातीतैकान्तिकौत्सुक्यविनिवृत्तिरूपः स्तिमिततममहोदधिकल्पश्वरमाहाद एव सदा सिद्धानां भवति, तस्माच्चारात्प्रथमाञ्चोर्ध्वमपान्तरालवर्तिनो ये तारतम्येनाहादविशेषास्ते सर्वाकाशप्रदेशराशेरपि भूयांसो भवन्तीत्यतः किलोक्त-सपागासे ण माएजत्ति, अन्यथा प्रतिनियतदेशावस्थितिः कथं तेषामिति || सूरयोऽभिदधतीति ।। १५ । अस्य च वृद्धोक्तस्याधिकृतगाथाविवरणस्यायं भावार्थ:-य एते सुखभेदास्ते सिद्धसुखपर्यायतया ग्यपदिष्टाः, तदपेक्षया तस्य क्रमेणोत्कृष्यमाणस्यानन्ततमस्थानवर्तित्वेनोपचारात्, तद्राशिश्च किलासद्भावस्थाप-14 नया सहस्रं समयराशिस्तु शतं, सहस्रं च शतेन गुणितं जातं लक्ष, गुणनं च कृतं सर्वसमयसम्बन्धिनां सुखपर्यायाणां मीलनार्थं, तथाऽनन्तराशिः किल दश, तद्वर्गश्च शतं, तेनापवर्तितं लक्षं जातं सहस्रमेव, अतः पूज्यैरुक्तं 'समीभूत एवेति भावार्थ इति, यच्चेह सुखराशेर्गुणनमपवर्तनं च तदेवं सम्भावयामः-यत्र किलानन्तराशिना गुणितेऽपि सति अनन्तवर्गेणानन्तानन्तकरूपेणातीव महास्वरूपेणापवर्तिते किञ्चिदवशिष्यते, स राशिरतिमहान् , ततश्च सिद्धसुखराशिमहानिति | बुद्धिजननार्थ शिष्यस्य तस्यैव वा गणितमार्गे व्युत्पत्तिकरणार्थमिति । अन्ये पुनरिमां गाथामेवं व्याख्यान्ति-सिद्धसुख& पोयराशिः नभःप्रदेशाग्रगुणितनभःप्रदेशाग्रप्रमाणः, तत्परिमाणत्वात्सिद्धसुखपर्यायाणां, सर्वाद्धापिण्डितः-सर्वसमयससम्बन्धी सङ्कलितः सन् , स चानन्तैः अनन्तशो इत्यर्थः, वगैः-वर्गमूलभक्का-अपवर्तितः अत्यन्तं लघूकृत इत्यर्थः, यथा किल सर्वसमयसम्बन्धी सिद्धसुखराशिः पञ्चषष्टिः सहस्राणि पश्च शतानि पशिच्चेति (६५५३६), स च वर्गेणापवर्तितः सन् जाते द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके (२५६) सोऽपि स्ववर्गापवर्तितो जाताः षोडश ततश्चत्वारः ततो द्वावित्येव ॥११॥ दीप अनुक्रम [५५-७७] सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकार: ~375~ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) -------------------------- मलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४३] गाथा: ||१-२२|| मतिलघूकृतोऽपि सर्वाकाशे न मायाद्, एतदेवाह-'सबागासे न माएजत्ति । अथ सिद्धसुखस्थानुपमतां दृष्टान्तेनाह-18| 'जह' गाहा, पूर्वार्धं व्यक्तं,'न चएईत्ति न शक्नोति परिकथयितुं नगरगुणानरण्यमागतोऽरण्यवासिम्लेच्छेभ्यः, कुत इत्याह| उपमायां त्वत्र नगरगुणेष्वरण्ये वाऽसत्यामिति, कथानकं पुनरेवम्-म्लेच्छः कोऽपि महारण्ये, वसति स्म निराकुलः । ४ अन्यदा तत्र भूपालो, दुष्टाश्वेन प्रवेशितः ॥१॥ म्लेच्छेनासौ नृपो दृष्टः, सत्कृतश्च यथोचितम् । प्रापितश्च निज देश, ॥४॥ | सोऽपि राज्ञा निजं पुरम् ॥२॥ ममायमुपकारीति, कृतो राज्ञाऽतिगौरवात् । विशिष्टभोगभूतीना, भाजनं जनपूजितः ॥३॥ ततः प्रासादशृङ्गेषु, रम्येषु काननेषु च । वृतो विलासिनीसाधैंभुते भोगमुखान्यसौ ॥ ४ ॥ अन्यदा प्रावृषः प्राप्ती, मेघाडम्बरमण्डितम् । व्योम दृष्ट्वा धनि श्रुत्वा, मेघानां स मनोहरम् ॥ ५ ॥ जातोरकण्ठो दृढं जातोऽरण्यवासगर्म प्रति । विसर्जितश्च राज्ञाऽपि, प्राप्तोऽरण्यमसौ ततः॥६॥ पृच्छन्त्यरण्यवासास्त, नगरं तात ! कीदृशम् ।। स स्वभावान् पुरः सर्वान, जानात्येव हि केवलम् ॥७॥ न शशाक तका (तरां) तेषां, गदितुं स कृतोद्यमः । वने वनेचराणां हि, नास्ति सिद्धोपमा यतः(तथा)॥८॥१६॥ अथ दान्तिकमाह-'इय' गाहा,'इति' एवम्-अरण्ये नगरगुणा |इवेत्यर्थः, सिद्धानां सौख्यमनुपम वर्तते, किमित्याह-यतो नास्ति तस्यौपम्यं, तथापि बालजनप्रतिपत्तये किञ्चिद्विशेषेणाह एत्तो ति आपत्वादस्य-सिद्धिसुखस्य इतो वाऽनन्तरम् औपम्यम्-उपमानम् 'इदं वक्ष्यमाणं शृणुत वक्ष्ये इति ॥ १७॥ 'जहगाहा, 'यथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः 'सर्वकामगुणित' सञ्जातसमस्तकमनीयगुणं, शेष व्यक्तम्, इह च रसनेन्द्रियमेवाधिकृत्येष्टविषयमाप्त्या औरसुक्यनिवृत्त्या सुखप्रदर्शनं सकलेन्द्रियार्थावास्याऽशेषीत्सुक्यनिवृत्त्युपलक्षणार्थम्, अन्यथा दीप अनुक्रम [५५-७७] सिद्ध एवं सिद्ध-पद प्राप्ति-विषयक: अधिकारः ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (१२) भाग-१४ “औपपातिक" - उपांगसूत्र-१ (मूलं+वृत्ति:) ------- ------------------- मलं [४३] + गाथा: ||१-२२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र-[११], अंगसूत्र-[११विपाकश्रुत” मूलं एवं अभयदेवसूरिरचिता वृत्ति: प्रत औपपा- तिकम् सूत्रांक ॥११९॥ [४३] % गाथा: बाधान्तरसम्भवात् सुखार्थाभाव इति ॥१८॥ 'इय' गाहा,'इय' एवं सर्वकालतृप्ताः शश्वदावत्वात् अतुल निर्वाणमुपगताः सिद्धस्व. सिद्धाः, सर्वदा सकलौत्सुक्यनिवृत्तः, यतश्चैवमतः 'शाश्वतं सर्वकालभावि 'अव्यावाघ व्यावाधावर्जितं सुख प्राप्ताः सुखिनस्तिष्ठन्तीति योगः, सुखं प्राप्ता इत्युक्ते मुखिन इत्यनर्थकमिति चेत्, नैवं, दुःखाभावमात्रमुक्तिसुखनिरासेन वास्तव्यसुखप्रति|पादनार्थत्वादस्य, तथाहि-अशेषदोपक्षयतः शाश्वतमव्यावाधसुखं प्राप्ताः सुखिनः सन्तः तिष्ठन्ति, न तु दुःखाभावमात्रा-12 बिता एवेति ॥ १९ ॥ साम्प्रतं वस्तुतः सिद्धपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह-'सिद्धत्ति य' गाहा, सिद्धा इति च तेषां नाम | कृतकृत्यत्वाद्, एवं बुद्धा इति केवलज्ञानेन विश्वावबोधात् , पारगता इति च भवार्णवपारगमनात , परंपरगयत्ति-पुण्यबीजसम्यक्त्वज्ञानचरणक्रमप्राप्युपाययुक्तत्वात् परम्परया गता परम्परगता उच्यन्ते,उन्मुक्तकमैकवचाः सकलकर्मवियुक्तत्वात्, तथा अजरा वयसोऽभावाद् अमरा आयुषोऽभावात् असङ्गाश्च सकलक्लेशाभावादिति ।। २०॥ 'निच्छिण्ण'गाहा 'अतुल गाहा व्यक्ता) एवेति ॥२शा२२॥ इति श्रीऔषपातिकवृत्तिः समाप्तेति ॥ चन्द्रकुलविपुलभूतलयुगप्रवरवर्धमानकल्पतरोः। कुसुमोषमस्य सूरेः गुणसौरभभरितभवनस्य ॥१॥ निस्सम्बन्धविहारस्य सर्वदा श्रीजिनेश्वराहस्य । शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणेयं कृता वृत्तिः ॥२॥ अणहिलपाटकनगरे श्रीमद्रोणाख्यसूरिमुख्येन । पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता घेयम् ॥ ३ ॥ ग्रन्थानम् ॥ ३१२५ ॥ ॥ इति श्रीमदभयदेवसूरिसूत्रितश्रीमद्रोणाचार्यशोधितवृत्तियुतमौपपातिकमाद्यमुपाङ्गं समाप्तम् ॥ ||१-२२|| % % ११९॥ दीप अनुक्रम [५५-७७] *% ___ आगमसूत्र १२, [उपांगसूत्र ०१] 'औपपातिक' सूत्र + अभयदेवसूरि सूत्रित वृत्ति: परिसमाप्त: भाग 14 विपाकश्रुत- अंगसूत्र- [११] औपपातिक- उवंगसूत्र-[१] मूलं एवं टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) । ~377~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? | भाग | इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन-१,२ 02 | | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ | 05 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान-१ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण | 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. | 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. | 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. | 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ | 17 | आगमा४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण | 18 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मुलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ | 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मुलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ | 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण | 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ४२६ ५१४ ६१० ~378~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ૪ર૬. ३४४ ३१२ ३३० 28 | ४६६ ४४२ सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम | आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. 23 | आगमा८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. 25 | आगम१८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. | आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मुलं एवं छाया 27 | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मलं एवं छाया, निशीथ, ब्रहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मलं एव | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ 30 | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण] 32 | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन-६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ 38 | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | आगम ४५ अनुयोगदवार मुलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसासूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ૪૨૬ ४७२ 33 ३७६ ५९० ૨૨ ४८२ ४६६ ५२८ ५६० ३९४ ~379~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः आगम [11-12] पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च विपाकश्रुत(अंगसूत्र) एवं “औपपातिक (उपांग)सूत्र” [मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ] (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलितः “विपाकश्रुत + औपपातिक" मूलं एवं वृत्तिः नामेण परिसमाप्तः “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि” श्रेणि, भाग- 14 ~ 380~ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਹੁਸਤਕ ਸਸਸ ਸ ਸ ਸ ਸ ਹਾਸ ਭਾਗ ਨੂੰ ਸ਼ਾਮ ਤਕ ਸੰਧੂ ਨੂੰ ਸਹੀ ਕਰ ਰਲ ਮਸਲਨ ਤ ਰਸ ਗਲ ਹਕ ਸ ਸੰਤ ਤ आगम deo 381 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजाम आजम आज नमो नमो निम्मलदसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता S AN सामान Ell Patwawnload पूज्यपाद आगमोझारक आचार्य आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायज [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहषि] पर ARRESS प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855198253062751 ~382 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता ~383~ श्री आगम मंदिर पालिताणा Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ आजम आगम आगम आजम् आगम |आजमायाममा मूल संशोधक - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम आजम आगम आगम आगम आप "विपाकश्रुत तथा औपपातिक” मूलं एवं वृत्ति: 3आजम आज अभिनव-संकलनकर्तामाजमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आगम आगम आगम ~384~