Book Title: Sangit Ratnakar Part 02 Kalanidhi Sudhakara
Author(s): Sarangdev, Kalinatha, Simhabhupala
Publisher: Adyar Library
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૮૮ નાકર - ૨ : દ્રવ્ય સહાયક : શ્રી નીતિસૂરિજી સમુદાયના પૂ. આ. શ્રી હેમપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાનુવર્તિની પ્રવર્તિની પૂ. સા. શ્રી લલિતપ્રભાશ્રીજી મ. તથા પૂ. સા. શ્રી શાસનદર્શનાશ્રીજી મ. ની પ્રેરણાથી શા કેશરીમલજી કપુરચંદજી ગિરીયા પરિવાર બિરામી (રાજસ્થાન) તરફથી : સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સનેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૧ ઈ. ૨૦૧૫ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ ક્રમાંક પૃષ્ઠ કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा. पू. जिनदासगणि चूर्णीकार पू. मेघविजयजी गणि म. सा. 001 002 003 004 005 006 007 008 009 010 011 012 013 014 015 016 017 श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05. 018 019 020 021 022 023 024 025 026 027 028 029 श्री नंदीसूत्र अवचूरी श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं श्री मानतुङ्गशास्त्रम् अपराजितपृच्छा शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम् शिल्परत्नम् भाग - १ शिल्परत्नम् भाग - २ प्रासादतिलक काश्यशिल्पम् प्रासादमञ्जरी राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र शिल्पदीपक वास्तुसार दीपार्णव उत्तरार्ध જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ जैन ग्रंथावली હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ | न्यायप्रवेशः भाग-१ दीपार्णव पूर्वार्ध | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १ | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२ प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः शक्तिवादादर्शः क्षीरार्णव वेधवास्तु प्रभाकर पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. पू. मानतुंगविजयजी म.सा. श्री बी. भट्टाचार्य | श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री विनायक गणेश आपटे श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री नारायण भारती गोंसाई श्री गंगाधरजी प्रणीत श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव श्री प्रभाशंकर ओघडभाई पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा. श्री एच. आर. कापडीआ श्री बेचरदास जीवराज दोशी श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री श्री प्रभाशंकर ओघडभाई श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 238 286 84 18 48 54 810 850 322 280 162 302 156 352 120 88 110 498 502 454 226 640 452 500 454 188 214 414 192 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 030 031 032 033 034 035 036 037 038 039 040 041 042 043 044 045 046 047 048 049 050 051 052 053 054 शिल्परत्नाकर प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३ (?) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय - 3 (२) (૩) श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय -५ વાસ્તુનિઘંટુ તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમન્નરી ભાગ-૨ તિલકમન્નરી ભાગ-૩ સપ્તસન્ધાન મહાકાવ્યમ સપ્તભઙીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સામાન્યનિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક સપ્તભઙીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરઙિણીતરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરઙિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ બૃહદ્ ધારણા યંત્ર જ્યોતિર્મહોદય श्री नर्मदाशंकर शास्त्री पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સં. પૂ. અક્ષયવિજયજી 824 288 520 578 278 252 324 302 196 190 202 480 228 60 218 190 138 296 210 274 286 216 532 113 112 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર ભાષા | 218. | 164 સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२ પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६ | पू. लावण्यसूरिजी म.सा. 296 056 | विविध तीर्थ कल्प प. जिनविजयजी म.सा. 160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः श्री धर्मदत्तसूरि 202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश) | श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य 668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी सं पू. मेघविजयजी गणि 516 064| विवेक विलास सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य 268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध | पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम् | सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा. 420 06764शमाता वही गुशनुवाह गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम् सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया 428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद 406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य 308 072 | जन्मसमुद्रजातक सं/हिं श्री भगवानदास जैन 128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध सं/हिं श्री भगवानदास जैन 532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો १४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376 060 322 073 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '075 374 238 194 192 254 260 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨ | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧ કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર કથા રત્ન કોશ ભાગ-1 કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ 238 260 ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ. पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी 114 '084. 910 436 336 087 2૩૦ 322 (089/ 114 એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા 560 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार क्रम 272 240 सं. 254 282 466 342 362 134 70 316 224 612 307 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१ वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३ बादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४ बादिदेवसूरिजी मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५ वादिदेवसूरिजी | मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र पुण्यविजयजी साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२ भोजदेव | टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक पद्मप्रभसूरिजी | वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला | गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर साधुसुन्दरजी सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३ माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५ सिद्धसेन दिवाकर सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका सतिषचंद्र विद्याभूषण एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१ पुरणचंद्र नाहर | पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२ पुरणचंद्र नाहर सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३ पुरणचंद्र नाहर सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१ कांतिविजयजी सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१ विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२ जिनविजयजी सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२ गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३ गिरजाशंकर शास्त्री फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स पी. पीटरसन | भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम् | जिनविजयजी सं. जैन सत्य संशोधक 514 454 354 सं./हि 337 354 372 142 336 364 218 656 122 764 404 404 540 274 सं./गु 414 400 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 754 194 3101 276 69 100 136 266 244 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम कर्ता / संपादक भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२ हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६ पी. पीटरसन अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ) शील खंड सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः ब्रह्मदेव सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२ डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।। जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४ जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२ सोमविजयजी | शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३ सोमविजयजी गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण) रत्नचंद्र स्वामी प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २ कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह) मेघविजयजी सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि कल्याण वर्धन सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम् रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार 274 168 282 182 गुज. 384 376 387 174 320 286 272 142 260 232 160 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार | पृष्ठ 304 122 208 70 310 462 512 संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम कर्ता/संपादक विषय | भाषा संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य व्याकरण संस्कृत पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक भामाह व्याकरण प्राकृत जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन साहित्य हिन्दी जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा संस्कृत चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१ शिवाचार्य न्याय संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२ शिवाचार्य न्याय संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी | संस्कृत/हिन्दी | लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध । शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत भगवानदास जैन ज्योतिष प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह अंबालाल शर्मा ज्योतिष | गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता 264 144 256 75 488 | 226 365 न्याय संस्कृत 190 480 352 596 250 391 114 238 166 संस्कृत 368 88 356 168 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | विषय पहा पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१ कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत | भाषा संस्कृत 181 364 182 काव्यप्रकाश भाग-२ 222 183 काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३ संस्कृत संस्कृत संस्कृत 330 संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री 184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१ 156 248 पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव संस्कृत संस्कृत /हिन्दी 504 185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक संस्कृत/अंग्रेजी 448 440 616 | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग 190 संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती | श्री सारंगदेव 632 नारद 84 191 संगीत मकरन्द संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 192 श्री हीरालाल कापडीया मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला । श्री चंद्रशेखर शास्त्री 220 संस्कृत हिन्दी 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 422 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 304 पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 446 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा | 414 हिन्दी सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा 409 199 | अध्यात्मसार सटीक 476 एच. डी. वेलनकर संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट 200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया 444 श्री डी. एस शाह 146 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची। पृष्ठ 285 280 315 307 361 301 263 395 क्रम पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219 प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका) वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220 | समासवादार्थ, वकारवादार्थ) | बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221 __ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका) कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता संस्कृत महादेव शर्मा 386 351 260 272 530 648 510 560 427 88 विविध कर्ता । संस्कृत | महादेव शर्मा 78 महादेव शर्मा 112 विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत महादेव शर्मा 228 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE ADYAR LIBRARY SERIES VOLUME FORTY-THREE संगीतरत्नाकरः २ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE SAMGITARATNAKARA OF ŚARN GADEVA WITH THE KALANIDHI OF KALLINATHA AND THE SAMGITASUDHAKARA OF SIMHABHOPALA Vol. II-ADHYAYAS 2-4 EDITED BY Pandit S. SUBRAHMANYA SASTRI REVISED BY PANDIT V. KRISHNAMACHARYA THE ADYAR LIBRARY AND RESEARCH CENTRE Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © 1959 The Adyar Library and Research Centre Adyar, Madras 20, India . Printed in India At the Vasanta Press, The Theosophical Society, Adyar, Madras 20 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE THE second volume of the Samgitaratnakara, containing the chapters on Raga, Prakirna and Prabandha, has been out of print since 1954. Since then there have been many requests for this volume from scholars in India and abroad. We have now great pleasure in publishing a revised edition of this volume. Though this edition is based on the previous one of 1944, the following corrections and improvements have been made: In the first edition, one and a half verses of the text were omitted by oversight in the fourth chapter while the matter was going through the Press, although the commentaries on these verses were printed (p. 274). The mistake is rectified in this edition. The total number of verses, however, shows only a difference of half a verse as there was an error in numbering in the previous edition. In a few places in Kallinatha's commentary, better readings have been adopted on the basis of the palmleaf MSS. in the Tanjore Sarasvati Mahal Library. The transcripts of Simhabhūpāla's commentary have been once again carefully examined and a few minor changes in the readings have been made. Unfortunately, these transcripts are extremely defective, being full of scribal errors and lacunae. The frequent omission of vowel signs and even whole letters often Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ vi baffles the reader. The originals of the transcripts could not be secured either. Hence, the idea of recording the readings of these transcripts was finally given up as the reproduction of corrupt readings would have been of little help to scholars. The quotations from the Samgitasamayasāra in Simhabhūpāla's commentary have been compared with the Trivandrum edition of the work, but changes in readings have been made on the basis of the abovementioned transcripts. Wherever the commentators differ from each other with regard to the readings of the text, it is indicated in the footnotes. Quotations from the Samgitaratnākara occurring in the commentaries are marked by single, and those from other sources by double, quotation marks. Indexes of technical terms and important words have been added. Pandit V. Krishnamacharya has been mainly responsible for this revised edition. Pandit K. Ramachandra Sarma has assisted him and prepared the indexes. Dr. Sreekrishna Sarma and Mrs. R. Burnier have also seen the proofs. We thank Dr. V. Raghavan of the University of Madras for his valuable suggestions and for going through the proofs. ANN KERR 1st July 1959 Director Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका पुटाहा १-१४७ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः प्रथमं प्रकरणम्-(प्रामरागादिविवेकः) पञ्च गीतयः सप्त शुद्धरागाः पञ्च भिन्नरागा: त्रयो गौडरागाः अष्टौ वेसररागाः सप्त साधारणरागा: अष्टोपरागा: विंशति: रागाः याष्टिकोक्ताः पञ्चदश भाषाजनकरागाः द्वितीय प्रकरणम्-(रागाङ्गादिनिर्णयः) पूर्वप्रसिद्धरागाङ्गादीनि अधुनाप्रसिद्धरागाङ्गादीनि शुद्धसाधारितरागलक्षणम् रागालापलक्षणम् रूपकलक्षणम् आक्षिप्तिकालक्षणम् षड्जग्रामलक्षणम् शुद्धकैशिकलक्षणम् भिन्नकैशिकमध्यमलक्षणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ viji पुटाकाः भिन्नतानभिन्नकैशिकयोर्लक्षणम् गौडकैशिकमध्यमगौडपञ्चमयोर्लक्षणम् गौडकैशिकवेसरषाडवबोट्टरागलक्षणम् मालवपञ्चमरूपसाधारशकभन्माणपञ्चमलक्षणम् नर्तषड्जकैशिकमध्यमग्रामाणां लक्षणम् । मालवकैशिकमालवश्रीषाडवतोडीनां लक्षणम् बङ्गालभिन्नषड्जभैरवभिन्नपञ्चमानां लक्षणम् वराटीपञ्चमषाडवगुर्जरीटक्कगौडकोलाहलानां लक्षणम् हिन्दोलवसन्तशुद्धकैशिकमध्यमानां लक्षणम् धन्नासीरेवगुप्तदेशीगान्धारपञ्चमानां लक्षणम् देशाख्यात्रवणाडोम्बकृतिककुभानां लक्षणम् रगन्तीसावरीभोगवर्धनीवेलावलीनां लक्षणम् प्रथममअरीबाङ्गालीआडिकामोदिकानां लक्षणम वेगरखीनागध्वनिसौवीरसौवीरीणां लक्षणम् वराटीपिञ्जरीनट्टाकर्णाटबङ्गालानां लक्षणम् रामकृतिगौडकृतिदेवकृतिवराटीनां लक्षणम् तोडीगुर्जरीभुच्छीखम्भाइतिवेलावलीनां लक्षणम् ... भैरवीकामोदानट्टाकोलाहलारामकृतीनां लक्षणम् छेवाटीवल्लाताशुद्धपञ्चमदाक्षिणात्यानां लक्षणम् .. आन्धालिकामल्हारीमल्हारगौडानां लक्षणम् श्रीरागादिद्राविड्यन्तानामधुनाप्रसिद्धरागाणां लक्षणम् १०१ •. १०२ १०५ .. १०७ १०९ ११२ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः वाग्गेयकारलक्षणम् गान्धर्वस्वरादिलक्षणम् १४९-२०२ .. १४९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुटाका. १५६ १५९ १६४ गायनलक्षणम् गायनदोषपरिगणनम् शब्दभेदपरिगणनम् शब्दगुणदोषाः शारीरलक्षणगुणदोषा: गमकभेदलक्षणम् स्थायभेदास्तलक्षणं च आलप्तिभेदास्तलक्षणं च बृन्दभेदात्तल्लक्षणं च १६७ १६९ १७१ १८८ १९८ २०३-३४९ २०३ २०६ २०६ चतुर्थः प्रवन्धाध्यायः गीतगानधातूनां भेदास्तल्लक्षणं च प्रबन्धत्रैविध्यम् प्रबन्धाङ्गानि पञ्च प्रबन्धजातयः अनियुक्तादिभेदेन प्रबन्धवैविध्यम् अष्टधा सूडप्रबन्धः, तन्नामनिर्देशश्च द्वात्रिंशद् आलप्तिप्रबन्धाः, तन्नामनिर्देशश्च षट्त्रिंशद् विप्रकीर्णप्रबन्धाः, तन्नामनिर्देशश्च एलाप्रबन्धनिरूपणम् तद्भेदाः वर्णगणमात्रागणानां निरूपणम् गणैलाप्रबन्धाः मात्रलाप्रबन्धाः वर्गलाप्रबन्धाः २१२ २१२ २१३ २१३ २१३ २१५ २२४ २२४ २३० २३९ २४४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देशैला प्रबन्धाः करणप्रबन्ध निरूपणम् ढेङ्की प्रबन्ध निरूपणम् वर्तनीप्रबन्धनिरूपणम् झोम्बड प्रबन्ध निरूपणम् लम्भप्रबन्ध निरूपणम् रासकप्रबन्धनिरूपणम् X वर्णादितालार्णवान्तानामालिप्रबन्धानां निरूपणम् श्रीरङ्गादिदन्त्यन्तविप्रकीर्णप्रबन्धानां निरूपणम् सालगसूडप्रबन्धनिरूपणम् रूपक प्रबन्ध निरूपणम् गीतगुणदोषनिरूपणम् पुटाङ्काः २४६ २५२ २५५ २५९ २६० २६४ २६७ २६९ ३११ ३३४ ३४४ ३४७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री निःशङ्कशार्ङ्गदेवप्रणीतः संगीतरत्नाकरः चतुरकल्लिनाथविरचितया कलानिधिटीकया, सिंहभूपालविरचितया संगीतसुधाकरटीकया च समेतः द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ग्रामरागोपरागरागभाषाविभाषान्तरभाषा विवेकाख्यं प्रथमं प्रकरणम् अथ ग्रन्थेन संक्षिप्तप्रसन्न पदपङ्क्तिना । निःशङ्को निखिलं रागविवेकं रचयत्यमुम् ॥ १ ॥ (क०) स्वरगतप्रतिपादितजातिजन्यत्वेन प्रसक्तान्प्रामरागादींस्तदनन्तरं विवेक्तुं प्रतिजानीते—अथ ग्रन्थेनेति । संक्षिप्तप्रसन्नपदपङ्क्तिना ; प्रसन्नानि शीघ्रं स्वाभिधेयबोधकानि च तानि पदानि ; तेषां प्रसन्नपदानां पङ्क्तयो वाक्यानि ; संक्षिप्ताः संकुचिताः प्रसन्नपदपङ्क्तयो यस्मिन्निति । अयमर्थः- बृहद्देश्यादिषु ग्रन्थान्तरेषु यत्र “ षड्जो न्यासः, षड्जोंऽशकः इत्यादिभिर्बहुभिर्वाक्यैर्योऽर्थोऽभिहितः, स एवात्र " षड्जग्रहांशन्यास – ” इत्यादिभिः प्रसन्नैः कतिपयैर्वाक्यैरभिधीयत इति । अथवा, संक्षिप्तानीति पदविशेषणम् ; तेषां पङ्क्तयो यस्मिन्निति व्यधिकरणो बहुव्रीहिः । पदानां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute "" Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् संक्षिप्तत्वं नाम ग्रन्थान्तरेषु " षड्जग्रहांशन्यासः” इत्याद्युक्तेरत्र “साद्यन्ता" इत्यादिनाभिधानम् । यथायोगमुभयथापि योजनीयम् । एवंभूततयात्मना क्रियमाणेन ग्रन्थेन निखिलं समस्तं रागविवेकम् , रागाणां दशविधानां विवेकोऽसंकीर्णतया परस्परभेदः; तं रचयति निबध्नाति । अमुमित्यनुपदं वक्ष्यमाणस्य बुद्ध्यारूढतया पुरोवर्तिना रूपेण निर्देशः । निःशङ्कोऽहमनुपदमेव रागविवेकं रचयामीति संसृष्टोऽर्थः । दशविधानामेतेषां रागत्वं रञ्जनात् । रञ्जनं च, रज्यते येन जनचित्तमिति करणव्युत्पत्त्या वा, जनचित्तानि रञ्जयतीति कर्तरि वा "अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् ” इति सूत्रेण कर्तर्यप्यभ्यनुज्ञानादुभयथापि घटत इत्यभिसंधायोक्तं मतङ्गेन । यथा " स्वरवर्णविशिष्टेन ध्वनिभेदेन वा पुनः । रज्यते येन सच्चित्तं स रागः संमतः सताम् ॥ अथवा, योऽसौ ध्वनिविशेषस्तु स्वरवर्णविभूषितः । रञ्जको जनचित्तानां स रागः कथितो बुधैः ॥" इति । स एव रागशब्दस्य रूढत्वादिना प्रयोगमप्याह " अश्वकर्णादिवढूढो यौगिको वापि मन्थवत् । योगरूढोऽथवा रागो ज्ञेयः पङ्कजशब्दवत् ॥" इति । रागशब्दस्य केवलरूढत्वं तु येन केनचिद्रागेण यः कश्चन न रज्यते, तं प्रति तस्यारञ्जकत्वात् 'अयं रागो मह्यं न रोचते' इति तद्वाक्यप्रयोगे द्रष्टव्यम् ॥१॥ (सं०) रागविवेकं वक्तुं प्रतिजानीते-अथेति । निःशङ्क इति बिरुदालंकृत: श्रीशा देवः संक्षिप्तप्रसन्नपदसमूहेन ग्रन्थेन रागविवेकं करोति । रागाणां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः पञ्चधा ग्रामरागाः स्युः पञ्चगीतिसमाश्रयात् । पञ्च गीतयः गीतयः पञ्च शुद्धा च भिन्ना गौडी च वेसरा ॥ २ ॥ साधारणीति, शुद्धा स्यादवकैर्ललितैः स्वरैः । भिन्ना वकैः स्वरैः सूक्ष्मैर्मधुरैर्ग मकैर्युता ॥ U विवेको विभागः । विभाग इत्युपलक्षणम्, लक्षणस्यापि वक्ष्यमाणत्वात् । येन रागतत्त्वज्ञानं, तत्कथयतीत्यर्थः । तत्र रागलक्षणं रागशब्दव्युत्पत्तिश्च कथिता मतङ्गेन ८८ ' योऽसौ ध्वनिविशेषस्तु स्वरवर्णविभूषितः । रञ्जको जनचित्तानां स रागः कथितो बुधैः ॥ रञ्जनाज्जायते रागो व्युत्पत्तिः समुदाहृता । अश्वकर्णादिवदूढो यौगिको मण्डपादि ( वापि मन्थ ) वत् ॥ " इति । संगीतसमयसारकारेणाप्युक्तम् - " रञ्जयतीति रागः । स्वरवर्णविशिष्टेन ध्वनिभेदेन वा पुनः । रज्यते येन सच्चित्तं स रागः संमतः सताम् ॥” इति । ते च रागा दशप्रकाराः -- ग्रामरागाः, उपरागाः, रागाः, भाषा, विभाषा, अन्तरभाषा, रागाङ्गाणि, भाषाङ्गाणि, क्रियाङ्गाणि, उपाङ्गानीति ॥ १ ॥ इत्याह ( क ० ) तत्रादौ ग्रामरागाः पञ्चविधगीतिभेदाश्रयणेन पञ्चा - पञ्चधा ग्रामरागाः स्युरिति । ताः पञ्च गीतीरुद्दिशति-—- गीतय इति 1 क्रमेण तासां लक्षणान्याह - शुद्धा स्यादित्यादिना । अवक्रैः ऋजुभिः, समैरित्यर्थः । ललितैर्मनोहरैः स्वरैर्युक्तत्वात्तदर्थतया शुद्धा स्यात् । वक्रैर्विषमैः, अत एव सूक्ष्मैर्युतच्चारितैः स्वरैर्मधुरैर्गमकैश्च वक्ष्यमाणेषु पञ्चदशसु गमकेषु वक्रसूक्ष्मस्वरोचितत्वान्मधुरैः श्राव्यैः स्फुरितादिभिर्गमकैश्च युता, वक्रसूक्ष्मस्वरत्वाद्भिन्नत्यर्थः । गाढैर्निबिडैः, त्रिस्थानगमकैर्मन्द्र Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् गाढस्त्रिस्थानगमकैरोहाटीललितैः स्वरैः। अखण्डितस्थितिः स्थानत्रये गौडी मता सताम् ॥ ४ ॥ ओहाटी कम्पितैर्मन्द्रमदुद्रुततरैः' स्वरैः। हकारौकारयोगेण हृन्न्यस्ते चिबुके भवेत् ॥५॥ मध्यतारेषु प्रयुक्तैर्यथोचितैर्गमकैः, ओहाटीललितैः ओहाट्या ललितैः स्वरैश्च स्थानत्रयेऽखण्डितस्थितिरविच्छिन्नावस्थाना गीतिौडीति सतां मता । ओहाटीति लक्षणनिरुक्तिः । चिबुके हन्यस्ते सतीति मन्द्रस्वरपरंपराप्रयोगे प्रयत्नोक्तिः । हकारौकारयोगेणोपलक्षितैः, तदा हकारौकारानुकारप्रतीतिर्भवति; न तु साक्षात्तावेवोच्चारणीयावित्यर्थः । एतेनौकारहकारावटति गच्छतीत्योहाटीपदनिरुक्तिः सूचिता । एवं प्रयत्ने क्रियमाणे मृदु कोमलं यथा भवति तथा द्रुततरैरधराधरं शीघैः कम्पितैः कम्पिताख्यगमकयुक्तैर्मन्द्रैः स्वरैरोहाटी भवेदिति लक्षणार्थः । गौडप्रियत्वाद्गौडीति संज्ञावगन्तव्या ॥२-५॥ (सं०) तत्र ग्रामरागान्विभजते—पश्चधेति । ग्रामरागाः पञ्चप्रकारा भवन्ति । केन विशेषेण तेषां पञ्चप्रकारत्वम् ? अत आह–पञ्चगीतिसमाश्रयादिति । कास्ताः पञ्च गीतय इत्यपेक्षायामाह-गीतयः पश्चेति । शुद्धा भिन्ना गौडी वेसरा साधारणीति पञ्च गीतयः । भरतेन मागध्यादयश्चतस्रो गीतय उक्ताः । यदाह "प्रथमा मागधी ज्ञेया द्वितीया चार्धमागधी । संभाविता तृतीया तु चतुर्थी पृथुला स्मृता ॥" इति । मतङ्गेन सप्त गीतय उक्ताः "प्रथमा शुद्धगीतिः स्याद् द्वितीया भिन्नका भवेत् । तृतीया गौडिका चैव रागगीतिश्चतुर्थिका ॥ 1द्वतन्ततः. हदिस्थे. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः साधारणी तु विज्ञेया गीतिज्ञैः पञ्चमी तथा । भाषागीतिस्तु षष्ठी स्याद्विभाषा चैव सप्तमी ।। भाषा चैव विभाषा च तथा चान्तरभाषिका । तिस्रस्तु गीतयः प्रोक्ता याष्टिकेन महात्मना । भाषाख्या गीतिरेकैव शार्दूलमतसंमता। गीतयः पञ्च विज्ञेयाः शुद्धा भिन्ना च वेसरा । गौडी साधारणी चैव, इति दुर्गामते मतम् ॥" इति । तत्र दुर्गामतमाश्रित्य पञ्च गीतय इत्युक्तम् । शुद्धां गीति लक्षयति-- शुद्धा स्यादिति । अवक्रैः सरलैललितः सुकुमारैः स्वरैर्युता गीतिः शुद्धा । भिन्नां लक्षयति-भिन्नेति । वक्रैः सूक्ष्मैरस्थूलै: स्वरैर्मधुरैः गमकैश्च युक्ता गीतिभिन्ना; भेदो विकारः, अतस्तयुक्ता गीतिर्भिन्ना । यदुक्तं मतङ्गेन-" ननु भिन्नशब्देन किमभिधीयते ? भिन्नत्वं विदारणं व्यतिरिक्तत्वं वा? मैवम् ; भिन्नोऽत्र विकृत उच्यते” इति । गौडी लक्षयति- गाद्वैरिति । गाडैः प्रखरैः, त्रिस्थानव्यापका गमका येषु स्वरेषु तैः, ओहाटीललितैः ओहाव्या ललितैः रमणीयैः स्वरैयुक्ता स्थानत्रयव्यापिनी गीतिौडी । ओहाव्या ललितैः स्वरैरित्युक्तम् । तत्र केयमोहाटीत्यपेक्षायामाह-ओहाटीति । कम्पितैर्मन्ग वत्तरैः खरैर्हकारौकारयोगाद्धृदिस्थे चिबुके सत्योहाटी भवेत् । मतङ्गेनाप्युक्तम् "ओहाटीललिताश्चापि स्वरा गौडयाश्च शोभनाः । हकारौकारयोर्योगादोहाटी परिकीर्तिता ॥ चिबुकं हृदये न्यस्य त्वोहाटी मन्द्रजा भवेत् । द्रुतद्रुततरा कार्या स्वरकम्पेन पीडिता ॥ ओहाटी ललिता चापि दृष्टादृष्टेन कर्मणा । त्रिस्थानकरणैर्युक्ता त्रिस्थानचलनाकुला ॥ चतुर्विधा तदौहाटी कर्तव्या गेयवेदिभिः । समाक्षरा समा चैव कार्यारोहावरोहिणी ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् वेगवद्भिः स्वरैर्वर्णचतुष्केऽप्यतिरक्तितः । वेगस्वरा रागगीतिसरा चोच्यते बुधैः ॥ ६॥ चतुर्गीतिगतं लक्ष्म श्रिता साधारणी मता। शुद्धादिगीतियोगेन रागाः शुद्धादयो मताः ॥७॥ ओहाटी मन्द्रजोपात्ता प्रयोगे ध्वनिकम्पितैः । अविश्रामेण त्रिस्थाना गौडी गीतिरुदाहृता ॥" इति ॥ २-५॥ (क०) वर्णचतुष्केऽपि स्थाय्यादिवर्णचतुष्टयेऽपि अतिरक्तितो रक्त्यतिशयवशात् वेगवद्भिः शीघ्रप्रयोगवद्भिः स्वरैर्युता रागगीतिः रागाश्रयभूता गीतिवेंगस्वरेत्यन्वर्थसंज्ञिका बुधैर्मतङ्गादिभिर्वसरा च वेसरसंज्ञिता चोच्यते । वेगस्वरेत्यत्र गवकारयोः परित्यागे स्वरसाम्याद्वेसरेति भवतीत्यर्थः । चतुर्गीतिगतं समनन्तरोक्तशुद्धादिगीतिचतुष्टयगतं लक्ष्म लक्षणं श्रिता मिश्रणादाश्रिता ; अतः साधारणीत्यन्वर्था मता । शुद्धादिगीतियोगेन ; शुद्धादिगीतिभिर्योग आश्रयायिभावलक्षणः संबन्धस्तेन ; रागाः ; अत्र रागा इति ग्रामरागा एव विवक्षिताः। शुद्धादयो मताः; आश्रयाश्रयिणोरभेदोपचाराच्छुद्धादिव्यपदेशेन लक्ष्यन्त इत्यर्थः । ननु पूर्वोक्ताभ्यो मागध्यादिगीतिभ्योऽधुनोक्तानां शुद्धादिगीतीनां को भेद इति चेत् ; उच्यते-मागध्यादयः प्राधान्येन पदतालाश्रिताः; शुद्धादयस्तु प्राधान्येन स्वराश्रिता इति । इह ग्रन्थकार एताः पञ्च गीतीर्दुर्गामतानुसारेणालक्षयत् । मतङ्गस्तु भाषाविभाषाभ्यां सहिताः सप्त गीतीराचष्ट । भरतः पुनर्मागध्यादीश्चतस्र एव गीतीरुक्तवान् । भाषाविभाषान्तरभाषाख्यास्तिस्र एव गीतयो याष्टिकेनोक्ताः । एकैव भाषागीतिः शार्दूलमुनिनाभिहिता ॥ ६, ७ ॥ (सं०) वेसरां गीतिं लक्षयति-वेगवद्भिरिति । वेगवद्भिः स्वरैर्युक्ता Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ग्रामरागाः षड्जग्रामसमुत्पन्नः शुद्ध कैशिकमध्यमः । शुद्धसाधारितः षड्जग्रामो ग्रामे तु मध्यमे ॥ ८ ॥ पञ्चमो मध्यमग्रामः षाडवः शुद्धकैशिकः । शुद्धाः सप्तेति, भिन्नाः स्युः पञ्च कैशिकमध्यमः ॥ ९ ॥ भिन्नषड्जश्च षड्जाख्ये मध्यमे तानकैशिकौ । भिन्नपञ्चम इत्येते, गौडकैशिकमध्यमः ॥ १० ॥ गीतिर्वेगस्वरा वेसरेति चोच्यते । वर्णचतुष्केऽप्यतिशयेन रञ्जकत्वाद्रागा इत्युच्यन्ते । रागशब्दप्रवृत्तिनिमित्तमुक्तं काश्यपेन - " चतुर्णामपि वर्णानां यो रागः शोभनो भवेत् । स सर्वो दृश्यते येषु तेन रागा इति स्मृता: । स्वराः सरन्ति यद्वेगात्तस्माद्वेसरका स्मृता ॥ " ७ इति । चतुर्गीतिगतमिति । शुद्धादीनां चतसृणां गीतीनां किंचिल्लक्षणसमुच्चयेन साधारणी । लक्षणसमुच्चयश्वोक्तो मतङ्गेन “ऋजुभिर्ललिते: किंचित् सूक्ष्मात्सूक्ष्मैश्व सुश्रवैः । ईषद् द्रुतैश्च कर्तव्या मृदुभिर्ललितैस्तथा ॥ प्रयोगे मसृणैः सूक्ष्मैः काकुभिश्च सुयोजितैः । एवं साधारणी ज्ञेया सर्वगीतिसमाश्रया ॥ " इति । गीतिसंबन्धेन रागाणां शुद्धादिनामत्वमित्याह -- शुद्धादीति । शुद्धादि - कया गया संयुक्ता रागाः शुद्धादय उदिताः ॥ ६, ७ ॥ (क०) एवमुक्तसमस्तमतानुसारेण तत्तद्गीताश्रितान्प्रामरागादीन्विविच्योद्दिश्य परिगणयति – षड्जग्राम समुत्पन्नः शुद्धकैशिकमध्यमः इत्यारभ्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् गौडपश्चमकः षड्जे मध्यमे गौडकैशिकः । इति गौडास्त्रयः, षड्जे टक्कवेसरषाडवौ ॥ ११ ॥ ससौवीरौ मध्यमे तु बोहमालवकैशिकौ । मालवः पश्चमान्तोऽथ द्विग्रामष्टक्ककैशिकः ॥ १२ ॥ हिन्दोलोऽष्टौ वेसरास्ते, सप्त साधारणास्ततः। षड्जे स्याद्रूपसाधारः शको भम्माणपश्चमः ॥ १३ ॥ मध्यमे नर्तगान्धारपश्चमौ षड्जकैशिकः। द्विग्रामः ककुभस्त्रिंशद् ग्रामरागा अमी मताः ॥१४॥ चतुःषष्टयधिकं ब्रूते शाङ्गी श्रीकरणाग्रणीः इत्यन्तेन ग्रन्थसंदर्भेण । षड्जग्रामे समुत्पन्नः षड्जग्रामसमुत्पन्न इति शुद्धकैशिकमध्यमादीनां त्रयाणां पृथग्विशेषणम् । तेषु षड्जग्रामसंज्ञकस्तृतीयो रागः । ग्रामे तु मध्यम इति । मध्यमग्राम इत्यर्थः । मालवः पश्चमान्त इति । पञ्चमशब्दान्तो मालवो मालवपञ्चम इत्येको रागः । द्विग्राम इति टक्कैशिकस्य हिन्दोलस्य च विशेषणम् । तयोमिद्वयसंबद्धजात्युत्पन्नत्वे सति साक्षाद् ग्रामद्वययुक्तत्वादिति भावः । पुनर्द्विग्राम इति ककुभविशेषणम् । ग्रामरागा इति । ग्रामयोर्जातिव्यवधानेनोत्पन्नानामपि भाषारागाद्यपेक्षया व्यवधानाल्पत्वादेतेषां ग्रामरागत्वव्यपदेशः । यथाह मतङ्गः- " नन्वेते रागा ग्रामविशेषसंबद्धा इति कुतोऽयं विशेषलाभः ? उच्यते-भरतवचनादेवासौ विशेषो लभ्यते । तथा चाह भरतमुनिः—'जातिसंभूतत्वाद् ग्रामरागाणाम्' इति ; 'यत्किंचिद्गीयते लोके तत्सर्वं जातिषु स्थितम् ' इति वचनाच्च ” इति ।। ८-१४ ॥ (सं०) ग्रामविभागेन शुद्धादिरागान्विभजते-षड्जप्रामेति । शुद्धकैशिकमध्यमः शुद्धसाधारित: षड्जग्राम इत्येते त्रयः शुद्धाः षड्जग्रामे समुत्पन्नाः । पञ्चमो मध्यमप्रामः षाडवः शुद्धकैशिक इति चत्वारः शुद्धाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः उपरागाः अष्टोपरागास्तिलकः शकादिष्टकसैन्धवः । कोकिलापश्चमो रेवगुप्तः पश्चमषाडवः ॥ १५ ॥ भावनापश्चमो नागगान्धारो नागपञ्चमः। रागाः श्रीरागनहौ बङ्गालो भासमध्यमषाडवौ ॥ १६ ॥ रक्तहंसः कोल्हहासः प्रसवो भैरवो ध्वनिः।। मेघरागः सोमरागः कामोदौ चाम्रपञ्चमः ॥ १७ ॥ स्यातां कंदर्पदेशाख्यौ ककुभान्तश्च कैशिकः। ननारायणश्चेति रागा विंशतिरीरिताः ॥ १८ ॥ मध्यमग्रामे समुत्पन्नाः ; एवं सप्त शुद्धाः । नन्वेते रागा ग्रामविशेषसंबद्धा इति कुतोऽयं विशेषलाभ: ? उच्यते-भरतवचनादेवासौ विशेषो लभ्यते ; यदाह भरतमुनि:-"जातिसंभूतत्वाद्रागाणाम्" इति ; “यत्किचिद्गीयते लोके तत्सर्व जातिषु स्थितम्" इति च । भिन्नान्विभजते-भिन्नाः स्युरिति । कैशिकमध्यमो भिन्नषड्ज इत्येतौ द्वौ भिन्नौ षड्जग्रामे ; तान: कैशिको भिन्नपश्चम इति त्रयो भिन्ना मध्यमग्रामे ; एवं पञ्च भिन्नाः । गौडकैशिकमध्यमो गौडपञ्चमक इत्येतौ षड्जग्रामे ; गौडकैशिको मध्यमग्रामे ; एवं त्रयो गौडा: । टक्को वेसरषाडवः सौवीर इत्येते त्रयः षड्जग्रामे ; बोट्टो मालवकैशिको मालवपञ्चम इत्येते त्रयो मध्यमग्रामे ; टक्ककैशिको हिन्दोल इत्येतौ ग्रामद्वयसंभूतौ ; एवमष्टौ वेसराः । रूपसाधार: शको भम्माणपञ्चम इत्येते त्रयः षड्जग्रामोत्पन्नाः; नों गान्धारपञ्चमः षड्जकैशिक इत्येते त्रयो मध्यमग्रामोत्पन्ना: ; द्विग्रामः ककुभः ; एवं सप्त साधारणाः । मिलिता ग्रामरागास्त्रिंशत् ॥ ८-१४ ॥ (क०) अष्टोपरागा इति । जातिभ्यो जातानामपि ग्रामरागसमीपभावित्वादष्टानामुपरागत्वम् । तिलकः शकादिरिति । शकशब्दादि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतग्नाकरः [प्रकरणम् भाषाजनकरागाः सौवीरः ककुभष्टकः पश्चमो भिन्नपश्चमः। टक्ककैशिकहिन्दोलबोहमालवकैशिकाः ।। १९ ।। गान्धारपश्चमो भिन्नषड्जो वेसरषाडवः। मालवः पश्चमान्तश्च तानः पश्चमषाडवः ॥ २० ॥ भाषाणां जनकाः पञ्चदशैते याष्टिकोदिताः । भाषाः, विभाषाः, अन्तरभाषाः भाषाश्चतस्रः सौवीरे सौवीरी वेगमध्यमा ।। २१ ।। साधारिता च गान्धारी; ककुभे भिन्नपञ्चमी। काम्भोजी मध्यमग्रामा रगन्ती मधुरी तथा ॥ २२ ॥ शकमिश्रेति षट् , तिस्रो विभाषा भोगवर्धनी । स्तिलकः शकतिलक इत्यर्थः । बङ्गालाविति द्वौ रागौ। भासमध्यमपाडवाविति । भासश्च मध्यमषाडवश्चेति द्वंद्वः । कामोदाविति द्वौ । ककुभान्तश्च कैशिक इति । ककुभशब्दान्तः कैशिकः कैशिकककुभ इत्येकः । रागा इति । उपरागेभ्योऽनन्तरं जातिभ्य एव जाताः श्रीरागादयो विंशतिः निरुपपदरागव्यपदेशभाजः ॥ १५-१८ ॥ (सं०) उपरागान्विभजते- अष्टोपरागा इति । शकादिस्तिलकः शकतिलकः । रागान्विभजते- श्रीरागेति । बङ्गालद्वयम् , कामोदद्वयम् । एतावता विंशतिसंख्या पूर्यते ॥ १५-१८ ॥ (क) एते सौवीरादयः पञ्चदश ग्रामरागाः । भाषाणाम् । भाषा ग्रामरागालापप्रकारः । तथाचाह मतङ्गः- "ग्रामरागाणामेवालापप्रकारा भाषावाच्याः । भाषाशब्दोऽत्र प्रकारवाची" इति । एवं विभाषान्तर Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः आभीरिका मधुकरी, तथैकान्तरभाषिका ॥ २३ ॥ शालवाहनिका; टके त्रवणा त्रवणोद्भवा। वैरञ्जी मध्यमग्रामदेहा मालववेसरी ।। २४ ॥ छेवाटी सैन्धवी कोलाहला पञ्चमलक्षिता। सौराष्टी पञ्चमी वेगरञ्जी गान्धारपश्चमी ॥ २५ ॥ मालवी तानवलिता ललिता रविचन्द्रिका। तानाम्बाहेरिका दोह्या वेसरीत्येकविंशतिः ।। २६ ॥ भाषाः स्युरथ देवारवर्धन्यान्ध्री च गुर्जरी । भावनीति विभाषाः स्युश्चतस्रः; पञ्चमे पुनः ॥२७॥ कैशिकी त्रावणी तानोद्भवाभीरी च गुर्जरी । सैन्धवी दाक्षिणात्यान्धी माङ्गली भावनी दश ।। २८॥ इति भाषा विभाषे द्वे भम्माण्यान्धालिके ततः। चतस्रः पञ्चमे भिन्ने भाषा धैवतभूषिता ।। २९ ।। शद्धभिन्ना च वाराटी विशालेत्यथ कौशली।। विभाषा; मालवाभिन्नवलिते टककैशिके ॥ ३०॥ भाषे द्वे, द्राविडीत्येका विभाषा%; प्रेक्षके नव । भाषाशब्दावपि तत्तदनन्तरोत्पन्नालापप्रकारवाचकावित्यवगन्तव्यम् । तासामपि रञ्जनाद्रागत्वं च बोद्धव्यम् । तथा च वक्ष्यति-----' रञ्जनाद्रागता भाषारागाङ्गादेरपीप्यते' इति । तासां जनका याष्टिकोदिताः ; भाषाजनकतया याप्टिकमुनिनोक्ताः । मतान्तराणामप्यत्रैवान्तर्भावाद्याष्टिकमतानुसारेणोद्दिश्यन्त इत्यर्थः । कथम् ? मतङ्गः षडेव ग्रामरागाभाषाजनकत्वेनाभाषत । काश्यपस्तु द्वादशैवावोचत् । शार्दूल: पुनश्चतुर एवाभ्यधादिति । ताना अम्बाहेरिकेति विभागः । मालवाभिन्नलिते इति । मालवा च निन्नवलिता Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [ प्रकरणम् भाषाः स्युर्वेसरी चूतमञ्जरी षड्जमध्यमा ॥ ३१ ॥ मधुरी भिन्नपौराली गौडी मालववेसरी। छेवाटी पिञ्जरीत्येका बोहे भाषा तु माङ्गली ॥ ३२ ॥ बाङ्गाली माङ्गली हर्षपुरी मालववेसरी। खञ्जनी गुर्जरी गौडी पौराली चार्धवेसरी ॥ ३३ ॥ शुद्धा मालवरूपा च सैन्धव्याभीरिकेत्यमूः । भाषास्त्रयोदश ज्ञेया विज्ञैर्मालवकैशिके ॥ ३४ ॥ विभाषे द्वे तु काम्भोजी तद्वद्देवारवर्धनी । गान्धरपञ्चमे भाषा गान्धारी ; भिन्नषड्जके ॥ ३५ ॥ गान्धारवल्ली कच्छेल्ली स्वरवल्ली निषादिनी । त्रवणा मध्यमा शुद्धा दाक्षिणात्या पुलिन्दका ॥ ३६ ॥ तुम्बुरा षड्जभाषा च कालिन्दी ललिता ततः । श्रीकण्ठिका च बाङ्गाली गान्धारी सैन्धवीत्यमूः ॥ ३७ ॥ भाषाः सप्तदश ज्ञेयाश्चतस्रस्तु विभाषिकाः । पौराली मालवा कालिन्द्यपि देवारवर्धनी ॥ ३८ ॥ वेसरे षाडवे भाषे द्वे नाद्या बाह्यषाडवा । विभाषे पार्वती श्रीकण्ठयथ मालवपञ्चमे ॥ ३९ ॥ भाषास्तिस्रो वेदवती भावनी च विभावनी । ताने तानोद्भवा भाषा; भाषा पञ्चमषाडवे ॥ ४० ॥ पोता; भाषां शकामेके रेवगुप्ते विदुर्विदः । विभाषा पल्लवी, भासवलिता किरणावली ॥ ४१ ॥ १२ चेति द्वंद्वः। प्रेङ्खक इति हिन्दोलपर्यायः । एके रेवगुप्ते विदुर्विद इति । उक्तमतानुसारेण रेवगुप्तस्य भाषाजनकेष्वपरिगणनेऽपि तस्यापि भाषाजनकत्व Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १] द्वितीय रागविवेकाध्यायः शकाद्या वलितेत्येतास्तिस्रस्त्वन्तरभाषिकाः । चतस्रोऽनुक्तजनका बृहद्देश्यामिमाः स्मृताः ॥ ४२ ॥ एवं षण्णवतिर्भाषा विभाषा विंशतिस्तथा । चतस्रोऽन्तरभाषाः स्युः शार्ङ्गदेवस्य संमताः ॥ ४३ ॥ भाषा मुख्या खराख्या च देशाख्या चोपरागजा । चतुर्विधा मतङ्गोक्ता ; मुख्यानन्योपजीवनी ॥ ४४ ॥ स्वरदेशाख्यया ख्याता स्वराख्या देशजा क्रमात् । अन्योपरागजा ताभ्यो याष्टिकेनोदिताः पुनः ॥ ४५ ॥ संकीर्णा देशजा मूला छायामात्रेति नामभिः । शुद्धाभीरी रगन्ती च त्रिधा मालववेसरी ॥ ४६ ॥ मुख्याः षडिति शेषाः स्युर्विज्ञेयाः स्फुटलक्षणाः । नामसाम्यं तु कासांचिद् भिन्नानामपि लक्ष्मतः ॥४७॥ इति द्वितीये रागविवेकाध्याये ग्रामरागोपरागरागभाषाविभाषान्तरभाषाविवेकाख्यं प्रथमं प्रकरणम् १३ मङ्गीकृत्यान्य आचार्याः शकां तद्भाषामुक्तवन्त इत्यर्थः । चतस्रोऽनुक्तजनका इति । पल्लवीप्रभृतयश्चतस्त्रः । अनन्योपजीवनी मुख्या । अन्योपजीवित्वं स्वरदेशापेक्षया प्रवर्तमानत्वम् । तेन विना स्वातन्त्र्येण प्रवर्तमानात्र मुख्या । ताभ्यो मुख्यास्वराख्यादेशान्याभ्योऽन्या विलक्षणोपरागजेति ज्ञेया । मुख्यादीनामेव मतङ्गोक्तानां याष्टिकक्तानि संज्ञान्तराणि; यथा— मूलेति मुख्या, संकीर्णेति स्वराख्या, देशजेति देशाख्या, छायामात्रेत्युपरागजा ॥ १९-४७॥ इति प्रथमं प्रकरणम् (सं०) भाषाजनकान्पञ्चदश रागान्कथयति - सौवीर इति । टक्ककैशिक इत्येकं नाम । मालवः पश्चमान्तो मालवपञ्चमः । भाषाणामिति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः यथासंभवं भाषाविभाषान्तरभाषाणां जनका इत्यर्थः । तत्र कः किं भाषादि जनयतीत्यत आह-भाषाश्चतस्र इति । सौवीरे-सौवीर्यादयो गान्धार्यन्ताश्चतस्रो भाषाः । ककुभे-भिन्नपञ्चम्याद्याः शकमिश्रान्ताः षड् भाषाः; भोगवर्धन्याभीरिकामधुकर्यस्तिस्रो विभाषा: ; शालवाहनिकैकान्तरभाषा | टक्के-वण्यादयो वेसर्यन्ता एकविंशतिर्भाषा: ; देवारवर्धन्यादयो भावन्यन्ताश्चतस्रो विभाषाः । पञ्चमे-कैशिक्यादयो भावन्यन्ता दश भाषा: ; भम्माण्यान्धालिके द्वे विभाषे । भिन्नपञ्चमे-धैवतभूषितादयो विशालान्ताश्चतस्रो भाषा:; कौशलीत्येका विभाषा । टक्ककैशिके–मालवाभिन्नवलिते द्वे भाषे; द्राविडयेका विभाषा । प्रेक्षके हिन्दोले-वेसर्यादयः पिञ्जर्यन्ता नव भाषाः । बोट्टे-माङ्गल्येका भाषा । मालवकैशिके-बाङ्गाल्यादय आभीरिकान्तात्रयोदश भाषाः; काम्भोजीदेवारवर्धन्यौ द्वे विभाषे । गान्धारपञ्चमे-गान्धार्यकैव भाषा | भिन्नषडजेगान्धारवल्लयादयः सैन्धव्यन्ता: सप्तदश भाषाः ; पौराल्यादयो देवारवर्धन्यन्ताश्चतस्रो विभाषाः । वेसरषाडवे-नाद्या बाह्यषाडवेति द्वे भाषे; पार्वती श्रीकण्ठीति द्वे विभाषे। मालवपञ्चमे-वेदवतीभावनीविभावन्यस्तिस्रो भाषाः । ताने-तानोद्भवैका भाषा । पञ्चमषाडवे-पोतैका भाषा। रेवगुप्ते-शकेत्येका भाषा; पल्लवीत्येका विभाषा ; भासवलिता किरणावली शकवलितेत्येतास्तिस्रोऽन्तरभाषाः। पल्लव्यादयश्चतस्रो बृहद्देश्यां जनकेन विनैव मतङ्गेनोक्ताः । एवं भाषाः षण्णवतिः । विभाषा विंशतिः । अन्तरभाषाश्चतस्त्रः । भाषायाश्चातुर्विध्यं कथयति-भाषेति । मुख्या स्वराख्या देशाख्योपरागजेति भाषाश्चतुविधाः । तत्र यान्यं नोपजीवति सा मुख्या । या स्वरनाम्ना जायते सा स्वराख्या गान्धार्यादिः । या देशनाम्ना जायते सा देशाख्यान्ध्यूदिः । या ताभ्यस्तिसृभ्यो जायते सान्योपरागजा । एता एव चतस्रः संकीर्णा देशजा मूला छायामात्रेति नामभिर्याष्टिकेनोक्ताः । एता एव विभजते-शुद्धति । अन्यासां लक्षणं प्रकटम् । कासांचिद्भाषाणां लक्षणतो भिन्नानामपि नामसाम्यं विद्यत इति ॥ १९-४७ ॥ इति प्रथमं प्रकरणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रागाङ्गादिनिर्णयाख्यं द्वितीयं प्रकरणम् अथ रागाङ्गभाषाङ्गक्रियाङ्गोपाङ्गनिर्णयम् । केषांचिन्मतमाश्रित्य कुरुते सोढलात्मजः ॥ १ ॥ रञ्जनाद्रागता भाषारागाङ्गादेरपीष्यते । देशीरागतया प्रोक्तं रागाङ्गादिचतुष्टयम् ॥ २॥ (क०) रागाङ्गादिशब्दानां निरुक्तिर्मतङ्गोक्ता द्रष्टव्या । यथा"ग्रामोक्तानां तु रागाणां छायामात्रं भवेदिति । गीतज्ञैः कथिताः सर्वे रागाङ्गास्तेन हेतुना ॥ भाषाछायाश्रिता येन जायन्ते सदृशाः किल । भाषाङ्गास्तेन कथ्यन्ते गायकैः स्तौतिकादिभिः ।। करुणोत्साहशोकादिप्रभवा या क्रिया ततः । जायन्ते च यतो नाम क्रियाङ्गाः कारणात्ततः ॥" इति । मतङ्गेनोपाङ्गानि रागाङ्गादिप्वेवान्त वितानि । ग्रन्थकारेण पुनस्तेषां पृथगुद्देशो मतान्तरानुसारेण कृत इति मन्तव्यम् । अङ्गच्छायानुकारित्वात्तेषामुपाङ्गत्वं च । रागाङ्गादिचतुष्टयं देशीरागतया प्रोक्तमिति । देशीत्वं नाम कामचारप्रवर्तितत्वम् । " तदत्र मार्गरागेषु नियमो यः पुरोदितः । स देशीरागभाषादावन्यथापि क्वचिद्भवेत् ।।" इति ॥ १, २॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् प्रसिद्धा ग्रामरागाद्याः केचिद्देशीत्यपीरिताः। तत्र पूर्वप्रसिद्धानामुद्देशः क्रियतेऽधुना ॥ ३ ॥ पूर्वप्रसिद्धरागाङ्गादीनि शंकराभरणो घण्टारवो हंसकदीपको। रीतिः कर्णाटिका लाटी पाञ्चालीति बभाषिरे ॥४॥ रागागाण्यष्ट; गाम्भीरी वेहारी श्वसितोत्पली । गोली नादान्तरी नीलोत्पली छाया तरङ्गिणी ॥५॥ गान्धारगतिका वैरञ्जीत्येकादश मेनिरे । भाषागाण्यथ भावक्रीस्वभावक्रीशिवक्रियः ॥ ६ ॥ मकरक्रीत्रिनेत्रक्रीकुमुदक्रीदनुक्रियः।। ओजक्रीन्द्रक्रियौ नागकृतिर्धन्यकृतिस्तथा ॥ ७॥ विजयक्रीः क्रियाङ्गाणि द्वादशेति जगुर्बुधाः। त्रीण्युपाङ्गानि पूर्णाटी देवालश्च गुरुञ्जिका ॥ ८ ॥ चतुस्त्रिंशदिमे रागाः प्राक्प्रसिद्धाः प्रकीर्तिताः । (सं०) रागाङ्गादीनि कथयितुं प्रतिजानीते--अथेति । केषांचिदिति । देशीरागत्वाद्भग्तादिमुनिप्रणीतत्वं नास्तीत्यर्थः । रञ्जनादिति । रञ्जयन्तीति रागाः । अनया व्युत्पत्त्या भाषा विभाषान्तरभाषाणां रागानभाषाङ्गक्रियाङ्गोपाङ्गानां च रागत्वमिष्यते । परं तु रागाङ्गादीनि देशीरागा इत्युच्यन्ते ॥ १, २ ॥ (क०) प्रसिद्धा ग्रामरागाद्याः; आद्यशब्देन भाषादयो गृह्यन्ते । देशीत्यपीरिता इति । तत्रापि किंचिन्नियमाभावो द्रष्टव्यः । छाया तरङ्गिणीति रागद्वयम् ॥ ३-८॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गगविवेकाध्यायः अधुनाप्रसिद्धरागागादीनि अथाधुनाप्रसिद्धानामुद्देशः प्रतिपाद्यते ॥ ९ ॥ मध्यमादिर्मालवश्रीस्तोडी बङ्गाल भैरवी । 'वराटी गुर्जरी गौडकोलाहलवसन्तकाः ॥ १० ॥ धन्यासीदेशिदेशाख्या रागाङ्गाणि त्रयोदश। डोम्बक्री सावरी वेलावली प्रथममञ्जरी ॥ ११ ॥ आडिकामोदिका नागध्वनिः शुद्धवराटिका। नहा कर्णाटबङ्गालो भाषाङ्गाणि नवाब्रुवन् ॥ १२ ॥ क्रियाङ्गत्रितयं रामकृतिौडकृतिस्तथा । देवक्रीरित्यथोपाङ्गसप्तविंशतिरुच्यते ॥ १३ ॥ कौन्तली द्राविडी सैन्धव्युपस्थानवराटिका । हतस्वरवराटी च स्यात्प्रतापवराटिका ॥ १४ ॥ वराट्यः षडिति च्छायातुरुष्काये तु तोडिके। महाराष्ट्री च सौराष्ट्री दक्षिणा द्राविडीत्यमूः ॥ १५ ॥ (सं०) प्रसिद्धा ग्रामरागाद्याः पञ्चमरेवगुप्तनट्टनारायणादयः; तेऽपि देशीशब्देनोच्यन्ते । ते च रागाङ्गादयो द्विविधा:-पूर्वप्रसिद्धा अधुनाप्रसिद्धाश्च । तत्र पूर्वप्रसिद्धानामुद्देशं प्रतिज्ञाय कथयति-तत्रेति । शंकराभरणादयः पलव्यन्ता अष्टौ रागाङ्गाणीति, गाम्भीर्यादयो वैरञ्ज्यन्ता एकादश भाषाङ्गाणीति, भावक्रयादयो विजयक्रयन्ता द्वादश क्रियाङ्गाणीति, पूर्णाटीदेवालगुरुञ्जिकास्त्रय उपाङ्गानीत्येवं चतुस्त्रिंशत् प्राक्प्रसिद्धाः ॥ ३-८ ॥ (क०) डोम्बक्रीति भूपालीपर्यायः । कामोदासिंहलीत्येको रागः, छायानद्देति च । उपाङ्गेषु रामकृतिौलिपर्यायः । देशवालः केदारगौलः । 1वरालि. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् उक्ताश्चतस्रो गुर्जर्यो भुञ्जिका स्तम्बतीथिका । छायाप्रतापोपपदे वेलावल्यौ च भैरवी ॥ १६ ॥ कामोदासिंहली छायानद्दा रामकृतिस्तथा । भल्लातिका च मल्हारी मल्हारो गौडकास्ततः ॥१७॥ कर्णाटो देशवालश्च तौरुष्कद्राविडाविति । एतेऽधुनाप्रसिद्धाः स्युपश्चाशन्मनोरमाः ॥ १८ ॥ सर्वेषामपि रागाणां मिलितानां शतद्वयम् । चतुःषष्टयधिकं ब्रूने शाी श्रीकरणाग्रणीः ।। १९ ।। तौरुष्को मालवगौड एव । एते रागाङ्गादयः कतिचित्प्रसिद्धत्वेनोद्दिष्टाः । अन्येऽप्यप्रसिद्धा बहवः सभवन्त्येव । तथाह मतङ्ग:-“देशजानां रागाणामानन्त्यादनिबद्धत्वाच्च संख्या नास्तीति मन्तव्यम्" इति ॥ ९-१९ ।। (सं०) अधुनाप्रसिद्धानुद्दिशति- अथेति । मध्यमाद्यादयो देशाख्यान्तास्त्रयोदश रागाङ्गाणि । डोम्बक्रयादयः कर्णाटबङ्गालान्ता नव भाषाङ्गाणि । रामकृतिगौडकृतिदेवक्रयस्त्रयः क्रियाङ्गाणि | कौन्तल्यादयो द्राविडगौडान्ताः सप्तविंशतिरुपाङ्गानि । एवं द्वापश्चाशत् । अधुनाप्रसिद्धानां रागाङ्गादीनां लक्षणमुक्तं मतलेन "अतः परं प्रवक्ष्यामि देशीरागकदम्बकम् । लक्ष्यलक्षणसंयुक्तं त्रिविधं चापि संयुतम् ।। रागाङ्गं चैव भाषाङ्गं क्रियानं च तृतीयकम् । प्रत्येकं लक्षणं चैषां प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः ॥ उक्तानां ग्रामरागाणां छायामात्रं भजन्ति हि । गीतज्ञैः कथिताः सर्वे रागाङ्गास्तेन हेतुना ॥ भाषाछायाश्रिता येन जायन्ते सदृशाः किल । भाषाङ्गास्तेन कथ्यन्ते गायकैः स्तुतितत्परैः ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः तत्रादौ ग्रामरागाणां केषांचिल्लक्ष्म चक्ष्महे । देशीरागादिहेतूनां शेषाणां तत्र तत्र तु ॥ २० ॥ शुद्धसाधारितः षड्जमध्यमया जातस्तारषड्जग्रहांशकः । निगाल्पो मध्यमन्यासः पूर्णः षड्जादिमूर्छनः ॥२१॥ शोकोत्साहकरुणादिदीपकात्मक्रियादित: । (?) जायन्ते च यतो नाम क्रियाङ्गास्तेन हेतुना ॥" इति । अङ्गाश्रयेण समुत्पन्ना उपाङ्गानि । सर्वे मिलिता रागाश्चतुःषष्टय धिकं शतद्वयं भवन्ति ॥ ९-१९ ॥ (क०) उद्देशानुक्रमेण लक्षयितुमाह-तत्रादाविति । तत्र ग्रामरागादिषु मध्ये आदौ प्रथमं केषांचिद् ग्रामरागाणाम् ; ये तु देशीरागादिहेतवो न भवन्ति तेषामित्यर्थः । देशीरागादिहेतूनाम् ; देशीरागा रागाङ्गादयः । अत्रादिशब्देन भाषा विभाषा अन्तरभाषाश्च गृह्यन्ते । तेषां हेतवो जनकाः । तादृशानां शेषाणां, तत्र तत्र ; जन्यतत्तद्देशीरागादिलक्षणावसरे, लक्ष्म चक्ष्महे इत्यावृत्तिः । अयमभिप्रायः—देशीरागादीनामेव केषांचिदधुनाप्रसिद्धत्वात् तत् सङ्गालक्ष्यन्त इति ॥ २० ॥ (सं०) तत्रेति । केषांचिद् ग्रामरागाणां लक्षणं पूर्व कथ्यते । देशीरागकारणभूतानां त्वन्येषां तत्र तत्र देशीरागप्रकरणे लक्षणं वक्ष्याम इति ॥२०॥ (क०) शुद्धसाधारितं लक्षयति—पड्जमध्यमयेत्यादिना । षड्जमध्यमया संसर्गजविकृतजात्या जनकभूतया जातो जनित इत्यर्थः । तार Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् अवरोहिप्रसन्नान्तालंकृतो रविदैवतः। वीरे रौद्रे रसे गेयः प्रहरे वासरादिमे ॥ २२ ॥ विनियुक्तो गर्भसंधौ शुद्धसाधारितो बुधैः । षड्जग्रहांशकः ; तारषड्जो ग्रहोंऽशश्च यस्येति बहुपदबहुव्रीहिः । अत्र रागेषु कचिद् ग्रहांशयोभिन्नत्वेन 'अन्यतरोक्तावुभयग्रहः' इति न्यायः सर्वत्र न प्रसरेदिति ग्रहांशयोरुभयोर्ग्रहणं कृतम् । अन्यतरोक्तावुभयग्रहन्यायस्तु जातिप्वेव नियतो द्रष्टव्यः ; रागलक्षणेष्वपि यत्रान्यतरस्यैवोक्तिस्तत्राप्यनुसंधेयः । निगाल्पो निगाभ्यामल्पः ; अल्पनिषादगान्धारवानित्यर्थः । षड्जादिमूर्छनः; षाड्जग्रामिकत्वादुत्तरमन्द्रायुत इति यावत् । अवरोहिप्रसन्नान्तालंकृतः; अवरोहिणि वणे प्रसन्नान्तालंकारेण भूषितः । गर्भसंधौ; नाटकेषु " मुखं प्रतिमुखं गर्भो विमर्श उपसंहतिः” इति पञ्च संधयः ; तेषु तृतीयो गर्भसंधिः; तमिन्विनियुक्तः ॥ २१-२२ ॥ (सं०) शुद्धसाधारितं . लक्षयति-षड्जमध्यमयेति । षड्जमध्यमाया जातेरुद्भूतः, तारस्थानस्थः षड्जो ग्रहोंऽशश्च यस्मिन् , निषादगान्धारावल्पौ यस्मिन् , षड्जादिद्र्छना यस्य, पूर्णः सप्तस्वरः, अवरोही यः प्रसन्नान्तोऽलंकारस्तेनालंकृतः, रवि: सूर्यो देवतास्य । अतश्चैतस्य गाने सूर्यस्य प्रीतिः फलम् । गर्भसंधौ विनियोगः । नन्वयं विनियोगविशेष: कस्माल्लभ्यते ? भरतवचनादेव ; यदाह भरत: "मुखे तु मध्यमग्रामः षड्जः प्रतिमुखे तथा । गर्भ साधारितश्चैव ह्यवमर्शे तु पञ्चमः । संहारे कैशिकः प्रोक्तः पूर्वरङ्गे तु षाडवः ॥" इति ॥ २१-२२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः रागालापः ग्रहांशमन्द्रताराणां न्यासापन्यासयोस्तथा ॥ २३ ॥ अल्पत्वस्य बहुत्वस्य षाडवौडवयोरपि । अभिव्यक्तिर्यत्र दृष्टा स रागालाप उच्यते ॥ २४ ॥ रूपकम् रूपकं तद्वदेव स्यात्पृथग्भूतविदारिकम्' । आक्षिप्तिका चच्चत्पुटादितालेन मार्गत्रयविभूषिता ॥ २५ ॥ (क०) सकलरागसाधारणानालापादीन् लक्षयति--ग्रहांशेत्यादिना । यत्र ; यस्मिन्स्वरसंनिवेशविशेषे; ग्रहांशादीनामुक्तलक्षणानां स्वराणामल्पत्वादीनां स्वरधर्माणां च । अत्रैतेषामेवेत्यवधारणं कर्तव्यम् ; तेनास्य धात्वङ्गबद्धेभ्यः प्रबन्धेभ्यो वैलक्षण्यं विवक्षितं भवति । तेषां ग्रहांशादीनामेवाभिव्यक्तिः स्वरूपप्रकाशनम् ; आविर्भाव इत्यर्थः ; न तु स्वरूपप्रकटीकरणमात्रम् । अनेन वक्ष्यमाणलक्षणाया आलप्तेरस्य भेदो दर्शितः । साभिव्यक्तिर्दृष्टा ज्ञाता भवति ; तज्ज्ञैरिति शेषः । स स्वरसंनिवेशविशेषो रागालाप इत्युच्यते । रूपकं तदिति । रूपकमित्यालापभेदेन प्रबन्धपर्यायः । रूपकं तद्वदेवालापवदेव स्यात् । विशेषस्तु-पृथग्भूतविदारिकमिति । पृथग्भूता विच्छिद्य विच्छिद्य प्रयुक्ता विदार्यो गीतखण्डानि यस्मिन्निति तथोक्तम् । अयमर्थः-अपन्यासेप्वविरम्यैकाकारेण प्रवृत्त आलापः; स एवापन्यासेषु विरम्य विरम्य प्रवृत्तं रूपकमिति । आक्षिप्तिकेति निबद्धगीतिभेदः । सा च चञ्चत्पुटादितालेन । आदिशब्देन चाचपुटादयो मार्गताला गृह्यन्ते; तेप्वन्यतमेन । मार्गत्रयवि 1 विवादिकम् . Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् आक्षिप्तिका स्वरपदग्रथिता कथिता बुधैः । नोक्ते करणवर्तन्यो प्रवन्धान्तर्गतेरिह ॥ २६ ॥ मतङ्गादिमताद् ब्रूमो भाषादिष्वेव रूपकम् । सां पां धांरीपापाधारी पाधा सासा पाधानीधा पामांमां रींपा धारी पाधारी पाधापाधापापा सासा मा। सा गा री मां। मगरि सासा सरिग पाधारीपाधारीपाधापाधासासा सारीगामाधापानीधापानीधापा सां सां-इत्यालापः। सस पप धध रिरि पप धस सां २ रिरि पप धनि पप रिप धस सा सा २ धध मंमं गारी गंमं रिग मम मगरिग सासा २ सस धस रिंगं सासा पाधा निधप मंमं-इति करणम् । भूपिता; मार्गत्रये पूर्वोक्ते चित्रादौ विभूषितालंकृता ; जात्युक्तनियमेनेति द्रष्टव्यम् । स्वरपदग्रथिता ; षड्ज दिम्बरोपेतः पदैः पदार्थवाचकैः शब्दैथिता रचिता । पदतालाद्याक्षिप्तत्वादाक्षिप्तिकेत्यन्वर्था । बुधैर्मतङ्गादिभिः कथिता । अत्र रागप्रस्तारेपु कचिल्लिग्ख्यमानयोः करणवर्तन्योर्निबद्धत्वेन प्रबन्धेषु परिगणितयोस्तत्रैव वक्ष्यमाणलक्षणत्वादिह ते न लक्षिते इत्याह - नोक्ते इति । लक्षितस्य रूपकस्य प्रयोगस्थलमाह-~मतगादीति । भाषादिष्वेवेत्यवधारणं ग्रामरागादित्रितयरागाङ्गादिचतुष्टयव्यवच्छेदार्थम् । आदिशब्देन विभाषान्तरभाषे गृह्यते । अस्य शुद्धसाधारितस्य प्रस्तारो यथा-पाड्जग्रामिकशुद्धस्वरमेलने तारे । षड्जपञ्चमौ। मन्द्र धैवतः । मध्ये रिपपधरिपधससपधनिधपाः । मन्द्रे मौ रिश्च । मध्ये पधौ। मन्द्रे रिः । मध्ये पधौ। मन्द्रे रिः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः सा सा धा नी पा पा पा पा उ द य गि रि शि ख २. धा धा नी नी री री पा पा शे ख र तु र ग खु ३. री पा पा पा धा नी पा मा रक्ष त वि मिन ४. धा मा धा सा सा सा सा सा घ न ति मि रः मध्ये पध पध पपससमाः। तारे सगरिमाः । एते प्रागुक्ताः स्वरा दीर्घाः प्रयोक्तव्याः । ततो मध्ये मगरीणां मेलनम् । ततः सौ दीर्घो । ततः सरिगाणां मेलनम् । पधरिपधरिपधपधसससरिगमधपनियपनिधपा दीर्घाः । मन्द्रे सौ दीर्यौ । इत्यालापः । मध्ये हस्वयोः पड्जयोः पञ्चमय धैवतयोः ऋषभयोः पञ्चमयोर्धसयोश्च मेलनम् । ततो दीर्घः । सः सानुस्वारश्च । एतेषां द्विरावृत्तिः । ततश्चर्षयोः पञ्चमयोर्धन्योः पञ्चमयोः रिपयोर्धसयोश्च ह्रस्वयोमेलनम् । ततः सौ दीर्यो । एतेषामपि द्विरावृत्तिः । ततो धैवतय.मन्द्रमध्यमय मेलनम् । ततो गरी दी? । ततो मन्द्रगमयो रिंगयोर्मयोश्च मेलनम् । ततो मगरिगाणां मेलनम् । सौ दोर्यो । एतेषामपि द्विरावृत्तिः । षड्जयोर्धसयेमेन्द्ररिगये दीर्घषड्जयोदीर्घपधयोर्निधपानां च मेलनम् । ततो मन्द्रमध्यमौ । इति करणम् । अथ जात्युक्तकलाप्रकारेण प्रथमकलायां मध्ये ससधनयश्चतुर्लघवः ; चत्वारः पञ्चमाः; उदयगिरिशिखरेति प्रतिस्वरमक्षराणि (१)। द्वितीयस्यां मध्ये धधनिनयः ; मन्द्रऋषभौ मध्ये च पञ्चमौ । शेखरतुरगखु इत्यक्षराणि ; तृतीयः स्वरः शेषः (२)। तृतीयस्यां मध्ये रिरेकः ; पास्त्रयः ; धनिपमाश्चत्वारः; रक्षत विभिन्नत्यक्षराणि ; द्वितीयोपान्त्यौ शेषौ (३) । चतुर्थ्यां मध्ये धमधास्त्रयः ; षड्जाः पञ्च ; घनतिमिर इत्यक्षराणि ; षष्ठादयस्त्रयः शेषाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः [प्रकरणम् ५. धा धा सा धा सा री गा सा ग ग न त ल स री गा पा पा पा पा 4 4 मा धा मा सा सा सा णो ज य पा धा निध पा मा पा 4444 역 2 ॐ -इत्याक्षिप्तिका। इति शुद्धसाधारितः । (४) । पञ्चम्यां मध्ये धधसधसरिगसा अष्टौ ; गगनतलसकलेत्यक्षराणि (५)। षष्ठयां मध्ये रिगो द्वौ ; पाः षट् ; विलुलितसहस्रत्यक्षराणि; उपान्त्यः शेषः (६) । सप्तम्यां मध्ये धमधमाश्चत्वारः; साश्चत्वारः ; किरणो जयतु इत्यक्षराणि ; तृतीयोपान्त्यौ शेषौ (७) । अष्टम्यां मध्ये पधौ द्वौ ; निधावेकः ; पमपास्त्रयः ; मौ द्वौ ; भानुरिति प्रथमपञ्चमयोरक्षरे ; तच्छेषा इतरे (८)। उदयगिरिशिखरशेखरतुरगखुरक्षतविभिन्नघनतिमिरः । गगनतलसकलविललितसहस्रकिरणो जयतु भानुः ।। शुद्धादिरागलक्षणम् एवमेवोक्तरीत्या वक्ष्यमाणानां रागाणामपि प्रस्तारो मूलत एवावगन्तव्यः । ग्रन्थविस्तरभयादस्माभिः प्रस्तारा न प्रदर्श्यन्ते । एतेषां शुद्धादिरागभेदानां मतङ्गोक्तानि लक्षणानि संक्षिप्य प्रदर्श्यन्ते । तद्यथा ; शुद्धानां तावत् "अनपेक्ष्यान्यजातीय स्वजातिमनुवर्तकाः । स्वजात्युद्दयोतकाश्चैव ते शुद्धाः परिकीर्तिताः ॥" Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] इति । अथ भिन्नानाम् -- द्वितीयो रागविवेकाध्यायः “ श्रुतिभिन्नो जातिभिन्नः शुद्धभिन्नः स्वरस्तथा । चतुर्भिर्भिद्यते यस्मात्तस्माद्भिन्नक उच्यते ॥ " ननु भिन्नशब्देन किमभिधीयते ? किं विदारिक इत्यर्थः, किमेतस्मादयं व्यतिरिक्त इत्यर्थो वा ? एतन्न वाच्यम्; यतोऽत्र विकृत उच्यते । विकृतत्वं च पूर्वोक्तश्रुतिभिन्न इत्यादिलक्षणात् " इति । तत्रादौ स्वरभिन्नस्य लक्षणम् - 66 'यदा वादी गृहीतः स्यात्संवादी च विमोक्ष्यते । विवादी चानुवादी च स्वरभिन्नः स उच्यते ॥ " इति । विवादी चानुवादी च गृहीतः स्यादित्यनुषङ्गः । शुद्धषाडवापेक्षया भिन्नषड्जभिन्नपञ्चमयोः स्वरप्रयोगभेदात्स्वरभिन्नत्वम् । अथ जातिभिन्नस्य लक्षणम् - " जातीनामंशकः स्थायः स्वल्पकस्तु बहुस्तथा । अल्पत्वं च बहुत्वं च प्रयोगाल्पबहुत्वतः । सूक्ष्मातिसूक्ष्मैर्वक्रैश्च जातिभिन्नः स उच्यते ॥ " इति । शुद्धकैशिकमध्यमापेक्षया भिन्न कैशिकमध्यमस्य ग्रहांशादिसाम्येऽपि स्वस्व - जनकजातिगतवर्णभेदात्सूक्ष्मातिसूक्ष्मस्वरप्रयोगभेदाच्च भिन्न कैशिकमध्यमस्य जाति भिन्नत्वम् । अथ शुद्धभिन्नस्य लक्षणम् 4 २५ "" 'परित्यजन्नन्यजातिं स्वजातिकुलभूषणः । स्वकं कुलं तु संगृहशुद्धभिन्नः प्रकीर्तितः ॥” Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ [ प्रकरणम् इति । शुद्धकैशिकभिन्नकैशिकयोः स्वरसंस्थानस्याविशेषेऽपि तारस्वरव्याप्तिमतः शुद्धकैशिकान्मन्द्रस्वव्याप्तिमतो भिन्नकैशिकस्य शुद्ध भिन्नत्वम् । अथ श्रुतिभिन्नस्य लक्षणम् 66 'चतुःश्रुतिः स्वरो यत्र भिन्नो द्विश्रुतिको भवेत् । गान्धारो द्विश्रुतिश्चैव श्रुतिभिन्नः स उच्यते ॥” 66 इति । भिन्नतानरागे हि षड्जस्य श्रुतिद्वयं गृह्ण ति निषादः । भूतपूर्वन्यायेन षड्जेोऽपि चतुःश्रुतिरित्युच्यते । गान्धारस्तु द्विश्रुतिरेव । अतोऽस्य श्रुतिभिन्नत्वम् । अथ गौडानाम् पूर्वोक्ताया गौडगीतेः संबन्धाद् गौडकाः स्मृताः । " इति । अथ वेसराणाम् — संगीतरत्नाकर: 66 'स्वराः सरन्ति यद्वेगात्तस्मा द्वेसरकाः स्मृताः । " इति । अथ साधारणानाम् --- इति ।। २३–२६ ॥ "L 'शुद्धा भिन्नःश्च गौडाश्च तथा वेगस्वराः परे । कलिता यत्र तान्वक्ष्ये सप्त साधारणांस्ततः ।। " (सं०) रागाभिव्यक्त्यर्थमालापरूपकाक्षिप्तिका दर्शयिष्यंस्तासां लक्षणं कथयति — ग्रहांशेति । महत्वादीनां लक्षणानां यत्राभिव्यक्तिदृश्यते स रागालापः । विवादिस्वरान्पृथक्कृत्य रागालापलक्षणयुक्तं रूपकम् | मार्गत्रययुक्तेन चच्चत्पुटादितालेन स्वरपदयुक्ता या गीयते साक्षिप्तिका । ननु करणवर्तन्यावपि रागाभिव्यक्त्यर्थं वक्ष्येते; तयोर्लक्षणं कथं नोक्तम् ? अत आह— नोक्ते इति । तयोर्लक्षणं प्रबन्धाध्याये वक्ष्यत इत्यर्थः । मतङ्गादिमतेन भाषाविभाषान्तरभाषास्वेवास्ति रूपकम् ; तस्मात्तास्वेव रूपकं दर्शयिष्यामः ॥ २३-२६ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः पड्जग्रामः षड्जमध्यमया सृष्टस्तारषड्जग्रहांशकः ।। २७ ।। संपूर्णो मध्यमन्यासः षड्जापन्यासभूषितः। अवरोहिप्रसन्नान्तर्भूषः षड्जादिमूर्छनः ॥ २८ ॥ काकल्यन्तरसंयुक्तो वीरे रौद्रेऽद्भुते रसे। विनियुक्तः प्रतिमुखे वर्षासु गुरुदैवतः ॥ २९ ॥ गेयोऽह्नः प्रथमे यामे षड्जनामाभिधो बुधैः। संसंरी गधगरिस सनिधापाधाधारीगासां । री गा सा सग पनिधनिस सा सा । गसरिग पधनिप मामाइत्यालापः। री री गाधा गरि सासा नींधपापा। री री गध परि सा सां सां सां । सां सां गानिधा रीरीगा। धा गारी सा सा निधपापा। री री पापा निधनि सां सां सां । सरि सरि पधनिध पमामामामा-इति करणम् । १. री री गा स ज य सा गा री गा सा तु भू ता (क०) एवं रागभेदप्रतिपत्तिदाव्य विशेषप्रदर्शनाय च प्रासङ्गिकमुक्तम् । इदानीं प्रकृतमनुसरामः । अथ षड्जनामाभिधं रागं लक्षयतिषड्जमध्यमया सृष्ट इत्यादिना । स्पष्टोऽर्थः ॥ २७-३०॥ (सं०) षड्जग्रामरागं लक्षयति-षड्जमध्यमयेति । अत्र सुगमत्वान व्याख्येयं किंचित् ॥ २७-३० ।। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. नी धा धि प री संगीतरनाकरः [प्रकरणम् पा पा री री गा धा तिः प रि क र सा सा सा सा सा सा 에속 4 1 अ गा धनि नी नी नी भ र णः धा धा गा गरि सा सा ज च म प ट नि पा पा री री पा पा स नः श शां क नी धा नी सा सा सा सा रिसरि 4 씤 4. ANA ८. पा धा निध पा 4.44 मां मां मां मां इत्याक्षिप्तिका। शुद्धकैशिकः कार्मारव्याश्च कैशिक्याः संजातः शुद्धकैशिकः ॥३०॥ तारषड्जग्रहांशश्च पश्चमान्तः सकाकली। सावरोहिप्रसन्नान्तः पूर्णः षड्जादिमूर्छनः ॥ ३१ ॥ वीररौद्राद्भतरसः शिशिरे भौमवल्लभः। गेयो निर्वहणे यामे प्रथमेऽहो मनीषिभिः ॥ ३२ ॥ (क०) इतः प्रभृत्यशेषाणि रागलक्षणानि निगदेनैव व्याख्यातानि । किंतु केपांचिदुद्दशलक्षणयोः कचिल्लक्षणेषु च विरोधः प्रतीयते । सोऽपि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गगविवेकाध्यायः मतङ्गादिमुनिमतानुसारेण परिहियते । यथा शुद्धकैशिकमध्यमस्य'षड्जमध्यमया सृष्टः कैशिक्या च रिपोज्झितः' इति लक्षणं श्रूयते । तत्र षड्जमध्यमा षड्जग्रामसंबद्धा जातिः; कैशिकी तु मध्यमग्रामसंबद्धा ; ताभ्यां सृष्टस्य द्विग्रामत्वेनोद्देशे कर्तव्ये 'षड्जग्रामसमुत्पन्नः' इत्येकग्रामसमुत्पन्नत्वेनोद्देशः कृत इति विरोधः । परिहारस्तु--"ऋषभपञ्चमहीनत्वात् षड्जग्रामसंबद्ध एवायम् , मध्यमग्रामे ऋषभपञ्चमयोलोपो नास्तीति भावः" इति मतङ्गोक्तः । अस्यायमर्थः-- 'सपाभ्यां द्विश्रुतिभ्यां च रिपाभ्यां सप्त वर्जिताः । षङ्जग्रामे पृथक्ताना एकविंशतिरौडवाः ॥' इत्यौड्डुवशुद्धतानलक्षणे षड्जग्राम एव रिपलोपस्य दृष्टत्वादन ग्रामभेदकपञ्चमाभावेऽपि औडवत्वं शुद्धतानविशेषस्यापि ग्रामभेदकत्वात् ; षड्जग्रामसंबद्ध एव तेनायमिति । तर्हि कैशिकजात्युत्पन्नत्वमस्य कुतोऽवगतमिति चेत्, क्रमलक्षणम् 'आद्यमूर्छनया युतः' इत्युच्यते; तत्र मध्यमाद्या मूर्छना सौवीरी ग्राह्या, न मत्सरीकृत् ; अन्यथा तारषड्जग्रहांशत्वविधानमस्यानुपपन्नं स्यात् ; ग्रहांशभूतस्य स्वरस्य मूर्छनान्तःपातित्वनियमात् । अतः पञ्चमलोपेऽपि मध्यमग्रामधर्मेण तारव्यापकत्वेन मध्यमग्रामसंबन्धोऽनुमीयत इति युक्त्यानुगृहीताद्भरतादिवचनाच कैशिक्युत्पन्नत्वमवगम्यत इति । एवं च सत्यनुमानतः प्रत्यक्षस्य प्राबल्यादत्र प्रत्यक्षावगतग्रामसंबन्ध एव व्यपदिश्यत इत्याचार्याणामभिप्रायोऽवगन्तव्यः । तथा गौडकैशिकस्य 'उद्धृतः कैशिकीषड्जमध्यमाभ्यां ग्रहांशकः' इति लक्षणं श्रूयते । तेनास्यापि द्विग्रामत्वे वक्तव्ये 'मध्यमे गौडकैशिकः' इति मध्यमग्रामसंबद्धत्वेनोद्देशो विरुद्धः । परिहारस्तु-"तथा प्रयोगे त्रिश्रुतिकत्वात्पञ्चमस्य चतुःश्रुतिकत्वाद्धैवतस्य मध्यमग्रामसंबद्ध एवासौ रागः ; यद्यपि ग्रामद्वयजातौ जातः, तथापि षड्जोऽस्य ग्रहो न मध्यमस्तथा दर्शनात्" इति मतङ्गोक्तः। अस्यार्थः---संपूर्णस्वरत्वादस्य क्रमात् त्रिचतुःश्रुतिकयोः पञ्चमधैवतयोरुपलम्भान्मध्यमग्रामसंबद्ध एवायम् । षड्जमध्यमे,त्पन्नत्वं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: [ प्रकरणम् तु ' षड्जादिमूर्छन: ' इत्यत्र " मन्द्रोऽस्य ग्रहो न मध्यमः" इति मतङ्गवचनेनोत्तरमन्द्राया एव विवक्षितत्वात् तदायत्तमन्द्रव्याप्तिदर्शनेन षड्जग्रामसंबन्धानुमानादिति । तथा बोट्टरागस्य — ' बोट्टः स्यात्पञ्चमीषड्जमध्यमाभ्यां ग्रहांशकः ' इति लक्षणं श्रूयते । अतोऽस्यापि द्विग्रामत्वे ' मध्यमे तु बोट्टमालवकैशिको ' इत्युद्देशोऽत्र कृत इति विरोधः । परिहारस्तु – “बोट्टरागो यद्यप्युभयग्रामसंबन्धिजातिद्वयसमुत्पन्नः, तथापि पञ्चमस्य त्रिश्रुतिकत्वान्मध्यमग्रामसंबद्धः" इति मतङ्गोक्तः । अस्यार्थः--- त्रिश्रुतिके पञ्चमे श्रवणादस्य मध्यमग्रामसंबन्धः साक्षादवगतः । ' पञ्चमादिकमूर्छन: ' इत्यत्र पञ्चमा दिकयोर्ग्रामद्वयमूर्च्छनयोः शुद्धषड्जाहृप्यकयेोरेकस्थानत्वेऽपि " स्यात् पड्जमध्यमाजातेः पञ्चम्याश्च" इति मतङ्गवचनादत्र शुद्धषड्जाया एव विवक्षितत्वेन तत्प्रयुक्तमन्द्रव्याप्तषड्जग्रामसंबन्धोऽनुमेय इति । अथ टक्ककैशिकरागस्य -- ' धैवत्या मध्यमायोश्च संभूतष्टक्ककैशिकः' इति लक्षणश्रवणाद् ग्रामद्वयजात्युत्पन्नत्वेऽपि ' षड्जकैशिक - मध्यमात्' इत्युक्तन्यायेनैकग्रामव्यपदेशं हित्वा 'द्विग्रामष्टककैशिकः' इत्युद्देशः कथमिति चेत्—सत्यम् ; यद्यपि संपूर्ण स्वरस्यास्य प्रयोगे च चतुःश्रुतिकस्य पञ्चमस्योपलम्भात्पूर्वोक्तन्यायेन षड्जग्रामसंबद्ध एवायमिति मतङ्गमतम्, तथापि काश्यपमतेन निपादगान्धारयोर्लोपादयमौडुवित इति मतङ्गेनैवोक्तत्वात्तदा 'रिधाभ्यां द्विश्रुतिभ्यां च मध्यमग्रामगास्तु ते । हीनाश्चतुर्दशैव स्युः' इत्यौडुवशुद्धतानलक्षणमध्यमग्रामेऽपि साक्षादवगम्यत इत्याचार्यद्वयमतानुसारिणा निःशङ्कसूरिणा ‘द्विग्रामष्टककैशिकः' इति सुष्ठद्दिष्टम् । तथा हिन्दोलस्यापि - ‘धैवत्यार्षभिकावर्ज्यस्वरनामजातिजः । हिन्दोलको रित्यक्तः षड्जन्यासग्रहांशकः ' ॥ इति लक्षणवशादत्र स्वरनामकजातीनां पाडूजी गान्धारीमध्यमा पञ्चमीनिषादीनां ग्रहणेन ग्रामद्वयजात्युत्पन्नत्वे सति रिवत्यक्ततानकत्वान्मध्यमग्रामसंबन्धे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः साक्षादवगते, तथा च प्रयोगे चतु:श्रुतिकपञ्चमोपलम्भात् षड्जग्रामसंबन्धे च साक्षादवगते द्विग्राम इति विशेषणमुपपन्नम् । येषां मतेऽस्य धैवतलोपो नेष्टः पञ्चमलोप इप्यते, तन्मते पूर्वोक्तन्यायेन पड्जग्रामाश्रित एवायम् । केवलपलोपपक्षेऽपि चतुःश्रुतिकपञ्चमोपलम्भात् षड्जग्रामसंबद्ध एव । यथाह मतङ्गः"भरतकोहलादिभिराचार्यै धैवतलोपस्यानिष्टत्वात् केचित् षड्जग्रामाश्रित एवायमिति मन्यन्ते । चतुःश्रुतिकस्य पञ्चमस्यात्रोपलम्भात् धैवतस्यास्तित्वं वा नास्तित्वं वा न विशेषप्रदर्शकं सर्वत्र । एवं च सति ग्राममूर्छनाभेदो वा धैवतेन न स्यादिति भावः” इति । नर्तरागस्य तु–'मध्यमापञ्चमीजातो नर्तोडशग्रहपञ्चमः' इति काश्यपाभिमताल्लक्षणान्मध्यमग्रामसंबन्ध एव ; 'धैवतीमपि तद्धेतुं दुर्गाशक्तिरभाषत' इति लक्षणात् , तदा पञ्चमस्य चतुःश्रुतिकत्वात् षड्जग्रामसंबन्ध एव । तथाचोक्तं मतङ्गेन-"दुर्गाशक्तिमतेऽयमेव रागो यदा पञ्चमीमध्यमाधैवतीभ्यो जायते तदा षड्जग्रामसंबद्ध एव बोद्धव्यः । कुतः ? पञ्चमस्य चतुःश्रुतिकत्वात् " इति । तदा मध्यमग्रामजात्युत्पन्नस्य तु पूर्वोक्त एव न्यायो द्रष्टव्यः । 'द्विग्रामः ककुभः' इत्युपदेशोऽपि ककुभस्य 'मध्यमापञ्चमीधैवत्युद्भवः ककुभो भवेत्' इति लक्षणाद् ग्रामद्वयजात्युत्पन्नत्वे सति पञ्चमस्य चतु:श्रुतिकत्वात् षड्जग्रामसंबन्धे साक्षादवगते, लक्षणेषु निगलोपस्यानुक्तत्वेऽपि मतङ्गेन प्रस्तारावसरे केषांचिन्मते च "ककुभकैशिकस्य वर्तनिका " इत्युपक्रम्य निगौ परित्यज्यौडवितत्वेनापि प्रस्तारे दर्शनात् । तत्र मध्यमग्रामसंबन्धश्च साक्षात्प्रतीयत इत्युपपन्न एव । उपरागेषु 'षड्जग्रामे रेवगुप्तो मध्यमार्षभिकोद्भवः' इत्यत्रापि रेवगुप्तस्य चतुःश्रुतिकपञ्चमोपलम्भात् षड्जग्रामसंबन्ध एव साक्षादवगतः । मध्यमग्रामसंबन्धस्तु तारव्यापकत्वेनानुमेय इति । 'मध्यमग्रामसंबन्धो धैवत्यार्षभिकोद्भवः । रिन्यासांशग्रहे कापि मान्तः पञ्चमषाडवः ।।' Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् इत्यत्र पञ्चमषाडवस्य षड्जग्रामजात्युत्पन्नत्वेऽपि 'कलोपनतयान्वितः' इत्यनेन त्रिश्रुतिकस्य पञ्चमस्योपलम्भान्मध्यमग्रामसंबन्ध एव साक्षादवगतः ; षड्जग्रामसंबन्धस्तु मन्द्रव्याप्त्यानुमेय इति सर्वमवदातम् ।। ____ ग्रामरागादीनां मूर्छनाविशेषपरिज्ञाने विनियोगविशेषपरिज्ञाने च मतङ्गक्तमनुसंधेयम् । तद्यथा--- " ननु पूर्वोक्तानां रागाणां मूर्छनाविशेषनिर्देशः कस्मात् ज्ञायत इति चेत् ; उच्यते-आप्तवचनान्मूर्छनाविशेषो ज्ञायते। तथा चाह कश्यपः 'ज्ञात्वा जात्यंशबाहुल्यं निर्देश्या मूर्छना बुधैः' इति" । " नन्वयं विनियोगविशेषः कस्माल्लभ्यते ? भरतवचनादेव लभ्यते । तथा चाह भरतः 'पूर्वरङ्गे तु शुद्धा स्याद्भिन्ना प्रस्तावनाश्रया । वेसरा मुखयोः कार्या गर्भ गौडी विधीयते ॥ साधारितावमर्श स्यात्संधौ निर्वहणे तथा । मुखे तु मध्यमग्रामः षड्जः प्रतिमुखे तथा । गर्भे साधारितश्चैव ह्यवमर्श तु पञ्चमः । संहारे कैशिकः प्रोक्तः पूर्वरङ्गे तु षाडवः ॥ चित्रस्याष्टादशाङ्गस्य त्वन्ते कैशिकमध्यमः । शुद्धानां विनियोगोऽयं ब्रह्मणा समुदाहृतः ।।' इति"। " ननु गीतरागयोः को भेद इति चेत् ; उच्यते-दशलक्षणलक्षितं गीतं रागशब्देनाभिधीयते । गीतं चतुरङ्गेोपेतं ध्रुवायोगात्पञ्चविधम् । कुत एतद्विज्ञायते ? आप्तवचनात् । तथा चाह कश्यपः-~ 'क्वचिदंशः क्वचिन्न्यासः षाडवौडुविते कचित् । अल्पत्वं च बहुत्वं च ग्रहापन्याससंयुतम् ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . द्वितीयो गगविवेकाध्यायः सांसां गामा गारी गामां सांनी सांरी साधा माधा माधा नीधा पामा गामा पापा-इत्यालापः। सांसांसांसां रीरीसासारीरी गागा सांसांसांसा मामा गारी गारी सासारीरी पनि सांसांसासा रीरी मामा पापाधामा मामाधानी सासासासा रीरीगामा सासापापा धामागामा पामा पापापापा-इति वर्तनी । १. सा सा सा सा सा सा नी धा अनि ज्वाला शि २. सा सा री मा सा री गा मा मा ३. सा गा री सा सा सा सा सा स शोणि मन्द्रतारौ तथा ज्ञात्वा योजनीया मनीषिभिः । ग्रामरागाः प्रयोक्तव्या विधिवद्दशरूपकाः ।। प्रवेशाक्षेपनिष्कामप्रासादिकमथान्तरम् । गीतं पञ्चविधं यत्तद्रागैरेभिः प्रयोजयेत् ॥" इति रागगीतयोभेदो मतगोक्तः । अस्यायमर्थः-ग्रहांशादिदशलक्षणलक्षितस्वरमात्रसंनिवेशविशेषो रागः । तैः स्वरैः पदैस्तालैमागैरेवं चतुर्भिर रुपेतं ध्रुवादिसंज्ञकं गीतमिति ॥ ३०-३२॥ (सं०) शुद्धकैशिकं लक्षयति-कार्मारव्या इति । पश्चमान्तः पञ्चमन्यासः । काकलिना सह वर्तमानः सकाकली । अवरोहिणा प्रसन्नान्तालंकारेण सह वर्तमानः । निर्वहणे संधौ गेयः ॥ ३०-३२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् सा त सा भो BFE + +ERF IT धास ८. धा नी गा मा पा पा पा पा मोस्तु ते -इत्याक्षिप्तिका। इति शुद्धकैशिकः ॥ भिन्नकैशिकमध्यमः षड्जमध्यमिकोत्पन्नो भिन्नकैशिकमध्यमः । षड्जग्रहांशो मन्यासो मन्द्रसान्तोऽथवा भवेत् ॥३३॥ षड्जादिमूर्छनः पूर्णः संचारिणि सकाकली। प्रसन्नादियुतो दानवीरे रौद्रेऽद्भुते रसे ॥ ३४ ॥ दिनस्य प्रथमे यामे प्रयोज्यः सोमदैवतः। सां निधा सामां। मम धम मम धम गामाधाधा नीधा सस सां गां माधानीधा सां सां धमा मगा स (सं.) भिन्नकैशिकमध्यमं लक्षयति-षड्जमध्य मिकेति । मन्यासो मध्यमन्यासः ; अथवा मन्द्रषड्जन्यास: । संचारिणि वर्णे प्रसन्नादिनालंकारेण युक्तः ॥३३-३५ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ३५ गास साधा मामा । सां गां माधानीधा सांसां मधा पमाप मामा -- इत्यालापः । सस निध सस मम मध मग मध निमम । नीधांनीमधनिस । निधनि संसंसंसंसंसं धध । मम गसं संगमा सांग गधांधांधधममर्धमगममधसंसं । संसंघमधपमापा मामा - इति वर्तनिका । १. २. ३. ४. ५. ६. मा धा सा सा नी धा सा सा मा मा बृ ह दु द र वि क ट मा गा मा धा नी मा म न ज ठ र वि धानी मा धा नी नी क्तं सु वि पु ल सा सा सा ग मा नी भ नी धा नी सा सा गं पी नां मा मस सा सा नी अ रि द म न मा मा गा धा नी लो ७. मा मा तं वि ८. सा सा वं मा मा च नं सु र न मि मा मा धा नी मा मा ना य कं 15 -इत्याक्षिप्तिका । धा पा पा वि घ म धानी मा मा मा मा दे इति भिन्नकैशिकमध्यमः ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् भिन्नतानः मध्यमापश्चमीजातः पञ्चमांशग्रहोऽल्परिः ॥ ३५ ।। रिहीनो वा मध्यमान्तो मध्यमाल्पः सकाकली। संचारिणि प्रसन्नादिमण्डितोऽन्तिममूर्छनः ॥ ३६ ॥ प्राग्यामे करुणे गेयो भिन्नतानः शिवप्रियः। पां नी सागा मापा धापागामांमां । ममध ममग सां सां संसं सं मागम पापापानी सांगांमां धापाम गंमंमां। मम धप धध संसं पांपां संसंसं मागम पापा मंमं पप धध निनि पध मध मग गंसां सां गंसगससम पापापानी सांगांपापा धापामगमामा-इत्यालापः। पापा नीनी संसं गंगं पापानीपांनी सांगंगं सांगामा पाधा पाम गामापापा (पञ्चम) पापा सांसां धामापापापा (षड्ज) सस गम(पञ्चम) नी सांगां मापाधाम गां मामा-इति वर्तनी। १. पा पा नी नी सां सां गा ह र व र मु कु ट २. सा गां मप मग सां सां सां टा लु लि तं गा ज सां (सं०) भिन्नतानं लक्षयति-मध्यमेति । मध्यमायाश्च पञ्चम्याश्च जातेर्जातः । अल्पर्षभ ऋषभहीनो वा | मध्यमन्यासोऽल्पमध्यमः । अन्तिममूछनः ऋषभादिमूर्छनः ॥ ३६-३७ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ३. सा गा मा पा धा पा मप मग अ म र व धू कु च सा गा मा पा पा पा पा पा प रि म लि तं ५. धा पा सा मा पा पा धा धा वि ध कु सु म र ६. सा सा पा पा धा पा मा गा 42 ) धा पा पम मपग सां गां मां पां वि ज य ते गं गा ८. धा पा मग मा मा मा मा मा वि म ल ज लं -इत्याक्षिप्तिका। इति भिन्नतानः ।। भिन्नकैशिकः कैशिकीकार्मारवीभ्यामुद्भूतो भिन्नकैशिकः ।। ३७ ॥ षड्जग्रहांशापन्यासः संपूर्णः काकलीयुतः। मन्द्रभूरिः ससंचारी प्रसन्नादिविभूषणः ।। ३८ ॥ षड्जादिमूर्छनो दानवीरे रौद्रेऽद्भुते रसे । गेयोऽह्नः प्रथमे यामे शिशिरे शिववल्लभः ॥ ३९ ॥ (सं०) भिन्नकैशिकं लक्षयति-कैशिकीति । मन्द्रा भूरयो बहुला यस्मिन् स मन्द्रभूरिः । संचारिणा वर्णन सह वर्तमानः ससंचारी ॥ ३७-३९ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: [ प्रकरणम् साधा मांधासा निधस नीसां सां सांरी मांपांधांमांधांसां निध सनि सासा सारी सामा धानी साधा सा मपांमापापा- इत्यालापः । सासाधा माधापा मारी मापा धामाधासांसां सां । सांसां रीरी गांगां सारी गांगां सारी सासामाधा पापा सारी मापा धासा धापा मापापापा - इति वर्तनी । १. ३८ २. ३. ४. ५. ७. सा सा सा सा री री मा मा इं द्र नी ल ८. मा मा पम स सा सा सा ए ६. नी गा सा शो मा धा सा मा मा धा सा दां पा पा पा पा पा प्र भं म पाधा मा री सा ध गं ध मा मा सनि सां सांसां सां सि तं वा सा सा सा सा सा क त दं साधा पा मा पा भि तं न पाधा मा री मा मि तं वि प पापा कं मा मा पम ना य — इत्याक्षिप्तिका । इति भिन्नकैशिकः ॥ पा प Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः गौडकैशिकमध्यमः ३९ षड्जमध्यमया सृष्टो गौडकैशिकमध्यमः । षड्जग्रहांशो मन्यासः पूर्णः काकलिना युतः ॥ ४० ॥ प्रसन्नमध्येनारोहिवर्णः षड्जादिमूर्छनः । भयानके च वीरादौ रसे शीतांशुदैवतः ॥ ४१ ॥ यामद्वये मध्यमेऽहो गेयो निःशङ्ककीर्तितः । सां सां सघस सघसा सघस रिमागामामा मम धमधरिधaar धनिधनि धमाधमा गधरि धनिध (षड्ज) ससध धससससरिसा सधधससससरिगरिमरि गसगसघसस (मध्यम) मममधमध (ऋषभ) रिरिरिधरिधधनिधध धपधमामा । रीरीरिरिगरिगगधां सासाधधसधधरिधरि । ममधारि रिधानि धनिमधामा । गधारिधानिधा (षड्ज) ससधधसससस | रिगरिमरिगसगसां धसासं (मध्यम) मममधमध (ऋषभ) रिरिरिधरिधधनिधधधस पधमामा । रीरीरिरिगरिगगधासासाधधसधसधधरिधरिममधारिरिधानिधनि मधमा । गधारिधानि धाध (षड्ज) सससससस | रिगरिगरिंगस गसांनिनिनिसनिसससससससससससघसघसारिमममममधाधाध गसगसा । धाधाधमपधमामा - इत्यालापः । (सं०) गौडकैशिकमध्य लक्षणं कथयति --- बड़जमध्यमयेति । प्रसन्नमध्ये नालंकारेण सहितः । आरोही वर्णो यस्य स आरोहिवर्णः । शीतांशुश्चन्द्रो देवता यस्मिन् ॥ ४०-४२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: [ प्रकरणम धाधाध (षड्ज) सधसासा धध धस धाममाध मध मां (मध्यम) ममध मग निघ धध रिधधा । रिधधा निधध सांसांध धधसं संसं धध सामधरिम रिंग सांसं संघससा । (षड्ज) समामाममधामधाघनिधाधा धनिध गधा गधा धधधस पप मधमारीगाग ( धैवत ) धासाधा रिरिरि (ऋषभ) रिगा मामधमधनिधनिधधा ( धैवत) रिधधाधधा । धनिसांसा । सधधधधसं सं संसांधधधसं मममम रिरिरिग । संगंधा संघध सां सग (षड्ज) सधा सस धसरि । रिमं मधध मधा । मध धध रिधधा धनि ( धैवत) धधधगं सससगं धधधसपधधधमामाम रिग गमा म (षड्ज) पधमा मधमा मामधा ( धैवत ) रीरीधाधरिधा (षड्जमध्यमधैवत) धासपधमा ममगामामा - इति करणम् । ४० ९. सा साधा सा सांसां सां सां त रु ण र वि स ह २. मां मां सा साधा सा री ३. ४. E no w सु र चि क ट ५. मा धा मा गा हि म शि ख श भा मम री सा सा सा सा गरि सम टा जू मां मां मां मां सां सांसां सां प रि र चि ता मा 可 ज ट शि ख र मा धा मा गा रि शि ख ཏྠཾ र Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] ६. 9. ८. द्वितीयो रागविवेकाध्यायः मा धा सा सा नी धा सा सा र ण ग गा सा सनि चः स मा ला श सां सां मा मग री ता पा तु धा सा पा धा मग मा मा मा दा गं गा -इत्याक्षिप्तिका । इति गौडकैशिकमध्यमः । 의 1 सौरि० 6 ४१ गौडपचमः धग्रहो धैवतीषड्जमध्यमाजातिसंभवः ॥ ४२ ॥ धांशो मान्तस्तथा गौडपञ्चमः पञ्चमोज्ज्ञितः । काकल्यन्तरसंयुक्तो धैवतादिकमूर्च्छनः ॥ ४३ ॥ प्रसन्नमध्येनारोहिवर्णः 'शौरिस्मरप्रियः । भयानके च बीभत्से विप्रलम्भे रसे भवेत् ॥ ४४ ॥ उद्भटे नटने गेयो ग्रीष्मेऽह्नो मध्ययामयोः । धामा धधमधधधनिधनिध धधनिधनिधसरिगगरिaftaraधनिधनिधधमगममगामाम ( धैवत) धधधधध (सं०) गौडपञ्चमं लक्षयति - धग्रह इति । धैवतो ग्रहस्वरो यस्य । धैवतोऽशो यस्य । मान्तो मध्यमन्यासः । पञ्चमेनोज्झितो हीन: ; षाडव इत्यर्थः । शौरिस्मरप्रियः, शौरेर्विष्णोः स्मरस्य च प्रिय: ; सौरेः शनैश्चरस्य वा । उद्भटे नटने मण्डलादौ ॥ ४२-४५ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् निधनिधधधधसधनिधसरिगधनिधधधनि ममनि धगससमग (मध्यम) मममधधधधनिधनिधमाधधमाधधनिध निध धधध ममधा मधध धनि धनिमधमगागससगसा। धधनि ममनि धनिसाधाधा (धैवत) धधधधधनिधनिधधधधसधनी धसरिगधनिध धधनि ममनि धग सगमगम (मध्यम) मममध ममध ममध धनि धनि धमामध निध निधनिधधसधधधधसधधनिधनिधनिधमधमगागसगमगमधधध . धधनिधनिधगं ससमगममधसरिमधमगधाधमधधाधा। धधनि धधस धधनि धधध धधनिधधधमधसरिमगामामामाधधधमधधधधधधधधधधधनिधनिमधमगामामाइत्यालापः। मध मध धाधनिधास धनिधा धस रिगा धनि धामगामामा। धमधमा धमधमा। (मध्यम) मनि धध रिध धाममम धागमधानिध धनि धामममसं गम धाधनि धनि धनि धाध धधस । धनिधा धसरिग धनिधा मधसरि मधमधधा धधधनि धनि धनि धनि मधमा मागामामाइति करणम् । १. धा धा मा धा सां सां सां सां घ न च ल न खि न २. धा धा धा धा धा धा सा धा पं न ग वि ष म वि सां सां मां मां मां धा धा धा श्वा स धू म -. . Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ४. धा धा मा गा मा मा धूम्र श शि मा मा मा गा मा धा चि त क पा धा धा 속되엌어의의 मा मा गा धा धा धा मा मा धा धा धा धनि गा मा मा मा -इत्याक्षिप्तिका। इति गौडपञ्चमः । गौडकैशिकः उद्भतः कैशिकीषड्जमध्यमाभ्यां ग्रहांशसः ॥४५॥ सकाकलिः पञ्चमान्तः पूर्णः षड्जादिमूर्छनः। आरोहिणि प्रसन्नादिभूषितः करुणे रसे ॥४६॥ वीरे रौद्रेऽद्भते गेयः शिशिरे शंकरप्रियः। दिनस्य मध्यमे यामे द्वितीये गौडकैशिकः ॥४७॥ सासा सग सनिसरी मगगसमम पम निप पगम गरि रिगम मस । गसां संनि सरिम गपम पपरिमपाधारी मापाधानि रिमापा धास नि सासा। सासा (षड्ज) (सं०) गौडकैशिकं लक्षयति- उद्भूत इति । ग्रहोंऽशश्च सः षड्जो यस्य । पश्चमान्तः पञ्चमन्यासः ॥ ४५-४७॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: [ प्रकरणम् ससससस ससस मगसं गसनि सासा सासा सस ग ससस मगमरि गसग सधस । पधप मापमापापा । पमपापापधपधपापप पधरिरिरि मरि मसरि मधासनिसासा | सासा (षड्ज) सससससससस सग सग सनिसासा । सासा ससगस समग मरिगस गसधसपध पमा पापा धम पापा गम गगम (पश्चम) पप गग मम गग गमग । निनिपनिपागमगस सनिपनिप । गमग पम मगमग गरीरी रिगमम (षड्ज) स सससससस ससगसधसा गध सरीमामापमपापा - इत्यालापः । ४४ निस निध सस रिम रिगम ममगपपनिगा पमगारि परीरीरिमरिम समरी मरिगसा मपधस रिमापमापांपांरिमरिमरिमपापारिम पनि रीरीरिमसा पध सससनिसा सम रिगा सग सनिनींनिनि निनि सघध सघ मम पपपा गागगनि पपधनी गगगप गमागा रीरी रिगामाम (षड्ज) स सनी निसा गारी रिम गम सागा मापा पनि धनि गमग धधम रिस गा सग सनि धसा धसरि मा पम पापा पम धमा रिमा रीसध सारी रिम मम मग साधध सस मम पप मम पापा पप गग मम पापापा - इति करणम् । १. सा सा सा सा नी नी नी नी भ्यं ग वि भ स्मा नी नी सा री री गा सा सा भू षि त हं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] ३. ५. ६. ४. री री री द्वितीय गगविवेकाध्यायः सा री सारी सा सु र व र मु नि स हि री १२. सा सारी १३. सा सा सा सा री री री री ग म वे 叵 त मा मा री मा सु र व र ७. री मामा मा पा पा पा पा न ८. री री चं जं क 15 सा सा सा सा वा हुं १०. नी नी सा री सं मि ส प hete मामा मा मा भी म भु क क री री पा पा पा पा 英 क ला क र री री सा सा नी नी ति ध व ल त सा नी री मारी गा सु र स रि दं 4) ११. सा सा सम गरि सा सा सध धनि रं प्र ण म त बु ध पध पध पप पप मप मप पापा स त त नि एक लं पध पध रिम पम धा सा सा सा स क ल प र म ४५ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् १४. धा नी पध मा पा पा पा पा शि व म जे यं -इति ध्रुवाक्षिप्तिका। इति गौडकैशिकः । वेसरषाडवः वेसरः षाडवः षड्जमध्यमाजातिसंभवः। मध्यमांशग्रहन्यासः काकल्यन्तरराजितः ॥ ४८॥ सारोही सप्रसन्नादिर्मध्यमादिकमूछनः। संपूर्णः शान्तशृङ्गारहास्येपूशनसः प्रियः॥४९॥ दिनस्य पश्चिमे यामे गेयः श्रीशाङ्गिणोदितः। मांमारीगांसांरी गांमां मागा मासां। मामारीमांपाधानी पनी धामां नीधासासा। सांधा सारीगाधा सनी धानीध(पश्चम) पापा सधा सगा मरीगांरीमामामरीगारीधामा मरी मगागमासासासरि गमा मग सनि धनि धस धस निधनिधा (पश्चम) पस धग सम गरी मगां मां मांमांमांसां मधा नीसा रीगा मम गसा नीधनि धसनिधा नीध(पञ्चम)पापा। पपनि धधनि पापा पपनि धधनि मांमां। मम निधा धध गसा। ससमरी री गामामा । मरिरिंग सांसां। सरिरिग मां मां मरि रिग रिरिधामा मरिरि गरि रिधस रिरि सांरिग सगा सधनि धसस धनि (सं०) वेसरषाडवं लक्षयति-वेसरः षाडव इति । उशनसः शुक्रस्य प्रियः ॥ ४८-५०॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः धगगधनि धधस धनि धर्ममं मस समध मंरिरि मरिग सगसा धनिधसनि धानिधा (पञ्चम) पापा पप पपनि धनि धनि धनि ममनि धधस ससग धधस धधमा रिग सगस धसरिगम रिगमांमां । मरि गसां रिगमां मां मरी गरिमा । मरिगरि धरि रिरि धरि रिरिमांमां । गममगधधम धम रिरिम रिग सगस धनिध सनि धनिधा । (पञ्चम) पापा । पंप पंपं पंप पंपं । निध निध धनि धनि ममनि निध निध धमां गंस गस धनिध सनि धनी धसरि गरि सनिधासां पधासरी मंगा मं मां - इत्यालापः । मंधामम गंमांमां मम गम मां । संसंमरिमांमं ममरि मं मां धधांनि धनिधा धस धनिधा धाधा म रिग मग मांमां (ऋषभ) रिधरीरीरीरीधरीरीरीरोग रिग मांमांनी पधा मा रिंग रिंग रिंग सा । संमं ( धैवत) निध धस धनि धापापा । पप ( धैवत) धनींनींमांमां । मांरि मरिग मनि धा धा धा ( धैवत) धनिधग (षड्ज) सा नीधा सारीं गां मां मं मधारि रिरि गग मंमं रिग रिनि पध मंमं रिग रिम रिगा ससा धनि धस धनि धध (पञ्चम) पा । (धैवत) धग सस मग रिग मांमांगामांमां - इति करणम् । १. मा गा री सारी गा री सा द गो व म णि २. री सा री गा मां मां मां मां चि अं दा म ४७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ [प्रकरणम् संगीतरत्नाकरः नी धा सा सा 64 可m h何可信可 ६. + पा धा मा गा री अ सो री गा सा नी 64 ८. मा ळं पा धा सा री गा मा गं ध सी अ -इत्याक्षिप्तिका। इति वेसरपाडवः। बोट्टः बोहः स्यात्पश्चमीषड्जमध्यमाभ्यां ग्रहांशपः॥२०॥ मान्तोऽल्पगः काकलिमान् पञ्चमादिकमूर्छनः । आरोहिणि प्रसन्नान्तालंकृतः सकलस्वरः ।। ५१ ।। अन्त्येऽहः प्रहरे गेयो हास्यशृङ्गारयोः स्मृतः।। उत्सवे विनियोक्तव्यो भवानीपतिवल्लभः ॥ ५२ ।। (सं०) बोडे लक्षयति-बोट्टः स्यादिति । ग्रहोंऽशश्च पः पञ्चमो यस्य । मो मध्यमोऽन्तो न्यासो यस्य । अल्पो गो गान्धारो यस्मिन् । काकलिविद्यते यस्मिन् स काकलिमान् । सकलस्वरः पूर्णः ॥ ५०-५२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय रागविवेकाध्यायः ४९ पंनिसासा धगारि पानी धा पामा गरी ममा मामा । मं पांपां पंनिनिमांमंधांसासनि धा धमगा मगारिरिसा री पंमापांपांसा सपपमपपं संपंसंपंपमां । पधनि पध मधस गरि रिरिप रिरिप रिपपप (षड्ज) सा । सस गरि पां (पञ्चम) पपपप गरि मगां मां मां मधा धा धध निध निसा मम धध सस रिरि गग रिगाग (पञ्चम) पप सप धस निध धधधमसमां मगा री रिध रिरिध रिरि (ऋषभ) रिरिप रिरिप पां पनिधा पामा गरि मगामा मा । गाम । मगममगा ममगप ममगागरी रिरिरि ध धस गागारी । रिस मम गग पमपपपपापा पमप ध नि धनि मामामधामामधासारीगागापा परि पापमपधनिपधमधमां गारी । रिगमपधापामागारिपगामाम (मध्यम) मगाममगममगमपमगपमगामापापा पनिधधनिधनिनिपानिधधसससधधगरीगरिरि गपापपधपधापधससधधगसग । साससमरिंरिंपमपममपापापममपपधधस सपा | सससमसमरिरिगागससपपपपधधनिपधमधमगरिमगाग । सगसधस पपधधससरिरिपपपपपमगरी मगागगा । मामांगमम (मध्यम) मा पनिधनिरिधा धनिपपपधममरिगरिमरिग | ससासससगससगधधधगसससमरिरिरिपरिपाप । पापसघसासपाप (षड्ज) रिसरिरिपाप । पममपपधधधधनिपधमामरिरि ममरिरिगरिपरिपपपपप (षड्ज) ससासधधगधमगरिपा । पापाधाधापापासासापापाधध पपममगगागारिधारिरिधरिरि (ऋषभ) रिरिपा (पश्चम) पधापामागारीगारीसगामामा -- इत्यालापः । 7 २] Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् धाममगममाममगममा (पश्चम) पगममाममगमसाधधधनिप धमाधनिपधसारिगरिमरिमसाममगरिसा। रिगरिग (पश्चम) पपपपनिनिधामामा । माममधधाधममधधासरिधगाधगगधरिंग (पश्चम) पापपपनिनिध ससधगसमागारीमारिमा (मध्यम) निधाधाधधधनि । पांमागारीरिपारीनिधा (षड्ज) सससममारिरिरिरिपमममनिधापामागारीरिमांगामांमांधरिरि धरीरिधरिरिरिपपरिपपरिपपरिपपमनिनिधनिधानिनिधाधधध निधधमधमामाममधध(षड्ज)स (ऋषभ) रि (पञ्चम) पपनिनिनिनिधधनिनि निपधधधरिपपमधममरिरिगरि(पश्चम)पनिनिधधपंपमंमगगरिरिमग मामानिधनिधाधधधनिपपपधगमरीगरिरिपरिपामगागामामा -इति करणम् । १. सा धा सा सा सा सा सा सा प व न वि लु लि त २. धा पा मा पा धा पा मा मा भ्र मि त म धु क र ३. धा पा मा री गा सा निध ज ल ज रे णु प रि पा पा पा पा पां पिंज रि ते सा री मा पा पा पा पा धा द ग ति + Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ६. सा सा पा हं स ७. धापा मा विच र ८. पापा पम पा धा पा मा गा व धू गारी गा सा निध ति वि क सि त गम मा मा मा मा कु मु द व ने -इत्याक्षिप्तिका । इतः । मालवपञ्चमः ५१ मध्यम पञ्चमीजानिजातो मालवपञ्चमः । पञ्चमांशग्रहन्यासो हृध्यकामूर्छनान्वितः ॥ ५३ ॥ सारोह प्रसन्नान्तो गान्धाराल्पः सकाकलिः । विप्रलम्भे कञ्चुकिनः प्रवेशे केतुदैवतः ॥ २४ ॥ hars: पश्चिमे यामे हास्यशृङ्गारवर्धनः । पामारिगासाधानिधपाधधानिसरीमागागपा धामारिगासानिधनिमामाधनिसारिगाममगससाधानीधपापधानीसारी | मांमांगगपांधामारीगासानिधनिमामाधनिसारिगामगगसनिधनिपां । पां पां सधाधासगसासंमगारिरिरिमांमांपमासारीमापाघनीधापाधमासाधानीधापां रिरिरिगामापारीरीगामापारीरीरिगामापानिधा मापानिधा मारी (सं) मालवपञ्चमं लक्षयति- मध्यमेति । हृष्यका मध्यमग्रामे सप्तमी मूर्छना । गान्धारोऽल्पो यस्मिन् ।। ५३ - ५५ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् रिगमाममासरिंगमामगसनिधानिपा। पापा पपस धधग ससग गरिप ममप मपपांपां। धाम मप धमामा पांधानीनिमामापाधासासमामा पांधागासांधानि धापां धमासधनि धापा मामा (मध्यम) गागं मगंम री रिरीरि रिमसाससससमरीरिरिरिप मापमामपापापपपधामाममनिनिधधपपपधमाममससधधनिनिधधपपममगगरिरीनिनीधधपारीरीधरिरिगामापारीरीधरिरिगमापा । रीरीधरीधरिरिगामापारिगमरिगमपधनिधमा मरिरिरिगगससससधसरिगगरिसनिधमपपरिममसंधनिधापाधामांगासांधानीधापा धमसधनिधपा-इत्यालापः । मापाधामा मरिगसा धनिमा धनिसा रिंगमा धनि धधसधनिधापापा । धध धनिधनिरि मापधनिधगसधानीधासाधानी (पञ्चम) पापधसधाधधगसासससामगारीरीपमामांपनिधनिधसनिधपांपां रिगमापा धनिधस धनिपंपपधममपमधसधनिममनिनिधधपापधमनिधपापा-इति करणम् । १. गा ध्या री सनि सा मग रिग सा पम न म यं न वि पा सा मा गम गा निध नी च ति दी नं मग पा पम पा पा धप मा ह र ति वि श ति ३. री व्या Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ४. रिम गस धम धनि पा लि ले स रः स पम धम सा सा सा वि धु नो ६. निध सा यु ग इति मालवपञ्चमः । ति प सा सा सा री गा लं 可免 पापा पा गा सा निध क्ष ५३ न रें नि ७. धा मा रिग सा निध सा पा हं सो ज ८. मरि गम धस निध पा पा पा पा प्रि या वि रहे -इत्याक्षिप्तिका । मा द्र मा रूपसाधारः जातो नैषादिनीषड्जमध्यमाभ्यां ग्रहांशसः ॥ ५५ ॥ मन्यासो रूपसाधारोऽल्परिपः काकलीयुतः । प्रसन्नमध्यालंकारः पूर्णः षड्जादिमूर्छनः || ५६ ॥ अवरोहिणि वर्णे स्याद्वीरे रौद्रेऽद्भुते रसे । प्रयोज्यो वीरकरुणे सवितुः प्रीतये सदा ॥ ५७ ॥ (सं०) रूपसाधारं लक्षयति - जात इति । ग्रहोंऽशश्च सः षड्जो यस्य । मो मध्यमो न्यासो यस्य । अल्पौ रिपौ ऋषभपञ्चमौ यस्मिन् सोऽल्परिपः ।। ५५–५७॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [ प्रकरणम् सानिधा सनि सा सामा पामापापामपा मगामनी निधाधा सधनि धासनी संसंपा धा सारी गाधा सापा धमा माधा निधानीनी मागा मागा मसा - इत्यालापः । ५४ साधा सनिधनी सा सा पामा पममा गसं नीधाधाध सधनिधध (षड्ज) सा साधाधासारी गमगरिसधाधपसाधधनिसा (मध्यम) मगमसा । सगमधमनिधा सगस सधनिध धमा मगामा मामा (मध्यम) (पश्चम) पगगम माग ममनि निधपपमपा । गममम (षड्ज) सघ सससा निधम पप ध स रिरि मरि ग सा धधधधगसा ( धैवत) निधमा (मध्यम) म सा सगगध मम पस सग सस धनि धध मा मग मामा -- - इति करणम् । अथ वा-साधा साधा पा पधा सा सा सगामगागांधा पांधा सांसां सांगा मं निधा सां ससनि सासं मां सं गां ग सा धा पाप धप ध सां सां सा गा मा नी सासा (षड्ज) स सगा सगा ग सासा धापा धाप मामा - इत्यालापः । १. २. ३. मा मा नी नी धा धा सा सा स द्यो तं 55 F जा नी नीधा सा सा सा सा सा रं वा म म सा सा नी धा पा मा मा मा त्पु रु प मी त Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गगविवेकाध्यायः ४. सां.री सां नी नी धा सा सा मा मामा मा नी नी धा धा मा मा मा मा मा नी नी नी धा मा सा नी नी धा सा सा क म जा सा सा सा नी धा सा सा सा सा नी नी नी धा सा सा म भ व म सा सा पा धा मा मा मा मा -इत्याक्षिप्तिका। इति रूपसाधारः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ संगीतरत्नाकरः शकः [ प्रकरणम् पाड्जीवनिकोत्पन्नो ग्रहांशन्यासषड्जकः । काकल्यन्तरसंयुक्तः पूर्णः षड्जादिमूर्च्छनः ॥ ५८ ॥ प्रसन्नमध्येनारोहिवर्णे वीरादिके रसे । वीरहास्ये निर्वहणे गेयो रुद्रप्रियः शकः ॥ ५९ ॥ सा निधनी पापाधनी सारीगासासारी गाधा धानी सासा निधसासा निधसानी धापानिसा गमा धध निनिरि गा सासा - इत्यालापः । (षड्ज) ससनि मम मम पप धध गगा मरिरीरी गमगम माधधधस गगससगासनि साससनि रिरिरिरिनिरिरिधानिमपधामा (गांधार) ग ( षड्ज) सनिनि पनि - सासा सससनि रिरि गरिरि धापापनिनिधासासा सरिरिरिधधधमधममा । धसरिममरिमधधपप मम गग (षड्ज) सस निसासा - इति करणम् । अथ वा-सा सनिमा मप धम संगंगां मम मग माध साम पगसमासनि सससम निरिनिरि रिरि धनि मामपाधा मागासासनि सां सं नी सास । रिरिरिरि गा रिधाधा पानिनिनि निध सासा सरि रिरि धंधंधं मं धं मा धरिमं मरि । मां धापामा मागासास री सासा - इत्यालापः । (सं०) शकं लक्षयति - षाड्जीति । सुगमम् ॥ ९८-९९ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः (षड्ज) सनि धनि सांसांसां स ससा। सरिरिरि रिम (षड्ज) (धैवत) धध (षड्ज) सस मां गा गगगमा गगनिस (षड्ज) सनिनिनि स रिरि गगमा-इति करणम्। इति शकः । भम्माणपञ्चमः शुद्धमध्यमया सृष्टो रागो भम्माणपश्चमः । ग्रहांशन्यासषड्जश्च मन्यासः काकलीयुतः॥६०॥ गाल्पः पूर्णः सषड्जादिमूर्छनारोहिवर्णकः । प्रसन्नमध्यालंकारो वीरे रौद्रेऽद्भुते रसे ॥ ६१॥ पथि भ्रष्टे वनभ्रान्ते विनियुक्तः शिवप्रियः । सा रिरिस रिरि सारी रिपा धाधधध धपाधपाप धपधप म मा मम मा। गारी रिधा धप धासा धासा धासा सरी रीसा सस मग रिसा सनिनि (धैवत) (पश्चम) पप धप धप पपप ममप मप मा मगमामा-इत्यालापः। सस रिरिरि सरीरीरी। पापा धप धधा धध पधधा। पापाप मपमपपा पापा धधध मामा माम ध रीरीरीरीरी धरिरि धा । धापा पापा पाप पपप धाधधा सध धसा सां सां। स रिरिरि सससमसमरिग स पधध धापमपनि (सं०) भम्माणपञ्चमं लक्षयति-शुद्धति । मन्यासो मध्यमन्यासः । गान्धारोऽल्पो यस्मिन् । पथि भ्रष्टः सार्थात् प्रच्युतः ॥ ६०-६२ ।। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ___ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् पपाप पाप पध मधपध पाध पध पाधपपापपमगसाइति करणम् । अथवा-सासा सधा सरी मा पां पं (पश्चम) पां पां सां सां सरी पापां मं धंसं निध पांमां पंमां पांपां मांधां सांनी धापां मां मापां मां मम पम प (मध्यम) मा-इत्यालापः। सस रिरि सासा धध रिरि सासा धंधंधं सरिम मग सासरि गरिस रिरि मपधससनि धास रिगामा (पश्चम) पम धम मम पग पां पां मां मां-इति करणम् । १. री गा मा सा रिग सा धा मा गु रु ज घ न ल लि तं पा धा पध पम पा पा धा पम ३. सारी मा पा पा धा पम मप ग ति सु भ ग ग ४. पा धनि पम धस सा सा सा सा म द य ति री री मा पम रिग सा धा , मा प्रि य मु दि ता म धु र ६. पा पा पध पध पा पा पा पा म धु म द प र व श Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ७. मा मा पा धस रिग सा धनि पम हृ द या भृशं ८. पा धा पा धप मा मा मा मा -इत्याक्षिप्तिका। इति भम्माणपश्चमः । नर्तः मध्यमापञ्चमीजातो नहॊशग्रहपञ्चमः ॥ ६२ ।। मन्यासः काकलीयुक्तः पञ्चमादिकमूर्छनः। गाल्पः प्रसन्नमध्येन भूष्यः संचारिवर्णभाक् ॥६॥ धीरैरुद्भटचारीकमण्डलाजी प्रयुज्यते । हास्यशृङ्गारयोरेष रसयोः कश्यपोदितः ॥ ६४ ॥ धैवतीमपि तद्धेतुं दुर्गाशक्तिरभाषत । पापसा मगामापापगामा नीधापापमानीनी सांस सागा सानि धनी नीनी । नि निध धमपध ममगा गसा समं मगा गनी निनि धधप पधममगामा-इत्यालापः । __ पापमगापा (पञ्चम) ससगगं निनिधापा (पञ्चम) नीनीधा (षड्ज) सनिनिध सनी धापा मापा पमगा गनिनि पधनि गम गम पामधाममामा-इति करणम् । (सं०) नर्तगगं लक्षयति-मध्यमेति। संचारिणं वर्ण भजतीति संवारिवर्णभाक् । उद्भटान्युत्कटानि चार्यो मण्डलानि च यस्यामाजौ संग्रामे । मण्डलानि नृत्ताध्याये वक्ष्यन्ते । दुर्गाशक्तिमतेन धैवत्यप्येतस्य कारणम् ॥६२-६५॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् अथवा-पामागम मापापग पापा। पगापानीनिधाधा। नीनी सांगांसां संधा नीनि नींनी निनि मसा संसंसं धानीनीनी निनिनि धधनि पपध मामगागसा समा गगागरी निंनी निध धधनी प (पञ्चम) मागामामा -इत्यालापः। पपप मपपप मपप मग समग मामग सा । मगा मपापनी निधनि (षड्ज) सनि सनि निधनिधा निनि धधधनि पधपा पपधपाप धामम गमसा ससमगसा (पञ्चम) धमा नीधापा। मामानी धधसा धधधध निपाधा पामागा गमसा सासा गपमा धनिधा धनि (पश्चम) पधप मममनि धनि पधमम (षड्ज) सगामामा-इति करणम् । पापा (षड्ज) सगामा (पञ्चम) पापापा पधमा मगमा (मध्यम) मामा। ममम निधा धध निधमा पपधमा गमगमा मा (षड्ज) स मापपाधप माम मनि धरिधगं (षड्ज) सं धानी निनि नीधधधनि । पापपध पामा सामा। गां (पञ्चम) धधम मनिधनि पध पमामा गामामामा-इति द्वितीयकरणम् । १. पा पा मा गा पा पा गा सा अ न व र त ग लि त २. सा सा सां सां सा मा गा सा मा ३. गा मा पा मा गा मा धारौ घ सि मा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] ४. ७. द्वितीयो रागविवेकाध्यायः मा गा मा पा मा पा पा पा भु व न त ल नी सा नी सा सा सा सा सा क र कु लां म ध ६. सा गा नी धा पा पा पा पा रि त दि न का दि ८. ७. नी सा नी F सा मा धापा पा ख ङ्मु ख ग ज मु — इत्याक्षिप्तिका । F मा पा गा गा मा मा मा मा न म स्ते इति नर्तः । ६१ षड्जकैशिकः षड्जर्षभांशग्रहः स्यात् कैशिकी जाति संभवः ॥ ६५ ॥ ऋषभोऽल्पो निगन्यासो मन्द्रगान्धारषड्जकः । प्रसन्नाद्यवरोहिभ्यां युक्तः षड्जादिमूर्छनः ॥ ६६ ॥ वीररौद्राद्भुतरसः शांभवः षड्जकैशिकः । (सं०) षड्जकैशिकं लक्षयति - षड्जर्षभेति । षड्जर्षभौ क्रमेणांशग्रहौ यस्य । निषादगान्धारौ विकल्पेन न्यासौ यस्य । मन्द्रौ गान्धारषड्जौ यस्मिन् । प्रसन्नादिनालंकारेणावरोहिणा वर्णेन च युक्तः ॥ ६५-६७ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् सांसनि रिसामा पामं पाप ममगा। मं निनि धाधामा मधाध ममधा सा समा मधा गसास । धमा मसासमामधा सासधा धमध नीनी-इत्यालापः। (षड्ज) सनिध समा ससनि सांसां निनिस निरिसाममपमम पपापपमपपा (मध्यम)। मम गगामममगम गा (गान्धार) गगगनिधम निधम मामामा धाम धमामाधा गंगं सगं सगंसा। (षड्ज) ससधधधनि समम निधानीनि । (निषाद) निधनि नीनिनि (षड्ज) सधनि नी निनिधनिगा। म मपम पापप (मध्यम) मगम ग (षड्ज) ससंसंसंसं गधरिंग गनिध निनिनिधमा। मम धध गग रिग (षड्ज) स सधनिधधमा पधानीनीनी (निषाद) निनि-इति करणम् । अथवा-सासास नीनी सनिनी मपानीनीपापा रीरिग रीरी गगरिरि पापा मप पमगम गरीगागरीसा। सनीमपनीनी धधमप निरिरिग। सा (षड्ज) स निरी सानीसा (षड्ज) स निरीसानी-इत्यालापः। सा (षड्ज) सनि री सानिसा (षड्ज) समापा नीपा नीधा (पञ्चम) पापारीधरीरी पमा मारी रिगरिंग (षड्ज) सरिस निधप निसनि सनीनी-इति करणम् । १. सा री सा री सा सा सा सा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीय रागविवेकाध्यायः २. सा नी नी नी नी सा नी ले ना ३. री ४. नी ह ५. ७. ८. री री री स र मा मा पा पा मा मा सग री पि अ इ का ल ६. रिस सा नी नी पा पानी नी भ म रो सा रं सानी री द लि री र सा मु री री री री प — इत्याक्षिप्तिका । म हि ह री गा सा दि सा ज ण म अ सा सा सा सा नी नी नी दं पु ह वि री रिस नी नी नी नी नी उ मे मध्यमग्रामः इति षड्जकैशिकः । ६३ लक्ष्माधुनाप्रसिद्धानां सहेतूनां ब्रुवेऽधुना ॥ ६७ ॥ गान्धारीमध्यमापञ्चम्युद्भवः काकलीयुतः । मन्यासो मन्द्रषड्जांशग्रहः सौवीरमूर्च्छनः ।। ६८ ।। (क० ) अथ देशीरागेष्वधुनाप्रसिद्धानां मध्यमादीनां लक्षणम्; ' लक्ष्माधुनाप्रसिद्धानां सहेतूनां ब्रुवेऽधुना' इत्युपक्रम्योक्तत्वात् । तत्र रागानस्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ संगीतरत्नाकरः [ प्रकरणम् प्रसन्नाद्यवरोहिभ्यां मुखसंधौ नियुज्यते । मध्यमग्रामरागोऽयं हास्यशृङ्गारकारकः ॥ ६९ ॥ ग्रीष्मेऽह्नः प्रथमे यामे ध्रुवप्रीत्यै तदुद्भवा । मध्यमादिर्मग्रहांशा हाथ मालवकैशिकः ॥ ७० ॥ सां नीधापांधां धांधरि । गांसां । रिगानीसां । सगपपपप निनिपनि सां सां गपसानिधनिनि निरिगासा । पां मं पं निधामा - इत्यालापः । मध्यमादेर्जनकस्य मध्यमग्रामाभिधस्य ग्रामरागस्य लक्षणमुक्त्वा तस्यालापकरणाक्षिप्तिकाश्च प्रस्तार्य ' तदुद्भवा मध्यमादिर्मग्रहांशा' इत्येतावदेव मध्यमादेर्लक्षणमुक्तम् । तस्य तावत एवापर्याप्तत्वात् अनुक्तमन्यतो ग्राह्यमिति प्रकृतिविकृतिन्यायेन स्वहेतुभूतान्मध्यमग्रामरागात् काकलीयुतो मन्यासः सौवीरमूर्छनः प्रसन्नाद्यवरोहिभ्यां युतो मुखसंधौ विनियोज्यो हास्य शृङ्गारकारको ग्रीष्मेऽह्नः प्रथमे यामे ध्रुवप्रीत्यै इति सर्वमपि लिङ्गविपरिणामेन ग्राह्यम् । विशेषलक्षणादेव जन्यस्य जनकाद्भदोऽवगन्तव्यः । एवमन्येष्वपि द्रष्टव्यम् । ' प्रसन्नाद्यवरोहिभ्यां युतः' इत्यत्र सौवीर्या गरिसनिधपमेत्यवरोहिवर्णाश्रयणेऽपि, तदनन्तरं मां मां मां इति ' मन्द्रद्वयात् परे तारे प्रसन्ना दि:' इति प्रसन्नादिसंज्ञस्यालंकारप्रयोगस्यापि शक्यत्वान्न विरोधः । एवमन्यत्राप्यूह्यम् ॥ ६७ – ७० ॥ (सं०) कारणभूतग्रामरागसहितानधुनाप्रसिद्धान् कथयितुं प्रतिजानीतेलक्ष्मेति । मध्यमग्रामरागं लक्षयति- गान्धारीति । सौवीरी मध्यमग्रामे प्रथमा मूर्च्छना । मध्यमादि लक्षयति - तदुद्भवेति । तस्मान्मध्यमग्रामरागादुद्भवो यस्याः । मध्यमस्वरो ग्रहोऽंशश्च यस्याः ।। ६७-७० ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute - Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः निनिपपगंगसंसंरिगं । निं सं सासा। संसंगंगपंपं. धंधं मधनिसनिध पापापापा पनी पनी सांसांसांगागासागासनी धनीनीनिनिरिगांसांसांपापामापानिधपामामा-इति करणम् । १. सां सां गां गां पां पां मा मा गां मा मां प ति म सां मां मा धा नी सां सा ज यं मां पां पां सां सां 4 * री गा नी श शि ति नीं नी नी ग ण श गां मां गां सा सां सां सां सां ल कं नी धा पा मा मा त प रि वृ त मां धा नी सा सा ॐ नीं री गां नी मां सां पां पां प्र ण म त सि त वृ ष ८. सा सा निध पा मा मा मा मा र थ ग म नं -इत्याक्षिप्तिका। इति मध्यमग्रामः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः [प्रकरणम् मालवकैशिकः कैशिकीजातिजः षड्जग्रहांशान्तोऽल्पधैवतः। सकाकलीकः षड्जादिमूर्छनारोहिवर्णवान् ।। ७१॥ प्रसन्नमध्यालंकारो वीरे रौद्रेऽद्भुते रसे । विप्रलम्भे प्रयोक्तव्यः शिशिरे प्रहरेऽन्तिमे ॥७२॥ दिनस्य केशवप्रीत्यै मालवश्रीस्तदुद्भवा। सासपामामामारीसनीसासरी मापासां नीनीरीरिसारिपामासनिसां । सनिरीरिपासनीसामगामापासनीसासनिपापनी सधनीपापनीनीनीरीपापनी मां मां गंगरीरीसासनिनिपापगामापाधनिससनिपममामगमपपम - गागरिरिरि मससससम रीरिरिपममममनिपापप सनीनीरीरिसरिमपनिपपसनी सांपापानीसपनिपपसनि सानीससनिसनिसनि सपपनीपनिगगनीपपनिगंगंगंमरिरिमससंमगगरिरिपरिपपनीपपसनी सांसांनीनीमसनीसनिससनिसंसपापानीससनिसनिसंसंनिरीरीपा पानीससनिमम गरिरिससनिनि पनिपमगमगपमगमगरिससरिमपनिपापसनिसां सां गाममागाममगमगमगममगमा गपपगपगनिनिगमगपपगमगसां । सससधनिपमा सस निसनिरिरिससमगमा गपमगगरिमासससधनीपानि पगमगपगममगरिमा। समगरिपपनि पपसनि पमगम __ (सं०) मालबकैशिकं लक्षयति-अथ मालवकैशिक इति । षड़जस्वर एव ग्रहोंऽशो न्यासश्च यस्य | काकल्या युक्तः सकाकलीकः । काकलिशब्द इन्नन्तः । ङीषन्तोऽप्यत्र प्रयुज्यते ॥ ७१-७३ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः गपमगमगरि मासरिमपनीपपसनी रीरीरीपप सनीसाइत्यालापः। गागपमगपापनि मापापमनी गपापमनी गपापमनि सं सनीसा (षड्ज) ससा । नीरिरि (ऋषभ) रिममपपनीनिनिरीसनीसा (षड्ज) ससानिनिरिरिनिपानि (पञ्चम) गगगससधनि पपगमगपगमगारीरिगमांममरीरि (षड्ज) सससमगारिरि सापापपनीनि (पञ्चम) निरिरि (पञ्चम) नि मां मां मरिगस सधनिपपगम गरीसरी मपानि रिसनी सा सं नीरिसनिसा-इति करणम् । १. सा सा पा पा गा मा गा पा चं द्रा भ र णं २. धा नी पा पा धा नी गा गा सा पां सां सां सा नी पा नी म हि व ल यं री धा सनि सा सा सा सा सा पा नी री पा नी री री सनि गां क न य नं नी री गम री गा री सनि गि रि नि ल यं ७. सा सा पा पा नी नी पम नी न म त स दाम द Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૮ संगीतरत्नाकर: ८. सांसां सांसां सां सा सा सा ग ह रं नां — इत्याक्षिप्तिका । इति मालवकैशिकः । [ प्रकरणम् मालवश्रीः समस्वरा तारमन्द्रषड्जांशन्यासषड्ज भाक् ।।७३|| इति मालवश्रीः । षाडवः विकारिमध्यमोद्भूतः पाडवो गपदुर्बलः । न्यासांशमध्यमस्तारमध्यमग्रहसंयुतः ॥ ७४ ॥ (क०) मालवश्रीलक्षणे – समस्वरेति । समाः स्वरा यस्यां सा समस्वरा । स्वराणां समत्वमत्राल्पत्वबहुत्वकृतवैषम्यरहितत्वं विवक्षितम् । तेनास्यां षड्जस्यांशत्वेऽपि तदितरेपामपि तत्समबलत्वेन प्रयोगे कृते रक्तिलाभ एव स्यात्, न रक्तिहानिरित्यर्थः । एवं सर्वत्र समस्वरता द्रष्टव्या । तारमन्द्रषड्जा ; तारमन्द्रयोः षड्जौ यस्यां सा तथोक्ता । एतेनास्यास्तारमन्द्रयोरवधिर्दर्शितो भवति । एतावद्विशेषलक्षणम् । अनुक्तमन्यज्जनकान्माल्व कैशिकादूह्यम् ॥ ७३ ॥ (सं०) मालवश्रियं लक्षयति- मालवश्रीरिति । समाः स्वरा यस्याम् । स्वराणां च समत्वं मन्द्रादिष्वेकस्थानोद्भवत्वम्, अल्पत्वबहुत्ववर्जितत्वं वा । तारमन्द्रषड्जेति । एतस्यां षड्जस्य मध्यमत्वं नास्ति ॥ ७३ ॥ (क०) तोडीजनकस्य षाडवस्य लक्षणे - विकारिमध्यमोद्भूत इति । मध्यमाया जातेः शुद्धभेद एकः ; विकृतभेदास्त्रयोविंशतिः । तत्र Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः काकल्यन्तरयुक्तश्च मध्यमादिकमूर्छनः । अवरोह्यादिवर्णेन प्रसन्नान्तेन भूषितः ।। ७५ ॥ पूर्वरङ्गे प्रयोक्तव्यो हास्यशृङ्गारदीपकः। शुक्रप्रियः पूर्वयामे तोडिका स्यात्तदुद्भवा ।। ७६ ॥ मां सारी नीधा साधानी माधा सारीगां धां सां धांमांरिगामां माधामारी गारीनीधा सांधानीमांमांइत्यालापः। ममरिग मम सस धनि सस धनि मां मां पपपपनि धममध घससरि गांगामांरिगामांमां-इति करणम् । साधनि पध मारि मानि धधाधधससरि मासासाधनी धपमां मां गारी गारी गासामाधामां गांरीगा गमारिगा सांसाधनी मां धनि धगसाधनि मां मामां-इति वर्तनिका। शुद्धावस्थां परित्यज्य विकृतावस्थापन्ना मध्यमा विकारिमध्यमा ; तस्यामुद्भतः । अवरोह्यादिवणेनेति । अत्रादिशब्देन वर्णोद्देशक्रमविवक्षया संचारी वर्ण एव गृह्यते । अवरोह्यादी वर्णी यस्येति बहुव्रीहिः; प्रसन्नान्तस्य विशेषणम् । अवरोहिसंचारिवर्णयुक्तेन प्रसन्नान्तेनेत्यर्थः ॥ ७४-७६ ॥ (सं.) षाडवं लक्षयति-विकारीति । गपदुर्बलो गान्धारपञ्चमहीनः । अस्य च व्युत्पत्ति: कथिता मतङ्गेन-" षट्सु रागेषु मुख्यत्वात् षाडवः, सप्तस्वरत्वेन षट्स्वरत्वासंभवात् । ननु कथं षट्सु रागेषु मुख्योऽयम् ? उच्यते - 'पूर्वरङ्गे तु शुद्धषाडवः प्रयोक्तव्यः' इति वचनात्" इति ॥ ७४-७६ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० संगीतरत्नाकर: १. मां मां धांधां साधा नी पृ थु गं धा नीं मां मां मां री म द ज ल म ति धां नीं सांसां गा रिग धा धा र भ ल न षट् प मां मां २. ३. ४. सा ५. धासा मग द स मू मग री गा मा मु ख मिं ७. ६. री ८. ht गा सांसां श क लै नी धांनी धां मि [ प्रकरणम् पा ड ग लि त मां री सौ इत्याक्षिप्तिका । मां मां हं मा मा पम गा द नी ल मां मां मां मां र्भूषि त सांसां सां सा च ग ण प ते गा री री गा मां मां मां मां र्ज य तु इति पाडवः । तोडी मध्यमांशग्रहन्यासा सतारा कम्प्रपञ्चमा । समेतरस्वरा मन्द्रगान्धारा हर्षकारिणी ॥ ७७ ॥ इति तीडी । (क०) तोडीलक्षणे – समेतरस्वरेति । समा इतरे स्वरा यस्यां सा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गगविवेकाध्यायः बङ्गाल: पाडवादेव बङ्गालो ग्रहांशन्याममध्यमः। प्रहर्षे विनियोक्तव्यः प्रोक्तः सोढलसूनुना ।। ७८॥ इति बङ्गालः। भिन्नषड्जः षड्जोदीच्यवतीजातो भिन्नषड्जो रिपोज्झितः । धांशग्रहो मध्यमान्त उत्तरायतया युतः ।। ७९ ॥ संचारिवर्णरुचिरः प्रसन्नान्तविभूषितः । काकल्यन्तरसंयुक्तश्चतुराननदैवतः ॥ ८ ॥ हेमन्ते प्रथमे यामे बीभत्से सभयानके। सार्वभौमोत्सवे गेयो भैरवस्तत्समुद्भवः ।। ८१ ।। इति भिन्नषड्जः। भैरवः धांशो मान्तो रिपत्यक्तः प्रार्थनायां समखरः। तथोक्ता। अस्यामंशत्वेन बहुलान्मध्यमादन्यस्वराः प्रयोगे मिथः समबला इत्यर्थः । एवमन्यत्रापि समेतरस्वरत्वं द्रष्टव्यम् ॥ ७७ ॥ (सं०) तोडिको लक्षयति-तोडिकेति । षड्जस्तारो यस्यां सा सतारा। कम्पयुक्त: पञ्चमो यस्यां सा कम्प्रपञ्चमा । इतरे स्वरा मध्यमपञ्चमाभ्यामन्ये समा यस्याम् ॥ ७७ ॥ (सं०) बङ्गालं लक्षयति-षाडवादिति ॥ ७८ ॥ (सं०) भिन्नषड्ज लक्षयति-षड्जोदीच्यवतीति। ऋषभपञ्चमोज्झितः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् धां धां माम गा सां सां सगम धधा धा निधमगगमा मम मध मग सां सां ससं ग सं । ग मधा धा धा सनिस सां सानि गनि सनिधाधा । सनिसां सां सं सं सं ग सग संग मधा धानि धम गमा माधा । धं निं नी नीं गाम गा मामा-इत्यालापः। धा धगा मामध मम सां सां । सगम धधा धा धनिध पामामा मा मा मम धम गसां सां सा मप मध गसां सां गसगध धा धा धनि पध मागा मा मा। मग सां सां सग धम धधा धाध निध पम गा मामा-इति वर्तनी। १. धा धा धा नी धा पा मा गा A. A पा मा गा सा गा सा धा ..42 4 .P 2. A नीं गां सा नी धां धां धा नी वि तं पु धैवतांशग्रहः । मध्यमन्यासः । उत्तरायता षड्जग्रामे तृतीया मूर्छना। भैरवं लक्षयति- भैरव इति । धैवतांश: मध्यमन्यास: ऋषभपञ्चमत्यक्तः ॥ ७९-८२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ७. धा पा मा गा सा गा मा धा ना तु जाह्र ८. धा धा नी गा मा मा मा मा वीज लं -इत्याक्षिप्तिका। इति भिन्नपड्जः। भिन्नपञ्चमः मध्यमापश्चमीजात्योः संजातो भिन्नपञ्चमः॥८२॥ धग्रहांशः पञ्चमान्तः पौरवीमूर्छनायुतः । काकल्या कलितः कापि निषादेनाप्यलंकृतः।।८।। प्रसन्नाद्येन संचारिवर्णः शौरिप्रियो रसे । भयानके सबीभत्से सूत्रधारप्रवेशने ।। ८४ ।। ग्रीष्मे प्राक्पहरे गेयो वराटी स्यात् तदुद्भवा । (क०) वराटीजनकस्य भिन्नपञ्चमस्य लक्षणे—'काकल्या कलितः कापि निषादेनाप्यलंकृतः' इत्युक्तम् ; तदनुपपन्नम् ; एकस्मिन्नेव रागे एकस्यैव स्वरस्य शुद्धविकृतप्रयोगभेदेनावश्यं रागभेदापातादिति चेत् ; उच्यते-काकल्या कलितः' इत्यनेनास्मिन् ग्रामरागे मन्द्रमध्यमस्थयोनिषादयोः काकलीत्वम् । 'कापि निषादेनाप्यलंकृतः' इत्यनेन तु माध्यमग्रामिकत्वादस्य निषादपर्यन्तायास्तारव्याप्तेर्विद्यमानत्वात् तत्रत्यो निषादः शुद्ध इति विषयव्यवस्थयोपपद्यत इति । तत्र तारनिषादस्योपरि षड्जाभावेन शुद्धतैवेति भावः ॥ ८२-८५ ॥ (सं०) भिन्नपञ्चमं लक्षयति-मध्यमेति | धैवतग्रहांशः । पञ्चमन्यासः । 10 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: [ प्रकरणम् धा पा धामा नीधा पानी धामा गा मा पा पा पम मग पम मगस मगा गा रीं रीं री माधा पाधा मानीधा धप धनी ( धैवत) धा धा मा धा सां (षड्ज) सामारिंगसांसां गां गां मनीं नि (धैवत) धा निध पधा धाम धा मा गा मा पा पा- -इत्यालापः । ७४ (धैवतषड्ज) सा गारि (ऋषभ) मनिध पप धपनि ( धैवत) धा धप धनी पधम परि गरि निधाधा पा मागा मा पा (पञ्चम) (ऋषभ) रि मध मम मधा पा ( धैवत) धप पनी धनी ( षड्ज) समा रीरी निधा ( धैवत) धध मध मधा ममा गामा मा मगनी धा (पञ्चम) नी धा पां मागा मां पा पा - इति वर्तनी । १. धा मा धप धा वि म ल श धा सा नी धा रि धा धप धा म म र ग ण न ४. नी धा पध धनि धा धा म भ व भ यं री मा धा मा नी गां वं दे त्रिलो २. ३. ५. धा धनि धप मा शि खं ड पा निध मां मा ण धा मा री मा धप मा मि त धा धा मां नीं क पौरवी मध्यमग्रामे षष्ठी मूर्छना । क्वचित्काकलीयुक्तः । कचिच्छुद्धेन निषादेन युक्तः ॥ ८२-८५ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ री मा द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ६. धा पनि धा धा धा मा ना थं गं गा ७. धा पम गरि मां धप धा स रिस लि ल ८.. नी धा धप धनि धा मा धप मा। पा पा इत्याक्षिप्तिका। इति मिन्नपश्चमः । वराटी धांशा षड्जग्रहन्यासा ममन्द्रा तारधैवता ॥ ८॥ समेतरस्वरा गेया शृङ्गारे शाङ्गिसंमता । इति वराटी। पञ्चमषाडवः मध्यमग्रामसंबन्धो धैवत्यार्षभिकोद्भवः ॥ ८६ ॥ रिन्यासांशग्रहः कापि मान्तः पञ्चमषाडवः । विलसत्काकलीकोऽपि कलोपनतयान्वितः॥ ८७॥ (सं०) वराटी लक्षयति-वराटीति । धैवतोऽशो यस्यां सा | मध्यमो मन्द्रो यस्यां सा ममन्द्रा। मध्यमधैवताभ्यामितरे स्वरा: समा यस्यां सा तथा ॥ ८५-८६ ॥ (क०) गुर्जरीजनकस्य पञ्चमषाडवस्य लक्षणे 'रिन्यासांशग्रहः कापि मान्तः' इति । अयमर्थः--ऋषभस्य ग्रहांशत्वे तस्यैव न्यासत्वं कापीति । तत्र प्रयोगवशान्मध्यमांशो भवति । तदा मान्तो मध्यमन्यासः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ संगीतरत्नाकरः [ प्रकरणम् प्रसन्नाद्यन्तकलितारोहिवर्णः शिवप्रियः । वीररौद्राद्भुतरसो नारीहास्ये नियुज्यते ॥ ८८ ॥ रीरीरिगारि सानी रीरीरीरि निरिरिरि मगामाम धामाम मामामामम मरि मग पप गम मगामम गममप पग मम गा गरिरि गरि मम रि गमम सधं निध सनि धसनिधाध (पञ्चम) निपां पनि सनी रीरीं रिनीरीम गामाम धामम माम गा गम गम गए पग मम नींनि धाधपापमाम गागरीरीरिम सरिग सगसंघ निनिध सनिध धनिधाध (पञ्चम) निपापरीरी रिग मां पां धनीरी रीरिनीरि ममामाम गरि सगा मागरीरि मगा मामा - इत्यालापः । मामाम मगारि (ऋषभ) रिमापानीनी निमम धामपा गामागा मरीरी गारी मगारिगा (षड्ज) सनिधा (पञ्चम) पंनी (पश्चम) मधा ममा (ऋषभ) री मापानी पासानी मारि (ऋषभ ) रि (षड्ज) सनी सरि रिगाग सामगागरीरी - इति करणम् । कर्तव्य इति । तथाह मतङ्ग:- "6 'प्रयोक्तृवशात् क्वचिन्मध्यमोंऽशोऽपि न्यासश्च" इति । विलसत्काकलीकोऽपीति । उक्तलक्षणवशात् त्रिस्थानव्याप्तिमतोऽस्य मन्द्रमध्यमस्वरयोर्निषादयोः काकलीत्वे सति तारनिषादोऽपि प्रयोक्तव्य इत्यपिशब्देन द्योत्यते ॥ ८६-८८ ॥ (सं०) पञ्चमषाडवं लक्षयति- मध्यमग्रामेति । ऋषभ एव न्यासः अंशो ग्रहश्च । क्वचिन्मध्यमन्यासः । कलोपनता मध्यमग्रामे तृतीया मूर्छना ॥ ८६-८८॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गगविवेकाध्यायः री गा मा मा गा री री री स क ल सु र न मि त मा गा री मा गा + + द्व य ४. धा मा धा नी FFE+5+ 2. A24A20 में री ण री म गा म + यामि द या ७. मा नी मा मा नी मा मा री म सु र सु र ज यि ८. मा गा मा मा री री री री न म जे यं इत्याक्षिप्तिका। इति पञ्चमपाडवः। गुर्जरी तज्जा गुर्जरिका मान्ता रिग्रहांशा ममध्यभाक् । रितारा रिधभूयिष्ठा शृङ्गारे ताडिता मता ॥ ८९ ।। इति गुर्जरी। (सं०) गुर्जरी लक्षयति-तज्जेति । मध्यमोऽन्तो न्यासो यस्याम् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ संगीतरत्नाकरः - [प्रकरणम् टक्कः षड्जमध्यमया सृष्टो धैवत्या चाल्पपञ्चमः । टकः सांशग्रहन्यासः काकल्यन्तरराजितः ॥९॥ प्रसन्नान्तान्वितश्वारुसंचारी चाद्यमूछेनः। मुदे रुद्रस्य वर्षासु प्रहरेऽहश्व पश्चिमे ॥ ९१ ॥ वीररौद्राद्भुतरसे युद्धवीरे नियुज्यते । साधा मारी मागा गस गध निसारी गसारी गम मास निध मध मरीरी रिमागागसा सासग मधनिधासाधामरि गसा गधनि सा । सा सा ससंगसासससमरिगसाससगधाधध गसा सस धध निधाधम धर्मनिमरिगरिरिरि निधममधमरी गरीमरिगसा ससग सासरिंगधाधनि निसासा संसंसंगससममगधममनिधधसासधाधमामधा मरिगसा गधनि स । मामामधामामधानिधानि मामधा धनिधमगामरिग साधधनिसासासासाससधा गममनि गगमध मरीरिमगागसा। सासाससगससमगमसगमगनि धासा । सासा(षड्ज)सससरि धमगगसनिधाऋषभग्रहांशा | मध्यस्थानस्थमध्यमस्वरा। तारर्षभा। ऋषभधैवतबहुला । ताडिता ताडितस्वरा । स्वराणां ताडितत्वं कम्पनादि वाद्याध्याये वक्ष्यते ॥ ८९ ॥ (क०) टक्करागलक्षणे-युद्धवीरे नियुज्यत इति । दानवीरो दयावीरो युद्धवीरश्चेति वीररसस्त्रिविधो वक्ष्यते ॥ ९०-९२ ॥ (सं०) टक्करागं लक्षयति-षड्जमध्यमयेति । आद्योत्तरमन्द्रा मूर्छना यस्मिन् ॥ ९०-९२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः धमा मामा धमधमंमं मममधमधमाधनि सरिगमगमगरिमगागसागगंनिसाममगमगमम गगममगग निनिमम गगमम ससममगगगमस सममरिरि गससगगससधधनिनि मममधधधधधधध निधनिधमधधधधध मधधसध निधामधधमधधधधधधमसगसधनिधा। मममममममध सगारि मागागमग धनी सासा-इत्यालापः। (षड्ज) सधा मारिगरिनिधाम मधमारिगसासगधाध(षड्ज)सधाधासांध गरि गरीरीरीनिरिमा। माममधनिधा ममध धससधधगरिमासगसनि मनिमाधासाधानी सासामासनिधनिधानी सागाधनी सामा साधा मागांरीरी(ऋषभ)रिगामा निधानी सां सां सं गं मधधनिगा धासासासमरिगसगसनिधा नीधाधाध सा सासा सासा मगामगागनिगपमागा । सामामामा धामरि गसांसगसागनी गासा मामा गानी(षड्ज)सं सां सा सा गा गा गामा सां सां । सगासासा गामगा ममगममामा। गासागारि मारि मारि मारि गसागनि(षड्ज)ससा-इति करणम् । १. सा सा धा धा मा मा मा मा २. सा सनि धा णा र्चि त ३. सा सा गा सा सा च गा सा सा सा सा र णं मा गा मा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् सा निध सा सा सा सा सा सि त मु कु टं ५. धा नी सा गा मा धा मा गा श शि श क ल कि र ण धा नी सनि धा धा धा +ERE प ७. सा सा पा नी मा गा मा गा प्र ण म त प शु ८. गा गा धा नी सा सा सा सा म ज म म रं -इत्याक्षिप्तिका। इति टक्कः। गौडः गौडस्तदङ्गं निन्यासग्रहांशः पञ्चमोज्झितः ॥ ९२॥ इति गौडः। कोलाहलः टक्काङ्गं टक्कवत्तारैः स्वरैः कोलाहलोऽखिलैः । इति कोलाहलः । (सं०) गौढं लक्षयति- गौड इति । निषाद एव न्यासो ग्रहोंऽशश्च यस्य । पञ्चमहीनः; षाडव इत्यर्थः । कोलाहलं लक्षयति-टकाङ्गमिति । टक्कलक्षणसंयुक्ताः, परं तु सर्वे स्वरास्ताराः ॥ ९२-९३ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः हिन्दोलः धैवत्यार्षभिकावर्जखरनामकजातिजः ॥ १३ ॥ हिन्दोलको रिधत्यक्तः षड्जन्यासग्रहांशकः। आरोहिणि प्रसन्नाद्ये शुद्धमध्याख्यमूर्छनः ॥ ९४ ॥ काकलीकलितो गेयो वीरे रौद्रेऽद्भते रसे । वसन्ते प्रहरे तुर्ये मकरध्वजवल्लभः ॥ १५ ॥ संभोगे विनियोक्तव्यो वसन्तस्तत्समुद्भवः । सानीपापमागागपापसागनी सासासासा गामापापनीनीनी गागपपापनीसा। सनीमागागपापनीसनीसनीगसा। पन्नींसामपनी सगासासामां मगगससनि गसासनीसनी पपसममामगसनिसासंगाममा पापनीसा मनीमगामपापनीसनी सनि गसा पनि सागानी सा गासासमं गमा गसा सनिसनि निपापमगामा । ससगगममपपनिनि सनिमगा गपापनिसा । गासगसनीसनी सागा मम गम मग मगमप मगापाप सगासामा मगम मनीपा पापममगागसगपापनी निसनि सस । नीपा मागागमा पापनी सा। सनि मगा गपापनी सागासमसनीसनी स। नि ससनी सा। सा सासागसासनी साससगमसगपमा गपापस गगमगनी पापमम गा। गससमगगपा । ममनीप पसनिनिमगापापनी सागासग (सं०) हिन्दोलं लक्षयति-धैवतीति । स्वरनामिका जातयः पञ्च शुद्धाः, षड्जकैशिक्यादयश्च विकृताः ; ताभ्यो जातः । ऋषभधैवतहीनः । शुद्धमध्या मध्यमग्रामे चतुर्थी मूर्छना ॥९३-९६ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् सनी सनी सा(षड्ज)ससा। पापानी सासापपनी पनिपापनी सासापपनि पनी पनि सगासम मगसगसनीसनी पनी मगमगासासनी। पनी पमगम गमा गस गसानिसनीपनी पमगमगामा। मगमग सागासस निनि पपमम गमपनीनिपम । गाममपनीनि पमगाममपनी ससनिमगाससगासगामपनीपापनी मगागपनी सनीसनीगसानी सापनीमपागममगागसससनि सा(षड्ज)सससगसस । मगामगम मगनी पापापस निनिगसा। ससमा(गान्धार)पा(पञ्चम)पपनिनि गागस गसनी सनीसा(षड्ज)ससगससमगमा सस गा। निनि सपानी ममापगमा सससगगससगसगम पापासनि मगागपापनी सागासगासनिसनीसा(पञ्चम) पपनि पनि पापनि ससनि ससपापनीपगनीगगपापनी मममं । गगगनिनिनि पपपनिनिनि सस । पागगम ससगसगसगमपनिपस निमगागापापन्निं सासाससमगसगसनीनी सा-इत्यालापः । सगापमगापा (पञ्चम)(षड्ज) समागसागनीनिपानि पपगगपमगगांगांगां(षड्ज) ससगागम पाधमम(पञ्चम)पानिनि सनिसां सं । निनिनि सासासनिसासानिगपानी। सांसांसांससनि ससं निमगगगस ससनिसगमनिसनि निपनीनिपानीपपगगपगममां गांग(षड्ज)ससंसंसंमपम । पानिसनिमा। मामा(पश्चम)निसनिनि सनि ससा । सस निससनी सासापनी । पनि पापपनि सनि सससस पपपपनी । नीमम निपनिप पगसग गमगामास सनिमम गम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो गगविवेकाध्यायः गापप गमगानीगांगां(षड्ज)ससमग मगागमगागमगा. गमससग सनिसनीपागपागमांमाससगगपापस(षड्ज)ससगंगं ममपपनिनि सनीससगगसगसनिसासा-इति करणम् । १. सा सा मा गा सा गा मा पा स मु प न त स क ल २. पम गा सा सा सा गा मा मा ३. नी सा A पा नी पा नी गा पा सां सा सनि गा सप नी FF - E F GEEFP नी सा गा सा E F ths. Fr ___44444 सा सा - गा मा नी सा पा नी पा नी गा पा ग विना श नं ८. निस निस सा गा सा सा सा सा नौ मि . -इत्याक्षिप्तिका। इति हिन्दोलः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. ४ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् वसन्तः पूर्णस्तल्लक्षणो देशीहिन्दोलोऽप्येष कथ्यते ।। ९६ ॥ इति वसन्तः। शुद्धकैशिकमध्यमः षड्जमध्यमया सृष्टः कैशिक्या च रिपोज्झितः । तारसांशग्रहो मान्तः शुद्धकैशिकमध्यमः ॥ ९७ ।। प्रसन्नान्तावरोहिभ्यामाद्यमूर्छनया युतः। गान्धाराल्पः काकलीयुग्वीरे रौद्रेऽद्भुते रसे ।। ९८ ॥ चन्द्रप्रियः पूर्वयामे संधौ निर्वहणे भवेत् । सां धांमां धां सनि धसनी सां सां । सा धानी मां मां सां गां सां गां माधा माधा सां निध सनि सां सां धांमां मधमगागमा सासाधामासगासागामाधास निधसांनी सां सासाधानी मा मां-इत्यालापः। ससममधधममधसनिधसासांसांसां। संसंगम गर्म मधमसानिधसां सां सां सां धंधं मंमं धम सगसगमस गग धध सस गंसं मम धमध सधनि मामा मामा-इति करणम् । १. सां सां धा पा मा धां पां मां ओंकार मूर्ति (म०) वसन्तं लक्षयति–वसन्त इति । पूर्णः सप्तस्वरः । एतावता कारणभूतात् पूर्णहिन्दोलकाद्भेदः ॥ ९६ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः पा मा पा री री मा मा मात्रा . FE + .. + * 5 .. v. 2 + .. . . Ftr Fry नी धा मा नी धा नी 4. 1. A ८. धां सा धां नी मां मां मां मां वंदे -इत्याक्षिप्तिका। ___ इति शुद्धकैशिकमध्यमः। धन्नासी तज्जा धन्नासिका षड्जग्रहांशन्यासमध्यमा ॥१९॥ रिवर्जिता गपाल्पा च वीरे धीरैः प्रयुज्यते । इति धन्नासी। (सं०) शुद्धकैशिकमध्यमं लक्षयति--षड्जमध्यमयेति । ऋषभपञ्चमोज्झितः । तारषड्ज एवांशो ग्रहश्च यस्य । मध्यमन्यास: । धनासी लक्षयतितज्जेति । गान्धारपञ्चमाल्पा ॥ ९७-१०० ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् रेवगुप्तः षड्जग्रामे रेवगुप्तो मध्यमार्षभिकोद्भवः ॥ १० ॥ रिग्रहांशो मध्यमान्तः प्रसन्नाद्यन्तभूषितः। बुधैरुद्भटचारीकमण्डलाजो नियुज्यते ॥ १०१ ॥ वीररौद्राद्भुतरसः पार्वतीपतिवल्लभः। रीसंनीरिसं मगा मामा गा मा माम ग मम ग पप ग ममगा गरी। रिगा ममगाधरी रि निनिधाध(पञ्चम)पपनि पनि म ममनि पापपसनि निनिरीरी रि सनी निरिम(गान्धार)रिरिनि । निनिरिनिरिरिमगामधा मामा (मध्यम) गमधम मगागरिरि गाममगा गरि रि गाममगागरि रि निनि धनी सारी मगामा-इत्यालापः । रि (ऋषभ) रि निधा (पञ्चम) निध धा (मध्यम) मपरी (ऋषभ) री धापा (पञ्चम) नी नी सा नी री सानि रि (ऋषभ) री री गसनिधनि (पञ्चम) धनि मा (मध्यम) म (पञ्चम) पपप सनी नि निगरि रिग रिग सारिरि सानी नी (गान्धार) रि गा गारी सानी नि रि पगमामा रिरि मगरी समगरि सनि (ऋषभ) रि री रिमा (मध्यम) गं मन्नीं पा (पश्चम) नी नी री री गामा मम मध मगग म रीरी नी नी गप (षड्ज) स (पश्चम) माप मध धस मासमरि पाप मग नीरी रि गसनी निनि मरिरि गम गरी रि मसानी पमम मग मरी री। रिरि नि निगम मरिमग गरिरि मा माध निधा । धम धनि पा पाम पा। पसनी नि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः सनी नि गरि रि गरि नी रिरि स नि नि रि गा रि गरी रिरि गारि सनी निरी मारि सनी नि रि नि निध पम मप गरी मम गमा निरि गमगारी मानी निम गामामा-इति करणम् । (ऋषभ) रि गमा (मध्यम) गारी नि पापनि पापनि पापमा सा नि पाप निरी रि गा पां। पनि स नि रि ग नि रि री री रि रि नि मागां री री री रि रि मापां धामा गांरी री री ममा मारिग निधधनि पाप निगा रि। ग निधसधनि पधमप म मरीरी गमपनि पधसनि रि धधा म पगरि मग पा मा सां मां गां मं मं पां सां मां गां पं मां। मम पम । ध पाध धपमरी री नीरीगामरिगम रिंगमां मां (मध्यम) गा धारी री स स रि रि मानी नि नि स सरि रि नि नि नि स सग गनी नि नि स स रि सनी नि ससस रि धरि नि पगम मरि ग सरि नि सनि धप धनि सनि मधा गरि म गरि मा मारी स नी रि मधामामा-इति द्वितीयकरणम् । रीरी (षड्ज) सरीरी मम मागामप । ग ममाम मग मनी गम गप गम मगरी गरी रि ग (मध्यम) म (गान्धार) ग (ऋषभ) री निध धनि (पञ्चम) मपमधनि (मध्यम) ममनि धनि पा पसनि नि स नी नि रि रि सनी। नि रि सा सनी नि नि नि रिरि नि नि रिरि रि रिरिरि मम (मध्यम) (गान्धार) गमगाग (मध्यम) ग Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् गग मम रि धम मध मग गरीरी । रि रि गगग म गरि मगग रि रि नि नि धधनि नि ससरि रि ग ग मगमगगमां मां मां-इति तृतीयकरणम् । १. नी धा पा पा नी नी नी नी ग रु अ णि अं ब म सारी री री री री + णो ह क + + + + + + री री मा + + + * ཐ ཙ ལ རྩ ॐ + 44 में री सा सा नी ओह रि आ मां मां गां गां पा ___ण वि ळा पा मा गा री गा री क्ख उ अ सा नी सारी री म हि स वि गा री गा मग मा मा मा मा आ र णि आ -इत्याक्षिप्तिका। इति रेवगुप्तः। + सा री नी Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः देशी तज्जा देशी रिग्रहांशन्यासा पश्चमवर्जिता ॥१०२॥ गान्धारमन्द्रा करुणे गेया मनिसभूयसी। इति देशी। गान्धारपश्चमः गान्धारीरक्तगान्धारीजन्यो गान्धारपश्चमः ॥१०॥ गान्धारांशग्रहन्यासो हारिणाश्वाख्यमूछनः। प्रसन्नमध्यालंकारः संचारिणि सकाकलिः ॥१०४॥ राहुप्रियोऽद्भुते हास्ये विस्मये करुणे भवेत् । गा सा सा नि सनि स गम गा गा। पामा गा सा सा नि सनि स समम गा गानी धानी सा नीधा पानी मा पा मा । गा स नि स नि सग मगा-इत्यालापः। गममग निगमापपपनिममपामप पा पानी नि मधा मम धम ममा गा गा गम मम गामा (षड्ज) सनि सस ग ग मग मम मगागा री गा नी स सनी पानी नी मप मा गम पा पग मम गं निधनि सम पपप मम । गा स गनि मसा सा सा गम धप धम ममा धा नी पनी नि म मप नि मगा (षड्ज) स नि सा सां सम गपगम-इति करणम् । __(सं०) रेवगुप्तं लक्षयति-षड्जग्राम इति । देशी लक्षयति-तज्जेति। गान्धारो मन्द्रो यस्याम् । मध्यमनिषादषड्जबहुला ॥ १००-१०३ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् अथ वा-गागारीरी सनी सपनीसगागा (पञ्चम) सगा मामग पाधानि धानि पमनि धनि स पनि निध निधपापमगागा मसास साम गमधगम गा गागरी सनिपनि सगापमपसगागा-इत्यालापः। मगरिरि ससनि निससगागाग ममगगममस गसगा गममगमनि धधधनि मध ममापपधनि नीधा (पञ्चम) पा ममपा मम निधसाम ममपा मपपममा मा सां सस ससगागा-इति करणम् । १. सा नी सा गा सा गा गा गा पिं ग ल ज टा क २. मा पा मा ला पेनि ५ तं गा गा गा गनि ज य पा मा पम गा गा गा गा स त तं गा गा गनि नी नी नी निस पू र्णा हु ति रि व नी पा मा पम गा गा गा गा हु त भु जि सु स मि घि गा गा मा गनि प य सः क प दि FE FIE + + F & a cow + ལ ཤྩ ཆ ༔ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ८. नी पा मा पम गा गा गा गा नो प(घ) नु दे -इत्याक्षिप्तिका। इति गान्धारपञ्चमः । इति रागाङ्गानि । देशाख्या तज्जा स्फुरितगान्धारा देशाख्या वर्जितर्षभा॥१०॥ ग्रहांशन्यासगान्धारा निमन्द्रा च समखरा । इति देशाख्या। त्रवणा त्रवणा भिन्नषड्जस्य भाषा धनिसभूयसी ॥१०६॥ धनिसैर्वलिता धांशग्रहन्यासा रिपोज्झिता। गमद्विगुणिता मन्द्र धैवता विजये मता ।। १०७ ॥ (सं.) गान्धारपञ्चमं लक्षयति-गान्धारीति । हारिणाश्वा मध्यमग्रामे द्वितीया मूर्छना । देशाख्यां लक्षयति-तज्जेति । स्फुरितो गान्धारो यस्याम् । वर्जित ऋषभो यस्याम् । मन्द्रनिषादा ॥ १०३-१०६ ॥ ___ (क०) भिन्नषड्जभाषायास्त्रवणाया लक्षणे--धनिसैर्वलितेति । वलितमिह वक्ष्यमाणलक्षणो गमकभेदः । तद्युक्तैर्धनिसैः प्रयुक्तेत्यर्थः । गमद्विगुणितेति । गमयोरत्र मध्यमापेक्षया द्विगुणत्वं विवक्षितं, मन्द्रापेक्षया मध्यस्थयोस्तयोः तारावधिप्रदर्शनार्थम् । ननूक्तसिद्धत्वादन गमयोर्बहुत्वविधानार्थमिति चेत् ; न; धनिसभूयसीति तदितरेषामेव पृथग्बहुत्वविधानात् । अतस्तारगान्धारमध्यमवतीत्यर्थः । “वाहिताम्यादिषु" इति परनिपातः । नन्वत्र तारावधित्वेनैकस्मिन्नेव स्वरे वक्तव्ये किं गमद्विगुणितेति स्वरद्वयग्रहणमिति चेत् ; सत्यम् ; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् धाधाधामानी सा नी सासनी सा सासनी धाध साससनि सासनि धानी नि धानी सासा सनि सनी निधाधा मां गा गं सां स । सनिधाध मां गां मां मां नी धामां मगाग सा स सनि धानी धानी निध निध गागमां ससनी नीनिधानीनिधानि धानि सनि । धाधधमाधाधा -इत्यालापः। धनिधगगांग सानीनी निनिसनिसनिधनी निधा धा। समनी निध निधा धा धसगमा मगमगा सासा । निनिनि गसनि धनि निधा धा। गाधनि सनि धनिधग सगसनि धनि मम धनिधा-इति रूपकम् ॥ इति त्रवणा। डोम्बकृतिः तजा डोम्बकृतिः सांशा धान्ता दैन्ये रिपोज्झिता। ___ इति डोम्बकृतिः। ककुभः मध्यमापञ्चमीधैवत्युद्भवः ककुभो भवेत् ॥ १०८ ॥ धांशग्रहः पञ्चमान्तो धैवतादिकमूर्छनः। प्रसन्नमध्यारोहिभ्यां करुणे यमदैवतः ॥ १०९ ॥ धांशग्रहन्यासेति त्रवणाया धैवतग्रहत्वात् तदारम्भवशेन यो मध्यमः स एवात्र तारावधिः । गान्धारग्रहणं तु तारस्थितेतरस्वरापेक्षया तस्य प्रयोगबहुत्वप्रदर्शनार्थम् । गमेति समभिव्याहारेण मध्यमस्य बहुत्वमपीत्यवगन्तव्यम् ॥ १०६, १०७॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः धमां मं मगारी रिरि ससनि निधा गामापापगामा धा धगामाममनी सनि निधानिधनि निगा धागधागा रिसासनि मगाग रिरिसासनिनि । धधधपाधपाइत्यालापः। धा(धैवत)नीधा(पञ्चम)गामा(ऋषभ)रिरि रि गारि(षड्ज)सधनी नी (धैवत)धाधाधानीरी रिसानि रिसनि सनि सधा नीनी(धैवत)धा। धा धनी रिरिसा निरिसानिधानी ममगमगारी रिसानी रिसानी धानिपपमगपमधाधा । नी निसनि निधध(षड्ज)सगधरिग(मध्यम)मनीनि मानि निधध(पञ्चम)मपनि मगागरी ममपमगमधाधा। गाधाम गमरिमागा(ऋषभ)रिमाग(षड्ज)सा। धानी नि(धैवत)धा। धामाध सरिगमगपगमनिधानी पधापनि पधमगरि ममपगरि गां मां रि(ऋषभ)रिमाग (षड्ज)स । धानी म(धैवत)धा माधसरि गमगपगमनि निधानिप धापनीप धमगरिममपगरिगामांमा(ऋषभ)सधनिम(धैवत)गा पमपमा(षड्ज)सधनि धनि सनिधाधपा-इति करणम् । __(सं०) त्रवणां लक्षयति-त्रवणेति । धैवतनिषादषड्जबहुला । तैरेव वलितैर्युता । धैवतग्रहांशन्यासा । ऋषभपञ्चमहीना । गान्धारमध्यमद्वैगुण्ययुता । डोम्बकृतिं लक्षयति-तज्जेति । षड्जोंऽशो यस्याम् । धैवतन्यासा । ऋषभपञ्चमहीना ॥ १०६-१०८ ॥ ___ (सं०) ककुभं लक्षयति-मध्यमेति । धैवतांशग्रहः । पञ्चमन्यासः ॥१०८, १०९ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् अथ वा-धाधाधसं ससससधाध साध साधससधारीरी ममरिग सासंधाधाध पधसधपधधममामा । मरि मारि मां माधा धाधाधाधपधनिध पधामां मधापाधा सारी मरी सं गं सां गं गांध पधपमपापा-इत्यालापः । धधसासमधधधसरीगा सांधा पाधापापा मामापा मापाधा पामां मां। सरि मरि ममाधप धापप मां मां पध सरि मरि गासां धामा पारीमा पां पां-इति करणम् । १. धा धा सा सा धा धा री री यत्र २. धा धा धा धा पा धा पा मा नि व स ति री री मा ' मा पा धा पामा मा प रि रक्ष क्ष णं स धा पा मा मा मा मामा तिक रो 역의 + धा धा पा मा व स सि च पा मा सि च पा धा ध सारी स त तं नृ शं गा सा पा पा पा पा पा सि -इत्याक्षिप्तिका। इति ककुभः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः गन्ती गेयः शरदि तज्जाता भवेद्भाषा रगन्तिका । धन्यासांशग्रहा भूरिधैवतैः स्फुरितैर्युता ॥ ११० ॥ अतारमध्यमा पापन्यासा श्रीशाङ्गिणोदिता । इति रगन्ती । सावरी तद्भवा सावरी धान्ता गतारा मन्द्रमध्यमा ॥ १११ ॥ मग्रहांशा स्वल्पषड्जा करुणे पञ्चमोज्झिता । इति सावरी । भोगवर्धनी विभाषा ककुभे भोगवर्धनी तारमन्द्रगा ॥ ११२ ॥ धैवतांशग्रहन्यासा गापन्यासा रिवर्जिता । धनिभ्यां गमपैर्भूरिर्वैराग्ये विनियुज्यते ॥ ११३ ॥ ९५ धाधाधाध गामापा पप मम पापापम मा गा मानी धासनी गासनी । धा पामागामानीधा पामा धाधप मध पममधा धाधगापामागा मापापापपगा मपगमनी धासनी गासनी धापमा गामानीधाधा । धपमधपमधाधा इत्यालापः । (सं०) रगतिकां लक्षयति - तज्जातेति । धैवतन्यासांशग्रहा । बहुभिः स्फुरितैधैवतैर्युक्ता । एतस्यां तारो मध्यमो नास्ति । पञ्चमापन्यासा । 1 सावरीं लक्षयति- तद्भवेति । धैवतन्यासा । तारगान्धारा । मध्यम ग्रहांशा ॥ ११० - ११२ ॥ 1 सावेरीं Bik. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् गामधापामगा मगममध धनि निनि(षड्ज)सधध धनि पपपगगा मधा पा मधापा मधनि धाधानी साधधनि धमपप ममधगागा । मगमममधनि निनि(षड्ज)सधधनी निनि धमपपपगगामधा पामधापम धनिधा-इति रूपकम् । इति भोगवर्धनी। वेलावली तजा वेलावली तारधा गमन्द्रा समस्वरा । धाद्यन्तांशा कम्प्रषड्जा विप्रलम्भे हरिप्रिया । इति वेलावली। प्रथममञ्जरी पश्चमांशग्रहन्यासा धरितारा गमोत्कटा। गमन्द्रा चोत्सवे गेया तज्ज्ञैः प्रथममञ्जरी ॥११५॥ इति प्रथममञ्जरी। बाङ्गाली धन्यासांशग्रहा भाषा बागाली भिन्नषड्जजा। (सं.) भोगवर्धनी लक्षयति-विभाषेति । तारो मन्द्रश्च गान्धारो यस्याम् ; मध्यगान्धारशून्येत्यर्थः । गान्धारापन्यासा । धैवतनिषादगान्धारमध्यमपञ्चमबहुला । वेलावली लक्षयति-तज्जेति । तारधैवता । मन्द्रगान्धारा । धैवतग्रहन्यासांशा ॥ ११२-११४ ॥ (क०) प्रथममञ्जर्या लक्षणे-धरितारेति । धरी तारे यस्याः सा तथोक्ता । अत्र ग्रहत्वेनारब्धपञ्चमवशात् तारधैवतस्योक्तरीत्या बहुत्वमेव । तारऋषभस्य तु बहुत्वमवधित्वं चेत्यर्थः । एवमन्यत्राप्यूह्यम् ॥ ११५ ॥ (सं०) प्रथममञ्जरी लक्षयति-पञ्चमांशेति । तारऋषभधैवता । गान्धार Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ९७ गापन्यासा दीर्घरिमा धमन्द्रोद्दीपने भवेत् ॥ ११६॥ धा गा गा धध निगां ध गांगागमसा मा मा मात्र मा धामागा मागा स स री गा मा पम गरि सनी री मरी गासनी सा सा । ध स धा नी नी धाध मा धा धा धधनी मा धा नी गा । गा गागममा सस मा सा सा सा पमा धा माम गा गा स स री गा माप म गरी सनी रि गारी सनी सा सा । स धानी नीधा धा धमा धा धाइत्यालापः । २] धम गमम ध धधा मा मा गामा (षड्ज) सस धा धा धानि सनी साममध मधा । धा धा धनी नी गा धमास स री री गगम मपप ममपपरी री स स री री गग री री (षड्ज) ससनी नी सनि सासाधमगम धगम सनी धा धा धा नी सानी साम मध मधा धा- - इति रूपकम् । इति बाङ्गाली । आडकामोदिका आडिकामोदिका तज्जा ग्रहांशन्यासधैवता | ममन्द्रा तारगान्धारा गुर्वाज्ञायां समखरा ॥ ११७ ॥ इत्याsकामोदिका । गरी कभाषा वेगरञ्जी निमन्द्रा धपवर्जिता । मध्यमबहुला । बाङ्गार्ली लक्षयति - धन्यासेति । गान्धारापन्यासा । दीर्घऋषभमध्यमा ॥ ११५-११६ ॥ (सं०) आडिकामोदिकां लक्षयति- आडिकामोदिकेति । वेगरञ्ज 13 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् सांशग्रहान्ता माने स्यानिषड्जरिगमैहुः ॥११८।। सा सा सनी सा रिगा नीगगम स नी गा सगसा सनी सारी नी सारी नी सारी सनी सासा मामागागा गारी सनि सानी सारी सारी सारी सारी सनी सनी समागारी सनी नी सरि गानी गागमासनी सासाइत्यालापः। मममगगरी री स सनी नी सनी(षड्ज)सनी सरी गरि गगगनी सगरि मासामागा गारीरी सा रि गरी सनी नी नी नी नी(षड्ज)सस(ऋषभ)रि गमरि स रिगम मरी गसमरी गरी नी सा ममरी गा सा सा-इति रूपकम् । इति वेगरञ्जी भाषा। नागध्वनिः नागध्वनि तदुद्भूतं षड्जन्यासग्रहांशकम् । धपत्यक्तं रसे वीरे शाङ्गिदेवः समादिशत् ।। ११९ ।। इति नागध्वनिः। सौवीरः षड्जमध्यमया सृष्टः सौवीरः काकलीयुतः। गाल्पः षड्जग्रहन्यासांशकः षड्जादिमूर्छनः॥ लक्षयति–टक्कभाषेति । मन्द्रनिषादा । धैवतपञ्चमवर्जिता । षड्जग्रहांशन्यासा । निषादषड्जऋषभगान्धारमध्यमबहुला । नागध्वनि लक्षयति-नागध्वनिमिति । धैवतपञ्चमत्यक्तम् ॥ ११६-११९ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः प्रसन्नाद्यवरोहिभ्यां संयतानां तपस्विनाम् । गृहिणां च प्रवेशादौ रसे शान्ते शिवप्रियः ॥१२१॥ प्रयोज्यः पश्चिमे यामे वीरे रौद्रेऽद्भुते रसे । सां सपा पधानी धापा पधा सा सपाप धा सा सपापधा ध गारि मा गा रि सनि स पा धा सनि सां। मां मां मगारी रि मा म पा प ध निधा पापधा सांस पापधा धगा रि मा गा री सनिधा धपा सा सनी सां सां। मम समम(षड्ज)ससं सांग संग गरी ग सा सं सं स ध ध नि निध सनि धनि धा ध प । पपपधध ध स नि सां सां सं सं सं सम(षड्ज)ससं ससं ग सस मरि रिग सस गध धनि ध ध ग सं सं सं धनि ध सनि धनि धध (पश्चम)पापप रि पपनि ध ध स सा सस धम रि रि धम रिरि धस सप । धध नि ग धध सस धध नि ध स नि धनि धधपा । पापपप(गान्धार)गा गग मरि स ग सनिध सस । पपधध सनिसा। स सं स प पप नि नि नि (षड्ज) स स स रि रि रिरि परि पा धध स निसा। सध म रि रि धम मा रि रि ग सस ग धध नि धध गस सस धध निध सनि धनि ध धप धध रि नि धधध गरि मग रिस निध स निध निध पपंध रि निध सध गरि मगरि मगरि सनि ध समापपधध सनिसा-इत्यालापः। (सं०) सौवीरं लक्षयति-षड्जमभ्यमयेति । अल्पगान्धारः। संयतानां नियमवताम् ॥ १२०-१२२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् (षड्ज)स(पञ्चम)नीधा धा धा नी(पश्चम)नीधा धा धनी(षड्ज)ससारी रि रि पपनि धाधा धधस स धनि ध पा। पप नि ध पं पं निं रि रिंग रि मरि सासा मम रि ग सा स सस स रि ग सा ससनि ध(पञ्चम)धा नि(षड्ज)स स । मम स सस स मस सां ससरि ग गसं ग सां ग सं गां सस गसनिधनिधाधध निपा। पगां धगां धगां गगगसमारी(षड्ज)सनिधापा पापाधापा धनिनि(षड्ज)समां मां गगारी(ऋषभरिरि मममधमम । मासांस (पञ्चम)धासाधनिनिपानीधपारीपपपपध धध सं सं सं धं धं धध ममम रि रि रि रि गरि गरि गस सधनि धसा धनिधधरि पपपप । पधधधध निनि(पञ्चम)पम धध धनि(षड्ज)ससां-इति करणम् । १. सां सां सां सां सां सां सां सां त रु ण त रु शि ख र २. नी नी धा धा पा पा पा मा कु सु म भ र न मि त नी धा सा धा नी धा पा पा मृ दु सु र भि प व न धा गा धा सा सा सां सां सां धु त वि ट पे ५. सां सां सां नी सा सा री गा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्याय: ६. सा गा धा धा नी धा पा पा नी धा सा धा नी धा पा पा भ्र म ति म द ल लि त गां गां धा सां सां सां सां सां ली ला ग तिः -इत्याक्षिप्तिका। इति सौवीरः। सौवीरी सौवीरी तद्भवा मूलभाषा बहुलमध्यमा ॥ १२२ ॥ षड्जाद्यन्तात्र संवादः सधयो रिधयोरपि । सा गा सा सा नी धा सा सा मा धानी धापा पाधा मा धा समधानि धानिरिगा रिमामा गारीसा सा माधानीधासासा। इति सौवीरी। वराटी तजा वराटिका सैव बटुकी धनिपाधिका ॥१२३ ॥ सन्यासांशग्रहा तारसधा शान्ते नियुज्यते । ___ इति वराटी। (सं०) सौवीरी लक्षयति-सौवीरीति । षड्जग्रहन्यासा । अत्र षड्जधैवतयोः संवादः । ऋषभधैवतयोश्च विकल्पेन पूर्वोक्तसंवादापवादः । वराटिकां लक्षयति-तज्जेति । सैव वराटिका बटुकीत्युच्यते । धैवतनिषादपञ्चमबहुला । षड्जन्यासांशाहा | तारषड्जधैवता ॥ १२२-१२४ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् पिञ्जरी हिन्दोले पिञ्जरी भाषा गांशा सान्ता निवर्जिता ॥ गागारि सा धारि सा सारी गां मां मामा रीरि साधासापामागापाधासारी गापामागारी सा सानि साधारीसासारीगासारी गागामामागारीसारी रि गरि रीस रिमां। पां धापासारि गामारि रीसा। इति पिञ्जरी। नट्टा तज्जा समस्वरा नहा तारगान्धारपञ्चमा। सन्यासांशग्रहा मन्द्रनिषादा तार धैवता ॥ १२५ ॥ इति नट्टा। कर्णाटबङ्गालः अङ्गं कर्णाटबङ्गालं वेगरञ्ज्याः पवर्जितम् । गांशं सान्तं च शृङ्गारे वक्ति श्रीकरणेश्वरः॥१२६॥ इति कर्णाटबङ्गालः । इति भापाङ्गाणि । रामकृतिः आपञ्चमं तारमन्द्रा षड्जन्यासांशकग्रहा । (सं.) पिञ्जरी लक्षयति-हिन्दोल इति । गान्धारांशा । षड्जन्यासा । निषादवर्जिता । नट्टां लक्षयति-तज्जोत । कर्णाटबङ्गालं लक्षयति-अङ्गमिति । पञ्चमवर्जितम् । गान्धारांशम् । षड्जन्यासम् ॥ १२४-१२६ ॥ (सं०) रामकृतिं लक्षयति-आपञ्चममिति । एतस्यां षड्जमारभ्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः रिषड्जाभ्यधिका धीरैरेषा रामकृतिर्मता ॥ १२७ ॥ इति रामकृतिः। गौडकृतिः षड्जांशग्रहणन्यासां मतारां मपभूयसीम् । रिधत्यक्ता पमन्द्रां च तज्ज्ञा गौडकृति जगुः ॥१२८॥ इति गौडकृतिः। देवकृतिः निमन्द्रा मध्यमव्याप्ता रिपत्यक्ता समस्वरा । सन्यासांशा धग्रहा च वीरे देवकृतिर्भवेत् ॥१२९॥ इति देवकृतिः । इति क्रियाङ्गाणि ।। कौन्तली वराटी स्युवराट्या उपाङ्गानि सन्यासांशग्रहाणि षट् । समन्द्रा कौन्तली तत्र निभूरिः कम्प्रधा रतौ ॥१३०॥ इति कौन्तली वराटी। पञ्चमस्वरपर्यन्तं पञ्च स्वरास्तारा मन्द्राश्च । मध्या न भवन्ति । ऋषभषड्जबहुला। गौडकृति लक्षयति-षड्जांशेति । तारमध्यमा । मध्यमपञ्चमबहुला। ऋषभधैवतत्यक्ता । देवकृति लक्षयति-निमन्द्रेति । मन्द्रनिषादा । मध्यमव्याप्ता मध्यमबहुला । ऋषभपञ्चमत्यक्ता ॥ १२७-१२९ ॥ (सं०) वराट्या उपाङ्गानि विभजते-स्युरिति । कौन्तली वराटी लक्षयति -समन्द्रेति । मन्द्रषड्जा । निषादबहुला । कम्पितधैवता । रतौ विनियोगः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् द्राविडी वराटी वराटी द्राविडी भूरिनिमन्द्रा स्फुरितर्षभा। इति द्राविडी वराटी। सैन्धवी वराटी वराटी सैन्धवी भूरिगान्धारा सधकम्पिता ॥१३१॥ शाहदेवेन गदिता शृङ्गारे मन्द्रमध्यमा। इति सैन्धवी वराटी। ___ अपस्थानवराटी मण्डिता मनिधैर्मन्द्ररपस्थानवराटिका ।। १३२ ॥ इत्यपस्थानवराटी। हतस्वरवराटी हतस्वरा धमन्द्रा कम्प्रपसा हतपश्चमा। इति हतस्वरवराटी। प्रतापवराटी स्यात् प्रतापवराटी तुधमन्द्रा कम्प्रसोरुपा ॥१३३ ॥ इति प्रतापवराटी । इति वराटथुपाङ्गानि । द्राविडीवराटी लक्षयति-वराटीति । भूरिनिमन्द्रा मन्द्रनिषादबहुला । फुरितर्षभा स्फुरितः ऋषभो यस्याम् । सैन्धवीवराटी लक्षयति-वराटीति । भूरिगान्धारा गान्धारबहुला । सधकम्पिता कम्पितषड्जधैवता। अपस्थानवराटी लक्षयति-मण्डितेति । मनिधैर्मध्यमनिषादधैवतैर्मन्नैर्मण्डिता। हतस्वरवराटी लक्षयति-हतस्वरेति । धमन्द्रा मन्द्रधैवता । कम्प्रपसा कम्पितपञ्चमषड्जा। प्रतापवरादी लक्षयति-स्यादिति । उरुपा पञ्चमबहुला ॥ १३०-१३३ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः १०५ छायातोडी रिपत्यक्ता तु तोडयेव छायातोडीति कीर्तिता। इति छायातोडी। तुरुष्कतोडी तोडयेव ताडिता गाल्पा तौरुष्की निधभूयसी ।। इति तुरुष्कतोडी । इति तोड्युपाङ्गे।। ___ महाराष्ट्रगुर्जरी पश्चमेनोज्झिता मन्द्रनिषादा ताडितोत्सवे । गीयतामृषभान्तांशा महाराष्ट्री तु गुर्जरी ॥ १३५॥ इति महाराष्ट्रगुर्जरी। सौराष्ट्रगुर्जरी गुर्जर्येव रिकम्पा स्यात् सौराष्ट्री गुर्जरी भवेत् । इति सौराष्ट्रगुर्जरी। दक्षिणगुर्जरी दक्षिणा गुर्जरी कम्प्रमध्यमा ताडितेतरा ।। १३६ ।। इति दक्षिणगुर्जरी। (सं.) छायातोडीं: लक्षयति-रिपत्यक्तेति । तोडयेव ऋषभपञ्चमत्यक्ता छायातोडी भवति । तुरुष्कतोडी लक्षयति-तोडयेवेति । ताडिता ताडितस्वरा । अल्पगान्धारा निषादधैवतबहुला ॥ १३४ ॥ (सं०) महाराष्ट्री गुर्जरी लक्षयति-पञ्चमेनेति । सौराष्ट्री गुर्जरी लक्षयति-गुर्जर्येवेति । गुर्जर्यामेव ऋषभः कम्पितश्चेत् तदा सौराष्ट्रगुर्जरीति | Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् द्राविडगुर्जरी रिमन्द्रतारा स्फुरिता हर्षे द्राविडगुर्जरी । इति द्राविडगुर्जरी । इति गुर्जर्युपाङ्गानि । भुच्छी मत्यक्तान्दोलितसपा धन्यासांशग्रहान्विता॥१३७॥ विप्रलम्भे भवेद्भुच्छीत्यवोचत् सोढलात्मजः। इति भुच्छी। खम्भाइतिः मध्यमेन निषादेनान्दोलिता त्यक्तपञ्चमा ॥ १३८ ॥ खम्भाइतिस्तदंशान्ता शृङ्गारे विनियुज्यते । इति खम्भाइतिः। छायावेलावली छायावेलावली वेलावलीवत् कम्प्रमन्द्रमा ॥ १३९॥ इति छायावेलावली। प्रतापवेलावली सैव प्रतापपूर्वा स्यादाहता रिपवर्जिता। इति प्रतापवेलावली । इति वेलावल्युपाङ्गानि । दक्षिणगुर्जरी लक्षयति-दक्षिणेति । ताडिता इतरे मध्यमादन्ये स्वरा यस्याम् ॥ १३५-१३६ ॥ (सं०) भुच्छी लक्षयति-मत्यक्तेति । मध्यमहीना । आन्दोलितषड्जपञ्चमा। धैवतन्यासांशग्रहा । खम्भाइतिं लक्षयति-मध्यमेनेति । मध्यमेन निषादेन आन्दोलितेन युक्ता । त्यक्तपञ्चमा पञ्चमहीना । तदंशान्ता निषादांश Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः भैरवी १०७ धांशन्यासग्रहा तारमन्द्रगान्धारशोभिता ॥ १४० ॥ भैरवी भैरवोपाङ्ग समशेषखरा भवेत् । इति भैरवी । सिंहलीकामोदा कामोदोपाङ्गमाख्याता कामोदा सिंहली बुधैः ॥ कामोदलक्षणोपेता ममन्द्रा कम्प्रधैवता । इति सिंहलीकामोदा | छायानट्टा छायानट्टा तु नहैव मन्द्रपञ्चमभूषिता ॥ १४२ ॥ नोपानं निषादेन गान्धारेण च कम्पिता । इति छायाना । कोलाहला कोलाहला टक्कभाषा सग्रहांशा पवर्जिता ॥ १४३ ॥ समन्द्रा मभूयिष्ठा कलहे गमकान्विता । सासा सासा मासा सास सरी गामा मामगरी सरीरीध मारीगरी धममग मामारीधा साधासागा रीमा न्यासा । छायावेलावली लक्षयति- वेलावलीवदिति । कम्प्रमन्द्रमेति । कम्पितो मन्द्रश्च मध्यमो यस्याम् ॥ १३७ - १३९ ॥ (सं०) भैरव लक्षयति-धांशेति । धैवतांशन्यासग्रहा तारमन्द्रगान्धारा । शेषा: : स्वरा: ; धैवतगान्धाराभ्यामन्ये । कोलाहलां लक्षयति - कोलाहलेति । षड्जग्रहांशा । पञ्चमवर्जिता । मन्द्रषड्जधैवता । मध्यम बहुला । गमकाः प्रकीर्णकाध्याये लक्षयिष्यन्ते ॥ १४०-१४४ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् धगा मरी गसा सासा सास निग सारी मागामामा रीगरीध मधममारीधा सागा साधा सामा रीमाधा गासा-इत्यालापः। रीगसध सरीमम धमगम गामसरी सनी धासा रीगरीग माधध सससं सगरी ममधमगरिस नीधासरी गामाधमरी गमसाधनी धसरीगा माम गमधम गारी सनि धासरी गासरी गासा मागरी मारीगा सासा-इति रूपकम्। इति कोलाहला। रामकृतिः तजा रामकृतिर्वीरे मांशा सान्ता पवर्जिता ॥१४४॥ भाषाङ्गत्वेऽप्युपाङ्गत्वमतिसामीप्यतोऽत्र च । शादेवेन निर्णीतमन्यत्राप्यूयतां बुधैः ॥ १४५ ॥ इति रामकृतिः। (क०) तन्जेति बहुलीपर्यायभूतां रामकृतिं लक्षयित्वा भाषाङ्गत्वेऽप्युपाङ्गत्वमतिसामीप्यतोऽत्र चेत्युक्तम् । अस्यायमर्थः–कोलाहलेत्पन्नाया रामकृतेर्भाषाङ्गत्वेऽप्यतिसामीप्यतः ; सामीप्यमत्र सादृश्यं विवक्षितम् ; तेन—-यत्र किंचित् सादृश्यं तत्रोपाङ्गत्वं ; यत्राङ्गत्वसादृश्यं तत्रोपाङ्गत्वमिति न्यायेन-अत्रपाङ्गत्वं च निर्णीतमिति । बहुलीपर्यायत्वं चास्या रामकृतेर्वाद्याध्याये वक्ष्यते॥१४४,१४५।। (सं०) रामकृति लक्षयति-तज्जेति । मध्यमांशा । षड्जन्यासा । पञ्चमवर्जिता । ननु स्वयं भाषाङ्गे प्रयुक्ता ; अत आह-भाषाङ्गत्वेऽपीति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः छेवाटी हिन्दोल भाषा छेवाटी गापन्यासा धभूयसी । रिहीनांशग्रहन्यासषड्जा सगममन्द्र भाक् ॥ १४६ ॥ सगतारोत्सवे हास्ये गेया गमकसंयुता । १०९ सासा सासगम पापा पापम गापमगापाधागा धानी पापगम नीधापापामगपगा गसासासा सगमपपापा पमगपमगा धानीपापमगपम गपमगागसा सपानीसा सासागासा मगामप पनि सासा - इत्यालापः । सम गम गपा पाम पमपम गागा गागससासग मनि निसनिसससगस मम निनि सनि साससगसगमपपसनिसागासा धानि पानी नीपा मगा गपमम गामसांसां गांगां पानी मासा गासनी सासा - इति रूपकम् । इति छेवाटी । वल्लाता वल्लाता तदुपाङ्गं स्याद् रिहीना मन्द्रधैवता ॥ १४७ ॥ सन्यासांशग्रहा गेया शृङ्गारे शार्ङ्गिणोदिता । इति वल्लाता । भाषाङ्गत्वेऽप्युभयरूपत्वमेतस्या इत्यर्थः । अतिसामीप्यतः; समानस्थायत्वात् । छेवा लक्षयति — हिन्दोलभाषेति । गान्धारापन्यासा । धैवतबहुला । मन्द्रषडूजगान्धारमध्यमसंयुता ॥ १४४ - १४७ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् शुद्धपश्चमः मध्यमापश्चमीजातः काकल्यन्तरसंयुतः॥ १४८ ॥ पश्चमांशग्रहन्यासो मध्यसप्तकपश्चमः। हृष्यकामूर्छनोपेतो गेयः कामादिदेवतः॥१४९॥ चारुसंचारिवर्णश्च ग्रीष्मेऽहः प्रहरेऽग्रिमे । शृङ्गारहास्ययोः संधाववमर्श प्रयुज्यते ॥ १५० ॥ पाधा मांधा नीधापापा । पधनीरिमपधामा धनि ध पापारीगां सांसां । मांपमागां रीरीं । रीमांपधा मा पनिधपापा । सांगां नीधा पप निरी मां पाधामाध निध पापा-इत्यालापः। __ पापधपधमधधनिध पापा। पापानि रिगपापा मधनिध पापा पपधनि रीरी गंगं संसं गगरीरी रीरी मम पप धम धध निध पा-इति करणम् । १. सां सां सां सां री री गां सां ज य वि ष म न य न २. मा गा पम गा री री री री म द न त नु द ह न मां सां सां सां री री गां सां व र वृ प भ ग म न (सं०) शुद्धपञ्चमं लक्षयति-मध्यमेति । मध्यस्थानस्थपञ्चमोऽशन्यासो ग्रहो यस्य । हृष्यका मध्यमग्रामे सप्तमी मूर्छना ॥ १४८-१५० ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः गां पम गा री री ४. मा री री ६. री री मां मां पा मा धा मा न त स क ल भु व न मा धा सां सां नी धा पा मा सि त क म ल व द न धां नी री मां री मां पा पा भ व म म भ य ह र धा मां धा नीं पा पा पा पा भ व श र णं -इत्याक्षिप्तिका। इति शुद्धपश्चमः । ८. दाक्षिणात्या तद्भाषा दाक्षिणात्या स्याद् ग्रहांशन्यासधैवता। ऋषभोऽस्यामपन्यासस्तारा निपमधैवताः ॥१५१॥ प्रियस्मृतौ नियोगोऽस्या विभाषान्धालिका मता। पापा धासा निरीरीरी गरिमरि गपगग नीसानीमा नीधा पापा पाधा सनी रीरीरीरी गरी सगारीसनी रीरीरी नीनी गपनीध नीनी सानी सनी मागरीरी रीरी मरी सनी (सं०) दाक्षिणात्यां लक्षयति-तद्भाषेति । निषादपञ्चममध्यमधैवतास्ताराः । आन्धालिकां लक्षयति-अस्या इति । अस्याः; दाक्षिणात्यायाः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् नीध निधा पानी निधापापमधा पासा पाधासनी रीरी रीरीरीरी गरीगग पापानीधा पापापा-इत्यालापः। पपधधसनी रीरी गरी सनी धनी नीप पध धस नीरी रीग नीस नीरी रीग नीस निधा नीनी पापाइति रूपकम् । इति दाक्षिणात्या भाषा। आन्धालिका पश्चमांशग्रहन्यासा न्यल्पा भूरीतरखरा ॥ १५२ ।। तारधा मन्द्रषजा च धापन्यासा गवजिता।। वियुक्तवन्धने गेया शाईदेवेन कीर्तिता ।। १५३ ॥ पापामामसरी मापा धापा धाप धध पध धपपसा मास सारी रीमा पाधा पध मास निधा पापधपधपपमा मासा सारी पाधा पाधा पप धध पध धध धम पापा मसा रीमा सारी मासारी मा सारी मासारीमाधाप धधपधा पधधप मममाम सारीमापा धाप धपा धासा नीधा पाप धप पपापा-इत्यालापः। रीरीसारीरी सरीरीसरी रीस रीप रीस रीस धध पाधधप धधधध पममा ममा पमधा पधामामपपमाधसधसधपमधा-इति रूपकम् । इत्यान्धाली विभाषा। निषादोऽल्पो यस्याम् । पञ्चमनिषादाभ्यामन्ये स्वरा बहुलाः । धैवतस्तारः ॥ १५१-१५३ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ११३ मल्हारी मल्हारी तदुपाङ्गं स्याद्गहीना मन्द्रमध्यमा। पश्चमांशग्रहन्यासा शृङ्गारे ताडिता मता ॥ १५४॥ इति मल्हारी। मल्हारः आन्धाल्युपाङ्गं मल्हारः षड्जपञ्चमवर्जितः। धन्यासांशग्रहो मन्द्रगान्धारस्तारसप्तमः ॥ १५५ ॥ इति मल्हारः। कर्णाटगौडः गेयः कर्णाटगोडस्तु षड्जन्यासग्रहांशकः । इति कर्णाटगौडः। देशवालगौडः स एवान्दोलितः षड्जे देशवालो रिपोज्झितः ।। इति देशवालगौडः। तुरुष्वगौडः गान्धारबहुलो मन्द्रताडितो रिपवर्जितः। निषादांशग्रहन्यासस्तुरुष्को गौड उच्यते ॥ १५७॥ इति तुरुष्कगौडः। (सं०) मल्हारी लक्षयति--मल्हारीति। गहीना; गान्धारवर्जिता | ताडिता; ताडितस्वरा । मल्हारं लक्षयति-आन्धाल्युपाङ्गमिति । षड्जपञ्चमाभ्यां हीनः । औडुवोऽसौ रागः । देशवालगौडं लक्षयति--स एवेति । कर्णाटगौड एव ऋषभपञ्चमोज्झितः, आन्दोलितषड्जश्च देशवालगौडः ॥ १५४-१५६ ॥ 15 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् द्राविडगौडः गान्धारतिरिपोपेतः प्रस्फुरत्षड्जपश्चमः । गेयो द्राविडगौडोऽयं ग्रहांशन्याससप्तमः॥१५८॥ इति द्राविडगौडः । इति गौडोपाङ्गानि । अधुनाप्रसिद्धदेशीरागाः श्रीरागः षड्जे षाड्जीममुद्भूतं श्रीरागं स्वल्पपश्चमम् । सन्यामांशग्रहं मन्द्रगान्धारं तारमध्यमम् ॥१५९।। समशेषस्वरं वीरे शास्ति श्रीकरणाग्रणीः। इति श्रीरागः । प्रथमबङ्गाल: षड्जग्रामे मन्द्रहीनः षड्जमध्यमया कृतः॥१६०॥ (सं०) तुरुष्कगौडं लक्षयति-गान्धारेति । मन्द्रस्वराः ताडिता यस्मिन् | द्राविडगौडं लक्षयति-गान्धारतिरिपेति । तिरिपेन वक्रोच्चारितेन गान्धारेणोपेतः । स्फुरितषड्जपञ्चमः । सप्तमो निषादः । इति जनकसहिता द्वापञ्चाशत् रागाः ॥ १५७, १५८ ॥ (क०) अधुनाप्रसिद्धदेशीरागलक्षणम् । तत्र श्रीरागलक्षणे-समशेषस्वमिति—समाः शेषाः स्वरा यस्मिन् स तथोक्तः । अत्र स्वल्पपश्चपमिति पञ्चमस्याल्पत्वविधानात्तदितरेषां स्वराणां बहुत्वे साम्यं विधीयते । यत्र यस्याल्पत्वं विधायेतरेषां समत्वविधानं तत्र तदपेक्षया बहुत्वं साम्यमेव । यत्र बहुत्वविधानादितरेषां समत्वविधिस्तत्राल्पत्वं साम्यमेवेति विवेक्तव्यम् । एतेषु देशीरागेषु यत्र तारमन्द्रयोरुभयोरेकस्य वावधिर्नोच्यते, तत्र कामचारो द्रष्टव्यः । इदानीमधुना Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः ११५ प्रसिद्धरागाङ्गादीनां लक्ष्ये प्रतीतानां लक्षणविरोधानां परिहारार्थमुद्यमः क्रियते । तत्र विरोधोद्भावनाप्रकारस्तावत् ग्रामद्वयाज्जात्यादिपरंपरयोत्पन्नानामेतेषां रागाणां मध्यमस्थषड्जमध्यमस्थानयोरेव तत्तन्मूर्छनारम्भपक्षाश्रयणे शास्त्रविहिते संभवत्यपि मध्यमग्रामोत्पन्नानां मध्यमादितोडीप्रभृतीनां च मध्यमध्यमारम्भं विहाय मध्यमषड्जस्थान एवारम्भो लक्ष्यते। लक्षणविरुद्धतया ग्रहस्वरायत्तोत्तरस्वरसाधारणानामभावश्च । त्रिचतु:श्रुतिकत्वेन ग्रामद्वयभेदकस्य पञ्चमस्यालोप्यत्वेन प्रयुज्यमानस्यापि सर्वरगेप्वेकरूपता । क्रियाङ्गरामक्रियायां मध्यमस्य पञ्चमश्रुतिद्वयाक्रमणं नट्टदेवक्रीप्रभृतिषु ऋषभधैवतयोरन्तरकाकल्यादिमश्रुतिद्वयाक्रमणेन प्रत्येकं पञ्चश्रुतिता च शास्त्रविवक्षिता। श्रीरागे गान्धारनिषादये.मध्यमषड्जादिमकैकश्रुत्याश्रयणेन त्रिश्रुतित्वे शास्त्रविहितेऽपि षड्जमध्यमयोरशास्त्रविहितत्रिश्रुतित्वकरणयोरर्धवैशसम् । तत्रैव ऋषभधैवतयोर्गान्धारनिषादादिमश्रुत्यक्रमणेन प्रत्येकं चतुःश्रुतित्वं वा शास्त्रविहितम्। आन्धाल्या लक्षणे पञ्चमस्य ग्रहांशत्वेक्त्या तथैव प्रस्तारे लिखितेऽपि मध्यमग्रहांशत्वेन प्रयोगः । तथा कर्णाटगौडस्य लक्षणे षड्जग्रहांशत्वेक्तौ लक्ष्ये निषादग्रहांशत्वम् । ग्रामर,गेषु हिन्दोलस्य लक्षणे रिधत्यक्तत्वेनोक्तौ रिपत्यागेन प्रयोगः । षाडवौडवेष्वपि रागेषु कचिल्लोप्यस्वरप्रयोगः ; क्वापि जन्यजनकयोमेलनभेदो रसादिविनियोगानियमश्चेति लक्ष्यलक्षणयोर्बहुधा विरोधाः । एकेषुणा राम इवाब्धिसालानेकोत्तरेणैव बहून् विरोधान् । श्रीकल्लिनाथः परिहतुकामो ब्रूते मतङ्ग दिरहस्यवेदो ॥ देशीत्वादेतेषामनियमो न दोषायेति । देशीत्वं च तत्तद्देशमनुजमनोरञ्जनैकफलत्वेन कामचारप्रवर्तितत्वम् । यथोक्तं देशीलक्षणं ग्रन्थ,दौ 'देशे देशे जनानां यत्' इति । तथा चाहाञ्जनेयः "येषां श्रुतिस्वरग्रामजात्यादिनियमो न हि । नानादेशगतिच्छाया देशीरागास्तु ते स्मृताः ॥” इति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः [प्रकरणम् . बङ्गालोंऽशग्रहन्यासषड्जस्तुल्याखिलस्वरः। इति प्रथमबङ्गालः । द्वितीयबङ्गालः मध्यमे कैशिकीजातः षड्जन्यासांशकग्रहः॥१६१॥ बङ्गालस्तारमध्यस्थपञ्चमः स्यात् समस्वरः। इति द्वितीयबङ्गालः। मध्यमषाडवः ऋषभांशः पञ्चमान्तः स्यादपन्यासधैवतः॥१६२॥ वीररौद्राद्भुतरसः पाल्पो मध्यमषाडवः । इति मध्यमषाडवः। शुद्धभैरवः धैवतांशग्रहन्याससंयुतः स्यात् समस्वरः ।।१६३॥ तारमन्द्रोऽयमाषड्जगान्धारं शुद्धभैरवः । ___ इति शुद्धभैरवः । एवं वाद्यनृत्तयोरपि कामचारप्रवर्तितयोदेशीत्वमवगन्तव्यम् । नियमे तु सति तेषां गीतादीनां मार्गत्वमेव, 'यो मार्गितः' इत्य दिनोक्तत्वात् ॥ १५९-१६०॥ ___ (सं०) अधुनाप्रसिद्धदेशीरागलक्षणम् । श्रीरागं लक्षयति-षड्ज इति । षड्जे षड्जनामे | पाड्जीसमुद्भूतत्वेनैव षड्जपञ्चमोत्पन्नत्वे लब्धेऽपि पुनः षड्जग्रामकथनं रागेषु जनकजातिग्रामनियमो नास्तीति सूचयितुम् | शेषाः स्वराः ऋषभपञ्चमधैवतनिषादाः ॥ १५९-१६० ॥ (सं.) बङ्गालं लक्षयति-षड्जग्राम इति । मन्द्रहीनः; मध्यतारस्वरः । तुल्यत्वं पूर्वमेव व्याख्यातम् । द्वितीयबङ्गालं लक्षयति-मध्यम इति । मध्यमे; मध्यमग्रामे |. तारमध्यस्थपञ्चमः; मन्द्रपञ्चमहीनः । मध्यमषाडवं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः मेघरागः षड्जे धैवतिकोद्भतः षड्जतारसमस्वरः ॥१६४ ॥ मेघरागो मन्द्रहीनो ग्रहांशन्यासधैवतः। इति मेघरागः। सोमरागः षड्जे षाड्जीभवः षड्जग्रहांशान्तो निगोत्कटः ।। सोमरागः स्मृतो वीरे तारमध्यस्थमध्यमः। इति सोमरागः। प्रथमकामोदः तारषड्जग्रहः षड्जे षड्जमाध्यमिकोद्भवः ॥१६६।। गतारमन्द्रः कामोदो धांशः सान्तः समस्वरः। इति प्रथमकामोदः । द्वितीयकामोदः षड्जे षाड्जीभवः षड्जग्रहांशन्याससंयुतः ।। समस्वरोऽन्यः कामोदो मन्द्रगान्धारसुन्दरः। इति द्वितीयकामोदः। लक्षयति-ऋषभांश इति । पाल्पः; अल्पपश्चमः । शुद्धभैरवं लक्षयति-- तारमन्द्र इति । तारमन्द्रो मध्यमस्वरहीनः । आषड्जगान्धारं; षड्जपर्यन्तं गान्धारपर्यन्तं वा विकल्पेन तारमन्द्रत्वं धैवतादंशस्वरादारभ्य ॥१६०-१६४॥ (सं०) मेघरागं लक्षयति-षड्ज इति । षड्जे षड् जग्रामे । एतस्मिन् षड़ जस्तार एव । मन्द्रत्वं मध्यमत्वं च न स्ति। अन्येषां स्वराणां मन्द्रत्वं नास्ति । सोमरागं लक्षयति-षड्ज इति । निगोत्कट: ; निषादगान्धारबहुल: । एतस्मिन् मन्द्रस्थानस्थो मध्यमो नास्ति । कामोदं लक्षयति-तारषड्जेति। षड्जमाध्यमिका Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् आम्रपञ्चमः गान्धारांशग्रहन्यासो मन्द्रमध्यसमुद्भवः ॥१६८॥ निगतारो मन्द्रहीनो रागः स्यादाम्रपञ्चमः। शाहदेवेन गदितो हास्याद्भुतरसाश्रयः ॥ १६९ ॥ इत्याम्रपञ्चमः । इति प्रसिद्धरागाः। कैशिकी शुद्धपश्चमभाषा स्यात् कैशिकी मपभूयसी। पन्यासांशग्रहा मापन्यासा सगमतारभाक् ॥१७॥ ईर्ष्यायां विनियोक्तव्या भाषा केचिदचिरे। समस्वरा रितारा सा ममन्द्रा चोत्सवे भवेत् ।।१७१॥ पापापा समधा सानी सासासाधा माससम धास नीसरी गासासा सधम मामासस धसमनी नीधा मामगमा पाप समधासा मा धासा। पाधासामाधासमाधासनि रीसनी गसा। सधमागा गस सास धमासस धसमनी नीधामाम गामा पापा-इत्यालापः। जाति: । गतारमन्द्र इति । गान्धारस्य मध्यमत्वं नास्ति । धैवतांशः । षड्जन्यासः । आम्रपञ्चमं लक्षयति-गान्धारांशेति । मन्द्रेभ्यो मध्यमेभ्यश्च स्वरेभ्यः समुद्भवो यस्य । तारनिषादगान्धारः । मन्द्रहीनो वेति पक्षान्तरम् , मन्द्रमध्यसमुद्भव इत्युक्तत्वात् ॥ १६४-१६९ ॥ (सं०) कैशिकी लक्षयति- शुद्धपञ्चमभाषेति । मध्यमपञ्चमबहुला । पञ्चमन्यासांशग्रहा | मध्यमापन्यासा । षड्जगान्धारमध्यमैस्तायुका । तेषां मन्द्रमध्यमत्वं नास्ति | मतान्तरेण कैशिकभाषाङ्गभागत्वेन लक्षणम् - समस्वरेति ॥ १७०, १७१॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः पामामा धससनि धसनि धसनिधा माध गाग स सनिध पापारिगसरिग मा रिगसधनिधा मानिधससास ममा निधा सपा धमरिग रिमाधमधनिधनि धनि ध (मध्यम)मनिधा सास ममा निध स पापा-इति रूपकम् । इति कैशिकी। प्रथमसौराष्ट्री पश्चमादेव सौराष्ट्री भाषा पान्तग्रहांशका। रिहीना सगधस्तारा ममन्द्रा सपभूयसी ॥ १७२॥ नियुक्ता सर्वभावेषु मुनिभिर्गमकान्विता। पापापापमधनी सासासनीग सासासनि गानी गानी धाधा धध सास पापा पपधा पा धापामापा । मधनी मांधानी मां धनीसा सा । सनी गानी गां सासा स नी गा नी धा धाधधसा धममपा पप धापा धापामामा । मधनी मधनी । मां धनि सा सापमानी निधापम धापमध पापा-इत्यालापः। पा पम स नीसा सनी गग सस नी गगनी नीगमग नीधाधाध धध मध सस । पाधा पाधा पामा मामा ममधम धधनी सा सनि गग सास । निधधस निधमपा पमधध पमधस पमधध धग मनी धध पा । पमनी नी नीधा पम धध पम धध पा-इति रूपकम् । । इति प्रथमसौराष्ट्री। (सं०) सौगष्टी लक्षयति- पश्चमादेवेति । पञ्चमन्यासग्रहांशा । ऋषभहीना षट्स्वरा । षड्जगान्धारधैवतैस्तारैयुक्ता । मन्द्रमध्यमा । षड्जपञ्चम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् द्वितीयसौराष्ट्री सांशग्रहान्ता सौराष्ट्री टकरागेऽतिभूरिनिः ॥१७३।। भूरीतरा ममन्द्रा च पहीना करुणे भवेत् । सा सा सानी धनी नीध नीनी मां नी धनी धानी धानी धनी नी मां नीधा नीसा साध नीधमध नीधनीध माधनीध मं गागाग मंगां सगा सनी धनी नीध नी नी धनी नी नी मां नीधा नीसा सा-इत्यालापः। सनि धनि नी नी मां नी धनि सासा धनी नी मां नी धनीसा धससध रीरी रीध मम। धमम(मध्यम)म (गान्धार)ग (षड्ज)ससा गासागाध नी नी नी धनी मधास नीसा गानी धध सासा-इति रूपकम् । इति द्वितीयसौराष्ट्री । इति सौराष्ट्री। प्रथमललिता टकभाषैव ललिता ललितैरुत्कटैः स्वरैः ॥ १७४ ॥ षड्जांशग्रहणन्यासा षड्जमन्द्रा रिपोज्झिता। धीरैर्वीरोत्सवे प्रोक्ता तारगान्धारधैवता ॥ १७५ ।। सासा सास मम धधा धधमधा माम गाग मसा सग मसगम धधा धाधा धमधनी नीधामाम गागमा सां बहुला । सर्वभावेषु ; निर्वेदादिषु । द्वितीयसौराष्ट्री लक्षयति-सांशग्रहान्तेति । टक्करागस्य भाषा । अतिभूरिनिः; अतिबहुलो निषादो यस्याम् । निषादषड्जाभ्यामितरे स्वरा बहुलाः । पञ्चमहीना ॥ १७२-१७४ ॥ (सं०) ललितां लक्षयति--टक्कभाषैवेति । ललितैः मसृणैः । उत्कटैः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः सधनीनी धनी नीध नीगागस सागासनी धनी सासा सासममसा मसगम धधा धाध मधानीनी धामामगा गमसास धानी नीध नीनीधध नीगागसा । सागां सनी धानी सासा-इत्यालापः। सममध धाधामंध धमामा(गान्धार)गसासासग मधधनी नीधामा। धामामध गागागस साससस गगसग मसगम धाधाधनी धधनीम मपधमा गससमस गसासाससनीधधनी धनीगागागसां ग धानी सासा-इति रूपकम् । इति प्रथमललिता। द्वितीयललिता भिन्नषड्जेऽपि ललिता ग्रहांशन्यासधैवता। रिगमैललितैस्तारमन्द्रेर्युक्ता धमन्द्रभाक् ।। १७६ ॥ प्रयोज्या ललिते लेहे मतङ्गमुनिसंमता । धाधाधाध सनी धाधाधध नीरी गासनीसा नीधाधाध सनी रीगामा । गरी मागा रीरीरीरीरीरी गमपधाधप नींधा पामा गारी । मागारी । रीगरीग मगमरी गामागारी धनी रीगासनी। धाधाधम धाधाधध नीरी रीधा नीरी धानी रीगा सनी सनी धाधाधध सरिग मगरि मामा बहुभिः । ऋषभपञ्चमहीना। द्वितीयललितां लक्षयति-भिन्नषड्जेऽपीति | ऋषभगान्धारमध्यमैः ललितैः किंचिद्वक्रितैस्तारमन्तैर्युक्ता । मन्द्रधैवता ॥ १७४-१७७॥ 16 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् रीरीरीरीरी मगपधा पधनीधापामा गारी मागा रीरी गमगम रीगामागा रीधानीरीमा सनी सनी धाधाइत्यालापः। (धैवत) सनिगनिस रिग रिम सनि धनि धममाध धमनिनि धधधध रीरीरीरी गम । ममं गारी धापामगरीमागारी सनी धधनी गगा। सनी सनी धानीमांधा सनीनीधाधा-इति रूपकम् । इति द्वितीयललिता । इति ललिता। ___ प्रथमसैन्धवी चतुर्धा सैन्धवी तत्र टक्कभाषा रिपोज्झिता ॥१७७॥ सन्यासांशग्रहा सान्द्रा गमकैर्लचितस्वरैः । सगतारा षड्जमन्द्रा गेया सर्वरसेष्वसौ ॥ १७८ ॥ सासासासा मांसा मांसा सा। मंस गामा गासा सागां सामां सासमम गामा गममस नीगससा सनी मांस नीगां नीधांधां। धमाधांधाधं मानी नीनी धमाधाधा धाध मनी नीनीं धनी धनी सासा-इत्यालापः। (मध्यम)म(षड्ज) स सागाससा। नीनीनीनी सधंनीस नीधाधा धमा धममनी धाधाधममनि नीनीनीनीनीनी सनी सनी गगसासा ममगममम धग गगसम नीनीधध (सं०) सैन्धवीं विभज्य लक्षयति-चतुर्धेति । टक्कभाषा या सैन्धवी सा ऋषभपञ्चमहीना । गमकैः सान्द्रा व्याप्ता । लवितस्वरैः द्रुतस्वरैः । द्वितीय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः १२३ ममधम धनीनीनी मधनीनी नीधनीसगमधध गध मग सनी सनी ससनीध नीनीनीसनीधमम धध नीनी समगग नीनीनीम नीधममधधनीनीगगसा सा-इति रूपकम् । ___ इति प्रथमसैन्धवी। द्वितीयसैन्धवी सैन्धवी पञ्चमेऽप्यस्ति ग्रहांशन्यासपञ्चमा। रिपापन्याससंयुक्ता रम्या सगमकैः स्वरैः ॥१७॥ नितारा रिबहुस्तारपा पूर्वविनियोगिनी । पापापा स पध सरीरी रीरी री पमपम धपापास पधसरी रीरीरीसरीगारी । मारी पाधा सारी गासा रीरीरीरी गापां री री गाससरी रीमाधा पमधपमध पापासपधम पधमपध मपधसनीरीरी मरीसरी रीपमध पमधपापा । सपधसरी।रीरीरीस रीरीरीस रीगारीमाधापाधासारी गासारीरीधरीरी गां पां रीरी माससरी रीसा धापमधापमधापापा-इत्यालापः। पधसधसरी गसरिगरीसरी । गरीसध मधं धंप पसरीरी रीरीपारी पपपारी रिममामांमाससारी सरीरीरी रीससधा धपपपधधसग पंधं सरी सरीगम धधपाधा पमधध पमधधपापा-इति रूपकम् । ___ इति द्वितीयसैन्धवी। सैन्धवीं लक्षयति-सैन्धवीति । पञ्चमस्यापि भाषा सैन्धवी । ऋषभपञ्चमापन्यासा । निषादधैवतपञ्चमैः सगमकैः रम्या । ऋषभबहुला । निषादपञ्चमैस्तारा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् तृतीयसैन्धवी मालवे कैशिकेऽप्यस्ति सैन्धवी मृदुपञ्चमा ॥१८०॥ समन्द्रा निगनिर्मुक्ता षड्जन्यासग्रहांशिका । प्रयोज्या सर्वभावेषु श्रीसोढलसुतोदिता ॥ १८१ ॥ सासासासा समरीमा पापापप धापधापा मा रीरी मारीरी सां सां समरीमा पापा पप धापामा। पप धापामा पापा पपधा सा पप धासा धारी।रीमपाधापमरीरी मरीरीसरीसारीससासारी मासारीमामारी मापापापपधापाधापधापामारीरीमारीमासा । समरीमा पापा पप धापापामा धापामापा पप पधा सां पपधा पमारीरी मपाधापमरीमारी रीसासा-इत्यालापः। सम रीरी ममरिरि पप रिप पपाधाप मरीरी समममरि पप पप धध (षड्ज)सं पाधापामारीमरीमरीसरीसाधधसध(षड्ज)सस मम रिरि पप रिरि स रिस रि सास धस ससं मं रिरि मम रिरि पाधापम रिरिसरिसामरिरिरिसा-इति रूपकम् । इति तृतीयसैन्धवी। चतुर्थसैन्धवी सैन्धवी भिन्नषड्जेऽपि न्यासांशग्रहधैवता । उद्दीपने नियोक्तव्या धमन्द्रा रिपवर्जिता ।। १८२॥ चेति पक्षान्तरम् । तृतीयसैन्धवीं लक्षयति-मालव इति । निगनिर्मुक्ता निषादगान्धारहीना। चतुर्थसैन्धवीं लक्षयति-सैन्धवीति । मन्द्रधैवता । ऋषभपश्चमवर्जिता ॥ १७७-९८२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः १२५ धाधा धध गमधनि निनि धानी सानी सनि सधा नीधा नीनी धाधमामगमा सानी धाधा पमा धाधाधगसधगमगधमधनीनी। नीनीनी । धनीसधानीनीमधासानीधाधमधाधा-इत्यालापः। धाध गम धनी नीनी सनी धनी नीनीनीध(षड्ज)सं सनीनी सनी धध गम धग मध नीनी मनी धनी नीध नीध गां सगमा नीसनी धनीधगमधगमधनीनीमनीधनीनीध धासा धमनी सनी धनीध गमधगमधनी । नीमनीधनीनीधनीधाधा-इति रूपकम् । __ इति चतुर्थसैन्धवी । इति सैन्धवी। प्रथमगौडी हिन्दोलभाषा गौडी स्यात् षड्जन्यासग्रहांशिका । पञ्चमोत्पन्नगमकबहुला धरिवर्जिता ॥ १८३ ॥ षड्जमन्द्रा प्रयोक्तव्या प्रियसंभाषणे वुधैः। सां मां सां स मगामापापामापामापा मागामसांसां सस सगामापापागमगा मगापगामपापा। मागागसासनीसागामामगासनीसामास सगासासा ससगामा सागामाप मगा सापा पापा मामा गाग सासा समगा। मापा मापा पा पमगा। पमागम पगापमा गमपगा पमापगा पासासासगसामागासनिसां सां-इत्यालापः। (सं०) गौडी लक्षयति-हिन्दोलभाषेति । पञ्चमे स्वरे उत्पन्नैर्गमकैः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् (षड्ज)सगमग पममगगसां(षड्ज)ससागामामामा पाप मगापम पगा गगसापानी सनीस मगम गमपम पम गम मम गनिसां गगसगसनिसामगागसासाइति रूपकम् । इति प्रथमगौडी। द्वितीयगौडी ग्रहांशन्यासषड्जान्या गौडी मालवकैशिके॥१८४॥ मतङ्गोक्ता तारमन्द्रषड्जा भूरिनिषादभाक् । प्रयोज्या रणरणके वीरे त्वन्यैः प्रयुज्यते ।। १८५ ।। सांसां सानि धासां पमा गामानी नीधनी धधमपममगम मगा गसासगारी सागामगमनीनी धम पम पाप मम मगरीमं सां सनी नीरीपा । सनीरीस नीसासा । मगमनी गा मा नीगा मानी । नीधसापा मागामनी नीधधनी धमपमगमगामपाम गरी री मपगमानीधनीस पामगमापाप सां ममगारीरी सास नीरीरी पास नीरीसनी रीसनी सासा-इत्यालापः। सांनीधससपापममगाधनिधनि धनिध मपम गमम सा मगरीरी सांसनी रीरी पांसनी रीरी पां स नीरीरीसागममा गानीधपममपममगमगरी सनिसास नीसासनि रिरि सासा-इति रूपकम् । इति द्वितीयगौडी । इति गौडी। बहुला । धैवतर्षभवर्जिता। द्वितीयगौडी लक्षयति-ग्रहांशेति । रणरणको Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः त्रावणी याष्टिके त्रावणी भाषा पञ्चमस्य ग्रहांशसा । पान्ता सरिपमैर्भूरिः संगत द्विश्रुतिर्मता ।। १८६ ।। एषा भाषाङ्गमन्येषां धग्रहांशा निपोज्झिता । अतारा प्रार्थने मन्द्रधगव्याप्तोरुमध्यमा ।। १८७ ॥ १२७ सासासापा पापाधाधानीनी सानिधानिधा सारी सासानीधनीध सारी गारी मासनी पापाधानीसा सनीमध धससनिमधमधसनिधामागामा सानीससासंसं सनिसांसां निगास निधामा मामां सरि सासा साधानिधापापाइति त्रावणी । इति भापाङ्गाणि । हर्षपुरी भाषा हर्षपुरी षड्जमन्द्रा मालवकैशिके । सन्यासांशग्रहा तारमपा हर्षे धवर्जिता ॥ १८८ ॥ सासासासनिसनिस रिस नीसासा । मगमापापापा । समपापा पममाम म गाग री । रीसांसनि निपां सनि ममगारी नी नी पासनीसांसां सरि रीरी पां सनिरी सनिरस निसासा । सनिसांरी निसानीनी निसारी । विरहः । त्रावण लक्षयति-याष्ट्रिक इति । याष्टिकमते ग्रहांशषड्जधैवतन्यासा । षड्जर्षभपञ्चममध्यमचहुला । संगतौ द्विश्रुती निषादगान्धारौ यस्याम् । मतान्तरेणैतस्या भाषाङ्गत्वे लक्षणमाह - एषेति । अतारा तारवर्जिता । मन्द्रधैवतगान्धारव्याप्ता । उरुमध्यमा मध्यमबहुला ॥ १८३-१८७ ॥ (सं०) हर्षपुरी लक्षयति - भाषेति । तारमपा तारमध्यमपञ्चमा । धैवत Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् सनिसां सां। मगा मा पापा। समपापमगा गममारीरीसा मनीपांसनी सासागगरी नी नीपासनीसांसां । सनिरीरी पांसनिरी सनिरी सनीसां सां-इत्यालापः। सानी रीसा नी नीगरी सा। निरीरीग रीमरीग नीरीगरी नीस (मध्यम)म (गान्धार) गारी गगरीसारीगरीपागरी सनी रीग रीनीसासा-इति रूपकम् । इति हर्षपुरी। भम्माणी पश्चमस्य विभाषा स्याद्भमाणी मन्द्रषड्जभाक् । पान्तांशादिः समनिपैस्तारत्यक्तरिरुत्सवे ॥ १८९ ॥ पापा पाम गामा पापा। मामा नीधा मामगमा पापा। पगा गमा सनीधपा पापमनी नीधनीसां सां गममापा पापमपमनीसनीधापापापमपमनीसनिधां पा पापा पम निनिधागां मां पमनि निधापसधापमधपमधापापा-इत्यालापः। पा(पश्चम)पंग गम पामम गग मम गग ममनि धधमगा पापा । पपगमसमसनिधसनिधपापमनिनिनि धनि निसमम गपमपमनि सानि 'मनिध पापा पम नि पानि निधनी सस पमममाधांधमधधपमधधसमधधपापा-इति रूपकम् ।। इति भम्माणी। वर्जिता । भम्माणी लक्षयति-पञ्चमस्येति । पञ्चमांशग्रहा । षड्जमध्यमनिषादपञ्चमैस्तारैर्युक्ता | ऋषभहीना । उत्सवे विनियोगः ॥ १८८-१८९ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः १२९ टक्ककैशिकः धैवत्या मध्यमायाश्च संभूतष्टक्कैशिकः। धैवतांशग्रहन्यासः काकल्यन्तरराजितः ॥ १९० ।। सारोही सप्रसन्नादिरुत्तरायतयान्वितः।। उद्भटे नटने कामग्रस्ते कञ्चुकिकर्तृके ॥ १९१ ।। प्रवेशे तुर्ययामेऽहो बीभत्से सभयानके। प्रयोक्तव्यो महाकालमन्मथप्रीतये वुधैः ॥ १९२॥ धासा धपा धमामगारीमगाग सासनीम गरीगसा धाधाधसा गरीरीमा माधधधरीरीरी गागमाम धाधाधसागारीरी धाधाधास पाधममगरी गसासधधससरीरीग गममधधरी गगसस सनीनीनी सरीगस निसां सां धांधांधांधां। ससमाम धागसासनिसधाधा धाधाधाधा सससस मरी धम मममसरि मरिमधपमसा धासासासा सागधासगध सधधसधपरिरि ममसरि ममधपमधा धाधाधस सधसस सस ससारिमधासनिगा सासा निनिधा-इत्यालापः। सागरिम मारिममाधापा धापा धामा धाध धधसास धासामाधापामा धापामाप धम धधपामारिमा धमधास मामधाधा सागारी। मम गग धध पम धाधाधधसा घससा धपसास गधरीरी रीरी मम ममरीम मममाम (सं०) टक्कैशिकं लक्षयति-धैवत्या इति । उत्तरायता षड्जग्रामे तृतीया मूर्छना । कञ्चुकिप्रवेशे विनियोगः । मालवां लक्षयति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० संगीतरत्नाकर: [ प्रकरणम् ममरिम धपमध मधमध मधपधाधा रीधध रिधाधारि धधाधपा पामा रिस रिरिमम ममधप धाधासधा सासागम मधमध सधसम मसधम धाधा - इति करणम् । १. धा धा धा धा धा मा पा पा म त्क ट त ट श्री ३. धांधां मां धांधां धांधां धां मो द म रा ਰ ४. मांधां मां धांधां धांधां धां म धु प कु लं ५. धा धा री गा सांसां री गा वि ग लि त म द म दि ७. ६. री री मा मा धारी मा मा यो नि ति नु ८. धांधांसां सां गा री मा मा कु लि श ध र क म ल 555 प्र धा धा धा धा धा धा धा सा तं प ग ण धा पा मा धा धा धा धा धा तिं वं — इत्याक्षिप्तिका । Ther भृ दे इति टक्ककैशिकः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] द्वितीयो रागविवेकाध्यायः १३१ मालवा मालवा तस्य भाषा स्याद् ग्रहांशन्यासधैवता । षड्जधौ संगतौ तत्र स्यातानृषभपञ्चमौ ॥ १९३॥ धाधासारि सामापामा गारीमाधा पाधाधानी धासाधा । इति मालवा । द्राविडी गान्धारांशग्रहा धान्ता द्राविडी तद्विभाषिका । द्विश्रुत संगतौ तत्र भवेतां षड्जधैवतौ ॥ १९४ ॥ गासागामा धाधा पामा धाधा गास निधाधास गासन धापनिमागा मनिधा । इति द्राविडी । इति रागाङ्गादिनिर्णयाख्यं द्वितीयं प्रकरणम् इति श्रीमदनवद्यविद्याविनोद श्रीकरणाधिपति श्रीसोढलदेवनन्दननिःशङ्कश्रीशार्ङ्गदेवविरचिते संगीतरत्नाकरे रागविवेकाध्यायो द्वितीयः मालवेति । तस्यां षड्जधैवतयोः संगतिः ऋषभपञ्चमयोश्च । द्राविड लक्षयतिगान्धारेति । धान्ता; धैवतन्यासा । द्विश्रुत्योर्निषादगान्धारयोः संगति: षड्जधैवतयोश्च ॥ १९०-१९४॥ इति रागाङ्गादिनिर्णयाख्यं द्वितीयं प्रकरणम् इति श्रीमदन्ध्रमण्डलाधीश्वरप्रति गण्डभैरव श्रीमदनपोतनरेन्द्रनन्दन भुजबलभीमश्रीसिंहभूपालविरचितायां संगीतरत्नाकरटीकायां संगीतसुधाकराख्यायां रागविवेकाध्यायो द्वितीयः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: [ प्रकरणम् (क०) इह ग्रन्थकारेणोद्दिष्टानामपि लक्ष्ये प्रसिद्धिवैधुर्यात् अधुनाप्रसिद्धरागाजनकत्वाच्चानुक्तलक्षणानां भाषारागादीनां स्वरूपपरिज्ञानाय मतङ्गाञ्जनेयादीनां मतानुसारेण लक्षणानि संक्षिप्य वक्ष्यन्ते । तत्रादौ सौवीरजाः वेगमध्यमा सौवीरजा सग्रहान्ता संपूर्णा सपसंगता । १३२ मध्यमांशा स्मृता वेगमध्यमा मध्यमोज्ज्वला || सौवीरा साधारिता स्यान्मन्यासा सग्रहांशिका | रिमयोः समयोर्युक्तगमका सकलस्वरा ॥ गान्धारी करुणे सान्ता संपूर्णा निग्रहांशका । सौवीरजा इति सौवीरभाषाः । अथ ककुभभाषा स्याद्भिन्नपञ्चमी । मापन्यासा रिमपधबहुलाङ्गोज्झितांशिका ॥ काम्भोजी काम्भोजी ककुभस्य स्याद्भाषा धांशग्रहान्तिमा । सधसंवादिनी पूर्णा रिपसंवादिनी तथा ॥ मध्यमग्रामी ककुभे मध्यमग्रामी भाषा धांशग्रहांशिका | माध्यमग्रामिकी पूर्णा संकीर्णा रिधसंगता || साधारिता गान्धारी अथ ककुभे— भिन्नपञ्चमी माध्यमग्रामिकीति । स्वजनकस्य ककुभस्य द्विग्रामत्वेन स्वस्या तथात्वे प्राप्ते अनेन विशेषवचनेनास्यां षड्जस्त्रिश्रुतिः प्रयोक्तव्य इत्यवगम्यते । पूर्णेति विशेषणेनात्र ग्रामभेदकता न; प्रयोगाभावात् । संकीर्णेति । पूर्वं भाषाणां 'संकीर्णा देशजा मूला छायामात्रेति नामभिः' इति याष्टिकमतेन चातुर्विध्यं दर्शितम् । तत्र संकीर्णत्वं नाम मतङ्गमतेन स्वराख्यत्वमिति पूर्वं व्याख्यातम् । तत् द्रष्टव्यम् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः १३३ प्रसङ्गादौमापत्योक्तं रागाणां त्रैविध्यं प्रदर्श्यते । रागास्तावत् त्रिविधा:शुद्धाः छायालगाः संकीर्णाश्चेति । तत्र शुद्धरागत्वं नाम शास्त्रोक्तनियमानतिक्रमण स्वतो रक्तिहेतुत्वम् । छायालगरागत्वं नामान्यच्छायालगत्वेन रक्तिहेतुत्वम् । संकीर्णरागत्वं नाम शुद्धच्छायालगमिश्रत्वेन रक्तिहेतुत्वम् । एतत् प्रकृतसंकीर्णत्वादन्यदेव । यथोक्तमुमापतिना " मयैव पञ्चभिर्वक्त्रैः सृष्टाः पूर्व कुतुहलात् । अतः संभूय शुद्धास्ते षट्त्रिंशत् संख्ययोदिताः ॥ एतेषां छायया जाताश्छायालगसमाह्वयाः । असंख्याकास्तु ते तेषु शतमेकोत्तरं क्रमात् ॥ शुद्धं तु शिवरूपेण शक्तिरूपेण सालगम् । द्वयोर्मिश्रं तु संकीर्णमतस्ते त्रिविधा मताः ।। वराटीललिताभ्यां च शुद्धादृषभरागतः । उत्पन्नोऽयं वसन्तस्तु संकीर्णत्वेन लक्षितः ॥” इति । मधुरी ककुभोद्भूता सांशा धान्ताखिलस्वरा । गपयोनिधयोर्युक्ता संकीर्णा याष्टिकोदिता ॥ शकमिश्रा निपयो रिधयोर्यस्यां संवादो निग्रहांशता । रिन्यासा ककुभे भाषा शकमिश्रा तु सा मता ॥ इति ककुभभाषाः। मधुरी आभीरिका आभीरिका माद्यन्तांशा पतारा मन्द्रधैवता । द्रुतप्रयोगा निरिसैविभाषा ककुभोद्भवा ॥ निवेदे विनियोक्तव्या पूर्णा प्रचुरमध्यमा । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ [प्रकरणम् मधुकरी संगीतरत्नाकरः ककुभोत्था मधुकरी विभाषा सग्रहान्तिमा । गापन्यासा निसरिधपञ्चमैर्बहुलैर्युता ॥ इति ककुभविभाषे। त्रवणा शालवाहनी रिग्रहांशा धैवतान्ता संपूर्णा रिगसंगता । ककुभान्तरभाषेयं विज्ञेया शालवाहनी ॥ इति ककुभान्तरभाषा। अथ टक्के त्रवणा टक्कभाषा सग्रहान्तांशा रिपोज्झिता । समन्द्रा गमतारा सनिधभूरिर्दिनान्तिमे ॥ यामे गेया वीररसे गीयते रुद्रदेवता । त्रवणोद्भवा सान्ता मांशा बहुरिया गापन्यासा पवर्जिता । टक्कभाषा सदा गेया स्पर्धायां प्रवणोद्भवा । वेरी टक्कवेरञ्जिका सान्ता पग्रहांशाल्पपञ्चमा । समयो रिगयोश्चापि संगता पाडवा मता ॥ मध्यमग्रामदेहा टक्कजा मध्यमग्रामदेहा मांशग्रहान्तसा । असंपूर्णा च संकीर्णा समयोः संगता भवेत् ॥ मालववेसरी सान्ता न्यंशग्रहा पाल्पा सगयोः समयोर्युता । ___मूलाख्या पाडवा टक्कभाषा मालववेसरी ॥ छेवाटी साद्यन्तांशा समनिगसंवादा मध्यमोज्ज्वला । छेवाटी टक्कजा मूला संपूर्णा याष्टिकोदिता ॥ पञ्चमलक्षिता सग्रहान्ता पञ्चमांशा तारा सगमपञ्चमैः । रिहीना टक्कजा भाषा ज्ञेया पश्चमलक्षिता ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ पञ्चमी द्वितीयो रागविवेकाध्यायः पांशग्रहा टक्कभाषा षड्जान्ता पश्चमी मता। रिपयोः समयोर्यस्यां संवादः पूर्णतापि च ॥ गान्धारपञ्चमी सन्यासा धग्रहा पूर्णा समसङ्गा गभूषिता। संकीर्णा टक्कजा प्रेक्ता भाषा गान्धारपश्चमी ॥ मालवी पधमिश्रा तदन्तांशा मालवी टक्कसंभवा । रिहीना तारगान्धारषड्जमध्यमकम्पिता ॥ तानवलिता षड्जान्ता मध्यमाद्यंशा सपयोर्मूदुलालिता । टक्कोद्भवा भवेत्तानवलिता मुनिसंमता ॥ रविचन्द्रिका सग्रहान्ता रिपस्वल्पा संकीर्णा गमकान्विता । रिसयोः समयोर्युक्ता टक्कजा रविचन्द्रिका । ताना तानाख्या सग्रहांशान्ता धापन्यासा रिपोज्झिता । टक्कजा करुणे मन्द्रे निसा तद्गमकाञ्चिता ।। अम्बाहेरी गधाधिका मग्रहांशा सान्ता वीरे समस्वरा । अम्बाहेरी टक्कभाषा देशाख्या पञ्चमाकिता ।। देशाख्या टक्कजा दोह्या गाद्या सान्ता रिपोज्झिता । वेसरी पहीना सग्रहान्तांशा निधयोः सधयेर्युता । वेसरी टक्कभाषा स्याद् वीरे गेया सकाकलिः ॥ इति टक्कभाषाः। देवारवर्धनी पञ्चमांशग्रहा षड्जन्यासा देवारवर्धनी। संपूर्णा टक्करागस्य विभाषा परिकीर्तिता ।। आन्ध्री मध्यमांशाहा टक्कविभाषा पञ्चमान्तिमा । प्रहृष्टे विनियोक्तव्या स्यादान्ध्री चान्ध्रदेशजा ।। दोह्या Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रकरणम गुर्जरी इति टक्कावमापा गुर्जरी संगीतरत्नाकरः संगता समयो रिन्योः संपूर्णा निग्रहांशिका । षड्जान्ता देशजा टक्कविभाषा गुर्जरी मता ॥ भावनी पांशग्रहान्तसा टक्कविभाषा भावनी स्मृता । इति टक्कविभाषाः। अथ शुद्धपञ्चमे___ तानोद्भवा मांशाल्पऋषभा पान्ता संकीर्णा धमसंगता । तानोद्भवा पञ्चमस्य भाषा प्रबलपञ्चमा ॥ आभीरी पग्रहांशान्तिमा पूर्णा न्यधिका समयोयुता । आभीरी पञ्चमोद्भूता रणे काकलिसंयुता ।। शुद्धपञ्चमभाषा स्याद् गुर्जरी पग्रहांशिका । पान्ता समोच्चा संपूर्णा गपापन्यासभूषिता । आन्ध्री रिग्रहा काकलीयुक्ता पञ्चमान्ता सदुर्बला । शुद्धपञ्चमभाषा स्यादान्ध्री किंनरवल्लभा ॥ माङ्गली धग्रहा पञ्चमे भाषा माङ्गली सधसंगता । रिपसंवादिनी धान्ता संकीर्णा काकलीयुता ॥ भावनी शुद्धपञ्चमभाषा स्याद्भावनी पग्रहान्तिमा । रिहीना मन्द्रसा मापन्यासा समनिभूयसी ।। इति शुद्धपश्चमभाषाः। अथ भिन्नपञ्चमेधैवतभूषिता पूर्णा धांशग्रहन्यासा सधयो रिधयोर्युता । भिन्नपञ्चमसंभूता भाषा धैवतभूषिता ॥ शुद्धभिन्ना भिन्नपञ्चमजा शुद्धभिन्ना धांशा ग्रहान्तिमा । रिधयोः समयोर्युक्ता पूर्णा किंनरवल्लभा ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः वराटी भिन्नपञ्चमभाषा स्याद् वराटी धमभूयसी । धान्ता रिदुर्बला मांशा सधयोर्निगये युता ।। विशाला सधसंचारिणी पूर्णा पांशा धान्ता धभूषिता । भिन्नपञ्चमभाषा तु विशाला किंनरप्रिया ॥ ___इति भिन्नपञ्चमभाषाः । कौशली निषादांशग्रहा भिन्नपञ्चमस्य विभाषिका । कौशली धैवतन्यासा ऋषभेण विवर्जिता ।। इति भिन्नपञ्चमविभाषा। अथ टक्कैशिकेमालवा धाद्यन्तांशा मालवा स्यात् संपूर्णा टक्ककैशिके । संचारः सधयोर्यस्यां रिधयोश्चैव दृश्यते ॥ भिन्नवलिता धान्ता सांशग्रहा भिन्नलिता टक्ककैशिके । भाषा भवेद्भरिनिधा तत्संगतिमती मता ॥ इति टक्कैशिकभापे। द्राविडी मग्रहांशा धैवतान्ता निगयोः सधयोर्युता । टक्ककैशिकरागस्य विभाषा द्राविडी मता ॥ इति टक्कैशिकविभाषा। अथ हिन्दोलेवेसरी हिन्दोलभाषा सान्तांशा वेसरी रिधदुर्बला । संगता सगयो रिन्योः प्रेक्षणे विनियुज्यते ।। चूतमञ्जरी सपसंचारिणी सान्ता पग्रहांशा रिवर्जिता । हिन्दोलभाषा निगयोर्युता स्याच्चूतमञ्जरी ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मधुरी १३८ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् षड्जमध्यमा षड्जाद्या मध्यमान्तांशा हिन्दोले षड्जमध्यमा । भाषा निरिविहीना स्यात् समयोर्गमय र्युता ॥ मांशा सान्ता बहुपधनिसा हिन्दोलसंभवा । मधुरी ऋषभाल्पा स्यात् प्रेक्षणे विनियुज्यते ।। भिन्नपौराली मध्यमांशग्रहा षड्जन्यासा सप्तस्वरान्विता ।। हिन्दोलभाषा स्याद्भिन्नपौराली प्रेक्षणे मता ॥ मालववेसरी गापन्यासा सग्रहान्ता मपयोर्गमकान्विता । रिधत्यक्ता च हिन्दोलभाषा मालववेसरी ॥ इति हिन्दोलभाषाः। अथ बोट्टे माङ्गली मान्ता पांशग्रहा पूर्णा माङ्गली मध्यमज्ज्वला । बोट्टजा रिधसंचारा गीयते सर्वमङ्गले ॥ इति बोटभाषा। अथ मालवकैशिकेबाङ्गाली सान्ता मांशग्रहा पूर्णा वाङ्गाली मध्यमोज्ज्वला । रिमसंवादिनी भाषा भवेन्मालवकैशिके ।। माङ्गली सायन्तांशा मपाल्पा तत्स्फुरिता दीर्घधैवता । रिमतारा माङ्गली स्याद् भाषा मालवकैशिके । मालववेसरी धवर्जिता साद्यन्तांशा जाता मालवकैशिकात् । रितारा मन्द्रपा कम्प्रमपा मालववेसरी ।। खञ्जनी सान्ता पांशा धरहिता निसयो रिमयोर्युता । संकीर्णा खञ्जनी भाषा जाता मालवकैशिकात् ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] गुर्जरी पौराली अर्धवे शुद्धा मालवरूपा आभीरी द्वितीयो रागविवेकाध्यायः रिन्योश्च रिमयोश्चैव संगता निग्रहांशिका | षड्जान्ता गुर्जरी पूर्णा भाषा मालवकैशिके ॥ पौराली सग्रहांशान्ता षड्जमध्यमभूयसी । संपूर्णा चैव संकीर्णा जाता मालवकैशिकात् ॥ षड्जन्यासा मध्यमांशग्रहा पूर्णार्धवेसरी। निदुर्बला बहुसमा भाषा मालवकैशिके ॥ मध्यमांशग्रहा षड्जन्यासा सप्तस्वरैर्युता । शुद्धा हर्षे नियुक्ता जाता मालवकैशिकात् ॥ गान्धारप्रबला षड्जग्रहांशान्ता निधोज्झिता । भाषा मालवरूपा स्यादेषा मालव कैशिके ॥ साधारणकृताभीरी निगाल्पा सरिसंगता । पूर्णा सान्तग्रहा वीरे भाषा मालवकैशिके ॥ इति मालवकैशिकभाषाः । काम्भोजी साद्यन्तांशा निबहुला गमकोत्था रिपोज्झिता । काम्भोजी मन्द्रषड्जा विभाषा मालवकैशिके ॥ देवावर्धनी देवारवर्धनी मान्ता जाता मालवकैशिकात् । विभाषा त्यक्तगान्धारनिषादा पञ्चमान्तिमा || इति मालवकैशिकविभाषे । अथ गान्धारपञ्चमे— गान्धारी गान्धारपञ्चमे भाषा गान्धारी सगभूषिता । धाद्यन्ता सर्वलोकस्य हृद्या स्त्रीणां विशेषतः || इति गान्धारपश्चमभाषा । १३९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० अथ भिन्नषड्जे गान्धारवल्ली गान्धारवल्ली भाषा स्याद्भिन्नषड्जस्य धान्तिमा । मांशा पूर्णा सधयुता गीयते पितृकर्मणि ॥ षड्जग्रहांशा मन्यासा कूटतानसमाश्रया । गधहीना भिन्नषड्जे कच्छेलीं तां विदुः परे ॥ स्वरवल्लिका मग्रहांशा मन्द्रतारऋषभा गनिवर्जिता । रिहीना निग्रहा धांशन्यासा स्यात् स्वरवल्लिका | भिन्नषड्जस्य भाषेयं मृदुला मुनिसंमता ॥ निषादिनी भिन्नपड्जभाषा धांशग्रहान्तिमा । मध्यमा भिन्नषड्जस्य भाषा मान्ता ग्रहांशधा । धांशग्रहान्ता मृदुलधैवता रिपवर्जिता । पवर्जिता वा सगयोः संबद्धा भिन्नषड्जजा । सापन्यासा मन्द्रसगधा शुद्धा दीर्घपञ्चमा || धाद्यन्तांशा दाक्षिणात्या भाषा पञ्चमदुर्बला । सधयोः समयोर्युक्ता षाडवा भिन्नषड्जजा ॥ सान्ता धांशा हीनगपा पुलिन्दी भिन्नषड्जजा । सधयोः समयोर्युक्ता पुलिन्दजनवल्लभा ॥ तुम्बुरा भिन्नषड्जस्य भाषा ऋषभवर्जिता । धैवतांशग्रहन्यासा गीयते ब्रह्मचारिणी || षड्जभाषा भिन्नषड्जभाषा धांशग्रहान्तिमा । सकाकल्यन्तरा त्यक्तरिपा देवार्चने मता ॥ गांशा निदुर्बला धान्ता परिहीना चतुःस्वरा । हृद्यारोहावरोहा तु कालिन्दी भिन्नपड्जजा || कच्छेली निपादिनी मध्यमा शुद्धा दाक्षिणात्या पुलिन्दी तुम्बुरा षड्जभाषा संगीतरत्नाकरः कालिन्दी [ प्रकरणम् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ श्रीकण्ठी द्वितीयो रागविवेकाध्यायः धाद्यन्तांशा परहिता श्रीकण्ठी भिन्नषड्जजा । भाषापन्यासऋषभा रिमयोः संगता भवेत् ॥ गान्धारांशा मध्यमान्ता गान्धारी मध्यमोज्झिता । गेयैकान्ते भिन्नषड्जभाषा शार्दूलसंमता ॥ इति भिन्नपड्जभाषाः। गान्धारी पौराली विभाषा भिन्नषड्जस्य मांशा धान्ता रिदुर्बला । नागप्रिया स्यात् पौराली मरिपैः संगता मिथः ।। मालवी पूर्णा सरिगमैर्बह्वी ग्रहांशन्यासधैवता। धमन्दा भिन्नषड्जोत्था विभाषा मालवी मता ।। कालिन्दी गग्रहा धान्तिमा न्यल्पा परिहीना समस्वरा । विभाषा स्यात्तु कालिन्दी विस्मये भिन्नपड्जजा ॥ देवारवर्धनी भिन्नषड्जे विभाषा तु भवेद् देवारवर्धनी । निषादांशा धैवतान्ता ऋषभेण विवर्जिता ॥ इति भिन्नषड्जविभापाः। नाद्या अथ वेसरपाडवे संकीर्णा सग्रहा मान्ता गबह्वी पञ्चमोज्झिता । सायाह्ने गीयते नाद्या भाषा वेसरपाडवे ॥ बाह्यषाडवा निगयो रिगयोर्युक्ता संपूर्णा बाह्यषाडवा । मध्यमांशग्रहन्यासा भाषा वेसरषाडवे ।। इति वेसरपाडवभाषे। पार्वती विभाषा पार्वती पूर्णा सांशा वेसरषाडवे । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ श्रीकण्ठी अथ मालवपञ्चमे - वेगवती भावनी संगीतरत्नाकर: निक्यो रिधयोर्युक्ता श्रीकण्ठी मग्रहान्तिमा । विभाषा पञ्चमत्यक्ता जाता वेसरपाडवे ॥ इति वेसरपाडवविभाषे । विभावनी ――― सग्रहान्ता वेगवती धांशा मालवपञ्चमे । सप्तस्वरा विभाषेयमञ्जनासृनुसंमता ॥ भावनी पञ्चमांशान्तग्रहा मालवपञ्चमात् । जाता विभाषा षड्जापन्यासा ऋषभवर्जिता ॥ विभावनी विभाषा स्यात् पूर्णा मालवपञ्चमे । पञ्चमांशग्रहन्यासा मगधाल्पा पमन्द्रभाक् ॥ इति मालवपञ्चमविभाषाः । अथ भिन्नताने तानोद्भवा भिन्नतानोद्भवा तानोद्भवा ऋषभवर्जिता । पञ्चमांशग्रहन्यासा साधारणकृता मता ॥ इति भिन्नतानभाषा | अथ पञ्चमषाडवे पोता ऋषभांशग्रहन्यासा धहीना निसभूयसी । पोता प्रोक्ता मतङ्गेन भाषा पञ्चमषाडवे || इति पचमषाडवभाषा । अथ मतान्तरेण रेवगुप्ते शका सन्यासा रेवगुप्तस्य भाषा मांशा शकाह्वया । गपाभ्यां बहुला पूर्णा रिधाभ्यामपि भूयसी ॥ इति रेवगुप्तभाषा । [ प्रकरणम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः १४३ अथानुक्तजनकाःपल्लवीविभाषा धान्तांशा पल्लवी पूर्णा गतारा रिसभूयसी । अन्तरभापाः भासवलिता धाद्यन्तांशाल्परिर्भासवलिता पञ्चमोज्झिता । किरणावली धग्रहांशा तारगनिर्निमन्द्रा किरणावली । शकवलिता शकाद्या वलिता मांशा धन्यासा धनिसंगता । इत्यन्तरभाषाः। इत्यनुक्तजनकाः । अथोपरागाः-- शकतिलकः स्यात् षाड्जीधैवतीजात्योः षड्जांशन्याससंयुतः । दुर्बल: पञ्चमो यत्र शकाद्यस्तिलकस्तु सः ॥ टक्कसैन्धवः स्यात् षाड्जीकैशिकीजात्योः संभूतष्टकसैन्धवः । षड्जांशन्याससंयुक्तः पञ्चमेन तु दुर्बलः ॥ कोकिलापञ्चमः पञ्चमीमध्यमाजात्योः कोकिलापञ्चमो भवेत् । पञ्चमांशग्रहः पूर्णो मध्यमन्याससंयुतः ॥ भावनापञ्चमः गान्धारपञ्चमीजातेर्भावनापञ्चमो भवेत् । गान्धारग्रहसंयुक्तः पञ्चमांशः समस्वरः ।। नागगान्धारः गान्धारीरक्तगान्धार्यो गगान्धारको भवेत् । गान्धारांशग्रहन्यासः काकल्यन्तरसंयुतः ॥ नागपञ्चमः नागपश्चमरागोऽयमार्षभीधैवतीभवः ।। ऋषभांशग्रहस्त्यक्तगान्धारो धैवतान्तिमः ॥ इत्युपरागाः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ संगीतरत्नाकरः [प्रकरणम् प्रसवः अथ निरुपपदरागा:नट्टः मध्यमोदीच्यवाजातेर्नट्टस्तारस्थषड्जकः । मध्यमांशग्रहन्यासः संपूर्णश्च समस्वरः ॥ भासः आन्ध्रीसमुद्भवो भासो ग्रहांशन्यासधैवतः । रक्तहंसः रक्तगान्धारिकाजातो रक्तहंसो रिवर्जितः । धैवतांशग्रहन्यासस्तारगान्धारमेदुरः ।। कोल्हासः नैषादीधैवतीयुक्तशुद्धजातिसमुद्भवः । षड्जन्यासग्रहांशश्च कोल्हासो रिधदुर्बलः ॥ नन्दयन्तीसमुद्भूतः प्रसवो मग्रहांशकः । सन्यासो निधयोर्युक्तः पूर्णो वीरे नियुज्यते ॥ ध्वनिः गान्धारपञ्चमीजातो ध्वनिः पूर्णः पधाधिकः । पञ्चमांशग्रहन्यासो निगाल्पो मन्द्रमध्यमः ।। कंदर्पः षड्जकैशिक्या जातः षड्जग्रहांशकः । षड्जान्तो मन्द्रषड्जश्च पञ्चमेन विवर्जितः ॥ देशाख्यः धैवतीमध्यमाजात्योर्जातो धांशग्रहान्तिमः । देशाख्यः स्वल्पगान्धारो ममन्द्रो हीनपञ्चमः ॥ कैशिकककुभः धैवतांशग्रहन्यासो गतारो मन्द्रपञ्चमः । स्यात्तत्र हेतुजात्युक्तः ककुभान्तस्तु कैशिकः ॥ नट्टनारायणः नट्टनारायणः पूर्णः षड्जन्यासग्रहांशकः । मध्यमापञ्चमीजातः सकाकल्यन्तरः सदा। करुणे कालदैवत्यो गेयः शरदि तारगः ॥ इति निरुपपदरागाः। कंदर्पः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ घण्टारवः द्वितीयो रागविवेकाध्यायः अथ प्राक्प्रसिद्धदेशीरागा:शंकगभरणः यदायं मध्यमादिश्चेत् स्यान्मन्द्रस्वरमुद्रितः । छायान्तरेण युक्तः स्याच्छंकराभरणस्तदा ॥ घण्टारवो धग्रहांशो मन्द्रगान्धारमेदुरः । नितारो भिन्नषड्जाङ्गं मध्यमन्यासमण्डितः ।। हंसक: हंसको भिन्नषड्जाङ्गं धग्रहांशः सवर्जितः । दीपक: संपूर्णो दीपको जातो भिन्नकैशिकमध्यमात् । गपाल्पः सग्रहो मान्तः संकीर्णो दीप्तमध्यमः ।। धन्नासिकैवोच्चतरा दीपकोऽन्यैर्बुधैः स्मृतः । रीतिः सन्यासांशग्रहा पूर्णा रीतिः स्याद्भिन्नषड्जजा । पूर्णाटिका पड्जन्यासग्रहा धांशा सतारा मन्द्रमध्यमा । समस्वरा च संकीर्णा पूर्णा पूर्णाटिका मता ॥ सन्यासांशग्रहा पूर्णा लाटी स्याल्लाटदेशजा । पल्लवी धैवतांशग्रहन्यासा गतारा मन्द्रमध्यमा । पल्लवी नाम पूर्णेयं सगरिप्रचुरा भवेत् ॥ इति रागाङ्गाणि। अथ भाषाङ्गाणि- . गाम्भीरी षड्जग्रहांशा गाम्भीरी पञ्चमान्ता समस्वरा । संपूर्णा तारषड्जा च स्वरेष्वल्पादिवर्जिता ॥ वेहारी मध्यमांशग्रन्यासा षड्जान्ता च निवर्जिता । समस्वरा च वेहारी सतारा मन्द्रमध्यमा ॥ श्वसिता गान्धारग्रहणन्यासा षड्जांशा तारवर्जिता । समस्वरा समन्दा च श्वसिता स्याद्रिपोज्झिता ।। लाटी 19 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रकरणम् छाया संगीतरत्नाकरः उत्पली मध्यमांशग्रहन्यासा संपूर्णा तारथैवता । निमन्द्रा सपतारा स्यादुत्पलीयं समस्वरा ।। गोली धैवतांशग्रहन्यासा गनिहोना रितारजा।। धरिसर्बहुला गोली गातव्या गीतवेदिभिः । नादान्तरी मग्रहांशा च पन्यासा रितारा मन्द्रसंमता । बहुली निधसैः पूर्णा गाल्पा नादान्तरी मता ।। नीलोत्पली धैवतांशग्रहा तारषड्जन्यासा पमन्द्रजा । समस्वरा हीननिगा ज्ञेया नीलोत्पली बुधैः ।। मध्यमांशग्रहन्यासा रिमन्द्रा तारगा परा । अल्पशेषा पभूयिष्ठा छाया स्याद्वीतषड्जिका ।। तरङ्गिणी ऋषभान्तग्रहा धांशा संपूर्णा सममन्द्रभाक् । समस्वरा ताररिया संकीर्णा स्यात्तरङ्गिणी । गान्धारगतिः गांशा सान्ता पग्रहा च स्यात्तारनिरिवैवता । गान्धारगतिका प्रेक्ता संकीर्णा च समस्वरा ।। बेरञ्जी सन्यासांशग्रहा पूर्णा समन्द्रा निवभूयसी । पाल्पा पतारा वेरञ्जी वरे संकीर्णलक्षणा ।। __इति भाषाङ्गाणि । अथ क्रियाङ्गाणि भावक्रीप्रभृतीनां तु द्वादशानां तु लक्षणम् । षड्जन्यासग्रहांशश्च समानमितरत् पुनः ॥ संपूर्णत्वादिकं तद्वत् स्वराल्पत्वादिकं तथा । तत्तद्गमकयुक्तत्वादिकं ज्ञेयं हि लक्ष्यतः ॥ इति क्रियाङ्गाणि। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयो रागविवेकाध्यायः अथोपाङ्गानिपूर्णाटः धग्रहो मध्यमन्यासपूणों बहुलपञ्चमः । पूर्णाटो भिन्नषड्जे स्यादन्ये तं सालगं जगुः ।। मांशग्रहान्तो रिवयोर्मुदुमध्यमकम्पितः । निरिधाल्पश्च देवालो बङ्गालोपाङ्गमिप्यते ॥ प्रयुञ्जतेऽस्मिन् प्राचीनाः कामे.दोक्तं च लक्षणम् । मतङ्गो देवलामाह तमेतं गीतकोविदः । पञ्चमांशमहन्यासा गमन्द्रा रिनिवर्जिता । कुरजी ललितोपाङ्गं षड्जपञ्चमभूयसी ॥ देवाल: इत्युपाङ्गानि । इति प्राक्प्रसिद्धदेशीरागाः । चतुरः कल्लिनाथार्यो गानविद्याविशेषवित् । शेषं रागविवेकस्य लक्षणैरित्यपूरयत् ॥ इति रागागादिनिर्णयाख्यं द्वितीयं प्रकरणम् इति श्रीमद भिनवभरताचार्यरायवय(वाग्गेय)कारतोडरमल्ललक्ष्मणाचार्यनन्दनचतुरकल्लिनाथविरचिते संगीतरत्नाकरकलानिधी रागविवेकाख्यो द्वितीयोऽध्यायः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः अथ प्रकीर्णकं कर्णरसायनमनाकुलम् । देशीमार्गाश्रयं वक्ति शार्ङ्गदेवो विदां वरः ॥ १ ॥ वाग्गेयकारलक्षणम् वाङ् मातुरुच्यते गेयं धातुरित्यभिधीयते । वाचं गेयं च कुरुते यः स वाग्गेयकारकः ॥ २ ॥ 1 (क० ) द्वितीयेऽभिहितलक्षणानां ग्रामरागादीनां स्वरूपसाक्षात्कारस्य गातृनिर्मातृपरतन्त्रत्वेन तत्स्वरूपजिज्ञासायां तदादिलक्षणपरं प्रकीर्णकं वर्णयितुं प्रतिजानीते - अथ प्रकीर्णकमित्यादिना । कर्णरसायनत्वेऽनाकुलत्वं हेतुः । अनाकुलत्वं चासंकीर्णतयार्थप्रतिपादनाद्भवति । तेन सुश्राव्यत्वं भवतीत्यर्थः । देशीमार्गाश्रयमिति विशेषणमत्र लिलक्षयिषितानां वाग्गेयकारादीनां देशीमार्गोभयसाधारणत्वात् तल्लक्षणपरस्य ग्रन्थस्यापि देशीमार्गोभयाश्रयत्वेन प्रकीर्णकत्वद्योतनार्थम् । प्रकीर्णकत्वं च ग्रन्थस्य विषयविभागेन विना प्रवृत्तत्वमुच्यते । वक्तीति स्वस्मिन्नपि परत्वारोपेण प्रथमपुरुषनिर्देशः स्वस्य गर्वराहित्यद्योतनाय । यथा – “ केनाप्यत्र मृगाक्षि राक्षसपतेः कृत्ता च कण्ठाटवी " इत्यादि । शार्ङ्गदेवोऽहं वच्मीत्यर्थः। गातृव्यापारविषयगीतनिर्मातृत्वेन प्राधान्यात् प्रथमोद्दिष्टस्य वाग्गेयकारस्य लक्षणं नामनिरुक्तिपूर्वकमाह – वाङ् मातुरित्यादिना । मातुधातुशब्देोद्देशावपि लोकप्रसिद्ध्यनुरोधेन वाग्गेयपर्याये प्रागुक्ताविति मन्तव्यौ । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० संगीतरत्नाकरः शब्दानुशासनज्ञानमभिधानप्रवीणता । छन्दःप्रभेदवेदित्वमलंकारेषु कौशलम् ॥ ३ ॥ रसभाव परिज्ञानं देशस्थितिषु चातुरी । अशेष भाषाविज्ञानं कलाशास्त्रेषु कौशलम् ॥ ४ ॥ तौर्यत्रितयचातुर्य हृयशारीरशालिता । लयतालकलाज्ञानं विवेकोऽनेककाकुषु ॥ ५ ॥ प्रभूतप्रतिभोद्भेदभाक्त्वं सुभगगेयता । देशीरागेष्वभिज्ञानं वाक्पटुत्वं सभाजये ।। ६ ।। 'रोषद्वेषपरित्यागः सार्द्रत्वमुचितज्ञता । शब्दानुशासनमिति । शब्दानुशासनं व्याकरणशास्त्रम् ; तस्य ज्ञानम् । एतेन प्रथमं तावत् सुशब्दापशब्दविवेचकेन भवितव्यमित्यर्थः । अभिधानम् अमरकोशादि । छन्दःप्रभेदाः अनुष्टुवादयः । अलंकाराः उपमादयः अनुप्रासादयश्च । रसाः शृङ्गारादयः । भावाः विभावादयः । देशस्थितिषु पाञ्चाल्यादिषु । कलाशास्त्रेषु संगीतशास्त्रादिपु । तौर्यत्रितयं नृत्तगीतवाद्यम् । शारीरम् अत्रैत्र वक्ष्यमाणलक्षणम् । ल्याः द्रुतादयः । तालाः चच्चत्पुटादयः । कलाः आवापादयो निःशब्दा ध्रुवादयः सशब्दाश्च । काक्रवः स्वरकाक्कादयः षड्विधाः स्थायेषु वक्ष्यमाणलक्षणाः । प्रतिभा प्रज्ञ. विशेषः । यथाहुः— 1 'स्मृतिर्व्यतीत विषया मतिरागामिगोचरा । बुद्धिस्तात्कालिकी प्रोक्ता प्रज्ञा त्रैकालिकी मता ॥ प्रज्ञां नवनवोन्मेषशालिनीं प्रतिभां विदुः ॥ " इति । रोषः वाचिकोऽमर्षः । द्वेषः मानसिकः । साईत्वं सरसत्वम् । 1 राग इति सुधाकरपाठः (6 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः अनुच्छिष्टोक्ति निबन्धो नूनधातुविनिर्मितिः ॥७॥ परचित्तपरिज्ञानं प्रबन्धेषु प्रगल्भता। द्रुतगीतविनिर्माणं पदान्तरविदग्धता ।। ८ ।। त्रिस्थानगमकप्रौढिविविधालप्तिनैपुणम् । अवधानं गुणैरेभिर्वरो वाग्गेयकारकः ॥ ९ ॥ विदधानोऽधिकं धातुं मातुमन्दस्तु मध्यमः । धातुमातुविदप्रौढः प्रबन्धेष्वपि मध्यमः॥१०॥ रम्यमातुविनिर्माताप्यधमो मन्दधातुकृत् । वरो वस्तुकविवर्णकविर्मध्यम उच्यते ॥ ११ ॥ कुहिकारोऽन्यधातौ तु मातुकारः प्रकीर्तितः। इति वाग्गेयकारलक्षणम् । प्रबन्धेषु एलायेषु । पदान्तरं नानागीतच्छायानुकारिंगीतनिर्माणम् । गमकाः तिरिपादयो वक्ष्यमाणाः । विविधालप्तयः रागरूपकादिविशेषणयुक्ता वक्ष्यमाणाः । अवधानं चित्तैकाग्रता। एतानि शब्दानुशासनज्ञानार्दनि समुदितानि वाग्गेयकारस्य लक्षणम् , न तु प्रत्येकं लक्षणानि । वस्तुकविः कथाकविः। वर्णकविः वर्णनाकविः । अन्यधातौ मातुकारस्तु कुट्टिकारः प्रकीर्तितः इत्यन्वयः । अत्र तुशब्देन कुट्टिकारस्याधमाधमत्वं घे.त्यते । तेन कुट्टिकारोऽत्यन्ताधम इत्यवगन्तव्यः ॥ १-१२ ॥ (सं०) तृतीयं प्रकीर्णकाध्यायं वक्तुं प्रतिजानीते-अथेति । प्रथमाध्याये स्वरान् निरूप्य स्वरेभ्य: साक्षात् समुत्पन्ना जातयो निरूपिताः । ततो रागाणां जातिभ्यः समुत्पन्नत्वाद्रागाणां निरूपणं प्राप्तावसरमिति द्वितीयाध्याये रागा निरूपिताः । रागाभिव्यक्तिहेतुत्वादालप्तिलक्षणमपेक्षितम् । तत्र रागलक्षणेषु गमकानामुपयोग उक्तः । अतो गमकलक्षणमप्यपेक्षितम् । रागाणां च केवलं लक्षणतो दुनित्वाद्वाग्गेयकारादिप्रसिद्धिरपेक्षिता । अतो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः वाग्गेयकारादिलक्षणसमुचयरूपस्य प्रकीर्णकाध्यायस्य रागाध्यायानन्तरं युक्त आरम्भः । कर्णरसायनमिति सुकुमारशब्दोपनिबद्धत्वात् । अनाकुलं विशदम् । देशीमार्गाश्रयमिति । अत्र निरूपितानां गमकस्था यशारीर शब्दानामुभयत्रापि प्रयोगात् । वाग्गेयकारस्य निर्वचनं लक्षणं च कथयति - वाङ् मातुरिति । वाक् कात्र्यम् गायक प्रसिद्धया मातुरित्युच्यते । गेयं गानयोग्यं धातुरिति । उभयं यः कुरुते स वाग्गेयकारकः । उत्तमवाग्गेयकारकस्य गुणान् कथयति --- शब्दानुशासनेति । शब्दानुशासनं व्याकरणम् । अभिधानं नामलिङ्गानुशासनम् । छन्द: प्रभेदाः समार्धसमविषमादयः । अलंकारेषु वामनभामहादिप्रोक्तेषु ग्रन्थेषु उपमा दिनु वा | कौशलं प्रावीण्यम् । रसाः शृङ्गारादयः । भावा: निर्वेदादयः । देशस्थितिषु चातुरी देशका कुपरिज्ञानार्थम् । अशेषभाषाविज्ञानं देशैलादिनिर्माणाय । कलाशास्त्राणि चतुःषष्टिः संगीतशास्त्रादीनि । तौयंत्रितयं नृत्तगीतवाद्यानि । शारीरं वक्ष्यमाणलक्षणम् । लयतालकला अपि तालाध्याये वक्ष्यमाणलक्षणाः । काकवः देशकाक्कादयो वक्ष्यमाणलक्षणाः । प्रभूतप्रतिभोदभाक्त्वं बहुप्रतिभोदयवत्ता । प्रतिभा प्रमेयस्फूर्तिः शक्तिशब्देनोच्यते कविभिः । तदुक्तं काव्यप्रकाशे १५२ "शक्तिर्निपुणता लोकशास्त्रकात्र्याद्यवेक्षणात् । काव्यज्ञशिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे ॥ " इति। सुभगगेयता श्रभ्यगानत्वम् । देशीरागाः श्रीरागादयः पूर्वोक्ताः । रागद्वेषपरित्यागः वादेषु प्राश्निकत्वाय । सार्द्रत्वं सरसचित्तत्वम् । उचितज्ञता रस निर्वाहार्थम् । तदुक्तम् – ८८ अनौचित्यादृते नान्यद्रसभङ्गस्य कारणम् । प्रसिद्धयौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत् परा ॥ " इति । अनुच्छिष्टा उक्तिः अन्येन कविना रचितशब्दपरंपरापरित्यागेन माधुर्यकविनिबद्धता | प्रबन्धेषु एलादिषु । लक्षणपरिज्ञानमुपनिबन्धनशक्तिश्च प्रगल्भता । द्रुतगीतविनिर्माणं शीघ्रगीतनिर्माणम् । पदान्तरलक्षणं वक्ष्यति प्रबन्धाध्याये । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः गान्धर्वस्वरादी मार्ग देशी च यो वेत्ति स गान्धर्वोऽभिधीयते ॥१२॥ यो वेत्ति केवलं मार्ग स्वरादिः स निगद्यते । इति गान्धर्वस्वरादी। गायनलक्षणम् हृद्यशब्दः सुशारीरो ग्रहमोक्षविचक्षणः ॥१३॥ तत्र वैदग्ध्यम् | अवधानं पूर्वापरविनिश्चितिः। एभिर्गुणयुक्त उत्तमो वाग्गेयकारकः। यस्तु धातुं गेयं सम्यक् रचयति, मातौ वाग्गुम्फे च मन्दः स मध्यमः । यस्तु धातुं मातुं द्वयमपि जानाति, यस्य प्रबन्धेषु प्रौदिश्च नास्ति स मध्यमः । यस्तु मातुं सम्यक् रचयति, धातौ च मन्दः सोऽधम: । यस्तु वस्त्वभिधेयं सम्यक् रचयति स वर उत्तमः । यस्याभिधेये रमणीयता नास्ति, यश्च वर्णानेव सम्यक् रचयति स मध्यमः। यस्त्वन्यधातौ मातुं रचयति स कुट्टिकार इत्युच्यते । वाग्गेयकारदोषा उक्ता: संगीतसमयसारकारेण "ग्राम्योक्तिरपशब्दश्च तद्वदप्रस्तुतस्तुतिः । गमके च पदे जाडयं प्रवन्धज्ञानहीनता ।। रसानुरूपरागाणामज्ञत्वमविदग्धता । क्रियानिर्वहणाज्ञत्वं मन्दशारीरता तथा ॥ माने न्यूनाधिकाज्ञत्वं रीतिभङ्गस्तथा पुनः । छायापरिच्युतिस्तद्गानं चासमये तथा ॥ अश्राव्यं लक्षणं त्यक्त्वा धातुमातू करोति यः । दोरेतैरुपेतो यो निन्द्यो वाग्गेयकारकः ॥" इति ॥ १-१२ ॥ (क०) गीतगुणदोषपरिज्ञातृतया सहृदयत्वेनोद्दिष्टौ गान्धर्वस्वरादी लक्षयति-मागे देशी चेति । अथ गायनं लक्षयति-हृद्यशब्द इत्यादिना। शब्दशारीरयोर्लक्षणमनन्तरं वक्ष्यते । ग्रहमोक्षौ अत्र गीतस्यारम्भपरिसमाप्ती; तयोविचक्षणः । तत्र विचक्षणत्वं नाम ग्रहताललयानुरोधेन गीतनिर्वाहकत्वम् । 20 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ संगीतरत्नाकरः रागरागाङ्गभाषाङ्गक्रियाङ्गोपाङ्गकोविदः । 'प्रबन्धगाननिष्णातो विविधालप्तितत्त्ववित् ॥ १४ ॥ सर्वस्थानोत्थगमकेष्वनायासलसद्गतिः । आयत्तकण्ठस्तालज्ञः सावधानो जितश्रमः ॥ १५ ॥ शुद्धच्छायालगाभिज्ञः सर्वका कुविशेषवित् । अनेक स्थायसंचारः सर्वदोषविवर्जितः ॥ १६ ॥ क्रियापरो युक्तलयः सुघटो धारणान्वितः । स्फूर्जन्निर्जवनो ' हारिरहः कृद्भजनोद्धुरः ॥ १७ ॥ सुसंप्रदायो गीतज्ञैर्गीयते गायनाग्रणीः । गुणैः कतिपयैर्हीनो निर्दोषो मध्यमो मतः ॥ १८ ॥ महामाहेश्वरेणोक्तः सदोषो गायनोऽधमः । शिक्षाकारोऽनुकारश्च रसिको रञ्जकस्तथा ॥ १९ ॥ भावकश्चेति गीतज्ञाः पञ्चधा गायनं जगुः । अन्यून शिक्षणे दक्षः शिक्षाकारो मतः सताम् ॥२०॥ अनुकार इति प्रोक्तः परभङ्गयनुकारकः । रसाविष्टस्तु रसिको रञ्जकः श्रोतृरञ्जकः ।। २१ । गीतस्यातिशयाधानाद्भावकः परिकीर्तितः । एकलो यमलो वृन्दगायनश्चेति ते त्रिधा ॥ २२ ॥ आयत्तकण्ठः; स्वाधीनध्वनिः । क्रियापरः; अभ्यासतत्परः । सुघटः ; शोभनं यथा भवति तथा घटयतीति सुघटः । लौकिकदेशभाषया 'सुघड' इति वदन्ति । स्फूर्जन्निर्जवनः ; निर्जश्नस्य लक्षणं स्थायेषु वक्ष्यते । अप्रतिहतवेगवा 1 प्रबन्धतालेति सुधाकरपाठः 2 हारिरंहःकृदिति सुधाकरपाठः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः १५५ एक एव तु यो गायेदसावेकलगायनः। सद्वितीयो यमलकः सबृन्दो वृन्दगायनः ।। २३ ॥ रूपयौवनशालिन्यो गायन्यो गातृवन्मताः। माधुर्यधुर्यध्वनयश्चतुराश्चतुरप्रियाः ॥ २४ ॥ इति गायनलक्षणम् । नित्यर्थः । रहःकृतगीतस्य श्रोतृजनमोहनत्वं रह इत्युच्यते ; तत्करोतीति तथोक्तः । सुगममन्यत् ॥ १३-२४ ॥ ___ (सं०) गान्धर्व लक्षयति-मार्गमिति । देशीमार्गावुक्तलक्षणौ । तौ यो जानाति स गान्धर्वः । यः केवलं मार्ग जानाति स स्वरादिः । गायनं लक्षयतिहृद्यशब्द इति। हृद्यो रमणीयः शब्दो यस्य। गुणयुक्तशारीरः । गीतस्योद्ग्रहणस्थानं विमुक्तिस्थानं च यः सम्यक् जानाति। रागा मार्गरागादयः; रागाङ्गादीनि देशीरागादयः; तेषु कोविदः । प्रबन्धेषु एलादिषु तालेषु च निष्णातः सुज्ञः। विविधानां वक्ष्यमाणानामालप्तीनां तत्त्वज्ञः । मन्द्रमध्यतारस्थानोत्थगमकेषु निरायासशारीरगतिमान् । आयत्तकण्ठः; स्वाधीनकण्ठः । सावधानः; श्रुतिनिश्चयज्ञः । जितश्रमः ; बहुप्रबन्धगानेऽप्यश्रान्त: । शुद्धच्छायालगाभिज्ञः; मार्गसूडसालगसूडाभिज्ञः । काकुविशेषा वक्ष्यन्ते ; तदभिज्ञः । अनेकस्थायसंचारे प्रवीणः । स्थाया वक्ष्यन्ते । क्रियापरः; गानक्रियाभ्यासतत्परः । संगीतसमयसारकारेण क्रियापरस्य लक्षणमुक्तम् "यथाशास्त्रप्रयोगेण मार्ग देशीयमेव च । यो गायति विना दोषान् कथ्यतेऽसौ क्रियापरः ॥" इति । युक्तलयः; गायकप्रसिद्धया रअकः । सुघटस्य लक्षणमुक्तं संगीतसमयसारकारेण "स्वरो वर्णश्च तालश्च व्यक्तं घटयति त्रयम् । शोभनध्वनिसंयुक्तः सुघटं तं प्रचक्षते ॥" Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ संगीतरत्नाकरः गायनदोपाः संदष्टोघुष्टसूत्कारिभीतशङ्कितकम्पिताः। कराली विकलः काकी वितालकरभोद्भटाः ॥ २५ ॥ इति । धारणान्वित इति । धारणालक्षणमुक्तं तत्रैव " अनुतारात् परं श्रुत्या हानेनापसरन् स्वरात् । ___ध्वनेः सुगाढता तज्ज्ञैर्धारणा समुदाहृता ॥" इति । तथा "जितश्वासतया गानं नाम्ना निर्जवनं विदुः ।" इति निर्जवनलक्षणं तत्रैव । रंहःकृत् वेगगायी । भजनं रागसुव्यक्ति: सुशारीरसमुद्भवा । भजनेनो र उत्कटः । एवंविधैर्गुणरुत्तमो गायकः । कतिपयैर्गुणैर्हीनः निर्दोषश्च मध्यमः । दोषयुक्तस्त्वधमः । पञ्चप्रकारं गायनं कथयति-शिक्षाकार इति । एतेषां लक्षणं कथयति- अन्यूनशिक्षण इति । एतेषां लक्षणमुक्तं संगीतसमयसारकारेण “द्रुतं यः शिक्षते गीतं विषमं प्राञ्जलं तथा । शुद्ध वा सालगे सम्यक् शिक्षाकारः स कथ्यते ॥ मुश्रवं गीतमाकर्ण्य भवेद्यः पुलकान्वितः । सानन्दोऽश्रुभिराकीर्णो रसिको गायकः स्मृतः ।। नीरसं सरसं कुर्वन्निर्भावं भावसंयुतम् । बुद्धा श्रोतुरभिप्रायं यो गायेत् स तु भावकः ।। चेतोलग्नेन गीतेन विदित्वा श्रोतुराशयम् । रङ्गं गीते विधत्ते यो रञ्जकः सोऽभिधीयते ॥" इति। पुनरपि त्रैविध्यं कथयति–एकल इति । एतेषां लक्षणं कथयति-एक एवेति। गायनलक्षणं गायन्यामप्यतिदिशति-रूपयौवनेति । चतुरा विदग्धा॥१३-२४॥ (क०) एवं सभेदं गायनं गायनीं च लक्षयित्वा तदोषान् धर्मिपरत्वेनोद्दिश्य लक्षयति-संदष्टो ष्टेत्यादिना । स्पष्टोऽर्थः । एते दोषा गायनीगतत्वेनाप्यूह्याः ॥ २५-३८ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः १५७ झोम्बस्तुम्बकी वक्री प्रसारी विनिमीलकः । विरसापस्वराव्यक्तस्थानभ्रष्टा व्यवस्थिताः ॥ २६ ॥ मिश्रकोsनवधानश्च तथान्यः सानुनासिकः । पञ्चविंशतिरित्येते गायना निन्दिता मताः ॥ २७ ॥ संदश्य दशनान् गायन् संदष्टः परिकीर्तितः । उद्घष्टो विसरोद्घोषः सूत्कारी सूत्कृतैर्मुहुः ||२८|| भीतो भयान्वितो गाता त्वरया शङ्कितो मतः । कम्पितः कम्पनाज्ज्ञेयः स्वभावाद्गात्रशब्दयोः ॥ कराली गदितः सद्भिः करालोद्घाटिताननः । विकलः स तु यो गायेत् स्वरान् न्यूनाधिकश्रुतीन् ॥ काकक्रूररवः काकी वितालस्तालविच्युतः । दधानः कंधरामूर्ध्वा करभोऽभिहितो बुधैः ॥ ३१ ॥ छागवद्वहनीं कुर्वन्नुद्भटोऽधमगायनः । सिराल भालवदनग्रीवो' गाता तु झोम्बकः ॥ ३२ ॥ (सं०) निन्दितान् गायकान् कथयति - संदष्टेति । एतेषां लक्षणं कथयति - संदश्येति । सूत्कृतैरुपलक्षितं यो गायति सः सूत्कारी । करालं भयानकमुद्धा - टितं विवृतमाननं येन | काकवत् क्रूरो रवो यस्य सः काकक्रूररवः । छागो मेषः, तद्वक्ष्यमाणलक्षणां वहनीं कुर्वन्नुद्भटः । सिरालं भालं वदनं ग्रीवा च यस्मिन्निति क्रियाविशेषणम् । तुम्बकम् अलाबु ; तद्वत्फुल्लुगलुस्तुम्बकी । निषिद्धस्वरगानात् अपस्वरः | स्थानकत्रयं मन्द्रमध्यमताराख्यम् । अव्यवस्थितैः व्यस्तैः स्थानैरुपलक्षितं गायन्नव्यवस्थितः । वक्ष्यमाणलक्षणेषु स्थायेषु, आदिशब्देन गमकेषु चावधाननिर्मुक्तः स्थानविपर्यासकृत् अनवधानः । अन्येऽपि गायकविशेषाः संगीतसमयसारकारेणोक्ताः 1 ग्रीवम् इति सुधाकरपाठः । 1 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः तुम्बकी तुम्बकाकारोत्फुल्लगल्लस्तु गायनः। वक्री चक्रीकृतगलो गायन धीरैरुदीरितः ॥ ३३ ॥ प्रसारी गीयते तज्ज्ञैर्गावगीतप्रसारणात् । निमीलको मतो गायन् निमीलितविलोचनः॥३४॥ विरसो नीरसो वयंवरगानादपस्वरः । गद्गदध्वनिरव्यक्तवर्णस्त्वव्यक्त उच्यते ॥ ३५ ॥ स्थानभ्रष्टः स यः प्राप्तुमशक्तः स्थानकत्रयम् । अव्यवस्थित इत्युक्तः स्थानकैरव्यवस्थितैः ।। ३६ ॥ शुद्धच्छायालगौ रागौ मिश्रयन् मिश्रकः स्मृतः । इतरेषां च रागाणां मिश्रको भूरिमिश्रणात् ॥३७॥ स्थायादिष्ववधानेन निर्मुक्तोऽनवधानकः। "गीतादपि यदालप्तिं कुर्यात् सौख्यविधायिनीम् | आलप्तिगायन: सोऽयं निर्दिष्टो गीतवेदिभिः ॥ आलप्तेरपि यद्गीतं भवेदतिमनोहरम् | उक्तो गायकभेदज्ञैः सोऽयं रूपकगायन: ॥ शुद्धे छायालगे चैव गीतमालप्तिसंयुतम् | यो गायति स विज्ञेयश्चौपटो गीतवेदिभिः ॥ ध्वनिशारीरयोर्यत्र नानादेशेषु रीतयः । विलगन्ति स विज्ञेयो वितालो गीतवेदिभिः ॥ नानाविधं विभक्तं च ध्वनौ यस्य भवेद्गलम् । निबन्धः स तु विज्ञेयो गीततत्त्वविचक्षणैः ॥ रागे रागान्तरच्छायां मिश्रयन् दोषवर्जितः । प्रवीणत्वेन यो गायेत् सोऽयं मिश्र उदाहृतः ।।" इति || २५-३८॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः गेयं नासिकया गायन् गीयते सानुनासिकः ॥३८॥ इति गायनदोषाः। __ शब्दभेदाः चतुर्भेदो भवेच्छब्दः खाहुलो नारटाभिधः। बोम्बको मिश्रकश्चेति तल्लक्षणमथोच्यते ॥ ३९ ॥ कफजः खाहुलः लिग्धमधुरः सौकुमार्ययुक् । आडिल्ल एष एव स्यात् प्रौढश्चेन्मन्द्रमध्ययोः॥४०॥ त्रिस्थानधनगम्भीरलीनः पित्तोद्भवो ध्वनिः । नाराटो बोम्बकस्तु स्यादन्तनि:सारतायुतः॥४१॥ परुषोचैस्तरः स्थूलो वातजः शाङ्गिणोदितः । (क०) हृद्यशब्द इति गायनविशेषणत्वेन प्रसक्तं शब्दं सप्रभेदं लक्षयति-चतुर्भेद इत्यादिना, ते ग्रन्थविस्तरत्रासादस्माभिर्न समीरिता इत्यन्तेन । तत्र खाहुलादयः शब्दा रूढाः । मिश्रकशब्दोऽन्वर्थः । निगदव्याख्यातमन्यत् ।। ३९-६७ ॥ (सं०) अथ शब्दभेदान् कथयति-चतुर्भेद इति । खाहुलं लक्षयतिकफज इति । श्लेष्मणो जातः । स्नेहमाधुर्यसौकुमार्याणि शब्दे औपचारिकाणि ज्ञातव्यानि । एष एव खाहुल: शब्दः मन्द्रमध्यस्थानयोः प्रौढिं व्याप्ति प्राप्नोति चेत्तदा आडिल्ल इत्युच्यते । नाराटं लक्षयति-त्रिस्थानेति । मन्द्रमध्यतारस्थानत्रयेऽपि धनोऽन्त:सारः, गम्भीरो निर्बादी, लीनोऽस्फुटितः, पित्तोत्पन्नध्वनि राटः । बोम्बकं लक्षयति--बोम्बकस्त्विति । एरण्डकाण्डवदन्तनि:सार:, परुपः स्निग्धताहीनः, उच्चैस्तरः तारो गर्दभध्वनिवदुच्चस्थानस्थः, स्थूलो महान् , वाताज्जातो बोम्बकः । एतेषां त्रयाणां शब्दानां लक्षणसंमिश्रणात् मिश्रः । पार्श्वदेवेनाप्युक्तमेतेषां लक्षणम् - "बाहुल्यान्मन्द्रसंस्पर्शान्माधुर्यगुणसंयुतः । खाहुलः स परिज्ञेयो गीतध्वनिविशारदैः ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० संगीतरत्नाकरः एतत्संमिश्रणादुक्तो मिश्रकः सांनिपातिकः ॥४२॥ ननु रूक्षगुणो बोम्बः खाहुलः लिग्धतायुतः। कथं तयोमिश्रणं स्याद्विरुद्धगुणयोगिनोः ॥ ४३ ॥ अत्रोच्यते परित्यागात् पारुष्यस्य विरोधिनः। अविरुद्धस्य माधुर्यस्थौल्यादेमिश्रणं मतम् ॥ ४४॥ एतेन घननिःसारगुणनाराटबोम्बयोः। विरुद्धगुणताक्षेपसमाधाने निवेदिते ॥ ४५ ॥ मिश्रस्य भेदाश्चत्वारो युक्तौ नाराटखाहलो। नाराटबोम्बको बोम्बखाहुलौ मिश्रितास्त्रयः॥४६॥ निःसारतारूक्षताभ्यां हीनस्त्रितयमिश्रणात् । एरण्डकाण्डवद्यत्र खणिकांशविवर्जितः । निःसारो बोम्बक: स्थूलो बाहुल्येन तु मध्यभाक् ॥ बाहुल्यात्तारसंस्पर्शी माधुर्यगुणवर्जितः ।। नाराटोऽयं परिज्ञेयो ध्वनिभेदविशारदैः ।। एते ध्वनिगुणा मिश्रा यत्र सोऽयं तु मिश्रकः ।" इति । त्रयाणां लक्षणसंमिश्रणान्मिश्र इत्युक्तम् । तदाक्षिपति-नन्विति । बोम्बो रूक्षगुणः । खाहुल: स्निग्धगुणः । तौ हि परस्परविरुद्धौ । तयोमिश्रितत्त्वं कथं घटते? परिहरति-अत्रोच्यत इति । यद्यपि विरुद्धगुणानां मिश्रितत्वं न संभवति, तथाप्यविरुद्धगुणसमावेशान्मिश्रितत्वं संभवति । न हि माधुर्यादिगुणानां स्थौल्यादिगुणैः सह विरोधो विद्यत इति । एतेन वचनसंदर्भण घननि:सारयो राटबोम्बयोः शब्दयोर्विरुद्धगुणतया आक्षेपः तत्समाधानं चोक्तम् । मिश्रस्य भेदान् कथयति-मिश्रस्येति । नाराटखाहुलयोर्योग एकः । नाराटबोम्बयोर्योग एकः । बोम्बखाहुलयोर्योग एकः । एषां त्रयाणां संमिश्रणे चैकः । तत्र विरुद्धगुणपरित्यागमाह-निःसारतेति। नि:सारता घनत्वविरोधिनी । रूक्षता स्निग्धत्वविरोधिनी । अतस्तयोविरुद्धगुणाभ्यां मिश्रणं नास्ति । तथाविधो मिश्रको Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः उत्तमोत्तम इत्युक्तः सुराणामिव शंकरः ॥ ४७ ॥ नाराटखाहुलोन्मिश्र उत्तमः खाहुलः पुनः। बोम्बयुक्तो मध्यमः स्याद्वोम्बो नाराटसंयुतः॥४८॥ शब्दानामधमः प्रोक्तः श्रीमत्मोढलसूनुना । निःसारतारूक्षताभ्यां युक्तः सर्वाधमो मतः॥४९॥ भवन्ति बहवो भेदा नानातगुणमिश्रणात् । कश्चित् स्यान्मधुरलिग्धघनोऽन्यः स्निग्धकोमलः॥ घनोऽपरस्तु मधुरमृदुत्रिस्थानकोऽन्यकः। मृदुत्रिस्थानगम्भीरोऽपरः स्निग्धो मृदुर्घनः ॥५१॥ त्रिस्थानोऽन्यस्तु मधुरमृदुत्रिस्थानको घनः । अन्यस्तु मधुरस्निग्धमृदुत्रिस्थानकोऽपरः ॥ ५२ ॥ मधुरलिग्धगम्भीरघनत्रिस्थानकोऽपरः। लिग्धकोमलगम्भीरघनत्रिस्थानलीनकः ॥५३॥ अत्युत्तम इत्याह-- उत्तमोत्तम इति । उत्तमं मध्यममधमं च मित्रं कथयतिनाराट इति | खाहुलनाराटलक्षणयोः संकर उत्तमो मिश्रभेदः । खाहुलबोम्बकलक्षणसंयोगे मध्यमः । बोम्बकनाराटलक्षणसंयोगे अधमः शब्दः ; रक्षकत्वा-, भावात् । अत्यधर्म ध्वनिमाह-निःसारतेति । मिश्रस्य गुणसंमिश्रणात् खाहुले बहवो भेदा भवन्तीत्याह-भवन्तीति । कश्चित् माधुर्यस्नेहघनत्वयुक्तः । कश्चित् स्नेहकोमलताघनत्वयुक्तः । कश्चित् माधुर्यमार्दवत्रिस्थानव्याप्तियुक्तः । कश्चित् मार्दवस्थानत्रयव्याप्तिगाम्भीर्ययुक्त: । कश्चित् स्नेहमार्दवघनत्वत्रिस्थानव्याप्तियुक्तः । कश्चित् माधुर्यमार्दवत्रिस्थानव्याप्तिघनत्वयुक्तः । अपरस्तु माधुर्यस्नेहमार्दवस्थानत्रयव्याप्तियुक्तः । कश्चित् माधुर्यस्नेहगाम्भीर्यवनत्वत्रिस्थानव्याप्तियुक्त: । कश्चित् स्नेहकोमलतागाम्भीर्यघनत्वत्रिस्थानव्याप्तिलीनतायुक्तः । अन्यस्तु 21 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ संगीतरत्नाकरः अपरः स्निग्धमधुरकोमलः सान्द्रलीनकः। त्रिस्थानशोभी गम्भीर इति भेदा दशोदिताः॥५४॥ खाहुलोन्मिश्रनाराटे ततः ग्वाहुलबोम्बयोः । लिग्धकोमलनिःसार एकोऽन्यो मधुरो मृदुः ॥५५॥ रूक्षोऽन्यस्तु मृदुलिग्धनिःसारोचतरः परः। कोमला लिग्धनिःसारः स्थूलोऽन्यःलिग्धकोमलः॥ निःसारोचतरस्थूलः परो मधुरकोमलः।। रूक्षनिःसारपीनश्च भेदाः षडिति कीर्तिताः ॥७॥ नाराटे बोम्बभेदाः स्युर्घनत्रिस्थानरूक्षकः। एकोऽन्यो घनगम्भीररूक्षोऽन्यो लीनपीवरः॥५८॥ निःसाररूक्षोऽन्यो लीनघनोचतरपीवरः। त्रिस्थानघनगम्भीरलीनरूक्षोऽपरः परः ॥ ५९॥ त्रिस्थानलीननिःसाररूक्षः स्थूलः षडित्यमी । स्नेहमाधुर्यकोमलतावनत्वलीनत्वत्रिस्थानव्याप्तिगाम्भीर्ययुक्त इति दश भेदाः खाहुलनाराटयोः संमिश्रणे । खाहुलबोम्बकयोः संमिश्रणे भेदानाह-तत इति । स्नेहकोमलतानि:सारतायुक्त एकः । कश्चित् माधुर्यमार्दवरूक्षतायुक्तः । अन्यस्तु मार्दवस्नेहनि:सारतोच्चतरत्वयुक्तः । कश्चित् कोमलतास्नेहनिःसारतास्थौल्ययुक्तः । अन्यस्तु स्नेहकोमलतानि:सारतोचतरत्वस्थौल्ययुक्तः । कश्चित् माधुर्यकोमलतारूक्षत्वनिःसारतास्थौल्ययुक्तः । एवं खाहुलबोम्बकयोः संमिश्रणे षड् भेदाः । नाराटबोम्बकयोः संमिश्रणे भेदानाह-नाराटे चोम्बभेदा इति । घनत्वत्रिस्थानव्याप्तिरूक्षतायुक्त एकः । कश्चित् घनत्वगाम्भीर्यरूक्षतायुक्तः। कश्चित् लीनतास्थौल्यनिः सारतारूक्षत्वयुक्तः । कश्चित् लीनताघनत्वोच्चतरत्वस्थूलतायुक्तः। कश्चित् त्रिस्थानव्याप्तिघनत्वगाम्भीर्यलीनतारूक्षत्वयुक्तः। कश्चित् त्रिस्थानव्याप्तिलीनतानिःसारतारूक्षत्वस्थूलतायुक्तः । एवं नाराटबोम्बकयोः संमिश्रणे षड् भेदाः । एवं द्वियोगजा भेदा द्वाविंशतिरुक्ताः । अथ सांनिपातिकांस्त्रियोगजान् भेदानाह Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः एते द्वंद्वजभेदाः स्युरथैते सांनिपातिकाः ॥ ६ ॥ स्निग्धत्रिस्थाननिःसारोऽन्यो मृदुर्मधुरो धनः । गम्भीरोचतरो रूक्षः परस्तु लिग्धकोमलः ॥ ६१॥ घनलीनः पीवरोचतरोऽन्यः स्निग्धकोमलः। त्रिस्थानलीननिःसारपीवरोच्चतरोऽपरः ।। ६२ ॥ कीर्तितो मधुरो लीनत्रिस्थानो रूक्षपीवरः । निःसारोच्चतरोऽन्यस्तु मधुरलिग्धकोमलः ॥ ६३ ॥ त्रिस्थानघनगम्भीरलीन उचतरः परः। मधुरो मृदुगम्भीरलीनत्रिस्थानरूक्षकः ॥१४॥ निःसारोचतरोऽन्यस्तु कोमलो मधुरो घनः। लीनत्रिस्थानरूक्षोचतरपीवरतायुतः ॥६५॥ अष्टाविति विमिश्रस्य भेदाः सर्वे तु मिश्रजाः। मिलिता मुग्धबोधाय त्रिंशनिःशङ्ककीर्तिताः ॥१६॥ अन्येषां सूक्ष्मभेदानां नान्तोऽस्ति गुणसंकरात् । ते ग्रन्थविस्तरत्रासादस्माभिन समीरिताः ।। ६७ ।। इति शब्दभेदाः। अथैत इति । कश्चित् स्नेहत्रिस्थानव्याप्तिनि:सारतायुक्तः । कश्चित् मार्दवमाधुर्यघनत्वगाम्भीर्योच्चतरत्वरूक्षतायुक्तः । कश्चित् स्नेहकोमलताघनत्वलीनत्वस्थौल्योचतरत्वयुक्तः। कश्चित् स्नेहकोमलतात्रिस्थानव्याप्तिलीनत्वनिःसारतास्थौल्योच्चतरत्वयुक्त: । कश्चित् माधुर्यलीनतात्रिस्थानव्याप्तिरूक्षतास्थौल्यनि:सारतोचतरत्वयुक्तः। अन्यस्तु माधुर्यस्नेहकोमलतात्रिस्थानव्याप्तिघनत्वगाम्भीर्यलीनत्वोच्चतरत्वयुक्तः । परस्तु माधुर्यमार्दवगाम्भीर्यलीनतात्रिस्थानव्याप्तिरूक्षत्वनिःसारतोच्चतरत्वयुक्तः । अन्यस्तु कोमलतामाधुर्यघनत्वलीनतात्रिस्थानव्याप्तिरूक्षत्वोच्चतरत्वस्थौल्ययुक्तः । एवं त्रयाणां लक्षणसंकरे अष्टौ भेदाः । सर्वे मिलिता मिश्रजास्त्रिंशत्संख्याकाः शादेवेन कथिताः । अन्ये तु सूक्ष्मभेदा ग्रन्थविस्तरभयानोक्ताः ॥३९-६७॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ संगीतरत्नाकरः शब्दगुणाः मृष्टो मधुरचेहालत्रिस्थानकसुस्वावहाः । प्रचुरः कोमलो गाढः श्रावकः करुणो धनः॥ ६८॥ स्निग्धः श्लक्ष्णो रक्तियुक्तश्छविमानिति सूरिभिः। गुणैरेभिः पश्चदशभेदः शब्दो निगद्यते ॥ ६९ ॥ श्रोत्रनिर्वापको मृष्टस्त्रिषु 'स्थानेष्वविस्तरः। मधुरः कीर्तितस्तारः प्रौढो मधुररञ्जकः ॥ ७० ॥ नातिस्थूलो नातिकृशः स्निग्धश्चेहालको घनः। आकण्ठकुण्ठनं स स्यात् पुंसांस्त्रीणांतु सर्वदा॥७॥ त्रिषु स्थानेष्वेकरूपश्छविरक्त्यादिभिर्गुणैः । (क०) सौकुमार्यस्थौल्यादिगुणसांकर्येणानन्त्येऽपि शब्दानां तत्र गीतोपयोगिगुणभेदभिन्नान् शब्दानुद्दिश्य लक्षयति-मृष्ट इत्यादिना । ननु मृष्टादयो गुणिन एवोद्दिष्टाः । एभिर्गुणैरिति कथं तत्परामर्श उपपद्यत इति चेत् ; उच्यते-"नागृहीतविशेषणा बुद्धिर्विशेष्यमुपसंक्रामति" इति न्यायेन मृष्टादिषु वर्तमानानां श्रोत्रनिर्वापकत्वादिगुणानां पुरःस्फूर्तिकत्वेन बुद्धिस्थतया 'एभिर्गुणैः। इति निर्देशो निर्दोष एव । इहान्वयप्रकारस्तु छविमानित्येतदन्तः शब्द एभिर्गुणैः पञ्चदशभेदो निगद्यत इति । आकण्ठकुण्ठनं स स्यात् पुंसां स्त्रीणां तु सर्वदा इत्यत्र यदातदाशब्दावध्याहायौँ । यदा पुंसामाकण्ठकुण्ठनं भवति, तदा स स्यादित्यन्वयः । स इति चेहालः परामृश्यते । पुंसामिति कर्तरि षष्ठी। आकण्ठकुण्ठनमिति । कण्ठस्य ध्वनेरासमन्तात् स्थानत्रयेण कुण्ठनमनतिबहिर्मुखतया ग्रहणम् । तच्च मारुतस्य तादृशनिरोधाद्भवति । तदा हि ध्वनि तिस्थूलकृशः सन् स्निग्धो भवति । स्त्रीणां तु सर्वदेति । स्त्रीणां त्वाकण्ठकुण्ठनमन्तरेणापि । 1 स्थानेष्वनश्वरः इति सुधाकरपाठः शस्तः इति सुधाकरपाठः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः त्रिस्थानो मनसो यस्तु सुखदः स सुखावहः ॥७२॥ श्रीशंकरप्रियेणोक्तः प्रचुरस्थूलतायुतः। कोमलोऽन्वर्थनामैव कोकिलाध्वनिवन्मतः ॥ ७३ ।। गाढस्तु प्रबलो दूरश्रवणाच्छ्रावको मतः । करुणः श्रोतृचित्तस्य करुणारसदीपकः ।। ७४ ।। दूरश्रवणयोग्यस्तु घनोऽन्तःसारतायुतः। अरूक्षो दूरसंश्राव्यो बुधैः लिग्धो ध्वनिः स्मृतः।।७५॥ लक्षणस्तु तैलधारावदच्छिद्रो धीरसंमतः। अनुरक्तेस्तु जनको रक्तिमानभिधीयते ॥ ७६ ॥ धातुर्विमलकण्ठत्वाद्यः प्राज्ञैरुपलक्ष्यते । उज्ज्वलोऽयमिति प्रोक्तश्छविमानिति स ध्वनिः॥७॥ इति शब्दगुणाः। शब्ददोषाः रूक्षस्फुटितनिःसारकाकोलीकेटिकेणयः। कृशो भग्न इति प्रोक्ता दुष्टस्याष्टौ भिदा ध्वनेः ॥७॥ रूक्षः लिग्धत्वनिर्मुक्तः स्फुटितोऽन्वर्थनामकः। एरण्डकाण्डनिःसारो निःसार इति कीर्तितः ॥ ७९ ॥ काकोलिकाख्यः काकोलकुलनि?षनिष्ठुरः। स्थानत्रयव्याप्तियुक्तो निर्गुणः केटिरुच्यते ॥ ८०॥ कृच्छ्रोन्मीलन्मन्द्रतारः केणिरित्यभिधीयते । अतिसूक्ष्मः कृशो भग्नः खरोष्ट्रध्वनिनीरसः ॥ ८१ ॥ __इति शब्ददोषाः। तासां चेहालः स्वतः प्रवर्तत इत्यर्थः । अथवा आकण्ठकुण्ठनमिति कण्ठस्य मध्यमस्थानस्य आ ईषत् कुण्ठनं संकोचकरणम् । एवमपि ध्वनिः पूर्वोक्तरूपो भवति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः अन्वयादिकमन्यत् समानमेव । अत्र कण्ठशब्दो मन्द्रतारस्थानयोर्हन्मूनोरप्युपलक्षणम् , तयोरपि तादृशस्य ध्वनेः संभवात् । आकण्ठकुण्ठने स स्यादिति पाठे तु अध्याहाराद्वाक्यभेदो न कर्तव्यः स्यात् । अर्थस्तु स एव । चेहालशब्दो रूढः । अन्येऽन्वर्थाः ॥ ६८-७७ ॥ (सं०) अथ शब्दगुणानाह-मृष्ट इति । एतैर्गुणः पञ्चदशप्रकारा: शब्दाः । तेषां गुणानां लक्षणमाह-श्रोत्रेति । यस्तु श्रोत्रयोः सुखं जनयति , स मृष्टः । स्थानत्रयेऽप्यनश्वरोऽविनाश्यविकृतो मधुर इत्युच्यते । शस्तः प्रशस्तो रमणीयः । प्रौढः प्रौढिमान् प्रगल्भ: । अतिस्थूलतातिकृशताभ्यां हीनः स्निग्धः स्नेहवान् । एवंविधश्चेहालको ज्ञातव्यः । घनो नि:सारताहीनः । स चेहालक: पुंसां कण्ठकुण्ठनपर्यन्तमेव भवति । यदा तु पुंसां तारुण्योदयसमये केनाप्यस्थिविशेषेण कण्ठः कुण्ठितो भवति तदा चेहालको ध्वनि!त्पद्यते । स्त्रीणां तु सर्वदासौ भवति । स्थानत्रयेऽपि छविरक्त्यादिभिरुपलक्षित एकरूपोऽविकृतः त्रिस्थान इत्युच्यते । यस्तु मनसः सुखदायक: स सुखावहः । स्थूलतायुक्तः प्रचुरः। यत्र तु सौकुमार्य स कोमलः; कोकिलाध्वनिसदृशः । प्रबलत्वेन प्रसरन्नेव यः श्रूयते स गाढः। यस्तु दूराच्छ्य ते स श्रावकः । यः श्रोतुश्चित्ते करुणामुत्पादयति स करुणः । यस्तु दूरश्रवणयोग्योऽन्तःसारश्च स धन इत्युच्यते । यस्तु दूराच्छ्यते रूक्षताहीनश्च स स्निग्ध इत्युच्यते । यस्तु तैलधारावत् छिद्रहीनः स लक्ष्णः । यस्त्वनुरागमुत्पादयति स रक्तिमान् । यस्तु सहृदयैरुज्ज्वल इति प्रतीयते स छविमान् । तथा च लोके व्यवहरन्ति " यतश्च शब्दे ज्योतिः प्रतीयते" इति ।। ६८-७७ ॥ __ अथ शब्ददोषानाह-रूक्षेति । अष्टौ दुष्टस्य ध्वनेर्भेदा भवन्ति । तेषां लक्षणमाह-रूक्षेति । स्नेहाभावात् रूक्षः । यस्तु स्फुटित इव भग्न इव प्रतिभाति, स स्फुटित इत्युच्यते । यस्त्वेरण्डकाण्डवदन्तःसारहीन: स निःसारः । यस्तु काकशब्दवन्निष्टर: स काकोलीत्युच्यते । यस्तु स्थानत्रयं व्याप्नोति, परं तु माधुर्यादिगुणहीनः, स केटिरित्युच्यते । यस्य महता क्लेशेन तारमन्द्रव्याप्तिः, स केंणिः । सूक्ष्मः कृशः गर्दभकरभध्वनिवन्नीरसो भग्न इत्युच्यते ॥७८-८१ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः शारीरलक्षणम् १६७ रागाभिव्यक्तिशक्तत्वमनभ्यासेऽपि यद्धुनेः । तच्छारीरमिति प्रोक्तं शरीरेण सहोद्भवात् ॥ ८२ ॥ इति शारीरलक्षणम् । शारीरगुणाः तारानुध्वनिमाधुर्यरक्तिगाम्भीर्यमार्दवैः । घनतास्निग्धताकान्तिप्राचुर्यादिगुणैर्युतम् ॥ ८३ ॥ तत् सुशारीरमित्युक्तं लक्ष्यलक्षणकोविदैः । इति शारीरगुणाः । शारीरदोपाः अनुखानविहीनत्वं रूक्षत्वं त्यक्तरक्तिता ॥ ८४ ॥ निःसारता विस्वरता काकित्वं स्थानविच्युतिः । काइ कार्कश्यमित्याद्यैः कुशारीरं तु दूषणैः ॥ ८५ ॥ इति शारीरदोपाः । ( क ० ) गीतहेतुतया गायनानन्तरोद्दिष्टं शारीरं लक्षयति-- रागाभिव्यक्तीति । अनभ्यासेऽपि ध्वनेर्यद्रागाभिव्यक्तिशक्तत्वं तच्छारीरमित्यनेन शब्दशारीरयोधर्मधर्मिभावेन भेदो दर्शितः । रागाभिव्यक्तिशक्तत्वमिति । रागस्य ग्रहांशादिस्वरसंनिवेशविशेषवतः श्रीरागादेः अभिव्यक्ति: अवैस्वर्येणासांकर्येण च प्रकाशनम् ; तत्र शक्तत्वं शक्तिमत्त्वम् । शक्तिर्नामात्र रागाभिव्यक्तिबीजरूपः संस्कारविशेषः, यां विना राग एव न प्रसरेत्; प्रसृतं वा हसनीयं भवेत् । अत एवानभ्यासेऽपीयुक्तम् । अयमभिप्रायः - शक्तौ सत्यामभ्यासे कृते रागाभिव्यक्तिः सुतरां भवति । असत्यां तु तस्यामभ्यासेनैव सा न भवतीति । एतदेवाभिसंधाय शरीरेण सहोद्भवात् इति शारीरशब्दस्य व्युत्पत्तिर्दर्शिता । 1 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ संगीतरत्नाकरः विद्यादानेन तपसा भक्त्या वा पार्वतीपतेः। प्रभूतभाग्यविभवैः सुशारीरमवाप्यते ॥ ८६ ॥ यथा ध्वनिः शरीरेण सहोद्भूतो भवति, तथा तस्य रागाभिव्यक्तिशक्तत्वमपि शरीरेण सहोद्भूतं भवति । न ह्यभ्यासेनागन्तुकमित्यर्थः। तस्य गुणदोषान् क्रमेण दर्शयति–तारानुध्वनीत्यादिना । सुशारीरप्राप्तौ हेतून् दर्शयति-विद्यादानेनेत्यादिना ॥ ८२-८६ ॥ (सं०) अथ शारीरं लक्षयति-रागाभिव्यक्तीति । अभ्यासाभावेऽपि ध्वनेः रागानभिव्यञ्जयितुं यत् सामर्थ्यं तच्छारीरमित्युच्यते । एतस्य व्युत्पत्ति दर्शयति-शरीरेणेति । शरीरेण सहोत्पन्नत्वाच्छारीरमित्युच्यते । स्वभावसिद्धमेतत् ; प्रयत्नेन न साध्यमित्यर्थः । अथ शारीरगुणान् कथयति-तारेति । तार इति व्याप्तिः । अनुध्वनिरनुरणनयुक्तत्वम् । माधुर्य रमणीयता । रक्तिः रजकत्वम् | गाम्भीर्यम् अगाधत्वम् | मार्दवं सौकुमार्यम् । घनता ससारत्वम् । कान्तिः पूर्वोक्ता छवि: । आदिशब्देन शब्दोक्ता अन्ये गुणाः । तैर्युक्तं शारीरं सुशारीरमित्युच्यते । शारीरदोषानाह–अनुस्वानविहीनत्वमिति । पूर्वोक्तगुणविपर्यासरूपैरेतैर्दूषणैर्युक्तं दुष्टं शारीरम् । अदुष्टं शारीरं तु महता भाग्येनानेकोपायैः प्राप्यत इत्याह-विद्यादानेनेति । संगीतसमयसारकारेण शारीरस्य चातुर्विध्यमुक्तम् " अन्तरेण यदभ्यासं रागव्यक्तिनिबन्धनम् | शरीरेण सहोत्पन्नं शारीरं परिकीर्तितम् ॥ चतुर्विधं भवेत्तच कडालं मधुरं तथा । पेशलं बहुभङ्गीति तेषां लक्षणमुच्यते ॥ स्थानत्रयेऽपि कठिनं कडालं परिकीर्तितम् । मन्द्रे मध्ये च माधुर्ये शारीरं मधुरं मतम् ।। शारीरं पेशलं ज्ञेयं तारे रागप्रकाशकम् । तच्छारीरगुणा मिश्रा यत्र तद्बहुभङ्गिकम् ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६९ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः गमकभेदाः खरस्य कम्पो गमकः श्रोतृचित्तसुखावहः । तस्य भेदास्तु तिरिपः स्फुरितः कम्पितस्तथा ।। ८७ ।। लीन आन्दोलितवलिविभिन्नकुरुलाहताः। उल्लासितः प्लावितश्च हुंफितो मुद्रितस्तथा ॥ ८८ ।। नामितो मिश्रितः पञ्चदशैते परिकीर्तिताः। लघिष्ठडमरुध्वानकम्पानुकृतिसुन्दरः॥ ८९ ।। द्रुततुर्यांशवेगेन तिरिपः परिकीर्तितः। वेगे द्रुततृतीयांशसंमिते स्फुरितो मतः ॥ ९० ।। दुतार्धमानवेगेन कम्पितं गमकं विदुः। लीनस्तु द्रुतवेगेनान्दोलितो लघुवेगतः ॥ ९१ ॥ वलिविविधवक्रत्वयुक्तवेगवशाद्भवेत् । विभिन्नस्तु त्रिषु स्थानेष्वविश्रान्तघनस्वरः ॥ ९२ ॥ कुरुलो वलिरेव स्याद् ग्रन्थिलः कण्ठकोमलः । खरमग्रिममाहत्य निवृत्तस्त्वाहतो मतः ।। ९३ ॥ उल्लासितः स तु प्रोक्तो यः स्वरानुत्तरोत्तरान् । क्रमाद्गच्छेत् प्लावितस्तु प्लुतमानेन कम्पनम् ।। ९४ ॥ हृदयंगमहुंकारगर्भितो हुंफितो भवेत् । कडालमधुरं चैव ततो मधुरसौबलम् । कडालसौबलं चैव शारीरं त्रयमिश्रकम् ॥ ___ एवं चतुर्विधं ज्ञेयं शारीरं बहुभङ्गिकम् |" इति ॥ ८२-८६ ॥ (क०) अथ गमकान् सामान्यविशेषाभ्यां लक्षयति-स्वरस्य कम्प इत्यादिना । श्रोतृचित्तमुखावह इत्यनेन विशिष्टस्यैव कम्पस्य गमकत्वमिष्टम् । अन्यथा विपरीतस्यापि तस्य गमकत्वं स्यात् । तिरिपादीनां लक्षणानि निगद Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः मुखमुद्रणसंभूतो मुद्रितो गमको मतः ॥ ९५ ॥ स्वराणां नमनादुक्तो नामितो ध्वनिवेदिभिः । एतेषां मिश्रणान्मिश्रस्तस्य स्युर्भूरयो भिदाः ।। ९६ ।। तेषां तु स्थायवागेषु विवृतिः संविधास्यते । इति गमकभेदाः । १७० व्याख्यातानि । एतेषां मिश्रणान्मिश्र इति । एतेषां तिरिपादीनां मध्ये द्वित्रिचतुःप्रभृतीनां यथायोगं मिश्रणमत्र विवक्षितम् । न तु सर्वेषामेव मिश्रणं विवक्षितम् | अन्यथा तस्य स्युर्भूरयो भिदाः इत्युत्तरं वचनमनुपपन्नं स्यात्, सर्वमिश्रणात्मकस्य तस्यैकत्वात् । ननु सर्वमिश्रणेऽपि संनिवेशविशेषबाहुल्यादनेकत्वमुपपद्यत इति चेत्-न; वक्ष्यमाणेपु स्थायेप्वेकानेकस्वराश्रयत्वाभ्यां यथायोगं द्वित्र्यादीनामेव मिश्रप्रयोगदर्शनात् । एतदेवाभिसंधाय तत्प्रयोगस्थलं दर्शयति - तेपां त्विति । तुशब्दो भिन्नक्रमः । विवृतिस्त्विति संबन्धः । विवृतिः विवरणं प्रकाशनमित्यर्थः । स्थायवागेषु स्थायाश्रिता वागाः ; स्थायो रागावयवः, वागो गमक इति वक्ष्यते ; तेषु रागावयवाश्रितगमकेषु । तेषां मिश्रभेदानां विवृतिस्तु संविधास्यते ; समनन्तरमेव करिष्यत इत्यर्थः ।। ८७-९७॥ (सं०) गमकान् निरूपयितुमाह - स्वरस्य कम्प इति । श्रोतुश्चित्तसुखदायको यः स्वरस्य कम्पः, स गमक इत्युच्यते । गमकशब्दस्य व्युत्पत्तिश्च कथिता पार्श्वदेवेन - "C 'स्वश्रुतिस्थानसंभूतां छायां श्रुत्यन्तराश्रयाम् । स्वरूपं गमयेद्गीते गमकोऽसौ निरूपितः ॥ " इति । तस्य भेदानाह— तस्य भेदा इति । तस्य गमकस्य पञ्चदश भेदा भवन्ति । तेषां लक्षणमाह - लघिष्ठेति । अल्पस्य डमरोर्ध्वनेः यः कम्पस्तद्वद्रमणीय:, द्रुतस्य चतुर्थांशवेगेन यः स्वरस्य कम्प:, स तिरिप इत्यभिधीयते । स्वरस्प कम्प इति सामान्यलक्षणादनुवर्तनीयम्, 66 सामान्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः १७१ __स्थायभेदाः रागस्यावयवः स्थायो वागो गमक उच्यते ॥ ९७ ।। तत्रोक्तं लक्ष्म वागानां स्थायानां तूच्यतेऽधुना। वागानामपि केषांचित् प्रसङ्गाद्वच्मि लक्षणम् ॥ ९८॥ लक्षणानुवृत्तौ च विशेषलक्षणं प्रवर्तते” इति न्यायात् । द्रुतस्य तृतीयभागसंमितो यदि वेगः स्वरकम्पे भवति, तदा स्फुरिताख्यो गमकः । द्रुतस्यार्धमानेन वेगेन कम्पश्चेत् कम्पिताख्यो गमकः । द्रुतमानेन स्वराणां कम्पश्चेत् तदा लीनाख्यो गमकः । कश्चित् लघुमानेन लयेन गीयते द्रुतेन मध्यमेन विलम्बितेन वा, तत्प्रमाणके स्वरस्य कम्पे आन्दोलिताख्यो गमकः । कचित् लघुमानत इति पाठः । अनेकविधवक्रत्वयुक्तवेगवतां स्वराणां कम्पो वलिरित्युच्यते । स्थानत्रयेऽप्यविश्रान्ता: प्रसृताः घनाः निबिडाः स्वरा यस्मिन् स त्रिभिन्नः । प्रन्थिसंयुक्तः कण्ठे समुत्पन्नः कोमलो वलिरेव कुरुल इत्युच्यते । अग्रिमं पुरतः स्थितं स्वरमाहत्य शीघ्रं सकृत् स्पृष्ट्वा निवृत्त आहत इत्युच्यते । यस्तूत्तरोत्तरं कमात् स्वरानारोहति स उल्लासित इत्युच्यते । प्लुतमानेन कम्पित: प्लावित इत्युच्यते। हृदयंगमो मनोहरः हुंकारो हुमिति वर्णों गर्भेऽन्तर्यस्य स हुंफितः । मुखं मुद्रयित्वा यः कृतः स्वरस्य कम्प: स मुद्रितः । स्वराणां नामनं मन्द्रस्थान उच्चारणमवरोहणं वा; तयुक्तो नामित इत्युच्यते । एतेषां लक्षणसंमिश्रणामिश्रः । तस्य बहवो भेदाः स्थायप्रकरणे निरूपयिष्यन्ते ॥ ८७-९७ ॥ (क०) गमकाश्रयत्वेन तदनन्तरमुद्दिष्टानां स्थायानां सामान्यलक्षणमाह-रागस्यावयव इति । अवयव एकदेशः । सोऽप्यत्र न्यासापन्याससन्यासविन्यासेप्वन्यतमस्वरविश्रान्तत्वेन प्रयुक्तोंऽशादिकतिपयस्वरसंदर्भो वेदितव्यः । वागो गमक उच्यत इति । गमक एव देशभाषया वाग इत्युच्यत इत्यर्थः । वागानामपीति । केषांचित् वागानां मिश्रभेदानां लक्षणमपि प्रसङ्गात स्थायलक्षणानन्तरं तन्मिश्रभेदप्रस्तावादित्यर्थः । अथ स्थायभेदानुद्दिशति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ संगीतरत्नाकरः ते च शब्दस्य ढालस्य लवन्या वहनेरपि । वाद्यशब्दस्य यन्त्रस्य छायायाः स्वरलजितः ॥ ९९॥ प्रेरितस्तीक्ष्ण इत्युक्ता व्यक्तासंकीर्णलक्षणाः।। भजनस्य स्थापनाया गते दध्वनिच्छवेः ॥ १० ॥ रक्तेर्दुतस्य शब्दस्य भृतस्यांशावधानयोः। अपस्थानस्य निकृतेः करुणाविविधत्वयोः ॥ १०१॥ गात्रोपशमयोः काण्डारणानिर्जवनान्वितो। गाढो ललितगाढश्च ललितो लुलितः समः ॥ १०२॥ कोमलः प्रसृतः स्निग्धचोक्षोचितसुदेशिकाः। अपेक्षितश्च घोषश्च स्वरस्यैते प्रसिद्धितः ॥ १०३ ।। स्थायानां गुणभेदेन व्यपदेशा निरूपिताः। वहाक्षराडम्बरयोरुल्लासिततरङ्गितौ ॥ १०४ ॥ प्रलम्बितोऽवस्खलितस्त्रोटितः संप्रविष्टकः। उत्प्रविष्टो निःसरणो भ्रामितो दीर्घकम्पितः ॥१०५॥ प्रतिग्राह्योल्लासितश्च स्यादलम्बविलम्बकः । स्यात् नोटितप्रतीष्टोऽपि प्रमृताकुश्चितःस्थिरः॥१०६॥ स्थायुकः क्षिप्तसूक्ष्मान्तावित्यसंकीर्णलक्षणाः । ते च शब्दस्येत्यादिना । अत्र शब्दस्येत्यादिकया षष्ठ्या प्रतिसंबन्धिनामुद्देशेन तत्संबन्धिनः स्थाया उद्दिष्टा वेदितव्याः । व्यक्तासंकीर्णलक्षणा इति । व्यक्ताः प्रसिद्धाश्चासंकीर्णानि विविक्तानि लक्षणानि स्वरूपाणि येषां त इति तथोक्ताः । गुणभेदेन व्यपदेशा इति । भजनस्येत्यादिनोद्दिष्टानां स्थायानां गुणभेदेन रागातिशयाधानरूपभजनादिगुणानां भेदेन प्रसिद्धितो गीतज्ञप्रसिद्धहेतोळपदेशाः संज्ञा निरूपिता इत्यन्वितोऽर्थः । भजनस्थायादीनां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः १७३ प्रकृतिस्थस्य शब्दस्य कलाक्रमणयोरपि ॥ १०७ ।। घटनायाः सुखस्यापि चालेर्जीवस्वरस्य च । वेदध्वनेर्घनत्वस्य शिथिलोऽवघटः प्लुतः ॥ १०८ ॥ रागेष्टोऽपखराभासो बद्धः कलरवस्य च । छान्दसः सुकराभासः संहितो लघुरन्तरः॥ १०९॥ वक्रो दीप्तप्रसन्नश्च स्यात् प्रसन्नमृदुर्गुरुः। ह्रस्वः शिथिलगाढश्च दीर्घोऽसाधारणस्ततः ॥ ११०॥ साधारणो निराधारो दुष्कराभासनामकः। मिश्रश्चैतेऽपि संकीर्णा गुणैर्भिन्नाश्च पूर्ववत् ॥ १११ ॥ इति षण्णवतिः स्थायाः शाङ्देवेन कीर्तिताः। इति स्थायभेदाः ।। प्राधान्याद्धर्मभेदेनैव भेदः; नात्यन्तं धर्मिभेद इति भावः । तेनैते संकीर्णा इति भावः । असंकीर्णलक्षणा इति । वहाक्षरेत्यादिनोद्दिष्टा असंकीर्णलक्षणाः। असंकीर्णं पृथग्भूतं लक्षणं येषां ते तथोक्ताः । प्रथमोद्दिष्टानामेतेषां चासंकीर्णलक्षणत्वाविशेषेऽपि तेषां प्रसिद्धत्वमेतेषामप्रसिद्धत्वमिति भेदो द्रष्टव्यः । अत एव पृथगद्देशोऽत्र युक्तः । एतेऽपि संकीर्णा इति । एते प्रकृतिस्थस्येत्यादिनोद्दिष्टाः स्थाया अपि संकीर्णाः । अत्रापिशब्दः समुच्चये । तेनायमर्थःभजनस्थायादयो यद्वत् संकीर्णास्तद्वदेते च संकीर्णा नात्यन्तं पृथग्भूतस्वरूपाः । किंतु पूर्ववत् भजनस्थायादय इव गुणैः प्रकृतिस्थशब्दवत्तादिभिभिन्नाः पृथग्भूताः। उभयेषामपि गुणभिन्नत्वाविशेषेऽपि तेषां प्रसिद्धित एतेषामप्रसिद्धितो भेदो द्रष्टव्यः । अतस्तेभ्यः पृथगुद्देशोऽप्येतेषामुपपन्न एव ॥ ९७-११२ ।। ___(सं०) स्थायं निरूपयितुमाह-रागस्येति । रागस्यावयवो भागः स्थाय इत्युच्यते । गमकश्च वाग इत्युच्यते । तत्र गमकानां लक्षणमुक्तम् | अधुना Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ संगीतरत्नाखरः स्थायभेदलक्षणानि (a) तत्र प्रसिद्धस्थायाः मुंक्तशब्दप्रतिग्राह्याः स्थायाःशब्दस्य कीर्तिताः॥११२॥ ढालो मुक्ताफलस्येव चलनं लुठनात्मकम् । स येषु ते स्युर्दालस्य नमनं त्वतिकोमलम् ॥ ११३ ॥ स्थायानां लक्षणमुच्यते । किमर्थमिदमुक्तम् ? गायकानां स्थाया वागा इति प्रसिद्धेः । तत्र कथं वागानां लक्षणं नोक्तमिति शङ्कां निवारयितुं गमका एव वागा इत्युक्तम् । स्थायप्रसङ्गात् वागानां गमकानामपि केपांचिलक्षणं वच्मि कथयामि। स्थायान् विभजते-ते चेति । ते च स्थायाः शब्दस्य शब्दसंबन्धिनः, ढालो वक्ष्यमाणलक्षणः तत्संबन्धिनः, लवनीसंबन्धिनः, वहनिसंबन्धिनः, वाद्यशब्दसंबन्धिनः, यन्त्रसंबन्धिनः, छायासंबन्धिनः, स्वरलवितादयस्त्रयश्चेत्यसंकीर्णलक्षणा दश । गुणजनितभेदान् संकीर्णान् स्थायान् विभजते-भजनस्येति । भजनसंबन्धिनः, स्थापनासंबन्धिनः, गतिसंबन्धिनः, नादसंबन्धिनः, ध्वनिसंबन्धिनः, छविसंबन्धिनः, रक्तिसंबन्धिनः, द्रुतसंबन्धिनः, भृतसंबन्धिनः, अंशसंबन्धिन:, अवधानसंबन्धिनः, अपस्थानसंबन्धिनः, निकृतिसंबन्धिनः, करुणासंबन्धिनः, विविधत्वं भङ्गी तत्संबन्धिनः, गात्रसंबन्धिनः, उपशमसंबन्धिनः, काण्डारणासंबन्धिन:, निर्जवनसंबन्धिनः, गाढललितगाढादयश्चापेक्षितान्ता द्वादश-तत्संबन्धिनः, घोषसंबन्धिनः, स्वरसंबन्धिनश्चेति त्रयस्त्रिंशद्गुणजनितभेदाः स्थायाः । अन्यान् विंशतिमसंकीर्णान् विभजतेवहाक्षराडम्बरयोरिति । षष्ठयन्तैः सह तत्संबन्धिन इति प्रथमान्ताः स्थाया एव । अन्यान् संकीर्णान् त्रयस्त्रिंशतं स्थायान् विभजते-प्रकृतिस्थस्येत्यादिना । एवं सर्वे स्थाया मिलिता: षण्णवतिः ॥ ९७-११२ ॥ (क०) अथैतेषां क्रमेण लक्षणान्याह-मुक्तशब्दप्रतिग्राह्या इत्यादिना । मुक्तश्चासौ शब्दश्चेति मुक्तशब्दः । प्रतिग्रहीतुं योम्याः प्रतिग्राह्याः । मुक्तशब्देन प्रतिग्राह्याः । अयमर्थः--पूर्वस्थायो यस्मिन् ध्वनौ मुच्यते, उत्तरस्थायो चक्रवालरीत्या तत्रैव प्रतिगृह्यते चेत्, तदा शब्दस्थाया इति 1युक्तशब्देति सुधाकरसंमतः पाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ तृतीय: प्रकीर्णकाध्यायः लवनी ताजः स्थाया लवन्याः परिकीर्तिताः। यत्तु कम्पनमारोहिण्यवरोहिणि वा भवेत् ।। ११४ ॥ वहनी साथ संचारिण्यपि वा स्थिरकम्पनम् । सा गीतालप्तिसंबन्धभेदेन द्विविधा मता ।। ११५ ॥ पुनर्द्विधा स्थिरा वेगाड्या पुनस्त्रिविधोदिता। हृद्या कण्ट्या शिरस्या च देहस्था हृदयोद्भवा ॥११६।। वहनी स्यात् पुनदे॒धा खुत्तोत्फुल्लेति भेदतः।। यस्यामन्तर्विशन्तीव स्वराः खुत्तेति सा मता ॥११७॥ सोत्फुल्लेत्युदिता यस्यां निर्यान्तीवोपरि स्वराः ।। वलिर्या गमकेषूक्ता साप्येवंविधभेदभाक् ॥ ११८ ॥ वहनी येषु ते स्थाया वहन्याः परिभाषिताः। रागमना वाद्यशब्दा येषु ते वाद्यशब्दजाः ॥ ११९ ॥ ये यन्त्रेष्वेव दृश्यन्ते बाहुल्यात्ते तु यन्त्रजाः । छाया काकुः षट्प्रकारा स्वररागान्यरागजा ॥ १२० ।। स्याद्देशक्षेत्रयन्त्राणां तल्लक्षणमथोच्यते । श्रुतिन्यूनाधिकत्वेन या स्वरान्तरसंश्रया ।। १२१ ।। व्यपदिश्यन्त इत्यर्थः । वहन्यवान्तरभेदप्रदर्शनार्थ सा गीतालप्तिसंबन्धभेदेनेत्युक्तम् । तत्र गीतालप्त्योरुभयोरपि रञ्जकस्वरसंदर्भत्वाविशेषात् कथं भेदकत्वमिति चेत् , उच्यते--गीतशब्दो यद्यपि निबद्धानिबद्धसामान्यवचनः, तथाप्यनिबद्धविशेषवचनालप्तिशब्दसमभिव्याहारात् गोबलीवर्दन्यायेनात्र निबद्धवचनत्वेन व्यवस्थापित इति । छाया काकुरिति । छायेत्यस्य विवरणं काकुरिति । काकुव॑नेर्विकारः । श्रुतिन्यूनाधिकत्वेनेति । श्रुतीनां छन्दोवत्यादीनां पूर्वोक्तानां न्यूनत्वेन तत्तत्स्वरोक्तसंख्यातोऽल्पत्वेनाधिकत्वेन तादृशसंख्यातो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ संगीतरत्नाकरः स्वरान्तरस्य रागे स्यात् स्वरकाकुरसौ मता। या रागस्य निजच्छाया रागकाकुं तु तां विदुः॥१२२॥ सा त्वन्यरागकाकुयर्या रागे रागान्तराश्रया। सा देशकाकुर्या रागे भवेद्देशस्वभावतः ॥ १२३ ॥ शरीरं क्षेत्रमित्युक्तं प्रतिक्षेत्रं निसर्गतः। रागे नानाविधा काकुः क्षेत्रकाकुरिति स्मृता ॥ १२४॥ वीणावंशादियन्त्रोत्था यन्त्रकाकुः सतां मता। अन्यच्छायाप्रवृत्तौ ये छायान्तरमुपाश्रिताः ॥ १२५ ॥ छायायास्ते मताः स्थाया गीतविद्याविशारदैः। मध्ये मध्ये स्वरान् भूरीलँङ्घयन् स्वरलचितः ॥ १२६ ।। तिर्यमूर्ध्वमधस्ताच प्रेरितः प्रेरितैः स्वरैः। स्वरः पूणेश्रुतिस्तारे तीक्ष्णवत्तीक्ष्ण उच्यते ॥ १२७ ॥ रागस्यातिशयाधानं प्रयत्नाद्भजनं मतम् । तद्युक्ता भजनस्य स्युः स्थापनायास्तु ते मताः ॥१२८।। स्थापयित्वा स्थापयित्वा येषां प्रतिपदं कृतिः। सविलासास्ति गीतस्य मत्तमातङ्गवद्गतिः ॥ १२९ ।। तयुक्तास्तु गतेः स्थायाः स्निग्धो माधुर्यमांसलः । बहुलो येषु नादः स्यात्ते नादस्य प्रकीर्तिताः ॥ १३० ।। अतिदीर्घप्रयोगाः स्युः स्थाया ये ते ध्वनेर्मताः। युक्ताः कोमलया कान्त्या छः स्थाया निरूपिताः॥ बहुत्वेन वा स्वरान्तरसंश्रया छाया स्वरान्तरस्य यदि स्यात् , आपाततः श्रवणसाम्येन कृता भवेत् , असौ स्वरकाकुरिति मता। यथा हि चतु:श्रुतिकस्य षड्जस्य निषादकर्तृकाक्रमणेन द्विश्रुतित्वे सति श्रुतिन्यूनत्वेन निषादवत् प्रतीतिः; यथा च Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः रक्तरुत्कर्षतो रक्तरुक्ताः स्थाया मनीषिभिः । द्रुतस्यान्वर्थनामानो भृतस्य भरणाद्धनेः ॥ १३२॥ रागान्तरस्यावयवो रागेंऽशः स च सप्तधा। कारणांशश्च कार्यांशः सजातीयस्य चांशकः॥१३३॥ सदृशांशो विसदृशो मध्यमस्यांशकोऽपरः। अंशांशश्चेति यो रागे कार्येऽशः कारणोद्भवः॥ कारणांशस्त्वसौ रामकृतौ कोलाहलांशवत् । कारणे कार्यरागांशः कार्यांशो भैरवे यथा ॥१३५॥ भैरव्यंशः समां जाति गौडत्वाद्यां समाश्रिताः। कर्णाटाद्याः सजातीयास्तेष्वेकांशोऽपरत्र यः॥ सजातीयांशकः स स्यादंशः सदृशरागयोः । सदृशांशो यथा नहावराट्योः शुद्धयोमिथः॥१३७॥ सादृश्यशून्ययोरंशोऽत्यन्तं विसदृशांशकः। वेलावल्याश्च गुर्जर्याः परस्परगतौ यथा ॥ १३८ ॥ मध्यस्थरागौ सादृश्यवैसादृश्यविवर्जितौ । मध्यस्थांशस्तयोरंशो नहादेशाख्ययोरिव ॥ १३९॥ द्विश्रुतिकस्य निषादस्य षड्जाद्यश्रुतिद्वयाश्रयणेन चतुःश्रुतित्वे सति श्रुत्यधिकत्वेन षड्जवत् प्रतीतिश्च यतो ध्वनिविकारात् भवति, सा स्वरकाकुरिति मन्तव्येत्यर्थः। एवं स्वरान्तरेष्वपि द्रष्टव्यम् । रागान्तरस्यावयवो रागेंऽश इति । रागे बहुलीकोलाहलादिकार्यकारणादिरागे रागान्तरस्य कोलाहलबहुल्यादिकारणकार्यादिभूतान्यरागस्यावयवः स्वरसमुदायरूप एकदेशो रक्त्यर्थमुपादीयमानोंऽश इति परिभाष्यते । न तु प्रसिद्धः स्वरविशेष उच्यते । नन्वन्यरागे काकोरंशस्य च को भेद इति चेत्; उच्यते--प्रकृतरागे समवायवृत्त्या वर्तमानैव 23 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ संगीतरत्नाकरः अंशेऽशान्तरसंचारादंशांश इति कीर्तितः। येष्वंशो दृश्यते स्थायास्तंऽशस्य परिकीर्तिताः॥ मनसा तद्गतेनैव ये ग्राह्यास्तेऽवधानजाः । आयासेन विना यत्र स्थाने स्यात् प्रचुरो ध्वनिः॥ वस्थानं तदपस्थानं त्वायासेन तदुद्गतेः। अपस्थानस्य ते स्थाया येऽपस्थानसमुद्भवाः ॥१४२॥ निकृतेः करुणायाश्च स्थायास्त्वन्वर्थनामकाः। स्थाया नानाविधां भङ्गी भजन्तो विविधत्वजाः॥ गात्रस्य गात्रे नियताः कृत्वा तीव्रतरं ध्वनिम्। येषूपशान्तिः क्रियते भवन्त्युपशमस्य ते ॥१४४॥ काण्डारणा प्रसिद्धैव तस्याः स्थायास्तदुद्भवाः। सरलः कोमलो रक्तः क्रमानीतोऽतिसूक्ष्मताम् ॥ छाया अत्यन्तसादृश्यात् रागान्तराश्रया सती या प्रतीयते, सान्यरागकाकुः । अंशस्तु प्रकृतरागे ह्यविद्यमान एव शोभातिशयाय याचितकमण्डनन्यायेन रागान्तरादुपादाय संयोगवृत्त्यात्र संबध्यत इति भेदो द्रष्टव्यः । काण्डारणा प्रसिद्धैवेति । काण्डेषु मन्द्रमध्यतारेप्वासमन्ताद्रणतीति व्युत्पत्त्या प्रसिद्धेत्यर्थः । सुगममन्यत् ॥ ११२-१५१॥ (सं०) तेषां लक्षणमाह-युक्तशब्देति । युक्तशब्देन उचितशब्देन प्रतिगृहीताः स्थायाः शब्दसंबन्धिनः । मुक्ताफलस्य यत् बाह्यमालोलनं लोके प्रसिद्धं तद्वत् ढालो येषु, ते ढालसंबन्धिनः । ढालस्य च लक्षणमुक्तं पार्श्वदेवेन "वृत्तमौक्तिकवत् काचभूतले विलसद्धनौ । श्रुतिः प्रवर्तते क्षिप्रं यत्र ढालं तदुच्यते ॥" इति । अतिकोमलं सुकुमारं स्वराणां नमनम् अध उच्चारणं लवनीत्युच्यते ; तद्युक्ता: स्थाया लवनीसंबन्धिन इति । वहनी लक्षयति-यत्त्विति । आरोहणे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः १७९ अवरोहणे वा वर्णे स्वराणां कम्पनं वहनीत्युच्यते । संचारिण्यपि वर्णे स्थिरं कम्पनं वहनीत्युच्यते । सा वहनी द्विविधा-गीतवहनी, आलप्तिवहनीति । पुनरपि द्विविधा-स्थिरा, वेगाड्या चेति । पुनरपि त्रिविधा-हृद्या, कण्ठ्या, शिरस्या चेति । हृदयोद्भवा पुनरपि द्विविधा-खुत्ता, उत्फुल्ला चेति । तयोर्लक्षणमाह-यस्यामिति । यस्यां स्वरा अन्तर्विशन्त इव श्रूयन्ते, सा खुत्ता। यस्यां तूपरि निर्गच्छन्त इव स्वराः श्रूयन्ते, सा उत्फुल्ला । वहनीभेदान् वलावतिदिशति-वलिरिति । एवंविधा वहनी येषु स्थायेषु, ते वहनीसंबन्धिनः । अन्ये वहनीभेदा अन्वर्थनामत्वान्न लक्षिताः। वाद्यशब्दस्य स्थायान् लक्षयतिरागमना इति । रागमना रागानुरञ्जिताः । ये वीणादिष्वेव बाहुल्येन प्रायो दृश्यन्ते, ते यन्त्रसंबन्धिनः । छायाभेदसंबन्धिनः स्थायान् कथयितुमाहछाया काकुरिति छाया काकुरित्युच्यते।सा हि षडिधा-स्वरकाकुः,रागकाकुः, अन्यरागकाकु:, देशकाकुः, क्षेत्रकाकु:, यन्त्रकाकुरिति । एतासां लक्षणं कथयति-तल्लक्षणमिति । अन्यस्वरस्यान्यस्मिन् स्वरे या छाया श्रुतीनां न्यूनत्वेनाधिक्येन वा जायते, सा स्वरकाकुः । सा च रागे भवति । या रागस्य निजा मुख्या छाया, सा रागकाकुः । अन्यरागस्यान्यस्मिन् रागे या छाया, सा अन्यरागकाकुः । देशे देशे देशस्वभावेन या छाया, सा देशकाकुः । क्षेत्रं देहमुच्यते । मनुष्याणां प्रतिदेहं यश्छायाविशेषः, सा क्षेत्रकाकुः । वीणावंशादियन्त्रादुत्थिता यन्त्र एव या प्रतीयते रागच्छाया, सा यन्त्रकाकु: । एवं स्थायकारणभूतां छायां निरूप्य स्थायं निरूपयति-अन्यच्छायेति । अन्यस्याश्छायायाः प्रवृत्तौ गाने प्रकृते अन्यच्छायाश्रयेण ये स्थायाः प्रवर्तन्ते, ते छायासंबन्धिनः । स्वरलचिताख्यं स्थायं लक्षयति-मध्ये मध्य इति । मध्ये मध्ये बहून् त्रिचतुरान् स्वरान् लङ्घयन् यः प्रवर्तते, स स्वरलचितः। ऊर्ध्वमधस्तिर्यक्च प्रेरितैः स्वरैर्यः प्रवर्तते, स प्रेरितः । य: स्वरस्थानेऽपि पूर्णश्रुतिः सन् तीक्ष्णवत् सूच्यमादिवत् प्रतिभासते, स तीक्ष्ण इति । इत्यसंकीर्णा दश स्थायाः । ___ अथ संकीर्णलक्षणान् कथयति-रागस्येति । रागस्य रअकत्वातिशयाधानं भजनमित्युच्यते; तेन संयुक्ता भजनसंबन्धिनः । ये स्थापयित्वा स्थापयित्वा निश्चलीकृत्य प्रतिक्षणं पुनः क्रियन्ते, ते स्थापनासंबन्धिनः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः मत्तमातङ्गस्येव या गायकप्रसिद्धा गीते गतिः, तद्युक्ता गतिसंबन्धिनः । स्नेहवान् माधुर्येण मांसल: स्थूलोऽतिमधुरः । एवंविधो नादो बाहुल्येन येषु स्थायेषु, ते नादसंबन्धिनः । येषु दीर्घतरः प्रयोगो गमकसंदर्भ:, ते ध्वनिसंबन्धिनः । सुकुमारकान्तिसंयुक्ताः छविसंबन्धिनः । छवेर्लक्षणं पूर्वमुक्तम् । यत्र रञ्जकत्वाधिक्य, ते रक्तिसंबन्धिनः । द्रुतसंबन्धिनः स्थायाः सार्थकनामानः । यत्रं स्वराणां द्रुतत्वं वेगेनोच्चारणं, ते द्रुतसंबन्धिनः । ध्वनेर्भरणात् पूरणात् घनत्वेनोचारणात् भृतसंबन्धिनः । अंशसंबन्धिनः स्थायान् लक्षयितुमंशं लक्षयति-रागान्तरस्येति । अन्यस्मिन् रागेऽन्यस्य रागस्यावयवोंऽशः । नन्वंशस्यान्यरागकाकोः कथं भेदः ? ब्रूमः-अन्यस्य रागस्य छाया काकुः ; छायाया भिन्न एवावयवोंऽश इति । सोऽश: सप्तप्रकार:-कारणांशः, कार्याश:, सजातीयांशः, सदृशांशः, विसदृशांश:, मध्यस्थांशः, अंशांशश्चेति । एतेषां लक्षणमाह-यो राग इति । कार्यभूते रागे कारणभूतस्य रागस्य योऽश:, स कारणांशः; यथा रामकृतौ कोलाहलस्यांशः । कारणभूते रागे कार्यभूतस्य रागस्यांशः कार्याशः; यथा भैरवीजनके भैरवे भैरव्या अंशः । समानायां षाड्ज्यादिजातौ समुत्पन्नाः सजातीया इति भ्रान्ति निरसितुं सजातीयान् लक्षयति-समां जातिमिति । गौडत्ववराटीत्वादिकां समानां जातिमाश्रिता: सजातीयाः; तेष्वन्यस्मिन् अन्यस्य योऽशः, स सजातीयांश: । नट्टावराटयोरिव सदृशरागयोर्योऽशः, स सदृशांश: । अत्यन्तविसदृशयो रागयोर्योऽशोऽपरस्मिन् दृश्यते, स विसदृशांशः । वेलावलीगुर्जयोरिव सादृश्यवैसादृश्यविवर्जनेन योऽशः, स मध्यस्थांशः । यो लक्षितेष्वंशेष्वंशान्तरस्य संचारः प्रवेशः, सोंऽशांश: । एवंविधोंऽशो येषु दृश्यते, तेंऽशसंबन्धिनः स्थायाः । अवधानसंबन्धिनं स्थायं लक्षयति-मनसेति । तद्गतेन तत्प्रवणेनैव मनसा ग्राह्य उद्ग्राह्यो गेय इति यावत् । चेतसो वैयग्र्ये य: स्थायो गातुं न शक्यते, सोऽवधानजः । आयासेनेति । आयासाभावेऽपि यत्र स्थाने ध्वनिर्विपुलो भवति, तत् स्वस्थानमित्युच्यते । आयासेन तु यत्र तस्य प्रचुरध्वनेर्गति: व्याप्तिः, तत् अपस्थानमिति । तत्र जाता: स्थाया अपस्थानसंबन्धिनः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः स्वरः स्यायेषु ते स्थायाः प्रोक्ता निर्जवनान्विताः। गाढः शैथिल्यनिर्मुक्तः स एव मृदुतान्वितः॥१४६॥ भवेल्ललितगाढस्तु ललितस्तु विलासवान् । मार्दवाघूर्णितः प्रोक्तो लुलितः स्यात् समः पुनः ॥ हीनो वेगविलम्बाभ्यां यथार्थः कोमलो मतः। निकृतेः करुणायाश्च स्थायाः सार्थकनामानः । येषु स्थायेषु निकृतिरन्यूनाधिकत्वं, ते निकृतेः । ये करुणामुत्पादयन्ति, ते करुणायाः । करुणानिकृत्योलक्षणमुक्तं पार्श्वदेवेन "करुणारागयोगेन चिन्तादीनतयाथवा । करुणाकाकुसंयुक्ताः स्थायास्ते करुणाभिधाः ॥" "स्थायं विविधमादाय बलात् संस्थाप्यते पुनः । अन्यूनाधिकता तज्ज्ञैनिकृतिः परिगीयते ॥" इति । अनेकभङ्गियुक्ता: स्थायाः विविधत्वसंबन्धिनः । ये तु गात्रविशेषे नियताः प्रतिगात्रमन्यथोत्पद्यन्ते, ते गात्रसंबन्धिनः । ननु क्षेत्रकाकुसंबन्धिभ्य एतेषां को भेद: ? उच्यते-क्षेत्रकाकुः प्रतिदेहं छायामात्रम् ; गात्रजेषु तु स्थायस्वरूपमेव प्रतिदेहं भिद्यत इति । तीव्रतरमतितारं ध्वनिं कृत्वा येषूपशान्तिः शीघ्रं मन्द्रोपसर्पणं, ते उपशमसंबन्धिनः । काण्डारणा लोके प्रसिद्धा; तदुद्भवाः स्थाया: काण्डारणासंबन्धिनः । लोके स्तम्भादिषु पद्माद्याकारोत्किरणं काण्डारणेत्युच्यते । सरलः अवक्र: । कोमलः सुकुमारः । रक्तो रागवान् । क्रमेण सूक्ष्मत्वं प्रापित: स्वरो येषु, ते निर्जवनसंबन्धिनः । शैथिल्येन हीनो यः प्रचुरस्वरः स्थायः, स गाढ इत्युच्यते । स एव गाढः किंचिन्मार्दवसंयुक्तो ललितगाढ इत्युच्यते । विलासश्चातुर्य यस्मिन् श्रूयते, स ललितः । मार्दवात् घूर्णितो यो डोलायुक्तः, स लुलितः। यस्तु वेगविलम्बरहितो मध्यमानेन गीयते, स समः । कोमलः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ संगीतरत्नाकरः प्रसृतः प्रसरोपेतः स्निग्धो रूक्षत्ववर्जितः ॥ १४८ ॥ उज्ज्वलो गदितचोक्ष उचितस्तु यथार्थकः । सुदेशिको विदग्धानां वल्लभोऽपेक्षितस्तु सः ॥ १४९ ॥ स्थाय: स्थायेन पूर्वेण पूर्त्यर्थं योऽभिकाङ्क्षितः । वलौ वहे वहन्यां च यः स्निग्धमधुरो महान् ॥ १५०॥ मन्द्रे ध्वनिः स घोषः स्यात्तद्युक्ता घोषजा मताः गम्भीरमधुरध्वाना मन्द्रे ये स्युः खरस्य ते ॥ १५१ ॥ (b) अप्रसिद्धस्थायाः वहन्त इव कम्पन्ते खरा येषु वहस्य ते । अक्षराडम्बरो येषु मुख्यास्ते स्युस्तदन्विताः ॥१५२॥ वेगेन प्रेरितैरूर्ध्वं स्वरैरुल्लासितो मतः । यत्र गङ्गातरङ्गन्ति खराः स स्यात्तरङ्गितः ॥ १५३ ॥ सुकुमारः । प्रसरेण विस्तरेणोपेतो युक्तः प्रसृतः । स्नेहवान् स्निग्धः । उज्ज्वलो दीप्तिमान् चोक्ष इत्युच्यते । औचित्यं यत्र विद्यते स उचितः । यस्तु विदग्धानां सहृदयानां वल्लभः प्रियः, स सुदेशिकः । पूर्वेण स्थायेन यः स्वपूर्त्यर्थमाकाङ्क्ष्यते, सोऽपेक्षितः। वलौ वदिसंज्ञके गमके वहे स्वरकम्पे वहन्यां पूर्वो च य: स्नेहवान् मधुरः स्थूलो मन्द्रस्थानीयो ध्वनिः, स घोष इत्युच्यते ; तद्युक्ताः स्थायाः घोषसंबन्धिनः । ये मन्द्रस्थाने गम्भीरमधुरध्वनयः, ते स्वरस्य संबन्धिनो ज्ञेयाः । इति त्रयस्त्रिंशत् संकीर्णाः स्थायाः ॥ ११२-१५१ ॥ अधासंकीर्णान् विंशति स्थायान् लक्षयति — वहन्त इति । येषु स्थायेषु स्वराः वहन्त इव कम्पन्ते यथा भूरिभाराकान्ताः कम्पन्ते तद्वत्, ते वहसंबन्धिनः स्थायाः । येषु स्थायेष्वक्षराणामांडम्बर: प्रौढिः, तेऽक्षरा - डम्बरसंबन्धिनः । यत्र वेगेनोर्ध्व प्रेषितैः खरैर्युक्तः, स उल्लासितः । यत्र स्थाये गङ्गातरङ्गवदाचरन्ति स्वराः, स तरङ्गितः । आचारार्थे क्विप् । अर्धपूर्णे कलशे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः परितोऽर्धभृते कुम्भे जलं डोलायते यथा। गीते तथाविधः स्थायः प्रोक्तस्तज्ज्ञैः सलम्बितः॥ अवस्खलति यो मन्द्रादवरोहेण वेगतः। सोऽवस्खलित इत्युक्तस्त्रोटितस्तु स्वरे क्वचित् ॥१५५॥ चिरं स्थित्वाग्निवत्तारं स्पृष्ट्वा प्रत्यागतो भवेत् । घनखरोऽवरोहे स्यात् संप्रविष्टस्तथाविधः ॥ १५६ ॥ आरोहिण्युत्प्रविष्टः स्यादन्वर्थाः स्युः परे त्रयः। प्रतिग्राह्योल्लासितः स्यादसौ यः प्रतिगृह्यते ॥ १५७॥ उत्क्षिप्योत्क्षिप्य निपतन् केलिकन्दुकसुन्दरः। द्रुतपूर्वो विलम्बान्तः 'स्यादलम्बविलम्बकः ॥१५८॥ स्यात् नोटितप्रतीष्टोऽसौ यत्र स्यात्तारमन्द्रयोः । प्रथमं त्रोटयित्वैकमपरस्य प्रतिग्रहः ॥ १५९ ॥ यथोदकं डोलायते, तथाविधः स्थाय: सलम्बित इत्युच्यते । कचित् प्रलम्बित इति पाठः। यस्त्ववरोहन् मन्द्रात् अवस्खलति शीघ्रं मन्द्रं परित्यजति, सोऽवस्खलित इत्युच्यते । कस्मिश्चित् स्वरे चिरं स्थित्वा अग्निवत् सकृत्तारं स्पृष्ट्वा पुनरपि तं स्वरं प्रत्यागतः त्रोटित इत्युच्यते । अवरोहे घनाः निबिडाः स्वरा यस्मिन् , स संप्रविष्टः। आरोहे तथाविधो घनस्वरः । अन्ये त्रयः नि:सारणभ्रामितदीर्घकम्पिता: | अन्वर्थनाम्नैव लक्षणप्रतीतिस्तेषां त्रयाणामित्यर्थः। यत्र स्वराणां निःसरणमिव भ्रमणं दीर्घकम्पनं च, ते तथाविधा इत्यर्थः । यः क्रीडाकन्दुकवनिपतन्नुत्क्षिप्योत्क्षिप्य गृह्यते, स प्रतिग्राह्योल्लासितः । यस्तु पूर्व द्रुतमानेन पश्चात विलम्बितमानेन गीयते, सोऽविलम्बविलम्बकः । यत्र तारमन्द्रयोरुभयोः स्वरयोर्मध्ये प्रथमं त्रोटयित्वा निरस्य अपरस्य द्वितीयस्य प्रतिग्रहणं स्वीकारो गानमिति यावत् , स नोटितप्रतीष्टः । यस्य ध्वनिः प्रसार्य 1 सोऽविलम्बेति सुधाकरसंमतः पाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ संगीतरत्नाकरः प्रसृताकुश्चितः स्थायः प्रसार्याकुश्चितध्वनिः । स्थायिवर्णस्थितिः कम्पः स्थिर इत्यभिधीयते ॥१६०॥ एकैकस्मिन् स्वरे स्थित्वा स्थित्वा वाथ द्वयोर्द्वयोः।। त्रिषु त्रिष्वथवा स्थायो रचितः स्थायुको मतः॥१६१॥ ऊवं प्रसारितः क्षिप्तः सूक्ष्मान्तोऽन्तेऽल्पतां गतः। शब्दः प्रकाशते येषु धृतिभृत्यादिवर्जितः ॥ १६२॥ स्वभावादेव शब्दस्य प्रकृतिस्थस्य ते मताः। येषु सूक्ष्मीकृताः शब्दास्ते कलायाः प्रकीर्तिताः ॥१६॥ भृशं प्राणप्रतिग्राह्या ये स्युराकमणस्य ते। ते स्थाया घटनाया ये शिल्पिना घटिता इव ॥१६४॥ सुखदास्तु सुखस्य स्युश्चालिजकेति कीर्तिता। स्थायास्तदन्विताश्चालेरंशो जीवखरो मतः॥१६५॥ विस्तार्य आकुञ्च्यते संक्षिप्यते, स प्रसृताकुञ्चितः । स्थायिवर्णे स्थितानां स्वराणां कम्पो यस्मिन् , स स्थिरः । एकैकस्मिन् स्वरे द्वयोर्द्वयोर्वा स्वरयोस्त्रिषु वा स्वरेषु स्थित्वा क्षणं स्थिरीभूय यो विरच्यते स्थायः, स स्थायुक इत्युच्यते । ऊर्य तारस्थाने प्रसारितो विसारित: क्षिप्त इत्युच्यते । यः पूर्व स्थूल: अन्तेऽल्पतां नीतः, स सूक्ष्मान्तः । इत्यसंकीर्णा विंशतिः स्थायाः ।। __अथ त्रयस्त्रिंशतं संकीर्णान् लक्षयति--शब्द इति । धृतिभृत्यादिवर्जितः आकुञ्चनपूरणादिहीनः शब्दः स्वाभाविको येषु स्थायेषु प्रकाशते, ते प्रकृतिस्थशब्दसंबन्धिनः । येपु स्थायेषु शब्दः सूक्ष्मोऽल्पः क्रियते, ते कलासंबन्धिनः । भृशम् अतिशयेन प्राणेन बलेन ये प्रतिग्रहीतुं शक्यन्ते, ते आक्रमणसबन्धिनः । ये शिल्पिना घटिताः स्तम्भा इव प्रतिभान्ति, ते घटनासंबन्धिनः । ये सुखदाः; ते सुखसंबन्धिनः । चालिः भङ्गिविशेषेण स्वराणां चालनम् ; सा लोके जक्केति कथ्यते ; तदन्विताः स्थायाश्चालिसंबन्धिनः । अंशस्वरो जीवस्वर इत्युच्यते । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः १८५ तत्प्राधान्येन ये गीताः स्थाया जीवखरस्य ते । वेदध्वनिनिभध्वानाः स्थाया वेदध्वनेर्मताः ॥ १६६ ॥ अन्तःसारो घनत्वस्य यथार्थः शिथिलो मतः । दुष्करोऽवघटः प्रोक्तः प्लुतोऽत्यन्तविलम्बितः॥१६७॥ रागेणेष्टः स्वपूत्यर्थे रागेष्ट इति कीर्तितः। स स्यादपखराभासो भात्यपवरवत्तु यः॥ १६८॥ स्तब्धःस्थायस्तु बद्धः स्याहहुत्वं मधुरध्वनेः। यस्मिन् कलरवस्यासौ छान्दसोऽचतुरप्रियः ॥ १६९॥ सुकराभास इत्युक्तो दुष्करः सुकरोपमः। घण्टानादवदायातस्तारान्मन्द्रं तु संहितः ॥९७०॥ लघुर्गुरुत्वरहितो ध्रुवकाभोगयोस्तु यः। अन्तरे सोऽन्तरो वक्रो यथार्थः सुकरस्तु' यः॥१७१॥ तं मुख्यं कृत्वा ये स्थाया गीयन्ते, ते जीवस्वरसंबन्धिनः । येषु स्थायेषु वेदध्वनिरिव प्रतिभाति, ते वेदध्वनिसंबन्धिनः । ये मध्ये भृता इव घनाः प्रतिभान्ति, ते घनत्वसंबन्धिनः । शिथिलो घनत्वप्रतियोग्यन्वर्थः । दुःखेन कर्तुं शक्यते यः, सोऽवघटः । यस्त्वत्यन्तविलम्बन गीयते, स प्लुतः । यस्तु रागेण स्वपूरणायाकाझ्यते, येन विना रागोऽपरिपूर्ण इव प्रतिभाति, स रागेष्टः। यस्तु सुस्वरोऽप्यपस्वरवदवदवभासते, सोऽपस्वराभासः । यस्तु निगलित इव स्तब्धस्तिष्ठति स्थायः, स बद्धः । यत्र मधुरध्वनेरनल्पत्वं, स कलरवसंबन्धी । यस्तु छान्दसानामचतुराणामविदग्धानां प्रियः, स छान्दसः । यस्तु दुष्करोऽपि सुकरः सुखगेय इवावभासते, स सुकराभासः। यस्तु घण्टानादवदनुरणनयुक्ततया तारस्थानान्मन्द्रस्थानं प्रयाति, स संहित इत्युच्यते । यस्तु गुरुत्वेन हीनो लाघवेन गीयते, स लघुरित्युच्यते । यस्तु धुवकाभोगयोः पदयोरन्तरा गीयते, सोऽन्तरः । यस्तु तारस्थाने सकलोऽन्यूनः 1 सकलस्तु इति सुधाकरपाठः। 24 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ संगीतरत्नाकरः तारे दीप्तप्रसन्नोऽसौ सुकरः कोमलध्वनिः । प्रसन्नमृदुरित्युक्तो गुरुरन्वर्थनामकः॥ १७२ ॥ ह्रखः स्तोकः परौ द्वौ तु स्यातामन्वर्थनामको । शब्दशारीरगुणतः सुकरः सुखरोऽथवा ॥ १७३ ॥ यः कस्यचिन्न सर्वेषां सोऽसाधारण उच्यते । सहशो यस्तु सर्वेषामसौ साधारणः स्मृतः॥ १७४ ॥ न वाञ्छति वहन्यादिर्यः स्वनिर्वाहहेतवे । उच्यते स निराधारः सुकरो दुष्करोपमः॥ १७ ॥ दुष्कराभास इत्युक्तो मिश्रणान्मिश्रको मतः। (c) मिश्रस्थायाः आनन्त्यान्नैव शक्यन्ते भेदा मिश्रस्य लक्षितुम् ॥१७६॥ दिक्प्रदर्शनमात्रार्थमुच्यन्ते तेषु केचन । यो यस्मिन् बहुलः स्थायः स तेन व्यपदिश्यते ॥१७७॥ संपूर्णः प्रतिभाति, स दीप्तप्रसन्नः । यस्तु सुखेन कर्तुं शक्यते सुकुमारध्वनिश्च, स प्रसन्नमृदुः । गुरुर्लाघवहीनो यथार्थः । यस्तु खर्व इव प्रतिभाति, स ह्रस्वः । परौ शिथिलगाढदी? सार्थकनामानौ । यस्तु कस्यचिदेव पुरुषस्य शब्दगुणेन शारीरगुणेन वा सुकरः सुखेन कर्तुं शक्यः, सुस्वरः अपस्वरहीनो वा; न तु सर्वेषां पुरुषाणां, सोऽसाधारणः। यस्तु वहन्यादिर्वहनीवलिहुम्फितादिः स्वनिर्वाहहेतवेऽन्यदङ्गकम्पितादि न वाञ्छति, स निराधारः। एतेषा मुक्तानां स्थायानां किंचिल्लक्षणमिश्रणान्मिश्रः । इति त्रयस्त्रिंशत् संकीर्णाः स्थायाः ॥ १६३-१७६ ॥ _ (सं०) कियतो मिश्रभेदान् कथयितुमाह- आनन्त्यादिति । मिश्रस्य स्थायस्य भेदा: सामस्त्येन लक्षयितुमशक्याः; तस्मादभ्यूहनप्रकारार्थ कियन्तश्चित् कथ्यन्त इत्यर्थः । ननु मिश्रभेदानां नामानि किमिति न प्रदर्श्यन्ते ? अत Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः साम्ये तु मिश्रनामैव स त्विदानी प्रपञ्च्यते । तिरिपान्दोलितो लीनकम्पितः कम्पिताहतः ॥ १७८॥ तिरिपस्फुरितो लीनस्फुरितः स्फुरिताहतः। लीनकम्पितलीनश्च विभिन्नकुरुलाहतः ।। १७९॥ प्लावितोल्लासितवलिर्चलिहुम्फितमुद्रितः। नामितान्दोलितवलिर्वलिनामितकम्पितः ॥ १८० ॥ आन्दोलितप्लावितकसमुल्लासितनामितः। तिरिपान्दोलितवलिविभिन्नकुरुलोऽपरः ॥ १८१ ।। विभिन्नलीनस्फुरितप्लावितान्दोलितः परः। वहनीढालयोर्दालवहन्योः शब्दढालयोः ।। १८२ ॥ वहनीयन्त्रयोश्च्छायायन्त्रयोः शब्दयन्त्रयोः। वहनीच्छाययोर्यन्त्रवाद्यशब्दभवः परः ॥ १८३ ।। तीक्ष्णप्रेरितकस्तीक्ष्णप्रेरितः खरलडितः। ढालशब्दोत्थयन्त्रोत्थवाद्यशब्दभवः परः ॥ १८४ ॥ ढालच्छायायन्त्रवाद्यशब्दशब्दभवोऽपरः। प्रलम्बितावस्खलितस्त्रोटितोल्लासितः परः ॥ १८५ ॥ संप्रविष्टोत्प्रविष्टश्व संप्रविष्टतरङ्गितः। प्रतिग्राह्योल्लासितश्चोत्क्षिप्तोऽलम्बविलम्बकः ॥१८६॥ स्यात् ब्रोटितप्रतीष्टोत्प्रविष्टनिःसरणः परः। आह-यो यस्मिन्निति । यस्मिन् मिश्रे स्थाये यः पूर्वोक्तेषु स्थायेषु बाहुल्येन दृश्यते, स तन्नामा मिश्रस्थायः ; यथा शब्दमिश्रो ढाल मिश्र इति । यत्र तु द्वयादीनां लक्षणसाम्यं, तदा मिश्रनामानः स्थायाः । तानेव मिश्रनाम्नः स्थायान् कतिचित् कथयति-तिरिपान्दोलित इत्यादिना । अत्र द्वयोर्लक्षणसाम्ये द्वियोगजः त्रयाणां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ संगीतरत्नाकरः दीर्घकम्पितसूक्ष्मान्तभ्रामितस्थायुकोऽन्यकः ॥१८७॥ वहाक्षराडम्बरजः प्रसृताकुञ्चितस्थिरः । भ्रामितक्षिप्तसूक्ष्मान्ततरङ्गितविलम्बितः ॥ १८८॥ एते षट्त्रिंशदन्येऽपि विज्ञातव्या दिशानया। इति स्थायभेदलक्षणानि । ___ आलप्तिभेदलक्षणानि रागालपनमालप्तिः प्रकटीकरणं मतम् ॥ १८९ ।। सा द्विधा गदिता रागरूपकाभ्यां विशेषणात् । लक्षणसाम्ये त्रियोगजः । चतुर्णा लक्षणसाम्ये चतुर्योगजः । एवं षट्त्रिंशत् दिक्प्रदर्शनार्थमुक्ताः । अनया दिशा अन्येऽप्यूहनीयाः । इति स्थायवाग लक्षणम् ॥ १७६-१८९ ॥ (क०) अथ सप्रभेदामालप्तिं लक्षयिष्यन् प्रथमं तावदालप्तिशब्दं व्युत्पादयितुमाह-रागालपनमालप्तिरिति । अत्र यदालपनं सा आलप्तिरित्यनेनालप्तिशब्दोऽप्यालपनशब्दवद्भावसाधनत्वेन व्युत्पन्न इति दर्शितं भवति । नन्वालापशब्दस्यापि भावसाधनत्वाविशेषात् ‘स्याद्रागालाप आलप्तिः' इति व्युत्पादनं कस्मान्न क्रियत इति चेत् ; उच्यते-घक्तिन्प्रत्यययोविलक्षणार्थत्वादिति । तथाहि-~-घजस्तावदाविर्भावोऽर्थः । क्तिनस्तु तिरोभावोऽर्थः । आविर्भावतिरोभावयोरत्यन्तवैलक्षण्यमेव । ल्युटस्तु तदुभयमध्यस्थस्थित्यर्थत्वात्तदन्तेन घक्तिनन्तयोर्युत्पादनमविरुद्धम् । ताभ्यां तु परस्परव्युत्पादनं विरुद्धमेव । अत एव भावावस्थाभेदात् घञाद्यन्तानां लिङ्गभेदोऽप्युपपन्न एव । यथा घार्थ आविर्भावः सत्त्वपरिणामरूपो मूर्तिधर्मः पुंस्त्वेन दृष्ट इति घअन्तस्य पुंलिङ्गता ; क्तिनर्थस्तिरोभावो रजःपरिणामरूपो मूर्तिधर्मः स्त्रीत्वेन दृष्ट इति क्तिनन्तस्य स्त्रीलिङ्गता; Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय: प्रकीर्णकाध्यायः १८९ ल्युडर्थस्याविर्भावतिरोभावोभयान्तरालस्य तमःपरिणामरूपस्य मूर्तिधर्मस्य नपुंसकत्वेन दर्शनाल्ल्युडन्तस्य नपुंसकलिङ्गतेति । तदेवं भावसाधनानां घनाद्यन्तानामालापादिशब्दानां सामान्येन भावार्थत्वेऽपि तदवस्थाविशेषभूताविर्भावतिरोभावस्थितिपरतया तेषां घक्तिन्ल्युडन्तानां क्रमेण पुंस्त्रीनपुंसकलिङ्गता द्रष्टव्या । भावो नाम साध्यरूपस्य धात्वर्थस्य सिद्धत्वाकारः । तदवस्थाविशेषा आविर्भावादयः । तथाचोक्तं हरदत्तमित्रैः " आख्यातशब्दे भागाभ्यां साध्यसाधनवर्तिता । प्रकल्पिता यथा शास्त्रे स घादिप्वपि क्रमः ।। साध्यत्वेन क्रिया तत्र धातुरूपनिबन्धना । सत्त्वभावस्तु यस्तु स्यात् स घञादिनिबन्धनः ॥ न विना लिङ्गसंख्याभ्यां सत्त्वभूतोऽर्थ उच्यते । इत्यतन्त्रमुपादानं तयोर्न तु विवक्षितम् ॥" इत्युपक्रम्य " स्तनकेशवती स्त्री स्याल्लोमशः पुरुषः स्मृतः । उभयोरन्तरं यच्च तदभावे नपुंसकम् ॥ आविर्भावस्तिरोभावः स्थितिश्चेत्यनपायिनः । धर्मा मूर्तिषु सर्वासु लिङ्गत्वेनानुदर्शिताः ॥ आविर्भाव उपचयः पुंस्त्वम् ; तिरोभावोऽपचयः स्त्रीत्वम् ; अन्तरालावस्थास्थितिर्नपुंसकत्वमित्यर्थः । कस्य पुनराविर्भावादिकं लिङ्गम् ? सत्त्वरजस्तमसां गुणानां तत्परिणामरूपाणां च तदात्मकानां शब्दस्पर्शरूपरसगन्धानाम् । शब्दादितत्तत्संघातरूपाश्च सर्वा मूर्तयः । क्षणपरिणामस्वभावाश्च 'cf. Padamañjari on Kāśikā, IV. 1-3. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० सत्त्वादयो गुणा न स्वस्मिन्नात्मनि मुहूर्तमप्यवतिष्ठन्ते । एवं शब्दादय आकाशादयो घटादयश्च । उक्तं च इति । इति । संगीतरत्नाकर: इति । तथा सर्वमूर्त्यात्मभूतानां शब्दादीनां गुणे गुणे । त्रयः सत्त्वादिधर्मास्ते सर्वत्र समवस्थिताः || ततश्च कथितोदकवच्चैषामनवस्थितवृत्तिता । अजस्रं सर्वभावानां भाष्य एवोपवर्णिता ॥ रूपस्य चात्ममात्राणां शुक्लादीनां प्रतिक्षणम् । काचित् प्रलीयते काचित् कथंचिदभिवर्धते ॥ प्रवृत्तिमन्तः सर्वेऽर्थास्तिसृभिश्च प्रवृत्तिभिः । सततं न वियुज्यन्ते वाचश्चैवात्र संभवः ॥ इति च । टाबाद्यन्तशब्दा एवैतामवस्थां गोचरयन्तीत्यर्थः । पुरुषो यद्यप्यपरिणामी, तथापि — अचेतनेषु चैतन्यं संक्रान्तमिव दृश्यते । प्रतिबिम्वकधर्मेण यत्तच्छब्द निबन्धनम् ॥ यश्चाप्रवृत्तिधर्मार्थश्चितिरूपेण गृह्यते । अनुयातीव सोऽन्येषां प्रवृत्तीर्विप्वगाश्रयाः ॥ सामान्यमपि गोत्वादि व्यंक्तरव्यतिरेकतः । प्रवृत्तिधर्म तद्वारा शशशृङ्गादिवाक्षु तु ॥ स्यादुत्तरपदार्थस्य सद्भावाल्लिङ्गयोगिता । प्रवृत्तेरपि विद्यन्ते तिस्रो ह्येताः प्रवृत्तयः । पुंनपुंसकता स्त्रीत्वं तेन स्यादन्यलिङ्गता ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः १९१ तदेवं सर्वपदार्थव्यापित्वादुपचयापचयान्तरालावस्थास्त्रीणि लिङ्गानि । एवंच नक्षत्रं तारका तिप्यः; डिम्भः कुमारी; अर्थो वस्त्वित्येकस्याप्यर्थस्य नानालिङ्गयोग उपपद्यते; आविर्भावादित्रयस्यापि गुणभेदेन तस्मिन्नवार्थे सर्वदा संभवात् । न चैवं तद्वत्तेः सर्वस्यैव शब्दस्य त्रिलिङ्गताप्रसङ्गः । न ह्यस्ति नियमो यः शब्दो यत्रार्थे पर्यवस्यति, तत्र विद्यमानः सर्व एवाकारस्तेन शब्देनाभिधातव्य इति । किंतु य आकारोऽभिधीयते, तेन सता भवितव्यमित्येतावत् । तद्यथा-तक्षा युवा कृष्णः कामुक इति तक्षादिशब्दानामेकार्थपर्यवसायिनामपि व्यवस्थित एवाकारो वाच्यः । तथा लिङ्गेष्वपि द्रष्टव्यम् । उक्तं च संनिधाने पदार्थानां किंचिदेव प्रवर्तकम् । यथा तक्षादिशब्दानां लिङ्गेषु नियमस्तथा ॥ इति । उपचीयते कुमारीत्यत्रापि कुमारीशब्दः स्वमहिम्ना कस्यचिद्धर्मस्यापचयमेवाह । शब्दान्तरप्रयोगात्तु धर्मान्तरस्योपचयः प्रतीयते । एवं क्षीयते वृक्ष इत्यत्रापचयः प्रतीयते । तदेवं सर्वमनाकुलमिदं दर्शनम् । तत्राचेतनेषु सर्वत्रोपदेशादेवाभिव्यक्तिः । चेतनेष्वपि स्वयमव्यञ्जितस्य लिङ्गस्योपदेशादेवाभिव्यक्तिः । उपदेशः पुनर्लिङ्गानुशासनादिषु ।” इति । नन्वेवमवस्थाभेदेनार्थभेदसिद्धेः कथं रागालपनालप्तिशब्दयोरेकार्थत्वेनोपन्यास उपपद्यत इति चेत् ; उच्यते---स्थित्यवस्थभावार्थवदालपनशब्दस्य तिरोभावावस्थभावार्थवदालप्तिशब्दस्य चार्थभेदे सत्यपि स्थित्यवस्थाया आविर्भावतिरोभावावस्थयोरन्तरालत्वेनोभयसाधारणतया काकाक्षिन्यायेन यदालपनशब्दस्य तिरोभावार्थप्रधानत्वं विवक्षितं तदालप्तिशब्देन समानार्थत्वम् ; यदा तु तस्यैवाविर्भावार्थप्रधानत्वं विवक्षितं तदालापशब्देन समानार्थत्वमिति । अत एवालपन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ संगीतरत्नाकरः रागालप्तिः रागालप्तिस्तु सा या स्यादनपेक्ष्यैव रूपकम् ॥ १९० ॥ खस्थानैः सा चतुर्भिः स्यादिति गीतविदो विदुः। मालप्तिरिति वा, आलपनमालाप इति वा व्युत्पादयितुं शक्यते ; नान्यथेति गतमेतत् । फलसाम्याभिप्रायेण प्रकारान्तरमपि क्रोडीकर्तुमाह--प्रकटीकरणं ममिति । अत्र प्रकृतत्वाद्रागस्य प्रकटीकरणमिति गम्यते । रागप्रकटीकरणमप्यालप्तित्वेन संमतमित्यर्थः । प्रकटीकरणमित्यत्र प्रकटीति च्वेरभूततद्भावार्थत्वात् किंचित्प्रतीयमानार्थत्वं विवक्षितम् । आलपनमित्यत्रापि तिरोभावस्य प्रकटार्थावरणरूपत्वात् तत्रापि किंचित्प्रतीयमानार्थत्वं विवक्षितम् । तेनोभयत्रापि फलभूतं रागस्य किंचित्प्रतीयमानत्वमेवालप्तिशब्दप्रवृत्तौ निमित्तमित्यवगन्तव्यम् । तथा ह्यालप्तौ प्रकारद्वयम् । तच्च पर्यायेण संभवति । यदा तावदाविर्भूतस्य रागस्य विचित्रवर्णालंकारगमकस्थायप्रयोगभङ्गिभेदेन तिरोभावः क्रियते, तदालप्तिशब्दस्यालपनशब्दसमानार्थता । यदा त्वत्र तस्य रागस्य तादृशेनैव प्रयोगभेदेन तद्भावः संपद्यते, तदा प्रकटीकरणशब्दसमानार्थता चेति रहस्यमेतत् । एवमालप्तिशब्दार्थ प्रदर्श्य तद्भेदान् प्रदर्शयति-सा द्विधेत्यादिना । रागरूपकाभ्यां विशेपणादिति । रागविशेषणाद्रागालप्तिः; रूपकविशेषणाद्रपकालप्तिरित्यर्थः ॥ १८९-१९० ॥ (सं०) आलप्ति लक्षयति-रागालपनमिति । रागस्यालपनमालप्तिरित्यभिधीयते । नन्वालपनमालप्तिरिति पर्यायः ; कथमस्य लक्षणत्वमत आहप्रकटीकरणमिति । येन स्वरसंदर्भण रागः प्रकटीक्रियते, सा आलप्तिः । सा द्विविधा- रागालप्तिः, रूपकालप्तिरिति ॥ १८९-१९० ॥ (क०) रागालप्तिस्त्विति । तुशब्दो रूपकालप्तेस्तस्या वैलक्षण्यद्योत• नार्थः । रूपकमनपेक्ष्यैवेति । रूपकं प्रबन्धः ; 'प्रबन्धो वस्तु रूपकम् । इति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९३ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः यत्रोपवेश्यते रागः खरे स्थायी स कथ्यते ॥ १९१ ।। ततश्चतुर्थो द्वयर्धः स्यात् स्वरे तस्मादधस्तने । चालनं मुखचालः स्यात् खस्थानं प्रथमं च तत् ॥१९२॥ द्वयर्धस्वरे चालयित्वा न्यसनं तद् द्वितीयकम् । स्थायिस्वरादष्टमस्तु द्विगुणः परिकीर्तितः ॥ १९३ ।। द्वयर्धद्विगुणयोर्मध्ये स्थिता अर्धस्थिताः खराः। अर्धस्थिते चालयित्वा न्यसनं तु तृतीयकम् ॥ १९४ ॥ वक्ष्यमाणत्वात् । तत्र मात्रयाप्यनाश्रितेत्यर्थः । स्वस्थानैरिति । स्वस्थानः; रागालपनविश्रान्तिप्रदेशैः चतुर्भिः मुखचालादिभिर्वक्ष्यमाणलक्षणैः । स्यात् ; उपलक्षिता स्यादित्यर्थः । स्वस्थानैरितीत्थंभूतलक्षणे तृतीया। यत्रेत्यादि । यत्र यस्मिंस्तत्तद्रागांशभूते षड्जादिप्वन्यतमे स्वरे राग उपवेश्यते स्थाप्यते, स स्वरो रागस्थितिहेतुत्वात् स्थायीति कथ्यते । ततः स्थायिनः स्वरात् चतुर्थः आरोहक्रमेण सत्यपि लोप्यस्वरे तेन सह गणनायां चतुर्थः स्वरो द्वयर्धः स्यात् । द्विगुणस्वरापेक्षयार्धत्वात् व्यर्धसंज्ञको भवति । तस्मादधस्तन इति । तस्मात् द्वयर्धस्वरात् । अधस्तने स्वर इति तदधोऽधःस्थानामप्युपलक्षणम् । तेन स्थायिनोऽप्यधस्तना गृह्यन्ते, अन्यथैकस्मिन्नेव स्वरे रागप्रतीतेरभावात् । तेषु चालनं तत्तद्रागोचितस्फुरितकम्पितादिगमकयुक्तत्वेनोच्चारणं वादनं वा मुखचालः स्यात् । मुखचाल इत्यन्वर्थसंज्ञा । तदेव प्रथमं स्वस्थानम् । अयमर्थः-स्थायिनमारभ्य द्वयर्धस्वरमर्यादावधिं कृत्वा तदधस्तनान् यथोचितं चालयित्वा स्थायिनि न्यासे कृते प्रथमं स्वस्थानमिति । द्वयर्धस्वरे चालयित्वेति । पूर्वोक्तैः स्वरैः सह द्वयर्धस्वरमपि चालयित्वा स्थायिन्यासे सति द्वितीयं स्वस्थानमित्यर्थः । अर्धस्थिते चालयित्वेति । अयमर्थः--द्विगुणं परित्यज्य तदधोऽधःस्थितेषु 25 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ संगीतरत्नाकरः द्विगुणे चालयित्वा तु स्थायिन्यासाचतुर्थकम् । एभिश्चतुर्भिः स्वस्थानै रागालप्तिर्मता सताम् ।। १९५ ।। स्तोकस्तोकैस्ततः स्थायैः प्रसन्नैर्बहुभङ्गिभिः । जीवस्वरव्याप्तिमुख्यै रागस्य स्थापना भवेत् ॥ १९६ ॥ इति रागालप्तिः चालयित्वा स्थायिन्यासे सति तृतीयं स्वस्थानमिति । द्विगुणे चालयित्वेति । द्विगुण इति तदुत्तरेषामप्युपलक्षणम् । तेषु चालयित्वा स्थायिन्यासाच्चतुर्थ स्वस्थानं भवति । स्तोकस्तोकैरित्यादि । जीवस्वरः अंशस्वरः । उक्तस्वस्थानचतुष्टयप्रयुक्तायामालप्तायुक्तलक्षणैः स्वल्पैः रागावयवैर्विस्तार्यमाणायामापाततोऽभिव्यक्तस्य रागस्य रागान्तरसाधारणस्थायादिप्रयोगात् स्वरूपतिरोभावे सति किंचित्प्रतीयमानता भवेदित्यभिप्रायः। यथा लोके सभां प्रत्यागच्छतो देवदत्तस्य स्वरूपेणाभिव्यक्तस्य ततः सभां प्रविश्योपविष्टस्य स्वसदृशरूपवेषभाषादिसांकर्यात् स्वरूपतिरोभावे सति तस्य किंचित्प्रतीयमानत्वम् ; यथा वा पृथगानीय भिन्नवणेपु मणिपु प्रोतस्य मुक्तामणेर्मण्यन्तरच्छायोपरागात् स्वरूपतिरोभावे सति तस्य किंचित्प्रतीयमानत्वं, तद्वदिति ॥ १९०-१९६ ॥ (सं०) तत्र रागालतिं लक्षयति-रागालप्तिस्त्विति । या रूपकप्रबन्धे एलामण्ठाद्यनपेक्ष्य प्रवर्तते, सा रागालप्तिः । सा चतुर्भिः स्वस्थानैः रागालप्त्यवयवैर्वक्ष्यमाणैः स्यादिति गीतविदो भग्तादयो विदुः । तत्र प्रथमं स्वस्थानं लक्षयति-यत्रेति । यत्र स्वरे राग उपवेश्यते स्थाप्यते, स स्वरः स्थायीत्युच्यते । ततः स्थायिन आरोहेण चतुर्थः स्वरो द्वयर्ध इत्युच्यते । तस्मात् द्वयर्धात् स्वरादधस्तने तृतीये स्वरे चालनं पुनरुच्चारणात्मकं वांशिकप्रसिद्धं मुखचाल इत्युच्यते । इदमालप्तेः प्रथमं स्वस्थानम् । द्वितीयं स्वस्थानं लक्षयति-द्वयर्धस्वर इति । द्वयर्धस्वरे स्थायिनः स्वराच्चतुर्थे स्वरे चालनं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः रूपकालप्तिः रूपकस्थेन रागेण तालेन च विधीयते। या प्रोक्ता रूपकालप्तिः सा पुनर्द्विविधा भवेत् ।।१९७।। प्रतिग्रहणिकैकान्या भञ्जनीत्यभिधीयते। विधाय स्थायमालप्ते रूपकावयवो यदि ॥ १९८ ॥ प्रतिगृह्येत सा प्रोक्ता प्रतिग्रहणिका वुधैः। भञ्जनी द्विविधा ज्ञेया स्थायरूपकभञ्जनात् ॥ १९९ ॥ यदा तत्पदमानेन स्थायो रूपकसंस्थितः। कृत्वा तत्रैव न्यसनं स्वस्थानसमाप्तिः । इदं द्वितीयं स्वस्थानम् । तृतीयं स्वस्थानं लक्षयति-स्थायिस्वरादिति । स्थायिनः स्वरादष्टमः स्वरो द्विगुण इत्युच्यते । चतुर्थों द्वयर्धः । तयोश्चतुर्थाष्टमयोः स्वरयोर्मध्ये स्थिताः स्वराः पञ्चमषष्ठसप्तमा अर्धस्थिता इत्युच्यन्ते । तत्रैव चालनं कृत्वा अर्धस्थिते न्यसनं तृतीयं स्वस्थानम् । चतुर्थ स्वस्थानं लक्षयति-द्विगुण इति । द्विगुणे अष्टमस्वरे चालनं कृत्वा स्थायिनि न्यासादालप्तिसमाप्तेश्चतुर्थ स्वस्थानम् । एवंविधैः चतुर्भिः स्वस्थानयुका रागालप्तिरित्युच्यते । रागालप्तिविशेष स्थापनां लक्षयतिस्तोकस्तोकैरिति । तत उक्तलक्षणालप्त्यनन्तरं स्तोकस्तोकैः प्रसन्नैबहुविधचातुर्ययुक्तीवस्वरस्यांशस्वरस्य व्याप्तिर्बहुश उच्चारणं मुख्यं येषु तथाविधैः स्थायैः करणभूतैः रागस्य या अभिव्यक्तिः, सा स्थापनेत्यभिधीयते ॥ १९०-१९६ ॥ (क०) अथालप्तरेव रागप्रकटीकरणात्मतां प्रकटीकर्तुं रूपकालप्ति विवृणोति-रूपकस्थेनेत्यादिना । आलप्तेः स्थायं रागालप्तेरवयवं विधाय प्रथमं गीत्वा रूपकावयवः प्रकृतस्थायोचितत्वेन स्वाभिमतः प्रबन्धैकदेशो यदि पतिगृह्येत उपादीयेतेत्यर्थः, एषा प्रतिग्रहणिकालप्तिः । तत्पदमानेनेति । तच्छब्देनात्र प्रकृतत्वाद्र्पकं परामृश्यते । तस्य पदानि विदार्यवान्तरभागाः । तेषां मानेन प्रमाणेन, तत्कालविश्रान्तियुक्तया क्रिययेत्यर्थः । तेन युक्तो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः नानाप्रकारः क्रियते सा ज्ञेया स्थायभञ्जनी ॥ २०० ॥ तैः पदैस्तेन मानेन समग्रं रूपकं यदि । अन्यथा चान्यथा गायेदसौ रूपकभञ्जनी ॥ २०१॥ वर्णालंकारसंपन्ना गमकस्थायचित्रिता। आलप्तिरुच्यते तज्ज्ञैर्भूरिभङ्गिमनोहरा ॥ २०२॥ इति रूपकालप्तिः रूपसंस्थितोऽवयवत्वेन प्रबन्धेऽनुप्रविष्टः स्थायः । स्थायोऽत्र प्रबन्धैकदेशः । नानाप्रकारो विचित्ररीतियुक्तः क्रियते गातृवादकप्रतिभाविशेषेणोद्भाव्यते चेत्, सा स्थायभञ्जनी । तैः पदैरित्यादि । पदवत् पदानि ; यथा वाक्यस्य पदान्यवयवाः, तथा प्रबन्धस्यावयवा विदारीभागाः पदानीत्युच्यन्ते । न तु वाचकानि सुबन्तादीनि वा भाषापदानि । अन्यथा चान्यथा गायेदिति । अत्रान्यथात्वं नाम प्रबन्धे प्रकृतधातोर्धात्वन्तरपरिग्रहः । तेनात्र वीप्सया समग्रप्रबन्धस्य प्रकृततानस्थायानुकारिभिस्तानान्तरैस्तत्तद्रागोचितगमकादियुक्तैर्बहुधावयविन एव पुनः पुनरावृत्तिभिर्गानमभिद्योत्यते । तदासौ रूपकमजनी भवति । अयं भावः--अस्यां रूपकालप्तौ प्रथममनभिव्यक्तस्य रागस्य स्थायप्रतिग्रहभञ्जनाभ्यां प्रकटीकरणे सति किंचित्प्रतीयमानत्वं भवति । यथा जनसमाजे प्रविष्टत्वात् स्वरूपेणाप्रतीतस्य देवदत्तस्य कार्यवशादितस्ततः संचारेण प्रकटीकरणे सति किंचित्प्रतीयमानत्वम् ; यथा वा भिन्नवणेपु मणिषु प्रोतत्वादप्रतीतस्य मुक्तामणेः सूत्रशैथिल्यादितस्ततः सरणेन स्वरूपप्रकटीकरणे सति किंचित्प्रतीयमानत्वं, तद्वदिति । एवं रूपकालप्तौ रागस्य प्रकटीकरणं द्रष्टव्यम् । सकलालप्तिव्यक्तिप्वनुगतं सामान्यलक्षणमाह-वर्णालंकारसंपन्नेत्यादि । अत्र विशेषणसाम्यात् स्त्रीसमाधिव॑न्यते । यथा वर्णालंकारादिसंपन्ना कामिनी कामुकदर्शने कदाचिदाविर्भूतं कुचकेशादिकं स्वाङ्गं किंचिद्दर्शयति; एवं सविलास Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः १९७ तत्तिरोभावयति; कदाचित्तिरोभूतं तदेव सव्याजं प्रकटीकरोति ; तथोक्तलक्षणालप्तिरपि स्वस्थानचतुष्टयैः स्वतन्त्रं तत्तद्रागं किंचिद्दर्शयन्ती तं तिरोभावयति ; कदाचित्तिरोभूतं तमेव प्रतिग्रहभञ्जनाभ्यां प्रकटीकरोतीति सहृदयप्रतिभाविषय एषोऽर्थः। आलापस्तु पुमान् श्मश्वादिकमिव सदा रागमाविर्भावयति । नपुंसकमिवालपनं तदुभयसाधारणस्थितिं दर्शयतीति सूक्ष्मेक्षिकयावगन्तव्यम् ॥१९७-२०२।। __ (सं०) रूपकालप्ति लक्षयति-रूपकरथेनेति । प्रबन्धस्थेन रागेण तालेन चोपलक्षिता या आलप्तिः क्रियते, सा रूपकालप्तिः । सा द्विप्रकाराप्रतिग्रहणिका, भञ्जनी चेति । तत्र प्रतिग्रहणिकां लक्षयति-विधायेति । आलप्तेः स्थायमवयवं स्वस्थानरूपं पूर्व विधाय गीत्वा रूपकस्य प्रबन्धस्यावयवो भागो यदि प्रतिगृह्यते उदाह्यते, तदा प्रतिग्रहणिकालप्तिरित्युच्यते । भञ्जन्यालप्तिस्तु द्विविधा-स्थायभञ्जनी, रूपकभञ्जनी चेति । तत्र स्थायभञ्जनी लक्षयतियदेति । यस्यामालप्तौ रूपकसंस्थितः प्रबन्धाश्रितो य: स्थायोऽवयवस्तस्य प्रबन्धस्य पदमानेन नानाप्रकारोऽनेकभङ्गिकः क्रियते, सा स्थायभञ्जनी । रूपकभञ्जनी लक्षयति-तैः पदैरिति । तैः प्रबन्धस्थैः पदैः तेन प्रबन्धस्थेन मानेन समग्रमेव रूपकमन्यथान्यथाभङ्गिविशेषेण यस्यामालप्तौ गायको गायेत् , सा रूपकभञ्जनी । आलप्तीनां सामान्यलक्षणं कथयतिवर्णालंकारेति । ननु पूर्वमालप्तेः साधारणं लक्षणमुनं प्रकटीकरणमिति । तत् प्रशस्ताप्रशस्तसाधारणम् । इदं तु प्रशस्तालप्तिलक्षणमिति संतोषं कुरु । पार्श्वदेवेन षोडशविधालप्तिरुक्ता "सर्वगीतप्रबन्धानामादावालप्तिरिष्यते । सालप्तिर्द्विविधा ज्ञेया विषमा प्राञ्जलेति च ॥ साक्षरानक्षरा चेति द्विविधापि चतुर्विधा । चतुर्विधाप्यष्टविधा सतालातालभेदतः ॥ सा पुन: षोडशविधा शुद्धसालगभेदतः ।" इति ॥ १९७-२०२॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ संगीतरत्नाकरः बृन्दम् गातृवादकसंघातो बृन्दमित्यभिधीयते इति बृन्दम् ___ बृन्दभेदाः उत्तमं मध्यममथो कनिष्ठमिति तत् त्रिधा ॥ २०३ ॥ चत्वारो मुख्यगातारो द्विगुणाः समगायनाः। गायन्यो द्वादश प्रोक्ता वांशिकानां चतुष्टयम् ॥२०४॥ मार्दनिकास्तु चत्वारो यत्र तद्वन्दमुत्तमम् । मध्यमं स्यात्तदर्धन कनिष्ठे मुख्यगायनः ॥ २०५॥ एकः स्यात् समगातारस्त्रयो गायनिकाः पुनः। चतस्रो वांशिकद्वंद्वं तथा मार्दलिकद्वयम् ।। २०६॥ उत्तमे गायनीबृन्दे मुख्यगायनिकाद्वयम् । दश स्युः समगायन्यो वांशिकद्वितयं तथा ॥ २०७ ।। भवेन्मार्दलिकद्वंद्वं मध्यमे मुख्यगायनी । एका स्यात् समगायन्यश्चतस्रो वांशिकास्तथा ॥२०८॥ इतो न्यूनं तु हीनं स्याद्यथेष्टमथवा भवेत् । उत्तमाभ्यधिकं वृन्दं कोलाहलमितीरितम् ॥ २०९ ॥ मुख्यानुवृत्तिमिलनं ताललीनानुवर्तनम् । मिथस्त्रुटितनिर्वाहस्त्रिस्थानव्याप्तिशक्तिता ॥ २१० ॥ शब्दसादृश्यमित्येते प्रोक्ता बृन्दस्य षड् गुणाः। आह वृन्दविशेषं तु कुतपं भरतो मुनिः ।। २११ ॥ (क०) अथ बृन्दलक्षणमाह-गातृवादकसंघात इत्यादिना । ततकुतपे परिगणितासु घोषवत्यादिवीणासु कासांचिल्लक्षणानि वाद्याध्याये वक्ष्यन्ते । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः ततस्य चावनद्धस्य नाट्यस्येति त्रिधा च सः। ततस्य कुतपे ज्ञेयो गायनस्य परिग्रहः ॥ २१२॥ वीणा घोषवती चित्रा विपश्ची परिवादिनी। वल्लकी कुब्जिका ज्येष्ठा नकुलोष्ठी च किंनरी ।। २१३ ।। जया कूर्मी पिनाकी च हस्तिका शततन्त्रिका। औदम्बरी च षट्कर्णः पौणो रावणहस्तकः ॥ २१४ ।। सारङ्गयालपनीत्यादेस्ततवाद्यस्य वादकाः। वांशिकाः पाविकापावकाहलाशङ्कवादकाः॥ मुहरीशृङ्गवाद्याद्यास्तथा तालधरा वराः।। कुतपे त्ववनद्धस्य मुख्यो मार्दङ्गिकस्ततः ।। २१६ ।। पणवो दर्दुरो डका मण्डिडका च डक्कुली। पटहः करटा ढक्का ढवसो घडसस्तथा ॥ २१७ ॥ हुडुक्का डमरू रुञ्जा कुडुका कुडुवा तथा । निःसाणस्त्रिवली भेरी तुम्बकी बोम्बडी तथा ॥२१८॥ पट्टवाद्यं पटः कम्रा झलरीभाणसेल्लुकाः।। जयघण्टा कांस्यतालो घण्टा च किरिकिटकम् ।।२१९।। वाद्यानामेवमादीनां पृथग्वादकसंचयः। वराटलाटकर्णाटगौडगुर्जरकोङ्कणैः ॥ २२० ॥ महाराष्ट्रान्ध्रहम्मीरचौलैर्मलयमालवैः। अङ्गवङ्गकलिङ्गायै नाभिनयकोविदैः ।। २२१ ॥ तत्रानुक्तलक्षणास्तु वीणा लोकत एवावगन्तव्याः। वंशादीनां गीतजनकत्वेन ततवाद्यसाधाद्वांशिकादिसुषिरवादकानां ततकुतपेऽनुप्रवेश उक्तः । एवं कांस्य 1 तालधराः पराः इति सुधाकरपाठः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० संगीतरत्नाकरः अङ्गहारप्रयोगहास्यताण्डवकोविदैः। विचित्रस्थानकपोटैविषमेषु सुशिक्षितैः' ॥ २२२ ॥ नाट्यस्य कुतपः पात्रैरुत्तमाधममध्यमैः । कुतपानाममीषां तु समूहो वृन्दमुच्यते ।। २२३ ॥ इति बृन्दभेदाः इति श्रीमदनवद्यविद्या विनोदश्रीकरणाधिपतिश्रीसोढलदेवनन्दननि:शङ्कश्रीशाङ्गदेवविरचिते संगीतरत्नाकरे प्रकीर्णकाध्यायस्तृतीयः तालादीनां गीतोपरञ्जकत्वात् धनवाद्यवादकानामप्यवनद्धकुतपेऽनुप्रवेशः। तालस्य तु गीतादिमानहेतुत्वात् तुर्यत्रयप्रतिष्ठात्वेन सर्वत्रानुप्रवेशो द्रष्टव्यः । सुगममन्यत् । ॥ २०३-२२३ ॥ प्रत्यक्षभरताचार्यः कलिनाथो विदां वरः । विप्रसंकीर्णविषयं प्रकीर्णकमवर्णयत् ।। इति श्रीमदभिनवभरताचार्यगयवय(वाग्गेय)कारतोडरमल्ललक्ष्मणाचार्यनन्दनचतुरकल्लिनाथविरचिते संगीतरत्नाकरकलानिधौ प्रकीर्णकाख्यस्तृतीयोऽध्याय: (सं०) बृन्दं लक्षयति-गातृवादकेति । गातारो गायनाः गायन्यश्च । वादका वांशिकादयः । तेषां संख्याविशेषेण कबालितः संघातः समूहो बृन्दमित्युच्यते । तत् त्रिविधम्-उत्तमं मध्यमं कनिष्ठं चेति । तत्रोत्तमं बृन्दं लक्षयति-चत्वार इति । यस्मिन् बृन्दे चत्वारो मुख्यगातारः, समगायनाः द्विगुणाः अष्टौ, गायन्यः द्वादश, वांशिका: वंशवादिनश्चत्वारः, मार्दङ्गिकाश्चत्वारः; तदुत्तमं बृन्दम् । मध्यमं बृन्दं लक्षयति-मध्यमं स्यादिति । उत्तमस्यार्धन 1 सुनिश्चितैः इति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः प्रकीर्णकाध्यायः २०१ मध्यमं बृन्दं भवति । मुख्यगातारौ द्वौ, समगायनाश्चत्वारः, गायन्य: षट् , वांशिकौ द्वौ, मार्दङ्गिको द्वौ; तन्मध्यमं बृन्दम् | कनिष्ठं बृन्दं लक्षयतिकनिष्ठ इति । मुख्यगायन एकः, समगातारस्त्रयः, गायन्यश्चतस्रः, द्वौ वांशिकौ, द्वौ मार्दशिकौ ; तत्कनिष्ठं बृन्दम् । गायनीबृन्दमपि त्रिधा-उत्तम मध्यमं हीनं चेति । तत्रोत्तमं लक्षयति-उत्तम इति । मुख्य द्वे गायन्यौ, समगायन्यो दश, द्वौ वांशिकौ, द्वौ मार्दशिको यत्र, तदुत्तमं गायनीबृन्दम् । यत्रैका मुख्यगायनी, समगायन्यश्चतस्रः, एको वांशिकः, एको मार्दङ्गिकः ; तन्मध्यमं गायनीबृन्दम् । इत एतस्मान्मध्यमादपि न्यूनं कनिष्ठमिति । अन्यदपि कोलाहलाख्यं बृन्दं लक्षयति-उत्तमाभ्यधिकमिति । उत्तमात् बृन्दादधिकैर्गायकादिभिर्युक्तं कोलाहलं बृन्दम् । बृन्दगुणान् कथयतिमुख्यानुवृत्तिरिति । मुख्यानां गायकानामनुवृत्तिस्तदनुगामित्वम् । मिलनमवैसादृश्यं गाने । ताललयानुवर्तनम् । लीनं लय: । त्रुटितस्यापूर्वस्य य: परस्परनिर्वाह: परिपूरणम् । स्थानत्रयव्याप्तिसामर्थ्यम् | शब्दसादृश्यं शब्दानामतिशयेन वैसादृश्याभावः । एते पट् बृन्दगुणाः । अन्यदपि बृन्दं कुतपाख्यं मतान्तरेण लक्षयति-आहेति । तत् कुतपबृन्दं त्रिधा-ततसंबन्धि, अवनद्धसंबन्धि, नाट्यसंबन्धि चेति । तत्र ततसंबन्धि कुतपं लक्षयति-ततस्येति । ततसंबन्धिनि कुतपे गायकस्यायं परिग्रहो ज्ञातव्यः । कोऽसौ परिग्रह इत्यत आह-वीणेति । घोषवतीचित्रादीनां वीणानां वाद्याध्याये वक्ष्यमाणलक्षणानां वादका गायकस्य परिग्रहः । अन्यमपि परिग्रहं कथयति-वांशिका इति । वांशिका वंशवादकाः । वक्ष्यमाणलक्षणा: पाविकादयः । तत्र वादकाः । मुहरी शृङ्गं च ये वादयन्ति, ते मुहरीशृङ्गवादिनः ; तदाद्याः । परा उत्तमास्तालधराश्च ये, तेषां समूहस्ततकुतप इत्युच्यते । अवनद्धकुतपं लक्षयति--कुतपे विति । अवनद्धस्य कुतप एको मुख्यो मार्दङ्गिकः । पणवदर्दुरादीनां वाद्यानां वाद्याध्याये वक्ष्यमाणानां वादकप्रसिद्धानां पृथग्वादकानां संचयः समूहो मार्दङ्गिकश्चेत्यवनद्धकुतपः । नाट्यकुतपं लक्षयतिवराटेति । वराटलाटकर्णाटदेशोत्पत्नैरनेकाभिनयकोविदैर्वक्ष्यमाणाङ्गहारप्रयोग 26 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ संगीतरनाकरः कुशलेषु विचित्रेषु स्थानकेष्वालीढादिषु नृत्ताध्याये वक्ष्यमाणेषु विषमेषु मण्डलादिषु सुनिश्चितैनिश्चयवद्भिः पुरुषैर्युक्तो नाट्यकुतप इत्युच्यते । एतेषां च पात्राणामुत्तममध्यमाधमत्वेन कुतपस्यापि त्रैविध्यम् । अमीषां त्रयाणां कुतपानां समूहः संघातो बृन्दमित्युच्यते ॥ २०३-२२३ ॥ इति श्रीमदन्ध्रमण्डलाधीश्वरप्रतिगण्डभैरवश्रीमदनपोतनरेन्द्रनन्दनभुजबलभीमश्रीसिंहभूपालविरचितायां संगीतरत्नाकरटीकायां संगीतसुधाकराख्यायां प्रकीर्णकाध्यायस्तृतीयः 1 श्रीनर्मदातटाधीश्वरनन्दपुरीवास्तव्यमहाराजाधिराजश्रीगोपीनाथधर्माधिकारिभट्ट. श्रीनागनाथसुतश्रीगङ्गाधरविरचितायां Bik. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः गीतभेदः रञ्जकः स्वरसंदर्भो गीतमित्यभिधीयते । गान्धर्व गानमित्यस्य भेदद्वयमुदीरितम् ॥१॥ अनादिसंप्रदायं' यद्गन्धर्वैः संप्रयुज्यते । नियतं श्रेयसो हेतुस्तद्गान्धर्वं जगुर्बुधाः ॥ २ ॥ (क०) एवमुक्तलक्षणानां वाग्गेयकारादीनां व्यापारविषयत्वेन प्रसक्तान् गीतविशेषान् प्रबन्धान् लिलक्षयिषुरादौ गीतसामान्यलक्षणमाह-रञ्जकः स्वरसंदर्भो गीतमिति । संदर्भो गुम्फः । ननु स्वरसंदर्भो गीतमित्येतावतैव गीतस्य रञ्जकत्वं सिद्धम् ; 'स्वतो रञ्जयति श्रोतृचित्तं स स्वर उच्यते। इति स्वरशब्दनिरुक्तेः स्वराणां स्वत एव रञ्जकत्वात्तत्संदर्भस्यापि रञ्जकत्वसिद्धेः पुनरपि रञ्जकेति विशेषणमनर्थकं व्यवच्छेद्याभावादिति । नैतदस्ति । स्वराणां स्वत एव रञ्जकत्वेऽपि तत्संदर्भस्य कदाचिदरञ्जकत्वं भवति । यं कंचिद्रागं प्रकृत्य प्रवेशनिग्रहाभ्यामन्तरेण तत्र विवादिस्वरप्रयोगे सति प्रकृतरागहानेररञ्जकः संदर्भ: स्यात् । तद्वयवच्छेदेन रञ्जकग्रहणमर्थवद्भवति । अतो रञ्जकेति संदर्भविशेषणम् ; न स्वरविशेषणम् । तथा सत्यरञ्जकस्वराभावेन व्यवच्छेद्याभावाद्वैयर्थ्यमेव भवति । गीतभेदान् दर्शयितुमाह-गान्धर्व गानमित्यादिना । गान्धर्व मार्गः । गानं तु देशीत्यवगन्तव्यम् । अनादिसंप्रदायमित्यनेन गान्धर्वस्य वेदवद 1 संप्रदायादिति सुधाकरपाठः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ संगीतरत्नाकरः यत्तु वाग्गेयकारेण रचितं लक्षणान्वितम् । देशीरागादिषु प्रोक्तं तद्गानं जनरञ्जनम् ॥ ३ ॥ तत्र गान्धर्वमुक्तं प्रागधुना गानमुच्यते । इति गीतभेदः ___गानभेदः निबद्धमनिबद्धं तद् द्वेधा निगदितं बुधैः ॥ ४ ॥ बद्धं धातुभिरङ्गैश्च निबद्धमभिधीयते । आलप्तिर्बन्धहीनत्वादनिबद्धमितीरिता ॥५॥ सा चास्माभिः पुरा प्रोक्ता निबद्धं त्वधुनोच्यते । संज्ञात्रयं निबद्धस्य प्रबन्धो वस्तु रूपकम् ॥ ६॥ ___ इति गानभेदः धातुभेदाः प्रवन्धावयवो धातुः स चतुर्धा निरूपितः । उद्ग्राहः प्रथमस्तत्र ततो मेलापकध्रुवौ ॥ ७ ॥ आभोगश्चेति तेषां च क्रमाल्लक्ष्माभिदध्महे । उद्ग्राहः प्रथमो भागस्ततो मेलापकः स्मृतः ॥ ८॥ पौरुषेयत्वमिति सूचितं भवति । गानं तु वाग्गेयकारादिपरतन्त्रत्वात् पौरुषेयमेव । तत्र गान्धर्वमुक्तं प्रागिति । स्वरगतरागविवेकयोर्जात्याद्यन्तरभाषान्तं यदुक्तं तद्गान्धर्वमित्यर्थः । अधुना गानमुच्यत इति । अस्मिन्नध्याये गानविशेषः प्रबन्धः प्रतिपाद्यत इत्यर्थः। बद्धं धातुभिरङ्गैश्चेति । धातवोऽङ्गानि च समनन्तरमेव वक्ष्यन्ते । प्रबन्धावयवो धातुरिति । पूर्व धातुशब्देन गेयमुक्तम् । अत्र प्रबन्धावयवो विवक्षितः । गेयं नाम सकल्पबन्धानुगतो धर्मः । प्रबन्धावयवस्तु धर्मकदेश इति तयोर्भेदो द्रष्टव्यः । उद्ग्राहः प्रथमो भाग इति। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २०५ ध्रुवत्वाच ध्रुवः पश्चादाभोगस्त्वन्तिमो मतः। ध्रुवाभोगान्तरे जातो धातुरन्योऽन्तराभिधः ॥ ९॥ स तु सालगसूडस्थरूपकेष्वेव दृश्यते । वातपित्तकफा देहधारणाद्धातवो यथा ॥ १० ॥ एवमेते प्रबन्धस्य धातवो देहधारणात् । उद्गृह्यते प्रारभ्यते येन गीतं स उद्ग्राह इति प्रबन्धस्य प्रथमावयवोऽन्वर्थसंज्ञः । ततो मेलापकः स्मृत इति । उग्राहध्रुवयोमेलनकारकत्वात् मेलापक इति द्वितीयोऽप्यवयवोऽन्वों द्रष्टव्यः । ध्रुवत्वादिति । नित्यत्वादित्यर्थः । तृतीयावयवस्य नित्यत्वं तावदुग्राहव्यतिरिक्तेतरापेक्षया सकलप्रबन्धेप्वनपायात् । तेन द्विधातुषु प्रबन्धेपु मेलापकाभोगयोः त्रिधातुपु प्रबन्धेषु सर्वत्र मेलापकस्यैव परित्यागः ; ध्रुवस्य न क्वचिदपि परित्याग इत्यर्थः । आभोगस्त्वन्तिमो मत इति । अन्तिमो धातुः प्रबन्धस्य परिपूर्णताहेतुत्वादाभोग इति कारणे कार्योपचार उक्तः। “ आभोगः परिपूर्णता " इत्यभिधानादाभोगशब्दस्य परिपूर्णतावाचकत्वम् । ध्रुवाभोगान्तरे जात इति । ध्रुवाभोगान्तरे ध्रुवाभोगयोर्मध्ये जात उत्पन्नो निर्मित इत्यर्थः । अनेन गानकाले ध्रुवस्यावृत्तिषु कृतासु ततः परमाभोगजिज्ञासायां चरमावृत्त्यन्ते गेय इति गम्यते । स त्विति । सालगसूडस्थरूपकेषु वक्ष्यमाणेषु ध्रुवमण्ठादिप्वेवेति नियमेनैलादिषु शुद्धसूडक्रमस्थेषु वषैलादिषु क्रमेषु वा श्रीरङ्गादिषु विप्रकीर्णेषु वा न कार्य इत्यर्थः । अत्र दृश्यत इति दृशिग्रहणेन ध्रुवादिप्वपि यत्र चिरंतनप्रयोगादन्तरो दृष्टस्तत्रैव कार्यो नान्यत्रेति नियमान्तरस्यापि सूचितत्वान्मण्ठादिषु दर्शनात्तत्रैव कार्यः; ध्रुवे त्वदर्शनात्तत्र न कार्य इति मन्तव्यम् । उग्राहादिषु धातुशब्दप्रवृत्तौ निमित्तं सदृष्टान्तं दर्शयति-वातपित्तेत्यादिना । एतेनाङ्गेभ्यो धातुनां व्यापारभेदो दर्शितः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ संगीतरत्नाकरः तत्र मेलापकाभोगौ न भवेतां कचित्कचित् ॥ ११ ॥ इति धातुभेदाः प्रबन्धभेदाः स द्विधातुस्त्रिधातुश्च चतुर्धातुरिति विधा। इति प्रबन्धभेदाः प्रबन्धाङ्गानि प्रबन्धोऽङ्गानि षट् तस्य स्वरश्च बिरुदं पदम् ॥ १२॥ तेनकः पाटताली च प्रवन्धपुरुषस्य ते । तत्रेत्यादि । मेलापकाभोगौ कचिन्न भवेतामिति । यत्रोभावपि युगपन्न भवेतां तत्रोदग्राहध्रुवयोरेव विद्यमानत्वात् स प्रबन्धो द्विधातुः। द्वितीयस्य क्वचिच्छब्दस्यासहायस्यानुपयोगात्तदर्थं पूर्ववाक्यान्मेलापकाभौगौ पर्यायेण न भवेतामित्यर्थभेदेनानुषङ्गः कर्तव्यो भवति । तेन यद्यप्युभयथापि प्रबन्धस्य त्रिधातुत्वं सिध्यति, तथाप्युभयत्र प्रबन्धलक्षणेषु यत्र कुत्राप्याभोगाभावेन त्रिधातुत्वस्यादृष्टत्वादनुषङ्गेऽपि वचनविपरिणामं कृत्वा कचिन्मेलापको न भवेदिति वाक्यमुन्नेयम् । तदा स प्रबन्धो मेलापकाभावात् त्रिधातुर्भवतीत्येव दृष्टोऽर्थों लभ्यते । एवमनुपङ्गन्यायं हृदि निधाय केवलं कचिच्छब्दं प्रयुञ्जानस्य ग्रन्थकारस्याभिप्रायोऽवगन्तव्यः । यत्र तूभावपि मेलापकाभोगौ भवतस्तत्रोद्ग्राहादीनां चतुर्णामपि विद्यमानत्वात् स प्रबन्धश्चतुर्धातुरित्ययं प्रकारस्तात्पर्यतोऽवगम्यते । तच्च तात्पर्य चतुर्धातुरित्यनेनाभिव्यज्यते । प्रबन्धोऽङ्गानीत्यादि । प्रवन्ध इति पूर्वेण विधेत्यनेनान्वीयते-त्रिधा प्रबन्ध इति । अङ्गानीत्यस्योत्तरेणान्वयः कर्तव्यः । तस्याङ्गानि पडिति । तस्य ; द्विधातुत्वादिप्रकारभेदभिन्नस्य प्रबन्धस्य । तानि पडङ्गान्युद्दिशति-स्वरश्चेत्यादि । अङ्गवदगानी Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः भवन्त्यङ्गवदङ्गानि मङ्गलार्थप्रकाशके ॥ १३ ॥ तत्र तेनपदे नेत्रे स्तः पाटबिरुदे करौ । कराभ्यामुद्भवात् कार्ये कारणत्वोपचारतः ॥ १४ ॥ प्रबन्धगतिहेतुत्वात् पादौ तालखरौ मतो। खराः षड्जादयस्तेषां वाचकाः सरिगादयः ॥ १५ ॥ खराभिव्यक्तिसंयुक्ताः स्वरशब्देन कीर्तिताः। बिरुदं गुणनाम स्यात्ततोऽन्यद्वाचकं पदम् ।। १६ ॥ तेनेतिशब्दस्तेनः स्यान्मङ्गलार्थप्रकाशकः । ओं तत्सदिति निर्देशात्तत्त्वमस्यादिवाक्यतः ॥ १७॥ त्येतदेव प्रतिपादयन्नाह-मङ्गलार्थप्रकाशक इत्यादिना । तत्र मङ्गलप्रकाशकस्तेनकः । अर्थप्रकाशकं पदम् । कराभ्यामुद्भवादिति । पाटस्य तावत् करोद्भवत्वमवनद्धवाद्याक्षरोक्तकररूपस्य तस्य करव्यापारजातत्वात् । शङ्खादिसुषिरवाद्योद्भवस्य मुखोद्भवत्वेन करोद्भवत्वाभावेऽपि कचित् साहचर्याच्छत्रिन्यायेन करोद्भवत्वं लक्षणया। बिरुदमपि करोद्भवम् , प्रायेण वितरणहेतुकस्य तस्य कल्यापारजातत्वात् । रूपादिहेतुकस्यापि करजत्वं पूर्ववत् । अतः कार्ये कारणत्वोपचारात् पाटबिरुदे हस्तौ स्त इत्युक्तम् । पादौ तालस्वरौ मताविति । तालस्य तु सकलपबन्धगतत्वेऽप्यङ्गत्वं भवति; स्पर्शनस्य सकलशरीरगतत्वेऽपीन्द्रियत्ववत् । स्वरस्य च सकलपबन्धगतत्वेऽपि षड्जादिवाचकानां सरिगादीनामेव स्वराभिव्यक्तिहेतुत्वादसाधारण्येनाङ्गत्वव्यपदेशः ; यथाकाशस्य सकलशरीरच्छिद्रगतत्वेऽपि कर्णशप्कुल्यवच्छिन्नस्यैव शब्दग्राहकत्वेन श्रोत्रत्वव्यपदेशः । तेनेतिशब्दस्य मङ्गलप्रकाशकत्वं प्रतिपादयितुमाह--तेनेतिशब्द इत्यादिना । तेन कारणेन तेनेतिशब्दो मङ्गलस्य प्रकाशकः स्यात् । यतो महावाक्यादौ तदिति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ संगीतरत्नाकरः तदिति ब्रह्म तेनायं ब्रह्मणा मङ्गलात्मना । लक्षितस्तेन तेनेति पाटो वाद्याक्षरोत्करः ॥ १८ ॥ तालस्तालप्रकरणे सप्रपञ्चो निरूप्यते । इति प्रबन्धाङ्गानि ब्रह्म प्रकाश्यते । तेन मङ्गलात्मना ब्रह्मणायं प्रबन्धस्तेन तेनेति लक्षितोऽङ्कित इति सिंहावलोकन्यायेन योजना ॥ १-१९ ॥ (सं०) एवं प्रकीर्णकाध्याये वाग्गेयकारालप्त्यादिलक्षणमुक्तम् । तत्र वाग्गेयकारेण किं कर्तव्यमित्यपेक्षायां रूपकभञ्जन्यामालप्तौ रूपकोपयोग उक्तः । तत्र किमिदं प्रबन्धापरपर्यायं रूपकमित्यपेक्षायां च प्रबन्धान् लिलक्षयिषुरुपोद्वातं रचयति-रञ्जक इति । स्वराणां संदर्भो रचनाविशेषो मनोरञ्जको गीतमित्यभिधीयते । तस्य गीतस्य गान्धर्व गानमिति भेदद्वयमुक्तं भरतादिभिः । तत्र गान्धर्व लक्षयति-अनादीति । यत् गन्धर्वैः संप्रयुज्यते गीयते । तच्च न स्वबुद्ध्या गीयते; किं त्वनादिसंप्रदायात् । अनादिमान् यः संप्रदायो गुरुशिष्यपरंपरया परिज्ञानम् , तस्मादेव । नियतं ग्रहांशमूर्छनादिनियमयुक्तं श्रेयस: ऐहिकसुखस्वर्गापवर्गरूपस्य हेतुः कारणं तद्गान्धर्वमित्यभिधीयते । भरतेनाप्युक्तम् " यत्तु तन्त्रीकृतं प्रोक्तं नानातोद्यसमाश्रयम् । गान्धर्वमिति तज्ज्ञेयं स्वरतालपदाश्रयम् ॥ अत्यर्थमिष्टं देवानां तथा प्रीतिकरं पुनः । गन्धर्वाणां च यस्माद्धि तस्माद्गान्धर्वमुच्यते ॥" इति । गानं लक्षयति यत्त्विति । वाग्गेयकारेण पूर्वोक्तलक्षणेन वक्ष्यमाणलक्षाणान्वितं यद्रचितं पञ्चतालेश्वरादि । देशीरागाश्च रागाङ्गादयः; आदिशब्देनान्यदपि स्वबुद्धिरचितं यजनान् रञ्जयति तद्गानमित्युच्यते । तत्र तयोर्गान्धर्वगानयोर्मध्ये गान्धर्व जातिग्रामरागादि पूर्वमुक्तम् । अधुना गानं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २०९ निरूप्यते । तस्य गानस्य जनानां रुचिविशेषेण बहवो भेदा उक्ताः पार्श्वदेवेन । यदाह “आचार्याः सममिच्छन्ति व्यक्तमिच्छन्ति पण्डिताः । स्त्रियो मधुरमिच्छन्ति विक्रुष्टमितरे जनाः ॥ उच्चनीचस्वरोपेतं न द्रुतं न विलम्बितम् । पदतालै: समं गीतं सममाचार्यवल्लभम् ॥ क्रियाकारकसंयुक्तं संधिदोषविवर्जितम् । व्यक्तस्वरसमायुक्तं व्यक्तं पण्डितसंमतम् ।। ललितैरक्षरैर्युक्तं शृङ्गाररसरञ्जितम् । श्रव्यनादसमायुक्तं मधुरं प्रमदाप्रियम् ।। स्वरैरुचतरैर्युक्तं प्रयोगबहुलीकृतम् । विक्रुष्टं नाम तद्गीतमितरेषां मनोहरम् ॥ गीतमारभटीवृत्त्या वीरसंगतवर्णकम् | उच्चनीचस्वरं गीतं सोत्साहं शूरवल्लभम् ॥ प्रेमोद्दीप्तपदप्राय शृङ्गाररसभूषितम् | करुणाकाकुसंयुक्तं करुणं विरहिप्रियम् ॥ विपरीतपदैर्युक्तं स्वरभङ्गयुपबंहितम् । गीतं हास्यरसोदारं परिहासं विटप्रियम् ॥ गूढाथैः परमार्थश्च संसारसुखदूषकैः । पदैनियोजितं गीतमध्यात्मं योगिवल्लभम् ॥ शुभवाक्ययुतं गीतं शुद्धपञ्चमनिर्मितम् । विवाहाद्युत्सवे गेयं मङ्गलं महिलामतम् ।। देवतास्तुतिसंयुक्तं तत्प्रभावप्रबोधकम् | आस्तिक्योत्पादनं गीतं रम्यं भक्तजनप्रियम् ॥ अभ्यवस्थानकं गीतं तालपाटैरलक्षितम् | प्रयोगबहुलं रूक्षं विषमं वादिवल्लभम् ॥" 27 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः इति । तस्य गीतस्य त्रैविध्यं कथयति-निबद्धमिति । निबद्धं लक्षयतिबद्धमिति । धातुभिः प्रबन्धावयवैरुद्वाहादिभिरङ्गैः स्वरबिरुदादिभिर्यद्वद्धं रचितं तन्निबद्धमित्यभिधीयते । आलप्तिस्तु तालाद्युपनिबन्धहीनत्वाद निबद्धमित्युच्यते । सा आलप्तिः पुरा प्रकीर्णकाध्यायेऽस्माभिः प्रोक्ता । तस्मानिबद्धमुच्यते । संज्ञात्रयमिति । निबद्धस्य तिस्रः संज्ञा भवन्ति-प्रबन्धः, वस्तु, रूपकमिति । संज्ञात्रयस्य प्रवृत्तिनिमित्तमुक्तं पार्श्वदेवेन "चतुर्भिर्धातुभिः षड्भिश्वाङ्गैर्यस्मात् प्रबध्यते । तस्मात् प्रबन्ध: कथितो गीतलक्षणकोविदैः । रामाधारोपणान्नेतुः स्यादस्मिन् रूपकाभिधा ॥ उद्गाहाद्यास्तु चत्वारः स्वरादीनि च षद् तथा । वसन्ति यत्र स ज्ञेयः प्रबन्धो वस्तुसंज्ञया ॥" इति । धातुभिर्बद्धमिति पूर्वमुक्तम् । तत्र को धातुरित्यपेक्षायामाह---प्रबन्धावयव इति । प्रबन्धस्यावयवोंऽशो धातुरित्युच्यते । स चतुष्प्रकार:-उद्गाहकः, मेलापकः, ध्रुवः, आभोगश्चेति । एतान् लक्षयति-उदाह इति । प्रबन्धस्य प्रथमो भाग उद्गाह इत्युच्यते । द्वितीयो भागो मेलापकः । तृतीयो भागो ध्रुवः । तत्र ध्रुवशब्दस्य व्युत्पत्तिस्तु ध्रुवत्वान्निश्चलत्वादिति ; उद्गाहानन्तरमाभोगानन्तरं च गानात् । अन्तिमो भाग आभोगः । अन्यो धातुरन्तराभिधोऽस्तीत्याह-ध्रुवाभोगेति । ध्रुवस्य आभोगस्य च मध्येऽन्तराख्यः पञ्चमो धातुरस्ति । तत्कथं पञ्चधेति नोक्तमत आह-स त्विति । अन्तराख्यो धातुन सर्वत्र प्रबन्धेषु ; किंतु सालगसूडप्रबन्धेष्वेव । ततश्च सर्वेषु प्रबन्धेषु चत्वार एव धातवः । धातुशब्दं व्युत्पादयति-वातपित्तेति । वातपित्तकफा दोषाः देहं दधति ; तस्माद्धातवो यथोच्यन्ते, तथा एते उगाहादयः प्रबन्धस्य देहधारणाद्धातवः । “डुधाञ् धारणपोषणयोः” इन्यस्माद्धातोरौणादिके तुन्प्रत्यये धातुरिति रूपम् । उगाहादीनां व्युत्पत्तिरुक्ता पार्श्वदेवेन "आदावुद्ाह्यते गीतं येनोद्गाहः स कीर्तितः । प्रोक्तो मेलापकस्तज्ज्ञैरुद्राहध्रुवमेलनात् ।। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २११ प्रबन्धेषु ध्रुवत्वेन ध्रुव इत्यभिधीयते । स्वयं यत्र प्रबन्धे स्यादनेनैव च पूरणम् ॥ आभोगः कथितस्तेन गीतविद्याविशारदैः । ध्रुवस्याभोगकरणादाभोग इति केचन ॥" इति । तेषु धातुषु मध्ये मेलापकाभोगौ द्वौ धातू कचित् केषुचित् प्रबन्धेषु न स्याताम् । तदुक्तं पार्श्वदेवेन "वज्यो मेलापकाभोगौ प्रबन्धेषु द्विधातुषु । त्रिधातुकप्रबन्धेषु तयोरेकं विवर्जयेत् ॥ एलायां ढेङ्किकायां च स्यादन्ते नियमादिमौ । अन्येषु च प्रबन्धेषु स्यातां गीतानुसारतः ॥" इति । प्रबन्धभेदान् कथयति-स द्विधातुरिति। स प्रबन्धस्त्रिप्रकार:--द्विधातुस्त्रिधातुश्चतुर्धातुरिति । अयं विशेषः द्विधातुत्वादिप्रबन्धलक्षणेश्वग्रे स्फुटीभविष्यतीति विशेषतो नोक्तः । तस्य प्रबन्धस्य षडङ्गानि-स्वरः, बिरुदम् , पदम् , तेनकः, पाट:, तालश्चेति । अथ कथं तेषामङ्गत्वमत आह-प्रबन्धपुरुषस्येति । प्रबन्धरूपस्य पुरुषस्य नेत्रादीन्यङ्गानि यथा, तथा तानि; तस्मादङ्गानीत्युच्यन्ते । कस्याङ्गस्य किमङ्गत्वं तदाह-मङ्गलार्थेति । तेनपदे कल्याणरूपमर्थ प्रकाशयतः । तस्मात् प्रकाशकत्वानेत्रे । नेत्रे अपि रूपादिकमर्थं प्रकाशयतः । पाटविरुदे प्रबन्धपुरुषस्य करौ, करोद्भवत्वात् । पाटोऽक्षराणि तावत् कराभ्यां मृदङ्गादिवादनादेव प्रभवन्ति । बिरुदमपि पदविन्यासेन प्रकाश्यते । तस्मात् कार्ययोः पाटबिरुदयोः कारणत्वमुपचारात् । तालस्वरौ प्रबन्धपुरुषस्य गतिहेतुत्वाच्चरणावुच्यते । एतेषामङ्गानां लक्षणान्याचष्टे-स्वरा इति । षड्जादयः स्वराः पूर्वमुक्ताः । तेषां वाचकाः सरिगमपधनीति वर्णाः तत्तत्स्वराभिव्यक्तिसहिताः स्वरशब्देनोच्यन्ते । गुणनाम भुजबलभीमादि बिरुदशब्देनोच्यते । तदुक्तं संगीतसमयसारे “बिरुशब्दो विरुद्धार्थो महाराष्ट्रप्रसिद्धितः । परेभ्यस्तत्प्रदानेन बिरुदं सूरिभिः स्मृतम् ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ संगीतरत्नाकरः प्रबन्धजातयः मेदिन्यथानन्दिनी स्याद्दीपनी भावनी तथा ॥ १९ ॥ तारावलीति पश्च स्युः प्रबन्धानां तु जातयः। अङ्गैः षडादिभिर्यन्तैः केषांचन मते श्रुतिः ॥ २० ॥ नीतिः सेना च कविता चम्पूरित्युदितास्तु ताः। इति प्रबन्धजातयः प्रबन्धभेदाः अनियुक्तश्च नियुक्तः प्रबन्धो द्विविधो मतः ॥ २१ ॥ छन्दस्तालाधनियमादाद्यः स्यान्नियमात् परः। तद्वीररससंयुक्तं द्विषामुद्वेगदायकम् । रसान्तरेण संयुक्तं यत् पदं बिरुदं तु तत् ॥" इति । ततो बिरुदात् अन्यत् वाचकं पदमित्युच्यते । तेनेत्ययं शब्दः तेन इत्युच्यते । अयं तेनशब्दः कल्याणरूपमर्थ प्रकाशयति । कथमस्य कल्याणार्थप्रकाशकत्वमित्यत्राह-ओं तत्सदिति । ओं तत्सदिति श्रुतौ निर्देशोऽस्ति । तस्मात् तत्त्वमस्यादिवाक्यतस्तच्छब्देन ब्रह्मोच्यते । उपलक्षणे तृतीया। यतश्च तेन कल्याणरूपेण ब्रह्मणोपलक्षितमर्थं वदति, तेन हेतुना तेनेत्ययं शब्दो मङ्गलार्थप्रकाशको भवति । पाटं लक्षयति–पाट इति । वाद्याक्षराणां धिगिधिगादीनामुत्करः समूहो वाद्याध्याये वक्ष्यमाणः पाट इत्युच्यते । तालस्तालाध्याये वक्ष्यते ॥ १-१९ ॥ (क) प्रबन्धानां जातिभेदान् दर्शयति-मेदिनीत्यादिना । षडा. दिभिर्यन्तैरङ्गैरिति । षड्भिरङ्गैर्बद्धा मेदिनी जातिः । पञ्चभिरानन्दिनी । चतुर्भिर्दीपनी । त्रिभिभावनी । द्वाभ्यां तारावलीति क्रमो द्रष्टव्यः । मतान्तरेण श्रुत्यादिकाः संज्ञास्तासामेव क्रमेण योजनीयाः । छन्दस्तालाद्यनियमादिति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः २१३ पुनः प्रबन्धास्त्रिविधाः सूडस्था आलिसंश्रयाः ।। २२ ।। विप्रकीर्णाश्च तत्रादौ सूडलक्षणमुच्यते । प्रबन्धभेदाः सूडप्रबन्धः एलाकरणढेङ्कीभिर्वर्तन्या झोम्बडेन च ॥ २३ ॥ लम्भरासैकतालीभिरष्टभिः सूड उच्यते । इति सूडप्रबन्धः आलिप्रबन्धः वर्णो वर्णस्वरो गद्यं कैवाडचाङ्कचारिणी ॥ २४ ॥ कन्दस्तुरगलीला च गजलीला द्विपद्यपि । चक्रवालः क्रौञ्चपदः स्वरार्थो ध्वनिकुहनी ।। २५ ।। आर्या गाथा द्विपथकः कलहंसश्च तोटकम् | घटो वृत्तं मातृका च ततो रागकदम्बकः ॥ २६ ॥ पञ्चतालेश्वरस्तालार्णव इत्येषु कश्चन । सूडक्रमस्य मध्ये चेदसावालिक्रमो भवेत् ॥ २७ ॥ सूडालिक्रमसंबन्धाद् द्वात्रिंशदिति कीर्तिताः । इत्यालप्रबन्धः विप्रकीर्णप्रबन्धाः ततोऽन्ये विप्रकीर्णास्तान् प्रसिद्धान् कतिचिद् ब्रुवे ||२८|| छन्दांसि त्रिष्टुबादीनि । तालाश्चचत्पुटादयः । आदिशब्देनाङ्गधातुरागरसभाषादयो गृह्यन्ते । तेषामनियमादाद्यः अनिर्युक्त इत्यर्थः । तेषां नियमात्तु परः निर्युक्तः स्यादित्यर्थः । अष्टभिः सूड उच्यत इति । सूड इति गीतविशेष Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ संगीतरत्नाकरः श्रीरङ्गः श्रीविलासः स्यात् पञ्चभगिरतः परम् । पश्चाननोमातिलको त्रिपदी च चतुष्पदी ॥ २९ ॥ षट्पदी वस्तुसंज्ञश्च विजयस्त्रिपथस्तथा । चतुर्मुखः सिंहलीलो हंसलीलोऽथ दण्डकः ॥ ३०॥ झम्पटः कन्दुकः स्यात् त्रिभङ्गिहरविलासकः। सुदर्शनः स्वराङ्कः श्रीवर्धनो हर्षवर्धनः ।। ३१ ॥ वदनं चचरी चर्या पद्धडी राहडी तथा।। वीरश्रीर्मङ्गलाचारो धवलो मङ्गलस्तथा ॥ ३२॥ ओवी लोली ढोल्लरी च दन्ती' षट्त्रिंशदित्यमी । इति विप्रकीर्णप्रबन्धाः समूहवाची देशीशब्दः । अत्रोद्दिष्टानामेलादिशब्दानां मध्ये केषांचिढतैव, केषांचिदन्वर्थत्वं चेत्यवगन्तव्यम् ॥ १९-३३ ॥ (सं०) एवमङ्गान्युक्त्वाङ्गसंख्याविशेपेण प्रबन्धजाती: कथयतिमेदिनीति । षड्भिरङ्गैरुपनिबद्धा मेदिनीत्युच्यते । पञ्चभिरङ्गैरुपनिबद्धा आनन्दिनी । चतुर्भिरङ्गैरुपनिबद्धा दीपनी । त्रिभिरङ्गैरुपनिबद्धा भावनी । द्वाभ्यामङ्गाभ्यामुपनिबद्धा तारावलीति । मतान्तरेण नामान्तराण्याह- केषांचनेति । षडङ्गोपेता श्रुतिः, पञ्चाङ्गोपेता नीतिः, चतुरङ्गोपेता सेना, त्र्यङ्गोपेता कविता, द्वयङ्गोपेता चम्पूरित्येतानि नामान्युचितानि । श्रुतेवैदस्य शिक्षाज्योतिषनिरुक्तनिघण्टुच्छन्दोव्याकरणानि षडङ्गानि । नीते: पञ्चाङ्गानि-कर्मणामारम्भोपायः, पुरुषद्रव्यसंपत्, देशकालविभागः, विनिपातप्रतीकारः, कार्यसिद्धिश्चेति । सेनायाश्चत्वार्यङ्गानि-हस्त्यश्वरथपदातिरूपाणि । कवितायास्त्रीण्यङ्गानि-शक्तियुत्पत्तिरभ्यासश्चेति । चम्प्वा द्वे 1 ध्वनिरिति सुधाकरपाठः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रवन्धाध्यायः २१५ एलाप्रवन्धः अङ्घौ खण्डद्वयं सानुप्रासमेकेन धातुना ॥ ३३ ॥ अङ्गे-गद्यं पद्यं चेति । पुनरपि प्रबन्धस्य द्वैविध्यं कथयति- अनियुक्त इति । अनयोलक्षणमाचष्टे-छन्द इति । छन्दसां तालानां च नियम विनोपनिबद्धोऽनियुक्तः ; छन्दस्तालनियमेनोपनिबद्धो नियुक्त इति । युक्तायुक्तोभयात्मका अपि प्रबन्धा उक्ता: पार्श्वदेवेन । यदाह "कचिदङ्ग कचिच्छन्दो गीते यस्मिन् विराजते । उभयात्मकमित्याहुर्गीतं गीतविशारदाः ॥" इति । पुनरपि प्रबन्धानां त्रैविध्यं कथयति-पुनरिति । प्रबन्धास्त्रविधा:सूडस्थाः, आलिस्थाः , प्रकीर्णकाश्चेति । तत्र सूडलक्षणमाह-एलेति । एलादिभिरष्टभिर्मार्गसूडः । तत्र स्थिता: प्रबन्धाः सूडस्थाः । आलिसंमिश्रितान् प्रबन्धान विभजते-वर्ण इति । वर्णादयस्तालार्णवान्ताश्चतुर्विशतिः । तेषु मध्ये एलादीनां मध्यस्थो यः कश्चन प्रबन्धो भवति चेत् , तदा सोऽप्यालिक्रमस्थ इत्युच्यते । सर्वे सूडा आलिक्रमस्था मिलिताः प्रबन्धा द्वात्रिंशत् । विप्रकीर्णान् प्रबन्धानाह-ततोऽन्य इति । तेभ्यः सूडालिक्रमस्थेभ्यः प्रबन्धेभ्योऽन्ये विप्रकीर्णा इत्युच्यन्ते । ते च बहवः । तस्मात् कियत एव प्रतिज्ञाय कथयति-श्रीरङ्ग इति । श्रीरङ्गाद्या ध्वन्यन्ता: षट्त्रिंशद्विप्रकीर्णाः । कचित् दन्तीति पाठः ॥ १९-३३ ।। (क०) प्रथमोद्दिष्टामेला लक्षयति-अमौ खण्डद्वयमित्यादिना । एलायां प्रथमं तावत् पादत्रयं गेयम् । तदङ्घौ प्रथमपादे सानुप्रासमनुप्रासालंकारसहितम् । “वर्णसाम्यमनुप्रासः” इति तस्य लक्षणम् । तथाभूतं खण्डद्वयमेकेन धातुना एकरूपेण गेयेन गेयं स्यात् गातव्यं भवेत् । एतेन खण्डद्वये मातुभेद: कर्तव्य इत्यर्थः । अन्यथैकमेव खण्डं द्विर्गेयं स्यादिति वदेत् । एतत् खण्डद्वयं मिलित्वा वक्ष्यमाणेषु षोडशसु पदेषु कामसंज्ञं प्रथमं पद Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ संगीतरत्नाकरः ततः प्रयोगस्तदनु पल्लवाख्यं पदत्रयम् । द्वे स्तो विलम्बिते तत्र तृतीयं द्रुतमानतः ।। ३४ ॥ एवं पादत्रयं गेयमुद्ग्राहे तुल्यधातुकम् । केवलं तु तृतीयेऽङ्घौ संबोधनपदान्वितः ।। ३५ ॥ मित्यवगन्तव्यम् । ततः प्रयोग इति । ततः खण्डद्वयानन्तरं प्रयोगः अक्षरवर्जिता गमकालप्तिः कार्या । तथाच वक्ष्यति 'आलापो गमकालप्तिरक्षरैर्वर्जिता मता । सैव प्रयोगशब्देन शार्ङ्गदेवेन शब्दिता ॥' इति । अयं प्रयोगो मन्मथवत्संज्ञकं द्वितीयं पदम् । तदन्विति । प्रयोगानन्तरं पल्लवाख्यं प्रत्येकं पल्लवशब्दसंज्ञकं पदत्रयं गेयम् । तत्र पदत्रये द्वे क्रमात् कान्तजितसंज्ञके प्रथमद्वितीये पदे विलम्बितमाने स्तः । तृतीयं मित्रसंज्ञकं पदं द्रतमानतो भवति । द्रुतादिमानानां स्वरूपं तालाध्याये वक्ष्यते । एवं पादत्रयमिति। पञ्च पदानि मिलित्वैकः पादः। एवम् ; प्रथमपादोक्तलक्षणयुक्त्या। तुल्यधातुकमित्यनेन भिन्नमातुकमिति गम्यते । उदग्राहे गेयमिति । पादत्रयं मिलित्वोद्ग्राहो भवतीत्यर्थः । द्वितीयपादस्थितानां पञ्चानां पदानां क्रमेण विकारी, मान्धाता, सुमती, शोभी, सुशोभीति संज्ञा वेदितव्याः। एवमित्यतिदेशेन तृतीयेऽपि पादे प्रथमपादोक्तलक्षणे प्राप्त विशेष दर्शयितुमाह-केवलं त्विति । तुशब्दो भिन्नक्रमः तृतीयेऽङ्घौ विति। तृतीयेऽशौ तु सानुप्रासधातुकखण्डद्वयानन्तरं केवलं संबोधनपदान्वितः अन्ते संबोधनाथैन पदेन युक्तः । अत्र केवलशब्देनासंबोधनार्थपदान्तरयोगो निषिध्यते । एतेन प्रथमद्वितीयाज्रिगतप्रयोगद्वयस्य संबोधनार्थैकैकपदयोगाभ्यनुज्ञा विज्ञायते । अन्यथा पक्षरवर्जितत्वात् प्रयोगाणामर्थवत्त्वाभावात् पदत्वं न सिध्येदिति भावः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः प्रयोगोऽन्यो विधातव्यो न पल्लवपदस्थितिः । अमुं प्रयोगं मेलापं प्राहुः सोमेश्वरादयः ॥ ३६ ॥ स्तुत्यनामाङ्कितो मध्यविलम्बितपदत्रयः । ध्रुवस्ततस्तत्र पूर्वमेकधातु पदद्वयम् ॥ ३७ ॥ भिन्नधातु तृतीयं स्यादाभोगस्तदनन्तरम् । गेयो वाग्गेयकारेण स्वाभिधानविभूषितः ॥ ३८ ॥ २१७ अन्यो विधातव्य इति । पूर्वप्रयोगद्वयापेक्षया भिन्नधातुकः कर्तव्य इत्यर्थः । तुशब्दद्योतितं विशेषान्तरं दर्शयति---न पल्लवपदस्थितिरिति । तृतीये पादे त्रीण्यपि पल्लवपदानि न कर्तव्यानीत्यर्थः । अतस्तृतीयेऽङ्घ्रौ पदद्वयमेव । तत्र प्रथमं गीतकसंज्ञं, द्वितीयमञ्चितसंज्ञं वेदितव्यम् । एलाप्रबन्धस्य त्रिधातुकत्वमभ्युपगच्छतामेतानि द्वादश पदान्युद्ग्राहो भवन्तीति मतम् । चतुर्धातुकत्वमभ्युपगच्छन्तः सोमेश्वरादयस्त्वेकादशानामेवोद्ग्राहत्वमुक्त्वा द्वादशपदं मेलापकमाहुरित्याह – अमुं प्रयोगमिति । स्तुत्यनामाङ्कित इत्यादि । ततोऽनन्तरं मध्यविलम्बितयोः पदत्रयं यस्येति स तथोक्तः । एतदुक्तं भवति - - त्रिषु पदेष्वाद्यं पदद्वयं मध्यमाने गेयम् ; तृतीयं विलम्बिते गेयमिति । अन्यथा' तत्र पूर्वमेकधातु पदद्वयम् । भिन्नधातु तृतीयं स्यात्' इत्युत्तरं वचनं विरुध्येत, पूर्वपदद्वयस्य मिथोऽपि मानभेदे सत्येकधातुत्वासंभवात् । एवं पदत्रयात्मको वो भवति। त्रिषु पदेषु मध्ये यत्र कुत्रापि स्तुत्यनामाङ्कितः स्तुत्यस्येष्टदेवताराजा - देर्नामाङ्कितः कर्तव्य इत्यर्थः । एतानि त्रीणि ध्रुवपदानि क्रमेण विचित्रवासवमृदुसंज्ञकानि वेदितव्यानि। आभोगस्तदनन्तरमिति । तदनन्तरं ध्रुवस्थानानन्तरम् | आभोगो वाग्गेयकारेण स्वाभिधानविभूषितो गेयः, स्वनामाङ्कितः 28 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ संगीतरत्नाकरः पुनर्गीत्वा ध्रुवे' त्यागो ग्रहस्तु विषमो भवेत् । एलासामान्यलक्ष्मैतत् पूर्वाचार्यैरुदीरितम् ॥ ३९ ॥ कर्तव्यः । अयमाभोगः सुचित्रसंज्ञकं षोडशं पदम् । पुनर्गीत्वा ध्रुवे त्याग इति । एतानि षोडश पदानि द्विवारं गीत्वा ध्रुवे त्रयोदशपदस्यादौ त्यागो न्यासः कर्तव्य इत्यनेन गाने नियम उक्तः । ग्रहस्तु विषमो भवेदिति । ग्रहः समातीतानागतभेदेन त्रेधा वक्ष्यते। तुशब्दः प्रबन्धान्तरापेक्षयास्य विशेषद्योतनार्थः। प्रबन्धान्तरेषु ग्रहाणामनियमः ; अत्र नियम इति विशेषः । विषमो भवेदिति । विषमः समादन्यः ; अतीतानागतयोरेकतर इत्यर्थः । वाग्गेयकारेच्छया अतीतो वानागतो वा ग्रहः कर्तव्य इत्युक्तं भवति ॥ ३३-३९॥ . (सं०) एलासामान्यलक्षणमाह-अङ्घाविति । पूर्वमेकेन धातुना समानगेयेन खण्डद्वयं गातव्यम् । ततः प्रयोगो गमकसंदर्भरूपः । ततोऽनन्तरं पल्लवसंज्ञकं पदत्रयम् । तत्र पदत्रये आद्ये द्वे पदे विलम्बिते कार्ये । तृतीयं पदं द्रुतमानेन कार्यम् । एवंविध एकः पादः । एवमुद्राहे पादत्रयं गातव्यम् । एवं तृतीयपादे पल्लवपदं न कर्तव्यम् । किंतु प्रयोगान्तरं संबोधनपदैर्युक्तोऽन्यः प्रयोगः कर्तव्यः । अमुं तृतीयपदस्थं प्रयोगं सोमेश्वरादयो रत्नावल्यादिग्रन्थकर्तारी मेलापकाख्यमाहुः । एतावतोद्भाहे जाते ध्रुवः कर्तव्यः । कीदृक्कर्तव्य इत्यपेक्षायामाह-स्तुत्यनामाङ्कित इति । स्तुत्यस्य नायकस्य नाम्ना अङ्कितः चिह्नितः । मध्यविलम्बितं पदत्रयं यस्मिंस्तथाविधः । तत्र पदत्रये पदद्वयमेकधातु समानं गेयम् । अपरं तु भिन्नधातु विसदृशं गेयम् । एवंविधध्रुवानन्तरमाभोगः कर्तव्यः । तत्राभोगे वाग्गेयकारेण स्वनाम निक्षेप्तव्यम् | पुनराभोगानन्तरं ध्रुवं गीत्वा त्यागः समापनम् । एलायां च विषम एव ग्रहः । इदं च मेलापकानां सामान्यलक्षणं सर्वास्वेलास्वनुगतं पूर्वाचार्यभरतादिभिरुक्तम् ॥ ३३-३९ ॥ 1 ध्रुवमिति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २१९ मण्ठद्वितीयकङ्कालप्रतितालेषु कश्चन । तालोऽस्यां त्यागसौभाग्यशौर्यधैर्यादिवर्णनम् ॥ ४० ॥ एलानां बहवः सन्ति विशेषास्तेषु केचन । व्युत्पत्तये निरूप्यन्ते मतङ्गादिमतोदिताः ॥ ४१ ॥ इति एलासामान्यलक्षणम् एलावर्णदेवताः अकारे दैवतं विष्णुरिकारे कुसुमायुधः। लक्ष्मीलेकार एलानामिति वर्णेषु देवताः॥ ४२ ॥ इति एलावर्णदेवताः एलापदनामानि काममन्मथवत्कान्तजितमत्तविकारिणः। मान्धातृसुमती शोभिसुशोभी गीतकोचितौ ॥ ४३ ॥ विचित्रो वासवमृदुसुचित्रा इति षोडश । नामान्येलापदानां स्युः षोडशानामनुक्रमात् ॥ ४४ ॥ इति एलापदनामानि (क०) तालनियमं दर्शयति-मण्ठद्वितीयेति । गणादिनियमस्यापि वक्ष्यमाणत्वादयं निर्युक्तः प्रबन्धः। 'समानो मधुरः' इत्यादिना दश प्राणानुद्दिश्य, 'इमे दश प्राणा दशसु मान्धात्रादिपदेषु स्युः' इत्यस्याययमभिप्रायः--एते दशैव प्राणा षोडशस्वपि पदेषु वर्तन्त इति । कथम् ? तेषां मध्ये केषांचिदेकधातुकत्वादेकधातुकयोईयोस्त्रयाणां वैक एव प्राणः। तथाहि-द्वितीयाङ्घौ प्रयोगात्मकस्य मान्धातृसंज्ञकद्वितीयपदस्य प्रथमाधौ प्रयोगात्मकस्य मन्मथवत्संज्ञकद्वितीयपदस्य चैकधातुकत्वाद्वयोरप्येक एव समानो नाम प्राणः । तथा सुमतिशोभि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० संगीतरत्नाकरः एलापददेवताः पद्मालया पत्रिणी च रञ्जनी सुमुखी शची। वरेण्या वायुवेगा च वेदिनी मोहिनी जया ॥ ४५ ॥ गौरी ब्राह्मी च मातङ्गी चण्डिका विजया तथा। चामुण्डैलापदेष्वेताः क्रमात् षोडश देवताः॥ ४६॥ इति एलापददेवताः एलापदप्राणाः समानो मधुरः सान्द्रः कान्तो दीप्तः समाहितः। अग्राम्यः सुकुमारश्च प्रसन्नौजस्विनाविति ॥ ४७ ॥ मान्धात्रादिपदेषु स्युः प्राणा दश दशस्विमे। सुशोभिसंज्ञकानां द्वितीयाघिपल्लवपदानां कान्तजितमत्तसंज्ञकानां प्रथमाधिपल्लवपदानां च तुल्यधातुकत्वात् क्रमेण द्वयोर्द्वयोर्मधुरः सान्द्रः कान्त इति त्रयः प्राणाः । तथा तृतीयाङ्घौ द्विखण्डात्मकप्रथमपदस्य द्वितीयप्रथमाजिगतयोड़ेिखण्डात्मनोः प्रथमपदयोश्च त्रयाणामपि समानधातुकत्वादेक एव दीप्तसंज्ञकः प्राणः । एवमेकादशसु पदेषु पञ्च प्राणाः । ततो द्वादशादिषु पञ्चसु पदेषु यथासंख्यं समाहितादयः पञ्च प्राणा योजनीयाः । अत एव द्वादशपदे प्राणस्य समाहिताख्या स्यात् । न तु साधारणत्वात् । 'प्रयोगोऽन्यो विधातव्यः' इत्यत्रान्य इत्यस्य भिन्नधातुक इति व्याख्यानमुपपन्नम् । एवं पोडशसु पदेषु दश प्राणा वेदितव्याः ॥ ४०-४८ ॥ (सं०) एलासु तालनियमं दर्शयति-मण्ठेति । विवक्षणीयं कथयतित्यागेति । त्याग औदार्यम् । सौभाग्यं लोकानुरागः । आदिशब्देन धार्मिकत्वादि । एतेषां गुणानां वर्णनमेलासूपनिबन्धनीयम् । एलानां भेदान् कथयति-- एलाना Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २२१ समानोऽल्पाक्षरध्वानो मधुरः स्वल्पनादया ॥ ४८ ॥ अल्पमूर्छनया युक्तः सान्द्रस्तु निबिडाक्षरः। मिति । एलानां बहवो भेदा भवन्ति । ग्रन्थविस्तरभयात्तेषु भेदेषु कियन्त एव भेदा निरूप्यन्ते व्युत्पत्तये एलास्वरूपज्ञानाय । स्वरूपे परिज्ञाते भेदान्तरमूहयितुं शक्यत इत्यर्थः । एलावर्णेषु देवता: कथयति-अकार इति । अनेनैलायाः प्राशस्त्यं प्रतिपादितं भवति । एलायाः षोडशानां पदानां नामानि कथयति-कामवदिति । एलायां षोडश पदान्येवम्-उद्गाहे पादत्रयम् । तत्र प्रथमपादे खण्डद्वयस्य द्वे पदे | पल्लवपदानि त्रीणि । एवं पञ्च पदानि । द्वितीयपादेऽप्येवं पञ्च पदानि । एवं दश पदानि । तृतीयपादे पल्लवपदत्रयाभावाद् द्वे पदे । एवं पादत्रयसंयुक्त उद्गाहे द्वादश पदानि । ध्रुवे त्रीणि । आभोगपदं चैकम् । एवं षोडश पदानि । एवं षोडशसु पदेषु देवताः कथयति ~पद्मालयेति । पद्मालयादयश्चामुण्डान्ताः षोडश देवता: पदेषु ज्ञातव्याः । प्राणान् कथयति--समान इति । मान्धात्रादिसुचित्रान्तानि दश पदानि । तेषु समानादयः प्राणा: पदजीवितहेतवो ज्ञातव्याः । तेन हीनं पदं निर्जीवमेव भवति । अलक्षणमित्यर्थः ॥ ४०-४८ ॥ (क०) समानादीनां प्राणानां क्रमेण लक्षणान्याह-समानोऽल्पाक्षरेत्यादिना। अल्पाक्षरध्वानः; अक्षराणि च ध्वानश्चेति द्वंद्वः ; अल्पा अक्षरध्वाना यस्य स तथोक्तः । समानस्याल्पाक्षरत्वं तावत् प्रयोगात्मकपदान्वितत्वात् ; तत्राक्षरवर्जितत्वात् प्रयोगस्याल्पाक्षरत्वं कथं घटत इति चेत् ; उक्तमेवैतत् 'संबोधनपदान्वितः' इति । तृतीयाघ्रिगतप्रयोगलक्षणेन प्रथमद्वितीयाज्रिगतयोः प्रयोगयोः किंचिदसंबोधनपदान्वितत्वमभ्यनुज्ञायत इति । अल्पध्वानत्वं च तस्य प्रयोगाश्रितत्वादेव, प्रयोगेऽपि गमकालप्तिरूपस्वराणां परिपूर्णत्वाभावादिति भावः । समानो नामायं प्राणः प्रथमद्वितीयाविगतयोः प्रयोगात्मकयोर्मन्मथवन्मान्धातृसंज्ञकयोः पदयोर्योजनीयः । मधुर इति । स्वल्पनादया अल्पमूर्छनया युक्तः प्राणो मधुर इत्युच्यते । मूर्छनाया अल्पत्वं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: अल्पध्वनिस्तारगतिः कान्तः कान्तध्वनिर्मतः ॥ ४९ ॥ दीप्तस्तु दीप्तनादः स्यात् स्थायिस्थस्तु समाहितः । अग्राम्योऽक्षरनादानामावृत्त्या समुदाहृतः ॥ ५० ॥ २२२ तानीकरणाद्भवति । तानी करणं नाम पूर्वमतानस्य तानत्वसंपादनम् । तच्च तानत्वम|दिमस्वरमुच्चार्यारोहेण वावरोहेण वा क्रमेण मध्यस्थितानां स्वराणां स्पर्शमात्रेणान्तिमस्वरोच्चारणे सति भवतीति मन्तव्यम् । अत एव स्वल्पनादयेति विशेषणम् । तस्यैव स्पष्टीकरणार्थमयं प्राणः प्रथमद्वितीयाङ्घ्रिगतयोर्विलम्बितमानयोः कान्तसुमतिसंज्ञयोः पल्लवपदेप्यादिमयोः पदयोर्योजनीयः । सान्द्रस्त्वित्यादि । निविडाक्षर इत्यनेनात्र धात्यपेक्षया मातोराधिक्यं प्रतीयते । अल्पवनिरिति; मात्वपेक्षया धातोरल्पत्वादिति भावः । तारगतिरिति । तारस्थाने गतिः प्रवेशो यस्येति । अनेन प्रथमद्वितीयाङ्घ्रिगतयोर्विलम्बितमानयोः पल्लवमध्यस्थितयोर्जितशोभिसंज्ञयोः पदयोः पूर्वपदापेक्षया किंचिदुच्चत्वेन सान्द्रप्राणाश्रयत्वं कर्तव्यमित्यर्थः । कान्त इत्यादि । कान्तध्वनिरिति तस्य लक्षणम् । ध्वनेः कान्तत्वं नाम रक्त्यतिशययुक्तत्वम् । अङ्घ्रिद्वयपल्लवान्तिमयोद्द्रुतमानयोमत्तसुशोभिसंज्ञयोः पदयोः कान्तो नाम प्राणो योजनीयः । दीप्तस्त्वित्यादि । दीप्तनादः ; तारस्वरत्वात् पूर्णस्वरत्वाचेत्यर्थः । अयं प्राणोऽङ् घ्रित्रयादिमेषु द्विखण्डात्मकेषु कामविकारिगीतकसंज्ञकेषु त्रिषु पदेषु योजनीयः । स्थायिस्थस्त्वित्यादि । तुशब्दो भिन्नक्रमः । समाहितस्त्वित्यन्वयः । स्थायिस्थ इति लक्षणम् । स्थायिनि वर्णे तिष्ठतीति स्थायिस्थः । पूर्वप्रयोगद्वयादन्यप्रयोगात्मके ह्युचितसंज्ञके द्वादशे पदे तत्र तत्रोचितान् स्थायिनः कृत्वा अक्षरवर्जितायां गमकालप्तौ कृतायां समाहिताख्यः प्राणस्तत्र योजितो भवति । अग्राम्य इत्यादि । अक्षरनादानामावृच्येति । तत्राक्षराणामावृत्तिस्तावत् गीते वाक्यावयवेषु पदेषु यान्यक्षराणि तेषां मध्ये पूर्वपूर्वपदान्तिमयोर्द्वयोस्त्रयाणां वाक्षराणां चक्रवाल 1 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २२३ सुकुमारो वर्णनादमूर्छनाकोमलत्वतः । प्रसन्नः स्यात् पदस्थानस्वरादीनां प्रसादतः ।। ५१ ॥ ओजोबहुल ओजस्वीत्येभिः सर्वगुणैर्युताः। एलाः श्रोतुः प्रयोक्तुश्च धर्मकामार्थसिद्धिदाः ॥५२॥ इति एलापदप्राणाः रीत्योत्तरोत्तरपदादिमत्त्वेनोच्चारणम् । एवं तत्तदक्षरगतानामेव स्वराणामुच्चारणं नादानामावृत्तिः । एवं द्विविधया आवृत्त्या निप्पन्नोऽग्राम्यो नाम प्राणो ध्रुवखण्डादिमे मध्यलययुक्ते चित्राख्ये पदे योजनीयः । सुकुमार इत्यादि । वर्णनादमूर्छनाकोमलत्वत इति । वर्णानामक्षराणां नादानां स्वराणां मूर्छनानां तानानाम् ; मूर्छनाविकाररूपत्वादुपचारेण तथा व्यपदेशः ; एतेषां वर्णादीनां कोमलत्वतः सुकुमार इत्यर्थः । अयं वासवाख्ये मध्यलययुक्त ध्रुवखण्डस्य द्वितीये पदे योजनीयः । प्रसन्नः स्यादिति । पदानां तावत् प्रसादोऽविलम्बेनार्थप्रकाशः । स्थानादीनां तु प्रसन्नत्वं विविक्तस्वरूपत्वम् । अत्रादिशब्देन तानगमकादयो गृह्यन्ते। अयं प्राणो ध्रुवखण्डान्तिमे विलम्बितयुक्ते मृदुसंज्ञके पदे योजनीयः । ओज इत्यादि। ओजोवहुल इति । ओजो नाम समासभूयस्त्वम् । तच्च पदेषु तानेप्वतानेप्वपि द्रष्टव्यम् । तेन बहुल: प्रचुरः प्राण ओजस्वीत्यन्वयः । अयमाभोगात्मनि सुचित्रसंज्ञके षोडशे पदे योजनीयः ॥ ४८-५२॥ (सं०) तानेव प्राणान् लक्षयति-समान इति । अल्पान्यक्षराणि ध्वानो नादश्च यस्मिन् म तथाविध: समान इत्युच्यते । यस्त्वल्पेन नादेन युक्तया अल्पमूर्छनया युक्तः स मधुर इत्युच्यते । अल्पा मूर्छना षट्स्वरादि । निबिडानि घनान्यक्षराणि यस्मिन् स सान्द्रः। यस्त्वल्पनादः स च तारगति: तारव्यापकः स कान्तः कान्तध्वनिः रमणीयनादः । दीप्तस्तीवो नादो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ संगीतरत्नाकरः एलाभेदा: गणमात्रावर्णदेशविशिष्टास्ताश्चतुर्विधाः । गणः समूहः स द्वेधा वर्णमात्राविशेषणात् ॥ ५३ ॥ गुरुर्लघुरिति द्वेधा वर्णोऽनुस्वारसंयुतः । सविसर्गो व्यञ्जनान्तो दीर्घो युक्तपरो गुरुः ॥ ५४ ॥ वा पदान्ते त्वसौ वक्रो द्विमात्रो मात्रिको लघुः । ऋजुलिपौ के पेच रहोर्योगे स वा लघुः ॥ ५५ ॥ ए ओ ई हिं पदान्ते वा प्राकृते लघवो मताः । पदमध्येऽप्यपभ्रंशे हुं हे ऊ ए इमित्यमी ॥ ५६ ॥ इति भेदाः वर्णगणा: तत्र वर्णगणो वर्णैस्त्रिभिरष्टविधश्व सः । मस्त्रिगुः पूर्वलो यः स्यान्मध्यलो रोऽन्तगुस्तु सः ॥५७॥ यस्यासौ दीप्तः । स्थायिनि वर्गे स्थितः समाहितः । अक्षरनादानामावृत्त्या वीप्सया पुनः पुनरुच्चारणेनोपलक्षितोऽग्राम्यः | अक्षरध्वनिमूर्छनानां कोमलत्वेन मार्दवेनोपलक्षितः सुकुमारः । पदानां मन्द्रमध्यतारस्थानां स्वराणाम् आदिशब्देनाक्षरस्थानां प्रसन्नतया युक्तः प्रसन्न इत्युच्यते । ओजसा समास भूयस्त्वेन बहुलो व्याप्त ओजस्वीत्युच्यते । एभिः सर्वैरिति । एभिः पूर्वोक्तलक्षणरूपैः समस्तैर्गुणैरुतैलाः श्रोतुराकर्णयितुः प्रयोक्तुर्मातुः कर्तुर्वा धर्मादिपुरुषार्थदायिन्यः || ४८-५२ ॥ 1 (क०) एलासामान्यलक्षणमुक्त्वा तद्भेदान् दर्शयितुमाह – गणमात्रे - त्यादिना । तत्र गणस्य सामान्यलक्षणमाह-गणः समूह इति । वर्णगणानां लक्षणमाह-मस्त्रिगुरिति । त्रिगुस्त्रयो गुरवो यस्मिन्निति त्रिगुः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २२५ तोऽन्तलो मध्यगो जः स्याद्गादिर्भस्त्रिलघुस्तु नः । इति वर्णगणाः वर्णगणदेवताः 'इत्येषां देवता भूमिजलाग्निमरुतोऽम्बरम् ।। ५८ ॥ सूर्यचन्द्रसुराधीशाः क्रमात् कुर्युः फलानि ते । श्रीवृद्धिनिधनस्थानभ्रंशनिर्धनतारुजः ॥ ५९॥ कीर्तिमायुश्च वर्ण्यस्य श्लोकगीतादियोगतः। इति वर्णगणदेवताः मगण इत्यर्थः । अत्र गुरुलध्वोराद्याक्षराभ्यां तयोः संज्ञा वेदितव्या । पूर्वलो य इति । पूर्वलः पूर्व लघुर्यस्मिन्नसौ पूर्वलः । अनेनैव द्वितीयतृतीयौ गुरू इति गम्यते । तेन वर्णत्रयात्मकेषु गणेप्वेकस्मिन् गुरुलध्वोरेकेन विशेषिते तदितरयोस्तदितररूपता द्रष्टव्या । श्लोकगीतादियोगत इति । श्लोकगीतयोरादावुपक्रमे योगः प्रयोगः, तस्मात् ; श्लोके वा गीते वा प्रथमोच्चार्यमाणत्वादित्यर्थः ॥ ५३-६०॥ (सं०) एला विभजते-गणमात्रेति । एलाश्चतुर्विधा भवन्ति-गणैला, वणेला, मात्रैला, देशैलेति । तत्र गणैलां लक्षयितुं पूर्व गणं लक्षयति-गण इति । समूहो गण इत्युच्यते । प्रकरणालघुगुरुमात्राणामिति लभ्यते । स गणो द्विप्रकार:-वर्णगणो मात्रागण इति । वर्णो द्विविधः-लघुर्गुरुरिति । तत्र को लघुः ? को वा गुरु: ? इत्यपेक्षायामाह-अनुस्वारसंयुत इति । अनुस्वारेण संयुतः ; विसर्गसंयुतः; व्यञ्जनान्तो हलन्तः ; दीर्घ आकारादिस्वरः; युक्त: संयुक्तः परो वर्णो यस्य स युक्तपरः; एते गुरवः । वा पदान्त इति । पदान्ते वर्तमानो लधुरपि वर्णो विकल्पेन गुरुर्भवति। एतलक्षणहीनो वर्णो लघुरित्युच्यते । उक्तेभ्यो 1एतेषामिति सुधाकरपाठः। 29 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ संगीतरत्नाकरः वर्णवर्गदेवताः सोमो भौमो बुधो जीवः शुक्रः सौरी रविस्तमः ॥६०॥ क्रमादकचटानां तपयशानां च देवताः। वर्गाणां स्युः फलान्येषामायुः कीर्तिरसद्यशः ॥ ६१ ॥ संपत् सुभगता कीर्तिमान्द्यं मृत्युश्च शून्यता। प्रयोगे श्लोकगीतादौ स्तुत्यस्योक्तानि सूरिभिः ॥२॥ इति वर्णवर्गदेवताः ऽन्यो वर्णो लघुरिति ज्ञेयः । गुरुर्विमात्र इत्युच्यते । स च लिपौ वक्रो लेखनीयः । लघुर्मात्रिक इत्युच्यते ; स च लिपौ सरलो लेखनीयः । स च लघुर्धवर्ण जिह्वामूलीयोपध्मानीययोः रेफहकारयोोंगे वा परत: स्थिते सति विकल्पेन लघुर्भवति । प्राकृतभाषायाम् ‘ए ओ इं हिं' अमी चत्वारो वर्णाः पदस्यान्ते वर्तमाना विकल्पेन लघवो भवन्ति । अपभ्रंशभाषायां 'हुं हे ऊ ए इं' अमी पञ्च वर्णाः पदमध्ये वर्तमाना विकल्पेन लघवो भवन्ति । तत्रेति । तत्र वर्णगणमात्रागणयोर्मध्ये वर्णगणास्त्रिभिर्वर्गर्भवन्ति । स चाष्टविध:मगणः, यगणः, रगणः, सगणः, तगणः, जगणः, भगणः, नगण इति । मस्त्रिगुरिति । गुरुत्रयसंयुक्तो मगणः; यथा-555; पूर्व लघुर्यस्य ; अर्थात् पश्चाद् गुरुद्वयम् ; स यगण: ; यथा-155; मध्ये ल: लघुर्यस्यासौ मध्यलः; अर्थादादावन्ते च गुरुरिति लभ्यते ; स रगणः ; यथा-515; अन्ते गो गुरुर्यस्यासावन्तगुः; अर्थादादौ लघुद्वयं लभ्यते ; स सगणः ; यथा-05; अन्ते लो लघुर्यस्य सोऽन्तलः ; अर्थादादौ गुरुद्वयं लभ्यते ; स तगण: ; यथा-55); मध्ये गो गुरुय॑स्यासौ मध्यगः; अर्थादादावन्ते च लघुरिति लभ्यते ; स जगणः ; यथा-15); गो गुरुरादौ यस्यासौ गादि ; अर्थादन्ते लघुद्वयं लभ्यते ; स भगण: ; यथा-50 ; लघुत्रयवान् नगणः ; यथा ॥ ; इति । एतेषामष्टानां क्रमेण देवताः कथयति-एतेषां देवता इति । फलान्याह-क्रमात् फुर्युरिति । एतेऽष्टौ गणाः श्लोकगीतादिप्रयोगाद्वर्ण्यस्य वर्णनीयस्य नायकस्य क्रमालक्ष्म्यादीनि फलानि जनयन्ति । अयमेवार्थोऽन्यत्रोक्तः ; यथा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः मात्रागणाः मात्रा कला लघुर्लः स्यात्तद्गणाइछपचास्तदो। स्युः षट्पञ्चचतुस्त्रिद्विसंख्यमात्रायुताः क्रमात् ॥६३॥ यथा-555 इति छगणः; 55। इति पगणः; 55 इति चगणः;5। इति तगणः;ऽ इति दगणः । इति पञ्च मात्रागणाः॥ अत्युक्तायास्तु चत्वारो भेदा रतिगणा मताः। किंतु तत्र लपूर्वा ये तेष्वादावधिको लघुः ॥ ६४ ॥ " मो भूमिः श्रियमातनोति य जलं पृथ्वी र वह्निर्मृति सो वायुः परदूरदेशगमनं त व्योम शून्यं फलम् । ज: सूर्यो रुजमादधाति विपुलां भेन्दुर्यशो निर्मलं नो नाकः सुखमच्युतं तदखिलं ज्ञेयं प्रयत्नाद् बुधैः ॥" इति । अकारादीनामष्टानां वर्गाणां देवतादिनिवेशनेन च फलमाह-सोम इति । असद्यशः असत्कीर्तिः । मान्द्यं जाड्यम् । शून्यता मोहः ॥ ५३-६२॥ (क०) मात्रागणान् दर्शयितुमाह-पात्रा कलेत्यादि । तद्गणाः मात्रागणाः । छपचास्तदौ क्रमात् षट्पश्चचतुस्लिद्विसंख्यमात्रायुताः स्युरिति । षण्मात्रायुतश्छगणः; पञ्चमात्रायुतः पगणः; चतुर्मात्रायुतश्चगणः; त्रिमात्रायुतस्तगणः ; द्विमात्रायुतो दगण इति क्रमो द्रष्टव्यः । अत्र पञ्चमात्रादिप्वाद्याक्षरैः संज्ञाः कृताः । छगणस्तु सांकेतिको मतभेदप्रदर्शनार्थ इति द्रष्टव्यम् । अथान्यानपि मात्रागणान् दर्शयितुमाह-अत्युक्तायास्त्वित्यादि। अत्युक्ता नामाक्षरद्वयात्मैकपादश्छन्दोभेदः; तस्याः । चत्वारो भेदा इति । " पादे सर्वगुरावाद्याल्लघून्यस्य गुरोरधः । यथोपरि तथा शेषं भूयः कुर्यादमुं विधिम् । ऊने दद्याद्गुरूनेव यावत् सर्वलधुर्भवेत् ॥" Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ संगीतरत्नाकरः एवं मध्याभवा भेदा अष्टौ कामगणाः स्मृताः । तद्वद्वाणगणा भेदाः प्रतिष्ठायास्तु षोडश ॥ ६५ ॥ यथा-55;15551;1; इति रतिगणाः ॥ यथा-55555515%Bus;55।।51; 5॥;।।।। इति कामगणाः ॥ यथा-55555555; s। 55॥ 5535515%3B ।5। 5;s ।। 5 ।।। 5; 5551;। 5513; s151;151; 55।।।।5।।।5।।।।।।।।। इति घाणगणाः ॥ इति मात्रागणाः इति छन्दःशास्त्रोक्तप्रकारेण प्रस्तारे कृते गुर्वक्षरद्वयात्मकः प्रथमो भेदः । लघुगुर्वक्षरद्वयात्मको द्वितीयः । गुरुलध्वक्षरद्वयात्मकस्तृतीयः । लध्वक्षरद्वयास्मकश्चतुर्थ इत्येते चत्वारो भेदाः। ते प्रत्येकं रतिगणा रतिगणाख्या मात्रागणा मताः। तत्र विशेष दर्शयितुमाह-कित्वित्यादि । तत्र तेषु चतुर्पु भेदेषु मध्ये ये लघुपूर्वा भेदाः, तेषु लघुपूर्वेषु भेदेप्वादौ प्रथम लघुरधिकः, कर्तव्य इति शेषः । अयमर्थः-अत्युक्तायाश्चतुर्पु भेदेषु द्वितीयचतुर्थी लघुपूर्वी । तयोरेकैकलवाधिक्ये सति प्रथमं त्रिमात्रो द्वितीयश्चतुत्रिो भवति । प्रथम द्विमात्रश्चतुर्थस्त्रिमात्रो भवति । एवमुत्तरत्रापि द्रष्टव्यम् । नन्वत्र द्वावेव लघुपूर्वी भेदौ; 'लपूर्वा ये तेषु' इति बहुवचननिर्देशः कथमिति चेत् ; सत्यम् । वक्ष्यमाणानपि मध्याप्रतिष्ठयोभैदान् बुद्धौ संगृह्य तथा निर्देशः कृत इत्यदोषः । तत्रापि लघुपूर्वेप्वादावधिको लघुः कर्तव्य इत्यर्थः । इममेवार्थमतिदिशन् मध्याप्रतिष्ठयोर्मेदान् गणान्तरव्यपदेशभाक्त्वेन दर्शयति एवं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २२९ मध्येत्यादिना । मध्याभवाः; मध्या नामाक्षरत्रयात्मैकपादश्छन्दोविशेषः, तस्यां भवाः । अष्टौ भेदा इति । पूर्ववत् प्रस्तारे कृते सति त्रिगुदियो मयरसतजभना अष्टौ वर्णगणा भवन्ति । तत्र लघुपूर्वेषु यसजनेषु एवमित्यतिदेशेनैकैकलध्वधिकेषु कृतेप्वेत एवाष्टौ भेदाः कामगणाः; ते प्रत्येकं कामगणाख्या मात्रागणा स्मृताः । प्रतिष्ठायास्त्विति । प्रतिष्ठा नामाक्षरचतुष्टयात्मैकपादश्छन्दोविशेषः ; तस्याः । पोडश भेदा इति । पूर्ववत् प्रस्तारे कृते चतुर्गुर्वादयश्चतुर्लध्वन्ताः षोडश भेदा भवन्ति । तद्वदित्यतिदेशेनात्रापि द्वितीयादयः समसंख्याका अष्टौ लघुपूर्वा भेदा एकैकलध्वधिकाः कृताश्चेत्, पोडशापि प्रत्येकं बाणगणाख्या मात्रागणा भवन्ति ॥ ६३-६५ ॥ (सं०) वर्णगणानुक्त्वा मात्रागणानाह-मात्रा कलेति । मात्रा, कला, लघुलं इत्यादिशब्दांत्रोच्यते । तस्या गणाः-छगणः, पगणः, चगणः, तगणः, दगण इति । एतान् लक्षयति-स्युरिति । षण्मात्रः (5ss) छगणः । पञ्चमात्र: (ऽऽ।) पगणः । चतुर्मात्र: (55) चगणः । त्रिमात्र: (51) तगणः । द्विमात्रः (5) दगण इति । एतेषां च मात्रागणानां संज्ञान्तरमाह-अत्युक्ताया इति । अत्युक्ता द्विगुरुश्छन्दोजातिः । तस्याः प्रस्तारे ये चत्वारो भेदास्ते रतिगणा इत्युच्यन्ते । तेषु ये लघुपूर्वास्तेश्वादावधिको लघुर्दातव्यः । ते च भेदा यथा55; 15; 51; ॥; इति । त्रिवर्णच्छन्दोजातिमध्या । तस्याः प्रस्तारे अष्टौ भेदाः। ते कामगणा इत्युच्यन्ते । ते च भेदा यथा-555; | 55; 515 ।।5; 551; I51; 5।।; ।।।; इति । चतुर्वर्णजाति: प्रतिष्ठा ; तस्याः प्रस्तारे षोडश भेदाः । ते बाणगणा इत्युच्यन्ते । तद्वत् लघुपूर्वेषु लघुसंयुक्ताः कार्याः । ते च भेदा यथा-5555; 15553 5/55; ||55; 5515; ।5।5; 5115 |15; 5551; 1551; 5/5।।।।5।; 55।।%; ।5।।; 5|||; |||| ; इति ॥ ६३-६५ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० संगीतरत्नाकरः गणैला तत्र वर्णगणैर्जाता गणैला परिकीर्तिता। सा भवेत् त्रिविधा शुद्धा संकीर्णा विकृता तथा ॥१६॥ शुद्धा चतुर्विधा नादावती हंसावती तथा। नन्दावती च भद्रावत्यथासां लक्ष्म कथ्यते ॥ १७ ॥ गणादिनियमस्त्वासामविखण्डद्वयाश्रयः। नादावती नादावती पञ्चभि:न्तैिः स्यादृक्कमण्ठयोः ॥ १८ ॥ ऋग्वेदोत्था सिता विप्रा कैशिकी वृत्तिमाश्रिता। पाश्चालरीतिर्भारत्याः प्रीत्यै शृङ्गारवर्धनी ॥ ६९ ।। हंसावती रगणैः पञ्चभिः सान्तः प्रोक्ता हंसावती वुधैः । द्वितीयताले हिन्दोले क्षत्रिया यजुरुद्भवा ।। ७० ॥ लोहितारभटी वृत्ति लाटी रीतिं च संश्रिता। रौद्रे रसे चण्डिकायाः प्रीतये विनियुज्यते ॥ ७१ ॥ (क०) तत्र प्रथमोद्दिष्टां गणैलां सप्रभेदां लक्षयितुमाह-तत्र वर्णगणैरित्यादिना । वर्णगणाः पूर्वोक्ता मयरसतजभनाः । तैः नादावत्यादीनां शुद्धानां चतसृणां लक्षणेषु कैशिक्यादयश्चतस्रो वृत्तयः पाञ्चाल्यादयश्चतस्रो रीतयश्च क्रमेण योजिताः । तासां लक्षणानि संक्षिप्योच्यन्ते । तत्र वृत्तिर्नाम " वाङ्मनःकायजा चेष्टा पुरुषार्थोपयोगिनी ।" इति सामान्यलक्षणम् । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः नन्दावती पञ्चभिस्तगणैर्जान्तैरेला नन्दावती मता । प्रतितालेन सा गेया रागे मालवकैशिके ॥ ७२ ॥ सामवेदोद्भवा पीता वैश्या सात्त्वतवृत्तिजा । गौडी च रीतिरिन्द्राण्याः प्रीत्यै वीररसाश्रया ॥ ७३ ॥ भद्रावती भद्रावती पञ्चभिर्यान्तैः कङ्कालतालतः । ककुभेऽथर्ववेदोत्था कृष्णा शूद्रा च भारतीम् ॥ ७४ ॥ वृत्तिं वैदर्भरीतिं च श्रिता वीभत्स संभृता । वाराहीदेवताप्रीत्यै शार्ङ्गदेवेन कीर्तिता ।। ७५ ।। बहुधा संकरादासां संकीर्णा बहुधा मताः । अप्रसिद्धास्तु ता लक्ष्ये तेन नेह प्रपञ्चिताः ॥ ७६ ॥ 'अत्यर्थसुकुमारार्थसंदर्भा कैशिकी मता । अयुद्धतार्थसंदर्भा वृत्तिरारभटी मता ॥ ईषन्मृद्वर्थसंदर्भा भारती वृत्तिरिप्यते । ईषत्प्रौढार्थसंदर्भासात्त्वती वृत्तिरिष्यते ॥ " (6 इति तद्विशेपलक्षणानि । तथा 66 'रीतिर्नाम गुणाश्लिष्टपदसंघटना मता । " इति सामान्यलक्षणम् । २३१ " पाञ्चालरीतिर्वैदर्भीगोडीरीत्युभयात्मिका । लाटी समासानुप्रासप्राया तात्पर्यभेदभाक् । ओजः कान्तिगुणोपेता गौडीया रीतिरिप्यते ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ संगीतरत्नाकरः बन्धपारुप्यरहिता शब्दकाठिन्यवर्जिता । नातिदीर्घसमासा च वैदर्भी रीतिरिष्यते ॥" इति तद्विशेषलक्षणानि । पाञ्चालादिरीतीनां शब्दगुणाश्रितानामर्थविशेषनिरपेक्षतया केवलसंदर्भसौकुमार्यप्रौढत्वमात्रविषयत्वात् कैशिक्यादिभ्यो भेदोऽवगन्तव्यः ॥ ६६-७६ ।। (सं०) तत्रेति । तत्र वर्णगणमात्रागणयोर्मध्ये वर्णगणैर्जाता गणैला उक्ता। सा च त्रिविधा-शुद्धा, संकीर्णा, विकृता चेति । तत्र शुद्धा चतुर्विधानादावती, हंसावती, नन्दावती, भद्रावतीति । गणादीति । वक्ष्यमाणो गणादिनियम आसां नन्दावत्यादीनामधौ खण्डद्वयसंबन्धी नियमो ज्ञातव्यः । खण्डद्वयानन्तरं पदेषु गणादिनियमो नास्ति । स्वेच्छया विरचनमित्यर्थः । नादावी लक्षयति-नादावतीति । पञ्चभिर्भगणैरन्ते नगणेनान्वितैः प्रथम खण्डद्वयं कर्तव्यम् । टक्करागः । मण्ठताल: । ऋग्वेदादुत्पत्तिः। सितः शुभ्रो वर्णः। विप्रत्वं ब्राह्मणत्वजातिः । वृत्तयो रीतयश्च नृत्ताध्याये वक्ष्यन्ते । तत्र कैशिकी वृत्तिमाश्रिता । पाञ्चाली रीतिर्यस्याः सा पाश्चालरीतिः । सरस्वत्याः प्रीतिकारिणी। शृङ्गारो रसः । हंसावती लक्षयति-रगणैरिति । पञ्चभी रगणैरन्ते सगणेनान्वितैः खण्डद्वये क्रियमाणे हंसावत्येला भवति । एतस्यां द्वितीयतालः । हिन्दोलो रागः । क्षत्रियत्वं जातिः । यजुर्वेदादुत्पत्तिः । लोहितो वर्णः । आरभटी वृत्तिः । लाटी रीतिः । रौद्रो रसः । चण्डिकायाः प्रीतौ विनियोगः । नन्दावी लक्षयति-पञ्चभिरिति । पञ्चभिस्तगणैरन्ते जगणेनान्वितैः खण्डद्वये क्रियमाणे नन्दावत्येला भवति । एतस्यां प्रतितालस्ताल: । मालवकैशिको रागः । सामवेदादुत्पत्तिः । पीतो वर्णः । वैश्यत्वं जाति: । सात्वती वृत्तिः । गौडी रीतिः । इन्द्राण्याः प्रीतौ विनियोगः । वीरो रसः । भद्रावती लक्षयतिभद्रावतीति । पञ्चभिर्मगणैरन्ते यगणेनान्वितैः खण्डद्वये क्रियमाणे भद्रावत्येला भवति । एतस्यां कङ्कालस्ताल: । ककुभो रागः । अथर्ववेदादुत्पत्तिः । कृष्णो वर्णः । शूद्रत्वं जातिः । भारती वृत्तिः । वैदर्भी रीतिः । बीभत्सो रसः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २३३ शुद्धाः स्युर्विकृतास्तिस्र आद्या गणविकारतः। वासवी संगता त्रेता चतुरा बाणसंज्ञिका ।। ७७ ॥ एकद्वित्रिचतुष्पञ्चविकारात् पञ्चधेति ताः। प्रत्येकं वासवी पञ्चविधा रामा मनोरमा ॥ ७८ ॥ उन्नता शान्तिसंज्ञा च नागरेत्युच्यते वुधैः । गणानां प्रथमादीनां विकारात् पञ्चमावधि ॥ ७९ ॥ वाराह्याः प्रीतौ विनियोगः । सर्वास्वपि 'अनौ खण्डद्वयम्' इत्यादि पूर्वोक्तसामान्यलक्षणं ज्ञातव्यम् । विशेषमात्रमत्रोक्तमिति । जातिकल्पनं च तत्तज्जातीयस्यात्र योऽतिशयः, तद्विधातृत्वप्रतिपादनार्थम् । बहुधेति । आसां लक्षणसंकरात् संकीर्णा बहवो भेदा भवन्ति । ते लक्ष्येऽप्रसिद्धत्वान्नोक्ताः ॥६६-७६॥ (क०) शुद्धाः स्युर्विकृतास्तिस्र इत्यादि । आद्यास्तिस्रो नादावती हंसावती नन्दावती च गणविकारतः शुद्धतावस्थायां स्वस्वोक्तगणानां विकारतः अन्यथाभावात् । अन्यथाभावश्च प्रकृतगणस्थितगुरुलघुविपर्यासेन प्रकृतगणस्य गणान्तरत्वप्राप्तिः। तत्र नादावत्यां भगणस्य विकाराज्जगणो वा सगणो वा भवति । हंसावत्यां रगणस्य विकारात्तगणो वा यगणो वा भवति । नन्दावत्यां तगणस्य विकाराद्यगणो वा रगणो वा भवति । एकद्वित्रिचतुष्पञ्चविकारादिति । तत्र नादावत्यांतावत् पञ्चसु गणेषु मध्ये एकभगणविकारे सति वासवी नाम विकृता भवति । भगणद्वयविकारे संगता नाम । भगणत्रयविकारे त्रेता नाम । भगणचतुष्टयविकारे चतुरा नाम । भगणपञ्चकविकारे बाणसंज्ञिका । प्रत्येकमिति पूर्वेण संबन्धः । नादावती हंसावती नन्दावती चेत्यर्थः । वासवी पञ्चविधेत्यादि । गणानां प्रथमादीनां विकारात् पश्चमावधीति । तत्र प्रथमगणविकारात् रामा नाम वासवीभेदः, द्वितीयगणविकारान्मनोरमा, तृतीयगणविकारादुन्नता, चतुर्थगणविकारात् शान्तिः, पञ्चमगणविकारान्नागरेति च 30 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ संगीतरत्नाकरः रमणीया च विषमा समा लक्ष्मीश्च कौमुदी । कामोत्सवा नन्दिनी च गौरी सौम्या ततः परम् ॥८॥ रतिदेहेति दशधा संगता गदिता बुधैः। आद्यस्य स्युर्द्वितीयादिसहितस्य विकारतः॥ ८१॥ चतस्रस्ता द्वितीयस्य तृतीयादियुजस्त्रयम् । विकारेण तृतीयस्य चतुर्थादियुजो द्वयम् ॥ ८२ ॥ तुर्यपश्चमयोस्त्वेका लक्ष्म तासां क्रमादिति । क्रमेण योजनीयम् । पञ्चमावधीत्यनेनान्तिमस्य गणस्य विकारनिषेधो गम्यते । तस्यापि विकारे हि नादावत्यादीनां प्रत्यभिज्ञैव न भवेदिति भावः । तस्माद्यः पूर्व जातिषु 'विकृता न्यासवर्गतल्लक्ष्महीना भवन्त्यमूः' इत्यत्र न्याय उक्तः, सोऽत्राप्यनुसंधेयः । यद्यपि नादावत्यामन्तिमस्य गणस्य विकारो न संभवत्येव, तथापि हंसावतीनन्दावत्योः सगणजगणयोरन्तिमयोर्विकारसंभवात्तत्प्रतिषेधार्थ सामान्येनोक्तमिति मन्तव्यम् । रमणीयेत्यादि । आद्यस्य स्युर्द्वितीयादिसहितस्य विकारतः चतस्र इति । आद्यद्वितीययोर्भगणयोर्विकाराद्रमणीया नाम संगताभेदः; आद्यतृतीययोर्विकाराद्विपमा ; आद्यचतुर्थयोविकारात् समा; आद्यपञ्चमयोर्विकाराल्लक्ष्मीरिति चतस्रः। द्वितीयस्य तृतीयादियुजस्त्रयमिति । द्वितीयतृतीययोर्विकारात् कौमुदी; द्वितीयचतुर्थयोर्विकारात् कामोत्सवा; द्वितीयपञ्चमयोर्विकारान्नन्दिनीति तिस्रः । विकारेण तृतीयस्य चतुर्थादियुजो द्वयमिति । तृतीयचतुर्थयोर्विकारेण गौरी: तृतीयपञ्चमयोर्विकारेण सौम्येति द्वे । तुर्यपञ्चमयोर्विकारादतिदेहा। एवं दश संगताभेदाः ॥७७-८३३॥ ___(सं०) विकृतान् निरूपयति-शुद्धाः स्युरिति । आद्याः शुद्धास्तिस्रः नादावतीहंसावतीनन्दावत्यः पूर्वोक्तगणविकारतो विकृता भवन्ति । तासां प्रत्येक पञ्च भेदा भवन्ति । एकगणविकाराद्वासवी ; गणद्वयविकारात् संगता; गण Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः २३५ त्रेता दशविधा प्रोक्ता मङ्गला रतिमङ्गला ॥ ८३ ॥ कलिका तनुमध्या च वीरश्रीजयमङ्गला । विजया रत्नमाला च गुरुमध्या रतिप्रभा ॥ ८४ ॥ आद्याक्षरेण ग्रहणं प्रथमादेरिहेष्यते । 'द्वित्रिणां प्रद्विचानां प्रद्विपानां प्रचत्रिणाम् ॥ ८५ ॥ त्रयविकारात् त्रेता ; गणचतुष्टयविकाराश्चतुरा; गणपञ्चकविकाराद्वाणेति । तत्र वासव्या भेदान् कथयति - प्रत्येकमिति । वासवी पञ्चप्रकारा - प्रथमगण विकाराद्रामा ; द्वितीयगण विकारान् मनोरमा; तृतीयगण विकारादुन्नता; चतुर्थगण विकारात् शान्तिः; पञ्चमगण विकारान्नागरेति । गणद्वयविकारवत्याः संगताया भेदान् कथयति - रमणीयेति । संगता दशप्रकारा भवति । तदेव दशविधत्वं स्फुटयति-आद्यस्येति । प्रथमस्य गणस्य द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमगणसहितस्य विकारेण चत्वारो भेदाः । द्वितीयगणस्य तृतीयचतुर्थपञ्चमगणसहितस्य विकारेण त्रयो भेदाः । तृतीयस्य गणस्य चतुर्थपञ्चमगणसहितस्य द्वौ भेदौ । चतुर्थपञ्चमगणविकारेणैको भेदः । तासां रमणीयादीनां दशानामेवंविधं लक्षणम् । ततश्चायमर्थ:--प्रथमद्वितीयगण विकारेण रमणीया; प्रथमतृतीयगणविकारेण विषमा; प्रथमचतुर्थगणविकारेण समा; प्रथमपञ्चमगणविकारेण लक्ष्मीः ; द्वितीयतृतीयगणविकारेण कौमुदी ; द्वितीयचतुर्थगण विकारेण कामोत्सवा ; द्वितीयपञ्चमगणविकारेण नन्दिनी; तृतीयचतुर्थगणविकारेण गौरी; तृतीय - पञ्चमगणविकारेण सौम्या; चतुर्थपञ्चमगण विकारेण रतिदेहेति ॥ ७७-८३ ॥ ( क ० ) त्रेता दशविधेत्यादि । प्रद्वित्रिणां प्रथमद्वितीयतृतीयानां भगणानां विकृतेर्मङ्गला नाम त्रेताभेदः । प्रद्विचानां विकृतेः रतिमङ्गला । प्रद्विपानां विकृतेः कलिका | प्रचत्रिणां विकृतेस्तनुमध्या । प्रत्रिपाणां विकृतेवीरश्रीः । प्रचपानां विकृतेर्जयमङ्गला । द्वित्रिचानां विकृतेर्विजया । द्वित्रिपाणां विकृते रत्नमाला | चद्विपानां विकृतेर्गुरुमध्या । चत्रिपाणां विकृते रतिप्रति 1 अत्र त्रिशब्दः तृतीयोपलक्षकः । दीर्घाभावः यथाकथंचिन्निर्वाह्यः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः प्रत्रिपानां प्रचपानां द्वित्रिचानां द्विपत्रिणाम् । चद्विपानां चत्रियाणां विकृतेः स्युः क्रमादिमाः ॥ ८६ ॥ त्यक्त्वैकैकं गणं त्वाद्याच्चतुर्णां स्याद्विकारतः । चतुरा पञ्चधा तत्र प्रथमा तूत्सवप्रिया ॥ ८७ ॥ महानन्दाथ लहरी जया च कुसुमावती । आद्यात् पञ्चविकारेण बाणा स्यात् पार्वतीप्रिया ॥८८॥ प्रत्येकमेकत्रिंशत्ते नादावत्यादिषु स्थिताः । भेदास्त्रिनवतिर्युक्ता अन्ये पञ्चदश त्विमे ॥ ८९ ॥ सावित्री पावनी वातसावित्री त्रिविधा मता । संगता सवितुः क्षिप्ते पवनस्य गणे क्रमात् ॥ ९० ॥ २३६ क्रमोऽनुसंधेयः । त्यक्त्वैकैकमित्यादि । आद्यादिति ल्यब्लोपे पञ्चमी । आद्यमारभ्येत्यर्थः। एकैकं गणं त्यक्त्वा विकृतमकृत्वेत्यर्थः । चतुर्णाम् ; पञ्चसु मध्ये एकैकं त्यक्त्वा तदन्येषां चतुर्णां विकारतश्चतुरा पञ्चधा भवति । तत्राद्यं भगणं त्यक्त्वा द्वितीयादीनां चतुर्णां विकारादुत्सवप्रिया नाम चतुराभेदः । द्वितीयं त्यक्त्वेतरगणविकारान्महानन्दा | तृतीयं त्यक्त्वेतरगणविकाराल्लहरी | चतुर्थं त्यक्त्वेतरगणविकाराज्जया । पञ्चमं त्यक्त्वेतरगणविकारतः कुसुमावतीति । आद्यात् पञ्चेत्यादि । आद्यमारभ्य पञ्चानां गणानां विकारेण पार्वतीप्रिया बाणसंज्ञिता । प्रत्येकमेकत्रिंशदिति । यथा भगणविकारान्नादावतीभेदाः, तथा रगणविकाराद्धंसावतीभेदा एकत्रिंशत् । तथा तगणविकारान्नन्दावतीभेदा अप्येकत्रिंशत् । अन्ये पञ्चदश त्विमे इति । अन्ये ; उक्तेभ्यस्त्रिनवतिभेदेभ्योऽन्ये तु इमे वक्ष्यमाणाः । नादावत्यां तावद्गुणद्वयविकारवती संगता । भगणद्वयस्य स्थाने सवितुर्गणे सवितृदेवताके जगणे क्षिप्ते ; भगणविकारत्वेन जगणद्वये न्यस्त इत्यर्थः ; तदा सावित्री नाम संगता भेदः । तथा पवनस्य गणे सगणे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः द्वितीये चाद्यभेदाभ्यां द्विविधा वासवी मता। नादावत्यामिमे भेदा हंसावत्यामपि त्रिधा ॥ ९१ ॥ व्योमजा वारुणी व्योमवारुणी चेति संगता। तदैवत्यगणोपेता तदा स्याद्वासवी द्विधा ॥ ९२ ।। नन्दावत्यां वहिजा च वारुणी वहिवारुणी। तद्गणैः संगता त्रेधा तथा द्वेधा च वासवी ।। ९३ ।। इत्येते विकृता भेदा अष्टोत्तरशतं मताः। इति गणैला पूर्ववत् क्षिप्ते सति पावनी नाम संगताभेदः । द्वितीये चेति । एकभगणस्थाने सगणे न्यस्ते द्वितीयभगणस्थाने जगणे च क्षिप्ते वातसावित्री नाम संगताभेदः । आद्यभेदाभ्यां द्विविधा वासवी मतेति । एकगणविकारवती वासवी यदा भगणविकारवत्त्वेन जगणवती स्यात् , तदा सावित्री नाम वासवीभेदः । यदा तु सगणवती, तदा पावनी नाम वासवीभेदः । वासव्यां गणद्वयविकाराभावात् तृतीयभेदाभावो द्रष्टव्यः । एवं नादावत्यां विकृतभेदाः पञ्च । हंसावत्यामपि विधेति । हंसावत्यां रगणद्वयस्थाने तगणद्वये क्षिप्ते व्योमजा नाम संगताभेदः। तस्मिन्नेव यगणद्वये क्षिप्ते वारुणी नाम संगताभेदः । द्वयोः स्थाने द्वितये च क्षिप्ते व्योमवारुणी नाम संगताभेदः । तदैवत्यगणोपेतेति । व्योमगणेन वरुणगणेन व्योमवरुणगणाभ्यां चेत्यर्थः । तदा स्याद्वासवी द्विधेति । हंसावत्यां वासवी व्योमजा वारुणीति भेदद्वयवतीत्यर्थः । नन्दावत्यां वहिजेत्यादि । पूर्ववदनुसंधेयम् । भद्रावत्यास्तु सगणात्मकत्वान्मगणस्य विकारासंभवाद्विकृतभेदाभाव इति ग्रन्थकाराभिप्रायो बोद्धव्यः । इत्येत इति । एभिः पञ्चदशभेदैः सह गणैलाया अष्टोत्तरशतं विकृतभेदाः ॥ ८३-९४ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः (सं०) गणत्रयविकारवत्यास्त्रेताया भेदानाह - त्रेता दशविधेति । त्रेता दशप्रकारा भवति । तानेव प्रकारान् कथयितुं परिभाषामाह - आद्याक्षरेणेति । प्रद्वित्रिणामित्यादिलक्षणे – प्रथमद्वितीयतृतीयगणविकारेण मङ्गला ; प्रथमद्वितीयचतुर्थगणविकारेण रतिमङ्गला ; प्रथमद्वितीयपञ्चमगणविकारेण कलिका ; प्रथमतृतीयचतुर्थगण विकारेण तनुमध्या ; प्रथमतृतीयपञ्चमगणविकारेण वीरश्रीः ; प्रथमचतुर्थपञ्चमगणविकारेण जयमङ्गला ; द्वितीयतृतीयचतुर्थगणविकारेण विजया ; द्वितीयतृतीयपञ्चमगणविकारेण रत्नमाला ; द्वितीयचतुर्थपञ्चमगणविकारेण गुरुमध्या; तृतीयचतुर्थपञ्चमगणविकारेण रतिप्रभेति क्रमोऽनुसंधेयः । चतुर्गणविकारवत्याश्चतुराया भेदान्निरूपयितुमाह — त्यक्त्वैकैकमिति । आद्याद्गणादेकैकं विहाय चतुर्णां विकाराच्चतुरायाः पञ्च भेदा भवन्ति - द्वितीयतृतीयचतुर्थपञ्चमगणविकारेणोत्सवप्रिया । प्रथमतृतीयचतुर्थपञ्चमगणविकारेण महानन्दा | प्रथमद्वितीयचतुर्थ पञ्चमगणविकारेण लहरी । प्रथमद्वितीयतृतीयपञ्चमगणविकारेण जया । प्रथमद्वितीयतृतीयचतुर्थगण विकारेण कुसुमावतीति । पञ्चानामपि विकारेण स्यात् । एवमेकया एलाया एकत्रिंशद्भेदाः । तिसृणां मेलनात् त्रिनवतिः । अन्यान् विकृतभेदानाह - अन्य इति । अन्ये विकृताः पञ्चदश भेदा भवन्ति । तत्र नादावत्याः पञ्च । हंसावत्याः पञ्च । नन्दावत्याः पञ्च । तानेव भेदानाह-सावित्रीति । संगता गणद्वयविकारवत्येला त्रिधा - सावित्री, पावनी, वातसावित्री चेति । तत्र सवितुः सूर्यस्य गणे जगणे क्षिप्ते सति सावित्री । पवनस्य गणे सगणे क्षिप्ते सति पावनी । उभयोर्गणयोर्निक्षिप्तयोर्वातसावित्री । वासवी एकगण विकारवती जगणे क्षिप्ते सति सावित्री; सगणे क्षिप्ते पावनीत्येवं द्विप्रकारा | एवं नादावत्याः पञ्च भेदा विकृता भवन्ति । हंसावत्यामपि संगता त्रिविधा - व्योमजा वारुणी व्योमवारुणीति । तत्र व्योमदैवत्ये तगणे निक्षिप्ते व्योमजा । वरुणदैवत्ये यगणे निक्षिप्ते वारुणी । तगणयगणयोरुभयोर्निक्षिप्तयोव्योमवारुणीति । वासवी एकगणविकारवत्यपि तगणे निक्षिप्ते व्योमजा । यगणे निक्षिप्ते वारुणीति द्विविधा । एवं हंसावत्याः पञ्च भेदाः । नन्दावत्यामपि पञ्च भेदा भवन्ति । संगता त्रिविधा - वह्निजा, वारुणी, वह्निवारुणी चेति । २३८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २३९ मात्रैला मात्रागणैस्तु मात्रैला सा च ज्ञेया चतुर्विधा ॥ ९४ ॥ रतिलेखा कामलेखा बाणलेखा तथापरा। चन्द्रलेखेति तत्राद्ये पादे रुद्राः कला यदि ॥ १५ ॥ द्वितीये च तृतीये तु मात्रा दश तथा भवेत् । रतिलेखा रतिगणैः कामलेखा तु मान्मथैः ।। ९६ ॥ वहिगणे रगणे क्षिप्ते वह्निजा । वरुणगणे यगणे क्षिप्ते वारुणी । उभयोर्गणयोनिक्षिप्तयोर्वहिवारुणीति । अन्त्यं भेदद्वयं वासव्यामुक्तम् । इत्येवं पञ्चदश भेदाः। पूर्वे च त्रिनवतिर्भेदाः । मिलिता अष्टोत्तरशतं भेदा भवन्ति ॥ ८३-९४ ॥ (क०) मात्रैलां सप्रभेदां लक्षयितुमाह-मात्रागणैस्त्वित्यादि । तत्राद्य इति। तत्र रतिलेखादिषु चतसृषु मात्रैलादिषु मध्य आद्यपादे पञ्चपदात्मक उद्ग्राहावयवे प्रथमपादे रुद्राः कला एकादश मात्राः । द्वितीये चेति; तादृशे द्वितीये पादे । चकारेणात्राप्येकादश कलाः समुच्चीयन्ते । तृतीये विति । पदद्वयात्मके तृतीये पादे । तुशब्दोऽत्र पादद्वयाद्विशेष दर्शयति । स विशेषोऽत्र मात्रा दशेति । तथा भवेदित्युत्तरेण संवन्धः । तथा; पादत्रयोक्तमात्रासंख्यया । रतिगणैः उक्तविशेषैरत्युक्ताभेदैः । रतिगणैरितीत्थंभूतलक्षणे तृतीया । तत्र यैर्मिलितैः प्रथमद्वितीययोः पादयोः प्रत्येकमेकादश मात्राः, तृतीये तु दश मात्राः संमिता भवन्ति, तैरित्यर्थः । रतिलेखा भवेदिति योजना । कामलेखा स्वित्यादि । द्विगुणाभिः कलाभिरिति । रतिलेखोक्तमात्रासंख्यापेक्षया प्रथमद्वितीययोः पादयोः प्रत्येकं द्वाविंशत्या मात्राभिः, तृतीये तु विंशत्या मात्राभिरित्यर्थः। ताभिर्निप्पन्नैः मान्मथैः कामगणैः पूर्वोक्तैर्मध्याभवै दैर्यथायोगं योजितैः कामलेखा स्यात् । मात्रात्रैगुण्यत इत्यादि । रतिलेखापेक्षया प्रथमद्वितीययोः पादयोः प्रत्येकं त्रयस्त्रिंशता मात्राभिः, तृतीये Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० संगीतरत्नाकरः द्विगुणाभिः कलाभिः स्यान्मात्रात्रैगुण्यतो भवेत् । बाणलेखा बाणगणेश्चन्द्रलेखा तु मिश्रितैः ॥ ९७ ॥ गणैश्चतुर्गुणकलाश्चतस्रोऽन्या ब्रुवेऽधुना। आयेन्दुमत्यथो ज्योतिष्मती पश्चान्नभवती ।। ९८ ॥ वसुमत्यपि तत्रेन्दुमती छैः पञ्चभिः सतैः। पञ्चभिः पैः सचगणैराहुयोतिष्मती वुधाः ॥ ९९ ॥ त्रिभिश्चैः पगणेनापि छाद्यन्ता स्यानभखती। सा स्याद्वसुमती यस्यां दपचाः पत्रयं छतौ ॥ १० ॥ पादे त्रिंशन्मात्राभिरित्यर्थः । वाणगणैः पूर्वोक्तैः प्रतिष्ठाभेदैर्यथायोगं योजितैर्बाणलेखा भवेत् । चन्द्रलेखा वित्यादि । मिश्रितैर्गणैरिति । रतिकामबाणगणैः पूर्वोक्तमात्रासंख्यानुगुण्येन योजितैरित्यर्थः । चतुर्गुणकलेति । रतिलेखापेक्षयात्रापि चतुर्गुणत्वम् । तेन प्रथमद्वितीययोः पादयोः प्रत्येकं चतुश्चत्वारिंशन्मात्रायुक्ता, तृतीये पादे चत्वारिंशन्मात्रायुक्ता चन्द्रलेखा भवतीत्यर्थः। नन्दिमतेनान्यां मात्रैलां लक्षयितुमाह-चतस्रोऽन्या इत्यादि । सतैरिति । तगणेन सहितैः । तगणोऽत्र मात्रात्रयात्मको मात्रागणः । तस्याप्रधानत्वादन्ते निवेशः कर्तव्यः । छैः छगणैः षण्मात्रात्मकर्मात्रागणैरिन्दुमती नाम मात्रैला भवति । पञ्चभिः पैरिति । पैः पगणैः पञ्चमात्रात्मकर्मात्रागणैः । सचगणैः, चगणोऽत्र चतुर्मात्रात्मको मात्रागणः ; तेन सहितैः ; ज्योतिष्मती नाम मात्रैलामाहुर्बुधा मतङ्गादयः । छायन्ता; आदौ छगण एकः, ततश्चगणास्त्रयः, ततः पगण एकः, अन्ते छगणश्च ; एतैर्युक्ता नभस्वती स्यात् । सा स्यादिति । यस्यां दपचा दगणपगणचगणाः, दगणो मात्राद्वयात्मकः, पत्रयं पगणत्रयं, छतौ छगणतगणौ च क्रमेण भवन्ति, सा वसुमती स्यात् ॥ ९४-१०० ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः नादावत्यादयो मात्राश्चाद्यैः खगणभङ्गजैः। __ (सं०) मतान्तरेण मात्रैलां लक्षयति मात्रागणैस्त्विति । मात्रागणैः पूर्वोक्तश्छपचादिभिर्विरचिता मात्रैला । सा चतुर्विधा-रतिलेखा, कामलेखा, बाणलेखा, चन्द्रलेखेति । तत्र रतिलेखां लक्षयति-तत्रेति । एलाया उग्राहे पादत्रयमित्युक्तम् । तत्र प्रथमे पादे रुद्रा एकादश कला मात्रा भवन्ति । द्वितीये पादे चैकादश । तृतीये पादे दश । एवं पूर्वोक्तैः रतिगणैरेव मात्रासंख्यापरिपूर्तिस्तदा रतिलेखा। कामलेखां लक्षयति-कामलेखा विति । मान्मथे कामगणे पूर्वोक्ते कलाद्वैगुण्यं कर्तव्यमित्युक्तम् | तत्र प्रथमे द्वितीये च पादे द्वाविंशतिः कलाः । तृतीये तु विंशतिः । एवं पूर्वोक्तैः कामगणैरेव मात्रासंख्यापरिपूर्तिस्तदा कामलेखा। बाणलेखां लक्षयति-मात्रात्रैगुण्यत इति । प्रथमे द्वितीये च पादे त्रयस्त्रिंशत् कलाः । तृतीये तु त्रिंशत् । एवं पूर्वोक्तैर्बाणगणैरेव संख्यापूर्तिस्तदा बाणलेखा । चन्द्रलेखां लक्षयति-चन्द्रलेखा विति । मिश्रितैः रतिगणैः कामगणैर्वाणगणैश्चतुर्गुणाभिर्मात्राभिश्चन्द्रलेखा । प्रथमे द्वितीये च पादे चतुश्चत्वारिंशत् कलाः । तृतीये तु चत्वारिंशदिति । अथान्याश्चतस्रो मात्रैला लक्षयति–चतस्र इति । इन्दुमत्यादयश्चतस्रो मात्रैला भवन्ति । एता लक्षयति-छैः पञ्चभिरिति । षण्मात्रैश्छगणैः पञ्चभिः अन्ते तगणेनान्विते खण्डद्वये क्रियमाणे इन्दुमती। ज्योतिष्मती लक्षयति-पञ्चभिरिति । पञ्चभिः पगणैः पञ्चमात्रागणैरन्ते चगणेनान्विते खण्डद्वये क्रियमाणे ज्योतिष्मती । नभस्वती लक्षयति-त्रिभिरिति । एकश्छगणः, ततश्चगणात्रयः, तत: पगण एकः, अन्ते छगणेनान्विते खण्डद्वये क्रियमाणे नभस्वती। वसुमती लक्षयति -~~-सा स्यादिति । एको दगणः, स च मात्राद्वयात्मकः ; पः पञ्चमात्रागणः; चश्चतुर्मात्रागणः ; पत्रयं पञ्चमात्रागणत्रयम् ; छः षण्मात्रागणः । तस्त्रिमात्रागणः; एतैरवौ खण्डद्वये क्रियमाणे वसुमतीति ॥ ९४-१०० ॥ (क०) अर्जुनमतान्मात्रैलां लक्षयितुमाह-नादावत्यादय इत्यादि । मात्राः मात्रैलाः । पूर्व गणैलात्वेनोक्ता नादावत्यादय एव मात्रैला भवन्ती 31 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ संगीतरत्नाकरः गणाः पञ्च त्रिमात्रोऽन्ते गणाः सप्तान्तिमो लघुः॥ गणाः सप्त लघुश्चान्ते विमानोऽन्ते गणाष्टकः। लक्ष्माणीति क्रमात्तासामित्यूचे सव्यसाचिना ॥१०२॥ एकद्वित्रिचतुष्पश्चमात्रावृद्धिर्यदाद्धिषु । तदा विचित्रमात्रैलास्ता जगाद धनंजयः ॥ १०३ ॥ त्यर्थः। कथमित्याकाङ्क्षायामाह---स्वगणभङ्गजैश्चाद्यैरिति।स्वगणभङ्गाजैः; स्वासां गणा इति षष्ठीतत्पुरुषः । स्वे च ते गणाश्चेति कर्मधारयो वा । यथानादावत्यां भगणाः पञ्च ; अन्ते नगणः । हंसावत्यां रगणाः पञ्च ; अन्ते सगणः । नन्दावत्यां तगणाः पञ्च ; अन्ते जगणः । भद्रावत्यां सगणाः पञ्च ; अन्ते पगण इति एते स्वगणाः; तेषां भङ्गः । भङ्गो नामात्र ये गुरवस्तेषामेकैकस्य गुरोः पृथग्लघुद्वयात्मकतया प्रयोगः । तस्माज्जातैः चाद्यैः, चकाराद्यैः चगणैरित्यर्थः । चाद्यैरितीत्थंभूतलक्षणे तृतीया । तैर्लक्षिता इत्यर्थः । तानि लक्षणानि दर्शयति-गणाः पञ्चेत्यादिना । तासामिति नादावत्यादीनां मात्रैलानाम् । क्रमालक्ष्माणीति । नादावत्या भगणेषु भग्नेप्वन्त्येन नगणेन सह त्रयोविंशतिलघवो भवन्ति । तत्र चतुर्मात्रात्मकांश्चगणान् कृत्वा तद्गणनायां कृतायां गणाश्चगणाः पञ्च । अन्ते त्रिमात्रः । तिसृणां मात्राणां समाहारोऽत्र विवक्षितः । न तु प्लुतः, सर्वेषां लघुरूपत्वात् । एवं चेत् तदा नादावत्या नाम मात्रैलाया लक्षणम् । गणाः सप्तेति । हंसावत्याः सगणान्तेषु रगणेषु भग्नेप्वेकोनत्रिंशल्लघवो भवन्ति । पूर्ववद्गणनायां चगणाः सप्त, अन्तिमो लघुरेकः, तदा हंसावत्या लक्षणम् । पुनरपि गणाः सप्तेति । नन्दावत्या जगणान्तेषु तगणेषु भनेषु मात्रागणसंख्या पूर्ववदेव । एतन्नन्दावत्या लक्षणम् । त्रिमात्रोऽन्ते गणाष्टक इति । भद्रावत्यां पगणान्तेषु सगणेषु भग्नेषु पञ्चत्रिंशल्लघवो भवन्ति । पूर्ववद्गणनायामष्टौ चगणाः । अन्ते त्रिमात्र इति भद्रावत्या लक्षणमिति क्रमोऽनुसंधेयः । अर्जुनमतादेव भेदान्तराणि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २४३ नन्दिनी चित्रिणी चित्रा विचित्रेत्यभिधानतः । रतिलेखादयः प्रोक्ताः क्रमादनियतैर्गणैः ॥ १०४ ॥ एलयोराद्ययोरजी व्यत्यस्तावयुजाविह । इति मात्रैला दर्शयितुमाह-एकत्रिीत्यादिना । नादावत्यादिसंज्ञा मात्रैला एकादिपञ्चान्तं यथेष्टं मात्रावृद्धौ कृतायां विचित्रमात्रैला विचित्रमात्रोपपदा इत्यर्थः ॥ १०१-१०३ ॥ (सं०) अर्जुनमतेनान्या मात्रैला: कथयति-नादावत्यादय इति । नादावत्यादयश्चतस्रो मात्रा नादावतीत्यादिसंज्ञावत्यो भवन्ति । स्वगणाः स्वोक्ता गणाः, तेषां भङ्गः । भङ्गो नामात्र ये गुरवस्तेषामेकैकस्य गुरोः पृथग्लघुद्वयात्मकतया प्रयोगः । तस्माजातैः चाद्यैः चकाराद्यैश्चतुर्मात्रिकैर्गणैनिक्षिप्तैरित्यर्थः । तेषामेव गणानां संख्यां नियमयति-गणा इति । पञ्च चगणाः, अन्ते त्रिमात्रो गणः, अङ्ग्रौ खण्डद्वयं चेत् , तदा मात्रा नादावती । सप्त चगणाः, अन्ते लघुः, तदा मात्रा हंसावती। सप्त चगणा:, अन्ते लघुः, तदा मात्रा नन्दावती । अष्टौ चगणाः, अन्ते त्रिमात्रो गणः, तदा मात्रा भद्रावतीति । इदं सव्यसाचिना अर्जुनेनोक्तम् । एता एव केनचिद्विशेषेण संज्ञान्तरवत्यो भवन्तीत्याह-एकेति । एतासामधिध्वेका मात्रा द्वे तिस्रश्चतस्त्रः पञ्च वा यदाधिका: क्षिप्यन्ते, तदैता एव मात्रा नादावत्यादयो विचित्रमात्रैला भवन्तीत्याह-विचित्रेति । धनंजयोऽर्जुनः ॥ १०१-१०३ ॥ (क०) मतान्तरेणान्याश्चतस्रो मात्रैला लक्षयितुमाह-नन्दिनी चित्रिणीत्यादि। रतिलेखादय इति । पूर्वोक्ता रतिलेखादय एवानियतैगणैः पूर्वोक्तगणनियमं विहाय केवलं तत्तन्मात्रासंख्यया युक्ताश्चेत् , क्रमेण नन्दिन्याद्यभिधानतः प्रोक्ता इति संबन्धः । तासु कचिद्विशेषान्तरं दर्शयतिएलयोराद्ययोरिति । इह चतसृषु मध्ये आद्ययोरेलयो रतिलेखाकाम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः वर्णेला गणमात्राद्यनियता वर्णेला वर्णसंख्यया ॥ १०५ ॥ षडक्षरादधिखण्डादेकोनत्रिंशदक्षरम् । यावदेकैकवृद्धचैलाश्चतुर्विंशतिरीरिताः ॥ १०६ ॥ प्रथमा मधुकर्युक्ता सुखरा करणी ततः । चतुर्थी सुरसा प्रोक्ता पश्चमी तु प्रभञ्जनी ॥ १०७ ॥ २४४ लेखयोः अयुजावधी प्रथमतृतीयपादौ व्यत्यस्तौ भवत इति । रतिलेखायां प्रथमपादे दश मात्रा: । तृतीये एकादश । एवं कामलेखायां प्रथमे विंशतिर्मात्राः, तृतीये द्वाविंशतिर्मात्राः कर्तव्या इति । एतास्वपि विंशतौ मात्रैलासु मात्रागणनियमोऽङ्घ्रिखण्डद्वयाश्रयः कर्तव्य इत्यनुषञ्जनीयम् । अङ्घ्रिखण्डद्वयाश्रय इति ; अङ्घ्रिषु त्रिषु पादेषु खण्डद्वयात्मकानि पदानि कामविकारि - गीतसंज्ञकानि त्रीणि, तान्येवाश्रयो यस्येति तथोक्तः । तत्रैकैकखण्डाश्रयः कर्तव्य इत्यर्थः ॥ १०४–१०५ ॥ (सं०) अन्याश्चतस्रो मात्रैला लक्षयति- नन्दिनीति | अनियतैर्गणैर्युक्ता पूर्वोक्ता रतिलेखा नन्दिनीत्युच्यते । कामलेखा चित्रिणीत्युच्यते । बाणलेखा चित्रेति । आद्ययोर्विशेषमाह — एलयोरिति । आद्ययोर्नन्दिनीचित्रिण्योरेलयोरप्रथमतृतीयावी व्यत्यस्तौ विपर्यासेन गेयौ । तृतीयोऽङ्घ्रिः पूर्व गेयः । प्रथमश्व तृतीयस्थान इति । इति विंशतिर्मात्रैलाः ॥ १०४ - १०५ ॥ (क० ) अथ वर्णैलां लक्षयितुमाह – गणमात्राद्यनियतेत्यादि । वर्णसंख्यया; वर्णानां गुरुलघुरूपाणामक्षराणां संख्यया । यावदेकैकदृद्धयेति । यावत्पदस्यैकोनत्रिंशदक्षरमिति पूर्वेण संबन्धः । एकैकदृद्ध्या ; एकैकोत्तरवृद्धया । प्रथमा मधुकरीति । प्रत्येकं षडक्षराङ्घ्रिखण्डद्वयवती वर्णैला मधुकरी नाम । 1 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः षष्ठी मदनवत्युक्ता शशिनी च प्रभावती । मालती ललिताख्या च मता भोगवती ततः ॥ १०८ ॥ ततः कुसुमवत्याख्या कान्तिमत्यपरा भवेत् । ततः कुमुदिनी ख्याता कलिका कमला तथा ॥ १०९ ॥ विमला नलिनीसंज्ञा कालिन्दी विपुला ततः । विद्युल्लता विशालाच सरला तरलेति ताः ॥ ११० ॥ तत्रान्त्या वर्णमात्रैला द्वादशेत्यपरे जगुः । मण्ठद्वितीयकङ्कालप्रतितालेषु कश्चन ॥ १११ ॥ तालस्तासु विधातव्यो रागादिनियमो न तु । रमणी चन्द्रिका लक्ष्मीः पद्मिनी रञ्जनी तथा ॥ ११२ ॥ मालती मोहिनी सप्त मतङ्गेन प्रकीर्तिताः । यतिमात्रेण भिन्नास्ता इत्यस्माभिर्न दर्शिताः ॥ ११३ ॥ इति वर्णैला २४५ एवं सप्ताक्षरादिषु वर्णैलादिषु सुस्वरादिकाः संज्ञा योजनीयाः । मण्ठद्वितीयेत्यादि । मण्ठादितालानां लक्षणानि तालाध्याये वक्ष्यन्ते ; तत एव तान्यवगन्तव्यानि । रागादिनियमो न त्विति । एतासु वर्णैलासु 'मण्ठद्वितीयकङ्कालप्रतितालेषु कश्चन' इत्येतावानेव नियमः ; न तु नादावत्यादिपूक्तो रागरसरीतिवृत्तिदेवतानियमः कर्तव्य इत्यर्थः । अत्रानेन रागादिनियमनिषेधेन पूर्वोक्तासु विकृतासु गणैलासु रतिलेखादिषु मात्रैलासु च प्रथमासु शुद्धासु च नादावत्यादिपूक्तस्तालरागरसरीतिवृत्तिदेवतानियमः सर्व एव कर्तव्य इत्युक्तं भवति । तत्र तु गणमात्राविकारत एव भेदो द्रष्टव्यः । यतिमात्रेण भिन्ना इति । यतिरत्र पदविच्छेदः ; तन्मात्रस्य भेदकत्वादिति भावः ॥ १०५-११३ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ संगीतरत्नाकरः देशैला कर्णाटलाटगौडान्ध्रद्राविडानां तु भाषया । देशाख्यैला बुधैः पञ्च प्रोक्ता मण्ठादितालतः ॥११४॥ कर्णाटैला कर्णाटैलादिमध्यान्तवर्त्यनुप्रासभूषिता। नादावत्यादिका एव कर्णाटीरपरे विदुः ।। ११५ ॥ (सं०) वर्गलां निरूपयति-गणमात्रेति । यासु गणमात्रादिनियमो नास्ति, केवलं वर्णसंख्यानियमेनोपनिबद्धास्ता वर्गलाः । तासां भेदानाहपडक्षरादिति । षडक्षरादध्रिखण्डादारभ्य एकोनत्रिंशदक्षरपर्यन्तमध्रिखण्डे क्रियमाणे चतुर्विंशतिर्वर्णेला भवन्ति । तासां क्रमेण नामान्याह-प्रथमेति । षडक्षरान्रिखण्डवती मधुकरी, सप्ताक्षराज्रिखण्डवती सुस्वरा इत्यायेकोनत्रिंशदक्षरा तरलेति यावत् ज्ञातव्यम् । तत्रान्त्या द्वादशेति । तत्राष्टादशाक्षरखण्डादूनत्रिंशदक्षरखण्डं यावद् द्वादशैलाः वर्णेलामात्रैलाभिर्भवन्ति । अतस्ता वर्णमात्रैला इति केषांचिन्मतम् । तास्तु वर्णसंख्यया वर्णेलाः। मण्ठादयोऽष्टादशाक्षराः । तावत्संख्याभिर्मात्राभिर्युन्ना मात्रैला भवन्ति । एतासु तालेष्वनियमः । नियमेन तु मण्ठादय एव ताला वर्णेलासु कर्तव्याः । एतासु रागादिनियमो नास्तीति । रमण्यादिमोहिन्यन्ताः सप्त मूर्छना मतङ्गेनोक्ताः ; ता अल्पभेदत्वानोक्ता इत्याह--रमणीति ॥ १०५-११३ ॥ ___ (क०) अथ देशैलां लक्षयति-कर्णाटलाटेत्यादिना । मण्ठादितालत इति । अत्रादिशब्देन द्वितीयकङ्कालप्रतिताला गृह्यन्ते । मण्ठादिषु चतुर्पु तालेप्वन्यतमेन गातव्या इत्यर्थः । आदिमध्यान्तवर्त्यनुपासभूषितेति कर्णा टैलानां मिथः सामान्यलक्षणम् , इतराभ्यो विशेषलक्षणं च । नादावत्यादिका इत्यादि । अपर आचार्या नादावत्यादिका एव कर्णाटीविदुरिति । अत्रैवकारेण शुद्धानां नादावत्यादीनां चतसृणां यल्लक्षणमुक्तं तत् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ चतुर्थः प्रबन्धाध्याय: षट्पकारत्वमेतासां वक्ष्यमाणैर्विशेषणैः। ब्रह्मणः पूर्ववदनाजन्म शंभुर्गणाधिपः ॥ ११६ ॥ आद्याची आद्यनुप्रासौ रत्यन्तं मदनद्वयम् । प्रत्येकं च तयोरादिमध्यप्रासस्तृतीयकः ॥११७ ॥ चतुष्कामो रतिप्रान्तः सुलेखा स्यात्तदादिमा। दक्षिणास्याजनुर्यस्याः सावित्री देवता हरिः ॥ ११८॥ गणाधिपश्चतुष्कामं प्रत्येकं चरणद्वयम् । आदिमध्यस्थितप्रासंत्रिप्रासोऽविस्तृतीयकः॥११९॥ अष्टौ कामाः कामलेवा प्रोक्ता हंसावती च सा। पश्चिमाद्वदनाजन्म ब्रह्मा यस्या गणाधिपः ॥ १२० ॥ गायत्री देवताप्यादिमध्यप्रासास्त्रयोऽङ्घयः। पृथक्चतुःस्मरा नन्दावती सा स्वरलेखिका ॥ १२१ ।। जन्मोत्तरास्याद्गन्धर्वो गणेशः षट् च मान्मथाः । बाणान्ताः पादयोर्यस्याः प्रत्येकं स्युस्तृतीयके ॥१२२॥ अष्टौ कामा आदिमध्यप्रान्तप्रासास्त्रयोऽध्रयः। भद्रावती भद्रलेखा सा स्यात् कर्णाटसंमता ॥ १२३ ॥ सर्वमत्रापि कर्तव्यमिति गम्यते । किंतु कर्णाटीति भाषया भेदो द्रष्टव्यः । पटप्रकारत्वमित्यादि । एतासां कर्णाटीनां वक्ष्यमाणैर्विशेषणैरुपलक्षितानां पट्मकारकत्वं द्रष्टव्यम् । तत्र नादावत्यादिका एवेत्यनेनोक्त एकः प्रकारः । इतरे पञ्च प्रकारा वक्ष्यमाणैर्विशेषणैर्द्रष्टव्याः। उक्तेन प्रथमप्रकारेण चतस्रः कर्णाट्यो भवन्ति । ब्रह्मणः पूर्ववदनात् इत्यारभ्य सा स्यात् कर्णाटसंमता इत्यन्तेन ग्रन्थेन द्वितीयप्रकारस्य विशेषणान्युक्तानि । एतैर्युक्ता रतिलेखाद्यपरपर्याया नादावत्यादय एव पुनश्चतस्रः कर्णाट्यः । मुलेखेति । रतिलेखेत्यर्थः । आदिमा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ संगीतरत्नाकरः पश्च कामा रतिश्चैका कामोऽन्ते चरणत्रये । प्रत्येक तासु चेदेताश्छन्दखत्योऽखिला मताः॥१२४॥ गणादेन्यूनताधिक्यादेलाभासा इमा मताः। यदेकस्य द्वयोरञ्जयोस्त्रयाणां चान्ततः कृतम् ॥१२५॥ अधिपूत्यै तदन्यचेत्तृतीयाङ्क्रिमितं पदम् । शिखापदं तत्तृतीये त्वङ्घौ मेलापकादयः ॥ १२६ ॥ नादावती। पञ्च कामा रतिश्चैकेत्यादि तृतीयप्रकारस्य विशेषणवचनम् । एताश्छन्दस्वत्य इति । एता अनन्तरोक्ता रतिलेखादयः छन्दस्वत्यो नामान्याश्चतस्रः कर्णाट्यः । चतुर्थपञ्चमप्रकारयोविशेषणानि संभूयाह-गणादेरित्यादि । अत्रादिशब्देन मात्रा गृह्यन्ते । इमाः छन्दस्वत्य एव गणादेवूनताधिक्यरूपापरप्रकारेणाप्ये लाभासा इत्यन्याश्चतस्रः कर्णाट्यः । न्यूनताधिक्यादित्यत्र न्यूनता चाधिक्यं चेति द्वंद्वैकवद्भावः । सकलैलाभासानुगतानि विशेषान्तराणि दर्शयति-~-यदेकस्येत्यादिना । पूर्व छन्दस्वतीप्वेकस्य पादस्य द्वयोः पादयोस्त्रयाणां वा पादानामन्ततः अन्ते यत् कृतं 'कामोऽन्ते चरणत्रये' इति, अद्मिपूत्यै तदन्यच्चेदित्यन्वयः। अन्यत्वं च न्यूनतयाधिक्याद्वा भवतीति अन्यदिति साधारणो निर्देशः । तृतीयाङ्क्रिमितं शिखापदं नाम पदं तृतीयेऽङ्ग्रौ तृतीयपादान्ते कर्तव्यमित्यर्थः। ततो मेलापकादय इत्यध्याहार्यम् । आदिशब्देन ध्रुवाभोगौ गृह्यते । एतेन मेलापकादीनां भाषाकृताद्विशेषादन्यो विशेषो नास्तीति सूचितं भवति । एवं पञ्चभिः प्रकारैः कर्णाटेला विंशतिर्भवन्ति ॥ ११४-१२६ ॥ (सं०) देशैलां निरूपयति–कर्णाटेति । देशैला पञ्चविधाकर्णाटभाषयोपनिबद्धा कर्णाटैला ; लाटभाषया लाटेला ; गौडभाषया गौडैला; आन्ध्रभाषया आन्धैला; द्राविडभाषया द्राविडैला इति । एता मण्ठद्वितीय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २४९ लाटाघेलाः प्रान्तप्रासा तु लाटी स्याद्भूयो रसविराजिता। कङ्कालप्रतितालादितालैः पूर्वोक्तैर्गेयाः । कर्णाटैलायां विशेषमाह-कर्णाटैलेति । आदौ मध्य अन्ते च यो वर्तते, तेनानुप्रासेनालंक्रता कर्णाटेला कर्तव्येति । कर्णाटलानां पूर्वोक्तनादावत्यादिभ्योभेदं मतान्तरेणाह-नादावत्यादिका इति । कर्णाटैलानां भेदानाह-षट्प्रकारत्वमिति । एतासां कर्णाटलानां षट्प्रकारत्वं षड्भेदत्वम् । तानेव भेदानाह-ब्रह्मण इति । ब्रह्मणः पूर्वमुखाजन्म | गणानामधिपः शंभुः। आद्यौ द्वावछी पादावाद्यानुप्राससंयुकौ । तयोश्च पादयोः पूर्वोक्तौ कामौ मदनद्वयम् अन्ते रतिगणसंयुक्तम् । तृतीयश्च पादः आदौ मध्येऽनुप्राससंयुक्तः, कामगणचतुष्टयेनकेन रतिगणेन चाधिकेन संयुक्तः । तदा आद्या नादावती सलेखेत्यच्यते । ब्रह्मणो दक्षिणमुखाजन्म । सावित्री देवता। हरिविष्णगणानामधिपः । कामगणचतुष्टयम् । अत्र आद्ययोः पादयोरादौ मध्ये चानप्रासः। तृतीयश्चरणस्त्रिवादिमध्यावसानेष्वनुप्राससंयुक्तः, कामगणैरष्टभिः संयुक्तः। तदा पूर्वोक्ता हंसावती कामलेखेत्युच्यते । ब्रह्मणः पश्चिममुखाजन्म । ब्रह्मा गणानामधिपः । गायत्री देवता । त्रिश्वप्यध्रिवादौ मध्ये चानुप्रासः । प्रतिचरणं चत्वारः कामगणाः। तदा पूर्वोक्ता नन्दावती स्वरलेखेत्युच्यते । ब्रह्मण उत्तरमुखाजन्म । गन्धर्वो देवता । गणानामधिपो गणेशः। प्रथमचरणद्वये षट् कामगणाः, अन्ते बाणगणः । तृतीयेऽद्मावष्टौ कामगणा:। अधित्रयेऽप्यादिमध्यावसानेष्वनुप्रासः । तदा पूर्वोक्ता भद्रावती भद्रलेखेत्युच्यते । कर्णाटैलानां छन्दस्वतीत्वमाह-पञ्चेति। कर्णाटेलासु चरणत्रये पञ्च कामगणाः; एको रतिगण: ; अन्ते पुनः कामगणः; तदा छन्दस्वत्य इत्युच्यन्ते । पूर्वोक्तगणानां न्यूनत्वे आधिक्ये वा एलाभासा इति कथ्यन्ते । शिखापदं लक्षयति-यदिति । एकस्य चरणस्य द्वयोस्त्रयाणां वान्तेऽन्येषां त्रयाणामध्रीणामधिपूत्यै तृतीयाज्रिप्रमाणं पदं क्रियते, तच्छिखापदमुच्यते । तत्तु तृतीयेऽङ्घौ प्रयोगात् । ततो मेलापकादयः पूर्व कर्तव्याः, अन्ययोः पादयोर्मेलापकाभावात् ॥ ११४-१२६ ॥ (क०) अथ लाट्यादीनां सामान्यविशेषलक्षणानि-प्रान्तमासा तु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: गमकप्रासनिर्मुक्ता गौडी त्वेकरसा मता ॥ १२७ ॥ नानाप्रयोगरागांशरसभावोत्कटान्धिका । भूरिभावरसोत्कर्षा द्राविडी प्रासवर्जिता ॥ १२८ ॥ तत्तल्लक्ष्मयुतस्तासु पादस्तुर्यो निबध्यते । तदैता गदिताः सर्वाश्छन्दस्खत्यः पुरातनैः ॥ १२९ ॥ द्वावङ्घी प्रासहीनौ स्तस्तृतीयः प्राससंयुतः । ध्रुवाभोगौ च तेषु स्युश्चतस्रो यतयः पृथक् ॥ १३० ॥ वर्णैलावत् परं यस्यां सा वस्त्वेला निरूपिता । इति देशैला २५० लाटी स्यात् इत्यादीनि स्पष्टार्थानि । तत्तदिति । तत्तल्लक्ष्मयुतस्तास्वित्यनेन लाट्यादिछन्दस्वतीनां लक्षणं कर्णाटीभ्यश्छन्दस्वतीभ्यो विशेषात् पृथगुक्तम् । इतरत्तु समानम् । तेन लाट्यादयोऽपि कर्णाटीवत् प्रत्येकं विंशतिभेदवत्य इत्यवगन्तव्याः । षष्ठस्य प्रकारस्य विशेषणानि सामान्येन दर्शयतिद्वावी इत्यादिना । ध्रुवाभोगौ चेत्यत्र चकारेण ध्रुवाभोगयोरपि तृतीयाङ्घ्रिवत् प्रासयुक्तत्वमभ्युपगम्यते । तेनाद्यप्रकारद्वयाश्रितास्वेलासूक्तसमुच्चयार्थश्चकारो द्रष्टव्यः । छन्दस्वत्यादिषु तु परास्वेलासु चतुर्थपादस्यापि सद्भावादनुक्तस्य तस्य समुच्चयार्थश्चकारो द्रष्टव्यः । तेन तासु चतुर्थपादोऽपि प्राससंयुतः कर्तव्य इत्यर्थः । तेषु स्युरित्यादि । तेषु त्रिषु वा चतुर्षु वा पादेषु पृथक् प्रत्येकं पादे पादे चतस्रो यतयश्चत्वारो विच्छेदाः स्युः । प्रतिपादं चतुरो विच्छेदान् कुर्यादित्यर्थः । वर्णैलावदिति यथा वर्णैलासु रागरसरीतिवृत्तिदेवतानामनियमस्तथात्रापि तेषामनियम इत्यतिदेशार्थः । एवंविशिष्टा वस्त्वेला निरूपिता! अत्र जातिविवक्षयैकवचनम् । एवं षट्पकाराश्रयणेन पूर्वपरिगणितानां द्वैगुण्ये Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २५१ षट्पश्चाशद्युतं प्रोक्तमित्येलानां शतत्रयम् ॥ १३१ ॥ अनन्तत्वात्तु संकीर्णा न संख्याति हरप्रियः । इत्येलाप्रवन्धः सति देशैला द्विशतं भवन्ति । सकलैलाभेदगतां संख्यामाह-षट्पञ्चाशदिति । इतीति ; उक्तप्रकारेण ; तथाहि-गणैलास्तावच्छुद्धा नादावत्यादयश्चतस्रः (४); विकृतास्त्रिनवतिः (९३); प्रकारान्तरेण विकृताः पञ्चदश (१५); मात्रैला विंशतिः (२०); वर्गलाश्चतुर्विंशतिः (२४); देशैलासु–कर्णाट्यश्चत्वारिंशत् (४०); लाट्यश्चत्वारिंशत् (४०); गौड्यश्चत्वारिंशत् (४०); आन्ध्यश्चत्वारिंशत् (४०); द्राविड्यश्चत्वारिंशत् (४०); एवमेलानां षट्पञ्चाशद्युतं शतत्रयम् (३५६)। अनन्तत्वादिति। हरप्रियः ; शार्ङ्गदेवः । संकीर्णाः, गणमात्रैलादिसंकरोत्पन्नाः संकीर्णेलाः । अनन्तत्वात् ; वक्तुमशक्यत्वादिति भावः। नसंख्याति; न परिगणयति। अयमेलाप्रबन्धस्तालादिनियमान्निर्युक्तः। मतान्तरेण मेलापकस्य सद्भावाच्चतुर्धातुः । मतान्तरेण तदभावात् त्रिधातुर्वा । तालपदबद्धत्वेन द्वयङ्गत्वात्तारावलीजातिमान् ॥ १२७--१३२ ॥ (सं०) अन्या देशैला लक्षयति-प्रान्तप्रासेति । लाटैलायां प्रान्तेऽनुप्रासः; बहवो रसाः । गौडैलायां गमकानुप्रासौ न स्तः; एक एव रसः । आन्ध्रयेलायां नानाविधाः प्रयोगा: गमका रागांशा रसा भावाश्च । द्राविडयेलायां रसा भावाश्च बहुलाः; अनुप्रासो नास्ति । तत्तल्लक्ष्मेति । एतासु पूर्वोक्तासु सर्वास्वप्येलासु तत्तलक्षणसंयुक्तश्चतुर्थश्चरणो यदि निबध्यते, तदैताश्छन्दस्वत्य इत्युच्यन्ते । वस्त्वेलां लक्षयति-द्वाविति । द्वौ चरणावनुप्रासहीनौ; तृतीयोऽनुप्रासयुक्तः; ध्रुवाभौगौ चानुप्रासयुक्तौ । तेषु सर्वेष्वपि वक्ष्यमाणाश्चतस्रो यतयः पृथक् पृथक् । अन्यल्लक्षणं पूर्वोक्तवर्णैलावत् । सा वस्त्वेलेति कथ्यते । उक्तैलाः संख्याति-षट्पञ्चाशदिति । चतस्रः शुद्धैला: (४); अष्टोत्तरं शतं विकृतैलाः (१०८); विंशतिर्मात्रैलाः (२०); वर्णैलाश्चतुर्विंशतिः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ संगीतरत्नाकरः करणप्रबन्धः अष्टधा करणं तत्र खराद्यं पाटपूर्वकम् ॥ १३२॥ बन्धादिमं पदाद्यं च तेनाद्यं बिरुदादिमम् ।। चित्राचं मिश्रकरणमित्येषां लक्ष्म कथ्यते ॥ १३३ ॥ यत्रोद्ग्राहध्रुवौ सान्द्रस्वरबद्धौ पदैः पुनः। आभोगस्तत्र नाम स्याद्गातृनेत्रोहः पुनः॥ १३४ ॥ इष्टस्वरेंऽशे न्यासः स्याद्रासस्तालो द्रुतो लयः । करणं खरपूर्व तत् तद्वदन्यान्यपि स्फुटम् ॥ १३५ ॥ किंतु तेषां स्वरस्थाने भेदकानि प्रचक्ष्महे । स्वरैः सहस्तपाटैस्तु स्यात् पाटकरणं ध्रुवम् ॥ १३६ ॥ (२४); तासु मात्रैला द्वादश (१२); कर्णाटैला: षट् (६); अन्या देशैलाश्चतस्रः (४); एवमष्टसप्तत्यधिकं शतं (१७८) भवन्ति । एतावत्य एव छन्दस्वत्यः । आसां द्वैगुण्ये षट्पञ्चाशदधिकं शतत्रयमेला: (३५६) भवन्ति । ननु संकीर्णभेदाः कथं न संख्यायन्ते? अत्राह-अनन्तत्वादिति । हरप्रियः शिवभक्तः शाहूदेवः ॥ १२७-१३२ ॥ ___ (क०) अथ करणभेदानुद्दिश्य लक्षयति-अष्टधा करणमित्यादिना । ग्रहः पुनः इष्टस्वर इति । अत्र ग्रहशब्देन गीतारम्भ उच्यते । स त्विष्टस्वर इति रागग्रहांशस्वरयोस्तदन्येपु वैकस्मिन् कर्तव्यः स्यादित्यनियमः प्रदर्शितः । अत्र न्यासशब्देन गीतमोक्ष उच्यते ; न तु स्वरविशेषः । तेनोद्ग्राहखण्डमारभ्यांशस्वरे गीतमोक्षः कर्तव्य इत्युक्तं भवति । स्वरस्थाने भेदकानीति । स्वराणां स्थानमत्रोद्ग्राहध्रुवकौ; भेदकानि वक्ष्यमाणानि हस्तपाटादीनि । स्वरकरणातिरिक्तपाटकरणादीनां स्वरूपभेदं दर्शयितुमाह—स्वरैः सहस्तपाटैस्त्वित्यादिना । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः क्रमव्यत्यासभेदेन तद् द्विधा परिकीर्तितम् । स्वरैर्मुरजपाटैर्यत् तद्वन्धकरणं मतम् ॥ १३७ ॥ स्वरैः पदैश्च बद्धं यत् करणं तत् पदादिमम् । यत् स्वरैविरुदैर्बद्धं करणं बिरुदादि तत् ॥ १३८ ॥ स्वरैः सतेनकैर्यत्तु तत् तेनकरणं मतम् । स्वरैः सकरपाटैर्यन्निबद्धं मुरजाक्षरैः॥ १३९ ॥ पदैस्तचित्रकरणमभिधत्ते हरप्रियः। स्यान्मिश्रकरणं बद्धं स्वरैः पाटैः सतेनकैः ॥ १४ ॥ हस्तपाटा नागबन्धादयः पटहोद्भवा वाद्याक्षरोत्करा वाद्याध्याये वक्ष्यन्ते ; तैः सहिताः सहस्तपाटा इति स्वरविशेषणम् । अतः स्वराणां प्राधान्येन प्रथमप्रयोगोऽवसीयते । तेन पाटकरणे स्वरैरुग्राहः स्यात् , अनन्तरं हस्तपाटैध्रुवः स्यादिति क्रमः । व्यत्यासो नाम तद्वैपरीत्यम् । स च हस्तपाटैरुग्राहः स्वरैर्भुव इति । बन्धकरणे स्वरैरुग्राहः, मुरजपाटैर्भुवः । पदकरणे स्वरैरुद्ग्राहः, पदैर्भुवः । बिरुदकरणे स्वरैरूदग्राहः, बिरुदैर्धवः । तेनकरणे स्वरैरुग्राहः, तेनकैर्धवः । चित्रकरणे स्वरैर्हस्तपाटैश्चोग्राहः, मुरजाक्षरैः पदैश्च ध्रुवः । मिश्रकरणे स्वरपाटतेनकैरुग्राहः, तैरेव ध्रुवोऽपि स्यात् । तिलतण्डुलवदवयविसांकयं चित्रत्वम् ; क्षीरनीरवदवयवसांकर्य मिश्रुत्वमिति भेदो द्रष्टव्यः । इह स्वरकरणादीनां भेदकानि स्वरादीनि विहाय मेलापकाभावेन त्रिधातुत्वम् , इष्टस्वरे गीतारम्भः, अंशस्वरे मोक्षः, -रासस्तालो द्रुतो लयः' इत्येतैर्युक्तत्वं च करणप्रबन्धस्य सामान्यलक्षणत्वेन पृथगनुक्तमप्युन्नेयम् । अत्र तालादिनियमस्य विद्यमानत्वादयं नियुक्तः प्रबन्धः । मेलापकाभावात् त्रिधातुः भेदेषु पर्यायेण यथायोगं षडङ्गबन्धत्वान्मेदिनीजातिमान् । एतानि नवापि करणानि गानप्रकारभेदेन प्रत्येकं त्रिधा भवन्तीत्याह Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ संगीतरत्नाकरः मङ्गलारम्भ आनन्दवर्धनं कीर्तिपूर्विका। लहरीति त्रिधा तानि प्रत्येकं गानभेदतः॥१४१ ॥ द्विरुद्ग्राहं ध्रुवाभोगौ सकृद्गीत्वा पुनः सकृत् ।। गीयेते चेद्धवोद्ग्राही मङ्गलारम्भकस्तदा ॥ १४२ ॥ उद्ग्राहधुवको प्राग्वद्धवाध पश्चिमं ततः। आभोगध्रुवकोद्ग्राहाः सकृदानन्दवर्धने ॥ १४३ ॥ उद्ग्राहस्य द्वितीया ध्रुवार्धस्थानगं यदि । इतरत् पूर्ववत् कीर्तिलहरी कीर्तिता तदा ॥ १४४ ॥ इति करणप्रबन्धः मङ्गलारम्भ इत्यादि । कीर्तिपूर्विका लहरीति । कीर्तिलहरीत्यर्थः । सुगममन्यत् । एवं करणानि सप्तविंशतिर्भवन्ति ॥ १३२-१४४ ॥ (सं०) विभागक्रमण करणं लक्षयति-अष्टधेति । करणमष्टप्रकारम्स्वरकरणम् , पाटकरणम् , बन्धकरणम् , पदकरणम् , तेनकरणम् , बिरुदकरणम् , चित्रकरणम् , मिश्रकरणं चेति । तत्र स्वरकरणं लक्षयति-यत्रेति । उद्गाहो ध्रुवश्च सान्द्रनिबिडैः स्वरैर्वद्धौ, आभोगस्तु पदैविरच्यते, तत्र आभोगे गातुर्वाग्गेयकारस्य नेतु यकस्य च नाम भवेत् , इष्टे स्वाभिलषिते स्वरे ग्रहः, अंशस्वरे न्यासः, वक्ष्यमाणरासाख्यस्तालः, द्रुतो लयः; तत् स्वरकरणमिति ज्ञेयम् । अन्यान्यपि स्वरकरणवत् पाटकरणादीनि विधेयानि । तर्हि कथं परस्परं भेदस्तत्राह-किंत्विति । तेषां किंचित् स्वरस्थाने भेदोऽस्ति । तथाच सादृश्ये सत्यपि भेदः सिध्यति । पाटकरणं लक्षयति-स्वरैरिति । हस्तपाटसहितैः स्वरैयदुपनिबध्यते तत् पाटकरणम् । तत् द्विप्रकारम्-क्रमेण व्यत्यासेन च । आदौ स्वराः पश्चाद्धस्तपाटा यदि निबध्यन्ते, तदा क्रमपाटकरणम् । यदा पूर्व हस्तपाटाः पश्चात् स्वराः, तदा व्यत्यस्तपाटकरणम् । बन्धकरणं लक्षयति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ढेकीप्रबन्धः द्विर्गीत्वोद्ग्राहपूर्वार्धमुत्तरार्धं सकृत् ततः। मेलापकः प्रयोगात्मा न वा स्यात्तावुभावपि ॥१४५॥ अतालौ देविकाताले कङ्काले वा विलम्बिते'। -स्वरैरिति । स्वरैः मृदङ्गपाटैश्च यद्वध्यते, तद्वन्धकरणम् । पदकरणादीनि लक्षयति-स्वरैरिति । स्वरैः पदैश्च यद्वध्यते, तत् पदकरणम् । यत्र स्वरो बिरुदश्च बध्यते, तद्विरुदकरणम् । स्वरैस्तेनकैश्च यद्बध्यते, तत्तेनकरणम् । स्वरैर्हस्तपाटैमुरजाक्षरैश्च यद्वध्यते, तच्चित्रकरणम् । स्वरैः पाटैस्तेनैश्च यद्बध्यते, तन्मिश्रकरणम् । एतेषां प्रत्येकं त्रैविध्यं कथयति-मङ्गलारम्भ इति । गानभेदतः; गानप्रकारभेदात् । तमेव गानप्रकारे भेदमाह-द्विरुद्राहमिति । यत्रोद्गाहः पूर्व द्विवारं गीयते, ततोऽनन्तरं ध्रुवाभोगौ सकृद्गीत्वा पुनश्च ध्रुवोद्राही सकृद्रीयेते, तदा मङ्गलारम्भः । यदा तद्गाहध्रुवौ प्राग्वत् मङ्गलारम्भवत् ; उद्गाहो द्विर्गीयते, ततो ध्रुवः सकृत् ; ततोऽनन्तरं ध्रुवस्य पश्चिमाधैं गीयते , ततोऽनन्तरमाभोगध्रुवोद्गाहाः सकृद्गीयन्ते, तदानन्दवर्धनम् । यदा तु ध्रुवस्यार्धस्थाने उद्गाह द्वितीयाध गीयते, अन्यल्लक्षणमानन्दवर्धनवत् , तदा कीर्तिलहरी । एवं सप्तविंशतिः स्वरकरणादीनि | अक्षरेषु पाटकरणं द्विधेत्यनेनैतेषां नवानां मङ्गलारम्भादिभेदेन त्रैविध्ये सप्तविंशतिर्भदा भवन्ति ॥ १३२-१४४ ॥ (क०) अथ ढेकी लक्षयति-द्विीत्वेत्यादि । प्रयोगात्मा मेलापकः स्यान्न वेति प्रयोगस्वरूपस्यात्र वैकल्पिकत्वमुच्यते । एलायां स्वरूपेण स्वत एव प्रयोगस्य मतभेदेनोग्राहव्यपदेशो वा मेलापकव्यपदेशो वेति व्यपदेशविकल्पो द्रष्टव्यः । तावुभावपीति । मेलापकसद्भावपक्षमाश्रित्येदं वचनम् । तौ उद्ग्राहमेलापको उभावपि अतालौ तालरहितावित्येकः पक्षः । विलम्बितढेकि 1 विलम्बितौ इति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ संगीतरत्नाकरः लयान्तरेऽन्यतालेन ध्रुवाभोगौ ध्रुवस्त्विह ॥ १४६ ॥ त्रिखण्डस्तत्र खण्डे द्वे गीयेते समधातुनी। तृतीयमुच्चमेष द्विराभोगस्तु सकृत् ततः ॥ १४७ ॥ पुनीत्वा ध्रुवे' न्यासो यस्यां सा ढेङ्किका मता। चतुर्धा देङ्किका मुक्तावली स्याद् वृत्तबन्धिनी ॥१४८॥ युग्मिनी वृत्तमाला च तासां लक्ष्माण्यमून्यथ । अभावश्छन्दसां वृत्तं वृत्ते वृत्तानि च क्रमात् ॥ १४९॥ त्रिधा तिस्रो द्वितीयाद्या वर्णिका गणिका तथा। मात्रिका वर्णजैर्वृत्तैर्गणजैर्मात्रिकैरपि ॥ १५० ।। काताले विलम्बिते कङ्कालताले वा तौ भवत इत्येतत् पक्षद्वयम् । लयान्तरेऽन्यतालेनेति । ध्रुवाभोगौ लयान्तरे विलम्बितादन्यस्मिन् लये ; मध्यलये द्रुतलये वेत्यर्थः । अन्यतालेनेति । ढेकिकाकङ्कालाभ्यामन्येन येन केनचित् तालेनेत्यर्थः। समधातुनी इति । एकधातुक इत्यर्थः । एप द्विरिति । एष ध्रुवो द्विः द्विवारं गेय इत्यर्थः । ततो ध्रुवानन्तरमाभोगस्तु सकृन् गातव्यः । पुनर्गीत्वेति । एवमुक्तलक्षणं सकलं प्रबन्धं द्वितीयवारमपि गीत्वा ध्रुवे ध्रुवखण्डादौ न्यासः कर्तव्य इति गाननियम उक्तः । अभाव इत्यादि । छन्दसामभावो मुक्तावल्या लक्षणम् । वृत्तमिति वृत्तवन्धिन्या लक्षणम् । वृत्तबन्धिनीमेकेनैव वृत्तेन गायेदित्यर्थः । एवमुत्तरयोरपि द्रष्टव्यम् । वृत्ते इति युम्मिन्या लक्षणम् । वृत्तानीति वृत्तमालाया लक्षणम् । अत्र वृत्तानीति बहुवचनेन त्रिप्रभृतीनि गृह्यन्ते । द्वितीयाद्यास्तिस्र इति वृत्तबन्धिनीयुग्मिनीवृत्तमाला उच्यन्ते । विधेति; वक्ष्यमाणेन प्रकारेण । तमेवाह-वर्णिकेत्यादिना । वर्ण वृत्तैर्वर्णिका, 1 ध्रुवमिति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २५७ दशापि स्युः पुनस्त्रेधा समालंकरणा तथा । विषमालंकृतिश्चित्रालंकृतिर्लक्षणानि तु ।। १५१ ।। गणजैर्वृत्तैर्गणिका, मात्रिकैर्वृत्तैर्मात्रिकेति तिसृणां लक्षणानि । तत्र वर्णसंख्यामात्रनिर्वृत्तानि वृत्तानि वर्णजानि समानीप्रभृतीनि । गणैर्निर्वृत्तानि गणजानि भुजङ्गप्रयातादीनि । मात्रासंख्ययैव निर्वृत्तानि मात्रिकाणि वैतालीयादीनि । यथोक्तं छन्दोविचितौ " आदौ तावद्गणच्छन्दो मात्राच्छन्दस्ततः परम् । __ तृतीयमक्षरच्छन्दश्छन्दस्त्रेधा तु लौकिकम् ।" इति । आयद्यार्यागीतिपर्यन्तं गणच्छन्दः । वैतालीयादि चूलिकापर्यन्तं मात्राच्छन्दः । समान्यादिकमुत्कृतिपर्यन्तमक्षरच्छन्द इति । तेषां त्रिविधानां वृत्तानां लक्षणानि छन्दःशास्त्रत एवावगन्तव्यानि । दिङ्मात्रप्रदर्शनार्थ किंचिदुदाहियते-- “ओं नमो जनार्दनाय दुष्टदैत्यमर्दनाय । पापबन्धमोचनाय पुण्डरीकलोचनाय ॥" इति समानी। “पथ्याशी व्यायामी स्त्रीषु जितात्मा नरो न रोगी स्यात् । यदि मनसा वचसा च प्रद्रुह्यति नैव भूतेभ्यः ॥" इति पथ्या। "तब तन्वि कटाक्षवीक्षितैः प्रसरद्भिः श्रवणान्तगोचरैः । विशिखैरिव तीक्ष्णकोटिभिः प्रहृतं प्राणिति दुष्करं मनः ॥" इति वैतालीयम् । एवं प्रथमया मुक्तावल्या सह दश ढेक्यो भवन्ति । एतासां 33 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ संगीतरत्नाकरः समालंकारसंख्या च विषमा मिश्रिता क्रमात् । इति ढेकीप्रबन्धः। पुनस्वैविध्यमाह-दशापीत्यादिना । अलंकारसंख्या समेति समालंकरणाया लक्षणम् । सैव विषमेति विषमालंकृतेर्लक्षणम् । सैव मिश्रितेति विचित्रालंकृतेर्लक्षणं क्रमेण योजनीयम् । अत्रालंकारशब्देन प्रासानुप्रासयमकादयो गृह्यन्ते । एवं त्रिंशत् ढेकयः । अयं प्रबन्धश्छन्दस्तालादिनियमान्नियुक्तः । मेलापकस्य वैकल्पिकत्वाच्चतुर्धातुस्त्रिधातुर्वा । पदतालबद्धत्वेन द्वयङ्गत्वात् तारावलीजातिमान् ॥ १४५-१५२ ॥ (सं०) ढेकी लक्षयति-द्विर्गीत्वेति । यत्रोद्गाहस्य पूर्वार्ध द्विर्गीयते, तत: सकृदुत्तरार्धम् , ततो गमकसंदर्भवान् मेलापकः क्रियते वा न वा, तावुभावप्युद्गाहमेलापको तालशून्यौ वा, ढेकिकातालेन कङ्कालतालेन वा विलम्बितौ कार्यो, ततो विलम्बितादन्येन लयेन, ढेङ्किकाकङ्कालाभ्यामन्यतालेन ध्रुवाभोगौ कार्यो, तत्र ध्रुवनिखण्डः खण्डत्रययुक्तः, तेषु खण्डेषु द्वे खण्डे समधातुनी समगेये कर्तव्ये, तृतीयं खण्डं ताभ्यामुच्चमानेन कार्यम् , एष ध्रुवो द्विर्गेय:, ततोऽनन्तरं सकृदाभोगः, पुनरपि ध्रुवं गीत्वा न्यासः समाप्तिः, सा ढेकी । सा चतुर्विधा-मुक्तावली, वृत्तबन्धिनी, युग्मिनी, वृत्तमाला चेति । तासां क्रमेण लक्षणान्याह- अभाव इति । यस्यां छन्दो नास्ति, सा मुक्तावली । यस्यां त्वेकमेव वृत्तं, सा वृत्तवन्धिनी । वृत्तद्वयवती युग्मिनी । बहुवृत्तवती वृत्तमालेति । तासु वृत्तबन्धिन्यादयस्तिस्रः प्रत्येकं त्रिधा–वर्णिका, गणिका, मात्रिका चेति । वर्णजैवृत्तैर्वर्णिका, गणवृत्तैर्गणिका, मात्रावर्णवृत्तैर्मात्रिकेति । एवं दशविधा सापि त्रिविधा-समालंकरणा, विषमालंकरणा, चित्रालंकरणा चेति । समालंकारैरुपमादिभिर्युक्ता समालंकृतिः, ज्यादिसंख्यायुक्त विषमैरलंकारैयुक्ता विषमालंकृतिः, समैर्विषमैश्च चित्रालंकृतिरिति । इति त्रिंशत् ढेङ्कयः ॥ १४५-१५२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रवन्धाध्यायः वर्तनीप्रबन्धः स्वराद्यकरणस्येव वर्तन्या लक्ष्म किंत्विह । १५२ ।। रासकादन्यतालः स्याल्लयो ज्ञेयो विलम्बितः । द्विरुद्ग्राहो ध्रुवाभोगौ सकृन्मोक्षो ध्रुवे भवेत् ॥ १५३ ॥ कङ्काले प्रतिताले च कुडके द्रुतमण्ठके । रचिता चेत् तदा ज्ञेया वर्तन्येव विवर्तनी ॥ १५४ ॥ इति वर्तनीप्रबन्धः । २५९ (क० ) अथ वर्तनीं लक्षयति - स्वराद्येत्यादिना । स्वराधकरणस्येवेति । स्वरकरणस्य यथा लक्ष्म लक्षणम् उद्ग्राहध्रुवयोः स्वरवद्धत्वमा भोगे पदबद्धत्वमित्यादि, तत् सर्वमतिदेशतः प्राप्तं द्रष्टव्यम् । भेदकं दर्शयितुमाह---- कित्विति । इह वर्तन्याम् । रासकादन्यताल इति । करणप्रबन्धोक्ताद्रासकादन्यो यः कश्चन तालः, विलम्बितो लयश्चेति विशेषः । गानप्रकार विशेष - माह - द्विरुद्ग्राह इत्यादि । मोक्षो न्यासः । कङ्काल इत्यादि । कङ्कालादिषु चतुर्षु तालेष्वन्यतमेन रचिता चेत्, इयमेव विवर्तनीसंज्ञा भवति । अयं प्रबन्धस्तालादिनियमान्निर्युक्तः । मेलापकाभावात् त्रिधातुः । स्वरपदतालबद्धत्वेन त्र्यङ्गत्वात् भावनीजातिमान् ॥ १५२ - १५४ ॥ (सं०) वर्तनीं लक्षयति - स्वराद्येति । स्वरकरणस्येव वर्तन्या लक्षणम् । किंत्वयं विशेष:- रासकतालादन्यस्ताल:, विलम्बितो लयः, उद्ग्राहो द्विर्गीयते, ध्रुवाभोगौ सकृत्, ध्रुवे न्यासः । वर्तनीविशेषमेव विवर्तनीं लक्षयति- कङ्काल इति । उक्तकङ्कालादितालेष्वन्यतमेन विरच्यते चेत्, तदा वर्तन्येव विवर्तनीत्युच्यते ॥ १५२ - १५४ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः झोम्बडप्रबन्धः द्विर्यत्रोद्ग्राहपूर्वार्धमुत्तरार्धं सकृत् ततः। मेलापका प्रयोगाढ्यः स वा स्याद् द्विस्ततो ध्रुवः॥१५५॥ आभोगं तु सकृद्गीत्वा ध्रुवे न्यासः स झोम्बडः। निःसारुकः कुडुक्कश्च त्रिपुटप्रति मण्ठको । १५६ ।। द्वितीयो गारुगी रासयतिलग्नाडुतालिकाः । एकतालीत्यमी ताला झोम्बडे नियता दश ॥ १५७ ।। केचिन्मण्ठमपीच्छन्ति नैष लक्ष्येषु लक्ष्यते । तारजोऽतारजश्चेति झोम्बडो द्विविधो मतः ॥ १५८ ॥ तारो ध्वनिस्थानकं स्यात् तद्युक्तस्तारजो मतः।। स चतुर्धा स्थानकस्योद्ग्राहादिषु निवेशने ॥ १५९ ।। अतारजस्तारहीनः सर्वोऽप्येष द्विधा मतः।। त्रिधातुश्च चतुर्धातुरिति भूयो भवेद् द्विधा ।। १६० ॥ (क०) अथ झोम्बडं लक्षयति-द्विर्यत्रेत्यादिना । प्रयोगाभ्यः प्रयोगप्रचुर इत्यनेन मेलापकस्य किंचिद्वाचकपदयुक्तत्वमभ्युपगम्यते । स वा स्यादिति । मेलापको वा स्यात् ; पक्षे भवति, न भवति वेत्यर्थः । ततोऽनन्तरं ध्रुवं द्विवारं गीत्वा, आभोगं तु सकृद्गीत्वा ध्रुवे न्यासः कृतश्चेत् , स झोम्बडः। झोम्बडे तालनियममाह-निःसारुक इत्यादि । निःसारुकादिषु दशस्वेकेन तालेन गातव्य इति नियमो द्रष्टव्यः । स चतुर्धेत्यादि । सः तारजः । उद्ग्राहादिषु निवेशन इति । उद्ग्राहस्य तारजत्व एको भेदः । मेलापकस्य तारजत्वे द्वितीयः । ध्रुवस्य तारजत्वे तृतीयः । आभोगस्य तारजत्वे चतुर्थः । एवं चतुर्धा तारजः । तारहीनत्वादतारज एको भेदः । सर्वोऽप्येष इति । उक्तप्रकारेण पञ्चविध एष झोम्बडः । त्रिधातुश्च चतुर्धातुरिति द्विधा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः प्रभूतगमकः स्तोकगमकश्चेत्यमी स्फुटाः। प्रायोगिकः क्रमाख्यश्च ततः क्रमविलासकः ॥ १६१ ॥ चित्रो विचित्रलीलश्चेत्यमी स्युः पञ्चधा पृथक् ।। चतुराद्यष्टपर्यन्तं गणनिष्पादिताः क्रमात् ॥ १६२ ॥ मातृकः श्रीपतिस्तद्वत् सोमो रुचिरसंगती। ते लक्ष्येष्वप्रवृत्तत्वादस्माभिर्न पश्चिताः ॥ १६३ ।। विनियोगवशादेषां त्रयोदश भिदाः पृथक् । उपमारूपकश्लेषेर्ब्रह्मा वीरविलासयोः ।। १६४ ॥ मत इति । तारजाश्चतुर्धातवश्चत्वारः। मेलापकाभावपक्षे तारजास्त्रिधातवस्त्रय एव । अतारजश्चतुर्धातुरेकः । अतारजस्त्रिधातुरेकः । एवं संभूय नव झोम्बडा भवन्ति । भूय इति । प्रभूतगमकः स्तोकगमकश्चेति । नवानां प्रत्येक द्वैविध्येनाष्टादश झोम्बडाः स्फुटाः व्यक्तरूपाः । अत्र त्रिधातूनां भेदानां मेलापकाभावेऽप्युद्ग्राहध्रुवान्तभूतप्रयोगवत्त्वेन प्रभूतगमकत्वं च द्रष्टव्यम् । अनेन भेदकथनेनैव . त्रिधातुप्वपि झोम्बडेषु प्रयोगो विधातव्य इत्युक्तं भवति । प्रायोगिक इत्यादि । अमी अष्टादश झोम्बडाः । पृथक् प्रत्येकम् । क्रमाचतुराद्यष्टपर्यन्तं गणनिष्पादिता इति । चतुर्गणनिप्पादितः प्रायोगिकः । पञ्चगणनिप्पादितः क्रमाख्यः । षड्गणनिप्पादितः क्रमविलासः । सप्तगणनिप्पादितश्चित्रः। अष्टगणनिप्पादितो विचित्रलीलश्चेति पञ्चधा स्युः । एवं च. सति नवतिझोम्बडा भवन्ति । विनियोगवशादित्यादि । विनियुज्यन्त इति विनियोगाः, शृङ्गारादयो रसा उपमादयोऽलंकाराश्चात्र विवक्षिताः ; तद्वशादित्यर्थः । एषां नवतिसंख्याकानां झोम्बडानां पृथक् प्रत्येकं ब्रह्मादयो वक्ष्यमाणास्त्रयोदश भेदा भवन्ति । ब्रह्मादींस्त्रयोदश भेदान् लक्षयति-उपमारूपकेत्यादिना । उपमारूपक श्लेषैः; उपमारूपकश्लेषाख्यैरेवालंकारैर्लक्षितो ब्रह्माभिधो भेदो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ संगीतरत्नाकरः विष्णुश्चक्रेश्वरो वीरे बीभत्से चण्डिकेश्वरः। नरसिंहोऽद्भुतरसे भैरवस्तु भयानके ॥ १६५ ।। हास्यशृङ्गारयोहंसः सिंहो वीरभयानके । विप्रलम्भे तु सारङ्गः शेखरः करुणे रसे ॥ १६६ ॥ सशृङ्गारे पुष्पसारः शृङ्गारे परिकीर्तितः। रौद्रे प्रचण्डो नन्दीशः शान्ते धीरैरुदीरितः ॥ १६७ ॥ गद्यजाः पद्यजा गद्यपद्यजा इति ते विधा। झोम्बडा इति संख्याता वियचन्द्रशराग्नयः॥ १६८॥ इति झोम्बडप्रबन्धः। भवति । अत्र “साधर्म्यमुपमा भेदे" इत्युपमालक्षणम् । चन्द्रवत् कान्तं मुखमित्युदाहरणम् । “तद्रपकमभेदो य उपमानोपमेययोः" इति रूपकलक्षणम् । मुखमेव चन्द्र इत्युदाहरणम् । " श्लेषः स वाक्य एकस्मिन् यत्रानेकार्थता भवेत्" इति श्लेषलक्षणम् । चन्द्रनृपयोर्वाचको राजेतिशब्द उदाहरणम् । वीरविलासयोर्विष्णुः । वीरे चक्रेश्वर इत्यादि योजनीयम् । वीरविलासयोरित्यत्र वीरशब्दसाहचर्याद्विलासशब्देन संभोगशृङ्गारो लक्ष्यते, तदनुभावत्वाद्विलासस्य । शृङ्गारादयो रसा नृत्ताध्याये निरूपयिष्यन्ते । एवं त्रयोदशभिर्भ देझोम्बडानां नवतौ पृथक् गुणितायां सप्तत्युत्तरशतसहितं सहस्रं (११७०) झोम्बडा भवन्ति । गयजा इत्यादि । उक्तसंख्यानां झोम्बडानां गद्यजादिभिर्मेदैः पुनस्त्रैविध्ये सति तद्भेदजां संख्यामाह-वियचन्द्रशरामय इति । वियत् शून्यं बिन्दुरित्यर्थः । प्रथमं बिन्दुलेखनीयः । चन्द्रशब्देनैकसंख्या लभ्यते, चन्द्रस्यैकत्वेन प्रसिद्धः । लेखकापेक्षया बिन्दोमिपाच एकाङ्को लेखनीयः । शरशब्देन पञ्चसंख्या लभ्यते, मदनबाणानां पञ्चत्वेन प्रसिद्धेः । एकाङ्कवामपाधै पञ्चाको लेखनीयः । अनिशब्देन त्रिसंख्या लभ्यते, यज्ञियानामनीनां त्रित्वेन . प्रसिद्धेः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः पञ्चाङ्कवामपाश्वे त्रिसंख्याको लेखनीयः । इति चतुर्वङ्केषु लिखितेप्वेकं दश शतं सहस्रमित्यादिकया गणितपरिभाषया बिन्द्रादिक्रमेण योजितेषु दशोत्तरपञ्चशतीयुतानि त्रीणि सहस्राणि (३५१०) झोम्बडाः संख्याता भवन्ति । अयं प्रबन्धस्तालादिनियमान्नियुक्तः । मेलापकस्य वैकल्पिकत्वाच्चतुर्धातुस्त्रिधातुश्च । पदतालबद्धत्वेन द्वयङ्गत्वात् तारावलीजातिमान् ॥ १५५-१६८ ॥ (सं०) झोम्बडं लक्षयति-द्विर्यत्रेति । यत्रोद्गाहस्य पूर्वार्ध द्विर्गीयते, तत उत्तरार्ध सकृत् , ततोऽनन्तरं गमकसंयुक्तो मेलापकः; स च विकल्पेन स्यात् ; क्रियते वा, न वेत्यर्थः । ततोऽनन्तरं ध्रुवो द्विर्गीयते; तत: सकृदाभोगं गीत्वा ध्रुवे समाप्तिः ; स झोम्बड इति ज्ञेयः । तत्र तालान्नियमयति-निःसारुक इति । निःसारुकादय एकताल्यन्ता दश ताला झोम्बडे कर्तव्याः । केषांचिन्मते मण्ठतालोऽपि । परं तु स लक्ष्ये न दृश्यते ; तस्मान्न कर्तव्यः । स झोम्बडो द्विविधः-तारजोऽतारजश्चेति । तत्र तारजं लक्षयति- तारज इति । तारस्थानोत्पन्नो ध्वनिस्तार इत्युच्यते ; तेन युक्तो झोम्बडस्तारजः । स चतुष्प्रकार: -उद्गाहध्रुवमेलापकाभोगेषु तारनिवेशनात् । अतारजं लक्षयति-अतारज इति । तारहीनः तारस्थानेन हीनोऽतारजः । एवं पञ्च भवन्ति । पुनस्तारजा द्विप्रकारा:-त्रिधातवश्चतुर्धातव इति । एवं सर्वे नवापि प्रभूतगमकस्तोकगमकभेदेन द्विधा । बहुगमकयुक्ताः प्रभूतगमकाः ; अल्पगमकयुक्ता स्तोकगमकाः । एवमष्टादश । एतेषां प्रायोगिकादिभेदेन पञ्चविधत्वं कथयति-प्रायोगिक इति । चतुभिर्गणैनिर्मितः प्रायोगिकः । पञ्चभिर्गणैनिर्मित: कम: । षड्भिर्गणैर्निर्मितः कमविलास: । सप्तभिर्गणैर्निर्मितश्चित्रः । अष्टभिर्गणैर्निर्मितो विचित्रलील इति । एवं नवतिर्भेदाः । मातृकादयो भेदा लक्ष्येष्वप्रसिद्धत्वान्नोक्ता इत्याह-मातृक इति । विनियोगवशादिति । एषां नवतिसंख्यानां पूर्वोक्तानां झोम्बडानां विनियोगवशात् प्रत्येकं त्रयोदश भेदाः। तानाह-उपमेति । उपमारूपकश्लेषालंकारैर्यदि निबध्यते, तदा ब्रह्मनामा झोम्बडः । वीरो रसः, विलासश्च स्त्रीणां चेष्टाविशेषश्च यदि निबध्यते, तदा विष्णुः । वीररसे चक्रेश्वरः । बीभत्सरसे चण्डिकेश्वरः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ संगीतरत्नाकरः लम्भप्रबन्धः उद्ग्राहो द्विः सकृद्वैकखण्डो द्विशकलोऽथवा । यत्र ध्रुवो द्विर्वाभोगो ध्रुवे मुक्तिः स लम्भकः ।।१६९॥ भागोऽस्मिञ्झोम्यडेऽप्यूचं ध्रुवादुद्ग्राहसंनिभः। ध्रुवाभोगधुवा गेयास्तत इत्यूचिरे परे ॥ १७० ।। उद्ग्राहस्तालशुन्यश्चेत् स स्यादालापलम्भकः। अद्भुतरसे नरसिंहः । भयानके भैरवः । हास्यशृङ्गारयोर्हसः । वीरभयानकयोः सिंहः । विप्रलम्भशृङ्गारे सारङ्गः। शृङ्गारे करुणे च रसे शेखरः । केवलशृङ्गारे पुष्पसारः। रौद्रे प्रचण्ड: । शान्ते नन्दीश इति । एवं त्रयोदशभिराहत्य च नवतौ गुणितायामेकादश शतानि सप्तत्यधिकानि (११७०) भवन्ति । एतेषां गद्यजत्वेन, पद्यजत्वेन, गद्यपद्यजत्वेनेति त्रैविध्ये दशोत्तराणि पश्चत्रिंशच्छतानि (३५१०) भवन्ति । तदेवाह-वियञ्चन्द्रशरामय इति । वियत् शून्यम् ; चन्द्र एकः ; शराः पञ्च ; अग्नयस्त्रयः । अङ्कानां वामतो गतिरिति वामवृद्धया एतेष्वङ्केषु क्रमेण स्थापितेश्यियं संख्या (३५१०) संजायते ॥ १५५-१६८ ॥ (क०) अथ लम्भकं लक्षयति-उद्ग्राहो द्विरित्यादि । एकखण्ड उदग्राहो द्विः सकृद्वा गीयते ; अथवा द्विशकल उद्ग्राहो द्विः सकृद्वा गीयत इति प्रत्येकं द्वैविध्यं योजनीयम् । यत्र यस्मिन् लम्भप्रबन्धे ध्रुवो द्विगेयो भवति । वाभोग इति । आभोगो वा ; कचिद्भवति, कचिन्न भवतीत्यर्थः । ध्रुषे मुक्तिरिति । ध्रुवखण्डमारभ्य न्यासः कर्तव्य इत्यर्थः । लम्भकझोम्बडयोमतान्तरेण लक्षणान्तरं दर्शयति-भागोऽस्मिन्नित्यादिना । अस्मिन् लम्भके झोम्बडेऽपि ध्रुवस्यो भागो द्वितीयो भाग इत्यर्थः । उदग्राहसंनिभः, उग्राहेण तुल्यधातुकः कर्तव्य इत्यर्थः । ततः ध्रुवानन्तरम् । ध्रुवाभोगध्रुवा गेया इति । ध्रुवं द्विवारं गीत्वानन्तरमाभोगं सकृद्गीत्वा पुनरपि ध्रुवमेकवारं गीत्वा ध्रुवमारभ्य न्यासः कर्तव्य इत्यर्थः । लम्भकभेदान् दर्शयति-उद्ग्राहस्ताल Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २६५ स प्रलम्भो ध्रुवस्थाने यत्रोद्ग्राहोऽन्यधातुकः ॥१७१॥ यत्र भागो भवेल्लम्भे भागलम्भः स भण्यते । त्रिश्चतुष्पश्चवारं वा भिन्नोद्ग्राहसमन्वितः ।। १७२ ॥ ध्रुवको गीयते यत्र स लम्भपदमुच्यते । ध्रुवभेदेऽनुलम्भोऽसौ द्विभेदे तूपलम्भकः ।। १७३ ।। एते त्रयोऽप्यनाभोगा विलम्भस्तु स उच्यते । उद्ग्राहा बहवो यस्मिन् ध्रुवाभोगविवर्जिताः ॥१७४॥ एते सालगसूडस्थैस्तालैराकलिता मताः । इति लम्भप्रबन्धः। शून्यश्चेदित्यादिना । उद्ग्राहस्य तालरहितत्वेन रागालापसाम्यादालापलम्भकसंज्ञान्वर्था द्रष्टव्या। स प्रलम्भ इति । यत्र यस्मिन् लम्भके ध्रुवस्थाने उद्ग्राहानन्तरमन्यधातुक उद्ग्राह इत्यनेन प्रथममुद्ग्राहो यैर्मातुभिः कृतस्तै रेव मातुभिरन्येन धातुना गीयते चेत् , स प्रलम्भो नाम भेदः । यत्र भागो भवेदिति । इतरलम्भापेक्षया तत्साम्येनोग्राहस्य प्रथमं भागं गीत्वा तद्वितीयभागे ध्रुवद्वितीयभागो गीयते चेत्, अन्वर्थतया भागलम्भो भण्यते । भिन्नोदग्राहसमन्वित इति । एक एव ध्रुवः प्रतिवारं भिन्ननोद्ग्राहेण सह गीयते चेत्, लम्भपदमिति तस्य नाम । ध्रुव भेद इति । एक एवोग्राहः प्रतिवारं भिन्नेन ध्रुवेण गीयते चेत्, अनुलम्भो नाम । द्विभेदे विति । प्रतिवारं भिन्नावुग्राहध्रुवौ गीयेते चेत् , उपलम्भो नाम । एते त्रयोऽपीति । लम्भपदानुलम्भोपलम्भाः । अनाभोगाः; न विद्यत आभोगो येषां ते तथोक्ताः । एतेन भेदान्तरेप्वाभोगः कर्तव्य इत्युक्तं भवति । तेनात्राभोगस्य वैकल्पिकत्वं विषयव्यवस्थया द्रष्टव्यम् । विलम्भस्त्विति । ध्रुवाभोगविवर्जिता उदग्राहा बहव इत्यनेन धातुभेदाभावो मातुभेदश्च गम्यते । तेनैकधातुका 34 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ संगीतरत्नाकरः भिन्नमातुका उद्ग्राहा एव बहवो गीयन्ते चेत् , विलम्भो नाम लम्भभेदः । अत्रैकस्मिन् भेदे ध्रुवस्याभावेऽपि भेदान्तरेषु सद्भावात्तस्य न नित्यत्वहानिः । एवं मतान्तरोक्तेन सहाष्टौ लम्भकाः । अयं प्रबन्धस्तालाद्यनियमादनियुक्तः । आभोगस्य विकल्पेन विषयेषु व्यवस्थितत्वात् यत्राभोगसद्भावः, तत्र त्रिधातुः ; यत्र त्याभोगाभावः, तत्र द्विधातुः । विलम्भलक्षणे ध्रुवाभोगविवर्जिता इत्यनेन धात्वन्तराभावश्रुतावपि प्रबन्धभेदगतत्वेनापि पाक्षिकमेकधातुत्वमापादयितुं न शक्यते ; यत उद्ग्राहा वहव इत्युक्तम् । तेन ध्रुवस्थान उग्राह एव तत्प्रतिनिधित्वेन प्रयुक्त इति नैकधातुत्वम् । यदा तुग्राह एवैकवारं द्विवारं वा प्रयुज्य त्यज्यते, तदैष दोषः प्रसज्येत, नान्यथेति । अयं पदतालबद्धत्वात् व्यङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ १६९-१७५ ॥ (सं०) लम्भकं लक्षयति-उदाह इति । यत्रोद्राहो द्विर्गीयते सकृद्वा, सर्व उद्गाह एकखण्डो द्विखण्डो वा क्रियते, ध्रुवः सकृत् द्विर्वा, आभोगोऽप्येवम् ; ध्रुवे च समाप्तिः, स लम्भकः। मतान्तरमाह-भाग इति । अस्मिन् लम्भके तत्पूर्वोक्ते झोम्बडे च ध्रुवादनन्तरमुद्ाहसदृशो भागः प्रबन्धावयवः कर्तव्यः । ततोऽनन्तरं ध्रुव आभोगः पुनर्बुवो वा गेय इति । एतस्य भेदान् कथयति-उद्वाह इति । पूर्वोक्तस्य लम्भकस्योद्गाहस्तालेन विना यदा निबध्यते, तदालापलम्भक इत्युच्यते । ध्रुवस्थाने यत्रान्यधातुको विसदृशो गेय उद्गाहो निबध्यते, तदा प्रलम्भः । मतान्तरेणोक्तो भागो यत्रोपनिबध्यते, स भागलम्भकः । यत्र भिन्नैरुद्ाहैः समन्वितो ध्रुवकस्त्रिवारं चतुर्वारं पञ्चवारं वा गीयते, तदा पदमित्युच्यते । उद्गाह भेदे ध्रुवभेदे वा अनुलम्भः । ध्रुवोद्गाहभेदे तूपलम्भः । एते त्रयः पदलम्भानुलम्भोपलम्भा आभोगशून्या: । यत्र ध्रुवाभोगौ न स्तः, उद्गाहा बहवो विद्यन्ते, स विलम्भः । एतेऽष्टौ लम्भका वक्ष्यमाणसालगसूडस्थैस्तालैराकलिता युक्ताः कर्तव्याः । इत्यष्टौ लम्भकाः ॥ १६९-१७५ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २६७ रासकप्रबन्धः यो झोम्बडगतं लक्ष्म गमकस्थानकैर्विना ।। १७५ ॥ भजते रासकः सोऽयं रासतालेन गीयते । गणैर्वर्णैश्च मात्राभिः केचिदेनं त्रिधा जगुः ।। १७६ ॥ स्याद्रासवलयो हंसतिलको रतिरङ्गकः। चतुर्थस्तत्र मदनावतारइछगणादिजाः ॥ १७ ॥ षडक्षरान्रितस्त्रिंशदक्षरावधिवर्णजाः। पञ्चविंशतिराख्याताश्चरणादष्टमात्रिकात् ॥ १७८ ।। षप्टिमात्रावधिप्रोक्तास्त्रिपञ्चाशत्त मात्रिकाः। लक्ष्ये प्रसिद्धिवैधुर्यात्तेष्वस्माकमनादरः ।। १७९ ॥ इति रासकप्रवन्धः। (क०) अथ रासकं लक्षयति—यो झोम्बडगतं लक्ष्मेत्यादिना । छगणादिजा इति । तत्र छगणजो रासवलयः । पगणजो हंसतिलकः; चगणजो रतिरङ्गका ; तगणजो मदनावतार इत्यादिशब्दग्राह्या गणा द्रष्टव्याः। एवं गणजाश्चत्वारः; वर्णजाः पञ्चविंशतिः; मात्रिकास्त्रिपञ्चाशदिति रासा द्वयशीतिर्भवन्ति । तालादिनियमादयं नियुक्तः । गमकस्थानकव्यतिरिक्तझोम्बडलक्षणातिदेशेन मेलापकाभावात् त्रिधातुः । पदतालबद्धत्वाव्यङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ १७५-१७९ ॥ (सं०) रासकं लक्षयति-य इति । यो गमकस्थानवर्जितं झोम्बडलक्ष्म भजते, रासतालेन गीयते, स रास इत्युच्यते । मतान्तरेणास्य भेदान निरूपयति --गणैरिति । गणैर्निबद्धो रासवलयः । वर्गनिबद्धो हंसतिलकः । मात्राभिनिबद्धो रतिरङ्गः । छगणेन पूर्वोक्तेनाधिकेन संयुक्तो मदनावतार इति । अन्यान् भेदानाह 1 छगणाधिक इति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ संगीतरत्नाकरः एकतालीप्रबन्धः द्विरुद्ग्राहो ध्रुवोऽपि द्विराभोगधुवको ततः। गीत्वान्यासो यत्र'सा स्यादेकताल्येकतालिका॥१८०॥ अस्यामालापमात्रेण केचिदुद्ग्राहमूचिरे । ___ इत्येकतालीप्रबन्धः। इति सूडप्रबन्धनिरूपणम्। -षडक्षरेति । षडक्षरचरणमारभ्य त्रिंशदक्षरचरणपर्यन्ता एकैकाक्षरवृद्धया पञ्चविंशती रासा भवन्ति । कश्चित् षडक्षरचरण: ; कश्चित् सप्ताक्षरचरण: ; कश्चिदष्टाक्षरचरण इत्यादि । तथा अष्टमात्राचरणादारभ्यैकैकमात्रावृद्धया षष्टि. मात्रपर्यन्तास्त्रिपञ्चाशन्मात्रिका मात्रागणभेदा रासा भवन्ति । एतेभ्योऽन्ये च लक्ष्येऽप्रसिद्धत्वान्नोक्ताः ॥ १७५-१७९ ॥ (क०) अथैकताली लक्षयति-द्विरुदग्राह इत्यादिना । तत आभोगध्रुवको गीत्वेत्यनेन तयोः सकृद्गानं गम्यते ; यतः पूर्वमेव ध्रुवोऽपि द्विरिति ध्रुवस्य द्विर्गानं विहितम् ; अत्र द्विरित्यनुक्तत्वाच्च । न्यास इति स्थानविशेषनिर्देशाभावेनोक्तावपि संनिहिते ध्रुवे न्यासः कर्तव्य इत्यवगम्यते । एकतालीति संज्ञा । एकतालिकेति । एकतालेन निवृत्तेत्यत्रार्थे ठकि विहिते रूपम् । आलापमात्रेणेति । आलापोऽत्र प्रयोगः । मात्रपदेन तस्य वाचकपदरहितत्वमुच्यते । केवलालापेनोद्ग्राहः कर्तव्य इति केषांचिन्मतम् । मतान्तरे तु वाचकपदैरेवोद्ग्राहः कर्तव्य इत्यर्थः । तालनियमान्नियुक्तोऽयम् । मेलापकाभावात् त्रिधातुः । पदतालबद्धत्वेन द्वयङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ १८०, १८१॥ (सं०) एकताली लक्षयति-द्विरिति । उद्गाहो ध्रुवश्च द्विर्गीयते; 1 अन्यत्र इति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः आलिप्रबन्धनिरूपणम् वर्णप्रबन्धः बिरुदैर्वर्णतालेन वर्णः कर्णाटभाषया ॥ १८१ ॥ तालत्रैविध्यतस्तस्य त्रैविध्यं गदितं बुधैः । इति वर्णप्रबन्धः। वर्णस्वरप्रबन्धः स्वरैः पाटैः पदैस्तेनै रचना वाञ्छितक्रमात् ॥ १८२ ।। आभोगध्रुवावर्थत: सकृद्गीत्वा, आभोगध्रुवाभ्यामन्यत्रोद्ाहे न्यासः समाप्तिः सा एकतालोपनिबढेकतालिका । अस्यामुगाह आलापमात्रेणेति केषांचिन्मतम् ॥ १८०, १८१॥ (क०) अथालिक्रमेषु प्रथमोद्दिष्टं वर्णप्रबन्धं लक्षयति-विरुदैरित्यादिना । तालत्रैविध्यत इति । तालस्य वर्णतालस्य त्र्यश्रमिश्रचतुरश्रत्वभेदेन वक्ष्यमाणत्वात् त्रैविध्यम् ; तस्मात् । अत्रोद्ग्राहादीनामनुक्तावप्युग्राहध्रुवयोः सकलपबन्धेषु नियतत्वात्तयोरावश्यकत्वेनात्र तौ बिरुदबद्धौ कर्तव्यौ । 'अनुक्ताभोगवस्तूनां पदैराभोगकल्पना' इति परत्र परिभाष्यमाणत्वादत्र पदैराभोगः कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुर्भवति । तालभाषानियमान्निर्युक्तः । विरुदपदतालबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ १८१, १८२ ॥ (सं०) सूडस्थान् प्रबन्धान् लक्षयित्वा आलिक्रमस्थान् लिलक्षयिषुः प्रथमनिर्दिष्टं वर्ण लक्षयति-बिरुदैरिति । वर्णतालेन कर्णाटभाषया विरुदैरुपनिबध्यमानो वर्ण इत्युच्यते । तालाध्याये वर्णतालस्य त्रैविध्यं लक्षयिष्यति । ततो वर्णप्रबन्धस्यापि त्रैविध्यं ज्ञेयम् ॥ १८१, १८२ ॥ (क०) अथ वर्णस्वरं लक्षयति-स्वरैः पाटैरित्यादिना । वाञ्छित Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० संगीतरत्नाकरः यस्य स्यात्तेनकैासः स वर्णवर उच्यते । स्वरादेरादिविन्यासभेदादेष चतुर्विधः ॥ १८३ ॥ इति वर्णस्वरप्रवन्धः। गद्यप्रबन्धः गद्यं निगद्यते छन्दोहीनं पदकदम्बकम् । तत् षोढोत्कलिका' चूर्ण ललितं वृत्तगन्धि च ॥१८४॥ खण्डं चित्रं च तेषां च प्रभवः सामवेदतः। गातव्योत्कलिका वीरे रक्ता रुद्राधिदेवता ॥ १८५ ।। क्रमाद्रचनेति । अत्र स्वरपाटपदतेनानां क्रम ऐच्छिक इत्यर्थः । स्वरादेरादिविन्यासभेदादिति । स्वरस्यादौ विन्यासादेको भेदः । पाटस्यादौ विन्यासात् द्वितीयः । पदस्यादौ विन्यासात्तृतीयः। तेनस्यादौ विन्यासाच्चतुर्थः । स्वरादिप्वेकैकस्मिन्नादौ विन्यस्ते तदन्येषां त्रयाणामनियमेन विन्यासो भवति । अत्र स्वरादिषु चतुर्पु द्वाभ्यामुद्ग्राहः कर्तव्यः । द्वाभ्यां ध्रुवः कर्तव्यः । आभोगस्तु पदैः कर्तव्यः । एवमयमपि त्रिधातुः। तालनियमान्निर्युक्तः । बिरुदाभावात् पञ्चाङ्गः। आनन्दिनीजातिमान् ॥ १८२, १८३ ॥ __ (सं०) वर्णस्वरं लक्षयति-स्वरैरिति । स्वरैः पाटैः पदैस्तैनैर्यस्य विरचनं स्वाभिलषितक्रमेण च न्यासः, स वर्णस्वर इत्युच्यते । स चतुर्विधःस्वराणामादावुपनिबन्धनेनैको भेदः । पाटानामादिविरचनेन द्वितीयः । पदानामादिविरचनेन तृतीयः । तेनकानामादिविरचनेन चतुर्थ इति ॥१८२, १८३॥ (क०) अथ गद्यं लक्षयति-गद्यं निगद्यत इत्यादिना । 1षोढा कलिकेति कलानिधिपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः गौडीयरीतिरुचिरा' वृत्तिमारभटीं श्रिता । चूर्ण शान्ते रसे पीतं गातत्र्यं ब्रह्मदैवतम् ॥ ९८६ ॥ वैदर्भरीतिसंपन्नं सात्त्वतीं वृत्तिमाश्रितम् । सितं मदनदैवत्यं शृङ्गाररसरञ्जितम् || १८७ ॥ ललितं कैशिकीं वृत्तिं पाञ्चालीं रीतिमाश्रितम् । वृत्तगन्धि रसे शान्ते पीतं च मुनिदैवतम् ॥ १८८ ॥ पाञ्चालरीतौ भारत्यां पद्यभागविमिश्रितम् । खण्डं गणेशदैवत्यं सात्त्वतीं वृत्तिमाश्रितम् ॥ १८९ ।। श्वेतं हास्यकृदारब्धं वैदर्भीभङ्गिसंभवम् । शृङ्गारे वैष्णवं चित्रं चित्रकैशिकवृत्तिजम् ॥ १९० ॥ वैदर्भ्या रचितं रीत्या नानारीतिविचित्रया । वेणी मिश्रमिति प्राहुरन्ये भेदद्वयं परम् ।। १९१ ॥ वेणी सर्वैः कृता मिश्रं चूर्णकैर्वृत्तगन्धिभिः । द्रुता विलम्बिता मध्या द्रुतमध्या तथा परा ॥। १९२ ॥ गतिद्रुतविलम्बा स्यात् षष्ठी मध्यविलम्बिता । इति गद्यस्य षट् प्रोक्ता गतयः पूर्वसूरिभिः ॥ ९९३ ॥ २७१ 1 चित्रकैशिकवृत्तिजमिति । कैशिकी चासौ वृत्तिश्चेत्यत्र “ स्त्रियाः पुंवत्" इति सूत्रेण पुंवद्भावे कैशिकवृत्तिरिति कर्मधारयः । चित्रा चासौ कैशिकवृत्तिश्चेत्यत्रापि पूर्ववत् समासपुंवद्भावो । कैशिकवृत्तेचित्रत्वं भारत्यादिभिर्वृत्त्यन्तरैः सह सांकर्येणेति वेदितव्यम् । तस्या जातमिति तथोक्तम् । वेणी सर्वैः कृतेति । सर्वैः कलिकादिभिः षड्भिर्भेदैः कृता वेणी । वृत्तगन्धिभिश्चूर्णकैः कृतं 1 उचितामिति सुधाकरपाठः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: लघुभिर्बहुलैरल्पैः समैराद्यत्रयं क्रमात् । पृथग्गत्वे मिस्तु लगैस्तद्वत् परं त्रयम् ॥ १९४ ॥ प्रत्येकं गतिषट्केन षट्त्रिंशद्वद्यजा भिदाः । प्रणवाद्यमतालं च गमकैरखिलैर्युतम् ॥ १९५ ॥ वर्णैश्चातालशब्दानां स्वरैरन्तेऽन्तरान्तरा । २७२ मिश्रम् | द्रुतादि गतिषट्कं लक्षयति - लघुभिरित्यादि । बहुलैर्ल बुभिर्द्धता; स्वल्पैर्लबुभिर्विलम्विता; समैर्ल बुभिर्मध्येति क्रमः । अत्र लघोः प्रतियोगित्वेन गुरुर्द्रष्टव्यः। तस्याल्पत्वबहुत्वसमत्वानि द्रुतादिगतिषु क्रमेण कर्तव्यानीत्यर्थः । पृथग्लगत्व इत्यादि । अत्र लघूनां गुरूणां च पृथग्भूतानां भावः पृथग्लात्वम् ; तस्मिन् सति । तद्वत् पूर्ववत्; अपृथग्भूतत्व इवेत्यर्थः । एवं मित्रैर्लंगैस्तु परं त्रयं द्रुतमध्यादिकं गतित्रयं भवति । अयमर्थः - प्रथमार्धे लघूनेव प्रयुज्य द्वितीयार्थे पूर्ववत् समत्वेन मिश्रिता लगाः प्रयुज्यन्ते चेत्, तदा द्रुतमध्या गतिर्भवति । प्रथमार्धे लघूनेव प्रयुज्य द्वितीयार्थे गुरवः प्रयुज्यन्ते चेत्, तदा द्रुतविलम्बिता गतिर्भवति । प्रथमार्धे पूर्ववत् समत्वेन मिश्रान् प्रयुज्य द्वितीयार्थे गुरव एव प्रयुज्यन्ते चेत्, तदा मध्यविलम्बिता गतिर्भवतीति । एवं कलिकादयः षड् भेदाः प्रत्येकं गतिभेदेन षड्विधाः सन्तः पट्त्रिंशद्दद्यानि भवन्तीत्याहप्रत्येकमित्यादि । सकलभेदानुगतं सामान्यलक्षणमाह – प्रणवाद्यमित्यादि । प्रणव ओंकारः । अतालं तालरहितम् । अखिलैर्गमकैः; तिरिपादिभिः पञ्चदशभिः । वर्णैश्चेत्यत्राप्यखिलैरिति विशेषणीयम् । अत्र वर्णशब्देन स्थायादयश्चत्वारो वर्णा उच्यन्ते । तैः युतमिति चकारार्थः । अतालशब्दानामन्तेऽन्तरान्तरा स्वरैर्युतमित्यन्वयः । अतालशब्दानां तालरहितानां वाचकपदानामन्तेsaसाने समाप्तावित्यर्थः । अन्तरान्तरा; मध्ये मध्ये, पदावसानेष्वित्यर्थः । अत्र स्वरैः सरिगादिभिर्युतं यथा, तथा गातव्यमित्यर्थः । ततोऽनन्तरं प्रबन्ध 1 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः २७३ 'प्रबन्धाङ्कं सतालं च पदद्वंद्वं पृथक् ततः ॥ १९६ ॥ द्विर्गीत्वा गीयते यत्र प्रयोगोऽपि विलम्बितः । गातृनाम सतालं च सतालं वर्ण्यनाम च ॥ १९७ ॥ विलम्बितेन मानेन पुनरप्यविलम्बितम् । गीत्वा विलम्बितालेन न्यासो गद्यं तदिष्यते ॥ १९८ ॥ इति गद्यप्रबन्धः । नामाङ्कितं सतालं येन केनापि तालेन सहितं पदद्वंद्वम् अवान्तराने कपदसमुदायात्मकमेकैकविभक्त्यन्तमेकैकक्रियया समन्वितं वा शब्दरूपद्वितयम् । पृथक् द्विर्गीत्वेत्यनेन प्रथमपदं द्विवारं गीत्वा द्वितीयपदमपि द्विवारं गायेदित्यर्थः । प्रबन्धाङ्कमित्यस्य पदद्वंद्वमितिसमुदायविशेषणत्वेन द्वयोः पदयोरेकतरस्मिन् प्रबन्धस्य नामाङ्कयेदित्यर्थः । सतालमित्यस्यापि तथात्वेन द्वयोरेक एव ताल: कर्तव्य इत्यर्थः । यत्रेति; यस्मिन् गद्ये । प्रयोगोऽपि विलम्वितो गीयत इति । अत्रापिशब्दः समुच्चये । तेन प्रयोगस्यापि पदद्वयस्य तालप्रयुक्तत्वं द्योत्यते । अत एव विलम्बित इति लयनियम उक्तः । अनेन पदद्वयस्यापि विलम्बितत्वं सूचितं भवति । गातृनाम सतालं चेति । प्रयोगानन्तरं गातृनाम; वाग्गेयकारः स्वनाम निबध्नीयादित्यर्थः । पुनः सतालमिति विशेषणेन प्रयोगकृतात्तालादन्यस्तालः कर्तव्य इत्यर्थः । अथवा पूर्व एव तालो लयान्तरेण प्रयोक्तव्य इत्यवगन्तव्यम् । पुनरप्यविलम्बितं गीत्वेति । अविलम्बितं द्रुतं यथा भवति तथा । अत्र विलम्बितान्यत्वेन मध्यस्य च ग्राह्यत्वेऽप्यविलम्बितपदेन हठाद् द्रुतप्रतीतेः स एव गृह्यते । पुनर्गीत्वेत्यत्र गेयविशेषानुक्तेः पूर्वोक्तक्रमेण सकल एव प्रबन्धः पुनर्गेय इति गम्यते । विलम्वितालेन न्यास इति । विलम्बितालस्य प्रथमं पदद्वये प्रयुक्तत्वात्तत्र पदद्वयादौ तालेनेति तृतीयया तालापवर्गे न्यासः कर्तव्य इति गम्यते । प्रथमपदस्यादिमारभ्य विलम्बितलयान्वितं 1 प्रबन्धकमिति सुधाकरपाठः 35 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ संगीतरत्नाकरः तालमेकवारं प्रयुज्य न्यासं कुर्यादित्यर्थः । अत्र गद्यप्रबन्धे तालरहितो भाग उग्राहत्वेन ग्राह्यः । पदद्वयात्मकः सतालः पृथग्द्विरावृत्तो भागो ध्रुवत्वेन ग्राह्यः । प्रयोगादिः सतालश्चरमो भाग आभोगत्वेन ग्राह्य इत्यनुक्तोऽप्युग्राहादिविभागश्चैवमूहनीयः । अतोऽयं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनियुक्तः । पदस्वरतालबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ १८४-१९८ ॥ (सं०) गद्यं लक्षयति-गद्यमिति । छन्दोहीनपदकम्बकं गद्यमित्युच्यते । तत् षट्प्रकारम्-उत्कलिका, चूर्णकम् , ललितम् , वृत्तगन्धि, खण्डम् , चित्रं चेति । तेषां सामवेदादुत्पत्तिः । एतेषां लक्षणमाह-गातव्येति । उत्कलिका वीररसे गेया । रक्ता रक्तवर्णा | रुद्रदेवत्या : वर्णदेवताकथनमुपास्यत्वेन प्राशस्त्यार्थम् । गौडीया रीतिर्यस्यां सा गौडीयरीतिः। उचितां वीररसोचितामारभटी वृत्तिमाश्रिता । चूर्ण लक्षयति-चूर्णमिति । शान्ते रसे चूर्ण गातव्यम् । तत्र पीतो वर्णः, ब्रह्मा देवता, वैदर्भी रीतिः, सात्त्वती वृत्तिः । ललिताख्ये गये सितो वर्णः, मदनो देवता, शृङ्गारो रसः, कैशिकी वृत्तिः, पाञ्चाली रीतिः । वृत्तगन्धिनि गद्ये शान्तो रसः, पीतो वर्णः, मुनिर्देवता, पाञ्चाली रीतिः, भारती वृत्तिः, परंतु तत् पद्यभागेन विमिश्रितं कर्तव्यम् । खण्डे गद्ये गणेशो देवता, सात्वती वृत्तिः, श्वेतो वर्णः, हास्यो रसः, सात्त्वतीसहिता वैदर्भी रीतिः । चित्रे गये शृङ्गारो रसः, विष्णुदेवता, कैशिकी वृत्तिः, वैदर्भी रीति: । मतान्तरेण भेदद्वयमाह-वेणीति । तदेव भेदद्वयं लक्षयतिवेणी सर्वैरिति । सर्वैः पूर्वोक्तैः षड्भिर्गद्यैर्विरचिता वेणीत्युच्यते । चूर्णैर्वृत्तगन्धिभिमिश्रितैविरचितं मिश्रमित्युच्यते । क्रमेण गद्यषट्के गतिमाह-द्रुतेति । उत्कलिकायां द्रुता गतिः, चूर्णे विलम्बिता गतिः, ललिते मध्या गतिः, वृत्तगन्धिनि द्रुतमध्या गतिः, खण्डे द्रुतविलम्बिता गतिः, चित्रे मध्यविलम्बिता गतिरिति । बहुभिरिति । बहुभिर्लघुभिरुत्कलिका कर्तव्या । अल्पैर्लघुभिश्चूर्णकम् | समैलघुभिर्ललितम् । पृथकस्थितैर्लघुभिर्वृत्तगन्धि । पृथक्स्थितैर्गुरुभिः खण्डम् । मिश्रितैश्चित्रमिति । एतेषामुक्तषड्डिधगतियुक्तत्वेन षड्डिधत्वे षट्त्रिंशत् (३६) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः कैवाडप्रबन्धः पाटैः स्यातां ध्रुवोद्ग्राही कैवाडे न्यसनं ग्रहे । सार्थकैरर्थहीनैश्च पादैः स द्विविधो मतः ॥ १९९ ॥ स शुद्धैमिश्रितैः पाटैः शुद्धो मिश्र इति द्विधा। ___इति कैवाडप्रवन्धः। भेदाः । तेषां गानप्रकारमाह-प्रणवाद्यमिति । प्रबन्धकं पूर्व गायेत् ; उद्गाहरूपमित्यर्थः । तस्य विशेषणानि प्रणवाद्यमित्यादीनि । प्रणव ओंकार आदौ यस्य । अतालं तालवर्जितम् । सर्वैरपि गमकैर्युक्तम् । अतालशब्दानां वर्णः पादाक्षरैर्युक्तम् । अन्ते मध्ये च स्वरैयुक्तम् । एवंविधं प्रबन्धकं ततः सतालं पदद्वयं पृथग्द्विर्गीत्वा विलम्बितः प्रयोगो गमकसंदर्भो गीयते । ततोऽनन्तरं सतालं गातुर्वाग्गेयकारस्य वर्ण्यस्य नायकस्य च नाम । तच्च विलम्बितमानेन | ततोऽनन्तरं तदेव गीत्वा गातृनायकयो माविलम्बितं गीत्वा पुनरपि विलम्बितेन समाप्तिर्यत्र तद्गद्यमित्युच्यते ॥ १८४-१९८ ॥ (क०) अथ कैवाडं लक्षयति—पाटैः स्यातामिति । ध्रुवोद्गाहावित्यत्र पाठक्रमो न विवक्षितः । किंतु “अग्निहोत्रं जुहोति, यवागू पचति" इतिवदर्थक्रमोऽनुसंधेयः । यथा तत्र यवागूपाकात् पूर्व द्रव्याभावाद्धोमस्यासंभवस्तथेहाप्युद्ग्राहात् पूर्व गीतारम्भाभावात् ध्रुवस्यासंभव एव । वृत्तानुरोधेन तत्रैव पाटाः कृता इति मन्तव्यम् । न्यसनं ग्रह इति । गृह्यत इति ग्रहः ; ग्रहशब्देनात्रोद्ग्राह उच्यते ; तत्र न्यासः कर्तव्यः । कैवाड इति करपाटप्रधानत्वात्तद्भवापभ्रंशपदेनेयं संज्ञा । करपाटास्तु वाद्याध्याये वक्ष्यन्ते । स शुद्धैमिश्रितैः पाटैरित्यत्र पाटानां शुद्धत्वं मुखवाद्याक्षरामिश्रितत्वम् । मिश्रितत्वं तु मिश्रत्वम् । तत्सहितत्वमित्यर्थः । एवं सार्थकः शुद्धकैवाड एकः, अर्थहीनः शुद्धकैवाडो द्वितीयः, सार्थकमिश्रकैवाडस्तृतीयः, अर्थहीनमिश्रकैवाडश्चतुर्थ इति चतुर्धा भवति । अत्र Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: अङ्कचारिणीप्रबन्धः 'वीररौद्राश्रितैर्बद्धा बिरुदैरङ्कचारिणी ॥ २०० ॥ वनामाङ्किताभोगा तालेनेष्टेन गीयते । वासवी कलिका वृत्ता ततो वीरवती भवेत् ॥ २०१ ॥ २७६ नेतृगातृप्रबन्धनामाङ्कितैः पदैराभोगो गातव्यः । तेनायं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनिर्युक्तः । पाटपदतालबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ १९९, २०० ॥ (सं०) कैवाडं लक्षयति—पाटैरिति । पाटाक्षरैर्ध्रुवोद्राहौ कर्तव्यौ । हे उद्गाहे समाप्तिर्यस्य स कैवाडः । स च द्विविध:- सार्थकैः पाटैरेक: ; अनर्थकैर्द्वितीय इति । पुनरपि द्वितीयः शुद्धो मिश्र इति द्विविधः । केवलैः पाटैर्विरचितः शुद्धः । षट्स्वरादिभिर्मिश्रितैः पाटैर्मिश्र इति ॥ १९९, २०० ॥ (क०) अथाङ्कचारिणीं लक्षयति - वीर रौद्रेति । केवलं बिस्दैरित्युक्ते शृङ्गाराद्याश्रितान्यपि बिरुदानि प्रसज्यन्ते । तद्वयवच्छेदाय वीररौद्राश्रितैरिति विशेषणम् । अत्र वीरशब्देन दानवीरो दयावीरो युद्धवीर इति त्रिविधोऽपि वीरो गृह्यते । तेन त्रिविधवीराश्रितानि विस्दानि ग्राह्याणि । एवंविधैर्विरुदैरुद्ग्राहभ्रुवौ बध्नीयादित्यर्थः । वर्ण्यनामाङ्किताभोगेति । अत्र वर्ण्यनामेति गातृप्रबन्धनाम्नोरप्युपलक्षणम् । तेनाभोगो वर्ण्यादित्रितयनामाङ्कितैः पदैः कर्तव्यः । तद्भेदानाह – वासवीत्यादि । यत्रैकेन तालेनाष्टौ बिरुदानि गीयन्ते, सा वासवी । यत्र द्वाभ्यां तालाभ्यां पोडश बिरुदानि गीयन्ते सा कलिका | यत्र त्रिभिस्तालैर्द्वात्रिंशद्विस्दानि गीयन्ते सा वृत्ता । यत्र चतुर्भिस्तालैर्द्वयधिकपञ्चाशद्विरुदानि गीयन्ते, सा वीरवती । यत्र पञ्चभिस्तालैश्चतुर्युक्तं शतं " 1 वीररौद्राश्रयैरिति सुधाकरपाठः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः वेदोत्तरा जातिमती षट्प्रकारेति सा मता। एकद्वित्रिचतुष्पश्च तालाः स्युबिरुदानि तु ॥ २०२ ।। अष्टौ षोडश तद्वच द्वात्रिंशद् द्वयधिका क्रमात् । पञ्चाशच चतुर्युक्तं शतमाद्यासु पञ्चसु ॥ २०३ ॥ नियमो जातिमत्यां तु न तालविरुदाश्रयः। ___ इत्यङ्कचारिणीप्रबन्धः। कन्दप्रबन्धः कर्णाटादिपदैः पाटबिरुदैस्तालवर्जितः ।। २०४ ॥ बिस्दानि गीयन्ते, सा वेदोत्तरा । एवमाद्यासु पञ्चसु योजनीयम् । जातिमत्यां तु तालविरुदाश्रयो नियमो नेति । तालबिरुदाश्रयो नियमो नास्तीत्यर्थः । तेनाद्यासु पञ्चस्वपि तालादिसंख्यानियम एव; न तालादिस्वरूपनियमः । अतोऽयमनियुक्तः । मेलापकाभावात् त्रिधातुः । विरुदपदतालबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २००-२०४ ।। (सं०) अङ्कचारिणी लक्षयति-वीररौद्राश्रयैरिति । वीरौद्राश्रयैः बिरुदैर्येन केनचित्तालेन निबद्धा अङ्कचारिणी। वर्ण्यस्य नायकस्य नाम्नाङ्कित आभोगो यस्याः, तथाविधा कर्तव्या । सा च षट्प्रकारा-वासवी, कलिका, वृत्ता, वीरवती, वेदोत्तरा, जातिमतीति । एतासां लक्षणमाह-एकेति | आद्यासु पञ्चस्वेकादितालनियमः। अष्टादिबिरुदनियमः । अत एकस्ताल:, अष्टौ बिरुदानि यस्यां सा वासवी। द्वौ तालौ, षोडश बिरुदानि यस्यां सा कलिका। त्रयस्तालाः, द्वात्रिंशद्विरुदानि यस्यां सा वृत्ता। चत्वारस्ताला:, द्विपञ्चाशद्विरुदानि यस्यां सा वीरवती । पञ्च तालाः, चतुरधिकं शतं बिरुदानि यस्यां सा वेदोत्तरेति । अन्त्या जातिमती तालबिरुदानामाश्रयो न भवति ॥२००-२०४॥ (क०) अथ कन्दं लक्षयति-कर्णाटादीत्यादि । कर्णाटादिपदै Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ संगीतरत्नाकरः आर्यागीतौ रसे वीरे कन्दः स्यात् पाटमुक्तिकः। पवनो रविसंज्ञश्च धनदो हव्यवाहनः ॥ २०५॥ सुरनाथः समुद्रश्च वरुणः शशिशैलको । मधुमाधवनामानौ ततोऽपि मकरध्वजः ॥ २०६ ॥ जयन्तो मधुपश्चाथ शुकसारसकेकिनः। हरिश्च हरिणो हस्ती कादम्बः कूर्मको नयः ॥ २०७॥ रित्यनेन देशभाषापदान्येव गृह्यन्ते ; न संस्कृतपदानि । आर्यागीताविति । आर्यागीतेहि लक्षणं छन्दोविचितौ-"प्रथमार्धसमा गीतिः" इति। अस्यार्थः-- द्वितीयमधं प्रथमाधैन समं यस्याः सा आर्यागीतिरिति । उदाहरणं च "मधुरं वीणारणितं पञ्चमसुभगश्च कोकिलालापः । गीतिः पौरवधूनां मधुरा कुसुमायुधं विबोधयति ॥" इति । वृत्तरत्नाकरेऽपि "आर्याप्रथमदलोक्तं यदि कथमपि लक्षणं भवेदुभयोः । दलयोः कृतयतिशोभां तां गीतिं गीतवान् भुजङ्गेशः ॥" इत्येतल्लक्षणमुदाहरणं च । आर्यायां तावत् प्रथमाधै त्रिंशन्मात्राः । द्वितीयाधै सप्तविंशतिर्मात्राः । आर्यागीतौ तु द्वितीयाधेऽपि त्रिंशन्मात्रा भवन्तीत्यर्थः । एवंविधायामार्यागीतौ प्रथमार्धमुग्राहं कृत्वा पदैर्गायेत् । द्वितीयाधं ध्रुवं कृत्वा पाटैविरुदैश्च गायेदित्यर्थः । पाटमुक्तिक इति । ध्रुवाख्यस्य द्वितीयार्धस्यादौ पाटानुपक्रम्य न्यासं कुर्यादित्यर्थः । तालवर्जित इति । तालस्वरूपेण शून्यो गेय इत्यर्थः । न तालनियमशून्य इति विवक्षितः । आभोगमपि सामान्यन्यायेन पदैः कल्पयेत् । कन्दस्य सामान्यलक्षणमुक्त्वा तद्भेदान् दर्शयति-पवन इत्यादिना । तेषां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः विनयो विक्रमोत्साही धर्मार्थो काम इत्यमी । एकोनत्रिंशदाख्याताः कन्दभेदाः पुरातनैः ॥ २०८ ॥ 'त्रिंशाद् गुरोरा द्विगुरोः क्रमादेकैकभङ्गतः । . इति कन्दप्रवन्धः। लक्षणानि संक्षिप्याह-त्रिंशाद् गुरोरा द्विगुरोः क्रमादेकैकभङ्गत इति । तमडागमस्य विकल्पितत्वात् यदा तमडभावस्तदा टिलोपे सति त्रिंश इति रूपम् । त्रिंशादिति ल्यव्लोपे पञ्चमी । त्रिंशमारभ्येत्यर्थः । आ द्विगुरोरिति । द्वितीयो गुरुर्द्विगुरुः, तत्पर्यन्तमित्यर्थः । एकैकभङ्गत इति । एकमेकं गुरुं द्वौ द्वौ लघु कृत्वेत्यर्थः । क्रमादिति । त्रिंशद्गुर्वात्मिकायामार्यागीतौ त्रिंशस्य गुरोभङ्गात् पवनो नाम कन्दभेदः । एकोनत्रिंशस्य भङ्गात् रविसंज्ञकः । अष्टाविंशस्य भङ्गात् धनदः । सप्तविंशस्य भङ्गात् हव्यवाहनः । षड्रिंशस्य भङ्गात् सुरनाथः । पञ्चविंशस्य भङ्गात् समुद्रः । चतुर्विशस्य भङ्गाद्वरुण: । त्रयोविंशस्य भङ्गात् शशी। द्वाविंशस्य भङ्गात् शैलकः । एकविंशस्य भङ्गात् मधुः । विंशस्य भङ्गात् माधवः । एकोनविंशस्य भङ्गात् मकरध्वजः । अष्टादशस्य भङ्गात् जयन्तः । सप्तदशस्य भङ्गात् मधुपः । षोडशस्य भङ्गात् शुकः । पञ्चदशस्य भङ्गात् सारसः । चतुर्दशस्य भङ्गात् केकी। त्रयोदशस्य भङ्गात् हरिः। द्वादशस्य भङ्गात् हरिणः । एकादशस्य भङ्गात् हस्ती। दशमस्य भङ्गात् कादम्बः । नवमस्य भङ्गात् कूर्मकः । अष्टमस्य भङ्गात् नयः । सप्तमस्य भङ्गात् विनयः । षष्ठस्य भङ्गात् विक्रमः । पञ्चमस्य भङ्गादुत्साहः । चतुर्थस्य भङ्गात् धर्मः । तृतीयस्य भङ्गादर्थः । द्वितीयस्य भङ्गात् काम इति । एवमेकोनत्रिंशत् कन्दभेदा आख्याताः । एकैकभङ्गत इत्यनेनैकस्यैव गुरोर्भङ्गेन लघुद्वयरूपता । इतरेषां गुरुरूपतैव । आ द्विगुरोरित्यनेनाद्यगुरोभङ्गो न कर्तव्य 1 त्रिंशद्रोरिति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० संगीतरत्नाकरः हयलीलाप्रबन्धः हयलीलेन तालेन हयलीला द्विधा च सा ॥ २०९ ॥ इत्यर्थः । छन्दोनिबद्धत्वादयं नियुक्तः । मेलापकाभावात् त्रिधातुः । पदपाटबिरुदबद्धत्वात् व्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २०४-२०९॥ . (सं०) कन्दं लक्षयति-कर्णाटादिपदैरिति । कर्णाटादिभाषापदैः पाटवाद्याक्षरैविरुदैश्च, तालवर्जितोऽताल:, आर्यागीतावार्यागीतिसंज्ञके छन्दसि, वीररसे यो विरच्यते, स कन्द इत्युच्यते । तस्य पाटैः समाप्ति: । आर्यागीतिलक्षणमुक्तं वृत्तरत्नाकरे "आर्याप्रथमदलोक्तं यदि कथमपि लक्षणं भवेदुभयोः । दलयोः कृतयतिशोभां तां गीतिं गीतवान् भुजङ्गेशः ॥" इति । तस्य कन्दस्य भेदानाह-पवन इति । पवनादिकामपर्यन्ता एकोनत्रिंशद्भेदा भवन्ति । तेषां लक्षणमाह-त्रिंशद्गुरोरिति । त्रिंशद्गुरुमारभ्यैकैकन्यूनतया द्विगुरुपर्यन्ता: पवनादयो ज्ञातव्याः । त्रिंशद्गुरुः पवनः । एकोनत्रिंशद्गुरुः रविः । अष्टाविंशतिगुरुर्धनदः । सप्तविंशतिगुरुर्हव्यवाहनः । षड्विंशतिगुरुः सुरनाथः । पञ्चविंशतिगुरुः समुद्रः । चतुर्विंशतिगुरुवरुणः । त्रयोविंशतिगुरुः शशी। द्वाविंशतिगुरुः शैल: । एकविंशतिगुरुमधु: । विंशतिगुरुधिवः । एकोनविंशतिगुरुर्मकरध्वजः । अष्टादशगुरुर्जयन्तः । सप्तदशगुरुमधुप: । षोडशगुरुः शुकः । पञ्चदशगुरुः सारसः । चतुर्दशगुरुः केकी । त्रयोदशगुरुर्हरिः । द्वादशगुरुर्हरिणः । एकादशगुरुर्हस्ती । दशगुरुः कादम्बः । नवगुरु: कूर्मः | अष्टगुरुनयः । सप्तगुरुविनयः । षड्गुरुविक्रमः । पञ्चगुरुरुत्साहः । चतुर्गुरुर्धर्मः । त्रिगुरुरर्थः । द्विगुरुः काम इति ॥ २०४-२०९ ॥ (क०) अथ तुरगलीलां लक्षयति-हयलीलेन तालेनेत्यादि । 'विरामान्तद्रुतत्रयात्, द्रुतौ तुरगलीलः स्यात्' इति हयलीलतालस्य लक्षणं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः गद्यजा पद्यजा चेति पद्यजा तु चतुर्विधा। पूर्वार्धमुत्तरार्धं वा द्वे वा तालयुतं यदि ॥ २१० ॥ आर्यायाः स्युस्तदा तिस्रश्चतुर्थी त्वादिमे दले । स्वरैः पदैस्तु बिरुदैः सताले रचिता मता ॥ २११ ।। केचित्तु हयलीलेन छन्दसा तां विदुर्बुधाः । इति हयलीलाप्रबन्धः। वक्ष्यते ; तदिहानुसंधेयम् । पद्यजेति । पद्यं पादबद्धं पदकदम्बकम् । यथोक्तम्‘पद्यं चतुष्पदे तच्च ' इति । गद्यं त्वपादबद्धम् । पूर्वार्धमित्यादि । आर्याया इति। "लक्ष्मैतत् सप्त गणा गोपेता भवति नेह विषमे जः । षष्ठोऽयं नलघू वा प्रथमाधैं नियतमार्यायाः ॥” । इत्येवमादि लक्षणमुक्तम् । एवंविधलक्षणरूपाया आर्यायाः पूर्वार्ध तालयुक्तं चेत्, एका हयलीला । उत्तरार्ध वा तालयुक्तं चेत् , द्वितीया। द्वयोरेकस्मिंस्तालयुतेऽन्यत् तालहीनमित्यर्थः । द्वे वा पूर्वोत्तरार्धे वा यदि तालयुते, तदा तृतीया । चतुर्थी त्विति । आदिमे दले प्रथमाधै सतालैः स्वरैः पदैविरुदैश्च रचिता चतुर्थी हयलीला मता। अत्र तुशब्देनाद्यानां तिसृणां केवलपदरचितत्वं द्योत्यते। एवं पद्यजाश्चतस्रः । केचित्त्वित्यादि । हयलीलेन छन्दसेति । तस्य लक्षणं तु विकृतौ छन्दसि-"अश्वललितं जौ भजौ भजौ भूलो ग्रुद्रादित्याः" । इति । अस्यार्थः-यस्य पादे नकारजकारौ भकारजकारौ पुनर्भकारजकारौ भकारलकारौ गकारश्च भवति तत् वृत्तमश्वललितं नामेति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ संगीतरत्नाकरः अश्वललितमेव हयलीलम् । एकादशभिर्द्वादशभिश्च यतिः । तत्रोदाहरणम् "पवनविधूतवीचिचपलं विलोकयति जीवितं तनुभृतां वपुरपि हीयमानमनिशं जरावनितया वशीकृतमिदम् । सपदि निपीडनव्यतिकरं यमादिव नराधिपान्नरपशुः परवनितामवेक्ष्य कुरुते तथापि हतबुद्धिरश्वललितम् ॥" इति । एवंविधं हयलीलं छन्द आर्यास्थाने प्रयुज्य पूर्वार्धमुत्तरार्ध वेत्यादिषु भेदेषु पूर्ववत् कृतेषु मतान्तरेणापि चतस्रः पद्यजाः । गद्यजया सहैवं नव हयलीला भवन्ति । नवानामपि तालस्तु हयलील एव । अत्रार्याया हयलीलच्छन्दसो वा पूर्वार्धे गद्यस्य पूर्वभागो वोद्ग्राहः कल्पनीयः । तदुत्तरार्धं तदुत्तरभागो वा ध्रुवः कल्पनीयः । अत्राभोगस्यानुक्तत्वाद्गातृनेतृप्रबन्धनामाङ्कितैः पदैराभोगः कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । छन्दस्तालनियमान्नियुक्तः । कचित् स्वरपदविरुदतालबद्धत्वाच्चतुरङ्गः । दीपनीजातिमान् । कचित् पदतालबद्धत्वात् द्वयङ्गः। तारावलीजातिमान् ।। २०९-२१२ ॥ (सं०) तुरगलीलां लक्षयति-ह्यलीलेनेति । वक्ष्यमाणेन हयलीलेन तालेन या विरच्यते, सा ह्यलीलेति । सा द्विधा-पद्यजा गद्यजेति । तत्र पद्यजा चतुर्भेदा । तानेव भेदान् कथयति-पूर्वार्धमिति । पूर्वार्धमेव तालसंयुक्तं चेदेको भेदः। उत्तरार्धमेव तालसंयुक्तं चेदेको भेदः। द्वे पूर्वार्धोत्तरार्धे तालसंयुक्ते चेदेको भेदः । भेदत्रयेऽप्यात्रियेण भवितव्यम् | चतुर्थभेदं लक्षयति-चतुर्थी त्विति । चतुर्थी तुरगलीला आदिमेऽर्धे स्वरैर्विरच्यते ; परेऽर्धे बिरुदैः समानैविरच्यते ; अर्धद्वयमपि सताले: ; एवं चत्वारो भेदाः । मतान्तरमाहकेचिदिति । तां पूर्वजां तुरगलीलां हयलीलेन छन्दसा केचिद्वदन्ति । एवं पद्यजाष्टविधा, गद्यजैकेति नव भेदाः ॥ २०९-२१२॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २८३ गजलीलाप्रबन्धः तालेन गजलीलेन गजलीला निगद्यते ॥ २१२ ॥ छन्दोहीनेतरल्लक्ष्म यलीलागतं मतम् । इति गजलीलाप्रबन्धः। द्विपदीप्रबन्धः शुद्धा खण्डा च मात्रादिः संपूर्णेति चतुर्विधा ॥२१३॥ द्विपदी करुणाख्येन तालेन परिगीयते। पादे छः पञ्च भा गोऽन्ते जो स्तः षष्ठद्वितीयको ।।२१४॥ (क०) अथ गजलीलां लक्षयति-तालेन गजलीलेनेत्यादिना । 'गजलीले विरामान्तमुक्तं लघुचतुष्टयम् । इति वक्ष्यमाणलक्षणेन तालेन निबद्धा गेयेत्यर्थः । छन्दोहीनेतरदिति । हयलीलच्छन्दसा हीनम् इतरल्लक्ष्म ; प्रथम गद्यपद्यजत्वेन द्विविधत्वम् , पद्यजाया आर्यावृत्ताश्रयणेन चतुर्विधत्वं च हयलीलागतं लक्षणमत्राप्यनुसंधेयमित्यर्थः । तेन गजलीलाः पञ्च भवन्ति । अनयोर्लीलापदार्थप्राधान्यात् स्त्रीलिङ्गतया निर्देशः । नियुक्तत्वादिकं यलीलावत् द्रष्टव्यम् । ॥ २१२, २१३ ॥ (सं०) गजलीलां लक्षयति-तालेनेति । गजलीलेन तालेन गजलीला कर्तव्या । छन्दो विहाय अन्यल्लक्षणं पूर्वोक्तहयलीलावत् । गद्यपद्यजादिभेदा अपि पूर्ववत् ज्ञातव्याः ॥२१२, २१३ ॥ (क०) अथ द्विपदी भेदपूर्वकं लक्षयति-शुद्धेत्यादि । करुणाख्येन तालेनेति । 'गुरुणा करुणो मतः' इति करुणताललक्षणं वक्ष्यते । तत्र शुद्धाया लक्षणमाह-पादे छ इत्यादि । पादे चतुर्पु पादेप्वेकैकस्मिन् छः छगणः षण्मात्रिको मात्रागणः । पञ्च भाः भगणा आदिगुरवो वर्णगणाः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ संगीतरत्नाकरः चतुभिरीदृशैः पादैः शुद्धा द्विपदिकोच्यते । अर्धान्तेऽन्ये खरानाहुः खण्डा स्याच्छुद्धयाईया।।२१५॥ षष्ठेनैकेन गुरुणा मात्राद्विपदिका मता। ज्ञेया शुद्धैव संपूर्णा गुरुणान्तेऽधिकेन तु ॥ २१६ ॥ पुनश्चतुर्धा द्विपदी मानवी चन्द्रिका धृतिः । तारेति मानवी छेन तद्वयेन कृताधिका ॥ २१७ ॥ पद्वयं तगणश्चान्ते लगौ चेचन्द्रिका मता। छगणेन चतुर्मात्रैस्त्रिभिश्च धृतिरुच्यते ॥ २१८ ॥ पञ्च प्रयोक्तव्याः। गोऽन्ते ; अन्तेऽवसाने गो गुरुः । एवं सामान्येन गणानुक्त्वा विशेषमाह-जौ स्तः षष्ठद्वितीयकाविति । पष्ठद्वितीयको गणौ जौ स्तः मध्यगुरू जगणौ भवतः । अन्य आचार्या अर्थान्ते पादद्वयावसाने स्वरानाहुः, स्वराः प्रयोक्तव्या इति वदन्ति । खण्डा स्यादिति । अयमर्थ:उक्तेषु चतुर्पु पादेपु प्रथमं पादद्वयं नियतलक्षणम् , उत्तरपादद्वयमनियतलक्षणं कृतं चेत्, खण्डा नाम द्विपदी भवेत् । पठेन गुरुणेति । प्रतिपादं षष्ठगणस्थाने एक एव गुरुः प्रयुज्यते चेत्, मात्राद्विपदिकेति संमता । ज्ञेयेत्यादि । प्रतिपादमप्यधिकेन गुरुणा तु शुद्धैव संपूर्णा विज्ञेया । शुद्धायाः प्रतिपादान्तमेकैको गुरुरधिकः कर्तव्य इत्यर्थः । पुनश्चतुर्धेत्यादि । छेन षण्मात्रिकेण गणेन । तद्वयेनान्त्यलयुयुक्तयोः पञ्चमात्रिकयोस्तगणयोयेन । अत्र पूर्वोत्तरोक्तभगणयगणसाहचर्यात्तगण इति वर्णगण एव गृह्यते; न त्रिमात्रिको मात्रागणः । एतैः कृताधिका मानवी । पद्वमिति । पञ्चमात्रिकयोः पगणयोर्द्वयम् । तगण इत्यत्रापि वर्णगणः । अन्ते लगौ चेदिति । प्रतिपादमित्यवगन्तव्यम् । तदा चन्द्रिका । चतुर्मात्रैरिति । भगणैर्जगणैवेत्यर्थः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः तारा छेन चतुर्भिश्च यगणैरन्तिमे गुरौ । इति द्विपदीप्रबन्धः । २८५ तैस्त्रिभिरादौ छगणेन च कृताङ्घ्रिका धृतिरित्युच्यते । अन्तिमे गुरौ सति छगणेन चतुर्भिर्यगणैश्च कृताङ्घ्रिका तारा । एतासां पादचतुष्टययुक्तत्वे एकैकार्धस्य पादत्वविवक्षया द्विपदीव्यपदेशो द्रष्टव्यः । इत्यष्टौ द्विपद्यः । अत्र प्रथमार्धमुद्ग्राहः । उत्तरार्धं ध्रुवः । पृथक्पादैराभोगो गातृनेतृप्रबन्धनामाङ्कितः कर्तव्यः । अतोऽयं त्रिधातुः । तालनियमान्निर्युक्तः । पदतालबद्धत्वात् द्व्यङ्गः । तारावलीजातिमान् । मतान्तरेण स्वरेणापि बद्धत्वात् त्र्यङ्गो भावनीजातिमांश्च ॥ ॥ २१३-२१९ ॥ (सं०) द्विपर्दी लक्षयति- शुद्धेति । करुणाख्येन तालेन या विरच्यते, साद्विपदी । सा चतुर्विधा - शुद्धा, खण्डा, मात्राद्विपदी, संपूर्णेति । तत्र शुद्धां लक्षयति-पाद इति । पादे एकरछगणः कर्तव्य: । पश्च भाः भगणाः कर्तव्याः । अन्ते गो गुरुः । पष्ठद्वितीयकौ जगणौ स्तः । पूर्व छगणः, ततो जगणः, ततः पञ्च भगणाः, पुनरपि जगणः, अन्ते गुरुः, एवं पादः कर्तव्यः । एवंविधैः चतुर्भिः पादैः शुद्धा द्विपदी भवति । केषांचिन्मते एतस्यार्धान्ते स्वराः कर्तव्याः । खण्डां लक्षयति-खण्डा स्यादिति । अर्धया शुद्धया द्विपद्या खण्डेत्युच्यते । पादद्वयेनैव विरच्यत इत्यर्थः । मात्राद्विपदीमाह - षष्ठेनेति । षष्ठस्य जगणस्य स्थान एक एव गुरुः क्षिप्यते चेत्, मात्राद्विपदी । संपूर्णामाह - ज्ञेयेति । शुद्धैव द्विपदी अन्त एकेन गुरुणाधिकेन युक्ता संपूर्णेत्युच्यते । द्विपद्या अन्यान् भेदानाह - पुनरिति । पुनरपि द्विपदी चतुर्धा - मानवी, चन्द्रिका, धृतिः, तारेति । एतासां लक्षणमाह- मानवीति । छेन छ्गणेन तगणद्वयेन च चतुष्कलाश्च कृताश्चत्वारोऽङ्घ्रयो यस्याः सा तथाविधा मानवीत्युच्यते । पगणद्वयम्, एकः तगणः, अन्ते लगौ लघुगुरू, एको लघुः, एको गुरुश्चान्ते यदा क्रियते, एवंविधचरणचतुष्टयवती चन्द्रिका । छगण एकः, चतुर्मात्रागणास्त्रयः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ संगीतरत्नाकरः चक्रवालप्रबन्धः पूर्वपूर्वाक्षरवाते योऽन्त्यो वर्णचयः स चेत् ।। २१९ ॥ उत्तरोत्तरसंघादौ चक्रवालस्तदोच्यते । गद्यपद्यप्रभेदेन स द्विधा गदितो वुधैः ॥ २२० ॥ ___इति चक्रवालप्रबन्धः। क्रौञ्चपदप्रबन्धः पदैः स्वरैः क्रौञ्चपदः प्रतितालेन गीयते । प्रतिचरणं चेत् , तदा धृतिः । एकश्छगणः, चत्वारो यगणाः, अन्ते गुरुः प्रतिचरणं चेत् , तदा तारेति ॥ २१३-२१९ ॥ (क०) अथ चक्रवालं लक्षयति-पूर्वपूर्वाक्षरवात इत्यादि। पूर्वपूर्वेति वीप्सायां द्विवचनम् । अक्षरव्रातः ; वर्णसमूहः पदमित्यर्थः । तस्मिन् योऽन्त्यो वर्णचयोऽक्षरसमुदायः ; द्वौ वा त्रयो वा वर्णा इत्यर्थः । स वर्णचय उत्तरोत्तरसंघादौ उत्तरोत्तरपदादौ भवति चेत् , तदा चक्रवाल इत्युच्यते । अयं वर्णावृत्तिनियम उद्ग्राहध्रुवयोरवश्यं कर्तव्यः । आभोगे त्वनियम इति संप्रदायो वेदितव्यः । तेनायं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनियुक्तः। पदतालबद्धत्वात् द्वयङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ २१९, २२० ॥ (सं०) चक्रवालं लक्षयति-पूर्वेति । पूर्वेषामक्षराणामन्ते यो वर्णसमूहः, स उत्तरोत्तरस्य संवस्याक्षरसमूहस्याद्यो भवति चेत्, तदा चक्रवालः । स द्विविध:-गद्यजः, पद्यजश्चेति ॥ २१९, २२० ॥ (क०) अथ क्रौञ्चपदं लक्षयति-पदैः स्वरैरित्यादि । प्रतितालेनेति । 'लद्रुतौ प्रतितालः स्यात्' इति लक्षणं वक्ष्यते । अत्र स्वरैरुग्राहः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः स्वरन्यासः स तन्नाम्ना छन्दसा मुक्तकोऽथवा ॥२२१॥ ___ इति क्रौञ्चपदप्रबन्धः। स्वरार्थप्रबन्धः यत्र खराक्षरैरेव वाञ्छितोऽर्थोऽभिधीयते । स खरार्थो द्विधा शुद्धो मिश्रस्तैः शुद्धमिश्रितैः ।।२२२॥ कर्तव्यः; पदैर्भुवः । स्वरन्यास' ; उग्राहमारभ्य न्यसनीय इत्यर्थः । स तन्नाम्ना छन्दसेति । सः; क्रौञ्चपदः । तन्नाम्ना; क्रौञ्चपदामिधानेन । अथवा मुक्तः छन्दोहीन इत्यर्थः । क्रौञ्चपदलक्षणं त्वतिकृतौ छन्दसि "क्रोश्चपदा भूमौ स्मौ नौ नौ ग्भूतेन्द्रियवस्वृषयः” इति । अस्यार्थः- यस्य पादे भकारमकारौ सकारभकारौ नकाराश्चत्वारो गकारश्च भवति, तत् क्रौञ्चपदा नाम । पञ्चसु पञ्चस्वष्टसु सप्तसु च यतिरिति । तत्रोदाहरणम् "या कपिलाक्षी पिङ्गलकेशी कलिरुचिरनुदिनमनुनयकठिना दीर्घतराभिः स्थूलशिराभिः परिवृतवपुरतिशयकुटिलगतिः । आयतजङ्घा निम्नकपोला लघुतरकुचयुगपरिचितहृदया सा परिहार्या क्रौञ्चपदा स्त्री ध्रुवमिह निरवधिसुखमभिलषता ।।" इति । अत्रापि पूर्ववदाभोगः पदैः कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । तालादिनियमानियुक्तः । स्वरपदतालबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २२१ ॥ (सं०) क्रौञ्चपदं लक्षयति-पदैरिति । क्रौञ्चपदनाम्ना छन्दसा विरचितः, छन्दोहीनश्च ॥ २२१ ॥ (क०) अथ स्वरार्थ लक्षयति-यत्र स्वराक्षरैरेवेति । स्वराक्षरैरेव षड्जादिस्वरवाचकैः सरिगमपधनिभिरेव वाचकपदत्वमापन्नैर्वाञ्छितोऽर्थो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ संगीतरत्नाकरः ग्रहन्यासोऽस्य भूयोऽसौ सप्तधैकादिकैः स्वरैः । क्रमोत्क्रमाभ्यां बहुशो भिद्यन्ते द्विखरादयः ॥ २२३ ॥ इति स्वरार्थप्रबन्धः । वाग्गेयकारस्याभीष्टोऽर्थोऽभिधीयते उच्यते चेत्, स स्वरार्थो नाम प्रबन्धः । शुद्धमिश्रितैरिति । शुद्धाश्च मिश्रिताश्चेति द्वंद्वः । अत्र केवलं स्वरा एव शुद्धा वा विकृता वा शुद्धत्वेन विवक्षिताः । अक्षरान्तरसहितास्तु मिश्रिताः । ग्रहन्यास इति । ग्रहे न्यास इत्यर्थः । अस्येति स्वरार्थस्य । भूयोऽसौ सप्तधैकादिकैः स्वरैरिति । असौ शुद्धो मिथेोऽपि स्वरार्थ एकादिकैः स्वरैर्भूयः सप्तधेति । अयमर्थः – एकः स्वर एकार्थवाचकपदम् ; द्वौ स्वररावेकार्थवाचकं पदम्, त्रयः स्वरा एकार्थवाचकं पदमित्येवमादयः सप्त शुद्धभेदा द्रष्टव्याः । एवमेकस्वरयुक्तं द्विस्वरयुक्तं त्रिस्वरयुक्तं पदमित्यादिना मिश्रोऽपि सप्तधा द्रष्टव्य इति । भूय इत्यनेन प्रत्येकमित्यवगन्तव्यम् । क्रमोत्क्रमाभ्यामित्यादि । द्विस्वरादय इति । शुद्धैः षट्, मिश्रैश्च षट् ; मिलित्वा द्वादश भेदाः क्रमोत्क्रमाभ्यां सरिगादिना क्रमेण रिसगादिना व्युत्क्रमेण च बहुशो भिद्यन्ते; संख्यातुमशक्या इत्यर्थः । अत्र शुद्धमिश्राश्रितयोरेकस्वरयोः क्रमाद्यसंभवात् द्विस्वरादय एवोक्ता इत्यवगन्तव्यम् । एवं नियमे - नोद्ग्राहभ्रुवौ गातव्यौ । आभोगस्त्वन्यपदैः पूर्ववद्गातव्यः । तेनायं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनिर्युक्तः । पदतालबद्धत्वात् द्वयङ्गः । तारावलीजातिमान् । अत्र सरिगादिस्वरप्रयोगेऽपि तेषां वाचकपदत्वेनोपस्थापितत्वादन्यत्र स्वरबद्धत्वं नाशङ्कनीयम् ॥ २२२, २२३ ॥ (सं०) अथ स्वरार्थी लक्षयति-यत्रेति । यत्र सरिगमादिस्वराक्षरैरेव स्वाभिलषितार्थो निबध्यते, स स्वरार्थः । स द्विविधः प्रहे न्यासे च तैः शुद्धैः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ध्वनिफुट्टनीप्रबन्धः ध्रुवोद्ग्राही भिन्नतालौ मण्ठकङ्कालवर्जितौ । यस्यां समासु मात्रासु यतिमलापको न च ॥ २२४ ॥ तालद्वयेन सा गेया ढेङ्कीवद् ध्वनिकुहनी। इति ध्वनिकुट्टनीप्रबन्धः। स्वरैर्निबद्धः शुद्धः । मिश्रितैः स्वरैर्निबद्धो मिश्र इति । पुनरपि सप्तविध:एकस्वरः, द्विस्वरः, त्रिस्वरः, चतुःस्वरः, पञ्चस्वरः, षट्स्वरः, सप्तस्वरश्चेति । द्विस्वरादीनां क्रमव्यत्यासभेदेन बहवो भेदा भवन्ति । ते लक्ष्येऽप्रसिद्धत्वाविशेषतो नोक्ता इत्यर्थः ॥ २२२, २२३ ॥ (क०) अथ ध्वनिकुट्टनी लक्षयति-ध्रुवोद्ग्राहावित्यादि । भिन्नतालाविति । उद्ग्राहे प्रयुक्तस्तालो ध्रुवे न प्रयोक्तव्य इत्यर्थः । मण्ठकङ्कालवर्जिताविति । मण्ठकङ्कालव्यतिरिक्ततालान्तरयुक्तौ भवत इति नियमः क्रियते । समासु समसंख्यासु मात्रासु यतिः पदविरतिः कर्तव्या । मेलापको न चेति । अनन्तरं ढेकीवदित्यतिदेशः करिष्यते । तत्रापि वैकल्पिको मेलापकः प्रामोतीति नित्यतया तन्निषेधः क्रियते । सा ध्वनिकुट्टनी ढेकीवत्तालद्वयेन गेयेति । यथा ढेकी मिथो ल्यान्तरयुक्तेन तालद्वयेन गीयते, तथेयमपि मिथो भिन्नलयेन तालद्वयेन गातव्येत्यतिदेशार्थः । मेलापकनिषेधादयं त्रिधातुः । तालनियमान्निर्युक्तः । पदतालबद्धत्वात् व्यङ्गः । तारावलीजातिमान् ।। २२४, २२५॥ (सं०) ध्वनिकुट्टनी लक्षयति-धुवोद्गाहाविति । ध्रुव उद्ग्राहश्च भिन्नताली कर्तव्यौ । ध्रुवेऽन्यस्तालः, उद्ग्राहेऽन्यस्ताल: । मण्ठकङ्कालौ न कार्यों । समासु मात्रासु यतिर्यतिताल: कर्तव्यः । प्रयोगात्मको मेलापको नास्ति । अन्यत् सर्व लक्षणं ढेकीवद्यस्याः सा ध्वनिकुट्टनीति ॥ २२४, २२५ ॥ 37 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० संगीतरत्नाकरः आर्याप्रबन्धः अर्धान्ते चरणान्ते वा स्वरान् न्यस्यार्धमादिमम् ॥२२५॥ द्विरार्याछन्दसो गीतं सकृद्गीतं दलान्तरम् । यत्राभोगे गातृनाम सार्या स्याद् ग्रहमुक्तिका ॥२२६॥ लक्ष्मीः स्याद् वृद्धिबुद्धी च लीला लज्जा क्षमा तथा । दीर्घा गौरी ततो राजी ज्योत्स्ना छाया च कान्तिका ॥ मही मतिस्ततः कीर्तिरथ ज्ञेया मनोरमा। स्याद्रोहिणी विशाला च वसुधा शिवया सह ॥२२८॥ हरिणी चाथ चक्राख्या सारसी कुररी तथा। हंसी वधूरिति प्रोक्ता आर्याः षड्रिंशतिःक्रमात् ॥२२९॥ षष्ठादन्यैर्गणैः सर्वगुरुभिः प्रथमा पराः । (क०) अथार्या लक्षयति—अर्धान्त इति । आर्याप्रबन्धे अर्धान्ते चरणान्ते वा स्वरान सरिगादीन् न्यस्येत् । तत्रार्धचरणशब्दयोः साकाङ्क्षत्वादनन्तरवाक्यगताया आर्याछन्दस इति षष्ठ्याः संबन्धोऽवगम्यते । आर्याछन्दस आदिममध द्विर्गीनं भवेत् । दलान्तरं द्वितीयम) सकृत् गीतं भवेत् । अत्र प्रथमार्धमुद्ग्राहो द्वितीयाधं ध्रुव इत्यवगन्तव्यम् । आभोगे गातृनामेति । गातृनामेति नेतृप्रबन्धनाम्नोरप्युपलक्षणम् । तेनाभोगो गातृनेतृप्रबन्धनामाङ्कितः कर्तव्य इत्यर्थः । ग्रहमुक्तिका उग्राहन्यासवती सार्या स्यादिति सामान्यलक्षणम् । तद्भेदानुद्दिशति-लक्ष्मीः स्यादित्यादि । तेषां लक्षणानि संक्षिप्याह-पष्ठादन्यरित्यादि । अत्र तावदार्याछन्दसि प्रथमेऽर्धे "लक्ष्मैतत् सप्त गणाः” इत्यादिलक्षणवशाद्गणाः सप्त, अन्ते गुरुश्च कर्तव्यो भवति । अत्र गणास्तु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्याय: एकादिगुरुभङ्गेण क्रमाल्लक्ष्माण्यमूनि तु ॥ २३० ।। "ज्ञेयाः सर्वादिमध्यान्तगुरवोऽत्र चतुष्कलाः । गणाश्चतुर्लघूपेताः पञ्चार्यादिषु संस्थिताः ॥" इति वचनाच्चतुर्मात्रिका भवन्ति । तत्र प्रथमादिगणानामनियमेऽपि “षष्ठोऽयं नलघू वा” इति वचनात् , पष्ठो गणोऽयमिति प्रकृतत्वाज्जगणः परामृश्यते; जगणो भवतीत्यर्थः । वा पक्षान्तरे। नलघू ; नगणश्च लघुश्च तौ भवतः । चत्वारः पृथग्लघवो भवन्तीत्यर्थः । एवं प्रथमार्धे षष्ठस्यैव गणस्य नियमो नान्येषाम् । तथा द्वितीयेऽपि “चरमेऽधै पञ्चमके तस्मादिह भवति षष्ठो लः" इति वचनात् षष्ठो गणो ल एक एव लघुर्भवतीति षष्ठस्यैव नियमो नान्येषाम् । तस्मादार्याया विशेषलक्षणं प्राधान्येन षष्ठगणगतं द्रष्टव्यम् । अत्रार्धद्वये षष्ठगणस्य विकारपरिहारेणेतरगणविकारा एव भेदानां लक्षणानि उक्तानीति मन्तव्यम् । पष्ठादन्यैरिति । प्रत्येकं गोपेतसप्तगणात्मनोः पूर्वोत्तरार्धयोः पष्ठाव गणादन्यैर्गणैः द्वादशसंख्याकैः । सर्वगुरुभिरिति । एकैकस्य गणस्य गुरुद्वयसंख्यया चतुर्विंशतिर्गुरवो भवन्ति । अधिकगुरुभ्यां सह पड्रिंशतिर्भवन्ति । एवं सर्वगुरुभिर्गणैः प्रथमा लक्ष्मीसंज्ञा भवति । परा: वृद्ध्यादयः पञ्चविंशतिः क्रमादेकादिगुरुभङ्गेण भवन्तीत्यध्याहार्यम् । एकादिगुरुभङ्गेणेति । एकद्वित्रिचतुरादिपञ्चविंशतिगुरुपर्यन्तं भङ्गेनेत्यर्थः । गुरोभङ्गो नाम लघुद्वयकरणम् । अत्रैकादिगुरुभङ्गेणेत्येतावत्युच्यमाने यत्र कुत्रापि स्थितस्यैकस्य तादृशयोईयोस्तादृशानां त्रयाणामेवं चतुरादीनामप्यनियतानां गुरूणां भङ्गे वृद्धयादिलक्षणत्वं प्राप्नोति; तन्मा भूदिति क्रमादित्युक्तम् । तेनात्रैकशब्दः संख्यावाच्येव प्रथमे नियम्यते । ततश्चादिशब्दोऽपि द्वितीयादिप्वेव नियम्यते । तथा च सत्येकस्य भङ्गे वृद्धिः । द्वयोर्भङ्गे बुद्धिः । त्रयाणां भङ्गे लीला । चतुर्णा भने लज्जा । एवं पञ्चगुरुभङ्गप्रभृति आपञ्च Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ संगीतरत्नाकरः छन्दोलक्षणतो ज्ञेयाः शेषा भूरितरा भिदाः। इत्यार्याप्रबन्धः। विंशतिगुरुभङ्गेण क्षमादयः क्रमेण योजनीयाः। एवं पञ्चविंशतिगुरुभङ्गत एवोद्दिष्टभेदपरिसमाप्तेरन्तिमस्य षड्विंशस्य गुरोर्भङ्गो नास्त्येवेत्यवगम्यते । लक्ष्माण्यमूनि स्विति । अत्र तुशब्दोऽवधारणार्थे ; अमून्येवेति । षष्ठगणव्यतिरिक्तसर्वगुरुमारभ्यैकादिगुरुभङ्गान्तान्येव लक्ष्मीवृद्धयाद्यार्याभेदानां लक्षणानि; इतो व्यतिरिक्तानि लक्ष्णान्तराणि न सन्तीत्येवकारार्थः । अमूनीति प्रतिनिर्दिश्यमानलक्ष्मपदलिङ्गापेक्षया नपुंसकनिर्देशः । छन्दोलक्षणत इत्यादि । शेषा भूरितरा भिदा इति। आर्यायाः पथ्याविपुलादयो बहवो भेदाः छन्दोलक्षणतः "त्रिप्वंशकेषु पादो दलयोरायेषु दृश्यते यस्याः । पथ्येति नाम तस्याः प्रकीर्तितं नागराजेन ॥" इत्यादिकाः छन्दःशास्त्रादेव ज्ञेयाः । आर्यासामान्यस्वरूपमपि तत एव ज्ञेयमिति भावः । मेलापकस्यानुक्तत्वादयं त्रिधातुः । छन्दोनियमान्नियुक्तः । स्वरपादतालबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २२५-२३१ ॥ (सं०) आर्या लक्षयति-अर्धान्त इति । अर्धान्ते प्रथमदलान्ते चरणान्ते पादान्ते वा स्वरान् न्यस्य, आदिमं दलं द्विर्गेयम् । दलान्तरं द्वितीयदलमन्यगीतिसदृशधातुकमर्धतः सकृद्गीयते सार्धगीतिरिति लभ्यते । आभोगे गातुः वाग्गेयकारस्य नाम, सार्या । ग्रहे उग्राहे समाप्तिर्यस्याः सा ग्रहमुक्तिका । तस्या भेदानाह-लक्ष्मीरिति । लक्ष्म्यादयो वध्वन्ता: षड्रिंशतिर्भेदा भवन्ति । तेषां लक्षणमाह-षष्ठादिति । षष्ठे गणे आर्यासु सर्वगुरुत्वासंभवात् षष्टादन्यैर्गणैः सर्वगुरुभिः प्रथमा लक्ष्मी: स्यात् । परास्तु वृद्धयादयः क्रमश एकैकगुरुभङ्गेण लघुद्वयवृद्ध्या ज्ञातव्याः । यदाह पिङ्गलनाग:-"गुरु टुटइ बे ळहु चळइ तं तं णाम बिआरि" इति । एकगुरुभङ्गेण वृद्धिः, गुरुद्वयभङ्गेन बुद्धिः, गुरुत्रय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः गाथाप्रबन्धः 'आर्येव प्राकृते गेया स्यात् पञ्चचरणाथवा ' ॥ २३९ ॥ त्रिपदी षट्पदी गाथेत्यपरे सूरयो जगुः । इति गाथाप्रबन्धः । भङ्गेण लीलेत्यादि । एवमेव पञ्चविंशतिगुरुभङ्गेण वधूरित्यन्तं ज्ञेयम् । अन्ये भेदा: छन्दोलक्षणतः छन्द: शास्त्रतो ज्ञातव्याः | आर्या सामान्यलक्षणमुक्तं वृत्तरत्नाकरे "लक्ष्मैतत् सप्तगणा गोपेता भवति नेह विषमे ज: । षष्टोऽयं नलघू वा प्रथमेऽर्धे नियतमार्यायाः ॥ षष्ठे द्वितीयलात् परके न्ले मुखलाच्च स यतिपदनियमः । चरमेऽर्थे पञ्चमके तस्नादिह भवति षष्ठो लः || ” इति ॥ २२५ - २३१ ॥ २९३ (क) अथ गाथां लक्षयति-आर्येत्यादि । उक्तलक्षणायैव प्राकृते प्राकृतपदं विषयीकृत्य गीयते चेत्, तदा गाथा स्यादिति । अनेनार्यायाः संस्कृतपदविषयत्वमुक्तं भवति । पदव्यतिरिक्तमन्यदार्यागतं लक्षणमनुसंधेयम् । केषां - चिन्मतेन पदभेदाभावादार्यैव चरणन्यूनाधिकभावेन गाथा भवतीति लक्षणान्तराणि दर्शयति - पञ्चचरणाथ वेत्यादिना ॥ २३१, २३२ ॥ (सं०) गाथां लक्षयति — आर्यावदिति । प्राकृतभाषायामार्यालक्षणवती गाथेत्युच्यते । अथवा पञ्चचगणवती मात्रया सा कार्या । मतान्तरेण तस्या द्वैविध्यमाह — त्रिपदीति । पादत्रयवती, पादषट्कवती च गाथेति केचन वदन्ति ॥ २३१, २३२ ॥ 1 आर्यावदिति सुधाकरपाठः । 2 पञ्चचगणाथवा इति सुधाकरपाठः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ संगीतरत्नाकरः द्विपथप्रबन्धः छन्दसा द्विपथेन स्याद् द्विपथः स्वरमुक्तिकः ॥ २३२ ॥ तालहीनः सतालो वा स च ज्ञेयश्चतुर्विधः। स्वरैरेकोऽन्यः प्रयोगैः सोभयानुभयौ परौ ।। २३३ ॥ प्राकृते दोहसंज्ञोऽसौ तस्य भेदा नव त्विमे । (क०) अथ द्विपथकं लक्षयति-छन्दसेत्यादि । द्विपथेनेति । द्विपथं दोधकमिति पर्यायशब्दौ। तेन दोधकलक्षणमेव द्विपथलक्षणं वेदितव्यम् । दोधकलक्षणं तु-"दोधकं भौ भगौ गिति" । अस्यार्थः—यस्य पादे भकारौ भकारगकारौ गकारश्च तत् दोधकं नामेति । अत्रोदाहरणम् "दोधकमर्थनिरोधनमुग्रं स्त्रीचपलं युधि कातरचित्तम् । स्वार्थपरं मतिहीनममात्यं मुञ्चति यो नृपतिः स सुखी स्यात् ॥" इति । अत्र पादान्ते यतिः । द्विपथकस्य दोधकपर्यायत्वं प्राकृते दोहसंज्ञोऽसौ' इत्यनन्तरं वक्ष्यमाणस्य दोहशब्दस्य छायाशब्दत्वेन दोधकशब्दप्रतीतेरवगम्यते । तेन दोधकेन छन्दसेत्यर्थः । स्वरमुक्तिकः स्वरन्यासवान् । पक्षे तालहीनः । पक्षान्तरे सतालः। अनियतैकतालसहितः । स च द्विपथप्रबन्धश्चतुर्विधो ज्ञेयः; वक्ष्यमाणप्रकारैरित्यर्थः। तदेव दर्शयति-स्वरैरित्यादि । एकः प्रथम उग्राहध्रुवयोः स्वरैर्बद्धः स्यादित्यर्थः । अन्यो द्वितीयः पूर्ववत् प्रयोगैः बद्धः स्यात् । परौ तृतीयचतुर्थो सोभयानुभयो । तृतीयः सोभयः, उभयैः स्वरैः प्रयोगैश्च सहितः । तृतीये स्वरैरुद्ग्राहः, प्रयोगैर्भुवः कर्तव्य इत्यर्थः । चतुर्थोऽनुभयः, स्वरप्रयोगाभ्यां रहितः। चतुर्थे पदैरेवोद्ग्राहध्रुवौ कर्तव्यावित्यर्थः। एतेषु पदैराभोगः कर्तव्य इत्यर्थः । प्राकृत इत्यादि । असौ द्विपथकः प्राकृतपदविषयश्चेत् , तदा दोहसंज्ञा भवति । संस्कृते द्विपथसंज्ञो दोधकसंज्ञो वेत्यर्थः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः सारसो भ्रमरो हंसः कुररश्चन्द्रलेखकः ।। २३४ ॥ कुञ्जरस्तिलको हंसक्रीडोऽप्यथ मयूरकः। त्रयोदशायुजि समे मात्रा द्वादश सारसे ॥ २३५ ॥ ओजेऽङ्घौ मनवो मात्रा भ्रमरे रवयः समे।। मात्राः पञ्चदशायुग्मे हंसे युग्मे त्रयोदश ॥ २३६ ॥ त्रयोदशायुजि कलाः कुररे मनवो युजि । ओजे कलाश्चन्द्रलेखे तिथयो रवयः समे ॥ २३७ ॥ त्रयोदशायुजि कलाः कुञ्जरे तिथयः समे । मात्राः पञ्चदशायुग्मे तिलके मनवः समे ॥ २३८ ।। त्रयोदशासमे हंसक्रीडे युग्मे कलाः कलाः। यद्येषामधयोरन्ते पश्चादिलघुभिः शिखा ॥ २३९ ।। ननु-अत्र स्वरमुक्तिक इत्युक्तम् । चतुर्णा मध्ये द्वयोरेव स्वरा उक्ताः । तत्रोपपद्यते । द्वयोस्तु नोक्ताः । तत्र कथमिति चेत्, सत्यम् ; तत्र भेदद्वयेऽप्युद्ग्राहस्य स्वरबद्धत्वात् भेदान्तरे स्वराभावेऽपि स्वरशब्देन तत्रोद्ग्राह उपलक्ष्यते । तेनोग्राहे न्यासः स्यादित्यभिप्रायाददोषः । तस्य भेदा इत्यादि । तस्य द्विपथस्य इमे तु वक्ष्यमाणाः सारसादयस्तु नव भेदा भवन्ति । सारसादीनां लक्षणमाह-त्रयोदशेत्यादिना । सारसेऽयुजि विषमपादे त्रयोदश मात्राः । छन्दोगतत्वादेव मात्राशब्देन लध्वक्षरमुच्यते । तालगतत्वे तु पञ्चलम्वक्षरोच्चारणमितकालो द्रष्टव्यः । समे पादे द्वादश मात्रा भवन्ति । भ्रमरादीनां लक्षणानि ग्रन्थत एव सुबोधानि । तत्र मनव इत्यादीनां शब्दानां चतुर्दशादिसंख्यापरत्वं तु प्रसिद्धमेव । एते सारसादयो नव भेदाः प्रथमोक्तेषु चतुर्यु भेदेषु प्रत्येक योजनीयाः। यद्येषामित्यादि। एषां भेदानामर्धयोरन्ते; मध्ये मध्येऽपि वा, पादान्ते वेत्यर्थः । पञ्चादिलघुभिः; आदिशब्देन षट्सप्तादयो गृह्यन्ते । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ संगीतरत्नाकरः तं शिखाद्विपथं प्राहुर्मयूरमपि सूरयः। एतेषु व्यत्ययेनापि चरणानां स्थितिर्भवेत् ॥ २४० ॥ भवन्त्येकादिपादानां सद्विर्गानभेदतः। द्विपथा भूरिभेदास्ते लक्ष्या लक्ष्येषु सूरिभिः॥ २४१ ॥ इति द्विपथप्रबन्धः। यथा पादमितिर्मात्राधिकं न भवति, तथा शिखा कर्तव्येति भावः । एतेष्वित्यादि। एतेषु शिखाद्विपथेषु । चरणानां पादानाम् । व्यत्ययेनापीति । विषमपादोक्तमात्रासंख्या समपादे भवेत् । समपादोक्तमात्रासंख्या विषमपादे भवेदित्यर्थः । भवन्तीत्यादि । एकादिपादानां सद्विर्गानभेदत इति । एकपादस्य प्रथमपादस्येत्यर्थः । तस्य सकृद्गानम् , इतरेषां द्विर्गानम् । प्रथमस्य द्विर्गानम् , इतरेषां सकृद्गानम् । एवं प्रथमद्वितीययोः सकृद्गानं द्विर्गानं च पूर्ववत् द्रष्टव्यम् । तथा त्रयाणां चतुर्णामपि । एवं गानभेदतो द्विपथा भूरिभेदा भवन्तीत्यन्वयः । एते भेदा लक्ष्येषु लक्ष्याः ; नामोद्देशादिना न लक्ष्यन्त इत्यर्थः । अयं मेलापकाभावात् त्रिधातुः । छन्दोनियमान्निर्युक्तः । क्वचित् स्वरपदतालबद्धत्वात् त्र्यङ्गः, भावनीजातिमान् । कचित् पदतालबद्धत्वात् व्यङ्गः, तारावलीजातिमान् । अत्र प्रबन्धस्यैकाङ्गतापत्तेः सप्रयोगानुभयौ तालहीनौ कर्तव्यौ । तेन तालहीनः सतालो वेति विकल्पो भागव्यवस्थया द्रष्टव्यः । यथा सप्रयोगानुभयौ सतालावेव, सस्वरसोभयौ तालहीनौ सतालौ वेति सर्व समञ्जसम् ॥ २३२-२४१॥ (सं०) द्विपथकं लक्षयति--छन्दसेति । द्विपथकनाम्ना छन्दसा निबद्धो द्विपथः । स्वरेषु मुक्तिः समाप्तिर्यस्य स स्वरमुक्तिकः । स तालहीनः, सतालो वा कर्तव्यः। स चतुर्विधः । एकः स्वरैरेवोपनिबध्यते । अपरः प्रयोगैर्गमकैर्निबध्यते । कश्चनोभाभ्यां स्वरगमकाभ्यां निबध्यते । कश्चनानुभय उभाभ्यां हीनः । तस्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः २९७ कलहंसप्रबन्धः छन्दसः कलहंसस्य पादैरन्ते स्वरान्वितैः। कलहंसः स्वरे न्यासो गेयो झम्पादितालतः ॥ २४२॥ भाषाविशेषेण नामान्तरं भेदांश्चाह-प्राकृत इति । असौ द्विपथकः प्राकृते दोहा इत्युच्यते । तस्य सारसादयो नव भेदा भवन्ति । तेषां लक्षणमभिधत्ते-- त्रयोदशेति । अयुजि प्रथमे तृतीये च चरणे त्रयोदश मात्रा भवन्ति ; समे द्वितीये चतुर्थे च चरणे द्वादश मात्रा भवन्ति । तदा सारसः । ओजे विषमचरणद्वये मनवश्चतुर्दश मात्राः, समे चरणद्वये रवयो द्वादश मात्रा:, तदा भ्रमरः । विषमे पञ्चदश मात्राः, समे त्रयोदश मात्रा:, तदा हंस: । विषमे त्रयोदश मात्रा:, समे चतुर्दश मात्रा:, तदा कुरर: । विषमे तिथयः पञ्चदश मात्राः, समे रवयो द्वादश मात्राः, तदा चन्द्रलेख: । विषमे त्रयोदश मात्रा:, समे पञ्चदश मात्रा:, तदा कुञ्जरः । विषमे पश्चदश मात्राः, समे चतुर्दश मात्राः, तदा तिलकः । विषमे त्रयोदश मात्रा:, समे षोडश मात्रा:, तदा हंसक्रीडः । एषां पूर्वोक्तानां दोहानामधयोरन्ते पञ्चलघुनिर्मिता षडादिलघुनिर्मिता वा शिखा क्रियते, तदा तं दोहं सूरयो ज्ञातार: केचित् शिखाद्विपथमित्याहुः केचित् मयूरमित्यपि वदन्ति । एतेष्विति । एतेषु पूर्वोक्तेषु दोहेषु व्यत्ययेनापि चरणानां स्थितिः; समचरणलक्षणं विषमचरणयोः, विषमचरणलक्षणं समचरणयोः । एतेषां द्विपथकानामेकद्वित्रिचतुष्पदानां सकृद्गानं, द्विवारं वा गानमित्यादिभेदेन बहवो भेदा भवन्ति । ते लक्ष्येषु लक्षणीयाः ॥ २३२-२४१ ॥ (क०) अथ कलहंसं लक्षयति-छन्दसः कलहंसस्येत्यादि । कलहंसस्य छन्दसो लक्षणं भारतीये जगत्यां नर्कुटभेदेषु मुनिनोक्तम् ; यथा "द्वितीयसप्तमान्त्यं चतुर्थं यदा गुयंदा च षष्ठो दशमोऽपि वा । ____ अथोदिता हि पादे त्वथ जागते भवेदिदं तु हंसाख्यमिति स्मृतम्॥" 38 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ संगीतरत्नाकरः वर्णजो मात्रिकश्चेति कलहंसो द्विधा मतः । गद्यात्मा चेत् स्वरान् गीत्वा ततः पदनिवेशनम् ॥२४३॥ इति कलहंसप्रबन्धः। इति । इदमेवोदाहरणं च । अस्यार्थः-जागते पादे द्वादशाक्षरात्मके चरणे द्वितीयचतुर्थषष्ठसप्तमदशमद्वादशाक्षराणि यदा गुरवो भवन्ति, तदा हंसाख्यं छन्दः । हंसाख्यमेव कलहंसम् । तेन बद्धः प्रबन्धः कलहंस उच्यते । अन्ते स्वरान्वितैः पादैरिति । प्रतिपादान्तं स्वरान् प्रयुज्यादित्यर्थः । स्वरे न्यास इति । प्रथमपादयुक्तेषु स्वरेषु प्रथमस्वरान् कतिचिदारभ्य न्यासं कुर्यादित्यर्थः । झम्पादितालतो गेय इति । 'झम्पातालो विरामान्तं द्रुतद्वंद्वं लघुस्तथा' इति झम्पातालस्य लक्षणं वक्ष्यते । आदिशब्देन तन्मात्रासंमितदेशीतालान्तरं गृह्यते । वर्णजो मात्रिकश्चेति । वर्णजः पद्यरूपः । मात्रिको गद्यरूपः । वर्णजस्योक्तलक्षणानुसारेण नियतगणबद्धत्वात् पद्यरूपत्वम् । मात्रिकस्यानियतगणबद्धत्वात् गद्यरूपत्वम् । मात्रासंख्या तूभयोः समानैव; अन्यथा कलहंसप्रकृतिकत्वाभावप्रसङ्गात् । गद्यात्मा चेदिति । मात्रिकश्चेदित्यर्थः । स्वरान् गीत्वा ततः पदनिवेशनमिति । प्रतिपादमादौ स्वराः प्रयोक्तव्या इत्यर्थः । अत्र प्रथमार्धमुद्ग्राहः । उत्तरार्धं ध्रुवः । पूर्ववदाभोगः पृथक् कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । छन्दस्तालनियमात् निर्युक्तः । स्वरपदतालबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २४२, २४३ ॥ (सं०) कलहंसं लक्षयति-छन्दस इति । कलहंसाख्यस्य छन्दसोऽन्ते स्वराश्रिता: पादा: क्षिप्यन्ते चेत् , तदा कलहंसः । स्वरेषु न्यासः समाप्तिर्यस्य स झम्पादिभिस्तालै य: । स द्विविधः-वर्णजो मात्रिकश्चेति । वर्णगणैर्निर्मितो वर्णजः । मात्रागणैनिर्मितो मात्रिकः । यदा गद्येन विरच्यते, तदा पूर्व स्वरान् गीत्वा पश्चात् पदं निवेशनीयम् ॥ २४२, २४३ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः तोटकप्रबन्धः तोटकच्छन्दसा न्यस्तस्वरोऽध्यन्ते तु तोटकः। ननु वृत्ते वक्ष्यमाणे पुनरुक्तोऽत्र तोटकः ॥ २४४ ॥ (क०) अथ तोटकं लक्षयति-तोटकच्छन्दसेत्यादि । तोटकच्छन्दसो लक्षणं तु "तोटकं सः" इति । अस्यार्थः-~-जगत्यधिकारे प्रस्तुते यावद्भिः सकारैर्जगतीपादः पूर्यते, तावन्त एव सकारा यत्र पादे भवन्ति, तत् तोटकं नाम वृत्तमिति । द्वादशाक्षरात्मकस्य जगतीपादस्य चतुर्भिः सगणैः पूरितत्वात् चत्वारः सगणास्तोटकमित्यर्थः । सूत्रे जातिविवक्षयैकवचनं द्रष्टव्यम् । तत्रोदाहरणम् " त्यज तोटकमर्थवियोगकरं प्रमदाधिकृतं व्यसनोपहतम् । उपधाभिरशुद्धमतिं सचिवं नरनायक! भीरुकमायुधिकम् ॥" इति । अत्र पादान्ते यतिः। तोटकच्छन्दसेतीत्थंभूतलक्षणे तृतीया। तेन बद्धः प्रबन्धोऽपि तोटक इत्युच्यते । अध्यन्ते न्यस्तस्वरस्त्विति । अत्र तुशब्दो यद्यर्थः । तोटकं छन्द एव प्रतिपादान्तं न्यस्तस्वरं चेत् , तोटकप्रबन्ध इत्यर्थः । वक्ष्यमाणेन वृत्ताख्यप्रबन्धेनास्य पौनरुक्त्यमाशङ्कय चोदयति-नन्विति । वृत्ते वृत्ताख्यप्रबन्धे वक्ष्यमाणे सति अत्र तोटकः पुनरुक्तो भवतीति । अयमभिसंधिः-वक्ष्यमाणे वृत्ताख्यप्रबन्धलक्षणे 'छन्दसा येन केनापि ' इति सामान्येन वृत्तमात्रोपादानात्तदन्तर्भूतत्वेन तोटकस्यापि तत्र प्राप्तेरत्र पृथग्वचनं पुनरुक्तमेवेति । किंचात्र तोटक इत्युपलक्षणम् । तेन कन्दतुरगलीलाक्रौञ्चपदार्यागाथाद्विपथकलहंसानां छन्दोरूपाणां वृत्तेऽन्तर्भावात्तेषामपि पुनरुक्ततेति चोद्यार्थः । अर्धाङ्गीकारेण परिहरति-सत्यमिति। अनङ्गीकारे विशेषं दर्शयतिकिंत्विति । येषां पते वृत्ताख्यत्ततो वृत्तं भवेत् । वृत्ताख्यवृत्तस्य लक्षणं तु-"ग्लिति वृत्तम् ॥ इति । अस्यार्थः—कृतौ छन्दसि विंशत्यक्षरात्मके Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० संगीतरत्नाकरः सत्यं किंतु मते येषां वृत्तं वृत्ताख्यवृत्ततः। तन्मते तोटकस्येह नैवास्ति पुनरुक्तता ॥ २४५ ॥ इति तोटकप्रबन्धः । यस्य पादे गकारलकाराः क्रमेण विंशतिर्भवन्ति, तत् वृत्तं वृत्तं नामेति । तत्रोदाहरणम् “गात्रदुःखकारि कर्म निर्मितं भवत्यनर्थहेतुरत्र तेन सर्वमात्मतुल्यमीक्षमाण उत्तमं सुखं भजस्व । विद्धि बुद्धिपूर्वकं ममोपदेशवाक्यमेतदादरेण साधुवृत्तमुत्तमं महाकुल्पसूतमेति नो हि जन्म ॥" इति । पादान्ते यतिः । येषामाचार्याणां मत एवंविधन वृत्ताख्यवृत्तेन वृत्तप्रबन्धो भवति । तन्मत इह प्रबन्धविषये तोटकस्य पुनरुक्तता नास्त्येवेति । अत्रापि तोटकस्येत्युपलक्षणम् । तेन पूर्वोक्तानां कन्दादीनामपि पुनरुक्तता नास्त्येवेति परिहारार्थः। एतेन मतान्तरे वृत्तप्रबन्धस्य वृत्तसामान्यविषयत्वे तु तोटकादीनां पुनरुक्ततैवेति दर्शितं भवति । अत्र तोटकस्य पूर्वार्धमुग्राहः । उत्तरार्धं ध्रुवः । पूर्ववत् पदैराभोगः कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । छन्दोनियमान्निर्युक्तः । स्वरपदतालबद्धत्वात् व्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २४४, २४५ ॥ __ (सं०) तोटकं लक्षयति-तोटकच्छन्दसेति । तोटकनाम्ना छन्दसा तोटको गीयते । अन्ते चरणान्ते न्यस्ता: स्वरा यस्मिन् । आक्षिपतिनन्विति । परस्तात् वृत्तं वक्ष्यते । तोटकस्य वृत्तान्तर्भूतत्वादत्र पुनर्वचनं विफलमिति । परिहरति-सत्यमिति । यदि वृत्तशब्देन छन्दोमात्रमुच्यते, तदा भवत्येव पौनरुक्त्यम् ; यदा तु वृत्तनामकस्वरच्छन्दोविशेष उच्यते, तस्मिन् मते तोटकस्य पौनरुक्त्याभावः ॥ २४४, २४५ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः घटप्रबन्धः तेनैरधं द्विपद्यर्ध घटस्तेनकमुक्तिकः। इति घटप्रबन्धः। वृत्तप्रवन्धः छन्दसा येन केनापि तालेनेष्टेन गीयते ॥ २४६ ।। वृत्तं तस्य च पादान्ते वृत्तान्ते वा स्वरान् क्षिपेत् । स्वरहीनं तदित्यन्ये वृत्तं छन्दसि चापरे ॥ २४७ ॥ (क०) 'अथालिक्रमप्रवन्धानां क्रमो न विवक्षित इति दर्शयितुमुद्देशक्रममुल्लङ्घय घटं लक्षयति-ते रित्यादि । तेनकमुक्तिक इति विधेयविशेषणम् । घटे तेनके न्यासः कर्तव्य इत्यर्थः । तेनैरर्धमिति । द्विपद्यां 'पादे छः पञ्च भा गोऽन्ते' इत्यादिना यावन्मात्रमर्धमुक्तं, तावन्मात्रमेव पूर्वार्धमुद्ग्राहसंज्ञकं घटे तेनैवद्धं कर्तव्यमित्यर्थः । द्विपद्यर्धमिति प्रत्यासत्तेरयमर्थोऽवगम्यते; अन्यथा सापेक्षस्यार्धशब्दस्य प्रतिसंवन्ध्यभावेनाकाङ्क्षाया अपूरणात् । द्विपद्यमिति । तादृशमेव द्वितीयम) द्विपद्यामिव पदैर्वद्धं कर्तव्यमित्यर्थः । किंच ‘अर्धान्तेऽन्ये स्वरानाहुः' इत्यनेनात्रापि वैकल्पिकस्वरप्रयोगो द्रष्टव्यः । त्रिधातुत्वादिकं द्विपदीवत् द्रष्टव्यम् ।। २४६ ॥ (सं०) घटं लक्षयति-तेनैरिति । तेनैरधृ पूर्वोक्तमेव द्विपद्या अर्ध क्रियते चेत् , तदा घट इत्युच्यते ॥ २४६ ॥ (क०) अथ वृत्तं लक्षयति-छन्दसा येन केनापीति । छन्दश्चित्येति । छन्दोविचितिसंज्ञकेन ग्रन्थेनेत्यर्थः । विचेतव्या इति । अत्र समाध 1 अनेनात्र २६ तमे श्लोके 'घटो वृत्तम् ' इत्यत्र व्युत्क्रमेण पाठ: कल्लिनाथसंमत इत्यवगम्यते । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ संगीतरत्नाकरः 'छन्दश्चित्यां विचेतव्याश्छन्दसां बहवो भिदाः। इति वृत्तप्रबन्धः। मातृकाप्रबन्धः एकैकमातृकावर्णपूर्वकाणि पदानि चेत् ॥ २४८ ॥ क्रमेण परिगीयन्ते मातृका सा त्रिधा मता। दिव्या च मानुषी दिव्यमानुषी चेति तत्र तु॥२४९ ।। दिव्या संस्कृतया वाचा मार्गतालैश्च गीयते । मानुषी प्राकृतगिरा देशीतालैश्च निर्मिता ॥ २५० ॥ उभयोर्मिश्रणादुक्ता मातृका दिव्यमानुषी । समविषमवृत्तप्रकरणेषु विचित्योपादेया इत्यर्थः । सुगममन्यत् ॥ २४६-२४८ ॥ (सं०) अथ वृत्तं लक्षयति-छन्दसेति । येन केनापि छन्दसा, स्वाभिलषितेन तालेन यद्गीयते, तदिह वृत्तम् । तस्य चरणान्ते वा वृत्तान्ते वा स्वरान् क्षिपेत् न्यस्येत् । मतान्तरमाह-स्वरहीनमिति । तत् स्वरैविनापि गातव्यमिति केचित् । वृत्तमिति छन्दोविशेष एवायम् | इतोऽप्यन्ये छन्दसां बहवो भेदाश्छन्दोविचितिनाम्नि मदीये ग्रन्थे विलोकनीयाः ॥ २४६-२४८ ॥ (क०) अथ मातृकां लक्षयति- एकैकेत्यादि । एकैकमातृकावर्णपूर्वकाणीति । मातृकावर्णाः मातृकाया मन्त्रस्य वर्णा अकारादिक्षकारान्ताः, तेप्वेकैकवर्णपूर्वकाणि क्रमेणाकारादिक्रमेण-प्रथममकारादि पदम् , द्वितीयमाकारादि, तृतीयमिकारादि, चतुर्थमीकारादि, पञ्चममुकारादि, एवं क्रमेण क्षकारादिपर्यन्तं पदानि गीयन्ते चेत् , सा मातृका । उभयोमिश्रणादिति । संस्कृतप्राकृतवाचोर्मार्गदेशीतालयोश्च सहप्रयोगादित्यर्थः । मिश्रणं च द्वेधा 1छन्दश्चित्येति कलानिधिपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०३ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः अनिघद्धा निबद्धा च द्विधा सा गद्यपद्यजा ॥ २५१ ॥ सर्वमन्त्रमयी ह्येषा सर्वसिद्धिप्रदायिनी । गातव्या नियतैर्नित्यं गीर्वाणगणवल्लभा ॥ २५२ ।। इति मातृकाप्रबन्धः। संभवति–एकैकपदान्तरितत्वेन संस्कृतप्राकृतवाचोर्मार्गदेशीतालयोश्च प्रयोगेण वा, उग्राहे संस्कृतवाङ्मार्गतालयोर्धवे प्राकृतवाग्देशीतालयोश्च प्रयोगेण वा; उभयोरेक्तरेण प्रकारेण मातृका दिव्यमानुषीत्युक्तम् । अनिबद्धेत्यादि । सा द्विविधा मातृका-अनिबद्धा छन्दोहीना सती गद्यजेत्युच्यते ; निबद्धा छन्दोबद्धा सती पद्यजेति । अत्रोद्ग्राहादिविभागस्तु-अकारादीनि षोडश पदान्युग्राहत्वेन गेयानि । ककारादीनि पञ्चत्रिंशत् पदानि ध्रुवत्वेन गेयानीति । आभोगस्तु दिव्यादिभेदानुसारेणानियतवर्णपूर्वकैः संस्कृतादिपदैर्गातृनेतृप्रबन्धनामाङ्कितो गातव्यः । तेनायं प्रबन्धस्त्रिधातुः । तालादिनियमान्निर्युक्तः । पदतालबद्धत्वात् व्यङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ २४८-२५२ ।। (सं०) मातृकां लक्षयति--एकैकेति । अकाराचेकैकमातृकावर्णपूर्वकाणि क्रमेण द्विपञ्चाशत् पदानि गीयन्ते चेत् , तदा मातृकेत्युच्यते । सा त्रिविधादिव्या, मानुषी, दिव्यमानुषी चेति । एतासां लक्षणमाह-दिव्येति । संस्कृतया वाचा भाषया मार्गतालैः चच्चत्पुटादिभिर्या गीयते सा दिव्या। देशभाषया देशीतालैर्या गीयते सा मानुषी । संस्कृतदेशभाषयोर्मार्गदेशीतालयोर्मिश्रुत्वान्मिश्रितानां गानात् दिव्यमानुषी । पुनरपि द्वैविध्यमाह-अनिबद्धेति । गद्यैर्विरचिता अनिबद्धा ; पद्यैर्विरचिता निबद्धेति, यां सर्वेष्वपि प्रबन्धेषु प्रशस्तामाहुः । तस्याः प्रयोगे नियममाह-सर्वेति । नियतैः; शुचिभिः सावधानैश्च ; अन्यथा गाने दोषादित्यर्थः ॥ २४८-२५२ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: रागकदम्बप्रबन्धः नन्द्यावर्तः स्वस्तिकश्च द्विधा रागकदम्बकः । चतुर्वृत्तश्चतुस्तालो रागराजिविराजितः ॥ २५३ ॥ नन्द्यावर्तो भवेत्तस्य तालमानद्वयेन वा । उद्ग्राहेणाथवा न्यासो गद्येनैनं परे जगुः ॥ २५४ ॥ तालेनैकेन केचित्तु स्वस्तिको द्विगुणस्ततः । अब्जपत्रोsa जगर्भश्च भ्रमराम्रेडिते मते ।। २५५ ॥ केषांचित् पूर्वपूर्वस्माद् द्विगुणः स्यात् परः परः । इति रागकदम्बप्रबन्धः । ३०४ (क०) अथ भेदनिर्देशपूर्वकं रागकदम्बं लक्षयति - नन्द्यावर्त इत्यादि । अत्र नन्द्यावर्तस्य लक्षणमाह— चतुर्वृत्त इत्यादिना । चतुर्वृत्तश्चत्वारि वृत्तानि यस्य सः । चतुस्ताल इति । प्रतिवृत्तं भिन्नताल: कर्तव्य इत्यर्थः । रागराजिविराजित इति । प्रतिपादं प्रत्यर्थं वा प्रतिवृत्तं वा रागभेदः कर्तव्य इत्यर्थः । तालमानद्वयेनेति । यस्मिन् वृत्ते यस्तालः प्रयुक्तस्तस्य तालस्य मानं प्रमाणं, तद्द्वयेन ; आवृत्तिद्वयेनेत्यर्थः । अरुच्या पक्षान्तरमाह - - उद्ग्राहेणाथवेति । अत्रेयमरुचिः - यत्राल्पमात्रो झम्पादितालः प्रयुज्यते, तत्र तालमानद्वयेन न्यास उपपद्यते । यत्र त्वधिकमात्रः सिंहनन्दनादिः प्रयुज्यते, तत्र नोपपद्यत इति । उद्ग्राहमारभ्य न्यासश्चेदुभयत्राप्युपपद्यत इति भावः । एनं रागदम्बं परे आचार्या गद्येन जगुरिति मतभेदो दर्शितः । स्वस्तिकस्य लक्षणमाहस्वस्तिक इत्यादि । ततः ; नन्द्यावर्तात् । द्विगुण इति । अष्टवृत्तोऽष्टतालोऽष्टरागो वेत्यर्थः । अब्जपत्र इत्यादि । केषांचिन्मते उक्तलक्षणः स्वस्तिक एवाजपत्र इत्युच्यते । परः पूर्वस्माद् द्विगुण इति । अयमर्थः - पूर्वस्मात् अब्ज - पत्रात् परः अब्जगर्भः द्विगुण इति षोडशवृत्तः षोडशतालः षोडशराग इत्यर्थः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ३०५ अजगर्भाद् भ्रमरो द्विगुण इति द्वात्रिंशवृत्तो द्वात्रिंशत्तालो द्वात्रिंशदाग इत्यर्थः । भ्रमरादानेडितो द्विगुण इति चतुःषष्टिवृत्तश्चतुःषष्टितालश्चतुःषष्टिराग इत्यर्थः । अब्जपत्रादीनां स्वस्तिकभेदानां चतुर्णामपि मतान्तरेण गद्यरूपत्वमप्यवगन्तव्यम् । अत्रोद्ग्राहाद्यवयवविभागस्तु-प्रतितालं प्रतिरागं पद्ये वा गद्य वा पूर्वार्धमुद्ग्राहः । उत्तरार्धं ध्रुवः । एवं रागतालाश्रयत्वेन यावन्तो गद्यरूपाः पद्यरूपा वा गीयन्ते, तावन्तोऽवयवभूता द्विधातवः । अवयवी तु रागकदम्बाख्यो महाप्रबन्धः । यथा परार्थानुमाने प्रतिज्ञादीनामवान्तरवाक्यानां समुदाय एव पञ्चावयववाक्यमित्युच्यते, तदपेक्षया प्रतिज्ञादीनि यथा तत्र पदानीत्युपर्यन्ते, तथात्रापि तालादियुक्ता यावन्तो रागास्तावन्ति पदानीत्युपचारादुच्यन्ते । "अवयवकृतं लिङ्गं समुदायस्यापि विशेषकं भवति" इति न्यायेन रागकदम्बो द्विधातुरेव । यथा गो: कर्णादौ कृतं लिङ्गं गोविशेषकं भवति, तद्वदिति भावः । अत्राभोगाभावेऽप्यन्तिमे रागे पदैर्गातृनेतृप्रबन्धनामाङ्कितः कर्तव्यः । तत्रोद्ग्राहध्रुवयोः स्वरादिकाङ्गनियमस्यानुक्तत्वेन तदभावाद्वाग्गेयकारेच्छयात्राङ्गयोजना कर्तव्येति लक्ष्यतोऽप्यवगम्यते । तथाहि—गोपालनायकेन गीतद्वात्रिंशदागतालयुक्तगद्यात्मके भ्रमराख्ये स्वस्तिकभेदे रागकदम्बे प्रथमसिंहनन्दनतालबद्धे मालवश्रीपदे पदतालावेवोद्ग्राहध्रुवयोोजिताविति द्वयङ्गत्वम् । तथा दर्पणतालयुक्ते वेलावलीपदे पदाभावात् पञ्चाङ्गता । धन्नासीपदादिषु कचिद्विरदाभावात् पञ्चाङ्गता । इतरेषु तु षडङ्गत्वमित्यनियताङ्गत्वात् मेदिन्यादिजातिमान् । छन्दस्तालाद्यनियमादनियुक्तः । अत्र वृत्तरागतालानां प्रत्येकं बाहुल्याविशेषेऽपि रागाणां प्राधान्याद्रागकदम्बव्यपदेशः, न तालकदम्बव्यपदेशो वा, नापि वृत्तकदम्बव्यपदेशः । यद्वा वृत्ततालयोः 'चतुर्वृत्तश्चतुस्तालः' इत्यादिनियममारभ्य चतुःषष्टिवृत्ततालपर्यन्तं नियमस्योक्तत्वात् 'रागराजिविराजितः' इत्यनियमद्योतनेन चतुःषष्टिनियमापेक्षया प्रतिवृत्तं प्रत्यर्थे प्रतिपादं राजिपदसामर्थ्याद्रागाणामधिकत्वेऽपि न दोष इति दर्शितम् । 39 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ संगीतरत्नाकरः पञ्चतालेश्वरप्रबन्धः आलापः प्रागतालः स्यात् पृथग्द्विः पदपञ्चकम् ॥२५६॥ चच्चत्पुटेन तेनैव स्वराः पाटास्ततः परम् । द्विचच्चत्पुटमानेन पाटैः पटहसंभवैः ॥ २५७ ॥ तादृगर्थद्योतकत्वाद्रागकदम्बो व्यपदिश्यते ; न वृत्तकदम्बः, न तालकदम्बो वा ॥ २५३-२५६ ॥ (सं०) रागकदम्बं लक्षयति-नन्द्यावर्त इति । रागकदम्बको द्विप्रकार:-नन्द्यावर्तः, स्वस्तिकश्चेति । तत्र नन्द्यावर्त लक्षयति-चतुर्वृत्त इति । चत्वारि वृत्तानि यस्मिन्नसौ चतुर्वृत्तः । चतुर्भिस्तालैर्युक्तः, अनेकैः रागैरुपनिबध्यमानो नन्द्यावर्तः स्यात् । अस्य तालमानद्वयेन तालावृत्तिद्वयेनोद्गाहेण वा न्यासः समाप्तिः । अन्ये त्वेनं रागकदम्बकं गद्यैरेव कुर्यादिति जगुः; केचिदेकेन तालेनेति । स्वस्तिकं लक्षयति-स्वस्तिक इति । पूर्वस्मात् द्विगुणोऽष्टवृत्तोऽष्टतालश्च स्वस्तिकः । मतान्तरेणान्यद्भेदद्वयमाह-अब्जपत्रेति । केषांचिन्मतेन पूर्वपूर्वद्वैगुण्येन भेदद्वयं भवति । षोडशवृत्तः षोडशतालोऽब्जपत्र: । अब्जगर्भोऽजपत्रेऽन्तर्गतः । द्वात्रिंशवृत्तो द्वात्रिंशत्तालो भ्रमरामेडित इति ॥ २५३-२५६ ॥ (क.०) अथ पञ्चतालेश्वरं लक्षयति-आलापः प्रागतालः स्यादिति । अताल इति विशेषणेनात्रालापशब्देन रागालाप उच्यते, न गमकालप्तिः ; तस्या अप्यालापशब्दवाच्यत्वेन वक्ष्यमाणत्वेऽपि सतालत्वात् । पाक प्रथमम् अतालः तालरहित आलापो गेय इत्यर्थः। चच्चत्पुटेन: "ताले चच्चत्पुटे ज्ञेयं गुरुद्वंद्वं लघु प्लुतम् ” इति लक्षितेन । पृथक् पदपञ्चकं द्विरिति । पृथगिति । भिन्नधातुकमित्यर्थः । तादृशं पदपञ्चकं द्विवारं गेयमित्युक्तं भवति । तेनैवेति । चच्चत्पुटेनैवेत्यर्थः । स्वराः पाटा इति । स्वराः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः कार्योऽन्तरस्ततश्चाचपुटेन पदपञ्चकम् । तद्वत्तेन स्वराः पाटास्तद्विमानेन चान्तरः ।। २५८ ॥ हुडुक्कपाटैस्तदनु षपितापुत्रकेण च । पृथक् पदानि पञ्च द्विस्तेनैव स्वरपाटकम् ॥ २५९॥ सरिगादयः; पाटाः वाद्याक्षराणि । अयमर्थः—आलापान्तरमेकं पदं गीत्वा तदवयवत्वेन स्वरान् पाटांश्च गायेत् । अनन्तरं द्वितीयं पदं गीत्वा पूर्ववत् स्वरान् पाटान् गायेत् । एवं पदपञ्चकं गातव्यमित्येतदपि पृथक्पदेन द्योत्यत इति । अत्र स्वरपाटयोः क्रमो न विवक्षितः । तेन क्वचित् प्रथमं पाटान् गीत्वा ततः स्वरा गातव्या इति मन्तव्यम् । एवंच पञ्चमपदानन्तरं पाटान् गीत्वा स्वरेषु प्रयुक्तेषु सत्सु वक्ष्यमाणस्य पाटात्मकान्तरस्य पदावयवस्य च पाटस्य प्रत्यासत्त्या प्रतीतं सांकर्य परिहृतं भवति; स्वरैर्व्यवहितत्वादिति भावः । ततः परमित्यादि । द्विचच्चत्पुटमानेनेति । चच्चत्पुटस्यावृत्तिद्वयेनेत्यर्थः । पटहसंभवैः पाटैरिति । ‘ङवर्जितः कवर्गश्च टतवर्गौ रहावपि । इति वक्ष्यमाणैरक्षरैरन्तराख्यो गीतावयवः कार्यः। एवमन्तरे पाटनियमस्य कृतत्वादनन्तरोक्तानां पाटानामनियमो वेदितव्यः । तेन यस्य कस्यापि वाद्यस्यानुकरणाक्षराणि शुद्धानि मिश्राणि वा तत्र प्रयोक्तव्यानीत्यर्थः । एवं वक्ष्यमाणेप्वन्तरेषु तालावृत्तिनियमात् सस्वरपाटेषु पदेषु तालावृत्तिनियमो न विद्यत इति मन्तव्यम् । ततश्चाचपुटेनेत्यादि । तद्वदित्यतिदेशेनात्र पृथक द्विरित्यनुषञ्जनीयम् । हुडुकपाटैरित्यादि। 'कुर्वीत पाटहान् वर्णानिह देंकारवर्जितान् । अत्रान्यैरधिकावुक्तौ मझेंकारौ मनीषिभिः ॥' इति वक्ष्यमाणै डुक्कोद्भवैः । तदन्विति । स्वरपाटकमिति द्वंद्वैकवद्भावान्नपुंसक Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ संगीतरत्नाकरः तद्विमानाच्छङ्खपाटैरन्तरः स्यात्ततस्तु षट् । प्रत्येकं द्विः पदानि स्युः संपक्केष्टाकतालतः॥ २६०॥ ततस्तद्वत् स्वराः पाटास्तद्विमानेन चान्तरः। कांस्यतालोद्भवैः पाटैरुद्धट्टेन पदानि षट् ॥ २६१ ॥ प्राग्वत्तथा स्वराः पाटाः पाटैर्मुरजसंभवैः। अन्तरः पूर्ववत्तस्मादाभोगश्चाविलम्बितः ॥ २६२ ॥ प्रबन्धनान्ना प्रामानं नेतृनामाथ मङ्गलम् । निर्देशः । शङ्खपाटैरिति । घुघुथोदिगित्यादिप्रचुरैर्वर्णैः । ततस्तु पडिति । अत्र तुशब्दः संपकैप्टाकस्य पूर्वेभ्यस्तालेभ्यो विशेषद्योतनार्थः । सोऽप्यत्र षट् पदानीत्येषः । कांस्यतालोद्भवैरिति । ततकटप्रमुखैर्वर्णैः । उद्घट्टेनेत्यादि । मुरजसंभवैरिति । तकिटतोमित्येतत्प्रधानैः पटहाक्षरैरित्यर्थः । पूर्ववदिति । तालद्विमानेनेत्यर्थः। तस्मादित्यादि। तस्मात् अन्तरादनन्तरम् । आभोगश्चेति। चकारेणाभोगोऽप्युद्ध?न गीयत इत्यर्थः । अविलम्बित इति । विलम्बादत्यन्तविलक्षणेन द्रुतलयेन प्रयुक्त इत्यर्थः ; लोकेऽप्यविलम्बाचिरशब्दाभ्यां शैघ्रयप्रतीतेः । एतेन पदेप्वन्तरेषु च मध्यो वा विलम्बो वा लयः कर्तव्य इत्यवगम्यते । एवमाभोगः प्रबन्धनानोपलक्षितो गेयः । अत्रैव गातृनामापि कर्तव्यमित्यनुक्तमपि गम्यते । कुतः! अमुकः प्रबन्धोऽनेन गीत इति तत्कर्तृत्वसंगतेः । नेतनाम मामानमिति । प्रथममुद्धट्टपदेषु तदन्तरेषु च यन्मानं कृतं तन्मानयुक्तं स्तुत्यनाम कर्तव्यमित्यर्थः । अथ मङ्गलं वाक्यमिति तेनेतिशब्दप्रयोग उच्यते । मङ्गलस्य ब्रह्मणः प्रकाशकत्वेनोक्तत्वात्तस्यापि मङ्गलत्वमुपचारात् ; मङ्गलप्रकाशकं वाक्यं कर्तव्यमित्यर्थः । एकस्यापि तेनशब्दस्य बहुशः प्रयोगादनेकपदात्मकतया तत्समुदायस्य वाक्यवद्वाक्यत्वम् । अथ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः वाक्यमालापके न्यासः पञ्चतालेश्वरो भवेत् ।। २६३।। वीरावतारः शृङ्गारतिलकश्चेति स द्विधा । वीरशृङ्गारयोस्तेन प्रीयन्ते सर्वदेवताः ।। २६४ ॥ इति पञ्चतालेश्वरप्रबन्धः । तालार्णवप्रबन्धः तालार्णवो भूरितालः स द्वेधा गद्यपद्यतः । इति तालार्णवप्रबन्धः। इत्यालिप्रबन्धनिरूपणम्। वान्विताभिधानमतेन वाक्यत्वं द्रष्टव्यम् । आलापके न्यास इति । प्रबन्धादावारब्धमालापमारभ्य गीतमोक्षः कर्तव्य इत्यर्थः । पञ्चभिश्चच्चत्पुटादिभिमार्गतालैः प्रयुक्तत्वात् प्रबन्धेपूत्कृष्टतया ईश्वर इत्युक्तः । वीरावतार इत्यादि । वीरशृङ्गारयोरिति । वीररसे गीतो वीरावतारः । शृङ्गाररसे गीतः शृङ्गारतिलकः । तेन पीयन्त इति । तेन ; पञ्चतालेश्वरेण । चाचपुटादीनां लक्षणानि तालाध्यायादेवावगन्तव्यानि । अत्र पञ्चसु तालेषु मिलित्वा सस्वरपाटादीनि पदानि सप्तविंशतिः । तत्तत्तालपदान्तरेप्वन्तरास्तत्तत्तालाः पाटनिर्मिताः पञ्च । एतेप्वालापान्तराणि दश पदान्युद्ग्राहः कल्पनीयः । इतराणि ध्रुवः कल्पनीयः । आभोगस्तूक्त एव । तेनायं त्रिधातुः । अथवा अन्तरशब्देनात्र पृथगवयवो गृह्यते । तदा प्रतितालमाद्यपदद्वयमुद्ग्राहः । उत्तरपदत्रयं ध्रुवः । ध्रुवानन्तरमन्तरः। यद्यपि तस्य सालगसूडस्थरूपकेष्वेवेति नियमः कृतः, तथाप्यत्र वचनसामर्थ्याद्भविष्यति । त्रिवातवोऽवान्तरप्रबन्धाः पञ्च । महाप्रबन्धस्त्वाभोगेन सह चतुर्धातुरित्यवगन्तव्यः । तालनियमान्नियुक्तः । बिरुदहीनत्वात् पञ्चाङ्गः । आनन्दिनीजातिमान् । अथ तालार्णवं लक्षयति-तालार्णव इति । भूरिताल इति । भूरयो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० संगीतरत्नाकरः बहवस्ताला अस्येति सः। अत्रैकावृत्तिमतां तालानां बाहुल्यं विवक्षितमिति भूरितालेभ्योऽपि पञ्चतालेश्वरादिभ्योऽस्य भेदो द्रष्टव्यः । तत्र कामतः केषुचित् तालेषूद्ग्राहः, केपुचिद् ध्रुवः कर्तव्य इति मन्तव्यम् । आभोगो गातृनेतृप्रबन्धनामाङ्कितः कर्तव्यः । तत्र भूरितालत्वनियमाभावोऽपि द्रष्टव्यः । तेनायं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनियुक्तः । अत्र पदादिकाङ्गनियमस्यानुक्तत्वात् कामतः षडादिद्वयन्ताङ्गबद्धः कर्तव्यः । अतो रागकदम्बवन्मेदिन्यादिजातिमान् ।। ॥ २५६-२६५॥ ___ (सं०) पञ्चतालेश्वरं लक्षयति-अताल इति । तालहीन आलाप: कर्तव्यः । यद्यप्याला पशब्देनाप्यतालत्वं लभ्यते, तथाप्यत्र विहिततालप्राप्ति: स्यादिति तन्निरासार्थमुक्तमताल इति । ततोऽनन्तरं चच्चत्पुटेन तालेन पञ्च पदानि पृथग्विर्गयानि । तेनैव चच्चत्पुटेन स्वरा: पाटाश्च कर्तव्याः । चच्चत्पुटद्वयमानेन पटहसंभवैः पाटाक्षरैरन्तरः कर्तव्यः । ततोऽनन्तरं चाचपुटेन पञ्च पदानि कर्तव्यानि । पृथग्विर्गेयानीत्यनुपञ्जनीयम् । तस्यैव वा चाचपुटस्य मानद्वयेन हुडुक्पाटैरन्तरः कर्तव्यः । ततोऽनन्तरं पटिपतापुत्रकेण पञ्च पदानि पृथक् द्विगैयानि । तेनैव स्वराः पाटा गेयाः । ततः षट्पितापुत्रकमानद्वयेन शङ्खपाटैरन्तरपदं गेयम् । ततः संपक्केष्टकातालेन षट् पदानि स्वराः पाटाश्च गेया: । मानद्वयेन कांस्यतालपाटैरन्तरः । तत उद्दट्टेन षट् पदानि स्वरा: पाटा अन्तरश्च पूर्ववत् मानद्वयेन । ततोऽविलम्बितमानेनाभोगः । तत्राभोगे पूर्वमानं प्रबन्धनाम्ना कर्तव्यम् । ततोऽनन्तरं नेतु यकस्य नाम । अथ कल्याणमाशीर्वादनामानि । ततो वाक्यरूपेण मेलापके प्रयोगबहुले न्यासः । एष पञ्चतालेश्वर इति ज्ञेयः । स द्विप्रकार:-वीररसे वीरावतारः; शृङ्गारे शृङ्गारतिलक इति । तस्मिन् पञ्चतालेश्वरे गीते सति सर्वदेवताप्रीतिः फलम् । ___ तालार्णवं लक्षयति-तालार्णव इति । बहुभिस्तालैरुपनिबध्यमानस्तालार्णवः ॥ २५६-२६५ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः विप्रकीर्णप्रबन्धनिरूपणम् श्रीरङ्गप्रबन्धः तालै रागैश्चतुर्भिः स्याड्रीरङ्गोऽन्ते पदान्वितः ॥२६॥ इति श्रीरङ्गप्रबन्धः । श्रीविलासप्रवन्धः स्वरान्तः श्रीविलासः स्यात्ताले रागैश्च पञ्चभिः। इति श्रीविलासप्रबन्धः । पञ्चभङ्गिपञ्चाननोमातिलकप्रबन्धाः तेनकान्तः पञ्चभङ्गिः पाटैः पश्चाननोऽन्तिमैः ।। २६६ ॥ रागाभ्यामपि तालाभ्यां स्यादुमातिलकः पुनः । (क०) अथ विप्रकीर्णेषु प्रथमोद्दिष्टं श्रीरङ्गं लक्षयति-तालैरित्यादि । चतुभिरिति प्रत्येकं संबध्यते; चतुर्भिस्तालैश्चतुर्भी रागैरिति । अन्ते पदान्वित इति। 'सर्वाङ्गिका इमे' इति वक्ष्यमाणत्वात् स्वरादिषु षडङ्गेप्वेवान्ते पदं प्रयोक्तव्यमिति नियमः क्रियते । तेन स्वरादीनीतराणि वाञ्छितक्रमेण प्रयोक्तव्यानीति दर्शितं भवति । एवं प्रतिरागं पदान्तत्वेन पडङ्गयोजना कर्तव्या । अत्रोद्ग्राहादिविभागः प्रबन्धादिनामाङ्कश्च रागकदम्बवत् कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनियुक्तः । अत्र चतुर्भिस्तालै रागैरिति संख्याया एव नियमः, न स्वरूपनियमः । अतस्तालादिनियमशङ्का न कर्तव्या । षडङ्गबद्धत्वात् मेदिनीजातिमान् । अथ श्रीविलासं लक्षयति-स्वरान्न इत्यादि । स्पष्टोऽर्थः । अनुक्तमन्यत् श्रीरङ्गवदनुसंधेयम् । अथ पञ्चभङ्गिपञ्चाननौ लक्षयतितेनकान्त इति । अन्तिमैस्तेनकैः पञ्चभङ्गिः । अन्तिमैः पाटः पश्चाननः स्यात् । रागाभ्यां तालाभ्यामित्युभयोर्योजनीयम् । इतरत्त पूर्ववत् । अथोमा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: विरुदान्तस्त्रिभिस्तालै रागैः सर्वाङ्गिका इमे ॥ २६७ ॥ इति पञ्चभङ्गिपञ्चाननोमा तिलकप्रबन्धाः । ३१२ त्रिपदीप्रबन्धः आयो द्विद्विगणौ पादौ तृतीयश्च चतुर्गणः । तिलकं लक्षयति- स्यादुपातिलक इत्यादि । स्पष्टोऽर्थः । अन्यत् पूर्ववत् । अत्र केचन श्रीरङ्गादीनां पदाद्यन्तत्वमात्रनियमेनेतराङ्गक्रमस्यानुक्तत्वात् कूटतानवत् प्रस्तारं कल्पयन्ति । तत्र स्वराणां क्रमस्य सिद्धत्वात् तच्छोभते । अत्र त्वङ्गानां तदभावादभित्तिचित्रप्रायमेतत् ॥ २६५ - २६७ ॥ (सं०) एवमालिकम प्रबन्धानुक्त्वा विप्रकीर्णान्निरुरूपयिषुः प्रथमनिर्दिष्टं श्रीरङ्गं लक्षणभङ्गया संगमयति - तालैरिति । चतुर्भिस्तालैः चतुर्भिः रागैश्च यो विरच्यते, स श्रीरङ्गः; स चान्ते पदैरन्वितः कर्तव्यः । श्रीविलासं लक्षयतिस्वरान्त इति । पञ्चभिस्तालैः पञ्चभिः रागैश्चान्ते स्वरसंयुक्तः श्रीविलासः । पञ्चभ िलक्षयति - तेनकान्त इति । रागद्वयेन तालद्वयेन च निवध्यमाना अन्ते तेनकसंयुक्ता पञ्चभङ्गिः । पञ्चाननं लक्षयति - पाटैरिति । पञ्चभङ्गिलक्षणवदन्तिमैः पाटैः पञ्चाननः । उमातिलकं लक्षयति- स्यादिति । त्रिभिस्तालै त्रिभी रागैर्निबद्धोऽन्ते बिरुद संयुक्त उमातिलकः । इमे श्रीरङ्गादयः पञ्च सर्वाङ्गिकाः सर्वाङ्गैः युक्ता ज्ञातव्याः ॥ २६५-२६७ ॥ ( क ० ) अथ त्रिपदी लक्षयति - आद्यावित्यादि । आद्यौ; प्रथमद्वितीयौ पादौ । द्विद्विगणाविति । द्वौ द्वौ गणौ ययोस्तौ । अत्र वीप्सया प्रत्येकं द्विगणावित्यर्थः । ' शेषाः स्युर्मान्मथा गणाः' इति वक्ष्यमाणत्वात् पादद्वयेऽपि चत्वारो मन्मथगणा भवन्ति । ते च ' एवं मध्याभवा भेदा अष्टौ कामगणा स्मृताः' इति प्रागेवोक्ताः । तृतीयश्चेति ; तृतीयपादश्चतुर्गणः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रवन्धाध्यायः चतुर्थस्त्रिगणः पादेष्वेकादश गणा इमे ॥ २६८ ॥ रतेः षष्ठश्च दशमः शेषाः स्युर्मान्मथा गणाः । गीत्वाद्यपादौ तदनु किंचिच्छेषं तृतीयकम् ॥ २६९ ॥ ततः समग्रं तं गीत्वा चतुर्थो यदि गीयते । तदा स्यात् त्रिपदी तालहीना कर्णाटभाषया ॥२७॥ इति त्रिपदीप्रबन्धः । चकारेणात्रापि कामगणा इत्यवगम्यते । अत्र ‘रतेः षष्ठः' इति वक्ष्यमाणत्वात् द्वितीयो रतिगणः । इतरे त्रयोऽपि कामगणाः । चतुर्थ इत्यादि। चतुर्थः पादश्च त्रिगणः। चकारेणात्रापि कामगणा इति गम्यते । तत्र 'दशमश्च' इति वक्ष्यमाणत्वादत्र पादे द्वितीयो रतिगणः, इतरौ कामगणौ । एकादशेत्यादि । इमे इति । पादचतुष्टयेऽप्युक्ताः संभूय एकादश गणा भवन्ति । रतेरित्यादि। षष्ठो दशमश्च रतेरिति संबन्धे षष्ठी । रतिगण इत्यर्थः । सोऽपि 'अत्युक्तायास्तु चत्वारो भेदा रतिगणा मताः' इत्यत्र प्रागुक्तेषु चतुर्यु भेदेप्वेकः । षष्ठ इति चतुर्गणात्मकस्य तृतीयपादस्य द्वितीयो गण उच्यते । दशम इति त्रिगणात्मकस्य चतुर्थपादस्य द्वितीयो गण उच्यते । एतौ रतिगणौ कर्तव्यावित्यर्थः । शेषा इति । एकादशसु मध्ये षष्ठदशमौ हित्वेतरे नव गणा मान्मथाः कर्तव्या इत्यर्थः। गाने नियममाह---गीत्वेत्यादि । किंचिच्छेषं तृतीयकमिति । तृतीयपादमादौ किंचिदवशिष्टं गीत्वा ततोऽनन्तरं तृतीयपादं समग्रमशेष गीत्वा चतुर्थः पादो गीयते चेत्, सा त्रिपदी स्यात् । अस्या लक्षणतः चतुप्पादप्रयुक्तत्वेऽप्याद्ययोरेकपादत्वप्रतीतेः श्रुतिकृतत्वात् तामनुरुध्य त्रिपदीव्यपदेश उपपद्यत एव । तत्राद्यं पादद्वयमुद्ग्राहः । द्वितीयं पादद्वयं ध्रुवः । विप्रकीर्णेषु 'ओव्यादयश्च चत्वारो भवन्त्याभोगवर्जिताः' इति वक्ष्यमाणेन वचनेन चतुर्णामेवाभोगनिषेधात् , इतरेषां पुनः ‘अनुक्ताभोगवस्तूनां पदैराभोगकल्पना' 40 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ संगीतरत्नाकरः चतुष्पदीप्रबन्धः समे षोडश मात्राः स्युः पादे पश्चदशायुजि । यस्यां भिन्नार्थयमकावर्षी सा तु चतुष्पदी ॥ २७१ ॥ इति वक्ष्यमाणत्वादत्र पदैराभोगः कल्पनीयः । तेनायं त्रिधातुः । गणभाषानियमान्नियुक्तः । अस्या द्विपदीप्रकृतिकत्वात् “ अनुक्तमन्यतो ग्राह्यम् ॥ इति न्यायेन तत्रोक्तः स्वरप्रयोगोऽपि प्रबन्धतासिद्धये ध्रुवानन्तरमध्याहर्तव्यः । अन्यथा तालादिहीनत्वेन पदैकाङ्गतया तारावल्यादिप्रबन्धजात्ययोगादप्रबन्धतैव स्यात् । अतोऽयं पदस्वरबद्धत्वात् द्वयङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ २६८-२७० ॥ (सं०) त्रिपदी लक्षयति-आद्याविति । आद्यौ द्वौ चरणौ गणद्वययुतौ कार्यो। तृतीयस्तु गणचतुष्टययुक्तः । चतुर्थो गणत्रययुक्तः । एवं चतुर्षु पादेष्वेकादश गणा भवन्ति । तेषु षष्ठो रतिगणः कर्तव्यः ; एवं दशमश्च । अन्ये मान्मथाः पूर्वोक्ताः कामगणाः कर्तव्याः । तत्राद्यौ पादौ गीत्वा तदनन्तरं तृतीयश्चरणः किंचिन्न्यूनः समप्रश्च द्विगतिव्यः । ततश्चतुर्थश्चरणो गीयते । सा कर्णाटभाषाबद्धा तालवर्जिता त्रिपदी ज्ञातव्या ॥ २६८-२७० ॥ (क०) अथ चतुष्पदी लक्षयति—सम इत्यादि । अस्याश्चतुष्पद्याः समपादे द्वितीये चतुर्थे च प्रत्येकं पोडश मात्राः स्युः । अयुजि विषमे प्रथमे तृतीये च पादे पश्चदश मात्रा भवन्ति । यस्यामधौं भिन्नार्थयमकाविति । भिन्नोऽर्थोऽभिधेयं यस्य तत् भिन्नार्थ यमकं ययोरिति तथोक्तौ । यमकं नाम " अर्थे सत्यर्थभिन्नानां वर्णानां या पुनः श्रुतिः । यमकं पादतद्भागवृत्ति तद्यात्यनेकताम् ॥" इत्युक्तलक्षणम् । ननु च यमकलक्षणेनैव भिन्नार्थत्वे सिद्धे भिन्नार्थेति यमकविशेषणं व्यवच्छेद्याभावात् व्यर्थमापद्यत इति चेत् ; सत्यम् । येषां मते Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ३१५ ३१५ स्वरतेनकसंयुक्ता तेनकन्याससंयुता। इति चतुष्पदीप्रवन्धः। षट्पदीप्रबन्धः षष्ठस्तृतीयस्त्रिगणः पृथग द्विद्विगणाः परे ॥ २७२ ॥ चत्वारश्चरणा बाणप्रान्तौ षष्ठतृतीयको । त्वभिन्नार्थानामपि तात्पर्यभेदेन यमकत्वमङ्गीक्रियते, तन्मते व्यवच्छेद्यस्य विद्यमानत्वेनार्थवत्त्वाददोषः । अर्धाविति । अत्रार्धयोर्मात्रासामान्येन "अर्ध समेंऽशके " इत्यभिधानान्नपुंसकत्वे कर्तव्येऽपि स्वरतेनकयोगस्य वक्ष्यमाणत्वात् अर्धयोस्तद्वारकवैषम्यसंभवादर्धाविति पुंलिङ्गनिर्देश उपपन्नो द्रष्टव्यः । स्वरतेनकसंयुक्तेति । पूर्वार्धे स्वरयुक्ता, उत्तरार्धे तेनकयुक्तेत्यवगन्तव्यम् । एतच्च अर्धाविति पुंलिङ्गनिर्देशादेव ज्ञायते । तेनकन्याससंयुतेति । पुनस्तेनकमारभ्य न्यासं कुर्यादित्यर्थः । त्रिपद्यादीनां तिसृणां समानधर्मत्वाद्विशेषलक्षणव्यतिरेकेण, "अनुक्तमन्यतो ग्राह्यम्" इति न्यायेन द्विपदीषट्पद्योरुक्तं तालहीनत्वं कर्णाटभाषानिर्मितत्वं च चतुष्पद्यामनुक्तमपि ताभ्यामानेतव्यम् । अत्र सस्वरः पूर्वार्ध उग्राहः । सतेनक उत्तरार्धो ध्रुवः । आभोगः पूर्ववत् कल्पनीयः । तेनायं त्रिधातुः । मात्रासंख्याभाषानियमान्नियुक्तः । पदस्वरतेनकबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २७१, २७२ ॥ (सं०) चतुष्पदी लक्षयति-सम इति । समे द्वितीयचतुर्थचरणयोः षोडश मात्राः । अयुजि आये तृतीये च चरणे पश्चदश । अघिद्वये च भिन्नौ यमको । सा चतुष्पदी । एतस्यां स्वरतेनकेन न्यासः ॥ २७१, २७२ ॥ (क) अथ षट्पदी लक्षयति-पष्ट इत्यादि । अत्र पटसु पादेषु षष्ठस्तृतीयश्च पादस्त्रिगणो वक्ष्यमाणगणत्रययुक्तः कर्तव्यः । परे चत्वार Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः शेषास्तु मान्मथगणा यस्यां सा षट्पदी मता ॥२७३।। कर्णाटभाषया तालवर्जिता नादमुक्तिका । भेदा वेद्यास्त्रिपद्यादेश्छन्दोलक्ष्मणि भूरयः ।। २७४ ॥ ___ इति षट्पदीप्रबन्धः। श्वरणाः प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्चमाः पादाः पृथक् प्रत्येकं द्विद्विगणाः वक्ष्यमाणगणद्वययुक्ताः कर्तव्याः । तमेव गणविशेषं दर्शयति-बाणपान्तावित्यादिना । पष्ठतृतीयको पादौ वाणप्रान्तौ बाणगणः प्रान्ते ययोस्तौ । गणत्रयात्मकयोः पष्ठतृतीययोः पादयोः 'शेपास्तु मान्मथगणाः' इति वक्ष्यमाणत्वात् प्रत्येकं प्रथमद्वितीयौ कामगणौ कृत्वा तृतीयो बाणगणः कर्तव्यः । सोऽपि 'तद्वद्वाणगणा भेदाः प्रतिष्ठायास्तु पोडश' इत्यत्र प्रागुक्तेषु षोडशस्वेकः । शेषास्त्विति । पादषट्के मिलित्वा चतुर्दशसु गणेषु सप्तमचतुर्दशयोः बाणगणत्वेनोपयुक्तयोरन्ये द्वादश गणाः शेपाः; ते च कामगणाः कर्तव्या इत्यर्थः । नादमुक्तिकेति । नादशब्देनात्र स्थायिस्वरो विवक्ष्यते । तं सरिगादिवर्णोच्चाररहितं नादरूपमेवोच्चार्य न्यासं कुर्यादित्यर्थः । चतुप्पदीषट्पद्योळपदेशोऽन्वर्थो द्रष्टव्यः । अत्र पूर्व पादत्रयमुनाहः । उत्तरं तु ध्रुवः । पूर्ववदाभोगः कल्पनीयः । तेनायं त्रिधातुः । गणभाषानियमान्नियुक्तः । त्रिपदीवदन्ते स्वरप्रयोगस्य कर्तव्यत्वात् पदस्वराभ्यां व्यङ्गः । तारावलीजातिमान् । भेदा इत्यादि । त्रिपद्यादेरिति । आदिशब्देन चतुप्पदीषट्पद्यौ गृह्यते । एतासां भूरयो बहवो भेदाः छन्दोलक्ष्मणि छन्दःशास्त्रे " शेषा गाथास्त्रिभिः पड्भिश्चरणैश्चोपलक्षिताः” इत्यादिका वेद्याः अवगन्तव्याः ॥ २७२-२७४ ॥ (सं०) षट्पदी लक्षयति-षष्ठ इति । षष्ठस्तृतीयश्च चरणस्त्रिगणः । परे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः वस्तुप्रबन्धः मात्राः पञ्चदशाद्येऽङ्घौ तृतीये पञ्चमे तथा । सूर्यास्तु द्वितीये च स्वरपाटान्तमादिमम् ॥ २७५ ॥ अपरं स्वरतेनान्तमर्धं तदनु दोधकः' । यस्य स्यात्तेनके न्यासस्तद्वस्तु कवयो विदुः || २७६ ।। इति वस्तुप्रबन्धः । ३१७ प्रथमद्वितीयचतुर्थपञ्चमाश्चत्वारः पृथक् प्रत्येकं द्विद्विगणाः । तेषु षष्ठतृतीययोः अन्त्यः तृतीयो बाणगणः ; मन्ये सर्वेऽपि मान्मथगणाः; सा कर्णाटभाषोपनिबद्धा नादन्यासा षट्पदी ॥ २७२-२७४ ॥ (क०) अथ वस्तुसंज्ञं लक्षयति मात्रा इत्यादि । आद्येऽङ्घौ मात्रा: पञ्चदश स्युः । तृतीये पञ्चमे पादे तथा; यथा प्रथमाङ्घ्रौ पञ्चदश मात्रा:, तथा तृतीयपञ्चमयोः प्रत्येकमित्यर्थः । तुर्ये द्वितीये च पादे सूर्याः द्वादश मात्रा भवन्ति । एवं पञ्च पादाः अत्र सामान्यन्यायेनाद्यं पादद्वयमादिममर्धम् ; तत् स्वरपाटान्तं कर्तव्यम् । अवशिष्टं पादत्रयमपरमर्धम् ; तत् स्वरतेनान्तं कर्तव्यम् । तदनु तेनकानन्तरं दोधकः । दोधकः पूर्वोक्तदोधकनामछन्दोविशेषः कर्तव्यः । अत्र तेनकान्तमर्धद्वयमुग्रहः । दोधको ध्रुवः । पूर्ववदाभोगः कल्पनीयः । तेनायं त्रिधातुः । मात्रादिनियमापेक्षया निर्युक्तः । तालनिषेधश्रुतेरभावादनियततालत्वापेक्षयायमनिर्युक्तश्च । नन्वेकस्यैव निर्युक्तत्वमनिर्युक्तत्वं च विरुद्धमिति चेत्, न; अपेक्षाबुद्धिनिमित्तेन भिन्नत्वात् ; यथैकस्यैव देवदत्तस्य स्वपुत्रापेक्षया पितृत्वं, स्वपित्रपेक्षया पुत्रत्वं चेति । यत्रैवंविधा विरोधप्रतीतिः, तत्रैवंविधः परिहारो द्रष्टव्यः । बिरुदव्यतिरिक्ताङ्गबद्धत्वात् पञ्चाङ्गः । आनन्दिनीजातिमान् ॥ २७५, २७६ ॥ 1 दोहक इति सुधाकरपाठः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ संगीतरत्नाकरः विजयप्रबन्धः यत्र तेनैः स्वरैः पाटैः पदैविजयतालतः। गीयते विजयस्तेनैासः स विजयो मतः ॥ २७७ ॥ इति विजयप्रबन्धः। त्रिपथप्रबन्धः पादत्रयं त्रिपथके पाटैश्च बिरुदैः स्वरैः। इति त्रिपथप्रबन्धः। (सं०) वस्तु लक्षयति-मात्रा इति । प्रथमतृतीयपञ्चमपादेषु पञ्चदश मात्राः। द्वितीयतुरीययोः सूर्याः द्वादश मात्रा: । प्रथमार्धेऽन्ते स्वराः पाटाः । द्वितीयार्धस्यान्ते स्वरास्तेनकाः । तदनन्तरं पूर्वलक्षितो दोहकः । तेनकेषु समाप्तिः । तत् वस्तु ॥ २७५, २७६ ॥ (क०) अथ विजयं लक्षयति—योति । अत्र तेनादीनां पाठक्रमस्य विवक्षितत्वात्तथैव प्रयोक्तव्याः । विजयतालत इति । 'विजयः प्लुतो लघुः' इति तस्य लक्षणं वक्ष्यते । अत्र तेनैः स्वरैरुग्राहः कर्तव्यः । पाटः पदैर्भुवः कर्तव्यः । पदान्तरैराभोगः कल्पनीयः । तेनायं त्रिधातुः । तालनियमान्नियुक्तः । बिरुदाभावात् पञ्चाङ्गः । आनन्दिनीजातिमान् ॥ २७७ ॥ ___ (सं०) विजयं लक्षयति-यत्रेति । यत्र राज्ञां विजयो गीयते तेनैः स्वरैः पाटैः पदैविजयतालेन, तेनकेषु समाप्तिः, स विजयः ॥ २७७ ॥ (क०) अथ त्रिपथं लक्षयति–पादत्रयमित्यादि । पारेकः पादः । बिरुदैर्द्वितीयः । स्वरैस्तृतीयः । तत्र प्रथमं पादद्वयमुद्ग्राहः। तृतीयः पादो ध्रुवः । पदैराभोगः कल्पनीयः । तेनायं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनियुक्तः । तेनकाभावात् पञ्चाङ्गः । आनन्दिनीजातिमान् ॥ २७८ ।। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ३१९ चतुर्मुखप्रबन्धः स्वरैः पाटैः पदैस्तेनैवर्णैः स्थाय्यादिभिः क्रमात् ।।२७८।। चत्वारश्चरणा गेया ग्रहे न्यासश्चतुर्मुखे । इति चतुर्मुखप्रवन्धः। सिंहलीलप्रवन्धः स्वरैः पादैश्च विरुदैस्तेनको विरच्यते ॥ २७९ ॥ सिंहलीलेन तालेन सिंहलीलः स उच्यते । __ इति सिंहलीलप्रवन्धः। (सं०) त्रिपथं लक्षयति–पादत्रयमिति । यत्र पाटैबिरुदैः स्वरत्रयेण पादा गीयन्ते, स त्रिपथः ॥ २७८ ॥ (क०) अथ चतुर्मुखं लक्षयति स्वरैरित्यादि । स्थाय्यादिभिः क्रमादिति । स्थायिवर्णेन स्वरैः प्रथमः पादः, आरोहिवर्णन पाटैर्द्वितीयः, अवरोहिवणेन पदैस्तृतीयः, संचारिवणेन तेनैश्चतुर्थ इति क्रमो द्रष्टव्यः । ग्रहे उग्राहे न्यासः कर्तव्यः । अत्र प्रथमं पादद्वयमुद्ग्राहः। द्वितीयं पादद्वयं ध्रुवः । पदान्तरैराभोगः कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनियुक्तः । बिरुदाभावात् पञ्चाङ्गः । आनन्दिनीजातिमान् ॥ २७८, २७९ ॥ (सं०) चतुर्मुखं लक्षयति-स्वरैरिति । स्थायिनि वर्णे स्वरैरेकः पादः । आरोहिणि वर्णे पाटैद्वितीयः । अवरोहिणि वर्ण पदैस्तृतीयः । संचारिणि वर्णे तेनैश्चतुर्थः । ग्रहे समाप्ति: । स चतुर्मुखः ॥ २७८, २७९ ॥ (क०) अथ सिंहलीलं लक्षयति-स्वरैरित्यादि। सिंहलीलेन तालेनेति । "तालाद्यन्तं दत्रयं सिंहलीलः' इति तस्य लक्षणं वक्ष्यते । अत्र 1 तालाध्याये तु 'लघ्वन्ते' इति पठ्यते । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० संगीतरत्नाकरः हंसलीलप्रबन्धः स्वनामतालके हंसलीलेऽङ्घी पदपाटकैः ॥ २८०॥ इति हंसलीलप्रबन्धः। दण्डकप्रबन्धः पदैः स्वरैर्दण्डकेन छन्दसा दण्डको मतः। स्वरैः पाटैरुग्राहः । बिरुदैस्तेनकैश्च ध्रुवः । पदैराभोगः कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । तालनियमानियुक्तः । स्वरादिषडङ्गबद्धत्वान्मेदिनीजातिमान् ॥ २७९, २८० ॥ (सं०) सिंहलील लक्षयति-स्वरैरिति । वक्ष्यमाणेन सिंहलीलेन तालेन स्वरपाटादिभिर्यो विरचित: स सिंहलीलः ॥ २७९, २८० ॥ (क०) अथ हंसलीलं लक्षयति-स्वनामेत्यादि । स्वनामतालक इति । हंसलीलतालयुक्त इत्यर्थः । 'हंसलीलो यगणश्च लघुर्गुरुः' इति तस्य लक्षणं वक्ष्यते । पदपाटकैरज्री इति । पदैरेकः पादः । पाटैद्वितीयः । अत्र पदैरुग्राहः । पाटै वः । पदान्तरैराभोगः । तेनायं त्रिधातुः । तालनियमात् नियुक्तः । पदपाटतालबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २८० ॥ (सं०) हंसलीलमाह--स्वनामेति । हंसलीलेन तालेन पदैरेकोऽतिः, पाटैद्वितीयो यस्मिन् विरच्यते, स हंसलीलः ॥ २८० ॥ (क०) अथ दण्डकं लक्षयति-पदैरिति । दण्डकेन छन्दसेति । " दण्डको नौ रः” इति तस्य लक्षणम् । अस्यार्थः यस्य पादे द्वौ नकारौ, रेफाश्च सप्त भवन्ति, तस्य दण्डक इति नाम भवति । षड्विंशत्यक्षराया उत्कृतेः समनन्तरं दण्डकस्य पाठात् सप्तविंशत्यक्षरत्वमेव युक्तम् । सर्वेषां 1 तालाध्याये तु 'हंसलीले विरामान्तं लघुद्वयमुदाहृतम्' इति लक्षणवाक्यं दृश्यते। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ३२१ तस्य भूरितरा भेदाश्छन्दोलक्ष्मणि भाषिताः ॥ २८१॥ इति दण्डकप्रबन्धः। झम्पटप्रवन्धः झम्पटच्छन्दसा गेयः क्रीडातालेन झम्पटः। इति झम्पटप्रबन्धः। छन्दसामेकैकाक्षरवृद्धया प्रस्तारः प्रवृत्तः । इत ऊर्ध्व पुनरेकैकरेफवृद्धया प्रस्तारः कर्तव्यः ; 'दण्डको नौ रः' इति श्रवणात् । तस्योदाहरणं तु" इह हि भवति दण्डकारण्यदेशे स्थितिः पुण्यभाजां मुनीनां मनोहारिणि त्रिदशविजयवीर्यदृप्यद्दशग्रीवलक्ष्मीविरामेण रामेण संसेविते । जनकयजनभूमिसंभूतसीमन्तिनीसीमसीतापदस्पर्शपूताश्रमे भुवननमितपादपद्माभिधानाम्बिकातीर्थयात्रागतानेकसिद्धाकुले ॥" इति । अत्र पादान्ते यतिः । तस्येत्यादि । तस्य दण्डकस्य । भूरितरा भेदा इति । चण्डवृष्टिप्रपातप्रचितादयः । छन्दोलक्ष्र्माण छन्दःशास्त्रे भापिता उक्ताः; ततोऽवगन्तव्याः । तत्र पदैनिर्मितं दण्डकस्य पूर्वार्धमुग्राहः । स्वरैः निर्मितमुत्तरार्धं ध्रुवः । पदान्तरैराभोगः । तेनायं त्रिधातुः । छन्दोनियमान्निर्युक्तः । स्वरपदतालबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २८१ ॥ (सं०) दण्डकं लक्षयति-पदैरिति । दण्डकनाम्ना छन्दसा पदैः स्वरैश्च दण्डकः कर्तव्यः । दण्डकनाम छन्द: छन्दःशास्त्रप्रसिद्धम् । चण्डवृष्टिप्रभृतयः तस्य दण्डकस्य भूरितरा भेदाः बहवो भेदाः छन्दःशास्त्रे ज्ञातव्याः ॥२८१ ।। (क०) अत्र झम्पटं लक्षयति-झम्पटच्छन्दसेति । " झम्पटं त्रिपदैः प्राहुः" इति तस्य लक्षणं गाथाभेदेषु द्रष्टव्यम् । क्रीडातालेनेति । 'क्रीडा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ संगीतरत्नाकरः कन्दुकप्रबन्धः पदैः पाटैश्च बिरुदैः कन्दुकः परिगीयते ॥ २८२ ॥ इति कन्दुकप्रबन्धः। त्रिभङ्गिप्रबन्धः स्वरैः पाटैः पदैरुक्तस्त्रिभङ्गिः स च पञ्चधा। एकस्त्रिभङ्गितालेन वृत्तेनान्यस्त्रिभगिना ॥ २८३ ।। द्रुतौ विरामान्तौ ' इति तस्य लक्षणं वक्ष्यते । तत्राद्यं पादद्वयमुद्ग्राहः । तृतीयः पादो ध्रुवः । पूर्ववदाभोगः कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । छन्दस्तालनिबद्धत्वात् निर्युक्त एव । पदतालबद्धत्वात् द्वयङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ २८२ ॥ (सं०) झम्पटं लक्षयति-झम्पटेति । झम्पट: छन्दःशास्त्रे प्रसिद्धः । तेन छन्दसा क्रीडातालेन यत् गीयते, तत् झम्पटम् ॥ २८२ ॥ (क०) अथ कन्दुकं लक्षयति-पदैरित्यादि । अयमपि गाथाभेदो द्रष्टव्यः । अत्र पदैः प्रथमः पादः । पाटैर्द्वितीयः । बिस्दैस्तृतीयः । उद्ग्राहादिविभागः पूर्ववत् । तालाद्यनियमादनिर्युक्त एव । स्वरतेनकाभावाच्चतुरङ्गः । दीपनीजातिमान् । सिंहलीलादिषु पञ्चसूदग्राहे न्यासः कर्तव्यः । एवमनुक्तन्यासस्थानेषु सर्वत्र न्यायोऽनुसंधेयः ॥ २८२ ॥ (सं०) कन्दुकं लक्षयति-पदैरिति । पदैः पाटैविरुदैस्त्रिभिरङ्गैनिर्मित: कन्दुकप्रबन्धः ॥ २८२ ॥ (क०) त्रिभङ्गिं लक्षयति-स्वरैः पाटैरित्यादि । त्रिभङ्गितालेनेति । 'त्रिभङ्गिः सगणाद् गुरुः' इति तस्य लक्षणं वक्ष्यते । वृत्तेनेति । त्रिभनिवृत्तमपि गाथाभेदो द्रष्टव्यः । स्पष्टार्थमन्यत् । पञ्चसु त्रिभङ्गिपदेष्वपि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः तालै रागैस्त्रिभिर्यद्वा यद्वा वृत्तत्रयान्वितः । यद्वा देवत्रयस्तुत्या तालद्वैगुण्यमुक्तकः ॥ २८४ ॥ इति त्रिभङ्गिप्रबन्धः । हरविलासप्रबन्धः पदैः सबिरुदैः पाटैस्ते नै हर विलासकः । इति हरविलास प्रबन्धः । सुदर्शनप्रबन्धः ३२३ पदैश्च विरुदैस्तेनैर्निर्दिशन्ति सुदर्शनम् ॥ २८५ ॥ इति सुदर्शनप्रबन्धः । 1 सामान्यलक्षणोक्तः स्वरपाटपदानां प्रयोगः क्रमेण कर्तव्यः । उद्ग्राहादिविभागोऽपि भेदेषु यथायोगमुन्नेयः । अन्यपदैराभोगः । तेनायं त्रिधातुः । क्वचिच्छन्दस्तालादिनियमान्निर्युक्तः । अन्यत्र तदभावादनिर्युक्तः । विरुदतेनकाभावाच्चतुरङ्गः । दीपनीजातिमान् ॥ २८३, २८४ ॥ (सं०) त्रिभङ्गि लक्षयति-पदैरिति । पदैः पाटैः स्वरैश्च त्रिभङ्गिर्गीयते । स पञ्चप्रकार :- कश्चित् त्रिभङ्गिनाम्ना वक्ष्यमाणेन तालेन गीयते ; कश्चित् त्रिभङ्गिनाम्ना छन्दसा ; कश्चित् त्रिभिस्तालै रागैश्च ; कश्चित् त्रिभिश्छन्दोभिः । कश्चित् त्रयाणां देवानां स्तुत्या युक्त इति पञ्चविधस्त्रिभङ्गिप्रबन्धः ॥ २८३, २८४ ॥ (क०) अथ हरविलासं लक्षयति - पदैरित्यादि । सविस्दैरिति पदविशेषणम् । अतो बिरुदस्योपसर्जनत्वश्रुत्या पदशेषत्वं प्रतीयते । तेन सबिरुदैः पदैरेकं गीतखण्डं गायेदिति भावः । अनन्तरं पाटैर्द्वितीयः खण्डः । ततस्तेनैस्तृतीयः । तत्र प्रथमखण्ड उद्ग्राहः । द्वितीयतृतीयौ ध्रुवौ । पदान्तरैराभोगः । अतोऽयं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनिर्युक्तः । स्वराभावात् पञ्चाङ्गः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: स्वराङ्कप्रबन्धः पदैः स्वरैश्च विरुदैरुद्ग्राहादित्रयं क्रमात् । एकद्वित्राच तालाः स्युः खराङ्के न्यसनं स्वरैः ' ॥ २८६ ॥ इति स्वराङ्कप्रबन्धः । ३२४ श्रीवर्धनप्रबन्धः श्रीवर्धनः स्याद्विरुदैः पाटैरपि पदैः स्वरैः । आनन्दिनीजातिमान् । अथ सुदर्शनं लक्षयति-- पदैश्चेत्यादि । स्पष्टार्थः । स्वरपाटाभावाच्चतुरङ्गोऽयम् । दीपनीजातिमान् ॥ २८५ ॥ (सं०) हरविलाससुदर्शनौ लक्षयति-पदैरिति । स्पष्टार्थौ ॥ २८५ ॥ (क०) अथ स्वराङ्कं लक्षयति – पदैरित्यादि । पदैरुद्ग्राहः ; स्वरैमेलापः, विरुदैर्ध्रुव इत्ययं क्रमः । अत्रोद्ग्राहादित्रयमिति विशेषोक्त्या मेलापकसद्भावादनुक्तविशेषेषु प्रबन्धेषु मेलापकाभावो ज्ञायते । एकद्वित्रा ताला इति । उद्ग्राहे एकस्ताल:, मेलापके द्वौ तालौ, ध्रुवे त्रयस्तालाः कर्तव्याः स्युः । मालवश्रियेति । मालवश्रीसंज्ञकेन रागेण गातव्य इत्यर्थः । आभोगः पूर्ववत् कर्तव्यः । तेनायं चतुर्धातुः । रागनियमान्निर्युक्तः । पाटनकाभावात् चतुरङ्ग: । दीपनीजातिमान् ॥ २८६ ॥ (सं०) स्वराङ्कं लक्षयति-पदैरिति । पदैरेकेन तालेनोद्ग्राहः ; स्वरैस्तालद्वयेन ध्रुव : ; बिरुदैस्तालत्रयेणाभोग: ; स्वरैः समाप्तिः; स स्वराङ्कः ॥ २८६ ॥ ( क ० ) अथ श्रीवर्धनं लक्षयति - श्रीवर्धन इत्यादि । अत्र बिरुद - 1 मालवश्रिया इति कलानिधिपाठ: । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः तालमानद्वयन्यासो निःशङ्केन प्रकीर्तितः ॥ २८७ ॥ इति श्रीवर्धनप्रबन्धः। हर्षवर्धनप्रबन्धः पदैश्च विरुदैहर्षवर्धनः स्वरपाटकः । इति हर्षवर्धनप्रबन्धः। वदनप्रबन्धः छपद्वयं दो वदनं स्वरपाटयुतान्तरम् ॥ २८८ ।। तथोपवदनं प्रोक्तं छगणाचदतैर्युतम् । तथैव वस्तुवदनं छयुगाद्दचतैः कृतम् ॥ २८९ ॥ इति वदनप्रबन्धः। पाटाभ्यामुग्राहः । पदस्वराभ्यां ध्रुवः । सुगममन्यत् । हर्षवर्धनलक्षणं स्पष्टार्थम् ॥ २८७, २८८ ॥ (सं०) श्रीवर्धनं लक्षयति-श्रीवर्धन इति । बिरुदादिभिर्विरचितः श्रीवर्धनः। तस्य तालावृत्तिद्वयेन न्यासः । हर्षवर्धनं लक्षयति--पदैरिति । पदबिरुदमात्रैविरचितो हर्षवर्धनः ॥ २८७, २८८ ॥ (क०) अथ वदनं लक्षयति-छपद्वयमित्यादि । छपयोः छगणपगणयोर्द्वयं दो दगणश्चेति वदनस्य पादे त्रयो मात्रागणा भवन्ति । अयमेवो ग्राहः । स्वरपाटयुतान्तरमिति । तादृगेव द्वितीयः पादः स्वरपाट्युतः सन्नन्तर इति व्यपदिश्यते । अत्र युतशब्देन 'छपद्वयं दः' इत्येतदन्तरेऽपि कर्तव्यमिति गम्यते ; अन्यथा स्वरपाटकृतान्तरमित्येव ब्रूयात् । अत्रान्तरशब्देन ध्रुव उच्यते, उग्राहाभोगयोर्मध्ये भवत्वात् । न तु ध्रुवाभोगान्तरजातो धातुः; तथा सति पत्र पार्थक्येन ध्रुवेण भवितव्यम् ; तदभावादिति भावः । स्वरपाट Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ संगीतरत्नाकरः चच्चरीप्रबन्धः रागो हिन्दोलकस्तालश्चच्चरी बहवोऽज्रयः । यस्यां षोडशमात्राः स्युद्वौ द्वौ च प्राससंयुतौ ॥२९०॥ सा वसन्तोत्सवे गेया चचरी प्राकृतैः पदैः। चचरीच्छन्दसेत्यन्ये क्रीडातालेन वेत्यपि ॥ २९१ ॥ घत्तादिच्छन्दसा वा स्याच्छन्दोलक्ष्मोदिताभिधा। इति चच्चरीप्रबन्धः । युतोऽन्तरो यस्मिन्निति वदनविशेषणम् । सुगममन्यत् । अत्र पदान्तरैराभोगः कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । छन्दस्तालाद्यनियमादनियुक्तः । बिरुदतेनकहीनत्वात चतुरङ्गः । दीपनीजातिमान् ॥ २८८, २८९ ।। ___(सं०) वदनं लक्षयति-छपद्वयमिति । छाण: पूर्व, ततश्च पद्वयं, ततोऽनन्तरं दो दगण: ; एतैः स्वरैः पाटर्युक्तमन्तरं मध्यप्रदेशो यस्य तत् वदनम्। तदेव छगणचगणदगणतगणैर्युतमुपवदनम् । तथैव स्वरपाटविरचितं छाणद्वयेन दगणचगणतगणैः कृतं चेत् वस्तुवदनमित्युच्यते । षण्मात्रो गणश्छगण:, चतुर्मात्रश्चः, त्रिमात्रस्त:, द्विमात्रो द इति पूर्वोक्तमनुसंधेयम् ॥ २८८, २८९ ॥ (क०) अथ चच्चरी लक्षयति-राग इत्यादि । चच्चरी ताल इति । 'विरामान्तद्रुतद्वंद्वान्यष्टौ लवु च चच्चरी' इति तस्य लक्षणं वक्ष्यते । यस्यां चच्चयाँ पोडशमात्रा बहवोऽज्रयः स्युः । तत्र द्वौ द्वौ पादौ प्रासयुतौ भवतः । चचरीच्छन्दसेति । षोडशमात्रात्मकपादयुक्तं चच्चरीच्छन्दः अवगन्तव्यम् । क्रीडातालेन वेति । 'क्रीडा द्रुतौ विरामान्तौ' इति तस्य लक्षणं वक्ष्यते । घत्तादिच्छन्दसा वेति । यदा क्रीडातालेन प्रयुज्यते, तदा धत्तादिच्छन्दः प्रयोक्तव्यमित्यर्थः । तत्रादिशब्देन यत् क्रीडातालप्रयोगयोग्यं तत् छन्दो गृह्यते । घत्ताच्छन्दोऽपि तादृशमवगन्तव्यम् । छन्दोलक्ष्मोदिताभि Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः चर्याप्रबन्धः ३२७ पद्धडीप्रभृतिच्छन्दाः पादान्तप्रासशोभिता ॥ २९२ ॥ अध्यात्मगोचरा चर्या स्याद् द्वितीयादितालतः । सा द्विधा छन्दसः पूर्त्या पूर्णापूर्णात्वपूर्तितः ॥ २९३ ॥ समधुवा च विषमधुवेत्येषा पुनर्द्विधा । धेति । इयमेव चच्चरी यदा छन्दोऽन्तरेण गीयते, तदा छन्दः शास्त्रोक्ततत्तच्छन्दोनाम्ना व्यपदिश्यत इत्यर्थः । अत्र पूर्वार्धमुद्ग्राहः । उत्तरार्धं ध्रुवः । पृथक्पदैराभोगः । अतोऽयं त्रिधातुः । छन्दस्तालनियमान्निर्युक्तः । पदतालबद्धत्वात् द्व्यङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ २९०-२९२ ॥ (सं०) चचरी लक्षयति- राग इति । पूर्वोक्तो हिन्दोलो रागः । 'विरामान्तद्रुतद्वद्वान्यष्टौ लघु च चच्चरी' इति वक्ष्यमाणश्चच्चरीताल: । षोडशमात्रा बहवः पादाः । तेषु द्वौ द्वौ पादावनुप्राससंयुक्तौ । सा चञ्चरी । प्राकृतैः देशभाषोपनिबद्धैः पदैः कृता । वसन्तोत्सवे गेया । मतान्तरमाह - चञ्चरीति । चच्चरीनाम्ना छन्दसा गेयेयमिति केचिदाहुः । केचित्तु क्रीडातालेन गेयेत्याहु: ; अथवा घत्तायत्यादिच्छन्दसा | छन्दोलक्षणे उदिता अभिधा यस्याः ; येन छन्दसा गीयते तन्नामवती भवतीत्यर्थः ॥ २९० - २९२॥ (क० ) अथ चर्यां लक्षयति-- पद्धडीत्यादिना । पद्धडीप्रभृतिच्छन्दा इति । पद्धडीप्रभृतीनि छन्दांसि यस्याः सा ; पद्धडीप्रभृतिषु छन्दःस्वेकेन बद्धेत्यर्थः । पद्धडीछन्दोलक्षणमनन्तरमेव वक्ष्यते । अध्यात्मगोचरेति । अध्यात्मं विषयीकृत्य प्रवृत्तेत्यर्थः । द्वितीयादितालत इति । ' दौ लो द्वितीयकः' इति द्वितीयतालस्य लक्षणं वक्ष्यते । आदिशब्देन तत्सममात्रोऽन्योऽपि तालो गृह्यते । समधुचेति । समो ध्रुवो यस्या इति बहुव्रीहिः । समशब्दस्य सापेक्षत्वादत्र प्रत्यासत्त्योद्ग्राह एवापेक्ष्यते । तेन 1 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ संगीतरत्नाकरः आवृत्त्या सर्वपादानां गीयते सा ध्रुवस्य वा ।। २९४ ॥ इति चर्याप्रबन्धः । पद्धडीप्रबन्धः 'चरणान्तसमप्रासा पद्धडीच्छन्दसा युता। बिरुदैः स्वरपाटान्तै रचिता पद्धडी मता ॥ २९५ ॥ इति पद्धडीप्रबन्धः। ध्रुवस्योद्ग्राहसमत्वमवगम्यते । एवं विपमध्रुवेत्यत्रापि ध्रुवस्योद्ग्राहापेक्षया न्यूनत्वेन वाधिकत्वेन वा विषमत्वं द्रष्टव्यम् । आभोगः पृथक्पदैः कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । छन्दस्तालनियमान्नियुक्तः । पदतालबद्धत्वात् द्वयङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ २९२-२९४ ।। (सं०) चर्या लक्षयति-पद्धडीति । पद्धडीराहडीमुख्यानि छन्दांसि यस्याम् ; पादानामन्तोऽनुप्रासयुक्तः ; अध्यात्मवाचकैः पदैरुपनिबद्धा ; सा चर्या । द्वितीयादितालैः सा कर्तव्या। तृतीयाबहुवचनार्थ तसिल्प्रत्ययः । सा द्विप्रकाराछन्द:पूर्ती पूर्णा ; अपूर्तावपूर्णा । पुनरपि द्विधा--सर्वेषां पादानामावृत्तौसमध्रुवा; ध्रुवस्यैवावृत्तौ विपमधुवेति ॥ २९२-२९४ ॥ (क०) अथ पद्धडी लक्षयति-चरणान्तेत्यादि । चरणान्तेषु पादान्तेषु सम एकरूपः प्रासो वर्णावृत्तिर्यस्याः सा । पद्धडीच्छन्दसेति । " षोडश मात्राः पादे पादे यत्र भवन्ति निरस्तविवादे । पद्धडिका जगणेन विमुक्ता चरमगुरुः सा सद्धिरिहोक्ता ॥" इति तस्य लक्षणमुदाहरणं च । तेन छन्दसा युक्ता । स्वरपाटान्तैविरुदैः रचितेति । प्रथमाधैं बिस्दैः रचयित्वा स्वरान् प्रयुञ्जीत । द्वितीयार्धमपि 1 युग्मपादान्तगप्रासा इति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ३२९ राहडीप्रबन्धः यत्र वीररसेन स्यात् संग्रामरचितस्तुतिः। बहुभिश्चरणैः सात्र राहडी परिकीर्तिता ।। २९६ ॥ इति राहडीप्रबन्धः। वीरश्रीप्रबन्धः पदैश्च विरुदैर्बद्धा वीरश्रीरिति गीयते । इति वीरश्रीप्रबन्धः। बिस्दैः रचयित्वा पाटान् प्रयुञ्जीतेत्यर्थः । अत्र सस्वरं प्रथमार्धमुग्राहः । सपाट द्वितीया) ध्रुवः । पदैराभोगः कल्पनीयः । तेनायं त्रिधातुः । छन्दोनियमानियुक्तः । तेनकाभावात् पञ्चाङ्गः । आनन्दिनीजातिमान् ॥ २९५ ॥ (सं०) पद्धडी लक्षयति-युग्मेति । युग्मयोः द्वितीयचतुर्थयोः पादयोरन्ते अनुप्रासयुता, पद्धडीच्छन्दसा पाटान्तैः स्वरसहितैर्बिरुदैश्च कृता पद्धडी ॥ २९५ ॥ (क०) अथ राहडी लक्षयति-यत्रेति । संग्रामरचितस्तुतिरिति वीररसेनेत्यस्य स्पष्टीकरणम् । तत्र बहुषु चरणेषु केचनोद्ग्राहाः, केचन ध्रुवाः कर्तव्याः । पृथगाभोगः कल्पनीयः । तेनायं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनियुक्तः । पदतालबद्धत्वात् द्वयङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ २९६ ॥ (सं०) राहडी लक्षयति-यत्रेति । बहुभिः पादैः संग्रामो वर्ण्यते यस्यां सा राहडी ॥ २९६ ॥ (क०) अथ वीरश्रियं लक्षयति-पदैरित्यादि । पदैरुद्ग्राहः । बिस्दैर्धवः । आभोगः पृथक् कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः। तालाद्यनियमादनिर्युक्तः । पदतालबिरुदबद्धत्वात् त्र्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २९७ ॥ 42 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० संगीतरत्नाकरः मङ्गलाचार प्रबन्धः यस्तु गद्येन पद्येन गद्यपद्येन वा कृतः || २९७ ।। कैशिक्या मङ्गलाचारः सनिःसारुः खरान्वितः । इति मङ्गलाचारप्रबन्धः । धवलप्रबन्धः त्रिविधो धवलः कीर्तिर्विजयो विक्रमस्तथा ॥ २९८ ॥ चतुर्भिश्चरणैः षड्भिरष्टभिश्च क्रमादसौ । (सं०) वीरश्रियं लक्षयति — पदैरिति । पदैर्विरुदैव निबद्धा वीरश्रीः ॥ २९७ ॥ I ( क ० ) अथ मङ्गलाचारं लक्षयति — यस्त्वित्यादि । गद्यपद्येनेति द्वंद्वैकवद्भावः । कैशिक्येति । कैशिकी नाम शुद्धपञ्चमस्य भाषारागः ; तया गातव्यः । सनिःसारुरिति । निःसारुतालेन सहितः । ' विरामान्तौ लघू निःसारुको मतः' इति तस्य लक्षणं वक्ष्यते । स्वरान्वित इति । पदान्ते अर्धान्ते वा स्वरैरन्वितः कर्तव्यः । अत्र सस्वरं प्रथमार्ध मुद्ग्राहः । सस्वरं द्वितीयार्धं ध्रुवः । आभोगः पृथक् कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । तालादिनियमान्निर्युक्तः। पदस्वरतालबद्धत्वात् व्यङ्गः । भावनीजातिमान् ॥ २९७, २९८ ॥ (सं०) मङ्गलाचारं लक्षयति - यस्त्विति । कैशिकीगगेण निःसारुतालेन स्वरसहितो यो गीयते स मङ्गलाचारः । स त्रिविध:-- गद्यजः, पद्यजः, गद्यपद्यश्चेति ॥ २९७, २९८ ॥ (क०) अथ धवलं लक्षयति - त्रिविध इत्यादि । चतुर्भिश्वरणैः रचितः कीर्तिधवलः, पड्भिः रचितो विजयधवलः, अष्टभिः रचितो विक्रम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः विषमे तु छयुग्मं स्यात् तो वा दो वाधिकः समे ।।२९९।। तदा स्यात् कीर्तिधवलो विजये त्वाद्यतुर्ययोः। दौ द्वौ षष्ठे द्वितीये च शेषौ द्वा छेन पेन वा ॥ ३०० ॥ प्रथमे चास्त्रयो दः स्यात तृतीये दास्त्रयस्तु च । तुर्यद्वितीययोश्चैतत् पञ्चमे सप्तमे तथा ।। ३०१ ॥ षष्ठेऽष्टमे दाश्चत्वारो यस्यासौ विक्रमो मतः। आशीभिर्धवलो गेयो धवलादिपदान्वितः ।। ३०२॥ यहच्छया वा धवलो गेयो लोकप्रसिद्धितः । इति धवलप्रबन्धः। धवल इति क्रमो द्रष्टव्यः । विपम इति । विपमे पादे छयुग्मं छगणयोः षण्मात्रिक्योर्युग्मं स्यादिति । विषमपादे द्वादश मात्राः कर्तव्या इत्यर्थः । समे समपादे । तो वा दो वाधिक इति । छयुग्मात् परं तगणस्त्रिमात्रिकः, दगणो द्विमात्रिको वाधिको भवति । समपादे पञ्चदश वा चतुर्दश वा मात्राः कर्तव्या इत्यर्थः । विजये स्विति । षट्पादयुक्ते विजयधवले त्वाद्यतुर्ययोः पादयोः, तथा षष्ठे द्वितीये च पादे दो द्वौ दगणौ । कीर्तिधवलपादापेक्षयाधिको भवत इत्यर्थः । शेषौ तृतीयपञ्चमौ द्वौ पादौ छेन छगणेन पेन पगणेन वाधिको भवतः । विक्रमधवलस्य लक्षणमाह-प्रथम इति । प्रथमे पादे चाश्चगणास्त्रयः । दो दगणोऽपि स्यात् । तृतीयपादे दास्त्रयः । तुर्यद्वितीययोश्चैतदिति । चतुर्थे चास्त्रयो दश्च ; द्वितीये दास्त्रयस्तु चेत्यर्थः । पञ्चमे सप्तमे तथेति । पञ्चमे तुर्योक्तं सप्तमे द्वितीयोक्तं च द्रष्टव्यम् । षष्ठेऽष्टमे दाश्चत्वारो भवन्ति । आशीभिराशीर्वादैः । धवलादिपदान्वित इति । आदिशब्देन विमलादीनि गृह्यन्ते । यदृच्छयेति ; उक्तगणादिनियमराहित्येन । लोकप्रसिद्धित इति । वर्तमानलक्ष्यानुसारेणेत्यर्थः । त्रिप्वपि धवलभेदेषु पूर्वार्धमुग्राहः । उत्तरार्ध Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ संगीतरत्नाकरः मङ्गलप्रबन्धः कैशिक्यां बोहरागे वा मङ्गलं मङ्गलैः पदैः ॥ ३०३ ॥ विलम्बितलये गेयं मङ्गलच्छन्दसाथवा। इति मङ्गलप्रबन्धः। ध्रुवः । आभोगः पृथक् कर्तव्यः । तेनायं त्रिधातुः । तालाद्यनियमादनिर्युक्तः । पदतालबद्धत्वात् व्यङ्गः । तारावलीजातिमान् ॥ २९८-३०३ ॥ (सं०) धवलं लक्षयति-त्रिविध इति । धवलस्त्रिविधः । चतुर्भिश्चरणैरुपनिबद्धः कीर्तिः, षड्भिश्चरणैर्विजयः, अष्टभिश्चरणैर्विक्रम इति । एतेषु मात्रानियममाह-विषम इति । विषमे प्रथमे तृतीये च चरणे छगणद्वयम् | समे द्वितीये चतुर्थे च चरणे तगणो दगणो वाधिकः । तदा कीर्तिधवलः । प्रथमचतुर्थयोः षष्ठे द्वितीये च चरणे द्वौ दगणौ स्त: । शेषौ तृतीयपञ्चमौ छगणेन पगणेन वाधिकौ । तदा विजयधवलः। प्रथमे चगणत्रयम् ; दो दगणः । तृतीये दगणत्रयम् । चतुर्थद्वितीययोश्चैतदेव । पञ्चमे चगणत्रयं दगणश्च । सप्तमे दगणत्रयम् । षष्ठाष्टमयोर्दगणाश्चत्वारः । तदा विक्रमधवल इति । स च धवलो धवलादिपदैराशीर्वाद यः । यदृच्छया वेति ; यदृच्छया वा लोकप्रसिद्धितो वा गेयः ॥ २९८-३०३ ॥ (क०) अथ मङ्गलं लक्षयति—कैशिक्यामित्यादि । मङ्गलैः पदैरिति । शङ्खचक्राब्जकोककैरवादिशंसिभिरित्यर्थः। मङ्गलच्छन्दसेति । " पञ्च चकारगणाः प्रतिपादगताश्चेन्मङ्गलमाहुरिदं सुधियः खलु वृत्तम् " इति तस्य लक्षणमुदाहरणं च । अत्रोद्ग्राहादिकल्पनादिकं पूर्ववत् ॥३०३,३०४॥ (सं०) मङ्गलं लक्षयति—कैशिक्यामिति । कैशिकीरागे बोट्टरागे वा कल्याणवाचकैः पदैविलम्बितेन लयेन मङ्गलो गेयः । अथवा मङ्गलनाम्ना छन्दसा ॥ ३०३, ३०४ ॥ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रवन्धाध्यायः ओवीप्रबन्धः खण्डत्रयं प्रासयुतं गीयते देशभाषया ।। ३०४ ॥ ओवीपदं तदन्ते चेदोवी तज्ज्ञैस्तदोदिता। त्रयाणां चरणानां स्युरेकाद्यावृत्तितो भिदाः ॥ ३०५ ।। आदिमध्यान्तगैः प्रासैरेकायैश्च पदे पदे । छन्दोभिर्बहुभिर्गेया ओव्यो जनमनोहराः ।। ३०६ ।। इत्योवीप्रबन्धः। लोलीप्रवन्धः सानुप्रासेस्त्रिभिः खण्डैर्मण्डिता प्राकृतैः पदैः । प्रान्ते लोलीपदोपेता लोली गेया विचक्षणः ॥ ३०७॥ इति लोलीप्रबन्धः। ढोल्लरीप्रवन्धः दोहडः स्याद्यदा प्रान्ते प्रोल्लसदोल्लरीपदः । ढोल्लरी नाम सा प्रोक्ता लाटभाषाविभूषिता ।। ३०८॥ इति ढोल्लरीप्रबन्धः। दन्तीप्रबन्धः अनुप्रासप्रधानं चेत् खण्डत्रयसमन्वितम् । दन्तीपदान्वितं प्रान्ते तदा दन्ती निगद्यते ॥ ३०९ ।। इति दन्तीप्रबन्धः। (क०) ओव्यादीनां चतुर्णा लक्षणानि स्फुटार्थानि । मेलापकाभोगवर्जितत्वाच्चत्वारोऽपि द्विधातवः । तत्राद्यं खण्डद्वयमुनाहः । तृतीयं खण्डं ध्रुवः । इति Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: अनुक्ताभोगवस्तूनां पदैराभोगकल्पना । ओव्यादयस्तु चत्वारो भवन्त्या भोगवर्जिताः ॥ ३१० ॥ इति विप्रकीर्णप्रबन्धाः । ३३४ सालगसूडप्रबन्धानिरूपणम् शुद्धश्छायालगश्चेति द्विविधः सूड उच्यते । एलादिः शुद्ध इत्युक्तो ध्रुवादिः सालगो मतः ॥ ३११ ॥ तालाद्यनियमाच्चत्वारोऽप्यनिर्युक्ताः । पदतालबद्धत्वात् द्व्यङ्गाः । तारावलीजातिमन्तः ॥ ३०४-३१० ॥ (सं०) ओर्वी लक्षयति-खण्डत्रयमिति । देशभाषया अनुप्रासेन च खण्डत्रयोपेतमन्ते ओवीति पदं गीयते चेत्, तदा ओवी । एतस्याश्चरणावृत्तिभेदेन पदे पदे आदौ मध्ये अन्ते चानुप्रासभेदैश्च बहवो भेदा भवन्ति । एताश्च बहुभिश्छन्दोभिर्गेया: । लोलीं लक्षयति--सानुप्रासैरिति । ओवीलक्षणे ओवीपदस्थाने लोलीपदं प्रयुज्यते चेत्, तदा लोली । ढोल्लरीं लक्षयति- दोहड इति । पूर्वलक्षिते दोहडे प्रान्ते ढोल्लरीपदं गीयते चेत्, तदा ढोल्लरी । सा लाटभाषया गेया । दन्तीं लक्षयति - अनुप्रासेति । सानुप्रासं खण्डत्रयस्य प्रान्ते दीपदप्रक्षेपे दन्ती । साधारणं लक्षणमाह - अनुक्तेति । येषु प्रबन्धेष्वाभोगो नोक्तः, तत्र पंदेराभोगो ज्ञातव्य: । ओव्यादिषु चतुर्षु प्रबन्धेषु नास्त्याभोगः ॥ ३०४-३१० (क० ) अथाध्यायादावुद्दिष्टं सागसूडं लक्षयितुं संगतिं दर्शयतिशुद्ध इत्यादि । शुद्धः शास्त्रोक्तनियमेन प्रवर्तितः । छायालगः ; छायां शुद्धसादृश्यं लगति गच्छतीति तथोक्तः । एलादिरिति । एलामारभ्यैकताली - पर्यन्तमष्टभिर्गतैः शुद्धसूड इत्युक्तः । ध्रुवादिरिति । वक्ष्यमाणं ध्रुवमारभ्य Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः छायालगत्वमेलादेर्यद्यप्याचार्यसंमतम् । लोके तथापि शुद्धोऽसौ शुद्धसादृश्यतो मतः ॥ ३१२ ॥ 'जात्याद्यन्तरभाषान्तं शुद्धं प्रकरणान्वितम् ।। तत्रोक्तः शुद्धसूडः प्राक् सालगस्त्वधुनोच्यते ॥ ३१३॥ वक्ष्यमाणैकतालीपर्यन्तं सप्तभिगीतैः सालगसूडोऽभिमतः । सालग इति छायालगशब्दस्यापभ्रंशो लोकप्रसिद्धया प्रयुक्त इति वेदितव्यम् । ननु जात्यादेरेव शुद्धत्वम् ; एलादेस्तु तच्छायानुकारित्वात् सालगत्वमेव ; तत् कथमेलादिः शुद्ध इत्युक्तमित्यत आह—छायालगत्वमेलादेरित्यादि । शुद्धसादृश्यत इति । शुद्धस्य जात्यादेः सादृश्यतो नियमानतिलङ्घनादित्यर्थः । अतः शुद्धत्वमौपचारिकमेलादेः। ध्रुवादेस्तु नियमातिलङ्घनात् सर्वथा सालगत्वमेवेति भावः । जात्याद्यन्तरभाषान्तमिति । जातिकपालकम्बलगीतिग्रामरागोपरागभाषाविभाषान्तरभाषापर्यन्तमित्यर्थः । प्रकरणान्विमिति। तालाध्याये वक्ष्यमाणानि मन्द्रकादिचतुर्दशगीतानि प्रकरणानीत्युच्यन्ते । तान्यपि नियमानतिलङ्घनेनैव प्रवर्तितत्वात् शुद्धेऽन्तर्भूतानीत्यर्थः ॥ ३११-३१३ ॥ (सं०) सालगसूडं लक्षयितुमाह-शुद्ध इति । सूडो द्विविधः-शुद्धः, छायालगश्चेति । तत्रैलादिः शुद्धः; ध्रुवादिः सालगः । सालगछायालगौ पर्यायौ । ननु भरतेनैलादीनां छायालगत्वमुक्तम् ; तत् कथं शुद्धत्वमुच्यते ? तत्राहछायालगत्वमिति । शुद्धसादृश्येनैव शुद्धत्वम् ; न तु मुख्यं शुद्धत्वमित्यर्थः । किं तच्छुद्धम् , यत्सादृश्यमेलादे: ? तत्राह-श्रुत्यादीति । श्रुतिप्रकरणमारभ्यान्तरभाषापर्यन्तं यदुक्तं तत् | प्रकरणानि च तालाध्याये वक्ष्यमाणानि चतुर्दश गीतानि । एतावत् शुद्धम् । अनेन सह एलादेः सादृश्यमनियतत्वं सम्यक्प्रयोगे फलम् ; असम्यक्प्रयोगे दोष इत्यादि ज्ञातव्यम् ॥ ३११-३१३ ॥ 1 श्रुत्यादीति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ संगीतरत्नाकरः आयो ध्रुवस्ततो मण्ठप्रतिमण्ठनिसारुकाः । अड्डतालस्ततो रास एकतालीत्यसौ मतः ॥ ३१४ ॥ ध्रुवप्रबन्धः 'एकधातुर्द्विखण्डः स्याद्यत्रोद्ग्राहस्ततः परम् । किंचिदुचं भवेत् खण्डं द्विरभ्यस्तमिदं त्रयम् ॥ ३९५ ॥ ततो द्विखण्ड आभोगस्तस्य स्यात् खण्डमादिमम् । एकधातु द्विखण्डं च खण्डमुच्चतरं परम् ॥ ३९६ ॥ स्तुत्यनामाङ्कितश्चासौ कचिदुच्चकखण्डकः । उद्ग्राहस्याद्यखण्डे च न्यासः स ध्रुवको भवेत् ॥ ३१७॥ एकादशाक्षरात् खण्डादेकै काक्षरवर्धितैः । खण्डे ध्रुवाः षोडश स्युः षड्विंशत्यक्षरावधि ॥ ३१८ ॥ जयन्तशेखरोत्साहास्ततो मधुरनिर्मलौ । कुन्तलः कामलश्चारो नन्दनश्चन्द्रशेखरः || ३१९ ॥ कामोदो विजयाख्यश्च कंदर्पजयमङ्गलौ । तिलको ललितश्चेति संज्ञाचैषां क्रमादिमाः ॥ ३२० ॥ आदितालेन शृङ्गारे जयन्तो गीयते बुधैः । स नेतृश्रोतॄगातृणामायुः श्रीवर्धनो मतः ॥ ३२१ ॥ (क०) सालगसूडस्थानि गीतान्युद्दिशति - आद्यो ध्रुव इत्यादि । असाविति सालगसूडः । मतः संमतः । सभेदानां ध्रुवादीनां लक्षणानि स्पष्टार्थानि । ननु – ' मण्ठवत् प्रतिमण्ठादेर्लक्ष्मोद्ग्राहादिकं मतम्' इति वचनेन प्रतिमण्ठादिषूद्ग्राहाद्यवयवसंनिवेशस्य मण्ठवदित्यतिदेशात् मण्ठात् प्रतिमण्ठा 1 एकधातुद्विखण्ड इति सुधाकरपाठः । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ऋद्धिसौभाग्यदो वीरे निःसारी शेखरो भवेत् । प्रतिमण्ठेन हास्ये स्यादुत्साहो वंशवृद्धिकृत् ।। ३२२ ॥ मधुरो भोगदो गेयः करुणे हयलीलया। क्रीडातालेन शृङ्गारे निर्मलस्तनुते प्रभाम् ।। ३२३ ॥ लघुशेखरतालेन कुन्तलोऽभीष्टदोऽद्भुते । कामलो विप्रलम्भे स्याज्झम्पातालेन सिद्धिदः ॥३२४॥ हर्षोत्कर्षप्रदश्चारो वीरे निःसारुतालतः। नन्दनो वीरशृङ्गार एकताल्येष्टसिद्धिदः॥ ३२५ ॥ वीरे हास्ये च शृङ्गारे प्रतिमण्ठेन गीयते । अभीष्टफलदः श्रोतृगातृणां चन्द्रशेखरः ॥ ३२६ ॥ प्रतिमण्ठेन शृङ्गारे कामोदोऽभीष्टकामदः। हास्ये द्वितीयतालेन विजयो नेतुरायुषे ।। ३२७ ।। हास्यशृङ्गारकरुणेष्वादितालेन गीयते । कंदो भोगदो नृणां श्रीसदाशिवसंमतः ।। ३२८ ॥ क्रीडातालेन शृङ्गारे वीरे च जयमङ्गलः। जयोत्साहप्रदः पुंसां ध्रुवकस्तिलकाभिधः ॥ ३२९ ॥ रसे वीरे च शृङ्गार एकताल्या प्रगीयते ।। प्रतिमण्ठेन शृङ्गारे ललितः सर्वसिद्धये ॥ ३३० ॥ दीनामवयवसंनिवेशकृतो भेदो नास्त्येव ; ' तथाऽप्येषां विशेषस्तु प्रत्येक प्रतिपाद्यते' इति प्रतिज्ञाय 'तत्र च प्रतिमण्ठेन तालेन प्रतिमण्ठकम् । इत्यादिभिर्वचनैस्तालानामेवात्र भेदकत्वेनोपादानात् केवलानां रसानामत्र भेदकत्वं न विवक्षितमेव । एवं स्थिते सति मण्ठभेदस्य कलापस्य ताल: 'कलापो नगणेन तु विरामान्तेन ' इत्युक्तः । तथा प्रतिमण्ठभेदस्य विचारस्यापि तालः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः स्याद्वर्णनियमः सर्वखण्डे खण्डद्वये तथा । यथोक्तान् यो जयन्तादीन् गायेन्निपुणया धिया ॥ ३३१ ॥ सर्वक्रतुफलं तस्येत्यवोचन्मुनिसत्तमः । इति ध्रुवप्रबन्धः । मण्ठ प्रबन्धः ३३८ द्वित्येक विरामं वा यस्योद्राहाख्यखण्डकम् ॥ ३३२ ॥ ततः खण्डं ध्रुवाख्यं द्विस्ततो वैकल्पिकोऽन्तरः । तं गत्वा ध्रुवमागत्य वाभोगो गीयते सकृत् ॥ ३३३ ॥ ध्रुवे न्यासस्ततः प्रोक्तः स मण्ठो मण्ठतालतः । जयप्रियो मङ्गलश्च सुन्दरो वल्लभस्तथा ॥ ३३४ ॥ कलापः कमलश्चेति षड् भेदा मण्ठके मताः । षट्कारो मण्ठतालो रूपकं तेन भिद्यते ॥ ३३५ ॥ वीरे जयप्रियो गेयो मण्ठेन जगणात्मना । मङ्गलो भेन शृङ्गारे सुन्दरः सेन तद्रसे ॥ ३३६ ॥ वल्लभो रेण करुणे कलापो नगणेन तु 1 विरामान्तेन गातव्यो रसे हास्ये विचक्षणैः ॥ ३३७ ॥ विरामान्तद्रुतद्वंद्वाल्लघुना कमलोद्भुते । इति मण्ठप्रबन्धः । 'लघुत्रयाद्विरामान्ताद्विचारः' इत्युक्तः । अत एव तयोर्लक्षणयोः शब्दभेद एव, न त्वर्थभेदः। तेन मण्ठप्रतिमण्ठयोस्तायोरत्रार्थ पौनरुक्त्यं दोष इति चेत्; सत्यम् । अत्यल्पमिदमुच्यते द्वयोस्ताल्योः पौनरुक्त्यं दोष इति । किंतु उत्तरस्मिन्नध्याये विंशत्यधिकशतेषु देशीतालेषु लक्षितेषु तत्र सागसूडाश्रयैः कैश्चिदन्यैस्तालैः सह केषांचिह्ननां तालानां द्वयोर्द्वयोस्त्रयाणां त्रयाणां च मिथः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ३३९ ___ प्रतिमण्ठप्रबन्धः मण्ठवत् प्रतिमण्ठादेर्लक्ष्मोद्वाहादिकं मतम् ॥ ३३८ ॥ तथाप्येषां विशेषस्तु प्रत्येक प्रतिपाद्यते। तत्र च प्रतिमण्ठेन तालेन प्रतिमण्ठकः ॥ ३३९ ॥ चतुर्धा सोऽमरस्तारो विचारः कुन्द इत्यपि। अमरो गुरुणैकेन शृङ्गारे स विधीयते ॥ ३४० ॥ विरामान्तद्रुतद्वंद्वाल्लघुद्वंद्वेन जायते । ताराख्यः प्रतिमण्ठोऽसौ रसयोर्वीररौद्रयोः ॥ ३४१ ॥ लघुत्रयाद्विरामान्ताद्विचारः करुणे भवेत् । कुन्दो विराममध्येन लत्रयेणाद्भते भवेत् ॥ ३४२ ॥ ते शृङ्गारेऽपि चत्वारो गीयन्ते लक्ष्मवेदिभिः। इति प्रतिमण्ठप्रवन्धः। निःसारुकप्रबन्धः बद्धो निःसारुतालेन प्रोक्तो निःसारुको वुधैः ॥ ३४३ ।। वैकुन्दानन्दकान्ताराः समरो वाञ्छितस्तथा । विशालश्चेति स प्रोक्तः षड्विधः सूरिशाङ्गिणा ॥३४४॥ द्रुतद्वंद्वाल्लघुद्वंद्वाद्वैकुन्दो मङ्गले भवेत्।। कुर्यादानन्दमानन्दे विरामान्तद्रुतद्वयात् ॥ ३४५ ॥ पौनरुक्त्यं लक्षणतः प्रतीतं भविष्यति । तस्य तत्रैव परिहारं वक्ष्याम इति 'अत्र पृथङ् नोच्यते । ननु जयन्तादिषु षोडशसु ध्रुवेषु योऽक्षरसंख्यानियम उक्तः, स वर्तमानेषु केषुचित् ध्रुवेषु न दृश्यते ; तत् कथं तेषां लक्षणहीनत्वेऽपि लोके परिग्रह इति चेत्, सत्यमेतत् । अत्राक्षरशब्देन पदान्यप्युच्यन्ते; यथायमक्षरार्थ इति पदार्थो वर्ण्यते । तेन कचित् पदानां वा संख्याया नियमो Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः कान्तारो लगुरुभ्यां स्याद्विप्रलम्भे स गीयते । लघुद्वयाद्विरामान्तात् समरो वीरगोचरः ॥ ३४६ ॥ लघुत्रयाद् द्रुतद्वंद्वाद्वाञ्छितो वाञ्छितप्रदः। संभोगे स्याद्विशालाख्यो लाद् द्रुतद्वयतो लघोः॥३४७॥ इति निःसारुकप्रबन्धः। अइतालप्रबन्धः अड्तालेन तालेनाडुतालः परिकीर्तितः । निःशङ्कशङ्कशीलाश्च चारोऽथ मकरन्दकः ॥ ३४८॥ विजयश्चेति स प्रोक्तः षोढा सोढलसूनुना। लगुरुभ्यां द्रुतद्वंद्वान्निःशङ्को विस्मये भवेत् ॥ ३४९ ॥ लघो१तद्वयेन स्याच्छङ्कः शृङ्गारवीरयोः। शान्ते शीलो विरामान्तद्रुतद्वंद्वाल्लघोर्भवेत् ॥ ३५० ॥ द्रुतद्वंद्वाल्लगाभ्यां स्याचारो वीरेऽद्भुते रसे । शृङ्गारे मकरन्दः स्याद् द्रुतद्वंद्वात् परे गुरौ ।। ३५१ ॥ विजयाख्यो रसे वीरे द्रुताभ्यां लघुना भवेत् । __इति अडतालप्रवन्धः। द्रष्टव्यः । यत्र सोऽपि नास्ति, तत्राक्षरादेः संख्यानियमाभावान्नियमोक्तादृष्टफलस्याभाव एव, न तु दृष्टफलस्य जनरञ्जनादेरपि । तेन तेषां लोकपरिग्रहोऽप्युपपन्न एव । अनियताक्षररसतालयुक्तस्योद्ग्राहाद्यवयवसंनिवेशस्याविशिष्टत्वेन तेषामपि सलक्षणत्वात् ध्रुवव्यवहारो न हीयत एव । मण्ठादीनां च रसतालादिनियमाभावोऽप्येवं द्रष्टव्यः । एते ध्रुवादयः सप्तापि मेलापकाभावात् त्रिधातवः । मण्ठादयस्तु षडपि 'ततो वैकल्पिकोऽन्तरः' इति वचनेन सान्तरत्व Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः ३४१ रासकप्रबन्धः रासको रासतालेन स चतुर्धा निरूपितः ।। ३५२ ॥ विनोदो वरदो नन्दः कम्बुजश्चेति शार्ङ्गिणा । आलापान्तध्रुवपदाद्विनोदः कौतुके भवेत् ॥ ३५३ ॥ ध्रुवादालापमध्यात्तु वरदो देवतास्तुतौ । खण्डमाद्यं द्विखण्डस्योद्ग्राहस्यालापनिर्मितम् ॥ ३५४ ॥ यस्यासौ रासको नन्दो गीयतेऽभ्युदयप्रदः । आलापादेर्ध्रुवपदात् कम्बुजः करुणे भवेत् ॥ ३५५ ।। सर्वेषु रासवेषु द्विखण्डोद्वाहकल्पना । इति रासकप्रबन्धः । एकतालीप्रबन्धः एकताली भवेत्तालेनैकताल्या त्रिधा च सा ।। ३५६ ।। रमा च चन्द्रिका तद्वद्विपुलेत्यथ लक्षणम् । सकृद्विरतिरुद्वाहोऽन्तरस्त्वक्षरनिर्मितः ॥ ३५७ ॥ यस्यामसौरमासा च गातृश्रोत्रोः श्रिये भवेत् । उद्वाहो द्विदलो यस्यामालापरचितोऽन्तरः || ३५८ ।। घनता घनयतिर्घनानुप्रासयोगिनी । चन्द्रिका सैकताली स्याद् भूरिसौभाग्यदायिनी ॥ ३५९ ॥ पक्षे तेनान्तरेण सह चतुर्धातवः ; अनन्तरत्वपक्षे तु त्रिव एव । अयमन्तरो लौकिकैरुपान्तर इत्युच्यते । तथा तैर्ध्रुवखण्डस्यान्तरव्यपदेशः कृत इति मन्तव्यम् । क्वचित् ध्रुवखण्डस्यान्तरव्यपदेशो ग्रन्थकारेणापि कृतः ; यथात्रैकतालीलक्षणे ' सकृद्विरतिरुद्ग्राहोऽन्तरस्त्वक्षरनिर्मितः ' इत्यत्रोद्ग्राहानन्तरमन्तरग्रहणादन्तरशब्देन ध्रुवखण्ड एवोच्यत इति गम्यते । अत्रान्तरस्त्वित्यत्र तुशब्देन Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकर: आलाप पूर्वकोद्वाहा विपुलानन्ददायिनी । आलापो गमकालतिरक्षरैर्वर्जिता मता ॥ ३६० ॥ सैव प्रयोगशब्देन शार्ङ्गदेवेन कीर्तिता । इत्येकतालीप्रबन्धः । इति सालगसूडप्रबन्धाः । ३४२ उद्ग्राहस्यालापरचितत्वमवगन्तव्यम् । एवम् ' आलापरचितोऽन्तरः' इत्यत्रापि ध्रुव एवान्तरशब्दवाच्यः । एते ध्रुवादयस्तालादिनियमान्निर्युक्ताः । पदतालबद्धत्वात् द्व्यङ्गाः । तारावलीजातिमन्तः ॥ ३१४-३६१ ॥ (सं०) सालगसूडप्रबन्धान् विभजते – आयो ध्रुव इति । ध्रुवादयः सप्त प्रबन्धाः । तेषु ध्रुवं लक्षयति - एकधात्विति । पूर्वे सदृश गेयखण्डद्वययुक्त उद्ब्राहः कर्तव्यः । ततोऽनन्तरं किंचिदुच्चं खण्डमन्तराख्यं कर्तव्यम् । एतत् त्रयमपि द्विरभ्यस्तं द्विर्गेयम् । ततोऽनन्तरं खण्डद्वययुक्त आभोगः । तस्य प्रथमं खण्डं सदृशगेयखण्डद्वययुक्तम् । द्वितीयखण्डं ततोऽप्युच्चं गातव्यम् | असावाभोग: स्तुत्यस्य नायकस्य नाम्ना युक्तः कार्यः । कचित् केषांचिन्मतेऽयमुच्चकखण्डो गातव्यः । उद्ग्राहस्य आद्यखण्डे च समाप्तिः । ध्रुव इति ज्ञेयः । तस्य भेदानाह – एकादशेति । एकादशाक्षरखण्डादारभ्य षड्विंशत्यक्षरखण्डपर्यन्तमेकै काक्षरवृद्धया जयन्तादयो ललितान्ता षोडशवा भवन्ति । तेषां क्रमेण लक्षणमाह - आदितालेनेति । आदितालेन एकादशाक्षरखण्डो जयन्तः । निःसारुतालेन द्वादशाक्षरखण्ड : शेखरः । प्रतिमण्ठतालेन त्रयोदशाक्षरखण्ड उत्साहः । हयलीलतालेन चतुर्दशाक्षरखण्डो मधुरः । क्रीडातालेन पञ्चदशाक्षरखण्डो निर्मलः । लघुशेखरतालेन षोडशाक्षरखण्ड : कुन्तलः । झम्पातालेन सप्तदशाक्षरखण्ड : कामलः । निःसारुताले नाष्टादशाक्षरखण्ड: चारः । एकताल्या एकोनविंशत्यक्षरखण्डो नन्दनः । प्रतिमण्ठतालेन विंशत्यक्षरखण्डश्चन्द्रशेखरः । प्रतिमण्ठेन तालेनैकविंशत्यक्षरखण्ड: कामोदः । द्वितीय Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ३४३ तालेन द्वाविंशत्यक्षरखण्डो विजयः । आदितालेन त्रयोविंशत्यक्षरखण्ड : कंदर्पः । क्रीडातालेन चतुर्विंशत्यक्षरखण्डो जयमङ्गलः । एकताल्या पञ्चविंशत्यक्षरखण्ड - स्तिलकः । प्रतिमण्ठेन तालेन षड्विंशत्यक्षरखण्डो ललित इति । अयं वर्णनियमः कस्मिन् खण्डे कर्तव्य इत्यपेक्षायां पक्षद्वयमाचष्टे - स्यादिति । क्रमेणैतेषां गाने फलमाह - यथोक्ता निति ; यथोक्तलक्षणलक्षितान् । मण्ठलक्षणमाह - द्वियतीति । उद्ग्राहखण्डं यतिद्वयसंयुक्तम्, एकयतिकं वा कर्तव्यम् | ततोऽनन्तरं वाख्यं खण्डं द्विर्गेयम् । ततः अन्तरो वैकल्पिकः; कर्तव्यो वा, न वा कर्तव्यः । पक्षे तं गीत्वा पुनरपि ध्रुवो गातव्यः । तत आभोगः सकृद्गीयते । वे च परिसमाप्तिः । एवंविधो मण्ठतालेन यो गीयते, स मण्ठः । तस्य भेदानाह--- जयप्रिय इति । जयप्रियादयः षड् भेदाः । षट्प्रकारो मण्ठताल इति । तेन रूपकं मण्ठाख्यप्रबन्धात् भिद्यते । एतेषां लक्षणमाह - वीर इत्यादिना । जगणरूपेण मण्ठेन गीयमानो जयप्रियः; वीरो रसः । भगणेन मङ्गलः ; शृङ्गारो रसः । सगणेन सुन्दरः । रगणेन वल्लभः । नगणेन विरामान्तेन कलापः । द्रुतद्वंद्वेन विरामान्तेन ध्रुवानन्तरं लघुना कमल इति । प्रतिमण्ठादिसाधारणं किंचिदाह – मण्ठवदिति । प्रतिमण्ठलक्षणमाह-- तत्रेति । प्रतिमण्ठेन तालेन गीयमानः प्रतिमण्ठः । तस्य अमरादयश्चत्वारो भेदाः । तेषां लक्षणमाह - अमर इति । एकेन गुरुणा गीयमानोऽमरः । विरामान्ते द्रुतद्रयानन्तरं लघुद्वयेन गीयमानस्तारः । विरामान्तेन लघुत्रयेण गीयमानो विचारः । विराममध्येन लघुत्रयेण गीयमानः कुन्द इति । निःसारुकं लक्षयतिबद्ध इति । निःसारुकतालेन विरच्यमानो निःसारुकः । तस्य वैकुन्दादयः षड् भेदाः । तान् लक्षयति — द्रुतद्वंद्वादिति । द्रुतद्वयेन लघुद्वयेन रचितो वैकुन्दः । विरामान्ते द्रुतद्वयेनानन्दः । तल्लोके रूपकमित्युच्यते । लघुगुरुभ्यां कान्तारः । विरामान्ते लघुयेन समरः । जम्बुनाल इत्युच्यते लोके । लघुत्रद्रुतद्वयेन वाञ्छितः । लघुद्रुतद्वयलघुभिर्विशाल इति । अड्डतालं लक्षयतिअड्डुतालेनेति । अड्डतालाख्येन तालेन गीयमानोऽडतालः । तस्य निःशङ्कादयः षड् भेदाः । तेषां लक्षणमाह - लगुरुभ्याभिव्यादिना । लघुगुरुभ्यामनन्तरं द्रुतद्वयेन गीयमानो निःशङ्कः । लघ्वनन्तरं द्रुतद्वयेन शङ्कः । विरामान्तेन द्रुत 1 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ संगीतरत्नाकरः रूपकप्रबन्धाः गुणान्वितं दोषहीनं नवं रूपकमुत्तमम् ॥ ३६१ ॥ रागेण धातुमातुभ्यां तथा ताललयोडुवैः।। मूतनै रूपकं नूनं रागः स्थायान्तरैनैवः ३६२॥ द्वयानन्तरं शीलः । द्रुतद्वयानन्तरं लघुगुरुभ्यां चारः। द्रुतद्वयानन्तरं गुरुणा मकरन्दः । द्रुतद्वयानन्तरं लघुना विजय इति । रासकं लक्षयति-रासक इति । रासतालेन गीयमानो रासकः । तस्य विनोदादयश्चत्वारो भेदाः । तेषां लक्षणमाह-आलापान्तेत्यादिना । ध्रुवपदस्यान्ते आलापो विरच्यते चेत्, विनोदः। ध्रुवस्य मध्य आलापश्चेत्, तदा वरदः। खण्डद्वययुक्तस्योद्गाहस्याचं खण्डमालापनिर्मितं चेत. तदा नन्दः । ध्रुवस्यादावालापश्चेत् , तदा कम्बुज इति । सर्वेश्वपि रासकेषूद्राहो द्विखण्डः कर्तव्यः । एकताली लक्षयति- एकतालीति । एकतालीनाम्ना तालेन विरच्यमाना एकताली । सा भेदत्रयवती-रमा, चन्द्रिका, विपुला चेति । तासां लक्षणमाह- सकृदिति । यस्यां यतिद्वयोक्त उद्गाहः सकृत् गीयते, ततोऽनन्तरमक्षररचितोऽन्तरः, सा रमा । यस्यां द्विखण्ड उदाहः, अन्तरश्वालापः क्रियते, सा चन्द्रिका । यस्यां तूगाहात् पूर्वमालापः क्रियते, सा विपुलेति । अत्राक्षरवर्जिता गमकालप्तिरेवालापः ; स एव प्रयोग इत्युच्यते ॥ ३१४-३६१ ॥ (क०) अथ रूपकस्योत्तमाद्यवान्तरभेदान् दर्शयिप्यन्नादावुत्तमं लक्षयति-गुणान्वितमित्यादि । गुणाः व्यक्त्यादयो वक्ष्यमाणा दश गीतगुणाः; तैरन्वितम् । दोषहीनमिति । दुष्टादयो वक्ष्यमाणा दश गीतदोषाः ; तैहीनं यन्नवं रूपकं तत् उत्तमित्युच्यते । रूपकस्य नवत्वे निमित्तं दर्शयतिरागेणेत्यादिना । ताललयोडुवैरिति । तालश्च लयश्चौडवं चेति द्वंद्वः । औडवशब्देनात्र रचनाविशेष उच्यते । नूतनरागादिनिर्मितत्वाद्रूपकं नवं भवती. त्यर्थः । रञ्जनादिधर्मयोगे सिद्धरूपाणां रागादीनां नुतनत्वं कथमित्याकाङ्क्षा Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः धातू रागांशभेदेन मातोस्तु नवता भवेत् । प्रतिपाद्यविशेषेण रसालंकारभेदतः ॥ ३६३ ॥ लयग्रहविशेषेण तालानां नवता मता। तालविश्रामतोऽन्येन' विश्रामेण लयो नवः ॥ ३६४ ॥ छन्दोगणग्रहन्यासप्रबन्धावयवैर्नवैः। औडवापरपर्याया रचना नवतां व्रजेत् ॥ ३६५ ।। यामाह-रागः स्थायान्तरैरित्यादि। स्थाया रागस्यावयवाः। अन्ये स्थायाः स्थायान्तराणि । तैः रागो नवो भवति । पूर्वैः कृतरूपकगतरागापेक्षयेदानी क्रियमाणे रूपके स्थायान्तरैर्यथा -रागो नवो भवति तथा कर्तव्यमित्यर्थः । रागांशभेदेनेति । रागांशशब्देन 'रागान्तरस्यावयवो रागेंऽशः स च सप्तधा' इति पूर्वोक्ताः स्थायभेदका रागावयवविशेषा उच्यन्ते । तद्भेदेन पूर्वोक्तरीत्या धातुर्नवः कर्तव्य इत्यर्थः । मातोर्नवत्वे निमित्तद्वयं दर्शयतिप्रतिपाद्यविशेषेण रसालंकारभेदत इति । प्रतिपाद्यं नाम वस्तु ; वाक्यार्थ इत्यर्थः ; तद्भेदेन । रसाः शृङ्गारादयः ; अलंकारा अनुप्रासोपमादयः ; तेषां भेदेन च मातुर्नवः कर्तव्य इत्यर्थः । तालानां नवत्वे निमित्तमाह-लयग्रहेति । ल्या द्रुतमध्यविलम्बिताः ; ग्रहाः समातीतानागताः; तेषां विशेषेण । तालानां नवतेति । पूर्वगीतगतात्तालाद्भिन्नलयग्रहस्तालः कर्तव्य इत्यर्थः । लयस्य नवत्वे हेतुमाह-तालविश्रामत इति । तालस्यावयविनो विश्रामादन्येन विश्रामेणावयवविश्रामेण विपर्ययेण वा लयो नवो भवति । औडुवनवत्वे हेतुमाह -छन्दोगणेति । छन्दःप्रभृतीनि प्रागुक्तरूपाणि । औडवापरपर्यायेति । औडुवमित्यपरः पर्यायो यस्याः सा । एवंविधां रचनां कुर्यादित्यर्थः । 1 तुल्येनेति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ संगीतरनाकरः रूपकं त्रिविधं ज्ञेयं परिवृत्तं पदान्तरम् । भञ्जनीसंश्रितं चेति शाहूदेवेन कीर्तितम् ।। ३६६ ॥ खल्लोत्तारानुसारौ तु रूपकेष्वधमौ मतौ । परिवृत्तरूपकम् . रूपकं पूर्वसंसिद्धं स्वस्थानेन नवेन यत् ॥ ३६७ ।। यद्वा रागेण तालेन कृतं तत् परिवृत्तकम् । यत्र स्थायिनि यत्स्थानं रूपकं रचितं पुरा ॥ ३६८।। तत् स्वस्थानं तदन्यत्त्वं 'स्थाय्यन्यपरिवर्तनम् । परिवृत्तं रागतालपरिवर्तभवं स्फुटम् ॥ ३६९ ॥ इति परिवृत्तरूपकम् । पदान्तररूपकम् तस्मिन्नेव रसे रागे ताले च रचितं भवेत् । मातुस्थायविचित्रत्वाद् गुणोदारं पदान्तरम् ॥ ३७० ॥ ___ इति पदान्तररूपकम् । भञ्जनीसंश्रितरूपकम केनापि रूपकं गीतं निजादन्येन धातुना । येन तस्यान्यधातुत्वाद्भञ्जनीसंश्रितं मतम् ।। ३७१ ॥ ___ इति भञ्जनीसंश्रितरूपकम् । अथ मध्यमरूपकभेदानाह-रूपकं त्रिविमित्यादि । खल्लोत्तारोऽनुसारश्चेति स्थाय्यैवेति आनन्दाश्रममुद्रितकोशपाठः। स्थाय्यन्यंति पाठोव्याख्यानुसारेणोहितः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः खल्लोत्ताररूपकम् प्राग्रूपकगता स्थायाः स्थानान्तरगता यदि । मात्वन्तरेण रच्यन्ते खल्लोत्तारस्तदा भवेत् ॥ ३७२ ॥ इति खल्लोत्ताररूपकम् । अनुसाररूपकम् रागे ताले च तत्रैव किंचिद्धातुविलक्षणः । मात्वन्तरेणानुसारो गुणोत्कर्षविवर्जितः ॥ ३७३ ॥ इत्यनुसाररूपकम् । इति रूपकप्रबन्धाः। गीतगुणाः व्यक्तं पूर्ण प्रसन्नं च सुकुमारमलंकृतम् । समं सुरक्तं श्लक्ष्णं च विकृष्टं मधुरं तथा ।। ३७४ ।। दशैते स्युर्गुणा गीते तत्र व्यक्तं स्फुटैः स्वरैः । प्रकृतिप्रत्ययैश्चोक्तं छन्दोरागपदैः स्वरैः ।। ३७५ ॥ पूर्ण पूर्णाङ्गगमकं प्रसन्नं प्रकटार्थकम् । सुकुमारं कण्ठभवं त्रिस्थानोत्थमलंकृतम् ।। ३७६ ।। समवर्णलयस्थानं सममित्यभिधीयते । सुरक्तं वल्लकीवंशकण्ठध्वन्येकतायुतम् ।। ३७७ ॥ नीचोचद्रुतमध्यादौ श्लक्ष्णत्वे श्लक्ष्णमुच्यते । उच्चैरुच्चारणादुक्तं विकृष्टं भरतादिभिः ॥ ३७८ ॥ मधुरं धुर्यलावण्यपूर्ण जनमनोहरम् । इति गीतगुणाः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ संगीतरत्नाकरः गीतदोषाः दुष्टं लोकेन शास्त्रेण 'श्रुतिकालविरोधि च ॥ ३७९ ॥ पुनरुक्तं कलाबाह्यं गतक्रममपार्थकम् । ग्राम्यं संदिग्धमित्येवं दशधा गीतदुष्टता ॥ ३८० ॥ इति गीतदोषाः। इति श्रीमदनवद्यविद्याविनोदश्रीकरणाधिपतिश्रीसोढलदेवनन्दननिःशकश्रीशादेवविरचिते संगीत रत्नाकरे प्रबन्धाध्यायश्चतुर्थ: अधमरूपकमेदौ । परिवृत्तादीनां लक्षणानि गुणदोषाणां च लक्षणानि स्पष्टार्थानि ॥ ३६१-३८० ॥ एवं प्रबन्धसामान्यविशेषाश्रितलक्षणम् । चतुर: कल्लिनाथार्यः प्रत्येकं प्रत्यपादयत् ।। इति श्रीमदभिनवभरताचार्यरायबय(वाग्गेय)कारतोडरमल्ल श्रीमल्लक्ष्मणाचार्यनन्दनचतुरकल्लिनाथविरचिते संगीतरत्नाकरकलानिधौ चतुर्थ: प्रबन्धाध्यायः (सं०) पञ्चविधरूपकं कथयितुमाह-गुणान्वितमिति । वक्ष्यमाणगुणान्वितं दोषहीनं नवं रूपकपञ्चकमुत्तमं ज्ञातव्यम् । नवेन रागेण धातुमात्वादिभिश्च नवै: रूपकस्य नूतनत्वम् । तेषां नवत्वमाह-रागांशेति । रागांशभेदेन धातुर्नवो भवति । प्रतिपाद्यभेदेन रसालंकारभेदेन मातुर्नवो भवति । लयग्रह भेदेन तालो नवः । तालविश्रामस्य तुल्येन समेन विश्रामेण लयो नवः । छन्दादिभिर्नवै: रचना नवा भवति । उत्तमरूपकस्य त्रैविध्यमाह-रूपकमिति । 1 कालश्रुतीति सुधाकरपाठः। Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः प्रबन्धाध्यायः ३४९ अधमरूपकस्य द्वैविध्यमाह - खल्लोत्तारेति । पञ्चानां लक्षणमाह - रूपकमिति । पूर्व सिद्धं नवेन स्वस्थानकेन रागेण तालेन वा यत् क्रियते तत् परिवृत्तकम् । 1 यत्र रूपके स्थायिनि स्वरे स्वस्थानं पूर्वं तस्मिन्नेव स्थायिनि रागतालपरिवर्तेन स्वस्थानवृत्तिर्ज्ञातव्या । पदान्तरं लक्षयति - तस्मिन्निति । भञ्जनीसंश्रितं लक्षयति — केनापीति । खल्लोत्तारं लक्षयति - प्रागिति । रूपकान्तरगताः स्थाया मात्वन्तरे निवेश्यन्ते चेत्, तदा खल्लोत्तारः । स एव किंचिद्धातुविलक्षणश्वेत्, अनुसारः । गीतगुणान् कथयति — व्यक्तमिति । व्यक्तादयो दश गुणा भवन्ति । तेषां लक्षणं कथयति - तत्रेति । सुगमम् । गीतदोषानाह - दुष्टमिति । लोकेन शास्त्रेण च दुष्टत्वम् । कालविरोध: ; निषिद्धकाले गानम् | श्रुतिविरोध: ; हीनश्रुतित्वम् ॥ ३६१-३८० ॥ इति श्रीमदन्ध्रमण्डलाधीश्वर प्रतिगण्ड भैरवश्री अनपोतनरेन्द्रनन्दनभुजबलभीमश्री सिंहभूपालविरचितायां संगीतरत्नाकरटीकायां संगीतसुधाकराख्यायां प्रबन्धाध्यायः समाप्तः 1 इदं च वाक्यमेवमेव मातृकायां दृश्यते । परं तु शोधनीयम्; यथा - ' यस्मिन् स्थायिनि स्वरे यत्स्थानकं रूपकं पूर्वं कृतं तत् स्थानमेव स्वस्थानम् । तदन्यत्त्वं नाम पूर्वस्मादन्यस्य स्थायिनः स्वरस्य परिवर्तनमेव । तस्मिन्नेव स्थायिनि स्वरे रागतालपरिवृत्तिर्ज्ञातव्या' इति । Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ अंशांशश्चेति यो रागे अंशेंऽशान्तरसंचारात् अकारे दैवतं विष्णुः अक्षराडम्बरो येषु अखण्डितस्थितिस्थान अग्राम्यः सुकुमारश्च अग्राम्योऽक्षरनादानां अङ्गं कर्णाटचङ्गाल अङ्गवङ्गकलिङ्गाद्यैः अङ्गहारप्रयोगज्ञैः अङ्गः पडादिभिद्बन्तैः अपूर्त्यै तदन्यचेत् अौ खण्डद्वयं सानु अडतालस्ततो रासः अङ्गुतालेन तालेन अतार जस्तारहीनः अतारमध्यमा पाप अतारा प्रार्थने मन्द्र श्लोकार्थानामनुक्रमणिका पुटसंख्या १७७ १७८ अत्युक्तायास्तु चत्वारः २१९ अत्र ग्रन्थेन संक्षिप्त १८२ अत्रोच्यते परित्यागात् ४ अथ प्रकीर्णकं कर्ण अथ रागाङ्गभाषाङ्ग अथाधुना प्रसिद्वानां अतालौ ढेङ्किकाताले अतिदीर्घप्रयोगाः स्युः अतिसूक्ष्मः कृशो भग्नः २२० २२२ १०२ अध्यात्मगोचरा चर्या १९९ अनन्तत्वात्तु संकीर्णाः २०० अनादिसंप्रदायं यत् अनिबद्धा निबद्धा च अनिर्युक्तश्च निर्युक्तः अनुकार इति प्रोक्त: अनुक्ताभोगवस्तूनां अनुच्छिष्टोक्ति निर्बन्ध : २६० अनुप्रासप्रधानं चेत् ९५ अनुरक्तेस्तु जनक: १२७ अनुस्वानविहीनत्वं २१२ २४८ २१५ ३३६ ३४० पुटसंख्या २५५ १७६ १६५ २२७ १ १६० १४९ १५ १७ ३२७ २५१ २०३ ३०३ २१२ १५४ ३३४ ११५ ३३३ १६५ १६७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या २२२ २२१ १५१ १८३ १६. १५८ १५० २५२ अनेकस्थायसंचारः अन्त:सारो घनत्वस्य अन्तरः पूर्ववत्तस्मात् अन्तरे सोऽन्तरो वक्र: अन्त्येऽह्नः प्रहरे गेयः अन्यच्छायाप्रवृत्ती ये अन्यथा चान्यथा गायेत् अन्यस्तु मधुरक्षिग्ध अन्यूनशिक्षणे दक्षः अन्येषां सूक्ष्मभेदानां अन्योपरागजा ताभ्यः अपरं स्वरतेनान्तं अपरः स्निग्धमधुर अपस्थानस्य ते स्थायाः अपस्थानस्य निकृतेः अपेक्षितच घोपश्च अप्रसिद्धास्तु ता लक्ष्ये अन्जपत्रोऽब्जगर्भव अभावश्च्छन्दसां वृत्तं अभिव्यक्तिर्यत्र दृष्टा अभीष्टफलद: श्रोत अमरो गुरुणैकेन अमुं प्रयोगं मेलापं अरूक्षो दूरसंश्राव्यः अर्धस्थिते चालयित्वा अर्धान्ते चरणान्ते वा अर्धान्तेऽन्ये स्वरानाहुः अल्पत्वस्य बहुत्वस्य : .५४ अल्पध्वनिस्तारगति: १८५ अल्पमूर्छनया युक्तः ३.८ अवधानं गुणैरेभिः १८५ अवरोहिणि वर्णे स्यात् ४८ अवरोहिप्रसन्नान्त: १७६ अवरोहिप्रसन्नान्ता १९६ अवरोह्यादिवर्णेन १६१ अवस्खलति यो मन्द्रात् १५४ अविरुद्धस्य माधुर्य १६३ अव्यवस्थित इत्युक्तः १३ अशेषभाषाविज्ञानं ३१. अष्टधा करणं तत्र १६२ अष्टाविति त्रिमिश्रस्य १७८ अष्टोपरागास्तिलक: १७२ अष्टौ कामा आदिमध्य अष्टौ कामाः कामलेखा २३. अष्टौ पोडश तद्वच्च ३०४ अस्यामालापमात्रण २५६ २१ ३३७ आकण्ठकुण्ठनं स स्यात् ३३९ आक्षिप्तिका स्वरपद आडिकामोदिका तजा १६५ आडिकामोदिका नाग १९३ आडिल्ल एष एव स्यात् २९. आदितालेन शृङ्गारे २८४ आदिमध्यस्थितप्रासं २१ आदिमध्यान्तगैः प्रासै: २४७ २७७ २६८ आ १६४ २४७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या ३४३ २३४ आलापः प्रागताल: स्यात् २३५ आलापपूर्वकोद्वाहाः २४७ आलापादे वपदात् २३६ आलापान्तध्रुवपदात् २४. आलापो गमकालप्तिः ३३६ आवृत्त्या सर्वपादानां ३१२ आशीमिर्धवलो गेयः १८६ आह बृन्दविशेष तु ३२८ १९८ ११३ २५४ १५८ आद्यस्य स्युदितीयादि आद्याक्षरेण ग्रहणं आद्याशी आद्यनुप्रासौ आद्यात्पञ्चविकारेण आधेन्दुमत्यथो ज्योति आद्यो ध्रुवस्ततो मण्ठ आद्यौ द्विद्विगणौ पादौ आनन्त्यान्नव शक्यन्ते आन्दोलितप्लावितक आन्धाल्युपाङ्गं मल्हारः आपञ्चमं तारमन्द्रा आभीरिका मधुकरी आभोगं तु सकृद्गीत्वा आभोगध्रुवकोदाहाः आभोगश्चेति तेषां च आभोगस्तत्र नाम स्यात् आयत्तकण्ठस्तालज्ञः आयासेन विना यत्र आरोहिणि प्रसन्नादि आरोहिणि प्रसन्नाये . आरोहिणि प्रसन्नान्त आरोहिण्युत्प्रविष्टः स्यात् आर्या गाथा द्विपथकः आर्यागीतौ रसे वीरे आर्यायाः स्युस्तदा तिस्रः आयैव प्राकृते गेया आलप्तिरुच्यते तज्ज्ञैः आलसिर्बन्धहीनत्वात् 45 इतरत् पूर्ववत् कीर्ति इतरेषां च रागाणां इति गद्यस्य पद प्रोक्ताः इति गौडास्त्रयः षड्जे इति भाषाविभाषे दे इति षण्णवतिः स्थायाः इतो न्यूनं तु हीनं स्यात् इत्येता विकृता भेदाः इत्येषां देवता भूमि इष्टस्वरेंऽशे न्यासः स्यात् २५२ १९० १५४ १७८ २२५ २५१ ८१ ४८ ईर्ष्यायां विनियोक्तव्या ११८ १८ २७८ २८१ उक्ताश्चतस्रो गुर्जयः २९३ उच्चैरुच्चारणादुक्तं १९६ उच्यते स निराधार: २०४ उज्ज्वलो गदितश्चोक्षः १८६ १८२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या १६५ उल्लासितः स तु प्रोक्तः १८३ १९८ , ऊर्ध्वं प्रसारित: क्षिप्तः १८४ २२४ ३३७ २८६ ऋग्वेदोत्था स्थिता विप्रा १७२ ऋजुर्लिपौ भ्रे के xपे च ४८ ऋद्धिसौभाग्यदो वीरे २०४ ऋषभांशः पञ्चमान्त: , ऋषभोऽल्पो निगन्यास: २५४ ऋपभोऽस्यामपन्यास: ११ उज्ज्वलोऽयमिति प्रोक्तः उत्क्षिप्योत्क्षिप्य निपतत् उत्तमं मध्यममथो उत्तमाभ्यधिक बृन्दं उत्तमे गायनीबृन्दे उत्तमोत्तम इत्युक्तः उत्तरोत्तरसंघादौ उत्प्रविष्टो नि:सरण: उत्सवे विनियोक्तव्यः उदाहः प्रथमस्तत्र उदाहः प्रथमो भाग: उद्बाध्रुवको प्राग्वत् उदाहस्तालशून्यश्चेत् उद्राहस्य द्वितीयाध उदाहस्याद्यखण्डे च उद्वाहा बह्यो यस्मिन् उगाहेणाथवा न्यासः उदाहो दि: सकृद्वैक उदाहो द्विदलो यस्यां उद्धृष्टो विसरोद्धोपः उद्दीपने नियोक्तव्या उद्भटे नटने काम उद्भटे नटने गेयः उद्भूतः कैशिकी पड्ज उन्नता शान्तिसंज्ञा च उपमारूपकरलेषैः उभयोर्मिश्रणादुक्ता उल्लासितः प्लावितश्व १९८ २६० २५४ ३३६ ए ओ इं हिं पदान्ते वा २२४ २६५ एक एव तु यो गायेत् १५५ ३०४ एक: स्यात्समगातार: २६४ एकतालीत्यमी ताला: ३४१ एकताली भवेत्ताले ३४१ १५७ एकद्वित्राश्च तालाः स्युः ३२४ १२४ एकदित्रिचतुष्यञ्च २३३, २४२, २७७ १२९ एकधातु द्विखण्डं च ३३६ ४१ एकधातुर्दिखण्ड: स्यात् ४३ एकलो यमलो बृन्द १५४ १.३ एकस्त्रिभङ्गितालेन ३२२ २६१ एकादशाक्षरात् खण्डात् ३०२ एकादिगुरुभक्षण १६९ एका स्यात् समगायन्य: २९१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या २९५ २९५ २२३ ३०२ ओजक्रीन्द्रक्रियौ नाग १८४ ओजे कलाश्चन्द्रलेखे २७९ ओजोऽनौ मनवो मात्राः १२६ ओजोबहुल ओजस्वी १६. ओवीपदं तदन्ते चेत् २६५ ओवी लोली ढोलरी च १६३ ओव्यादयस्तु चत्वारः १८ ओहाटी कम्पितैर्मन्द्रः २१४ ३ १८८ औ १७० औडुवापरपर्याया २९६ औदुम्बरी च षट्कर्णः १९९ एकैकमातृकावर्ण एकैकस्मिन्स्वरे स्थित्वा एकोनत्रिंशदाख्याताः एकोऽन्यो धनगम्भीर एतत्संमिश्रणादुक्तः एते त्रयोऽप्यनाभोगाः एते द्वंदजभेदाः स्युः एतेऽधुना प्रसिद्धाः स्युः एतेन घननि:सार एते षटत्रिंशदन्येऽपि एतेषां मिश्रणान्मिश्रः एतेषु व्यत्ययेनापि एते सालगसूडस्थैः एभिश्चतुर्भिः स्वस्थानैः एरण्डकाण्डनि:सार: एलयोराद्ययोरञी एलाकरणढेकीभिः एलादिः शुद्ध इत्युक्तः एलानां बहवः सन्ति एला श्रोतुः प्रयोक्तुश्च एलासामान्यलक्ष्मैतत् एवं पादत्रयं गेयं एवं मध्याभवा भेदाः एवं षण्णवतिर्भाषा एवमेते प्रबन्धस्य एषा भाषाङ्गमन्येषां ओ ओं तत्सदिति निर्देशात् ३३७ २३१ २५९ १६. २१३ १९४ १६५ कंदपों भोगदो नृणां २४३ ककुभेऽथर्ववेदोत्था २१३ कङ्काले प्रतिताले च ३३४ कथं तयोमिश्रणं स्यात् २१९ कन्दस्तुरगलीला च २२३ कफजः खाहुल: स्निग्ध २१८ कम्पित: कम्पनाज्ज्ञेयः २१९ करणं स्वरपूर्व तत् २२८ कराभ्यामुद्भवात्कार्ये " कराली गदितः सद्भिः २०५ कराली विकल: काकी १२७ करुणः श्रोतृचित्तस्य कर्णाटभाषया ताल १०७ कर्णाटलाटगौडान्ध्र १५७ २५२ २०७ १५६ २४६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ संगीतरनाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या २८ १६७ ३३ः २३. - २२५ २९५ १५१ २०० १९९ ३३६ कर्णाटादिपदे: पाटैः २७७ कार्मारव्याश्च कैशिक्या: कर्णाटाद्याः सजातीयाः १७७ कार्योऽन्तरस्ततश्चाच कर्णाटैलादिमध्यान्त २४६ कार्य कार्कश्यमित्याद्यैः कर्णाटो देशवालश्च १८ किंचिदुच्चं भवेत्खण्डं कलहंस: स्वरे न्यासः २९७ किंतु तत्र लपूर्वा ये कलापः कमलश्चेति ३३८ किंतु तेषां स्वरस्थाने कलिका तनुमध्या च २३५ कीर्तितो मधुरो लीन कश्चित्स्यान्मधुरस्निग्ध १६१ कीर्तिमायुश्च वर्ण्यस्य कांस्यतालोद्भवैः पाटैः ३०८ कुञ्जरस्तिलको हंस काकररवः काकी १५७ कुट्टिकारोऽन्यधातौ तु काकलीकलितो गेयः १ कुतपानाममीषां तु काकल्यन्तरयुक्तश्च कुतपे त्ववनद्धस्य काकल्यन्तरसंयुक्तः २७, ४१,५६, ७१ कुन्तल: कामलश्चारः काकल्या कलित: कापि ७३ कुन्दो विराममध्येन काकोलिकारख्यः काकोल १६५ कुरलो वलिरेव स्यात् काण्डारणा प्रसिद्धव १७८ कुर्यादानन्दमानन्दे कान्तारो लगुरुभ्यां स्यात् ३४. कृच्छोन्मीलन्मन्द्रतारः काममन्मथवत्कान्त २१९ कृशो भन इति प्रोक्ताः कामलो विप्रलम्भे स्यात् ३३७ केचित्तु हयलीलेन कामोत्सवा नन्दिनीच २६४ केचिन्मण्ठमपीच्छन्ति कामोदलक्षणोपेता १०७ केनापि रूपकं गीत कामोदासिंहली छाया १८ केवलं तु तृतीयेऽनौ कामोदोपाङ्गमाख्याता १.७ केयांचित्पूर्वपूर्वस्मात् कामोदो विजयाख्यश्च ३३६ केषांचिन्मतमाश्रित्य काम्भोजी मध्यमग्रामा १. कैशिकीकार्मारवीभ्यां कारणांशश्न कार्याशः १७७ कैशिकीजातिजः षड्ज कारणांशस्त्वसौ राम कैशिकी त्रावणी तान कारणे कार्यरागांश: कैशिक्यां बोट्टरागे वा ३३९ २८. २६० ३०४ ३३२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या २४४ २२४ २४२ २४७ कैशिक्या मङ्गलाचारः कोकिलापञ्चमो रेवगुप्त कोमल: प्रसृतः स्निग्ध कोमल: स्निग्धनिःसार: कोमलोऽन्वर्थनामैव कोलाहला टक्कभाषा कौन्तली द्राविडी सैन्धवी क्रमव्यत्यासभेदेन क्रमादकचटानां क्रमाद्गच्छेत् प्लावितस्तु कमेण परिगीयन्ते क्रमोक्रमाभ्यां बहुश: क्रियाङ्गत्रितयं राम क्रियापरो युक्तलयः क्रीडातालेन शृङ्गारे १५८ ३०३ गणमात्राद्यनियता ९ गणमात्रावर्णदेश १७२ गणाः पञ्च त्रिमात्रोऽन्ते १६२ गणाः सप्त लघुश्चान्ते १६. गणादिनियमस्त्वासां १०७ · गणादेन्यूनताधिक्यात् १७ गणाधिपश्चतुष्कामं २५३ गणानां प्रथमादीनां २२६ गणैर्वणश्च मात्राभिः १६९ गणैश्चतुर्गुणकला: ३०२ गतारमन्द्रः कामोदः २८८ गतिर्दुतविलम्बा स्यात् १७ गद्गदध्वनिरव्यक्त ५५४ गद्यं निगद्यते छन्द: ३३. गद्यजाः पद्यजा गद्य गद्यजा पद्यजा चेति गद्यपद्यप्रभेदेन गद्यात्मा चेत् स्वरान् गीत्वा गमकप्रासनिर्मुक्ता २७० गमद्विगुणिता मन्द्र ३३३ गमन्द्रा चोत्सवे गेया ३४१ गम्भीरमधुरध्वाना गम्भीरोच्चतरो रूक्षः १०६ गांशं सान्तं च शृङ्गारे ३४६ गाढः शैथिल्यनिर्मुक्तः १२ गाढस्तु प्रबलो दूर गाटैस्त्रिस्थानगमकैः २४ गाढो ललितगाढश्च २६२ ख १२ खञ्जनी गुर्जरी गौडी खण्डं गणेशदेवत्यं खण्डं चित्रं च तेषां च खण्डत्रयं प्रासयुतं खण्डमाद्यं द्विखण्डस्य खण्डे ध्रुवा: षोडश स्युः खम्भाइतिस्तदंशान्ता खल्लोत्तारानुसारौ तु खाहुलोन्मिश्रनाराटे ३३६ سے سی سی १०२ १८१ गण: समूहः स देधा २ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या १८३ ३१३ २६८ २७३ १०५ २५४ ३१८ गातव्या नियतैर्नित्यं गातव्योत्कलिका वीरे गातृनाम सतालं च गातृवादकसंघात: गात्रस्य गात्रे नियताः गात्रोपशमयो: काण्डा गान्धर्व गानमित्यस्य गान्धारगतिका गान्धारतिरिपोपेतः गान्धारपञ्चमे भाषा गान्धारपञ्चमो भिन्न गान्धारबहुलो मन्द्र गान्धारमन्द्रा करुणे गान्धारवल्ली कच्छेली गान्धारांशग्रहन्यास: १५४ २२४ ३०३ गीते तथाविधः स्थायः २७. गीत्वाद्यपादौ तदनु १७३ गीत्वा न्यासो यत्र सा स्यात् १९८ गीत्वा विलम्बितालेन १७८ गीयतामृषभान्तांशा १४२ गीयते चेद् ध्रुवोद्राही २०३ गीयते विजयस्तेनैः १६ गुणान्वितं दोपहीनं ५१४ गुणैः कतिपयीनः १२ गुणैरेभिः पञ्चदश १० गुरुलघुरिति द्वेधा ११३ गुर्जयेंव रिकम्पा स्यात् ८९ गृहिणां च प्रवेशादौ १२ गेयं नासिकया गायन् ८९ गेयः कर्णाटगौडस्तु ११८ गेयः शरदि तजाता १३१ गेयो द्राविडगौडोऽयं ८४ गेयो निर्वहणे यामे ६३ गेयो वाग्गेयकारेण ८९ गेयोऽह्नः पश्चिम यामे ९. गेयोऽह्नः प्रथमे यामे .४७ गोली नादान्तरी नील गौडपञ्चमक: षड्जे ५७ गौडस्तदङ्गं निन्यास ५९ गौडी च रीतिरिन्द्राण्याः गौडीयरीतिरुचिरा ३ गौरी ब्राह्मी च मातङ्गी १५४ ग्रहन्यासोऽस्य भूयोऽसौ ११३ ११४ २८ २७१ २७, ३७ गान्धारांशग्रहा धान्ता गान्धाराल्पः काकलीयुक् गान्धारीमध्यमापञ्च गान्धारी रक्तगान्धारी गापन्यासा दीर्घरिमा गायत्री देवताप्यादि गायन्यो दादश प्रोक्ताः गाल्पः पूर्णः सषड्जादि गाल्प: प्रसन्नमध्येन गाल्पः षड्जग्रहन्यास गीतयः पञ्च शुद्धा च गीतस्यातिशयाधानात् m २२० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या ग्रहांशभ्यासगान्धारा ग्रहांशन्यासषड्जश्च ग्रहांशन्यासषड्जान्या ग्रहांशमन्द्रताराणां ग्राम्यं संदिग्धमित्येवं ग्रीष्मे प्राक्पहरे गेयः ग्रीष्मेऽह्नः प्रथमे यामे १९८ १८ २६१ २३६ २६० ३१३ घटनायाः सुखस्यापि घटो वृत्तं मातृका च घण्टानादवदायातः घत्तादिच्छन्दसा वा स्यात् घनतास्निग्धताकान्ति घनद्रुता घनयतिः घनलीन: पीवरोच्च घनस्वरोऽवरोहे स्यात् घनोऽपरस्तु मधुर ९१ चतस्रो वांशिकहूँ चतुःषष्टयधिकं ब्रूते 1२६ चतुराद्यष्टपर्यन्तं २१ चतुरा पञ्चधा तत्र ३४८ चतुर्गीतिगतं लक्ष्म ७३ चतुर्थस्तत्र मदना ६४ चतुर्थस्त्रिगणः पादे चतुर्थी सुरसा प्रोक्ता चतुर्धा देङ्किका मुक्ता १७३ चतुर्धा सैन्धवी तत्र २१३ चतुर्धा सोऽमरस्तारः १८५ चतुर्भिरीदृशैः पादैः ३२६ चतुर्भिश्चरणैः पभिः १६७ चतुर्भेदो भवेच्छब्दः ३४१ चतुर्मुखः सिंहलील: १६३ चतुर्विधा मतङ्गोक्ता १८३ चतुर्वृत्तश्चतुस्ताल: १६१ चतुस्त्रिंशदिमे रागा: चतुष्कामो रतिप्रान्तः चत्वारश्चरणा गेयाः २१३ चत्वारश्चरणा बाण २१ चत्वारो मुख्यगातार: ३०६ चद्विपानां चत्रिपाणां ३२६ चन्द्रप्रियः पूर्वयामे ११ चन्द्रलेखेति तत्राद्य २३४ चन्द्रिका सैकताली स्यात् १३ चरणान्तसमप्रासा १३ चामुण्डेलापदेष्वेताः २४४ २५६ १२२ ३३९ २८४ ३०३ १५९ २१४ १३ ३०४ च १९ ३१५ २३६ चक्रवाल: क्रौञ्चपद: चच्चत्पुटादितालेन चच्चत्पुटेन तेनैव चच्चरीच्छन्दसेऽत्यन्ये चतस्रः पञ्चमे भिन्ने चतस्रस्ता द्वितीयस्य चतस्रोऽनुक्तजनकाः चतस्रोऽन्तरभाषाः स्यु: २३९ ३४१ ३२८ १२० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या ११. छेवाटी पिञ्जरीत्येका १९३ छेवाटी सैन्धवी कोला चारुसंचारिवर्णश्च चालनं मुखचाल: स्यात् चित्राचं मिश्रकरणं चित्रो विचित्रलीलश्च चिरं स्थित्वाग्निवत्तारं चूर्ण शान्ते रसे पीतं २४७ १९९ ३३. २७८ २६१ १८३ जन्मोत्तरास्याद्गन्धर्वः २७१ जयघण्टा कांस्यताल: जयन्तशेखरोत्साहाः जयन्तो मधुपश्चाथ २८४ जयप्रियो मङ्गलश्च १५० जया कूर्मी पिनाकी च ३०२ जयोत्साहप्रदः पुंसां २९. जातो नैषादिनी षड्ज २९४ जात्याद्यन्तरभाषान्तं ३०१ जीवस्वरव्याप्तिमुख्यैः २१२ ज्ञेया शुद्धैव संपूर्णा १९९ ३३५ १९४ छगणेन चतुर्मात्रैः छन्दःप्रभेदवेदित्वं छन्दश्चित्यां विचेतव्याः छन्दसः कलहंसस्य छन्दसा द्विपयेन स्यात् छन्दसा येन केनापि छन्दस्तालाद्यनियमात् छन्दोगणग्रहन्यास छन्दोभिर्बहुभिर्गया: छन्दोलक्षणतो जेयाः छन्दोहीनेतरल्लक्ष्म छपदयं दो वदनं छागवदहनी कुर्वन् छान्दस: सुकराभास: छाया काकुः षट्प्रकारा छायानट्टा तु नव छायाप्रतापोपपदे छायायास्ते मताः स्थायाः छायालगत्वमेलादेः छायावेलावली वेला २१४ ३३३ २९२ झम्पटः कन्दुक: स्यात् २८३ झम्पटच्छन्दसा गेयः ३२५ झोम्बकस्तुम्बकी वक्री १५७ झोम्बडा इति संख्याताः ३२१ १५७ २६२ , - १७५ १०७ टक्कः सांशग्रहन्यासः १८ टक्ककैशिकहिन्दोल १७६ टक्कभाषा वेगरञ्जी ३३५ टक्कभाषेव ललिता १०६ टक्काङ्गं टक्कवत्तारः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या डोम्बक्री सावरी वेला दालच्छायायन्त्रवाद्य ढालशब्दोत्थयन्त्रोत्थ दालो मुक्ताफलस्येव ढोलरी नाम सा प्रोक्ता ३३६ २१३ २५० १८५ २०४ ३३१ २०७ २०६ २२४ ततस्तद्वत् खराः पाटा: ततस्य कुतपो ज्ञेयः ततस्य चावनद्धस्य ततो द्विखण्ड आभोगः १८७ ततोऽन्ये विप्रकीर्णास्तान् तत्तल्लक्ष्मयुतस्तासु १७४ तत्प्राधान्येन ये गीताः ३३३ तत्र गान्धर्वमुक्तं प्राक् तत्र च प्रतिमण्ठेन तत्र तेनपदे नेत्रे ३३८ तत्र पूर्वप्रसिद्धानां २९६ तत्र मेलापकाभोगौ १६. तत्र वर्णगणैर्जाता ७. तत्र वर्णगणो वर्णैः ९१ तत्रादौ ग्रामरागाणां ८९ तत्रान्त्या वर्णमात्रैला ८५ तत्रोक्तं लक्ष्म वागानां १.८ तत्रोक्तः शुद्धसूङ: प्राक् १.१ तत् षोढोत्कलिका चूर्ण १६ तत् सुशारीरमित्युक्तं १.२ तत् स्वस्थानं तदन्यत्वं ९१ तथाप्येषां विशेषस्तु २४५ तथैव वस्तुवदनं है तथोपवदनं प्रोक्तं ३३८ तदा विचित्रमात्रलाः २० तदा स्यात् कीर्तिधवल; ३१३ तदा स्यात् त्रिपदी ताल १९३ तदिति ब्रह्म तेनार्य २४५ तं गीत्वा ध्रुवमागत्य तं शिखाद्विपथं प्राहुः तच्छारीरमिति प्रोक्तं तजा गुर्जरिका भान्ता तजा डोम्बकृतिः सांशा तजा देशी रिग्रहांश तजा धन्नासिका षड्ज तजा रामकृतिवीरे तजा वराटिका सैव तजा वेलावली तार तजा समस्वरा नट्टा तजा स्फुरितगान्धारा तत: कुमुदिनी ख्याता तत: कुसुमवत्याख्या ततः खण्डं ध्रुवाख्यं दिः ततः प्रयोगस्तदनु तत: समग्रं तं गीत्वा ततश्चतुर्थो धर्धः स्यात् 46 ३३५ ३१५ २४१ ३१३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या २६. २६९ ३२५ - २९४ २८३ तदैता गदिताः सर्वाः तद्गणैः संगता त्रेधा तदेवत्यगणोपेता तद्विमानाच्छङ्कपाटैः तद्भवा सावरी धान्ता तद्भाषा दाक्षिणात्या स्यात् तद्युक्ता भजनस्य स्युः तद्युक्तास्तु गते: स्थायाः तद्वत्तेन स्वरा: पाटाः तद्वद्वाणगणा भेदाः तन्मते तोटकस्यह तस्मिन्नेव रसे रागे तस्य भूरितरा भेदाः तस्य भेदास्तु तिरिप: तानाम्बाहेरिका दोह्या ताने तानोद्भवा भाषा तारजोऽतारजश्चेति तारधा मन्द्रपड्जा च तारमन्द्रोऽयमापड्ज तारषड्जग्रहः षड्जे तारषड्जग्रहांशश्च तारसांशग्रहो मान्तः ताराख्यः प्रतिमण्ठोऽसौ तारा छेन चतुर्भिश्च तारानुध्वनिमाधुर्य तारावलीति पञ्च स्यु: तारेति मानवी छेन तारे दीप्तप्रसन्नोऽसौ २५० तारो ध्वनिस्थानकं स्यात् २३. तालत्रैविध्यतस्तस्य , तालद्वयेन सा गेया ३०८ तालमानद्वयन्यास: ९५ तालविश्रामतोऽन्येन १११ तालस्तालप्रकरणे १७६ तालस्तासु विधातव्यः तालहीनः सतालो वा ३०७ तालार्णवो भूरिताल: २२८ तालेन गजलीलेन ३०. तालेनैकेन केचित्तु ३४६ तालै रागैश्चतुर्भिः स्यात् ३२१ तालै रागैस्त्रिभिर्यद्वा १६९ तालोऽस्यां त्यागसौभाग्य ११ तिरिपस्फुरितो लीन १२ तिरिपान्दोलितवलि २६० तिरिपान्दोलितो लीन ११२ तिर्यगू_मधस्ताच्च ११६ तिलको ललितश्चेति ११७ तीक्षणप्रेरितकस्तीक्ष्ण २८ तुम्बकी तुम्बकाकार ८४ तुम्बुरा षड्जभाषा च ३३९ तुर्यद्वितीययोश्चैतत् २८५ तुर्थपञ्चमयोस्त्वेका १६७ तृतीयमुच्चमेष द्विः २१२ ते ग्रन्थविस्तरत्रासात् २८४ ते च शब्दस्य ढालस्य १८६ तेनक: पाटतालौ च ३११ ३२३ २१९ १८७ १७६ ३३६ १८७ १५८ १२ ३३१ २३४ २५६ १७२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका ३६३ पुटसंख्या पुटसंख्या ३११ त्रिश्चतुष्पञ्चवारंवा २०७ त्रिषु त्रिष्वथवा स्थायः १८४ ३०१ त्रिषु स्थानेष्वेकरूप: २६१ त्रिस्थानगमकपीढि १५१ ३३९ त्रिस्थानघनगम्भीर १५९, १६, १६३ १७. त्रिस्थानलीननिःसारे १६२, १६३ १८४ त्रिस्थानशोभी गम्भीर: १६२ १९६ त्रिस्थानोऽन्यस्तु मधुर २९९ त्रिस्थानो मनसो यस्तु १६५ १०५ त्रीण्युपाङ्गानि पूर्णाटी २२५ त्रेता दशविधा प्रोक्ता २३५ १६१ १५० द तेनकान्तः पञ्चभङ्गिः तेनेति शब्दस्तेनः स्यात् तेनैरर्धे दिपद्यर्ध ते लक्ष्येष्वप्रवृत्तत्त्वात् ते शृङ्गारेऽपि चत्वारः तेषां तु स्थायवागेषु ते स्थाया घटनाया ये तैः पदेस्तेन मानेन तोटकच्छन्दसा न्यस्त तोडयेव ताडिता गाल्पा तोऽन्तलो मध्यगो जः स्यात् तौर्यत्रितयचातुर्य त्यक्त्वैकैकं गणं त्वाद्यात् त्रयाणां चरणानां स्युः त्रयोदशायुजि कलाः त्रयोदशायुजि समे त्रयोदशासमे हंस त्रवणा भिन्नषड्जस्य त्रवणा मध्यमा शुद्धा त्रिंशद्गुरोरा द्विगुरोः त्रिखण्डस्तत्र खण्डे द्वे त्रिधा तिस्रो द्वितीयाद्या त्रिधातुश्च चतुर्धातु: त्रिपदी षट्पदी गाथा त्रिभिन्नलीनस्फुरित त्रिभिन्नस्तु त्रिषु स्थानेषु त्रिभिश्चैः पगणेनापि त्रिविधो धवल: कोर्तिः १०५ २४७ ३३३ १९८ २५७ ३३३ दक्षिणा गुर्जरीकम्प २९५ दक्षिणास्याजनुर्यस्याः ,, दधानः कंधरामूवा ,, दन्तीपदान्वितं प्रान्ते ९१ दश स्युः समगायन्यः १२ दशापि स्युः पुनस्रधा २७९ दशैते स्युर्गुणा गीते २५६ दिवप्रदर्शनमात्रार्थ दिनस्य केशवप्रीत्ये २६. दिनस्य पश्चिमे यामे २९३ दिनस्य प्रथमे यामे १८७ दिनस्य मध्यमे यामे १६९ दिव्या च मानुषी दिव्य २४० दिव्या संस्कृतया वाचा ३३० दीप्तस्तु दीप्तनाद: स्यात् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ संगीतरनाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या २३९ २३७ २६० २९६ २८३ ३३८ २९. २५४ २५९ २६८ २७३ २५५ २६० दीर्षकम्पितसूक्ष्मान्त दीर्घा गौरी ततो राजी दुष्कराभास इत्युक्तः दुष्करोऽवघटः प्रोक्तः दुष्टं लोकेन शास्त्रेण दूरश्रवणयोग्यस्तु देवकीरित्यथोपाङ्ग देशाख्यैला बुधैः पञ्च देशीमार्गाश्रयं वक्ति देशीरागतया प्रोक्तं देशीरागादिषु प्रोक्तं देशीरागादिहेतूनां देशीरागेष्वभिज्ञानं दोहड: स्याद्यदा प्रान्ते दौ दो षष्ठे द्वितीये च द्रुतगीतविनिर्माणं द्रुततुर्याशवेगेन द्वतद्वंद्वालगाभ्यां स्यात् द्रुतद्वंदालघुद्वंद्वात् द्रुतपूर्वो विलम्बान्तः द्वतस्यान्वर्थनामानः दूतार्धमानवेगेन द्रुता विलम्बिता मध्या द्वावली प्रासहीनौ स्तः दिगुणामिः कलाभिः स्यात् द्विगुणे चालयित्वा तु द्विग्राम: ककुभस्त्रिंशत् द्विचच्चत्पुटमानेन १८८ द्वितीयताले हिन्दोले २९. द्वितीये च तृतीये तु १८६ द्वितीये चाद्यभेदाभ्यां १८५ द्वितीयो गारुगी रास ३४८ द्विपथा भूरिभेदास्ते १६५ द्विपदी करुणाख्येन १७ द्वियत्येकविरामं वा २४६ द्विरार्याछन्दसो गीतं १४९ विरुद्राहं ध्रुवाभोगौ १५ द्विरुद्राहो ध्रुवाभोगी २०४ द्विरुद्ग्राहो ध्रुवोऽपि दिः १९ द्विर्गीत्वा गीयते यत्र १५० द्विर्गीत्वोद्ग्राहपूर्वार्ध ३३३ द्विर्यत्रोद्ग्राहपूर्वार्ध ३३१ द्विश्रुती संगती तत्र १५१ द्वे स्तो विलम्बिते तत्र १६९ यर्धद्विगुणयोर्मध्ये ३४० यर्धस्वरे चालयित्वा ३३९ १८३ १७७ धग्रहांश: पञ्चमान्तः १६९ धग्रहो धैवतीषड्ज २७१ धनिभ्यां गमपैरि २५० धनिसर्वलिता धांश २४. धन्यासांशग्रहा भाषा १९४ धन्यासांशग्रहा भूरि ८ धन्यासांशग्रहो मन्द्र ३०६ धन्यासीदेशिदेशाख्या: १३१ . W Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या ८९ ध्रुवोद्वाही भिन्नतालो २८९ १६. २९५ ३३७ २३७ २४३ ३०४ धपत्यक्तं रसे वीरे धांशग्रहः पञ्चमान्तः धांशग्रहो मध्यमान्तः धांशन्यासग्रहा तार धांशा षड्जग्रहन्यासा धांशो मान्तस्तथा गौड धांशो मान्तो रिपत्यक्तः धातुमातुविदप्रौढः धातुर्विमलकण्ठत्वात् धातू रागांशभेदेन धाद्यन्तांशा कम्प्रषड्जा धीरैरुद्भटचारीक धीरे-रोत्सवे प्रोक्ता धैवतांशग्रहन्यास धैवतांशग्रहन्यास: धैवतांशग्रहन्यासा धैवतीमपि तद्धतुं धैवत्या मध्यमायाश्च धैवत्यापभिकावर्ज ध्रुवको गीयते यत्र ध्रुवत्वाच्च ध्रुवः पश्चात् ध्रुवभेदेऽनुलम्भोऽसौ ध्रुवस्ततस्तत्र पूर्व ध्रुवादालापमध्यात्तु ध्रुवाभोगध्रुवा गेयाः ध्रुवाभोगान्तरे जात: ध्रुवाभोगौ च तेषु स्युः ध्रुवे न्यासस्ततः प्रोक्तः १०७ नट्टनारायणश्चेति ७५ नट्टा कर्णाटबङ्गाल: ४१ नट्टोपाङ्गं निषादेन ७१ ननु सक्षगुणो बोम्बः १५१ ननु वृत्ते वक्ष्यमाणे १६५ नन्दनो वीरशृङ्गारः ३४५ नन्दावती च भद्रावती ९६ नन्दावत्यां वह्निजा च ५९ नन्दिनी चित्रिणी चित्रा १२. नन्द्यावर्तः स्वस्तिकश्च ११६ नन्द्यावतॊ भवेत्तस्य १२९ नरसिंहोऽद्भुतरसे ९५ न वाञ्छति वहन्यादि ५९ नागध्वनि तदुद्भुतं १२९ नाट्यस्य कुतपः पात्रः ८१ नातिस्थूलो नातिकृशः २६५ नादावती पञ्चभिर्भः २०५ नादावत्यादयो मात्राः २६५ नादावत्यादिका एव २१७ नादावत्यामिमे भेदाः ३४१ नानाप्रकारः क्रियते २६४ नानाप्रयोगरागांश २०५ नामसाम्यं तु कासांचित् २५० नामान्येलापदानां स्युः ३३८ नामितान्दोलितवलि: २६२ १८६ २०० १६४ २३. २४१ २४६ २३० १९६ २५. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या १६९ नोक्ते करणवर्तिन्यौ १६१ न्यासांशमध्यमस्तार २२ २४८ २४० नामितो मिश्रितः पश्च नाराटखाहुलोन्मिश्रः नाराटबोम्बको बोम्ब नाराटे बोम्बभेदाः स्युः नाराटो बोम्बकस्तु स्यात् निःशङ्कशङ्कशीलाश्च निःशङ्को निखिलं राग निःसाणस्त्रिवली मेरी नि:सारतारूक्षताभ्यां निःसारता विस्वरता नि:साररूक्षोऽन्यो लीन निःसारुक: कुडुक्कश्च नि:सारोच्चतरस्थूल: नि:सारोच्चतरोऽन्यस्तु निकृतेः करुणायाश्च निगतारो मन्द्रहीनः निगाल्पो मध्यमन्यासः नितारा रिबहुस्तार निबद्धमनिबद्धं तत् निमन्द्रा मध्यमव्याता निमीलको मतो गायन् नियतं श्रेयसो हेतु: नियमो जातिमत्यां तु नियुक्ता सर्वभावेषु निषादांशग्रहन्यास: नीचोच्चद्रुतमध्यादौ नीति: सेना च कविता नूतनै रूपकं नूनं १६२ १५९ पञ्च कामा रतिश्चैका ३४० पञ्चतालेश्वरस्ताल २१३ १ पञ्चधा ग्रामरागाः स्युः १९९ पञ्चभिः पैः सचगणैः १६०, १६१ पञ्चभिस्तगणैर्जान्तः २३१ १६७ पञ्चमस्य विभाषा स्यात् १२८ १६२ पञ्चमांशग्रहन्यासः ___५१, ११० २६० पञ्चमांशग्रहन्यासा ९६, ११२, ११३ १६२ पञ्चमादेव सौराष्ट्री ११९ १६३ पञ्चमेनोज्झिता मन्द्र १०५ १७८ पञ्चमोत्पन्नगमक १२५ ११८ पञ्चमो मध्यमग्राम: १९ पञ्चविंशतिराख्याताः २६७ १२३ पञ्चविंशतिरित्येते १५७ २०४ पञ्चाननोमातिलको २१४ १०३ पञ्चाशच्च चतुर्युक्तं २७७ १५८ पटहः करटा ढक्का १९९ २०३ पट्टवाद्यं पट: कम्रा २७७ पणवो दर्दुरो ढक्का ११९, पथि भ्रष्टे वने भ्रान्ते ११३ पदमध्येऽप्यपभ्रंशे २२४ ३४७ पदैः पाटैश्च बिरुदैः ३२२ २१२ पदैः सबिरुदैः पाटैः ३२३ ३४४ पदैः स्वरैः क्रौञ्चपदः २८६ ५७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका ३६७ पुटसंख्या पुटसंख्या २८४ २८६ २८१ ३०७ १२ पदैः स्वरैर्दण्डकेन पदैः स्वरैश्च विरुदैः पदैश्च बिरुदैर्बद्धा पदैश्च बिरुदैहर्ष पदैश्च बिरुदैस्तेनैः पदैस्तच्चित्रकरणं पहाडीप्रभृतिच्छन्दा: पद्मालया पत्रिणी च पद्वयं तगणश्चान्ते पन्यासांशग्रहा माप परचित्तपरिज्ञानं परितोऽर्धभृते कुम्भे परिवृत्तं रागताल परुषोच्चस्तरः स्थूल: पवनो रविसंज्ञश्च पश्चिमाददनाजन्म पाञ्चालरीतिर्भारत्याः पाञ्चालरीतौ भारत्यां पाटैः स्यातां ध्रुवोद्माही पादत्रयं त्रिपथके पादे छः पञ्च भा गोऽन्ते पान्तांशादिः समनिपः पान्ता सरिपमैरि पुन: प्रबन्धास्त्रिविधा: पुनरुक्तं कलाबाह्यं पुनर्गीत्वा ध्रुवे त्यागः पुनगीत्वा ध्रुवे न्यासः पुनर्दिधा स्थिरा वेगा ३२० पुनश्चतुर्धा द्विपदी ३२४ पूर्ण पूर्णाङ्गगमकं ३२९ पूर्णस्तल्लक्षणो देशी ३२५ पूर्वपूर्वाक्षरवाते ३२३ पूर्वरङ्गे प्रयोक्तव्यः २५३ पूर्वार्धमुत्तरार्धं वा ३२७ पृथक् चतु:स्मरा नन्दा २२. पृथक्पदानि पञ्च दि: २८४ पृथग्लगत्वे मिश्रेस्तु ११८ पोता भाषां शकामेके १५१ पौराली मालवा कालि १८३ प्रकृतिप्रत्ययश्चोक्तं ३४६ प्रकृतिस्थस्य शब्दस्य १५९ प्रचुर: कोमलो गाढः २७८ प्रणवाद्यमतालं च २४७ प्रतिगृह्येत सा प्रोक्ता २३० प्रतिग्रहणिकैकान्या २७१ प्रतिग्राह्योलासितः स्यात् २७५ प्रतिग्राह्योल्लासितश्च ३१८ प्रतितालेन सा गेया २८३ प्रतिपाद्यविशेषेण १२८ प्रतिमण्ठेन शृङ्गारे १२७ प्रतिमण्ठेन हास्ये स्यात् २१३ प्रत्येकं गतियटकेण ३४८ प्रत्येकं च तयोरादि २१८ प्रत्येक तासु चेदेताः २५६ प्रत्येकं द्विः पदानि स्यु: १७५ प्रत्येकं वासवी पञ्च १७३ १६४ २७२ १९५ १८३ १७२, १८७ २३१ ३४५ २७२ २४७ २४८ ३०८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या ६१, ६४ . १५८ १८२ प्रत्येकमेकत्रिंशत्ते प्रत्रिपानां प्रचपानां प्रथमं त्रोटयित्वैकं प्रथमा मधुकर्युक्ता प्रथमे चास्त्रयो द: स्यात् प्रद्वित्रिणां प्रद्विचानां प्रबन्धगतिहेतुत्वात् प्रबन्धगाननिष्णात: प्रबन्धनाना प्रामानं प्रबन्धात सतालं च प्रबन्धावयवो धातुः प्रबन्धोऽङ्गानि षट् तस्य प्रभूतगमक: स्तोक प्रभूतप्रतिभोद्भेद प्रभूतभाग्यविभवः प्रयोक्तव्यो महाकाल प्रयोगे श्लोकगीतादौ प्रयोगोऽन्यो विधातव्यः प्रयोज्य: पश्चिमे यामे प्रयोज्या रणरणके प्रयोज्या ललिते स्नेहे प्रयोज्या सर्वभावेषु प्रयोज्यो वीरकरुणे प्रलम्बितावस्खलितः प्रलम्बितोऽवस्खलितः प्रवेशे तुर्ययामेऽह्नः प्रसन्नः स्यात्पदस्थान प्रसन्नमध्यारोहिभ्यां २३६ प्रसन्नमध्यालंकारः ५३, ५५, ६६, ८९ २३६ प्रसन्नमध्येनारोहि ३९, ४१, ५६ १८३ प्रसन्नमृदुरित्युक्तः १८६ २४४ प्रसन्नादियुतो दान ३३१ प्रसन्नाद्यन्तकलित २३५ प्रसन्नाद्यवरोहिभ्यां २०७ प्रसन्नाद्यन संचारि प्रसन्नान्तान्वितश्चारु ३०८ प्रसन्नान्तावरोहिभ्यां २७३ प्रसारी गीयते तज्जैः २०४ प्रसिद्धा ग्रामरागाद्याः २०६ प्रसृत: प्रसृतोपेतः २६१ प्रसृताकुञ्चित: स्थाय: १८४ १५. प्रहर्षे विनियोक्तव्यः १६८ प्राकृते दोहसंज्ञोऽसौ १२९ प्राग्यामे करुणे गेयः २२६ प्राग्रूपकगता स्थायाः ३४७ २१७ प्राग्वत्तथा स्वराः पाटा: ९९ प्रान्तप्रासा तु लाटी स्यात् १२१ प्रान्ते लोलीपदोपेता १२१ प्रायोगिक: क्रमाख्यश्च १२४ प्रियस्मृतौ नियोगोऽस्याः १११ ५३ प्रेरितस्तीक्ष्ण इत्युक्ताः १७२ १८७ प्लावितोल्लासितवलिः २६१ १२९ २२३ बङ्गालस्तारमध्यस्थ ९२ बङ्गालोंऽशग्रहन्यास Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६९ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या १८ २०७ २९६ १९८ १८१ २६४ १५४ बद्धं धातुभिर हैश्च बद्धो नि:सारुतालेन बन्धादिमं पदाद्यं च बहुधा संकरादासां बहुभिश्चरणैः सात्र बहुलो येषु नादः स्यात् बाङ्गाली माङ्गली हर्ष बाणलेखा बाणगणैः बाणान्ताः पादयोर्यस्याः बिरुदं गुणनाम स्यात् बिरुदान्तास्त्रिभिस्ताले: बिरुदैः स्वरपाटान्तः बिरुदैर्वर्णतालेन बुधैरुद्भटचारीक बोट्टः स्यात् पञ्चमीषड्ज बोम्बको मिश्रकश्चेति बोम्बयुक्तो मध्यमः स्यात् ब्रह्मण: पूर्ववदनात् २०४ भयानके सबीभत्से ३३९ भल्लातिका च मल्हारी २५२ भवन्ति बहवो भेदा: २३१ भवन्त्यङ्गवदङ्गानि ३२९ भवन्त्येकादिपादानां १७६ भवेन्मार्दलिकदद १२ मवेल्ललितगाढस्तु २४० भागोऽस्मिझोम्बडेऽप्यूज़ २४७ भावकश्चेति गीतज्ञाः २०७ भावनापञ्चमो नाग ३१२ भावनीति विभाषाः स्युः ३२८ भाषा: सप्तदश ज्ञेयाः २६९ भाषाः स्युरथ देवार ८६ भाषाः स्युर्वेसरी चूत ४८ भाषाङ्गत्वेऽप्युपाङ्गत्वं १५९ भाषाङ्गाण्यथ भावक्री भाषाणां जनकाः पञ्च २४७ भाषा मुख्या स्वराख्या च भाषाश्चतस्रः सौवीरे भाषास्तिस्रो वेदवती २६७ भाषास्त्रयोदश ज्ञेयाः १७२ भाषा हर्षपुरी षड्ज १९५ भाषे दे द्राविडीत्येका ३४६ भिन्नधातु तृतीयं स्यात् २३१ भिन्नपञ्चम इत्येते २४७ भिन्नषड्जश्व षड्जाख्ये ४१ भिन्नषड्जेऽपि ललिता | ३९ भिन्ना वकैः स्वरैः सूक्ष्मैः १०८ १२७ ११ भजते रासक: सोऽयं भजनस्य स्थापनाया: भञ्जनी द्विविधा ज्ञेया भञ्जनीसंश्रितं चेति भद्रावती पञ्चभिमैः भद्रावती भद्रलेखा भयानके च बीभत्से भयानके च वीरादौ 47 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या भीतो भयान्वितो गाता भूरितारा ममन्द्रा च भूरिभावरसोत्कर्षा भृशं प्राणप्रतिग्राह्या भेदा वेद्यास्त्रिपद्यादेः भेदास्त्रिनवतिर्युक्ता भैरवी भैरवोपाङ्गं भैरव्यंश: समां जातिं भ्रामिताक्षितसूक्ष्मान्त Murur १५७ मध्यमं स्यात्तदर्धन १९८ १२० मध्यमग्रामरागोऽयं २५० मध्यमग्रामसंबन्धः १८४ मध्यमांशग्रहन्यासः ३१६ मध्यमांशग्रहन्यासा २३६ मध्यमादिर्मग्रहांशा १०७ मध्यमादिर्मालवश्री: १७७ मध्यमापञ्चमोजातः ३६, ५९, १८८ मध्यमापञ्चमीजाति मध्यमापञ्चमीजात्योः मध्यमापञ्चमीधैवती १६ मध्यमे कैशिकीजात: ९५ मध्यमेन निषादेन २५४ मध्यमे नर्तगान्धार ३३८ मध्यस्थरागौ सादृश्य २१९, २४५ मध्यस्थांशस्तयोरंश: ३३९ मध्ये मध्ये स्वरान् भूरीन् १०४ मनसा तद्गतेनैव २२ मन्द्रभूरि: ससंचारी १२६ मन्द्रे ध्वनिः सघोप: स्यात् १०६ मन्यास: काकलीयुक्तः २७८ मन्यासो मन्द्रषड्जांश ३४७ मन्यासो रूपसाधारः १६४ ममन्द्रा तारगान्धारा १६१ मल्हारी तदुपाङ्गं स्यात् ११३ १२ मस्त्रिगु: पूर्वलो यः स्यात् २२४ ३३७ महानन्दाथ लहरी २३६ १६३ महामाहेश्वरेणोक्तः १५४ , मकरक्रीत्रिनेत्रक्री मग्रहांशा स्वल्पापड्जा मङ्गलारम्भ आनन्द मङ्गलो भेन शृङ्गारे मण्ठद्वितीयकङ्काल मण्ठवत्प्रतिमण्ठादेः मण्डिता मनिधैर्मन्द्रः मतङ्गादिमताद् ब्रूमः मतङ्गोक्ता तारमन्द्र मत्यक्तान्दोलितसपा मधुमाधवनामानौ मधुरं धुर्यलावण्य मधुरः कीर्तितस्तार: मधुरस्निग्धगम्भीर मधुरी भिन्नपौराली मधुरो भोगदो गेयः मधुरो मृदुगम्भीर १७६ و سد م م ه م و Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या १५७ १७३ १६० १७४ १७० २६१ मतदाता १३ ११७ महाराष्ट्रान्ध्रहम्मीर महाराष्ट्री च सौराष्ट्री मही मतिस्ततः कीर्तिः मातुस्थायविचित्रत्वात् मातृक: श्रीपतिस्तद्वत् मात्राः पञ्चदशाद्येऽछौ मात्राः पञ्चदशायुग्मे मात्रा कला लघुर्ल: स्यात् मात्रागणैस्तु मात्रैला मात्रिका वर्णजैर्वृत्तैः मात्वन्तरेण रच्यन्ते मात्वन्तरेणानुसारः माधुर्यधुर्यध्वनयः मानुषी प्राकृतगिरा मान्तोऽल्पग: काकलिमान् मान्धातृसुमती शोभि मान्धात्रादिपदेषु स्युः मार्ग देशी च यो वेत्ति मार्दगिकास्तु चत्वारः मार्दवाघूर्णितः प्रोक्तः मालती मोहिनी सप्त मालती ललिताख्या च मालवः पञ्चमान्तश्च मालवः पञ्चमान्तोऽय मालवा तस्य भाषा स्यात् मालवी तानवलिता मालवे कैशिकेऽप्यस्ति मिथस्त्रुटितनिर्वाह: १९९ मिलिता मुग्धबोधाय १७ मिश्रकोऽनवधानश्च २९. मिश्रश्चैतेऽपि संकीर्णाः ३४६ मिश्रस्य भेदाश्चत्वारः मुक्तशब्दप्रतिग्राह्याः ३१७ मुखमुद्रणसंभूत: २९५ मुख्या: षडिति शेषाः स्युः २२७ मुख्यानुवृत्तिमिलनं २३९ मुदे रुद्रस्य वर्षासु २५६ मुहरीशृङ्गवाद्याद्याः ३४७ मृदुत्रिस्थानगम्भीरः ,, मृष्टो मधुरचेहाल १५५ मेघरागः सोमराग: ३०२ मेघरागो मन्द्रहीनः ४८ मेदिन्यथानन्दिनी स्यात् २१९ मेलापकः प्रयोगाढ्यः २२० मेलापकः प्रयोगात्मा १५३ १९८ १८१ य: कस्यचिन्न सर्वेषां २४५ यतिमात्रेण भिन्नास्ताः , यत्तु कम्पनमारोहि १० यत्तु वाग्गेयकारेण ८ यत्र गङ्गातरङ्गन्ति १३१ यत्र तेनैः स्वरैः पाटैः ११ यत्र ध्रुवो द्वि भोगः १२४ यत्र भागो भवेलम्भे १९८ यत्र वीररसेन स्यात २१२ २६० २५५ १८६ २४५ १७५ २०४ १०२ ३१८ २६४ २६५ ३२९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ संगीतरनाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या १७६ २५६ ૨૪૬ १७५ १८४ ३४६ युक्ताः कोमलया कान्त्या २८७ युग्मिनी वृत्तमाला च २९० येन तस्यान्यधातुत्वात् २५२ ये यन्त्रेष्वेव दृश्यन्ते १९३ येषु सूक्ष्मीकृताः शब्दाः २५३ येषूपशान्तिः क्रियते ३३८ येष्वंशो दृश्यते स्थायाः १९५ यो झोम्बडगतं लक्ष्म ३३. यो यस्मिन्बहुलः स्थायः २४८ यो वेत्ति केवलं मार्ग २९५ १७८ २६७ १८६ P यत्र स्थायिनि यत्स्थानं यत्र स्वराक्षरैरेव यत्राभोगे गातृनाम यत्रोद्राहध्रुवौ सान्द्र यत्रोपवेश्यते रागः यत् स्वरैर्बिरुदैर्बद्धं यथोक्तान् यो जयन्तादीन् यदा तत्पदमानेन यदृच्छया वा धवल: यदेकस्य द्वयोरङ्घयोः यद्येषामर्धयोरन्ते यदा देवत्रयस्तुत्या यदा रागेण तालेन यस्तु गद्येन पद्येन यस्मिन् कलरवस्यासौ यस्य स्यात्तेनके न्यासः यस्य स्यात्तेनकैासः यस्यां भिन्नार्थयमको यस्यां षोडशमात्राः स्युः यस्यां समासु मात्रासु यस्यामन्तर्विशन्तीव यस्यामसौ रमा सा च यस्यासौ रासको नन्द: या प्रोक्ता रूपकालप्तिः यामद्वये मध्यमेऽह्नः या रागस्य निजच्छाया यावदेकैकवृद्धयैला: याष्टिके त्रावणी भाषा १७२ २३० २५९ २०३ १५ २३४ ३४६ रक्तहंसः कोल्हहासः १३. रक्तरुत्कर्पतो रक्तेः १८५ रक्तर्दुतस्य शब्दस्य ३१७ रगणैः पञ्चभिः सान्तैः २७. रचिता चेत्तदा ज्ञेया ३१४ रञ्जकः स्वरसंदर्भः ३२६ रञ्जनादागता भाषा २८९ रतिदेहेति दशधा १७५ रतिलेखा कामलेखा ३४१ रतिलेखादयः प्रोक्ताः रतिलेखा रतिगणैः १९५ रते: पष्ठश्च दशमः ३९ रमणी चन्द्रिका लक्ष्मीः १७६ रमणीया च विषमा २४४ रमा च चन्द्रिका तद्वत १२७ रम्यमातुविनिर्माता २३९ २४३ ३१३ २४५ २३४ ३४१ १५१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या १२३ १०६ १६५ रसभावपरिज्ञानं रसाविष्टस्तु रसिक: रसे वीरे च शृङ्गारे रागमना वाद्यशब्दाः रागरागाङ्गभाषाङ्ग . रागस्यातिशयाधानं रागस्यावयवः स्थाय: रागाङ्गाण्यष्ट गाम्भीरी रागान्तरस्यावयवः रागाभिव्यक्तिशक्तत्वं रागाभ्यामपि तालाभ्यां रागालपनमालप्तिः रागालप्तिस्तु सा या स्यात् रागेण धातुमातुभ्यां रागेणेष्टः स्वपूर्त्यर्थं रागे ताले च तत्रैव रागे नानाविधा काकु: रागेष्टोऽपस्वराभासः रागो हिन्दोलकस्ताल: रासकादन्यताल: स्यात् रासको रासतालेन राहुप्रियोऽद्भुते हास्ये रिगमैललितैस्तार रिग्रहांशो मध्यमान्तः रितारा रिधभूयिष्ठा रिधत्यक्ता पमन्द्रांच रिन्यासांशग्रहः कापि रिपत्यक्ता तु तोड्येव १५. रिपापन्याससंयुक्ता १५४ रिमन्द्रतारा स्फुरिता ३३७ रिवर्जिता गपाल्पा च १७५ रिषड्जाभ्यधिका धीरैः १५४ रिहीनांशग्रहन्यास १७६ रिहीना सगधैस्तारा १७१ रिहीनो वा मध्यमान्त: १६ रीतिः कर्णाटिका लाटी १७७ रूक्षः स्निग्धत्वनिर्मुक्त: १६७ रूक्षनि:सारपीनश्च ३११ रूक्षस्फुटितनिःसार १८८ रूक्षोऽन्यस्तु मृदुस्निग्ध १९२ रूपकं तद्वदेव स्यात् ३४४ रूपक त्रिविधं शेयं १८५ रूपकं पूर्वसंसिद्धं ३४७ रूपकस्थेन रागेण १७६ रूपयौवनशालिन्यः १७३ रोषद्वेषपरित्यागः ३२६ रौद्रे प्रचण्डो नन्दीश: २५९ रौद्रे रसे चण्डिकायाः १६२ १६५ १६२ २१ १९५ १५५ २६२ २३.. ३४१ २०८ २४२ १२१ लक्षितस्तेन तेनेति ८६ लक्ष्माणीति क्रमात्तासां ७७ लक्ष्माधुनाप्रसिद्धानां १.३ लक्ष्मीः स्यादृद्धिबुद्धी च ७५ लक्ष्मीलंकार एलानां १०५ लक्ष्ये प्रसिद्धिवैधुर्यात् २९० २१९ २६५ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या १७ १०४ २२० १५१ लगुरुभ्यां दूतद्वंद्वात् लघिष्ठडमरुध्वान लघुत्रयाद्रुतद्वंद्वात् लघुत्रयाद्विरामान्तात् लघुद्याद्विरामान्तात् लघुभिर्बहुलैरल्पैः लघुर्गुरुत्वरहितः लघुशेखरतालेन लघोद्भुतद्वयेन स्यात् लम्भरासैकतालीभिः लयग्रहविशेषेण लयतालकलाशानं लयान्तरेऽन्यतालेन ललितं कैशिकी वृत्ति लवनी तद्युजः स्थायाः लहरीति त्रिधा तानि लीन आन्दोलितवलि लीनकम्पितलीनश्च लीनत्रिस्थानरूक्षोच्च लीनस्तु द्रुतवेगेन लोके तथापि शुद्धोऽसौ लोहितारभटी वृत्ति ३४० वराटी गुर्जरी गौड १६९ वराटी द्राविडी भूरि ३४० वराटी सैन्धवी भूरि ३३९ वराट्यः षडिति च्छाया ३४० वरेण्या वायुवेगा च २७२ वरो वस्तुकविर्वर्ण १८५ वर्गाणां स्युः फलान्येषां ३३७ वर्णजो मात्रिकश्चेति ३४० वर्णालंकारसंपन्ना २१३ वर्णेलावत्परं यस्यां ३४५ वर्णैश्चातालशब्दानां १५० वर्णो वर्णस्वरो गद्यं २५६ वर्ण्यनामाकिताभोगा २७१ वलिर्या गमकेयूक्ता १७५ वलिविविधवक्रत्व २५४ वलौ वहे वहन्यां च १६९ वल्लकी कुब्जिका ज्येष्ठा १८७ वल्लभो रेण करुणे १६३ वल्लाता तदुपाङ्गं स्यात् वसन्ते प्रहरे तुर्ये ३३५ वसुमत्यपि तन्दु २३० वहनीच्छाययोर्यन्त्र वहनीढालयोर्दाल वहनीयन्त्रयोश्छाया १५८ वहनी येषु ते स्थायाः १७३ वहनी साथ संचारि २१४ वहनी स्यात्पुनधा १९९ वहन्त इव कम्पन्ते २२६ २९८ १९६ २५० २७२ २१३ २७६ १७५ १६९ १८२ १९९ ३३० A . . ८ वक्री वक्रीकृतगल: वक्रो दीप्तप्रसन्नश्च वदनं चच्चरी चर्या वराटलाटकर्णाट Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या २६१ २१३ ६६ वहाक्षराडम्बरजः वहाक्षराडम्बरयोः वांशिका: पाविकापाव वाक्यमालापके न्यास: वागानामपि केषांचित् वाङ्मातुरुच्यते गेयं वाचं गेयं च कुरुते पातपित्तकफा देह वाद्यशब्दस्य यन्त्रस्य वाद्यानामेवमादीनां वा पदान्ते त्वसौ वक्र: वाराहीदेवताप्रीत्यै वासवी कलिका वृत्ता वासवी संगता त्रेता विकल: स तु यो गायेत् विकारिमध्यमोद्भूतः विकारेण तृतीयस्य विचित्रस्थानकप्रौद्धैः विचित्रो वासवमृदु विजयकी: क्रियाङ्गाणि विजयश्चेति स प्रोक्तः विजयाख्यो रसे वीरे विजया रत्नमाला च विदधानोऽधिकं धातुं विद्यादानेन तपसा विद्युल्लता विशाला च विधाय स्थायमालतेः विनयो विक्रमोत्साहौ १८८ विनियुक्तः प्रतिमुखे १७२ विनियुक्तो गर्भसंधौ १९९ विनियोगवशादेषां ३०९ विनोदो वरदो नन्दः १७१ विप्रकीर्णाश्च तत्रादौ १४९ विप्रलम्भे कञ्चुकिन: विप्रलम्भे तु सारङ्गः २०५ विप्रलम्भे प्रयोक्तव्यः १५२ विप्रलम्भे भवेदुच्छी १९९ विभाषा ककुमे भोग २२४ विभाषा पल्लवी भास २३१ विभाषा मालवामिन्न २७६ विभाषे दे तु काम्भोजी २३३ विभाषे पार्वती श्रीक १५. विमला नलिनीसंज्ञा ६८ वियुक्तबन्धने गेया २३४ विरसापस्वराव्यक्त २०. विरसो नीरसो वयं २१९ विरामान्तद्रुतद्वंद्वात् १६ विरामान्तेन गातव्यः ३४. विरुद्धगुणताक्षेप र विलम्बितलये गेयं २३५ विलम्बितेन मानेन १५१ विलसत्काकलीकोऽपि १६८ विशालश्चेति स प्रोक्तः २४५ विषमालंकृतिश्चित्र १९५ विषमे तु छयुग्मं चेत् २७९ विष्णुश्चक्रेश्वरो वीरे ११२ १५८ ३३८ १६. ३३२ २७३ २५७ ३३१ २६२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या २७१ २१९ २३७ वीणा घोषवती चित्रा १९९ वैकुन्दानन्दकान्तारा: वीणावंशादियन्त्रोत्था १७६ वैदर्भरीतिसंपन्नं वीररौद्राद्भुतरस: २८, ६१, ७६, ८६,११६ वैदा रचितं रीत्या वीररौद्राद्भुतरसे ७८ वैरञ्जी मध्यमग्राम वीररौद्राश्रितैर्बद्धा २७६ व्यक्तं पूर्ण प्रसन्नं च वीरशृङ्गारयोस्तेन ३०९ व्युत्पत्तये निरूप्यन्ते वीरश्रीर्मङ्गलाचारः २१४ व्योमजा वारुणी व्योम वीरहास्ये निर्वहणे वीरावतारः शृङ्गार ३०९ वीरे जयप्रियो गेयः ३३८ शंकराभरणो घण्टा वीरे रौद्रेद्भुते गेयः ४३ शकमिश्रेति षट् तिस्रः वीरे रौद्रे रसे गेयः २० शकाद्या वलितेत्येताः वीरे हास्ये च शृङ्गारे ३३७ शब्द: प्रकाशते येषु वृत्तं तस्य च पादान्ते ३०१ शब्दशारीरगुणतः वृत्तगन्धि रसे शान्ते २७१ शब्दसादृश्यमित्येते वृत्तिं वैदर्भरीतिं च २३१ शब्दानामधमः प्रोक्तः वेगवद्भिः स्वरैर्वर्ण शब्दानुशासनज्ञानं वेगस्वरा रागगीतिः शरीरं क्षेत्रमित्युक्तं वेगे द्रुततृतीयांश १६९ शान्ते शीलो विरामान्त वेगेन प्रेरितसर्व १८२ शाङ्गदेवेन गदितः वेणी मिश्रमिति प्राहुः २७१ शार्ङ्गदेवेन गदिता वेणी सर्वैः कृता मिश्रं शार्कदेवेन निर्णीतं वेदध्वनिनिभध्वानाः १८५ शालवाहनिका टक्के वेदध्वनेर्घनत्वस्य १७३ शिक्षाकारोऽनुकारश्च वेदोत्तरा जातिमती २७७ शिखापदं तत् तृतीये वेलावल्याश्च गुर्जर्याः १७७ शुक्रप्रियः पूर्वयामे वेसर: षाडवः षड्ज ४६ शुद्धच्छायालगाभिज्ञः वेसरे षाडवे भाषे १२ शुद्धश्छायालगश्चेति १८४ ૧૮૬ १९८ १६१ १५० ३४० ११८ १०४ १०० १५४ २४८ १५४ ३३४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धच्छायागी रागौ शुद्धपञ्चमभाषा स्यात् शुद्धभिन्ना च वाराटी शुद्धमध्यमया सृष्टः शुद्धसाधारित: षड्ज शुद्धाः सप्तेति भिन्नाः स्युः शुद्धाः स्युर्विकृतास्तिस्रः शुद्धा खण्डा च मात्रादिः शुद्धा चतुर्विधा नादा शुद्धादिगीतियोगेन शुद्धाभीरी रगन्ती च शुद्धा मालवरूपा च शृङ्गारहास्ययोः संधी शृङ्गारे मकरन्दः स्यात् शृङ्गारे वैष्णवं चित्रं शेषास्तु मान्मथगणाः श्रीकण्ठिका च बाङ्गाली श्रीरङ्गः श्रीविलासः स्यात् श्रीरागनट्टी बङ्गाली श्रीवर्धनः स्याद्विरुदैः श्रीवृद्धि निधनस्थान श्रीशंकर प्रियेणोक्तः श्रुतिन्यूनाधिकवे श्रोत्र निर्वापको मृष्टः लक्ष्णस्तु तैलधारावत् श्वेतं हास्यकृतारब्धं षट्पञ्चाशद्युतं प्रोक्तं 48 ष श्लोकार्थानामनुक्रमणिका पुटसंख्या १५८ षट्पदी वस्तुसंज्ञश्व पटुप्रकारत्वमेतासां ११८ ११ ५७ षडक्षराङ्घ्रितत्रिंशत् ७ पडक्षरादङ्घ्रिखण्डात् पड्जग्रहांशापन्यासः पड्जग्रहांशो मन्यासः षड्जग्रामसमुत्पन्नः पड्जग्रामे मन्द्रहीनः ६ पड्जग्रामे रेवगुप्तः १३ षड्जधौ संगतौ तत्र पड्जमध्यमया जात: १२ ११० पडुजमध्यमया सृष्टः ३४० २७१ षडूजमध्यमिकोत्पन्न ३१६ षड्जमन्द्रा प्रयोक्तव्या १२ षड्जर्पभांशग्रहः स्यात् ,,, २३३ पटूप्रकारो मण्ठताल: २८३ २३० २१४ पड्जांशग्रहणन्यासा ९ षड्जांशग्रहणन्यासां ३७७ पुटसंख्या ३२४ षड्जादिमूर्च्छनः पूर्णः २२५ षड्जादिमूर्च्छनो दान १६५ पड्जाद्यन्तात्र संवादः १७५ षड्जे धैवतिकोद्भूतः १६४ षड्जे प्राड्जीभवः षड्ज १६५ पड्जे पाडुजीसमुद्भूतं २७१ षड्जे स्याद्रूपसाधारः पड्जोदीच्यवतीजात २५१ षष्टिमात्रावधि प्रोक्ताः २१४ २४७ ३३८ २६७ २४४ ३७ ३४, ३९ ११४ ८६ ७ १३१ १९ २७, ३९, ७८, ८४, ९८ ३४ १२५ ६१ १२० १०३ ३४ ३७ १०१ ११७ " ११४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute * ७१ २६७ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या पुटसंख्या २६. षष्ठस्तृतीयस्त्रिगणः षष्ठादन्यैर्गणैः सर्व षष्ठी मदनवत्युक्ता षष्ठेनैकेन गुरुणा षष्ठेऽष्टमे दाश्चत्वारः पाड्यादेव बङ्गाल: षाडूजीधैवतिकोत्पन्नः २०५ १७७ १८६ १५५ १०७ संकीर्णा देशजा मूला संगता सवितुः क्षिप्ते संचारिणि प्रसन्नादि संचारिवर्णरुचिर: संज्ञात्रयं निबद्धस्य संदश्य दशनान् गायन् संदष्टो ष्टसूत्कारि संपत्सुभगता कीर्ति संपूर्णः शान्तशृङ्गार संपूर्णो मध्यमन्यासः संप्रविष्टोत्प्रविष्टश्च संभोगे विनियोक्तव्यः संभोगे स्यादिशालाख्यः स एवान्दोलितः षड्जे स एषु ते स्यु लस्य सकाकलिः पश्चमान्तः सकाकलीक: पड्जादि सकृद्विरतिरुद्धाहः सगतारा पइजमन्द्रा ३१५ सगतारोत्सवे हास्ये २९० स चतुर्धा स्थानकस्य २४५ सजातीयांशक: स स्यात् २८४ स तु सालगसूडस्थ ३३१ सत्यं किंतु मते येषां ७१ सदृशांशो यथा नट्टा ५६ सदृशांशो विसदृशः सदृशो यस्तु सर्वेषां सद्वितीयो यमलक: १३ स द्विधातुस्त्रिधातुश्च २३६ सधमन्द्रा मभूयिष्ठा ३६ स नेतृश्रोतृगातॄणां ७१ सन्यासांशग्रहं मन्द्र २०४ सन्यासांशग्रहा गेया १५७ सन्यासांशग्रहा तार १५६ सन्यासांशग्रहा मन्द्र २२६ सन्यासांशग्रहा सान्द्रा ४६ सन्यासांशा धग्रहा च २७ स प्रलम्भो ध्रुवस्थाने १८७ समं सुरक्तं लक्षणं च ८१ समधुवा च विषम ३४० समन्द्रा कौन्तली तत्र ११३ समन्द्रा निगनिर्मुक्ता १७४ समवर्णलयस्थानं ४३ समशेषस्वरं वीरे ६६ समस्वरा तारमन्द्र ३४१ समस्वरा रितारा सा १२२ समस्वरोऽन्यः कामोद: ११४ १०९ १०१, १२७ १०२ १२२ १०३ २६५ ३२७ १२४ ३४७ ११८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या पुटसंख्या १० اس اس اس ३३३ २३० २३१ १८७ १९९ ४६, १२९ २७५ समानो मधुर: सान्द्रः समानोऽल्पाक्षरध्वानः समालंकारसंख्या च समेतरस्वरा गेया समेतरस्वरा मन्द्र समे षोडश मात्राः स्युः सरल: कोमलो रक्तः सर्वक्रतुफलं तस्य सर्वमन्त्रमयी ह्येषा सर्वस्थानोत्थगमकेषु सर्वेषामपि रागाणां सर्वेषु रासकेष्वेषु सविलासास्ति गीतस्य सविसर्गो व्यञ्जनान्त: स शुद्धैमिश्रितैः पाटैः सशृङ्गारे पुष्पसारः ससौवीरी मध्यमे तु स स्यादपस्वराभासः स स्वरार्थो द्विधा शुद्धः सांशग्रहान्ता माने स्यात् सांशग्रहान्ता सौराष्ट्री सा गीतालप्तिसंबन्ध सा चास्माभिः पुरा प्रोक्ता सा त्वन्यरागकाकुर्या सादृश्यशून्ययोरंश: सा देशकाकुर्या रागे सा द्विधा गदिता राग सा द्विधा छन्दस: पूर्त्या २२. साधारणीति शुद्धा स्यात् २११ साधारणो निराधारः २५८ साधारिता च गान्धारी ७५ सानुप्रासैस्त्रिभिः खण्डै: ७० सा भवेत् त्रिविधा शुद्धा ३१४ सामवेदोद्भवा पीता १७८ साम्ये तु मिश्रनामैव ३३८ सारङ्गथालापिनीत्यादे: ३०३ सारसो भ्रमरो हंसः १.४ सारोहिसप्रसन्नान्त: १८ सारोही सप्रसन्नादिः ३४१ सार्थकैरर्थहीनैश्च १७६ सार्वभौमोत्सवे गेय: २२४ सावरोहिप्रसन्नान्त: २७५ सा वसन्तोत्सवे गेया २६२ सावित्री पावनी वात ८ सा स्याद्सुमती यस्यां १८५ सिंहलीलेन तालेन २८७ सितं मदनदेवत्यं ९८ सिरालभालवदन १२. सुकराभास इत्युक्तः १७५ सुकुमारं कण्ठभवं २०४ सुकुमारो वर्णनाद १७६ सुखदास्तु सुखस्य स्युः १७७ सुदर्शन: स्वराङ्कश्री १७६ सुदेशिको विदग्धानां १८८ सुरक्तं वल्लकीवंश ३२७ सुरनाथ: समुद्रश्च ३२६ २३६ २४० ३१९ २७१ १५७ १८५ ३४७ २२३ १८४ २१४ १८२ २७८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० संप्रदायो गीतज्ञैः सूक्रमस्य मध्ये चेत् सूडालिक्रमसंबन्धात् सूर्यचन्द्रसुराधीशाः सूर्यास्तु द्वितीयेच सैन्धवी दाक्षिणात्यान्त्री सैन्धवी पञ्चमेऽप्यस्ति सैन्धवी भिन्नपडूजेऽपि सैव प्रतापपूर्वा स्यात् सैव प्रयोगशब्देन सोत्फुल्लेत्युदिता यस्यां सोमरागः स्मृतो वीरे सोमो भौमो बुधो जीवः सोऽवस्खलित इत्युक्तः सौराष्ट्री पञ्चमी वेग सौवीरः ककुभष्टकः सौवीरी तद्भवा मूल स्तब्धस्थायस्तु वद्धः स्यात् स्तुत्यनामाङ्कितश्चासौ स्तुत्यनामाङ्कितो मध्य स्तोकस्तोकस्ततः स्थायैः स्थानत्रयव्याप्तियुक्तः स्थानभ्रष्टः स यः प्राप्तुं स्थापयित्वा स्थापयित्वा स्थाय: स्थायेन पूर्वे स्थायादिष्ववधानेन संगीतरत्नाकर: पुटसंख्या १५४ स्थायास्तदन्विताश्चालेः स्थायिवर्णस्थितिः कम्पः २१३ स्थायिस्वरादष्टमस्तु "" २२५ ३१७ ११ स्निग्धकोमलगम्भीर १२३ स्निग्धकोमलनि:सार: १२४ स्निग्धत्रिस्थाननिःसार: १०६ स्फूर्जन्निर्जवनो हारि ३४२ स्यातां कंदर्पदेशाख्यौ १७५ स्यात् त्रोटितप्रतीष्टोत्प्र ११७ स्यात् चोटितप्रतीष्टोऽपि २२६ स्यात् त्रोटितप्रतीष्टोऽसौ १८३ स्यात् प्रतापवराटी तु ११ स्याद्देशक्षेत्रयन्त्राणां १० १०१ १८५ स्थायुकः क्षिप्तसूक्ष्मान्तौ स्निग्धः लक्षणो रक्तियुक्तः स्याद्रासवल्यो हंस स्याद्रोहिणी विशाला च स्याद्वर्णनियमः सर्व स्यान्मिश्रकरणं बद्धं ३३६ २१७ स्युः पट्पञ्चचतुस्त्रिद्वि १९४ स्युर्वराट्या उपाङ्गानि १६५ स्वनाम तालके हंस १५८ स्वभावादेव शब्दस्य १७६ स्वर : पूर्णश्रुतिस्तारे १८२ स्वरः स्याद्येषु ते स्थायाः १५८ स्वरतेनकसंयुक्ता १७२ स्वरदेशाख्यया ख्याता १७८ स्वरन्यासः स तन्नाम्ना पुटसंख्या १८४ "2 १९३ १७२ १६४ १६१ १६२ १६३ १५४ ९ १८७ १७२ १८३ १०४ १७५ २६७ २९० ३३८ २५३ २२७ १०३ ३२० १८४ १७६ १८१ ३१५ १३ २८७ स्थायानां गुणभेदेन स्थाया नानाविधां भङ्गीं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका ३८१ पुटसंख्या पुटसंख्या १०४ २८० २९० २७८ ३३७ २६२ ३३७ م १२५ م १०९ स्वरमग्रिममाहत्य १६९ हतस्वरवराटी च स्वरस्य कम्पो गमकः , . हतस्वरा धमन्द्रा स्वरहीनं तदित्यन्ये ३०१ हयलीलेन तालेन स्वराः षड्जादयस्तेषां २०७ हरिणी चाथ चक्राख्या स्वराणां नमनादुक्तः १७. हरिश्च हरिणी हस्ती स्वरादेरादिविन्यास २७० हषोत्कर्पप्रदश्वार: स्वराद्यकरणस्येव २५९ हास्यशृङ्गारकरुणेषु स्वरान्तः श्रीविलास: स्यात् ३११ हास्यशृङ्गारयोरेषः स्वरान्तरस्य रागे स्यात् १७६ हास्यशृङ्गारयोहसः स्वराभिव्यक्तिसंयुक्ताः २०७ हास्ये द्वितीयतालेन स्वरः पदैश्च बद्धं यत् २५३ हिन्दोलको रिधत्यक्तः खरैः पदैस्तु विरुदैः २८१ हिन्दोलभाषा गौडी स्यात् स्वरैः पाटैः पदैरुक्तः ३२२ हिन्दोलभाषा छेवाटी स्वरैः पाटै: पदैस्तेनैः २६९, ३१९ हिन्दोले पिञ्जरी भाषा स्वरैः पाटैश्च बिरुदैः ३१९ हिन्दोलोऽष्टौ वेसरास्ते स्वरैः सकरपाटैर्यत् २५३ हीनो वेगविलम्बाभ्यां स्वरैः सतेनकैर्यत्तु , हुडुक्कपाटैस्तदनु स्वरैः सहस्तपाटेस्तु , हुडुक्का डमरू रुमा स्वरैरेकोऽन्यः प्रयोगः २९४ हृदयंगमहुंकार स्वरैर्मुरजपाटैर्यत् २५३ हृद्यशब्द: सुशारीर: स्वस्थानं तदपस्थान १७८ हृद्या कण्ठ्या शिरस्या च स्वस्थानः सा चतुर्भिः स्यात् १९२ हृष्यकामूर्छनोपेतः हेमन्ते प्रथमे यामे ह्रस्वः शिथिलगाढश्च हंसी वधूरिति प्रोक्ता २९. हवः स्तोकः परौ द्वौ तु हकारौकारयोगेण م م م م १९९ १६९ १५३ १७५ ११० ७१ १८६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः सांकेतिकाक्षराणि-- अष्टा. औमा. कला. का.प्र. द. रू. ध्वन्या. नाट्य. ना. लि. पद. अष्टाध्यायी औमापतम् कलानिधिः (संगीतरत्नाकरव्याख्या) काव्यप्रकाशः दशरूपकम् ध्वन्यालोकः नाट्यशास्त्रम् नामलिङ्गानुशासनम् पदमञ्जरी पिङ्गलच्छन्द: प्राकृतपिङ्गलन्छन्दः प्रतापरुद्रीयम् बृहद्देशी वृत्तरत्नाकरः संगीतरत्नाकरः संगीतसमयसार: हलायुधीयपिङ्गलच्छन्दोव्याख्या प्रा. पि. छ. # E E o to www RS Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकर्तरि च कारके अचेतनेषु चैतन्यं अजस्रं सर्वभावानां अतः परं प्रवक्ष्यामि अतः संभूय शुद्धास्ते अत्यर्थमिष्टं देवानां अत्यर्थ सुकुमारार्थ अत्युद्धतार्थसंदर्भा अत्रान्यैरधिकायुक्त अथोदिता हि पादे अनपेक्ष्यान्यजातीये अनुक्तमन्यतो ग्राह्यम् अनुतारात्परं श्रुत्या अनुयातीव सोऽन्येषां अनौचित्यादृते नान्यत् अन्तरेण यदभ्यासं अन्यतरोक्तावुभयग्रहः अन्यूनाधिकता तज्ज्ञैः अन्येषु च अभ्यवस्थानकं गीतं अम्बारी टक्कभाषा अर्थे सत्यर्थ भिन्नानां अल्पत्वं च बहुत्वं च अल्पशेषापभूयिष्ठा अविश्रामेण त्रिस्थाना अश्राव्यं लक्षणं त्यक्त्वा अश्वकर्णादिवद्रूढः अश्वलितं नूजी भूजी उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः पृ. ३ १९० " १८ १३३ २०८ २३१ २३१ ३०७ २९७ २४ ३१५ १५६ १९० १५२ १६८ २० १८१ २११ २०९ १३५ ३१४ २५, ३२ १४६ ६ १५३ २, ३ २८१ आकर: अष्टा. ३-३-१९ पद. ४-१-३ "" 33 बृ. दे. १४१ औमा. १६ नाट्य. २८-९ प्र.रु.२-१५ २-१५ 33 33 सं. र. ६ १०७७ ३८३ नाट्य. ३२-३२१ बृ. दे. ८५ सं. स. १३ पद. ४-१-३ ध्वन्या. ३-१४ सं. स. २ सं. स. १२ २४ 99 99 " " कला. १३५ का. प्र. ९-८३ बृ. दे. ८९ १०३ कला. १४६ बृ. दे. ९२ सं. स. ८३ बृ. दे. ८२ पि. छ. ७-२६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ संगीतरनाकरः पृ. आकरः १३३ औमा. १८ कला. १३४ पद. ४-१-३ सं. स. "" २४ हला. ४-११ कला. १४४ १८९ २०९ २१. २५७ १४४ १३३ १३६ २११ २०५ २८७ २७८, २८० १५८ ,, १३६ सं. स. २४ ना. लि. २-६-१३० हला. ७-२९ वृ. र. २-८ सं. स. ८४ असंख्याकास्तु ते तेषु असंपूर्णा च संकीर्णा आख्यातशब्दे भागाभ्यां आचार्याः सममिच्छन्ति आदावुद्राह्यते गीतं आदौ तावद्गणच्छन्दः आन्ध्रीसमुद्भवो भास: आभीरिका माद्यन्तांशा आमीरी पञ्चमोद्भूता आभोग: कथितस्तेन आभोगः परिपूर्णता आयतजङ्घा निम्न आर्याप्रथमदलोक्तं आलप्तिगायन: सोऽयं आलसेरपि यद्गीतं आलापो गमकालप्तिः आविर्भावस्तिरोभावः आस्तिक्योत्पादनं गीतं इत्यतन्त्रमुपादानं इह हि भवति ईषत्प्रौढार्थसंदर्भा ईपद्रुतैश्च कर्तव्या ईघन्मृद्वर्थसंदर्भा उक्तानां ग्रामरागाणां उक्तो गायकभेदः उच्चनीचस्वरं गीतं उच्चनीचस्वरोपेतं उत्पन्नोऽयं वसन्तस्तु ܙܙ ܙܝ ܕܕ २१६ १८९ २०९ १८९ ३२१ २३१ सं. र. ४-३६० पद. ४-१-३ सं. स. पद. ४.१-३ हला. ७.३२ प्र. रु. २-१६ बृ. दे. ८३ प्र. रु. २-१६ बृ. दे. सं. स. ८४ २३१ १८ १५८ २०५ १३३ औमा. २० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः ३८५ आकर; कला. २४ सं. स. २४ हला. ६-३१ सं. स. २५ पद. ४-१-३ २२७ .१४२ १४३ बृ. दे. ८३ बृ. दे. कला. १४२ ,, १४३ , १४६ सं. स. २ औमा. १८ सं. स. २ उदयगिरिशिखर उदाहाद्यास्तु चत्वारः उपधाभिरशुद्धमति उभयात्मकमित्याहः उभयोरन्तरं यच्च ऊने दद्याद्गुरूनेव ऋजुभिर्ललितैः किंचित् ऋषभपञ्चमहीन ऋषभांशग्रहन्यासा ऋषभांशग्रहस्त्यक्त ऋषभान्तग्रहा धांशा एते ध्वनिगुणा मिश्राः एतेषां छायया जाताः एरण्डकाण्डवद्यत्र एलायां ढेविकायां च एवं चतुर्विधं ज्ञेयं एवं साधारणी ज्ञेया ओ नमो जनार्दनाय ओज:कान्तिगुणोपेता ओहाटी मन्द्रजोपात्ता ओहाटी ललिता चापि ओहाटीललिताश्चापि कंदर्पः षड्जकैशिक्या ककुभकैशिकस्य ककुभान्तरभाषेयं ककुभे मध्यमग्रामी ककुभोत्या मधुकरी कडालमधुरं चैव 49 १६. १३३ .१६. २ " बृ. दे. ८४ हला. ५-६ प्र. रु. २-३० बु. दे. ९१ कला. १४४ बृ. दे. कला. १३४ , १३२ , १३४ सं. स. १३२ १३४ १६९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरनाकरः आकरः सं. स. २०९ १८१ " ११ कला. १४८ बृ. दे. ' r १५ पद. ४-१-३ कला. १३२ १३२ , १३९ १५२ १४७ कडालसौबलं चैव करुणाकाकुसंयुक्तं करुणाकाकुसंयुक्ताः करुणारागयोगेन करुणे कालदैवत्यः करुणोत्साहशोकादि कलिता यत्र तान्वश्ये काचित्प्रलीयते काचित् काम्भोजी ककुभस्य स्यात् काम्भोजी मन्द्रषड्जा काव्यज्ञशिक्षयाभ्यासः कुरञ्जी ललितोपाङ्गं कुर्वीत पाटहान् वर्णान् कौशली धवतन्यासा क्रियाकारकसंयुक्तं क्रियानिर्वहणाशत्वं क्रौञ्चपदा भ्मौ स्मो कचिदंशः कचिन्यासः कचिदङ्ग क्वचिच्छन्दः कथितोदकवच्चैषां खाहुल: स तु विज्ञेयः गगनतलसकल गग्रहा धान्तिमा न्यल्पा गणाश्चतुर्लघूपेताः गधहीना भिन्नपइजे गधाधिका मग्रहांशा गन्धर्वाणां च यस्माद्धि गपयोर्निधयोर्युक्ता २०१ १५३ २८७ का. प्र. १-३ कला. १४७ सं. र. ६-१०३६ कला. १३७ सं. स. ,, ८२ पि. छ. ७-२९ बृ. दे. १०३ सं. स. २५ पद. ४-१.३ सं. स. २ कला. २४ कला. १४१ वृ. र. १.८ कला. १४० , १३५ नाट्य. २८-९ कला. १३३ १९० १५९ २४ २९१ १४० १३५ २०८ १३३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः ३८७ आकरः १४२ १४५ १५३ १३३ २०, ३२ १४० १४६ कला. १४२ " १४५ सं. स. ८२ कला. १३३ बृ. दे. ८७ कला. १४० , १४६ हला. ७-२३ नाट्य. २८-८ कला. १४६ " १४५ له २०८ १४६ १४५ १४३ १४४ गपाभ्यां बहुला पूर्णा गपाल्प: सग्रहो मान्तः गमके च पदे जाड्यं गमयोर्निधयोर्युक्ता गर्भ साधारितश्चैव गांशा निदुर्बला धान्ता गांशा सान्ता पग्रहा च गात्र दुःखकारि कर्म गान्धर्वमिति तज्ज्ञेयं गान्धारगतिका प्रोक्ता गान्धारग्रहणन्यासा गान्धारग्रहसंयुक्तः गान्धारपञ्चमीजात: गान्धारपञ्चमीजातेः गान्धारपञ्चमे भाषा गान्धारप्रबला पड्ज गान्धारवल्ली भाषा स्यात् गान्धारांशग्रहन्यासः गान्धारांशा मध्यमान्ता गान्धारी करुणे सान्ता गान्धारीरक्तगान्धार्योः गान्धारो द्विश्रुतिश्चैव गापन्यासा निसरिध गापन्यासा सग्रहान्ता गीतं पञ्चविधं यत्तत् गीतं हास्यरसोदारं गीतज्ञैः कथिताः सर्वे गीतमारभटीवृत्त्या १४४ १४३ १३९ १४३ " १३९ १४० १४३ १४१ १४१ १४३ , १४३ बृ. दे. ९१ कला. १३ १३४ १३८ " १३८ बृ. दे. १.४ २०९ १५, १८ २०९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ संगीतरत्नाकरः आकरः १५८ २७८ २९२ २०९ बृ. दे. ८२ सं. स. ८४ हला. ४.२८ प्रा. पि. छ. १२५ सं. स. कला. १४१ बृ. दे. ८२ " १०४ १५३ २९९ गीतयः पञ्च विज्ञेयाः गीतादपि यदालप्ति गीति: पौरवधूनां गुरु टुइ वे कहु गूढाथै : परमार्थश्च गेयकान्ते भिन्नषड्ज गौडी साधारणी चैव ग्रामरागाः प्रयोक्तव्याः ग्रामरागाणामेव ग्रामोक्तानां तु रागाणां ग्राम्योक्तिरपशब्दश्च ग्लिति वृत्तम् घण्टारवो धग्रहांशः चतु:श्रुतिः स्वरो यत्र चतुर्णामपि वर्णानां चतुर्भिर्धातुभिः षड्भिः चतुर्भिभिंद्यते यस्मात् चतुर्विधं भवेत्तच्च चतुर्विधा तदौहाटी चतुर्विधाप्यष्टविधा चरमेऽर्धे पञ्चमके चित्रस्याष्टादशाङ्गस्य चिबुकं हृदये न्यस्य चेतोलग्नेन गीतेन छायान्तरेण युक्त: स्यात् छायापरिच्युतिस्तद्वत् छेवाटी टक्कजा मूला जः सूर्यों रुजम् सं. स. ८२ पि. छ. ७.२३ कला. १४५ बृ. दे. ९१ १४५ . २५ १६८ सं. स. २३ बृ. दे. ८८ सं. स. २ बृ. दे. ८३ सं. स. ३ वृ. र. २. २ बृ. दे. ८७ १९७ २९१,२९३ १४५ सं. स. ८४ कला. १४५ सं. स. ८३ कला. १३४ १५३ २२७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनकयजनभूमि जाता विभाषा षड्जाप जातिसंभूतत्वाद्वाम जातीनामंशकः स्थायः जायन्ते च यतो नाम जितश्वासतया गानं ज्ञात्वा जात्यंशबाहुल्यं ज्ञेयाः सर्वादिमध्यान्त झम्पटं त्रिपदैः प्राहुः कैशिकरागस्य करुणे मद्रे टक्कजा मध्यमग्राम भाषा सदा गेया टक्कवेरञ्जिका सान्ता calar भवेत्तान तच्छारीरगुणा मिश्राः तत्तद्गमकयुक्तत्वात् तथा प्रयोगे त्रिश्रुतिकत्वात् तदत्र मार्गरागेषु तद्रूपकमभेदो यः तद्वीररससंयुक्तं तव तन्वि कटाक्ष तस्मात्प्रबन्धः कथितः तानाख्या सग्रहांशान्ता तानोद्भवा पञ्चमस्य तिस्रस्तु गीतयः प्रोक्ता: तुम्बुरा भिन्नजस्य तृतीयमक्षरच्छन्दः उदाहृतवाक्यानामनुकमः पृ. ३२१ १४२ ८,९ २५ १५, १९ १५६ ३२ २९१ ३२१ १३७ १३५ १३४ "" " १३५ १६८ ૧૪૬ २९ १५ २६२ २१२ २५७ २१० १३५ १३६ ५ १४० २५७ आकर: हला. ७-३२ कला. १४२ बृ. दे. ८७ ८९ " ". सं. स. १२ बृ. दे. १०३ वृ. र. १-८ कला. १३७ १३५ १३४ 99 33 33 " ३८९ " 33 १३५ " सं. स. २ कला. १४६ बृ. दे. का. प्र. १०.९३ सं. स. २५. हला. ४-३२ सं. स. २३ कला. १३५ १३६ 39 बृ. दे. ८२ कला. १४० हला. ४-११ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० संगीतरनाकरः आकरः १९. १३४ २११ २९२ ३२०, ३२१ २७८, २८० तृतीया गौडिका चैव तोटकं सः त्यज तोटकमर्थवियोग त्रयः सत्त्वादिधर्मास्ते त्रवणा टक्कभाषा त्रिधातुकप्रबन्धेषु त्रिष्वंशकेषु पाद: त्रिस्थानकरणैर्युक्ता दण्डको नौर: दलयोः कृतयतिशोमां दुर्गाशक्तिमतेऽयमेव दुर्बल: पञ्चमो यत्र देवतास्तुतिसंयुक्तं देवारवर्धनी सान्ता देशजानां रागाणाम् देशाख्यः स्वल्पगान्धारः देशाख्या टक्कजा दोह्या दोधकं भी भगौ दोधकमर्थनिरोधनम् दोषरेतैरुपेतो यः द्रुतं यः शिक्षते गीतं दुतद्रुततरा कार्या द्रुतप्रयोगा निरिस: द्वयोर्मिश्रं तु संकीर्णम् द्वितीयसप्तमान्त्यं धग्रहांशा तारगनिः धग्रहा पञ्चमे माघा धग्रहो मध्यमन्यासः बृ. दे. ८२ पि. छ. ६-३१ हला. ६-३१ पद. ४-१-३ कला. १३४ सं. स. २४ वृ. र. २-३ बृ. दे. ८३ पि. छ. ७-३२ वृ. र. २-८ बृ. दे. ५९ कला. १४३ सं. स. कला. १३९ बृ. दे. कला. १४४ , १३५ पि.छ.६.१८ हला. १-१८ सं. स. ८३ १४३ २०९ १३९ १८ १४४ १३५ २९४ १५३ १५६ बृ. दे. ८३ कला. १३३ औमा. २० नाट्य. कला. १३ २९७ १४३ १३६ , १४७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः आकरः कला. १४५ , १४१ , १४६ पद. ४.१.३ कला. १३८ " १४० धन्नासिकैवोच्चतरा १४५ धमन्द्रा भिन्नपड्जोत्था १४१ धरिसर्बहुला गोली धर्मा मूर्तिषु सर्वासु धवजिता साद्यन्तांशा १३८ धांशग्रहान्ता मृदुल धाद्यन्तांशा दाक्षिणात्या धाद्यन्तांशा परहिता धाद्यन्तांशा मालवा स्यात् १३७ धाद्यन्तांशाल्परिर्भास १४३ धाद्यन्ता सर्वलोकस्य धान्तांशा पल्लवी पूर्णा १४३ धान्ता रिर्दुर्बला मांशा १३७ धान्ता सांशग्रहा भिन्न धेवतांशग्रहन्यास: धेवतांशग्रन्यासा १४०, १४५, १४६ धेवतांशग्रहा तार धेवतीमध्यमाजात्योः धैवत्यार्पभिकावl ध्रुवस्याभोगकरणात् २११ ध्वनिशारीरयोर्यत्र ध्वनेः सुगाढता तज्ज्ञैः १५६ नट्टनारायणः पूर्णः १४४ ननु गीतरागयोः को भेदः ननु पूर्वोक्तानां रागाणां नन्दयन्तीसमुद्भूतः नन्वयं विनियोगविशेषः नन्वेते रागा ग्राम १४४ १४४ १४.,१४५,१४६ ,, १४६ १४६ , १४४ . सं. र. ८१ सं. स. . कला. १४४ बृ. दे. १०३ कला. १४४ , ८७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ संगीतरत्नाकरः . पृ. आकरः १८९ १४३ १४१ पद. ४-१-३ कला. १४३ कला. १४१ ११५ १५८ प्र. रु. २-२७ आञ्जनेयः सं. स. ८५ सं. स. २ १४१ कला. १४१ १३९ १४२ " न विना लिङ्गसंख्याभ्यां नागपञ्चमरागोऽयं नागप्रिया स्यात्पौराली नागृहीतविशेषणा बुद्धिः नातिदीर्घसमासा च नानादेशगतिच्छाया नानाविधं विभक्तं च नाराटोऽयं परिज्ञेयः नि:सारो बोम्बकः स्थूलः निगयो रिगयोर्युक्ता नितारो भिन्नषड्जाङ्गं निदुर्बला बहुसमा निधयो रिपयोर्युक्ता निपयो रिधयोर्यस्यां निवन्धः स तु विज्ञेयः निमन्द्रा सपतारा स्यात् निरिधाल्पश्च देवाल: निवेदे विनियोक्तव्या निषादांशग्रहा मिन्न निषादांशा धैवतान्ता निपादिनी मिन्नषड्ज नीरस सरसं कुर्वन् नषादीधैवतीयुक्त पग्रहांशान्तिमा पूर्णा पञ्च चकारगणाः पञ्चमांशग्रहः पूर्णः पञ्चमांशग्रहन्यासः पञ्चमांशग्रहन्यासा १४२ १३३ १३३ १५८ १४६ सं. स. ८५ कला. १४६ , १४७ ,, १३३ ,, १३० १३७ १४१ .१४. १५६ , , १४१ १४० सं. स. ८४ कला. १४४ ,, १३६ ३३२ १४४ १.२,१४७ कला. १४३ , १४ , १४२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः पृ. आकरः कला. १३५ १३५ १४३ २५७ २१२ हला. ४-२२ वृ. र. २-३ २०९ सं.स. ३२८ १३५ २५ २११ १४५ कला. १३५ बृ. दे. ९० सं. स. २५ कला. १४५ हला. ७-२६ कला. १४० " १३५ २८२ १४० १३५ पञ्चमांशाहा पड्ज पञ्चमीमध्यमाजात्योः पथ्याशी व्यायामी पथ्येति नाम तस्याः पदतालैः समं गीतं पदैनियोजितं गीतम् पद्धडिका जगणेन पधमिश्रा तदन्तांशा परित्यजन्नन्यजाति परेभ्यस्तत्प्रदानेन पल्लवी नाम पूर्णेयं पवनविधूतवीचि पवर्जिता वा सगयोः पहीना सग्रहान्तांशा पांशग्रहा टक्कभाषा पांशग्रहान्तसा टक्क पाञ्चालरीतिर्वेदी पादे सर्वगुरावाद्यात् पान्ता समोच्चा संपूर्णा पापबन्धमोचनाय पाल्पा पतारा वेरञ्जी पुंनपुंसकता स्त्रीत्वं पूर्णाटो भिन्नषड्जे स्यात् पूर्णा धांशग्रहन्यासा पूर्णा सरिगमैर्बह्वी पूर्णा सान्तग्रहा वीरे पूर्वरङ्गे तु शुद्धा स्यात् पूर्वोक्ताया गौडगीते: 50 १३६ २२७ १३६ २५७ १४६ प्र.रु.२-३२ वृ. र. ६.२ कला. १३६ हला. ५-६ कला. १४६ पद. ४-१-३ कला. १४७ ,, १३६ १३६ १४१ , १४१ १३९ ३२ बृ. दे. १.४ ६ to to Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ संगीतरत्नाकरः आकरः १६८ १४२ सं. स. २ कला. १४२ १३९ १८५ १५० १९. पद. ४-१-३ रुद्र: पद. ४-१-३ बृ. दे. नाट्य. २९-४८ बृ. दे. ८२ सं. स. २४ कला. १४७ सं. स. बृ. दे. ८३ सं. स. ८५ पद. ४-६-३ २११ १४७ पेशलं बहुभङ्गीति पोता प्रोक्ता मतङ्गेन पौराली सग्रहांशान्ता प्रकल्पिता यथा शास्त्रे प्रज्ञां नवनवोन्मेष प्रतिबिम्बकधर्मेण प्रत्येकं लक्षणं चैषां प्रथमा मागधी ज्ञेया प्रथमा शुद्धगोति: स्यात् प्रबन्धेषु ध्रुवत्वेन प्रयुञ्जतेऽस्मिन् प्राचीनाः प्रयोगबहुलं रूक्षं प्रयोगे मसृणैः सूक्ष्मैः प्रवीणत्वेन यो गायेत् प्रवृत्तिधर्मतद्वारा प्रवृत्तिमन्तः सर्वेऽर्थाः प्रवृत्तेरपि विद्यन्ते प्रवेशाक्षेपनिष्काम प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु प्रहृष्ट विनियोक्तव्या प्रेमोद्दीप्तपदप्रायं प्रोक्तो मेलापकस्त : बन्धपारुष्यरहिता बहुली निधसैः पूर्णा बाहुल्यात्तारसंस्पर्शी बाहुल्यान्मन्द्रसंस्पर्शात् विरुशब्दो विरुद्धार्थः बुद्धिस्तात्कालिकी प्रोक्ता २०९ १५८ १९ १५२ बृ. दे. १०४ ध्वन्या. ३-१४ कला. १३५ सं. स. २०९ २१० २३२ १४६ प्र. रु. २-०७ कला. १४६ सं. स. २ १६० १५९ २११ , २५ १५० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः ३९५ आकरः १५६ सं. स. ८४ कला. १३८ बृ. दे. ९६ कला.१४६ १४६ १४२ है १४२ कला. १३८ ,, १४१ बुद्ध्वा श्रोतुरभिप्राय बोट्टजा रिधसंचारा बोहरागो यद्यपि भरतकोलादिभिराचार्य: भावक्रीप्रभृतीनां तु भावनी पञ्चमांशान्त भाषाख्या गीतिरेकैव भाषागीतिस्तु पष्ठी स्यात् भाषाङ्गास्तेन कथ्यन्ते भाषा चैव विभाषा च भाषाछायाश्रिता येन भाषा निरिविहीना स्यात् भाषापन्यासऋषभा भाषा भवेद्भरिनिधा भाषा मालवरूपा स्यात् भिन्नतानोद्भवा तान भिन्नपञ्चमजा शुद्ध भिन्नपञ्चमभाषा तु भिन्नपञ्चमभाषा स्यात् भिन्नपञ्चमसंभूता भिन्नपड्जस्य भाषेयं भिन्नषड्जे विभाषा तु मग्रहांशा च पन्यासा मग्रहांशा धैवतान्ता मग्रहांशा मन्द्रतार मतङ्गो देवलामाह मधुरं वीणारणितं मधुरी ऋपभाल्पा स्यात् १८ १३० १४१ १३७ १३९ १४२ १३६ . AN - १३७ १३७ १४० १४१ १४६ १३७ १४. १४७ २७८ हला. ४-२८ कला. १३८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ संगीतरत्नाकरः आकरः कला. १३३ ,, १४४ ,, १४१, १४४-१४६ १३३ १४४ १४१, १४४-१४६ १३५ १३८, १३९ १३२ १४४ १४० १४४ १३८, १३९ १३२ " १४४ बृ. दे. १०४ सं. स. २ १६८ बृ. दे. मधुरी ककुभोद्भूता मध्यमांशग्रहन्यासः मध्यमांशग्रहन्यासा मध्यमांशग्रहा टक मध्यमांशग्रहा षड्ज मध्यमांशा स्मृता वेग मध्यमापञ्चमीजात: मध्यमा भिन्नषड्जस्य मध्यमोदीच्यवाजाते: मन्द्रतारी तथा ज्ञात्वा मन्द्रे मध्ये च माधुयें मन्द्रोऽस्य ग्रहः मयैव पञ्चभिर्वक्त्रैः मांशग्रहान्तो रिधयोः मांशा पूर्णा सधयुता मांशाल्पऋयमा पान्ता मांशा सान्ता बहुपध माध्यमग्रामिकी पूर्णा माने न्यूनाधिकाज्ञत्वं मान्ता पांशग्रहा पूर्णा मापन्यासा रिमपध मुखं प्रतिमुखं गर्म मुखे तु मध्यमग्रामः मूलाख्या पाडवा टक्क मो भूमिः श्रियम् यतश्च शब्दे ज्योतिः यत्तु तन्त्रीकृतं प्रोक्तं यथा तक्षादिशब्दानां १३३ १४७ १४० औमा. १६ कला. १४७ , १४० ,, १३६ ,, १३८ १३६ १३८ १३२ " १३२ १५३ १३० १३२ सं. स. ८३ कला. १३८ २०, ३२ १३४ २२७ द. रू. १-२२ बृ. दे. ८७ कला. १३४ १६६ २०८ नाट्य. २८-८ पद. ४-१-३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः ३९७ आकरः S २२७ १४५ २५ २५७ ३१४ सं. स. ८३ वृ. र. ६.२ कला. बृ. दे. ८८ हला. ४-२२ का. प्र. ९-८३ पद. ४-१.३ हला. ७-२९ कला. १३४ आञ्जनेयः बृ. दे. ८२ सं. स. ८३ १९० २८७ १३४ ११५ १५५ १५८ यथाशास्त्रप्रयोगेण यथोपरि तथा शेषं यदायं मध्यमादिश्चेत् यदा वादी गृहीत: स्यात् यदि मनसा वाचा यमकं पादतद्भाग यश्चाप्रवृत्तिधर्मार्थः या कपिलाक्षी यामे गेया वीररसे येषां श्रुतिस्वरग्राम योगरूढोऽथवा रागः यो गायति विना दोपान् यो गायति स विज्ञेयः योऽसौ ध्वनिविशेषस्तु रक्तगान्धारिकाजातः रङ्गं गीते विधत्ते यः रज्यते येन सच्चित्तं रञ्जको जनचित्तानां रञ्जनाजायते राग: रञ्जयतीति रागः रसानुरूपरागाणाम् रसान्तरेण संयुक्तं रागाङ्गं चैव भाषाङ्गं रागे रागान्तरच्छायां रामाद्यारोपणान्नेतुः रिग्रहांशा धैवतान्ता रिग्रहा काकलीयुक्ता रितारा मन्द्रपा कम्प १४४ १५६ कला. १४४ सं. स. ८४ बृ. दे. ८१ सं. स. : A १५३ २१२ , २५ वृ. दे. १५८ २१. सं. स. ८५ , २३ कला. १३४ १३४ ,, १३६ १३८ कला. १३० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ संगीतरनाकर: आकरः १३८ कला. १३८ ,, १३६ १३८ १३३ १३९ १३५ ,, १३८ १३३ १३९ १३५ १३६ १३८ १३२ १३८ १३२ १३५, १३६ १३८ १३४ १३५, १३६ १३८ रिधत्यक्ता च हिन्दोल रिधयोः समयोर्युक्ता रिनिसंवादिनी भाषा रिन्यासा ककुमे भाषा रिन्योश्च रिमयोश्चैव रिपयोः सपयोर्यस्यां रिपसंवादिनी धान्ता रिमतारा माङ्गली स्यात् रिमयोः समयोर्युक्तं रिमयोः समयोर्युक्ता रिमसंवादिनी भाषा रिहीना टक्कजा भाषा रिहीना तारगान्धार रिहीना निग्रहा धांश रिहीना मन्द्रसा माप रीतिर्नाम गुणाश्लिष्ट रूपस्य चात्ममात्राणां लक्ष्मैतत्सप्त गणाः लक्ष्यलक्षणसंयुक्तं ललितैरक्षरैर्युकं लाटी समासानुप्रास वराटीललिताभ्यां च वोँ मेलापकाभोगी वर्णसाम्यमनुप्रासः वसन्ति यत्र स ज्ञेयः वाड्मनःकायजा चेष्टा विक्रुष्टं नाम तगीतम् विद्धि बुद्धिपूर्वक , १३५ ,, १४० " १३० २३१ १९. २८१, २९०, २९३ १८ २०९ प्र. रु. २.२७ पद. ४-१-३ वृ. र. ३.. AN २३१ २११ २१५ २१० २३० औमा २० सं स. २४ का. प्र. ९-७९ सं. स. २३ सं. र. ७-११११ सं. स. हला. ७-२३ . Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहतवाक्यानामनुक्रमः ३९९ आकरः . " १३९ सं. स. कला. १४२ , १३९ , १४२ १४२ १४१ , १४१ सं. स. ८५ २५७ १७८ विपरीतपदैर्युक्तं विभावनी विभाषा स्यात् विभाषा त्यक्तगान्धार विभाषा पञ्चमत्यक्ता विभाषा पार्वती पूर्णा विभाषा भिन्नषड्जस्य विभाषा स्यात्तु कालिन्दो विलगन्ति स विज्ञेयः विवादी चानुवादी च विवाहाद्युत्सवे गेयं विशिखैरिव तीक्ष्ण वृत्तमौक्तिकवत्काच वेसरा मुखयोः कार्या वेसरी टक्कभाषा स्यात् व्यक्तस्वरसमायुक्तं शकाद्या वलिता मांशा शक्तिनिपुणतालोक शरीरेण सहोत्पन्नं शारीरं पेशलं ज्ञेयं शुद्धं तु शिवरूपेण शुद्धपञ्चमभाषा स्याद् शुद्धानां विनियोगोऽयं शुद्धा प्रहर्षे नियुक्ता शुद्धा भिन्नाश्च गौडाश्च शुद्रे छायालगे चैव शुद्ध वा सालगे सम्यक् शुभवाक्ययुतं गीतं शेषा गाथास्त्रिभिः षभिः बृ. दे. ८८ सं. स. हला. ४-३२ सं. स. ९ बृ. दे. १०४ कला. १३५ सं. स. कला. १४३ का. प्र.१-३ सं. स. २०९ १४३ १३३ ३२ १३९ औमा. २० कला. १३६ बृ. दे. ८७ कला. १३९ बृ. दे. ९८ सं. स. ८४ १५८ १५६ २.९ वृ. र. १-10 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः पृ. आकरः १९ १५५ सं. स. ८४ १७८ २५ २६२ बृ. दे. ७७ का. प्र. १०-९६ वृ. दे. ८५ कला. १४५ १४० १४६ १४५ १३९ १४० १४३ शोकोत्साहकरुण शोभनध्वनिसंयुक्तः श्रव्यनादसमोपेतं श्रुतिः प्रवर्तते क्षिप्रं श्रुतिभिन्नो जातिभिन्नः श्लोपः स वाक्य एकस्मिन् षट्सु रागेषु मुख्यत्वात् षड्जग्रहांशा गाम्भीरी पड्जग्रहांशा मन्यासा पड्जन्यासग्रहांशश्च पड्जन्यासग्रहा धांशा षड्जन्यासा मध्यमांशा षड्जभाषा भिन्नषड्ज षड्जांशन्याससंयुक्तः पड्जाद्या मध्यमान्तांशा षड्जान्ता गुर्जरी पूर्णा पड्जान्ता देशजा टक्क षड्जान्ता मध्यमाद्यंश षड्जान्तो मन्द्रपइजश्व पड्जोंऽशक: षड्जो न्यासः पष्ठे द्वितीयलात् षष्ठोऽयं नलघू वा षोडशमात्रा: पादे संकोर्णा खञ्जनी भाषा संकोर्णा टक्कजा प्रोक्ता संकीर्णा सग्रहा मान्ता संगता समयो रिन्योः १४३ १३८ १३८ १३५ १४४ बृ. दे. ९० ३ वृ. र.२-२ " २-१ २८१, २९३ ३२८ १३८ १३५ १४१ १३६, १३७ कला. १३८ , १३५ , १४१ ., १३६, १३७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः ४०१ आकरः कला. १३७ पद. ४-१-३ कला. १४० " १३९ १४६ १३९ १३५ , १४५ २०, ३२ १. १३४ नाट्य. २५.४८ बृ. दे. ८७ कला. १४. , १३४ , १३५ १४२ पद. ४-1-1 १३५ १४१ संचार: सधयोर्यस्यां संनिधाने पदार्थानां संपूर्णत्वादिकं तद्वत् संपूर्णा चैव संकीर्णा संपूर्णा टक्करागस्य संपूर्णा तारपड्जा च संपूणों दोपको जात: संभाविता तृतीया तु संहारे कैशिक: प्रोक्तः सकाकल्यन्तरा त्यक्त सग्रहान्ता पञ्चमांशा सग्रहान्ता रिपस्वल्पा सग्रहान्ता वेगवती सततं न वियुज्यन्ते सत्त्वभावस्तु यस्तु स्यात् स देशीरागभापादौ सधयोः समयोर्युक्ता सधसंचारिणी पूर्णा सधसंवादिनी पूर्णा सन्यासांशग्रहा पूर्णा सन्यासा धग्रहा पूर्णा सन्यासा रेवगुप्तस्य सन्यासो निधयोर्युक्तः सपदि निपीडन सपसंचारिणी सान्ता सप्तस्वरा विभाषेयं समन्द्रा गमतारा स समयो रिमयोश्चापि १८९ कला. १४. १४. १३७ १३२ ,, १३२ , १४५, १४६ , १३५ १४२ १४४ २८२ " १४४ हला. ७-२६ कला. १३० १४२ " १४२ ११४ 5 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ समस्वरा च वेहारी समस्वरा च संकीर्णा समस्वरा ताररिधा समस्वरा समन्द्रा च समस्वरा हीननिगा समाक्षरासमा चैव सर्वगीतप्रबन्धानां स सर्वो दृश्यते येषु साक्षरानक्षरा चेति साद्यन्तांशा निबहुला साद्यन्तांशा मपाल्पा तत् साद्यन्तांशा समनिग साधर्म्यमुपमा भे साधारणकृताभीरी साधारणी तु विज्ञेया साधारितावमर्शे स्यात् साध्यत्वेन क्रिया तत्र सानन्दोऽश्रुभिराकीर्णः सान्ता धांशा हीनगपा सान्ता न्यंशग्रहा पाल्पा सान्ता पांशा धरहिता सान्ता मांशापूर्णा सान्ता मांशा बहुरिधा सापन्यासा मन्द्रसगधा सा पुनः पोडशविधा सामान्यमपि गोत्वादि सायाह्ने गीयते नाद्या संगीतरत्नाकर: पृ. ல் १४५ "" १४६ "" "" 39 ५ १९७ १९० ७ १९७ १३९ १३८ १३४ २६२ १३९ ५ ३२ १८९ १५६ १४० १३४ १३८ १३४ १४० १९७ ९० १४१ आकर: कला. १४५ 19 33 " " "" बृ. दे. ८३ सं. स. ३ 33 = पद. ४-१-३ बृ.दे. ९४ सं. स. ३ १४६ कला. १३९ १३८ १३४ 33 39 का. प्र. १०-१ "" कला. १३९ बृ. दे. ८२ १०४ पद. ४-१-३ सं. स. ८४ कला. १०० "" "" १३४ १३८ " " १३४ १४० " सं. स. ३ पद. ४-१-३ कला. १४१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदाहतवाक्यानामनुक्रमः ४०३ आकरः १९७ सं. स. १५६ वृ. दे. ८९ सं. र. ४-३६१ कला. १३२ १८९ पद. ४-1-३ सं. स. . . . . रुद्रः कला. १४४ ,, १४३ 2 सालतिदिविधा शेया मुश्रवं गीतमाकर्ण्य सूक्ष्मातिसूक्ष्मैर्वक्रश्च सैव प्रयोगशन्देन सौवीरजाथ ककुभ सौवीरजा सग्रहान्ता सौवीरा साधारिता स्यात् स्तनकेशवती नारी स्त्रियो मधुरमिच्छन्ति स्थानत्रयेऽपि कठिनं स्थायं विविधमादाय स्मृतिर्व्यतीतविषया स्यात्तत्र हेतुजात्युक्तः स्यात् पाइजीकैशिकीजात्योः स्यात् पाइजीधवतीजात्योः स्यादुत्तरपदार्थस्य स्वकं कुलं तु संगृह्णन् स्वजात्युद्दयोतकाश्चैव स्वयं यत्र प्रबन्धे स्यात् स्वरवर्णविशिष्टेन स्वरा: सरन्ति यद्वेगात् स्वरूपं गमयेद्गीते स्वररुच्चतरैर्युक्तं स्वरो वर्णश्च तालश्च स्वश्रुतिस्थानसंभूतां स्वार्थपरं मतिहीनम् हंसको भिन्नषड्जाङ्गं हकारौकारयोर्योगात् पद. ४-१-३ २१॥ सं. स. २० बृ. दे. ८१ , ९४ सं. स. ४ . ७, २६ १७. . . हला. ६-१९ कला. १४५ बृ. दे. ८३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ संगीतरत्नाकरः आकरः कला. १३. हिन्दोलभाषा निगयोः हिन्दोलभाषा सान्तांशा हिन्दोलभाषा स्याद्भिन्न हृद्यारोहावरोहा तु Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ III उदाहतानां ग्रन्थानां ग्रन्थकर्तृणां च नामानि अमरकोश, १५०, १५२ भरत, ४, ६, ८, ९, १६, २०, २९, अर्जुन, २४१-२४३ ३१, ३२, १९४, १९८, २०८, आञ्जनेय, ११५, १३२, १४२ २१८, ३३५ उमापति, १३३ भामह, १५२ औमापत्य, १३३ भारतीय, २९७ कश्यप (काश्यप), ७, ११, ३०-३०,५९ मतङ्ग, २-८, १०, ११, १३-१५, १८, काव्यप्रकाश, १५२ २२, २४, २६, २९-३३, ६९, ७६, कोहल, ३१ ११५, १२१, १२६, १३२, १४२, गोपालनायक, ३०५ १४७, २१९, २४५, २४६ छन्दोविचिति, २५७, २७८, ३०२ याष्टिक, ५, ६, १०, ११, १३, १४, तौतिक, १५ १२७, १३३ दुर्गाशक्ति, ५, ६, ३१, ५९ रत्नावली, २१८ नन्दी, २४० वामन, १५२ पार्श्वदेव, १५३, १५५-१५५, १५९, वृत्तरत्नाकर, २७८, २८. १६८, १७०, १७८, १८१, १९७, शार्दूल, ५, ६, ११, १४१ २०९-२११, २१५ संगीतसमयसार, २११ पिङ्गलनाग, २७८, २८०, २९२ सोमेश्वर, २१७, २१८ बृहद्देशी, १, १३, १४ हरदत्तमिश्र, १८९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IV विशेषपदानुक्रमणी अंश (स्थाय), १७२, १७४, १८४ अनक्षरा (आलप्ति), १९५ अंशस्वर (स्वर), १८४, १९४ अनर्थक अंशांश (स्थाय), १७, १७८ अनवधान (गायनदोष), १५७, १५८ अग्राम्य (प्राण), २२०, २२२, २२ अनागत (ग्रह), २१८, ३४५ अङ्कचारिणी (प्रबन्ध), २१३, २७६, २०७ अनिवद्ध (गान), २०४ अङ्ग (देश), १९९ अनिवद्धा (प्रबन्ध), ३०३ अङ्गहार, २०० अनियुक्त (प्रवन्ध), २१२, २१५, २६६, अञ्चित (प्रयोग), २१७ २७०, २७६, २७७, २८२, २८६, अड्ताल (ताल), २६०, ३४० २८८, ३०५, ३१०, ३११, ३१७,, (प्रबन्ध), ३३६, ३४० ३१९, ३२२, ३२३, ३२६, ३२५, अतारज (झोम्बड), २६०, २६३ ३३०, ३३४ अताल (आलप्ति), १९७, ३०६, ३१० अनुकार (गायन), १५४ अतिकृति (छन्द:), २८७ अनुध्वनि (शारीरगुण), १६७, १६८ अतीत (ग्रह), २१८, ३४५ अनुप्रास (अलंकार), २१५, २१६, २३१, अत्युक्ता (छन्द:), २२७, ३१३ २४६, २४७, २४९, २५१, २५८, अथर्ववेद, २३१, २३२ ३२८, ३२९, ३३३, ३३४, ३४१, अद्भुत (रस), २७, २८, ३४, ३५, ४३, ३४५ ५३, ५७, ६१, ६६, ७६, ७८, ८१, अनुलम्भ (धातु), २६५, २६६ ८४, ८६, ८७, ८९, ९९, ११६, अनुवादो (राग), २५ ११९, २६२, २६४, ३३७, ३३८ अनुसार (रूपक), ३४६, ३४७, ३४९ अधम (गायन), ५५१, १५३, १५७ अन्तर (धातु), २०५, २१०,३३८,३४१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी ४०७ अन्तर (पद), ३०८ अवनद्धकुतप (बृन्द), २००, २०१ ,, (स्थाय), १४३, १८५ अवमर्श (संधि), २०, ३२, ११० अन्तरभाषा (राग), ३, ५, ६, १०, १३, अवरोह (वर्ण), १९ १८, १९, २२, २३, ३३५ अवस्खलित (स्थाय), १७०, १८३ अन्यराग (काकु), १७५, १७६ अव्यक्त (गायनदोष), १५७ अपन्यास (स्वर), २१, २७, ३७, ९५, अव्यवस्थित ( ,, ), ,, ९७, १०९ अश्वललित (छन्दः), २८१, २८२ अपभ्रंश (प्रबन्ध), २७५ असंकीर्ण (स्थाय), १७२, १४३, १७९, अपस्थान (स्थाय), १७२, १७८ १८२, १८४ अपस्थानवराटी (राग), १०४ । असाधारण (,,), १४३, १८६ अपस्वर (गायनदोष), १५५, १५८ आक्रमण (,,), १७३, १८४ अपस्वराभास (स्थाय), १७३, १८५ आक्षिप्तिका (गीत), २१, २२, २४, २६, अपार्थक (गीतिदोष), ३४८ २८, ३४, ३५, ३७, ३८, ४१,४३, अपूर्ण (प्रबन्ध), ३२७, ३२८ ४६, ४८, ५१,५३, ५५, ५, ६१, अपेक्षित (स्थाय), १७२, १८३ ६३, ६५, ६८,७०,७३, ७५, ७७, अब्जगर्भ (स्वस्तिक), ३०४, ३०५ ८०, ८३, ८८, ९१, ९४, १०१, अब्जपत्र ( , ), ३०४, ०५, १११, १३० आडिकामोदिका (भाषाङ्ग), १७, ९. अभ्यवस्थानक (गीत), २०९ आडिल्ल (शब्दभेद), १५९ अभ्यास (कविताङ्ग), २१४ आत्मक्री (क्रियाङ्ग), १९ अमर (प्रवन्ध), ३३९, ३४३ आदिताल, ३३६, ३३७, ३४३ अम्बाहेरिका (भाषा), ११, १३५ आनन्द (प्रबन्ध), ३३९, ३४३ अर्थ (प्रबन्ध), २७९, २८० आनन्दवर्धन (प्रबन्ध), २४४, २५५ अर्धमागधी (गीति), ४ आनन्दिनी (प्रबन्धजाति), २७०, ३००, अर्धवेसरी (भाषा), १२, १३९ ___३१७-३९, ३२४, ३२९ अलंकृत (गीतगुण), ३४७ आन्दोलित (गमक), १६९, १८७ अलम्बविलम्ब (स्थाय), १७२, १८३ आन्दोलितप्लावितक (स्थाय), १८७ भवघट (,), १७३, १८५ आन्धालिका (राग), ११, १४, १११, अवधान (,,), १५१, १७२,१७८ ११०, ११५ अवनद्ध (बृन्द), १९९, २०७ आन्ध्र (देश), १४, १३५, १९९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ संगीतरत्नाकरः २५१ आन्ध्री (भाषाराग), ११, १३५, १४४, १०८-११०, ११२, ११८-१२६, १२८, १२९, १५४, १५८, १९६, आन्धेला (प्रबन्ध), २४६, २४८ २०४, २१६, २६८ २६९, ३०६, आभीरिका (भापाराग), ११, १२, १४, ३०७, ३०९, ३४१, ३४२, ३४४ १३३ आलापलम्भकः (प्रबन्ध), २६४-२६६ आभीरी (भाषाराग), ११, १२, १३९ आलिकम (प्रबन्ध), २१३, २१५, २६९ आभोगः (धातु), २०४, २११, २५०, आहत (गमक), १६९, १७१ २५४-२५६, २५९, २६४, २६६, इन्दुमती (मात्रैला), २४०, २४१ २६८-२७०, २७६, २७८, २८२, इन्द्रकी (क्रियाङ्ग), १६ २८५-२८८, २९०, २९२, २९४, इन्द्राणी (देवता), २३१, २३२ २९८, ३००, ३०३, ३०५, ३०८- उचित (एलापद), २१९ ३१०, ३१३-३१५, ३१७-३२३, , (स्थाय), १७२, १८२ ३२६-३३०, ३३३, ३३४, ३३६, उज्ज्वल (,), १८२ ३३८, ३४३ उत्कलिका (गद्य), २७०, २७४ आम्रपञ्चम (राग), ९, ११८ उत्कृति (छन्दः), ३२० आमेडित (प्रबन्ध), ३०४, ३०५ उत्तरमन्द्रा (मूर्छन), ३०, ७८ आरभरी (वृत्ति), २०९, २३०-२३२, उत्तरायत (,), ७१, ७२, १२९ २७१, २७४ उत्पली (भाषाङ्ग), १६, १४६ आरोह (वर्ण), ३१९ उत्प्रविष्ट (स्थाय), १७२, १८३ आर्या (छन्दः), २७८, २८०, २९०, उत्फुल्ल ( ,, ), १७५, १७९ ___२९०, २९३, २९९ उत्सवप्रिया (प्रबन्ध), २३६, २३८ आर्या (प्रबन्ध), २१३, २९०, २९२ उत्साह (ध्रुव), ३३७, ३४२ आर्षभिका (राग), ३०, ७५, ८१, ८६ , (प्रबन्ध), २७९, २८७ आलपनी (वाद्य), १९९ , (रस), १५, १९, ३३६ आलप्ति (वहनीस्थाय), १७९ उदाह, २०४, २१०, २५३, २५", आलापः, २२, २७, ३३, ३५, ३६, ३८, २५८-२६०, २६३-२६६, २६८, ३९, ४२, ४०, ४६, ४९, ५२,५४, २७०, २७५, २७६, २८५, २८६, ५६-६०, ६२, ६४, ६, ६९, २८९, २९२, २९४, २९८, ३०३, ७२, ७४, ७६, ७९, ८२, ८४, ८६, ३०४, ३०५, ३०९, ३११, ३१५, ८९, ९०, ९२-९५, ९७-९९, ३१७-३१९, ३२१, ३२२, ३२, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी ३२५, ३२५, ३२९-३३१, ३३३, एकताली (प्रबन्ध), २६९, ३३६, ३४१, ३३६, ३३८-३४४ ३४३, ३४४ उधुष्ट (गायनदोष), १५६ एकल (गायन), १५४, १५५ उद्भट (गायनदोष), १५६ एकस्वर (प्रबन्ध), २८९ ,, (चारी), ४१, ५९, ८६, १२९ एला (,), २११, २१३, २१५, उन्नता (गणेला), २३३, २३५ २१८-२२०, २५१, ३३४, ३३५ उपमा (अलंकार), २६१, २६३, ३४५ एलाभास (,), २४८, २४९ उपराग (राग), ३, ९, १०, १३, १४, ओजः, २३१ १४३, ३३५ ओजक्री (क्रियाङ्ग), १६ उपलम्भ (प्रबन्ध), २६५, २६६ ओजस्विन् (प्राण), २२०, २२३, २२४ उपवदन (,), ३२५, ३२६ ओवी (प्रबन्ध), २१४, ३३३, ३३४ उपशम (स्थाय), १७२, १७८ ओहाटी (राग), ४, ५ उपसंहृति (संधि), २० औडुव (,,), २१, २९, ३०-३२, उपस्थानवराटी (रागाङ्ग), १७ ११३, ११५, ३४४, ३४५ उपाङ्ग (राग), ३, १५-१५, १०४- ककुभ (,), ८, ९, १०, १४, ३१, १०९, ११३, ११४ ९२, ९४, ९५, १३२-१३४, २३१, उपान्तर (प्रबन्ध), ३४१ २३२ उमातिलक (,), २१४, ३११, ३१२ ककुभकैशिक (,,), ३१ उल्लासित (स्थाय), १६९, १७२, १८२ कङ्काल (ताल), २१९, २३१, २३२, उशनाः (देवता), ४६ २४५, २४९, २५६-२५९, २८९ ऋग्वेदः, २३०, २३२ कञ्चुको, ५१, १२९ ऋषभः, २०, ३९, ४०, ४७, ४९, ५०, कच्छेल्ली (भाषाराग), १२, १४० ५३, ६१, ६६, ७१, ७४, ७६, कडाल (शारीरगुण), १६९ ७८, ८१, ८५-८७, ९१, ९३, कण्ठ्य (स्थाय), १७५, १७९ ९६-९८, १.१, १०३-१०५, कन्द (प्रबन्ध), २१३, २७७-२८० १११, ११३, ११५, ११६, ११९, कन्दर्प (,), ३३६, ३३७, ३४३ १२१-१२४, १२६-१२८, १३१, ,, (राग), ९, १४४ १३३, १३४, १३८, १४०-१४३, कन्दुक (प्रबन्ध), २१४, ३२२ १४६ कपाल (जाति), ३३५ एकताली (ताल), २६०, २६३ कमल (प्रबन्ध), ३३८, ३४३ 52 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः कमला (प्रबन्ध), २४५ कलरव (स्थाय), १७३, १८५ कम्पित (गायनदोष), १५६, १५९ कलहंस (छन्द:), २९७, २९८ कम्पिताहत (स्थाय), १८७ ,, (प्रबन्ध), २१३, २९८, २९९ कम्बल (जाति), ३३५ कला (स्थाय), १७३, १८४ कम्बुज (प्रबन्ध), ३४१, ३४४ । कलाप (ताल), ३३७ कम्रा (वाद्य), १९९ ,, (प्रबन्ध), ३३८, ३४३ करटा (,), १९९ कलाबाह्य (गीतदोष), ३४८ करण (प्रबन्ध), २२, २३, २६, ३६, कलिका (प्रबन्ध), २३५, २३८, २४५, ४०, ४२, ४४, ४५, ५०,५१,५४, २७६, २७७ ५६-६०, ६२, ६५, ६६, ६९, कलिङ्ग (देश), १९९ ७९, ८३, ८४, ८७, ८८, ९०, कलोपनता (मूर्छना), ३२, ७५, ७६ ९२-९४, १००, ११०, १३०, कविता (प्रबन्धजाति), २१२, २१४ कांस्यताल (वाद्य), १९९, ३०८ करणी (,), २४४ काकली (स्वर), २५, २८, ३३, ३४, करपाट (वाद्य), २७५ ३७, ३९, ४१, ४३, ४६, ४८, ५१, करभ (गायनदोष), १५६, १५७ ५३, ५६, ५७, ६३, ६६, ६९, ७१, कराली ( , ), १५६, १५० ७३, ७५, ७८, ८१, ८४, ८९, करुण (गान), २०९ ९०, ११०, ११५, १२९, १३५, ,, (ताल), २८३, २८५ १४०, १४३, १४४ ,, (रस), १५, १९, ४३, ५३, ८९, काकित्व (शारीरदोष), १६७ ९५, १२०, १३२, १३५, १४४, काकी (गायनदोष), १५६, १५७ १६४, १७२, २०९, २६२, २६४, काकुः (स्वर), ७, १५०, १७५, २०९ ३३७-३३९, ३४१ काकोली (शब्ददोप), १६५, १६६ करुणा (स्थाय), १७८, १८१ काण्डारण (स्थाय), १७२, १७८, १८१ कर्णाट (देश), १९९, २७७ कादम्ब (प्रबन्ध), २७८-२८० ,, (राग), १६, १८, १७७, २४७, कान्त (,), २१९, २२०, २२२ २६९, २८०, २८३, ३१४, ३१६ कान्तार (, ), ३३९, ३४०, ३४३ कर्णाटगौड (,,), ११३, ११५ कान्ति (शारीरगुण), १६७ कर्णाटबङ्गाल (,), १७, १८, १०२ कान्तिका (प्रबन्ध), २९० कर्णाटेला (प्रबन्ध), २४६-२४९, २५१ कान्तिमती ( ,, ), २४५ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी काम (गण), २२८, २२९, २४७ कुडुक्का (वाद्य), १९९ ,, (प्रबन्ध), २१९, २२३, २४९, कुडुवा (,), , २७९, २८०, ३१३, ३१४ कुतप (बृन्द), १९८-२०० कामल (,), ३३७, ३४२ कुन्तल (प्रबन्ध), ३३६, ३३५, ३४२ कामलेखा (,), २३९, २४१, २४७, कुन्द ( , ), ३३९, ३४३ २४९ कुब्जिका (वाद्य), १९९ कामोत्सव (,), २३४, २३५ कुमुदकी (राग), १६ कामोद (,,), ३३६, ३३७, ३४२ कुमुदिनी (प्रबन्ध), २४५ , (राग), ९, १०, १०७, ११५, कुरञ्जी (राग), १४७ १४७ कुरर (प्रबन्ध), २९५, २९७ कामोदासिंहली (,), १७, १८ कुररी ( , ), २९० काम्भोजी (,), १०, १२, १४, १३२, कुरुल (गमक), १६९, १७१ १३९ कुसुमावती (प्रबन्ध), २३६, २३८,२४५ कारणांश (स्थाय), १७७, १८० कूटतान (प्रस्तार), १४०, ३१२ कार्कश्य (शारीरदोष), १६४ कूर्मक (प्रबन्ध), २७८-२८० कार्मारवी (राग), २८, ३७ कूर्मी (वाद्य), १९९ कार्याश (स्थाय), १७७, १७८ कृति (छन्द:), २९९ कार्य (शारीरदोष), १६७ कृश (शब्ददोष), १६५, १६६ कालिन्दी (प्रबन्ध), २४५ केकी (प्रबन्ध), २७८, २७९, २८. , (राग), १२, १४०, १४१ केटि (शब्ददोष), १६५, १६६ काहल (वाद्य), १९९ केणि ( , ), , , किंनरी (,,), , केदारगौल (राग), १७ किरणावली (राग), १२, १४, १४३ कैवाड (प्रबन्ध), २१३, २७५, २७६ किरिकिट्टक (वाद्य), ११९ कैशिक (राग), ७, ९, १०, २०, ३२ कीर्ति (प्रबन्ध), २९०, ३३० कैशिकककुभ (,), १०, १४४ कीर्तिधवल (, ), ३३१, ३३२ कैशिकमध्यम (,), ७, ९, ३२ कीर्तिलहरी ( ,, ), २५४ कैशिकी (,), ११, १४, २८, २९, कुञ्जर (,), २९५, २९७ ३५, ४३, ६१, ६६, ८१, ८४, कुट्टिकार (गायक), १५१, १५३ ११६, ११८, १४३, ३३०, ३३२ कुडुक (ताल), २५९, २६० कैशिकी (वृत्ति), २३०,२३१,२७१, २७४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ कोकिलापञ्चम (राग), ९, १४३ कोण (देश), १९९ कोमल (शब्दगुण), १६४, १६६ " (स्थाय), १७२, १७८, १८१ कोलाहल (बृन्द), १९८, २०१ संगीतरत्नाकर: 33 (राग), ११, १७, ८०, १०७, १०८, १७७ कोल्हहास: (,, ), ९, १४४ कौन्तली (,, ), १७, १८, १०३ कौमुदी (प्रबन्ध), २३४, २३५ कौशली (राग), ११, १४ क्रम (प्रबन्ध), २६१, २६३ क्रमपाट (,, ), २५४ क्रमविलास ( ), २६१, २६३ क्रियाङ्ग (राग), ३, १५–१९, १०३, 39 ११५, १४६, १५४ क्रियापर (गायन), १५४, १५५ क्रीडा (ताल), ३२१, ३२२, ३२६, ३३७, ३४२, ३४३ क्रौञ्चपद (छन्द), २८७, २९९ (प्रबन्ध), २१३, २८६, २८७ क्षमा (,, ), २९० क्षिप्त (स्थाय), १७२, १८४ क्षेत्रकाकु (,, ), १७५, १७६ खञ्जनी (राग), १२, १३८ खण्ड (प्रबन्ध), २७०, २७४ खण्डा (,, ), २८३-२८५ खम्भाइति (स्वर), १०६ खल्लोत्तार (प्रबन्ध ), ३४६, ३४७, ३४९ खाहुल (शब्दभेद), १५९-१६२ 39 खुत्ता (स्थाय), १७५, १७९ गजलील (ताल), २८३ गजलीला (प्रबन्ध), २१३, २८३ गणिका (,, ), २५६-२५८ गणैला (,, ), २२४, २३०, २५१ गतक्रम ( गीतदोष), ३४८ गति (स्थाय), १७२, १७४, १७६, १८० गद्य ( प्रबन्ध), २१३, २१५, २७०, २७४, २९८, ३०४, ३०९, ३३० गद्यज (,, ), २६१, २६२, २६४, २८१, २८६, ३३० गद्यपद्यज (,, ), २६२, २६४, ३०३, ३३० गमक ( रागावयव), १०७, १०९, ११९, १२२, १२३, १२५, १३५, १३९, १४६, १५४, १७१, १९६, २५१, २६७, २७२, २९६, ३४२, ३४४, ३४७ गमकालप्ति ( ३४२, ३४४ गर्भसंधि (नाटकाङ्ग), २०, ३२ गाढ (स्थाय), १६४, १७२, १८१, १८६ गात्र (,, ), १७०, १७४, १७८, १८१ गाथा ( प्रबन्ध), २१३, २९३, २९९ गान्धर्व (वाग्गेयकार), १५३, २०३, " ), २१६, ३०६, २०४, २०८, २४७ गान्धार (स्वर), २६, ३०, ५१, ५६, ५७, ६१, ६२, ६९, ८४-८७, ८९, ९३, ९७ ९९, १०२, १०७, १०९, ११३ – ११७, ११९- १२१, १२४, १२७, १३१, १३५, १३९, १४१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी गान्धारगति (भाषाङ्ग), १६, १४६ गान्धारपश्चम (राग), ८- १२, १४, ८९, ९१, १३९ गान्धारपञ्चमी ( भापाराग), १०–१२, १४, ६३, ८९, १३९ गान्धारवल्ली (राग), १२, १४, १४० गान्धारी (भापाराग), १०-१२, १४, ६३, ८९, १३९ गाम्भीरी (भाषाङ्ग), १६, १७, १४५ गाम्भीर्य (शारीरगुण), १६७, १६८ गारुगी (ताल), २६० गीत ( वहनिस्थाय ), १५९ गीतालप्ति (स्थाय), १७५ गुरु (,, ), १७३, १८६ गुरुञ्जिका (राग), १६, १७ गुरुमध्या (प्रबन्ध), २३५, २३८ गुर्जर (देश), १९९ गुर्जरी (रागाङ्ग), १६, १४६ (विभाषा), ११ " गोली (भाषाङ्ग), १६, १४६ गौड (राग), ९, १७, १८, २६, ८०, १७७, २४६ गौडकृति , ), १७, १८, १०३ गौडकैशिक (,, ), ८, ९, २९, ४३ गौडकैशिकमध्यम ( ), ७, ९, ३९, " ४१ गौडपञ्चम (,, ), ८, ९, ४१, ४३. गौडी (गीति ), ३, ४, ८, १२५, १२६ ( भाषाराग), १२, ३२, १२६ (रीति), २३१, २३२, २७१, २७४ 33 गौडैला (प्रबन्ध), २४८, २५१ गौरी ( ४१३ ), २३४, २३५, २९० ग्रह, २१, २५, २७, २८, ३० - ३४, ३६, ३७, ३९, ४१, ४३, ४६, ४८, ५३, ५७, ५८, ६३, ६६, ७०, ७१, ७३, ७५-७८, ८०, ८१, ८४, ८५, ८९, ९१, ९५, ९६, ९८, १०१, १०२, १०६, १०७, १०९ - ११२, ११४, ११६ - १२७, १२९, १३०, १५३, ३४५ ग्रामराग, १, ३, ४, ६-११, १६-१९, २२, ७३, ११५, ३३५, ३४८ ग्राम्य (गीतदोप), ३४८ घट ( प्रबन्ध), २१३, ३०१ घटना ( स्थाय), १७३, १८४ घडस (वाद्य), १९९ घण्टा ( (,, ), घण्टारव (रागाङ्ग), १६, १४५ घत्ता (छन्द:), ३२६, ३२७ घन (स्थाय), १६४, १६७, १६८, 29 १७३, १८५ घनता ( शारीरगुण), १६७, १६८ घनत्व (स्थाय), १७३, १८५ घोष ( ), १७२, १७४, १८२ घोषवती (वाद्य), १९९ चक्रवाल (प्रबन्ध), २१३, २८६ चक्रा (,, ), २९० चगण, २२७, २२९ चच्चत्पुट (ताल), २१, २६, ३०३, ३०६, ३०७, ३१० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ चच्चरी (छन्दः), ३२६ (ताल), " 99 29 (प्रबन्ध), २१४, ३२६, ३२७ चण्डवृष्टि (छन्दः), ३२१ चण्डिका, २२०, २३०, २३२ चण्डिकेश्वर ( प्रबन्ध), २३२, २६३ चतुर (प्रबन्ध), २३३, २३५, २३६ चतुरश्र (ताल), २६९ चतुर्धातु (प्रबन्ध), २०६, २५१, २५८, संगीतरत्नाकरः " २६०, २६३, ३०९, ३२४, ३४१ चतुर्मुख (,, ), २१४, ३१९ चतुष्पदी (,, ), २१४, ३१४, ३१५ चन्द्रलेखक (,, ), २९५, २९७ चन्द्रलेखा (,, ), २३९-२४१ चन्द्रशेखर (,, ), ३३६, ३३७, ३४२ चन्द्रिका (,, ), २४५, २८४, २८५, ३४१, ३४४ (मूर्छना ), २४६ " चम्पू (प्रबन्धजाति), २१२, २१४ चर्या (प्रबन्ध), २१४, ३२७ चाचपुट (ताल), २१, ३०७, ३०९, ३१० चार (प्रबन्ध), ३४०, ३४४, ३३६, ३४२ चालि (स्थाय), १७३, १८४ चित्र ( प्रबन्ध), २४३, २५३-२५५ २६१, २६३, २७०, २७४ चित्रा (मार्ग), २२, ३२ (वाद्य), १९९ चित्रालंकृति ( प्रबन्ध), २५७, २५८ चित्रिणी (,, ), २४३, २४४ चूतमञ्जरी (राग), १२, १३७ चूर्ण (प्रबन्ध), २५७, २७१, २७४ चूलिका (छन्द), २५७ चेहाल (शब्दगुण), १६४-१६६ चोक्ष (स्थाय), १७२, १८२ चौपट (गायनभेद), १५८ चौल, १९९ छगण, २२७, २२९ छन्दस्वती (प्रबन्ध), २४८ - २५० छन्दोविचिति, २५७, २७८, ३०१, ३०२ छवि (स्थाय), १७२, १७६ छविमान् (शब्दगुण), १६४ छान्दस (स्थाय), १७३, १८५ छाया (प्रबन्ध), २९० (भापाङ्ग), १४, १६, १४६ ( स्थाय), १७२, १७५, १७६ छायातुरुष्क (राग), १७ छायातोडी (उपाङ्ग), १७, १०५ छायानट्टा (राग), १७, १८, १०७ छायामात्रा (,, ), १३ छायायन्त्र (मिश्रस्थाय), १८७ छायालग (राग), १३३ छायालगड (प्रबन्ध), १३, १५४, १५८, ३३४, ३३५ छायावेलावली (राग), १०६ छेवटी (भाषाराग), ११, १२, १०९, १३४ जका (स्थाय), १७३, १८४ जगती (छन्द), २९७, २९९ जम्बुनाल (प्रबन्ध ), ३४३ जघण्टा (वाद्य), १९९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute 33 "" Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी जयन्त (प्रबन्ध), २७८- २८०, ३३६, डक्कुली (वाद्य), १९९ ३३८, ३३९, ३४२ डमरु (,, ), १९९ डोम्बकृति : (राग), ९२, ९३ डोम्बक्री (रागाङ्ग), १७, १८ ढक्का (वाद्य), १९९ जयप्रिय (,, ), ३३८, ३४३ जयमङ्गल (,, ), २३५, २३८, ३३६, ३३७, ३४३ जया (प्रबन्ध), २३६ दवस (,, ), " (वाद्य), १९९ "" जित (,, ), २१९ ढाल (स्थाय), १७२, १७४, १७८, १८७ ढालच्छाया (,, ), १८७ ढालवहनी (,, ), १८७ ढेङ्किका (ताल), २५६, २५८ जीवस्वर (स्थाय), १७३, १८४, १९४ ज्येष्ठा (वाद्य), १९९ ज्योतिष्मती (प्रबन्ध), २४०, २४१ ज्योत्स्ना (,, ), २९० ढेङ्की (प्रबन्ध), २११, २१३, २५७, २५८, २८९ ढोल्लरी (,, ), ३३३, ३३४ झम्पट (,, ), २१४, ३२१, ३२२ (छन्द), ३२१ तत (वाद्य), १९९, २०१ "" झम्पा (ताल), २९७, २९८, ३०४, ३३७, ततकुतप (बृन्द), १९९, २०१ ततबृन्द (,, ), २०१ ३४२ झरी (वाद्य), १९९ झोम्बक (गायनदोष), १५७ तनुमध्या (प्रबन्ध), २३०, २३८ तरङ्गिणी (भाषाङ्ग), १६, १४६ झोम्बड (प्रबन्ध), २१३, २६०, २६१- तरङ्गित (स्थाय), १७२, १८२ तरला (प्रबन्ध), २४५, २४६ २६४, २६६, २६७ टक्क (राग), ८-११, १४, ७८, ८०, ताण्डव, २०० तान (राग), ७, ९, १०, १३५ १३४, १३५, २३०, २३२ टक्ककैशिक (,, ), ८–११, १३, १४, तानकैशिक (ग्रामराग), ७ तानवलिता (राग), ११, १३५ १२०, ताना (,,), ११, १२, १४ ४१५ ३०, १२९, १३०, १३७ टक्कभाषा (,, ), ९७, १०७, १२२, १३४, १३५ टक्कविभाषा (,, ), १३५, १३६ टक्कवेरञ्जी (,, ), १३४ टक्कसैन्धव (उपराग), ९, १४३ का (वाद्य), १९९ तानोद्भवा (,, ), ११, १२, १४, १४२ तारज (प्रबन्ध), २६०, २६३ तारा (,, ), २८५, ३३९ तारावली ( प्रबन्धजाति), २१२, २५१, २५८, २६६-२६८, २८२, २८५, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः २८९, २९६, ३०३, ३१४, ३१६, त्रावणी (राग), १३, १४, २७ ३२२, ३२७, ३२९, ३३४, ३४२ त्रिधातु (प्रबन्धावयव), २०६, २११, ताल (प्रबन्ध), २०६ २५१, २५९, २६०, २६३, २६६, ताललीनानुवर्तन (बन्दगुण), १९८, २०१ २६८-२७०, २७६, २७७, २८०, तालार्णव (प्रबन्ध), २१३, २१५, ३०९, २८५-२८९, २९२, २९६, २९८, तिरिप (गमकभेद), १६९, १८७ त्रिनेत्रक्री (क्रियाङ्ग), १६ तिरिपस्फुरित, (स्थाय), १८७ त्रिपथ (प्रबन्ध), २१४, ३१८, ३१९ तिरिपान्दोलित (,,), १८७ त्रिपदी (,,), २१४, २९३, ३१२-३१६ तिरिपान्दोलितवलितभिन्ना (,), १८७ त्रिपुट (ताल), २६० तिलक (प्रबन्ध), २९५, २९७, ३३६, त्रिभङ्गी (छन्दः), ३२२, ३२३ , (ताल), ३२२, ३२३ तीक्ष्ण (स्थाय), १७२, १७६ , (प्रबन्ध), २१४, ३२२, ३२३ तीक्ष्णप्रेरित (,,), १८७ त्रिभिन्न (गमकभेद), १६९, १७१ तुम्बकी (गायनदोष), १५७, १५८ त्रिभिन्नकुरुलाहत (स्थाय), १८७ ,, (वाद्य), १९९ त्रिभिन्नलीनस्फुरित (,), १८७ तुम्बुरा (राग), १२, १४० त्रिवली (वाद्य), १९९ तुरगलीला (प्रबन्ध), २१३, २८२, २९९ त्रिष्टुम् (छन्दः), २१३ तुरुष्कगौड (राग), १८, ११३, ११४ त्रिस्थानक (शब्दगुण), १५९, १६१, तुरुष्कतोडी (,,), १०५ १६४, १९८, ३४७ तेनक (प्रवन्धावयव), २०६-२०८, २११, त्रिस्थानव्याप्ति (बृन्दगुण), १९८, २०१ २१२, २६५, २७०, ३०१, ३११, त्रिस्वर (प्रवन्ध), २८९ ३१५, ३१८, ३१९, ३२३ वेता (,,), २३३, २३५ तेनकरण (प्रबन्ध), २५३, २५५ नोटित (स्थाय), १७२, १८३ तोटक (छन्द:), २९९, ३०० त्रोटितप्रतीष्ट (,,), १७२, १८३ ,, (प्रबन्ध), २१३, २९९, ३०० त्रोटितोत्प्रविष्ट (,,), १७२, १८३ तोडी (राग), १५, ६७, ६८, ७०, ७१, त्रोटितोल्लास (,,), १८५ १०५, ११५ . त्र्यश्र (ताल), २६९ त्रवणा (,), १२, ९१-९४ । दक्षिणगुर्जरी (राग), १०५, १०६ त्रवणोद्भवा (,), ११, १३४ दक्षिणा (,,), १७ . Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी ४१७ दगण, २२७, २२९ देशकाकु (स्थाय), १७५, १७६ दण्डक (छन्दः), ३२०, ३२१ देशजा (भाषाराग), १३, १५, १३६ ,, (प्रबन्ध), २१४, ३२० देशवाल (राग), १७, १८ दनुक्री (क्रियाङ्ग), १६ देशवालगौड (,,), ११३ दन्ती (प्रबन्ध), २१, ३३३, ३३ . देशाख्या (,), ९, १३, १४, १८, ९.१, दयावीर (बिरुद), २७६ १३५, १४४ ___, (रस), ७. देशी (ताल), २९८, ३.२, ३.३, दर्दुर (वाद्य), १९९ दर्पण (ताल), ३०५ देशी (राग), १५, १५-१९, ११४, दाक्षिणात्या (राग), ११, १२, ११०, ११५, १४९, १५०, १५३, २०४ देशीहिन्दोल (,), ८४ दानवीर (विरुद), २७६ देशैला (प्रबन्ध), २२४, २२६, २५० , (रस), ३४, ३, ७८ २५२ दिव्य (प्रबन्ध), ३०२, ३.३ दोधक (छन्द:), २९४, २९७ दिव्यमानुषी (,), ३०२, ३.३ दोहड (प्रबन्ध), ३३३, ३३४ दीपक (रागाङ्ग), १.५ दोहा (,), २९४, २९७ दीपनी (प्रबन्धजाति), २१२, २८२, ३२०, दोह्या (राग), ११, १३५ ३२३, ३२४, ३२६ द्राविड (,), १८, २४६ दीत (पदप्राण), २२०, २२४ द्राविडगुर्जरी (,), १०६ दीप्तप्रसन्न (स्थाय), १७३, १८६ द्राविडगौडी (,), १८, ११४ दीर्घ ((,), १७३, १८६ द्राविडवराटी (,), १०४ दीर्घकम्पित (,,), १.२, १८७ द्राविडी (विभाषाराग), ११, १४, १५, दीर्घा (प्रबन्ध), २९० १०४, १३१,१३७ दुष्कराभास (स्थाय), १७३, १८६ द्राविडैला (प्रबन्ध), २४६, २५०, २५१ दुष्ट (गीतदोष), ३४८ द्रुत (गीतगुण), २५४, २९८, ३३८, देवकृति (क्रियाङ्ग), १.३ ____३३९, ३४०, ३४० देवक्री (,,), १७, १८ द्रुत (स्थाय), १७२, १७७ देवारवर्धनी (भाषाङ्ग), ११, १२, १४, द्वतमध्या (प्रबन्धगति), २७१, २७४ १३५, १३९, १० द्वतविलम्बिता (,), २७१, २७४ देवाल (उपाङ्ग), १६, १७, १४७ दुता (,), २०१, २०४. . : 53 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ संगीतरत्नाकरः द्वितीयताल (ताल), २३०, २३२, २४५, २९८, ३००, ३०३, ३०५, ३०९, ___ २४८, २६०, ३२७, ३३७, ३४३. ३१५, ३१८, ३१९, ३२१, ३२२, द्विधातु (प्रबन्धावयव), २०५, २०६, ३२४, ३२५, ३२७, ३२८-३३०, २११,३३३ द्विपथ (छन्दः), २९४, २९६, २९९ ध्रुव (प्रबन्ध), ३३६-३३८, ३४०, ,, (प्रबन्ध), २१३, २९४, २९६, २९७ ३४२, ३४३ । द्विपदी (,,), २१३, २८३, २८५, ३०१ ध्रुवखण्ड (,), ३४१ द्विखर (,), २८९ ध्वनि (राग), ९, १४४ धनद (,), २७८-२८. ,, (स्थाय), १७२, १७६ धन्नासी (राग), ८५, १४५ ध्वनिकुट्टनी (प्रबन्ध), २१३, २८९ धन्यकृति (क्रियाङ्ग), १६ नकुलोष्ठी (वाद्य), १९९ धन्यासी (रागाङ्ग), १७ नट्ट (राग), ९, ११५, १४४, १७. धर्म (प्रबन्ध), २२३, २७९, २८० नट्टनारायण (,,), ९, १७, १४४ धवल (,,), २१४, ३३०, ३३१ नट्टा (उपाङ्ग), १०. धातु (प्रबन्धावयव), २७, १४९, १५१, नन्द (प्रबन्ध), ३४१, ३४४ २०४-२०६, २१०, २११, २६५, नन्दन (,), ३३६, ३३७, ३४२ ३३३-३४५ नन्दयन्ती (जाति), १४४ धृति (प्रबन्ध), २८४, २८५ नन्दावती (प्रबन्ध), २३०-२३२, २३५, धैवत (स्वर), ११, २२, ३०, ४०-४२, २४७ ४५, ५४, ५७-५९, ६६, ७२-७५, नन्दिनी (,), २३४, २३५, २४३, ७८, ८१, ११, ९२, ९५, ९८, २४४ १०१-१०४, १०७, १०९, १११, नन्दीश (,), २६२, २६४ ११२, ११५-११५, १२०-१२४, नन्द्यावर्त (,), ३०४, ३०६ १२७, १२९, १३१, १३६, १३७, नभस्वती (,), २४०, २४१ १४०, १४४ नय (,), २७८-२८० ध्रुव (धातुभेद), २०४, २०५, २१०, नरसिंह (., ), २६२, २६४ २११, २१८, २५०, २५३, २५५, नर्कुट (छन्दः), २९७ २५६, २५९, २६०, २६३-२६६, नर्त (राग), ८, १, ३१, ५९, ६१ २६८, २७०, २०४-२७६, २७८. नलिनी (प्रबन्ध), २४५ २८२, २८५, २८७, २८९, २९४, नागकृति (क्रियाङ्ग), १६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी ४१९ नागगान्धार (राग), ९, १४३ २८५, २८७, २८९, २९२, २९८, नागध्वनि (भाषाङ्ग), १७, १८ ३००, ३०३, ३०९, ३१४, ३१६नागपञ्चम (राग), १, १४३ ३२४, ३२९ नागबन्ध (वाद्य), २५३ निर्वहण (संधि), २८, ३२, ३३, ५६, ८४ नागरा (प्रबन्ध), २३३, २३५ निर्वेद, १३३ नाट्यकुतप (बृन्द), १९९, २००, २०२ निषाद (स्वर), २६, ३०,५३, ६१, ६२, नाद (स्थाय), १७२, १७६ ७३, ७४, ७, ८०,८९,९३,९६, नादान्तरी (भाषाङ्ग), १६, १४६ ९८, १.१-१०, १११-११७, नादावती (प्रबन्ध), २३०, २३२, २३६, १२३, १२४, १२६-१२८, १३१, २३७, २४१, २४३, २४६ १४१, १४४ नाद्या (भाषाराग), १२, १४, १४१ निपादिनी (भाषाराग), १२, १४. नामित (गमकभेद), १६९-१७१ नीति (प्रबन्ध), २१२, २१४ नामितान्दोलित (स्थाय), १८७ नीलोत्पली (भाषाङ्ग), १६, १४६ नाराट (शब्दभेद), १५९-१६१ न्यास, २१, २०, ३०-३२, ३४, ३९, निःशङ्क (प्रबन्ध), ३४०, ३४३ ४६, ५१, ५३, ५७-५१, ६१, ६३, निःसरण (स्थाय), १७२ ६८,७०, ७१, ७५,७६, ७८, ८०, निःसाण (वाद्य), १९९ ८१, ८५, ९, ११, ९५-९७, नि:सार (ध्वनिदोष), १६५, १६७ १०१, १०३, १०६, १०५, १०९, नि:सारुक (ताल), २६०, २६३, ३३०, ११०-११२, ११४, ११६-११८, ३३५, ३३९, ३४२, ३४३ १२१-१२४, १२५, १२९, १३१, नि:सारुक (प्रबन्ध), ३३६, ३३९, ३४३ २५४, २५६, २५८, २६८, २९८, निकृति (स्थाय), १७२, १५८ ३०६, ३०९, ३१५, ३१५, ३१९, निबद्ध (गान), ७५, २०४, २१० ३३६, ३४५ निबद्धा (प्रबन्ध), ३०३ पगण, २२५, २२९ निमीलक (गायनदोष), १५७, १५८ पञ्चतालेश्वर (प्रबन्ध), २१३, ३०६,३०९, निराधार (स्थाय), १७३, १८६ निर्जवन ( ,,), १७२, १८१ पञ्चभङ्गी (,), २१४, ३११, ३१२ निर्मल (प्रबन्ध), ३३६, ३३७, ३४२ पञ्चम (स्वर), ७, ८, १०, ११, १७, निर्युक्त (,), २१२, २५१, २५८, २०, २२, २८-३२, ३६, ४१, ४३, २५९, २६३, २६५, २६८, २८०, ४४, ४६-५५, ५७-६०, ६६, ६९, Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० संगीतरनाकरः ७१-७३, ७८, ८०, ८२, ८५, ८६, पद्य (प्रबन्ध), २१५, २८६, ३०९, ३३. ९०, ९२, १३, ९५, ९६, ९८, ९९, पद्यज (,), २६२, २६४, २८१ १०१, १०२, १०५-१०७, १११- २८६, ३३० ११६, ११९, १२०, १२२, १२३- परिवादिनी (वाद्य), १९९ १२८, १३१, १३४, १३५, १३९, परिवृत्त (प्रबन्ध), ३४६, ३४९ १४०, १४२-१४४, १४७ परिहास (गानभेद), २.९ पञ्चमलक्षिता (भाषाराग), ११, १३४ परुष (शब्दभेद), १५९ पञ्चमषाडव (राग), ९, १०, १२, १४, पल्लव (प्रबन्ध), २१६, २१८ ३१, ३२, ७५-७७, १४२ पल्लवी (राग), १४५ पञ्चमी (भाषाराग), ११, ३०, ४८,५१, , (रागाङ्ग), १७ ५९, ६३, ९२, ११०, १३५ , (विभाषा), १२, १४ पञ्चस्वर (प्रबन्ध), २८९ पवन (प्रबन्ध), २७८-२८० पञ्चानन (,), २१४, ३११, ३१२ पाञ्चाली (राग), १६ पट (वाद्य), १९९ , (रीति), २३०-२३२, २७४ पटह (,,), १९९, ३०६ पाट (प्रबन्धाङ्ग), २०६-२०८, २११, पट्टवाद्य (,), १९९ २५५, २६९, २००, २७४, २७८, पणव (,), १९९ २८०, ३०६-३०८, ३११, ३१७पत्रिणी (प्रबन्धदेवता), २२० ३२०, ३२२-३२४, ३२८ पथ्या (छन्द:), २५७ पाटकरण (प्रबन्ध), २५३-२५५ पद (प्रबन्धावयव), २२, ३०, २०६, पार्वती (विभाषाराग), १२, १४, १४१ २०९, २११, २६६, २६९, २७७, पार्वतीप्रिया (प्रबन्ध), २३६, २३८ २८१, ३२०, ३२२-३२५, ३२९, पाव (वाद्य), १९९ पावनी (प्रबन्ध), २३६-२३८ पदकरण (प्रबन्ध), २५२-२५४ पाविक (वाद्य), १९९ पदलम्भ (,), २६५, २६६ पिञ्जरी (राग), ११, १४, १०२ पदान्तर (,), ३४६, ३४९ पिनाकी (वाद्य), १९९ पद्धही (छन्दः), ३२५, ३२८ पुनरुक्त (गीतदोष), ३४८ , (प्रबन्ध), २१४, ३२८, ३२९ पुलिन्दका (भाषाराग), १२ पद्मालया (प्रबन्धदेवता), २२०, २१ पुलिन्दी (राग), १४. पग्मिनी (मूर्छना), २४५ पुष्पसार (प्रबन्ध), २६२, २६४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी पूर्ण (गीतगुण), ३४७ पूर्णा (प्रबन्ध ), ३२७, ३२८ पूर्णाटिका (रागाङ्ग), १४५ पूर्णाटी ( उपाङ्ग), १६, १७, १४७ पूर्वरङ्ग, २०, ३२, ६४ पृथुला (गीति), ४ पेशल (शारीर), १६८ पोता (भाषाराग), १२, १४, १४२ पौण (वाद्य), १९९ पौरवी (मूर्छना), ७३, ७४ पौराली (भापाराग), १२, १४, १३९, ४२१ प्रबन्ध, १९२, १९३, १९४, २०५२०८, २१०, २११, २१३, ११५, २६६, २७३, २७५ प्रभञ्जनी (प्रबन्ध), २४४ प्रभावती (,, ), २४५ प्रभूतगमक (,, ), २६१, २६३ प्रलम्बित (स्थाय), १७२, १८३ प्रलम्बितावस्खलित (,, ), १८५ प्रलम्भ (प्रबन्ध), २६५, २६६ प्रसन्न (गीतगुण), ३४० 39 (पदप्राण), २२३, २३४ प्रसन्नमध्य (अलंकार), ३९, ४१, ५३, ५६, ५७, ५९, ६६, ८९, १२ प्रसन्नमृदु (स्थाय), १७३, १८६ प्रसन्नादि (अलंकार), ३४, ३६, ३७, ४३, ४६, ६१, ६४, ७३, ७६, ८१, ८६, ९९, १२९ 99 प्रसन्नान्त ( ), २०, २७, २८, ३३, ४८, ५१, ६९, ७१, ७८, ८४, २१४, २२०, २२३ प्रसव (राग), ९, १४४ प्रसारी (गायनदोष), १५७, १५८ प्रसृत (स्थाय), १७२, १८२ १४१ प्रकरण ( गीत ), ३३५ प्रकीर्णक (प्रबन्ध), २१५ प्रकृतिस्थ (स्थाय), १७३, १८४ प्रचण्ड (प्रबन्ध), २६२, २६४ प्रचुर (शब्दगुण), १६४ प्रतापवराटी (रागाङ्ग), १७, १०४ प्रतापवेलावली (,, ), १८, १०६ प्रतिग्रहणिका (आलप्ति), १९५, १९७ प्रतिग्रहोल्लासित ( स्थाय), १७२, १८३ प्रतिताल (ताल), २१९, २३१, २३२, २४५, २४९, २५९, २८६ प्रतिमण्ठ (,, ), २६०, ३३६- ३३९, प्रस्तावना, ३२ ३४२, ३४३ प्राकृत (भाषा), २९३, ३००, १३३ प्रतिमण्ठ (प्रबन्ध ), ३३६, ३३७, ३३९, प्राञ्जला (आलप्ति), १९७ प्रायोगिक (प्रबन्ध), २६१, २६३ प्रास (अलंकार), २५८ प्रेक्षण (रूपकभेद), १३७, १३८ प्रेङ्खक (राग), ११, १२, १४ ૨૪૨ प्रतिमुख (संधि), २०, २७, ३२ प्रतिष्ठा (छन्दः), २२८ प्रथममञ्जरी (रागाङ्ग), १७, ९६ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ संगीतरत्नाकरः प्रेरित (स्थाय), १७२, १७६, १७९ ब्रह्मा (प्रबन्ध), २६१, २६३ प्रौढ (शब्दगुण), १६६ ब्राह्मी (प्रवन्धदेवता), २२० प्लावित (गमकभेद), १६९, १७१ भम (शब्ददोष), १६५, १६६ प्लावितोलासित (स्थाय), १८७ भजन (स्थाय), १७२, १७६ प्लुत (,,), १७३, १८५ भञ्जनी (आलप्ति), १९५, १९७ बङ्गाल (राग), ९, १०, १५, ७१, ११४, भञ्जनीसंश्रित (प्रबन्ध), ३४६, ३४९ __ ११६, १७ भद्रलेखा (,,), २४७, २४९ बटुको (,,), १.१ भद्रावती (,,), २३०, २३२, २४३, बद्ध (स्थाय), १७३, १८५ २४७, २४९ बन्धकरण (प्रबन्ध), २५३-२५५ भम्माणपञ्चम (राग), ८, ९,५७, ५९ बहुभङ्गि (शारीर), १६८ भन्माणी (विभाषाराग), ११, १४, १२८ बहुली (राग), १०८ भयानक (रस), ३९, ४१, ७१, ७३, बाङ्गाली (भाषाराग), १२, १४, १६, १३८ १२९, २६२, २६४ बाणगण, २२८, २४०, २४९ भल्लातिका (रागाङ्ग), १८ वाणलेखा (प्रबन्ध), २३९-२४१ भागलम्भक (प्रवन्ध), २६५, २६६ बाह्यषाडवा (राग), १०, १४, १४१ भाण (वाद्य), १९९ विरुद (प्रबन्धावयव), २०६, २०७, २११, भारती(वृत्ति), २३०-२३२, २७१.२७४ २१२, २६, २७६-२७८, २८०- भावक (गायनलक्षण), १५४, १५६ २८२, ३०५, ३०९, ३१२, ३१७- भावक्री (क्रियाङ्ग) १६, १७, १४६ ३२०, ३२२-१२५, ३२८-३३. भावनापञ्चम (उपराग), ५. १४३ बिरुदकरण (प्रबन्ध), २५३-२५५ भावनी (प्रबन्धज:ति), २१२, २५९, २६९, बीभत्स (रस), ४१, ७३, ७, १२९, २७४, २७६, २७७, २८०, २८६, २३१, २३२, २६२, २६३ २८७, २९२, २९६, २९८, ३००, बुद्धि (प्रबन्ध), २९०, २९३ ३१५, ३२०, ३२१, ३२९, ३३० बृन्द, १९८, २०० भावनी (भाषाराग), ११-१४, १३६,१४२ बोट्ट (राग), ८-१०, १२, १४, ३०, भाषा (गीति), ५, १३-१८, १०२, ४८,५१, १३८, ३३२ १०८, ११८, १२७, १४५, १५४ बोम्बक (शब्द), १५९-१६२ भाषा (राग), ३, ५, ६, १०-१२, १९, बोम्बडी (वाद्य), १९९ २२, २६, ९५,९६, १०१, १२, बौलि (क्रियङ्ग), १. ३३०, ३३५ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी ४२३ भास (राग), ९, १०, १४४ भ्रामित (स्थाय), १७२ भासवलिता (भाषाराग), १२, १४, १४३ भ्रामिताक्षिप्त (,,), १८८ भिन्न (राग), ७, ९, ११, २५, ३२ मकरक्री (क्रियाङ्ग), १६ भिन्नकैशिक (,,), २६, ३७, ३८, १४५ मकरध्वज (प्रबन्ध), २७८, २८० भिन्नकैशिकमध्यम (,,), २५, ३१, ३५ मकरन्द (,,), २७८, ३४४ भिन्नतान (राग), २६, ३६, ३७, १४२ मङ्गल (गानभेद), २०९ भिन्नधातु (प्रबन्धावयव), २१५, ३०६ , (छन्दः), ३३२ भिन्नपञ्चम (राग),७,९,१०,१४, २५, , (प्रबन्ध), २१४, २३८, ३३८, ७३, ७५, १३६ ३३९, ३४३ भिन्नपञ्चमभाषा (,,), १३. मङ्गलाचार (,,), २१४, ३३० भिन्नपञ्चमी (,), १०, ३२ मङ्गलारम्भ (,,), २५४, २५५ भिन्नपौराली (,), १२, १३ मण्ठ (ताल), २१९, २३०, २३२, २४१, भिन्नवलिता (,), ११, १४, १३७ २४६, २०८, २५९, २६३, २८९, भिन्नषड्ज (,), ७, ९, १०, १२, १४, ३३६-३३९, ३४० २५, ७१, ७३, ११, १६, १२१, मण्ठ (प्रबन्ध), १९४, ३३८, ३४३ १२४, १४०, १४१, १४५, १४७ मण्डल (चारी), ५९, ८६ भिन्ना (गीति), ३-५, २६ मन्डिढक्का (वाद्य), १८४ भीत (गायनदोष), १५६, १५७ मति (प्रबन्ध), २९० भुच्छी (राग), १०६ मत्त (,), २१९ भुजङ्गप्रयात (छन्दः), २५७ मत्सरीकृत् (मूर्छना), २९ भुञ्जिका (राग), १८ मदनवती (प्रबन्ध), २४५ भूपाली (रागाङ्ग), १७ मद्रक (गीति), ३३५ भृत (स्थाय), १७६, १९२ मधु (प्रबन्ध), २७८, २८० भेरी (वाद्य), १९९ मधुकरी (,), २४४, २४६ मेरेव (प्रबन्ध), २६२, २६४ , (विभाषा), ११ ,, (राग), ९, १५, ७१, ७२, १७७ मधुप (प्रबन्ध), २७८-२८० . भैरवी (,), १८, १०७, १७७ मधुर (गानभेद), २०९ भोगवती (प्रबन्ध), २४५ , (गीतगुण), ३४७ भोगवर्धनी (राग), १०, १४, ९५, ९६ , (पदप्राण), २२०, २२१, २२३ भ्रमर (प्रबन्ध),२९५, २९५, ३०४,३०५ , (प्रबन्ध), ३३६, ३३७ . Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ संगीतरत्नाकर: मधुर (शब्दगुण), १६४, १६६ मधुरी (भाषाराग), १०, १२, १३३, १३८ मध्यम (स्वर), ४२, ४९-५१, ५४, ५८, ६२, ६८, ७१, ७२, ७५, ७६, ८७, ८९,९१, १०३, १०६, १०९, ११६, ११७, ११९, १२१, १२२, १२८, १३५, १३९, १४३, १४४, १४७ मध्यमग्राम (राग), ७, १९, २०, २९, ३०-३२, ५१, ६३–६५, ७३–७६, ८१, ११, ११० मध्यमग्रामदेहा (भाग), १३४ मध्यमग्रामी (,, ), १३२ मध्यमरूपक (प्रबन्ध ), ३४६ मध्यमषाडव (राग), ९, १०, ११६ मध्यमा (जाति), ३०, ३१, ३६, ४६, ५१, ५९, ६३, ६८, ७०, ७१, ७३, ८६, ९२, ११०, ११५, १३३, १४०, १४१ मध्यमा (भाषाराग), १२, १८, १३८, १४०, १४१ मध्यमांश (स्थाय), १७७ मध्यमोदीच्यवा (जाति), १४४ मध्यविलम्बिता (प्रबन्धगति), २७१, २७४ मध्या (छन्दः), २२८ ( प्रबन्धगति), २७१, २७४ " मनोरमा (प्रबन्ध), २३३, २९० मन्मथगण, २४७, ३१२, ३१३, ३१६, ३१७ मन्मथवत् (पदनाम ), २१९ मलय (देश), १९९ मल्हार (राग), १८, ११३ मल्हारी (,, ), १८, ११३ महानन्दा ( प्रबन्ध), २३६, २३८ महाराष्ट्र (देश), १९९, २११ महाराष्ट्रगुर्जरी (राग), १०५ महाराष्ट्री (,, ), १७ मही ( प्रबन्ध), २९० मागधी (गीति), ४, ६ माङ्गली (भाषा), ११, १२, १४, १३८, २२० मातु, १५१, ३४४, ३४५, ३४७ मातुकार (गायन), १५१ मातृका (छन्द), २५७, २८३ 33 (प्रबन्ध), २१३, ३०२, ३०३ मात्रिका (,, ), २५६ - २५८, २८३२८५, २९५ मात्रैला (,, ), २२४, २३९, २५१, २५२ माधव (,,), २७८, २८० मानवी (,,), २८४, २८५ मानुषी (,, ), ३०२, ३०३ मान्धाता (पदप्राण), २१९, २२० मार्ग (ताल), ३०२, ३०३ (राग), १५, २१, २२, १४९, १५३, १५५ " मार्दव (शारीरगुण), १६७, १६८ मालती (प्रबन्ध), २४५ मालव (देश), १९९ मालवकैशिक (राग), ८–१०, १२, १४, ३०, ६४, ६८, १२४, १२६, १२७, १३८, १३९, २३१, २३२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी ४२५ मालवगौड (राग), १८ मृदङ्ग (वाद्य), २३५ मालवपञ्चम (,,), ९, १०, १२-१४, मृदु (ध्रुवपद), २१७, २१९ ५१, ५३, १४२ मृष्ट (शब्दगुण), १६४, १६६ मालवरूपा (भाषाराग), १२, १३९ मेघराग (राग), ९, ११७ मालववेसरी (,,), ११-१३, १३४, १३८ मेदिनी (प्रवन्धजाति), २१२, २१७, ३०५, मालवश्री (राग), १७, ६६, ६८,३०५, ३१०, ३११, ३२. ३२४ मेलापक (धातुभेद), २०४, २०६, २१०, मालवा (,), ११, १४, १३१, १३७ २११, २४८, २४९, २५३, २५८, मालवी (भापागग), ११, १३५, १४१ २६०, २६३, २६७, २८०, २८९, मिथस्त्रुटितनिर्वाह (बृन्दगुण), १९८,२०१ २९६, ३१०, ३२४ मिलन (,), १९८, २०१ मोहिनी (प्रवन्ध), २४५, २४६ मिश्र (ताल), २६९ , (प्रबन्धदेवता), २२० ,, (प्रबन्ध), २७१, २७४-२७६, यतिलग्न (ताल), २६.. २८७, २८९ यन्त्र (स्थाय), १७२, १७४, १७५ ,, (स्थाय), १५७, १५९, १६०,१७३, यन्त्रकाकु (,), १७६, १७९ १८६, १८७ यमक (अलंकार), २५८, ३१४, ३१५ मिश्रक (गायनदोष), १५७, १५८ यभल (गायक), १५४, १५५ ,, (शब्दभेद), १५९, १६० . युग्मिनी (प्रबन्ध), २५६, २५८ मिश्रकरण (प्रबन्ध), २५३-२५५ युद्धवीर (बिरुद), २७६ मिश्रित (गमकभेद), १६९-१७१ , (रस), ७८ मुक्तक (छन्दः), २९७ रक्तगान्धारी (राग), ८९, १४३, १४४ मुक्तावली (प्रबन्ध), २५६, २५८ रक्तहंस (,), ९, १४४ मुख (संधि), २०, ३२, ६४ रक्ति (,), १६७, १७२, १७७ मुखवाद्य (वाद्य), २७५ रक्तिमत् (शब्दगुण), १६४, १६६ मुख्या (भाषाराग), १३, १४ रगन्ती (भाषाराग), १०, १३, ९५ मख्यानवृत्ति (ब्रन्दगण), १९८.२०१ रञ्जक (गायनलक्षण), १५४, १५५ मुद्रित (गमकभेद), १६९, १७०, १७१ रञ्जनी (प्रबन्ध), २४५ मुरज (वाद्य), २५३, ३०८ ,, (प्रबन्धदेवता), २२० मुहरी (,,), १९९ रतिगण, २२७, २२८, ३१३, ३१४ मूला (भाषाराग), १३, १४, १३४ रतिदेहा (प्रबन्ध), २३४, २३५ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ संगीतरत्नाकरः रतिप्रगा (प्रबन्ध), २३५, २३८ रास (प्रबन्ध), २१३, २५९, २६, रतिमङ्गला (,), २३५, २३८ ३४१, ३६४ रतिरङ्गक (,,), २६७ रासवलय ( ,,), २६७ रतिलेखा (,,), २३९, २४०, २४३ राहडी (छन्दः), ३२८ रत्नमाला (,,), २३५, २३८ ,, (प्रबन्ध), २१४, ३२९ रमणी ( ,, ), २४५, २४६ रीति (रागाङ्ग), १६, १४५ रमणीया (प्रबन्धदेवता), २३४, २३५ रुचिर (प्रबन्ध), २६१ रमा (प्रबन्ध), ३४१, ३४४ रुजा (वाद्य), १९९ रम्य (गानभेद),... रूक्ष (शब्ददोप), १६५, १६९ रवि (प्रबन्ध), २२६, २७८, २७९, रूपक (आलप्ति), २१, २६, १८५, १९५, २८० १९७ रविचन्द्रिका (भाषाराग), ११, १३५ ,, (गायनदोष), १५८ रसिक (गायन), १५४, १५६ , (ताल), १९५, १९७ राग, ३, ७, ९, १६, १५४, ३४५-३४७ , (प्रबन्ध), २१, २२, २६, ९२, रागकदम्बक (प्रबन्ध), २१३, ३०४- ९६-९८, १०८, १०९, ११२, ३०६, ३११ ११९-१२६, १२८, १९२, २०४, रागकाकु (स्थाय), १७५, १७६ २१०, २६१, २६३, ३३८, ३४३, रागगीति (गीति), ४ रागाङ्ग (राग), ११, १५-१८, २२, रूपसाधार (राग), ८, ९, ५३, ५५ ६३, ९१, १३४, १४५ रेवगुप्त (,,), ९, १२, १४, १७, ८६, रागालप्ति (आलप्ति), १८८, १९२, १९४ ८७, ८९, १४२ रागालाप ( ,,), १०, २१, २६, ३१६ रोहिणी (प्रबन्ध), २९० रागेष्ट (स्थाय), १४३, १८५ रौद्र (रस), २०, २७, २८, ३७, ४३, राजी (प्रबन्ध), २९. ५३, ५७, ६१, ६६, ७६, ७८, ८१, रामकृति (क्रियाङ्गराग), १७, १८, १०२, ८६, ११६, २३०, २३२, २६२, १०३, १०८, ११५, १७७ २६४, २७६ रामा (प्रबन्ध), २३३, २३५ लक्ष्मी (प्रबन्ध), २४५, २९०-२९२ रावणहस्तक (वाद्य), १९९ ,, (प्रबन्धदेवता), २१९, २३४, २३५ रास (ताल), २६०, २६७, ३३६, ३४१, लघु (स्थाय), १७३, १८५ लघुशेखर (ताल), ३३५, ३४२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी ४२७ लजा (प्रबन्ध), २९०, २९१ वङ्ग (देश), १९९ लम्भक (,), २१३, २६४-२६६ वदन (प्रवन्ध), २१४, ३२५, ३२६ लम्भपद (,), २६५, २६६ वधू (,), २९०, २९३ लय (गीत्यवयव), १५०, २५४, ३४४, वरद ( ,,), ३४१, ३४४ वराट (देश), १९९ ललित (प्रबन्ध), २४५, २७०, २७१, वराटी (राग), ११, १५, ७३, ७५, १०१, २७४, ३३६, ३३७, ३४३ । १०३, १०४, १३३, १३७, १७७ ,, (स्थाय), १७२, १८१ । वरुण (प्रबन्ध), २७८-२८. . ललितगाढ (,), १७२, १८१ वरेण्या (प्रबन्धदेवता), २२० ललिता (प्रबन्ध), २४५ वर्ण (ताल), २६९ , (राग), ११, १२, १२०-१२२ ,, (प्रबन्ध), २१३, २६९, २९८ १३३, १४७ वर्णकवि (वाग्गेयकार), १५१ लवनी (स्थाय), १७२, १७५ वर्णगण (छन्दः), २२६, २३०, २८३, लहरी (प्रबन्ध), २३६, २३८ २८४, २९८ लाट (देश), १०५, १९९, २४६ ।। वर्णज (प्रबन्ध), २९८ लाटी (रीति), १६, १४५, २३०-२३२, वर्णस्वर (,), २१३, २६९, २७० २४९-२५१ वर्णिका (,), २५६, २५८ लाटैला (प्रबन्ध), २४६, २४८ वर्णैला (,), २४४-२४६ " (भाषा), ३३३, ३३४ वर्तनी ( ,,), २१३, २५९ लास्य, २०० ,, (प्रस्तारावयव), २२, २६, ३३, लीन (गमकभेद), १६९, १७१ ___३५, ३६, ३८, ६९, ७२, ७४ लीनकम्पित (स्थाय), १८७ वलि (गमकभेद), १६९, १७१, १७५, लीनकम्पितलीन (,,), १८७ १८२ लीनस्फुरित ( ,,), १८७ वलिनामितकम्पित (स्थाय), १८७ लीला (प्रबन्ध), २९०, २९१, २९३ ।। वलिहुम्फितमुद्रित (,,), १८७ ललित (स्थाय), १७२, १८१ वल्लकी (वाद्य), १९९, ३४७ लोली (प्रबन्ध), २१४, ३३३, ३३४ वल्लभ (प्रबन्ध), ३३८, ३४३ वंश (वाद्य), ३४७ वल्लात (राग), १०९ वक्र (स्थाय), १४३, १८५ वसन्त (रागाङ्ग), १७, ८१, ८४ वक्री (गायनदोष), १५७, १५८ वसुधा (प्रबन्ध), २९० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ संगीतरत्नाकरः वसुमती (प्रबन्ध), २४०, २४१ विकारी (प्रबन्ध), २१६, २१९ वस्तु (गानभेद), २०४, २१०, ३३४ विकृतैला ( ,, ), २३०, २३२, २५१ ,, (प्रबन्ध), २१४, ३१७, ३१८ विकृष्ट (गीतगुण), ३४७ वस्तुकवि (वाग्गेयकार), १५१ विक्रम (प्रबन्ध), २७९, २८०, ३३०वस्तुवदन (प्रबन्ध), ३२५, ३२६ ३३२ वस्त्वेला (,), २५० विक्रुष्ट (गीत), २०९ वह (स्थाय), १७२, १८२ विचार (ताल), ३३७, ३३८ वहनी (, ), १७२, १७५, १८२, ,, (प्रबन्ध), ३३९, ३४३ १८६ विचित्र (ध्रुवपद), २१५, २१९ वहनीच्छाय (,,), १८७ विचित्रलीला (प्रवन्ध), २६१, २६३ वहनीढाल (,), १८७ विचित्रा (,,), २४३ वहनीयन्त्र (,), १८७ विजय (ताल), ३१८, ३४०, ३४३, ३ ४४ वहाक्षराडम्बर (,), १८८ ,, (प्रबन्ध), २१४, २२०, २३५, वह्निजा (प्रबन्ध), २३७-२३९ २३८, ३१८, ३३०-३३२, ३३६, वहिवारुणी (,, ), २३७, २३८ वांशिक (वाद्य), १९८, १९९ विजयक्री (क्रियाङ्गराग), १६, १७ वाग्गेयकार, १४९, २०४, २१७, २१८, विताल (गायनदोष), १५६, १५७ ३०५ विदारिक (गीति), २१, २५ वाञ्छित (प्रबन्ध), ३३९, ३४३ विद्युल्लता (प्रबन्ध), २४५ वातसावित्री ( ,,), २३६-२३८ विनय (,,), २७९, २८. वादी (स्वर), २५ विनिमीलक (गायनदोप), १५५, १५८ वाद्यशब्दज (स्थाय), १७५, १७९ विनोद (प्रवन्ध), ३४१, ३४४ वायुवेगा (प्रवन्धदेवता), २२० विपञ्ची (वाद्य), १९९ वाराही (देवता), २३१, २३३ विपुला (प्रबन्ध), २४५, २९२, ३४१, वारुणी (प्रबन्ध), २३७-२३९ ३४२,३४४ वासव (ध्रुवपद), २१७, २१९ विप्रकीर्ण (,,), २१३, २१५ वासवी (प्रवन्ध), २३३, २३४, २३७, विप्रलम्भ (रस), ४१, ५१, ६६, ९.६, २७६, २७७ १०६, २६२, २६४, ३३५, ३४० विकल (गायनदोष), १५६, १५७ विभावनी (विभाषाराग), १२, १४, १४२ विकारी (जाति), ६८, ६९ विभाषा (गीति), ५, १९, २२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषपदानुक्रमणी ४२९ विभाषा (राग), ३, ६, १०-१४, १६, १३९, २१२, २३१, २३२, २६१ २६, ९५, १११, १२८, १३१, २६४, २७०, २७४, २७८, २८०, १३५, १३९, १४१, ३३५ ३०९, ३२९, ३३७-३४०, ३४३, विमला (प्रबन्ध), २४५ विरस (गायनदोष), १५७, १५८ वीरवती (प्रबन्ध), २७६, २७७ विलम्ब (लय), ३०८ वीरश्री (,,), २१४, २३५, २३८, विलम्बित (,,), २०९, २५५, २५६, ३२९, ३३० __२५८, २५९, २७३, २७५, ३३२ वीरावतार ((,,), ३०९, ३१० विलम्बिता (प्रबन्धगति), २७१, २७४ वृत्त (,), २१३, २९९, ३००-३०२, विलम्भ (प्रबन्ध), २६५, २६६ ३२२, ३२३ विवर्तनी (,,), २५९ वृत्तगन्धि (,), २७०, २१, २७०, विवादी (स्वर), २५ २७८ विविध (स्थाय), १७२, १७८ वृत्तबन्धिनी (,), २५६, २५८ विशाला (प्रबन्ध), २४५, २९०, ३३९, वृत्तमाला (,), २५६, २५८ वृत्ता ( ,, ), २७६, २७७ ,, (भाषाराग), ११, १४, १३७ वृद्धि ( , ), २९०-२९२ विषम (गानमेद), २०९ वेगमध्यमा (गग), १०, १३२ विषमध्रुवा (प्रबन्ध), ३२७, ३२८ वेगरञ्जी (भाषाराग), ११, ९५, ०२ विषमा (आलप्ति), १९७ वेगवती (विभापाराग), १४२ ,, (प्रबन्ध), २३४, २३५ वेगा (वहनीस्थाय), १७५, १७९ विषमालंकृति (,,), २५७, २५८ वेणी (प्रबन्ध), ०७१, २७४ विष्णु (देवत), २१९ वेदध्वनि (स्थाय), १७३, १८५ ,, (प्रबन्ध), २६२, २६३, २७४ वेदवती (राग), १२, १४ विसदृश (स्थाय), १७७, १८० वेदिनी (प्रबन्धदेवता), २२० विस्वर (शारीरदोप), १६७ वेदोत्तरा (प्रबन्ध), २७६, २७७ वीणा (वाद्य), १९९ वेरञ्जी (राग), १३४, १४६ वीर (रस), २०, २५, २८, ४३, ५३, वेलावली (,), १७, १८, ९६, १७७, ८६, ९७, ९९, १०३, १०८, ११४, , (उपाङ्ग), १०६ ११६, ११९, १२०, १२६, १३४, वेसर (राग), २६, ४९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० वेसर षाडव (राग), ८, ९, १०, १२, १४, ४६, ४८, १४१ वेसरा (गीति), ३, ५, ६, ८, ९, ३२ वेसरी (भाषाराग), ११, १२, १४, १३५, १३७ वेहारी (भाषाङ्ग), १६, १४५ वैकुन्द (प्रबन्ध ), ३३९, ३४३ वैतालीय (छन्द:), २५७ वैदर्भी (रीति), २३१, २३२, २७१ वेरी (राग), ११, १६, १७ व्यक्त (गानभेद), २०९ गीतगुण), ३४७ संगीतरत्नाकर: "" व्योमजा (प्रबन्ध), २३७, २३८ व्योमवारुणी (,, ), २३७, २३८ शंकराभरण (रागाङ्ग), १६, १७, १४५ शक (राग), ८, ९, ५७ शकतिलक (उपराग), १, १०, १४३ शक मिश्रा (भाषाराग), १०, १४, १३३ शकवलिता (,,), १३, १४, १४३ शका (,, ), १२, १४, १४२ शङ्क (प्रबन्ध), ३४०, ३४३ शङ्कित (गायनदोप), १५६, १५७ शङ्ख (वाद्य), १९९. शङ्खपाट (,,), ३०८, ३१० शची (पददेवता), २२० शततन्त्रिका (वाद्य), १९९ शब्द (स्थाय), १७२, १७४ शब्दढाल (,,), १८७ शब्दमिश्र (,,), १८७ शब्दयन्त्र (,,), १८७ शब्दसादृश्य (बृन्दगुण), १९८, २०१ शशिनी (प्रबन्ध), २४५ शशी (,, ), २७८ - २८० शस्त (शब्दगुण), १६६ शान्त (रस), ४६, ९९, १०१, २६२, २६४, २७१, २७४, ३४० शान्ति ( प्रबन्ध), २३३, २३५ शालवाहनिका (भाषाराग), ११, १४, १३४ शिक्षाकार (गायनलक्षण), १५४ शिखा (प्रबन्ध), २९५-२९७ शिखापद (,, ), २४८, २९६ शिथिल (स्थाय), १७३, १८५ शिथिलगाढ (,,), १७३, १८६ शिरस्या (,, ), १७५, १७८ शिवक्री (क्रियाङ्ग), १६ शिव (प्रबन्ध), २९० शोल (,, ), ३४०, ३४४ शुक्र (,, ), २७९, २८० शुद्ध (तान), २९ ( प्रबन्ध), १५८, १९७, २७५, २७६, २८७, २८९, ३३४, ३३५ शुद्धकैशिक (राग), ७, ८, २६, २८, ३३ शुद्धकैशिकमध्यम (,, ), ६–८, २५, २९, 33 ८४, ८५ शुद्धगीति (गीति), ४ शुद्धपञ्चम (भापाराग), ११८, १३६. (राग), ११०, १११, २०९ "" शुद्धभिन्न (,, ), २५, २६ शुद्धभिन्ना (जाति), ११, १३६ शुद्र भैरव (राग), ११६, ११७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धमध्यम (राग), ५७ शुद्धमध्या (मूर्छना ), ८१ शुद्धवराटिका (राग), १७ शुद्वपड्ज (,, ), ३० शुद्धपाडव (,, ), २५, ६९ शुद्धसादृश्य ( प्रबन्ध ), ३३५ शुद्धसाधारित (राग), ७, ८, १०, २०, श्रुतिभिन्न (राग), २५, २६ लक्षण (गीतगुण), ३४० २२, २४ शुद्धसूड (प्रबन्ध ), ३३४, ३३५ शुद्धा (गीति), ३, ५-८, १२, १३, २४, 13 विशेषपदानुक्रमणी 37 २६, ३२, १३३, १४० २८३-२८५ शृङ्ग (वाद्य), १९९ श्वसिता (भाषाङ्ग), १६, १४५ पटुकर्ण (वाद्य), १९९ (जाति), १४४ (प्रबन्ध), २३०, २३३, २५१, पटूपदी (प्रबन्ध), २१४, २९३, ३१५ शृङ्गार (रस), ४६, ४८, ५१, ५९, ६४, ६९, ७५, ७७, १०२, १०४, १०६, १०९, ११०, ११३, २०९, २३०, २३२, २६१, २६२, २६४, २७१, ४३१ श्रीरङ्ग (प्रबन्ध), २१४, २१५, ३११, ३१२ श्रीराग (राग), ९, १०, ११४-११६ श्रीवर्धन (प्रबन्ध), २१४, ३२४, ३२५ श्रीविलास (,, ), २१४, ३११, ३१२ श्रुति ( प्रबन्धजाति), २१४ २७४, ३०९, ३३६-३४०, ३४३ शृङ्गारतिलक (प्रबन्ध ), ३०९, ३१० शेखर (,, ), २६२, २६४, ३३६, ३३७, ३४२ शैलक (,, ), २७८, २८० शोक (रस), १५, १९ शोभी (पद), २१६, २१९ श्रावक (शब्दगुण), १६४, १६५ श्रीकण्ठी ( भाषाराग), १२, १४, १४१, १४२ श्रीपति (प्रबन्ध), २६१ ( शब्दगुण), १६४, १६५ "" श्लेप (अलंकार), २६१, २६३ ३१७ टूपितापुत्रक (ताल), ३०७, ३१० पटूस्वर ( प्रबन्ध), २८९ पड्जकैशिक (राग), ८, ९, ६३, १४४ षड्जकैशिकमध्यम (,, ), ३० पडुजमध्यम (,, ), १२, १९, २७, २९, ३०, ३४, ३९, ४१, ४३, ४६, ४८, ५३, ७८, ८४, ९८, ११४, १३८ पड्जोदीच्यवती (जाति), ७१ पाडव (,, ), ७, ८, १२, १४, २०, २१, ३२, ४६, ६८-७१, ८०, ११५, १३४, १४०, १४१ संकीर्ण (राग), १३३ (भाषा), १३, १३५, १३६, १३८, १३९, १४५, १४६ संकीर्णेला (प्रबन्ध), २३०, २३२, २३३ संगता (,, ), २३३, २३४, २३६–२३८ " Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ संगीतरत्नाकरः संचारी (राग), ३४, ३६, ३७, ५९, ७१, सलम्बित (स्थाय), १८३ ____७३, ७८, ८९, ११०, १३९ साक्षरा (आलप्ति), १९७ संदष्ट (गायनदोष), १५६, १५७ सात्वती (वृत्ति), २३१, २३२, २७१, संदिग्ध (गीतदोष), ३४८ २७४ संपक्केष्टाक (ताल), ३०८, ३१० साधारण (राग), ८, ९, २६ संपूर्णा (प्रबन्ध), २८३-२८५ ,, (स्थाय), १७३, १८६ संप्रविष्ट (स्थाय), १७२, १८३ साधारणी (गीति), ३, ५, ६ संप्रविष्टतरङ्गित (,), १८७ साधारिता (भषाराग), १०, ३२, १३२ संप्रविष्टोत्प्रविष्ट (,,), १८७ सानुनासिक (गायनदोष), १५७, १५९ संभाविता (गीति), ४ सान्द्र (पदप्राण), २२०, २२१, २२३ संवादी (स्वर), २५ सारङ्ग (प्रबन्ध), २६२, २६४ संहार (संधि), २०, ३२ सारङ्गी (वाद्य), १९९ संहित (स्थाय), १७३, १८५ सारस (प्रवन्ध), २७४-२८०, २९५, सजातीयांश (,), १७७, १८० २९. सताला (आलप्ति), १९७ सारसी (,), २९० सदृशांश (स्थाय), १७, १८० सार्थक (,), २७५, २७६ सम (गानभेद), २०९ सालग (आलप्ति), १९७ ,, (गीतगुण), ३४७ स लगसूड (प्रबन्ध), २०५, २४५, ३०९, ,, (स्थाय), १७२, १८१ ३३४, ३३५, ३३६, ३३८ समध्रुवा (प्रबन्ध), ३२७, ३२९ सावरी (र गाङ्ग), १७, ९५ समर (,,), ३३९, ३४०, ३४३ सावित्री (प्रबन्ध), २३६-२३८, २४५, समा (,,), २३४, २३५ २४९ समान (पदप्राण), २२०, २२१, २२३ । सिंह (,,), २६२, २६४ समानी (छन्द:), २५७ सिंहनन्दन (ताल), ३०४ समालंकृति (प्रबन्ध), २५७, २५८ सिंहलीकामोदा (राग), १०७ समाहित (पदप्राण), २२०, २२२, सिंहलीला (ताल), ३१९, ३२० २२४ ___, (प्रबन्ध), २१४, ३२०, ३२२ समुद्र (प्रबन्ध), २७८-२८० सुकर (स्थाय), १८५, १८६ सरल (स्थाय), १७८, १८१ सुकराभास (,), १७३, १८५ सरला (प्रबन्ध), २४५ सुकुमार (गीतगुण), ३४७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेपपदानुक्रमणी मुकुमार (प्रवन्धपदप्राण), २२०, २२३, सौवीर (राग), ८-१०, १३, १४, ६३ २२४ ९८, ९९, १३२ मुख (स्थाय), १७३, १८४ सौवीरी (,), १०, १४, २०, १०१ सुखावह (शब्दगुण), १६४, १६६ स्तम्यतीथिका (,,), १८ मुघट (गायनलक्षण), १५४, १५५ स्तोकगमक (प्रबन्ध), २६१, २६३ मुदर्शन (प्रबन्ध), २१४, ३२३ स्थानभ्रष्ट (गायनदोष), १५५, १५८ सुदेशिक (स्थाय), १७२, १८२ स्थापना (स्थाय), १७२, १७६, १९४ सुन्दर (प्रबन्ध), ३३८, ३४३ स्थाय (भञ्जनी), १९५, १९६, ३४४ मुमति (प्रवन्धपद), २१६, २१९ मुमुखी (प्रबन्धदेवता), २२० ,, (रागावयव), २५, १५४, १७१, सुरक्त (गीतगुण), ३४७ १७८, १८५ सुरनाथ (प्रबन्ध), २७८-२८० स्थायी (वर्ण), ३१९ सुरसा (,), २४४ ,, (स्वर), १९३-१९", ३१६, ३४६ मुलेखा (,,), २४७, २४९ स्थायुक (स्थाय), १७२, १८४ सुशोभि (,), २१६, २१९ स्थिर (,), १७२, १७५, १८४ सुस्वर (स्थाय), १८६ स्निग्ध (शब्दगुण), १६४-१६६ सुस्व। (प्रबन्ध), २४४, २४६ ,, (स्थाय), १७२, १८२, १८३ सूक्ष्मान्त (स्थाय), १७२, १८४ स्फुटित (शब्ददोष), १६५, १६६ सूड (प्रबन्ध), २१०, २१३, २१५, ३३४ स्फुरित (गमकभेद), १६९, १७१ सूत्कारी (गायनदोष), १५६ स्फुरितगान्धार (राग), ९१ सूत्रधार, ५३ स्फुरिताहत (स्थाय), १६९, १७१ सेना (प्रबन्धजाति), २१२, २१४ स्वभावक्री (क्रियाङ्ग), १६ सेल्लुक (वाद्य), २१९ स्वर (प्रबन्धाङ्ग), २०६-२०८, २१०, सैन्धवी (गग), ११, १२, १४, १५, २११, २५५, २६९, २७०-२७२, १०४, १२२-१२५ २७, २८१, २८२, २८६-२८९, सोम (प्रबन्ध), २२६, २६१ २९४, २९७-३०१, ३०५, ३०६, मोमराग (राग), १, ११७ ३०८, ३११, ३१५, ३१७-३२०, सौम्या (प्रबन्ध), २३४, २३५ ३२२-३२४, ३२८, ३३० सौराष्ट्रगुर्जरी (उपाङ्ग), १०५ ,, (स्थाय), १७२, १७४, १८२ सौराष्ट्री (राग), ११, ११९, १२० स्वरकरण (प्रबन्ध), २५३, २५४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीतरत्नाकरः स्वरकाकु (स्थाय), 175, 176, 179 स्वरपाट (वाद्य), 307 स्वरभिन्ना (जाति), 25 स्वरमुक्तिक (प्रवन्ध), 295, 296 / स्वरलकित (स्थाय), 172, 176, 179 स्वरलेखा (प्रवन्ध), 257 स्वरवल्ली (राग), 12, 140 स्वराख्या (,,), 13, 14, 132 स्वराङ्क (प्रबन्ध), 14, 324 स्वरार्थ (,,), 213, 087 स्वस्तिक (,,), 304-306 हंस (छन्द:), 297, 98 ,, (प्रबन्ध), 262, 264, 295, 297, 218 हंसक (गगाङ्ग), 16, 145 हंसक्रीड (प्रबन्ध), 295, 297 हंसतिलक (,,), 214, 267 हसलील (ताल), 320 हंसावती (प्रवन्ध), 20, 232, 235, 238, 242, 243, 247, 249 हंसी (प्रबन्ध), 290 हतस्वर (राग), 15, 104 हम्मीर (देश), 199 हयलील (छन्दः), 281, 282 ,, (ताल), 280, 281, 337 हयलील (प्रवन्ध), 280, 281, 283 हरविलास (,,), 214, 303 हरि (,,), 247, 278-280 हरिण (.,), 254-280 हरिणी (,, ), 290 हर्षपुरी (भापाराग), 12, 127, 128 हर्षवर्धन (प्रबन्ध), 214, 324 हव्यवाहन (,,), 278-280 हस्तपाट (वाद्य), 253 हस्तिका (..). 199 हस्ति (प्रबन्ध), 278-280 हारिणाश्वा (मूर्छना), 89, 91 हास्य (रस), 46, 48, 51, 56, 64, 69, 89, 110, 119, 20, 242, 24, 271, 274, 337, हिन्दोल (राग), 8-10, 12, 14, 30, 81, 83, 84, 182, 109, 115, 125, 137, 138, 230, 232, 326 हुंफित (गमकभेद), 169, 171 हुडुक्क (वाद्य), 199, 307, 310 हृया (स्थाय), 175, 179 हृप्यका (मूर्छना), 51, 110 ह्रस्व (स्थाय), 173, 186 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute